श्रीमद्भागवतम् - स्कन्ध 10

  • अध्याय एक: भगवान कृष्ण का आगमन: परिचय

  • अध्याय दो: गर्भ में भगवान कृष्ण के लिए देवताओं द्वारा प्रार्थना

  • अध्याय तीन: भगवान कृष्ण का जन्म

  • अध्याय चार: राजा कंस के अत्याचार

  • अध्याय पांच: नंद महाराज और वासुदेव की मुलाकात

  • अध्याय छह: राक्षसी पूतना का वध

  • अध्याय सात: राक्षस तृणावर्त का वध

  • अध्याय आठ: भगवान कृष्ण अपने मुख के भीतर सार्वभौमिक रूप दिखाते हैं

  • अध्याय नौ: माता यशोदा भगवान कृष्ण को बांधती हैं

  • अध्याय दस: यमला-अर्जुन वृक्षों का उद्धार

  • अध्याय ग्यारह: कृष्ण की बचपन की लीलाएँ

  • अध्याय बारह: राक्षस अघासुर का वध

  • अध्याय तेरह: ब्रह्मा द्वारा लड़कों और बछड़ों की चोरी

  • अध्याय चौदह: ब्रह्मा की भगवान कृष्ण से प्रार्थना

  • अध्याय पंद्रह: धेनुका, गधा दानव की हत्या

  • अध्याय सोलह: कृष्ण ने कालिया नाग को दंडित किया

  • अध्याय सत्रह: कालिया का इतिहास

  • अध्याय अठारह: भगवान बलराम ने दानव प्रलंब का वध किया

  • अध्याय उन्नीस: जंगल की आग को निगलना

  • अध्याय बीस: वृन्दावन में वर्षा ऋतु और शरद ऋतु

  • अध्याय इक्कीसवाँ: गोपियाँ कृष्ण की बाँसुरी के गीत की महिमा करती हैं

  • अध्याय बाईसवाँ: कृष्ण ने अविवाहित गोपियों के वस्त्र चुराये

  • अध्याय तेईसवाँ: ब्राह्मणों की पत्नियों का आशीर्वाद

  • अध्याय चौबीसवाँ: गोवर्धन पर्वत की पूजा करना

  • अध्याय पच्चीसवाँ: भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को उठाया

  • अध्याय छब्बीसवाँ: अद्भुत कृष्ण

  • अध्याय सत्ताईसवां: भगवान इंद्र और माता सुरभि प्रार्थना करते हैं

  • अध्याय अट्ठाईसवां: कृष्ण ने नंद महाराज को वरुण के निवास से बचाया

  • अध्याय उनतीसवाँ: कृष्ण और गोपियाँ रास नृत्य के लिए मिलते हैं

  • अध्याय तीस: गोपियाँ कृष्ण की खोज करती हैं

  • अध्याय इकतीसवाँ: गोपियों के विरह के गीत

  • अध्याय बत्तीस: पुनर्मिलन

  • अध्याय तैंतीसवाँ: रास नृत्य

  • अध्याय चौंतीसवाँ: नंद महाराज को बचाया गया और शंखचूड़ का वध

  • अध्याय पैंतीसवाँ: जंगल में घूमते समय गोपियाँ कृष्ण का गीत गाती हैं

  • अध्याय छत्तीस: अरिष्टा, बैल दानव का वध

  • अध्याय सैंतीसवाँ: राक्षसों केशी और व्योम का वध

  • अध्याय अड़तीसवां: अक्रूर का वृन्दावन में आगमन

  • अध्याय उनतालीस: अक्रूर का दर्शन

  • अध्याय चालीस: अक्रूर की प्रार्थनाएँ

  • अध्याय इकतालीसवाँ: कृष्ण और बलराम मथुरा में प्रवेश करते हैं

  • अध्याय बयालीसवाँ: यज्ञ धनुष को तोड़ना

  • अध्याय तैंतालीसवाँ: कृष्ण ने हाथी कुवलयापीड को मार डाला

  • अध्याय चवालीसवाँ: कंस का वध

  • अध्याय पैंतालीसवाँ: कृष्ण ने अपने शिक्षक के पुत्र को बचाया

  • अध्याय छियालीसवाँ: उद्धव ने वृन्दावन का दौरा किया

  • अध्याय सैंतालीस: मधुमक्खी का गीत

  • अध्याय अड़तालीसवाँ: कृष्ण अपने भक्तों को प्रसन्न करते हैं

  • अध्याय उनचास: अक्रूर का हस्तिनापुर में मिशन

  • अध्याय पचास: कृष्ण ने द्वारका शहर की स्थापना की

  • अध्याय इक्यावन: मुकुकुंद का उद्धार

  • अध्याय बावन: रुक्मिणी का भगवान कृष्ण को संदेश

  • अध्याय तिरपनवां: कृष्ण ने रुक्मिणी का अपहरण कर लिया

  • अध्याय चौवन: कृष्ण और रुक्मिणी का विवाह

  • अध्याय पचपन: प्रद्युम्न का इतिहास

  • अध्याय छप्पनवाँ: स्यमंतक रत्न

  • अध्याय सत्तावन: सत्राजित की हत्या, रत्न लौटाया गया

  • अध्याय अट्ठावन: कृष्ण ने पाँच राजकुमारियों से विवाह किया

  • अध्याय उनसठवाँ: राक्षस नरक का वध

  • अध्याय साठ: भगवान कृष्ण रानी रुक्मिणी को चिढ़ाते हैं।

  • अध्याय इकसठवाँ: भगवान बलराम ने रुक्मी का वध किया

  • अध्याय बासठवाँ: शषा और अनिरुद्ध का मिलन

  • अध्याय त्रेसठ: भगवान कृष्ण का बाणासुर से युद्ध

  • अध्याय चौंसठ: राजा नृग का उद्धार

  • अध्याय पैंसठ: भगवान बलराम का वृन्दावन भ्रमण

  • अध्याय छियासठ: पौंड्रक, झूठा वासुदेव

  • अध्याय सड़सठ: भगवान बलराम ने द्विविद्या गोरिल्ला का वध किया

  • अध्याय अड़सठवाँ: सांबा का विवाह

  • अध्याय उनहत्तर: नारद मुनि ने द्वारका में भगवान कृष्ण के महलों का दौरा किया

  • अध्याय सत्तर: भगवान कृष्ण की दैनिक गतिविधियाँ

  • अध्याय इकहत्तर: भगवान इंद्रप्रस्थ की यात्रा करते हैं

  • अध्याय बहत्तरवाँ: राक्षस जरासंध का वध

  • अध्याय तिहत्तरवाँ: भगवान कृष्ण मुक्त राजाओं को आशीर्वाद देते हैं

  • अध्याय चौहत्तर: राजसूय यज्ञ में शिशुपाल की मुक्ति

  • अध्याय पचहत्तर: दुर्योधन अपमानित

  • अध्याय छिहत्तर: शाल्व और वृष्णियों के बीच युद्ध

  • अध्याय सतहत्तर: भगवान कृष्ण ने राक्षस शाल्व का वध किया

  • अध्याय अठहत्तर: दन्तवक्र, विदुरथ और रोमहर्षण की हत्या

  • अध्याय उनासी: भगवान बलराम तीर्थयात्रा पर जाते हैं

  • अध्याय अस्सी: ब्राह्मण सुदामा द्वारका में भगवान कृष्ण से मिलने आते हैं

  • अध्याय इक्यासी: भगवान सुदामा ब्राह्मण को आशीर्वाद देते हैं

  • अध्याय बयासी: कृष्ण और बलराम वृन्दावन के निवासियों से मिलते हैं

  • अध्याय तिरासी: द्रौपदी की कृष्ण की रानियों से मुलाकात

  • अध्याय चौरासी: कुरूक्षेत्र में ऋषियों की शिक्षा

  • अध्याय पचासी: भगवान कृष्ण ने वासुदेव को निर्देश दिया और देवकी के पुत्रों को पुनः प्राप्त किया

  • अध्याय छियासी: अर्जुन ने सुभद्रा का अपहरण किया, और कृष्ण ने अपने भक्तों को आशीर्वाद दिया

  • अध्याय सत्तासी: साक्षात वेदों की प्रार्थनाएँ

  • अध्याय अट्ठासी: भगवान शिव की वृकासुर से रक्षा

  • अध्याय नवासी: कृष्ण और अर्जुन ने एक ब्राह्मण के पुत्रों को पुनः प्राप्त किया

  • अध्याय नब्बे: भगवान कृष्ण की महिमा का सारांश

    अध्याय एक: भगवान कृष्ण का आगमन: परिचय

    10.1श्रीराजोबाचकथितो वंशविस्तारो भवता सोमसूर्ययो: ।

    राज्ञां चोभयवंश्यानांचरितं परमाद्भधुतम्‌ ॥ १॥

    श्री-राजा उवाच--राजा परीक्षित ने कहा; कथित:--पहले ही वर्णित हो चुका है, जो; वंश-विस्तार:--वंश का विस्तार सेवर्णन; भवता--आपके द्वारा; सोम-सूर्ययो:--चन्द्रदेव तथा सूर्यदेव के; राज्ञामू--राजाओं का; च--तथा; उभय--दोनों;वंश्यानाम्‌ू--वंश के सदस्यों का; चरितम्‌--चरित्र; परम-- श्रेष्ठ; अद्भुतम्‌--तथा अद्भुत

    राजा परीक्षित ने कहा: हे प्रभु, आपने चन्द्रदेव तथा सूर्यदेव दोनों के वंशों का, उनकेराजाओं के महान्‌ तथा अद्भुत चरित्रों सहित विशद वर्णन किया है।

    यदोश्व धर्मशीलस्य नितरां मुनिसत्तम ।

    तत्रांशेनावतीर्णस्य विष्णोर्वीर्याणि शंस न: ॥

    २॥

    यदोः--यदु या यदुवंश का; च--भी; धर्म-शीलस्य--जो धर्मनिष्ठ हैं; नितराम्‌--अत्यन्त योग्य; मुनि-सत्तम-हे मुनियों में श्रेष्ठअथवा मुनियों के राजा ( शुकदेव गोस्वामी ); तत्र--उस वंश में; अंशेन--अपने अंश बलदेव के साथ; अवतीर्णस्य--अवताररूप में प्रकट; विष्णो: -- भगवान्‌ विष्णु के; वीर्याणि---महिमामय कार्यकलाप; शंस--कृपया वर्णन करें; न:--हमसे |

    हे मुनिश्रेष्ठ, आप परम पवित्र तथा धर्मशील यदुवंशियों का भी वर्णन कर चुके हैं।

    अब होसके तो कृपा करके उन भगवान्‌ विष्णु या कृष्ण के अद्भुत महिमामय कार्यकलापों का वर्णनकरें जो यदुवंश में अपने अंश बलदेव के साथ प्रकट हुए हैं।

    अवतीर्य यदोर्वशे भगवान्भूतभावन: ।

    कृतवान्यानि विश्वात्मा तानि नो बद विस्तरात्‌ ॥

    ३॥

    अवतीर्य--अवतार लेकर; यदोः बंशे--यदुवंश में; भगवान्‌-- भगवान्‌; भूत-भावन: --विराट जगत के कारणस्वरूप;कृतवानू--सम्पन्न किया; यानि--जो भी ( कार्य ); विश्व-आत्मा--सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के परमात्मा; तानि--उन सभी ( कार्यो )को; नः--हमसे; वद--कहें; विस्तरात्‌--विस्तार से

    परमात्मा अर्थात्‌ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ कृष्ण, जो विराट जगत के कारण हैं, यदुवंश मेंप्रकट हुए।

    आप कृपा करके मुझे उनके यशस्वी कार्यकलापों तथा उनके चरित्र का आदि सेलेकर अन्त तक वर्णन करें।

    निवृत्ततर्षरुपगीयमानाद्‌भवौषधाच्छोत्रमनोभिरामात्‌ ।

    क उत्तमश्लोकगुणानुवादात्‌पुमान्विरज्येत विना पशुघ्नात्‌ ॥

    ४॥

    निवृत्त--मुक्त; तर्षै:--काम या भौतिक कार्यो से; उपगीयमानात्‌ू--वर्णित या गाया जाने वाला; भव-औषधात्‌-- भौतिक रोगकी सही औषधि से; श्रोत्र--कानों से सुनने की विधि; मन:--मन के लिए विचार का विषय; अभिरामात्‌--ऐसे महिमा-वर्णनकी सुहावनी ध्वनि से; कः--कौन; उत्तमशएलोक-- भगवान्‌ का; गुण-अनुवादात्‌--ऐसे कार्यों का वर्णन करने से; पुमानू--मनुष्य; विरज्येत--अपने को विलग रख सकता है; विना--रहित; पशु-घ्नातू--कसाई अथवा अपने आप का ही वध करनेवाले से

    भगवान्‌ की महिमा का वर्णन परम्परा-पद्धति से किया जाता है अर्थात्‌ यह अध्यात्मिक गुरुसे शिष्य तक पहुँचाया जाता है।

    ऐसे वर्णन का आनन्द उन लोगों को मिलता है, जो इस जगतके मिथ्या, क्षणिक वर्णन में रुचि नहीं रखते।

    भगवान्‌ का गुणगान जन्म-मृत्यु के चक्कर में फँसेबद्धजीवों के लिए उपयुक्त औषधि है।

    अतएव कसाई ( पशुघाती ) या अपने को ही मारने वाले( आत्मघाती ) के अतिरिक्त भगवान्‌ की महिमा को सुनना कौन नहीं चाहेगा ?

    देवब्रताद्यातिरथेस्तिमिड्रिलै: ।

    दुरत्ययं कौरवसैन्यसागरंकृत्वातरन्वत्सपदं सम यत्प्लवा: ॥

    ५॥

    द्रौण्यस्त्रविप्लुष्टमिदं मदड़ूंसन्‍्तानबीजं कुरुपाण्डवानाम्‌ ।

    जुगोप कुक्षिं गत आत्तचक्रोमातुश्च मे यः शरणं गताया: ॥

    ६॥

    वीर्याणि तस्याखिलदेहभाजा-मन्तर्बहिः पूरुषकालरूपै: ।

    प्रयच्छतो मृत्युमुतामृतं चमायामनुष्यस्यथ वदस्व विद्वन्‌ ॥

    पितामहाः --पाँचों पाण्डव, जो मेरे बाबा हैं; मे--मेरे; समरे--कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में; अमरम्‌ जयैः--युद्धभूमि में देवताओंपर विजय प्राप्त करने वाले योद्धाओं समेत; देवब्रत-आद्य-- भीष्मदेव तथा अन्य; अतिरथै:--महा सेनापतियों के साथ;तिमिड्लिलै:--तिमिंगिल ( बड़ी मछली ) के समान; दुरत्ययम्‌--दुर्लघ्य; कौरव-सैन्य-सागरम्‌--कौरवों के एकत्र सैनिकों केसागर को; कृत्वा--मानकर; अतरन्‌--पार कर लिया; वत्स-पदम्‌--गो खुर के समान; स्म--था; यत्‌-प्लवा:--कृष्ण कीचरणकमल रूपी नाव का आश्रय; द्रौणि--अश्वत्थामा के; अस्त्र-ब्रह्मस्त्र से; विप्लुष्टमू-- आक्रमण करके जलाया गया;इदम्‌ू--यह; मत्‌-अड्रम्‌-मेरा शरीर; सन्‍्तान-बीजम्‌--एकमात्र बचा हुआ बीज, वंश का अन्तिम उत्तराधिकारी; कुरु-पाण्डवानामू--कौरवों तथा पाण्डवों का ( कुरुक्षेत्र में मेरे अतिरिक्त सभी लोग मारे जा चुके हैं ); जुगोप--शरण दी; कुक्षिम्‌--गर्भ में; गत:--स्थापित; आत्त-चक्र:--हाथ में चक्र लिए; मातुः:--माता का; च-- भी; मे--मेरी; यः--जो भगवान्‌;शरणमू--शरण; गताया:--ग्रहण कर ली है; वीर्याणि--दिव्य गुणों का गान; तस्य--उस ( भगवान्‌ ) का; अखिल-देह-भाजाम्‌--समस्त देहधारी जीवों का; अन्तः बहि:ः-- भीतर तथा बाहर; पूरुष--परम पुरुष का; काल-रूपैः--नित्य समय केरूपों में; प्रयच्छत:--देने वाला; मृत्युम्‌--मृत्यु को; उत--ऐसा कहा जाता है; अमृतम्‌ च--तथा शाश्रत जीवन; माया-मनुष्यस्थ-- भगवान्‌ का, जो अपनी शक्ति से मनुष्य रूप में प्रकट हुए हैं; वदस्व--कृपा करके कहें; विद्वनू--हे विद्वान( शुकदेव गोस्वामी )॥

    कृष्ण के चरणकमल रूपी नाव को लेकर मेरे बाबा अर्जुन तथा अनन्‍्यों ने उस कुरुक्षेत्रयुद्धस्थल रूपी सागर को पार कर लिया जिसमें भीष्मदेव जैसे सेनापति उन बड़ी-बड़ी मछलियोंके तुल्य थे, जो उन्हें आसानी से निगल गई होतीं।

    मेरे पितामहों ने भगवान्‌ श्रीकृष्ण की कृपा सेइस दुर्लध्य सागर को इतनी सरलता से पार कर लिया मानो कोई गोखुर का चिन्ह हो।

    चूँकि मेरीमाता ने सुदर्शन चक्रधारी भगवान्‌ श्रीकृष्ण के चरणकमलों की शरण ग्रहण की थी अतःउन्होंने उनके गर्भ में प्रवेश करके मुझे बचा लिया जो कौरवों तथा पाण्डवों का अन्तिम बचाहुआ उत्तराधिकारी था और जिसे अश्वत्थामा ने अपने ब्रह्मास्त्र से नष्टप्राय कर दिया था।

    भगवान्‌कृष्ण ने समस्त देहधारी जीवों के भीतर तथा बाहर शाश्रत काल के रूपों में--यथा परमात्मातथा विराट रूपों में--अपनी शक्ति से प्रकट होकर हर एक को क्रूर मृत्यु के रूप में या जीवनके रूप में मोक्ष प्रदान किया।

    कृपया उनके दिव्य गुणों का वर्णन करके मुझे प्रबुद्ध कीजिए ।

    रोहिण्यास्तनयः प्रोक्तो राम: सट्डूर्षणस्त्वया ।

    देवक्या गर्भसम्बन्ध: कुतो देहान्तरं बिना ॥

    ८॥

    रोहिण्या:--बलदेव की माता रोहिणी देवी का; तनयः--पुत्र; प्रोक्त:--विख्यात; राम:--बलराम; सद्जूर्षण:--संकर्षण औरकोई नहीं, बलराम हैं, जो चतुर्व्यूह ( संकर्षण, अनिरुद्ध, प्रद्युम्न तथा वासुदेव ) में प्रथम हैं; त्वया--आपके द्वारा ( ऐसा कहाजाता है ); देवक्या: --कृष्ण की माता, देवकी का; गर्भ-सम्बन्ध:--गर्भ सम्बन्धी; कुतः--कैसे; देह-अन्तरम्‌--शरीरों केस्थानान्तरण के; विना--बिना

    हे शुकदेव गोस्वामी, आप पहले ही बता चुके हैं कि द्वितीय चतुर्व्यूह से सम्बन्धित संकर्षणरोहिणी के पुत्र बलराम के रूप में प्रकट हुए।

    यदि बलराम को एक शरीर से दूसरे शरीर मेंस्थानान्तरित न किया गया होता तो यह कैसे सम्भव हो पाता कि वे पहले देवकी के गर्भ में रहतेऔर बाद में रोहिणी के गर्भ में ? कृपया मुझसे इसकी व्याख्या कीजिए।

    कस्मान्मुकुन्दो भगवान्पितुर्गेहाद्त्रजं गतः ।

    क्व वासं ज्ञातिभि: सार्थ कृतवान्सात्वतां पति: ॥

    ९॥

    कस्मात्‌-क्यों; मुकुन्द:--हर एक को मोक्ष देने वाले कृष्ण; भगवान्‌-- भगवान्‌; पितु:--अपने पिता ( वसुदेव ) के; गेहात्‌--घर से; ब्रजम्‌-व्रजधाम या ब्रजभूमि; गत:--गये; क्व--कहाँ; वासम्‌ू--रहने के लिए रखा; ज्ञातिभिः--उनके सम्बन्धियों के;सार्धम्‌--साथ; कृतवान्‌--कर दिया; सात्वताम्‌ पति: --समस्त वैष्णव भक्तों के स्वामी

    भगवान्‌ कृष्ण ने अपने पिता वसुदेव का घर क्‍यों छोड़ा और अपने को वृन्दावन में नन्‍्द केघर क्‍यों स्थानान्तरित किया ? यदुवंश के स्वामी अपने सम्बन्धियों के साथ वृन्दावन में कहाँ रहे ?

    ब्रजे वसन्किमकरोन्मधुपुर्या च केशव: ।

    भ्रातरं चावधीत्कंसं मातुरद्धातदर्हणम्‌ ॥

    १०॥

    ब्रजे--वृन्दावन में; वसन्‌--रहते हुए; किम्‌ अकरोत्‌--उन्होंने क्या किया; मधुपुर्याम्‌--मथुरा में; च--तथा; केशव:--केशी केसंहार करने वाले, कृष्ण ने; भ्रातरम्‌-- भाई; च--तथा; अवधीत्‌--मारा; कंसम्‌--कंस को; मातुः--अपनी माता के; अद्धघा--प्रत्यक्ष; अ-तत्‌-अर्हणम्‌--शास्त्र जिसकी अनुमति नहीं देते।

    भगवान्‌ कृष्ण वृन्दावन तथा मथुरा दोनों जगह रहे तो वहाँ उन्होंने क्या किया ? उन्होंने अपनीमाता के भाई ( मामा ) कंस को क्‍यों मारा जबकि शास्त्र ऐसे वध की रंचमात्र भी अनुमति नहींदेते ?

    देहं मानुषमाश्रित्य कति वर्षाणि वृष्णिभि: ।

    यदुपुर्या सहावात्सीत्पल्य: कत्यभवन्प्रभो: ॥

    ११॥

    देहम्‌--शरीर; मानुषम्‌--मनुष्य की ही तरह; आश्रित्य--स्वीकार करके; कति वर्षाणि--कितने वर्षो तक; वृष्णिभि:--वृष्णिवंश में उत्पन्न होने वालों के साथ में; यदु-पुर्यामू--यदुओं के आवास-स्थानों में, द्वारका में; सह--साथ; अवात्सीत्‌-- भगवान्‌रहे; पत्य:--पत्ियाँ; कति--कितनी; अभवन्‌ -हुईं; प्रभोः-- भगवान्‌ के

    भगवान्‌ कृष्ण का शरीर भौतिक नहीं है, फिर भी वे मानव के रूप में प्रकट होते हैं।

    वेवृष्णि के वंशजों के साथ कितने वर्षों तक रहे ? उनके कितनी पत्रियाँ थीं? वे द्वारका में कितनेवर्षों तक रहे ?

    एतदन्यच्च सर्व मे मुने कृष्णविचेष्टितम्‌ ।

    वक्तुमईसि सर्वज्ञ श्रद्धधानाय विस्तृतम्‌ ॥

    १२॥

    एततू--ये सारी बातें; अन्यत्‌ च--तथा अन्य बातें भी; सर्वम्‌--सारी बातें; मे--मुझको; मुने--हे मुनि; कृष्ण-विचेष्टितम्‌--भगवान्‌ कृष्ण के कार्यकलापों को; वक्तुम्‌ू--बतलाने में; अहसि--समर्थ हैं; सर्व-ज्ञ--सब कुछ जानने वाले; श्रद्धानाय--श्रद्धावान होने के कारण; विस्तृतम्‌--विस्तार से |

    हे महामुनि, आप कृष्ण के विषय में सब कुछ जानते हैं अतएव उन सारे कार्यकलापों कावर्णन विस्तार से करें जिनके बारे में मैंने पूछा है तथा उनके बारे में भी जिनके विषय में मैंने नहींपूछा क्‍योंकि उन पर मेरा पूर्ण विश्वास है और मैं उन सबको सुनने के लिए अत्यन्त उत्सुक हूँ।

    नैषातिदुःसहा क्षुन्मां त्यक्तोदमपि बाधते ।

    पिबन्तं त्वन्मुखाम्भोजच्युतं हरिकथामृतम्‌ ॥

    १३ ॥

    न--नहीं; एघा--यह सब; अति-दुःसहा--सहने में अत्यन्त कठिन; क्षुत्‌-- भूख; माम्‌--मुझको; त्यक्त-उदम्‌--जल ग्रहणकरना छोड़ देने के बाद; अपि-- भी; बाधते--बाधा नहीं डालता; पिबन्तम्‌--पीते रहने पर; त्वत्‌-मुख-अम्भोज-च्युतम्‌--आपके कमलमुख से निकला हुआ; हरि-कथा-अमृतम्‌--कृष्ण कथा का अमृत

    मृत्यु द्वार पर होते हुए अपने व्रत के कारण मैंने जल ग्रहण करना भी छोड़ दिया है फिर भीआपके कमलमुख से निकले कृष्ण-कथा रूपी अमृत का पान करने से मेरी असहाय भूख तथाप्यास मुझे किसी तरह भी बाधा नहीं पहुँचा रही।

    सूत उवाचएवं निशम्य भृगुनन्दन साधुवादंवैयासकि: स भगवानथ विष्णुरातम्‌ ।

    प्रत्यर्च्य कृष्णचरितं कलिकल्मषपघ्नंव्याहर्तुमारभत भागवतप्रधान: ॥

    १४॥

    सूतः उबाच--सूत गोस्वामी ने कहा; एबम्‌--इस प्रकार; निशम्य--सुनकर; भूगु-नन्दन--हे भूगुवंशी, शौनक; साधु-वादम्‌--शुभ प्रश्न; वैयासकि:--व्यासदेव के पुत्र, शुकदेव गोस्वामी; सः--वह; भगवान्‌--अत्यन्त शक्तिशाली; अथ--इस प्रकार;विष्णु-रातम्‌--विष्णु द्वारा सुरक्षित परीक्षित महाराज को; प्रत्यर्च्य--सादर नमस्कार करके ; कृष्ण-चरितम्‌--कृष्णकथा को;कलि-कल्मष-घछनम्‌--इस कलियुग के कष्टों को कम करने वाली; व्याहर्तुमु-वर्णन करने के लिए; आरभत--शुरू किया;भागवत-प्रधान:--शुद्ध भक्तों में प्रमुख शुकदेव गोस्वामी ने।

    सूत गोस्वामी ने कहा : हे भूगुपुत्र (शौनक ऋषि ), परम आदरणीय व्यासपुत्र भक्त शुकदेवगोस्वामी ने महाराज परीक्षित के शुभ प्रश्नों को सुनकर राजा को सादर धन्यवाद दिया।

    फिरउन्होंने कृष्णकथा के विषय में वार्ता प्रारम्भ की जो इस कलियुग के समस्त कष्टों के लिएऔषधि है।

    श्रीशुक उबाचसम्यग्व्यवसिता बुद्धिस्तव राजर्षिसत्तम ।

    वासुदेवकथायां ते यज्जाता नैष्ठिकी रति: ॥

    १५॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; सम्यक्‌--पूरी तरह; व्यवसिता--स्थिर; बुद्धि: --बुर्दधि; तब--आपकी;राज-ऋषि-सत्तम-हे राजर्षियों में श्रेष्ठ; बासुदेब-कथायाम्‌--वासुदेव कृष्ण विषयक कथाओं के सुनने में; ते--आपका;यत्‌--क्योंकि; जाता--उत्पन्न; नैष्ठिकी--अनवरत; रतिः--आकर्षण या भावमय भक्ति

    शरील शुकदेव गोस्वामी के कहा : हे राजर्षियों में श्रेष्ठ, चूँकि आप वासुदेव की कथाओं केप्रति अत्यधिक आकृष्ट हैं अत: निश्चित रूप से आपकी बुद्धि आध्यात्मिक ज्ञान में स्थिर है, जोमानवता का एकमात्र असली लक्ष्य है।

    चूँकि यह आकर्षण अनवरत रहता है अतएव निश्चितरूपसे उत्कृष्ट है।

    वासुदेवकथाप्रएन: पुरुषांस्त्रीन्पुनाति हि ।

    वक्तारं प्रच्छक॑ श्रोतृंस्तत्पादसलिलं यथा ॥

    १६॥

    वासुदेव-कथा-प्रश्न:--वासुदेव कृष्ण की लीलाओं तथा गुणों के विषय में प्रश्न; पुरुषान्‌--पुरुषों को; त्रीन्‌--तीनों;पुनाति--पवित्र करते हैं; हि--निश्चय ही; वक्तारम्‌ू--वक्ता को, यथा शुकदेव गोस्वामी; प्रच्छकम्‌--जिज्ञासु आता को, यथामहाराज परीक्षित; श्रोतूनू--तथा कथा को सुनने वालों को; ततू-पाद-सलिलम्‌ यथा--जिस तरह

    भगवान्‌ विष्णु के अँगूठे सेनिकलने वाले गंगा जल से सम्पूर्ण संसार पवित्र हो जाता है।

    भगवान्‌ विष्णु के चरणों के अँगूठे से निकलने वाली गंगा तीनों लोकों--ऊपरी, मध्य तथा अध: लोकों--को पवित्र बनाने वाली है।

    इसी तरह जब कोई व्यक्ति भगवान्‌ वासुदेव कृष्ण कीलीलाओं तथा गुणों के विषय में प्रश्न करता है, तो तीन प्रकार के व्यक्ति--वक्ता या उपदेशक,प्रश्नकर्ता तथा सुनने वाले मनुष्य--शुद्ध हो जाते हैं।

    भूमि प्तनृपव्याजदैत्यानीकशतायुतै: ।

    आक्रान्ता भूरिभारेण ब्रह्माणं शरणं ययौ ॥

    १७॥

    भूमिः--पृथ्वी माता; हप्त--गर्वित; नृप-व्याज--राजाओं का स्वांग भरते हुए अथवा राज्य में साक्षात्‌ परम शक्ति; दैत्य--असुरोंकी; अनीक--सैनिकों की सेना; शत-अयुतैः--सैकड़ों हजारों में, असंख्य; आक्रान्ता--बोझिल होकर; भूरि-भारेण--व्यर्थकी सेना के बोझ से; ब्रह्मणम्‌--ब्रह्म के पास; शरणम्‌--शरण खोजने; ययौ--गयी

    एक बार माता पृथ्वी राजाओं के वेश में गर्वित लाखों असुरों की सेना से बोझिल हो उठी तोवह इससे छुटकारा पाने के लिए ब्रह्मा के पास पहुँची।

    गौर्भूत्वाश्रुमुखी खिन्ना क्रन्दन्ती करूणं विभो: ।

    उपस्थितान्तिके तस्मै व्यसनं समवोचत ॥

    १८॥

    गौ:--गाय; भूत्वा--बनकर; अश्रु-मुखी--आँखों में आँसू भरकर; खिन्ना--अत्यन्त दुखी; क्रन्दन्ती--रोती हुई; करुणम्‌--बेचारी; विभो:--ब्रह्मा के; उपस्थिता--प्रकट हुई; अन्तिके--समक्ष; तस्मै--उनसे ( ब्रह्मा से ); व्यसनम्‌--अपनी विपदा;समवोचत--निवेदन किया।

    माता पृथ्वी ने गाय का रूप धारण किया।

    वह अत्यन्त दुखियारी, अपनी आँखों में आँसू भर कर भगवान्‌ ब्रह्मा के समक्ष प्रकट हुई और उसने उनसे अपनी विपदा कह सुनायी।

    ब्रह्मा तदुपधार्याथ सह देवैस्तया सह ।

    जगाम सत्रिनयनस्तीरं क्षीरपयोनिधे: ॥

    १९॥

    ब्रह्मा--ब्रह्माजी; ततू-उपधार्य--हर बात को ठीक से समझ कर; अथ--तत्पश्चात्‌; सह--साथ; देवै:ः--देवताओं के; तयासह--माता पृथ्वी के साथ; जगाम--निकट गए; स-बत्रि-नयन:--तीन नेत्रों वाले शिवजी के साथ; तीरम्‌--तट पर; क्षीर-पयः-निधे:--क्षीर सागर के |

    माता पृथ्वी की विपदा सुनकर ब्रह्माजी, माता पृथ्वी तथा शिवजी एवं अन्य समस्त देवताओंके साथ क्षीरसागर के तट पर जा पहुँचे।

    तत्र गत्वा जगन्नाथ देवदेवं वृषाकपिम्‌ ।

    पुरुष पुरुषसूक्तेन उपतस्थे समाहित: ॥

    २०॥

    तत्र--वहाँ ( क्षीरसागर के तट पर ); गत्वा--जाकर; जगन्नाथम्‌--समग्र ब्रह्माण्ड के स्वामी को; देव-देवम्‌--सारे देवताओं केभी परम ईश्वर को; वृषाकपिम्‌--परम पुरुष विष्णु को जो हर एक का पालन करने वाले तथा सबके कष्टों को दूर करने वाले हैं;पुरुषम्‌-परम पुरुष को; पुरुष-सूक्तेन--पुरुषसूक्त नामक वैदिक मंत्र से; उपतस्थे--पूजा किया; समाहितः--पूर्ण मनोयोगसे

    क्षीर सागर के तट पर पहुँच कर सारे देवताओं ने समस्त ब्रह्माण्ड के स्वामी, समस्तदेवताओं के परम ईश तथा हर एक का पालन करने वाले और उनके दुखों को दूर करने वालेभगवान्‌ विष्णु की पूजा की।

    उन्होंने बड़े ही मनोयोग से पुरुषसूक्त नामक वैदिक मंत्रों के पाठद्वारा क्षीर सागर में शयन करने वाले भगवान्‌ विष्णु की पूजा की।

    गिरं समाधौ गगने समीरितांनिशम्य वेधास्त्रिदशानुवाच ह ।

    गां पौरूषीं मे श्रुणुतामरा: पुन-विंधीयतामाशु तथेव मा चिरम्‌ू ॥

    २१॥

    गिरम्‌--शब्दों की ध्वनि; समाधौ--समाधि में; गगने--आकाश में; समीरिताम्‌--ध्वनित; निशम्य--सुनकर; बेधा: --ब्रह्मा ने;त्रिदशान्‌ू--देवताओं को; उवाच--कहा; ह--ओह; गाम्‌--आदेश; पौरुषीम्‌--परम पुरूष से प्राप्त; मे--मुझको; श्रुणुत--सुनिए; अमरा: --हे देवताओ; पुनः--फिर; विधीयताम्‌--सम्पन्न करो; आशु--तुरन्‍्त; तथा एब--उसी तरह; मा--मत;चिरमू--विलम्ब।

    ब्रह्माजी जब समाधि में थे, भगवान्‌ विष्णु के शब्दों को आकाश में ध्वनित होते सुना।

    तबउन्होंने देवताओं से कहा, ' अरे देवताओ! मुझसे परम पुरुष क्षीरोदकशायी विष्णु का आदेशसुनो और बिना देर लगाए उसे ध्यानपूर्वक पूरा करो।

    पुरैव पुंसावधृतो धराज्वरोभवद्धिरंशैर्यदुषूपजन्यताम्‌ ।

    स यावदुर्व्या भरमी श्वरे श्र:स्वकालशक्त्या क्षपयंश्ररेद्धुवि ॥

    २२॥

    पुरा--इससे भी पहले; एब--निस्सन्देह; पुंसा-- भगवान्‌ द्वारा; अवधृतः--ज्ञात था; धरा-ज्वरः--पृथ्वी पर संकट; भवद्धिः--आपके; अंशै: --अंशों द्वारा; यदुषु--राजा यदु के वंश में; उपजन्यताम्‌--जन्म लेकर; सः--वह ( भगवान्‌ ); यावत्‌ू--जबतक; उर्व्या:--पृथ्वी का; भरम्‌-- भार; ई श्वर-ई श्वर:ः --ई श्वरों के ईश्वर; स्व-काल-शक्त्या--अपनी ही काल शक्ति द्वारा;क्षपयन्‌--घटाने के लिए; चरेत्‌--गति करें; भुवि--पृथ्वी की सतह पर।

    भगवान्‌ ब्रह्माजी ने देवताओं को बतलाया: हमारे द्वारा याचना करने के पूर्व ही भगवान्‌पृथ्वी के संकट से अवगत हो चुके थे।

    फलतः जब तक भगवान्‌ अपनी काल शक्ति के द्वारापृथ्वी का भार कम करने के लिए पृथ्वी पर गतिशील रहें तब तक तुम सभी देवताओं को यदुओंके परिवार में उनके पुत्रों तथा पौत्रों के अंश के रूप में अवतीर्ण होना होगा।

    बसुदेवगहे साक्षाद्धगवान्पुरुष: पर: ।

    जनिष्यते तत्प्रियार्थ सम्भवन्तु सुरस्त्रिय: ॥

    २३॥

    बसुदेव-गृहे--वसुदेव ( कृष्ण के पिता ) के घर में; साक्षात्‌--साकार रूप में; भगवान्‌--पूर्ण शक्तिमान भगवान्‌; पुरुष: --आदि पुरुष; पर:--दिव्य; जनिष्यते--उत्पन्न होगा; तत्‌ू-प्रिय-अर्थम्‌--उसकी तुष्टि के लिए; सम्भवन्तु--जन्म लेना होगा; सुर-स्त्रियः--देवताओं की स्त्रियों को |

    सर्वशक्तिमान भगवान्‌ कृष्ण वसुदेव के पुत्र रूप में स्वयं प्रकट होंगे।

    अतः देवताओं कीसारी स्त्रियों को भी उन्हें प्रसन्न करने के लिए प्रकट होना चाहिए।

    वासुदेवकलानन्तः सहस्त्रवदन: स्वराट्‌ ।

    अग्रतो भविता देवो हरे: प्रियचिकीर्षया ॥

    २४॥

    वासुदेव-कला अनन्त:--भगवान्‌ कृष्ण का अंश जो अनन्तदेव या संकर्षण अनन्त के नाम से प्रसिद्ध हैं, भगवान्‌ कासर्वव्यापक अवतार; सहस्त्र-वदन:--हजार फनों वाला; स्वराट्‌--पूर्णतया स्वतंत्र; अग्रतः--इसके पूर्व; भविता--प्रकट होगा;देवः-- भगवान्‌; हरेः -- कृष्ण का; प्रिय-चिकीर्षया--आनन्द के लिए कार्य करने की इच्छा से |

    कृष्ण का सबसे अग्रणी स्वरूप संकर्षण है, जो अनन्त कहलाता है।

    वह इस भौतिक जगतमें सारे अवतारों का उद्गम है।

    भगवान्‌ कृष्ण के प्राकटय के पूर्व यह आदि संकर्षण कृष्ण कोउनकी दिव्य लीलाओं में प्रसन्न करने के लिए बलदेव के रूप में प्रकट होगा।

    विष्णोर्माया भगवती यया सम्मोहितं जगत्‌ ।

    आदिष्टा प्रभुणांशेन कार्यार्थे सम्भविष्यति ॥

    २५॥

    विष्णो: माया--भगवान्‌ विष्णु की शक्ति; भगवती-- भगवान्‌ के ही समकक्ष अतएव भगवती नाम से जानी जाने वाली; यया--जिससे; सम्मोहितम्‌--मोहित; जगत्‌--सारे जगत, भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों; आदिष्टा--आदेश पाकर; प्रभुणा--स्वामीके द्वारा; अंशेन--अपने विभिन्न शक्तिशाली कारकों के साथ; कार्य-अर्थे--पूरा काम करने के लिए; सम्भविष्यति--जन्मलेगी।

    विष्णु माया कहलाने वाली भगवान्‌ की शक्ति जो भगवान्‌ के ही समान है, भगवान्‌ कृष्णके साथ-साथ ही प्रकट होगी।

    यह शक्ति विभिन्न पदों पर कार्य करती हुईं भौतिक तथाआध्यात्मिक सभी जगतों को मोहने वाली है।

    वह अपने स्वामी के आग्रह पर भगवान्‌ का कार्यसम्पन्न करने के लिए अपनी विविध शक्तियों सहित प्रकट होगी।

    श्रीशुक उबाचइत्यादिश्यामरगणान्प्रजापतिपतिर्विभु: ।

    आश्वास्य च महीं गीर्मि: स्वधाम परमं ययौ ॥

    २६॥

    श्री-शुक: उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; आदिश्य--सूचना देकर; अमर-गणान्‌--देवताओं को;प्रजापति-पति:--प्रजापतियों के स्वामी ब्रह्माजी; विभु:--सर्वशक्तिमान; आश्वास्य--आ श्वासन देकर; च--भी; महीम्‌--मातापृथ्वी को; गीर्भि:--मधुर शब्दों से; स्व-धाम--अपने धाम, ब्रह्मलोक; परमम्‌--सर्व श्रेष्ठ ( ब्रह्मण्ड के भीतर ); ययौ--लौटगये

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : इस तरह देवताओं को सलाह देकर तथा माता पृथ्वी कोआश्वस्त करते हुए अत्यन्त शक्तिशाली ब्रह्माजी, जो समस्त प्रजापतियों के स्वामी होने सेप्रजापति-पति कहलाते हैं, अपने धाम ब्रह्मलोक लौट गये।

    शूरसेनो यदुपतिर्मथुरामावसन्पुरीम्‌ ।

    माथुराज्छूरसेनां श्व विषयान्बुभुजे पुरा ॥

    २७॥

    शूरसेन:--राजा शूरसेन; यदु-पति:--यदुवंश का मुखिया; मथुराम्‌--मथुरा नामक स्थान में; आवसन्‌--जाकर रहने लगा;पुरीम्‌--नगरी में; माथुरान्‌ू--माथुर जिले के नाम से विख्यात स्थान में; शूरसेनान्‌ू च--तथा शूरसेन नामक स्थान में; विषयान्‌--ऐसे राज्यों का; बुभुजे--भोग किया; पुरा--प्राचीन काल में ।

    प्राचीन काल में यदुबंश का मुखिया शूरसेन मथुरा नामक नगरी में रहने के लिए गया।

    वहाँ उसने माथुर तथा शूरसेन नामक स्थानों का भोग किया।

    राजधानी ततः साभूत्सर्वयादवभूभुजाम्‌ ।

    मथुरा भगवान्यत्र नित्यं सबन्निहितो हरि: ॥

    २८॥

    राजधानी --राजधानी; तत:--उस समय से; सा--वह ( मथुरा नामक नगरी तथा देश ); अभूत्‌--बन गया; सर्व-यादव-भूभुजाम्‌--यदुवंश में होने वाले सारे राजाओं की; मथुरा--मथुरा नामक स्थान; भगवान्‌-- भगवान्‌; यत्र--जहाँ; नित्यम्‌--शाश्वत रूप से; सन्निहित:ः--घनिष्टतापूर्वक सम्बद्ध, नित्यवास करते हुए; हरिः--भगवान्‌ |

    उस समय से मथुरा नगरी सारे यदुबंशी राजाओं की राजधानी बनी रही।

    मथुरा नगरी तथामथुरा जनपद कृष्ण से घनिष्टतापूर्वक जुड़े हैं क्योंकि वहाँ कृष्ण का नित्य वास है।

    तस्यां तु कर्हिचिच्छौरि्व॑सुदेव: कृतोद्वहः ।

    देवक्या सूर्यया सार्थ प्रयाणे रथमारुहत्‌ ॥

    २९॥

    तस्यामू--उस मथुरा नामक स्थान में; तु--निस्सन्देह; कर्हिचित्‌ू--कुछ समय बीता; शौरि:--शूर का वंशज, देवता; बसुदेव:--बसुदेव रूप में प्रकट; कृत-उद्बगद: --विवाह करने के बाद; देवक्या--देवकी से; सूर्यया--अपनी नवविवाहिता पत्नी के;सार्धम्‌--साथ; प्रयाणे--घर लौटने के लिए; रथम्‌--रथ पर; आरुहत्‌--चढ़ा |

    कुछ समय पूर्व देववंश ( या शूरवंश ) के वसुदेव ने देवकी से विवाह किया।

    विवाह केबाद वह अपनी नवविवाहिता पत्नी के साथ घर लौटने के लिए अपने रथ पर आरूढ़ हुआ।

    उपग्रसेनसुतः कंस: स्वसु: प्रियचिकीर्षया ।

    रश्मीन्हयानां जग्राह रौक्मै रथशतैर्वृतः ॥

    ३० ॥

    उग्रसेन-सुत:--उग्रसेन का बेटा; कंस:ः--कंस ने; स्वसु:--अपनी बहिन देवकी के; प्रिय-चिकीर्षया--विवाह के अवसर परउसे प्रसन्न करने के लिए; रश्मीन्‌ू--लगामों को; हयानाम्‌--घोड़ों की; जग्राह--पकड़ लिया; रौक्मैः --सोने की बनी; रथ-शतैः--सैकड़ों रथों से; वृत:--घिरा हुआ।

    राजा उग्रसेन के पुत्र कंस ने अपनी बहन देवकी को उसके विवाह के अवसर पर प्रसन्न करनेकी दृष्टि से घोड़ों की लगामें अपने हाथ में थाम लीं और स्वयं रथचालक ( सारथी ) बन गया।

    वह सैकड़ों सुनहरे रथों से घिरा था।

    चतुःशतं पारिबई गजानां हेममालिनाम्‌ ।

    अश्वानामयुतं सार्थ रथानां च त्रिषघट्शतम्‌ ॥

    ३१॥

    दासीनां सुकुमारीणां द्वे शते समलड्डू ते ।

    दुहित्रे देवकः प्रादाद्याने दुहितृबत्सल: ॥

    ३२॥

    चतु:-शतम्‌--चार सौ; पारिबहम्‌--दहेज; गजानाम्‌--हाथियों के; हेम-मालिनाम्‌--सोने के हारों से सजे; अश्वानाम्‌--घोड़ोंके; अयुतम्‌--दस हजार; सार्धमू--साथ में; रथानाम्‌ू--रथों के; च--तथा; त्रि-षट्‌-शतम्‌--छह सौ का तिगुना, अठारह सौ;दासीनाम्‌--दासियों के; सु-कुमारीणाम्‌--अत्यन्त जवान तथा सुन्दर अविवाहित लड़कियाँ; द्वे--दो; शते--सौ; समलड्ढू ते--गहनों से सज्जित; दुहित्रे--अपनी पुत्री को; देवक:--राजा देवक; प्रादात्‌-भेंट स्वरूप दिया; याने--जाते समय; दुहितृ-बत्सलः--अपनी पुत्री देवकी को अत्यधिक चाहने वाला |

    देवकी का पिता राजा देवक अपनी पुत्री को अत्यधिक स्नेह था।

    अतएव जब देवकी तथाउसका पति घर से विदा होने लगे तो उसने दहेज में सोने के हारों से सुसज्जित चार सौ हाथी दिए।

    साथ ही दस हजार घोड़े, अठारह हजार रथ तथा दो सौ अत्यन्त सुन्दर तथा गहनों से अच्छी तरहअलंकृत युवा दासियाँ दीं।

    शह्डतूर्यमृदड़ाश्च नेदुर्दुन्दुभयः समम्‌ ।

    प्रयाणप्रक्रमे तात वरवध्वो: सुमड्रलम्‌ ॥

    ३३॥

    शब्डु--शंख,; तूर्य--तुरही; मृदड्राः--मृदंग; च-- भी; नेदु:--बजने लगे; दुन्दुभय:--नगाड़े; समम्‌--एकसाथ; प्रयाण-प्रक्रो--विदाई के समय; तात-हे पुत्र; बर-वध्वो:--दूल्हा तथा दुल्हन की; सु-मड्गलम्‌--शुभ विदाई के लिए

    हे प्रिय पुत्र महाराज परीक्षित, जब दूल्हा तथा दुल्हन विदा होने लगे तो उनकी शुभ विदाईपर शंख, तुरही, मृदंग तथा नगाड़े एकसाथ बजने लगे।

    पथि प्रग्रहिणं कंसमाभाष्याहाशरीरवाक्‌ ।

    अस्यास्त्वामष्टमो गर्भो हन्ता यां वहसेडबुध ॥

    ३४॥

    पथ्ि--रास्ते में; प्रग्रहिणम्‌--घोड़ों की लगाम थामे हुए; कंसम्‌--कंस को; आभाष्य--सम्बोधित करते हुए; आह--कहा; अ-शरीर-वाक्‌ू--अहृश्य शरीर से आने वाली आवाज ने; अस्या:--इस ( देवकी ) का; त्वाम्‌ू--तुमको; अष्टम: --आठवाँ; गर्भ:--गर्भ; हन्ता--मारने वाला; याम्‌--जिसको; वहसे--लिए जा रहे हो; अबुध--हे मूर्ख

    जब कंस घोड़ों की लगाम थामे मार्ग पर रथ हाँक रहा था, तो किसी अशरीरी आवाज नेउसको सम्बोधित किया, ‘'आरे मूर्ख दुष्ट! तुम जिस स्त्री को लिए जा रहे हो उसकी आठवींसनन्‍्तान तुम्हारा वध करेगी।

    इत्युक्त: स खलः पापो भोजानां कुलपांसन: ।

    भगिनीं हन्तुमारब्धं खड्गपाणि: कचेग्रहीत्‌ ॥

    ३५॥

    इति उक्त:--इस तरह कहे जाने पर; सः--वह ( कंस ); खलः--दुष्ट, ईर्ष्यालु; पाप:--पापी; भोजानाम्‌-- भोज कुल का; कुल-पांसन:--अपने कुल की ख्याति को नीचे गिराने वाला; भगिनीम्‌--अपनी बहन को; हन्तुम्‌ आरब्धम्‌-मारने के लिए उद्यत;खड्ग-पाणि:--हाथ में तलवार लेकर; कचे--बाल; अग्रहीत्‌ू--पकड़ लिया।

    कंस भोजवंश का अधम व्यक्ति था क्‍योंकि वह ईर्ष्यालु तथा पापी था।

    इसलिए उसने जबयह आकाशवाणी सुनी तो उसने बाएँ हाथ से अपनी बहन के बाल पकड़ लिए और उसके सिरको धड़ से अलग करने के लिए दाहिने हाथ से अपनी तलवार निकाली।

    त॑ जुगुप्सितकर्माणं नृशंसं निरपत्रपम्‌ ।

    वसुदेवो महाभाग उबाच परिसान्त्वयन्‌ ॥

    ३६॥

    तम्‌--उस ( कंस ) को; जुगुप्सित-कर्माणम्‌--जो ऐसा घृणित कर्म करने के लिए तैयार था; नृशंसम्‌--अत्यन्त क्रूर;निरपत्रपम्--बेहया, निर्लज; वसुदेव:--वसुदेव ने; महा-भाग:--वासुदेव का अत्यन्त भाग्यशाली पिता; उबाच--कहा;परिसान्त्वयन्‌--सान्त्वना देते हुए।

    कंस इतना क्रूर तथा ईर्ष्यालु था कि वह निर्लज्ञतापूर्वक अपनी बहन को मारने के लिएतैयार था अतः उसे शान्त करने के लिए कृष्ण के होने वाले पिता महात्मा बसुदेव ने उससेनिम्नलिखित शब्द कहे।

    श्रीवसुदेव उबाचएलाघनीयगुण: शूरैर्भवान्भोजयशस्करः ।

    स कथं भगिनीं हन्यात्स्त्रियमुद्दराहपर्वणि ॥

    ३७॥

    श्री-वसुदेव: उबाच--महाभाग वसुदेव ने कहा; एलाघनीय-गुण:--प्रशंसनीय गुणों से युक्त; शूरैः--शूरवीरों के द्वारा; भवान्‌--आप; भोज-यशः-करः--भोजवंश का दैदीप्यमान नक्षत्र; सः--आप जैसा; कथम्‌--किस तरह; भगिनीम्‌ू-- अपनी बहन को;हन्यात्‌ू--मार सकता है; स्त्रियमू--विशेष रूप से स्त्री को; उद्बाह-पर्वीणि--विवाहोत्सव के समय

    वसुदेव ने कहा : हे साले महाशय, तुम्हारे भोज परिवार को तुम पर गर्व है और बड़े-बड़ेशूरवीर तुम्हारे गुणों की प्रशंसा करते हैं।

    भला तुम्हारे जैसा योग्य व्यक्ति एक स्त्री को, जो उसीकी बहन है, विशेष रूप से उसके विवाह के अवसर पर, मार कैसे सकता है?

    मृत्युर्जन्मवरतां वीर देहेन सह जायते ।

    अद्य वाब्दशतान्ते वा मृत्युर्वें प्राणिनां ध्रुव: ॥

    ३८ ॥

    मृत्यु:--मृत्यु; जन्म-वताम्‌--जन्म लेने वाले जीवों के; वीर--हे वीर; देहेन सह--शरीर के साथ; जायते--उत्पन्न होती है;अद्य--आज; वा--चाहे; अब्द-शत--सौ वर्षों के; अन्ते--अन्त में; वा--अथवा; मृत्यु:--मृत्यु; बै--निस्सन्देह; प्राणिनाम्‌--सारे जीवों की; ध्रुव:ः--निश्चित है

    हे शूरवीर, जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है, क्योंकि शरीर के ही साथ मृत्यु काउद्भव होता है।

    कोई चाहे आज मरे या सौ वर्षो बाद, किन्तु प्रत्येक जीव की मृत्यु निश्चित है।

    देहे पञ्ञत्वमापन्ने देही कर्मानुगोडवश: ।

    देहान्तरमनुप्राप्य प्राक्तनं त्यजते वपु: ॥

    ३९॥

    देहे--जब शरीर; पश्ञत्वम्‌ आपन्ने--पाँच तत्त्वों में बदल जाता है; देही--देहधारी, जीव; कर्म-अनुग: -- अपने सकाम कर्मों केफलों का पालन करता हुआ; अवश:ः --स्वतः ; देह-अन्तरम्‌--दूसरा शरीर ( भौतिक तत्त्वों से निर्मित ); अनुप्राप्प--फल के रूपमें प्राप्त करके; प्राक्तममू--पहले वाला; त्यजते--छोड़ देता है; वपु:--शरीर जब यह शरीर मिट्टी बन जाता है और फिर से पाँच तत्त्वों में--पृथ्वी, जल, अग्नि, वायुतथा आकाश--परिणत हो जाता है

    तो शरीर का स्वामी जीव स्वतः अपने सकाम कर्मों केअनुसार भौतिक तत्त्वों से बना दूसरा शरीर प्राप्त करता है।

    अगला शरीर प्राप्त होने पर वहवर्तमान शरीर को त्याग देता है।

    ब्रज॑स्तिष्ठन्पदैेकेन यथेवैकेन गच्छति ।

    यथा तृणजलौकैवं देही कर्मगतिं गत: ॥

    ४०॥

    ब्रजन्‌ू--रास्ते पर चलते हुए कोई व्यक्ति; तिष्ठनू--खड़े होकर; पदा एकेन--एक पाँव पर; यथा--जिस तरह; एव--निस्सन्देह;एकेन--दूसरे पाँव से; गच्छति--जाता है; यथा--जिस तरह; तृण-जलौका--तिनके पर बैठा कीड़ा; एवम्‌--इस तरह; देही--जीव; कर्म-गतिम्‌--सकाम कर्मों के फल; गतः--भोगता है|

    जिस तरह रास्ते पर चलते हुए मनुष्य अपना एक पाँव जमीन पर टेकता है और फिर दूसरेपाँव को उठाता है या जिस तरह वनस्पति का एक कीड़ा पहले एक पत्ती पर बैठता है और फिरइसे छोड़ कर दूसरी पत्ती पर जाता है उसी तरह जब बद्धजीव दूसरे शरीर का आश्रय ग्रहणकरता है तब पिछले शरीर को त्याग देता है।

    स्वप्ने यथा पश्यति देहमीहशंमनोरथेनाभिनिविष्ट चेतन: ।

    दृष्टश्रुताभ्यां मनसानुचिन्तयन्‌प्रपद्यते तत्किमपि हापस्मृति: ॥

    ४१॥

    स्वण्ने--सपने में; यथा--जिस तरह; पश्यति--देखता है; देहम्‌--शरीर का प्रकार; ईहशम्‌--उसी तरह; मनोरथेन--मानसिकचिन्तन द्वारा; अभिनिविष्ट--पूरी तरह लीन; चेतन: --चेतना से युक्त; दृष्ट--आँखों से देखकर जो अनुभव किया गया हो;श्रुताभ्यामू--तथा सुन करके; मनसा--मन से; अनुचिन्तयन्‌ू--सोचते, अनुभव करते तथा इच्छा करते हुए; प्रपद्यते--शरण मेंआता है; तत्‌--उस अवस्था तक; किम्‌ अपि--क्या कहा जा सकता है; हि--निस्सन्देह; अपस्मृति:--वर्तमान शरीर काविस्मरण।

    किसी परिस्थिति को देखकर या सुनकर ही मनुष्य उसके बारे में चिन्तन-मनन करता है और अपने इस शरीर का विचार न करते हुए उसके वशीभूत हो जाता है।

    इसी तरह मानसिक संतुलनद्वारा वह रात में भिन्न शरीरों तथा भिन्न परिस्थितियों में रहकर सपना देखता है और अपनीवास्तविक स्थिति को भूल जाता है।

    उसी प्रक्रिया के अन्तर्गत वह अपना वर्तमान शरीर त्यागकरदूसरा शरीर ग्रहण करता है ( तथा देहान्तरग्राप्ति: )।

    यतो यतो धावति दैवचोदितंमनो विकारात्मकमाप पञ्ञसु ।

    गुणेषु मायारचितेषु देह्मयसौप्रपद्ममान: सह तेन जायते ॥

    ४२॥

    यतः यतः--एक स्थान से दूसरे स्थान को या एक पद से दूसरे पद को; धावति--चिन्तन करता है; दैव-चोदितम्‌-- भाग्य द्वाराप्रेरित; मनः--मन; विकार-आत्मकम्‌--एक प्रकार के भावों से दूसरे प्रकार में बदलते हुए; आप--अन्त में प्राप्त करता है( प्रवृत्ति ); पञ्लसु--मृत्यु के समय ( जब भौतिक शरीर भौतिक पदार्थों में परिणत हो जाता है ); गुणेषु--( मुक्त न होने से मनसंलग्न रहता है ) भौतिक गुणों से; माया-रचितेषु--जहाँ माया वैसा ही शरीर रचती है; देही--ऐसा शरीर धारण करने वालाआत्मा; असौ--वह; प्रपद्यमान:--शरणागत ( ऐसी स्थिति को ); सह--साथ; तेन--वैसे ही शरीर के द्वारा; जायते--जन्म लेताहै

    मृत्यु के समय मनुष्य सकाम कर्मों में निहित मन के सोचने, अनुभव करने और चाहने केअनुसार ही शरीर-विशेष प्राप्त करता है।

    दूसरे शब्दों में, मन के कार्यकलापों के अनुसार हीशरीर विकास करता है।

    शरीर के परिवर्तन मन की चंचलता के कारण हैं अन्यथा आत्मा तो मूलआध्यात्मिक शरीर में रह सकता है।

    ज्योतिर्यथेवोदकपार्थिवेष्वदःसमीरवेगानुगतं विभाव्यते ।

    एवं स्वमायारचितेष्वसौ पुमान्‌गुणेषु रागानुगतो विमुहाति ॥

    ४३॥

    ज्योतिः--आकाश में सूर्य, चन्द्रमा तथा तारे; यथा--जिस तरह; एब--निस्सन्देह; उदक--जल में; पार्थिवेषु--या अन्य तरलपदार्थ यथा तैल में; अदः--प्रत्यक्ष रूप से; समीर-वेग-अनुगतम्‌--वायु के वेग से ठेला जाकर; विभाव्यते--विभिभन्न रूपों मेंप्रकट होते हैं; एवम्‌--उसी तरह; स्व-माया-रचितेषु--अपने मनोरथों से उत्पन्न परिस्थिति में; असौ--जीव; पुमान्‌ू--मनुष्य;गुणेषु-- प्रकृति के गुणों द्वारा प्रकट, भौतिक जगत में; राग-अनुगत:--अपनी आसक्ति के अनुसार; विमुह्मति--पहचान केद्वारा मोहग्रस्त होता है|

    जब आकाश में स्थित नक्षत्र जैसे सूर्य, चन्द्रमा तथा तारे तेल या जल जैसे तरल पदार्थों मेंप्रतिबिम्बित होते हैं, तो वायु के वेग के कारण वे विभिन्न आकारों के लगते हैं कभी गोल, कभीलम्बे तो कभी और कुछ।

    इसी तरह जब जीवात्मा भौतिकतावादी विचारों में मग्न रहता है, तोवह अज्ञान के कारण विविध रूपों को अपनी पहचान के रूप में ग्रहण करता है।

    दूसरे शब्दों में,प्रकृति के भौतिक गुणों से विचलित होने के कारण वह मनोरथों के द्वारा मोहग्रस्त हो जाता है।

    तस्मान्न कस्यचिद्द्रोहमाचरेत्स तथाविध: ।

    आत्मन: क्षेममन्विच्छन्द्रोग्धुव परतो भयम्‌ ॥

    ४४॥

    तस्मात्‌ू--अत:; न--नहीं; कस्यचित्‌--किसी की; द्रोहम्‌--ईर्ष्या; आचरेत्‌--आचरण करे; सः--पुरुष ( कंस ); तथा-विध:--( वसुदेव द्वारा ) इस प्रकार से उपदेश दिया गया; आत्मन: --अपना; क्षेमम्‌ू--कल्याण; अन्विच्छन्‌--चाहे तो; द्रोग्धु:--अन्यों से ईर्ष्या रखने वाले का; वै--निस्सन्देह; परत:--अन्यों से; भयम्‌-- भय का कारण होता है।

    चूँकि ईष्यालु एवं अपवित्र कार्य ऐसे शरीर का कारण बनते हैं जिससे अगले जीवन में कष्टभोगना पड़ता है इसलिए मनुष्य अपवित्र कार्य करे ही क्‍यों? अपने कल्याण को ध्यान में रखतेहुए मनुष्य को चाहिए कि वह किसी से ईर्ष्या न करे क्‍योंकि ईर्ष्यालु व्यक्ति को इस जीवन में याअगले जीवन में अपने शत्रुओं से सदा हानि का भय बना रहता है।

    एषा तवानुजा बाला कृपणा पुत्रिकोपमा ।

    हन्तुं नाहँसि कल्याणीमिमां त्वं दीनवत्सल: ॥

    ४५॥

    एषा--यह; तव--तुम्हारी; अनुजा--छोटी बहन; बाला--अबोध स्त्री; कृपणा--तुम पर आश्रित; पुत्रिका-उपमा--तुम्हारी हीपुत्री के समान; हन्तुमू-उसे मारना; न--नहीं; अर्हसि--तुम्हें चाहिए; कल्याणीम्‌--तुम्हारे स्नेहाधीन; इमाम्‌ू--इसको; त्वमू--तुम; दीन-वत्सल:ः--गरीब तथा अबोध पर अत्यन्त दयालु।

    तुम्हारी छोटी बहन बेचारी देवकी तुम्हारी पुत्री के समान है और वह लाड़-प्यार से पालेजाने योग्य है।

    तुम दयालु हो, अतः तुम्हें इसका वध नहीं करना चाहिए।

    निस्संदेह यह तुम्हारेस्नेह की पात्र है।

    श्रीशुक उबाचएवं स सामभिभभदेर्बो ध्यमानो पि दारुण: ।

    न न्यवर्तत कौरव्य पुरुषादाननुत्रतः ॥

    ४६॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस तरह; सः--वह ( कंस को ); सामभि:--समझाने-बुझाने केप्रयासों से; भेदै:--नैतिक उपदेश द्वारा कि वह अन्यों के प्रति क्रूर न बने; बोध्यमानः अपि--किये जाने पर भी; दारुण: --अत्यन्त क्रूर; न न्यवर्तत--नहीं माना ( जघन्य कार्य करने से ); कौरव्य--हे महाराज परीक्षित; पुरुष-अदान्‌--राक्षसों का;अनुव्रत:--अनुयायी |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे कुरुवंश में श्रेष्ठ, कंस अत्यंत क्रूर था और वास्तव में राक्षसोंका अनुयायी था।

    अतएव वसुदेव के सदुपदेशों से उसे न तो समझाया-बुझाया जा सकता था, नही भयभीत किया जा सकता था।

    उसे इस जीवन में या अगले जीवन में पापकर्मों के फलों कीकोई चिन्ता नहीं थी।

    निर्बन्धं तस्य त॑ ज्ञात्वा विचिन्त्यानकदुन्दुभि: ।

    प्राप्तं काल॑ प्रतिव्योदुमिदं तत्रान्वपद्यत ॥

    ४७॥

    निर्बन्धम्‌ू-करने के संकल्प को; तस्थ--उस ( कंस ) का; तमू--उस ( संकल्प ) को; ज्ञात्वा--जानकर; विचिन्त्य--गहराई सेसोचकर; आनकदुन्दुभि: --वसुदेव; प्राप्तम्‌--आया हुआ; कालम्‌--आसतन्न मृत्यु-संकट को; प्रतिव्योढुमू--ऐसे कार्यो से रोकनेके लिए; इृदम्‌ू--यह; तत्र--वहाँ; अन्वपद्यत--अन्य उपायों को सोचा |

    जब वसुदेव ने देखा कि कंस अपनी बहन देवकी को मार डालने पर तुला हुआ है, तो उसनेअपने मन में गम्भीरतापूर्वक सोचा।

    मृत्यु को आया हुआ देखकर उसने कंस को रोकने का दूसरा उपाय सोचा।

    मृत्युबुस्द्विमतापोह्यो यावह्ग॒त्द्िबलोदयम्‌ ।

    यद्यसौ न निवर्तेत नापराधोस्ति देहिन: ॥

    ४८ ॥

    मृत्यु:--मृत्यु; बुन्धि-मता--बुद्ध्धिमान व्यक्ति द्वारा; अपोह्म:--दूर रहना चाहिए; यावत्‌--जब तक; बुद्धि-बल-उदयम्‌--बुद्धितथा शारीरिक शक्ति रहते हुए; यदि--यदि; असौ--वह ( मृत्यु ); न निरवर्तेत--रोकी नहीं जा सकती; न--नहीं; अपराध: --अपराध; अस्ति--है; देहिन:--मृत्यु संकट में फँसे व्यक्ति का।

    बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि जब तक बुद्धि तथा शारीरिक पराक्रम रहे, तब तक मृत्यु सेबचने का प्रयास करता रहे।

    हर देहधारी का यही कर्तव्य है।

    यदि उद्यम करने पर भी मृत्यु कोटाला नहीं जा सके, तो मृत्यु को वरण करने वाला मनुष्य अपराधी नहीं है।

    प्रदाय मृत्यवे पुत्रान्मोचये कृपणामिमाम्‌ ।

    सुता मे यदि जायेरन्मृत्युर्वा न प्रियेत चेत्‌ ॥

    ४९॥

    विपर्ययो वा किं न स्थाद्‌गतिर्धातुर्दुरत्यया ।

    उपस्थितो निवर्तेत निवृत्त: पुनरापतेत्‌ ॥

    ५०॥

    प्रदाय--देने का वादा करके; मृत्यवे--देवकी के लिए कालस्वरूप कंस को; पुत्रान्‌--पुत्रों को; मोचये--आसन्न संकट सेछुड़ाने के लिए; कृपणाम्‌--निर्दोष; इमामू--देवकी को; सुता:--पुत्र; मे--मेरे; यदि--यदि; जायेरन्‌--उत्पन्न होंगे; मृत्यु: --कंस; वा--अथवा; न--नहीं; प्रियेत--मरना होगा; चेत्‌--यदि; विपर्यय: --इसके विपरीत; वा--अथवा; किम्‌--क्या; न--नहीं; स्थात्‌ू--हो सकता है; गति:ः--गति; धातुः--प्रारब्ध की; दुरत्यया--समझना मुश्किल है; उपस्थित:--अभी प्राप्त होनेवाला; निवर्तेत--रूक सकता है; निवृत्त:--देवकी की मृत्यु को रोकने पर; पुनः आपतेत्‌-- भविष्य में फिर हो सके ( तो मैं क्याकर सकता हूँ )

    वसुदेव ने विचार किया: मैं मृत्यु रूपी कंस को अपने सारे पुत्र देकर देवकी के प्राण बचासकता हूँ।

    हो सकता है कि कंस मेरे पुत्रों के जन्म के पूर्व ही मर जाए, या फिर जब उसे मेरे पुत्रके हाथों से मरना लिखा है, तो मेरा कोई पुत्र उसे मारे ही।

    इस समय मुझे चाहिए कि मैं कंस कोअपने सररे पुत्रों को सौंपने की प्रतिज्ञा कर लूँ जिससे कंस अपनी यह धमकी त्याग दे और यदिआगे चलकर कंस मर जाता है, तो फिर मुझे डरने की कोई बात नहीं रह जाती।

    अग्नेर्यथा दारुवियोगयोगयो-रहष्टतोउन्यन्न निमित्तमस्ति ।

    एवं हि जन्तोरपि दुर्विभाव्य:शरीरसंयोगवियोगहेतु: ॥

    ५१॥

    अग्नेः:--जंगल की आग का; यथा--जिस तरह; दारु--लकड़ी का; वियोग-योगयो:--संयोग तथा वियोग दोनों का;अदृष्टतः--अदृश्य प्रारब्ध की अपेक्षा; अन्यत्‌ू--कोई अन्य कारण या संयोग; न--नहीं; निमित्तम्‌--कारण; अस्ति--है;एवम्‌--इस प्रकार; हि--निश्चय ही; जन्तो: --जीव का; अपि--निस्सन्देह; दुर्विभाव्य:--पाया नहीं जा सकता; शरीर--शरीरका; संयोग--स्वीकृति; वियोग--परित्याग; हेतु:--कारण |

    जब किसी अदृश्य कारण से आग लकड़ी के एक टुकड़े से लपक कर दूसरे खंड को जलादेती है, तो इसका कारण प्रारब्ध है।

    इसी तरह जब जीव एक प्रकार का शरीर स्वीकार करकेदूसरे का परित्याग करता है, तो इसमें अहृश्य प्रारब्ध के अतिरिक्त कोई अन्य कारण नहीं होता।

    एवं विमृश्य तं पाप॑ यावदात्मनिदर्शनम्‌ ।

    पूजयामास वै शौरिर्हुमानपुरःसरम्‌ ॥

    ५२॥

    एवम्‌--इस प्रकार से; विमृश्य--सोच विचार कर; तमू--कंस को; पापम्‌ू--अत्यन्त पापी; यावत्‌--यथासम्भव; आत्मनि-दर्शनम्‌ू--अपनी बुद्धि भर, भरसक; पूजयाम्‌ आस--प्रशंसा की; बै--निस्सन्देह; शौरि:--वसुदेव ने; बहु-मान--सत्कार करतेहुए; पुरःसरम्‌--उसके सामने।

    इस तरह इस विषय पर अपनी बुद्धिसे भरपूर विचार करने के बाद वसुदेव ने पापी कंस केसमक्ष बड़े ही आदरपूर्वक अपना प्रस्ताव रखा।

    प्रसन्नवदनाम्भोजो नृशंसं निरपत्रपम्‌ ।

    मनसा दूयमानेन विहसन्निदमब्रवीत्‌ ॥

    ५३॥

    प्रसन्न-वदन-अम्भोज:--वसुदेव, जो बाहर से परम प्रसन्न लग रहे थे; नृशंसम्‌--अत्यन्त क्रूर; निरपत्रपम्‌--निर्लज्ज कंस को;मनसा--मन से; दूयमानेन--चिन्ता तथा दुख से पूर्ण; विहसन्‌--बाहर से हँसते हुए; इदम्‌ अब्नवीत्‌ू--इस प्रकार बोले |

    वसुदेव का मन चिन्ता से पूर्ण था क्योंकि उनकी पत्नी संकट में थीं, किन्तु क्रूर, निर्लज्जतथा पापी कंस को प्रसन्न करने के उद्देश्य से बनावटी हँसी लाते हुए वे इस प्रकार बोले।

    श्रीवसुदेव उबाचन हास्यास्ते भयं सौम्य यद्वै साहाशरीरवाक्‌ ।

    पुत्रान्समर्पयिष्येउस्यथा यतस्ते भयमुत्थितम्‌ ॥

    ५४॥

    श्री-वसुदेव: उबाच-- श्री वसुदेव ने कहा; न--नहीं; हि--निस्सन्देह; अस्या:--इससे ( देवकी से ); ते--तुम्हारा; भयम्‌-- भय;सौम्य--हे शालीन; यत्‌--जो; बै--निस्सन्देह; सा--वह; आह--बोली; अ-शरीर-वाक्‌ --बिना शरीर के वाणी; पुत्रानू--अपने सारे पुत्रों को; समर्पयिष्ये --तुम्हें सौंप दूँगा; अस्या:--इस देवकी के ; यत:ः--जिससे; ते--तुम्हारा; भयम्‌-- भय;उत्थितम्‌--उत्पन्न हुआ है|

    वसुदेव ने कहा : हे भद्ग-श्रेष्ठ, तुमने अहश्यवाणी से जो भी सुना है उसके लिए तुम्हें अपनीबहन देवकी से तनिक भी डरने की कोई बात नहीं है।

    तुम्हारी मृत्यु का कारण उसके पुत्र होंगेअतः मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि जब उसके पुत्र उत्पन्न होंगे, जिनसे तुम्हें डर है, तो उन सबकोलाकर मैं तुम्हें सौंप दिया करूँगा।

    श्रीशुक उबाचस्वसुर्वधान्निववृते कंसस्तद्वाक्यसारवित्‌ ।

    वसुदेवोपि तं प्रीत: प्रशस्य प्राविशद्‌गृहम्‌ ॥

    ५५॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; स्वसु:--अपनी बहन के ( देवकी के ); वधात्‌--वध से; निववृते--कुछकाल के लिए रुक गया; कंस:--कंस; तत्‌-वाक्य--वसुदेव के वचन; सार-वित्‌--सही जानकर; वसुदेव:--वसुदेव; अपि--भी; तम्‌ू--उसको ( कंस को ); प्रीत:--तुष्ट होकर; प्रशस्थ--अधिक सान्‍्त्वना देकर; प्राविशत्‌ गृहम्‌-- अपने घर में प्रवेशकिया।

    श्री शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : कंस वसुदेव के तर्कों से सहमत हो गया और वसुदेवके वचनों पर पूरा भरोसा करके उसने अपनी बहन को मारने का विचार छोड़ दिया।

    वसुदेव नेकंस से प्रसन्न होकर उसे और भी सान्त्वना दी और अपने घर में प्रवेश किया।

    अथ काल उपावृत्ते देवकी सर्वदेवता ।

    पुत्रान्प्रसुषुवे चाष्टी कन्यां चैवानुवत्सरम्‌ ॥

    ५६॥

    अथ--तत्पश्चात्‌; काले--समय बीतने पर; उपावृत्ते--परिपक्व होने पर; देवकी--कृष्ण के पिता वसुदेव की पत्नी ने; सर्व-देवता--देवकी, जिसके लिए सारे देवता तथा स्वयं भगवान्‌ प्रकट हुए; पुत्रान्‌--पुत्रों को; प्रसुषुवे--उत्पन्न किया; च--तथा;अष्टौ--आठ; कन्यां च--तथा एक कन्या सुभद्रा को भी; एब--निस्सन्देह; अनुवत्सरम्‌--वर्षानुवर्ष, प्रतिवर्ष |

    तत्पश्चात्‌ प्रति-वर्ष समय आने पर ईश्वर तथा अन्य देवताओं की माता देवकी ने एक शिशुको जन्म दिया।

    इस तरह एक के बाद एक उनके आठ पुत्र तथा सुभद्रा नामक एक कन्या उत्पन्नहुई।

    कीर्तिमन्तं प्रथमजं कंसायानकदुन्दुभि: ।

    अर्पयामास कृच्छेण सोउनृतादतिविहल: ॥

    ५७॥

    कीर्तिमन्तम्‌-कीर्तिमान नाम से; प्रथम-जम्‌--पहले पहल जन्मा शिशु; कंसाय--कंस को; आनकदुन्दुभि: --वसुदेव द्वारा;अर्पयाम्‌ आस--दे दिया गया; कृच्छेण --बड़ी मुश्किल से; सः--वह ( वसुदेव ); अनृतात्‌--झूठा बनने के भय से, वचन भंगकरने से; अति-विहलः--अत्यन्त भयभीत

    वसुदेव अत्यधिक विह्ल थे कि कहीं उनका वचन भंग हुआ तो वे झूठे साबित होंगे।

    इसतरह उन्होंने बड़ी ही वेदना के साथ अपने प्रथम पुत्र कीर्तिमान को कंस के हाथों में सौंप दिया।

    कि दुःसहं नु साधूनां विदुषां किमपेक्षितम्‌ ।

    किमकार्य कदर्याणां दुस्त्यजं कि धृतात्मनामू ॥

    ५८ ॥

    किमू--क्या; दुःसहम्‌--पीड़ाप्रद है; नु--निस्सन्देह; साधूनाम्‌ू--साधु पुरुषों के लिए; विदुषाम्‌--विद्वान पुरुषों के लिए; किम्‌अपेक्षितम्‌--क्या निर्भरता है; किम्‌ अकार्यम्‌-क्या मना है; कदर्याणाम्‌ू--अधम पुरुषों के लिए; दुस्त्यजमू--छोड़ पानाअत्यन्त कठिन; किमू--क्या; धृत-आत्मनाम्‌ू--स्वरूपसिद्ध व्यक्तियों के लिए

    वे साधु पुरुष जो सत्य पर अटल रहते हैं, उनके लिए कया पीड़ादायक है? उन शुद्ध भक्तोंके लिए जो भगवान्‌ को तत्त्व के रूप में जानते हैं, भला स्वतंत्रता क्यों नहीं होती ? निम्नचरित्रवाले पुरुषों के लिए कौन से कार्य वर्जित हैं ? जिन्होंने भगवान्‌ कृष्ण के चरणकमलों पर अपनेको पूरी तरह समर्पित कर दिया है वे कृष्ण के लिए भला कौन सी वस्तु नहीं त्याग सकते ?

    इृष्टा समत्वं तच्छौरे: सत्ये चेव व्यवस्थितिम्‌ ।

    कंसस्तुष्टमना राजन्प्रहसबन्निदमब्रवीत्‌ ॥

    ५९॥

    इष्ठा--देखकर; समत्वम्‌--सुख या दुख से अविचलित, समभाव से; तत्‌--उस; शौरे: --वसुदेव के; सत्ये--सत्य में; च--निस्सन्देह; एबव--निश्चय ही; व्यवस्थितिम्‌ू--हृढ़ परिस्थिति; कंस:ः--कंस ने; तुष्ट-मना:-- अत्यन्त संतुष्ट होकर ( अपना वचननिभाने के लिए पहली संतान लाकर सौंपने के वसुदेव के आचरण से ); राजन्‌--हे महाराज परीक्षित; प्रहसन्‌--हँसते हुए;इदम्‌--यह; अब्नवीत्‌--कहा |

    हे राजा परीक्षित, जब कंस ने देखा कि वसुदेव सत्य में स्थिर रहते हुए अपनी सन्तान उसेसौंपने में समभाव बने रहे, तो वह अत्यधिक प्रसन्न हुआ और उसने हँसते हुए यह कहा।

    प्रतियातु कुमारोयं न ह्ास्मादस्ति मे भयम्‌ ।

    अष्टमाद्युवयोर्गभन्मृत्युमें विहित: किल ॥

    ६०॥

    प्रतियातु--हे वसुदेव, अपने बच्चे को घर ले जाओ; कुमार:--नवजात शिशु; अयम्‌--यह; न--नहीं; हि--निस्सन्देह;अस्मात्‌--उससे; अस्ति-- है; मे--मेरा; भयम्‌-- भय; अष्टमात्‌--आठवें से; युवयो: --तुम पति-पत्नी दोनों के; गर्भात-गर्भसे; मृत्यु:--मृत्यु; मे--मेरा; विहित:--जो होना है; किल--निस्सन्देह |

    हे बसुदेव, तुम अपने बच्चे को वापस ले सकते हो और घर जा सकते हो।

    मुझे तो तुम्हारीऔर देवकी की आठवीं सन्तान से चिन्तित हूँ, जिसके हाथों मेरी मृत्यु लिखी है।

    तथेति सुतमादाय ययावानकदुन्दुभि: ।

    नाभ्यनन्दत तद्वाक्यमसतोविजितात्मन: ॥

    ६१॥

    तथा--बहुत अच्छा; इति--इस प्रकार; सुतम्‌ आदाय--अपने पुत्र को वापस लाकर; ययौ--उस स्थान से चला गया;आनकदुन्दुभि:--वसुदेव; न अभ्यनन्दत--बहुत महत्त्व नहीं दिया; तत्‌-वाक्यम्‌--उसके ( कंस के ) बचनों पर; असतः--चरित्रविहीन; अविजित-आत्मन:--तथा आत्मसंयमविहीन |

    वसुदेव मान गये और वे अपना पुत्र घर वापस ले आए, किन्तु कंस चरित्रहीन तथाआत्मसंयमविहीन व्यक्ति था अतएव वसुदेव जानते थे कि कंस के शब्दों का कोई भरोसा नहीं।

    नन्दाद्या ये ब्रजे गोपा याश्वामीषां च योषित: ।

    वृष्णयो वसुदेवाद्या देवक्याद्या यदुस्त्रियः ॥

    ६२॥

    सर्वे वै देवताप्राया उभयोरपि भारत ।

    ज्ञातयो बन्धुसुहदो ये च कंसमनुत्रता: ॥

    ६३॥

    नन्द-आद्या:--नन्द महाराज तथा अन्य लोग; ये--ये सभी; ब्रजे--वृन्दावन में; गोपा:--ग्वाले; या:-- जो; च--तथा;अमीषाम्‌--उन सबका ( वृन्दावनवासियों का ); च-- भी; योषित: --स्त्रियाँ; वृष्णय:--वृष्णिवंश के सदस्य; वसुदेव-आद्या:--वसुदेव इत्यादि; देवकी-आद्या:--देवकी इत्यादि; यदु-स्त्रियः--यदुवंश की स्त्रियाँ; सर्वे--सभी; वै--निस्सन्देह; देवता-प्राया:--स्वर्ग के निवासी थे; उभयो:--नन्द महाराज तथा वसुदेव दोनों के; अपि--निस्सन्देह; भारत--हे महाराज परीक्षित;ज्ञातय:--सम्बन्धीगण; बन्धु--सारे मित्र; सुहृदः--शुभेच्छु जन; ये--जो; च--तथा; कंसम्‌ अनुब्रता:--कंस के अनुयायी होतेहुए भी

    है भरतवंशियों में श्रेष्ठ, महाराज परीक्षित, नन्‍्द महाराज तथा उनके संगी ग्वाले तथा उनकीस्त्रियाँ स्वर्गलोक की ही वासी थीं।

    इसी तरह वसुदेव आदि वृष्णिवंशी तथा देवकी एवं यदुवंशकी अन्य स्त्रियाँ भी स्वर्गलोक की वासी थीं।

    नन्‍द महाराज तथा वसुदेव के मित्र, सम्बन्धी,शुभचिन्तक तथा ऊपर से कंस के अनुयायी लगने वाले व्यक्ति सभी देवता ही थे।

    एतत्कंसाय भगवाज्छशंसाभ्येत्य नारद: ।

    भूमेर्भारायमाणानां दैत्यानां च वधोद्यमम्‌ ॥

    ६४॥

    एतत्‌--यदु तथा वृष्णि वबंशों के विषय में ये शब्द; कंसाय--कंस के लिए; भगवान्‌--परमे श्वर का अत्यन्त शक्तिशालीप्रतिनिधि; शशंस--सूचना दी ( कंस को, जो संशय में था ); अभ्येत्य--निकट जाकर; नारद: --नारद मुनि ने; भूमेः-- भूमिपर;भारायमाणानाम्‌ू--जो भारस्वरूप हैं उनके; दैत्यानाम्‌ च--तथा असुरों के; वध-उद्यमम्‌--वध करने का प्रयास

    एक बार नारद मुनि कंस के पास गए और उसे यह बतलाया कि पृथ्वी के अत्यंतभारस्वरूप असुर व्यक्तियों का किस प्रकार वध किया जाने वाला है।

    इस तरह कंस अत्यधिकभय तथा संशय में पड़ गया।

    ऋषेरविनिर्गमे कंसो यदून्मत्वा सुरानिति ।

    देवक्या गर्भसम्भूतं विष्णुं च स्वव्ध॑ प्रति ॥

    ६५॥

    देवकीं वसुदेवं च निगृहय निगडैर्गृहि ।

    जात॑ जातमहन्पुत्रं तयोरजनशड्डया ॥

    ६६॥

    ऋषे:--नारद ऋषि के; विनिर्गमे--चले जाने पर; कंस:ः--कंस ने; यदून्‌ू--समस्त यदुवंशियों को; मत्वा--सोचकर; सुरान्‌--देवता के रूप में; इति--इस तरह; देवक्या:--देवकी के; गर्भ-सम्भूतम्‌--गर्भ से उत्पन्न संतानें; विष्णुम्‌--विष्णु के रूप मेंस्वीकार करते हुए; च--तथा; स्व-वधम्‌ प्रति--विष्णु से अपनी मृत्यु के भय से; देवकीम्‌--देवकी को; वसुदेवम्‌ च--तथाउसके पति वसुदेव को; निगृहा--बन्दी बनाकर; निगडै:--लोहे की जंजीरों से; गृहे--घर पर ही; जातम्‌ जातमू--एक के बादएक उत्पन्न होने वाले; अहन्‌--मार डाला; पुत्रमू-पुत्रों को; तयो:--वसुदेव तथा देवकी के; अजन-शड्डूया--इस भय से कि वेविष्णु न हों।

    नारद ऋषि के चले जाने पर कंस ने सोचा कि यदुवंश के सारे लोग देवता हैं और देवकी केगर्भ से जन्म लेने वाली कोई भी सन्तान विष्णु हो सकती है।

    अतः अपनी मृत्यु के भय से कंस नेवसुदेव तथा देवकी को बन्दी बना लिया और उनके लोहे की जंजीरें डाल दीं।

    कंस ने इसभविष्यवाणी से सशंकित होकर कि विष्णु उसका वध करेंगे, हर सन्‍्तान को इस आशंका से किवह कहीं विष्णु न हो, एक एक करके मार डाला।

    मातरं पितरं भ्रातृन्सर्वाश्व॒ सुहृदस्तथा ।

    घ्नन्ति हासुतृपो लुब्धा राजान: प्रायशों भुवि ॥

    ६७॥

    मातरम्‌ू--माता को; पितरम्‌--पिता को; भ्रातृनू-- भाइयों को; सर्वान्‌ च--सबको; सुहृद: --मित्रगण; तथा-- भी; घ्नन्ति--मारते हैं; हि--निस्सन्देह; असु-तृप:--जो अपनी इन्द्रियों के लिए अन्यों से ईर्ष्या करते हैं; लुब्धा:--लालची; राजान:--ऐसेराजा; प्रायशः--प्राय:; भुवि--पृथ्वी पर

    इस पृथ्वी पर इन्द्रियतृप्ति के लालची राजा प्राय: सदा अपने शत्रुओं का अंधाधुंध वध करतेहैं।

    वे अपनी सनक की पूर्ति के लिए किसी का भी, यहाँ तक कि अपनी माता, पिता, भाइयोंया मित्रों का भी वध कर सकते हैं।

    आत्मानमिह सज्ञातं जानन्प्राग्विष्णुना हतम्‌ ।

    महासुरं कालनेमिं यदुभिः स व्यरुध्यत ॥

    ६८॥

    आत्मानम्‌--स्वयं; इह--इस संसार में; सझ्ञातम्‌--पुनः जन्म लेकर; जानन्‌-- भलीभाँति जानते हुए; प्राकु--इस जन्म के पूर्व;विष्णुना-- भगवान्‌ विष्णु द्वारा; हतम्‌--मारा गया था; महा-असुरम्‌--बड़े असुर; कालनेमिम्‌--कालनेमि को; यदुभि:--यदुवंश के सदस्यों के साथ; सः--उस ( कंस ) ने; व्यरुध्यत--शत्रुवत्‌ व्यवहार किया।

    पूर्व जन्म में कंस कालनेमि नाम का महान्‌ असुर था और विष्णु द्वारा मारा गया था।

    नारद से यह जानकर कंस यदुवंश से सम्बन्धित हर किसी से द्वेष करने लगा।

    उपग्रसेनं च पितरं यदुभोजान्धकाधिपम्‌ ।

    स्वयं निगृह्ाय बुभुजे शूरसेनान्‍्महाबल: ॥

    ६९॥

    उग्रसेनम्‌--उग्रसेन को; च--तथा; पितरम्‌--अपने पिता को; यदु--यदुवंशी; भोज-- भोजवंशी; अन्धक --अन्धकवंशी;अधिपम्‌--राजा को; स्वयम्‌--स्वयं; निगृह्य--दमन करके; बुभुजे-- भोग किया; शूरसेनान्‌ू--शूरसेन कहलाने वाले समस्तराज्य; महा-बलः--अत्यन्त बलशाली कंस ने

    उग्रसेन के अत्यन्त बलशाली पुत्र कंस ने अपने पिता तक को, जो यदु, भोज तथा अंधकवबंशों का राजा था, बन्दी बना लिया और शूरसेन नामक राज्यों का शासन स्वयं चलाने लगा।

    अध कंस उपागम्य नारदो ब्रह्मनन्दन: ।

    एकान्तमुपसंगम्य वाक्यमेतदुवाच ह॥

    ७०॥

    अथ--इस प्रकार; कंसम्‌--कंस के पास; उपागम्य--जाकर; नारदः--महामुनि नारद; ब्रह्मनन्दनः--ब्रह्माजी के पुत्र;एकान्तमुपसंगम्य--एकान्त स्थान में जाकर; वाक्यम्‌--सूचना; एतत्‌--यह; उवाच--कहा; ह--निश्चित रूप से।

    ‘तत्पश्चात्‌ ब्रह्म के मानस पुत्र नारद कंस के पास गये और एकान्त स्थान में उन्होंने उसेनिम्नलिखित जानकारी दी।

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    अध्याय दो: गर्भ में भगवान कृष्ण के लिए देवताओं द्वारा प्रार्थना

    10.2श्रीशुक उबाचप्रलम्बबकचाणूरतृणावर्तमहाशनै:॥

    मुष्टिकारिष्टद्विविदपूतनाकेशी धेनुकै: ॥

    १॥

    अन्यैश्वासुरभूपालैर्बाणभौमादिभिर्युत: ।

    यदूनां कदनं चक्रे बली मागधसंभ्रय: ॥

    २॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; प्रलम्ब--प्रलम्ब नामक असुर; बक--बक नामक असुर; चाणूर--चाणूरनामक असुर; तृणावर्त--तृणावर्त नामक असुर; महाशनैः--अघासुर द्वारा; मुपष्टिक--मुष्टिक नामक असुर; अरिषप्ट--अरिष्ट असुर;द्विविद--द्विविद असुर जैसे; पूतना--पूतना; केशी--केशी; धेनुकैः--धेनुक द्वारा; अन्य: च--तथा अन्यों द्वारा; असुर-भूपालै:--पृथ्वी पर असुर राजाओं द्वारा; बाण--बाण असुर; भौम--भौमासुर; आदिभि:--इत्यादि के द्वारा; युतः--से सहायताप्राप्त करके; यदूनाम्‌--यदुबंश के राजाओं का; कदनम्‌--उत्पीड़न; चक्रे --किया; बली--अत्यन्त शक्तिशाली; मागध-संश्रयः--मगध के राजा जरासन्ध के संरक्षण में।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : मगधराज जरासंध के संरक्षण में शक्तिशाली कंस द्वारा यदुवंशीराजाओं को सताया जाने लगा।

    इसमें उसे प्रलम्ब, बक, चाणूर, तृणावर्त, अघासुर, मुष्टिक,अरिष्ट, द्विविद, पूतना, केशी, धेनुक, बाणासुर, नरकासुर तथा पृथ्वी के अनेक दूसरे असुरराजाओं का सहयोग प्राप्त था।

    ते पीडिता निविविशु: कुरुपज्ञालकेकयान्‌ ।

    शाल्वान्विदर्भात्नेषधान्विदेहान्कोशलानपि ॥

    ३॥

    ते--यदुवंशी राजा; पीडिता:--सताये हुए; निविविशु:--राज्यों में घुस आये; कुरु-पञ्ञाल--कुरुओं तथा पंचालों द्वाराअधिकृत देशों में; केकयान्‌ू--केकयों के देश; शाल्वान्‌--शाल्वों द्वारा अधिकृत देश; विदर्भान्‌ू--विदर्भो द्वारा अधिकृत देश;निषधान्‌--निषधों द्वारा अधिकृत देश; विदेहान्‌--विदेहों का देश; कोशलान्‌ अपि--कोशलों द्वारा अधिकृत देशों में भी

    असुर राजाओं द्वारा सताये जाने पर यादवों ने अपना राज्य छोड़ दिया और कुरुओं, पश्ञालों,केकयों, शाल्वों, विदर्भो, निषधों, विदेहों तथा कोशलों के राज्य में प्रविष्ट हुए।

    एके तमनुरुन्धाना ज्ञातय: पर्युपासते ।

    हतेषु घट्सु बालेषु देवक्‍्या औग्रसेनिना ॥

    ४॥

    सप्तमो वैष्णवं धाम यमनन्तं प्रचक्षते ।

    गर्भो बभूव देवक्या हर्षशोकविवर्धन: ॥

    ५॥

    एके--कुछ; तम्‌--उस कंस को; अनुरुन्धाना:--अपनी नीति का पालन करने वाले; ज्ञातय:--सम्बन्धीजन; पर्युपासते--उसकीहाँ में हाँ मिलाने लगे; हतेषु--मारे जाकर; षट्सु--छः ; बालेषु--बालक; देवक्या:--देवकी द्वारा उत्पन्न; औग्रसेनिना--उग्रसेनके पुत्र ( कंस ) द्वारा; सप्तम:--सातवाँ; वैष्णवम्‌--भगवान्‌ विष्णु के; धाम--अंश; यम्‌--जिसको; अनन्तम्‌-- अनन्त नाम से;प्रचक्षते--विख्यात है; गर्भ:--गर्भ; बभूव-- था; देवक्या:--देवकी का; हर्ष-शोक-विवर्धन:--एकसाथ हर्ष तथा शोक कोबढ़ाने वाला।

    किन्तु उनके कुछ सम्बन्धी कंस के इशारों पर चलने लगे और उसकी नौकरी करने लगे।

    जब उग्रसेन का पुत्र कंस देवकी के छह पुत्रों का वध कर चुका तो देवकी के गर्भ में कृष्ण कास्वांश प्रविष्ट हुआ जिससे उसमें कभी सुख की तो कभी दुख की वृद्धि होती।

    यह स्वांश महान्‌मुनियों द्वारा अनन्त नाम से जाना जाता है और कृष्ण के द्वितीय चतुर्व्यूह से सम्बन्धित है।

    भगवानपि विश्वात्मा विदित्वा कंसजं भयम्‌ ।

    यदूनां निजनाथानां योगमायां समादिशत्‌ ॥

    ६॥

    भगवानू-- श्रीकृष्ण ने; अपि-- भी; विश्वात्मा--हर एक का परमात्मा; विदित्वा--यदुओं तथा उनके अन्य भक्तों की स्थितिजानकर; कंस-जम्‌--कंस के कारण; भयम्‌--डर; यदूनाम्‌--यदुओं के; निज-नाथानाम्‌--अपने परम आश्रय स्वरूप;योगमायाम्‌--कृष्ण की आध्यात्मिक शक्ति योगमाया को; समादिशत्‌--आदेश दिया।

    कंस के आक्रमण से अपने निजी भक्त, यदुओं, की रक्षा करने के लिए विश्वात्मा भगवान्‌ नेयोगमाया को इस प्रकार आदेश दिया।

    गच्छ देवि ब्र॒जं भद्गे गोपगोभिरलड्डू तम्‌ ।

    रोहिणी वसुदेवस्य भार्यास्ते नन्दगोकुले ।

    अन्याश्व कंससंविग्ना विवरेषु वसन्ति हि ॥

    ७॥

    गच्छ--अब जाओ; देवि--हे समस्त जगत की पूज्या; ब्रजम्‌्--व्रज भूमि में; भद्रे--हे समस्त जीवों का कल्याण करनेवाली;गोप-गोभि:-ग्वालों तथा गायों के साथ; अलड्डू तम्‌--अलंकृत, सज्जित; रोहिणी--रोहिणी; वसुदेवस्थ--कृष्ण के पितावसुदेव की; भार्या--पत्रियों में से एक; आस्ते--रह रही है; नन्द-गोकुले--गोकुल नाम से विख्यात महाराज नन्द के राज्य मेंजहाँ लाखों गायें पाली जाती हैं; अन्या: च--तथा अन्य पत्नियाँ; कंस-संविग्ना:--कंस के भय से; विवरेषु--एकान्त स्थानों में;वसन्ति--रह रही हैं; हि--निस्सन्देह।

    भगवान्‌ ने योगमाया को आदेश दिया: हे समस्त जगत द्वारा पूज्या तथा समस्त जीवों कोसौभाग्य प्रदान करने वाली शक्ति, तुम ब्रज जाओ जहाँ अनेक ग्वाले तथा उनकी पत्नियाँ रहतीहैं।

    उस सुन्दर प्रदेश में जहाँ अनेक गौवें निवास करती हैं, वसुदेव की पत्नी रोहिणी नन्द महाराजके घर में रह रही हैं।

    वसुदेव की अन्य पत्लियाँ भी कंस के भय से वहीं अज्ञातवास कर रही हैं।

    कृपा करके वहाँ जाओ।

    देवक्या जठरे गर्भ शेषाख्यं धाम मामकम्‌ ।

    तत्सन्निकृष्य रोहिण्या उदरे सन्निवेशय ॥

    ८॥

    देवक्या:--देवकी के; जठरे--गर्भ में; गर्भभ्‌-- भ्रूण; शेष-आख्यम्‌--कृष्ण के अंश, शेष नाम से विख्यात; धाम--अंश;मामकमू--मेरा; तत्‌ू--उसको; सन्निकृष्य--निकाल करके; रोहिण्या:--रोहिणी के; उदरे--गर्भ के भीतर; सन्निवेशय--बिनाकठिनाई के स्थानान्तरित करो ।

    देवकी के गर्भ में संकर्षण या शेष नाम का मेरा अंश है।

    तुम उसे बिना किसी कठिनाई केरोहिणी के गर्भ में स्थानान्तरित कर दो।

    अथाहमंशभागेन देवक्या: पुत्रतां शुभे ।

    प्राप्स्यामि त्वं यशोदायां नन्दपत्न्यां भविष्यसि ॥

    ९॥

    अथ--त्पश्चात्‌; अहम्‌ू-मैं; अंश-भागेन--अपने अंश द्वारा; देवक्या:--देवकी का; पुत्रतामू--पुत्र; शुभे--हे कल्याणीयोगमाया; प्राप्स्थामि--बनूँगा; त्वमू--तुम; यशोदायाम्‌--माता यशोदा के गर्भ में; नन्द-पत्याम्‌--महाराज नन्द की पत्नी;भविष्यसि--तुम भी प्रकट होगी |

    हे सर्व-कल्याणी योगमायातब मैं अपने छहों ऐश्वर्यों से युक्त होकर देवकी के पुत्र रूप मेंप्रकट होऊँगा और तुम महाराज नन्द की महारानी माता यशोदा की पुत्री के रूप में प्रकट होगी।

    अर्चिष्यन्ति मनुष्यास्त्वां सर्वकामवरेश्वरीम्‌ ।

    धूपोपहारबलिभि: सर्वकामवरप्रदाम्‌ ॥

    १०॥

    अर्चिष्यन्ति-- पूजा करेंगे; मनुष्या:--मानव समाज; त्वाम्‌--तुम को; सर्व-काम-वर-ई श्वरीम्‌--सारी भौतिक इच्छाओं को पूराकरने वाले देवताओं में सर्वश्रेष्ठ होने से; धूप--सुगन्धित द्रव्य से; उपहार-- भेंट से; बलिभि:--यज्ञ द्वारा विविध प्रकार की पूजासे; सर्व-काम--सारी भौतिक इच्छाओं में से; वर--आशीर्वाद; प्रदामू--प्रदान कर सकने वाली |

    सामान्य लोग पशुओं की बलि करके विविध सामग्री से तुम्हारी भव्य पूजा करेंगे क्योंकितुम हर एक की भौतिक इच्छाएँ पूरी करने में सर्वोपरि हो।

    नामधेयानि कुर्वन्ति स्थानानि च नरा भुवि ।

    दुर्गेति भद्रकालीति विजया वैष्णवीति च ॥

    ११॥

    कुमुदा चण्डिका कृष्णा माधवी कन्यकेति च ।

    माया नारायणीशानी शारदेत्यम्बिकेति च ॥

    १२॥

    नामधेयानि--विभिन्न नाम; कुर्वन्ति--देंगे; स्थानानि--विभिन्न स्थानों में; च-- भी; नराः--भौतिक भोग में रुचि रखने वालेलोग; भुवि-- पृथ्वी पर; दुर्गा इति--दुर्गा नाम; भद्रकाली इति--भद्गरकाली नाम; विजया--विजया नाम; वैष्णवी इति--वैष्णबीनाम; च--भी; कुमुदा--कुमुदा; चण्डिका--चण्डिका; कृष्णा--कृष्णा; माधवी--माधवी; कन्यका इति--कन्यका या'कन्याकुमारी; च-- भी; माया--माया; नारायणी -- नारायणी; ईशानी--ईशानी; शारदा--शारदा; इति--इस प्रकार;अम्बिका--अम्बिका; इति-- भी; च-- तथा |

    भगवान्‌ कृष्ण ने मायादेवी को यह कहकर आशीर्वाद दिया: लोग तुम्हें पृथ्वी पर विभिन्नस्थानों में विभिन्न नामों से पुकारेंगे--यथा दुर्गा, भद्रकाली, विजया, वैष्णवी, कुमुदा, चण्डिका,कृष्णा, माधवी, कनन्‍्यका, माया, नारायणी, ईशानी, शारदा तथा अम्बिका।

    गर्भसड्रूर्षणात्तं वै प्राहु: सड्डूर्षणं भुवि ।

    रामेति लोकरमणाद्वलभद्रं बलोच्छुयात्‌ ॥

    १३॥

    गर्भ-सड्डूर्षणात्‌ू--देवकी के गर्भ से निकाल कर रोहिणी के गर्भ में पहुँचाये जाने के कारण; तमू--उसको ( रोहिणीनन्दन को );बै--निस्सन्देह; प्राहु:--लोग कहेंगे; सड्डर्षणम्‌--संकर्षण को; भुवि--संसार में; राम इति--राम कहलाएगा; लोक-रमणात्‌--लोगों को भक्त बनने में समर्थ बनाने से; बलभद्रमू--बलभद्र कहलाएगा; बल-उच्छुयात्‌-- प्रचुर बल के कारण।

    देवकी के गर्भ से निकाल कर रोहिणी के गर्भ में भेजे जाने के कारण रोहिणी का पुत्रसंकर्षण भी कहलाएगा।

    वह गोकुल के सारे निवासियों को प्रसन्न रखने की क्षमता होने केकारण राम कहलाएगा और अपनी प्रचुर शारीरिक शक्ति के कारण बलभद्र कहलाएगा।

    सन्दिष्टेब भगवता तथेत्योमिति तद्बच: ।

    प्रतिगृह्य परिक्रम्य गां गता तत्तथाकरोत्‌ ॥

    १४॥

    सन्दिष्टा--आदेश दिये जाने पर; एवम्‌--इस प्रकार; भगवता-- भगवान्‌ द्वारा; तथा इति--ऐसा ही हो; ३४--३% मंत्र; इति--इस प्रकार; तत्‌-वच: --उनके शब्द; प्रतिगृह्य--मानकर; परिक्रम्य--उनकी परिक्रमा करके; गाम्‌--पृथ्वी पर; गता--तुरन्तचली गई; तत्‌-- भगवान्‌ द्वारा दिया गया आदेश; तथा--उसी तरह; अकरोत्‌--किया

    भगवान्‌ से इस तरह आदेश पाकर योगमाया ने उसे तुरन्त स्वीकार कर लिया।

    उसने वैदिकमंत्र ३७ के साथ पुष्टि की कि उससे जो कहा गया है उसे वह करेगी।

    इसके बाद उसने पूर्णपुरुषोत्तम भगवान्‌ की परिक्रमा की और वह पृथ्वी पर स्थित नन्दगोकुल नामक स्थान के लिएचल पड़ी।

    वहाँ उसने वैसा ही किया जैसा कि उसे आदेश मिला था।

    गर्भ प्रणीते देवक्‍्या रोहिणीं योगनिद्रया ।

    अहो विस्त्रंसितो गर्भ इति पौरा विचुक्रुशु: ॥

    १५॥

    गर्भे--जब गर्भ; प्रणीते--ले जाया गया; देवक्या:--देवकी का; रोहिणीम्‌--रोहिणी के गर्भ में; योग-निद्रया --योगमाया द्वारा;अहो--हाय; विस्त्रंसित:--नष्ट हो गया; गर्भ:--गर्भ; इति--इस प्रकार; पौरा:--घर के रहने वाले; विचुक्रुशु:--विलाप करनेलगे

    जब योगमाया द्वारा देवकी का बालक खींच करके रोहिणी के गर्भ में स्थानान्तरित करदिया गया तो देवकी को लगा कि उसे गर्भपात हो गया।

    फलतः महल के सारे निवासी जोर-जोरसे यह कहकर विलाप करने लगे, ‘हाय! देवकी का बच्चा जाता रहा।

    ' भगवानपि विश्वात्मा भक्तानामभयड्डूरः ।

    आविवेशांशभागेन मन आनकदुन्दुभे: ॥

    १६॥

    भगवान्‌-- भगवान्‌; अपि-- भी ; विश्वात्मा-- सारे जीवों के परमात्मा; भक्तानाम्‌--अपने भक्तों के; अभयम्‌-करः--भय केकारण को मारने वाले; आविवेश--प्रविष्ट हो गये; अंश-भागेन--अपने सारे ऐश्वर्यों के साथ ( षडैश्चर्यपूर्ण ); मनः--मन में;आनकदुन्दुभे:-- वसुदेव के मन में

    इस तरह समस्त जीवों के परमात्मा तथा अपने भक्तों के भय को दूर करने वाले पूर्णपुरुषोत्तम भगवान्‌ वसुदेव के मन में अपने पूर्ण ऐश्वर्य के समेत प्रविष्ट हो गये।

    स बिशभ्चत्पौरुषं धाम भ्राजमानो यथा रवि: ।

    दुरासदोतिदुर्धर्षो भूतानां सम्बभूव ह ॥

    १७॥

    सः--वह ( वसुदेव ); बिभ्रत्‌-- धारण किये हुए; पौरुषम्‌--परम पुरुष सम्बन्धी; धाम-- आध्यात्मिक तेज; भ्राजमान:--प्रकाशमान; यथा--जिस तरह; रविः--सूर्य-प्रकाश; दुरासद: --देखे जाने में भी अत्यन्त कठिन; अति-दुर्धर्ष:-- अत्यन्तकठिनाई से पास पहुँचने योग्य; भूतानाम्‌--समस्त जीवों में; सम्बभूव--बन गया; ह--निश्चित रुप से

    वसुदेव अपने हृदय के भीतर भगवान्‌ के स्वरूप को धारण किये हुए भगवान्‌ के दिव्यप्रकाशमान तेज को वहन कर रहे थे जिसके कारण वे सूर्य के समान चमकीले बन गये।

    अतःउनकी ओर लौकिक दृष्टि द्वारा देखना या उन तक पहुँचना कठिन था, यहाँ तक कि वे कंस जैसेपराक्रमी व्यक्ति के लिए ही नहीं, अपितु सारे जीवों के लिए भी दुर्धर्ष थे।

    ततो जगन्मड्रलमच्युतांशं समाहित शूरसुतेन देवी ।

    दधार सर्वात्मकमात्मभूत॑काष्ठा यथानन्दकरं मनस्तः ॥

    १८॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; जगत्‌-मड्नलम्‌--ब्रह्माण्ड भर के जीवों के लिए मंगल; अच्युत-अंशम्‌-- भगवान्‌ जो अपने अंशों में उपस्थितछह ऐश्वर्यों से कभी वियुक्त नहीं होते; समाहितम्‌--पूरी तरह स्थानान्तरित; शूर-सुतेन--शूरसेन के पुत्र बसुदेव द्वारा; देवी --देवकी देवी ने; दधार--वहन किया; सर्व-आत्मकम्‌--सबों के परमात्मा; आत्म-भूतम्‌--समस्त कारणों के कारण; काष्ठा--पूर्व दिशा; यथा--जिस तरह; आनन्द-करम्‌--आनन्दमय ( चन्द्रमा ); मनस्त:--मन के भीतर स्थित होने से |

    तत्पश्चात्‌ परम तेजस्वी, सम्पूर्ण जगत के लिए सर्वमंगलमय समस्त ऐश्वर्यों से युक्त भगवान्‌अपने स्वांशों समेत वसुदेव के मन से देवकी के मन में स्थानान्तरित कर दिये गये।

    इस तरहबसुदेव से दीक्षा प्राप्त करने से देबकी सबों की आदि चेतना, समस्त कारणों के कारण भगवान्‌कृष्ण को अपने अन्तःकरण में धारण करने के कारण सुन्दर बन गईं जिस तरह उदित चन्द्रमाको पाकर पूर्व दिशा सुन्दर बन जाती है।

    सा देवकी सर्वजगन्निवास-निवासभूता नितरां न रेजे ।

    भोजेन्द्रगेहे ईग्निशिखेव रुद्धासरस्वती ज्ञाखले यथा सती ॥

    १९॥

    सा देवकी --वह देवकी देवी; सर्व-जगत्‌-निवास--सारे ब्रह्माण्ड को धारण करने वाले भगवान्‌ का ( मत्स्थानि सर्वभूतानि );निवास-भूता--देवकी की कुक्षि अब निवास बनी हुई है; नितराम्‌--विस्तार से; न--नहीं; रेजे-- प्रकाशमान हो उठा; भोजेन्द्र-गेहे--कंस के घर की चहारदीवारी के भीतर; अग्नि-शिखा इब--आग की लपटों के समान; रुद्धा--ढकी हुई; सरस्वती--विद्या; ज्ञान-खले--ज्ञान-खल नामक व्यक्ति में, ऐसे व्यक्ति में जो ज्ञान होने पर भी उसको वितरित नहीं करता; यथा--जिसतरह; सती--होकर भी |

    तब देवकी ने समस्त कारणों के कारण, समग्र ब्रह्माण्ड के आधार भगवान्‌ को अपने भीतररखा किन्तु कंस के घर के भीतर बन्दी होने से वे किसी पात्र की दीवालों से ढकी हुई अग्नि कीलपटों की तरह या उस व्यक्ति की तरह थीं जो अपने ज्ञान को जनसमुदाय के लाभ हेतु वितरितनहीं करता।

    तां वीक्ष्य कंसः प्रभयाजितान्तरांविरोचयन्तीं भवनं शुचिस्मिताम्‌ ।

    आषैष मे प्राणहरो हरिगटहांश्रुवं अ्रितो यन्न पुरेयमीहशी ॥

    २०॥

    ताम्‌--उस देवकी को; वीक्ष्य--देखकर; कंस:--उसके भाई कंस ने; प्रभया--उसके सौन्दर्य और प्रभाव के बढ़ने से; अजित-अन्तरामू--अजित या भगवान्‌ विष्णु को अपने भीतर रखने के कारण; विरोचयन्तीम्‌--प्रकाशित करती हुई; भवनम्‌--घर केसमूचे वातावरण को; शुचि-स्मिताम्‌--हँसती हुई तथा तेजस्वी; आह--अपने आप कहा; एष: --यह ( परम पुरुष ); मे--मेरा;प्राण-हर:--मेरी जान लेनेवाले; हरिः-- भगवान्‌ विष्णु ने; गुहामू--देवकी के गर्भ में; ध्रुवम्‌--निश्चित रूप से; भ्रितः--शरणली है; यत्‌--क्योंकि; न--नहीं थी; पुरा--पहले; इयम्‌-- देवकी; ईहशी--इस तरह

    गर्भ में भगवान्‌ के होने से देवकी जिस स्थान में बन्दी थीं वहाँ के सारे वातावरण को वेआलोकित करने लगीं।

    उसे प्रसन्न, शुद्ध तथा हँसमुख देखकर कंस ने सोचा, इसके भीतरस्थित भगवान्‌ विष्णु अब मेरा वध करेंगे।

    इसके पूर्व देवकी कभी भी इतनी तेजवान तथा प्रसन्ननहीं दिखी।

    किमद्य तस्मिन्करणीयमाशु मेयदर्थतन्त्रो न विहन्ति विक्रमम्‌ ।

    स्त्रिया: स्वसुर्गुरुमत्या वधोयंयश: श्रियं हन्त्यनुकालमायु: ॥

    २१॥

    किम्‌--क्या; अद्य--अब तुरन्त; तस्मिनू--इस स्थिति में; करणीयम्‌--करने योग्य; आशु--बिना बिलम्ब किये; मे--मेराकर्तव्य; यत्‌ू-क्योंकि; अर्थ-तन्त्र:-- भगवान्‌, जो साधुओं की रक्षा करने तथा असाधुओं का वध करने के लिए कृतसंकल्प हैं;न--नहीं; विहन्ति--त्यागते हैं; विक्रमम्‌-- अपने पराक्रम को; स्त्रिया:--स्त्री का; स्वसु:--बहन का; गुरु-मत्या:--विशेषरूपसे जब वह गर्भवती है; वध: अयम्‌--वध; यश:ः--यश; श्रियम्‌ू--ऐश्वर्य; हन्ति--नष्ट हो जाएगा; अनुकालम्‌--हमेशा के लिए;आयुः--तथा उप्र |

    कंस ने सोचा: अब मुझे क्‍या करना चाहिए? अपना लक्ष्य जानने वाले भगवान्‌( परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌ ) अपना पराक्रम त्यागने वाले नहीं हैं।

    देवकी स्त्रीहै, वह मेरी बहन है और गर्भवती भी है।

    यदि मैं उसे मार डालूँ तो मेरे यश, ऐश्वर्य तथा आयुनिश्चित रूप से नष्ट हो जाएँगे।

    स एष जीवन्खलु सम्परेतोवर्तेत योउत्यन्तनृशंसितेन ।

    देहे मृते तं मनुजा: शपन्तिगन्ता तमोउन्धं तनुमानिनो श्रुवम्‌ ॥

    २२॥

    सः--वह; एषः--वह ईर्ष्यालु व्यक्ति; जीवन्‌ू--जीवित रहते हुए; खलु-- भी; सम्परेत:--मृत है; वर्तेत--जीवित रह रहा है;यः--जो; अत्यन्त--अत्यधिक; नृशंसितेन--क्रूर कर्मो द्वारा; देहे--शरीर होने पर; मृते--समाप्त हो जाता है; तमू--उसको;मनुजा:--सारे मनुष्य; शपन्ति--निन्दा करते हैं; गन्ता--जाएगा; तमः अन्धम्‌ू--नारकीय जीवन को; तनु-मानिन:--देहात्मबो धवाले व्यक्ति के; ध्रुवम्‌--कोई सन्देह नहीं ॥

    अत्यधिक क्रूर व्यक्ति को जीवित रहते हुए भी मृत माना जाता है क्योंकि उसके जीवित रहतेहुए या उसकी मृत्यु के बाद भी हर कोई उसकी निन्दा करता है।

    देहात्मबुद्धिवाला व्यक्ति मृत्यु केबाद भी अन्धतम नरक को भेजा जाता है, इसमें कोई सन्देह नहीं।

    इति घोरतमाद्धावात्सत्रिवृत्त: स्वयं प्रभु: ।

    आत्ते प्रती क्ष॑स्तज्जन्म हरेवैंरानुबन्धकृत्‌ ॥

    २३॥

    इति--इस तरह उपर्युक्त विधि से सोचते हुए; घोर-तमात्‌ भावात्‌--अपनी बहन को किस तरह मारे इस अत्यन्त जघन्य विचार से;सन्निवृत्त:--विलग रहकर; स्वयम्‌--स्वयं विचार करके; प्रभु:--पूर्णज्ञान में ( कंस ); आस्ते--रहता रहा; प्रतीक्षन्‌ू--उस क्षणकी प्रतीक्षा करते हुए; तत्‌-जन्म--उसका जन्म होने तक; हरेः-- भगवान्‌ हरि के; बैर-अनुबन्ध-कृत्‌--ऐसा बैर चलाते रहने केलिए दृढ़।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस तरह तर्क-वितर्क करते हुए कंस यद्यपि भगवान्‌ के प्रतिशत्रुता बनाये रखने के लिए हढ़ था किन्तु अपनी बहन का जघन्य वध करने से कतराता रहा।

    उसने भगवान्‌ के जन्म लेने तक प्रतीक्षा करने और तब जो आवश्यक हो, करने का निश्चयकिया।

    आसीन: संविशंस्तिष्ठन्भुज्जान: पर्यटन्महीम्‌ ।

    चिन्तयानो हषीकेशमपश्यत्तन्मयं जगत्‌ ॥

    २४॥

    आसीन:--कमरे या सिंहासन पर आराम से बैठे हुए; संविशन्‌ू--अथवा अपने बिस्तर पर लेटे हुए; तिष्ठन्‌ू--या अन्यत्र ठहरे हुए;भुझान:--खाते; पर्यटनू--घूमते; महीम्‌--पृथ्वी पर, इधर-उधर जाते हुए; चिन्तयान: --सदैव शत्रु-भाव से चिन्तन करते;हृषीकेशम्‌--सबों के नियन्ता भगवान्‌ को; अपश्यत्‌--देखा; तत्‌-मयम्‌--उससे ( कृष्ण से ) ही युक्त; जगत्‌--सारा संसार।

    सिंहासन पर अथवा अपने कमरे में बैठे, बिस्तर पर लेटे या कहीं भी रहते हुए, खाते, सोतेया घूमते हुए कंस केवल अपने शत्रु भगवान्‌ हषीकेश को ही देखता था।

    दूसरे शब्दों में, अपनेसर्वव्यापक शत्रु का चिन्तन करते करते कंस प्रतिकूल भाव से कृष्णभावनाभावित हो गया था।

    ब्रह्मा भवश्व तत्रैत्य मुनिभिर्नारदादिभि: ।

    देवै: सानुचरैः साक॑ गीर्मिवृषणमैडयन्‌ ॥

    २५॥

    ब्रह्मा--चतुर्मुख सर्वोच्च देवता; भव: च--तथा शिवजी; तत्र--वहाँ; एत्य-- आकर; मुनिभि: --मुनियों; नारद-आदिभि:--नारद इत्यादि के साथ; देवै:--तथा इन्द्र, चन्द्र, वरुण इत्यादि देवताओं के साथ; स-अनुचरैः--अपने अपने अनुयायियों केसाथ; साकम्‌--साथ; गीर्भि: --अपनी स्तुतियों से; वृषणम्‌--किसी को भी वर देने वाले भगवान्‌; ऐडयन्‌--प्रसन्न किया |

    ब्रह्माजी तथा शिवजी, नारद, देवल तथा व्यास जैसे महामुनियों एवं इन्द्र, चन्द्र तथा वरुणजैसे देवताओं के साथ अदृश्य रूप में देवकी के कक्ष में पहुँचे जहाँ सबों ने मिलकर वरदायकभगवान्‌ को प्रसन्न करने के लिए सादर स्तुतियाँ कीं।

    सत्यत्रतं सत्यपरं त्रिसत्यंसत्यस्य योनिं निहितं च सत्ये ।

    सत्यस्य सत्यमृतसत्यनेत्रसत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्ना: ॥

    २६॥

    सत्य-ब्रतम्‌-- भगवान्‌ जो अपने व्रत से कभी विचलित नहीं होते; * सत्य-परम्‌--परम सत्य ( जैसाकि श्रीमद्भागवत के प्रारम्भमें कहा गया है, सत्यं परं धीमहि ); त्रि-सत्यम्‌--वे इस जगत की सृष्टि, पालन तथा इसके संहार के बाद भी परम सत्य के रूप मेंविद्यमान रहते हैं; सत्यस्य--परम सत्य कृष्ण से उद्भूत सारे सत्यों के; योनिमू--कारण; निहितम्‌--प्रविष्ट; * *च--तथा;सत्ये--इस जगत को उत्पन्न करने वाले कारणों ( पंचतत्वों-क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर ); सत्यस्य--सत्य माने जाने वालेका; सत्यमू--भगवान्‌ जो आदि सत्य हैं; ऋत-सत्य-नेत्रमू--अच्छे लगने वाले सत्य के उद्गम ( सुनेत्रम्‌ ); सत्य-आत्मकम्‌--भगवान्‌ से सम्बद्ध हर वस्तु सत्य है ( सच्चिदानन्द ) ( उनका शरीर सत्य है, उनका ज्ञान सत्य है और उनका आनन्द सत्य है );त्वामू--तुम्हारी, हे भगवान्‌; शरणम्‌--शरण में; प्रपन्ना:ः--आपके संरक्षण में हम सभी |

    ( भगवान्‌ का ब्रत है--यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

    अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानंसृजाम्यहम्‌ ( भगवद्‌गीता ४७) ।

    इसी व्रत को निभाने के लिए भगवान्‌ प्रकट हुए।

    भगवान्‌ सारी वस्तुओं में यहाँ तक कि परमाणु के भीतर भी हैं--अण्डान्तरस्थपरमाणुचयान्तरस्थम्‌ ( ब्रह्म-संहिता ५ ४४ ) ।

    इसीलिए वे अन्तर्यामी कहलाते हैं।

    छाव कलटदेवताओं ने प्रार्थना की; हे प्रभो, आप अपने व्रत से कभी भी विचलित नहीं होते जो सदा हीपूर्ण रहता है क्योंकि आप जो भी निर्णय लेते हैं वह पूरी तरह सही होता है और किसी के द्वारारोका नहीं जा सकता।

    सृष्टि, पालन तथा संहार--जगत की इन तीन अवस्थाओं में वर्तमान रहनेसे आप परम सत्य हैं।

    कोई तब तक आपकी कृपा का भाजन नहीं बन सकता जब तक वह पूरीतरह आज्ञाकारी न हो अतः इसे दिखावटी लोग प्राप्त नहीं कर सकते।

    आप सृष्टि के सारेअवयवों में असली सत्य हैं इसीलिए आप अन्‍्तर्यामी कहलाते हैं।

    आप सबों पर समभाव रखते हैं और आपके आदेश प्रत्येक काल में हर एक पर लागू होते हैं।

    आप आदि सत्य हैं अतः हमनमस्कार करते हैं और आपकी शरण में आए हैं।

    आप हमारी रक्षा करें।

    एकायनोसौ द्विफलस्त्रिमूल-श्वतूरसः पञ्जञविध: षडात्मा ।

    सप्तत्वगष्टविटपो नवाक्षोदशच्छदी द्विखगो हादिवृक्ष: ॥

    २७॥

    एक-अयनः --सामान्यजीव का शरीर भौतिक तत्त्वों पर पूरी तरह आश्रित है; असौ--वह; द्वि-फल:--इस शरीर में हमें सुखतथा दुख मिलते रहते हैं, जो कर्मों से प्रतिफलित होते हैं; त्रि-मूल:--तीन जड़ों वाली प्रकृति के तीन गुण ( सतो, रजो तथातमोगुण ) जिनसे शरीर बना है; चतुः-रसः *--चार रस या आस्वाद; पश्च-विध:--ज्ञान प्राप्त करने की पाँच इन्द्रियों ( आँख,कान, नाक, जीभ तथा स्पर्श ) से युक्त; षघटू-आत्मा--छ:ः परिस्थितियाँ ( शोक, मोह, जरा, मृत्यु, भूख, प्यास ); सप्त-त्वक्‌--सात आवरण ( त्वचा, रक्त, पेशी, वसा, अस्थि, मज्जा तथा वीर्य ) वाला; अष्ट-विटप:ः--आठ शाखाएँ ( पाँच स्थूल तत्त्व पृथ्वी,जल, अग्नि, वायु और आकाश तथा मन, बुद्धि एवं अहंकार ); नव-अक्ष:--नौ दरवाजे; दश-छदी--दस प्रकार की प्राण वायुजो वृक्ष के पत्तों के सहश है; द्वि-खगः--दो पक्षी ( आत्मा तथा परमात्मा ); हि--निस्सन्देह; आदि-वृक्ष:--यही आदि वृक्ष याशरीर की बनावट है।

    शरीर को अलंकारिक रूप में ‘आदि वृक्ष' कहा जा सकता है।

    यह वृक्ष भौतिक प्रकृतिकी भूमि पर आश्रित होता है और उसमें दो प्रकार के--सुख भोग के तथा दुख भोग के--फललगते हैं।

    इसकी तीन जड़ें तीन गुणों--सतो, रजो तथा तमो गुणों के साथ इस वृक्ष केकारणस्वरूप हैं।

    शारीरिक सुख रूपी फलों के स्वाद चार प्रकार के होते हैं-- धर्म, अर्थ, कामतथा मोक्ष जो पाँच ज्ञान इन्द्रियों द्वारा छः प्रकार की परिस्थितियों--शोक, मोह, जरा, मृत्यु,भूख तथा प्यास के माध्यम से अनुभव किये जाते हैं।

    इस वृक्ष की छाल में सात परतें होती हैं--त्वचा, रक्त, पेशी, वसा, अस्थि, मज्जा तथा वीर्य।

    इस वृक्ष की आठ शाखाएँ हैं जिनमें से पाँचस्थूल तत्त्व तथा तीन सूक्ष्मतत्त्व हैं--क्षिति, जल, पावक, समीर, गगन, मन, बुद्धि तथाअहंकार।

    शरीर रूपी वृक्ष में नौ छिद्र (कोठर) हैं--आँखें, कान, नथुने, मुँह, गुदा तथाजननेन्द्रिय।

    इसमें दस पत्तियाँ हैं, जो शरीर से निकलने वाली दस वायु हैं।

    इस शरीररूपी वृक्ष मेंदो पक्षी हैं--एक आत्मा तथा दूसरा परमात्मा।

    त्वमेक एवास्य सतः प्रसूति-स्त्वं सबन्निधानं त्वमनुग्रहश्च ।

    त्वन्मायया संवृतचेतसस्त्वां'पश्यन्ति नाना न विपश्चितो ये ॥

    २८॥

    त्वमू--तुम ( हे प्रभु); एक:--अकेले, आप ही सर्वस्व हैं; एब--निस्सन्देह; अस्य सत:ः--इस दृश्य जगत का; प्रसूतिः--मूलस्त्रोत; त्वमू--आप; सन्निधानम्‌--सर्वस्व विनष्ट हो जाने पर ऐसी सारी शक्ति का संरक्षण; त्वमू--आप; अनुग्रह: च--तथापालक; त्वतू-मायया--आपकी माया से; संवृत-चेतस:--उनका, जिनकी बुद्धि ऐसी माया से आवृत है; त्वामू--आपको;'पश्यन्ति--देखते हैं; नाना--अनेक प्रकार; न--नहीं; विपश्चित:--विद्वान या भक्तगण; ये--जो |

    हे प्रभु, आप ही कई रूपों में अभिव्यक्त इस भौतिक जगत रूपी मूल वृक्ष के प्रभावशालीकारणस्वरूप हैं।

    आप ही इस जगत के पालक भी हैं और संहार के बाद आप ही ऐसे हैं जिसमेंसारी वस्तुएँ संरक्षण पाती हैं।

    जो लोग माया से आवृत हैं, वे इस जगत के पीछे आपका दर्शननहीं कर पाते क्योंकि उनकी दृष्टि विद्वान भक्तों जैसी नहीं होती।

    बिभर्षि रूपाण्यवबोध आत्माक्षेमाय लोकस्य चराचरस्य ।

    सत्त्वोपपन्नानि सुखावहानिसतामभद्राणि मुहु: खलानाम्‌ ॥

    २९॥

    बिभर्षि--आप स्वीकार करें; रूपाणि--अनेक रूप यथा मत्स्य, कूर्म, वराह, राम, नूसिंह आदि; अवबोध: आत्मा--विभिन्नअवतारों के बावजूद आप परम ज्ञाता बने रहते हैं; क्षेमाय--हर एक के और विशेषतया भक्तों के लाभ के लिए; लोकस्य--सारेजीवों के; चर-अचरस्य--जड़ तथा चेतन का; सत्त्व-उपपन्नानि--ऐसे सारे अवतार दिव्य होते हैं ( शुद्ध सत्त्त ); सुख-अवहानि--दिव्य आनन्द से पूरित; सताम्‌ू--भक्तों का; अभद्राणि--सारा अशुभ या संहार; मुहुः--पुनः पुनः; खलानाम्‌--अभक्तों का।

    हे ईश्वर, आप सदैव ज्ञान से पूर्ण रहने वाले हैं और सारे जीवों का कल्याण करने के लिएआप विविध रूपों में अवतरित होते हैं, जो भौतिक सृष्टि के परे होते हैं।

    जब आप इन अवतारोंके रूप में प्रकट होते हैं, तो आप पुण्यात्माओं तथा धार्मिक भक्तों के लिए मोहक लगते हैं किन्तुअभक्तों के लिए आप संहारकर्ता हैं।

    त्वय्यम्बुजाक्षाखिलसतत्त्वधाम्निसमाधिनावेशितचेतसैके ।

    त्वत्पादपोतेन महत्कृतेनकुर्वन्ति गोवत्सपदं भवाब्धिम्‌ ॥

    ३०॥

    त्वयि--आप में; अम्बुज-अक्ष--हे कमल जैसे नेत्रवाले प्रभु; अखिल-सत्त्व-धाम्नि--जगत के आदि कारण जिससे हर वस्तुउदभूत होती है और जिसमें समस्त शक्तियाँ नवास करती हैं; समाधिना--स्थायी ध्यान तथा पूर्ण तल्‍लीनता ( आपके विचारों में )द्वारा; आवेशित-- पूर्णतया तल्‍लीन, संलग्न; चेतसा--चेतना द्वारा; एके--आपके चरणकमलों के विषय में चिन्तन की एकविधि; त्वत्‌-पाद-पोतेन--आपके चरणकमल रूपी नाव में चढ़कर; महत्‌-कृतेन--ऐसे कार्य द्वारा जो अत्यन्त शक्तिशाली मानाजाता है या जो महाजनों द्वारा सम्पन्न किया जाता है; कुर्वन्ति--करते हैं; गोवत्स-पदम्‌--बछड़े के खुर के निशान तुल्य; भव-अब्धिम्‌--संसार सागर को

    हे कमलनयन प्रभु, सम्पूर्ण सृष्टि के आगार रूप आपके चरणकमलों में अपना ध्यान एकाग्रकरके तथा उन्हीं चरणकमलों को संसार-सागर को पार करने वाली नाव मानकर मनुष्यमहाजनों ( महान्‌ सन्‍्तों, मुनियों तथा भक्तों ) के चरणचिन्हों का अनुसरण करता है।

    इस सरलसी विधि से वह अज्ञान सागर को इतनी आसानी से पार कर लेता है मानो कोई बछड़े के खुरका चिन्ह पार कर रहा हो।

    स्वयं समुत्तीर्य सुदुस्तरं द्युमन्‌भवार्णवं भीममदभ्रसौहदा: ।

    भवत्पदाम्भोरुहनावमत्र तेनिधाय याताः सदनुग्रहो भवान्‌ ॥

    ३१॥

    स्वयम्‌--खुद, आप; समुत्तीर्य--पार करके; सु-दुस्तरम्‌--दुर्लघ्य; द्युमन्‌ू--अज्ञान के इस लोक के अंधकार में सूर्य के समानचमक ने वाले हे प्रभु; भव-अर्गवम्‌--संसार सागर को; भीमम्‌ू-- भयानक; अदभ्र-सौहृदा: -- भक्तगण जो पतितात्माओं के प्रतिसदैव मैत्रीभाव रखते हैं; भवत्‌-पद-अम्भोरुह-- आपके चरणकमल; नावम्‌--पार करने के लिए नाव को; अत्र--इस संसारमें; ते--वे ( वैष्णवजन ); निधाय--पीछे छोड़कर; याता:--चरम लक्ष्य, बैकुण्ठ; सत्‌-अनुग्रह:--भक्तों पर सदैव कृपालु तथादयालु; भवान्‌ू--आप |

    हे झ्ुतिपूर्ण प्रभु, आप अपने भक्तों की इच्छा पूरी करने के लिए सदा तैयार रहते हैं इसीलिएआप वांछा-कल्पतरु कहलाते हैं।

    जब आचार्यगण अज्ञान के भयावह भवसागर को तरने केलिए आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करते हैं, तो वे अपने पीछे अपनी वह विधि छोड़ेजाते हैं जिससे वे पार करते हैं।

    चूँकि आप अपने अन्य भक्तों पर अत्यन्त कृपालु रहते हैं अतएवउनकी सहायता करने के लिए आप इस विधि को स्वीकार करते हैं।

    येअन्येरविन्दाक्ष विमुक्तमानिन-स्त्वय्यस्तभावादविशुद्धबुद्धयः ।

    आरुह्यम कृच्छेण परं पदं ततःपतन्त्यधो नाहतयुष्मदड्घ्रय: ॥

    ३२॥

    ये अन्ये--कोई या अन्य सभी; अरविन्द-अक्ष--हे कमलनेत्र; विमुक्त-मानिन:-- भव-कल्मष के बन्धन से अपने को झूठे हीमुक्त मानने वाले; त्वयि--तुम में; अस्त-भावात्‌--विविध रूप से सोचते हुए किन्तु आपके चरणकमलों के विषय में अधिक नजानने की इच्छा रखते हुए; अविशुद्ध-बुद्धयः--जिनकी बुद्धि अब भी शुद्ध नहीं है और जो जीवन-लक्ष्य को नहीं जानते;आरुह्म--प्राप्त करके भी; कृच्छेण --कठिन तपस्या तथा श्रम के द्वारा; परम्‌ पदम्‌--सर्वोच्च पद ( अपनी कल्पना केअनुसार ); ततः--उस पद से; पतन्ति--गिरते हैं; अध:--पुनः नीचे भवसागर में; अनाहत--उपेक्षा किया हुआ; युष्मत्‌--आपके; अड्घ्रय:--चरणकमल।

    ( कोई कह सकता है कि भगवान्‌ के चरणकमलों की शरण खोजने वाले भक्तों केअतिरिक्त भी ऐसे लोग हैं, जो भक्त नहीं हैं किन्तु जिन्होंने मुक्ति प्राप्त करने के लिए भिन्नविधियाँ अपना रखी हैं।

    तो उनका क्या होता है? इसके उत्तर में ब्रह्माजी तथा अन्य देवता कहतेहैं ) हे कमलनयन भगवान्‌, भले ही कठिन तपस्याओं से परम पद प्राप्त करने वाले अभक्तगणअपने को मुक्त हुआ मान लें किन्तु उनकी बुद्धि अशुद्ध रहती है।

    वे कल्पित श्रेष्ठता के अपने पदसे नीचे गिर जाते हैं, क्योंकि उनके मन में आपके चरणकमलों के प्रति कोई श्रद्धाभाव नहींहोता।

    तथा न ते माधव तावकाः क्वचिद्‌भ्रश्यन्ति मार्गात्त्वयि बद्धसौहदा: ।

    त्वयाभिगुप्ता विचरन्ति निर्भयाविनायकानीकपपमूर्थसु प्रभो ॥

    ३३॥

    तथा--उनकी ( अभक्तों की ) तरह; न--नहीं; ते--वे ( भक्तगण ); माधव--हे लक्ष्मीपति भगवान्‌; तावका: --भक्तिमार्ग केअनुयायी, भक्तगण; क्वचित्‌--किसी भी परिस्थिति में; भ्रश्यन्ति--नीचे गिरते हैं; मार्गात्‌--भक्ति मार्ग से; त्ववि--आप में;बद्ध-सौहदा:--आपके चरणकमलों में पूरी तरह से अनुरक्त होने के कारण; त्वया--आपके द्वारा; अभिगुप्ता:--सारे संकटों सेसुरक्षित; विचरन्ति--विचरण करते हैं; निर्भधा:--निर्भीक होकर; विनायक-अनीकप--शत्रु जो भक्ति विचारधारा का विरोधकरने के लिए साज-सामान रखते हैं; मूर्थसु--अपने सिरों पर; प्रभो-हे प्रभु

    हे माधव, पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्वर, हे लक्ष्मीपति भगवान्‌, यदि आपके प्रेमी भक्तमण कभीभक्तिमार्ग से च्युत होते हैं, तो वे अभक्तों की तरह नहीं गिरते क्योंकि आप तब भी उनकी रक्षाकरते हैं।

    इस तरह वे निर्भय होकर अपने प्रतिद्वन्द्रियों के मस्तकों को झुका देते हैं और भक्ति मेंप्रगति करते रहते हैं।

    सत्त्व॑ विशुद्ध श्रयते भवान्स्थितौशरीरिणां श्रेयठपायनं वपु: ।

    वेदक्रियायोगतपःसमाधिभि-स्तवाहणं येन जन: समीहते ॥

    ३४॥

    सत्त्वम्‌--अस्तित्व; विशुद्धम्‌-दिव्य, तीन गुणों से अतीत; श्रयते--स्वीकार करता है; भवान्‌--आप; स्थितौ--इस जगत केपालन के समय; शरीरिणाम्‌--सारे जीवों के; श्रेयः--परम कल्याण का; उपायनम्‌--लाभ के लिए; वपु:--दिव्य शरीर; बेद-क्रिया--वेदविहित अनुष्ठानों के द्वारा; योग--भक्ति द्वारा; तपः--तपस्या द्वारा; समाधिभि: --समाधि द्वारा; तब--तुम्हारी;अर्हणम्‌--पूजा; येन--ऐसे कार्यों से; जन:--मानव समाज; समीहते--कृतज्ञता प्रकट करता है।

    हे परमेश्वर, पालन करते समय आप त्रिगुणातीत दिव्य शरीर वाले अनेक अवतारों को प्रकटकरते हैं।

    जब आप इस तरह प्रकट होते हैं, तो जीवों को वैदिक कर्म--यथा अनुष्ठान, योग,तपस्या, समाधि आपके चिंतन में भावपूर्ण तल्‍लीनता--में युक्त होने की शिक्षा देकर उन्हेंसौभाग्य प्रदान करते हैं।

    इस तरह आपकी पूजा वैदिक नियमों के अनुसार की जाती है।

    सत्त्वं न चेद्धातरिदं निजं भवेद्‌विज्ञानमज्ञानभिदापमार्जनम्‌ ।

    गुणप्रकाशैरनुमीयते भवान्‌प्रकाशते यस्य च येन वा गुण: ॥

    ३५॥

    सत्त्वम्‌--शुद्धसत्त्व, दिव्य; न--नहीं; चेतू--यदि; धात:--समस्त कारणों के कारण; इृदम्‌--यह; निजम्‌--मेरा, आध्यात्मिक;भवेत्‌--हो जाता; विज्ञानम्‌ू--दिव्य ज्ञान; अज्ञान-भिदा--तमोगुण को भगाने वाला; अपमार्जनम्‌--पूर्णतया से विलुप्त; गुण-प्रकाशै:--ऐसा दिव्य ज्ञान जागृत करके; अनुमीयते-- प्रकट होता है; भवानू--आप; प्रकाशते--प्रकट होते हैं; यस्थय--जिसके;च--तथा; येन--जिससे; वा--अथवा; गुण: --गुण या बुद्धि |

    है कारणों के कारण ईश्वर, यदि आपका दिव्य शरीर गुणातीत न होता तो मनुष्य पदार्थ तथाअध्यात्म के अन्तर को न समझ पाता।

    आपकी उपस्थिति से ही आपके दिव्य स्वभाव को जानाजा सकता है क्योंकि आप प्रकृति के नियन्ता हैं।

    आपके दिव्य स्वरूप की उपस्थिति से प्रभावितहुए बिना आपके दिव्य स्वभाव को समझना कठिन है।

    न नामरूपे गुणजन्मकर्मभि-निरूपितव्ये तव तस्य साक्षिण: ।

    मनोवचोशभ्यामनुमेयवर्त्मनोदेव क्रियायां प्रतियन्त्यथापि हि ॥

    ३६॥

    न--नहीं; नाम-रूपे--नाम तथा रूप; गुण--गुण; जन्म--जन्म; कर्मभि:--कार्यकलापों या लीलाओं से; निरूपितव्ये--निश्चित नहीं किये जा सकते; तब-- आपके; तस्य--उसके; साक्षिण: --साक्षी; मन: --मन का; वचोभ्याम्‌--शब्दों द्वारा;अनुमेय-- धारणा; वर्त्मन:--रास्ता; देव--हे प्रभु; क्रियायाम्‌-- भक्तिकार्यों में; प्रतियन्ति-- अनुभव करते हैं; अथ अपि--फिरभी; हि--निस्सन्देह ( भक्तों द्वारा आप अनुभवगम्य हैं )

    है परमेश्वर, आपके दिव्य नाम तथा स्वरूप का उन व्यक्तियों को पता नहीं लग पाता, मात्रजो केवल कल्पना के मार्ग पर चिन्तन करते हैं।

    आपके नाम, रूप तथा गुणों का केवल भक्तिद्वारा ही पता लगाया जा सकता है।

    श्रण्वन्गृणन्संस्मरयं श्व चिन्तयन्‌नामानि रूपाणि च मड़लानि ते ।

    क्रियासु यस्त्वच्चरणारविन्दयो-राविष्टचेता न भवाय कल्पते ॥

    ३७॥

    श्रूण्बनू--निरन्तर भगवान्‌ के विषय में सुनते हुए ( श्रवर्ण कीर्तन विष्णो: ); गृणन्‌--कीर्तन करते हुए या सुनाते हुए;संस्मरयन्‌--स्मरण करते हुए ( भगवान्‌ के चरणकमलों तथा उनके स्वरूप के विषय में निरन्तर चिन्तन करते हुए ); च--तथा;चिन्तयन्‌--चिन्तन करते हुए ( भगवान्‌ के कार्यकलापों का ); नामानि--उनके दिव्य नाम; रूपाणि--उनके दिव्य स्वरूप; च--भी; मड्लानि--दिव्य होने से शुभ; ते--आपके ; क्रियासु-- भक्ति में लगे रहने पर; यः--जो; त्वत्‌-चरण-अरविन्दयो: --आपके चरण कमलों पर; आविष्ट-चेता: --पूर्णतया लीन रहनेवाला भक्त; न--नहीं; भवाय--भौतिक पद के लिए; कल्पते--योग्य है।

    विविध कार्यो में लगे रहने पर भी जिन भक्तों के मन आपके चरणकमलों में पूरी तरह लीनरहते हैं और जो निरन्तर आपके दिव्य नामों तथा रूपों का श्रवण, कीर्तन, चिन्तन करते हैं तथाअन्यों को स्मरण कराते हैं, वे सदैव दिव्य पद पर स्थित रहते हैं और इस प्रकार से पूर्ण पुरुषोत्तमहाभगवान्‌ को समझ सकते हैं।

    दिष्टया हरेउस्था भवतः पदो भुवोभारोपनीतस्तव जन्मनेशितु: ।

    दिष्टबाड्धितां त्वत्यदकै: सुशोभनै-ईश्ष्याम गां दवां च तवानुकम्पिताम्‌ ॥

    ३८ ॥

    दिछ्या-- भाग्यवश; हरे--हे भगवान्‌; अस्या:--इस ( संसार ) के; भवत:--आपके; पद: --स्थान का; भुवः--इस धरा पर;भारः--असुएों द्वारा उत्पन्न बोझ; अपनीत:ः --दूर हुआ; तब--आपके ; जन्मना--अवतार लेने से; ईशितु:--सबके नियन्ता आप;दिष्टया--तथा भाग्य से; अड्भिताम्‌--चिन्हित; त्वत्‌-पदकै:--आपके चरणकमलों से; सु-शोभनै:--शंख, चक्र, पद्म तथा गदा चिह्नों से अलंकृत; द्रक्ष्याम--हम देखेंगे; गाम्‌--इस पृथ्वी पर; द्याम्‌ च--तथा स्वर्ग में भी; तब अनुकम्पितामू--हम पर आपकीअहैतुकी कृपा होने से |

    हे प्रभु, हम भाग्यशाली हैं कि आपके प्राकट्य से इस धरा पर असुरों के कारण जो भारीबोझा है, वह शीघ्र ही दूर हो जाता है।

    निस्सन्देह हम अत्यन्त भाग्यशाली हैं क्योंकि हम इस धरामें तथा स्वर्गलोक में भी आपके चरणकमलों को अलंकृत करने वाले शंख, चक्र, पद्म तथागदा के चिन्हों को देख सकेंगे।

    न तेभवस्येश भवस्य कारणंविना विनोदं बत तर्कयामहे ।

    भवो निरोध: स्थितिरप्यविद्ययाकृता यतस्त्वय्यभया श्रयात्मनि ॥

    ३९॥

    न--नहीं; ते--आपके ; अभवस्य--जो जैसे कि सामान्य जीव, उसका जन्म, मृत्यु, पालन पोषण से परे है, जो, उसका; ईश--हेईश्वर; भवस्थ-- आपके जन्म का; कारणम्‌--कारण; विना--रहित; विनोदम्‌--लीलाएँ ( आपको विवश होकर इस जगत मेंनहीं आना पड़ता है ); बत--फिर भी; तर्कयामहै--हम तर्क-वितर्क नहीं कर सकते ( लेकिन इन्हें अपकी लीला ही समझें );भव:ः--जन्म; निरोध: --मृत्यु; स्थिति:--पालन; अपि-- भी; अविद्यया--माया द्वारा; कृता:--किया गया; यत:-- क्योंकि;त्वयि--तुममें; अभय-आ श्रय--हे सबों के निर्भय आश्रय; आत्मनि--सामान्य जीवन का।

    हे परमेश्वर, आप कोई सामान्य जीव नहीं जो सकाम कर्मों के अधीन इस भौतिक जगत मेंउत्पन्न होता है।

    अतः इस जगत में आपका प्राकट्य या जन्म एकमात्र ह्रादिनी शक्ति के कारणहोता है।

    इसी तरह आपके अंश रूप सारे जीवों के कष्टों--यथा जन्म, मृत्यु तथा जरा का कोईदूसरा कारण नहीं सिवाय इसके कि ये सभी आपकी बहिरंगा शक्ति द्वारा संचालित होते हैं।

    मत्स्याश्रकच्छपनृसिंहवराहहंस-राजन्यविप्रविबुधेषु कृतावतार: ।

    त्वं पासि नस्त्रिभुवनं च यथाधुनेशभारं भुवो हर यदूत्तम वन्दनं ते ॥

    ४०॥

    मत्स्य--मत्स्यावतार; अश्व--घोड़े का अवतार; कच्छप--कूर्मावतार; नूसिंह--नृसिंह अवतार; वराह--वराह अवतार; हंस--हंस अवतार; राजन्य--रामचन्द्र तथा अन्य क्षत्रियों के रूप में अवतार; विप्र--वामनदेव जैसे ब्राह्मणों के रूप में अवतार;विबुधेषु--देवताओं के बीच; कृत-अवतार:--अवतारों के रूप में प्रकट हुए; त्वमू--आपको; पासि--कृपया बचायें; न: --हमें; त्रि-भुवनम्‌ च--तथा तीनों लोकों को; यथा--तथा; अधुना--अब; ईश--हे भगवान्‌; भारम्‌-- भार; भुव: --पृथ्वी का;हर--कृपया कम करें; यदु-उत्तम--हे यदुओं में श्रेष्ठ, हे कृष्ण; वन्दनम्‌ ते--हम आपकी वन्दना करते हैं।

    हे परम नियन्ता, आप इसके पूर्व अपनी कृपा से सारे विश्व की रक्षा करने के लिए मत्स्य,अश्व, कच्छप, नृसिंहदेव, वराह, हंस, भगवान्‌ रामचन्द्र, परशुराम का तथा देवताओं में से वामनके रूप में अवतरित हुए हैं।

    अब आप इस संसार का उत्पातों कम करके अपनी कृपा से पुनःहमारी रक्षा करें।

    हे यदु श्रेष्ठ कृष्ण, हम आपको सादर नमस्कार करते हैं।

    दिष्टद्याम्ब ते कुक्षिगत: पर: पुमा-नंशेन साक्षाद्धगवान्भवाय नः ।

    माभूद्धयं भोजपतेर्मुमूर्षों-गेप्ता यदूनां भविता तवात्मज: ॥

    ४१॥

    दिछ्या-- भाग्यवश; अम्ब--हे माता; ते--तुम्हारी; कुक्षि-गत:--कोख में; पर:--परमात्मा; पुमानू-- भगवान्‌; अंशेन--अपनीसमस्त शक्तियों सहित; साक्षात्‌-प्रत्यक्ष रूप से; भगवान्‌-- भगवान्‌; भवाय--कल्याण के लिए; नः--हम सबों के; माअभूत्‌ू-कभी न हों; भयम्‌-- भयभीत; भोज-पते: -- भोजवंश के राजा कंस से; मुमूर्षोः--जिसने भगवान्‌ के हाथों से मरने कीठान ली है; गोप्ता--रक्षक; यदूनाम्‌--यदुवबंश का; भविता--होगा; तब आत्मज: --तुम्हारा पुत्र |

    हे माता देवकी, आपके तथा हमारे सौभाग्य से भगवान्‌ अपने सभी स्वांशों यथा बलदेवसमेत अब आपके गर्भ में हैं।

    अतएव आपको उस कंस से भयभीत नहीं होना है, जिसने भगवान्‌के हाथों से मारे जाने की ठान ली है।

    आपका शाश्वत पुत्र कृष्ण सारे यदुवंश का रक्षक होगा।

    श्रीशुक उबाचइत्यभिष्टूय पुरुषं यद्रूपमनिदं यथा ।

    ब्रह्ेशानौ पुरोधाय देवा: प्रतिययुर्दिवम्‌ ॥

    ४२॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; अभिष्टूय--स्तुति करके; पुरुषम्‌--परम पुरुष की; यत्‌-रूपम्‌ू--जिसका स्वरूप; अनिदम्‌--दिव्य; यथा--जिस प्रकार; ब्रह्म--ब्रह्मा जी; ईशानौ--तथा शिवजी; पुरोधाय--आगेकरके; देवा:--सारे देवता; प्रतिययु:--लौट गये; दिवम्‌--अपने स्वर्ग निवास को

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ विष्णु की इस तरह स्तुति करने के बाद सारे देवता ब्रह्मजी तथाशिवजी को आगे करके अपने अपने स्वर्ग-आवासों को लौट गये।

    TO

    अध्याय तीन: भगवान कृष्ण का जन्म

    10.3श्रीशुक उबाचअथ सर्वगुणोपेत: काल: परमशोभन: ।

    यहाँवाजनजन्म्श्ल॑ शान्तक्षग्रहतारकम्‌ ॥

    १॥

    दिशः प्रसेदुर्गगनं निर्मलोडुगणोदयम्‌ ।

    मही मड्नलभूयिष्ठपुरग्रामत्रजाकरा ॥

    २॥

    नद्यः प्रसन्ननलिला हृदा जलरुहश्रियः ।

    द्विजालिकुलसन्नादस्तवका वनराजयः ॥

    ३॥

    ववौ वायु: सुखस्पर्श: पुण्यगन्धवह: शुचि: ।

    अग्नयश्च द्विजातीनां शान्तास्तत्र समिन्धत ॥

    ४॥

    मनांस्यासन्प्रसन्नानि साधूनामसुरद्रुहाम्‌ ।

    जायमानेजने तस्मिन्नेदुर्दुन्दुभयः समम्‌ ॥

    ५॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; अथ-- भगवान्‌ के आविर्भाव के समय; सर्व--चारों ओर; गुण-उपेतः --भौतिक गुणों से सम्पन्न; काल:--उपयुक्त समय; परम-शोभन:ः--अत्यन्त शुभ तथा सभी दृष्टियों से उपयुक्त; यहिं--- जब; एव--निश्चित रूप से; अजन जन्म-ऋक्षम्‌--रोहिणी नक्षत्र समूह; शान्त-ऋक्ष--सारे नक्षत्र शान्त थे; ग्रह-तारकम्‌--तथा ग्रह एवं तारे(यथा अश्विनी ); दिश:--सारी दिशाएँ; प्रसेदु:--अत्यन्त शुभ तथा शान्त प्रतीत हुईं; गगनमू--आकाश; निर्मल-उडु-गण-उदयम्‌--जिसमें सारे शुभ नक्षत्र दृष्टिगोचर थे; मही--पृथ्वी; मड्ल-भूयिष्ठ-पुर-ग्राम-त्रज-आकरा:--जिसके अनेक नगर,ग्राम, गोचर भूमि तथा खानें शुभ तथा निर्मल हो गईं; नद्यः--नदियाँ; प्रसन्न-सलिला:--जल स्वच्छ हो गया; हृदाः--झीलें याजलाशय; जलरुह-भ्रिय: --चारों ओर कमलों के खिलने से अत्यन्त सुन्दर लगने लगा; द्विज-अलि-कुल-सन्नाद-स्तवका: --पक्षियों ( विशेषतया कोयल ) तथा मधुमक्खियों का समूह मधुर ध्वनि में कीर्तन करने लगा, मानो भगवान्‌ की स्तुति कर रहे हों;वन-राजय: --हरे वृक्ष भी देखने में मनोहर लग रहे थे; बवौ--बहने लगी; वायु:--वायु, मन्द हवा; सुख-स्पर्श:--छूने मेंसुहावनी; पुण्य-गन्ध-वहः --सुगन्ध से पूरित; शुच्चिः-- धूल से रहित; अग्नयः च--तथा यज्ञस्थलों की अग्नियाँ; ट्विजातीनाम्‌--ब्राह्मणों की; शान्ता:--शान्त; तत्र--वहाँ; समिन्धत--जलती हुईं; मनांसि--ब्राह्मणों के मन ( जो कंस से भयभीत थे );आसनू--हो गए; प्रसन्नानि--पूर्ण तुष्ट तथा उत्पात से रहित; साधूनाम्‌--ब्राह्मणों के, जो सबके सब वैष्णव भक्त थे; असुर-द्हामू--जो धार्मिक अनुष्ठान सम्पन्न करते समय कंस तथा अन्य असुरों द्वारा सताए गए थे; जायमाने--जन्म होने से; अजने--अजन्मे, भगवान्‌ विष्णु के; तस्मिनू--उस स्थान में; नेदु:--बज उठीं; दुन्दुभयः--दुन्दुभियाँ; समम्‌--एकसाथ ( ऊपरी लोकोंसे)

    तत्पश्चात्‌ भगवान्‌ के आविर्भाव की शुभ बेला में सारा ब्रह्माण्ड सतोगुण, सौन्दर्य तथाशान्ति से युक्त हो गया।

    रोहिणी नक्षत्र तथा अश्विनी जैसे तारे निकल आए सूर्य, चन्द्रमा तथाअन्य नक्षत्र एवं ग्रह अत्यन्त शान्त थे।

    सारी दिशाएँ अत्यन्त सुहावनी लगने लगीं और मनभावननक्षत्र निःभ्र आकाश में टिमटिमाने लगे।

    नगरों, ग्रामों, खानों तथा चरागाहों से अलंकृत पृथ्वीसर्व-मंगलमय प्रतीत होने लगी।

    निर्मल जल से युक्त नदियाँ प्रवाहित होने लगीं और सरोवर तथाविशाल जलाशय कमलों तथा कुमुदिनियों से पूर्ण होकर अत्यधिक सुन्दर लगने लगे।

    फूलों-पत्तियों से पूर्ण एवं देखने में सुहावने लगने वाले वृक्षों और हरे पौधों में कोयलों जैसे पक्षी तथाभौरों के झुण्ड देवताओं के लिए मधुर ध्वनि में गुंजार करने लगे।

    निर्मल मन्द वायु बहने लगीजिसका स्पर्श सुखद था और जो फूलों की गन्ध से युक्त थी।

    जब कर्मकाण्ड में लगे ब्राह्मणों नेवैदिक नियमानुसार अग्नि प्रज्वलित की तो अग्नि इस वायु से अविचलित रहती हुई स्थिर भावसे जलने लगी।

    इस तरह जब अजन्मा भगवान्‌ विष्णु प्रकट होने को हुए तो कंस जैसे असुरोंतथा उसके अनुचरों द्वारा सताए गए साधुजनों तथा ब्राह्मणों को अपने हृदयों के भीतर शान्तिप्रतीत होने लगी और उसी समय स्वर्ग में दुन्दुभियाँ बज उठीं।

    जगु: किन्नरगन्धर्वास्तुष्ठ॒वु: सिद्धचारणा: ।

    विद्याधर्यश् ननृतुरप्सरोभि: सम॑ मुदा ॥

    ६॥

    जगु:--शुभ गीत गाए; किन्नर-गन्धर्वा:--विभिन्न लोकों के निवासी किन्नर तथा गन्धर्व; तुष्ठवु:--स्तुतियाँ कीं; सिद्ध-चारणा:--स्वर्ग के अन्य निवासी सिद्ध तथा चारणों ने; विद्याधर्य: च--और विद्याधरियाँ, स्वर्गलोक के अन्य निवासी;ननृतु:--आनन्दपूर्वक नृत्य किया; अप्सरोभि:--अप्सराओं के, स्वर्ग की सुन्दर नर्तिकाएँ; समम्‌--साथ; मुदा--प्रमुदित होकर |

    किन्नर तथा गन्धर्व शुभ गीत गाने लगे, सिद्धों तथा चारणों ने शुभ प्रार्थनाएँ कीं तथा अप्सराओं के साथ विद्याधरियाँ प्रसन्नता से नाचने लगीं।

    मुमुचुर्मुनयो देवा: सुमनांसि मुदान्विता: ।

    मन्दं मन्दं जलधरा जगर्जुरनुसागरम्‌ ।

    निशीथे तमउद्धूते जायमाने जनार्दने ॥

    ७॥

    देवक्यां देवरूपिण्यां विष्णु: सर्वगुहदाशय: ।

    आविरासीद्यथा प्राच्यां दिशीन्दुरिव पुष्कल: ॥

    ८॥

    मुमुचु;--बरसाया; मुनयः--मुनियों ने; देवा:--तथा देवताओं ने; सुमनांसि--सुन्दर तथा सुगन्धित फूल; मुदा अन्बिता: --प्रसन्नचित्त होकर; मन्दम्‌ मन्दम्‌--धीरे-धीरे; जल-धरा:--बादल; जगर्जु;:--गरजने लगे; अनुसागरम्‌--समुद्र की लहरों कीध्वनि के साथ; निशीथे--अर्धरात्रि में; तम:-उद्धूते--घना अंधकार होने पर; जायमाने--प्रकट होने पर; जनार्दने-- भगवान्‌विष्णु के; देवक्याम्‌-देवकी के गर्भ में; देव-रूपिण्याम्‌-- भगवान्‌ के रूप में ( आनन्दचिन्मय रस प्रतिभाविताभि: );विष्णु:-- भगवान्‌ विष्णु; सर्व-गुहा-शय:--हर एक के हृदय में स्थित; आविरासीत्‌ू--प्रकट हुए; यथा--जिस प्रकार; प्राच्याम्‌दिशि--पूर्व दिशा में; इन्दु: इब--पूर्ण चन्द्रमा के समान; पुष्कल:--सब प्रकार से पूर्ण

    देवताओं तथा महान्‌ साधु पुरुषों ने प्रसन्न होकर फूलों की वर्षा की और आकाश में बादलउमड़ आए तथा मन्द स्वर से गर्जन करने लगे मानो समुद्र की लहरों की ध्वनि हो।

    तब हर हृदयमें स्थित पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ विष्णु रात्रि के गहन अंधकार में देवकी के हृदय से उसी तरहप्रकट हुए जिस तरह पूर्वी क्षितिज में पूर्ण चन्द्रमा उदय हुआ हो क्योंकि देवकी श्रीकृष्ण की हीकोटि की थीं।

    तमद्भुतं बालकमम्बुजेक्षणंचतुर्भुजं शब्बुगदाद्युदायुधम्‌ ।

    श्रीवत्सलक्ष्मं गलशोभिकौस्तुभंपीताम्बरं सान्द्रययोदसौभगम्‌ ॥

    ९॥

    महाईवैदूर्यकिरीटकुण्डलत्विषा परिष्वक्तसहस्त्रकुन्तलम्‌ ।

    उद्दामकाज्च्यड्रदकड्डणादिभिर्‌विरोचमानं वसुदेव ऐक्षत ॥

    १०॥

    तम्‌--उस; अद्भुतम्‌ू-- अद्भुत; बालकम्‌ू--बालक को; अम्बुज-ईक्षणम्‌--कमल जैसी आँखों वाले; चतु:-भुजम्‌--चारभुजाओं वाले; शट्भ-गदा-आदि--चार हाथों में शंख, चक्र, गदा तथा कमल लिए हुए; उदायुधम्‌--विभिन्न आयुध; श्रीवत्स-लक्ष्मम्‌-- श्रीवत्स से अलंकृत, बालों का विशेष प्रकार श्रीवत्स कहलाता है और यह भगवान्‌ के वक्षस्थल पर ही उगता है; गल-शोभि-कौस्तुभम्‌--उनके गले में वैकुण्ठ-लोक में प्राप्त होने वाला कौस्तुभ मणि था; पीत-अम्बरम्‌--पीला वस्त्र; सान्द्र-'पयोद-सौभगम्‌--अत्यन्त सुन्दर तथा श्यामल रंग का; महा-अर्ह-बैदूर्य-किरीट-कुण्डल--उनका मुकुट तथा उनके कुण्डल मूल्यवान बैदूर्य मणि से जड़े थे; त्विषा--सौन्दर्य द्वारा; परिष्वक्त-सहस्त्र-कुन्तलम्‌--बिखरे बड़े-बड़े बालों के द्वारा चमचमाता;उद्दाम-काञ्जी-अड्भद-कड्ढूण-आदिभि:--कमर में चमकीली पेटी, भुजाओं में बलय, कलाइयों में कंकण इत्यादि से युक्त;विरोचमानम्‌--अत्यन्त सुन्दर ढंग से अलंकृत; वसुदेव: --कृष्ण के पिता वसुदेव ने; ऐक्षत--देखा |

    तब वसुदेव ने उस नवजात शिशु को देखा जिनकी अद्भुत आँखें कमल जैसी थीं और जोअपने चारों हाथों में शंख, चक्र, गदा तथा पद्य चार आयुध धारण किये थे।

    उनके वक्षस्थल परश्रीवत्स का चिह्न था और उनके गले में चमकीला कौस्तुभ मणि था।

    वह पीताम्बर धारण किएथे, उनका शरीर श्याम घने बादल की तरह, उनके बिखरे बाल बड़े-बड़े तथा उनका मुकुट औरकुण्डल असाधारण तौर पर चमकते वैदूर्यमणि के थे।

    वे करधनी, बाजूबंद, कंगन तथा अन्यआभूषणों से अलंकृत होने के कारण अत्यन्त अद्भुत लग रहे थे।

    स विस्मयोत्फुल्लविलोचनो हरिंसुतं विलोक्यानकदुन्दुभिस्तदा ।

    कृष्णावतारोत्सवसम्भ्रमो स्पृशन्‌मुदा द्विजेभ्योड्युतमाप्लुतो गवाम्‌ ॥

    ११॥

    सः--वह ( वसुदेव, जो आनकदुन्दुभि कहलाते हैं ); विस्मय-उत्फुल्ल-विलोचन:-- भगवान्‌ के सुन्दर स्वरूप को देखने सेआश्चर्यचकित आँखें; हरिम्‌ू-- भगवान्‌ हरि को; सुतम्‌--पुत्र रूप में; विलोक्य--देखकर; आनकदुन्दुभि: --वसुदेव द्वारा;तदा--उस समय; कृष्ण-अवतार-उत्सव--कृष्ण के आविर्भाव पर उत्सव मनाने के लिए; सम्भ्रम:--सम्मान के साथ भगवान्‌का स्वागत करने की इच्छा; अस्पृशत्‌--बाँटने का अवसर प्राप्त किया; मुदा--अत्यधिक हर्ष के साथ; द्विजेभ्य:--ब्राह्मणोंको; अयुतम्‌--दस हजार; आप्लुत:--विभोर; गवाम्‌-गाएँ।

    जब वसुदेव ने अपने विलक्षण पुत्र को देखा तो उनकी आँखें आश्चर्य से विस्फारित रह गईं।

    उन्होंने परम हर्ष में मन ही मन दस हजार गाएँ एकत्र कीं और उन्हें ब्राह्मणों में वितरित कर दिया मानो कोई दिव्य उत्सव हो।

    अथेनमस्तौदवधार्य पूरुषंपर नताडु: कृतधी: कृताझलि: ।

    स्वरोचिषा भारत सूतिकागहंविरोचयन्तं गतभी: प्रभाववित्‌ ॥

    १२॥

    अथ-तत्पश्चात्‌: एनम्‌--बालक को; अस्तौत्‌--स्तुति अर्पित किया; अवधार्य--यह निश्चय करके कि बालक भगवान्‌ था;पूरुषम्‌--परम पुरुष को; परम्‌--परम दिव्य; नत-अड्ड:--गिरकर; कृत-धी: --एकाग्र होकर; कृत-अज्जलि:--हाथ जोड़कर;स्व-रोचिषा-- अपने शारीरिक सौन्दर्य के तेज से; भारत--हे महाराज परीक्षित; सूतिका-गृहम्‌--वह स्थान, जहाँ भगवान्‌ काजन्म हुआ; विरोचयन्तम्‌--चारों ओर से प्रकाशित करते हुए; गत-भी:--भय से रहित होकर; प्रभाव-वित्‌--( भगवान्‌ के )प्रभाव को जान सका।

    हे भरतवंशी, महाराज परीक्षित, वसुदेव यह जान गए कि यह बालक पूर्ण पुरुषोत्तमभगवान्‌ नारायण है।

    इस निष्कर्ष पर पहुँचते ही वे निर्भव हो गए।

    हाथ जोड़े, मस्तक नवाये तथा एकाग्रचित्त होकर वे उस बालक की स्तुति करने लगे जो अपने सहज प्रभाव के द्वारा अपनेजन्म-स्थान को जगमग कर रहा था।

    श्रीवसुदेव उवाचविदितोसि भवान्साक्षात्पुरुष: प्रकृते: पर: ।

    केवलानुभवानन्दस्वरूप: सर्वबुद्धिहक्‌ ॥

    १३॥

    श्री-वसुदेवः उवाच-- श्री वसुदेव ने प्रार्थना की; विदित: असि--अब मैं आपसे अवगत हूँ; भवान्‌--आप; साक्षात्‌- प्रत्यक्ष;पुरुष:--परम पुरूष; प्रकृते:--प्रकृति से; परः--दिव्य, परे; केवल-अनुभव-आनन्द-स्वरूप:--आपका स्वरूप सच्चिदानन्दविग्रह है और जो भी आपका अनुभव करता है, वह आनन्द से पूरित हो जाता है; सर्व-बुद्धि-हक्‌--परम प्रेक्षक, परमात्मा,प्रत्येक की बुद्धि

    वसुदेव ने कहा : हे भगवान्‌, आप इस भौतिक जगत से परे परम पुरुष हैं और आपपरमात्मा हैं।

    आपके स्वरूप का अनुभव उस दिव्य ज्ञान द्वारा हो सकता है, जिससे आप भगवान्‌के रूप में समझे जा सकते हैं।

    अब आपकी स्थिति मेरी समझ में भलीभाँति आ गई है।

    स एव स्वप्रकृत्येदं सृष्ठाग्रे त्रिगुणात्मकम्‌ ।

    तदनु त्वं ह्प्रविष्ट: प्रविष्ट इव भाव्यसे ॥

    १४॥

    सः--वह ( भगवान्‌ ); एब--निस्सन्देह; स्व-प्रकृत्या--अपनी ही शक्ति से ( मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम्‌ ); इदम्‌--यह भौतिक जगत; सृष्ठा--सृजन करके; अग्रे--प्रारम्भ में; त्रि-गुण-आत्मकम्‌--प्रकृति के तीन गुणों से बने( सत्त्वरजस्तमोगुण ); तत्‌ अनु--तत्पश्चात्‌; त्वमू--आप; हि--निस्सन्देह; अप्रविष्ट:--प्रवेश न करने पर; प्रविष्ट: इब--ऐसाप्रतीत होता है कि प्रवेश किया है; भाव्यसे--ऐसा समझा जाता है।

    हे भगवन्‌, आप वही पुरुष हैं जिसने प्रारम्भ में अपनी बहिरंगा शक्ति से इस भौतिक जगतकी सृष्टि की।

    तीन गुणों ( सत्त्व, रजस्‌ तथा तमस्‌ ) वाले इस जगत की सृष्टि के बाद ऐसालगता है कि आपने उसके भीतर प्रवेश किया है यद्यपि यथार्थ तो यह है कि आपने प्रवेश नहींकिया।

    यथेमेविकृता भावास्तथा ते विकृतैः सह ।

    नानावीर्या: पृथग्भूता विराज॑ जनयन्ति हि ॥

    १५॥

    सन्निपत्य समुत्पाद्य दृश्यन्तेडनुगता इव ।

    प्रागेव विद्यमानत्वान्न तेषामिह सम्भव: ॥

    १६॥

    एवं भवान्बुद्धयनुमेयलक्षणैर्‌ग्राह्म॑र्गुणै: सन्नपि तदगुणाग्रह: ।

    अनावृतत्वाद्वहिरन्तरं न तेसर्वस्य सर्वात्मन आत्मवस्तुन: ॥

    १७॥

    यथा--जिस तरह; इमे-- भौतिक शक्ति से बनी ये भौतिक सृष्टियाँ; अविकृता:--छिन्न-भिन्न नहीं; भावा:--ऐसी विचारधारा से;तथा--उसी प्रकार; ते--वे; विकृतैः सह--सम्पूर्ण भौतिकशक्ति से उत्पन्न इन विभिन्न तत्त्वों के साथ; नाना-वीर्या:--प्रत्येकतत्त्व विभिन्न शक्तियों से पूर्ण है; पृथक्‌ु--विलग; भूताः:--होकर; विराजम्‌--सम्पूर्ण विश्व को; जनयन्ति--उत्पन्न करते हैं;हि--निस्सन्देह; सन्निपत्य--आध्यात्मिक शक्ति का साथ होने से; समुत्पाद्य--उत्पन्न किए जाने के बाद; दृश्यन्ते--प्रकट होते हैं;अनुगता:--उसके भीतर प्रविष्ट हुए; इब--मानो; प्राकु--शुरू से, इस जगत की सृष्टि के पूर्व से; एब--निस्सन्देह;विद्यमानत्वात्‌-- भगवान्‌ के अस्तित्व के कारण; न--नहीं; तेषामू--इन भौतिक तत्त्वों का; इह--इस जगत में; सम्भव:--प्रवेश करना सम्भव हुआ होता; एवम्‌--इस प्रकार; भवानू--हे प्रभु; बुद्धि-अनुमेय-लक्षणै:--असली बुद्धि से तथा ऐसेलक्षणों से; ग्राह्मै:--इन्द्रिय विषयों से; गुणैः--गुणों से; सन्‌ अपि--यद्यपि सम्पर्क में हैं; तत्‌-गुण-अग्रह:--उन गुणों के द्वारास्पर्श नहीं किए जाते; अनावृतत्वात्‌--सर्वत्र उपस्थित होने से; बहि: अन्तरम्‌--बाहर-भीतर; न ते--ऐसी कोई बात नहीं है;सर्वस्य--हर वस्तु का; सर्व-आत्मन:--सभी वस्तुओं के मूल स्वरूप; आत्म-वस्तुन:--हर वस्तु आपकी है, किन्तु आप हर वस्तुके बाहर तथा भीतर हैं।

    सम्पूर्ण भौतिक शक्ति ( महत्‌ तत्त्व) अविभाज्य है, किन्तु भौतिक गुणों के कारण यहपृथ्वी जल, अग्नि, वायु तथा आकाश में विलग होती सी प्रतीत होती है।

    ये विलग हुई शक्तियाँजीवभूत के कारण मिलकर विराट जगत को दृश्य बनाती हैं, किन्तु तथ्य तो यह है कि विराटजगत की सृष्टि के पहले से ही महत्‌ तत्त्व विद्यमान रहता है।

    अतः महत्‌ तत्त्व का वास्तव में सृष्टिमें प्रवेश नहीं होता है।

    इसी तरह यद्यपि आप अपनी उपस्थिति के कारण हमारी इन्द्रियों द्वाराअनुभवगम्य हैं, किन्तु आप न तो हमारी इन्द्रियों द्वारा अनुभवगम्य हो पाते हैं न ही हमारे मन याबचनों द्वारा अनुभव किए जाते हैं ( अवाइयनसागोचर )।

    हम अपनी इन्द्रियों से कुछ ही वस्तुएँदेख पाते हैं, सारी वस्तुएँ नहीं।

    उदाहरणार्थ, हम अपनी आँखों का प्रयोग देखने के लिए कर सकते हैं, आस्वाद के लिए नहीं।

    फलस्वरूप आप इन्द्रियों के परे हैं।

    यद्यपि आप प्रकृति केतीनों गुणों से संबद्ध हैं, आप उनसे अप्रभावित रहते हैं।

    आप हर वस्तु के मूल कारण हैं,सर्वव्यापी अविभाज्य परमात्मा हैं।

    अतएव आपके लिए कुछ भी बाहरी या भीतरी नहीं है।

    आपनेकभी भी देवकी के गर्भ में प्रवेश नहीं किया प्रत्युत आप पहले से वहाँ उपस्थित थे।

    य आत्मनो दृश्यगुणेषु सन्नितिव्यवस्यते स्वव्यतिरिकतोबुध: ।

    विनानुवादं न च तन्मनीषितंसम्यग्यतस्त्यक्तमुपाददत्पुमान्‌ ॥

    १८॥

    यः--जो भी; आत्मन:--आत्मा का; दृश्य-गुणेषु--शरीर इत्यादि दृश्य पदार्थों में से; सन्‌ू--उस अवस्था को प्राप्त; इति--इसप्रकार; व्यवस्यते--कर्म करता रहता है; स्व-व्यतिरिकतः--मानो शरीर आत्मा से स्वतंत्र है; अबुध:-- धूर्त, मूढ़; विनाअनुवादम्‌--समुचित अध्ययन के बिना; न--नहीं; च--भी; तत्‌--शरीर तथा अन्य दृश्य वस्तुएँ; मनीषितम्‌--विवेचना कियाहुआ; सम्यक्‌--पूरी तरह; यतः--मूर्ख होने के कारण; त्यक्तम्‌--तिरस्कृत कर दिए जाते हैं; उपाददत्‌--इस शरीर कोवास्तविकता मान बैठता है; पुमानू--मनुष्य |

    जो व्यक्ति प्रकृति के तीन गुणों से बने अपने हृश्य शरीर को आत्मा से स्वतंत्र मानता है, वहअस्तित्व के आधार से ही अनजान होता है और इसलिए वह मूढ़ है।

    जो विद्वान हैं, वे इस निर्णयको नहीं मानते क्‍योंकि विवेचना द्वारा यह समझा जा सकता है कि आत्मा से निराभ्जित दृश्य शरीर तथा इन्द्रियाँ सारहीन हैं।

    यद्यपि इस निर्णय को अस्वीकार कर दिया गया है, किन्तु मूर्खव्यक्ति इसे सत्य मानता है।

    त्वत्तोस्य जन्मस्थितिसंयमान्विभोवदन्त्यनीहादगुणादविक्रियात्‌ ।

    त्वयीश्वरे ब्रह्मणि नो विरुध्यते त्वदाश्रयत्वादुपचर्यते गुण: ॥

    १९॥

    त्वत्त:--आपसे; अस्य--सम्पूर्ण जगत की; जन्म--सृष्टि; स्थिति--पालन; संयमान्‌--तथा संहार; विभो--हे प्रभु; वदन्ति--विद्वान वैदिक पंडित कहते हैं; अनीहात्‌--प्रयत्न से मुक्त; अगुणात्‌--प्रकृति के गुणों से अप्रभावित; अविक्रियात्‌--आपकीदिव्य स्थिति में स्थिर रहने वाले; त्वयि--आप में; ईश्वर-- भगवान्‌ में; ब्रह्म णि--परब्रह्म में; नो--नहीं; विरुध्यते--विरोध होताहै; त्वत्‌-आश्रयत्वात्‌--आपके द्वारा नियंत्रित होने से; उपचर्यते--अपने आप चलती हैं; गुणैः--गुणों के कार्यशील होने से |

    हे प्रभु, विद्वान वैदिक पंडित कहते हैं कि सम्पूर्ण विश्व का सृजन, पालन एवं संहार आपकेद्वारा होता है तथा आप प्रयास से मुक्त, प्रकृति के गुणों से अप्रभावित तथा अपनी दिव्य स्थितिमें अपरिवर्तित रहते हैं।

    आप परब्रह्म हैं और आप में कोई विरोध नहीं है।

    प्रकृति के तीनों गुण--सतो, रजो तथा तमोगुण आपके नियंत्रण में हैं अतः सारी घटनाएँ स्वतः घटित होती हैं।

    स त्वं त्रिलोकस्थितये स्वमायया बिभर्षि शुक्ल खलु वर्णमात्मन: ।

    सर्गाय रक्त रजसोपबुंहितंकृष्णं च वर्ण तमसा जनात्यये ॥

    २०॥

    सः त्वमू--आप, जो वही व्यक्ति अर्थात्‌ ब्रह्म हैं; त्रि-लोक-स्थितये--तीनों लोकों उच्च, मध्य तथा अधः लोकों का पालन करनेके लिए; स्व-मायया--अपनी निजी शक्ति से ( आत्ममायया ); बिभर्षि-- धारण करते हैं; शुक्लम्‌--सतोगुणी विष्णु के श्वेतरूप में; खलु-- भी; वर्णम्‌--रंग; आत्मन:--आपकी ही कोटि का ( विष्णुतत्त्व ); सर्गाय--सम्पूर्ण जगत की सृष्टि के लिए;रक्तम्‌-रजोगुण के रंग का लाल; रजसा--रजोगुण से युक्त; उपबृंहितम्‌--आविष्ट; कृष्णम्‌ च--तथा अंधकार का गुण;वर्णम्‌ू--रंग; तमसा--अज्ञान से आवृत; जन-अत्यये--सम्पूर्ण सृष्टि के विनाश हेतु

    हे भगवन्‌, आपका स्वरूप तीनों भौतिक गुणों से परे है फिर भी तीनों लोकों के पालन हेतुआप सतोगुणी विष्णु का श्वेत रंग धारण करते हैं, सृजन के समय जो रजोगुण से आवृत होता हैआप लाल प्रतीत होते हैं और अन्त में अज्ञान से आवृत संहार के समय आप श्याम प्रतीत होते हैं।

    त्वमस्य लोकस्य विभो रिरक्षिषु-गृहिउवतीर्णो इसि ममाखिले श्वर ।

    राजन्यसंज्ञासुरकोटियूथपै-निर्व्यूह्यामाना निहनिष्यसे चमू: ॥

    २१॥

    त्वमू--आप; अस्य--इस जगत के; लोकस्य--विशेषतया इस मर्त्यलोक के; विभो--हे परमे श्वर; रिरक्षिषु;--( असुरों के उत्पातसे ) सुरक्षा के इच्छुक; गृहे--इस घर में; अवतीर्ण: असि--अब प्रकट हुए हो; मम--मेरे; अखिल-ई श्रर-- यद्यपि आप सम्पूर्णसृष्टि के स्वामी हैं; राजन्य-संज्ञ-असुर-कोटि-यूथ-पै:--राजनीतिज्ञों तथा राजाओं के रूप में लाखों असुरों तथा उनकेअनुयायियों समेत; निर्व्यूह्माना:--सारे संसार में विचरण कर रहे; निहनिष्यसे--मारेगा; चमू:--सेना, साज-सामान, सैनिक |

    हे परमेश्वर, हे समस्त सृष्टि के स्वामी, आप इस जगत की रक्षा करने की इच्छा से मेरे घर मेंप्रकट हुए हैं।

    मुझे विश्वास है कि आप क्षत्रियों का बाना धारण करने वाले राजनीतिज्ञों केनायकत्व में जो असुरों की सेनाएँ संसार भर में विचरण कर रही हैं उनका वध करेंगे।

    निर्दोषजनता की सुरक्षा के लिए आपके द्वारा इनका वध होना ही चाहिए।

    अयं त्वसभ्यस्तव जन्म नौ गृहेश्रुत्वाग्रजांस्ते न्‍्यवधीत्सुरेश्वर ।

    स तेवतारं पुरुषै: समर्पितंश्रुत्वाधुनेवाभिसरत्युदायुध: ॥

    २२॥

    अयम्‌--इस ( धूर्त ) ने; तु--लेकिन; असभ्य:--तनिक भी सभ्य नहीं ( असुर का अर्थ ही होता है असभ्य और सुर का सभ्य );तब--आपका; जन्म--जन्म; नौ--हमारे; गृहे--घर में; श्रुत्वा--सुनकर; अग्रजान्‌ ते--आपसे पहले उत्पन्न हुए भाइयों को;न्यवधीत्‌--मार डाला; सुर-ईश्वर--हे सभ्य पुरुषों अर्थात्‌ देवताओं के ईश्वर; सः--वह ( असभ्य कंस ); ते--तुम्हारे, आपके;अवतारमू--प्राकट्य को; पुरुषै:--अपने सेनापतियों द्वारा; समर्पितम्‌-- सूचना दिया हुआ; श्रुत्वा--सुनकर; अधुना--अब;एव--निस्सन्देह; अभिसरति--तुरन्‍्त आएगा; उदायुध: --हथियार उठाए हुए।

    हे परमेश्वर, हे देवताओं के स्वामी, यह भविष्यवाणी सुनकर कि आप हमारे घर में जन्म लेंगेऔर उसका वध करेंगे, इस असभ्य कंस ने आपके कई अग्रजों को मार डाला है।

    वह ज्योंही अपने सेनानायकों से सुनेगा कि आप प्रकट हुए हैं, वह आपको मारने के लिए हथियार समेततुरन्त ही आ धमकेगा।

    श्रीशुक उबाचअथेनमात्मजं वीक्ष्य महापुरुषलक्षणम्‌ ।

    देवकी तमुपाधावत्कंसाद्धीता सुविस्मिता ॥

    २३॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; अथ--वसुदेव द्वारा प्रार्थना करने के बाद; एनम्‌--इस कृष्ण को;आत्मजम्‌--अपने पुत्र; वीक्ष्य--देखकर; महा-पुरुष-लक्षणम्‌--भगवान्‌ विष्णु के समस्त लक्षणों से युक्त; देवकी--कृष्ण कीमाता; तम्‌--उन ( कृष्ण ) की; उपाधावत्‌--प्रार्थना की; कंसात्‌ू--कंस से; भीता-- भयभीत; सु-विस्मिता--ऐसा अद्भुतबालक देखकर आश्चर्यचकित |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : तत्पश्चात्‌ यह देखकर कि उनके पुत्र में भगवान्‌ के सारे लक्षणहैं, कंस से अत्यधिक भयभीत तथा असामान्य रूप से विस्मित देवकी भगवान्‌ से प्रार्थना करनेलगीं।

    श्रीदेवक्युवाचरूप॑ यत्तत्प्राहुरव्यक्तमाद्यब्रह्म ज्योतिर्निर्गुणं निर्विकारम्‌ ।

    सत्तामात्र॑ निर्विशेषं निरीहंसत्वं साक्षाद्विष्णुरध्यात्मदीप: ॥

    २४॥

    श्री-देवकी उवाच-- श्री देवकी ने कहा; रूपम्‌--स्वरूप; यत्‌ तत्‌--क्योंकि आप वही रूप हैं; प्राहु:--कहलाते हैं;अव्यक्तम्‌--अव्यक्त, भौतिक इन्द्रियों द्वारा अनुभूत न होने वाले ( अत: श्रीकृष्णनामादि न भवेद्‌ ग्राह्ममिन्द्रिय )।

    आद्यमू--आदिकारण; ब्रह्म--ब्रह्म; ज्योति: -- प्रकाश; निर्गुणम्‌--भौतिक गुणों से रहित; निर्विकारम्‌--बिना परिवर्तन के विष्णु का शाश्वतस्वरूप; सत्ता-मात्रमू--आदि तत्त्व, सबका कारण; निर्विशेषम्‌-परमात्मा के रूप में सर्वत्र विद्यमान; निरीहम्‌--इच्छारहित;सः--वह परम पुरुष; त्वमू--आपको; साक्षात्‌-- प्रत्यक्ष ; विष्णु: -- भगवान्‌ विष्णु; अध्यात्म-दीप:--समस्त दिव्य ज्ञान के लिएदीपक ( आपको जान लेने पर सब कुछ जाना जा सकता है)

    श्रीदेवकी ने कहा : हे भगवन, वेद अनेक हैं।

    उसमें से कुछ आपको शब्दों तथा मन द्वाराअव्यक्त बतलाते हैं फिर भी आप सम्पूर्ण विश्व के उद्गम हैं।

    आप ब्रह्म हैं, सभी वस्तुओं से बड़ेऔर सूर्य के समान तेज से युक्त।

    आपका कोई भौतिक कारण नहीं, आप परिवर्तन तथाविचलन से मुक्त हैं और आपकी कोई भौतिक इच्छाएँ नहीं हैं।

    इस तरह वेदों का कथन है किआप ही सार हैं।

    अतः हे प्रभु, आप समस्त वैदिक कथनों के उद्गम हैं और आपको समझ लेनेपर मनुष्य हर वस्तु धीरे धीरे समझ जाता है।

    आप ब्रह्मज्योति तथा परमात्मा से भिन्न हैं फिर भीआप उनसे भिन्न नहीं हैं।

    आपसे ही सब वस्तुएँ उद्भूत हैं।

    दरअसल आप ही समस्त कारणों केकारण हैं, आप समस्त दिव्य ज्ञान की ज्योति भगवान्‌ विष्णु हैं।

    नष्टे लोके द्विपरार्धावसानेमहाभूतेष्वादिभूतं गतेषु ।

    व्यक्तेव्यक्त कालवेगेन यातेभवानेकः शिष्यतेडशेषसंज्ञ: ॥

    २५॥

    नष्टे--संहार के बाद; लोके--विश्व के; द्वि-परार्ध-अवसाने--लाखों वर्षों के बाद ( ब्रह्म की आयु ); महा-भूतेषु--पाँचप्रारम्भिक तत्त्वों ( क्षिति, जल, पावक, गगन तथा समीर ) में; आदि-भूतम्‌ गतेषु--इन्द्रिय-बोध के सूक्ष्म तत्त्वों के भीतर प्रवेशकरते हैं; व्यक्ते-- प्रकट होने पर; अव्यक्तम्‌--अव्यक्त में; काल-वेगेन--काल के वेग से; याते-- प्रवेश करता है; भवान्‌--आप; एक:ः--केवल एक; शिष्यते--रहता है; अशेष-संज्ञ:--विभिन्न नामों से युक्त वही एक

    लाखों वर्षो बाद विश्व-संहार के समय जब सारी व्यक्त तथा अव्यक्त वस्तुएँ काल के वेग सेनष्ट हो जाती हैं, तो पाँचों स्थूल तत्त्व सूक्ष्म स्वरूप ग्रहण करते हैं और व्यक्त वस्तुएँ अव्यक्त बनजाती हैं।

    उस समय आप ही रहते हैं और आप अनन्त शेष-नाग कहलाते हैं।

    योयं कालस्तस्य तेडव्यक्तबन्धोचेष्टामाहुश्रेष्ठते येन विश्वम्‌ ।

    निमेषादिर्व त्सरान्तो महीयां-स्तं त्वेशानं क्षेमधाम प्रपह्मे ॥

    २६॥

    यः--जो; अयम्‌--यह; काल: --काल ( मिनट, घंटा, सेकंड ); तस्थ--उसका; ते--तुम्हारा; अव्यक्त-बन्धो--हे प्रभु! आपअव्यक्त के प्रारम्भकर्ता हैं ( महत्‌ तत्त्व या प्रकृति ); चेष्टामू--प्रयास या लीलाएँ; आहुः--कहा जाता है; चेष्टते--कार्य करता है;येन--जिससे; विश्वम्‌--सम्पूर्ण सृष्टि; निमिष-आदि:--काल के सूक्ष्म अंश आदि; वत्सर-अन्तः--वर्ष के अन्त तक; महीयान्‌ --शक्तिशाली; तमू--आपको; त्वा ईशानम्‌ू--परम नियंत्रक आपको; क्षेम-धाम--समस्त शुभ के आगार; प्रपद्ये--मैं पूरी तरहआपकी शरणागत में हूँ।

    हे भौतिक शक्ति के प्रारम्भकर्ता, यह अद्भुत सृष्टि शक्तिशाली काल के नियंत्रण में कार्यकरती है, जो सेकंड, मिनट, घंटा तथा वर्षो में विभाजित है।

    यह काल तत्त्व, जो लाखों वर्षोतक फैला हुआ है, भगवान्‌ विष्णु का ही अन्य रूप है।

    आप अपनी लीलाओं के लिए काल केनियंत्रक की भूमिका अदा करते हैं, किन्तु आप समस्त सौभाग्य के आगार हैं।

    मैं पूरी तरहआपकी शरणागत हूँ।

    मर्त्यों मृत्युव्यालभीत: पलायन्‌लोकास्सरवान्निर्भयं नाध्यगच्छत्‌ ।

    त्वत्पादाब्जं प्राप्प यहच्छयाद्यसुस्थः शेते मृत्युरस्मादपैति ॥

    २७॥

    मर्त्य:--जीव, जिनकी मृत्यु निश्चित है; मृत्यु-व्याल-भीत:--मृत्यु रूपी सर्प से भयभीत; पलायन्‌--भागते हुए; लोकान्‌ू--विभिन्न लोकों को; सर्वानू--सभी; निर्भयम्‌--निर्भीकता; न अध्यगच्छत्‌-प्राप्त नहीं करता; त्वत्‌ू-पाद-अब्जम्‌--आपकेचरणकमलों की; प्राप्प--शरण पाकर; यहच्छया--सौभाग्यवश, भगवान्‌ तथा गुरु की कृपा से ( गुरुकृपा, कृष्णकृपा );अद्य--इस समय; सु-स्थ:--अविचलित तथा शान्त; शेते--सो रहे हैं; मृत्यु:--मृत्यु; अस्मात्‌--उन लोगों से; अपैति--दूरभागता है।

    इस भौतिक जगत में कोई भी व्यक्ति जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा तथा रोग--इन चार नियमों से छूटनहीं पाया भले ही वह विविध लोकों में क्यों न भाग जाए।

    किन्तु हे प्रभु, अब चूँकि आप प्रकटहो चुके हैं अतः मृत्यु आपके भय से दूर भाग रही है और सारे जीव आपकी दया से आपकेचरणकमलों की शरण प्राप्त करके पूर्ण मानसिक शान्ति की नींद सो रहे हैं।

    स त्वं घोरादुग्रसेनात्मजान्न-स्त्राहि त्रस्तान्भृत्यवित्रासहासि ।

    रूपं चेदं पौरुषं ध्यानधिष्ण्यंमा प्रत्यक्ष मांसहरशां कृषीछ्ठा: ॥

    २८॥

    सः--वह; त्वमू--आप; घोरात्‌-- अत्यन्त क्रूर; उग्रसेन-आत्मजातू---उग्रसेन के पुत्र से; न:--हमारी; त्राहि--रक्षा कीजिए;त्रस्तानू--अत्यधिक भयभीत; भृत्य-वित्रास-हा असि--आप अपने दासों के भय को दूर करने वाले हैं; रूपम्‌--अपने विष्णुरूप में; च-- भी; इृदमू--इस; पौरुषम्‌--भगवान्‌ रूप को; ध्यान-धिष्ण्यम्‌-- ध्यान के द्वारा अनुभव किया गया; मा--नहीं;प्रत्यक्षम्‌-प्रत्यक्ष; मांस-दइशाम्‌ू--अपनी भौतिक आँखों से देखने वालों को; कृषीष्ठाः--होइए

    हे प्रभु, आप अपने भक्तों के भय को दूर करने वाले हैं अतएव आपसे मेरी प्रार्थना है किआप कंस के विकराल भय से हमें बचाइए और हमें संरक्षण प्रदान कीजिए।

    योगीजन आपकेविष्णु रूप का ध्यान में अनुभव करते हैं।

    कृपया इस रूप को उनके लिए अदृश्य बना दीजिएजो केवल भौतिक आँखों से देख सकते हैं।

    जन्म ते मय्यसौ पापो मा विद्यान्मधुसूदन ।

    समुद्विजे भवद्धेतो: कंसादहमधीरधी: ॥

    २९॥

    जन्म--जन्म; ते--तुम्हारा, भगवान्‌ का; मयि--मेरे ( गर्भ ) में; असौ--वह कंस; पाप:--पापी; मा विद्यातू--हो सकता है किसमझ न पाए; मधुसूदन--हे मधुसूदन; समुद्विजे--चिन्ता से पूर्ण मैं; भवत्‌-हेतो:--आपके प्रकट होने से; कंसात्‌ू--कंस से,जिसका मुझे कटु अनुभव है; अहम्‌--मैं; अधीर-धी:--अधिकाधिक उद्दिग्न हूँ।

    हे मधुसूदन, आपके प्रकट होने से मैं कंस के भय से अधिकाधिक अधीर हो रही हूँ।

    अतःकुछ ऐसा कीजिए कि वह पापी कंस यह न समझ पाए कि आपने मेरे गर्भ से जन्म लिया है।

    उपसंहर विश्वात्मन्नदो रूपमलौकिकम्‌ ।

    शद्भुचक्रगदापदाश्रिया जुष्टे चतुर्भुजम्‌ ॥

    ३०॥

    उपसंहर--वापस ले लीजिए; विश्वात्मनू--हे विश्वव्यापी भगवान्‌; अद:--उस; रूपम्‌ू-- स्वरूप को; अलौकिकम्‌--इस जगत मेंअप्राकृतिक; शद्भु-चक्र-गदा-पढ्य--शंख, चक्र, गदा तथा कमल से युक्त; अ्रिया--इन ऐश्वर्यों से युक्त; जुष्टमू-- अलंकृत;चतु:-भुजम्‌--चार हाथों वाले

    हे प्रभु, आप सर्वव्यापी भगवान्‌ हैं और आपका यह चतुर्भुज रूप, जिसमें आप शंख, चक्र,गदा तथा पद्म धारण किए हुए हैं, इस जगत के लिए अप्राकृत है।

    कृपया इस रूप को समेट लीजिए ( और सामान्य मानवी बालक बन जाइए जिससे मैं आपको कहीं छिपाने का प्रयास करसकूँ )।

    विश्व यदेतत्स्वतनौ निशान्तेयथावकाशं पुरुष: परो भवान्‌ ।

    बिभर्ति सोयं मम गर्भगो भू-दहो नृुलोकस्य विडम्बनं हि तत्‌ ॥

    ३१॥

    विश्वम्‌--सम्पूर्ण विश्व को; यत्‌ एतत्‌--चर तथा अचर सृष्टियों से युक्त; स्व-तनौ--अपने शरीर के भीतर; निशा-अन्ते--संहारके समय; यथा-अवकाशमू्‌--बिना कठिनाई के आपके शरीर में शरण; पुरुष: -- भगवान्‌; पर: --दिव्य; भवान्‌--आप;बिभर्ति--पालन करते हैं; सः--वही ( भगवान्‌ ); अयम्‌ू--वह रूप; मम--मेरा; गर्भ-ग:--मेरे गर्भ में आया; अभूत्‌--हुआ;अहो--ओह; नृ-लोकस्य--जीवों के इस जगत का; विडम्बनमू--सोच पाना कठिन है; हि--निस्सन्देह; तत्‌--वह ( गर्भ )।

    संहार के समय चर तथा अचर जीवों से युक्त सारी सृष्टियाँ आपके दिव्य शरीर में प्रवेश करजाती हैं और बिना कठिनाई के वहीं ठहरी रहती हैं।

    किन्तु अब वही दिव्य रूप मेरे गर्भ से जन्मले चुका है।

    लोग इस पर विश्वास नहीं करेंगे और मैं हँसी की पात्र बन जाऊँगी।

    श्रीभगवानुवाचत्वमेव पूर्वसर्गे भू: पृश्टिन: स्वायम्भुवे सति ।

    तदायं सुतपा नाम प्रजापतिरकल्मष: ॥

    ३२॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने देवकी से कहा; त्वमू-तुम; एव--निस्सन्देह; पूर्व-सर्गे--पूर्व युग में; अभू: -- थीं; पृश्नि: --पृश्टिन नामक; स्वायम्भुवे--स्वायम्भुव मनु के युग में; सति--हे सती; तदा--उस समय; अयम्‌--यह वसुदेव; सुतपा--सुतपा;नाम--नामक; प्रजापति:--प्रजापति; अकल्मष: --निर्मल व्यक्ति

    श्रीभगवान्‌ ने उत्तर दिया: हे सती माता, आप अपने पूर्व जन्म में स्वायंभुव मनु कल्प मेंपृश्िन नाम से विख्यात थीं और वसुदेव सुतपा नामक अत्यन्त पवित्र प्रजापति थे।

    युवां बै ब्रह्मणादिष्टौ प्रजासगें यदा ततः ।

    सन्नियम्येन्द्रियग्रामं तेपाथे परमं तपः ॥

    ३३॥

    युवाम्‌--तुम दोनों ( पृश्नि तथा सुतपा ); बै--निस्सन्देह; ब्रह्मणा आदिष्टौ--ब्रह्मा ( जो पितामह या प्रजापतियों के पिता कहलातेहैं ) की आज्ञा से; प्रजा-सर्गे--सन्तान उत्पन्न करने में; यदा--जब; ततः--तत्पश्चात्‌; सन्नियम्य--पूर्ण नियंत्रण में रखते हुए;इन्द्रिय-ग्रामम्‌--इन्द्रियों को; तेपाथे--की; परमम्‌--महान; तपः--तपस्या

    जब भगवान्‌ ब्रह्मा ने तुम दोनों को सन्तान उत्पन्न करने का आदेश दिया तो तुम दोनों नेपहले अपनी इन्द्रियों को वश में रखते हुए कठोर तपस्या की।

    वर्षवातातपहिमघर्मकालगुणाननु ।

    सहमानौ श्वासरोधविनिर्धूतमनोमलौ ॥

    ३४॥

    शीर्णपर्णानिलाहारावुपशान्तेन चेतसा ।

    मत्त: कामानभीप्सन्तौ मदाराधनमीहतु: ॥

    ३५॥

    वर्ष--वर्षा; वात--तेज हवा; आतप--तेज धूप; हिम--कड़ाके की ठंड; घर्म--घाम; काल-गुणान्‌ अनु--ऋतु परिवर्तनों केअनुसार; सहमानौ--सहन करके; श्रास-रोध--साँस रोककर, योगाभ्यास द्वारा; विनिर्धूत-- मन में जमी मैल धुल जाती है; मनः-मलौ--मन भौतिक कल्मष से मुक्त होकर शुद्ध बन गया; शीर्ण--शुष्क, त्यक्त; पर्ण--पेड़ों के पत्ते; अनिल--तथा वायु;आहारौ--खाकर; उपशान्तेन--शान्त; चेतसा-- पूर्ण संयमित मन से; मत्त:--मुझसे; कामान्‌ अभीप्सन्तौ--कुछ वर माँगने कीइच्छा से; मत्‌--मेरी; आराधनम्‌--पूजा; ईहतुः--तुम दोनों ने सम्पन्न की |

    हे माता-पिता, तुम लोगों ने विभिन्न ऋतुओं के अनुसार वर्षा, तूफान, कड़ी धूप तथाकड़ाके की ठंड सभी प्रकार की असुविधाएँ सही थीं।

    तुमने शरीर के भीतर वायु रोकने के लिएप्राणायाम करके तथा केवल हवा और वृक्षों से गिरे सूखे पत्ते खाकर अपने मन से सारे मैल कोसाफ कर दिया था।

    इस तरह मेरे वर की इच्छा से तुम लोगों ने शान्त चित्त से मेरी पूजा की थी।

    एवं वां तप्यतोस्तीब्रं तप: परमदुष्करम्‌ ।

    दिव्यवर्षसहस्त्राणि द्वादशेयुर्मदात्मनो: ॥

    ३६॥

    एवम्‌--इस तरह से; वाम्‌--तुम दोनों को; तप्यतो:--तपस्या करते; तीव्रमू--अत्यन्त कठोर; तप:ः--तपस्या; परम-दुष्करम्‌--सम्पन्न करना कठिन; दिव्य-वर्ष--स्वर्गलोक के अनुसार काल गणना; सहस्त्राणि--हजार; द्वादश--बारह; ईयु:--बीत गए;मत्‌-आत्मनो: --मेरी चेतना में लगे रहकर।

    इस तरह तुम दोनों ने मेरी चेतना ( कृष्णभावना ) में कठिन तपस्या करते हुए बारह हजारदिव्य वर्ष बिता दिए।

    तदा वां परितुष्टो हममुना वपुषानघे ।

    तपसा श्रद्धया नित्यं भक्त्या च हदि भावितः ॥

    ३७॥

    प्रादुरासं वरदराड्युवयो: कामदित्सया ।

    ब्रियतां वर इत्युक्ते माइशो वां वृतः सुतः ॥

    ३८॥

    तदा--तब ( बारह हजार दिव्य वर्ष बीत जाने पर ); वाम्‌-तुम दोनों के साथ; परितुष्ट: अहम्‌--मैं संतुष्ट हुआ; अमुना--इससे;वपुषा--कृष्ण के रूप में; अनघे--हे निष्पाप माता; तपसा--तपस्या के द्वारा; श्रद्धया-- श्रद्धापूर्वक; नित्यम्‌--निरन्तर ( लगेरहकर ); भक्त्या--भक्ति के द्वारा; च--भी; हृदि--हृदय के भीतर; भावित:--स्थिर ( संकल्प ); प्रादुरासम्‌--तुम्हारे समक्ष( उसी तरह ) प्रकट हुआ; वर-द-राट्‌-- श्रेष्ठ वरदायक; युवयो: --तुम दोनों का; काम-दित्सया--इच्छा पूरी करने के लिए;ब्रियतामू-तुमसे मन की बात कहने के लिए पूछा; वर:--वरदान के लिए; इति उक्ते--इस तरह अनुरोध किए जाने वाले;माहशः--मेरी ही तरह; वाम्‌--तुम दोनों का; वृतः--पूछा गया था; सुतः--तुम्हारे पुत्र रूप में ( तुमने मेरे जैसा पुत्र चाहा था )।

    हे निष्पाप माता देवकी, उन बारह हजार दिव्य वर्षो के बीत जाने पर, जिनमें तुम अपने हृदयमें परम श्रद्धा, भक्ति तथा तपस्यापूर्वक निरन्तर मेरा ध्यान करती रही, मैं तुम से अत्यन्त प्रसन्न हुआ था।

    चूँकि मैं वर देने वालों में सर्वश्रेष्ठ हूँ, अत: मैं इसी कृष्ण रूप में प्रकट हुआ कि तुममनवाउिछत वर माँगो।

    तब तुमने मेरे सह पुत्र-प्राप्ति की इच्छा प्रकट की थी।

    अजुष्टग्राम्यविषयावनपत्यौ च दम्पती ।

    न वक्राथेपवर्ग मे मोहितौ देवमायया ॥

    ३९॥

    अजुष्ट-ग्राम्प-विषयौ--विषयी जीवन तथा मुझ जैसा बालक उत्पन्न करने के लिए; अनपत्यौ--सन्तानविहीन होने के कारण;च--भी; दम्‌-पती--पति-पली दोनों; न--कभी नहीं; वब्राथे--माँगा ( कोई वर ); अपवर्गम्‌--इस जगत से मोक्ष; मे--मुझसे;मोहितौ--अत्यधिक आकर्षित होकर; देव-मायया--मेरे लिए दिव्य प्रेम के कारण ( मुझे अपने पुत्र रूप में चाहकर )

    पति-पत्नी रूप में सन्तानहीन होने से आप लोग विषयी-जीवन के प्रति आकृष्ट हुए क्योंकिदेवमाया के प्रभाव अर्थात्‌ दिव्य प्रेम से तुम लोग मुझे अपने पुत्र के रूप में प्राप्त करना चाह रहेथे इसलिए तुम लोगों ने इस जगत से कभी भी मुक्त होना नहीं चाहा।

    गते मयि युवां लब्ध्वा वरं मत्सहृ॒शं सुतम्‌ ।

    ग्राम्यान्भोगानभुख्ाथां युवां प्राप्तमनोरथौ ॥

    ४०॥

    गते मयि--मेरे चले जाने पर; युवाम्‌--तुम दोनों को ( दम्पतियों को ); लब्ध्वा--पाकर; वरम्‌--वरदान ( पुत्र प्राप्ति का ); मत्‌ू-सहशम्‌--मेरी ही तरह के; सुतम्‌--पुत्र को; ग्राम्यान्‌ भोगान्‌ू-- भोग-विलास में व्यस्त रहना; अभुज्जाथाम्‌-- भोग किया;युवाम्‌--तुम दोनों को; प्राप्त--प्राप्त करके; मनोरथौ--अभिलाषाएँ।

    जब तुम वर प्राप्त कर चुके और मैं अन्तर्धान हो गया तो तुम मुझ जैसा पुत्र प्राप्त करने केउद्देश्य से विषयभोग में लग गए और मैंने तुम्हारी इच्छा पूरी कर दी।

    अह्ृष्ठान्यतमं लोके शीलौदार्यगुणै: समम्‌ ।

    अहं सुतो वामभवं पृश्निगर्भ इति श्रुतः ॥

    ४१॥

    अद्ृष्टा--न पाकर; अन्यतमम्‌--किसी अन्य को; लोके--इस जगत में; शील-औदार्य-गुणैः--शील तथा उदारता के गुणों सेयुक्त; समम्‌--तुम्हारे तुल्य; अहम्‌--मैं; सुत:--पुत्र; वामू--तुम दोनों का; अभवम्‌--बना; पृश्नि-गर्भ:--पृश्टिन से उत्पन्न हुआ;इति--इस प्रकार; श्रुतः:--प्रसिद्ध हुआ |

    चूँकि मुझे सरलता तथा शील के दूसरे गुणों में तुम जैसा बढ़ा-चढ़ा अन्य कोई व्यक्ति नहींमिला अतः मैं पृश्नि-गर्भ के रूप में उत्पन्न हुआ।

    तयोर्वा पुनरेवाहमदित्यामास कश्यपात्‌ ।

    उपेन्द्र इति विख्यातो वामनत्वाच्च वामन: ॥

    ४२॥

    तयो:--तुम पति-पत्नी दोनों का; वाम्‌--दोनों में; पुन: एब--फिर से ही; अहम्‌--मैं; अदित्याम्‌-- अदिति के गर्भ में; आस--प्रकट हुआ; कश्यपात्‌--कश्यपमुनि के वीर्य से; उपेन्द्र:--उपेन्द्र नाम से; इति--इस प्रकार; विख्यात:--सुप्रसिद्ध; वामनत्वात्‌च--तथा बौना बनने से; वामन:--वामन नाम से विख्यात |

    मैं अगले युग में तुम दोनों से, माता अदिति तथा पिता कश्यप से पुनः प्रकट हुआ।

    मैं उपेन्द्रनाम से विख्यात हुआ और बौना होने के कारण मैं वामन भी कहलाया।

    तृतीयेउस्मिन्भवेहं वै तेनेव वपुषाथ वाम्‌ ।

    जातो भूयस्तयोरेव सत्यं मे व्याहतं सति ॥

    ४३॥

    तृतीये--तीसरी बार; अस्मिन्‌ भवे--इस रूप में ( कृष्ण रूप के ); अहम्‌--मैं; वै--निस्सन्देह; तेन--उसी व्यक्ति से; एब--इसतरह; वपुषा--रूप द्वारा; अथ--जिस तरह; वाम्‌--तुम दोनों के; जात: --उत्पन्न; भूय:--फिर से; तयो:--तुम दोनों का;एव--निस्सन्देह; सत्यम्‌--सत्य मानकर; मे--मेरे; व्याहतम्‌--शब्द; सति--हे सती |

    हे परम सती माता, मैं वही व्यक्ति अब तीसरी बार तुम दोनों के पुत्र रूप में प्रकट हुआ हूँ।

    मेरे वचनों को सत्य मानें।

    एतद्ठां दर्शितं रूप॑ प्राग्जन्मस्मरणाय मे ।

    नान्यथा मद्धवं ज्ञानं मर्त्यलिड्रेन जायते ॥

    ४४॥

    एतत्‌--विष्णु का यह रूप; वाम्‌ू--तुम दोनों को; दर्शितम्‌--दिखलाया गया; रूपमू--चतुर्भुज भगवान्‌ के रूप में मेरा स्वरूप;प्राकू-जन्म--पूर्व जन्मों का; स्मरणाय--तुमको स्मरण दिलाने के लिए; मे--मेरा; न--नहीं; अन्यथा--अन्यथा; मत्‌-भवम्‌--विष्णु का प्राकट्य; ज्ञामम्‌ू--यह दिव्य ज्ञान; मर्त्य-लिड्रेन--मानवी शिशु की तरह जन्म लेकर; जायते--उत्पन्न होता है।

    मैंने तुम लोगों को यह विष्णु-रूप मात्र अपने पूर्वजन्मों का स्मरण कराने के लिएदिखलाया है।

    अन्यथा यदि मैं सामान्य बालक की तरह प्रकट होता तो तुम लोगों को विश्वास नहो पाता कि भगवान्‌ विष्णु सचमुच प्रकट हुए हैं।

    युवां मां पुत्रभावेन ब्रह्मभावेन चासकृत्‌ ।

    चिन्तयन्तौ कृतस्नेहौ यास्येथे मद्गतिं पराम्‌ ॥

    ४५॥

    युवाम्‌--तुम दोनों ( पति-पत्नी ); माम्‌--मुझको; पुत्र-भावेन--अपने पुत्र रूप में; ब्रह्म-भावेन--मुझे भगवान्‌ के रूप में जानतेहुए; च--तथा; असकृत्‌--निरन्तर; चिन्तयन्तौ--इस तरह सोचते हुए; कृत-स्नेहौ --प्रेम का बर्ताव करते हुए; यास्येथे--दोनोंको प्राप्त होगा; मत्‌ू-गतिम्‌--मेरा परम धाम; पराम्‌-दिव्य |

    तुम पति-पत्ली निरन्तर अपने पुत्र के रूप में मेरा चिन्तन करते हो, किन्तु तुम यह जानते रहतेहो कि मैं भगवान्‌ हूँ।

    इस तरह निरन्तर स्नेहपूर्वक मेरा चिन्तन करते हुए तुम लोग सर्वोच्च सिद्धिप्राप्त करोगे अर्थात्‌ भगवद्धाम वापस जाओगे।

    श्रीशुक उबाचइत्युक्त्वासीद्धरिस्तृष्णीं भगवानात्ममायया ।

    पित्रो: सम्पश्यतो: सद्यो बभूव प्राकृत: शिशु; ॥

    ४६॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति उक्त्वा--इस तरह उपदेश देकर; आसीत्‌--रहे; हरि: -- भगवान्‌;तृष्णीमू--मौन; भगवान्‌-- भगवान्‌ विष्णु; आत्म-मायया--अपनी आध्यात्मिक शक्ति से कार्य करते हुए; पित्रो: सम्पश्यतो: --यथार्थ रूप में माता-पिता द्वारा देखे जाकर; सद्यः--तुरन्त; बभूव--हो गये; प्राकृत:--सामान्य व्यक्ति की तरह; शिशु:--बालक।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : अपने माता-पिता को इस तरह उपदेश देने के बाद भगवान्‌कृष्ण मौन रहे।

    तब उन्हीं के सामने अपनी अंतरंगा शक्ति से उन्होंने अपने आप को एक छोटेशिशु के रूप में बदल लिया।

    ( दूसरे शब्दों में, उन्होंने स्वयं को अपने आदि रूप में रूपान्तरित कर दिया-- कृष्णस्तु भगवान्‌ स्वयम्‌ )।

    ततश्च शौरिभ्भगवत्प्रचोदित:सुतं समादाय स सूतिकागृहात्‌ ।

    यदा बहिर्गन्तुमियेष तहांजाया योगमायाजनि नन्दजायया ॥

    ४७॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; च--निस्सन्देह; शौरि: --वसुदेव; भगवत्-प्रचोदित:-- भगवान्‌ से आज्ञा पाकर; सुतम्‌--अपने पुत्र को;समादाय--सावधानी से ले जाकर; सः--उसने; सूतिका-गृहात्‌-- प्रसूतिगृह से, सौरी से; यदा--जब; बहिः गन्तुमू--बाहर जानेके लिए; इयेष--चाहा; तहि---तब, उस समय; अजा--न जन्म लेने वाली दिव्य शक्ति; या--जो; योगमाया--योगमाया ने;अजनि--जन्म लिया; नन्द-जायया--नन्द महाराज की पत्नी से।

    तत्पश्चात्‌ भगवान्‌ की प्रेरणा से जब वसुदेव नवजात शिशु को सूतिकागृह से ले जाने वालेथे तो बिलकुल उसी क्षण भगवान्‌ की आध्यात्मिक शक्ति योगमाया ने महाराज नन्द की पत्नीकी पुत्री के रूप में जन्म लिया।

    तया हतप्रत्ययसर्ववृत्तिषुद्वा:स्थेषु पौरेष्वपि शायितेष्वथ ।

    द्वारश्न सर्वा: पिहिता दुरत्ययाबृहत्कपाटायसकीलश्रुद्ुलै: ॥

    ४८ ॥

    ताः कृष्णवाहे वसुदेव आगतेस्वयं व्यवर्यन्त यथा तमो रवे: ।

    वर्ष पर्जन्य उपांशुगर्जितःशेषो<न्वगाद्वारि निवारयन्फणैः ॥

    ४९॥

    तया--योगमाया के प्रभाव से; हत-प्रत्यय--सारी अनुभूति से रहित; सर्व-वृत्तिषु--अपनी समस्त इन्द्रियों सहित; द्वा:-स्थेषु --सारे द्वारपाल; पौरेषु अपि--तथा घर के सारे लोग भी; शायितेषु--गहरी नींद में मगन; अथ--जब वसुदेव ने अपने पुत्र कोबन्दीगृह से बाहर ले जाने का प्रयास किया; द्वार: च--तथा दरवाजे भी; सर्वा:--सारे; पिहिता:--निर्मित; दुरत्यया--अत्यन्तकठोर तथा हृढ़; बृहत्‌-कपाट--तथा बड़े दरवाजे पर; आयस-कौल- श्रूडुलैः--लोहे के काँटों से बने तथा लोहे की जंजीरों सेबन्द किए गए; ता:--वे सब; कृष्ण-वाहे--कृष्ण को लिए हुए; वसुदेवे--जब वसुदेव; आगते-- प्रकट हुए; स्वयम्‌--स्वयं;व्यवर्यन्त--खुल गए; यथा--जिस तरह; तम:--अँधेरा; रवे: --सूर्य के उदय होने पर; ववर्ष--पानी बरसे हुए; पर्जन्य:--आकाश में बादल; उपांशु-गर्जित:--मन्द गर्जना करते और रिमझिम बरसते; शेष: -- अनन्त नाग; अन्वगात्‌--पीछे-पीछे चला;वारि--वर्षा की झड़ी; निवारयन्‌--रोकते हुए; फणैः --अपने फनों को फैलाकर।

    योगमाया के प्रभाव से सारे द्वारपाल गहरी नींद में सो गए, उनकी इन्द्रियाँ निष्क्रिय हो गईंऔर घर के अन्य लोग भी गहरी नींद में सो गए।

    जिस प्रकार सूर्य के उदय होने पर अंधकारस्वतः छिप जाता है उसी तरह वसुदेव के प्रकट होने पर लोहे की कीलों से जड़े तथा भीतर सेलोहे की जंजीरों से जकड़े हुए बंद दरवाजे स्वतः खुल गए।

    चूँकि आकाश में बादल मन्द गर्जनाकर रहे थे और झड़ी लगाए हुए थे अतः भगवान्‌ के अंश अनन्त नाग दरवाजे से ही वसुदेव तथादिव्य शिशु की रक्षा करने के लिए अपने फण फैलाकर वसुदेव के पीछे लग लिए।

    मधघोनि वर्षत्यसकृद्यमानुजागम्भीरतोयौघजवोर्मिफेनिला ।

    भयानकावर्तशताकुला नदीमार्ग ददौ सिन्धुरिव थ्िय: पते: ॥

    ५०॥

    मधघोनि वर्षति--इन्द्र की वर्षा के कारण; असकृत्‌--निरन्तर; यम-अनुजा--यमुना नदी, जिसे यमराज की बहन माना जाता है;गम्भीर-तोय-ओघ--गहरे जल के; जब--वेग से; ऊर्मि-- लहरों से; फेनिला--फेन से पूर्ण; भयानक--भयानक; आवर्त-शत--भँवरों से; आकुला--श्षुब्ध; नदी--नदी ने; मार्गम्‌--रास्ता; ददौ--दे दिया; सिन्धु: इब--समुद्र के समान; थ्रियः पतेः--देवी सीता के पति भगवान्‌ रामचन्द्र को।

    इन्द्र द्वारा बरसायी गयी निरन्तर वर्षा के कारण यमुना नदी में पानी चढ़ आया था और उसमेंभयानक भंँवरों के साथ फेन उठ रहा था।

    किन्तु जिस तरह पूर्वकाल में हिन्द महासागर नेभगवान्‌ रामचन्द्र को सेतु बनाने की अनुमति देकर रास्ता प्रदान किया था उसी तरह यमुना नदीने वसुदेव को रास्ता देकर उन्हें नदी पार करने दी।

    नन्दब्रजं शौरिरुपेत्य तत्र तान्‌गोपान्प्रसुप्तानुपलभ्य निद्रया ।

    सुतं यशोदाशयने निधाय त-त्सुतामुपादाय पुनर्गृहानगात्‌ ॥

    ५१॥

    नन्द-ब्रजम्‌--नन्द महाराज के गाँव या घर तक; शौरि:--वसुदेव; उपेत्य--पहुँचकर; तत्र--वहाँ; तान्‌--सारे लोगों को;गोपान्‌--सारे ग्वालों को; प्रसुप्तानू--सोया हुआ; उपलभ्य--जानकर; निद्रया--गहरी निद्रा में; सुतम्‌--पुत्र को ( वसुदेव केपुत्र को ); यशोदा-शयने--उस बिस्तर पर जिसमें यशोदा सो रही थीं; निधाय--रखकर; तत्‌-सुताम्‌--उसकी पुत्री को;उपादाय--लेकर; पुनः--फिर; गृहान्‌ू--अपने घर को; अगात्‌--लौट आया।

    जब वसुदेव नन्‍्द महाराज के घर पहुँचे तो देखा कि सारे ग्वाले गहरी नींद में सोए हुए थे।

    उन्होंने अपने पुत्र को यशोदा के पलँग में रख दिया, उसकी पुत्री को, जो योगमाया की अंश थी,उठाया और अपने घर कंस के बंदीगृह वापस लौट आए।

    देवक्या: शयने न्यस्य वसुदेवोथ दारिकाम्‌ ।

    प्रतिमुच्य पदोरलोहमास्ते पूर्ववदावृतः ॥

    ५२॥

    देवक्या: --देवकी के; शयने--विस्तर पर; न्यस्य--रखकर; वसुदेव: --वसुदेव ने; अथ--इस प्रकार; दारिकाम्‌--लड़की को;प्रतिमुच्य--पुन: पहन कर; पदो: लोहम्‌--पाँवों की बेड़ियाँ; आस्ते--हो गया; पूर्ब-बत्‌--पहले की तरह; आवृतः--बँधाहुआ।

    वसुदेव ने लड़की को देवकी के पलँग पर रख दिया और अपने पाँवों में बेड़ियाँ पहन लींतथा पहले की तरह बन गए।

    यशोदा नन्दपत्नी च जात॑ परमबुध्यत ।

    न तल्लिड़ूं परिश्रान्ता निद्रयापगतस्मृति: ॥

    ५३॥

    यशोदा--यशोदा, गोकुल में कृष्ण की माता; नन्द-पत्नी--नन्द महाराज की पत्नी; च--भी; जातम्‌--उत्पन्न शिशु; परमू--परमपुरुष को; अबुध्यत--समझ गई; न--नहीं; तत्‌-लिड्रमू--कि बालक नर है या मादा; परिश्रान्ता--अत्यधिक प्रसव पीड़ा केकारण; निद्रया--नींद के वशीभूत; अपगत-स्मृतिः--चेतना खोकर।

    शिशु जनने की पीड़ा से थककर यशोदा नींद के वशीभूत हो गई और यह नहीं समझ पाईकि उन्हें लड़का हुआ है या लड़की।

    TO

    अध्याय चार: राजा कंस के अत्याचार

    10.4श्रीशुक उबाचबहिरन्तःपुरद्वारः सर्वाः पूर्ववदावृता: ।

    ततो बालध्वनिं श्रुत्वा गृहपाला: समुत्थिता: ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; बहिः-अन्तः-पुर-द्वारः--घर के भीतरी तथा बाहरी दरवाजे; सर्वा:--सारे;पूर्व-बत्‌--पहले की तरह; आवृता:--बन्द; ततः--तत्पश्चात्‌; बाल-ध्वनिम्‌--नवजात शिशु का रोदन; श्रुत्वा--सुनकर; गृह-पाला:--घर के सारे वासी विशेषतया द्वारपाल; समुत्थिता:--जग गए

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा परीक्षित, घर के भीतरी तथा बाहरी दरवाजे पूर्ववत्‌बन्द हो गए।

    तत्पश्चात्‌ घर के रहने वालों ने, विशेष रूप से द्वारपालों ने, नवजात शिशु काक्रन्दन सुना और अपने बिस्तरों से उठ खड़े हुए।

    ते तु तूर्णमुपत्रज्य देवक्या गर्भजन्म तत्‌ ।

    आचख्युर्भोजराजाय यदुद्विग्न: प्रतीक्षते ॥

    २॥

    ते--वे सारे द्वारपाल; तु--निस्सन्देह; तूर्णम्‌--शीघ्र; उपब्रज्य--राजा के समक्ष जाकर; देवक्या:--देवकी का; गर्भ-जन्म-गर्भसे बाहर आना; तत्‌--उस ( शिशु ); आचख्यु:--प्रस्तुत किया; भोज-राजाय--भोजराज कंस को; यत्‌--जिससे; उद्विग्न:--अत्यधिक चिन्तित; प्रतीक्षते--प्रतीक्षा कर रहा था ( शिशु जन्म की )

    तत्पश्चात्‌ सारे द्वारपाल जल्दी से भोजवंश के शासक राजा कंस के पास गये और उसेदेवकी से शिशु के जन्म लेने का समाचार बतलाया।

    अत्यन्त उत्सुकता से इस समाचार कीप्रतीक्षा कर रहे कंस ने तुरन्त ही कार्यवाही की।

    स तल्पात्तूर्णमुत्थाय कालोयमिति विहलः ।

    सूतीगृहमगात्तूर्ण प्रस्खलन्मुक्तमूर्धज: ॥

    ३॥

    सः--वह ( कंस ); तल्पात्‌--बिस्तर से; तूर्णम्‌--शीघ्र ही; उत्थाय--उठकर; काल: अयम्‌--यह रही मेरी मृत्यु, परम काल;इति--इस प्रकार; विहलः --उद्विग्न; सूती-गृहम्‌--सौर को; अगात्‌--गया; तूर्णम्‌--देरी लगाए बिना; प्रस्खलन्‌--बिखेरे हुए;मुक्त--खुले; मूर्ध-ज:--सिर के बाल।

    कंस तुरन्त ही बिस्तर से यह सोचते हुए उठ खड़ा हुआ, '‘यह रहा काल, जिसने मेरा वधकरने के लिए जन्म लिया है।

    इस तरह उद्विग्न एवं अपने सिर के बाल बिखराए कंस तुरन्त हीउस स्थान पर पहुँचा जहाँ शिशु ने जन्म लिया था।

    तमाह भ्रातरं देवी कृपणा करुणं सती ।

    स्नुषेयं तब कल्याण स्त्रियं मा हन्तुमहसि ॥

    ४॥

    तम्‌ू--कंस से; आह--कहा; भ्रातरम्‌--अपने भाई; देवी--माता देवकी ने; कृपणा--असहाय; करुणम्‌--कातर; सती --सती; स्नुषा इयम्‌ तब--यह शिशु तुम्हारी भावी पुत्र-वधू बनेगी; कल्याण--हे शुभ; स्त्रियम्‌--स्त्री को; मा--नहीं; हन्तुमू--वधकरना; अर्हसि--तुम्हें शोभा देता है।

    असहाय तथा कातर भाव से देवकी ने कंस से विनती की : मेरे भाई, तुम्हारा कल्याण हो।

    तुम इस बालिका को मत मारो।

    यह तुम्हारी पुत्र-वधू बनेगी।

    तुम्हें शोभा नहीं देता कि एककन्या का वध करो।

    बहवो हिंसिता भ्रात: शिशवः पावकोपमा: ।

    त्वया दैवनिसूष्टेन पुत्रिकेका प्रदीयताम्‌ ॥

    ५॥

    बहव:--अनेक; हिंसिता:--ईर्ष्यावश मारे गए; भ्रात:--हे भाई; शिशव:--अनेक शिशु; पावक-उपमा:--तेज और सौन्दर्य मेंअग्नि के समान; त्वया--तुम्हारे द्वारा; दैव-निसृष्टेन--भविष्यवाणी से; पुत्रिका--कन्या; एका--एक; प्रदीयताम्‌--तुम मुझेउपहार स्वरूप दे दो।

    हे भ्राता, तुम दैववश मेरे अनेक सुन्दर तथा अग्नि जैसे तेजस्वी शिशुओं को पहले ही मारचुके हो।

    किन्तु कृपा करके इस कन्या को छोड़ दो।

    इसे उपहार स्वरूप मुझे दे दो।

    नन्वहं ते ह्वरजा दीना हतसुता प्रभो ।

    दातुमरहसि मन्दाया अड्लेमां चरमां प्रजाम्‌ू ॥

    ६॥

    ननु--किन्तु; अहम्‌-मैं; ते--तुम्हारी; हि--निश्चय ही; अवरजा--छोटी बहन; दीना--दीन; हत-सुता--सन्तान से विहीन कीगई; प्रभो--हे प्रभु; दातुम्‌ अहंसि--तुम देने में समर्थ हो; मन्दाया:--इस अभागिन को; अड्भ--मेरे भाई; इमाम्‌--इस;चरमाम्‌-- अन्तिम; प्रजामू--बालक को

    हे प्रभु, हे मेरे भाई, मैं अपने सारे बालकों से विरहित होकर अत्यन्त दीन हूँ, फिर भी मैंतुम्हारी छोटी बहन हूँ अतएव यह तुम्हारे अनुरूप ही होगा कि तुम इस अन्तिम शिशु को मुझे भेंटमें दे दो।

    श्रीशुक उबाचउपगुद्यात्मजामेवं रुद॒त्या दीनदीनवत्‌ ।

    याचितस्तां विनिर्भत्स्य हस्तादाचिच्छिदे खलः ॥

    ७॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; उपगुह्ा--आलिंगन करके; आत्मजाम्‌--अपनी पुत्री को; एवम्‌--इस प्रकार;रुदत्या--रूदन करती देवकी द्वारा; दीन-दीन-वत्‌--एक गरीब स्त्री की भाँति अत्यन्त दीनतापूर्वक; याचित:--माँगे जाने पर;तामू--उसे ( देवकी को ); विनिर्भ्स्य--भर्त्सना करके; हस्तातू--हाथ से; आचिच्छिदे--बलपूर्वक छीन लिया; खलः--उसदुष्ट कंस ने |

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : अपनी पुत्री को दीनतापूर्वक सीने से लगाये हुए तथाबिलखते हुए देवकी ने कंस से अपनी सनन्‍्तान के प्राणों की भीख माँगी, किन्तु वह इतना निर्दयीथा कि उसने देवकी को फटकारते हुए उसके हाथों से उस बालिका को बलपूर्वक झपट लिया।

    तां गृहीत्वा चरणयोर्जातमात्रां स्वसु: सुताम्‌ ।

    अपोथयच्छिलापूट्टे स्वार्थोन्मूलितसौहद: ॥

    ८ ॥

    ताम्‌ू--शिशु को; गृहीत्वा--बलपूर्वक लेकर; चरणयो:--दोनों पाँवों से; जात-मात्रामू--नवजात शिशु को; स्वसु:--अपनीबहन की; सुताम्‌--कन्या को; अपोधयत्‌--पछाड़ दिया; शिला-पृष्ठे--पत्थर के ऊपर; स्व-अर्थ-उन्मूलित--विकट स्वार्थ केवशीभूत होकर जड़ से उखाड़ फेंका; सौहद:--सारे मित्र या पारिवारिक सम्बन्ध |

    अपने विकट स्वार्थ के कारण अपनी बहन से सारे सम्बन्ध तोड़ते हुए घुटनों के बल बैठेकंस ने नवजात शिशु के पाँवों को पकड़ा और उसे पत्थर पर पटकना चाहा।

    सा तद्धस्तात्समुत्पत्य सद्यो देव्यम्बरं गता ।

    अदृश्यतानुजा विष्णो: सायुधाष्टमहाभुजा ॥

    ९॥

    सा--वह कन्या; ततू-हस्तातू--कंस के हाथ से; सम्‌-उत्पत्य--छूटकर; सद्य:--तुरन्त; देवी--देवी के रूप में; अम्बरम्‌--आकाश में; गता--चली गईं; अहृश्यत--देखी गई; अनुजा--छोटी बहन; विष्णो:-- भगवान्‌ की; स-आयुधा--हथियारोंसहित; अष्ट--आठ; महा-भुजा--बड़ी-बड़ी भुजाओं वाली

    वह कन्या, योगमाया देवी जो भगवान्‌ विष्णु की छोटी बहन थी, कंस के हाथ से छूट करऊपर की ओर चली गई और आकाश में हथियारों से युक्त आठ भुजाओं वाली देवी--देवीदुर्गा--के रूप में प्रकट हुई।

    दिव्यस्त्रगम्बरालेपरत्ताभरणभूषिता ।

    धनुःशूलेषुचर्मासिशट्डुचक्रगदाधरा ॥

    १०॥

    सिद्धचारणगन्धर्वैरप्सर:किन्नरोरगै: ।

    उपाहतोरुबलिभि:ः स्तूयमानेदमब्रवीत्‌ ॥

    ११॥

    दिव्य-सत्रकू-अम्बर-आलेप--तब उसने चन्दन लेप, फूल-माला तथा सुन्दर वस्त्रों से आभूषित देवी का रूप धारण कर लिया;रतल-आभरण-भूषिता--बहुमूल्य रत्नों वाले आभूषणों से सज्जित; धनुः-शूल-इषु-चर्म-असि--धनुष, त्रिशूल, तीर, ढाल तथातलवार से युक्त; शटद्डु-चक्र-गदा-धरा--तथा शंख, चक्र और गदा धारण किए हुए; सिद्ध-चारण-गन्धर्व:--सिद्ध, चारण तथागन्धर्वों के द्वारा; अप्सर:-किन्नर-उरगै:--अप्सराओं, किन्नरों तथा उरगों द्वारा; उपाहत-उरु-बलिभि: --सभी उसके लिए भेंटेंलेकर आए; स्तूयमाना--प्रशंसित होकर; इृदम्‌--ये शब्द; अब्नवीत्‌--उसने कहे |

    देवी दुर्गा फूल की मालाओं से सुशोभित थीं, वे चन्दन का लेप किए थीं और सुन्दर वस्त्रपहने तथा बहुमूल्य रत्नों से जटित आभूषणों से युक्त थीं।

    वे अपने हाथों में धनुष, त्रिशूल, बाण,ढाल, तलवार, शंख, चक्र तथा गदा धारण किए हुए थीं।

    अप्सराएँ, किन्नर, उरग, सिद्ध, चारणतथा गन्धर्व तरह-तरह की भेंट अर्पित करते हुए उनकी प्रशंसा और पूजा कर रहे थे।

    ऐसी देवीदुर्गा इस प्रकार बोलीं ।

    कि मया हतया मन्द जातः खलु तवान्तकृत्‌ ।

    यत्र क्‍्व वा पूर्वशत्रुर्मा हिंसी: कृपणान्वृथा ॥

    १२॥

    किम्‌--क्या लाभ; मया--मुझे; हतया--मारने में; मन्द--ओरे मूर्ख; जात:--पहले ही जन्म ले चुका है; खलु--निस्सन्देह; तवअन्त-कृत्‌--जो तुम्हारा वध करेगा; यत्र कब वा--अन्यत्र कहीं; पूर्व-शत्रु:--तुम्हारा पहले का शत्रु; मा--मत; हिंसी:--मारो;कृपणान्‌--अन्य बेचारे बालक; वृथा--व्यर्थ ही ओ

    रे मूर्ख कंस, मुझे मारने से तुझे क्या मिलेगा? तेरा जन्मजात शत्रु तथा वध करने वालापूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ अन्यत्र कहीं जन्म ले चुका है।

    अतः तू व्यर्थ ही अन्य बालकों का वधमत कर।

    इति प्रभाष्य तं देवी माया भगवती भुवि ।

    बहुनामनिकेतेषु बहुनामा बभूव ह ॥

    १३॥

    इति--इस तरह; प्रभाष्य--कहकर; तम्‌--कंस से; देवी--देवी दुर्गा; माया--योगमाया; भगवती-- भगवान्‌ जैसी शक्ति सेसम्पन्न; भुवि--पृथ्वी पर; बहु-नाम--अनेक नामों वाले; निकेतेषु--विभिन्न स्थानों में; बहु-नामा--अनेक नामों वाली;बभूव--हुईं; ह--निस्सन्देह।

    कंस से इस तरह कहकर देवी दुर्गा अर्थात्‌ योगमाया वाराणसी इत्यादि जैसे विभिन्न स्थानोंमें प्रकट हुईं और अन्नपूर्णा, दुर्गा, काली तथा भद्रा जैसे विभिन्न नामों से विख्यात हुईं।

    तयाभिहितमाकर्ण्य कंस: परमविस्मितः ।

    देवकीं वसुदेवं च विमुच्य प्रश्रितोउब्रवीत्‌ ॥

    १४॥

    तया--दुर्गा देवी द्वारा; अभिहितम्‌--कहे गए शब्दों को; आकर्णर्य--सुनकर; कंस: -- कंस; परम-विस्मित:-- अत्यधिकआश्चर्यचकित था; देवकीम्‌--देवकी को; वसुदेवम्‌ च--तथा वसुदेव को; विमुच्य--तुरन्त विमुक्त करके; प्रश्रित:--अत्यन्तदीनतापूर्बक; अब्नवीत्‌--इस प्रकार बोला |

    देवीदुर्गा के शब्दों को सुनकर कंस अत्यन्त विस्मित हुआ।

    तब वह अपनी बहन देवकी तथाबहनोई वसुदेव के निकट गया, उन्हें बेड़ियों से विमुक्त कर दिया तथा अति विनीत भाव में इसप्रकार बोला।

    अहो भगिन्यहो भाम मया वां बत पाप्मना ।

    पुरुषाद इवापत्यं बहवो हिंसिता: सुता: ॥

    १५॥

    अहो--ओह; भगिनि--मेरी बहन; अहो--ओह; भाम--मेरे बहनोई; मया--मेरे द्वारा; वामू--तुम दोनों को; बत--निस्सन्देह;पाप्मना--पापपूर्ण कार्यों से; पुरुष-अदः --मानव-भक्षी, राक्षस; इब--सहश; अपत्यमू--शिशु को; बहवः--अनेक;हिंसिता:--मारे गए; सुता:--पुत्रगण |

    हाय मेरी बहन! हाय मेरे बहनोई ! मैं सचमुच उस मानव-भक्षी ( राक्षस ) के तुल्य पापी हूँ जोअपने ही शिशु को मारकर खा जाता है क्योंकि मैंने तुमसे उत्पन्न अनेक पुत्रों को मार डाला है।

    स त्वहं त्यक्तकारुण्यस्त्यक्तज्ञातिसुहत्खल: ।

    कान्‍्लोकान्वै गमिष्यामि ब्रह्मदेव मृत: श्वसन्‌ ॥

    १६॥

    सः--वह व्यक्ति ( कंस ); तु--निस्सन्देह; अहम्‌--मैं; त्यक्त-कारुण्य:--सारी दया से विहीन; त्यक्त-ज्ञाति-सुहृत्‌--जिसनेअपने सम्बन्धियों तथा मित्रों का भी परित्याग कर रखा है; खलः--क्रूर; कान्‌ लोकानू--कौन से लोकों में; वै--निस्सन्देह;गमिष्यामि--जाऊँगा; ब्रह्म-हा इब--ब्राह्मण का वध करने वाले के समान; मृत: श्रसन्‌ू--मरने के बाद या जीते ही जीते |

    मैंने दयाविहीन तथा क्रूर होने के कारण अपने सारे सम्बन्धियों तथा मित्रों का परित्याग करदिया है।

    अतः मैं नहीं जानता कि ब्राह्मण का वध करने वाले व्यक्ति के समान मृत्यु के बाद याइस जीवित अवस्था में मैं किस लोक को जाऊँगा ?

    दैवमप्यनृतं वक्ति न मर्त्या एव केवलम्‌ ।

    यद्विश्रम्भादहं पाप: स्वसुर्निहतवाउिछशून्‌ ॥

    १७॥

    दैवम्‌--विधाता; अपि-- भी; अनृतम्‌--झूठ; वक्ति--कहते हैं; न--नहीं; मर्त्या:--मनुष्यगण; एव--निश्चय ही; केवलम्‌--केवल; यत्‌-विश्रम्भात्‌ू--उस भविष्यवाणी में विश्वास करने के कारण; अहमू्‌--मैंने; पाप: --अत्यन्त पापी; स्वसु;:--अपनीबहन के; निहतवान्‌--मार डाले; शिशून्‌--अनेक बालकों को

    हाय! कभी-कभी न केवल मनुष्य झूठ बोलते हैं अपितु विधाता भी झूठ बोलता है।

    और मैंइतना पापी हूँ कि मैंने विधाता की भविष्यवाणी को मानते हुए अपनी ही बहन के इतने बच्चोंका वध कर दिया।

    मा शोचतं महाभागावात्मजान्स्वकृतं भुजः ।

    जान्तवो न सदैकत्र दैवाधीनास्तदासते ॥

    १८॥

    मा शोचतम्‌--( इसके पहले जो हो गया उसके लिए ) अब दुखी न हों; महा-भागौ--हे आत्मज्ञानी तथा भाग्यशालिनी;आत्मजान्‌--अपने पुत्रों के लिए; स्व-कृतम्‌--अपने कर्मों के ही कारण; भुज:--भोग कर रहे हैं; जान्तवः--सारे जीव-जन्तु;न--नहीं; सदा--सदैव; एकत्र--एक स्थान में; दैव-अधीना:--जो भाग्य के वश में है; तदा--अतएव; आसते--जीवित रहतेहैं।

    हे महान्‌ आत्माओ, तुम दोनों के पुत्रों को अपने ही दुर्भाग्य का फल भोगना पड़ा है।

    अतःतुम उनके लिए शोक मत करो।

    सारे जीव परमेश्वर के नियंत्रण में होते हैं और वे सदैव एकसाथनहीं रह सकते।

    सान्त्वना देना चाह रहा था।

    भुवि भौमानि भूतानि यथा यान्त्यपयान्ति च ।

    नायमात्मा तथेतेषु विपर्येति यथेव भू: ॥

    १९॥

    भुवि--पृथ्वी पर; भौमानि--पृथ्वी से बने सारे भौतिक पदार्थ यथा घड़े आदि; भूतानि--उत्पन्न; यथा--जिस तरह; यान्ति--प्रकट होते हैं; अपयान्ति--विलीन होते हैं ( खंडित होकर मिट्टी में मिल जाते हैं ); च--तथा; न--नहीं; अयम्‌ आत्मा--आत्माया आध्यात्मिक स्वरूप; तथा--उसी तरह; एतेषु--इन सब ( भौतिक तत्त्वों से बने पदार्थों ) में से; विपर्येति--बदल जाता है याटूट जाता है; यथा--जिस तरह; एव--निश्चय ही; भू:--पृथ्वी

    इस संसार में हम देखते हैं कि बर्तन, खिलौने तथा पृथ्वी के अन्य पदार्थ प्रकट होते हैं,टूटते हैं और फिर पृथ्वी में मिलकर विलुप्त हो जाते हैं।

    ठीक इसी तरह बद्धजीवों के शरीर विनष्ट होते रहते हैं, किन्तु पृथ्वी की ही तरह ये जीव अपरिवर्तित रहते हैं और कभी विनष्ट नहींहोते ( न हन्यते हन्यमाने शरीरे )।

    यथानेवंविदो भेदो यत आत्मविपर्ययः ।

    देहयोगवियोगौ च संसृतिर्न निवर्तते ॥

    २०॥

    यथा--जिस तरह; अनू-एवम्‌-विदः --ऐसे व्यक्ति का जिसे ( आत्म-तत्त्व तथा आत्मा के स्थायित्व का ) शरीर के परिवर्तनों केबावजूद कोई ज्ञान नहीं होता; भेदः--शरीर तथा आत्मा का अन्तर; यत:--जिससे; आत्म-विपर्यय: --यह मूर्खतापूर्ण ज्ञान किवह शरीर है; देह-योग-वियोगौ च--तथा विभिन्न शरीरों में सम्बन्ध तथा वियोगों को उत्पन्न करता है; संसृतिः--बद्ध जीवन कीनिरन्तरता; न--नहीं; निवर्तते--रूकती है।

    जो व्यक्ति शरीर तथा आत्मा की स्वाभाविक स्थिति को नहीं समझता वह देहात्मबुद्धि केप्रति अत्यधिक अनुरक्त रहता है।

    फलस्वरूप शरीर तथा उसके प्रतिफलों के प्रति अनुरक्ति केकारण वह अपने परिवार, समाज तथा राष्ट्र के साथ संयोग तथा वियोग का अनुभव करता है।

    जब तक ऐसा बना रहता है तब तक वह भौतिक जीवन बिताता है ( अन्यथा मुक्त है )।

    तस्माद्धद्रे स्वतनयान्मया व्यापादितानपि ।

    मानुशोच यतः सर्व: स्वकृतं विन्दतेडबशः ॥

    २१॥

    तस्मातू--अतः; भद्वे--मेरी बहन ( तुम्हारा कल्याण हो ); स्व-तनयान्‌--अपने पुत्रों के लिए; मया--मेरे द्वारा; व्यापादितान्‌ --दुर्भाग्यवश मारे गए; अपि--यद्यपि; मा अनुशोच--दुखी मत होओ; यत:--कक्‍्योंकि; सर्व:--हर एक व्यक्ति; स्व-कृतम्‌--अपने कर्मो के ही सकाम फलों को; विन्दते-- भोगता है; अवश:--विधना के वशीभूत होकर

    मेरी बहन देवकी, तुम्हारा कल्याण हो।

    हर व्यक्ति प्रारब्ध के अधीन अपने ही कर्मों के फलभोगता है।

    अतएव, दुर्भाग्यवश मेरे द्वारा मारे गए अपने पुत्रों के लिए शोक मत करो।

    यावद्धतो स्मि हन्तास्मीत्यात्मानं मन्यतेउस्वहक्‌ ।

    तावत्तदभिमान्यज्ञो बाध्यबाधकतामियात्‌ ॥

    २२॥

    यावत्‌--जब तक; हतः अस्मि--( दूसरों द्वारा ) मारा जा रहा हूँ; हन्ता अस्मि--( अन्यों का ) मारने वाला हूँ; इति--इस प्रकार;आत्मानम्‌--अपने को; मन्यते--मानता है; अ-स्व-हक्‌--जो अपने आप को नहीं देखता है ( देहात्मबुद्धि के अँधेरे के कारण );तावत्‌--तब तक; ततू-अभिमानी--अपने को मारा गया या मारने वाला मानते हुए; अज्ञ:--मूर्ख व्यक्ति; बाध्य-बाधकताम्‌--कुछ उत्तरदायित्व लेने के लिए बाध्य सांसारिक व्यवहार; इयात्‌--रहता है।

    देहात्मबुद्धि होने पर आत्म-साक्षात्कार के अभाव में मनुष्य यह सोचकर अआँधेरे में रहता हैकि ‘मुझे मारा जा रहा है' अथवा ‘'मैंने अपने शत्रुओं को मार डाला है।

    जब तक मूर्ख व्यक्तिइस प्रकार अपने को मारने वाला या मारा गया सोचता है तब तक वह भौतिक बन्धनों में रहता हैऔर उसे सुख-दुख भोगना पड़ता है।

    क्षमध्वं मम दौरात्म्यं साधवो दीनवत्सला: ।

    इत्युक्त्वा श्रुमुख: पादौ श्याल: स्वस्त्रोरथाग्रहीत्‌ ॥

    २३॥

    क्षमध्वम्‌--कृपया क्षमा कर दें; मम--मेरे; दौरात्म्यम्‌--क्रूर कर्मों को; साधव:--तुम दोनों साधु व्यक्ति; दीन-वत्सला: --गरीबोंपर अत्यन्त कृपालु; इति उक्त्वा--ऐसा कहकर; अश्रु-मुखः--आँसुओं से भरा मुख; पादौ--पाँवों को; श्याल:--उसका सालाकंस; स्वस्त्र:ः--अपनी बहन तथा बहनोई के; अथ--इस प्रकार; अग्रहीतू--पकड़ लिया।

    कंस ने याचना की, ‘हे मेरी बहन तथा मेरे बहनोई, मुझ जैसे क्षुद्र-हृदय व्यक्ति पर कृपालुहोयें क्योंकि तुम दोनों ही साधु सदृश व्यक्ति हो।

    मेरी क्रूरताओं को क्षमा कर दें।

    ' यह कहकरखेद के साथ आँखों में अश्रु भरकर कंस वसुदेव तथा देवकी के चरणों पर गिर पड़ा।

    मोचयामास निगडाद्विश्रब्ध: कन्यकागिरा ।

    देवकीं वसुदेव॑ च दर्शयन्नात्मसौहदम्‌ ॥

    २४॥

    मोचयाम्‌ आस--कंस ने उन्हें मुक्त कर दिया; निगडात्‌--लोहे की जंजीरों से; विश्रब्ध:--पूर्ण विश्वास के साथ; कन्यका-गिरा--देवी दुर्गा की वाणी में; देवकीम्‌--अपनी बहन देवकी के प्रति; बसुदेवम्‌ च--तथा वसुदेव को; दर्शयन्‌-- प्रदर्शितकरते हुए; आत्म-सौहदम्‌--आत्मीयता |

    देवी दुर्गा की वाणी में पूरी तरह विश्वास करते हुए कंस ने देवकी तथा वसुदेव को तुरन्त हीलोहे की श्रृंखलाओं से मुक्त करते हुए पारिवारिक स्नेह का प्रदर्शन किया।

    भ्रातु: समनुतप्तस्य क्षान्तरोषा च देवकी ।

    व्यसूजद्ठसुदेवश्च प्रहस्य तमुवाच ह ॥

    २५॥

    भ्रातु:--अपने भाई कंस के प्रति; समनुतप्तस्थ--खेद व्यक्त करने के कारण; क्षान्त-रोषा--क्रोध शान्त हुआ; च--भी;देवकी--कृष्ण की माता, देवकी ने; व्यसृजत्‌--छोड़ दिया; वसुदेवः च--तथा वसुदेव ने भी; प्रहस्थ--हँसकर; तम्‌--कंस से;उबाच--कहा; ह--विगत में |

    जब देवकी ने देखा कि उसका भाई पूर्वनिर्धारित घटनाओं की व्याख्या करते हुए वास्तव में पश्चात्ताप व्यक्त कर रहा है, तो उनका सारा क्रोध जाता रहा।

    इसी प्रकार, वसुदेव भी क्रोध मुक्तहो गए उन्होंने हँसकर कंस से कहा।

    एवमेतन्महाभाग यथा वदसि देहिनाम्‌ ।

    अज्ञानप्रभवाहंधी: स्वपरेति भिदा यतः ॥

    २६॥

    एवम्‌--हाँ, यह ठीक है; एतत्‌--तुमने जो कहा है; महा-भाग--हे महापुरुष; यथा--जिस तरह; वदसि--तुम बोल रहे हो;देहिनामू--जीवों के विषय में; अज्ञान-प्रभवा--अज्ञानवश; अहमू-धी:--यह मेरा स्वार्थ ( मिथ्या अहंकार ) है; स्व-परा इति--यह दूसरे का स्वार्थ है; भिदा-- भेद; यतः--ऐसी देहात्मबुद्धि के कारण

    हे महापुरुष कंस, केवल अज्ञान के प्रभाव के ही कारण मनुष्य भौतिक देह तथा अभिमानस्वीकार करता है।

    आपने इस दर्शन के विषय में जो कुछ कहा वह सही है।

    आत्म-ज्ञान से रहितदेहात्म-बुद्धि वाले व्यक्ति 'यह मेरा है, ' ‘ये पराया है' के रूप में भेदभाव बरतते हैं।

    शोकहर्षभयद्वेषलोभमोहमदान्विता: ।

    मिथो घ्नन्तं न पश्यन्ति भावैर्भावं पृथग्हशः ॥

    २७॥

    शोक-शोक; हर्ष--प्रसन्नता; भय--डर; द्वेष--ईर्ष्या; लोभ--लालच; मोह--मोह; मद--पागलपन, उन्मत्तता; अन्विता:--सेयुक्त; मिथ:--परस्पर; घ्तन्तम्‌-मारने में व्यस्त; न पश्यन्ति--नहीं देखते; भावै:-- भेदभाव के कारण; भावम्‌-- भगवान्‌ केप्रति अपनी स्थिति को; पृथक्‌-दृशः --ऐसे व्यक्ति जो हर वस्तु को भगवान्‌ के नियंत्रण से पृथक्‌ मानते हैं।

    भेदभाव की दृष्टि रखने वाले व्यक्ति शोक, हर्ष, भय, द्वेष, लोभ, मोह तथा मद जैसे भौतिकगुणों से समन्वित होते हैं।

    वे उस आसन्न ( उपादान ) कारण से प्रभावित होते हैं जिसकानिराकरण करने में वे लगे रहते हैं क्योंकि उन्हें दूरस्थ परम कारण ( निमित्त कारण ) अर्थात्‌भगवान्‌ का कोई ज्ञान नहीं होता।

    श्रीशुक उबाच कंस एवं प्रसन्ना भ्यां विशुद्धं प्रतिभाषित: ।

    देवकीवसुदेवा भ्यामनुज्ञातो उविशद्गृहम्‌ ॥

    २८ ॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; कंस:--राजा कंस ने; एवम्‌--इस प्रकार; प्रसन्नाभ्याम्‌--अत्यन्त प्रसन्न;विशुद्धम्‌-विशुद्ध; प्रतिभाषित: --उत्तर दिए जाने पर; देवकी-बसुदेवाभ्याम्‌--देवकी तथा वसुदेव द्वारा; अनुज्ञात:--अनुमतिसे; अविशत्‌-- प्रवेश किया; गृहम्‌--अपने महल में ।

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : शान्तमना देवकी तथा वसुदेव द्वारा शुद्धभाव से इस तरहसम्बोधित किए जाने पर कंस अत्यंत हर्षित हुआ और उनकी अनुमति लेकर वह अपने घर चलागया।

    तस्यां रात्र्यां व्यतीतायां कंस आहूय मन्त्रिण: ।

    तेभ्य आचष्ट तत्सर्व यदुक्तं योगनिद्रया ॥

    २९॥

    तस्याम्‌--उस; रात््यामू-रात को; व्यतीतायाम्‌--बिताकर; कंस: --कंस ने; आहूय--बुलाकर; मन्त्रिण:--सरे मंत्रियों को;तेभ्य:--उन्हें; आचष्ट--सूचित किया; तत्‌--वह; सर्वम्‌--सब; यत्‌ उक्तम्‌--जो कहा गया था ( कि कंस का वध करने वालाअन्यत्र कहीं है ); योग-निद्रया--योगमाया

    देवी दुर्गा द्वारारात बीत जाने पर कंस ने अपने सारे मंत्रियों को बुलाकर वह सब उन्हें बतलाया जोयोगमाया ने कहा था ( जिसने यह रहस्य बताया था कि कंस को मारने वाला कहीं अन्यत्र उत्पन्नहो चुका है )।

    आकर्ण्य भर्तुर्गदितं तमूचुर्देवशत्रवः ।

    देवान्प्रति कृतामर्षा दैतेया नातिकोविदा: ॥

    ३०॥

    आकर्णर्य--सुनकर; भर्तु:--अपने स्वामी के; गदितम्‌--कथन को; तम्‌ ऊचु:--उससे कहा; देव-शत्रवः--देवताओं के शत्रु,सारे असुर; देवान्‌--देवताओं के; प्रति--प्रति; कृत-अमर्षा: --ईर्ष्यालु; दैतेया:-- असुरगण; न--नहीं; अति-कोविदा: --अत्यन्त कार्यकुशल।

    अपने स्वामी की बात सुनकर, देवताओं के शत्रु तथा अपने कामकाज में अकुशल, ईर्ष्यालुअसुरों ने कंस को यह सलाह दी।

    एवं चेत्तह् भोजेन्द्र पुरग्रामत्रजादिषु ।

    अनिर्दशान्निर्दशां श्र हनिष्यामोउद्य वै शिशून्‌ ॥

    ३१॥

    एवम्‌--इस तरह; चेत्‌--यदि ऐसा है; तहिं--तो; भोज-इन्द्र--हे भोजराज; पुर-ग्राम-ब्रज-आदिषु--सारे नगरों, गाँवों तथाचरागाहों में; अनिर्दशान्‌ू--दस दिन से कम आयु वाले; निर्दशान्‌ च--तथा जो दस दिन पूरा कर चुके हैं; हनिष्याम: --हम मारडालेंगे; अद्य--आज से; वै--निस्सन्देह; शिशून्‌ू--बच्चों को

    है भोजराज, यदि ऐसी बात है, तो हम आज से उन सारे बालकों को जो पिछले दस याउससे कुछ अधिक दिनों में सारे गाँवों, नगरों तथा चरागाहों में उत्पन्न हुए हैं, मार डालेंगे।

    किमुद्यमै: करिष्यन्ति देवा: समरभीरव: ।

    नित्यमुद्विग्नमनसो ज्याघोषैर्धनुषस्तव ॥

    ३२॥

    किमू--क्या; उद्यमैः--अपने प्रयासों से; करिष्यन्ति--करेंगे; देवा: --सारे देवता; समर-भीरव:ः--लड़ने से भयभीत; नित्यम्‌ू--सदैव; उद्विग्न-मनसः--व्याकुल चित्त वाले; ज्या-धघोषै:--डोरी की ध्वनि से; धनुष:--धनुष की; तव--तुम्हारीसारे देवता आपकी धनुष की डोरी ( प्रत्यंचा ) की आवाज से सदैव भयभीत रहते हैं।

    वेसदैव चिन्तित रहते हैं और लड़ने से डरते हैं।

    अतः वे अपने प्रयत्नों से आपको किस प्रकार हानिपहुँचा सकते हैं ?

    अस्यतस्ते शरक्रातैहन्यमाना: समन्ततः ।

    जिजीविषव उत्सृज्य पलायनपरा ययु: ॥

    ३३॥

    अस्यतः--आपके द्वारा छोड़े गए तीरों से छेदे जाने से; ते--आपके; शर-व्रातैः--बाणों के समूह से; हन्यमाना:--मारे गए;समन्ततः--चारों ओर; जिजीविषव: --जीने की कामना करते हुए; उत्सृज्य--युद्धभूमि छोड़कर; पलायन-परा: --बचकर भागनेकी इच्छा वाले; ययु:-- भाग गए

    आपके द्वारा चारों दिशाओं में छोड़े गए बाणों के समूहों से छिदकर कुछ सुरगण जो घायलहो चुके थे, किन्तु जिन्हें जीवित रहने की उत्कण्ठा थी युद्धभूमि छोड़कर अपनी जान लेकर भागनिकले।

    केचित्प्रा्लयो दीना न्यस्तशस्त्रा दिवौकस: ।

    मुक्तकच्छशिखा: केचिद्धीता: सम इति वादिन: ॥

    ३४॥

    केचित्‌--उनमें से कुछ; प्राज्ललय:ः--आपको प्रसन्न करने के लिए अपने हाथ जोड़े हुए; दीना:--अत्यन्त निरीह; न्यस्त-शस्त्रा:--सारे हथियारों से विहीन; दिवौकस: --देवतागण; मुक्त-कच्छ-शिखा:--अपने वस्त्र तथा बाल खोले और बिखेरे हुए;केचित्‌--कुछ; भीता:--हम अत्यन्त भयभीत हैं; स्म--हुए थे; इति वादिन:--उन्होंने इस तरह कहा |

    हार जाने पर तथा सारे हथियारों से विहीन होकर कुछ देवताओं ने लड़ना छोड़ दिया औरहाथ जोड़कर आपकी प्रशंसा करने लगे और उनमें से कुछ अपने वस्त्र तथा केश खोले हुएआपके समक्ष कहने लगे, ‘'हे प्रभु, हम आपसे अत्यधिक भयभीत हैं।

    'न त्वं विस्मृतशस्स्नास्त्रान्विरथान्भयसंवृतान्‌ ।

    हंस्यन्यासक्तविमुखान्भग्नचापानयुध्यत: ॥

    ३५॥

    न--नहीं; त्वमू--आप; विस्मृत-शस्त्र-अस्त्रानू--जो अपने हथियार चलाना भूल चुके हैं; विरधान्‌ू--रथविहीन; भय-संवृतानू--भय से भौंचक्के; हंसि--मारते हो; अन्य-आसक्त-विमुखान्‌--जो लड़ने में अनुरक्त न रहकर कुछ अन्य कार्य में लगे रहते हैं;भग्न-चापान्‌--टूटे धनुषों वाले; अयुध्यत:--अतः युद्ध न करते हुए।

    जब देवतागण रथविहीन हो जाते हैं, जब वे अपने हथियारों का प्रयोग करना भूल जाते हैं,जब वे भयभीत रहते हैं या लड़ने के अलावा किसी दूसरे काम में लगे रहते हैं या जब अपनेधनुषों के टूट जाने के कारण युद्ध करने की शक्ति खो चुके होते हैं, तो आप उनका वध नहींकरते।

    कि क्षेमश्रैर्विबुधेरसंयुगविकत्थनैः ।

    रहोजुषा कि हरिणा शम्भुना वा वनौकसा ।

    किमिन्द्रेणाल्पवीर्येण ब्रह्मणा वा तपस्यता ॥

    ३६॥

    किमू--किस बात का भय; क्षेम--ऐसे स्थान में जहाँ लड़ने की क्षमता का अभाव है; शूरैः--देवताओं द्वारा; विबुधैः --ऐसेशक्तिशाली पुरुषों द्वारा; असंयुग-विकत्थनैः --वृथा डींग मारने से, लड़ने से दूर रहने; रहः-जुषा--हृदय के कोने में रहने वाला;किम्‌ हरिणा-- भगवान्‌ विष्णु से क्या डरना; शम्भुना--शिव से; वा--अथवा; वन-ओकसा--बनवासी; किम्‌ इन्द्रेण--इन्द्र सेक्‍या भय; अल्प-वीर्येण--वह तनिक भी शक्तिशाली नहीं है ( कि आपसे लड़ सके ); ब्रह्मणा-- और ब्रह्मा से डरने की तो कोईबात ही नहीं; वा--अथवा; तपस्यता--जो सदैव ध्यान में मग्न रहता हो।

    देवतागण युद्धभूमि से दूर रहकर व्यर्थ ही डींग मारते हैं।

    वे वहीं अपने पराक्रम का प्रदर्शनकर सकते हैं जहाँ युद्ध नहीं होता।

    अतएवं ऐसे देवताओं से हमें किसी प्रकार का भय नहीं है।

    जहाँ तक भगवान्‌ विष्णु की बात है, वे तो केवल योगियों के हृदय में एकान्तवास करते हैं औरभगवान्‌ शिव, वे तो जंगल चले गये हैं।

    ब्रह्मा सदैव तपस्या तथा ध्यान में ही लीन रहते हैं।

    इन्द्रइत्यादि अन्य सारे देवता पराक्रमविहीन हैं।

    अतः आपको कोई भय नहीं है।

    तथापि देवा: सापत्चान्नोपेक्ष्या इति मन्महे ।

    ततस्तन्मूलखनने नियुद्छ्तवास्माननुत्रतान्‌ ॥

    ३७॥

    तथा अपि--फिर भी; देवा:--देवतागण; सापत्यात्‌--शत्रुता के कारण; न उपेक्ष्या:--उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए; इतिमन्महे--यह हमारा मत है; ततः--इसलिए; तत्‌-मूल-खनने--उन्हें समूल नष्ट करने के लिए; नियुड्छ्व--नियुक्त कीजिए;अस्मान्‌--हमें; अनुब्रतान्‌-- आपका अनुगमन करने के लिए तत्पर।

    फिर भी हमारा मत है कि उनकी शत्रुता के कारण देवताओं के साथ लापरवाही नहीं कीजानी चाहिए।

    अतएवं उनको समूल नष्ट करने के लिए आप हमें उनके साथ युद्ध में लगाइएक्योंकि हम आपका अनुगमन करने के लिए तैयार हैं।

    यथामयोडड़्े समुपेक्षितो नृभि-न॑ शक्यते रूढपदश्चिकित्सितुम्‌ ।

    यथेन्द्रियग्राम उपेक्षितस्तथारिपुर्महान्बद्धबलो न चाल्यते ॥

    ३८॥

    यथा--जिस तरह; आमय:--रोग; अड्ले--शरीर में; समुपेक्षित: --उपेक्षा किए जाने से; नृभि:--मनुष्यों द्वारा; न--नहीं;शक्यते--समर्थ होता है; रूढ-पदः --गम्भीर होने पर; चिकित्सितुमू--उपचार के योग्य; यथा--जिस तरह; इन्द्रिय-ग्राम: --इन्द्रियाँ; उपेक्षित:--प्रारम्भ में वश में न रखने से; तथा--उसी तरह; रिपु: महान्‌--बड़ा शत्रु; बद्ध-बलः--बलवान हुआ तो;न--नहीं; चाल्यते--वश में किया जा सकता है।

    जिस तरह शुरू में रोग की उपेक्षा करने से वह गम्भीर तथा दुःसाध्य हो जाता है या जिसतरह प्रारम्भ में नियंत्रित न करने से, बाद में इन्द्रियाँ वश में नहीं रहतीं उसी तरह यदि आरम्भ मेंशत्रु की उपेक्षा की जाती है, तो बाद में वह दर्जेय हो जाता है।

    मूलं हि विष्णुर्देवानां यत्र धर्म: सनातन: ।

    तस्य च ब्रह्मगोविप्रास्तपो यज्ञा: सदक्षिणा: ॥

    ३९॥

    मूलम्‌ू--आधार; हि--निस्सन्देह; विष्णु:--भगवान्‌ विष्णु हैं; देवानामू--देवताओं के; यत्र--जहाँ; धर्म:--धर्म; सनातन:--शाश्वत, परम्परागत; तस्य--उस ( आधार ) का; च--भी; ब्रह्म--ब्रह्म सभ्यता; गो--गो-रक्षा; विप्रा:--ब्राह्मणणण; तपः--तपस्या; यज्ञा:--यज्ञ; स-दक्षिणा: --समुचित पारिश्रमिक ( दक्षिणा ) समेत |

    समस्त देवताओं के आधार भगवान्‌ विष्णु हैं जिनका वास वहीं होता है जहाँ धर्म,परम्परागत संस्कृति, वेद, गौवें, ब्राह्मण, तपस्या तथा दक्षिणायुत यज्ञ होते हैं।

    तस्मात्सर्वात्मना राजन्ब्राह्मणान्ब्रह्मवादिन: ।

    तपस्विनो यज्ञशीलान्गाश्च हन्मो हविर्दुघा: ॥

    ४०॥

    तस्मातू--इसलिए; सर्व-आत्मना--हर तरह से; राजन्‌--हे राजन्‌; ब्राह्मणान्‌--ब्राह्मणों को; ब्रह्म-वादिन:--विष्णु-केन्द्रितब्रह्मी संस्कृति को बनाए रखने वालों; तपस्विन:--तपस्वी जनों; यज्ञ-शीलान्‌ू--यज्ञ में लगे रहने वालों को; गा: च--गौवों तथागौवों की रक्षा करने वालों को; हन्म:ः--हम वध करेंगे; हविः-दुघा:--जिनके दूध से यज्ञ में डालने के लिए घी मिलता है

    हे राजनू, हम आपके सच्चे अनुयायी हैं, अतः वैदिक ब्राह्मणों, यज्ञ तथा तपस्या में लगेव्यक्तियों तथा उन गायों का, जो अपने दूध से यज्ञ के लिए घी प्रदान करती हैं, वध कर डालेंगे।

    विप्रा गावश्च वेदाश्व तप: सत्यं दम: शम: ।

    श्रद्धा दया तितिक्षा च क्रतवश्च हरेस्तनू: ॥

    ४१॥

    विप्रा:--ब्राह्मण; गाव: च--तथा गाएँ; वेदा: च--तथा वैदिक ज्ञान; तपः--तपस्या; सत्यम्‌ू--सत्यता; दमः--इन्द्रिय संयम;शमः--मन का संयम; श्रद्धा-- श्रद्धा; दया--दया; तितिक्षा--सहिष्णुता; च-- भी; क़तवः च--तथा यज्ञ भी; हरे: तनू: --भगवान्‌ विष्णु के शरीर के विभिन्न अंग हैं।

    ब्राह्मण, गौवें, वैदिक ज्ञान, तपस्या, सत्य, मन तथा इन्द्रियों का संयम, श्रद्धा, दया,सहिष्णुता तथा यज्ञ--ये भगवान्‌ विष्णु के शरीर के विविध अंग हैं और दैवी सभ्यता के ये हीसाज-सामान हैं।

    स हि सर्वसुराध्यक्षो हासुरद्विड्गुहाशय: ।

    तन्मूला देवता: सर्वाः सेश्वरा: सचतुर्मुखा: ।

    अयं बै तद्ठधोपायो यहषीणां विहिंसनम्‌ ॥

    ४२॥

    सः--वह ( विष्णु ); हि--निस्सन्देह; सर्व-सुर-अध्यक्ष: --सारे देवताओं का अगुवा; हि--निस्सन्देह; असुर-द्विटू-- असुरों काशत्रु; गुहा-शय:--हर एक के हृदय के भीतर का परमात्मा; तत्‌-मूला:--उसके चरणकमलों में शरण लेकर; देवता: --सारे देवता जीवित हैं; सर्वाः--वे सभी; स-ईश्वराः--शिव समेत; स-चतु:-मुखा:--तथा चार मुखों वाले ब्रह्मा भी; अयम्‌--यह है;बै--निस्सन्देह; तत्‌-बध-उपाय:--उसके ( विष्णु के ) मारने का एकमात्र उपाय; यत्‌--जो; ऋषीणाम्‌--ऋषियों -मुनियों अथवावैष्णवों का; विहिंसनम्‌--सभी प्रकार के दण्ड द्वारा दमन।

    प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में वास करने वाले परमात्मा स्वरूप भगवान्‌ विष्णु असुरों के परमशत्रु हैं और इसीलिए वे असुरद्दिट्‌ कहलाते हैं।

    वे सारे देवताओं के अगुआ हैं क्योंकि भगवान्‌शिव तथा भगवान्‌ ब्रह्मा समेत सारे देवता उन्हीं के संरक्षण में रह रहे हैं।

    बड़े-बड़े ऋषि, साधुतथा वैष्णव भी उन्हीं पर आश्रित रहते हैं।

    अतः वैष्णवों का उत्पीड़न करना ही विष्णु को मारनेका एकमात्र उपाय है।

    श्रीशुक उबाचएवं दुर्मन्त्रभि: कंस: सह सम्मनत्रय दुर्मति: ।

    ब्रह्महिंसां हित॑ मेने कालपाशाबृतोसुरः ॥

    ४३॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; दुर्मन्त्रभि:--अपने बुरे मंत्रियों के; कंसः--राजा कंस;सह--साथ; सम्मन्त्य--विस्तार से विचार-विमर्श करके; दुर्मतिः--बुद्धिहीन; ब्रह्म-हिंसाम्‌--ब्राह्मणों के उत्पीड़न को; हितम्‌--सर्वोत्कृष्ट उपाय के रूप में; मेने--मान लिया; काल-पाश-आवृत:--यमराज के विधि-विधानों से बँधा हुआ; असुरः --असुरहोने के कारण

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : इस प्रकार अपने बुरे मंत्रियों की सलाह पर विचार करकेयमराज के नियमों से बँधा हुआ होने तथा असुर होने से बुद्धिहीन उस कंस ने सौभाग्य प्राप्तकरने के उद्देश्य से साधु-पुरुषों तथा ब्राह्मणों को सताने का निश्चय किया।

    सन्दिश्य साधुलोकस्य कदने कदनप्रियान्‌ ।

    कामरूपधरान्दिक्षु दानवान्गृहमाविशत्‌ ॥

    ४४॥

    सन्दिश्य--अनुमति देकर; साधु-लोकस्य--साथधु पुरुषों के; कदने--सताने में; कदन-प्रियान्‌ू--अन्यों को सताने में प्रिय असुरोंको; काम-रूप-धरान्‌-- अपनी इच्छानुसार कोई भी रूप धारण करने में समर्थ; दिक्षु--सारी दिशाओं में; दानवान्‌-- असुरों को;गृहम्‌ आविशत्‌--कंस अपने महल में चला गया |

    कंस के अनुयायी ये राक्षसगण अन्यों को, विशेष रूप से वैष्णवों को सताने में दक्ष थे औरइच्छानुसार कोई भी रूप धर सकते थे।

    इन असुरों को सभी दिशाओं में जाकर साधु पुरुषों कोसताने की अनुमति देकर कंस अपने महल के भीतर चला गया।

    ते वै रज:प्रकृतयस्तमसा मूढचेतस: ।

    सतां विद्वेषमाचेरुरारादागतमृत्यवः ॥

    ४५॥

    ते--वे असुर मंत्रीगण; बै--निस्सन्देह; रज:-प्रकृतयः --रजोगुणी प्रकृति के कारण; तमसा--तमोगुण से परिपूर्ण; मूढ-चेतस:--मूर्ख व्यक्ति; सताम्‌--साधु पुरुषों को; विद्वेषम्‌--सताना, उत्पीड़न; आचेरु:--सम्पन्न किया; आरातू्‌ आगत-मृत्य-वबः-मृत्यु पहले से ही जो उनके निकट थी।

    रजो तथा तमोगुण से पूरित तथा अपने हित या अहित को न जानते हुए उन असुरों ने,जिनकी मृत्यु उनके सिर पर नाच रही थी, साधु पुरुषों को सताना प्रारम्भ कर दिया।

    आयु: श्रियं यशो धर्म लोकानाशिष एव च ।

    हन्ति श्रेयांसि सर्वाणि पुंसो महदतिक्रम: ॥

    ४६॥

    आयुः--उम्र; अ्रियम्‌--सौन्दर्य; यश: --यश; धर्मम्‌--धर्म; लोकान्‌--स्वर्गलोक को जाना; आशिष: --आशीर्वाद; एब--निस्सन्देह; च-- भी; हन्ति--विनष्ट करता है; श्रेयांसि--वर; सर्वाणि--सारे; पुंसः--किसी व्यक्ति के; महत्‌-अतिक्रम:--महापुरुषों के विरुद्ध जाना।

    हे राजनू, जब कोई व्यक्ति महापुरुषों को सताता है, तो उसकी दीर्घायु, सौन्दर्य, यश, धर्म,आशीर्वाद तथा उच्चलोकों को जाने के सारे वर विनष्ट हो जाते हैं।

    TO

    अध्याय पांच: नंद महाराज और वासुदेव की मुलाकात

    10.5श्रीशुक उबाचनन्दस्त्वात्मज उत्पन्ने जाताह्नादो महामना: ।

    आहूय विप्रान्वेदज्ञान्सनातः शुचिरलड्डू त: ॥

    १॥

    वाचयित्वा स्वस्त्ययनं जातकर्मात्मजस्य वे ।

    'कारयामास विधिवत्पितृदेवार्चनं तथा ॥

    २॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; नन्द:--महाराज नन्द; तु--निस्सन्देह; आत्मजे--अपने पुत्र के; उत्पन्ने--उत्पन्नहोने में; जात--अभिभूत हुए; आह्वाद: --अत्यधिक हर्ष; महा-मना:--विशाल मन वाले; आहूय--बुलाया; विप्रानू--ब्राह्मणोंको; वेद-ज्ञानू--वेदों के ज्ञाता; स्नात:ः--स्नान करके; शुचि:--अपने को शुद्ध करके; अलड्डू त:ः--सुन्दर आभूषणों तथा नएउस्त्रों से सज्जित; वाचयित्वा--पाठ करके; स्वस्ति-अयनम्‌--( ब्राह्मणों द्वारा ) वैदिक मंत्र; जात-कर्म--जन्मोत्सव;आत्मजस्य--अपने लड़के का; वै--निस्सन्देह; कारयाम्‌ आस--सम्पन्न कराया; विधि-वत्‌--वैदिक विधान के अनुसार; पितृ-देव-अर्चनम्‌-पूर्वजों तथा देवताओं की पूजा; तथा--साथ ही साथ |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : नन्‍्द महाराज स्वभाव से अत्यन्त उदार थे अतः जब भगवान्‌श्रीकृष्ण ने उनके पुत्र रूप में जन्म लिया तो वे हर्ष के मारे फूले नहीं समाए।

    अतएव स्नान द्वारा अपने को शुद्ध करके तथा समुचित ढंग से वस्त्र धारण करके उन्होंने वैदिक मंत्रों का पाठ करनेवाले ब्राह्मणों को बुला भेजा।

    जब ये योग्य ब्राह्मण शुभ बैदिक स्तोत्रों का पाठ कर चुके तोननन्‍्द ने अपने नवजात शिशु के जात-कर्म को विधिवत्‌ सम्पन्न किए जाने की व्यवस्था की।

    उन्होंने देवताओं तथा पूर्वजों की पूजा का भी प्रबन्ध किया।

    धेनूनां नियुते प्रादाद्विप्रेभ्य: समलड्डू ते ।

    तिलाद्रीन्सप्त रत्तौघशातकौम्भाम्बरावृतान्‌ ॥

    ३॥

    धेनूनामू-दुधारू गायों का; नियुते--बीस लाख; प्रादात्‌-दान में दिया; विप्रेभ्य:--ब्राह्मणों को; समलड्डू ते--पूरी तरहसज्जित; तिल-अद्रीनू--तिल ( अन्न ) के पहाड़; सप्त--सात; रत्त-ओघ-शात-कौम्भ-अम्बर-आवृतान्‌--रलों तथा सुनहरेकिनारे वाले बस्त्रों से ढके |

    नन्द महाराज ने ब्राह्मणों को वस्त्रों तथा रत्नों से अलंकृत बीस लाख गौवें दान में दीं।

    उन्होंने रत्नों तथा सुनहरे गोटे वाले बस्त्रों से ढके तिल से बनाये गये सात पहाड़ भी दान में दिए।

    कालेन स्नानशौचाभ्यां संस्कारैस्तपसेज्यया ।

    शुध्यन्ति दाने: सन्तुष्टया द्रव्याण्यात्मात्मविद्यया ॥

    ४॥

    कालेन--समय आने पर ( स्थल तथा अन्य वस्तुएँ पवित्र हो जाने पर ); स्नान-शौचाभ्याम्‌--स्नान तथा सफाई के द्वारा ( शरीरतथा मलिन वस्तुएँ शुद्ध होती हैं ); संस्कारैः--संस्कार द्वारा ( जन्म शुद्ध होता है ); तपसा--तपस्या द्वारा ( इन्द्रियाँ शुद्ध होतीहैं ); इज्यया--पूजा द्वारा ( ब्राह्मण शुद्ध बनते हैं ); शुध्यन्ति--शुद्ध बनते हैं; दानैः--दान द्वारा ( सम्पत्ति शुद्ध होती है );सन्तुष्ठया--सन्तोष से ( मन शुद्ध होता है ); द्रव्याणि--सारी सम्पत्ति यथा गौवें, भूमि तथा सोना; आत्मा--आत्मा ( शुद्ध बनताहै ); आत्म-विद्यया--आत्म-साक्षात्कार द्वारा)

    हे राजनू, समय बीतने के साथ ही, धरती तथा अन्य सम्पत्ति शुद्ध हो जाती हैं; स्नान सेशरीर शुद्ध होता है और सफाई करने से मलिन वस्तुएँ शुद्ध होती हैं।

    संस्कार अनुष्ठानों से जन्मशुद्ध होता है, तपस्या से इन्द्रियाँ शुद्ध होती हैं तथा पूजा से और ब्राह्मणों को दान देने से भौतिकसम्पत्ति शुद्ध होती है।

    सन्‍्तोष से मन शुद्ध होता है और आत्मज्ञान अर्थात्‌ कृष्णभावनामृत सेआत्मा शुद्ध होता है।

    सौमडुल्यगिरो विप्रा: सूतमागधवन्दिन: ।

    गायकाश्च जगुननेंदुर्भर्यों दुन्दुभयो मुहु: ॥

    ५॥

    सौमड्ूल्य-गिर:ः--जिनकी वाणी से निकले मंत्र तथा स्तोत्र वातावरण को शुद्ध करते थे; विप्रा:--ब्राह्मणणण; सूत--इतिहासगाने में पठु लोग; मागध--राजपरिवारों के इतिहास गाने में पटु लोग; वन्दिन:--सामान्य वाचक; गायकाः --गवैये; च-- भी;जगु:--उच्चारण किया; नेदु:--बजाया; भेर्य:--एक प्रकार का वाद्य यंत्र; दुन्दुभय:--एक प्रकार का बाजा; मुहुः --निरन्तर |

    ब्राह्मणों ने मंगलकारी वैदिक स्तोत्र सुनाए जिनकी ध्वनि से वातावरण शुद्ध हो गया।

    प्राचीन इतिहासों या पुराणों को सुनाने वाले, राजपरिवारों के इतिहास सुनाने वाले तथा सामान्यवाचकों ने गायन किया जबकि गयदैयों ने भेरी, दुन्दुभी आदि अनेक प्रकार के वाद्य यंत्रों कीसंगत में गाया।

    ब्रज: सम्मृष्टसंसिक्तद्वाराजिरगृहान्तर: ।

    चित्रध्वजपताकासत्रक्नैलपललवतोरणै: ॥

    ६॥

    ब्रज:--नन्द महाराज के अधिकार वाला भू-क्षेत्र; सम्पृष्ट-- अत्यन्त स्वच्छ की गई; संसिक्त--अच्छी तरह धोई गई; द्वार--दरवाजे; अजिर--आँगन; गृह-अन्तरः:--घर के भीतर की सारी वस्तुएँ; चित्र--रंग-बिरंगी; ध्वज--झंडियाँ; पताका--झंडे;सत्रकू--फूलों के हार; चैल--कपड़े के; पललव--आम की पत्तियों के; तोरणैः--विभिन्न स्थानों पर बनाए गए द्वारों के द्वारा(अलंकृत )

    नन्द महाराज का निवास ब्रजपुर रंग-बिरंगी झंडियों तथा झंडों से पूरी तरह सजाया गया थाऔर विभिन्न स्थानों पर नाना प्रकार के फूलों की मालाओं, वस्त्रों तथा आम की पत्तियों से तोरणबनाए गए थे।

    आँगन, सड़कों के पास के दरवाजे तथा घरों के कमरों के भीतर की सारी वस्तुएँअच्छी तरह से झाड़ बुहार कर पानी से धोई गई थीं।

    गावो वृषा वत्सतरा हरिद्रातिलरूषिता: ।

    विचित्रधातुबर्हस्त्रग्वस्त्रकाज्लनमालिन: ॥

    ७॥

    गाव: --गौवें; वृषा:--बैल; वत्सतरा:--बछड़े; हरिद्रा--हल्दी; तैल--तेल; रूषिता: --लेप किए गए; विचित्र--तरह-तरह के;धातु--रंगीन खनिज; बई-स्त्रकू--मोरपंख के हार; वस्त्र--कपड़े; काञ्लन--सुनहरे गहने; मालिन:--मालाओं से सजाए हुए।

    गौवों, बैलों तथा बछड़ों के सारे शरीर में हल्दी तथा तेल के साथ नाना प्रकार के खनिजोंका लेप किया गया था।

    उनके मस्तकों को मोर पंखों से सजाया गया था, उन्हें मालाएँ पहनाईगई थीं और ऊपर से वस्त्र तथा सुनहरे गहनों से आच्छादित किया गया था।

    महाईवस्त्राभरणकञ्जुकोष्णीषभूषिता: ।

    गोपाः समाययू राजन्नानोपायनपाणय: ॥

    ८ ॥

    महा-अरई--अत्यन्त मूल्यवान; वस्त्र-आभरण--कपड़ों तथा गहनों से; कञ्जुक--वृन्दावन में पहना जाने वाला विशेष वस्त्र,अँगरखा; उष्णीष--पगड़ी से; भूषिता:--अच्छी तरह सजे; गोपा:--सारे ग्वाले; समाययु;:--वहाँ आए; राजन्‌--हे राजन्‌( महाराज परीक्षित ); नाना--अनेक प्रकार की; उपायन-- भेंटें; पाणय:--हाथ में लिए हुएहे राजा परीक्षित, ग्वाले अत्यन्त मूल्यवान गहने तथा कंचुक और पगड़ी जैसे वस्त्रों से खूबसजे-धजे थे।

    इस तरह से सजधज कर तथा अपने हाथों में तरह-तरह की भेंटें लेकर वे नन्दमहाराज के घर आए।

    गोप्यश्चाकर्ण्य मुदिता यशोदाया: सुतोद्धवम्‌ ।

    आत्मानं भूषयां चक्रुर्वस्त्राकल्पाझ्ननादिभि: ॥

    ९॥

    गोप्य:--ग्वालों की पत्नियाँ, गोपियाँ; च--भी; आकर्ण्य--सुनकर; मुदिता: --अत्यंत्र प्रसन्न हुए; यशोदाया:--यशोदा माताके; सुत-उद्धवम्‌--पुत्र जन्म को; आत्मानम्‌--स्वयं; भूषयाम्‌ चक्रु:--उत्सव में जाने के लिए अच्छी तरह से सज गईं; वस्त्र-आकल्प-अद्धन-आदिभि: --उपयुक्त वस्त्रों, गहनों, काजल इत्यादि से।

    गोपियाँ यह सुनकर अत्यधिक प्रसन्न थीं कि माता यशोदा ने पुत्र को जन्म दिया है, अतः वे उपयुक्त वस्त्रों, गहनों, काजल आदि से अपने को सजाने लगीं।

    नवकुड्जू मकिज्ञल्कमुखपड्डजभूतय: ।

    बलिभिस्त्वरितं जग्मु: पृथुश्रोण्यश्चलत्कुचा: ॥

    १०॥

    नव-कुद्डु म-किज्लल्क--केसर तथा नव-विकसित कुंकुम फूल से; मुख-पड्मज-भूतय:--अपने कमल जैसे मुखों में असाधारणसौन्दर्य प्रकट करते हुए; बलिभि:--अपने हाथों में भेंटें लिए हुए; त्वरितम्‌--जल्दी से; जग्मु;ः--( माता यशोदा के घर ) गई;पृथु- श्रोण्य: --स्त्रीयोचित सौन्दर्य के अनुरूप भारी नितम्बों वाली; चलतू-कुचा:--हिल रहे बड़े-बड़े स्तन।

    अपने कमल जैसे असाधारण सुन्दर मुखों को केसर तथा नव-विकसित कुंकुम से अलंकृतकरके गोपियाँ अपने हाथों में भेंटें लेकर माता यशोदा के घर के लिए तेजी से चल पढ़ीं।

    प्राकृतिक सौन्दर्य के कारण उनके नितम्ब बड़े-बड़े थे तथा तेजी से चलने के कारण उनकेबड़े-बड़े स्तन हिल रहे थे।

    गोप्य: सुमृष्टमणिकुण्डलनिष्ककण्ठ्य-श्वित्राम्बरा: पथि शिखाच्युतमाल्यवर्षा: ।

    नन्दालयं सवलया ब्रजतीर्विरेजु-व्यालोलकुण्डलपयोधरहारशोभा: ॥

    ११॥

    गोप्य:--गोपियाँ; सु-मृष्ट--अत्यन्त चमकीले; मणि--रत्नों से बने; कुण्डल--कान की बालियाँ पहने; निष्क-कण्ठदय:--गलेमें पहना गया हार; चित्र-अम्बरा:--रंगीन किनारे वाली पोशाकें पहने; पथि--यशोदा माई के घर के रास्ते में; शिखा-च्युत--उनके बालों से गिरे हुए; माल्य-वर्षा:--फूलों की मालाओं की वर्षा; नन्द-आलयमू--महाराज नन्द के घर को; स-वलया: --हाथों में चूड़ियाँ पहने; ब्रजती: --जाती हुईं; विरिजु:--अत्यधिक सुन्दर लग रही थीं; व्यालोल--हिलते; कुण्डल--कान कीबालियों से युक्त; पयोधर--स्तन वाली; हार--फूलों के हारों से युक्त; शोभा: --अत्यन्त सुन्दर लगने वाली |

    गोपियों के कानों में चमचमाते रत्नजटित बालियाँ थी और उनके गले में धातुओं के हाँसलटक रहे थे।

    उनके हाथ चूड़ियों से विभूषित थे, उनकी वेशभूषाएँ विविध रंगों की थीं औरउनके बालों में लगे फूल रास्तों पर गिर रहे थे मानो वर्षा हो रही हो।

    इस प्रकार नन्‍्द महाराज केघर जाते समय गोपियाँ, उनके कुंडल, उनके हिलते स्तन तथा मालाएँ अतीव सुन्दर लग रही थीं।

    ता आशिष: प्रयु्ञानाश्चिरं पाहीति बालके ।

    हरिद्राचूर्णतैलाड्द्ि: सिज्ञन्त्योडजनमुज्जगु: ॥

    १२॥

    ताः--सारी स्त्रियाँ, ग्वालों की पत्नियाँ तथा पुत्रियाँ; आशिष:--आशीर्वाद; प्रयुज्ञाना:-- भेंट; चिरम्‌ू--दीर्घकाल तक; पाहि--आप ब्रज के राजा बनें और इसके सारे निवासियों का पालन करें; इति--इस प्रकार; बालके --नवजात शिशु को; हरिद्रा-चूर्ण--हल्दी का चूर्ण; तैल-अद्द्धिः--तेल से मिश्रित; सिश्जन्त्यः--छिड़काव करते हुए; अजनमू--अजन्मा भगवान्‌ की;उज्जगु:--स्तुतियाँ कीं।

    ग्वालों की पत्नियों तथा पुत्रियों ने नवजात शिशु, कृष्ण, को आशीर्वाद देते हुए कहा,’आप ब्रज के राजा बनें और यहाँ के सारे निवासियों का दीर्घकाल तक पालन करें।

    ' उन्होंनेअजन्या भगवान्‌ पर हल्दी, तेल तथा जल का मिश्रण छिड़का और प्रार्थनाएँ कीं ।

    अवाद्यन्त विचित्राणि वादित्राणि महोत्सवे ।

    कृष्णे विश्वेश्वरेडनन्ते नन्दस्य ब्रजमागते ॥

    १३॥

    अवाद्यन्त--वसुदेव के पुत्रोत्सव पर बजाया; विचित्राणि--विविध प्रकार के; वादित्राणि--वाद्ययंत्र; महा-उत्सवे--महान्‌ उत्सवमें; कृष्णे--जब भगवान्‌ कृष्ण; विश्व-ई श्वरे -- सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के स्वामी; अनन्ते--असीम; नन्दस्थ--महाराज नन्द के;ब्रजम्‌--चरागाह में; आगते--आए हुए

    चूँकि अब सर्वव्यापी, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के स्वामी, अनन्त भगवान्‌ कृष्ण महाराज नन्‍्द कीपुरी में पदार्पण कर चुके थे, अतएवं इस महान्‌ उत्सव के उपलक्ष्य में नाना प्रकार के वाद्ययंत्रबजाये गये।

    गोपाः परस्परं हष्टा दधिक्षीरघृताम्बुभि: ।

    आसिजश्जन्तो विलिम्पन्तो नवनीतैश्व चिक्षिपु: ॥

    १४॥

    गोपाः-ग्वाले; परस्परम्‌--एक दूसरे से; हृष्टा:--प्रसन्न होकर; दधि--दही; क्षीर--औंटाया दूध ( खीर ); घृत-अम्बुभि:--घीके साथ मिले जल से; आसिद्ञन्त:ः--छिड़कते हुए; विलिम्पन्त:--लेप करके; नवनीतै: च--तथा मक्खन से; चिक्षिपु:--एकदूसरे पर फेंकने लगे।

    ग्वालों ने प्रसन्न होकर एक दूसरे के शरीरों में दही, खीर, मक्खन तथा जल का घोलछिड़ककर इस महोत्सव का आनन्द लिया।

    उन्होंने एक दूसरे पर मक्खन फेंका और एक दूसरेके शरीरों में पोता भी।

    नन्दो महामनास्ते भ्यो वासोलड्डारगोधनम्‌ ।

    सूतमागधवन्दिभ्यो येउन्ये विद्योपजीविन: ॥

    १५॥

    तैस्तैः कामैरदीनात्मा यथोचितमपूजयत्‌ ।

    विष्णोराराधनार्थाय स्वपुत्रस्योदयाय च ॥

    १६॥

    नन्दः--महाराज नन्द; महा-मना:--जो ग्वालों में सर्वाधिक न्‍न्यायशील तथा माननीय पुरुष थे; तेभ्य:--ग्वालों को; वास:--वस्त्र; अलड्वार-गहने; गो-धनम्‌--तथा गाएँ; सूत-मागध-वन्दिभ्य: --सूतों ( प्राचीन गाथा गाने वालों ), मागधों( राजबंशों कीगाथा गाने वालों ) तथा वन्दीजनों ( सामान्य स्तुति गायकों ) को; ये अन्ये--तथा अन्यों को; विद्या-उपजीविन:--विद्या के बलपर जीविका चलाने वाले; तैः तैः--उन उन; कामै:--इच्छाओं से; अदीन-आत्मा--महाराज नन्द, जो इतने वदान्य थे; यथा-उचितम्‌--जो उपयुक्त था; अपूजयत्‌--उनकी पूजा की अथवा उन्हें तुष्ट किया; विष्णो: आराधन-अर्थाय--भगवान्‌ विष्णु कोप्रसन्न करने के उद्देश्य से; स्व-पुत्रस्य-- अपने पुत्र के; उदयाय--सर्वतोमुखी प्रगति के लिए; च--तथा |

    उदारचेता महाराज नन्द ने भगवान्‌ विष्णु को प्रसन्न करने के लिए ग्वालों को वस्त्र,आभूषण तथा गाएँ दान में दीं।

    इस तरह उन्होंने अपने पुत्र की दशा को सभी प्रकार से सँवारा।

    उन्होंने सूतों, मागधों, वन्दीजनों तथा अन्य वृत्ति वाले लोगों को उनकी शैक्षिक योग्यता केअनुसार दान दिया और हर एक की इच्छाओं को तुष्ट किया।

    रोहिणी च महाभागा नन्दगोपाभिनन्दिता ।

    व्यचरहिव्यवाससत्रक्रणठाभरणभूषिता ॥

    १७॥

    रोहिणी--बलदेव की माता, रोहिणी; च-- भी; महा-भागा--परम भाग्यशालिनी ( कृष्ण तथा बलराम को साथ-साथ पालने केकारण ); नन्द-गोपा-अभिनन्दिता--नन्द महाराज तथा माता यशोदा द्वारा सम्मानित; व्यचरत्‌--इधर-उधर विचरण करने मेंव्यस्त; दिव्य--सुन्दर; वास--वेशभूषा; सत्रकु--माला; कण्ठउ-आभरण--गले के गहने से; भूषिता--विभूषित |

    बलदेव की माता अति-भाग्यशालिनी रोहिणी नन्‍्द महाराज तथा यशोदा द्वारा अभिनन्दितहुईं।

    उन्होंने भी शानदार वस्त्र पहन रखे थे और गले के हार, माला तथा अन्य गहनों से अपने कोसजा रखा था।

    वे उस उत्सव में अतिथि-स्त्रियों का स्वागत करने के लिए इधर-उधर आ-जा रहीथीं।

    तत आरशभ्य नन्दस्य ब्रज: सर्वसमृद्धिमान्‌ ।

    हरेर्निवासात्मगुणै रमाक्रीडमभून्रूप ॥

    १८॥

    ततः आरभ्य--उस समय से लेकर; नन्दस्य--महाराज नन्द का; ब्रज: --ब्रजभूमि, गौवों को पालने तथा संरक्षण प्रदान करने कीभूमि; सर्व-समृद्द्धिमान्‌ू--सभी प्रकार के धन से ऐश्वर्यवान; हरे: निवास-- भगवान्‌ के निवास स्थान का; आत्म-गुणै: --दिव्यगुणों से; रमा-आक्रीडम्‌--लक्ष्मी की लीलास्थली; अभूत्‌--बनी; नृप--हे राजा ( परीक्षित )

    हे महाराज परीक्षित, नन्द महाराज का घर पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ तथा उनके दिव्य गुणोंका शाश्वत धाम है फलत: उसमें समस्त सम्पदाओं का ऐश्वर्य सदैव निहित है।

    फिर भी कृष्ण केआविर्भाव के दिन से ही वह घर देवी लक्ष्मी की क्रीड़ास्थली बन गया।

    गोपान्गोकुलरक्षायां निरूप्य मथुरां गत: ।

    नन्दः कंसस्य वार्षिक्यं करं दातुं कुरूद्दद ॥

    १९॥

    गोपान्‌ू-ग्वालों को; गोकुल-रक्षायामू--गोकुल मण्डल की रक्षा के लिए; निरूप्य--नियुक्त करके; मथुराम्‌--मथुरा; गत: --गए; नन्द: --नन्द महाराज; कंसस्य--कंस का; वार्षिक्यम्‌-वार्षिक कर; करम्‌--लाभांश; दातुमू-- भुगतान करने के लिए;कुरु-उद्ठद-हे कुरु वंश के रक्षक, महाराज परीक्षित |

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : हे महाराज परीक्षित, हे कुरुवंश के सर्वश्रेष्ठ रक्षक, उसकेबाद नन्द महाराज ने स्थानीय ग्वालों को गोकुल की रक्षा के लिए नियुक्त किया और स्वयं राजाकंस को वार्षिक कर देने मथुरा चले गए।

    बसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरे नन्दमागतम्‌ ।

    ज्ञात्वा दत्तकरं राज्ने ययौ तदवमोचनम्‌ ॥

    २०॥

    बसुदेव:--वसुदेव; उपश्रुत्य--सुनकर; भ्रातरम्‌--अपने मित्र तथा भाई; नन्दम्‌--नन्द महाराज को; आगतम्‌--मथुरा आयाहुआ; ज्ञात्वा--जानकर; दत्त-करम्‌--पहले ही कर चुकता किया जा चुका था; राज्ञे--राजा के पास; ययौ--गया; ततू-अवमोचनम्‌--नन्द महाराज के डेरे तक ।

    जब वसुदेव ने सुना कि उनके अत्यन्त प्रिय मित्र तथा भाई नन्‍्द महाराज मथुरा पधारे हैं औरवे कंस को कर भुगतान कर चुके हैं, तो वे नन्‍्द महाराज के डेरे में गए।

    त॑ दृष्ठा सहसोत्थाय देहः प्राणमिवागतम्‌ ।

    प्रीत: प्रियतमं दोर्भ्या सस्वजे प्रेमविहलः ॥

    २१॥

    तम्‌--उसको ( वसुदेव को ); दृष्टा--देखकर; सहसा--अचानक; उत्थाय--उठकर; देह: --वही शरीर; प्राणम्‌-- प्राण; इब--मानो; आगतम्‌--लौट आया हो; प्रीत:--इतना प्रसन्न; प्रिय-तमम्‌--अपने प्रिय मित्र तथा भाई; दोर्भ्याम्‌--अपनी दोनों बाहुओंद्वारा; सस्वजे--गले मिले; प्रेम-विहलः--प्रेम तथा स्नेह से अभिभूत |

    जब नन्द महाराज ने सुना कि वसुदेव आए हैं, तो बे प्रेम तथा स्नेह से अभिभूत हो उठे औरइतने प्रसन्न हुए मानो उन्हें पुन: जीवन पा लिया हो।

    वसुदेव को अचानक उपस्थित देखकर वे उठखड़े हुए और अपनी दोनों भुजाओं में लेकर गले लगा लिया।

    पूजितः सुखमासीन: पृष्ठानामयमाहतः ।

    प्रसक्तधी: स्वात्मजयोरिदमाह विशाम्पते ॥

    २२॥

    'पूजित:--इस तरह प्रेम पूर्वक स्वागत किए गए वसुदेव; सुखम्‌ आसीन: --सुखपूर्वक बैठने के लिए स्थान दिए गए; पृष्ठा --पूछकर; अनामयम्‌--शुभ प्रश्न; आहत:--समादरित; प्रसक्त-धी:--अत्यन्त आसक्त होने के कारण; स्व-आत्मजयो: --अपनेदोनों पुत्रों ( कृष्ण तथा बलराम ); इृदम्‌--इस प्रकार; आह--पूछा; विशाम्‌-पते--हे महाराज परीक्षित।

    हे महाराज परीक्षित, नन्द महाराज द्वारा, इस प्रकार आदरपूर्वक सत्कार एवं स्वागत किएजाने पर वसुदेव बड़ी ही शान्ति से बैठ गए और अपने दोनों पुत्रों के प्रति अगाध-प्रेम के कारणउनके विषय में पूछा।

    दिष्टद्या भ्रात: प्रवयस इदानीमप्रजस्य ते ।

    प्रजाशाया निवृत्तस्य प्रजा यत्समपद्यत ॥

    २३॥

    दिछ्या--सौभाग्यवश; भ्रात:--हे भाई; प्रवयस:--अधिक आयु वाले आपका; इदानीम्‌--इस समय; अप्रजस्यथ--सन्तानहीनका; ते--आपका; प्रजा-आशाया: निवृत्तस्य--जिसे इस अवस्था में पुत्र प्राप्ति की आशा न रह गई हो, उसका; प्रजा--पुत्र;यत्‌--जो भी; समपद्यत-- भाग्यवश प्राप्त हो गया।

    मेरे भाई नन्‍्द महाराज, इस वृद्धावस्था में भी आपका कोई पुत्र न था और आप निराश होचुके थे।

    अतः अब जबकि आपको पुत्र प्राप्त हुआ है, तो यह अत्यधिक सौभाग्य का लक्षण है।

    दिष्टद्या संसारचक्रे उस्मिन्वर्तमान: पुनर्भव: ।

    उपलब्धो भवानद्य दुर्लभं प्रियदर्शनम्‌ ॥

    २४॥

    दिछ्या--सौभाग्य से ही; संसार-चक्रे अस्मिन्‌ू--इस जन्म-मृत्यु वाले जगत में; वर्तमान:--विद्यमान होकर; पुनः-भव:--आपकी मेरी भेंट दूसरे जन्म की तरह है; उपलब्ध: --मेरे द्वारा प्राप्त होकर; भवान्‌--आप; अद्य--आज; दुर्लभम्‌--यद्यपि इसेकभी घटित नहीं होना था; प्रिय-दर्शनम्‌--हे मित्र आपको पुनः देखने के लिए

    यह मेरा सौभाग्य ही है कि मैं आपके दर्शन कर रहा हूँ।

    इस अवसर को प्राप्त करके मुझेऐसा लग रहा है मानो मैंने फिर से जन्म लिया हो।

    इस जगत में उपस्थित रह कर भी मनुष्य केलिए अपने घनिष्ठ मित्रों तथा प्रिय सम्बन्धियों से मिल पाना अत्यन्त कठिन होता है।

    नैकत्र प्रियसंवास: सुहृदां चित्रकर्मणाम्‌ ।

    ओधेन व्यूह्ममानानां प्लवानां सत्रोतसो यथा ॥

    २५॥

    न--नहीं; एकत्र--एक स्थान में; प्रिय-संवास:--अपने प्रिय मित्रों तथा सम्बन्धियों के साथ रहना; सुहृदाम्‌--मित्रों का; चित्र-कर्मणाम्‌--हम सबका जिन्हें अपने विगत कर्म के कारण नाना प्रकार के फल भोगने होते हैं; ओघेन--बल के द्वारा;व्यूह्ममानानामू--ले जाया जाकर; प्लवानामू--जल में तैरने वाले तिनके तथा अन्य पदार्थों का; स्रोतस:--लहरों का; यथा--जिस तरह।

    लकड़ी के फट्टे और छड़ियाँ एकसाथ रुकने में असमर्थ होने से नदी की लहरों के वेग सेबहा लिए जाते हैं।

    इसी तरह हम अपने मित्रों तथा सम्बन्धियों से घनिष्ठ सम्बन्ध रखते हुए भी अपने नाना प्रकार के विगत कर्मों तथा काल की लहरों के कारण एकसाथ रहने में असमर्थ होतेहैं।

    'कच्चित्पशव्यं निरुजं भूर्यम्बुतृणवीरु धम्‌ ।

    बृहद्वनं तदधुना यत्रास्से त्वं सुहृद्बृत: ॥

    २६॥

    कच्चित्‌--चाहे; पशव्यम्‌--गौवों की सुरक्षा; निरुजम्‌--बिना कष्ट या रोग के; भूरि--पर्याप्त; अम्बु--जल; तृण--घास;वीरुधम्‌--पौधे; बृहत्‌ वनम्‌--विशाल जंगल; तत्‌--ये सारे प्रबन्ध वहाँ हैं; अधुना--अब; यत्र--जहाँ; आस्से--रह रहे हैं;त्वमू--तुम, आप; सुहत्‌-बृतः--मित्रों से घिरे हुए

    हे मित्र नन्द महाराज, आप जिस स्थान में रह रहे हैं क्या वहाँ का जंगल पशुओं-गौवों केलिए अनुकूल है? आशा है कि वहाँ रोग या कोई असुविधा नहीं होगी।

    वह स्थान जल, घासतथा अन्य पौधों से भरा-पुरा होगा।

    भ्रातर्मम सुतः कच्चिन्मात्रा सह भवदव्रजे ।

    तातं भवन्तं मन्वानो भवद्भ्यामुपलालित: ॥

    २७॥

    भ्रात:--मेरे भाई; मम--मेरे; सुत:--पुत्र ( रोहिणी पुत्र बलदेव ); कच्चित्‌--क्या; मात्रा सह--अपनी माता रोहिणी के साथ;भवत्‌ू-ब्रजे--अपने घर में; तातमू--पिता तुल्य; भवन्तम्‌--आपको; मन्वान: --सोचते हुए; भवद्भ्यामू--आप तथा आपकीपतली यशोदा द्वारा; उपलालित:--ठीक से पाले जाने से

    आप तथा यशोदा देवी के द्वारा पाले जाने के कारण मेरा पुत्र बलदेव आप दोनों को अपनामाता-पिता मानता तो है न, वह आपके घर में अपनी असली माता रोहिणी के साथ शान्तिपूर्वकरह रहा है न! पुंसस्त्रिवर्गो विहितः सुहदो हानुभावित: ।

    न तेषु क्लिशएयमानेषु त्रिवर्गोर्थाय कल्पते ॥

    २८॥

    पुंस:--मनुष्य का; त्रि-वर्ग:--जीवन के तीन उद्देश्य ( धर्म, अर्थ और काम ); विहितः--वैदिक संस्कारों के अनुसार आदिष्ट;सुहृद:--सम्बन्धियों तथा मित्रों के प्रति; हि--निस्सन्देह; अनुभावितः--सही मार्ग में होने पर; न--नहीं; तेषु--उनमें;क्लिश्यमानेषु--क्लेश में पड़े हुए; त्रि-वर्ग:--जीवन के तीन उद्देश्य; अर्थाय--किसी प्रयोजन के लिए; कल्पते--ऐसा हो जाताहै

    जब किसी के मित्र तथा सम्बन्धीगण अपने-अपने पदों पर ठीक तरह से बने रहते हैं, तोवैदिक साहित्य में उल्लिखित उनके धर्म, अर्थ तथा काम लाभप्रद होते हैं।

    अन्यथा, मित्रों तथासम्बन्धियों के क्लेशग्रस्त होने पर इन तीनों से कोई सुख नहीं मिल पाता।

    श्रीनन्द उवाचअहो ते देवकीपुत्रा: कंसेन बहवो हताः ।

    एकावशिष्टावरजा कन्या सापि दिवं गता ॥

    २९॥

    श्री-नन्दः उवाच--नन्द महाराज ने कहा; अहो--हाय; ते--तुम्हारे; देवकी-पुत्रा:--तुम्हारी पत्नी के सारे पुत्र; कंसेन--कंसद्वारा; बहवः--अनेक; हता:--मारे गए; एका--एक; अवशिष्टा--बची हुईं; अवरजा--सबसे छोटी; कन्या--कन्या; साअपि--वह भी; दिवम्‌ गता--स्वर्गलोक को चली गई।

    नन्द महाराज ने कहा : हाय! राजा कंस ने देवकी से उत्पन्न तुम्हारे अनेक बालकों को मारडाला।

    और तुम्हारी सन्‍्तानों में सबसे छोटी एक कन्या स्वर्गलोक को चली गई।

    नूनं ह्ादृष्टनिष्ठो यमहष्टपरमो जन: ।

    अद्दष्टमात्मनस्तत्त्वं यो वेद न स मुहाति ॥

    ३०॥

    नूनमू--निश्चय ही; हि--निस्सन्देह; अहष्ट--अनदेखा; निष्ठ: अयम्‌--यही अन्त है; अदृष्ट--अहृष्ट प्रारब्ध; परम:--परम; जन:ः--संसार का हर जीव; अदृष्टम्‌--वही प्रारब्ध; आत्मन:--अपना ही; तत्त्वमू--परम सत्य; यः--जो; वेद--जानता है; न--नहीं;सः--वह; मुहाति--मोहग्रस्त होता है|

    प्रत्येक व्यक्ति निश्चय ही प्रारब्ध द्वारा नियंत्रित होता है क्योंकि उसी से मनुष्य के सकामकर्मो के फल निर्धारित होते हैं।

    दूसरे शब्दों में, अद्ृष्ट प्रारब्ध के कारण ही मनुष्य को पुत्र यापुत्री प्राप्त होती है और जब पुत्र या पुत्री नहीं रहते, तो वह भी अद्दष्ट प्रारब्ध के ही कारण होताहै।

    प्रारब्ध ही हर एक का अनन्तिम नियंत्रक है।

    जो इसे जानता है, वह कभी मोहग्रस्त नहींहोता।

    श्रीवसुदेव उवाचकरो वे वार्षिको दत्तो राज्ञे दृष्टा वयं च वः ।

    नेह स्थेयं बहुतिथं सन्त्युत्पाताश्च गोकुले ॥

    ३१॥

    श्री-वसुदेवः उवाच-- श्री वसुदेव ने उत्तर दिया; कर:ः--कर; बै--निस्सन्देह; वार्षिक: --वार्षिक ( सालाना ); दत्त:--दियाहुआ; राज्े--राजा को; दृष्टा:--देखा गया; वयम्‌ च--हम दोनों; वः--तुम्हारा; न--नहीं; इह--इस स्थान में; स्थेयम्‌ू--रुकना,ठहरना; बहु-तिथम्‌--बहुत दिनों तक; सन्ति--हो सकते हैं; उत्पाता: च--अनेक उपद्रव; गोकुले--आपके घर गोकुल में।

    बसुदेव ने नन्द महाराज से कहा : मेरे भाई, अब तो आपने कंस को वार्षिक कर चुका दियाहै और मुझसे भी भेंट कर ली है, अतः इस स्थान पर अब अधिक दिन मत रूुको।

    गोकुल लौट जाना बेहतर है क्योंकि मैं जानता हूँ कि वहाँ कुछ उपद्रव हो सकते हैं।

    श्रीशुक उबाचइति नन्दादयो गोपाः प्रोक्तास्ते शौरिणा ययु: ।

    अनोभिरनडुद्ुक्तैस्तमनुज्ञाप्प गोकुलम्‌ ॥

    ३२॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; नन्द-आदय:--नन्द महाराज तथा उनके साथी; गोपा: --ग्वाले; प्रोक्ता:--सलाह दिए जाने पर; ते--वे; शौरिणा--वसुदेव द्वारा; ययु:--उस स्थान से रवाना हो गए; अनोभि:--बैलगाड़ियों द्वारा; अनडुत्‌-युक्ती:--बैलों से जुती; तम्‌ अनुज्ञाप्प--वसुदेव से अनुमति लेकर; गोकुलम्‌--गोकुल के लिए।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब वसुदेव ने नन्‍्द महाराज को इस प्रकार सलाह दी तो नन्दमहाराज तथा उनके संगी ग्वालों ने वसुदेव से अनुमति ली, अपनी-अपनी गाड़ियों में बैल जोतेऔर सवार होकर गोकुल के लिए प्रस्थान कर गये।

    TO

    अध्याय छह: राक्षसी पूतना का वध

    10.6श्रीशुक उबाचनन्दः पथ् बच: शौरेर्न मृषेति विचिन्तयन्‌ ।

    हरिं जगामशरणमुत्पातागमशड्धितः ॥

    १॥

    श्री-शुक: उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; नन्दः--नन्द महाराज ने; पथि--घर आते हुए, रास्ते में; वच:--शब्द;शौरे:--वसुदेव के; न--नहीं; मृषा--निरर्थक; इति--इस प्रकार; विचिन्तयन्‌-- अपने पुत्र के अशुभ के विषय में सोच कर;हरिम्‌ू-- भगवान्‌, नियन्ता की; जगाम--ग्रहण की; शरणम्‌--शरण; उत्पात--उपद्रवों की; आगम--आशा से; शद्धितः--भयभीत हुए

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन्‌! जब नन्द महाराज घर वापस आ रहे थे तो उन्होंनेविचार किया कि वसुदेव ने जो कुछ कहा था वह असत्य या निरर्थक नहीं हो सकता।

    अवश्य हीगोकुल में उत्पातों के होने का कुछ खतरा रहा होगा।

    ज्योंही नन्द महाराज ने अपने सुन्दर पुत्रकृष्ण के लिए खतरे के विषय में सोचा त्योंही वे भयभीत हो उठे और उन्होंने परम नियन्ता केचरणकमलों में शरण ली।

    कंसेन प्रहिता घोरा पूतना बालघातिनी ।

    शिशूंश्चचार निध्नन्ती पुरग्रामत्रजादिषु ॥

    २॥

    कंसेन--कंस द्वारा; प्रहिता--पहले से लगाई गई; घोरा--अत्यन्त भयानक; पूतना--पूतना नामक; बाल-घातिनी --राक्षसी;शिशून्‌--छोटे छोटे बच्चों को; चचार--घूमती रहती थी; निध्नन्ती--मारती हुई; पुर-ग्राम-त्रज-आदिषु--नगरों, गाँवों में इधरउधर

    जब नन्द महाराज गोकुल लौट रहे थे तो वही विकराल पूतना, जिसे कंस ने बच्चों को मारनेके लिए पहले से नियुक्त कर रखा था, नगरों तथा गाँवों में घूम घूम कर अपना नृशंस कृत्य कररही थी।

    न यत्र भ्रवणादीनि रक्षोघ्नानि स्वकर्मसु ।

    कुर्वन्ति सात्वतां भर्तुर्यातुधान्यश्व तत्र हि ॥

    ३॥

    न--नहीं; यत्र--जहाँ; श्रवण-आदीनि-- श्रवण, कीर्तन इत्यादि भक्तियोग के कार्य; रक्ष:ः-घ्नानि--समस्त विपदाओं तथाअशुभों को मारने की ध्वनि; स्व-कर्मसु--अपने काम में लगी; कुर्वन्ति--ऐसे कार्य किये जाते हैं; सात्वताम्‌ भर्तु:--भक्तों केरक्षक के; यातुधान्य:--बुरे लोग, उत्पाती; च--भी; तत्र हि--हो न हो |

    हे राजन्‌! जहाँ भी लोग कीर्तन तथा श्रवण द्वारा भक्तिकार्यों की अपनी वृत्तियों में लगे रहतेहैं ( श्रवर्णं कीर्तन विष्णो: ) वहाँ बुरे लोगों से किसी प्रकार का खतरा नहीं रहता।

    जब साक्षात्‌भगवान्‌ वहाँ विद्यमान हों तो गोकुल के विषय में किसी प्रकार की चिन्ता की आवश्यकता नहींथी।

    सा खेचर्येकदोत्पत्य पूतना नन्दगोकुलम्‌ ।

    योषित्वा माययात्मानं प्राविशत्कामचारिणी ॥

    ४॥

    सा--वह ( पूतना ); खे-चरी--आकाश मार्ग में यात्रा करने वाली; एकदा--एक बार; उत्पत्य--उड़ते हुए; पूतना--पूतना;नन्द-गोकुलम्‌--नन्द महाराज के स्थान, गोकुल में; योषित्वा--सुन्दर स्त्री का वेश धारण करके; मायया--योगशक्ति से;आत्मानम्‌--अपने आपको; प्राविशत्‌-- प्रवेश किया; काम-चारिणी--इच्छानुसार विचरण करने वाली |

    एक बार स्वेच्छा से विचरण करने वाली पूतना राक्षसी बाह्य आकाश ( अन्तरिक्ष ) में घूमरही थी तो वह अपनी योगशक्ति से अपने को अति सुन्दर स्त्री के रूप में बदलकर नन्द महाराजके स्थान गोकुल में प्रविष्ट हुई।

    तां केशबन्धव्यतिषक्तमल्लिकांबृहन्नितम्बस्तनकृच्छुमध्यमाम्‌ ।

    सुवाससं कल्पितकर्ण भूषण-त्विषोल्लसत्कुन्तलमण्डिताननाम्‌ ॥

    ५॥

    वल्गुस्मितापाड्विसर्गवीक्षितै-म॑नो हरन्तीं वनितां ब्रजौकसाम्‌ ।

    अमंसताम्भोजकरेण रूपिणींगोष्य: श्रियं द्रष्टमिवागतां पतिम्‌ ॥

    ६॥

    ताम्‌--उसको; केश-बन्ध-व्यतिषक्त-मल्लिकाम्‌--जिसके जूड़े मल्लिका के फूलों की मालाओं से सजाये गये थे; बृहत्‌--बहुत बड़े; नितम्ब-स्तन--अपने कूल्हों तथा दृढ़ स्तनों से; कृच्छु-मध्यमाम्‌--पतली कमर के भार से नत; सु-वाससम्‌-- अच्छेवस्त्रों से सज्जित; कल्पित-कर्ण-भूषण--कानों में पहने कुण्डलों की; त्विषा--चमक से; उल्लसत्‌--अत्यन्त आकर्षक;कुन्तल-मण्डित-आननाम्‌--काले बालों से घिरे सुन्दर मुखमण्डल वाली; वल्गु-स्मित-अपाडु-विसर्ग-वीक्षितैः --हास्ययुक्तचितवन से; मन: हरन्तीम्‌--मन को हरती हुईं; बनिताम्‌ू--अत्यन्त आकर्षक स्त्री ने; त्रज-ओकसाम्‌--गोकुलवासियों को;अमंसत--सोचा; अम्भोज--कमल लिये हुए; करेण--हाथ से; रूपिणीम्‌-- अत्यन्त सुन्दर; गोप्य:--गोकुल की रहने वालीगोपियाँ; थ्रियम्‌ू-- लक्ष्मी; द्रष्टमू--देखने के लिए; इब--मानो; आगताम्‌--आई हो; पतिमू--पति को।

    उसके नितम्ब भारी थे, उसके स्तन सुदृढ़ तथा विशाल थे जिससे उसकी पतली कमर परअधिक बोझ पड़ता प्रतीत हो रहा था।

    वह अत्यन्त सुन्दर वस्त्र धारण किये थी।

    उसके केशमल्लिका फूल की माला से सुसज्जित थे जो उसके सुन्दर मुख पर बिखरे हुए थे।

    उसके कान केकुण्डल चमकीले थे।

    वह हर व्यक्ति पर दृष्टि डालते हुए आकर्षक ढंग से मुसका रही थी।

    उसकी सुन्दरता ने ब्रज के सारे निवासियों का विशेष रूप से पुरुषों का ध्यान आकृष्ट कर रखाथा।

    जब गोपियों ने उसे देखा तो उन्होंने सोचा कि हाथ में कमल का फूल लिए लक्ष्मी जी अपनेपति कृष्ण को देखने आई हैं।

    बालग्रहस्तत्र विचिन्वती शिशून्‌यहच्छया नन्दगृहेउसदन्तकम्‌ ।

    बाल प्रतिच्छन्ननिजोरुतेजसंददर्श तल्पेग्निमिवाहितं भसि ॥

    ७॥

    बाल-ग्रह:--डाइन, जिसका काम छोटे-छोटे बच्चों को मारना है; तत्र--वहाँ खड़ी; विचिन्वती--सोचती हुईं, ढूँढती हुई;शिशून्‌--बालकों के; यहच्छया--स्वतंत्र रूप से; नन्द-गृहे--नन्द महाराज के घर में; असत्‌-अन्तकम्‌--सारे असुरों को मारनेमें समर्थ; बालम्‌--बालक को; प्रतिच्छन्न--ढकी; निज-उरु-तेजसम्‌--अपनी असीम शक्ति को; दरदर्श--देखा; तल्पे--बिस्तरपर ( लेटा ); अग्निमू-- अग्नि को; इब--सहृश्य; आहितम्‌--ढकी; भसि--राख के भीतर |

    छोटे छोटे बालकों को ढूँढती हुई बच्चों का वध करने वाली पूतना बिना किसी रोकटोकके नन्द महाराज के घर में घुस गई क्योंकि वह भगवान्‌ की परा शक्ति द्वारा भेजी गई थी।

    वहकिसी से पूछे बिना नन्‍्द महाराज के उस कमरे में घुस गई जहाँ उसने बालक को ब्िस्तरे पर सोतेदेखा जो राख में ढकी अग्नि के समान असीम शक्ति-सम्पन्न था।

    वह समझ गई कि यह बालककोई साधारण बालक नहीं है, अपितु सारे असुरों का वध करने के हेतु आया है।

    विबुध्य तां बालकमारिकाग्रहंचराचरात्मा स निमीलितेक्षण: ।

    अनन्तमारोपयदड्जूमन्तकयथोरगं सुप्तमबुद्धधिरज्जुधी: ॥

    ८॥

    विब॒ुध्य--समझ कर; ताम्‌--उसको ( पूतना को ); बालक-मारिका-ग्रहम्‌--बालकों को मारने में पटु डाइन को; चर-अचर-आत्मा--सर्वव्यापक परमात्मा कृष्ण; सः--उसने; निमीलित-ईक्षण: -- अपनी आँखें बन्द कर लीं; अनन्तम्‌ू-- असीम;आरोपयत्‌ू--रख लिया; अड्डम्‌--अपनी गोद में; अन्तकम्‌--अपने विनाश के लिए; यथा--जिस तरह; उरगम्‌--साँप को;सुप्तम्‌--सोये हुए; अबुद्धधि--बुद्धिहीन व्यक्ति; रज्जु-धी:--साँप को रस्सी समझने वाला |

    बिस्तर पर लेटे सर्वव्यापी परमात्मा कृष्ण ने समझ लिया कि छोटे बालकों को मारने में पटुयह डाइन पूतना मुझे मारने आई है।

    अतएव उन्होंने अपनी आँखें बन्द कर लीं मानो उससे डरगये हों।

    तब पूतना ने अपने विनाश-रूप कृष्ण को अपनी गोद में ले लिया जिस तरह किबुद्धिहीन मनुष्य सोते साँप को रस्सी समझ कर अपनी गोद में ले लेता है।

    तां तीक्ष्णचित्तामतिवामचेष्टितांवीक्ष्यान्तरा कोषपरिच्छदासिवत्‌ ।

    वरस्त्रियं तत्प्रभया च॒ धर्षितेनिरीक्ष्ममाणे जननी ह्ातिष्ठताम्‌ ॥

    ९॥

    ताम्‌--उस ( पूतना राक्षसी को ); तीक्ष्ण-चित्तामू--बच्चों का वध करने के लिए अत्यन्त पाषाण हृदय वाली; अति-वाम-चेष्टितामू--यद्यपि वह बच्चे के साथ माता से भी अधिक अच्छा बर्ताव करने का प्रयास कर रही थी; वीक्ष्य अन्तरा--कमरे केभीतर उसे देख कर; कोष-परिच्छद-असि-वत्‌--मुलायम म्यान के भीतर तेज तलवार की तरह; वर-स्त्रियम्‌--सुन्दर स्त्री के;ततू-प्रभया--उसके प्रभाव से; च-- भी; धर्षिते-- अभिभूत, विह्नल; निरीक्ष्ममाणे--देख रही थीं; जननी--दोनों माताएँ; हि--निश्चय ही; अतिष्ठताम्‌ू--वे मौन रह गईं।

    पूतना राक्षसी का हृदय कठोर एवं क्रूर था किन्तु ऊपर से वह अत्यन्त स्नेहमयी माता सदृशलग रही थी।

    वह मुलायम म्यान के भीतर तेज तलवार जैसी थी।

    यद्यपि यशोदा तथा रोहिणी नेउसे कमरे के भीतर देखा किन्तु उसके सौन्दर्य से अभिभूत होने के कारण उन्होंने उसे रोका नहींअपितु वे मौन रह गईं क्योंकि वह बच्चे के साथ मातृवत्‌ व्यवहार कर रही थी।

    तस्मिन्स्तनं दुर्जरवीर्यमुल्बणंघोराड्डूमादाय शिशोर्ददावथ ।

    गाढं कराभ्यां भगवान्प्रपीड्य ततू-प्राणै: सम॑ं रोषसमन्वितोपिबत्‌ ॥

    १०॥

    तस्मिन्‌--उस स्थान में; स्तनम्‌--स्तन; दुर्जर-वीर्यम्‌--विष से मिश्रित अत्यन्त शक्तिशाली हथियार; उल्बणम्‌-- भयंकर;घोरा--अत्यन्त खूँखार पूतना; अड्भमू--अपनी गोद में; आदाय--रखकर; शिशो:--बालक के मुख में; ददौ--दिया; अथ--तत्पश्चात्‌; गाढम्‌--अत्यन्त कठोर; कराभ्याम्‌-दोनों हाथों से; भगवान्‌-- भगवान्‌; प्रपीड्य--पीड़ा पहुँचाते हुए; तत्‌-प्राणै:--उसके प्राण; समम्‌--के साथ; रोष-समन्वित:--उस पर क्रुद्ध होकर; अपिबत्‌--स्तनपान किया।

    उसी जगह भयानक तथा खूँख्वार राक्षसी ने कृष्ण को अपनी गोद में ले लिया और उनकेमुँह में अपना स्तन दे दिया।

    उसके स्तन के चूँचुक में घातक एवं तुरन्त प्रभाव दिखाने वाला विषचुपड़ा हुआ था किन्तु भगवान्‌ कृष्ण उस पर अत्यन्त क्रुद्ध हुए और उसके स्तन को पकड़ करअपने हाथों से कड़ाई से निचोड़ा और विष तथा उसके प्राण दोनों चूस डाले।

    सा मुख्ञ मुझ्ञालमिति प्रभाषिणीनिष्पीड्यमानाखिलजीवमर्मणि ।

    विवृत्य नेत्रे चरणौ भुजौ मुहुःप्रस्विन्नगात्रा क्षिपती रुरोद ह ॥

    ११॥

    सा--वह ( पूतना ); मुझ्न--छोड़ो; मुझ्न--छोड़ो; अलम्‌ू--बस! बस!; इति--इस प्रकार; प्रभाषिणी--चिल्लाती;निष्पीड्यमाना--बुरी तरह दबाई जाकर; अखिल-जीव-मर्मणि--सारे मर्मस्थलों में; विवृत्य--खोल कर; नेत्रे--दोनों आँखें;चरणौ--दोनों पाँव; भुजौ--दोनों हाथ; मुहुः--पुनः पुनः; प्रस्विन्न-गात्रा--पसीने से तर शरीर; क्षिपती--फेंकते हुए; रुरोद--जोर से चिल्लाई; ह--निस्सन्देह

    प्रत्येक मर्मस्थल में असह्य दबाव से पूतना चिल्ला उठी, ‘मुझे छोड़ दो, मुझे छोड़ दो! अबमेरा स्तनपान मत करो।

    पसीने से तर, फटी हुई आँखें तथा हाथ और पैर पटकती हुई वह बार-बार जोर जोर से चिललाने लगी।

    तस्याः स्वनेनातिगभीररंहसासाद्रिमही द्यौश्ञ चचाल सग्रहा ।

    रसा दिशश्च प्रतिनेदिरि जना:पेतु: क्षितौ वज्ञनिपातशड्डूया ॥

    १२॥

    तस्या:--विकट राक्षसी पूतना की; स्वनेन-- ध्वनि से; अति--अत्यन्त; गभीर--गहन; रंहसा--शक्तिशाली; स-अद्विः --पर्वतोंसमेत; मही --पृथ्वी; द्यौ: च--तथा आकाश; चचाल--हिलने लगे; स-ग्रहा--तारों समेत; रसा--पृथ्वी लोक के नीचे; दिशःच--तथा सारी दिशाएँ; प्रतिनेदिरि--गूँजने लगीं; जना:--लोग; पेतु:--गिर पड़े; क्षितौ--पृथ्वी पर; बज़ञ-निपात-शड्भूया--इसआशंका से कि वज़पात हुआ है।

    पूतना की गहन तथा जोरदार चीत्कार से पर्वतों समेत पृथ्वी तथा ग्रहों समेत आकाशडगमगाने लगा।

    नीचे के लोक तथा सारी दिशाएँ थरथरा उठीं और लोग इस आशंका से गिर पड़ेकि उन पर बिजली गिर रही हो।

    इशाचरीत्थं व्यधितस्तना व्यसुर्‌व्यादाय केशांश्वरणौ भुजावषि ।

    प्रसार्य गोष्ठे निजरूपमास्थिताबच्नाहतो वृत्र इवापतन्नूप ॥

    १३॥

    निशा-चरी--राक्षसी ने; इत्थम्‌--इस तरह; व्यधित-स्तना--स्तन पर दबाब पड़ने से दुखी; व्यसु:--प्राण छोड़ दिया;व्यादाय--मुँह फैला कर; केशान्‌ू--बालों का गुच्छा; चरणौ--दोनों पाँव; भुजौ--दोनों हाथ; अपि-- भी; प्रसार्य--पसार कर;गोष्ठे--गोचर में; निज-रूपम्‌ आस्थिता--अपने मूल आसुरी रूप में स्थित; बज़ञ-आहतः--इन्द्र के वज्ञ से मरा हुआ; वृत्र:--वृत्रासुउ; इब--सदहृश; अपतत्‌--गिर पड़ी; नृप--हे राजन्‌

    इस तरह कृष्ण द्वारा स्तन पर दबाव डालने से अत्यन्त व्यधित पूतना ने अपने प्राण त्यागदिये।

    हे राजा परीक्षित, वह अपना मुँह फैलाये तथा अपने हाथ, पाँव पसारे और बाल फैलायेअपने मूल राक्षसी रूप में गोचर में गिर पड़ी मानो इन्द्र के बज़ से आहत वृत्रासुर गिरा हो।

    अतमानोपि तहेहस्त्रिगव्यूत्यन्तरद्रमान्‌ ।

    चूर्णयामास राजेन्द्र महदासीत्तदद्भुतम्‌ ॥

    १४॥

    पतमानः अपि--गिरते हुए भी; तत्‌-देह:ः --उसका विशाल शरीर; त्रि-गव्यूति-अन्तर--बारह मील की सीमा के भीतर; द्रुमान्‌ --सारे वृक्षों को; चूर्णयाम्‌ आस--चूर चूर कर दिये; राजेन्द्र--हे राजा परीक्षित; महत्‌ आसीत्‌--बहुत विशाल था; तत्‌--वहशरीर; अद्भुतम्‌ू--तथा अत्यन्त विचित्र

    हे राजा परीक्षित, जब पूतना का विशाल शरीर भूमि पर गिरा तो उससे बारह मील के दायरेके सारे वृक्ष चूर चूर हो गये।

    अपने विशाल शरीर में प्रकट होने से वह सचमुच असामान्य थी।

    ईषामात्रोग्रदंष्टास्यं गिरिकन्दरनासिकम्‌ ।

    गण्डशैलस्तनं रौद्रं प्रकीर्णारुणमूर्थजम्‌ ॥

    १५॥

    अन्धकूपगभीराक्षं पुलिनारोहभीषणम्‌ ।

    बद्धसेतुभुजोर्वड्प्रि शून्यतोयह्दोदरम्‌ ॥

    १६॥

    सन्तत्रसुः सम तद्वीक्ष्य गोपा गोप्य: कलेवरम्‌ ।

    पूर्व तु तन्निःस्वनितभिन्नहत्कर्णमस्तका: ॥

    १७॥

    ईषा-मात्र--हल के फाल की तरह; उग्र-- भयानक; दंप्ट--दाँत; आस्यम्‌--मुँह के भीतर; गिरि-कन्दर--पर्वत की गुफा केसमान; नासिकम्‌--नाक के छेद; गण्ड-शैल--पत्थर की बड़ी शिला की तरह; स्तनम्‌--स्तन; रौद्रमू--अत्यन्त विकराल;प्रकीर्ण--बिखरे हुए; अरुण-मूर्थ-जम्‌--ताम्र रंग के बालों वाली; अन्ध-कूप-- भूपट्ट कुओं की तरह; गभीर--गहरे; अक्षम्‌--आँख के गटड्ढे; पुलिल-आरोह-भीषणम्‌--जिसकी जाँघें नदी के किनारों की तरह भयावनी थीं; बद्ध-सेतु-भुज-उरु-अड्ध्रि--जिसकी भुजाएँ, जाँघें तथा पैर मजबूत बने पुलों के समान थे; शून्य-तोय-हृद-उदरमू--जिसका पेट जलविहीन झील की तरहथा; सन्तत्रसु: स्म--डर गये; तत्‌--उस; वीक्ष्य--देखकर; गोपा:--सारे ग्वाले; गोप्य:--तथा ग्वालिनें; कलेवरम्‌--ऐसेविशाल शरीर को; पूर्बम्‌ तु--इसके पहले; ततू-निःस्वनित--उसकी पुकार से; भिन्न--दहले हुए, कटे; हत्‌ू--जिनके हृदय;कर्ण--कान; मस्तका:--तथा सिर

    राक्षसी के मुँह में दाँत हल के फाल ( कुशी ) जैसे थे; उसके नथुने पर्वत-गुफाओं की तरहगहरे थे और उसके स्तन पर्वत से गिरे हुए बड़े बड़े शिलाखण्डों के समान थे।

    उसके बिखरे बालताप्र रंग के थे।

    उसकी आँखों के गड्ढे गहरे अंधे ( भूषट्ट ) कुँओं जैसे थे, उसकी भयानक जाँचेंनदी के किनारों जैसी थीं; उसके बाजू, टाँगें तथा पाँव बड़े बड़े पुलों की तरह थीं तथा उसकापेट सूखी झील की तरह लग रहा था।

    राक्षसी की चीख से ग्वालों तथा उनकी पत्नियों के हृदय,कान तथा सिर पहले ही दहल चुके थे और जब उन्होंने उसके अद्भुत शरीर को देखा तो वे और भी ज्यादा सहम गये।

    बालं च तस्या उरसि क्रीडन्तमकुतो भयम्‌ ।

    गोप्यस्तूर्ण समभ्येत्य जगृहुर्जातसम्भ्रमा: ॥

    १८॥

    बालम्‌ च--बालक भी; तस्या:--उस ( पूतना ) के; उरसि--छाती पर; क्रीडन्तम्--खेलने में व्यस्त; अकुतोभयम्‌--निडरहोकर; गोप्य:--सारी गोपियाँ; तूर्णम्‌--तुरन्त; समभ्येत्य--पास आकर; जगृहुः--उठा लिया; जात-सम्भ्रमा:--उसी स्नेह केसाथ।

    बालक कृष्ण भी निडर होकर पूतना की छाती के ऊपरी भाग पर खेल रहा था और जबगोपियों ने बालक के अदभुत कार्यकलाप को देखा तो उन्होंने अत्यन्त हर्षित होकर आगे बढ़तेहुए उसे उठा लिया।

    यशोदारोहिणीभ्यां ता: सम॑ बालस्य सर्वतः ।

    रक्षां विदधिरे सम्यग्गोपुच्छभ्रमणादिभि: ॥

    १९॥

    यशोदा-रोहिणी भ्याम्‌ू--यशोदा तथा रोहिणी माताओं के साथ जिन्होंने मुख्यतः बालक की चिम्मेदारी ली; ताः--अन्य गोपियाँ;समम्‌--यशोदा तथा रोहिणी की ही तरह महत्त्वपूर्ण; बालस्थ--बालक के; सर्वतः--सारे खतरों से; रक्षाम्‌--रक्षा; विदधिरे--सम्पन्न किया; सम्यक्‌-- भलीभाँति; गो-पुच्छ-भ्रमण-आदिभि:--चँँवर डुला कर ।

    तत्पश्चात्‌ माता यशोदा तथा रोहिणी ने अन्य प्रौढ़ गोपियों समेत बालक श्रीकृष्ण की पूर्णसंरक्षण देने के लिए चँवर डुलाया।

    गोमूत्रेण स्नापयित्वा पुनर्गोरजसार्भकम्‌ ।

    रक्षां चक्रुश्च शकृता द्वादशाड्रेषु नामभि: ॥

    २०॥

    गो-मूत्रेण--गायों के पेशाब से; स्नापयित्वा--नहला कर; पुनः --फिर से; गो-रजसा--गोधूलि से; अर्भकम्‌--छोटे बालकको; रक्षाम्‌--रक्षा; चक्रु:--सम्पन्न किया; च-- भी; शकृता--गोबर से; द्वादश-अड्लेषु--बारह जगहों में ( द्वादश तिलक );नामभी:-- भगवान्‌ का नाम अंकित करके

    बालक को गोमूत्र से अच्छी तरह नहलाया गया और फिर गोधूलि से उसको लेप कियागया।

    फिर उनके शरीर में बारह अंगों पर, तिलक लगाने की भाँति माथे से शुरु करके, गोबर सेभगवान्‌ के विभिन्न नाम अंकित किये गये।

    इस तरह बालक को सुरक्षा प्रदान की गई।

    गोप्य: संस्पृष्ठगलिला अड्भेषु करयो: पृथक्‌ ।

    न्यस्यात्मन्यथ बालस्य बीजन्यासमकुर्वत ॥

    २१॥

    गोप्य:--गोपियों ने; संस्पृष्टटसलिला:--जल के प्याले को छूकर तथा पीकर ( आचमन करके ); अड्लेषु--अपने शरीरों पर;करयो:--दोनों हाथों पर; पृथक्‌--अलग अलग; न्यस्य--मंत्र के अक्षरों को रख कर; आत्मनि--अपने ऊपर; अथ--तब;बालस्य--बालक के; बीज-न्यासम्‌--मंत्रन्यास की विधि; अकुर्वत--सम्पन्न की |

    गोपियों ने सर्वप्रथम अपने दाहिने हाथ से जल का एक घूँट पी कर आचमन किया।

    उन्होंनेअपने शरीरों तथा हाथों को न्यास-फमंत्र से शुद्ध बनाया और तब उन्होंने बालक के शरीर को भी उसी मंत्र से परिशुद्ध किया।

    अव्यादजोड्प्रि मणिमांस्तव जान्वथोरूयज्ञोच्युतः कटितर्ट जठरं हयास्यः ।

    हत्केशवस्त्वदुर ईश इनस्तु कण्ठंविष्णुर्भुजं मुखमुरुक्रम ईश्वर: कम्‌ ॥

    २२॥

    चकरयग्रतः सहगदो हरिरस्तु पश्चात्‌त्वत्पार्थयोर्धनुरसी मधुहाजनश्व ।

    कोणेषु शद्भु उरुगाय उपर्युपेन्द्रस्‌तार्श्य: क्षितौ हलधरः पुरुष: समन्तात्‌ ॥

    २३॥

    अव्यात्‌--रक्षा करे; अज:-- भगवान्‌ अज; अड्प्रि-- पाँव; मणिमान्‌-- भगवान्‌ मणिमान; तव--तुम्हारे; जानु--घुटने; अथ--तत्पश्चात्‌; उरू--जाँचें; यज्ञ:--यज्ञदेव; अच्युत:-- भगवान्‌ अच्युत; कटि-तटम्‌ू--कमर का ऊपरी हिस्सा; जठरम्‌--उदर;हयास्य:-- भगवान्‌ हयग्रीव; हत्‌ू--हृदय; केशवः-- भगवान्‌ केशव; त्वत्‌--तुम्हारा; उर:ः --वक्षस्थल, सीना; ईशः--परमनियन्ता, भगवान्‌ ईश; इन:--सूर्य देव; तु--लेकिन; कण्ठम्‌--गला; विष्णु: -- भगवान्‌ विष्णु; भुजम्‌--बाहें; मुखम्‌--मुँह; उरुक्रम:-- भगवान्‌ उरुक्रम; ईश्वरःः-- भगवान्‌ ईश्वर; कम्‌--सिर; चक्री--चक्र धारण करने वाला; अग्रतः--सामने; सह-गदः--गदाधारी; हरि: -- भगवान्‌ हरि; अस्तु--रहता रहे; पश्चात्‌--पीछे, पीठ पर; त्वतू-पार्श्यो: --तुम्हारी दोनों बगलों में;धनु:-असी--धनुष तथा तलवार धारण करने वाला; मधु-हा--मधु असुर का वध करने वाला; अजन:--विष्णु; च--तथा;कोणेषु--कोनों में; शद्भः --शंखधारी; उरुगाय: --पूजित; उपरि--ऊपर; उपेन्द्र: -- भगवान्‌ उपेन्द्र; ताक्ष्य:--गरुड़; क्षितौ--पृथ्वी पर; हलधर:-- भगवान्‌ हलधर; पुरुष:--परम पुरुष; समन्तात्‌--सभी दिशाओं में |

    ( शुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित को बतलाया कि गोपियों ने कृष्ण की रक्षा उपयुक्तविधि के अनुसार निम्नलिखित मंत्र द्वारा की )--अज तुम्हारी पाँवों की, मणिमान तुम्हारे घुटनोंकी, यज्ञ तुम्हारी जाँघों की, अच्युत तुम्हारी कमर के ऊपरी भाग की तथा हयग्रीव तुम्हारे उदरकी रक्षा करें।

    केशव तुम्हारे हृदय की, ईश तुम्हारे वक्षस्थल की, सूर्यदेव तुम्हारे गले की, विष्णु तुम्हारे भुजाओं की, उरुक्रम तुम्हारे मुँह की तथा ईश्वर तुम्हारे सिर की रक्षा करें।

    चक्री आगे से,गदाधारी हरि पीछे से तथा धनुर्धर मधुहा एवं खड़ग्‌ भगवान्‌ विष्णु दोनों ओर से तुम्हारी रक्षाकरें।

    शंखधारी उरुगाय समस्त कोणों से तुम्हारी रक्षा करें।

    उपेन्द्र ऊपर से, गरुड़ धरती पर तथापरम पुरुष हलधर चारों ओर से तुम्हारी रक्षा करें।

    इन्द्रियाणि हृषीकेश: प्राणान्नारायणोवतु ।

    श्वेतद्वीपपतिश्षित्तं मनो योगेश्वरोउवतु ॥

    २४॥

    इन्द्रियाणि --सारी इन्द्रियों को; हषीकेश:--सभी इन्द्रियों के रक्षक भगवान्‌ हषीकेश; प्राणान्‌--सारे प्राणों को; नारायण: --भगवान्‌ नारायण; अवतु--रक्षा करें; श्वेतद्वीप-पति:-- श्रेतद्वीप के स्वामी, विष्णु; चित्तमू--हृदय को; मन:--मन को;योगेश्वर: -- भगवान्‌ योगेश्वर; अवतु--संरक्षण प्रदान करें।

    हृषीकेश तुम्हारी इन्द्रियों की तथा नारायण तुम्हारे प्राणवायु की रक्षा करें।

    श्वेतद्वीप के स्वामीतुम्हारे चित्त की तथा योगे श्वर तुम्हारे मन की रक्षा करें।

    पृश्निगर्भस्तु ते बुद्धिमात्मानं भगवान्पर: ।

    क्रीडन्तं पातु गोविन्द: शयानं पातु माधव: ॥

    २५॥

    ब्रजन्तमव्याद्वैकुण्ठ आसीन॑ त्वां भ्रिय: पति: ।

    भुझानं यज्ञभुक्पातु सर्वग्रहभयड्डरः ॥

    २६॥

    पृश्निगर्भ:--भगवान्‌ पृश्निगर्भ; तु--निस्सन्देह; ते--तुम्हारी; बुद्धिमू--बुद्धि को; आत्मानम्‌--आत्मा को; भगवान्‌-- भगवान;'परः--दिव्य; क्रीडन्तम्‌--खेलते हुए; पातु--रक्षा करें; गोविन्द: --गोविन्द; शयानम्‌--सोते समय; पातु--रक्षा करें; माधव: --भगवान्‌ माधव; ब्रजन्तम्‌--चलते हुए; अव्यात्‌--रक्षा करें; वैकुण्ठ:-- भगवान्‌ वैकुण्ठ; आसीनम्‌--बैठे हुए; त्वाम्‌--तुमको;भ्रिय: पति:ः--लक्ष्मीपति, नारायण; भुझ्जानम्‌--जीवन का भोग करते हुए; यज्ञभुक्‌ू--यज्ञभुक; पातु--रक्षा करें; सर्व-ग्रह-भयम्‌-करः--जो सरे दुष्ट ग्रहों को भय देने वाले |

    भगवान्‌ प्रश्निगर्भ तुम्हारी बुद्धि की तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ तुम्हारे आत्मा की रक्षाकरें।

    तुम्हािरे खेलते समय गोविन्द तथा तुम्हारे सोते समय माधव तुम्हारी रक्षा करें।

    भगवान्‌वैकुण्ठ तुम्हारे चलते समय तथा लक्ष्मीपति नारायण तुम्हारे बैठते समय तुम्हारी रक्षा करें।

    इसी तरह भगवान्‌ यज्ञभुक, जिनसे सारे दुष्टग्रह भयभीत रहते हैं तुम्हारे भोग के समय सदैव तुम्हारीरक्षा करें।

    डाकिन्यो यातुधान्यश्च कुष्माण्डा येर्भकग्रहा: ।

    भूतप्रेतपिशाचाश्व यक्षरक्षोेविनायका: ॥

    २७॥

    कोटरा रेवती ज्येष्ठा पूतना मातृकादयः ।

    उन्मादा ये ह्ापस्मारा देहप्राणेन्द्रियद्रह: ॥

    २८ ॥

    स्वणदृष्टा महोत्पाता वृद्धा बालग्रहाश्न ये ।

    सर्वे नश्यन्तु ते विष्णोर्नामग्रहणभीरव: ॥

    २९॥

    डाकिन्य: यातुधान्य: च कुष्माण्डा:--डाइनें, चुडैलें, बच्चों की दुश्मनें; ये--जो हैं; अर्भक-ग्रहा: --बच्चों के लिए अशुभनक्षत्रों तुल्य; भूत--दुष्टात्माएँ; प्रेत--प्रेत; पिशाचा:-- भूतों के ही तुल्य दुष्टात्माएँ; च-- भी; यक्ष--यक्षगण; रक्ष:--राक्षसगण;विनायका:--विनायक नाम के; कोटरा--कोटरा नामक; रेवती--रेवती नामक; ज्येष्टा--ज्येष्ठा नामक; पूतना--पूतना नामक;मातृका-आदय: --मातृका इत्यादि दुष्टिनें; उन्मादा:--उन्माद उत्पन्न करने वाली; ये--जो अन्य; हि--निस्सन्देह; अपस्मारा:--स्मृति हानि करने वाली; देह-प्राण-इन्द्रिय--शरीर, प्राण तथा इन्द्रियों को; द्रुह:ः --कष्ट देने वाली; स्वप्न-दृष्टा:--बुरे सपने लानेवाले, दुष्टात्मा; महा-उत्पाता:--महानू्‌ उत्पात मचाने वाले; वृद्धा:--अनुभवी; बाल-ग्रहा: च--तथा बालकों पर आक्रमण करनेवाले; ये--जो; सर्वे--सभी; नश्यन्तु--विनष्ट हों; ते--वे; विष्णो: -- भगवान्‌ विष्णु के; नाम-ग्रहण--नाम लेने से; भीरव: --डर जाते हैं।

    डाकिनी, यातुधानी तथा कुष्माण्ड नामक दुष्ट डाइनें बच्चों की सबसे बड़ी शत्रु हैं तथा भूत,प्रेत, पिशाच, यक्ष, राक्षस तथा विनायक जैसे दुष्टात्माओं के साथ कोटरा, रेवती, ज्येष्ठा, पूतनातथा मातृका जैसी डाइनें भी सदैव शरीर, प्राण तथा इन्द्रियों को कष्ट पहुँचाने के लिए तैयाररहती हैं जिससे स्मृति की हानि, उन्माद तथा बुरे स्वप्न उत्पन्न होते हैं।

    वे दुष्ट अनुभवी वृद्धों कीतरह बच्चों के लिए विशेष रूप से भारी उत्पात खड़ा करते हैं।

    किन्तु भगवान्‌ विष्णु केनामोच्चार से ही उन्हें नष्ट किया जा सकता है क्योंकि जब भगवान्‌ विष्णु का नाम प्रतिध्वनितहोता है, तो वे सब डर जाते हैं और दूर भाग जाते हैं।

    श्रीशुक उबाचइति प्रणयबद्धाभिगोंपीभि: कृतरक्षणम्‌ ।

    पाययित्वा स्तनं माता सन्न्यवेशयदात्मजम्‌ ॥

    ३०॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस तरह; प्रणय-बद्धाभि: --मातृस्नेह से बँधे हुए; गोपीभि:--यशोदाआदि प्रौढ़ गोपियों के द्वारा; कृत-रक्षणम्‌--बालक की रक्षा करने के लिए सभी उपाय किये गये; पाययित्वा--इसके बादबालक को पिला कर; स्तनम्‌--स्तन; माता--माता यशोदा ने; सन््यवेशयत्‌--बिस्तर पर लिटा दिया; आत्मजम्‌--अपने बेटेको

    श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : माता यशोदा समेत सारी गोपियाँ मातृस्नेह से बँधीहुई थीं।

    इस तरह बालक की रक्षा के लिए मंत्रोच्यारण के बाद माता यशोदा ने बच्चे को अपनादूध पिलाया और उसे बिस्तर पर लिटा दिया।

    तावन्नन्दादयो गोपा मथुराया ब्र॒जं गता: ।

    विलोक्य पूतनादेहं बभूवुरतिविस्मिता: ॥

    ३१॥

    तावत्‌--तब तक, इस बीच; नन्द-आदय: --नन्द महाराज इत्यादि; गोपा:--सारे ग्वाले; मथुराया: --मथुरा से; ब्रजम्‌--वृन्दावन; गता:--वापस आ गये; विलोक्य--देखकर; पूतना-देहम्‌--पूतना के मृत विशाल शरीर को; बभूबुः--हो गये;अति--अत्यन्त; विस्मिता:-- आश्चर्यचकित

    तब तक नन्द महाराज समेत सारे ग्वाले मथुरा से लौट आये और जब उन्होंने रास्ते में पूतनाके विशाल काम शरीर को मृत पड़ा देखा तो वे अत्यन्त आश्चर्यच्कित हुए।

    नूनं बतर्षि: सज्जञातो योगेशो वा समास सः ।

    स एव दृष्टो ह्युत्पातो यदाहानकदुन्दुभि: ॥

    ३२॥

    नूनमू--निश्चय ही; बत--मेरे दोस्तो; ऋषि:--सन्‍्त पुरुष; सज्ञात:--बन गया है; योग-ईशः--योग शक्ति का स्वामी; वा--अथवा; समास--बन गया है; सः--उसने ( वसुदेव ने ); सः--वही; एव--निस्सन्देह; दृष्टः--देखा गया; हि--क्योंकि;उत्पात:--उत्पात; यत्‌--जो; आह-- भविष्यवाणी की गई; आनकदुन्दुभि:--वसुदेव द्वारा |

    नन्‍्द महाराज तथा अन्य ग्वाले चिल्ला पड़े: मित्रो, जान लो कि आनकदुन्दुभि अर्थात्‌वसुदेव बहुत बड़ा सन्त या योगेश्वर बन चुका है।

    अन्यथा वह इस उत्पात को पहले से कैसे देखसकता था और हमसे इसकी भविष्य वाणी कैसे कर सकता था ?

    कलेवरं परशुभिश्िछत्त्वा तत्ते ब्रजौकसः ।

    दूरे क्षिप्वावयवशो न्यदहन्काष्ठवेष्टितम्‌ ॥

    ३३॥

    कलेवरम्‌--पूतना के विशाल शरीर को; परशुभि:--कुल्हाड़ियों या फरसों से; छित्तता--खण्ड खण्ड करके; तत्‌--उस ( शरीरको ); ते--वे सभी; ब्रज-ओकस: --ब्रजवासी; दूरे--बहुत दूर; क्षिप्वा--फेंक कर; अवयवश:--शरीर के विभिन्न खंड;न्यदहन्‌--जला दिया; काष्ठ-वेष्टितमू--लकड़ी से ढका हुआ।

    ब्रजवासियों ने पूतना के शरीर को फरसों से खण्ड खण्ड कर डाला।

    फिर उन खण्डों कोदूर फेंक दिया और उन्हें लकड़ी से ढक कर भस्मीभूत कर डाला।

    दह्मयमानस्य देहस्य धूमश्चागुरुसौरभ: ।

    उत्थितः कृष्णनिर्भुक्तसपद्याहतपाप्मन: ॥

    ३४॥

    दह्ममानस्य--जलाकर क्षार करते समय; देहस्य--पूतना के शरीर का; धूम:--धुँआ; च--तथा; अगुरु-सौरभ:--अगुरु जैसासुगन्धित धुँआ; उत्थित:--शरीर से उठा हुआ; कृष्ण-निर्भुक्त--कृष्ण द्वारा स्तन चूसे जाने से; सपदि--तुरन्त; आहत-पाप्मन: --उसका भौतिक शरीर आध्यात्मिक बन गया अथवा वह भवबन्धन से छूट गया।

    चूँकि कृष्ण ने उस राक्षसी पूतना का स्तनपान किया था, इसतरह जब कृष्ण ने उसे मारा तोवह तुरन्त समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त हो गईं।

    उसके सारे पाप स्वतः ही दूर हो गये अतएव जब उसके विशाल शरीर को जलाया जा रहा था, तो उसके शरीर से निकलने वाला धुँआ अगुरुकी सुगन्ध सा महक रहा था।

    'पूतना लोकबालघ्नी राक्षसी रुधिराशना ।

    जिघांसयापि हरये स्तनं दत्त्वाप सद्गतिम्‌ ॥

    ३५॥

    कि पुनः श्रव्धया भकक्‍्त्या कृष्णाय परमात्मने ।

    यच्छन्प्रियतमं किं नु रक्तास्तन्मातरो यथा ॥

    ३६॥

    पूतना--पेशेवर राक्षसी पूतना; लोक-बाल-घ्नी--जो मनुष्यों के बालकों को मार डालती थी; राक्षसी--राक्षसी; रुधिर-अशना--खून की प्यासी; जिघांसया--कृष्ण को मार डालने की इच्छा से ( कृष्ण से ईर्ष्या करने तथा कंस द्वारा आदेश दियेजाने से ); अपि-- भी; हरये -- भगवान्‌ को; स्तनम्‌ू--अपने स्तन; दत्त्वा-- प्रदान करके; आप--प्राप्त किया; सत्‌-गतिम्‌--वैकुण्ठ का सर्वोच्च पद; किमू--क्या कहा जाय; पुन:ः--फिर; अ्रद्धया-- श्रद्धायुत; भक्त्या--भक्तिपूर्वक; कृष्णाय--कृष्णको; परमात्मने--परम पुरुष; यच्छन्‌-- भेंट करते हुए; प्रिय-तमम्‌--अत्यन्त प्रिय; किम्‌ू--कुछ; नु--निस्सन्देह; रक्ता: --सम्बन्धी; तत्‌ू-मातर:--कृष्ण की स्नेहमयी माताएँ; यथा--जिस तरह।

    पूतना सदा ही मानव शिशुओं के खून की प्यासी रहती थी और इसी अभिलाषा से वहकृष्ण को मारने आई थी।

    किन्तु कृष्ण को स्तनपान कराने से उसे सर्वोच्च पद प्राप्त हो गया।

    तोभला उनके विषय में क्या कहा जाय जिनमें माताओं के रूप में कृष्ण के लिए सहज भक्ति तथास्नेह था और जिन्होंने अपना स्तनपान कराया या कोई अत्यन्त प्रिय वस्तु भेंट की थी जैसा किमाताएँ करती रहती हैं।

    पदभ्यां भक्तहदिस्थाभ्यां वन्द्याभ्यां लोकवन्दितैः ।

    अड् यस्या: समाक्रम्य भगवानपि तत्स्तनम्‌ ॥

    ३७॥

    यातुधान्यपि सा स्वर्गमवाप जननीगतिम्‌ ।

    कृष्णभुक्तस्तनक्षीरा: किमु गावोनुमातर: ॥

    ३८ ॥

    पद्भ्यामू--दोनों चरणकमलों से; भक्त-हदि-स्थाभ्याम्‌ू--जिनके हृदय में भगवान्‌ निरन्तर स्थित रहते हैं; वन्द्याभ्यामू--जिनकीसदैव वन्दना की जानी चाहिए; लोक-वन्दितैः--ब्रह्मा तथा शिव द्वारा, जो तीनों लोकों के वासियों द्वारा प्रशंसित हैं; अड्रम्‌--शरीर को; यस्या:--जिस ( पूतना ) का; समाक्रम्य--आलिंगन करके; भगवान्‌-- भगवान्‌; अपि-- भी; तत्‌ू-स्तनम्‌--उस स्तनको; यातुधानी अपि--यद्यपि वह भूतनी थी; सा--उसने; स्वर्गम्‌--दिव्य धाम को; अवाप--प्राप्त किया; जननी-गतिम्‌--माताके पद को; कृष्ण- भुक्त-स्तन-क्षीरा:-- चूँकि उनके स्तनों का पान कृष्ण ने किया था; किम्‌ उ--क्या कहा जाय; गाव: --गौवें;अनुमातरः:--माताओं की ही तरह जिन्होंने कृष्ण को अपना स्तन-पान कराया।

    भगवान्‌ कृष्ण शुद्ध भक्तों के हृदय में सदैव स्थित रहते हैं और ब्रह्माजी तथा भगवान्‌शिवजी जैसे पूज्य पुरूषों द्वारा सदैव वन्दनीय हैं।

    चूँकि कृष्ण ने पूतना के शरीर का आलिंगनअत्यन्त प्रेमपूर्वकक किया था और भूतनी होते हुए भी उन्होंने उसका स्तनपान किया था इसलिएउसे दिव्य लोक में माता की गति और सर्वोच्च सिद्धि मिली।

    तो भला उन गौवों के विषय में क्‍याकहा जाय जिनका स्तनपान कृष्ण बड़े ही आनन्द से करते थे और जो बड़े ही प्यार से माता केही समान कृष्ण को अपना दूध देती थीं ?

    पयांसि यासामपिब्त्पुत्रस्नेहस्नुतान्यलम्‌ ।

    भगवान्देवकी पुत्र: कैवल्याद्यखिलप्रद: ॥

    ३९॥

    तासामविरतं कृष्णे कुर्वतीनां सुतेक्षणम्‌ ।

    न पुनः कल्पते राजन्संसारोउज्ञानसम्भव: ॥

    ४०॥

    पयांसि--दूध ( शरीर से निकला ); यासाम्‌ू--उन सबों का; अपिबत्‌--कृष्ण ने पिया; पुत्र-स्नेह-स्नुतानि--मातृ स्नेह केकारण, न कि बनावटी ढंग से, गोपियों के शरीर से निकला दूध; अलम्‌--पर्याप्त; भगवान्‌-- भगवान्‌; देवकी-पुत्र:--देवकीके पुत्र रूप में प्रकट हुए; कैवल्य-आदि--यथा मुक्ति या ब्रह्म तेज में लीन होना; अखिल-प्रदः--ऐसे समस्त वरों के प्रदाता;तासाम्‌ू--उन सारी गोपियों का; अविरतम्‌--निरन्तर; कृष्णे--कृष्ण में; कुर्बतीनाम्‌--करते हुए; सुत-ईक्षणम्‌--माता द्वाराअपने शिशु को निहारना; न--कभी नहीं; पुनः:--फिर; कल्पते--कल्पना की जा सकती है; राजन्‌--हे राजा परीक्षित;संसार: --जन्म-मृत्यु का भौतिक बन्धन; अज्ञान-सम्भव:--सुखी बनने की कामना करने वाले मूर्ख व्यक्तियों द्वारा अनजाने मेंस्वीकृत किया गया।

    भगवान्‌ कृष्ण अनेक वरों के प्रदाता हैं जिनमें कैवल्य अर्थात्‌ ब्रह्म तेज में तादात्म्य भीसम्मिलित है।

    उन भगवान्‌ के लिए गोपियों ने सदैव मातृ-प्रेम का अनुभव किया और कृष्ण नेपूर्ण संतोष के साथ उनका स्तन-पान किया।

    अतएव अपने माता-पुत्र के सम्बन्ध के कारणविविध पारिवारिक कार्यो में संलग्न रहने पर भी किसी को यह नहीं सोचना चाहिए कि अपनाशरीर त्यागने पर वे इस भौतिक जगत में लौट आईं।

    कटधूमस्य सौरभ्यमवप्राय ब्रजौकसः ।

    किमिदं कुत एवेति वदन्तो त्रजमाययु: ॥

    ४१॥

    कट-धूमस्य--पूतना के शरीर के विभिन्न अंगों के जलने से उत्पन्न धुँए की; सौरभ्यम्‌--सुगन्धि; अवध्राय--सूँघ कर; ब्रज-ओकसः--दूर दूर के ब्रजवासी; किम्‌ इृदम्‌ू--यह सुगन्धि कैसी है; कुतः--कहाँ से आ रही है; एब--निस्सन्देह; इति--इसतरह; बदन्तः--बातें करते; ब्रजम्‌--ब्रज भूमि में; आययु: --पहुँचे ।

    पूतना के जलते शरीर से निकले धुँए की सुगन्ध को सूँघ कर दूर दूर के अनेक ब्रजवासी आश्चर्यच्कित थे और पूछ रहे थे, '‘यह सुगन्धि कहाँ से आ रही है?' इस तरह वे उस स्थान तकगये जहाँ पर पूतना का शरीर जलाया जा रहा था।

    ते तत्र वर्णितं गोपै: पूतनागमनादिकम्‌ ।

    श्रुत्वा तन्निधनं स्वस्ति शिशोश्वासन्सुविस्मिता: ॥

    ४२॥

    ते--आये हुए सारे लोग; तत्र--वहाँ ( नन्‍्द महाराज के राज्य के पड़ोस में ); वर्णितम्‌--वर्णित; गोपै:--ग्वालों द्वारा; पूतना-आगमन-आदिकम्‌ू--किस तरह पूतना आई तथा उसने उत्पात मचाया इन सबके विषय में; श्रुत्वा--सुनकर; तत्‌-निधनम्‌--तथाउसके मरने के विषय में; स्वस्ति--मंगल हो; शिशो:--बालक का; च--तथा; आसन्‌--अर्पित किया; सु-विस्मिता:--जो कुछघटा था उससे आश्चर्यच्कित होकर।

    जब दूर दूर से आये ब्रजवासियों ने पूरी कथा सुनी कि किस तरह पूतना आई और फिरकृष्ण द्वारा मारी गई तो वे हत्‌ृप्रभ रह गये और उन्होंने पूतना के मारने के अद्भुत कार्य के लिएउस बालक को आशीर्वाद दिया।

    निस्सन्देह नन्द महाराज वसुदेव के अत्यन्त कृतज्ञ थे जिन्होंनेइस घटना को पहले ही देख लिया था।

    उन्होंने यह सोचकर वसुदेव को धन्यवाद दिया कि वेकितने अद्भुत हैं।

    नन्दः स्वपुत्रमादाय प्रेत्यागतमुदारधी: ।

    मूर्ध्युपाप्राय परमां मुदं लेभे कुरूद्वह ॥

    ४३॥

    नन्दः--महाराज नन्द; स्व-पुत्रम्‌ आदाय--अपने पुत्र कृष्ण को अपनी गोद में लेकर; प्रेत्य-आगतम्‌--मानो कृष्ण मृत्यु के मुखसे लौट आये हों ( कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि बालक ऐसे संकट से बच जाएगा ); उदार-धी:--उदार तथा सरलहोने से; मूर्थिनि--कृष्ण के सिर पर; उपाप्राय--सूँघ कर; परमाम्‌--सर्वोच्च; मुदम्‌--शान्ति; लेभे-- प्राप्त किया; कुरु-उद्दद-हेमहाराज परीक्षित।

    हे कुरुश्रेष्ठ महाराज परीक्षित, नन्‍्द महाराज अत्यन्त उदार एवं सरल स्वभाव के थे।

    उन्होंनेतुरन्त अपने पुत्र कृष्ण को अपनी गोद में उठा लिया मानो कृष्ण मृत्यु के मुख से लौटे हों औरअपने पुत्र के सिर को सूँघ कर निस्सन्देह दिव्य आनन्द का अनुभव किया।

    य एतत्पूतनामोक्षं कृष्णस्यार्भकमद्भुतम्‌ ।

    श्रृणुयाच्छुद्धया मर्त्यों गोविन्दे लभते रतिम्‌ ॥

    ४४॥

    यः--जो कोई; एतत्‌--यह; पूतना-मोक्षम्‌--पूतना का मोक्ष; कृष्णस्य--कृष्ण का; आर्भकम्‌--बाल-लीला; अद्भुतम्‌--अद्भुत; श्रूणुयात्‌--सुने; श्रद्धया-- श्रद्धा तथा भक्ति पूर्वक; मर्त्य:--इस लोक का कोई भी व्यक्ति; गोविन्दे--आदि पुरुषगोविन्द के प्रति; लभते--पाता है; रतिम्‌--अनुरक्ति

    जो कोई भी भगवान्‌ कृष्ण द्वारा पूतना के मारे जाने के विषय में श्रद्धा तथा भक्तिपूर्वकश्रवण करता है और कृष्ण की ऐसी बाल लीलाओं के सुनने में अपने को लगाता है उसे निश्चयही आदि पुरुष रूप गोविन्द के प्रति अनुरक्ति प्राप्त होती है।

    TO

    अध्याय सात: राक्षस तृणावर्त का वध

    10.7श्रीराजोबाचयेन येनावतारेण भगवान्हरिरीश्वरः ।

    करोति कर्णरम्याणि मनोज्ञानि च नः प्रभो ॥

    १॥

    यच्छुण्वतोपैत्यरतिर्वितृष्णासत्त्वं च शुद्धब॒त्यचिरेण पुंसः ।

    भक्तिईरौ तत्पुरुषे च सख्यंतदेव हारं बद मन्यसे चेत्‌ ॥

    २॥

    श्री-राजा उवाच--राजा ने ( शुकदेव गोस्वामी से ) पूछा; येन येन अवतारेण--जिन जिन अवतारों के द्वारा प्रदर्शित लीलाएँ;भगवानू्‌-- भगवान्‌; हरिः-- हरि; ईश्वर: --नियन्ता; करोति-- प्रस्तुत करता है; कर्ण-रम्याणि--कानों को सुनने में सुखद; मनः-ज्ञानि--मन के लिए आकर्षक; च--भी; न:--हम सबों के; प्रभो--हे प्रभु, शुकदेव गोस्वामी; यत्‌-श्रुण्वतः--इन कथाओं कोसुनने वाले का; अपैति--दूर हो जाता है; अरतिः--अनाकर्षण; वितृष्णा--मन के भीतर का मैल जो हमें कृष्णभावनामृत मेंअरूचि उत्पन्न कराता है; सत्त्वम्‌ च--हृदय के भीतर अस्तित्व; शुद्धयति--शुद्ध बनाता है; अचिरिण--तुरन्त; पुंस:--किसी भीव्यक्ति का; भक्ति: हरौ-- भगवान्‌ के प्रति भक्ति; ततू-पुरुषे--वैष्णवों के साथ; च-- भी; सख्यम्‌--संगति के लिए आकर्षण;तत्‌ एब--केवल वह; हारम्‌-- भगवान्‌ के कार्यकलाप जिन्हें सुनना चाहिये और गले में माला के समान रखना चाहिए; वद--कृपा करके कहें; मन्यसे--आप उचित समझते हैं; चेत्‌--यदि।

    राजा परीक्षित ने कहा : हे प्रभु शुकदेव गोस्वामी, भगवान्‌ के अवतारों द्वारा प्रदर्शित विविधलीलाएँ निश्चित रूप से कानों को तथा मन को सुहावनी लगने वाली हैं।

    इन लीलाओं केश्रवणमात्र से मनुष्य के मन का मैल तत्क्षण धुल जाता है।

    सामान्यतया हम भगवान्‌ कीलीलाओं को सुनने में आनाकानी करते हैं किन्तु कृष्ण की बाल-लीलाएँ इतनी आकर्षक हैं किवे स्वतःही मन तथा कानों को सुहावनी लगती हैं।

    इस तरह भौतिक वस्तुओं के विषय में सुननेकी अनुरक्ति, जो भवबन्धन का मूल कारण है, समाप्त हो जाती है।

    मनुष्य में धीरे धीरे भगवान्‌के प्रति भक्ति एवं अनुरक्ति उत्पन्न होती है और भक्तों के साथ जो हमें कृष्णभावनामृत कायोगदान देते हैं, मैत्री बढ़ती है।

    यदि आप उचित समझते हैं, तो कृपा करके भगवान्‌ की इनलीलाओं के विषय में कहें।

    अथान्यदपि कृष्णस्य तोकाचरितमद्भुतम्‌ ।

    मानुषं लोकमासाद्य तज्जातिमनुरुन्धतः ॥

    ३॥

    अथ--भी; अन्यत्‌ अपि--अन्य लीलाएँ भी; कृष्णस्य--बालक कृष्ण की; तोक-आचरितम्‌ अद्भुतम्‌ू--वे भी अद्भुत बाल-लीलाएँ; मानुषम्‌--मानो मानवी बालक हों; लोकम्‌ आसाद्य--इस पृथ्वीलोक में मानव समाज में प्रकट होकर; तत्‌-जातिम्‌--मानवी बालक की ही तरह; अनुरुन्धतः--अनुकरण किया कृपया

    भगवान्‌ कृष्ण की अन्य लीलाओं का वर्णन करें जो मानवी बालक का अनुकरणकरके और पूतना वध जैसे अद्भुत कार्यकलाप करते हुए इस पृथ्वी-लोक में प्रकट हुए।

    श्रीशुक उबाचकदाचिदौत्थानिककौतुकाप्लवेजन्मर्क्षयोगे समवेतयोषिताम्‌ ।

    वादित्रगीतद्विजमन्त्रवाचकै -श्वकार सूनोरभिषेचनं सती ॥

    ४॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी आगे बोलते गये; कदाचित्‌--उस समय ( जब कृष्ण तीन मास के थे ); औत्थानिक-कौतुक-आप्लवे--जब कृष्ण ३-४ मास के थे तो उनका शरीर बढ़ रहा था और वे इधर-उधर पलटने का प्रयास कर रहे थे तोइस अवसर पर स्नानोत्सव मनाया गया; जन्म-ऋक्ष-योगे--उस समय चन्द्रमा तथा शुभ नक्षत्र रोहिणी का संयोग था; समवेत-योषिताम्‌--एकत्र स्त्रियों के बीच ( यह उत्सव मनाया गया ); वादित्र-गीत--नाना प्रकार का संगीत तथा गायन; द्विज-मन्त्र-वाचकै:--योग्य ब्राह्मणों द्वारा वैदिक स्तोत्रों के उच्चारण के साथ; चकार--सम्पन्न किया; सूनो:--अपने पुत्र का;अभिषेचनम्‌--स्नान उत्सव; सती--माता यशोदा ने |

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : जब यशोदा का नन्‍्हा शिशु उठने तथा करवट बदलने काप्रयत्त करने लगा तो वैदिक उत्सव मनाया गया।

    ऐसे उत्सव में, जिसे उत्थान कहा जाता है औरजो बालक द्वारा घर से पहली बार बाहर निकलने के अवसर पर मनाया जाता है, बालक कोठीक से नहलाया जाता है।

    जब कृष्ण तीन मास के पूरे हुए तो माता यशोदा ने पड़ोस की अन्यऔरतों के साथ इस उत्सव को मनाया।

    उस दिन चन्द्रमा तथा रोहिणी नक्षत्र का योग था।

    इसमहोत्सव को माता यशोदा ने ब्राह्मणों द्वारा वैदिक मन्त्र के उच्चारण तथा पेशेवर गायकों केसहयोग से सम्पन्न किया।

    नन्दस्य पत्नी कृतमजनादिकंविप्रैः कृतस्वस्त्ययनं सुपूजितै: ।

    अन्नाद्यवासःस्त्रगभीष्ट धेनुभिःसम्जातनिद्राक्षमशीशयच्छने: ॥

    ५॥

    नन्दस्य--नन्द महाराज की; पत्नी--पत्नी ( यशोदा ); कृत-मज्न-आदिकम्‌--जब वे तथा घर के अन्य लोग नहा चुके औरबालक को भी नहला दिया गया उसके बाद; विप्रैः--ब्राह्मणों के द्वारा; कृत-स्वस्त्ययनम्‌--शुभ वैदिक मंत्रों के पाठ करने मेंलगाकर; सु-पूजितैः--जिनका ठीक से स्वागत तथा पूजन किया गया; अन्न-आद्य--न्‍्हें पर्याप्त अनाज तथा अन्य भोज्य वस्तुएँदेकर; वास:--वस्त्र; स्रकू-अभीष्ट-धेनुभि:-- फूलों की मालाएँ तथा उपयुक्त गौवें भेंट करके; सज्ञात-निद्रा--उनींदी; अक्षम्‌--आँखें; अशीशयत्‌--बच्चे को लिटा दिया; शनैः --उस समय ।

    बच्चे का स्नान उत्सव पूरा हो जाने के बाद माता यशोदा ने ब्राह्मणों का स्वागत किया औरउनको प्रचुर अन्न तथा अन्य भोज्य पदार्थ, वस्त्र, वांछित गौवें तथा मालाएँ भेंट करके उनकीउचित सम्मान के साथ पूजा की।

    ब्राह्मणों ने इस शुभ उत्सव पर उचित रीति से वैदिक मंत्र पढ़े।

    जब मंत्रोच्चार समाप्त हुआ और माता यशोदा ने देखा कि बालक उनींदा हो रहा है, तो वे उसेलेकर बिस्तर पर तब तक लेटी रहीं जब तक वह शान्त होकर सो नहीं गया।

    औत्थानिकौत्सुक्यमना मनस्विनीसमागतान्पूजयती व्रजौकसः ।

    नैवाश्रुणोद्वै रुदितं सुतस्य सारुदन्स्तनार्थी चरणावुदक्षिपत्‌ ॥

    ६॥

    औत्थानिक-औत्सुक्य-मना:--माता यशोदा बच्चे का उत्थान उत्सव मनाने में अत्यधिक व्यस्त थीं; मनस्विनी-- भोजन, वस्त्र,आभूषण तथा गौवें बाँटने में अत्यन्त उदार; समागतानू--एकत्र मेहमानों को; पूजयती--उन्हें तुष्ट करने के लिए; ब्रज-ओकसः--्रजवासियों को; न--नहीं; एव--निश्चय ही; अश्रुणोत्‌--सुना; वै--निस्सन्देह; रुदितम्‌--रोना; सुतस्य--बच्चे का;सा--यशोदा; रुदन्‌ू--रोना; स्तन-अर्थी --कृष्ण जो माता के स्तन का दूध पीना चाह रहे थे; चरणौ उदक्षिपत्‌--क्रो ध के मारेअपने दोनों पाँव इधर-उधर उछाल रहे थे।

    उत्थान उत्सव मनाने में मग्न उदार माता यशोदा मेहमानों का स्वागत करने, आदर-सहितउनकी पूजा करने तथा उन्हें वस्त्र, गौवें, मालाएँ और अन्न भेंट करने में अत्यधिक व्यस्त थीं।

    अतः वे बालक के रोने को नहीं सुन पाईं।

    उस समय बालक कृष्ण अपनी माता का दूध पीनाचाहता था अतः क्रोध में आकर वह अपने पाँव ऊपर की ओर उछालने लगा।

    अधःशयानस्य शिशोरनोउल्पक-प्रवालमृद्वडप्रिहतं व्यवर्तत ।

    विध्वस्तनानारसकुप्यभाजनंव्यत्यस्तचक्राक्षविभिन्नकूबरम्‌ ॥

    ७॥

    अधः:-शयानस्य- गाड़ी ( छकड़े ) के नीचे सोये; शिशो:--बालक का; अन:-गाड़ी; अल्पक-- अधिक बड़ा नहीं; प्रवाल--नई पत्ती की तरह; मृदु-अद्धप्रि-हतम्‌--उनके सुन्दर मुलायम पाँवों से मारी गई; व्यवर्तत--उलट कर गिर गई; विध्वस्त--बिखरगई; नाना-रस-कुप्य-भाजनम्‌--धातुओं के बने बर्तन-भांडे; व्यत्यस्त--इधर-उधर हटे हुए; चक्र-अक्ष--दोनों पहिये तथा धुरी;विभिन्न--टूटे हुए; कूबरम्‌--शकट का कूबर ( लट्ठा ), जिसमें जुआ लगा रहता है।

    श्रीकृष्ण आँगन के एक कोने में छकड़े के नीचे लेटे हुए थे और यद्यपि उनके पाँव कोंपलोंकी तरह कोमल थे किन्तु जब उन्होंने अपने पाँवों से छकड़े पर लात मारी तो वह भड़भड़ा करउलटने से टूट-फूट गया।

    पहिए धुरे से विलग हो गये और बिखर गये और गाड़ी का लट्ठा टूटगया।

    इस गाड़ी पर रखे सब छोटे-छोटे धातु के बर्तन-भांडे इधर-उधर छितरा गये।

    इृष्टा यशोदाप्रमुखा व्रजस्त्रियऔत्थानिके कर्मणि या: समागता: ।

    नन्दादयश्चाद्धुतदर्शनाकुला:कथं स्वयं वै श॒कटं विपर्यगात्‌ ॥

    ८॥

    इृष्ठा-- देखकर; यशोदा-प्रमुखा: --माता यशोदा इत्यादि; ब्रज-स्त्रिय:--व्रज की सारी स्त्रियाँ; औत्थानिके कर्मीण--उत्थानउत्सव मनाते समय; या:--जो; समागता: --वहाँ एकत्र हुए; नन्द-आदय: च--तथा नन्द महाराज इत्यादि सारे पुरुष; अद्भुत-दर्शन--अद्भुत विपत्ति देखकर ( कि लदी हुईं गाड़ी बच्चे के ऊपर टूट कर गिर गई थी फिर भी बालक के चोट नहीं आईंथी ); आकुला:--अत्यन्त विचलित थे कि यह सब कैसे घटित हो गया; कथम्‌--कैसे; स्वयम्‌--अपने से; बै--निस्सन्देह;शकटम्‌--छकड़ा; विपर्यगात्‌--बुरी तरह क्षत-विक्षत हो गया।

    जब यशोदा तथा उत्थान उत्सव के अवसर पर जुटी स्त्रियों तथा नन्‍्द महाराज इत्यादि सभीपुरुषों ने यह अद्भुत दृश्य देखा तो वे आश्चर्य करने लगे कि यह छकड़ा किस तरह अपने आपचूर चूर हो गया है।

    वे इसका कारण ढूँढने के लिए इधर-उधर घूमने लगे किन्तु कुछ भी तय नकर पाये।

    ऊचुरव्यवसितमतीन्गोपान्गोपीश्ष बालका: ।

    रुदतानेन पादेन क्षिप्तमेतन्न संशय: ॥

    ९॥

    ऊचु:--कहा; अव्यवसित-मतीन्‌--वर्तमान स्थिति में जिनकी बुद्धि काम नहीं कर रही थी; गोपान्‌-ग्वालों को; गोपी: च--तथा गोपियों को; बालकाः--बच्चे; रुदता अनेन--ज्योंही बच्चा रोया; पादेन--एक पाँव से; क्षिप्तम्‌ एतत्‌--यह गाड़ी दूर जागिरी और छितर-बितर हो गई; न संशयः--इसमें कोई सन्देह नहीं है।

    वहाँ पर जुटे ग्वाले तथा गोपियाँ सोचने लगे कि यह घटना कैसे घटी ? वे पूछने लगे,’कहीं यह किसी असुर या अशुभ ग्रह का काम तो नहीं है?' उस समय वहाँ पर उपस्थितबालकों ने स्पष्ट कहा कि बालक कृष्ण ने ही इस छकड़े को लात से मार कर दूर फेंका है।

    रोतेबालक ने ज्योंही छकड़े के पहिये पर अपने पाँव मारे त्योंही पहिये सहित छकड़ा ध्वस्त हो गया।

    इसमें कोई सन्देह नहीं है।

    न ते भ्रददधिरि गोपा बालभाषितमित्युत ।

    अप्रमेयं बल॑ तस्य बालकस्य न ते विदुः ॥

    १०॥

    न--नहीं; ते--उन; श्रद्धधिरि--विश्वास किया; गोपा:--ग्वाले तथा गोपियों ने; बाल-भाषितम्‌--एकत्र बालकों की बचकानाबात पर; इति उत--इस तरह कहा गया; अप्रमेयम्‌--असीम, अचिन्त्य; बलम्‌ू--शक्ति; तस्थ बालकस्य--उस छोटे-से बालककृष्ण की; न--नहीं; ते--वे, गोप तथा गोपियाँ; विदु:--अवगत थे।

    वहाँ एकत्र गोपियों तथा गोपों को यह विश्वास नहीं हुआ कि बालक कृष्ण में इतनीअचिन्त्य शक्ति हो सकती है क्योंकि वे इस तथ्य से अवगत नहीं थे कि कृष्ण सदैव असीम हैं।

    उन्हें बालकों की बातों पर विश्वास नहीं हुआ अतएव उन्हें बच्चों की भोली-भाली बातें जानकर,उन्होंने उनकी उपेक्षा की।

    रुदन्तं सुतमादाय यशोदा ग्रहशद्धिता ।

    कृतस्वस्त्ययनं विप्रै: सूक्ते: स्‍्तनमपाययत्‌ ॥

    ११॥

    रुदन्तम्‌--रोता हुआ; सुतम्‌--पुत्र को; आदाय--उठाकर; यशोदा--माता यशोदा ने; ग्रह-शद्लिता--बुरे ग्रह से भयभीत; कृत-स्वस्त्ययनम्‌-तुरन्त ही सौभाग्य के लिए अनुष्ठान किया; विप्रैः--ब्राह्मणों को बुलाकर; सूक्तै:--बैदिक स्तुतियों द्वारा;स्तनम्‌--अपना स्तन; अपाययत्‌--बच्चे को पिलाया।

    यह सोच कर कि कृष्ण पर किसी अशुभ ग्रह का आक्रमण हुआ है, माता यशोदा ने रोतेबालक को उठा लिया और उसे अपना स्तन-पान कराया।

    तब उन्होंने वैदिक स्तुतियों काउच्चारण करने के लिए तथा शुभ अनुष्ठान सम्पन्न करने के लिए अनुभवी ब्राह्मणों को बुलाभेजा।

    पूर्ववत्स्थापितं गोपैबलिभि: सपरिच्छदम्‌ ।

    विप्रा ह॒त्वार्चयां चक्रुर्दध्यक्षतकुशाम्बुभि: ॥

    १२॥

    पूर्व -बत्‌--जिस तरह छकड़ा पहले रखा था; स्थापितम्‌--फिर से बर्तन-भांडे सजा कर; गोपै:--ग्वालों द्वारा; बलिभि:--बली,बलवान; स-परिच्छदम्‌--सारे साज-सामान सहित; विप्रा:--ब्राह्मणों ने; हुत्वा--अग्नि उत्सव करके ; अर्चयाम्‌ चक्र: --अनुष्ठानसम्पन्न किया; दधि--दही; अक्षत--चावल; कुश--कुश घास; अम्बुभि:--जल से |

    जब बलिष्ठ गठीले ग्वालों ने बर्तन-भांडे तथा अन्य सामग्री को छकड़े के ऊपर पहले कीभाँति व्यवस्थित कर दिया, तो ब्राह्मणों ने बुरे ग्रह को शान्त करने के लिए अग्नि-यज्ञ काअनुष्ठान किया और तब चावल, कुश, जल तथा दही से भगवान्‌ की पूजा की।

    येउसूयानृतदम्भेर्षाहिंसामानविवर्जिता: ।

    न तेषां सत्यशीलानामाशिषो विफला: कृता: ॥

    १३॥

    इति बालकमादाय सामर्ग्यजुरुपाकृतैः ।

    जले: पवित्रौषधिभिरभिषिच्य द्विजोत्तमै: ॥

    १४॥

    वाचयित्वा स्वस्त्ययनं नन्दगोप: समाहित: ।

    हुत्वा चारिन द्विजातिभ्य: प्रादादन्न॑ महागुणम्‌ ॥

    १५॥

    ये--जो ब्राह्मण; असूय--असूया; अनृत--झूठ; दम्भ--मिथ्या अहंकार; ईर्षा--ईर्ष्या; हिंसा--अन्यों के वैभव को देखकरविचलित होना; मान--मिथ्या प्रतिष्ठा; विवर्जिता:--से पूर्णतया रहित; न--नहीं; तेषाम्‌--ऐसे ब्राह्मणों का; सत्य-शीलानाम्‌--ब्राह्मण योग्यताओं ( सत्य, शम, दम इत्यादि ) से युक्त; आशिष:--आशीर्वाद; विफला:--व्यर्थ; कृता:--किये गये; इति--इनबातों पर विचार करते हुए; बालकम्‌ू--बालक को; आदाय--लाकर; साम--सामवेद के अनुसार; ऋक्‌ु--ऋग्वेद के अनुसार;यजुः--तथा यजुर्वेद के अनुसार; उपाकृतैः--ऐसे उपायों से शुद्ध किया हुआ; जलै:--जल से; पवित्र-औषधिभि:--शुद्धजड़ी-बूटियाँ मिलाकर; अभिषिच्य--( बालक को ) नहलाने के बाद; द्विज-उत्तमै:--उच्च कोटि के योग्य ब्राह्मणों द्वारा;वाचयित्वा--उच्चारण करने के लिए प्रार्थना किये गये; स्वस्ति-अयनम्‌--शुभ स्तुतियाँ; नन्द-गोप:--गोपों के मुखिया नन्दमहाराज ने; समाहितः--उदार तथा उत्तम; हुत्वा--आहुति करके; च-- भी; अग्निमू-- अमन में ; द्विजातिभ्य: --उन उच्च कोटिके ब्राह्मणों को; प्रादातू-दान में दिया; अन्नम्‌--अन्न; महा-गुणम्‌--सर्वोत्तम |

    जब ब्राह्मणजन ईर्ष्या, झूठ, मिथ्या अहंकार, द्वेष, अन्यों के वैभव को देखकर मचलने तथामिथ्या प्रतिष्ठा से मुक्त होते हैं, तो उनके आशीर्वाद व्यर्थ नहीं जाते।

    यह सोचकर नन्द महाराज नेगम्भीर होकर कृष्ण को अपनी गोद में ले लिया और इन सत्यनिष्ठ ब्राह्मणों को साम, ऋग्‌ तथायजुर्वेद के पवित्र स्तोत्रों के अनुसार अनुष्ठान सम्पन्न करने के लिए आमंत्रित किया।

    जबमंत्रोच्चार हो रहा था, तो नन्द ने बच्चे को शुद्ध जड़ी-बूटियों से मिश्रित जल से स्नान करायाऔर अग्नि-यज्ञ करने के बाद सभी ब्राह्मणों को उत्तम अन्न तथा अन्य प्रकार के पदार्थों कास्वादिष्ट भोजन कराया।

    गाव: सर्वगुणोपेता वास:स्त्रगुक्ममालिनी: ।

    आत्मजाभ्युदयार्थाय प्रादात्ते चान्वयुज्ञत ॥

    १६॥

    गाव:--गौवें; सर्व-गुण-उपेता:--पर्याप्त दूध देने से अत्यन्त गुणी होने; बास:--अच्छे वस्त्र पहने; स्रकू--माला से युक्त;रुक्‍्म-मालिनी:--तथा सोने के हार पहने; आत्मज-अभ्युदय-अर्थाय--अपने पुत्र के अभ्युदय हेतु; प्रादात्‌ू--दान में दिया; ते--उन ब्राह्मणों ने; च-- भी; अन्वयुद्भधत--उन्हें स्वीकार किया।

    नन्द महाराज ने अपने पुत्र के धन-वैभव हेतु ब्राह्मणों को गौवें दान में दीं जो वस्त्रों, फूल-मालाओं तथा सुनहरे हारों से सजाईं गई थीं।

    ये गौवें जो प्रचुर दूध देने वाली थीं ब्राह्मणों कोदान में दी गई थीं और ब्राह्मणों ने उन्हें स्वीकार किया।

    बदले में उन्होंने समूचे परिवार को तथाविशेष रूप से कृष्ण को आशीर्वाद दिया।

    विप्रा मन्त्रविदो युक्तास्तैर्या: प्रोक्तास्तथाशिष: ।

    ता निष्फला भविष्यन्ति न कदाचिदपि स्फुटम्‌ ॥

    १७॥

    विप्रा:--ब्राह्मणगण; मन्त्र-विदः--वैदिक मंत्रोच्चारण में पटु; युक्ता:--पूर्ण योगी; तैः--उनके द्वारा; या: --जो; प्रोक्ता:--कहागया; तथा--वैसा ही हो जाता है; आशिषः --सारे आशीर्वाद; ताः--ऐसे शब्द; निष्फला:--व्यर्थ, विफल; भविष्यन्ति न--कभी नहीं होंगे; कदाचित्‌--किसी समय; अपि--निस्सन्देह; स्फुटमू--यथार्थ |

    वैदिक मंत्रों के उच्चारण में पूरी तरह से पटु ब्राह्मण योगशक्तियों से सम्पन्न योगी थे।

    वे जोभी आशीर्वाद देते वह कभी निष्फल नहीं जाता था।

    एकदारोहमारूढं लालयन्ती सुतं सती ।

    गरिमाणं शिशोर्वोढुं न सेहे गिरिकूटवत्‌ ॥

    १८॥

    एकदा--एक बार ( सम्भवतः जब कृष्ण एक साल के थे ); आरोहम्‌--अपनी माता की गोद में; आरूढम्‌--बैठे हुए;लालयन्ती--लाड़-प्यार करती हुई, दुलारती हुई; सुतम्‌--अपने पुत्र को; सती--माता यशोदा; गरिमाणम्‌-- भार बढ़ने से;शिशो:--बालक के; वोढुम्‌--सहन कर पाने; न--नहीं; सेहे--समर्थ थी; गिरि-कूट-वत्‌--पर्वत की चोटी के भार जैसा लगनेवाला

    एक दिन, कृष्ण के आविर्भाव के एक वर्ष बाद, माता यशोदा अपने पुत्र को अपनी गोद मेंदुलार रही थीं।

    तभी सहसा उन्हें वह बालक पर्वत की चोटी से भी भारी लगने लगा, जिससे वेउसका भार सहन नहीं कर पाईं।

    भूमौ निधाय तं गोपी विस्मिता भारपीडिता ।

    महापुरुषमादध्यौ जगतामास कर्मसु ॥

    १९॥

    भूमौ--जमीन पर; निधाय--रख कर; तम्‌ू--उस बालक को; गोपी--माता यशोदा; विस्मिता--चकित; भार-पीडिता--बच्चेके भार से दुखित; महा-पुरुषम्‌-विष्णु या नारायण को; आदध्यौ--शरण ली; जगताम्‌--मानो सारे जगत का भार हो;आस--अपने को व्यस्त किया; कर्मसु--घर के अन्य कामों में |

    बालक को सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के बराबर भारी अनुभव करते हुए अतएवं यह सोचते हुए किबालक को कोई दूसरा भूत-प्रेत या असुर सता रहा है, चकित माता यशोदा ने बालक कोजमीन पर रख दिया और नारायण का चिंतन करने लगीं।

    उत्पात की आशंका से उन्होंने इसभारीपन के शमन हेतु ब्राह्मणों को बुला भेजा और फिर घर के कामकाज में लग गईं।

    उनकेपास नारायण के चरणकमलों को स्मरण करने के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प न था क्योंकिवे यह नहीं समझ पाईं कि कृष्ण ही हर वस्तु के मूल स्त्रोत हैं।

    दैत्यो नाम्ना तृणावर्त: कंसभृत्यः प्रणोदितः ।

    चक्रवातस्वरूपेण जहारासीनमर्भकम्‌ ॥

    २०॥

    दैत्य:--दूसरा असुर; नाम्ना--नाम वाला; तृणावर्त:--तृणावर्त; कंस-भृत्य:ः--कंस का दास; प्रणोदित:--उसके द्वारा प्रेरित;चक्रवात-स्वरूपेण--बवंडर के रूप में; जहार--उड़ा ले गया; आसीनम्‌--बैठे हुए; अर्भकम्‌--बालक को

    जब बालक जमीन पर बैठा हुआ थातो तृणावर्त नामक असुर, जो कंस का दास था, वहाँपर कंस के बहकाने पर बवंडर के रूप में आया और बड़ी आसानी से बालक को अपने साथउड़ाकर आकाश में ले गया।

    गोकुलं सर्वमावृण्वन्मुष्णं श्रक्कूंषि रेणुभि: ।

    ईरयन्सुमहाघोरशब्देन प्रदिशो दिश: ॥

    २१॥

    गोकुलम्‌-गोकुल मंडल को; सर्वम्‌--समूचे; आवृण्वन्‌--प्रच्छन्न करते हुए; मुष्णन्‌--हरते हुए; चक्षूंषि--देखने की शक्ति;रेणुभि:--धूल के कणों से; ईरयन्‌--कँपाते हुए; सु-महा-घोर-- अत्यन्त भयानक तथा भारी; शब्देन--आवाज से; प्रदिशःदिशः--सारी दिशाओं में घुस गया।

    उस असुर ने प्रबल बवंडर के रूप में सारे गोकुल प्रदेश को धूल के कणों से ढकते हुएसभी लोगों की दृष्टि ढक ही ली और भयावनी आवाज करता हुआ सारी दिशाओं को कंँपानेलगा।

    मुहूर्तमभवद्‌गोष्ठ॑ रजसा तमसावृतम्‌ ।

    सुतं यशोदा नापश्यत्तस्मिन््यस्तवती यतः ॥

    २२॥

    मुहूर्तम्‌-- क्षण-भर के लिए; अभवत्‌--हो गया; गोष्ठम्‌--समूचे चरागाह में; रजसा-- धूल-कणों से; तमसा आवृतम्‌-- अंधकारसे प्रच्छन्न; सुतम्‌ू--अपने पुत्र को; यशोदा--माता यशोदा ने; न अपश्यत्‌--नहीं देखा; तस्मिन्‌--उसी स्थान में; न्यस्तवती--रखा था; यतः--जहाँ।

    क्षण-भर के लिए समूचा चरागाह धूल भरी अंधड़ के घने अंधकार से ढक गया और मातायशोदा अपने पुत्र को उस स्थान में न पा सकीं जहाँ उसे बिठाया था।

    नापश्यत्कश्चनात्मानं परं चापि विमोहितः ।

    तृणावर्तनिसूष्ठाभि: शर्कराभिरुपद्ुत: ॥

    २३॥

    न--नहीं; अपश्यत्‌--देखा; कश्चन--किसी को; आत्मानम्‌--अपने को; परम्‌ च अपि--या दूसरे को; विमोहितः--मोहितहोकर; तृणावर्त-निसूष्टाभि:--तृणावर्त द्वारा फेंके गये; शर्कराभि:ः--बालू के कणों से; उपद्रुत:--और विचलित किया जाकर।

    तृणावर्त द्वारा फेंके गये बालू के कणों के कारण लोग न तो स्वयं को देख सकते थे न अन्य किसी और को।

    इस तरह वे मोहित तथा विचलित थे।

    इति खरपवनचक्रपांशुवर्षेसुतपदवीमबलाविलक्ष्य माता ।

    अतिकरुणमनुस्मरन्त्यशोचद्‌भुवि पतिता मृतवत्सका यथा गौ: ॥

    २४॥

    इति--इस प्रकार; खर--अत्यन्त प्रचंड; पबन-चक्र --बवंडर से; पांशु-वर्ष-- धूल-कणों की वर्षा होने पर; सुत-पदवीम्‌--अपने पुत्र के स्थान को; अबला--बेचारी स्त्री; अविलक्ष्य--न देखकर; माता--उसकी माता होने से; अति-करुणम्‌--अत्यन्तकारुणिक; अनुस्मरन्ती--अपने पुत्र का चिन्तन करती हुईं; अशोचत्‌--अत्यधिक विलाप किया; भुवि-- भूमि पर; पतिता--गिर गई; मृत-वत्सका--अपने बछड़े को खोकर; यथा--जिस तरह; गौ:--गाय

    प्रबल बवंडर से उठे अंधड़ के कारण माता यशोदा न तो अपने पुत्र का कोई पता लगासकीं, न ही कोई कारण समझ पाईं।

    वे जमीन पर इस तरह गिर पड़ीं मानों किसी गाय ने अपनाबछड़ा खो दिया हो।

    वे अत्यन्त करूण-भाव से विलाप करने लगीं।

    रुदितमनुनिशम्य तत्र गोप्योभूशमनुतप्तधियो श्रुपूर्णमुख्य: ।

    रुरुदुरनुपलभ्य नन्दसूनुं'पवन उपारतपांशुवर्षवेगे ॥

    २५॥

    रुदितम्‌--करुणापूर्वक रोती हुई माता यशोदा; अनुनिशम्य--सुनकर; तत्र--वहाँ; गोप्य:--अन्य गोपियाँ; भूशम्‌--अत्यधिक;अनुतप्त--माता यशोदा के साथ विलाप करती; धिय:ः--ऐसी भावनाओं से; अश्रु-पूर्ण-मुख्यः--तथा आँसुओं से पूरित मुखोंवाली अन्य गोपियाँ; रुरुदु:--रो रही थीं; अनुपलभ्य--न पाकर; नन्द-सूनुम्‌--ननन्‍्द महाराज के पुत्र, कृष्ण को; पवने--बवंडरके; उपारत--बन्द हो जाने पर; पांशु-वर्ष-वेगे-- धूल की वर्षा के वेग से जब अंधड़ तथा बवंडर का वेग घट गया, तो यशोदा का करुण क्रन्दन सुनकर उनकीसखियाँ--गोपियाँ--उनके पास आईं।

    किन्तु वे भी कृष्ण को वहाँ न देखकर अत्यन्त उद्िग्न हुईंऔर आँखों में आँसू भर कर माता यशोदा के साथ वे भी रोने लगीं।

    तृणावर्त: शान्तरयो वात्यारूपधरो हरन्‌ ।

    कृष्णं नभोगतो गन्तुं नाशक्नोद्धूरिभारभूत्‌ ॥

    २६॥

    तृणावर्त:--तृणावर्त असुर; शान्त-रयः--झोंके का वेग घट गया; वात्या-रूप-धर: --जिसने प्रबल बवंडर का रूप धारण करलिया था; हरनू--तथा ले गया था; कृष्णम्‌--कृष्ण को; नभ:ः-गतः--आकाश में ऊँचे चला गया; गन्तुम्‌--आगे जाने केलिए; न अशक्नोत्‌--समर्थ न था; भूरि-भार-भूत्‌-- क्योंकि कृष्ण असुर से भी अधिक शक्तिशाली तथा भारी थे।

    तृणावर्त असुर वेगवान बवंडर का रूप धारण करके कृष्ण को आकाश में बहुत ऊँचाईतक ले गया किन्तु जब कृष्ण असुर से भारी हो गये तो असुर का वेग रुक गया जिससे वह औरआगे नहीं जा सका।

    'तमएमानं मन्‍यमान आत्मनो गुरुमत्तया ।

    गले गृहीत उत्स्त्रष्ठ नाशक्नोदद्भुतार्भकम्‌ ॥

    २७॥

    तम्‌--कृष्ण को; अश्मानम्‌ू--लोहे की तरह के भारी पत्थर; मन्यमान:--इस तरह सोचते हुए; आत्मन: गुरु-मत्तया-- अनुमान सेभी अधिक भारी होने के कारण; गले--उसकी गर्दन में; गृहीते--अपनी बाँहों से बँधा या आलिंगन किया जाकर; उत्स्रष्टमू--छोड़ने के लिए; न अशक्नोत्‌--समर्थ नहीं था; अद्भुत-अर्भकम्‌--अद्भुत बालक को जो सामान्य बालक से भिन्न था।

    कृष्ण के भार के कारण तृणावर्त उन्हें विशाल पर्वत या लोह का पिंड मान रहा था।

    किन्तुकृष्ण ने असुर की गर्दन पकड़ रखी थी इसलिए वह उन्हें फेंक नहीं पा रहा था।

    इसलिए उसनेसोचा कि यह बालक अद्भुत है, जिसके कारण मैं न तो उसे ले जा सकता हूँ न ही इस भार कोदूर फेंक सकता हूँ।

    गलग्रहणनिश्रेष्टो दैत्यो निर्गतलोचन: ।

    अव्यक्तरावो न्यपतत्सहबालो व्यसुरत्रेजे ॥

    २८ ॥

    गल-ग्रहण-निश्रैष्ट: --कृष्ण द्वारा गला पकड़े रहने से तृणावर्त का गला घुट रहा था और वह कुछ भी नहीं कर सका; दैत्य:--असुर; निर्गत-लोचन:--दबाव से आँखें बाहर निकल आईं; अव्यक्त-राव: --गला घुटने से उसकी कराह भी नहीं निकल पायी;न्यपतत्‌--गिर पड़ा; सह-बाल:--बालक सहित; व्यसु: ब्रजे--त्रज की भूमि पर निर्जीव |

    कृष्ण ने तृणावर्त को गले से पकड़ रखा था इसलिए उसका दम घुट रहा था जिससे वह नतो कराह सकता था, न ही अपने हाथ-पैर हिला-डुला सकता था।

    उसकी आँखें बाहर निकलआईं थी, उसके प्राण निकल गये और वह उस छोटे बालक सहित ब्रज की भूमि पर नीचे आगिरा।

    'तमन्तरिक्षात्पतितं शिलायांविशीर्णसर्वावयवं करालम्‌ ।

    पुरं यथा रुद्रशरेण विद्धंस्त्रियो रूदत्यो दहशुः समेता: ॥

    २९॥

    तम्‌--उस असुर को; अन्तरिक्षात्‌--आकाश से; पतितम्‌--गिरा हुआ; शिलायाम्‌--चट्टान पर; विशीर्ण--बिखरा, छिन्न-भिन्न;सर्व-अवयवम्‌--शरीर के सारे अंग; करालम्‌--अत्यन्त विकराल हाथ-पाँव; पुरम्‌्-त्रिपुरासुर का स्थान; यथा--जिस तरह;रुद्र-शरेण--शिवजी के बाण से; विद्धम्‌--बेधा गया; स्त्रियः--सारी स्त्रियाँ, गोपियाँ; रुद॒त्यः--कृष्ण वियोग के कारण रोतीहुईं; ददशु:--अपने सामने ही देखा; समेता:--एकसाथ।

    जब वहाँ एकत्र गोपियाँ कृष्ण के लिए रो रही थीं तो वह असुर आकाश से पत्थर की एकबड़ी चट्टान पर आ गिरा, जिससे उसके सारे अंग छिन्न-भिन्न हो गये मानो भगवान्‌ शिवजी केबाण से बेधा गया त्रिपुरासुर हो।

    प्रादाय मात्रे प्रतिहत्य विस्मिता:कृष्णं च तस्योरसि लम्बमानम्‌ ।

    त॑ स्वस्तिमन्तं पुरुषादनीतंविहायसा मृत्युमुखात्प्रमुक्तम्‌ ।

    गोप्यश्च गोपा: किल नन्दमुख्यालब्ध्वा पुनः प्रापुरतीव मोदम्‌ ॥

    ३०॥

    प्रादाय--उठाकर; मात्रे--उनकी माता को; प्रतिहत्य--हाथों में सौंप दिया; विस्मिता:--सारे लोग अचंभित थे; कृष्णम्‌ च--तथा कृष्ण को; तस्य--असुर की; उरसि--छाती पर; लम्बमानम्‌--स्थित; तमू--कृष्ण को; स्वस्तिमन्तम्‌--समस्त कल्याण सेयुक्त; पुरुषाद-नीतम्‌--मानवभक्षी असुर द्वारा ले जाया गया; विहायसा--आकश् में; मृत्यु-मुखात्‌--मृत्यु के मुँह से;प्रमुक्तम्‌ू--अब मुक्त हुए; गोप्य:--गोपियाँ; च--तथा; गोपा:--ग्वाले; किल--निस्सन्देह; नन्द-मुख्या:--ननन्‍्द महाराजइत्यादि; लब्ध्वा--पाकर; पुनः--फिर ( उनका पुत्र ); प्रापु;--प्राप्त किया; अतीव--अत्यधिक ; मोदम्‌--आनन्द |

    गोपियों ने तुरन्त ही कृष्ण को असुर की छाती से उठाकर माता यशोदा को लाकर सौंपदिया।

    वे समस्त अशुभों से मुक्त थे।

    चूँकि बालक को असुर द्वारा आकाश में ले जाये जाने परभी किसी प्रकार की चोट नहीं आई थी और वह अब सारे खतरों तथा दुर्भाग्य से मुक्त थाइसलिए नन्द महाराज समेत सारे ग्वाले तथा गोपियाँ अत्यन्त प्रसन्न थे।

    अहो बतात्यद्भुतमेष रक्षसाबालो निवृत्ति गमितो भ्यगात्पुन: ।

    हिंस्त्र: स्वपापेन विहिंसित: खलःसाधु: समत्वेन भयाद्विमुच्यते ॥

    ३१॥

    अहो--ओह; बत--निस्सन्देह; अति--अत्यन्त; अद्भुतमू--यह घटना बड़ी अद्भुत है; एषघ:--यह ( बालक ); रक्षसा--मानवभक्षी असुर के द्वारा; बाल:--अबोध बालक कृष्ण; निवृत्तिमू--मार कर खाये जाने के लिए ले जाया गया; गमित:--दूरचला गया; अभ्यगात्‌ पुनः--किन्तु वह बिना चोट लगे वापस आ गया; हिंस्त्र:--ईर्ष्यालु; स्व-पापेन--अपने ही पापपूर्ण कार्योसे; विहिंसित:--अब ( वही असुर ) मारा जा चुका है; खलः--दुष्ट होने के कारण; साधु:--पाप से रहित तथा निर्दोष व्यक्ति;समत्वेन--समान होने से; भयात्‌--सभी प्रकार के भय से; विमुच्यते--छूट जाता है।

    यह सबसे अधिक आश्चर्य की बात है कि यह अबोध बालक इस राक्षस द्वारा खाये जाने केलिए दूर ले जाया जाकर भी बिना मारे या चोट खाये वापस लौट आया।

    चूँकि राक्षस ईर्ष्यालु,क्रूर तथा पापी था, इसलिए वह अपने पापपूर्ण कृत्यों के लिए मारा गया।

    यही प्रकृति का नियम है।

    निर्दोष भक्त की रक्षा सदैव भगवान्‌ द्वारा की जाती है और पापी व्यक्ति को अपने पापमयजीवन के लिए दण्ड दिया जाता है।

    कि नस्तपश्चीर्णमधो क्षजार्चनपूर्तेप्ठदत्तमुत भूतसौहदम्‌ ।

    यत्सम्परेत: पुनरेव बालकोदिष्ठद्या स्वबन्धून्प्रणयत्रुपस्थित: ॥

    ३२॥

    किम्‌--किस तरह की; न: --हमारे द्वारा; तप:ः--तपस्या; चीर्णम्‌--दीर्घकाल तक की गई; अधोक्षज-- भगवान्‌ की;अर्चनम्‌-पूजा; पूर्त--सड़कें बनवाना इत्यादि; इष्ट--जनकल्याण कार्य; दत्तम्‌ू--दान देना; उत--अथवा और कुछ; भूत-सौहदम्‌--जनता के प्रति प्रेम होने से; यत्‌--जिसके कारण; सम्परेत:--मृत्यु को प्राप्त होने पर भी; पुनः एब--फिर से, अपनेपुण्यों के कारण; बालक:--बालक; दिष्टय्या-- भाग्य द्वारा; स्व-बन्धून्‌ू--निजी सम्बन्धियों को; प्रणयन्‌--प्रसन्न करने के लिए;उपस्थित:--यहाँ उपस्थित है

    नन्द महाराज तथा अन्य लोगों ने कहा : हमने अवश्य ही पूर्वजन्म में दीर्घकाल तक तपस्याकी होगी, भगवान्‌ की पूजा की होगी, जनता के लिए सड़कें तथा कुएँ बनवाकर पुण्य कर्मकिये होंगे और दान भी दिया होगा जिसके फलस्वरूप मृत्यु के मुख में गया हुआ यह बालकअपने सम्बन्धियों को आनन्द प्रदान करने के लिए लौट आया है।

    इष्टाद्धुतानि बहुशो ननन्‍्दगोपो बृहद्वने ।

    वसुदेववचो भूयो मानयामास विस्मित: ॥

    ३३॥

    इृष्टा--देखकर; अद्भुतानि--अतीव अद्भुत घटनाओं को; बहुश:--अनेक बार; नन्द-गोप:--गोपों के मुखिया नन्‍्द महाराज;बृहद्वने--बृहद्वन में; वसुदेव-वचः --वसुदेव के वचन, जो उन्होंने मथुरा में नन्द से कहे थे; भूयः--बारम्बार; मानयाम्‌ आस--मान लिया कि कितने सच थे; विस्मित:--अतीव विस्मय में |

    बृहद्न में इन सारी घटनाओं को देखकर नन्द महाराज अधिकाधिक आश्चर्यचकित हुए औरउन्हें वसुदेव के वे शब्द स्मरण हो आये जो उन्होंने मथुरा में कहे थे।

    एकदार्भकमादाय स्वाड्डूमारोप्य भामिनी ।

    प्रस्नुतं पाययामास स्तन स्नेहपरिप्लुता ॥

    ३४॥

    एकदा--एक बार; अर्भकम्‌--बालक को; आदाय--लेकर; स्व-अड्डूमू--अपनी गोद में; आरोप्य--तथा बैठाकर; भामिनी--माता यशोदा ने; प्रस्नुतम्‌-स्तनों से दूध बहता हुआ; पाययाम्‌ आस--बच्चे को पिलाया; स्तनम्‌--अपने स्तन; स्नेह-परिप्लुता--अतीव स्नेह तथा प्रेम से युक्त |

    एक दिन माता यशोदा कृष्ण को अपनी गोद में बैठाकर उन्हें मातृ-स्नेह के कारण अपनेस्तन से दूध पिला रही थीं।

    दूध उनके स्तन से चू रहा था और बालक उसे पी रहा था।

    पीतप्रायस्थ जननी सुतस्य रूचिरस्मितम्‌ ।

    मुखं लालयती राजञ्जम्भतो ददशे इदम्‌ ॥

    ३५॥

    खं रोदसी ज्योतिरनीकमाशा:सूर्येन्दुवह्निश्वसनाम्बुधी श्र ।

    द्वीपान्नगांस्तहुहितूर्वनानिभूतानि यानि स्थिरजड्र्मानि ॥

    ३६॥

    पीत-प्रायस्य--स्तन-पान करते तथा संतुष्ट बालक कृष्ण की; जननी--माता यशोदा; सुतस्य--अपने पुत्र की; रुचिर-स्मितम्‌ू--तुष्ट मुसकान को देखती; मुखम्‌--मुँह को; लालयती--दुलारती हुई; राजन्‌ू--हे राजा; जुम्भत:ः--बच्चे को अँगड़ाईलेते; ददशे--उसने देखा; इदम्‌--यह; खम्‌--आकाश; रोदसी--स्वर्ग तथा पृथ्वी दोनों; ज्योति:-अनीकम्‌--ज्योतिपुंज;आशा:-दिशाएँ; सूर्य --सूर्य ; इन्दु--चंद्रमा; वह्वि-- अग्नि; श्रसन--वायु; अम्बुधीन्‌--समुद्र; च--तथा; द्वीपानू--द्वीप;नगान्‌--पर्वत; तत्‌-दुहितृ:--पर्वतों की पुत्रियाँ ( नदियाँ ); वनानि--जंगल; भूतानि--सारे जीव; यानि--जो हैं; स्थिर-जड़मानि--अचर तथा चर।

    हे राजा परीक्षित, जब बालक कृष्ण अपनी माता का दूध पीना लगभग बन्द कर चुके थेऔर माता यशोदा उनके सुन्दर कान्तिमान हँसते मुख को छू रही थीं और निहार रही थीं तोबालक ने जम्हाई ली और माता यशोदा ने देखा कि उनके मुँह में पूण आकाश, उच्च लोक तथापृथ्वी, सभी दिशाओं के तारे, सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, वायु, समुद्र, द्वीप, पर्वत, नदी, जंगल तथाचर-अचर सभी प्रकार के जीव समाये हुए हैं।

    सा वीक्ष्य विश्व सहसा राजन्सज्जातवेपथु: ।

    सम्मील्य मृगशावाशक्षी नेत्रे आसीत्सुविस्मिता ॥

    ३७॥

    सा--माता यशोदा; वीक्ष्य--देखकर; विश्वम्‌--सम्पूर्ण विश्व को; सहसा--अचानक अपने पुत्र के मुँह के भीतर; राजनू--हेराजा ( महाराज परीक्षित ); सज्ञात-वेपथु:--उनका हृदय धक्‌ धक्‌ करने लगा; सम्मील्य--खोल कर; मृगशाव-अक्षी--मृगनैनी; नेत्रे--उसकी दोनों आँखें; आसीत्‌ू--हो गईं; सु-विस्मिता--आश्चर्यचकित |

    जब यशोदा माता ने अपने पुत्र के मुखारविन्द में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड देखा तो उनका हृदय धक्‌धक्‌ करने लगा तथा आश्चर्यच्कित होकर वे अपने अधीर नेत्र बन्द करना चाह रहती थीं।

    TO

    अध्याय आठ: भगवान कृष्ण अपने मुख के भीतर सार्वभौमिक रूप दिखाते हैं

    10.8श्रीशुक उबाचगर्ग: पुरोहितो राजन्यदूनां सुमहातपा: ।

    ब्रजं जगाम नन्दस्यवसुदेवप्रचोदित: ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; गर्ग: --गर्गमुनि; पुरोहित:--पुरोहित; राजन्‌--हे राजा परीक्षित; यदूनाम्‌--यदुकुल के; सु-महा-तपा:--तपस्या में बढ़े चढ़े; ब्रजम्‌--त्रजभूमि में; जगाम--गये; नन्दस्य--नन्द महाराज के; वसुदेव-प्रचोदित:--वसुदेव की प्रेरणा से ॥

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे महाराज परीक्षित, तब यदुकुल के पुरोहित एवं तपस्या में बढ़ेचढ़े गर्गमुनि को वसुदेव ने प्रेरित किया कि वे नन्‍्द महाराज के घर जाकर उन्हें मिलें।

    त॑ इृष्ठटा परमप्रीतः प्रत्युत्थाय कृताझललि: ।

    आनर्चाधोक्षजधिया प्रणिपातपुरःसरम्‌ ॥

    २॥

    तम्‌--उन्‍्हें ( गर्गमुनि को ); इृष्ठा--देखकर; परम-प्रीतः--ननन्‍्द महाराज अत्यन्त प्रसन्न हुए; प्रत्युत्थाय--स्वागत करने के लिएखड़े होकर; कृत-अज्जलि: --हाथ जोड़े हुए; आनर्च--पूजा की; अधोक्षज-धिया--यद्यपि गर्गमुनि इन्द्रियों द्वारा दृष्टिगोचर थेकिन्तु नन्द महाराज उनके प्रति अपार सम्मान रखते थे; प्रणिपात-पुरःसरम्‌--नन्द महाराज ने उनके सामने गिर कर नमस्कारकिया।

    जब नन्द महाराज ने गर्गमुनि को अपने घर में उपस्थित देखा तो वे इतने प्रसन्न हुए कि उनके स्वागत में दोनों हाथ जोड़े उठ खड़े हुए।

    यद्यपि गर्गपुनि को नन्‍्द महाराज अपनी आँखों से देखरहे थे किन्तु वे उन्हें अधोक्षज मान रहे थे अर्थात्‌ वे भौतिक इन्द्रियों से दिखाई पड़ने वालेसामान्य पुरुष न थे।

    सूपविष्ट कृतातिथ्यं गिरा सूनृतया मुनिम्‌ ।

    नन्दयित्वाब्रवीढ्रह्मन्पूर्णण्य करवाम किम्‌ ॥

    ३॥

    सु-उपविष्टमू--जब गर्गमुनि ठीक से बैठ गये; कृत-आतिथ्यम्‌--तथा अतिथि के रूप में उनका स्वागत हो जाने पर; गिरा--शब्दों से; सून्‌त॒या--अत्यन्त मधुर; मुनिम्‌ू--गर्गमुनि को; नन्दयित्वा--इस तरह प्रसन्न करके; अब्रवीतू--कहा; ब्रह्मनू--हेब्राह्मण; पूर्णस्य--सभी प्रकार से पूर्ण; करवाम किम्‌--मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ ( कृपया आज्ञा दें )

    जब अतिथि रूप में गर्गमुनि का स्वागत हो चुका और वे ठीक से आसन ग्रहण कर चुके तोनन्द महाराज ने भद्र तथा विनीत शब्दों में निवेदन किया: महोदय, भक्त होने के कारण आपसभी प्रकार से परिपूर्ण हैं।

    फिर भी आपकी सेवा करना मेरा कर्तव्य है।

    कृपा करके आज्ञा दें किमैं आपके लिए क्‍या करूँ ?

    महद्विचलनं नृणां गृहिणां दीनचेतसाम्‌ ।

    नि: श्रेयसाय भगवन्कल्पते नान्यथा क्वचित्‌ ॥

    ४॥

    महत्‌-विचलनम्‌--महापुरुषों की गति; नृणाम्‌--सामान्य पुरुषों के घरों में; गृहिणाम्‌--विशेषतया गृहस्थों की; दीन-चेतसाम्‌ू--जो परिवार के भरण में लगे रहने के कारण सरल चित्त हैं; नि: श्रेयसाय--महापुरुष को गृहस्थ के घर जाने काकारण केवल उसे लाभ पहुँचाना है; भगवन्‌--हे शक्तिशाली भक्त; कल्पते--इस तरह समझना चाहिए; न अन्यथा--औरकिसी प्रयोजन के लिए नहीं; क्वचित्‌--किसी भी समय ।

    हे महानुभाव, हे महान्‌ भक्त, आप जैसे पुरुष अपने स्वार्थ के लिए नहीं अपितु दीनचित्तगृहस्थों के लिए ही स्थान-स्थान पर जाते रहते हैं।

    अन्यथा इस तरह जगह-जगह घूमने में उन्हेंकोई रुचि नहीं रहती।

    ज्योतिषामयन साक्षाद्यत्तज्ज्ञानमतीन्द्रियम्‌ ।

    प्रणीतं भवता येन पुमान्वेद परावरम्‌ ॥

    ५॥

    ज्योतिषाम्‌ू--ज्योतिष ज्ञान ( मानव समाज में संस्कृति के अन्य पक्षों के साथ साथ ज्योतिष ज्ञान भी आवश्यक है ); अयनम्‌--नक्षत्रों तथा ग्रहों की गतियाँ; साक्षात्‌-प्रत्यक्ष; यत्‌ तत्‌ ज्ञाममू--ऐसा ज्ञान; अति-इन्द्रियम्‌--सामान्य व्यक्ति की दृष्टि से परे;प्रणीतम्‌ भवता--आपके द्वारा रचित ज्ञान का सम्यक ग्रंथ; येन--जिससे; पुमान्‌ू--कोई भी व्यक्ति; वेद--समझ सकता है;पर-अवरम्‌--अपने भाग्य का कारण तथा कार्य |

    हे सन्त पुरुष, आपने ज्योतिष ज्ञान को संकलित किया है, जिससे कोई भी मनुष्य अदृश्यभूत और वर्तमान बातों को समझ सकता है।

    इस ज्ञान के बल पर कोई भी मनुष्य यह समझसकता है कि पिछले जीवन में उसने क्या किया और वर्तमान जीवन पर उसका कैसा प्रभावपड़ेगा।

    आप इसे जानते हैं।

    त्वं हि ब्रह्मविदां श्रेष्ठ: संस्कारान्कर्तुमहसि ।

    बालयोरनयोरनुणां जन्मना ब्राह्मणो गुरु: ॥

    ६॥

    त्वमू--आप; हि--निस्सन्देह; ब्रह्म-विदाम्‌--ब्रह्म को जानने वाले समस्त ब्राह्मणों में; श्रेष्ठ: -- श्रेष्ठ; संस्कारान्‌--शुद्द्धि के लिएकिये गये उत्सव ( इन संस्कारों से मनुष्य को दूसरा जन्म मिलता है, संस्कारादभवेद्‌ द्विज: ); कर्तुम्‌ अहँसि--आप कृपा करकेपथधारे हैं, तो सम्पन्न करें; बालयो:--इन दोनों पुत्रों ( कृष्ण तथा बलराम ) का; अनयो:--इन दोनों का; नृणाम्‌--न केवलउनका अपितु सारे मानव समाज का; जन्मना--जन्म ग्रहण करते ही; ब्राह्मण: --तुरन्त ब्राह्मण बन जाता है; गुरु: --मार्गदर्शक ।

    हे प्रभु, आप ब्राह्मणों में श्रेष्ठ हैं विशेषतया, क्योंकि आप ज्योतिष शास्त्र से भलीभाँतिअवगत हैं।

    अतएव आप सहज ही हर व्यक्ति के आध्यात्मिक गुरु हैं।

    ऐसा होते हुए चूँकि आपकृपा करके मेरे घर आये हैं अतएव आप मेरे दोनों पुत्रों का संस्कार सम्पन्न करें।

    श्रीगर्ग उबाचयदूनामहमाचार्य: ख्यातश्न भुवि सर्वदा ।

    सुतं मया संस्कृतं ते मन्यते देवकीसुतम्‌ ॥

    ७॥

    श्री-गर्ग: उबाच--गर्गमुनि ने कहा; यदूनामू--यदुकुल का; अहम्‌--मैं हूँ; आचार्य:--पुरोहित; ख्यात: च--पहले से यह ज्ञातहै; भुवि--सर्वत्र; सर्वदा--सदैव; सुतम्‌--पुत्र को; मया--मेरे द्वारा; संस्कृतम्‌--संस्कार सम्पन्न; ते--तुम्हारे; मन्यते--मानाजायेगा; देवकी-सुतम्‌--देवकी-पुत्र

    गर्गमुनि ने कहा : हे नन्‍द महाराज, मैं यदुकुल का पुरोहित हूँ।

    यह सर्वविदित है।

    अतः यदिमैं आपके पुत्रों का संस्कार सम्पन्न कराता हूँ तो कंस समझेगा कि वे देवकी के पुत्र हैं।

    कंसः पापमतिः सख्यं तव चानकदुन्दुभे: ।

    देवक्या अष्टमो गर्भो न स्त्री भवितुमहति ॥

    ८॥

    इति सद्धिन्तयज्छत्वा देवक्या दारिकावच: ।

    अपि हन्ता गताशड्ूडस्तहिं तन्नोउनयो भवेत्‌ ॥

    ९॥

    कंसः--राजा कंस; पाप-मतिः--दूषित मन वाला, अत्यन्त पापी; सख्यम्‌--मित्रता; तब--तुम्हारी; च-- भी; आनक-दुन्दु भेः --वसुदेव की; देवक्या: --देवकी का; अष्टम: गर्भ:--आठवाँ गर्भ; न--नहीं; स्त्री--औरत; भवितुम्‌ अहंति--होना सम्भव है;इति--इस तरह; सश्धिन्तयन्‌--विचार करते हुए; श्रुत्वा--( यह समाचार ) सुनकर; देवक्या: --देवकी की; दारिका-बच: --पुत्री की वाणी; अपि--यद्यपि थी; हन्ता गत-आशड्भुः--हो सकता है कंस इस बालक को मार डालने का प्रयतल करे; तहि--इसलिए; तत्‌--वह घटना; न:--हमारे लिए; अनय: भवेत्‌--बहुत अच्छा न हो

    कंस बहुत बड़ा कूटनीतिज्ञ होने के साथ ही अत्यन्त पापी है।

    अतः देवकी की पुत्रीयोगमाया से यह सुनने के बाद कि उसके मारने वाला बालक अन्यत्र कहीं जन्म ले चुका है औरयह सुन चुकने पर कि देवकी के आठवें गर्भ से पुत्री उत्पन्न नहीं हो सकती और यह जानते हुएकि वसुदेव से आपकी मित्रता है जब कंस यह सुनेगा कि यदुकुल के पुरोहित मेरे द्वारा संस्कारकराया गया है, तो इन सब बातों से उसे निश्चित रूप से सन्देह हो जायेगा कि कृष्ण देवकी तथावसुदेव का पुत्र है।

    तब वह कृष्ण को मार डालने के उपाय करेगा और यह महान्‌ विपत्ति सिद्धहोगी।

    श्रीनन्द उवाचअलक्षितोस्मिन्रहसि मामकैरपि गोब्रजे ।

    कुरु द्विजातिसंस्कारं स्वस्तिवाचनपूर्वकम्‌ ॥

    १०॥

    श्री-नन्दः उवाच--नन्द महाराज ने ( गर्गमुनि से ) कहा; अलक्षित:--कंस के जाने बिना; अस्मिन्‌ू--इस; रहसि--एकान्त स्थानमें; मामकै:--यहाँ तक कि मेरे सम्बन्धियों द्वारा; अपि--इससे भी एकान्त स्थान; गो-ब्रजे--गोशाला में; कुरुू--सम्पन्नकीजिये; द्विजाति-संस्कारम्‌--ट्विज बनने का संस्कार ( संस्काराद्‌ भवेद्‌ द्विजः ); स्वस्ति-वाचन-पूर्वकम्‌--संस्कार कराने केलिए वैदिक स्तोत्र के उच्चारण द्वारा

    नन्द महाराज ने कहा : हे महामुनि, यदि आप सोचते हैं कि आपके द्वारा संस्कार विधिसम्पन्न कराये जाने से कंस सशंकित होगा तो चुपके से वैदिक मंत्रोच्चार करें और मेरे घर कीइस गोशाला में ही यह द्विज संस्कार पूरा करें जिससे और तो और मेरे सम्बन्धी तक न जान पायेंक्योंकि यह संस्कार अत्यावश्यक है।

    श्रीशुक उबाचएवं सम्प्रार्थितो विप्र: स्वचिकीर्षितमेव तत्‌ ।

    चकार नामकरण गूढो रहसि बालयो: ॥

    ११॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; सम्प्रार्थित:--प्रार्थना किये जाने पर; विप्र:--ब्राह्मण,गर्गमुनि, ने; स्व-चिकीर्षितम्‌ एव--जिसे वे पहले से करना चाह रहे थे और जिसके लिए वहाँ गये थे; तत्‌ू--वह; चकार--सम्पन्न किया; नाम-करणम्‌--नामकरण उत्सव; गूढ: --गुप्त रूप से; रहसि--एकान्त में; बालयो:--दोनों बालकों ( कृष्ण तथाबलराम ) का

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : जब नन्द महाराज ने गर्गमुनि से विशेष प्रार्थना की कि वेजो कुछ पहले से करना चाहते थे उसे करें, तो उन्होंने एकान्त स्थान में कृष्ण तथा बलराम कानामकरण संस्कार सम्पन्न किया।

    श्रीगर्ग उबाचअयं हि रोहिणीपुत्रो रमयन्सुहृददो गुणैः ।

    आख्वास्यते राम इति बलाधिक्याद्लं विदु: ।

    यदूनामपृथग्भावात्सड्डर्षणमुशन्त्यपि ॥

    १२॥

    श्री-गर्ग: उवाच-गर्गमुनि ने कहा; अयम्‌ू--यह; हि--निस्सन्देह; रोहिणी-पुत्र:--रोहिणी का पुत्र; रमयन्‌--प्रसन्न करते हुए;सुहृद:ः--अपने सारे मित्रों तथा सम्बन्धियों को; गुणैः--दिव्य गुणों से; आख्यास्यते--कहलायेगा; राम:--परम भोक्ता, राम नामसे; इति--इस तरह; बल-आधिक्यात्‌-- असाधारण बल होने से; बलम्‌ विदु:--बलराम नाम से विख्यात होगा; यदूनाम्‌--यदुबंश का; अपूृथक्‌-भावात्‌--आपसे पृथक्‌ न हो सकने के कारण; सह्डूर्षणम्‌--संकर्षण नाम से अथवा दो परिवारों कोजोड़ने वाला; उशन्ति--आकर्षित करता है; अपि-- भी |

    गर्गमुनि ने कहा : यह रोहिणी-पुत्र अपने दिव्य गुणों से अपने सम्बन्धियों तथा मित्रों कोसभी तरह का सुख प्रदान करेगा।

    अतः यह राम कहलायेगा।

    और असाधारण शारीरिक बल काप्रदर्शन करने के कारण यह बलराम भी कहलायेगा।

    चूँकि यह दो परिवारों--वसुदेव तथा नन्‍्दमहाराज के परिवारों--को जोड़ने वाला है, अतः यह संकर्षण भी कहलायेगा।

    आसन्वर्णास्त्रयो हास्य गृह्नतोनुयुगं तनू: ।

    शुक्लो रक्तस्तथा पीत इदानीं कृष्णतां गत: ॥

    १३॥

    आसनू--थे; वर्णा: त्रय:ः--तीन रंग; हि--निस्सन्देह; अस्य--तुम्हारे पुत्र कृष्ण के; गृह्तः--स्वीकार करते हुए; अनुयुगम्‌तनू:--विभिन्न युगों के अनुसार दिव्य शरीर; शुक्ल:--कभी गौर ( श्वेत ); रक्त:--कभी लाल; तथा--और; पीत:--कभीपीला; इदानीम्‌ कृष्णताम्‌ गत:--सम्प्रति उन्होंने श्याम ( काला ) रंग धारण किया है।

    आपका यह पुत्र कृष्ण हर युग में अवतार के रूप में प्रकट होता है।

    भूतकाल में उसने तीनविभिन्न रंग--गौर, लाल तथा पीला--धारण किये और अब वह श्याम ( काले ) रंग में उत्पन्नहुआ है [अन्य द्वापर युग में वह शुक ( तोता ) के रंग में ( भगवान्‌ रामचन्द्र के रूप में ) उत्पन्नहुआ।

    अब ऐसे सारे अवतार कृष्ण में एकत्र हो गये हैं ।

    प्रागयं वसुदेवस्य क्वचिज्जातस्तवात्मज: ।

    वासुदेव इति श्रीमानभिज्ञा: सम्प्रचक्षते ॥

    १४॥

    प्राकु--पहले; अयम्‌--यह बालक; वसुदेवस्य--वसुदेव का; क्वचित्‌--कभी कभी; जात:--उत्पन्न हुआ था; तब--तुम्हारा;आत्मज:--पुत्र कृष्ण; वासुदेव: --अतएव उसका नाम वासुदेव रखा जा सकता है; इति--इस प्रकार; श्रीमान्‌ू-- अत्यन्त सुन्दर;अभिज्ञा:--विद्वान; सम्प्रचक्षते--कृष्ण को वासुदेव भी कहते हैं।

    अनेक कारणों से आपका यह सुन्दर पुत्र पहले कभी वसुदेव के पुत्र रूप में प्रकट हुआ था।

    अतएव जो विद्वान हैं, वे इस बालक को कभी कभी वासुदेव कहते हैं।

    बहूनि सन्ति नामानि रूपाणि च सुतस्य ते ।

    गुणकर्मानुरूपाणि तान्यहं वेद नो जना: ॥

    १५॥

    बहूनि--विविध; सन्ति-- हैं; नामानि--नाम; रूपाणि--रूप; च-- भी; सुतस्य--पुत्र के; ते--तुम्हारे; गुण-कर्म-अनु-रूपाणि--उसके गुणों तथा कर्मों के अनुसार; तानि--उनको; अहम्‌--मैं; वेद--जानता हूँ; नो जना:--सामान्य व्यक्ति नहीं |

    तुम्हारे इस पुत्र के अपने दिव्य गुणों एवं कर्मों के अनुसार विविध रूप तथा नाम हैं।

    ये सबमुझे ज्ञात हैं किन्तु सामान्य लोग उन्हें नहीं जानते।

    एप वः श्रेय आधास्यद्गोपगोकुलनन्दनः ।

    अनेन सर्वदुर्गाणि यूयमञ्जस्तरिष्यथ ॥

    १६॥

    एष:--यह बालक; व:--तुम सबों के लिए; श्रेयः--अत्यन्त शुभ; आधास्यत्‌--शुभ कार्य करेगा; गोप-गोकुल-नन्दन:--जैसेएक ग्वालबाल ग्वालों के परिवार में गोकुल के पुत्र रूप में पैदा हुआ हो; अनेन--इसके द्वारा; सर्व-दुर्गाणि--सभी प्रकार केकष्ट; यूयम्‌--तुम सभी; अज्ञ:--सरलता से; तरिष्यथ--पार कर लोगे, लाँघ लोगे।

    यह बालक गोकुल के ग्वालों के दिव्य आनन्द को बढ़ाने हेतु तुम्हारे लिए सदैव शुभ कर्मकरेगा।

    इसकी ही कृपा से तुम लोग सारी कठिनाइयों को पार कर सकोगे।

    पुरानेन ब्रजपते साधवो दस्युपीडिता: ।

    अराजके रक्ष्यमाणा जिग्युर्दस्यून्समेधिता: ॥

    १७॥

    पुरा--पूर्वकाल में; अनेन--इसके ( कृष्ण ) द्वारा; ब्रज-पते--हे ब्रजराज; साधव: --ईमानदार; दस्यु-पीडिता: --चोर-उचक्कोंद्वारा सताये हुए; अराजके--अनियमित सरकार होने पर; रक्ष्यमाणा: --सुरक्षित थे; जिग्यु:--जीत लिया; दस्यून्‌ू--चोर-उचक्कोंको; समेधिता: --उन्नति की |

    हे नन्द महाराज, जैसा कि इतिहास बतलाता है जब अनियमित अशक्त शासन था और इन्द्रको अपदस्थ कर दिया गया था और लोग चोरों द्वारा सताये जा रहे थे उस समय लोगों की रक्षाकरने तथा उनकी समृद्धि के लिए यह बालक प्रकट हुआ और इसने चोर-उचक्ों का दमन करदिया।

    य एतस्मिन्महाभागा: प्रीतिं कुर्वन्ति मानवा: ।

    नारयोभिभवन्त्येतान्विष्णुपक्षानिवासुरा: ॥

    १८॥

    ये--जो लोग; एतस्मिनू--इस बालक से; महा-भागा:--अत्यन्त भाग्यशाली; प्रीतिम्‌ू--स्नेह; कुर्वन्ति--करते हैं; मानवा:--ऐसे व्यक्ति; न--नहीं; अरयः--शत्रुगण; अभिभवन्ति--जीत पाते हैं; एतान्‌--कृष्ण के प्रति अनुरक्त लोगों को; विष्णु-पक्षानू--विष्णु के पक्ष वाले देवताओं को; इब--सहृश; असुरा:--असुरगण |

    देवताओं के पक्ष में सदैव भगवान्‌ विष्णु के रहने से असुरगण देवताओं को हानि नहींपहुँचा सकते।

    इसी तरह कोई भी व्यक्ति या समुदाय जो कृष्ण के प्रति अनुरक्त है अत्यन्तभाग्यशाली है।

    चूँकि ऐसे लोग कृष्ण से अत्यधिक स्नेह रखते हैं अतएव वे कंस के संगियों यथाअसुरों ( या आन्तरिक शत्रु तथा इन्द्रियों ) द्वारा कभी परास्त नहीं किये जा सकते।

    तस्मान्नन्दात्मजोयं ते नारायणसमो गुणैः ।

    श्रिया कीर्त्यानुभावेन गोपायस्व समाहित: ॥

    १९॥

    तस्मात्‌--इसलिए; नन्द--हे नन्‍्द महाराज; आत्मज:--आपका पुत्र; अयम्‌--यह; ते--तुम्हारा; नारायण-सम:--नारायण केसहश ( जो दिव्य गुण वाला है ); गुणैः--गुणों से; भ्रिया--ऐश्वर्य से; कीर्त्या--अपने नाम और यश से; अनुभावेन--तथा अपनेप्रभाव से; गोपायस्व--इस बालक का पालन करो; समाहित:--अत्यन्त ध्यानपूर्वक तथा सावधानी से।

    अतएव हे नन्द महाराज, निष्कर्ष यह है कि आपका यह पुत्र नारायण के सहृश है।

    यह अपनेदिव्य गुण, ऐश्वर्य, नाम, यश तथा प्रभाव से नारायण के ही समान है।

    आप इस बालक का बड़ेध्यान से और सावधानी से पालन करें।

    श्रीशुक उबाचइत्यात्मानं समादिश्य गर्गे च स्वगृहं गते ।

    नन्‍्दः प्रमुदितो मेने आत्मानं पूर्णमाशिषाम्‌ ॥

    २०॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; आत्मानम्‌--परम सत्य परमात्मा को; समादिश्य--पूर्णतयाआदेश देकर; गर्गे--जब गर्गमुनि; च-- भी; स्व-गृहम्‌--अपने घर; गते--चले गये; नन्द:--नन्‍्द महाराज ने; प्रमुदितः--अत्यन्त प्रसन्न; मेने--विचार किया; आत्मानमू--अपने आपको; पूर्णम्‌ आशिषाम्‌--परम भाग्यशाली

    श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : जब नन्द महाराज को कृष्ण के विषय में उपदेशदेकर गर्गमुनि अपने घर चले गये तो नन्द महाराज अत्यधिक प्रसन्न हुए और अपने को परमभाग्यशाली समझने लगे।

    कालेन ब्रजताल्पेन गोकुले रामकेशवौ ।

    जानुभ्यां सह पाणिभ्यां रिड्रमाणौ विजहतु: ॥

    २१॥

    कालेन--समय के; ब्रजता--बीतने पर; अल्पेन--अल्प अवधि; गोकुले--गोकुल या ब्रजधाम में; राम-केशवौ--बलराम तथाकृष्ण ने; जानुभ्याम्‌-घुटनों के बल; सह पाणिभ्याम्‌-हाथों के सहारे; रिड्रमाणौ--रेंगते हुए; विजह॒तु:--खिलवाड़ किया ।

    कुछ समय बीतने के बाद राम तथा कृष्ण दोनों भाई अपने घुटनों तथा हाथों के बल ब्रज केआँगन में रेंगने लगे और इस तरह बालपन के खेल का आनंद उठाने लगे।

    तावड्प्रियुग्ममनुकृष्य सरीसूपन्तौघोषप्रघोषरूचिरं व्रजकर्दमेषु ।

    तन्नादहृष्टमनसावनुसूत्य लोक॑मुग्धप्रभीतवदुषेयतुरन्ति मात्रो: ॥

    २२॥

    तौ--कृष्ण तथा बलराम दोनों; अद्धूघ्रि-युग्मम्‌ अनुकृष्य--अपने दोनों पाँवों को घसीटते हुए; सरीसूपन्तौ--सरी सूपों की तरहरेंगते; घोष-प्रधोष-रुचिरम्‌-- अपने घुंघरओं से आवाज करते जो अत्यन्त मधुर थी; ब्रज-कर्दमेषु--त्रजभूमि की धरती पर गोबरतथा गोमूत्र से उत्पन्न कीचड़ में; तत्‌ू-नाद--उन घुंघरूओं की आवाज से; हृष्ट-मनसौ--अत्यन्त प्रसन्न होकर; अनुसूृत्य--पीछेपीछे चलते हुए; लोकम्‌--अन्य लोगों को; मुग्ध--मोहित होकर; प्रभीत-वत्‌--उनसे बारम्बार डरते हुए; उपेयतु:--तुरन्त लौटआये; अन्ति मात्रो:--अपनी माताओं की ओर।

    जब कृष्ण तथा बलराम अपने पैरों के बल ब्रजभूमि में गोबर तथा गोमूत्र से उत्पन्न कीचड़वाली जगहों में रेंगते थे तो उनका रेंगना सरी सूपों के रेंगने जैसा लगता था और उनके पैरों के घुंघरुओं की आवाज अत्यन्त मनोहर लगती थी।

    वे अन्य लोगों के घुंघरओं की आवाज सेअत्यधिक प्रसन्न होकर उनके पीछे पीछे चल देते मानो अपनी माताओं के पास जा रहे हों।

    किन्तुजब वे यह देखते कि वे दूसरे लोग हैं, तो भयभीत होकर अपनी असली माताओं, यशोदा तथारोहिणी, के पास लौट आते।

    तन्मातरौ निजसुतौ घृणया स्नुवन्त्यौपड्डाड्रागरुचिरावुपगृह्म दोर्भ्याम्‌ ।

    दत्त्वा स्तनं प्रपिबतो: सम मुखं निरीक्ष्यमुग्धस्मिताल्पदशनं ययतु: प्रमोदम्‌ ॥

    २३॥

    तत्‌-मातरौ--उनकी माताएँ ( रोहिणी तथा यशोदा ); निज-सुतौ--अपने अपने पुत्रों को; घृणया-- अत्यन्त प्रेमपूर्वक;स्नुवन्त्यौ -- अपने स्तनों का दूध पिलातीं; पड्ढ-अड्गभ-राग-रुचिरौ--जिनके दिव्य शरीर गोबर तथा गोमूत्र के कीचड़ से सने हुएथे; उपगृह्म--रखवाली करते हुए; दोर्भ्याम्‌ू--अपनी भुजाओं से; दत्त्वा--देकर; स्तनम्‌--स्तन; प्रपिबतो:--दूध पीते हुए;स्म--निस्सन्देह; मुखम्‌-- मुँह को; निरीक्ष्य--देखकर; मुग्ध-स्मित-अल्प-दशनम्‌--मुखों से बाहर निकली दुतुलियों से हँसते;ययतु:--प्राप्त किया; प्रमोदम्‌--दिव्य आनन्द |

    दोनों बालक गोबर तथा गोमूत्र मिले कीचड़ से सने हुए अत्यन्त सुन्दर लग रहे थे और जबवे दोनों अपनी माताओं के पास गये तो यशोदा तथा रोहिणी दोनों ने बड़े प्यार से उन्हें उठालिया, छाती से लगाया और अपने स्तनों से बहता दूध पिलाया।

    स्तन-पान करते हुए दोनोंबालक मुसका रहे थे और उनकी दुतुलियाँ दिख रही थीं।

    उनके सुन्दर छोटे-छोटे दाँत देखकरउनकी माताओं को परम आनन्द हुआ।

    यहाड्रनादर्शनीयकुमारलीला-उन्तर्त्रजे तदबला: प्रगृहीतपुच्छै: ।

    वत्सैरितस्तत उभावनुकृष्यमाणौप्रेश्नन्त्य उज्झितगृहा जहृषुहसन्त्य: ॥

    २४॥

    यहि--जब; अड्डना-दर्शनीय--घर के भीतर की स्त्रियों के द्वारा ही दहश्य; कुमार-लीलौ--कृष्ण तथा बलराम द्वारा प्रदर्शितबाल-लीलाएँ; अन्तः-ब्रजे--ब्रज के भीतर, नन्द के घर में; तत्‌--उस समय; अबला:--सारी स्त्रियाँ; प्रगृहीत-पुच्छै:--कृष्णतथा बलराम द्वारा गौवों की पूँछ पकड़ने पर; वत्सैः:--बछड़ों द्वारा; इतः ततः--यहाँ वहाँ; उभौ--कृष्ण तथा बलराम दोनों;अनुकृष्यमाणौ--खींच जाने पर; प्रेक्षन्त्य:--ऐसी दृश्य देखती हुई; उज्झित--छोड़ा हुआ; गृहा:--घर के कामकाज; जहृषु: --अत्यन्त हर्षित हुईं; हसन्त्यः--हँसती हुई ॥

    ग्वालबालाएँ नन्‍्द महाराज के घर के भीतर राम तथा कृष्ण दोनों बालकों की लीलाएँदेखकर हर्षित होतीं।

    बच्चे बछड़ों की पूछों के पिछले भाग पकड़ लेते तो बछड़े उन्हें इधर-उधरघसीटते।

    जब स्त्रियाँ ये लीलाएँ देखतीं, तो निश्चय ही अपना कामकाज करना बन्द कर देतींऔर हँसने लगतीं तथा इन घटनाओं का आनन्द लूटतीं।

    श्रृड़ुग्यग्निदंष्टरयसिजलद्विजकण्टके भ्य:क्रीडापरावतिचलौ स्वसुतौ निषेद्धुम्‌ ।

    गृह्माणि कर्तुमपि यत्र न तज्जनन्यौशेकात आपतुरलं मनसोनवस्थाम्‌ ॥

    २५॥

    श्रुद्धी--गाय; अग्नि--आग; दंष्टी--बन्दर तथा कुत्ते; असि--तलवार; जल--पानी; द्विज--पक्षी; कण्टके भ्य:--तथा काँटोंके साथ; क्रीडा-परौ अति-चलौ--दोनों बच्चे खेल में व्यस्त तथा अतीव चंचल; स्व-सुतौ--अपने दोनों पुत्रों को; निषेद्धुम्‌--रोकने के लिए; गृह्माणि--घर के कामकाज; कर्तुम्‌ अपि--करके; यत्र--जब; न--नहीं; तत्‌-जनन्यौ--उनकी माताएँ(रोहिणी तथा यशोदा ); शेकाते--समर्थ; आपतु:--प्राप्त किया; अलम्‌--निस्सन्देह; मनस:--मन का; अनवस्थाम्‌--सन्तुलन।

    जब माता यशोदा तथा रोहिणी बच्चों को सींग वाली गायों से, आग से, पंजे तथा दाँत वालेपशुओं यथा बन्दरों, कुत्तों तथा बिल्लियों से एवं काँटों से, जमीन पर रखी तलवारों तथा अन्यहथियारों से होने वाली दुर्घटनाओं से रक्षा करने में अपने को असमर्थ पातीं तो वे सदा चिन्ताग्रस्तहो जातीं जिससे उनके घरेलू कामकाज में बाधा पहुँचती।

    उस समय वे भौतिक स्नेह के कष्टनामक दिव्य भाव से सनन्‍्तुलन प्राप्त करतीं क्योंकि यह उनके मनों के भीतर से उठता था।

    कालेनाल्‍पेन राजर्षे राम: कृष्णश्च गोकुले ।

    अधृष्टजानुभि: पद्धिर्विचक्रमतुरकझ्सला ॥

    २६॥

    कालेन अल्पेन-- थोड़े समय में ही; राजर्षे--हे राजा ( महाराज परीक्षित ); राम: कृष्ण: च--राम तथा कृष्ण दोनों; गोकुले--गोकुल गाँव में; अधघृष्ट-जानुभि:ः--घुटने के बल रेंगे बिना ही; पद्धिः--अपने पाँवों के बल; विचक्रमतु:--चलने लगे;अज्जसा--आसानी से।

    हे राजा परीक्षित, थोड़े समय में ही राम तथा कृष्ण दोनों अपने पाँवों के बल, रेंगे बिना हीअपने आप गोकुल में सरलता से चलने-फिरने लगे।

    ततस्तु भगवान्कृष्णो वयस्यैरत्रेजबालकै: ।

    सहरामो ब्रजस्त्रीणां चिक्रीडे जनयन्मुदम्‌ ॥

    २७॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; तु--लेकिन; भगवान्‌-- भगवान्‌; कृष्ण:--कृष्ण; वयस्यै:--अपने साथियों के साथ; ब्रज-बालकै:--ब्रज केछोटे-छोटे बालकों के साथ; सह-राम:--बलराम के साथ; ब्रज-स्त्रीणाम्‌--व्रज की सारी स्त्रियों के; चिक्रीडे--प्रसन्नतापूर्वकखेलने लगे; जनयन्‌--उत्पन्न करते हुए; मुदम्‌--दिव्य आनन्द

    तत्पश्चात्‌ भगवान्‌ कृष्ण, बलराम सहित, ग्वालों के अन्य बच्चों के साथ खेलने लगे औरइस तरह ग्वालों की स्त्रियों में दिव्य आनन्द उत्पन्न करने लगे।

    कृष्णस्य गोप्यो रुचिरं वीक्ष्य कौमारचापलम्‌ ।

    श्रृण्वन्त्या: किल तन्मातुरिति होचु: समागता: ॥

    २८॥

    कृष्णस्य--कृष्ण का; गोप्य: --सारी गोपियों ने; रुचिर्मू--अत्यन्त आकर्षक; वीक्ष्य--देखकर; कौमार-चापलमू--बाल-लीलाओं की चपलता; श्रृण्वन्त्या:--बारम्बार सुनने के लिए; किल--निस्सन्देह; तत्‌-मातु:ः--माता की उपस्थिति में; इति--इसप्रकार; ह--निस्सन्देह; ऊचु:;--कहा; समागता:--एकत्र हुईं

    कृष्ण की अति आकर्षक बाल-सुलभ चञ्जलता को देखकर पड़ोस की सारी गोपियाँ कृष्णकी क्रीड़ाओं के विषय में बारम्बार सुनने के लिए माता यशोदा के पास पहुँचतीं और उनसे इसप्रकार कहतीं।

    वत्सान्मुञ्नन्क्बचिदसमये क्रोशसझ्जातहास:स्तेयं स्वाद्वत््व्थ दधिपय: कल्पितैः स्तेययोगै: ।

    मर्कान्भोक्ष्यन्विभजति स चेन्नात्ति भाण्डं भिन्नत्तिद्रव्यालाभे सगृहकुपितो यात्युपक्रोश्य तोकान्‌ ॥

    २९॥

    वत्सान्‌ू--बछड़ों को; मुझ्ननू--खाले देने; क्वचित्‌--क भी; असमये --विषम अवसरों पर; क्रोश-सझ्जात-हास:--इसके बादजब घर का मुखिया अप्रसन्न होता तो कृष्ण हँसने लगता है; स्तेयम्‌--चोरी करने से प्राप्त; स्वादु--स्वादिष्ट; अत्ति--खाता है;अथ--इस प्रकार; दधि-पयः--दही तथा दूध के बर्तन ( मटकी ); कल्पितैः--ढूँढ़ निकाली गई; स्तेय-योगैः--चोरी करने कीविधि के द्वारा; मर्कानू--बन्दरों को; भोक्ष्यनू--खिलाते हुए; विभजति--बाँट-बाँट कर देता है; सः--वह बन्दर; चेत्‌--यदि;न--नहीं; अत्ति--खाता है; भाण्डम्‌--बर्तन; भिन्नत्ति--तोड़ डालता है; द्रव्य-अलाभे--खाने को कुछ न मिलने पर; स-गृह-हस्ताग्राह् रचयति विधिं पीठकोलूखलादै-शिछद्रं हान्तर्निहितवयुनः शिक्यभाण्डेषु तद्ठित्‌ ।

    ध्वान्तागारे धृतमणिगणं स्वाड्रमर्थप्रदीपंकाले गोपष्यो यहि गृहकृत्येषु सुव्यग्रचित्ता: ॥

    ३०॥

    हस्त-अग्राह्े--हाथ न पहुँचने पर; रचयति--बनाता है; विधिमू--उपाय; पीठक--पीढ़ा, लकड़ी की चौकी; उलूखल-आद्यैः--तथा ओखली इत्यादि से; छिद्रमू--छेद; हि--निस्सन्देह; अन्तः-निहित--बर्तन के भीतर की वस्तुएँ; बयुन:--ऐसे ज्ञानसे; शिक्य--शिकहरा, छींका से टांग कर; भाण्डेषु--बर्तनों के भीतर; तत्‌-वित्‌--उस ज्ञान में दक्ष; ध्वान्त-आगारे-- अँधेरेकमरे में; धृत-मणि-गणम्‌--मूल्यवान मोतियों से सजाया होने के कारण; स्व-अड्भम्‌--अपने शरीर को; अर्थ-प्रदीपम्‌-- अँधेरेमें देखने के लिए आवश्यक प्रकाश में; काले--उसके बाद; गोप्य:--वृद्धा गोपियाँ; यहि--ज्योंही; गृह-कृत्येषु--घर केकामकाज करेने में; सु-व्यग्र-चित्ता:--बुरी तरह लगी रहने से |

    ’जब दूध तथा दही की मटकी को छत से लटकते छींके में ऊँचा रख दिया जाता है औरकृष्ण तथा बलराम उस छींके तक नहीं पहुँच पाते तो वे पीढ़ों को जुटाकर तथा मसाले पीसनेकी ओखली को उलट कर उस पर चढ़ कर उस तक पहुँच जाते हैं।

    बर्तन के भीतर कया है, वेअच्छी तरह जानते हैं अतः उसमें छेद कर देते हैं।

    जब सयानी गोपिकाएँ कामकाज में लगी रहतीहैं, तो कभी कभी कृष्ण तथा बलराम अँधेरी कोठरी में चले जाते हैं और अपने शरीर में पहनेहुए मूल्यवान आभूषणों की मणियों की चमक से उस स्थान को प्रकाशित करके चोरी कर लेजाते हैं।

    एवं धा्टर्यान्युशति कुरुते मेहनादीनि वास्तौस्तेयोपायर्विरचितकृतिः सुप्रतीको यथास्ते ।

    इत्थं स्रीभिः सभयनयनश्रीमुखालोकिनीभि-व्याख्यातार्था प्रहसितमुखी न ह्युपालब्धुमैच्छत्‌ ॥

    ३१॥

    एवम्‌--इस प्रकार; धाष्टर्यानि--उपद्रव; उशति--स्वच्छ स्थान में; कुरते--क भी कभी करता है; मेहन-आदीनि--टट्टी पेशाबकरना; वास्तौ--घरों में; स्तेय-उपायैः --दूध तथा मक्खन चुराने की विविध युक्तियाँ ढूँढ़कर; विरचित-कृति:--अत्यन्त दक्ष है;सु-प्रतीक:--अब अच्छे, शिष्ट बालक की तरह बैठा हुआ है; यथा आस्ते--यहाँ रहते हुए; इत्थम्‌--ये बातें; स्त्रीभि:--गोपियोंके द्वारा; स-भय-नयन--अब डरी हुईं आँखों से बैठा; श्री-सुख--ऐसा सुन्दर चेहरा; आलोकिनीभि:--गोपियाँ देखने काआनन्द ले रही थीं; व्याख्यात-अर्था--माता यशोदा से उसकी शिकायत करते हुए; प्रहसित-मुखी--हँसती और आनन्द लूटतीं;न--नहीं; हि--निस्सन्देह; उपालब्धुम्‌--डराने-धमकाने के लिए; ऐच्छत्‌--उसकी इच्छा हुई, चाहा।

    ‘जब कृष्ण नटखटपन करते पकड़े जाते हैं, तो घर के मालिक उससे कहते, '‘ओरे चोर 'और उस पर बनावटी क्रोध प्रकट करते।

    तब कृष्ण उत्तर देते, ‘मैं चोर नहीं हूँ।

    चोर तुम हो।

    'कभी कभी कृष्ण क्रोध में आकर हमारे साफ-सुथरे घरों में मल-मूत्र विसर्जन कर देता है।

    किन्तुहे सखी यशोदा, अब वही दक्ष चोर तुम्हारे सामने अच्छे लड़के की तरह बैठा है।

    ' कभी कभीसभी गोपियाँ कृष्ण को भयातुर आँखों किए बैठे देखती थीं, ताकि माता डांटे फटकारे नहींऔर जब वे कृष्ण का सुन्दर मुखड़ा देखतीं तो उसे डाँटने की बजाय वे उनके मुखड़े को देखतीही रह जातीं और दिव्य आनन्द का अनुभव करतीं।

    माता यशोदा इस खिलवाड़ पर मन्द-मन्दमुसकातीं और उनका मन अपने भाग्यशाली दिव्य बालक को डाँटने को करता ही नहीं था।

    एकदा क्रीडमानास्ते रामाद्या गोपदारका: ।

    कृष्णो मृदं भक्षितवानिति मात्रे न्‍्यवेदयन्‌ ॥

    ३२॥

    एकदा--एक बार; क्रीडमाना:--बड़े होकर भी अपनी उम्र वाले अन्य बालकों के साथ खेलते; ते--वे; राम-आद्या:--बलरामतथा अन्य; गोप-दारकाः--ग्वालों के पड़ोस में पैदा हुए अन्य बालक; कृष्ण: मृदम्‌ भक्षितवान्‌--हे माता! कृष्ण ने मिट्टी खाईहै; इति--इस प्रकार; मात्रे--माता यशोदा से; न्‍्यवेदयन्‌--निवेदन किया।

    एक दिन जब कृष्ण अपने छोटे साथियों के साथ बलराम तथा अन्य गोप-पुत्रों सहित खेलरहे थे तो उनके सारे साथियों ने एकत्र होकर माता यशोदा से शिकायत की कि ‘‘कृष्ण ने मिट्टीखाई है।

    'सा गृहीत्वा करे कृष्णमुपालभ्य हितैषिणी ।

    यशोदा भयसम्ध्रान्तप्रेक्षणाक्षमभाषत ॥

    ३३॥

    सा--माता यशोदा; गृहीत्वा--पकड़ कर; करे--हाथ में; कृष्णम्‌--कृष्ण को; उपालभ्य--डाँटना चाहा; हित-एषिणी--कृष्णका कल्याण चाहने के कारण वे क्षुब्ध थीं कि इस कृष्ण ने मिट्टी कैसे खाई ?; यशोदा--माता यशोदा ने; भय-सम्भ्रान्त-प्रेक्षण-अक्षम्‌-कृष्ण के मुँह के भीतर सावधानी से देखने लगी, यह देखने के लिए कि कोई खतरनाक वस्तु तो नहीं भर ली;अभाषत--कृष्ण से कहा

    कृष्ण के साथियों से यह सुनकर, हितैषिणी माता यशोदा ने कृष्ण के मुख के भीतर देखनेतथा डाँटने के लिए उन्हें अपने हाथों से ऊपर उठा लिया।

    वे डरी डरी आँखों से अपने पुत्र से इसप्रकार बोलीं ।

    कस्मान्मृदमदान्तात्मन्भवान्भक्षितवात्रह: ।

    बदन्ति तावका होते कुमारास्तेग्रजोप्ययम्‌ ॥

    ३४॥

    कस्मात्‌-क्यों; मृदम्‌--मिट्टी; अदान्त-आत्मन्‌--अरे चंचल बालक; भवान्‌--तुमने; भक्षितवान्‌--खाई है; रहः--एकान्तस्थान में; वदन्ति--यह शिकायत कर रहे हैं; तावका:ः --तुम्हारे दोस्त; हि--निस्सन्देह; एते--वे सभी; कुमारा:--बालक; ते--तुम्हारे; अग्रज:ः--बड़ा भाई; अपि-- भी ( पुष्टि करता है ); अयम्‌ू--यह ।

    हे कृष्ण, तुम इतने चंचल क्‍यों हो कि एकान्‍न्त स्थान में तुमने मिड्ठी खा ली? यह शिकायततुम्हारे बड़े भाई बलराम समेत तुम्हारे संगी-साथियों ने की है।

    यह क्योंकर हुआ ?नाहं भक्षितवानम्ब सर्वे मिथ्याभिशंसिन: ।

    यदि सत्यगिरस्तरहिं समक्ष पश्य मे मुखम्‌ ॥

    ३५॥

    न--नहीं; अहम्‌--मैंने; भक्षितवान्‌ू--मिट्टी खाई है; अम्ब--हे माता; सर्वे--वे सभी; मिथ्य-अभिशंसिन:--सभी झूठे हैं, केवलमेरी शिकायत करते हैं कि आप मुझे डाँटें; यदि--यदि यह यथार्थ है; सत्य-गिर:--कि उन्होंने सच बोला है; तह्हि--तो;समक्षम्‌-प्रत्यक्ष; पश्य--देखिये; मे--मेरा; मुखम्‌-- मुँह |

    श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया, ‘'हे माता, मैंने मिट्टी कभी नहीं खाई।

    मेरी शिकायत करने वाले मेरेसारे मित्र झूठे हैं।

    यदि आप सोचती हैं कि वे सच बोल रहे हैं, तो आप मेरे मुँह के भीतर प्रत्यक्षदेख सकती हैं।

    यद्येव॑ तरहिं व्यादेहीत्युक्त: स भगवान्हरि: ।

    व्यादत्ताव्याहतैश्वर्य: क्रीडामनुजबालक:ः ॥

    ३६॥

    यदि--यदि; एवम्‌--ऐसा है; तर्हि--तो; व्यादेहि--अपना मुख खोलो ( मैं देखना चाहती हूँ ); इति उक्त:--माता यशोदा द्वाराऐसा आदेश दिये जाने पर; सः--उस; भगवान्‌-- भगवान्‌; हरिः--पर मे श्वर ने; व्यादत्त-- अपना मुँह खोल दिया; अव्याहत-ऐश्वर्य:--ऐश्वर्य भक्ति में बिना किसी कमी के ( ऐश्वर्यस्य समग्रस्य ); क्रीडा--लीला या खिलवाड़; मनुज-बालक: --मनुष्य केलड़के की तरह।

    माता यशोदा ने कृष्ण को धमकाया : ‘यदि तुमने मिट्टी नहीं खाई है, तो अपना मुँह पूरीतरह खोलो।

    इस पर नन्द तथा यशोदा के पुत्र कृष्ण ने मानवी बालक की तरह लीला करने केलिए अपना मुँह खोला।

    यद्यपि समस्त ऐश्वर्यों के स्वामी भगवान्‌ कृष्ण ने अपनी माता केवात्सल्य-प्रेम को ठेस नहीं लगाई, फिर भी उनका ऐश्वर्य स्वतः प्रदर्शित हो गया क्‍योंकि कृष्णका ऐश्वर्य किसी भी स्थिति में विनष्ट नहीं होता अपितु उच्चित समय पर प्रकट होता है।

    सा तत्र ददशे विश्व जगत्सथास्नु च खं दिशः ।

    सादिद्वीपाब्धिभूगोलं सवाय्वग्नीन्दुतारकम्‌ ॥

    ३७॥

    ज्योतिश्चक्रं जलं तेजो नभस्वान्वियदेव च ।

    वैकारिकाणीन्द्रियाणि मनो मात्रा गुणास्त्रय: ॥

    ३८॥

    एतद्विचित्रं सहजीवकाल-स्वभावकर्माशयलिड्डभेदम्‌ ।

    सूनोस्तनौ वीक्ष्य विदारितास्येब्र॒ज॑ सहात्मानमवाप शट्डाम्‌ ॥

    ३९॥

    सा--माता यशोदा ने; तत्र--कृष्ण के खुले मुख के भीतर; दहशे--देखा; विश्वम्‌--सारे ब्रह्मण्ड को; जगत्‌--चर-प्राणी;स्थास्नु--अचर, जड़ प्राणी; च--तथा; खम्‌--आकाश; दिश:--दिशाएँ; स-अद्वि--पर्वतों सहित; द्वीप--द्वीप; अब्धि--समुद्र; भू-गोलम्‌--पृथ्वी की सतह; स-वायु--बहती हवा के समेत; अग्नि--आग; इन्दु--चन्द्रमा; तारकम्‌--तारे; ज्योति:-चक्रम्‌-ग्रह नक्षत्र; जलम्‌ू--जल; तेज:-- प्रकाश; नभस्वान्‌--अन्तरिक्ष; वियत्‌-- आकाश; एब-- भी; च--तथा;वैकारिकाणि--अहंकार के रूपांतर से बनी सृष्टि; इन्द्रियाणि--इन्द्रियाँ; मन:--मन; मात्रा:--तन्मात्रा; गुणा: त्रयः--तीनों गुण( सत्त्व, रजस्‌ तथा तमस ); एतत्‌--ये सारे; विचित्रमू--तरह तरह के; सह--समेत; जीव-काल--सारे जीवों की आयु;स्वभाव--स्वभाव; कर्म-आशय--कर्म तथा भौतिक भोग की इच्छा ( वासना ); लिड्-भेदम्‌--इच्छानुसार शरीरों के भेद;सूनो: तनौ-- अपने पुत्र के शरीर में; वीक्ष्य-- देखकर; विदारित-आस्ये--खुले मुँह के भीतर; ब्रजम्‌--त्रज-धाम को; सह-आत्मानम्‌-- अपने समेत; अवाप--हत प्रभ रह गई; शट्भाम्‌ू--शंका तथा आश्चर्य से युक्त |

    जब कृष्ण ने माता यशोदा के आदेश से अपना पूरा मुँह खोला तो उन्होंने कृष्ण के मुख केभीतर सभी चर-अचर प्राणी, बाह्य आकाश, सभी दिशाएँ, पर्वत, द्वीप, समुद्र, पृथ्वीतल, बहतीहवा, अग्नि, चन्द्रमा तथा तारे देखे।

    उन्होंने ग्रह, जल, प्रकाश, वायु, आकाश तथा अहंकार केरूपान्तर द्वारा सृष्टि देखी।

    उन्होंने इन्द्रियाँ, मन, तन्मात्राएँ, तीनों गुण ( सतो, रजो तथा तमो ) भीदेखे।

    उन्होंने जीवों की आयु, प्राकृतिक स्वभाव तथा कर्मफल देखे।

    उन्होंने इच्छाएँ और विभिन्नप्रकार के चर-अचर शरीर देखे।

    विराट जगत के इन विविध पक्षों के साथ ही स्वयं को तथावृन्दावन-धाम को देखकर वे अपने पुत्र के स्वभाव से सशंकित तथा भयभीत हो उठीं।

    कि स्वप्न एतदुत देवमाया कि वा मदीयो बत बुद्धिमोहः ।

    अथो अभमुष्यैव ममार्भकस्ययः कश्चनौत्पत्तिक आत्मयोग: ॥

    ४०॥

    किम्‌--क्या; स्वप्न: --सपना; एतत्‌--यह; उत--अथवा; देव-माया--बहिरंगा शक्ति द्वारा मोहमयी अभिव्यक्ति; किम्‌ वा--अथवा; मदीय:--मेरा निजी; बत--निस्सन्देह; बुद्धि-मोह:--बुद्धि का मोह; अथो--अन्यथा; अमुष्य--ऐसे; एब--निस्सन्देह;मम अर्भकस्य--मेंरे बालक का; यः--जो; कश्चन--कोई ; औत्पत्तिक: --प्राकृतिक; आत्म-योग:--निजी योगशक्ति |

    [माता यशोदा अपने में ही तर्क करने लगीं : क्या यह सपना है या बहिरंगा शक्ति कीमोहमयी सृष्टि है? कहीं यह मेरी ही बुद्धि से तो प्रकट नहीं हुआ ? अथवा यह मेरे बालक कीकोई योगशक्ति है?

    अथो यथावतन्न वितर्कगोचरंचेतोमन:ःकर्मवचोभिरज्धसा ।

    यदाश्रयं येन यतः प्रतीयतेसुदुर्विभाव्यं प्रणतास्मि तत्पदम्‌ ॥

    ४१॥

    अथो--इसलिए उसने भगवान्‌ की शरण में जाने का निश्चय किया; यथा-वत्‌--जितनी पूर्णता से कोई अनुभव कर सकती है;न--नहीं; वितर्क-गोचरम्‌--समस्त तर्क, इन्द्रिय बोध से परे; चेत:--चेतना से; मन:ः--मन से; कर्म--कर्म से; वचोभि:--अथवा शब्दों से; अज्लआ--सबको मिलकर भी हम उन्हें नहीं समझ सकते; यत्‌-आश्रयम्‌--जिसके नियंत्रण में; येन--जिसकेद्वारा; यतः--जिससे; प्रतीयते--अनुभव किया जा सकता है कि हर वस्तु उन्हीं से उद्भूत है; सु-दुर्विभाव्यमू--हमारी चेतना सेपरे; प्रणता अस्मि--शरणागत हूँ; तत्‌ू-पदम्‌--उनके चरणों में

    अतएव मैं उन भगवान्‌ की शरण ग्रहण करती हूँ और उन्हें नमस्कार करती हूँ जो मनुष्य कीकल्पना, मन, कर्म, विचार तथा तर्क से परे हैं, जो इस विराट जगत के आदि-कारण हैं, जिनसेयह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पालित है और जिनसे हम इस जगत के अस्तित्व का अनुभव करते हैं।

    मैंउन्हें सादर नमस्कार ही कर सकती हूँ क्‍योंकि वे मेरे चिन्तन, अनुमान तथा ध्यान से परे हैं।

    वे मेरेसमस्त भौतिक कर्मों से भी परे हैं।

    अहं ममासौ पतिरेष मे सुतोब्रजेश्वरस्याखिलवित्तपा सती ।

    गोप्यश्चव गोपा: सहगोधनाश्च मेयन्माययेत्थं कुमति: स मे गति: ॥

    ४२॥

    अहम्‌-मेरा अस्तित्व ( मैं कुछ हूँ ); मम--मेरा; असौ--नन्द महाराज; पति:ः--पति; एष:--यह ( कृष्ण ); मे सुत:--मेरा पुत्रहै; ब्रज-ई श्वरस्थ-- मेरे पति नन्द महाराज का; अखिल-वित्त-पा--मैं असीम ऐश्वर्य और सम्पत्ति की मालकिन हूँ; सती--उनकीपत्नी होने से; गोप्य: च--तथा सारी गोपियाँ; गोपा: --सारे ग्वाले ( जो मेरे अधीन हैं ); सह-गोधना: च--गौवों तथा बछड़ोंसमेत; मे--मेरा; यत्‌-मायया--ऐसी सारी वस्तुएँ जिन्हें मैं कहती हूँ आखिर भगवान्‌ की कृपा से प्राप्त हैं; इत्थम्‌--इस प्रकार;कुमतिः--मैं झूठे ही सोचती हूँ कि मेरी सम्पत्ति हैं; सः मे गति:ः--अतएव बे ही मेरी एकमात्र शरण हैं ( मैं तो निमित्त मात्र हूँ )

    यह तो भगवान्‌ की माया का प्रभाव है, जो मैं मिथ्या ही सोचती हूँ कि नन्‍्द महाराज मेरेपति हैं, कृष्ण मेरा पुत्र है और चूँकि मैं नन्द महाराज की महारानी हूँ इसलिए गौवों तथा बछड़ोंकी सम्पत्ति मेरे अधिकार में है और सारे ग्वाले तथा उनकी पत्रियाँ मेरी प्रजा हैं।

    वस्तुतः मैं भीभगवान्‌ के नित्य अधीन हूँ।

    वे ही मेरे अनन्तिम आश्रय हैं।

    इत्थं विदिततत्त्वायां गोपिकायां स ईश्वर: ।

    वैष्णवीं व्यतनोन्मायां पुत्रस्नेहमयीं विभु: ॥

    ४३॥

    इत्थम्‌--इस तरह; विदित-तत्त्वायाम्‌ू--हर वस्तु के सत्य को दार्शनिक रूप से समझ जाने पर; गोपिकायाम्‌ू--माता यशोदा केप्रति; सः--उस, भगवान्‌ ने; ईश्वर:--परम नियन्ता; वैष्णवीम्‌--विष्णु-माया या योगमाया का; व्यतनोत्‌--विस्तार किया;मायाम्‌--योगमाया की; पुत्र-स्नेह-मयीम्‌-- अपने पुत्र-स्नेह के कारण अत्यन्त अनुरक्त; विभु:--पर मे श्वर ने |

    माता यशोदा भगवान्‌ की कृपा से असली सत्य को समझ गईं।

    लेकिन अन्तरंगा शक्ति,योगमाया के प्रभाव से परम प्रभु ने उन्हें प्रेरित किया कि वे अपने पुत्र के गहन मातृ-प्रेम में लीनहो जाँय।

    सद्यो नष्टस्मृतिर्गोपी सारोप्यारोहमात्मजम्‌ ।

    प्रवृद्धस्तेहकलिलहृदयासीद्यथा पुरा ॥

    ४४॥

    सद्यः--इन सारे दार्शनिक चिन्तनों के बाद माता यशोदा ने भगवान्‌ की शरण ग्रहण की; नष्ट-स्मृतिः--कृष्ण के मुँह के भीतरविश्व रूप देखने से नष्ट हुई स्मरणशक्ति; गोपी--माता यशोदा; सा--वह; आरोप्य--बैठाकर; आरोहम्‌--गोद में; आत्मजम्‌--अपने पुत्र को; प्रवृद्ध--बढ़ा हुआ; स्नेह--स्नेह से; कलिल-- प्रभावित; हृदया--हृदय से; आसीतू--हो गई; यथा पुरा--जैसीपहले थी

    कृष्ण ने अपने मुँह के भीतर जिस विराट रूप को दिखलाया था योगमाया के उस भ्रम कोतुरन्त ही भूलकर माता यशोदा ने अपने पुत्र को पूर्ववत्‌ अपनी गोद में ले लिया और अपने दिव्यबालक के प्रति उनके हृदय में और अधिक स्नेह उमड़ आया।

    अय्या चोपनिषद्धिश्व साड्ख्ययोगैश्व सात्वतैः ।

    उपगीयमानमाहात्म्यं हरिं सामन्यतात्मजम्‌ ॥

    ४५॥

    त्रय्या--तीन वेदों ( साम, यजुर्‌ तथा अथर्व ) के अध्ययन से; च-- भी; उपनिषद्धि: च--तथा उपनिषदों के अध्ययन से;साइ्ख्य-योगैः--तथा सांख्य योग विषयक साहित्य के अध्ययन से; च--तथा; सात्वतैः--बड़े बड़े ऋषियों-मुनियों द्वारा अथवावैष्णव तंत्र पद्धरात्र का अध्ययन करने से; उपगीयमान-माहात्म्यम्‌--जिनकी महिमा की पूजा ( इन बैदिक ग्रंथों द्वारा ) की जातीहै; हरिमू-- भगवान्‌ को; सा--उसने; अमन्यत--( सामान्य ) मान लिया; आत्मजम्‌-- अपना पुत्र

    भगवान्‌ की महिमा का अध्ययन तीनों वेदों, उपनिषदों, सांख्य योग के ग्रंथों तथा अन्यवैष्णव साहित्य के माध्यम से किया जाता है।

    फिर भी माता यशोदा परम पुरुष को अपना सामान्य बालक मानती रहीं।

    श्रीराजोबवाचनन्दः किमकरोद्डह्मन्श्रेय एवं महोदयम्‌ ।

    यशोदा च महाभागा पपौ यस्या: स्तनं हरि: ॥

    ४६॥

    श्री-राजा उबाच--महाराज परीक्षित ने और आगे पूछा; नन्दः--महराज नन्द ने; किम्‌ू--क्या; अकरोत्‌--किया; ब्रह्मनू--हेविद्वान ब्राह्मण; श्रेयः --पुण्यकर्म यथा तपस्या; एवम्‌--जिस तरह उन्होंने प्रकट किया; महा-उदयम्‌--जिससे उन्हें सर्वोच्चसिद्धि प्राप्त हुई; यशोदा--माता यशोदा; च-- भी; महा-भागा--अत्यन्त भाग्यशालिनी; पपौ--पिया; यस्या: --जिसका;स्तनमू--स्तन का दूध; हरिः-- भगवान्‌ ने |

    माता यशोदा के परम सौभाग्य को सुनकर परीक्षित महाराज ने शुकदेव गोस्वामी से पूछा :है विद्वान ब्राह्मण, भगवान्‌ द्वारा माता यशोदा का स्तन-पान किया गया।

    उन्होंने तथा नन्दमहाराज ने भूतकाल में कौन-से पुण्यकर्म किये जिनसे उन्हें ऐसी प्रेमम॒यी सिद्धि प्राप्त हुई ?

    पितरौ नान्वविन्देतां कृष्णोदारार्भकेहितम्‌ ।

    गायन्त्यद्यापि कवयो यललोकशमलापहम्‌ ॥

    ४७॥

    पितरौ--कृष्ण के असली पिता तथा माता ने; न--नहीं; अन्वविन्देताम्‌ू-- आनन्द प्राप्त किया; कृष्ण--कृष्ण का; उदार--वदान्य; अर्भक-ईहितम्‌--उसके द्वारा सम्पन्न बाल-लीलाएँ; गायन्ति--महिमा का गान करते हैं; अद्य अपि--आज भी;कवयः--बड़े बड़े ऋषि-मुनि; यत्‌ू--जो; लोक-शमल-अपहम्‌--जिसके सुनने से सारे जगत का कल्मष दूर हो जाता है।

    यद्यपि कृष्ण बसुदेव तथा देवकी से इतने प्रसन्न थे कि वे उनके पुत्र रूप में अवतरित हुएकिन्तु वे दोनों ही कृष्ण की उदार बाल-लीलाओं का आनन्द नहीं उठा पाये।

    ये लीलाएँ इतनीमहान्‌ हैं कि इनका उच्चार करने मात्र से संसार का कल्मष दूर हो जाता है।

    किन्तु नन्‍्द महाराजतथा यशोदा ने इन लीलाओं का पूर्ण आनन्द प्राप्त किया अतएवं उनकी स्थिति वसुदेव तथादेवकी से सदैव श्रेष्ठतर है।

    श्रीशुक उबाचद्रोणो बसूनां प्रवरो धरया भार्यया सह ।

    'करिष्यमाण आदेशान्ब्रह्मणस्तमुवाच ह ॥

    ४८ ॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; द्रोण:--द्रोण नामक; बसूनाम्‌--आठ वसुओं में; प्रवर:--सर्व श्रेष्ठ; धरया--धरा के; भार्यया--अपनी पतली; सह--साथ; करिष्यमाण:--सम्पन्न करने के लिए; आदेशान्‌--आदेश; ब्रह्मण: --ब्रह्मा का;तम्‌--उससे; उवाच--कहा; ह--भूतकाल में

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : भगवान्‌ ब्रह्माजी के आदेश का पालन करने के लिए वसुओं मेंश्रेष्ठ द्रोण ने अपनी पत्नी धरा समेत ब्रह्मा से इस प्रकार कहा।

    जातयोनों महादेवे भुवि विश्वेश्वरे हरौ ।

    भक्ति: स्यात्परमा लोके ययाज्ञो दुर्गतिं तरेत्‌ ॥

    ४९॥

    जातयो: --जन्म लेकर; नौ--पति-पली दोनों, द्रोण तथा धरा; महादेवे--परम पुरुष, भगवान्‌ में; भुवि--पृथ्वी पर; विश्व-ईश्वर--सभी लोकों के स्वामी में; हरौ--हरि में; भक्ति:-- भक्ति; स्थातू--फैलेगी; परमा--जीवन का चरम लक्ष्य; लोके--संसार में; यया--जिससे; अज्ञः--आसानी से; दुर्गतिम्‌--दुखमय जीवन से; तरेतू--बच सकता है और उद्धार हो सकता है।

    द्रोण तथा धरा ने कहा : कृपा करके हमें अनुमति दें कि हम पृथ्वी पर जन्म लें जिससेपरब्रह्म परम नियन्ता तथा समस्त लोकों के स्वामी भगवान्‌ भी प्रकट हों और भक्ति का प्रसारकरें जो जीवन का चरम लक्ष्य है और जिसे ग्रहण करके इस भौतिक जगत में उत्पन्न होने वालेलोग सरलता से भौतिकतावादी जीवन की दुखमय स्थिति से उबर सकें ।

    अस्त्वित्युक्त: स भगवान्त्रजे द्रोणो महायशा: ।

    जज्ञे नन्द इति ख्यातो यशोदा सा धराभवत्‌ ॥

    ५०॥

    अस्तु--ब्रह्मा ने स्वीकार किया, ‘हाँ, ठीक है'; इति उक्त:--उनसे ऐसा आदेश पाकर; सः--उसने ( द्रोण ने ); भगवानू--कृष्ण के पिता ( भगवान्‌ का पिता भगवान्‌ होता है ); ब्रजे--ब्रजभूमि वृन्दावन में; द्रोण:--द्रोण, अत्यन्त शक्तिशाली बसु ने;महा-यशा:--परम प्रसिद्ध अध्यात्मवादी; जन्ञे--प्रकट हुआ; नन्दः--नन्द महाराज के रूप में; इति--इस प्रकार; ख्यातः--विख्यात है; यशोदा--माता यशोदा के रूप में; सा--वह; धरा--धरा; अभवत्‌--प्रकट हुई

    जब ब्रह्मा ने कहा, ‘हाँ, ऐसा ही हो ' तो परम भाग्यशाली द्रोण जो भगवान्‌ के समान था,ब्रजपुर वृन्दावन में विख्यात नन्द महाराज के रूप में और उनकी पत्नी धरा माता यशोदा के रूपमें प्रकट हुए।

    ततो भक्तिर्भगवति पुत्रीभूते जनार्दने ।

    दम्पत्योर्नितरामासीद्गोपगोपीषु भारत ॥

    ५१॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; भक्ति: भगवति--भगवान्‌ की भक्ति, भक्ति सम्प्रदाय; पुत्री-भूते-- भगवान्‌ के रूप में जो माता यशोदा के पुत्ररूप में उत्पन्न हुए; जनार्दने-- भगवान्‌ कृष्ण में; दम्‌-पत्यो:--पति-पत्नी दोनों का; नितरामू--निरन्तर; आसीत्‌-- था; गोप-गोपीषु--गोप तथा गोपियाँ, जो वृन्दावन के वासी तथा नन्द महाराज तथा यशोदा के सान्निध्य में थे; भारत--हे महाराजपरीक्षित |

    हे भारत श्रेष्ठ महाराज परीक्षित, तत्पश्चात्‌ जब भगवान्‌ कृष्ण नन्द महाराज तथा यशोदा केपुत्र बने तो उन दोनों ने निरन्तर, अचल दिव्य वात्सल्य-प्रेम बनाये रखा तथा उनके सात्निध्य मेंवृन्दावन के अन्य सभी निवासी, गोप तथा गोपियों ने कृष्ण-भक्ति-संस्कृति का विकास किया।

    कृष्णो ब्रह्मण आदेशं सत्य कर्तु ब्रजे विभु: ।

    सहरामो वसंश्षक्रे तेषां प्रीति स्‍्वलीलया ॥

    ५२॥

    कृष्ण:-- भगवान्‌ कृष्ण ने; ब्रह्मण:--ब्रह्माजी का; आदेशम्‌--आदेश; सत्यम्‌--सच; कर्तुम्‌-बनाने के लिए; ब्रजे--ब्रजभूमिवृन्दावन में; विभु:--परम शक्तिशाली; सह-राम: --बलराम के साथ; वसन्‌--निवास करते हुए; चक्रे--बढ़ाया; तेषाम्‌--वृन्दावनवासियों का; प्रीतिमू--आनन्द; स्व-लीलया--अपनी दिव्य लीलाओं से |

    इस तरह ब्रह्म के वर को सत्य करने के लिए भगवान्‌ कृष्ण बलराम समेत ब्रजभूमिवृन्दावन में रहे।

    उन्होंने विभिन्न बाल-लीलाएँ प्रदर्शित करते हुए ननन्‍्द तथा वृन्दावन के अन्यवासियों के दिव्य आनन्द को वर्धित किया।

    TO

    अध्याय नौ: माता यशोदा भगवान कृष्ण को बांधती हैं

    10.9श्रीशुक उबाचएकदा गृहदासीषु यशोदा नन्दगेहिनी ।

    कर्मान्तरनियुक्तासुनिर्ममन्थ स्वयं दधि ॥

    १॥

    यानि यानीह गीतानि तद्बालचरितानि च ।

    दधिनिर्मन्थने काले स्मरन्ती तान्यगायत ॥

    २॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; एकदा--एक दिन; गृह-दासीषु--जब घर की नौकरानियाँ काम में लगी हुईथीं; यशोदा--माता यशोदा; नन्द-गेहिनी--नन्द महाराज की रानी; कर्म-अन्तर--अन्य कामकाजों में; नियुक्तासु--लगी हुई;निर्ममन्थ--मथने लगी; स्वयम्‌--स्वयं, खुद; दधि--दही; यानि--जो; यानि--जो; इह--इस सम्बन्ध में; गीतानि--गीत; ततू-बाल-चरितानि--जिसमें अपने बालक के कार्यकलापों का वर्णन था; च--तथा; दधि-निर्मन्थने--दही मथने के; काले--समय; स्मरन्ती--स्मरण करती; तानि---उन्हें; अगायत--गाने लगीं।

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : एक दिन जब माता यशोदा ने देखा कि सारीनौकरानियाँ अन्य घरेलू कामकाजों में व्यस्त हैं, तो वे स्वयं दही मथने लगीं।

    दही मथते समय उन्होंने कृष्ण की बाल-क्रीड़ाओं का स्मरण किया और स्वयं उन क्रीड़ाओं के विषय में गीतबनाते हुए उन्हें गुनगुनाकर आनन्द लेने लगीं।

    क्षौमं वास: पृथुकटितटे बिश्रती सूत्रनद्धंपुत्रस्नेहस्नुतकुचयुगं जातकम्पं च सुभ्रू: ।

    रज्वाकर्ष श्रमभुजचलत्कड्डणौ कुण्डले चस्विन्न॑ वक्‍त्रं कबरविगलन्मालती निर्ममन्थ ॥

    ३॥

    क्षौमम्‌--केसरिया तथा पीला मिश्रित; वास:--माता यशोदा की साड़ी; पृथु-कटि-तटे--चौड़ी कमर के चारों ओर; बिभ्रती--हिलती हुई; सूत्र-नद्धम्‌--पेटी से बँधी; पुत्र-स्नेह-स्नुत--प्रगाढ़ पुत्र-प्रेम के कारण दूध से तर; कुच-युगम्‌--उसके दोनों स्तन;जात-कम्पम्‌ च--क्योंकि वे सुन्दर ढंग से हिल-डुल रहे थे; सु-भ्रू:--सुन्दर भौंहों वाली; रज्जु-आकर्ष--मथानी की रस्सी कोखींचने से; श्रम--परिश्रम के कारण; भुज--हाथों पर; चलतू-कड्जूणौ--हिलते हुए दोनों कड़े; कुण्डले--कान के दोनोंकुण्डल; च--भी; स्विन्नम्‌ू--बादल जैसे काले बालों से वर्षा की तरह चूता हुआ पसीना; वक्त्रम्‌--पूरे मुखमण्डल में; कबर-विगलत्‌ू-मालती--उसके बालों से मालती के फूल गिर रहे थे; निर्ममन्थ--माता यशोदा दही मथ रही थीं।

    केसरिया-पीली साड़ी पहने, अपनी स्थूल कमर में करधनी बाँधे, माता यशोदा मथानी कीरस्सी खींचने में काफी परिश्रम कर रही थीं, उनकी चूड़ियाँ तथा कान के कुण्डल हिल-डुल रहेथे और उनका पूरा शरीर हिल रहा था।

    अपने पुत्र के प्रति प्रगाढ़ प्रेम के कारण उनके स्तन दूधसे गीले थे।

    उनकी भौहें अत्यन्त सुन्दर थीं और उनका मुखमण्डल पसीने से तर था।

    उनके बालोंसे मालती के फल गिर रहे थे।

    तां स्तन्यकाम आसाद्य मथ्नन्तीं जननीं हरि: ।

    गृहीत्वा दधिमन्थानं न्यषेधत्प्रीतिमावहन्‌ ॥

    ४॥

    तामू--माता यशोदा को; स्तन्य-काम:ः--स्तन-पान के अभिलाषी कृष्ण; आसाद्य--उनके समक्ष प्रकट होकर; मधथ्नन्तीम्‌--मथती हुई; जननीम्‌--माता को; हरिः--कृष्ण ने; गृहीत्वा--पकड़ कर; दधि-मन्थानम्‌--मथानी; न्यषेधत्‌--मना किया, रोकदिया; प्रीतिम्‌ आवहन्‌-प्रेम की परिस्थिति उत्पन्न करते हुए।

    जब यशोदा दही मथ रही थीं तो उनका स्तन-पान करने की इच्छा से कृष्ण उनके सामनेप्रकट हुए और उनके दिव्य आनन्द को बढ़ाने के लिए उन्होंने मथानी पकड़ ली और दही मथनेसे उन्हें रोकने लगे।

    तमड्डमारूढमपाययत्स्तनंस्नेहस्नुतं सस्मितमीक्षती मुखम्‌ ।

    अतृप्तमुत्सृज्य जवेन सा यया-वुत्सिच्यमाने पयसि त्वधिश्रिते ॥

    ५॥

    तम्‌--कृष्ण को; अड्डमू आरूढम्‌--बड़े ही स्नेह से उन्हें अपनी गोद में बैठाकर; अपाययत्‌--पिलाया; स्तनम्‌ू-- अपना स्तन;स्नेह-स्नुतम्‌ू--अगाध स्नेह के कारण दूध बहता हुआ; स-स्मितम्‌ ईक्षती मुखम्‌--यशोदा ने हँसते हुए एवं कृष्ण के हँसते मुखको देखते हुए; अतृप्तम्‌--माता का दूध पीकर भी अतृप्त थे; उत्सृज्य--एक तरफ बैठाकर; जवेन--जल्दी में; सा--मातायशोदा ने; ययौ--वह स्थान छोड़ दिया; उत्सिच्यमाने पयसि--दूध बहते देखकर; तु--लेकिन; अधिभ्रिते--आग पर चढ़ीदुधहंडी में |

    तब माता यशोदा ने कृष्ण को सीने से लगाया, उन्हें अपनी गोद में बैठाया और बड़े स्नेह सेभगवान्‌ का मुँह देखने लगीं।

    अगाध स्नेह के कारण उनके स्तन से दूध बह रहा था।

    किन्तु जबउन्होंने देखा कि आग के ऊपर रखी कड़ाही से दूध उबल कर बाहर गिर रहा है, तो वे बच्चे कोदूध पिलाना छोड़ कर उफनते दूध को बचाने के लिए तुरन्त चली गईं यद्यपि बच्चा अपनी माताके स्तनपान से अभी तृप्त नहीं हुआ था।

    सज्जातकोपः स्फुरितारुणाधरंसन्दश्य दद्धि्दीधिमन्‍्थभाजनम्‌ ।

    भित्त्वा मृषाश्रु्टघदश्मना रहोजघास हैयड्डबमन्तरं गतः ॥

    ६॥

    सज्ञात-कोप:--इस तरह कृष्ण अत्यन्त क्रुद्ध होकर; स्फुरित-अरुण-अधरम्‌--सूजे हुए लाल-लाल होंठ; सन्दश्य--काटतेहुए; दद्धिः--अपने दाँतों से; दधि-मन्थ-भाजनम्‌ू--मटकी को; भित्त्वा--तोड़ते हुए; मृषा-अश्रु:--आँखों में नकली आँसू भरकर; हृषत्‌-अश्मना--कंकड़ से; रह: --एकान्त स्थान में; जघास--खाने लगे; हैयड्रवम्‌--ताजा मक्खन; अन्तरम्‌ू--कमरे केभीतर; गत:--जाकर।

    अत्यधिक क्रुद्ध होकर तथा अपने लाल-लाल होंठों को अपने दाँतों से काटते हुए औरआँखों में नकली आँसू भरते हुए कृष्ण ने एक कंकड़ मार कर मटकी तोड़ दी।

    इसके बाद वेएक कमरे में घुस गये और एकान्त स्थान में ताजा मक्खन खाने लगे।

    उत्तार्य गोपी सुश्रुतं पयः पुनःप्रविश्य संदश्य च दध्यमत्रकम्‌ ।

    भग्नं विलोक्य स्वसुतस्य कर्म त-ज्जहास तं चापि न तत्र पश्यती ॥

    ७॥

    उत्तार्य--अँगीठी से उतार कर; गोपी--माता यशोदा; सु- श्रृतम्‌--अत्यन्त गर्म; पथ: --दूध; पुनः--फिर से; प्रविश्य--मथने केस्थान में घुस कर; संदहश्य--देख कर; च-- भी; दधि-अमत्रकम्‌--दहेंड़ी; भग्नम्‌ू--टूटी हुई; विलोक्य--देख कर; स्व-सुतस्य--अपने बालक की; कर्म--करतूत; तत्‌--वह; जहास--हँसने लगीं; तम्‌ च--कृष्ण को भी; अपि--साथ ही; न--नहीं; तत्र--वहाँ; पश्यती--ढूँढ़ती हुई

    गर्म दूध को अँगीठी से उतार कर माता यशोदा मथने के स्थान पर लौटीं और जब देखा किमटकी टूटी पड़ी है और कृष्ण वहाँ नहीं हैं, तो वे जान गईं कि यह कृष्ण की ही करतूत है।

    उलूखलाडप्लेरुपरि व्यवस्थितमर्काय काम॑ ददतं शिचि स्थितम्‌ ।

    हैयड्रवं चौर्यविश्ितेक्षणंनिरीक्ष्य पश्चात्सुतमागमच्छने: ॥

    ८ ॥

    उलूखल-अड्घ्ने:--उलटी रखी ओखली के; उपरि--ऊपर; व्यवस्थितम्‌--बैठे हुए कृष्ण; मर्काय--बन्दरों को; कामम्‌--जी-भरकर; ददतम्‌--बाँटते हुए; शिचि स्थितम्‌--छींके में रखी; हैयड्रवम्‌--मक्खन तथा दूध से बनी अन्य वस्तुएँ; चौर्य-विशद्धित--चुराने के कारण सशंकित; ईक्षणम्‌--जिसकी आँखें; निरीक्ष्य--इन कार्यो को देखकर; पश्चात्‌-पीछे से; सुतम्‌--अपने पुत्र को; आगमत्‌--आ गई; शनैः--धीरे-धीरे, सावधानी से |

    कृष्ण उस समय मसाला पीसने वाली लकड़ी की ओखली को उलटा करके उस पर बैठे हुएथे और मक्खन तथा दही जैसी दूध की बनी वस्तुएँ अपनी इच्छानुसार बन्दरों को बाँट रहे थे।

    चोरी करने के कारण वे चिन्तित होकर चारों ओर देख रहे थे कि कहीं उनकी माता आकर उन्हेंडाँटें नहीं।

    माता यशोदा ने उन्हें देखा तो वे पीछे से चुपके से उनके पास पहुँचीं।

    तामात्तयष्टिं प्रसमीक्ष्य सत्वर-स्ततोवरुह्मापससार भीतवत्‌ ।

    गोप्यन्वधावन्न यमाप योगिनांक्षमं प्रवेष्टं तपसेरितं मन: ॥

    ९॥

    तामू--माता यशोदा को; आत्त-यष्टिमू--हाथ में छड़ी लिए; प्रसमी क्ष्य--इस मुद्रा में उन्हें देखकर कृष्ण; सत्वर: --तेजी से;ततः--वहाँ से; अवरुह्म--उतर कर; अपससार-- भगने लगा; भीत-वत्‌--मानो डरा हुआ हो; गोपी--माता यशोदा;अन्वधावत्‌--उनका पीछा करने लगीं; न--नहीं; यम्‌--जिसको; आप--पहुँच पाने में असफल; योगिनाम्‌ू--बड़े बड़े योगियोंका; क्षमम्‌--उन तक पहुँचने में समर्थ; प्रवेष्टम्‌--ब्रह्म तेज या परमात्मा में प्रवेश करने के लिए प्रयत्तशील; तपसा--तपस्या से;ईरितमू--उस कार्य के लिए प्रयलशील; मन:ः--ध्यान से |

    जब भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने अपनी माता को छड़ी लिए हुए देखा तो वे तेजी से ओखली केऊपर से नीचे उतर आये और इस तरह भागने लगे मानो अत्यधिक भयभीत हों।

    जिन्हें योगीजनबड़ी बड़ी तपस्याएँ करके ब्रह्म-तेज में प्रवेश करने की इच्छा से परमात्मा के रूप में ध्यान केद्वारा पकड़ने का प्रयत्त करने पर भी उन तक नहीं पहुँच पाते उन्हीं भगवान्‌ कृष्ण को अपना पुत्र समझ कर पकड़ने के लिए यशोदा उनका पीछा करने लगीं।

    अन्वद्ञमाना जननी बृहच्चल-च्छोणीभराक्रान्तगति: सुमध्यमा ।

    जवेन विस्त्रंसितकेशबन्धनच्युतप्रसूनानुगति: परामृशत्‌ ॥

    १०॥

    अन्वजञ्ञमाना--तेजी से कृष्ण का पीछा करती हुई; जननी--माता यशोदा; बृहत्‌-चलत्‌-श्रोणी-भर-आक्रान्त-गति:--अपने बड़ेबड़े स्तनों के भार से बोझिल होने से वे थक गईं जिससे उनकी चाल मन्द पड़ गई; सु-मध्यमा--अपनी पतली कमर के कारण;जवेन--तेजी से जाने के कारण; विस्त्रंसित-केश-बन्धन--ढीले हुए केश-सज्जा से; च्युत-प्रसून-अनुगति: --उनके पीछे पीछेफूल गिर रहे थे; परामृशत्‌--अन्त में कृष्ण को पकड़ ही लिया।

    कृष्ण का पीछा करते हुए भारी स्तनों के भार से बोझिल पतली कमर वाली माता यशोदाको अपनी चाल मन्द करनी ही पड़ी।

    तेजी से कृष्ण का पीछा करने के कारण उनके बालशिथिल पड़ गये थे और उनमें लगे फूल उनके पीछे पीछे गिर रहे थे।

    फिर भी वे अपने पुत्र कृष्णको पकड़ने में सफल हुईं।

    कृतागसं तं प्ररुदन्‍्तमक्षिणीकषन्तमझझन्मषिणी स्वपाणिना ।

    उद्दीक्षमाणं भयविह्ललेक्षणंहस्ते गृहीत्वा भिषयन्त्यवागुरत्‌ ॥

    ११॥

    कृत-आगसम्‌-- अपराधी; तम्‌--कृष्ण को; प्ररुदन्‍्तम्‌--रोते हुए; अक्षिणी--उनकी आँखें; कषन्तम्‌्--मलते हुए; अज्भतू-मषिणी--जिसकी आँखों में लगा काजल आँसुओं के साथ सारे मुँह में फैल गया; स्व-पाणिना--अपने हाथ से; उद्दीक्षमाणम्‌--जो माता यशोदा द्वारा इस मुद्रा में देखे गये; भय-विहल-ईक्षणम्‌ू--अपनी माता के भय से जिसकी आँखें भयभीत दिखाई दीं;हस्ते--हाथ से; गृहीत्वा--पकड़ कर; भिषयन्ती--धमकाती हुईं; अवागुरत्‌--बहुत धीमे से डाँटा।

    माता यशोदा द्वारा पकड़े जाने पर कृष्ण और अधिक डर गये और उन्होंने अपनी गलतीस्वीकार कर ली।

    ज्योंही माता यशोदा ने कृष्ण पर दृष्टि डाली तो देखा कि वे रो रहे थे।

    उनकेआँसू आँखों के काजल से मिल गये और हाथों से आँखें मलने के कारण उनके पूरे मुखमण्डलमें वह काजल पुत गया।

    माता यशोदा ने अपने सलोने पुत्र का हाथ पकड़ते हुए धीरे से डाँटनाशुरू किया।

    त्यक्त्वा यष्टिं सुतं भीतं विज्ञायार्भकवत्सला ।

    इयेष किल तं बद्धुं दाम्नातद्वीयकोविदा ॥

    १२॥

    त्यक्त्वा--फेंकते हुए; यष्टिमू--अपने हाथ की छड़ी ( सोटी ) को; सुतम्‌--पुत्र को; भीतम्‌--अपने पुत्र के भय पर विचार करतेहुए; विज्ञाय--समझते हुए; अर्भक-वत्सला--कृष्ण की स्नेहमयी माता ने; इयेष--इच्छा की; किल--निश्चय ही; तम्‌--उसको;बदधुम्‌--बाँधने के लिए; दाम्ना--रस्सी से; अ-ततू-वीर्य-कोविदा--अत्यन्त शक्तिमान भगवान्‌ को जाने बिना ( कृष्ण के तीक्रप्रेम के कारण )॥

    यह जाने बिना कि कृष्ण कौन हैं या वे कितने शक्तिमान हैं, माता यशोदा कृष्ण के अगाधप्रेम में सदैव विहल रहती थीं।

    कृष्ण के लिए मातृ-स्नेह के कारण उन्हें इतना तक जानने कीपरवाह नहीं रहती थी कि कृष्ण हैं कौन? अतएव जब उन्होंने देखा कि उनका पुत्र अत्यधिक डरगया है, तो अपने हाथ से छड़ी फेंक कर उन्होंने उसे बाँधना चाहा जिससे और आगे उददण्डता नकर सके।

    न चान्तर्न बहिर्यस्य न पूर्व नापि चापरम्‌ ।

    पूर्वापरं बहिश्चान्तर्जगतो यो जगच्च य: ॥

    १३॥

    त॑ मत्वात्मजमव्यक्तं मर्त्यलिड्रमधोक्षजम्‌ ।

    गोपिकोलूखले दाम्ना बबन्ध प्राकृतं यथा ॥

    १४॥

    न--नहीं; च-- भी; अन्त:ः--भीतरी; न--न तो; बहिः--बाह्ाय; यस्य--जिसका; न--न तो; पूर्वम्‌ू--आदि; न--न; अपि--निस्सन्देह; च-- भी; अपरम्‌--अन्त; पूर्व-अपरम्‌-- आदि तथा अन्त; बहि: च अन्तः--बाहरी तथा भीतरी; जगतः--सम्पूर्णविश्व का; यः--जो है; जगत्‌ च य:--तथा जो समग्र सृष्टि में सर्वस्व है; तम्‌ू--उसको; मत्वा--मान कर; आत्मजम्‌-- अपनापुत्र; अव्यक्तमू--अव्यक्त; मर्त्य-लिड्रमू-मनुष्य रूप में प्रकट; अधोक्षजम्‌--इन्द्रिय बोध से परे; गोपिका--यशोदा ने;उलूखले--ओखली में; दाम्ना--रस्सी से; बबन्ध--बाँध दिया; प्राकृतम्‌ यथा--जैसे सामान्य मानवी बालक के साथ कियाजाता है|

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ का न आदि है, न अन्त, न बाह्य है न भीतर, न आगा है न पीछा।

    दूसरे शब्दों में, वे सर्वव्यापी हैं।

    चूँकि वे काल तत्त्व के वशीभूत नहीं हैं अतएव उनके लिएभूत, वर्तमान तथा भविष्य में कोई अन्तर नहीं है।

    वे सदा-सर्वदा अपने दिव्य स्वरूप में रहते हैं।

    सर्वोपरि तथा परम होने के कारण सभी वस्तुओं के कारण-कार्य होते हुए भी वे कारण-कार्यके अन्तरों से मुक्त रहते हैं।

    वही अव्यक्त पुरुष, जो इन्द्रियातीत हैं, अब मानवीय बालक के रूपमें प्रकट हुए थे और माता यशोदा ने उन्हें सामान्यसा अपना ही बालक समझ कर रस्सी के द्वाराओखली से बाँध दिया।

    तद्दाम बध्यमानस्य स्वार्भकस्य कृतागसः ।

    दव्यडुलोनमभूत्तेन सन्दधेउन्यच्च गोपिका ॥

    १५॥

    तत्‌ दाम--बाँधने की वह रस्सी; बध्यमानस्य--माता यशोदा द्वारा बाँधा जाने वाला; स्व-अर्भकस्य--अपने पुत्र का; कृत-आगसः--अपराध करने वाले; द्वि-अड्डूल-दो अंगुल; ऊनम्‌ू--छोटी, कम; अभूत्‌--हो गई; तेन--उस रस्सी से; सन्दधे--जोड़ दिया; अन्यत्‌ च--दूसरी रस्सी; गोपिका--माता यशोदा ने |

    जब माता यशोदा उत्पाती बालक को बाँधने का प्रयास कर रही थीं तो उन्होंने देखा किबाँधने की रस्सी दो अंगुल छोटी पड़ रही थी।

    अतः उसमें जोड़ने के लिए वे दूसरी रस्सी ले आईं।

    यदासीत्तदपि न्यूनं तेनान्यदपि सन्दधे ।

    तदपि दव्यडूुल॑ न्यूनं यद्यदादत्त बन्धनम्‌ ॥

    १६॥

    यदा--जब; आसीतू--हो गया; तत्‌ अपि--नई रस्सी जोड़ने पर भी; न्यूनमू--तब भी छोटी; तेन--तब दूसरी रस्सी से; अन्यत्‌अपि--और दूसरी रस्सी भी; सन्दधे--जोड़ी; तत्‌ अपि--वह भी; द्वि-अद्भुलम्‌-दो अंगुल; न्यूनम्‌ू--छोटी होती जाती; यत्‌ यत्‌आदत्त--इस तरह उन्होंने एक के बाद एक जितनी भी रस्सियाँ जोड़ीं; बन्धनम्‌ू--कृष्ण को बाँधने के लिए।

    यह नई रस्सी भी दो अंगुल छोटी पड़ गई और जब इसमें दूसरी रस्सी लाकर जोड़ दी गईतब भी वह दो अंगुल छोटी ही पड़ी।

    उन्होंने जितनी भी रस्सियाँ जोड़ीं, वे व्यर्थ गई--वे छोटीकी छोटी पड़ती गईं।

    एवं स्वगेहदामानि यशोदा सन्दधत्यपि ।

    गोपीनां सुस्मयन्तीनां स्मयन्ती विस्मिताभवत्‌ ॥

    १७॥

    एवम्‌--इस प्रकार; स्व-गेह-दामानि-- अपने घर की सारी रस्सियाँ; यशोदा--माता यशोदा; सन्दधति अपि--जोड़ती रहने परभी; गोपीनाम्‌--जब माता यशोदा की अन्य सारी बुजुर्ग गोपी सखियाँ; सु-स्मयन्तीनामू--इस तमाशे में आनन्द ले रही थीं;स्मयन्ती--माता यशोदा भी मुसका रही थीं; विस्मिता अभवत्‌--वे सारी की सारी आश्चर्यचकित थीं।

    इस तरह माता यशोदा ने घर-भर की सारी रस्सियों को जोड़ डाला किन्तु तब भी वे कृष्णको बाँध न पाईं।

    पड़ोस की वृद्धा गोपिकाएँ, जो माता यशोदा की सखियाँ थीं मुसका रही थींऔर इस तमाशे का आनन्द ले रही थीं।

    इसी तरह माता यशोदा श्रम करते हुए भी मुसका रहीथीं।

    वे सभी आश्चर्यचकित थीं।

    स्वमातु: स्विन्नगात्राया विस्त्रस्तकबरस्त्रज: ।

    इष्ठा परिश्रमं कृष्ण: कृपयासीत्स्वबन्धने ॥

    १८॥

    स्व-मातु:--अपनी माता ( यशोदादेवी ) का; स्विन्न-गात्राया:--वृथा श्रम के कारण पसीने से लथपथ शरीर; विस्त्रस्त--गिर रहे;कबर--उनके बालों से; सत्रज:--फूल; दृष्टा--देखकर; परिश्रमम्‌-- अधिक काम करने से थकी का अनुभव करती हुई अपनीमाता को; कृष्ण:-- भगवान्‌ ने; कृपया--अपने भक्त तथा माता पर अहैतुकी कृपा द्वारा; आसीतू--राजी हो गये; स्व-बन्धने--अपने को बँधाने के लिए

    माता यशोदा द्वारा कठिन परिश्रम किये जाने से उनका सारा शरीर पसीने से लथपथ हो गयाऔर उनके केशों में लगी कंघी और गूँथे हुए फूल गिरे जा रहे थे।

    जब बालक कृष्ण ने अपनीमाता को इतना थका-हारा देखा तो वे दयाद्द्र हो उठे और अपने को बँधाने के लिए राजी होगये।

    एवं सन्दर्शिता हाड़ हरिणा भृत्यवश्यता ।

    स्ववशेनापि कृष्णेन यस्येदं सेश्वरं वशे ॥

    १९॥

    एवम्‌--इस प्रकार; सन्दर्शिता--प्रदर्शित किया गया; हि--निस्सन्देह; अड्ड--हे महाराज परीक्षित; हरिणा-- भगवान्‌ द्वारा;भृत्य-वश्यता--अपने सेवक या भक्त की अधीनता स्वीकार करने का गुण; स्व-वशेन--जो केवल अपने वश में रहे; अपि--निस्सन्देह; कृष्णेन--कृष्ण द्वारा; यस्थ--जिसके; इृदम्‌--सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड; स-ईश्वरम्‌ू--शिव तथा ब्रह्मा जैसे शक्तिशालीदेवताओं सहित; वशे--वश में |

    हे महाराज परीक्षित, शिवजी, ब्रह्माजी तथा इन्द्र जैसे महान्‌ एवं उच्चस्थ देवताओं समेत यहसम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भगवान्‌ के वश में हैं।

    फिर भी भगवान्‌ का एक दिव्य गुण यह है कि वे अपनेभक्तों के वश में हो जाते हैं।

    यही बात इस लीला में कृष्ण द्वारा दिखलाई गई है।

    नेमं विरिज्ञो न भवो न श्रीरप्यड्रसं भ्रया ।

    प्रसादं लेभिरे गोपी यत्तत्प्राप विमुक्तिदातू ॥

    २०॥

    न--नहीं; इमम्‌--यह उच्च पद; विरिज्ञ:--ब्रह्मा; न--न तो; भव:ः--शिव; न--न तो; श्री:--लक्ष्मी; अपि--निस्सन्देह; अड्ड-संश्रया-- भगवान्‌ की अर्धांगिनी होकर भी; प्रसादम्‌--कृपा; लेभिरे--प्राप्त किया; गोपी--माता यशोदा; यत्‌ तत्‌ू--जो जैसाहै; प्राप--प्राप्त किया; विमुक्ति-दात्‌ू--इस जगत से मुक्ति दिलाने वाले कृष्ण से

    इस भौतिक जगत से मोक्ष दिलाने वाले भगवान्‌ की ऐसी कृपा न तो कभी ब्रह्माजी, नशिवजी, न ही भगवान्‌ की अर्धागिनी लक्ष्मी ही प्राप्त कर सकती हैं, जैसी माता यशोदा ने प्राप्तकी।

    नायं सुखापो भगवान्देहिनां गोपिकासुतः ।

    ज्ञानिनां चात्मभूतानां यथा भक्तिमतामिह ॥

    २१॥

    न--नहीं; अयम्‌--यह; सुख-आप: --सरलता से प्राप्प अथवा सुख का लक्ष्य; भगवान्‌-- भगवान्‌; देहिनाम्‌--देहात्मबुद्धि कोप्राप्त पुरुषों का, विशेषतया कर्मियों का; गोपिका-सुतः--माता यशोदा का पुत्र कृष्ण ( बसुदेव-पुत्र होने से कृष्ण बासुदेव औरयशोदा-पुत्र होने से कृष्ण कहलाते हैं ); ज्ञानिनाम्‌ च--तथा भवबन्धन से मुक्त होने के लिए प्रयलशील ज्ञानियों का; आत्म-भूतानाम्‌--आत्मनिर्भर योगियों का; यथा--जैसे; भक्ति-मताम्‌-- भक्तों का; इह--इस जगत में |

    माता यशोदा के पुत्र भगवान्‌ कृष्ण स्वतः स्फूर्त प्रेमाभक्ति में लगे भक्तों के लिए सुलभ हैंकिन्तु वे मनोधर्मियों, घोर तपों द्वारा आत्म-साक्षात्कार के लिये प्रयास करने वालों अथवा शरीरको ही आत्मा मानने वालों के लिए सुलभ नहीं होते।

    कृष्णस्तु गृहकृत्येषु व्यग्रायां मातरि प्रभु: ।

    अद्राक्षीदर्जुनौ पूर्व गुह्मकौ धनदात्मजौ ॥

    २२॥

    कृष्ण: तु--इस बीच; गृह-कृत्येषु--गृहकार्य में लगी; व्यग्रायाम्‌--अत्यन्त व्यस्त; मातरि--जब उनकी माता; प्रभु:-- भगवान्‌;अद्वाक्षीत्‌-देखा; अर्जुनौ--यमल अर्जुन वृक्ष; पूर्वम्‌--उसके पूर्व; गुह्मकौ--जो पूर्वजन्म में देवता थे; धनद-आत्मजौ--देवताओं के कोषाध्यक्ष कुवेर के पुत्र |

    जब माता यशोदा घरेलू कार्यों में अत्यधिक व्यस्त थीं तभी भगवान्‌ कृष्ण ने दो जुड़वाँ वृक्षदेखे, जिन्हें यमलार्जुन कहा जाता था।

    ये पूर्व युग में कुबेर के देव-पुत्र थे।

    पुरा नारदशापेन वृक्षतां प्रापितौ मदात्‌ ।

    नलकूवरमणिग्रीवाविति ख्यातौ अयान्वितौ ॥

    २३॥

    पुरा--पूर्वकाल में; नारद-शापेन--नारदमुनि के शाप द्वारा; वृक्षताम्‌--वृक्षों का रूप; प्रापितौ--प्राप्त किया; मदात्‌--पागलपन के कारण; नलकूवर--इनमें एक नलकूवर था; मणिग्रीवौ--दूसरा मणिग्रीव था; इति--इस प्रकार; ख्यातौ--विख्यात; थ्रिया अन्वितौ--अत्यन्त ऐ श्वर्यवान्‌ |

    पूर्वजन्म में नलकूबर तथा मणिग्रीव नामक ये दोनों पुत्र अत्यन्त ऐश्वर्यवान तथा भाग्यशालीथे।

    किन्तु गर्व तथा मिथ्या प्रतिष्ठा के कारण उन्होंने किसी की परवाह नहीं की इसलिए नारदमुनिने उन्हें वृक्ष बन जाने का शाप दे डाला।

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    अध्याय दस: यमला-अर्जुन वृक्षों का उद्धार

    10.10रीराजोबाच कथ्यतां भगवज्नेतत्तयो: शापस्य कारणम्‌ ।

    चक्तद्विग्ितं कर्मयेन वा देवर्षेस्तम: ॥

    १॥

    श्री-राजा उबाच--राजा ने आगे पूछा; कथ्यताम्‌ू--कृपया कहें; भगवन्‌--हे परम शक्तिमान; एतत्‌--यह; तयो: --उन दोनों के;शापस्य--शाप का; कारणम्‌--कारण; यत्‌--जो; तत्‌--वह; विगर्हितम्‌--निन्‍्दनीय; कर्म--कर्म; येन--जिससे; वा--अथवा; देवर्षे: तम:--नारदमुनि इतने क्रुद्ध हो उठे ।

    राजा परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से पूछा: हे महान्‌ एवं शक्तिशाली सन्त, नारदमुनि द्वारा नलकूवर तथा मणिग्रीव को शाप दिये जाने का क्‍या कारण था? उन्होंने ऐसा कौन-सानिन्दनीय कार्य किया कि देवर्षि नारद तक उन पर क्रुद्ध हो उठे ? कृपया मुझे कह सुनायें।

    श्रीशुक उबाचरुद्रस्यानुचरौ भूत्वा सुहप्तौ धनदात्मजौ ।

    कैलासोपवतने रम्ये मन्दाकिन्यां मदोत्कटौ ॥

    २॥

    वारुणीं मदिरां पीत्वा मदाघूर्णितलोचनौ ।

    स्त्रीजनेरनुगायद्धिश्वेरतु: पुष्पिते बने ॥

    ३॥

    श्री-शुक: उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया; रुद्रस्थ--शिवजी के; अनुचरौ--दो भक्त या पार्षद; भूत्वा--बन कर;सु-हप्तौ--अपने पद तथा अपने सुन्दर रूप-रंग से गर्वित होकर; धनद-आत्मजौ--देवों के कोषाध्यक्ष कुबेर के दोनों पुत्र;कैलास-उपवने--शिवजी के निवास कैलाश पर्वत से लगे एक छोटे बाग में; रम्ये--सुन्दर स्थान में; मन्दाकिन्याम्‌--मन्दाकिनीनदी के तट पर; मद-उत्कटौ--अत्यधिक गर्वित तथा उन्मत्त; वारुणीम्‌--वारुणी को; मदिराम्‌--नशीले द्रव को; पीत्वा--पीपी कर; मद-आधूर्णित-लोचनौ--नशे से आँखें घुमाते हुए; स्त्री-जनैः--स्त्रियों के साथ; अनुगायद्धधि:--उनके द्वारा गाये गयेगीतों से गुञ्जरित; चेरतु:--घूम रहे थे; पुष्पिते बने--सुन्दर फूल के बाग में ॥

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा परीक्षित, चूँकि कुवेर के दोनों पुत्रों को भगवान्‌शिवजी के पार्षद होने का गौरव प्राप्त था, फलत: वे अत्यधिक गर्वित हो उठे थे।

    उन्हें मन्दाकिनीनदी के तट पर कैलाश पर्वत से सटे हुए बाग में विचरण करने की अनुमति प्राप्त थी।

    इसकालाभ उठाकर वे दोनों वारुणी नाम की मदिरा पिया करते थे।

    वे अपने साथ गायन करती स्त्रियोंको लेकर उस फूलों के बाग में घूमा करते थे।

    उनकी आँखें नशे से सदैव घूमती रहती थीं।

    अन्तः प्रविश्य गड्जायामम्भोजवनराजिनि ।

    चिक्रीडतुर्युवतिभिर्गजाविव करेणुभि: ॥

    ४॥

    अन्तः--भीतर; प्रविश्य--घुस कर; गड्जायाम्‌--गंगा अर्थात्‌ मन्दाकिनी में; अम्भोज--कमलों का; वन-राजिनि--जहाँ घनाजंगल था; चिक्रीडतु:--दोनों क्रीड़ा किया करते थे; युवतिभि:--युवतियों के साथ में; गजौ--दो हाथी; इब--सहृश;करेणुभि:--हथिनियों के साथ।

    कमल के फूलों के उद्यानों से आवृत मन्दाकिनी गंगा के जल के भीतर कुवेर के ये दोनोंपुत्र युवतियों के साथ उसी तरह क्रीड़ा करते थे जिस तरह पानी के भीतर दो हाथी हथिनियों केसाथ क्रीड़ा करते हैं।

    यहच्छया च देवर्षिभ्भगवांस्तत्र कौरव ।

    अपष्यन्नारदो देवौ क्षीबाणौ समबुध्यत ॥

    ५॥

    यहच्छया--संयोगवश, सारे ब्रह्माण्ड का भ्रमण करते हुए; च--तथा; देव-ऋषि: --देवताओं में परम सनन्‍्त-पुरुष; भगवानू--अत्यन्त शक्तिशाली; तत्र--वहाँ ( जहाँ कुबेर के पुत्र क्रीड़ा कर रहे थे ); कौरव--हे महराज परीक्षित; अपश्यत्‌--देखा;नारदः--परम सन्त ने; देवौ--देवताओं के दोनों बालकों को; क्षीबाणौ--नशे से उन्मत्त आँखों वाले; समबुध्यत--समझ गये।

    हे महाराज परीक्षित, उन दोनों बालकों के सौभाग्य से एक बार देवर्षि नारद संयोगवश वहाँप्रकट हो गये।

    उन्हें नशे में उन्मत्त तथा आँखें घुमाते हुए देख कर नारद उनकी दशा समझ गये।

    तं इृष्टा ब्रीडिता देव्यो विवस्त्रा: शापश्डिता: ।

    वासांसि पर्यधु: शीघ्र विवस्त्री नेव गुह्मकौ ॥

    ६॥

    तमू--नारदमुनि को; हृष्ठा--देखकर; ब्रीडिता:--लज्जित; देव्य:--देव कुमारियाँ; विवस्थ्रा:--नंगी; शाप-शद्भिताः--शापितहोने से भयभीत; वासांसि--वस्त्र; पर्यधु:-- अपना शरीर ढक लिया; शीघ्रम्‌--तुरन्त; विवस्त्रौ--वे भी नंगे थे; न--नहीं; एब--निस्सन्देह; गुह्मकौ--कुवेर के दोनों पुत्रनारद को देखकर नग्न देव-कुमारियाँ अत्यन्त लज्जित हुईं।

    उन्होंने शापित होने से भयभीतहोकर अपने शरीर को अपने-अपने वस्त्रों से ढक लिया।

    किन्तु कुवेर के दोनों पुत्रों ने ऐसा नहींकिया।

    उलटे, नारद की परवाह न करते हुए वे नंगे ही रहे।

    तौ दृष्ठा मदिरामत्तौ श्रीमदान्धौ सुरात्मजौ ।

    तयोरनुग्रहार्थाय शापं दास्यन्निदं जगौ ॥

    ७॥

    तौ--देवताओं के दोनों बालकों को; दृष्टा--देखकर; मदिरा-मत्तौ--शराब पीने के कारण नशे में मस्त उन्मत्त; श्री-मद-अन्धौ--झूठी प्रतिष्ठा तथा ऐश्वर्य के कारण अन्धे हुए; सुर-आत्मजौ--देवताओं के दोनों पुत्र; तयो:--उनके ; अनुग्रह-अर्थाय--विशेष कृपा करने के प्रयोजन से; शापम्‌-- श्राप; दास्यनू--देने की इच्छा से; इदम्‌--यह; जगौ--उच्चारित किया |

    देवताओं के दोनों पुत्रों को नंगा तथा ऐश्वर्य और झूठी प्रतिष्ठा गर्व के नशे में उन्मत्त देखकरदेवर्षि नारद ने उन पर विशेष कृपा करने हेतु उन्हें विशेष शाप देना चाहा।

    अतः वे इस प्रकारबोले।

    श्रीनारद उवाचन हान्यो जुषतो जोष्यान्बुद्धिभ्रंशो रजोगुण: ।

    श्रीमदादाभिजात्यादिदत्र स्त्री दयूममासव: ॥

    ८॥

    श्री-नारद: उवाच--नारदमुनि ने कहा; न--नहीं है; हि--निस्सन्देह; अन्य:--दूसरा भोग; जुषतः-- भोगने वाले का; जोष्यानू--भौतिक जगत की आकर्षक वस्तुएँ ( खाने, सोने, मैथुन करने इत्यादि की विभिन्न किस्में ); बुद्धि-भ्रंशः--बुद्धि को आकर्षितकरने वाले ऐसे भोग; रज:-गुण:--रजोगुण द्वारा नियंत्रित; श्री-मदात्‌--सम्पत्ति की अपेक्षा; आभिजात्य-आदि:--चार भौतिकनियमों में से ( सुन्दर स्वरूप, राजसी परिवार में जन्म, विद्वत्ता तथा धन-धान्य ); यत्र--जहाँ; स्त्री--स्त्रियाँ; द्यूतमू--जुआखेलना; आसवः--शराब |

    नारदमुनि ने कहा : भौतिक भोग के समस्त आकर्षणों में से एक धन के प्रति आकर्षणसुन्दर शारीरिक रूप, उच्च कुल में जन्म तथा विद्वत्ता इन सब में से धन का आकर्षण, बुद्धि कोअधिक भ्रमित करने वाला है।

    यदि कोई अशिक्षित व्यक्ति धन से गर्वित हो जाता है, तो वहअपना सारा धन शराब, स्त्रियों तथा जुआ खेलने के आनन्द में लगा देता है।

    हन्यन्ते पशवो यत्र निर्दयेरजितात्मभि: ।

    मन्यमानैरिमं देहमजरामृत्यु नश्वरम्‌ ॥

    ९॥

    हन्यन्ते--कई प्रकार से मारे जाते हैं ( विशेषतया कसाईखानों में )।

    पशवः--पशु, जानवर ( चार पैर वाले ); यत्र--जहाँ;निर्दयै:--रजोगुण वाले निर्दय व्यक्तियों द्वारा; अजित-आत्मभि:--अपनी इन्द्रियों को वश में न कर पाने वालों द्वारा;मन्यमानैः--सोचते हैं; इमम्‌--इस; देहम्‌--शरीर को; अजर--जो न तो कभी बूढ़ा होगा, न रोगी होगा; अमृत्यु--कभी मृत्युनहीं होगी; नश्वरम्‌--नाशवान शरीर को

    अपनी इन्द्रियों को वश में करने में असमर्थ धूर्त लोगजिन्हें अपने धन पर मिथ्या गर्व रहताहै या जो राजसी परिवार में जन्म लिये रहते हैं इतने निष्ठर होते हैं कि वे अपने नश्वर शरीरों कोबनाये रखने के लिए, उन्हें अजर-अमर सोचते हुए, बेचारे पशुओं का निर्दयतापूर्वक वध करतेहैं।

    कभी कभी वे केवल अपनी मौज-मस्ती के लिए पशुओं को मार डालते हैं।

    देवसंज्ञितमप्यन्ते कृमिविड्भस्मसंज्ञितम्‌ ।

    भूतश्रुक्तत्कृते स्वार्थ कि वेद निरयो यतः ॥

    १०॥

    देव-संज्ञितमू--शरीर जो अब अत्यन्त महान्‌ पुरुष यथा राष्ट्रपति, मंत्री या देवता कहलाता है; अपि--इतना महान्‌ होते हुए भी;अन्ते--मृत्यु के बाद; कृमि--कीड़ा बन जाता है; विटू--या मल में परिणत हो जाता है; भस्म-संज्ञितम्‌ू--या राख में बदलजाता है; भूत-धुक्‌-शास्त्रों के आदेशों को न मानने वाला तथा अन्य जीवों से ईर्ष्या करने वाला व्यक्ति; तत्‌ू-कृते--इस तरहकर्म करते हुए; स्व-अर्थम्‌--स्वार्थ; किम्‌--क्या है; वेद--जो जानता है; निरयः यत:--क्योंकि ऐसे पापकर्मों से नारकीय दशाभोगनी होगी।

    जीवित रहते हुए मनुष्य अपने को बड़ा आदमी, मंत्री, राष्ट्रपति या देवता सोचते हुए अपनेशरीर पर गर्व कर सकता है किन्तु वह चाहे जो भी हो, मृत्यु के बाद उसका शरीर कीट, मल याराख में परिणत हो जाता है।

    यदि कोई व्यक्ति अपने शरीर की क्षणिक इच्छाओं की तुष्टि के लिएनिरीह पशुओं का वध करता है, तो वह यह नहीं जानता कि उसे अगले जीवन में कष्ट भोगनाहोगा क्‍योंकि ऐसे पापी को नरक जाना पड़ेगा और अपने कर्मफल भोगने पड़ेंगे।

    देहः किमन्नदातु: स्वं निषेक्तुर्मातुरेव च ।

    मातु: पितुर्वा बलिनः क्रेतुरग्ने: शुनोडषपि वा ॥

    ११॥

    देह:--यह शरीर; किम्‌ अन्न-दातु:--क्या यह मेरे स्वामी का है, जो मुझे इसके पालन के लिए धन देता है; स्वमू--या यह स्वयंमेरा है; निषेक्तु:--( या यह ) वीर्य स्खलित करने वाले का है; मातु: एव--या ( इसे ) गर्भ में धारण करने वाली माता का है;च--तथा; मातुः पितुः वा--यह माता के पिता अर्थात्‌ नाना का है क्योंकि कभी कभी नाना अपने नाती को गोद ले लेता है;बलिन:ः--या उसका है, जो बलपूर्वक इस शरीर को छीन लेता है; क्रेतु:--या इस शरीर को बँधुए मजदूर की तरह खरीद लेताहै; अग्ने:--या अग्नि में ( जला देता है ); शुन:--या कुत्तों तथा गीधों का है, जो उसे खा जाते हैं; अपि-- भी; वा--अथवा।

    जीवित रहते हुए यह शरीर उसके अन्नदाता का होता है, या स्वयं का, अथवा पिता, माता यानाना का? क्या यह बलपूर्वक ले जाने वाले का, इसे खरीदने वाले स्वामी का या उन पुत्रों काहोता है, जो इसे अग्नि में जला देते हैं? और यदि शरीर जलाया नहीं जाता तो कया यह उन कुत्तोंका होता है, जो इसे खाते हैं? आखिर इतने सारे दावेदारों में असली दावेदार कौन है ? इसकापता लगाने के बजाय, पापकर्मो द्वारा इस शरीर का पालन करना अच्छा नहीं है।

    एवं साधारण देहमव्यक्तप्रभवाप्ययम्‌ ।

    को दिद्वानात्मसात्कृत्वा हन्ति जन्तूनृतेइसतः ॥

    १२॥

    एवम्‌--इस प्रकार; साधारणम्‌--सामान्य सम्पत्ति; देहम्‌ू--शरीर को; अव्यक्त--अ व्यक्त प्रकृति से; प्रभव--इस प्रकार सेव्यक्त; अप्ययमू--पुनः अव्यक्त में लीन होकर ( ‘क्योंकि, तू मिट्टी है और तुम्हें मिट्टी में ही वापस मिल जाना है' ); कः--कौनहै; विद्वान्‌ू--ज्ञानी; आत्मसात्‌ कृत्वा--अपना कहते हुए; हन्ति--मारता है; जन्तून्‌ू--बेचारे पशुओं को; ऋते--सिवाय;असतः --धूर्त तथा मूढ़ जिन्हें कोई ज्ञान नहीं है।

    यह शरीर आखिर अव्यक्त प्रकृति द्वारा उत्पन्न किया जाता है और नष्ट होकर पुनः प्राकृतिकतत्त्वों में विलीन हो जाता है।

    अतएव यह सबों का सर्वसामान्य गुण है।

    ऐसी परिस्थितियों में जोधूर्त होगा वही इस सम्पत्ति को अपनी होने का दावा करेगा और उसे बनाये रखते हुए अपनीइच्छाओं की तुष्टि के लिए पशुओं की हत्या जैसे पापकर्म करता रहता है।

    केवल मूढ़ ही ऐसेपापकर्म कर सकता है।

    असतः श्रीमदान्धस्य दारिद्र॒यं परमझनम्‌ ।

    आत्मौपम्येन भूतानि दरिद्र: परमीक्षते ॥

    १३॥

    असतः--ऐसे मूर्ख धूर्त व्यक्ति का; श्री-मद-अन्धस्य-- धन तथा ऐश्वर्य के कारण अन्धा हुआ; दारिदर्‌यम्‌--गरीबी; परम्‌अजद्जनम्‌--आँखों का सर्वोत्तम अंजन है, जिससे वस्तुएँ यथारूप में देखी जा सकती हैं; आत्म-औपम्येन--अपने से तुलनाकरके; भूतानि--जीवों को; दरिद्र:--गरीब व्यक्ति; परम्‌ू--पूर्णतया; ईक्षते--देख सकता है।

    नास्तिक मूर्ख तथा धूर्त धन के मद के कारण वस्तुओं को यथारूप में नहीं देख पाते।

    अतएव उन्हें दरिद्र बनाना ही सर्वोत्तम काजल है, जिसे वे आँखों में लगा कर वस्तुओं को उनकेवास्तविक रूप में देख सकते हैं।

    और कुछ नहीं तो, जो दरिद्र है, वह इसका तो अनुभव कर हीसकता है कि दरिद्रता कितनी दुखद होती है।

    अतएव वह कभी नहीं चाहेगा कि अन्य लोगउसकी तरह दुखमय स्थिति में रहें।

    यथा कण्टकविद्धाड़ो जन्तोर्नेच्छति तां व्यथाम्‌ ।

    जीवसाम्यं गतो लिड्रैन तथाविद्धकण्टकः ॥

    १४॥

    यथा--जिस प्रकार; कण्टक-विद्ध-अड्डभः--वह पुरुष जिसका शरीर काँटों से बिंध चुका हो; जन्तोः --ऐसे पशु को; न--नहीं;इच्छति--चाहता है; तामू--उस; व्यथाम्‌--पीड़ा को; जीव-साम्यम्‌ गत:--जब वह समझ लेता है कि हर एक की दशा एकसीहै; लिड्ैः--विशेष प्रकार का शरीर धारण करने से; न--नहीं; तथा--उसी तरह; अविद्ध-कण्टक:--जो व्यक्ति काँटों से नहींबिंधा।

    जिसके शरीर में काँटे चुभ चुके हैं वह दूसरों के चेहरों को ही देखकर उनकी पीड़ा समझसकता है कि उन्हें काँटे चुभ रहे हैं।

    वह यह अनुभव करते हुए कि यह पीड़ा सबों के लिएएकसमान है, यह नहीं चाहता कि अन्य लोग इस तरह से कष्ट भोगें।

    किन्तु जिसे कभी काँटे गड़ेही नहीं वह इस पीड़ा को नहीं समझ सकता।

    दरिद्रो निरहंस्तम्भो मुक्त: सर्वमदैरिह्ठ ।

    कृच्छूं यदच्छयाप्नोति तर्द्धि तस्य परं तपः ॥

    १५॥

    दरिद्र:--गरीब; निर-अहम्‌-स्तम्भ: --सारी झूठी प्रतिष्ठा से स्वयमेव छूट जाता है; मुक्त:--मुक्त; सर्व--सभी; मदैः--मिशथ्याअहंकार से; इह--इस संसार में; कृच्छुम्‌ू--मुश्किल से; यहच्छया आप्नोति-- भाग्यवश जो उसे प्राप्त होता है; तत्‌ू--वह; हि--निस्सन्देह; तस्थ--उसकी; परम्‌--पूर्ण; तप:ः--तपस्या

    दरिद्र व्यक्ति को स्वतः तपस्या करनी पड़ती है क्योंकि उसके पास अपना कहने के नाम परकोई सम्पत्ति नहीं होती।

    इस तरह उसकी मिथ्या प्रतिष्ठा समाप्त हो जाती है।

    वह सदैव भोजन,आश्रय तथा वस्त्र की आवश्यकता अनुभव करता रहता है, अतः दैव-कृपा से जो भी उसे मिलजाता है उसी से उसे सन्तुष्ट रहना पड़ता है।

    अनिवार्यतः इस तरह की तपस्या करते रहना उसकेलिए अच्छा है क्योंकि इससे उसकी शुद्धि हो जाती है और वह मिथ्या अहंकार से मुक्त हो जाताहै।

    नित्य क्षुत्क्षामदेहस्य दरिद्रस्यान्नकाड्क्षिण: ।

    इन्द्रियाण्यनुशुष्यन्ति हिंसापि विनिवर्तते ॥

    १६॥

    नित्यमू--सदैव; क्षुत्‌ू- भूख से; क्षाम--निर्बल; देहस्य--शरीर का; दरिद्रस्थ--गरीब व्यक्ति के; अन्न-काड्क्षिण:--सदैवपर्याप्त भोजन की इच्छा रखने वाला; इन्द्रियाणि--इन्द्रियों को, जिनकी उपमा सर्पों से दी जाती है; अनुशुष्यन्ति-- धीरे धीरे क्षीणसे क्षीणतर होती जाती हैं; हिंसा अपि--अन्यों से ईर्ष्या करने की प्रवृत्ति भी; विनिवर्तत--कम हो जाती है।

    दरिद्र व्यक्ति सदैव भूखा रहने और पर्याप्त भोजन की चाह करने के कारण धीरे धीरे क्षीणहोता जाता है।

    अतिरिक्त बल न रहने से उसकी इन्द्रियाँ स्वतः शान्त पड़ जाती हैं।

    इसलिए दरिद्रमनुष्य हानिप्रद ईर्ष्यापूर्ण कार्य करने में अशक्त होता है।

    दूसरे शब्दों में, ऐसे व्यक्ति को उनतपस्याओं का फल स्वतः प्राप्त हो जाता है, जिसे सन्‍्त-पुरुष स्वेच्छा से करते हैं।

    दरिद्रस्थैव युज्यन्ते साधव: समदर्शिन: ।

    सद्धिः क्षिणोति तं तर्ष तत आराद्विशुद्धयति ॥

    १७॥

    दरिद्रस्थ--दरिद्र व्यक्ति का; एव--निस्सन्देह; युज्यन्ते--सरलता से संगति कर सकते हैं; साधव:--साधु पुरुष; सम-दर्शिन: --यद्यपि साधु पुरुष दरिद्र तथा धनी दोनों पर समान दृष्टि रखने वाले हैं किन्तु दरिद्र व्यक्ति उनकी संगति का लाभ उठा सकते हैं;सद्धिः--ऐसे साधु पुरुषों की संगति से; क्षिणोति--कम करता है; तमू-- भौतिक कष्ट के मूल कारण; तर्षम्‌-- भौतिक मोक्षकी अभिलाषा को; ततः--तत्पश्चात्‌; आरात्‌ू--शीघ्र ही; विशुद्धयति--उसका भौतिक कल्मष धुल जाता है।

    सनन्‍्त-पुरुष दरिद्रों के साथ बिना रोकटोक के घुलमिल सकते हैं किन्तु धनी व्यक्तियों केसाथ नहीं।

    दरिद्र व्यक्ति ऐसे साधु पुरुषों की संगति से तुरन्त ही भौतिक इच्छाओं से विमुख होजाता है और उसके मन का सारा मैल धुल जाता है।

    साधूनां समचित्तानां मुकुन्दचरणैषिणाम्‌ ।

    जपेक्ष्य: कि धनस्तम्भेरसद्धिरसदाश्रयै: ॥

    १८ ॥

    साधूनाम्‌ू--साधु-पुरुषों का; सम-चित्तानामू--उनका जो सबों को समान रूप में देखते हैं; मुकुन्द-चरण-एषिणाम्‌--जिनकाएकमात्र कार्य है भगवान्‌ मुकुन्द की सेवा करना और जो उसी सेवा की आंकाक्षा करते हैं; उपेक्ष्यै: --संगति की उपेक्षा करके;किमू--क्या; धन-स्तम्भेः-- धनी तथा गर्वित; असद्धिः--अवांछित व्यक्तियों की संगति से; असत्‌-आश्रयै:ः --असतों अर्थात्‌अभक्तों की शरण लेकर।

    सन्त-पुरुष ( साधुजन ) चौबीसों घण्टे कृष्ण का चिन्तन करते रहते हैं।

    उनकी और कोईरूचि नहीं रहती।

    तो फिर लोग ऐसे आध्यात्मिक पुरुषों की संगति की उपेक्षा करके क्‍यों उनभौतिकतावादियों की संगति करने का प्रयास करते हैं तथा उन अभक्तों की शरण लेते हैं जिनमेंसे अधिकांश अभिमानी तथा धनी हैं?

    तदहं मत्तयोमाध्व्या वारुण्या श्रीमदान्धयो: ।

    तमोमदं हरिष्यामि स्त्रैणयोरजितात्मनो: ॥

    १९॥

    तत्‌--अतएव; अहम्‌--मैं; मत्तयो: --इन दोनों उन्मत्त पुरुषों के; माध्व्या--शराब पीने के कारण; वारुण्या--वारुणी नामक;श्री-मद-अन्धयो: --जो दैवी सम्पदा से अन्धे हो चुके हैं; तमः-मदम्‌--तमोगुण के कारण इस मिथ्या प्रतिष्ठा को; हरिष्यामि--छीन लूँगा; स्त्रैणयो:--स्त्रियों पर अनुरक्त होने के कारण; अजित-आत्मनो:--इन्द्रियों को वश में न कर पाने के कारण ।

    इसलिए ये दोनों व्यक्ति वारुणी या माध्वी नामक शराब पीकर तथा अपनी इन्द्रियों को वशमें न रख सकने के कारण स्वर्ग के ऐश्वर्य-गर्व से अन्धे और स्त्रियों के प्रति अनुरक्त हो चुके हैं।

    मैं उनको इस झूठी प्रतिष्ठा से विहीन कर दूँगा।

    यदिमौ लोकपालस्य पुत्रौ भूत्वा तमःप्लुतौ ।

    न विवाससमात्मानं विजानीतः सुदुर्मदी ॥

    २०॥

    अतोहत:ः स्थावरतां स्यातां नैवं यथा पुनः ।

    स्मृति: स्यान्मत्प्रसादेन तत्रापि मदनुग्रहातू ॥

    २१॥

    वासुदेवस्य सान्निध्यं लब्ध्वा दिव्यशरच्छते ।

    वृत्ते स्वर्लोकतां भूयो लब्धभक्ती भविष्यत: ॥

    २२॥

    यत्‌--चूँकि; इमौ--ये दोनों तरुण देवता; लोक-पालस्य--महान्‌ देवता कुवेर के; पुत्रौ--पुत्र; भूत्वा--होकर; तमः-प्लुतौ--तमोगुण में बुरी तरह से मग्न; न--नहीं; विवाससम्‌--बिना किसी वस्त्र के, पूरी तरह नंगे; आत्मानम्‌--अपने शरीरों को;विजानीतः--जानते हुए कि नंगे हैं; सु-दुर्मदौ--मिथ्या अहंकार के कारण अत्यन्त पतित; अतः--इसलिए; अतः --पात्र हैं;स्थावरताम्‌--वृक्ष जैसी गतिहीनता; स्थाताम्‌--हो जायें; न--नहीं; एवम्‌--इस तरह; यथा--जिस तरह; पुनः--फिर; स्मृति:--याद; स्यात्‌--बनी रहे; मत्‌-प्रसादेन--मेरी कृपा से; तत्र अपि--इसके अतिरिक्त; मत्‌-अनुग्रहात्‌-मेंरे विशेष अनुग्रह से;वासुदेवस्थ-- भगवान्‌ का; सान्निध्यम्‌ू--संगति, साक्षात्कार; लब्ध्वा--प्राप्त कर; दिव्य-शरत्‌-शते वृत्ते--देवताओं के एक सौवर्ष बीतने के बाद; स्वलोकताम्‌--स्वर्गलोक में रहने की इच्छा; भूयः--पुन:; लब्ध-भक्ती --अपनी भक्ति को पुन: प्राप्तकरके; भविष्यत:--हो जोयेंगे।

    ये दोनों युवक, नलकूवर तथा मणिग्रीव, भाग्यवश महान्‌ देवता कुवेर के पुत्र हैं किन्तुमिथ्या प्रतिष्ठा तथा शराब पीने से उत्पन्न उन्मत्तता के कारण ये इतने पतित हो चुके हैं कि नंगेहोकर भी यह नहीं समझ पा रहे कि वे नंगे हैं।

    अतः वृक्षों की तरह रहने वाले ( वृक्ष नंगे होते हैंकिन्तु चेतन नहीं होते ) इन दोनों युवकों को वृक्षों का शरीर मिलना चाहिए।

    यही इनके लिएसमुचित दण्ड होगा।

    फिर भी वृक्ष बनने से लेकर अपने उद्धार के समय तक इन्हें मेरी कृपा सेअपने विगत पापकर्मों की याद बनी रहेगी।

    यही नहीं, मेरी विशेष कृपा से, देवताओं के सौ वर्षबीतने के बाद ये भगवान्‌ वासुदेव का दर्शन कर सकेंगे और भक्तों के रूप में अपना असलीस्वरूप प्राप्त कर सकेंगे।

    श्रीशुक उबाचएवमुक्त्वा स देवर्षि्गतो नारायणा श्रमम्‌ ।

    नलकूवरमणिग्रीवावासतुर्यमलार्जुनी ॥

    २३॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌ उक्त्वा--ऐसा कह कर; स:--वह; देवर्षि:--परम सन्‍्त-पुरुष नारद;गतः--वहाँ से चला गया; नारायण-आश्रमम्‌-- अपने आश्रम, जिसे नारायण-आश्रम कहते हैं; नलकूबर--नलकूवर;मणिग्रीवौ--तथा मणिग्रीव; आसतु:--वहाँ रह रहे; यमल-अर्जुनौ--जुड़वाँ अर्जुन वृक्ष बनने के लिए।

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : इस तरह कह कर देवर्षि नारद अपने आश्रम, नारायण-आश्रम को लौट गये और नलकूवर तथा मणिग्रीव जुड़वाँ अर्जुन वृक्ष ( यमलार्जुन ) बन गये।

    ऋषेर्भागवतमुख्यस्य सत्यं कर्तु बचो हरिः ।

    जगाम शनकैस्तत्र यत्रास्तां यमलार्जुनौ ॥

    २४॥

    ऋषे:--ऋषि नारद का; भागवत-मुख्यस्य-- भक्तों में प्रमुख; सत्यम्‌--सत्य, सही; कर्तुमू--सिद्ध करने के लिए; वच:--शब्द;हरिः-- भगवान्‌ कृष्ण; जगाम--गये; शनकै: -- धीरे-धीरे; तत्र--वहाँ; यत्र--जहाँ; आस्ताम्‌ू-- थे; यमल-अर्जुनौ--दोनों अर्जुनवृक्ष

    सर्वोच्च भक्त नारद के वचनों को सत्य बनाने के लिए भगवान्‌ श्रीकृष्ण धीरे धीरे उस स्थानपर गये जहाँ दोनों अर्जुन वृक्ष खड़े थे।

    देवर्षिमें प्रियतमो यदिमौ धनदात्मजौ ।

    तत्तथा साधयिष्यामि यद्‌गीतं तन्महात्मना ॥

    २५॥

    देवर्षि:--परम सन्त देवर्षि नारद; मे--मेरा; प्रिय-तम:--सर्वाधिक प्रिय भक्त; यत्‌--यद्यपि; इमौ--ये दोनों ( नलकूबर तथामणिग्रीव ); धनद-आत्मजौ-- धनी पिता की सन्‍्तान तथा अभक्त; तत्‌--देवर्षि के वचन; तथा--जिस प्रकार; साधयिष्यामि--सम्पन्न करूँगा ( वे चाहते थे कि मैं यमलार्जुन के समक्ष आऊँ तो मैं ऐसा ही करूँगा ); यत्‌ गीतम्‌ू--जैसा कहा जा चुका है;तत्‌--वैसा; महात्मना--नारदमुनि द्वारा

    यद्यपि ये दोनों युवक अत्यन्त धनी कुवेर के पुत्र हैं और उनसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं हैपरन्तु देवर्षि नारद मेरा अत्यन्त प्रिय तथा वत्सल भक्त है और क्योंकि उसने चाहा था कि मैं इनकेसमक्ष आऊँ अतएव इनकी मुक्ति के लिए मुझे ऐसा करना चाहिए।

    इत्यन्तरेणार्जुनयो: कृष्णस्तु यमयोर्ययौ ।

    आत्मनिर्वेशमात्रेण तिर्यग्गतमुलूखलम्‌ ॥

    २६॥

    इति--ऐसा निश्चय करके; अन्तरेण--बीच में; अर्जुनयो:--दोनों अर्जुन वृक्षों के; कृष्ण: तु--भगवान्‌ कृष्ण; यमयो: ययौ--दोनों वृक्षों के बीच प्रविष्ट हुए; आत्म-निर्वेश-मात्रेण --घुसते ही; तिर्यक्‌--तिरछी; गतम्‌--हो गईं; उलूखलम्‌--ओखली

    इस तरह कह कर कृष्ण तुरन्त ही दो अर्जुन वृक्षों के बीच प्रविष्ट हुए जिससे वह बड़ीओखली जिससे वे बाँधे गये थे तिरछी हो गई और उनके बीच फँस गई।

    बालेन निष्कर्षयतान्वगुलूखलं तद्‌दामोदरेण तरसोत्कलिताडूप्रिबन्धौ ।

    निष्पेततु: परमविक्रमितातिवेप-स्कन्धप्रवालविटपौ कृतचण्डशब्दौ ॥

    २७॥

    बालेन--बालक कृष्ण द्वारा; निष्कर्षबता--घसीटते हुए; अन्बक्‌--पीछा करती; उलूखलम्‌--ओखली; तत्‌--वह; दाम-उदरेण--पेट से बँधे कृष्ण द्वारा; तरसा--बलपूर्वक; उत्कलित--उखड़ आईं; अड्प्रि-बन्धौ--दोनों वृक्षों की जड़ें; निष्पेततु:--गिर पड़े; परम-विक्रमित--परम शक्ति द्वारा; अति-वेप--बुरी तरह हिलते-डुलते हुए; स्कन्ध--तना; प्रवाल--पत्तियों के गुच्छे;विटपौ--दोनों वृक्ष; कृत--करते हुए; चण्ड-शब्दौ-- भयानक शब्द |

    अपने पेट से बँधी ओखली को बलपूर्वक अपने पीछे घसीटते हुए बालक कृष्ण ने दोनोंवृक्षों को उखाड़ दिया।

    परम पुरुष की महान्‌ शक्ति से दोनों वृक्ष अपने तनों, पत्तों तथा टहनियोंसमेत बुरी तरह से हिले और तड़तड़ाते हुए भूमि पर गिर पड़े।

    तत्र अ्िया परमया ककुभः स्फुरन्तौसिद्धावुपेत्य कुजयोरिव जातवेदा: ।

    कृष्णं प्रणम्य शिरसाखिललोकनाथंबद्धाज्लली विरजसाविदमूचतु: सम ॥

    २८॥

    तत्र--वहाँ, जहाँ अर्जुन वृक्ष गिरे थे; अ्रिया--सजायी गयी; परमया--अत्यधिक; ककुभ:--सारी दिशाएँ; स्फुरन्तौ--तेज सेप्रकाशित; सिद्धौ--दो सिद्ध पुरुष; उपेत्य--निकल कर; कुजयो:--दोनों वृक्षों के बीच से; इब--सद्ृश; जात-वेदा:--साक्षात्‌अग्नि; कृष्णम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण को; प्रणम्य--प्रणाम करके; शिरसा--सिर के बल; अखिल-लोक-नाथम्‌--परम पुरुष को,जो सबों के स्वामी हैं; बद्ध-अद्जली--हाथ जोड़े हुए; विरजसौ--तमोगुण धुल जाने पर; इृदम्‌--यह; ऊचतु: स्म--कहा।

    तत्पश्चात्‌ जिस स्थान पर दोनों अर्जुन वृक्ष गिरे थे वहीं पर दोनों वृक्षों से दो महान्‌ सिद्धपुरुष, जो साक्षात्‌ अग्नि जैसे लग रहे थे, बाहर निकल आये।

    उनके सौन्दर्य का तेज चारों ओरप्रकाशित हो रहा था।

    उन्होंने नतमस्तक होकर कृष्ण को नमस्कार किया और हाथ जोड़ करनिम्नलिखित शब्द कहे।

    कृष्ण कृष्ण महायोगिंस्त्वमाद्य: पुरुष: पर: ।

    व्यक्ताव्यक्तमिदं विश्व॑ं रूपं ते ब्राह्मणा विदुः ॥

    २९॥

    कृष्ण कृष्ण--हे कृष्ण, हे कृष्ण; महा-योगिन्‌--हे योगेश्वर; त्वमू--तुम; आद्य:--मूल कारण; पुरुष:--परम पुरुष; पर:--इससृष्टि से परे; व्यक्त-अव्यक्तम्‌ू--यह विराट जगत जो कार्य-कारण अथवा स्थूल-सूक्ष्म रूपों से बना है; इदम्‌--यह; विश्वम्‌--सारा जगत; रूपम्‌--रूप; ते--तुम्हारा; ब्राह्मणा:--विद्वान ब्राह्मण; विदुः:--जानते हैं|

    हे कृष्ण, हे कृष्ण, आपकी योगशक्ति अचिन्त्य है।

    आप सर्वोच्च आदि-पुरुष हैं, आपसमस्त कारणों के कारण हैं, आप पास रह कर भी दूर हैं और इस भौतिक सृष्टि से परे हैं।

    विद्वानब्राह्मण जानते हैं ( सर्व खल्विदं ब्रह्य--इस वैदिक कथन के आधार पर ) कि आप सर्वेसर्वा हैंऔर यह विराट विश्व अपने स्थूल तथा सूक्ष्म रूपों में आपका ही स्वरूप है।

    त्वमेकः सर्वभूतानां देहास्वात्मेन्द्रिये श्वरः ।

    त्वमेव कालो भगवान्विष्णुरव्यय ईश्वर: ॥

    ३०॥

    त्वं महान्प्रकृति: सूक्ष्मा रज:सत्त्वतमोमयी ।

    त्वमेव पुरुषोध्यक्ष: सर्वक्षेत्रविकारवित्‌ ॥

    ३१॥

    त्वमू--आप; एक:--एक; सर्व-भूतानाम्‌--सारे जीवों के; देह--शरीर के; असु--प्राण के; आत्म--आत्मा के; इन्द्रिय--इन्द्रियों के; ईश्वरः --परमात्मा, नियंत्रक; त्वम्‌--आप; एव--निस्सन्देह; काल:--काल; भगवानू्‌--भगवान्‌ विष्णु: --सर्वव्यापी; अव्यय:--अन श्वर; ई श्वरः --नियन्ता; त्वमू--आप; महान्‌--सबसे बड़े; प्रकृतिः-- भौतिक जगत; सूक्ष्मा--सूक्ष्म;रजः-सत्त्व-तम:-मयी--प्रकृति के तीन गुणों ( रजो, सतो तथा तमो ( गुणों ) से युक्त; त्वम्‌ एब--आप सचमुच हैं; पुरुष: --परम पुरुष; अध्यक्ष:--स्वामी; सर्व-क्षेत्र--सारे जीवों के; विकार-वित्‌--चंचल मन को जानने वाले |

    आप हर वस्तु के नियन्ता भगवान्‌ हैं।

    आप ही हर जीव का शरीर, प्राण, अहंकार तथाइन्द्रियाँ हैं।

    आप परम पुरुष, अक्षय नियन्ता विष्णु हैं।

    आप काल, तात्कालिक कारण और तीनगुणों--सतो, रजो तथा तमो गुणों--वाली भौतिक प्रकृति हैं।

    आप इस भौतिक जगत के आदिकारण हैं।

    आप परमात्मा हैं।

    अतएव आप हर एक जीव के हृदय की बात को जानने वाले हैं।

    गृह्ममाणैस्त्वमग्राह्मो विकारै: प्राकृतैर्गुणैः ।

    को न्विहाईति विज्ञातुं प्राक्सिद्धं गुणसंवृतः ॥

    ३२॥

    गृह्ममाणैः--हृश्य होने के कारण प्रकृति से बने शरीर को स्वीकार करने से; त्वम्‌--आप; अग्राह्म:--प्रकृति से निर्मित शरीर मेंही सीमित न रह कर; विकारैः--मन द्वारा विचलित; प्राकृतैः गुणैः--प्रकृति के गुणों द्वारा ( सत्त्व गुण, रजोगुण तथा तमोगुण ); कः--कौन है; नु--उसके बाद; इह--इस जगत में; अर्हति--योग्य होता है; विज्ञातुम--जानने के लिए; प्राक्‌सिद्धम्‌--सृष्टि के पूर्व उपस्थित; गुण-संवृत:--भौतिक गुणों से आच्छन्न होने के कारण।

    हे प्रभु, आप सृष्टि के पूर्व से विद्यमान हैं।

    अतः इस जगत में भौतिक गुणों वाले शरीर मेंबन्दी रहने वाला ऐसा कौन है, जो आपको समझ सके ?आपको सादर नमस्कार करते हैं।

    तस्मै तुभ्यं भगवते वासुदेवाय वेधसे ।

    आत्मद्योतगुणैश्छन्नमहिम्ने ब्रह्यणे नमः ॥

    ३३॥

    तस्मै--उसको; तुभ्यमू--आपको; भगवते-- भगवान्‌ को; वासुदेवाय--संकर्षण, प्रद्युम्म तथा अनिरुद्ध के उद्गम वासुदेव को;वेधसे-- सृष्टि के उद्गम को; आत्म-होत-गुणैः छन्न-महिम्ने--आपको, जिसका यश अपनी ही शक्ति से आच्छादित है;ब्रह्मणे--परब्रह्म को; नम: --हमारा नमस्कार।

    अपनी ही शक्ति से आच्छादित महिमा वाले हे प्रभु, आप भगवान्‌ हैं।

    आप सृष्टि के उद्गम, संकर्षण, हैं और चतुर्व्यूह के उद्गम, वासुदेव, हैं।

    आप सर्वस्व होने से परब्रह्म हैं अतएव हम आपको सादर नमस्कार करते हैं।

    यस्यावतारा ज्ञायन्ते शरीरेष्वशरीरिण: ।

    तैस्तैरतुल्यातिशयैवीर्य॑र्देहिष्वसड्रतैः ॥

    ३४॥

    स भवान्सर्वलोकस्य भवाय विभवाय च ।

    अवतीर्णोइशभागेन साम्प्रतं पतिराशिषाम्‌ ॥

    ३५॥

    यस्य--जिसका; अवतारा:--विभिन्न अवतार यथा मत्स्य, कूर्म, वराह; ज्ञायन्ते--कल्पित किये जाते हैं; शरीरेषु--भिन्न भिन्नप्रकार से दृश्य विभिन्न शरीरों में; अशरीरिण:--सामान्य शरीर नहीं अपितु दिव्य हैं; तैः तैः--उन्हीं उन्हीं कर्मों द्वारा; अतुल्य--अतुलनीय; अति-शयै:--असीम; वीर्य: --बल द्वारा; देहिषु--शरीरधारियों द्वारा; असड्डतैः --विभिन्न अवतारों में जो कार्य करपाना असम्भव है; सः--वही परमेश्वर; भवान्‌ू-- आप; सर्व-लोकस्य--हर एक की; भवाय--उन्नति के लिए; विभवाय--मुक्तिके लिए; च--तथा; अवतीर्ण:--अवतरित हुए हैं; अंश-भागेन--अंश समेत पूर्ण शक्ति में; साम्प्रतम्‌ू--इस क्षण; पतिःआशिषाम्‌--आप समस्त शुभ के स्वामी भगवान्‌ हैं।

    आप मत्स्य, कूर्म, वराह जैसे शरीरों में प्रकट होकर ऐसे प्राणियों द्वारा सम्पन्न न हो सकनेवाले कार्यकलाप--असामान्य, अतुलनीय, असीम शक्ति वाले दिव्य कार्य--प्रदर्शित करते हैं।

    अतएव आपके ये शरीर भौतिक तत्त्वों से नहीं बने होते अपितु आपके अवतार होते हैं।

    आप वहीभगवान्‌ हैं, जो अब अपनी पूर्ण शक्ति के साथ इस जगत के सारे जीवों के लाभ के लिए प्रकटहुए हैं।

    नमः परमकल्याण नमः परममड़ुल ।

    वासुदेवाय शान्ताय यदूनां पतये नमः: ॥

    ३६॥

    नमः--हम नमस्कार करते हैं परम-कल्याण---आप परम कल्याण हैं $ नम:ः--हमारा आपको नमस्कार; परम-मड़ल---आप जोभी करते हैं वह उत्तम है; वासुदेवाय--वासुदेव को; शान्ताय--अत्यन्त शान्त को; यदूनामू--यदुवंश के; पतये--नियन्ता को;नम:ः--हमारा नमस्कार है हे परम कल्याण, हम आपको सादर नमस्कार करते हैं क्योंकि आप परम शुभ हैं।

    हे यदुबंशके प्रसिद्ध वंशज तथा नियन्ता, हे वसुदेव-पुत्र, हे परम शान्त, हम आपके चरणकमलों में सादरनमस्कार करते हैं।

    अनुजानीहि नौ भूमंस्तवानुचरकिड्डरौ ।

    दर्शन नौ भगवत ऋषेरासीदनुग्रहात्‌ ॥

    ३७॥

    अनुजानीहि--आप अनुमति दें; नौ--हमें; भूमन्‌--हे विराट रूप; तब अनुचर-किड्जूरौ --हम आपके विश्वस्त भक्त नारदमुनि केदास हैं; दर्शनम्‌--साक्षात्‌ देखने के लिए; नौ--हमारा; भगवतः--आपका; ऋषे:--नारद ऋषि का; आसीत्‌-- था ( शाप केरूप में ); अनुग्रहात्‌-कृपा से |

    हे परम रूप, हम सदैव आपके दासों के, विशेष रूप से नारदमुनि के दास हैं।

    अब आप हमेंअपने घर जाने की अनुमति दें।

    यह तो नारदमुनि की कृपा है कि हम आपका साक्षात्‌ दर्शन करसके।

    वाणी गुणानुकथने श्रवणौ कथायांहस्तौ च कर्मसु मनस्तव पादयोर्न: ।

    स्मृत्यां शिरस्तव निवासजगत्प्रणामेदृष्टि: सतां दर्शनेउस्तु भवत्तनूनाम्‌ ॥

    ३८ ॥

    वाणी--शब्द, बोलने की शक्ति; गुण-अनुकथने--सदैव आपकी लीलाओं के विषय में बातें करने में व्यस्त; श्रवणौ--कान;कथायाम्‌--आपकी तथा आपकी लीलाओं के विषय में बातें करने में; हस्तौ--हाथ, पैर तथा अन्य इन्द्रियाँ; च-- भी; कर्मसु--आपका आदेश पालन करने में लगाकर; मन:--मन; तब--आपका; पादयो: --चरणकमलों का; नः--हमारी; स्मृत्याम्‌--ध्यान में लगी स्मृति में; शिर:ः--सिर; तब--आपका; निवास-जगत्‌-प्रणामे-- चूँकि आप सर्वव्यापी हैं और सर्वस्व हैं तथा हमारेश़ सिरों को नत होना चाहिए, भोग के लिए नहीं; दृष्टि:--देखने की शक्ति; सताम्‌--वैष्णवों के ; दर्शने--दर्शन करने में; अस्तु--इसी तरह लगे रहें; भवत्‌-तनूनाम्‌ू--जो आपसे अभिन्न हैं|

    अब से हमारे सभी शब्द आपकी लीलाओं का वर्णन करें, हमारे कान आपकी महिमा काश्रवण करें, हमारे हाथ, पाँव तथा अन्य इन्द्रियाँ आपको प्रसन्न करने के कार्यो में लगें तथा हमारेमन सदैव आपके चरणकमलों का चिन्तन करें।

    हमारे सिर इस संसार की हर वस्तु को नमस्कारकरें क्योंकि सारी वस्तुएँ आपके ही विभिन्न रूप हैं और हमारी आँखें आपसे अभिन्न वैष्णवों केरूपों का दर्शन करें।

    श्रीशुक उबाचइत्थं सड्डी्तितस्ताभ्यां भगवान्गोकुले श्वरः ।

    दाम्ना चोलूखले बद्धः प्रहसन्नाह गुह्मकौ ॥

    ३९॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इत्थम्‌--इस प्रकार, जैसाकि पहले कहा जा चुका है; सड्डी्तित:--महिमा कागायन किये जाने तथा प्रशंसित होने पर; ताभ्यामू--दोनों देवताओं द्वारा; भगवान्‌-- भगवान्‌; गोकुल-ई श्रर:-- गोकुल के स्वामी( क्योंकि वे सर्व-लोक-महे श्वर हैं ); दाम्ना--रस्सी से; च-- भी; उलूखले-- ओखली में; बद्ध:--बँधे हुए; प्रहसन्‌--हँसते हुए;आह--कहा; गुह्मकौ --दोनों देवताओं से

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : इस तरह दोनों देवताओं ने भगवान्‌ की स्तुति की।

    यद्यपि भगवान्‌ कृष्ण सबों के स्वामी हैं और गोकुलेश्वर थे किन्तु वे गोपियों की रस्सियों द्वारा लकड़ीकी ओखली से बाँध दिये गये थे इसलिए उन्होंने हँसते हुए कुवेर के पुत्रों से ये शब्द कहे।

    श्रीभगवानुवाचज्ञातं मम पुरैवेतदषिणा करुणात्मना ।

    यच्छीमदान्धयोर्वाग्भिर्विभ्रंशोनुग्रह: कृत: ॥

    ४०॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- श्री भगवान्‌ ने कहा; ज्ञातम्‌--ज्ञात है; मम--मुझको; पुरा-- भूतकाल में; एव--निस्सन्देह; एतत्‌--यहघटना; ऋषिणा--नारद ऋषि से; करुणा-आत्मना--तुम पर अत्यधिक कृपालु होने के कारण; यत्‌--जो; श्री-मद-अन्धयो:--जो भौतिक ऐश्वर्य के पीछे उन्मत्त हो चुके थे फलतः अंधे बन गये थे; वाग्भि:--वाणी से या शाप से; विभ्रेंश: --स्वर्गलोक सेगिर कर यहाँ पर अर्जुन वृक्ष बनने के लिए; अनुग्रह: कृत:--तुम पर उन्होंने बहुत अनुग्रह किया है।

    भगवान्‌ ने कहा : परम सन्त नारदमुनि अत्यन्त कृपालु हैं।

    उन्होंने अपने शाप से तुम दोनों परबहुत बड़ा अनुग्रह किया है क्योंकि तुम दोनों भौतिक ऐश्वर्य के पीछे उन्मत्त होकर अन्धे बनचुके थे।

    यद्यपि तुम दोनों स्वर्गलोक से गिर कर वृक्ष बने थे किन्तु उन्होंने तुम दोनों पर सर्वाधिककृपा की।

    मैं प्रारम्भ से ही इन घटनाओं को जानता था।

    साधूनां समचित्तानां सुतरां मत्कृतात्मनाम्‌ ।

    दर्शनान्नो भवेद्वन्ध: पुंसोक्ष्णो: सवितुर्यथा ॥

    ४१॥

    साधूनाम्‌ू--सारे भक्तों का; सम-चित्तानाम्‌--जो हर एक के प्रति समभाव रखते हैं; सुतराम्‌--पूर्णतया; मत्‌-कृत-आत्मनाम्‌--उन व्यक्तियों का जो पूर्ण शरणागत हैं या मेरी सेवा करने के लिए कृतसंकल्प हैं; दर्शनात्‌ू--मात्र दर्शन करने से; नो भवेत्‌बन्धः--सारे भौतिक बन्धन से मुक्ति; पुंसः--व्यक्ति का; अक्ष्णो:--आँखों का; सवितु: यथा--मानो सूर्य के समक्ष हो।

    जब कोई व्यक्ति सूर्य के समक्ष होता है, तो उसकी आँखों में अँधेरा नहीं रह जाता।

    इसी तरहजब कोई व्यक्ति ऐसे साधु या भक्त के समश्ष होता है, जो पूर्णतया हढ़ तथा भगवान्‌ केशरणागत होता है, तो उसका भव-बन्धन छूट जाता है।

    तदगच्छतं मत्परमौ नलकूवर सादनम्‌ ।

    सजञ्जातो मयि भावो वामीप्सित: परमोभव: ॥

    ४२॥

    तत्‌ गच्छतम्‌--अब तुम दोनों जा सकते हो; मत्‌-परमौ--मुझे अपने जीवन का परम लक्ष्य मान कर; नलकूवर--हे नलकूबरतथा मणिग्रीव; सादनम्‌-- अपने घर; सञ्जात:--सम्पृक्त; मयि--मुझमें; भाव:--भक्ति; वाम्‌--तुम्हारे द्वारा; ईप्सित:--अभिलषित; परम: --सर्वोच्च, सारी इन्द्रियों से सदैव संलग्न; अभव:ः--जिससे जगत में आना न हो।

    हे नलकूवर तथा मणिग्रीव, अब तुम दोनों अपने घर वापस जा सकते हो।

    चूँकि तुम मेरीभक्ति में सदैव लीन रहना चाहते हो अतः मेरे प्रति प्रेम उत्पन्न करने की तुम दोनों की इच्छा पूरीहोगी और अब तुम उस पद से कभी भी नीचे नहीं गिरोगे।

    श्रीशुक उबाचइत्युक्तौ तौ परिक्रम्य प्रणम्य च पुनः पुनः ।

    बद्धोलूखलमामन्त्र्य जम्मतुर्दिशमुत्तराम्‌ ॥

    ४३॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति उक्तौ--इस तरह भगवान्‌ द्वारा आदेश दिये जाने पर; तौ--नलकूवर तथामणिग्रीव; परिक्रम्य--परिक्रमा करके; प्रणम्य--नमस्कार करके; च--भी; पुनः पुनः--फिर फिर, बारम्बार; बद्ध-उलूखलम्‌आमन्त्य-- ओखली से बँधे भगवान्‌ से अनुमति लेकर; जग्मतु:--विदा हो गये; दिशम्‌ उत्तरामू-- अपने अपने गन्तव्यों को

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस प्रकार कहे जाने पर, उन दोनों देवताओं ने लकड़ी कीओखली से बँधे भगवान्‌ की परिक्रमा की और उनको नमस्कार किया।

    भगवान्‌ कृष्ण सेअनुमति लेने के बाद वे अपने अपने धामों को वापस चले गये।

    TO

    अध्याय ग्यारह: कृष्ण की बचपन की लीलाएँ

    10.11श्रीशुक उवाचगोपा नन्दादय: श्रुत्वा द्रुमयो: पततो रवम्‌ ।

    तत्राजग्मुः कुरु श्रेष्ठ निर्धाभभयशड्ता: ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; गोपा:--सारे ग्वाले; नन्द-आदय:--नन्द महाराज इत्यादि; श्रुत्वा--सुन कर;ब्रुमयो:--दोनों वृक्षों के; पततो:--गिरने की; रवम्‌--तेज आवाज, वज्पात जैसी; तत्र--वहाँ, उस स्थान पर; आजग्मु:--गये;कुरु-श्रेष्ठ--हे महाराज परीक्षित; निर्घात-भय-शह्लिता:--वज़पात होने से भयभीत।

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : हे महाराज परीक्षित, जब यमलार्जुन वृक्ष गिर पड़े तोआसपास के सारे ग्वाले भयानक शब्द सुन कर वज़्पात की आशंका से उस स्थान पर गये।

    भूम्यां निपतितौ तत्र दहशुर्यमलार्जुनौ ।

    बश्रमुस्तदविज्ञाय लक्ष्यं पतनकारणम्‌ ॥

    २॥

    भूम्यामू-- भूमि पर; निपतितौ--गिरे हुए; तत्र--वहाँ; दहशु:--सबों ने देखा; यमल-अर्जुनौ--अर्जुन वृक्ष के जोड़े को;बश्रमु:ः--मोहग्रस्त हो गये; तत्‌ू--वह; अविज्ञाय--पता न लगा सके; लक्ष्यम्‌--यह देखते हुए भी कि वृक्ष गिरे हैं; पतन-'कारणम्‌--गिरने का कारण ( सहसा ऐसा कैसे हुआ ? )

    वहाँ उन सबों ने यमलार्जुन वृक्षों को जमीन पर गिरे हुए तो देखा किन्तु वे विमोहित थेक्योंकि वे आँखों के सामने वृक्षों को गिरे हुए तो देख रहे थे किन्तु उनके गिरने के कारण कापता नहीं लगा पा रहे थे।

    उलूखलं विकर्षन्तं दाम्ना बद्धं च बालकम्‌ ।

    कस्येदं कुत आश्वर्यमुत्पात इति कातरा: ॥

    ३॥

    उलूखलम्‌--ओखली को; विकर्षन्तम्‌-खींचते हुए; दाम्ना--रस्सी से; बद्धम्‌ च--तथा उदर से बँधी; बालकम्‌--कृष्ण को;'कस्य--किसका; इृदम्‌--यह; कुतः--कहाँ से; आश्चर्यम्‌-ये अद्भुत घटनाएँ; उत्पात:--उपद्रव; इति--इस प्रकार;'कातरा: --अत्यधिक क्षुब्धकृष्ण रस्सी द्वारा ओखली से बंधे थे जिसे वे खींच रहे थे।

    किन्तु उन्होंने वृक्षों को किस तरहगिरा लिया ? वास्तव में किसने यह किया ? इस घटना का स्त्रोत कहाँ है ? इन आश्चर्यजनक बातोंको सोच सोच कर सारे ग्वाले सशंकित तथा मोहग्रस्त थे।

    बाला ऊचुरनेनेति तिर्यग्गतमुलूखलम्‌ ।

    विकर्षता मध्यगेन पुरुषावप्यचक्ष्महि ॥

    ४॥

    बाला:--सारे बालकों ने; ऊचु:--कहा; अनेन--उसके ( कृष्ण ) द्वारा; इति--इस प्रकार; तिर्यक्‌ --टेढ़ी; गतम्‌ू-हुई;उलूखलम्‌--ओखली; विकर्षता--कृष्ण द्वारा खींचे जाने से; मध्य-गेन--दोनों वृक्षों के बीच जाकर; पुरुषौ--दो सुन्दर व्यक्ति;अपि--भी; अचक्ष्महि--हमने अपनी आँखों से देखा है।

    तब सारे ग्वालबालों ने कहा : इसे तो कृष्ण ने ही किया है।

    जब यह दो वृक्षों के बीच मेंथा, तो ओखली तिरछी हो गई।

    कृष्ण ने ओखली को खींचा तो दोनों वृक्ष गिर गये।

    इसके बादइन वृक्षों से दो सुन्दर व्यक्ति निकल आये।

    हमने इसे अपनी आँखों से देखा है।

    न ते तदुक्त जगृहुर्न घटेतेति तस्य तत्‌ ।

    बालस्योत्पाटनं तर्वो: केचित्सन्दिग्धचेतस: ॥

    ५॥

    न--नहीं; ते--सारे गोप; तत्‌-उक्तम्‌--बालकों द्वारा कहे गये; जगृहु: --स्वीकार करेंगे; न घटेत--ऐसा नहीं हो सकता; इति--इस प्रकार; तस्य--कृष्ण का; तत्‌--काम; बालस्य--कृष्ण जैसे बालक का; उत्पाटनमू--जड़ समेत उखाड़ना; तर्वो:--दोनोंवृक्षों का; केचित्‌ू--किसी ने; सन्दिग्ध-चेतस:--क्या किया जा सकता है इसके विषय में सशंकित

    क्योंकि गर्गमुनि नेभविष्यवाणी की थी कि यह बालक नारायण के समान होगा )॥

    तीव्र पितृ-स्नेह के कारण नन्द इत्यादि ग्वालों को विश्वास ही नहीं हुआ कि कृष्ण ने इतनेआश्चर्यमय ढंग से वृक्षों को उखाड़ा है।

    अतएव उन्हें बच्चों के कहने पर विश्वास नहीं हुआ।

    किन्तुउनमें से कुछ को सन्देह था।

    वे सोच रहे थे, ‘चूँकि कृष्ण के लिए भविष्यवाणी की गई थी किवह नारायण के तुल्य है अतएव हो सकता है कि उसी ने यह किया हो।

    'उलूखलं विकर्षन्तं दाम्ना बद्धं स्वमात्मजम्‌ ।

    विलोक्य नन्दः प्रहसद्ददनो विमुमोचच ह ॥

    ६॥

    उलूखलम्‌--ओखली को; विकर्षन्तम्‌--खींचते हुए; दाम्ना--रस्सी से; बद्धम्‌--बँधा हुआ; स्वम्‌ आत्मजम्‌--अपने पुत्र कृष्णको; विलोक्य--देख कर; नन्दः--नन्द महाराज; प्रहसत्‌-वदन:ः--इस अद्भुत बालक को देखकर मुसकाते चेहरे से; विमुमोचह--उसे बन्धन से मुक्त कर दिया।

    जब नन्द महाराज ने अपने पुत्र को रस्सी द्वारा लकड़ी की ओखली से बँधा और ओखलीको घसीटते देखा तो वे मुसकाने लगे और उन्होंने कृष्ण को बन्धन से मुक्त कर दिया।

    गोपीभि: स्तोभितोनृत्यद्धगवान्बालवत्क्वचित्‌ ।

    उद्‌गायति क्वचिन्मुग्धस्तद्वशो दारुयन्त्रवत्‌ ॥

    ७॥

    गोपीभि:--गोपियों के द्वारा; स्तोभित:--प्रोत्साहित, प्रेरित; अनृत्यत्‌--बालक कृष्ण नाचता; भगवान्‌--भगवान्‌ होकर के भी;बाल-वत्‌--मानवी बालक के ही समान; क्वचित्‌--कभी; उद्गायति--जोर से गाता है; क्वचित्‌--कभी; मुग्ध:--चकितहोकर; तत्‌-वशः --उनके वशीभूत होकर; दारु-यन्त्र-वतू--कठपुतली की तरह |

    गोपियाँ कहतीं, ‘हे कृष्ण, यदि तुम नाचोगे तो तुम्हें आधी मिठाई मिलेगी।

    ऐसे शब्द कहकर या तालियाँ बजा-बजा कर सारी गोपियाँ कृष्ण को तरह-तरह से प्रेरित करतीं।

    ऐसे अवसरोंपर वे परम शक्तिशाली भगवान्‌ होते हुए भी मुसका देते और उनकी इच्छानुसार नाचते मानों वेउनके हाथ की कठपुतली हों।

    कभी कभी वे उनके कहने पर जोर-जोर से गाते।

    इस तरह कृष्णपूरी तरह से गोपियों के वश में आ गये।

    'बिभर्ति क्वचिदाज्ञप्त: पीठकोन्मानपादुकम्‌ ।

    बाहुक्षेपं च कुरुते स्वानां च प्रीतिमावहन्‌ ॥

    ८ ॥

    बिभर्ति--कृष्ण खड़े हो जाते और वस्तुओं को इस तरह छूते मानों उठा नहीं पाते; क्वचित्‌ू--कभी; आज्ञप्त:--आदेश दिये जानेपर; पीठक-उन्मान--पीढ़ा ( लकड़ी का ) तथा काठ का नपना; पादुकम्‌--खड़ाऊँ को; बाहु-क्षेपम्‌ च--तथा शरीर पर हाथमारते, ताल ठोंकते; कुरुते--करता है; स्वानाम्‌ च--तथा अपने सम्बन्धियों, गोपियों तथा अन्य मित्रों का; प्रीतिमू--आनन्द;आवहनू--बुलाते हुए।

    कभी कभी माता यशोदा तथा उनकी गोपी सखियाँ कृष्ण से कहतीं, ‘जरा यह वस्तु लाना,जरा वह वस्तु लाना।

    ' कभी वे उनको पीढ़ा लाने, तो कभी खड़ाऊँ या काठ का नपना लाने केलिए आदेश देतीं और कृष्ण माताओं द्वारा इस तरह आदेश दिये जाने पर उन वस्तुओं को लानेका प्रयास करते।

    किन्तु कभी कभी वे उन वस्तुओं को इस तरह छूते मानो उठाने में असमर्थ होंऔर वहीं खड़े रहते।

    अपने सम्बन्धियों का हर्ष बढ़ाने के लिए वे दोनों हाथों से ताल ठोंक करदिखाते कि वे काफी बलवान हैं।

    दर्शयंस्तद्विदां लोक आत्मनो भृत्यवश्यताम्‌ ।

    ब्रजस्योवाह वै हर्ष भगवान्बालचेष्टितै: ॥

    ९॥

    दर्शयन्‌ू--दिखलाते हुए; तत्‌-विदाम्‌--कृष्ण के कार्यों को समझने वाले पुरुषों को; लोके--सारे जगत में; आत्मन:--अपनेआप को; भृत्य-वश्यताम्‌--अपने दासों या भक्तों के आदेशों का पालन करने के लिए तैयार रहने वाले; ब्रजस्थ--ब्रजभूमि के;उवाह--सम्पन्न किया; बै--निस्सन्देह; हर्षम्‌--आनन्द; भगवान्‌ू-- भगवान्‌; बाल-चेष्टितै:--बच्चों के जैसे कार्यों द्वारा |

    भगवान्‌ कृष्ण ने अपने कार्यकलापों को समझने वाले संसार-भर के शुद्ध भक्तों कोदिखला दिया कि किस तरह वे अपने भक्तों अर्थात्‌ दासों द्वारा वश में किये जा सकते हैं।

    इसतरह अपनी बाल-लीलाओं से उन्होंने ब्रजवासियों के हर्ष में वृद्धि की।

    क्रीणीहि भो: फलानीति श्रुत्वा सत्वरमच्युत: ।

    'फलार्थी धान्यमादाय ययौ सर्वफलप्रद: ॥

    १०॥

    क्रीणीहि--आकर खरीदें; भोः--हे पड़ोसियो; फलानि--पके फलों को; इति--इस प्रकार; श्रुत्वा--सुन कर; सत्वरम्‌ू--शीघ्र;अच्युत:--कृष्ण; फल-अर्थी --मानो उन्हें फल चाहिए; धान्यम्‌ आदाय--कुछ धान लाकर; ययौ--फल बेचने वाली के पासगये; सर्व-फल-प्रद: --हर एक को सभी फल प्रदान करने वाले भगवान्‌ को अब फल चाहिए थे।

    एक बार एक फल बेचने वाली स्त्री पुकार रही थी, 'हे ब्रजभूमिवासियो, यदि तुम लोगोंको फल खरीदने हैं, तो मेरे पास आओ।

    ' यह सुन कर तुरन्त ही कृष्ण ने कुछ अन्न लिया औरसौदा करने पहुँच गये मानो उन्हें कुछ फल चाहिए थे।

    'फलविक्रयिणी तस्य च्युतधान्यकरद्दयम्‌ ।

    फलैरपूरयद्गत्नी: फलभाण्डमपूरिच ॥

    ११॥

    'फल-विक्रयिणी --फल बेचने वाली आदिवासिनी; तस्य--कृष्ण का; च्युत-धान्य--बदलने के लिए जो धान लाये थे वह गिरगया; कर-द्वयम्‌--अँजुली; फलै: अपूरयत्‌--फलवाली ने उनकी छोटी हथेलियों को फलों से भर दिया; रत्नैः--रत्नों तथा सोनेके बदले में; फल-भाण्डम्‌--फल की टोकरी; अपूरि च-- भर गई

    जब कृष्ण तेजी से फलवाली के पास जा रहे थे तो उनकी अँजुली में भरा बहुत-सा अन्नगिर गया।

    फिर भी फलवाली ने उनके दोनों हाथों को फलों से भर दिया।

    उधर उसकी फल कीटोकरी तुरन्त रत्नों तथा सोने से भर गई।

    सरित्तीरगतं कृष्णं भग्नार्जुनमथाहयत्‌ ।

    राम च रोहिणी देवी क्रीडन्तं बालकैर्भूशम्‌ ॥

    १२॥

    सरित्‌-तीर--नदी के किनारे; गतम्‌--गये हुए; कृष्णम्‌--कृष्ण को; भग्न-अर्जुनमू--यमलार्जुन खंडित करने की लीला केबाद; अथ--तब; आह्ृयत्‌--बुलाया; रामम्‌ च--तथा बलराम को; रोहिणी--बलराम की माता ने; देवी--लक्ष्मी; क्रीडन्तम्‌--खेल में व्यस्त; बालकै:ः-- अनेक बालकों के साथ; भृशम्‌-- अत्यन्त मनोयोग से |

    यमलार्जुन वृक्षों के उखड़ जाने के बाद एक बार रोहिणीदेवी राम तथा कृष्ण को, जो नदीके किनारे गये हुए थे और अन्य बालकों के साथ बड़े ध्यान से खेल रहे थे, बुलाने गईं।

    नोपेयातां यदाहूतौ क्रीडासड्लेन पुत्रकौ ।

    यशोदां प्रेषयामास रोहिणी पुत्रवत्सलाम्‌ ॥

    १३॥

    न उपेयाताम्‌ू--लौटे नहीं; यदा--जब; आहूतौ--खेल से बुला भेजे गये; क्रीडा-सड्गेन--अन्य बालकों के साथ खेलने में इतनाअनुरक्त होने के कारण; पुत्रकौ--दोनों पुत्र ( कृष्ण तथा बलराम ); यशोदाम्‌ प्रेषयाम्‌ आस--उन्हें बुलाने के लिए यशोदा कोभेजा; रोहिणी--माता रोहिणी ने; पुत्र-वत्सलाम्‌--क्योंकि माता यशोदा कृष्ण तथा बलराम के प्रति अधिक वत्सल थीं।

    अन्य बालकों के साथ खेलने में अत्यधिक अनुरक्त होने के कारण वे रोहिणी के बुलाने परवापस नहीं आये।

    अतः रोहिणी ने उन्हें वापस बुलाने के लिए माता यशोदा को भेजा क्योंकि वेकृष्ण तथा बलराम के प्रति अत्यधिक स्नेहिल थीं।

    क्रीडन्तं सा सुतं बालैरतिवेलं सहाग्रजम्‌ ।

    यशोदाजोहवीत्कृष्णं पुत्रस्नेहस्नुतस्तनी ॥

    १४॥

    क्रीडन्तम्‌--खेल में व्यस्त; सा--उस; सुतम्‌--अपने पुत्र को; बालैः--अन्य बालकों के साथ; अति-वेलम्‌--विलम्ब से; सह-अग्रजम्‌--अपने बड़े भाईं बलराम के साथ खेल रहे; यशोदा--माता यशोदा ने; अजोहवीत्‌--बुलाया ( अरे कृष्ण तथा बलरामआओ! ); कृष्णम्‌-कृष्ण को; पुत्र-स्नेह-स्नुत-स्तनी--उन्हें बुलाते हुए स्नेह के कारण उनके स्तनों से दूध बहने लगा ।

    यद्यपि बहुत देर हो चुकी थी किन्तु कृष्ण तथा बलराम अपने खेल में अनुरक्त होने केकारण अन्य बालकों के साथ खेलते रहे।

    इसलिए अब माता यशोदा ने भोजन करने के लिएउन्हें बुलाया।

    कृष्ण तथा बलराम के प्रति उत्कट प्रेम तथा स्नेह होने से उनके स्तनों से दूध बहनेलगा।

    कृष्ण कृष्णारविन्दाक्ष तात एहि स्तनं पिब ।

    अल विहारै: क्षुक्षान्तः क्रीडाश्रान्तोउसि पुत्रक ॥

    १५॥

    कृष्ण कृष्ण अरविन्द-अक्ष--हे कृष्ण, मेरे बेटे, कमल जैसे नेत्रों वाले कृष्ण; तात--हे प्रिय; एहि--यहाँ आओ; स्तनम्‌--मेरेस्तन के दूध को; पिब--पियो; अलम्‌ विहारैः--इसके बाद खेलने की कोई आवश्यकता नहीं है; क्षुत्‌-क्षान्त:-- भूख से थका;क्रीडा-श्रान्त:--खेलने से थका हुआ; असि--तुम हो; पुत्रक-हे पुत्र |

    माता यशोदा ने कहा: हे प्रिय पुत्र कृष्ण, कमलनयन कृष्ण, यहाँ आओ और मेरा दूधपियो।

    हे प्यारे, तुम भूख से तथा इतनी देर तक खेलने से बहुत थक गये होगे।

    अब और अधिक खेलना जरूरी नहीं।

    है रामागच्छ ताताशु सानुज: कुलनन्दन ।

    प्रातरेव कृताहारस्तद्धवान्भोक्तुमहति ॥

    १६॥

    हे राम--मेरे प्यारे बलराम; आगच्छ---आओ; तात--मेरे प्रिय; आशु--शीघ्र; स-अनुज: -- अपने छोटे भाई सहित; कुल-नन्दन--हमारे परिवार की महान्‌ आशा; प्रातः एब--सुबह के ही; कृत-आहार:--कलेवा किये हुए; तत्‌--इसलिए; भवान्‌--तुम; भोक्तुमू--अधिक खाने के लिए; अर्हति--योग्य हो |

    हमारे परिवार के सर्वश्रेष्ठ मेरे प्यारे बलदेव, तुरन्त अपने छोटे भाई कृष्ण सहित आ जाओ।

    तुम दोनों ने सुबह ही खाया था और अब तुम्हें कुछ और खाना चाहिए।

    प्रतीक्षते त्वां दाशाई भोक्ष्यमाणो व्रजाधिप: ।

    एह्मावयो: प्रियं धेहि स्वगृहान्यात बालका: ॥

    १७॥

    प्रतीक्षते-- प्रतीक्षा कर रही है; त्वाम्‌--तुम दोनों की; दाशाह--हे बलराम; भोक्ष्यमाण:--खाने की इच्छा रखते हुए; ब्रज-अधिप:--ब्रज का राजा, नन्‍्द महाराज; एहि--यहाँ आओ; आवयो: --हमारा; प्रियम्‌ू--हर्ष; धेहि--जरा विचार करो; स्व-गृहान्‌--अपने अपने घरों को; यात--जाने दो; बालका:--अन्य बालक

    अब ब्रज के राजा नन्द महाराज खाने के लिए तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं।

    हे मेरे बेटे बलराम,वे तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं अत: हमारी प्रसन्नता के लिए तुम वापस आ जाओ।

    तुम्हारे साथतथा कृष्ण के साथ खेल रहे सारे बालकों को अपने अपने घर जाना चाहिए।

    धूलिधूसरिताडूस्त्वं पुत्र मजजनमावह ।

    जन्मक्ल तेडद्य भवति विप्रेभ्यो देहि गा: शुच्चि: ॥

    १८॥

    धूलि-धूसरित-अड्ड त्वमू--तुम्हारा पूरा शरीर धूल से ढक गया है; पुत्र--मेरे बेटे; मजजनम्‌ आवह--आओ, स्नान करो तथाअपनी सफाई करो; जन्म-ऋक्षम्‌-- जन्म का शुभ नक्षत्र; ते--तुम्हारे; अद्य--आज; भवति-- है; विप्रेभ्य: --शुद्ध ब्राह्मणों को;देहि--दान में दो; गाः--गाएँ; शुचि:--शुद्ध होकर

    माता यशोदा ने आगे भी कृष्ण से कहा : हे पुत्र, दिन-भर खेलते रहने से तुम्हारा सारा शरीरधूल तथा रेत से भर गया है।

    अतः वापस आ जाओ, स्नान करो और अपनी सफाई करो।

    आजतुम्हारे जन्म के शुभ नक्षत्र से चाँद मेल खा रहा है, अतः शुद्ध होकर ब्राह्मणों को गौवों का दानकरो।

    पश्य पश्य वयस्यांस्ते मातृमृष्टान्स्वलड्डू तान्‌ ।

    त्वं च सनातः कृताहारो विहरस्व स्वलड्डू त: ॥

    १९॥

    पश्य पश्य--जरा देखो तो; वयस्यान्‌ू--समान उम्र के बालक; ते--तुम्हारी; मातृ-मृष्टान्‌ू-- अपनी माताओं द्वारा नहलाये-धुलायेगये; सु-अलड्डू तानू--सुन्दर आभूषणों से सज्जित; त्वम्‌ च--तुम भी; स्नातः--नहाकर; कृत-आहार:ः--तथा भोजन करने केबाद; विहरस्व--उनके साथ खेलो-कूदो; सु-अलड्डू त:--अच्छी तरह सजधज कर।

    जरा अपनी उम्र वाले अपने सारे साथियों को तो देखो कि वे किस तरह अपनी माताओं द्वारानहलाये-धुलाये तथा सुन्दर आभूषणों से सजाये गये हैं।

    तुम यहाँ आओ और स्नान करने,भोजन खाने तथा आभूषणों से अलंकृत होने के बाद फिर अपने सखाओं के साथ खेल सकतेहो।

    इत्थं यशोदा तमशेषशेखरं मत्वा सुतं स्नेहनिबद्धधीर्नूप ।

    हस्ते गृहीत्वा सहराममच्युतंनीत्वा स्ववार्ट कृतवत्यथोदयम्‌ ॥

    २०॥

    इत्थम्‌--इस तरह; यशोदा--यशोदा; तम्‌ अशेष-शेखरम्‌--कृष्ण को, जो हर शुभ वस्तु की पराकाष्ठा थे, जिनमें गंदगी याअशुद्धता का प्रश्न ही नहीं था; मत्वा--मान कर; सुतम्‌--अपने पुत्र; स्नेह-निबद्ध-धी: --अत्यधिक प्रेम-भाव के कारण;नृप--हे राजा ( महाराज परीक्षित ); हस्ते--हाथ में; गृहीत्वा--लेकर; सह-रामम्‌--बलराम समेत; अच्युतम्‌--कृष्ण को;नीत्वा--लाकर; स्व-वाटम्‌--अपने घर; कृतवती--किया; अथ-- अब; उदयम्‌--नहलाने- धुलाने, वस्त्र पहनाने और आभूषणोंसे अलंकृत करने के बाद की चमक।

    हे महाराज परीक्षित, अत्यधिक प्रेमवश माता यशोदा ने समस्त ऐश्वर्यों के शिखर पर आसीनकृष्ण को अपना पुत्र माना।

    इस तरह वे बलराम के साथ कृष्ण को हाथ से पकड़ कर घर लेआईं जहाँ उन्हें नहलाने-धुलाने, वस्त्र पहनाने तथा भोजन खिलाने का उन्होंने अपना काम पूराकिया।

    श्रीशुक उवाचगोपवृद्धा महोत्पाताननुभूय बृहद्वने ।

    नन्दादय: समागम्य ब्रजकार्यममन्त्रयन्‌ू ॥

    २१॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; गोप-वृद्धा:--बूढ़े ग्वालों ने; महा-उत्पातान्‌--बड़े बड़े उपद्रव; अनुभूय--अनुभव करके; बृहद्वने--बृहद्वन नामक स्थान में; नन्द-आदय: --नन्द महाराज तथा अन्य ग्वाले; समागम्य--एकत्र हुए; ब्रज-कार्यम्‌ू-ब्रजभूमि का कार्य; अमन्त्रयन्‌ू--महावन में लगातार होने वाले उत्पातों को रोकने पर विचार-विमर्श किया।

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : तब एक बार बृहद्वन में बड़े बड़े उपद्रव देख कर नन्‍्दमहाराज तथा वृद्ध ग्वाले एकत्र हुए और विचार करने लगे कि ब्रज में लगातार होने वाले उपद्रवोंको रोकने के लिए क्या किया जाय।

    तत्रोपानन्दनामाह गोपो ज्ञानवयोडधिक: ।

    देशकालार्थतत्त्वज्ञ: प्रियकृद्रामकृष्णयो: ॥

    २२॥

    तत्र--उस सभा में; उपनन्द-नामा--उपानन्द नामक ( नन्द महाराज का बड़ा भाई ) ने; आह--कहा; गोप: --ग्वाला; ज्ञान-वयः-अधिक: --जो ज्ञान तथा आयु में सबसे बड़ा था; देश-काल-अर्थ-तत्त्व-ज्ञ:--देश, काल तथा परिस्थितियों के अनुसार अत्यन्तअनुभवी; प्रिय-कृत्‌ू--लाभ के लिए; राम-कृष्णयो:-- भगवान्‌

    बलराम तथा भगवान्‌ कृष्ण केगोकुलवासियों की इस सभा में, उपानन्द नामक एक ग्वाले ने, जो आयु तथा ज्ञान मेंसर्वाधिक प्रौढ़ था और देश, काल तथा परिस्थिति के अनुसार अत्यधिक अनुभवी था, राम तथाकृष्ण के लाभ हेतु यह प्रस्ताव रखा।

    उत्थातव्यमितोउस्माभि्गोकुलस्य हितैषिभि: ।

    आयान्त्यत्र महोत्पाता बालानां नाशहेतवः ॥

    २३॥

    उत्थातव्यमू--इस स्थान को छोड़ देना चाहिए; इत:--यहाँ ( गोकुल ) से; अस्माभि: --हम सबों के द्वारा; गोकुलस्थ--गोकुलके; हित-एपिभि:--इस स्थान के हितैषियों द्वारा; आयान्ति--हो रहे हैं; अत्र--यहाँ पर; महा-उत्पाता:--अनेक बड़े बड़े उपद्रव;बालानाम्‌--राम तथा कृष्ण जैसे बालकों के; नाश-हेतव:--विनष्ट करने के उद्देश्य से |

    उसने कहा : मेरे ग्वालमित्रो, इस गोकुल नामक स्थान की भलाई के लिए हमें इसे छोड़देना चाहिए क्‍योंकि यहाँ पर राम तथा कृष्ण को मारने के उद्देश्य से सदैव अनेकानेक उपद्रवहोते ही रहते हैं।

    मुक्त: कथद्िद्राक्षस्या बालघ्न्या बालको हासौ ।

    हरेरनुग्रहान्रूनमनश्चोपरि नापतत्‌ ॥

    २४॥

    मुक्त:--छूटा था; कथश्ञित्‌--किसी तरह; राक्षस्था:--राक्षसी पूतना के हाथों से; बाल-घ्न्या:--बालकों को मारने पर तुली;बालक:ः--विशेषतया बालक कृष्ण; हि--क्योंकि; असौ--वह; हरे: अनुग्रहात्‌-- भगवान्‌ की दया से; नूनम्‌--निस्सन्देह; अनःच--तथा छकड़ा; उपरि--बालक के ऊपर; न--नहीं; अपतत्‌--गिरा।

    यह बालक कृष्ण, एकमात्र भगवान्‌ की दया से किसी न किसी तरह राक्षसी पूतना के हाथोंसे बच सका क्‍योंकि वह उन्हें मारने पर उतारू थी।

    फिर यह भगवान्‌ की कृपा ही थी कि वहछकड़ा इस बालक पर नहीं गिरा।

    चक्रवातेन नीतोयं दैत्येन विपदं वियत्‌ ।

    शिलायां पतितस्तत्र परित्रात: सुरेश्व: ॥

    २५॥

    चक्र-वातेन--बवंडर के रूप में असुर ( तृणावर्त ) द्वारा; नीतः अयम्‌--यह कृष्ण उड़ा ले जाया गया; दैत्येन--असुर द्वारा;विपदम्‌-- भयानक; वियत्‌--आकाश में; शिलायाम्‌ू--पत्थर पर; पतित: --गिरा हुआ; तत्र--वहाँ; परित्रात:--बचा लियागया; सुर-ई श्रैः-- भगवान्‌ विष्णु या उनके संगियों द्वारा।

    इसके बाद बवंडर के रूप में आया तृणावर्त असुर इस बालक को मार डालने के लिएसंकटमय आकाश में ले गया किन्तु वह असुर पत्थर की एक शिला पर गिर पड़ा।

    तब भीभगवान्‌ विष्णु या उनके संगियों की कृपा से यह बालक बच गया था।

    यन्न प्नियेत द्रुमयोरन्तरं प्राप्प बालक: ।

    असावन्यतमो वापि तदपष्यच्युतरक्षणम्‌ ॥

    २६॥

    यत्‌--पुनः; न प्रियेत--नहीं मरा; द्रुमयो: अन्तरम्‌--दो वृक्षों के बीच; प्राप्प--बीच में होते हुए; बालक: असौ--वह बालक,कृष्ण; अन्यतम:--दूसरा बालक; वा अपि--अथवा; तत्‌ अपि अच्युत-रक्षणम्‌--तब भी भगवान्‌ द्वारा बचा लिया गया।

    यहाँ तक कि किसी और दिन, न तो कृष्ण न ही उनके खिलाड़ी साथी उन दोनों वृक्षों केगिरने से मरे यद्यपि ये बालक वृक्षों के निकट या उनके बीच ही में थे।

    इसे भी भगवान्‌ काअनुग्रह मानना चाहिये।

    यावदौत्पातिकोरिष्टो ब्रज॑ं नाभिभवेदितः ।

    तादद्वालानुपादाय यास्यामोउन्यत्र सानुगा: ॥

    २७॥

    यावत्‌--जब तक; औत्पातिक: --उत्पात मचाने वाले; अरिष्ट: --असुर; ब्रजम्‌--यह गोकुल ब्रजभूमि; न--नहीं; अभिभवेत्‌इतः--इस स्थान से चले जाँय; तावत्‌--तब तक; बालान्‌ उपादाय--बालकों के लाभ के लिए; यास्थाम:--हम चले जाँय;अन्यत्र--किसी दूसरी जगह; स-अनुगा:--अपने अनुयायियों समेत ।

    ये सारे उत्पात कुछ अज्ञात असुर द्वारा किये जा रहे हैं।

    इसके पूर्व कि वह दूसरा उत्पात करनेआये, हमारा कर्तव्य है कि हम तब तक के लिए इन बालकों समेत कहीं और चले जाये जबतक कि ये उत्पात बन्द न हो जायाँ।

    वबन॑ वृन्दावनं नाम पशव्यं नवकाननम्‌ ।

    गोपगोपीगवां सेव्यं पुण्याद्रितृणवीरुधम्‌ ॥

    २८ ॥

    वनम्‌--दूसरा वन; वृन्दावनम्‌ नाम--वृन्दावन नामक; पशव्यम्‌-गौवों तथा अन्य पशुओं के पालन के लिए उपयुक्त स्थान;नव-काननम्‌--कई नये बगीचों जैसे स्थान हैं; गोप-गोपी-गवाम्‌--सारे ग्वालों, उनके परिवार वालों तथा गौवों के लिए;सेव्यम्‌--अत्यन्त उपयुक्त स्थान; पुण्य-अद्वि--सुन्दर पर्वत हैं; तृण--पौधे; वीरुधम्‌--तथा लताएँ।

    नन्देश्वर तथा महावन के मध्य वृन्दावन नामक एक स्थान है।

    यह स्थान अत्यन्त उपयुक्त हैक्योंकि इसमें गौवों तथा अन्य पशुओं के लिए रसीली घास, पौधे तथा लताएँ हैं।

    वहाँ सुन्दरबगीचे तथा ऊँचे पर्वत हैं और वह स्थान गोपों, गोपियों तथा हमारे पशुओं के सुख के लिए सारीसुविधाओं से युक्त है।

    तत्तत्राद्ेव यास्याम: शकटान्युड्डः मा चिरम्‌ ।

    गोधनान्यग्रतो यान्तु भवतां यदि रोचते ॥

    २९॥

    तत्‌--इसलिए; तत्र--वहाँ; अद्य एबव--आज ही; यास्याम:--चले चलें; शकटान्‌--सारी बैलगाड़ियों को; युड्डू --जोत कर;मा चिरम्‌--देरी लगाये बिना; गो-धनानि--सारी गौवों को; अग्रत:--आगे आगे; यान्तु--चलने दें; भवताम्‌--आप सबों को;यदि--यदि; रोचते-- अच्छा लगे।

    अतएव हम आज ही तुरन्त चल दें।

    अब और अधिक प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहींहै।

    यदि आप सबों को मेरा प्रस्ताव मान्य हो तो हम अपनी सारी बैलगाड़ियाँ तैयार कर लें औरगौवों को आगे करके वहाँ चले जायें।

    तच्छुत्वैकधियो गोपा: साधु साध्विति वादिन: ।

    ब्रजान्स्वान्स्वान्समायुज्य ययू रूढपरिच्छदा: ॥

    ३०॥

    तत्‌ श्रुत्वा--उपानन्द की यह सलाह सुन कर; एक-धिय:--एकमत होकर; गोपा:--सारे ग्वालों ने; साधु साधु--अति उत्तम,अति उत्तम; इति--इस प्रकार; वादिन:--घोषित करते हुए; ब्रजानू--गौवों को; स्वान्‌ स्वानू--अपनी अपनी; समायुज्य--एकत्रकरके; ययु:--रवाना हो गये; रूढ-परिच्छदा: --सारा साज-सामान गाड़ियों में रख कर।

    उपानन्द की यह सलाह सुन कर ग्वालों ने इसे एकमत से स्वीकार कर लिया और कहा,’बहुत अच्छा, बहुत अच्छा।

    ' इस तरह उन्होंने अपने घरेलू मामलों की छान-बीन की और अपनेवस्त्र तथा अन्य सामान गाड़ियों पर रख लिये और तुरन्त वृन्दावन के लिए प्रस्थान कर दिया।

    वृद्धान्बालान्स्त्रियो राजन्सवोपकरणानि च ।

    अनःस्वारोप्य गोपाला यत्ता आत्तशरासना: ॥

    ३१॥

    गोधनानि पुरस्कृत्य श्रृड्भाण्यापूर्य सर्वतः ।

    तूर्यघोषेण महता ययुः सहपुरोहिता: ॥

    ३२॥

    वृद्धानू--सर्वप्रथम सारे बूढ़ों को; बालान्‌ू--बालकों को; स्त्रियः--स्त्रियों को; राजनू--हे राजा परीक्षित; सर्व-उपकरणानिच--तथा सारी आवश्यक एवं घरेलू वस्तुएँ; अनःसु--बैलगाड़ियों पर; आरोप्य--लाद कर; गोपाला:--सारे ग्वाले; यत्ता:--सावधानीपूर्वक; आत्त-शर-असना:--तीरों तथा धनुषों से लैस होकर; गो-धनानि--सारी गौवों को; पुरस्कृत्य--आगे रख कर;श्रुद्झाणि--सींग की बनी तुरही; आपूर्य--बजाकर; सर्वतः--चारों ओर; तूर्य-घोषेण--तुरही की ध्वनि से; महता--उच्च;ययु:--रवाना हो गये; सह-पुरोहिता: --पुरोहितों सहित

    सारे बूढ़ों, स्त्रियों, बालकों तथा घरेलू सामग्री को बैलगाड़ियों में लाद कर एवं सारी गौवोंको आगे करके, ग्वालों ने सावधानी से अपने अपने तीर-कमान ले लिये और सींग के बनेबिगुल बजाये।

    हे राजा परीक्षित, इस तरह चारों ओर बिगुल बज रहे थे तभी ग्वालों ने अपनेपुरोहितों सहित अपनी यात्रा के लिए प्रस्थान किया।

    गोप्यो रूढरथा नूलकुचकुड्डू मकान्तय: ।

    कृष्णलीला जगुः प्रीत्या निष्ककण्ठ्य: सुवाससः ॥

    ३३॥

    गोप्य:--सारी गोपियाँ; रूढ-रथा: --बैलगाड़ियों पर चढ़ी हुई; नूल-कुच-कुट्डु म-कान्तय:--उनके शरीर, विशेषतया उनकेस्तन ताजे कुंकुम से सजाये गये; कृष्ण-लीला:--कृष्ण-लीलाएँ; जगु:--उच्चारण कर रही थीं; प्रीत्या--बड़े हर्ष से; निष्क-'कण्ठ्य:--अपने गलों में लाकेट पहने; सु-वासस: --अच्छे वस्त्रों से सज्जित

    बैलगाड़ियों में चढ़ी हुई गोपियाँ उत्तम से उत्तम वस्त्रों से सुसज्जित थीं और उनके शरीर,विशेषतया स्तन ताजे कुंकुम-चूर्ण से अलंकृत थे।

    बैलगाड़ियों पर चढ़ते समय वे अत्यन्तहर्षपूर्वक कृष्ण की लीलाओं का कीर्तन करने लगीं।

    तथा यशोदारोहिण्यावेक॑ शकटमास्थिते ।

    रेजतु: कृष्णरामाभ्यां तत्कथाश्रवणोत्सुके ॥

    ३४॥

    तथा--और; यशोदा-रोहिण्यौ--यशोदा तथा रोहिणी दोनों; एकम्‌ शकटम्‌--एक बैलगाड़ी पर; आस्थिते--बैठी; रेजतु:--अत्यन्त सुन्दर; कृष्ण-रामाभ्यामू--अपनी माताओं के साथ कृष्ण तथा बलराम; तत्‌-कथा--कृष्ण तथा बलराम की लीलाओंका; श्रवण-उत्सुके --बड़ी ही उत्सुकता से सुनते हुए।

    इस तरह माता यशोदा तथा रोहिणीदेवी कृष्ण तथा बलराम की लीलाओं को बड़े हर्ष सेसुनती हुईं, जिससे वे क्षण-भर के लिए भी उनसे वियुक्त न हों, एक बैलगाड़ी में उन दोनों केसाथ चढ़ गईं।

    इस दशा में वे सभी अत्यन्त सुन्दर लग रहे थे।

    वृन्दावन सम्प्रविश्य सर्वकालसुखावहम्‌ ।

    तत्र चक्रुर््ंजावासं शकटैरर्धचन्द्रवत्‌ ॥

    ३५॥

    वृन्दावनम्‌--वृन्दावन नामक पवित्र स्थान में; सम्प्रविश्य--प्रविष्ट होकर; सर्व-काल-सुख-आवहम्‌--जहाँ सभी ऋतुओं में रहनासुहावना लगता है; तत्र--वहाँ; चक्रु:--बनाया; ब्रज-आवासम्‌--त्रज का निवास; शकटैः--बैलगाड़ियों से; अर्ध-चन्द्रवत्‌ --आधे चन्द्रमा जैसा अर्धवृत्त बनाकर।

    इस तरह वे वृन्दावन में प्रविष्ट हुए जहाँ सभी ऋतुओं में रहना सुहावना लगता है।

    उन्होंनेअपनी बैलगाड़ियों से अर्धचन्द्राकार अर्धवृत्त बनाकर अपने रहने के लिए अस्थायी निवास बनालिया।

    वृन्दावन गोवर्धन यमुनापुलिनानि च ।

    वीक्ष्यासीदुत्तमा प्रीती राममाधवयोनृप ॥

    ३६॥

    वृन्दावनम्‌--वृन्दावन नामक स्थान; गोवर्धनम्‌-गोवर्धन पर्वत; यमुना-पुलिनानि च--तथा यमुना नदी के किनारे; वीक्ष्य--देखकर; आसीत्‌--हो उठे; उत्तमा प्रीती--उच्च कोटि का हर्ष; राम-माधवयो:--कृष्ण तथा बलराम का; नृप--हे राजापरीक्षित |

    हे राजा परीक्षित, जब राम तथा कृष्ण ने वृन्दावन, गोवर्धन तथा यमुना नदी के तट देखे तोदोनों को बड़ा आनन्द आया।

    एवं ब्रजौकसां प्रीतिं यच्छन्तौ बालचेष्टितै: ।

    कलवाक्यै: स्वकालेन वत्सपालौ बभूबतु: ॥

    ३७॥

    एवम्‌--इस प्रकार; ब्रज-ओकसाम्‌--सारे ब्रजवासियों को; प्रीतिमू--हर्ष; यच्छन्तौ--प्रदान करते हुए; बाल-चेष्टितै:--बाल-लीलाओं से; कल-वाक्यै:--मीठी तोतली बोली से; स्व-कालेन--समयानुसार; वत्स-पालौ--बछड़ों की रखवाली करने केलिए; बभूवतु:--बड़े हो गये।

    इस तरह कृष्ण और बलराम छोटे बालकों की तरह क्रीड़ाएँ करते तथा तोतली बोली बोलतेहुए ब्रज के सारे निवासियों को दिव्य आनन्द देने लगे।

    समय आने पर वे बछड़ों की देखभालकरने के योग्य हो गये।

    अविदूरे ब्रजभुवः सह गोपालदारकै: ।

    चारयामासतुर्वत्सान्नानाक्रीडापरिच्छदौ ॥

    ३८॥

    अविदूरे--ब्रजवासियों के आवासीय घरों से अधिक दूर नहीं; ब्रज-भुव:ः--व्रजभूमि से; सह गोपाल-दारकै:--उसी व्यवसायवाले अन्य बालकों ( ग्वालों ) के साथ; चारयाम्‌ आसतु:--चराया करते; वत्सानू--बछड़ों को; नाना--तरह तरह के; क्रीडा--खेल; परिच्छदौ--भाँति-भाँति की सुन्दर वेशभूषाओं से युक्त तथा औजारों से लैस।

    कृष्ण तथा बलराम अपने मकान के पास ही सभी तरह के खिलौनों से युक्त होकर अन्यग्वालों के साथ खेलने लगे एवं छोटे-छोटे बछड़ों को चराने लगे।

    क्वचिद्वादयतो वेणुं क्षेपणै: क्षिपतः क्वचित्‌ ।

    क्वचित्पादे: किल्धिणीभि: क्वचित्कृत्रिमगोवृषै: ॥

    ३९॥

    वृषायमाणो नर्दन्तौ युयुधाते परस्परम्‌ ।

    अनुकृत्य रुतैर्जन्तूंश्वेरतु: प्राकृता यथा ॥

    ४०॥

    क्वचित्‌--कभी; वादयत:--बजाते हुए; वेणुम्‌--बाँसुरी को; क्षेपणैः--फेंकने की रस्सी ( गुलेल ) से; क्षिपत:--फल पाने केलिए पत्थर फेंकते; क्वचित्‌--कभी; क्वचित्‌ पादैः:--कभी पाँवों से; किड्लिणीभि:--पैजनियों की आवाज से; क्वचित्‌--कभी; कृत्रिम-गो-वृषै:--नकली गाय तथा बैल बन कर; वृषायमाणौ--पशुओं की नकल उतारते; नर्दन्तौ--नादते, जोर सेशब्द करते; युयुधाते-- लड़ने लगते; परस्परम्‌--एक-दूसरे से; अनुकृत्य--नकल करके; रुतैः:--आवाज निकालते हुए;जन्तूनू--सारे पशुओं की; चेरतु:--घूमा करते; प्राकृतौ--दो सामान्य बालकों; यथा--की तरह

    कृष्ण और बलराम कभी अपनी बाँसुरी बजाते, कभी वृक्षों से फल गिराने के लिए गुलेलचलाते, कभी केवल पत्थर फेंकते और कभी पाँवों के घुँधरूओं के बजते रहने के साथ साथ, वेबेल तथा आमलकी जैसे फलों से फुटबाल खेलते।

    कभी कभी वे अपने ऊपर कम्बल डाल करगौवों तथा बैलों की नकल उतारते और जोर-जोर से शब्द करते हुए एक-दूसरे से लड़ते।

    कभीवे पशुओं की बोलियों की नकल करते।

    इस तरह वे दोनों सामान्य मानवी बालकों की तरहखेल का आनन्द लेते।

    कदाचिद्यमुनातीरे वत्सांश्वारयतो: स्वकैः ।

    वयस्यै: कृष्णबलयोर्जिघांसुर्देत्य आगमत्‌ ॥

    ४१॥

    कदाचित्‌--कभी; यमुना-तीरे-- यमुना के तट पर; वत्सानू--बछड़ों को; चारयतो:--चराते हुए; स्वकै:--अपने; वयस्यै:--अन्य साथियों के साथ; कृष्ण-बलयो:--कृष्ण तथा बलराम दोनों को; जिधघांसु:--मारने की इच्छा से; दैत्य:--अन्य असुर;आगमत्‌--आ पहुँचा

    एक दिन जब राम तथा कृष्ण अपने साथियों के साथ यमुना नदी के किनारे अपने बछड़ेचरा रहे थे तो उन्हें मारने की इच्छा से वहाँ एक अन्य असुर आया।

    त॑ वत्सरूपिणं वीक्ष्य वत्सयूथगतं हरि: ।

    दर्शयन्बलदेवाय शनैर्मुग्थ इवासदत्‌ ॥

    ४२॥

    तम्‌--असुर को; वत्स-रूपिणम्‌ू--बछड़े का वेश धारण किये; वीक्ष्य--देख कर; वत्स-यूथ-गतम्‌--जब वह असुर अन्यबछड़ों के समूह के बीच घुसा; हरिः-- भगवान्‌ कृष्ण; दर्शयन्‌--सूचित करते हुए; बलदेवाय--बलदेव को; शनै:--अत्यन्तधीमे धीमे; मुग्ध: इब--मानो कुछ समझ ही न रहे हों; आसदत्‌--पास आये।

    जब भगवान्‌ ने देखा कि असुर बछड़े का वेश धारण करके अन्य बछड़ों के समूह के बीचघुस आया है, तो उन्होंने बलदेव को इड्लित किया, ‘‘यह रहा दूसरा असुर।

    ' फिर वे उस असुर केपास धीरे-धीरे पहुँच गये मानो वे असुर के मनोभावों को समझ नहीं रहे थे।

    गृहीत्वापरपादाभ्यां सहलाज्ूलमच्युत: ॥

    भ्रामयित्वा कपित्थाग्रे प्राहिणोद्गतजीवितम्‌ ।

    स कपित्थेरमहाकाय: पात्यमानैः पपात ह ॥

    ४३॥

    गृहीत्वा--पकड़ कर; अपर-पादाभ्याम्‌--पिछले पाँव से; सह--साथ; लाडूलम्‌--पूँछ को; अच्युतः--भगवान्‌ कृष्ण ने;भ्रामयित्वा--तेजी से घुमाकर; कपित्थ-अग्रे--कैथे के पेड़ की चोटी पर; प्राहिणोत्‌-- फेंक दिया; गत-जीवितम्‌--प्राणहीन शरीर; सः--वह असुर; कपित्थे:--कैथे के वृक्ष समेत; महा-काय:--विशाल शरीर धारण किये; पात्यमानैः --गिरता हुआवृक्ष; पपात ह--मृत होकर भूमि पर गिर पड़ा |

    तत्पश्चात्‌ श्रीकृष्ण ने उस असुर की पिछली टाँगें तथा पूँछ पकड़ ली और वे उसके शरीर कोतब तक तेजी से घुमाते रहे जब तक वह मर नहीं गया।

    फिर उसे कैथे के पेड़ की चोटी पर फेंकदिया।

    वह वृक्ष उस असुर द्वारा धारण किये गये विशाल शरीर को लेकर भूमि पर गिर पड़ा।

    त॑ वीक्ष्य विस्मिता बाला: शशंसु: साधु साध्विति ।

    देवाश्व परिसन्तुष्टा बभूवु: पुष्पव्षिण: ॥

    ४४॥

    तम्‌--इस घटना को; वीक्ष्य--देखकर; विस्मिता:--चकित; बाला:--सारे बालक; शशंसु:--खूब प्रशंसा की; साधु साधुइति--’' बहुत अच्छा बहुत अच्छा ' चिल्लाते हुए; देवा: च--तथा स्वर्गलोक से सारे देवता; परिसन्तुष्टाः --अत्यन्त संतुष्ट;बभूवु:--हो गये; पुष्प-वर्षिण:--कृष्ण पर फूलों की वर्षा की |

    असुर के मृत शरीर को देखकर सारे ग्वालबाल चिल्ला उठे, ‘बहुत खूब कृष्ण, बहुतअच्छे, बहुत अच्छे, धन्यवाद, ' स्वर्गलोक में सारे देवता प्रसन्न थे अतः उन्होंने भगवान्‌ पर फूलबरसाये।

    तौ वत्सपालकौ भूत्वा सर्वलोकैकपालकौ ।

    सप्रातराशौ गोवत्सांश्चारयन्तौ विचेरतु: ॥

    ४५॥

    तौ--कृष्ण तथा बलराम; वत्स-पालकौ--मानो बछड़ों की रखवाली करने वाले; भूत्वा--बन कर; सर्व-लोक-एक-पालकौ--यद्यपि बे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के जीवों के पालनकर्ता हैं; स-प्रात:-आशौ--सुबह का नाश्ता करके; गो-वत्सान्‌--सारेबछड़ों को; चारयन्तौ--चराते हुए; विचेरतु: --इधर-उधर विचरण करने लगे।

    असुर को मारने के बाद कृष्ण तथा बलराम ने अपना सुबह का नाश्ता ( कलेवा ) कियाऔर बछड़ों की रखवाली करते हुए वे इधर-उधर टहलते रहे।

    भगवान्‌ कृष्ण तथा बलराम ने जोसम्पूर्ण सृष्टि के पालक हैं, ग्वालबालों की तरह बछड़ों का भार सँभाला।

    स्वं स्वं वत्सकुलं सर्वे पाययिष्यन्त एकदा ।

    गत्वा जलाशयाभ्याशं पाययित्वा पपुर्जलम्‌ ॥

    ४६॥

    स्वम्‌ स्वमू-- अपने अपने; वत्स-कुलम्‌--बछड़ों के समूह को; सर्वे--सारे लड़के तथा कृष्ण एवं बलराम; पाययिष्यन्त:--पानीपिलाने की इच्छा से; एकदा--एक दिन; गत्वा--जाकर; जल-आशय-अभ्याशम्‌--तालाब के निकट; पाययित्वा--पशुओंको पानी पिला कर; पपु: जलमू्‌--स्वयं भी जल पिया

    एक दिन कृष्ण तथा बलराम समेत सारे बालक, अपने अपने बछड़ों का समूह लेकर,जलाशय के पास बछड़ों को पानी पिलाने लाये।

    जब पशु जल पी चुके तो बालकों ने भी वहाँपानी पिया।

    ते तत्र दहशुर्बाला महासत्त्वमवस्थितम्‌ ।

    तत्रसुर्वज्निर्भिन्नं गिरे: श्रृद्रमिव च्युतम्‌ ॥

    ४७॥

    ते--उन; तत्र--वहाँ; दहशु:--देखा; बाला:--बालकों ने; महा-सत्त्वमू--विशाल शरीर; अवस्थितम्‌--स्थित; तत्रसु:--डरगये; वज़-निर्भिन्नम्‌--वज़ से टूटा; गिरे: श्रूड़मू--पर्वत की चोटी; इब--सहश; च्युतम्‌--वहाँ पर गिरी हुई |

    जलाशय के पास ही बालकों ने एक विराट शरीर देखा जो उस पर्वत की चोटी के समानथा, जो वज़न के द्वारा टूट पड़ी हो।

    वे ऐसे विशाल जीव को देखखर ही भयभीत थे।

    स वै बको नाम महानसुरो बकरूपधृक्‌ ।

    आगत्य सहसा कृष्णं तीक्ष्णतुण्डोग्रसट्बली ॥

    ४८ ॥

    सः--वह प्राणी; बै--निस्सन्देह; बकः नाम--बकासुर नामक; महान्‌ असुर:ः--विशाल असुर; बक-रूप-धृक्‌ --बगुले काशरीर धारण करके; आगत्य--वहाँ आकर; सहसा--अचानक; कृष्णम्‌--कृष्ण को; तीक्ष्ण-तुण्ड:--तेज चोंच वाला;अग्रसत्‌--निगल गया; बली--अत्यन्त बलशाली |

    वह विशालकाय असुर बकासुर था।

    उसने अत्यन्त तेज चोंच वाले बगुले का शरीर धारणकर लिया था।

    वहाँ आकर उसने तुरन्त ही कृष्ण को निगल लिया।

    कृष्णं महाबक ग्रस्तं दृष्ठा रामादयोर्भका: ।

    बभूवुरिन्द्रियाणीव विना प्राणं विचेतस: ॥

    ४९॥

    कृष्णम्‌-कृष्ण को; महा-बक- ग्रस्तम्‌--विशाल बगुले द्वारा निगला हुआ; दृष्टा--देखकर; राम-आदय: अर्भका:--बलरामइत्यादि सारे बालक; बभूवु:--हो गए; इन्द्रियाणि--इन्द्रियाँ; इब--सह्ृश; विना--रहित; प्राणम्‌--प्राण; विचेतस:--अत्यधिकमोहग्रस्त, प्रायः अचेत।

    जब बलराम तथा अन्य बालकों ने देखा कि कृष्ण विशाल बगुले द्वारा निगले जा चुके हैं,तो वे बेहोश जैसे हो गये मानों प्राणरहित इन्द्रियाँ हों।

    त॑ तालुमूलं प्रदहन्तमग्निवद्‌गोपालसूनुं पितरं जगद्गुरो: ।

    अच्छर्द सद्योउतिरुषाक्षतं बक-स्तुण्डेन हन्तुं पुनरभ्यपद्यत ॥

    ५०॥

    तम्‌--उसको; तालु-मूलम्‌-गले के नीचे; प्रदहन्तम्‌--जलाते हुए; अग्नि-बत्‌--आग की तरह; गोपाल-सूनुम्‌-ग्वाल-पुत्र,कृष्ण को; पितरम्‌--पिता को; जगत्-गुरो:--ब्रह्मा के; चच्छर्द--उसके मुँह से निकल आये; सद्यः--तुरन्‍्त; अति-रुषा--अत्यधिक क्रोध से; अक्षतम्‌--बिना किसी तरह चोट खाये; बक:ः--बकासुर; तुण्डेन--तेज चोंच से; हन्तुमू--मार डालने केलिए; पुनः--फिर; अभ्यपद्यत--प्रयास किया।

    कृष्ण जो ब्रह्मा के पिता हैं किन्तु ग्वाले के पुत्र की भूमिका निभा रहे थे, अग्नि के समानबन कर असुर के गले के निचले भाग को जलाने लगे जिससे बकासुर ने तुरन्त ही उन्हें उगलदिया।

    जब असुर ने देखा कि निगले जाने पर भी कृष्ण को कोई क्षति नहीं पहुँची तो तुरन्त हीउसने अपनी तेज चोंच से कृष्ण पर फिर वार कर दिया।

    तमापतन्तं स निगृह्य तुण्डयो-दोर्भ्या बक॑ कंससखं सतां पति: ।

    पश्यत्सु बालेषु ददार लीलयामुदावहों वीरणवह्दिवौकसाम्‌ ॥

    ५१॥

    तम्‌--बकासुर को; आपतन्तम्‌--उन पर आक्रमण करने के लिए पुनः उद्यत; सः--भगवान्‌ कृष्ण ने; निगृह्य--पकड़ कर;तुण्डयो:--चोंच; दोर्भ्यामू--अपनी बाहुओं से; बकम्‌--बकासुर को; कंस-सखम्‌--कंस के संगी; सताम्‌ पति: --वैष्णवों केस्वामी कृष्ण ने; पश्यत्सु--देखते देखते; बालेषु--ग्वालबालों के; ददार--दो टुकड़े कर दिये; लीलया--आसानी से; मुदा-आवहः--मनमोहक कार्य; वीरण-वत्‌--वीरण घास के तुल्य; दिवौकसाम्‌--स्वर्ग के निवासियों केलिए

    जब वैष्णवों के नायक कृष्ण ने यह देखा कि कंस का मित्र बकासुर उन पर आक्रमणकरने का प्रयास कर रहा है, तो उन्होंने अपने हाथों से उसकी चोंच के दोनों भागों ( ठोरों ) कोपकड़ लिया और सारे ग्वालबालों की उपस्थिति में उसे उसी प्रकार चीर डाला जिस तरह वीरणघास ( गाँडर ) के डंठल को बच्चे चीर डालते हैं।

    कृष्ण द्वारा इस प्रकार असुर के मारे जाने सेस्वर्ग के निवासी अत्यन्त प्रसन्न हुए।

    तदा बकारिं सुरलोकवासिनःसमाकिरत्नन्दममल्लिकादिभि: ।

    समीडिरे चानकशड्डुसंस्तवै-स्तद्वीक्ष्य गोपालसुता विसिस्मिरे ॥

    ५२॥

    तदा--उस समय; बक-अरिम्‌--बकासुर के शत्रु को; सुर-लोक-वासिन:--स्वर्गलोक के वासियों ने; समाकिरन्‌ू--फूलबरसाये; नन्दन-मल्लिका-आदिभि:--नन्दन कानन में उत्पन्न मल्लिका आदि फूलों से; समीडिरे--उनको बधाई भी दी; च--तथा; आनक-शह्'ु-संस्तवैः --दुन्दुभी, शंख तथा स्तुतियों द्वारा; तत्‌ वीक्ष्य--यह देखकर; गोपाल-सुता:--ग्वालबाल;विसिस्मिरि--आश्चर्यचकित थे।

    उस समय स्वर्गलोक के वासियों ने बकासुर के शत्रु कृष्ण पर नन्दन-कानन में उगीमल्लिका के फूलों की वर्षा की।

    उन्होंने दुन्दुभी तथा शंख बजाकर एवं स्तुतियों द्वारा उनकोबधाई दी।

    यह देखकर सारे ग्वालबाल आश्चर्यचकित थे।

    मुक्त बकास्यादुपलभ्य बालकारामादय: प्राणमिवेन्द्रियो गण: ।

    स्थानागतं तं परिरभ्य निर्वृता:प्रणीय वत्सान्त्रजमेत्य तज्जगु; ॥

    ५३॥

    मुक्तम्‌ू--इस प्रकार छूटा हुआ; बक-आस्यात्‌--बकासुर के मुख से; उपलभ्य--वापस पाकर; बालका:--सारे बालक, संगी;राम-आदय: --बलराम इत्यादि; प्राणम्‌--प्राण; इब--के समान; इन्द्रियः--इन्द्रियाँ; गण: --समूह; स्थान-आगतम्‌--अपनेअपने स्थान पर जाकर; तम्‌--कृष्ण को; परिरभ्य--चूमते हुए; निर्वृता:--संकट से मुक्त हुए; प्रणीय--एकत्र करके;वत्सान्‌ू--बछड़ों को; ब्रजम्‌ एत्य--ब्रजभूमि लौट कर; तत्‌ जगु:--घटना का जोर-जोर से बखान किया।

    जिस प्रकार चेतना तथा प्राण वापस आने पर इन्द्रियाँ शान्त हो जाती हैं उसी तरह जब कृष्णइस संकट से उबर आये तो बलराम समेत सारे बालकों ने सोचा मानो उन्हें फिर से जीवन प्राप्तहुआ हो।

    उन्होंने कृष्ण का पूरी चेतना के साथ आलिंगन किया और अपने बछड़ों को समेट करवे ब्रजभूमि लौट आये जहाँ उन्होंने जोर-जोर से इस घटना का बखान किया।

    श्र॒ुत्वा तद्विस्मिता गोपा गोप्यश्चातिप्रियाहता: ।

    प्रेत्यागतमिवोत्सुक्यादैश्षन्त तृषितेक्षणा: ॥

    ५४॥

    श्रुत्वा--सुन कर; तत्‌ू--वह घटना; विस्मिता:--आश्चर्यचकित; गोपा:--ग्वाले; गोप्य: च--तथा गोपियाँ; अति-प्रिय-आहता:--समाचार को बड़े आदर से सुना; प्रेम आगतम्‌ इब-मानों ये बालक मृत्यु के मुख से लौट कर आये हों;उत्सुक्यात्‌-बड़ी उत्सुकता से; ऐश्षन्त--बालकों पर दृष्टि डालते हुए; तृषित-ईक्षणा:--पूर्ण सन्‍्तोष से

    कृष्ण तथा बालकों सेआँखें फेरने का मन नहीं हो रहा था।

    जब ग्वालों तथा गोपियों ने जंगल में बकासुर के मारे जाने का समाचार सुना तो वेअत्यधिक विस्मित हो उठे।

    कृष्ण को देखकर तथा उनकी कहानी सुन कर उन्होंने कृष्ण कास्वागत बड़ी उत्सुकता से यह सोचते हुए किया कि कृष्ण तथा अन्य बालक मृत्यु के मुख सेवापस आ गये हैं।

    अतः वे कृष्ण तथा उन बालकों को मौन नेत्रों से देखते रहे।

    अब जबकिबालक सुरक्षित थे, उनकी आँखें उनसे हटना नहीं चाह रही थीं।

    अहो बतास्य बालस्य बहवो मृत्यवोभवन्‌ ।

    अप्यासीद्विप्रियं तेषां कृतं पूर्व यतो भयम्‌ ॥

    ५५॥

    अहो बत--यह अत्यन्त आश्चर्य की बात है; अस्य--इस; बालस्य--कृष्ण का; बहव:--अनेक; मृत्यव:--मृत्यु के कारण;अभवनू--आये; अपि--फिर भी; आसीतू--था; विप्रियम्‌--मृत्यु का कारण; तेषाम्‌--सबों का; कृतम्‌--किया हुआ;पूर्वमू--पहले; यत:--जिससे; भयम्‌--मृत्यु-भय था।

    नन्द महाराज तथा अन्य ग्वाले विचार करने लगे: यह बड़े आश्चर्य की बात है कि यद्यपि इसबालक कृष्ण ने अनेक बार मृत्यु के विविध कारणों का सामना किया है किन्तु भगवान्‌ कीकृपा से भय के इन कारणों का ही विनाश हो गया और उसका बाल बाँका भी नहीं हुआ।

    अथधाप्यभिभवन्त्येनं नैव ते घोरदर्शना: ।

    जिघांसयैनमासाद्य नश्यन्त्यग्नौ पतड़वत्‌ ॥

    ५६॥

    अथ अपि--यद्यपि उन्होंने आक्रमण करना चाहा; अभिभवन्ति--मारने में सक्षम हैं; एनमू--इस बालक को; न--नहीं; एव--निश्चय ही; ते--वे सब; घोर-दर्शना:--देखने में भयावने; जिघांसया--ईर्ष्या के कारण; एनम्‌--कृष्ण के; आसाद्य--पासआकर; नश्यन्ति--नष्ट हो जाते हैं ( आक्रामक की मृत्यु होती है ); अग्नौ--अग्नि में; पतड़-वत्‌--कीटों के समान।

    यद्यपि मृत्यु के कारणरूप दैत्यगण अत्यन्त भयावने थे किन्तु वे इस बालक कृष्ण को मारनहीं पाये।

    चूँकि वे निर्दोष बालकों को मारने आये थे इसलिए ज्योंही वे उनके निकट पहुँचेत्योंही वे उसी तरह मारे गये जिस तरह अग्नि पर आक्रमण करने वाले पतड़े मारे जाते हैं।

    अहो ब्रह्मविदां वाचो नासत्या: सन्ति कर्हिचित्‌ ।

    गर्गो यदाह भगवानन्वभावि तथेव तत्‌ ॥

    ५७॥

    अहो--कितना आश्चर्यजनक है; ब्रह्म -विदाम्‌--ब्रह्म-ज्ञान से युक्त व्यक्तियों के; वाच:--शब्द; न--कभी नहीं; असत्या: --झूठ;सन्ति--होते हैं; कर्हिचित्‌ू--किसी भी समय; गर्ग:--गर्गमुनि ने; यत्‌ू--जो भी; आह--भविष्यवाणी की थी; भगवान्‌--परमशक्तिशाली; अन्वभावि--वही हो रहा है; तथा एब--जैसा; तत्‌--वहब्रह्म-ज्ञान से युक्त पुरुषों के शब्द कभी झूठे नहीं निकलते।

    यह बड़े ही आश्चर्य की बात हैकि गर्गमुनि ने जो भी भविष्यवाणी की थी उसे ही हम विस्तार से वस्तुत: अनुभव कर रहे हैं।

    इति नन्दादयो गोपा: कृष्णरामकथां मुदा ।

    कुर्वन्तो रममाणाश्च नाविन्दन्भववेदनाम्‌ ॥

    ५८ ॥

    इति--इस प्रकार; नन्द-आदय:--नन्द महाराज इत्यादि; गोपा:--ग्वाले; कृष्ण-राम-कथाम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण तथा राम सम्बन्धीघटनाओं की कथा को; मुदा--बड़े ही आनन्द से; कुर्वन्तः--करते हुए; रममाणा: च--आनन्द लेते हुए तथा कृष्ण के प्रति प्रेमबढ़ाते हुए; न--नहीं; अविन्दन्‌ू--अनुभव किया; भव-वेदनाम्‌--इस संसार के कष्टों को |

    इस तरह नन्द समेत सारे ग्वालों को कृष्ण तथा बलराम की लीलाओं सम्बन्धी कथाओं मेंबड़ा ही दिव्य आनन्द आया और उन्हें भौतिक कष्टों का पता तक नहीं चला।

    एवं विहारैः कौमारैः कौमारं जहतुर्ब्रजे ।

    निलायनै: सेतुबन्धर्मकटोत्प्लवनादिभि: ॥

    ५९॥

    एवम्‌--इस प्रकार; विहारैः--विभिन्न लीलाओं द्वारा; कौमारैः--बाल्योचित; कौमारम्‌ू--बाल्यावस्था; जहतु:--बिताई; ब्रजे--ब्रजभूमि में; निलायनैः--आँख-मिचौनी खेलते हुए; सेतु-बन्धैः--समुद्र में नकली पुल बनाते हुए; मर्कट--वानरों की तरह;उत्प्लवन-आदिभि:--इधर-उधर कूदते-फाँदते |

    इस तरह कृष्ण तथा बलराम ने व्रजभूमि में बच्चों के खेलों में, यथा आँख-मिचौनी खेलने,समुद्र में पुल बनाने का स्वांग करने तथा बन्दरों की तरह इधर-उधर कूदने-फाँदने में अपनीबाल्यावस्था व्यतीत की।

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    अध्याय बारह: राक्षस अघासुर का वध

    10.12श्रीशुक उबाचक्वचिद्दनाशाय मनो दधदव्॒जात्‌प्रात: समुत्थाय वयस्यवत्सपान्‌ ।

    प्रबोधयज्छुड्ररवेण चारुणाविनिर्गतो वत्सपुरःसरो हरि: ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; क्वचित्‌--एक दिन; वन-आशाय--जंगल में विहार करने हेतु; मनः--मन;दधतू-बध्यान दिया; ब्रजात्‌ू-ब्रजभूमि से बाहर गये; प्रातः:--सुबह होते ही; समुत्थाय--जग कर; वयस्य-वत्स-पान्‌--ग्वालबालों तथा बछड़ों को; प्रबोधयन्‌--जगाकर बतलाते हुए; श्रृड्अ-रवेण--सींग के बने बिगुल से आवाज करते हुए;चारुणा--अत्यन्त सुन्दर; विनिर्गतः--ब्रजभूमि से बाहर आये; वत्स-पुरःसर:--बछड़ों को आगे करके; हरिः-- भगवान्‌

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजनू, एक दिन कृष्ण ने जंगल में विहार करते हुए कलेवाकरना चाहा।

    उन्होंने बड़े सुबह उठ कर सींग का बिगुल बजाया तथा उसकी मधुर आवाज सेग्वालबालों तथा बछड़ों को जगाया।

    फिर कृष्ण तथा सारे बालक अपने अपने बछड़ों के समूहोंको आगे करके ब्रजभूमि से जंगल की ओर बढ़े।

    तेनैव साक॑ पृथुकाः सहस्त्रशःस्निग्धा: सुशिग्वेत्रविषाणवेणव: ।

    स्वान्स्वान्सहस्त्रोपरिसड्ख्ययान्वितान्‌वत्सान्पुरस्कृत्य विनिर्ययुर्मुदा ॥

    २॥

    तेन--उनके; एव--निस्सन्देह; साकम्‌--साथ; पृथुका:--बालक; सहस्रश:ः --हजारों; स्निग्धा:--अत्यन्त आकर्षक; सु--सुन्दर; शिकू--कलेवा की पोटली; वेत्र--बछड़े हाँकने के लिए लाठियाँ; विषाण--सींग के बने बिगुल; वेणव:--बाँसुरियाँ;स्वान्‌ स्वान्‌ू-- अपनी अपनी; सहस्त्र-उपरि-सड्ख्यया अन्वितान्‌--संख्या में एक हजार से ऊपर; वत्सान्‌ू--बछड़ों को; पुरः-कृत्य--आगे करके; विनिर्ययु;:--बाहर आ गये; मुदा--प्रसन्नतापूर्वक |

    उस समय लाखों ग्वालबाल ब्रजभूमि में अपने अपने घरों से बाहर आ गये और अपने साथ के लाखों बछड़ों की टोलियों को अपने आगे करके कृष्ण से आ मिले।

    ये बालक अतीव सुन्दरथे।

    उनके पास कलेवा की पोटली, बिगुल, वंशी तथा बछड़े चराने की लाठियाँ थीं।

    कृष्णवत्सैरसड्ख्यातैर्यूथीकृत्य स्ववत्सकान्‌ ।

    चारयन्तोर्भलीलाभिर्विजह॒स्तत्र तत्र ह ॥

    ३॥

    कृष्ण--कृष्ण का; वत्सैः--बछड़ों के साथ; असड्ख्यातैः--अनन्त; यूथी-कृत्य--उन्हें एकत्र करके; स्व-वत्सकान्‌-- अपनेबछड़ों को; चारयन्तः--चराते हुए; अर्भ-लीलाभि:--बाल-लीलाओं द्वारा; विजहः --आनन्द मनाया; तत्र तत्र--यहाँ वहाँ;ह--निस्सन्देह।

    कृष्ण ग्वालबालों तथा उनके बछड़ों के समूहों के साथ बाहर निकले तो असंख्य बछड़ेएकत्र हो गये।

    तब सारे लड़कों ने जंगल में परम प्रसन्न होकर खेलना प्रारम्भ कर दिया।

    'फलप्रबालस्तवकसुमन:पिच्छधातुभि: ।

    काचगुज्ञामणिस्वर्ण भूषिता अप्यभूषयन्‌ ॥

    ४॥

    'फल--जंगल के फल; प्रबाल--हरी पत्तियाँ; स्तवक--गुच्छे; सुमन: --सुन्दर फूल; पिच्छ--मोरपंख; धातुभि:--रंगीन खनिजपदार्थ, गेरू द्वारा; काच--एक प्रकार का पत्थर; गुझ्ला--छोटे छोटे शंख; मणि--मोती; स्वर्ण--सोना; भूषिता:--अलंकृत;अपि अभूषयन्‌--माताओं द्वारा सजाये जाने पर भी स्वयं इन वस्तुओं से अपने को सजाने लगे।

    यद्यपि इन बालकों की माताओं ने पहले से इन्हें काच, गुझ्ला, मोती तथा सोने के आभूषणोंसे सजा रखा था किन्तु फिर भी जंगल में जाकर उन्होंने फलों, हरी पत्तियों, फूलों के गुच्छों,मोरपंखों तथा गेरू से अपने को सजाया।

    मुष्णन्तोउन्योन्यशिक्यादीन्ज्ञातानाराच्च चिह्षिपु: ।

    तत्रत्याश्व पुनर्दूराद्धसन्तश्न पुनर्ददु; ॥

    ५॥

    मुष्णन्त:--चुराते हुए; अन्योन्य--एक-दूसरे से; शिक्य-आदीन्‌ू--कलेवा के डिब्बे तथा अन्य वस्तुएँ; ज्ञातानू--उसके असलीमालिक द्वारा जान लिये जाने पर; आरात्‌ च--दूर स्थान को; चिक्षिपु:--फेंक दिया; तत्रत्या: च--जो उस स्थान पर थे, वे भी;पुनः दूरात्‌ू--और आगे; हसन्तः च पुनः ददुः--हँसते हुए फिर से मालिक को लौटा दिया।

    सारे ग्वालबाल एक-दूसरे की कलेवा की पोटली चुराने लगे।

    जब कोई बालक जान जाताकि उसकी पोटली चुरा ली गयी है, तो दूसरे लड़के उसे दूर फेंक देते और वहाँ पर खड़े बालकउसे और दूर फेंक देते।

    जब पोटली का मालिक निराश हो जाता तो दूसरे बालक हँस पड़ते औरमालिक रो देता तब वह पोटली उसे लौटा दी जाती।

    यदि दूरं गत: कृष्णो वनशोभेक्षणाय तम्‌ ।

    अहं पूर्वमहं पूर्वमिति संस्पृश्य रेमिरि ॥

    ६॥

    यदि--यदि; दूरम्‌--दूर स्थान को; गत: --गये; कृष्ण: --कृष्ण; बन-शोभ--जंगल का सौन्दर्य; ईक्षणाय--देखने तथा आनन्दलेने के लिए; तम्‌--कृष्ण को; अहम्‌--ैं; पूर्वम्‌--प्रथम; अहम्‌--मैं; पूर्वमू--प्रथम; इति--इस प्रकार; संस्पृश्य--उन्हें छूकर; रेमिरि--जीवन का आनन्द लेते।

    कभी कभी कृष्ण जंगल की शोभा देखने के लिए दूर तक निकल जाते।

    तो सारे बालकउनके साथ जाने के लिए, यह कहते हुए दौते, ‘दौड़ कर कृष्ण को छूने वाला मैं पहला हूँगा! मैंकृष्ण को सबसे पहले छुऊँगा।

    ' इस तरह वे कृष्ण को बारम्बार छू-छू कर जीवन का आनन्दलेते।

    केचिद्वेणून्वादयन्तो ध्मान्तः श्रुड्भराणि केचन ।

    केचिद्धड़ैः प्रगायन्तः कूजन्त: कोकिलै: परे ॥

    ७॥

    विच्छायाभि: प्रधावन्तो गच्छन्तः साधुहंसकै: ।

    बकैरुपविशन्तश्च नृत्यन्तश्न कलापिभि: ॥

    ८॥

    विकर्षन्त: कीशबालानारोहन्तश्न तैर्द्रमान्‌ ।

    विकुर्वन्तश्च तै: साक॑ प्लवन्तश्च पलाशिषु ॥

    ९॥

    साकं भेकैर्विलड्डन्तः सरितः स्त्रवसम्प्लुता: ।

    विहसन्त: प्रतिच्छाया: शपन्तश्च प्रतिस्वनान्‌ ॥

    १०॥

    इत्थं सतां ब्रह्मसुखानु भूत्यादास्यं गतानां परदैवतेन ।

    मायाज्ितानां नरदारकेणसाक॑ विजह्ु: कृतपुण्यपुझ्ञा: ॥

    ११॥

    केचित्‌--उनमें से कोई; वेणून्‌ू--बाँसुरियों को; वादयन्त:--बजाते हुए; ध्मान्त:--बजाते; श्रूज्ञणि--सींग का बिगुल;केचन--अन्य कोई; केचित्‌--कोई; भृड्ठैः-- भौंरों के साथ; प्रगायन्त:--गाते हुए; कूजन्तः--कूजते हुए; कोकिलैः --कोयलोंके साथ; परे--अन्य; विच्छायाभि:--दौड़ती परछाइयों के साथ; प्रधावन्त:--चिड़ियों के पीछे दौते हुए; गच्छन्त:--साथ साथजाते हुए; साधु--सुन्दर; हंसकैः --हंसों के साथ; बकै:--एक स्थान पर बैठे बगुलों के साथ; उपविशन्तः च--उन्हीं के समानचुपचाप बैठते हुए; नृत्यन्त: च--तथा नाचते हुए; कलापिभि: --मोरों के साथ; विकर्षन्त:--आकर्षित करते हुए; कीश-बालानू्‌--बन्दरों के बच्चों को; आरोहन्तः च--चढ़ते हुए; तैः--बन्दरों के साथ; द्रुमानू--वृक्षों पर; विकुर्वन्त: च--उनकीनकल करते हुए; तैः--उनके; साकम्‌--के साथ; प्लवन्त: च--कूदते हुए; पलाशिषु--वृक्षों पर; साकम्‌--साथ; भेकै: --मेंढ़कों के; विलड्डन्त:--उन्हीं की तरह कूदते हुए; सरित:--जल; स्त्रव-सम्प्लुता:--नदी के जल में भीग गये; विहसन्तः--हँसतेहुए; प्रतिच्छाया:--परछाईं पर; शपन्त:ः च--निन्दा करते हुए; प्रतिस्वनानू--अपनी प्रतिध्वनि की आवाज; इत्थम्‌--इस प्रकार;सताम्‌--अध्यात्मवादियों का; ब्रह्म-सुख-अनुभूत्या--ब्रह्म-सुख के उद्गम, कृष्ण के साथ; दास्यम्‌--दास्यभाव; गतानाम्‌ू--भक्तों का जिन्होंने स्वीकार किया है; पर-दैवतेन-- भगवान्‌ के साथ; माया-आश्नितानाम्‌ू--माया के वशीभूतों के लिए; नर-दारकेण--जिन्होंने सामान्य बालक के सहृश उनके साथ; साकम्‌--साथ में; विजहु:-- आनन्द लूटा; कृत-पुण्य-पुझ्ला:--येसारे बालक जिन्होंने जन्म-जन्मांतर के पुण्यकर्मों के फल एकत्र कर रखे थे।

    सारे बालक भिन्न भिन्न कार्यों में व्यस्त थे।

    कुछ अपनी बाँसुरियाँ बजा रहे थे, कुछ सींग काबिगुल बजा रहे थे।

    कुछ भौरों की गुंजार की नकल तो अन्य बालक कोयल की कुहू कुहू कीनकल कर रहे थे।

    कुछ बालक उड़ती चिड़ियों की भूमि पर पड़ने वाली परछाइयों के पीछे दौड़कर उनकी नकल कर रहे थे, तो कुछ हंसों की सुन्दर गति तथा उनकी आकर्षक मुद्राओं कीनकल उतार रहे थे।

    कुछ चुपचाप बगुलों के पास बैठ गये और अन्य बालक मोरों के नाच कीनकल करने लगे।

    कुछ बालकों ने वृक्षों के बन्दरों को आकृष्ट किया, कुछ इन बन्दरों की नकलकरतेहुए पेड़ों पर कूदने लगे।

    कुछ बन्दरों जैसा मुँह बनाने लगे और कुछ एक डाल से दूसरीडाल पर कूदने लगे।

    कुछ बालक झरने के पास गये और उन्होंने मेंढ्रकों के साथ उछलते हुएनदी पार की और पानी में अपनी परछाईं देख कर वे हँसने लगे।

    वे अपनी प्रतिध्वनि की आवाजकी निन्‍्दा करते।

    इस तरह सारे बालक उन कृष्ण के साथ खेला करते जो ब्रह्मज्योति में लीनहोने के इच्छुक ज्ञानियों के लिए उसके उद्गम हैं और उन भक्तों के लिए भगवान्‌ हैं जिन्होंनेनित्यदासता स्वीकार कर रखी है किन्तु सामान्य व्यक्तियों के लिए वे ही एक सामान्य बालक हैं।

    ग्वालबालों ने अनेक जन्मों के पुण्यकर्मों का फल संचित कर रखा था फलत:ः वे इस तरहभगवान्‌ के साथ रह रहे थे।

    भला उनके इस महाभाग्य का वर्णन कौन कर सकता है ?

    यत्पादपांसुर्बहुजन्मकृच्छुतोधृतात्मभिर्योगिभिरप्यलभ्यः ।

    स एव यदूग्विषय: स्वयं स्थितःकिं वर्ण्यते दिष्टमतो ब्रजौकसाम्‌ ॥

    १२॥

    यत्‌--जिसके; पाद-पांसु;:--चरणकमलों की धूल; बहु-जन्म--अनेक जन्मों में; कृच्छृत:--योग, ध्यान आदि के लिए कठिनतपस्या करने से; धृत-आत्मभि:--मन को वश में रखने वालों के द्वारा; योगिभि: --ऐसे योगियों द्वारा ( ज्ञानयोगी, राजयोगी,ध्यानयोगी इत्यादि ); अपि--निस्सन्देह; अलभ्य:--प्राप्तन किया जा सकने वाली; सः--भगवान्‌; एव--निस्सन्देह; यत्‌-हक्‌ -विषयः--साक्षात्‌ दर्शन की वस्तु बन गया है; स्वयम्‌--स्वयं; स्थित:--उनके समक्ष उपस्थित; किम्‌--क्या; वर्ण्यते--वर्णनकिया जा सकता है; दिष्टम्‌ू-- भाग्य के विषय में; अत:--इसलिए; ब्रज-ओकसाम्‌--ब्रजभूमि वृन्दावन के वासियों के |

    भले ही योगी अनेक जन्मों तक यम, नियम, आसन तथा प्राणायाम द्वारा जिनमें से कोई भीसरलता से नहीं किया जा सकता है, कठोर से कठोर तपस्या करें फिर भी समय आने पर जबइन योगियों को मन पर नियंत्रण करने की सिद्धि प्राप्त हो जाती है, तो भी वे भगवान्‌ केचरणकमलों की धूल के एक कण तक का आस्वाद नहीं कर सकते।

    तो भला ब्रजभूमिवृन्दावन के निवासियों के महाभाग्य के विषय में क्या कहा जाय जिनके साथ साथ साक्षात्‌भगवान्‌ रहे और जिन्होंने उनका प्रत्यक्ष दर्शन किया ?

    अथाघनामाभ्यपतन्महासुर-स्तेषां सुखक्रीडनवीक्षणाक्षम: ।

    नित्यं यदन्तर्निजजीवितेप्सुभि:पीतामृतैरप्यमरैः प्रतीक्ष्यते ॥

    १३॥

    अथ--तत्पश्चात्‌; अध-नाम--अघ नामक शक्तिशाली असुर; अभ्यपतत्‌--उस स्थान पर प्रकट हुआ; महा-असुरः--महान,अत्यन्त शक्तिशाली असुर; तेषाम्‌-ग्वालबालों की; सुख-क़ीडन--दिव्य लीलाओं का आनन्द; वीक्षण-अक्षम: --देख करसहन कर पाने में अक्षम; नित्यम्‌--शा श्वत; यत्‌-अन्त:--अघासुर का अन्त; निज-जीवित-ईप्सुभि: --अघासुर द्वारा बिना सतायेहुए जीने के लिए; पीत-अमृतैः अपि-- प्रतिदिन अमृत-पान करते हुए भी; अमरैः--देवताओं द्वारा; प्रतीक्ष्यते--प्रतीक्षा की जारही थी ( देवता भी अघासुर के वध की प्रतीक्षा कर रहे थे )

    हे राजा परीक्षित, तत्पश्चात्‌ वहाँ पर एक विशाल असुर प्रकट हुआ जिसका नाम अघासुर थाऔर देवता तक जिसकी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे।

    यद्यपि देवता प्रतिदिन अमृत-पान करते थेफिर भी वे इस महान्‌ असुर से डरते थे और उसकी मृत्यु की प्रतीक्षा में थे।

    यह असुर जंगल मेंग्वालबालों द्वारा मनाये जा रहे दिव्य आनन्द को सहन नहीं कर सका।

    इृष्टार्भकान्कृष्णमुखानघासुरःकंसानुशिष्ट: स बकीबकानुज: ।

    अयं तु मे सोदरनाशकृत्तयो-ईयोम॑मैनं सबल॑ हनिष्ये ॥

    १४॥

    इृष्ठा--देख कर; अर्भकान्‌--सारे ग्वालबालों को; कृष्ण-मुखान्‌ू--कृष्ण आदि; अघासुर: --अघासुर नामक राक्षस; कंस-अनुशिष्ट:--कंस द्वारा भेजा गया; सः--वह ( अघासुर ); बकी-बक-अनुज: --पूतना तथा बकासुर का छोटा भाई; अयम्‌ू--यहकृष्ण; तु--निस्सन्देह; मे--मेरा; सोदर-नाश-कृत्‌-- भाई तथा बहिन का मारने वाला; तयो:--अपने भाई तथा बहिन के लिए;द्वयो:--दोनों के लिए; मम--मेरा; एनम्‌--कृष्ण को; स-बलम्‌--उसके सहायक ग्वालबालों समेत; हनिष्ये--जान सेमारूँगा।

    कंस द्वारा भेजा गया अघासुर पूतना तथा बकासुर का छोटा भाई था।

    अतएव जब वहआया और उसने देखा कि कृष्ण सारे ग्वालबालों का मुखिया है, तो उसने सोचा, ‘इस कृष्ण नेमेरी बहन पूतना तथा मेरे भाई बकासुर का वध किया है।

    अतएव इन दोनों को तुष्ट करने केलिए मैं इस कृष्ण को इसके सहायक अन्य ग्वालबालों समेत मार डालूँगा।

    'एते यदा मत्सुहदोस्तिलापःकृतास्तदा नष्ट्समा ब्रजौकसः ।

    प्राणे गते वर्ष्मसु का नु चिन्ताप्रजासव: प्राणभूतो हि ये ते ॥

    १५॥

    एते--यह कृष्ण तथा उसके संगी ग्वालबाल; यदा--जब; मत्‌ू-सुहृदो: --मेंरे भाई तथा बहिन का; तिल-आप: कृता:--तिलतथा जल से अन्तिम संस्कार हो; तदा--उस समय; नष्ट-समा: --प्राणविहीन; ब्रज-ओकस: --ब्रज भूमि वृन्दावन के सारेनिवासी; प्राणे-- प्राण के; गते--निकल जाने पर; वर्ष्पसु--जहाँ तक शरीर का सम्बन्ध है; का--क्या; नु--निस्सन्देह;चिन्ता--सोच-विचार; प्रजा-असवः--अपने बच्चों के लिए जिनका प्रेम अपने जीवन के प्रति प्रेम जैसा ही है; प्राण-भृतः--वेजीव; हि--निस्सन्देह; ये ते--ये सारे व्रजभूमिवासी |

    अघासुर ने सोचा: यदि मैं किसी तरह कृष्ण तथा उनके संगियों को अपने भाई तथा बहिनकी दिवंगत आत्माओं के लिए तिल तथा जल की अन्तिम भेंट बना सकूँ तो व्रजभूमि के सारेवासी, जिनके लिए ये बालक प्राणों के तुल्य हैं, स्वयमेव मर जायेंगे।

    यदि प्राण नहीं रहेंगे तोफिर शरीर की क्‍या आवश्यकता ? फलस्वरूप अपने अपने पुत्रों के मरने पर ब्रज के सारे वासीस्वतः मर जायेंगे।

    इति व्यवस्यथाजगर बृहद्वपुःस योजनायाममहाद्विपीवरम्‌ ।

    धृत्वाद्भुतं व्यात्तगुह्दाननं तदापथि व्यशेत ग्रसनाशया खलः ॥

    १६॥

    इति--इस प्रकार; व्यवस्थ--निश्चय करके; आजगरम्‌---अजगर; बृहत्‌ बपु:--अत्यन्त भारी शरीर; सः--अघासुर ने; योजन-आयाम--आठ मील भूमि घेरने वाला; महा-अद्वि-पीवरम्‌--विशाल पर्वत के समान मोटा; धृत्वा--रूप धारण कर; अद्भुतम्‌--अद्भुत; व्यात्त--फैला दिया; गुहा-आननम्‌--विशाल पर्वत-गुफा जैसे मुँह वाला; तदा--उस समय; पथि--रास्ते में;व्यशेत--घेर लिया; ग्रसन-आशया--सारे ग्वालबालों को निगलने की आशा से; खलः-ुष्ट |

    यह निश्चय करने के बाद उस दुष्ट अघासुर ने एक विशाल अजगर का रूप धारण करलिया, जो विशाल पर्वत की तरह मोटा तथा आठ मील तक लम्बा था।

    इस तरह अद्भुत अजगरका शरीर धारण करने के बाद उसने अपना मुँह पर्वत की एक बड़ी गुफा के तुल्य फैला दियाऔर रास्ते में कृष्ण तथा उनके संगी ग्वालबालों को निगल जाने की आशा से लेट गया।

    धराधरोष्टो जलदोत्तरोष्टोदर्याननान्तो गिरिश्रुड्डदंष्रः ।

    ध्वान्तान्तरास्यो वितताध्वजिह्ःपरुषानिलश्वासदवेक्षणोष्ण: ॥

    १७॥

    धरा--पृथ्वी; अधर-ओएष्ठ :--जिसका निचला होंठ; जलद-उत्तर-ओष्ठ:--जिसका ऊपरी होंठ बादलों को छू रहा था; दरी-आनन-अन्त:--जिसका मुँह पर्वत-गुफा के समान चौड़ाई में फैल गया था; गिरि- श्रूड्र-- पर्वत की चोटी के समान; दंष्ट:--दाँत; ध्वान्त-अन्तः-आस्य:--मुँह के भीतर का वायुमण्डल यथासम्भव अंधकारपूर्ण था; वितत-अध्व-जिह्ः--जिसकी जीभचौ रास्ते की भाँति थी; परुष-अनिल-श्रास--जिसकी श्वास गर्म हवा की तरह थी; दव-ईक्षण-उष्ण:--जिसकी चितवन आगकी लपटों जैसी थी।

    उसका निचला होठ पृथ्वी पर था और ऊपरी होठ आकाश के बादलों को छू रहा था।

    उसकेमुख की बगलें पर्वत की विशाल गुफाओं के समान थीं और मुख का मध्य भाग अत्यन्तअंधकारमय था।

    उसकी जीभ चौ मार्ग के तुल्य थी, उसकी श्वास गर्म हवा जैसी थी और उसकीआँखें आग की लपटों जैसी जल रही थीं।

    इृष्ठा तं ताद॒शं सर्वे मत्वा वृन्दावनश्रियम्‌ ।

    व्यात्ताजगरतुण्डेन हुप्प्रेक्षन्ते सम लीलया ॥

    १८॥

    इृष्ठा--देख कर; तम्‌--उस अघासुर को; ताहशम्‌--उस अव्स्था में; सर्वे--कृष्ण तथा सारे बालकों ने; मत्वा--सोचा कि;बृन्दावन-अियम्‌--वृन्दावन की सुन्दर मूर्ति; व्यात्त--फैला हुआ; अजगर-तुण्डेन--अजगर के मुँह जैसा; हि--निस्सनदेह;उत्प्रेक्षन्ते--मानों देख रहा हो; स्म-- भूतकाल में; लीलया--लीला के रूप में |

    इस असुर का अद्भुत रूप विशाल अजगर के समान था।

    इसे देख कर बालकों ने सोचाकि हो न हो यह वृन्दावन का कोई रम्य स्थल है।

    तत्पश्चात्‌ उन्होंने कल्पना की कि यह विशालअजगर के मुख के समान है।

    दूसरे शब्दों में, निर्भाक बालकों ने सोचा कि विशाल अजगर रूपीयह मूर्ति उनके क्रीड़ा-आनन्द के लिए बनाई गई है।

    अहो मित्राणि गदत सत्त्वकूटं पुरः स्थितम्‌ ।

    अस्मत्सड्ग्रसनव्यात्तव्यालतुण्डायते नवा ॥

    १९॥

    अहो--ओह; मित्राणि--सारे मित्र; गदत--हमें बताओ तो; सत्त्व-कूटमू--मृत अजगर; पुरः स्थितम्‌ू--पहले से पड़ा हुआ;अस्मतू--हम सबों को; सड्ग्रसन--निगलने के लिए; व्यात्त-व्याल-तुण्डा-यते--अजगर ने मुख फैला रखा है; न वा--यहतथ्य है अथवा नहीं।

    बालकों ने कहा : मित्रो, क्या यह मृत है या सचमुच यह जीवित अजगर है, जिसने हम सबोंको निगलने के लिए अपना मुँह फैला रखा है? इस सन्देह को दूर करो न! सत्यमर्ककरारक्तमुत्तराहनुवद्धनम्‌ ॥

    अधराहनुवद्रोधस्तत्प्रतिच्छाययारुणम्‌ ॥

    २०॥

    सत्यम्‌ू--यह सचमुच जीवित अजगर है; अर्क-कर-आरक्तम्‌ू--धूप जैसा लगने वाला; उत्तरा-हनुवत्‌ घनम्‌--बादल पर ऊपरीहोंठ की तरह; अधरा-हनुवत्‌--निचले होंठ की तरह; रोध:--विशाल किनारा; तत्‌-प्रतिच्छायया--धूप के प्रतिबिम्ब से;अरुणम्‌ू--लाल-लाल।

    तत्पश्चात्‌ उन्होंने निश्चय किया : मित्रो, यह निश्चित रूप से हम सबों को निगल जाने के लिएयहाँ बैठा हुआ कोई पशु है।

    इसका ऊपरी होंठ सूर्य की धूप से रक्तिम हुए बादल की तरह हैऔर निचला होंठ बादल की लाल-लाल परछाईं-सा लगता है।

    प्रतिस्पर्थते सृक्कभ्यां सव्यासव्ये नगोदरे ।

    तुड्डश्वुड्भालयोप्येतास्तदंष्टाभिश्व पश्यत ॥

    २१॥

    प्रतिस्पर्धते--के सदृश; सृक्कभ्याम्‌--मुँह की बगलें, गलफड़; सव्य-असब्ये--बाएँ-दाएँ; नग-उदरे--पर्वत की गुफाएँ; तुड्-श्रुड़ु-आलय:--उच्च पर्वत-चोटियाँ; अपि--यद्यपि ऐसा है; एता: तत्‌-दंष्टाभि:--पशु के दाँतों के ही सदहश; च--तथा;पश्यत--देखो न।

    बाएँ तथा दाएँ दो खड्ड जैसी पर्वत-गुफाएँ दिखती हैं, वे इसकी गलफड़ें हैं और पर्वत कीऊँची चोटियाँ इसके दाँत हैं।

    आस्तृतायाममार्गोयं रसनां प्रतिगर्जति ।

    एपां अन्तर्गतं ध्वान्तमेतदप्यन्तराननम्‌ ॥

    २२॥

    आस्तृत-आयाम--लम्बाई तथा चौड़ाई; मार्ग: अयम्‌ू--चौड़ा रास्ता; रसनाम्‌--जीभ; प्रतिगर्जति--के सहश है; एषाम्‌ अन्तः-गतम्‌--पर्वतों के भीतर; ध्वान्तमू--अँधेरा; एतत्‌--यह; अपि--निस्सन्देह; अन्तः-आननमू--मुँह के भीतर

    इस पशु की जीभ की लम्बाई-चौड़ाई चौ मार्ग जैसी है और इसके मुख का भीतरी भागअत्यन्त अंधकारमय है मानो पर्वत के भीतर की गुफा हो।

    दावोष्णखरवातोअयं श्रासवद्धाति पश्यत ।

    तदग्धसत्त्वदुर्गन्‍्धोप्यन्तरामिषगन्धवत्‌ ॥

    २३॥

    दाव-उष्ण-खर-वातः अयम्‌--अग्नि के समान गर्म श्वास बाहर निकल रही है; श्वास-वत्‌ भाति पश्यत--देखो न उसकी श्वास केसहश है; तत्‌-दग्ध-सत्त्वत--जलते अस्थिपंजरों की; दुर्गन्‍्ध:--बुरी महक; अपि--निस्सन्देह; अन्त:-आमिष-गन्ध-वत्‌--मानोंभीतर से आ रही मांस की दुर्गध हो |

    यह अग्नि जैसी गर्म हवा उसके मुँह से निकली हुई श्वास है, जिससे जलते हुए मांस कीदुर्गध आ रही है क्योंकि उसने बहुत शव खा रखे हैं।

    अस्मान्किमत्र ग्रसिता निविष्टा-नयं तथा चेद्गकवद्विनडक्ष्यति ।

    क्षणादनेनेति बकार्युशन्मुखंवीक्ष्योद्धसन्त: करताडनैर्ययु: ॥

    २४॥

    अस्मान्‌ू--हम सबों को; किम्‌--क्या; अत्र--यहाँ; ग्रसिता--निगल जायेगा; निविष्टानू--प्रवेश करने का प्रयत्न करने वाले;अयमू--यह पशु; तथा--अत: ; चेत्‌--यदि; बक-वत्‌--बकासुर के समान; विनड्छि्यति--विनष्ट कर दिया जायेगा; क्षणात्‌--तुरन्त; अनेन--इस कृष्ण के द्वारा; इति--इस प्रकार; बक-अरि-उशत्‌-मुखम्‌--बकासुर के शत्रु कृष्ण के सुन्दर मुखमंडल को;वीक्ष्य--देखकर; उद्धसन्त:ः--जोर से हँसते हुए; कर-ताडनैः--ताली बजा-बजा कर; ययु:--मुँह के भीतर चले गये |

    तब बालकों ने कहा, ‘क्या यह प्राणी हम लोगों को निगलने आया है? यदि वह निगलेगातो तुरन्त ही बकासुर की भाँति मार डाला जायेगा।

    इस तरह उन्होंने बकासुर के शत्रु कृष्ण केसुन्दर मुख की ओर निहारा और ताली बजा कर जोर-जोर से हँसते हुए वे अजगर के मुँह मेंप्रविष्ट हो गये।

    इत्थं मिथोउतथ्यमतज्ज्ञभाषितंश्रुत्वा विचिन्त्येत्यमृषा मृषायते ।

    रक्षो विदित्वाखिलभूतहत्स्थितःस्वानां निरोद्धुं भगवान्मनो दधे ॥

    २५॥

    इत्थम्‌ू--इस प्रकार; मिथ:--अथवा दूसरा; अतथ्यम्‌--जो तथ्य नहीं है, ऐसा विषय; अ-तत्ू-ज्ञ--बिना जाने; भाषितमू--जबवे बातें कर रहे थे; श्रुत्वा--कृष्ण ने सुन कर; विचिन्त्य--सोच कर; इति--इस प्रकार; अमृषा--सचमुच; मृषायते--जो झूठालग रहा था ( वस्तुतः वह पशु अघासुर था किन्तु अल्प-ज्ञान के कारण वे उसे मृत अजगर समझ रहे थे ); रक्ष:--( किन्तु कृष्णसमझ गये थे कि ) वह असुर है; विदित्वा--जान कर; अखिल-भूत-हत्‌-स्थित: --अन्तर्यामी अर्थात्‌ हर एक के हृदय में स्थितहोने के कारण; स्वानाम्‌ू--अपने संगियों का; निरोद्धुम्‌--उन्हें मना करने के लिए; भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; मनः दधे--संकल्पकिया।

    हर व्यक्ति के हृदय में स्थित अन्तर्यामी परमात्मा भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने बालकों को परस्परनकली अजगर के विषय में बातें करते सुना।

    वे नहीं जानते थे कि यह वास्तव में अघासुर था,जो अजगर के रूप में प्रकट हुआ था।

    यह जानते हुए कृष्ण अपने मित्रों को असुर के मुख मेंप्रवेश करने से रोकना चाहते थे।

    तावत्प्रविष्टास्त्वसुरोदरान्तरंपर न गीर्णा: शिशव: सवत्सा: ।

    प्रतीक्षमाणेन बकारिवेशनंहतस्वकान्तस्मरणेन रक्षसा ॥

    २६॥

    तावत्‌--तब तक; प्रविष्टा:--सभी बालक घुस गये; तु--निस्सन्देह; असुर-उदर-अन्तरम्‌--उस असुर के पेट के भीतर; परम्‌--लेकिन; न गीर्णा:--निगले नहीं जा सके; शिशवः--सारे बालक; स-वत्सा:--अपने अपने बछड़ों समेत; प्रतीक्षमाणेन--प्रतीक्षारत; बक-अरि--बकासुर के शत्रु का; वेशनम्‌--प्रवेश; हत-स्व-कान्त-स्मरणेन--वह असुर अपने मृत सम्बन्धियों केबारे में सोच रहा था और तब तक संतुष्ट नहीं होगा जब तक कृष्ण मर न जाय; रक्षसा--असुर द्वारा

    जब तक कि कृष्ण सारे बालकों को रोकने के बारे में सोचें, तब तक वे सभी असुर केमुख में घुस गये।

    किन्तु उस असुर ने उन्हें निगला नहीं क्योंकि वह कृष्ण द्वारा मारे गये अपने सम्बन्धियों के विषय में सोच रहा था और अपने मुख में कृष्ण के घुसने की प्रतीक्षा कर रहा था।

    तान्वीक्ष्य कृष्ण: सकलाभयप्रदोहानन्यनाथान्स्वकरादवच्युतान्‌ ।

    दीनांश्व मृत्योर्जठराग्निघासान्‌घृणार्दितो दिष्टकृतेन विस्मित: ॥

    २७॥

    तान्‌ू--उन बालकों को; वीक्ष्य--देखकर; कृष्ण:-- भगवान्‌ कृष्ण; सकल-अभय-प्रदः--जो सबों को अभय प्रदान करने वालेहैं; हि--निस्सन्देह; अनन्य-नाथान्‌ू--विशेषतया उन ग्वालबालों के लिए जो कृष्ण के अतिरिक्त और किसी को नहीं जानते थे;स्व-करात्‌--अपने हाथ से; अवच्युतान्‌-गये हुए; दीनान्‌ च--तथा असहाय; मृत्यो: जठर-अग्नि-घासानू--जो अघासुर के पेटकी अग्नि में तिनकों की तरह प्रविष्ट हो चुके थे और जो असुर बहुत दिलेर और साक्षात्‌ मृत्यु की तरह भूखा था ( विशाल शरीरधारण करने से असुर काफी भूखा रहा होगा ); घृणा-अर्दित:--अहैतुकी कृपा के कारण दयालु; दिष्ट-कृतेन-- भगवान्‌ कीअन्तरंगा शक्ति से नियोजित वस्तुओं द्वारा; विस्मित:--वे भी क्षण-भर के लिए आश्चर्यचकित थे।

    कृष्ण ने देखा कि सारे ग्वालबाल, जो उन्हें ही अपना सर्वस्व मानते थे, उनके हाथ सेनिकल कर साक्षात्‌ मृत्यु रूपी अघासुर के उदर की अग्नि में तिनकों जैसे प्रविष्ट हो जाने सेअसहाय हैं।

    कृष्ण के लिए अपने इन ग्वालबाल मित्रों से विलग होना असहा था।

    अतएव यहदेखते हुए कि यह सब उनकी अन्तरंगा शक्ति द्वारा नियोजित किया प्रतीत होता है, कृष्णआश्चर्यचकित हो उठे और निश्चय न कर पाये कि क्या किया जाय।

    कृत्यं किमत्रास्य खलस्य जीवनन वा अमीषां च सतां विहिंसनम्‌ ।

    द्वयं कथं स्थादिति संविचिन्त्यज्ञात्वाविशत्तुण्डमशेषहग्घरि: ॥

    २८॥

    कृत्यम्‌ किम्‌--क्या किया जाय; अत्र--इस दशा में; अस्य खलस्य--इस ईर्ष्यालु असुर का; जीवनम्‌--जीवन; न--नहीं;वा--अथवा; अमीषाम्‌ च--तथा निर्दोषों का; सताम्‌-भक्तों का; विहिंसनम्‌--मृत्यु; दयम्‌-दोनों कार्य ( असुर वध तथाबालकों की रक्षा ); कथम्‌--कैसे; स्थात्‌ू--सम्भव हो सकता है; इति संविचिन्त्य--इस विषय के बारे में भलीभाँति सोच कर;ज्ञात्वा--और यह निश्चय करके कि क्‍या करना है; अविशतू--घुस गये; तुण्डम्‌--असुर के मुख में; अशेष-हक्‌ हरिः--कृष्ण,जो अपनी असीम शक्ति से भूत, वर्तमान तथा भविष्य को जान सकते हैं|

    अब क्या करना होगा ? इस असुर का वध और भक्तों का बचाव--एकसाथ दोनों को किसतरह सम्पन्न किया जाय ? असीम शक्तिशाली होने से कृष्ण ने ऐसी बुद्धिगम्य युक्ति निकल आनेतक प्रतीक्षा करने का निश्चय किया जिसके द्वारा वे बालकों को बचाने के साथ साथ उस असुरका वध भी कर सकें।

    तत्पश्चात्‌ वे अघासुर के मुख में घुस गये।

    तदा घनच्छदा देवा भयाद्धाहेति चुक्रुशु: ।

    जहृषुर्यें च कंसाद्या: कौणपास्त्वघबान्धवा: ॥

    २९॥

    तदा--उस समय; घन-छदा:--बादलों के पीछे; देवा:--सारे देवता; भयात्‌--असुर के मुँह में कृष्ण के घुस जाने से डर कर;हा-हा--हाय, हाय; इति--इस प्रकार; चुक्रुशु:--पुकारने लगे; जहषु:--प्रसन्न हुए; ये--जो; च-- भी; कंस-आद्या: --कंसतथा अन्य लोग; कौणपा:--असुरगण; तु--निस्सन्देह; अघ-बान्धवा:--अघासुर के मित्र |

    जब कृष्ण अघासुर के मुख में घुस गये तो बादलों के पीछे छिपे देवतागण हाय हाय करनेलगे।

    किन्तु अघासुर के मित्र, यथा कंस तथा अन्य असुरगण अत्यन्त हर्षित थे।

    तच्छुत्वा भगवान्कृष्णस्त्वव्ययः सार्भवत्सकम्‌ ।

    चूर्णीचिकीर्षोरात्मानं तरसा ववृधे गले ॥

    ३०॥

    तत्‌--वह हाय हाय की पुकार; श्रुत्वा--सुन कर; भगवानू्‌-- भगवान्‌; कृष्ण:--कृष्ण; तु--निस्सन्देह; अव्यय:--कभी विनष्टन होने वाले; स-अर्भ-वत्सकम्‌-ग्वालबालों तथा बछड़ों समेत; चूर्णी-चिकीर्षो:--उस राक्षस का जो उन्हें अपने पेट के भीतरचूर्ण कर देना चाहता था; आत्मानम्‌--स्वयं; तरसा--जल्दी से; बवृधे--; गले--तत्‌--वह हाय हाय की पुकार; श्रुत्वा--सुन कर; भगवान्‌-- भगवान्‌; कृष्ण:--कृष्ण; तु--निस्सन्देह; अव्ययः--कभी विनष्टन होने वाले; स-अर्भ-वत्सकम्‌-ग्वालबालों तथा बछड़ों समेत; चूर्णी-चिकीर्षो:--उस राक्षस का जो उन्हें अपने पेट के भीतरचूर्ण कर देना चाहता था; आत्मानम्‌--स्वयं; तरसा--जल्दी से; विवृधे--बढ़ा लिया; गले--गले के भीतर।

    जब अजेय भगवान्‌ कृष्ण ने देवताओं को बादलों के पीछे से हाय हाय पुकारते सुना तोतुरन्त ही उन्होंने स्वयं तथा अपने संगी ग्वालबालों को असुर से बचाने के लिए, जिन्हें वह चूर्ण-चूर्ण कर देना चाहता था, उसके गले के भीतर अपना विस्तार कर लिया।

    ततोतिकायस्य निरुद्धमार्गिणोझुदगीर्णइष्टे्रमतस्त्वितस्ततः ।

    पूर्णोउन्तरड़े पवनो निरुद्धोमूर्धन्विनिर्भिद्य विनिर्गतो बहि: ॥

    ३१॥

    ततः--तत्पश्चात्‌, असुर के गले में शरीर बढ़ा कर मारने के बाद; अति-कायस्य--विशाल शरीर वाले असुर का; निरुद्ध-मार्गिण:--दम घुट जाने से, सारे निकास मार्ग रुकने से; हि उद्गीर्ण-दृष्टे:--आँखें बाहर निकल आई हुईं; भ्रमतः तु इतः ततः--पुतलियाँ या प्राणवायु इधर-उधर चलती हुईं; पूर्ण:--पूरी तरह मरा; अन्त:-अड्जे--शरीर के भीतर; पवन:--प्राणवायु;निरुद्ध:--रुका हुआ; मूर्थन्‌ू--सिर के ऊपर का छेद; विनिर्भिद्य--तोड़ कर; विनिर्गतः--निकल गया; बहि:--बाहर

    चूँकि कृष्ण ने अपने शरीर का आकार बढ़ा दिया था इसलिए असुर ने अपने शरीर कोकाफी बड़ा कर लिया।

    फिर भी उसकी श्वास रुक गईं उसका दम घुट गया और उसकी आँखेंइधर-उधर भटकने लगीं तथा बाहर निकल आईं।

    किन्तु असुर के प्राण किसी भी छेद से निकलनहीं पा रहे थे अतः अन्त में उसके सिर के ऊपरी छेद से बाहर फूट पड़े।

    तेनैव सर्वेषु बहिर्गतेषुप्राणेषु वत्सान्सुहरद: परेतान्‌ ।

    इृष्टया स्वयोत्थाप्य तदन्वितः पुन-वक्त्रान्मुकुन्दों भगवान्विनिर्ययां ॥

    ३२॥

    तेन एव--उसी ब्रह्मरन्श्व अर्थात्‌ सिर के ऊपरी छेद से; सर्वेषु--शरीर के भीतर की सारी वायु; बहिः गतेषु--बाहर जाने से;प्राणेषु--प्राणों के; वत्सानू--बछड़े; सुहृद:--ग्वालबाल मित्र; परेतानू--जो भीतर मर चुके थे; दृष्टया स्वया--कृष्ण कीचितवन से; उत्थाप्य--पुनः जीवित करके; तत्‌-अन्बित:--उनके साथ; पुनः--फिर; वक्त्रात्‌ू--मुख से; मुकुन्दः--भगवान्‌;भगवानू--कृष्ण; विनिर्ययौ--बाहर आ गये।

    जब उस असुर के सिर के ऊपरी छेद से सारी प्राणवायु निकल गई तो कृष्ण ने मृत बछड़ोंतथा ग्वालबालों पर अपनी दृष्टि फेर कर उन्हें फिर से जीवित कर दिया।

    तब मुकुन्द जो किसीको भी मुक्ति दे सकते हैं अपने मित्रों तथा बछड़ों समेत उस असुर के मुख से बाहर आ गये।

    पीनाहिभोगोत्थितमद्भुतं मह-ज्योतिः स्वधाम्ना ज्वलयदिशो दश ।

    प्रतीक्ष्य खेउवस्थितमीशनिर्गमंविवेश तस्मिन्मिषतां दिवौकसाम्‌ ॥

    ३३॥

    पीन--अत्यन्त विशाल; अहि-भोग-उत्थितम्‌-- भौतिक भोग के लिए बने सर्प के शरीर के निकलने वाली; अद्भुतम्‌--विचित्र;महत्‌--महान्‌; ज्योति:--तेज; स्व-धाम्ना--अपने प्रकाश से; ज्वलयत्‌--चमकाता हुआ; दिशः दश--दशों दिशाएँ; प्रतीक्ष्य--प्रतीक्षा करके; खे--आकाश में; अवस्थितम्‌--स्थित; ईश-निर्गमम्‌--भगवान्‌ के बाहर आने तक; विवेश--प्रवेश किया;तस्मिन्‌ू--कृष्ण के शरीर में; मिषताम्‌--देखते देखते; दिवौकसाम्‌-देवताओं के |

    उस विराट अजगर के शरीर से सारी दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ एक प्रकाशमानतेज निकला और आकाश में अकेले तब तक रुका रहा जब तक कृष्ण उस शव के मुख सेबाहर नहीं आ गये।

    तत्पश्चात्‌ सारे देवताओं ने इस तेज को कृष्ण के शरीर में प्रवेश करते देखा।

    ततोतिहष्ठा: स्वकृतोकृताईणंपुष्पै: सुगा अप्सरसश्र नर्तनेः ।

    गीतैः सुरा वाद्यधराश्च वाद्यकै:स्तवैश्व विप्रा जयनिःस्वनैर्गणा: ॥

    ३४॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; अति-हष्टा:--अत्यन्त प्रसन्न; स्व-कृत:--अपना अपना कार्य; अकृत--पूरा किया; अर्हणम्‌-- भगवान्‌ कीपूजा रूप में; पुष्पै:--नन्दन कानन में उगे फूलों की वर्षा से; सु-गाः--दैवी गायक; अप्सरस: च--देवलोक की नर्तकियाँ;नर्तनीः--नाच से; गीतैः--देवलोक के गीत गाने से; सुरा:--सारे देवता; वाद्य-धरा: च--तथा ढोल बजाने वाले; वाद्यकैः --बाजा बजा करके; स्तवैः च--तथा स्तुतियों द्वारा; विप्रा:--ब्राह्मणणण; जय-निःस्वनै:-- भगवान्‌ की महिमा गायन से;गणाः--हर कोई

    तत्पश्चात्‌ हर एक के प्रसन्न होने पर देवता लोग नन्दन कानन से फूल बरसाने लगे, अप्सराएँनाचने लगीं और गायन के लिए प्रसिद्ध गन्धर्वगण स्तुति गाने लगे।

    ढोलकिये दुन्दुभी बजाने लगेतथा ब्राह्मण वैदिक स्तुतियाँ करने लगे।

    इस प्रकार स्वर्ग तथा पृथ्वी दोनों पर हर व्यक्ति भगवान्‌की महिमा का गायन करते हुए अपना अपना कार्य करने लगा।

    तदद्भुतस्तोत्रसुवाद्यगीतिका-जयादिनैकोत्सवमड्रलस्वनान्‌ ।

    श्रुत्वा स्वधाम्नोउन्त्यज आगतोचिराद्‌इृष्ठा महीशस्य जगाम विस्मयम्‌ ॥

    ३५॥

    तत्‌--उस ( स्वर्गलोक में देवताओं द्वारा मनाया गया उत्सव ); अद्भुत--विचित्र; स्तोत्र--स्तुति; सु-वाद्य--अच्छे अच्छे बाजे;गीतिका--दैवी गीत; जय-आदि--जयजयकार इत्यादि; न-एक-उत्सव-- भगवान्‌ के गुणगान के लिए ही उत्सव; मड्गल-स्वनान्‌ू--हर एक के लिए शुभ दिव्य ध्वनियाँ; श्रुत्वा--ऐसी ध्वनि सुन कर; स्व-धाम्न:--अपने धाम से; अन्ति--पास ही;अजः--ब्रह्म; आगत:ः--वहाँ आ गये; अचिरातू--तुरन्त; हृघ्ला--देखकर; महि--गुणगान; ईशस्य--कृष्ण का; जगामविस्मयम्‌ू--विस्मित हो गये |

    जब भगवान्‌ ब्रह्म ने अपने लोक के निकट ही ऐसा अद्भुत उत्सव होते सुना, जिसके साथसाथ संगीत, गीत तथा जयजयकार हो रहा था, तो वे तुरन्त उस उत्सव को देखने चले आये।

    कृष्ण का ऐसा गुणगान देखकर वे अत्यन्त विस्मित थे।

    राजन्नाजगरं चर्म शुष्क वृन्दावनेद्धुतम्‌ ।

    ब्रजौकसां बहुतिथं बभूवाक्रीडगहरम्‌ ॥

    ३६॥

    राजन्‌--हे महाराज परीक्षित; आजगरम्‌ चर्म--अघासुर का शुष्क शरीर जो बड़े चमड़े के रूप में बचा था; शुष्कम्‌--सूखा;बृन्दावने अद्भुतम्‌--वृन्दावन में विचित्र अजायबघर की तरह; ब्रज-ओकसाम्‌--व्रजभूमि के निवासियों के लिए; बहु-तिथम्‌--काफी दिनों तक; बभूव--बन गया; आक्रीड--क्रीड़ा स्थल; गहरम्‌-गुफा हे

    राजा परीक्षित, जब अघासुर का अजगर के आकार का शरीर सूख कर विशाल चमड़ाबन गया तो यह वृन्दावनवासियों के देखने जाने के लिए अद्भुत स्थान बन गया और ऐसा बहुतसमय तक बना रहा।

    एतत्कौमारजं कर्म हरेरात्माहिमोक्षणम्‌ ।

    मृत्यो: पौगण्डके बाला दृष्टोचुर्विस्मिता ब्रजे ॥

    ३७॥

    एतत्‌--अघासुर तथा कृष्ण के संगियों के उद्धार की यह घटना; कौमार-जम्‌ कर्म--कौमार ( ५ वर्ष की ) अवस्था में सम्पन्न;हरेः-- भगवान्‌ की; आत्म--भक्तजन भगवान्‌ की आत्मा हैं; अहि-मोक्षणम्‌-- उनका मोक्ष तथा अजगर का मोक्ष; मृत्यो: --जन्म-मरण के मार्ग से; पौगण्डके--पौगण्ड अवस्था में ( जो ५ वर्ष के एक वर्ष बाद शुरू होती है ); बाला:--सारे बालक;इृष्ठा ऊचु:--एक वर्ष बाद यह बात प्रकट की; विस्मिता:--मानो उसी दिन की घटना हो; ब्रजे-- वृन्दावन में

    स्वयं तथा अपने साथियों को मृत्यु से बचाने तथा अजगर रूप अघासुर को मोक्ष देने कीघटना तब घटी जब कृष्ण पाँच वर्ष के थे।

    इसका उद्घाटन ब्रजभूमि में एक वर्ष बाद हुआ मानोयह उसी दिन की घटना हो।

    नैतद्विचित्र॑ं मनुजार्भभायिन:परावराणां परमस्य वेधस: ।

    अघोडपि यत्स्पर्शनधौतपातकःप्रापात्मसाम्यं त्वसतां सुदुर्लभम्‌ ॥

    ३८॥

    न--नहीं; एतत्‌--यह; विचित्रम्‌-- अद्भुत है; मनुज-अर्भ-मायिन:--कृष्ण के लिए जो नन्‍्द तथा यशोदा पर दयालु होने केकारण उनके पुत्र रूप में प्रकट हुए; पर-अवराणाम्‌--समस्त कार्यो तथा कारणों का; परमस्य वेधस:--परम स्त्रष्टा का; अघःअपि--अघासुर भी; यत््‌-स्पर्शन--जिनके स्पर्श मात्र से; धौत-पातक:--संसार के सारे कल्मषों से मुक्त हो गया; प्राप--प्राप्तकिया; आत्म-साम्यम्‌--नारायण जैसा शरीर; तु--लेकिन; असताम्‌ सुदुर्लभम्‌--जो कलुषित आत्माओं के लिए संभव नहीं है

    किन्तु भगवान्‌ की दया से सबकुछ संभव हो सकता है।

    कृष्ण समस्त कारणों के कारण हैं।

    भौतिक जगत--उच्च तथा निम्न जगत--के कार्य-कारण आदि नियन्ता भगवान्‌ द्वारा ही सृजित होते हैं।

    जब कृष्ण नन्‍्द महाराज तथा यशोदा केपुत्र रूप में प्रकट हुए तो उन्होंने अपनी अहैतुकी कृपा से ऐसा किया।

    अतः उनके लिए अपनेअसीम ऐश्वर्य का प्रदर्शन कोई विचित्र बात न थी।

    हाँ, उन्होंने ऐसी महती कृपा प्रदर्शित की किसर्वाधिक पापी दुष्ट अघासुर भी ऊपर उठ गया और उनके संगियों में से एक बन गया और उसनेसारूप्य मुक्ति प्राप्त की जो वस्तुतः भौतिक कलाुषों से युक्त पुरुषों के लिए प्राप्त कर पानाअसम्भव है।

    सकृद्यदड़प्रतिमान्तराहितामनोमयी भागवतीं ददौ गतिम्‌ ।

    स एव नित्यात्मसुखानु भूत्यभि-व्युदस्तमायोउन्तर्गतो हि कि पुनः: ॥

    ३९॥

    सकृत्‌ू--केवल एक बार; यत्‌--जिसका; अड्गभ-प्रतिमा-- भगवान्‌ का स्वरूप ( वैसे रूप अनेक हैं किन्तु कृष्ण आदि रूप है );अन्तः-आहिता--अपने अन्तर में रखते हुए; मनः-मयी--बलपूर्वक उनका चिन्तन करते हुए; भागवतीम्‌--जो भगवान्‌ की भक्तिप्रदान करने में सक्षम है; ददौ--कृष्ण ने प्रदान किया; गतिम्‌--सर्वोत्तम स्थान; सः--वे ( भगवान्‌ ); एब--निस्सन्देह; नित्य--सदैव; आत्म--सारे जीवों का; सुख-अनुभूति--उनके चिन्तन मात्र से दिव्य आनन्द प्राप्त होता है; अभिव्युदस्त-माय:--क्योंकिवे सारे मोह को दूर कर देते हैं; अन्त:-गतः--हृदय के भीतर सदैव स्थित रहने वाले; हि--निस्सन्देह; किम्‌ पुन:--क्या कहाजाय।

    यदि कोई केवल एक बार या बलपूर्वक भी अपने मन में भगवान्‌ के स्वरूप को लाता है,तो उसे कृष्ण की दया से परम मोक्ष प्राप्त हो सकता है, जिस प्रकार अघासुर को प्राप्त हुआ।

    तोफिर उन लोगों के विषय में क्या कहा जाय जिनके हृदयों में भगवान्‌ अवतार लेकर प्रविष्ट होतेहैं अथवा उनका जो सदैव भगवान्‌ के चरणकमलों का ही चिन्तन करते रहते हैं, जो सारे जीवोंके लिए दिव्य आनन्द के स्रोत हैं और जो सारे मोह को पूरी तरह हटा देते हैं ?

    श्रीसूत उबाचइत्थं द्विजा यादवदेवदत्त:श्र॒त्वा स्वरातुश्चरितं विचित्रम्‌ ।

    पप्रच्छ भूयोपि तदेव पुण्यंवैयासकिं यन्निगृहीतचेता: ॥

    ४०॥

    श्री-सूतः उवाच-- श्री सूत गोस्वामी ने नैमिषारण्य में एकत्र सन्‍्तों से कहा; इत्थम्‌--इस प्रकार; द्विजा:--हे विद्वान ब्राह्मणो;यादव-देव-दत्त:--महाराज परीक्षित ( या युधिष्टिर ) जिसकी रक्षा यादवदेव कृष्ण ने की थी; श्रुत्वा--सुन कर; स्व-रातु:--माता के गर्भ में अपने रक्षक कृष्ण का; चरितमू--कार्यकलाप; बिचित्रमू--अत्यन्त अद्भुत; पप्रच्छ--पूछा; भूयः अपि--पुनःपुनः; तत्‌ एब--ऐसे कार्यकलाप; पुण्यम्‌--पुण्यकर्मो से पूर्ण ( श्रण्वतां स्वकथा: कृष्ण: पुण्यश्रवणकीर्तन:, कृष्ण का श्रवणकरना सदैव पुण्य है ); वैधयासकिम्‌--शुकदेव गोस्वामी को; यत्‌--क्योंकि; निगृहीत-चेता:--परीक्षित महाराज पहले ही कृष्णका स्थिर मन से श्रवण कर रहे थे

    श्री सूत गोस्वामी ने कहा : हे विद्वान सन्‍्तो, श्रीकृष्ण की बाल्यकाल की लीलाएँ अत्यन्तअदभुत हैं।

    महाराज परीक्षित अपनी माता के गर्भ में उन्हें बचाने वाले कृष्ण की उन लीलाओं के विषय में सुन कर स्थिरचित्त हो गये और उन्होंने शुकदेव गोस्वामी से फिर कहा कि वे उन पुण्यलीलाओं को सुनायें।

    श्रीराजोबाचब्रह्मन्कालान्तरकृतं तत्कालीन कथ्थ॑ं भवेत्‌ ।

    यत्कौमारे हरिकृतं जगु: पौगण्डकेर्भका: ॥

    ४१॥

    श्री-राजा उबाच--महाराज परीक्षित ने पूछा; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण ( शुकदेव गोस्वामी ); काल-अन्तर-कृतम्‌-- भूतकाल में भिन्नअवस्था में ( कौमार अवस्था ) किये गये कर्म; तत्‌ू-कालीनम्‌--उसे अब घटित होते वर्णन किया ( पौगण्ड अवस्था में ); कथम्‌भवेत्‌--यह कैसे हो सकता है; यत्‌--जो लीला; कौमारे--कौमार अवस्था में; हरि-कृतम्‌--कृष्ण द्वारा की गई; जगुः--वर्णनकिया; पौगण्डके--पौगण्ड अवस्था में ( एक वर्ष बाद ); अर्भकाः--सारे बालकों ने

    महाराज परीक्षित ने पूछा: हे मुनि, भूतकाल में घटित इन घटनाओं को वर्तमान में घटितहोते क्‍यों वर्णन किया गया है? भगवान्‌ कृष्ण ने अघासुर को मारने का कार्य तो अपनीकौमारावस्था में सम्पन्न किया था।

    तो फिर बालकों ने, उनकी पौगण्ड अवस्था में, इस घटना कोअभी घटित क्‍यों बतलाया ?

    तटूहि मे महायोगिन्परं कौतूहलं गुरो ।

    नूनमेतद्धरेरेव माया भवति नान्यथा ॥

    ४२॥

    तत्‌ ब्रृहि--अतः आप बतलायें; मे--मुझको; महा-योगिन्‌--हे महान्‌ योगी; परम्‌--अत्यन्त; कौतूहलम्‌--उत्सुकता; गुरो--हेगुरु; नूनमू-- अन्यथा; एतत्‌--यह घटना; हरेः--भगवान्‌ की; एव--निस्सन्देह; माया--माया; भवति--है; न अन्यथा-- औरकुछ नहीं

    हे महायोगी, मेरे आध्यात्मिक गुरु, कृपा करके बतलायें कि यह कैसे हुआ ? मैं यह जाननेके लिए परम उत्सुक हूँ।

    मैं सोचता हूँ कि यह कृष्ण की अन्य माया के अतिरिक्त और कुछ नथा।

    बयं धन्यतमा लोके गुरोउपि क्षत्रबन्धव: ।

    वयं पिबामो मुहुस्त्वत्त: पुण्यं कृष्णकथामृतम्‌ ॥

    ४३॥

    वयम्‌--हम हैं; धन्य-तमाः--सर्वाधिक धन्य; लोके--इस जगत में; गुरो--हे प्रभु, हे मेरे आध्यात्मिक गुरु; अपि--यद्यपि;क्षत्र-बन्धवः--क्षत्रियों में निम्नतम ( क्योंकि हमने क्षत्रियों जैसा कार्य नहीं किया ); वयम्‌--हम है; पिबाम:--पी रहे हैं; मुहुः--सदैव; त्वत्त:--तुमसे; पुण्यम्‌--पवित्र; कृष्ण-कथा-अमृतम्‌--कृष्ण-कथा का अमृत

    हे प्रभु, हे मेरे आध्यात्मिक गुरु, यद्यपि हम क्षत्रियों में निम्नतम हैं, फिर भी हमारा अहोभाग्यहै कि हम लाभान्वित हुए हैं क्योंकि हमें आपसे भगवान्‌ के अमृतमय पवित्र कार्यकलापों कानिरन्तर श्रवण करते रहने का अवसर प्राप्त हुआ है।

    श्रीसूत उबाचइत्थं सम पृष्ठ: स तु बादरायणि-स्तत्स्मारितानन्तहताखिलेन्द्रिय: ।

    कृच्छात्पुनर्लब्धबहिर्दशिः शनेःप्रत्याह तं भागवतोत्तमोत्तम ॥

    ४४॥

    श्री-सूतः उबाच-- श्री सूत गोस्वामी ने कहा; इत्थम्‌--इस प्रकार; स्म-- भूतकाल में; पृष्ट:--पूछे जाने पर; सः--उसने; तु--निस्सन्देह; बादरायणि: --शुकदेव गोस्वामी; तत्‌--उनसे ( शुकदेव गोस्वामी से ); स्मारित-अनन्त--कृष्ण का स्मरण किये जाते ही; हत-- भाव में लीन; अखिल-इन्द्रियः--बाह्यम इन्द्रियों के सारे कार्य; कृच्छात्‌--बड़ी मुश्किल से; पुन:--फिर; लब्ध-बहिः-इहशिः--बाह्य अनुभूति के जागृत होने पर; शनै:--धीरे धीरे; प्रत्याह--उत्तर दिया; तम्‌--महाराज परीक्षित को; भागवत-उत्तम-उत्तम--हे महान्‌ सन्‍्त-पुरुष, समस्त भक्तों में श्रेष्ठ ( शौनक )॥

    सूत गोस्वामी ने कहा, ‘'हे सन्‍्तों तथा भक्तों में सर्वश्रेष्ठ शौनक, जब महाराज परीक्षित नेशुकदेव गोस्वामी से इस तरह पूछा तो तुरन्त अपने अन्तःकरण में कृष्ण-लीलाओं का स्मरणकरते हुए अपनी इन्द्रियों के कार्यों से उनका बाह्य सम्पर्क टूट गया।

    तत्पश्चात्‌ बड़ी मुश्किल सेउनकी बाह्य चेतना वापस आयी और वे कृष्ण-कथा के विषय में महाराज परीक्षित से बातें करनेलगे।

    TO

    अध्याय तेरह: ब्रह्मा द्वारा लड़कों और बछड़ों की चोरी

    10.13श्रीशुक उवाचसाधु पृष्टे महाभाग त्वया भागवतोत्तम ।

    यन्रूतनयसीशस्य श्रृण्वन्नपि कथां मुहुः ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; साधु पृष्टम्‌--आपके प्रश्न से मैं सम्मानित हुआ हूँ; महा-भाग--परम भाग्यशालीव्यक्ति; त्ववया--तुम्हारे द्वारा; भागवत-उत्तम-हे सर्वश्रेष्ठ भक्त; यत्‌-- क्योंकि; नूतनयसि--तुम नया से नया कर रहे हो;ईशस्यथ--भगवान्‌ के; श्रृण्बन्‌ अपि--निरन्तर सुनते हुए भी; कथाम्‌--लीलाओं को; मुहुः--बारम्बार।

    श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे भक्त शिरोमणि, परम भाग्यशाली परीक्षित, तुमने बहुतसुन्दर प्रश्न किया है क्योंकि भगवान्‌ की लीलाओं को निरन्तर सुनने पर भी तुम उनके कार्यो कोनित्य नूतन रूप में अनुभव कर रहे हो।

    सतामयं सारभूतां निसर्गोयदर्थवाणी श्रुतिचितसामपि ।

    प्रतिक्षणं नव्यवदच्युतस्य यत्‌स्त्रिया विटानामिव साधु वार्ता ॥

    २॥

    सताम्‌-भक्तों का; अयमू--यह; सार-भूताम्‌--परमहंसों का, जिन्होंने जीवन सार स्वीकार किया है; निसर्ग:--लक्षण या गुण;यत्‌--जो; अर्थ-वाणी--जीवन का लक्ष्य, लाभ का लक्ष्य; श्रुति--समझने का उद्देश्य; चेतसाम्‌ू अपि--जिन्होंने दिव्य विषयोंके आनन्द को ही जीवन लक्ष्य स्वीकार कर रखा है; प्रति-क्षणम्‌--हर क्षण; नव्य-वत्‌--मानो नवीन से नवीनतर हो;अच्युतस्य-- भगवान्‌ कृष्ण का; यत्‌--क्योंकि; स्त्रिया:--स्त्रियों या यौन की ( कथाएँ ); विटानाम्‌--स्त्रियों से अनुरक्तों यालम्पटों के; इब--सहश; साधु वार्ता--वास्तविक वार्तालाप |

    जीवन-सार को स्वीकार करने वाले परमहंस भक्त अपने अन्तःकरण से कृष्ण के प्रतिअनुरक्त होते हैं और कृष्ण ही उनके जीवन के लक्ष्य रहते हैं।

    प्रतिक्षण कृष्ण की ही चर्चा करनाउनका स्वभाव होता है, मानो ये कथाएँ नित्य नूतन हों।

    वे इन कथाओं के प्रति उसी तरह अनुरक्तरहते हैं जिस तरह भौतिकतावादी लोग स्त्रियों तथा विषय-वासना की चर्चाओं में रस लेते हैं।

    श्रुणुष्वावहितो राजन्नपि गुह्ां बदामि ते ।

    ब्रूयु: स्निग्धस्य शिष्यस्य गुरवो गुह्ममप्युत ॥

    ३॥

    श्रुणुस्व--कृपया सुनें; अवहित:--ध्यानपूर्वक; राजन्‌--हे राजा ( महाराज परीक्षित ); अपि--यद्यपि; गुह्मम्‌--अत्यन्त गोपनीय( क्योंकि सामान्य व्यक्ति कृष्ण-लीलाओं को नहीं समझ सकते ); वदामि--मैं कहूँगा; ते--तुमसे; ब्ूयु:--बताते हैं;स्निग्धस्य--विनीत; शिष्यस्य--शिष्य के; गुरवः--गुरुजन; गुहाम्‌--अत्यन्त गोपनीय; अपि उत--ऐसा होने पर भी हे राजन, मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनें।

    यद्यपि भगवान्‌ की लीलाएँ अत्यन्त गुह्या हैं औरसामान्य व्यक्ति उन्हें नहीं समझ सकता किन्तु मैं तुमसे उनके विषय में कहूँगा क्योंकि गुरुजनविनीत शिष्य को गुह्य से गुह्य तथा कठिन से कठिन विषयों को भी बता देते हैं।

    तथाघवदनान्मृत्यो रक्षित्वा वत्सपालकान्‌ ।

    सरित्पुलिनमानीय भगवानिदमब्रवीत्‌ ॥

    ४॥

    तथा--तत्पश्चात्‌; अध-बदनात्‌--अधघासुर के मुख से; मृत्यो:--साक्षात्‌ मृत्यु; रक्षित्वा--रक्षा करके ; वत्स-पालकानू--सारेग्वालबालों तथा बछड़ों को; सरित्‌-पुलिनम्‌--नदी के तट पर; आनीय--लाकर; भगवान्‌-- भगवान्‌ कृष्ण ने; इदम्‌--ये शब्द;अब्नवीत्‌ू-कहे |

    मृत्यु रूप अघासुर के मुख से बालकों तथा बछड़ों को बचाने के बाद भगवान्‌ कृष्ण उनसब को नदी के तट पर ले आये और उनसे निम्नलिखित शब्द कहे।

    अहोतिरम्यं पुलिनं वयस्या:स्वकेलिसम्पन्मृदुलाच्छबालुकम्‌ ।

    स्फुटत्सरोगन्धहतालिपत्रिक -ध्वनिप्रतिध्वानलसद्द्रुमाकुलम्‌ ॥

    ५॥

    अहो--ओह; अति-रम्यम्‌--अतीव सुन्दर; पुलिनमू--नदी का किनारा; वयस्या:--मेरे मित्रो; स्व-केलि-सम्पत्‌--खेलने कीसामग्री से युक्त; मुदुल-अच्छ-बालुकम्‌--मुलायम तथा साफ बालूदार किनारा; स्फुटत्‌--खिला हुआ; सरः-गन्ध--कमल कीगंध से; हत--आकृष्ट; अलि--भौरें का; पत्रिक--तथा पक्षियों की; ध्वनि-प्रतिध्वान--उनकी चहचहाहट तथा उसकीप्रतिध्वनि; लसत्‌ू--गतिशील; द्रुम-आकुलम्‌--सुन्दर वृश्षों से पूर्ण

    मित्रो, देखो न, यह नदी का किनारा अपने मोहक वातावरण के कारण कितना रम्य लगताहै! देखो न, खिले कमल किस तरह अपनी सुगन्ध से भौरों तथा पक्षियों को आकृष्ट कर रहे हैं।

    भौरों की गुनगुनाहट तथा पक्षियों की चहचहाहट जंगल के सभी सुन्दर वृश्षों से प्रतिध्वनित होरही है।

    और यहाँ की बालू साफ तथा मुलायम है।

    अतः हमारे खेल तथा हमारी लीलाओं केलिए यह सर्वोत्तम स्थान है।

    अत्र भोक्तव्यमस्माभिर्दिवारूढं क्षुधार्दिता: ।

    वत्सा: समीपेप: पीत्वा चरन्तु शनकैस्तृणम्‌ ॥

    ६॥

    अत्र--यहाँ, इस स्थान पर; भोक्तव्यम्‌ू-- भोजन किया जाय; अस्माभि:--हम लोगों के द्वारा; दिव-आरूढम्‌--काफी देर होचुकी है; क्षुधा अर्दिता:-- भूख से थके; वत्सा:--बछड़े; समीपे--पास ही; अप:--जल; पीत्वा--पीकर; चरन्तु--चरने दें;शनकैः--धीरे धीरे; तृणम्‌ू--घास ६मेरे विचार में हम यहाँ भोजन करें क्योंकि विलम्ब हो जाने से हम भूखे हो उठे हैं।

    यहाँबछड़े पानी पी सकते हैं और धीरे धीरे इधर-उधर जाकर घास चर सकते हैं।

    तथेति पाययित्वार्भा वत्सानारुध्य शाद्वले ।

    मुक्त्वा शिक्यानि बुभुजु: सम॑ भगवता मुदा ॥

    ७॥

    तथा इति--कृष्ण के प्रस्ताव को ग्वालबालों ने स्वीकार कर लिया; पाययित्वा अर्भा:--पानी पीने दिया; वत्सान्‌ू--बछड़ों को;आरुध्य--वृक्षों में बाँध कर चरने दिया; शाद्वले--हरी मुलायम घास में; मुक्त्वा--खोल कर; शिक्यानि--पोटली, जिनमें खानेकी तथा अन्य वस्तुएँ थीं; बुभुजु:--जाकर आनन्द मनाया; समम्‌--समान रूप से; भगवता-- भगवान्‌ के साथ; मुदा--दिव्यआनच्द में।

    भगवान्‌ कृष्ण के प्रस्ताव को मान कर ग्वालबालों ने बछड़ों को नदी में पानी पीने दिया और फिर उन्हें वृक्षों से बाँध दिया जहाँ हरी मुलायम घास थी।

    तब बालकों ने अपने भोजन कीपोटलियाँ खोलीं और दिव्य आनन्द से पूरित होकर कृष्ण के साथ खाने लगे।

    कृष्णस्य विष्वक्पुरुराजिमण्डलै-रभ्यानना: फुल्लहशो ब्रजार्भका: ।

    सहोपविष्टा विपिने विरेजु-एइछदा यथाम्भोौरुहकर्णिकाया: ॥

    ८ ॥

    कृष्णस्य विष्वक्‌--कृष्ण को घेर कर; पुरु-राजि-मण्डलै:--संगियों के विभिन्न घेरों से; अभ्यानना:--बीचोबीच देखते हुए,जहाँ कृष्ण बैठे थे; फुल्ल-दहश:--दिव्य आनन्द से प्रफुल्लित चेहरे; ब्रज-अर्भका:--ब्रजभूमि के सारे ग्वालबाल; सह-उपविष्टा:--कृष्ण के साथ बैठे हुए; विपिने--जंगल में; विरेजु:--सुन्दर ढंग से बनाये गये; छदा: --पंखड़ियाँ तथा पत्तियाँ;यथा--जिस प्रकार; अम्भोौरूह--कमल के फूल की; कर्णिकाया:--कोश की |

    जिस तरह पंखड़ियों तथा पत्तियों से घिरा हुआ कोई कमल-पुष्प कोश हो उसी तरह बीच मेंकृष्ण बैठे थे और उन्हें घेर कर पंक्तियों में उनके मित्र बैठे थे।

    वे सभी अत्यन्त सुन्दर लग रहे थे।

    उनमें से हर बालक यह सोच कर कृष्ण की ओर देखने का प्रयास कर रहा था कि शायद कृष्णभी उसकी ओर देखें।

    इस तरह उन सबों ने जंगल में भोजन का आनन्द लिया।

    केचित्युष्पैर्दलै: केचित्पल्लवैर्डूरै: फलै: ।

    शिम्भिस्त्वश्भिर्टषद्धिश्च बुभुजु: कृतभाजना: ॥

    ९॥

    केचित्‌--कोई; पुष्पैः--फूलों पर; दलैः--फूलों की सुन्दर पत्तियों पर; केचित्‌ू--कोई; पल्‍लवबै: --पत्तियों के गुच्छों पर;अह्डुरैः --फूलों के अंकुरों पर; फलैः--तथा कोई फलों पर; शिग्भिः:--कोई डलिया-से डिब्बे में; त्वग्भिः--पेड़ की छाल से;इषद्धिः--चट्टानों पर; च-- और; बुभुजु:ः--आनन्द मनाया; कृत-भाजना:--खाने की प्लेटें बनाकर।

    ग्वालबालों में से किसी ने अपना भोजन फूलों पर, किसी ने पत्तियों, फलों या पत्तों केगुच्छों पर, किसी ने वास्तव में ही अपनी डलिया में, तो किसी ने पेड़ की खाल पर तथा किसी ने चट्टानों पर रख लिया।

    बालकों ने खाते समय इन्हें ही अपनी प्लेटें ( थालियाँ ) मान लिया।

    सर्वे मिथो दर्शयन्त: स्वस्वभोज्यरुचिं पृथक्‌ ।

    हसन्तो हासयन्तश्ना भ्यवजहु: सहेश्वरा: ॥

    १०॥

    सर्वे--सभी ग्वालबाल; मिथ:--परस्पर; दर्शयन्त:--दिखाते हुए; स्व-स्व-भोज्य-रुचिम्‌ पूृथक्‌-घर से लाये गये भोज्य पदार्थोंकी भिन्न भिन्न किसमें तथा उनके पृथक्‌-पृथक्‌ स्वाद; हसन्तः--चखने के बाद सभी हँसते हुए; हासयन्त: च--तथा हँसाते हुए;अभ्यवजह्ु;:--भोजन का आनन्द लिया; सह-ई श्वरा:--कृष्ण के साथ।

    अपने अपने घर से लाये गये भोजन की किस्मों के भिन्न भिन्न स्वादों को एक-दूसरे कोबतलाते हुए सारे ग्वालों ने कृष्ण के साथ भोजन का आनन्द लिया।

    वे एक-दूसरे का भोजनचख-चख कर हँसने तथा हँसाने लगे।

    बिभ्रद्वेणुं जठरपटयो: श्रड्डवेत्रे च कक्षेवामे पाणौ मसणकवलं तत्फलान्यड्डुलीषु ।

    तिष्ठन्मध्ये स्वपरिसुहदो हासयन्नर्मभिः स्वैःस्वर्गे लोके मिषति बुभुजे यज्ञभुग्बालकेलि: ॥

    ११॥

    बिश्रत्‌ वेणुम्‌--वंशी को रख कर; जठर-पटयो: --कसे हुए चुस्त वस्त्र तथा पेट के बीच; श्रृड़-वेत्रे--सींग का बना बिगुल तथागाय हाँकने की छड़ी; च--भी; कक्षे--कमर में; वामे--बाएँ; पाणौ--हाथ में लेकर; मसुण-कवलम्‌--चावल तथा दही सेबना सुन्दर भोजन; तत्‌ू-फलानि--बेल जैसे फल; अड्'ुलीषु--अँगुलियों के बीच; तिष्ठनू--इस प्रकार रखी; मध्ये--बीच में;स्व-परि-सुहृदः--अपने निजी संगी; हासयन्‌--हँसाते हुए; नर्मभि:--हास्य; स्वै:-- अपने; स्वर्गे लोके मिषति--स्वर्गलोक केनिवासी इस अद्भुत दृश्य को देख रहे थे; बुभुजे--कृष्ण ने आनन्द लिया; यज्ञ-भुक्‌ बाल-केलि:--यद्यपि वे यज्ञ की आहुतिस्वीकार करते हैं किन्तु बाल-लीला हेतु वे अपने ग्वालबाल मित्रों के साथ बड़ी ही प्रसन्नतापूर्वक भोजन कर रहे थे।

    कृष्ण यज्ञ-भुक्‌ हैं--अर्थात्‌ वे केवल यज्ञ की आहुतियाँ ही खाते हैं किन्तु अपनी बाल-लीलाएँ प्रदर्शित करने के लिए वे अपनी वंशी को अपनी कमर तथा दाहिनी ओर कसे वस्त्र केबीच तथा सींग के बिगुल और गाय चराने की लाठी को बाईं ओर खोंस कर बैठ गये।

    वे अपनेहाथ में दही तथा चावल का बना सुन्दर व्यंजन लेकर और अपनी अँगुलियों के बीच में उपयुक्तफलों के टुकड़े पकड़कर इस तरह बैठे थे जैसे कमल का कोश हो।

    वे आगे की ओर अपनेसभी मित्रों को देख रहे थे और खाते-खाते उनसे उपहास करते जाते थे जिससे सभी ठहाका लगा रहे थे।

    उस समय स्वर्ग के निवासी देख रहे थे और आश्चर्यचकित थे कि किस तरह यज्ञ-भुक्‌ भगवान्‌ अब अपने मित्रों के साथ जंगल में बैठ कर खाना खा रहे हैं।

    भारतैवं वत्सपेषु भुझ्जानेष्वच्युतात्मसु ।

    वत्सास्त्वन्तर्वने दूरं विविशुस्तृणलोभिता: ॥

    १२॥

    भारत--हे महाराज परीक्षित; एवम्‌--इस प्रकार ( भोजन करते हुए ); वत्स-पेषु--बछड़े चराने वाले बालकों के साथ;भुज्जानेषु--भोजन करने में व्यस्त; अच्युत-आत्मसु--अच्युत अर्थात्‌ कृष्ण के अभिन्न होने से; बत्सा:--बछड़े; तु--फिर भी;अन्तः-वने--गहन जंगल के भीतर; दूरम्‌--काफी दूर; विविशु:--घुस गये; तृण-लोभिता: --हरी घास से लुब्ध होकर।

    है महाराज परीक्षित, एक ओर जहाँ अपने हृदय में कृष्ण के अतिरिक्त अन्य किसी को नजानने वाले ग्वालबाल जंगल में भोजन करने में इस तरह व्यस्त थे वहीं दूसरी ओर बछड़े हरीघास से ललचाकर दूर घने जंगल में चरने निकल गये।

    तान्हष्ठा भयसन्त्रस्तानूचे कृष्णोस्थ भीभयम्‌ ।

    मित्राण्याशान्मा विरमतेहानेष्ये वत्सकानहम्‌ ॥

    १३॥

    तान्‌ू--उन दूर जा रहे बछड़ों को; दृष्टा--देखकर; भय-सन्त्रस्तान्‌ू--उन ग्वालबालों को जो भय से क्षुब्ध थे कि गहन बन केभीतर बछड़ों पर कोई खूनी जानवर आक्रमण न कर दे; ऊचे--कृष्ण ने कहा; कृष्ण: अस्य भी-भयम्‌--कृष्ण, जो स्वयं सभीप्रकार के भय का भी भय हैं ( कृष्ण के रहने पर कोई भय नहीं रहता ); मित्राणि--हे मित्रो; आशात्‌--भोजन के आनन्द से; माविरमत--मत रुको; इह--इस स्थान में; आनेष्ये--वापस लाये देता हूँ; वत्सकान्‌ू--बछड़ों को; अहम्‌--मैं

    जब कृष्ण ने देखा कि उनके ग्वालबाल मित्र डरे हुए हैं, तो भय के भी भीषण नियन्ताउन्होंने उनके भय को दूर करने के लिए कहा, ‘मित्रो, खाना मत बन्द करो।

    मैं स्वयं जाकरतुम्हारे बछड़ों को इसी स्थान में वापस लाये दे रहा हूँ।

    इत्युक्त्वाद्रिदरीकुझ्जगह्नरेष्वात्मवत्सकान्‌ ।

    विचिन्वन्भगवान्कृष्ण: सपाणिकवलो ययौ ॥

    १४॥

    इति उक्त्वा--यह कह कर ( कि मुझे बछड़े लाने दो ); अद्वि-दरी-कुञ्न-गह्ररैषु--पर्वतों, पर्वत की गुफाओं, झाड़ियों तथासँकरी जगहों में; आत्म-वत्सकान्‌--अपने मित्रों के बछड़ों को; विचिन्वन्‌--ढूँढ़ते हुए; भगवान्‌-- भगवान्‌; कृष्ण: --कृष्ण;स-पाणि-कवलः:--दही तथा चावल अपने हाथ में लिए; ययौ--चल पड़े

    कृष्ण ने कहा, ‘मुझे जाकर बछड़े ढूँढ़ने दो।

    अपने आनन्द में खलल मत डालो।

    ' फिरहाथ में दही तथा चावल लिए, भगवान्‌ कृष्ण तुरन्त ही अपने मित्रों के बछड़ों को खोजने चलपड़े।

    वे अपने मित्रों को तुष्ट करने के लिए सारे पर्वतों, गुफाओं, झाड़ियों तथा सँकरे मार्गों में खोजने लगे।

    अम्भोजन्मजनिस्तदन्तरगतो मायार्भकस्येशितु-ष्ठं मन्लु महित्वमन्यदपि तद्व॒त्सानितो वत्सपान्‌ ।

    नीत्वान्यत्र कुरूद्वहान्तरदधात्खेवस्थितो यः पुराइष्ठाघासुरमोक्षणं प्रभवतः प्राप्त: पर विस्मयम्‌ ॥

    १५॥

    अम्भोजन्म-जनि:--कमल से उत्पन्न ब्रह्माजी; तत्‌-अन्तर-गत:--ग्वालबालों के साथ भोजन कर रहे कृष्ण के कार्यों में फँसगये; माया-अर्भकस्य--कृष्ण की माया से बनाए गये बालकों के; ईशितु:--परम नियन्ता का; द्रष्टभू--दर्शन करने के लिए;मज्जु--अत्यन्त रोचक; महित्वम्‌ अन्यत्‌ अपि-- भगवान्‌ की अन्य महिमाओं को भी; ततू-वत्सान्‌ू--उनके बछड़ों को; इत:--जहाँ थे उसकी अपेक्षा; वत्स-पानू--तथा बछड़ों की रखवाली करने वाले ग्वालबालों को; नीत्वा--लाकर; अन्यत्र--दूसरेस्थान पर; कुरूद्वह--हे महाराज परीक्षित; अन्तर-दधात्‌--छिपा दिया; खे अवस्थित: य:--यह पुरुष ब्रह्म, जो आकाश मेंस्वर्गलोक में स्थित था; पुरा--प्राचीनकाल में; हृप्ठा--देख कर; अघासुर-मोक्षणम्‌--अघासुर के अद्भुत वध तथा उद्धार को;प्रभवत:--सर्वशक्तिमान परम पुरुष का; प्राप्त: परम्‌ विस्मयम्‌-- अत्यन्त विस्मित था

    हे महाराज परीक्षित, स्वर्गलोक में वास करने वाले ब्रह्मा ने अधासुर के वध करने तथा मोक्षदेने के लिए सर्वशक्तिमान कृष्ण के कार्यकलापों को देखा था और वे अत्यधिक चकित थे।

    अब वही ब्रह्म कुछ अपनी शक्ति दिखाना और उस कृष्ण की शक्ति देखना चाह रहे थे, जोमानो सामान्य ग्वालबालों के साथ खेलते हुए अपनी बाल-लीलाएँ कर रहे थे।

    इसलिए कृष्णकी अनुपस्थिति में ब्रह्म सारे बालकों तथा बछड़ों को किसी दूसरे स्थान पर लेकर चले गये।

    इस तरह वे फँस गये क्योंकि निकट भविष्य में वे देखेंगे कि कृष्ण कितने शक्तिशाली हैं।

    ततो वत्सानहष्ट्रैत्य पुलिनेषपि च वत्सपान्‌ ।

    उभावपि बने कृष्णो विचिकाय समन्तत: ॥

    १६॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; वत्सान्‌ू--बछड़ों को; अद्ृष्ठा--जंगल में न देख कर; एत्य--बाद में; पुलिने अपि--यमुना के तट में भी;च--भी; वत्सपानू--ग्वालबालों को; उभौ अपि--दोनों ही को ( बछड़ों तथा बालकों को ); वने--जंगल में; कृष्ण: -- भगवान्‌कृष्ण ने; विचिकाय--सर्वत्र ढूँढ़ा; समन्‍्तत:--इधर-उधर।

    तत्पश्चात्‌ जब कृष्ण बछड़ों को खोज न पाये तो वे यमुना के तट पर लौट आये किन्तु वहाँभी उन्होंने ग्वालबालों को नहीं देखा।

    इस तरह वे बछड़ों तथा बालकों को ऐसे ढूँढ़ने लगे, मानोंउनकी समझ में न आ रहा हो कि यह क्‍या हो गया।

    क्वाप्यद्ृष्टान्तर्विपिने वत्सान्पालांश्व विश्ववित्‌ ।

    सर्व विधिकृतं कृष्ण: सहसावजगाम ह ॥

    १७॥

    क्व अपि--कहीं भी; अद्ृष्ठा--न देखकर; अन्त:-विपिने--जंगल के भीतर; वत्सान्‌ू--बछड़ों को; पालान्‌ू च--तथा उनकीरक्षा करने वाले ग्वालबालों को; विश्व-वित्‌--इस जगत में हो रही प्रत्येक बात को जानने वाले कृष्ण; सर्वम्‌ू--हर वस्तु को;विधि-कृतम्‌--ब्रह्मा द्वारा सम्पन्न; कृष्ण:--कृष्ण; सहसा--तुरन्‍्त; अवजगाम ह--समझ गये।

    जब कृष्ण बछड़ों तथा उनके पालक ग्वालबालकों को जंगल में कहीं भी ढूँढ़ न पाये तो वेतुरन्त समझ गये कि यह ब्रह्मा की ही करतूत है।

    ततः कृष्णो मुदं कर्तु तन्मातृणां च कस्य च ।

    उभयायितमात्मानं चक्रे विश्वकृदीश्वर: ॥

    १८॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; कृष्ण: -- भगवान्‌; मुदम्‌-- आनन्द; कर्तुमू--उत्पन्न करने के लिए; तत्‌-मातृणाम्‌ च--ग्वालबालों तथा बछड़ोंकी माताओं के; कस्य च--तथा ब्रह्मा के ( आनन्द के लिए ); उभयायितम्‌ू--बछड़ों तथा बालकों, दोनों के रूप में विस्तार;आत्मानम्‌--स्वयं; चक्रे --किया; विश्व-कृत्‌ ईश्वर: --सम्पूर्ण जगत के स्त्रष्टा होने के कारण उनके लिए यह कठिन न था।

    तत्पश्चात्‌ बह्मा को तथा बछड़ों एवं ग्वालबालों की माताओं को आनन्दित करने के लिए,समस्त ब्रह्माण्ड के स्त्रष्टा कृष्ण ने बछड़ों तथा बालकों के रूप में अपना विस्तार कर लिया।

    यावद्वत्सपवत्सकाल्पकवपुर्यावत्कराड्ह्यादिकंयावद्यष्टिविषाणवेणुदलशि ग्यावद्विभूषाम्बरम्‌ ।

    यावच्छीलगुणाभिधाकृतिवयो यावद्विहारादिकंसर्व विष्णुमयं गिरोड्रवदज: सर्वस्वरूपो बभौ ॥

    १९॥

    यावत्‌ वत्सप--ग्वालबालों की ही तरह के; वत्सक-अल्पक-वपु:--तथा बछड़ों के कोमल शरीरों जैसे ही; यावत्‌ कर-अद्भप्नि-आदिकम्‌--वैसी ही नाप के हाथ-पैर वाले; यावत्‌ यष्टि-विषाण-वेणु-दल-शिक्‌--जैसे उनके बिगुल, वंशी, लाठियाँ, भोजनके छींके आदि थे ठीक वैसे ही; यावत्‌ विभूषा-अम्बरम्‌--जैसे उनके गहने तथा वस्त्र थे ठीक वैसे ही; यावत्‌ शील-गुण-अभिधा-आकृति-वयः--वैसे ही गुण, आदत, स्वरूप, लक्षण तथा शारीरिक स्वरूप वाले; यावत्‌ विहार-आदिकम्‌--वैसी हीरुचि या मनोरंजन वाले; सर्वम्‌--हर वस्तु; विष्णु-मयम्‌--विष्णु या वासुदेव के अंश; गिर: अड्र-बत्‌--उन्हीं की तरह कीवाणी; अज: --कृष्ण ने; सर्व-स्वरूप: बभौ--स्वयं हर वस्तु उत्पन्न कर दी।

    अपने वासुदेव रूप में कृष्ण ने खोये हुए ग्वाल-बालकों तथा बछड़ों की जितनी संख्या थी,उतने ही वैसे ही शारीरिक स्वरूपों, उसी तरह के हाथों, पाँवों तथा अन्य अंगों वाले, उनकीलाठियों, तुरहियों तथा वंशियों, उनके भोजन के छींकों, विभिन्न प्रकार से पहनी हुईं उनकीविशेष वेशभूषाओं तथा गहनों, उनके नामों, उम्रों तथा विशेष कार्यकलापों एवं गुणों से युक्तस्वरूपों में अपना विस्तार कर लिया।

    इस प्रकार अपना विस्तार करके सुन्दर कृष्ण ने यह उक्तिसिद्ध कर दी-- समग्र जयद्‌ विष्णुमयम्‌-- भगवान्‌ विष्णु सर्वव्यापी हैं।

    स्वयमात्मात्मगोवत्सान्प्रतिवार्यात्मवत्सपै: ।

    क्रीडन्नात्मविहारैश्व सर्वात्मा प्राविशद्व्रजम्‌ ॥

    २०॥

    स्वयम्‌ आत्मा--परमात्मा स्वरूप कृष्ण; आत्म-गो-वत्सानू--अपने ही स्वरूप बछड़ों में अपना विस्तार कर लिया; प्रतिवार्यआत्म-वत्सपैः-- पुनः उन्होंने बछड़ों को चराने वाले ग्वालों में परिणत कर लिया; क्रीडन्‌ू--इस तरह उन लीलाओं में होने वालीहर वस्तु स्वयं बन गये; आत्म-विहारैः च--स्वयं ही अनेक प्रकार से आनन्द लेने लगे; सर्व-आत्मा--परमात्मा, कृष्ण;प्राविशत्‌--प्रविष्ट किया; ब्रजमू--व्रजभूमि में जो महाराज नन्‍द तथा यशोदा की भूमि है।

    इस तरह अपना विस्तार करने के बाद जिससे वे सभी बछड़ों तथा बालकों की तरह लगेंऔर साथ ही उनके अगुवा भी लगें, कृष्ण ने अब अपने पिता नन्द महाराज की ब्रजभूमि में इसतरह प्रवेश किया जिस तरह वे उन सबके साथ आनन्द मनाते हुए सामान्यतया किया करते थे।

    तत्तद्वत्सान्पृथड्नीत्वा तत्तदगोष्ठे निवेश्य सः ।

    तत्तदात्माभवद्राजंस्तत्तत्सद्ा प्रविष्टवानू ॥

    २१॥

    ततू-ततू-वत्सान्‌ू--जिन जिन गायों के जो जो बछड़े थे, उन्हें; पृथक्‌--अलग अलग; नीत्वा--ले जाकर; ततू-तत्‌-गोष्ठे--उनकीअपनी अपनी गोशालाओं में; निवेश्य-- भीतर करके ; सः--कृष्ण ने; तत्‌-तत्‌-आत्मा--पहले जैसे विभिन्न व्यक्तियों के रूप में;अभवत्‌--अपना विस्तार कर लिया; राजन्‌--हे राजा परीक्षित; ततू-तत्‌-सद्य--उन उन घरों में; प्रविष्टतान्‌--घुस गये ( इस तरहकृष्ण सर्वत्र थे )॥

    हे महाराज परीक्षित, जिन कृष्ण ने अपने को विभिन्न बछड़ों तथा भिन्न भिन्न ग्वालबालों मेंविभक्त कर लिया था वे अब बछड़ों के रूप में विभिन्न गोशालाओं में और फिर विभिन्न बालकोंके रूपों में विभिन्न घरों में घुसे ।

    तन्मातरो वेणुरवत्वरोत्थिताउत्थाप्य दोर्भि: परिरभ्य निर्भरम्‌ ।

    स्नेहस्नुतस्तन्यपय:सुधासवरं मत्वा परं ब्रह्म सुतानपाययन्‌ ॥

    २२॥

    ततू-मातर:--उन उन ग्वालबालों की माताएँ; वेणु-रव--ग्वालबालों द्वारा वंशी तथा बिगुल बजाये जाने की ध्वनि से; त्वर--तुरन्त; उत्थिता:--अपने गृहकार्यों को छोड़ कर उठ गईं; उत्थाप्य--तुरन्त अपने पुत्रों को उठाकर; दोर्भि:--दोनों बाँहों से;परिरभ्य--आलिंगन करके; निर्भरमू--किसी प्रकार का भार अनुभव किये बिना; स्नेह-स्नुत--प्रगाढ़ प्रेम से बहते हुए; स्तन्य-पय:--अपने स्तन का दूध; सुधा-आसवम्‌--अमृतमय प्रेम की तरह सुस्वादु; मत्वा--मान कर; परम्‌-परम्‌; ब्रह्म-- कृष्ण;सुतान्‌ अपाययन्‌--अपने पुत्रों को पिलाया।

    बालकों की माताओं ने अपने अपने पुत्रों की वंशियों तथा बिगुलों की ध्वनि सुन कर अपनाअपना गृहकार्य छोड़ कर उन्हें गोदों में उठा लिया, दोनों बाँहों में भर कर उनका आलिंगन कियाऔर प्रगाढ़ प्रेम के कारण, विशेष रूप से कृष्ण के प्रति प्रेम के कारण स्तनों से बह रहा दूध वेउन्हें पिलाने लगीं।

    वस्तुतः कृष्ण सर्वस्व हैं लेकिन उस समय अत्यधिक स्नेह व्यक्त करती हुईं वेपरब्रह्म कृष्ण को दूध पिलाने में विशेष आनन्द का अनुभव करने लगीं और कृष्ण ने उनमाताओं का क्रमशः दूध पिया मानो वह अमृतमय पेय हो।

    ततो नृपोन्मर्दनमज्जलेपना-लड्ढाररक्षातिलकाशनादिभि: ।

    संलालितः स्वाचरितै: प्रहर्षयन्‌सायं गतो यामयमेन माधव: ॥

    २३॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; नृप--हे राजा ( महाराज परीक्षित ); उन्मर्दन--उनकी तेल से मालिश करके; मज्ज--स्नान कराकर; लेपन--शरीर में उबटन लगाकर; अलड्डार--आभूषणों से सजाकर; रक्षा--रक्षा-मंत्रों का उच्चारण करके; तिलक--शरीर में बारहस्थानों पर तिलक लगाकर; अशन-आदिभि:--तथा खूब खिलाकर; संलालित: --इस तरह माताओं द्वारा लाड़-प्यार से; स्व-आचरिति:ः--उनके अपने आचरण से; प्रहर्ष-बन्‌--माताओं को प्रसन्न करते हुए; सायम्‌--संध्या समय; गत:--आ गये; याम-यमेन--हर काम के लिए समय पूरा होने पर; माधव:--भगवान्‌ कृष्ण

    तत्पश्चात्‌, हे महाराज परीक्षित, अपनी लीलाओं के कार्यक्रमानुसार कृष्ण शाम को लौटते, हर ग्वालबाल के घर घुसते और असली बच्चों की तरह कार्य करते जिससे उनकी माताओं कोदिव्य आनन्द प्राप्त होता।

    माताएँ अपने बालकों की देखभाल करतीं, उन्हें तेल लगातीं, उन्हेंनहलातीं, चन्दन का लेप लगातीं, गहनों से सजातीं, रक्षा-मंत्र पढ़तीं, उनके शरीर पर तिलकलगातीं और उन्हें भोजन करातीं।

    इस तरह माताएँ अपने हाथों से कृष्ण की सेवा करतीं।

    गावस्ततो गोष्ठमुपेत्य सत्वरंहुड्ढारघोषै: परिहूतसड़तान्‌ ।

    स्वकान्स्वकान्वत्सतरानपाययन्‌मुहुर्लिहन्त्य: सत्रवदौधसं पय: ॥

    २४॥

    गाव:--बछड़े; तत:--तत्पश्चात्‌; गोष्ठम्‌--गोशालाओं में; उपेत्य--पहुँच कर; सत्वरम्‌--शीघ्र ही; हुड्डार-घोषै: --रैंभाती हुई;परिहूत-सड्रतान्‌ू--गाएँ बुलाने के लिए; स्वकान्‌ स्वकान्‌ू--अपनी अपनी माताओं को; वत्सतरान्‌ू--अपने अपने बछड़ों को;अपाययनू--पिलाती हुईं; मुहुः--बारम्बार; लिहन्त्य:--बछड़ों को चाटतीं; सत्रवत्‌ औधसम्‌ पयः--उनके थनों से प्रचुर दूध बहताहुआ।

    तत्पश्चात्‌ सारी गौवें अपने अपने गोष्टठों में घुसतीं और अपने अपने बछड़ों को बुलाने के लिएजोर से रँभाने लगतीं।

    जब बछड़े आ जाते तो माताएँ उनके शरीरों को बारम्बार चाटतीं और उन्हेंअपने थनों से बह रहा प्रचुर दूध पिलातीं।

    गोगोपीनां मातृतास्मिन्नासीत्स्नेहर्थिकां विना ।

    पुरोवदास्वपि हरेस्तोकता मायया विना ॥

    २५॥

    गो-गोपीनाम्‌ू--गौवों तथा गोपियों दोनों के लिए; मातृता--मातृ-स्नेह; अस्मिन्‌ू--कृष्ण के प्रति; आसीत्‌--सामान्यतया था;स्नेह--स्नेह की; ऋधिकाम्‌--वृर्द्धि; विना--रहित; पुरः-बत्‌--पहले की तरह; आसु--गौवों तथा गोपियों के बीच था;अपि--यद्यपि; हरेः--कृष्ण का; तोकता-- मेरा पुत्र कृष्ण है; मायया विना--बिना माया के

    प्रारम्भ से ही गोपियों का कृष्ण के प्रति मातृबत स्नेह था।

    कृष्ण के प्रति उनका यह स्नेहअपने पुत्रों के प्रति स्नेह से भी अधिक था।

    इस तरह अपने स्नेह-प्रदर्शन में वे कृष्ण तथा अपनेपुत्रों में भेद बरतती थीं किन्तु अब वह भेद दूर हो चुका था।

    ब्रजौकसां स्वतोकेषु स्नेहवल्ल्याब्दमन्वहम्‌ ।

    शनैर्नि:सीम ववृधे यथा कृष्णे त्वपूर्ववत्‌ ॥

    २६॥

    ब्रज-ओकसाम्‌--ब्रज के सारे निवासियों का; स्व-तोकेषु--अपने अपने पुत्रों के लिए; स्नेह-बल्ली--स्नेह रूपी लता; आ-अब्दम्‌--एक वर्ष तक; अनु-अहम्‌-- प्रतिदिन; शनैः--धीरे धीरे; निःसीम--अपार; ववृधे--बढ़ता गया; यथा कृष्णे--कृष्णको पुत्र रूप मानने से; तु--निस्सन्देह; अपूर्व-वत्‌--जैसाकि पहले कभी न था।

    यद्यपि ब्रजभूमि के सारे निवासियों--ग्वालों तथा गोपियों--में पहले से ही कृष्ण के लिएअपने निजी पुत्रों से अधिक स्नेह था किन्तु अब एक वर्ष तक उनके अपने पुत्रों के प्रति यह स्नेहलगातार बढ़ता ही गया क्योंकि अब कृष्ण उनके पुत्र बन चुके थे।

    अब अपने पुत्रों के प्रति, जोकि कृष्ण ही थे, उनके प्रेम की वृद्धि का कोई वारापार न था।

    नित्य ही उन्हें अपने पुत्रों से कृष्णजितना प्रेम करने की नई प्रेरणा प्राप्त हो रही थी।

    इत्थमात्मात्मनात्मानं वत्सपालमिषेण सः ।

    पालयन्वत्सपो वर्ष चिक्रीडे वनगोष्ठयो: ॥

    २७॥

    इत्थम्‌--इस प्रकार; आत्मा--परमात्मा, कृष्ण ने; आत्मना--अपने आप से; आत्मानम्‌--पुनः अपने को; वत्स-पाल-मिषेण--ग्वालों तथा बछड़ों के वेश में; सः--साक्षात्‌ कृष्ण; पालयन्‌--पालन करते हुए; वत्स-प:ः--बछड़ों को चराते हुए; वर्षम्‌--लगातार एक वर्ष तक; चिक्रीडे--क्रीडाओं का आनन्द लिया; वन-गोष्ठयो: --वृन्दावन तथा जंगल दोनों में ही ।

    इस तरह अपने को ग्वालबालों तथा बछड़ों का समूह बना लेने के बाद भगवान्‌ श्रीकृष्णअपने को उसी रूप में बनाये रहे।

    वे उसी प्रकार से वृन्दावन तथा जंगल दोनों ही जगहों में एकवर्ष तक अपनी लीलाएँ करते रहे।

    एकदा चारयन्वत्सान्सरामो वनमाविशत्‌ ।

    पञ्जषासु त्रियामासु हायनापूरणीष्वज: ॥

    २८॥

    एकदा--एक दिन; चारयन्‌ वत्सानू--बछड़ों को चराते हुए; स-राम:--बलराम समेत; वनम्‌--वन में; आविशत्‌--घुसे; पञ्न-घासु--पाँच या छह; त्रि-यामासु--रातें; हायन--पूरा वर्ष; अपूरणीषु--पूरी न होने पर ( एक वर्ष में पाँच-छह दिन शेष रहनेपर ); अज:--भगवान्‌ श्रीकृष्ण

    एक दिन जबकि वर्ष पूरा होने में अभी पाँच-छः रातें शेष थीं कृष्ण बलराम सहित बछड़ोंको चराते हुए जंगल में प्रविष्ट हुए।

    ततो विदूराच्चरतो गावो वत्सानुपत्नरजम्‌ ।

    गोवर्धनाद्रिशिरसि चरन्त्यो दहशुस्तृणम्‌ ॥

    २९॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; विदूरातू--अधिक दूर स्थान से नहीं; चरतः--चरती हुईं; गाव:--सारी गौवें; बत्सान्‌ू--तथा उनके बछड़े;उपब्रजम्‌--वृन्दावन के निकट चरते हुए; गोवर्धन-अद्वि-शिरसि--गोवर्धन पर्वत की चोटी पर; चरन्त्य:--चरती हुईं; ददशु:--देखा; तृणम्‌--पास ही मुलायम घास।

    तत्पश्चात्‌ गोवर्धन पर्वत की चोटी पर चरती हुई गौवों ने कुछ हरी घास खोजने के लिए नीचेदेखा तो उन्होंने अपने बछड़ों को वृन्दावन के निकट चरते देखा जो अधिक दूरी पर नहीं था।

    इृष्टाथ तत्स्नेहवशो स्मृतात्मास गोब्रजो उत्यात्मपदुर्गमार्ग: ।

    द्विपात्ककुद्ग्रीव उदास्यपुच्छो'गाडडुड्डू तैरास्त्रुपपा जबेन ॥

    ३०॥

    इृष्ठा--देख कर; अथ--तत्पश्चात्‌; तत्‌-स्नेह-वश:--अपने बछड़ों के लिए बढ़े हुए स्नेह के कारण; अस्मृत-आत्मा--मानोंअपने आप को भूल गईं; सः--वह; गो-ब्रज:--गौवों का समूह; अति-आत्म-प-दुर्ग-मार्ग: --मार्ग के अत्यन्त दुर्गम होते हुए भी बछड़ों के लिए अति स्नेह के कारण चराने वालों से बिछड़ कर दूर निकल आई; द्वि-पात्‌-पैरों की जोड़ी; ककुत्‌-ग्रीव:--उनकी गर्दन के साथ ही उनके डिल्ले ( कूबड़ ) हिल रहे थे; उदास्य-पुच्छ:--अपने सिर तथा पूछें उठाये; अगात्‌ू--आई;हुड्डू तै:--हंंकार करती; आस्त्रु-पया:--उनके थनों से दूध बह रहा था; जवेन--बलपूर्वक

    जब गायों ने गोवर्धन पर्वत की चोटी से अपने अपने बछड़ों को देखा तो वे अधिक स्नेहवशअपने आप को तथा अपने चराने वालों को भूल गईं और दुर्गम मार्ग होते हुए भी वे अपने बछड़ोंकी ओर अतीव चिन्तित होकर दा मानो वे दो ही पाँवों से दौड़ रही हों।

    उनके थन दूध से भरे थेऔर उनमें से दूध बह रहा था, उनके सिर तथा पूछें उठी हुई थीं और उनके डिल्ले ( कूबड़ )उनकी गर्दन के साथ साथ हिल रहे थे।

    वे तब तक तेजी से दौड़ती रहीं जब तक वे अपने बच्चोंके पास दूध पिलाने पहुँच नहीं गईं।

    समेत्य गावोधो वत्सान्वत्सवत्योउप्यपाययन्‌ ।

    गिलन्त्य इव चाड्रॉौनि लिहन्त्यः स्वौधसं पय: ॥

    ३१॥

    समेत्य--एकत्र करके; गाव:--सारी गौवें; अध: --नीचे, गोवर्धन पर्वत के नीचे; वत्सानू--अपने बछड़ों को; वत्स-वत्य:--मानों उन्हें नये बछड़ें उत्पन्न हुए हों; अपि--यद्यपि नये बछड़े उपस्थित थे; अपाययन्‌--उन्हें पिलाया; गिलन्त्य:--निगलते हुए;इब--मानो; च--भी; अड्रानि-- उनके शरीरों को; लिहन्त्य:--चाटते हुए मानो नवजात बछड़े हों; स्व-ओधसम्‌ पय: --अपनेथन से बहता हुआ दूध।

    गौवों ने नये बछड़ों को जन्म दिया था किन्तु गोवर्धन पर्वत से नीचे आते हुए, अपने पुरानेबछड़ों के लिए अतीव स्नेह के कारण इन्हीं बछड़ों को अपने थन का दूध पीने दिया।

    वे चिन्तितहोकर उनका शरीर चाटने लगीं मानो उन्हें निगल जाना चाहती हों।

    गोपास्तद्रोधनायासमौध्यलज्जोरुमन्युना ।

    दुर्गाध्वकृच्छतो भ्येत्य गोवत्सैर्ददशु: सुतान्‌ू ॥

    ३२॥

    गोपा:-ग्वाले; तत्‌-रोधन-आयास--गायों को बछड़ों की ओर जाने से रोकने के अपने प्रयास का; मौध्य--निराशा के कारण;लज्ञा--लज्जित होकर; उरु-मन्युना--साथ ही काफी क्रुद्ध होकर; दुर्ग-अध्व-कृच्छुत:--बड़ी कठिनाई से दुर्गम मार्ग पार करतेहुए; अभ्येत्य--वहाँ पहुँच कर; गो-वत्सैः--बछड़ों समेत; ददशु:--देखा; सुतानू--अपने अपने पुत्रों को

    गौवों को उनके बछड़ों के पास जाने से रोकने में असमर्थ ग्वाले लज्जित होने के साथ साथक्रुद्ध भी हुए।

    उन्होंने बड़ी कठिनाई से दुर्गम मार्ग पार किया किन्तु जब वे नीचे आये और अपनेअपने पुत्रों को देखा तो वे अत्यधिक स्नेह से अभिभूत हो गये।

    तदीक्षणोत्प्रेमरसाप्लुताशयाजातानुरागा गतमन्यवोर्भकान्‌ ।

    उदुह्म दोर्भि: परिरभ्य मूर्थनिघ्राणैरवापु: परमां मुदं ते ॥

    ३३॥

    ततू-ईक्षण-उत्प्रेम-रस-आप्लुत-आशया: -ग्वालों के सारे विचार अपने पुत्रों को देख कर उठने वाले वात्सल्य-प्रेम में लीन होगये; जात-अनुरागा:--अत्यधिक आकर्षण का अनुभव करते हुए; गत-मन्यव:--क्रोध दूर हो जाने से; अर्भकान्‌--अपने पुत्रोंको; उदुह्म--उठाकर; दोर्भि: -- अपनी बाँहों से; परिरभ्य--आलिंगन करके; मूर्धनि--सिर पर; पघ्राणैः --सूँघ कर; अवापु:--प्राप्त किया; परमाम्‌--सर्वोच्च; मुदम्‌ू--आनन्द; ते--उन ग्वालों ने |

    उस समय ग्वालों के सारे विचार अपने अपने पुत्रों को देखने से उत्पन्न वात्सल्य-प्रेम रस मेंविलीन हो गये।

    अत्यधिक आकर्षण का अनुभव करने से उनका क्रोध छू-मन्तर हो गया।

    उन्होंनेअपने पुत्रों को उठाकर बाँहों में भर कर आलिंगन किया और उनके सिरों को सूँघ कर सर्वोच्चआनन्द प्राप्त किया।

    ततः प्रवयसो गोपास्तोकाश्लेषसुनिर्वृता: ।

    कृच्छाच्छनैरपगतास्तदनुस्मृत्युदअव: ॥

    ३४॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; प्रबयस:--वयस्क; गोपा:--ग्वाले; तोक-आश्लेष-सुनिर्वृता: -- अपने पुत्रों का आलिंगन करके परम प्रसन्नहुए; कृच्छातू-- कठिनाई से; शनैः--धीरे धीरे; अपगता:--आलिंगन करना छोड़ कर जंगल लौट गये; तत्‌-अनुस्मृति-उद-श्रव: --अपने पुत्रों का स्मरण करने पर उनकी आँखों से आँसू आ गये।

    तत्पश्चात्‌ प्रौढ़ ग्वाले अपने पुत्रों के आलिंगन से अत्यन्त तुष्ठ होकर बड़ी कठिनाई औरअनिच्छा से उनका आलिंगन धीरे धीरे छोड़ कर जंगल लौट आये।

    किन्तु जब उन्हें अपने पुत्रोंका स्मरण हुआ तो उनकी आँखों से आँसू लुढ़क आये।

    ब्रजस्य राम: प्रेमर्थ्वीक्ष्यौत्कण्ठ्यमनुक्षणम्‌ ।

    मुक्तस्तनेष्वपत्येष्वप्यहेतुविदचिन्तयत्‌ ॥

    ३५॥

    ब्रजस्य--गायों के झुंड का; राम:--बलराम; प्रेम-ऋधे: --स्नेह बढ़ने के कारण; वीक्ष्य--देख कर; औतू-कण्ठ्यम्‌-- अनुरक्ति;अनु-क्षणम्‌--निरन्तर; मुक्त-स्तनेषु--बड़े हो जाने के कारण अपनी माताओं का स्तन-पान छोड़ चुके थे; अपत्येषु--उन बछड़ोंको; अपि--भी; अहेतु-वित्‌--कारण न समझने से; अचिन्तयत्‌--इस प्रकार सोचने लगे।

    स्नेहाधिक्य के कारण गौवों को उन बछड़ों से भी निरन्तर अनुराग था, जो बड़े होने केकारण उनका दूध पीना छोड़ चुके थे।

    जब बलदेव ने यह अनुराग देखा तो इसका कारण उनकीसमझ में नहीं आया अतः वे इस प्रकार सोचने लगे।

    किमेतदद्धुतमिव वासुदेवेडखिलात्मनि ।

    ब्रजस्य सात्मनस्तोकेष्वपूर्व प्रेम वर्धते ॥

    ३६॥

    किम्‌--क्या; एतत्‌--यह; अद्भुतम्‌ू--अद्भुत; इब--जैसा; वासुदेवे --वासुदेव कृष्ण में; अखिल-आत्मनि--सारे जीवों केपरमात्मा; ब्रजस्य--सारे ब्रजवासियों का; स-आत्मन:--मेरे समेत; तोकेषु--इन बालकों में; अपूर्वम्‌-- अपूर्व ; प्रेम--प्रेम;वर्धते--बढ़ रहा है|

    यह विचित्र घटना कया है? सभी व्रजवासियों का, मुझ समेत इन बालकों तथा बछड़ों केप्रति अपूर्व प्रेम उसी तरह बढ़ रहा है, जिस तरह सब जीवों के परमात्मा भगवान्‌ कृष्ण के प्रतिहमारा प्रेम बढ़ता है।

    केयं वा कुत आयाता दैवी वा नार्युतासुरी ।

    प्रायो मायास्तु मे भर्तुर्नान्या मेडषपि विमोहिनी ॥

    ३७॥

    का--कौन; इयम्‌--यह; वा--अथवा; कुतः--कहाँ से; आयाता--आयी है; दैवी --देवी; वा--अथवा; नारी--स्त्री; उत--अथवा; आसुरी--राक्षसी; प्रायः --अधिकांशत:; माया--माया; अस्तु--हो सकती है; मे--मेरे; भर्तुः--प्रभु, कृष्ण के; न--नहीं; अन्या--कोई दूसरा; मे--मेरा; अपि--निश्चित रूप से; विमोहिनी--मोहग्रस्त करने वाली |

    यह योगशक्ति कौन है और वह कहाँ से आई है? क्‍या वह देवी है या कोई राक्षसी है?अवश्य ही वह मेरे प्रभु कृष्ण की माया होगी क्योंकि उसके अतिरिक्त मुझे और कौन मोहसकता है?

    इति सज्ञिन्त्य दाशाहों वत्सान्‍्सवयसानपि ।

    सर्वानाचष्ट वैकुण्ठं चक्षुषा वयुनेन सः ॥

    ३८ ॥

    इति सशञ्ञिन्त्य--इस प्रकार सोच कर; दाशाई:--बलदेव ने; वत्सान्‌ू--बछड़ों को; स-वयसान्‌-- अपने साथियों समेत; अपि--भी; सर्वानू--सारे; आचष्ट--देखा; वैकुण्ठम्‌--केवल श्रीकृष्ण रूप में; चक्षुषा वयुनेन--दिव्य ज्ञान के चश्लुओं द्वारा; सः--उसने ( बलदेव ने )

    इस प्रकार सोचते हुए बलराम अपने दिव्य ज्ञान के चक्षुओं से देख सके कि ये सारे बछड़ेतथा कृष्ण के साथी श्रीकृष्ण के ही अंश हैं।

    नैते सुरेशा ऋषयो न चैतेत्वमेव भासीश भिदाश्रयेडपि ।

    सर्व पृथक्त्वं निगमात्कथं वदे-त्युक्तेन वृत्तं प्रभुणा बलोउबैत्‌ ॥

    ३९॥

    न--नहीं; एते--ये लड़के; सुर-ईशा:--देवताओं में श्रेष्ठ; ऋषय:--ऋषिगण; न--नहीं; च--तथा; एते--ये बछड़े; त्वमू--तुम ( कृष्ण ); एब--केवल; भासि--प्रकट हो रहे हो; ईश--हे परम नियन्ता; भित्‌-आश्रये--नाना प्रकार के भेद में; अपि--होते हुए भी; सर्वमू--प्रत्येक वस्तु; पृथक्‌-विद्यमान; त्वम्‌ू--तुम ( कृष्ण ); निगमात्‌--संक्षेप में; कथम्‌--कैसे; बद--बतलाओ; इति--इस प्रकार; उक्तेन--( बलदेव द्वारा ) प्रार्थना किये जाने पर; वृत्तम्‌--स्थिति; प्रभुणा--कृष्ण द्वारा ( कही जानेपर ); बलः--बलदेव; अवैत्‌--समझ गये।

    भगवान्‌ बलदेव ने कहा, 'हे परम नियन्ता, मेरे पहले सोचने के विपरीत ये बालक महान्‌देवता नहीं हैं न ही ये बछड़े नारद जैसे महान्‌ ऋषि हैं।

    अब मैं देख सकता हूँ कि तुम्हीं अपने कोनाना प्रकार के रूप में प्रकट कर रहे हो।

    एक होते हुए भी तुम बछड़ों तथा बालकों के विविधरूपों में विद्यमान हो।

    कृपा करके मुझे यह विस्तार से बतलाओ।

    बलदेव द्वारा इस प्रकारप्रार्थना किये जाने पर कृष्ण ने सारी स्थिति समझा दी और बलदेव उसे समझ भी गये।

    ताददेत्यात्मभूरात्ममानेन त्रुट्यनेहसा ।

    पुरोवदाब्दं क्रीडन्तं ददशे सकल॑ हरिम्‌ ॥

    ४०॥

    तावत्‌--तब तक; एत्य--लौट कर; आत्म-भू:--ब्रह्मा ने; आत्म-मानेन--अपनी माप के अनुसार; त्रुटि-अनेहसा -- क्षण- भरमें; पुरः-वत्‌--पहले की तरह; आ-अब्दम्‌--एक वर्ष तक; क्रीडन्तम्‌--खेलते हुए; ददशे--देखा; स-कलम्‌--अपने अंशोंसहित; हरिम्‌-- भगवान्‌ हरि ( श्रीकृष्ण ) को |

    जब ब्रह्मा एक क्षण के बाद ( अपनी गणना के अनुसार ) वहाँ लौटे तो उन्होंने देखा कियद्यपि मनुष्य की माप के अनुसार पूरा एक वर्ष बीत चुका है, तो भी कृष्ण उतने समय बाद भीउसी तरह अपने अंशरूप बालकों तथा बछड़ों के साथ खेलने में व्यस्त हैं।

    यावन्तो गोकुले बाला: सवत्सा: सर्व एव हि ।

    मायाशये शयाना मे नाद्यापि पुनरुत्थिता: ॥

    ४१॥

    यावन्त:--उतने ही; गोकुले--गोकुल में; बाला:--बालक; स-वत्सा:--अपने अपने बछड़ों के साथ; सर्वे--सभी; एव--निस्सन्देह; हि-- क्योंकि; माया-आशये--माया की सेज पर; शयानाः --सो रहे हैं; मे--मेरी; न--नहीं; अद्यू--आज; अपि--भी; पुन:--फिर से; उत्थिता: --उठे हैं भगवान्‌

    ब्रह्म ने सोचा: गोकुल के जितने भी बालक तथा बछड़े थे उन्हें मैंने अपनीयोगशक्ति की सेज पर सुला रखा है और आज के दिन तक वे जगे नहीं हैं।

    इत एतेउत्र कुत्रत्या मनन्‍्मायामोहितेतरे ।

    तावन्त एव तत्राब्दं क्रीडन्तो विष्णुना समम्‌ ॥

    ४२॥

    इतः--इस कारण से; एते--अपने अपने बछड़ों समेत ये सारे बालक; अत्र--यहाँ पर; कुत्रत्या:--कहाँ से आये हैं; मत्‌-माया-मोहित-इतरे--मेरी माया से मोहित हुओं के अतिरिक्त; तावन्तः--उतने ही बालक; एव--निस्सन्देह; तत्र--वहाँ पर; आ-अब्दमू--एक वर्ष तक; क्रीडन्त:--खेल रहे हैं; विष्णुना समम्‌--कृष्ण के साथ।

    यद्यपि पूरे एक वर्ष तक कृष्ण के साथ उतने ही बालक तथा बछड़े खेलते रहे फिर भी येमेरी योगशक्ति से मोहित बालकों से भिन्न हैं।

    ये कौन हैं ? ये कहाँ से आये ?

    एवमेतेषु भेदेषु चिरं ध्यात्वा स आत्मभू: ।

    सत्या: के कतरे नेति ज्ञातुं नेष्ट कथज्लन ॥

    ४३॥

    एवम्‌--इस तरह; एतेषु भेदेषु--इन बालकों के बीच, जो पृथक्‌ विद्यमान हैं; चिरम्‌--दीर्घकाल तक; ध्यात्वा--सोच कर;सः--वह; आत्म-भू: --ब्रह्मा; सत्या:--असली; के --कौन; कतरे--कौन; न--नहीं हैं; इति--इस प्रकार; ज्ञातुमू--जानने केलिए; न--नहीं; इष्टे--समर्थ था; कथञ्लन--किसी भी तरह से

    इस तरह दीर्घकाल तक विचार करते करते भगवान्‌ ब्रह्मा ने उन दो प्रकार के बालकों मेंअन्तर जानने का प्रयास किया जो एक-दूसरे से पृथक्‌ रह रहे थे।

    वे यह जानने का प्रयास करतेरहे कि कौन असली है और कौन नकली है किन्तु वे कुछ भी नहीं समझ पाये।

    एवं सम्मोहयन्विष्णुं विमोहं विश्वमोहनम्‌ ।

    स्वयैव माययाजोपि स्वयमेव विमोहित: ॥

    ४४॥

    एवम्‌--इस तरह से; सम्मोहयन्‌--मोहित करने की इच्छा से; विष्णुम्‌--सर्वव्यापी भगवान्‌ कृष्ण को; विमोहम्‌--जो कभीमोहित नहीं किये जा सकते; विश्व-मोहनम्‌--किन्तु जो सारे ब्रह्माण्ड को मोहित करने वाले हैं; स्वया--अपने ही द्वारा; एव--निस्सन्देह; मायया--योगशक्ति द्वारा; अज:--ब्रह्मा; अपि-- भी; स्वयम्‌--स्वयं ; एब--निश्चय ही; विमोहित:--मोहित हो गये।

    चूँकि ब्रह्मा ने सर्वव्यापी भगवान्‌ कृष्ण को, जो कभी मोहित नहीं किये जा सकते अपितुसम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को मोहित करने वाले हैं, मोहित करना चाहा इसलिए वे स्वयं ही अपनीयोगशक्ति द्वारा मोह में फँस गये।

    तम्यां तमोवन्नैहारं खद्योतार्चिरिवाहनि ।

    महतीतरमायैशयं निहन्त्यात्मनि युज्शतः ॥

    ४५॥

    तम्याम्‌--अँधेरी रात में; तम:ः-वत्‌-- अंधकार के समान; नैहारम्‌--बर्फ से उत्पन्न; खद्योत-अर्चि: --जुगनू का प्रकाश; इब--सहश; अहनि--दिन के समय, सूर्य-प्रकाश में; महति--महापुरुष में; इतर-माया--अपरा शक्ति; ऐश्यम्‌--सामर्थ्य; निहन्ति--नष्ट करती है; आत्मनि--अपने को; युज्भञत:ः--प्रयोग करने वाले

    व्यक्ति को जिस तरह अँधेरी रात में बर्फ का अँधेरा तथा दिन के समय जुगनू के प्रकाश का कोईमहत्व नहीं होता, उसी तरह निकृष्ट व्यक्ति की योगशक्ति महान्‌ शक्तिशाली व्यक्ति के विरुद्धप्रयोग किये जाने पर कुछ भी नहीं कर पाती, उलटे उस निकृष्ट व्यक्ति की शक्ति कम हो जातीहै।

    तावत्सवें वत्सपाला: पश्यतोजस्य तत्क्षणात्‌ ।

    व्यदृश्यन्त घनश्यामा: पीतकौशेयवासस: ॥

    ४६॥

    तावत्‌--इतने लम्बे समय से; सर्वे--सभी; वत्स-पाला:--बछड़े तथा उन्हें चराने वाले बालक दोनों ही; पश्यत:--देखते हुए;अजस्य--ब्रह्मा के; तत्‌-क्षणात्‌--तुरन्त; व्यहश्यन्त--दिखलाई पड़े; घन-श्यामा:--श्याम बादलों के स्वरूप वाले; पीत-'कौशेय-वाससः -- पीला रेशमी वस्त्र पहने हुए।

    जब ब्रह्मा देख रहे थे तो तुरन्त ही सारे बछड़े तथा उन्हें चराने वाले बालक नीले बादलों केरंग वाले स्वरूप में पीले रेशमी वस्त्र पहने हुए प्रकट होने लगे।

    चतुर्भुजा: शट्डुचक्रगदाराजीवपाणय: ।

    किरीटिनः कुण्डलिनो हारिणो वनमालिन: ॥

    ४७॥

    श्रीवत्साड्रददोरलकम्बुकड्डणपाणय: ।

    नूपुरैः कटकैर्भाता: कटिसूत्राडुलीयकै: ॥

    ४८ ॥

    चतुः:-भुजा:--चार भुजाओं वाले; शद्भु-चक्र-गदा-राजीव-पाण-य:--अपने हाथों में शंख, चक्र, गदा तथा कमल का फूलधारण किये; किरीटिन:--अपने सिरों पर मुकुट पहने; कुण्डलिन:--कानों में कुण्डल पहने; हारिण:--मोती के हार पहने;बन-मालिन:--जंगल के फूलों की मालाएँ पहने; श्रीवत्स-अड्भद-दो-रत्न-कम्बु-कड्जूण-पाणय: --अपने वक्षस्थलों में लक्ष्मीका चिह्न, भुजाओं में बाजूबन्द, गलों में कौस्तुभ मणि, जिसमें शंख जैसी तीन रेखाएँ अंकित थीं तथा हाथों में कंगन पहने हुए;नूपुरैः--पाँवों में घुंघुरू से युक्त; कटकैः--टखबनों में चूड़ों से युक्त; भाता:--सुन्दर लग रहे थे; कटि-सूत्र-अद्डुली-यकै:--कमर में पवित्र करधनी तथा अंगुलियों में अँगूठियों समेत |

    इन सबों के चार हाथ थे जिनमें शंख, चक्र, गदा तथा कमल धारण किये थे।

    वे अपने सिरोंपर मुकुट पहने थे, उनके कानों में कुंडल और गलों में जंगली फूलों के हार थे।

    उनके वक्षस्थलोंके दाहिनी ओर के ऊपरी भाग में लक्ष्मी का चिन्ह था।

    वे अपनी बाहों में बाजूबन्द, शंख जैसीतीन रेखाओं से अंकित गलों में कौस्तुभ मणि तथा कलाइयों में कंगन पहने थे।

    उनके टखनों मेंपायजेब थीं, पाँवों में आभूषण और कमर में पवित्र करधनी थी।

    वे सभी अत्यन्त सुन्दर लग रहेथे।

    आइडूप्रिमस्तकमापूर्णास्तुलसीनवदामभि: ।

    कोमलै: सर्वगात्रेषु भूरिपुण्यवरदर्पिति: ॥

    ४९ ॥

    आ-अद्धप्रि-मस्तकम्‌-पाँव से लेकर सिर तक; आपूर्णा:--पूरी तरह सजा; तुलसी-नव-दामभि:--तुलसी की ताजी पत्तियों सेबने हारों से; कोमलै:--कोमल; सर्व-गात्रेषु--पूरे शरीर में; भूरि-पुण्यवत्‌-अर्पितैः --पुण्यकर्मो में लगे भक्तों द्वारा अर्पित कियेगये।

    पाँव से लेकर सिर तक उनके शरीर के सारे अंग तुलसी दल से बने ताजे मुलायम हारों सेपूरी तरह सज्जित थे जिन्हें पुण्यकर्मो ( श्रवण तथा कीर्तन ) द्वारा भगवान्‌ की पूजा में लगे भक्तोंने अर्पित किया था।

    चन्द्रिकाविशदस्मेरे: सारुणापाडुवीक्षितैः ।

    स्वकार्थानामिव रजःसत्त्वाभ्यां स्त्रष्टणालका: ॥

    ५०॥

    चन्द्रिका-विशद-स्मेरे:--पूर्ण वर्द्धमान चन्द्रमा की तरह शुद्ध मुसकान से; स-अरुण-अपाडु-वीक्षितै:-- अपनी लाल-लालआँखों की स्वच्छ चितवन से; स्वक-अर्थानाम्‌--अपने भक्तों की इच्छाओं के; इब--सहृश; रज:-सत्त्वाभ्यामू--रजो तथा सतोगुणों से; स्त्रष्ट-पालका:--स्त्रष्टा तथा पालनकर्ता थे।

    वे विष्णु रूप जो चंद्रमा के बढ़ते हुए प्रकाश के तुल्य थे, अपनी शुद्ध मुस्कान तथा अपनीलाल-लाल आँखों की तिरछी चितवन के द्वारा, अपने भक्तों की इच्छाओं को, मानो रजोगुणएवं तमोगुण से, उत्पन्न करते तथा पालते थे।

    आत्मादिस्तम्बपर्यन्तैमूर्तिमद्धिश्वराचरै: ।

    नृत्यगीताद्यनेकाहैं: पृथक्पृथगुपासिता: ॥

    ५१॥

    आत्म-आदि-स्तम्ब-पर्यन्तै:--ब्रह्मा से लेकर क्षुद्र जीव तक; मूर्ति-मद्धिः--वही रूप धारण करके; चर-अचरैः--चल तथाअचल प्राणियों द्वारा; नृत्य-गीत-आदि-अनेक-अहै: -- पूजा के विविध साधनों द्वारा, यथा नाच और गाने से; पृथक्‌ पृथक्‌--अलग अलग; उपासिता:--पूजित होकर।

    चतुर्मुख ब्रह्मा से लेकर श्रुद्र से क्षुद्र जीव, चाहे वे चर हों या अचर, सबों ने स्वरूप प्राप्तकर रखा था और वे अपनी अपनी क्षमताओं के अनुसार नाच तथा गायन जैसी पूजा विधियों सेउन विष्णु मूर्तियों की अलग अलग पूजा कर रहे थे।

    अणिमाद्यैर्महिमभिरजाद्याभिर्विभूतिभि: ।

    चतुर्विशतिभिस्तत्त्वै: परीता महदादिभि: ॥

    ५२॥

    अणिमा-आद्यि:--अणिमा इत्यादि; महिमभि:--महिमा आदि; अजा-आद्याभि:--अजा आदि; विभूतिभि:ः--शक्तियों से; चतुः-विंशतिभि: --चौबीस; तत्त्वै:--जगत की सृष्टि के तत्त्वों द्वारा; परीता:--( सारी विष्णु मूर्तियाँ ) घिरी हुई; महत्‌-आदिभि: --महत्‌ तत्त्व इत्यादि से |

    वे सारी विष्णु मूर्तियाँ अणिमा इत्यादि सिद्धधियों, अजा इत्यादि योगसिद्धियों तथा महत तत्त्वआदि सृष्टि के २४ तत्त्वों से घिरी हुई थीं।

    कालस्वभावसंस्कारकामकर्मगुणादिभि: ।

    स्वमहिध्वस्तमहिभिर्मूर्तिमद्धिरुपासिता: ॥

    ५३॥

    काल--समय; स्वभाव--स्वभाव; संस्कार--संस्कार; काम--इच्छा; कर्म--सकाम कर्म; गुण--तीन गुण; आदिभि:--इत्यादि के द्वारा; स्व-महि-ध्वस्त-महिभि:--जिसकी स्वतंत्रता भगवान्‌ की शक्ति के अधीन थी; मूर्ति-मद्धिः--स्वरूप वाली;उपासिताः --पूजित हो रहे थे।

    तब भगवान्‌ ब्रह्म ने देखा कि काल, स्वभाव, संस्कार, काम, कर्म तथा गुण--ये सभीअपनी स्वतंत्रता खो कर पूर्णतया भगवान्‌ की शक्ति के अधीन होकर स्वरूप धारण किये हुए थेऔर उन विष्णु मूर्तियों की पूजा कर रहे थे।

    सत्यज्ञानानन्तानन्दमात्रैकरसमूर्तयः ।

    अस्पृष्टभूरिमाहात्म्या अपि ह्युपनिषदृशाम्‌ ॥

    ५४॥

    सत्य--शाश्वत; ज्ञान--ज्ञान से युक्त; अनन्त--असीम; आनन्द--आनन्द से पूर्ण; मात्र--केवल; एक-रस--सदैव स्थित;मूर्तयः -- स्वरूप; अस्पृष्ट-भूरि-माहात्म्या:--जिसकी महती महिमा छू तक नहीं जाती; अपि--भी; हि-- क्योंकि; उपनिषत्‌-हशाम्‌--उपनिषदों का अध्ययन करने वाले ज्ञानियों द्वारा

    वे समस्त विष्णु मूर्तियाँ शाश्वत, असीम स्वरूपों वाली, ज्ञान तथा आनन्द से पूर्ण एवं कालके प्रभाव से परे थीं।

    उपनिषदों के अध्ययन में रत ज्ञानीजन भी उनकी महती महिमा का स्पर्शतक नहीं कर सकते थे।

    एवं सकृद्ददर्शाज: परब्रह्मात्मनोउखिलान्‌ ।

    यस्य भासा सर्वमिदं विभाति सचराचरम्‌ ॥

    ५५॥

    एवम्‌--इस प्रकार; सकृत्‌--एक ही साथ; दरदर्श--देखा; अजः--ब्रह्मा ने; पर-ब्रह्म--परम सत्य के; आत्मन:--अंश;अखिलानू--सारे बछड़ों तथा बालकों को; यस्य--जिसके; भासा-- प्रकट होने से; सर्वम्‌--सभी; इृदम्‌--यह; विभाति--व्यक्त है; स-चर-अचरम्‌--जो कुछ भी चर तथा अचर है

    इस प्रकार भगवान्‌ ब्रह्मा ने परब्रह्न को देखा जिसकी शक्ति से यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड सारे चरतथा अचर प्राणियों समेत व्यक्त होता है।

    उन्होंने उसी के साथ ही सारे बछड़ों तथा बालकों कोभगवान्‌ के अंशों के रूप में देखा।

    ततोतिकुतुकोद्वुत्यस्तिमितैकादशेन्द्रिय: ।

    तद्धाम्नाभूदजस्तृष्णीं पूर्देव्यन्तीव पुत्रिका ॥

    ५६॥

    ततः--तब; अतिकुतुक-उद्दुत्य-स्तिमित-एकादश-इन्द्रिय:--जिनकी ग्यारह इन्द्रियाँ आश्चर्य के कारण क्षुब्ध हो चुकी थीं औरदिव्य आनन्द के कारण स्तम्भित हो गई थीं; तद्‌-धाम्ना--उन विष्णु मूर्तियों के तेज से; अभूत्‌ू--हो गया; अजः --ब्रह्मा;तृष्णीम्‌-मौन; पू:-देवी-अन्ति--ग्राम्य देवता की उपस्थिति में; इब--जिस तरह; पुत्रिका--बच्चे द्वारा बनाया गया मिट्टी काखिलौना।

    तब उन विष्णु मूर्तियों की तेज शक्ति से ब्रह्मा की ग्यारहों इन्द्रियाँ आश्चर्य से क्षुब्ध तथा दिव्यआनन्द से स्तब्ध हो चुकी थीं अतः वे मौन हो गये मानो ग्राम्य देवता की उपस्थिति में किसीबच्चे की मिट्टी की बनी गुड़िया हो।

    इतीरेशेउतक्ये निजमहिमनि स्वप्रमितिकेपरत्राजातोतन्निरसनमुखब्रह्मकमितौ ।

    अनीशेपि द्र॒ष्ठ किमिदर्मिति वा मुह्मति सतिचच्छादाजो ज्ञात्वा सपदि परमोडजाजवनिकाम्‌ ॥

    ५७॥

    इति--इस प्रकार; इरा-ईशे--इरा अर्थात्‌ सरस्वती के स्वामी, ब्रह्म के; अतर्क्ये--परे; निज-महिमनि--अपनी महिमा; स्व-प्रमितिके--स्वतः व्यक्त तथा आनन्दमय के; परत्र--परे; अजात:--भौतिक शक्ति ( प्रकृति ); अतत्‌--अप्रासंगिक; निरसन-मुख--अप्रासंगिक के परित्याग द्वारा; ब्रह्यक--वेदान्त द्वारा; मितौ--ज्ञानवान; अनीशे --असमर्थ होने से; अपि-- भी; द्रष्ठम्‌--देखने के लिए; किम्‌ू--क्या; इृदम्‌--यह; इति--इस प्रकार; वा--अथवा; मुह्यति सति--मोहित होकर; चच्छाद--हटा दिया;अजः-भगवान्‌ कृष्ण ने; ज्ञात्वा--जान कर; सपदि--तुरन्त; परम:--सर्व श्रेष्ठ अजा-जवनिकाम्‌--माया का पर्दा)परब्रह्म मानसिक तर्क के परे है।

    वह स्वतः व्यक्त, अपने ही आनन्द में स्थित तथा भौतिकशक्ति के परे है।

    वह वेदान्त के द्वारा अप्रासंगिक ज्ञान के निरसन करने पर जाना जाता है।

    इसतरह जिस भगवान्‌ की महिमा विष्णु के सभी चतुर्भुज स्वरूपों की अभिव्यक्ति से प्रकट हुई थीउससे सरस्वती के प्रभु ब्रह्माजी मोहित थे।

    उन्होंने सोचा, '‘यह क्या है?' और उसके बाद वेदेख भी नहीं पाये।

    तब भगवान्‌ कृष्ण ने ब्रह्मा की स्थिति समझते हुए तुरन्त ही अपनी योगमायाका परदा हटा दिया।

    ततोडर्वाक्प्रतिलब्धाक्ष: कः परेतवदुत्थितः ।

    कृच्छादुन्मील्य वै दृष्टीराचष्टेदं सहात्मना ॥

    ५८ ॥

    ततः--तब; अर्वाक्‌--बाह्य; प्रतिलब्ध-अक्ष:--चेतना जागृत होने पर; कः--ब्रह्मा; परेत-वत्‌--मृत व्यक्ति की तरह;उत्थित:--उठ खड़े हुए; कृच्छात्‌--कठिनाई से; उन्‍्मील्य--खोल कर; बै--निस्सन्देह; दृष्टी:--अपनी आँखें; आचष्ट--देखा;इदम्‌--इस ब्रह्माण्ड को; सह-आत्मना--अपने सहित ।

    तब ब्रह्मा की बाह्य चेतना वापस लौटी और वे इस तरह उठ खड़े हुए मानो मृत व्यक्तिजीवित हो उठा हो।

    बड़ी मुश्किल से अपनी आँखें खोलते हुए उन्होंने अपने सहित ब्रह्माण्ड कोदेखा।

    सपद्येवाभितः पश्यन्दिशो पश्यत्पुर:स्थितम्‌ ।

    वृन्दावन जनाजीव्यद्रुमाकीर्ण समाप्रियम्‌ ॥

    ५९॥

    सपदि--तुरन्‍्त; एव--निस्सन्देह; अभित:--चारों ओर; पश्यन्‌ू--देखते हुए; दिशः--दिशाओं में; अपश्यत्‌--ब्रह्मा ने देखा;पुरः-स्थितम्‌ू--सामने स्थित; वृन्दावनम्‌--वृन्दावन; जन-आजीव्य-द्रुम-आकीर्णम्‌--वृक्षों से पूरित, जो निवासियों की जीविकाके साधन थे; समा-प्रियम्‌ू--और जो सारी ऋतुओं में समान रूप से सुहावने थे।

    तब सारी दिशाओं में देखने पर भगवान्‌ ब्रह्मा ने तुरन्त अपने समक्ष वृन्दावन देखा जो उनवृक्षों से पूरित था, जो निवासियों की जीविका के साधन थे और सारी ऋतुओं में समान रूप सेप्रिय लगने वाले थे।

    यत्र नैसर्गदुवैरा: सहासन्रूमगादय: ।

    मित्राणीवाजितावासद्गुतरुट्तर्षकादिकम्‌ ॥

    ६०॥

    यत्र--जहाँ; नैसर्ग--प्रकृति द्वारा; दुर्वराः--वैर होने पर; सह आसनू--साथ साथ रहते हैं; नू--मनुष्य; मृग-आदय:--तथा पशु;मित्राणि--मित्रगण; इब--सहृश; अजित-- श्रीकृष्ण के; आवास--निवासस्थान; द्रत--चले गये; रुट्‌ू--क्रोध; तर्षक-आदिकम्‌--प्यास इत्यादि |

    वृन्दावन भगवान्‌ का दिव्य धाम है जहाँ न भूख है, न क्रोध, न प्यास।

    यद्यपि मनुष्यों तथाहिंस््र पशुओं में स्वाभाविक वैर होता है किन्तु वे यहाँ दिव्य मैत्री-भाव से साथ साथ रहते हैं।

    तत्रोद्नहत्पशुपवंशशिशुत्वनाट्यंब्रह्माद्दयं परमनन्तमगाधबो धम्‌ ।

    वत्सान्सखीनिव पुरा परितो विचिन्व-देक॑ सपाणिकवल परमेछ्यचष्ट ॥

    ६१॥

    तत्र--वहाँ ( वृन्दावन में ); उद्दहत्‌ू-- धारण करते हुए; पशुप-वंश-शिशुत्व-नाट्यूम्‌-ग्वालों के परिवार में शिशु बनने की क्रीड़ा( कृष्ण का अन्य नाम गोपाल है अर्थात्‌ वह जो गौवें पालता है ); ब्रह्म--ब्रह्म; अद्दयम्‌--अद्वितीय; परम्‌--परम; अनन्तमू--असीम; अगाध-बोधम्‌--अपार ज्ञान से युक्त; वत्सान्‌ू--बछड़ों को; सखीन्‌--तथा उनके संगी बालकों को; इब पुरा--पहलेकी तरह; परितः--सर्वत्र; विचिन्वत्‌--खोजते हुए; एकम्‌--अकेले, अपने आप; स-पाणि-कवलम्‌--हाथ में भोजन का कौरलिये; परमेष्ठी --ब्रह्माजी ने; अचष्ट--देखा

    तब भगवान्‌ ब्रह्मा ने उस ब्रह्म ( परम सत्य ) को जो अद्ठय है, ज्ञान से पूर्ण है और असीम हैग्वालों के परिवार में बालक-वेश धारण करके पहले की ही तरह हाथ में भोजन का कौर लिएबछड़ों को तथा अपने ग्वालमित्रों को खोजते हुए एकान्त में खड़े देखा।

    इृष्ठा त्वेण निजधोरणतोवतीर्यपृथ्व्यां वपु:; कनकदण्डमिवाभिपात्य ।

    स्पृष्ठा चतुर्मुकुटकोटिभिरडूप्रियुग्मंनत्वा मुदश्रुसुजलैरकृताभिषेकम्‌ ॥

    ६२॥

    इृष्ठा--देख कर; त्वरेण--तेजी से; निज-धोरणत:--अपने वाहन हंस से; अवतीर्य --उतरे; पृथ्व्याम्‌ू--पृथ्वी पर; बपु:--उनकाशरीर; कनक-दण्डम्‌ इब--सोने की छड़ी जैसा; अभिपात्य--गिर पड़े; स्पृष्टा--छूकर; चतु:-मुकुट-कोटि-भि: --अपने चारोंमुकुटों के सिरों से; अड्ध्रि-युग्मम्‌ू--दोनों चरणकमलों को; नत्वा--नमस्कार करके; मुत्‌-अश्रु-सु-जलै:-- अपने प्रसन्नता केअश्रुओं के जल से; अकृत--सम्पन्न किया अभिषेकम्‌--उनके चरणकमल पखारने का उत्सव

    यह देख कर ब्रह्मा तुरन्त अपने वाहन हंस से नीचे उतरे और भूमि पर सोने के दण्ड केसमान गिर कर भगवान्‌ कृष्ण के चरणकमलों का स्पर्श अपने सिर में धारण किये हुए चारोंमुकुटों के अग्रभागों ( सरों ) से किया।

    उन्होंने नमस्कार करने के बाद अपने हर्ष-अश्रुओं केजल से कृष्ण के चरणकमलों को नहला दिया।

    उत्थायोत्थाय कृष्णस्य चिरस्य पादयो: पतन्‌ ।

    आस्ते महित्वं प्राग्दष्ठं स्मृत्वा स्मृत्वा पुनः पुनः ॥

    ६३॥

    उत्थाय उत्थाय--बारम्बार उठ कर; कृष्णस्य--कृष्ण के; चिरस्य--दीर्घकाल से; पादयो:--चरणकमलों पर; पतन्‌--गिर कर;आस्ते--पड़े रहे; महित्वम्‌--महानता; प्राक्‌-दृष्टम्‌--जिसे उन्होंने पहले देखा था; स्मृत्वा स्मृत्वा--स्मरण कर करके; पुनःपुनः--बारम्बार।

    काफी देर तक भगवान्‌ कृष्ण के चरणकमलों पर बारम्बार उठते हुए और फिर नमस्कारकरते हुए ब्रह्मा ने भगवान्‌ की उस महानता का पुनः पुनः स्मरण किया जिसे उन्होंने अभी अभीदेखा था।

    शनैरथोत्थाय विमृज्य लोचनेमुकुन्दमुद्ठीक्ष्य विनप्रकन्धर: ।

    कृताझ्जलि: प्रश्रयवान्समाहितःसवेपथुर्गद्गदयैलतेलया ॥

    ६४॥

    शनै:--धीरे-धीरे; अथ--तब; उत्थाय--उठ कर; विमृज्य--पोंछ कर; लोचने--अपनी दोनों आँखें; मुकुन्दम्‌--मुकुन्द याभगवान्‌ कृष्ण को; उद्दीक्ष्--ऊपर देखते हुए; विनप्र-कन्धर: --अपनी गर्दन झुकाये; कृत-अद्जलि:--हाथ जोड़े हुए; प्रश्रय-वान्‌--अत्यन्त विनीत; समाहित:ः--मन को एकाग्र किये; स-वेपथु:--काँपते हुए शरीर से; गदगदया--अवरुद्ध; ऐलत--ब्रह्माप्रशंसा करने लगे; ईलया--शब्दों से

    तब धीरे-धीरे उठते हुए और अपनी दोनों आँखें पोंछते हुए ब्रह्मा ने मुकुन्द की ओर देखा।

    फिर अपना सिर नीचे झुकाये, मन को एकाग्र किये तथा कंपित शरीर से वे लड़खड़ाती वाणी से विनयपूर्वक भगवान्‌ कृष्ण की प्रशंसा करने लगे।

    TO

    अध्याय चौदह: ब्रह्मा की भगवान कृष्ण से प्रार्थना

    10.14श्रीब्रह्मोवाचनौमीड्य ते भ्रवपुषे तडिदम्बरायगुझ्जावतंसपरिपिच्छलसन्मुखाय ।

    वन्यस्त्रजे कवलवेत्रविषाणवेणु-लक्ष्मश्रिये मृदुपदे पशुपाड़्जाय ॥

    १॥

    श्री-ब्रह्मा उवाच--ब्रह्मा ने कहा; नौमि--मैं यशोगान करता हूँ; ईड्यू--हे पूज्य; ते--आपका; अभ्र--काले बादल की तरह;वपुषे--शरीर वाले; तडित्‌ू--बिजली की भाँति; अम्बराय--जिसके वस्त्र; गुज्ञा--घुंघुची से बने; अवतंस--( कान के )आभूषण; परिपिच्छ--तथा मोर पंख; लसत्‌--शोभायमान; मुखाय--जिसका मुखमंडल; वन्य-स्त्रजे--वन फूलों की माला पहने; कवल--कौर; वेत्र--दंड; विषाण-- भेंस के सींग का बना बिगुल; वेणु--तथा बाँसुरी; लक्ष्म--लक्षणों से युक्त;भ्रिये--जिसका सौंदर्य; मृदु--मुलायम; पदे--जिसके पाँव; पशु-प--ग्वाले ( नन्द महाराज ) के; अड्र-जाय--पुत्र को

    ब्रह्मा ने कहा : हे प्रभु, आप ही एकमात्र पूज्य भगवान्‌ हैं अतएवं आपको प्रसन्न करने केलिए मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ और आपकी स्तुति करता हूँ।

    हे ग्वालनरेश पुत्र,आपका दिव्य शरीर नवीन बादलों के समान गहरा नीला है; आपके वस्त्र बिजली के समानदेदीप्यमान हैं और आपके मुखमण्डल का सौन्दर्य गुझ्ला के बने आपके कुण्डलों से तथा सिर परलगे मोरपंख से बढ़ जाता है।

    अनेक वन-फूलों तथा पत्तियों की माला पहने तथा चराने कीछड़ी ( लकुटी ), श्रृंग और वंशी से सज्जित आप अपने हाथ में भोजन का कौर लिए हुए सुन्दररीति से खड़े हुए हैं।

    अस्यापि देव वपुषो मदनुग्रहस्यस्वेच्छामयस्य न तु भूतमयस्य कोपि ।

    नेशे महि त्ववसितुं मनसान्तरेणसाक्षात्ततैव किमुतात्मसुखानु भूते: ॥

    २॥

    अस्य--इसका; अपि--भी; देव--हे प्रभु; वपुष:--शरीर; मत्‌-अनुग्रहस्थ--जिसने मेरे ऊपर कृपा दिखलाई है; स्व-इच्छा-मयस्य--जो अपने शुद्ध भक्तों की इच्छा से प्रेरित होकर प्रकट होते हैं; न--नहीं; तु--दूसरी ओर; भूत-मयस्य--पदार्थ कीउपज; कः--ब्रह्मा; अपि-- भी; न ईशे--मैं समर्थ नहीं हूँ; महि--शक्ति; तु--निस्सन्देह; अवसितुम्‌--अनुमान लगाने में; मनसा--मन से; अन्तरेण--जो नियंत्रित होती तथा विरत होती है; साक्षात्‌--प्रत्यक्ष; तब--आपकी; एव--निस्सन्देह; किम्‌उत--क्या कहा जाय; आत्म--आप में; सुख--सुख के; अनुभूतेः--आपके अनुभव का |

    हे प्रभु, न तो मैं, न ही अन्य कोई आपके इस दिव्य शरीर के सामर्थ्य का अनुमान लगासकता है, जिसने मुझ पर इतनी कृपा दिखाई है।

    आपका शरीर आपके शुद्ध भक्तों की इच्छापूरी करने के लिए प्रकट होता है।

    यद्यपि मेरा मन भौतिक कार्यकलापों से पूरी तरह विरत है, तोभी मैं आपके साकार रूप को नहीं समझ पाता।

    तो भला मैं आपके ही अन्तर में आपके द्वाराअनुभूत सुख को कैसे समझ सकता हूँ?

    ज्ञाने प्रयासमुदपास्यथ नमन्त एवजीवन्ति सन्मुखरितां भवदीयवार्ताम्‌ ।

    स्थाने स्थिता: श्रुतिगतां तनुवाइमनोभि-ये प्रायशो उजित जितोप्यसि तैस्त्रिलोक्याम्‌ ॥

    ३॥

    ज्ञाने--ज्ञान के लिए; प्रयासम्‌ू--प्रयास; उदपास्य--त्यागकर; नमन्त:--नमस्कार करते हुए; एब--केवल; जीवन्ति--जीवितरहते हैं; सत्‌-मुखरिताम्‌--शुद्ध भक्तों द्वारा उच्चारित; भवदीय-वार्तामू--आपकी कथा; स्थाने--अपने भौतिक स्थान में;स्थिता:--स्थित रहकर; श्रुति-गताम्‌--सुन करके प्राप्त; तनु--अपने शरीर द्वारा; वाकू--शब्द; मनोभि:--तथा मन के द्वारा;ये--जो; प्रायशः--अधिकांशत: ; अजित--हे अजेय; जितः--जीते गये; अपि--फिर भी; असि--हो जाते हो; तैः--उनकेद्वारा; त्रि-लोक्याम्‌ू--तीनों लोकों में |

    जो लोग अपने प्रतिष्ठित सामाजिक पदों पर रहते हुए ज्ञान-विधि का तिरस्कार करते हैं औरमन, वचन और कर्मों से आपके तथा आपके कार्यकलापों के गुणगान के प्रति सम्मान व्यक्तकरते हैं और आप तथा आपके द्वारा गुंजित इन कथाओं में अपना जीवन न्योछावर कर देते हैं, वेनिश्चित रूप से आपको जीत लेते हैं अन्यथा आप तीनों लोकों में किसी के द्वारा भी अजेय हैं।

    श्रेयःसूतिं भक्तिमुदस्य ते विभोक्लिश्यन्ति ये केवलबोधलब्धये ।

    तेषामसौ क्लेशल एव शिष्यतेनान्यद्यथा स्थूलतुषावधातिनाम्‌ ॥

    ४ ॥

    श्रेय:--परम लाभ का; सृतिम्‌--मार्ग; भक्तिमू-- भक्ति; उदस्य--त्याग करके; ते--वे; विभो--हे सर्वशक्तिमान भगवान्‌;क्लिशएयन्ति--क्लेश सहन करते हैं; ये--जो; केवल--एकमात्र; बोध--ज्ञान की; लब्धये--प्राप्ति के लिए; तेषामू--उनकेलिए; असौ--यह; क्लेशल:--झंझट; एव--केवल; शिष्यते--रहती है; न--कुछ नहीं; अन्यत्‌--दूसरा; यथा--जिस तरह;स्थूल-तुष--थोथी भूसी; अवघातिनाम्‌-मारनेवालों के लिए

    हे प्रभु, आत्म-साक्षात्कार का सर्वोत्तम मार्ग तो आपकी ही भक्ति है।

    यदि कोई इस मार्ग कोत्याग करके ज्ञान के अनुशीलन में प्रवृत्त होता है, तो उसे क्लेश उठाना होगा और वांछित फलभी नहीं मिल पाएगा।

    जिस तरह थोथी भूसी को पीटने से अन्न ( गेहूँ ) नहीं मिलता उसी तरह जोकेवल चिन्तन करता है उसे आत्म-साक्षात्कार नहीं हो पाता।

    उसके हाथ केवल क्लेश लगता है।

    पुरेह भूमन्बह॒वोपि योगिन-स्त्वदर्पितेहा निजकर्मलब्धया ।

    विबुध्य भक्त्यैव कथोपनीतयाप्रपेद्रिउज्लोच्युत ते गतिं पराम्‌ ॥

    ५॥

    पुरा-- भूतकाल में; इह--इस संसार में; भूमन्‌--हे सर्वशक्तिमान; बहवः--अनेक; अपि--निस्सन्देह; योगिन:--योगी जन;त्वत्‌--आपके प्रति; अर्पित-- अर्पित; ईहा: --अपने सारे प्रयास; निज-कर्म--अपने नियत कर्तव्यों से; लब्धया--जो प्राप्तकिया जाता है; विब॒ुध्य--समझने पर; भक्त्या--भक्ति के द्वारा; एब--निस्सन्देह; कथा-उपनीतया-- आपकी कथाओं केश्रवण तथा कीर्तन के माध्यम से अनुशीलित; प्रपेदिरि--समर्पण द्वारा उन्होंने प्राप्त किया; अज्ञ:--सरलता से; अच्युत--हेअच्युत; ते--आपका; गतिम्‌--गन्तव्य; परामू--परम |

    हे सर्वशक्तिमान, भूतकाल में इस संसार में अनेक योगीजनों ने अपने कर्तव्य निभाते हुएतथा अपने सारे प्रयासों को आपको अर्पित करते हुए भक्तिपद प्राप्त किया है।

    हे अच्युत, आपकेश्रवण तथा कीर्तन द्वारा सम्पन्न ऐसी भक्ति से वे आपको जान पाये और आपकी शरण में जाकरआपके परमधाम को प्राप्त कर सके।

    तथापि भूमन्महिमागुणस्य तेविबोद्धुमर्हत्यमलान्तरात्मभि: ।

    अविक्रियात्स्वानुभवादरूपतोह्ानन्यबोध्यात्मतया न चान्यथा ॥

    ६॥

    तथा अपि--फिर भी; भूमन्‌--हे असीम; महिमा--शक्ति; अगुणस्थ-- भौतिक गुणों से रहित; ते--आपकी ; विबोद्धुम्‌--समझने के लिए; अ्हति--समर्थ होता है; अमल--निष्कलंक; अन्तः-आत्मभि:--मन तथा इन्द्रयों से; अविक्रियात्‌-- भौतिक भेद पर निराभ्ित; स्व-अनुभवात्‌--परमात्मा के अनुभव से; अरूपतः-- भौतिक रूपों के प्रति अनुरक्त हुए बिना; हि--निस्सन्देह; अनन्य-बोध्य-आत्मतया--बिना किसी अन्य प्रकाशक के, जैसाकि स्वतः प्रकट; न--नहीं; च--तथा; अन्यथा--नहीं तो |

    किन्तु अभक्तगण आपके पूर्ण साकार रूप में आपका अनुभव नहीं कर सकते।

    फिर भीहृदय के अन्दर आत्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति द्वारा वे निर्विशेष ब्रह्म के रूप में आपका अनुभव करसकते हैं।

    किन्तु वे ऐसा तभी कर सकते हैं जब वे अपने मन तथा इन्द्रियों को सारी भौतिकउपाधियों तथा इन्द्रिय-विषयों के प्रति आसक्ति से शुद्ध कर लें।

    केवल इस विधि से ही उन्हेंआपका निर्विशेष स्वरूप प्रकट हो सकेगा।

    गुणात्मनस्तेपि गुणान्विमातुंहितावतीऋनस्य क ईशिरेउस्य ।

    कालेन यैर्वा विमिता: सुकल्पै-भूपांशव: खे मिहिका द्युभास: ॥

    ७॥

    गुण-आत्मन: --समस्त उत्तम गुणों से सम्पन्न व्यक्ति का; ते--आप; अपि--निश्चय ही; गुणान्‌--गुणों को; विमातुम्‌--गिनने केलिए; हित-अवतीर्णस्य--जो समस्त जीवों के हित के लिए अवतीर्ण हुआ है; के--कौन; ईशिरे--समर्थ है; अस्य--ब्रह्माण्डका; कालेन--काल क्रम में; यैः--जिसके द्वारा; वा--अथवा; विमिता:--गिना हुआ; सु-कल्पै:--महान्‌ विज्ञानियों द्वारा; भू-पांशवः--पृथ्वी लोक के परमाणु; खे--आकाश में; मिहिका:--बर्फ के कण; द्यु-भास:--तारों तथा ग्रहों का प्रकाश |

    समय के साथ, विद्वान दार्शनिक या विज्ञानी, पृथ्वी के सारे परमाणु, हिम के कण या शायद सूर्य, नक्षत्र तथा ग्रहों से निकलने वाले ज्योति कणों की भी गणना करने में समर्थ होसकते हैं किन्तु इन विद्वानों में ऐसा कौन है, जो आप में अर्थात्‌ पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्वर में निहितअसीम दिव्य गुणों का आकलन कर सके।

    ऐसे भगवान्‌ समस्त जीवात्माओं के कल्याण केलिए इस धरती पर अवतरित हुए हैं।

    तत्तेडनुकम्पां सुसमीक्षमाणोभुज्जान एवात्मकृतं विपाकम्‌ ।

    हृद्वाग्वपुर्भिविंदधन्नमस्तेजीवेत यो मुक्तिपदे स दायभाक्‌ ॥

    ८॥

    तत्‌--अतः; ते--आपकी; अनुकम्पाम्‌--दया की; सु-समीक्षमाण:--आशा रखते हुए; भुज्ञान:--सहन करते हुए; एब--निश्चय ही; आत्म-कृतम्‌--अपने से किया गया; विपाकमू--कर्म फल; हत्‌--हृदय; वाक्‌--वाणी; वपुर्भि: --तथा शरीर से;विदधनू--अर्पित करते हुए; नम:ः--नमस्कार; ते--आपको; जीवेत-- जीवित रहता है; यः--जो; मुक्ति-पदे--मुक्ति पद केलिए; सः--वह; दाय-भाक्‌--असली उत्तराधिकारी |

    हे प्रभु, जो व्यक्ति अपने विगत दुष्कर्मों के फलों को थैर्यपूर्वक सहते हुए तथा अपने मन,वाणी तथा शरीर से आपको नमस्कार करते हुए सत्यनिष्ठा से आपकी अहैतुकी कृपा प्रदत्त कियेजाने की प्रतीक्षा करता है, वह अवश्य ही मोक्ष का भागी होता है क्योंकि यह उसका अधिकारबन जाता है।

    'पश्येश मेनार्यमनन्त आद्येपरात्मनि त्वय्यपि मायिमायिनि ।

    मायां वितत्येक्षितुमात्मवैभवंहाहं कियानैच्छमिवार्चिरग्नौ ॥

    ९॥

    पश्य--जरा देखें तो; ईश--हे प्रभु; मे--मेरा; अनार्यम्‌--निन्दनीय आचरण; अनन्ते-- अनन्त के विरुद्ध; आद्ये--आदि; पर-आत्मनि--परमात्मा; त्वयि--तुम; अपि-- भी; मायि-मायिनि--माया के स्वामियों के लिए; मायाम्‌--( मेरी ) माया; वितत्य--विस्तृत होकर; ईक्षितुमू--देखने के लिए; आत्म--आपकी; बैभवम्‌--शक्ति को; हि--निस्सन्देह; अहम्‌--मैं; कियान्‌--कितनी; ऐच्छम्‌--मैंने इच्छा की; इब--सहश; अर्चि:--चिनगारी; अग्नौ--अग्नि की तुलना में

    हे प्रभु, मेरी अशिष्ठटता को जरा देखें! आपकी शक्ति की परीक्षा करने के लिए मैंने अपनीमायामयी शक्ति से आपको आच्छादित करने का प्रयत्त किया जबकि आप असीम तथा आदिपरमात्मा हैं, जो मायापतियों को भी मोहित करनेवाले हैं।

    आपके सामने भला मैं क्‍या हूँ?विशाल अग्नि की उपस्थिति में मैं छोटी चिनगारी की तरह हूँ।

    अतः क्षमस्वाच्युत मे रजो भुवोहाजानतस्त्वत्पूथगीशमानिनः ।

    अजावलेपान्धतमोन्धचक्षुषएषोनुकम्प्यो मयि नाथवानिति ॥

    १०॥

    अतः--अतएव; क्षमस्व--कृपया क्षमा कर दें; अच्युत--हे अच्युत प्रभु; मे--मुझको; रज:-भुवः--रजोगुण में उत्पन्न; हि--निस्सन्देह; अजानत: --अज्ञान होने से; त्वत्‌--आपसे; पृथक्‌--भिन्न; ईश--नियन्ता; मानिन: --अपने को मानते हुए; अज--अजन्मा; अवलेप--आवरण; अन्ध-तम:ः--अज्ञान के ऐसे अंधकार से; अन्ध--अन्धी; चक्षुष:--मेरी आँखें; एष:--यह व्यक्ति;अनुकम्प्य:--दया दिखानी चाहिए; मयि--मुझ पर; नाथ-वान्‌--अपने स्वामी के रूप में पाकर; इति--ऐसा सोचते हुए |

    अतएव हे अच्युत भगवान्‌, मेरे अपराधों को क्षमा कर दें।

    मैं रजोगुण से उत्पन्न हुआ हूँ औरस्वयं को आपसे पृथक्‌ ( स्वतंत्र ) नियन्ता मानने के कारण मैं निरा मूर्ख हूँ।

    अज्ञान के अंधकारसे मेरी आँखें अंधी हो चुकी हैं जिसके कारण मैं अपने को ब्रह्माण्ड का अजन्मा स्त्रष्टा समझ रहाहूँ।

    किन्तु मुझे आप अपना सेवक मानें और अपनी दया का पात्र बना लें।

    क्वाहं तमोमहदहंखचराग्निवार्भू -संवेष्टिताण्डघटसप्तवितस्तिकायः ।

    क्वेहग्विधाविगणिताण्डपराणुचर्या-वाताध्वरोमविवरस्य च ते महित्वम्‌ ॥

    ११॥

    क्व--कहाँ; अहम्‌--मैं; तम:--भौतिक प्रकृति; महत्‌--सम्पूर्ण भौतिक शक्ति; अहम्‌--मिथ्या अहंकार; ख--आकाश;चर--वायु; अग्नि--आग; वा: -- जल; भू--पृथ्वी; संवेष्टित--घिरा हुआ; अण्ड-घट--घड़े के सदृश ब्रह्माण्ड; सप्त-वितस्ति--सात बालिशएत; काय: --शरीर; क्व--कहाँ; ईहक्‌-- इसके ; विधा--सह॒श; अविगणित-- असीम; अण्ड--ब्रह्माण्ड;पर-अणु--परमाणु की धूल सहृश; चर्या--चलायमान; वात-अध्व--वायु के छेद; रोम--शरीर के रोमों के; विवरस्थ--छेदोंके; च--भी; ते--आपकी; महित्वम्‌--महानता ।

    कहाँ मैं अपने हाथ के सात बालिश्तों के बराबर एक क्षुद्र प्राणी जो भौतिक प्रकृति, समग्रभौतिक शक्ति, मिथ्या अहंकार, आकाश, वायु, जल तथा पृथ्वी से बने घड़े-जैसे ब्रह्माण्ड सेघिरा हुआ हूँ! और कहाँ आपकी महिमा! आपके शरीर के रोमकूपों से होकर असंख्य ब्रह्माण्डउसी प्रकार आ-जा रहे हैं जिस तरह खिड़की की जाली के छेदों से धूल कण आते-जाते रहतेहैं।

    उत्क्षेपणं गर्भगतस्य पादयो:कि कल्पते मातुरधोक्षजागसे ।

    किमस्तिनास्तिव्यपदेश भूषित॑तवास्ति कुक्षे: कियदप्यनन्तः ॥

    १२॥

    उत्क्लेपणम्‌--लात मारना; गर्भ-गतस्य--गर्भस्थ शिशु; पादयो:--दोनों पाँवों का; किम्‌--क्या; कल्पते--मूल्य है; मातुः--माता के लिए; अधोक्षज--हे दिव्य प्रभु; आगसे--अपराध के रूप में; किम्‌--क्या; अस्ति--है; न अस्ति--नहीं है; व्यपदेश--उपाधि से; भूषितम्‌--अलंकृत; तब--आपका; अस्ति-- है; कुक्षे:--उदर के; कियत्‌--कितना; अपि--भी; अनन्तः--बाह्य ।

    हे प्रभु अधोक्षज, कया कोई माता अपने गर्भ के भीतर स्थित शिशु द्वारा लात मारे जाने कोअपराध समझती है? क्या आपके उदर के बाहर वास्तव में ऐसी किसी वस्तु का अस्तित्व है, जिसे दार्शनिक जन ‘'है ' या ‘'नहीं है' की उपाधि प्रदान कर सकें ?

    जगत्त्रयान्तोदधिसम्प्लवोदेनारायणस्योदरनाभिनालातू ।

    विनिर्गतोजस्त्विति वाडन वे मृषाकिन्‍्त्वीश्वर त्वन्न विनिर्गतोउस्मि ॥

    १३॥

    जगतू-त्रय--तीनों लोकों की; अन्त--विजय में ; उदधि--सारे समुद्रों में; सम्प्लतब--पूर्ण आप्लावन का; उदे--जल में;नारायणस्य-- भगवान्‌ नारायण के; उदर--उदर से उग कर; नाभि--नाभि; नालातू--कमल के डंठल से; विनिर्गतः--बाहरनिकले; अजः--ब्रह्मा; तु--निस्सन्देह; इति--इस प्रकार कहते हुए; वाक्‌--शब्द; न--नहीं हैं; वै--निश्चय ही; मृषा--झूठा;किन्तु--इस प्रकार; ईश्वर--हे ई श्वर; त्वत्‌-- आपसे; न--नहीं; विनिर्गतः--विशेष रूप से निकला; अस्मि--मैं हूँ।

    हे प्रभु, ऐसा कहा जाता है कि जब प्रलय के समय तीनों लोक जलमग्न हो जाते हैं, तोआपके अंश, नारायण, जल में लेट जाते हैं, उनकी नाभि से धीरे-धीरे एक कमल का फूलनिकलता है और उस फूल से ब्रह्मा का जन्म होता है।

    अवश्य ही ये वचन झूठे नहीं हैं।

    तो क्या मैंआपसे उत्पन्न नहीं हूँ?

    नारायणस्त्वं न हि सर्वदेहिना-मात्मास्यधीशाखिललोकसाक्षी ।

    नारायणोडड़ं नरभूजलायना-त्तच्चापि सत्यं न तवैव माया ॥

    १४॥

    नारायण: -- भगवान्‌ नारायण; त्वम्‌--तुम; न--नहीं; हि-- क्या; सर्व--सभी; देहिनाम्‌--देहधारी जीवों के; आत्मा--परमात्मा;असि--हो; अधीश--हे परम नियन्ता; अखिल--सम्पूर्ण; लोक--लोकों के; साक्षी --गवाह; नारायण: -- श्री नारायण;अड्डमू--अंश; नर-- भगवान्‌ से; भू--निकलकर; जल--जल के; अयनात्‌--प्रकट करने वाले स्त्रोत होने से; तत्‌--वह अंश;च--तथा; अपि--निस्सन्देह; सत्यमू--सच; न--नहीं; तब--तुम्हारा; एबव--तनिक भी; माया--मोहक शक्ति |

    है परम नियन्ता, प्रत्येक देहधारी जीव के आत्मा तथा समस्त लोकों के शाश्वत साक्षी होने केकारण क्‍या आप आदि नारायण नहीं हैं ? निस्सन्देह, भगवान्‌ नारायण आपके ही अंश हैं और वेनारायण इसलिए कहलाते हैं क्योंकि ब्रह्माण्ड के आदि जल के जनक हैं।

    वे सत्य हैं, आपकीमाया से उत्पन्न नहीं हैं।

    तच्चेजजलस्थं तव सज्जगद्ठ पु:कि मे न दृष्ट भगवंस्तदेव ।

    कि वा सुदृष्ट हदि मे तदेवकि नो सपद्येव पुनर्व्यदशि ॥

    १५॥

    तत्‌--वह; चेतू--यदि; जल-स्थम्‌--जल में स्थित था; तब--तुम्हारा; सत्‌ू--असली; जगत्‌--सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को आश्रय देतेहुए; वपु:--दिव्य शरीर; किमू--क्यों; मे--मेरे द्वारा; न दृष्टमू--नहीं देखा गया; भगवन्‌--हे भगवन्‌; तदा एब--उसी समय;किम्‌--क्यों; वा--अथवा; सु-दृष्टमू-- भलीभाँति देखा हुआ; हृदि--हृदय में; मे--मेरे द्वारा; तदा एब--तभी ही; किमू- क्यों;न--नहीं; उ--दूसरी ओर; सपदि--अचानक; एव--निस्सन्देह; पुनः--फिर; व्यदर्शि--देखा गया।

    हे प्रभु, यदि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को शरण देने वाला आपका यह दिव्य शरीर वास्तव में जल मेंशयन करता है, तो फिर आप मुझे तब क्‍यों नहीं दिखे जब मैं आपको खोज रहा था? और तबक्यों आप सहसा प्रकट नहीं हो गये थे यद्यपि मैं अपने हृदय में आपको ठीक से देख नहीं पायाथा।

    अन्रैव मायाधमनावतारेहास्य प्रपञ्लस्य बहि: स्फुटस्य ।

    कृत्स्नस्य चान्तर्जठरे जनन्यामायात्वमेव प्रकटीकृतं ते ॥

    १६॥

    अत्र--इसी; एव-- ही; माया-धमन--हे माया को वश में करने वाले; अवतारे--अवतार में; हि--निश्चय ही; अस्य--इस;प्रपञ्लस्थ--सृजित जगत का; बहि:--बाहर से; स्फुटस्य--दृश्य; कृत्स्तनस्य--सम्पूर्ण; च--तथा; अन्त:-- भीतर; जठरे--आपके उदर में; जनन्या:--आपकी माता के; मायात्वमू--आपकी मायावी शक्ति; एब--निस्सन्देह; प्रकटी-कृतम्‌--प्रकट कीजा चुकी है; ते--आपके द्वारा |

    हे प्रभु, आपने इसी अवतार में यह सिद्ध कर दिया है कि आप माया के परम नियंत्रक हैं।

    यद्यपि आप अब इस ब्रह्माण्ड के भीतर हैं किन्तु सारा ब्रह्माण्ड आपके दिव्य शरीर के भीतरहै--आपने इस तथ्य को माता यशोदा के समक्ष अपने उदर के भीतर ब्रह्माण्ड दिखलाकरप्रदर्शित कर दिया है।

    यस्य कुक्षाविदं सर्व सात्मं भाति यथा तथा ।

    तत्त्वय्यपीह तत्सर्व किमिंदं मायया विना ॥

    १७॥

    यस्य--जिसके; कुक्षौ--उदर में; इदम्‌--यह विराट जगत; सर्वम्‌ू--सारा; स-आत्मम्‌--अपने समेत; भाति--प्रकट कियाजाता है; यथा--जिस तरह; तथा--उसी तरह; तत्‌--वह; त्वयि--तुम में; अपि--यद्यपि; इह--बाह्य रूप से यहाँ; तत्‌--वहविराट जगत; सर्वम्‌--सम्पूर्ण; किम्‌ू--क्या; इदम्‌--यह; मायया--आपकी अचिन्त्य शक्ति के प्रभाव के; विना--बिना।

    जिस तरह आप समेत यह सारा ब्रह्माण्ड आपके उदर में प्रदर्शित किया गया था उसी तरहअब यह उसी रूप में यहाँ पर प्रकट हुआ है।

    आपकी अचिन्त्य शक्ति की व्यवस्था के बिना भलाऐसा कैसे घटित हो सकता है ?

    अद्यैव त्वहतेउस्य कि मम न ते मायात्वमादर्शित-मेकोसि प्रथमं ततो ब्रजसुहृद्दत्सा: समस्ता अपि ।

    तावन्तोसि चतुर्भुजास्तदखिलै: साक॑ मयोपासिता-स्तावन्त्येव जगन्त्यभूस्तदमितं ब्रह्माद्दयं शिष्यते ॥

    १८॥

    अद्य--आज; एव--ही; त्वत्‌ ऋते--आपसे पृथक्‌; अस्य--इस ब्रह्माण्ड का; किम्‌ू--क्या; मम--मुझको; न--नहीं; ते--आपके द्वारा; मायात्वम्‌ू--आपकी अचिन्त्य शक्ति का आधार; आदर्शितम्‌--दिखलाया हुआ; एक:--अकेले; असि--हो;प्रथमम्‌--सर्वप्रथम; ततः--तब; ब्रज-सुहृत्‌--आपके वृन्दावन के ग्वालबाल मित्र; वत्सा:--तथा बछड़े; समस्ता:--सारे;अपि--भी; तावन्त:ः --उतने ही; असि--हो गये; चतु:-भुजा: -- भगवान्‌ विष्णु की चार भुजाएँ; तत्‌ू--तब; अखिलै:--सबों केद्वारा; साकम्‌ू--साथ; मया--मेरे द्वारा; उपासिता:--पूजित होकर; तावन्ति--उतनी ही संख्या के; एब-- भी; जगन्ति--ब्रह्माण्ड; अभू:--बन गये; तत्‌ू--तब; अमितम्‌ू--असंख्य; ब्रह्म--परम सत्य; अद्दबम्‌--अद्वितीय; शिष्यते--अब आप शेष हैं

    क्‍या आपने आज मुझे यह नहीं दिखलाया कि आप स्वयं तथा इस सृष्टि की प्रत्येक वस्तुआपकी अचिन्त्य शक्ति के ही प्राकट्य हैं? सर्वप्रथम आप अकेले प्रकट हुए, तत्पश्चात्‌ आपवृन्दावन के बछड़ों तथा अपने मित्र ग्वालबालों के रूप में प्रकट हुए।

    इसके बाद आप उतने हीचतुर्भुजी विष्णु रूपों में प्रकट हुए जो मुझ समेत समस्त जीवों द्वारा पूजे जा रहे थे।

    तत्पश्चात्‌आप उतने ही संपूर्ण ब्रह्माण्डों के रूप में प्रकट हुए।

    तदनन्तर आप अद्वितीय परम ब्रह्म के अपनेअनन्त रूप में वापस आ गये हैं।

    अजानतां त्वत्पदवीमनात्म-न्यात्मात्मना भासि वितत्य मायाम्‌ ।

    सृष्टाविवाहं जगतो विधानइव त्वमेषो३न्त इव त्रिनेत्र: ॥

    १९॥

    अजानताम्‌--अज्ञान में रहनेवाले मनुष्यों के लिए; त्वत्‌-पदवीम्‌--आपके दिव्य पद का; अनात्मनि-- भौतिक शक्ति में;आत्मा--स्वयं; आत्मना--स्वयं से; भासि--प्रकट होते हो; वितत्य--विस्तार करके; मायाम्‌--अपनी अचिन्त्य शक्ति को;सृष्टी--सृष्टि के बारे में; इब--मानो; अहम्‌--मैं, ब्रह्मा; जगत:--ब्रह्माण्ड के; विधाने--पालन पोषण में; इब--मानो; त्वम्‌एषः--आप ही; अन्ते--संहार में; इव--मानो; त्रि-नेत्र:--शिवजी

    आपकी वास्तविक दिव्य स्थिति से अपरिचित व्यक्तियों के लिए आप इस जगत के अंशरूप में अपने को अपनी अचिन्त्य शक्ति के अंश द्वारा प्रकट करते हुए अवतरित होते हैं।

    इस तरहब्रह्माण्ड के सृजन के लिए आप मेरे ( ब्रह्मा ) रूप में, इसके पालन के लिए अपने ही ( विष्णु )रूप में तथा इसके संहार के लिए आप त्रिनेत्र ( शिव ) के रूप में प्रकट होते हैं।

    सुरेष्वृषिष्वीश तथेव नृष्वषितिर्यक्षु याद:स्वपि तेडजनस्य ।

    जन्मासतां दुर्मदनिग्रहायप्रभो विधात: सदनुग्रहाय च ॥

    २०॥

    सुरेषु--देवताओं में से; ऋषिषु--ऋषियों में; ईश--हे प्रभु; तथा--और; एव--निस्सन्देह; नृषु--मनुष्यों में; अपि--तथा;तिर्यक्षु--पशुओं में; याद:सु--जलचरों में; अपि-- भी; ते--आपका; अजनस्य--अजन्मा; जन्म--जन्म; असताम्‌--अभक्तोंका; दुर्मद--मिथ्या अहंकार; निग्रहाय--दमन करने के लिए; प्रभो--हे स्त्रष्टा; विधात: --हे स्त्रष्टा; सत्‌ू--आज्ञाकारी भक्तों पर;अनुग्रहाय--अनुग्रह दिखाने के लिए; च--तथा।

    हे प्रभु, हे परम स्त्रष्टा एवं स्वामी, यद्यपि आप अजन्मा हैं किन्तु श्रद्धाविहीन असुरों के मिथ्यागर्व को चूर करने तथा अपने सन्त-सदृश भक्तों पर दया दिखाने के लिए आप देवताओं,ऋषियों, मनुष्यों, पशुओं तथा जलचरों तक के बीच में जन्म लेते हैं।

    को वेत्ति भूमन्भगवन्परात्मन्‌योगेश्वरोतीर्भवतस्त्रिलोक्याम्‌ ।

    क्व वा कथं वा कति वा कदेतिविस्तारयन्क्रीडसि योगमायाम्‌ ॥

    २१॥

    कः--कौन; वेत्ति--जानता है; भूमन्‌--हे विराट; भगवन्‌-- भगवान्‌; पर-आत्मनू--हे परमात्मा; योग-ई श्वर--हे योग केस्वामी; ऊती:--लीलाएँ; भवत:--आपकी; त्रि-लोक्याम्‌--तीनों लोकों में; क्व--कहाँ; वा--अथवा; कथम्‌--कैसे; वा--अथवा; कति--कितने; वा--अथवा; कदा--कब; इति--इस प्रकार; विस्तारयन्‌--विस्तार करते हुए; क्रीडसि--खेलते हो;योग-मायाम्‌--अपनी आध्यात्मिक शक्ति से |

    हे भूमन, हे भगवन्‌, हे परमात्मा, हे योगेश्वर, आपकी लीलाएँ इन तीनों लोकों में निरन्तरचलती रहती हैं किन्तु इसका अनुमान कौन लगा सकता है कि आप कहाँ, कैसे और कब अपनीआध्यात्मिक शक्ति का प्रयोग कर रहे हैं और इन असंख्य लीलाओं को सम्पन्न कर रहे हैं? इसरहस्य को कोई नहीं समझ सकता कि आपकी आध्यात्मिक शक्ति किस प्रकार से कार्य करतीहै।

    तस्मादिदं जगदशेषमसत्स्वरूपंस्वप्नाभमस्तधिषणं पुरुदु:खदुःखम्‌ ।

    त्वय्येव नित्यसुखबोधतनावनन्तेमायात उद्यदषि यत्सदिवावभाति ॥

    २२॥

    तस्मात्‌ू--अतः; इृदम्‌--यह; जगत्‌--संसार; अशेषम्‌--सम्पूर्ण; असत्‌-स्वरूपम्‌-- क्षणिक होने के अर्थ में जिसकी स्थितिअसत्‌ है; स्वप्न-आभम्‌--स्वप्न की तरह; अस्त-धिषणम्‌--जिसमें चेतनता आच्छादित हो जाती है; पुरु-दुःख-दुःखम्‌--बारम्बार कष्टों से पूर्ण; त्वयि--तुम में; एब--निस्सन्देह; नित्य--शाश्रवत; सुख--सुखी; बोध-- चेतना; तनौ--निजी स्वरूप में;अनन्ते--अनन्त; मायात:--माया के द्वारा; उद्यतू--से निकल कर; अपि--यद्यपि; यत्‌--जो; सत्‌-- असली; इब--मानो;अवभाति--प्रकट होता है।

    अतः यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड जो कि स्वप्न के तुल्य है प्रकृति से असत्‌ है फिर भी असली(सत्‌ ) प्रतीत होता है और इस तरह यह मनुष्य की चेतना को प्रच्छन्न कर लेता है और बारम्बारदुख का कारण बनता है।

    यह ब्रह्माण्ड सत्य इसलिए लगता है क्योंकि यह आप से उदभूत मायाकी शक्ति द्वारा प्रकट किया जाता है जिनके असंख्य दिव्य रूप शाश्वत सुख तथा ज्ञान से पूर्ण हैं।

    एकस्त्वमात्मा पुरुष: पुराण:सत्यः स्वयंज्योतिरनन्त आद्यः ।

    नित्योक्षरोजस्त्रसुखो निरज्ञनःपूर्णाह्यो मुक्त उपाधितोमृत: ॥

    २३॥

    एक:ः--एक; त्वम्‌--तुम; आत्मा--परमात्मा; पुरुष: --परम पुरुष; पुराण: --सबसे पुराना; सत्य:--परम सत्य; स्वयम्‌-ज्योति:--स्वतः प्रकट; अनन्तः--अन्तहीन; आद्य:--अनादि; नित्य:--शा श्वत; अक्षर: --अनश्वर; अजस्त्र-सुख: --जिसके सुखमें व्यवधान नहीं डाला जा सकता; निरज्नन:--कल्मषरहित; पूर्ण--पूर्ण; अद्दब:ः--अद्वितीय ; मुक्त:--स्वतंत्र, मुक्त; उपाधित:--सारी भौतिक उपाधियों से; अमृत: --मृत्युरहित, अमर।

    आप ही परमात्मा, आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌, परम सत्य, स्वयंप्रकट, अनन्त तथाअनादि हैं।

    आप शाश्वत तथा अच्युत, पूर्ण, अद्वितीय तथा समस्त भौतिक उपाधियों से मुक्त हैं।

    नतो आपके सुख को रोका जा सकता है, न ही आपका भौतिक कल्मष से कोई नाता है।

    आपविनाशरहित और अमृत हैं।

    एवंविधं त्वां सकलात्मनामपिस्वात्मानमात्मात्मतया विचश्षते ।

    गुर्वर्कलब्धोपनिषत्सुचक्षुषाये ते तरन्तीव भवानृताम्बुधिम्‌ ॥

    २४॥

    एवमू-विधम्‌--इस प्रकार वर्णित; त्वामू--तुमको; सकल--सभी; आत्मनामू--आत्माओं के; अपि--निस्सन्देह; स्व-आत्मानम्‌ू--आत्मा; आत्म-आत्मतया--परमात्मा के रूप में; विचक्षते--देखते हैं; गुरु--गुरु से; अर्क--जो सूर्य के समान है;लब्ध--प्राप्त; उपनिषत्‌--गुह्य ज्ञान का; सु-चक्षुषा--पूर्ण आँख से; ये--जो; ते--वे; तरन्ति--पार करते हैं; इब--सरलता से;भव--संसार; अनृत--जो सच नहीं है; अम्बुधिम्‌--सागर को |

    जिन्होंने सूर्य जैसे आध्यात्मिक गुरु से ज्ञान की स्पष्ट दृष्टि प्राप्त कर ली है वे आपको समस्तआत्माओं की आत्मा तथा हर एक के परमात्मा के रूप में देख सकते हैं।

    इस तरह आपको आदिपुरुषस्वरूप समझकर वे मायारूपी भव-सागर को पार कर सकते हैं।

    आत्मानमेवात्मतयाविजानतांतेनैव जात॑ निखिल प्रपश्चितम्‌ ।

    ज्ञानेन भूयोपि च तत्प्रलीयतेरज्वामहे भोगभवाभवौ यथा ॥

    २५॥

    आत्मानम्‌--अपने को; एव--निस्सन्देह; आत्मतया--परमात्मा के रूप में; अविजानताम्‌ू--न जाननेवालों के लिए; तेन--उससे; एब--अकेले; जातम्‌--उत्पन्न होता है; निखिलम्‌--सम्पूर्ण; प्रपश्चितम्‌ू-- भौतिक जगत; ज्ञानेन--ज्ञान से; भूयः अपि--एक बार पुनः; च--तथा; तत्‌--वह भौतिक जगत; प्रलीयते--लुप्त हो जाता है; रज्वाम्‌--रस्सी के भीतर; अहेः--सर्प का;भोग--शरीर का; भव-अभवौ--प्राकट्यू तथा विलोप; यथा--जिस तरह।

    जिस व्यक्ति को रस्सी से सर्प का भ्रम हो जाता है, वह भयभीत हो उठता है किन्तु यहअनुभव करने पर कि तथाकथित सर्प तो था ही नहीं, वह अपना भय त्याग देता है।

    इसी प्रकारजो लोग आपको समस्त आत्माओं ( जीवों ) के परमात्मा के रूप में नहीं पहचान पाते उनके लिएविस्तृत मायामय संसार उत्पन्न होता है किन्तु आपका ज्ञान होने पर वह तुरन्त दूर हो जाता है।

    अज्ञानसंज्ञौं भवबन्धमोक्षौद्वौ नाम नान्यौ सत ऋतज्ञभावात्‌ ।

    अजस्त्रचित्यात्मनि केवले परेविचार्यमाणे तरणाविवाहनी ॥

    २६॥

    अज्ञान--अज्ञान से प्रकट होनेवाली; संज्ौ--उपाधियाँ; भव-बन्ध--संसार का बन्धन; मोक्षौ--तथा मुक्ति; द्वौ--दो; नाम--निस्सन्देह; न--नहीं; अन्यौ--पृथक्‌; स्तः--हैं; ऋत--सत्य; ज्ञ-भावात्‌--ज्ञान से; अजस्त्र-चिति--अबाध चेतना वाला;आत्मनि--आत्मा; केवले--पदार्थ से भिन्न; परे--शुद्ध; विचार्यमाणे --उचित ढंग से पहचानने पर; तरणौ--सूर्य के भीतर;इब--जिस तरह; अहनी--दिन-रात |

    भव-बन्धन तथा मोक्ष दोनों ही अज्ञान की अभिव्यक्तियाँ हैं।

    सच्चे ज्ञान की सीमा के बाहरहोने के कारण, इन दोनों का अस्तित्व मिट जाता है जब मनुष्य ठीक से यह समझ लेता है किशुद्ध आत्मा, पदार्थ से भिन्न है और सदैव पूर्णतया चेतन है।

    उस समय बन्धन तथा मोक्ष का कोईमहत्व नहीं रहता जिस तरह सूर्य के परिप्रेक्ष्य में दिन तथा रात का कोई महत्व नहीं होता।

    त्वामात्मानं परं मत्वा परमात्मानमेव च ।

    आत्मा पुनर्बहिर्मुग्य अहो ज्ञजनताज्ञता ॥

    २७॥

    त्वामू--तुमको; आत्मानम्‌--असली आत्मा; परमू--अन्य कुछ; मत्वा--मानकर; परमू-- अन्य कुछ; आत्मानमू--आपको;एव--निस्सन्देह; च-- भी; आत्मा--परमात्मा; पुन:--फिर; बहि:--बाहर; मृग्य:--खोजा जाना चाहिए; अहो--ओह; अज्ञ--अज्ञानी; जनता--लोगों की; अज्ञता--अज्ञानता।

    जरा उन अज्ञानी पुरुषों की मूर्खता तो देखिये जो आपको मोह की भिन्न अभिव्यक्ति मानतेहैं और अपने ( आत्मा ) को, जो कि वास्तव में आप हैं, अन्य कुछ--भौतिक शरीर-मानते हैं।

    ऐसे मूर्खजन इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि परमात्मा की खोज परम पुरुष आप से बाहर अन्यत्रकी जानी चाहिए।

    अन्तर्भवेडनन्त भवन्तमेवझतत्त्यजन्तो मृगयन्ति सन्‍्तः ।

    असन्तमप्यन्त्यहिमन्तरेणसन्‍्तं गुणं तं किमु यन्ति सन्‍्तः ॥

    २८॥

    अन्तः-भवे--शरीर के भीतर; अनन्त--हे अनन्त प्रभु; भवन्तम्‌--आप; एव--निस्सन्देह; हि--निश्चय ही; अतत्‌--आपसेपृथक्‌ हर वस्तु; त्यजन्त:--त्याग करते हुए; मृगयन्ति--खोज करते हैं; सन्‍्त:--सन्त भक्तगण; असन्तम्‌--अवास्तविक असत्‌;अपि--भी; अन्ति--पास ही उपस्थित; अहिम्‌--( भ्रम के ) सर्प को; अन्तरेण--के बिना; सन्तम्‌--असली; गुणम्‌--रस्सी को;तम्‌--उस; किम्‌ उ--क्या; यन्ति--जानते हैं; सन्‍्त:ः-- आध्यात्मिक पद को प्राप्त व्यक्ति

    हे अनन्त भगवान्‌, सन्‍्तजन आपसे भिन्न हर वस्तु का तिरस्कार करते हुए अपने ही शरीर केभीतर आपको खोज निकालते हैं।

    निस्सन्देह, विभेद करनेवाले व्यक्ति भला किस तरह अपनेसमक्ष पड़ी हुईं रस्सी की असली प्रकृति को जान सकते हैं जब तक वे इस भ्रम का निराकरणनहीं कर लेते कि यह सर्प है ?

    अथ पपि ते देव पदाम्बुजद्गय-प्रसादलेशानुगृहीत एव हि ।

    जानाति तत्त्वं भगवन्महिम्नोन चान्य एकोपि चिरं विचिन्वन्‌ ॥

    २९॥

    अथ--अतः; अपि--निस्सन्देह; ते--आपका; देव-हे प्रभु; पद-अम्बुज-द्य--दो चरणकमलों को; प्रसाद--दया का;लेश--रंचमात्र; अनुगृहीत:--दया दिखाया गया; एव--निश्चय ही; हि--निस्सन्देह; जानाति--जानता है; तत्त्वमू--सत्य;भगवत्‌ू-- भगवान्‌ की; महिम्न:--महानता का; न--कभी नहीं; च--तथा; अन्य:--दूसरा; एक:--एक; अपि--यद्यपि;चिरमू--दीर्घकाल तक; विचिन्वन्‌ू--विचार करते हुए

    हे प्रभु, यदि किसी पर आपके चरणकमलों की लेशमात्र भी कृपा हो जाती है, तो वहआपकी महानता को समझ सकता है।

    किन्तु जो लोग भगवान्‌ को समझने के लिए चिन्तनकरते हैं, वे अनेक वर्षों तक वेदों का अध्ययन करते रहने पर भी आपको जान नहीं पाते।

    तदस्तु मे नाथ स भूरिभागोभवेउत्र वान्यत्र तु वा तिरश्चाम्‌ ।

    येनाहमेकोपि भवज्ननानांभूत्वा निषेवे तव पादपललवम्‌ ॥

    ३०॥

    तत्‌--अतएव; अस्तु--ऐसा ही हो; मे--मेरे; नाथ--हे स्वामी; सः--वह; भूरि-भाग:--अहोभाग्य; भवे--जन्म में; अब्र--यह;वा--अथवा; अन्यत्र--किसी अन्य जन्म में; तु--निस्सन्देह; वा--अथवा; तिरश्वामू--पशुओं में; येन--जिससे; अहम्‌--मैं;एकः--एक; अपि-- भी; भवत्‌--अथवा आपके; जनानाम्‌-भक्तों में से; भूत्वा--बनकर; निषेबवे--आपकी सेवा में लगसकूँ; तब--तुम्हारे; पाद-पललवम्‌--चरणकमलों में |

    अतः हे प्रभु, मेरी प्रार्थना है कि मैं इतना भाग्यशाली बन सकूँ कि इसी जीवन में ब्रह्मा केरूप में या दूसरे जीवन में जहाँ कहीं भी जन्म लूँ, मेरी गणना आपके भक्तों में हो।

    मैं प्रार्थनाकरता हूँ कि चाहे पशु योनि में ही सही, मैं जहाँ कहीं भी होऊँ, आपके चरणकमलों की भक्तिमें लग सकूँ।

    अहोउतिथधन्या ब्रजगोरमण्यःस्तन्यामृतं पीतमतीव ते मुदा ।

    यासां विभो वत्सतरात्मजात्मनायत्तृप्तयेडद्यापि न चालमध्वरा: ॥

    ३१॥

    अहो--ओह; अति-धन्या:--परम भाग्यशाली; ब्रज--वृन्दावन की; गो--गौवें; रमण्य: --तथा गोपियाँ; स्तन्य--स्तन का दूध;अमृतम्‌-- अमृत के तुल्य; पीतम्‌--पिया गया; अतीव--पूर्णतया; ते--आपके द्वारा; मुदा--सन्तोष के साथ; यासाम्‌--जिसका; विभो--हे सर्वशक्तिमान; वत्सतर-आत्मज-आत्मना--बछड़ों तथा ग्वालिनों के पुत्रों के रूप में; यत्‌--जिसके;तृप्तवे--सन्तोष के लिए; अद्य अपि--आज तक; न--नहीं; च--तथा; अलमू--पर्याप्त; अध्वरा:--वैदिक यज्ञ

    हे सर्वशक्तिमान भगवान्‌, वृन्दावन की गौवें तथा स्त्रियाँ कितनी भाग्यशालिनी हैं जिनकेबछड़े तथा पुत्र बनकर आपने परम प्रसन्नतापूर्वक एवं संतोषपूर्वक उनके स्तनपान का अमृतपिया है! अनन्तकाल से अब तक सम्पन्न किये गये सारे वैदिक यज्ञों से भी आपको उतना सन्तोषनहीं हुआ होगा।

    अहो भाग्यमहो भाग्यं नन्दगोपब्रजौकसाम्‌ ।

    यम्सित्रं परमानन्दं पूर्ण ब्रह्म सनातनम्‌ ॥

    ३२॥

    अहो--कितना बड़ा; भाग्यमू-- भाग्य; अहो-- कितना महान; भाग्यम्‌-- भाग्य ; नन्द--महाराज नन्द का; गोप--अन्य ग्वालोंका; ब्रज-ओकसामू्‌--ब्रजभूमि के निवासियों का; यत्‌--जिनके; मित्रम्‌--मित्र; परम-आनन्दम्‌--परम आनन्द; पूर्णम्‌-पूर्ण;ब्रह्म--परम सत्य; सनातनम्‌--सनातन, नित्य |

    नन्द महाराज, सारे ग्वाले तथा ब्रजभूमि के अन्य सारे निवासी कितने भाग्यशाली हैं! उनकेसौभाग्य की कोई सीमा नहीं है क्योंकि दिव्य आनन्द के स्त्रोत परम सत्य अर्थात्‌ सनातन परब्रह्मउनके मित्र बन चुके हैं।

    एषां तु भाग्यमहिमाच्युत तावदास्ता-मेकादशैव हि वय॑ं बत भूरिभागा: ।

    एतद्धृूषीकचषकैरसकृत्पिबाम:शर्वादयोड्ठयुदजमध्वमृतासवं ते ॥

    ३३॥

    एषाम्‌--इनके ( वृन्दावन वासियों का ); तु--तो; भाग्य--सौभाग्य की; महिमा--महानता; अच्युत--हे अच्युत; तावतू--इतनी; आस्ताम्‌ू-- हो; एकादश--ग्यारह; एवं हि--निस्सन्देह; वयम्‌--हम; बत-- ओह; भूरि-भागा: --परम भाग्यशाली हैं;एतत्‌--इन भक्तों की; हषीक--इन्द्रियों से; चषकै:--( जो ) प्यालों ( की तरह हैं )।

    असकृत्‌--बारम्बार; पिबराम:--हम पी रहेहैं; शर्ब-आदय:--शिवजी तथा अन्य प्रमुख देवगण; अड्घ्रि-उदज--चरणकमल; मधु --शहद; अमृत-आसवम्‌--जो अमृततुल्य मादक पेय है; ते-- आपका |

    वृन्दावन के इन वासियों की सौभाग्य सीमा का अनुमान नहीं लगाया जा सकता; फिर भीविविध इन्द्रियों के ग्यारह अधिष्ठाता देवता हम, जिनमें शिवजी प्रमुख हैं, परम भाग्यशाली हैंक्योंकि वृन्दावन के इन भक्तों की इन्द्रियाँ वे प्याले हैं जिनसे हम आपके चरणकमलों का अमृततुल्य मादक मधुपेय बारम्बार पीते हैं।

    तद्धूरिभाग्यमिह जन्म किमप्यटव्यांयद्गोकुलेपि कतमाडूप्रिरजोभिषेकम्‌ ।

    यज्जीवितं तु निखिलं भगवान्मुकुन्द-स्त्वद्यापि यत्पदरज: श्रुतिमृग्यमेव ॥

    ३४॥

    तत्‌--वह; भूरि-भाग्यमू--महानतम सौभाग्य; इह--यहाँ; जन्म--जन्म; किम्‌ अपि--कोई भी; अटवब्याम्‌--( वृन्दावन के )जंगल में; यत्‌--जो; गोकुले--गोकुल में; अपि-- भी; कतम--किसी ( भक्त ) के; अद्धप्रि--चरणों की; रज:--धूल से;अभिषेकम्‌--स्नान; यत्‌--जिसका; जीवितम्‌--जीवन; तु--निस्सन्देह; निखिलम्‌--पूरा; भगवानू-- भगवान्‌; मुकुन्दः --मुकुन्द; तु--लेकिन; अद्य अपि--अब भी; यत्‌--जिसके ; पाद-रज: --चरणों की धूल; श्रुति--वेदों द्वारा; मृग्यम्‌ू--खोजीजानेवाली; एव--निश्चय ही

    मेरा संभावित परम सौभाग्य यह होगा कि मैं गोकुल के इस वन में जन्म ले सकूँ और इसकेनिवासियों में से किसी के भी चरणकमलों से गिरी हुई धूल से अपने सिर का अभिषेक करूँ।

    उनका सारा जीवनसार पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ मुकुन्द हैं जिनके चरणकमलों की धूल की खोजआज भी वैदिक मंत्रों में की जा रही है।

    एषां घोषनिवासिनामुत भवान्कि देव रातेति नश्‌चेतो विश्वफलात्फलं त्वदपरं कुत्राप्ययन्मुह्यति ।

    सद्देषादिव पूतनापि सकुला त्वामेव देवापितायद्धामार्थसुहृत्प्रियात्मतनयप्राणाशयास्त्वत्कृते ॥

    ३५॥

    एषाम्‌--इन; घोष-निवासिनाम्‌-ग्वाल जाति के निवासियों में; उत--निस्सन्देह; भवान्‌ू--आप; किम्‌--क्या; देव--हेभगवन्‌; राता--प्रदान करेंगे; इति--ऐसा सोचते हुए; नः--हमारा; चेत:--मन; विश्व-फलात्‌--समस्त वरों के परम स्त्रोत कीअपेक्षा; फलमू्‌--पुरस्कार; त्वत्‌--आपकी अपेक्षा; अपरम्‌--दूसरा; कुत्र अपि--कहीं भी; अयत्‌--विचार करने पर;मुहाति--मोहित हो जाता है; सत्‌-वेषात्‌--भक्त के वेश में; इब--निस्सन्देह; पूतना--पूतना राक्षसी; अपि-- भी; स-कुला--अपने परिवारवालों बकासुर तथा अघासुर के साथ; त्वामू--आपको; एब--निश्चय ही; देव--हे प्रभु; आपिता--प्राप्त कराईगई; यत्‌--जिसके; धाम--घर; अर्थ--धन; सुहृत्‌--मित्रगण; प्रिय--प्रिय सम्बन्धीजन; आत्म--शरीर; तनय--सन्तानें;प्राण--प्राण वायु; आशया:--तथा मन; त्वत्‌-कृते--आपको समर्पित |

    मेरा मन मोहग्रस्त हो जाता है जब मैं यह सोचने का प्रयास करता हूँ कि कहीं भी आपकेअतिरिक्त अन्य कोई पुरस्कार ( फल ) क्या हो सकता है? आप समस्त वरदानों के साकार रूपहैं, जिन्हें आप वृन्दावन के ग्वाल जाति के निवासियों को प्रदान करते हैं।

    आपने पहले ही उसपूतना द्वारा भक्त का वेश बनाने के बदले में उसे तथा उसके परिवारवालों को अपने आप को देडाला है।

    अतएव वृन्दावन के इन भक्तों को देने के लिए आपके पास बचा ही क्‍या है जिनकेघर, धन, मित्रगण, प्रिय परिजन, शरीर, सन्‍्तानें तथा प्राण और हृदय--सभी केवल आपकोसमर्पित हो चुके हैं?

    तावद्रागादयः स्तेनास्तावत्कारागृहं गृहम्‌ ।

    तावन्मोहोड्प्रिनिगडो यावत्कृष्ण न ते जना: ॥

    ३६॥

    तावत्‌--तब तक; राग-आदय: -- भौतिक आसक्ति इत्यादि; स्तेना:--चोर; तावत्‌--तब तक; कारा-गृहम्‌-- जेल, बन्दीगृह;गृहमू--किसी का घर; तावत्‌--तब तक; मोह:--पारिवारिक स्नेह का मोह; अड्ध्रि--उनके चरणों में; निगड:--जंजीरें,बेड़ियाँ; यावत्‌--जब तक; कृष्ण--हे कृष्ण; न--नहीं हो जाते; ते--आपके ( भक्त ); जनाः--लोग |

    है भगवान्‌ कृष्ण, जब तक लोग आपके भक्त नहीं बन जाते तब तक उनकी भौतिकआसक्तियाँ तथा इच्छाएँ चोर बनी रहती हैं; उनके घर बन्दीगृह बने रहते हैं और अपने परिजनों केप्रति उनकी स्नेहपूर्ण भावनाएँ पाँवों की बेड़ियाँ बनी रहती हैं।

    प्रपञ्ज॑ निष्प्रपज्ञोईपि विडम्बयसि भूतले ।

    प्रपन्नजनतानन्दसन्दोहं प्रथितुं प्रभो ॥

    ३७॥

    प्रपक्ञम्‌-- भौतिक; निष्प्रपञ्न:--पूर्णतया आध्यात्मिक; अपि--यद्यपि; विडम्बबसि--आप अनुकरण करते हैं; भू-तले--पृथ्वीपर; प्रपन्न--शरणागत; जनता--लोगों का; आनन्द-सन्दोहम्‌--नाना प्रकार के आनन्द; प्रथितुम्‌ू--विस्तार करने के लिए;प्रभो--हे स्वामी

    हे स्वामी, यद्यपि भौतिक जगत से आपको कुछ भी लेना-देना नहीं रहता किन्तु आप इसधरा पर आकर अपने शरणागत भक्तों के लिए आनन्द-भाव की विविधताओं को विस्तृत करनेके लिए भौतिक जीवन का अनुकरण करते हैं।

    जानन्त एव जानन्तु कि बहूक्त्या न मे प्रभो ।

    मनसो वपुषो वाचो वैभव तव गोचर: ॥

    ३८॥

    जानन्तः--ऐसे व्यक्ति जो सोचते हैं कि वे आपकी असीम शक्ति से अवगत हैं; एब--निश्चय ही; जानन्तु--ऐसा सोचा करें;किम्‌--क्या लाभ; बहु-उक्त्या--अनेक वचनों से; न--नहीं; मे--मेरे; प्रभो--हे स्वामी; मनसः--मन का; वपुष:--शरीर का;वाच:--वाणी का; वैभवम्‌--ऐश्वर्य; तब--आपकी; गो-चर: --परिधि में |

    ऐसे लोग भी हैं, जो यह कहते हैं कि वे कृष्ण के विषय में सब कुछ जानते हैं--वे ऐसासोचा करें।

    किन्तु जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है, मैं इस विषय में कुछ अधिक नहीं कहना चाहता।

    हे प्रभु, मैं तो इतना ही कहूँगा कि जहाँ तक आपके ऐश्वर्यों की बात है वे मेरे मन, शरीर तथा शब्दोंकी पहुँच से बाहर हैं।

    अनुजानीहि मां कृष्ण सर्व त्वं वेत्सि सर्वहक्‌ ।

    त्वमेव जगतां नाथो जगदेतत्तवार्पितम्‌ ॥

    ३९॥

    अनुजानीहि--कृपया जाने दें; माम्‌--मुझको; कृष्ण--हे भगवान्‌ कृष्ण; सर्वम्‌--हर वस्तु; त्वम्‌--तुम ( आप ); वेत्सि--जानते हो; सर्व-हक्‌--सर्वदर्शी ; त्वमू--तुम; एब--अकेले; जगताम्‌--सारे ब्रह्माण्डों के; नाथ:--स्वामी; जगत्‌--ब्रह्माण्ड;एतत्‌--यह; तब--आपको; अर्पितम्‌--अर्पित है

    हे कृष्ण, अब मैं आपसे विदा लेने की अनुमति के लिए विनीत भाव से अनुरोध करता हूँ।

    वास्तव में आप सारी वस्तुओं के ज्ञाता तथा द्रष्टा हैं।

    आप समस्त ब्रह्माण्डों के स्वामी हैं फिर भीमैं आपको यह एक ब्रह्माण्ड अर्पित करता हूँ।

    श्रीकृष्ण वृष्णिकुलपुष्करजोषदायिन्‌क्ष्मानिर्जरद्विजपशूदधिवृद्द्धिकारिन्‌ ।

    उद्धर्मशार्वरहर क्षितिराक्षसश्रु -गाकल्पमार्कर्महन्भगवन्नमस्ते ॥

    ४०॥

    श्री-कृष्ण--हे कृष्ण; वृष्णि-कुल--यदु वंश के; पुष्कर--कमल; जोष--आनन्द; दायिन्‌ू--देनेवाले; क्ष्म--पृथ्वी के;निर्जर--देवतागण; द्विज--ब्राह्मण; पशु--तथा जानवर; उदधि--सागर की; वृद्धि--वृद्धि; कारिन्‌ू--कारणस्वरूप; उद्धर्म--नास्तिक सिद्धान्तों के; शार्वर--अंधकार को; हर--भगाने वाले; क्षिति--पृथ्वी पर; राक्षस--असुरों का; ध्रुकु--विरोधी; आ-कल्पम्‌--ब्रह्माण्ड के अन्त तक; आ-अर्कम्‌--जब तक सूर्य चमकता है; अहन्‌--हे परम पूज्य विग्रह; भगवन्‌--हे भगवन्‌;नमः--मैं सादर नमस्कार करता हूँ; ते--आपको |

    हे कृष्ण, आप कमल तुल्य वृष्णि कुल को सुख प्रदान करनेवाले हैं और पृथ्वी, देवता,ब्राह्मण तथा गौवों से युक्त महासागर को बढ़ाने वाले हैं।

    आप अधर्म के गहन अंधकार को दूरकरते हैं और इस पृथ्वी में प्रकट हुए असुरों का विरोध करते हैं।

    हे भगवन्‌, जब तक यहब्रह्माण्ड बना रहेगा और जब तक सूर्य चमकेगा मैं आपको सादर नमस्कार करता रहूँगा।

    श्रीशुक उबाचइत्यभिष्टूय भूमानं त्रि: परिक्रम्य पादयो: ।

    नत्वाभीष्ट जगद्धाता स्वधाम प्रत्यपद्यत ॥

    ४१॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; अभिष्टयय-- प्रशंसा करते हुए; भूमानम्‌-- अनन्त भगवान्‌के प्रति; त्रिः--तीन बार; परिक्रम्य--प्रदक्षिणा करके; पादयो:--उनके चरणों पर; नत्वा--झुककर; अभीष्टम्‌--वांछित;जगतू--ब्रह्माण्ड का; धाता--स्त्रष्टा; स्व-धाम--अपने घर को; प्रत्यपद्यत--लौट गया।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस प्रकार स्तुति करने के बाद ब्रह्माजी ने अपने आराध्य अनन्तभगवान्‌ की तीन बार प्रदक्षिणा की और फिर उनके चरणों पर नतमस्तक हुए।

    तत्पश्चात्‌ ब्रह्माण्डके नियुक्त स्त्रष्टा अपने लोक में लौट आये।

    ततोःनुज्ञाप्प भगवान्स्वभुव॑ं प्रागवस्थितान्‌ ।

    वत्सान्पुलिनमानिन्ये यथापूर्वसखं स्वकम्‌ ॥

    ४२॥

    ततः--तब; अनुज्ञाप्प--अनुमति देकर; भगवान्‌-- भगवान्‌; स्व-भुवम्‌-- अपने पुत्र ( ब्रह्मा ) को; प्राकू--पहले से;अवस्थितान्‌--स्थित; वत्सान्‌ू--बछड़े; पुलिनम्‌ू--नदी के तट पर; आनिन्ये--ले आये; यथा-पूर्व--पहले की तरह; सखम्‌--जहाँ पर मित्रगण उपस्थित थे; स्वकम्‌--अपने।

    अपने पुत्र ब्रह्मा को प्रस्थान की अनुमति देकर भगवान्‌ ने बछड़ों को साथ ले लिया, जोअब भी वहीं थे जहाँ वे एक वर्ष पूर्व थे और उन्हें नदी के तट पर ले आये जहाँ पर भगवान्‌ स्वयंपहले भोजन कर रहे थे और जहाँ पर उनके ग्वालबाल मित्र पूर्ववत्‌ थे।

    एकस्मिन्नपि याते<ब्दे प्राणेशं चान्तरात्मन: ।

    कृष्णमायाहता राजन्क्षणार्ध मेनिरेरभका: ॥

    ४३॥

    एकस्मिनू--एक; अपि--यद्यपि; याते--बीत जाने पर; अब्दे--वर्ष; प्राण-ईशम्‌--उनके प्राणों के स्वामी; च--तथा;अन्तरा--रहित; आत्मन: --उनसे; कृष्ण--कृष्ण की; माया--मायाशक्ति से; आहता:--प्रच्छन्न; राजन्‌--हे राजन्‌; क्षण-अर्धमू--आधा क्षण; मेनिरे--सोचा; अर्भका:--बालकों ने।

    हे राजन, यद्यपि बालकों ने अपने प्राणेश से विलग रहकर पूरा एक वर्ष बिता दिया थाकिन्तु वे कृष्ण की मायाशक्ति से आवृत कर दिये गये थे अतः उन्होंने उस वर्ष को केवल आधाक्षण ही समझा।

    कि कि न विस्मरन्तीह मायामोहितचेतस: ।

    यन्मोहितं जगत्सर्वमभीक्ष्णं विस्मृतात्मकम्‌ ॥

    ४४॥

    किम्‌ किमू--क्या क्या; न विस्मरन्ति--लोग भूल नहीं जाते हैं; इह--इस संसार में; माया-मोहित--माया द्वारा मोहित कियेगये; चेतस:--मन वाले; यत्‌--जिससे; मोहितम्‌--मोहित हुए; जगत्‌--संसार; सर्वम्‌--सम्पूर्ण; अभीक्षणम्‌--निरन्तर; विस्मृत-आत्मकम्‌--अपने तक को भूलकर ।

    जिनके मन भगवान्‌ की मायाशक्ति द्वारा मोहित हों, भला उन्हें क्या नहीं भूल जाता ? मायाकी शक्ति से यह निखिल ब्रह्माण्ड निरन्तर मोहग्रस्त रहता है और इस विस्मृति के वातावरण में कोई अपनी पहचान नहीं समझ सकता।

    ऊचुश्व सुहृदः कृष्णं स्वागतं तेडतिरृंहसा ।

    नैकोप्यभोजि कवल एहीतः साधु भुज्यताम्‌ ॥

    ४५॥

    ऊचु:--बोले; च--तथा; सुहृदः --मित्रगण; कृष्णम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण से; सु-आगतम्‌--वापस आ गये हो; ते--तुम; अति-रहसा--बहुत जल्दी; न--नहीं; एक:--एक; अपि-- भी; अभोजि-- खाया गया है; कवलः--कौर; एहि--आओ; इतः--यहाँ; साधु--ठीक से; भुज्यतामू--अपना भोजन करोग्वाल मित्रों ने

    भगवान्‌ कृष्ण से कहा ‘तुम इतनी जल्दी आ गये! तुम्हारी अनुपस्थिति मेंहमने एक कौर भी नहीं खाया।

    आओ और अच्छी तरह से अपना भोजन करो।

    'ततो हसन्हषीकेशो भ्यवहत्य सहार्भकै: ।

    दर्शयंश्चर्माजगरं न्यवर्तत वनाद्व्रजम्‌ ॥

    ४६॥

    ततः:--तब; हसन्‌--मुसकाते हुए; हषीकेश:--सबों की इन्द्रियों के स्वामी भगवान्‌ कृष्ण ने; अभ्यवहत्य-- भोजन करते हुए;सह--साथ; अर्भकै:--ग्वालबालों के; दर्शयन्‌ू--दिखलाते हुए; चर्म--चमड़ा; आजगरम्‌--अघासुर अजगर का; न्यवर्तत--लौट आये; बनातू्‌--जंगल से; ब्रजम्‌्--ब्रज के ग्राम को |

    तत्पश्चात्‌ भगवान्‌ हृषीकेश ने हँसते हुए अपने गोपमित्रों के साथ अपना भोजन समाप्तकिया।

    जब वे जंगल से ब्रज में स्थित अपने घरों को लौट रहे थे तो भगवान्‌ कृष्ण ने ग्वालबालों को अघासुर अजगर की खाल दिखलाई।

    बहईप्रसूनवनधातुविचित्रिताडु:प्रोद्दमवेणुदल श्रुड्भरवोत्सवाढ्य: ।

    वत्सान्गूणन्ननुगगीतपवित्रकीर्ति -गेपीहगुत्सवदशि: प्रविवेश गोष्ठम्‌ ॥

    ४७॥

    बह--मोरपंख; प्रसून--फूलों; वन-धातु--जंगल के खनिजों से; विचित्रित--अलंकृत; अड्गभ:--दिव्य शरीर; प्रोद्याम--विशाल;वेणु-दल--बाँस की टहनी से बना; श्रुड़--वंशी की; रब--प्रतिध्वनि से; उत्सव--उत्सव समेत; आढ्य:--दीप्त; वत्सान्‌ू--बछड़ों को; गृणन्‌--पुकारते हुए; अनुग--अपने संगियों द्वारा; गीत--गाया गया; पवित्र--शुद्ध करने वाला; कीर्ति:--उनकीमहिमा; गोपी--गोपियों की; हक्‌--आँखों के लिए; उत्सव--त्यौहार; दृशि:--उनकी दृष्टि; प्रविवेश--प्रविष्ट हुए; गोष्ठम्‌--चरागाह में

    भगवान्‌ कृष्ण का दिव्य शरीर मोरपंखों तथा फूलों से सजा था और जंगल के खनिजों सेरँगा हुआ था और बाँस की उनकी वंशी उच्च एवं उल्लासपूर्ण स्वर में गूँज रही थी।

    जब वे बछड़ोंका नाम लेकर पुकारते तो उनके ग्वालमित्र उनकी महिमा का गान करते और सारे संसार कोपवित्र बना देते।

    इस तरह कृष्ण भगवान्‌ अपने पिता नन्‍्द महाराज की चरागाह में प्रविष्ट हुए।

    उनके सौन्दर्य पर दृष्टि पड़ते ही समस्त गोपियों की आँखों के लिए एक महोत्सव सा उत्पन्न होगया।

    अद्यानेन महाव्यालो यशोदानन्दसूनुना ।

    हतोविता बयं चास्मादिति बाला ब्रजे जगु: ॥

    ४८ ॥

    अद्य--आज; अनेन--उनके द्वारा; महा-व्याल:--विशाल सर्प; यशोदा--यशोदा; नन्द--तथा महाराज नन्द के; सूनुना--पुत्रद्वारा; हतः--मारा गया है; अविता:--बचाये गये हैं; वयम्‌--हम सभी; च--तथा; अस्मात्‌--उस असुर से; इति--इस प्रकार;बाला:--बालकों ने; ब्रजे--वृन्दावन में ; जगुः--गाया |

    ब्रज ग्राम पहुँचते ही बालकों ने गुणगान किया, ‘आज कृष्ण ने एक विशाल सर्प मारकरहम सबों को बचाया है।

    कुछ बालकों ने कृष्ण को यशोदानन्दन के रूप में तो कुछ ने नन्द महाराज के पुत्र के रूप में बखान किया।

    श्रीराजोबाचब्रह्मन्परोद्धवे कृष्णे इयान्प्रेमा कथं भवेत्‌ ।

    योभूतपूर्वस्तोकेषु स्वोद्धवेष्वपि कथ्यताम्‌ ॥

    ४९॥

    श्री-राजा उबाच--राजा ने कहा; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण, शुकदेव; पर-उद्धवे--दूसरे की सनन्‍्तान; कृष्णे--कृष्ण के लिए; इयान्‌--इतना अधिक; प्रेमा--प्रेम; कथम्‌--क्‍्यों; भवेत्‌--हो सकता है; यः--जो; अभूत-पूर्व:--अभूतपूर्व; तोकेषु--बालकों केलिए; स्व-उद्धवेषु-- अपने ही जन्मे; अपि--भी; कथ्यताम्‌--कृपया बतलाइये |

    राजा परीक्षित ने कहा, ‘हे ब्राह्मण, ग्वालों की पत्नियों में एक पराये पुत्र कृष्ण के लिएऐसा अभूतपूर्व शुद्ध प्रेम किस प्रकार उत्पन्न हुआ--ऐसा प्रेम जिसका अनुभव उन्हें अपने पुत्रों केप्रति भी नहीं उत्पन्न हुआ ? कृपया इसे बतलाइये।

    'श्रीशुक उबाचसर्वेषामपि भूतानां नृप स्वात्मैव बल्‍लभ: ।

    इतरेपत्यवित्ताद्यास्तद्ल्लभतयैव हि ॥

    ५०॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; सर्वेषाम्‌ू--समस्त; अपि--निस्सन्देह; भूतानामू--जीवों में; नृप--हे राजन;स्व-आत्मा--अपनी ही आत्मा, स्व; एव--निश्चय ही; वललभः --प्रियतम; इतरे-- अन्य; अपत्य--सन्तानें; वित्त-- धन;आद्या:--इत्यादि; तत्‌--उस आत्मा के; बल्‍लभतया--प्रियत्व पर आश्रित; एव हि--निस्सन्देह |

    श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन्‌, प्रत्येक प्राणी के लिए स्वयं ही सर्वाधिक प्रियहोता है।

    सनन्‍्तान, धन इत्यादि अन्य समस्त वस्तुओं की प्रियता केवल आत्म-प्रियता के कारणहै।

    तद्ाजेन्द्र यथा स्नेह: स्वस्वकात्मनि देहिनाम्‌ ।

    न तथा ममतालम्बिपुत्रवित्तगृहादिषु ॥

    ५१॥

    तत्‌--अतएव; राज-इन्द्र--हे राजाओं में श्रेष्ठ; यथा--जिस तरह; स्नेह:--स्नेह; स्व-स्वक-- प्रत्येक व्यक्ति की; आत्मनि--आत्मा के लिए; देहिनाम्‌--देहधारी प्राणियों के; न--नहीं; तथा--उसी तरह; ममता-आलम्बि--उसके लिए जो अपने कोअपनी वस्तुओं के रूप में मानता है; पुत्र--पुत्र; वित्त-- धन; गृह--घर; आदिषु-- त्यादि में |

    अतएव इसीलिए हे राजाओं में श्रेष्ठ, देहधधारी जीव आत्मकेन्द्रित होता है।

    वह सन्‍्तान, धनतथा घर इत्यादि वस्तुओं की अपेक्षा अपने शरीर तथा अपनी ओर अधिक आसक्त होता है।

    देहात्मवादिनां पुंसामपि राजन्यसत्तम ।

    यथा देह: प्रियतमस्तथा न हानु ये च तम्‌ ॥

    ५२॥

    देह-आत्म-वादिनामू--शरीर को ही आत्मा मानने वाले; पुंसाम्‌-मनुष्यों के लिए; अपि--निस्सन्देह; राजन्य-सत्‌-तम-हेराजाओं में श्रेष्ठ; यथा--जिस तरह; देह: --शरीर; प्रिय-तम:--सर्वाधिक प्रिय; तथा--उसी प्रकार; न--नहीं; हि--निश्चय ही;अनु--की तुलना में; ये--जो वस्तुएँ; च--तथा; तम्‌--उसको |

    हे राजाओं में श्रेष्ठ जो लोग शरीर को ही अपना सर्वस्व मानते हैं उनके लिए वे वस्तुएँजिनका महत्व शरीर के लिए होता है कभी भी शरीर जितनी प्रिय नहीं होतीं।

    देहोपि ममताभाक्रेत्त्ंसौ नात्मवत्प्रिय: ।

    यज्जीर्य॑त्यपि देहेस्मिन्जीविताशा बलीयसी ॥

    ५३॥

    देह:--शरीर; अपि--भी; ममता--स्वामित्व का; भाक्‌ु--केन्बिन्दु; चेतू--यदि; तहिं--तब; असौ--वह शरीर; न--नहीं;आत्म-वत्‌--आत्मा के समान; प्रियः--प्रिय; यत्‌--क्योंकि; जीर्यति--वृद्ध होते हुए; अपि-- भी; देहे--शरीर में; अस्मिनू--इस; जीवित-आशा--जीवित रहने की आकांक्षा; बलीयसी--अत्यन्त प्रबल ।

    यदि मनुष्य शरीर को ‘'मैं' न मानकर ‘'मेरा' मानने की अवस्था तक पहुँच जाता है, तोवह निश्चित रूप से शरीर को अपने आप जितना प्रिय नहीं मानेगा।

    यही कारण है कि शरीर केजीर्णशीर्ण हो जाने पर भी जीवित रहते जाने की आशा प्रबल रहती है।

    तस्मात्प्रियतमः स्वात्मा सर्वेषामपि देहिनाम्‌ ।

    तदर्थमेव सकल॑ जगदेतच्चराचरम्‌ ॥

    ५४॥

    तस्मात्‌--इसलिए; प्रिय-तमः--अत्यन्त प्रिय; स्व-आत्मा--अपनी आत्मा; सर्वेषाम्‌--समस्त; अपि--निस्सन्देह; देहिनाम्‌ू--देहधारी जीवों के लिए; तत्‌-अर्थम्‌--उसी के हेतु; एब--निश्चय ही; सकलम्‌--सम्पूर्ण; जगत्‌--संसार; एतत्‌--यह; चर-अचरम्‌--चर तथा अचर जीवों समेत |

    इसलिए हर देहधारी जीव को अपना आप (स्वात्म ) ही सर्वाधिक प्रिय है और इसी की तुष्टिके लिए यह समस्त चराचर जगत विद्यमान है।

    कृष्णमेनमवेहि त्वमात्मानमखिलात्मनाम्‌ ।

    जगद्धिताय सोप्यत्र देहीवाभाति मायया ॥

    ५५॥

    कृष्णम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण को; एनम्‌ू--इन; अवेहि--समझने का प्रयत्न करो; त्वम्‌-तुम; आत्मानम्‌--आत्मा को; अखिल-आत्मनामू--समस्त जीवों के; जगत्‌-हिताय--सारे ब्रह्माण्ड के लाभ हेतु; सः--वह; अपि--निश्चय ही; अत्र--यहाँ; देही--मानव; इब--सहश; आभाति--प्रकट होता है; मायया--अपनी अन्तरंगा शक्ति के द्वारा।

    तुम कृष्ण को समस्त जीवों की आदि आत्मा करके जानो।

    वे अपनी अहैतुकी कृपावश,समस्त जगत के लाभ हेतु, सामान्य मानव के रूप में प्रकट हुए हैं।

    ऐसा उन्होंने अपनी अन्तरंगाशक्ति के बल पर किया है।

    वस्तुतो जानतामत्र कृष्णं स्थास्नु चरिष्णु च ।

    भगवद्गूपमखिल नान्यद्वस्त्विह किज्लन ॥

    ५६॥

    वस्तुत:--वास्तव में; जानताम्‌--जानने वालों के लिए; अत्र--इस संसार में; कृष्णम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण को; स्थास्नु--अचल;चरिष्णु--चल; च--तथा; भगवत्ू-रूपम्‌-- भगवान्‌ का प्रकट रूप; अखिलम्‌--सर्वस्व; न--कुछ भी नहीं; अन्यत्‌--अन्य;वस्तु--वस्तु; इह--यहाँ; किज्लनन--तनिक भी

    इस जगत में जो लोग भगवान्‌ कृष्ण को यथारूप में समझते हैं, वे समस्त चर या अचरवस्तुओं को भगवान्‌ के व्यक्त रूप में देखते हैं।

    किसी यथार्थ ( वास्तविकता ) को नहीं मानते।

    सर्वेषामपि वस्तूनां भावार्थों भवति स्थित: ।

    तस्यापि भगवान्कृष्ण: किमतद्वस्तु रूप्पताम्‌ ॥

    ५७॥

    सर्वेषामू--सभी; अपि--निस्सन्देह; वस्तूनाम्‌--वस्तुओं का; भाव-अर्थ:--प्रकृति की आदि अव्यक्त कारण-अवस्था;भवति--होती है; स्थित:--स्थापित; तस्यथ--अव्यक्त प्रकृति का; अपि-- भी; भगवान्‌-- भगवान्‌; कृष्ण: --कृष्ण; किम्‌--क्या; अतत्‌--उनसे पृथक; वस्तु--वस्तु; रूप्यताम्‌--निर्धारित की जा सकती है।

    प्रकृति का आदि अव्यक्त रूप समस्त भौतिक वस्तुओं का स्त्रोत है और यहाँ तक कि इससूक्ष्म प्रकृति के स्रोत तो भगवान्‌ कृष्ण हैं।

    तो भला उनसे पृथक्‌ किसको कहा जा सकता है ?

    समाशञ्रिता ये पदपल्‍लवप्लवंमहत्पदं पुण्ययशो मुरारे: ।

    भवाम्बुधिर्वत्सपदं परं पदपदं पदं यद्विपदां न तेषाम्‌ ॥

    ५८ ॥

    समाश्रिता:--शरणागत; ये--जो लोग; पद--पैरों का; पल्‍लव--फूल की कलियों के समान; प्लवम्‌--नौका रूप; महत्‌--सम्पूर्ण जगत के अथवा महात्माओं के; पदम्‌--शरण; पुण्य--अत्यन्त पुनीत; यश:--जिनका यश; मुर-अरेः:--मुर नामकअसुर के शत्रु का; भव--संसार का; अम्बुधि:--सागर; वत्स-पदम्‌--बछड़े का खुर; परम्‌ पदम्‌--परम धाम, वैकुण्ठ; पदम्‌'पदम्‌--पग पग पर; यत्‌--जहाँ; विपदाम्‌--विपदाएँ; न--एक भी नहीं; तेषामू--उनके लिए।

    हृश्यजगत के आश्रय एवं मुर राक्षस के शत्रु मुरारी के नाम से प्रसिद्ध भगवान्‌ केचरणकमल रूपी नाव को जिन्होंने स्वीकार किया है उनके लिए यह भव-सागर बछड़े के खुरचिन्ह में भरे जल के समान है।

    उनका लक्ष्य परं पदम्‌ अर्थात्‌ वैकुण्ठ होता है जहाँ भौतिकविपदाओं का नामोनिशान नहीं होता, न ही पग पग पर कोई संकट होता है।

    एतत्ते सर्वमाख्यातं यत्पृष्टोहमिह त्वया ।

    तत्कौमारे हरिकृतं पौगण्डे परिकीर्तितम्‌ ॥

    ५९॥

    एतत्‌--यह; ते--आपसे; सर्वम्‌--सभी; आख्यातमू--वर्णन किया; यत्‌--जो; पृष्ट:--पूछा गया; अहम्‌--मैंने; हह--इससम्बन्ध में; त्ववा--तुम्हारे द्वारा; तत्‌ू--वह; कौमारे--बाल्यकाल में ( पाँच वर्ष की अवस्था में ); हरि-कृतम्‌ू-- भगवान्‌ हरिद्वारा सम्पन्न; पौगण्डे--बाल्यकाल के बाद ( छठे वर्ष से लेकर आगे ); परिकीर्तितम्‌--गुणानुवाद किया हुआ।

    चूँकि आपने मुझसे पूछा था इसलिए मैंने भगवान्‌ हरि की उन लीलाओं का संपूर्ण वर्णनकिया जो उन्होंने अपनी आयु के पाँचवें वर्ष में सम्पन्न की थीं किन्तु छठा वर्ष लगने तक प्रशस्तनहीं हुई थीं।

    एतत्सुहद्धिश्चरितं मुरारे-रघार्दनं शाद्लजेमनं च ।

    व्यक्तेतरद्रूपमजोर्वभिष्टवंश्रृण्वन्गृणन्नेति नरोडखिलार्थान्‌ ॥

    ६० ॥

    एतत्‌--ये; सुहद्धिः--अपने ग्वाल मित्रों के साथ; चरितम्‌--लीलाएँ; मुरारे:--भगवान्‌ मुरारी की; अघ-अर्दनम्‌--अघासुर कादमन; शाद्वल--जंगल की घास पर; जेमनम्‌--भोजन करते हुए; च--तथा; व्यक्त-इतरत्‌-- अलौकिक; रूपम्‌-- भगवान्‌ कादिव्य रूप; अज--ब्रह्म द्वारा; उरू--विस्तृत; अभिष्टवम्‌--स्तुति; श्रुण्वनू-- श्रवण; गृणनू--कीर्तन; एति-- प्राप्त करता है;नरः--कोई मनुष्य; अखिल-अर्थान्‌--सारी मनवांछित वस्तुएँ॥

    मुरारी द्वारा ग्वालबालों के साथ सम्पन्न इन लीलाओं को--यथा अघासुर वध, जंगल कीघास पर बैठकर भोजन करना, भगवान्‌ द्वारा दिव्य रूपों का प्राकट्य तथा ब्रह्मा द्वारा की गईअद्भुत स्तुति को जो भी व्यक्ति सुनता है या उनका कीर्तन करता है उसकी सारी आध्यात्मिकमनोकामनाएँ अवश्य पूरी होती हैं।

    एवं विहारैः कौमारै: कौमारं जहतुर्ब्रजे ।

    निलायनै: सेतुबन्धेर्मकटोत्प्लतवनादिभि: ॥

    ६१॥

    एवम्‌--इस प्रकार; विहारैः:--लीलाओं से; कौमारैः--बाल्यकाल की; कौमारम्‌--पाँच वर्ष तक की बाल्यावस्था; जहतु:--उन्होंने बिता दी; ब्रजे--ब्रज भूमि में; निलायनै:--आँखमिचौनी खेल में; सेतु-बन्धैः --पुल बनाने में; मर्कट-उत्पलवन--बन्दरकूद; आदिभिः--३त्यादि में

    इस प्रकार ब्रज भूमि में आँखमिचौनी का खेल खेलते, खेल में ही पुल बनाते, बन्दरों कीतरह कूदफाँद करते तथा अन्य ऐसे ही खेलों में लगे रहकर बालकों ने अपना बाल्यकालबिताया।

    TO

    अध्याय पंद्रह: धेनुका, गधा दानव की हत्या

    10.15श्रीशुक उबाचततश्न पौगण्डवय: श्रीतौ ब्रजेबभूवतुस्तौ पशुपालसम्मतौ ।

    गाश्चारयन्तौ सखिभिः सम॑ पदै-वृन्दावन पुण्यमतीव चक्रतु: ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; ततः--तब; च--तथा; पौगण्ड बय:--पौगण्ड अवस्था (६ से १० वर्षतक ); थ्रितौ--प्राप्त करके; ब्रजे--वृन्दावन में; बभूबतु:--बन गये; तौ--दोनों ( राम तथा कृष्ण ); पशु-पाल--्वालों केरूप में; सम्मतौ--नियुक्त; गा: --गौवें; चारयन्तौ--चराते हुए; सखिभि: समम्‌--अपने मित्रों के साथ साथ; पदैः--पाँवों केचिह्नों से; वृन्दावनम्‌-- श्री वृन्दावन को; पुण्यम्‌ू--पावन; अतीव--अत्यन्त; चक्रतु:--उन्होंने बना दिया।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : वृन्दावन में रहते हुए जब राम तथा कृष्ण ने पौगण्ड अवस्था( ६-१० वर्ष ) प्राप्त कर ली तो ग्वालों ने उन्हें गौवें चराने के कार्य की अनुमति प्रदान कर दी।

    इस तरह अपने मित्रों के साथ इन दोनों बालकों ने वृन्दावन को अपने चरणकमलों के चिन्हों से अत्यन्त पावन बना दिया।

    तन्माधवो वेणुमुदीरयन्वृतोगोपैर्गणद्धि: स्ववशो बलान्वित: ।

    पशून्पुरस्कृत्य पशव्यमाविशद्‌विहर्तुकाम: कुसुमाकरं वनम्‌ ॥

    २॥

    तत्‌--इस प्रकार; माधव: -- श्री माधव; वेणुमू-- अपनी वंशी; उदीरयन्‌--बजाते हुए; वृत:ः--घिरे हुए; गोपैः--ग्वालबालों से;गृणद्द्धिः--कीर्तन करते हुए; स्व-यशः:--अपना यश; बल-अन्वित:--बलराम सहित; पशून्‌--पशुओं को; पुरस्कृत्य--आगेकरके; पशव्यम्‌--गौवों के लिए पोषण से पूर्ण; आविशत्‌--प्रवेश किया; विहर्तु-काम:--विहार करने की इच्छा से; कुसुम-आकरम्‌- फूलों से परिपूर्ण; बनम्‌--वन में |

    इस तरह अपनी लीलाओं का आनंद उठाने की इच्छा से अपनी वंशी बजाते हुए और अपनेगुणगान कर रहे ग्वालबालों से घिरे हुए तथा बलदेव के साथ जाते हुए माधव ने गौवों को अपने आगे कर लिया और वृन्दावन के जंगल में प्रवेश किया जो फूलों से लदा था और पशुओं केस्वास्थ्य-प्रद चारे से भरा पड़ा था।

    तन्मझुघोषालिमृगद्विजाकुलंमहन्मनः प्रख्यपय:ःसरस्वता ।

    बातेन जुष्टे शतपत्रगन्धिनानिरीक्ष्य रन्तुं भगवान्मनो दधे ॥

    ३॥

    तत्‌--उस ( वन ); मझ्जु--सुहावनी; घोष-- ध्वनि; अलि-- भौरे; मृग-- पशु ; द्विज--तथा पक्षी; आकुलम्‌-पूर्ण; महत्‌--महात्माओं के; मन:--मन; प्रख्य--सहृशता रखने वाले; पयः--जिसका जल; सरस्वता--सरोवर समेत; वातेन--हवा से;जुष्टमू--सेवित; शत-पत्र--सौ पंखड़ियों वाले कमल की; गन्धिना--सुगन्धि से; निरीक्ष्य--देखकर; रन्तुमू--आनन्द लूटने केलिए; भगवानू-- भगवान्‌ ने; मनः--अपना मन; दधे--फेरा

    भगवान्‌ ने उस जंगल पर दृष्टि दौड़ाई जो भौंरों, पशुओं तथा पक्षियों की मनोहर गुंजार सेगूँजायमान हो रहा था।

    इसकी शोभा महात्माओं के मन के समान स्वच्छ जल वाले सरोवर सेतथा सौ पंखड़ियों वाले कमलों की सुगन्धि ले जाने वाली मन्द वायु से भी बढ़कर थी।

    यह सबदेखकर भगवान्‌ कृष्ण ने इस पवित्र वातावरण का आनन्द लेने का निश्चय किया।

    स तत्र तत्रारुणपललवश्रिया'फलप्रसूनोरुभरेण पादयो: ।

    स्पृशच्छिखान्वीक्ष्य वनस्पतीन्मुदास्मयन्निवाहाग्रजमादिपूरुष: ॥

    ४॥

    सः--वह; तत्र तत्र--चारों ओर; अरुण--लाल-लाल; पल्‍लव--कलियों के; श्रीया--सौन्दर्य से; फल--उनके फलों;प्रसून--तथा फूलों के; उरू-भरेण-- भारी बोझ से; पादयो: --उनके दोनों चरणों को; स्पृशत्‌--छूते हुए; शिखान्‌--उनकीडालों के सिरे; वीक्ष्य--देखकर; वनस्पतीन्‌--शानदार वृक्षों को; मुदा--हर्ष से; स्मयन्‌ू--हँसते हुए; इब--प्राय:; आह--बोले;अग्र-जम्‌--अपने बड़े भाई बलराम से; आदि-पूरुष:--आदि परमेश्वर।

    आदि परमेश्वर ने देखा कि शानदार वृक्ष अपनी सुन्दर लाल-लाल कलियों तथा फलों औरफूलों के भार से लदकर अपनी शाखाओं के सिरों से उनके चरणों को स्पर्श करने के लिए झुकरहे हैं।

    तब मन्द हास करते हुए वे अपने बड़े भाई से बोले।

    श्रीभगवानुवाचअहो अमी देववरामरार्चितंपादाम्बुजं ते सुमनःफलाईणम्‌ ।

    नमन्त्युपादाय शिखाभिरात्मन-स्तमोपहत्यै तरुजन्म यत्कृतम्‌ ॥

    ५॥

    श्री-भगवान्‌ उबाच-- भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने कहा; अहो--ओह; अमी--ये; देव-वर--देवताओं में श्रेष्ठ ( श्री बलराम ); अमर--अमर देवताओं द्वारा; अर्चितम्‌--पूजित; पाद-अम्बुजम्‌ू--चरणकमलों पर; ते--आपके; सुमन: --फूल; फल--तथा फल की;अर्हणम्‌-- भेंट; नमन्ति--वे नमन कर रहे हैं; उपादाय-- प्रस्तुत करते हुए; शिखाभि:--अपने शिरों से; आत्मन:--उनकाअपना; तमः--अज्ञान का अंधकार; अपहत्यै--दूर करने के लिए; तरू-जन्म--वृक्षों के रूप में उनका जन्म; यत्‌--जिससेअज्ञान; कृतम्‌ू--उत्पन्न हुआ।

    भगवान्‌ ने कहा : हे देवश्रेष्ठ, देखें न, ये वृक्ष जो अमर देवताओं द्वारा पूज्य हैं आपके चरणकमलों पर किस तरह अपना सिर झुका रहे हैं।

    ये वृक्ष उस गहन अज्ञान को दूर करने केलिए आपको अपने फल तथा फूल अर्पित कर रहे हैं जिसके कारण उन्हें वृक्षों का जन्म धारणकरना पड़ा है।

    एतेडलिनस्तव यशोखिललोकतीर्थगायन्त आदिपुरुषानुपथं भजन्ते ।

    प्रायो अमी मुनिगणा भवदीयमुख्यागूढं वनेपि न जहत्यनघात्मदैवम्‌ ॥

    ६॥

    एते--ये; अलिन:--भौरे; तव--आपका; यश: -- कीर्ति; अखिल-लोक--समस्त जगतों के लिए; तीर्थम्‌--ती ्थस्थान;गायन्त:--गुणगान कर रहे हैं; आदि-पुरुष--हे आदि भगवान्‌; अनुपथम्‌--मार्ग में आपका अनुसरण करते हुए; भजन्ते--पूजाकर रहे हैं; प्रायः --अधिकांशत:; अमी--ये; मुनि-गणा:--मुनि जन; भवदीय--आपके भक्तों में; मुख्या:--अतीव घनिष्ठ;गूढम्‌--छिपाया हुआ; वने--जंगल में; अपि--यद्यपि; न जहति--नहीं छोड़ते; अनध--हे निष्पाप; आत्म-दैवम्‌-- अपनेआराध्य देव को |

    हे आदिपुरुष, ये भौरे अवश्य ही महान्‌ मुनि तथा आपके परम सिद्ध भक्त होंगे क्योंकि येमार्ग में आपका अनुसरण करते हुए आपकी पूजा कर रहे हैं और आपके यश का कीर्तन कर रहेहैं, जो सम्पूर्ण जगत के लिए स्वयं तीर्थस्थल हैं।

    यद्यपि आपने इस जंगल में अपना वेश बदलरखा है किन्तु हे अनघ, वे अपने आराध्यदेव, आपको छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं।

    नृत्यन्त्यमी शिखिन ईड् मुदा हरिण्यःकुर्वन्ति गोप्य इव ते प्रियमीक्षणेन ।

    सूक्तेश्न कोकिलगणा गृहमागतायधन्या वनौकस इयान्हि सतां निसर्ग: ॥

    ७॥

    नृत्यन्ति--नाच रहे हैं; अमी--ये; शिखिन: --मयूर; ईड्य--हे आराध्य देव; मुदा--हर्ष से; हरिण्य:--हिरणियाँ; कुर्वन्ति--कररही हैं; गोप्य:--गोपियाँ; इब--मानो; ते--आपके लिए; प्रियम्‌--प्रिय; ईक्षणेन-- अपनी चितवन से; सूक्तैः--वैदिक स्तुतियोंसे; च--तथा; कोकिल-गणा: --कोयलें; गृहम्‌-- अपने घर में; आगताय--आकर; धन्या:-- भाग्यशाली; वन-ओकसः --जंगल के निवासी; इयान्‌--ऐसा; हि--निस्सन्देह; सताम्‌--सन्त पुरुषों की; निसर्ग:--प्रकृति |

    हे आर्य ईश्वर, ये मोर प्रसन्नता के मारे आपके समक्ष नाच रहे हैं, हिरणियाँ अपनी स्नेहिलचितवनों से आपको गोपियों की भाँति प्रसन्न कर रही हैं।

    ये कोयलें आपका सम्मान वैदिकस्तुतियों द्वारा कर रही हैं।

    जंगल के ये सारे निवासी परम भाग्यशाली हैं और आपके प्रति इनकाबर्ताव किसी महात्मा द्वारा अपने घर में आये अन्य महात्मा के स्वागत के अनुरूप है।

    धन्येयमद्य धरणी तृणवीरुधस्त्वत्‌-पादस्पृशो द्रमलता: करजाभिमृष्ठा: ।

    नद्योद्रयः खगमृगा: सदयावलोकै -गेप्योउन्तरेण भुजयोरपि यत्स्पूहा श्री: ॥

    ८॥

    धन्या-- भाग्यशाली; इयम्‌ू--यह; अद्य--अब; धरणी--पृथ्वी; तृण--घास; वीरुध:--तथा झाड़ियाँ; त्वत्‌--आपके ; पाद--पैरों का; स्पृशः--स्पर्श पाकर; द्रुम--वृक्ष; लताः:--तथा लताएँ; कर-ज--अपने हाथ के नाखूनों से; अभिमृष्ठा: --स्पर्श कीजाकर; नद्यः--नदियाँ; अद्रयः--तथा पर्वत; खग--पक्षी; मृगा:--तथा पशु; सदय--कृपापूर्ण; अवलोकैः-- आपकी चितवनोंसे; गोप्य:--गोपियाँ; अन्तरेण--बीच में; भुजयो:--आपकी दो भुजाओं के; अपि--निस्सन्देह; यत्‌--जिसके लिए; स्पृहा--इच्छा रखती है; श्री:--लक्ष्मी जी |

    अब यह धरती परम धन्य हो गई है क्योंकि आपने अपने पैरों से इसकी घास तथा झाड़ियोंका, अपने नाखूनों से इसके वृक्षों तथा लताओं का स्पर्श किया है और आपने इसकी नदियों,पर्वतों, पक्षियों तथा पशुओं पर अपनी कृपा-दृष्टि डाली है।

    इनसे भी बढ़ कर, आपने अपनीतरूुणी गोपियों को अपनी दोनों भुजाओं में भर कर उनका आलिंगन किया है, जिसके लिएस्वयं लक्ष्मी जी लालायित रहती हैं।

    श्रीशुक उबाचएवं वृन्दावन श्रीमत्कृष्ण: प्रीतमना: पशून्‌ ।

    रेमे सन्लारयन्नद्रेः सरिद्रोध:सु सानुगः ॥

    ९॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस तरह; वृन्दावनम्‌--वृन्दावन के जंगल तथा उसके निवासियों केप्रति; श्रीमत्‌--सुन्दर; कृष्ण: -- भगवान्‌ कृष्ण ने; प्रीत-मना:--मन में संतुष्ट हुए; पशून्‌ू--पशुओं को; रेमे--हर्ष का अनुभवकिया; सशझ्नारयन्‌--चराने में; अद्वेः--पर्वत के निकट; सरित्‌--नदी के; रोध:सु--किनारों पर; स-अनुग: -- अपने साथियोंसमेत।

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस प्रकार वृन्दावन के रम्य जंगल तथा वृन्दावन केनिवासियों के प्रति संतोष व्यक्त करते हुए भगवान्‌ कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत की तलहटी में यमुनानदी के तट पर अपने मित्रों सहित गौवों तथा अन्य पशुओं को चराने का आनन्द लिया।

    क्वचिद्गायति गायत्सु मदान्धालिष्वनुव्रतेः ।

    उपगीयमानचरितः पथ्िि सह्डूर्षणान्वित: ॥

    १०॥

    अनुजल्पति जल्पन्तं कलवाक्यै: शुकं क्वचित्‌ ।

    क्वचित्सवल्गु कूजन्तमनुकूजति कोकिलम्‌क्वचिच्च कालहंसानामनुकूजति कूजितम्‌ ।

    अभिनृत्यति नृत्यन्तं बहहिणं हासयन्क्वचित्‌ ॥

    ११॥

    मेघगम्भीरया वाचा नामभिर्दूरगान्पशून्‌ ।

    क्वचिदाह्नययति प्रीत्या गोगोपालमनोज्ञया ॥

    १२॥

    क्वचित्‌--कभी; गायति--गाते हैं; गायत्सु--उनके गाने पर; मद-अन्ध--मद से अंधे होकर; अलिषु-- भौरे; अनुव्रतिः: -- अपनेमित्रों के साथ; उपगीयमान--संगीत अलापते हुए; चरित:ः--लीलाएँ; पथि--रास्ते में; सड्डर्षण-अन्वित: --बलराम के साथ;अनुजल्पति--नकल करते हैं; जल्पन्तम्‌--चहचहाने की; कल-वाक्यै:--तोतली वाणी में; शुकम्‌--तोतों की; क्वचित्‌--कभी; क्वचित्‌ू--कभी; स--सहित; वल्गु--मोहक; कूजन्तम्‌--कोयल की कूक; अनुकूजति--कू कू की नकल करते हैं;कोकिलम्‌--कोयल की; क्वचित्‌--कभी कभी; च-- भी; कल-हंसानाम्‌--हंसों के; अनुकूजति कूजितम्‌--कोयल की कूकका अनुकरण करते हैं; अभिनृत्यति--नाचते हैं; नृत्यन्तम्‌--नाचते हुए; बर्हिणम्‌--मोर के समक्ष; हासयन्‌--हँसते हुए;क्वचित्‌--कभी; मेघ--बादल के समान; गम्भिरया --गम्भीर; वाचा-- अपनी वाणी से; नामभि:--नाम लेकर; दूर-गान्‌--भटक कर दूर गए हुए; पशून्‌--पशुओं को; क्वचित्‌--क भी; आह्ृयति--टेरते हैं; प्रीत्या--स्नेहपूर्वक; गो--गौवों; गोपाल--तथा ग्वालबालों को; मनः-ज्ञया--मन को मोहने वाली ( वाणी ) से |

    कभी कभी वृन्दावन में भौरे आनन्द में इतने मग्न हो जाते थे कि वे अपनी आँखें बन्द करके गाने लगते थे।

    श्रीकृष्ण अपने ग्वालमित्रों तथा बलदेव के साथ जंगल में विचरण करते हुएअपने राग में उनके गुनगुनाने की नकल उतारते थे और उनके मित्र उनकी लीलाओं का गायनकरते थे।

    भगवान्‌ कृष्ण कभी कोयल की बोली की नकल उतारते तो कभी हंसों के कलरवकी नकल उतारते।

    कभी वे मोर के नृत्य की नकल उतारते जिस पर उनके ग्वालमित्र खिलखिलापड़ते।

    कभी कभी वे बादलों जैसे गम्भीर गर्जन के स्वर में झुंड से दूर गये हुए पशुओं का नामलेकर बड़े प्यार से पुकारते जिससे गौवें तथा ग्वालबाल मुग्ध हो जाते।

    चकोरक्रौद्नचक्राह्नभारद्वाजां श्र बर्हिण: ।

    अनुरौति सम सत्त्वानां भीतवद्व्याप्रसिंहयो: ॥

    १३॥

    चकोर-क्रौद्ध-चक्राह्न- भारद्वाजानू च--चकोर, कौंच, चक्राह्न तथा भारद्वाज नामक पक्षी; ब्हिण: --मोर; अनुरौति स्म--उनकीनकल उतारते; सत्त्वानामू--अन्य प्राणियों सहित; भीत-वत्‌--डरे हुए की तरह; व्याप्र-सिंहयो: --बाघों तथा सिंहों से

    कभी कभी वे चकोर, क्रौंच, चक्राह्न, भारद्वाज जैसी पक्षियों की नकल करके चिल्लातेऔर कभी छोटे पशुओं के साथ बाघों तथा शेरों के बनावटी भय से भागने लगते।

    क्वचित्क्रीडापरिश्रान्तं गोपोत्सझेपबर्हणम्‌ ।

    स्वयं विश्रमयत्यार्य पादसंवाहनादिभि: ॥

    १४॥

    क्वचित्‌--कभी कभी; क्रीडा--खेलने से; परिश्रान्तम्‌-- थके हुए; गोप--ग्वालबाल की; उत्सड़--गोद; उपबहणम्‌--तकियाबना कर; स्वयम्‌--स्वयं भी; विश्रमयति-- थकान मिटाते; आर्यमू--अपने बड़े भाई की; पाद-संवाहन-आदिभि: --उनके पाँवदबाकर तथा अन्य सेवाएँ करके |

    जब उनके बड़े भाई खेलते खेलते थक कर अपना सिर किसी ग्वालबाल की गोद मेंरखकर लेट जाते तो भगवान्‌ कृष्ण स्वयं बलराम के पाँव दबाकर तथा अन्य सेवाएँ करकेउनकी थकान दूर करते।

    नृत्यतो गायतः क्वापि वल्गतो युध्यतो मिथ: ।

    गृहीतहस्तौ गोपालान्हसन्तौ प्रशशंसतु: ॥

    १५॥

    नृत्यतः--नाचते हुए; गायतः--गाते हुए; कब अपि--कभी कभी; वल्गत:--घूम-घूम कर; युध्यत:--झगड़ते हुए; मिथ: --परस्पर; गृहीत-हस्तौ--एक दूसरे के हाथ पकड़ कर; गोपालानू--ग्वालबालों को; हसन्तौ--हँसते हुए; प्रशशंसतु:--वे दोनोंप्रशंसा करते थे।

    कभी कभी, जब ग्वालबाल नाचते, गाते, इधर उधर घूमते और खेल खेल में एक दूसरे सेझगड़ते तो पास ही हाथ में हाथ डाले खड़े होकर कृष्ण तथा बलराम अपने मित्रों केकार्यकलापों की प्रशंसा करते और हँसते।

    क्वचित्पल्लवतल्पेषु नियुद्धभ्रमकर्शितः ।

    वृक्षमूला श्रयः शेते गोपोत्सड्रीपब्हण: ॥

    १६॥

    क्वचित्‌--कभी; पल्‍लव--नई कोपलों से बनी; तल्पेषु--शय्याओं पर; नियुद्ध--झगड़ने से हुई; श्रम--थकावट से;कशितः--थके हुए; वृक्ष--वृक्ष की; मूल--जड़ के पास; आश्रय:--शरण लेकर; शेते-- लेट जाते; गोप-उत्सड्र--किसीग्वालबाल की गोद को; उपब्हण:--तकिया बनाकर।

    कभी कभी भगवान्‌ कृष्ण झगड़ने से थक जाते और वृक्ष की जड़ के पास कोमल टहनियोंतथा कलियों से बने हुए बिस्तर पर अपने किसी ग्वालबाल सखा की गोद को तकिया बना करलेट जाते।

    पादसंवाहनं चक्रु: केचित्तस्य महात्मन: ।

    अपरे हतपाप्मानो व्यजनै: समवीजयन्‌ ॥

    १७॥

    पाद-संवाहनम्‌--पैर दबाने का कार्य; चक्रः--किया; केचित्‌--किसी ने; तस्थ--उनके; महा-आत्मन: --महान्‌ आत्माओं ने;अपरे--अन्य; हत-पाप्मान:--समस्त पापों से मुक्त; व्यजनै:--पंखों से; समवीजयन्‌-- भलीभाँति पंखा झला।

    तब कुछ ग्वालबाल जो सब के सब महान्‌ आत्माएँ थे, उनके चरणकमल मलते और अन्यग्वालबाल निष्पाप होने के कारण बड़ी ही कुशलतापूर्वक भगवान्‌ पर पंखा झलते।

    अन्ये तदनुरूपाणि मनोज्ञानि महात्मन: ।

    गायन्ति सम महाराज स्नेहक्लिन्नधिय: शने: ॥

    १८ ॥

    अन्ये--अन्य; तत्‌-अनुरूपाणि---समयोचित; मन: -ज्ञानि--मन को आकृष्ट करने वाले; महा-आत्मन:--महापुरुष ( कृष्ण ) के;गायन्ति स्म--गाते थे; महा-राज--हे राजा परीक्षित; स्नेह--स्नेह से; क्लिन्न--द्रवित; धिय:--उनके हृदय; शनै:--धीरे धीरे ।

    हे राजन्‌, अन्य बालक समयोचित मनोहर गीत गाते और उनके हृदय भगवान्‌ के प्रति प्रेम सेद्रवित हो उठते।

    एवं निगूढात्मगतिः स्वमाययागोपात्मजत्वं चरितेर्विडम्बयन्‌ ।

    रेमे रमालालितपादपललवोग्राम्यै: सम॑ ग्राम्यवदीशचेष्टित: ॥

    १९॥

    एवम्‌--इस प्रकार; निगूढड--छिपाया हुआ; आत्म-गति:--निजी एऐश्वर्य; स्व-मायया--अपनी ही योग शक्ति से; गोप-आत्मजत्वमू--ग्वाले का पुत्रत्व; चरितैः--अपने कार्यकलापों से; विडम्बयन्‌--बहाना करते हुए; रेमे-- आनन्द लिया; रमा--लक्ष्मीजी द्वारा; लालित--सेवित; पाद-पल्‍ललव:--कोमल नवीन कली जैसे पाँव; ग्राम्यै: समम्‌-ग्रामीण लोगों के साथ; ग्राम्य-बत्‌-ग्रामीण पुरुष की भाँति; ईश-चेष्टित:--भगवान्‌ के अद्वितीय कार्य भी प्रदर्शित करते हुए।

    इस तरह भगवान्‌ जिनके कोमल चरणकमलों की सेवा लक्ष्मीजी स्वयं करती हैं, अपनीअन्तरंगा शक्ति के द्वारा अपने दिव्य ऐश्वर्य को छिपा कर ग्वालपुत्र की तरह कार्य करते।

    अन्यग्रामवासियों के साथ ग्रामीण बालक की भाँति विचरण करते हुए वे कभी कभी ऐसे करतबदिखलाते जो केवल ईश्वर ही कर सकता है।

    श्रीदामा नाम गोपालो रामकेशवयो: सखा ।

    सुबलस्तोककृष्णाद्या गोपा: प्रेम्णेदमब्रुवनू ॥

    २०॥

    श्रीदामा नाम-- श्रीदामा नामक; गोपाल:--ग्वालबाल; राम-केशवयो: --राम तथा कृष्ण दोनों का; सखा--मित्र; सुबल-स्तोककृष्ण-आद्या: --सुबल, स्तोककृष्ण तथा अन्य; गोपा:--ग्वालबाल; प्रेम्णा--प्रेमपूर्वक; इृदम्‌--यह; अन्लुवन्‌ू--बोले।

    एकबार राम तथा कृष्ण के अत्यन्त घनिष्ट मित्र श्रीदामा, सुबल, स्तोककृष्ण तथा अन्यग्वालबाल बड़े ही प्रेमपूर्वक इस प्रकार बोले।

    राम राम महाबाहो कृष्ण दुष्टनिबहण ।

    इतोविदूरे सुमहद्वनं तालालिसड्डु लम्‌ ॥

    २१॥

    राम राम--हे राम; महा-बाहो--हे शक्तिशाली भुजाओं वाले; कृष्ण--हे कृष्ण; दुष्ट-निबहण--दुष्टों का अन्त करने वाले;इतः--यहाँ से; अविदूरे--दूर नहीं; सु-महत्‌-- अत्यन्त विस्तृत; वनमू--जंगल; ताल-आलि--ताड़ वृक्षों की पंक्तियों से;सबट्डु लम्‌-परिपूर्ण ।

    [ग्वालबालों ने कहा : हे राम, हे महाबाहु, हे कृष्ण, हे दुष्टों के संहर्ता, यहाँ से कुछ हीदूरी पर एक बहुत ही विशाल जंगल है, जो ताड़ वृक्षों की पाँतों से परिपूर्ण है।

    'फलानि तत्र भूरीणि पतन्ति पतितानि च ।

    सन्ति किन्त्ववरुद्धानि धेनुकेन दुरात्मना ॥

    २२॥

    'फलानि--फलों; तत्र--वहाँ; भूरीणि-- अनेकानेक; पतन्ति--गिरते रहते हैं; पतितानि--पहले ही गिर चुके हैं; च--तथा;सन्ति-हैं; किन्तु--फिर भी; अवरुद्धानि--नियंत्रण में रखे हुए; धेनुकेन--थधेनुक द्वारा; दुरात्मना--दुष्ट |

    उस तालवन में वृक्षों से अनेकानेक फल गिरते रहते हैं और बहुत से फल पहले से ही जमीनपर पड़े हुए हैं।

    किन्तु इन सारे फलों की रखवाली दुष्ट धेनुक द्वारा की जा रही है।

    सोतिवीर्यो उसुरो राम हे कृष्ण खररूपधृक्‌ ।

    आत्मतुल्यबलैरन्यैज्ञातिभिब॑हुभिवृत: ॥

    २३॥

    सः--वह; अति-वीर्य: --अत्यन्त शक्तिशाली; असुरः--असुर; राम--हे राम; है कृष्ण--हे कृष्ण; खर-रूप--गधे का रूप;धृक्‌ू-- धारण करके; आत्म-तुल्य-- अपने समान; बलै:--जिनकी शक्ति; अन्यै:--अन्य; ज्ञातिभिः--साथियों के साथ;बहुभि: --अनेक; वृत:--घिरा हुआ।

    हे राम, हे कृष्ण, धेनुक अत्यन्त बलशाली असुर है और उसने गधे का वेश बना रखा है।

    उसके आसपास अनेक मित्र हैं जिन्होंने उसी जैसा ही रूप धारण कर रखा है और वे उसी केसमान बलशाली हैं।

    तस्मात्कृतनराहाराद्धीतैर्नृभिरमित्रहन्‌ ।

    न सेव्यते पशुगणै: पक्षिसड्डैर्विवर्जितम्‌ ॥

    २४॥

    तस्मात्‌--उससे; कृत-नर-आहारात्‌--मनुष्यों को खा जाने वाले से; भीतै:--डरे हुए; नृभि: --मनुष्यों के द्वारा; अमित्र-हन्‌--हेशत्रुओं का वध करने वाले; न सेव्यते--सेवन नहीं किया जाता; पशु-गणै:--विभिन्न पशुओं के द्वारा; पक्षि-सच्बैः--पक्षियों केझुंड द्वारा; विवर्जितम्‌ू--परित्यक्त |

    धेनुकासुर ने जीवित मनुष्यों को खा लिया है इसलिए सारे लोग तथा पशु तालवन जाने सेडरते हैं।

    हे शत्रुहन्ता, पक्षी तक उड़ने से डरते हैं।

    विद्यन्तेभुक्तपूर्वाणि फलानि सुरभीणि च ।

    एष वै सुरभिर्गन्धो विषूच्ीनोउवगृह्मते ॥

    २५॥

    विद्यन्ते--उपस्थित हैं; अभुक्त-पूर्वाणि--इसके पूर्व कभी भी जिनका स्वाद नहीं लिया गया; फलानि--फल; सुरभीणि--सुगन्धित; च--तथा; एष:--यह; वै--निस्सन्देह; सुरभि: --सुगन्धित; गन्ध:--सुगन्धि; विषुच्चीन:--सर्वत्र फैली हुई;अवगृह्मयते-- अनुभव की जाती है।

    तालवन में ऐसे मधुर गन्ध वाले फल हैं, जिन्हें किसी ने कभी नहीं चखा।

    तालफलों कीचारों ओर फैली खुशबू को हम अब भी सूँघ सकते हैं।

    प्रयच्छ तानि न: कृष्ण गन्धलोभितचेतसाम्‌ ।

    वाज्छास्ति महती राम गम्यतां यदि रोचते ॥

    २६॥

    प्रयच्छ--कृपया दीजिये; तानि--उनको; नः--हमको; कृष्ण--हे कृष्ण; गन्ध--सुगन्धि से; लोभित--लुब्ध; चेतसाम्‌--जिनके मन; वाउ्छा--इच्छा; अस्ति-- है; महती--विशाल; राम--हे राम; गम्यताम्‌--हमें जाने दें; यदि--यदि; रोचते-- अच्छाविचार जैसा लगता है।

    हे कृष्ण! आप हमारे लिए वे फल ला दें।

    हमारे मन उनकी सुगन्ध से अत्यधिक आदुृष्ट हैं।

    है बलराम, उन फलों को पाने की हमारी इच्छा अत्यन्त प्रबल है।

    यदि आप सोचते हैं कि यहविचार अच्छा है, तो चलिये उस तालवन में चलें।

    एवं सुहद्बच: श्रुत्वा सुहृत्प्रियचिकीर्षया ।

    प्रहस्य जग्मतुर्गोपिर्वृती तालवनं प्रभू ॥

    २७॥

    एवम्‌--इस प्रकार; सुहत्‌--अपने मित्रों के; बच:--शब्द; श्रुत्वा--सुनकर; सुहृत्‌-मित्रों को; प्रिय--हर्ष; चिकीर्षया--प्रदानकरने की इच्छा से; प्रहस्य--हँस कर; जम्मतु:--दोनों गये; गोपै:--ग्वालबालों के द्वारा; वृतौ--घिरे हुए; ताल-वनम्‌--तालवन तक; प्रभू--दोनों स्वामी |

    अपने प्रिय सखाओं के वचन सुनकर कृष्ण तथा बलराम हँस पड़े और उन्हें खुश करने के लिए वे अपने ग्वालमित्रों के साथ तालवन के लिए रवाना हो गये।

    बल: प्रविश्य बाहुभ्यां तालान्सम्परिकम्पयन्‌ ।

    'फलानि पातयामास मतड़ज इवौजसा ॥

    २८ ॥

    बल:--बलराम ने; प्रविश्य--घुस कर; बाहुभ्याम्‌--अपनी दोनों भुजाओं से; तालानू--ताड़ वृक्षों को; सम्परिकम्पयन्‌ --झकझोरते हुए; फलानि--फलों को; पातयाम्‌ आस--गिरा दिया; मतम्‌-गज:--मतवाला हाथी; इब--सहृश; ओजसा--अपनेबल से

    भगवान्‌ बलराम सबसे पहले तालवन में प्रविष्ट हुए।

    तब अपने दोनों हाथों से मतवाले हाथीका बल लगाकर वृक्षों को हिलाने लगे जिससे ताड़ के फल भूमि पर आ गिरें।

    'फलानां पततां शब्दं निशम्यासुररासभः ।

    अभ्यधावत्तक्षितितलं सनग॑ परिकम्पयन्‌ ॥

    २९॥

    'फलानाम्‌--फलों के; पतताम्‌--गिरते हुए; शब्दम्‌--शब्द को; निशम्य--सुनकर; असुर-रासभः --गर्दभ वेशधारी असुर;अभ्यधावत्‌--आगे दौड़ा; क्षिति-तलम्‌--पृथ्वी की सतह को; स-नगमू्‌--वृक्षों समेत; परिकम्पयन्‌--हिलाता हुआ।

    गिरते हुए फलों की ध्वनि सुनकर गर्दभ असुर धेनुक पृथ्वी तथा वृक्षों को थरथराता हुआआक्रमण करने के लिए उनकी ओर दौड़ा।

    समेत्य तरसा प्रत्यग्द्वा भ्यां पद्भ्यां बल बली ।

    निहत्योरसि काशब्दं मुझ्नन्पर्यसरत्खल: ॥

    ३०॥

    समेत्य--उनसे मिल कर; तरसा--तेजी से; प्रत्यक्‌ --पिछला; द्वाभ्यामू-दोनों; पद्भ्याम्‌ू-पैरों से; बलम्‌ू--बलदेव को;बली--बलशाली असुर ने; निहत्य--वार करके; उरसि--छाती पर; का-शब्दम्‌--भद्दी रेंकने की आवाज; मुझ्नन्‌--करते हुए;पर्यसरत्‌--चारों ओर दौड़ने लगा; खलः--दुष्ट गधा |

    वह बलशाली असुर बलराम की ओर झपटा और उनकी छाती पर अपने पिछले पैरों केखुरों से कठोर वार किया।

    तत्पश्चात्‌ धेनुक जोर जोर से रेंकता हुआ इधर-उधर दौड़ने लगा।

    पुनरासाद्य संरब्ध उपक्रोष्टा पराक्स्थित: ।

    चरणावपरौ राजन्बलाय प्राक्षिपद्रुषा ॥

    ३१॥

    पुन:ः--फिर से; आसाद्य--उनके निकट आकर; संरब्ध:--प्रचण्ड, उग्र; उपक्रोष्टा --गधे ने; पराकु--उनकी ओर अपनी पीठकरके; स्थित:--खड़े होकर; चरणौ--दोनों पैर; अपरौ--पिछले; राजन्‌--हे राजा परीक्षित; बलाय--बलराम पर; प्राक्षिपत्‌--चलाया; रुषा--क्रोध से |

    हे राजन, वह क्रुद्ध गधा फिर से बलराम की ओर बढ़ा और अपनी पीठ उनकी ओर करकेखड़ा हो गया।

    तत्पश्चात्‌ क्रोध से रेंकते हुए उस असुर ने उन पर दुलत्ती चलाई।

    सतं गृहीत्वा प्रपदोर्भ्रामयित्वैकपाणिना ।

    चिक्षेप तृणराजाग्रे भ्रामणत्यक्तजीवितम्‌ ॥

    ३२॥

    सः--उन्होंने; तमू--उसको; गृहीत्वा--पकड़ कर; प्रपदो:--खुर से; भ्रामयित्वा--घुमा कर; एक-पाणिना--एक हाथ से;चिक्षेप--फेंक दिया; तृण-राज-अग्रे--तालवृक्ष की चोटी पर; भ्रामण--घुमाने से; त्यक्त--त्याग कर; जीवितम्‌ू--अपनेप्राण

    बलराम ने धेनुक के खुर पकड़े, उसे एक हाथ से घुमाया और ताड़वृक्ष की चोटी पर फेंकदिया।

    इस तरह तेजी से घुमाने के कारण वह असुर मर गया।

    तेनाहतो महातालो वेषमानो बृहच्छिरा: ।

    पार्श्वस्थं कम्पयन्भग्न: स चान्यं सोपि चापरम्‌ ॥

    ३३॥

    तेन--उस ( धेनुकासुर के मृत शरीर ) से; आहत:--चोट खाकर; महा-ताल:--ताड़ का विशाल वृक्ष; वेपमान:--हिलता हुआ;बृहत्‌-शिरा:--विशाल चोटी वाला; पार्श्व-स्थम्‌--पास ही स्थित अन्य वृक्षों को; कम्पयन्‌--हिलाता हुआ; भग्न:--दूटा हुआ;सः--वह; च--तथा; अन्यम्‌--दूसरे को; सः--वह; अपि-- भी; च--तथा; अपरम्‌--अगले, अन्य को |

    बलराम ने धेनुकासुर के मृत शरीर को जंगल के सबसे ऊँचे ताड़ वृक्ष के ऊपर फेंक दियाऔर जब यह मृत शरीर उस वृक्ष की चोटी पर जा गिरा तो वह वृक्ष हिलने लगा।

    इस विशालवृक्ष से पास का एक अन्य वृक्ष भी चरमराया और असुर के भार के कारण टूट गया।

    इसके निकट का वृक्ष भी इसी तरह हिल कर टूट गया।

    इस तरह एक एक करके जंगल के अनेक वृक्षहिले और टूट गये।

    बलस्य लीलयोत्सृष्टखरदेहहताहता: ।

    तालाश्चकम्पिरे सर्वे महावातेरिता इव ॥

    ३४॥

    बलस्य--बलराम की; लीलया--लीला से; उत्सृष्ट--ऊपर फेंका हुआ; खर-देह--गधे के शरीर से; हत-आहता: --एक दूसरेसे भिड़ कर; ताला:--ताल के वृक्ष; चकम्पिरि--चरमराये; सर्वे--सभी; महा-वात--प्रबल वायु द्वारा; ईरिता: --उड़ाये हुए;इब--मानो।

    बलराम द्वारा इस गर्दभ असुर के शरीर को सबसे ऊँचे ताड़वृक्ष के ऊपर फेंकने की लीलासे सारे वृक्ष चरमराने लगे और एक दूसरे से भिड़ने लगे मानो प्रबल झंझा के द्वारा झकझोरे गयेहों।

    नैतच्चित्रं भगवति हानन्ते जगदी श्वरे ।

    ओतप्रोतमिदं यस्मिस्तन्तुष्वड़ यथा पट: ॥

    ३५॥

    न--नहीं; एतत्‌--यह; चित्रम्‌--आश्चर्यजनक; भगवति-- भगवान्‌ के लिए; हि--निस्सन्देह; अनन्ते--अनन्त; जगत्‌ू-ई श्रे--ब्रह्माण्ड के स्वामी; ओत-प्रोतम्‌ू--ऊपर नीचे फैला हुआ ( ताना बाना ); इृदम्‌--यह ब्रह्माण्ड; यस्मिन्‌ू--जिसमें; तन्तुषु--इसकेधागों पर; अड्ड--हे परीक्षित; यथा--जिस तरह

    हे परीक्षित, बलराम को अनन्त भगवान्‌ एवं सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का नियन्ता जान लेने परबलराम द्वारा धेनुकासुर का मारा जाना उतना आश्चर्यजनक नहीं है।

    निस्सन्देह, सम्पूर्ण ब्रह्माण्डउन पर उसी प्रकार टिका है, जिस तरह बुना हुआ वस्त्र तानों-बानों पर टिका रहता है।

    ततः कृष्णं च राम॑ च ज्ञातयो धेनुकस्य ये ।

    क्रोष्टारो भ्यद्रवन्सर्वे संरब्धा हतबान्धवा: ॥

    ३६॥

    ततः-तत्पश्चात्‌; कृष्णम्‌--- कृष्ण पर; च--तथा; रामम्‌-- बलराम पर; च--तथा; ज्ञातय: --घनिष्ट मित्र गण; धेनुकस्थ--धेनुक के; ये--जो; क्रोष्टार:ः--गधों ने; अभ्यद्रवन्‌-- आक्रमण किया; सर्वे--सभी; संरब्धा:--क्रुद्ध; हत-बान्धवा:--अपनेमित्र के मारे जाने से |

    धेनुकासुर के घनिष्ठ मित्र, अन्य गर्दभ असुर, उसकी मृत्यु देखकर अत्यन्त क्रुद्ध हो उठे औरवे तुरन्त कृष्ण तथा बलराम पर आक्रमण करने के लिए दौड़े।

    तांस्तानापतत: कृष्णो रामश्च नृप लीलया ।

    गृहीतपश्चाच्चरणान्प्राहिणोत्तणराजसु ॥

    ३७॥

    तान्‌ तानू--एक एक करके, वे सभी; आपतत:--आक्रमण करते हुए; कृष्ण: --कृष्ण ने; राम:--बलराम ने; च--तथा;नृप--हे राजन्‌; लीलया--सरलता से; गृहीत--पकड़ कर; पश्चात्‌-चरणान्‌--पिछली टाँगों को; प्राहिणोत्‌-- फेंक दिया; तृण-राजसु--ताड़ के वृक्षों के ऊपर।

    हे राजन, जब असुरों ने आक्रमण किया कृष्ण तथा बलराम ने उनकी पिछली टाँगों सेपकड़-पकड़ कर उन सब को ताड़ वृक्षों के ऊपर फेंक दिया।

    फलप्रकरसड्डीर्ण दैत्यदेहैर्गतासुभि: ।

    रराज भू: सतालाग्रैर्घधनैरिव नभस्तलम्‌ ॥

    ३८ ॥

    'फल-प्रकर--फलों के ढेर से; सड्डीर्णम्‌--ढकी; दैत्य-देहैः--असुरों के शरीरों से; गत-असुभि:--प्राणविहीन; रराज--सुशोभित; भू:--पृथ्वी; स-ताल-अग्रै:ः--ताड़ वृक्षों की चोटियों समेत; घनैः--बादलों से; इब--जिस तरह; नभः-तलम्‌--आकाश

    इस तरह फलों के ढेरों से तथा ताड़ वृक्ष की टूटी चोटियों में फँसे असुरों के मृत शरीरों सेढकी हुई पृथ्वी अत्यन्त सुन्दर लग रही थी मानो बादलों से आकाश अलंकृत हो।

    तयोस्तत्सुमहत्कर्म निशम्य विबुधादय: ।

    मुमुचु: पुष्पवर्षाणि चक्रुर्वाद्यानि तुष्ठवु: ॥

    ३९॥

    तयो:--दोनों भाइयों के; ततू--उस; सु-महत्‌-- अत्यन्त महान; कर्म--कार्य को; निशम्य-- सुनकर; विबुध-आदय: --देवतागण तथा अन्य उच्च जीवों ने; मुमुचु:--छोड़ा; पुष्प-वर्षाणि--फूलों की वर्षा; चक्र: --सम्पन्न किया; वाद्यानि--संगीत;तुष्ठवु:ः--स्तुति की |

    दोनों भाइयों का यह सुन्दर करतब ( लीला ) सुनकर देवताओं तथा अन्य उच्चस्थ प्राणियोंने फूलों की वर्षा की और उनकी प्रशंसा में गीत गाये तथा स्तुतियाँ कीं।

    अथ तालफलान्यादन्मनुष्या गतसाध्वसा: ।

    तृणं च पशवश्चेरुहतधेनुककानने ॥

    ४०॥

    अथ--त्पश्चात्‌; ताल--ताड़ वृक्षों के; फलानि--फलों को; आदन्‌--खाया; मनुष्या: --मनुष्यगण; गत-साध्वसा: --निडरहोकर; तृणम्‌--घास; च--तथा; पशव: --पशुगण; चेरु:--चरने लगे; हत--मारा गया; धेनुक--धेनुकासुर का; कानने--जंगल में |

    जिस बन में धेनुकासुर मारा गया था, उसमें लोग मुक्त भाव से फिर से जाने लगे और निडरहोकर ताड़ वृक्षों के फल खाने लगे।

    अब गौवें भी वहाँ पर स्वतंत्रतापूर्वक घास चरने लगीं।

    कृष्ण: कमलपत्राक्ष: पुण्यश्रवणकीर्तन: ।

    स्तूयमानो नुगैगगोपै: साग्रजो ब्रजमात्रजत्‌ ॥

    ४१॥

    कृष्ण:-- भगवान्‌ कृष्ण; कमल-पत्र-अक्ष:--कमल की पंखड़ियों के समान नेत्रों वाले; पुण्य-अ्रवण-कीर्तन:--जिनका श्रवणतथा कीर्तन अत्यन्त पुण्य कार्य माना जाता है; स्तूयमान:--स्तुति किया गया; अनुगैः--अपने अनुयायी; गोपै:--ग्वालबालों केद्वारा; स-अग्र-ज:--अपने बड़े भाई बलराम के साथ साथ; ब्रजमू--ब्रज; आब्रजत्‌--लौट आये |

    तत्पश्चात्‌ कमलनेत्र भगवान्‌ श्रीकृष्ण, जिनके यश को सुनना और जिनका कीर्तन करनाअत्यन्त पवित्र है, अपने बड़े भाई बलराम के साथ अपने घर ब्रज लौट आये।

    रास्ते भर उनकेश्रद्धावान अनुयायी ग्वालबालों ने उनके यश का गान किया।

    त॑ गोरजएछुरितकुन्तलबद्धबर्ह -वन्यप्रसूनरुचिरेक्षणचारुहासम्‌ ।

    वेणुम्क्वणन्तमनुगैरुपगीतकीर्तिगोप्यो दिदृक्षितद॒शो भ्यगमन्समेता: ॥

    ४२॥

    तम्‌--उसको; गो-रज:--गायों के चलने से उठी हुई धूल से; छुरित--सने; कुन्तल--बालों के भीतर; बद्ध--बँधा हुआ;बह--मोरपंख; वन्य-प्रसून--जंगली फूल; रुचिर-ईक्षण--मोहने वाली आँखें; चारु-हासम्‌--तथा सुन्दर मुसकान; वेणुम्‌--बाँसुरी; क्वणन्तम्‌--बजाते हुए; अनुगै: --अपने साथियों के द्वारा; उपगीत--गायी जाकर; कीर्तिमू--उनकी कीर्ति; गोप्य:--गोपियाँ; दिदृक्षित--देखने के लिए उत्सुक; दहृशः--उनकी आँखें; अभ्यगमन्‌--आगे बढ़ीं; समेता:--एकसाथ |

    गौवों के द्वारा उड़ाई गई धूल से सने श्रीकृष्ण के बाल मोर पंख तथा जंगली फूलों सेसज्जित किये गये थे।

    भगवान्‌ कृष्ण अपनी वंशी बजाते हुए मोहक दृष्टि से देख रहे थे औरसुन्दर ढंग से हँस रहे थे तथा उनके संगी उनके यश का गान कर रहे थे।

    सारी गोपियाँ एकसाथउनसे मिलने चली आईं क्योंकि उनके नेत्र दर्शन करने के लिए अत्यन्त व्यग्र थे।

    पीत्वा मुकुन्दमुखसारघमक्षि भूड़ै-स्तापं जहुर्विरहजं ब्रजयोषितोह्नि ।

    तत्सत्कृतिं समधिगम्य विवेश गोष्ठंसब्रीडहासविनयं यदपाड्मोक्षम्‌ ॥

    ४३ ॥

    पीत्वा--पीकर; मुकुन्द-मुख-- भगवान्‌ मुकुन्द के मुख का; सारधम्‌--मधु; अक्षि-भूड़ैः --- भौरे जैसे नेत्रों से; तापम्‌--पीड़ा;जहु:--त्याग दिया; विरह-जम्‌--विरह से उत्पन्न; ब्रज-योषित: --वृन्दावन की स्त्रियों ने; अह्वि--दिन में; तत्‌--उस; सतू-कृतिमू--आदर करते हुए; समधिगम्य--पूरी तरह स्वीकार करके ; विवेश--उन्होंने प्रवेश किया; गोष्ठम्‌--ग्वालों के गाँव में;स-ब्रीड--लज्जा सहित; हास--हँसी; विनयम्‌--तथा विनयशीलता; यत्‌--जो; अपाड़ु--तिरछी चितवनों का; मोक्षम्‌--डालाजाना।

    वृन्दावन की स्त्रियों ने अपने भ्रमर रूपी नेत्रों से मुकुन्द के सुन्दर मुख का मधुपान कियाऔर इस तरह दिन में वियोग के समय उन्हें जो पीड़ा हुई थी उसे उन्होंने त्याग दिया।

    वृन्दावन कीतरुण स्त्रियों ने भगवान्‌ पर तिरछी चितवन डाली जो लाज, हँसी तथा विनय से पूर्ण थी तथाकृष्ण ने इस चितवन को समुचित सम्मान मानते हुए गोप- ग्राम में प्रवेश किया।

    तयोर्यशोदारोहिण्यौ पुत्रयो: पुत्रवत्सले ।

    यथाकामं यथाकाल व्यधत्तां परमाशिष: ॥

    ४४॥

    तयो:--दोनों; यशोदा-रोहिण्यौ--यशोदा तथा रोहिणी ( कृष्ण तथा बलराम की माताओं ) ने; पुत्रयो:--पुत्रों को; पुत्र-बत्सले--अपने पुत्रों के स्नेहसिक्त; यथा-कामम्‌--अपनी अपनी इच्छाओं के अनुरूप; यथा-कालमू--परिस्थितियों के अनुरूप;व्यधत्ताम्‌-प्रस्तुत किया; परम-आशिष:--उत्तम भेंटें

    माता यशोदा तथा रोहिणी ने अपने दोनों पुत्रों के प्रति अत्यधिक स्नेह दर्शाते हुए उन्हें उनकीइच्छा के अनुसार तथा समयानुकूल उत्तमोत्तम वस्तुएँ प्रदान कीं।

    गताध्वानश्रमौ तत्र मज्जनोन्मर्दनादिभिः ।

    नीवीं वसित्वा रुचिरां दिव्यस्त्रग्गन्धमण्डितौ ॥

    ४५॥

    गत--दूर हो गयी; अध्वान-श्रमौ--चलते रहने से उत्पन्न थकान; तत्र--वहाँ ( घर में ); मजन--स्नान; उन्मर्दन--मालिश;आदिभि: --त्यादि के द्वारा; नीवीम्‌--अधोवस्त्रों को; वसित्वा--पहन कर; रुचिराम्‌--मनोहर; दिव्य--दिव्य; सत्रकू--माला;गन्ध--तथा सुगन्धि से; मण्डितौ--अलंकृत

    स्नान करने तथा मालिश से उन दोनों की ग्रामीण रास्तों में चलने से उत्पन्न थकान दूर होगई।

    इसके बाद उन्हें सुन्दर बस्त्रों से सजाया गया और दिव्य मालाओं तथा सुगगन्धित पदार्थों सेअलंकृत किया गया।

    जनन्युपहतं प्राश्य स्वाद्यन्नमुपलालितौ ।

    संविश्य वरशय्यायां सुखं सुषुपतुर्त्रजे ॥

    ४६॥

    जननी--अपनी माताओं के द्वारा; उपहतम्‌--प्रदत्त; प्राशय--अच्छी तरह खाकर; स्वादु--स्वादिष्ट; अन्नम्‌ू-- भोजन;उपलालितौ--लाड़ प्यार किये जाकर; संविश्य--प्रवेश करके ; वर-- श्रेष्ठ; शय्यायाम्‌--बिस्तर पर; सुखम्‌--सुखपूर्वक;सुषुपतु:--दोनों सो गये; ब्रजे--ब्रज में |

    अपनी माताओं द्वारा प्रदत्त स्वादिष्ट भोजन को पेट-भर खाने तथा विविध प्रकार से दुलारेजाने के बाद वे दोनों भाई ब्रज में अपने अपने उत्तम बिछौनों पर लेट गये और सुखपूर्वक सोगये।

    एवं स भगवान्कृष्णो वृन्दावनचर: क्वचित्‌ ।

    ययौ राममृते राजन्कालिन्दीं सखिभिर्वृत: ॥

    ४७॥

    एवम्‌--इस प्रकार; सः--वह; भगवान्‌-- भगवान्‌; कृष्ण: --कृष्ण; वृन्दावन-चर: --वृन्दावन में विचरण करते हुए;क्वचित्‌--एक बार; ययौ--गये; रामम्‌ ऋते--बलराम के बिना; राजन्‌--हे राजा परीक्षित; कालिन्दीम्‌--यमुना नदी के तटपर; सखिभि:--अपने मित्रों के द्वारा; वृत:--घिरे

    हे राजन, इस प्रकार भगवान्‌ कृष्ण अपनी लीलाएँ करते हुए वृन्दावन क्षेत्र में विचरण करतेथे।

    एक बार वे अपने मित्रों समेत यमुना नदी के तट पर गये।

    तब बलराम उनके साथ नहीं थे।

    अथ गावश्च गोपाश्चव निदाघातपपीडिता: ।

    दुष्टे जल॑ पपुस्तस्यास्तृष्णार्ता विषदूषितम्‌ ॥

    ४८ ॥

    अथ--तत्पश्चात्‌; गाव:--गौवें; च--तथा; गोपा:--ग्वालबाल; च--तथा; निदाघ--ग्रीष्म कीौ; आतप--कड़ी धूप से;पीडिता:--संतप्त; दुष्टमू-- प्रदूषित; जलम्‌--जल को; पपु:--पी लिया; तस्या:--उस नदी का; तृष-आर्ता:--प्यास से पीड़ित;विष--विष से; दूषितम्‌-दूषित

    उस समय गौवें तथा ग्वालबाल ग्रीष्म की कड़ी धूप से अत्यन्त संतप्त हो उठे।

    प्यास सेव्याकुल होने के कारण उन्होंने यमुना नदी का जल पिया।

    किन्तु यह जल विष से दूषित था।

    विषाम्भस्तदुपस्पृश्य दैवोपहतचेतस: ।

    निपेतुर्व्यसव: सर्वे सलिलान्ते कुरूद्वह ॥

    ४९॥

    वीक्ष्य तान्वे तथाभूतान्कृष्णो योगे श्वरेश्वर: ।

    ईक्षयामृतवर्षिण्या स्वनाथान्समजीवयतू ॥

    ५०॥

    विष-अम्भ:--विषाक्त जल; तत्‌--उस; उपस्पृश्य--स्पर्श मात्र से; दैव-- भगवान्‌ की योग शक्ति से; उपहत--खो दी;चेतस:--अपनी चेतना; निपेतु:--गिर पड़े; व्यसवः--निर्जीव; सर्वे--सभी; सलिल-अन्ते--जल के किनारे; कुरु-उद्दद-हेकुरुवंशी वीर; वीक्ष्य--देखकर; तान्‌--उनको; बै--निस्सन्देह; तथा-भूतान्‌ू--ऐसी अवस्था में; कृष्ण: -- भगवान्‌ कृष्ण ने;योग-ईश्वर-ई श्वर:--योगे श्वरों के ईश्वर; ईक्षया--अपनी चितवन से; अमृत-वर्षिण्या--अमृत रूपी वर्षा से; स्व-नाथान्‌---उन्हें हीअपना स्वामी मानने वाले; समजीवयत्‌--पुन:जिला दिया।

    विषैले जल का स्पर्श करते ही सारी गौवें तथा ग्वालबाल भगवान्‌ की देवी शक्ति से अचेतहो गये और निर्जीव होकर नदी के तट पर गिर पड़े।

    हे कुरू-वीर, उन्हें इस अवस्था में देखकर,समस्त योगेश्वरों के ईश्वर भगवान्‌ कृष्ण को अपने उन भक्तों पर दया आ गई जिनका उनकेअतिरिक्त अन्य कोई स्वामी नहीं था।

    इस तरह उन्होंने अपनी अमृत-चितवन की दृष्टि द्वारा उन्हेंतुरन्त पुनः जीवित कर दिया।

    ते सम्प्रतीतस्मृतयः समुत्थाय जलान्तिकात्‌ ।

    आसन्सुविस्मिता: सर्वे वीक्षमाणा: परस्परम्‌ ॥

    ५१॥

    ते--वे; सम्प्रतीत--पुनः प्राप्त करने पर; स्मृतय:ः-- अपनी स्मृति; समुत्थाय--उठकर; जल-अन्तिकात्‌--जल के बाहर से;आसनू--हो गये; सु-विस्मिता:-- अत्यधिक चकित; सर्वे--सभी; वीक्षमाणा: --देखते हुए; परस्परम्‌--एक दूसरे को |

    अपनी पूर्ण चेतना वापस पाकर सारी गौवें तथा बालक जल के बाहर आकर उठ खड़े हुयेऔर बड़े ही आश्चर्य से एक दूसरे को देखने लगे।

    अन्वमंसत तद्राजन्गोविन्दानुग्रहेक्षितम्‌ ।

    पीत्वा विषं परेतस्य पुनरुत्थानमात्मन: ॥

    ५२॥

    अन्वमंसत--अतः उन्होंने सोचा; तत्‌ू--वह; राजनू--हे राजा परीक्षित; गोविन्द--गोविन्द की; अनुग्रह-ईक्षितम्‌--कृपा-दृष्टि केकारण; पीत्वा--पीकर; विषम्‌--विष; परेतस्य--जीवन से हाथ धो बैठने वालों का; पुनः--फिर से; उत्थानम्‌--उत्थान, उठखड़े होना; आत्मन:-- अपने से

    हे राजन, तब उन ग्वालबालों ने सोचा कि यद्यपि वे विषला जल पीकर सचमुच ही मर चुकेथे किन्तु गोविन्द की कृपादृष्टि से ही उनको पुनः: जीवनदान मिला है और अपने बल पर उठ खड़ेहुए हैं।

    TO

    अध्याय सोलह: कृष्ण ने कालिया नाग को दंडित किया

    10.16श्रीशुक उबाचविलोक्य दूषितां कृष्णां कृष्ण: कृष्णाहिना विभु: ।

    तस्या विशुद्धिमन्विच्छन्सर्प तमुदबासयत्‌ ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; विलोक्य--देखकर; दूषिताम्‌--प्रदूषित; कृष्णाम्‌ू--यमुना नदी को;कृष्ण:--भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने; कृष्ण-अहिना--काले सर्प ( कालिय ) द्वारा; विभुः--सर्वशक्तिमान; तस्या:--नदी की;विशुद्धिम्‌--शुर्द्धि की; अन्विच्छन्‌--इच्छा करते हुए; सर्पम्‌--सर्प को; तम्‌--उस; उदवासयत्‌-- भगा दिया।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने यह देखकर कि काले सर्प कालिय नेयमुना नदी को दूषित कर रखा है, उसे शुद्ध करने की इच्छा की और इस तरह उन्होंने कालियको उसमें से निकाल भगाया।

    श्रीराजोबाच'कथमन्तर्जलेगाधे न्यगृह्नाद्धभवानहिम्‌ ।

    स बै बहुयुगावासं यथासीद्विप्र कथ्यताम्‌ ॥

    २॥

    श्री-राजा उवाच--राजा परीक्षित ने कहा; कथम्‌--कैसे; अन्तः-जले--जल के भीतर; अगाधे--अथाह; न्यगृह्मात्‌--दमनकिया; भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; अहिम्‌--सर्प को; सः--वह, कालिय; बै--निस्सन्देह; बहु-युग--अनेक युगों से; आवासम्‌--निवास स्थान बनाये हुए; यथा--किस तरह; आसीतू--हो गया; विप्र--हे विद्वान ब्राह्मण; कथ्यताम्‌--कृपा करके बतलायें |

    राजा परीक्षित ने पूछा: हे विद्वान मुनि, कृपा करके यह बतलायें कि किस तरह भगवान्‌ नेयमुना के अगाध जल में कालिय नाग को प्रताड़ित किया और वह कालिय किस तरह अनेकयुगों से वहाँ पर रह रहा था ?

    ब्रह्मन्भगवतस्तस्य भूम्न: स्वच्छन्दवर्तिन: ॥

    गोपालोदारचरितं कस्तृप्येतामृतं जुषन्‌ ॥

    ३॥

    ब्रह्मनू-हे ब्राह्मण; भगवतः--भगवान्‌ का; तस्य--उस; भूम्न: -- अनन्त; स्व-छन्द-वर्तिन: --अपनी इच्छा से कर्म करनेवाले;गोपाल--ग्वालबाल के रूप में; उदार--उदार; चरितमू--लीलाएँ; कः--कौन; तृप्पेत--तृप्त की जा सकती है; अमृतम्‌--ऐसीअमृतमय; जुषन्‌-- भाग लेते हुए, सेवन करने से |

    हे ब्राह्मण, अनन्त भगवान्‌ अपनी इच्छानुसार स्वतंत्र रूप से कर्म करते हैं।

    उन्होंने वृन्दावनमें ग्वालबाल के रूप में जो अमृत तुल्य उदार लीलाएँ सम्पन्न कीं भला उन्हें सुनकर कौन तृप्त होसकता है?

    श्रीशुक उबाचकालिन्द्यां कालियस्यासीद्‌ हृदः कश्चिद्विषाग्निना ।

    अश्रप्पमाणपया यस्मिन्पतन्त्युपरिगा: खगा;: ॥

    ४॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; कालिन्द्यामू--यमुना नदी के भीतर; कालियस्थ--कालिय नाग का;आसीतू--था; हृदः--झील, सरोवर, कुंड; कश्चित्‌--कोई; विष--उसके विष की; अग्निना--अग्नि से; श्रप्पमाण --गर्मी सेउबलकर; पया: --इसका जल; यस्मिन्‌--जिसमें; पतन्ति--गिर पड़ते थे; उपरि-गा:--ऊपर से जाते हुए; खगा:--पशक्षीगण |

    श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : कालिन्दी ( यमुना ) नदी के भीतर एक सरोवर ( कुंड ) थाजिसमें कालिय नाग रह रहा था जिसके अग्नि-तुल्य विष से उसका जल निरन्तर उबलता रहताथा।

    इस तरह से उत्पन्न भाप इतनी विषैली होती थी कि दूषित सरोवर के ऊपर से उड़नेवाले पक्षीउसमें गिर पड़ते थे।

    विप्रुष्मता विषदोर्मिमारुतेनाभिमर्शिता: ।

    प्रियन्ते तीरगा यस्य प्राणिन: स्थिरजड्रमा: ॥

    ५॥

    विप्रुट-मता--जल की बूँदों से युक्त; विष-द--विषैली; ऊर्मि-- लहरें; मारुतेन--वायु के द्वारा; अभिमर्शिता:--स्पर्श करते;प्रियन्ते--मर जाते; तीर-गा:--तट पर स्थित; यस्य--जिसके; प्राणिन:--सारे जीव; स्थिर-जड्रमा:--चर तथा अचर।

    उस घातक सरोवर के ऊपर से बहने वाली हवा जल की बूँदों को तट तक ले जाती थी।

    उसविषैली वायु के सम्पर्क में आने से ही तट की सारी वनस्पति तथा जीवजन्तु मर जाते थे।

    तं चण्डवेगविषदवीर्यमवेक्ष्य तेनदुष्टां नदीं च खलसंयमनावतारः ।

    कृष्ण: कदम्बमधिरुहाय ततोतितुड़-मास्फोट्य गाढरशनो न्यपतद्विषोदे ॥

    ६॥

    तम्‌--उस कालिय को; चण्ड-वेग--डरावनी शक्ति का; विष--विष; वीर्यम्‌--प्रबल; अवेक्ष्य--देखकर; तेन--उसके द्वारा;दुष्टामू-- प्रदूषित; नदीम्‌ू--नदी को; च--तथा; खल--ईर्ष्यालु असुर; संयमन--दमन करने के लिए; अवतार:--आध्यात्मिकजगत से अवतरण हुआ है, जिसका; कृष्ण: --कृष्ण; कदम्बम्‌--कदम्ब वृक्ष में; अधिरुह्य--चढ़कर; ततः--उसमें से; अति-तुड्ठम--अत्यन्त ऊँचा; आस्फोट्य--अपनी भुजाएँ ठोंकते हुए; गाढ-रशन:--हढ़ता से फेंटा बाँधते हुए; न्यपतत्‌--कूद पड़े;विष-उदे--विषैले जल में |

    भगवान्‌ कृष्ण ने देखा कि कालिय नाग ने किस तरह अपने अत्यन्त प्रबल विष से यमुनानदी को दूषित कर रखा था।

    चूँकि कृष्ण आध्यात्मिक जगत से ईर्ष्यालु असुरों का दमन करनेके लिए ही विशेष रूप से अवतरित हुए थे इसलिए वे तुरन्त एक बहुत ऊँचे कदम्ब वृक्ष कीचोटी पर चढ़ गये और उन्होंने युद्ध के लिए अपने को तैयार कर लिया।

    उन्होंने अपना फेंटाबाँधा, बाहुओं में ताल दी और फिर विषैले जल में कूद पड़े।

    सर्पह्ृदः पुरुषसारनिपातवेग-सद्क्षोभितोरगविषोच्छुसिताम्बुराशि: ।

    पर्यक्प्लुतो विषकषायबिभीषणोर्मि-धधावन्धनुःशतमनन्तबलस्य कि तत्‌ ॥

    ७॥

    सर्प-हृदः--सर्प का सरोवर; पुरुष-सार--परम आदरणीय भगवान्‌ के; निपात-वेग--बलपूर्वक गिरने से; सड्क्षोभित--पूरीतरह से विचलित; उरग--सर्पों का; विष-उच्छुसित--विष में ही श्वास लेते हुए; अम्बु-राशि:--जिसका सारा जल; पर्यक्‌--चारों ओर; प्लुतः--बढ़ा हुआ; विष-कषाय--विष से दूषित होने से; बिभीषण-- भयावनी; ऊर्मि: --लहरें; धावन्‌--उठती हुईं;धनुः-शतम्‌--एक सौ धनुष की दूरी; अनन्त-बलस्य--असीम बल वाले के लिए; किम्‌--क्या; तत्‌ू--वह |

    भगवान्‌ जब सर्प के सरोवर में कूदे तो सारे सर्प उत्तेजित हो उठे और तेजी से साँस लेने लगेजिसके कारण विष की मात्रा से जल और भी दूषित हो उठा।

    भगवान्‌ के प्रविष्ट होने के वेग सेसरोवर चारों ओर उमड़ने लगा और भयंकर विषैली लहरों ने एक सौ धनुष-दूरी तक की सारी भूमि को आप्लावित कर दिया।

    किन्तु अनन्त शक्ति रखने वाले भगवान्‌ के लिए यह तनिक भीविस्मयजनक नहीं है।

    तस्य ह॒दे विहरतो भुजदण्डघूर्ण-वार्घोषमड़ वरवारणविक्रमस्य ।

    आश्रुत्य तत्स्वसदनाभिभवं निरीक्ष्यचक्षु: श्रवा: समसरत्तदमृष्यमाण: ॥

    ८ ॥

    तस्य--उनके; हृदे--सरोवर में; विहरत:ः--क्रीड़ा करते हुए; भुज-दण्ड--अपनी बलशाली भुजाओं को; घूर्ण--घुमाया;वा:--जल की; घोषम्‌--ध्वनि; अड्ड--हे राजा; वर-वारण--विशाल हाथी की तरह; विक्रमस्थय--शौर्यका; आश्रुत्य--सुनकर;तत्‌--वह; स्व-सदन--अपने निवास का; अभिभवम्‌--अतिक्रमण; निरीक्ष्य--देखकर; चक्षु:-श्रवा:--कालिय; समसरत्‌ --आगे आया; तत्‌--उसे; अमृष्यमाण:--सहन न कर सकने से |

    कालिय-सरोवर में कृष्ण अपनी विशाल बाहें घुमाते और तरह तरह से जल में गूँज पैदाकरते हुए, शाही हाथी की तरह क्रीड़ा करने लगे।

    जब कालिय ने ये शब्द सुने तो वह जान गयाकि कोई उसके सरोवर में घुस आया है।

    वह इसे सहन नहीं कर पाया अतः वह तुरन्त ही बाहरनिकला।

    त॑ प्रेक्षणीयसुकुमारघनावदातंश्रीवत्सपीतवसन स्मितसुन्दरास्यम्‌ ।

    क्रीडन्तमप्रतिभयं कमलोदराडिंय्रसन्दश्य मर्मसु रुषा भुजया चछाद ॥

    ९॥

    तम्‌--उनको; प्रेक्षणीय--देखने में आकर्षक; सु-कुमार--अत्यन्त सुकोमल; घन--बादल की तरह; अवदातम्‌--सफेदचमकता; श्रीवत्स-- श्रीवत्स चिह्न धारण किये; पीत--तथा पीला; वसनम्‌--वस्त्र; स्मित--हँसते हुए; सुन्दर--सुन्दर;आस्यम्‌--मुख वाले; क्रीडन्तम्‌-क्रीड़ा करते हुए; अप्रति-भयम्‌--अन्यों के भय के बिना; कमल--कमल के; उदर-- भीतरीभाग जैसा; अद्धप्रिमू--चरण; सन्दश्य--काटते हुए; मर्मसु--वक्षस्थल पर; रुषा--क्रोध से; भुजया--कुण्डली से; चछाद--लपेट लिया

    कालिय ने देखा कि पीले रेशमी वस्त्र धारण किये श्रीकृष्ण अत्यन्त सुकोमल लग रहे थे,उनका आकर्षक शरीर सफेद बादलों की तरह चमक रहा था, उनके वक्षस्थल पर श्रीवत्स काचिन्ह था, उनका मुखमंडल सुमधुर हँसी से युक्त था और उनके चरण कमल के फूल के गुच्छों के सहृश थे।

    भगवान्‌ निडर होकर जल में क्रीड़ा कर रहे थे।

    उनके अद्भुत रूप के बावजूदईर्ष्यालु कालिय ने क्रुद्ध होकर उनके वक्षस्थल पर डस लिया और फिर उन्हें अपनी कुंडली मेंपूरी तरह से लपेट लिया।

    त॑ नागभोगपरिवीतमदृष्टचेष्ट -मालोक्य तत्प्रियसखा: पशुपा भृशार्ता: ।

    कृष्णेउर्पितात्मसुहृदर्थकलत्रकामादुःखानुशोकभयमूढधियो निपेतु: ॥

    १०॥

    तम्‌--उनको; नाग--सर्प की; भोग--कुंडली के भीतर; परिवीतम्‌--घिरा हुआ; अद्ृष्ट-चेष्टम्‌--किसी प्रकार की गति नदिखलाते हुए; आलोक्य--देखकर; तत्-प्रिय-सखा: --उनके प्रिय सखा; पशु-पा:--ग्वाले; भूश-आर्ता:--अत्यधिकविचलित; कृष्णे--कृष्ण को; अर्पित--अर्पित किया; आत्म--स्वयं को; सु-हत्‌--अपने सम्बन्धी; अर्थ--सम्पत्ति; कलत्र--पत्नियाँ; कामाः--तथा सारी भोग्य वस्तुएँ; दुःख--पीड़ा से; अनुशोक--पश्चात्ताप; भय--तथा डर; मूढ--मोहित; धिय:--बुद्धि; निपेतु:-- भूमि पर गिर पड़े |

    जब ग्वाल समुदाय के सदस्यों ने, जिन्होंने कृष्ण को अपना सर्वप्रिय मित्र मान रखा था,उन्हें नाग की कुण्डली में लिपटा हुआ और गतिहीन देखा तो वे अत्यधिक विचलित हो उठे।

    उन्होंने कृष्ण को अपना सर्वस्व--अपने आप को, अपने परिवार, अपनी सम्पत्ति, अपनी पत्लियाँतथा सारे आनन्द--अर्पित कर रखा था।

    भगवान्‌ को कालिय सर्प के चंगुल में देखकर उनकीबुद्धि शोक, पश्चात्ताप तथा भय से भ्रष्ट हो गई और वे पृथ्वी पर गिर पड़े।

    गावो वृषा वत्सतर्य: क्रन्दमाना: सुदुःखिता: ।

    कृष्णे न्यस्तेक्षणा भीता रुदन्त्य इव तस्थिरे ॥

    ११॥

    गाव:--गौवें; वृषा:--बैल; वत्सतर्य: --बछिया; क्रन्दमाना:--जोर से चिल्लाते हुए; सु-दुःखिता: --अत्यधिक दुखित;कृष्णे--कृष्ण पर; न्यस्त--गड़ा दिया; ईक्षणा: --अपनी नजर; भीता:-- भयभीत; रुदन्त्य: --रोते हुए; इब--मानो; तस्थिरे--बिना हिले-डुले खड़े रहे |

    गौवें, बैल तथा बछड़ियाँ सभी अत्यधिक दुखारी होकर करुणापूर्वक कृष्ण को पुकारनेलगीं।

    वे पशु उन पर अपनी दृष्टि गड़ाये हुए भयवश बिना हिले-डुले खड़े रहे मानो चिल्‍लानाचाह रहे हों परन्तु आघात के कारण अश्रु न बहा सकते हों।

    अथ ब्रजे महोत्पातास्त्रिविधा ह्तिदारुणा: ।

    उत्पेतुर्भुवि दिव्यात्मन्यासन्नभयशंसिन: ॥

    १२॥

    अथ--तब; ब्रजे--वृन्दावन में; महा-उत्पाता:--बड़े बड़े उपद्रव; त्रि-विधा:--तीन प्रकार के; हि--निस्सन्देह; अति-दारुणा:--अत्यन्त भयावने; उत्पेतु:--प्रकट हुए; भुवि--पृथ्वी पर; दिवि--आकाश में; आत्मनि--जीवों के शरीरों में;आसन्न--निकट; भय--खतरा; संशिन:--घोषणा करते हुए, सूचना देते हुए।

    तब वृन्दावन क्षेत्र में सभी तीन प्रकार के--पृथ्वी पर होनेवाले, आकाश में होनेवाले तथाजीवों के शरीर में होनेवाले--भयावने अपशकुन प्रकट होने लगे जो तुरन्त आने वाले खतरे कीचेतावनी कर रहे थे।

    तानालक्ष्य भयोद्विग्ना गोपा नन्दपुरोगमा: ।

    विना रामेण गा: कृष्णं ज्ञात्वा चारयितुं गतम्‌ ॥

    १३॥

    तैर्दुर्निमित्तैर्निधनं मत्वा प्राप्तमतद्विदः ।

    तत्प्राणास्तन्मनस्कास्ते दुःखशोकभयातुरा: ॥

    १४॥

    आबालवृद्धवनिता: सर्वेडड़ पशुवृत्तय: ।

    निर्जग्मुर्गोकुलाद्दीना: कृष्णदर्शनललालसा: ॥

    १५॥

    तान्‌ू--उन संकेतों को; आलक्ष्य--देखकर; भय-उद्विग्ना:--भय से विचलित; गोपा: --ग्वाले; नन्द-पुर:-गमा: --नन्द महाराजइत्यादि; विना--रहित; रामेण--बलराम के; गा: --गौवें; कृष्णम्‌--कृष्ण को; ज्ञात्वा--जानकर; चारयितुम्‌--चराने के लिए;गतम्‌--गया हुआ; तैः--उनसे; दुर्निमित्त:--अपशकुनों से; निधनम्‌--विनाश; मत्वा--मानकर; प्राप्तम्‌--प्राप्त किया; अतत्‌ू-विदः--उनके ऐश्वर्य को न जानने से; तत्‌-प्राणा: --उन्हें अपना प्राण मानकर; तत्‌-मनस्का:--उन्हीं में लीन मन; ते--वे;दुःख--दुख; शोक--शोक; भय--तथा भय से; आतुरा:--विह्ल; आ-बाल--बच्चों समेत; वृद्ध--बूढ़े लोग; वनिता:--तथास्त्रियाँ; सर्वे--सभी; अड्ग--हे राजा परीक्षित; पशु-वृत्तय:--जिस तरह वत्सल गाय अपने बछड़े के साथ करती है; निर्जग्मु:--बाहर चले गये; गोकुलात्‌--गोकुल से; दीना:--दीन समझकर; कृष्ण-दर्शन--कृष्ण को देखने के लिए; लालसा: --उत्सुक,लालायित।

    इन अपशकुनों को देखकर नन्द महाराज तथा अन्य ग्वाले भयभीत थे क्योंकि उन्हें ज्ञात थाकि उस दिन कृष्ण अपने बड़े भाई बलराम के बिना गाय चराने गये थे।

    चूँकि उन्होंने कृष्ण कोअपना प्राण मानते हुए अपने मन उन्हीं पर वार दिये थे क्योंकि वे उनकी महान्‌ शक्ति तथा ऐ श्वर्यसे अनजान थे।

    इस तरह उन्होंने इन अपशकुनों से यह अर्थ निकाला कि कृष्ण की मृत्यु हो गई है और वे दुःख, पश्चात्ताप तथा भय से अभिभूत हो गये थे।

    बालक, स्त्रियाँ तथा वृद्ध पुरुषों समेतवृन्दावन के सारे निवासी कृष्ण को उसी तरह मानते थे जिस तरह गाय अपने निरीह नवजातबछड़े को मानती है।

    इस तरह ये दीन-दुखी लोग उन्हें ढूँढ़ने के इरादे से गाँव से बाहर दौड़ पड़े।

    तांस्तथा कातरान्वीक्ष्य भगवान्माधवो बल: ।

    प्रहस्य किझ्ञिन्नोवाच प्रभावज्ञोडनुजस्य सः ॥

    १६॥

    तानू्‌--उन्हें; तथा--इस तरह; कातरान्‌ू--व्याकुल; वीक्ष्य--देखकर; भगवान्‌-- भगवान्‌; माधव:--समस्त योग विद्या केस्वामी; बल:--बलराम; प्रहस्य--मुसकाते हुए; किश्ञित्‌ू-- थोड़ा-सा; न--नहीं; उबाच--कहा; प्रभाव-ज्ञ:--बल को जाननेवाले; अनुजस्य--छोटे भाई के; सः--उन्होंने |

    समस्त दिव्य ज्ञान के स्वामी भगवान्‌ बलराम हँसने लगे और वृन्दावन-वासियों को इस तरहव्याकुल देखकर कुछ भी नहीं बोले क्योंकि उन्हें अपने छोटे भाई के असाधारण बल का पताथा।

    तेन्वेषमाणा दयितं कृष्णं सूचितया पद: ।

    भगवललक्षणैर्जग्मु; पदव्या यमुनातटम्‌ ॥

    १७॥

    ते--वे; अन्वेषमाणा: --ढूँढ़ते हुए; दयितम्‌--अपने प्रियतम; कृष्णम्‌--कृष्ण को; सूचितया--चिन्हित ( पथ ); पदैः --पैर केनिशानों से; भगवत्‌-लक्षणै: -- भगवान्‌ के चिह्नों से; जग्मु:--गये; पदव्या--रास्ते से होकर; यमुना-तटम्‌ू--यमुना के किनारेतक।

    वृन्दावन के निवासी कृष्ण के पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए अपने सर्वप्रिय कृष्ण कीखोज में यमुना के किनारे की ओर दौड़े चले गये क्योंकि उन पदचिन्हों में भगवान्‌ के अनूठेचिन्ह थे।

    ते तत्र तत्राब्जयवाड्लु शाशनि-ध्वजोपपन्नानि पदानि विएपते: ।

    मार्गे गवामन्यपदान्तरान्तरेनिरीक्षमाणा ययुरड् सत्वरा: ॥

    १८॥

    ते--वे; तत्र तत्र--यहाँ वहाँ; अब्ज--कमल के फूल; यव--जौ; अद्डू श--हाथी हाँकने का अंकुश; अशनि--वज्; ध्वज--तथा पताका से; उपपन्नानि--विभूषित; पदानि--पदचिह्नों को; विट्‌्-पतेः--ग्वाल जाति के स्वामी, भगवान्‌ कृष्ण के; मार्गे--रास्ते में; गवाम्‌--गौवों के; अन्य-पद--तथा अन्य पदचिह्न; अन्तर-अन्तरे--बीच बीच में; निरीक्षमाणा: -- देखकर; युयु:--गये; अड़--हे राजन; स-त्वरा:ः--तेजी से।

    समस्त ग्वाल समुदाय के स्वामी भगवान्‌ कृष्ण के पदचिन्ह कमल के फूल, जौ, हाथी केअंकुश, वज्ज तथा पताका से युक्त थे।

    हे राजा परीक्षित, मार्ग में गौवों के पदचिन्हों के बीच बीचमें उनके पदचिन्हों को देखते हुए वृन्दावन के निवासी तेजी से दौड़े चले गये।

    अन्तर्ईदे भुजगभोगपरीतमारात्‌कृष्णं निरीहमुपलभ्य जलाशयान्ते ।

    गोपांश्व मूढधिषणान्परितः पशूश् सड़क्रन्दतः 'परमकश्मलमापुरार्ता: ॥

    १९॥

    अन्त:--भीतर; हृदे--सरोवर के; भुजग--सर्प के; भोग--शरीर के भीतर; परीतम्‌--लिपटे; आरात्‌--दूर से ही; कृष्णम्‌--कृष्ण को; निरीहम्‌--निश्चेष्ट; उपलभ्य--देखकर; जल-आशय--जलाशय के; अन्ते-- भीतर; गोपान्‌--ग्वालबालों को; च--तथा; मूढ-धिषणान्‌--अचेत; परित:--घेरकर; पशून्‌--पशुओं को; च--तथा; सड्क्रन्दत:ः--चिल्लाते हुए; परम-कश्मलम्‌--महानतम मोह; आपु:--अनुभव किया; आर्ता:--पीड़ित होने से ।

    ज्योंही वे यमुना नदी के किनारे की ओर भागे जा रहे थे त्योंही उन्होंने दूर से देखा कि कृष्णसरोवर में काले साँप की कुण्डली में निश्चेष्ट पड़े हैं।

    उन्होंने यह भी देखा कि सारे ग्वालबालमूछित होकर पड़े हैं और सारे पशु उनके चारों ओर खड़े होकर कृष्ण के लिए रम्भा रहे हैं।

    यहहृए्य देखकर वृन्दावनवासी बेदना तथा भ्रम के कारण विहल हो उठे।

    गोप्योनुरक्तमनसो भगवत्यनन्तेतत्सौहदस्मितविलोकगिरः स्मरन्त्य: ।

    ग्रस्तेडहिना प्रियतमे भूशदुःखतप्ता:शूज्यं प्रियव्यतिहतं दहशुस्त्रिलोकम्‌ ॥

    २०॥

    गोप्य:--गोपियाँ; अनुरक्त-मनस:ः--उनसे अनुरक्त मनवाली; भगवति-- भगवान्‌ में; अनन्ते-- अनन्त; तत्‌--उनका; सौहद--प्रेमपूर्ण; स्मित--मुसकान; विलोक--चितवन; गिर: --तथा वचन; स्मरन्त्य:--स्मरण कर करके; ग्रस्ते--पकड़े जाकर;अहिना--सर्प द्वारा; प्रिय-तमे--सबसे प्यारे; भूश--अत्यन्त; दुःख--पीड़ा से; तप्ता:--पीड़ित; शून्यम्‌--रिक्त; प्रिय-व्यतिहतम्‌--अपने प्रिय से विलग होकर; दहशुः--उन्होंने देखा; त्रि-लोकम्‌--तीनों लोकों ( सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ) को |

    जब युवती गोपियों ने, जिनके मन निरंतर अनन्त भगवान्‌ कृष्ण में अनुरक्त रहते थे, देखाकि वे कालिय के चंगुल में हैं, तो उन्हें उनकी मित्रता, उनकी मुसकान-भरी चितवन तथा उनकेबचनों का स्मरण हो आया।

    अत्यन्त शोक से संतप्त होने के कारण उन्हें सारा ब्रह्माण्ड शून्य(रिक्त ) दिखाई पड़ने लगा।

    ताः कृष्णमातरमपत्यमनुप्रविष्टांतुल्यव्यथा: समनुगृहा शुचः स्त्रवन्त्य: ।

    तास्ता ब्रजप्रियक था: कथयन्त्य आसन्‌कृष्णाननेर्पितहशो मृतकप्रतीका: ॥

    २१॥

    ताः--वे; कृष्ण-मातरम्‌--कृष्ण की माता ( यशोदा ); अपत्यम्‌--अपने पुत्र पर; अनुप्रविष्टाम्‌--अपनी दृष्टि टिकाये; तुल्य--समान रूप से; व्यथा:--व्यधित; समनुगृह्म --हृढ़तापूर्वक पकड़कर; शुचच:ः--शोक की बाढ़; स्त्रवन्त्य:--उमड़ते हुए; ता: ता:--उनमें से हर शब्द को; ब्रज-प्रिय--त्रज के परम प्रिय की; कथा:--कथाएँ; कथयन्त्य:--कहते हुए; आसनू--वे खड़ी रहीं;कृष्ण-आनने--कृष्ण के मुख पर; अर्पित--चढ़ायी, अर्पित की हुई; हशः--अपनी आँखें; मृतक--शव; प्रतीका:--तुल्य |

    यद्यपि प्रौढ़ गोपियों को उन्हीं के बराबर पीड़ा थी और उनमें शोकपूर्ण अश्रुओं की झड़ीलगी हुई थी किन्तु उन्होंने बलपूर्वक कृष्ण की माता को पकड़े रखा, जिनकी चेतना पूर्णतयाअपने पुत्र में समा गयी थी।

    ये गोपियाँ शवों की तरह खड़ी रहकर, अपनी आँखें कृष्ण के मुखपर टिकाये, बारी बारी से ब्रज के परम लाड़ले की लीलाएँ कहे जा रही थीं।

    कृष्णप्राणान्निर्विशतो नन्दादीन्वी क्ष्य तं हृदम्‌ ।

    प्रत्यषेधत्स भगवात्राम: कृष्णानुभाववित्‌ ॥

    २२॥

    कृष्ण-प्राणान्‌--जिनके प्राण कृष्ण थे; निर्विशत:--प्रवेश करते; नन्द-आदीन्‌--नन्द महाराज इत्यादि को; वीक्ष्य--देखकर;तम्‌--उस; हृदम्‌--सरोवर में; प्रत्यषेधत्‌ू--मना किया; सः--वे; भगवान्‌-- भगवान्‌; राम: -- बलराम ने; कृष्ण--कृष्ण की;अनुभाव--शक्ति; वित्‌ू-- भलीभाँति जानते हुए

    तत्पश्चात्‌ भगवान्‌ बलराम ने देखा कि नन्द महाराज तथा कृष्ण को अपना जीवन अर्पितकरनेवाले अन्य ग्वाले सर्प-सरोवर में प्रवेश करने जा रहे हैं।

    भगवान्‌ होने के नाते बलराम कोकृष्ण की वास्तविक शक्ति का पूरा पूरा ज्ञान था अतएव उन्होंने उन सबों को रोका।

    इत्थम्स्वगोकुलमनन्यगतिं निरीक्ष्यसस्त्रीकुमारमतिदु:खितमात्महेतो: ।

    आज्ञाय मर्त्यपदवीमनुवर्तमान: थित्वा मुहूर्तमुदतिष्ठदुरड्रबन्धात्‌ ॥

    २३॥

    इत्थम्‌--इस तरह से; स्व-गोकुलम्‌ू--गोकुल के अपने कुल में; अनन्य-गतिम्‌ू--( उनके अतिरिक्त ) कोई अन्य गन्तव्य याआश्रय न होने से; निरीक्ष्य--देखकर; स-स्त्री--स्त्रियों समेत; कुमारम्‌--तथा बच्चे; अति-दुःखितम्‌-- अत्यन्त दुखी; आत्म-हेतो:--अपने कारण; आज्ञाय-- जानकर; मर्त्य-पदवीम्‌--मरने वालों की तरह; अनुवर्तमान: --अनुकरण करते हुए; स्थित्वा--रहे आकर; मुहूर्तम्‌--कुछ काल तक; उदतिष्ठत्‌--उठ खड़े हुए; उरड़--सर्प के; बन्धात्‌ू--बन्धन से |

    भगवान्‌ कुछ काल तक सामान्य मर्त्यप्राणी के व्यवहार का अनुकरण करते हुए सर्प कीकुंडली के भीतर पड़े रहे।

    किन्तु जब उन्हें इसका भान हुआ कि उनके गोकुल ग्राम की स्त्रियाँ,बच्चे तथा अन्य निवासी अपने जीवन के एकमात्र आधार उनके प्रेम के कारण विकट दुखी हैं,तो वे कालिय सर्प के बन्धन से तुरन्त उठ खड़े हुए।

    तत्प्रथ्यमानवपुषा व्यथितात्म भोग-स्त्यक्त्वोन्नमय्य कुपितः स्वफणान्भुजड़: ।

    तस्थौ श्वसज्छूसनरन्श्रविषाम्बरीष-स्तब्धेक्षणोल्मुकमुखो हरिमीक्षमाण: ॥

    २४॥

    तत्‌--उनके ( कृष्ण के ); प्रथ्यमान--बढ़ते हुए; वपुषा--दिव्य शरीर के द्वारा; व्यधित--पीड़ित; आत्म--अपना; भोग: --शरीर; त्यक्त्वा--उन्हें त्यागकर; उन्नमय्य--ऊँचे उठते हुए; कुपित:--क्रुद्ध; स्व-फणान्‌ू--अपने फनों को; भुजड़--सर्प;तस्थौ--चुपचाप खड़ा रहा; ध्वसन्‌--तेजी से साँस लेता हुआ, फुफकारता; श्वसन-रन्ध्र--उसके नथुने; विष-अम्बरीष--विषउबालने के दो पात्रों की तरह; स्तब्ध--स्थिर; ईक्षण--उसकी आँखें; उल्मुक--लपटों की तरह; मुख:--उसका मुँह; हरिम्‌--भगवान्‌ को; ईक्षमाण: --देखता हुआ।

    जब भगवान्‌ के शरीर का विस्तार होने से कालिय की कुंडली दुखने लगी तो उसने उन्हेंछोड़ दिया।

    तब वह सर्प बहुत ही क्रुद्ध होकर अपने फनों को ऊँचे उठाकर स्थिर खड़ा हो गयाऔर जोर जोर से फुफकारने लगा।

    उसके नथुने विष पकाने के पात्रों जैसे लग रहे थे और उसकेमुखपर स्थित घूरती आँखें आग की लपटों की तरह लग रही थीं।

    इस तरह उस सर्प ने भगवान्‌पर नजर डाली।

    तं जिहया द्विशिखया परिलेलिहानंद्वे सृक्वणी हातिकरालविषाग्निदृष्टिम्‌ ।

    क्रीडन्नमुं परिससार यथा खगेन्द्रोबश्राम सोप्यवसरं प्रसमीक्षमाण: ॥

    २५॥

    तम्‌--उसको, कालिय को; जिहया--अपनी जीभ से; द्वि-शिखया--दोमुही; परिलेलिहानम्‌--बारबार चाटता हुआ; द्वे--दो;सृक्वणी--होंठ; हि--निस्सन्देह; अति-कराल--अत्यन्त भयावने; विष-अग्नि--विषैली अग्नि से पूर्ण; दृष्टिमू--जिसकी दृष्टि;क्रीडन्‌--खेलती हुई; अमुम्‌--उसको; परिससार--चारों ओर घूम गई; यथा--जिस तरह; खग-दइन्द्र:--पक्षिराज गरुड़;बक्राम--चारों ओर घूमा; सः--कालिय; अपि-- भी; अवसरम्‌--( प्रहार करने का ) अवसर; प्रसमीक्षमाण: --धध्यानपूर्वकदेखते हुए, की ताक में

    कालिय बारम्बार अपनी दोमुही जीभ से अपने होंठों को चाटता और विषैली विकरालअग्नि से पूर्ण अपनी दृष्टि से कृष्ण को घूरता जा रहा था।

    किन्तु कृष्ण ने मानो खेल-खेल में हीउसका उसी तरह चक्कर लगाया जिस तरह गरुड़ सर्प से खिलवाड़ करता है।

    प्रतिक्रिया के रूपमें, कालिय भी उनके साथ साथ घूमता जाता था और भगवान्‌ को काटने का अवसर ढूँढ़ रहाथा।

    एवं परिभ्रमहतौजसमुन्नतांस-मानम्य तत्पृथुशिर:स्वधिरूढ आद्य: ।

    तन्मूर्धरत्ननिकरस्पर्शातिताम्र-पादाम्बुजोडखिलकलादिगुरुर्ननर्त ॥

    २६॥

    एवम्‌--इस तरह; परिभ्रम-- भगवान्‌ द्वारा उसके चारों ओर चक्कर लगाने के कारण; हत--विनष्ट; ओजसम्‌--जिसका बल;उन्नत--ऊपर उठा; अंसम्‌ू--जिसके कंधे; आनम्य--झुकने के लिए बाध्य करके; तत्‌--उसके; पृथु-शिरःसु--चौड़े सिर पर;अधिरूढ:--चढ़कर; आद्य: --हर वस्तु के मूल; तत्‌--उसके ; मूर्थ--सिरों पर; रल-निकर--अनेकानेक रल; स्पर्श--छूने से;अति-ताम्र--अत्यधिक लाल हुए; पाद-अम्बुज:--चरणकमल; अखिल-कला--समस्त कलाओं के; आदि-गुरु:--मूल गुरु;ननर्त--नाचने लगे

    लगातार चक्कर लगाते लगाते सर्प के बल को बुरी तरह क्षीण करके, समस्त वस्तुओं के मूलश्रीकृष्ण ने कालिय के उभरे हुए कन्धों को नीचे दबा दिया और उसके चौड़े फनों पर चढ़ गये।

    इस तरह समस्त कलाओं के आदि गुरू भगवान्‌ श्रीकृष्ण नृत्य करने लगे और सर्प के फनों परस्थित असंख्य मणियों के स्पर्श से उनके चरण गहरे लाल रंग के हो गये।

    त॑ नर्तुमुद्यतमवेक्ष्य तदा तदीय-गन्धर्वसिद्धमुनिचारणदेववध्व: ।

    प्रीत्या मृदृड़पणवानकवाद्यगीत-पुष्पोपहारनुतिभि: सहसोपसेदु: ॥

    २७॥

    तम्‌--उनको; नर्तुमू--नाचने में; उद्यतम्‌--लगा हुआ; अवेक्ष्य--देखकर; तदा--तब; तदीय--उनके सेवक; गन्धर्व-सिद्ध--गन्धर्व तथा सिद्धगण; मुनि-चारण--ऋषि तथा चारण; देव-वध्व: --देवपत्लियाँ; प्रीत्या--हर्षपूर्वक; मृदड़-पणव-आनक--विभिन्न प्रकार के ढोल; वाद्य--बाजों समेत; गीत--गीत; पुष्प--फूल; उपहार--अन्य भेंटें; नुतिभिः --तथा स्तुतियों द्वारा;सहसा--तुरन्त; उपसेदु:--आ गये।

    भगवान्‌ उनको नाचते देखकर स्वर्गलोक के उनके सेवक--गन्धर्व, सिद्ध, मुनि, चारणतथा देवपत्नियाँ--वहाँ तुरन्त आ गये।

    वे मृदंग, पणव तथा आनक जैसे ढोल बजा-बजाकरकृष्ण के नृत्य का साथ देने लगे।

    उन्होंने गीत, फूल तथा स्तुतियों की भेंटें भी दीं।

    यद्यच्छिरो न नमतेड़् शतैकशीर्ष्णस्‌तत्तन्ममर्द खरदण्डधरोड्प्रिपातैः ।

    क्षीणायुषो भ्रमत उल्बणमास्यतोसूड्‌ःनस्तो वमनन्‍्परमकश्मलमाप नाग: ॥

    २८॥

    यत्‌ यत्‌--जो जो; शिर:--सिर; न नमते--नहीं झुकते थे; अड्र--हे राजा परीक्षित; शत-एक-शीष््:-- १०१ सिरों बाला; तत्‌तत्‌--उन उन को; ममर्द--कुचल डाला; खर--दुष्टों को; दण्ड--सजा; धरः--देने वाले भगवान्‌; अद्धघ्रि-पातैः-- अपने पैरोंके प्रहार से; क्षीण-आयुष: --आयु क्षीण हो रहे कालिय का; भ्रमत:--जो अब भी घूम रहा था; उल्बणम्‌-- भयावह;आस्यतः--मुखों से; असृक्‌ --रक्त; नस्तः--नथुनों से; वमन्‌ू--कै; परम--अत्यन्त; कश्मलमू--कष्ट; आप--अनुभव किया;नाग: --सर्प ने

    हे राजनू, कालिय के १०१ सिर थे और यदि इनमें से कोई एक नहीं झुकता था, तो क्रूरकृत्य करनेवालों को दंड देनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने पाद-प्रहार से उस उद्ण्ड सिर कोकुचल देते थे।

    जब कालिय मृत्यु के निकट पहुँच गया तो वह अपने सिरों को चारों ओर घुमानेलगा और अपने मुखों तथा नथुनों से बुरी तरह से रक्त वमन करने लगा।

    इस तरह सर्प कोअत्यन्त पीड़ा तथा कष्ट का अनुभव होने लगा।

    तस्याक्षिभिर्गरलमुद्ठमतः शिरःसुयद्यत्समुन्नमति नि: श्रसतो रुषोच्चै: ।

    नृत्यन्पदानुनमयन्दमयां बभूवपुष्पै: प्रपृूजित इवेह पुमान्पुराण: ॥

    २९॥

    तस्य--उसकी; अक्षिभि: --आँखों से; गरलम्‌ू--विषैला कूड़ा; उद्यमतः--वमन करता हुआ; शिरः:सु--सिरों में से; यत्‌ यत्‌--जो जो; समुन्नमति--ऊपर उठता; नि: ध्वसत:ः -- धवास लेता हुआ; रुषा--क्रोध से; उच्चै:--काफी अधिक; नृत्यन्‌ू--नाचते हुए;पदा--अपने पाँव से; अनुनमयन्‌--झुकाते हुए; दमयाम्‌ बभूव--दमन कर दिया; पुष्पैः--फूलों से; प्रपूजित:--पूजा जाकर;इब--सहश; इह--इस अवसर पर; पुमान्‌--पुरुष; पुराण: --आदि।

    कालिय अपनी आँखों से विषैला कीचड़ निकालते हुए रह रहकर अपने किसी एक सिर कोऊपर उठाने का दुस्साहस करके क्रोध से फुफकारता था।

    तब भगवान्‌ उसपर नाचने लगते औरअपने पाँव से नीचे झुकाकर उसका दमन कर देते।

    देवताओं ने इन सभी प्रदर्शनों को उचितअवसर जानकर आदि पुरुष की पूजा पुष्पवर्षा द्वारा की।

    तच्चित्रताण्डवविरुग्गफणासहस्त्रो रक्त मुखैरुरुू वमन्नूप भग्नगात्र: ।

    स्मृत्वा चराचरगुरुं पुरुष पुराणंनारायणं तमरणं मनसा जगाम ॥

    ३०॥

    तत्‌--उनके; चित्र--विस्मयकारी; ताण्डब--शक्तिशाली नृत्य से; विरुग्ग-- भग्न; फणा-सहस्त्र: --अपने एक हजार फन;रक्तमू--रक्त; मुखै:--मुख से; उरू--अत्यधिक; वमन्‌--उगलते हुए; नृप--हे राजा परीक्षित; भग्न-गात्र:--कुचले अंगों वाला;स्मृत्वा--स्मरण करके; चर-अचर--सारे जड़ तथा जंगम प्राणियों के; गुरुम्‌-गुरु ; पुरुषम्‌--पुरुष; पुराणम्‌--प्राचीन;नारायणम्‌--नारायण को; तम्‌--उन; अरणम्‌--शरण के लिए; मनसा--मन में

    हे राजा परीक्षित, भगवान्‌ कृष्ण के द्वारा विस्‍स्मयजनक शक्तिशाली नृत्य करने से कालियके सभी एक हजार फण कुचलकर टूट गये।

    तब अपने मुखों से बुरी तरह रक्त वमन करते हुएसर्प ने श्रीकृष्ण को समस्त चराचर के शाश्रत स्वामी आदि भगवान्‌ श्रीनारायण के रूप में'पहचाना।

    इस तरह कालिय ने मन ही मन भगवान्‌ की शरण ग्रहण कर ली।

    कृष्णस्य गर्भजगतोतिभरावसच्नंपार्णिणप्रहारपरिरुग्गफणातपत्रम्‌ ।

    इृष्ठाहिमाद्यमुपसेदुरमुष्य पत्यआर्ता: एलथद्वसनभूषणकेशबन्धा: ॥

    ३१॥

    कृष्णस्य--कृष्ण के; गर्भ--उदर में; जगत: --सारा ब्रह्माण्ड पाया जाता है; अति-भर--अत्यधिक भार से; अवसन्नम्‌-- थकाहुआ; पार्ण्िणि--एड़ियों के; प्रहार--चोट से; परिरुग्न--क्षत-विक्षत; फणा--फन; आतपत्रम्‌--छातों की तरह; हृध्ला--देखकर;अहिम्‌--सर्प को; आद्यम्‌ू--आदि भगवान्‌ के; उपसेदु:--निकट आयी; अमुष्य--कालिय की; पत्य:--पत्नयाँ; आर्ता:--पीड़ित; श्लथत्‌--बिखरे हुए; वसन--वस्त्र; भूषण-- आभूषण; केश-बन्धा: --तथा केशपाश |

    जब कालिय की पत्नियों ने देखा कि अखिल ब्रह्माण्ड को अपने उदर में धारण करनेवालेभगवान्‌ कृष्ण के अत्यधिक भार से सर्प कितना थक गया है और किस तरह कृष्ण की एडियोंके प्रहार से कालिय के छाते जैसे फन छिन्न-भिन्न हो गये हैं, तो उन्हें अतीव पीड़ा हुईं।

    तब अपनेवस्त्र, आभूषण तथा केश बिखराये हुए वे आदि भगवान्‌ के निकट आईं।

    तास्तं सुविग्नमनसोथ पुरस्कृतार्भा:काय॑ निधाय भुवि भूतपतिं प्रणेमु: ।

    साध्व्य: कृताझ्लिपुटा: शमलपस्य भर्तुर्‌मोक्षेप्सव: शरणदं शरणं प्रपन्ना: ॥

    ३२॥

    ताः--वे, कालिय की पत्याँ; तम्‌--उसको; सु-विग्न--अत्यन्त उद्विग्न; मनस:--मन; अथ--तब; पुरः-कृत--सामने करके;अर्भा:--अपने बच्चे; कायम्‌ू--अपने शरीर को; निधाय--रखकर; भुवि-- भूमि पर; भूत-पतिम्‌--समस्त प्राणियों के स्वामीको; प्रणेमु:ः--प्रणाम किया; साध्व्य: --साध्वी स्त्रियाँ; कृत-अज्जञलि-पुटा:--हाथ जोड़कर; शमलस्य--पापी; भर्तुः--पति की;मोक्ष--मुक्ति; ईप्सव:--इच्छा करती हुईं; शरण-दम्‌--शरण देनेवाले; शरणम्‌--शरण के लिए; प्रपन्ना:--निकट आईंअत्यन्त उद्दिग्नमना

    उन साध्वी स्त्रियों ने अपने बच्चों को अपने आगे कर लिया और तबसमस्त प्राणियों के स्वामी के समक्ष भूमि पर गिरकर साष्टांग प्रणाम किया।

    वे अपने पापी पतिका मोक्ष एवं परम शरणदाता भगवान्‌ की शरण चाहती थीं अतः नम्नता से हाथ जोड़े हुए वेउनके निकट आईं।

    नागपलय ऊचुःन्याय्यो हि दण्ड: कृतकिल्बिषेस्मि-स्तवावतार: खलनिग्रहाय ।

    रिपो: सुतानामपि तुल्यदृष्टि-ध॑त्से दमं फलमेवानुशंसन्‌ ॥

    ३३॥

    नाग-पल्य: ऊचु:--नाग की पत्नियों ने कहा; न्याय्य:--सही न्यायपूर्ण; हि--निस्सन्देह; दण्ड:--दण्ड, सजा; कृत-किल्बिषे--अपराध करनेवाले के लिए; अस्मिनू--इस व्यक्ति ने; तब--आपका; अवतार:--अवतार; खल--दुष्टों के;निग्रहाय--दमन के लिए; रिपो:--शत्रु पर; सुतानामू--अपने ही पुत्रों पर; अपि--भी; तुल्य-दृष्टि:--समान दृष्टि रखनेवाला;धत्से--आप देते हैं; दमम्‌--दंड; फलम्‌ू--फल; एव--निस्सन्देह; अनुशंसम्‌--विचार करते हुए।

    कालिय सर्प की पत्नियों ने कहा : इस अपराधी को जो दण्ड मिला है, वह निस्संदेह उचितही है।

    आपने इस जगत में ईर्ष्यालु तथा क्रूर पुरुषों का दमन करने के लिए ही अवतार लिया है।

    आप इतने निष्पक्ष हैं कि आप शत्रुओं तथा अपने पुत्रों को समान भाव से देखते हैं क्योंकि जबआप किसी जीव को दण्ड देते हैं, तो आप यह जानते होते हैं कि अन्ततः यह उसके हित के लिएहै।

    अनुग्रहोयं भवतः कृतो हि नोदण्डोसतां ते खलु कल्मषापह: ।

    यहन्दशूकत्वममुष्य देहिनःक्रोधोपि तेउनुग्रह एवं सम्मतः ॥

    ३४॥

    अनुग्रह:--कृपा; अयम्‌ू--यह; भवतः--आपके द्वारा; कृत:--की गई; हि--निस्सन्देह; न:--हम पर; दण्ड:--दण्ड, सजा;असतामू--दुष्टों का; ते--आपके द्वारा; खलु--निस्सन्देह; कल्मष-अपह: --उनके कल्मष को दूर करते हुए; यत्‌--क्योंकि;दन्दशूकत्वम्‌्--सर्प के रूप में प्रकट होने की अवस्था; अमुष्य--इस कालिय की; देहिन:--बद्धजीव; क्रोध: --क्रोध; अपि--भी; ते--आपकी; अनुग्रह:--कृपा; एव--वास्तव में; सम्मतः--स्वीकार है |

    आपने जो कुछ यहाँ किया है, वह वास्तव में हम पर अनुग्रह है क्योंकि आप दुष्टों को जोदण्ड देते हैं वह निश्चित रूप से उनके कल्मष को दूर कर देता है।

    चूँकि यह बद्धजीव हमारा पतिइतना पापी है कि इसने सर्प का शरीर धारण किया है अतएवं उसके प्रति आपका यह क्रोधउसके प्रति आपकी कृपा ही समझी जानी चाहिए।

    तपः सुतप्तं किमनेन पूर्वनिरस्तमानेन च मानदेन ।

    धर्मोथ वा सर्वजनानुकम्पयायतो भवांस्तुष्यति सर्वजीवः ॥

    ३५॥

    तपः--तपस्या; सु-तप्तम्‌--ठीक से की गई; किम्‌--क्या; अनेन--इस कालिय द्वारा; पूर्वम्‌--पूर्वजन्मों में; निरस्त-मानेन--मिथ्या अहंकार से रहित होने से; च--तथा; मान-देन--अन्यों का सम्मान करते हुए; धर्म:--धार्मिक कर्तव्य; अथ वा--याअन्य कुछ; सर्व-जन--सभी लोगों के लिए; अनुकम्पया--अनुक म्पापूर्वक; यतः--जिससे; भवान्‌-- आप; तुष्यति--प्रसन्न होतेहैं; सर्व-जीव:--समस्त जीवों के प्राणाधार।

    क्या हमारे पति ने पूर्वजन्म में गर्वरहित होकर तथा अन्यों के प्रति आदरभाव से पूरित होकरसावधानी से तपस्या की थी? क्‍या इसीलिए आप उससे प्रसन्न हैं? अथवा क्‍या उसने किसीपूर्वजन्म में समस्त जीवों के प्रति दयापूर्वक धार्मिक कर्तव्य पूरा किया था और क्‍या इसीलिएसमस्त जीवों के प्राणाधार आप अब उससे सन्तुष्ट हैं ?कस्यानुभावोस्य न देव विद्दाहे तवाडूप्रिरेणुस्परशाधिकारः ।

    यद्वाज्छया श्रीर्ललनाचरत्तपोविहाय कामान्सुचिरं धृतब्रता ॥

    ३६॥

    कस्य--किसका; अनुभाव: --फल; अस्य--इस सर्प का; न--नहीं; देव--हे प्रभु; विद्यह--हम जानती हैं; तब--आपके;अड्प्रि--चरणकमलों की; रेणु--धूलि का; स्परश--स्पर्श करने के लिए; अधिकार:--पात्रता, योग्यता; यत्‌ू--जिसके लिए;वाब्छया--इच्छा से; श्री:--लक्ष्मीजी ने; ललना--( सर्वश्रेष्ठ ) स्त्री; आचरत्‌--सम्पन्न की; तप:ः--तपस्या; विहाय--छोड़कर;कामान्‌--सारी इच्छाओं को; सु-चिरम्‌--दीर्घकाल तक; धृत--धारण किया; ब्रता--अपना ब्रत, प्रतिज्ञा

    हे प्रभु, हम नहीं जानतीं कि इस कालिय नाग ने किस तरह आपके चरणकमलों की धूलको स्पर्श करने का सुअवसर प्राप्त किया।

    इसके लिए तो लक्ष्मीजी ने अन्य सारी इच्छाएँत्यागकर कठोर ब्रत धारण करके सैकड़ों वर्षों तक तपस्या की थी।

    न नाकपृष्ठं न च सार्वभौम॑न पारमेष्ठयं न रसाधिपत्यम्‌ ।

    न योगसिद्धीरपुनर्भव॑ वावाउछन्ति यत्पादरज:प्रपन्ना: ॥

    ३७॥

    न--नहीं; नाक-पृष्ठम्‌--स्वर्ग; न च--न तो; सार्व-भौमम्‌--सर्वोपरि सत्ता; न--नहीं; पारमेष्ठयम्‌--ब्रह्मा का सर्वोच्च पद; न--नहीं; रस-अधिपत्यम्‌ू--पृथ्वी के ऊपर शासन; न--नहीं; योग-सिद्धी:--योग की सिद्धियाँ; अपुन:-भवम्‌--पुनर्जन्म सेछुटकारा; वा--अथवा; वाउ्छन्ति--इच्छा करते हैं; यत्‌--जिसके; पाद--चरणकमलों की; रज:-- धूल; प्रपन्ना:--जिन्‍्होंनेप्राप्त कर ली है।

    जिन्होंने आपके चरणकमलों की धूल प्राप्त कर ली है वे न तो स्वर्ग का राज्य, न असीमवर्चस्व, न ब्रह्मा का पद, न ही पृथ्वी का साम्राज्य चाहते हैं।

    उन्हें योग की सिद्ध्रियों अथवा मोक्षतक में कोई रुचि नहीं रहती।

    तदेष नाथाप दुरापमन्यै-स्तमोजनिः क्रोधवशोप्यहीशः ।

    संसारचक्रे भ्रमतः शरीरिणोयदिच्छत: स्याद्विभवः समक्ष: ॥

    ३८ ॥

    तत्‌--वह; एषः--यह कालिय; नाथ--हे प्रभु; आप--प्राप्त कर चुका है; दुरापमू--दुष्प्राप्प; अन्यैः --अन्यों के द्वारा; तमः-जनि:--तमोगुण में उत्पन्न; क्रोध-वश: --क्रोध के वशीभूत; अपि-- भी; अहि-ईशः --सर्पराज; संसार-चक्रे --संसार के चक्करमें; भ्रमत:--घूमता हुआ; शरीरिण: --जीवधारियों के लिए; यत्‌--जिससे ( चरणों की धूल से ); इच्छत:--भौतिक इच्छाओंवाला; स्थातू--प्रकट करता है; विभव:--सारे ऐश्वर्य; समक्ष:ः--अपने सामने |

    हे प्रभु, यद्यपि इस सर्पराज कालिय का जन्म तमोगुण में हुआ है और यह क्रोध के वशीभूत है किन्तु इसने अन्यों के लिए जो दुष्प्राप्य है उसे भी प्राप्त कर लिया है।

    इच्छाओं से पूर्ण होकरजन्म-मृत्यु के चक्कर में भ्रमण करनेवाले देहधारी जीव आपके चरणकमलों की धूल प्राप्त करनेसे ही अपने समक्ष सारे आशीर्वादों को प्रकट होते देख सकते हैं।

    नमस्तुभ्यं भगवते पुरुषाय महात्मने ।

    भूतावासाय भूताय पराय परमात्मने ॥

    ३९॥

    नमः--नमस्कार; तुभ्यम्‌ू--आपको; भगवते-- भगवान्‌; पुरुषाय--परमात्मा रूप में भीतर उपस्थित; महा-आत्मने--सर्वव्यापी;भूत-आवासाय--भौतिक तत्त्वों ( क्षिति, जल, पावक इत्यादि ) के आश्रय रूप; भूताय--सृष्टि के भी पूर्व से विद्यमान;'पराय--परम कारण को; परम-आत्मने-- भौतिक कारणों से परे।

    हे भगवन्‌, हम आपको सादर नमस्कार करती हैं।

    यद्यपि आप सभी जीवों के हृदयों मेंपरमात्मा रूप में स्थित हैं, तो भी आप सर्वव्यापक हैं।

    यद्यपि आप सभी उत्पन्न भौतिक तत्त्वों केआदि आश्रय हैं किन्तु आप उनके सृजन के पूर्व से विद्यमान हैं।

    यद्यपि आप हर वस्तु के कारणहैं किन्तु परमात्मा होने से आप भौतिक कार्य-कारण से परे हैं।

    ज्ञानविज्ञाननीधये ब्रह्मणेउनन्तशक्तये ।

    अगुणायाविकाराय नमस्ते प्राकृताय च ॥

    ४०॥

    ज्ञान--चेतना; विज्ञान--तथा आध्यात्मिक शक्ति के; निधये--सागर का; ब्रह्मणे -- परब्रह्म को; अनन्त-शक्तये -- असीमशक्तिमान को; अगुणाय--द्रव्य के गुणों से न प्रभावित होनेवाले को; अविकाराय-- भौतिक विकार न होनेवाले को; नम:--नमस्कार; ते--आपको; प्राकृताय--प्रकृति के आदि संचालक; च--तथा।

    हे परम सत्य, हम आपको नमस्कार करती हैं।

    आप समस्त दिव्य चेतना एवं शक्ति केआगार हैं और अनन्त शक्तियों के स्वामी हैं।

    यद्यपि आप भौतिक गुणों एवं विकारों से पूर्णतयामुक्त हैं किन्तु आप भौतिक प्रकृति के आदि संचालक हैं।

    कालाय कालनाभाय 'कालावयवसाक्षिणे ॥

    विश्वाय तदुपद्रष्टे तत्कत्रें विश्वेवतवे ॥

    ४१॥

    कालाय--काल को; काल-नाभाय--काल के आश्रय को; काल-अवयव--काल की विभिन्न अवस्थाओं के; साक्षिणे--गवाह को; विश्वाय--विश्व रूप को; तदू-उपद्रष्ट--इसके प्रेक्षक को; तत्‌-कर्त्रे--इसके स्त्रष्टा को; विश्व--विश्व के; हेतवे--सम्पूर्ण कारण को |

    हम आपको नमस्कार करती हैं।

    आप साक्षात्‌ काल, काल के आश्रय तथा काल कीविभिन्न अवस्थाओं के साक्षी हैं।

    आप ब्रह्माण्ड हैं और इसके पृथक्‌ द्रष्टा भी हैं।

    आप इसकेस्त्रष्टा हैं और इसके समस्त कारणों के कारण हैं।

    भूतमात्रेन्द्रियप्राणमनोबुद्धयाशयात्मने ।

    त्रिगुणेनाभिमानेन गूढस्वात्मानुभूतये ॥

    ४२॥

    नमोनन्ताय सूक्ष्माय कूटस्थाय विपश्चिते ।

    नानावादानुरोधाय वाच्यवाचकशक्तये ॥

    ४३॥

    भूत--भौतिक तत्त्वों के; मात्र--अनुभूति के सूक्ष्म आधार; इन्द्रिय--इन्द्रियों; प्राण--प्राणवायु; मन: --मन; बुद्धि--बुद्धि;आशय--तथा भौतिक चेतना के; आत्मने--परमात्मा में; त्रि-गुणेन--तीन गुणों से; अभिमानेन--झूठी पहचान से; गूढ--आच्छन्न; स्व--निज; आत्म--अपनी; अनुभूतये-- अनुभूति को; नम:--नमस्कार; अनन्ताय--अनन्त भगवान्‌ को; सूक्ष्माय--अत्यन्त सूक्ष्म को; कूट-स्थाय--केन्द्र में स्थिर; विपश्चिते--सर्वज्ञ को; नाना--विविध; वाद--दर्शन के; अनुरोधाय--स्वीकृतिप्रदाता को; वाच्य--व्यक्त विचारों के; वाचक--तथा व्यक्त शब्द; शक्तये--शक्तिमान को |

    आप भौतिक तत्त्वों के, अनुभूति के सूक्ष्म आधार के, इन्द्रियों के, प्राणवायु के तथा मन,बुद्धि एवं चेतना के परमात्मा हैं।

    हम आपको नमस्कार करती हैं।

    आपकी ही व्यवस्था के'फलस्वरूप सूक्ष्मतम चिन्मय आत्माएँ प्रकृति के तीनों गुणों के रूप में अपनी झूठी पहचानबनाती हैं फलस्वरूप उनकी स्व की अनुभूति प्रच्छन्न हो जाती है।

    हे अनन्त भगवान्‌, हे परमसूक्ष्म एवं सर्वज्ञ भगवान्‌, हम आपको प्रणाम करती हैं, जो सदैव स्थायी दिव्यता में विद्यमानरहते हैं, विभिन्न वादों के विरोधी विचारों को स्वीकृति देते हैं और व्यक्त विचारों तथा उनकोव्यक्त करनेवाले शब्दों को प्रोत्साहन देने वाली शक्ति हैं।

    नमः प्रमाणमूलाय कवसये शास्त्रयोनये ।

    प्रवृत्ताय निवृत्ताय निगमाय नमो नम: ॥

    ४४॥

    नमः--नमस्कार; प्रमाण--आधिकारिक साक्ष्य के; मूलाय--आधार को; कवये--लेखक को; शास्त्र--शास्त्र के; योनये--स्रोत को; प्रवृत्ताय--इन्द्रिय तृप्ति के लिए प्रोत्साहित करनेवाले को; निवृत्ताय--त्याग के प्रति प्रोत्साहित करनेवाले को;निगमाय--दोनों प्रकार के शास्त्रों के उदूगम को; नमः नम:--बारम्बार नमस्कार।

    समस्त प्रमाणों के आधार, शास्त्रों के प्रणेता तथा परम स्त्रोत, इन्द्रिय तृप्ति को प्रोत्साहितकरनेवाले ( प्रवृत्ति मार्ग ) तथा भौतिक जगत से विराग उत्पन्न करनेवाले वैदिक साहित्य में अपनेको प्रकट करनेवाले आपको हम बारम्बार नमस्कार करती हैं।

    नमः कृष्णाय रामाय वसुदेवसुताय च।

    प्रद्युम्नायानिरुद्धाय सात्वतां पतये नम: ॥

    ४५॥

    नमः--नमस्कार; कृष्णाय-- भगवान्‌ कृष्ण को; रामाय-- भगवान्‌ राम को; वसुदेव-सुताय--वसुदेव के पुत्र; च--तथा;प्रद्युम्गाय-- भगवान्‌ प्रद्युम्म को; अनिरुद्धाय--अनिरुद्ध को; सात्वताम्‌--भक्तों के; पतये--स्वामी को; नमः--नमस्कार |

    हम वसुदेव के पुत्र, भगवान्‌ कृष्ण तथा भगवान्‌ राम को और भगवान्‌ प्रद्युम्न तथा भगवान्‌अनिरुद्ध को सादर नमस्कार करती हैं।

    हम विष्णु के समस्त सन्त सदृश भक्तों के स्वामी कोसादर नमस्कार करती हैं।

    नमो गुणप्रदीपाय गुणात्मच्छादनाय च ।

    गुणवृच्त्युपलक्ष्याय गुणद्रष्ट स्वसंविदे ॥

    ४६॥

    नमः--नमस्कार; गुण-प्रदीपाय--विभिन्न गुणों को प्रकट करनेवाले को; गुण--भौतिक गुणों से; आत्म--स्वयं; छादनाय--वेश बदलनेवाले को; च--तथा; गुण--गुणों के; वृत्ति--कार्य करने से; उपलक्ष्याय--सुनिश्चित किये जा सकने वाले को;गुण-द्रष्ट--गुणों के पृथक्‌ साक्षी को; स्व--अपने भक्तों को; संविदे--ज्ञात नाना प्रकार के भौतिक तथा आध्यात्मिक गुणों को प्रकट करनेवाले

    हे भगवन्‌, आपकोहमारा नमस्कार।

    आप अपने को भौतिक गुणों से छिपा लेते हैं किन्तु अन्ततः उन्हीं भौतिक गुणोंके अन्तर्गत हो रहे कार्य आपके अस्तित्व को प्रकट कर देते हैं।

    आप साक्षी रूप में भौतिक गुणोंसे पृथक्‌ रहते हैं और एकमात्र अपने भक्तों द्वारा भलीभाँति ज्ेय हैं।

    जव्लाशशनन, पशण पा ऑिशरिणणा हह्ट्ण के फशनारीत पिन नरित हशणशण हिशाणों राय पट पशशणोशिशरण फषशालाएए पहेटीशर अव्याकृतविहाराय सर्वव्याकृतसिद्धये ।

    हृषीकेश नमस्तेस्तु मुनये मौनशीलिने ॥

    ४७॥

    अव्याकृत-विहाराय-- अगाध महिमा वाले; सर्व-व्याकृत--सभी वस्तुओं के सृजन तथा प्राकट्य; सिद्धये--अस्तित्व वाले को;हृषीक-ईश--हे इन्द्रियों के प्रेरक; नमः--नमस्कार; ते--आपको; अस्तु--होए; मुनये--मौन रहनेवाले को; मौन-शीलिने--मौन अवस्था में ही कर्म करनेवाले को।

    हे इन्द्रियों के स्वामी, हषीकेश, हम आपको नमस्कार करती हैं क्योंकि आपकी लीलाएँअच्न्त्य रूप से महिमामयी हैं।

    आपके अस्तित्व को समस्त दृश्य जगत के लिए स्त्रष्टा तथाप्रकाशक की आवश्यकता से समझा जा सकता है।

    यद्यपि आपके भक्त आपको इस रूप मेंसमझ सकते हैं किन्तु अभक्तों के लिए आप आत्मलीन रह कर मौन बने रहते हैं।

    परावरगतिज्ञाय सर्वाध्यक्षाय ते नमः ।

    अविश्वाय च विश्वाय तद्द्रष्टेडस्यथ च हेतवे ॥

    ४८॥

    'पर-अवर--उत्तम तथा निष्कृष्ट दोनों ही तरह की वस्तुओं के; गति--गन्तव्य; ज्ञाय--जाननेवाले को; सर्व--सभी वस्तुओं के;अध्यक्षाय--नियन्ता को; ते--आपको; नमः--हमारा नमस्कार; अविश्वाय--ब्रह्माण्ड से पृथक्‌ रहनेवाले को; च--तथा;विश्वाय--भौतिक जगत की माया प्रकट करनेवाले को; ततू-द्रष्टे--ऐसी माया के साक्षी को; अस्य--इस जगत के; च--तथा;हेतवे--मूल कारण को |

    उत्तम तथा अधम समस्त वस्तुओं के गन्तव्य को जाननेवाले तथा समस्त जगत के अध्यक्षनियन्ता आपको हमारा नमस्कार।

    आप इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि से पृथक्‌ हैं फिर भी आप वहमूलाधार हैं जिस पर भौतिक सृष्टि की माया का विकास होता है।

    आप इस माया के साक्षी भीहैं।

    निस्सन्देह आप अखिल जगत के मूल कारण हैं।

    त्वं हास्य जन्मस्थितिसंयमान्विभोगुणैरनीहोकृतकालशक्तिधृक्‌ ।

    तत्तत्स्वभावान्प्रतिबोधयन्सतःसमीक्षयामोघविहार ईहसे ॥

    ४९॥

    त्वमू--आप; हि--निस्सन्देह; अस्य--इस ब्रह्माण्ड के; जन्म-स्थिति-संयमान्‌--सृजन, पालन तथा संहार; विभो--हेसर्वशक्तिमान; गुणैः--प्रकृति के गुणों द्वारा; अनीह:--किसी भी भौतिक प्रयास में निहित न होते हुए भी; अकृत--अनादि;काल-शक्ति--काल की शक्ति के; धृक्‌ --धारण करनेवाले; तत्‌-तत्‌-प्रत्येक गुण के; स्व-भावानू--लक्षणों को;प्रतिबोधयन्‌--जाग्रत करते हुए; सतः--सुप्त अवस्था में रह रहे; समीक्षया--अपनी चितवन से; अमोघ-विहार:--अमोघक्रीड़ाओं वाले; ईहसे--आप कर्म करते हैं।

    हे सर्वशक्तिमान प्रभु, यद्यपि आपके भौतिक कर्म में फँसने का कोई कारण नहीं है, फिरभी आप इस ब्रह्माण्ड के सृजन, पालन तथा संहार की व्यवस्था करने के लिए अपनी शाश्वतकालशक्ति के माध्यम से कर्म करते हैं।

    इसे आप सृजन के पूर्व सुप्त पड़े प्रकृति के प्रत्येक गुणके विशिष्ट कार्य को जाग्रत करते हुए सम्पन्न करते हैं।

    ब्रह्माण्ड-नियंत्रण के इन सारे कार्यों कोआप खेल खेल में केवल अपनी चितवन से पूर्णतया सम्पन्न कर देते हैं।

    तस्यैव तेमूस्तनवस्त्रिलोक्यांशान्ता अशान्ता उत मूढयोनय: ।

    शान्ताः प्रियास्ते ह्ाधुनावितुं सतांस्थातुश् ते धर्मपरीप्सयेहत: ॥

    ५०॥

    तस्थ--उनका; एब--निस्सन्देह; ते--आपका; अमू: --ये; तनवः -- भौतिक शरीर; त्रि-लोक्याम्‌--तीनों लोकों में; शान्ता: --शान्त ( सतोगुण में ); अशान्ता:--अशान्त ( रजोगुण में ); उत--और भी; मूढ-योनय: --अज्ञानी योनियों में उत्पन्न; शान्ता: --सतोगुणी शान्त व्यक्ति; प्रिया: --प्रिय; ते--आपको; हि--निश्चय ही; अधुना--अब; अवितुम्‌ू--रक्षा करने के लिए; सताम्‌--साधु भक्तों की; स्थातु:--उपस्थित; च--तथा; ते-- आपके ; धर्म--धर्म के सिद्धान्त; परीप्सया--पालन करने की इच्छा से;ईंहतः--कार्य करनेवाला।

    इसलिए तीनों लोकों भर में सारे भौतिक शरीर--जो सतोगुणी होने के कारण शान्त हैं, जोरजोगुणी होने से विश्लुब्ध हैं तथा जो तमोगुणी होने से मूर्ख हैं--आपकी ही सृष्टियाँ हैं।

    तो भीजिनके शरीर सतोगुणी हैं, वे आपको विशेष रूप से प्रिय हैं और उन्हीं के पालन हेतु तथा उन्हींके धर्म की रक्षा करने के लिए ही अब आप इस पृथ्वी पर विद्यमान हैं।

    अपराध: सकृद्धतत्रा सोढव्य: स्वप्रजाकृतः ।

    क्षन्तुमहसि शान्तात्मन्मूढस्य त्वामजानत: ॥

    ५१॥

    अपराध: --अपराध; सकृत्‌--एक बार; भर्त्रा--स्वामी द्वारा; सोढव्य:--सहन किया जाना चाहिए; स्व-प्रजा--आपकी प्रजाद्वारा; कृतः:--किया गया; क्षन्तुमू-सहने के लिए; अहंसि--आपको शोभा देता है; शान्त-आत्मन्‌--हे शान्त रहनेवाले;मूढस्य--मूर्ख के; त्वामू-- आपको; अजानत:--न समझने वाला।

    स्वामी को चाहिए कि अपनी सनन्‍्तान या प्रजा द्वारा किये गये अपराध को कम से कम एकबार तो सह ले।

    इसलिए हे परम शान्त आत्मन्‌ू, आप हमारे इस मूर्ख पति को क्षमा कर दें जो यहनहीं समझ पाया कि आप कौन हैं।

    अनुगृह्लीष्व भगवन्प्राणांस्त्यजति पन्नग: ।

    स्त्रीणां न: साधुशोच्यानां पति: प्राण: प्रदीयताम्‌ ॥

    ५२॥

    अनुगृह्लीष्व--कृपा करें; भगवन्‌--हे भगवान्‌; प्राणान्‌ू-- प्राणों को; त्यजति--त्याग रहा है; पन्नग:--सर्प; स्त्रीणाम्‌--स्त्रियों केलिए; न:--हम; साधु-शोच्यानाम्‌--साथु पुरुषों द्वारा क्षम्य; पति:--पति; प्राण:--जीवन स्वरूप; प्रदीयताम्‌--वापस दे दियाजाय।

    हे भगवन्‌, आप हम पर कृपालु हों।

    साधु पुरुष को हम-जैसी स्त्रियों पर दया करना उचितहै।

    यह सर्प अपना प्राण त्यागने ही वाला है।

    कृपया हमारे जीवन तथा आत्मा रूप हमारे पति कोहमें वापस कर दें।

    विधेहि ते किड्डूरीणामनुष्ठेयं तवाज्ञया ।

    यच्छुद्धयानुतिष्ठ न्वै मुच्यते सर्वती भयात्‌ ॥

    ५३॥

    विधेहि--आज्ञा दें; ते--आपकी; किड्जरीणाम्‌--दासियों द्वारा; अनुष्टेयम्‌ू--जो किया जाना हो; तब--आपकी; आज्ञया--आज्ञा से; यत्‌ू--जो; श्रद्धया-- श्रद्धापूर्वक; अनुतिष्ठन्‌-- सम्पन्न करते हुए; बै--निश्चय ही; मुच्यते--मुक्त हुआ जा सके;सर्वतः--सभी; भयात्‌-- भय से |

    अब कृपा करके अपनी दासियों को बतलायें कि हम क्या करें।

    यह निश्चित है कि जो भीआपकी आज्ञा को श्रद्धापूर्वक पूरा करता है, वह स्वतः सारे भय से मुक्त हो जाता है।

    श्रीशुक उबाचइत्थं स नागपत्नीभिर्भगवान्समभिष्ठृत: ।

    मूर्च्छितं भग्नशिरसं विससर्जाड्प्रिकुड्डने: ॥

    ५४॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इत्थम्‌--इस तरह; सः--उन भगवान्‌ कृष्ण ने; नाग-पलीभि:--कालिय कीपत्नियों द्वारा; भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; समभिष्ठुत:--पूरी तरह से प्रशंसित; मूर्च्छितम्‌--मूर्च्छित, बेहोश; भग्न-शिरसम्‌--कुचलेहुए सिरवाले; विससर्ज--जाने दिया; अड्प्रि-कुट्टनेः--पाँवों के प्रहार से

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस तरह नागपत्ियों द्वारा प्रशंसित भगवान्‌ ने उस कालिय सर्पको छोड़ दिया, जो मूछित होकर गिर चुका था और जिसके सिर भगवान्‌ के चरणकमलों केप्रहार से क्षत-विक्षत हो चुके थे।

    प्रतिलब्धेन्द्रियप्राण: कालिय: शनकै्रिम्‌ ।

    कृच्छात्समुच्छुसन्दीनः कृष्णं प्राह कृताझ्ललि: ॥

    ५५॥

    प्रतिलब्ध--पुन: प्राप्त करके ; इन्द्रिय--इन्द्रियों का कार्य; प्राण:--तथा अपनी जीवनी शक्ति; कालिय:--कालिय; शनकै: --धीरे धीरे; हरिमू-- भगवान्‌; कृच्छात्‌--कठिनाई से; समुच्छुसन्‌--तेजी से साँस लेता; दीन:--दुखी; कृष्णम्‌--कृष्ण से;प्राह--बोला; कृत-अद्धलि: --विनीत होकर ।

    धीरे धीरे कालिय को अपनी जीवनी शक्ति तथा इन्द्रियों की क्रियाशीलता प्राप्त हो गई ।

    तबकष्टपूर्वक जोर-जोर से साँस लेते हुए बेचारे सर्प ने विनीत भाव से भगवान्‌ श्रीकृष्ण कोसम्बोधित किया।

    'कालिय उवाचवयं खलाः सहोत्पत्त्या तमसा दीर्घमन्यव: ।

    स्वभावो दुस्त्यजो नाथ लोकानां यदसदूग्रह: ॥

    ५६॥

    'कालिय: उवाच--कालिय ने कहा; वयम्‌--हम; खला: --दुष्ट; सह उत्पत्त्या--अपने जन्म से ही; तामसा: --तामसी प्रकृति के;दीर्घ-मन्यव:ः--निरन्तर क्रुद्ध; स्वभाव:ः--स्वभाव; दुस्त्यज:--जिसे छोड़ पाना अत्यन्त कठिन है; नाथ--हे स्वामी;लोकानाम्‌--सामान्य जनों के लिए; यत्‌--जिससे; असत्‌--असत्य तथा अशुद्ध की; ग्रहः--स्वीकृति |

    कालिय नाग ने कहा : सर्प के रूप में जन्म से ही हम ईर्ष्यालु, अज्ञानी तथा निरन्तर क्रुद्धबने हुए हैं।

    हे नाथ, मनुष्यों के लिए अपना बद्ध स्वभाव, जिससे वे असत्य से अपनी पहचानकरते हैं, छोड़ पाना अत्यन्त कठिन है।

    त्वया सृष्टमिदं विश्व धातर्गुणविसर्जनम्‌ ।

    नानास्वभाववीयौंजोयोनिबीजाशयाकृति ॥

    ५७॥

    त्ववा--आपके द्वारा; सृष्टम्‌--उत्पन्न; इदम्‌--यह; विश्वम्‌--ब्रह्माण्ड; धातः--हे विधाता; गुण-- भौतिक गुणों की;विसर्जनम्‌ू--विविध सृष्टि; नाना--विविध; स्व-भाव--स्वभाव; वीर्य--नाना प्रकार की शक्ति; ओज:--तथा शारीरिक शक्ति;योनि--गर्भ; बीज--बीज; आशय--मनोवृत्ति; आकृति--तथा रूप |

    हे परम विधाता, आप ही भौतिक गुणों की विविध व्यवस्था से निर्मित इस ब्रह्माण्ड केबनाने वाले हैं।

    इस प्रक्रिया में आप नाना प्रकार के व्यक्तित्व तथा योनियाँ, नाना प्रकार कीऐन्द्रिय तथा शारीरिक शक्तियाँ तथा भाँति भाँति की मनोवृत्तियों एवं आकृतियों वाले माता-पिताओं को प्रकट करते हैं।

    बयं च तत्र भगवस्सर्पा जात्युरुमन्यवः ।

    कथं त्यजामस्त्वन्मायां दुस्‍्त्यजां मोहिता: स्वयम्‌ ॥

    ५८ ॥

    वयम्‌--हम; च--तथा; तत्र--उस भौतिक सृष्टि के भीतर; भगवन्‌--हे भगवन्‌; सर्पा:--सर्पगण; जाति--जाति, योनि; उरु-मन्यवः--अत्यन्त क्रोधी; कथम्‌--कैसे; त्यजाम: --हम त्याग सकते हैं; त्वत्‌-मायामू--आपकी मायाशक्ति को; दुस्त्यजाम्‌--जिसे त्याग पाना असम्भव है; मोहिताः--मोहित; स्वयम्‌--अपने आप।

    हे भगवन्‌, आपकी भौतिक सृष्टि में जितनी भी योनियाँ हैं उनमें से हम सर्पगण स्वभाव सेसदैव क्रोधी हैं।

    इस तरह आपकी दुस्त्यज मायाशक्ति से मुग्ध होकर भला हम उस स्वभाव कोअपने आप कैसे त्याग सकते हैं ?

    भवानिह कारण तत्र सर्वज्ञो जगदीश्वर: ।

    अनुग्रहं निग्रह वा मन्यसे तद्ठविधेहि नः ॥

    ५९॥

    भवान्‌ू--आप; हि--निश्चय ही; कारणम्‌--कारण; तत्र--उस मामले में ( मोह हटाने में ); सर्व-ज्ञ:--सबकुछ जाननेवाले;जगतू-ईश्वर:--ब्रह्माण्ड के परम नियन्ता; अनुग्रहमू--कृपा; निग्रहम्‌--दंड; वा--अथवा; मन्यसे--जो आप उचित समझें;तत्‌--वह; विधेहि-- व्यवस्था करें; नः--हमारे लिए

    हे ईश्वर, ब्रह्माण्ड के सर्वज्ञ भगवान्‌ होने के कारण आप मोह से छूटने के वास्तविक कारणहैं।

    कृपा करके आप जो भी उचित समझें, हमारे लिए व्यवस्था करें, चाहे हम पर कृपा करें यादण्ड दें।

    श्रीशुक उबाचइत्याकर्ण्य बच: प्राह भगवान्कार्यमानुष: ।

    नात्र स्थेयं त्वया सर्प समुद्रं याहि मा चिरम्‌ ।

    स्वज्ञात्यपत्यदाराढ्यो गोनृभिर्भुज्यते नदी ॥

    ६०॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; आकर्ण्य--सुनकर; वच:--ये शब्द; प्राह--तब बोले;भगवानू्‌-- भगवान्‌; कार्य-मानुष:--मनुष्य जैसे कार्य करनेवाले; न--नहीं; अत्र--यहाँ; स्थेयम्‌--ठहरना चाहिए; त्ववा--तुमको; सर्प--हे सर्प; समुद्रमू--समुद्र में; याहि-- जाओ; मा चिरम्‌--बिना देरी किये; स्व--अपने; ज्ञाति--साथियों के द्वारा;अपत्य--बच्चे; दार--तथा पत्नी को; आढ्य:--साथ लेकर; गो--गौवों के द्वारा; नृभि:--तथा मनुष्यों द्वारा; भुज्यते-- भोगीजाने दो; नदी--यमुना नदी

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : कालिय के शब्द सुनकर मनुष्य की भूमिका सम्पन्न कर रहेभगवान्‌ ने उत्तर दिया: हे सर्प, अब तुम और अधिक यहाँ मत रूको।

    तुरन्त ही अपने बच्चों,पत्नियों, अन्य मित्रों तथा सम्बन्धियों समेत समुद्र में लौट जाओ।

    अब इस नदी को गौवों तथामनुष्यों द्वारा भोगी जाने दो।

    य एतत्संस्मरेन्मर्त्यस्तुभ्यं मदनुशासनम्‌ ।

    कीर्तयन्नुभयो: सन्ध्योर्न युष्मद्भयमाष्नुयात्‌ ॥

    ६१॥

    यः--जो कोई; एतत्‌--इसे; संस्मरेत्‌--स्मरण करता है; मर्त्य:--प्राणी; तुभ्यम्‌ू--तुमको; मत्‌--मेरा; अनुशासनम्‌ू-- आदेश;कीर्तयन्‌--कीर्तन करते हुए; उभयो:--दोनों ; सन्ध्यो;:--दिन के सन्धिकालों पर; न--नहीं; युष्मत्‌--तुमसे; भयम्‌-- भय;आज्ुयात्‌--प्राप्त करता है।

    यदि कोई व्यक्ति तुम्हें दिये गये मेरे इस आदेश का ( वृन्दावन छोड़कर समुद्र में जाने का )स्मरण करता है और प्रातः तथा संध्या समय इस कथा को बाँचता है, तो वह तुमसे कभीभयभीत नहीं होगा।

    योउस्मिन्सनात्वा मदाक्रीडे देवादींस्तर्पयेजलै: ।

    उपोष्य मां स्मरत्नर्चेत्सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥

    ६२॥

    यः--जो; अस्मिन्‌ू--इस में ( यमुना नदी के कालिय सरोवर में ); स्नात्वा--स्नान करके; मत्‌-आक्रीडे--मेरी लीला के स्थानपर; देव-आदीनू--देवतागण तथा अन्य पूज्य व्यक्ति को; तर्पयेत्‌--तृप्त करता है; जलैः--( सरोवर के ) जल से; उपोष्य--उपवास रखकर; माम्‌--मुझको; स्मरन्‌--स्मरण करते हुए; अर्चेत्‌ू--पूजा करता है; सर्व-पापै: --सारे पापों से; प्रमुच्यते--छूटजाता है।

    यदि कोई व्यक्ति मेरी क्रीड़ा के इस स्थल पर स्नान करता है और इस सरोवर का जलदेवताओं तथा अन्य पूज्य पुरुषों को अर्पित करता है अथवा यदि कोई उपवास करता है, मेरीपूजा करता है और मेरा स्मरण करता है, तो वह समस्त पापों से अवश्य छूट जाएगा।

    द्वीपं रमणकं हित्वा हृदमेतमुपाअ्रितः ।

    यद्भयात्स सुपर्णस्त्वां नाद्यान्मत्पादलाज्छितम्‌ ॥

    ६३॥

    द्वीपम्‌ू--द्वीप को; रमणकम्‌--रमणक नामक; हित्वा--त्यागकर; हृदम्‌--छोटे सरोवर को; एतम्‌--इस; उपाध्रित:--शरणलिए हुए; यत्‌--जिसके; भयात्‌-- भय से; सः--वह; सुपर्ण:--गरुड़; त्वाम्‌-तुम्हें; न अद्यात्‌--नहीं खायेगा; मत्‌-पाद--मेरेचरणों से; लाउ्छितम्‌--अंकित |

    तुम गरुड़ के भय से रमणक द्वीप छोड़कर इस सरोवर में शरण लेने आये थे।

    किन्तु अबतुम्हारे ऊपर मेरे चरणचिन्ह अंकित होने से, गरुड़ तुम्हें खाने का प्रयास कभी नहीं करेगा।

    श्रीऋषिरुवाचमुक्तो भगवता राजन्कृष्णेनाद्भधुतकर्मणा ।

    तं पूजयामास मुदा नागपत्यश्व सादरम्‌ ॥

    ६४॥

    श्री-ऋषि: उवाच--ऋषि ( शुकदेव ) ने कहा; मुक्त:--मुक्त; भगवता-- भगवान्‌ द्वारा; राजन्‌--हे राजा परीक्षित; कृष्णेन--कृष्ण के द्वारा; अद्भुत-कर्मणा--अद्भुत कार्यकलाप वाले; तम्‌--उनकी; पूजयाम्‌ आस--पूजा की; मुदा--हर्षपूर्वक; नाग--सर्प की; पत्य:--पत्नियों ने; च--तथा; स-आदरम्‌--आदरपूर्वक ।

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : हे राजन, अद्भुत कार्यकलाप वाले भगवान्‌ कृष्ण के द्वारा छोड़े जाने पर कालिय नाग ने अपनी पत्नियों का बड़े ही हर्ष तथा आदर के साथ उनकीपूजा करने में साथ दिया।

    दिव्याम्बरसत्रड्मणिभि: परारध्यैरपि भूषणै: ।

    दिव्यगन्धानुलेपैश्व महत्योत्पलमालया ।

    'पूजयित्वा जगन्नाथं प्रसाद्य गरूडध्वजम्‌ ॥

    ६५॥

    ततः प्रीतोभ्यनुज्ञात: परिक्रम्याभिवन्द्य तम्‌ ।

    सकलत्सुहत्पुत्रो द्वीपमब्धेजगाम ह ॥

    ६६॥

    तदेव सामृतजला यमुना निर्विषाभवत्‌ ।

    अनुग्रहाद्धगवत: क्रीडामानुषरूपिण: ॥

    ६७॥

    दिव्य--दैवी; अम्बर--वस्त्र; स्रक्‌ू--माला; मणिभि:--तथा मणियों से; पर-अर्ध्यैं:--अत्यन्त मूल्यवान; अपि-- भी;भूषणै:--आभूषणों से; दिव्य--दैवी; गन्ध--सुगन्धि; अनुलेपै:--तथा लेप से; च--तथा; महत्या--सुन्दर; उत्पल--कमलकी; मालया--माला से; पूजयित्वा--पूजकर; जगत्‌-नाथम्‌--जगत के स्वामी को; प्रसाद्य--तुष्ट करके; गरुड-ध्वजम्‌--जिसकी ध्वजा में गरुड़ चिह्न अंकित है, उसे; तत:--तब; प्रीत:--सुख का अनुभव करते हुए; अभ्यनुज्ञात:--जाने की अनुमतिदिया जाकर; परिक्रम्य--परिक्रमा करके; अभिवन्द्य--नमस्कार करके; तम्‌--उन्हें; स--सहित; कलत्र--अपनी पत्नी;सुहत्‌--मित्रगण; पुत्र:--तथा बच्चे; द्वीपम्‌--द्वीप को; अब्धे:--समुद्र में; जगाम--चला गया; ह--निस्सन्देह; तदा एबव--उसीक्षण; स-अमृत--अमृत तुल्य; जला--जल वाली; यमुना--यमुना नदी; निर्विषा--विष से रहित; अभवत्‌--हो गई;अनुग्रहात्‌ू--कृपा से; भगवत:--भगवान्‌ की; क्रीडा--क्रीड़ाओं के लिए; मानुष--मनुष्य जैसा; रूपिण:--रूप धारण करके |

    कालिय ने सुन्दर वस्त्र, मालाएँ, मणियाँ तथा अन्य मूल्यवान आभूषण, दिव्य सुगन्धियाँतथा लेप और कमलफूलों की बड़ी माला भेंट करते हुए जगत के स्वामी की पूजा की।

    इस तरहगरुड़-ध्वज भगवान्‌ को प्रसन्न करके कालिय को सनन्‍्तोष हुआ।

    जाने की अनुमति पाकरकालिय ने उनकी परिक्रमा की और उन्हें नमस्कार किया।

    तब अपनी पत्रियों, मित्रों तथा बच्चोंको साथ लेकर वह समुद्र में स्थित अपने द्वीप चला गया।

    कालिय के जाते ही यमुना नदी अपने मूल रूप में, विष से विहीन तथा अमृतोपम जल से पूर्ण हो गईं।

    यह सब उन भगवान्‌ की कृपासे सम्पन्न हुआ जो अपनी लीलाओं का आनन्द मनाने के लिए मनुष्य के रूप में प्रकट हुए थे।

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    अध्याय सत्रह: कालिया का इतिहास

    10.17श्रीराजोबवाचनागालयं रमणकं कथं तत्याज कालियः ।

    कृतं कि वा सुपर्णस्यतेनेकेनासमझ्जसम्‌ ॥

    १॥

    श्री-राजा उवाच--राजा ने कहा; नाग--सर्पों का; आलयम्‌--वासस्थान; रमणकम्‌--रमणक नामक द्वीप; कथम्‌-्यों;तत्याज--त्याग दिया; कालिय: --कालिय ने; कृतम्‌ू--वाध्य किया गया; किम्‌ वा--तथा क्‍यों; सुपर्णस्य--गरुड़ की; तेन--उससे, कालिय से; एकेन--अकेले; असमझसमू--शत्रुता |

    [इस प्रकार कृष्ण ने कालिय की प्रताड़ना की उसे सुनकर राजा परीक्षित ने पूछा:कालिय ने सर्पों के निवास रमणक द्वीप को क्‍यों छोड़ा और गरुड़ उसीका से इतना विरोधी क्‍योंबन गया ?

    श्रीशुक उबाचउपहार्ये: सर्पजनैर्मासि मासीह यो बलि:वानस्पत्यो महाबाहो नागानां प्राइनिरूपित: ।

    स्वं स्वं भागं प्रयच्छन्ति नागा: पर्वणि पर्वणिगोपीथायात्मन: सर्वे सुपर्णाय महात्मने ॥

    २-३॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; उपहार्यैं:--भेंट पाने के पात्र; सर्प-जनैः --सर्प जाति के द्वारा; मासि मासि--हर महीने; इह--यहाँ ( नागालय में ); यः--जो; बलि:--भेंट; वानस्पत्य:--वृक्ष के नीचे; महा-बाहो--हे बलिष्ट भुजाओं वालेपरीक्षित; नागानाम्‌--सर्पों के लिए; प्राकु--पहले से; निरूपितः --निश्चित; स्वम्‌ स्वमू--अपना अपना; भागम्‌--अंश;प्रयच्छन्ति-- भेंट करते; नागा: --सर्पगण; पर्वणि पर्वणि--मास में एक बार; गोपीथाय--रक्षा हेतु; आत्मन:--अपनी अपनी;सर्वे--सभी; सुपर्णाय--गरुड़ को; महा-आत्मने--बलशाली |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : गरुड़ द्वारा खाये जाने से बचने के लिए सर्पों ने पहले से उससेयह समझौता कर रखा था कि उनमें से हर सर्प मास में एक बार अपनी भेंट लाकर वृक्ष के नीचेरख जाया करेगा।

    इस तरह हे महाबाहु परीक्षित, प्रत्येक मास हर सर्प अपनी रक्षा के मूल्य केरूप में विष्णु के शक्तिशाली वाहन को अपनी भेंट चड़ाया जाया करता था।

    विषवीर्यमदाविष्ट: काद्रवेयस्तु कालिय: ।

    कदर्थीकृत्य गरुडं स्वयं तं बुभुजे बलिम्‌ ॥

    ४॥

    विष--विष; वीर्य--तथा शक्ति के कारण; मद--नशे में; आविष्ट:--लीन; काद्रवेय:--कद्गु का पुत्र; तु--दूसरी ओर;कालिय:--कालिय; कदर्थी-कृत्य--अवहेलना करके; गरुडम्‌--गरुड़ की; स्वयम्‌--खुद; तम्‌--उस; बुभुजे--खाता था;बलिमू--भेंट को |

    यद्यपि अन्य सभी सर्पगण ईमानदारी से गरुड़ को भेंट दे जाया करते थे किन्तु एक सर्प,कद्रु-पुत्र अभिमानी कालिय, इन सभी भेंटों को गरुड़ के पाने से पहले ही खा जाया करता था।

    इस तरह कालिय भगवान्‌ विष्णु के वाहन का प्रत्यक्ष अनादर करता था।

    तच्छुत्वा कुपितो राजन्भगवान्भगवत्प्रियः ।

    विजिघांसुर्महावेग: कालियं समपाद्रवत्‌ ॥

    ५॥

    तत्‌--वह; श्रुत्वा--सुनकर; कुपित:--क्रुद्ध; राजनू--हे राजा; भगवान्‌--अत्यन्त शक्तिशाली गरुड़; भगवत्‌-प्रिय:-- भगवान्‌का प्रिय भक्त; विजिघांसु:--मारने की इच्छा से; महा-वेग: --फुर्ताी से; कालियमू--कालिय की ओर; समुपाद्रवत्‌-दौड़ा |

    हे राजन्‌ जब भगवान्‌ के अत्यन्त प्रिय, परम शक्तिशाली गरुड़ ने यह सुना तो वह क्रुद्ध होउठा।

    वह कालिय को मार डालने के लिए उसकी ओर तेजी से झपटा।

    तमापतन्तं तरसा विषायुधःप्रत्यभ्ययादुत्थितनैकमस्तक: ।

    दद्धिः सुपर्ण व्यदशदृदायुध:करालजिह्लोच्छुसितोग्रलोचन: ॥

    ६॥

    तमू--उसपर; आपतन्तमू--आक्रमण करता हुआ गरुड़; तरसा--तेजी से; विष--विषैले; आयुध:--हथियार लिये हुए; प्रति--की ओर; अभ्ययात्‌--दौड़ा; उत्थित--उठाया; न एक-- अनेक; मस्तक:-- अपने सिर; दर्द्िः--विषैले दाँतों से; सुपर्णम्‌--गरुड़ को; व्यदशत्‌--काट लिया; दत्‌-आयुध: --दाँतरूपी हथियारों से; कराल-- भयावनी; जिह्ला--जीभ; उच्छुसित--फैलादिया; उग्र--तथा भीषण; लोचन:--आँखें |

    ज्योंही गरुड़ तेजी से कालिय पर झपटा त्योंही विष के हथियार से लैस उसने वार करने केलिए अपने अनेक सिर उठा लिये।

    अपनी भयावनी जीभें दिखलाते और अपनी उग्र आँखें फैलातेहुए उसने अपने विष-दत्त हथियारों से गरुड़ को काट लिया।

    त॑ तार्च्यपुत्र: स निरस्य मन्युमान्‌प्रचण्डवेगो मधुसूदनासन: ।

    पक्षेण सव्येन हिरण्यरोचिषाजघान कद्गुसुतमुग्रविक्रम: ॥

    ७॥

    तम्‌--उस कालिय को; तार्क्ष्य-पुत्रः--कश्यप का पुत्र; सः--वह गरुड़; निरस्थ--झटककर; मन्यु-मान्‌--क्रोध से भरा;प्रचण्ड-वेग:--अत्यन्त तेजी से, गति करते हुए; मधुसूदन-आसन:--मधुसूदन कृष्ण का वाहन; पक्षेण--अपने पंख से;सव्येन--बाएँ; हिरण्य--स्वर्ण जैसे; रोचिषा--तेज वाले; जधान--वार किया; कब्रु-सुतम्‌--कद्गु-पुत्र ( कालिय ) पर; उग्र--प्रचणड; विक्रम:--पराक्रम |

    ताक्ष्य का क्रुद्ध पुत्र कालिय के वार को पीछे धकेलने के लिए प्रचंड वेग से आगे बढ़ा।

    उसअत्यन्त शक्तिशाली भगवान्‌ मधुसूदन के वाहन ने कद्गु के पुत्र पर अपने स्वर्ण जैसे चमकीलेबाएँ पंख से प्रहार किया।

    सुपर्णपक्षाभिहतः कालियोतीव विहल: ।

    हृदं विवेश कालिन्द्यास्तदगम्यं दुरासदम्‌ ॥

    ८॥

    सुपर्ण--सुपर्ण के; पक्ष--पंख से; अभिहतः--चोट खाकर; कालिय:--कालिय; अतीव--अत्यधिक; विह्॒ल:--बेचैन;हृदम्‌--सरोवर में; विवेश--घुस गया; कालिन्द्या:--यमुना नदी के; तत्‌-अगम्यम्‌-गरुड़ द्वारा थाह पा सकने में अक्षम;दुरासदम्‌-घुसने में कठिन ।

    गरुड़ के पंख की चोट खाने से कालिय अत्यधिक बेचैन हो उठा अतः उसने यमुना नदी केनिकटस्थ सरोवर में शरण ले ली।

    गरुड़ इस सरोवर में नहीं घुस सका।

    निस्सन्देह, वह वहाँ तकपहुँच भी नहीं सका।

    तत्रैकदा जलचरं गरुडो भक्ष्यमीप्सितम्‌ ।

    निवारितः सौभरिणा प्रसह्म क्षुधितोहरत्‌ ॥

    ९॥

    तत्र--वहाँ ( उस सरोवर में ); एकदा--एक बार; जल-चरम्‌--जल के प्राणी को; गरुड:--गरुड़ ने; भक्ष्यमू-- अपना खाद्य;ईप्सितम्‌--इच्छा की; निवारित:--मना किया गया; सौभरिणा--सौभर मुनि द्वारा; प्रसहा --साहस करके; श्षुधित:ः-- भूखा;अहरत्‌--खा लिया।

    उसी सरोवर में गरुड़ ने एक बार एक मछली को, जो कि उसका सामान्य भक्ष्य है, खानाचाहा।

    जल के भीतर ध्यानमग्न सौभरि मुनि के मना करने पर भी गरुड़ ने साहस किया औरभूखा होने के कारण उस मछली को पकड़ लिया।

    मीनान्सुदु:खितान्दृष्टा दीनान्‍्मीनपतौ हते ।

    कृपया सौभरि:ः प्राह तत्रत्यक्षेममाचरन्‌ ॥

    १०॥

    मीनान्‌--मछलियों को; सु-दुःखितान्‌-- अत्यन्त दुखी; इृष्ठा--देखकर; दीनानू--दीन; मीन-पतौ--मछलियों का राजा; हते--मारे जाने से; कृपया--कृपावश; सौभरि: --सौभरि; प्राह--बोला; तत्रत्य--वहाँ पर रह रहे; क्षेमम्‌ू--कुशलता; आचरनू--आचरण करते हुए।

    उस सरोवर की अभागिनी मछलियों को अपने स्वामी की मृत्यु के कारण अत्यन्त दुखीदेखकर सौभरि मुनि ने इस आशय से शाप दे दिया कि वे उस सरोवर के रहनेवालों के कल्याणहेतु कृपापूर्ण कर्म कर रहे हैं।

    अत्र प्रविश्य गरुडो यदि मत्स्यान्स खादति ।

    सद्यः प्राणैर्वियुज्येत सत्यमेतद्रवीम्यहम्‌ ॥

    ११॥

    अत्र--इस सरोवर में; प्रविश्य--घुसकर; गरुड:--गरुड़; यदि--यदि; मत्स्यान्‌ू--मछलियों को; सः--वह; खादति--खाता है;सद्यः--तुरन्त; प्राणैः--प्राणों से; वियुज्येत--हाथ धोना पड़ता; सत्यम्‌--सही सही; एतत्‌--यह; ब्रवीमि--कह रहा हूँ;अहमू-मैं |

    ’यदि गरुड़ ने फिर कभी इस सरोवर में घुसकर मछलियाँ खाईं तो वह तुरन्त अपने प्राणोंसे हाथ धो बैठेगा।

    मैं जो कह रहा हूँ वह सत्य है।

    'तत्कालिय: परं वेद नान्य: कश्चन लेलिह: ।

    अवात्सीदगरुडाद्धीत: कृष्णेन च विवासित: ॥

    १२॥

    तम्‌--वह; कालिय:--कालिय; परम्‌--एकमात्र; वेद--जानता था; न--नहीं; अन्य: --दूसरा; कश्चन--कोई; लेलिहः --सर्प;अवात्सीत्‌ू--रहता था; गरुडातू-गरुड़ से; भीत:--भयभीत; कृष्णेन--कृष्ण द्वारा; च--तथा; विवासित:--निकाला गया।

    सारे सर्पो में केवल कालिय ही इस बात को जानता था और गरुड़ के भय से उसने यमुनाके सरोवर में अपना निवास बना रखा था।

    बाद में कृष्ण ने उसे निकाल भगाया।

    कृष्णं हृदाद्विनिष्क्रान्तं दिव्यस््रग्गन्धवाससम्‌ ।

    महामणिगणाकीर्ण जाम्बूनदपरिष्कृतम्‌ ॥

    १३॥

    उपलभ्योत्थिता: सर्वे लब्धप्राणा इवासव: ।

    प्रमोदनिभृतात्मानो गोपा: प्रीत्याभिरेभिरि ॥

    १४॥

    कृष्णम्‌-कृष्ण को; हृदात्‌ू--सरोवर से बाहर; विनिष्क्रान्तमू--निकलकर; दिव्य--दिव्य; सत्रकू--मालाएँ पहने; गन्ध--सुगन्धि; वाससमू--तथा वस्त्र; महा-मणि-गण--अनेक सुन्दर मणियों से; आकीर्णम्‌--ढका हुआ; जाम्बूनद--सोने से;परिष्कृतमू--अलंकृत; उपलभ्य--देखकर; उत्थिता:--ऊपर उठते; सर्वे--सभी लोग; लब्ध-प्राणा:--जिन्‍्हें प्राण मिल गये हों;इब--सहृश; असवः--इन्द्रियाँ; प्रमोद--हर्षपूर्वक; निभृत-आत्मान: -- पूरित होकर; गोपा: --ग्वालों ने; प्रीत्या--स्नेहपूर्वक;अभिरेभिरे--उनका आलिंगन किया।

    [कृष्ण द्वारा कालिय की प्रताड़ना का वर्णन फिर से प्रारम्भ करते हुए शुकदेव गोस्वामी नेकहा : कृष्ण दिव्य मालाएँ, सुगन्धियाँ तथा वस्त्र धारण किये, अनेक उत्तम मणियों सेआच्छादित एवं स्वर्ण से अलंकृत होकर उस सरोवर से ऊपर उठे।

    जब ग्वालों ने उन्हें देखा तो वेसब तुरन्त उठ खड़े हो गये मानों किसी मूर्छित व्यक्ति की इन्द्रियाँ पुन: जीवित हो उठी हों।

    उन्होंनेअतीव हर्ष से सराबोर होकर स्नेहपूर्वक उनको गले लगा लिया।

    यशोदा रोहिणी नन्दो गोप्यो गोपाश्व कौरव ।

    कृष्णं समेत्य लब्धेहा आसन्शुष्का नगा अपि ॥

    १५॥

    यशोदा रोहिणी नन्दः--यशोदा, रोहिणी तथा नन्द महाराज; गोप्य:--गोपियाँ; गोपा:--ग्वाले; च--तथा; कौरव--हे कुरुवंशीपरीक्षित; कृष्णम्‌--कृष्ण से; समेत्य--मिलकर; लब्ध--फिर से प्राप्त करके; ईहा:--चेतना; आसनू--हो गये; शुष्का:--सूखेहुए; नगा:--वृक्ष; अपि--भीअपनी जीवनदायी चेतनाएँ वापस पाकर

    यशोदा, रोहिणी, नन्द तथा अन्य सारी गोपियाँ एवंग्वाले कृष्ण के समीप पहुँच गये।

    हे कुरुवंशी, ऐसे में सूखे वृक्ष भी सजीव हो उठे।

    रामश्वाच्युतमालिड्ग्य जहासास्यानुभाववित्‌ ।

    प्रेम्णा तमड्डमारोप्य पुनः पुनरुदैक्षत ।

    गावो वृषा वत्सतर्यो लेभिरे परमां मुदम्‌ ॥

    १६॥

    राम:--बलराम; च--तथा; अच्युतम्‌--अच्युत, भगवान्‌ कृष्ण को; आलिड्ग्य--आलिंगन करके; जहास--हँसे; अस्य--उनका; अनुभाव-वित्‌--सर्वशक्ति को जानते हुए; प्रेम्णा--प्रेमवश; तम्‌--उनको; अड्जडम्‌--अपनी गोद में; आरोप्य--उठाकर;पुनः पुन:--फिर फिर; उदैक्षत--देखा-भाला; गाव:--गौवों; वृषा: --साँडों; वत्सतर्य:--बछियों ने; लेभिरे--प्राप्त किया;'परमाम्‌--परम; मुदम्‌-- आनन्द |

    भगवान्‌ बलराम ने अपने अच्युत भाई का आलिंगन किया और कृष्ण की शक्ति को अच्छीतरह जानते हुए हँसने लगे।

    अत्यधिक प्रेमभाव के कारण बलराम ने कृष्ण को अपनी गोद मेंउठा लिया और बारम्बार उनकी ओर देखा।

    गौवों, साँडों तथा बछियों को भी परम आनन्द प्राप्तहुआ।

    नन्दं विप्रा: समागत्य गुरव: सकलत्रका: ।

    ऊचुस्ते कालियग्रस्तो दिष्टदा मुक्तस्तवात्मज: ॥

    १७॥

    नन्दम्‌--नन्द महाराज को; विप्रा:--सारे ब्राह्मण; समागत्य-- आकर; गुरवः--गरुजन; स-कलत्रका: -- अपनी अपनी पत्नियोंसमेत; ऊचु:--कहा; ते--वे; कालिय- ग्रस्त:--कालिय द्वारा पकड़ा हुआ; दिछ्यया--दैव से; मुक्त:--छोड़ा गया; तब--तुम्हारा;आत्म-जः--पुत्र |

    सारे गुरुजन ब्राह्मण अपनी पत्नियों सहित नन्‍्द महाराज को बधाई देने आये।

    उन्होंने उनसेकहा, तुम्हारा पुत्र कालिय के चंगुल में था किन्तु दैवकृपा से अब वह छूट आया है।

    'देहि दान द्विजातीनां कृष्णनिर्मुक्तिहेतवे ।

    नन्दः प्रीतमना राजन्गा: सुवर्ण तदादिशत्‌ ॥

    १८॥

    देहि--दीजिये; दानमू--दान; द्वि-जातीनामू--ब्राह्मणों को; कृष्ण-निर्मुक्ति--कृष्ण की रक्षा; हेतवे--हेतु; नन्दः--नन्द महाराजने; प्रीत-मना:--प्रसन्न मन से; राजन्‌--हे राजा परीक्षित; गा:--गौवें; सुवर्णम्‌ू--सोना; तदा--तब; आदिशत्‌--दिया।

    तब, ब्राह्मणों ने नन्द महाराज को सलाह दी, ‘तुम्हारा पुत्र कृष्ण सदैव संकट से मुक्त रहे,इससे आश्वस्त रहने के लिए तुम्हें चाहिए कि ब्राह्मणों को दान दो।

    ' हे राजन, तब प्रसन्नचित्तनन्द महाराज ने हर्षपूर्वक उन्हें गौवों तथा स्वर्ण की भेंटें दीं।

    यशोदापि महाभागा नष्टलब्धप्रजा सती ।

    परिष्वज्याड्डमारोप्य मुमोचा श्रुकलां मुहु; ॥

    १९॥

    यशोदा--माता यशोदा; अपि--तथा; महा-भागा--परम भाग्यशालिनी; नष्ट--खोकर; लब्ध--पुनः पाकर; प्रजा--अपना पुत्र;सती--साध्वी स्त्री; परिष्वज्य--आलिंगन करके; अड्डम्‌-गोद में; आरोप्य--उठाकर; मुमोच--टपकाया; अश्रु--आसुँओं की;कलाम्‌--झड़ी; मुहुः--बारम्बार।

    परम भाग्यशालिनी माता यशोदा ने अपने खोये हुए पुत्र को फिर से पाकर उसे अपनी गोदमें ले लिया।

    उनको बारम्बार गले लगाते हुए उस साध्वी ने आँसुओं की झड़ी लगा दी।

    तां रात्रि तत्र राजेन्द्र क्षुत्तड्भ्यां श्रमकर्षिता: ।

    ऊषुर्ब्रयौकसो गाव: कालिन्द्या उपकूलतः ॥

    २०॥

    तामू--उस; रात्रिमू--रात्रि में; तत्र--वहाँ; राज-इन्द्र--हे राजाओं में श्रेष्ठ; क्षुतू-तृड्भ्याम्‌-- भूख तथा प्यास से; श्रम-- थकानसे; कर्षिता:--निर्बल हुए; ऊषु:--रहे आये; ब्रज-ओकसः --वृन्दावन के लोग; गाव:--तथा गौवें; कालिन्द्या:--यमुना नदीके; उपकूलतः--तट के निकट |

    हे नृपश्रेष्ठ ( परीक्षित ), चूँकि वृन्दावन के निवासी भूख, प्यास तथा थकान के कारणअत्यन्त निर्बल हो रहे थे अतः उन्होंने तथा गौवों ने कालिन्दी के तट के निकट ही लेटकर वहींरात बिताई।

    तदा शुचिवनोद्धूतो दावाग्नि: सर्वतो ब्रजम्‌ ।

    सुप्तं निशीथ आवृत्य प्रदग्धुमुपचक्रमे ॥

    २१॥

    तदा--तभी; शुच्चि--ग्रीष्मकालीन; वन--जंगल में; उद्धूत: --उत्पन्न; दाव-अग्नि: -- ज्वाला; सर्वतः--सारी दिशाओं में;ब्रजम्‌--वृन्दावन के लोगों को; सुप्तम्‌--सोये हुए; निशीथे--अर्धरात्रि में; आवृत्य--घेरकर; प्रदग्धुम्‌--जलाने; उपचक्रमे--लगी।

    रात्रि में जब वृन्दावन के सभी लोग सोये हुए थे तो सूखे ग्रीष्मकालीन जंगल में भीषण आगभड़क उठी।

    इस आग ने चारों ओर से ब्रजवासियों को घेर लिया और उन्हें झुलसाने लगी।

    तत उत्थाय सम्भ्रान्ता दह्ममाना ब्रजौकसः ।

    कृष्णं ययुस्ते शरणं मायामनुजमी श्वरम्‌ ॥

    २२॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; उत्थाय--जगकर; सम्ध्रान्ता: --विक्षुब्ध; दह्ममाना:--जलने जा रहे; ब्रज-ओकस:--ब्रज के लोग; कृष्णम्‌--कृष्ण के पास; ययु:--गये; ते--वे; शरणम्‌--शरण के लिए; माया--अपनी शक्ति से; मनुजम्‌-मनुष्य की भाँति प्रकटहोनेवाले; ईश्वरमू--ईश्वर को

    तब उन्हें जलाने जा रही विशाल अग्नि से अत्यधिक विचलित होकर वृन्दावनवासी जगपड़े।

    उन्होंने दौड़कर भगवान्‌ कृष्ण की शरण ली जो आध्यात्मिक शक्ति से सामान्य मनुष्य केरूप में प्रकट हुए थे।

    कृष्ण कृष्ण महाभग हे रामामितविक्रम ।

    एष घोरतमो वहिस्तावकान्ग्रसते हि नः ॥

    २३॥

    कृष्ण--हे कृष्ण; कृष्ण--हे कृष्ण; महा-भाग--समस्त वैभव के स्वामी; हे राम--हे बलराम, हे समस्त आनन्द के स्रोत;अमित-विक्रम--असीम शक्तिवाले; एब: --यह; घोर-तम: --अत्यन्त भयानक; वह्लिः-- अग्नि; तावकान्‌--आपके लोगों को;ग्रसते--निगले जा रही है; हि--निस्सन्देह; नः--हमको |

    [वृन्दावन वासियों ने कहा हे कृष्ण, हे कृष्ण, हे समस्त वैभव के स्वामी, हे असीम शक्तिके स्वामी राम, यह अत्यन्त भयानक अग्नि आपके भक्तों को निगल ही जाएगी।

    सुदुस्तरान्न: स्वान्पाहि कालाग्ने: सुहृदः प्रभो ।

    न शबकनुमस्त्वच्चरणं सन्त्यक्तुमकुतो भयम्‌ ॥

    २४॥

    सु-दुस्तरात्‌ू--दुर्लध्य; न:ः--हम; स्वानू--अपने भक्तों की; पाहि--रक्षा कीजिये; काल-अग्ने: --कालरूपी अग्नि से; सुहृदः--आपके असली मित्रगण; प्रभो--हे परम स्वामी; न शकक्‍्नुम:--हम अक्षम हैं; त्वत्‌-चरणम्‌--आपके पाँवों को; सन्त्यक्तुमू--छोड़ सकने में; अकुतः-भयम्‌--सारे भय को भगानेवाले।

    हे प्रभु, हम आपके सच्चे मित्र तथा भक्त हैं।

    कृपा करके आप इस दुर्लघ्य कालरूपी अग्निसे हमारी रक्षा कीजिये, समस्त भय को भगाने वाले आपके चरणकमलों को हम कभी नहींत्याग सकते।

    इत्थं स्वजनवैक्लव्यं निरीक्ष्य जगदी श्वर: ।

    तमग्निमपिबत्तीव्रमनन्तो उनन्तशक्तिध्रकू ॥

    २५॥

    इत्थमू--इस प्रकार से; स्व-जन--अपने ही भक्तों की; बैक्लव्यमू--विकलता; निरीक्ष्य--देखकर; जगत्ू-ई श्वरः--जगत केस्वामी; तम्‌--उस; अग्निमू--अग्नि को; अपिबत्‌--पी लिया; तीब्रमू-- भयानक; अनन्त:--अनन्त भगवान्‌ ने; अनन्त-शक्ति-धृक्‌ू--असीम शक्ति को धारण करनेवाले।

    अपने भक्तों को इतना व्याकुल देखकर जगत के अनन्त स्वामी तथा अनन्त शक्ति को धारणकरनेवाले श्रीकृष्ण ने उस भयंकर दावाग्नि को निगल लिया।

    TO

    अध्याय अठारह: भगवान बलराम ने दानव प्रलंब का वध किया

    10.18श्रीशुक उबाचअथ कृष्ण: परिवृतो ज्ञातिभिर्मुदितात्मभि: ।

    अनुगीयमानो न्यविशद्ब्र॒जं गोकुलमण्डितम्‌ ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; अथ--इसके बाद; कृष्ण: --कृष्ण; परिवृतः--घिर कर; ज्ञातिभि:--अपनेसंगियों से; मुदित-आत्मभि:--स्वभाव से प्रसन्न रहने वाले; अनुगीयमान:--यश का गान किया जाता हुआ; न्यविशत्‌-प्रविष्टहुए; ब्रजम्‌-ब्रज में; गो-कुल--गायों के झुंडों से; मण्डितम्‌--सुशोभित |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : अपने आनन्द-विभोर साथियों से घिरे हुए, जो निरन्तर उनकेयश का गान कर रहे थे, श्रीकृष्ण ब्रज ग्राम में प्रविष्ट हुए जो गौवों के झुंडों से मण्डित था।

    ब्रजे विक्रीडतोरेवं गोपालच्छदामायया ।

    ग्रीष्मो नामर्तुरभवन्नातिप्रेयाउछरीरिणाम्‌ ॥

    २॥

    ब्रजे--वृन्दावन में; विक्रीडतो:--दोनों के खेलते हुए; एवम्‌--इस प्रकार; गोपाल--ग्वालबालों का; छद्य--वेश बनाकर;मायया--माया द्वारा; ग्रीष्म:--गर्मी; नाम--नामक; ऋतु:--ऋतु; अभवत्‌--आ गई; न--नहीं; अति-प्रेयान्‌-- अत्यधिकअनुकूल; शरीरिणाम्‌--देहधारियों के लिए

    जब कृष्ण तथा बलराम इस तरह से सामान्य ग्वालबालों के वेश में वृन्दावन में जीवन काआनन्द ले रहे थे तो शनै-शने ग्रीष्म ऋतु आ गईं।

    यह ऋतु देहधारियों को अधिक सुहावनी नहींलगती।

    सच वृन्दावनगुणैर्वसन्त इव लक्षितः ।

    यत्रास्ते भगवान्साक्षाद्रामेण सह केशव: ॥

    ३॥

    सः--वह ( ग्रीष्म ऋतु ); च--फिर भी; वृन्दावन--वृन्दावन के; गुणैः--दिव्य गुणों के कारण; वसनन्‍्तः--वसन्त ऋतु; इब--सहश; लक्षित:--लक्षण प्रकट करती हुई; यत्र--जिसमें ( वृन्दावन ); आस्ते--रहते हैं; भगवान्‌-- भगवान्‌; साक्षात्‌--स्वयं;रामेण सह--बलराम सहित; केशव: -- श्रीकृष्ण |

    फिर भी चूँकि साक्षात्‌ भगवान्‌ कृष्ण बलराम सहित वृन्दावन में रह रहे थे अतएव ग्रीष्मऋतु वसन्त के गुण प्रकट कर रही थी।

    वृन्दावन की भूमि के ऐसे हैं गुण।

    यत्र निर्झरनिर्हादनिवृत्तस्वनझिल्लिकम्‌ ।

    शश्वत्तच्छीकरजीषद्गुममण्डलमण्डितम्‌ ॥

    ४॥

    यत्र--जिस ( वृन्दावन ) में; निर्शर--झरनों की; निर्हाद--तीब्र ध्वनि ने; निवृत्त--रोक दिया; स्वन--ध्वनि; झिल्लिकम्‌--झींगुरों की; शश्वत्‌--निरन्तर; तत्‌--उन ( झरनों ) की; शीकर--जल की बूँदों से; ऋजीष-- भीगे; द्रुम--वृक्षों के; मण्डल--समूहों से; मण्डितम्‌--सुशोभित |

    वृन्दावन में झरनों की तीब्र ध्वनि से झींगुरों की झंकार छिप गई और उन झरनों की फुहार सेनिरन्तर नम रहते हुए वृक्षों के समूहों ने सम्पूर्ण क्षेत्र को मण्डित कर दिया।

    सरित्सरः प्रस्नवणोर्मिवायुनाकह्ाारकञ्जोत्पलरेणुहारिणा ।

    न विद्यते यत्र बनौकसां दवोनिदाघवहन्यर्क भवोउतिशाद्वले ॥

    ५॥

    सरित्‌--नदियों; सर:--झीलों का; प्रस्नवण--धाराओं का ( स्पर्श करके ); ऊर्मि--तथा लहरें; वायुना--वायु द्वारा; कह्ार-कञ्ज-उत्पल--कह्ाार, कंज तथा उत्पल ( कमलों ) के; रेणु--पराग-कण; हारिणा--ले जाते हुए; न विद्यते--नहीं था; यत्र--जिसमें; वन-ओकसाम्‌--जंगल के निवासियों के लिए; दवः--तपती धूप; निदाघ--ग्रीष्म ऋतु की; वह्ि--दावाग्नि से;अर्क--तथा सूर्य से; भव:--उत्पन्न; अति-शाद्वले--जहाँ प्रचुर हरी भरी घास थी।

    सरोवरों की लहरों तथा बहती हुई नदियों का स्पर्श करती हुई अनेक प्रकार के कमलों तथाकमलिनियों के पराग-कण अपने साथ लेती हुई वायु सम्पूर्ण वृन्दावन को शीतल बनाती थी।

    इस तरह वहाँ के निवासियों को ग्रीष्म की जलती धूप तथा मौसमी दावाग्नियों से उत्पन्न गर्मी सेकष्ट नहीं उठाना पड़ता था।

    निस्सन्देह वृन्दावन ताजी हरीभरी घास से भरापुरा था।

    अगाधतोयह॒दिनीतटोरमिंभि-द्रवत्पुरीष्या: पुलिनै: समन्ततः ।

    न यत्र चण्डांशुकरा विषोल्बणाभुवो रस शाद्वलितं च गृह्वते ॥

    ६॥

    अगाध--बहुत गहरा; तोय--जल; हृदिनी--नदियों के; तट--किनारों पर; ऊर्मिभि: --लहरों से; द्रवत्‌--द्रवी भूत; पुरीष्या: --कीचड़; पुलिनैः:--रेतीले तटों से; समन्ततः--चारों ओर; न--नहीं; यत्र--जिस पर; चण्ड--सूर्य की; अंशु-करा:--किरणें;विष--विष के समान; उल्बणा:--विकराल; भुवः--पृथ्वी पर; रसमू--रस; शाद्वलितम्‌--हरियाली; च--तथा; गृह्वते--लेतीहैं।

    गहरी नदियाँ अपनी उठती लहरों से अपने तटों को तर करके उन्हें गीला तथा दलदला बनादेती थीं।

    इस तरह विष की तरह विकराल सूर्य की किरणें न तो पृथ्वी के रस को उड़ा पातीं नइसकी हरी घास को सुखा पातीं।

    बन कुसुमितं श्रीमन्नदच्चित्रमृगद्धिजम्‌ ।

    गायन्मयूरभ्रमरं कूजत्कोकिलसारसम्‌ ॥

    ७॥

    वनम्‌--जंगल; कुसुमितम्‌--फूलों से पूर्ण; श्रीमत्‌--अत्यन्त सुन्दर; नदत्‌--शोर करते; चित्र--नाना प्रकार के; मृग--पशु;द्विजम्‌ू--तथा पक्षियों को; गायन्‌--गाते हुए; मयूर--मोर; भ्रमरम्‌-तथा भौंरों को; कूजत्‌-कुहू कुह्टू करते; कोकिल--'कोयलों; सारसम्‌--तथा सारसों को

    फूलों से वृन्दावन बड़े ही सुन्दर ढंग से सजा हुआ था और नाना प्रकार के पशु तथा पक्षीअपनी ध्वनि से उसे पूरित कर रहे थे।

    मोर तथा भौरे गा रहे थे और कोयल तथा सारस कुहू कुहूकर रहे थे।

    क्रीडिष्यमाणस्तत्करष्णो भगवान्बलसंयुतः ।

    वेणुं विरणयन्गोपैर्गो धनैः संवृतोडउविशत्‌ ॥

    ८॥

    क्रीडिष्यमाण:--क्रीड़ा करने की इच्छा से; तत्‌ू--उस ( वृन्दावन ); कृष्ण:--कृष्ण; भगवान्‌-- भगवान्‌; बल-संयुत:ः--बलरामके साथ; वेणुम्‌-- अपनी वंशी; विरणयन्‌--बजाते हुए; गोपै: --ग्वालबालों से; गो-धनैः--गौवों से, जो कि उनकी सम्पति हैं;संबृत:ः--घिरे हुए; अविशत्‌ू-प्रविष्ट हुए |

    क्रीड़ा करने की इच्छा से, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ कृष्ण ग्वालबालों भगवान्‌ बलराम सहिततथा गौवों से घिर कर अपनी बाँसुरी बजाते हुए वृन्दावन के जंगल में प्रविष्ट हुए।

    प्रवालबईस्तबकर््रग्धातुकृतभूषणा: ॥

    रामकृष्णादयो गोपा ननुतुर्युयुधुर्जगु; ॥

    ९॥

    प्रवाल--कोंपलें; बह--मोर पंख; स्तबक--छोटे छोटे फूलों के गुच्छे; स्रकू--मालाएँ; धातु--तथा रंगीन खनिज ( गेरू );कृत-भूषणा: --उन्हें अपना आभूषण बनाकर; राम-कृष्ण-आदय: --बलराम, कृष्ण इत्यादि; गोपा:--ग्वालबाल; ननृतु:--नाचने लगे; युयुधु;--लड़ने लगे; जगुः--गाने लगे ।

    कोंपलों, मोरपंखों, मालाओं, फूल की कलियों के गुच्छों तथा रंगविरंगे खनिज पदार्थों सेअपने आपको सजाकर बलराम, कृष्ण तथा उनके ग्वालमित्र नाचने लगे, कुश्ती लड़ने तथा गानेलगे।

    कृष्णस्य नृत्यतः केचिज्जगु: केचिदवादयन्‌ ।

    वेणुपाणितलै: श्रृद्ढेः प्रशशंसुरथापरे ॥

    १०॥

    कृष्णस्य नृत्यतः--कृष्ण के नाचते समय; केचित्‌--उनमें से कोई; जगुः--गाने लगा; केचित्‌--कोई; अवादयन्‌--बजानेलगा; वेणु--वंशी; पाणि-तलै:ः --खड़ तालियों से; श्रृड्रे:--सींग से; प्रशशंसु:--प्रशंसा ( बाहवाही ) करने लगे; अथ--तथा;अपरे--अन्य लोग।

    जब कृष्ण नाचने लगे तो कुछ बालक गाकर और कुछ बाँसुरी, हाथ के मंजीरे तथा भैसों के सींग बजा बजाकर उनका साथ देने लगे तथा कुछ अन्य बालक उनके नाच की प्रशंसा करनेलगे।

    गोपजातिप्रतिच्छन्ना देवा गोपालरूपिणौ ।

    ईंडिरे कृष्णरामौ च नटा इव नर्टं नृप ॥

    ११॥

    गोप-जाति--ग्वालों की जाति के सदस्यों के रूप में ; प्रतिच्छन्ना:--वेश बनाये; देवा:--देवताओं ने; गोपाल-रूपिणौ--ग्वालबालों का रूप धारण किये; ईडिरे--पूजा की; कृष्ण-रामौ--कृष्ण तथा बलराम की; च--तथा; नटा: --पेशेवर नर्तकों;इब--सहश; नटम्‌ू--अन्य नर्तक; नृप--हे राजन

    हे राजन, देवताओं ने गोप जाति के सदस्यों का वेश बनाया और जिस तरह नाटक केनर्तक दूसरे नर्तक की प्रशंसा करते हैं उसी तरह उन्होंने ग्वालबालों के रूप में प्रकट हुए कृष्णतथा बलराम की पूजा की।

    भ्रमणैर्लडूनै: क्षेपरास्फोटनविकर्षणै: ।

    चिक्रीडतुर्नियुद्धेन काकपक्षधरौ क्वचित्‌ ॥

    १२॥

    भ्रमणै:--चक्कर लगाकर; लड्डनैः:--कूदफाँद कर; क्षेपैः--फेंककर; आस्फोटन--पटकी देकर; विकर्षणै: --तथा घसीट कर;चिकृईंडतु:--उन्होंने ( कृष्ण तथा बलराम ने ) क्रीड़ा की; नियुद्धेन--लड़ते हुए; काक-पक्ष--बालों के गुच्छा दोनों ओरलटकते; धरौ--पकड़ते हुए; क्वचित्‌--कभी

    कृष्ण तथा बलराम चक्कर काटते, कूदते, फेंकते, थपथपाते तथा लड़ते भिड़ते हुए अपनेग्वाल सखाओं के साथ खेलने लगे।

    कभी कभी कृष्ण तथा बलराम बालकों के सिरों कीचुटिया खींच लेते थे।

    क्वचिच्रृत्यत्सु चान्येषु गायकौ वादकौ स्वयम्‌ ।

    शशंसतुर्महाराज साधु साध्विति वादिनौ ॥

    १३॥

    क्वचित्‌--कभी; नृत्यत्सु--नृत्य करते समय; च--तथा; अन्येषु-- अन्यों के; गायकौ--दोनों ( कृष्ण तथा बलराम ) गाते हुए;वादकौ--ोनों बाजा बजाते हुए; स्वयम्‌--स्वयं; शशंसतु:--प्रशंसा करते; महा-राज--हे महान्‌ राजा; साधु साधु इति--बहुतअच्छा, बहुत अच्छा; वादिनौ--कहते हुए

    हे राजनू, जब अन्य बालक नाचते होते तो कृष्ण तथा बलराम कभी कभी गीत तथा वाद्यसंगीत से उनका साथ देते और कभी कभी वे दोनों ‘बहुत अच्छा', ‘बहुत अच्छा' कहकरलड़कों की प्रशंसा करते थे।

    क्वचिद्विल्वै: क्वचित्कुम्भेः क्वचामलकमुष्टिभि: ।

    अस्पृश्यनेत्रबन्धाद्ये: क्वचिन्मृगखगेहया ॥

    १४॥

    क्वचित्‌--कभी; बिल्वै:ः--बेल के फल से; क्वचित्‌--कभी; कुम्भैः--कुम्भ फलों से; क्वच--तथा कभी; आमलक-मुष्टिभिः--मुठ्ठी भर आँवलों से; अस्पृश्य--छुई-छुऔअल खेल; नेत्र-बन्ध--आँख मिचौनी में एक दूसरे को पहचानने कीकोशिश करते हुए; आद्यि:--इत्यादि द्वारा; क्वचित्‌--क भी; मृग-- पशु; खग--तथा पक्षियों की तरह; ईहया--नकल करतेहुए।

    ग्वालबाल कभी बिल्व या कुम्भ फलों से खेलते और कभी मुट्ठी में आमलक फलों कोलेकर खेलते।

    कभी वे एक दूसरे को छूने का या आँख मिचौनी के समय किसी को पहचाननेका खेल खेलते तो कभी वे पशुओं तथा पक्षियों की नकल उतारते।

    क्वचिच्च दर्दुरप्लावैर्विविधेरुपहासकै: ।

    कदाच्त्स्यन्दोलिकया कर्हिचिन्रूपचेष्टया ॥

    १५॥

    क्वचित्‌--कभी कभी; च--तथा; दर्दुर--मेढकों की तरह; प्लावैः--कूद कर; विविध: -- अनेक प्रकार के; उपहासकै:--ठिठोलियों से; कदाचित्‌ू--कभी कभी; स्यन्दोलिकया--झूले में पेंग मार कर; कहिंचितू--क भी कभी; नृप-चेष्टया--राजा कीनकल करके

    कभी कभी वे मेढ़कों की तरह फुदक फुदक कर चलते, कभी तरह तरह के हास परिहासकरते, कभी झूले में झूलते और कभी राजाओं की नकल उतारते।

    एवं तौ लोकसिद्धाभि: क्रीडाभिश्वैरतुर्वने ।

    नद्यद्विद्रोणिकुझ्षेषु काननेषु सरःसु च ॥

    १६॥

    एवम्‌--इस प्रकार से; तौ--वे दोनों, कृष्ण तथा बलराम; लोक-सिद्धाभि:--मानव समाज में भली भाँति ज्ञात; क्रीडाभि: --क्रीड़ाओं से; चेरतु:--घूमते हुए; बने--जंगल में; नदी--नदियों; अद्वि--पर्वतों; द्रोणि--घाटियों; कुझेषु--तथा कुंजों केबीच; काननेषु--छोटे जंगलों में; सरःसु--सरोवरों के किनारे; च--तथा।

    इस तरह से कृष्ण तथा बलराम वृन्दावन की नदियों, पर्वतों, घाटियों, कुंजों, वृक्षों तथासरोवरों के बीच घूमते हुए सभी प्रकार के प्रसिद्ध खेल खेलते रहते।

    पशूंश्चारयतोगपैस्तद्वने रामकृष्णयो: ।

    गोपरूपी प्रलम्बोगादसुरस्तज्जिहीर्षया ॥

    १७॥

    पशून्‌--पशुओं को; चारयतो:--दोनों व्यक्ति चराते हुए; गोपैः:--ग्वालबालों के साथ; ततू-वने--उस जंगल में, वृन्दावन में;राम-कृष्णयो:--राम तथा कृष्ण; गोप-रूपी--ग्वालबाल का रूप धारण कर; प्रलम्ब:--प्रलम्ब; अगात्‌--आया; असुर:--असुर; तत्‌--उनको; जिहीर्षया--उठाकर भाग जाने ( हरण करने ) की इच्छा से |

    इस तरह जब उस वृन्दावन के जंगल में राम, कृष्ण तथा उनके ग्वालमित्र गौवें चरा रहे थे तोप्रलम्ब नामक असुर उनके बीच में घुस आया।

    कृष्ण तथा बलराम का हरण करने के इरादे सेउसने ग्वालबाल का वेश बना लिया था।

    त॑ं विद्वानपि दाशाहों भगवान्सर्वदर्शनः ।

    अन्वमोदत तत्सख्यं वध्धं तस्य विचिन्तयन्‌ ॥

    १८ ॥

    तमू--उस प्रलम्बासुर को; विद्वानू-- भलीभाँति जानते हुए; अपि--यद्यपि; दाशाई:--दशाई के वंशज; भगवानू-- भगवान्‌ ने;सर्व-दर्शन: --सर्वज्ञ; अन्वमोदत--स्वीकार कर ली; तत्‌--उसके साथ; सख्यम्‌--मित्रता; वधम्‌--वध; तस्य--उसका;विचिन्तयन्‌--सोचते हुए

    चूँकि दशाई वंश में उत्पन्न भगवान्‌ श्रीकृष्ण सब कुछ देखते हैं अतएव वे जान गये कि वहअसुर कौन है।

    फिर भी भगवान्‌ ने ऐसा दिखावा किया जैसे कि वे उसे अपना मित्र मान चुके होंजबकि वे गम्भीरतापूर्वक यह विचार कर रहे थे कि उसको कैसे मारा जाय।

    तत्रोपाहूय गोपालान्कृष्ण: प्राह विहारवित्‌ ।

    है गोपा विहरिष्यामो द्वन्द्वीभूय यथायथम्‌ ॥

    १९॥

    तत्र--तत्पश्चात्‌; उपाहूय--बुलाकर; गोपालानू--ग्वालबालों को; कृष्ण:--कृष्ण ने; प्राह--कहा; विहार-वित्‌--समस्तक्रीड़ाओं के ज्ञाता; हे गोपा:--हे ग्वालबालो; विहरिष्याम: --चलो खेलें; द्वन्द्दी-भूय--दो टोलियों में बँटकर; यथा-यथम्‌--उचित रीति से

    तब समस्त क्रीड़ाओं के ज्ञाता कृष्ण ने सारे ग्वालबालों को बुलाया और उनसे इस प्रकारकहा : हे ग्वालबालो, अब चलो खेलें, हम अपने आपको दो समान टोलियों में बाँट लें।

    तत्र चक्कुः परिवृढ्दो गोपा रामजनार्दनौ ।

    कृष्णसड्डबट्टिनः केचिदासत्रामस्य चापरे ॥

    २०॥

    तत्र--उस खेल में; चक्कु:--उन्होंने बनाये; परिवृढी--दो अगुआ; गोपा: --ग्वालबाल; राम-जनार्दनौ--बलराम तथा कृष्ण;कृष्ण-सट्डट्टिन:--कृष्ण की टोली के सदस्य; केचित्‌--उनमें से कुछ; आसन्‌--हो गये; रामस्थ--बलराम के; च--तथा;अपरे--अन्यग्वाल

    बालों ने कृष्ण तथा बलराम को दोनों टोलियों का अगुआ ( नायक ) चुन लिया।

    कुछबालक कृष्ण की ओर थे और कुछ बलराम के साथ थे।

    आचेरुविंविधा: क्रीडा वाह्यवाहकलक्षणा: ।

    यत्रारोहन्ति जेतारो वहन्ति च पराजिता: ॥

    २१॥

    आचेरु:--सम्पन्न किया; विविधा:--तरह तरह के; क्रीडा:--खेल; वाह्म -- ले जाये जाने वाले द्वारा; वाहक--ले जाने वाला;लक्षणा:--लक्षणों से युक्त; यत्र--जिसमें; आरोहन्ति--चढ़ते हैं; जेतारः --जीतने वाले; वहन्ति--ढछोते हैं, ले जाते हैं; च--तथा; पराजिता:--हारने वाले।

    बालकों ने तरह तरह के खेल खेले जिनमें पीठ पर चढ़ना तथा उठाना जैसे खेल होते हैं।

    इनखेलों में जीतने वाले हार जाने वालों की पीठ पर चढ़ते हैं और हारने वाले उन्हें अपनी पीठ परचढ़ाते हैं।

    वहन्तो वाह्ममानाश्न चारयन्तश्न गोधनम्‌ ।

    भाण्डीरक॑ नाम बरट्ट जग्मुः कृष्णपुरोगमा: ॥

    २२॥

    वहन्त:ः--चढ़ते; वाह्ममाना: -- चढ़ाते हुए; च--तथा; चारयन्त:--चराते हुए; च-- भी; गो-धनम्‌--गौवों को; भाण्डीरकम्‌नाम--भाण्डीरक नामक; वटम्‌--बरगद के पेड़ तक; जग्मुः--गये; कृष्ण-पुर:-गमा:--कृष्ण को आगे करके |

    इस तरह एक दूसरे पर चढ़ते और चढ़ाते हुए और साथ ही गौवें चराते सारे बालक कृष्ण केपीछे पीछे भाण्डीरक नामक बरगद के पेड़ तक गये।

    रामसड्डट्टिनो यहिं श्रीदामवृषभादय: ।

    क्रीडायां जयिनस्तांस्तानूहु: कृष्णादयो नृप ॥

    २३॥

    राम-सद्डृट्टिन: --बलराम की टोली के सदस्य; यहिं--जब; श्रीदाम-वृषभ-आदय: -- श्रीदामा, वृषभ तथा अन्य ( यथा सुबल );क्रीडायाम्‌--खेलों में; जयिन:--विजयी; तान्‌ तानू--इनमें से प्रत्येक; ऊहुः--चढ़ाते थे; कृष्ण-आदय:--कृष्ण तथा उनकीटोली के अन्य सदस्य; नृप--हे राजन

    हे राजा परीक्षित, जब इन खेलों में भगवान्‌ बलराम की टोली के श्रीदामा, वृषभ तथा अन्यसदस्य विजयी होते तो कृष्ण तथा उनके साथियों को उन सबों को अपने ऊपर चढ़ाना पड़ताथा।

    उवाह कृष्णो भगवान्श्रीदामानं पराजित: ।

    वृषभ भद्गसेनस्तु प्रलम्बो रोहिणीसुतम्‌ ॥

    २४॥

    उबाह--चढ़ाते थे; कृष्ण: --कृष्ण; भगवान्‌--भगवान्‌; श्रीदामानम्‌--अपने भक्त तथा सखा श्रीदामा को; पराजित:--हारकर; वृषभम्‌--वृषभ को; भद्गसेन: --भद्गसेन; तु--तथा; प्रलम्ब:ः--प्रलम्ब; रोहिणी-सुतम्‌--रोहिणी पुत्र ( बलराम ) को |

    हार कर, भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने श्रीदामा को अपने ऊपर चढ़ा लिया।

    भद्गसेन ने वृषभ कोतथा प्रलम्ब ने रोहिणी पुत्र बलराम को चढ़ा लिया।

    अविषट्ठं मन्यमान: कृष्णं दानवपुड़ुवः ।

    बहन्द्रुततरं प्रागादवरोहणत: परम्‌ ॥

    २५॥

    अविषहाम्‌--दुर्दम; मन्यमान:--विचार करते हुए; कृष्णम्‌--कृष्ण को; दानव-पुड़वः--वह अग्रगण्य असुर; वहन्‌--ले जातेहुए; द्रत-तरम्‌-तेजी से; प्रागात्‌ू--चलने लगा; अवरोहणतः परम्‌--उतारने के लिए निश्चित स्थान से आगे।

    भगवान्‌ कृष्ण को दुर्दम सोच कर वह जाना आना असुर ( प्रलम्ब ), बलराम को तेजी सेउस स्थान से बहुत आगे ले गया जहाँ उतारना निश्चित किया गया था।

    तमुद्दहन्धरणिधरेन्द्रगौरवंमहासुरो विगतरयो निजं वपु: ।

    स आस्थितः पुरटपरिच्छदो बभौतडिद्दयुमानुडुपतिवाडिवाम्बुद: ॥

    २६॥

    तम्‌--उन्हें, बलदेव को; उद्ददनू--ऊँचे ले जाकर; धरणि-धर-इन्द्र--पर्वतों के राजा सुमेरु की तरह; गौरवम्‌-- भार; महा-असुरः--महान्‌ असुर; विगत-रयः --अपना वेग खो कर; निजम्‌ू--अपने असली; वपु:--शरीर को; सः--वह ना; आस्थित: --स्थित होकर; पुरट--सुनहरे; परिच्छद:--आशभूषणों से युक्त; बभौ--चमक रहा था; तडित्‌--बिजली की तरह; द्यु-मान्‌--चमकीला; उडु-पति--चन्द्रमा; वाट्‌ू--वहन करते हुए; इब--सहृश; अम्बु-दः--बादल।

    जब वह महान्‌ असुर बलराम को लिये जा रहा था, तो वे विशाल सुमेरु पर्वत की तरह भारीहो गये जिससे प्रलम्ब को अपना गति धीमी करनी पड़ी।

    इसके बाद उसने अपना असली रूपधारण किया--तेजमय शरीर जो सुनहरे आभूषणों से ढका था और उस बादल के समान लगरहा था जिसमें बिजली चमक रही हो और जो अपने साथ चन्द्रमा लिये जा रहा हो।

    निरीक्ष्य तद्बपुरलमम्बरे चरत्‌प्रदीप्तहग्भ्रुकुटितटोग्रदंप्टकम्‌ ।

    ज्वलच्छिखं कटककिरीटकुण्डल-त्विषाद्धुतं हलधर ईषदत्रसत्‌ ॥

    २७॥

    निरीक्ष्य--देखकर; तत्‌--उस प्रलम्बासुर का; वपु:--शरीर; अलम्‌--तेजी से; अम्बरे--आकाश में; चरत्‌--विचरण करते;प्रदीप्त--प्रज्वलित; हक्‌--आँखें; भ्रु-कुटि--अपनी भौंहों पर के गुस्से का; तट--किनारे पर; उग्र-- भयानक; दंघ्रकम्‌--दाँतोंको; ज्वलत्‌-- अग्नि तुल्य; शिखम्‌--बाल; कटक--अपने बाजूबन्द; किरीट--मुकुट; कुण्डल--तथा कुंडलों के; त्विषा--तेज से; अद्भुतमू--आश्चर्यजनक; हल-धर:--हल धारण करने वाले, बलराम; ईषत्‌--टुक, थोड़ा; अत्रसत्‌-- भयभीत हुए।

    जब हलधर भगवान्‌ बलराम ने आकाश में विचरण करते हुए उस असुर की जलती हुईआँखें, अग्नि सदृूश बाल, भौंहों तक उठे भयानक दाँत तथा उसके बाजूबन्दों, मुकुट तथाकुंडलों से उत्पन्न आश्चर्यजनक तेज युक्त विराट शरीर को देखा तो वे कुछ कुछ भयभीत से होगये।

    अथागतस्मृतिरभयो रिपुं बलोविहाय सार्थमिव हरन्तमात्मन: ।

    रुषाहनच्छिरसि हढेन मुष्टिनासुराधिपो गिरिमिव वज़रंहसा ॥

    २८॥

    अथ--तब; आगत-स्मृति:-- अपना स्मरण करते हुए; अभय: --निर्भय; रिपुमू--शत्रु को; बल:--बलराम ने; विहाय--छोड़कर; सार्थमू--साथ; इब--निस्सन्देह; हरन्तम्‌ू--हरण करते हुए; आत्मन:--अपने आप; रुषा--क्रोध के साथ; अहनतू--प्रहार किया; शिरसि--सिर के ऊपर; हृढेन--कठोर; मुष्टिना--अपनी मुट्ठी से; सुर-अधिप:--देवताओं के राजा, इन्द्र; गिरिम्‌--पर्वत पर; इब--सहृश; वज़--वज् का; रंहसा--फुर्ती से

    वास्तविक स्थिति का स्मरण करते हुए निभीक बलराम की समझ में आ गया कि यह असुरमेरा अपहरण करके मुझे मेरे साथियों से दूर ले जाने का प्रयास कर रहा है।

    तब वे क्रुद्ध हो उठे और उन्होंने असुर के सिर पर अपनी कठोर मुट्ठी से उसी तरह प्रहार किया जिस प्रकार देवताओंके राजा इन्द्र अपने वज् से पर्वत पर प्रहार करते हैं।

    स आहतः सपदि विशीर्णमस्तकोमुखाद्वमन्रुधिरमपस्मृतो सुरः ।

    महारवं व्यसुरपतत्समीरयन्‌गिरिर्यथा मघवत आयुधाहतः ॥

    २९॥

    सः--वह, प्रलम्बासुर; आहत:--प्रहार किया गया; सपदि--तुरन्त; विशीर्ण--विदीर्ण; मस्तक: --सिर; मुखात्‌-- मुँह से;वमन्‌--उगलता हुआ; रुधिरमू--रक्त; अपस्मृत:--बेहोश; असुर:--असुर; महा-रवम्‌-- भीषण शब्द; व्यसु:--निर्जीव;अपतत्‌--गिर पड़ा; समीरयन्‌--आवाज करता हुआ; गिरि:--पर्वत; यथा--जिस तरह; मघवत:--इन्द्र के; आयुध--हथियारसे; आहत:--चोट खाकर ।

    बलराम की मुट्ठी के प्रहार से प्रलम्ब का सिर तुरन्त ही फट गया।

    वह मुख से रक्त उगलनेलगा और बेहोश हो गया।

    तत्पश्चात्‌ वह निष्प्राण होकर पृथ्वी पर भीषण धमाके के साथ ऐसेगिर पड़ा मानो इन्द्र द्वारा विनष्ट कोई पर्वत हो।

    इष्ठा प्रलम्बं॑ निहतं बलेन बलशालिना ।

    गोपा: सुविस्मिता आसन्साधु साध्विति वादिन: ॥

    ३०॥

    इृष्टा--देखकर; प्रलम्बम्‌--प्रलम्बासुर को; निहतम्‌--मारा गया; बलेन--बलराम द्वारा; बल-शालिना--बलशाली; गोपा: --ग्वालबाल; सु-विस्मिता: --अत्यन्त चकित; आसन्‌--हुए; साधु साधु--' अति उत्तम , ' ‘अति उत्तम '; इति--ये शब्द;वादिन:--कहते हुए

    ग्वालबाल यह देखकर अत्यन्त चकित थे कि बलशाली बलराम ने किस तरह प्रलम्बासुरको मार डाला और वे सभी ‘बहुत खूब ' ‘बहुत खूब ' कहकर चिल्ला उठे।

    आशिषोभिगृणन्तस्तं प्रशशंसुस्तदर्हणम्‌ ।

    प्रेत्यागतमिवालिड्ग्य प्रेमविह्ललचेतस: ॥

    ३१॥

    आशिषः: --आशीर्वाद; अभिगृणन्त:--भेंटें देते हुए; तमू--उन्‍्हें; प्रशशंसु:--प्रशंसा की; तत्‌-अर्हणम्‌--उस सुपात्र को; प्रेत्य--मरकर; आगतम्‌--वापस आया हुआ; इब--मानो; आलिन्य--आलिंगन करते हुए; प्रेम--प्रेमवश; विह्ल-- भावविभोर;चेतस:--मन।

    उन्होंने बलराम को खूब आशीर्वाद दिया और सभी तरह की प्रशंसा के पात्र होने के कारणउनकी खूब प्रशंसा की।

    उनके मन प्रेम से विभोर हो उठे और उन्होंने उनका इस प्रकार आलिंगनकिया मानो वे मरकर लौटे हों।

    पापे प्रलम्बे निहते देवा: परमनिर्वृता: ।

    अभ्यवर्षन्बलं माल्यै: शशंसु: साधु साध्विति ॥

    ३२॥

    पापे--पापी; प्रलम्बे--प्रलम्बासुर पर; निहते--मारे जाने पर; देवा:--देवताओं ने; परम--अत्यधिक; निर्वृता:--प्रसन्न;अभ्यवर्षन्‌--बरसाया; बलम्‌--बलराम को; माल्यै: --मालाओं से; शशंसु:--स्तुतियाँ की; साधु साधु इति--' अति उत्तम'‘अति उत्तम' आलाप करते हुए।

    पापी प्रलम्बासुर के मारे जाने पर देवता अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने बलराम पर'फूलमालाओं की वर्षा की।

    उन्होंने उनके उत्तम कार्य की प्रशंसा की।

    TO

    अध्याय उन्नीस: जंगल की आग को निगलना

    10.19श्रीशुक उबाचक्रीडासक्तेषु गोपेषु तद्गावो दूरचारिणी: ।

    स्वैरं चरन्त्यो विविशुस्तृणलोभेन गहहरम्‌ ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; क्रीडा--खेल में; आसक्तेषु-- पूरी तरह लीन; गोपेषु--ग्वालबालों में; तत्‌-गाव:ः--उनकी गौवें; दूर-चारिणी:--दूर दूर तक घूमने वाली; स्वैरम्‌--स्वतंत्र रूप से; चरन्त्यः--चरती हुई; विविशु:--घुसीं;तृण--घास के; लोभेन--लालच से; गह्रम्‌--घने जंगल में |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब ग्वालबाल खेलने में पूरी तरह मग्न थे तो उनकी गौबें दूरचली गईं।

    अधिक घास के लोभ में तथा कोई उनकी देखभाल करनेवाला न होने से वे घनेजंगल में घुस गईं।

    अजा गावो महिष्यश्च निर्विशन्त्यो वनाद्वनम्‌ ।

    ईंषीकाटवीं निर्विविशु: क्रन्दन्त्यो दावतर्षिता: ॥

    २॥

    अजा:--बकरियाँ; गाव:--गौवें; महिष्य:--भेंसे; च--तथा; निर्विशन्त्य:--प्रवेश करतीं; वनात्‌ू--एक जंगल से; वनम्‌--दूसरेजंगल को; ईषीका-अटवीम्‌--मूंज के जंगल में; निर्विविशु:--प्रविष्ट हुई; क्रन्दन्त्यः--चिल्लाती हुई; दाव--जंगल की अग्निके कारण; तर्षिता:--प्यासी |

    विशाल जंगल के एक भाग से दूसरे भाग में जाते हुए बकरियाँ, गौवें तथा भेंसें अन्ततः मूंजसे आच्छादित क्षेत्र में घुस गईं ।

    पास के जंगल की अग्नि की गर्मी से उन्हें प्यास लग पड़ी और वेकष्ट के कारण रँंभाने लगीं।

    तेपश्यन्त: पशून्गोपा: कृष्णरामादयस्तदा ।

    जातानुतापा न विदुर्विचिन्वन्तो गवां गतिम्‌ ॥

    ३॥

    ते--वे; अपश्यन्त:--न देखते हुए; पशून्‌ू--पशुओं को; गोपा:--ग्वालबाल; कृष्ण-राम-आदय: --कृष्ण, राम इत्यादि;तदा--तब; जात-अनुतापा:--पश्चात्ताप अनुभव करते हुए; न विदु:--नहीं जान पाये; विचिन्वन्त:--ढूँढ़ते हुए; गवाम्‌ू--गौवोंको; गतिम्‌--रास्ता।

    गौवों को सामने न देखकर, कृष्ण, राम तथा उनके ग्वालमित्रों को सहसा अपनीअसावधानी पर पछतावा हुआ।

    उन बालकों ने चारों ओर ढूँढ़ा किन्तु यह पता न लगा पाये कि वेकहाँ चली गई हैं।

    तृणैस्तत्खुरदच्छिन्रैगोष्पदैरड्डितर्गवाम्‌ ।

    मार्गमन्वगमसन्सर्वे नष्टाजीव्या विचेतस: ॥

    ४॥

    तृणैः--तिनकों से; ततू--उन गायों के; खुर--खुरों से; दत्‌ू--तथा दाँतों से; छिन्नैः--तोड़े गये; गोः-पदैः--गायों के खुरों केनिशानों से; अड्डितैः--पृथ्वी पर बने; गवाम्‌-गायों के; मार्गम्‌ू--रास्ता; अन्वगमन्‌ू--पीछा किया; सर्वे--सबों ने; नष्ट-आजीव्या:--अपनी जीविका के नष्ट हो जाने की; विचेतसः--चिन्ता में |

    तब बालकों ने गौवों के खुरों के चिन्हों तथा उनके खुरों तथा दाँतों से तोड़ी गई घास केतिनकों को देखकर उनके रास्ते का पता लगाना शुरू किया।

    सारे ग्वालबाल अत्यधिक चिन्तितथे क्योंकि वे अपनी जीविका का साधन खो चुके थे।

    मुखाटव्यां भ्रष्टमार्ग क्रन्दमानं स्वगोधनम्‌ ।

    सम्प्राप्य तृषिता: श्रान्तास्ततस्ते सन्न्यवर्तयन्‌ ॥

    ५॥

    मुझा-अटवब्याम्‌--मुझा वन में; भ्रष्ट-मार्गम्‌--अपना रास्ता खोकर; क्रन्दमानम्‌--चिल्लाती हुईं; स्व--अपनी; गो-धनम्‌--गौवें( तथा अन्य पशु ); सम्प्राप्प--पाकर; तृषिता:--प्यासे; श्रान्ता:--तथा थके; ततः--तब; ते--वे बालक; सन्न्यवर्तयन्‌--उनसबों को बहोर लाये।

    अन्त में ग्वालबालों को अपनी बहुमूल्य गौवें मुझ बन में मिलीं जो अपना रास्ता भटकजाने से चिल्ला रही थीं।

    तब प्यासे तथा थके-माँदे ग्वालबाल उन गौवों को घर के रास्ते परवापस ले आये।

    ता आहूता भगवता मेघगम्भीरया गिरा ।

    स्वनाम्नां निनदं श्रुत्वा प्रतिनेदु: प्रहर्षिता: ॥

    ६॥

    ताः--वे गौवें; आहूता: --बुलाई गई; भगवता-- भगवान्‌ द्वारा; मेघ-गम्भीरया --बादल की तरह गम्भीर; गिरा--वाणी से; स्व-नाम्नामू--अपने अपने नामों की; निनदम्‌--ध्वनि; श्रुत्वा--सुनकर; प्रतिनेदु:--उत्तर दिया; प्रहर्षिता:--अत्यधिक हर्षितहोकर

    भगवान्‌ ने उन पशुओं को गरजते बादल की तरह गूँजती वाणी से पुकारा।

    अपने-अपनेनामों की ध्वनि सुनकर गौवें अत्यधिक हर्षित हुई और हुंकार भर कर भगवान्‌ को उत्तर देनेलगीं।

    ततः समन्ताहृबधूमकेतु-यहच्छयाभूत्क्षयकृद्वनौकसाम्‌ ।

    समीरितः सारथिनोल्बणोल्मुकै-विलेलिहान: स्थिरजड्रमान्महान्‌ ॥

    ७॥

    ततः--तब; समन्तात्‌--चारों ओर; दव-धूमकेतु:--भीषण जंगल की अग्नि; यहच्छया--सहसा; अभूत्‌--प्रकट हुई; क्षय-कृत्‌--नष्ट करने पर तुली; बन-ओकसामू--जंगल में उपस्थित प्राणियों को; समीरित:--हाँकी गई; सारधिना--सारथी तुल्यहवा द्वारा; उल्बण-- भयानक; उल्मुकै: --उल्का जैसी चिनगारियों से युक्त; विलेलिहान:--चाटती हुई; स्थिर-जड्रमान्‌--समस्तचर तथा अचर प्राणियों को; महानू--महान।

    सहसा चारों दिशाओं में महान्‌ दावाग्नि प्रकट हुई जिससे जंगल के समस्त प्राणियों के नष्टहोने का संकट उत्पन्न हो गया।

    सारथी तुल्य वायु, अग्नि को आगे बढ़ाती जा रही थी और चारोंओर भयानक चिनगारियाँ निकल रही थीं।

    निस्सन्देह, इस महान्‌ अग्नि ने अपनी ज्वालाओं रूपीजिह्लाओं को समस्त चल और अचर प्राणियों की और लपलपा दिया था।

    'तमापतन्तं परितो दवागिनगोपाश्च गाव: प्रसमीक्ष्य भीता: ।

    ऊचुश्न कृष्णं सबल प्रपन्नायथा हरिं मृत्युभयार्दिता जना; ॥

    ८॥

    तम्‌ू--उस; आपतन्तम्‌--उन पर आन पड़ी हुईं; परित:--चारों ओर; दव-अग्निमू--जंगल की आग को; गोपा:--ग्वालबालों ने;च--तथा; गाव: --गौवों ने; प्रसमीक्ष्य--ठीक से देखकर; भीता:--डरे हुए; ऊचुः--सम्बोधन किया; च--तथा; कृष्णम्‌--कृष्ण को; स-बलम्‌--तथा बलराम को; प्रपन्ना:--शरणागत; यथा--जिस प्रकार; हरिम्‌-- भगवान्‌ को; मृत्यु--मृत्यु के;भय-- भय से; अर्दिता:ः--पीड़ित; जना:--व्यक्ति |

    जब गौवों तथा ग्वालबालों ने चारों ओर से दावाग्नि को अपने ऊपर आक्रमण करते देखातो वे बहुत डर गये।

    अतः वे रक्षा के लिए कृष्ण तथा बलराम के निकट गये जिस तरह मृत्यु-भय से विचलित लोग भगवान्‌ की शरण में जाते हैं।

    उन बालकों ने उन्हें इस प्रकार से सम्बोधितकिया।

    कृष्ण कृष्ण महावीर हे रामामोघ विक्रम ।

    दावाग्निना दह्ममानान्प्रपन्नांस्त्रातुमहथ: ॥

    ९॥

    कृष्ण कृष्ण--हे कृष्ण, हे कृष्ण; महा-वीर--हे अत्यन्त बलशाली; हे राम--हे राम; अमोघ-विक्रम-- अमोघ शक्तिवाले; दाव-अग्निना--जंगल की आग से; दह्ममानान्‌ू--जलते हुओं को; प्रपन्नानू--शरणागतों को; त्रातुम्‌ अर्हथ:--कृपया बचायें।

    [ग्वालबालों ने कहा हे कृष्ण, हे कृष्ण, हे महावीर, हे राम, हे अमोघ शक्तिशाली, कृपाकरके अपने उन भक्तों को बचायें जो जंगल की इस अग्नि से जलने ही वाले हैं और आपकीशरण में आये हैं।

    नूनं त्वद्वान्धवा: कृष्ण न चार्हन्त्यवसादितुम्‌ ।

    वबयं हि सर्वधर्मज्ञ त्वन्नाथास्त्वत्ररायणा: ॥

    १०॥

    नूनम्‌--अवश्य ही; त्वत्‌--आपके; बान्धवा:--मित्रगण; कृष्ण --हमारे प्यारे कृष्ण; न--कभी नहीं; च--और; अ्हन्ति--योग्य हैं; अवसादितुम्‌--विनष्ट होने के; वयम्‌--हम; हि--यही नहीं; सर्व-धर्म-ज्ञ--समस्त जीवों को भलीभाँति जाननेवाले;त्वत्‌ू-नाथा:--आपको अपने स्वामी के रूप में पाकर; त्वत्‌ू-परायण:--आपकी ही भक्ति में लगे हुए।

    कृष्ण! निस्सन्देह आपके अपने मित्रों को तो नष्ट नहीं होना चाहिए।

    हे समस्त वस्तुओं कीप्रकृति को जाननेवाले, हमने आपको अपना स्वामी मान रखा है और हम आपके शरणागत हैं।

    श्रीशुक उबाचबचो निशम्य कृपणं बन्धूनां भगवान्हरि: ।

    निर्मीलयत मा भैष्ट लोचनानीत्यभाषत ॥

    ११॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; वच:--वचन; निशम्य--सुनकर; कृपणम्‌--दयनीय; बन्धूनाम्‌-- अपनेमित्रों के; भगवान्‌-- भगवान्‌; हरि:ः--हरि ने; निमीलयत--बन्द कर लो; मा भैष्ट--मत डरो; लोचनानि--आँखों को; इति--इस प्रकार; अभाषत--कहा।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : अपने मित्रों के ऐसे दयनीय वचन सुनकर भगवान्‌ कृष्ण नेउनसे कहा : ‘‘तुम लोग, बस अपनी आँखें मूँद लो और डरो नहीं।

    ' तथेति मीलिताक्षेषु भगवानग्निमुल्बणम्‌ ।

    पीत्वा मुखेन तान्कृच्छाद्योगाधीशो व्यमोचयत्‌ ॥

    १२॥

    तथा--बहुत अच्छा; इति--ऐसा कहकर; मीलित--बन्द करते हुए; अक्षेषु--अपनी आँखें; भगवान्‌-- भगवान्‌; अग्निम्‌--अग्नि को; उल्बणम्‌-- भयानक; पीत्वा--पीकर; मुखेन--मुख से; तानू--उनको; कृच्छात्‌--संकट से; योग-अधीश:--समस्तयोगशक्ति के परम नियन्ता; व्यमोचयत्‌--उद्धार कर दिया।

    बालकों ने उत्तर दिया ‘बहुत अच्छा ' और तुरन्त ही उन्होंने अपनी आँखें बन्द कर लीं।

    तबसमस्त योगशक्ति के स्वामी भगवान्‌ ने अपना मुख खोला और उस भयानक अग्नि कोनिगलकर अपने मित्रों को संकट से बचा लिया।

    ततश्च तेक्षीण्युन्मील्य पुनर्भाण्डीरमापिता: ।

    निशम्य विस्मिता आसन्नात्मानं गाश्न मोचिता: ॥

    १३॥

    ततः--तब; च--तथा; ते--वे; अक्षीणि-- अपनी आँखें; उनन्‍्मील्य-- खोलते हुए; पुनः--फिर; भाण्डीरम्‌-- भाण्डीर तक;आपिता:--ले गये; निशम्य--देखकर; विस्मिता:--चकित; आसन्‌--हुए; आत्मानम्‌--अपने आपको; गा: --गौवों को; च--तथा; मोचिता:--बचा लिया।

    ग्वालबालों ने अपनी आँखें खोलीं तो यह देखकर चकित हुए कि न केवल उन्हें तथा गौवोंको उस विकराल अग्नि से बचा लिया गया है अपितु वे भाण्डीर वृक्ष के पास वापस ला दियेगये हैं।

    कृष्णस्य योगवीर्य तद्योगमायानुभावितम्‌ ।

    दावाग्नेरात्मन: क्षेमं वीक्ष्य ते मेनिरिठपरम्‌ ॥

    १४॥

    कृष्णस्य--कृष्ण की; योग-वीर्यम्‌--योगशक्ति; तत्‌ू--वह; योग-माया--माया की अन्तरंगा शक्ति द्वारा; अनुभावितम्‌--प्रभावित; दाव-अग्ने:--दावाग्नि से; आत्मन: --अपना; क्षेमम्‌--उद्धार; वीक्ष्य--देखकर; ते--उन्होंने; मेनिरि--सोचा;अमरमू्‌--देवता |

    जब ग्वालबालों ने देखा कि भगवान्‌ की अन्तरंगा शक्ति से प्रकट योगशक्ति द्वारा उन्हेंदावाग्नि से बचाया जा चुका है, तो वे सोचने लगे कि कृष्ण अवश्य ही कोई देवता हैं।

    गाः सन्निवर्त्य सायाह्वे सहरामो जनार्दनः ।

    वेणुं विरणयन्गोष्ठटमगादगोपैरभिष्ठत: ॥

    १५॥

    गाः--गौवें; सन्निवर्त्य--लौटाकर; साय-अह्वे--दोपहर बीत जाने के बाद; सह-राम:--बलराम सहित; जनार्दनः-- श्रीकृष्ण;वेणुम्‌--अपनी वंशी; विरणयन्‌--विशेष ढंग से बजाते हुए; गोष्ठम्‌-ग्वालों के गाँव में; अगात्‌--गये; गोपैः --ग्वालबालोंद्वारा; अभिष्ठुत:-- प्रशंसित होकर |

    अब दोपहर ढल चुकी थी और बलराम सहित भगवान्‌ कृष्ण ने गौवों को घर की ओरमोड़ा।

    अपनी वंशी को एक विशिष्ट ढंग से बजाते हुए कृष्ण अपने ग्वाल मित्रों के साथ गोपग्रामलौटे और ग्वालबाल उनके यश का गान कर रहे थे।

    गोपीनां परमानन्द आसीदगोविन्ददर्शने ।

    क्षणं युगशतमिव यासां येन विनाभवत्‌ ॥

    १६॥

    गोपीनाम्‌ू--गोपियों के लिए; परम-आनन्दः--सर्वोच्च सुख; आसीत्‌ू--हुआ; गोविन्द-दर्शने--गोविन्द को देखने में; क्षणम्‌--एक क्षण; युग-शतम्‌--एक सौ युग; इब--सहृ॒श; यासाम्‌ू--जिनके लिए; येन--जिसके ( कृष्ण ); विना--बिना; अभवत्‌--हो गया।

    गोविन्द को घर आते देखकर तरूण गोपियों को अत्यन्त आनंद प्राप्त हुआ क्योंकि उनकीसंगति के बिना एक क्षण भी उन्हें सौ युगों के समान प्रतीत हो रहा था।

    TO

    अध्याय बीस: वृन्दावन में वर्षा ऋतु और शरद ऋतु

    10.20श्रीशुक उबाचतयोस्तदद्भुतं कर्म दावाग्ने्मो क्षमात्मन: ।

    गोपाःस्त्रीभ्य: समाचख्यु: प्रलम्बबधमेव च ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; तयो:--उन दोनों ( कृष्ण तथा बलराम ) का; तत्‌--वह; अद्भुतम्‌-- अद्भुत;कर्म-कार्य; दाव-अग्ने:--दावाग्नि से; मोक्षम्‌-- उद्धार; आत्मन: -- अपना; गोपा:--ग्वालबाल ; स्त्री भ्य:--स्त्रियों से;समाचख्यु:--विस्तार से बतलाया; प्रलम्ब-वधम्‌--प्रलम्बासुर का मारा जाना; एब--निस्सन्देह; च--भी

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : तब ग्वालबालों ने वृन्दावन की स्त्रियों से दावाग्नि से बचाएजाने और प्रलम्बासुर का बध किये जाने के कृष्ण तथा बलराम के अद्भुत कार्यों का विस्तार सेवर्णन किया।

    गोपवृद्धाश्व गोप्यश्च तदुपाकर्ण्य विस्मिता: ।

    मेनिरे देवप्रवरौ कृष्णरामौ ब्रजं गतोौ ॥

    २॥

    गोप-वृद्धाः--बूढ़े ग्वाले; च--तथा; गोप्य:--गोपियाँ; च-- भी; तत्‌--से; उपाकर्ण्य--सुनकर; विस्मिता:--आश्चर्यचकित;मेनिरि--विचार किया; देव-प्रवरौ--दो प्रतिष्ठित देवता; कृष्ण-रामौ--कृष्ण तथा बलराम दोनों भाई; ब्रजम्‌--वृन्दावन में;गतौ-चोमे

    यह वर्णन सुनकर बड़े-बूढ़े गोप तथा स्त्रियाँ आश्चर्यचकित हो गये और वे इस निष्कर्ष परपहुँचे कि कृष्ण तथा बलराम अवश्य ही महान्‌ देवता हैं, जो वृन्दावन में प्रकट हुए हैं।

    ततः प्रावर्तत प्रावृट्सर्वसत्त्वसमुद्धवा ।

    विद्योतमानपरिधिर्विस्फूर्जनितनभस्तला ॥

    ३॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; प्रावर्तत--शुरू हुई; प्रावृट्‌ू--वर्षा ऋतु; सर्व-सत्त्व--सारे जीवों की; समुद्धवा--उत्पत्ति की स्त्रोत;विद्योतमान--बिजली से चमकता; परिधि: --क्षितिज; विस्फूर्जित--( गरज से ) विश्षुब्ध; नभ:-तला--आकाश।

    इसके बाद वर्षा ऋतु का शुभारम्भ हुआ जो समस्त जीवों को जीवनदान देती है।

    आकाशगर्जना से गूँजने लगा और क्षितिज पर बिजली चमकने लगी।

    सान्द्रनीलाम्बुदैव्योम सविद्युत्स्तनयित्नुभि: ।

    अस्पष्टज्योतिराच्छन्नं ब्रहोव॒ सगुणं बभौ ॥

    ४॥

    सान्द्र-घने; नील--नीले; अम्बुदैः --बादलों से; व्योम-- आकाश; स-विद्युत्‌--बिजली सहित; स्तनबिलुभि:--तथा गरज केसाथ; अस्पष्ट-- धूमिल; ज्योति:-- प्रकाश; आच्छन्नम्‌--ढका हुआ; ब्रह्म--आत्मा; इब--मानो; स-गुणम्‌-- भौतिक गुणों सेयुक्त; बभौ--प्रकट हो गया हो |

    तत्पश्चात्‌ बिजली तथा गरज से युक्त घने नीले बादलों से आकाश आच्छादित हो गया।

    इसतरह आकाश तथा उसकी प्राकृतिक ज्योति उसी तरह ढक गये जिस तरह आत्मा प्रकृति के तीनगुणों से आच्छादित हो जाता है।

    अष्टौ मासात्रिपीतं यद्धूम्याश्नोदमयं वसु ।

    स्वगोभिमेंक्तुमारेभे पर्जन्य: काल आगते ॥

    ५॥

    अष्टौ--आठ; मासान्‌--महीनों के दौरान; निपीतम्‌--पिया हुआ; यत्‌--जो; भूम्या:--पृथ्वी का; च--तथा; उद-मयम्‌--जलसे युक्त; बसु--सम्पत्ति; स्व-गोभि: --अपनी ही किरणों से; मोक्तुम्‌ू--मुक्त करने के लिए; आरेभे--प्रारम्भ कर दिया;पर्जन्य: --सूर्य ने; काले--उचित समय; आगते--आ जाने पर।

    सूर्य ने अपनी किरणों से आठ मास तक पृथ्वी की जल रूपी सम्पत्ति का शोषण किया था।

    अब उपयुक्त समय आ गया था और सूर्य अपने उस संचित संपत्ति को मुक्त करने लगा।

    तडिद्वन्तो महामेघाश्वण्ड श्वसन वेपिता: ।

    प्रीणनं जीवन हास्य मुमुचु: करुणा इब ॥

    ६॥

    तडित्‌-वन्तः--बिजली का प्रदर्शन करते; महा-मेघा:--बड़े बड़े बादल; चण्ड--उग्र; श्वसन--वायु द्वारा; वेपिता: --हिलायेगये; प्रीणनम्‌--तृप्ति; जीवनम्‌--उनका जीवन ( जल ); हि--निस्सन्देह; अस्य--इस जगत का; मुमुचु:--मुक्त किया;'करुणा:--दयालु व्यक्ति; इब--सहृश |

    बिजली चमकाते बड़े बड़े बादल प्रचण्ड वायु के द्वारा हिलाये-डुलाये जाकर दूर ले जाये गये थे।

    ये बादल दयालु पुरुषों की तरह इस संसार की खुशी के लिए अपना जीवन दान कर रहेथे।

    तपःकृशा देवमीढा आसीद्वर्षीयसी मही ।

    यथेव काम्यतपसस्तनु: सम्प्राप्प तत्फलम्‌ ॥

    ७॥

    तपः-कृशा-ग्रीष्म के ताप से दुर्बल; देव-मीढा--जलदेव द्वारा कृपापूर्वक छिड़की; आसीत्‌--हो गयी; वर्षीयसी --पूर्णतयापोषित; मही--पृथ्वी; यथा एब--जिस तरह; काम्य--इन्द्रिय तृप्ति पर आधारित; तपस:--तपस्वी का; तनुः--शरीर;सम्प्राप्प--प्राप्त करके; तत्‌--उस तपस्या का; फलम्‌--फल

    ग्रीष्म के ताप से पृथ्वी कृषकाय हो चुकी थी किन्तु वर्षा के देवता द्वारा तर किये जाने परपुनः पूरी तरह हरीभरी हो गईं।

    इस तरह पृथ्वी उस व्यक्ति के समान थी जिसका शरीर भौतिककामना से की गई तपस्या के कारण कृषकाय हो जाता है किन्तु तपस्या का फल प्राप्त हो जानेपर वह पुनः पूरी तरह हष्ट पुष्ट हो उठता है।

    निशामुखेषु खद्योतास्तमसा भान्ति न ग्रहा: ।

    यथा पापेन पाषण्डा न हि वेदा: कलौ युगे ॥

    ८॥

    निशा-मुखेषु--सांध्यकालीन धुंधलके के समय; खद्योता:--जुगनू; तमसा--अंधकार के कारण; भान्ति--चमकते हैं; न--नहीं; ग्रहाः--नक्षत्रगण; यथा--जिस तरह; पापेन--पापकर्मों के कारण; पाषण्डा:--नास्तिक सिद्धान्त; न--नहीं; हि--निश्चयही; वेदा:--वेद; कलौ युगे-इन्‌ थे अगे ओफ्‌ कलि

    वर्षा ऋतु के साँझ के धुंधलेपन में, अंधकार के कारण जुगनू तो चमक रहे थे किन्तुनक्षत्रगण प्रकाश नहीं बिखेर पा रहे थे, जिस प्रकार कि कलियुग में पापकृत्यों की प्रधानता सेनास्तिक सिद्धान्त वेदों के असली ज्ञान को आच्छादित कर देते हैं।

    श्र॒त्वा पर्जन्यनिनदं मण्डुका: ससूजुर्गिर: ।

    तृष्णीं शयानाः प्राग्यद्वद्राह्मणा नियमात्यये ॥

    ९॥

    श्रुत्वा--सुनकर; पर्जन्य--वर्षा के बादलों की; निनदम्‌--प्रतिध्वनि; मण्डुका: --मेंढकों ने; ससृजु:--निकाली; गिर: --अपनीध्वनि; तृष्णीमू--मौन भाव से; शयाना:--लेटे हुए; प्राकू--पहले; यद्वत्‌ू--जिस तरह; ब्राह्मणा:--ब्राह्मण छात्र; नियम-अत्यये--प्रातःकालीन कृत्यों को समाप्त करके

    वे मेंढक जो अभी तक मौन पड़े हुए थे, वर्षा ऋतु के बादलों की गर्जना सुनकर अचानकटर्रने लगे मानो शान्त भाव से प्रातःकालीन कृत्य करनेवाले ब्राह्मण विद्यार्थी अपने गुरु द्वाराबुलाए जाने पर अपना पाठ सुनाने लगे हों।

    आसन्ुत्पथगामिन्य: क्षुद्रनद्यो इनुशुष्यती: ।

    पुंसो यथास्वतन्त्रस्य देहद्रविण सम्पदः ॥

    १०॥

    आसनू--हो गये; उत्पथ-गामिन्य:--अपने अपने मार्गों से विपथ; क्षुद्र--नगण्य; नद्यः--नदियाँ; अनुशुष्यती: --सूखकर के;पुंसः--मनुष्य का; यथा--जिस तरह; अस्वतन्त्रस्थ--जो स्वतंत्र नहीं है उसका ( अपनी इन्द्रियों के वशीभूत ); देह--शरीर;द्रविण--शारीरिक सम्पत्ति; सम्पदः--तथा सम्पत्ति।

    वर्षा ऋतु के आगमन के साथ ही सूखी हुई क्षुद्र नदियाँ बढ़ने लगीं और अपने असली मार्गोंको छोड़कर इधर उधर बहने लगीं मानो इन्द्रियों के वशीभूत किसी मनुष्य के शरीर, सम्पत्ति तथाधन हों।

    हरिता हरिभिः शष्पैरिन्धगोपैश्व लोहिता ।

    उच्छिलीन्ध्रकृतच्छाया नृणां श्रीरिव भूरभूत्‌ ॥

    ११॥

    हरिताः--हरिताभ; हरिभि:--हरी; शष्पैः -- नई उगी घास से; इन्द्रगोपैः --इन्द्रगोप कीटों ( बीरबहूटी ) से; च--तथा; लोहिता--लालाभ; उच्छिलीन्ध्र--कुकुर मुत्तों द्वारा; कृत--की गई; छाया--छाया; नृणाम्‌-- मनुष्यों के; श्री:--ऐश्वर्य; इब--सदृश;भू:--पृथ्वी; अभूत्‌--हो गई

    नई उगी घास से पृथ्वी पन्ने ( मरकत ) की तरह हरी हो रही थी, इन्द्रगोप कीटों ने उसमें लालरंग मिला दिया और श्वेत रंग के कुकुरमुत्तों ने और भी रंगत ला दी।

    इस प्रकार पृथ्वी उस व्यक्तिजैसी लगने लगी जो सहसा धनी बन जाता है।

    क्षेत्राणि शष्यसम्पद्धधिः कर्षकाणां मुदं ददुः ।

    मानिनामनुतापं वै दैवाधीनमजानताम्‌ ॥

    १२॥

    क्षेत्राणि --खेत; शष्य-सम्पद्धिः--अपनी अनाज की सम्पत्ति से; कर्षकाणाम्‌-कृषकों को; मुदम्‌--हर्ष; ददुः--प्रदान किया;मानिनाम्‌--मिथ्या गर्व करनेवालों को; अनुतापमू--जलन, पश्चात्ताप; बै--निस्सन्देह; दैव-अधीनम्‌-- भाग्य के अधीन;अजानताम्‌--न जाननेवालों को |

    अपनी अन्नरूपी सम्पदा से सारे खेत किसानों को प्रफुल्लित कर रहे थे।

    किन्तु वही खेत उनलोगों के हृदयों में पश्चात्ताप उत्पन्न कर रहे थे, जो इतने घमण्डी थे कि खेती के कार्य में नहीं लगना चाहते थे और यह नहीं समझ पाते थे कि किस तरह हर वस्तु भगवान्‌ के अधीन है।

    जलस्थलौकस: सर्वे नववारिनिषेवया ।

    अबिभ्न्रुचिरं रूपं यथा हरिनिषेवया ॥

    १३॥

    जल--जल के; स्थल--तथा स्थल के; ओकस:--निवासी; सर्वे--सभी; नव--नवीन; वारि-- जल का; निषेवया--सेवनकरने से; अबिभ्रन्‌--ग्रहण किया; रुचिरम्‌ू--आकर्षक; रूपमू--रूप; यथा--जिस तरह; हरि-निषेवया-- भगवान्‌ की भक्तिकरने से |

    चूँकि जल तथा स्थल के समस्त प्राणियों ने नवीन वर्षाजल का लाभ उठाया इसलिए उनकेरूप आकर्षक एवं सुहावने हो गये जिस तरह कोई भक्त भगवान्‌ की सेवा में लगने पर सुन्दरलगने लगता है।

    सरिद्धिः सड़तः सिन्धुश्लुक्षो भ श्वसनोर्मिमान्‌ ।

    अपक्वयोगिनश्ित्तं कामाक्त गुणयुग्यथा ॥

    १४॥

    सरिद्धिः--नदियों समेत; सड्भतः--मिलने से; सिन्धु:--सागर; चुक्षोभ--क्षुब्ध हो उठा; श्रसन--वायु से उड़कर; ऊर्मि-मान्‌--लहरों से युक्त; अपक्ब--अप्रौढ़; योगिन: --योगी का; चित्तम्‌ू--मन; काम-अक्तम्‌ू--कामवासना से रंजित; गुण-युक्‌ --इन्द्रियतृप्ति के विषयों से सम्बन्ध रखने से; यथा--जिस तरह।

    जहाँ जहाँ नदियाँ आकर समुद्र से मिलीं, वहाँ समुद्र विक्षुब्ध हो उठा और हवा से इसकीलहरें इधर उधर उठने लगीं, जिस तरह कि किसी अपरिपक्व योगी का मन कामवासना से रंजितहोने तथा इन्द्रियतृप्ति के विषयों के प्रति अनुरक्त होने से डगमगाने लगता है।

    गिरयो वर्षधाराभि्न्यमाना न विव्यथु: ।

    अभिभूयमाना व्यसनैर्यथाधोक्षजचेतस: ॥

    १५॥

    गिरयः--पर्वत; वर्ष-धाराभि:-- जल धारण किये हुए बादलों द्वारा; हन्यमाना:--चोट खाकर; न विव्यथु:--हिले नहीं;अभिभूयमाना:-- प्रहार किये जाने पर; व्यसनैः--संकटों से; यथा--जिस तरह; अधोक्षज-चेतस:-- भगवान्‌ में लीन मन वाले

    जिस प्रकार भगवान्‌ में लीन मन वाले भक्तगण सभी प्रकार के संकटों से प्रहार किये जानेपर भी शान्त बने रहते हैं उसी प्रकार वर्षा ऋतु में जलवाही बादलों द्वारा बारम्बार प्रहार कियेजाने पर भी पर्वत तनिक भी विचलित नहीं हुए।

    मार्गा बभूवु: सन्दिग्धास्तृणैश्छन्ना हासंस्कृता: ।

    नाभ्यस्यमाना: श्रुतयो द्विजै:ः कालेन चाहता: ॥

    १६॥

    मार्गा:--रास्ते; बभूवु:--हो गये; सन्दिग्धा: --अस्पष्ट; तृणैः--घास से; छन्ना:--ढके हुए; हि--निस्सन्देह; असंस्कृता:--अस्वच्छ; न अभ्यस्यमाना:--न पढ़े जाने से; श्रुत॒वः--शास्त्र; द्विजैः--ब्राह्मणों द्वारा; कालेन--समय के प्रभाव से; च--तथा;आहता:- भ्रष्ट |

    वर्षा ऋतु में रास्तों को साफ न करने से वे घास-फूस और कूड़े-करकट से ढक गये औरउन्हें पहचान पाना कठिन हो गया।

    ये रास्ते उन धार्मिक शाम्त्रों ( श्रुतियों ) के तुल्य थे, जोब्राह्मणों द्वारा अध्ययन न किये जाने से भ्रष्ट हो गये हों और कालक्रम से आच्छादित हो चुके हों।

    लोकबबन्धुषु मेघेषु विद्युतश्षलसौहदा: ।

    स्थैर्य न चक्कर: कामिन्यः पुरुषेषु गुणिष्विव ॥

    १७॥

    लोक--सारे जगत के; बन्धुषु--मित्र; मेघेषु--बादलों में; विद्युतः:--बिजली; चल-सौहदा: --जिनकी मित्रता चलायमान है;स्थैर्यम्‌--स्थिरता; न चक्क:--नहीं बनाये रखते; कामिन्य:--कामुक स्त्रियाँ; पुरुषेषु--पुरुषों में; गुणिषु--गुणवान; इब--जिसतरह ।

    यद्यपि बादल सारे जीवों के शुभेषी मित्र होते हैं लेकिन दुर्बलमना चंचल बिजली बादलों केएक समूह से दूसरे समूह में इस तरह गति करने लगी मानो गुणवान पुरुषों के प्रति भीविश्वासघात करनेवाली कामुक स्त्रियाँ हों।

    धनुर्वियति माहेन्द्रं निर्गुणं च गुणिन्यभात्‌ ।

    व्यक्ते गुणव्यतिकरेगुणवान्पुरुषो यथा ॥

    १८॥

    धनु:--धनुष ( इन्द्रधनुष )) वियति--आकाश में; माहा-इन्द्रमू--इन्द्र का; निर्गुणम्‌--गुणहीन ( प्रत्यंचारहित ); च--यद्यपि;गुणिनि--आकाश में, जिसमें ध्वनि जैसा निश्चित गुण पाया जाता है; अभात्‌--प्रकट हुआ; व्यक्ते--व्यक्त जगत के भीतर;गुण-व्यतिकरे-- भौतिक गुणों की पारस्परिक क्रियाओं वाले; अगुण-वान्‌-- भौतिक गुणों से सम्बन्ध न रखनेवाले; पुरुष: --परम पुरुष; यथा--जिस तरह।

    जब उस आकाश में इन्द्रधनुष प्रकट हुआ जिसमें गर्जना करने का गुण था, तो वह सामान्यधनुषों से भिन्न था क्योंकि वह प्रत्यज्ञा पर टिका हुआ नहीं था।

    इसी प्रकार जब भगवान्‌ इसजगत में, जो कि भौतिक गुणों की पारस्परिक क्रिया स्वरूप है, प्रकट होते हैं, तो वे सामान्यपुरुषों से भिन्न होते हैं क्योंकि वे समस्त भौतिक गुणों से मुक्त तथा समस्त भौतिक दशाओं सेस्वतंत्र होते हैं।

    न रराजोडुपएछन्नः स्वज्योत्स्नाराजितैर्घन: ।

    अहंमत्या भासितया स्वभासा पुरुषो यथा ॥

    १९॥

    न रराज--चमका नहीं; उडुप:--चन्द्रमा; छन्नः--ढका हुआ; स्व-ज्योत्स्ना--अपनी चाँदनी से; राजितैः -- प्रकाशित; घनै: --बादलों से; अहमू-मत्या--मिथ्या अहंकार से; भासितया--प्रकाशित; स्व-भासा--अपनी ही द्युति से; पुरुष:--जीव; यथा--जिस तरह |

    वर्षा ऋतु में बादलों से ढके रहने के कारण चन्द्रमा के प्रकट होने में व्यवधान पड़ता थाऔर यही बादल चन्द्रमा की किरणों से प्रकाशित होते थे।

    इसी प्रकार इस भौतिक जगत मेंमिथ्या अहंकार के आवरण से जीव प्रत्यक्ष प्रकट नहीं हो पाता जबकि वह स्वयं शुद्ध आत्मा कीचेतना से प्रकाशित होता है।

    मेघागमोत्सवा हृष्टा: प्रत्यनन्दज्छिखण्डिन: ।

    गृहेषु तप्तनिर्विणणा यथाच्युतजनागमे ॥

    २०॥

    मेघ--बादलों का; आगम--आगमन होने से; उत्सवा:--उत्सव मनानेवाले; हृष्टा: --प्रसन्न हुए; प्रत्यनन्दन्‌--अभिनन्दन हेतुचिल्ला पड़े; शिखण्डिन:--मोरगण; गृहेषु--अपने घरों में; तप्त--दुखित; निर्विण्णा:--और तब सुखी बनते हैं; यथा--जिसतरह; अच्युत--अच्युत भगवान्‌ के; जन--भक्तों के; आगमे--आगमन पर।

    जब मोरों ने बादलों को आते देखा तो वे उल्लासित हो गये और हर्षयुक्त अभिनन्दन में टेरनेलगे जिस तरह गृहस्थ जीवन में दुखित लोग अच्युत भगवान्‌ के शुद्ध भक्तों के आगमन परहर्षित हो जाते हैं।

    पीत्वाप: पादपा: पद्धिरासन्नानात्ममूर्तय: ।

    प्रावक्षामास्तपसा श्रान्ता यथा कामानुसेवया ॥

    २१॥

    पीत्वा--पीकर; आप:--जल; पाद-पा:--वृक्ष; पद्धिः--अपने पाँवों से; आसन्‌ू-- धारण कर लिया; नाना--विविध; आत्म-मूर्तव:ः --शारीरिक स्वरूप; प्राक्‌ --पहले; क्षामा:-- क्षीण; तपसा--तपस्या से; श्रान्ता:--थके हुए; यथा--जिस तरह; काम-अनुसेवया--प्राप्त वांछित फलों को भोगकर के ।

    जो वृक्ष दुबले हो गए थे तथा सूख गये थे उनके शरीर के विभिन्न अंग अपनी जड़ों ( पाँवों )से वर्षा का नया जल पाकर लहलहा उठे |

    इसी तरह तपस्या के कारण जिसका शरीर पतला औरदुर्बल हो जाता है, वह पुनः उस तपस्या के माध्यम से प्राप्त भौतिक वस्तुओं का भोग करकेस्वस्थ शरीरवाला दिखने लगता है।

    सरःस्वशान्तरो धःसु न्यूषुरड्रापि सारसा: ।

    गृहेष्वशान्तकृत्येषु ग्राम्या इव दुराशया: ॥

    २२॥

    सरःसु--सरोवरों में; अशान्त--बेचैन; रोधःसु--तटों पर; न्यूषु:--रहे आते हैं; अड़--हे राजा; अपि--निस्सन्देह; सारसा:--सारस पक्षी; गृहेषु-- अपने अपने घरों में; अशान्त--बेचैन; कृत्येषु--कार्यों में; ग्राम्या:-- भौतिकतावादी व्यक्ति; इब--निस्सन्देह; दुराशया: --दूषित विचारवाले

    वर्षाकाल में सरोवरों के तटों के विश्लुब्ध होने पर भी सारस पक्षी तटों पर रहते रहे जिस तरहदूषित मनवाले भौतिकतावादी व्यक्ति अनेक उत्पातों के बावजूद घरों पर ही रहते जाते हैं।

    जलौधघेर्निरभिद्यन्त सेतवो वर्षती श्वरे ।

    पाषण्डिनामसद्दादैर्वेदमार्गा: कलौ यथा ॥

    २३॥

    जल-ओघै:--बाढ़ के पानी से; निरभिद्यन्त--टूटे हुए; सेतव:ः--बाँध; वर्षति--जब वृष्टि होती है; ईश्वेर--इन्द्र; पाषण्डिनाम्‌--नास्तिकों के; असत्‌-वादैः--झूठे सिद्धान्तों से; वेद-मार्गा:--वेदों के पथ; कलौ--कलियुग में; यथा--जिस तरह।

    जब इन्द्र ने अपनी वर्षा छोड़ भेजी तो बाढ़ के पानी से खेतों में सिंचाई के बाँध उसी तरहटूट गये जिस तरह कलियुग में नास्तिकों के सिद्धान्तों से वैदिक आदेशों की सीमाएँ टूट जातीहैं।

    व्यमुझ्न्वायुभिरनुन्ना भूतेभ्यश्चामृतं घना: ।

    यथाशिषो विश्पतयः काले काले द्विजेरिता: ॥

    २४॥

    व्यमुझन्‌--मुक्त किया; वायुभि:--वायु के द्वारा; नुन्ना:--प्रेरित; भूतेभ्य: --सारे जीवों के लिए; च--तथा; अमृतम्‌--अमृततुल्य जल; घना:--बादल; यथा--जिस तरह; आशिष:--दातव्य आशीर्वाद; विटू-पतय:--राजा; काले काले--समय समयपर; द्विज--ब्राह्मणों द्वारा; ईरिता:-एन्चोउर

    गेद्‌वायु द्वारा प्रेरित बादलों ने सारे जीवों के लाभ हेतु अपना अमृत तुल्य जल उसी तरह विमुक्तकिया जिस तरह राजागण अपने ब्राह्मण पुरोहितों के आदेशानुसार अपनी प्रजा में दान बाँटते हैं।

    एवं बन तद्टर्षिष्टं पक्वखर्जुरजम्बुमत्‌ ।

    गोगोपालैववतो रन्तुं सबल: प्राविशद्धरि: ॥

    २५॥

    एवम्‌--इस प्रकार; वनम्‌--जंगल में; तत्‌--उस; वर्षिष्ठम्‌--अतीव शोभायमान; पक्व--पके; खर्जुर--खजूर; जम्बु--तथाजामुन; मत्‌--से युक्त; गो--गौवों; गोपालैः --तथा ग्वालबालों द्वारा; वृत:ः--घिरे हुए; रन्तुमू--खेलने के उद्देश्य से; स-बलः--बलराम सहित; प्राविशत्‌-- प्रवेश किया; हरि:--कृष्ण ने |

    जब वृन्दावन का जंगल पके खजूरों तथा जामुन के फलों से लद॒कर इस प्रकार शोभायमानथा, तो भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपनी गौवों तथा ग्वालबालों से घिरकर एवं श्रीबलराम के साथ उसवन में आनन्द मनाने के लिए प्रविष्ट हुए।

    धेनवो मन्दगामिन्य ऊधोभारेण भूयसा ।

    ययुर्भगवताहूता द्वुतं प्रीत्या स्नुतस्तना: ॥

    २६॥

    धेनव:--गौवें; मन्द-गामिन्य: --मन्द गति से चलनेवाली; ऊध: --अपने थनों के; भारेण -- भार से; भूयसा-- अत्यधिक;ययु:--गईं; भगवता-- भगवा न्‌ द्वारा; आहूता:--बुलाई जाने पर; द्रुतम्‌ू--शीघ्र; प्रीत्या--स्नेहवश; स्नुत--नम; स्तना:--स्तन,या चूचुक |

    गौवों को अपने दूध से भरे थनों के भार के कारण मन्द गति से चलना पड़ा किन्तु ज्योंहीभगवान्‌ ने उन्हें बुलाया वे तुरन्त दौड़ पड़ीं और उनके प्रति स्नेह के कारण उनके स्तन गीले होगये।

    वनौकस: प्रमुदिता वनराजीर्मधुच्युत: ।

    जलधारा गिरे्नादादासन्ना दहशे गुहा: ॥

    २७॥

    वन-ओकसः --वनवासी कन्याएँ; प्रमुदिता:--हर्षित; वन-राजी:--जंगल के वृक्ष; मधु-च्युत:--मीठा रस टपकाते हुए; जल-धारा:--झरने; गिरे:--पर्वतों पर; नादातू--उनकी प्रतिध्वनि से; आसन्ना:--निकट ही; दहशे--देखा; गुहा:--गुफाएँ |

    भगवान्‌ ने हर्षित वनवासी कन्याओं, मधुर रस टपकाते वृक्षों तथा पर्वतीय झरनों को देखाजिनकी प्रतिध्वनि से सूचित हो रहा था कि पास ही गुफाएँ हैं।

    क्वचिद्वनस्पतिक्रोडे गुहायां चाभिवर्षति ।

    निर्विश्य भगवात्रेमे कन्दमूलफलाशन: ॥

    २८॥

    क्वचित्‌--कभी कभी; वनस्पति--वृक्ष के; क्रोडे--कोटर में; गुहायाम्‌-- गुफा में; च--अथवा; अभिवर्षति--वर्षा होने पर;निर्विश्य--प्रवेश करके; भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; रेमे--रमण किया; कन्द-मूल--कन्दमूल, जड़ें; फल--तथा फल; अशन:--खाकर।

    जब वर्षा होती तो भगवान्‌ कभी किसी गुफा में, तो कभी वृक्ष के कोटर में घुस जाते जहाँवे खेलते तथा कन्दमूल और फल खाते।

    दध्योदनं समानीतं शिलायां सलिलान्तिके ।

    सम्भोजनीयैर्बु भुजे गोपै: सड्डूर्षणान्वित: ॥

    २९॥

    दध्ि-ओदनम्‌--दही के साथ मिला भात; समानीतम्‌-- भेजा हुआ; शीलायाम्‌--पत्थर की चट्टान पर; सलिल-अन्तिके--जलके निकट; सम्भोजनीयैः --अपने साथ भोजन करनेवाले; बुभुजे-- भोजन किया; गोपै:--ग्वालबालों के साथ; सड्डूर्षण-अन्वित:--बलराम समेत ।

    भगवान्‌ कृष्ण श्रीबलराम तथा ग्वालबालों के साथ बैठकर घर से भेजे गये दही-भात कोभगवान्‌ संकर्षण और ग्वालबालों के साथ खाते जो सदैव उनके साथ ही भोजन किया करतेथे।

    वे पानी के निकट के किसी विशाल शिला पर बैठकर भोजन करते।

    शाद्वलोपरि संविश्य चर्वतो मीलितेक्षणान्‌ ।

    तृप्तान्वृषान्वत्सतरान्गा श्व स्वोधोभरश्रमा: ॥

    ३०॥

    प्रावृट्श्रियं च तां वीक्ष्य सर्वकालसुखावहाम्‌ ।

    भगवान्पूजयां चक्रे आत्मशक्त्युपबृंहिताम्‌ ॥

    ३१॥

    शाइ्वल--घास के मैदान के; उपरि--ऊपर; संविश्य--बैठकर; चर्वतः--चरती हुई; मीलित--बन्द; ईक्षणान्‌-- आँखों को;तृप्तानू--संतुष्ट; वृषान्‌ू--साँड़ों को; वत्सतरान्‌ू--बछड़ों को; गाः--गौवों को; च--और; स्व--अपने अपने; ऊध: --थनों के;भर--भार से; श्रमा:--थकी; प्रावृट्‌--वर्षा ऋतु का; थ्रियम्‌--ऐश्वर्य; च--तथा; ताम्‌--उसको; वीक्ष्य--देखकर; सर्व-काल--सदैव; सुख-- आनन्द; आवहामू--देते हुए; भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; पूजयाम्‌ चक्रे --सम्मान किया; आत्म-शक्ति--अपनी अन्तरंगा शक्ति से; उपबृंहिताम्‌--विस्तार किया।

    भगवान्‌ कृष्ण ने हरी घास पर बैठे और आँखें बन्द किये चरते हुए संतुष्ट साँड़ों, बछड़ों तथागौवों पर नजर डाली और देखा कि गौवें अपने दूध से भरे भारी थनों के भार से थक गई हैं।

    इस तरह परम आनन्द के शाश्वत स्त्रोत वृन्दावन की वर्षा ऋतु के सौन्दर्य और ऐश्वर्य का निरीक्षणकरते हुए भगवान्‌ ने उस ऋतु को नमस्कार किया जो उन्हीं की अन्तरंगा शक्ति का विस्तार थी।

    एवं निवसतोस्तस्मित्रामकेशवयोत्रजे ।

    शरत्समभवद्व्यभ्रा स्वच्छाम्ब्वपरुषानिला ॥

    ३२॥

    एवम्‌--इस प्रकार; निवसतो:--दोनों के रहते हुए; तस्मिन्‌ू--उस; राम-केशवयो: --राम तथा केशव के; ब्रजे--वृन्दावन में;शरत्‌--शरद ऋतु; समभवत्‌--पूरी तरह प्रकट हो आई; व्यभ्रा--बादलों से मुक्त आकाश; स्वच्छ-अम्बु--स्वच्छ जल वाले;अपरुष-अनिला--तथा मन्द वायु।

    इस तरह जब भगवान्‌ राम तथा भगवान्‌ केशव वृन्दावन में रह रहे थे तो शरद ऋतु आ गईजिसमें आकाश बादलों से रहित, जल स्वच्छ तथा वायु मन्द हो जाती है।

    शरदा नीरजोत्पत्त्या नीराणि प्रकृतिं ययु: ।

    भ्रष्टानामिव चेतांसि पुनर्योगनिषेवया ॥

    ३३॥

    शरदा--शरद ऋतु के प्रभाव से; नीरज--कमल के फूल; उत्पत्त्या--फिर से उत्पन्न करनेवाला; नीराणि--जल समूह;प्रकृतिमू-- अपनी प्राकृतिक अवस्था में ( स्वच्छ ); ययु:--हो गये; भ्रष्टानामू--पतितों के; इब--सद्ृश; चेतांसि--मन; पुनः --एक बार फिर; योग--भक्ति के; निषेवया-- अभ्यास से।

    कमलपुष्पों को पुनः उत्पन्न करनेवाली शरद ऋतु ने विविध जलाशयों को पूर्ववत्‌ स्वच्छ( निर्मल ) बना दिया जिस तरह कि भक्तियोग पतित योगियों के मनों को पुनः इस ओर लौटनेपर शुद्ध बनाता है।

    व्योम्नोउब्ध्चं भूतशाबल्यं भुवः पड्डमपां मलम्‌ ।

    शरजहाराश्रमिणां कृष्णे भक्तियथाशुभम्‌ ॥

    ३४॥

    व्योम्न:--आकाश में; अपू- भ्रमू-- बादल; भूत-- पशुओं की; शाबल्यम्‌--बहुलता; भुव: --पृथ्वी के; पड्डमू--कीचड़;अपाम्‌--जल का; मलमू्‌--मैल; शरत्‌--शरद ऋतु ने; जहार--हटा दिया; आश्रमिणाम्‌--मानव समाजके चारों आश्रमों केसदस्यों का; कृष्णे--कृष्ण में; भक्ति: -- भक्ति; यथा--जिस तरह; अशुभम्‌--सारे अशुभ को

    शरद ऋतु ने आकाश से बादलों को हटा दिया, पशुओं को भीड़भाड़ भरी जगहों सेनिकाल लिया, पृथ्वी के कीचड़ को साफ कर दिया तथा जल के गँदलेपन को दूर कर दियाजिस तरह कि भगवान्‌ कृष्ण की प्रेमाभक्ति चारों आश्रमों के सदस्यों को उनकी अपनी अपनीव्याधियों से मुक्त कर देती है।

    सर्वस्वं जलदा हित्वा विरेजु: शुभ्रवर्चस: ।

    यथा त्यक्तैषणा: शान्ता मुनयो मुक्तकिल्बिषा: ॥

    ३५॥

    सर्व-स्वम्‌--पास की हर वस्तु; जल-दाः--बादल; हित्वा--त्यागकर; विरेजु:--चमकने लगे; शुभ्र--शुद्ध; वर्चसः--अपनातेज; यथा--जिस प्रकार; त्यक्त-एषणा:--समस्त इच्छाओं का परित्याग करनेवाले; शान्ता:--शान्त; मुनयः--मुनिगण; मुक्त-किल्बिषा:--बुरी लालसाओं से मुक्त

    बादल अपना सर्वस्व त्यागकर शुद्ध तेज से उसी तरह चमकने लगे जिस तरह शान्त मुनिगणअपनी समस्त भौतिक इच्छाएँ त्यागने पर पापपूर्ण लालसाओं से मुक्त हो जाते हैं।

    गिरयो मुमुचुस्तोयं क्वचित्न मुमुचु: शिवम्‌ ।

    यथा ज्ञानामृतं काले ज्ञानिनो ददते न वा ॥

    ३६॥

    गिरयः--पर्वतों ने; मुमुचु:--मुक्त किया; तोयम्‌--अपना जल; क्वचित्‌--कभी कभी; न मुमुचु:--नहीं मुक्त किया; शिवम्‌--शुद्ध; यथा--जिस तरह; ज्ञान--दिव्य ज्ञान रूपी; अमृतम्‌--अमृत; काले--उपयुक्त समय पर; ज्ञानिन:--ज्ञानी लोग; ददते--प्रदान करते हैं; न वा--अथवा नहीं।

    इस ऋतु में पर्वत कभी तो अपना शुद्ध जल मुक्त करते थे और कभी नहीं करते थे जिसतरह कि दिव्य विज्ञान में पटु लोग कभी तो दिव्य ज्ञान रूपी अमृत प्रदान करते हैं और कभीकभी नहीं करते।

    नैवाविदन्क्षीयमाणं जलं गाधजलेचरा: ।

    यथायुरन्वहं क्षय्यं नरा मूढा: कुटुम्बिन: ॥

    ३७॥

    न--नहीं; एब--निस्सन्देह; अविदन्‌--जान पाये; क्षीयमाणम्‌--कम होते हुए; जलम्‌--जल को; गाध-जले--छिछले जल में;चरा:--गति करनेवाले; यथा--जिस तरह; आयु:--उनकी आयु; अनु-अहम्‌--प्रतिदिन; क्षय्यम्‌ू--घटती हुई; नराः:--लोग;मूढा:--मूर्ख; कुटुम्बिन:--परिवार के सदस्यों के साथ रहते हुए।

    अत्यन्त छिछले जल में तैरनेवाली मछलियाँ यह नहीं जान पाई कि जल घट रहा है, जिसतरह कि परिवार के मूर्ख लोग यह नहीं देख पाते कि हर दिन के बीतने पर उनकी बाकी आयुकिस तरह क्षीण होती जा रही है।

    गाधवारिचरास्तापमविन्दज्छरदर्कजम्‌ ।

    यथा दरिद्र: कृपण: कुट॒म्ब्यविजितेन्द्रिय: ॥

    ३८॥

    गाध-वारि-चरा:--छिछले जल में घूमनेवाली; तापम्‌--कष्ट; अविन्दन्‌--अनुभव किया; शरत्‌-अर्क-जम्‌--शरद ऋतु के सूर्यके कारण; यथा--जिस तरह; दरिद्र:--निर्धन व्यक्ति; कृपण:--कंजूस; कुटुम्बी--पारिवारिक जीवन में मग्न; अविजित-इन्द्रियः--इन्द्रियों पर संयम न करनेवाला |

    जिस प्रकार कंजूस तथा निर्धन कुटुम्बी अपनी इन्द्रियों को वश में न रखने के कारण कष्टपाता है उसी तरह छिछले जल में तैरनेवाली मछलियों को शरदकालीन सूर्य का ताप सहनापड़ता है।

    शनै: शनैर्जहु: पड्ढं स्थलान्यामं च वीरुध: ।

    यथाहंममतां धीरा: शरीरादिष्वनात्मसु ॥

    ३९॥

    शनैः: शनैः--धीरे धीरे; जहु:--त्याग दिया; पड्डमू--अपना कीचड़; स्थलानि--स्थल के स्थानों ने; आमम्‌--कच्ची अवस्था में;च--तथा; वीरुध:--पौधे; यथा--जिस तरह; अहम्‌-ममताम्‌--अहंभाव तथा ममता को; धीरा:--धीर मुनि; शरीर-आदिषु--भौतिक शरीर तथा अन्य बाह्य वस्तुओं पर केन्द्रित; अनात्मसु--आत्मा से सर्वथा पृथक्‌ |

    धीरे धीरे स्थल के विभिन्न भागों ने अपनी कीचड़-युक्त अवस्था त्याग दी और पौधे अपनीकच्ची अवस्था से आगे बढ़ गये।

    यह उसी तरह हुआ जिस तरह कि धीर मुनि अपना अहंभावतथा ममता त्याग देते हैं।

    ये वास्तविक आत्मा--अर्थात्‌ भौतिक शरीर तथा इसके उत्पादों सेसर्वथा भिन्न वस्तुओं-पर आधूृत होते हैं।

    निश्चलाम्बुरभूत्तृष्णीं समुद्र: शरदागमे ।

    आत्मन्युपरते सम्यड्मुनिर्व्युपरतागम: ॥

    ४०॥

    निश्चल--जड़; अम्बु:--जल; अभूत्‌--हो गया; तृष्नीम्‌--शान्त; समुद्र: --समुद्र; शरत्‌--शरद ऋतु के; आगमे-- आगमन से;आत्मनि--जब आत्मा; उपरते-- भौतिक कार्यों से विरक्त; सम्यक्‌--पूरी तरह; मुनिः--मुनि; व्युपरत--त्यागकर; आगम:--वैदिक मंत्रों का पाठ

    शरद ऋतु के आते ही समुद्र तथा सरोवर शान्त हो गये, उनका जल उस मुनि की तरह शान्तहो गया जो सारे भौतिक कार्यो से विरत हो गया हो और जिसने वैदिक मंत्रों का पाठ बन्द करदिया हो।

    केदारेभ्यस्त्वपोगृहन्कर्षका दृढसेतुभि: ।

    यथा प्राणैः स्त्रवज्ज्ञानं तन्निरोधेन योगिन: ॥

    ४१॥

    केदारेभ्य:--जलभरे धान के खेतों से; तु--तथा; अप:--जल; अगृहन्‌--ले लिया; कर्षका:--कृषकों ने; हढ--मजबूत;सेतुभि:--बाँधों से; यथा--जिस तरह; प्राणैः--इन्द्रियों से; सत्रवत्‌--बहती हुई; ज्ञानमू--चेतना को; तत्‌ू--उन इन्द्रियों के;निरोधेन--संयम से; योगिन:--योगीगण |

    जिस तरह योग का अभ्यास करनेवाले अपनी चेतना को क्षुब्ध इन्द्रियों द्वारा बाहर निकलनेसे रोकने के लिए अपनी इन्द्रियों को कठोर नियंत्रण में रखते हैं उसी तरह किसानों ने अपने धानके खेतों से जल को बहकर बाहर न जाने देने के लिए मजबूत मेंड़ें उठा दीं।

    शरदर्काशुजांस्तापान्भूतानामुडुपोहरत्‌ ।

    देहाभिमानजं बोधो मुकुन्दो त्रजयोषिताम्‌ ॥

    ४२॥

    शरत्‌-अर्क--शरदकालीन सूर्य की; अंशु--किरणों से; जान्‌--उत्पन्न; तापानू--कष्ट; भूतानाम्‌ू--सारे जीवों का; उड्डुप:--चन्द्रमा ने; अहरत्‌--हर लिया है; देह--शरीर के साथ; अभिमान-जम्‌--मिथ्या पहचान पर आधारित; बोध:--ज्ञान; मुकुन्दः--भगवान्‌ कृष्ण ने; ब्रज-योषिताम्‌ू--वृन्दावन की स्त्रियों के |

    शरदकालीन चन्द्रमा ने सूर्य की किरणों से उत्पन्न कष्ट से सभी जीवों को छुटकारा दिलादिया जिस प्रकार कि मनुष्य का ज्ञान उसे अपने भौतिक शरीर से अपनी पहचान करने से उत्पन्नहोनेवाले दुख से छुटकारा दिला देता है और जिस तरह भगवान्‌ मुकुन्द वृन्दावन की स्त्रियों कोउनके वियोग से उत्पन्न कष्ट से छुटकारा दिला देते हैं।

    खमशोभत निर्मेघं शरद्विमलतारकम्‌ ।

    सत्त्वयुक्ते यथा चित्तं शब्दब्रह्मार्थदर्शनम्‌ ॥

    ४३ ॥

    खम्‌--आकाश; अशोभत--चमकने लगा; निर्मेघम्‌--बादलों से रहित; शरत्‌--शरद ऋतु में; विमल--स्वच्छ; तारकम्‌--तथातारों से युक्त; सत्तव-युक्तम्‌--सात्विक अच्छाई से प्रदत्त; यथा--जिस तरह; चित्तम्‌--चित्त को; शब्द-ब्रह्य--वैदिक शास्त्र का;अर्थ--तात्पर्य; दर्शनम्‌-प्रत्यक्ष अनुभव किया जानेवाला |

    बादलों से रहित तथा साफ दिखते तारों से भरा हुआ शरदकालीन आकाश उसी तरहचमकने लगा, जिस प्रकार वैदिक शास्त्रों के तात्पर्य का प्रत्यक्ष अनुभव करनेवाले कीआध्यात्मिक चेतना करती है।

    अखण्डमण्डलो व्योम्नि रराजोडुगणै: शशी ।

    यथा यदुपतिः कृष्णो वृष्णिचक्रावृतो भुवि ॥

    ४४॥

    अखण्ड--अटूट; मण्डल:--गोला; व्योम्नि--आकाश में; रराज--चमकने लगा; उडु-गणै:--तारों के साथ; शशी--चन्द्रमा;यथा--जिस तरह; यदु-पति:--यदुवंश के स्वामी; कृष्ण: --कृष्ण; वृष्णि-चक्र --वृष्णियों के घेरे से; आवृत:--घिरे; भुवि--पृथ्वी पर

    पूर्ण चन्द्रमा तारों से घिकर आकाश में उसी तरह चमकने लगा, जिस तरह यदुवंश केस्वामी श्रीकृष्ण समस्त वृष्णियों से घिरकर पृथ्वी पर सुशोभित हो उठे।

    आए्लिष्य समशीतोष्णं प्रसूनवनमारुतम्‌ ।

    जनास्तापं जहुर्गोप्यो न कृष्णहतचेतस: ॥

    ४५॥

    आएलिष्य--आलिंगन करके; सम--समान; शीत-उष्णम्‌--सर्द तथा गर्म के बीच; प्रसून-वन-- पुष्पजन की; मारुतम्‌ू--वायु;जनाः--आम जनता; तापम्‌--कष्ट; जहु:--छोड़ सके; गोप्य: --गोपियाँ; न--नहीं; कृष्ण--कृष्ण द्वारा; हृत--चुराये गये;चेतस:--हृदय वाली ।

    गोपियों के हृदय कृष्ण द्वारा हर लिये गये थे अतः उनके अतिरिक्त सारे लोग पुष्पों से लदेवन से आनेवाली वायु का आलिंगन करके अपने अपने कष्ट भूल गये।

    यह वायु न तो गर्म थी,न सर्द।

    गावो मृगा: खगा नार्य: पुष्पिण्य: शरदाभवन्‌ ।

    अन्वीयमाना: स्ववृषै: फलैरीशक्रिया इव ॥

    ४६॥

    गाव:ः--गौवें; मृगा: --मृगियाँ; खगा: --चिड़ियाँ; नार्य:--स्त्रियाँ; पुष्पिण्य:-- अपने अपने रजोकाल में; शरदा--शरद केकारण; अभवनू--हो गईं; अन्बीयमाना:--पीछा की गईं; स्व-वृषैः--अपने अपने संगियों द्वारा; फलैः--उत्तम परिणामों से;ईश-क्रिया:--भगवान्‌ की सेवा में सम्पन्न कार्य; इब--सहश

    शरद ऋतु के प्रभाव से सारी गौवें, मृगियाँ, स्त्रियाँ तथा चिड़ियाँ ऋतुमती हो गईं और मैथुनसुख की खोज में उनके अपने-अपने जोड़े उनका पीछा करने लगे जिस प्रकार भगवान्‌ की सेवामें किये गये कार्य स्वतः सभी प्रकार के लाभप्रद फल देते हैं।

    उदहृष्यन्वारिजानि सूर्योत्थाने कुमुद्धिना ।

    राज्ञा तु निर्भया लोका यथा दस्यून्विना नृप ॥

    ४७॥

    उदहृष्यन्‌--प्रचुर मात्रा में फूल उठे; वारि-जानि--कमल ; सूर्य--सूर्य; उत्थाने--उग आने पर; कुमुत्‌--कुमुदिनी, जो रात में'फूलती है; विना--के अतिरिक्त; राज्ञा--राजा की उपस्थिति में; तु--निस्सन्देह; निर्भया:--निडर; लोका:-- जनता; यथा--जिस तरह; दस्यून्‌ू--चोरों के; विना--अतिरिक्त; नृप--हे राजा

    हे राजा परीक्षित, जब शरदकालीन सूर्य उदित हुआ तो रात में फूलनेवाली कुमुदिनी केअतिरिक्त सारे कमल के फूल प्रसन्नतापूर्वक खिल गये जिस तरह कि सशक्त शासक कीउपस्थिति में चोरों के अतिरिक्त सारे लोग निर्भय रहते हैं।

    पुरग्रामेष्वाग्रयणैरिन्द्रियैश्न महोत्सव: ।

    बभौ भू: पक्‍्वशष्याद्या कलाभ्यां नितरां हरे: ॥

    ४८॥

    पुर--नगरों; ग्रामेषु--तथा ग्रामों में; आग्रयणैः--नवान्न ग्रहण करने के लिए वैदिक यज्ञ सम्पन्न करके; इन्द्रियः --अन्य( सांसारिक ) समारोहों द्वारा; च--तथा; महा-उत्सवै:--बड़े बड़े उत्सवों द्वारा; बभौ--सुशोभित हो उठी; भू:--पृथ्वी; पक्‍्व--पका; शष्य--अन्न से; आढ्या--समृद्ध; कला-- भगवान्‌ की अंश रूप; आभ्याम्‌--उन दोनों ( कृष्ण तथा बलराम ) के साथ;नितराम्‌--अत्यधिक; हरे: -- भगवान्‌ का

    सभी नगरों तथा ग्रामों में लोगों ने नई फसल के नवातन्न का स्वागत और आस्वादन करने केलिए वैदिक अग्नि-यज्ञ करके तथा स्थानीय प्रथा एवं परम्परा का अनुसरण करते हुए अन्य ऐसेही समारोहों सहित बड़े-बड़े उत्सव मनाए।

    इस तरह नवान्न से समृद्ध एवं कृष्ण तथा बलराम कीउपस्थिति के कारण विशेषतया सुन्दर दिखने वाली पृथ्वी भगवान्‌ के अंश रूप में सुशोभित होड्ठी।

    वणिड्‌्मुनिनृपस्नाता निर्गम्यार्थान्प्रपेदिरे ।

    वर्षरुद्धा यथा सिद्धा: स्वपिण्डान्काल आगते ॥

    ४९॥

    वणिक्‌ --व्यापारीगण; मुनि--विरक्त साधुगण; नृप--राजा; स्नाता:--तथा ब्राह्मण विद्यार्थी; निर्गम्य--बाहर जाकर;अर्थान्‌ू--अपनी इच्छित वस्तुएँ; प्रपेदिरि--प्राप्त किया; वर्ष--वर्षा द्वारा; रुद्धा:--अवरुद्ध; यथा--जिस तरह; सिद्धा:--सिद्धपुरुष; स्व-पिण्डान्‌--इच्छित स्वरूपों को; काले--समय के; आगते--आने पर |

    व्यापारी, मुनिजन, राजा तथा ब्रह्मचारी विद्यार्थी, जो वर्षा के कारण जहाँ तहाँ अटके पड़े थेअब बाहर जाने और अपने अभीष्ट पदार्थ प्राप्त करने के लिए स्वतंत्र थे जिस तरह इसी जीवन मेंसिद्धि प्राप्त व्यक्ति उपयुक्त समय आने पर भौतिक शरीर त्यागकर अपने अपने स्वरूप प्राप्तकरते हैं।

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    अध्याय इक्कीसवाँ: गोपियाँ कृष्ण की बाँसुरी के गीत की महिमा करती हैं

    10.21श्रीशुक उवाचइत्थं शरत्स्वच्छजलं पद्माकरसुगन्धिना ।

    न्यविशद्वायुनावातं स गोगोपालकोच्युतः ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इत्थम्‌--इस प्रकार से; शरत्‌--शरद ऋतु का; स्वच्छ--साफ; जलम्‌--जलयुक्त; पढा-आकर--कमलपुष्पों से लदे सरोवर से; सु-गन्धिना--मीठी गंध से; न्‍्यविशत्‌-- प्रवेश किया; वायुना--वायुद्वारा; वातमू--चलायमान्‌; स--सहित; गो--गौवें; गोपालक:--तथा ग्वालबाल; अच्युतः--अच्युत भगवान्‌ ने।

    श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस तरह वृन्दावन का जंगल स्वच्छ शारदीय जलाशयों सेपूरित था और स्वच्छ जलाशयों में खिले कमल पुष्पों की सुगंधवाली वायु से शीतल था।

    अपनीगौवों तथा ग्वालसखाओं समेत अच्युत भगवान्‌ ने उस जंगल में प्रवेश किया।

    कुसुमितवनराजिशुष्मिभू ड्र-द्विजकुलघुष्टसर:सरिन्महीश्वम्‌ ।

    मधुपतिरवगाहा चारयन्गाः:सहपशुपालबलश्चुकूज वेणुम्‌ ॥

    २॥

    कुसुमित--पुष्पित; बन-राजि--वृक्षों के समूहों में; शुष्पि--उन्मत्त; भूड़--भौरे; द्विज--पक्षी; कुल--तथा समूह; घुष्ट--गुंजारकरते; सर:--जलाशय; सरित्‌--नदियाँ; महीश्रम्‌--तथा पर्वत; मधु-पति:--मधु के स्वामी ( कृष्ण ); अवगाह्म-- प्रवेश करके;चारयन्‌--चराते हुए; गा:ः--गौवें; सह-पशु-पाल-बल:--्वालबालों तथा बलराम के संग; चुकूज--बजाया; वेणुम्‌--अपनीबंशी को |

    वृन्दावन के सरोवर, नदियाँ तथा पर्वत पुष्पित वृक्षों पर मँडराते उन्मत्त भौंरों तथा पक्षियों केसमूहों से गुंजरित हो रहे थे।

    मधुपति ( श्रीकृष्ण ) ने ग्वालबालों तथा बलराम के संग उस जंगलमें प्रवेश किया और गौवें चराते हुए वे अपनी वंशी बजाने लगे।

    तद्ब्जस्त्रिय आश्रुत्य वेणुगीतं स्मरोदयम्‌ ।

    काश्रित्परोक्ष॑ं कृष्णस्य स्वसखी भ्योउन्ववर्णयन्‌ ॥

    ३॥

    तत्‌--उस; ब्रज-स्त्रियः--ग्वालों के गाँव की स्त्रियाँ; आश्रुत्य--सुनकर; वेणु-गीतम्‌--वंशी का गीत; स्मर-उदयम्‌--कामदेवको उत्पन्न करनेवाला; काश्चित्‌--उनमें से कोई; परोक्षम्‌--एकान्त में; कृष्णस्य--कृष्ण के; स्व-सखीभ्य:-- अपनी सखियों से;अन्ववर्णयन्‌--वर्णन किया।

    जब ब्रजग्राम की तरुण स्त्रियों ने कृष्ण की वंशी का गीत सुना, जो काम उत्पन्न करनेवालाथा, तो उनमें से कुछ स्त्रियाँ अपनी सखियों से एकान्त में कृष्ण के गुणों का बखान करने लगीं।

    तद्वर्णयितुमारब्धा: स्मरन्त्य: कृष्णचेष्टितम्‌ ।

    नाशकन्स्मरवेगेन विक्षिप्तमनसो नृप ॥

    ४॥

    तत्‌--उस; वर्णयितुम्‌--वर्णन करने के लिए; आरब्धा:--प्रारम्भ करके; स्मरन्त्य:--स्मरण करती; कृष्ण-चेष्टितम्‌--कृष्ण कीचेष्टाओं का; न अशकन्‌--असमर्थ थीं; स्मर-वेगेन--काम के वेग से; विक्षिप्त--विचलित; मनस:--मन वाली; नृप--हे राजापरीक्षित |

    गोपियाँ कृष्ण के विषय में बातें करने लगीं किन्तु जब उन्होंने कृष्ण के कार्यकलापों कास्मरण किया तो हे राजनू, काम ने उनके मनों को विचलित कर दिया जिससे वे कुछ भी न कहपाईं।

    बह्हापी्ड नटवरवपु: कर्णयो: कर्णिकारंबिभ्रद्वास: कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम्‌ ।

    रन्ध्रान्वेणोरधरसुधयापूरयन्गोपवृन्दैर्‌वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद्गीतकीर्ति: ॥

    ५॥

    बईह--मोरपंख; आपीडम्‌--उनके सिर के अलंकरण स्वरूप; नट-वर--नर्तकों में श्रेष्ठ; वपु;--दिव्य शरीर; कर्णयो: --कानोंमें; कर्णिकारमू--कमल जैसा नीला फूल; बिभ्रत्‌--पहने हुए; वास:--वस्त्र; कनक--सोने जैसा; कपिशम्‌--पीलाभ;वैजयन्तीम्‌--वैजयन्ती नामक; च--तथा; मालाम्‌--माला, हार; रन्श्रान्‌ू--छेद; वेणो:--वंशी के; अधर--होंठों पर; सुधया--अमृत से; आपूरयन्‌--भरते हुए; गोप-वृन्दैः--ग्वालबालों द्वारा; वृन्दा-अरण्यम्‌-- वृन्दावन की; स्व-पद--अपने चरणकमल केचिह्नों से; रमणम्‌--मुग्ध करनेवाले, रमणीय; प्राविशत्‌-- प्रवेश किया; गीत--गाया जाता हुआ; कीर्ति:--उनका यश

    अपने सिर पर मोरपंख का आभूषण, अपने कानों में नीले कर्णिकार फूल, स्वर्ण जैसाचमचमाता पीला वस्त्र तथा वैजयन्ती माला धारण किये भगवान्‌ कृष्ण ने सर्वश्रेष्ठ नर्तक कादिव्य रूप प्रदर्शित करते हुए वृन्दावन के वन में प्रवेश करके अपने पदचिन्हों से इसे रमणीकबना दिया।

    उन्होंने अपने होंठों के अमृत से अपनी वंशी के छेदों को भर दिया और ग्वालबालों नेउनके यश का गान किया।

    इति वेणुरवं राजन्सर्वभूतमनोहरम्‌ ।

    श्रुत्वा ब्रजस्त्रिय: सर्वा वर्णयन्त्योडभिरेभिरे ॥

    ६॥

    इति--इस प्रकार; वेणु-रवम्‌--वंशी की ध्वनि; राजन्‌--हे राजा परीक्षित; सर्व-भूत--सारे जीवों के; मन:ः-हरम्‌--मनों कोहरनेवाला; श्रुत्वा--सुनकर; ब्रज-स्त्रिय:--ब्रज ग्राम में खड़ी स्त्रियों ने; सर्वा:--सभी; वर्णयन्त्य:--बखान करने में व्यस्त;अभिरेभिरे--एक-दूसरे का आलिंगन किया।

    हे राजन, जब ब्रज की युवतियों ने सभी प्राणियों के मन को मोह लेने वाली कृष्ण की वंशीकी ध्वनि सुनी तो वे एक-दूसरे का आलिंगन कर-करके उसका बखान करने लगीं।

    श्रीगोप्य ऊचुःअक्षण्वतां फलमिदं न पर विदाम:सख्य: पशूननुविवेशयतोर्वयस्यै: ।

    वक्त्र ब्रजेशसुतयोरनवेणुजुष्टयैर्वा निपीतमनुरक्तकटाक्षमोक्षम्‌ ॥

    ७॥

    श्री-गोप्य: ऊचु:--गोपियों ने कहा; अक्षण्वताम्‌-- आँखवालों को; फलम्‌--फल; इृदम्‌--यह; न--नहीं; परम्‌-- अन्य;विदाम:--हम जानती हैं; सख्य:--हे सखियो; पशून्‌ू--गौवों को; अनुविवेशयतो: --एक जंगल से दूसरे जंगल में प्रवेशकराकर; वयस्यै:--हमउम्र सखाओं के साथ; वक्त्रमू--मुख; ब्रज-ईश--महाराज नन्द के; सुतयो: --दोनों पुत्रों के; अनु-वेणु-जुष्टम्‌--वंशी से लैस; यैः--जिससे; वा--अथवा; निपीतम्‌--प्रेरित; अनुरक्त--प्रेममय; कट-अक्ष--तिरछी दृष्टि, चितवन;मोक्षम्‌-छोड़ते हुए

    गोपियों ने कहा : सखियो, जो आँखें नन्‍्द महाराज के दोनों पुत्रों के सुन्दर मुखमण्डलों कादर्शन करती हैं, वे निश्चय ही भाग्यशाली हैं।

    ज्योंही वे दोनों अपने मित्रों से घिरकर तथा गौवोंको अपने आगे आगे करके जंगल में प्रवेश करते हैं, तो वे अपने मुख में अपनी वंशियाँ धारणकरके वृन्दावनवासियों पर प्यार-भरी चितवन से देखते हैं।

    जो आँखोंवाले हैं उनके लिए हमारीसमझ में देखने की इससे बड़ी अन्य कोई वस्तु नहीं है।

    चूतप्रवालबरईस्तबकोत्पलाब्ज-मालानुपृक्तपरिधानविचित्रवेशौ ।

    मध्ये विरिजतुरलं पशुपालगोष्ठयांरड्डे यथा नटवरौ कवच गायमानौ ॥

    ८॥

    चूत--आम का वृक्ष; प्रवाल--कोंपलों से युक्त; बह--मोरपंख; स्तबक--फूल के गुच्छे; उत्पल--कमल; अब्ज--तथाकुमुदिनियाँ; माला--मालाओं से; अनुपृक्त--स्पर्श किया हुआ; परिधान--उनके वस्त्र; विचित्र--तरह तरह के; वेशौ--वेश में;मध्ये--बीच में; विरेजतु:--वे दोनों सुशोभित थे; अलम्‌--शान से; पशु-पाल--ग्वालबालों की; गोष्ठय्याम्‌-गोष्ठी के भीतर;र्के--रंगमंच पर; यथा--जिस तरह; नट-वरौ--दो श्रेष्ठ नतक; क्वच--कभी; गायमानौ--गाते हुए।

    तरह तरह के आकर्षक परिधानों के ऊपर अपनी मालाएँ डाले और मोरपंख, कमल,कमलिनी, आम की कोंपलों तथा पुष्पकलियों के गुच्छों से अपने को अलंकृत किये हुए कृष्णतथा बलराम ग्वालबालों की टोली में शोभायमान हो रहे हैं।

    वे नाटक-मंच पर प्रकट होनेवालेश्रेष्ठ नर्तकों की तरह दिख रहे हैं और कभी कभी वे गाते भी हैं।

    गोप्य: किमाचरदयं कुशल सम वेणु-दामोदराधरसुधामपि गोपिकानाम्‌ ।

    भुड़े स्वयं यदवशिष्टरसं हृदिन्योहृष्यत्त्वचो श्रु मुमुचुस्तरवो यथार्य: ॥

    ९॥

    गोप्य:--हे गोपियो; किम्‌--क्या; आचरत्‌--कर डाला; अयम्‌--यह; कुशलम्‌--शुभ कृत्य; स्म--निश्चय ही; वेणु:--बाँसुरी;दामोदर--कृष्ण की; अधर-सुधाम्‌--होंठ का अमृत; अपि-- भी; गोपिकानाम्‌--गोपियों का; भुड्ढे -- भोग करता है;स्वयम्‌--स्वतंत्र रूप से; यत्‌--जिसके लिए; अवशिष्ट--बचा हुआ; रसम्‌ू--केवल स्वाद; हृदिन्य:--नदियाँ; हृष्यत्‌--प्रसन्नहोते हुए; त्वच:--जिनके शरीर; अश्रु--आँसू; मुमुचु:--गिरे; तरव: --वृक्ष; यथा--जिस तरह; आर्या:--बाप-दादे

    हे गोपियो, कृष्ण के अधरों का मुक्तरूप अमृतपान करने और हम गोपियों के हेतु जिनकेलिए ही वास्तव में यह अमृत है केवल स्वादमात्र छोड़ने के लिए इस वंशी ने कौन-से शुभ-कृत्यकिये होंगे।

    वंशी के बाप-दादे बाँस के वृक्षों ने हर्ष के अश्रु गिराये होंगे।

    जिस नदी के तट परयह वृक्ष उत्पन्न हुआ होगा उस मातारूपी नदी ने हर्ष का अनुभव किया होगा; इसीलिए ये खिलेहुए कमल के फूल उसके शरीर के रोमों की भाँति खड़े हुए हैं।

    यद्देवकीसुतपदाम्बुजलब्धलक्षिम ।

    गोविन्दवेणुमनु मत्तमयूरनृत्यंप्रेक्ष्याद्रिसान्ववरतान्यसमस्तसत्त्वम्‌ ॥

    १०॥

    वृन्दावनम्‌--वृन्दावन; सखि--हे सखी; भुवः--पृथ्वी पर; वितनोति--फैलाता है; कीर्तिम्‌ू--यश को; यत्‌-- क्योंकि; देवकी-सुत--देवकी-पुत्र के; पद-अम्बुज--चरणकमलों से; लब्ध--प्राप्त; लक्षिम--कोष; गोविन्द-वेणुम्‌--गोविन्द की वंशी;अनु--सुनने पर; मत्त--उम्मत्त; मयूर--मोरों का; नृत्यम्‌--जिसमें नृत्य होता है; प्रेक्ष्य--देखकर; अद्वि-सानु--पर्वतों कीचोटियों पर; अवरत--स्तम्भित; अन्य--दूसरे; समस्त--सभी; सत्त्वम्‌--प्राणी |

    है सखी, देवकी पुत्र कृष्ण के चरणकमलों का कोष पाकर वृन्दावन पृथ्वी की कीर्ति कोफैला रहा है।

    जब मोर गोविन्द की वंशी सुनते हैं, तो वे मस्त होकर नाचने लगते हैं और जबअन्य प्राणी उन्हें पर्वत की चोटी से इस तरह नाचते देखते हैं, तो वे सभी स्तब्ध रह जाते हैं।

    जाह्ज्कःधन्या: सम मूढगतयोपि हरिण्य एताया नन्दनन्दनमुपात्तविचित्रवेशम्‌ ।

    आकर्णय्य वेणुरणितं सहकृष्णसारा:पूजां दधुर्विरचितां प्रणयावलोकै: ॥

    ११॥

    धन्या:--धन्य; स्म--निश्चय ही; मूढ-गतय: --अज्ञानी पशु योनि में जन्म लेकर; अपि--यद्यपि; हरिण्य:--हिरणी; एता: --ये;या:--जो; नन्द-नन्दनम्‌--महाराज नन्द के पुत्र को; उपात्त-विचित्र-वेशम्‌--अत्यन्त आकर्षक वस्त्र पहने; आकर्ण्य --सुनकर;वेणु-रणितम्‌--उनकी वंशी की ध्वनि; सह-कृष्ण-सारा:--कृष्ण हिरणों ( अपने पतियों ) के साथ; पूजाम्‌ दधु:--पूजा की;विरचिताम्‌--सम्पन्न किया; प्रणय-अवलोकै: --अपनी प्रेमपूर्ण चितवनों से |

    ये मूर्ख हिरनियाँ धन्य हैं क्योंकि ये नन्‍्द महाराज के पुत्र के निकट पहुँच गई हैं, जो खूबसजेधजे हुए हैं और अपनी बाँसुरी बजा रहे हैं।

    सचमुच ही हिरनी तथा हिरन दोनों ही प्रेम तथा कृष्णं निरीक्ष्य वनितोत्सवरूपशीलंश्रुत्वा च तत्क्वणितवेणुविविक्तगीतम्‌ ।

    देव्यो विमानगतय: स्मरनुन्नसाराभ्रश्यत्प्रसूनकबरा मुमुहुर्विनीव्य; ॥

    १२॥

    कृष्णम्‌--कृष्ण को; निरीक्ष्य--देखकर; वनिता--स्त्रियों के लिए; उत्सव--उत्सव; रूप--जिसका सौन्दर्य; शीलम्‌--तथाचरित्र; श्रुत्वा--सुनकर; च--तथा; तत्‌--उनसे; क्वणित-- ध्वनित; वेणु--वंशी का; विविक्त--स्पष्ट; गीतम्‌--गीत; देव्य:--देवताओं की पत्नियाँ; विमान-गतयः--अपने विमानों में यात्रा करती; स्मर--कामदेव द्वारा; नुन्न--विचलित; सारा:--जिनकेहृदय; भ्रश्यत्‌--बिछलते हुए; प्रसून-कबरा:--केश में बँधे फूल; मुमुहुः--मोहित हो गईं; विनीव्य:--उनकी पेटियाँ ( नीवीबन्धन ) ढीले पड़ गये |

    कृष्ण का सौन्दर्य तथा शील समस्त स्त्रियों के लिए उत्सव स्वरूप है।

    देवताओं की पत्नियाँअपने पतियों के साथ विमानों में उड़ते हुए जब उन्हें देखती हैं और उनके गूँजते हुए वेणुगीत कीध्वनि सुनती हैं, तो उनके हृदय कामदेव द्वारा दहला दिये जाते हैं और वे इतनी मोहित हो जाती हैंकि उनके केशों से फूल गिर जाते हैं और उनकी करधनियाँ ( पेटियाँ ) ढीली पड़ जाती हैं।

    गावश्च कृष्णमुखनिर्गतवेणुगीत-पीयूषमुत्तभितकर्णपुटै: पिबन्त्य: ।

    शावाः स्नुतस्तनपय:कवला: सम तस्थु-गेविन्दमात्मनि हशाश्रुकला: स्पृशन्त्य; ॥

    १३॥

    गावः--गौवें; च--तथा; कृष्ण-मुख--कृष्ण के मुँह से; निर्गत--निकले; बेणु--वंशी के; गीत--गीत के; पीयूषम्‌-- अमृतको; उत्तभित--ऊँचे उठाये हुए; कर्ण--कानों के; पुटैः--दोनों से; पिबन्त्य:--पीते हुए; शावा:ः--बछड़े; स्नुत--निकलताहुआ; स्तन--स्तनों से; पयः--दूध; कवला:--कौर; स्म--निस्सन्देह; तस्थु:--शान्त खड़ी; गोविन्दम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण को;आत्मनि--अपने मनों में; हशा--अपनी दृष्टि से; अश्रु-कला:--आँसुओं की झड़ी; स्पृशन्त्यः:--छूते हुए |

    गौवें अपने नलिकारूपी दोनों कानों को उठाये हुए कृष्ण के मुख से निकले वेणुगीत केअपृत का पान कर रही हैं।

    बछड़े अपनी माताओं के गीले स्तनों से निकले दूध को मुख में भरे-भरे स्थिर खड़े रहते हैं जब वे अपने अश्रुपूरित नेत्रों से गोविन्द को अपने भीतर ले आते हैं औरअपने हृदयों में उनका आलिंगन करते हैं।

    प्रायो बताम्ब विहगा मुनयो वनेस्मिन्‌कृष्णेक्षितं तदुदितं कलवेणुगीतम्‌ ।

    आरुह्व ये द्रुमभुजान्नुचिरप्रवालान्‌श्रृण्वन्ति मीलितहशो विगतान्यवाच: ॥

    १४॥

    प्राय:--लगभग; बत--निश्चय ही; अम्ब--हे माता; विहगा:--पक्षीगण; मुनयः--मुनिगण; बने--जंगल में; अस्मिन्‌--इस;कृष्ण-ईक्षितम्‌-कृष्ण का दर्शन करने के लिए; तत्‌-उदितम्‌--उनके द्वारा उत्पन्न; कल-वेणु-गीतम्‌--वंशीवादन से उत्पन्नमधुर ध्वनि; आरुह्मय --उठकर; ये--जो; द्रुम-भुजान्‌--वृक्षों की शाखाओं को; रुचिर-प्रवालान्‌--सुन्दर लताओं से युक्त;श्रुण्वन्ति--सुनते हैं; मीलित-ह॒शः--अपनी आँखें बन्द करके; विगत-अन्य-वाच:--अन्य सारी ध्वनियाँ रोककर

    अरी माई! कृष्ण का दर्शन करने हेतु इस जंगल में सारे पक्षी उड़कर वृक्षों की सुन्दरशाखाओं पर बैठ गये हैं।

    वे एकान्त में अपनी आँखें मूँदकर उनकी वंशी की मधुर ध्वनि को हीसुन रहे हैं और वे किसी अन्य ध्वनि की ओर आकृष्ट नहीं होते।

    सचमुच ये पक्षी महामुनियों कीकोटि के हैं।

    नदहावस्तदा तदुपधार्य मुकुन्दगीत-मावर्तलक्षितमनो भवभग्नवेगा: ।

    आलिड्नस्थगितमूर्मि भुजैर्मुरारे-गृह्न्ति पादयुगलं कमलोपहारा: ॥

    १५॥

    नद्यः--नदियाँ; तदा--तब; तत्‌--उसे; उपधार्य--अनुभव करके; मुकुन्द--कृष्ण के; गीतम्‌--वेणुगीत को; आवर्त--भँवरोंसे; लक्षित-- प्रकट; मन:-भव--अपनी दाम्पत्य इच्छा से; भग्न--टूटी; बेगा:-- धाराएँ; आलिड्रन--उनके आलिंगन से;स्थगितम्‌--जड़ हुई; ऊर्मि-भुजैः--लहर रूपी भुजाओं से; मुरारेः--मुरारी के; गृह्न्ति--पकड़ लेती हैं; पाद-युगलम्‌--दोनोंचरणकमल; कमल-उपहारा: --कमल फूलों की भेंटें लेकर

    जब नदियाँ कृष्ण का वेणुगीत सुनती हैं, तो उनके मन उन्हें चाहने लगते हैं जिससे नदियोंकी धाराओं का प्रवाह खंडित हो जाता है और जल क्षुब्ध हो उठता है और भँवर बनकर घूमनेलगता है।

    तत्पश्चात्‌ नदियाँ अपनी लहरों रूपी भुजाओं से मुरारी के चरणकमलों का आलिंगनकरती हैं और उन्हें पकड़कर उनपर कमलपुष्पों की भेंटें चढ़ाती हैं।

    इश्ठातपे ब्रजपशून्सह रामगोपै:सश्जारयन्तमनु वेणुमुदीरयन्तम्‌ ।

    प्रेमप्रवृद्ध उदितः कुसुमावलीभि:सख्युर्व्यधात्स्ववपुषाम्बुद आतपत्रम्‌ ॥

    १६॥

    इष्ठा--देखकर; आतपे--सूर्य की भरी गर्मी में; ब्रज-पशून्‌--त्रज के पालतू पशु; सह--साथ-साथ; राम-गोपै:--बलराम तथाग्वालों के; सजञ्जारयन्तमू--चराते हुए; अनु--बारम्बार; वेणुम्‌--वंशी; उदीरयन्तम्‌--तेजी से बजाते हुए; प्रेम--प्रेमवश;प्रवृद्ध:--बढ़ा हुआ; उदित:--उठकर; कुसुम-आवलीभि:--फूलों के समूहों से ( ओस के कणों से युक्त ); सख्यु:--अपनेमित्रों के लिए; व्यधात्‌ू--बनाया; स्व-वपुषा-- अपने ही शरीर से; अम्बुदः --बादल ने; आतपत्रम्‌--छाता |

    भगवान्‌ कृष्ण बलराम तथा ग्वालबालों के संग में ब्रज के समस्त पशुओं को चराते हुएग्रीष्म की कड़ी धूप में भी निरन्तर अपनी बाँसुरी बजाते रहते हैं।

    यह देखकर आकाश के बादलने प्रेमवश अपने को फैला लिया है।

    ऊँचे उठकर तथा फूल जैसी असंख्य जल की बूँदों से उसनेअपने मित्र के लिए अपने ही शरीर को छाता बना लिया है।

    पूर्णा: पुलिन्द उरुगायपदाब्जराग-श्रीकुद्डु मेन दयितास्तनमण्डितेन ।

    तहर्शनस्मररुजस्तृणरूषितेनलिम्पन्त्य आननकुचेषु जहुस्तदाधिम्‌ ॥

    १७॥

    पूर्णा:--पूर्णतया संतुष्ट; पुलिन्द्ः--शबर जाति की स्त्रियाँ; उरुगाय-- भगवान्‌ कृष्ण के; पद-अब्ज--चरणकमलों से; राग--लाल रंग का; श्री-कुट्डू मेन--दिव्य कुंकुम चूर्ण से; दयिता--अपनी प्रेयसी के; स्तन--वक्षस्थल; मण्डितेन--अलंकृत हुए;तत्‌--उसके; दर्शन--देखने से; स्मर--कामदेव का; रुज:--कष्ट अनुभव करते हुए; तृण--घास के ऊपर; रूषितेन--अनुरक्त;लिम्पन्त्य:--पोतते हुए; आनन--मुख; कुचेषु--तथा स्तनों पर; जहु: --उन्होंने त्याग दिया; तत्‌ू--उस; आधिम्‌--मानसिकपीड़ा को

    वृन्दावन क्षेत्र की आदिवासी ललनाएँ लाल लाल कुंकुम चूर्ण से अंकित घास को देखकरकामोत्तेजित हो उठती हैं।

    कृष्ण के चरणकमलों के रंग से प्रदत्त यह चूर्ण मूलतः उनकीप्रेमिकाओं के स्तनों को अलंकृत करता था और जब उसे ही आदिवासी स्त्रियाँ अपने मुखों तथास्तनों पर मल लेतीं हैं, तो उनकी सब चिंताए जाती रहती हैं।

    हन्तायमद्रिरबला हरिदासवर्योयद्रामकृष्णचरणस्परश प्रमोद: ॥

    मान तनोति सहगोगणयोस्तयोर्यत्‌'पानीयसूयवसकन्दरकन्दमूलै: ॥

    १८॥

    हन्त--ओह; अयम्‌--यह; अद्विः--पर्वत; अबला:--हे सखियो; हरि-दास-वर्य:--भगवान्‌ के सेवकों में से सर्व श्रेष्ठ; यत्‌--चूँकि; राम-कृष्ण-चरण--कृष्ण तथा बलराम के चरणकमलों के; स्परश--स्पर्श से; प्रमोद:ः--हर्षित; मानम्‌-- आदर;'तनोति-- प्रदान करता है; सह--साथ; गो-गणयो:--गौवें, बछड़े तथा ग्वालबाल के; तयो:--उन दोनों ( श्रीकृष्ण तथाबलराम ) को; यत्‌-- क्योंकि; पानीय--पेय जल के साथ; सूयवस--अत्यन्त मुलायम घास; कन्दर--गुफाएँ; कन्द-मूलै:--तथा खाद्य कनन्‍्दों से

    यह गोवर्धन पर्वत समस्त भक्तों में सर्वश्रेष्ठ है।

    सखियो, यह पर्वत कृष्ण तथा बलराम केसाथ ही साथ उनकी गौवों, बछड़ों तथा ग्वालबालों की सभी प्रकार की आवश्यकताओं-पीनेका पानी, अति मुलायम घास, गुफाएँ, फल, फूल तथा तरकारियों-की पूर्ति करता है।

    इस तरहयह पर्वत भगवान्‌ का आदर करता है।

    कृष्ण तथा बलराम के चरणकमलों का स्पर्श पाकरगोवर्धन पर्वत अत्यन्त हर्षित प्रतीत होता है।

    गा गोपकैरनुवनं नयतोरुदार-वेणुस्वन: कलपदैस्तनुभृत्सु सख्यः ।

    अस्पन्दनं गतिमतां पुलकस्तरुणांनिर्योगपाशकृतलक्षणयोर्विचित्रम्‌ ॥

    १९॥

    गाः--गौवें; गोपकैः--ग्वालबालों के साथ; अनु-वनमू--प्रत्येक जंगल तक; नयतोः--ले जानेवाले; उदार--अत्यन्त उदार;वेणु-स्वनै:--वंशी की ध्वनि से; कल-पदैः--मधुर स्वर से; तनुभृत्सु--जीवों से; सख्य:--हे सखियो; अस्पन्दनम्‌-स्पन्दन काअभाव; गति-मताम्‌--गति करनेवाले जीवों का; पुलक:--हर्ष; तरुणम्‌--वृक्षों का; निर्योग-पाश--गौवों के पिछले पाँवों कोबाँधने के लिए प्रयुक्त रस्सी, नोई; कृत-लक्षणयो:--लक्षणों वालों का; विचित्रमू-- आश्चर्यजनक |

    हे सखियो, जब कृष्ण तथा बलराम अपने ग्वालमित्रों के साथ जंगल से होकर अपनी गौवेंलेकर गुजरते हैं, तो वे अपने साथ दूध दोहन के समय गौवों की पिछली टाँगें बाँधने के लिएनोई लिये रहते हैं।

    जब भगवान्‌ कृष्ण अपनी वंशी बजाते हैं, तो मधुर संगीत से चर प्राणी स्तब्धरह जाते हैं और अचर वृक्ष आनन्दातिरिक से हिलने लगते हैं।

    निश्चय ही ये बातें अत्यन्तआश्चर्यजनक हैं।

    एवंविधा भगवतो या वृन्दावनचारिण: ।

    वर्णयन्त्यो मिथो गोप्य: क्रीडास्तन्मयतां ययु: ॥

    २०॥

    एवमू-विधा:--ऐसा; भगवत: -- भगवान्‌ का; या: --जो; वृन्दावन-चारिण: --वृन्दावन के जंगल में घूमनेवाला; वर्णयन्त्य: --वर्णन करती हुई; मिथ:--परस्पर; गोप्य: --गोपियों ने; क्रीडा:--लीलाएँ; तत्‌-मयताम्‌ू--उनका भावमय ध्यान; ययुः:--प्राप्तकिया।

    इस तरह वृन्दावन के जंगल में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ द्वारा विचरण से सम्बन्धित क्रीड़ामयीलीलाओं को एक-दूसरे से कहती हुई गोपियाँ उनके विचारों में पूर्णतया निमग्न हो गईं।

    TO

    अध्याय बाईसवाँ: कृष्ण ने अविवाहित गोपियों के वस्त्र चुराये

    10.22श्रीशुक उबाचहेमन्ते प्रथमे मासि नन्दव्रजकमारिकाः ।

    चेरुईविष्यं भुज्जाना: कात्यायन्यर्चनब्रतम्‌ ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; हेमन्ते--हेमन्त ( जाड़े की ) ऋतु में; प्रथमे--प्रथम; मासि--महीने में; नन्‍्द-ब्रज--नन्द महाराज के ग्वालों का गाँव; कुमारिका:--अविवाहित लड़कियों ने; चेरु:--सम्पन्न किया; हविष्यम्‌ू--बिना मसालेकी खिचड़ी; भुझ्ञाना:--खाकर; कात्यायनी --देवी कात्यायनी का; अर्चन-ब्रतम्‌-पूजा का ब्रत |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हेमन्त ऋतु के पहले मास में गोकुल की अविवाहिता लड़कियोंने कात्यायनी देवी का पूजा-ब्रत रखा।

    पूरे मास उन्होंने बिना मसाले की खिचड़ी खाई।

    आप्लुत्याम्भसि कालिन्द्या जलान्ते चोदितेडरुणे कृत्वा प्रतिकृतिं देवीमानर्चुनंप सैकतीम्‌ ।

    गन्धैर्माल्यै: सुरभिभिरबलिभिर्धूपदी पकै:उच्चावचैश्लोपहारैः प्रवालफलतण्डुलै: ॥

    ३॥

    आप्लुत्य--स्नान करके; अम्भसि--जल में; कालिन्द्या:--यमुना के; जल-अन्ते--नदी के तट पर; च--तथा; उदिते--उदयहोने वाले; अरुणे--तड़के; कृत्व--करके; प्रति-कृतिम्‌--अर्चाविग्रह; देवीम्‌ू--देवी; आनर्चु:--पूजा की; नृप--हे राजापरीक्षित; सैकतीम्‌--मिट्टी की; गन्धैः--चन्दन तथा अन्य सुगन्धित द्रव्यों से; माल्यै:ः--मालाओं से; सुरभिभि:--सुगन्धित;बलिभि:--भेंटों से; धूप-दीपकै:--धूप तथा दीपकों से; उच्च-अवचै:--ऐ श्वर्यवान तथा सीधीसादी भी; च--तथा; उपहारैः --भेंटों से; प्रवाल--कोंपल; फल--फल; तण्डुलै:--तथा सुपारी से।

    हे राजन, सूर्योदय होते ही यमुना के जल में स्नान करके वे गोपियाँ नदी के तट पर देवीदुर्गा का मिट्टी का अर्चाविग्रह बनातीं।

    तत्पश्चात्‌ वे चन्दन लेप जैसी सुगन्धित सामग्री और महँगीऔर साधारण वस्तुओं यथा दीपक, फल, सुपारी, कॉंपलों तथा सुगन्धित मालाओं और अगुरुके द्वारा उनकी पूजा करतीं।

    कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि ।

    नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नमः ।

    इति मन्त्र जपन्त्यस्ता: पूजां चक्करु: कमारिका: ॥

    ४॥

    कात्यायनी--हे देवी कात्यायनी; महा-माये--हे महामाया; महा-योगिनि--हे महायोगिनी; अधी श्रवरि--हे शक्तिमान नियंत्रक;नन्द-गोप-सुतम्‌--महाराज नंद के पुत्र को; देवि--हे देवी; पतिम्‌--पति; मे--मेरा; कुरू--बना दें; ते--आपको; नम:--नमस्कार; इति--इन शब्दों से; मन्त्रमू--मंत्र; जपन्त्य:--जपती हुई; ताः--उन; पूजाम्‌--पूजा; चक्रु:--सम्पन्न किया;कुमारिका:--अविवाहिता लड़कियों ने

    प्रत्येक अविवाहिता लड़की ने निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुए उनकी पूजा की:'हे देवी कात्यायनी, हे महामाया, हे महायोगिनी, हे अधीश्वरी, आप महाराज नन्द के पुत्र कोमेरा पति बना दें।

    मैं आपको नमस्कार करती हूँ।

    एवं मासं ब्रतं चेरु: कुमार्य: कृष्णचेतस: ।

    भद्गकालीं समानर्चु्भूयात्रन्दसुत:ः पति: ॥

    ५॥

    एवम्‌--इस प्रकार; मासम्‌ू--पूंरे मास भर; ब्रतम्‌ू--ब्रत; चेरु:--रखा; कुमार्य:--लड़कियों ने; कृष्ण-चेतस:--कृष्ण में लीनमनोंवाली; भद्र-कालीम्‌--देवी कात्यायनी को; समानर्चु:--ठीक से पूजा; भूयात्‌-- भगवान्‌ करे ऐसा हो; नन्द-सुत:ः--राजानन्द का पुत्र; पति:--मेरा पति

    इस प्रकार उन लड़कियों ने पूरे मास अपना व्रत रखा और अपने मन को कृष्ण में पूर्णतयालीन करते हुए इस विचार पर ध्यान लगाये रखा कि 'राजा नन्द का पुत्र मेरा पति बने ' इसप्रकार से देवी भद्रकाली की पूजा की।

    ऊषस्युत्थाय गोत्रै: स्वैरन्योन्याबद्धबाहव: ।

    कृष्णमुच्चैर्जगुर्यान्त्यः कालिन्द्ां स्‍्नातुमन्वहम्‌ ॥

    ६॥

    ऊषसि--तड़के; उत्थाय--उठकर; गोत्रै:--नामों से; स्वै:ः--अपने अपने; अन्योन्य--एक-दूसरे का; आबद्ध--पकड़कर;बाहवः--हाथ; कृष्णम्‌--कृष्ण की महिमा हेतु; उच्चैः--उच्चा स्वर से; जगुः--गाने लगतीं; यान्त्य:--जाते हुए; कालिन्द्यामू--यमुना नदी को; स्नातुमू--स्नान करने के लिए; अनु-अहम्‌--प्रतिदिन |

    प्रतिदिन वे बड़े तड़के उठतीं।

    एक-दूसरे का नाम ले लेकर वे सब हाथ पकड़कर स्नान केलिए कालिन्दी जाते हुए कृष्ण की महिमा का जोर जोर से गायन करतीं।

    नद्या: कदाचिदागत्य तीरे निश्षिप्य पूर्ववत्‌ ।

    वासांसि कृष्णं गायन्त्यो विजह्ढः सलिले मुदा ॥

    ७॥

    नद्या:--नदी के; कदाचित्‌--एक बार; आगत्य--आकर; तीरे--तट पर; निश्षिप्प--उतारकर; पूर्व-वत्‌--पहिले जैसा;वासांसि--अपने वस्त्र; कृष्णम्‌--कृष्ण के विषय में; गायन्त्य:--गाती हुई; विजहु:--खेलने लगतीं; सलिले--जल में; मुदा--प्रसन्नतापूर्वक

    एक दिन वे नदी के तट पर आईं और पहले की भाँति अपने वस्त्र उतारकर जल में क्रीड़ाकरने लगीं और कृष्ण के यश का गान करने लगीं।

    भगवांस्तदभिप्रेत्य कृष्नो योगेश्वरेश्वर: ।

    वयस्यैरावृतस्तत्र गतस्तत्कर्मसिद्धये ॥

    ८॥

    भगवानू्‌-- भगवान्‌; तत्‌ू--वह; अभिप्रेत्य--देखकर; कृष्ण: -- श्रीकृष्ण; योग-ई श्वर-ई श्वरः -- यो गे श्वरों के भी ईश्वर; वयस्यैः --तरुण संगियों द्वारा; आवृतः--घिरे; तत्र--वहाँ; गत:--गये; तत्‌ू--उन कन्याओं के; कर्म--अनुष्ठान; सिद्धये--फल के लिएविश्वास दिलाने।

    योगेश्वरों के भी ईश्वर भगवान्‌ कृष्ण इस बात से अवगत थे कि गोपियाँ क्‍या कर रही हैंअतएव वे अपने समवयस्क संगियों के साथ गोपियों को उनकी साधना का फल देने गये।

    तासां वासांस्युपादाय नीपमारुहय सत्वर: ।

    हसद्धिः प्रहसन्बालै: परिहासमुवाच ह ॥

    ९॥

    तासाम्‌--उन कन्याओं के; वासांसि--वस्त्रों को; उपादाय--लेकर; नीपम्‌ू--कदम्ब वृक्ष में; आरुह्म--चढ़कर; सत्वर:--फुर्तीसे; हसद्धिः--हँसते हुए; प्रहसन्‌--स्वयं जोर से हँसते; बालैः:--बालकों के साथ; परिहासम्‌--मजाक में; उवाच ह--कहा |

    लड़कियों के वस्त्र उठाकर वे तेजी से कदम्ब वृक्ष की चोटी पर चढ़ गये।

    तत्पश्चात्‌ जब वेजोर से हँसे तो उनके साथी भी हँस पड़े और उन्होंने उन लड़कियों से ठिठोली करते हुए कहा।

    अत्रागत्याबला: काम स्वं स्व वास: प्रगृह्मयताम्‌ ।

    सत्यं ब्रवाणि नो नर्म यद्यूयं ब्रतकर्शिता: ॥

    १०॥

    अत्र--यहाँ; आगत्य--आकर; अबला:--हे लड़कियो; कामम्‌--यदि चाहती हो; स्वम्‌ स्वमू--अपने अपने; वास:--वस्त्र;प्रगृह्मतामू--ले जाओ; सत्यम्‌--सच; ब्रुवाणि--मैं सच कह रहा हूँ; न--नहीं; उ--प्रत्युत; नर्म--मजाक; यत्‌-- क्योंकि;यूयम्‌-तुम; ब्रत--तपस्या के व्रत से; क्शिता:-- थकी हुईं |

    [भगवान्‌ कृष्ण ने कहा : हे लड़कियो, तुम चाहो तो एक एक करके यहाँ आओ औरअपने वस्त्र वापस ले जाओ।

    मैं तुम लोगों से सच कह रहा हूँ।

    मैं मजाक नहीं कर रहा हूँ क्योंकिमैं देख रहा हूँ कि तुम लोग तपस्यापूर्ण व्रत करने से थक गई हो।

    न मयोदितपूर्व वा अनृतं तदिमे विदुः ।

    एकैकशः प्रतीच्छध्व॑ं सहैवेति सुमध्यमा: ॥

    ११॥

    न--कभी नहीं; मया--मेरे द्वारा; उदित--कहा गया; पूर्वमू--इसके पहले; वै--निश्चयपूर्वक; अनृतम्‌--झूठ; तत्‌--वह;इमे--ये बालक; विदु:--जानते हैं; एक-एकशः--एक-एक करके; प्रतीच्छध्वम्‌--( तुम अपने वस्त्र ) उठा लो; सह--या सभीमिलकर; एव--निस्सन्देह; इति--इस प्रकार; सु-मध्यमा:--हे क्षीण कटिवाली बालाओ।

    मैंने पहले कभी झूठ नहीं बोला और ये बालक इसे जानते हैं।

    अतएव हे क्षीण कटिवालीबालाओ, या तो एक एक करके या फिर सभी मिलकर इधर आओ और अपने वस्त्र उठा लेजाओ।

    तस्य तद्क््वेलितं इृष्ठा गोप्य: प्रेमपरिप्लुता: ।

    ब्रीडिताः प्रेक्ष्य चान्योन्यं जातहासा न निर्ययु; ॥

    १२॥

    तस्य--उसका; तत्‌--वह; क्ष्वेलितम्‌--मजाकिया व्यवहार; हृष्ठा--देखकर; गोप्य:--गोपियाँ; प्रेम-परिप्लुता:-- भगवत्प्रेम मेंपूरी तरह निमग्न; ब्रीडिता:--सकुचाई ; प्रेक््य--देखकर; च--तथा; अन्योन्यम्‌--एक-दूसरे को; जात-हासाः:--हँसी आने केकारण; न निर्ययु:--नहीं निकलीं

    यह देखकर कि कृष्ण उनसे किस तरह ठिठोली कर रहे हैं, गोपियाँ उनके प्रेम में पूरी तरहनिमग्न हो गईं और उलझन में होते हुए भी एक दूसरे की ओर देख-देखकर हँसने तथा परस्पर'परिहास करने लगीं।

    लेकिन तो भी वे जल से बाहर नहीं आईं।

    एवं ब्रुवति गोविन्दे नर्मणाक्षिप्तचेतस: ।

    आकण्ठमग्ना: शीतोदे वेषमानास्तमब्रुवन्‌ ॥

    १३॥

    एवम्‌--इस तरह; ब्रुवति--बोलते हुए; गोविन्दे--गोविन्द; नर्मणा--उनके मजाकिये शब्दों से, दिल्‍लगी से; आशक्षिप्त--श्षुब्ध;चेतस:--मनवाले; आ-कण्ठ--गले तक; मग्ना:--लीन; शीत--ठंडे; उदे--जल में; वेपमाना: --काँपती; तम्‌--उनसे;अब्रुवन्‌ू--बोलीं |

    जब श्रीगोविन्द इस तरह बोले तो गोपियों के मन उनकी मजाकिया वाणी ( परिहास ) सेपूरी तरह मुग्ध हो गये।

    वे ठंडे जल में गले तक धँसी रहकर काँपने लगीं।

    अतः वे उनसे इस तरहबोलीं।

    मानयं भो: कृथास्त्वां तु नन्दगोपसुतं प्रियम्‌ ।

    जानीमोडडु ब्रजएलाघ्यं देहि वासांसि वेषिता: ॥

    १४॥

    मा--मत; अनयमू्‌-- अनीति, अन्याय; भो: --हे कृष्ण; कृथा:--करो; त्वामू--तुमको; तु--दूसरी ओर; नन्‍्द-गोप--महाराजनन्द के; सुतम्‌--पुत्र को; प्रियम्‌ू--प्रिय; जानीम:--जानती हैं; अड्ग--हे प्रिय; ब्रज-एलाघ्यम्‌--ब्रज-भर में विख्यात; देहि--कृपा करके दे दीजिये; वासांसि--हमारे वस्त्र; वेपिता:--कँपकँपा रही हम सबों को

    गोपियों ने कहा : हे कृष्ण, अन्यायी मत बनो, हम जानती हैं कि तुम नन्‍्द के माननीयपुत्र हो और ब्रज का हर व्यक्ति तुम्हारा सम्मान करता है।

    हमें भी तुम अत्यन्त प्रिय हो।

    कृपाकरके हमारे वस्त्र लौटा दो।

    हम ठंडे जल में काँप रही हैं।

    श्यामसुन्दर ते दास्यः करवाम तवोदितम्‌ ।

    देहि वासांसि धर्मज्ञ नो चेद्राज्ञे ब्रुवाम हे ॥

    १५॥

    श्यामसुन्दर--हे श्यामसुन्दर; ते--तुम्हारी; दास्य:--दासियाँ; करवाम--हम करेंगी; तब--तुम्हारे द्वारा; उदितम्‌ू--जो भी कहाजायेगा; देहि--दे दो; वासांसि--हमारे वस्त्र; धर्म-ज्ञ-हे धर्म के ज्ञाता; न--नहीं तो; उ--निस्सन्देह; चेत्‌--यदि; राज्ञे--राजासे; ब्रुवाम:--हम कहेंगी; हे--हे कृष्ण |

    हे श्यामसुन्दर, हम तुम्हारी दासियाँ हैं और तुम जो भी कहोगे करेंगी।

    किन्तु हमारे वस्त्र हमेंलौटा दो।

    तुम धार्मिक नियमों के ज्ञाता हो और तुम यदि हमें हमारे वस्त्र नहीं दोगे, तो हम राजासे कह देंगी।

    मान जाओ।

    श्रीभगवानुवाचभवत्यो यदि मे दास्‍्यो मयोक्त वा करिष्यथ ।

    अत्रागत्य स्ववासांसि प्रतीच्छत शुचिस्मिता: ।

    नो चेन्नाहं प्रदास्ये कि क्रुद्धो राजा करिष्यति ॥

    १६॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; भवत्य:--तुम सब; यदि--यदि; मे--मेरी; दास्य:--दासियाँ; मया--मेरे द्वारा;उतक्तमू--कहा गया; वा--अथवा; करिष्यथ--तुम करोगी; अत्र--यहाँ; आगत्य--आकर; स्व-वासांसि--अपने अपने वस्त्र;प्रतीच्छत--चुन लो; शुचि--ताजी; स्मिता:--हँसी; न उ--नहीं तो; चेत्‌ू--यदि; न--नहीं; अहम्‌--मैं; प्रदास्ये--दे दूँगा;किम्‌--क्या; क्रुद्ध:--नाराज; राजा--राजा; करिष्यति--कर लेगा

    भगवान्‌ ने कहा : यदि तुम सचमुच मेरी दासियाँ हो और मैं जो कहता हूँ उसे वास्तव मेंकरोगी तो फिर अपनी अबोध भाव से मुस्कान भरकर यहाँ आओ और अपने अपने वस्त्र चुनलो।

    यदि तुम मेरे कहने के अनुसार नहीं करोगी तो मैं तुम्हारे वस्त्र वापस नहीं दूँगा।

    और यदिराजा नाराज भी हो जाये तो वह मेरा क्या बिगाड़ सकता है ?

    ततो जलाशयात्सर्वा दारिकाः शीतवेपिता: ।

    पाणिभ्यां योनिमाच्छाद्य प्रोत्तेर: शीतकर्शिता: ॥

    १७॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; जल-आशयात्‌--नदी में से बाहर; सर्वा:--सभी; दारिका:--युवतियाँ; शीत-वेपिता:--जाड़े से काँपती;पाणिभ्याम्‌--अपने हाथों से; योनिम्‌ू--अपने गुप्त अंग को; आच्छाद्य--ढककर; प्रोत्तेस:--बाहर आगईं; शीत-कर्शिता: --जाड़े से पीड़ित।

    तत्पश्चात्‌ कड़ाके की शीत से काँपती सारी युवतियाँ अपने अपने हाथों से अपने गुप्तांग ढकेहुए जल के बाहर निकलीं।

    भगवानाहता वीक्ष्य शुद्ध भावप्रसादित: ।

    स्कन्धे निधाय वासांसि प्रीतः प्रोवाच सस्मितम्‌ ॥

    १८॥

    भगवानू्‌-- भगवान्‌ द्वारा; आहता:--विहल; वीक्ष्य--देखकर; शुद्ध--शुद्ध; भाव--स्नेह से; प्रसादित:--संतुष्ट; स्कन्धे--अपने कंधे पर; निधाय--रखकर; वासांसि--उनके वस्त्र; प्रीतः--प्यार से; प्रोवाच--बोले; स-स्मितम्‌--हँसते हुए |

    जब भगवान्‌ ने देखा कि गोपियाँ किस तरह विह्लल हैं, तो वे उनके शुद्ध प्रेम-भाव से संतुष्टहो गये।

    उन्होंने अपने कन्धे पर उनके वस्त्र उठा लिए और हँसते हुए उनसे बड़े ही स्नेहपूर्वकबोले।

    यूयं विवस्त्रा यदपो धृतब्रताव्यगाहतैतत्तदु देवहेलनम्‌ ।

    बद्ध्वाञजलिं मूर्ध्न्यपनुत्तये $हसःकृत्वा नमोधोवसन प्रगृह्मताम्‌ ॥

    १९॥

    यूयम्‌--तुम लोगों ने; विवस्त्रा:--नंगी; यत्‌--क्योंकि; अप: --जल में; धृत-ब्रता:--वैदिक अनुष्ठान करते हुए; व्यगाहत--स्नान किया; एतत्‌ तत्‌ू--यह; उ--निस्सन्देह; देव-हेलनमू--वरुण तथा अन्य देवताओं के प्रतिअपराध; बद्ध्वा अज्ञलिम्‌--हाथ जोड़कर; मूर्ध्चि--अपने अपने सिरों पर; अपनुत्तये--निराकरण के लिए; अंहस:--अपने अपने पाप कर्म के; कृत्वानमः--नमस्कार करके; अधः-वसनमू्‌--अपने अपने अधोवस्त्र; प्रगृह्मातामू--वापस लेलो।

    [भगवान्‌ कृष्ण ने कहा : तुम सबों ने अपना ब्रत रखते हुए नग्न होकर स्नान किया है, जोकि देवताओं के प्रति अपराध है।

    अतः अपने पाप के निराकरण के लिए तुम सबों को अपनेअपने सिर के ऊपर हाथ जोड़कर नमस्कार करना चाहिए।

    तभी तुम अपने अधोवस्त्र वापस लेसकती हो।

    इत्यच्युतेनाभिहितं ब्रजाबलामत्वा विवस्त्राप्लवनं ब्रतच्युतिम्‌ ।

    तत्पूर्तिकामास्तदशेषकर्मणांसाक्षात्कृतं नेमुरवद्यमृग्यत: ॥

    २०॥

    इति--इन शब्दों द्वारा; अच्युतेन--अच्युत भगवान्‌ द्वारा; अभिहितम्‌ू--इंगित की गई; ब्रज-अबला:--ब्रज की युवतियाँ;मत्वा--मानकर; विवस्त्र--नग्न; आप्लवनम्‌--स्नान; ब्रज-च्युतिमू--अपने व्रत से नीचे गिरकर; तत्‌-पूर्ति--उसकी पूर्ति;कामा:--इच्छुक; तत्‌--उस; अशेष-कर्मर्णामू--तथा अन्य अनन्त पुण्य कर्मो को; साक्षात्‌-कृतम्‌- प्रत्यक्ष फल के प्रति;नेमु;--नमस्कार किया; अवद्य-मृक्‌ू--सभी पापों को दूर करनेवाला; यतः--क्योंकि

    इस तरह वृन्दावन की उन युवतियों ने कृष्ण द्वारा कहे गये वचनों पर विचार करके यह मानलिया कि नदी में नग्न स्नान करने से वे अपने व्रत से पतित हुई हैं।

    किन्तु तो भी वे अपना ब्रतपूरा करना चाहती थीं और चूँकि भगवान्‌ कृष्ण समस्त पुण्य कर्मों के प्रत्यक्ष चरमफल हैं अतःअपने पापों को धो डालने के उद्देश्य से उन्होंने कृष्ण को नमस्कार किया।

    तास्तथावनता हृष्ठा भगवान्देवकीसुतः ।

    वासांसि ताभ्य: प्रायच्छत्करूणस्तेन तोषित: ॥

    २१॥

    ताः--तब; तथा--इस तरह; अवनता:--सिर झुकाते; दृष्ठा--देखकर; भगवान्‌-- भगवान्‌; देवकी-सुतः --देवकी पुत्र, कृष्णने; वासांसि--वस्त्र; ताभ्य:--उनको; प्रायच्छत्‌--लौटा दिया; करुण:--दयालु; तेन--उस कार्य से; तोषित:--सम्तुष्ट |

    उन्हें इस प्रकार नमस्कार करते देखकर देवकीपुत्र भगवान्‌ ने उनपर करुणा करके तथाउनके कार्य से संतुष्ट होकर उनके वस्त्र लौटा दिये।

    ह॒ढं प्रलब्धास्त्रपया च हापिताःप्रस्तोभिता: क्रीडनवच्च कारिता: ।

    वस्त्राणि चैवापहतान्यथाप्यमुंता नाभ्यसूयन्प्रियसड्निर्वृता: ॥

    २२॥

    हृढम्‌--बुरी तरह से; प्रलब्धा: --ठगी हुई; त्रपया--अपनी लज्जा से; च--तथा; हापिता: --वंचित; प्रस्तोभिता:--मजाक उड़ाईगई; क्रीडन-वत्‌--गुड़ियों की तरह; च--तथा; कारिता:--करने के लिए बाध्य की गई; वस्त्राणि--उनके वस्त्र; च--तथा;एव--निस्सन्देह; अपहतानि--चुराये हुए; अथ अपि--तो भी; अमुम्‌--उनके प्रति; ता:--वे; न अभ्यसूयन्‌--शत्रुभाव नहींलाईं; प्रिय--अपने प्रियतम का; सड्गभ--साथ करने से; निर्वृता:--हर्षित |

    यद्यपि गोपियाँ बुरी तरह ठगी जा चुकी थीं, उनके शील-संकोच से उन्हें वंचित किया जाचुका था, उन्हें कठपुतलियों की तरह नचाया गया था और उनका उपहास किया गया था औरयद्यपि उनके वस्त्र चुराये गये थे किन्तु उनके मन में श्रीकृष्ण के प्रति रंच-भर भी प्रतिकूल भावनहीं आया।

    उल्टे वे अपने प्रियतम के सान्निध्य का यह अवसर पाकर सहज रूप से पुलकित थीं।

    परिधाय स्ववासांसि प्रेष्ठमड्रमसज्जिता: ।

    गृहीतचित्ता नो चेलुस्तस्मिन्लज्जायितेक्षणा: ॥

    २३॥

    परिधाय--पहनकर; स्व-वासांसि--अपने अपने वस्त्र; प्रेष्ट--अपने प्रिय के; सड्रम--इस मिलन से; सज्जिता:--उनके प्रति पूरीतरह अनुरक्त हुईं; गृहीत--चुराये गये; चित्ता:--मनवाली; न--नहीं; उ--निस्सन्देह; चेलु;--हिलडुल सकीं; तस्मिनू--उनपर;लज्जायित--लज्ा से पूर्ण; ईक्षणा:--चितवनें |

    गोपियाँ अपने प्रिय कृष्ण से मिलने के लिए आतुर थीं अतएव वे उनके द्वारा मोह ली गईं।

    इस तरह अपने अपने वस्त्र पहन लेने के बाद भी वे हिलीही नहीं।

    वे लजाती हुई उन्हीं परटकटकी लगाये जहाँ की तहाँ खड़ी रहीं।

    तासां विज्ञाय भगवान्स्वपादस्पर्शकाम्यया ।

    धृतब्रतानां सड्डल्पमाह दामोदरोबला: ॥

    २४॥

    तासाम्‌--उन; विज्ञाय--जानकर; भगवान्‌-- भगवान्‌ के; स्व-पाद-- अपने पाँवों का; स्पर्श--स्पर्श पाने; काम्यया--इच्छा से;धृत-ब्रतानाम्‌--ब्रत धारण करने वाली; सड्डूल्पम्‌--संकल्प; आह--बोले; दामोदर: -- भगवान्‌ दामोदर; अबला: --लड़कियोंसे।

    भगवान्‌ उन गोपियों के द्वारा किये जा रहे कठोर ब्रत के संकल्प को समझ गये।

    वे यह भीजान गये कि ये बालाएँ उनके चरणकमलों का स्पर्श करना चाहती हैं अतः भगवान्‌ दामोदरकृष्ण उनसे इस प्रकार बोले।

    सड्डल्पो विदितः साध्व्यो भवतीनां मरदर्चनम्‌ ।

    मयानुमोदितः सोसौ सत्यो भवितुमहति ॥

    २५॥

    सह्जडूल्प:--संकल्प; विदित:--समझ गया; साध्व्य:--हे सती साध्वी लड़कियो; भवतीनाम्‌--तुम्हारे; मत्‌-अर्चनमू--मेरी पूजा;मया--मेरे द्वारा; अनुमोदित: --समर्थित; सः असौ--वह; सत्य:--सच; भवितुम्‌्--होए; अरहति--अवश्य |

    'हे साध्वी लड़कियो, मैं समझ गया कि इस तपस्या के पीछे तुम्हारा असली संकल्प मेरीपूजा करना था।

    तुम्हारी इस अभिलाषा का मैं अनुमोदन करता हूँ और यह अवश्य ही खराउतरेगा।

    न मय्यावेशितधियां काम: कामाय कल्पते ।

    भर्जिता क्वथिता धाना: प्रायो बीजाय नेशते ॥

    २६॥

    न--नहीं; मयि--मुझमें; आवेशित--लीन; धियाम्‌ू--चेतना वाली; काम:--इच्छा; कामाय-- भौतिक विषय वासना की ओर;कल्पते--ले जाती है; भर्जिता:--जलाया गया; क्वधिता: --पकाया गया; धाना:--अन्न; प्राय:--अधिकांशत:; बीजाय--नवीन वृद्धि; न इष्यते--उत्पन्न नहीं कर सकते |

    जो लोग अपना मन मुझ पर टिका देते हैं उनकी इच्छा उन्हें इन्द्रियतृप्ति की ओर नहीं लेजाती जिस तरह कि धूप से झुलसे और फिर अग्नि में पकाये गये जौ के बीज नये अंकुर बनकर नहीं उग सकते।

    याताबला ब्रजं सिद्धा मयेमा रंस्यथा क्षपा: ।

    यदुद्धिश्य ब्रतमिदं चेरुरार्यार्चन॑ सती: ॥

    २७॥

    यात--अब जाओ; अबला: --हे बालिकाओ; ब्रजम्‌--व्रज; सिद्धा:--इच्छा पूर्ति करके; मया--मेरे साथ; इमा:--ये;रंस्थथ--तुम बिता सकोगी; क्षपा:--रातें; यत्‌--जो; उद्दिश्य--मन में रखकर; ब्रतम्‌--ब्रत; इृदम्‌--यह; चेरु:--तुमने कियाहै; आर्या--कात्यायनी देवी की; अर्चनम्‌--पूजा; सती:--शुद्ध होने से |

    हे बालाओ, जाओ, अब ब्रज लौट जाओ।

    तुम्हारी इच्छा पूरी हो गई है क्योंकि तुम आनेवाली रातें मेरे साथ बिता सकोगी।

    हे शुद्ध हृदय वाली गोपियो, देवी कात्यायनी की पूजा करनेके पीछे तुम्हारे त्रत का यही तो उद्देश्य था! श्रीशुक उबाचइत्यादिष्टा भगवता लब्धकामाः कुमारिकाः ॥

    ध्यायन्त्यस्तत्पदाम्भोजम्कृच्छान्निर्विविशुर्त्रजम्‌ ॥

    २८ ॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; आदिष्टा:--आदेश पाकर; भगवता-- भगवान्‌ द्वारा;लब्ध--प्राप्त; कामा:ः--इच्छाएँ; कुमारिका: --कुमारियाँ; ध्यायन्त्य:--ध्यान करती हुई; तत्‌--उनके ; पद-अम्भोजम्‌--चरणकमलों को; कृच्छात्‌--मुश्किल से; निर्विविशु:--लौट आईं; ब्रजम्‌-ब्रज ग्राम |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : भगवान्‌ द्वारा आदेश दिये जाकर अपनी मनोवांछा पूरी करके वेबालाएँ उनके चरणकमलों का ध्यान करती हुईं बड़ी ही मुश्किल से ब्रज ग्राम वापस आईं।

    अथ गोपै: परिवृतो भगवान्देवकीसुतः ।

    वृन्दावनादगतो दूर चारयन्गा: सहाग्रज: ॥

    २९॥

    अथ--कुछ समय बाद; गोपै:--ग्वालबालों से; परिवृत:--घिरे हुए; भगवान्‌--भगवान्‌; देवकी-सुत:--देवकीपुत्र;बृन्दावनात्‌--वृन्दावन से; गत:--गये; दूरम्‌--दूर; चारयन्‌--चराते हुए; गा:--गौवें; सह-अग्रज: --अपने भाईं बलराम केसाथ

    कुछ काल बाद देवकीपुत्र कृष्ण अपने ग्वालबाल मित्रों से घिरकर तथा अपने बड़े भाईबलराम के संग गौवें चराते हुए वृन्दावन से काफी दूर निकल गये।

    निदधघार्कातपे तिग्मे छायाभि: स्वाभिरात्मन: ।

    आततपत्रायितान्वीक्ष्य द्रमानाह ब्रजौकसः ॥

    ३०॥

    निदाघ--गीष्म ऋतु के; अर्क--सूर्य की; आतपे--तपन में; तिग्मे-- प्रखर; छयभि:--छाया के साथ; स्वाभि: --अपनी;आत्मन:--अपने लिए; आतपत्रायितानू--छाता के रूप में; वीक्ष्य--देखकर; द्रुमान्‌--वृक्षों को; अह--कहा; ब्रज-ओकस: --ब्रज के बालकों से |

    जब सूर्य की तपन प्रखर हो गई तो कृष्ण ने देखा कि सारे वृक्ष मानो उन पर छाया करकेछाते का काम कर रहे हैं।

    तब वे अपने ग्वालमित्रों से इस प्रकार बोले।

    हे स्तोककृष्ण हे अंशो श्रीदामन्सुबलार्जुन ।

    विशाल वृषभौजस्विन्देवप्रस्थ वरूथप ॥

    ३१॥

    पश्यतैतान्महाभागान्परार्थेकानतजीवितान्‌ ।

    वातवर्षातपहिमान्सहन्तो वारयन्ति न: ॥

    ३२॥

    हे स्तोक-कृष्ण--हे स्तोक कृष्ण; हे अंशो--हे अंशु; श्रीदामन्‌ सुबल अर्जुन--हे श्रीदामा, सुबल तथा अर्जुन; विशाल वृषभओजस्विन्‌--हे विशाल, वृषभ तथा ओजस्वी; देवप्रस्थ वरूथप--हे देवप्रस्थ तथा वरूथप; पश्यत--जरा देखो तो; एतानू--इन; महा-भागान्‌--परम भाग्यशाली; पर-अर्थ--अन्यों के लाभ हेतु; एकान्त--एकान्त भाव से; जीवितान्‌ू--जिनका जीवन;वात--वायु; वर्ष--वर्षा; आतप--सूर्य की तपन; हिमान्‌ू--तथा बर्फ ( पाला ); सहन्तः--सहते हुए; वारयन्ति--दूर रखते हैं;नः--हमारे लिए।

    भगवान्‌ कृष्ण ने कहा 'हे स्तोककृष्ण तथा अंशु, हे श्रीदामा, सुबल तथा अर्जुन, हे वृषभ,ओजस्वी, देवप्रस्थ तथा वरूथप, जरा इन भाग्यशाली वृक्षों को तो देखो जिनके जीवन ही अन्योंके लाभ हेतु समर्पित हैं।

    वे हवा, वर्षा, धूप तथा पाले को सहते हुए भी इन तत्त्वों से हमारी रक्षाकरते हैं।

    अहो एषां वरं जन्म सर्व प्राण्युपजीवनम्‌ ।

    सुजनस्येव येषां वै विमुखा यान्ति नार्थिन: ॥

    ३३॥

    अहो--ओह, जरा देखो तो; एषाम्‌--इन वृक्षों का; वरम्‌-- श्रेष्ठ; जन्म--जन्म; सर्व--समस्त; प्राणि--जीवों के लिए;उपजीविनम्‌--पालन करने वाले; सु-जनस्य इब--महापुरुषों की भाँति; येषाम्‌--जिनसे; बै--निश्चय ही; विमुखा: --निराश;यान्ति--चले जाते हैं; न--कभी नहीं; अर्थिन:--कुछ चाहने वाले

    जरा देखो, कि ये वृक्ष किस तरह प्रत्येक प्राणी का भरण कर रहे हैं।

    इनका जन्म सफल है।

    इनका आचरण महापुरुषों के तुल्य है क्योंकि वृक्ष से कुछ माँगने वाला कोई भी व्यक्ति कभीनिराश नहीं लौटता।

    पत्रपुष्पफलच्छायामूलवल्कलदारुभि: ॥

    गन्धनिर्यासभस्मास्थितोक्मै: कामान्वितन्वते ॥

    ३४॥

    पत्र--पत्तियाँ; पुष्प--फूल; फल--फल; छाया--छाया; मूल-- जड़; वल्कल--छाल; दारुभि:--तथा लकड़ी द्वारा; गन्ध--अपनी सुगन्ध से; निर्यास--रस से; भस्म--राख से; अस्थि--लुगदी से; तोक्मै:--तथा नये नये कल्लों से; कामान्‌--इच्छितवस्तुएँ; वितन्वते--प्रदान करते हैं

    ये वृक्ष अपनी पत्तियों, फूलों तथा फलों से, अपनी छाया, जड़ों, छाल तथा लकड़ी से तथाअपनी सुगंध, रस, राख, लुगदी और नये नये कल्लों से मनुष्यों की इच्छापूर्ति करते हैं।

    एतावज्जन्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषु ।

    प्राणैरथेंधिया वाचा श्रेयआचरणं सदा ॥

    ३५॥

    एतावत्‌--इस तक; जन्म--जन्म की; साफल्यम्‌--सफलता, सिद्धि; देहिनामू--हर प्राणी की; इह--इस जगत में; देहिषु--देहधारियों के प्रति; प्राणै:--प्राण से; अर्थै:--धन से; धिया--बुद्धि से; वाचा--वाणी से; श्रेयः--शा श्वत सौभाग्य;आचरणम्‌--आचरण करते हुए; सदा--सदैव

    हर प्राणी का कर्तव्य है कि वह अपने प्राण, धन, बुद्धि तथा वाणी से दूसरों के लाभ हेतुकल्याणकारी कर्म करे।

    इति प्रवालस्तबकफलपुष्पदलोत्करै: ।

    तरूणां नप्रशाखानां मध्यतो यमुनां गत: ॥

    ३६॥

    इति--इस प्रकार कहते हुए; प्रवाल--नई शाखाओं का; स्तबक-गुच्छे से; फल--फल; पुष्प--फूल; दल--तथा पत्तियोंकी; उत्करैः--अधिकता से; तरूणाम्‌--वृक्षों की; नप्न--झुकी हुई; शाखानाम्‌ू--डालियों के; मध्यतः--बीच में से;यमुनाम्‌--यमुना नदी तक; गतः--आये।

    इस तरह वृक्षों के बीच विचरण करते हुए, जिनकी शाखाएँ कोपलों, फलों, फूलों तथापत्तियों की बहुलता से झुकी हुई थीं, भगवान्‌ कृष्ण यमुना नदी के तट पर आ गये।

    तत्र गा: पाययित्वापः सुमृष्टाः शीतला: शिवा: ।

    ततो नृप स्वयं गोपा: काम स्वादु पपुर्जलम्‌ ॥

    ३७॥

    तत्र--वहाँ; गाः--गौवों को; पाययित्वा--पानी पिलाकर; अप:--जल; सु-मृष्टा:--अत्यन्त स्वच्छ; शीतला:--शीतल;शिवा:--स्वास्थ्यप्रद; ततः--तत्पश्चात्‌; नृप--हे राजा परीक्षित; स्वयम्‌--अपने से; गोपा: --ग्वालबाल; कामम्‌--स्वच्छन्दतापूर्वक; स्वादु--स्वादिष्ट; पपु:--पिया; जलम्‌ू--जल।

    ग्वालों ने गौवों को यमुना नदी का स्वच्छ, शीतल तथा स्वास्थ्यप्रद जल पीने दिया।

    हे राजापरीक्षित, ग्वालों ने भी जी भरकर उस मधुर जल का पान किया।

    तस्या उपवने काम॑ चारयन्तः पशूत्रुप ।

    कृष्णरामाबुपागम्य क्षुधार्ता इदमब्रवन्‌ ॥

    ३८ ॥

    तस्या:--यमुना के किनारे; उपवने--छोटे जंगल में; कामम्‌--इच्छानुसार इधर उधर; चारयन्तः--चराते हुए; पशूनू--पशुओंको; नृप--हे राजा; कृष्ण-रामौ--कृष्ण तथा राम; उपागम्य--निकट जाकर; श्षुत्‌-आर्ता:--भूख से पीड़ित; इृदम्‌ू--यह;अब्लुवनू--कहा |

    तत्पश्चात्‌ हे राजनू, सारे ग्वालबाल यमुना के तट पर एक छोटे से जंगल में पशुओं कोउन्मुक्त ढंग से चराने लगे।

    किन्तु शीघ्र ही भूख से त्रस्त होकर वे कृष्ण तथा बलराम के निकटजाकर इस प्रकार बोले।

    TO

    अध्याय तेईसवाँ: ब्राह्मणों की पत्नियों का आशीर्वाद

    10.23श्रीगोप ऊचुःराम राम महाबाहो कृष्ण दुष्टनिबर्हण ।

    एषा वै बाधतेक्षुत्नस्तच्छान्ति कर्तुमहथः ॥

    १॥

    श्री-गोपा: ऊचु:--ग्वालबालों ने कहा; राम राम--हे राम, हे राम; महा-बाहो--हे बलशाली भुजाओं वाले; कृष्ण--हे कृष्ण;दुष्ट--दुष्ट का; निबहण--दलन करने वाले; एघा--यह; वै--निस्सन्देह; बाधते--कष्ट दे रही है; क्षुत्‌-- भूख; नः--हमें; तत्‌ू-शान्तिमू--उसकी शान्ति के लिए; कर्तुम्‌ अर्हथ:--तुम्हें करना चाहिए

    ग्वालबालों ने कहा : हे महाबाहु राम, हे दुष्टदलन कृष्ण, हम सब भूख से त्रस्त हैं।

    इसकेलिए आपको कुछ करना चाहिए।

    श्रीशुक उबाचइति विज्ञापितो गोपैर्भगवान्देवकीसुत: ।

    भक्ताया विप्रभार्याया: प्रसीदन्निदमब्रवीत्‌ ॥

    २॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; विज्ञापित:--सूचित; गोपै: --ग्वालबालों के द्वारा;भगवान्‌-- भगवान्‌; देवकी-सुत:ः--देवकी पुत्र; भक्ताया:-- अपने भक्तों को; विप्र-भार्याया:--ब्राह्मण-पत्नलियों को; प्रसीदन्‌--तुष्ट करने की इच्छा से; इदम्‌-यह; अब्रवीत्‌ू--कहा

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : ग्वालबालों द्वारा इस प्रकार प्रार्थना किये जाने पर देवकीपूत्रभगवान्‌ ने अपने कुछ भक्तों को जो कि ब्राह्मण पत्नियाँ थीं प्रसन्न करने की इच्छा से इस प्रकारउत्तर दिया।

    प्रयात देवयजनं ब्राह्मणा ब्रह्मवादिन: ।

    सत्रमाड्रिरसं नाम ह्यासते स्वर्गकाम्यया ॥

    ३॥

    प्रयात--जाओ; देव-यजनम्‌--यज्ञशाला तक; ब्राह्मणा:--ब्राह्मणजण; ब्रह्म-वादिन:--वैदिक आदेशों के अनुयायी; सत्रम्‌--यज्ञ; आड्रिस्‍सम्‌ नाम--आंगिरस नामक; हि--निस्सन्देह; आसते--इस समय कर रहे हैं; स्वर्ग-काम्यया--स्वर्ग जाने के उद्देश्यसे

    भगवान्‌ कृष्ण ने कहा : तुम लोग यज्ञशाला में जाओ जहाँ वैदिक आदेशों में निपुणब्राह्मणों का एक समूह स्वर्ग जाने की इच्छा से इस समय आंगिरस यज्ञ कर रहा है।

    तत्र गत्वौदनं गोपा याचतास्मद्विसर्जिता: ।

    कीर्तयन्तो भगवत आर्यस्य मम चाभिधाम्‌ ॥

    ४॥

    तत्र--वहाँ; गत्वा--जाकर; ओदनम्‌-- भोजन; गोपा:--हे ग्वालबालो; याचत--माँगो; अस्मत्‌--हमारे द्वारा; विसर्जिता:--भेजे गये; कीर्तयन्तः--घोषित करते हुए; भगवत:--भगवान्‌ का; आर्यस्य--ज्येष्ठ; मम--मेरा; च-- भी; अभिधाम्‌--नाम |

    है ग्वालबालो, तुम वहाँ जाकर कुछ भोजन माँग लाओ।

    उनसे मेरे बड़े भाई भगवान्‌बलराम का तथा मेरा भी नाम बतलाना और बताना कि उन्होंने ही हम लोगों को भेजा है।

    इत्यादिष्टा भगवता गत्वा याचन्त ते तथा ।

    कृताझलिपुटा विप्रान्दण्डवत्पतिता भुवि ॥

    ५॥

    इति--इन शब्दों द्वारा; आदिष्ट:--आज्ञा दिये जाकर; भगवता-- भगवान्‌ द्वारा; गत्वा--जाकर; अयाचन्त--माँगा; ते--उन्होंने;तथा--उस तरह से; कृत-अज्जलि-पुटा:--विनप्रतावश दोनों हाथ जोड़कर; विप्रानू--ब्राह्मणों को; दण्ड-वत्‌--डण्डे केसमान; पतिता:--गिरकर; भुवि-- भूमि पर

    भगवान्‌ से यह आदेश पाकर ग्वालबालों ने वहाँ जाकर निवेदन किया।

    वे ब्राह्मणों केसमक्ष विनयपूर्वक हाथ जोड़कर खड़े रहे और फिर भूमि पर लेटकर उन्हें नमस्कार किया।

    हे भूमिदेवा: श्रुणुत कृष्णस्यादेशकारिण: ।

    प्राप्ताज्ञानीत भद्गं वो गोपान्नो रामचोदितान्‌ ॥

    ६॥

    हे भूमि-देवा:--हे पृथ्वी के देवताओ; श्रुणुत--सुनिये; कृष्णस्य आदेश--कृष्ण का आदेश; कारिण:--कार्यरूप में परिणतकरने वाले; प्राप्तानू--आये हुए; जानीत--जानिये; भद्रमू--कल्याण हो; वः--तुम सबों का; गोपान्‌--ग्वालबालों को; न:ः--हम; राम-चोदितानू--राम द्वारा भेजे गये।

    [ग्वालबालों ने कहा : हे पृथ्वी के देवताओ, कृपया हमारी बात सुनें।

    हम ग्वालबालकृष्ण का आदेश लेकर आये हैं और हमें बलराम ने यहाँ भेजा है।

    हम आपका कल्याण चाहतेहैं।

    आप हमारा आगमन स्वीकार करें।

    गाश्चारयन्तावविदूर ओदनंरामाच्युतौ वो लषतो बुभुक्षितौ ।

    तयोद्विजा ओदनमर्थिनोर्यदिश्रद्धा च वो यच्छत धर्मवित्तमा: ॥

    ७॥

    गा:--अपनी गौवें; चारयन्तौ--चराते हुए; अविदूरे--दूर नहीं; ओदनम्‌-- भोजन; राम-अच्युतौ--राम तथा अच्युत; व:--आपसे; लषत:--इच्छुक हैं; बुभुक्षितौ-- भूखे होने के कारण; तयोः--उनके लिए; द्विजा:--हे ब्राह्मणो; ओदनम्‌-- भोजन;अर्थिनो: --माँग रहे हैं; यदि--यदि; श्रद्धा--कोई श्रद्धा; च--तथा; वः--आपमें; यच्छत--कृपा करके दें; धर्म-वित्‌-तमा:--हे धर्म के जानने वालों में श्रेष्ठ |

    भगवान्‌ राम तथा भगवान्‌ अच्युत यहाँ से निकट ही अपनी गौवें चरा रहे हैं।

    वे भूखे हैं औरचाहते हैं कि आप उन्हें अपने पास से कुछ भोजन दें।

    अतः हे ब्राह्मणो, हे धर्म के ज्ञाताओं मेंश्रेष्ठ, यदि आपकी श्रद्धा है, तो उनके लिए कुछ भोजन दे दें।

    दीक्षाया: पशुसंस्थाया: सौत्रामण्याश्न सत्तमा: ।

    अन्यत्र दीक्षितस्यापि नान्नमएनन्हि दुष्यति ॥

    ८॥

    दीक्षाया:--यज्ञ के लिए दीक्षा से लेकर; पशु-संस्थाया:--पशु यज्ञ तक; सौत्रामण्या: --सौत्रामणि यज्ञ से बाहर; च--तथा;सतू-तमाः--हे विशुद्ध जनो; अन्यत्र--अन्य कहीं; दीक्षितस्थ--यज्ञ में दीक्षित व्यक्ति का; अपि-- भी; न--नहीं; अन्नम्‌--भोजन; अश्नन्‌ू--खाते हुए; हि--निस्सन्देह; दुष्यति-- अपराध होता है।

    हे शुद्धतम ब्राह्मणो, यज्ञकर्ता की दीक्षा तथा वास्तविक पशु यज्ञ के मध्य की अवधि कोछोड़कर तथा सौत्रामणि के अतिरिक्त अन्य यज्ञों में दीक्षित व्यक्ति के लिए भी भोजन करना दूषित नहीं है।

    इति ते भगवद्याच्ञां श्रृण्वन्तोडपि न शुश्रुव॒।

    क्षुद्राशा भूरिकर्माणो बालिशा वृद्धमानिन: ॥

    ९॥

    इति--इस प्रकार; ते--वे ब्राह्मण; भगवत्‌-- भगवान्‌ का; याच्ञामू--निवेदन; श्रृण्वन्तः --सुनते हुए; अपि--यद्यपि; नशुश्रुवु:ः--नहीं सुना; क्षुद्र-आशा:--श्षुद्र आशा से पूरित; भूरि-कर्माण:--विस्तृत कर्मकाण्ड में फँसे; बालिशा:--बच्चों जैसेमूर्ख, बचकाना; वृद्ध-मानिन:--अपने को चतुर व्यक्ति मानते हुए।

    ब्राह्मणों ने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ की ओर से किये गये इस निवेदन को सुना।

    फिर भीउन्होंने इसको अनसुना कर दिया।

    दरअसल वे क्षुद्र भावनाओं से पूरित थे और विस्तृतकर्मकाण्ड में लगे थे।

    यद्यपि वे वैदिक ज्ञान में अपने को बढ़ाचढ़ा मान रहे थे किन्तु वास्तव मेंवे अनुभवविहीन मूर्ख थे।

    देश: काल: पृथगद्रव्यं मन्त्रतन्त्र्त्विजोउग्नय: ।

    देवता यजमानश्च क्रतुर्धर्मश्ष यन्‍्मय: ॥

    १०॥

    त॑ ब्रह्म परमं साक्षाद्धगवन्तमधोक्षजम्‌ ।

    मनुष्यदष्टदया दुष्प्रज्ञा मर्त्यात्मानो न मेनिरे ॥

    ११॥

    देश:--स्थान; काल:--समय; पृथक्‌ द्रव्यमू--साज-सामान की विशिष्ट वस्तुएँ; मन्त्र--वैदिक स्तोत्र; तन्त्र--निर्धारित अनुष्ठान;ऋत्विज: -- पुरोहित; अग्नयः--यज्ञ की अग्नियाँ; देवता:--अधिष्ठाता देवता; यजमान:--यज्ञ करने वाला; च--तथा; क्रतुः--हवि; धर्म:--सकाम फलों की अदृश्य शक्ति; च--तथा; यत्‌--जिसको; मयः--बनाने वाले; तम्‌--उसको; ब्रह्म परमम्‌--परब्रहा; साक्षात्‌-- प्रत्यक्ष; भगवन्तम्‌-- भगवान्‌ को; अधोक्षजम्‌-- भौतिक इन्द्रियों से परे; मनुष्य-दृ्या--उन्हें सामान्य व्यक्तिके रूप में देखते हुए; दुष्प्रज्ञाः--विकृत बुद्धि वाले; मर्त्य-आत्मान:--मिथ्या ही भौतिक शरीर के रूप में अपनी पहचान करतेहुए; न मेनिरि--ठीक से आदर नहीं दिया।

    यद्यपि यज्ञ करने की सारी सामग्री--स्थान, समय, विशेष सामग्री, मंत्र, अनुष्ठान, पुरोहित,अग्नि, देवता, यजमान, हवि तथा अभी तक के देखे गए लाभकारी परिणाम--ये सभी भगवान्‌के ऐश्वर्य के विविध पक्ष हैं किन्तु ब्राह्मणों ने अपनी विकृत बुद्धि के कारण भगवान्‌ कृष्ण कोसामान्य व्यक्ति के रूप में देखा।

    वे यह न समझ पाये कि वे परब्रह्म हैं, साक्षात्‌ भगवान्‌ हैं, जिन्हेंभौतिक इन्द्रियाँ सामान्य रूप से अनुभव नहीं कर पातीं।

    अतः मर्त्य शरीर से अपनी झूठी पहचानकरने से मोहित उन सबों ने भगवान्‌ के प्रति उचित सम्मान प्रदर्शित नहीं किया।

    न ते यदोमिति प्रोचुर्न नेति च परन्तप ।

    गोपा निराशा: प्रत्येत्य तथोचु: कृष्णरामयो: ॥

    १२॥

    न--नहीं; ते--वे; यत्‌ू--जब; ओम्‌--' ऐसा ही हो '; इति--इस प्रकार; प्रोचु; --बोले; न--नहीं; न--नहीं; इति--ऐसा;च--या तो; परन्तप--हे शत्रुओं को दण्ड देने वाले परीक्षित महाराज; गोपा:--ग्वालबाल; निराशा: --उत्साहरहित; प्रत्येत्य--लौटकर; तथा--इस प्रकार; ऊचु:--बतलाया; कृष्ण-रामयो:--कृष्ण तथा राम से |

    जब वे ब्राह्मण हाँ या ना में भी उत्तर नहीं दे पाये तो हे परन्तप ( परीक्षित ), सारे ग्वालबालनिराश होकर कृष्ण तथा राम के पास लौट आये और उनको यह बात बतलाई।

    तदुपाकर्ण्य भगवान्प्रहस्थ जगदी श्वरः ।

    व्याजहार पुनर्गोपान्दर्शयन्लौकिकीं गतिम्‌ ॥

    १३॥

    तत्‌--उसे; उपाकर्ण्य--सुनकर; भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; प्रहस्थ--हँसकर; जगत्‌-ई श्वरः-- सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के नियन्ता;व्याजहार--सम्बोधित किया; पुनः--फिर; गोपान्‌ू--ग्वालबालों को; दर्शयन्‌--दिखलाते हुए; लौकिकीम्‌--सामान्य जगतका; गतिम्‌--मार्ग |

    जो कुछ हुआ था उसे सुनकर ब्रह्माण्ड के स्वामी भगवान्‌ हँसने लगे।

    तत्पश्चात्‌ उन्होंने पुनःग्वालबालों को इस जगत में जिस तरह लोग कर्म करते हैं उस मार्ग को दिखलाते हुए सम्बोधितकिया।

    मां ज्ञापयत पत्नीभ्य: ससड्डूर्षणमागतम्‌ ।

    दास्यन्ति काममन्नं वः स्निग्धा मय्युषिता धिया ॥

    १४॥

    माम्‌--मुझको; ज्ञापपत--कृपया घोषित कर दें; पत्नी भ्य:--स्त्रियों को; स-सड्डूर्षणम्‌--बलराम सहित; आगतम्‌--आये हुए;दास्यन्ति--वे देंगी; कामम्‌--इच्छानुसार; अन्नम्‌ू-- भोजन; वः--तुमको; स्निग्धा:--स्नेहमय; मयि--मुझमें ; उषिता:--निवासकरते हुए; धिया-- अपनी बुद्धि से

    भगवान्‌ कृष्ण ने कहा : ब्राह्मणपत्नियों से कहो कि मैं संकर्षण समेत यहाँ आया हूँ।

    वेअवश्य ही तुम्हें जितना भोजन चाहोगे उतना देंगी क्योंकि वे मेरे प्रति अत्यन्त स्नेहमयी हैं और वेअपनी बुद्धि से मुझमें ही निवास करती हैं।

    गत्वाथ पलीशालायां इृष्टासीना: स्वलड्डू ता: ।

    नत्वा द्विजसतीर्गोपा: प्रश्निता इृदमब्रुवन्‌ ॥

    १५॥

    गत्वा--जाकर; अथ--तब; पत्नी-शालायाम्‌--ब्राह्मणपत्नियों के घर में; दृष्टा --उन्हें देखकर; असीना:--बैठी हुईं; सु-अलड्डू ताः--आभूषणों से अच्छी तरह सजी हुईं; नत्वा--नमस्कार करने के लिए झुकते हुए; द्विज-सती:--ब्राह्मणों की सतीपत्नियों से; गोपा:--ग्वालबालों ने; प्रश्रिता:--विनयपूर्वक; इृदम्‌--यह; अन्लुवन्‌ू--कहा |

    तब ग्वालबाल उस घर में गये जहाँ ब्राह्मण पत्नियाँ ठहरी हुई थीं।

    वहाँ उन बालकों ने उनसती स्त्रियों को सुन्दर आभूषणों से अलंकृत होकर बैठे देखा।

    बालकों ने ब्राह्मण-पत्नियों कोनमस्कार करते हुए विनीत भाव से उन्हें सम्बोधित किया।

    नमो वो विप्रपत्नी भ्यो निबोधत वचांसि नः ।

    इतोविदूरे चरता कृष्णेनेहेषिता वयम्‌ ॥

    १६॥

    नमः--नमस्कार; व:--तुम; विप्र-पत्नी भ्य: --ब्राह्मणपत्तियों को; निबोधत--कृपया सुनें; वचांसि--शब्द; नः--हमारे; इतः--यहाँ से; अविदूरे--अधिक दूर नहीं; चरता--जा रहे हैं; कृष्णेन--कृष्ण द्वारा; इह--यहाँ; इषिता: -- भेजे गये; वयम्‌--हम( सब )

    ग्वालबालों ने कहा : हे विद्वान ब्राह्मणों की पत्नियो, आपको हमारा नमस्कार।

    कृपयाहमारी बात सुनें।

    हमें भगवान्‌ कृष्ण ने यहाँ भेजा है, जो यहाँ से कुछ ही दूरी से होकर जा रहे हैं।

    गाश्चारयन्स गोपालै: सरामो दूरमागतः ।

    बुभुक्षितस्य तस्यान्नं सानुगस्य प्रदीयताम्‌ ॥

    १७॥

    गाः--गौवों को; चारयन्‌--चराते हुए; सः--वह; गोपालैः --ग्वालबालों के संग; स-राम:--बलराम के साथ; दूरम्‌--दूर से;आगतः--आये हैं; बुभुक्षितस्य-- भूखे; तस्य-- उनके; अन्नम्‌ू-- भोजन; स-अनुगस्य-- अपने साथियों समेत; प्रदीयताम्‌--देदें

    वे ग्वालबालों तथा बलराम के साथ गौवें चराते हुए बहुत दूर निकल आये हैं।

    अब वे भूखेहैं अतएव आप उन्हें तथा उनके साथियों के लिए कुछ भोजन दे दें।

    श्र॒त्वाच्युतमुपायातं नित्यं तदर्शनोत्सुका: ।

    तत्कथाक्षिप्तमनसो बभूवुर्जातसम्भ्रमा: ॥

    १८॥

    श्रुत्वा--सुनकर; अच्युतम्‌--कृष्ण को; उपायातम्‌--पास आया हुआ; नित्यम्‌--निरन्तर; तत्‌-दर्शन--उनका दर्शन करने केलिए; उत्सुका: --उत्सुक; तत्‌ू-कथा--उनकी कथा से; आछ्पत--मुग्ध; मनस:--उनके मन; बभूवु:--हो गईं; जात-सम्भ्रमा:--उत्तेजित, उतावली ।

    ब्राह्मण पत्नियाँ कृष्ण का दर्शन करने के लिए सदैव उत्सुक रहती थीं क्योंकि उनके मनभगवान्‌ की कथाओं से मुग्ध ही चले थे।

    अतः ज्योंही उन्होंने सुना कि कृष्ण आये हैं, वे अत्यन्तउतावली हो उठीं।

    चतुर्विधं बहुगुणमन्नमादाय भाजनै: ।

    अभिसस्त्रु: प्रियं सर्वा: समुद्रमिव निम्नगा: ॥

    १९॥

    चतुः-विधम्‌--चार प्रकार के ( भक्ष्य, भोज्य, लेह्य तथा चोष्य ); बहु-गुणम्‌--अनेक स्वाद तथा सुगंध से युक्त; अन्नम्‌--भोजन; आदाय--लेकर; भाजनै:--बड़े बड़े बर्तनों में; अभिसस््रु:--गई; प्रियम्‌ू-- अपने प्रियतम की ओर; सर्वाः--वे सभी;समुद्रम्‌ू--समुद्र तक; इब--जिस तरह; निम्न-गाः--नदियाँ |

    बड़े बड़े पात्रों में उत्तम स्वाद तथा सुगन्ध से पूर्ण चारों प्रकार का भोजन लेकर सारी स्त्रियाँअपने प्रियतम से मिलने उसी तरह आगे बढ़ चलीं जिस तरह नदियाँ समुद्र की ओर बहती हैं।

    निषिध्यमाना: पतिभिभ्रातृभिर्बन्धुभि: सुतैः ।

    भगवत्युत्तमएलोके दीर्घश्रुत धृताशया: ॥

    २०॥

    यमुनोपवनेडशोक नवपल्‍लवमण्डिते ।

    विचरन्तं वृतं गोपै: साग्रजं दहशुः स्त्रियः ॥

    २१॥

    निषिध्यमाना:--मना की गई; पतिभि: --अपने पतियों द्वारा; भ्रातृभि:--अपने भाइयों द्वारा; बन्धुभि: --अन्य सम्बन्धियों द्वारा;सुतैः--तथा अपने पुत्रों द्वारा; भगवति--भगवान्‌ के प्रति; उत्तम-श्लोके--दिव्य स्तुतियों से वंदित; दीर्घ--दीर्घकाल तक;श्रुत--सुनने के कारण; धृत--प्राप्त किया गया; आशया:--जिनकी आशाएँ; यमुना-उपवने--यमुना के तटीय बगीचे में;अशोक-नव-पलल्‍लव--अशोक वृक्ष की कलियों से; मण्डिते--अलंकृत; विचरन्तम्‌--घूमते हुए; वृतम्‌--घिरे हुए; गोपैः--ग्वालबालों से; स-अग्रजम्‌--अपने बड़े भाई सहित; ददशुः:--देखा; स्त्रियः --उन स्त्रियों ने

    यद्यपि उनके पतियों, भाइयों, पुत्रों तथा अन्य सम्बन्धियों ने उन्हें जाने से रोका किन्तु कृष्णके दिव्य गुणों का दीर्घकाल से श्रवण करते रहने से कृष्ण को देखने की उनकी आशा विजयीहुईं।

    उन्होंने यमुना नदी के किनारे अशोक वृक्षों की कोपलों से सुशोभित एक बगीचे मेंग्वालबालों तथा अपने बड़े भाई बलराम के साथ विचरण करते हुए कृष्ण को देख लिया।

    श्याम हिरण्यपरिधि वनमाल्यबर्ह-धातुप्रवालनटवेषमनक्रतांसे ।

    विन्यस्तहस्तमितरेण धुनानमब्जंकर्णोत्पलालककपोलमुखाब्जहासम्‌ ॥

    २२॥

    श्यामम्‌--श्याम वर्ण; हिरण्य--सुनहला; परिधिम्‌--वस्त्र; बन-माल्य--वनमाला से; बई--मोरपंख; धातु--रंगीन खनिज;प्रवाल--तथा कलियों के गुच्छे; नट--मंच पर नर्तक के समान; वेषम्‌--वस्त्र धारण किये; अनुब्रत--मित्र के; अंसे--कंधे पर;विन्यस्त--रखे हुए; हस्तम्‌--अपना हाथ; इतरेण --अन्य हाथ से; धुनानम्‌--नचाते हुए; अब्जम्‌--कमल; कर्ण--अपने कानपर; उत्पल--कुमुदिनियाँ; अलक-कपोल--गालों पर बाल बिखराये; मुख-अब्ज--कमल जैसे मुख पर; हासम्‌--हँसी सेयुक्त

    उनका रंग श्यामल था और वस्त्र सुनहले थे।

    वे मोरपंख, रंगीन खनिज, फूल की कलियोंका गुच्छा तथा जंगल के फूलों और पत्तियों की बनमाला धारण किये हुए नाटक के नर्तक कीभाँति वेश बनाये थे।

    वे अपना एक हाथ अपने मित्र के कंधे पर रखे थे और दूसरे से कमल का'फूल घुमा रहे थे।

    उनके कानों में कुमुदिनियाँ सुशोभित थीं, उनके बाल गालों पर लटक रहे थेऔर उनका कमल सदूश मुख हँसी से युक्त था।

    प्राय: श्रुतप्रियतमोदयकर्णपूरै-्यस्मिन्रिमग्नमनसस्तमथाक्षिरन्द्रै: ।

    अन्तः प्रवेश्य सुचिरं परिरभ्य तापंप्राज्॑ यथाभिमतयो विजहुनरिन्द्र ॥

    २३॥

    प्रायः--बारम्बार; श्रुत--सुना गया; प्रिय-तम--अपने सबसे प्यारे का; उदय--कीर्ति; कर्ण-प्रैः--कानों के आभूषण रूप;अस्मिन्‌ू--जिसमें; निमग्न--लीन; मनसः--मन; तम्‌--उन्हें; अथ--तब; अक्षि-रन्ट्र:--अपनी आँख के छिठ्रों से; अन्त:--भीतर; प्रवेश्य--घुसाकर; सु-चिरम्‌--दीर्घकाल तक; परिरभ्य--आलिंगन करके; तापम्‌--अपना कष्ट; प्राज्ममू--अन्तःकरण;यथा--जिस तरह; अभिमतय:--मिथ्या अहंकार के कार्य; विजहु: --त्याग दिया; नर-इन्द्र--हे पुरुषों पर शासन करने वालेराजा

    हे नरेन्द्र, उन ब्राह्मणपत्नियों ने दीर्घकाल से अपने प्रिय कृष्ण के विषय में सुन रखा था औरउनका यश उनके कानों का स्थायी आभूषण बन चुका था।

    उनके मन सदैव उन्हीं में लीन रहतेथे।

    अब उन्होंने अपने नेत्रों के छिद्मों से होकर उन्हें अपने हृदय में प्रविष्ट कर लिया और फिरदीर्घकाल तक अपने हृदय के भीतर उनका आलिंगन करती रहीं।

    इस तरह अन्ततः उनकीवियोग-पीड़ा उसी प्रकार जाती रही जिस प्रकार कि मुनिगण अपने अन्तःकरण का आलिंगनकरने से मिथ्या अहंकार की चिन्ता त्याग देते हैं।

    तास्तथा त्यक्तसर्वाशा: प्राप्ता आत्मदिदक्षया ।

    विज्ञायाखिलद%ग्द्रष्टा प्राह प्रहसिताननः ॥

    २४॥

    ताः--वे स्त्रियाँ; तथा--ऐसी दशा में; त्यक्त-सर्व-आशा:--अपनी सारी भौतिक इच्छाएँ त्यागकर; प्राप्ता:--आई हुईं; आत्म-दिदक्षया--साक्षात्‌ उन्हें देखने की इच्छा से; विज्ञाय--समझने के लिए; अखिल-हक्‌--समस्त प्राणियों की दृष्टि का; द्रष्टा--देखने वाले ने; प्राह--कहा; प्रहसित-आनन:--मुखमंडल पर हँसी लाते हुए

    समस्त प्राणियों के विचारों के साक्षी भगवान्‌ कृष्ण यह समझ गये कि किस तरह अपनीसारी सांसारिक आशाओं का परित्याग करके ये स्त्रियाँ केवल उन्हें ही देखने आई हैं।

    अत: अपनेमुख पर हँसी लाते हुए उनसे उन्होंने इस प्रकार कहा।

    स्वागतं वो महाभागा आस्यतां करवाम किम्‌ ।

    यन्नो दिदक्षया प्राप्ता उपपन्नमिदं हि व: ॥

    २५॥

    सु-आगतम्‌--स्वागत है; व:--आपका; महा-भागाः --हे भाग्यशालिनी महिलाओ; आस्यताम्‌-- आइये बैठिये; करवाम--करसकता हूँ; किम्‌--क्या; यत्‌-- क्योंकि; न:ः--हमको; दिदृक्षया--देखने की इच्छा से; प्राप्ता:--आई हैं; उपपन्नम्‌--उपयुक्त;इदम्‌--यह; हि--निश्चय ही; व:--आपको |

    [भगवान्‌ कृष्ण ने कहा : हे परम भाग्यशालिनी महिलाओ, स्वागत है।

    कृपया आराम सेबैठें।

    मैं आपके लिये क्या कर सकता हूँ? आप मुझे देखने के लिए यहाँ आईं यह बहुत हीउपयुक्त है।

    नन्वद्धा मयि कुर्वन्ति कुशला: स्वार्थदर्शिन: ।

    अहैतुक्यव्यवहितां भक्तिमात्मप्रिये यथा ॥

    २६॥

    ननु--निश्चय ही; अद्धा-प्रत्यक्ष; मयि--मुझमें; कुर्वन्ति--करते हैं; कुशला:--पटु जन; स्व-अर्थ--अपना लाभ; दर्शिन: --देखने वाले; अहैतुकी--बिना कारण के; अव्यवहिताम्‌--अविच्छिन्न; भक्तिमू-- भक्ति; आत्म--आत्मा को; प्रिये--जिसकाप्रिय हूँ; यथा--उचित रीति से

    निश्चय ही कुशल लोग, जो अपने असली लाभ को देख सकते हैं, वे मेरी अहैतुकी तथाअविच्छिन्न भक्ति करते हैं क्योंकि मैं आत्मा को सर्वाधिक प्रिय हूँ।

    प्राणबुद्धिमन:स्वात्म दारापत्यधनादय: ।

    यत्सम्पर्कात्प्रिया आसंस्ततः को न्वपरः प्रिय: ॥

    २७॥

    'प्राण-- प्राण; बुद्धि-- बुद्धि; मन:ः--मन; स्व--स्वजन; आत्म--शरीर; दार--पत्ली; अपत्य--सन्तान; धन--सम्पत्ति;आदयः--इत्यादि; यत्‌ू--जिस ( आत्मा ) से; सम्पर्कात्‌ू--सम्पर्क से; प्रिया:--प्रिय; आसन्‌--बने हुए हैं; ततः--उसकीअपेक्षा; कः--क्या; नु--निस्सन्देह; अपर:--दूसरा; प्रिय: --प्रिय वस्तु

    आत्मा के सम्पर्क से ही जीव का प्राण, बुद्धि, मन, मित्रगण, शरीर, पत्नी, सन्तान, सम्पत्तिइत्यादि उसे प्रिय लगते हैं।

    अतएबव अपने आप से बढ़कर कौन सी वस्तु अधिक प्रिय हो सकतीहै?

    तद्यात देवयजनं पतयो वो द्विजातयः ।

    स्वसत्र॑ पारयिष्यन्ति युष्माभिर्गृहमेधिन: ॥

    २८ ॥

    ततू--अत:; यात--जाओ; देव-यजनमू--यज्ञस्थल को; पतय:--पतिगण; व: --तुम्हारे; द्वि-जातय:--ब्राह्मण; स्व-सत्रम्‌--अपने अपने यज्ञों को; पारयिष्यन्ति--समाप्त कर सकेंगे; युष्माभि: --तुम लोगों के साथ; गृह-मेधिन:--गृहस्थ जन |

    अतएव तुम लोग यज्ञस्थल को लौट जाओ क्‍योंकि तुम्हारे पति, जो कि दिद्वान ब्राह्मण हैं,गृहस्थ हैं और उन्हें अपने अपने यज्ञ सम्पन्न करने के लिए तुम्हारे सहयोग की आवश्यकता है।

    श्रीपल्य ऊचु:मैवं विभोहति भवान्गदितुं खशंसंसत्यं कुरुष्व निगम तव पदमूलम्‌ ।

    प्राप्ता वयं तुलसिदाम पदावसूष्टकेशैर्निवोढुमतिलड्घ्य समस्तबन्धून्‌ ॥

    २९॥

    श्री-पत्यः ऊचु:--ब्राह्मणपत्नियों ने कहा; मा--नहीं; एवम्‌--इस तरह; विभो--हे सर्वशक्तिमान; अहति--चाहिए; भवानू--आप; गदितुम्‌--बोलना; नृ-शंसम्‌--निष्ठुरतापूर्वक; सत्यम्‌--सत्य; कुरुष्व--कर दीजिये; निगमम्‌--शास्त्रों में दिये गये वचन;तव--आपके; पाद-मूलम्‌--चरणकमलों के नीचे ; प्राप्ता:--प्राप्त करके; वयम्‌--हम; तुलसि-दाम--तुलसीदल की माला;पदा--आपके पाँव से; अवसूष्टमू--ठुकराई जाकर; केशै:--हमारे बालों पर; निवोढुम्‌-ले जाने के लिए; अतिलड्घ्य--ठुकराकर; समस्त--सभी; बन्धून्‌--सम्बन्धियों को |

    ब्राह्मणपत्लियों ने उत्तर दिया: हे विभो, आप ऐसे कटु वचन न कहें।

    आपको चाहिए किआप अपने उस वचन को पूरा करें कि आप अपने भक्तों को सदैव प्रतिदान करते हैं।

    चूँकि अबहम आपके चरणों को प्राप्त हैं, अतः हम इतना ही चाहती हैं कि हम वन में ही रहती जाएँ जिससेहम तुलसी-दल की उन मालाओं को अपने सिरों पर धारण कर सकें जिन्हें आप उपेक्षापूर्वकअपने चरणकमलों से ठुकरा देते हैं।

    हम अपने सारे भौतिक सम्बन्ध त्यागने को तैयार हैं।

    गृह्न्ति नो न पतय: पितरौ सुता वान भ्रातृबन्धुसुहदः कुत एव चान्ये ।

    तस्माद्धवत्प्रपदयो: पतितात्मनां नोनान्‍्या भवेद्गतिररिन्दम तद्विधेहि ॥

    ३०॥

    गृह्न्ति--वे स्वीकार करेंगे; न:ः--हमको; न--नहीं; पतय:--हमारे पति; पितरौ--माता-पिता; सुता:--पुत्र; वा--अथवा;न--नहीं; भ्रातृ- भाई; बन्धु-- अन्य सम्बन्धी; सुहृदः--तथा मित्रगण; कुतः--तो कैसे; एव--निस्सन्देह; च--तथा; अन्ये--अन्य लोग; तस्मात्‌--अतएव; भवत्‌-- आपके; प्रपदयो:--आपके चरणकमलों पर; पतित--गिरे हुए; आत्मनाम्‌--जिनके शरीर; न:ः--हमारे लिए; न--नहीं; अन्या-- अन्य कोई; भवेत्‌--हो सकता है; गति:ः--गन्तव्य; अरिम्‌ू-दम--हे शत्रुओं केदमनकर्ता; तत्‌ू--वह; विधेहि--हमें प्रदान करें

    अब हमारे पति, माता-पिता, पुत्र, भाई, अन्य सम्बन्धी तथा मित्र हमें वापस नहीं लेंगे औरअन्य कोई हमें किस तरह शरण देने को तैयार हो सकेगा? क्योंकि अब हमने अपने आपकोआपके चरणकमलों पर पटक दिया है और हमारे कोई अन्य गन्तव्य नहीं है अतएव हे अरिन्दम,हमारी इच्छापूरी कीजिये।

    श्रीभगवानुवाचपतयो नाभ्यसूयेरन्पितृभ्रातृसुतादय:ः ।

    लोकाश्च वो मयोपेता देवा अप्यनुमन्वते ॥

    ३१॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; पतय:--तुम्हारे पति; न अभ्यसूयेरन्‌--शत्रुता का अनुभव नहीं करेंगे; पितृ-भ्रातृ-सुत-आदयः-तुम्हारे पिता, भाई, पुत्र इत्यादि; लोका:--सामान्य लोग; च-- भी; व: --तुम्हारी ओर; मया--मेरे द्वारा; उपेता: --उपदेश दिये गये; देवा:--देवतागण; अपि-- भी; अनुमन्वते--सही ढंग से मानते हैं।

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ ने उत्तर दिया: तुम यह विश्वास करो कि न तो तुम्हारे पतिगण तुमलोगों के प्रति शत्रुभाव रखेंगे न ही तुम्हारे पिता, भाई, पुत्र, अन्य सम्बन्धीजन या आम जनता।

    मैं स्वयं उन्हें सारी स्थिति समझा दूँगा।

    यहाँ तक कि देवतागण भी अपना अनुमोदन व्यक्त करेंगे।

    न प्रीतयेडनुरागाय हाड्रसड़ो नृणामिह ।

    तन्मनो मयि युज्जाना अचिरान्मामवाप्स्यथ ॥

    ३२॥

    न--नहीं; प्रीतये--संतोष के लिए; अनुरागाय--अनुराग के लिए; हि--निश्चय ही; अड्भ-सड्भ:--शारीरिक मिलन; नृणाम्‌--लोगों के लिए; इह--इस जगत में; तत्‌--इसलिए; मनः--तुम्हारे मन; मयि--मुझपर; युज्ञाना:--स्थिर करके; अचिरात्‌ू --शीघ्र ही; मामू--मुझको; अवाप्स्यथ--प्राप्त करोगी |

    तुम सबों का मेरे शारीरिक सान्निध्य में रहना निश्चय ही इस जगत के लोगों को अच्छा नहींलगेगा, न ही इस प्रकार से तुम मेरे प्रति अपने प्रेम को ही बढ़ा सकोगी।

    तुम्हें चाहिए कि तुमअपने मन को मुझपर स्थिर करो और इस तरह शीघ्र ही तुम मुझे पा सकोगी।

    श्रवणाइर्शनाद््ध्ञानान्‍्मयि भावो<नुकीर्तनात्‌ ।

    न तथा सन्निकर्षेण प्रतियात ततो गृहान्‌ ॥

    ३३॥

    श्रवणात्‌--सुनने से; दर्शनात्‌--अर्चा विग्रह के स्वरूप का दर्शन करने से; ध्यानात्‌ू-- ध्यान करने से; मयि--मेरे लिए; भाव: --प्रेम; अनुकीर्तनातू--मेरे नाम तथा गुणों का कीर्तन करने से; न--नहीं; तथा--उसी तरह से; सन्निकर्षण--निकट रहने से;प्रतियात--लौट जाओ; तत:-- अतएव; गृहान्‌--अपने घरों को |

    मेरे विषय में सुनने, मेरे अर्चाविग्रह स्वरूप का दर्शन करने, मेरा ध्यान धरने तथा मेरे नामोंएवं महिमाओं का कीर्तन करने से ही मेरे प्रति प्रेम बढ़ता है, भौतिक सात्निध्य से नहीं।

    अतएवतुम लोग अपने घरों को लौट जाओ।

    श्रीशुक उबाचइत्युक्ता द्विजपल्यस्ता यज्ञवार्टं पुनर्गता: ।

    ते चानसूयवस्ताभिः स्त्रीभि: सत्रमपारयन्‌ ॥

    ३४॥

    श्री-शुक: उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इन बचनों से; उक्ता:--कहे गये; द्विज-पत्य:--ब्राह्मणपत्लियों से;ताः--वे; यज्ञ-वाटम्‌--यज्ञस्थल को; पुनः--फिर; गता:--चली गईं; ते--वे, उनके पतिगण; च--तथा; अनसूयव: --शत्रुभाव रहित; ताभि:--उन; स्त्रीभि: --स्त्रियों के साथ; सत्रम्‌--यज्ञ का सम्पन्न होना; अपारयन्‌--पूरा किया।

    श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस तरह आज्ञा पाकर ब्राह्मणपत्नियाँ यज्ञस्थल पर लौटगईं।

    ब्राह्मणों ने अपनी पत्नियों में कोई दोष नहीं निकाला और उन्होंने उनके साथ साथ यज्ञ पूराकिया।

    तत्रैका विधृता भर्रां भगवन्तं यथा श्रुतम्‌ ।

    हडोपगुहा विजहौ देहं कर्मानुबन्धनम्‌ ॥

    ३५॥

    तत्र--वहाँ; एका--उनमें से एक ने; विधृता--बलपूर्वक रोकी गई; भर्त्रा--पति द्वारा; भगवन्तम्‌-- भगवान्‌ को; यथा- श्रुतम्‌--जैसा उसने अन्यों से सुन रखा था; हृदा--अपने हृदय में; उपगुहा--आलिंगन करके; विजहौ--त्याग दिया; देहम्‌--अपना शरीर;कर्म-अनुबन्धनम्‌--जो भवबन्धन का कारण है।

    उनमें से एक महिला को उसके पति ने जबरदस्ती रोक रखा था।

    जब उसने अन्यों के मुख सेभगवान्‌ कृष्ण का वर्णन सुना तो उसने अपने हृदय के भीतर उनका आलिंगन किया और अपनावह भौतिक शरीर त्याग दिया जो भवबन्धन का कारण है।

    भगवानपि गोविन्दस्तेनैवान्नेन गोपकान्‌ ।

    चतुर्विधेनाशयित्वा स्वयं च बुभुजे प्रभु: ॥

    ३६॥

    भगवान्‌-- भगवान्‌; अपि-- भी; गोविन्द: --गोविन्द; तेन--उस; एव--उसी; अन्नेन-- भोजन से; गोपकान्‌-ग्वालबालों को;चतु:-विधेन--चार प्रकार का; अशयित्वा--खिलाकर; स्वयम्‌--स्वयं, खुद; च--तथा; बुभुजे--खाया; प्रभु;--सर्वशक्तिमानने

    भगवान्‌ गोविन्द ने ग्वालबालों को वह चार प्रकार का भोजन कराया।

    तत्पश्चात्‌सर्वशक्तिमान भगवान्‌ ने भी उन व्यंजनों को खाया।

    एवं लीलानरवपुखलॉकमनुशीलयन्‌ ।

    रैमे गोगोपगोपीनां रमयत्रूपवाक्ृतै: ॥

    ३७॥

    एवम्‌--इस प्रकार से; लीला--लीलाओं के लिए; नर--मनुष्य रूप में; वपु:--दिव्य शरीरधारी; नू-लोकम्‌--मानव समाजका; अनुशीलयन्‌-- अनुकरण करते; रेमे-- आनन्द लिया; गो--गौवें; गोप--ग्वालबाल; गोपीनाम्‌--गोपियों को; रमयन्‌--प्रसन्न करते हुए; रूप--अपने सौन्दर्य; वाक्‌--वाणी; कृतैः--तथा कर्मों से |

    इस तरह अपनी लीलाएँ सम्पन्न करने के लिए मनुष्य रूप में प्रकट होकर भगवान्‌ ने मानवसमाज की रीतियों का अनुकरण किया।

    उन्होंने अपनी गौवों, ग्वालमित्रों तथा गोपियों को अपनेसौन्दर्य, वाणी तथा कर्मों से प्रमुदित करते हुए आनन्द भोग किया।

    अशथानुस्मृत्य विप्रास्ते अन्बतप्यन्कृतागस: ।

    यद्विश्वेश्वरयोर्याच्ञामहन्म नृविडम्बयो: ॥

    ३८ ॥

    अथ--त्पश्चात्‌; अनुस्मृत्य--होश में आने पर; विप्रा:--ब्राह्मणणण; ते--वे; अन्वतप्यन्‌ू--पछताने लगे; कृत-अगसः--अपराध किये जाने पर; यत्‌--क्योंकि; विश्व-ई श्ररयो: -- ब्रह्माण्ड के दो स्वामियों, कृष्ण तथा बलराम की; याच्ञाम्‌--याचनाका; अहन्म--हमने उल्लंघन किया; त्रू-विडम्बयो:--मनुष्य के छद्यवेश में प्रकट होने वालों का।

    तब ब्राह्मणों को चेत हुआ और वे बहुत अत्यधिक पछताने लगे।

    उन्होंने सोचा, 'हमसे बहुतपाप हुआ है क्योंकि हमने सामान्य मनुष्य के वेश में प्रकट हुए ब्रह्माण्ड के दो स्वामियों कीयाचना अस्वीकार कर दी है।

    ' इष्ठा स्रीणां भगवति कृष्णे भक्तिमलौकिकीम्‌ ।

    आत्मानं च तया हीनमनुतप्ता व्यगहयन्‌ ॥

    ३९॥

    इृष्टा--देखकर; स्त्रीणामू--अपनी पत्नियों की; भगवति-- भगवान्‌; कृष्णे--कृष्ण में; भक्तिम्‌ू--शुद्ध भक्ति को;अलौकिकीम्‌--अलौकिक; आत्मानम्‌--अपने आपको; च--तथा; तया--उससे; हीनम्‌--विहीन; अनुतप्ता: --पछतावा करतेहुए; व्यगहयन्‌--अपने आपको धिक्कारा।

    अपनी पत्नियों की पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ कृष्ण के प्रति दिव्य भक्ति और अपने को उसभक्ति से विहीन देखकर उन ब्राह्मणों को अतीव खेद हुआ और वे अपने आपको धिक्कारने लगे।

    धिग्जन्म नस्त्रिवृद्यत्तद्द्विग्ब्रतं धिग्बहुज्ञताम्‌ ।

    धिक्कुलं धिक्क्रियादाक्ष्यं विमुखा ये त्वधोक्षजे ॥

    ४०॥

    धिक्‌--धिक्कार है; जन्म--जन्म; न:ः--हमारा; त्रि-वृतू-तिबारा ( पहला माता-पिता से, फिर ब्राह्मण दीक्षा द्वारा तथा तीसरावैदिक यज्ञ करते समय दीक्षा द्वारा ); यत्‌ तत्‌--जो भी; धिक्‌--धिक्कार है; ब्रतम्‌--हमारे ( ब्रह्मचर्य ) ब्रत को; धिक्‌ू--धिक्कारहै; बहु-ज्ञतामू--अपार विद्वत्ता को; धिक्‌ू--धिक्कार है; कुलमू--हमारे उच्च वंश को ( कुलीनता ); धिक्‌-थधिक्कार है; क्रिया-दाक्ष्यमू--कर्मकाण्ड में हमारी दक्षता को; विमुख:--वैरी; ये--जो; तु--फिर भी; अधोक्षजे-- भगवान्‌ में |

    [ब्राह्मणों ने कहा : 'धिक्कार है हमारे तिबारा जन्म को, हमारे ब्रह्मचर्य तथा हमारी विपुलविद्वत्ता को, धिक्कार है हमारे उच्च कुल तथा यज्ञ-अनुष्ठान में हमारी निपुणता को! इन सबकोधिक्कार है क्योंकि हम भगवान्‌ से विमुख हैं।

    'नूनं भगवतो माया योगिनामपि मोहिनी ।

    यद्वयं गुरवो नृणां स्वार्थे मुह्यामहे द्विजा: ॥

    ४१॥

    नूनम्‌--निस्सन्देह; भगवत:-- भगवान्‌ की; माया--मोहिनीशक्ति; योगिनाम्‌ू--बड़े बड़े योगियों को; अपि-- भी; मोहिनी --मोहित कर लेती है; यत्‌--चूँकि; वयम्‌--हम; गुरव:--गुरु; नृणाम्‌ू--समाज के; स्व-अर्थे--अपने सच्चे हित के लिए;मुह्यामहे--मोहित हो गये हैं; द्विजा:--ब्राह्मणणण |

    भगवान्‌ की मायाशक्ति बड़े बड़े योगियों को मोह लेती है, तो हमारी क्या बिसात! ब्राह्मणहोने के नाते हम सभी जाति के लोगों के आध्यात्मिक गुरु माने जाते हैं फिर भी हम अपने सच्चेस्वार्थ के बारे में मोहित हो गये हैं।

    अहो पश्यत नारीणामपि कृष्णे जगदगुरो ।

    दुरन्तभावं यो<विध्यन्मृत्युपाशान्गृहाभिधान्‌ ॥

    ४२॥

    अहो पश्यत--देखो तो सही; नारीणाम्‌--इन स्त्रियों की; अपि-- भी; कृष्णे-- भगवान्‌ कृष्ण में; जगत्‌-गुरौ--सकल ब्रह्माण्डके गुरु; दुरत--असीम; भावम्‌-- भक्ति; यः--जिसने; अविध्यत्‌--तोड़ डाला है; मृत्यु--मृत्यु के; पाशान्‌ू--बन्धनों को; गृह-अभिधान्‌--गृहस्थ जीवन के नाम से विख्यात्‌ |

    जरा इन स्त्रियों के असीम प्रेम को तो देखो जो इन्होंने अखिल विश्व के आध्यात्मिक गुरुभगवान्‌ के प्रति उत्पन्न कर रखा है।

    इस प्रेम ने गृहस्थ जीवन के प्रति उनकी आसक्ति-मृत्यु केबन्धन-को छिन्न कर दिया है।

    नासां द्विजातिसंस्कारो न निवासो गुरावषि ।

    न तपो नात्ममीमांसा न शौचं न क्रिया: शुभा: ॥

    ४३॥

    तथापि झ्युत्तम:श्लोके कृष्णे योगेश्वरेश्वरे ।

    भक्तिर्टढा न चास्माकं संस्कारादिमतामपि ॥

    ४४॥

    न--न तो; आसामू--इनका; द्विजाति-संस्कार: --समाज के द्विज कहलाने वाले वर्ग के संस्कार; न--न; निवास:--निवास;गुरौ--गुरु के आश्रम में ( अर्थात्‌ ब्रह्मचारी रूप में प्रशिक्षण )) अपि--भी; न--न तो; तप:--तपस्या; न--न; आत्म-मीमांसा--आत्मा की वास्तविकता के विषय में दार्शनिक जिज्ञासा; न--नहीं; शौचम्‌--स्वच्छता का अनुष्ठान; न--नहीं;क्रिया:--कर्मकाण्ड; शुभा: --शुभ; तथा अपि--फिर भी; हि--निस्सन्देह; उत्तम:-शलोके--जिनका यशगान उच्च कोटि केवैदिक मंत्रों द्वारा किया जाता है; कृष्णे--कृष्ण के लिए; योग-ईश्वर-ई श्रे--योग के समस्त स्वामियों का परम स्वामी;भक्ति:--शुद्ध भक्ति; हढा--हढ़; न--नहीं; च--दूसरी ओर; अस्माकम्‌--हम सब की; संस्कार-आदि-मताम्‌--ऐसे संस्कारोंइत्यादि वाले; अपि--यद्यपि।

    इन स्त्रियों ने न तो द्विजों के शुद्धीकरण संस्कार कराये हैं, न ही किसी आध्यात्मिक गुरु केआश्रम में ब्रह्मचारियों का जीवन बिताया है, न इन्होंने कोई तपस्या की है या आत्मा के विषय मेंमनन किया है या स्वच्छता की औपचारिकताओं का निर्वाह अथवा पावन अनुष्ठानों में अपने कोलगाया है।

    तो भी इनकी हढ़ भक्ति उन भगवान्‌ कृष्ण के प्रति है जिनका यशोगान वैदिक मंत्रोंद्वारा किया जाता है और जो योगेश्वरों के भी ईश्वर हैं।

    और दूसरी ओर हम हैं जिन्होंने भगवान्‌ कीकोई भक्ति नहीं की यद्यपि हमने इन सारी विधियों को सम्पन्न किया है।

    ननु स्वार्थविमूढानां प्रमत्तानां गृहेहया ।

    अहो नः स्मारयामास गोपवाक्यै: सतां गति: ॥

    ४५॥

    ननु--निस्सन्देह; स्व-अर्थ--अपने लाभ के विषय में; विमूढानाम्‌--मोहग्रस्त; प्रमत्तानामू--प्रमत्तों का; गृह-ईहया-- अपनेघरेलू प्रयासों से; अहो-- ओह; नः--हमको; स्मारयाम्‌ आस--स्मरण दिलाया; गोप-वाक्यै:--ग्वालबालों के शब्दों से;सताम्‌--दिव्य जीवों का; गति:--चरम लक्ष्य

    निस्सन्देह हम लोग गृहकार्यों में व्यस्त रहने के कारण अपने जीवन के असली लक्ष्य से पूरीतरह विपथ हो गये हैं।

    किन्तु अब जरा देखो तो कि भगवान्‌ ने किस तरह इन सीधे-सादेग्वालबालों के शब्दों से हमें समस्त सच्चे ब्रह्मवादियों के चरम गन्तव्य का स्मरण दिलाया है।

    अन्यथा पूर्णकामस्य कैवल्याद्यशिषां पते: ।

    ईशितव्यै: किमस्माभिरीशस्यैतद्विडम्बनम्‌ ॥

    ४६॥

    अन्यथा--अन्यथा; पूर्ण-कामस्य-- प्रत्येक इच्छा पूरी होने वाले का; कैवल्य--मोक्ष का; आदि--इत्यादि; आशिषाम्‌--आशीर्वाद; पतेः--स्वामी के; ईशितव्यै:--नियंत्रित किये जाने वालों के साथ; किम्‌ू--क्या; अस्माभि:--हमारे साथ; ईशस्य--ईश्वर का; एतत्‌--यह; विडम्बनम्‌--बहाना |

    अन्यथा पूर्ण काम, मोक्ष तथा दिव्य आशीर्वादों के स्वामी परम नियन्ता हमारे साथ यहविडम्बना क्‍यों करते ? हम तो सदैव उन्हीं के नियंत्रण में रहने के लिए ही हैं।

    हित्वान्यान्भजते यं श्री: पादस्पर्शाशयासकृत्‌ ।

    स्वात्मदोषापवर्गेण तद्याच्ञा जनमोहिनी ॥

    ४७॥

    हित्वा--त्यागकर; अन्यान्‌--अन्यों को; भजते--पूजती है; यमू--जिस भगवान्‌ को; श्री:--लक्ष्मीजी; पाद-स्पर्श--जिनकेचरणकमलों के स्पर्श हेतु; आशया--आशा के साथ; असकृत्‌--निरन्तर; स्व-आत्म--अपने से; दोष--त्रुटि; अपवर्गुण--एकओर करके; तत्‌--उनकी; याच्ञा--याचना; जन--सामान्य लोग; मोहिनी--मोहित करके |

    लक्ष्मीजी उनके चरणकमलों का स्पर्श पाने की आशा से सबकुछ एक ओर रखकर तथाअपना गर्व और चंचलता त्यागकर एकमात्र उन्हीं की पूजा करती हैं।

    ऐसे भगवान्‌ यदि याचनाकरते हैं, तो यह अवश्य ही सबों को चकित करने वाली बात है।

    देश: काल: पृथगद्रव्यं मन्त्रतन्त्र्त्विजोउग्नय: ।

    देवता यजमाननश्च क्रतुर्धर्म श्ष यन्‍्मय: ॥

    ४८ ॥

    स एव भगवास्साक्षाद्विष्णुयेंगेश्रेश्वर: ।

    जातो यदुष्वित्याश्रुण्म हापि मूढा न विद्यह ॥

    ४९॥

    देश:--स्थान; काल:--समय; पृथक्‌ द्रव्यम्‌ू--साज-सामग्री की विशिष्ट वस्तुएँ; मन्त्र--वैदिक स्तोत्र; तन्त्र--निर्धारित अनुष्ठान;ऋत्विज: -- पुरोहित; अग्नयः--तथा यज्ञ की अग्नियाँ; देवता--अधिष्ठाता देवता; यजमान:--यज्ञ करने वाला; च--तथा;क्रतु:--हवि; धर्म:--शुभ फल; च--तथा; यत्‌--जिसको; मय: --बनाने वाला; सः--वह; एव--निस्सन्देह; भगवान्‌ --भगवान्‌; साक्षात्‌- प्रत्यक्ष; विष्णु: --विष्णु; योग-ई श्वर-ई श्वरः -- यो गे श्वरों के स्वामी ने; जातः--जन्म लिया है; यदुषु--यादववंश के; इति--इस प्रकार; आश्रृण्म--हमने सुना है; हि--निश्चय ही; अपि--फिर भी; मूढा:--मूर्ख; न विद्यहे--हम नहीं जानपाये।

    यज्ञ के सारे पक्ष-शुभ स्थान तथा समय, साज-सामग्री की विविध वस्तुएँ, वैदिक मंत्र,अनुष्ठान, पुरोहित तथा यज्ञ की अग्नियाँ, देवता, यज्ञ-अधिष्ठाता, यज्ञ-हवि तथा प्राप्त होने वालेशुभ फल-ये सभी उन्हीं के ऐश्वर्य की अभिव्यक्तियाँ हैं।

    यद्यपि हमने योगेश्वरों के ईश्वर, पूर्णपुरुषोत्तम भगवान्‌ विष्णु के विषय में यह सुन रखा था कि उन्होंने यदु वंश में जन्म ले लिया हैकिन्तु हम इतने मूर्ख थे कि श्रीकृष्ण को साक्षात्‌ भगवान्‌ नहीं समझ पाये।

    तस्मै नमो भगवते कृष्णायाकुण्ठमेधसे ।

    यन्मायामोहितधियो भ्रमाम: कर्मवर्त्मसु ॥

    ५०॥

    तस्मै--उन; नमः--नमस्कार; भगवते-- भगवान्‌; कृष्णाय-- श्रीकृष्ण को; अकुण्ठ-मेधसे--जिनकी बुद्धि सीमित नहीं होती;यत्‌-माया--जिनकी मायाशक्ति से; मोहित--मोहग्रस्त; धिय:ः--मन; भ्रमाम:-- भटक रहे हैं; कर्म-वर्त्मससु--सकाम कर्म केमार्ग पर।

    हम उन भगवान्‌ श्रीकृष्ण को नमस्कार करते हैं, जिनकी बुद्धि कभी भी मोहग्रस्त नहीं होतीऔर हम हैं कि मायाशक्ति द्वारा मोहित होकर सकाम कर्म के मार्गों पर भटक रहे हैं।

    सवबैन आद्यः पुरुष: स्वमायामोहितात्मनाम्‌ ।

    अविज्ञतानुभावानां क्षन्तुम्ईत्यतिक्रमम्‌ ॥

    ५१॥

    सः--वह; वै--निस्सन्देह; न:ः--हमारा; आद्य:--आदि भगवान्‌; पुरुष:--परम पुरुष; स्व-मया-मोहित-आत्मनाम्‌--उनकीमाया से मोहग्रस्त मन वालों का; अविज्ञात--न जानने वाले; अनुभावानाम्‌--उनके प्रभाव का; क्षन्तुम्‌--क्षमा कर देना;अहति--चाहिए; अतिक्रमम्‌--अपराध को |

    हम भगवान्‌ कृष्ण की मायाशक्ति से मोहग्रस्त थे अतएवं हम आदि भगवान्‌ के रूप मेंउनके प्रभाव को नहीं समझ सके ।

    अब हमें आशा है कि वे कृपापूर्वक हमारे अपराध को क्षमाकर देंगे।

    इति स्वाघमनुस्मृत्य कृष्णे ते कृतहेलना: ।

    दिद्दक्षवो ब्रजमथ कंसाद्धीता न चाचलन्‌ ॥

    ५२॥

    इति--इस प्रकार; स्व-अघम्‌--अपने अपराध को; अनुस्मृत्य--फिर से स्मरण करके; कृष्णे--कृष्ण के विरुद्ध; ते--वे; कृत-हेलना:--तिरस्कार प्रदर्शित करने पर; दिदृक्षव:ः--देखने की इच्छा से; ब्रजम्--नन्द महाराज के गाँव; अथ--तब; कंसात्‌--कंस से; भीता:--डरे हुए; न--नहीं; च--तथा; अचलन्‌-गये

    इस प्रकार कृष्ण की उपेक्षा करने से उनके द्वारा जो अपराध हुआ था उसका स्मरण करतेहुए उनका दर्शन करने के लिए वे अति उत्सुक हो उठे।

    किन्तु कंस से भयभीत होने के कारणउन्हें ब्रज जाने का साहस नहीं हुआ।

    TO

    अध्याय चौबीसवाँ: गोवर्धन पर्वत की पूजा करना

    10.24श्रीशुक उबाचभगवानपि तत्रैव बलदेवेन संयुतः।

    अपश्यन्निवसन्गोपानिन्द्रयागकृतोद्यमान्‌ ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; भगवान्‌-- भगवान्‌; अपि-- भी; तत्र एब--उसी स्थान पर; बलदेवेन--बलराम द्वारा; संयुत:--के साथ; अपश्यत्‌--देखा; निवसन्‌--निवास करते हुए; गोपान्‌-ग्वालों को; इन्द्र--स्वर्ग के राजा इन्द्रके लिए; याग--यज्ञ के लिए; कृत--किया हुआ; उद्यमान्‌--महान्‌ प्रयास |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : उस स्थान पर ही अपने भाई बलदेव के साथ रहते हुए कृष्ण नेग्वालों को इन्द्र-यज्ञ की जोर-शोर से तैयारी करते देखा।

    तदभिज्ञोपि भगवास्सर्वात्मा सर्वदर्शनः ।

    प्रश्रयावनतोपृच्छद्दृद्धान्नन्दपुरोगमान्‌ ॥

    २॥

    तत्‌ू-अभिज्ञ:--इसके विषय में पूर्ण ज्ञान रखने वाले; अपि--यद्यपि; भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; सर्व-आत्मा--हर एक के हृदय मेंस्थित परमात्मा; सर्व-दर्शन: --सर्वज्ञ भगवान्‌; प्रश्रय-अवनत:--विनयपूर्वक झुक कर; अपृच्छत्‌--पूछा; वृद्धान्‌ू--बूढ़े लोगोंसे; नन्द-पुरः-गमान्‌--नन्द महाराज इत्यादि

    सर्वज्ञ परमात्मा होने से भगवान्‌ कृष्ण पहले से ही सारी स्थिति जानते थे फिर भी विनीतभाव से उन्होंने अपने पिता नन्‍्द महाराज इत्यादि गुरुजनों से पूछा।

    कथ्यतां मे पित: कोयं सम्भ्रमो व उपागतः ।

    कि फल॑ कस्य वोद्श: केन वा साध्यते मख: ॥

    ३॥

    कथ्यताम्‌--आप बतलायें; मे--मुझे; पित:--मेरे पिता; कः--क्या; अयम्‌--यह; सम्भ्रम:--बड़ा भारी काम; व:ः--आप पर;उपागतः--आया हुआ; किम्‌--क्या; फलम्‌--परिणाम; कस्य--किसके ; वा--त था; उद्देश:--हेतु; केन--किस तरह; वा--तथा; साध्यते--सम्पन्न किया जाना है; मखः--यह यज्ञ |

    [भगवान्‌ कृष्ण ने कहा : हे पिताश्री, आप कृपा करके मुझे बतलायें कि आप इतना सारामहत्‌ प्रयास किसलिए कर रहे हैं? आप कया करना चाह रहे हैं ? यदि यह कर्मकाण्डी यज्ञ है, तोयह किसकी तुष्टि हेतु किया जा रहा है और यह किन साथनों से सम्पन्न किया जायेगा ?

    एतद्ूहि महान्कामो मह्मं शुश्रूषतरे पित: ।

    न हि गोप्यं हि साधूनां कृत्यं सर्वात्मनामिह ।

    अस्त्यस्वपरदृष्टीनाममित्रोदास्तविद्विषाम्‌ ॥

    ४॥

    एतत्‌--यह; ब्रूहि--बतलाइये; महान्‌--महती; काम:--इच्छा; महाम्‌--मुझको; शुश्रूषबे--सुनने के लिए; पित:--हे पिताश्री;न--नहीं; हि--निस्सन्देह; गोप्यम्‌ू--गोपनीय; हि--निश्चय ही; साधूनाम्‌--सन्त पुरुषों के; कृत्यम्‌ू--कार्यकलाप; सर्व-आत्मनाम्‌--अपने तुल्य सबों को देखने वाला; इह--इस जगत में; अस्ति--है; अस्व-पर-दृष्टीनामू--जो अपने तथा पराये मेंभेद नहीं करता; अमित्र-उदास्त-विद्विषाम्‌--जो मित्रों, उदासीन दलों तथा शत्रुओं में अन्तर नहीं करते |

    हे पिताश्री, कृपा करके इसके विषय में मुझे बतलायें।

    मुझे जानने की बड़ी इच्छा है और मैंश्रद्धापूर्वक सुनने को तैयार हूँ।

    जो अन्यों को अपने तुल्य मानते हैं, जिनमें अपनी तथा पराये काभेदभाव नहीं है और जो यह नहीं विचार करते कि कौन मित्र है, कौन शत्रु है और कौन उदासीनहै ऐसे सन्त पुरुषों को कुछ भी छिपाकर नहीं रखना चाहिए।

    उदासीनोरिवद्वर्ज्य आत्मवत्सुहृदुच्यते ॥

    ५॥

    उदासीन:--विरस रहने वाला; अरि-वत्‌--शत्रु के समान; वर्ज्य:--बचना चाहिए; आत्म-वत्‌--अपने ही समान; सुहृत्‌--मित्रको; उच्यते--कहना चाहिए।

    जो उदासीन ( निरपेक्ष ) होता है उससे शत्रु की तरह बचना चाहिए, किन्तु मित्र को अपने हीसमान समझना चाहिए ॥

    ज्ञत्वाज्ञात्वा च कर्माणि जनोउयमनुतिष्ठति ।

    विदुषः कर्मसिद्द्धि: स्याद्यथा नाविदुषो भवेत्‌ ॥

    ६॥

    ज्ञात्वा--जान लेने पर; अज्ञात्वा--अनजाने; च--भी; कर्माणि--कर्म; जन: --सामान्य लोग; अयम्‌--ये; अनुतिष्ठति--सम्पन्नकरते हैं; विदुष:--विद्वान; कर्म-सिद्द्धिः:--कर्म के वांछित लक्ष्य की पूर्ति; स्थातू--होती है; यथा--जिस तरह; न--नहीं;अविदुष:--मूर्ख के लिए; भवेत्‌--होता है

    जब इस जगत में लोग कर्म करते हैं, तो कभी तो वे समझते हैं कि वे क्या कर रहे हैं औरकभी नहीं समझते।

    जो लोग यह जानते हैं कि वे क्‍या कर रहे हैं उन्हें अपने कार्य में सफलताप्राप्त होती है, जबकि अज्ञानी लोगों को सफलता नहीं मिलती।

    तत्र तावत्क्रियायोगो भवतां कि विचारितः ।

    अथ वा लौकिकस्तन्मे पृच्छतः साधु भण्यताम्‌ ॥

    ७॥

    तत्र तावत्‌ू--ऐसा होने से; क्रिया-योग: --यह सकाम उद्यम; भवताम्‌--आपका; किम्‌--क्या; विचारित:--शास्त्रसम्मत; अथवा--या कि; लौकिक:--लोकरीति के अनुसार; तत्‌--वह; मे--मुझको; पृच्छत:ः --पूछ रहे; साधु--स्पष्ट; भण्यताम्‌ू--बतलादिया जाय।

    ऐसा होने से, आप मुझे स्पष्ट रूप से अपने इस अनुष्ठान विषयक उद्योग को बतला दें।

    कयायह उत्सव शास्त्रसम्मत है या केवल समाज की एक साधारण रीति ?

    श्रीनन्द उवाचपर्जन्यो भगवानिन्द्रो मेघास्तस्यात्ममूर्तय: ।

    तेभिवर्षन्ति भूतानां प्रीणनं जीवनं पय: ॥

    ८॥

    श्री-नन्दः उबाच-- श्री नन्द महाराज ने कहा; पर्जन्य:--वर्षा के; भगवान्‌--महा प्रभु; इन्द्र: --इन्द्र; मेघा:--बादल; तस्य--उसके; आत्म-मूर्तय:--साकार प्रतिनिधि; ते--वे; अभिवर्षन्ति--सीधे वर्षा करते हैं; भूतानाम्‌--सारे जीवों की; प्रीणनम्‌--तुष्टि; जीवनम्‌--जीवनदायी शक्ति; पयः--दूध ( के तुल्य )॥

    नन्द महाराज ने उत्तर दिया: महान्‌ ईश्वर इन्द्र वर्षा के नियंत्रक हैं।

    ये बादल उन्हीं के साक्षात्‌प्रतिनिधि हैं और वे ही वर्षा करते हैं जिससे समस्त प्राणियों को सुख और जीवनदान मिलता है।

    त॑ तात वयमन्ये च वार्मुचां पतिमी श्वरम्‌ ।

    द्रव्यैस्तद्रेतसा सिद्धैर्यजन्ते क्रतुभिर्नरा: ॥

    ९॥

    तम्‌--उसको; तात-हे पुत्र; वयम्‌--हम; अन्ये-- अन्य लोग; च-- भी; वा:-मुचाम्‌--बादलों के; पतिम्‌--स्वामी; ई श्वरमू--शक्तिशाली नियंत्रक को; द्रव्यैः--विविध वस्तुओं से; तत्‌-रेतसा--उसके वीर्य से; सिद्धैः--उत्पन्न; यजन्ते--पूजा करते हैं;क्रतुभि:ः--यज्ञ द्वारा; नराः--लोग

    हे पुत्र, केवल हम ही नहीं अपितु अन्य लोग भी वर्षा करने वाले इन बादलों के स्वामी कीपूजा करते हैं।

    हम उन्हें अन्न तथा अन्य पूजा-सामग्री भेंट करते हैं, जो वर्षा रूपी उन्हीं के वीर्य सेउत्पन्न होती है।

    तच्छेषेणोपजीवन्ति त्रिवर्गफलहेतवे ।

    पुंसां पुरुषकाराणां पर्जन्य: फलभावन: ॥

    १०॥

    तत्‌--उस यज्ञ के; शेषेण--जूठन से; उपजीवन्ति--अपना पेट पालते हैं; त्रि-वर्ग--जीवन के तीन लक्ष्य ( धर्म, अर्थ तथाकाम ); फल-हेतवे--फल पाने के हेतु; पुंसामू--मनुष्यों को; पुरुष-काराणाम्‌--मानवीय प्रयास में लगे; पर्जन्य:--इन्द्र; फल-भावन:--वांछित लक्ष्यों को प्रभावित करने वाले साधन |

    इन्द्र के लिए सम्पन्न यज्ञों से बचे जूठन को ग्रहण करके लोग अपना जीवन-पालन करते हैंतथा धर्म, अर्थ और काम रूपी तीन लक्ष्यों को प्राप्त करते हैं।

    इस प्रकार भगवान्‌ इन्द्र उद्यमीपुरुषों की सकाम सफलता के लिए उत्तरदायी अभिकर्ता हैं।

    य एन विसूजेद्धर्म परम्पर्यागतं नर: ।

    कामाद्द्वेषाद्धयाललोभात्स वै नाप्नोेति शोभनम्‌ ॥

    ११॥

    यः--जो कोई; एनम्‌--इसको; विसूजेत्‌-- बहिष्कार कर देता है; धर्मम्‌-- धर्म को; परम्पर्य--परम्परा से; आगतम्‌--प्राप्तकिया हुआ; नरः--व्यक्ति; कामात्‌--काम के वशीभूत होकर; द्वेषात्‌-शत्रुतावश; भयात्‌-- भयवश; लोभात्‌--या लालच केवश में आकर; सः--वह; बै--निश्चय ही; न आप्नोति--नहीं प्राप्त करता है; शोभनम्‌ू--मंगल ६यह धर्म स्वस्थ परम्परा पर आश्रित है।

    जो कोई काम, शत्रुता, भय या लोभ वश इसकाबहिष्कार करता है उसे निश्चय ही सौभाग्य प्राप्त नहीं हो सकेगा।

    श्रीशुक उबाचवचो निशम्य नन्दस्य तथान्येषां ब्रजौकसाम्‌ ।

    इन्द्राय मनन्‍्युं जनयन्पितरं प्राह केशव: ॥

    १२॥

    श्री शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; वच:--शब्द; निशम्य--सुनकर; नन्दस्य--महाराज नन्द के; तथा-- और;अन्येषाम्‌-- अन्य; ब्रज-ओकसाम्‌--ब्रज के निवासियों के; इन्द्राय--इन्द्र हेतु; मन्युमू--क्रोध; जनयन्‌--उत्पन्न करते हुए;पितरम्‌ू--अपने पिता से; प्राह--बोले; केशव:-- भगवान्‌ केशवशुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब भगवान्‌ केशव

    कृष्ण ने अपने पिता नन्द तथा ब्रज केअन्य गुरुजनों के कथनों को सुना तो इन्द्र के प्रति क्रोध उत्पन्न करने के उद्देश्य से उन्होंने अपनेपिता को इस प्रकार सम्बोधित किया।

    श्रीभगवानुवाचकर्मणा जायते जन्तु: कर्मणैव प्रलीयते ।

    सुखं दुःखं भयं क्षेम॑ कर्मणैवाभिपद्यते ॥

    १३॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; कर्मणा--कर्म के बल से; जायते--उत्पन्न होता है; जन्तु:--जीव; कर्मणा--कर्म से;एव--ही; प्रलीयते--अपना विनाश करता है; सुखम्‌--सुख; दुःखम्‌--दुख; भयम्‌-- भय; क्षेमम्‌--सुरक्षा; कर्मणा एब--कर्मसे ही; अभिपद्यते--प्राप्त किये जाते हैं

    भगवान्‌ कृष्ण ने कहा : कर्म से ही जीव जन्म लेता है और कर्म से ही उसका विनाश होताहै।

    उसके सुख, दुख, भय तथा सुरक्षा की भावना का उदय कर्म के प्रभावों के रूप में होता है।

    अस्ति चेदीश्वर: कश्चित्फलरूप्यन्यकर्मणाम्‌ ।

    कर्तारें भजते सोपि न ह्कर्तुः प्रभुर्ठि सः ॥

    १४॥

    अस्ति--है; चेत्‌--यदि मान लें; ईश्वर: --परम नियन्ता; कश्चित्‌--कोई; फल-रूपी--सकाम फल प्रदान करने वाला; अन्य-कर्मणाम्‌-- अन्य व्यक्तियों के कर्मों का; कर्तारमू-कर्म का कर्ता; भजते--आश्रित होता है; सः--वह; अपि-- भी; न--नहीं;हि--अन्ततः; अकर्तुः--कर्म न करने वाले का; प्रभुः--स्वामी; हि--निश्चय ही; सः--वह

    यदि कोई परम नियन्ता हो भी, जो अन्यों को उनके कर्मो का फल प्रदान करता हो तो उसेभी कर्म करने वाले पर आश्रित रहना होगा।

    वस्तुतः जब तक सकाम कर्म सम्पन्न न हो ले तबतक सकाम कर्मफलों के प्रदाता के अस्तित्व का प्रश्न ही नहीं उठता।

    किमिन्द्रेणेह भूतानां स्वस्वकर्मानुवर्तिनाम्‌ ।

    अनीशेनान्यथा कर्तु स्वभावविहितं नृणाम्‌ ॥

    १५॥

    किम्‌--क्या; इन्द्रेण--इन्द्र से; हह--यहाँ; भूतानाम्‌ू--जीवों के लिए; स्व-स्व--अपना अपना; कर्म--सकाम कर्म का;अनुवर्तिनामू--फल भोगने वाले; अनीशेन-- असमर्थ ( इन्ध ); अन्यथा--अन्यथा; कर्तुमू--करने के लिए; स्वभाव--अपने बद्धस्वभावों से; विहितम्‌-- भाग्य में लिखा हुआ; नृणाम्‌--मनुष्यों के |

    इस जगत में जीवों को अपने किसी विशेष पूर्व कर्म के परिणामों का अनुभव करने के लिएबाध्य किया जाता है।

    चूँकि भगवान्‌ इन्द्र किसी तरह भी मनुष्यों के भाग्य को बदल नहीं सकतेजो उनके स्वभाव से ही उत्पन्न होता है, तो फिर लोग उनकी पूजा क्‍यों करें ?

    स्वभावतन्त्रो हि जनः स्वभावमनुवर्तते ।

    स्वभावस्थमिदं सर्व सदेवासुरमानुषम्‌ ॥

    १६॥

    स्वभाव--अपने बद्ध स्वभाव के; तन्त्र:--नियंत्रण में; हि--निस्सन्देह; जन:--व्यक्ति; स्वभावम्‌--अपने स्वभाव का;अनुवर्तते--पालन करता है; स्वभाव-स्थम्‌--बद्ध लालसा पर आधारित; इृदम्‌--यह संसार; सर्वम्‌--सम्पूर्ण; स--समेत;देव--देवतागण; असुर-- असुरगण; मानुषम्‌--तथा मनुष्य जाति।

    प्रत्येक व्यक्ति अपने ही बद्ध स्वभाव के अधीन है और उसे उस स्वभाव का ही पालन करनाचाहिए।

    देवताओं, असुरों तथा मनुष्यों से युक्त यह सम्पूर्ण जगत जीवों के बद्ध स्वभाव परआश्रित है।

    देहानुच्चावचाज्न्तुः प्राप्योत्सूजति कर्मणा ।

    शत्रु्मित्रमुदासीन: कर्मव गुरुरी श्वर: ॥

    १७॥

    देहानू-- भौतिक शरीरों को; उच्च-अवचानू--उच्च तथा निम्न श्रेणी के; जन्तु:--बद्धजीव; प्राप्प--पाकर; उत्सूजति--त्यागदेता है; कर्मणा--अपने कार्यों के फलों के द्वारा; शत्रु:ः--उसका शत्रु; मित्रमू--मित्र; उदासीन:--तथा निरपेक्ष पक्ष; कर्म--भौतिक कार्य; एब--अकेला; गुरुः--उसका गुरु; ईश्वरः --उसका स्वामी |

    चूँकि कर्म के ही फलस्वरूप बद्धजीव उच्च तथा निम्न श्रेणी के विविध शरीरों को स्वीकारकरता है और फिर त्याग देता है अतएव यह कर्म उसका शत्रु, मित्र तथा निरपेक्ष साक्षी है, उसकागुरु तथा ईश्वर है।

    तस्मात्सम्पूजयेत्कर्म स्वभावस्थ: स्वकर्मकृत्‌ ।

    अज्जसा येन वर्तेत तदेवास्य हि दैवतम्‌ ॥

    १८॥

    तस्मात्‌ू--अतः; सम्पूजयेत्‌--पूरी तरह से पूजा करनी चाहिए; कर्म--अपना नियत कार्य; स्वभाव--अपने स्वभाव में; स्थ: --बने रहकर; स्व-कर्म--अपना नियत कर्तव्य; कृतू--करते हुए; अज्ञ़सा--बिना कठिनाई के; येन--जिससे; वर्तेत--जीवितरहता है; तत्‌ू--वह; एव--निश्चय ही; अस्य--उसका; हि--निस्सन्देह; दैवतम्‌--पूज्य अर्चाविग्रह

    अतएबव मनुष्य को चाहिए कि वह कर्म की ही ठीक से पूजा करे।

    मनुष्य को अपने स्वभावके अनुरूप स्थिति में बने रहना चाहिए और अपने ही कर्तव्य का निर्वाह करना चाहिए।

    निस्सन्देह जिससे हम अच्छी तरह रह सकते हैं वही वास्तव में हमारा पूज्य अर्चाविग्रह है।

    आजीव्यैकतर भावं यस्त्वन्यमुपजीवति ।

    न तस्माद्विन्दते क्षेमं जारान्रार्यसती यथा ॥

    १९॥

    आजीव्य--जीवन निर्वाह करने वाला; एकतरम्‌--एक; भावम्‌--जीव; यः--जो; तु-- लेकिन; अन्यम्‌--दूसरा; उपजीवति--स्वीकार करता है; न--नहीं; तस्मात्‌--उससे ; विन्दते--प्राप्त करता है; क्षेमम्‌ू-- असली लाभ; जारातू--परपति ( उपपति ) से;नारी--एक स्त्री; असती--दुष्टा; यथा--जिस तरह |

    जो वस्तु वास्तव में हमारे जीवन का निर्वाह करती है यदि हम उसे छोड़कर अन्य वस्तु कीशरण ग्रहण करते हैं, तो भला हमें असली लाभ कैसे प्राप्त हो सकता है? हम उस कृतषघ्न स्त्रीकी भाँति होंगे जो जारपति के साथ प्रेमालाप करके कभी भी असली लाभ नहीं उठा पाती।

    वर्तेत ब्रह्मणा विप्रो राजन्यो रक्षया भुवः ।

    वैश्यस्तु वार्तया जीवेच्छूद्रस्तु द्विजसेवया ॥

    २०॥

    वर्तेत--जीवित रहता है; ब्रह्मणा--वेदों से; विप्र:--ब्राह्मण; राजन्य:--शासक वर्ग का सदस्य; रक्षया--रक्षा द्वारा; भुव:ः--पृथ्वी की; वैश्य:--वैश्य; तु--दूसरी ओर; वार्तबा--व्यापार द्वारा; जीवेतू--जीवित रहता है; शूद्र:--शूद्र; तु--तथा; द्विज-सेवया-दद्विजों अर्थात्‌ ब्राह्मणों, क्षत्रियों तथा वैश्यों की सेवा द्वारा

    ब्राह्मण वेदों का अध्ययन और अध्यापन करके, शासक वर्ग का सदस्य पृथ्वी की रक्षाकरके, वैश्य व्यापार करके तथा शूद्र अपने से ऊँची श्रेणी के द्विजों की सेवा करके अपनाजीवन-निर्वाह करता है।

    कृषिवाणिज्यगोरक्षा कुसीदं तूर्यमुच्यते ।

    वार्ता चतुर्विधा तत्र वयं गोवृत्तयोडनिशम्‌ ॥

    २१॥

    कृषि--खेती; वाणिज्य--व्यापार; गो-रक्षा--तथा गौवों की रक्षा; कुसीदम्‌--लेन-देन; तूर्यमू--चौथा; उच्यते--कहलाता है;वार्ता--वृत्तिपरक कार्य; चतु:-विधा--चार प्रकार का; तत्र--इनमें से; वयम्‌--हम; गो-वृत्तय:--गोरक्षा में लगे हुए;अनिशम्‌--अनवरत |

    वैश्य के वृत्तिपरक कार्य चार प्रकार के माने गये हैं-कृषि, व्यापार, गोरक्षा तथा धन कालेन-देन।

    हम इनमें से केवल गोरक्षा में ही सदेव लगे रहे हैं।

    सत्त्वं रजस्तम इति स्थित्युत्पत्त्यन्तहेतवः ।

    रजसोत्पद्यते विश्वमन्योन्यं विविधं जगत्‌ ॥

    २२॥

    सत्त्ममू--सतोगुण; रज:--रजोगुण; तम:--तथा तमोगुण; इति--इस प्रकार; स्थिति--पालन; उत्पत्ति--सृजन; अन्त--तथाविनाश के; हेतव: --कारण; रजसा--रजोगुण से; उत्पद्यते--उत्पन्न होता है; विश्वम्‌--यह ब्रह्माण्ड; अन्योन्यम्‌--नर तथा मादाके संयोग से; विविधम्‌--अनेक प्रकार का बन जाता है; जगत्‌--संसार।

    सृजन, पालन तथा संहार का कारण प्रकृति के तीन गुण--सतो, रजो तथा तमोगुण-हैं।

    विशिष्टतः रजोगुण इस ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करता है और संभोग के द्वारा यह विविधता से पूर्णबनता है।

    रजसा चोदिता मेघा वर्षन्त्यम्बूनि सर्वतः ।

    प्रजास्तैरेव सिध्यन्ति महेन्द्र: कि करिष्यति ॥

    २३॥

    रजसा--रजोगुण से; चोदिता: -- प्रेरित; मेघा:--बादल; वर्षन्ति--वर्षा करते हैं; अम्बूनि-- अपना जल; सर्वतः--सर्वत्र;प्रजा:--जनता; तैः--उस जल से; एव--ही; सिध्यन्ति--अपना अस्तित्व बनाये रहती है; महा-इन्द्र:--महान्‌ इन्द्र; किमू--क्या;'करिष्यति--कर सकता है |

    रजोगुण द्वारा प्रेरित बादल सर्वत्र अपने जल की वर्षा करते हैं और इस वर्षा से ही सारेप्राणियों की जीविका चलती है।

    इस व्यवस्था से भला इन्द्र को क्‍या लेना-देना ?

    ननः पुरोजनपदा न ग्रामा न गृहा वयम्‌ ।

    वनौकसस्तात नित्यं वनशैलनिवासिन: ॥

    २४॥

    न--नहीं; नः--हमारे लिए; पुरः--नगर; जन-पदाः--विकसित आबाद क्षेत्र; न--नहीं; ग्रामा:ः--गाँव; न--नहीं; गृहा:--स्थायी घरों में रहने वाले; वयम्‌--हम; वन-ओकसः--बनों में रहने वाले; तात--हे पिता; नित्यमू--सदैव; वन--वनों में;शैल--तथा पर्वतों में; निवासिन:--रहने वाले ।

    हे पिताश्री, हमारे घर न तो नगरों में हैं, न कस्बों या गाँवों में हैं।

    वनवासी होने से हम सदैव जंगल में तथा पर्वतों पर रहते हैं।

    तस्मादगवां ब्राह्मणानामद्रेश्वारभ्यतां मख: ।

    य इन्द्रयागसम्भारास्तैरयं साध्यतां मखः ॥

    २५॥

    तस्मात्‌ू--अतएव; गवाम्‌--गौवों का; ब्राह्मणानाम्‌--ब्राह्मणों का; अद्वेः--तथा पर्वत ( गोवर्धन ) का; च-- भी; आरभ्यताम्‌--प्रारम्भ करना चाहिए; मख: --यज्ञ; ये--जो; इन्द्र-याग--इन्द्र यज्ञ के लिए; सम्भारा:--सामग्री; तैः--उनके द्वारा; अयम्‌--यह; साध्यतामू--सम्पन्न करना चाहिए; मख: --यज्ञ |

    अतः गौवों, ब्राह्मणों तथा गोवर्धन पर्वत के आनन्द हेतु यज्ञ का शुभारम्भ हो।

    इन्द्र के पूजनके लिए जितनी सामग्री एकत्र की गई है उससे यह यज्ञ सम्पन्न किया जाय।

    पच्यन्तां विविधा: पाका: सूपान्ता: पायसादय: ।

    संयावापूपशष्कुल्यः सर्वदोहश्च गृह्मयताम्‌ ॥

    २६॥

    पच्यन्ताम्‌--लोग पकावें; विविधा: --नाना प्रकार के; पाका:--पकवान्न से लेकर; सूप-अन्ता:--शोरबा तक; पायस-आदयः:--खौर इत्यादि; संयाव-आपूप--तले हुए पापड़; शष्कुल्य: --पूड़ियाँ; सर्व--सब; दोह:--गौवों के दुहने से प्राप्तव्य;च--तथा; गृह्मताम्‌--ले लिया जाय।

    खीर से लेकर तरकारी के शोरवे तक के विविध पकवान तैयार किये जायूँ।

    अनेक प्रकारके बढ़िया पापड़ तल लिए जाय॑ँ या सेंक लिए जायें तथा दूध के जितने भी पदार्थ बन सकें उन्हेंइस यज्ञ के लिए एकत्र कर लिया जाय।

    हूयन्तामग्नय: सम्यग्ब्राह्मणैब्रह्मवादिभि: ।

    अन्न बहुगुणं तेभ्यो देयं वो धेनुदक्षिणा: ॥

    २७॥

    हूयन्तामू--आह्वान किया जाय; अग्नयः--यज्ञ की अग्नियों का; सम्यक्‌--उचित रीति से; ब्राह्मणै:--ब्राह्मणों के द्वारा; ब्रह्म-वादिभि:--वेदविद्‌; अन्नम्‌ू-- भोजन; बहु-गुणम्‌--अच्छी तरह से तैयार; तेभ्य:--उनको; देयम्‌--दिया जाय; व: --तुम्हारेद्वारा; धेनु-दक्षिणा:--गौवों की दक्षिणा।

    वैदिक मंत्रों में पटु-ब्राह्मणों को चाहिए कि यज्ञ की अग्नियों का ठीक से आवाहन करें।

    तत्पश्चात्‌ तुम लोग पुरोहितों को उत्तम भोजन कराओ और उन्हें गौवें तथा अन्य भेंटें दान में दो।

    अन्येभ्यश्वाश्रचचाण्डालपतितेभ्यो यथाईतः ।

    यवसं च गवां दत्त्वा गिरये दीयतां बलि: ॥

    २८॥

    अन्येभ्य:--औरों के लिए; च--भी; आ-श्व-चाण्डाल--कुत्तों तथा चाण्डालों तक; पतितेभ्य:--ऐसे पतित लोगों के लिए;यथा--जिस तरह; अर्हत:--चाहिए; यवसम्‌--घास; च--तथा; गवाम्‌--गौवों को; दत्त्वा--देकर; गिरये--गोवर्धन नामकपर्वत को; दीयताम्‌--प्रदान की जानी चाहिए; बलि:ः--आदरपूर्ण भेंट ।

    कुत्तों तथा चाण्डालों जैसे पतितात्माओं समेत हर एक को उपयुक्त भोजन देने के बाद तुमसबों को चाहिए कि गौवों को घास दो और तब गोवर्धन पर्वत को अपनी सादर भेंटें चढ़ाओ।

    स्वलड्डू ता भुक्तवन्तः स्वनुलिप्ता: सुवासस: ।

    प्रदक्षिणां च कुरुत गोविप्रानलपर्वतान्‌ ॥

    २९॥

    सु-अलड्डू ता:--सुन्दर आभूषण पहन कर; भुक्तवन्त:--भरपेट खाकर; सु-अनुलिप्ता:--शुभ चन्दनलेप करके; सु-वासस:--अच्छे वस्त्र पहन कर; प्रदक्षिणाम्‌--प्रदक्षिणा; च--तथा; कुरुत--तुमलोगों को करनी चाहिए; गो--गौवों; विप्र--ब्राह्मणों;अनल--यज्ञ की अग्नियों; पर्वतान्‌ू--तथा गोवर्धन पर्वत की भी |

    भरपेट भोजन करने के बाद तुममें से हरएक को वस्त्र तथा आभूषण से खूब सजना चाहिए,अपने शरीर में चन्दनलेप करना चाहिए और तत्पश्चात्‌ गौवों, ब्राह्मणों, यज्ञ की अग्नियों तथा गोवर्धन पर्वत की प्रदक्षिणा करनी चाहिए।

    एतन्मम मतं तात क्रियतां यदि रोचते ।

    अयं गोब्राह्मणाद्रीणां मह्ं च दयितो मख: ॥

    ३०॥

    एतत्‌--यह; मम--मेरा; मतमू--विचार; तात--हे पिताश्री; क्रियताम्‌ू--किया जाय; यदि--यदि; रोचते-- अच्छा लगे;अयम्‌--यह; गो-ब्राह्मण-अद्रीणाम्‌--गौवों, ब्राह्मणों तथा गोवर्धन पर्वत को; महाम्‌ू--मेरे लिए; च-- भी; दयित:--प्रिय;मखः--यज्ञ |

    हे पिताश्री, यह मेरा विचार है और यदि आपको अच्छा लगे तो आप इसे कीजिये।

    ऐसा यज्ञगौवों, ब्राह्मणों तथा गोवर्धन पर्वत को एवं मुझको भी अत्यन्त प्रिय होगा।

    श्रीशुक उबाचकालात्मना भगवता शक्रदर्पजिघांसया ॥

    प्रोक्त निशम्य नन्दाद्या: साध्वगृहन्त तद्बचच: ॥

    ३१॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; काल-आत्मना--काल की शक्ति के रूप में प्रकट होकर; भगवता--भगवान्‌ द्वारा; शक्र--इन्द्र का; दर्प--गर्व; जिघांसया--विनष्ट करने की इच्छा से; प्रोक्तमू--कहा गया; निशम्य--सुनकर;नन्द-आद्या:--नन्द तथा अन्य वृद्ध गोपजन; साधु--सर्वोत्तम कहकर; अगृह्नन्त--स्वीकार कर लिया; ततू-वचः--उनके शब्दोंको

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : शक्तिमान काल स्वरूप भगवान्‌ कृष्ण इन्द्र के मिथ्या गर्व कोनष्ट करना चाहते थे।

    जब नन्द तथा वृन्दावन के अन्य वृद्धजनों ने श्रीकृष्ण का बचन सुना तो उन्होंने इसे उचित मान लिया।

    तथा च व्यदधु: सर्व यथाह मधुसूदन: ।

    वाचयित्वा स्वस्त्ययनं तद्द्रव्येण गिरिद्विजानू ॥

    ३२॥

    उपहत्य बलीन्सम्यगाहता यवसं गवाम्‌ ।

    गोधनानि पुरस्कृत्य गिरिं चक्कुः प्रदक्षिणम्‌ ॥

    ३३॥

    तथा--इस तरह; च-- और; व्यदधु:--सम्पन्न किया; सर्वम्‌--हर बात; यथा--जिस तरह; आह--बतलाया; मधुसूदन: --भगवान्‌ कृष्ण ने; वाचयित्वा--( ब्राह्मणों से ) वाचन कराया; स्वस्ति-अयनम्‌--शुभ मंत्र; तत्‌-द्रव्येण--इन्द्र यज्ञ के निमित्तएकत्र की गई सामग्री से; गिरि--पर्वत; द्विजानू--तथा ब्रह्मणों को; उपहत्य-- भेंट करके; बलीन्‌--उपहार; सम्यक्‌ --सभीएकसाथ; आहता:ः--आदर पूर्वक; यवसम्‌--घास; गवाम्‌--गौवों को; गो-धनानि--साँड़ों, गौवों तथा बछड़ों को; पुरस्कृत्य--आगे करके ; गिरिम्‌--पर्वत की; चक्रु:-- की; प्रदक्षिणम्‌--प्रदक्षिणा |

    तत्पश्चात्‌ ग्वाल समुदाय ने मधुसूदन द्वारा प्रस्तावित सब कुछ पूरा किया।

    उन्होंने शुभ वैदिकमंत्रों का वाचन करने के लिए ब्राह्मणों की व्यवस्था की और इन्द्र-यज्ञ के निमित्त संग्रहीत सारीसामग्री को उपयोग में लाते हुए गोवर्धन पर्वत तथा ब्राह्मणों को सादर भेंटें दीं।

    उन्होंने गौवों कोभी घास दिया।

    तत्पश्चात्‌ गौवों, साँड़ों तथा बछड़ों को आगे करके गोवर्धन पर्वत की प्रदक्षिणाकी।

    अनांस्यनडुद्ुक्तानि ते चारुह्म स्वलड्डू ता: ।

    गोप्यश्च कृष्णवीर्याणि गायन्त्य: सद्विजाशिष: ॥

    ३४॥

    अनांसि--छकड़े; अनड्त्‌-युक्तानि--बैलों से नँधे; ते--वे; च--और; आरुह्म--चढ़कर; सु-अलड्डू ता:--उत्तम आभूषणपहने; गोप्य:--गोपियाँ; च--तथा; कृष्ण-वीर्याणि-- भगवान्‌ कृष्ण की महिमाओं को; गायन्त्य:--गाती हुई; स--के साथ;द्विज--ब्राह्मणों के; आशिष:--आशीर्वाद |

    बैलों द्वारा खींचे जा रहे छकड़ों में चढ़कर सुन्दर आभूषणों से अलंकृत गोपियाँ भी साथ होलीं और कृष्ण की महिमा का गान करने लगीं और उनके गीत ब्राह्मणों के आशीष के साथसमामेलित हो गये।

    कृष्णस्त्वन्यतमं रूपं गोपविश्रम्भणं गतः ।

    शैलोउस्मीति ब्रुवन्भूरि बलिमादद्गहद्वपु: ॥

    ३५॥

    कृष्ण:-- भगवान्‌ कृष्ण; तु--और तब; अन्यतमम्‌--दूसरा; रूपमू--स्वरूप; गोप-विश्रम्भणम्‌-गोपों में श्रद्धा उत्पन्न करने केलिए; गत:--धारण किया; शैल:--पर्वत; अस्मि--हूँ; इति--ये वचन; ब्रुवन्‌--कहते हुए; भूरि--प्रचुर; बलिम्‌-- भेंट;आदतू--निगल गये; बृहत्‌-वपु:--अपने विराट रूप में

    तत्पश्चात्‌ कृष्ण ने गोपों में श्रद्धा उत्पन्न करने के लिए अभूतपूर्व विराट रूप धारण करलिया और यह घोषणा करते हुए कि 'मैं गोवर्धन पर्वत हूँ' प्रचुर भेंटें खा लीं।

    तस्मै नमो व्रजजनै: सह चक्र आत्मनात्मने ।

    अहो पश्यत शैलोसौ रूपी नो३नुग्रह॑ व्यधात्‌ ॥

    ३६॥

    तस्मै--उनको; नमः --नमस्कार; ब्रज-जनै:--ब्रज के लोगों के; सह--साथ; चक्रे --बनाया; आत्मना-- अपने से; आत्मने--अपने में; अहो--ओह; पश्यत--जरा देखो; शैल:--पर्वत ने; असौ--यह; रूपी --रूप धारण किये; न:ः--हम पर; अनुग्रहम्‌--कृपा; व्यधात्‌--प्रदान की |

    कृष्ण ने ब्रजवासियों समेत गोवर्धन पर्वत के इस स्वरूप को नमन किया और इस तरहवास्तव में अपने को ही नमस्कार किया।

    तत्पश्चात्‌ उन्होंने कहा, 'जरा देखो तो, यह पर्वत किसतरह पुरुष रूप में प्रकट हुआ है और इसने हम पर कृपा की है।

    एषोवजानतो मर्त्यान्‍्कामरूपी वनौकसः ।

    हन्ति हास्मै नमस्याम:ः शर्मणे आत्मनो गवाम्‌ ॥

    ३७॥

    एष: --यह; अवजानत: --लापरवाह; मर्त्यानू--मर्त्यों को; काम-रूपी--इच्छानुसार रूप धारण करने वाले ( यथा पर्वतों में रहनेवाले सर्प )) वन-ओकस:--वनवासी; हन्ति--मार डालेंगे; हि--निश्चय ही; अस्मै--उसको; नमस्याम: -- नमस्कार करें;शर्मणे--रक्षा करने के लिए; आत्मन:--हम सबकी; गवाम्‌--तथा गौवों की |

    यह गोवर्धन पर्वत इच्छानुसार रूप धारण करके अपनी उपेक्षा करने वाले वन के किसी भीनिवासी को मार डालेगा।

    अतः अपनी तथा गौवों की सुरक्षा के लिए हम उसको नमस्कार करें।

    इत्यद्विगोद्विजमखं वासुदेवप्रचोदिता: ।

    यथा विधाय ते गोपा सहकृष्णा ब्रजं ययु: ॥

    ३८॥

    इति--इस प्रकार से; अद्वि--गोवर्धन पर्वत; गो--गौवें; द्विज--तथा ब्राह्मणों को; मखम्‌--विशाल यज्ञ; वासुदेव--कृष्ण द्वारा;प्रचोदिता:--प्रेरित; यथा--उचित ढंग से; विधाय--सम्पन्न करके; ते--वे; गोपा:--गोपजन; सह-कृष्णा: --कृष्ण के साथ;ब्रजम्‌-ब्रज को; ययु:--गये

    इस प्रकार भगवान्‌ वासुदेव द्वारा समुचित ढंग से गोवर्धन-यज्ञ सम्पन्न करने के लिए प्रेरितकिये गये गोपजन गौवें तथा ब्राह्मण कृष्ण के साथ अपने गाँव ब्रज लौट आये।

    TO

    अध्याय पच्चीसवाँ: भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को उठाया

    10.25श्रीशुक उबाचइन्द्रस्तदात्मन: पूजां विज्ञाय विहतां नूप ।

    गोपेभ्य: कृष्णनाथेभ्यो नन्दादिभ्यश्वुकोप ह ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इन्द्र:--इन्द्र; तदा--तब; आत्मन:--अपनी; पूजाम्‌--पूजा; विज्ञाय--जानकर; विहताम्‌--दूसरे को समर्पित की गई; नृप--हे राजन्‌ ( परीक्षित ); गोपेभ्य: --ग्वालों पर; कृष्ण-नाथेभ्य:--कृष्ण कोअपना स्वामी मानने वाले; नन्द-आदिशभ्य:--नन्द महाराज इत्यादि पर; चुकोप ह--क्रुद्ध हुआ

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा परीक्षित, जब इन्द्र को पता चला कि उसका यज्ञ सम्पन्न नहीं हुआ तो वह नन्‍्द महाराज तथा अन्य गोपजनों पर क्रुद्ध हो गया क्योंकि वे सब कृष्ण कोअपना स्वामी मान रहे थे।

    गणं सांवर्तक॑ नाम मेघानां चान्तकारीणाम्‌ ।

    इन्द्र: प्रचोदयत्क्रुद्धो वाक्यं चाहेशमान्युत ॥

    २॥

    गणम्‌--समूह; सांवर्तकम्‌ नाम--सांवर्तक नामक; मेघानाम्‌--बादलों का; च--तथा; अन्त-कारिणाम्‌-- ब्रह्माण्ड का अन्तकरने वाले; इन्द्र:--इन्द्र ने; प्रचोदयत्‌-- भेजा; क्कुद्ध:--क्रुद्ध, नाराज; वाक्यम्‌--वचन; च--तथा; आह--कहा; ईश-मानी--झुठे ही अपने को सर्वोच्च नियन्ता सोचते हुए; उत--निस्सन्देह

    क्रुद्ध इन्द्र ने ब्रह्माण्ड का विनाश करने वाले बादलों के समूह को भेजा जो सांवर्तककहलाते हैं।

    वह अपने को सर्वोच्च नियन्ता मानते हुए इस प्रकार बोला।

    अहो श्रीमदमाहात्म्यं गोपानां काननौकसाम्‌ ।

    कृष्णं मर्त्यमुपाभ्रित्य ये चक्रुर्देबहहेलनम्‌ ॥

    ३॥

    अहो--जरा देखो तो; श्री--ऐश्वर्य के कारण; मद--नशे का; माहात्म्यम्‌--विस्तार; गोपानाम्‌-ग्वालों का; कानन--वन में;ओकसाम्‌--वास करने वाले; कृष्णम्‌--कृष्ण को; मर्त्यम्‌--सामान्य मनुष्य की; उपाभ्रित्य--शरण ग्रहण करके; ये--जिन्होंने; चक्रः--किया है; देव--देवताओं के प्रति; हेलनम्‌--अपराध |

    [इन्द्र ने कहा : जरा देखो तो सही कि जंगल में वास करने वाले ये ग्वाले अपने वैभव सेकिस तरह इतने उन्मत्त हो गये हैं! उन्होंने एक सामान्य मनुष्य कृष्ण की शरण ग्रहण की है औरइस तरह उन्होंने देवताओं का अपमान किया है।

    यथाहढे: कर्ममयै: क्रतुभिर्नामनौनिभे: ।

    विद्यामान्वीक्षिकीं हित्वा तितीर्षन्ति भवार्णवम्‌ ॥

    ४॥

    यथा--जिस तरह; अहढैः --अपर्याप्त; कर्म-मयै:--सकाम कर्म पर आधारित; क्रतुभिः--यज्ञों के द्वारा; नाम--नाममात्र को;नौ-निभेः--नावों की तरह कार्य करने वाले; विद्याम्‌--ज्ञान को; आन्वीक्षिकीम्‌-- आध्यात्मिक; हित्वा--त्यागकर;तितीर्षन्ति--पार करने का प्रयास करते हैं; भव-अर्णवम्‌-थे ओचेअन्‌ ओफ्‌ मतेरिअल्‌ एक्सिस्तेन्चे

    उनके द्वारा कृष्ण की शरण ग्रहण करना वैसा ही है जैसा कि लोगों द्वारा दिव्य आत्म-ज्ञानको त्यागकर सकाम कर्ममय यज्ञों की मिथ्या नावों में चढ़कर इस महान्‌ भवसागर को पार करनेका मूर्खतापूर्ण प्रयास होता है।

    वाचालं बालिशं स्तब्धमज्ञं पणिडितमानिनम्‌ ।

    कृष्णं मर्त्यमुपाभ्रित्य गोपा मे चक्कुरप्रियम्‌ ॥

    ५॥

    वाचालम्‌--बातूनी; बालिशमू--बालक; स्तब्धम्‌--उद्धत; अज्ञम्‌-मूर्ख; पण्डित-मानिनम्‌--अपने आपको चतुर मानने वाले;कृष्णम्‌--कृष्ण को; मर्त्यम्‌ू-मनुष्य को; उपाश्रित्य--शरण लेकर; गोपा:--ग्वालों ने; मे--मेरे विरुद्ध; चक्रु:ः--कार्य कियाहै; अप्रियमू-- अनुचित

    इन ग्वालों ने इस सामान्य मनुष्य कृष्ण की शरण ग्रहण करके मेरे प्रति शत्रुतापूर्ण कार्यकिया है क्योंकि कृष्ण अपने को अत्यन्त चतुर मानता है किन्तु है, वह निरा मूर्ख, अकडू तथाबातूनी बालक।

    एषां थ्रियावलिप्तानां कृष्णेनाध्मापितात्मनाम्‌ ।

    धुनुत श्रीमदस्तम्भं पशूत्रयत सड्क्षयम्‌ ॥

    ६॥

    एषाम्‌--उनके; थ्रिया--ऐश्वर्य से; अवलिप्तानाम्‌--उन्मत्त; कृष्णेन--कृष्ण द्वारा; आध्मापित--सुरक्षित; आत्मनामू--हृदयोंवाले; धुनुत--हटा दो; श्री--उनके धन पर आधारित; मद--घमंड; स्तम्भम्‌--मिथ्याअभिमान; पशून्‌--पशुओं को; नयत--लेजाओ; सदड्क्षयम्‌--विनाश के कगार पर।

    [इन्द्र ने सांवर्तक मेघों से कहा : इन लोगों की सम्पन्नता ने इन्हें मदोन्मत्त बना दिया है औरइनका अक्खड़पन कृष्ण द्वारा समर्थित है।

    अब तुम जाओ और उनके गर्व को चूर कर दो औरउनके पशुओं का विनाश कर डालो।

    अहं चैरावतं नागमारुहानुव्रजे ब्रजम्‌ ।

    मरुद्गणैर्महावेगैर्नन्दगोष्ठजिघांसया ॥

    ७॥

    अहमू--ैं; च-- भी; ऐरावतम्‌--ऐरावत नामक; नागम्‌ू--हाथी पर; आरुह्म--चढ़कर; अनुब्रजे--पीछे पीछे आऊँगा; ब्रजम्‌--ब्रज में; मरुतू-गणैः --वायुदेवों को साथ लेकर; महा-वेगै:ः--अत्यन्त वेग से चलने वाले; नन्द-गोष्ठ--नन्द महाराज के गोपसमुदाय को; जिघांसया--विनष्ट करने के विचार से |

    मैं अपने हाथी ऐरावत पर चढ़कर तथा अपने साथ वेगवान एवं शक्तिशाली वायुदेवों कोलेकर नन्द महाराज के ग्वालों के ग्राम को विध्वंस करने के लिए तुम लोगों के पीछे रहूँगा।

    श्रीशुक उबाचइत्थं मघवताज्ञप्ता मेघा निर्मुक्तबन्धना: ।

    नन्दगोकुलमासारैः पीडयामासुरोजसा ॥

    ८॥

    श्री-शुक: उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इत्थम्‌--इस प्रकार से; मघवता--इन्द्र द्वारा; आज्ञप्ता:--आदेश दिये गये;मेघा:--बादल; निर्मुक्त-बन्धना:--अपने बन्धनों से मुक्त ( यद्यपि संसार के विनाशकाल तक उन्हें वश में रहना था ); नन्द-गोकुलम्‌--नन्द महाराज के चरागाहों पर; आसारैः:--मूसलाधार वर्षा द्वारा; पीडयाम्‌ आसु:--सताने लगे; ओजसा--अपनीशक्ति-भर।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इन्द्र के आदेश से प्रलयंकारी मेघ समय से पूर्व अपने बन्धनों सेमुक्त होकर नन्‍्द महाराज के चरागाहों पर गये।

    वहाँ वे व्रजवासियों पर मूसलाधार वर्षा करकेउन्हें सताने लगे।

    विद्योतमाना विद्युद्धिः स्तनन्तः स्तनयित्नुभि: ।

    तीब्रैर्मरुद्गणैर्नुन्ना ववृषुर्जलशर्करा: ॥

    ९॥

    विद्योतमाना:-- प्रकाशित होकर; विद्युद्धिः--बिजली की चमक से; स्तनन्त:--गरजते हुए; स्तनयित्नुभि: --गर्जन से; तीब्रै: --भयानक; मरुतू-गणै:--वायुदेवों द्वारा; नुन्नाः:--कर्षित; ववृषु:--बरसाये; जल-शर्करा:-- ओले |

    भयानक वायुदेवों द्वारा उत्प्रेरित बादल बिजलियों की चमक से प्रज्वलित हो उठे और ओलों की वर्षा करते हुए कड़कड़ाहट के साथ गरजने लगे।

    स्थूणास्थूला वर्षधारा मुझत्स्वश्रेष्वभीक्ष्णश: ।

    जलौधै: प्लाव्यमाना भूर्नाहश्यत नतोन्नतम्‌ ॥

    १०॥

    स्थूणा--ख भों के समान; स्थूला: --स्थूल, मोटी; वर्स-धारा:--वर्षा की धाराएँ; मुझत्सु--छोड़ते हुए, गिराते हुए; अभ्रेषु--बादलों में; अभीक्ष्णश: --निरन्तर; जल-ओघै:--जल की बाढ़ से; प्लाव्यमाना--जलमग्न होकर; भूः--पृथ्वी; न अहृश्यत--दिखलाई नहीं पड़ती थी; नतौन्नतम्‌--नीची या ऊँची।

    जब बादलों ने बड़े-बड़े ख भों जैसी मोटी वर्षा की धाराएँ गिराईं तो पृथ्वी बाढ़ से जलमग्नहो गई और ऊँची या नीची भूमि का पता नहीं चल पा रहा था।

    अत्यासारातिवातेन पशवो जातवेपना: ।

    गोपा गोप्यश्व शीतार्ता गोविन्दं शरणं ययु; ॥

    ११॥

    अति-आसार--मूसलाधार वर्षा से; अति-वातेन--तथा अत्यधिक हवा से; पशव:--गौवें तथा अन्य पशु; जात-वेपना:--काँपतेहुए; गोपा:ः--गोपगण; गोप्य: --गोपियाँ; च-- भी; शीत--जाड़े से; आर्ता:--पीड़ित; गोविन्दम्‌--गोविन्द के पास; शरणम्‌--शरण के लिए; ययु:--गये

    अत्यधिक वर्षा तथा हवा के कारण काँपती हुई गौवें तथा अन्य पशु और शीत से पीड़ितग्वाले तथा गोपियाँ--ये सभी शरण के लिए गोविन्द के पास पहुँचे।

    शिरः सुतांश्व॒ कायेन प्रच्छाद्यासारपीडिता: ।

    वेपमाना भगवत: पादमूलमुपाययु: ॥

    १२॥

    शिरः--अपने सिरों; सुतानू--अपने बालकों को; च--और; कायेन--अपने शरीरों से; प्रच्छाद्य--ढककर; आसार-पीडिता:--मूसलाधार वर्षा से पीड़ित; वेपमाना:-- थरथराती; भगवतः -- भगवान्‌ के; पाद-मूलम्‌--चरणकमलों के नीचे; उपाययु: --पहुँची

    भीषण वर्षा से उत्पन्न पीड़ा से काँपती तथा अपने सिरों और अपने बछड़ों को अपने शरीरोंसे ढकने का प्रयास करती हुईं गौवें भगवान्‌ के चरणकमलों में जा पहुँचीं।

    कृष्ण कृष्ण महाभाग त्वन्नाथं गोकुलं प्रभो ।

    आातुहसि देवान्न: कुपिताद्धक्तवत्सल ॥

    १३॥

    कृष्ण कृष्ण--हे कृष्ण, हे कृष्ण; महा-भग--हे परम भाग्यशाली; त्वतू-नाथम्‌--अपने स्वामी; गो-कुलम्‌--गौवों के समुदायको; प्रभो--हे स्वामी; त्रातुम्‌ अहंसि--रक्षा कीजिये; देवात्‌--इन्द्र देव से; न:--हमको; कुपितात्‌ू--कुपित; भक्त-वत्सल--हेभक्तों के वत्सल।

    [गोपों तथा गोपियों ने भगवान्‌ को सम्बोधित करते हुए कहा : हे कृष्ण, हे भाग्यशालीकृष्ण, आप इन्द्र के क्रोध से इन गौवों को उबारें।

    हे प्रभु, आप अपने भक्तों पर इतने वत्सल हैं।

    कृपया आप हमें भी बचा लें।

    शिलावर्षातिवातेन हन्यमानमचेतनम्‌ ।

    निरीक्ष्य भगवान्मेने कुपितेन्द्रकृतं हरि: ॥

    १४॥

    शिला--उपलों ( ओलों ) की; वर्ष--वर्षा द्वारा; अति-वातेन--तथा तेज हवा द्वारा; हन्यमानम्‌--प्रताड़ित; अचेतनम्‌ू--अचेत;निरीक्ष्य--देखकर; भगवान्‌-- भगवान्‌; मेने--विचार किया; कुपित--क्रुद्ध; इन्द्र--इन्द्र द्वारा; कृतम्‌--किया गया; हरि: --हरि ने |

    ओलों तथा तेज वायु के प्रहार से अचेत हुए जैसे गोकुलवासियों को देखकर भगवान्‌ हरिसमझ गये कि यह कुपित इन्द्र की करतूत है।

    अपर्त्वत्युल्बणं वर्षमतिवातं शिलामयम्‌ ।

    स्वयागे विहतेस्माभिरिन्द्रो नाशाय वर्षति ॥

    १५॥

    अप-ऋतु--ऋतु के बिना; अति-उल्बणम्‌--घनघोर; वर्षम्‌--वर्षा; अति-वातम्‌--तेज हवा सहित; शिला-मयम्‌--ओलों सेपूर्ण; स्व-यगे--अपना यज्ञ; विहते--रोक दिये जाने से; अस्माभि: --हमरे द्वारा; इन्द्र:--इन्द्र; नाशाय--विनाश के लिए;वर्षति--वर्षा कर रहा है।

    [ श्रीकृष्ण ने अपने आप कहा : चूँकि हमने उसका यज्ञ रोक दिया है, अतः इन्द्र अतिप्रचण्ड हवा और ओलों के साथ घनघोर एवं बिना ऋतु की वर्षा कर रहा है।

    तत्र प्रतिविधि सम्यगात्मयोगेन साधये ।

    लोकेशमानिनां मौढ्याद्धनिष्ये श्रीमदं तमः ॥

    १६॥

    तत्र--इस दशा में; प्रति-विधिम्‌-- सामना करने के उपाय; सम्यक्‌--समुचित रीति से; आत्म-योगेन--अपनी योगशक्ति से;साधये--व्यवस्था करूँगा; लोक-ईश--संसार के स्वामी; मानिनाम्‌--झूठे ही अपने को मानने वाले; मौढ्यात्‌--मूर्खतावश;हनिष्ये--पराजित करूँगा; श्री-मदम्‌--ऐश्वर्य से उत्पन्न गर्व को; तम:--अज्ञान ।

    मैं अपनी योगशक्ति से इन्द्र द्वारा उत्पन्न इस उत्पात का पूरी तरह सामना करूँगा।

    इन्द्र जैसेदेवता अपने ऐश्वर्य का घमंड करते हैं और मूर्खतावश वे झूठे ही अपने को ब्रह्माण्ड का स्वामीसमझने लगते हैं।

    मैं अब ऐसे अज्ञान को नष्ट कर दूँगा।

    न हि सद्धावयुक्तानां सुराणामीशविस्मय: ।

    मत्तोसतां मानभड़: प्रशभायोपकल्पते ॥

    १७॥

    न--नहीं; हि--निश्चय ही; सत्‌-भाव--सतोगुण से; युक्तानाम्‌--युक्त; सुराणाम्‌ू--देवताओं के; ईश--नियन्ता; विस्मय:--झूठी पहचान; मत्त:--मुझसे; असताम्‌ू--अशुद्ध; मान--मिथ्या अभिमान का; भड्ड:--समूल विनाश; प्रशमाय--उन्हें राहतदिलाने के लिए; उपकल्पते--इच्छा है।

    चूँकि देवता सतोगुण से युक्त होते हैं अतः अपने को स्वामी मानने का मिथ्या अभिमान उनमेंबिल्कुल नहीं आना चाहिए।

    जब मैं सतोगुण से विहीन उनके मिथ्या अभिमान को भंग करता हूँतो मेरा उद्देश्य उन्हें राहत दिलाना होता है।

    तस्मान्मच्छरणं गोष्ठ मन्ना्थं मत्परिग्रहम्‌ ।

    गोपाये स्वात्मयोगेन सोयं मे ब्रत आहितः ॥

    १८॥

    तस्मात्‌ू--इसलिए; मत्‌ -शरणम्‌--मेरी शरण में आया हुआ; गोष्ठम्‌--गोप समुदाय; मत्‌-नाथम्‌--मुझको अपना स्वामीमानकर; मतू-परिग्रहम्‌--मेरा ही परिवार; गोपाये--मैं रक्षा करूँगा; स्व-आत्म-योगेन--अपनी योगशक्ति द्वारा; सः अयमू--यह; मे--मेरे द्वारा; ब्रत:--ब्रत, प्रण; आहित:--लिया गया है।

    अतएव मुझे अपनी दिव्यशक्ति से गोप समुदाय की रक्षा करनी चाहिए क्योंकि मैं ही उनका आश्रय हूँ, मैं ही उनका स्वामी हूँ और वे मेरे अपने परिवार के ही हैं।

    मैंने अपने भक्तों की रक्षाका ब्रत जो ले रखा है।

    इत्युक्त्वैकेन हस्तेन कृत्वा गोवर्धनाचलम्‌ ।

    दधार लीलया विष्णुएछत्राकमिव बालकः ॥

    १९॥

    इति--इस प्रकार; उक्त्वा--कहकर; एकेन--एक; हस्तेन--हाथ से; कृत्वा--लेकर; गोवर्धन-अचलम्‌ू--गोवर्धन पर्वत को;दधार-- धारण कर लिया; लीलया--आसानी से; विष्णु: -- भगवान्‌ विष्णु ने; छत्राकम्‌-कुकुरमुत्ता; इब--के समान;बालक:--बालक

    यह कहकर साक्षात्‌ विष्णु अर्थात्‌ श्रीकृष्ण ने एक हाथ से गोवर्धन पर्वत को ऊपर उठालिया जिस तरह कि कोई बालक कुकुरमुत्ते को उखाड़कर हाथ में ले लेता है।

    अथाह भगवान्गोपान्हेम्ब तात वब्रजौकसः ।

    यथोपजोषं विश्ञत गिरिगर्त सगोधना: ॥

    २०॥

    अथ--तत्पश्चात्‌; आह--बोले; भगवान्‌-- भगवान्‌; गोपान्‌--गोपों से; हे--अरे; अम्ब--माता; तात--हे पिता; ब्रज-ओकसः:--ओरे ब्रजवासियो; यथा-उपजोषम्‌ -- जैसे तुम्हें रूचे; विशत--प्रवेश करो; गिरि--इस पर्वत के ; गर्तम्‌--नीचे कीखाली जगह में; स-गोधना: -- अपनी गौवों समेत

    तत्पश्चात्‌ भगवान्‌ ने गोप समुदाय को सम्बोधित किया: हे मैया, हे पिताश्री, हे ब्रजवासियो,यदि चाहो तो अपनी गौवों समेत तुम अब इस पर्वत के नीचे आ जाओ।

    न त्रास इह वः कार्यो मद्धस्ताद्विनिपातनात्‌ ।

    वातवर्षभयेनालं तत्नाणं विहितं हि वः ॥

    २१॥

    न--नहीं; त्रास:-- भय; इह--इस बारे में; व: --तुम लोगों के द्वारा; कार्य:--अनुभव किया जाना चाहिए; मत्‌-हस्त--मेरे हाथसे; अद्वि--पर्वत के; निपातनात्‌ू--गिरने से; वात--वायु; वर्ष--तथा वर्षा के; भयेन-- भय से; अलम्‌--पर्याप्त; ततू-त्राणम्‌--उससे रक्षा; विहितम्‌ू--प्रदान की गई है; हि--निश्चय ही; वः--तुम लोगों के लिए

    तुम्हें डरना नहीं चाहिए कि यह पर्वत मेरे हाथ से छूटकर गिर जायेगा।

    न ही तुम लोग हवातथा वर्षा से भयभीत होओ क्योंकि इन कष्टों से तुम्हारे छुटकारे की व्यवस्था पहले ही की जाचुकी है।

    तथा निर्विविशुर्गर्त कृष्णाश्रासितमानस: ।

    यथावकाशं सधना: सब्रजा: सोपजीविन: ॥

    २२॥

    तथा--इस प्रकार; निर्विविशु;--प्रवेश किया; गर्तम्‌-गढ़े में; कृष्ण--कृष्ण द्वारा; आश्वासित--आश्वासन दिये गये; मानस:--मन से; यथा-अवकाशमू--सुविधापूर्वक; स-धना: -- अपनी गौवों समेत; स-ब्रजा:--तथा अपने छकड़ों समेत; स-उपजीविनः:--अपने आश्ञितों ( यथा सेवकों तथा ब्राह्मणों ) समेत |

    इस प्रकार भगवान्‌ कृष्ण द्वारा उनके मन आश्वस्त किये गये और वे सभी पर्वत के नीचेप्रविष्ट हुए जहाँ उन्हें अपने लिए तथा अपनी गौवों, छकड़ों, सेवकों तथा पुरोहितों के लिए औरसाथ ही साथ समुदाय के अन्य सदस्यों के लिए पर्याप्त स्थान मिल गया।

    क्षुत्तड्व्यथां सुखापेक्षां हित्वा तैब्रेजवासिभि: ।

    वीक्ष्यमाणो दधाराद्धिं सप्ताह नाचलत्पदात्‌ ॥

    २३॥

    क्षुत्‌ू-- भूख; तृटू--तथा प्यास; व्यथाम्‌--पीड़ा; सुख--सुख का; अपेक्षाम्‌--सारा विचार; हित्वा--ताक पर रखकर; तैः--उन; ब्रज-वासिभि:--ब्रजवासियों के द्वारा; वीक्ष्ममाण:--देखे जाकर; दधार--धारण किये रहे; अद्विमू--पर्वत को; सप्त-अहम्‌--सात दिनों तक; न अचलत्‌--हिले-डुले नहीं; पदात्‌--उस स्थान से

    भूख तथा प्यास भूलकर और अपनी सारी व्यक्तिगत सुविधाओं को ताक पर रखकरभगवान्‌ कृष्ण पर्वत को धारण किये हुए सात दिनों तक वहीं पर खड़े रहे और सारे व्रजवासीउन्हें निहारते रहे।

    कृष्णयोगानुभावं त॑ निशम्येन्द्रोडतिविस्मितः ।

    निस्तम्भो भ्रष्टसड्ूल्पः स्वान्मेघान्सन्यवारयत्‌ ॥

    २४॥

    कृष्ण--कृष्ण की; योग--योगशक्ति के; अनुभावम्‌--प्रभाव को; तम्‌--उस; निशम्य--देखकर; इन्द्र: --इन्द्र ने; अति-विस्मित:--अत्यन्त चकित; निस्तम्भ: --मिथ्या गर्व के चूर होने से; भ्रष्ट--नष्ट; सड्जूल्प:--संकल्प वाला; स्वान्‌--अपने ही;मेघान्‌--मेघों को; सन््यवारयत्‌--रोक दिया।

    जब इन्द्र ने कृष्ण की योगशक्ति के इस प्रदर्शन को देखा तो वह आश्चवर्यचकित हो उठा।

    अपने भिथ्या गर्व के चूर होने से तथा अपने संकल्पों के नष्ट होने से उसने अपने बादलों को थमजाने का आदेश दिया।

    खं व्यभ्रमुदितादित्यं वातवर्ष च दारुणम्‌ ।

    निशम्योपरतं गोपान्गोवर्धनधरोब्रवीत्‌ ॥

    २५॥

    खम्‌--आकाश को; वि-अभ्रम्‌-बादलों से रहित; उदित--उदय हुआ; आदित्यम्‌--सूर्य को; बात-वर्षम्‌--हवा तथा वर्षा को;च--तथा; दारुणम्‌-- भयानक; निशम्य--देखकर; उपरतम्‌--बन्द किया हुआ; गोपान्‌-ग्वालों को; गोवर्धन-धर:--गोवर्धनपर्वत को उठाने वाला; अब्रवीत्‌--बोला।

    यह देखकर कि अब भीषण हवा तथा वर्षा बन्द हो गई है, आकाश बादलों से रहित होचुका है और सूर्य उदित हो आया है, गोवर्धनधारी कृष्ण ग्वाल समुदाय से इस प्रकार बोले।

    निर्यात त्यजत त्रासं गोपाः सस्त्रीधनार्भकाः ।

    उपारतं वबातवर्ष व्युदप्रायाश्व निम्नगा: ॥

    २६॥

    निर्यात--बाहर जाओ; त्यजत--छोड़ दो; त्रासम्‌-- अपना भय; गोपा:--हे ग्वालो; स--सहित; स्त्री--अपनी स्त्रियों; धन--धन; अर्भका:--तथा बालकों; उपारतम्‌--समाप्त हो गईं; वात-वर्षम्‌--तेज हवा तथा वर्षा; वि-उद--जल से रहित; प्राया: --लगभग; च--तथा; निम्नगा:--नदियाँ |

    [भगवान्‌ कृष्ण ने कहा : हे गोपजनो, अब अपनी पतियों, बच्चों तथा सम्पदाओं समेत बाहर निकल जाओ।

    अपना भय त्याग दो।

    तेज हवा तथा वर्षा रुक गई है और नदियों की बाढ़का पानी उतर गया है।

    ततस्ते निर्ययुर्गोपा: स्वं स्‍्वमादाय गोधनम्‌ ।

    शकटोढोपकरणं स्त्रीबालस्थविरा: शनैः ॥

    २७॥

    ततः--तब; ते--वे; निर्ययु;--बाहर गये; गोपा: --गोपजन; स्वम्‌ स्वम्‌-- अपनी अपनी; आदाय--लेकर; गो-धनम्‌--अपनीगौवें; शकट--छकड़ों पर; ऊड--लादकर; उपकरणम्‌-- अपनी सामग्री; स्त्री--स्त्रियाँ; बाल--बालक ; स्थविरा:--तथावृद्धजन; शनैः--धीरे धीरे

    अपनी अपनी गौवें समेट कर तथा अपनी सारी साज-सामग्री अपने छकड़ों में लाद कर सारेगोपजन बाहर चले आये।

    स्त्रियाँ, बच्चे तथा वृद्ध पुरुष धीरे धीरे उनके पीछे पीछे चल पड़े।

    भगवानपि त॑ शैलं स्वस्थाने पूर्ववत्प्रभु: ।

    पश्यतां सर्वभूतानां स्थापयामास लीलया ॥

    २८॥

    भगवानू्‌-- भगवान्‌; अपि-- भी; तम्‌--उस; शैलम्‌--पर्वत को; स्व-स्थाने--उसके स्थान पर; पूर्व-बत्‌--पहले की तरह;प्रभु:--सर्वशक्तिमान; पश्यताम्‌--देखते ही देखते; सर्व-भूतानाम्‌--समस्त प्राणियों के; स्थापयाम्‌ आस--उन्होंने रख दिया;लीलया--सरलतापूर्वक |

    सारे प्राणियों के देखते देखते भगवान्‌ ने पर्वत को उसके मूल स्थान में रख दिया जिस तरहकि वह पहले खड़ा था।

    त॑ प्रेमवेगान्निर्भता त्रजौकसोयथा समीयु: परिरम्भणादिभि: ।

    गोप्यश्व सस्नेहमपूजयन्मुदादध्यक्षताद्धिर्युयुजु: सदाशिष: ॥

    २९॥

    तम्‌--उनको; प्रेम-- अपने शुद्ध प्रेम के; वेगात्‌--वेग से; निर्भृता:--पूर्ण हुए; ब्रज-ओकस:--ब्रजवासी; यथा--अपने अपनेपद के अनुसार; समीयु:--आगे आये; परिरम्भण-आदिभि:--आलिंगन आदि द्वारा; गोप्य:--गोपियाँ; च--तथा; स-स्नेहम्‌--स्नेहपूर्वक; अपूजयन्‌ू--आदर किया; मुदा--प्रसन्नतापूर्वक; दधि--दही; अक्षत--समूचे चावल के दाने; अद्धिः--तथा जलसे; युयुजु:-- भेंट किया; सत्‌--उत्तम; आशिष:--आशीर्वाद |

    वृन्दावन के सारे निवासी प्रेम से अभिभूत थे।

    उन्होंने आगे बढ़कर अपने अपने रिश्ते केअनुसार श्रीकृष्ण को बधाई दी--किसी ने उनको गले लगाया, तो कोई उनके समक्ष नतमस्तकहुआ इत्यादि-इत्यादि।

    गोपियों ने सम्मान के प्रतीकस्वरूप उन्हें दही तथा अक्षत, जौ मिलाया हुआ जल अर्पित किया।

    उन्होंने कृष्ण पर आशीर्वादों की झड़ी लगा दी।

    यशोदा रोहिणी नन्दो रामश्च बलिनां वर: ।

    कृष्णमालिड्ग्य युयुजुराशिष: स्नेहकातरा: ॥

    ३०॥

    यशोदा--माता यशोदा; रोहिणी--रोहिणी; नन्द:--ननन्‍्द महाराज; राम: --बलराम ने; च-- भी; बलिनाम्‌ू--बलवानों में;बरः--सर्व श्रेष्ठ; कृष्णम्‌--कृष्ण को; आलिड्ग्य--चूमते हुए; युयुजु:--प्रदान किया; आशिष:--आशीर्वाद; स्नेह -- स्नेह से;कातरा:--अभिभूत |

    माता यशोदा, रोहिणी, नन्द महाराज तथा बलिलष्टों में सर्वश्रेष्ठ बलराम ने कृष्ण को गलेलगाया।

    स्नेहाभिभूत होकर उन सबों ने कृष्ण को अपने अपने आशीर्वाद दिये।

    दिवि देवगणा: सिद्धाः साध्या गन्धर्वचारणा: ।

    तुष्ठवुर्मुमुचुस्तुष्टा: पुष्पवर्षाणि पार्थिव ॥

    ३१॥

    दिवि--स्वर्ग में; देव-गणा:--देवता लोग; सिद्धा:--सिद्धगण; साध्या:--साध्य जन; गन्धर्व-चारणा:--गन्धर्व तथा चारणजन; तुष्ठवु;--भगवान्‌ की स्तुति की; मुमुचु:--विमोचन किया; तुष्टा:--तुष्ट हुए; पुष्प-वर्षाणि--फूलों की वर्षा; पार्थिव--हेराजा ( परीक्षित )

    हे राजन्‌, स्वर्ग में सिद्धों, साध्यों, गन्धर्वों तथा चारणों समेत सारे देवताओं ने भगवान्‌ कृष्ण का यशोगान किया और अतीव संतोषपूर्वक उन पर फूलों की वर्षा की।

    शद्भुदुन्दुभयो नेदुर्दिवि देवप्रचोदिता: ।

    जगुर्गन्धर्वपतयस्तुम्बुरुप्रमुखा नूप ॥

    ३२॥

    शब्गु--शंख; दुन्दुभय:--तथा दुन्दुभियाँ; नेदु:--बज उठीं; दिवि--स्वर्ग लोक में; देव-प्रचोदिता: --देवताओं द्वारा बजाई गईं;जगु:--गाया; गन्धर्व-पतय: --गन्धर्वों के मुखियों ने; तुम्बुरु-प्रमुखा:--तम्बुरु इत्यादि; नृप--हे राजन

    हे परीक्षित, देवताओं ने स्वर्ग में जोर-जोर से शंख तथा दुन्दुभियाँ बजाईं और तुम्बुरु इत्यादिश्रेष्ठ गन्धर्व गीत गाने लगे।

    ततोनुरक्तै: पशुपैः परिश्रितोराजन्स्वगोष्ठ॑ सबलोउब्रजद्धरि: ।

    तथाविधान्यस्य कृतानि गोपिकागायन्त्य ईयुर्मुदिता हृदिस्पृशः ॥

    ३३॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; अनुरक्तै:-- प्रेमी; पशु-पैः--ग्वालबालों द्वारा; परिश्रित:--घिरे हुए; राजन्‌ू--हे राजन्‌; स्व-गोष्ठम्‌--जहाँअपनी गौवें चरा रहे थे उसी स्थान में; स-बलः--बलराम सहित; अव्रजत्‌--गये; हरिः--कृष्ण; तथा-विधानि--इस तरह का( पर्वत का उठाना ); अस्य--उनके; कृतानि--कार्यकलाप; गोपिका: --गोपिकाएँ; गायन्त्य: --गाती हुईं; ईयु:--गईं;मुदिता:--प्रसन्नतापूर्वक; हृदि-स्पृश: --हृदय को स्पर्श करने वाले का।

    अपने प्रेमी ग्वालमित्रों तथा भगवान्‌ बलराम से घिरे कृष्ण उस स्थान पर गये जहाँ वे अपनीगौवें चरा रहे थे।

    अपने हृदयों को स्पर्श करने वाले श्रीकृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत के उठाये जानेतथा उनके द्वारा सम्पन्न किये गये यशस्वी कार्यों के विषय में सारी गोपियाँ प्रसन्नतापूर्वक गीतगाती अपने घरों को लौट गईं।

    TO

    अध्याय छब्बीसवाँ: अद्भुत कृष्ण

    10.26श्रीशुक उबाचएवंविधानि कर्माणि गोपा: कृष्णस्य वीक्ष्य ते ।

    अतद्ठीर्यविद: प्रोचु: समभ्येत्य सुविस्मिता: ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌-विधानि--इस तरह के; कर्माणि--कार्यों को; गोपा:--ग्वाले;कृष्णस्य--कृष्ण के; वीक्ष्य--देखकर; ते--वे; अतत्‌-वीर्य-विदः --उनकी शक्ति को समझने में असमर्थ; प्रोचु:--बोले;समभ्येत्य--( नन्द महाराज के ) पास जाकर; सु-विस्मिता: --अत्यन्त विस्मित होकर।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब गोपों ने गोवर्धन पर्वत उठाने जैसे कृष्ण के कार्यों को देखातो वे विस्मित हो गये।

    उनकी दिव्य शक्ति को न समझ पाने के कारण वे नन्‍्द महाराज के पासगये और इस प्रकार बोले।

    बालकस्य यदेतानि कर्माण्यत्यद्भधुतानि वै ।

    कथर्मईत्यसौ जन्म ग्राम्येष्वात्मजुगुप्सितम्‌ ॥

    २॥

    बालकस्य--बालक के; यत्‌--क्योंकि; एतानि--इन; कर्माणि--कर्मों को; अति-अद्भुतानि--अत्यन्त अद्भुत; बै--निश्चयही; कथम्‌--कैसे; अहति--चाहिए; असौ--वह; जन्म--जन्म; ग्राम्येषु--संसारी लोगों के बीच; आत्म--अपने लिए;जुगुप्सितम्‌ू-घृणित |

    [ग्वालों ने कहा : जब यह बालक ऐसे अद्भुत कार्य करता है, तो फिर किस तरह हमजैसे संसारी व्यक्तियों के बीच उसने जन्म लिया ? ऐसा जन्म तो उसके लिए घृणित लगेगा।

    यः सप्तहायनो बाल: करेणैकेन लीलया ।

    कथं बिभ्रद्गरिवरं पुष्कर गजराडिव ॥

    ३॥

    यः--जो; सप्त-हायन: --सात वर्ष की आयु का; बाल:--बालक; करेण--हाथ से; एकेन--एक; लीलया--खेल खेल में;कथम्‌-कैसे; बिभ्रतू--उठाये रहा; गिरि-वरम्‌--पर्वतों में श्रेष्ठ, गोवर्धन को; पुष्करमू--कमल के फूल को; गज-राट्‌--बलशाली हाथी; इब--सहृश |

    यह सात वर्ष का बालक किस तरह विशाल गोवर्धन पर्वत को खेल खेल में एक हाथ सेउसी तरह उठाये रह सकता है, जिस तरह बलशाली हाथी कमल के फूल को उठा लेता है ?

    तोकेनामीलिताक्षेण पूतनाया महौजसः ।

    पीतः स्तनः सह प्राण: कालेनेव वयस्तनो: ॥

    ४॥

    तोकेन--नन्‍्हें बालक द्वारा; आ-मीलित--प्राय: बन्द; अक्षेण-- आँखों से; पूतनाया: --पूतना डाइन का; महा-ओजसः --महान्‌पराक्रम वाली; पीत:--पिया हुआ; स्तन:--स्तन; सह--साथ; प्राणैः--प्राण वायु के; कालेन--काल की शक्ति से; इब--सहश; वय: --आयु; तनो: -- भौतिक शरीर का।

    अभी इसने अपनी आँखें भी नहीं खोली थीं और निरा बच्चा ही था कि इसने बलशालीराक्षसी पूतना के स्तन का दूध पिया और उसी के साथ उसके प्राण चूस लिये जिस तरह कालकी शक्ति मनुष्य के शरीर से यौवन को चूस लेती है।

    हिन्वतोधः शयानस्यथ मास्यस्थ चरणावुदक्‌ ।

    अनोपतद्विपर्यस्तं रूदतः प्रपदाहतम्‌ ॥

    ५॥

    हिन्वतः--हिलाते हुए; अध:--नीचे; शयानस्य--लेटे हुए; मास्यस्य--कुछ मास वाले बालक को; चरणौ--दो पाँव; उदक्‌--ऊपर की ओर; अनः--छकड़ा; अपतत्‌--गिर पड़ा; विपर्यस्तम्‌--उलटा हुआ; रुदतः--रोते हुए; प्रपद-- अपने पाँव केअग्रभाग से; आहतम्‌--प्रताड़ित |

    एक बार जब कृष्ण तीन मास के छोटे शिशु थे, तो रो रहे थे और एक बड़े से छकड़े केनीचे लेटे हुए अपने पाँवों को ऊपर चला रहे थे।

    तभी यह छकड़ा गिरा और उलट गया क्योंकिउन्होंने अपने पाँव के अँगूठे से उस पर प्रहार किया था।

    एकहायन आसीनो हियमाणो विहायसा ।

    दैत्येन यस्तृणावर्तमहन्कण्ठग्रहातुरम्‌ ॥

    ६॥

    एक-हायन:--एकवर्षीय; आसीन:--बैठा हुआ; हियमाण:--हरण किया गया; विहायसा--आकाश् में; दैत्येन-- असुर द्वारा;यः--जिसने; तृणावर्तम्‌-तृणावर्त को; अहन्‌ू--मारा; कण्ठ--गला; ग्रह--पकड़ा जाकर; आतुरम्‌--सताया गया।

    एक वर्ष की आयु में, जब वे शान्तिपूर्वक बैठे थे तो तृणावर्त नामक असुर उन्हें आकाश में उड़ा ले गया।

    किन्तु बालक कृष्ण ने उस असुर की गर्दन दबोच ली जिससे उसे महान्‌ पीड़ा हुईऔर इस तरह उसे मार डाला।

    क्वचिद्धैयड्रवस्तैन्ये मात्रा बद्ध उदूखले ।

    गच्छन्नर्जुनयोर्म ध्ये बाहु भ्यां तावपातयत्‌ ॥

    ७॥

    क्वचित्‌--एक बार; हैयड्रवब--मक्खन; स्तैन्ये--चुराते हुए; मात्रा--अपनी माता द्वारा; बद्ध:--बाँधे गये; उदूखले--ऊखल में;गच्छन्‌--जाते हुए; अर्जुनयो:--दो अर्जुन वृक्षों के; मध्ये--बीच में; बाहुभ्याम्‌--अपने हाथों से; तौ अपातयत्‌--दोनों को गिरादिया, उखाड़ डाला।

    एक बार उनकी माता ने उन्हें रस्सियों से एक ऊखल से बाँध दिया क्योंकि माता ने उन्हेंमक्खन चुराते पकड़ लिया था।

    तब वे अपने हाथों के बल रेंगते हुए उस ऊखल को दो अर्जुनवृक्षों के बीच खींच ले गये और उन वृक्षों को उखाड़ डाला।

    बने सनञ्ञारयन्वत्सान्सरामो बालकैर्वृतः ।

    हन्तुकामं बकं दोर्भ्या मुखतोरिमपाटयत्‌ ॥

    ८ ॥

    वने--जंगल में; सज्ञारयन्‌--चराते हुए; वत्सानू--बछड़ों को; सराम:--बलदेव के साथ; बालकै:--ग्वालबालों के द्वारा;बृतः--घिरा हुआ; हन्तु-कामम्‌--मार डालने की इच्छा से; बकम्‌--बकासुर; दोर्भ्यामू-- अपनी बाँहों से; मुखतः--मुख से;अरिम्‌--शत्रु को; अपाटयतू्‌--चीर डाला।

    अन्य समय जब वे बलराम तथा ग्वालबालों के साथ वन में गौवें चरा रहे थे तो राक्षसबकासुर उनको मार डालने की मंशा से वहाँ आया।

    किन्तु कृष्ण ने इस शत्रु राक्षस का मुँह(चोंच ) पकड़ लिया और उसको चीर डाला।

    वत्सेषु वत्सरूपेण प्रविशन्तं जिघांसया ।

    हत्वा न्यपातयत्तेन कपित्थानि च लीलया ॥

    ९॥

    वत्सेषु--बछड़ों के बीच; वत्स-रूपेण--अन्य बछड़े के रूप में प्रकट होकर; प्रविशन्तम्‌--घुसकर; जिघांसया--मार डालनेकी इच्छा से; हत्वा--मारकर; न्यपातयत्‌--गिरा दिया; तेन--उससे; कपित्थानि--कैथे के फल; च--तथा; लीलया--खेलखेल में |

    कृष्ण को मार डालने की इच्छा से राक्षस वत्सासुर बछड़े का वेश बनाकर उनके बछड़ों केबीच घुस गया।

    किन्तु कृष्ण ने इस असुर को मार डाला और इसके शरीर से कैथे के वृक्षों से'फल नीचे गिराने का खिलवाड़ किया।

    हत्वा रासभदैतेयं तद्वन्धूंश्व बलान्वितः ।

    चक्रे तालवनं क्षेमं परिपक्वफलान्वितम्‌ ॥

    १०॥

    हत्वा--मारकर; रासभ--गधा के रूप में प्रकट हुए; दैतेयम्‌--दिति के वंशज को; तत्ू-बन्धून्‌ू--उस असुर के संगियों को;च--भी; बल-अन्वितः--बलराम के साथ; चक्रे --बनाया; ताल-वनम्‌--तालवन को; क्षेमम्‌ू--कल्याणप्रद, मंगलमय;परिपक्व--पके; फल--फलों से; अन्वितम्‌ू-पूर्णभगवान्‌

    बलराम समेत कृष्ण ने राक्षस धेनुकासुर तथा उसके सभी साथियों का वध कियाऔर इस तरह तालवन जंगल को, जो पके हुए ताड़ फलों से भरापुरा था, सुरक्षित बनाया।

    प्रलम्बं घातयित्वोग्रं बलेन बलशालिना ।

    अमोचयद्व्रजपशून्गोपां श्वारण्यवद्धित: ॥

    ११॥

    प्रलम्बम्‌--प्रलम्बासुर को; घाययित्वा--मरवा डालने की व्यवस्था करके; उग्रमू-- भीषण; बलेन--बलराम द्वारा; बल-शालिना--बलशाली; अमोचयत्‌--उबारा; ब्रज-पशून्‌--ब्रज के पशुओं को; गोपानू--ग्वालबालों को; च--तथा; आरण्य--जंगल की; वह्वित:ः-- अग्नि से |

    भीषण दैत्य प्रलम्बासुर को बलशाली भगवान्‌ बलराम द्वारा मरवाकर कृष्ण ने ब्रज के ग्वालबालों तथा उनके पशुओं को दावानल ( जंगल की आग ) से बचाया।

    आशीविषतमाहीन्द्रं दमित्वा विमदं हृदातू ।

    प्रसह्योद्वास्य यमुनां चक्रे सौ निर्विषोदकाम्‌ ॥

    १२॥

    आशी--उसके विषदन्तों का; विष-तम--सबसे शक्तिशाली विषैला; अहि--साँप के; इन्द्रमू--प्रधान को; दमित्वा--दमनकरके; विमदम्‌--मद को चूर करके; हृदात्‌--सरोवर से; प्रसहा--बलपूर्वक; उद्दास्य-- भगाकर; यमुनाम्‌--यमुना नदी को;चक्रे--बनाया; असौ--इसी ने; निर्विष--विषरहित; उदकाम्‌ू--जल को

    कृष्ण ने अति विषैले नाग कालिय को दण्ड दिया और उसे विनीत बनाकर यमुना केसरोवर से बलपूर्वक निकाल बाहर किया।

    इस तरह भगवान्‌ ने उस नदी के जल को साँप केप्रचण्ड विष से मुक्त बनाया।

    दुस्त्यजश्चानुरागोउस्मिन्सवेंषां नो व्रजौकसाम्‌ ।

    नन्द ते तनयेउस्मासु तस्याप्यौत्पत्तिक: कथम्‌ ॥

    १३॥

    दुस्त्यज:--त्याग पाना असम्भव; च--तथा; अनुराग: --प्रेम; अस्मिन्‌ू--उनके लिए; सर्वेषामू--सब; न:--हम; ब्रज-ओकसाम्‌--ब्रजवासियों का; नन्द--प्रिय नन्‍्द महाराज; ते--तुम्हारे; तनये--पुत्र के लिए; अस्मासु--हम सबों के प्रति;तस्य--उसका; अपि--भी; औत्पत्तिक: --स्वाभाविक; कथम्‌--किस तरह से |

    हे नन्‍्द महाराज, हम तथा ब्रज के सारे वासी क्‍्योंकर आपके पुत्र के प्रति अपना निरन्तरस्नेह त्याग नहीं पा रहे हैं? और वे हम लोगों के प्रति स्वतः इतना आकृष्ट क्योंकर हैं ?

    क्व सप्तहायनो बालः क्‍्व महाद्विविधारणम्‌ ।

    ततो नो जायते शट्ड्ा बत्रजनाथ तवात्मजे ॥

    १४॥

    क्व--कहाँ तो; सप्त-हायन:--सप्तवर्षीय; बाल:--यह बालक; क्व--कहाँ; महा-अद्वि--विशाल पर्वत का; विधारणम्‌--उठाया जाना; तत:--इस प्रकार; नः--हमारे लिए; जायते--उत्पन्न करता है; शद्भा--सन्देह; ब्रज-नाथ--हे ब्रज के स्वामी;तब--तुम्हारे; आत्मजे--पुत्र के विषय में कहाँ

    तो यह सात वर्ष का बालक और कहाँ उसके द्वारा विशाल गोवर्धन पर्वत का उठायाजाना, अतएव, हे ब्रजराज, हमारे मन में आपके पुत्र के विषय में शंका उत्पन्न हो रही है।

    श्रीनन्द उवाचश्रूयतां मे बच्चो गोपा व्येतु शट्जा च वो$र्भके ।

    एनम्कुमारमुदिश्य गर्गो मे यदुबाच ह ॥

    १५॥

    श्री-नन्दः उवाच-- श्रीनन्द महाराज ने कहा; श्रूयताम्‌--सुनो; मे--मेरे; वच:--शब्द; गोपा:--हे ग्वालो; व्येतु--दूर करो;शट्ढा--सन्देह; च--तथा; वः--अपनी; अर्भके --बालक के विषय में; एनम्‌--इस; कुमारम्‌ू--बालक को; उद्िश्य--दिखलाते हुए; गर्ग:--गर्ग मुनि ने; मे--मुझसे; यत्‌--जो; उबाच--कहा; ह--था |

    नन्द महाराज ने उत्तर दिया: हे ग्वालो, जरा मेरी बातें सुनो और मेरे पुत्र के विषय में जोअपनी शंकाएँ हों उन्हें दूर कर दो।

    कुछ समय पहले गर्ग मुनि ने इस बालक के विषय में मुझसेइस प्रकार कहा था।

    वर्णास्त्रय: किलास्यासन्गृह्नतोनुयुगं तनू: ।

    शुक्लो रक्तस्तथा पीत इदानीं कृष्णतां गत: ॥

    १६॥

    वर्णा: त्रय:--तीन रंग; किल--निस्सन्देह; अस्य--तुम्हारे पुत्र कृष्ण के; आसनू-- थे; गृह्कतः--ग्रहण किये गये; अनु-युगम्‌तनू:--विभिन्न युगों के अनुसार दिव्य शरीर; शुक्ल:--कभी श्वेत; रक्त:--कभी लाल; तथा--और; पीत:--कभी पीला;इदानीम्‌ कृष्णताम्‌ गत:--सम्प्रति उसने श्याम वर्ण धारण किया है।

    [गर्ग मुनि ने कहा था: आपका पुत्र कृष्ण हर युग में अवतार के रूप में प्रकट होता है।

    भूतकाल में उसने तीन रंग--श्रेत, लाल तथा पीला धारण किये थे और अब वह श्यामवर्ण मेंप्रकट हुआ है।

    प्रागयं वसुदेवस्य क्वचिज्ञातस्तवात्मज: ।

    वासुदेव इति श्रीमानभिज्ञा: सम्प्रचक्षते ॥

    १७॥

    प्राकु--पहले; अयम्‌--यह बालक; वसुदेवस्थ--वसुदेव का; क्वचित्‌--क भी; जात: --उत्पन्न हुआ था; तब--तुम्हारा;आत्मज:--बालक के रूप में जन्मा कृष्ण; वासुदेव:ः --अतः उसका नाम वासुदेव रखा जा सकता है; इति--इस प्रकार;श्रीमान्‌--अत्यन्त सुन्दर; अभिज्ञा:--विद्वज्जन; सम्प्रचक्षते--यह कहते हैं कृष्ण ही वासुदेव हैं ।

    अनेक कारणों से आपका यह सुन्दर पुत्र कभी वसुदेव के पुत्र रूप में प्रकट हो चुका है।

    अतएव विद्वज्न कभी कभी इस बालक को वासुदेव कहते हैं।

    बहूनि सन्ति नामानि रूपाणि च सुतस्य ते ।

    गुण कर्मानुरूपाणि तान्यहं वेद नो जना: ॥

    १८॥

    बहूनि--विविध; सन्ति-- हैं; नामानि--नाम; रूपाणि-- स्वरूप; च--कभी; सुतस्य--पुत्र के; ते--तुम्हारे; गुण-कर्म-अनुरूपाणि--अपने गुणों तथा कर्मों के अनुसार; तानि--उन्हें; अहम्‌--मैं; वेद--जानता हूँ; न उ जना:--सामान्य पुरुष नहीं।

    तुम्हारे इस पुत्र के अपने दिव्य गुणों तथा कर्मों के अनुसार अनेक रूप तथा नाम हैं।

    मैं उन्हेंजानता हूँ किन्तु सामान्य जन उन्हें नहीं समझते।

    एष वः श्रेय आधास्यद्गोपगोकुलनन्दनः ।

    अनेन सर्वदुर्गाणि यूयमञ्जस्तरिष्यथ ॥

    १९॥

    एष:--यह बालक; व:ः--तुम सबों के लिए; श्रेयः आधास्यत्‌--कल्याण करने वाला होगा; गोप-गोकुल-नन्दन:--मानोंगोकुल के पुत्र के रूप में ग्वालों के परिवार में उत्पन्न ग्वालबाल हो; अनेन--इसके द्वारा; सर्व-दुर्गाणि--सभी प्रकार के कष्टोंको; यूयम्‌--तुम सभी; अज्भध:ः --सरलता से; तरिष्यथ--तर सकोगे।

    गोकुल के ग्वालों के दिव्य आनन्द में वृद्धि करने के लिए यह बालक सदैव तुम सबकाकल्याण करेगा।

    और उसकी कृपा से ही तुम लोग सारे कष्टों को पार कर सकोगे।

    पुरानेन ब्रजपते साधवो दस्युपीडिता: ।

    अराजके रक्ष्यमाणा जिग्युर्दस्यून्समेधिता: ॥

    २०॥

    पुरा--प्राचीन काल में; अनेन--कृष्ण द्वारा; ब्रज-पते--हे ब्रजराज; साधव: --ईमानदार लोग; दस्यु-पीडिता: --चोर-उचक्कोंद्वारा पीड़ित किये जाकर; अराजके-- अनियमित सरकार के होते हुए; रक्ष्यमाणा: --रक्षा किये जाते थे; जिग्यु;--जीत लिया;दस्यूनू--चोर-उचक्कों को; समेधिता:--फलते-फूलते

    हे नन्‍्द महाराज, इतिहास में यह अंकित है कि जब अनियमित तथा अक्षम सरकार थी, जबइन्द्र को सिंहासन से उतार दिया गया था और जब ईमानदार लोग चोरों द्वारा सताये जा रहे थे तोयह बालक उचक्कों का दमन करने तथा लोगों की रक्षा करने और उन्हें फलने-फूलने योग्यबनाने के लिए प्रकट हुआ था।

    य एतस्मिन्महाभागे प्रीतिं कुर्वन्ति मानवा: ।

    नारयोभिभवन्त्येतान्विष्णुपक्षानिवासुरा: ॥

    २१॥

    ये--जो व्यक्ति; एतस्मिनू--इस बालक को; महा-भागे--परम भाग्यशाली; प्रीतिम्‌--स्नेह; कुर्वन्ति--करते हैं; मानवा:--ऐसेमनुष्य; न--नहीं; अरयः--शत्रुगण; अभिभवन्ति--पराजित करते हैं; एतान्‌ू--कृष्ण से अनुराग करने वाले; विष्णु-पक्षान्‌ --जिनके पक्ष में सदैव विष्णु रहते हैं उन देवताओं को; इब--सहृश; असुराः:--असुरगण |

    असुरगण देवताओं को हानि नहीं पहुँचा सकते क्योंकि भगवान्‌ विष्णु सदैव उनके पक्ष में रहते हैं।

    इसी प्रकार सर्वमंगलमय कृष्ण से अनुरक्त कोई भी व्यक्ति या समूह शत्रुओं द्वारापराजित नहीं किया जा सकता।

    तस्मान्नन्द कुमारोयं नारायणसमो गुणै: ।

    प्रिया कीर्त्यानुभावेन तत्कर्मसु न विस्मय: ॥

    २२॥

    तस्मातू--इसलिए; नन्द--हे नन्‍्द महाराज; कुमार: --बालक; अयम्‌--यह; नारायण-समः--नारायण के समान; गुणैः-- अपनेगुणों से; भ्रिया--अपने ऐश्वर्य से; कीर्त्या--विशेषतया अपने नाम तथा यश से; अनुभावेन--तथा अपने प्रभाव से; तत्‌ू--उसके; कर्मसु--कर्मों के सम्बन्ध में; न--नहीं है; विस्मयः--आश्चर्यअतएव

    हे नन्‍द महाराज, आपका यह बालक नारायण सरीखा है।

    यह अपने दिव्य गुण,ऐश्वर्य, नाम, यश तथा प्रभाव में बिल्कुल नारायण जैसा ही है।

    अतः इसके कार्यों से आपकोचकित नहीं होना चाहिए।

    इत्यद्धा मां समादिश्य गर्गे च स्वगृहं गते ।

    मन्ये नारायणस्यांशं कृष्णमक्लिष्टकारिणम्‌ ॥

    २३॥

    इति--इस प्रकार कह कर; अद्धघा-प्रत्यक्ष; मामू--मुझको; समादिश्य--आदेश देकर; गर्गें--गर्गाचार्य; च--तथा; स्व-गृहम्‌--अपने घर; गते-- चले गये; मन्ये--मैं विचार करता हूँ; नारायणस्य-- भगवान्‌ नारायण का; अंशम्‌--शक्त्याविष्ट अंश;कृष्णम्‌--कृष्ण को; अक्लिष्ट-कारिणम्‌--हमें क्लेश से मुक्त रखने वाले |

    [नन्द महाराज ने कहा : जब गर्ग ऋषि ये शब्द कहकर अपने घर चले गये तो मैं विचारकरने लगा कि जो कृष्ण हमें क्लेश से दूर रखता है, वह वास्तव में भगवान्‌ नारायण का अंशहै।

    इति नन्दवच: श्रुत्वा गर्गगीतं तं ब्रजौकसः ।

    मुदिता नन्दमानर्चु: कृष्णं च गतविस्मया: ॥

    २४॥

    इति--इस प्रकार; नन्द-वच: --नन्द महाराज के शब्द को; श्रुत्वा--सुनकर; गर्ग-गीतम्‌--गर्ग ऋषि के कथन को; ब्रज-ओकस:--ब्रजवासी; मुदिता:--प्रसन्न; नन्दम्‌--नन्द महाराज को; आनर्चु:--सम्मानित किया; कृष्णम्‌--कृष्ण को; च--तथा;गत--दूर हो गया; विस्मया:--उनका विस्मय ।

    [शुकदेव गोस्वामी ने कहा : नन्‍्द महाराज द्वारा कहे गए गर्ग मुनि के कथन को सुनकरवृन्दावन के वासी परम प्रमुदिति हुए।

    उनका विस्मय जाता रहा और उन्होंने आदरपूर्वक नन्‍्द तथाभगवान्‌ कृष्ण की पूजा की।

    देवे वर्षति यज्ञविप्लवरुषा वज्जास्मवर्षानिलै:सीदत्पालपशुस्त्रियात्मशरणं इृष्ठानुकम्प्युत्मयन्‌ ।

    उत्पाट्यैककरेण शैलमबलो लीलोच्छिलीन्श्रं यथाबिभ्रद्‌गोष्ठमपान्महेन्द्रमदभित्प्रीयान्न इन्द्रो गवाम्‌ ॥

    २५॥

    देवे--जब इन्द्रदेव ने; वर्षति--वर्षा कराई; यज्ञ--अपने यज्ञ के; विप्लव--उत्पात के कारण; रुषा--क्रो धवश; वज्ञ--वज् से;अश्म-वर्ष--उपल; अनिलै: --तथा वायु से; सीदत्‌--कष्ट उठाते हुए; पाल--ग्वाले; पशु--पशु; स्त्रि--तथा स्त्रियाँ; आत्म--स्वयं; शरणम्‌ू--एकमात्र आश्रय; इृष्ठा--देखकर; अनुकम्पी--अत्यन्त दयालु; उत्स्मयन्‌--हँसते हुए; उत्पाट्य--उखाड़ कर;एक-करेण--एक हाथ से; शैलम्‌--पर्वत, गोवर्धन को; अबल:--छोटा बालक; लीला--खेल में; उच्छिलीन्ध्रम्‌ू--कुकुरमुत्ताको; यथा--जिस प्रकार; बिभ्रत्‌ू--पकड़ लिया; गोष्ठम्‌--गोपजाति को; अपात्‌--बचाया; महा-इन्द्र--इन्द्र का; मद-गर्वको; भित्‌--नाश करने वाला; प्रीयात्‌-प्रसन्न हो जाय; नः--हमपर; इन्द्र: --स्वामी; गवामू--गौवों का |

    अपना यज्ञ भंग किये जाने पर इन्द्र क्रेधित हुआ और उसने गोकुल पर वर्षा की तथावज्रपात और तेज हवा के साथ साथ ओले गिराये जिनसे गौवों, पशुओं तथा स्त्रियों को अतीवकष्ट हुआ।

    जब दयालु प्रकृति वाले भगवान्‌ कृष्ण ने उन सबों की यह दशा देखी जिनके उन्हें छोड़कर कोई दूसरी शरण नहीं थी तो वे मन्द-मन्द हँसने लगे और एक हाथ से उन्होंने गोवर्धनपर्वत को उठा लिया जिस तरह कोई छोटा सा बालक खेलने के लिए कुकुरमुत्ते को उखाड़ लेताहै।

    इस तरह से उन्होंने ग्वाल-समुदाय की रक्षा की।

    गौवों के स्वामी तथा इन्द्र के मिथ्या गर्व कोखंडित करने वाले वे ही गोविन्द हम सबों पर प्रसन्न हों।

    TO

    अध्याय सत्ताईसवां: भगवान इंद्र और माता सुरभि प्रार्थना करते हैं

    10.27शाश्रीशुक उबाचगोवर्धने धृते शैले आसाराद्रक्षिते व्रजे ।

    गोलोकादाकद्रजत्कृष्णं सुरभि: शक्र एवच ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; गोवर्धने--गोवर्धन को; धृते-- धारण करने के बाद; शैले--पर्वत;आसारातू--मूसलाधार वर्षा से; रक्षिते--रक्षित हो जाने पर; ब्रजे--ब्रज में; गो-लोकात्‌--गो-लोक से; आब्रजत्‌--आई;कृष्णम्‌--कृष्ण के पास; सुरभि:ः--माता सुरभि; शक्र:--इन्द्र; एव-- भी; च--तथा

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : कृष्ण के गोवर्धन पर्वत उठाने तथा भयंकर वर्षा से व्रजवासियोंकी रक्षा करने के बाद गौवों की माता सुरभि गो-लोक से कृष्ण का दर्शन करने आईं।

    उनके साथ इन्द्र था।

    शाविविक्त उपसडुम्य ब्रीडीतः कृतहेलन: ।

    पस्पर्श पादयोरेनं किरीटेनार्कवर्चसा ॥

    २॥

    विविक्ते--एकान्त स्थान में; उपसड्रम्य--जाकर; ब्रीडित:--लज्जित; कृत-हेलन:--अपराध किये जाने से; पस्पर्श --उसने स्पर्शकिया; पादयो: --दोनों पैरों का; एनम्‌ू--उनको; किरीटेन--अपने मुकुट से; अर्क--सूर्य के समान; वर्चसा--तेज वालाभगवान्‌ का अपमान करने के कारण इन्द्र अत्यन्त लज्जित था।

    एकान्त स्थान में उनके पासजाकर इन्द्र उनके चरणों पर गिर पड़ा और सूर्य के समान तेज वाले मुकुट को भगवान्‌ केचरणकमलों पर रख दिया।

    दृष्टश्रुतानुभावोस्य कृष्णस्यामिततेजस: ।

    नष्ठत्रिलोकेशमद इृदमाह कृताझ्ञलि: ॥

    ३॥

    इृष्ट--देखा हुआ; श्रुत--सुना हुआ; अनुभाव: --शक्ति; अस्य--इस; कृष्णस्य-- भगवान्‌ कृष्ण की; अमित--अपार;तेजस:--जिसकी शक्ति; नष्ट--नष्ट; त्रि-लोक--तीनों जगतों का; ईश--स्वामी होने का; मदः--नशा; इदम्‌--ये शब्द;आह--कहे; कृत-अद्जलि:--याचना में अपने हाथ जोड़े

    अब तक इन्द्र सर्वशक्तिमान कृष्ण की दिव्य शक्ति को सुन तथा देख चुका था और इसतरह तीनों जगतों के स्वामी होने का उसका मिथ्या गर्व चूर हो चुका था।

    याचना के लिए दोनोंहाथ जोड़कर उसने भगवान्‌ को इस प्रकार सम्बोधित किया।

    इन्द्र उबाच शाविशुद्धसत्त्वं तव धाम शान्तंतपोमयं ध्वस्तरजस्तमस्कम्‌ ।

    मायामयोयं गुणसम्प्रवाहोन विद्यते ते ग्रहणानुबन्ध: ॥

    ४॥

    इन्द्र: उबाच--इन्द्र ने कहा; विशुद्ध-सत्त्वम्‌-दिव्य सतोगुण दिखाने वाला; तब--तुम्हारा; धाम--स्वरूप; शान्तम्‌--अपरिवर्तनीय; तपः-मयम्‌--ज्ञान से पूर्ण; ध्वस्त--विनष्ट; रज:--रजोगुण; तमस्कम्‌--तथा तमोगुण को; माया-मय:--मायापर आधारित; अयम्‌ू--यह; गुण-- भौतिक प्रकृति के गुणों की; सम्प्रवाह:--धारा; न विद्यते--उपस्थित नहीं है; ते--तुम्हारेभीतर; अग्रहण-इग्नोरन्चे; अनुबन्ध:-व्हिछ इस्‌ दुए तो

    राजा इन्द्र ने कहा : आपका दिव्य रूप शुद्ध सतोगुण का प्राकट्य है, यह परिवर्तन सेविचलित नहीं होता, ज्ञान से चमकता रहता है और रजो तथा तमोगुणों से रहित है।

    आपके भीतरमाया तथा अज्ञान पर आअ्रित भौतिक गुणों का प्रबल प्रवाह नहीं पाया जाता।

    शालोभादयो येडबुधलिन्ग भावा: ।

    तथापि दण्डं भगवान्बिभर्तिधर्मस्य गुप्त्ये खलनिग्रहाय ॥

    ५॥

    कुतः--कैस; नु--निश्चय ही; तत्‌--उस ( भौतिक शरीर के अस्तित्व ) के; हेतवः--कारण; ईश--हे प्रभु; तत्‌-कृता:--भौतिक देह से सम्बन्ध होने से उत्पन्न; लोभ-आदय: --लोभ इत्यादि; ये--जो; अबुध--अज्ञानी व्यक्ति के; लिन्ग-भावा:--लक्षण; तथा अपि--तो भी; दण्डम्‌--दण्ड; भगवान्‌-- भगवान्‌; बिभर्ति--घुमाता है; धर्मस्य-- धर्म का; गुप्त्यै--सुरक्षा केलिए; खल--दुष्ट व्यक्तियों के ; निग्रहाय--दण्ड के लिए

    तो भला आपमें अज्ञानी व्यक्ति के लक्षण--यथा लोभ, कामक्रोध तथा ईर्ष्या--किस तरहरह सकते हैं क्योंकि इनकी उत्पत्ति संसार में मनुष्य की पूर्व-लिप्तता के कारण होती है और येमनुष्य को संसार में अधिकाधिक जकड़ते जाते हैं ? फिर भी हे परमेश्वर, आप धर्म की रक्षा करनेतथा दुष्टों का दमन करने के लिए उन्हें दण्ड देते हैं।

    शापिता गुरुस्त्वं जगतामधीशोदुरत्ययः काल उपात्तदण्ड: ।

    हिताय चेच्छातनुभिः समीहसेमानं विधुन्वन्जगदीशमानिनाम्‌ ॥

    ६॥

    पिता--पिता; गुरु: --गुरु ; त्वमू--तुम; जगताम्‌--सारे विश्व के; अधीश: -- परम नियन्ता; दुरत्यय:ः--दुर्लध्य; काल: --काल;उपात्त--घुमाता है; दण्ड:--दण्ड; हिताय--लाभ हेतु; च--तथा; इच्छा--स्वेच्छा से धारण किया गया; तनुभि:--आपकेदिव्य स्वरूपों द्वारा; समीहसे--आप प्रयास करते हैं; मानम्‌--मिथ्या गर्व; विधुन्चन्‌--समूल नष्ट करके; जगत्‌-ईश--ब्रह्माण्डके स्वामी; मानिनाम्‌--बनने वालों के |

    आप इस सम्पूर्ण जगत के पिता, आध्यात्मिक गुरु और परम नियन्ता भी हैं।

    आप दुरलघ्यकाल हैं, जो पापियों को उन्हीं के हित के लिए दण्ड देता है।

    निस्सन्देह स्वेच्छा से लिये जानेवाले विविध अवतारों में आप उन लोगों का मिथ्या दर्प दूर करते हैं, जो अपने को इस जगत कास्वामी मान बैठते हैं।

    ये मद्विधाज्ञा जगदीशमानिन-स्त्वां वीक्ष्य कालेभयमाशु तन्मदम्‌ ।

    हित्वार्यमार्ग प्रभजन्त्यपस्मयाईहा खलानामपि तेडनुशासनम्‌ ॥

    ७॥

    शाये--जो लोग; मत्‌-विध--मेरी तरह; अज्ञा: --मूर्ख व्यक्ति; जगत्‌-ईश--जगत के स्वामियों की तरह; मानिन:--अपनी झूठीपहचान करने वाले; त्वाम्‌ू--तुमको; वीक्ष्य--देखकर; काले--( भय के ) समय में; अभयम्‌--निर्भय; आशु--तुरन्त; तत्‌--उनका; मदम्‌--मिथ्या गर्व; हित्वा--त्यागकर; आर्य--आध्यात्मिक जीवन में प्रगति करने वाले भक्तों का; मार्गभम्‌--पथ;प्रभजन्ति--ग्रहण करते हैं; अप-स्मया:--गर्व से मुक्त; ईहा--कर्म; खलानाम्‌--दुष्टों का; अपि--निस्सन्देह; ते--तुम्हारे द्वारा;अनुशासनम्‌--आदेश |

    मुझ जैसे मूर्खजन जो अपने को जगत का स्वामी मान बैठते हैं तुरन्त ही अपने मिथ्या गर्वको त्याग देते हैं और जब वे आपको काल के समक्ष भी निडर देखते हैं, तो वे तुरन्तआध्यात्मिक प्रगति करने वाले भक्तों का मार्ग ग्रहण कर लेते हैं।

    इस तरह आप दुष्टों को शिक्षादेने के लिए ही दण्ड देते हैं।

    शास त्वं ममैश्चर्यमदप्लुतस्यकृतागसस्तेविदुष: प्रभावम्‌ ।

    क्षन्तुं प्रभो थाहसि मूढचेतसोमैवं पुनर्भून्मतिरीश मेउसती ॥

    ८॥

    सः--वह; त्वमू--आप; मम--मेरे; ऐश्वर्य--शासन के; मद--नहशे में; प्लुतस्थ--निमग्न रहने वाले; कृत--किया हुआ;आगस: --अपराध; ते--आपका; अविदुष:--न जानने के कारण; प्रभावम्‌--दिव्य प्रभाव को; क्षन्तुमू-- क्षमा करने के लिए;प्रभो-हे प्रभु; अथ--अतएव; अर्हसि--आपको चाहिए; मूढ--मूर्ख; चेतस:--जिसकी बुद्धि; मा--कभी नहीं; एवमू--इसप्रकार; पुन:--फिर; भूतू--होए; मतिः--चेतना; ईश-हे प्रभु; मे--मेरी; असती --अशुद्ध ।

    अपनी शासनशक्ति के मद में चूर एवं आपके दिव्य प्रभाव से अनजान मैंने आपका अपमानकिया है।

    हे प्रभु, आप मुझे क्षमा करें।

    मेरी बुद्धि मोहग्रस्त हो चुकी थी किन्तु अब मेरी चेतनाको कभी इतनी अशुद्ध न होने दें।

    'तवावतारोयमधोक्षजेह शाभुवो भराणामुरु भारजन्मनाम्‌ ।

    चमूपतीनामभवाय देवभवाय युधष्मच्चरणानुवर्तिनाम्‌ ॥

    ९॥

    तब--आपका; अवतार: -- अवतरण; अयम्‌--यह; अधोक्षज--हे दिव्य प्रभु; इहह--इस; भुव:--पृथ्वी के; भराणामू-- भारस्वरूप; उरु-भार--अनेक उत्पातों के प्रति; जन्मनाम्‌--जन्म देने वालों; चमू-पतीनाम्‌--सैन्य नायकों के; अभवाय--विनाशके लिए; देव--हे भगवान्‌; भवाय--मंगल के लिए; युष्मत्‌--आपके ; चरण--चरणकमल; अनुवर्तिनामू--सेवकों का

    हे दिव्य प्रभुआप इस जगत में उन सेनापतियों को विनष्ट करने के लिए अवतरित होते हैं,जो पृथ्वी का भार बढ़ाते हैं और अनेक भीषण उत्पात मचाते हैं।

    हे प्रभु, उसी के साथ साथ आपउन लोगों के कल्याण के लिए कर्म करते हैं, जो श्रद्धापूर्वक्क आपके चरणकमलों की सेवाकरते हैं।

    शानमस्तुभ्यं भगवते पुरुषाय महात्मने ।

    वासुदेवाय कृष्णाय सात्वतां पतये नमः ॥

    १०॥

    नम:--नमस्कार; तुभ्यमू-- आपको; भगवते-- भगवान्‌ को; पुरुषाय--सबों के हृदयों में वास करने वाले प्रभु को; महा-आत्मने--महान्‌ आत्मा; वासुदेवाय--सर्वत्र निवास करने वाले को; कृष्णाय--कृष्ण को; सात्वताम्‌--यदु कुल के; पतये--स्वामी को; नम:--नमस्कार।

    सर्वव्यापी तथा सबों के हृदयों में निवास करने वाले हे परमात्मा, आपको मेरा नमस्कार।

    हेयदुकुलश्रेष्ठ कृष्ण, आपको मेरा नमस्कार।

    स्वच्छन्दोपात्तदेहाय विशुद्धज्ञानमूर्तये ।

    सर्वस्मै सर्वबीजाय सर्वभूतात्मने नमः ॥

    ११॥

    स्व--अपने ( भक्तों ) की; छन्द--इच्छानुसार; उपात्त-- धारण करने वाले; देहाय--दिव्य शरीर वाले को; विशुद्ध--नितान्तशुद्ध; ज्ञान--ज्ञान; मूर्तये-- स्वरूप वाले; सर्वस्मै--जो सर्वस्व है उसे; सर्व-बीजाय--सबों का बीज स्वरूप; सर्व-भूत--समस्तप्राणियों के; आत्मने--अन्तरात्मा स्वरूप; नम:--नमस्कार।

    अपने भक्तों की इच्छा के अनुसार दिव्य शरीर धारण करने वाले, शुद्ध चेतना रूप, सर्वस्व,समस्त वस्तुओं के बीज तथा समस्त प्राणियों के आत्मा रूप आपको मैं नमस्कार करता हूँ।

    शामयेदं भगवन्गोष्ठनाशायासारवायुभि: ।

    चेष्टितं विहते यज्ञे मानिना तीव्रमन्युना ॥

    १२॥

    मया-मेरे द्वारा; इदम्‌--यह; भगवनू-हे प्रभु; गोष्ठ--आपके ग्वाल समुदाय के; नाशाय--विनाश हेतु; आसार--मूसलाधारवर्षा से; वायुभि:--तथा हवा से; चेष्टितम्‌--चेष्टा किया गया; विहते--विध्वंस हो जाने पर; यज्ञे--मेरा यज्ञ; मानिना--मिथ्यागर्वित होने के कारण मेरे द्वारा; तीव्र-- प्रखर; मन्युना--क्रोध होने से |

    हे प्रभु, जब मेरा यज्ञ भंग हो गया, तो मैं मिथ्या अहंकार के कारण बहुत क्रुद्ध हुआ।

    इसतरह मैंने घनघोर वर्षा तथा वायु के द्वारा आपके ग्वाल समुदाय को विनष्ट कर देना चाहा।

    त्वयेशानुगृहीतो उस्मि ध्वस्तस्तम्भो वृथोद्यम: ।

    ईश्वरं गुरुमात्मानं त्वामहं शरणं गतः ॥

    १३॥

    त्वया--आपके द्वारा; ईश--हे प्रभु; अनुगृहीत:ः--दया दिखाया हुआ; अस्मि--हूँ; ध्वस्त--छिन्न-भिन्न; स्तम्भ:--मेरा मिथ्याअभिमान; वृथा--व्यर्थ; उद्यम: --मेरा प्रयास; ईश्वरम्‌--परमे श्वर की; गुरुम्‌--गुरु की; आत्मानम्‌--आत्मा की; त्वामू--आपकी; अहमू--मैं; शरणम्‌--शरण में; गतः--आया हुआ।

    हे प्रभु, मेरे मिथ्या अहंकार को चकनाचूर करके तथा मेरे प्रयास ( वृन्दावन को दण्डितकरने का) को पराजित करके आपने मुझपर दया दिखाई है।

    अब मैं, परमेश्वर, गुरु तथापरमात्मा रूप आपकी शरण में आया हूँ।

    श्रीशुक उबाचएवं सड्डजीतितः कृष्णो मघोना भगवानमुम्‌ ।

    मेघगम्भीरया वाचा प्रहसबन्निदमब्रवीत्‌ ॥

    १४॥

    शाश्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; सड्डीतित:--महिमा बखान किये जाने पर; कृष्ण:--कृष्ण; मघोना--नद्र द्वारा; भगवान्‌ू-- भगवान्‌; अमुम्‌--उससे; मेघ--बादलों की तरह; गम्भीरया--गम्भीर; वाचा--वाणी से;प्रहसन्‌--हँसते हुए; इदम्‌--यह; अब्रवीत्‌--बोले |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस प्रकार इन्द्र द्वारा वन्दित होकर पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ कृष्णहँसे और तब बादलों की गर्जना जैसी गम्भीर वाणी में उससे इस प्रकार बोले।

    श्रीभगवानुवाचमया तेकारि मघवन्मखभझ्लेनुगृह्वता ।

    मदनुस्मृतये नित्य मत्तस्येन्द्रअया भूशम्‌ ॥

    १५॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; मया--मेरे द्वारा; ते--तुम्हारें; अकारि--किया गया; मघवनू--हे इन्द्र; मख--यज्ञ का;भड्ढ:--अवरोध; अनुगृह्ता--तुम पर दया दिखाते हुए; मत्‌-अनुस्मृतये--मेरा स्मरण करने के लिए; नित्यम्‌--निरन्तर;मत्तस्य--उन्मत्त का; इन्द्र-अिया--इन्द्र के ऐश्वर्य से; भूशम्‌--अत्यधिक |

    भगवान्‌ ने कहा : हे इन्द्र, मैंने तो दयावश ही तुम्हारे निमित्त होने वाले यज्ञ को रोक दियाथा।

    तुम स्वर्ग के राजा के अपने ऐश्वर्य से अत्यधिक उन्मत्त हो चुके थे और मैं चाहता था कि तुमसदैव मेरा स्मरण कर सको।

    शामामैश्चर्यश्रीमदान्धो दण्ड पाणिं न पश्यति ।

    त॑ भ्रंशयामि सम्पद्भ्यो यस्य चेच्छाम्यनुग्रहम्‌ ॥

    १६॥

    माम्‌--मुझको; ऐश्वर्य--ऐश्वर्य; श्री--तथा वैभव के; मद--नशे से; अन्ध:--अन्धा; दण्ड--दण्ड देने वाला डंडा लेकर;'पाणिमू--अपने हाथ में; न पश्यति--नहीं देखता है; तम्‌--उसको; भ्रंशयामि--गिरा देता हूँ; सम्पद्भ्यः--उसकी भौतिकसम्पत्ति से; यस्थ--जिसका; च--तथा; इच्छामि--चाहता हूँ; अनुग्रहमू--लाभ |

    अपनी शक्ति तथा ऐश्वर्य के नशे में उन्मत्त मनुष्य मुझे अपने हाथ में दण्ड का डंडा लिये हुएअपने निकट नहीं देख पाता।

    यदि मैं उसका वास्तविक कल्याण चाहता हूँ तो मैं उसे भौतिकसौभाग्य के पद से नीचे घसीट देता हूँ।

    गम्यतां शक्र भद्गं व: क्रियतां मेडनुशासनम्‌ ।

    स्थीयतां स्वाधिकारेषु युक्तैर्व: स्तम्भवर्जिते: ॥

    १७॥

    शागम्यताम्‌--जा सकते हो; शक्र--हे इन्द्र; भद्रमू--कल्याण; व:--तुम्हारा; क्रियताम्‌--तुम्हें पालन करना चाहिए; मे--मेरी;अनुशासनम्‌--आज्ञा का; स्थीयताम्‌--तुम रहे आओ; स्व--अपने; अधिकारेषु--उत्तरदायित्वों में; युक्ते:--लगे रहकर; व:ः--तुम; स्तम्भ--मिथ्या अहंकार; वर्जितैः--से रहित।

    हे इन्द्र, अब तुम जा सकते हो।

    मेरी आज्ञा का पालन करो और स्वर्ग के राज-पद पर बनेरहो।

    किन्तु मिथ्या अभिमान से रहित होकर गम्भीर बने रहना।

    अथाह सुर्षि: कृष्णमभिवन्द्य मनस्विनी ।

    स्वसन्तानैरुपामन्त्य गोपरूपिणमी श्ररम्‌ ॥

    १८॥

    अथ--तब; आह--बोली; सुरभि:--गौवों की माता, सुरभि; कृष्णम्‌--कृष्ण को; अभिवन्द्य--वन्दना करते हुए; मनस्विनी--शान्त मन वाली; स्व-सन्तानैः:--अपनी सन्‍्तानों, गौवों समेत; उपामन््रय--ध्यानाकर्षण की याचना करते हुए; गोप-रूपिणम्‌--ग्वालबाल रूपी; ईश्वरम्‌-- भगवान्‌ को |

    तब अपनी सनन्‍्तान गौवों समेत माता सुरभि ने भगवान्‌ कृष्ण को नमस्कार किया।

    उनसेध्यान देने के लिए सादर प्रार्थना करते हुए उस भद्गर नारी ने भगवान्‌ को, जो उसके समक्षग्वालबाल के रूप में उपस्थित थे, सम्बोधित किया।

    सुरभिरुवाचकृष्ण कृष्ण महायोगिन्विश्वात्मन्विश्वसम्भव ।

    भवता लोकनाथेन सनाथा वयमच्युत ॥

    १९॥

    सुरभि: उबाच--सुरभि ने कहा; कृष्ण कृष्ण--हे कृष्ण, हे कृष्ण; महा योगिन्‌ू--हे महान्‌ योगी; विश्व-आत्मनू्‌--हे विश्व कीआत्मा; विश्व-सम्भव--हे विश्व के उद्गम; भवता--तुम्हारे द्वारा; लोक नाथेन--विश्व के स्वामी द्वारा; स-नाथा:--नाथ से युक्त;वयम्‌--हम सभी; अच्युत--हे अच्युत।

    माता सुरभि ने कहा : हे कृष्ण, हे कृष्ण, हे योगियों में श्रेष्ठ, हे विश्व की आत्मा तथा उद्गम, शाआप विश्व के स्वामी हैं और हे अच्युत, आपकी ही कृपा से हम सबों को आप जैसा स्वामी मिलाहै।

    त्वं नः परमकं दैवं त्वं न इन्द्रो जगत्पते ।

    भवाय भव गोविप्र देवानां ये च साधव: ॥

    २०॥

    त्वमू--तुम; न:ः--हमारे; परमकम्‌-- परम; दैवम्‌-- आराध्य देव; त्वमू--तुम; न:ः--हमारे; इन्द्र:--इनद्र; जगत्‌-पते--हे जगत केस्वामी; भवाय--कल्याण के लिए; भव--होओ, बनो; गो--गौवों; विप्र--ब्राह्मणों; देवानामू--तथा देवताओं के; ये--जो;च--तथा; साधव:--सनन्‍्त पुरुषों |

    आप हमारे आराध्य देव हैं।

    अतएव हे जगत्पति, गौवों, ब्राह्मणों, देवताओं एवं सारे सन्तपुरुषों के लाभ हेतु आप हमारे इन्द्र बनें।

    इन्द्र नस्त्वाभिषेक्ष्यामो ब्रह्मणा चोदिता वयम्‌ ।

    अवतीर्णोसि विश्वात्मन्भूमेर्भारापनुत्तये ॥

    २१॥

    इन्द्रमू--इन्द्र रूप में; न:--हमारे; त्वा--तुमको; अभिषेक्ष्याम:--हम सभी अभिषेक करेंगे; ब्रह्मणा--ब्रह्म द्वारा; चोदिता: --आदिष्ट; वयम्‌--हम; अवतीर्ण: असि--तुम अवतीर्ण हुए हो; विश्व-आत्मन्‌--हे विश्वात्मा; भूमे:--पृथ्वी का; भार-- भार;अपनुत्तये--कम करने के लिएशाब्रह्माजी के आदेशानुसार हम इन्द्र के रूप में आपका राज्याभिषेक करेंगी।

    हे विश्वात्मा, आपपृथ्वी का भार उतारने के लिए इस संसार में अवतरित होते हैं।

    बाचएवं कृष्णमुपामन्त्रय सुरभिः पयसात्मन: ।

    जलैराकाशगड़ाया ऐरावतकरोदधूृते: ॥

    २२॥

    इन्द्र: सुर्षिभि: साक॑ चोदितो देवमातृभिः ।

    अभ्यसिश्जञत दाशाई गोविन्द इति चाभ्यधात्‌ ॥

    २३॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; कृष्णम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण से; उपामन्त्रय--अनुरोध करके;सुरभि:--माता सुरभि ने; पयसा--दूध से; आत्मन:--अपने; जलै:--जल से; आकाश-गड़ाया:--आकाश गंगा ( मन्दाकिनी )के; ऐरावत--इन्द्र के वाहन, ऐरावत हाथी के; कर--सूँड़ से; उद्धृतेः-- ले जाया जाकर; इन्द्र:--इन्द्र; सुर--देवताओं;ऋषिभि:--तथा ऋषियों द्वारा; साकम्‌--साथ में; चोदित:--प्रोत्साहित; देव--देवताओं की; मातृभि:--माताओं द्वारा ( अदितिइत्यादि ); अभ्यसिज्ञत--नहलाया; दाशाहईम्‌--दशाई के वंशज, भगवान्‌ कृष्ण को; गोविन्द: इति--गोविन्द के रूप में; च--तथा; अभ्यधात्‌-हे नमेद्‌ थे लोर्द

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : भगवान्‌ कृष्ण से इस तरह याचना करने के बाद माता सुरभि नेअपने दूध से उनका अभिषेक किया और इन्द्र ने अदिति तथा देवताओं की अन्य माताओं सेआदेश पाकर अपने हाथी ऐरावत की सूँड़ से आकाश गंगा के जल से भगवान्‌ का जलाभिषेककिया।

    इस तरह देवताओं तथा ऋषियों की संगति में इन्द्र ने दशाई वंशज भगवान्‌ कृष्ण काराज्याभिषेक किया और उनका नाम गोविन्द रखा।

    शातत्रागतास्तुम्बुरुनारदादयोगन्धर्वविद्याधरसिद्धचारणा: ।

    जगुर्यशो लोकमलापहं हरेःसुराड्रना: सन्ननृतुर्मुदान्विता: ॥

    २४॥

    तत्र--उस स्थान पर; आगताः -- आकर; तुम्बुरु--तुम्बुरु नामक गन्धर्व; नारद--नारदमुनि; आदय: --इत्यादि देवता; गन्धर्व-विद्याधर-सिद्ध-चारणा: --गन्धर्व, विद्याधर, सिद्ध तथा चारणगण ने; जगुः--गाया; यशः--कीर्ति; लोक--समस्त जगत;मल--कल्मष; अपहम्‌--विनष्ट करने वाले; हरेः -- भगवान्‌ हरि का; सुर--देवताओं की; अड्डना:--पत्नियाँ; सन्ननृतु:--एकसाथ नाचीं; मुदा अन्विता:--हर्ष से पूरित होकर |

    वहाँ पर तुम्बरु, नारद तथा विद्याधरों, सिद्धों और चारणों समेत अन्य गन्धर्वगण समस्तजगत को शुद्ध करने वाले भगवान्‌ हरि के यश का गुणगान करने आये।

    और देवताओं कीपत्नियाँ हर्ष से भरकर भगवान्‌ के सम्मान में एकसाथ नाचीं।

    त॑ तुष्ठवुर्देवनिकायकेतवोछावाकिरंश्राद्धुतपुष्पवृष्टिभि: ।

    लोकाः परां निर्वृतिमाण्ुव॑स्त्रयोगावस्तदा गामनयन्पयोद्गुताम्‌ ॥

    २५॥

    तम्‌--उनकी; तुष्ठुवु:--प्रशंसा की; देब-निकाय--सारे देवताओं के; केतव:--सर्वाधिक प्रमुख ने; हि--निस्सन्देह;अवाकिरन्‌--आच्छादित कर दिया; च--तथा; अद्भुत--आश्चर्यजनक; पुष्प--फूलों की; वृष्टिभि:--वर्षा से; लोका:--जगतोंने; पराम्‌--परम; निर्वृतिमू--सन्तोष; आप्नुबन्‌--अनुभव किया; त्रय:--तीनों; गाव: --गौवें; तदा--तब; गाम्‌--पृथ्वी को;अनयनू--बना दिया; पय:--अपने दूध से; द्रतामू-सिक्त सर्व

    प्रमुख देवताओं ने भगवान्‌ की प्रशंसा की और उनपर चारों ओर से फूलों की अद्भुतवर्षा की।

    इससे तीनों लोकों को परम संतोष का अनुभव हुआ और गौवों ने अपने दूध से पृथ्वीकी सतह भाग को सिक्त कर दिया।

    शानानारसौघा: सरितो वृक्षा आसन्मधुस्त्रवा: ।

    अकृष्टपच्यौषधयो गिरयोउबि भ्रनुन्मणीन्‌ ॥

    २६॥

    नाना--विविध; रस--द्रव; ओघा:--बाढ़-सी लाते हुए; सरित:ः--नदियाँ; वृक्षा:--वृक्ष; आसन्‌--बन गये; मधु--मधुर रस से;स्त्रवा:--बहते हुए; अकृष्ट--बिना जोते-बोये ही; पच्य--पका हुआ; ओषधय:--पौधे; गिरय:--पर्वत; अबि भ्रनू--ले गये;उत्‌-- धरती के ऊपर; मणीन्‌ू--मणियाँ।

    नदियाँ विविध प्रकार के स्वादिष्ट द्रवों से युक्त होकर बहने लगीं, वृक्षों ने मधु निकाललिया, खाद्य पौधे बिना जोते ही परिपक्व हो उठे और पर्वतों ने अपने गर्भ में छिपी मणियों कोबाहर निकाल दिया।

    कृष्णेउभिषिक्त एतानि सर्वाणि कुरुनन्दन ।

    निर्वेराण्यभवंस्तात क्रूराण्यपि निसर्गतः ॥

    २७॥

    कृष्णे-- भगवान्‌ कृष्ण; अभिषिक्ते--- अभिषेक किये गये; एतानि--ये; सर्वाणि--समस्त; कुरु-नन्दन--हे कुरुवंशी;निर्वरणि--शत्रुता से रहित; अभवन्‌--हो गये; तात--हे परीक्षित; क्रूराणि--क्रूर; अपि--यद्यपि; निसर्गतः--प्रकृति द्वारा |

    हे कुरुनन्दन परीक्षित, भगवान्‌ कृष्ण को अभिषेक कराने के बाद सभी जीवित प्राणी, यहाँतक कि जो स्वभाव के क्रूर थे, सर्वथा शत्रुतारहित बन गये।

    इति गोगोकुलपतिं गोविन्दमभिषिच्य सः ।

    अनुज्ञातो ययौ शक्रो वृतो देवादिभिर्दिवम्‌ ॥

    २८ ॥

    शाइति--इस प्रकार; गो--गौवों के; गो-कुल--तथा ग्वाल-जाति के; पतिम्‌--स्वामी को; गोविन्दम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण को;अभिषिच्य--अभिषेक कराकर; सः--वह, इन्द्र; अनुज्ञात:-- अनुमति दिये जाने पर; ययौ--चला गया; शक्र:--इन्द्र; वृत:--घिरा हुआ; देव-आदिभि:--देवताओं तथा अन्‍्यों से; दिवम्‌--स्वर्ग को |

    गौवों तथा ग्वाल-जाति के स्वामी भगवान्‌ गोविन्द को अभिषेक कराने के बाद इन्द्र नेभगवान्‌ की अनुमति ली और देवताओं तथा अन्य उच्च प्राणियों से घिरकर वह अपने स्वर्ग-धामको लौट गया।

    TO

    अध्याय अट्ठाईसवां: कृष्ण ने नंद महाराज को वरुण के निवास से बचाया

    10.28श्रीबादरायणिरुवाचएकादश्यां निराहारः समभ्यर्च्य जनार्दनम्‌ ।

    स्नातुंनन्दस्तु कालिन्द्रां द्वादश्यां जलमाविशत्‌ ॥

    १॥

    श्री-बादरायणि: उबाच-- श्रीबादरायणि ( शुकदेव गोस्वामी ) ने कहा; एकादश्यामू--एकादशी के दिन; निराहार: --बिनाखाये, उपवास करते हुए; समभ्यर्च्य--पूजा करने के बाद; जनार्दनम्‌--जनार्दन की, भगवान्‌ की; स्नातुम्‌-स्नान करने केलिए ( ब्रत तोड़ने के पूर्व आवश्यक है ); नन्‍्दः--नन्द महाराज ने; तु--लेकिन; कालिचन्द्यामू--यमुना नदी में; द्वादश्याम्‌--द्वादशी के दिन; जलम्‌--जल में; आविशत्‌--प्रवेश किया।

    श्रीबादरायण ने कहा : भगवान्‌ जनार्दन की पूजा करके तथा एकादशी के दिन ब्रतरखकर नन्द महाराज ने द्वादशी के दिन स्नान करने के लिए कालिन्दी के जल में प्रवेश किया।

    त॑ गृहीत्वानयद्धृत्यो वरुणस्यासुरोउन्तिकम्‌ ।

    अवज्ञायासुरी वेलां प्रविष्टमुदकं॑ निशि ॥

    २॥

    तम्‌--उसको; गृहीत्वा--पकड़कर; अनयत्‌--ले आया; भृत्य:--नौकर; वरुणस्य--समुद्र के स्वामी, वरूण का; असुर:--असुर के; अन्तिकम्‌--समक्ष; अवज्ञाय--अवहेलना करके; आसुरीम्‌-- अशुभ; वेलामू--समय; प्रविष्टम्‌ू-- प्रवेश करके;उदकम्‌--जल में; निशि--रात्रि के समय |

    चूँकि नन्‍्द महाराज ने इस बात की अवहेलना करके कि यह अशुभ समय था, रात्रि केअंधकार में जल में प्रवेश किया था अत: वरुण का आसुरी सेवक उन्हें पकड़ कर अपने स्वामीके पास ले आया।

    चुक्रुशुस्तमपश्यन्त: कृष्ण रामेति गोपकाः ।

    भगवांस्तदुप श्रुत्य पितरें वरुणाहतम्‌ ।

    तदन्तिकं गतो राजन्स्वानामभयदो विभु: ॥

    ३॥

    चुक़ुशु;--जोर से पुकारा; तम्‌ू--उसको, नन्द को; अपश्यन्त:--न देखकर; कृष्ण --हे कृष्ण; राम--हे राम; इति--इस प्रकार;गोपकाः-ग्वालों ने; भगवान्‌-- भगवान्‌ कृष्ण ने; तत्‌ू--वह; उपश्रुत्य--सुनकर; पितरम्‌--अपने पिता को; वरुण--वरुणद्वारा; आहतम्‌--ले जाया गया; तत्‌ू--वरुण के; अन्तिकम्‌--समक्ष; गत:ः--गया; राजन्‌--हे राजा परीक्षित; स्वानामू-- अपनेभक्तों के; अभय--निडरपन; दः --देने वाले; विभु:--सर्वशक्तिमान स्वामी

    हे राजन, नन्द महाराज को न देखकर ग्वाले जोर से चिल्ला उठे, 'हे कृष्ण, हे राम, 'भगवान्‌ कृष्ण ने उनकी चीखें सुनीं और समझ लिया कि मेरे पिता वरुण द्वारा बन्दी बना लियेगये हैं।

    अतः अपने भक्तों को निडर बनाने वाले सर्वशक्तिमान भगवान्‌ वरुणदेव के दरबार जापहुँचे।

    प्राप्तं वीक्ष्य हषीकेशं लोकपाल: सपर्यया ।

    महत्या पूजयित्वाह तदर्शनमहोत्सवः ॥

    ४॥

    प्राप्तम्‌--आया हुआ; वीक्ष्य--देखकर; हषीकेशम्‌--इन्द्रियों के नियन्‍्ता भगवान्‌ कृष्ण को; लोक--उस लोक ( जल ) का;'पाल:--मुख्य देवता ( वरुण ); सपर्यया--सादर भेंटों के साथ; महत्या--बड़े पैमाने पर; पूजयित्वा--पूजा करके; आह--बोला; तत्‌--कृष्ण के; दर्शन--दर्शन से; महा--अत्यन्त; उत्सव:--हर्ष |

    यह देखकर कि भगवान्‌ हषीकेश पधारे हैं, वरूणदेव ने धूमधाम से उनकी पूजा की।

    वहभगवान्‌ को देखकर अत्यन्त प्रमुदित था और वह इस प्रकार बोला।

    श्रीवरुण उवाचअद्य मे निभूतो देहोउद्यैवार्थोधिगतः प्रभो ।

    त्वत्पादभाजो भगवत्नवापु: पारमध्वन: ॥

    ५॥

    श्री-वरुण: उबाच-- श्रीवरुण ने कहा; अद्य--आज; मे--मेरे द्वारा; निभृत:--सफलतापूर्वक पूरा किया गया; देह: --मेराभौतिक शरीर; अद्य--आज; एव--निस्सन्देह; अर्थ:--जीवन का लक्ष्य; अधिगत:--अनुभव किया जाता है; प्रभो-हे प्रभु;त्वत्‌ू--आपके; पाद--चरणकमल; भाज:--सेवा करने वाले, पात्र; भगवन्‌--हे परम पुरुष; अवापु:--प्राप्त हो गया; पारमू--चरमावस्था; अध्वन:--पथ की ( सांसारिक )।

    श्रीवरुण ने कहा : आज मेरे शरीर ने अपना कार्य पूरा कर लिया।

    हे प्रभु, निस्सन्देह अबमुझे अपना जीवन-लक्ष्य प्राप्त हो चुका।

    हे भगवन्‌, जो लोग आपके चरणकमलों को स्वीकारकरते हैं, वे भौतिक संसार के मार्ग को पार कर सकते हैं।

    नमस्तुभ्यं भगवते ब्रह्मणे परमात्मने ।

    न यत्र श्रूयते माया लोकसृष्टिविकल्पना ॥

    ६॥

    नमः--नमस्कार; तुभ्यमू--आपको; भगवते-- भगवान्‌ को; ब्रह्मणे--परम सत्य को; परम-आत्मने--परमात्मा को; न--नहीं;यत्र--जिसमें; श्रूयते--सुना जाता है; माया--माया, भौतिक शक्ति; लोक--इस जगत की; सृष्टि--सृष्टि; विकल्पना--व्यवस्थाकरती है।

    हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌, परम सत्य परमात्मा, मैं आपको नमस्कार करता हूँ; आपकेभीतर इस सृष्टि को अपने अनुरूप बनाने वाली माया-शक्ति का लेशमात्र भी नहीं है।

    अजानता मामकेन मूढेनाकार्यवेदिना ।

    आनीतोऊयं तब पिता तद्धवान्क्षन्तुमहति ॥

    ७॥

    अजानता--अज्ञानी; मामकेन--मेंरे सेवक द्वारा; मूढेन--मूर्ख; अकार्य-वेदिना-- अपने कर्तव्य को न जानने से; आनीत:ः--लायेगये; अयम्‌--यह व्यक्ति; तब--तुम्हारे; पिता--पिता; तत्‌ू--वह; भवान्‌--आप; क्षन्तुम्‌ अहति--क्षमा कर दें।

    यहाँ पर बैठे हुए आपके पिता मेरे एक मूर्ख अज्ञानी नौकर द्वारा मेरे पास लाये गये हैं, जोअपने कर्तव्य को नहीं समझता था।

    कृपा करके हमें क्षमा कर दें।

    ममाप्यनुग्रह कृष्ण कर्तुमहस्यशेषहक्‌ ।

    गोविन्द नीयतामेष पिता ते पितृवत्सल ॥

    ८॥

    मम--मुझपर; अपि-- भी; अनुग्रहम्‌--दया; कृष्ण--हे कृष्ण; कर्तुम्‌ अहंसि--कीजिये; अशेष--हर वस्तु के; हक्‌--देखनेवाले आप; गोविन्द--हे गोविन्द; नीयतामू-- ले जाया जा सकता है; एष:--यह; पिता--पिता; ते-- आपका; पितृ-वत्सल--हेअपने माता-पिता के अत्यन्त स्नेहिल |

    हे कृष्ण, हे सर्वद्रष्टठा, आप मुझे भी अपनी कृपा प्रदान करें।

    हे गोविन्द, आप अपने पिता केप्रति अत्यधिक स्नेहवान्‌ हैं।

    आप उन्हें घर ले जाँय।

    श्रीशुक उबाचएवं प्रसादितः कृष्णो भगवानीश्वरेश्वर: ।

    आदायागात्स्वपितरं बन्धूनां चावहन्मुदम्‌ ॥

    ९॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; प्रसादित:--संतुष्ट; कृष्ण: --कृष्ण; भगवान्‌-- भगवान्‌;ईश्वर--समस्त नियन्ताओं के; ईश्वर: --परम नियन्ता; आदाय--लेकर; अगात्‌--चले गये; स्व-पितरम्‌--अपने पिता को;बन्धूनाम्‌--अपने सम्बन्धियों के लिए; च--तथा; आवहनू--लाते हुए; मुदम्‌-हर्ष

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस तरह वरुणदेव से प्रसन्न होकर ई श्वरों के ईश्वर पूर्ण पुरुषोत्तमभगवान्‌ कृष्ण अपने पिता को लेकर घर लौट आये जहाँ उनके सम्बन्धी उन्हें देखकर अत्यधिकरर्षित शे।

    नन्दस्त्वतीन्द्रियं ृष्टा लोकपालमहोदयम्‌ ।

    कृष्णे च सन्नतिं तेषां ज्ञातिभ्यो विस्मितोब्रवीत्‌ ॥

    १०॥

    नन्दः--नन्द महाराज; तु--तथा; अतीन्द्रियम्‌ू--इसके पूर्व न देखा गया; हृष्टा--देखकर; लोक-पाल--( समुद्र ) लोक केअधिष्ठाता देवता, वरुण का; महा-उदयम्‌--महान्‌ ऐश्वर्य; कृष्णे--कृष्ण के प्रति; च--तथा; सन्नतिम्‌ू--नमस्कार करना;तेषाम--उनके ( वरुण तथा उसके अनुयायियों ) द्वारा; ज्ञातिभ्य:--अपने मित्रों तथा सम्बन्धियों से; विस्मित:--चकित;अब्रवीतू--कहा |

    नन्द महाराज समुद्र लोक के शासक वरुण के महान्‌ ऐश्वर्य को पहली बार देखकर तथा यहदेखकर कि वरुण तथा उसके सेवकों ने किस तरह कृष्ण का आदर किया था, आश्चवर्यच्कितथे।

    नन्द ने इसका वर्णन अपने साथी ग्वालों से किया।

    ते चौत्सुक्यधियो राजन्मत्वा गोपास्तमी श्वरम्‌ ।

    अपि नः स्वगतिं सूक्ष्मामुपाधास्यदधी श्वर: ॥

    ११॥

    ते--वे; च--तथा; औत्सुक्य--उत्सुकता से पूर्ण; धिय:--उनके मन; राजन्‌--हे राजा परीक्षित; मत्वा--सोचकर; गोपा: --ग्वाले; तमू--उस; ईश्वरम्‌--ईश्वर को; अपि--शायद; न:--हमको; स्व-गतिम्‌ू--अपने धाम; सूक्ष्माम्‌-दिव्य; उपाधास्यत्‌ --प्रदान करने वाले हैं; अधी श्वरः --परम नियन्ता

    वरुण के साथ कृष्ण की लीला को सुनकर ग्वालों ने विचार किया कि कृष्ण अवश्यही भगवान्‌ हैं।

    हे राजनू, उनके मन उत्सुकता से भर गये।

    उन्होंने सोचा, 'क्या भगवान्‌ हम सबोंको भी अपना दिव्य धाम प्रदान करेंगे ?

    इति स्वानां स भगवान्विज्ञायाखिलहक्स्वयम्‌ ।

    सड्जूल्पसिद्धये तेषां कृपयैतद्चिन्तयत्‌ ॥

    १२॥

    इति--ऐसा; स्वानामू--अपने भक्तों का; सः--वह; भगवान्‌-- भगवान्‌; विज्ञाय--समझकर; अखिल-हक्‌--हर वस्तु कोदेखने वाला; स्वयम्‌-स्वयं; सट्डल्प--कल्पित इच्छा की; सिद्धये--अनुभूति के लिए; तेषामू--उनकी; कृपया--कृपापूर्वक;एतत्‌--यह; अचिन्तयत्‌--सोचा |

    सर्वदर्शी होने के कारण भगवान्‌ कृष्ण स्वतः समझ गये कि ग्वाले क्या अभिलाषा कर रहेहैं।

    उनकी इच्छाओं को पूरा करके उनपर कृपा प्रदर्शित करने के लिए भगवान्‌ ने इस प्रकारसोचा।

    जनो वै लोक एतस्मिन्नविद्याकामकर्मभि: ।

    उच्चावचासु गतिषु न वेद स्वां गतिं भ्रमन्‌ ॥

    १३॥

    जनः--लोक; बै--निश्चय ही; लोके--जगत में; एतस्मिन्‌ू--इस; अविद्या--ज्ञानविहीन; काम--इच्छाओं के कारण;कर्मभि: --कार्यों से; उच्च-- श्रेष्ठ, अवचासु--तथा निम्न; गतिषु--लक्ष्यों के बीच; न वेद--नहीं पहचानता; स्वाम्‌--निजी;गतिमू--लक्ष्य; भ्रमन्‌-घूमते हुए

    भगवान्‌ कृष्ण ने सोचा निश्चय ही इस जगत में लोग ऊँचे तथा नीचे गन्तव्यों के बीचभटक रहे हैं, जिन्हें वे अपनी इच्छाओं के अनुसार तथा पूरी जानकारी के बिना किये गये कर्मोंके माध्यम से प्राप्त करते हैं।

    इस तरह लोग अपने असली गन्तव्य को नहीं जान पाते।

    इति सद्ञिन्त्य भगवान्महाकारुणिको हरिः ।

    दर्शयामास लोकं स्वं गोपानां तमसः परम्‌ ॥

    १४॥

    इति--इन शब्दों में; सश्चिन्य--अपने आप सोच कर; भगवान्‌-- भगवान्‌; महा-कारुणिक: --अ त्यन्त कृपालु; हरि: -- भगवान्‌हरि ने; दर्शयाम्‌ आस--दिखलाया; लोकम्‌--लोक, वैकुण्ठ; स्वम्‌--अपना; गोपानाम्‌-ग्वालों को; तमस:-- भौतिकअंधकार से; परम्‌-परे।

    इस प्रकार परिस्थिति पर गम्भीरतापूर्वक विचार करते हुए परम दयालु भगवान्‌ हरि ने ग्वालोंको अपना धाम दिखलाया जो भौतिक अंधकार से परे है।

    सत्य॑ ज्ञानमनन्तं यद्वह्मज्योति: सनातनम्‌ ।

    यद्द्धि पश्यन्ति मुनयो गुणापाये समाहिता: ॥

    १५॥

    सत्यमू--अनश्वर; ज्ञानमू--ज्ञान; अनन्तम्‌ू-- अनन्त; यत्‌--जो; ब्रह्म--ब्रह्म का; ज्योति:--तेज; सनातनम्‌--नित्य; यत्‌--जो;हि--निस्सन्देह; पश्यन्ति--देखते हैं; मुन॒यः--मुनिगण; गुण-- भौतिक प्रकृति के गुण; अपाये--शमित होने पर; समाहिता:--समाधि में लीन।

    भगवान्‌ कृष्ण ने अनश्वर आध्यात्मिक तेज प्रकट किया जो असीम, चेतन तथा नित्य है।

    मुनिजन उस आध्यात्मिक जीव को समाधि में देखते हैं जब उनकी चेतना भौतिक प्रकृति केगुणों से मुक्त रहती है।

    लोक था।

    ते तु ब्रह्महदम्नीता मग्ना: कृष्णेन चोद्धृता: ।

    दहशुर्ब्रह्मणो लोकं यत्राक्रूरोध्यगात्पुरा ॥

    १६॥

    ते--वे; तु--तथा; ब्रह्म-हदम्‌--ब्रह्महद नामक सरोवर में; नीता: --लाये गये; मग्ना:--डुबाये गये; कृष्णेन--कृष्ण द्वारा;च--तथा; उद्धृता: --ऊपर निकाले गये; दहशु:--देखा; ब्रह्मण: --परब्रह्म का; लोकम्‌--दिव्य लोक; यत्र--जहाँ; अक्रूर:--अक्रूर ने; अध्यगात्‌--देखा था; पुरा--इसके पूर्व

    भगवान्‌ कृष्ण सारे ग्वालों को ब्रह्महद ले आये, उनसे जल के भीतर डुबकी लगवाई औरफिर ऊपर निकाल लिया।

    जिस महत्त्वपूर्ण स्थान से अक्रूर ने वैकुण्ठ को देखा था, वहीं इनग्वालों ने भी परम सत्य के लोक को देखा।

    नन्दादयस्तु त॑ दृष्ठा परमानन्दनिवृता: ।

    कृष्णं च तत्र च्छन्दोभि: स्तूयमानं सुविस्मिता: ॥

    १७॥

    नन्द-आदय:--नन्द महाराज तथा अन्य ग्वाले; तु--तथा; तम्--उसको; हृष्ठा--देखकर; परम--परम; आनन्द--आनन्‍द द्वारा;निवृता:--प्रसन्नता से अभिभूत; कृष्णम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण को; च--तथा; तत्र--वहाँ; छन्दोभि:--वैदिक स्तोत्रों से;स्तूयमानम्‌-स्तुति किये जाते हुए; सु--अत्यधिक; विस्मिता:--चकित |

    जब नन्द महाराज तथा अन्य ग्वालों ने वह दिव्य धाम देखा तो उन्हें परम सुख की अनुभूतिहुई।

    वे स्वयं कृष्ण को साक्षात्‌ वेदों से घिरे एवं उनके द्वारा स्तुति किये जाते देखकर विशेष रूपसे चकित थे।

    TO

    अध्याय उनतीसवाँ: कृष्ण और गोपियाँ रास नृत्य के लिए मिलते हैं

    10.29श्रीबादरायणिरुवाचभगवानपि ता रात्री: शारदोत्फुल्लमल्लिका: ।

    वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाअ्रित: ॥

    १॥

    श्री-बादरायणि: उवाच-- श्रील बादरायण व्यासदेव के पुत्र श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; भगवान्‌--कृष्ण; अपि--यद्यपि;ताः--वे; रात्री:--रातें; शारद--शरदकालीन; उत्फुल्ल--खिले; मल्लिका: -- चमेली के फूल; वीक्ष्य--देखकर; रन्तुम्‌--प्रेमका आनन्द लेने के लिए; मन: चक्रे--मन में निश्चय किया; योगमायाम्‌--असम्भव को सम्भव बनाने वाली उनकी आध्यात्मिकशक्ति का; उपाश्रित:--सहारा लेकर।

    श्रीबादरायणि ने कहा : श्रीकृष्ण समस्त ऐश्वर्यों से पूर्ण भगवान्‌ हैं फिर भी खिलते हुएचमेली के फूलों से महकती उन शरदकालीन रातों को देखकर उन्होंने अपने मन को प्रेम-व्यापारकी ओर मोड़ा।

    अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने अपनी अन्तरंगा शक्ति का उपयोग किया।

    तदोड़ुराज: ककुभः करैर्मुखंप्राच्या विलिम्पन्नरुणेन शन्तमैः ।

    स चर्षणीनामुदगाच्छुचो मृजन्‌प्रियः प्रियाया इव दीर्घदर्शन: ॥

    २॥

    तदा--उस समय; उडु-राज:--तारों का राजा, चन्द्रमा; ककुभ:--क्षितिज का; करैः--अपने ' हाथों ' ( किरणों ) से; मुखम्‌--मुखमण्डल; प्राच्या:--पश्चिमी; विलिम्पन्‌--रंजित करते हुए; अरुणेन--लाल रंग से; शम्‌-तमैः--अत्यन्त आराम पहुँचानेवाली ( किरणों ) से; सः--वह; चर्षणीनाम्‌--देखने वालों के; उदगात्‌--उदय हुआ; शुच्च: --दुख; मृजन्‌--मिटाते हुए;प्रियः--प्रिय पति; प्रियाया:-- अपनी प्रियतमा पत्नी का; इब--सहृश; दीर्घ--काफी देर बाद; दर्शन:--फिर से देखे जाने पर।

    तब चन्द्रमा अपनी लाल रंग की सुखदायी किरणों से पश्चिमी क्षितिज को रंजित करते हुएउदय हुआ और इस तरह उसने उदय होते देखने वालों की पीड़ा दूर कर दी।

    यह चन्द्रमा उस प्रियपति के समान था, जो दीर्घकालीन अनुपस्थिति के बाद घर लौटता है और अपनी प्रियतमा पत्नीके मुखमण्डल को लाल कुंकुम से सँवारता है।

    इृष्ठा कुमुद्वत्तमखण्डमण्डलंरमाननाभं नवकुड्डू मारुणम्‌ ।

    वनं च तत्कोमलगोभी रक्ञितंजगौ कल वामहृशां मनोहरम्‌ ॥

    ३॥

    इृष्टा--देखकर; कमुत्‌-वन्तम्‌--रात्रि में खिलने वाले कुमुद फूलों को खोलता हुआ; अखण्ड--अटूट; मण्डलम्‌--मुख कागोला; रमा--लक्ष्मी के; आनन--मुखमण्डल ( सहश ); आभम्‌--जिसका प्रकाश; नव--नया; कुड्ढु म-सिंदूर से;अरुणम्‌--लाल हुआ; वनम्‌--वन को; च--तथा; तत्‌ू--उस चन्द्रमा का; कोमल--सुकुमार; गोभि:--किरणों से; रक्चितम्‌--रँगा हुआ; जगौ--वंशी बजाई; कलम्‌--सुरीली; वाम-दहृशाम्‌--मोहक नेत्रों वाली तरुणियों के लिए; मनः-हरम्‌--मुग्ध करनेबाली

    भगवान्‌ कृष्ण ने नवलेपित सिंदूर के लाल तेज से चमकते पूर्ण चन्द्रमा के अविच्छिन्नमण्डल को देखा।

    ऐसा लग रहा था मानो लक्ष्मीजी का मुखमण्डल हो।

    उन्होंने चन्द्रमा कीउपस्थिति से खिलने वाले कुमुदों को तथा उसकी किरणों से मन्द मन्द प्रकाशित जंगल को भीदेखा।

    इस तरह भगवान्‌ ने अपनी वंशी पर सुन्दर नेत्रों वाली गोपियों के मन को आकृष्ट करनेवाली मधुर तान छेड़ दी।

    निशम्य गीतां तदनडुवर्धनब्रजस्त्रिय: कृष्णगृहीतमानसा: ।

    आजम्मुरन्योन्यमलक्षितोद्यमा:स यत्र कान्तो जवलोलकुण्डला: ॥

    ४॥

    निशम्य--सुनकर; गीतम्‌--संगीत; तत्‌--वह; अनड्र--कामदेव को; वर्धनम्‌--प्रबल करने वाला; ब्रज-स्त्रियः--व्रज कीयुवतियाँ; कृष्ण--कृष्ण द्वारा; गृहीत--जकड़ी; मानसा:--मन वाली; आजमग्मु: --गईं; अन्योन्यम्‌--एक-दूसरे से; अलक्षित--अनदेखी; उद्यमा:--आगे बढ़ती; सः--वह; यत्र--जहाँ; कान्तः--उनका बाल-सखा; जव--जल्दी के कारण; लोल--हिलतेहुए; कुण्डला:--कान के कुण्डल।

    जब वृन्दावन की युवतियों ने कृष्ण की बाँसुरी का संगीत सुना जो प्रेम-भावनाओं कोउत्तेजित करता है, तो उनके मन भगवान्‌ द्वारा वशीभूत कर लिये गये।

    वे वहीं चली गईं जहाँउनका प्रियतम बाट जोह रहा था।

    वे एक-दूसरे की अनदेखी करके इतनी तेजी से आगे बढ़ रहीथीं कि उनके कान की बालियाँ आगे-पीछे हिल-डुल रही थीं।

    दुहन्त्योडभिययु: काश्िद्दोहं हित्वा समुत्सुका: ।

    'पयोडधिश्रित्य संयावमनुद्वास्यथापरा ययु: ॥

    ५॥

    दुहन्त्यः--दुहने के बीच में ही; अभिययु:--चली गईं; काश्चित्‌--उनमें से कुछ; दोहम्‌--दुहना; हित्वा--त्यागकर;समुत्सुका: --अत्यधिक उत्सुक; पय: --दूध; अधिशभ्रित्य--चूल्हे पर रखकर; संयावम्‌--आटे की बनी रोटियों ( हलवा );अनुद्वास्य--चूल्हे से उतारे बिना; अपरा:--अन्य; ययु:--चली गईं।

    कुछ गोपियाँ दूध दुह रही थीं जब उन्होंने कृष्ण की बाँसुरी सुनी।

    उन्होंने दुहना बन्द करदिया और वे कृष्ण से मिलने चली गईं।

    कुछ ने चूल्हे पर दूध को उबलते छोड़ दिया और कई नेचूल्हें में रोटियों को सिकते हुए छोड़ दिया।

    परिवेषयन्त्यस्तद्ध्ित्वा पाययन्त्य: शिशून्पयः ।

    शुश्रूषन्त्यः पतीन्काश्चिदश्नन्त्योडपास्थ भोजनम्‌ ॥

    ६॥

    लिम्पन्त्य: प्रमृजन्त्योउन्या अज्जन्त्य: काश्व लोचने ।

    व्यत्यस्तवस्त्रा भरणा: काश्ित्कृष्णान्तिकं ययु: ॥

    ७॥

    परिवेषयन्त्य: --वस्त्र पहने; तत्‌ू--उसे; हित्वा--एक ओर रखकर; पाययन्त्य:--पिलाती हुई; शिशून्‌-- अपने शिशुओं को;'पय:--दूध; शुश्रूषन्त्य:--सेवा करती हुई; पतीन्‌ू--अपने पतियों की; काश्चित्‌ू--उनमें से कुछ; अशनन्त्य:--खाती हुई;अपास्थ--छोड़कर; भोजनम्‌--अपने अपने भोजन; लिम्पन्त्य:--अंगराग लगाये; प्रमृजन्त्य:--तेल लगाती; अन्या: --अन्य;अज्जञन्त्यः--कजल लगाती; काश्च-- कुछ; लोचने-- अपनी आँखों में; व्यत्यस्त-- अस्त-व्यस्त; वस्त्र--कपड़े; आभरणा:--तथा गहने; काश्चित्‌--उनमें से कुछ; कृष्ण-अन्तिकम्‌--कृष्ण के निकट तक; ययु:--गईं |

    उनमें से कुछ वस्त्र पहन रही थीं, कुछ अपने बच्चों को दूध पिला रही थीं या अपने पतियोंकी सेवा में लगी थीं किन्तु सबों ने अपने-अपने कार्य छोड़ दिये और वे कृष्ण से मिलने चलीगईं।

    कुछ गोपियाँ शाम का भोजन कर रही थीं, कुछ नहा-धोकर शरीर में अंगराग या अपनीआँखों में कजजल लगा रही थीं।

    किन्तु सबों ने तुरन्त अपने अपने कार्य बन्द कर दिये और यद्यपिउनके वस्त्र तथा गहने अस्त-व्यस्त थे वे कृष्ण के पास दौड़ी गईं।

    ता वार्यमाणा: पतिभि: पितृभिर्श्नातृबन्धुभि: ।

    गोविन्दापहतात्मानो न न्यवर्तन्त मोहिता: ॥

    ८॥

    ताः--वे; वार्यमाणा: --रोके जाने पर; पतिभि:--अपने पतियों द्वारा; पितृभि: --अपने पिताओं द्वारा; भ्रातृ-- भाई; बन्धुभि: --तथा अन्य सम्बन्धियों द्वारा; गोविन्द--कृष्ण द्वारा; अपहत--चुराई गई; आत्मान:--स्वयं से; न न्यवर्तन्त--वापस नहीं आईं;मोहिता:--मोहित

    उनके पतियों, पिताओं, भाइयों तथा अन्य सम्बन्धियों ने उन्हें रोकने का प्रयत्न किया किन्तुकृष्ण उनके हृदयों को पहले ही चुरा चुके थे।

    उनकी बाँसुरी की ध्वनि से मोहित होकर उन्होंनेलौटने से इनकार कर दिया।

    अन्तर्गृहगता: काश्चिद्गोप्योडलब्धविनिर्गमा: ।

    कृष्णं तद्धावनायुक्ता दध्युमीलितलोचना: ॥

    ९॥

    अन्तः-गृह--अपने घरों के भीतर; गता:--उपस्थित; काश्चित्‌ू--कुछ; गोप्य:--गोपियाँ; अलब्ध--न प्राप्त करके;विनिर्गमा: --रास्ता; कृष्णम्‌-- श्रीकृष्ण पर; तत्‌ू-भावना--उनके प्रति भावात्मक प्रेम से; युक्ता:--युक्त; दध्यु;--ध्यान किया;मीलित--बन्द किये; लोचनाः--अपनी आँखें ।

    किन्तु कुछ गोपियाँ अपने घरों से बाहर न निकल पाईं अतः वे अपनी आँखें बन्द किये शुद्ध दुःसहप्रेष्ठविरहतीब्रतापधुताशुभा: ।

    ध्यानप्राप्ताच्युताश्लेषनिर्व॒त्या क्षीणमड्रला: ॥

    १०॥

    तमेव परमात्मानं जारबुद्धय्ापि सड़ताः ।

    जहुर्गुणमयं देहं सद्यः प्रशक्षीणबन्धना: ॥

    ११॥

    दुःसह--असह्ढा; प्रेष्ट--अपने प्रिय से; विरह--वियोग से; तीब्न--तीक्षण; ताप--जलन से; धुत--दूर हो गये; अशुभा:--उनकेहृदयों की सारी अशुभ बातें; ध्यान--ध्यान से; प्राप्त--प्राप्त किया हुआ; अच्युत--अच्युत भगवान्‌ श्रीकृष्ण के; आश्लेष--चुम्बन से उत्पन्न; निर्व॒त्या--हर्ष से; क्षीण--अत्यन्त दुर्बल; मड़ला:--उनके शुभ कर्मफल; तम्‌--उस; एव-- भले ही; परम-आत्मानम्‌-परमात्मा को; जार--उपपति; बुद्धब्या--सोचते हुए; अपि--तो भी; सड्भता:--प्रत्यक्ष संगति पाकर; जहुः--त्यागदिया; गुण-मयम्‌-प्रकृति के गुणों से निर्मित; देहम्‌ू--उनके शरीर को; सद्यः--तुरन्त; प्रक्षीण--पूरी तरह शिथिल कर दिया;बन्धना:--कर्म के बन्धनों को |

    जो गोपियाँ कृष्ण का दर्शन करने नहीं जा सकीं, उनके लिए अपने प्रियतम से असहाविछोह तीब्र वेदना उत्पन्न करने लगा, जिसने उनके सारे अशुभ कर्मो को भस्म कर डाला।

    उनकाध्यान करने से गोपियों को उनके आलिंगन की अनुभूति हुई और तब उन्हें जो आनन्द अनुभवहुआ उसने उनकी भौतिक धर्मनिष्ठा को समाप्त कर दिया।

    यद्यपि भगवान्‌ कृष्ण परमात्मा हैंकिन्तु इन युवतियों ने उन्हें अपना प्रेमी ही समझा और उसी घनिष्ठ रस में उनका संसर्ग प्राप्तकिया।

    इस तरह उनके कर्म-बन्धन नष्ट हो गये और उन्होंने अपने स्थूल भौतिक शरीरों को त्यागदिया।

    श्रीपरीक्षिदुवाचकृष्णं विदुः परं कान्‍्तं न तु ब्रह्मतया मुने ।

    गुणप्रवाहोपरमस्तासां गुणधियां कथम्‌ ॥

    १२॥

    श्री-परीक्षित्‌ उबाच-- श्री परीक्षित ने कहा; कृष्णम्‌--कृष्ण को; विदु:--वे जानती थीं; परम्‌--एकमात्र; कान्तम्‌-- अपने प्रेमीके रूप में; न--नहीं; तु--लेकिन; ब्रह्मतया-- परम सत्य के रूप में; मुने--हे मुनि, शुकदेव; गुण--तीनों गुणों की; प्रवाह--प्रबल धारा का; उपरम:--रुक जाना; तासाम्‌ू--उनके लिए; गुण-धियाम्‌--इन गुणों के वशीभूत बुद्धि है जिनकी; कथम्‌--कैसे।

    श्रीपरीक्षित महाराज ने कहा : 'हे मुनिवर, गोपियाँ कृष्ण को केवल अपना प्रेमी मानतीथीं, परम पूर्ण सत्य के रूप में नहीं मानती थीं।

    तो फिर ये युवतियाँ जिनके मन प्रकृति के गुणोंकी लहरों में बह रहे थे, किस तरह से अपने आपको भौतिक आसक्ति से छुड़ा पाईं ?

    श्रीशुक उबाचउक्त पुरस्तादेतत्ते चैद्यः सिद्धि यथा गतः ।

    द्विषन्नपि हषीकेशं किमुताधोक्षजप्रिया: ॥

    १३॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; उक्तम्‌--कहा गया; पुरस्तात्‌--इसके पूर्व; एतत्‌--यह; ते--तुमसे; चैद्य :--चेदि नरेश शिशुपाल; सिद्द्धिमू--सिद्धि, पूर्णता; यथा--जिस तरह; गत:--प्राप्त हुआ; द्विषन्‌ू--द्वेष रखने के कारण; अपि--भी; हषीकेशम्‌-- भगवान्‌ हषीकेश को; किम्‌ उत--तो फिर क्या कहा जा सकता है; अधोक्षज-- भगवान्‌ के, जो सामान्यइन्द्रियों की परिधि से बाहर रहते हैं; प्रियाः:--प्रिय भक्तों का।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : यह विषय आपको पहले बताया जा चुका था।

    चूँकि कृष्ण से घृणा करने वाला शिशुपाल तक सिद्धि प्राप्त कर सका तो फिर भगवान्‌ के प्रिय भक्तों के विषयमें कहना ही क्‍या है?

    नृणां निः श्रेयसार्थाय व्यक्तिर्भगवतो नृप ।

    अव्ययस्थाप्रमेयस्य निर्गुणस्य गुणात्मन: ॥

    १४॥

    नृणाम्‌ू--मनुष्यता के लिए; नि: श्रेयस-- सर्वोच्च लाभ; अर्थाय--के हेतु; व्यक्ति:--साकार रूप; भगवतः--भगवान्‌; नृप--हेराजन; अव्ययस्य--अव्यय का; अप्रमेयस्थ--मापविहीन; निर्गुणस्थ--गुणों के स्पर्श से दूर; गुण-आत्मन:--गुणों के नियन्ता।

    हे राजनू, भगवान्‌ अव्यय तथा अप्रमेय हैं और भौतिक गुणों से अछूते हैं क्योंकि वे इन गुणोंके नियन्ता हैं।

    इस जगत में साकार रूप में उनका आविर्भाव मानवता को सर्वोच्च लाभ दिलानेके निमित्त होता है।

    काम क्रोधं भयं स्नेहमैक्यं सौहदमेव च ।

    नित्यं हरौ विदधतो यान्ति तन्मयतां हि ते ॥

    १५॥

    कामम्‌ू--कामवासना; क्रोधम्‌-क्रो ध; भयम्‌-- भय; स्नेहम्‌--स्नेह; ऐक्यम्‌ू--एकता; सौहदम्‌--मित्रता; एव च-- भी;नित्यमू--सदैव; हरौ-- भगवान्‌ हरि के प्रति; विदधत:--प्रकट करते हुए; यान्ति--प्राप्त करते हैं; तत्‌ू-मयताम्‌--तल्लीनता;हि--निस्सन्देह; ते--ऐसे व्यक्ति।

    जो व्यक्ति अपने काम, क्रोध, भय, रक्षात्मक स्नेह, निर्विशेष एकत्व का भाव या मित्रता कोसदैव भगवान्‌ हरि में लगाते हैं, वे निश्चित रूप से उनके भावों में तल्‍लीन हो जाते हैं।

    न चैवं विस्मय: कार्यो भवता भगवत्यजे ।

    योगेश्वरेश्वेर कृष्णे यत एतद्विमुच्यते ॥

    १६॥

    न च--न तो; एवम्‌--इस प्रकार का; विस्मय:--आश्चर्य; कार्य: --किया जाना चाहिए; भवता--आपके द्वारा; भगवति--भगवान्‌; अजे--अजन्मा; योग-ईश्वर--योग के स्वामियों के; ईश्वेर--परम स्वामी; कृष्णे--कृष्ण के विषय में; यत:--जिनसे;एतत्‌--यह ( संसार ); विमुच्यते--मुक्ति प्राप्त करता है आपको योगेश्वरों के अजन्मा

    ई श्वर पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ कृष्ण के विषय में इस तरहचकित नहीं होना चाहिए।

    अन्ततः भगवान्‌ ही इस जगत का उद्धार करने वाले हैं।

    ता इृष्ठटान्तिकमायाता भगवान्त्रजयोषित: ।

    अवदद्वदतां श्रेष्ठो वाचः पेशै्विमोहयन्‌ ॥

    १७॥

    ताः--उनको; हृष्टा--देखकर; अन्तिकम्‌--निकट; आयाता:--आया हुआ; भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; ब्रज-योषित:--व्रज कीबालाएँ; अवदत्‌--कहा; वदताम्‌--वक्ताओं में; श्रेष्ठ: -- श्रेष्ठ वाच:--वाणी के; पेशै:--अलंकरणों से युक्त; विमोहयन्‌--मोहित करने वाली

    यह देखकर कि ब्रज-बालाएँ आ चुकी हैं, वक्ताओं में श्रेष्ठ भगवान्‌ कृष्ण ने उनके मन कोमोहित करने वाले आकर्षक शब्दों से उनका स्वागत किया।

    श्रीभगवानुवाचस्वागतं वो महाभागा: प्रियं कि करवाणि व: ।

    ब्रजस्यानामयं कच्चिट्वूतागमनकारणम्‌ ॥

    १८॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; सु-आगतम्‌--स्वागत है; व: --तुम लोगों का; महा-भागा:--ओरे भाग्यशालिनियो;प्रियम्‌ू-- अच्छा लगने वाला; किमू--क्या; करवाणि--कर सकता हूँ; वः--तुम लोगों के लिए; ब्रजस्थ--व्रज की;अनामयम्‌--कुशल-मंगल; कच्चित्‌--क्या; ब्रूत--कहिये; आगमन--अपने आने का; कारणम्‌--कारण |

    भगवान्‌ कृष्ण ने कहा : हे अति भाग्यवंती नारीगण, तुम्हारा स्वागत है।

    मैं तुम लोगों कीप्रसन्नता के लिए क्या कर सकता हूँ? ब्रज में सब कुशल-मंगल तो है? तुम लोग अपने यहाँआने का कारण मुझे बतलाओ।

    रजन्येषा घोररूपा घोरसत्त्वनिषेविता ।

    प्रतियात ब्र॒जं नेह स्थेयं स्त्रीभि: सुमध्यमा: ॥

    १९॥

    रजनी--रात; एषा--यह; घोर-रूपा--देखने में भयानक; घोर-सत्त्व-- भयानक प्राणियों से; निषेविता--बसी हुई; प्रतियात--लौट जाओ; ब्रजम्‌--ब्रज ग्राम को; न--नहीं; इह--यहाँ; स्थेयम्‌--रुकना चाहिए; स्त्रीभि:--स्त्रियों के लिए; सु-मध्यमा:--क्षीण कटि वाली |

    यह रात अत्यन्त भयावनी है और भयावने प्राणी इधर उधर फिर कर रहे हैं।

    हे पतली कमरवाली स्त्रियो, ब्रज लौट जाओ।

    स्त्रियों के लिए यह उपयुक्त स्थान नहीं है।

    मातरः पितरः पुत्रा भ्रातरः पतयश्च व: ।

    विचिन्वन्ति ह्पश्यन्तो मा कृढ्वं बन्धुसाध्वसम्‌ ॥

    २०॥

    मातरः--माता; पितर:--पिता; पुत्रा:--पुत्र; भ्रातर:-- भाई; पतय:-- पति; च--तथा; व: --तुम्हारे; विन्चिन्वन्ति--खोज रहे हैं;हि--निश्चय ही; अपश्यन्त:--न देखकर; मा कृढ्वम्‌--मत उत्पन्न करो; बन्धु--अपने परिवार वालों के लिए; साध्वसम्‌--चिन्ता

    तुम्हारी माताएँ, पिता, पुत्र, भाई तथा पति तुम्हें घर पर न पाकर निश्चित रूप से तुम्हें ढूँढ़ रहेहोंगे।

    अपने परिवार वालों के लिए चिन्ता मत उत्पन्न करो।

    इृष्टे बन कुसुमितं राकेशकररझ्लितम्‌ ।

    यमुनानिललीलैजत्तरुपललवशोभितम्‌ ॥

    २१॥

    तद्यात मा चिरं गोष्ठ शुश्रूषध्वं पतीन्सतीः ।

    क्रन्दन्ति वत्सा बालाश्न तान्पाययत दुह्मत ॥

    २२॥

    इृष्टमू--देख लिया; वनम्‌--जंगल; कुसुमितम्‌--पुष्पित; राका-ईश--पूर्णमासी के अधिष्ठाता देव, चन्द्रमा के; कर--हाथ से;रक्ितम्‌--रँगा गया; यमुना--यमुना नदी से निकलते हुए; अनिल--वायु से; लीला--खेल-खेल में; एजत्‌--हिलते-डुलते;तरु--वृक्षों की; पललव--पत्तियों से; शोभितम्‌--शोभायमान; तत्‌--अत:; यात--वापस चली जाओ; मा चिरम्‌--देर लगायेबिना; गोष्ठम्‌--गाँव को; शुश्रूषध्वम्‌--जाकर सेवा करो; पतीन्‌--अपने पतियों की; सती:--हे सतियो; क्रन्दन्ति--रो रहे हैं;वत्सा:--बछड़े; बाला: --बच्चे; च--तथा; तान्‌ू--उनको; पाययत--अपना दूध पिलाओ; दुह्मत--गाय का दूध पिलाओ।

    अब तुम लोगों ने फूलों से भरे तथा पूर्ण चन्द्रमा की चाँदनी से सुशोभित इस वृन्दावन जंगलको देख लिया।

    तुम लोगों ने यमुना से आने वाली मन्द मन्द वायु से हिलते पत्तों वाले वृक्षों कासौन्दर्य देख लिया।

    अतः अब अपने गाँव वापस चली जाओ।

    देर मत करो।

    हे सती स्त्रियो,जाकर अपने पतियों की सेवा करो और क्रन्दन करते बच्चों तथा बछड़ों को दूध दो।

    अथ वा मदभिस्नेहाद्धवत्यो यन्त्रिताशया: ।

    आगता ह्युपपन्न॑ व: प्रीयन्ते मयि जन्तवः ॥

    २३॥

    अथ वा--या कि; मत्‌-अभिस्नेहात्‌--मेरे लिए प्रेम के कारण; भवत्य:--तुम्हारे; यन्त्रित-- अधीन हुआ; अशया:--हृदय;आगता:--आई हुई; हि--निस्सन्देह; उपपन्नम्‌ू--उपयुक्त; व:ः--तुम लोगों के लिए; प्रीयन्ते--स्नेह करते हैं; मयि--मुझसे;जन्तव:--समस्त जीव

    अथवा तुम लोग कदाचित्‌ मेरे प्रति अगाध प्रेम के कारण यहाँ आई हो क्योंकि इस प्रेम नेतुम्हारे हृदयों को जीत लिया है।

    यह सचमुच ही सराहनीय है क्योंकि सारे जीव मुझसे सहज भावसे स्नेह करते हैं।

    भर्तु: शुश्रूषणं स््रीणां परो धर्मो ह्मायया ।

    तद्ठन्धूनां च कल्याण: प्रजानां चानुपोषणम्‌ ॥

    २४॥

    भर्तुः--पति की; शुश्रूषणम्‌--निष्ठापूर्ण सेवा; स्त्रीणाम्‌--स्त्रियों के लिए; पर:--परम; धर्म:--कर्तव्य; हि--निस्सन्देह;अमायया--बिना द्वैत के; तत्‌-बन्धूनामू--अपने पतियों के सम्बन्धियों के प्रति; च--तथा; कल्याण:--शुभ कृत्य; प्रजानाम्‌ू--सन्‍्तानों की; च--तथा; अनुपोषणम्‌--देखरेख, पालनपोषण |

    स्त्री का परम धर्म है कि वह निष्ठापूर्वक अपने पति की सेवा करे, अपने पति के परिवार केप्रति अच्छा व्यवहार करे तथा अपने बच्चों की ठीक देखरेख करे।

    दुःशीलो दुर्भगो वृद्धो जडो रोग्यधनोपि वा ।

    पतिः स्त्रीभिर्न हातव्यो लोकेप्सुभिरषातकी ॥

    २५॥

    दुःशीलः-- भ्रष्ट चरित्र वाला; दुर्भप:--अभागा; वृद्धः--बूढ़ा; जड:--मन्द; रोगी--बीमार; अधन: --गरीब; अपि वा--तो भी;'पतिः--पति; स्त्रीभि:--स्त्रियों द्वारा; न हातव्य:--परित्याग नहीं करना चाहिए; लोक--अगले जीवन में उत्तम स्थान;ईप्सुभि:--चाहने वाली; अपातकी--( यदि ) पतित न हो |

    जो स्त्रियाँ अगले जीवन में उत्तम लोक प्राप्त करना चाहती हैं उन्हें चाहिए कि उस पति काकभी परित्याग न करें जो अपने धार्मिक स्तर से नीचे न गिरा हो चाहे वह दुश्चरित्र, अभागा,वृद्ध, अज्ञानी, बीमार या निर्धन क्यों न हो।

    अस्वर्ग्यमयशस्यं च फल्गु कृच्छुं भयावहम्‌ ।

    जुगुप्सितं च सर्वत्र ह्यौपपत्यं कुलस्त्रियः ॥

    २६॥

    अस्वर्ग्यमू-स्वर्ग को न ले जाने वाला; अयशस्यम्‌--अच्छी ख्याति के लिए अनुपयुक्त; च--तथा; फल्गु--नगण्य; कृच्छुम्‌--कठिन; भय-आवहम्‌-- भय उत्पन्न करने वाला; जुगुप्सितम्‌--निन्दनीय; च--तथा; सर्वत्र--सभी तरह से; हि--निस्सन्देह;औपपत्यम्‌्-परपति के साथ सम्बन्ध, व्यभिचार; कुल-स्त्रियः:--अच्छे कुल की अर्थात्‌ कुलीन स्त्री के लिए

    कुलीन स्त्री के लिए क्षुद्र व्यभिचार सदा ही निन्दनीय हैं, इनसे स्वर्ग जाने में बाधा पहुँचतीहै, उसकी ख्याति नष्ट होती है और ये उसके लिए कठिनाई तथा भय उत्पन्न करनेवाले होते हैं।

    श्रवणाइर्शनाद््ध्ञानान्‍्मयि भावो<नुकीर्तनात्‌ ।

    न तथा सन्निकर्षेण प्रतियात ततो गृहान्‌ ॥

    २७॥

    श्रवणात्‌--( मेरे यश का ) श्रवण करने से; दर्शनात्‌--( मन्दिर में मेरे अर्चाविग्रह का ) दर्शन करने से; ध्यानात्‌-- ध्यान करनेसे; मयि--मुझमें, मेरे लिए; भाव:--प्रेम; अनुकीर्तनात्‌ू--बाद में कीर्तन करने से; न--नहीं; तथा--उसी प्रकार से;सन्निकर्षण--शारीरिक सामीप्य से; प्रतियात--लौट जाओ; तत:ः--अतः; गृहान्‌--अपने अपने घरों को |

    मेरे विषय में सुनने, मेरे अर्चाविग्रह रूप का दर्शन करने, मेरा ध्यान करने तथा मेरी महिमाका श्रद्धापूर्वक कीर्तन करने की भक्तिमयी विधियों से मेरे प्रति दिव्य प्रेम उत्पन्न होता है।

    केवलशारीरिक सात्रिध्य से वैसा ही फल प्राप्त नहीं होता।

    अत: तुम लोग अपने घरों को लौट जाओ।

    श्रीशुक उबाचइति विप्रियमाकर्ण्य गोप्यो गोविन्दभाषितम्‌ ।

    विषण्णा भग्नसड्डल्पश्रिन्तामापुर्दुरत्ययाम्‌ ॥

    २८॥

    श्री-शुक: उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; विप्रियम्‌ू--अरूचिकर, अप्रिय; आकर्ण्य--सुनकर; गोप्य:--गोपियों ने; गोविन्द-भाषितम्‌--गोविन्द के वचन; विषण्णा:--अत्यन्त खिन्न; भग्न--उदास; सड्डूल्पा:--प्रबल इच्छाएँ;चिन्तामू--चिन्ता; आपु:--अनुभव किया; दुरत्ययाम्‌--दुर्लघ्य |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : गोविन्द के इन अप्रिय बचनों को सुनकर गोपियाँ खित्न हो उठीं।

    उनकी बड़ी बड़ी आशाएँ ध्वस्त हो गईं और उन्हें दुर्लघ्य चिन्ता होने लगी।

    कृत्वा मुखान्यव शुच: श्वसनेन शुष्यद्‌ -बिम्बाधराणि चरणेन भुव: लिखन्त्य: ।

    अस््रैरुपात्तमसिभि: कुचकुड्जू मानितस्थुर्मृजन्त्य उरुदु:खभरा: सम तूष्णीम्‌ ॥

    २९॥

    कृत्वा--करके; मुखानि--अपने मुखों को; अव--नीचे; शुच्ः --शोक से; श्रसनेन--आहें भरती; शुष्यत्‌--सूखते हुए;बिम्ब--लाल बिम्ब फल रूपी; अधराणि--होठों को; चरणेन--अपने पैरों के अँगूठों से; भुव:ः--पृथ्वी को; लिखन्त्य:--कुरेदते हुए; अस्नैः--आँसुओं से; उपात्त--बहाती हुई; मसिभि:--आँखों के कज्जल से; कुच--स्तनों पर; कुल्डु मानि--सिन्दूर;तस्थु:--निश्चल खड़ी रहीं; मृजन्त्य:--धोते हुए; उरू--अत्यधिक; दुःख--दुख के; भरा:-- भार का अनुभव करती हुईं; स्म--निस्सन्देह; तृष्णीम्‌--चुपचाप

    गोपियाँ अपना सिर झुकाये तथा शोकपूर्ण गहरे श्वास से लाल लाल होंठों को सुखाते हुएअपने पैर के अँगूठे से धरती कुरेदने लगीं।

    उनकी आँखों से आँसू बहने लगे जिन्होंने अपने साथउनके कज्जल को बहाते हुए उनके स्तनों पर लेपित सिन्दूर को धो डाला।

    इस तरह गोपियाँ अपनेदुख के भार को चुपचाप सहन करती हुईं खड़ी रहीं।

    प्रेष्ठ प्रियेतरमिव प्रतिभाषमाणंकृष्णं तदर्थविनिवर्तितसर्वकामा: ।

    नेत्रे विमृज्य रुदितोपहते सम किझ्ञित्‌-संरम्भगद्गदगिरोउब्रुवतानुरक्ता: ॥

    ३०॥

    प्रेष्ठमू-- अपने प्रेमी; प्रिय-इतरम्‌--प्रिया, प्रेमी का उल्टा; इब--मानो; प्रतिभाषमाणम्‌---उन्हें सम्बोधित करते हुए; कृष्णम्‌--कृष्ण को; ततू-अर्थ--उसके लिए; विनिवर्तित--विलग रहकर; सर्व--सभी; कामा:-- भौतिक इच्छाएँ; नेत्रे--अपनी आँखोंको; विमृज्य--पोंछकर; रुदित-- अपना रोना; उपहते--बन्द करके ; स्म--तब; किझ्ञित्‌ू--कुछ; संरम्भ--क्षोभ सहित;गदगद--अवरूद्ध; गिर:ः--वाणी; अब्लुवत--बोलीं; अनुरक्ता:--हढ़ता से लिप्त

    यद्यपि कृष्ण उनके प्रेमी थे और उन्हीं के लिए उन सबों ने अपनी सारी इच्छाएँ त्याग दी थींकिन्तु वे ही उनसे प्रतिकूल होकर बोल रहे थे।

    तो भी वे उनके प्रति उसी तरह अनुरक्त बनी रहीं।

    अपना रोना बन्द करके उन्होंने अपनी आँखें पोंछीं और क्षोभ से युक्त अवरुद्ध वाणी से वे कहनेलगीं।

    श्रीगोष्य ऊचु:मैवं विभोहति भवान्गदितु नृशंसंसन्त्यज्य सर्वविषयांस्तव पादमूलम्‌ ।

    भक्ता भजस्व दुरवग्रह मा त्यजास्मान्‌देवो यथादिपुरुषो भजते मुमुक्षून्‌ ॥

    ३१॥

    श्री-गोप्य: ऊचु:--सुन्दरी गोपियों ने कहा; मा--नहीं; एवम्‌--इस तरह; विभो--हे सर्वशक्तिमान; अर्हति--चाहिए; भवान्‌--आपको; गदितुम्‌--बोलना; नू-शंसम्‌--क्रू रतापूर्वक; सन्त्यज्य--पूर्णतया परित्याग करके; सर्व--समस्त; विषयान्‌--विविधप्रकार की इन्द्रिय तृप्ति; तब--आपके; पाद-मूलम्‌--चरणों को; भक्ता:--पूजने वाली; भजस्व--कृपया बदले में प्रेम करें;दुरवग्रह--ओेरे हठीले; मा त्यज--मत त्यागें; अस्मानू--हमको; देवा:-- भगवान्‌; यथा--जिस तरह; आदि-पुरुष: --आदिभगवान्‌, नारायण; भजते--प्रेम करते हैं; मुमुक्षून्‌--मुक्ति चाहने वालों को |

    सुन्दर गोपिकाओं ने कहा : हे सर्वशक्तिमान, आपको इस निर्दयता से नहीं बोलना चाहिए।

    आप हमें ठुकरायें नहीं।

    हमने आपके चरणकमलों की भक्ति करने के लिए सारे भौतिक भोगोंका परित्याग कर दिया है।

    अरे हठीले, आप हमसे उसी तरह प्रेम करें जिस तरह श्रीनारायणअपने उन भक्तों से प्रेम करते हैं, जो मुक्ति के लिए प्रयास करते हैं।

    यत्पत्यपत्यसुहृदामनुवृत्तिरड़ःस्त्रीणां स्वधर्म इति धर्मविदा त्वयोक्तम्‌ ।

    अस्त्वेबमेतदुपदेशपदे त्वयीशेप्रेष्ठी भवांस्तनुभूतां किल बन्धुरात्मा ॥

    ३२॥

    यत्‌--जो; पति--पतियों की; अपत्य--सन्तानों; सुहदाम्‌--तथा शुभचिन्तक सम्बन्धियों और मित्रों की; अनुवृत्ति:-- अनुगमन;अड्ढड-हे कृष्ण; स्त्रीणाम्‌-स्त्रियों के; स्व-धर्म: --उचित धार्मिक कर्तव्य; इति--इस प्रकार; धर्म-विदा--धर्म को जानने वाले;त्ववा--तुम्हारे द्वारा; उक्तमू--कहा गया; अस्तु--होए; एवम्‌--वैसा ही; एतत्‌--यह; उपदेश--इस उपदेश के; पदे--असलीलक्ष्य; त्वयि--तुममें; ईशे--हे ईश्वर; प्रेष्ठ; --अत्यन्त प्रिय; भवान्‌--आप; तनु-भूताम्‌--समस्त देहधारी जीवों के लिए;किल--निश्चय ही; बन्धु:--निकट सम्बन्धी; आत्मा--साक्षात्‌ आत्मा।

    हे प्रिय कृष्ण, एक धर्मज्ञ की तरह आपने हमें उपदेश दिया है कि स्त्रियों का उचित धर्म हैकि वे अपने पतियों, बच्चों तथा अन्य सम्बन्धियों की निष्ठापूर्वक सेवा करें।

    हम मानती हैं कियह सिद्धान्त वैध है किन्तु वास्तव में यह सेवा तो आपकी की जानी चाहिए हे प्रभु, आप ही तोसमस्त देहधारियों के सर्वप्रिय मित्र हैं।

    असल में आप उनके घनिष्टतम सम्बन्धी तथा उनकीआत्मा हैं।

    कुर्वन्ति हि त्वयि रतिं कुशला: स्व आत्मन्‌नित्यप्रिये पतिसुतादिभिरार्तिदे: किम्‌ ।

    तन्नः प्रसीद परमेश्वर मा सम छिन्द्याआशां धृतां त्वयि चिरादरविन्दनेत्र ॥

    ३३॥

    कुर्वन्ति--दिखलाते हैं; हि--निस्सन्देह; त्ववि--तुम्हारे लिए; रतिमू--आकर्षण; कुशला:--पटु व्यक्ति; स्वे-- अपने हेतु;आत्मनू--आत्मा; नित्य--शा श्वत; प्रिये--प्रिय; पति--अपने पतियों समेत; सुत--पुत्र; आदिभि: --तथा अन्य सम्बन्धियोंसमेत; आर्ति-दैः--कष्ट पहुँचाने वाले; किम्‌ू--क्या; तत्‌ू--अतएव; नः--हम पर; प्रसीद--कृपालु हों; परम-ई श्वर--हे परमनियन्ता; मा सम छिन्द्या:--कृपा करके छिन्न-भिन्न नहीं करें; आशाम्‌--हमारी आशाओं को; धृताम्‌-- धारण की गई; त्वयि--तुम्हारे लिए; चिरात्‌--दीर्घकाल से; अरविन्द-नेत्र--हे कमलनयन।

    सुविज्ञ अध्यात्मवादीजन सदैव आपसे स्नेह करते हैं क्योंकि वे आपको अपनी असलीआत्मा तथा शाश्वत प्रेमी मानते हैं।

    हमें अपने इन पतियों, बच्चों तथा सम्बन्धियों से क्या लाभमिलता है, जो हमें केवल कष्ट देने वाले हैं? अतएवं हे परम नियन्ता, हम पर कृपा करें।

    हेकमलनेत्र, आप अपना सात्निध्य चाहने की हमारी चिर-पोषित अभिलाषा आशा को छिन्न मतकरें।

    चित्तं सुखेन भवतापहतं गृहेषुयन्निर्विशत्युत करावपि गृह्मकृत्ये ।

    पादौ पदं न चलतस्तव पादमूलाद्‌याम: कथं व्रजमथो करवाम कि वा ॥

    ३४॥

    चित्तमू--हमारे मन; सुखेन--आसानी से; भवता--आपके द्वारा; अपहतम्‌--चुराये गये; गृहेषु--घर के कामकाज में; यत्‌--जो; निर्विशति--लीन रहते थे; उत--और भी; करौ--हमारे हाथ; अपि-- भी; गृह्य-कृत्ये--घर के काम में; पादौ--हमारे पैर;'पदम्‌--एक पग; न चलतः--नहीं बढ़ रहे; तब--तुम्हारे; पाद-मूलात्‌ू--चरणों से दूर; याम:--हम जायेंगी; कथम्‌--कैसे;ब्रजमू--त्रज को वापस; अथ उ--तथा फिर; करवाम--हम करेंगी; किमू-- क्या; वा--आगे।

    आज तक हमारे मन गृहकार्यों में लीन थे किन्तु आपने सरलतापूर्वक हमारे मन तथा हमारेहाथों को हमारे गृहकार्य से चुरा लिया है।

    अब हमारे पाँव आपके चरणकमलों से एक पग भीदूर नहीं हटेंगे।

    हम ब्रज वापस कैसे जा सकती हैं ? हम वहाँ जाकर क्या करेंगी ?

    सिद्ञाड़ नस्त्वदधरामृतपूरकेणहासावलोककलगीतजहच्छयाग्निम्‌ ।

    नो चेद्बयं विरहजाग्न्युपयुक्तदेहाध्यानेन याम पदयो: पदवीं सखे ते ॥

    ३५॥

    सिज्न--कृपा करके उलेड़िये; अड़--हे प्रिय कृष्ण; न:ः--हमारे; त्वत्‌--तुम्हारे; अधर--होंठों के; अमृत--अमृत की;पूरकेण--बाढ़ से; हास--हँसी युक्त; अवलोक--तुम्हारी चितवन से; कल--सुरीला; गीत--तथा ( तुम्हारी वंशी के ) गीत से;ज--उत्पन्न; हत्‌ू-शय--हमारे हृदयों में स्थित; अग्निमू--अग्नि; न उ चेत्‌ू--यदि नहीं; वयम्‌--हम सभी; विरह--वियोग से;ज--उत्पन्न; अग्नि--अग्नि में; उपयुक्त--रखते हुए; देहा: --अपने शरीर; ध्यानेन--ध्यान के द्वारा; याम--जायेंगी; पदयो: --चरणों के; पदवीम्‌--स्थान तक; सखे--हे मित्र; ते--तुम्हारे

    हे कृष्ण, हमारे हृदयों के भीतर की अग्नि, जिसे आपने अपनी हँसी से युक्त चितवन के द्वारातथा अपनी वंशी के मधुर संगीत से प्रज्वलित किया है उस पर कृपा करके अपने होठों काअमृत डालिए।

    यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो हे सखा, हम आपके वियोग की अग्नि में अपनेशरीरों को भस्म कर देंगी और इस प्रकार योगियों की तरह ध्यान द्वारा आपके चरणकमलों केधाम को प्राप्त करेंगी।

    यहाम्बुजाक्ष तब पादतलं रमायादत्तक्षणं क्वचिद्रण्यजनप्रियस्य ।

    अस्प्राक्ष्म तत्प्रभूति नान्यसमक्षमञ्धःस्थातुस्त्वयाभिरमिता बत पारयाम: ॥

    ३६॥

    यहि--जब; अम्बुज--कमल सहश; अक्ष--आँखों वाले; तव--तुम्हारे; पाद--पैरों के; तलम्‌ू--नीचे; रमाया:-- श्रीमतीलक्ष्मीदेवी के लिए; दत्त--प्रदान करते हुए; क्षणम्‌--उत्सव; क्वचित्‌--कभी कभी; अरण्य--जंगल में रहने वाले; जन--लोगों के ; प्रियस्थ--प्रिय का; अस्प्राक्ष्म--हम छू लेंगी; तत्‌-प्रभृति--उसी क्षण से आगे; न--कभी नहीं; अन्य--किसी दूसरेव्यक्ति के; समक्षम्‌ू--सामने; अज्ज:-प्रत्यक्षतः; स्थातुम्‌-खड़े रहने के लिए; त्वया--तुम्हारे द्वारा; अभिरमिता:--हर्ष से पूरित;बत--निश्चय ही; पारयाम:--समर्थ होंगी।

    हे कमलनेत्र, जब भी लक्ष्मीजी आपके चरणकमलों के तलुवों का स्पर्श करती हैं, तो वेइसे उल्लास का अवसर मानती हैं।

    आप वन-वासियों को अत्यन्त प्रिय हैं अतएव हम भी आपकेउन चरणकमलों का स्पर्श करेंगी।

    उसके बाद हम किसी भी व्यक्ति के समक्ष खड़ी तक नहींहोंगी क्योंकि तब हम आपके द्वारा पूरी तरह तुष्ठ हो चुकी होंगी।

    श्रीर्यत्पदाम्बुजरजश्चकमे तुलस्यालब्ध्वापि वक्षसि पदं किल भृत्यजुष्टम्‌ ।

    यस्या: स्ववीक्षण उतान्यसुरप्रयासस्‌तद्ठद्वयं च तब पादरज: प्रपन्ना: ॥

    ३७॥

    श्री:--भगवान्‌ नारायण की पत्नी, लक्ष्मीजी; यत्‌ू--जिस तरह; पद-अम्बुज--चरणकमलों की; रज:--धूल; चकमे--वांछित;तुलस्या--तुलसीदेवी के साथ; लब्ध्वा--प्राप्त करने के बाद; अपि--भी; वक्षसि--उनके वक्षस्थल पर; पदम्‌-- अपना स्थान;किल--निस्सन्देह; भृत्य--नौकरों के द्वारा; जुष्टम्‌ू--सेवित; यस्या:--जिसके ( लक्ष्मी के ); स्व--अपने; वीक्षणे--चितवन केलिए; उत--दूसरी ओर; अन्य--दूसरे; सुर--देवताओं का; प्रयास:--प्रयत्न; तद्बत्‌ू--उसी तरह से; वयम्‌--हम; च--भी;तव--तुम्हारे; पाद--चरण की; रज:--धूल; प्रपन्ना:--शरण के लिए आई हुई हैं

    जिन लक्ष्मीजी की कृपा-कटाक्ष के लिए देवतागण महान्‌ प्रयास करते रहते हैं उन्हें भगवान्‌नारायण के वक्षस्थल पर सदैव विराजमान रहने का अनुपम स्थान प्राप्त है।

    फिर भी वे उनकेचरणकमलों की धूल पाने के लिए इच्छुक रहती हैं, यद्यपि उन्हें इस धूल में तुलसीदेवी तथाभगवान्‌ के अन्य बहुत से सेवकों को भी हिस्सा देना पड़ता है।

    इसी तरह हम भी शरण लेने केलिए आपके चरणकमलों की धूलि लेने आई हैं।

    तन्नः प्रसीद वृजिनार्दन तेडन्ध्रिमूलंप्राप्ता विसृज्य वसतीस्त्वदुपासनाशा: ।

    त्वत्सुन्दरस्मितनिरीक्षणती व्रकाम -तप्तात्मनां पुरुषभूषण देहि दास्यम्‌ ॥

    ३८॥

    तत्‌ू--अतः; नः--हम पर; प्रसीद--अपना अनुग्रह प्रदर्शित करें; वृजिन--सारे कष्टों को; अर्दन--विनष्ट करने वाले; ते--तुम्हारे; अड्घ्रि-मूलम्‌--पाँवों को; प्राप्ता:--आई हुई हैं; विसृज्य--त्यागकर; बसती:--अपने घरों को; त्वत्‌-उपासना--आपकी पूजा की; आशा: --आश्ा से; त्वतू--आपके; सुन्दर--सुन्दर; स्मित--हास; निरीक्षण--चितवन के कारण; तीब्र--अत्यधिक, उत्कट; काम--कामेच्छा से; तप्त--जली हुई; आत्मनाम्‌--जिनके हृदय; पुरुष--सारे मनुष्यों के; भूषण--आभूषण; देहि-- प्रदान करें; दास्यम्‌ू--दासता |

    अतः हे सभी संतापों का हरण करने वाले, हम पर कृपा करें।

    आपके चरणकमलों तकपहुँचने के लिए हमने अपने परिवारों तथा घरों को छोड़ा है और हमें आपकी सेवा करने केअतिरिक्त कुछ भी नहीं चाहिए।

    हमारे हृदय आपकी सुन्दर हासमयी चितवन से उत्पन्न तीत्रइच्छाओं के कारण जल रहे हैं।

    हे पुरुष-रल, हमें अपनी दासियाँ बना लें।

    वीक्ष्यालकाबृतमुखं तब कुण्दलश्री-गण्डस्थलाधरसुधं हसितावलोकम्‌ ।

    दत्ताभयं च भुजदण्डयुगं विलोक्यवक्ष: अयैकरमणं च भवाम दास्य: ॥

    ३९॥

    वीक्ष्य--देखकर; अलक--आपके बालों से; आवृत--ढके; मुखम्‌--मुख को; तव--तुम्हारे; कुण्डल--कुण्डलों की; श्री--सुन्दरता से; गण्ड-स्थल--गाल; अधर--होठों के; सुधम्‌--तथा अमृत; हसित--मन्द हँसी समेत; अवलोकम्‌--चितवन;दत्त--प्रदान करते हुए; अभयम्‌-- अभय; च--तथा; भुज-दण्ड--आपकी शक्तिशाली बाँहें; युगम्‌--दो; विलोक्य--देखकर;वक्ष:--आपका वक्षस्थल; श्री--लक्ष्मी का; एक--एकमात्र; रमणम्‌-- आनन्द स्रोत; च--तथा; भवाम--हम बनना चाहतीहैं; दास्य:--आपकी दासियाँ।

    बालों के घुंघराले गुच्छों से घिरे हुए आपके मुख, कुण्डलों से विभूषित आपकी गालों,अमृत से पूर्ण आपके होठों तथा आपकी स्मितपूर्ण चितवन को देखकर तथा हमारे भय कोभगाने वाली आपकी दो बलिष्ठ भुजाओं को एवं लक्ष्मीजी के आनन्द के एकमात्र स्रोत आपकेवक्षस्थल को देखकर हम भी आपकी दासियाँ बनना चाहती हैं।

    का स्त्र्यड़ ते कलपदायतवेणुगीत-सम्मोहितार्यचरितान्न चलेत्बरिलोक्याम्‌ ।

    औैलोक्यसौभगमिदं च निरीक्ष्य रूपं॑यदगोद्विजद्रुममृगा: पुलकान्यबिभ्रन्‌ ॥

    ४०॥

    का--कौनसी; स्त्री--स्त्री; अड़--हे कृष्ण; ते--तुम्हारा; कल--मधुर; पद--पदों वाले; आयत--निकले हुए; वेणु--तुम्हारीबंशी के; गीत--गीत से; सम्मोहिता--पूर्णतया मोहित; आर्य--सभ्य व्यक्तियों के; चरितातू--उचित आचरण से; न चलेत्‌--हटता नहीं; त्रि-लोक्याम्‌ू--तीनों लोकों में; त्रै-लोक्य--तीनों लोकों का; सौभगम्‌ू--कल्याण का कारण; इृदम्‌ू--यह; च--तथा; निरीक्ष्य--देखकर; रूपम्‌--सौन्दर्य; यतू--जिसके कारण; गो--गौवें; द्विज--पक्षी; द्रुम--वृक्ष; मृगा:--तथा हिरन;पुलकानि--रोमांच; अबिभ्रन्‌ू--हो आया।

    हे कृष्ण, तीनों लोकों में ऐसी कौन स्त्री होगी जो आपकी वंशी से निकली मधुर तान सेमोहित होकर अपने धार्मिक आचरण से विचलित न हो जाय ? आपका सौन्दर्य तीनों लोकों कोमंगलमय बनाता है।

    दरअसल गौवें, पश्ली, वृक्ष तथा हिरण तक भी आपके सुन्दर रूप कोदेखकर रोमांचित हो उठते हैं।

    व्यक्त भवान्ब्रजभयार्तिहरोभिजातोदेवो यथादिपुरुष: सुरलोकगोप्ता ।

    तन्नो निधेहि करपड्जूजमार्तबन्धोतप्तस्तनेषु च शिरःसु च किड्डूरीणाम्‌ ॥

    ४१॥

    व्यक्तम्‌-स्पष्ट है कि; भवान्‌ू--आप; ब्रज--ब्रजवासी के; भय-- भय; आर्ति--तथा कष्ट के; हर:--हरने वाले; अभिजात: --उत्पन्न हुआ; देव:-- भगवान्‌; यथा--जिस प्रकार; आदि-पुरुष: --आदि भगवान्‌; सुर-लोक--देव-लोक का; गोप्ता--रक्षक;ततू--अतः; नः--हम सबों का; निधेहि--कृपा करके रखें; कर--अपना हाथ; पड्लजमू--कमल सहश; आर्त--सताया हुआ;बन्धो--हे मित्र; तप्त--जलते हुए; स्तनेषु--स्तनों पर; च--तथा; शिरःसु--सिरों पर; च--भी; किड्डूरीणाम्‌--अपनी दासियोंके

    स्पष्ट है कि आपने व्रजवासियों के भय तथा कष्ट को हरने के लिए इस जगत में उसी तरहजन्म लिया है, जिस तरह आदि भगवान्‌ देव-लोक की रक्षा करते हैं।

    अतः हे दुखियारों के मित्र,अपना करकमल अपनी दासियों के सिरों पर तथा तप्त स्तनों पर रखिये।

    श्रीशुक उबाचइति विक्लवितं तासां श्रुत्वा योगेश्वरेश्वर: ।

    प्रहस्य सदयं गोपीरात्मारामोप्यरीरमत्‌ ॥

    ४२॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इन शब्दों में; विक्‍्लवितम्‌ू--विकल वाणी; तासाम्‌ू--उनकी; श्रुत्वा--सुनकर; योग-ई श्वर-ई श्र: -- योगशक्ति के ईश्वरों के ईश्वर; प्रहस्थ--हँसकर; स-दयम्‌--दयापूर्वक; गोपी:--गोपियों को; आत्मआराम:ः--आत्म-तुष्ट; अपि--यद्यपि; अरीरमत्‌--उन्होंने सन्तुष्ट कर दिया।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा: गोपियों के व्याकुल शब्दों को सुनकर हँसते हुए, समस्तयोगेश्वरों के भी ईश्वर भगवान्‌ कृष्ण ने उन सबों के साथ कृपा करके आनन्द मनाया यद्यपि वेआत्पतुष्ट हैं।

    ताभिः समेताभिरुदारचेष्टितःप्रियेक्षणोत्फुल्लमुखीभिरच्युत: ।

    उदारहासद्ठिजकुन्ददीधति-व्यरोचतैणाडु इवोडुभिवृत: ॥

    ४३॥

    ताभिः--उनके साथ; समेताभि:--एकसाथ मिलकर; उदार--उदार, वदान्य; चेष्टित:--चेष्टाओं वाला; प्रिय--प्यारा; ईक्षण--अपनी चितवन से; उत्फुल्ल--खिले हुए; मुखीभि:--मुखों वाली; अच्युत:--अच्युत भगवान्‌; उदार--विस्तृत, खुली; हास--हँसी; द्विज--दाँतों की; कुन्द--चमेली के फूल जैसी; दीधति: --तेज युक्त; व्यरोचत--शानदार लगा; एण-अड्जू:--कालेहिरण जैसे धब्बे वाला, चन्द्रमा; इब--सहृश; उडडुभि:--ताराओं के द्वारा; वृत:--घिरा हुआ

    एकत्र गोपियों के बीच में अच्युत भगवान्‌ कृष्ण वैसे ही लग रहे थे जैसे कि तारों से घिराहुआ चन्द्रमा लगता है।

    इतने उदार कार्यकलापों वाले कृष्ण ने अपनी स्नेहमयी चितवनों से उनके मुखों को प्रफुल्लित कर दिया और उनकी खिली हुई हँसी से चमेली की कली जैसे दाँतों कातेज प्रकट हो रहा था।

    उपगीयमान उद्‌्गायन्वनिताशतयूथपः ।

    मालां बिभ्रद्ैजयन्तीं व्यचरन्मण्डयन्वनम्‌ ॥

    ४४॥

    उपगीयमान:--गान किया हुआ; उद्गायन्‌ू-- अपने से जोर जोर गाते हुए; वनिता--स्त्रियों के; शत--सैकड़ों; यूथप:--सेनानायक; मालाम्‌ू--हार या माला; बिभ्रतू- पहने; वैजयन्तीम्‌--वैजयन्ती नाम के ( पाँच भिन्न रंगों के फूलों से बनी );व्यचरन्‌ू--विचरण करते हुए; मण्डयन्‌--शोभा बढ़ाते हुए; वनम्‌--जंगल की |

    जब गोपियाँ उनका महिमा-गान करने लगीं तो सैकड़ों स्त्रियों के नायक ने प्रत्युत्तर में जोरजोर से गाना शुरू कर दिया।

    वे अपनी वैजयन्ती माला धारण किये हुए उनके बीच घूम घूम करवृन्दावन के जंगल की शोभा बढ़ा रहे थे।

    नद्या: पुलिनमाविश्य गोपीभिर्हिमवालुकम्‌ ।

    जुष्टे तत्तरलानन्दि कुमुदामोदवायुना ॥

    ४५॥

    बाहुप्रसारपरिरम्भकरालकोरू -नीवीस्तनालभननर्मनखाग्रपातै: ।

    _वेल्यावलोकहसितैव्रजसुन्दरीणा -मुत्तम्भयन्नतिपतिं रमयां चकार ॥

    ४६॥

    नद्या:--नदी के; पुलिनमू--तट पर; आविश्य-- प्रवेश करके; गोपीभि: --गोपियों के साथ; हिम--शीतल; वालुकम्‌--बालूके द्वारा; जुष्टमू--सेवा की; तत्‌--उसका; तरल--लहरों से; आनन्दि--आनन्दित बनाया; कुमुद--कमलों की; आमोद--सुगन्ध लिये हुए; वायुना--वायु के द्वारा; बाहु--अपनी भुजाओं का; प्रसार--फैलाना; परिरम्भ--आलिंगन समेत; कर--उनकेहाथों के; अलक--बाल; ऊरु--जाँघें; नीवी--नाभि; स्तन--तथा स्तन; आलभन--स्पर्श से; नर्म--खेल में; नख--अँगुलियोंके नाखूनों की; अग्र-पातैः--चिऊँटी से; क्ष्वेल्या--विनोद, खेलवाड़ से भरी बातचीत; अवलोक--चितवन; हसितैः--तथाहँसी से; ब्रज-सुन्दरीणाम्‌--वत्रज की सुन्दरियों की; उत्तम्भयन्‌--उत्तेजित करते हुए; रति-पतिम्‌--कामदेव को; रमयाम्‌चकार--आनन्द मनाया

    श्रीकृष्ण गोपियों समेत यमुना के किनारे गये जहाँ बालू ठंडी पड़ रही थी और नदी कीतरंगों के स्पर्श से वायु में कमलों की महक थी।

    वहाँ कृष्ण ने गोपियों को अपनी बाँहों में समेटलिया और उनका आलिंगन किया।

    उन्होंने लावण्यमयी व्रज-बालाओं के हाथ, बाल, जाँवें,नाभि एवं स्तन छू छू कर तथा खेल खेल में अपने नाखूनों से चिकोटते हुए उनके साथ विनोदकरते, उन्हें तिरछी नजर से देखते और उनके साथ हँसते हुए उनमें कामदेव जागृत कर दिया।

    इसतरह भगवान्‌ ने अपनी लीलाओं का आनन्द लूटा।

    एवं भगवतः कृष्णाल्लब्धमाना महात्मनः ।

    आत्मानं मेनिरे स्त्रीणां मानिन्‍्यो हाधिकं भुवि ॥

    ४७॥

    एवम्‌--इस प्रकार से; भगवत:--भगवान्‌; कृष्णात्‌--कृष्ण से; लब्ध--प्राप्त हुई; मानाः--विशेष आदर; महा-आत्मन:--परमात्मा से; आत्मानम्‌--अपने आपको; मेनिरे--माना; स्त्रीणाम्‌--स्त्रियों में; मानिन्य:--मानिनी, गर्वित; हि--निस्सन्देह;अधिकम्‌--सर्वश्रेष्ठ; भुवि--पृथ्वी पर।

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ श्रीकृष्ण से ऐसा विशेष आदर पाकर गोपियाँ अपने पर गर्वित होउठीं और उनमें से हरएक ने अपने को पृथ्वी की सर्व श्रेष्ठ स्त्री समझा।

    तासां तत्सौभगमदं वीक्ष्य मानं च केशव: ।

    प्रशमाय प्रसादाय तत्रैवान्तरधीयत ॥

    ४८॥

    तासाम्‌--उनकी; तत्‌--वह; सौभग--उनके सौभाग्य के कारण; मदम्‌--उन्मक्त अवस्था; वीक्ष्य--देखकर; मानमू--मिथ्यागर्व; च--तथा; केशव: -- भगवान्‌ कृष्ण; प्रशमाय--कम करने के लिए; प्रसादाय--कृपा करने के लिए; तत्र एब--वहीं पर;अन्तरधीयत--अन्तर्धान हो गये |

    गोपियों को अपने सौभाग्य पर अत्यधिक गर्वित देखकर भगवान्‌ केशव ने उनके इस गर्व सेउबारना चाहा और उनपर और अधिक अनुग्रह करना चाहा।

    अतः वे तुरन्त अन्तर्धान हो गये।

    TO

    अध्याय तीस: गोपियाँ कृष्ण की खोज करती हैं

    10.30श्रीशुक उबाचअन्तर्हिते भगवति सहसैव ब्रजाड्रना: ।

    अतप्यंस्तमचक्षाणा: 'करिण्य इब यूथपम्‌ ॥

    १॥

    श्री-शुक: उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; अन्तर्हिते--अन्तर्धान हो जानेपर; भगवति-- भगवान्‌ के; सहसा एव--एकाएक;ब्रज-अड्भना:--ब्रज की युवतियाँ; अतप्यन्‌--खिन्न हो उठीं; तम्‌ू--उसको; अचक्षाणा: --न देखकर; करिण्य:--हथिनियाँ;इब--सहश; यूथपम्‌-- अपने नर नायक को।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब भगवान्‌ कृष्ण इस तरह एकाएक विलुप्त हो गये तोगोपियाँ उन्हें न देख सकने के कारण अत्यन्त व्यधित हो उठीं जिस तरह हथिनियों का समूहअपने नर के बिछुड़ जाने पर खिन्न हो उठता है।

    गत्यानुरागस्मितविश्रमेक्षितै-मनोरमालापविहारविश्रमै: ।

    आश्षिप्तचित्ता: प्रमदा रमापते-स्तास्ता विचेष्टा जगृहुस्तदात्मिका: ॥

    २॥

    गत्या--उनके हिलने डुलने से; अनुराग--स्नेहमय; स्मित--मन्द हँसी; विभ्रम--क्रीड़ापूर्ण; ईक्षितै:--तथा चितवनों से; मनः-रम--मोहक; आलाप--उनकी बातचीत से; विहार--क्रीड़ा; विभ्रमैः--तथा अन्य आकर्षण से; आक्षिप्त--अभिभूत;चित्ताः:--हृदयों वाली; प्रमदा:--बालिकाएँ; रमा-पतेः--रमा के पति का या सौंदर्य तथा ऐश्वर्य के स्वामी का; ता: ताः--उनमेंसे हरएक; विचेष्टा:--अद्भुत कार्यकलाप; जगृहु:--अनुकरण करने लगी; तत्‌-आत्मिका:--उनमें लीन होकर

    भगवान्‌ श्रीकृष्ण का स्मरण करते ही गोपियों के हृदय उनकी चाल-ढाल तथा प्रेममयीमुसकान, उनकी कौतुकपूर्ण चितवन तथा मोहने वाली बातों तथा अपने साथ की जानेवालीअन्य लीलाओं से अभिभूत हो उठे।

    इस तरह रमा के स्वामी कृष्ण के विचारों में लीन वे गोपियाँउनकी विविध दिव्य लीलाओं ( चेष्टाओं ) का अनुकरण करने लगीं।

    गतिस्मितप्रेक्षणभाषणादिषुप्रिया: प्रियस्य प्रतिरूढमूर्तय: ।

    असावहं त्वित्यबलास्तदात्मिकान्यवेदिषु: कृष्णविहारविभ्रमा: ॥

    ३॥

    गति--उसकी चाल में; स्मित--हँसी; प्रेक्षण--देखने; भाषणा--बातचीत करने; आदिषु--त्यादि में; प्रिया:--प्रिय गोपियाँ;प्रियस्थ--अपने प्रेमी के ; प्रतिरूढ--पूर्णतया लीन; मूर्तव:--उनके शरीर; असौ--वह; अहम्‌--मैं; तु--वास्तव में ; इति--इसप्रकार कहते हुए; अबला: --स्त्रियों ने; तत्‌-आत्मिका: --उनके स्वरूप में; न्‍्यवेदिषु:--घोषित किया; कृष्ण-विहार--कृष्ण कीलीलाओं से उत्पन्न; विभ्रमा:--मादकता, नशा।

    चूँकि प्रेमप्रिय गोपियाँ अपने प्रिय कृष्ण के विचारों में लीन थीं अतः कृष्ण गोपियों केशरीर के चलने तथा हँसने के ढंग, उनके देखने के ढंग, उनकी वाणी तथा उनके अन्य विलक्षणगुणों का अनुकरण करने लगे।

    उनके चिन्तन में गहरी डूबी हुई तथा उनकी लीलाओं का स्मरणकरके उन्मत्त हुई गोपियों ने परस्पर घोषित कर दिया कि 'मैं कृष्ण ही हूँ।

    'गायन्त्य उच्चैरमुमेव संहताविचिक्युरुन्मत्तकवद्वनाद्वनम्‌ ।

    पप्रच्छुशाकाशवदन्तरं बहि-भूतेषु सन्‍्तं पुरुष वनस्पतीन्‌ ॥

    ४॥

    गायन्त्य:--गाती हुई; उच्चै:--जोर जोर से; अमुम्‌--उनके विषय में; एब--निस्सन्देह; संहता:--टोली में मिलकर;विचिक्यु:--खोज किया; उन्मत्तक-वत्‌--पगली स्त्रियों की तरह; वनात्‌ वनम्‌--एक जंगल से दूसरे जंगल में; पप्रच्छु:--पूछा;आकाश-वत्‌--आकाश की तरह; अन्तरम्‌- भीतर से; बहि:ः--तथा बाहर से; भूतेषु--समस्त प्राणियों में; सन्‍्तम्‌ू--उपस्थित;पुरुषम्‌--परम पुरुष को; वनस्पतीनू--वृक्षों से

    जोर जोर से कृष्ण के बारे में गाती हुई गोपियों ने पगलायी स्त्रियों के झुंड के समान उन्हें वृन्दावन के पूरे जंगल में खोजा।

    यहाँ तक कि वृक्षों से भी उन कृष्ण के विषय में पूछताछ कीजो समस्त उत्पन्न वस्तुओं के भीतर तथा बाहर आकाश की भाँति परमात्मा के रूप में उपस्थितहैं।

    हृष्टो व: कच्चिदश्चत्थ प्लक्ष न्यग्रोध नो मन: ।

    नन्दसूनुर्गतो हत्वा प्रेमहासावलोकनै: ॥

    ५॥

    हृष्ट:ः--देखा गया है; वः--तुम्हारे द्वारा; कच्चित्‌ू-क्या; अश्वत्थ--हे अश्वत्थ ( पवित्र पीपल का वृक्ष ); प्लक्ष--हे प्लक्ष( पाकड़ ); न्यग्रोध--हे न्यग्रोध ( बरगद का पेड़ ); नः--हमारे; मनः--मन; नन्द--नन्द महाराज का; सूनुः--पुत्र; गतः--चलागया है; हत्वा--चुराकर; प्रेम--प्रेममय; हास-- अपनी मुसकान से; अवलोकनै:--तथा चितवन से |

    [गोपियों ने कहा : हे अश्रत्थ वृक्ष, हे प्लक्ष, हे न्यग्रोध, क्या तुमने कृष्ण को देखा है ? वहनन्दनन्दन अपनी प्रेमभरी मुस्कान तथा चितवन से हमारे चित्तों को चुराकर चला गया है।

    कच्चित्कुर॒बकाशोकनागपुन्नागचम्पका: ।

    रामानुजो मानिनीनामितो दर्पहरस्मितः ॥

    ६॥

    'कच्चित्‌--क्या; कुरबक-अशोक-नाग-पुन्नाग-चम्पका:ः -- हे कुरबक, अशोक, नाग, पुन्नाग तथा चम्बक वृक्षो; राम--बलरामका; अनुज:--छोटा भाई; मानिनीनाम्‌ू--मान करने वाली स्त्रियों का; इतः--यहाँ से गुजरते हुए; दर्प--घमंड; हर--चूर करनेवाली; स्मित:--हँसी हे कुरबक वृक्ष

    हे अशोक, हे नागकेसर, पुन्नाग तथा चम्पक, क्‍या इस रास्ते से होकरबलराम का छोटा भाई गया है, जिसकी हँसी समस्त अभिमान करनेवाली स्त्रियों के दर्प को हरनेवाली है।

    कच्चित्तुलसि कल्याणि गोविन्दचरण प्रिये ।

    सह त्वालिकुलैबि भ्रदृष्टस्ते उतिप्रियोउच्युत: ॥

    ७॥

    'कच्चित्‌--क्या; तुलसि--हे तुलसी वृक्ष; कल्याणि--हे दयामयी; गोविन्द--कृष्ण के; चरण--पाँव; प्रिये--जिन्हें प्रिय हैं;सह--साथ; त्वा--तुम्हारे; अलि--भौंरों के; कुलैः--झुंडों के साथ; बिभ्रत्‌-ले जाते हुए; दृष्ट: --देखा हुआ; ते--तुम्हारेद्वारा; अति-प्रिय:ः--अत्यन्त प्रिय; अच्युत:-- भगवान्‌ अच्युत |

    हे अत्यन्त दयालु तुलसी, तुम्हें तो गोविन्द के चरण इतने प्रिय हैं।

    क्या तुमने अपने को[तुलसी पहने और भौरों के झुँड से घिरे हुए उन अच्युत को इधर से जाते हुए देखा है ?

    मालत्यदर्शि वः कच्चिन्मल्लिके जातियूधिके ।

    प्रीतिं वो जनयन्यात: करस्प्शेन माधव: ॥

    ८ ॥

    मालति--हे मालती ( श्वेत चमेली की किस्म ); अदर्शि--देखा गया; व: --तुम्हारे द्वारा; कच्चित्‌ू--क्या; मल्लिके--हे मल्लिका( भिन्न प्रकार की चमेली ); जाति--हे जाति ( सफेद चमेली की किस्म ); यूथिके--हे यूथिका ( अन्य चमेली ); प्रीतिम्‌--प्रीति;वः--तुम्हारे लिए; जनयन्‌--उत्पन्न करते हुए; यातः--यहाँ से होकर गये हैं; कर--अपने हाथ के; स्पर्शेन--स्पर्श से;माधव:--साक्षात्‌ वसन्‍्त कृष्ण

    हे मालती, हे मल्लिका, हे जाति तथा यूथिका, कया माधव तुम सबों को अपने हाथ कास्पर्श-सुख देते हुए इधर से गये हैं?

    चूतप्रियालपनसासनकोविदार-जम्ब्वर्कबिल्वबकुलाप्रकदम्बनीपा: ।

    येडन्ये परार्थभवका यमुनोपकूला:शंसन्तु कृष्णपदवीं रहितात्मनां न: ॥

    ९॥

    चूत--हे आम की लतर; प्रियाल--हे प्रियाल वृक्ष ( एक तरह का शालवृक्ष ); पनस--हे कटहल के वृक्ष; आसन--हे आसन( पीला शालवृक्ष ); कोविदार--हे कोविदार; जम्बु--हे जामुन; अर्क--हे अर्क ( आक, मदार ); बिल्व--हे बेल; बकुल--हेछुईमुई; आम्र--हे आम के वृक्ष; कदम्ब--हे कदम्ब; नीपा:--हे नीप ( छोटा कदम्ब ); ये--जो; अन्ये--अन्य; पर--दूसरों के;अर्थ--लिए; भवका:--जिनका अस्तित्व; यमुना-उपकूला: --यमुना नदी के तट के पास रहने वाले; शंसन्तु--कृपा करकेबताइये; कृष्ण-पदवीम्‌--कृष्ण द्वारा अपनाया गया रास्ता; रहित--विहीन; आत्मनाम्‌--हमारे मनों से; नः--हमको |

    हे चूत, हे प्रियाल, हे पनस, हे आसन तथा कोविदार, हे जम्बु, हे अर्क, हे बिल्ब, बकुलतथा आग्र, हे कदम्ब तथा नीप एवं यमुना के तट के समीप स्थित अन्य सारे पौधो और वृश्षो,अन्यों के उपकार के लिए अपना जीवन अर्पित करने वालो, हम गोपियों के मन चुरा लिये गये हैंअतः कृपा करके हमें बतलायें कि कृष्ण गये कहाँ हैं।

    कि ते कृतं क्षिति तपो बत केशवाडूप्रि-स्पर्शोत्सवोत्पुलकिताडुनहैर्विभासि ।

    अप्यड्प्रिसम्भव उरुक्रमविक्रमाद्दाआहो वराहवपुष: परिरम्भणेन ॥

    १०॥

    किमू--क्या; ते--तुम्हारे द्वारा; कृतम्‌ू--की गयी; क्षिति--हे पृथ्वी; तप:ः--तपस्या; बत--निस्सन्देह; केशव-- भगवान्‌ कृष्णके; अद्ध्नि--पैर द्वारा; स्पर्श--स्पर्श किये जाने से; उत्सब--प्रसन्नता का अनुभव होने से; उत्पुलकित--हर्ष से रोमांचित; अड्ढ-रुहैः--अपने शरीर के रोमों से ( जो तुम पर उगी घासें तथा वृक्ष हैं ) विभासि--सुन्दर लगती हो; अपि--शायद; अड्प्रि--पाँवसे ( कृष्ण के पाँव से ); सम्भव:--उत्पन्न; उरुक़़म--कृष्ण के वामन अवतार, वामनदेव के ; विक्रमात्‌--चलने से; वा--अथवा; आह उ--या फिर अन्य; वराह-- भगवान्‌ कृष्ण के वराह अवतार के; वपुष: --शरीर द्वारा; परिरम्भणेन--आलिंगन केकारण।

    हे माता पृथ्वी, आपने भगवान्‌ केशव के चरणकमलों का स्पर्श पाने के लिए ऐसी कौन सीतपस्या की है, जिससे उत्पन्न परम आनन्द से आपके शरीर में रोमांच हो आया है ? इस अवस्था मेंआप अतीव सुन्दर लग रही हैं।

    क्या भगवान्‌ के इसी प्राकट्य के समय आपको ये भाव-लक्षणप्राप्त हुए हैं या फिर और पहले जब उन्होंने आप पर वामनदेव के रूप में अपने पाँव रखे थे याइससे भी पूर्व जब उन्होंने वराहदेव के रूप में आपका आलिंगन किया था?

    अप्येणपत्युपगतः प्रिययेह गात्रै-स्तन्वन्दशां सख्त सुनिर्वृतिमच्युतो वः ।

    कान्ताइसड्कुचकुद्डु मरखिताया:कुन्दसत्रज: कुलपतेरिह वाति गन्ध: ॥

    ११॥

    अपि--क्या; एण--हिरण की; पत्नि--हे पत्नी; उपगतः--भेंट हुई है; प्रियया--अपनी प्रिया के साथ; इह--यहाँ; गात्रै:--अपने अंगों के द्वारा; तन्वन्‌--उत्पन्न करते; दहशाम्‌-- आँखों का; सखि--हे सखी; सु-निर्वृतिमू--परम आनन्द; अच्युत:--अच्युत कृष्ण; व: --तुम्हारा; कान्ता--अपनी सहेली का; अड्ड-सड्ड--अंग स्पर्श के कारण; कुच--स्तन पर; कुल्ढु म-सिन्दूरसे; रक्जिताया:--रँगा हुआ; कुन्द--चमेली फूल की; स्त्रज:--माला का; कुल--समूह ( गोपियों के ) के; पतेः--स्वामी का;इह--यहाँ आसपास; वाति--बह रही है; गन्ध:--सुगन्ध |

    हे सखी हिरनी, कया तुम्हारी आँखों को परमानन्द प्रदान करने वाले भगवान्‌ अच्युत अपनीप्रिया समेत इधर आये थे ? दरअसल इस ओर कुन्द फूलों से बनी उनकी उस माला की महक आरही है, जो उनके द्वारा आलिंगित उनकी प्रिया सखी के स्तनों पर लगे कुंकुम से लेपित थी।

    बाहुं प्रियांस उपधाय गृहीतपद्मोरामानुजस्तुलसिकालिकुलैमदान्थ: ।

    अन्वीयमान इह वस्तरवः प्रणामकि वाभिनन्दति चरन्प्रणयावलोकैः ॥

    १२॥

    बाहुमू--अपनी भुजा; प्रिया-- अपनी प्रिया के; अंसे--कंधे पर; उपधाय--रखकर; गृहीत--पकड़े हुए; पद्म:--कमल; राम-अनुज:--बलराम के छोटे भाई, कृष्ण; तुलसिका--तुलसी मज्जरियों के चारों ओर मँडराते; अलि-कुलैः--अनेक भौंरों से;मद--नशे से; अन्धैः--अन्धे; अन्वीयमान:--पीछा किये जाते; इह--यहाँ; व: --तुम्हारे; तरव:-हे वृक्षों; प्रणामम्‌--झुकना,नत होना; किम्‌ वा--अथवा; अभिनन्दति--स्वीकार किया; चरन्‌--विचरण करते हुए; प्रणब--प्रेम से पूरित; अवलोकै:--अपनी चितवन से |

    हे वृक्षो, हम देख रही हैं कि तुम झुक रहे हो।

    क्‍या जब राम के छोटे भाई इधर से गये जिनके पीछे-पीछे गले में सुशोभित तुलसी मंजरी की माला के चारों ओर उन्मत्त भौरे मँडरा रहेथे तो उन्होंने अपनी स्नेहपूर्ण चितवन से तुम्हारे प्रणाम को स्वीकार किया था? वे अपनी बाँहअवश्य ही अपनी प्रिया के कंधे पर रखे रहे होंगे और अपने खाली हाथ में कमल का फूल लियेरहे होंगे।

    पृच्छतेमा लता बाहूनप्याश्लिष्टा वनस्पते: ।

    नूनं तत्करजस्पृष्टा बिश्रत्युत्पुलकान्यहो ॥

    १३॥

    पृच्छत--जरा पूछो; इमा:--इन; लता:--लताओं से; बाहूनू--बाँहें ( टहनियाँ ); अपि--यद्यपि; आश्लिष्टाः--आलिंगन करतीहुईं; बनस्पते:--वृक्ष का; नूनमू--निश्चय ही; तत्‌--उसका, कृष्ण के; कर-ज--हाथ के नाखूनों से; स्पृष्टा:--स्पर्श कियाहुआ; बिभ्रति-- धारण करती है; उत्पुलकानि--चमड़ी पर प्रसन्नता के फफोले; अहो--जरा देखो।

    चलो इन लताओं से कृष्ण के विषय में पूछा जाय।

    यद्यपि वे अपने पति रूप इस वृक्ष कीबाँहों का आलिंगन कर रही हैं किन्तु अवश्य ही कृष्ण ने अपने नाखूनों से इनका स्पर्श कियाहोगा क्‍योंकि प्रसन्नता के मारे इनकी त्वचा पर फफोले प्रकट हो रहे हैं।

    इत्युन्मत्तवचो गोप्य: कृष्णान्वेषणकातरा: ।

    लीला भगवतस्तास्ता हानुचक्रुस्तदात्मिकाः ॥

    १४॥

    इति--इस प्रकार; उन्मत्त--पगलाई; वचः--शब्द बोलती हुई; गोप्य:--गोपियाँ; कृष्ण-अन्वेषण--कृष्ण की खोज करते हुए;'कातराः--किंकर्तव्यविमूढ़; लीला: --दिव्य लीलाएँ; भगवतः -- भगवान्‌ की; ता: ताः--उनमें से प्रत्येक को; हि--निस्सन्देह;अनुचक्रुः:--अनुकरण किया; तत्‌-आत्मिका: --उनके विचारों में लीन होकर।

    ये शब्द कहने के बाद कृष्ण को खोजते खोजते किंकर्तव्यविमूढ़ हुई गोपियाँ उनके विचारोंमें पूर्णतया लीन होकर उनकी विविध लीलाओं का अनुकरण करने लगीं।

    कस्याचित्पूतनायन्त्या: कृष्णायन्त्यपिबत्स्तनम्‌ ।

    तोकयित्वा रुदत्यन्या पदाहन्‍शकटायतीम्‌ ॥

    १५॥

    कस्याचित्‌--गोपियों में से एक ने; पूतनायन्त्या:--जो पूतना बनी थी; कृष्णायन्ती--दूसरी जो कृष्ण बनी थी; अपिबत्‌--पिया;स्तनम्‌ू--स्तन को; तोकयित्वा--शिशु बनकर; रुदती--चिल्लाती; अन्या--दूसरी ने; पदा--अपने पाँव से; अहनू--मारा;शकटा-यतीम्‌--जो गाड़ी बनी थी |

    एक गोपी ने पूतना की नकल उतारी जबकि दूसरी बालक कृष्ण बन गई और वह पहलेवाली का स्तनपान करने लगी।

    अन्य गोपी ने शिशु कृष्ण के रोदन का अनुकरण करते हुए उसगोपी पर पाद-प्रहार किया जो शकटासुर की भूमिका निभा रही थी।

    दैत्यायित्वा जहारान्यामेको कृष्णार्भभावनाम्‌ ।

    रिड्रयामास काप्यड्य्री कर्षन्ती घोषनि:स्वने: ॥

    १६॥

    दैत्यायित्वा--असुर ( तृणावर्त ) बनकर; जहार--उठा ले गई; अन्याम्‌--दूसरी गोपी को; एका--एक गोपी; कृष्ण-अर्भ--बालक कृष्ण का; भावनाम्‌-- भाव धारण करने वाली; रिड्रयाम्‌ आस-रेंगने लगी; का अपि--उनमें से एक; अद््री --उसकेदो पाँव; कर्षन्ती--घसीटती हुई; घोष--पायजेब का; निःस्वनैः --शब्द करती |

    एक गोपी तृणावर्त बन गई और वह दूसरी गोपी को जो बालक कृष्ण बनी थी दूर ले गईजबकि एक अन्य गोपी रेंगने लगी जिससे उसके पाँव घसीटते समय पायजेब बजने लगी।

    कृष्णरामायिते द्वे तु गोपायन्त्यश्च काश्चन ।

    वत्सायतीं हन्ति चान्या तत्रैका तु बकायतीम्‌ ॥

    १७॥

    कृष्ण-रामायिते--कृष्ण तथा बलराम बनकर; द्वे--दो गोपियाँ; तु--तथा; गोपायन्त्य:--ग्वालबालों की तरह बनकर; च--तथा; काश्चन--किसी ने; वत्सायतीम्‌--वत्सासुर बनकर; हन्ति--मारा; च--तथा; अन्या--दूसरी; तत्र--वहाँ; एका--एक;तु--और भी; बकायतीम्‌--बकासुर का अभिनय करने वाली |

    दो गोपियाँ उन तमाम गोपियों के बीच राम तथा कृष्ण बन गईं जो ग्वालबालों का अभिनयकर रही थीं।

    एक गोपी ने कृष्ण द्वारा राक्षस वत्सासुर के वध का अनुकरण किया जिसमें दूसरीगोपी वत्सासुर बनी थी।

    गोपियों के एक जोड़े ने बकासुर-वध का अभिनय किया।

    आहूय दूरगा यद्वत्कृष्णस्तमनुवर्ततीम्‌ ।

    वेणुं क्‍्वणन्तीं क्रीडन्तीमन्या: शंसन्ति साध्विति ॥

    १८॥

    आहूय--बुलाकर; दूर--दूरी पर स्थित; गा:--गौवों को; यद्वत्‌ू--जिस तरह; कृष्ण:--कृष्ण; तम्‌--उसको; अनुवर्ततीम्‌--अनुकरण करने वाली गोपी को; वेणुम्‌--वंशी; क्वणन्तीम्‌--शब्द करती; क्रीडन्तीम्‌ू--खेल खेलती; अन्या: --दूसरी गोपियोंने; शंसन्ति-- प्रशंसा की; साधु इति--' बहुत अच्छा! '!

    जब एक गोपी ने पूरी तरह अनुकरण कर दिखाया कि कृष्ण किस तरह दूर विचरण करतीगौवों को बुलाते थे, वे किस तरह वंशी बजाते थे और वे किस तरह विविध खेलों में लगे रहतेथे तो अन्यों ने बहुत खूब, बहुत खूब, ( वाह वाह ) चिल्‍लाकर बधाई दी।

    कस्याज्ित्स्वभुजं न्यस्यचलनन्‍्त्याहापरा ननु ।

    कृष्णोहं पश्यत गतिललितामिति तन्मना: ॥

    १९॥

    कस्याश्चित्‌--उनमें से एक की; स्व-भुजम्‌--अपनी बाँह; न्यस्य--( कंधे पर ) रखकर; चलन्ती--चलती हुई; आह--बोली;अपरा--दूसरी; ननु--निस्सन्देह; कृष्ण:--कृष्ण; अहमू--मैं हूँ; पश्यत--जरा देखो; गतिमू--मेरी चाल; ललिताम्‌--मनोहर;इति--इन शब्दों के साथ; तत्‌--उनमें; मना:--पूर्णतया लीन मन से |

    एक अन्य गोपी अपने मन को कृष्ण में स्थिर किये अपनी बाँह को दूसरी सखी के कन्धे परटिकाये चलने लगी और बोली 'मैं कृष्ण हूँ।

    जरा देखो तो मैं कितनी शान से चल रही हूँ।

    मा भेष्ट वातवर्षाभ्यां तत्लाणं विहितं मय ।

    इत्युक्व्वैकेन हस्तेन यतन्त्युन्निदधेम्बरम्‌ ॥

    २०॥

    मा भैष्ट--मत डरो; वात--हवा, अंधड़; वर्षाभ्यामू--तथा वर्षा से; तत्‌--उससे; त्राणम्‌--तुम्हारा उद्धार; विहितम्‌ू--नियोजितकिया जा चुका है; मया--मेरे द्वारा; इति--इस प्रकार; उक्त्वा--कहकर; एकेन--एक; हस्तेन--हाथ से; यतन्ती-- प्रयत्नकरती; उन्निदधे--उठा लिया; अम्बरम्‌--अपना वस्त्र।

    ,एक गोपी ने कहा : 'ऑआँधी-वर्षा से मत डरो।

    ' मैं तुम्हारी रक्षा करूंगी।

    ' यह कहकरउसने अपना दुपट्टा अपने सिर के ऊपर उठा लिया।

    आरुह्नैका पदाक्रम्य शिरस्याहापरां नूप ।

    दुष्टाहे गच्छ जातोहं खलानाम्ननु दण्डकृत्‌ ॥

    २१॥

    आरुह्म--ऊपर उठा कर; एका--एक गोपी; पदा--अपने पाँव से; आक्रम्य--ऊपर चढ़कर; शिरसि--सिर पर; आह--बोली;अपराम्‌--दूसरी से; नृप--हे राजा ( परीक्षित ); दुष्ट--दुष्ट; अहे--अरे साँप; गच्छ--चले जाओ; जात:ः--जन्मा; अहम्‌-मैं;खलानामू--ईर्ष्यालुओं का; ननु--निस्सन्देह; दण्ड--दण्ड; कृत्‌--लगाने वाला

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा हे राजनू, एक गोपी दूसरी के कन्धे पर चढ़ गई और अपनापाँव एक अन्य गोपी के सिर पर रखती हुई बोली रे दुष्ट सर्प, यहाँ से चले जाओ, तुम जान लोकि मैंने इस जगत में दुष्टों को दण्ड देने के लिए ही जन्म लिया है।

    'तत्रैकोबाच हे गोपा दावारगिनि पश्यतोल्बणम्‌ ।

    चश्षुंष्या श्रपिद॒ध्वं वो विधास्थे क्षेममज्खसा ॥

    २२॥

    तत्र--वहाँ; एका--उनमें से एक; उवाच--बोली; हे गोपा:--अरे ग्वालबालो; दाव-अग्निमू--जंगल की आग को; पश्यत--देखो; उल्बणम्‌-- भयानक; चक्षूंषि-- अपनी आँखें; आशु--तुरन्‍्त, जल्दी से; अपिदध्वम्‌--बन्द करो; वः--तुम्हारा;विधास्थे--बन्दोबस्त करूँगी; क्षेमम्‌--सुरक्षा का; अज्लआ--आसानी से

    तब एक दूसरी गोपी बोल पड़ी, मेरे प्रिय ग्वालबालो, जंगल में लगी इस आग को तो देखो,तुरन्त अपनी आँखें मूँद लो।

    मैं आसानी से तुम्हारी रक्षा करूँगी।

    बद्धान्यया स्त्रजा काचित्तन्वी तत्र उलूखले ।

    बध्नामि भाण्डभेत्तारं हैयड्भवमुषं त्विति ।

    भीता सुहक्पिधायास्यं भेजे भीतिविडम्बनम्‌ ॥

    २३॥

    बद्धा--बाँधी गई; अन्यया--दूसरी गोपी द्वारा; सत्रजा--फूल की माला से; काचित्‌--एक गोपी; तन्वी--छरहरी; तत्र--वहाँ;उलूखले--ओखली से; बध्नामि--बाँध रही हूँ; भाण्ड--घड़ों के; भेत्तारम्‌--तोड़ने वाले को; हैयम्‌-गब--पिछले दिन के दूधसे बचे मक्खन का; मुषम्‌--चोर; तु--निस्सन्देह; इति--इस प्रकार कहते हुए; भीता-- भयभीत; सु-हक्‌--सुन्दर आँखों वाली;पिधाय--ढककर; आस्यम्‌--अपना मुँह; भेजे--बना लिया; भीति--डर का; विडम्बनम्‌ू--बहाना |

    एक गोपी ने अपनी एक छरहरी सी सखी को फूलों की माला से बाँध दिया और कहा,'अब मैं इस बालक को बाँध दूँगी जिसने मक्खन की हँडिया तोड़ दी है और मक्खन चुरालिया है।

    ' तब दूसरी गोपी अपना मुँह तथा सुन्दर आँखें अपने हाथ से ढक कर भयभीत होनेकी नकल करने लगी।

    एवं कृष्णं पृच्छमाना गण्दावनलतास्तरून्‌ ।

    व्यचक्षत वनोद्देशे पदानि परमात्मन: ॥

    २४॥

    एवम्‌--इस प्रकार से; कृष्णम्‌--कृष्ण के विषय में; पृच्छमाना: --पूछती हुईं; वृन्दावन--वृन्दावन जंगल की; लता:--लताओंसे; तरून्‌ू--तथा वृक्षों से; व्यचक्षत--उन्होंने देखा; वन--जंगल के; उद्देशे--एक स्थान पर; पदानि--पाँवों के चिह्न; परम-आत्मन:--परमात्मा के

    जब गोपियाँ इस तरह कृष्ण की लीलाओं की नकल कर उतार रही थीं और वृन्दावन कीलताओं तथा वृक्षों से पूछ रही थीं कि भगवान्‌ कृष्ण कहाँ हो सकते हैं, तो उन्हें जंगल के एककोने में उनके पदचिन्ह दिख गये।

    पदानि व्यक्तमेतानि नन्दसूनोर्महात्मनः ।

    लक्ष्यन्ते हि ध्वजाम्भोजवज़ाडु शयवादिभि: ॥

    २५॥

    पदानि--पदचिदह्न; व्यक्तम्‌-स्पष्टत:; एतानि--ये; नन्द-सूनो:--ननन्‍्द महाराज के पुत्र के; महा-आत्मन: --महात्मा; लक्ष्यन्ते--निश्चित रूप से हैं; हि--निस्सन्देह; ध्वज--पताका; अम्भोज--कमल; वज्ञ--वज्; अह्ढु श--हाथी हाँकने का अंकुश; यव-आदिभि:--जौ की बाली इत्यादि।

    गोपियों ने कहा : इन पदचिन्‍्हों में ध्वजा, कमल, वज्, अंकुश, जौ की बाली इत्यादि केचिन्ह स्पष्ट बतलाते हैं कि ये नन्द महाराज के पुत्र उसी महान आत्मा ( कृष्ण ) के हैं।

    तैस्तेः पदैस्तत्पदवीमन्विच्छन्त्योग्रतो 'बला: ।

    वध्वा: पद: सुपृक्तानि विलोक्यार्ता: समब्रुवन्‌ ॥

    २६॥

    तैः तैः--उन उन; पदैः--चरणचित्ों के द्वारा; तत्‌--उसके; पदवीम्‌--मार्ग को; अन्विच्छन्त्य:--ढूँढ़ती हुई; अग्रतः--आगे कीओर; अबला:--बालाएँ; वध्वा:--उनकी विशेष प्रिया को; पदैः--चरणचिद्नों के साथ; सुपृक्तानि--पूरी तरह से मिले हुए;विलोक्य--देखकर; आर्ता:--दुखी; समब्रुवन्‌--बोलीं |

    गोपियाँ श्रीकृष्ण के अनेक पदचिन्हों से प्रदर्शित उनके मार्ग का अनुमान करने लगीं, किन्तुजब उन्होंने देखा कि ये चिन्ह उनकी प्रियतमा के चरणचिन्हों से मिल-जुल गये हैं, तो वेव्याकुल हो उठीं और इस प्रकार कहने लगीं।

    'कस्या: पदानि चैतानि याताया नन्दसूनुना ।

    अंसन्यस्तप्रकोष्ठाया: करेणो: करिणा यथा ॥

    २७॥

    कस्या:--किसी एक गोपी के; पदानि--चरणचिह्न; च-- भी; एतानि--ये; याताया: --जो जा रही थी; नन्द-सूनुना--नन्दमहाराज के पुत्र के साथ साथ; अंस--जिसके कंधे पर; न्यस्त--रखा हुआ; प्रकोष्ठाया:--उनका हाथ; करेणो:--हथिनी के;करिणा--हाथी द्वारा; यथा--जिस तरह

    गोपियों ने कहा : यहाँ पर हमें किसी गोपी के चरणचिन्ह दिख रहे हैं, जो अवश्य हीनन्द महाराज के पुत्र के साथ साथ चल रही होगी।

    उन्होंने उसके कंधे पर अपना हाथ उसी तरहरखा होगा जिस तरह एक हाथी अपनी सूँड़ अपनी सहगामिनी हथिनी के कंधे पर रख देता है।

    अनयाराधितो नूनं भगवान्हरिरी श्वर: ।

    यन्नो विहाय गोविन्द: प्रीतो यामनयद्रह: ॥

    २८ ॥

    अनया--उसके द्वारा; आराधित:--भलीभाँति पूजित; नूनम्‌--निश्चय ही; भगवान्‌-- भगवान्‌; हरिः--कृष्ण; ईश्वर:--परमनियन्ता; यत्‌--इतना कि; न:--हमको; विहाय--त्यागकर; गोविन्द:-- भगवान्‌ गोविन्द; प्रीत:--प्रसन्न; यामू--जिसको;अनयतू--ले गये; रह:--एकान्त स्थान में |

    इस विशिष्ट गोपी ने निश्चित ही सर्वशक्तिमान भगवान्‌ गोविन्द की पूरी तरह पूजा की होगीक्योंकि वे उससे इतने प्रसन्न हो गये कि उन्होंने हम सबों को छोड़ दिया और उसे एकान्त स्थान मेंले आये।

    धन्या अहो अमी आल्यो गोविन्दाड्प्र्यब्जरेणव: ।

    यान्ब्रहोशौ रमा देवी दधुर्मूथ्न्यघनुत्तये ॥

    २९॥

    धन्या:--पवित्र हो गईं; अहो--ओह; अमी --ये; आल्य: --हे गोपियो; गोविन्द--गोविन्द के; अड्धप्रि-अब्ज--चरणकमलों के;रेणवः--धूल कण; यान्‌--जो; ब्रह्म --ब्रह्मा; ईशौ--तथा शिवजी; रमा देवी-- भगवान्‌ विष्णु की पत्नी, रमा देवी; दधु:--धारण करते हैं; मूर्थिनि--अपने शिरों पर; अध--उनके पापों का; नुत्तये--दूर करने के लिए।

    हे बालाओ, गोविन्द के चरणों की धूल इतनी पवित्र है कि ब्रह्म, शिव तथा रमादेवी भीअपने पापों को दूर करने के लिए उस धूल को अपने सिरों पर धारण करते हैं।

    तस्या अमूनि नः क्षोभ॑ कुर्वनत्युच्चै: पदानि यत्‌यैकापहत्य गोपीनाग्रहो भुन्कतेडच्युताधरम्‌ ।

    न लक्ष्यन्ते पदान्यत्र तस्या नून॑ तृणाडु रे:खिलद्यत्सुजाताड्प्रितलामुन्निन्ये प्रेयससीं प्रियः ॥

    ३० ॥

    तस्या:--उसके; अमूनि--ये; नः--हमारे लिए; क्षोभम्‌--खेद; कुर्वन्ति-- उत्पन्न करते हैं; उच्चै:-- अत्यधिक; पदानि--चरणचिह्न; यत्‌-- क्योंकि; या--जो; एका-- अकेले; अपहृत्य--एक तरफ ले जाकर; गोपीनाम्‌--समस्त गोपियों का; रह:--एकान्त में; भुड़े --भोग करती है; अच्युत--कृष्ण के; अधरम्‌--होंठों का; न लक्ष्यन्ते--नहीं दिखते; पदानि--पाँव; अत्र--यहाँ; तस्याः--उसके ; नूनम्‌--निश्चय ही; तृण--घास; अह्ुरैः --तथा उगते हुए कललों द्वारा; खिद्यत्‌--पीड़ा होने से; सुजात--कोमल; अड्प्रि--पाँव; तलाम्‌--तलुवे; उन्निन्ये--ऊपर उठा लिया; प्रेयसीम्‌--अपनी प्रिया को; प्रियः--उसके प्रियतम कृष्णने

    उस विशिष्ट गोपी के ये चरणचिन्ह हमें अत्यधिक विचलित कर रहे हैं।

    समस्त गोपियों में सेकेवल वही एकान्त स्थान में ले जाई गई जहाँ वह कृष्ण के अधरों का पान कर रही है।

    देखो न,हमें यहाँ पर उसके पदचिन्ह नहीं दिख रहे।

    स्पष्ट है कि घास तथा कुश उसके पाँवों के कोमलतलुबों को कष्ट पहुँचा रहे होंगे अतः प्रेमी ने अपनी प्रेयसी को उठा लिया होगा।

    इमान्यधिकमग्नानि पदानि वहतो वधूम्‌ ।

    गोप्यः पश्यत कृष्णस्थ भाराक्रान्तस्थ कामिन: ।

    अत्रावरोपिता कान्ता पुष्पहेतोर्महात्मना ॥

    ३१॥

    इमानि--ये; अधिक--अधिक; मग्नानि--मिले-जुले; पदानि--पदचिह्नों को; वहतः--ले जाने वाले के; वधूम्‌-- अपनी प्रेयसीको; गोप्य:--हे गोपियो; पश्यत--जरा देखो; कृष्णस्य--कृष्ण के; भार--बोझ से; आक्रान्तस्थ--पीड़ित; कामिन:--कामी;अत्र--इस स्थान में; अवरोपिता--नीचे रखी गई; कान्ता--प्रेमिका; पुष्प--फूलों ( के चुनने ) के; हेतो:--लिए; महा-आत्मना--अत्यन्त चतुर द्वारा

    मेरी प्यारी गोपियो, जरा देखो न, किस तरह इस स्थान पर कामी कृष्ण के पदचिन्ह पृथ्वी मेंगहरे धँसे हुए हैं।

    अपनी प्रियतमा के भार को वहन करना अवश्य ही उनके लिए कठिन हो रहाहोगा।

    और यहाँ पर तो उस चतुर छोरे ने कुछ फूल चुनने के लिए उसे नीचे रख दिया होगा।

    अत्न प्रसूनावचय: प्रियार्थे प्रेयसा कृत: ।

    प्रपदाक्रमण एते पश्यतासकले पदे ॥

    ३२॥

    अतन्र--यहाँ; प्रसून--फूलों का; अवचय:--चुना जाना; प्रिया-अर्थे--अपनी प्रिया के लिए; प्रेयसा--प्रेमी कृष्ण द्वारा; कृत: --किया गया; प्रपद--पैर का अगला हिस्सा ( पंजा ); आक्रमणे-- धँसने से; एते--ये; पश्यत--जरा देखो; असकले--अपूर्ण ;पदे--पदचिह्नों की जोड़ी ।

    जरा देखो न, किस तरह प्रिय कृष्ण ने यहाँ पर अपनी प्रिया के लिए फूल चुने हैं।

    यहाँउनके पाँव के अगले हिस्से ( पंजे ) का ही निशान पड़ा हुआ है क्योंकि फूलों तक पहुँचने केलिए वे अपने पंजों के बल खड़े हुये थे।

    केशप्रसाधन त्वत्र कामिन्या: कामिना कृतम्‌ ।

    तानि चूडयता कान्तामुपविष्टमिह श्रुवम्‌ ॥

    ३३॥

    केश--अपने बालों के; प्रसाधनम्‌--गूँथने या सँवारने के लिए; तु--यही नहीं; अत्र--यहाँ; कामिन्या:--कामुक लड़की का;कामिना--कामी लड़के द्वारा; कृतम्‌--किया गया; तानि--उन ( फूलों ) से; चूडयता--जूड़ा बनाने वाले के द्वारा; कान्ताम्‌--अपनी प्रिया को; उपविष्टम्‌--बैठाया; इह--यहाँ; ध्रुवम्‌--निश्चित रूप से

    कृष्ण यहाँ पर निश्चित रूप से अपनी प्रेयसी के साथ उसके केश सँवारने के लिए बैठे थे।

    उस कामी लड़के ने उस कामुक लड़की के लिए उन फूलों से जूड़ा बनाया होगा, जिसे उसनेएकत्र किया था।

    रैमे तया चात्मरत आत्मारामोप्यखण्डित: ।

    कामिनां दर्शयन्दैन्यं सत्रीणां चैव दुरात्मताम्‌ ॥

    ३४॥

    रेमे--आनन्द लूटा; तया--उसके साथ; च--तथा; आत्म-रत:-- अपने में ही आनन्द लेने वाले; आत्म-आराम:ः--आत्मतुष्ट;अपि--यद्यपि; अखण्डित:--कभी अपूर्ण न रहने वाले; कामिनाम्‌--सामान्य विलासी पुरुषों का; दर्शयन्‌--दिखलाते हुए;दैन्यमू--दीनावस्था; स्त्रीणाम्‌ू--सामान्य स्त्रियों की; च एव--भी; दुरात्मताम्‌ू--निष्ठरता |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा भगवान्‌ कृष्ण ने उस गोपी के साथ भोग-विलास कियायद्यपि वे अपने आप में तुष्ट रहने तथा पूर्ण होने के कारण केवल भीतर ही भीतर आनन्दमग्नहोते हैं।

    इस तरह विराधोभास के द्वारा उन्होंने सामान्य कामी पुरुषों एवं निष्ठर स्त्रियों की दुष्टता का प्रदर्शन किया।

    इत्येवं दर्शयन्त्यस्ताश्वेरुगोप्यो विचेतस: ।

    यां गोपीमनयत्कृष्णो विहायान्या: स्त्रियो वने ॥

    ३५॥

    सा च मेने तदात्मानं वरिष्ठ सर्वयोषिताम्‌ ।

    हित्वा गोपी: कामयाना मामसौ भजते प्रिय: ॥

    ३६॥

    इति--इस प्रकार; एवम्‌--इस विधि से; दर्शयन्त्यः--दिखलाती हुई; ताः--वे; चेरु:--घूमती रहीं; गोप्य:--गोपियाँ;विचेतसः--पूर्णतया भ्रमित; यामू--जिस; गोपीम्‌--गोपी को; अनयत्‌--ले गये; कृष्ण: -- भगवान्‌ कृष्ण; विहाय--छोड़कर;अन्या:--दूसरी; स्त्रिय: --स्त्रियों को; बने--जंगल में; सा--उसने; च-- भी; मेने--सोचा; तदा--तब; आत्मानम्‌-- अपनेआपको; वरिष्ठम्‌-- श्रेष्ठ; सर्व--सभी; योषिताम्‌--स्त्रियों में; हित्वा--त्यागकर; गोपी: --गोपियों को; काम-याना: --कामेच्छासे वशीभूत; माम्‌--मुझको; असौ--वह; भजते--मानता है; प्रिय: --प्रिया, प्रेमिका ।

    जब गोपियाँ पूर्णतया भ्रमित मनों से घूम रही थीं तो उन्होंने कृष्ण लीलाओं के विविध चिन्हों की ओर संकेत किया।

    वह विशिष्ट गोपी जिसे कृष्ण अन्य युवतियों को त्यागकर एकान्त जंगलमें ले गये थे, अपने को सर्वश्रेष्ठ स्‍त्री समझने लगी।

    उसने सोचा, ' मेरे प्रियतम ने उन अन्य समस्तगोपियों का तिरस्कार कर दिया है यद्यपि वे साक्षात्‌ कामदेव के वशीभूत हैं।

    उन्होंने केवल मेरेही साथ प्रेम करने का चुनाव किया है।

    'ततो गत्वा वनोद्देशं हप्ता केशवमब्रवीत्‌ ।

    न पारयेहं चलितुं नय मां यत्र ते मनः ॥

    ३७॥

    ततः--तब; गत्वा--जाकर; वन--जंगल के; उद्देशम्‌--एक कोने में; हप्ता--गर्वित होकर; केशवम्‌--कृष्ण से; अब्रवीत्‌--बोली; न पारये--समर्थ नहीं हूँ; अहम्‌--मैं; चलितुमू--चल पाने के लिए; नय--ले चलो; माम्‌--मुझको ; यत्र--जहाँ; ते--तुम्हारा; मनः--मन

    जब दोनों प्रेमी वृन्दावन जंगल के एक भाग से जा रहे थे तो विशिष्ट गोपी को अपने ऊपरगर्व हो आया।

    उसने भगवान्‌ केशव से कहा, अब मुझसे और नहीं चला जाता।

    आप जहाँ भीजाना चाहें मुझे उठाकर ले चलें।

    एवमुक्त: प्रियामाह स्कन्ध आरुह्मतामिति ।

    ततश्चान्तर्दधे कृष्ण: सा वधूरन्व॒तप्यत ॥

    ३८॥

    एवम्‌--इस प्रकार; उक्त:--कहा गया; प्रियाम्‌--अपनी प्रिया को; आह--कहा; स्कन्धे--मेरे कन्धे पर; आरुह्मताम्‌--चढ़ लो;इति--ये शब्द; ततः--तब; च--तथा; अन्तर्दधे--वे अन्तर्धान हो गये; कृष्ण: -- श्रीकृष्ण; सा--वह; वधू:--उनकी प्रिया;अन्वतप्यत--व्याकुल हो गई

    ऐसा कहे जाने पर भगवान्‌ कृष्ण ने उत्तर दिया 'मेरे कन्धे पर चढ़ जाओ।

    किन्तु यहकहते ही वे विलुप्त हो गये।

    उनकी प्रिया को तब अत्यधिक क्लेश हुआ।

    हा नाथ रमण प्रेष्ठ क्वासि क्वासि महाभुज ।

    दास्यास्ते कृपणाया मे सखे दर्शय सन्निधिम्‌ ॥

    ३९॥

    हा--हे; नाथ-- स्वामी; रमण- प्रेमी; प्रेष्ठ--प्रियतम; क्व असि क्व असि--तुम कहाँ हो, तुम कहाँ हो; महा-भुज--हे बलिष्ठभुजाओं वाले; दास्या:--दासी के प्रति; ते--तुम्हारी; कृपणाया: --दीन; मे--मुझको; सखे--हे मित्र; दर्शय--दिखलाइये;सन्निधिम्‌--उपस्थिति।

    वह चिल्ला उठी: हे स्वामी, हे प्रेमी, हे प्रियतम, तुम कहाँ हो? तुम कहाँ हो? हे बलिष्ठभुजाओं वाले, हे मित्र, अपनी दासी बेचारी को अपना दर्शन दो।

    श्रीशुक उबाचअन्विच्छन्त्यो भगवतो मार्ग गोप्योविदूरितः ।

    दहशुः प्रियविश्लेषान्मोहितां दु:खितां सखीम्‌ ॥

    ४०॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; अन्विच्छन्त्यः 'ड़ूँढ़ती हुईं; भगवतः-- भगवान्‌ का; मार्गम्‌-रास्ता;गोपष्य:--गोपियों ने; अविदूरित:--दूर नहीं, पास ही; दहशु:--देखा; प्रिय--अपने प्रेमी से; विश्लेषात्‌--बिछुड़ने के कारण;मोहिताम्‌--मोह ग्रस्त; दु:खिताम्‌--दुखी; सखीम्‌--अपनी सखी को |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : कृष्ण के रास्ते को खोजती हुई गोपियों ने अपनी दुखी सखीको पास में ही ढूँढ़ निकाला।

    वह अपने प्रेमी के विछोह से मोहग्रस्त थी।

    तया कथितमाकर्णय्य मानप्राप्ति च माधवात्‌ ।

    अवमानं च दौरात्म्याद्विस्मयं परमं ययु: ॥

    ४१॥

    तया--उसके द्वारा; कथितम्‌--जो कुछ कहा गया; आकर्णर्य --सुनकर; मान--आदर की; प्राप्तिम्‌ू--प्राप्ति; च--तथा;माधवात्‌--कृष्ण से; अवमानम्‌--अनादर; च--भी; दौरात्म्यात्‌-- अपने दुर्व्यवहार से; विस्मयम्‌--विस्मय; परमम्‌--अत्यधिक; ययु:--अनुभव किया।

    उसने उन्हें बताया कि माधव ने उसको कितना आदर ( मान ) प्रदान किया था किन्तु अबउसे अपने दुर्व्यवहार के कारण अनादर झेलना पड़ा।

    गोपियाँ यह सुनकर अत्यन्त विस्मित थीं।

    ततोविशन्वनं चन्द्र ज्योत्स्ना यावद्विभाव्यते ।

    तम:प्रविष्टमालक्ष्य ततो निववृतु: स्त्रियः ॥

    ४२॥

    ततः--तब; अविशनू-प्रविष्ट हुईं; वनम्‌--जंगल में; चन्द्र--चन्द्रमा की; ज्योत्स्ना--चाँदनी; यावत्‌--जहाँ तक; विभाव्यते--इृष्टिगोचर थी; तम:--अँधेरा; प्रविष्टमू-- प्रवेश किया हुआ; आलक्ष्य--देखकर; ततः--तत्पश्चात्‌; निववृतु:--विरत हो गईं;स्त्रियः--स्त्रियाँ

    तत्पश्चात्‌ गोपियाँ कृष्ण की खोज में जंगल के भीतर उतनी दूर तक गईं जहाँ तक चन्द्रमाकी चाँदनी थी।

    किन्तु जब उन्होंने अपने को अंधकार से घिरता देखा तो उन्होंने लौट आने कानिश्चय किया।

    तन्मनस्कास्तदलापास्तद्विचेष्टास्तदात्मिका: ।

    तदगुणानेव गायन्त्यो नात्मगाराणि सस्मरू: ॥

    ४३॥

    ततू-मनस्काः --उनके विचारों से भरे हुए मन; तत्‌ू-आलापा:--उनके विषय में बातें करती; तत्‌-विचेष्टा:--उनके कार्यकलापोंकी नकल करतीं; तत्‌-आत्मिका:-- उनकी उपस्थिति से पूरित; तत्‌-गुणान्‌ू--उनके गुणों के विषय में; एब--केवल;गायन्त्य: --गाती हुईं; न--नहीं; आत्म--अपने; आगाराणि--घरों को; सस्मरु:--याद किया

    उन सब के मन उनके ( कृष्ण के ) विचारों में लीन होने से वे उन्हीं के विषय में बातें करनेलगीं, उन्हीं की लीलाओं का अनुकरण करने लगीं और अपने को उनकी उपस्थिति से पूरितअनुभव करने लगीं।

    वे अपने घरों के विषय में पूरी तरह भूल गईं और कृष्ण के दिव्य गुणों काजोर जोर से गुणगान करने लगीं।

    पुनः पुलिनमागत्य कालिन्द्या: कृष्णभावना: ।

    समवेता जगु: कृष्णं तदागमनकाड्क्षिता: ॥

    ४४॥

    पुनः--फिर से; पुलिनम्‌--किनारे पर; आगत्य--आकर; कालिन्द्या:--यमुना नदी के; कृष्ण-भावना: --कृष्ण का ध्यानकरती; समवेता: --एकत्र हो गईं; जगु:ः--गाने लगीं; कृष्णम्‌-कृष्ण के विषय में; तत्‌ू-आगमन--उनके आगमन की;काड्क्षिता:--आकांक्षा करती हुई |

    गोपियाँ फिर से कालिन्दी के किनारे आ गईं।

    कृष्ण का ध्यान करते तथा उत्सुकतापूर्वकयह आशा लगाये कि वे आयेंगे ही, वे उनके विषय में गीत गाने के लिए एकसाथ बैठ गई।

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    अध्याय इकतीसवाँ: गोपियों के विरह के गीत

    10.31गोप्य ऊचुःजयति तेधिक॑ जन्मना ब्रजःश्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि ।

    दयितहृश्यतां दिक्षु तावका-स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्बते ॥

    १॥

    गोप्य: ऊचु:--गोपियों ने कहा; जयति--जय हो; ते--तुम्हारी; अधिकम्‌--अधिक; जन्मना--जन्म से; ब्रज: --ब्रज भूमि;श्रयते--वास करती है; इन्दिरा--लक्ष्मीदेवी; शश्वत्‌--निरन्तर; अत्र--यहाँ; हि--निस्सन्देह; दयित--हे प्रिय; दृश्यताम्‌ू--( आप ) देखे जा सकें; दिक्षु--सभी दिशाओं में; तावका:--आपके ( भक्त ); त्ववि--आपके लिए; धृत--धारण किये हुए;असव:--अपने प्राण; त्वामू--तुमको; विचिन्वते--खोज रही हैं|

    गोपियों ने कहा : हे प्रियतम, ब्रजभूमि में तुम्हारा जन्म होने से ही यह भूमि अत्यधिकमहिमावान हो उठी है और इसीलिए इन्दिरा ( लक्ष्मी ) यहाँ सदैव निवास करती हैं।

    केवल तुम्हारेलिए ही तुम्हारी भक्त दासियाँ हम अपना जीवन पाल रही हैं।

    हम तुम्हें सर्वत्र ढूँढ़ती रही हैं अतःकृपा करके हमें अपना दर्शन दीजिये।

    शरदुदाशये साधुजातसत्‌-सरसिजोदरश्रीमुषा दशा ।

    सुरतनाथ तेडशुल्कदासिकावरद निघ्नतो नेह कि वध: ॥

    २॥

    शरत्‌--शरद ऋतु का; उद-आशये--जलाशय में; साधु--उत्तम रीति से; जात--उगा; सत्‌--सुन्दर; सरसि-ज--कमल केफूलों के; उदर--मध्य में; श्री--सौन्दर्य; मुषा--अद्वितीय; हशा--आपकी चितवन से; सुरत-नाथ-हे प्रेम के स्वामी; ते--तुम्हारी; अशुल्क--मुफ्त, बिना मूल्य की; दासिका:--दासियाँ; वर-द--हे वरों के दाता; निघ्नत:--बध करने वाले; न--नहीं;इह--इस जगत में; किम्‌--क्‍्यों; वध: --हत्या |

    हे प्रेम के स्वामी, आपकी चितवन शरदकालीन जलाशय के भीतर सुन्दरतम सुनिर्मितकमल के कोश की सुन्दरता को मात देने वाली है।

    हे वर-दाता, आप उन दासियों का वध कररहे हैं जिन्होंने बिना मोल ही अपने को आपको पूर्ण रूप से समर्पित कर दिया है।

    क्या यह वध नहीं है?

    विषजलाप्ययाद्व्यालराक्षसाद्‌वर्षमारुतादवैद्युतानलात्‌ ।

    वृषमयात्मजाद्विश्वतो भया-दृषभ ते बयं रक्षिता मुहु; ॥

    ३॥

    विष--विषैला; जल--जल ( यमुना जल जो कालिय द्वारा दूषित था ) से; अप्ययात्‌--विनाश से; व्याल-- भयानक;राक्षसातू--( अघ ) राक्षस से; वर्ष--वर्षा ( इन्द्र द्वारा की गई ) से; मारुतातू--तथा अंधड से ( तृणावर्त द्वारा उत्पन्न ); वैद्युत-अनलातू--वज् ( इन्द्र के ) से; वृष--बैल ( अरिष्टासुर ) से; मब-आत्मजात्‌--मय के पुत्र ( व्योमासुर ) से; विश्वतः--सभी;भयात्‌-- भय से; ऋषभ--हे पुरुषों में श्रेष्ठ; ते--तुम्हारे द्वारा; वयम्‌--हम; रक्षिता:--रक्षा की जाती रही हैं; मुहुः--बारम्बार।

    हे पुरुषश्रेष्ठ, आपने हम सबों को विविध प्रकार के संकटों से--यथा विषैले जल से,मानवभक्षी भयंकर अघासुर से, मूसलाधार वर्षा से, तृणावर्त से, इन्द्र के अग्नि तुल्य बज्र से,वृषासुर से तथा मय दानव के पुत्र से बारम्बार बचाया है।

    न खलु गोपीकानन्दनो भवा-नखिलदेहिनामन्तरात्महक्‌ ।

    विखनसार्थितो विश्वगुप्तयेसख उदेयिवान्सात्वतां कुले ॥

    ४॥

    न--नहीं; खलु--निस्सन्देह; गोपिका--गोपी, यशोदा के; नन्दन:--पुत्र; भवान्‌ू--आप; अखिल--समस्त; देहिनाम्‌--देहधारीजीवों के; अन्तः-आत्म--अन्तःकरण का; हक्‌--द्रष्टा विखनसा--ब्रह्मा द्वारा; अर्थित: --प्रार्थना किये जाने पर; विश्व--विश्वकी; गुप्तये--रक्षा के लिए; सखे--हे मित्र; उदेयिवान्‌ू--आपका उदय हुआ; सात्वताम्‌ू--सात्वतों के; कुले--कुल में |

    हे सखा, आप वास्तव में गोपी यशोदा के पुत्र नहीं अपितु समस्त देहधारियों के हृदयों में अन्तस्थ साक्षी हैं।

    चूँकि ब्रह्माजी ने आपसे अवतरित होने एवं ब्रह्माण्ड की रक्षा करने के लिएप्रार्थना की थी इसलिए अब आप सात्वत कुल में प्रकट हुए हैं।

    विरचिताभयं वृष्णिधूर्य तेचरणमीयुषां संसूतेर्भयात्‌ ।

    'करसरोरुहं कान्त कामदंशिरसि थेहि नः श्रीकरग्रहम्‌ ॥

    ५॥

    विरचित--उत्पन्न किया; अभयम्‌---अभय; वृष्णि--वृष्णि कुल का; धूर्य--हे श्रेष्ठ; ते--तुम्हारे; चरणम्‌--चरण; ईयुषाम्‌--निकट पहुँचने वालों के; संसृते:-- भौतिक जगत के; भयात्‌-- भय से; कर--तुम्हारा हाथ; सर:-रुहमू--कमल के समान;कान्त-हे प्रेमी; काम--इच्छाएँ; दम्‌ू--पूरा करने वाला; शिरसि--सिरों पर; धेहि--रखो; नः--हमारे; श्री--लक्ष्मीदेवी के;कर--हाथ; ग्रहमू--पकड़ते हुए

    हे वृष्णिश्रेष्ठ, लक्ष्मीजी के हाथ को थामने वाला आपका कमल सद्ृश हाथ उन लोगों कोअभय दान देता है, जो भवसागर के भय से आपके चरणों के निकट पहुँचते हैं।

    हे प्रियतम, उसीकामना को पूर्ण करने वाले करकमल को हमारे सिरों के ऊपर रखें।

    ब्रजजनार्तिहन्वीर योषितांनिजजनस्मयध्वंसनस्मित ।

    भज सखे भवत्किड्डरीः सम नोजलरुहाननं चारु दर्शय ॥

    ६॥

    ब्रज-जन--ब्रज के लोगों के; आर्ति--कष्ट के; हन्‌ू--नष्ट करने वाले; वीर--हे वीर; योषिताम्‌--स्त्रियों के; निज--अपने;जन--लोगों का; स्मय--गर्व; ध्वंसन--विनष्ट करते हुए; स्मित--मंद हँसी; भज--स्वीकार करें; सखे--हे मित्र; भवत्‌--आपकी; किड्जरी:--दासियाँ; स्म--निस्सन्देह; न:--हमको; जल-रूह--कमल; आननम्‌ू--मुख वाले; चारु --सुन्दर; दर्शय--कृपा करके दिखाइये।

    हे ब्रज के लोगों के कष्टों को विनष्ट करने वाले, समस्त स्त्रियों के वीर, आपकी हँसी आपकेभक्तों के मिथ्या अभिमान को चूर चूर करती है।

    हे मित्र, आप हमें अपनी दासियों के रूप मेंस्वीकार करें और हमें अपने सुन्दर कमल-मुख का दर्शन दें।

    प्रणतदेहिनां पापकर्षणं तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम्‌ ।

    'फणिफणार्पितं ते पदाम्बुजंकृणु कुचेषु नः कृन्धि हच्छयम्‌ ॥

    ७॥

    प्रणत--आपके शरणागत; देहिनाम्‌ू--देहधारी जीवों के; पाप--पाप; कर्षणम्‌--हटाने वाले; तृण--घास; चर--चरने वाली( गाय ); अनुगम्‌--पीछे पीछे चलते हुए; श्री--लक्ष्मीजी के; निकेतनम्‌ू-- धाम; फणि--सर्प ( कालिय ) के; फणा--फनों पर;अर्पितम्‌--रखा; ते--तुम्हारे; पद-अम्बुजमू--चरणकमल; कृणु--कृपया रखें; कुचेषु--स्तनों पर; न:--हमारे; कृन्धि--काटडालिए; हत्‌-शयम्‌--हमारे हृदय की कामवासना |

    आपके चरणकमल आपके शरणागत समस्त देहधारियों के विगत पापों को नष्ट करने वालेहैं।

    वे ही चरण गौवों के पीछे पीछे चरागाहों में चलते हैं और लक्ष्मीजी के दिव्य धाम हैं।

    चूँकिआपने एक बार उन चरणों को महासर्प कालिय के फनों पर रखा था अत: अब आप उन्हें हमारेस्तनों पर रखें और हमारे हृदय की कामवासना को छिल्नभिन्न कर दें।

    मधुरया गिरा वल्गुवाक्ययाबुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण ।

    विधिकरीरिमा वीर मुहाती-रधरसीधुनाप्याययस्व नः ॥

    ८॥

    मधुरया--मधुर; गिरा--अपनी वाणी से; वल्गु--मोहक; वाक्यया-- अपने शब्दों से; बुध--बुद्धिमान को; मनो-ज्ञया--आकर्षक; पुष्कर--कमल; ईक्षण--आँखों वाले; विधि-करी:--दासियाँ; इमा:--ये; वीर--हे वीर; मुहाती:--मोहित हो रही;अधर--तुम्हारे होंठों के; सीधुना--अमृत से; आप्याययस्व--जीवन-दान दीजिये; न:--हमको |

    हे कमलनेत्र, आपकी मधुर वाणी तथा मोहक शब्द, जो कि बुद्धिमान के मन को आकृष्टकरने वाले हैं, हम सबों को अधिकाधिक मोह रहे हैं।

    हमारे प्रिय वीर, आप अपने होंठों के अमृतसे अपनी दासियों को पुनरुज्जीवित कर दीजिये।

    तव कथामृतं तप्तजीवनंकविभिरीडितं कल्मषापहम्‌ ।

    श्रवणमड्डलं श्रीमदाततंभुवि गृणन्ति ये भूरिदा जना: ॥

    ९॥

    तब--तुम्हारे; कथा-अमृतम्‌--शब्दों का अमृत; तप्त-जीवनम्‌-- भौतिक जगत में दुखियारों का जीवन; कविभि:--बड़े बड़ेचिन्तकों द्वारा; ईडितम्‌--वर्णित; कल्मष-अपहम्‌--पापों को भगाने वाला; श्रवण-मड्नलम्‌--सुनने पर आध्यात्मिक लाभ देनेवाला; श्रूईमत्‌--आध्यात्मिक शक्ति से पूर्ण; आततम्‌--संसार-भर में विस्तीर्ण; भुवि-- भौतिक जगत में; गृणन्ति--कीर्तन तथाप्रसार करते हैं; ये--जो लोग; भूरि-दाः--अत्यन्त उपकारी; जना:--व्यक्ति |

    आपके शब्दों का अमृत तथा आपकी लीलाओं का वर्णन इस भौतिक जगत में कष्ट भोगनेवालों के जीवन और प्राण हैं।

    विद्वान मुनियों द्वारा प्रसारित ये कथाएँ मनुष्य के पापों को समूलनष्ट करती हैं और सुनने वालों को सौभाग्य प्रदान करती हैं।

    ये कथाएँ जगत-भर में विस्तीर्ण हैंऔर आध्यात्मिक शक्ति से ओतप्रोत हैं।

    निश्चय ही जो लोग भगवान्‌ के सन्देश का प्रसार करतेहैं, वे सबसे बड़े दाता हैं।

    प्रहसितं प्रियप्रेमवी क्षणविहरणं च ते ध्यानमड्गलम्‌ ।

    रहसि संविदो या हृदि स्पृशःकुहक नो मनः क्षोभयन्ति हि ॥

    १०॥

    प्रहसितम्‌--हँसना; प्रिय--स्नेहपूर्ण; प्रेम--प्रेमपूर्ण; वीक्षणम्‌--चितवन; विहरणम्‌--घनिष्ठ लीलाएँ; च--तथा; ते--तुम्हारी;ध्यान-ध्यान द्वारा; मड्रलम्‌--शु भ; रहसि--एकान्त स्थान में; संविदः --वार्तालाप; या: --जो; हृदि--हृदय में; स्पृश: --स्पर्श ;कुहक--हे छलिया; न:ः--हमारे; मनः--मनों को; क्षोभयन्ति--क्षुब्ध करती हैं; हि--निस्सन्देह

    आपकी हँसी, आपकी मधुर प्रेम-भरी चितवन, आपके साथ हमारे द्वारा भोगी गई घनिष्ठलीलाएँ तथा गुप्त वार्ताएँ--इन सबका ध्यान करना मंगलकारी है और ये हमारे हृदयों को स्पर्शकरती हैं।

    किन्तु उस के साथ ही, हे छलिया, वे हमारे मन को अतीव श्लुब्ध भी करती हैं।

    चलसि यद्ब्रजाच्चारयन्पशून्‌नलिनसुन्दरं नाथ ते पदम्‌ ।

    शिलतृणाडुरैः सीदतीति नः'कलिलतां मनः कान्त गच्छति ॥

    ११॥

    चलसि--जाते हो; यत्‌--जब; ब्रजातू-गोपों के गाँव से; चारयन्‌ू--चराने के लिए; पशूनू--पशुओं को; नलिन--कमल सेभी बढ़कर; सुन्दरम्‌--सुन्दर; नाथ--हे स्वामी; ते--तुम्हारे; पदम्‌--चरण; शिल--अन्न के नुकीले सिरों से; तृण--घास;अह्डुरैः --तथा अंकुरित पौधों से; सीदति--पीड़ा अनुभव करते हैं; इति--ऐसा सोचकर; न:ः--हमारे; कलिलताम्‌--बेचैनी;मनः--मन; कान्त--हे प्रियतम; गच्छति-- अनुभव करते हैं|

    हे स्वामी, हे प्रियतम, जब आप गाँव छोड़कर गौवें चराने के लिए जाते हैं, तो हमारे मन इसविचार से विचलित हो उठते हैं कि कमल से भी अधिक सुन्दर आपके पाँवों में अनाज केनोकदार छिलके तथा घास-फूस एवं पौधे चुभ जायेंगे।

    दिनपरिक्षये नीलकुन्तलै-वनरुहाननं बिभ्रदावृतम्‌ ।

    घनरजस्वलं दर्शयन्मुहु-मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि ॥

    १२॥

    दिन--दिन के; परिक्षये--अन्त होने पर; नील--नीले; कुन्तलै:ः--केश गुच्छों से; वन-रूह--कमल; आननमू--मुख; बिश्रत्‌--प्रदर्शित करता; आवृतम्‌--ढका हुआ; घन--मोटा; रज:-वलम्‌-- धूल से सना; दर्शयन्‌--दिखलाते हुए; मुहुः--बारम्बार;मनसि--मनों में; न: --हमारे; स्मरमू--कामदेव को; वीर--हे वीर; यच्छसि--रख रहे हो |

    दिन ढलने पर आप हमें बारम्बार गहरे नीले केश की लटों से ढके तथा धूल से पूरी तरहधूसरित अपना कमल-मुख दिखलाते हैं।

    इस तरह, हे वीर, आप हमारे मन में कामवासना जागृतकर देते हैं।

    प्रणतकामदं पदाजार्चितंधरणिमण्डनं ध्येयमापदि ।

    चरणपड्डुजं शन्तमं च तेरमण नः स्तनेष्वर्पयाधिहन्‌ ॥

    १३॥

    प्रणत--झुकने वालों की; काम--इच्छाएँ; दम्‌--पूरी करते हुए; पद्य-ज--ब्रह्मा द्वारा; अर्चितम्‌--पूजित; धरणि--पृथ्वी के;मण्डनम्‌--आभूषण; ध्येयम्‌-ध्यान के पात्र; आपदि--विपत्ति के समय; चरण-पड्डजम्‌ू--चरणकमल; शम्‌-तमम्‌--सर्वोच्चतुष्टि प्रदान करने वाले; च--तथा; ते--तुम्हारा; रमण--हे प्रियतम; नः--हमारे; स्तनेषु--स्तनों पर; अर्पय--रखें; अधि-हन्‌--मानसिक क्लेश को विनाश करने वाले।

    ब्रह्माजी द्वारा पूजित आपके चरणकमल उन सबों की इच्छाओं को पूरा करते हैं, जो उनमेंनतमस्तक होते हैं।

    वे पृथ्वी के आभूषण हैं, वे सर्वोच्च सन्‍्तोष के देने वाले हैं और संकट केसमय चिन्तन के लिए सर्वथा उपयुक्त हैं।

    हे प्रियतम, हे चिन्ता के विनाशक, आप उन चरणों कोहमारे स्तनों पर रखें।

    सुरतवर्धन॑ शोकनाशनंस्वरितवेणुना सुष्ठु चुम्बितम्‌ ।

    इतररागविस्मारणं नृणांवितर वीर नस्तेधरामृतम्‌ ॥

    १४॥

    सुरत--माधुर्य सुख; वर्धनम्‌--बढ़ाने वाले; शोक--शोक; नाशनम्‌--विनष्ट करने वाले; स्वर्ति-- ध्वनि की गईं; वेणुना--आपकी व॑शी द्वारा; सुष्ठ-- अत्यधिक ; चुम्बितम्‌--चुम्बन किया हुआ; इतर--अन्य; राग--आसक्ति; विस्मारणम्‌--विस्मरणकराने वाले; नृणाम्‌--मनुष्यों के; वितर--कृपया वितरण कीजिये; बीर--हे वीर; नः--हम पर; ते--तुम्हारे; अधर--अधरोंके; अमृतम्‌--अमृत को

    हे वीर, आप अपने होंठों के उस अमृत को हममें वितरित कीजिये जो युगल आनन्द कोबढ़ाने वाला और शोक को मिटाने वाला है।

    उसी अमृत का आस्वाद आपकी ध्वनि करती हुईवंशी लेती है और लोगों को अन्य सारी आसक्तियाँ विसरा देती है।

    अटति यद्धवानह्नि काननंत्रुटि युगायते त्वामपश्यताम्‌ ।

    कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च तेजड उदीक्षतां पक्ष्मकृदूशाम्‌ ॥

    १५॥

    अटति--घूमते हो; यत्‌ू--जब; भवान्‌ू--आप; अहि--दिन में; काननम्‌ू--जंगल में; त्रुटि--लगभग १/१७०० सेकंड;युगायते--एक युग के बराबर हो जाता है; त्वामू--तुम; अपश्यताम्‌ू--न देखने वालों के लिए; कुटिल--घुँघराले; कुन्तलम्‌--बालों का गुच्छा; श्री--सुन्दर; मुखम्‌--मुँह; च--तथा; ते--तुम्हारा; जड: --मूर्ख; उदीक्षताम्‌--उत्सुकता से देखने वालों को;पक्ष्म--पलकों का; कृतू--बनाने वाला; दहशाम्‌--आँखों का |

    जब आप दिन के समय जंगल चले जाते हैं, तो क्षण का एक अल्पांश भी हमें युग सरीखालगता है क्योंकि हम आपको देख नहीं पातीं।

    और जब हम आपके सुन्दर मुख को जो घुँघरालेबालों से सुशोभित होने के कारण इतना सुन्दर लगता है, देखती भी हैं, तो ये हमारी पलकें हमारेआनन्द में बाधक बनती हैं, जिल्हें मूर्ख स्त्रष्टा ने बनाया है।

    पतिसुतान्वय भ्रातृबान्धवा-नतिविलड्घ्य तेडन्त्यच्युतागता: ।

    गतिविदस्तवोद्गीतमोहिता:ःकितव योषितः कस्त्यजेन्निशि ॥

    १६॥

    पति--पति; सुत--बालक; अन्वय--पूर्वज; भ्रातृ- भाई; बान्धवान्‌--तथा अन्य सम्बन्धियों को; अतिविलड्घ्य--पूर्णतयाउपेक्षा करके; ते--तुम्हारी; अन्ति--उपस्थिति में; अच्युत--हे अच्युत; आगता:--आई हुई; गति--हमारी चालढाल का;विदः--प्रयोजन को जानने वाले; तब--तुम्हारा; उद्गीत--( वंशी के ) तेज गीत से; मोहिता:--मोहित; कितव--हे छलिया;योषितः--स्त्रियों को; क:ः--कौन; त्यजेत्‌--त्याग करेगा; निशि--रात में |

    हे अच्युत, आप भलीभाँति जानते हैं कि हम क्‍यों आई हैं।

    आप जैसे छलिये के अतिरिक्तभला और कौन होगा, जो अर्धरात्रि में उसकी बाँसुरी के तेज संगीत से मोहित होकर उसे देखनेके लिए आई तरुणी स्त्रियों का परित्याग करेगा ? आपके दर्शनों के लिए ही हमने अपने पतियों, बच्चों, बड़े-बूढ़ों, भाइयों तथा अन्य रिश्तेदारों को पूरी तरह ठुकरा दिया है।

    रहसि संविदं हच्छयोदयंप्रहसितानन प्रेमवी क्षणम्‌ ।

    बृहदुरः भ्रियो वीक्ष्य धाम तेमुहुरतिस्पृहा मुहाते मन: ॥

    १७॥

    रहसि--एकान्त में; संविदम्‌ू-गुप्त वार्ताएँ; हत्‌ू-शय--हृदय में कामेच्छा का; उदयम्‌--उठना; प्रहसित--हँसता हुआ;आननमू--मुख; प्रेम--प्रेमपूर्ण; वीक्षणम्‌--चितवन; बृहत्‌--चौड़ी; उर:--छाती; ख्रिय:--लक्ष्मी; वीक्ष्--देखकर; धाम--धाम; ते--तुम्हारा; मुहुः--बारम्बार; अति--अत्यधिक; स्पृहा--लालसा; मुहाते--मोह लेती है; मनः--मन को |

    जब हम आपके साथ एकान्त में हुईं घनिष्ठ वार्ताओं का चिन्तन करती हैं, तो अपने हृदयों मेंकामोदय अनुभव करती हैं और आपकी हँसमुख आकृति, आपकी प्रेममयी चितवन तथाआपके चोौड़े सीने का, जो कि लक्ष्मी का वासस्थान है, स्मरण करती हैं तब हमारे मन बारम्बारमोहित हो जाते हैं।

    इस तरह हमें आपके लिए अत्यन्त गहन लालसा की अनुभूति होती है।

    ब्रजवनौकसां व्यक्तिरड्र तेवृजिनहन्त्यलं विश्वमड्रलम्‌ ।

    त्यज मनाक्ननस्त्वत्स्पृहात्मनांस्वजनहद्गुजां यत्रिषूदनम्‌ ॥

    १८॥

    ब्रज-वन--ब्रज के जंगलों में; ओकसाम्‌--निवासियों के लिए; व्यक्ति: --प्राकट्य; अड़--हे प्रिय; ते--तुम्हारा; वृजिन--दुखका; हन्त्री--विनाश करने वाला; अलमू--बहुत हो गया, बस; विश्व-मड्गडलम्‌--मंगलमय; त्यज--छोड़ दीजिये; मनाक्‌--थोड़ा; च--तथा; न:--हमको; त्वत्‌--तुम्हारे लिए; स्पृहा--लालसा; आत्मनाम्‌--पूरित मनों वाले; स्व--अपने; जन--भक्तगण; हत्‌--हृदयों में; रुजामू--रोग का; यत्‌--जो; निषूदनम्‌--शमन करने वाला

    हे प्रियतम, आपका सर्व मंगलमय प्राकट्य ब्रज के बनों में रहने वालों के कष्ट को दूर करताहै।

    हमारे मन आपके सान्निध्य के लिए लालायित हैं।

    आप हमें थोड़ी-सी वह औषधि दे दें, जोआपके भक्तों के हृदयों के रोग का शमन करती है।

    यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेषुभीताः शनै: प्रिय दधीमहि कर्कशेषु ।

    तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किं स्वित्‌कूर्पादिभिश्र॑मति धीर्भवदायुषां नः ॥

    १९॥

    यत्‌--जो; ते--तुम्हारे; सु-जात--अतीव सुन्दर; चरण-अम्बु-रुहम्‌--चरणकमल को; स्तनेषु--स्तनों पर; भीता:-- भयभीतहोने से; शनैः--धीरे धीरे; प्रिय--हे प्रिय; दधीमहि--हम रखती हैं; कर्कशेषु--कर्कश; तेन--उनसे; अटवीम्‌--जंगल में;अटसि--आप घूमते हैं; तत्‌--वे; व्यथते--दुखते हैं; न--नहीं; किम्‌ स्वितू--हम आश्चर्य करती हैं; कूर्प-आदिभि:--छोटेकंकड़ों आदि से; भ्रमति--घूम जाता है; धीः--मन; भवत्‌-आयुषाम्‌--उन लोगों के लिए जिनके प्राण भगवान्‌ हैं; न:--हमारा

    हे प्रियतम, आपके चरणकमल इतने कोमल हैं कि हम उन्हें धीरे से अपने स्तनों पर डरते हुएहल्के से ऐसे रखती हैं कि आपके पैरों को चोट पहुँचेगी।

    हमारा जीवन केवल आप पर टिकाहुआ है।

    अतः हमारे मन इस चिन्ता से भरे हैं कि कहीं जंगल के मार्ग में घूमते समय आपकेकोमल चरणों में कंकड़ों से चोट न लग जाए।

    TO

    अध्याय बत्तीस: पुनर्मिलन

    10.32श्रीशुक उबाचइति गोप्यः प्रगायन्त्य: प्रलपन्त्यश्च चित्रधा ।

    रुरुदुः सुस्वरं राजन्कृष्णदर्शनलालसा: ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार, जैसाकि ऊपर कहा गया; गोप्य:--गोपियाँ; प्रगायन्त्य:--गाती हुईं; प्रलपन्त्य:--बातें करतीं; च--तथा; चित्रधा-- अनेक मनमोहक विधियों से; रुरुदु:--चिल्लाईं; सु-स्वरम्‌--तेजी से;राजनू--हे राजा; कृष्ण-दर्शन--कृष्ण का दर्शन करने की; लालसा:--लालसाएँ।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजनू, इस तरह गाकर तथा अपने हृदय की बातों को विविधमोहक विधियों से प्रकट करके गोपियाँ जोर जोर से रोने लगीं।

    वे कृष्ण का दर्शन करने के लिएअत्यन्त लालायित थीं।

    तासामाविरभूच्छौरि: स्मयमानमुखाम्बुज: ।

    पीताम्बरधरः स्त्रग्वी साक्षान्मन्मथमन्मथ:ः ॥

    २॥

    तासामू--उनके समक्ष; आविरभूत्‌--प्रकट हुए; शौरि: -- भगवान्‌ कृष्ण; स्मयमान--हँसते हुए; मुख--मुँह; अम्बुज:--कमलसहश; पीत--पीला; अम्बर--वस्त्र; धर: --पहने; सत्रकू-वी--फूलों की माला पहने; साक्षात्‌-प्रत्यक्ष; मन्‌-मथ--मन कोमोहित करने वाले, कामदेव का; मन्‌--मन का; मथ: --मथने या मोहने वाला।

    तब भगवान्‌ कृष्ण अपने मुखमण्डल पर हँसी धारण किये गोपियों के समक्ष प्रकट हो गये।

    माला तथा पीत वस्त्र पहने वे ऐसे लग रहे थे, जो सामान्य जनों के मन को मोहित करने वालेकामदेव के मन को भी मोहित कर सकते थे।

    त॑ विलोक्यागत॑ प्रेष्ठे प्रीत्युतफुल्लहशोबला: ।

    उत्तस्थुर्युगपत्सर्वास्तन्व: प्राणमिवागतम्‌ ॥

    ३॥

    तम्‌--उस; विलोक्य--देखकर; आगतमू--वापस आया; प्रेष्ठम्‌-- अपने प्रियतम को; प्रीति--स्नेह से; उत्फुल्ल--खिली हुई;हृशः--आँखें; अबला: --युवतियाँ; उत्तस्थु:--खड़ी हो गईं; युगपत्‌--तुरन्‍्त एकसाथ; सर्वा:--सभी; तन्व: --शरीर के;प्राणम्‌-- प्राण वायु; इब--सहृश; आगतम्‌--आया हुआ |

    जब गोपियों ने देखा कि उनका परमप्रिय कृष्ण उनके पास लौट आया है, तो वे सहसा उठखड़ी हुईं और स्नेह के कारण उनकी आँखें पूरी तरह खिल उठीं।

    ऐसा लगा मानों उनके ( मृत )शरीर में प्राण वापस आ गये हों।

    काचित्कराम्बुजं शौरेज॑गृहेज्जलिना मुदा ।

    काचिद्दधार तद्ठाहुमंसे चन्दनभूषितम्‌ ॥

    ४॥

    काचित्‌--उनमें से एक; कर-अम्बुजमू--कर-कमल को; शौरे: -- भगवान्‌ कृष्ण के; जगृहे--पकड़ लिया; अज्ञलिना--अपनीहथेली में; मुदा--हर्ष के मारे; काचित्‌--दूसरी ने; दधार--रख लिया; ततू-बाहुमू--उनकी भुजा को; अंसे--अपने कंधे पर;चन्दन--चन्दन लेप से; भूषितम्‌--सजाई गईं।

    एक गोपी ने हर्षित होकर कृष्ण के हाथ को अपनी हथेलियों के बीच में ले लिया औरदूसरी ने चन्दनलेप से विभूषित उनकी भुजा अपने कंधे पर रख ली।

    काचिदझ्जलिनागृह्ञत्तन्वी ताम्बूलचर्वितम्‌ ।

    एका तदड्प्रिकमलं सन्तप्ता स्तनयोरधात्‌ ॥

    ५॥

    काचित्‌--एक; अज्जञलिना--हथेलियों से; अगृह्नात्‌ू--ले लिया; तन्वी--छरहरी ने; ताम्बूल--पान का; चर्वितम्‌--जूठन;एका--एक ने; तत्‌--उसका; अड्ध्रि--पाँव; कमलम्‌ू--कमलवत्‌; सन्तप्ता--तपते हुए; स्तनयो:--अपने स्तनों पर; अधातू--रख लिया |

    एक छरहरी गोपी ने आदरपूर्वक अपनी हथेलियों में उनके चबाये पान का जूठन ले लिया और ( काम ) इच्छा से तप्त दूसरी गोपी ने उनके चरणकमल अपने स्तनों पर रख लिए।

    एका श्रुकुटिमाबध्य प्रेमसंरम्भविह्नला ।

    घ्नन्तीवैक्षत्कटाक्षेपै: सन्दष्टद्शनच्छदा ॥

    ६॥

    एका--एक अन्य गोपी ने; भ्रु-कुटिमू-- अपनी भौंहों को; आबध्य--सिकोड़ कर; प्रेम-- अपने शुद्ध प्रेम; संरम्भ--क्रोध से;विहला--आपे में न रहकर; घ्वन्ती--चोट पहुँचाती; इब--मानो; ऐक्षत्‌--देखा; कट--अपने कटाक्ष से; आशक्षेपैः --आक्षेपोंसे; सन्दष्ट--काटते हुए; दशन--अपने दाँत के; छदा--आवरण ( अपने होठों को )

    एक गोपी प्रेममय क्रोध से विहल होकर अपने होंठ काटने लगी और क्रुद्ध भौहों से उन्हेंताकने लगी मानो वह अपनी कुटिल चितवनों से उन्हें घायल कर देगी।

    अपरानिमिषदृग्भ्यां जुषाणा तन्मुखाम्बुजम्‌ ।

    आपीतमपि नातृप्यत्सन्तस्तच्चरणं यथा ॥

    ७॥

    अपरा--एक अन्य गोपी; अनिमिषत्‌-- अपलक; द्ग्भ्यामू-- आँखों से; जुषाणा--आस्वाद करती; तत्‌--उसका; मुख-अम्बुजम्‌ू--कमलमुख; आपीतम्‌--पूर्णतया आस्वादित; अपि--यद्यपि; न अतृप्यत्‌--तृप्त नहीं हुईं; सन्‍्तः--सन्त गण; ततू-चरणमू--उनके चरणों को; यथा--जिस तरह।

    एक अन्य गोपी उनके कमल को अपलक नेत्रों से देखती रही किन्तु माधुरी का गहनआस्वाद कर लेने पर भी तुष्ट नहीं हुई जिस तरह सन्त पुरुष भगवान्‌ के चरणों का ध्यान करतेहुए तृप्त ही नहीं होते।

    त॑ काचिच्नेत्ररन्श्रेण हदि कृत्वा निमील्य च ।

    पुलकाड्ग्युपगुद्यास्ते योगीवानन्दसम्प्लुता ॥

    ८॥

    तमू--उसको; काचित्‌--उनमें से एक; नेत्र--अपनी आँखों के ; रन्श्रेण--छिद्र से; हदि--अपने हृदय में; कृत्वा--रखकर;निमील्य--बन्द करके; च--तथा; पुलक-अड्डी --अंग अंग में रोमांचित हुई; उपगुह्ा--आलिंगन करके; आस्ते--रहती रही;योगी--योगी; इब--सहृश; आनन्द--आननन्‍द में; सम्प्लुता--निमग्न |

    एक गोपी ने भगवान्‌ को अपनी आँखों के छिद्र से ले जाकर उन्हें अपने हृदय में रख लिया।

    तब उसने अपनी आँखें बन्द कर लीं और रोमांचित होकर वह भीतर ही भीतर उनका लगातारआलिंगन करने लगी।

    इस तरह दिव्य आनन्द में निमग्न वह भगवान्‌ का ध्यान करने वाले योगीजैसी लग रही थी।

    सर्वास्ता: केशवालोकपरमोत्सवनिर्वृता: ।

    जहुर्विरहजं ताप॑ प्राज्जं प्राप्प यथा जना: ॥

    ९॥

    सर्वा:--सभी; ता:ः--उन गोपियों ने; केशव-- भगवान्‌ कृष्ण के; आलोक--दिखाई पड़ने से; परम--परम; उत्सव--उललासया उत्सव का; निर्वृता:--हर्ष का अनुभव करतीं;; जहु:--त्याग दिया; विरह-जम्‌--उनके विरह से उत्पन्न; तापम्‌--कष्ट को;प्राज्ममू-- आध्यात्मिक रूप से प्रबुद्ध व्यक्ति को; प्राप्प--पाकर; यथा--जिस तरह; जना:--सामान्य लोग।

    सभी गोपियों ने जब अपने प्रिय केशव को फिर से देखा तो उन्हें परम उल्लास का अनुभवहुआ।

    उन्होंने विरह-दुःख को त्याग दिया जिस तरह कि सामान्य लोग आध्यात्मिक रूप से प्रबुद्धव्यक्ति की संगति पाकर अपने दुख भूल जाते हैं।

    ताभिर्विधूतशोकाभिर्भगवानच्युतो वृतः ।

    व्यरोचताधिकं तात पुरुष: शक्तिभिर्यथा ॥

    १०॥

    ताभि:--इन गोपियों द्वारा; विधूत--पूर्णतया धुली; शोकाभि:--अपने शोक से; भगवान्‌--भगवान्‌; अच्युत: --अच्युत;बृतः--घिरी हुई; व्यरोचत--उज्वल दिखीं; अधिकम्‌--अत्यधिक; तात--हे प्रिय ( राजा परीक्षित ); पुरुष: --परमात्मा;शक्तिभि:ः--अपनी दिव्य शक्तियों से; यथा--जिस तरह।

    समस्त शोक से मुक्त हुईं गोपियों से घिरे हुए पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ अच्युत भव्यता के साथचमक रहे थे।

    हे राजन्‌, कृष्ण ऐसे लग रहे थे जिस तरह अपनी आध्यात्मिक शक्तियों से घिरे हुएपरमात्मा हों।

    ता: समादाय कालि-न्द्या निर्विश्य पुलिनं विभुः ।

    विकसत्कुन्दमन्दार सुरभ्यनिलषट्पदम्‌ ॥

    ११॥

    शरच्चन्द्रांशुसन्दोहध्वस्तदोषातम: शिवम्‌ ।

    कृष्णाया हस्ततरला चितकोमलवालुकम्‌ ॥

    १२॥

    ताः--उन गोपियों को; समादाय--लेकर; कालिन्द्या:--यमुना के; निर्विश्य--प्रवेश करके; पुलिनम्‌--तट पर; विभु:--सर्वशक्तिमान भगवान्‌; विकसत्‌--खिले हुए; कुन्द-मन्दार--कुन्द तथा मन्दार के फूलों की; सुरभि--सुगन्धित; अनिल--मन्दवायु से; सत्‌-पदम्‌-- भौंरों से; शरत्‌--शरदकालीन; चन्द्र--चन्द्रमा की; अंशु--किरणों की; सन्दोह--प्रचुरता से; ध्वस्त--दूरहुआ; दोषा--रात्रि का; तमः --अँधेरा; शिवम्‌--शुभ; कृष्णाया:--यमुना नदी का; हस्त--हाथों की तरह; तरल--अपनीलहरों से; आचित--एकत्रित; कोमल--मुलायम; वालुकम्‌--बालू, रेत |

    तत्पश्चात्‌ सर्वशक्तिमान भगवान्‌ गोपियों को अपने साथ कालिन्दी के तट पर ले गये जिसनेअपने तट पर अपनी लहरों रूपी हाथों से कोमल बालू के ढेर बिखेर दिये थे।

    उस शुभ स्थान मेंकुन्द तथा मन्दार फूलों के खिलने से बिखरी सुगन्धि को लेकर मन्द मन्द वायु अनेक भौंरों कोआकृष्ट कर रही थी और शरदकालीन चन्द्रमा की प्रभूत किरणों रात्रि के अंधकार को दूर कररही थीं।

    तदरर्शनाह्नादविधूतहद्रुजोमनोरथान्तं श्रुतयो यथा ययु: ।

    स्वैरुत्तरीयैः कुचकुड्डू माड्डितै-रचीक्रिपन्नासनमात्मबन्धवे ॥

    १३॥

    तत्‌--उस कृष्ण को; दर्शन--देखने से; आह्ाद-- आनन्द से; विधूत--बहकर, ले जाई गई; हत्‌-- अपने हृदयों में; रुज:--पीड़ा; मनः-रथ-- अपनी इच्छाओं की; अन्तम्‌--पूर्ति; श्रुत॒थः-- श्रुतियाँ, शास्त्र; यथा--जिस तरह; ययुः:--प्राप्त किया;स्वैः-- अपनी; उत्तरीयै:--ओढ़नी से; कुच--स्तनों के; कुड्डू म--सिन्‍्दूर से; अड्जभितैः--लेप की हुई; अचीक़िपन्‌--बना दिया;आसनम्‌--आसन; आत्म--अपनी आत्मा के; बन्धवे--मित्र के लिए |

    अपने समक्ष साक्षात्‌ वेद रूप कृष्ण के दर्शन के आनन्द से गोपियों की हृदय-वेदना शमितहो गई और उन्हें लगा कि उनकी सारी इच्छाएँ पूरी हो गईं।

    उन्होंने अपने प्रिय मित्र कृष्ण के लिएअपनी ओढ़नियों से, जो कि उनके स्तनों में लगे कुंकुम से सनी थीं, आसन बना दिया।

    तत्रोपविष्टो भगवान्स ई श्वरोयोगेश्वरान्तहदे कल्पितासनः ।

    चकास गोपीपरिषद्गतोर्चित-स्त्रैलोक्यलक्ष्म्येकपदं वपुर्दधत्‌ ॥

    १४॥

    तत्र--वहाँ; उपविष्ट:--आसीन; भगवान्‌-- भगवान्‌; सः--वह; ईश्वर: --परम नियन्ता; योग-ईश्वर--यौगिक ध्यान के स्वामियोंके; अन्तः--भीतर; हृदि--हृदयों में; कल्पित--बना लिया; आसन:--अपना स्थान; चकास--चमत्कृत लगने लगे; गोपी-'परिषत्‌--गोपियों की सभा में; गत:ः--उपस्थित; अर्चित:ः--पूजित; त्रै-लोक्य--तीनों लोकों के; लक्ष्मी--सौन्दर्य तथा अन्यऐश्वर्यों के; एक--एकमात्र; पदम्‌ू--आगार; वपु:--साकार स्वरूप; दधतू--प्रदर्शित करते हुए।

    जिन भगवान्‌ कृष्ण के लिए बड़े बड़े योगेश्वर अपने हृदयों में आसन की व्यवस्था करते हैंवही कृष्ण गोपियों की सभा में आसन पर बैठ गये।

    उनका दिव्य शरीर, जो तीनों लोकों मेंसौन्दर्य तथा ऐश्वर्य का एकमात्र धाम है, गोपियों द्वारा कृष्ण की पूजा करने पर जगमगा उठा।

    सभाजयित्वा तमनड्ढदीपनंसहासलीलेक्षणविश्रमश्रुवा ।

    संस्पर्शनेनाड्डकृताड्प्रिहस्तयो:संस्तुत्य ईषत्कुपिता बभाषिरे ॥

    १५॥

    सभाजयित्वा--सम्मानित करके; तम्‌--उसको; अनड्र--कामेच्छाओं के; दीपनम्‌--उद्यीप्त करने वाला; स-हास--हँसते हुए;लीला--क्रीड़ापूर्ण; ईक्षण--चितवन से; विभ्रम--खिलवाड़ करते; भ्रुवा--अपनी भौहैं से; संस्पर्शनेन--स्पर्श से; अड्डू--अपनी गोदों में; कृत--रख कर; अड्ध्रि--उनके पाँवों; हस्तयो: --तथा हाथों को; संस्तुत्य--प्रशंसा करके; ईषत्‌--कुछ कुछ;कुपिता:--छुद्ध।

    बभाषिरे--बोलीं |

    श्रीकृष्ण ने गोपियों के भीतर कामवासना जागृत कर दी थी और वे अपनी क्रीड़ापूर्ण हँसीसे उनको निहारतीं, अपनी भौंहों से प्रेममय इशारे करतीं तथा अपनी अपनी गोदों में उनके हाथतथा पाँव रखकर उन्हें मलती हुईं उनका सम्मान करने लगीं।

    किन्तु उनकी पूजा करते हुए भी वेकुछ कुछ रुष्ट थीं अतएव वे उनसे इस प्रकार बोलीं ।

    श्रीगोप्य ऊचु:भजतो नुभजन्त्येक एक एतद्ठिपर्ययम्‌ ।

    नोभयांश्व भजन्त्येक एतन्नो ब्रूहि साधु भोः ॥

    १६॥

    श्री-गोप्य: ऊचु:--गोपियों ने कहा; भजत:--अपना सम्मान करने वालों से; अनु--परस्पर; भजन्ति--आदर करते हैं; एके --कुछ; एके--कुछ; एतत्‌--इसके; विपर्ययम्‌--विपरीत; न उभयान्‌--दोनों से नहीं; च--तथा; भजन्ति--परस्पर प्रशंसा करतेहैं; एके--कुछ; एतत्‌--यह; नः--हमसे; ब्रूहि--बोलिये; साधु--ढंग से; भोः--ओरे।

    गोपियों ने कहा : कुछ लोग केवल उन्हीं से स्नेह जताते हैं, जो उनके प्रति स्नेहिल होते हैंजबकि अन्य लोग उनके प्रति भी स्नेह दिखाते हैं, जो शत्रुवत्‌ या उदासीन होते हैं।

    फिर भी कुछलोग किसी से भी स्नेह नहीं जताते।

    हे कृष्ण, हमसे इस विषय की समुचित व्याख्या करें।

    श्रीभगवानुवाचमिथो भजन्ति ये सख्य: स्वार्थेकान्तोद्यमा हि ते ।

    न तत्र सौहदं धर्म: स्वार्थार्थ तद्द्धि नान्‍न्यथा ॥

    १७॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; मिथ: --परस्पर; भजन्ति--प्रेम करते हैं; ये--जो; सख्य: --मित्रगण; स्व-अर्थ--अपनेलिए; एक-अन्त--नितान्त; उद्यमा:--जिनका प्रयत्न; हि--निस्सन्देह; ते--वे; न--नहीं; तत्र--वहाँ पर; सौहदम्‌--सच्चीमित्रता; धर्म:--असली धार्मिकता; स्व-अर्थ--अपने लाभ; अर्थम्‌--के लिए; तत्‌--वह; हि--निस्सन्देह; न--नहीं; अन्यथा --अन्यथा।

    भगवान्‌ ने कहा : तथाकथित मित्र जो अपने लाभ के लिए एक दूसरे से स्नेह जताते हैं, वेवास्तव में स्वार्थी हैं।

    न तो उनकी मित्रता सच्ची होती है न ही वे धर्म के असली सिद्धान्तों का पालन करते हैं।

    यदि वे एक दूसरे से लाभ की आशा न करें तो वे प्रेम नहीं कर सकते।

    भजन्त्यभजतो ये वै करुणा: पितरौ यथा ।

    धर्मो निरपवादोत्र सौहदं च सुमध्यमा: ॥

    १८ ॥

    भजन्ति--निष्ठापूर्वक सेवा करते हैं; अभजत:--न सेवा करने वालों के साथ; ये--जो; वै--निस्सन्देह; करुणा:--दयालु;पितरौ--माता पिता; यथा--जिस तरह; धर्म:--धार्मिक कर्तव्य; निरपवाद:--त्रुटिरहित; अत्र--इसमें; सौहदम्‌--मित्रता; च--तथा; सु-मध्यमा: --हे पतली कमर वालियो |

    हे पतली कमर वाली गोपियों, कुछ लोग सचमुच दयालु होते हैं या माता-पिता की भाँतिस्वाभाविक रूप से स्नेहिल होते हैं।

    ऐसे लोग उन लोगों की भी निष्ठापूर्वक सेवा करते हैं, जोबदले में उनसे प्रेम करने से चूक जाते हैं।

    वे ही धर्म के असली त्रुटिविहीन मार्ग का अनुसरणकरते हैं और वे ही असली शुभचिन्तक हैं।

    भजतोपि न वै केचिद्धजन्त्यभजतः कुतः ।

    आत्मारामा ह्याप्तकामा अकृतज्ञा गुरुद्गरहः ॥

    १९॥

    भजतः:--अनुकूल कार्य करने वालों के साथ; अपि-- भी; न--नहीं; बै--निश्चय ही; केचित्‌--कुछ; भजन्ति--प्रेम करते हैं;अभजतः--अनुकूल कार्य न करने वालों के साथ; कुत:ः--क्या कहा जाय; आत्म-आरामा:--आत्म-तुष्ट; हि--निस्सन्देह;आप्त-कामा:--जिनकी भौतिक इच्छाएँ पूर्ण हो चुकी हैं; अकृत-ज्ञा:--कृतघ्न; गुरु-द्रुह:ः--गुरुजनों के शत्रु॥

    फिर कुछ व्यक्ति ऐसे हैं, जो आध्यात्मिक रूप से आत्म तुष्ट हैं, भौतिक दृष्टि से परिपूर्ण हैंया स्वभाव से कृतघ्न हैं या सहज रूप से श्रेष्ठजनों से ईर्ष्या करने वाले हैं।

    ऐसे लोग उनसे भीप्रेम नहीं करते जो उनसे प्रेम करते हैं, तो फिर जो शत्रुवत्‌ हैं उनका क्या कहना ?

    नाहं तु सख्यो भजतोपि जन्तून्‌भजाम्यमीषामनुवृत्तिवृत्तये ।

    यथाधनो लब्धधने विनष्टेतच्चिन्तयान्यन्निभृतो न वेद ॥

    २०॥

    न--नहीं; अहम्‌--मैं; तु--दूसरी ओर; सख्य:--हे मित्रो; भजत:--पूजा करते हुए; अपि-- भी; जन्तून्‌ू--जीवों से; भजामि--आदान-प्रदान करता हूँ; अमीषाम्‌--उनकी; अनुवृत्ति--लालसा ( शुद्ध प्रेम के लिए ); वृत्तये--प्रेरित करने के लिए; यथा--जिस तरह; अधन: --निर्धन व्यक्ति; लब्ध--प्राप्त करके; धने--सम्पत्ति; विनष्ट--तथा नष्ट होने पर; तत्‌--उसका; चिन्तया--उत्सुक विचार से; अन्यत्‌--अन्य कोई वस्तु; निभृत:--पूरित; न वेद--नहीं जानता।

    किन्तु हे गोपियो, मैं उन जीवों के प्रति भी तत्क्षण स्नेह प्रदर्शित नहीं कर पाता जो मेरी पूजाकरते हैं।

    इसका कारण यह है कि मैं उनकी प्रेमाभक्ति को प्रगाढ़ करना चाहता हूँ।

    इससे वे ऐसेनिर्धन व्यक्ति के सदश बन जाते हैं जिसने पहले कुछ सम्पत्ति प्राप्त की थी किन्तु बाद में उसे खोदिया है।

    इस तरह उसके बारे में वह इतना चिन्तित हो जाता है कि और कुछ सोच ही नहीं पाता।

    एवं मदर्थोज्झितलोकवेद-स्वानां हि वो मय्यनुवृत्तयेडबला: ।

    मयापरोक्ष॑ भजता तिरोहितंमासूयितु मार्हथ तत्प्रियं प्रिया: ॥

    २१॥

    एवम्‌--इस प्रकार; मत्‌--मेरे; अर्थ--हेतु; उज्झित--त्यागकर; लोक--सांसारिक मत; वेद--वेदों का मत; स्वानामू--तथासम्बन्धियों को; हि--निस्सन्देह; व: --तुम्हारा; मयि--मेरे लिए; अनुवृत्तये--प्रेमाधिक्य के लिए; अबला:--हे बालाओ;मया--मेरे द्वारा; अपरोक्षम्‌--तुम्हारी दृष्टि से ओझल; भजता--वास्तव में प्रेम करने वाला; तिरोहितम्‌--अन्‍्तर्धान; मा--मेरेसाथ; असूयितुम्‌-शत्रुता होने से; म अर्हथ--नहीं चाहिए; तत्‌--अत:ः; प्रियम्‌--अपने प्रियतम के साथ; प्रिया: --हे प्रियाओ

    हे बालाओ, यह जानते हुए कि तुम सबों ने मेरे ही लिए लोकमत, वेदमत तथा अपनेसम्बन्धियों के अधिकार को त्याग दिया है मैंने जो किया वह अपने प्रति तुम लोगों की आसक्तिको बढ़ाने के लिए ही किया है।

    तुम लोगों की दृष्टि से सहसा अपने को ओझल बनाकर भी मैंतुम लोगों से प्रेम करना रोक नहीं पाया।

    अतः प्रिय गोपियो, तुम अपने प्रेमी अर्थात्‌ मेरे प्रतिदुर्भावनाओं को स्थान न दो।

    न पारयेहं निरवद्यसंयुजांस्वसाधुकृत्यं विबुधायुषापि व: ।

    या माभजन्दुर्जरगेहश्रृद्डला:संवृश्च्य तद्ठः प्रतियातु साधुना ॥

    २२॥

    न--नहीं; पारये--बना पाने में समर्थ; अहम्‌--मैं; निरवद्य-संयुजाम्‌--छल से पूर्णतया मुक्त होने वालों के प्रति; स्व-साधु-कृत्यम्‌--उचित हर्जाना; विबुध-आयुषा--देवताओं के बराबर आयु में; अपि--यद्यपि; वः--तुमको; या: -- जो; मा--मुझको;अभजनू-पूजा कर चुके हैं; दुर्जर--जीत पाना कठिन; गेह- श्रूडुला: --गृहस्थ जीवन की बेड़ी; संवृश्च्य--काट कर; ततू--वह; वः--तुमको; प्रतियातु--लौटाया जाय; साधुना--शुभ कर्म द्वारा

    मैं आपलोगों की निस्पृह सेवा के ऋण को ब्रह्म के जीवनकाल की अवधि में भी चुकानहीं पाऊँगा।

    मेरे साथ तुमलोगों का सम्बन्ध कलंक से परे है।

    तुमने उन समस्त गृह-बन्धनों कोतोड़ते हुए मेरी पूजा की है जिन्हें तोड़ पाना कठिन होता है।

    अतएव तुम्हारे अपने यशस्वी कार्यही इसकी क्षतिपूर्ति कर सकते हैं।

    TO

    अध्याय तैंतीसवाँ: रास नृत्य

    10.33श्रीशुक उबाच इत्थं भगवतो गोप्य: श्रुत्वा वाच: सुपेशला: ।

    जहुर्विरहजंतापं तदड्रोपचिताशिष: ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इत्थम्‌--इस प्रकार; भगवत:--भगवान्‌ के; गोप्य: --गोपियाँ; श्रुत्वा--सुनकर; वाच:--शब्द; सु-पेशला:--अत्यन्त मनोहारी; जहु: --त्याग दिया; विरह-जम्‌--विछोह भावों से उत्पन्न; तापम्‌--क्लेश; तत्‌--उसके; अड्गभ--अंगों के ( स्पर्श ) से; उपचित--पूर्ण हो गयी; आशिष:--इच्छाएँ |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब गोपियों ने भगवान्‌ को अत्यन्त मनोहारी इन शब्दों में कहते सुना तो वे उनके विछोह से उत्पन्न अपना दुख भूल गईं।

    उनके दिव्य अंगों का स्पर्श पाकर उन्हेंलगा कि उनकी सारी इच्छाएँ पूर्ण हो गईं।

    तत्रारभत गोविन्दो रासक्रीडामनुव्रतैः ।

    स्त्रीरत्लैरन्वितः प्रीतैरन्योन्याबद्धबाहुभि: ॥

    २॥

    तत्र--वहाँ; आरभत--प्रारम्भ किया; गोविन्दः-- भगवान्‌ कृष्ण ने; रास-क्रीडाम्‌--रास नृत्य की लीला; अनुक्रतैः-- श्रद्धायुक्त( गोपियों ); स्त्री --स्त्रियों के; रत्नैः--रत्नों के साथ; अन्वित:--जुड़ी हुई; प्रीते:--सन्तुष्ट; अन्योन्य--एक दूसरे से; आबद्ध--बाँध कर; बाहुभि:--अपनी बाँहों से |

    तत्पश्चात्‌ भगवान्‌ गोविन्द ने वहीं यमुना के तट पर उन स्त्री-रल श्रद्धालु गोपियों के संग मेंरासनृत्य लीला प्रारंभ की जिन्होंने प्रसन्नता के मारे अपनी बाँहों को एक दूसरे के साथश्रृंखलाबद्ध कर दिया।

    रासोत्सवः सम्प्रवृत्तो गोपीमण्डलमण्डितः ।

    योगेश्वरेण कृष्णेन तासां मध्ये द्वयोटटयो: ॥

    प्रविष्टेन गृहीतानां कण्ठे स्वनिकर्टं स्त्रिय: ।

    यं मन्येरन्नभस्तावद्विमानशतसड्जू लम्‌ ।

    दिवौकसां सदाराणामौत्सुक्यापहतात्मनाम्‌ ॥

    ३॥

    रास--रासनृत्य का; उत्सव: --उत्सव; सम्प्रवृत्त:--प्रारम्भ हुआ; गोपी-मण्डल--गोपियों के घेरे से; मण्डित: --सज्जित; योग--योगशक्ति के; ईश्वरण --परम नियन्ता; कृष्णेन--कृष्ण द्वारा; तासाम्‌ू--उनके; मध्ये--बीच में; द्वयो: द्वयो:--प्रत्येक जोड़े केबीच; प्रविष्टेन--उपस्थित; गृहीटानाम्‌ू--पकड़े हुए; कण्ठे--गर्दन से; स्व-निकटम्‌--अपने पास; स्त्रिय:--स्त्रियाँ; यम्‌ू--जिसको; मन्येरन्‌ू--माना; नभः--आकाश में; तावत्‌--उसी समय; विमान--वायुयानों की; शत--सैकड़ों; सड्डु लम्‌--भीड़लग गई; दिव--स्वर्गलोकों के; ओकसाम्‌--निवासियों के; स--सहित; दाराणाम्‌--अपनी अपनी पत्नियों के; औत्सुक्य--उत्सुकतापूर्वक; अपहृत--ले जाये गये; आत्मनाम्‌--उनके मन

    तब उल्लासपूर्ण रासनृत्य प्रारम्भ हुआ जिसमें गोपियाँ एक गोलाकार घेरे में सध गईं।

    भगवान्‌ कृष्ण ने अपना विस्तार किया और गोपियों के प्रत्येक जोड़े के बीच-बीच प्रविष्ट होगये।

    ज्योंही योगेश्वर ने अपनी भुजाओं को उनके गलों के चारों ओर रखा तो प्रत्येक युवती नेसोचा कि वे केवल उसके ही पास खड़े हैं।

    इस रासनृत्य को देखने के लिए देवता तथा उनकीपत्नियाँ उत्सुकता से गद्गद हुये जा रहे थे।

    शीघ्र ही आकाश में उनके सैकड़ों विमानों की भीड़लग गई।

    ततो दुन्दुभयो नेदुर्निपेतु: पुष्पवृष्टय: ।

    जगुर्गन्धर्वपतयः सस्न्रीकास्तद्यशो उमलम्‌ ॥

    ४॥

    ततः--तब; दुन्दुभयः--दुन्दुभियाँ; नेदुः--बजने लगीं; निपेतु:--नीचे गिरी; पुष्प--फूल की; वृष्टय:--वर्षा; जगु:ः--गाया;गन्धर्व-पतय:--मुख्य गन्धर्वों ने; स-स्त्रीका:--अपनी पत्नियों समेत; तत्‌--उस भगवान्‌ कृष्ण की; यश:ः--महिमा; अमलमू--निष्कलंक, निर्मल।

    तब आकाश में दुन्दुभियाँ बज उठीं और फूलों की वर्षा होने लगी।

    मुख्य गन्धर्वों ने अपनीपत्नियों के साथ भगवान्‌ कृष्ण के निर्मल यश का गायन किया।

    वलयानां नूपुराणां किड्लिणीनां च योषिताम्‌ ।

    सप्रियाणामभूच्छब्दस्तुमुलो रासमण्डले ॥

    ५॥

    वलयानामू्‌--कंगनों के; नूपुराणाम्‌ू--पायलों के; किल्लिणीनाम्‌--करधनियों के घुंघरूओं से; च--तथा; योषिताम्‌--स्त्रियों के;स-प्रियाणाम्‌ू--अपने प्रियतम के साथ; अभूत्‌--हुई; शब्द: --ध्वनि; तुमुलः --जोर की; रास-मण्डले--रासनृत्य के घेरे में |

    जब गोपियाँ रासनृत्य के मण्डल में अपने प्रियतम कृष्ण के साथ नृत्य करने लगीं तो उनकेकंगनों, पायलों तथा करधनी के घुंघरुओं से तुमुल ध्वनि उठती थी।

    तत्रातिशुशुभे ताभिर्भगवान्देवकीसुतः ।

    मध्ये मणीनां हैमानां महामरकतो यथा ॥

    ६॥

    तत्र--वहाँ; अतिशुशुभे-- अत्यन्त शोभायमान लगे; ताभि:--उनके साथ; भगवान्‌-- भगवान्‌; देवकी-सुतः--देवकीपुत्र,कृष्ण; मध्ये--बीच में; मणीनाम्‌--आभूषणों के; हैमानाम्‌--सोने के; महा--महान; मरकत:ः--मरकत; यथा--जिस तरह ।

    नृत्य करती गोपियों के बीच भगवान्‌ कृष्ण अत्यन्त शोभायमान प्रतीत हो रहे थे जिस तरहसोने के आभूषणों के बीच मरकत मणि शोभा पाता है।

    पादन्यासैर्भुजविधुतिभिः सस्मितैर्थूविलासै-भ॑ज्यन्मध्यैश्वलकुचपटै: कुण्डलैर्गण्डलोलै: ।

    स्विद्यन्मुख्यः कवररसनाग्रन्थयः कृष्णवध्वोगायन्त्यस्तं तडित इब ता मेघचक्रे विरिजु: ॥

    ७॥

    पाद--पाँवों के; न्‍्यासैः--पड़ने से; भुज--हाथों के; विधुतिभि: --इशारों से; स-स्मितैः--हँसते हुए; भ्रू-- भौंहों की;विलासै:--क्रौड़ापूर्ण गतियों से; भज्यन्‌--झुकते लचकते हुए; मध्यै:ः--बीच से; चल--चलायमान; कुच--स्तनों को ढकनेवाले; पटै:--वस्त्रों से; कुण्डलैः--कान की बालियों से; गण्ड--गालों पर; लोलैः--हिलते डुलते; स्विद्यू--पसीना आताहुआ; मुख्य:--मुखोंवाली; कवर-- जूड़ा; रसना--तथा करधनी; आग्रन्थय:--मजबूती से बँधी; कृष्ण-वध्व: -- भगवान्‌ कृष्णकी बधुएँ; गायन्त्य:--गाती हुईं; तम्‌ू--उसके विषय में; तडित:--बिजली; इब--सहश; ता:ः--वे; मेघ-चक्रे --बादलों कीश्रेणी में; विरिजु:--चमकने लगीं ॥

    जब गोपियों ने कृष्ण की प्रशंसा में गीत गाया, तो उनके पाँवों ने नृत्य किया, उनके हाथों नेइशारे किये और उनकी भौंहें हँसी से युक्त होकर मटकने लगीं।

    जिनकी वेणियाँ तथा कमर कीपेटियाँ मजबूत बँधी हुई थीं, जिनकी कमरें लचकती हुई थी, जिनके मुखों पर पसीने की बूँदेझलकती थीं, जिनके स्तनों को ढके हुए वस्त्र इधर उधर हिलते थे तथा जिनके कानों की बालियाँ गालों पर हिल-डुल रही थीं, कृष्ण की ऐसी तरुणी प्रियाएँ बादल के समूह में बिजलीकी कौंध की तरह चमक रही थीं।

    उच्चैर्जगुर्नृत्यमाना रक्तकण्ठ्यो रतिप्रिया: ।

    कृष्णाभिमर्शमुदिता यद्‌्गीतेनेदमावृतम्‌ ॥

    ८ ॥

    उच्चै:--जोर जोर से; जगुः--गाया; नृत्यमाना:--नाच करते हुए; रक्त--रंगीन; कण्ठद्य:--उनके गले; रति--प्रणय ( माधुर्यआनन्द ); प्रिया:--समर्पित; कृष्ण-अभिमर्श--कृष्ण के स्पर्श से; मुदिता:--हर्षित; यत्‌ू--जिनके; गीतेन--गाने से; इृदम्‌--यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड; आवृतम्‌-याप्त है।

    विविध रंगों से रँंगे कंठों वाली, माधुर्यप्रेम का आनन्द लूटने की इच्छुक गोपियों ने जोर जोरसे गाना गाया और नृत्य किया।

    वे कृष्ण का स्पर्श पाकर अति-आनन्दित थीं और उन्होंने जोगीत गाये उनसे सारा ब्रह्माण्ड भर गया।

    काचित्समं मुकुन्देन स्वरजातीरमिश्रिता: ।

    उच्निन्ये पूजिता तेन प्रीयता साधु साध्विति ।

    तदेव श्रुवमुन्निन्ये तस्यै मान च बह्ददात्‌ ॥

    ९॥

    काचित्‌--कोई कोई; समम्‌--साथ; मुकुन्देन--कृष्ण के; स्वर-जाती:--शुद्ध संगीतमय स्वर; अमिश्रिता:--कृष्ण द्वारानिकाली गई ध्वनि से न मिला हुआ; उच्िन्ये--अलापा, छेड़ा; पूजिता--सम्मानित; तेन--उसके द्वारा; प्रीयता--प्रसन्न; साधुसाधु इति--' बहुत अच्छा, बहुत अच्छा कहते हुए; तत्‌ एब--वही ( राग ); ध्रुवम्‌--श्लुपद सहित; उन्निन्ये--अलापा ( अन्यगोपी ने ); तस्यै--उसको; मानमू--विशेष आदर; च--तथा; बहु--अधिक; अदातू-- प्रदान किया

    एक गोपी ने भगवान्‌ मुकुन्द के गाने के साथ साथ शुद्ध मधुर राग गाया जो कृष्ण के स्वरसे भी उच्च सुर ऊँचे स्वर में था।

    इससे कृष्ण प्रसन्न हुए और 'बहुत अच्छा, बहुत अच्छा'कहकर उसकी प्रशंसा की।

    तत्पश्चात्‌ एक दूसरी गोपी ने वही राग अलापा किन्तु वह श्रुपद केविशेष छंद में था।

    कृष्ण ने उसकी भी प्रशंसा की।

    काचिद्रासपरिश्रान्ता पार्श्रृस्थस्य गदाभूतः ।

    जग्राह बाहुना स्कन्धं एलथद्ठलयमल्लिका ॥

    १०॥

    काचित्‌--कोई गोपी; रास--रासनृत्य से; परिश्रान्ता-- थकी हुई; पार्श्व--बगल में; स्थस्य--खड़े हुए; गदा-भूतः --गदाधारीभगवान्‌ कृष्ण के; जग्राह--पकड़ लिया; बाहुना--अपनी बाँह से; स्कन्धम्‌--कन्धे को; एलथत्‌--ढीला करते हुए; वलय--अपने कंगन; मल्लिका--तथा ( बालों में गुँथे ) फूल |

    जब एक गोपी रासनृत्य से थक गई तो वह अपनी बगल में खड़े गदाधर कृष्ण की ओर मुड़ीऔर उसने अपनी बाँह से उनके कन्धे को पकड़ लिया।

    नाचने से उसके कँगन तथा बालों में लगे'फूल ढीले पड़ गये थे।

    तत्रैकांसगतं बाहुं कृष्णस्योत्पलसौरभम्‌ ।

    चन्दनालिप्तमाप्राय हृष्टरोमा चुचुम्ब ह ॥

    ११॥

    तत्र--वहाँ; एका--एक ( गोपी ); अंस--अपने कन्धे पर; गतमू--रखी हुईं; बाहुमू--बाँह को; कृष्णस्य--कृष्ण की;उत्पल--नीले कमल सहश; सौरभम्‌--जिसकी सुगन्ध; चन्दन--चन्दन लेप से; आलिप्तम्‌--लेप की हुई; आघ्राय--महकतीहुई; हृष्ट--खड़े हुए; रोमा--शरीर के रोएँ; चुचुम्ब ह--उसने चूम लिया

    कृष्ण ने अपनी बाँह एक गोपी के कन्धे पर रख दी जिसमें से प्राकृतिक नीले कमल कीसुगन्ध के साथ उसमें लेपित चन्दन की मिली हुईं सुगन्‍्ध आ रही थी।

    ज्योंही गोपी ने उस सुगन्धका आस्वादन किया त्योंही हर्ष से उसे रोमांच हो उठा और उसने उनकी बाँह को चूम लिया।

    कस्य॒श्िन्नाट्यविशक्षिप्त कुण्डलत्विषमण्डितम्‌ ।

    गण्डं गण्डे सन्दधत्या: प्रादात्ताम्बूलचर्वितम्‌ ॥

    १२॥

    कस्याश्चित्‌ू--किसी एक गोपी; नाट्य--नाचने से; विक्षिप्त--हिलता हुआ; कुण्डल--कान की बालियाँ; त्विष--चमक से;मण्डितमू--सुशोभित; गण्डम्‌--अपने कपोल; गण्डे--कृष्ण के गाल के निकट; सन्दधत्या: --रखती हुई; प्रादात्‌--सावधानीपूर्वक दे दिया; ताम्बूल--पान; चर्वितमू--चबाया हुआ |

    एक गोपी ने कृष्ण के गाल पर अपना गाल रख दिया जो उसके कुंडलों से सुशोभित थाऔर उसके नाचते समय चमचमा रहा था।

    तब कृष्ण ने बड़ी ही सावधानी से उसे अपना चबायापान दे दिया।

    नृत्यती गायती काचित्कूजन्रूपुरमेखला ।

    पार्श्रस्थाच्युतहस्ताब्जं श्रान्ताधात्स्तनयो: शिवम्‌ ॥

    १३॥

    नृत्यती--नाचती; गायती--गाती; काचित्‌--कोई गोपी; कूजन्‌--झनकार करते; नूपुर--घुंघरू की; मेखला--तथा अपनी'करधनी; पार्श्व-स्थ--उसके पास में ही खड़े; अच्युत-- भगवान्‌ कृष्ण का; हस्त-अब्जम्‌ू--करकमल; श्रान्ता--थककर;अधात्‌--रख लिया; स्तनयो:--अपने स्तनों पर; शिवम्‌--सुखद |

    एक अन्य नाचती तथा गाती हुई गोपी, जिसके पाँवों के नूपुए और कमर की करधनी केघुंघरू बज रहे थे, थक गई अतः उसने अपने पास ही खड़े भगवान्‌ अच्युत के सुखद करकमलको अपने स्तनों के ऊपर रख लिया।

    गोप्यो लब्ध्वाच्युतं कान्तं भ्रिय एकान्तवललभम्‌ ।

    गृहीतकण्ठ्यस्तद्दो भ्या गायन्त्यस्तम्विजहिरे ॥

    १४॥

    गोप्य:--गोपियाँ; लब्ध्वा--पाकर; अच्युतम्‌--अच्युत भगवान्‌ को; कान्तम्‌ू--अपने प्रेमी के रूप में; भ्रिय:--लक्ष्मी के;एकान्त--एकमात्र; बल्‍लभमू-प्रेमी को; गृहीत--पकड़े हुए; कण्ठ्य:--उनके गलों को; तत्‌--उसका; दोर्भ्याम्‌-- भुजाओंसे; गायन्त्य:--गाती हुईं; तम--उसको; विजहिरे-- आनन्द लूटा |

    लक्ष्मी जी के विशिष्टप्रिय भगवान्‌ अच्युत को अपने घनिष्ठ प्रेमी के रूप में पाकर गोपियों नेअथाह आनन्द लूटा।

    वे उनको अपनी भुजाओं में लपेटे थे और ये उनके यश का गान कर रहीथीं।

    कर्णोत्पलालकविटड्डूकपोलघर्म -वक्त्रश्रियो वलयनूपुरघोषवाद्यै: ।

    गोप्य: सम॑ भगवता ननृतुः स्वकेश-सत्रस्तसत्रजो भ्रमरगायकरासगोष्ठद्याम्‌ ॥

    १५॥

    कर्ण--उनके कानों में; उत्पल--कमल के फूल से; अलक--उनकी लटों से; वितड्ड--अलंकृत; कपोल--उनके गाल; घर्म--पसीने से; वक्‍त्र--उनके मुखों के; भ्रिय:--सौन्दर्य; वलय--कंगन; नूपुर--तथा घुंघरू के; घोष--शब्द का; वाद्यै:--बाजे से;गोप्य:--गोपियों ने; समम्‌--साथ; भगवता-- भगवान्‌ के; ननृतु:--नाचा; स्व--अपने लिए; केश--बाल से; स्त्रस्त--बिखरी;सत्रज:--मालाएँ; भ्रमर-- भौरे; गायक--गानेवाले; रास--रास नृत्य की; गोष्ठय्याम्‌-गोष्टी में |

    कानों के पीछे लगे कमल के फूल, गालों को अलंकृत कर रही बालों की लटें तथा पसीनेकी बूँदें गोपियों के मुखों की शोभा बढ़ा रही थीं।

    उनके बाजुबंदों तथा घुंघरओं की रुनझुन सेजोर की संगीतात्मक ध्वनि उत्पन्न हो रही थी और उनके जूड़े बिखरे हुए थे।

    इस तरह गोपियाँभगवान्‌ के साथ रासनृत्य के स्थल पर नाचने लगीं और उनका साथ देते हुए भौंरों के झुंडगुनगुनाने लगे।

    एवं परिष्वड्रकराभिमर्श-स्निग्धेक्षणोद्ामविलासहासै: ।

    रेमे रमेशो ब्रजसुन्दरीभि-्ंथार्भकः स्वप्रतिबिम्बविभ्रम: ॥

    १६॥

    एवम्‌--इस तरह; परिष्वड्र--- आलिंगन करते हुए; कर--अपने हाथ से; अभिमर्श--स्पर्श करते हुए; स्निग्ध--स्नेहिल;ईक्षण--चितवनों से; उद्याम--तिरछी, चौड़ी; विलास--चंचल; हासैः--हँसी से युक्त; रेमे-- आनन्द लूटा; रमा--लक्ष्मी जी के;ईशः--स्वामी ने; ब्रज-सुन्दरीभि:--ग्वालजाति की तरुणियों के साथ; यथा--जिस तरह; अर्भक:--एक बालक; स्व--अपनी; प्रतिबिम्ब--परछाई से; विभ्रम:--खेलवाड़

    इस प्रकार आदि भगवान्‌ नारायण, लक्ष्मीपति भगवान्‌ कृष्ण ने ब्रज की युवतियों काआलिंगन करके, उन्हें दुलार करके तथा अपनी तिरछी चंचल हँसी से उन्हें प्रेमपूर्वक निहारकरके उनके साथ में आनन्द लूटा।

    यह वैसा ही था जैसे कि कोई बालक अपनी परछाईं के साथखेल रहा हो।

    तदड़सड्डप्रमुदाकुलेन्द्रिया:केशान्दुकूलं कुचपट्टिकां वा ।

    ना: प्रतिव्योदुमलं ब्रजस्त्रियोविस्त्रस्तमालाभरणा: कुरूद्बद ॥

    १७॥

    तत्‌--उनके साथ; अड्ग-सड्ग--शारीरिक स्पर्श से; प्रमुदा--हर्ष से; आकुल--व्याकुल; इन्द्रिया:--जिनकी इन्द्रियाँ; केशान्‌--उनके बाल; दुकूलम्‌--वस्त्र; कुच-पट्टिकाम्‌--स्तनों को ढकने वाले वस्त्र, चोलियाँ; वा--अथवा; न--नहीं; अज्ञ:--आसानीसे; प्रतिव्योढुमू--सुसज्जित रखने के लिए; अलमू--समर्थ; ब्रज-स्त्रिय:--व्रज की स्त्रियाँ; विस्त्रस्त--बिखरी हुई; माला--फूलोंकी मालाएँ; आभरणा:--तथा गहने; कुरु-उद्दद--हे कुरुवंश के परम विख्यात सदस्य |

    उनका शारीरिक संसर्ग पा लेने से गोपियों की इन्द्रियाँ हर्ष से अभिभूत हो गईं जिसकेकारण वे अपने बाल, अपने वस्त्र तथा स्तनों के आवरणों को अस्तव्यस्त होने से रोक न सकीं।

    हे कुरुवंश के वीर, उनकी मालाएँ तथा उनके गहने बिखर गये।

    कृष्णविक्रीडितं वीक्ष्य मुमुहु: खेचरस्त्रिय: ।

    कामार्दिता: शशाड्डश्च सगणो विस्मितोभवत्‌ ॥

    १८॥

    कृष्ण-विक्रीडितम्‌ू--कृष्ण की क्रीड़ा; वीक्ष्य--देखकर; मुमुहुः--मोहित हो गईं; खे-चर--आकाश में यात्रा करतीं; स्त्रिय:--स्त्रियाँ ( देवियाँ )।

    काम--काम वासना से; अर्दिता:--चलायमान; शशाड्रः--चन्धमा; च-- भी; स-गण: --अपने अनुचर तारोंसहित; विस्मित:--चकित; अभवत्‌--हुआ।

    देवताओं की पत्लियाँ अपने विमानों से कृष्ण की क्रीड़ाएँ देखकर सम्मोहित हो गईं औरकामवासना से विचलित हो उठीं।

    वस्तुतः चन्द्रमा तक भी अपने पार्षद तारों समेत चकित होउठा।

    कृत्वा तावन्तमात्मानं यावतीर्गोपयोषितः ।

    रेमे स भगवांस्ताभिरात्मारामोईपि लीलया ॥

    १९॥

    कृत्वा--करके, बनाकर; तावन्तम्‌--उतने गुना बढ़ाकर; आत्मानम्‌ू--अपने को; यावती:--जितनी; गोप-योषित: --गोपस्त्रियाँ; रेमे--विलास किया; सः--उस; भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; ताभि:--उनके साथ; आत्म-आराम:--आत्म-तुष्ट; अपि--यद्यपि; लीलया--लीला के रूप में |

    वहाँ पर जितनी गोपिकाएँ थीं उतने ही रूपों में विस्तार करके, भगवान्‌ ने खेल खेल मेंउनकी संगति का आनन्द लूटा यद्यपि वे आत्माराम हैं।

    तासां रतिविहारेण श्रान्तानां वबदनानि सः ।

    प्रामृजत्करूण: प्रेम्णा शन्तमेनाड़ पाणिना ॥

    २०॥

    तासाम्‌--उन गोपियों के; रति--माधुर्य प्रेम के; विहारेण-- भोग विलास के द्वारा; श्रान्तानामू-- थकी हुईं; वदनानि--मुख;सः--उसने; प्रामुजत्‌--पोंछा; करुण:--दयालु; प्रेम्णा--प्रेमपूर्वक; शन्तमेन-- अत्यन्त सुखद; अड्र--हे प्रिय ( राजापरीक्षित ); पाणिना-- अपने हाथ से

    यह देखकर कि गोपियाँ माधुर्य विहार करने से थक गई थीं, हे राजन ( परिक्षित ), दयालुश्रीकृष्ण ने बड़े ही प्रेम से उनके मुखों को अपने सुखद हाथों से पोंछा।

    गोप्यः स्फुरत्पुरटकुण्डलकुन्तलत्विड्‌-गण्डश्या सुधितहासनिरीक्षणेन ।

    मान दधत्य ऋषभस्य जगुः कृतानिपुण्यानि तत्कररुहस्पर्शप्रमोदा: ॥

    २१॥

    गोप्य:--गोपियाँ; स्फुरत्‌ू--चमकते हुए; पुरट--सुनहले; कुण्डल--अपने कान की बालियों का; कुन्तल--तथा अपने( घुँघराले ) केशों के; त्विट--तेज का; गण्ड--कपोलों के; थ्रिया--सौन्दर्य से; सुधित--अमृतमय बनाया गया; हास--हँसी;निरीक्षणेन--अपनी चितवन से; मानम्‌ू--आदर; दधत्य: --देते हुए; ऋषभस्य-- अपने नायक के; जगु:--गाया; कृतानि--कार्यकलापों को; पुण्यानि--शुभ; तत्‌--उसके; कर-रुह--हाथ के नाखूनों के; स्पर्श--स्पर्श से; प्रमोदा:---अत्यधिकप्रमुदित।

    अपने गालों के सौंदर्य, घुँधराले बालों के तेज एवं सुनहरे कुंडलों की चमक से मधुरितहँसीयुक्त चितवनों से गोपियों ने अपने नायक को सम्मान दियाकिया।

    उनके नखों के स्पर्श सेपुलकित होकर वे उनकी शुभ दिव्य लीलाओं का गान करने लगीं।

    ताभिरय्युतः श्रममपोहितुमड्रसड़-घृष्टर्रज: स कुचकुड्डू मरज्जिताया: ।

    गन्धर्वपालिभिरनुद्गुत आविशद्धा:श्रान्तो गजीभिरिभराडिव भिन्नसेतु: ॥

    २२॥

    ताभि:ः--उनके द्वारा; युत:ः--युक्त; श्रमम्‌--थकावट; अपोहितुम्‌ू--दूर करने के लिए; अड्भ-सड़--उनकी माधुर्य संगति से;घृष्ट--कुचली गयी; स्त्रज:--माला; सः--वह; कुच--उनके स्तनों के; कुट्डू म-सिंदूर से; रञ्जिताया: --पुता हुआ; गन्धर्व-'प--जो गंधर्वों की तरह लग रहा था; अलिभि:--भौंरा से; अनुद्गुतः:--तेजी से पीछा किया जाता हुआ; आविशत्‌-प्रवेशकिया; वा:--जल; श्रान्त:--थका; गजीभि: --हथिनियों के साथ; इभ-राटू--शाही हाथी; इब--सहृश; भिन्न--छिन्न-भिन्नकरके; सेतुः--धान के खेत की मेड़ें ॥

    भगवान्‌ श्रीकृष्ण की माला गोपियों के साथ माधुर्य विहार करते समय कुचल गई थी औरउनके स्तनों के कुंकुम से सिंदूरी रंग की हो गई थी।

    गोपियों की थकान मिटाने के लिए कृष्णयमुना के जल में घुस गये, जिनका पीछा तेजी से भौरें कर रहे थे, जो श्रेष्ठतम गन्धर्वों की तरहगा रहे थे।

    कृष्ण ऐसे लग रहे थे मानो कोई राजसी हाथी अपनी संगिनियों के साथ जल में सुस्ताने के लिए प्रविष्ट हो रहा हो।

    निस्सन्देह भगवान्‌ ने सारी लोक तथा वेद की मर्यादा का उसीतरह अतिक्रमण कर दिया जिस तरह एक शक्तिशाली हाथी धान के खेतों की रौंद ड़ालता है।

    सोम्भस्यलं युवतिभि: परिषिच्यमानःप्रेम्णेक्षित: प्रहसतीभिरितस्ततोड्र ।

    वैमानिकै: कुसुमवर्षिभिरीद्यमानोरेमे स्वयं स्वरतिरत्र गजेन्द्रलील: ॥

    २३॥

    सः--वह; अम्भसि--जल में; अलम्‌--अत्यधिक; युवतिभि:--युवतियों के साथ; परिषिच्यमान:--जल उलीच करके;प्रेमणा--प्रेमपूर्वक; ईक्षित:ः --देखे जाकर; प्रहसतीभि:--हँसने वालियों के द्वारा; इतः तत:--इधर उधर; अड्--हे राजन;वैमानिकै:--विमानों से यात्रा कर रही; कुसुम--फूल; वर्षिभि: --बरसाती हुई; ईंड्यमान: --पूजित होकर; रेमे--विहार किया;स्वयम्‌--खुद; स्व-रति:ः--आत्मतुष्ट होकर; अत्र--यहाँ; गज-इन्द्र--हाथियों का राजा; लील:--लीला।

    हे राजनू, जल में कृष्ण ने अपने ऊपर चारों ओर से हँसती एवं अपनी ओर प्रेमपूर्ण निहारतीगोपियों के द्वारा जल उलीचा जाते देखा।

    जब देवतागण अपने विमानों से उनपर फूल वर्षाकरके उनकी पूजा कर रहे थे तो आत्मतुष्ट भगवान्‌ हाथियों के राजा की तरह क्रीड़ा करने काआनन्द लेने लगे।

    ततश्न कृष्णोपवने जलस्थल-प्रसूनगन्धानिलजुष्टदिक्तटे ।

    चचार भृड़प्रमदागणावृतोयथा मदच्युद्द्िवरद: करेणुभि: ॥

    २४॥

    ततः--तब; च--तथा; कृष्णा--यमुना नदी के; उपबने--छोटे जंगल में; जल--जल; स्थल--तथा भूमि के; प्रसून--फूलोंकी; गन्ध--सुगन्धि से; अनिल--वायु से; जुष्ट--साथ हो लिये; दिक्‌ू-तटे--दिशाओं के छोर; चचार--गुजरा; भूड़-- भौंरों;प्रमदा--तथा स्त्रियों के; गण--समूह से; आवृत:ः--घिरा; यथा--जिस प्रकार; मद-च्युत्‌--उत्तेजना से अपने मस्तक से रसचुवाता; द्विरद: --हाथी; करेणुभि: --हथिनियों के साथ

    तत्पश्चात्‌ भगवान्‌ ने यमुना के किनारे स्थित एक छोटे से उपवन में भ्रमण किया।

    यह उपवनस्थल तथा जल में उगने वाले फूलों की सुगन्ध लेकर बहने वाली मन्द वायु से भरपूर था।

    भौंरोंतथा सुन्दर स्त्रियों के साथ भ्रमण कर रहे भगवान्‌ कृष्ण ऐसे लग रहे थे मानों कोई मदमत्त हाथीअपनी हथिनियों के साथ जा रहा हो।

    एवं शशाझ्डलांशुविराजिता निशाःस सत्यकामोनुरताबलागण: ॥

    सिषेव आत्मन्यवरुद्धसौरतःसर्वा: शरत्काव्यकथारसा श्रया: ॥

    २५॥

    एवम्‌--इस प्रकार; शशाड्रू--चन्द्रमा की; अंशु--किरणों से; विराजिता:--चमकाई गई; निशा:--रात्रियाँ; सः--वह; सत्य-'काम:ः--जिसकी इच्छाएँ सदैव पूरी होती हैं; अनुरत--उनमें निरन्तर अनुरक्त; अबला-गण:--अनेक सखियों; सिषेवे--लाभउठाया; आत्मनि--अपने में; अवरुद्ध--सुरक्षित; सौरत:--मैथुन या काम भाव; सर्वा:--सभी ( रातें ); शरत्‌--शरदऋतु की;काव्य--काव्यमय; कथा--कहानियों का; रस--दिव्य रसों का; आश्रया:--आधार |

    यद्यपि गोपियाँ सत्यकाम कृष्ण के प्रति दृढ़तापूर्वक अनुरक्त थीं किन्तु भीतर से भगवान्‌किसी संसारी काम-भावना से प्रभावित नहीं थे।

    फिर भी उन्होंने अपनी लीलाएँ सम्पन्न करने केलिए चाँदनी से खिली हुई उन समस्त शरतकालीन रातों का लाभ उठाया जो दिव्य विषयों केकाव्यमय वर्णन के लिए प्रेरणा देती हैं।

    श्रीपरीक्षिदुवाचसंस्थापनाय धर्मस्य प्रशमायेतरस्य च ।

    अवतीर्णो हि भगवानंशेन जगदी श्वर: ॥

    २६॥

    स कथं धर्मसेतूनां वक्ता कर्ताभिरक्षिता ।

    प्रतीपमाचरद्गह्मन्परदाराभिमर्शनम्‌ ॥

    २७॥

    श्री-परीक्षित्‌ उबाच-- श्री परीक्षित महाराज ने कहा; संस्थापनाय--स्थापना करने के लिए; धर्मस्य-- धर्म की; प्रशमाय--दमनकरने के लिए; इतरस्य--विरोधियों का; च--तथा; अवतीर्ण: --( इस धरा पर ) अवतरित हुए; हि--निस्सन्देह; भगवानू--भगवान्‌; अंशेन--अपने स्वांश ( श्री बलराम ) सहित; जगत्‌--सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के; ईश्वर: --स्वामी; सः--वह; कथम्‌--किसतरह; धर्म-सेतूनामू--आचार संहिता के; वक्ता--आदि व्याख्याता; कर्ता--करने वाले; अभिरक्षिता--रक्षक; प्रतीपम्‌--विरुद्ध; आचरत्‌--आचरण किया; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण, शुकदेव गोस्वामी; पर--अन्यों की; दार--पत्लियों का; अभिमर्शनम्‌--स्पर्श

    परीक्षित महाराज ने कहा, 'हे ब्राह्मण, ब्रह्माण्ड के स्वामी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ अपनेस्वांश सहित इस धरा में अधर्म का नाश करने तथा धर्म की पुनर्स्थापना करने हेतु अवतरित हुएहैं।

    दरअसल वे आदि वक्ता तथा नैतिक नियमों के पालनकर्ता एवं संरक्षक हैं।

    तो भला वे अन्यपुरुषों की स्त्रियों का स्पर्श करके उन नियमों का अतिक्रमण कैसे कर सकते थे ?

    आप्तकामो यदुपति:ः कृतवान्बै जुगुप्सितम्‌ ।

    किमभिप्राय एतन्न: शंशयं छिन्धि सुत्रत ॥

    २८ ॥

    आप्त-काम:--आत्पतुष्ट, पूर्णकाम; यदु-पति:--यदुकुल के स्वामी ने; कृतवान्‌--सम्पन्न किया है; बै--निश्चय ही;जुगुप्सितम्‌--निन्दनीय; किम्‌-अभिप्राय:--किस उद्देश्य से; एतत्‌--यह; नः--हमारा; शंशयम्‌--सन्देह; छिन्धि--काटदीजिये; सु-ब्रत-हे ब्रतधारी |

    हे श्रद्धावान ब्रतधारी, कृपा करके हमें यह बतलाकर हमारा संशय दूर कीजिये किपूर्णकाम यदुपति के मन में वह कौन सा अभिप्राय था जिससे उन्होंने इतने निन्दनीय ढंग सेआचरण किया ?

    श्रीशुक उवाचधर्मव्यतिक्रमो दृष्ट ईश्वराणां च साहसम्‌ ।

    तेजीयसां न दोषाय वह्लेः सर्वभुजो यथा ॥

    २९॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; धर्म-व्यतिक्रम:--धार्मिक या नैतिक सिद्धान्तों का उल्लंघन; दृष्ट:--देखाहुआ; ईश्वराणाम्‌--शक्तिशाली नियंत्रकों का; च-- भी; साहसम्‌--साहस; तेजीयसाम्‌-- आध्यात्मिक रूप से शक्तिमान; न--नहीं; दोषाय--किसी प्रकार की त्रुटि ( होने देता ); बह्नेः--अग्नि का; सर्व--सभी; भुज:--निगलते हुए; यथा-अस्‌

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : शक्तिशाली नियन्ताओं के पद पर किसी ऊपरी साहसपूर्णउल्लंघन से जो हम उनमें देख पायें, कोई आँच नहीं आती क्योंकि वे उस अग्नि के समान होतेहैं, जो हर वस्तु को निगल जाती है और अदूषित बनी रहती है।

    नैतत्समाचरेज्ञातु मनसापि ह्ानी श्वर: ।

    विनश्यत्याचरन्मौढ्याद्यथारुद्रोडब्धिजं विषम्‌ ॥

    ३०॥

    न--नहीं; एतत्‌--यह; समाचरेत्‌--करना चाहिए; जातु--कभी; मनसा--मन से; अपि-- भी; हि--निश्चय ही; अनी श्वर:ः --जोनियन्ता नहीं है; विनश्यति--विनष्ट हो जाता है; आचरन्‌--आचरण करने पर; मौढ्यात्‌--मूर्खतावश; यथा--जिस तरह;अरुद्र:--जो रुद्र नहीं है; अब्धिजम्‌--समुद्र से उत्पन्न; विषम्‌--विष को |

    जो महान्‌ संयमकारी नहीं है, उसे शासन करने वाले महान्‌ पुरुषों के आचरण की मन से भीकभी नकल नहीं करनी चाहिए।

    यदि कोई सामान्य व्यक्ति मूर्खतावश ऐसे आचरण की नकलकरता है, तो वह उसी तरह विनष्ट हो जायेगा जिस तरह कि विष के सागर को पीने का प्रयासकरने वाला व्यक्ति।

    यदि वह रुद्र नहीं है, नष्ट हो जायेगा।

    ईश्वराणां बच: सत्यं तथेवाचरितं क्वचित्‌ ।

    तेषां यत्स्ववचोयुक्तं बुद्धिमांस्तत्समाचरेत्‌ ॥

    ३१॥

    ईश्वरानामू-- भगवान्‌ द्वारा शक्ति प्रदत्त दासों के; बच:--शब्द; सत्यम्‌--सत्य; तथा एब-- भी; आचरितम्‌--वे जो कुछ करतेहैं; क्वचित्‌--कभी कभी; तेषाम्‌--उनके ; यत्‌--जो; स्व-वच: --अपने ही शब्दों से; युक्तम्‌-- अनुरूप; बुद्धि-मान्‌--बुद्धिमान; तत्‌--वह; समाचरेत्‌--सम्पन्न करे।

    भगवान्‌ द्वारा शक्तिप्रदत्त दासों के वचन सदैव सत्य होते हैं और जब वे इन वचनों केअनुरूप कर्म करते हैं, तो वे आदर्श होते हैं।

    इसलिए जो बुद्धिमान है उस को चाहिए कि इनकेआदेशों को पूरा करे।

    कुशलाचरितेनैषामिह स्वार्थो न विद्यते ।

    विपर्ययेण वानर्थों निरहड्डारिणां प्रभो ॥

    ३२॥

    कुशल--पवित्र; आचरितेन--कार्य द्वारा; एघामू--उनके लिए; इह--इस जगत में; स्व-अर्थ:--निजी लाभ; न विद्यते--नहींहोता; विपर्ययेण --विपरीत द्वारा; बा--अथवा; अनर्थ:--अवांछित फल; निरहड्लारिणाम्‌--मिथ्या गर्व से मुक्त लोगों का;प्रभो-हे प्रभु

    हे प्रभु, जब मिथ्या अहंकार से रहित ये महान्‌ व्यक्ति इस जगत में पवित्र भाव से कर्म करतेहैं, तो उसमें उनका कोई स्वार्थ-भाव नहीं होता और जब वे ऊपरी तौर से पवित्रता के नियमों केविरुद्ध लगने वाले कर्म ( अनर्थ ) करते हैं, तो भी उन्हें पापों का फल नहीं भोगना पड़ता।

    किमुताखिलसत्त्वानां तिर्यड्मरत्यदिवौकसाम्‌ ।

    ईशितुश्चेशितव्यानां कुशलाकुशलान्वय: ॥

    ३३॥

    किम्‌ उत--तो फिर क्या कहा जाय; अखिल--समस्त; सत्त्वानामू--सृजित प्राणियों का; तिर्यक्‌--पशुओं ; मर्त्य--मनुष्यों;दिव-ओकसाम्‌--तथा स्वर्ग के निवासियों का; ईंशुतु:--नियन्ता के लिए; च--तथा; ईशितव्यानाम्‌ू--नियंत्रितों का; कुशल--शुभ; अकुशल--तथा अशुभ; अन्वयः--कारणरूप सम्बन्ध |

    तो फिर समस्त सूृजित प्राणियों पशुओं, मनुष्यों तथा देवताओं-के स्वामी भला उस शुभतथा अशुभ से किसी प्रकार का सम्बन्ध कैसे रख सकते हैं जिससे उनके अधीनस्थ प्राणीप्रभावित होते हों ?

    यत्पादपड्भजजपरागनिषेवतृप्तायोगप्रभावविधुताखिलकर्मबन्धा: ।

    स्वैरं चरन्ति मुनयोपि न नहामाना-स्तस्येच्छयात्तवपुष: कुत एवं बन्ध: ॥

    ३४॥

    यत्‌--जिसके; पाद-पद्णलज--चरणकमलों की; पराग--धूलि के; निषेब--सेवन करने से; तृप्ता:--तृप्त; योग-प्रभाव--योगशक्ति से; विधुत--धुला हुआक्‍; अखिल--समस्त; कर्म--सकाम कर्म का; बन्धा:--बन्धन; स्वैरम्‌--मुक्त भाव से; चरन्ति--कर्म करते हैं; मुन॒वः--मुनिगण; अपि-- भी; न--कभी नहीं; नहामाना:--बद्ध होकर; तस्थ-- उसकी; इच्छया--इच्छा से;आत्त--स्वीकार किया; वपुष:--दिव्य शरीर; कुतः--कहाँ; एव--निस्सन्देह; बन्ध:--बन्धन |

    जो भगवदभक्त भगवान्‌ के चरणकमलों की धूलि का सेवन करते हुए पूर्णतया तुष्ट हैं उन्हेंभौतिक कर्म कभी नहीं बाँध पाते।

    न ही भौतिक कर्म उन बुद्धिमान मुनियों को बाँध पाते हैंजिन्होंने योगशक्ति के द्वारा अपने को समस्त कर्मफलों के बन्धन से मुक्त कर लिया है।

    तो फिरस्वयं भगवान्‌ के बन्धन का प्रश्न कहाँ उठता है, जो स्वेच्छा से दिव्य रूप धारण करने वाले हैं ?

    गोपीनां तत्पतीनां च सर्वेषामेव देहिनाम्‌ ।

    योउन्तश्वरति सोध्यक्ष: क्रीडनेनेह देहभाक्‌ू ॥

    ३५॥

    गोपीनाम्‌-गोपियों के; तत्‌-पतीनाम्‌ू--उनके पतियों के; च--तथा; सर्वेषाम्‌--समस्त; एव--निस्सन्देह; देहिनाम्‌--देहधारीजीवों के; यः--जो; अन्त:-- भीतर; चरति--रहता है; सः--वह; अध्यक्ष:--साक्षी; क्रीडनेन-- क्रीड़ा के लिए; इह--इससंसार में; देह--अपना रूप; भाक्‌ू-- धारण करते हुए।

    जो गोपियों तथा उनके पतियों और वस्तुतः समस्त देह-धारी जीवों के भीतर साक्षी के रूपमें रहता है, वही दिव्य लीलाओं का आनन्द लेने के लिए इस जगत में विविध रूप धारण करताहै।

    अनुग्रहाय भक्तानां मानुषं देहमास्थित: ।

    भजते ताहशीः क्रीड या: श्रुत्वा तत्परो भवेत्‌ ॥

    ३६॥

    अनुग्रहाय--दया दिखाने के लिए; भक्तानाम्‌--अपने भक्तों पर; मानुषम्‌--मनुष्य जैसा; देहम्‌--शरीर; आस्थित:-- धारणकरते हुए; भजते--स्वीकार करता है; ताहशी:--वैसी; क्रिडा:--लीलाएँ; या:--जिनके बारे में; श्रुत्वा--सुनकर; तत्‌-परः --उनके प्रति परायण; भवेत्‌--हो जाता है

    जब भगवान्‌ अपने भक्तों पर कृपा प्रदर्शित करने के लिए मनुष्य जैसा शरीर धारण करते हैं,तो वे ऐसी क्रीड़ाएँ करते हैं जिनके विषय में सुनने वाले आकृष्ट होकर भगवत्परायण हो जाँय।

    नासूयन्खलु कृष्णाय मोहितास्तस्य मायया ।

    मन्यमानाः स्वपार्श्रस्थान्स्वान्स्वान्दारान्त्रजौकसः ॥

    ३७॥

    न असूयनू--ईर्ष्षालु नहीं थे; खलु--यहाँ तक कि; कृष्णाय--कृष्ण से; मोहिता: --मोहित; तस्य--उसकी; मायया--मायाद्वारा; मन्यमानाः--सोचते हुए; स्व-पार्श्व--अपने निकट; स्थान्‌--खड़ी हुई; स्वान्‌ स्वानू--अपनी अपनी; दारान्‌ू--पत्ियाँ;ब्रज-ओकसः--ब्रज के गोपजन

    कृष्ण की मायाशक्ति से मोहित सारे ग्वालों ने सोचा कि उनकी पत्नियाँ घरों में उनके निकटही रहती रही थीं।

    इस तरह उनमें कृष्ण के प्रति कोई ईर्ष्या भाव नहीं उत्पन्न हुआ।

    ब्रह्मारात्र उपावृत्ते वासुदेवानुमोदिता: ।

    अनिच्छन्त्यो ययुर्गोप्य: स्वगृहान्भगवत्प्रिया: ॥

    ३८॥

    ब्रह्म-रात्रे--ब्रह्मा की रात; उपावृत्ते --पूर्ण होने पर; वासुदेव-- भगवान्‌ कृष्ण द्वारा; अनुमोदिता:--अनुमोदन किये जाने पर;अनिच्छन्त्य:--न चाहती हुई; ययु:--चली गईं; गोप्य:--गोपियाँ; स्व-गृहान्‌-- अपने घरों को; भगवत्‌-- भगवान्‌ की;प्रिया:--प्रियतमाएँ |

    जब ब्रह्मा की पूरी एक रात बीत गई तो कृष्ण ने गोपियों को अपने अपने घरों को लौटजाने की सलाह दी।

    यद्यपि वे ऐसा करना नहीं चाह रही थीं तो भी भगवान्‌ की इन प्रेयसियों नेउनके आदेश का पालन किया।

    विक्रीडितं ब्रजवधूभिरिदं च विष्णो:श्रद्धान्वितोनुश्रुणुयादथ वर्णयेद्य: ।

    भक्ति परां भगवति प्रतिलभ्य काम॑हद्रोगमाश्रपहिनोत्यचिरेण धीर: ॥

    ३९॥

    विक्रीडितमू--क्री ड़ा करना; ब्रज-वधूभि: --वृन्दावन की युवतियों के साथ; इदम्‌--यह; च--तथा; विष्णो:-- भगवान्‌ विष्णुद्वारा; श्रद्धा-अन्वित:-- श्रद्धापूर्वक; अनुश्रुणुयात्‌--सुनता है; अथ-- अथवा; वर्णयेत्‌--वर्णन करता है; यः--जो; भक्तिम्‌--भक्ति; परामू--दिव्य; भगवति-- भगवान्‌ में; प्रतिलभ्य--प्राप्त करके; काममू-- भौतिक कामवासना को; हत्‌--हृदय में;रोगमू--रोग को; अशु--तुरन्त; अपहिनोति-- भगा देताहै; अचिरिण--शीघ्र ही; धीर:--गम्भीर |

    जो कोई वृन्दावन की युवा-गोपिकाओं के साथ भगवान्‌ की क्रीड़ाओं को श्रद्धापूर्वकसुनता है या उनका वर्णन करता है, वह भगवान्‌ की शुद्ध भक्ति प्राप्त करेगा।

    इस तरह वह शीघ्रही धीर बन जाएगा और हृदय रोग रूपी कामवासना को जीत लेगा।

    TO

    अध्याय चौंतीसवाँ: नंद महाराज को बचाया गया और शंखचूड़ का वध

    10.34श्रीशुक उबाचएकदा देवयात्रायां गोपाला जातकौतुका: ।

    अनोभिरनडुग़ुक्तै:प्रययुस्तेडम्बिकावनम्‌ ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; एकदा--एक बार; देव--देवता अर्थात्‌ शिवजी ( की पूजा करने के लिए );यत्रायामू--यात्रा पर; गोपाला: --सारे ग्वाले; जात-कौतुका: --उत्सुक; अनोभि:--गाड़ियों समेत; अनडुत्‌--बैलों से; युक्तै: --जुती; प्रययु:--गये; ते--वे; अम्बिका-वनम्‌--अम्बिका वन में |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : एक दिन भगवान्‌ शिव की पूजा हेतु यात्रा करने के उत्सुकग्वाले बैलगाड़ियों द्वारा अम्बिका वन गये।

    तत्र स्नात्वा सरस्वत्यां देव॑ पशुपतिं विभुम्‌ ।

    आनर्चुरईणैर्भक्त्या देवीं च णूपतेडम्बिकाम्‌ ॥

    २॥

    तत्र--वहाँ; स्नात्वा--स्नान करके; सरस्वत्याम्‌--सरस्वती नदी में; देवम्‌--देवता; पशु-पतिम्‌--शिवजी को; विभुम्‌--शक्तिशाली; आनर्चु:--उन्होंने पूजा की; अर्हणै:--साज-सामग्री समेत; भक्त्या--भक्तिपूर्वक; देवीम्‌--देवी; च--तथा; नृ-पते--हे राजा; अम्बिकाम्‌--अम्बिका को

    हे राजन, वहाँ पहुँचने के बाद उन्होंने सरस्वती नदी में स्नान किया और तब विविध पूजा-सामग्री से शक्तिशाली शिवजी तथा उनकी पत्नी देवी अम्बिका की भक्तिपूर्वक पूजा की।

    गावो हिरण्यं वासांसि मधु मध्वन्नमाहता: ।

    ब्राह्मणे भ्यो ददुः सर्वे देवो न: प्रीयतामिति ॥

    ३॥

    गाव:--गौवें; हिरण्यम्‌--स्वर्ण; वासांसि--वस्त्र; मधु--मीठा; मधु--शहद से मिश्रित; अन्नम्‌--अन्न; आहता:--आदरपूर्वक;ब्राह्मणेभ्य: --ब्राह्मणों को; ददुः--दिया; सर्वे--सभी; देव:--स्वामी; नः--हम पर; प्रीयताम्‌--प्रसन्न हों; इति--इस प्रकार

    प्रार्थना करते हुएग्वालों ने ब्राह्मणों को गौवें, स्वर्ण, वस्त्र तथा शहदमिश्रित पक्वान्न की भेंटें दान में दीं।

    तत्पश्चात्‌ उन्होंने प्रार्थना की, हे प्रभु, हम पर आप प्रसन्न हों।

    'ऊषुः सरस्वतीतीरे जलं प्राश्य यतब्रता: ।

    रजनीं तां महाभागा नन्दसुनन्दकादय:ः ॥

    ४॥

    ऊषु:--रुके रहे; सरस्वती-तीरे--सरस्वती के तट पर; जलम्‌--जल को; प्राशय--खाकर ( पीकर ); यत-ब्रता:--कठिन ब्रतकरते हुए; रजनीम्‌--रात को; ताम्‌--उस; महा-भागा: -- भाग्यशाली लोग; नन्द-सुनन्दक-आदय: --नन्द, सुनन्द इत्यादि

    नन्द, सुनन्द तथा अन्य अत्यन्त भाग्यशाली ग्वालों ने वह रात सरस्वती के तट पर संयम सेअपने अपने ब्रत रखते हुए बिताईं।

    उन्होंने केवल जल ग्रहण किया और उपवास रखा।

    कश्चिन्महानहिस्तस्मिन्विपिनेउतिबुभुक्षित: ।

    यहच्छयागतो नन्दं शयानमुरगोग्रसीत्‌ ॥

    ५॥

    कश्चित्‌ू--किसी; महान्‌--बड़ा; अहिः--सर्प ने; तस्मिनू--उस; विपिने--जंगल के क्षेत्र में; अति-बुभुक्षित:--अत्यन्त भूखा;यहच्छया--अकस्मात्‌; आगत: --आया; नन्दम्‌--नन्द महाराज को; शयानम्‌--सोते हुए; उर-ग:--पेट के बल सरकता;अग्रसीत्‌ू--निगल लिया

    रात में एक विशाल एवं अत्यन्त भूखा सर्प उस जंगल में प्रकट हुआ।

    वह सोये हुए ननन्‍्दमहाराज के निकट अपने पेट के बल सरकता हुआ गया और उन्हें निगलने लगा।

    स चुक्रोशाहिना ग्रस्त: कृष्ण कृष्ण महानयम्‌ ।

    सर्पो मां ग्रसते तात प्रपन्न॑ परिमोचय ॥

    ६॥

    सः--वह, नन्द महाराज; चुक्रोश--चिल्लाया; अहिना--साँप के द्वारा; ग्रस्त:--पकड़ा हुआ; कृष्ण कृष्ण--हे कृष्ण, हे कृष्ण;महान्‌ू--विशाल; अयम्‌--यह; सर्प:--सर्प; माम्‌ू--मुझको; ग्रसते--निगले जा रहा है; तात--मेरे बेटे; प्रपन्नम्‌--मुझशरणागत का; परिमोचय--उद्धार करो |

    साँप के चंगुल में फँसे नन्द महाराज चिल्लाये, 'कृष्ण ! बेटे कृष्ण), यह विशाल सर्प मुझेनिगले जा रहा है।

    मैं तो तुम्हारा शरणागत हूँ।

    मुझे बचाओ 'तस्य चाक्रन्दितं श्रुत्वा गोपाला: सहसोत्थिता: ।

    ग्रस्तं च इष्ठा विश्रान्ता: सर्प विव्यधुरुल्मुकै: ॥

    ७॥

    तस्य--उसकी; च--तथा; आक्रन्दितम्‌--चिल्लाहट; श्रुत्वा--सुनकर; गोपाला:--ग्वाले; सहसा--एकाएक; उत्थिता: --उठकर; ग्रस्तम्‌--पकड़ा हुआ; च--तथा; हृष्टा--देखकर; विश्रान्ता:--विचलित; सर्पम्‌ू--साँप को; विव्यधु:--पीटा;उल्मुकै:--जलती मशालों, या लुकाठों से।

    जब ग्वालों ने नन्द की चीखें सुनीं तो वे तुरन्त उठ गये और उन्होंने देखा कि नन्द को तो सर्पनिगले जा रहा है।

    अत्यन्त विचलित होकर उन्होंने जलती मशालों से उस सर्प को पीटा।

    अलातैर्दह्ममानोपि नामुजखत्तमुरड्रमः ।

    तमस्पृशत्पदा भ्येत्य भगवान्सात्वतां पति: ॥

    ८॥

    अलातै:--लुकाठों से; दह्ममान:--जलाये जाने पर; अपि--भी; न अमुझ्ञत्‌--नहीं छोड़ा; तम्‌--उसको; उरड्रम:--सर्प ने;तम्‌--उस साँप को; अस्पृशत्‌--छुआ; पदा--पाँव से; अभ्येत्य--आकर; भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; सात्वताम्‌-भक्तों के;'पति:--स्वामीलुकाठों से जलाये जाने पर भी उस साँप ने ननन्‍्द महाराज को नहीं छोड़ा।

    तब भक्तों केस्वामी भगवान्‌ कृष्ण उस स्थान पर आये और उन्होंने उस साँप को अपने पाँव से छुआ।

    स वै भगवतः श्रीमत्पादस्पर्शहताशुभः ।

    भेजे सर्पवपुर्हित्वा रूपं विद्याधराचितम्‌ ॥

    ९॥

    सः--वह; वै--निस्सन्देह; भगवतः--भगवान्‌ के; श्री-मत्‌--दैवी; पाद--पाँव के ; स्पर्श--स्पर्श से; हत--विनष्ट हुए;अशुभ:ः--सारे अशुभ; भेजे-- धारण किया; सर्प-वपु:--साँप का शरीर; हित्वा--त्यागकर; रूपम्‌--रूप; विद्याधर--विद्याधरोंद्वारा; अचितम्‌--पूजित |

    भगवान्‌ के दिव्य चरण का स्पर्श पाते ही सर्प के सारे पाप विनष्ट हो गये और उसने अपनासर्प-शरीर त्याग दिया।

    वह पूज्य विद्याधर के रूप में प्रकट हुआ।

    तमपृच्छद्धृषीकेश: प्रणतं समवस्थितम्‌ ।

    दीप्यमानेन वपुषा पुरुषं हेममालिनम्‌ ॥

    १०॥

    तम्‌--उससे; अपृच्छत्‌-- पूछा; हषीकेश:-- भगवान्‌ हषीकेश ने; प्रणतम्‌--नमस्कार करते हुए; समवस्थितम्‌--उनके समक्षखड़ा; दीप्यमानेन--देदीप्यमान; वपुषा--शरीर से; पुरुषम्‌--पुरुष को; हेम--सुनहरे; मालिनम्‌--मालाएँ पहने ।

    तब भगवान्‌ हृषीकेश ने इस व्यक्ति से जो देदीप्यमान शरीर से युक्त उनके समक्ष सिरझुकाये, सुनहरी मालाओं से सज्जित खड़ा था, पूछा।

    को भवान्परया लक्ष्म्या रोचतेउद्भुतदर्शन: ।

    कथ॑ जुगुप्सितामेतां गतिं वा प्रापितोडवश: ॥

    ११॥

    कः--कौन; भवानू--आप; परया--महान; लक्ष्या--सौन्दर्य से युक्त; रोचते--चमक रहे हो; अद्भुत-- अनोखा; दर्शन:--देखने में; कथम्‌--क्‍्यों; युगुप्सितामू-- भयानक; एतामू--यह; गतिम्‌--लक्ष्य; वा--तथा; प्रापित:--धारण करना पड़ा;अवशः--अपने वश से बाहर।

    भगवान्‌ कृष्ण ने कहा महाशय, आप तो अत्यधिक सौन्दर्य से चमत्कृत होने से इतनेअद्भुत लग रहे हैं।

    आप कौन हैं? और आपको किसने सर्प का यह भयानक शरीर धारण करनेके लिए बाध्य किया ?

    सर्प उवाचअहं विद्याधर: कश्रित्सुदर्शन इति श्रुतः ।

    श्रिया स्वरूपसम्पत्त्या विमानेनाचरन्दिश: ॥

    १२॥

    ऋषीन्विरूपाड्रिरसः प्राहसं रूपदर्पित: ।

    तैरिमां प्रापितो योनिं प्रलब्धेः स्वेन पाप्मना ॥

    १३॥

    सर्प: उवाच--सर्प ने कहा; अहम्‌--मैं; विद्याधर:--विद्याधर; कश्चित्‌--कोई; सुदर्शन:--सुदर्शन; इति--इस प्रकार; श्रुत:ः--विख्यात; अिया--ऐश्वर्य से; स्वरूप--अपने स्वरूप का; सम्पत्त्या--धन से; विमानेन--अपने विमान में; आचरनू--घूमते हुए;दिशः--दिशाएँ; ऋषीन्‌--ऋषिगण; विरूप--कुरूप; आड्विरस:--अडिगरा मुनि की शिष्य परम्परा के; प्राहसम्‌--मैंने हँसीउड़ाई; रूप--सौन्दर्य के कारण; दर्पित:--अत्यधिक गर्वित; तैः--उनके कारण; इमाम्‌--यह; प्रापित:-- धारण करना पड़ा;योनिमू--जन्म; प्रलब्धै:--जिनका मजाक उड़ा था; स्वेन--अपने ही; पाप्मना--पापों के कारण।

    सर्प ने उत्तर दिया: मैं सुदर्शन नामक विख्यात विद्याधर हूँ।

    मैं अत्यन्त सम्पत्तिवान तथा सुन्दरथा और अपने विमान में चढ़कर सभी दिशाओं में मुक्त विचरण करता था।

    एक बार मैंने अंगिरामुनि की परम्परा के कुछ ऋषियों को देखा।

    अपने सौन्दर्य से गर्वित मैंने उनका मजाक उड़ायाऔर मेरे पाप के कारण उन्होंने मुझे निम्न योनि धारण करने के लिए बाध्य कर दिया।

    शापो मेअनुग्रहायैव कृतस्तै:ः करुणात्मभि: ।

    यदहं लोकगुरुणा पदा स्पृष्टो हताशुभ: ॥

    १४॥

    शापः--शाप; मे--मेरे; अनुग्रहाय--वर के लिए; एव--निश्चय ही; कृत:ः--किया गया; तैः--उनके द्वारा; करूण-आत्मभि: --स्वभाव से दयालु; यत्‌--चूँकि; अहम्‌--मैं; लोक--सारे लोकों के; गुरुणा--गुरु द्वारा; पदा--पाँव से; स्पृष्ट:--स्पर्श किया;हत--नष्ट; अशुभ:--सारे अशुभ |

    वास्तव में मेरे लाभ के लिए ही उन दयालु ऋषियों ने मुझे शाप दिया क्योंकि अब मैं समस्तलोकों के परम दिव्य गुरु के पाँव द्वारा स्पर्श किया जा चुका हूँ और इस तरह सारे अशुभों सेमुक्त हो चुका हूँ।

    त॑ त्वाहं भवभीतानां प्रपन्नानां भयापहम्‌ ।

    आपूृच्छे शापनिर्मुक्त: पादस्पर्शादमीवहन्‌ ॥

    १५॥

    तम्‌--वही पुरुष; त्वा--तुम; अहम्‌--मैं; भव--संसार का; भीतानाम्‌--डरे हुओं के लिए; प्रपन्नानामू--शरणागतों के; भय--भय के; अपहम्‌-- भगाने वाले; आपृच्छे-- आपकी अनुमति चाहता हूँ; शाप--शाप से; निर्मुक्त:--मुक्त; पाद-स्पर्शात्‌--आपके पाँव के स्पर्श से; अमीव--सारे दुखों के; हन्‌--नष्ट करने वाले

    हे प्रभु, आप उन समस्त लोगों के सारे भय को नाश करने वाले हैं, जो इस भौतिक संसारसे डर कर आपकी शरण ग्रहण करते हैं।

    अब मैं आपके चरणस्पर्श से ऋषियों के शाप से मुक्तहो गया हूँ।

    हे दुखभंजन, अब मुझे अपने लोक वापस जाने की अनुमति दें।

    प्रपन्नोउस्मि महायोगिन्महापुरुष सत्पते ।

    अनुजानीहि मां देव सर्वलोकेश्वरेश्वर ॥

    १६॥

    प्रपन्न:--शरणागत; अस्मि--हूँ; महा-योगिन्‌--हे योगियों में महान; महा-पुरुष--हे महापुरुष; सत्‌-पते--हे भक्तों के स्वामी;अनुजानीहि--आज्ञा दें; मामू--मुझको; देव--हे ई ध्वर; सर्व--सभी; लोक--लोकों के; ई श्वर--नियन्ताओं के; ईश्वर--हे परमनियन्ता।

    हे योगेश्वर, हे महापुरुष, हे भक्तों के स्वामी, मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूँ।

    हे परमेश्वर,हे ब्रह्माण्ड के ईश्वरों के ईश्वर, आप जैसा चाहें वैसी मुझे आज्ञा दें।

    ब्रह्मदण्डाद्विमुक्तो हं सद्यस्तेच्युत दर्शनात्‌ ।

    यन्नाम गृह्नन्नखिलान्श्रोतृनात्माममेव च ।

    सद्यः पुनाति कि भूयस्तस्य स्पृष्ट: पदा हि ते ॥

    १७॥

    ब्रह्म--ब्राह्मणों के; दण्डात्‌--दण्ड से; विमुक्त:--मुक्त; अहम्‌--मैं; सद्यः--तुरन्त; ते--आप; अच्युत--हे अच्युत भगवान्‌;दर्शनात्‌ू--दर्शन से; यत्‌ू--जिसके; नाम--नाम; गृहन्‌--कीर्तन करने; अखिलानू--समस्त; श्रोतृन्‌ू-- श्रोताओं; आत्मानम्‌--स्वयं; एव--निस्सन्देह; च-- भी; सद्यः--तुरन्त; पुनाति--पवित्र कर देता है; किम्‌ भूयः--तो फिर और अधिक क्या; तस्य--उसका; स्पृष्ट:ः --स्पर्श किया गया; पदा--पाँव से; हि--निस्सन्देह; ते--आपके

    हे अच्युत, मैं आपके दर्शन मात्र से ब्राह्मणों के दण्ड से तुरन्त मुक्त हो गया।

    जो कोईआपके नाम का कीर्तन करता है, वह अपने साथ-साथ अपने श्रोताओं को भी पवित्र बना देताहै।

    तो फिर आपके चरणकमल का स्पर्श न जाने कितना लाभप्रद होगा ?

    इत्यनुज्ञाप्य दाशाईं परिक्रम्याभिवन्द्य च ।

    सुदर्शनो दिवं यातः कृच्छान्नन्दश्च मोचितः ॥

    १८॥

    इति--इस प्रकार; अनुज्ञाप्प-- अनुमति लेकर; दाशाहम्‌--कृष्ण से; परिक्रम्य--परिक्रमा करके; अभिवन्द्य--नमस्कार करके;च--तथा; सुदर्शन:--सुदर्शन; दिवम्‌--स्वर्ग को; यात:--चला गया; कृच्छात्‌--अपने संकट से; नन्दः--नन्द महाराज; च--भी; मोचित:--छूट गये |

    इस प्रकार भगवान्‌ कृष्ण की अनुमति पाकर सुदर्शन ने उनकी परिक्रमा की, उन्हें झुककरनमस्कार किया और तब वह स्वर्ग के अपने लोक लौट गया।

    इस तरह नन्द महाराज संकट सेउबर आये।

    निशाम्य कृष्णस्य तदात्मवैभवं ब्रजौकसो विस्मितचेतसस्ततः ।

    समाप्य तस्मिन्नियमं पुनर्त्रजंणजृपाययुस्तत्कथयन्त आहृता: ॥

    १९॥

    निशाम्य--देखकर; कृष्णस्य--कृष्ण का; तत्‌ू--वह; आत्म--अपना; वैभवम्‌--शक्ति का प्रदर्शन; ब्रज-ओकसः:--ब्रजवासी;विस्मित--चकित; चेतस: --अपने मन में; तत:--तब; समाप्य--समाप्त करके ; तस्मिन्‌--उस स्थान पर; नियमम्‌-- अपने ब्रत;पुनः--फिर; ब्रजम्‌-ग्वालों के गाँव में; नृप--हे राजा; आययु:--लौट आये; तत्‌--वह प्रदर्शन; कथयन्त:--बयान करते;आहता:--आदरपूर्वक |

    कृष्ण की असीम शक्ति देखकर ब्रजवासी चकित रह गये।

    हे राजन, तब उन्होंने भगवान्‌शिव की पूजा सम्पन्न की और रास्ते में कृष्ण के शक्तिशाली कार्यो का आदरपूर्वक वर्णन करतेहुए वे सभी ब्रज लौट आये।

    कदाचिदथ गोविन्दो रामश्नाद्भुतविक्रम: ।

    विजह॒तुर्वने रात्रयां मध्यगौ ब्रजयोषिताम्‌ ॥

    २०॥

    कदाचित्‌--एक समय; अथ--तब; गोविन्दः-- भगवान्‌ कृष्ण; राम:-- बलराम; च--तथा; अद्भुत--अद्भुत; विक्रम: --कार्य; विजहतु:--दोनों ने क्रीड़ा की; वने--वन में; रात्याम्‌--रात्रि के समय; मध्य-गौ--बीच में; त्रज-योषिताम्‌--ग्वालों कीस्त्रियों के |

    एक बार अद्भुत कौशल दिखलाने वाले भगवान्‌ गोविन्द तथा राम रात्रि के समय ब्रज कीयुवतियों के साथ जंगल में क्रीड़ा कर रहे थे।

    उपगीयमानौ ललित स्त्रीजनैर्बद्धसौहदे: ।

    स्वलड्डू तानुलिप्ताड़ौ स्त्रग्विनौ विरजोम्बरौ ॥

    २१॥

    उपगीयमानौ--उनकी महिमा का गायन करते; ललितम्‌--मनोहर; स्त्री-जनै: --स्त्रियों के द्वारा; बद्ध--बँधा; सौहदैः--उनकेप्रति स्नेह से; सु-अलड्डू त--अत्यधिक सजी हुईं; अनुलिप्त--( चन्दन ) लेप किये; अज्जौ--अंगों वाली; सत्रकू-विनौ--फूलों कीमाला पहने; विरज:-- धूल से रहित, निर्मल; अम्बरौ--वस्त्र धारण किये।

    कृष्ण तथा बलराम फूलों की माला तथा स्वच्छ वस्त्र धारण किये हुए थे और उनके अंगप्रत्यंग उत्तम विधि से सजाये तथा लेपित किये गये थे।

    उनके स्नेह में बँधी हुई स्त्रियों ने उनकीमहिमा का मनोहर ढंग से गायन किया।

    निशामुखं मानयन्तावुदितोडुपतारकम्‌ ।

    मल्लिकागन्धमत्तालिजुष्टे कुमुदवायुना ॥

    २२॥

    निशा-मुखम्‌--रात्रि का शुभारम्भ; मानयन्तौ--दोनों ने सम्मान करते हुए; उदित--उदित होकर; उड्डप-- चन्द्रमा; तारकम्‌--तथा तारे; मल्लिका--चमेली के फूलों की; गन्ध--सुगन्ध से; मत्त--उन्मत्त; अलि--भौंरों के द्वारा; जुष्टमू--पसंद किये गये;कुमुद--कमलों की; वायुना--मन्द वायु से |

    उन दोनों ने रात्रि आगमन की प्रशंसा की जिसका संकेत चन्द्रमा तथा तारों के उदित होने,कमल की गंध से युक्त मन्द वायु तथा चमेली के फूलों की सुगन्ध से मत्त भौंरों से हो रहा था।

    जगतु: सर्वभूतानां मन: श्रवणमड्लम्‌ ।

    तौ कल्पयन्तौ युगपत्स्वरमण्डलमूर्च्छितम्‌ ॥

    २३॥

    जगतु:--गाया; सर्व-भूतानाम्‌--समस्त प्राणियों के; मनः--मन; श्रवण--तथा कानों के लिए; मड़लम्‌--सुख; तौ--दोनोंजन; कल्पयन्तौ--उत्पन्न करते हुए; युगपत्‌--एकसाथ; स्वर--तान; मण्डल--समूह से; मूर्च्छितम्‌--वर्धित |

    कृष्ण तथा बलराम ने एकसाथ आरोह अवरोह की सभी ध्वनियाँ से युक्त राग अलापा।

    उनके गायन से सारे जीवों के कानों तथा मन को सुख प्राप्त हुआ।

    गोप्यस्तद्गीतमाकर्णय मूर्च्छिता नाविदन्रूप ।

    स्त्रंसहुकूलमात्मानं स्त्रस्तकेशस्त्रजं ततः ॥

    २४॥

    गोप्य:--गोपियाँ; तत्‌ू--उनके; गीतम्‌--गायन को; आकर्णर्य--सुनकर; मूर्च्छिता: --मूर्च्छित हो गईं; न अविदनू--ज्ञान न रहा;नृप--हे राजन्‌; स्त्रंसत्‌ू--खिसकते हुए; दुकूलम्‌--वस्त्र; आत्मानम्‌-- अपने आप; स्त्रस्त--बिखर गये; केश--बाल; स्त्रजम्‌--मालाएँ; ततः--उससे ( खिसककर )

    जब गोपियों ने वह गायन सुना तो वे सम्मोहित हो गईं।

    हे राजनू, वे अपने आपको भूल गईंऔर उन्होंने यह भी नहीं जाना कि उनके सुन्दर वस्त्र शिथिल हो रहे हैं तथा उनके बाल एवंमालाएँ बिखर रही हैं।

    एवं विक्रीडतो: स्वैरं गायतो: सम्प्रमत्तवत्‌ ।

    शद्डुचूड इति ख्यातो धनदानुचरोभ्यगात्‌ ॥

    २५॥

    एवम्‌--इस प्रकार; विक्रीडतो:--दोनों जन क्रीड़ा करते हुए; स्वैरम्‌--इच्छानुसार; गायतो:--गाते हुए; सम्प्रमत्त--मतवाले;वत्‌--सहृश; शट्डुचूड:--शंखचूड़; इति--इस प्रकार; ख्यात:--नामक; धन-द--देवताओं के खजाज्नी, कुवेर का;अनुचर:--सेवक; अभ्यगात्‌--आया

    जब भगवान्‌ कृष्ण तथा भगवान्‌ बलराम स्वेच्छापूर्वक क्रीड़ा कर रहे थे और गाते हुएमतवाले हो रहे थे तभी कुवेर का शंखचूड़ नामक एक दास वहाँ आया।

    तयोर्निरीक्षतो राजंस्तन्नाथं प्रमदाजनम्‌ ।

    क्रोशन्तं कालयामास दिश्युदीच्यामशद्धितः ॥

    २६॥

    तयो:--दोनों के; निरीक्षतो:--देखते देखते; राजन्‌--हे राजन; तत्‌-नाथम्‌-- अपने प्रभुओं के; प्रमदा-जनम्‌--स्त्रियों के समूहको; क्रोशन्तम्‌-चिल्लाते हुए; कालयाम्‌ आस--भगाने लगा; दिशि--दिशा में; उदीच्याम्‌--उत्तरी; अशद्धित:ः--निर्भीक |

    हे राजन, दोनों के देखते देखते शंखचूड़ उन स्त्रियों को उत्तर दिशा की ओर भागकर लेजाने लगा।

    कृष्ण तथा बलराम को अपना स्वामी मान चुकीं स्त्रियाँ उनकी ओर देखते हुएचीखने- चिल्लाने लगीं।

    क्रोशन्तं कृष्ण रामेति विलोक्य स्वपरिग्रहम्‌ ।

    यथा गा दस्युना ग्रस्ता भ्रातरावन्‍्वधावताम्‌ ॥

    २७॥

    क्रोशन्तम्‌--चिल्लाते हुए; कृष्ण राम इति--हे कृष्ण, हे राम; विलोक्य--देखकर; स्व-परिग्रहम्‌--अपने भक्तों को; यथा--जिस तरह; गा:--गौवें; दस्युना--चोरों के द्वारा; ग्रस्ता:--पकड़ी हुई; भ्रातरौ--दोनों भाई; अन्वधावताम्‌--पीछे दौड़ा |

    अपने भक्तों को 'कृष्ण, राम, ' कहकर चिल्लाते हुए सुनकर तथा यह देखकर कि वे चोरद्वारा गौवों की तरह चुराई जा रही हैं कृष्ण तथा बलराम उस असुर के पीछे दौड़ने लगे।

    मा भेष्टेयभयारावीौ शालहस्तौ तरस्विनौ ।

    आसेदतुस्तं तरसा त्वरितं गुह्यकाधमम्‌ ॥

    २८ ॥

    मा भैष्ट--मत डरो; इति--इस प्रकार पुकारते हुए; अभय--अभय दान करते हुए; आरावौ--जिसके शब्द; शाल--लट्ठे;हस्तौ--दोनों हाथों में ; तरस्विनौ--तेजी से घुमाते हुए; आसेदतु:--वे पास पहुँचे; तम्‌--उस असुर को; तरसा--जल्दी से;त्वरितम्‌-तेजी से घूम रहे; गुह्मक--यक्षों में; अधमम्‌--निकृष्ट |

    भगवान्‌ ने उत्तर में पुकारा: डरना मत।

    तत्पश्चात्‌ उन्होंने हाथ में शाल वृक्ष के लट्ठे उठालिये और उस अधमतम गुहाक का तेजी से पीछा करने लगे जो तेजी से भाग रहा था।

    स वीक्ष्य तावनुप्राप्तौ कालमृत्यू इवोद्विजन्‌ ।

    विषृज्य स्त्रीजनं मूढ: प्राद्रवज्जीवितेच्छया ॥

    २९॥

    सः--वह, शंखचूड़; वीक्ष्य--देखकर; तौ--दोनों को; अनुप्राप्तौी--निकट आया; काल-मृत्यू--समय तथा मृत्यु; इब--सहश;उद्विजन्‌--उद्विग्न होकर; विसृज्य--एक ओर छोड़कर; स्त्री-जनम्‌--स्त्रियों को; मूढः--मतिकध्रष्ट; प्राद्रबत्‌-- भाग गया;जीवित--अपना जीवन; इच्छया--बनाये रखने की इच्छा से |

    जब शंखचूड़ ने उन दोनों को साक्षात्‌ काल तथा मृत्यु की तरह अपनी ओर आते देखा तोवह उद्विग्न हो उठा।

    वह भ्रमित होकर स्त्रियों को छोड़कर अपनी जान बचाकर भाग गया।

    तमन्वधावद्गोविन्दो यत्र यत्र स धावति ।

    जिहीर्षुस्तच्छिरोरलं तस्थौ रक्षन्स्त्रियो बल: ॥

    ३०॥

    तम्‌--उसके; अन्वधावत्‌--पीछे पीछे दौड़े; गोविन्दः--कृष्ण; यत्र यत्र--जहाँ जहाँ; सः--वह; धावति--दौड़ता था;जिहीर्षु:--निकालने की इच्छा से; तत्‌--उसके; शिर:--सिर पर; रलम्‌--रल, मणि को; तस्थौ--खड़े रहे; रक्षन्‌--रक्षा करतेहुए; स्त्रियः--स्त्रियाँ; बल:--बलराम

    भगवान्‌ गोविन्द उस असुर के सिर की मणि निकालने के लिए उत्सुक होकर जहाँ जहाँ वहदौड़ रहा था, उसका पीछा कर रहे थे।

    इसी बीच बलराम स्त्रियों की रक्षा करने के लिए उनकेसाथ रह गये।

    अविदूर इवाभ्येत्य शिरस्तस्य दुरात्मन: ।

    जहार मुष्टिनेवाड़ सहचूडमणिं विभु: ॥

    ३१॥

    अविदूरे--पास ही; इब--मानो; अभ्येत्य--की ओर आकर; शिर:ः--सिर; तस्य--उसका; दुरात्मन:--दुष्ट; जहार--अलग करलिया; मुष्टिना--अपनी मुट्ठी से; एबव--केवल; अड्र--हे राजन्‌; सह--साथ; चूड-मणिम्‌--सिर के मणि को; विभु:--सर्वशक्तिमान भगवान्‌ ने।

    हे राजन, शक्तिशाली भगवान्‌ ने दूर से ही शंखचूड़ को पकड़ लिया मानो निकट से हो औरतब अपनी मुट्ठी से उस दुष्ट के सिर को चूड़ामणि समेत धड़ से अलग कर दिया।

    शद्डुचूडं निहत्यैवं मणिमादाय भास्वरम्‌ ।

    अग्रजायाददात्प्रीत्या पश्यन्तीनां च योषिताम्‌ ॥

    ३२॥

    शट्डुचूडम्‌-शंखचूड़ को; निहत्य--मारकर; एवम्‌--इस तरह; मणिम्‌--मणि को; आदाय--लाकर; भास्वरम्‌--चमकीली;अग्र-जाय--अपने बड़े भाई ( बलराम ) को; अददात्‌--दे दिया; प्रीत्या--प्रसन्नतापूर्वक; पश्यन्तीनाम्‌--देखते हुए; च--तथा;योषिताम्‌--स्त्रियों के |

    इस प्रकार शंखचूड़ असुर को मारकर तथा उसकी चमकीली मणि लेकर भगवान्‌ कृष्ण नेइसे अपने बड़े भाई को बड़ी प्रसन्नतापूर्वक गोपियों के सामने भेंट किया।

    TO

    अध्याय पैंतीसवाँ: जंगल में घूमते समय गोपियाँ कृष्ण का गीत गाती हैं

    10.35श्रीशुक उबाचगोप्यः कृष्णे बन॑ याते तमनुद्रुत॒चेतस: ।

    कृष्णलीला: प्रगायन्त्यो निन्युर्दु:खेन वासरान्‌ ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; गोप्य:--गोपियाँ; कृष्णे--कृष्ण के; वनमू--वन को; याते--जाने पर;तम्‌--उसके; अनुद्गुत--पीछा करते; चेतस:--जिनके मन; कृष्ण-लीला:--कृष्ण की दिव्य लीलाएँ; प्रगायन्त्य:--जोर जोर सेगाती हुई; निन्यु:--बिताया; दुःखेन--दुख के साथ; वासरानू--दिन |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब भी कृष्ण वन को जाते थे तो गोपियों के मन उन्हीं के पीछेभाग जाते थे और इस तरह युवतियाँ उनकी लीलाओं का गान करते हुए खिन्नतापूर्वक अपने दिनबिताती थीं।

    श्रीगोष्य ऊचु:वामबाहुकृतवामकपोलोवल्गितश्रुरधरार्पितवेणुम्‌ ।

    'कोमलाडुलिभिराश्रितमार्गगोप्य ईरयति यत्र मुकुन्दः ॥

    २॥

    व्योमयानवनिताः सह सिद्धै-विस्मितास्तदुपधार्य सलज्ञा: ।

    काममार्गणसमर्पितचित्ताः'कश्मलं ययुरपस्मृतनीव्य: ॥

    ३॥

    श्री-गोप्य: ऊचु:--गोपियों ने कहा; वाम--बायीं; बाहु-- भुजा पर; कृत--रखकर; वाम--बाएँ; कपोल:--गाल को;वल्गित--हिलती हुई; भ्रु:--भौंहें; अधर--होंठों पर; अर्पित--रखी; वेणुम्‌--बाँसुरी को; कोमल--सुकुमार; अद्डुलिभि:--अपनी अँगुलियों से; आश्नित-मार्गम्‌--बन्द किये गये छेद; गोप्य:--हे गोपियो; ईरयति--बजाते हैं; यत्र--जहाँ; मुकुन्दः --कृष्ण; व्योम--आकाश में; यान--विचरण करती; वनिता:--स्त्रियाँ; सह--साथ; सिद्धैः--सिद्ध देवताओं के; विस्मिता:--चकित; तत्‌-- उसे; उपधार्य--सुनकर; स--सहित; लज्जा:--लाज; काम--कामवासना का; मार्गण--पीछा करते; समर्पित--अर्पित; चित्ता:--उनके मन; कश्मलम्‌--कष्ट; ययु;-- अनुभव किया; अपस्मृत-- भूलकर; नीव्य:--कमरबंध

    गोपियों ने कहा : जब मुकुन्द अपने होंठों पर रखी बाँसुरी के छेदों को अपनी सुकुमारअँगुलियों से बन्द करके उसे बजाते हैं, तो वे अपने बाएँ गाल को अपनी बाईं बाँह पर रखकरअपनी भौंहों को नचाने लगते हैं।

    उस समय आकाश में अपने पतियों अर्थात्‌ सिद्धों समेतविचरण कर रही सिद्धपत्नियाँ चकित हो उठती हैं।

    जब ये स्त्रियाँ वंशी की ध्वनि सुनती हैं, तोउनके मन कामवासना से चलायमान हो उठते हैं और अपनी पीड़ा में उन्हें इसकी भी सुधि नहींरह जाती कि उनके कमरबंध शिथिल हुए जा रहे हैं।

    हन्त चित्रमबला: श्रुणुतेदंहारहास उरसि स्थिरविद्युत्‌ ।

    नन्दसूनुरयमार्तजनानांनर्मदो यहिं कूजितवेणु; ॥

    ४॥

    वृन्दशो ब्रजवृषा मृगगावोवेणुवाद्यहतचेतस आरात्‌ ।

    दन्तदष्टकवला धृतकर्णानिद्विता लिखितचित्रमिवासन्‌ ॥

    ५॥

    हन्त--ओह; चित्रमू--आश्चर्य; अबला: --हे बालाओ; श्रुणुत--सुनो; इृदम्‌--यह; हार--गले के हार सहश ( चमकीला );हास:ः--हँसी; उरसि--वक्षस्थल पर; स्थिर-- अचल; विद्युत्‌ू--बिजली; नन्द-सूनु:--नन्द महाराज का पुत्र; अयम्‌--यह;आर्त--दुखी; जनानामू--मनुष्यों के लिए; नर्म--प्रसन्नता का; दः--देने वाला; यहिं--जब; कूजित--ध्वनित; वेणु:--वंशी;वृन्दशः--झुंडों में; त्रज--चरागाह में रखे गये; वृषा:--बैल; मृग--हिरण; गाव:--गाएँ; वेणु--बाँसुरी के; वाद्य--बजाने से;हृत--चुराये गये; चेतसः--मन; आरातू--दूरी पर; दन्‍्त--अपने दाँतों से; दष्ट--काटा गया; कवला:--कौर; धृत--खड़ा कियेहुए; कर्णा:--अपने कान; निद्विता:--सुप्त; लिखित--अंकित; चित्रमू--चित्र; इब--सहृश; आसनू--थे |

    हे बालाओ, दुखियों को आनन्द देने वाला यह नन्द का बेटा अपने वक्षस्थल पर अविचलदामिनी वहन करता है और इसकी हँसी रत्तजटित हार जैसी है।

    अब जरा कुछ विचित्र बातसुनो ।

    जब वह अपनी बाँसुरी बजाता है, तो बहुत दूरी पर खड़े ब्रज के बैल, हिरण तथा गौवें केझुंड के झुंड इस ध्वनि से मोहित हो जाते हैं।

    वे सब जुगाली करना बंद कर देते हैं और अपनेकानों को खड़ा कर लेते हैं ( चौकन्ने हो जाते हैं )।

    वे स्तम्भित होकर ऐसे लगते हैं मानो सो गयेहों या चित्रों में बनी आकृतियाँ हों।

    बर्हिणस्तबकधातुपलाशै-ब॑द्धमललपरिबर्ईविडम्ब: ।

    कह्िचित्सबल आलि स गोपै-गा: समाह्ययति यत्र मुकुन्दः ॥

    ६॥

    तहिं भग्नगतयः सरितो वैतत्पदाम्बुजरजोनिलनीतम्‌ ।

    स्पृहयतीर्वयमिवाबहुपुण्या:प्रेमवेपितभुजा: स्तिमिताप: ॥

    ७॥

    बर्हिण--मोरों के; स्तबक--पंखों से; धातु--रंगीन खनिज ( गेरू ); पलाशैः--तथा पत्तियों से; बद्ध--व्यवस्थित; मल्‍ल--कुश्ती लड़ने वाले या पहलवान का; परिब्ह--वेश; विडम्ब:--अनुकरण करने वाला; कहिंचित्‌ू--क भी कभी; स-बलः--बलराम सहित; आलि--हे गोपी; सः--वह; गोपै:--ग्वालबालों के साथ; गाः:--गौवों को; समाह्यति--बुलाता है; यत्र--जब; मुकुन्दः--मुकुन्द; तहि---तब; भग्न--टूटी; गतयः--उनकी गति, हिलना-डुलना; सरितः--नदियाँ; बै--निस्सन्देह;तत्‌--उसके; पद-अम्बुज--चरणकमलों की; रज:--धूलि; अनिल--वायु से; नीतम्‌--लाई हुईं; स्पृहयती:--लालसा करतीहुई; वयम्‌--हम सब; इब--जिस तरह; अबहु--कुछ कुछ; पुण्या:--पुण्यकर्म; प्रेम-- भगवत्प्रेम के कारण; वेपित--काँपती;भुजा:--बाहें ( लहरें ); स्तमित--रुक गया; आप:--जल

    हे प्रिय गोपी, कभी कभी कृष्ण अपने को पत्तियों, मोरपंखों तथा रंगीन खनिजों से सजाकरपहलवान का वेश बनाते हैं।

    तत्पश्चात्‌ वे बलराम तथा ग्वालबालों के साथ बैठकर गौवों कोबुलाने के लिए अपनी बाँसुरी बजाते हैं।

    उस समय नदियाँ बहना बन्द कर देती हैं, उनका जलउस आनन्द से स्तम्भित हो उठता है, जिसे वे उस वायु की उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा करते हुएअनुभव करती हैं, जो उनके लिए भगवान्‌ के चरणकमलों की धूल लाएगा।

    किन्तु हमारी हीतरह नदियाँ अधिक पवित्र नहीं हैं, अतः वे प्रेमवश काँपते हुए बाँहों से उनकी प्रतीक्षा करतीरहती हैं।

    अनुचरै: समनुवर्णितवीर्यआदिपूरुष इवाचलभूतिः ।

    वनचरो गिरितटेषु चरन्ती-वेणुनाह्ययति गा: स यदा हि ॥

    ८॥

    वनलतास्तरव आत्मनि विष्णुंव्यज्ञयन्त्य इव पुष्पफलाढ्या: ।

    प्रणतभारविटपा मधुधारा:प्रेमहष्टतनवो ववृषु: सम ॥

    ९॥

    दर्शनीयतिलको वनमाला-दिव्यगन्धतुलसीमधुमत्तै: ।

    अलिकुलैरलघु गीतामभीष्ट-माद्वियन्य्हिं सन्धितवेणु; ॥

    १०॥

    सरसि सारसहंसविहड़ा-श्वारुगीताहतचेतस एत्य ।

    हरिमुपासत ते यतचित्ताहन्त मीलितह॒शो धृतमौना: ॥

    ११॥

    अनुचरैः--साथियों के द्वारा; समनुवर्णित--विस्तार से वर्णित होकर; बीर्य:--पराक्रम; आदि-पूरुष: --आदिपुरुष; इब--सहश; अचल--स्थिर; भूतिः--ऐश्वर्य; बन--वन में; चर: --इधर-उधर घूमते; गिरि--पर्वतों के; तटेषु--पार्श् में, तराई में;चरन्ती:--चरती हुई; वेणुना--अपनी बाँसुरी से; आहृयति--बुलाता है; गाः:--गौवों को; सः--वह; यदा--जब; हि--निस्सन्देह; वन-लता:--जंगल की लताओं; तरव: --तथा वृक्षों ने; आत्मनि-- अपने में; विष्णुमू-- भगवान्‌ विष्णु को;व्यज्ञयन्त्यः:--प्रकट करते हुए; इब--मानो; पुष्प--फूलों; फल--तथा फलों से; आढ्या: --सम्पन्न; प्रणत--झुके हुए; भार--भार से; विटपा:--डालें; मधु--मधुर रस की; धाराः--धधाराएँ; प्रेम--प्रेम से; हृष्ट--रोमांचित; तनव:--शरीर ( तने ); ववृषुःस्म--वर्षा की; दर्शनीय--देखने में आकर्षक लोगों में; तिलक:--सर्व श्रेष्ठ बन-माला--जंगल के फूलों से बनी माला पर;दिव्य--अलौकिक; गन्ध--सुगन्ध; तुलसी--तुलसी के फूलों की; मधु--शहद जैसी मिठास से; मत्तैः--प्रमत्त; अलि-- भौंरोंके; कुलैः--झुंडों से; अलघु--प्रबल; गीतम्‌--गायन; अभीष्टम्‌--इच्छित; आद्वियन्‌--कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार करते हुए;यहिं--जब; सन्धित--रखा; वेणु:--अपनी बाँसुरी; सरसि--झील में; सारस--सारस पक्षी; हंस--हंस; विहड्ञाः--तथा अन्यपक्षी; चारु--मनोहर; गीत--( वंशी के ) गीत से; हत--चुराये गये; चेतस:--मन; एत्य--आगे आकर; हरिम्‌-- भगवान्‌ कृष्णको; उपासत--पूजा करते हैं; ते--वे; यत--वश में; चित्ता:--मन; हन्त--हाय; मीलित--बन्द; हशः--उनकी आँखें; धृत--धारण किया हुआ; मौना:--मौन |

    कृष्ण अपने सखाओं के साथ जंगल में घूमते फिरते हैं।

    ये सखा उनके शानदार कार्यो काजोरशोर से यशगान करते हैं।

    इस तरह वे पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्वर की तरह अपने अक्षय ऐश्वर्यका प्रदर्शन करते प्रतीत होते हैं।

    जब गाएँ पर्वत की तलहटी में घूमती हैं और कृष्ण अपनी बंशीकी तान से उन्हें बुलाते हैं, तो वृक्ष तथा जंगल की लताएँ, प्रत्युत्तर में, फूलों तथा फलों से इतनीलद॒ जाती हैं कि वे अपने हृदयों के भीतर भगवान्‌ विष्णु को प्रकट करती प्रतीत होती हैं।

    जबभार से उनकी शाखाएँ नीचे झुक जाती हैं, तो उनके तनों के तन्तु तथा लताएँ भगवत्प्रेम से रोमजैसी उठ खड़ी होती हैं और वृक्ष तथा लताएँ दोनों ही मधुर रस की वर्षा करने लगते हैं।

    कृष्ण द्वारा पहनी गयी माला के तुलसी के फूलों की मधु जैसी दिव्य गंध से उन्मत्त भौंरों केसमूह उनके लिए उच्च स्वर से गुंजार करने लगते हैं और पुरुषों में सर्वाधिक सुन्दर वह कृष्णअपने अधरों पर अपनी वंशी रखकर और उसे बजाकर उनके गीत की धन्यवाद-सहित प्रशंसाकरते हैं।

    तब मनोहारी वंशी-गीत सारसों, हंसों तथा झील में रहने वाले अन्य पक्षियों के चित्तको चुरा लेता है।

    निस्सन्देह ये सभी अपनी आँखें बन्द किये और मौन साधे उनके पास जाते हैंऔर गहन ध्यान में उन पर अपनी चेतना को स्थिर करते हुए उनकी पूजा करते हैं।

    सहबल: स्त्रगवतंसविलास:सानुषु क्षितिभूतो ब्रजदेव्य: ।

    हर्षयन्यहिं वेणुरवेणजातहर्ष उपरम्भति विश्वम्‌ ॥

    १२॥

    महदतिक्रमणश्डितचेतामन्दमन्दमनुगर्जति मेघ: ।

    सुहृदमभ्यवर्षत्सुमनोभि-एछायया च विदधत्प्रतपत्रम्‌ ॥

    १३॥

    सह-बलः:--बलराम के साथ; सत्रकु--फूल की माला; अवतंस--सिर पर आभूषण की तरह; विलास:--खेलखेल में पहनकर;सानुषु--तलहटी में; क्षिति-भूत:ः--पर्वत की; ब्रज-देव्य:--हे वृन्दावन की देवियो ( गोपियो ); हर्षयन्‌--हर्ष उत्पन्न करते हुए;यहि--जब; वेणु--उनकी वंशी की; रवेण--प्रतिध्वनि से; जात-हर्ष: --हर्षित होकर; उपरम्भति--आस्वादन कराते हैं;विश्वम्‌--सारे जगत को; महत्‌--महापुरुष के; अतिक्रमण---अवमानना; शद्धित--डरा हुआ; चेता: --मन में; मन्द-मन्दम्‌--अत्यन्त धीरे धीरे; अनुगर्जति-- बदले में गरजता है; मेघ:--बादल; सुहृदम्‌--अपने मित्र के ऊपर; अभ्यवर्षत्‌--वर्षा करता है; सुमनोभि:-- फूलों से; छायया--अपनी छाया से; च--तथा; विदधत्‌--प्रदान करते हुए; प्रतपत्रमू--सूर्य से रक्षा के लिएछाता।

    हे ब्रज-देवियो, जब कृष्ण बलराम के साथ खेलखेल में अपने सिर पर फूलों की मालाधारण करके पर्वत की ढालों पर विहार करते हैं, तो वे अपनी वंशी की गूँजती ध्वनि से सबों कोआह्ादित कर देते हैं।

    इस तरह वे सम्पूर्ण विश्व को प्रमुदित करते हैं।

    उस समय महान्‌ पुरुष केअप्रसन्न होने के भय से भयभीत होकर निकटवर्ती बादल उनके साथ होकर मंद मंद गर्जनाकरता है।

    यह बादल अपने प्रिय मित्र कृष्ण पर फूलों की वर्षा करता है और धूप से बचाने केलिए छाते की तरह छाया प्रदान करता है।

    विविधगोपचरणेषु विदग्धोवेणुवाद्य उरुधा निजशिक्षा: ।

    तब सुतः सति यदाधरबिम्बेदत्तवेणुरनयत्स्वरजाती: ॥

    १४॥

    सवनशस्तदुपधार्य सुरेशाःशक्रशर्वपरमेष्ठिपुरोगा: ।

    कवय आनतकन्धरचित्ता:कश्मलं ययुरनिश्चिततत्त्वा: ॥

    १५॥

    विविध--अनेक; गोप--्वालों के; चरणेषु-- कार्यो में; विदग्ध:--पटु; वेणु--वंशी के; वाद्ये--बजाने में; उरधा--कई गुना;निज--अपनी; शिक्षा:--जिसकी शिक्षाएँ; तब--तुम्हारा; सुतः--बेटा; सति--हे पवित्र स्त्री ( यशोदा ); यदा--जब; अधर--होंठों पर; बिम्बे--बिम्ब फलों जैसे लाल; दत्त--रखी हुई; वेणु:--वंशी; अनयत्‌--ले आया; स्वर--संगीत ध्वनि की;जातीः--जातियाँ; सवनशः --उच्च, मध्यम तथा निम्न आरोहों से; तत्‌--उसे; उपधार्य--सुनकर; सुर-ईशा:ः--मुख्य देवता;शक्र--इन्द्र; शर्व--शिवजी; परमेष्ठि--तथा ब्रह्मा; पुरः:-गा:--आदि; कवय: --विद्वान; आनत--झुका लिया; कन्धर-गर्दनें;चित्ता:--तथा मन; कश्मलम्‌ ययु: --मोहित हो गये; अनिश्चित--निश्चय कर पाने में असमर्थ; तत्त्वा:--सार हे सती

    यशोदा माता, गौवों के चराने की कला में निपुण आपके लाड़ले ने वंशी बजाने कीकई शैलियाँ खोज निकाली हैं।

    जब वह अपने बिम्ब सदृश लाल होंठों पर अपनी वंशी रखता हैऔर विविध तानों में स्वर निकालता है, तो इस ध्वनि को सुनकर ब्रह्मा, शिव, इन्द्र तथा अन्यप्रधान देवता मोहित हो जाते हैं।

    यद्यपि वे महान्‌ विद्वान अधिकारी हैं तो भी वे उस संगीत कासार निश्चित नहीं कर पाते; इसलिए वे अपना सिर तथा मन से नतमस्तक हो जाते हैं।

    निजपदाब्जदलैधध्वजवज्ञ-नीरजाहू शविचित्रललामै: ।

    ब्रजभुवः शमयन्खुरतोदंवर्ष्पधुर्यगतिरीडितवेणु; ॥

    १६॥

    ब्रजति तेन वयं सविलास-वीक्षणार्पितमनो भववेगा: ।

    कुजगतिं गमिता न विदामःकश्मलेन कवरं वसनं वा ॥

    १७॥

    निज--अपने; पद-अब्ज--चरणकमलों के; दलैः--फूलों की पंखड़ियों जैसे; ध्वज--पताका; वज़--वज़; नीरज--कमल;अद्भुश--तथा अंकुश का; विचित्र-- भाँति भाँति के; ललामैः--चिह्लों से; ब्रज--व्रज की; भुवः-- भूमि को; शमयन्‌--शान्तकरते हुए; खुर--गाय के खुरों से; तोदम्‌--पीड़ा; वर्ष्ष--अपने शरीर से; धुर्य--जिस तरह हाथी की; गति:ः--चाल; ईंडित--प्रशंसित; वेणु;--जिसकी वंशी; ब्रजति--चलता है; तेन--उससे; वयम्‌--हम; सविलास--क्रीड़ायुक्त; वीक्षण--चितवन से;अर्पित--अर्पित; मन:-भव--कामवासना का; वेगा:--मंथन; कुज--वृक्षों जैसी; गतिम्‌ू--चाल ( गति का अभाव );गमिता:--प्राप्त किया हुआ; न विदाम: --हम नहीं जान पातीं; कश्मलेण-- अपने मोह के कारण; कवरमू--चोटी; वसनम्‌--अपने वस्त्र; वा--अथवा।

    जब कृष्ण अपने कमल-दल जैसे पाँवों से ब्रज में घूमते हैं, तो भूमि पर पताका, वज्,कमल तथा अंकुश जैसे प्रतीकों के स्पष्ट चिन्ह बनते जाते हैं और वे पृथ्वी को गौवों के खुरों सेअनुभव होने वाली पीड़ा से प्रशमित करते हैं।

    जब वे अपनी विख्यात बाँसुरी बजाते हैं, तोउनका शरीर हाथी की अदा में झूमता है।

    इस तरह हम गोपियाँ, जो कृष्ण की विनोदप्रियचितवन के कारण कामदेव द्वारा चंचल हो उठती हैं, वृक्षों की तरह स्तब्ध खड़ी रह जाती हैं औरहमें अपने बालों की लर तथा वस्त्रों के शिधिल पड़ने जाने की भी सुध नहीं रह जाती।

    मणिधर: क्वचिदागणयन्गामालया दयितगन्धतुलस्या: ॥

    प्रणयिनोनुचरस्य कदांसेप्रक्षिपन्भुजमगायत यत्र ॥

    १८॥

    क्‍्वणितवेणुरववश्ञितचित्ता:कृष्णमन्वसत कृष्णगृहिण्यः ।

    गुणगणार्णमनुगत्य हरिण्योगोपिका इव विमुक्तगृहाशा: ॥

    १९॥

    मणि--मणियों की ( लड़ ); धर:-- धारण किये; क्वचित्‌--कहीं; आगणयनू--गिनते हुए; गा:--गौवों को; मालया--फूलोंकी माला से; दयित--अपनी प्रिया; गन्ध--सुगन्ध पाकर; तुलस्या:--तुलसी के फूल जिनपर; प्रणयिन:--प्रेमी; अनुचरस्य--संगी का; कदा--किसी समय; अंसे--कंधे पर; प्रक्षिपनू--फेंकते हुए; भुजम्‌--अपनी बाँह; अगायत--गाया; यत्र--जब;क्वणित--बजायी हुईं; वेणु--बाँसुरी की; रव--ध्वनि से; वश्चित--चुराये गये; चित्ता:--हृदय; कृष्णम्‌--कृष्ण के;अन्वसत--निकट बैठ गईं; कृष्ण--काले हिरण की; गृहिण्य:--पत्नियाँ; गुण-गण--समस्त गुणों के; अर्णमू--समुद्र;अनुगत्य--पास आकर; हरिण्य:--हिरनियाँ; गोपिका: --गोपियाँ; इब--सहश्य; विमुक्त--त्यागकर; गृह--घर तथा परिवारकी; आशाः--अपनी आशाएँ।

    अब कृष्ण कहीं पर अपनी मणियों की लड़ी में गौवों की गिनती करते हुए खड़े हैं।

    वेतुलसी के फूलों की माला पहने हैं जिसमें उनकी प्रिया की सुगन्‍न्ध बसती है और अपनी एक बाँहअपने प्रिय ग्वालमित्र के कन्धे पर रखे हुए हैं।

    ज्योंही कृष्ण अपनी बाँसुरी बजाकर गाते हैं, तोउस गीत से कृष्ण-हिरणों की पत्नियाँ आकृष्ट होती हैं और वे दिव्य गुणों के सागर कृष्ण तकपहुँचकर उनके पास बैठ जाती हैं।

    वे भी हम गोपियों की तरह पारिवारिक जीवन के सुख कीसारी आशाएँ त्याग चुकी हैं।

    कुन्ददामकृतकौतुकवेषोगोपगोधनवृतो यमुनायाम्‌ ।

    नन्दसूनुरनघे तब वत्सोनर्मदः प्रणयिणां विजहार ॥

    २०॥

    मन्दवायुरुपवात्यनुकूलंमानयन्मलयजस्पर्शेन ।

    बन्दिनस्तमुपदेवगणा येवाद्यगीतबलिभि: परिवत्रु; ॥

    २१॥

    कुन्द--चमेली के फूलों की; दाम--माला से; कृत--बनायी गई; कौतुक--क्रीड़ापूर्ण; वेष: --वेशभूषा; गोप--गोपबालोंद्वारा; गोधन--तथा गायों द्वारा; वृतः--घिरा हुआ; यमुनायाम्‌--यमुना के तट पर; नन्द-सूनु:--ननन्‍्द महाराज का बेटा;अनघे--हे निष्पाप महिला; तब--तुम्हारा; वत्स:--लाड़ला बेटा; नर्म-दः--मनोरंजन कराने वाला; प्रणयिणाम्‌--अपने प्रियसंगियों के; विजहार--खेल चुका है; मन्द--धीमी; वायु:--वायु; उपवाति--बहती है; अनुकूलम्‌-- अनुकूल; मानयन्‌--आदरदिखलाते हुए; मलय-ज--चन्दन ( की सुगंध ) के; स्पर्शेन--स्पर्श से; वन्दिन:--प्रशंसा करने वाले; तम्‌--उसको; उपदेव--लघु देवता की; गणा:--विभिन्न कोटियों के सदस्य; ये--जो; वाद्य--वाद्य यंत्रों वाले संगीत; गीत--गायन; बलिभि: --तथाउपहारों सहित; परिवत्रु:--घेर लिया है।

    हे निष्पाप यशोदा, तुम्हारे लाड़ले नन्दनन्दन ने चमेली की माला से अपना विचित्र वेश सजालिया है और इस समय वह यमुना के तट पर गौवों तथा ग्वालबालों के साथ अपने प्रिय संगियोंका मनोरंजन कराते हुए खेल रहे हैं।

    मन्द वायु अपनी सुखद चन्दन-सुगंध से उनका आदर कररही है और विविध उपदेवता चारों ओर बन्दीजनों के समान खड़े होकर अपना संगीत, गायनतथा श्रद्धा के उपहार भेंट कर रहे हैं।

    वत्सलो ब्रजगवां यदगक्नोवन्द्यमानचरण: पथि वृद्धैः ।

    कृत्स्नगोधनमुपोहा दिनान्तेगीतवेणुरनुगेडितकीर्ति: ॥

    २२॥

    उत्सवं श्रमरूचाषि दहशीना-मुन्नयन्खुररजश्छुरितसत्रक्‌ ।

    दित्सयैति सुहदासिष एबदेवकीजठरभूरुडुराज: ॥

    २३॥

    वत्सलः--स्नेहिल; ब्रज-गवाम्‌--ब्रज की गौवों के प्रति; यत्‌--क्योंकि; अग--पर्वत को; श्र:ः--धारण करने वाले;वन्द्यमान--पूजित; चरण: --उनके पैर; पथि--रास्ते पर; वृद्धैः--वृद्ध या गुरुजनों द्वारा; कृत्स्न--सम्पूर्णफ; गो-धनम्‌ू--गौवोंका समूह; उपोह्म --एकत्र करके; दिन--दिन का; अन्ते--अन्त होने पर; गीता-वेणु: --अपनी वंशी बजाते हुए; अनुग--सँगियों से; ईंडित--प्रशंसित; कीर्ति:--यश; उत्सवम्‌--उत्सव; श्रम-- थकान से; रुचा--रंजित; अपि-- भी; हशीनाम्‌--आँखोंके लिए; उन्नयन्‌ू--उठाते हुए; खुर--गौवों के खुरों से; रज:--धूल से; छुरित--सनी; सत्रकू--माला; दित्सया--इच्छा से;एति--आ रहा है; सुहत्‌-- अपने मित्रों को; आशिष:--उनकी इच्छाएँ; एब: --यह; देवकी--माता यशोदा के; जठर--गर्भ से;भू:--उत्पन्न; उडु-राज:--चन्द्रमा |

    ब्रज की गौवों के प्रति अत्यधिक स्नेह के कारण कृष्ण गोवर्धनधारी बने।

    दिन ढलने परअपनी सारी गौवों को समेट कर वे अपनी बाँसुरी पर गीत की धुन बजाते हैं और उनके मार्ग केकिनारे खड़े उच्च देवतागण उनके चरणकमलों की पूजा करते हैं तथा उनके साथ चल रहेग्वालबाल उनके यश का गान करते हैं।

    उनकी माला गौवों के खुरों से उठी धूल से धूसरित हैऔर थकान के कारण बढ़ी हुई उनकी सुन्दरता हरएक के नेत्रों के लिए आह्लादयुक्त उत्सवप्रस्तुत करने वाली है।

    अपने मित्रों की इच्छाएँ पूरी करने के लिए उत्सुक, कृष्ण माता यशोदाकी कोख से उदित चन्द्रमा हैं।

    मदविधूर्णितलोचन ईषनू-मानदः स्वसुहृदां वनमाली ।

    बदरपाण्डुवदनो मृदुगण्डंमण्डयन्कनककुण्डललक्ष्म्या ॥

    २४॥

    यदुपतिद्विरदराजविहारोयामिनीपतिरिवैष दिनान्ते ।

    मुदितवक्त्र उपयाति दुरन्तंमोचयन्त्रजगवां दिनतापम्‌ ॥

    २५॥

    मद--नशे से; विघूर्णित--घूमती हुई; लोचन:--आँखें; ईषत्‌--कुछ कुछ; मान-दः--मान प्रदर्शित करते; स्व-सुहृदाम्‌-- अपनेशुभचिन्तक मित्रों को; वन-माली--वन के पुष्पों की माला पहने; बदर--बेर फल की तरह; पाण्डु-- श्रेताभ; बदन: --मुख;मृदु--कोमल; गण्डम्‌--गाल; मण्डयन्‌--अलंकृत किये हुए; कनक--सुनहरे; कुण्डल--कान के आभूषणों की; लक्ष्म्या--शोभा से; यदु-पति:--यदुवंश के स्वामी; द्विरद-राज--शाही हाथी की तरह; विहार: --खेलकूद; यामिनी-पति: --रात्रि कापति ( चन्द्रमा ); इब--सहृश; एष:--वह; दिन-अन्ते--दिन बीतने पर, संध्या-समय; मुदित--प्रसन्न; वक्‍त्र:--मुख; उपयाति--आ रहा है; दुरन्तम्-दुर्लध्य; मोचयन्‌-- भगाते हुए; ब्रज--त्रज की; गवाम्‌--गौवों के या जिनपर कृपा की जानी है उनके;दिन--दिन के; तापम्‌--पीड़ादायी धूप।

    जब श्रीकृष्ण अपने शुभचिन्तक सखाओं को आदरपूर्वक शुभकामनाएँ देते हैं, तो उनकीआँखें थोड़ी-सी इस तरह घूमती हैं जैसे नशे में हों।

    वे फूलों की माला पहने हैं और उनके कोमलगालों की शोभा उनके सुनहरे कुण्डलों की चमक से तथा बदर बेर के रंग वाले उनके मुख कीश्रेतता से बढ़ जाती है।

    रात्रि के स्वामी चन्द्रमा के सहश अपने प्रसन्न मुख वाले यदुपति राजसीहाथी की अदा से चल रहे हैं।

    इस तरह वे ब्रज की गौवों को दिन-भर की गर्मी से छुटकारादिलाते हुए संध्या-समय घर लौटते हैं।

    श्रीशुक उबाच एवं ब्रजस्त्रियो राजन्कृष्णलीलानुगायती: ।

    रेमिरेडहःसु तच्चित्तास्तन्मनस्का महोदया: ॥

    २६॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस तरह; ब्रज-स्त्रियः--ब्रज की स्त्रियाँ; राजन्‌ू--हे राजन; कृष्ण-लीला--कृष्ण की लीलाओं के विषय में; अनुगायती:--निरन्तर कीर्तन करती; रेमिरि--आनन्द लूटतीं; अहःसु--दिन के समय;ततू-चित्ता:--उनमें लीन इनके हृदय; तत्‌-मनस्का:--उनके मन; महा--महान; उदया: --उत्सव का-सा अनुभव करते।

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजनू, इस तरह वृन्दावन की स्त्रियाँ दिन के समय कृष्णकी लीलाओं का निरन्तर गान करते हुए आनन्द लूटतीं और उन सबों के मन तथा हृदय उन्हीं मेंलीन रहकर अपार उत्सवभाव से भरे रहते।

    TO

    अध्याय छत्तीस: अरिष्टा, बैल दानव का वध

    10.36श्री बादरायणिरुवाचअथ तह्ागतो गोष्टमरिष्टो वृषभासुरः ।

    महीम्महाककुत्काय: कम्पयन्खुरविक्षताम्‌ ॥

    १॥

    श्री बादरायणि: उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; अथ--आगे; तहिं---तब; आगत:--आया; गोष्ठम्‌--ग्वालों के गाँव में;अरिष्ट:--अरिष्ट नामक; वृषभ-असुर: --वृषभासुर; महीम्‌--पृथ्वी को; महा--विशाल; ककुत्‌--डिलला वाला; काय:--शरीर; कम्पयन्‌--कँपाते हुए; खुर--अपने खुरों से; विक्षताम्‌-- क्षत-विक्षत

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा: तत्पश्चात्‌ अरिष्टासुर गोपों के गाँव में आया।

    वह बड़े डिल्लेवाले बैल के रूप में प्रकट होकर अपने खुरों से पृथ्वी को क्षत-विक्षत करके उसे कँपाने लगा।

    रम्भमाण: खरतरं पदा च विलिखन्महीम्‌ ।

    उद्यम्य पुच्छे वप्राणि विषाणाग्रेण चोद्धरन्‌ ।

    किश्ञित्किज्निच्छकृन्मुझ्नन्मृत्रयन्स्तब्धलोचन: ॥

    २॥

    रम्भभाण:--रँभाते हुए; खर-तरम्‌--खूब तेजी से; पदा--अपने खुरों से; च--तथा; विलिखन्‌--खुरचते हुए; महीम्‌--पृथ्वीको; उद्यम्थ--ऊपर उठाकर; पुच्छम्‌--अपनी पूँछ; वप्राणि--बाँधों को; विषाण--अपने सींगों की; अग्रेण--नोकों से; च--तथा; उद्धरन्‌--उठाकर चीरते हुए; किश्ञित्‌ किल्ञित्‌ू--कुछ कुछ; शकृत्‌--मल; मुझ्नन्‌ू--त्याग करते हुए; मूत्रयन्‌ू--पेशाबकरते हुए; स्तब्ध--चमकदार; लोचन:--आँखें |

    अरिष्टासुर ने जोर से रँभाते हुए धरती को खुरों से कुरेदा।

    वह अपनी पूँछ उठाये और अपनीआँखें चमकाता अपने सींगों के नौकों से बाँधों को चीरने लगा और बीच बीच में थोड़ा थोड़ामल-मूत्र भी छोड़ता जाता था।

    यस्य निर्हादितेनाड़ निष्ठेरेण गवां नृणाम्‌ ।

    पतन्त्यकालतो गर्भा: स्त्रवन्ति सम भयेन वै ॥

    ३॥

    निर्विशन्ति घना यस्य ककुद्यचलशड्डया ।

    त॑ तीक्ष्णश्रुड्डमुद्वीक्ष्य गोप्यो गोपाश्च तत्रसु; ॥

    ४॥

    यस्य--जिसकी; निर्हादितेन--गर्जन से; अड्ग--हे राजा ( परीक्षित ); निष्ठेरेग--निष्ठर, निर्मोही; गबाम्‌--गौवों के; नृणाम्‌--मनुष्यों के; पतन्ति--गिर जाते हैं; अकालत:--असमय; गर्भा:--गर्भ; स््रवन्ति स्म--गर्भपात हो जाता है; भयेन-- भय से;वै--निस्सन्देह; निर्विशन्ति-- प्रवेश करते हैं; घना:--बादल; यस्य--जिसके; ककुदि--डिल्ले पर; अचल--पर्वत के रूप में;शट्डूया-- भ्रम से; तम्‌--उसको; तीक्षण--तेज; श्रृड़म्‌--सींग; उद्दीक्ष्य--देखकर; गोप्य: --गोपियाँ; गोपा:--तथा ग्वाले; च--तथा; तत्रसु:-- भयभीत हो उठे |

    हे राजन, तीखे सींगो वाले अरिष्टासुर के डिल्ले को पर्वत समझकर बादल उसके आसपासमँडराने लगे, अतः जब ग्वालों तथा गोपियों ने उस असुर को देखा तो वे भयभीत हो उठे।

    दरअसल उसकी गर्जना की तीव्र गूँज इतनी भयावह थी कि गर्मिणी गौवों तथा स्त्रियों केगर्भपात हो गये।

    पशवो दुद्गुवुर्भीता राजन्सन्त्यज्य गोकुलम्‌ ।

    कृष्ण कृष्णेति ते सर्वे गोविन्दं शरणं ययु: ॥

    ५॥

    पशवः-घरेलू पशु; दुद्गुबः-- भाग गये; भीता:--डर के मारे; राजन्‌--हे राजन्‌; सन्त्यज्य--छोड़कर; गो-कुलम्‌ू--चरागाह;कृष्ण कृष्ण इति--' कृष्ण कृष्ण ' इस तरह; ते--वे ( वृन्दावनवासी ); सर्वे--सभी; गोविन्दम्‌--गोविन्द की; शरणम्‌--शरणमें; ययु:--गये |

    हे राजन, घरेलू पशु भय के मारे चरागाह से भाग गये और सारे निवासी 'कृष्ण कृष्ण 'चिल्लाते हुए शरण के लिए भगवान्‌ गोविन्द के पास दौड़े।

    भगवानपि तद्वीक्ष्य गोकुलं भयविद्वुतम्‌ ।

    मा भेष्टेति गिराश्वास्य वृषासुरमुपाहयत्‌ ॥

    ६॥

    भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; अपि--निस्सन्देह; तत्‌--उसे; वीक्ष्य--देखकर; गो-कुलम्‌--गोकुल को; भय--भय से; विद्वुतम्‌--भगाया हुआ; मा भैष्ट--डरना मत; इति--इस प्रकार; गिरा--शब्दों से; आश्वास्य--आ श्वासन देकर; वृष-असुरम्‌--वृषासुर को;उपाहयत्--ललकारा।

    जब भगवान्‌ ने देखा कि सारा गोकुल भय के मारे भगा जा रहा है, तो उन्होंने यह कहकरउन्हें आश्वासन दिया, 'डरना मत।

    तत्पश्चात्‌ उन्होंने वृषासुर को इस प्रकार ललकारा।

    गोपालै: पशुभिर्मन्द त्रासिते: किमसत्तम ।

    मयि शास्तरि दुष्टानां त्वद्विधानां दुरात्मनाम्‌ ॥

    ७॥

    गोपालै:--ग्वालों के साथ; पशुभि:--तथा उनके पशुओं के साथ; मन्द--हे मूर्ख; त्रासितैः --डरे हुए; किम्‌ू--क्या प्रयोजन;असत्तम-२ सर्वाधिक दुष्ट; मयि--मेरे रहते; शास्तरि--दण्ड देने वाले के रूप में; दुष्टानाम्‌ू--दुष्टों का; त्वत्‌-विधानाम्‌ू--तुमजैसे; दुरात्मनाम्‌--दुरात्माओं का।

    रे मूर्ख! रे दुष्ट! तुम क्या सोचकर ग्वालों को तथा उनके पशुओं को डरा रहे हो जबकि मैंतुम जैसे दुरात्माओं को दण्ड देने के लिए यहाँ हूँ।

    इत्यास्फोत्याच्युतोरिष्ट तलशब्देन कोपयन्‌ ।

    सख्युरंसे भुजाभोगं प्रसार्यावस्थितो हरि: ॥

    ८॥

    इति--इस प्रकार बोलते हुए; आस्फोत्य--अपनी भुजाएँ ठोंकते; अच्युत:--अच्युत भगवान्‌; अरिष्टम्‌--अरिष्टासुर को; तल--अपनी हथेली की ताल से; शब्देन--शब्द के साथ; कोपयन्‌--क्रोध करते हुए; सख्यु:--मित्र के; अंसे--कन्धे पर; भुज--अपनी बाँह; आभोगम्‌--साँप के शरीर ( जैसी ); प्रसार्य--फैलाकर; अवस्थित:--खड़े थे; हरिः--हरि भगवान्‌ |

    ये शब्द कहकर अच्युत भगवान्‌ हरि ने अपनी हथेलियों से अपनी बाँहें ठोंकीं जिससे जोरकी ध्वनि से अरिष्ट और अधिक क्रुद्ध हो उठा।

    तब भगवान्‌ अपनी बलशाली सर्प जैसी बाँहअपने एक सखा के कन्धे पर डालकर असुर की ओर मुँह करके खड़े हो गये।

    सोप्येवं कोपितोरिष्ट: खुरेणावनिमुल्लिखन्‌ ।

    उद्यत्पुच्छभ्रमन्मेघ: क्रुद्धः कृष्णमुपाद्रवत्‌ ॥

    ९॥

    सः--वह; अपि--निस्सन्देह; एवम्‌--इस प्रकार; कोपित:--क्रुद्ध; अरिष्ट: --अरिष्ट; खुरेण-- अपने खुरों से; अवनिम्‌--पृथ्वीको; उल्लिखन्‌--कुरेदते हुए; उद्यत्‌ू--उठी हुईं; पुच्छ--अपनी पूँछ के भीतर; भ्रमन्‌--घूमते हुए; मेघ:--बादल; क्रुद्ध:--तमतमाया; कृष्णम्‌--कृष्ण की ओर; उपाद्रवत्‌--आक्रमण किया, झपटा |

    इस तरह उकसाने पर अरिष्ट ने अपने एक खुर से धरती कुरेदी और तब वह क्रोध के साथकृष्ण पर झपटा।

    ऊपर उठी हुई उसकी पूँछ के चारों ओर बादल मँडरा रहे थे।

    अग्रन्यस्तविषाणाग्र: स्तब्धासूृग्लोचनोच्युतम्‌ ।

    कटाक्षिप्याद्रवत्तूर्णमिन्द्रमुक्तोशनिर्यथा ॥

    १०॥

    अग्र--आगे; न्यस्त--झुकाते हुए; विषाण--अपने सींगों की; अग्र:--नोक; स्तब्ध--टकटकी लगाये; असृक्‌ू--लाल, रक्तजैसी; लोचन:--आँखें; अच्युतम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण को; कट-आशक्षिप्य--कटाक्ष करते हुए; अद्गब॒त्‌--दौड़ा; तूर्णम्‌--पूरे बेगसे; इन्द्र-मुक्त:--इन्द्र द्वारा छोड़ा गया; अशनि:--वज्; यथा--सहृश |

    अपने सींगों के अग्रभाग सामने की ओर सीधे किये हुए तथा अपनी रक्तिम आँखों की बगलसे तिरछे घूर कर भय दिखाकर अरिष्ट पूरे वेग से कृष्ण की ओर झपटा मानो इन्द्र द्वारा चलायागया वज्ज हो।

    गृहीत्वा श्रूड़योस्तं वा अष्टादश पदानि सः ।

    प्रत्यपोवाह भगवान्गज: प्रतिगजं यथा ॥

    ११॥

    गृहीत्वा--पकड़कर; श्रृड़यो:--दोनों सींगों से; तम्‌--उसको; बै--निस्सन्देह; अष्टादश--अठारह; पदानि--पग; सः--उस;प्रत्यपोवाह--पीछे फेंका; भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; गज:--हाथी; प्रति-गजम्‌--अपने प्रतिद्वन्द्दी हाथी को; यथा--जिस तरह।

    भगवान्‌ कृष्ण ने अरिष्टासुर को सींगों से पकड़ लिया और उसे अठारह पग पीछे फेंक दिया जिस तरह एक हाथी अपने प्रतिद्वन्दी हाथी से लड़ते समय करता है।

    सोपविद्धो भगवता पुनरुत्थाय सत्वरम्‌ ।

    आपतल्स्विन्नसर्वाझे नि: श्वसन्क्रोधमूर्च्छित: ॥

    १२॥

    सः--वह; अपविद्ध:--पीछे फेंका गया; भगवता-- भगवान्‌ द्वारा; पुनः: --फिर; उत्थाय--उठकर; सत्वरम्‌--तुरन्‍्त; आपतत्‌--आक्रमण किया; स्विन्न--पसीने से तर; सर्व--सारे; अड्र:--अंग; नि: श्रसन्‌--हाँफते हुए; क्रोध--क्रो ध से; मूर्च्छित:--बेहोश,मूच्छित |

    इस प्रकार भगवान्‌ द्वारा पीछे धकेले जाने पर, वृषासुर फिर से उठ खड़ा हुआ और हॉफताहुआ तथा सारे शरीर पर आए पसीने से तर अचेत-क्रोध में आकर उन पर झपटा।

    तमापतन्तं स निगृह्य श्रृड़योःपदा समाक्रम्य निपात्य भूतले ।

    निष्पीडयामास यथार्द्रमम्बरंकृत्वा विषाणेन जघान सोपतत्‌ ॥

    १३॥

    तम्‌--उसको; आपतन्तम्‌--आक्रमण करते; सः--उसने; निगृह्य--पकड़कर; श्रृड़यो: --दोनों सींगों से; पदा--अपने पाँव से;समाक्रम्य--कुचलते हुए; निपात्य--उसे गिराकर; भू-तले-- भूमि पर; निष्पीडयाम्‌ आस--उसे पीटा; यथा--जिस तरह;अर्द्रमू--गीले; अम्बरम्‌ू--कपड़े को; कृत्वा--करके ; विषाणेन--उसकी सींग से; जघान--प्रहार किया; सः--वह; अपतत्‌--गिर पड़ा

    ज्योंही अरिष्ट ने आक्रमण किया, भगवान्‌ कृष्ण ने उसके सींग पकड़ लिये और अपने पाँवसे उसे धरती पर गिरा दिया।

    तब भगवान्‌ ने उसे ऐसा लताड़ा मानो कोई गीला वस्त्र हो और अन्तमें उन्होंने उसका एक सींग उखाड़कर उसीसे उसकी तब तक पिटाई की जब तक वह दण्ड केसमान धराशायी नहीं हो गया।

    असृग्वमन्मृत्रशकृत्समुत्सूजन्‌क्षिपंश्व पादाननवस्थितेक्षण: ।

    जगाम कृच्छुं निरतेरथ क्षयंपुष्पै: किरन्तो हरिमीडिरे सुरा: ॥

    १४॥

    असृक्‌--रक्त; वमन्‌--उगलता; मूत्र--पेशाब; शकृत्‌--तथा मल; समुत्सूजन्‌ू--बुरी तरह से निकालता हुआ; क्षिपन्‌ू--फेंकतेहुए; च--तथा; पादान्‌--अपने पाँवों को; अनवस्थित-- अस्थिर; ईक्षण: -- आँखें; जगाम--चला गया; कृच्छुमू--पीड़ा केसाथ; निर्तेः--मृत्यु के; अथ--तब; क्षयम्‌ू-- धाम को; पुष्पैः--फूलों से; किरन्त:--बिखेरते हुए; हरिम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण पर;ईंदिरि--पूजा की; सुर: --देवताओं ने

    रक्त वमन करते तथा बुरी तरह से मल-मूत्र त्याग करते, अपने पाँव पटकते तथा अपनीआँखें इधर-उधर पलटते, अरिष्टासुर बड़ी ही पीड़ा के साथ मृत्यु के धाम चला गया।

    देवताओं नेकृष्ण पर फूल बरसाकर उनका सम्मान किया।

    एवं कुकुद्धिनं हत्वा स्तूयमान: द्विजातिभि: ।

    विवेश गोष्ठ॑ सबलो गोपीनां नयनोत्सवः ॥

    १५॥

    एवम्‌--इस प्रकार; कुकुद्चिनम्‌--डिल्ले वाले ( वृषासुर ) को; हत्वा--मारकर; स्तूयमान:-- प्रशंसित हुए; द्विजातिभि: --ब्राह्मणों द्वारा; विवेश--प्रविष्ट हुआ; गोष्ठटम्‌-ग्वालों के गाँव में; स-बल:--बलराम सहित; गोपीनाम्‌ू--गोपियों के; नयन--आँखों के लिए; उत्सव: --उत्सव स्वरूप

    इस तरह अरिष्ट नामक वृषासुर का वध करने के बाद, गोपियों के नेत्रों के लिए उत्सवस्वरूप कृष्ण, बलराम सहित ग्वालों के ग्राम में प्रविष्ट हुए।

    अष्ष्टि निहते दैत्ये कृष्णेनाद्धुतकर्मणा ।

    कंसायाथाह भगवान्नारदो देवदर्शन: ॥

    १६॥

    अरिष्टि--अरिष्ट के; निहते--मारे जाने पर; दैत्ये--असुर; कृष्णेन--कृष्ण द्वारा; अद्भुत-कर्मणा-- अद्भुत कर्मों वाले;कंसाय--कंस से; अथ--तब; आह--कहा; भगवान्‌--शक्तिशाली मुनि; नारद: --नारद ने; देव-दर्शन:--जिनकी दृष्टिदैवतुल्य है।

    अद्भुत काम करने वाले श्रीकृष्ण द्वारा अरिष्टासुर का वध हो जाने पर नारदमुनि राजा कंससे बतलाने गये।

    दैवीदृष्टि वाले इस शक्तिशाली मुनि ने राजा से इस प्रकार कहा।

    यशोदायाः सुतां कन्यां देवक्या: कृष्णमेव च ।

    राम च रोहिणीपुत्रं वसुदेवेन बिभ्यता ।

    न्यस्तौ स्वमित्रे नन्‍दे वै याभ्यां ते पुरुषा हता: ॥

    १७॥

    यशोदाया:--यशोदा की; सुताम्‌--पुत्री को; कन्याम्‌--कन्या को; देवक्या: --देवकी के; कृष्णम्‌--कृष्ण को; एव च--भी;राममू--बलराम को; च--तथा; रोहिणी-पुत्रम्‌ू--रोहिणी का पुत्र; वसुदेवेन--वसुदेव द्वारा; बिभ्यता-- भयभीत; न्यस्तौ--रखदिया; स्व-मित्रे-- अपने मित्र ने; नन्दे--ननन्‍्द महाराज के यहाँ; वै--निस्सन्देह; याभ्याम्‌ू--इन दो के द्वारा; ते--तुम्हारे;पुरुषा:--मनुष्य; हता:--मारे गये।

    नारद ने कंस से कहा : यशोदा की सन्‍्तान वस्तुतः कन्या थी और कृष्ण देवकी का पुत्र है।

    यही नहीं, राम रोहिणी का पुत्र है।

    वसुदेव ने डरकर कृष्ण तथा बलराम को अपने मित्र नन्‍्दमहाराज के हाथों में सौंप दिया और इन्हीं दोनों बालकों ने तुम्हािरे आदमियों को मारा है।

    निशम्य तद्धोजपतिः कोपात्प्रचलितेन्द्रियः ।

    निशातमसिमादत्त वसुदेवजिघांसया ॥

    १८॥

    निशम्य--सुनकर; तत्‌--वह; भोज-पति:-- भोज-वंश का स्वामी ( कंस ); कोपात्‌--क्रोध से; प्रचलित--विश्लुब्ध; इन्द्रिय:ः--इन्द्रियाँ; निशातम्‌ू--तेज; असिमू--तलवार को; आदत्त--उठा लिया; वसुदेव-जिघांसबा--वसुदेव को मार डालने की इच्छासे

    यह सुनकर, भोजपति क्रुद्ध हो उठा और उसकी इन्द्रियाँ उसके वश में नहीं रह पाईं।

    उसनेवसुदेव को मारने के लिए एक तेज तलवार उठा ली।

    निवारितो नारदेन तत्सुतौ मृत्युमात्मन: ।

    ज्ञात्वा लोहमयैः पाशैर्बबन्ध सह भार्यया ॥

    १९॥

    निवारितः--रोक दिया गया; नारदेन--नारद द्वारा; तत्‌-सुतौ-- उसके दोनों पुत्र; मृत्युम्‌--मृत्यु; आत्मन: --अपनी ही; ज्ञात्वा--जानकर; लोह-मयै:--लोहे से बनी; पाशैः--जँजीरों से; बबन्ध--( वसुदेव ) को बाँध दिया; सह--समेत; भार्यया--उसकीपली |

    किन्तु नारद ने कंस को यह स्मरण दिलाते हुए रोका कि वसुदेव नहीं अपितु उसके दोनों पुत्रतुम्हारी मृत्यु के कारण बनेंगे।

    तब कंस ने वसुदेव तथा उसकी पत्नी को लोहे की जंजीरों सेबँधवा दिया।

    प्रतियाते तु देवर्षों कंस आभाष्य केशिनम्‌ ।

    प्रेषयामास हन्येतां भवता रामकेशवौ ॥

    २०॥

    प्रतियाते--चले जाने पर; तु--तब; देव-ऋषौ--देवर्षि के; कंसः--राजा कंस; आभाष्य--सम्बोधित करते हुए; केशिनम्‌--केशी नामक असुर को; प्रेषयाम्‌ आस--उसे बुलाया; हन्येताम्‌-दोनों मारे जाने चाहिए; भवता--तुम्हारे द्वारा; राम-केशवौ--बलराम तथा कृष्ण

    नारद के चले जाने पर राजा कंस ने केशी को बुलाया और उसे आदेश दिया, 'जाओ रामतथा कृष्ण का वध करो।

    'ततो मुपष्टिकचाणूर शलतोशलकादिकान्‌ ।

    अमात्यान्हस्तिपांश्रेव समाहूयाह भोजराट्‌ ॥

    २१॥

    ततः--तब; मुष्टिक-चाणूर-शल-तोशलक-आदिकान्‌--मुपष्टिक, चाणूर, शल, तोशल इत्यादि; अमात्यान्‌ू--अपने मंत्रियों को;हस्ति-पान्‌--अपने महावतों को; च एव-- भी; समाहूय--बुलाकर; आह--कहा; भोज-राट्‌-- भोजों के राजा ने

    इसके बाद भोजराज ने मुप्टिक, चाणूर, शल, तोशल इत्यादि अपने मंत्रियों तथा अपनेमहावतों को भी बुलाया।

    राजा ने उन्हें इस प्रकार सम्बोधित किया।

    भो भो निशम्यतामेतद्वीरचाणूरमुष्टिकौ ।

    नन्दब्रजे किलासाते सुतावानकदुन्दुभे: ॥

    २२॥

    रामकृष्णौ ततो मह्ं मृत्यु: किल निदर्शित: ।

    भवद्भ्यामिह सम्प्राप्तौ हन्येतां मलललीलया ॥

    २३॥

    भो: भो:--मेरे प्रिय ( सलाहकारो ); निशम्यताम्‌--सुनो; एतत्‌--यह; वीर--हे वीरो; चाणूर-मुष्टिकौ--चाणूर तथा मुष्टिक;नन्द-ब्रजे--नन्द के ग्वाल-ग्राम में; किल--निस्सन्देह; आसाते--रह रहे हैं; सुतौ--दो पुत्र; आनकदुन्दुभे:-- वसुदेव के; राम-कृष्णौ--राम तथा कृष्ण; ततः--उनसे; महाम्‌--मेरी; मृत्युः--मौत; किल--निस्सन्देह; निदर्शित: --सूचित की गई है;भवद्भ्याम्‌-तुम दोनों के द्वारा; हह--यहाँ; सम्प्राप्ती--लाये जाकर; हन्येतामू--मार डाले जाने चाहिए; मलल--कुश्ती;लीलया--खेल के बहाने से।

    मेरे बीरो, चाणूर तथा मुप्टिक, यह सुन लो।

    आनकदुन्दुभि ( वसुदेव ) के पुत्र राम तथाकृष्ण नन्द के ब्रज में रह रहे हैं।

    यह भविष्यवाणी हुई है कि ये दोनों बालक मेरी मृत्यु के कारणहोंगे।

    जब वे यहाँ लाए जाय॑ँ तो तुम उन्हें कुश्ती लड़ने के बहाने मार डालना।

    मश्ञा: क्रियन्तां विविधा मल्‍्लरड्डरपरिश्रिता: ।

    पौरा जानपदाः सर्वे पश्यन्तु स्वैरसंयुगम्‌ ॥

    २४॥

    मन्चा:--मंच; क्रियन्तामू--बनाये जाँय; विविधा:--अनेक प्रकार के; मल्‍ल-रड्र--कुश्ती का अखाड़ा; परिश्चिता:--घिराहुआ; पौरा:--नगर के निवासी; जानपदा:--जनपदों के निवासी; सर्वे--सभी; पश्यन्तु--देखें; स्वैर--स्वेच्छापूर्वक; संयुगम्‌--प्रतिस्पर्द्धा, प्रतियोगिता |

    तुम कुश्ती का अखाड़ा ( रंगभूमि ) तैयार करो जिसके चारों ओर देखने के अनेक मंच होंऔर नगर तथा जनपदों के सारे निवासियों को इस खुली प्रतियोगिता देखने के लिए ले आओ।

    महामात्र त्वया भद्ग रड्डद्वार्युपनीयताम्‌ ।

    द्विप: कुवबलयापीडो जहि तेन ममाहितौ ॥

    २५॥

    महा-मात्र--हे महावत; त्वया--तुम्हारे द्वारा; भद्र--मेरे अच्छे आदमी; रड़--अखाड़े के; द्वारि--दरवाजे तक; उपनीयताम्‌--लाया जाये; द्विप:--हाथी; कुबलयापीड:--कुवलयापीड़ नामक; जहि--विनष्ट कर दो; तेन--उस ( हाथी ) से; मम--मेरे;अहितौ-शजत्रुओं को

    हे महावत, मेरे अच्छे आदमी, तुम अपने हाथी कुवलयापीड को अखाड़े के प्रवेशद्वार परखड़ा करना और उसके द्वारा मेरे दोनों शत्रुओं को मरवा डालना।

    आरशशभश्यतां धनुर्यागश्चतुर्दश्यां यथाविधि ।

    विशसन्तु पशून्मेध्यान्भूतराजाय मीढुषे ॥

    २६॥

    आरभ्यताम्‌--शुरू किया जाय; धनुः-याग:--धनुष-यज्ञ; चतुर्दश्याम्‌--चतुर्दशी के दिन; यथा-विधि--वैदिक आदेशानुसार;विशसन्तु--यज्ञ में भेंट; पशून्‌ू--पशुओं को; मेध्यान्‌--अर्पित करने योग्य; भूत-राजाय-- भूतप्रेतों के राजा, शिव को;मीढुषे--वर देने वाले |

    वैदिक आदेशों के अनुसार चतुर्दशी के दिन धनुष यज्ञ प्रारम्भ किया जाय।

    वर-दानीभगवान्‌ शिव को पशु-मेध में उपयुक्त प्रकार के पशु भेंट किये जाँय।

    इत्यज्ञाप्यार्थतन्त्रज्ष आहूय यदुपुड्रवम्‌ ।

    गृहीत्वा पाणिना पाएं ततोक्रूरमुवाच ह ॥

    २७॥

    इति--इन शब्दों के साथ; आज्ञाप्प--आज्ञा देकर; अर्थ--स्वार्थ के; तन्त्र--सिद्धान्त का; ज्ञ:--जानने वाला; आहूय--बुलाकर; यदु-पुड्रबम्‌--यदुओं में सर्वाधिक अग्रणी; गृहीत्वा--पकड़कर; पाणिना--अपने हाथ से; पाणिम्‌--हाथ को;ततः--तब; अक्रूरम्‌--अक्रूर से; उबाच ह--उसने कहा।

    अपने मंत्रियों को इस तरह आदेश दे चुकने के बाद कंस ने यदुश्रेष्ठ अक्रूर को बुलवाया।

    कंस निजी लाभ निकालने की कला जानता था अतः अक्रूर के हाथों को अपने हाथ में लेकरवह उससे इस प्रकार बोला।

    भो भो दानपते महां क्रियतां मैत्रमाहतः ।

    नान्यस्त्वत्तो हिततमो विद्यते भोजवृष्णिषु ॥

    २८॥

    भोः भोः--हे प्रिय; दान--दान के; पते--स्वामी; महामम्‌--मेरे लिये; क्रियताम्‌--करें; मैत्रमू--मित्रोचित अनुग्रह; आहत: --आदरवश; न--कोई नहीं; अन्य: --दूसरा; त्वत्त:--तुमसे बढ़कर; हित-तम:ः--अनुकूल कार्य करने वाला; विद्यते--है; भोज-वृष्णिषु-- भोजों तथा वृष्णियों में |

    हे सर्वश्रेष्ठ दानी अक्रूरर आप आदर के साथ मुझ पर मित्रोचित अनुग्रह करें।

    भोजों तथावृष्णियों में आपसे बढ़कर कोई अन्य हम पर कृपालु नहीं है।

    अतत्त्वामाश्रितः सौम्य कार्यगौरवसाधनम्‌ ।

    यथेन्द्रो विष्णुमाश्रित्य स्वार्थमध्यगमद्विभु: ॥

    २९॥

    अतः--अतएव; त्वामू--तुम पर; आश्रित:--( मैं ) आश्नित हूँ; सौम्य--हे भद्र पुरुष; कार्य--कर्तव्य; गौरव--गम्भीरतापूर्वक ;साधनम्‌--सम्पन्न करने वाला; यथा--जिस तरह; इन्द्र: --इन्द्र ने; विष्णुमू--विष्णु की; आश्रित्य--शरण ग्रहण करके; स्व-अर्थम्‌--अपना लक्ष्य; अध्यगमत्‌--प्राप्त किया; विभुः--स्वर्ग का शक्तिशाली राजा

    हे भद्र अक्रूर, आप सदैव अपना कर्तव्य गम्भीरतापूर्वक करने वाले हैं अतएव मैं आप परउसी तरह आश्रित हूँ जिस तरह पराक्रमी इन्द्र ने अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए भगवान्‌ विष्णुकी शरण ली थी।

    गच्छ नन्दक्रजं तत्र सुतावानकदुन्दुभे: ।

    आसाते ताविहानेन रथेनानय मा चिरम्‌ ॥

    ३०॥

    गच्छ--जाओ; नन्द-ब्रजम्‌--नन्द के गाँव; तत्र--वहाँ; सुतौ--पुत्रों को; आनकदुन्दुभेः --वसुदेव के; आसाते--रह रहे हैं;तौ--उन दोनों; इह--यहाँ; अनेन--इस; रथेन--रथ से; आनय--लाओ; मा चिरमू--बिना देर लगाये

    कृपया नन्द-ग्राम जाँय जहाँ पर आनकदुन्दुभि के दोनों पुत्र रह रहे हैं और अविलम्ब उन्हें इसरथ पर चढ़ाकर यहाँ ले आयें।

    निसृष्ट: किल मे मृत्युर्देववेंकुण्ठसंश्रयै: ।

    तावानय सम गोपैर्नन्दाद्ये: साभ्युपायनै: ॥

    ३१॥

    निसृष्ट:-- भेजा है; किल--निस्सन्देह; मे--मेरी; मृत्यु:--मृत्यु; देवैः--देवताओं द्वारा; बैकुण्ठ-- भगवान्‌ विष्णु के; संश्रयै:--शरणागत; तौ--उन दोनों को; आनय--लाओ; समम्‌--साथ में; गोपैः --ग्वालों; नन्द-आद्यै:--नन्द इत्यादि; स--सहित;अभ्युपायनै:--उपहारों |

    विष्णु के संरक्षण में रहने वाले देवताओं ने इन दोनों बालकों को मेरी मृत्यु के रूप में भेजाहै।

    उन्हें यहाँ ले आइये तथा उनके साथ नन्द तथा अन्य ग्वालों को अपने अपने उपहारों समेतआने दीजिये।

    घातयिष्य इहानीतौ कालकल्पेन हस्तिना ।

    यदि मुक्तौ ततो मल्लैर्घातये वैद्युतोपमै: ॥

    ३२॥

    घातयिष्ये-- उन्हें मार डालूँगा; इहह--यहाँ; आनीतौ-- लाये गये; काल-कल्पेन--साक्षात्‌ मृत्यु रूप; हस्तिना--हाथी के द्वारा;यदि--यदि; मुक्तौ--बच जाते हैं; ततः--तब; मल्लै:--पहलवानों से; घातये--मरवा डालूँगा; वैद्युत--बिजली; उपमै:--कीतरह।

    जब आप कृष्ण तथा बलराम को ले आयेंगे तो मैं उन्हें साक्षात्‌ मृत्यु के समान बलशालीअपने हाथी से मरवा दूँगा।

    यदि कदाचित्‌ वे उससे बच जाते हैं, तो मैं उन्हें बिजली के समानप्रबल अपने पहलवानों से मरवा दूँगा।

    तयोर्निहतयोस्तप्तान्वसुदेवपुरोगमान्‌ ।

    तद्वन्धून्रिहनिष्यामि वृष्णिभोजदशाईकान्‌ ॥

    ३३॥

    तयो:--उन दोनों के; निहतयो:--मारे जाने पर; तप्तानू--शोकसंतप्त; बसुदेव-पुरोगमान्‌--वसुदेव द्वारा ले जाये गये; तदू-बन्धून्‌--उनके सम्बन्धियों को; निहनिष्यामि--मार डालूँगा; वृष्णि-भोज-दशाहकान्‌--वृष्णियों, भोजों तथा दशाहों को |

    जब ये दोनों मार डाले जायेंगे तो मैं वसुदेव तथा उनके सभी शोकसंतप्त सम्बन्धियों--वृष्णियों, भोजों तथा दशाहों--का वध कर दूँगा।

    उग्रसेनं च पितरं स्थविरं राज्यकामुक ।

    तदभ्रातरं देवकं च ये चान्ये विद्विषो मम ॥

    ३४॥

    उग्रसेनम्‌--राजा उग्रसेन को; च--और; पितरम्‌ू--पिता; स्थविरम्‌--वृद्ध; राज्य--राज्य के लिए; कामुकम्‌--लोभी; तत्‌-भ्रातरम्‌--उसके भाई; देवकम्‌ू--देवक; च--भी; ये--जो; च--तथा; अन्ये--अन्य; विद्विष:--शत्रुगण; मम--मेरे |

    मैं अपने बूढ़े पिता उग्रसेन को भी मार डालूँगा क्योंकि वह मेरे साम्राज्य के लिए लालायितहै।

    मैं उसके भाई देवक तथा अपने अन्य सारे शत्रुओं को भी मार डालूँगा।

    ततश्लैषा मही मित्र भवित्री नष्ठटकण्टका ॥

    ३५॥

    ततः--तब; च--तथा; एषा--यह; मही--पृथ्वी; मित्र--हे मित्र; भवित्री--होगी; नष्ट--विनष्ट; कण्टका-- अपने काँटे |

    तब हे मित्र, यह पृथ्वी काँटों से मुक्त हो जायेगी।

    जरासन्धो मम गुरुद्िविदो दयित: सखा ।

    शम्बरो नरको बाणो मय्येव कृतसौहदा: ।

    तैरहं सुरपक्षीयान्हत्वा भोक्ष्ये महीं नूपान्‌ ॥

    ३६॥

    जरासन्ध:--जरासन्ध; मम--मेरा; गुरु:--गुरुजन ( श्वसुर ); द्विविद:--द्विविद; दयित:--मेरा प्रिय; सखा--मित्र; शम्बर: --शम्बर; नरक:--नरक; बाण:--बाण; मयि--मेरे लिए; एव--निस्सन्देह; कृत-सौहदा:--प्रगाढ़ मैत्री रखने वाले; तैः--उनसे;अहम्‌--ैं; सुर--देवताओं के; पक्षीयान्‌ू--पक्ष वालों को; हत्वा--मारकर; भोक्ष्ये-- भोगूँगा; महीम्‌--पृथ्वी को; नृपान्‌--राजागण।

    मेरा ज्येष्ठ सम्बन्धी जरासन्ध तथा मेरा प्रिय मित्र द्विविद मेरे अतीव शुभचिन्तक हैं और वैसेही शम्बर, नरक तथा बाण हैं।

    मैं इन सबों का उपयोग उन राजाओं का वध करने के लिएकरूँगा जो देवताओं के पक्षधर हैं और तब मैं सारी पृथ्वी पर राज करूँगा।

    एतज्ज्ञात्वानय क्षिप्रं रामकृष्णाविहार्भकौ ।

    धनुर्मखनिरीक्षार्थ द्रर्ठ यदुपुरअियम्‌ ॥

    ३७॥

    एतत्‌--यह; ज्ञात्वा--जानकर; आनय--लाओ; क्षिप्रमू-शीघ्र; राम-कृष्णौ--राम तथा कृष्ण को; इह--यहाँ; अर्भकौ --बालकों को; धनुः-मख--धनुष यज्ञ; निरीक्षा-अर्थम्‌--निरी क्षण करने के लिए; द्रष्टमू--देखने के लिए; यदु-पुर--यदुकुल कीराजधानी के; थ्रियमू--ऐश्वर्य को

    चूँकि अब आप मेरे मनोभावों को जान चुके हैं अतः तुरन्त जाइये और कृष्ण तथा बलरामको धनुष यज्ञ निहारने तथा यदुओं की राजधानी का ऐश्वर्य देखने के लिए ले आइये।

    श्रीअक्रूर उबाचराजन्मनीषितं सयक्तव स्वावद्यमार्जनम्‌ ।

    सिद्धबसिद्धयो: समं कुयद्दिवं हि फलसाधनम्‌ ॥

    ३८ ॥

    श्री-अक्वूर: उबाच-- श्री अक्रूर ने कहा; राजन्‌ू--हे राजन्‌; मनीषितम्‌--विचार; स॒यक्‌--पूर्ण; तब--तुम्हारा; स्व-- अपना;अवद्य-दुर्भाग्य; मार्जनम्‌--धोने वाला; सिद्धि-असिद्धबो: --सफलता तथा विफलता दोनों में; समम्‌--समान; कुर्यात्‌--करना चाहिए; दैवम्‌- भाग्य; हि--अन्तत:; फल--फल, परिणाम; साधनम्‌--प्राप्त करने का साधन।

    श्री अक्रूर ने कहा : हे राजन, आपने अपने को दुर्भाग्य से मुक्त करने के लिए अच्छा उपायढूँढ निकाला है।

    फिर भी मनुष्य को सफलता तथा विफलता में समभाव रहना चाहिए क्योंकिनिश्चित रूप से यह भाग्य ही है, जो किसी के कर्म के फलों को उत्पन्न करता है।

    मनोरथान्करोत्युच्चैर्जनी देवहतानपि ।

    युज्यते हर्षशोका भ्यां तथाप्याज्ञां करोमि ते ॥

    ३९॥

    मनः-रथान्‌--उसकी इच्छाएँ; करोति--पालन करती है; उच्चैः --उत्साहपूर्वक; जनः--सामान्य व्यक्ति; दैव-- भाग्य से;हतानू--नष्ट किया हुआ; अपि-- भी; युज्यते--सामना करता है; हर्ष-शोकाभ्याम्‌--सुख तथा दुख से; तथा अपि--फिर भी;आज्ञामू--आज्ञा; करोमि--करूँगा; ते--तुम्हारी

    सामान्य व्यक्ति अपनी इच्छाओं के अनुसार कर्म करने के लिए कृतसंकल्प रहता है भले हीउसका भाग्य उन्हें पूरा न होने दे।

    अतः वह सुख तथा दुख दोनों का सामना करता है।

    इतने परभी मैं आपके आदेश को पूरा करूँगा।

    श्रीशुक उबाचएवमादिश्य चाक़ूरं मन्त्रिणश्च विषुज्य सः ।

    प्रविवेश गृहं कंसस्तथाक्रूर: स्वमालयम्‌ ॥

    ४०॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; आदिश्य--आदेश देकर; च--तथा; अक्ूरम्‌--अक्रूर को;मन्त्रिण:--अपने मंत्रियों को; च--तथा; विसृज्य--विदा करके; सः--वह; प्रविवेश--प्रविष्ट हुआ; गृहम्‌--अपने घर में;कंसः--कंस; तथा-- भी; अक्रूर:--अक्रूर; स्वमू--अपने; आलयमू--निवासस्थान को

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : अक्रूर को इस तरह आदेश देकर कंस ने अपने मंत्रियों को विदाकर दिया और स्वयं अपने घर में चला गया तथा अक्रूर अपने घर लौट आया।

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    अध्याय सैंतीसवाँ: राक्षसों केशी और व्योम का वध

    10.37श्रीशुक उवाच केशी तु कंसप्रहितः खुरर्महींमहाहयो निर्जरयन्मनोजव:।

    सटावधूताभ्रविमानसड्डु लकुर्वन्नभो हेषितभीषिताखिल: ॥

    १॥

    तद्धेषितैर्वालविधूर्णिताम्बुदम्‌ ।

    आत्मानमाजौ मृगयन्तमग्रणी-रुपाह्ययत्स व्यनदन्मृगेन्द्रवत्‌ ॥

    २॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; केशी--केशी नामक असुर; तु--और तब; कंस-प्रहित:--कंस द्वारा भेजागया; खुरैः--खुरों से; महीम्‌--पृथ्वी को; महा-हयः--विशाल घोड़ा; निर्जरयन्‌--विदीर्ण करता; मन:ः--मन की तरह;जवः--गतिवान; सटा--अपने अयालों से; अवधूत--बिखरे हुए; अभ्र--बादलों के साथ; विमान--तथा ( देवताओं के )यानों; सड्डु लम्‌--समूहित; कुर्वन्‌ू--करता हुआ; नभः--आकाश को; हेषित--अपनी हिनहिनाहट से; भीषित--डराता हुआ;अखिल:--हर एक; तम्‌--उसको; त्रासबन्तम्‌--डराता हुआ; भगवानू-- भगवान्‌; स्व-गोकुलम्‌-- अपने ग्वाल-ग्राम को; तत्‌-हेषितै:--उस हिनहिनाहट से; वाल--अपनी पूँछ के बालों से; विघूर्णित--हिलाया हुआ; अम्बुदम्‌--बादल; आत्मानम्‌--स्वयं;आजौ--युद्ध के लिए; मृगयन्तम्‌--ढूँढ़ते हुए; अग्र-नी:--आगे आकर; उपाह्ृयत्‌--पुकारा; सः--उसने, केशी ने; व्यनदन्‌--गर्जना की

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : कंस द्वारा भेजा गया केशी असुर ब्रज में विशाल घोड़े के रूपमें प्रकट हुआ।

    मन जैसे तेज वेग से दौड़ते हुए वह अपने खुरों से पृथ्वी को विदीर्ण करने लगा।

    उसकी गर्दन के बालों से सारे आकाश के बादल तथा देवताओं के विमान तितर-बितर हो गये।

    अपनी भारी हिनहिनाहट से उसने वहाँ पर उपस्थित सबों को भयभीत बना दिया।

    जब भगवान्‌ ने देखा कि यह असुर किस तरह अपनी भयानक हिनहिनाहट से पूरे गोकुलगाँव को डरा रहा है और अपनी पूँछ से बादलों को हिलाये दे रहा है, तो वे केशी से सामनाकरने आगे आये।

    युद्ध के लिए तो केशी कृष्ण को ढूँढ़ ही रहा था अतः जब भगवान्‌ उसकेसमक्ष खड़े हो गये और उन्होंने उसे पास आने के लिए ललकारा तो उस घोड़े ने सिंह जैसी गर्जनाद्वारा उसका उत्तर दिया।

    स तं निशाम्याभिमुखो मखेन खंपिबन्निवाभ्यद्रवद॒त्यमर्षण: ।

    जघान पद्भ्यामरविन्दलोचनंदुरासदश्चण्डजवो दुरत्ययः ॥

    ३॥

    सः--वह, केशी; तम्‌--उन्हें, कृष्ण को; निशाम्य--देखकर; अभिमुख: --अपने सामने; मुखेन--अपने मुख से; खम्‌--आकाश को; पिबनू--पीता हुआ; इब--मानो; अभ्यद्रवत्‌--आगे दौड़ा; अति-अमर्षण: --अत्यन्त क्रुद्ध;/ जघान--आक्रमणकर दिया; पद्भ्यामू--अपने दो पाँवों से; अरविन्द-लोचनम्‌--कमल-नेत्र वाले प्रभु को; दुरासदः--पार पाना कठिन; चण्ड--प्रचण्ड; जब: --वेग वाला; दुरत्यय:ः--अजेय ।

    भगवान्‌ को अपने सामने खड़ा देखकर केशी अत्यन्त क्रुद्ध होकर अपना मुह बाये उनकीओर दौड़ा मानो वह आकाश को निगल जायेगा।

    प्रचण्ड वेग से दौड़ते हुए उस अजेय तथा दुर्धर्षघोड़ा-असुर ने अपने अगले दो पाँवों से कमलनयन भगवान्‌ पर प्रहार करने का प्रयत्न किया।

    तद्ठल्नयित्वा तमधोक्षजो रुषाप्रगृह्म दोर्भ्या परिविध्य पादयो: ।

    सावज्ञमुत्सूज्य धनुःशतान्तरेयथोरंगं ताक्ष्यसुतो व्यवस्थित: ॥

    ४॥

    तत्‌--वह; वज्ञयित्वा--बचाते हुए; तम्‌--उसको; अधोक्षज: --दिव्य प्रभु; रुषा--क्रोधपूर्वक; प्रगृह्य--पकड़कर; दोर्भ्याम्‌--अपनी भुजाओं से; परिविध्य--चारों ओर घुमाकर; पादयो:--पाँव से पकड़कर; स-अवज्ञम्‌-घृणापूर्वक; उत्सूज्य--फेंकतेहुए; धनु:ः-- धनुष की लम्बाई के बराबर; शत--एक सौ; अन्तरे--दूरी पर; यथा--जिस तरह; उरगम्‌--साँप को; तार््ष्य--कर्दम मुनि का; सुतः--पुत्र ( गरुड़ ); व्यवस्थित: --खड़े हो गये

    किन्तु दिव्य भगवान्‌ ने केशी के प्रहार से अपने को बचा लिया और तब क्रुद्ध होकर अपनीभुजाओं से असुर के पैरों को पकड़कर उसे आकाश में चारों ओर घुमाया और एक सौ धनुष-दूरी पर घृणापूर्वक उसी तरह फेंक दिया जिस प्रकार गरुड़ किसी सर्प को फेंक दे।

    तब भगवान्‌कृष्ण वहीं खड़े हो गये।

    सः लब्धसंज्ञ: पुनरुत्थितो रुषाव्यादाय केशी तरसापतद्धरिम्‌ ।

    सोप्यस्य बक्तहे भुजमुत्तरं स्मयन्‌प्रवेशयामास यथोरगं बिले ॥

    ५॥

    सः--वह, केशी; लब्ध--पाकर; संज्ञ:--चेतना; पुनः--फिर से; उत्थित:--उठ खड़ा हुआ; रुषा--क्रोध में; व्यादाय--( अपना मुख ) फाड़ते हुए; केशी --केशी; तरसा--तेजी से; अपतत्‌--दौड़ा; हरिम्‌ू--कृष्ण की ओर; सः--वह, कृष्ण;अपि--तथा; अस्य--उसके; वक्ते--मुख में; भुजम्‌-- अपनी भुजा; उत्तरम्‌-बाई; स्मयन्‌--हँसने लगे; प्रवेशबाम्‌ आस--भीतर डाल दिया; यथा--जिस तरह; उरगम्‌--साँप; बिले--छेद के भीतर ( घुसता है )

    पुनः चेतना लौट आने पर केशी क्रोधपूर्वक उठा।

    उसने अपना मुख पूरा खोल दिया औरवह पुनः कृष्ण पर आक्रमण करने दौड़ा।

    किन्तु कृष्ण हँस दिये और अपनी बाईं भुजा उस घोड़ेके मुँह में उसी सुगमता से डाल दी जिस तरह कोई साँप भूमि में बने छेद में घुसा जाता है।

    दन्ता निपेतुर्भगवद्धुजस्पृश-स्ते केशिनस्तप्तमयस्पृशो यथा ।

    बाहुश्च तद्देहगतो महात्मनोयथामय: संववृधे उपेक्षित: ॥

    ६॥

    दन्ता:ः--दाँत; निपेतु:--बाहर निकल आये; भगवत्‌-- भगवान्‌ का; भुज--बाँह; स्पृश:--छूने से; ते--वे; केशिन: --केशीके; तप्त-गय--गर्म लाल ( लोहा ); स्पृशः--छूने से; यथा--जिस तरह; बाहु:--बाँह; च--तथा; तत्‌--उस केशी के; देह--शरीर में; गत:--घुसने पर; महा-आत्मन: --परमात्मा का; यथा--जिस तरह; आमय:--रुग्णावस्था ( पेट की बीमारी ),जलोदर; संववृधे--आकार में बढ़ गया; उपेक्षित:--तिरस्कृत |

    भगवान्‌ के बाहु का स्पर्श होते ही केशी के सारे दाँत गिर पड़े क्योंकि उनका बाहु उस असुरको पिघले लोहे के समान गर्म लग रहा था।

    तत्पश्चात्‌ केशी के शरीर में भगवान्‌ का बाहुअत्यधिक फैल गया जिस तरह उपेक्षा करने से जलोदर रोग बढ़ जाता है।

    समेधमानेन स कृष्णबाहुनानिरुद्धवायुश्चरणां श्र विक्षिपन्‌ ।

    प्रस्विन्नगात्र: परिवृत्तलोचनःपपात लण्डं विसृजन्क्षितौ व्यसु: ॥

    ७॥

    समेधमानेन--बढ़ जाने से; सः--वह; कृष्ण-बाहुना--कृष्ण की भुजा से; निरुद्ध--रूक गई; वायु:-- श्वास लेना; चरणान्‌--पैर; च--तथा; विक्षिपन्‌ू--इधर-उधर पटकता; प्रस्विन्न--पसीने से लथपथ; गात्र:--शरीर; परिवृत्त--उलटाते हुए; लोचन:--आँखें; पपात--गिर पड़ा; लण्डम्‌--मल; विसृजन्‌--निकालता हुआ; क्षितौ--पृथ्वी पर; व्यसु:--प्राणरहित |

    ज्योंही कृष्ण की फैलती भुजा ने केशी के श्वास को पूरी तरह अवरुद्ध कर दिया, वह अपनेपैर पटकने लगा, उसका शरीर पसीने से लथपथ हो गया और उसकी आँखें उलट गईं।

    तब उसअसुर ने मल त्याग दिया और भूमि पर गिर कर निष्प्राण हो गया।

    तद्देहतः कर्कटिकाफलोपमाद्‌व्यसोरपाकृष्य भुजं महाभुज: ।

    अविस्मितोयलहतारिकः सुरैःप्रसूनवर्षर्वर्षद्धरीडित: ॥

    ८ ॥

    ततू-देहतः--केशी के शरीर से; कर्क टिका-फल--कर्कटिका फल, ककड़ी; उपमात्‌--के सहृश; व्यसो: --जिससे प्राण-वायुनिकल चुकी थी; अपाकृष्य--निकालकर; भुजम्‌--अपनी बाँह को; महा-भुज:--बलिष्ठ भुजाओं वाले प्रभु; अविस्मित:--बिना किसी गर्व के; अयलत--बिना प्रयास के; हत--मारकर; अरिकः --अपने शत्रु; सुरैः--देवताओं द्वारा; प्रसून--फूलों की;वर्षै:--वर्षा से; वर्षद्धिः--वर्षा करते हुए; ईंडित:--पूजित ।

    महाबाहु कृष्ण ने अपनी बाँह केशी के उस शरीर से निकाल ली जो अब एक लम्बी ककड़ी जैसा प्रतीत हो रहा था।

    अपने शत्रु को बिना प्रयास के ही मारने के बाद किसी प्रकार का गर्वदिखलाये बिना भगवान्‌ ने ऊपर से फूलों की वर्षा के रूप में की गई देवताओं की पूजा स्वीकारकी।

    देवर्षिरुपसड्रम्य भागवतप्रवरो नूप ।

    कृष्णमक्लिष्टकर्माणं रहस्येतदभाषत ॥

    ९॥

    देव-ऋषि:--देवताओं में से ऋषि ( नारदमुनि ); उपसड्डम्य--पास आकर; भागवत-- भगवद्भक्तों के; प्रवर:-- श्रेष्ठ; नृप--हेराजा ( परीक्षित ); कृष्णम्‌--कृष्ण को; अक्लिष्ट--बिना कष्ट के; कर्माणम्‌--जिसके कर्म; रहसि--एकान्त में; एतत्‌--यह;अभाषत--कहा।

    हे राजन, तत्पश्चात्‌ देवर्षि नारद भगवान्‌ कृष्ण के पास एकान्त स्थान में गये।

    इनमहाभागवत ने बिना किसी प्रयास के लीला करने वाले भगवान्‌ से इस प्रकार कहा।

    कृष्ण कृष्णाप्रमेयात्मन्योगेश जगदी श्वर ।

    वासुदेवाखिलावास सात्वतां प्रवर प्रभो ॥

    १०॥

    त्वमात्मा सर्वभूतानामेको ज्योतिरिवैधसाम्‌ ।

    गूढो गुहाशयः साक्षी महापुरुष ईश्वर: ॥

    ११॥

    कृष्ण कृष्ण--हे कृष्ण, हे कृष्ण; अप्रमेय-आत्मन्‌--हे अगाध आत्मा; योग-ईश--हे समस्त योगशक्ति के स्त्रोत; जगत्‌-ईश्वर--हे ब्रह्माण्ड के स्वामी; वासुदेव--हे वसुदेव-पुत्र; अखिल-आवास--हे सबों के आश्रय; सात्वताम्‌-यदुकुल के; प्रवर--हेश्रेष्ठ; प्रभो--हे प्रभु; त्वम्‌ू--तुम; आत्मा--परमात्मा; सर्व--समस्त; भूतानाम्‌--जीवों के; एक:--एकमात्र; ज्योति:-- अग्नि;इब--सहश; एधसाम्‌--समिधा में; गूढ:--छिपी; गुहा--हृदय रूपी गुफा में; शयः--बैठे हुए, स्थित; साक्षी--गवाह; महा-पुरुष:-- भगवान्‌; ईश्वर: --परमनियन्ता ।

    नारदमुनि ने कहा : हे कृष्ण, हे कृष्ण, हे अनन्त प्रभु, हे समस्त योगशक्तियों के स्त्रोत, हेब्रह्माण्ड के स्वामी, हे समस्त जीवों के आश्रय तथा यदुश्रेष्ठ वासुदेव, हे प्रभु, आप समस्त जीवोंके परमात्मा हैं और हृदय की गुफा में उसी तरह अदृश्य होकर बैठे हुए हैं जिस तरह सुलगती हुईलकड़ी के भीतर अग्नि सुप्त रहती है।

    आप सबों के भीतर साक्षी स्वरूप, परम पुरुष तथासर्वनियन्ता देव हैं।

    आत्मनात्माश्रयः पूर्व मायया ससूजे गुणान्‌ ।

    तैरिदं सत्यसड्डूल्प: सृजस्यत्स्यवसी श्वर: ॥

    १२॥

    आत्मना--अपनी निजी शक्ति से; आत्म--आत्मा के; आश्रय: --शरण; पूर्वम्‌--पहले; मायया--अपनी सृजन-शक्ति द्वारा;ससृजे--उत्पन्न किया; गुणान्‌--प्रकृति के मूलभूत गुणों को; तैः--उनके माध्यम से; इदम्‌--यह ( ब्रह्माण्ड ); सत्य--तथ्य रूपमें अनुभवगम्य; सड्डूल्प:--जिसकी इच्छाएँ; सृुजसि--उत्पन्न करते हो; अत्सि--संहार करते हो; अवसि--पालन करते हो;ईश्वर:--नियन्ता

    आप समस्त जीवों के आश्रय हैं और परमनियन्ता होने के कारण अपनी इच्छाशक्ति सेअपनी सारी इच्छाएँ पूरी करते हैं।

    अपनी निजी सृजन-शक्ति से आपने प्रारम्भ में प्रकृति के आदिगुणों को प्रकट किया और आप उन्हीं के माध्यम से इस ब्रह्माण्ड का सृजन, पालन तथा विनाशकरते हैं।

    स त्वं भूधरभूतानां दैत्यप्रमथरक्षसाम्‌ ।

    अवतीर्णो विनाशाय साधुनां रक्षणाय च ॥

    १३॥

    सः--वह; त्वम्‌--साक्षात्‌ आप; भू-धर--राजाओं के रूप में; भूतानाम्‌--प्रकट होने वाले; दैत्य-प्रमथ-रक्षसाम्‌--विभिन्नप्रकार के असुरों के; अवतीर्ण:--अवतीर्ण हुए हो; विनाशाय--विनाश के लिए; साधूनाम्‌--सन्त पुरुषों की; रक्षणाय--रक्षाके लिए; च--तथा।

    आप ही वह स्त्रष्टा हैं, जो अपने को राजा मानने वाले दैत्यों, प्रमथों तथा राक्षमों का विनाशकरने के लिए तथा सन्त पुरुषों की रक्षा करने के लिए अब इस धरा पर अवतीर्ण हुए हैं।

    दिष्टया ते निहतो देत्यो लीलयायं हयाकृतिः ।

    यस्य हेषितसन्त्रस्तास्त्यजन्त्यनिमिषा दिवम्‌ ॥

    १४॥

    दिछ्या--( हमारे ) सौभाग्य से; ते--तुम्हारे द्वारा; निहतः--मारा गया; दैत्य:--असुर; लीलया--खेल-खेल में; अयम्‌--यह;हय-आकृतिः--घोड़े की आकृति वाला; यस्य--जिसकी; हेषित--हिनहिनाहट से; सन्त्रस्ता:-- भयभीत; त्यजन्ति--छोड़ देतेहैं; अनिमिषा: --देवतागण; दिवम्‌--स्वर्ग को |

    यह घोड़े की आकृति वाला असुर इतना आतंक मचाये हुए था कि उसकी हिनहिनाहट सेदेवताओं ने भयभीत होकर अपने स्वर्ग के राज्य को छोड़ दिया था।

    किन्तु हमारे सौभाग्य सेआपने खेल खेल में ही उसे मार डाला है।

    चाणूरं मुष्टिकं चेव मल्लानन्यां श्र हस्तिनम्‌ ।

    कंसं च निहतं द्रक्ष्ये परश्रो हनि ते विभो ॥

    १५॥

    \तस्यानु शट्डुयवनमुराणां नरकस्य च ।

    पारिजातापहरणमिन्द्रस्य च पराजयम्‌ ॥

    १६॥

    उद्बाहं वीरकन्यानां वीर्यशुल्कादिलक्षणम्‌ ।

    नृगस्य मोक्षणं शापाददवारकायां जगत्पते ॥

    १७॥

    स्यमन्तकस्य च मणेरादानं सह भार्यया ।

    मृतपुत्रप्रदानं च ब्राह्मणस्य स्वधामतः ॥

    १८॥

    पौण्ड्कस्य वध पश्चात्काशिपुर्याश्च दीपनम्‌ ।

    दन्तवक्रस्यथ निधन चेद्यस्थ च महाक्रतो ॥

    १९॥

    यानि चान्यानि वीर्याणि द्वारकामावसन्भवान्‌ ।

    कर्ता द्रक्ष्याम्यहं तानि गेयानि कविभिर्भुवि ॥

    २०॥

    चाणूरम्‌ू--चाणूर को; मुष्टिकम्‌--मुष्टिक को; च--तथा; एव-- भी; मल्लान्‌--कुश्ती लड़ने वाले, पहलवानों को; अन्यान्‌--अन्य; च--तथा; हस्तिनम्‌--हाथी ( कुवलयापीड ) को; कंसम्‌--कंस को; च--तथा; निहतम्‌--मारा गया; द्रक्ष्ये--देखूँगा;पर-श्रः--परसों; अहनि--उस दिन; ते--तुम्हारे द्वारा; विभो--हे सर्वशक्तिमान; तस्य अनु--उसके बाद; शद्भु-यवन-मुराणाम्‌--शंख ( पञ्ञजन ), कालयवन तथा मुर नामक असुरों का; नरकस्य--नरकासुर का; च--भी; पारिजात--स्वर्ग केपारिजात पुष्प का; अपहरणम्‌--चुराया जाना; इन्द्रस्य--इन्द्र की; च--तथा; पराजयम्‌--हार; उद्बाहम्‌--विवाह; वीर--वीरराजाओं का; कन्यानाम्‌--कन्याओं के; वीर्य--आपके पराक्रम से; शुल्क--दहेज; आदि--इत्यादि; लक्षणम्‌ू--लक्षणों सेयुक्त; नृगस्थ--राजा नृग का; मोक्षणम्‌--मोक्ष; शापात्‌-- अपने शाप से; द्वारकायाम्‌ू--द्वारका नगरी में; जगत्‌-पते--हेब्रह्माण्ड के स्वामी; स्यमन्तकस्य--स्यमन्तक नामक; च--तथा; मणे: --मणि का; आदानम्‌--ग्रहण किया जाना; सह--केसाथ; भार्यया--पत्नी ( जाम्बवती ) के साथ; मृत--मरे हुए; पुत्र--बेटे का; प्रदानम्‌--लाकर देना; च--तथा; ब्राह्मणस्य--ब्राह्मण के; स्व-धामत:--अपने धाम ( मृत्युधाम ) से; पौण्ड्रकस्य--पौण्ड्रक का; वधम्‌--मारा जाना; पश्चात्‌--उसके बाद;काशि-पुर्या:--काशी नगरी ( बनारस ) के; च--तथा; दीपनम्‌--दहन; दन्तवक्रस्थ--दन्तवक्र का; निधनम्‌--मरण;चैद्यस्थ--चैद्य ( शिशुपाल ) का; च--तथा; महा-क्रतौ--महायज्ञ ( महाराज युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ ) के समय; यानि--जो;च--तथा; अन्यानि--अन्य; वीर्याणि--बड़े बड़े कौशल; द्वारकाम्‌-द्वारका में; आवसन्‌--रहते हुए; भवान्‌ू--आप; कर्ता--सम्पन्न करने जा रहे हैं; द्रक््यामि--देखूँगा; अहम्‌--मैं; तानि--उनको; गेयानि--गाये जाने के लिए; कविभि:--कवियों द्वारा;भुवि--इस पृथ्वी पर।

    हे सर्वशक्तिमान विभो, दो ही दिनों में मैं आपके हाथों चाणूर, मुष्टिक तथा अन्य पहलवानोंके साथ साथ कुवलयापीड तथा राजा कंस की भी मृत्यु होते देखूँगा।

    इसके बाद मैं कालयवन,मुर, नरक तथा शंख असुर को आपके द्वारा मारा जाते देखूँगा।

    मैं आपको पारिजात पुष्प चुरातेऔर इन्द्र को पराजित करते देखूँगा।

    तत्पश्चात्‌ अपने पराक्रम से मूल्य चुकाते हुए वीर राजाओंकी अनेक कन्याओं के साथ आपको विवाह करते देखूँगा।

    तब हे ब्रह्माण्डपति, आप द्वारका मेंराजा नृग का शाप से उद्धार करेंगे और एक अन्य पत्नी के साथ साथ आप अपने लिए स्यमन्तकमणि भी लेंगे।

    आप ब्राह्मण के मृत पुत्र को अपने दास यमराज के धाम से वापस लायेंगे औरउसके बाद आप पौण्ड्रक का वध करेंगे तथा काशी नगरी को जला देंगे और राजसूय यज्ञ केसमय दन्तवक्त्र तथा चेदिराज का संहार करेंगे।

    मैं इन सब वीरतापूर्ण लीलाओं को तो देखूँगा ही, साथ ही द्वारका में अपने वास-काल में आप जो अन्य अनेक लीलाएँ करेंगे उन्हें भी देखूँगा।

    ये सारी लीलाएँ दिव्य कवियों के गीतों में इस धरा पर गाई जाती हैं।

    अथ ते कालरूपस्य क्षपयिष्णोरमुष्य वै ।

    अक्षौहिणीनां निधन द्रक्ष्याम्यर्जुनसारथे: ॥

    २१॥

    अथ--तब; ते-- आपके द्वारा; काल-रूपस्थ--काल का रूप धारण करने वाले; क्षपयिष्णो:--संहार करने की इच्छा करनेवाला; अमुष्य--इस जगत ( के भार ) का; वै--निस्सन्देह; अक्षौहिणीनाम्‌--सम्पूर्ण सेनाओं का; निधनम्‌ू--विनाश;द्रक्ष्यामि--देखूँगा; अर्जुन सारथे:--अर्जुन के सारथी द्वारा

    तत्पश्चात्‌ मैं आपको साक्षात्‌ काल के रूप में प्रकट होते, अर्जुन के सारथी के रूप में सेवाकरते तथा धरती का भार उतारने के लिए सैनिकों की समस्त सेनाओं का विनाश करते देखूँगा।

    विशुद्धविज्ञानघनं स्वसंस्थयासमाप्तसर्वार्थममोघवाज्छितम्‌ ।

    स्वतेजसा नित्यनिवृत्तमाया-गुणप्रवाहं भगवन्तमीमहि ॥

    २२॥

    विशुद्ध--पूर्णरूपेण शुद्ध; विज्ञान--आध्यात्मिक भिज्ञता; घनम्‌--से पूर्ण; स्व-संस्थया--अपने मूल रूप में; समाप्त--पहलेही पूर्ण; सर्व--समस्त; अर्थम्‌--उद्देश्यों में; अमोघ--कभी उद्विग्न न होने वाले; वाज्छितम्‌--जिनकी इच्छाएँ; स्व-तेजसा--अपनी ही शक्ति से; नित्य--शाश्वत; निवृत्त--विरक्त; माया-- भौतिक शक्ति या माया का; गुण--प्रकट गुणों के; प्रवाहम्‌--प्रवाह से; भगवन्तम्‌--भगवान्‌; ईमहि--शरण आने दें |

    हे भगवान्‌ हमें अपनी शरण में आने दें।

    आप शुद्ध आध्यात्मिक भिज्ञता से परिपूर्ण हैं औरअपने मूल स्वरूप में सदैव स्थित रहते हैं।

    चूँकि आपकी इच्छा को कभी नकारा नहीं जासकता, आपने पहले ही यथासम्भव इच्छित वस्तुएँ प्राप्त कर ली हैं और अपनी आध्यात्मिकशक्ति के द्वारा आप माया के गुण प्रवाह से सतत पृथक्‌ रहते हैं।

    त्वामीश्वरं सवा श्रयमात्ममाययाविनिर्मिताशेषविशेषकल्पनम्‌ ।

    क्रीडार्थमद्यात्तमनुष्यविग्रहंनतोउस्मि धुर्य यदुवृष्णिसात्वताम्‌ ॥

    २३॥

    त्वामू--तुमको; ईश्वरम्‌--परमनियन्ता को; स्व-आश्रयम्‌--आत्म-निर्भर; आत्म--निजी; मायया--सृजन-शक्ति द्वारा;विनिर्मित--बनाया हुआ; अशेष--असीम; विशेष--विशिष्ट; कल्पनम्‌--व्यवस्था; क्रीड--खेल के; अर्थम्‌-हेतु; अद्य--अब; आत्त--लिया हुआ; मनुष्य--मनुष्यों के बीच; विग्रहम्‌--लड़ाई; नतः--नत; अस्मि--हूँ; धुर्यमू--महानतम, शिरोमणि;यदु-वृष्णि-सात्वताम्‌-यदु, वृष्टि तथा सात्वत कुलों के ।

    हे आत्म-निर्भर परमनियन्ता, मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

    आपने अपनी शक्ति से इसब्रह्माण्ड की असीम विशिष्ट व्यवस्था की रचना की है।

    अब आप यदुओं, वृष्णियों तथा सात्वतोंके बीच महानतम वीर के रूप में प्रकट हुए हैं और आपने मानवीय युद्ध में भाग लेने का निर्णयकिया है।

    श्रीशुक उबाचएवं यदुपतिं कृष्णं भागवतप्रवरो मुनि: ।

    प्रणिपत्याभ्यनुज्ञातो ययौ तदरर्शनोत्सवः ॥

    २४॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; यदु-पतिम्‌--यदुओं में प्रमुख; कृष्णम्‌--कृष्ण को; भागवत--भक्तों के; प्रवर:--परम विख्यात; मुनि:--नारदमुनि ने; प्रणिपत्य--सादर नमस्कार करके; अभ्यनुज्ञात:--विदा किये गये;ययौ--चला गया; तत्‌--उन कृष्ण के; दर्शन--दर्शन करके; उत्सव: --परम हर्ष का अनुभव करते हुए।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस प्रकार यदुवंश के प्रधान भगवान्‌ कृष्ण को सम्बोधित करनेके बाद नारद ने झुककर सादर प्रणाम किया।

    तत्पश्चात्‌ उस मुनियों में महान्‌ तथा भक्तों मेंविख्यात नारद ने भगवान्‌ से विदा ली और उनका साक्षात्‌ दर्शन करने से उत्पन्न परम हर्ष काअनुभव करते हुए चले गये।

    भगवानपि गोविन्दो हत्वा केशिनमाहवे ।

    पशूनपालयत्पालै: प्रीतैत्रेजसुखावह: ॥

    २५॥

    भगवान्‌-- भगवान्‌; अपि--तथा; गोविन्द: --गोविन्द; हत्वा--मारकर; केशिनम्‌--केशी असुर को; आहवे--युद्ध में; पशून्‌ू--पशुओं का; अपालयत्‌--चराने लगे; पालैः--ग्वालबालों के साथ; प्रीतैः--अत्यन्त प्रसन्न; ब्रज--वृन्दावन के वासियों को;सुख--सुख; आवहः--लाने वाले।

    युद्ध में असुर केशी को मार डालने के बाद भगवान्‌ कृष्ण अपने प्रमुदित ग्वालमित्रों केसाथ गौवों तथा अन्य पशुओं को चराते रहे।

    इस तरह उन्होंने वृन्दावन के समस्त वासियों कोहर्ष-उल्लास पहुँचाया।

    एकदा ते पशून्पालाश्‌ चारयन्तोउद्विसानुषु ।

    अक्रुर्निलायनक्रीडाश्लोरपालापदेशत: ॥

    २६॥

    एकदा--एक बार; ते--उन; पशून्‌--पशुओं को; पाला:--ग्वालबालों ने; चारयन्त:--चराते हुए; अद्वि--पर्वत के; सानुषु--ढलानों पर; चक्कु:--खेला; निलायन--लुकाछिपी; क्रीडा:--खेल; चोर--चोरों के; पाल--तथा रक्षकों के; अपदेशत: --अभिनय करते हुए।

    एक दिन पर्वत की ढलानों पर अपने पशु चराते हुए ग्वालबालों ने आपस में प्रतिद्वन्द्दी चोरोंतथा मवेशि-पालकों ( गड़ेरियों ) का अभिनय करते हुए लुकाछिपी का खेल खेला।

    तत्रासन्कतिचिच्चोरा: पालाश्चव कतिचिन्नूप ।

    मेषायिताश्व तत्रेके विजहरकुतोभया: ॥

    २७॥

    तत्र--उसमें; आसन्‌--थे; कतिचित्‌--कुछ; चोरा:-- चोर; पाला:--चराने वाले, पालक; च--तथा; कतिचित्‌--कुछ; नृप--हे राजा ( परीक्षित ); मेषायिता:-- भेड़ का वेश बनाकर; च--तथा; तत्र--वहाँ; एके--कुछ ने; विजह्ु:--खेल खेला;अकुतः-भया:--बिना किसी भय के ।

    हे राजनू, उस खेल में कुछ ग्वाले चोर बने, कुछ गडरिये तथा अन्य भेड़ बने।

    वे किसीसंकट के भय के बिना सुखचैन से अपना खेल खेल रहे थे।

    मयपुत्रो महामायो व्योमो गोपालवेषधृक्‌ ।

    मेषायितानपोवाह प्रायश्लोरायितो बहूनू ॥

    २८ ॥

    मय-पुत्र:--मय असुर का पुत्र; महा माय:--बलशाली जादूगर; व्योम: --व्योम नामक; गोपाल--ग्वालबाल का; वेष--पहनावा, वेष; धृूक्‌ू--धारण करके ; मेषायितान्‌-- भेड़ बनने वालों को; अपोवाह-- भगा ले गया; प्रायः --लगभग सारे;चोरायित:--चोर बनकर खेलने के बहाने; बहूनू--अनेक

    तब व्योम नामक एक शक्तिशाली जादूगर, जो असुर मय का पुत्र था, एक ग्वालबाल केवेश में वहाँ प्रकट हुआ।

    वह चोर के रूप में खेल में सम्मिलित होने का बहाना करते हुए, भेड़बनने वाले अधिकांश ग्वालबालों को चुराने के लिए आगे बढ़ा।

    गिरिदर्या विनिश्षिप्य नीत॑ नीत॑ महासुरः ।

    शिलया पिदथे द्वारं चतुःपञ्ञावशेषिता: ॥

    २९॥

    गिरि--पर्वत की; दर्याम्‌ू-गुफा में; विनिक्षिप्प--फेंक कर; नीतम्‌ नीतम्‌--क्रमश: ला लाकर; महा-असुरः --महान्‌ असुर;शिलया--पत्थर से; पिदधे--बन्द कर दिया; द्वारम्‌-द्वार को; चतु:-पञ्ञ--चार या पाँच; अवशेषिता: --बचे रहे |

    उस महा असुर ने धीरे धीरे अधिकाधिक ग्वालों का अपहरण कर लिया और उन्हें एकपर्वत-गुफा में ले जाकर फेंक दिया तथा उसके द्वार को एक बड़े पत्थर से बन्द कर दिया।

    अन्त में केवल चार-पाँच बालक बचे जो खेल में भेड़ बने थे।

    तस्य तत्कर्म विज्ञाय कृष्ण: शरणदः सताम्‌ ।

    गोपान्नयन्तं जग्राह वृक॑ हरिरिवौजसा ॥

    ३०॥

    तस्य--उसका, व्योमासुर का; तत्‌--वह; कर्म--काम; विज्ञाय--पूरी तरह जानकर; कृष्ण:--कृष्ण ने; शरण--शरण के;दः--दाता; सताम्‌ू--साधु भक्तों को; गोपान्‌ू-ग्वालबालों को; नयन्तम्‌--ले जाने वाले को; जग्राह--पकड़ लिया; वृकम्‌--भेड़िये को; हरिः--सिंह; इब--सद्ृश; ओजसा--बलपूर्वक |

    समस्त सन्त भक्तों को शरण देने वाले भगवान्‌ कृष्ण अच्छी तरह जान गये कि व्योमासुरकर क्या रहा है।

    जिस तरह कोई सिंह भेड़िये को दबोच लेता है उसी तरह कृष्ण ने उस असुर कोजब वह अन्य ग्वालबालों को लिये जा रहा था बलपूर्वक धर दबोचा।

    स निजं रूपमास्थाय गिरीन्द्रसहशं बली ।

    इच्छन्विमोक्तुमात्मानं नाशक्नोदग्रहणातुर: ॥

    ३१॥

    सः--वह असुर; निजम्‌--अपने मूल; रूपम्‌--रूप को; आस्थाय-- धारण करके ; गिरि-इन्द्र--राजसी पर्वत; सहशम्‌--केसहश; बली--शक्तिशाली; इच्छन्‌--चाहते हुए; विमोक्तुमू--मुक्त करने के लिए; आत्मानम्‌--स्वयं को; न अशक्नोत्‌--वहसमर्थ नहीं था; ग्रहण--बलपूर्वक पकड़े जाने से; आतुर:--अशक्त हुआ

    वह असुर अपने मूल रूप में परिणत होकर विशाल पर्वत के समान बड़ा तथा बली बनगया।

    किन्तु वह कठोर प्रयास के बावजूद अपने को छुड़ा न पाया क्योंकि भगवान्‌ की मजबूतपकड़ में होने से वह अपनी शक्ति खो चुका था।

    त॑ निगृह्याच्युतो दोर्भ्या पातयित्वा महीतले ।

    पश्यतां दिवि देवानां पशुमारममारयत्‌ ॥

    ३२॥

    तम्‌--उसको; निगृह्म--मजबूती से पकड़कर; अच्युत:--भगवान्‌ कृष्ण ने; दोर्भ्याम्‌ू--अपनी भुजाओं से; पातयित्वा--गिराकर; मही-तले--पृथ्वी पर; पश्यताम्‌--देखते देखते; दिवि--स्वर्गलोक में; देवानामू--देवताओं के; पशु-मारम्‌--जिस तरहबलि-पशु का वध किया जाता है; अमारयत्‌--उसे मार डाला

    भगवान्‌ अच्युत ने व्योमासुर को अपनी बाँहों के बीच में जकड़ कर पृथ्वी पर पदक दिया।

    तब स्वर्ग से देवताओं के देखते देखते कृष्ण ने उसे उसी तरह मार डाला जिस तरह कोई बलि-पशु का वध करता है।

    गुहापिधानं निर्भिद्य गोपान्निःसार्य कृच्छुत: ।

    स्तूयमान: सुरैगोपि: प्रविवेश स्वगोकुलम्‌ ॥

    ३३॥

    गुहा--गुफा के; पिधानम्‌--अवरोध को; निर्भिद्य--तोड़कर; गोपान्‌ू--ग्वालबालों को; नि:सार्य--बाहर निकालकर;कृच्छुतः:--भयानक जगह से; स्तूयमान:--प्रशंसित होकर; सुरैः--देवताओं द्वारा; गोपैः --तथा ग्वालबालों द्वारा; प्रविवेश--प्रवेश किया; स्व--अपने; गोकुलम्‌-ग्वाल- ग्राम में |

    तत्पश्चात्‌ कृष्ण ने गुफा के दरवाजे को अवरुद्ध करने वाले शिलाखण्ड को चूर चूर करदिया और बनन्‍्दी बनाये गये ग्वालबालों को वे सुरक्षित स्थान पर ले आये।

    इसके बाद देवताओंतथा ग्वालों द्वारा उनका यशोगान होने लगा और वे अपने ग्वाल-ग्राम, गोकुल, लौट गए।

    TO

    अध्याय अड़तीसवां: अक्रूर का वृन्दावन में आगमन

    10.38श्रीशुक उबाचअक्रूरोउपि च तां रात्रि मधुपुर्या महामति: ।

    उषित्वारथमास्थाय प्रययौ नन्दगोकुलम्‌ ॥

    १॥

    श्री-शुक: उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; अक्रूर:--अक्वूर; अपि च--तथा; ताम्‌--उस; रात्रिमू--रात; मधु-पुर्यामू--मथुरानगरी में; महा-मतिः--उच्च विचार वाला; उषित्वा--रहकर; रथम्‌--अपना रथ; आस्थाय--चढ़ कर; प्रययौ--रवाना हुआ;नन्द-गोकुलम्‌--नन्द महाराज के ग्वाल-ग्राम के लिए

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : महामति अक्रूर ने वह रात मथुरा में बिताई और तब अपने रथपर सवार होकर नन्द महाराज के ग्वाल-ग्राम के लिए रवाना हुए।

    गच्छन्पथि महाभागो भगवत्यम्बुजेक्षणे ।

    भक्ति परामुपगत एवमेतदचिन्तयत्‌ ॥

    २॥

    गच्छन्‌--यात्रा करते हुए; पथि--मार्ग में; महा-भाग:--परम भाग्यशाली; भगवति-- भगवान्‌ के प्रति; अम्बुज-ईक्षणे --कमल-नेत्र प्रभु; भक्तिमू-- भक्ति; परामू--अद्वितीय; उपगत:--अनुभव किया; एवम्‌--इस प्रकार; एतत्‌--यह; अचिन्तयत्‌--सोचा

    मार्ग में यात्रा करते हुए महात्मा अक्रूर को कमल-नेत्र भगवान्‌ के प्रति अपार भक्ति काअनुभव हुआ अतः वे इस प्रकार सोचने लगे।

    कि मयाचरितं भद्गं कि तप्तं परमं तपः ।

    किं वाथाप्यईते दत्तं यद्द्रक्ष्याम्यद्यै केशवम्‌ ॥

    ३॥

    किमू--क्या; मया--मेरे द्वारा; आचरितम्‌--किया गया है; भद्रमू--अच्छा कार्य; किमू--क्या; तप्तम्‌--ताप सहा गया;परमम्‌--कठिन; तपः--तपस्या; किम्‌--क्या; वा--अथवा; अथ अपि--अन्यथा; अर्हते--की गई पूजा; दत्तमू--दिया गयादान; यत्‌-- जिससे; द्रक्ष्यामि--देखने जा रहा हूँ; अद्य--आज; केशवम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण को

    श्री अक्रूर ने सोचा : मैंने ऐसे कौन-से शुभ कर्म किये हैं, ऐसी कौन-सी कठिन तपस्याकी है, ऐसी कौन-सी पूजा की है या ऐसा कौन-सा दान दिया है, जिससे आज मैं भगवान्‌केशव का दर्शन करूँगा ?

    ममैतहुर्लभं मन्य उत्तम:शलोकदर्शनम्‌ ।

    विषयात्मनो यथा ब्रह्मकीर्तनं शूद्रजन्मन: ॥

    ४॥

    मम--मेरा; एतत्‌--यह; दुर्लभम्‌--दुष्प्राप्प; मन्ये--मानता हूँ; उत्तम:-शलोक-- भगवान्‌ का जिनकी प्रशंसा उत्तम इलोकों द्वाराकी जाती है; दर्शनम्‌--दर्शन; विषय-आत्मन:--विषय-भोगों में लिप्त रहने वाले के हेतु; यथा--जिस तरह; ब्रह्म--वेदों का;कीर्तनम्‌--कीर्तन; शूद्र--निम्न श्रेणी का व्यक्ति; जन्मन:--जन्म से, जन्मना |

    चूँकि मैं विषय-भोगों में लीन रहने वाला भौतिकतावादी व्यक्ति हूँ अतः अपने लिए उत्तमएलोक में स्तुति किए जाने वाले भगवान्‌ का दर्शन करने का यह अवसर प्राप्त कर पाना मैं उसीतरह कठिन समझता हूँ जिस तरह शूद्र के रूप में जन्मे व्यक्ति के लिए वैदिक मंत्रों के उच्चारणकरने की अनुमति प्राप्त करना होता है।

    मैवं ममाधमस्यापि स्यादेवाच्युतदर्शनम्‌ ।

    हियमाण: कलनद्या क्वचित्तरति कश्चन ॥

    ५॥

    मा एवम्‌--मुझे ऐसा नहीं सोचना चाहिए; मम--मुझ; अधमस्य---अधम का; अपि-- भी; स्थात्‌--हो सकता है; एव--निश्चयही; अच्युत--अच्युत का; दर्शनम्‌ू--दर्शन; हियमाण: --खींचा जाकर; काल--समय की; नद्या--नदी के द्वारा; क्वचित्‌--कभी; तरति--पार करके किनारा पा जाता है; कश्चन--कोई |

    किन्तु बहुत हुआ, छोड़ो इन विचारों को, आखिर मुझ जैसे पतितात्मा को भी अच्युतभगवान्‌ को देखने का अवसर प्राप्त हो सकता है क्योंकि काल रूपी नदी के प्रवाह में बह रहेबद्ध-आत्माओं में से कोई एक आत्मा तो कभी कभी किनारे तक पहुँच ही सकता है।

    ममाद्यामड्डलं नष्टे फलवांश्रेव मे भव: ।

    यन्नमस्थे भगवतो योगिध्येयान्प्रिपड्टुजम्‌ ॥

    ६॥

    मम--मेरा; अद्य--आज; अमड्डलम्‌-- अशुभ पापकर्म; नष्टमू--उन्मूलित; फल-वान्‌--फलीभूत; च--तथा; एव--निस्सन्देह;मे--मेरा; भवः--जन्म; यत्‌-- क्योंकि; नमस्ये--नमस्कार करने जा रहा हूँ; भगवतः -- भगवान्‌ के; योगि-ध्येय--योगियों द्वाराध्यान किये जाने वाले; अद्भघ्रि--चरणों को; पड्डजम्‌--कमलवत्‌ |

    आज मेरे समस्त पापकर्मों का उन्मूलन हो चुका है और मेरा जन्म सफल हो गया है क्योंकिमैं भगवान्‌ के उन चरणकमलों को नमस्कार करूँगा जिनका ध्यान बड़े बड़े योगी करते हैं।

    कंसो बताद्याकृत मेउत्यनुग्रहंद्रक्ष्येड्प्रिपदां प्रहितोमुना हरे: ।

    कृतावतारस्य दुरत्ययं तमःपूर्वेउतरन्यन्नखमण्डलत्विषा ॥

    ७॥

    कंसः--राजा कंस ने; बत--निस्सन्देह; अद्य--आज; अकृत--किया है; मे--मेरे साथ; अति-अनुग्रहम्‌ू--अत्यन्त कृपा काकार्य; द्रक्ष्ये--देखूँगा; अड्प्रि-पद्ममू--चरणकमलों को; प्रहित:-- भेजा गया; अमुना--उसके द्वारा; हरेः-- भगवान्‌ के;कृत--लिया; अवतारस्य--इस संसार में उनका अवतरण; दुरत्ययम्‌ू-दुर्लघ्य; तम:ः--संसार का अंधकार; पूर्वे-- भूतकाल केमनुष्य; अतरन्‌ू--तर गये, पार कर गये; यत्‌--जिसके; नख-मण्डल--पैर के नाखूनों के मण्डल के; त्विषा--तेज से

    निस्सन्देह, आज कंस ने मुझे उन भगवान्‌ हरि के चरणकमलों का दर्शन करने के लिएभेजकर मेरे ऊपर महती कृपा की है, जिन्होंने अब इस संसार में अवतार लिया है।

    भूतकाल मेंउनके चरण-नखों के तेज से ही इस भौतिक संसार के दुर्लध्य अंधकार को अनेक आत्माओं नेपार करके मुक्ति प्राप्त की है।

    यदर्चितं ब्रह्मभवादिभि: सुरैःश्रिया च देव्या मुनिभिः ससात्वतैः ।

    गोचारणायानुचर श्वरद्वनेयद्गोपिकानां कुचकुड्डू माड्चितम्‌ ॥

    ८॥

    यत्‌--जो ( चरणकमल ); अर्चितम्‌-- पूजित; ब्रह्मय-भव--ब्रह्मा तथा शिव; आदिभि: -- त्यादि द्वारा; सुरैः--देवताओं द्वारा;श्रिया-- श्री द्वारा; च-- भी; देव्या--देवी; मुनिभि: --मुनियों द्वारा; स-सात्वतैः-- भक्तों के समेत; गो--गौवें; चारणाय--चरानेके लिए; अनुचरैः-- अपने संगियों समेत; चरत्‌--विचरण करते; वने--जंगल में; यत्‌--जो; गोपिकानामू--गोपिकाओं के;कुच-स्तन से; कुल्डढु म--लाल कुंकुम चूर्ण से; अद्धितम्‌-चिन्हित।

    उन्हीं चरणकमलों की ब्रह्मा, शिव तथा अन्य सारे देवता, लक्ष्मीजी तथा बड़े बड़े मुनि और वैष्णव पूजा करते हैं।

    उन्हीं चरणकमलों से भगवान्‌ अपने संगियों सहित गौवें चराते समय जंगलमें विचरण करते हैं और वे ही चरण गोपियों के स्तनों पर लगे कुंकुम से सने रहते हैं।

    द्रक्ष्यामि नूनं सुकपोलनासिकंस्मितावलोकारुणकझ्जललोचनम्‌ ।

    मुखं मुकुन्दस्य गुडालकावृतंप्रदक्षिणं मे प्रचरन्ति वै मृगा: ॥

    ९॥

    द्रक्ष्यामि--देखूँगा; नूनमू--निश्चय ही; सु--सुन्द;; कपोल--गाल; नासिकम्‌--तथा नाक; स्मित--हँसी से युक्त; अवलोक--चितवन; अरुण--लाल; कञज्ञ--कमल सहश; लोचनम्‌-- आँखें ; मुखम्‌--मुख; मुकुन्दस्य-- भगवान्‌ कृष्ण के; गुड--घुँघराले; अलक--बाल; आवृतम्‌--चारों ओर से घिरा; प्रदक्षिणम्‌--परिक्रमा; मे--मेरा; प्रचरन्ति--सम्पन्न कर रहे हैं; बै--निस्सन्देह; मृगा:--मृगगण, हिरन।

    अवश्य ही मैं भगवान्‌ मुकुन्द के मुख को देखूँगा क्योंकि अब हिरन मेरी दाईं ओर सेनिकल रहे हैं।

    वह मुख घुँघराले बालों से घिरा है और उनके आकर्षक गालों तथा नाक, उनकीमन्द हासयुक्त चितवन तथा लाल कमल जैसी आँखों से शोभायमान है।

    अप्यद्य विष्णोर्मनुजत्वमीयुषोभारावताराय भुवो निजेच्छया ।

    लावण्यधाम्नो भवितोपलम्भनंमहां न न स्थात्फलमझसा हृशः ॥

    १०॥

    अपि--और भी; अद्य--आज ; विष्णो:-- भगवान्‌ विष्णु के; मनुजत्वम्‌--मनुष्य रूप को; ईयुष:-- धारण किये हुए; भार--भार; अवताराय--कम करने के लिए; भुव:ः--पृथ्वी की; निज--अपनी; इच्छया--इच्छा से; लावण्य--सौंदर्य के; धाम्न:--धाम की; भविता--होगी; उपलम्भनम्‌-- अनुभूति; मह्मम्‌--मेंरे लिए; न--ऐसा नहीं है कि; न स्थात्‌ू--नहीं होयेगा; फलम्‌--'फल; अज्जसा- प्रत्यक्ष; हश:--दर्शन का ।

    मुझे समस्त सौन्दर्य के आगार उन भगवान्‌ विष्णु के दर्शन होंगे जिन्होंने पृथ्वी का भारउतारने के लिए स्वेच्छा से मनुष्य जैसा स्वरूप धारण किया है।

    इस तरह इसमें कोई सन्देह नहींकि मेरी आँखों को उनके अस्तित्व का फल प्राप्त हो जायेगा।

    य ईक्षिताहंरहितोप्यसत्सतो: स्वतेजसापास्ततमोभिदा भ्रम: ।

    स्वमाययात्मन्रचितैस्तदी क्षयाप्राणाक्षधीभि: सदनेष्वभीयते ॥

    ११॥

    यः--जो; ईक्षिता--साक्षी; अहम्‌--मिथ्या अभिमान से; रहित:--रहित; अपि--फिर भी; असत्ू-सतो:--कारण-कार्य का;स्व-तेजसा--अपनी निजी शक्ति से; अपास्त--दूर करके; तम:--अज्ञान का अंधकार; भिदा--पृथकत्व का भाव; भ्रम:--तथाभ्रम; स्व-मायया--अपनी भौतिक सृजन-शक्ति द्वारा; आत्मन्‌ू--अपने भीतर; रचितैः --रचे हुए ( जीवों ) के द्वारा; तत्‌-ईक्षया--माया पर दृष्टि डालने से; प्राण--प्राण-वायु; अक्ष--इन्द्रियाँ; धीभि:--तथा बुद्ध्धि से; सदनेषु-- जीवों के शरीरों केभीतर; अभीयते--उनकी उपस्थिति की प्रतीति होती है|

    वे भौतिक कार्य-कारण के साक्षी हैं फिर भी वे उनकी झूठी पहचान से अपने को सदैवपृथक्‌ रखते हैं।

    वे अपनी अन्तरंगा शक्ति के द्वारा पृथकत्व तथा भ्रम के अंधकार को दूर करतेहैं।

    जब वे अपनी भौतिक सृजन-शक्ति पर दृष्टि डालते हैं, तो इस जगत के जीव प्रकट होते हैंऔर ये जीव उन्हें अपनी प्राण-वायु, इन्द्रियों तथा बुद्धि कार्यो में अप्रत्यक्ष रूप से अनुभव करतेहैं।

    यस्याखिलामीवहभि: सुमड्नलै:-वाचो विमिश्रा गुणकर्मजन्मभि: ।

    प्राणन्ति शुम्भन्ति पुनन्ति वै जगत्‌यास्तद्विरक्ता: शवशोभना मता; ॥

    १२॥

    यस्य--जिसका; अखिल--सारा; अमीव--पाप; हभि:--नष्ट करने वाला; सु-मड्नलैः --अत्यन्त शुभ; वाच:--शब्द;विमिश्रा:--जुड़े हुये; गुण--गुणों से; कर्म--कर्मों; जन्मभि: --तथा अवतारों से; प्राणन्ति--प्राण दे देते हैं; शुम्भन्ति--सुन्दरबनाते हैं; पुनन्ति--तथा शुद्ध करते हैं; वै--निस्सन्देह; जगत्‌--सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड; या:--जो ( शब्द ); तत्‌--इनके; विरक्ता:--रहित; शव--मृत शरीर का; शोभना:--सजाने जैसा; मता:--माना जाता है।

    भगवान्‌ के गुणों, कर्मो तथा अवतारों से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं तथा उत्पन्न समस्त सौभाग्य एवं इन तीनों का वर्णन करने वाले शब्द संसार को जीवनदान देते हैं, उसे सुशोभितबनाते हैं और शुद्ध करते हैं।

    दूसरी ओर, उनकी महिमा से विहीन शब्द शव की सजावट करनेजैसे होते हैं।

    स चावतीर्ण: किल सत्वतान्वयेस्वसेतुपालामरवर्यशर्मकृत्‌ ।

    यशो वितन्वन्ब्रज आस्त ई श्वरोगायन्ति देवा यदशेषमड्रलम्‌ ॥

    १३॥

    सः--वह; च--तथा; अवतीर्ण: --अवतरित होकर; किल--निस्सन्देह; सात्वत--सात्वतों के; अन्वये--कुल में; स्व-- अपना;सेतु--धर्म के संकेत; पाल--पालने वाला; अमर-वर्य--मुख्य देवताओं का; शर्म--हर्ष; कृत्‌--उत्पन्न करके; यश:--अपनीख्याति; वितन्वन्‌--फैलाते हुए; ब्रजे--ब्रज में; आस्ते--उपस्थित है; ई श्वरः--परमे श्वर; गायन्ति-- गाते हैं; देवा:--देवतागण;यत्‌--जिसका; अशेष-मड्जलम्‌--सर्व कल्याणप्रद।

    वे ही भगवान्‌ सात्वत वंश में प्रमुख देवताओं को प्रसन्न करने के लिए अवतरित हुए हैं, जोउनके द्वारा निर्मित्त धर्म के नियमों को धारण करने वाले हैं।

    वे वृन्दावन में रहते हुए अपने यशका विस्तार करते हैं जिसकी महिमा देवतागण गाकर करते हैं और जो सबों को मंगल प्रदानकरने वाला है।

    त॑ त्वद्य नूनं महतां गतिं गुरुत्रैलोक्यकान्तं हशिमन्महोत्सवम्‌ ।

    रूप॑ दधानं थिय ईप्सितास्पदंद्रक्ष्ये ममासन्रुषसः सुदर्शना: ॥

    १४॥

    तम्‌--उसको; तु--फिर भी; अद्य--आज; नूनम्‌--निश्चय ही; महताम्‌--महात्माओं के; गतिम्‌--गन्तव्य को; गुरुम्‌-तथा गुरुको; त्रै-लोक्य--तीनों जगतों की; कान्तमू--असली सुन्दरता; हशि-मत्‌--आँख वालों के लिए; महा-उत्सवम्‌--महान्‌ उत्सव;रूपम्‌--उनका साकार रूप; दधानम्‌--प्रकट करते हुए; थ्रियः--लक्ष्मी का; ईप्सित--इच्छित; आस्पदम्‌ू--शरणस्थल;द्रक्ष्य --देखूँगा; मम--मेरा; आसन्‌--आ चुके हैं; उषसः--सबेरे; सु-दर्शना:--देखने में शुभ |

    आज मैं उन्हें अवश्य देखूँगा, जो कि महात्माओं के गन्तव्य तथा आध्यात्मिक गुरु हैं।

    सभी नेत्रवानों को उनके दर्शन से हर्ष होता है क्योंकि वे ब्रह्माण्ड के असली सौन्दर्य हैं।

    निस्सन्देहउनका साकार रूप लक्ष्मीजी द्वारा अभीष्सित आश्रय है।

    अब मेरे जीवन के समस्त प्रभात शुभबन चुके हैं।

    अथावरूढः सपदीशयो रथात्‌प्रधानपुंसो श्वरणं स्वलब्धये ।

    धिया धृतं योगिभिरप्यहं श्लुवंनमस्य आशभ्यां च सखीन्वनौकसः ॥

    १५॥

    अथ--तब; अवरूढ:--उतरकर; सपदि--तुरन्त; ईशयो: --दोनों ईश्वरों के; रथात्‌--रथ से; प्रधान-पुंसो:-- भगवान्‌ के;चरणमू--चरणों को; स्व-लब्धये--आत्म-साक्षात्कार के लिए; धिया--उनकी बुद्धि से; धृतम्‌--पकड़े हुए; योगिभि:--योगियों द्वारा; अपि-- भी; अहम्‌--मैं; ध्रुवम्‌--निश्चित रूप से; नमस्ये--नमस्कार करूँगा; आभ्याम्‌--उन दोनों को; च-- भी;सखीनू--मित्रों; बन-ओकस: --वनवासियों को |

    तब मैं तुरन्त अपने रथ से नीचे उतर आऊँगा और भगवान्‌ कृष्ण तथा भगवान्‌ बलराम दोनोंके चरणकमलों को नमस्कार करूँगा।

    उनके पैर वही हैं, जिन्हें आत्मसाक्षात्कार के लिएप्रयलशील बड़े बड़े योगी अपने मन के भीतर धारण करते हैं।

    मैं दोनों के बालमित्रों तथावृन्दावन के अन्य समस्त वासियों को भी अपना नमस्कार निवेदित करूँगा।

    अप्यड्प्रिमूले पतितस्य मे विभुःशिरस्यधास्यन्निजहस्तपड्छजम्‌ ।

    दत्ताभयं कालभुजाडुरंहसाप्रोद्ठेजितानां शरणैषिणां णूनाम्‌ ॥

    १६॥

    अपि--और भी; अड्प्रि--उनके चरणों के; मूले--के निकट; पतितस्थ--गिरे हुए का; मे--मेरे; विभुः--शक्तिशाली प्रभु;शिरसि--सिर पर; अधास्यत्‌--रखेंगे; निज--अपना; हस्त--हाथ; पड्डूजम्‌--कमल सहश; दत्त--देने वाला; अभयम्‌--अभय; काल--समय; भुज-अड्ग--सर्प का; रंहसा--वेग से; प्रोद्ठेजितानामू--जो अत्यधिक व्यग्र हैं; शरण--शरण;एपिणाम्‌--ढूँढ़ने वाले; नृणाम्‌--मनुष्यों के लिए।

    और जब मैं उनके चरणों पर गिर पड़ूँगा तो सर्वशक्तिमान प्रभु मेरे सिर पर अपना करकमलरख देंगे।

    जो लोग काल रूपी शक्तिशाली सर्प से अत्यन्त विचलित होकर उनकी शरण में जातेहैं, यह हाथ उनके सारे भय को दूर कर देता है।

    समर्हणं यत्र निधाय कौशिक-स्तथा बलिश्वाप जगत्नयेन्द्रताम्‌ ।

    यद्वा विहारे ब्रजयोषितां श्रमंस्पर्शेन सौगन्धिकगन्ध्यपानुदत्‌ ॥

    १७॥

    समरहणम्‌--सादर भेंट; यत्र--जिसमें; निधाय--रखकर; कौशिक:--पुरन्दर; तथा--और; बलि:ः-- बलि महाराज ने; च--भी;आप-- प्राप्त किया; जगत्‌--लोकों का; त्रय--तीन; इन्द्रतामू--शासन ( इन्द्र रूप में ); यत्‌--जो ( कर-कमल ); वा--तथा;विहारे--लीला ( रासनृत्य ) के समय; ब्रज-योषिताम्‌--ब्रज की स्त्रियों की; श्रमम्‌-- थकान को; स्पर्शेन--उनके स्पर्श से;सौगन्धिक--सुगन्धवान फूल की तरह; गन्धि--सुगन्धित; अपानुदत्‌-पोंछा |

    उस कमल सहश हाथ में दान देकर पुरन्दर तथा बलि ने स्वर्ग के राजा इन्द्र के पद को प्राप्तकिया और रासनृत्य की आनन्द लीलाओं के समय जब भगवान्‌ ने गोपियों के पसीने कोपोंछकर उनकी थकान दूर की तो उनके मुखस्पर्श ने उस हाथ को मधुर फूल की तरह सुगन्धितबना दिया।

    न मय्युपैष्यत्यरिबुद्ध्धिमच्युतःकंसस्य दूतः प्रहितोपि विश्वदक्‌ ।

    योडन्तर्बहिश्लेतस एतदीहितंक्षेत्रज्ञ ईक्षत्यमलेन चक्षुषा ॥

    १८॥

    न--नहीं; मयि--मेरी ओर; उपैष्यति--उत्पन्न करेगा; अरि--शत्रु होने की; बुद्धिम्‌--प्रवत्ति; अच्युतः--अच्युत भगवान्‌;कंसस्य--कंस का; दूत:ः--दूत; प्रहित:-- भेजा गया; अपि--यद्यपि; विश्व--हर वस्तु का; हक्‌--साक्षी; यः--जो; अन्त:ः--भीतर; बहिः--तथा बाहर; चेतस:--हृदय का; एतत्‌--यह; ईहितम्‌--जो भी किया जाता है; क्षेत्र--खेत का ( भौतिक शरीरका ); ज्ञः--ज्ञाता; ईक्षति--देखता है; अमलेन--पूर्ण; चक्षुषा--दृष्टि से |

    यद्यपि कंस ने मुझे यहाँ अपना दूत बनाकर भेजा है किन्तु अच्युत भगवान्‌ मुझे अपना शत्रुनहीं मानेंगे।

    आखिर, सर्वज्ञ प्रभु इस भौतिक शरीर रूपी क्षेत्र के वास्तविक ज्ञाता हैं ( क्षेत्रज्ञ )और वे अपनी पूर्ण दृष्टि से बद्धजीवों के हृदय के सारे प्रयासों को अन्दर और बाहर से देखते हैं।

    अप्यडूप्रिमूलेवहितं कृताझ्जलिंमामीक्षिता सस्मितमार्द्रया दशा ।

    सपद्यपध्वस्तसमस्तकिल्बिषोवबोढा मुदं वीतविशड्डू ऊर्जिताम्‌ू ॥

    १९॥

    अपि--तथा; अड्प्नि-पैरों के; मूले--तल पर; अवहितम्‌ू--स्थिर; कृत-अद्जञलिम्‌--हाथ जोड़े; माम्‌-- मुझको; ईक्षिता--देखेंगे; सस्मितम्‌--हँसी से युक्त; आर्द्रया--स्नेहपूर्ण; हशा--चितवन से; सपदि--तुरन्त; अपध्वस्त--समूल नष्ट; समस्त--सारे;किल्बिष:--कल्मष; वोढा--प्राप्त करूँगा; मुदम्‌ू--सुख; बीत--मुक्त होकर; विशड्भ:--शंका से; ऊर्जिताम्‌-तीब्र |

    इस तरह जब मैं हाथ जोड़कर उनके पैरों पर प्रणाम करने के लिए गिरकर पड़ा रहूँगा वेअपनी हँसीयुक्त स्नेहमयी चितवन मुझ पर डालेंगे।

    तब मेरा सारा कल्मष छू-मन्तर हो जायेगा।

    तब मेरे सारे संशय दूर हो जायेंगे और मैं गहन आनन्द का अनुभव करूँगा।

    सुहृत्तमं ज्ञातिमनन्यदैवतंदोर्भ्या बृहद्भ्यां परिरप्स्यतेथ माम्‌ ।

    आत्मा हि तीर्थीक्रियते तदैव मेबन्धश्च कर्मात्मक उच्छुसित्यत: ॥

    २०॥

    सुहत्‌-तमम्‌--सर्वश्रेष्ठ मित्र; ज्ञातिमू--परिवार का सदस्य; अनन्य--एकान्तिक; दैवतम्‌-पूजा के लक्ष्य के रूप में ( आराध्यदेव ); दोर्भ्यामू--अपने दोनों बाहुओं में; बृहद्भ्यामू--विशाल; परिरप्स्यते--आलिंगन; अथ-त्पश्चात्‌; माम्‌--मुझको;आत्मा--शरीर; हि--निस्सन्देह; तीर्थी--पवित्र; क्रियते--करेगा; तदा एव--तभी; मे--मेरा; बन्ध:--बन्धन; च--तथा; कर्म-आत्मक:ः--सकाम कर्म के कारण; उच्छुसिति--शिथिल हो जायेगा; अत:--इसके फलस्वरूप |

    मुझे अपने घनिष्ठ मित्र तथा सम्बन्धी के रूप में पहचान कर कृष्ण अपनी विशाल भुजाओंसे मुझे अपने गले लगा लेंगे जिससे उसी क्षण मेरा शरीर पवित्र हो जायेगा और सकाम कर्मों सेजनित मेरे भौतिक बन्धन शून्य हो जायेंगे।

    लब्ध्वाड्सड्डरम्प्रणतम्कृताझलिंमां वक्ष्यतेक्रूर ततेत्युरु भ्रवा: ।

    तदा बयं जन्मभूतो महीयसानैवाहतो यो धिगमुष्य जन्म तत्‌ ॥

    २१॥

    लब्ध्वा--प्राप्त करके; अड्-सड़म्‌-- भौतिक सम्पर्क; प्रणतम्‌--सिर नीचा किये खड़ा हुआ; कृत-अज्जलिम्‌ू--हाथ जोड़े;माम्‌--मुझसे; वक्ष्यते--बोलेंगे; अक्रूर--हे अक्रूर; तत--मेरे परिजन; इति--इन शब्दों में; उरु श्रवा:--कृष्ण, जिनकी ख्यातिअपार है; तदा--तब; वयम्‌--हम; जन्म-भूत:-- जन्म सफल हो जायेगा; महीयसा--पुरुष- श्रेष्ठ द्वारा; न--नहीं; एव--निस्सन्देह; आहत:ः--आदरित; यः--जो; धिक्‌-धिक्कार है; अमुष्य--उसका; जन्म--जन्म; तत्‌--वह सर्व-सुविख्यात

    कृष्ण द्वारा गले लगाये जाने के बाद मैं उनके समक्ष विनम्र भाव से सिरझुकाकर तथा हाथ जोड़कर खड़ा रहूँगा और वे मुझसे कहेंगे, 'मेंरे प्रिय अक्रूर, ' उसी क्षण मेरेजीवन का उद्देश्य सफल हो जायेगा।

    दरअसल जिस व्यक्ति को भगवान्‌ मान्यता नहीं देते उसकाजीवन दयनीय है।

    न तस्य कश्चिदयितः सुहृत्तमोनचाप्रियो द्वेष्य उपेक्ष्य एव वा ।

    तथापि भक्तान्भजते यथा तथासुरद्रुमो यद्वदुपाञ्रितोर्थद: ॥

    २२॥

    न तस्य--उसका नहीं है; कश्चित्‌--कोई; दबित:--प्रिय; सुहृत्तम:--सर्व श्रेष्ठ मित्र; न च--न तो; अप्रिय: --अप्रिय; द्वेष्य:--जिससे द्वेष किया जा सके; उपेक्ष्य:--उपेक्षित; एब--निस्सन्देह; वा--अथवा; तथा अपि--फिर भी; भक्तान्‌ू--अपने भक्तोंको; भजते-- भजता है; यथा--वे जैसे हैं; तथा--उसी के अनुसार; सुर-द्रुः--कल्पवृक्ष; यद्वत्‌ू--जिस प्रकार; उपाश्रित:--शरणागत; अर्थ--इच्छित फल; दः--देने वाला।

    भगवान्‌ का न तो कोई अप्रिय है, न सर्वश्रेष्ठ मित्र है, न ही वे किसी को अवांछनीय, घृणितया उपेक्षणीय मानते हैं।

    साथ ही साथ अपने भक्तों से, जीस भाव से पूजा करते हैं उसी तरह प्रेमका आदान-प्रदान करते हैं जिस तरह कल्प-वृक्ष अपने पास आने वालों की इच्छाएँ पूरी करतेहैं।

    कि चाग्रजो मावनतं यदूत्तम: स्मयन्परिष्वज्य गृहीतमझ्जलौ ।

    गहं प्रवेष्याप्तससमस्तसत्कृतंसम्प्रक्ष्यते कंसकृतं स्वबन्धुषु ॥

    २३॥

    किम्‌ च--और तो और; अग्र-ज:--उनके बड़े भाई ( बलराम ); मा--मुझको; अवनतम्‌--सिर झुकाये मुझको; यदु-उत्तम:--यदुओं में सर्वश्रेष्ठ; स्मथन्‌--हँसते हुए; परिष्वज्य--आलिंगन करके; गृहीतम्‌--पकड़े हुए; अज्ललौ--मेरी हथेलियों से; गृहम्‌--घर में; प्रवेष्य-- ले जाकर; आप्त--प्राप्त किया हुआ; समस्त--सारा; सत्‌-कृतम्‌--सत्कार; सम्प्रक्ष्यते--पूछेंगे; कंस--कंसद्वारा; कृतम्‌--किया गया; स्व-बन्धुषु-- अपने परिवार वालों के प्रति।

    और जब मैं अपना सिर झुकाये खड़ा होऊँगा तब कृष्ण के बड़े भाई, यदुश्रेष्ठ बलराम मेरेजुड़े हुए हाथों को थाम लेंगे और फिर मेरा आलिंगन करके वे मुझे अपने घर ले जायेंगे।

    वहाँ वेसभी प्रकार की अनुष्ठान-सामग्री से मेरा सत्कार करेंगे और मुझसे पूछेंगे कि कंस उनके परिवारवालों के साथ कैसा व्यवहार कर रहा है।

    श्रीशुक उबाचइति सझ्ञिन्तयन्कृष्णं श्रफल्कतनयोध्वनि ।

    रथेन गोकुल प्राप्त: सूर्य श्रास्तगिरिं नूप ॥

    २४॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; सद्धिन्तयन्‌--गम्भीरतापूर्वक सोचते हुए; कृष्णम्‌--कृष्ण केविषय में; श्रफल्क-तनयः-- श्रफल्कपुत्र, अक्रूर; अध्वनि--मार्ग में; रथेन--अपने रथ द्वारा; गोकुलम्‌ू--गोकुल गाँव; प्राप्त:--पहुँच गया; सूर्य:--सूर्य; च--तथा; अस्त-गिरिम्‌--अस्ताचल; नृप--हे राजा ( परीक्षित )

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : हे राजन्‌, मार्ग पर जाते हुए श्रफल्कपुत्र ( अक्वूर ) कृष्णके विषय में इस तरह गम्भीरतापूर्वक ध्यान करते करते जब गोकुल पहुँचे तो सूर्यअस्त होने कोथा।

    पदानि तस्याखिललोकपाल-किरीटजुष्टामलपादरेणो: ।

    ददर्श गोष्ठे क्षतिकौतुकानिविलक्षितान्यब्जयवाडरु शाद्यै: ॥

    २५॥

    पदानि--पदचिह्न; तस्य--उसके; अखिल--समस्त; लोक--लोकों के; पाल--पालकों द्वारा; किरीट--अपने मुकुटों पर;जुष्ट--रखा; अमल--शुद्ध; पाद--पैरों की; रेणो:ः--धूलि का; ददर्श--( अक्रूर ने ) देखा; गोष्ठे--चरागाह में ; क्षिति--पृथ्वी पर; कौतुकानि--अद्भुत ढंग से अलंकृत; विलक्षितानि--स्पष्ट दिख रहे; अब्न--कमल; यव--जौ की बाल; अद्डु श--हाथीका अंकुश; आद्यै:--इत्यादि से

    चरागाह में अक्रूर ने उन पैरों के चिन्ह देखे जिनकी शुद्ध धूल को समस्त ब्रह्माण्डों केलोकपाल अपने मुकुटों में धारण करते हैं।

    भगवान्‌ के वे चरणचिन्ह जो कमल, वांकुर तथाअंकुश जैसे चिन्हों से पहचाने जा सकते थे, पृथ्वी की शोभा को बढ़ा रहे थे।

    तदर्शनाह्ादविवृद्धसम्भ्रम:प्रेम्णोर्ध्वरोमा श्रुकलाकुलेक्षण: ।

    रथादवस्कन्द्य स तेष्वचेष्टतप्रभोरमून्यड्प्रिरजांस्यहो इति ॥

    २६॥

    ततू्‌--कृष्ण के चरणचिह्नों के; दर्शन--दर्शन से; आहाद--आनन्द से; विवृद्ध--अत्यधिक वर्थित; सम्भ्रम: -- क्षोभ; प्रेमणा--शुद्ध-प्रेमवश; ऊर्ध्व--सीधे खड़े; रोम--शरीर के रोएँ; अश्रु-कला--आँसुओं से; आकुल--पूरित; ईक्षण:--आँखें; रथात्‌--रथ से; अवस्कन्द्य--उतरकर; सः--वह, अक्रूर; तेषु--उन ( चरणचिह्नों ) के बीच; अचेष्टत--लोटने लगा; प्रभो:--प्रभु के;अमूनि--ये; अड्प्रि--पाँवों के; रजांसि--धूलकण; अहो--ओह; इति--इन शब्दों के साथ

    भगवान्‌ के चरणचिन्हों को देखने से उत्पन्न आनन्द से अधिकाधिक विह्नल होने से शुद्ध-प्रेम के कारण अक्रूर के शरीर के रोंगटे खड़े हो गये और आँखें आँसुओं से भर आईं।

    वे अपनेरथ से नीचे कूद पड़े और उन चरणचिन्हों पर यह चीखकर लोटने लगे, ओह, यह तो मेरे प्रभुके चरणों की धूल है।

    'देहंभूतामियानर्थो हित्वा दम्भं भियं शुच्म्‌ ।

    सन्देशाद्यो हरेलिड्डदर्शनश्रवणादिभि: ॥

    २७॥

    देहम्‌-भूताम्‌--देहधारी जीवों के; इयान्‌ू--इतना; अर्थ:--जीवन-लक्ष्य; हित्वा--त्यागकर; दम्भम्‌ू-गर्व; भियम्‌-- भय;शुचम्‌ू--तथा शोक; सन्देशात्‌--( कंस द्वारा ) आज्ञा दिये जाने से; यः--जो; हरेः--भगवान्‌ कृष्ण के; लिड्र--चिह्न; दर्शन--देखने; श्रवण--सुनना; आदिभि:--इत्यादि के साथ।

    समस्त जीवधारियों का जीवन-लक्ष्य यही आनन्द है, जिसे अक्रूर ने कंस का आदेश पाकरअपना सारा गर्व, भय तथा शोक त्यागकर अनुभव किया तथा अपने आपको भगवान्‌ कृष्ण कास्मरण दिलाने वाली वस्तुओं को देखने, सुनने एवं वर्णन करने में लीन कर दिया।

    ददर्श कृष्णं राम॑ च ब्रजे गोदोहनं गतौ ।

    'पीतनीलाम्बरधरौ शरदम्बुरहेक्षणौ ॥

    २८॥

    किशोरौ श्यामलश्वेतौ श्रीनिकेतौ बृहद्भुजौ ।

    सुमुखौ सुन्दरवरौ बलद्विरदविक्रमौ ॥

    २९॥

    ध्वजवज़ाड्लु शाम्भोजैश्विह्नितिरड्प्रिभिर्रेजम्‌ ।

    शोभयन्तौ महात्मानौ सानुक्रोशस्मितेक्षणौ ॥

    ३०॥

    उदाररुचिरक्रीडौ स्त्रग्विणौ वनमालिनौ ।

    पुण्यगन्धानुलिप्ताड़ौ स्‍्नातौ विरजवाससौ ॥

    ३१॥

    प्रधानपुरुषावाद्यौ जगद्धेतू जगत्पती ।

    अवतीर्णों जगत्यर्थे स्वांशेन बलकेशवौ ॥

    ३२॥

    दिशो वितिमिरा राजन्कुर्वाणौ प्रभया स्वया ।

    यथा मारकतः शैलो रौप्यश्व कनकाचितौ ॥

    ३३॥

    दर्दर्श--देखा; कृष्णम्‌ रामम्‌ च--कृष्ण तथा बलराम को; ब्रजे--ब्रज के ग्राम में; गो--गौवें; दोहनम्‌--गोशालाओं में;गतौ--गई हुईं; पीत-नील--पीले तथा नीले; अम्बर--वस्त्र; धरौ--धारण किये; शरत्‌--शरदकालीन; अम्बुरुह--कमलों कीतरह; ईक्षणौ--आँखें; किशोरौ--दोनों युवक; श्यामल- श्रेतौ--गहरा नीला तथा सफेद; श्री-निकेतौ--लक्ष्मी के आश्रयों;बृहत्‌--बलशाली; भुजौ--भुजाएँ; सु-मुखौ--दोनों के आकर्षक मुखों; सुन्दर-वरौ--अत्यन्त सुन्दर; बल--युवक; द्विरद--हाथी की तरह; विक्रमौ--चाल; ध्वज--पताका; वज्ञ--वज्; अड्डु श--अंकुश; अम्भोजै: --तथा कमल से; चिह्नितैः--चिन्हित; अड्प्रिभि: --पैरों से; ब्रजम्‌--चरागाह; शोभयन्तौ--सुशोभित करते; महा-आत्मानौ--दोनों महान्‌ आत्माएँ; स-अनुक्रोश--दयालु; स्मित--तथा हँसती हुई; ईक्षणौ--चितवनें; उदार--उदार; रुचिर--तथा आकर्षक; क्रीडौ--लीलाएँ;सत्रकु-विनौ--मणिजटित माला पहने; बन-मालिनौ--तथा फूलों की माला पहने; पुण्य--शु भ; गन्ध--सुगन्धित पदार्थों से;अनुलिप्त--लेप किये; अड्जौ--शरीर के अंग; स्नातौ--तुरन्त नहाए; विरज--निर्मल; वाससौ--वस्त्र; प्रधान--महान; पुरुषौ--दोनों पुरुष; आद्यौ--आदि; जगत््‌-धेतू--ब्रह्माण्ड के कारण; जगत्‌-पती--ब्रह्माण्ड के स्वामी; अवतीर्णों--अवतरित होकर;जगति-अर्थ--ब्रह्माण्ड के लाभ हेतु; स्व-अंशेन--अपने अपने रूपों में; बल-केशवौ--बलराम तथा केशव; दिश:--सारीदिशाएँ; वितिमिरा:--अंधकार रहित; राजन्‌--हे राजन; कुर्वाणौ--करते हुए; प्रभवा--तेज से; स्वया--अपने; यथा--जिसतरह; मारकतः--मरकत मणि से बना; शैल:--पर्वत; रौप्प:--चाँदी का बना; च--तथा; कनक--सोने से; अचितौ--दोनोंसज्जि

    ततत्पश्चात्‌ अक्रूर ने ब्रज-ग्राम में कृष्ण तथा बलराम को गौवें दुहने के लिए जाते देखा।

    कृष्ण पीले वस्त्र पहने थे और बलराम नीले वस्त्र पहने थे।

    उनकी आँखें शरदकालीन कमलों केसमान थीं।

    इन दोनों बलशाली भुजाओं वाले, लक्ष्मी के आश्रयों में से एक का रंग गहरा नीला था और दूसरे का श्वेत था।

    ये दोनों ही समस्त व्यक्तियों में सर्वाधिक सुन्दर थे।

    जब वे युवकहाथियों की-सी चाल से अपनी दयामय मुस्कानों से निहारते चलते तो ये दोनों महापुरुष अपनेपदचिन्हों से चरागाह को सुशोभित बनाते जाते।

    ये पदचिन्ह पताका, वज्र, अंकुश तथा कमलचिन्हों से युक्त थे।

    ये अत्यन्त उदार तथा आकर्षक लीलाओं वाले दोनों प्रभु मणिजटित हार तथा'फूल-मालाएँ पहने थे, इनके अंग शुभ सुगन्धित द्रव्यों से लेपित थे।

    ये अभी अभी स्नान करकेआये थे और निर्मल वस्त्र पहने हुए थे।

    इन आदि महापुरुषों तथा ब्रह्माण्डों के आदि कारणों नेपृथ्वी के कल्याण हेतु अब केशव तथा बलराम के रूप में अवतार लिया था।

    हे राजा परीक्षित,वे दोनों दो स्वर्ण-आभूषित पर्वतों के समान लग रहे थे जिनमें से एक पर्वत मरकत मणि का थाऔर दूसरा चाँदी का था क्योंकि वे अपने तेज से सारी दिशाओं में आकाश के अंधकार को दूरकर रहे थे।

    रथात्तूर्णमवप्लुत्य सोक्रूर: स्नेहविहलः ।

    'पपात चरणोपान्ते दण्डवद्रामकृष्णयो; ॥

    ३४॥

    रथात्‌--रथ से; तूर्णम्‌-शीकघ्रतापूर्वक; अवप्लुत्य--उतरकर; सः--वह; अक्रूर:ः --अक्रूर; स्नेह--स्नेह से; विहल:--अभिभूत;पपात--गिर पड़ा; चरण-उपान्ते--चरणों के निकट; दण्ड-वत्‌--डंडे की तरह; राम-कृष्णयो:--बलराम तथा कृष्ण के |

    स्नेह से अभिभूत अक्रूर तुरन्त अपने रथ से नीचे कूदकर बलराम तथा कृष्ण के चरणों परडंडे के समान गिर पड़े।

    भगवद्र्शनाह्नादबाष्पपर्याकुलेक्षण: ।

    पुलकचिताडु औत्कण्ठ्यात्स्वाख्याने नाशकन्नूप ॥

    ३५॥

    भगवत्‌-- भगवान्‌ के; दर्शन--दर्शन से; आह्ाद-- प्रसन्नता से; बाष्प-- आँसुओं से; पर्याकुल--विह्ल; ईक्षण:--नेत्र;पुलक--उभाड़; आचित--अंकित; अड्ड:-- अंग; औत्कण्ठ्यात्‌--उत्कण्ठा से; स्व-आख्याने--अपने आपको व्यक्त करने केलिए; न अशकत्‌--सक्षम नहीं था; नृप--हे राजन्‌ |

    भगवान्‌ के दर्शन की प्रसन्नता से अक्रूर की आँखों में आँसू आ गये और अंगों में आनन्द काउभाड़ हो आया।

    उन्हें ऐसी उत्कण्ठा हुई कि हे राजनू, वे अपने आपको वाणी द्वारा व्यक्त नहींकर सके।

    भगवांस्तमभिप्रेत्य रथाझड्लितपाणिना ।

    परिरेभे भ्युपाकृष्य प्रीतः प्रणतवत्सलः ॥

    ३६॥

    भगवान्‌-- भगवान्‌; तम्‌--उसको, अक्रूर को; अभिप्रेत्य--पहचान कर; रथ-अड्ड--रथ के पहिए से; अद्भित--अंकित;पाणिना--अपने हाथ से; परिरिभे--आलिंगन किया; अभ्युपाकृष्य--पास खींचकर; प्रीत:--प्रसन्न; प्रणत--शरणागतों केप्रति; वत्सलः--स्नेहवान |

    अक्रूर को पहचान कर भगवान्‌ कृष्ण ने उन्हें रथ के चक्र से अंकित अपने हाथ से अपनेनिकट खींचा और तब उनका आलिंगन किया।

    कृष्ण को प्रसन्नता हुई क्योंकि वे अपनेशरणागत भक्तों के प्रति सदैव स्नेहिल रहते हैं।

    सड्डर्षणश्न प्रणतमुपगुहा महामना: गृहीत्वा पाणिना पाणी अनयत्सानुजो गृहम्‌ ॥

    ३७॥

    पृष्ठाथ स्वागतं तस्मै निवेद्या च वरासनम्‌ ।

    प्रक्षाल्य विधिवत्पादौ मधुपर्काईणमाहरत्‌ ॥

    ३८ ॥

    सट्डूर्षण:--बलराम; च--तथा; प्रणतम्‌--सिर झुकाये खड़ा; उपगुह्ा--आलिंगन करके; महा-मना:--उदार; गृहीत्वा--पकड़कर; पाणिना--अपने हाथ से; पाणी--उसके दोनों हाथ; अनयत्‌--ले गया; स-अनुज:--अपने छोटे भाई ( कृष्ण )समेत; गृहम्‌--घर को; पृष्ठा--पूछ कर; अथ-- तब; सु-आगतम्‌--उसकी यात्रा की सुख-सुविधा के विषय में; तस्मै--उसको;निवेद्य--अर्पित करके; च--तथा; वर-- श्रेष्ठ; आसनम्‌-- आसन; प्रक्षाल्य--धोकर; विधि-वत्‌--शास्त्रों के आदेशानुसार;पादौ--उसके पाँव; मधु-पर्क--दूध मिश्रित शहद; अ्हणम्‌--सादर भेंट के रूप में; आहरत्‌ू--ले आया।

    जब अक्रूर अपना सिर झुकाये खड़े थे तो भगवान्‌ संकर्षण ( बलराम ) ने उनके जुड़े हुएहाथ पकड़ लिये और तब वे कृष्ण सहित उन्हें अपने घर ले गये।

    अक्रूर से यह पूछने के बाद किउनकी यात्रा सुखद तो रही, बलराम ने उन्हें बैठने के लिए श्रेष्ठ आसन दिया, शास्त्रोचित विधि सेउनके पाँव पखारे और आदरपूर्वक मधुमिश्रित दूध दिया।

    निवेद्य गां चातिथये संवाह्म श्रान्तमाड़त: ।

    अन्न बहुगुणं मेध्यं श्रद्धयोपाहरद्विभु; ॥

    ३९॥

    निवेद्य--दान में देते हुए; गामू--गाय; च--तथा; अतिथये--मेहमान को; संवाह्म--पाँव दबाकर; श्रान्तम्‌ू--थके हुए;अहतः--आदरपूर्वक; अन्नम्‌-- भोजन; बहु-गुणम्‌--विविध स्वादों वाला; मेध्यम्‌--अर्पण योग्य; श्रद्धया-- श्रद्धापूर्वक;उपाहरत्‌--अर्पित किया; विभु:--सर्वशक्तिमान प्रभु ने।

    सर्वशक्तिमान भगवान्‌ बलराम ने अक्रूर को एक गाय भेंट की, उनकी थकान दूर करने केलिए उनके पाँव दबाये और तब परम आदर तथा श्रद्धा के साथ भाँति-भाँति के उत्तम स्वादों सेयुक्त और उचित विधि से पकाया भोजन खिलाया।

    तस्मै भुक्तवते प्रीत्या राम: परमधर्मवित्‌ ।

    मखवासैर्गन्धमाल्यै: परां प्रीतिं व्यधात्पुन: ॥

    ४०॥

    तस्मै--उसे; भुक्तवते--खा चुकने के बाद; प्रीत्या--स्नेहपूर्वक; राम:ः--बलराम; परम--परम; धर्म-वित्‌-- धर्म के ज्ञाता;मुख-वासै:--मुख को सुगंधित करने वाले द्रव्यों से; गन्ध--सुगंध से; माल्यै:--फूल की मालाओं से; पराम्‌--सर्वोच्च;प्रीतिमू--सन्तोष; व्यधात्‌--व्यवस्था की; पुनः--आगे भी |

    जब अक्रूर भरपेट खा चुके तो धार्मिक कर्तव्यों के परम ज्ञाता भगवान्‌ बलराम ने उन्हें मुखको मीठा करने वाले सुगंधित द्रव्य दिये और साथ ही सुगन्धियाँ तथा फूल-मालाएँ भेंट कीं।

    इसप्रकार अक्रूर ने एक बार फिर परम आनन्द प्राप्त किया।

    पप्रच्छ सत्कृतं नन्‍्दः कथं स्थ निरनुग्रहे ।

    कंसे जीवति दाशाह सौनपाला इवावय: ॥

    ४१॥

    पप्रच्छ--पूछा; सत्‌-कृतम्‌--सत्कार किया गया; नन्द:--ननन्‍्द महाराज; कथम्‌--कैसे; स्थ--तुम रहे हो; निरनुग्रहे --निर्दय;कंसे--कंस के; जीवति--जीते हुए; दाशाई--हे दशाह वंशज; सौन--पशु की हत्या करने वाला, कसाई; पाला:--पालनेवाला; इव--जिस तरह; अवय:--भेड़ की ।

    नन्द महाराज ने अक्रूर से पूछा: हे दशाई वंशज, उस निर्दयी कंस के जीवित होते हुए आपसभी किस तरह अपना पालन करते हैं? आप तो कसाई के संरक्षण में भेड़ जैसे हैं।

    योवधीत्स्वस्वसुस्तोकान्क्रोशन्त्या असुतृप्खलः ।

    कि नु स्वित्तत्प्रजानां व: कुशलं विमृशामहे ॥

    ४२॥

    यः--जिसने; अवधीतू--मारा; स्व--अपने; स्वसु:--बहन के; तोकान्‌--बच्चों को; क्रोशन्त्या:--चिल्लाती हुई; असु-तृप्‌--स्वार्थी; खल:--क्रूर; किम्‌ नु--तो क्या; स्वित्‌--निस्सन्देह; तत्‌--उसको; प्रजानाम्‌--प्रजा का; वः--तुमसे; कुशलम्‌--कुशलता; विमृशामहे -- हमें अनुमान लगा लेना चाहिए।

    उस क्रूर स्वार्थी कंस ने अपनी बिलखती हुई दुखित बहन की उपस्थिति में ही उसके बच्चोंको मार डाला।

    तो फिर हम तुमसे, जो कि उनकी प्रजा हो, कुशलता के विषय में पूछ ही क्‍यासकते हैं ?

    इत्थं सूनृतया वाचा नन्देन सुसभाजित: ।

    अक्रूरः परिपृष्टेन जहावध्वपरिश्रमम्‌ ॥

    ४३॥

    इत्थम्‌्--इस प्रकार; सू-नृतया--अत्यन्त सत्य तथा अच्छे; वाचा--शब्दों से; नन्देन--नन्द महाराज द्वारा; सु--अच्छी तरह;सभाजित:--सम्मानित; अक्रूरः--अक्रूर ने; परिपृष्टेन--पूछे जाने पर; जहौ--दूर कर दी; अध्व--मार्ग की; परिश्रमम्‌--थकावट

    पूछताछ के इन सत्य तथा मधुर वचनों से नन्‍्द महाराज द्वारा सम्मानित होकर अक्रूर अपनीयात्रा की थकान भूल गये।

    TO

    अध्याय उनतालीसं: अक्रूर का दर्शन

    10.39श्रीशुक उबाचसुखोपविष्ट: पर्यड्ले रमकृष्णोरुमानित: ।

    लेभे मनोरथान्सर्वान्पथि यान्स चकार ह ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; सुख--सुखपूर्वक; उपविष्ट: --बैठे हुए; पर्यद्ले-- पलंग पर; राम-कृष्ण--बलराम तथा कृष्ण द्वारा; उरुू--अत्यन्त; मानित:--सम्मान किया गया; लेभे--प्राप्त किया; मन:-रथान्‌ू--इच्छाओं को;सर्वानू--समस्त; पथ्चि--मार्ग में; यानू--जो; सः--उसने; चकार ह-- प्रकट किया।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा: भगवान्‌ बलराम तथा भगवान्‌ कृष्ण द्वारा इतना अधिकसम्मानित किये जाने पर पलंग में सुखपूर्वक बैठे अक्रूर को लगा कि उन्होंने रास्ते में जितनीइच्छाएँ की थीं वे सभी अब पूरी हो गई हैं।

    किमलभ्यं भगवति प्रसन्ने श्रीनिकेतने ।

    तथापि तत्परा राजन्न हि वाउ्छन्ति किज्लन ॥

    २॥

    किम्‌--क्या; अलभ्यम्‌--अप्राप्य है; भगवति-- भगवान्‌ के; प्रसन्ने--प्रसन्न होने पर; श्री--लक्ष्मी के; निकेतने--विश्रामस्थलमें; तथा अपि--फिर भी; ततू-परा:--उनके भक्तगण; राजन्‌--हे राजा ( परीक्षित ); न--नहीं; हि--निस्सन्देह; वाउ्छन्ति--चाहते हैं; किल्नन--कुछ भी |

    हे राजनू, जिसने लक्ष्मी के आश्रय पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ को सन्तुष्ट कर लिया हो भलाउसके लिए क्या अलभ्य है? ऐसा होने पर भी जो उनकी भक्ति में समर्पित हैं, वे कभी भी उनसेकुछ नहीं चाहते।

    सायन्तनाशनं कृत्वा भगवान्देवकीसुतः ।

    सुहत्सु वृत्तं कंसस्य पप्रच्छान्यच्चिकीर्षितम्‌ ॥

    ३॥

    सायन्तन--शाम का; अशनम्‌-- भोजन; कृत्वा--करके; भगवान्‌-- भगवान्‌; देवकी -सुतः--देवकी पुत्र; सुहत्सु--अपनेशुभचिन्तक सम्बन्धियों तथा मित्रों के प्रति; वृत्तमू--आचरण के विषय में; कंसस्य--कंस के; पप्रच्छ--पूछा; अन्यत्‌ू--अन्य;चिकीर्षितम्‌--इरादे |

    शाम के भोजन के बाद देवकीपुत्र भगवान्‌ कृष्ण ने अक्रूर से पूछा कि कंस अपने प्रियसम्बन्धियों तथा मित्रों के साथ कैसा बर्ताव कर रहा है और वह क्‍या करने की योजना बना रहाहै।

    श्रीभगवानुवाचतात सौम्यागत: कच्चित्स्वागतं भद्रमस्तु वः ।

    अपि स्वज्ञातिबन्धूनामनमीवमनामयम्‌ ॥

    ४॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; तात--हे चाचा; सौम्य--हे सदय; आगत:--आया हुआ; कच्चित्‌-- क्या; सु-आगतमू--स्वागत; भद्गरम्‌ू--मंगल; अस्तु--होए; वः--तुम्हारे लिए; अपि-- क्या; स्व--अपने शुभचिन्तक मित्रों; ज्ञाति--सगे-सम्बन्धी; बन्धूनामू--तथा अन्य पारिवारिक सदस्यों के लिए; अनमीवम्‌--दुख से छुटकारा; अनामयर्न--रोग से मुक्ति

    भगवान्‌ ने कहा : हे भद्ग पुरुष, प्रिय चाचा अक्रूर, यहाँ की आपकी यात्रा सुखद तो रही ?आपका कल्याण हो।

    हमारे शुभचिन्तक मित्र तथा हमारे निकट और दूर के सम्बन्धी सुखी तथास्वस्थ तो हैं?

    कि नु नः कुशल पृच्छे एधमाने कुलामये ।

    कंसे मातुलनाम्नाडु स्वानां नस्तत्प्रजासु च ॥

    ५॥

    किम्‌--क्या; नु-- प्रत्युत; नः--हमारी; कुशलम्‌-- कुशलता के बारे में; पृच्छे-मैं पूछूँगा; एधमाने--जब वह सम्पन्न हो रहाहो; कुल--हमारे परिवार का; आमये--रोग; कंसे--राजा कंस; मातुल-नाम्ना--मामा नाम से पुकारा जाने वाला; अड्भ--मेराप्रिय; स्वानाम्‌--सम्बन्धियों का; नः--हमारा; तत्‌--उसके; प्रजासु--नागरिकों का; च--तथा।

    किन्तु हे अक्रूर, जब तक मामा कहलाने वाला तथा हमारे परिवार के लिए रोगस्वरूप राजाकंस समृद्ध हो रहे हैं, तब तक मैं अपने परिवार वालों तथा उसकी अन्य प्रजा के विषय में पूछने की झंझट में पड़े ही क्यों ?अहो अस्मदभूद्धूरि पित्रोर्व॑जिनमार्ययो: ।

    यद्धेतो: पुत्रमरणं यद्धेतोर्बन्धनं तयो; ॥

    ६॥

    अहो--ओह; अस्मत्‌--मेरे कारण; अभूत्‌-- था; भूरि--महान; पित्रो: --मेरे माता-पिता के लिए; वृजिनम्‌--कष्ट; आर्ययो: --निरपराध; यत्-हेतो:--जिसके कारण; पुत्र--उनके पुत्रों की; मरणम्‌--मृत्यु; यत्‌-हेतो:--जिसके कारण; बन्धनम्‌--बन्धन;तयो:--उनके |

    जरा देखिये न, कि मैंने अपने निरपराध माता-पिता के लिए कितना कष्ट उत्पन्न कर दियाहै! मेरे ही कारण उनके कई पुत्र मारे गये और वे स्वयं बन्दी हैं।

    दिष्टबयाद्य दर्शन स्वानां मह्यं व: सौम्य काड्क्षितम्‌ ।

    सज्ञातं वर्ण्यतां तात तवागमनकारणम्‌ ॥

    ७॥

    दिछ्या--सौभाग्य से; अद्य--आज; दर्शनम्‌-दर्शन; स्वानाम्‌-- अपने सगे-सम्बन्धी का; महाम्‌-मेरे लिए; वः--तुम;सौम्य--हे भद्ग पुरुष; का््क्षितम्‌--इच्छित; सझ्ञातम्‌ू--घटित हुआ है; वर्ण्यताम्‌ू--कृपा करके बतलाइये; तात--हे चाचा;तव--तुम्हारे; आगमन-- आने का; कारणमू--कारण।

    हे प्रिय स्वजन, सौभाग्यवश आपको देखने की हमारी इच्छा आज पूरी हुई है।

    हे सदयचाचा, कृपा करके यह बतलायें कि आप आये क्‍यों हैं ?

    श्रीशुक उबाचपृष्टो भगवता सर्व वर्णयामास माधव: ।

    वैरानुबन्ध॑ यदुषु वसुदेववधोद्यमम्‌ ॥

    ८ ॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; पृष्ट:--पूछे जाने पर; भगवता-- भगवान्‌ द्वारा; सर्वम्‌--हर बात; वर्णयाम्‌आस--बतलाया; माधव: --मधु का वंशज, अक्रूर ने; बैर-अनुबन्धम्‌--शत्रुवत्‌ मनोभाव; यदुषु--यदुओं के प्रति; बसुदेव--वसुदेव की; वध--हत्या करने का; उद्यमम्‌--प्रयास |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : भगवान्‌ के पूछे जाने पर मधुवंशी अक्रूर ने सारी परिस्थिति कहसुनाई जिसमें यदुओं के प्रति कंस की शत्रुता तथा उसके द्वारा वसुदेव के वध का प्रयास भी सम्मिलित था।

    यत्सन्देशो यदर्थ वा दूत: सम्प्रेषित: स्वयम्‌ ।

    यदुक्त नारदेनास्थ स्वजन्मानकदुन्दुभे: ॥

    ९॥

    यत्‌--जिस; सन्देश: --सन्देश सहित; यत्‌--जिस; अर्थम्‌--उद्देश्य से; वा--तथा; दूत: --दूत के रूप में; सम्प्रेषित:-- भेजा;स्वयम्‌ू--अक्ूर; यत्‌--जो; उक्तम्‌ू--कहा गया था; नारदेन--नारद द्वारा; अस्थय--उस ( कंस ) से; स्व--उसका ( कृष्ण का );जन्म--जन्म; आनकदुन्दुभेः--वसुदेव से |

    अक्रूर को जिस सन्देश को देने के लिए भेजा गया था उसे उन्होंने कह सुनाया।

    उसने कंसके असली इरादे भी बतला दिये और ( यह भी बतला दिया कि ) नारद ने किस तरह कंस कोसूचित किया कि कृष्ण ने वसुदेव के पुत्र रूप में जन्म लिया है।

    श्रुत्वाक्रवच: कृष्णो बलश्च परवीरहा ।

    प्रहस्य नन्दं पितरं राज्ञा दिष्टे विजज्ञतु: ॥

    १०॥

    श्रुत्वा--सुनकर; अक्ूर-बच: --अक्रूर के वचन; कृष्ण:-- भगवान्‌ कृष्ण; बल:--बलराम; च--तथा; पर-वीर--प्रतियोगीवीरों का; हा--नष्ट करने वाला; प्रहस्य--हँस कर; नन्दम्‌--नन्द महाराज से; पितरम्‌--अपने पिता; राज्ञा--राजा द्वारा;दिष्टम्‌--आदेश दिया गया; विजज्नतु: --उन्होंने सूचित किया |

    अक्रूर के वचनों को सुनकर वीर प्रतिद्वन्द्रियों का विनाश करने वाले भगवान्‌ कृष्ण तथाभगवान्‌ बलराम हँस पड़े।

    तब उन्होंने अपने पिता नन्द महाराज को राजा कंस का आदेशबतलाया।

    गोपान्समादिशत्सोपि गृह्मतां सर्वगोरसः ।

    उपायनानि गृह्वीध्वं युज्यन्तां शकटानिच ।

    यास्याम: श्रो मधुपुरीं दास्यामो नूपते रसान्‌ ॥

    ११॥

    द्रक्ष्याम: सुमहत्पर्व यान्ति जानपदा: किल ।

    एवमाघोषयक्ष्षत्रा नन्दगोप: स्वगोकुले ॥

    १२॥

    गोपानू-ग्वालों को; समादिशात्‌--आदेश दिया; सः--उस ( नन्द महाराज ) ने; अपि-- भी; गृह्मयताम्‌ू--एकत्र कर लिया है;सर्व--सारा; गो-रसः--दुग्ध के बने पदार्थ; उपायनानि--उत्तम उपहार; गृह्नीध्वम्‌--ले लो; युज्यन्तामू--जोत दो; शकटानि--छकड़े; च--तथा; यास्याम: --हम चलेंगे; श्र: --कल; मधु-पुरीम्‌--मथुरा को; दास्याम:--हम देंगे; नृपतेः--राजा को;रसान्‌--दुग्ध उत्पाद; द्रक्ष्याम:--हम देखेंगे; सु-महत्‌-- अत्यन्त महान; पर्व--उत्सव; यान्ति--जा रहे हैं; जानपदा:--सुदूरजिलों के निवासी; किल--निस्सन्देह; एवम्‌--इस प्रकार; आघोषयत्‌--उसने घोषणा करा दी थी; क्षत्रा--गाँव के मुखियाद्वारा; नन्द-गोप: --ननन्‍्द महाराज; स्व-गोकुले--अपने गोकुल के लोगों से |

    तब नन्द महाराज ने गाँव के मुखिया को बुलाकर नन्द के ब्रज मंडल में ग्वालों के लिएनिम्नलिखित घोषणा करने के लिए आदेश दिया, 'जाओ और जितना दूध-दही उपलब्ध होसके एकत्र करो।

    बहुमूल्य उपहार ले लो और अपने-अपने छकड़े जोत लो।

    कल हम लोग मथुराजायेंगे और राजा को अपना दूध-दही भेंट करेंगे तथा महान्‌ उत्सव देखेंगे।

    समस्त पड़ोसी जिलोंके निवासी भी इसमें जा रहे हैं।

    'गोप्यस्तास्तदुपश्रुत्य बभूवुर्व्यधिता भूशम्‌ ।

    रामकृष्णौ पुरी नेतुमक्रूरं त्रजमागतम्‌ ॥

    १३॥

    गोप्य:--गोपियाँ; ताः--वे; तत्‌--तब; उपश्रुत्य--सुनकर; बभूवु:--हो गईं; व्यधिता: --खिन्न; भूशम्‌-- अत्यधिक; राम-कृष्णौ--बलराम तथा कृष्ण; पुरीम्‌--नगर में; नेतुमू--ले जाने के लिए; अक्रूरम्‌--अक्रूर को; ब्रजम्‌--वृन्दावन में;आगतम्‌--आया हुआ।

    जब गोपियों ने सुना कि अक्रूर कृष्ण तथा बलराम को नगर ले जाने के लिए ब्रज में आयेहैं, तो वे अत्यन्त खिन्न हो उठीं।

    काश्चित्तत्कृतहत्ताप श्रासम्लानमुखभ्रियः ।

    सत्रंसहुकूलवलय केश ग्रन्थ्यश्व काश्चन ॥

    १४॥

    काश्चित्‌ू--उनमें से कुछ; तत्‌--उससे ( सुनने से ); कृत--उत्पन्न; हतू--हृदयों में; ताप--पीड़ा से; ध्रास--सिसकने से;म्लान--पीली हुई; मुख--उनके मुखों की; थ्रियः--कान्ति; स्रंसत्‌ू--शिथिल हुए; दुकूल--वस्त्र; वलय--कंगन; केश--बालों में; ग्रन्थ्य:--लटें; च--तथा; काश्चन-- अन्य |

    कुछ गोपियों ने अपने हृदय में इतनी पीड़ा का अनुभव किया कि सिसकियाँ ले लेकर उनकेमुख पीले पड़ गये।

    अन्य गोपियाँ इतनी अधिक पीड़ित थीं कि उनके वस्त्र, बाजूबंद तथा जूड़ेशिथिल पड़ गये।

    अन्याश्च तदनुध्यान निवृत्ताशेषवृत्तय: ।

    नाभ्यजानतन्निमं लोकमात्मलोक॑ गता इव ॥

    १५॥

    अन्या:--दूसरी; च--तथा; तत्‌--उनका; अनुध्यान--स्थिर ध्यान करने से; निवृत्त--बन्द किया हुआ; अशेष--सारे;वृत्तय:--इन्द्रियों के कार्य; न अभ्यजानन्‌--न जानती हुईं; इमम्‌--इस; लोकम्‌ू--लोक का; आत्म--आत्म-साक्षात्कार के;लोकमू--लोक में; गता:--प्राप्त हुई; इब--मानो |

    अन्य गोपियों की चित्तवृत्तियाँ पूरी तरह रुक गईं और वे कृष्ण के ध्यान में स्थिर हो गईं।

    उन्हें आत्मसाक्षात्कार-पद प्राप्त करने वालों की भाँति बाह्य-जगत की सारी सुधि-बुधि भूल गई।

    स्मरन्त्यश्लापरा: शौरेरनुरागस्मितेरिता: ।

    हृदिस्पृशश्चित्रपदा गिर: सम्मुमुहु: स्त्रियः ॥

    १६॥

    स्मरन्त्यः--स्मरण करतीं; च--तथा; अपरा: --अन्य; शौरे: --कृष्ण का; अनुराग--स्नेहिल; स्मित--उनकी हँसी से; ईरिता:--भेजी गई; हृदि--हृदय में; स्पृश:--स्पर्श करती; चित्र--विचित्र; पदा:--वाक्यांशों से; गिर:--वाणी; सम्मुमुहुः --अचेत;स्त्रियः--स्त्रियाँ और कुछ तरुणियाँ

    भगवान्‌ शौरि ( कृष्ण ) के शब्दों का स्मरण करके ही अचेत हो गईं।

    येशब्द विचित्र पदों से अलंकृत तथा स्नेहमयी मुसकान से व्यक्त होने से उन तरुणियों के हृदयोंका गम्भीरता से स्पर्श करने वाले होते थे।

    गतिं सुललितां चेष्टां स्निग्धहासावलोकनम्‌ ।

    शोकापहानि नर्माणि प्रोद्ामचरितानि च ॥

    १७॥

    चिन्तयन्त्यो मुकुन्दस्थ भीता विरहकातरा: ।

    समेता: सद्डृशः प्रोचुरश्रुमुख्योउच्युताशया: ॥

    १८॥

    गतिम्‌--चाल; सु-ललिताम्‌--अत्यन्त आकर्षक; चेष्टाम्‌--चेष्टाएँ; स्निग्ध--स्नेहिल; हास--हँसी; अवलोकनम्‌--चितवनें;शोक--दुख; अपहानि--दूर करने वाली; नर्माणि--ठिठोलियाँ; प्रोह्याम--विशाल; चरितानि--कार्यकलाप; च--तथा;चिन्तयन्त्य:--सोचती हुईं; मुकुन्दस्य-- भगवान्‌ कृष्ण के; भीत:-- भयभीत; विरह--विरह के कारण; कातरा:--अत्यन्त दुखी;समेता:--एकसाथ मिलकर; सड्ढ्श:--टोली में; प्रोचु:--बोलीं; अश्रु--आँसू से युक्त; मुख्य:--मुख; अच्युत-आशया: --भगवान्‌ अच्युत में लीन मन वाली

    गोपियाँ भगवान्‌ मुकुन्द के क्षणमात्र वियोग की आशंका से भी भयातुर थीं अतः जब उन्हेंउनकी ललित चाल, उनकी लीलाओं, उनकी स्नेहिल हँसीली चितवन, उनके वीरतापूर्ण कार्यों तथा दुख हरने वाली ठिठोलियों का स्मरण हो आया तो वे सम्भाव्य परम विरह के विचार सेउत्पन्न चिंता में अपने आपे के बाहर हो गईं।

    वे झुंड की झुंड एकत्र होकर एक-दूसरे से बातेंकरने लगीं।

    उनके मुख आँसुओं से पूरित थे तथा उनके मन अच्युत में पूर्णतया लीन थे।

    श्रीगोप्य ऊचुःअहो विधातस्तव न क्वचिद्यासंयोज्य मैत्र्या प्रणयेन देहिनः ।

    तांश्वाकृतार्थान्वियुनड्छ््यपार्थकविक्रीडितं तेर्भकचेष्टितं यथा ॥

    १९॥

    श्री-गोप्य: ऊचु:--गोपियों ने कहा; अहो--ओह; विधात:--विधाता; तव--तुम्हारा; न--नहीं है; क्वचित्‌--कहीं भी; दया--दया; संयोज्य--मिलाकर; मैत्र्या--मित्रता से; प्रणयेन--तथा प्रेम से; देहिन:--देहधारी जीवों को; तान्‌ू--उन; च--तथा;अकृत--अधूरे; अर्थान्‌--उद्देश्य; वियुनड्क्षि--विलग कर देते हो; अपार्थकम्‌--व्यर्थ ही; विक्रीडितम्‌--खेल; ते--तुम्हारा;अर्भक--बच्चे की; चेष्टितम्‌--चेष्टा; यथा--जिस तरह |

    गोपियों ने कहा : हे विधाता, आपमें तनिक भी दया नहीं है।

    आप देहधारी प्राणियों को मैत्रीतथा प्रेम द्वारा एक-दूसरे के पास लाते हैं और तब उनकी इच्छाओं के पूरा होने के पूर्व ही व्यर्थमें उन्हें विलग कर देते हैं।

    आपका यह भ्रमपूर्ण खेलवाड़ बच्चों की चेष्टा के समान है।

    यस्त्वं प्रदर्ासितकुन्तलावृतंमुकुन्दवक्त्रं सुकपोलमुन्नसम्‌ ।

    शोकापनोदस्मितलेशसुन्दरंकरोषि पारोक्ष्यमसाधु ते कृतम्‌ ॥

    २०॥

    यः--जो; त्वमू--तुम; प्रदर्श--दिखलाकर; असित--श्याम; कुन्तल--घुँघराले बालों से; आवृतम्‌--ढका; मुकुन्द--कृष्णका; वक्त्रमू--मुखमण्डल; सु-कपोलम्‌--सुन्दर कपोलों से युक्त; उत्‌-नसम्‌--तथा उठी हुई नाक; शोक--शोक; अपनोद--समूल नष्ट करने वाली; स्मित--अपनी हँसी से; लेश--तनिक; सुन्दरम्‌--सुन्दर; करोषि--करते हो; पारोक्ष्यम्‌--अद्ृष्ट;असाधु--बुरा; ते--तुम्हारे द्वारा; कृतम्‌--किया गया।

    श्याम घुँघराले बालों से घिरा तथा सुन्दर गालों से सुशोभित, उठी हुई नाक तथा समस्त कष्टोंको हरने वाली मृदु हँसी से युक्त, मुकुन्द के मुख को दिखलाने के बाद अब आप उस मुख कोहमसे ओझल करने जा रहे हैं।

    आपका यह वर्ताव तनिक भी अच्छा नहीं है।

    क्रूरस्त्वमक्रूरसमाख्यया सम न-अ्क्षु्ि दत्त हरसे बताज्ञवत्‌ ।

    येनैकदेशेखिलसर्गसौष्ठ वंत्वदीयमद्राक्ष्म वय॑ मधुद्विष: ॥

    २१॥

    क्रूरः--क्रूर; त्वमू-तुम ( हो ); अक्रूर-समाख्यया--अक्रूर नाम से जाने जाने वाले ( जिसका अर्थ है, जो क्रूर नहीं है ); स्म--निश्चय ही; नः--हमारी; चक्षु:--आँखें; हि--निस्सन्देह; दत्तमू--दिया गया; हरसे--छीने ले रहे हो; बत--हाय; अज्ञ--मूर्ख;वत्‌--सहश; येन--जिन ( आँखों ) से; एक--एक; देशे--स्थान में; अखिल--समस्त; सर्ग--सृष्टि की; सौष्ठवम्‌--पूर्णता;त्वदीयम्‌--आपका; अद्वाक्ष्म--देख चुकीं; वयम्‌--हम; मधुद्विष:--मधु असुर के शत्रु, भगवान्‌ कृष्ण का।

    हे विधाता, यद्यपि आप यहाँ अक्रूर के नाम से आये हैं किन्तु हैं आप क्रूर क्योंकि आपमूर्खो के समान हमसे उन्हें ही छीने ले रहे हैं, जिन्हें कभी आपने हमें दिया था--हमारी वे आँखेंजिनसे हमने भगवान्‌ मधुद्विष के रूप के उस एक में भी आपकी सम्पूर्ण सृष्टि की पूर्णता देखीहै।

    न नन्दसूनु: क्षणभड़सौहदःसमीक्षते न: स्वकृतातुरा बत ।

    विहाय गेहान्स्वजनान्सुतान्पतीं -स्तद्यास्यमद्धोपगता नवप्रियः ॥

    २२॥

    न--नहीं; नन्द-सूनु:--नन्द महाराज का पुत्र; क्षण--एक क्षण में; भड़--तोड़ना; सौहद: --जिसकी मैत्री का; समीक्षते--देखते हैं; न:--हमको; स्व--अपने द्वारा; कृत--बनाया गया; आतुरा:--अपने वश में; बत--हाय; विहाय--छोड़कर;गेहानू--हमारे घरों को; स्व-जनान्‌--सम्बन्धियों को; सुतानू--बालकों को; पतीन्‌--पतियों को; तत्‌--उसके प्रति; दास्यम्‌--दासता; अद्धघा--प्रत्यक्ष; उपगता:--ग्रहण की हुई; नव--नये नये; प्रिय: --प्रेमी

    हाय! क्षण-भर में प्रेमपूर्ण मैत्री को भंग करने वाला नन्द का बेटा अब हमको सीधे एकटकदेख भी नहीं सकेगा।

    उसके वशीभूत होकर उसकी सेवा करने के लिए हमने अपने घरों,सम्बन्धियों, बच्चों तथा पतियों तक का परित्याग कर दिया किन्तु वह सदैव नितनये प्रेमियों कीखोज में रहता है।

    सुखं प्रभाता रजनीयमाशिष:सत्या बभूवुः पुरयोषितां श्रुवम्‌ ।

    या; संप्रविष्टस्य मुखं ब्रजस्पते:पास्यन्त्यपाड्रोत्कलितस्मितासवम्‌ ॥

    २३॥

    सुखम्‌--सुखमय; प्रभाता--प्रातःकाल; रजनी--रात का; इयमू--यह; आशिष:--आशाएँ; सत्या:--सच; बभूवु:--हो चुकीहैं; पुर--नगर की; योषिताम्‌--स्त्रियों के; ध्रुवम्‌--निश्चय ही; या:ः--जो; संप्रविष्टस्य--( मथुरा में ) प्रवेश किये हुए का;मुखम्‌--मुख; ब्रज:-पते: --ब्रज के स्वामी का; पास्यन्ति--पीयेंगी; अपाड़--तिरछी चितवन; उत्कलित--फैली हुई; स्मित--हँसी; आसवम्‌--अमृत

    इस रात्रि के बाद का प्रातःकाल निश्चित रूप से मथुरा की स्त्रियों के लिए मंगलमय होगा।

    अब उनकी सारी आशाएँ पूरी हो जायेंगी क्योंकि जैसे ही त्रजपति उनके नगर में प्रवेश करेंगे वेउनके मुख की तिरछी चितवन से निकलने वाली हँसी के अमृत का पान कर सकेंगी।

    तासां मुकुन्दो मधुमझुभाषितै-गृहीतचित्त: परवान्मनस्व्यपि ।

    कथं पुनर्न: प्रतियास्यतेडबलाग्राम्या: सलज्जस्मितविश्रमै भ्रमन्‌ ॥

    २४॥

    तासाम्‌ू--उनके; मुकुन्दः--कृष्ण; मधु--शहद सहश; मज्जु--मीठी; भाषितै:--वाणी से; गृहीत--वशीभूत; चित्त: --मन;परवान्‌ू--पराधीन; मनस्वी--बुद्धिमान; अपि--यद्यपि; कथम्‌--कैसे; पुनः--फिर; नः--हमको; प्रतियास्यते--लौटेगा;अबला:--हे बालाओं ; ग्राम्या:--ग्रामीण; स-लज्ज--लजीली; स्मित--हँसती हुईं; विभ्रमैः--वशीकरण से; भ्रमन्‌--मुग्ध हुई

    हे गोपियो, यद्यपि हमारा मुकुन्द बुद्धिमान तथा अपने माता-पिता का अत्यन्त आज्ञाकारी हैकिन्तु एक बार मथुरा की स्त्रियों के मधु सहश मीठे शब्दों के जादू में आ जाने और उनकीआकर्षक लजीली मुसकानों से मुग्ध हो जाने पर भला वह हम गँवार देहाती अबलाओं के पासफिर कभी क्‍यों लौटने लगा ?

    अद्य थ्रुवं तत्र हशो भविष्यतेदाशाईभोजान्धकवृष्णिसात्वताम्‌ ।

    महोत्सव: श्रीरमणं गुणास्पदंद्रक्ष्यन्ति ये चाध्वनि देवकीसुतम्‌ ॥

    २५॥

    अद्य--आज; ध्रुवम्‌ू--निश्चय ही; तत्र--वहाँ; हशः--आँखों के लिए; भविष्यते--होगा; दाशाह-भोज-अन्धक-वृष्णि-सात्वताम्‌ू-दाशाई, भोज, अन्धक, वृष्णि तथा सात्वत वंशों के सदस्यों के; महा-उत्सवः--महान्‌ उत्सव; श्री--लक्ष्मीजी का;रमणम्‌--प्रिय; गुण--सारे दिव्य गुणों का; आस्पदम्‌--आगार, भण्डार; द्रक्ष्यन्ति--देखेंगे; ये--जो; च-- भी; अध्वनि--मार्गपर; देवकी-सुतम्‌--देवकीपुत्र, श्रीकृष्ण को |

    जब दाशाई, भोज, अन्धक, वृष्णि तथा सात्वत लोग मथुरा में देवकी के पुत्र को देखेंगे तोउनके नेत्रों के लिए महान्‌ उत्सव तो होगा ही, साथ ही साथ नगर के मार्ग में यात्रा करते हुए जोलोग उन्हें देखेंगे उनके लिए भी महान्‌ उत्सव होगा।

    आखिर, वे श्री लक्ष्मीजी के प्रियतम औरसमस्त दिव्य गुणों के आगार जो हैं।

    मैतद्विधस्याकरुणस्य नाम भू-दक्कूर इत्येतदतीव दारुण: ।

    योसावनाश्चास्य सुदुःखितम्जनंप्रियात्प्रियं नेष्यति पारमध्वन: ॥

    २६॥

    मा--मत; एतत्‌-विधस्य--ऐसे; अकरुणस्य--क्रूर व्यक्ति का; नाम--नाम; भूत्‌--होये; अक्वूरः इति--अक्रूर; एतत्‌--यह;अतीव--अत्यन्त; दारुण: --क्रूर; यः--जो; असौ--वह; अनाश्चास्थ-- धीरज धराते हुए; सु-दुःखितम्‌--अत्यन्त दुखी;जनम्‌--लोगों को; प्रियात्‌-प्रियतम्‌ से अधिक; प्रियम्‌--प्रिय ( कृष्ण ); नेष्यति--ले जायेगा; पारम्‌ अध्वन: --हमारी दृष्टि सेपरे।

    जो ऐसा निर्दय कार्य कर रहा हो उसे अक्रूर नहीं कहलाया जाना चाहिए।

    वह इतना क्रूर हैकि ब्रज के दुखी निवासियों को धीरज धराने का प्रयास किए बिना ही उस कृष्ण को लिये जारहा है, जो हमारे प्राणों से भी हमें अधिक प्रिय है।

    अनार्द्रधीरेष समास्थितो रथंतमन्वमी च त्वरयन्ति दुर्मदा: ।

    गोपा अनोभि: स्थविरिरुपेक्षितंदेवं च नोउद्य प्रतिकूलमीहते ॥

    २७॥

    अनार्द्र-धी:--निष्ठर; एष:--यह ( कृष्ण ); समास्थित:--आसीन होकर; रथम्‌--रथ में; तम्‌ू--उसको; अनु--पीछे चलने वाले;अमी--ये; च--तथा; त्वरयन्ति-- जल्दबाजी; दुर्मदा: --बेवकूफ बनाये गये; गोपा:--ग्वाले; अनोभि:ः--अपनी बैलगाड़ियों में;स्थविरे:--वृद्धजनों द्वारा; उपेक्षितम्‌--उपेक्षित; दैवम्‌-- भाग्य को; च--तथा; न:--हमारे साथ; अद्य--आज; प्रतिकूलमू--विपरीत; ईहते--कार्य कर रहा है|

    निष्ठर कृष्ण पहले ही रथ पर चढ़ चुके हैं और अब ये मूर्ख ग्वाले अपनी बैलगाड़ियों मेंउनके पीछे पीछे जाने की जल्दी मचा रहे हैं।

    यहाँ तक कि बड़े-बूढ़े भी उन्हें रोकने के लिए कुछभी नहीं कह रहे।

    आज भाग्य हमारे विपरीत कार्य कर रहा है।

    निवारयाम: समुपेत्य माधवंकि नोकरिष्यन्कुलवृद्धबान्धवा: ।

    मुकुन्दसड्न्निमिषार्धदुस्त्यजाद्‌दैवेन विध्वंसितदीनचेतसाम्‌ ॥

    २८॥

    निवारयाम:--चलो हम रोकें; समुपेत्य--पास जाकर; माधवम्‌--कृष्ण को; किमू--क्या; न:--हमारा; अकरिष्यन्‌--करेंगे;कुल--परिवार के; वृद्ध--बूढ़े लोग; बान्धवा:--तथा हमारे सम्बन्धीजन; मुकुन्द-सड्भात्‌-- भगवान्‌ मुकुन्द के साथ से;निमिष--पलक झाँपने के; अर्ध--आधा; दुस्त्यजात्‌ू--जिसे त्यागना असम्भव है; दैवेन-- भाग्य द्वारा; विध्वंसित--विलगकिया गया; दीन--दुखियारा; चेतसाम्‌--हृदयों वाले |

    चलो हम सीधे माधव के पास चलें और उन्हें जाने से रोकें।

    हमारे परिवार के बड़े-बूढ़े तथाअन्य सम्बन्धीजन हमारा कया बिगाड़ सकते हैं ? अब जबकि भाग्य हमें मुकुन्द से विलग कर रहाहै, हमारे हृदय पहले से ही दुखित हैं क्योंकि हम एक पल के एक अंश के लिए भी उनके संगके त्याग को सहन नहीं कर सकतीं।

    यस्यानुरागललितस्मितवल्गुमन्त्र-लीलावलोकपरिरम्भणरासगोष्टाम्‌ ।

    नीता: सम न: क्षणमिव क्षणदा विना तंगोप्य: कथ॑ न्वतितरेम तमो दुरन्तम्‌ ॥

    २९॥

    यस्य--जिसके; अनुराग--स्नेह से; ललित--मनोहर; स्मित--( जहाँ ) हँसी ( थी ); वल्गु--आकर्षक; मन्त्र--घुलमिलकरबातचीत; लीला--क्रौड़ापूर्ण;, अवलोक--चितवन; परिरम्भण--तथा आलिंगन; रास--रासनृत्य की; गोष्टाम्‌--गोष्ठी को;नीता: स्म--लाई गई; न:--हमारे लिए; क्षणम्‌ू-- क्षण; इब--सहृश; क्षणदा:--रातें; विना--रहित; तमू--उसके; गोप्य:--हेगोपियो; कथम्‌--कैसे; नु--निस्सन्देह; अतितरेम--हम पार कर जायेंगी; तम:--अंधकार; दुरन्तमू--दुर्लघ्य |

    जब वे हमें रासनृत्य की गोष्ठी में ले आये जहाँ हमने उनकी स्नेहपूर्ण तथा मनोहर मुसकानेंका, उनकी आह्ादकारी गुप्त बातों, उनकी लीलापूर्ण चितवनों तथा उनके आलिंगनों काआनन्द लूटा तब हमने अनेक रात्रियाँ बितायी जो मात्र एक क्षण के तुल्य लगी।

    हे गोपियो, तोभला हम उनकी अनुपस्थिति के दु्लघ्य अंधकार को कैसे पार कर सकती हैं ?

    योऊह्तः क्षये त्रजमनन्तसख:ः परीतोगोपैर्विशन्खुररजएछुरितालकस्त्रक्‌ ।

    वेणुं क्वणन्स्मितकताक्षनिरीक्षणेनचित्तं क्षिणोत्यमुमृते नु कथं भवेम ॥

    ३०॥

    यः--जो; अहृूः--दिन के; क्षये--अन्त होने पर; ब्रजमू--व्रज-ग्राम में; अनन्त--अनन्त या बलराम का; सखः--मित्र, कृष्ण;परीत:--चारों ओर से घिरा; गोपै: --ग्वालबालों से; विशन्‌-- प्रवेश करते हुए; खुर--गो-खुरों की; रज:-- धूल से; छुरित--धूसरित; अलक--घुँघराले बाल; सत्रकू--तथा माला; वेणुम्‌--बाँसुरी को; क्वणन्‌--बजाते हुए; स्मित--मन्द हास करते हुए;कट-अक्ष--बाँकी चितवन से; निरीक्षणेन--देखने से; चित्तम्‌ू--हमारे मन को; क्षिणोति--नष्ट करता है; अमुम्‌--उसके;ऋते--बिना; नु--निस्सन्देह; कथम्‌--कैसे; भवेम--हम जीवित रह सकती हैं|

    हम अनन्त के मित्र कृष्ण के बिना भला कैसे जीवित रह सकती हैं? वे शाम को ग्वालबालों के साथ ब्रज लौटा करते थे तो उनके बाल तथा उनकी माला गौवों के खुरों से उठती धूल सेधूसरित हो जाते थे।

    जब वे बाँसुरी बजाते तो वे अपनी हँसीली बाँकी चितवन से हमारे मन कोमोह लेते थे।

    श्रीशुक उबाचएवं ब्रुवाणा विरहातुरा भूशंब्रजस्त्रिय: कृष्णविषक्तमानसा: ।

    विसृज्य लज्जां रुरुदुः सम सुस्वरंगोविन्द दामोदर माधवेति ॥

    ३१॥

    श्री-शुक:ः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; ब्रुवाणा:--बोलती हुई; विरह--वियोग की भावनाओं से;आतुरा:--व्याकुल; भृूशम्‌--नितान्त; ब्रज-स्त्रिय:--व्रज की स्त्रियाँ; कृष्ण--कृष्ण से; विषक्त--अनुरक्त; मानसा:--मनवाली; विसृज्य--त्यागकर; लज्ञाम्‌--लज्जा; रुरुदु: स्म--चिल्लाने लगीं; सु-स्वरम्‌--जोर जोर से; गोविन्द दामोदर माधवइति--हे गोविन्द, हे दामोदर, हे माधव ।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इन शब्दों को कहने के बाद ब्रज की स्त्रियाँ, जो कृष्ण के प्रतिइतनी अनुरक्त थीं, उनके आसन्न वियोग से अत्यन्त श्षुब्ध हो उठीं।

    वे सारी लाज-हया भूल गईऔर जोरों से 'हे गोविन्द, हे दामोदर, हे माधव, ' चिल्ला उठीं।

    स्त्रीणामेवं रुदन्‍्तीनामुदिते सवितर्यथ ।

    अक्रूरश्रोदयामास कृतमैत्रादिको रथम्‌ ॥

    ३२॥

    स्त्रीणाम्‌-स्त्रियों के; एवम्‌--इस प्रकार से; रुदन्‍्तीनाम्‌ू--रूदन करती हुईं; उदिते--उदय होते हुए; सवितरि--सूर्य; अथ--तब; अक्रूरः:--अक्ूर; चोदबाम्‌ आस--चल पड़ा; कृत--पूरा करके; मैत्र-आदिक:--प्रातःकालीन पूजा तथा नैतिक कार्य;रथम्‌--रथ पर

    किन्तु गोपियों द्वारा इस प्रकार क्रन्दन करते रहने पर भी अक्ूर प्रातःकालीन पूजा तथा अन्यकार्य समाप्त करके अपना रथ हाँकने लगे।

    गोपास्तमन्वसज्जन्त नन्दाद्या: शकटैस्ततः ।

    आदायोपायनं भूरि कुम्भानगोरससम्भूतान्‌ ॥

    ३३॥

    गोपाः-ग्वालों ने; तमू--उसका; अन्वसज्जन्त--पीछा किया; नन्द-आद्या:--नन्द इत्यादि; शकटैः--अपने छकड़ों में; तत:--तब; आदाय--ले लेकर; उपायनम्‌--भेंटें; भूरि-- प्रचुर; कुम्भान्‌ू-घड़े; गो-रस--दूध की बनी वस्तुएँ; सम्भृतान्‌ू--भरी हुई

    नन्द महाराज को आगे करके ग्वाले अपने अपने छकड़ों में भगवान्‌ कृष्ण के पीछे पीछे होलिये।

    ये लोग अपने साथ राजा के लिए अनेक भेंटें लिये हुए थे जिनमें घी तथा अन्य दुग्धउत्पादों से भरे हुए मिट्टी के घड़े सम्मिलित थे।

    गोप्यश्च दयितं कृष्णमनुव्रज्यानुरक्लिता: ।

    प्रत्यादेशं भगवतः कादक्षन्त्यश्चावतस्थिरे ॥

    ३४॥

    गोप्य:--गोपियाँ; च--तथा; दबितम्‌--अपने प्रियतम; कृष्णम्‌--कृष्ण के; अनुव्रज्य--पीछे पीछे चलकर; अनुरज्विता:--प्रसन्न; प्रत्यादेशम्‌--बदले में कुछ आदेश; भगवत:ः--भगवान्‌ से; काड्क्षन्त्य:--आकांक्षा करती हुईं; च--तथा; अवतस्थिरे--खड़ी रहीं।

    भगवान्‌ कृष्ण ने ( अपनी चितवन से ) गोपियों को कुछ कुछ ढाढस बँधाया और वे भीकुछ देर तक उनके पीछे पीछे चलीं।

    फिर इस आशा से वे बिना हिले-डुले खड़ी रहीं कि वे उन्हेंकुछ आदेश देंगे।

    तास्तथा तप्यतीर्वीक्ष्य स्वप्रस्थाणे यदूत्तम: ।

    सान्त्वयामस सप्रेमैरायास्यथ इति दौत्यके: ॥

    ३५॥

    ताः--उन्हें ( गोपियों को ); तथा--इस तरह; तप्यती:--विलाप करती; वीक्ष्य--देखकर; स्व-प्रस्थाने-- अपने विदा होते समय;यदु-उत्तम:--यदुओं में श्रेष्ठ; सान्तवयाम्‌ आस--उन्हें ढाढ़स बँधाया; स-प्रेमैः --प्रेम से युक्त होकर; आयास्ये इति--' मैं वापसआऊँगा'; दौत्यकैः--दूत से भेजे गये शब्दों से |

    जब वे विदा होने लगे तो उन यदुश्रेष्ठ ने देखा कि गोपियाँ किस तरह विलाप कर रही थीं।

    अतः उन्होंने एक दूत भेजकर यह प्रेमपूर्ण वादा भेजा कि 'मैं वापस आऊँगा' इस प्रकार उन्हें सान्त्वना प्रदान की।

    यावदालक्ष्यते केतुर्यावद्रेणू रथस्य च ।

    अनुप्रस्थापितात्मानो लेख्यानीवोपलक्षिता: ॥

    ३६॥

    यावत्‌--जब तक; आलक्ष्यते--दिखाई देता रहा; केतु:-- ध्वजा; यावत्‌--जब तक; रेणु:-- धूल; रथस्य--रथ की; च--तथा;अनुप्रस्थापित--पीछे पीछे भेजती हुईं; आत्मान:--अपने मनों को; लेख्यानि--लिखित चित्रों; इब--सहृश; उपलक्षिता:--प्रकटहो रही थीं

    गोपियाँ अपने अपने मन को कृष्ण के साथ भेजकर, किसी चित्र में बनी आकृतियों कीभाँति निश्चेष्ट खड़ी रहीं।

    वे वहाँ तब तक खड़ी रहीं जब तक रथ के ऊपर की पताक दिखती रहीऔर जब तक रथ के पहियों से उठी हुई धूल उन्हें दिखलाई पड़ती रही।

    ता निराशा निववृतुर्गोविन्दविनिवर्तने ।

    विशोका अहनी निन्‍्युर्गायन्त्य: प्रियचेष्टितम्‌ ॥

    ३७॥

    ताः--वे; निराशा:--आशारहित; निववृतु:--लौट आई; गोविन्द-विनिवर्तने--गोविन्द की वापसी का; विशोका:--अत्यन्तदुखी; अहनी--दिन तथा रात; निन्युः--बिताया; गायन्त्य:--कीर्तन करते; प्रिय--अपने प्रियतम की; चेष्टितम्‌ू--लीलाओं याकार्यकलापों के विषय में।

    तब गोपियाँ निराश होकर लौट गईं।

    उन्हें इसकी आशा नहीं रही कि गोविन्द उनके पासकभी लौटेंगे भी।

    वे शोकाकुल होकर अपने प्रिय की लीलाओं का कीर्तन करती हुईं अपने दिनऔर रातें बिताने लगीं।

    भगवानपि सम्प्राप्तो रामाक्रूरयुतो नृप ।

    रथेन वायुवेगेन कालिन्दीमघनाशिनीम्‌ ॥

    ३८ ॥

    भगवान्‌--भगवान्‌; अपि--तथा; सम्प्राप्त: -पहुँचे; राम-अक्रूर-युतः--बलराम तथा अक्रूर के साथ; नृूप--हे राजा( परीक्षित ); रथेन--रथ के द्वारा; वायु--वायु जैसे; वेगेन--तेज; कालिन्दीम्‌ू--कालिन्दी ( यमुना ) पर; अघध--पाप;नाशिनीम्‌--नष्ट करने वाली |

    हे राजन, भगवान्‌ कृष्ण भगवान्‌ बलराम तथा अक्रूर समेत उस रथ में वायु जैसी तेजी सेयात्रा करते हुए सारे पापों को विनष्ट करने वाली कालिन्दी नदी पर पहुँचे ।

    तत्रोपस्पृश्य पानीयं पीत्वा मृष्टे मणिप्रभम्‌ ।

    वृक्षषण्डमुपब्रज्य सरामो रथमाविशत्‌ ॥

    ३९॥

    तत्र--वहाँ; उपस्पृश्य--जल का स्पर्श करके; पानीयम्‌ू--अपने हाथ में; पीत्वा--पीकर; मृष्टम्‌--मधुर; मणि--मणियों केतुल्य; प्रभम्‌--तेजयुक्त; वृक्ष--वृक्षों के; षण्डम्‌--कुंज; उपब्रज्य--के पास चलकर; स-राम:--बलराम सहित; रथम्‌--रथमें; आविशत्‌--सवार हो गये।

    नदी का मधुर जल चमकीली मणियों से भी अधिक तेजवान था।

    भगवान्‌ कृष्ण ने शुद्धिके लिए जल से मार्जन किया और हाथ में लेकर आचमन किया।

    तत्पश्चात्‌ अपने रथ को एकवृक्ष-कुंज के पास मँगाकर बलराम सहित उस पर पुनः सवार हो गये।

    अक्रूरस्तावुपामन्त्रय निवेश्य च रथोपरि ।

    कालिन्द्या हृदमागत्य स्नानं विधिवदाचरत्‌ ॥

    ४०॥

    अक्रूरः:--अक्रूर; तौ--उन दोनों से; उपामन्त्रय-- अनुमति लेकर; निवेश्य--उन्हें बैठाकर; च--तथा; रथ-उपरि--रथ पर;कालिन्द्या:--यमुना के; हृदम्‌-कुंड में; आगत्य--जाकर; स्नानम्‌ू--स्नान; विधि-वत्‌--शास्त्रीय विधि के अनुसार;आचरत्‌-पूरा किया |

    अक्रूर ने दोनों भाइयों से रथ पर बैठने के लिये कहा।

    तत्पश्चात्‌ उनसे अनुमति लेकर वेयमुना कुंड में गये और शास्त्रों में निर्दिष्ट विधि के अनुसार स्नान किया।

    निमज्य तस्मिन्सलिले जपन्ब्रह्न सनातनम्‌ ।

    तावेब दहदृशेक्रूरो रामकृष्णौ समन्वितौ ॥

    ४१॥

    निमज्य--घुसकर; तस्मिन्‌ू--उस; सलिले--जल में; जपन्‌--उच्चारण करते हुए; ब्रह्म--वैदिक मंत्र; सनातनम्‌--नित्य; तौ--दोनों ने; एब--निस्सन्देह; दहशे--देखा; अक्रूर: --अक्रूर ने; राम-कृष्णौ--बलराम तथा कृष्ण; समन्वितौ--साथ साथ |

    जल में प्रविष्ट होकर वेदों से नित्य मंत्रों का जप करते हुए अक्रूर ने सहसा बलराम तथाकृष्ण को अपने सम्मुख देखा।

    तौ रथस्थौ कथमिह सुतावानकदुन्दुभे: ।

    तहिं स्वित्स्यन्दने न स्त इत्युन्मज्य व्यचष्ट सः ॥

    ४२॥

    तत्रापि च यथापूर्वमासीनौ पुनरेव सः ।

    न्यमज्जहर्शन यन्मे मृषा कि सलिले तयो; ॥

    ४३॥

    तौ--वे दोनों; रथ-स्थौ--रथ पर आसीन; कथम्‌--कैसे; इह--यहाँ; सुतौ--दोनों पुत्र; आनकदुन्दुभे:--वसुदेव के; तहि--तब; स्वित्‌ू--क्या; स्यन्दने--रथ पर; न स्तः--नहीं हैं; इति--यह सोचते हुए; उन्‍्मज्य--जल से निकलकर; व्यचष्ट--देखा;सः--उसने; तत्र अपि--उसी स्थान पर; च--तथा; यथा--जिस तरह; पूर्वम्‌ू--पहले; आसीनौ--बैठे हुए; पुनः--फिर से;एव--निस्सन्देह; सः--वह; न्यमज्जत्‌--जल में घुस गया; दर्शनम्‌--दर्शन; यत्‌--यदि; मे--मेरा; मृषा--झूठ; किमू--शायद;सलिले--जल में; तयो:--उन दोनों का।

    अक्रूर ने सोचा: ' आनकदुन्दुभि के दोनों पुत्र, जो कि रथ पर बैठे हैं यहाँ जल में किस तरहखड़े हो सकते हैं? अवश्य ही उन्होंने रथ छोड़ दिया होगा।

    ' किन्तु जब वे नदी से निकलकरबाहर आये तो वे दोनों पहले की तरह रथ पर थे।

    अपने आप यह प्रश्न करते हुए कि 'क्या जलमें मैने उनका जो दर्शन किया वह भ्रम था ?' अक्रूर पुनः कुंड में प्रविष्ट हो गये।

    भूयस्तत्रापि सोद्राक्षीत्स्तूयमानमही श्वरम्‌ ।

    सिद्धचारणगन्धर्वैरसुरैर्नतकन्धरै: ॥

    ४४॥

    सहस््रशिरसं देवं सहस्रफणमौलिनम्‌ ।

    नीलाम्बरं विसश्रेतं श्रद्ढेः श्रेतमिव स्थितम्‌ ॥

    ४५॥

    भूय:--पुनः; तत्र अपि--उसी स्थान पर; सः--उसने; अद्राक्षीत्‌--देखा; स्तूयमानम्‌--स्तुति किये जाते; अहि-ई श्वरम्‌-सर्पो केस्वामी ( अनन्त शेष जो कि बलराम के स्वांश हैं और विष्णु की शय्या रूप हैं ); सिद्ध-चारण-गन्धर्व: --सिद्धों, चारणों तथागन्धर्वों द्वारा; असुरैः--तथा असुरों द्वारा; नत--झुका हुआ; कन्धरैः--गर्दनों से; सहस्त्र--हजारों; शिरसम्‌--सिर वाले; देवम्‌--भगवान्‌ को; सहस्त्र--हजारों; फण--फणों से; मौलिनम्‌--और मुकुट; नील--नीला; अम्बरम्‌--वस्त्र; विस--कमल-नालकेतन्तु जैसा; श्वेतमू-सफेद; श्रृद्री:--चोटियों समेत; श्वेतम्‌--कैलाश पर्वत; इब--सहश; स्थितम्‌--स्थित |

    अब अक्रूर ने वहाँ सर्पपाज अनन्त शेष को देखा जिनकी प्रशंसा सिद्ध, चारण, गन्धर्व तथाअसुरगण अपना अपना शीश झुकाकर कर रहे थे।

    अक्रूर ने जिन भगवान्‌ को देखा उनकेहजारों सिर, हजारों फन तथा हजारों मुकुट थे।

    उनका नीला वस्त्र तथा कमल-नाल के तन्तुओं-सा श्वेत गौर वर्ण ऐसा लग रहा था मानो अनेक चोटियों वाला श्वेत कैलाश पर्वत हो।

    तस्योत्सड़े घनश्यामं पीतकौशेयवाससम्‌ ।

    पुरुष चतुर्भुजं शान्तं पद्मपत्रारुणेक्षणम्‌ ॥

    ४६॥

    चारुप्रसन्नवदनं चारुहासनिरीक्षणम्‌ ।

    सुभ्रूत्रसं चारुकर्ण सुकपोलारुणाधरम्‌ ॥

    ४७॥

    प्रलम्बपीवरभुजं तुझंसोर:स्थलभञ्रियम्‌ ।

    कम्बुकण्ठं निम्ननाभि वलिमत्पल्लवोदरम्‌ ॥

    ४८॥

    तस्य--उस ( अनन्त शेष ) की; उत्सड़े--गोद में; घन--वर्षा के बादल की तरह; श्यामम्‌--गहरा नीला; पीत--पीला;कौशेय--रेशमी; वाससम्‌-- वस्त्र; पुरुषम्‌-परमेश्वर को; चतु:-भुजम्‌--चार भुजाओं वाले; शान्तम्‌-शान्त; पढा--कमल के; पत्र--पत्ते के समान; अरुण--लाल; ईक्षणम्‌-- आँखें; चारु-- आकर्षक; प्रसन्न--प्रसन्न; वदनम्‌--मुखमण्डल; चारु--आकर्षक; हास--हँसी; निरीक्षणम्‌--जिसकी चितवन; सु--सुन्दर; धू-- भौंहें; उत्‌--उठी; नसम्‌ू--नाक; चारु--आकर्षक;कर्णम्‌--कान; सु--सुन्दर; कपोल--गाल; अरुण--लाल; अधरम्‌--होंठों को; प्रलम्ब--बड़ी; पीवर--मजबूत; भुजम्‌--भुजाओं को; तुड्ड---उठी; अंस--कंधे; उर:-स्थल--तथा छाती; थ्रियम्‌--सुन्दर; कम्बु--शंख की तरह; कण्ठम्‌--गला;निम्न--गहरी; नाभिमू--नाभि; वलि--रेखाएँ, सिलवटें; मत्‌--से युक्त; पल्‍लव--पत्ती के समान; उदरम्‌ू--उदर।

    तब अक़ूर ने भगवान्‌ को अनन्त शेष की गोद में शान्तिपूर्वक शयन करते देखा।

    उस परमपुरुष का रंग गहरे नीले बादल के समान था।

    वे पीताम्बर पहने थे, उनके चार भुजाएँ थीं औरउनकी आँखें लाल कमल की पंखुड़ियों जैसी थीं।

    उनका मुख आकर्षक एवं हँसी से युक्त होनेसे प्रसन्न लग रहा था।

    उनकी चितवन मोहक थी, भौंहें सुन्दर थीं, नाक उठी हुई, कान सुडौलतथा गाल सुन्दर और होंठ लाल लाल थे।

    भगवान्‌ के चौड़े कंधे तथा विशाल वक्षस्थल सुन्दरलग रहे थे और उनकी भुजाएँ लम्बी तथा बलिष्ठ थीं।

    उनकी गर्दन शंख जैसी, नाभि गहरी तथाउनके पेट में वटवृक्ष के पत्तों जैसी रेखाएँ थीं।

    बृहत्कतिततश्रोणि करभोरुद्दयान्वितम्‌ ।

    चारुजानुयुगं चारु जज्लायुगलसंयुतम्‌ ॥

    ४९॥

    तुड्गुल्फारुणनख ब्रातदीधितिभिर्वृतम्‌ ।

    नवाडुल्यडुष्टदलैविलसत्पादपड्ूजम्‌ ॥

    ५०॥

    बृहत्‌--विशाल; कटि-तट--कमर का भाग; श्रोणि--तथा कूल्हे; करभ--हाथी के सूँड़ जैसे; ऊरू--जाँघों का; द्ृय--जोड़ा;अन्वितम्‌--युक्त; चारु--आकर्षक; जानु-युगम्‌ू--दो घुटने; चारु--आकर्षक; जज्ञा--जाँघों का; युगल--जोड़ा; संयुतम्‌--से युक्त; तुड़-- ऊँचा; गुल्फ--टखने; अरुण--लाल; नख-ब्रात--नाखूनों से; दीधितिभि:--तेजस्वी किरणों से; वृतम्‌--घिराहुआ; नव--कोमल; अड्डुलि-अड्'ुषठ --अँगूठे तथा अँगुलियाँ; दलैः--फूलों की पंखड़ियों की तरह; विलसत्‌--चमकती; पाद-पड्डुजम्‌--चरणकमल।

    उनकी कमर तथा कूल्हे विशाल थे, जाँघें हाथी की सूँड़ जैसी तथा घुटने और रानें सुगठितथे।

    उनके उठे हुए टखनों से उनके फूलों पंखड़ियों जैसी पाँव की उंगलियों के नाखूनों सेनिकलने वाला चमकीला तेज परावर्तित होकर उनके चरणकमलों को सुन्दर बना रहा था।

    सुमहाईमणित्रात किरीटकटकाडूदै: ।

    कटिसूत्रब्रह्मसूत्र हारनूपुरकुण्डलैः ॥

    ५१॥

    भ्राजमानं पद्ाकरं शद्भुचक्रगदाधरम्‌ ।

    श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौस्तुभं वनमालिनम्‌ ॥

    ५२॥

    सु-महा--अत्यधिक; अर्ह--मूल्यवान; मणि-ब्रात--अनेक मणियों; किरीट--मुकुट; कटक--कड़े; अड्गदैः--बाजूबंदों सेयुक्त; कटि-सूत्र--करधनी से; ब्रह्म-सूत्र--जनेऊ; हार--गले का हार; नूपुर--पायल; कुण्डलैः --तथा कान के कुंडलों से;भ्राजमानम्‌--तेजयुक्त; पद्य--कमल; करम्‌--हाथ में; शट्गडु--शंख; चक्र--चक्र; गदा--तथा गदा; धरम्‌-- धारण किये;श्रीवत्स-- श्रीवत्स चिह्न; वक्षसम्‌--छाती पर; भ्राजत्‌--सुशोभित; कौस्तुभम्‌--कौस्तुभ मणि से; वन-मालिनम्‌--फूलों कीमाला धारण किये।

    अनेक बहुमूल्य मणियों से युक्त मुकुट, कड़े तथा बाजूबंदों से सुशोभित तथा करधनी,जनेऊ, गले का हार, नूपुर तथा कुण्डल धारण किये भगवान्‌ चमचमाते तेज से युक्त थे।

    वे एकहाथ में कमल का फूल लिये थे और अन्यों में शंख, चक्र तथा गदा धारण किये थे।

    उनकेवक्षस्थल पर श्रीवत्स चिन्ह, देदीप्यमान कौस्तुभ मणि तथा फूलों की माला शोभायमान थी।

    सुनन्दनन्दप्रमुखै: पर्षदे: सनकादिभि: ।

    सुरेशै्ब्रह्मरुद्राद्यैन॑वभिश्च द्विजोत्तमै: ॥

    ५३॥

    प्रह्मदनारदवसु प्रमुखर्भागवतोत्तमै: ।

    स्तूयमानं पृथग्भावैर्वचोभिरमलात्मभि: ॥

    ५५॥

    अ्रिया पुष्ठया गिरा कान्त्या कीर्ल्या तुष्येलयोर्जया ।

    विद्ययाविद्यया शकत्या मायया च निषेवितम्‌ ॥

    ५५॥

    सुनन्द-नन्द-प्रमुखैः --सुनन्द, नन्द इत्यादि; पर्षदैः--अपने पार्षदों सहित; सनक-आदिभि:--सनक कुमार तथा उनके भाइयोंसहित; सुर-ईशैः--मुख्य देवताओं से; ब्रह्म-रुद्र-आद्यै:--ब्रह्म, रुद्र इत्यादि से; नवभि:--नौ; च--तथा; द्विज-उत्तमैः --मुख्यब्राह्मणों ( मरीचि आदि ) से; प्रह्मद-नारद-वसु-प्रमुखैः--प्रह्माद, नारद, उपरिचर वसु इत्यादि से; भागवत-उत्तमै: --सर्व श्रेष्ठभक्तों द्वारा; स्तूयमानम्‌--प्रशंसित; पृथक्‌-भावैः -- प्रत्येक द्वारा भिन्न भावों से; वचोभि:--शब्दों से; अमल-आत्मभि: --पवित्रकृत; श्रीया पुष्ठया गीरा कान्त्या कीर्त्या तुष्ठया इलया ऊर्जया-- श्री, पुष्टि, गीर, कान्ति, कीर्ति, तुष्टि, इला, ऊर्जा नामक अन्तरंगाशक्तियों से; विद्यया अविद्यया--विद्या तथा अविद्या नामक शक्तियों से; शक्‍त्या--अपनी हादिनी शक्ति से; मायया--अपनीसृजनात्मक शक्ति से; च--तथा; निषेवितम्‌--सेवित होकर ।

    भगवान्‌ के चारों ओर घेरा बनाकर पूजा करने बालों में नन्‍्द, सुनन्द तथा उनके अन्य निजीपार्षद, सनक तथा अन्य कुमारगण, ब्रह्मा, रुद्र तथा अन्य प्रमुख देवता, नौ मुख्य ब्राह्मण तथाप्रह्ाद, नारद, उपरिचर वसु इत्यादि महाभागवत थे।

    इनमें से प्रत्येक महापुरुष अपने अपनेविशिष्टभाव में भगवान्‌ की प्रशंसा में पवित्र शब्दोच्चार करके पूजा कर रहा था।

    यही नहीं,भगवान्‌ की सेवा में उनकी मुख्य अन्तरंगा शक्तियों--श्री, पुष्टि, गीर, कान्ति, कीर्ति, तुष्टि, इलातथा ऊर्जा-के साथ साथ भौतिक शक्तियाँ विद्या, अविद्या, माया तथा उनकी अंतरंगा ह्ादिनीशक्ति जुटी हुई थीं।

    विलोक्य सुभूशं प्रीतो भक्त्या परमया युतः ।

    हृष्यत्तनूरूहों भावपरिक्लिन्नात्मलोचन: ॥

    ५६॥

    गिरा गद्गदयास्तौषीत्सत्त्वमालम्ब्य सात्वतः ।

    प्रणम्य मूर्ध्नावहितः कृताझ्ललिपुट: शनै: ॥

    ५७॥

    विलोक्य--( अक्रूर ने ) देखकर; सु-भूशम्‌--अत्यधिक; प्रीत:--प्रसन्न; भक्त्या-- भक्ति से; परमया--परम; युतः--युक्त;हृष्यत्‌--खड़े हुए; तनू-रूह:--शरीर के रोम; भाव--प्रेमानन्द से; परिक्लिन्न--आर्द्र, नम; आत्म--शरीर; लोचन:--तथाआँखें; गिरा--वाणी से; गदगदया--अवरुद्ध; अस्तौषीतू--स्तुति की; सत्त्वम्‌--गम्भीरता; आलम्ब्य--सहारा लेकर;सात्वतः--महाभागवत; प्रणम्य--झुककर; मूर्धश्ना--सिर के बल; अवहितः-ध्यानपूर्वक; कृत-अद्जलि-पुट:--आदरपूर्वकहाथ जोड़कर; शनै:--धीरे धीरे।

    ज्योंही महाभागवत अक्रूर ने यह दृश्य देखा, वे अत्यन्त प्रसन्न हो उठे और उनमें दिव्य शक्तिजाग उठी।

    तीव्र आनन्द से उन्हें रोमांच हो आया और नेत्रों से अश्रु बह चले जिससे उनका साराशरीर भीग गया।

    किसी तरह अपने को सँभालते हुए अक्रूर ने पृथ्वी पर अपना सिर झुका दिया।

    तत्पश्चात्‌ सम्मान में अपने हाथ जोड़े और भावविभोर वाणी से अत्यन्त धीमे धीमे तथाध्यानपूर्वक भगवान्‌ की स्तुति करने लगे।

    TO

    अध्याय चालीस: अक्रूर की प्रार्थनाएँ

    10.40नारायणंपूरुषमाद्यमव्ययम्‌।

    यन्नाभिजातादरविन्दकोषाद्‌ब्रह्माविरासीद्यत एब लोक: ॥

    १॥

    श्री-अक्रूर: उवाच-- श्री अक्रूर ने कहा; नतः--विनत; अस्मि--हूँ; अहम्‌--मैं; त्वा--आपके प्रति; अखिल--समस्त; हेतु --कारणों के; हेतुमू--कारण; नारायणम्‌--नारायण को; पूरुषम्‌--परम पुरुष; आद्यम्‌ू--आदि; अव्ययम्‌--अव्यय; यत्‌--जिससे; नाभि--नाभि; जातात्‌--से उत्पन्न; अरविन्द--कमल के; कोषात्‌--कोष से; ब्रह्मा-- ब्रह्मा; अविरासीत्‌ू--प्रकट हुआ;यतः--जिससे; एष:--यह; लोक:--जगत |

    श्री अक्रूर ने कहा : हे समस्त कारणों के कारण, आदि तथा अव्यय महापुरुष नारायण, मैंआपको नमस्कार करता हूँ।

    आपकी नाभि से उत्पन्न कमल के कोष से ब्रह्मा प्रकट हुए हैं औरउनसे यह ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आया है।

    भूस्तोयमग्नि: पवनं खमादि-महानजादिर्मन इन्द्रियाणि ।

    सर्वेन्द्रियार्था विबुधाश्च सर्वेये हेतवस्ते जगतोउड्भभूता: ॥

    २॥

    भू:--पृथ्वी; तोयम्‌ू--जल; अग्नि:--अग्नि; पवनम्‌-- वायु; खम्‌-- आकाश; आदि: --तथा इसका उद्गम, मिथ्या अहंकार;महानू--महत-तत्त्व; अजा--सम्पूर्ण भौतिक प्रकृति; आदिः--उसका उद्गम, परमेश्वर; मन:--मन; इन्द्रियाणि--इन्द्रियाँ; सर्व-इन्द्रिय--सारी इन्द्रियों के; अर्था:--विषय, वस्तुएँ; विबुधा:--देवतागण; च--तथा; सर्वे--सभी; ये--जो; हेतव:--कारण;ते--तुम्हारा; जगत:--जगत के; अड्र--शरीर से; भूताः--उत्पन्न |

    पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश एवं इसका स्त्रोत तथा मिथ्या अहंकार, महतू-तत्त्व,समस्त भौतिक प्रकृति और उसका उद्गम तथा भगवान्‌ का पुरुष अंश, मन, इन्द्रियाँ, इन्द्रियविषय तथा इन्द्रियों के अधिष्ठात्‌ देवबता-ये सब विराट जगत के कारण आपके दिव्य शरीर सेउत्पन्न हैं।

    नैते स्वरूप विदुरात्मनस्तेहाजादयोअनात्मतया गृहीत: ।

    अजो नुबद्ध: स गुणैरजायागुणात्परं वेद न ते स्वरूपम्‌ ॥

    ३॥

    न--नहीं; एते--ये ( सृष्टि के तत्त्व ); स्वरूपमू--असली पहचान; विदुः--जानते हैं; आत्मन:--परमात्मा का; ते--तुम; हि--निस्सन्देह; अजा-आदय: --पूर्ण प्रकृति इत्यादि; अनात्मतया--निर्जीव पदार्थ होने से; गृहीता:--पकड़े हुए, बद्ध; अज:--ब्रह्मा; अनुबद्ध: --बँधा हुआ; सः--वह; गुणैः--गुणों से; अजाया:--प्रकृति के; गुणात्‌--इन गुणों से; परमू--दिव्य; वेदन--नहीं जानता; ते--आपके ; स्वरूपम्‌ू-- असली रूप को |

    सम्पूर्ण भौतिक प्रकृति तथा ये अन्य सृजन-तत्त्व निश्चय ही आपको यथा-रूप में नहीं जानसकते क्योंकि ये निर्जीव पदार्थ के परिमण्डल में प्रकट होते हैं।

    चूँकि आप प्रकृति के गुणों सेपरे हैं, अत: इन गुणों से बद्ध ब्रह्मजी भी आपके असली रूप को नहीं जान पाते।

    त्वां योगिनो यजन्त्यद्धा महापुरुषमी श्वरम्‌ ।

    साध्यात्मं साधिभूत॑ च साधिदैवं च साधव: ॥

    ४॥

    त्वम्‌--तुम्हारे लिए; योगिन:--योगीजन; यजन्ति--यज्ञ करते हैं; अद्धा--निश्चय ही; महा-पुरुषम्‌--परम पुरुष के लिए;ईश्वरम्--ई श्वर के लिए; स-अध्यात्मम्‌--जीवों ( का साक्षी ); स-अधिभुतम्‌-- भौतिक तत्त्वों का; च--तथा; स-अधिदैवम्‌--नियंत्रक देवताओं का; च--तथा; साधव: --शुद्ध पुरुष

    शुद्ध योगीजन आप की अर्थात्‌ परमेश्वर की तीन रूपों में अनुभूति करते हुए पूजा करते हैं।

    ये तीन हैं-जीव, भौतिक तत्त्व जिनसे जीवों के शरीर बने हैं तथा इन तत्त्वों के नियंत्रक देवता( अधिदेव )।

    त्रय्या च विद्यया केचित्त्वां वै वैतानिका द्विजा: ।

    यजन्ते विततैर्यज्नैनानारूपामराख्यया ॥

    ५॥

    अय्या--तीन वेदों के; च--तथा; विद्यया--मंत्रों से; केचित्‌--कुछ; त्वाम्‌--तुमको; वै--निस्सन्देह; वैतानिका:--तीनोंअग्नियों के विधानों का समादर करने वाले; द्विजा:--ब्राह्मण; यजन्ते-- पूजा करते हैं; विततैः--विस्तृत; यज्जैः--वज्ञों के द्वारा;नाना--विविध; रूप--रूप वाले; अमर--देवताओं की; आख्यया--उपाधियों से |

    तीन पवित्र अग्नियों से सम्बद्ध नियमों का पालन करने वाले ब्राह्मण तीनों वेदों से मंत्रोचारकरके तथा अनेक रूपों और नामों वाले विविध देवताओं के लिए व्यापक अग्नि यज्ञ करकेपूजा करते हैं।

    एके त्वाखिलकर्माणि सन्न्यस्योपशमं गता: ।

    ज्ञानिनो ज्ञानयज्ञेन यजन्ति ज्ञानविग्रहम्‌ ॥

    ६॥

    एके--कुछ लोग; त्वा--तुमको; अखिल--समस्त; कर्माणि--कार्य; सन्न्यस्थ--त्यागकर; उपशमम्‌--शान्ति; गता: --प्राप्तकरके; ज्ञानिन:--ज्ञानीजन; ज्ञान-यज्ञेन--ज्ञान-अनुशील के यज्ञ द्वारा; यजन्ति--पूजा करते हैं; ज्ञान-विग्रहम्‌--साक्षात्‌ ज्ञानको

    आध्यात्मिक ज्ञान की खोज में कुछ लोग सारे भौतिक कार्यो का परित्याग कर देते हैं औरइस तरह शान्त होकर समस्त ज्ञान के आदि रूप आपकी पूजा करने के लिए ज्ञान-यज्ञ करते हैं।

    अन्ये च संस्कृतात्मानो विधिनाभिहितेन ते ।

    यजत्ति त्वन्मयास्त्वां वै बहुमूर्त्येकमूर्तिकम्‌ ॥

    ७॥

    अन्ये--अन्य लोग; च--तथा; संस्कृत--शुद्ध किये हुए; आत्मान:--जिनकी बुद्धि; विधिना--( पदरात्र जैसे शास्त्रों के )आदेशों से; अभिहितेन-- प्रस्तुत किये गये; ते--तुम्हारे द्वारा; यजन्ति--पूजा करते हैं; त्वत्‌-मया: --तुम्हारे विचार से पूरित;त्वामू--तुमको; बै--निस्सन्देह; बहु-मूर्ति--अनेक रूपों वाले; एक-मूर्तिकम्‌--एक स्वरूप वाला।

    और अन्य लोग जिनकी बुद्धि शुद्ध है वे आपके द्वारा लागू किये गये वैष्णव शास्त्रों केआदेशों का पालन करते हैं।

    वे आपके चिन्तन में अपने मन को लीन करके आपकी पूजापरमेश्वर रूप में करते हैं, जो अनेक रूपों में प्रकट होता है।

    त्वामेवान्ये शिवोक्तेन मार्गंण शिवरूपिणम्‌ ।

    बह्ाचार्यविभेदेन भगवन्तर्नुपासते ॥

    ८॥

    त्वामू--तुम; एव-- भी; अन्ये-- अन्य; शिव--शिव द्वारा; उक्तेन-- कहे गये; मार्गेण --मार्ग से; शिव-रूपिणम्‌--शिव के रूपमें; बहु-आचार्य--अनेक शिक्षकों के; विभेदेन--विभिन्न भेदों से; भगवन्तम्‌-- भगवान्‌ को; उपासते--पूजा करते हैं।

    कुछ अन्य लोग भी हैं, जो आपकी पूजा भगवान्‌ शिव के रूप में करते हैं।

    वे उनके द्वाराबताये गये तथा अनेक उपदेशकों द्वारा नाना प्रकार से व्याख्यायित मार्ग का अनुसरण करते हैं।

    सर्व एवं यजन्ति त्वां सर्वदेवमयेश्वरम्‌ ।

    येप्यन्यदेवताभक्ता यद्यप्यन्यधियः प्रभो ॥

    ९॥

    सर्वे--सभी; एब--निस्सन्देह; यजन्ति--पूजा करते हैं; त्वम्‌--तुम्हारी; सर्व-देव--समस्त देवता; मय--हे वही आप, जो युक्तहो; ईश्वरम्‌-- भगवान्‌; ये--वे; अपि-- भी; अन्य--दूसरे; देवता--देवताओं का; भक्ता:--भक्तों; यदि अपि--यद्यपि; अन्य--अन्यत्र मुड़े;।

    धियः--ध्यान; प्रभो--हे प्रभो |

    किन्तु हे प्रभु, ये सारे लोग, यहाँ तक कि जिन्होंने आपसे अपना ध्यान मोड़ रखा है और जोअन्य देवताओं की पूजा कर रहे हैं, वे वास्तव में, हे समस्त देवमय, आपकी ही पूजा कर रहे हैं।

    यथाद्रिप्रभवा नद्य: पर्जन्यापूरिता: प्रभो ।

    विशन्ति सर्वतः सिन्धुं तद्वत्त्तां गतयोउन्तत: ॥

    १०॥

    यथा--जिस तरह; अद्वि--पर्वतों से; प्रभवा:--उत्पन्न; नद्यः--नदियाँ; पर्जन्य--वर्षा से; आपूरिता: --पूरित; प्रभो-हे प्रभु;विशन्ति--प्रवेश करती हैं; सर्वतः--सभी दिशाओं से; सिन्धुम्‌--समुद्र में; तद्बत्‌ू--उसी तरह; त्वाम्‌--तुम में; गतयः--मार्ग;अन्ततः--अन्त में |

    हे प्रभो, जिस प्रकार पर्वतों से उत्पन्न तथा वर्षा से पूरित नदियाँ सभी ओर से समुद्र में आकरमिलती हैं उसी तरह ये सारे मार्ग अन्त में आप तक पहुँचते हैं।

    सत्त्वं रजस्तम इति भवतः प्रकृतेर्गुणा: ।

    तेषु हि प्राकृता: प्रोता आब्रह्मस्थावरादय: ॥

    ११॥

    सत्त्वमू--सत्‌, अच्छाई; रज:--काम, रज; तम:ः--तम, अज्ञान; इति--इस प्रकार विख्यात; भवतः--आपकी ; प्रकृतेः:--प्रकृतिके; गुणा: --गुण; तेषु--उनमें; हि--निस्सन्देह; प्राकृता:--बद्धजीव; प्रोता:--बिने हुए, उलझे; आ-ब्रह्म -- ब्रह्म तक; स्थावर-आदयः--अचर प्राणी इत्यादि |

    आपकी भौतिक प्रकृति के सतो, रजो तथा तमो गुण ब्रह्मा से लेकर अचर प्राणियों तक केसमस्त बद्धजीवों को पाशबद्ध किये रहते हैं।

    तुभ्य॑ नमस्ते त्वविषक्तदृष्टये सर्वात्मने सर्वधियां च साक्षिणे ।

    गुणप्रवाहोयमविद्यया कृतःप्रवर्तते देवनृतिर्यगात्मसु ॥

    १२॥

    तुभ्यम्‌ू-तुम्हें; नम: --नमस्कार; ते--तुम्हारा; तु--तथा; अविषक्त--पृथक्‌ , विलग; दृष्टये--दृष्टि वाले; सर्व-आत्मने--सबोंकी आत्मा को; सर्व--हरएक की; धियाम्‌ू--चेतना के; च--तथा; साक्षिणे--साक्षी को; गुण--गुणों की; प्रवाह: --धधारा;अयमू--यह; अविद्यया--अज्ञान के कारण; कृतः--उत्पन्न; प्रवर्तत--चलता रहता है; देव--देवताओं के रूप में; नू--मनुष्य;तिर्यक्‌--तथा पशु; आत्मसु--उनमें जिनका स्वरुप है|

    मैं आपको नमस्कार करता हूँ, जो समस्त जीवों के परमात्मा रूप होकर निष्पक्ष दृष्टि से हरएक की चेतना के साक्षी हैं।

    अज्ञान से उत्पन्न आपके भौतिक गुणों का प्रवाह उन जीवों के बीचप्रबलता के साथ प्रवाहित होता है, जो देवताओं, मनुष्यों तथा पशुओं का रूप धारण करते हैं।

    अग्निर्मुखं तेउवनिरद्धप्रिरीक्षणंसूर्यो नभो नाभिरथो दिशः श्रुतिः ।

    ञौः कं सुरेन्द्रास्तव बाहवोर्णवा:कुक्षिर्मरुत्प्राणबलं प्रकल्पितम्‌ ॥

    १३॥

    रोमाणि वृक्षौषधय: शिरोरुहामेघा: परस्यास्थिनखानि तेउद्रयः ।

    निमेषणं रात््यहनी प्रजापति-मेंढ्रस्तु वृष्टिस्तव वीर्यमिष्यते ॥

    १४॥

    अग्नि:--अग्नि; मुखम्‌-- मुख; ते--तुम्हारा; अवनि:-- पृथ्वी; अद्भूप्रि:-- पाँव; इक्षणम्‌-- आँखें; सूर्य: --सूर्य; नभः--आकाश; नाभि:--नाभि; अथ उ--तथा भी; दिश:ः--दिशाएँ; श्रुति:-- श्रवणेन्द्रिय; द्यौ: --स्वर्ग; कम्‌--सिर; सुर-इन्द्रा: --प्रमुख देवता; तब--तुम्हारी; बाहवः--बाँहें; अर्गवा:--समुद्र; कुक्षिः--उदर; मरुतू--वायु; प्राण--प्राण-वायु; बलम्‌--तथाशारीरिक बल; प्रकल्पितमू--कल्पना किया हुआ; रोमाणि--शरीर के रोएँ; वृक्ष--पेड़; ओषधय:--जड़ी-बूटियाँ; शिरः-रुूहाः--सिर के ऊपर के बाल; मेघा: --बादल; परस्थ--परमेश्वर की; अस्थि--हड्डियाँ; नखानि--तथा नाखून; ते-- तुम्हारा;अद्रयः--पर्वत; निमेषणम्‌--पलक झाँपना; रात्रि-अहनी--दिन तथा रात; प्रजापति:--मनुष्य को जन्म देने वाला; मेढ़: --गुप्तांग, जननेन्द्रिय; तु--तथा; वृष्टि:--वर्षा; तब--तुम्हारा; वीर्यम्‌ू--वीर्य; इष्यते--माना जाता है।

    अग्नि आपका मुख कही जाती है, पृथ्वी आपके पाँव हैं, सूर्य आपकी आँख है औरआकाश आपकी नाभि है।

    दिशाएँ आपकी श्रवणेन्द्रिय हैं, प्रमुख देवता आपकी बाँहें हैं औरसमुद्र आपका उदर है।

    स्वर्ग आपका सिर समझा जाता है और वायु आपकी प्राण-वायु तथाशारीरिक बल है।

    वृक्ष तथा जड़ी-बूटियाँ आपके शरीर के रोम हैं, बादल आपके सिर के बालहैं तथा पर्वत आपकी अस्थियाँ तथा नाखून हैं।

    दिन तथा रात का गुजरना आपकी पलकों काझपकना है, प्रजापति आपकी जननेन्द्रिय है और वर्षा आपका वीर्य है।

    त्वय्यव्ययात्मन्पुरुषे प्रकल्पितालोका: सपाला बहुजीवसड्डू ला: ।

    यथा जले सज्जिहते जलौकसो-प्युदुम्बरे वा मशका मनोमये ॥

    १५॥

    त्वयि--तुम्हारे भीतर; अव्यय-आत्मन्‌--अविनाशी; पुरुषे--भगवान्‌; प्रकल्पिता: --उत्पन्न; लोका:--जगत; स-पाला: --पालनकर्ता देवताओं समेत; बहु--अनेक; जीव--जीवों समेत; सह्लु ला:--एकत्र; यथा--जिस तरह; जले-- जल में;सज्िहते--इधर उधर घूमते हैं; जल-ओकसः--जल के प्राणी; अपि--निस्सन्देह; उदुम्बरे--उदुम्बर फल ( गूलर ) में; वा--अथवा; मशकाः--छोटे छोटे कीट; मनः--मन ( तथा अन्य इन्द्रियाँ ); मये--से युक्त आपमें।

    अपने अपने अधिष्ठातृ देवताओं तथा असंख्य जीवों समेत सारे जगत आप परम अविनाशी सेउदभूत हैं।

    ये सारे जगत मन तथा इन्द्रियों पर आधारित होकर आपके भीतर घूमते रहते हैं जिसप्रकार समुद्र में जलचर तैरते हैं अथवा छोटे छोटे कीट गूलर फल के भीतर छेदते रहते हैं।

    यानि यानीह रूपाणि क्रीडनार्थ बिभर्षि हि ।

    तैरामृष्टशुत्रो लोका मुदा गायन्ति ते यशः ॥

    १६॥

    यानि यानि--जो जो; इह--इस जगत में; रूपाणि--रूप; क्रीडन--खेल के; अर्थम्‌-हेतु; बिभर्षि-- प्रकट करते हो; हि--निस्सन्देह; तैः--उनके द्वारा; आमृष्ट-- धुला हुआ; शुचः--उनके दुखों का; लोकाः--लोग; मुदा--हर्षपूर्वक ; गायन्ति--गातेहैं; ते--तुम्हारा; यशः--यश

    आप अपनी लीलाओं का आनन्द लेने के लिए इस भौतिक जगत में नाना रूपों में अपने कोप्रकट करते हैं और ये अवतार उन लोगों के सारे दुखों को धो डालते हैं, जो हर्षपूर्वक आपकेयश का गान करते हैं।

    नमः कारणमत्स्याय प्रलयाब्धिचराय च ।

    हयशीष्णें नमस्तुभ्यं मधुकेटभमृत्यवे ॥

    १७॥

    अकूपाराय बृहते नमो मन्दरधारिणे ।

    प्लित्युद्धारविहाराय नम: शूकरमूर्तये ॥

    १८॥

    नमः--नमस्कार; कारण--सृष्टि के आदि कारण; मत्स्याय--मत्स्य के रूप में भगवान्‌ के प्राकट्य को; प्रलय--संहार के;अब्धि--सागर में; चराय--इधर उधर विचरण करने वाले; च--तथा; हय-शीष्णें--घोड़े के सिर से युक्त अवतार को; नम:--नमस्कार; तुभ्यम्‌ू--तुमको; मधु-कैटभ--मधु तथा कैटभ नामक असुरों के; मृत्यवे--मारने वाले को; अकूपाराय--कच्छपको; बृहते--विशाल; नम:--नमस्कार; मन्दर--मन्दराचल के; धारिणे-- धारण करने वाले को; क्षिति--पृथ्वी के; उद्धार--ऊपर उठाने; विहाराय--विहार के लिए; नमः--नमस्कार; शूकर--सुअर के; मूर्तये--रूप को |

    मैं सृष्टि के कारण भगवान्‌ मत्स्य रूप आपको नमस्कार करता हूँ जो प्रलय के सागर में इधरउधर तैरते रहे।

    मैं मधु तथा कैटभ के संहारक हयग्रीव को, मन्दराचल को धारण करने वालेविशाल कच्छप ( भगवान्‌ कूर्म ) को तथा पृथ्वी को उठाने में आनन्द का अनुभव करने वालेसूकर अवतार ( भगवान्‌ वराह ) रूप आपको नमस्कार करता हूँ।

    नमस्तेद्भुतसिंहाय साधुलोकभयापह ।

    वामनाय नमस्तुभ्य॑ क्रान्तत्रिभुवनाय च ॥

    १९॥

    नमः--नमस्कार; ते--तुमको; अद्भुत-- आश्चर्यजनक; सिंहाय--सिंह को; सधु-लोक--सारे साधु-भक्तों के; भय--डर के;अपह--हटाने वाले; वामनाय--वामन को; नमः--नमस्कार; तुभ्यम्‌--तुमको; क्रान्त--पग सेनापा; त्रि-भुवनाय--ब्रह्माण्ड केतीनों लोकों के; च--तथा।

    अपने सनन्‍्त-भक्तों के भय को भगाने वाले अद्भुत सिंह ( भगवान्‌ नृसिंह ) तथा तीनों जगतोंको अपने पगों से नापने वाले वामन मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

    नमो भृगुणां पतये हृ्तक्षत्रवनच्छिदे ।

    नमस्ते रघुवर्याय रावणान्तकराय च ॥

    २०॥

    नमः--नमस्कार; भूगूणाम्‌-- भूगुवंशियों के; पतये--स्वामी को ( परशुराम को ); हप्त--घमंडी; क्षत्र--राज-परिवार वालों के;वन--जंगल; छिदे--काटने वाला; नम:--नमस्कार; ते--तुम्हें; रघु-वर्याय--रघुवंशियों में श्रेष्ठ; रावण--रावण का; अन्त-'कराय--अन्त करने वाले; च--तथा।

    घमंडी राजाओं रूपी जंगल को काट डालने वाले भूगुपति तथा राक्षस रावण का अन्त करनेवाले रघुकुल शिरोमणि भगवान्‌ राम, मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

    नमस्ते वासुदेवाय नमः सड्डूर्षणाय च ।

    प्रद्युम्नायनिरुद्धाय सात्वतां पतये नम: ॥

    २१॥

    नमः--नमस्कार; ते--तुम्हें; वासुदेवाय-- श्री वासुदेव को; नम:--नमस्कार; सड्जर्षणाय--संकर्षण को; च--तथा;प्रद्यम्नाय--प्रद्युम्म को; अनिरुद्धाय--तथा अनिरुद्ध को; सात्वताम्‌--यादवों के; पतये--प्रधान को; नम: --नमस्कार।

    सात्वतों के स्वामी आपको नमस्कार है।

    आपके वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्म तथा अनिरुद्धरूपों को नमस्कार है।

    नमो बुद्धाय शुद्धाय दैत्यदानवमोहिने ।

    म्लेच्छप्रायक्षत्रहन्त्रे नमस्ते कल्किरूपिणे ॥

    २२॥

    नमः--नमस्कार; बुद्धाय--बुद्ध को; शुद्धाय--शुद्ध; दैत्य-दानव--दिति तथा दानु की सन्‍्तानों के; मोहिने--मोहने वाले को;म्लेच्छ--मांस-भक्षक अछूत के; प्राय--समान; क्षत्र--राजाओं ; हन्त्रे--मारने वाले को; नम:--नमस्कार; ते--तुम्हें; कल्कि-रूपिणे--कल्कि के रूप में।

    आपके शुद्ध रूप भगवान्‌ बुद्ध को नमस्कार है, जो दैत्यों तथा दानवों को मोह लेगा।

    आपके कल्कि रूप को नमस्कार है, जो राजा बनने वाले मांस-भक्षकों का संहार करने वालाहै।

    भगवन्जीवलोकोयं मोहितस्तव मायया ।

    अहं ममेत्यसदग्ाहो भ्राम्यते कर्मवर्त्मसु ॥

    २३॥

    भगवनू--हे भगवन्‌; जीव--जीवों का; लोक:--लोक; अयम्‌--यह; मोहितः--मोहग्रस्त; तब--तुम्हारी; मायया--माया द्वारा;अहम्‌ मम इति--मैं तथा मेरी धारणा पर आधारित; असत्‌ू--मिथ्या; ग्राह:--जिसकी अनुभूति; भ्राम्यते--घुमाती है; कर्म--सकाम कर्म के; वर्त्ससु--मार्गों पर

    हे परमेश्वरइस जगत में सारे जीव आपकी शक्ति माया से भ्रमित हैं।

    वे 'मैं' तथा 'मेरा 'की मिथ्या धारणाओं में फँसकर सकाम कर्मों के मार्गों पर भटकते रहने के लिए बाध्य होते रहतेहैं।

    अहं चात्मात्मजागारदारार्थस्वजनादिषु ।

    भ्रमामि स्वणकल्पेषु मूढ: सत्यधिया विभो ॥

    २४॥

    अहम्‌-ैं; च-- भी; आत्म--शरीर सम्बन्धी; आत्म-ज--सनन्‍्तानें; अगार--घर; दार--पली; अर्थ-- धन; स्व-जन--अनुयायियों; आदिषु--इत्यादि में; भ्रमामि--भम्र में पड़ा हूँ; स्वप्न--स्वप्न; कल्पेषु--के सहश; मूढ:--मूर्ख; सत्य--चूँकि वेअसली हैं; धिया-- भावना से; विभो--हे सर्वशक्तिमान प्रभु।

    हे शक्तिशाली विभो, मैं भी अपने शरीर, सन्‍्तानों, घर, पत्ती, धन तथा अनुयायियों कोमूर्खता से वास्तविक मानकर इस प्रकार से भ्रमित हो रहा हूँ यद्यपि ये सभी स्वप्न के समानअसत्य हैं।

    अनित्यानात्मदुःखेषु विपर्ययमतिहाहम्‌ ।

    दन्द्दारामस्तमोविष्टो न जाने त्वात्मन: प्रियम्‌ू ॥

    २५॥

    अनित्य--नित्य नहीं; अनात्म--आत्मा नहीं; दुःखेषु--कष्ट के साधनों में; विपर्यय--उल्टी; मति:--मनोवृत्ति; हि--निस्सन्देह;अहम्‌--मैं; दन्द्र--द्वैत में; आराम: -- आनन्द लेता हुआ; तम:--अज्ञान में; विष्ट:--मग्न; न जाने--पहचान नहीं पा रहा; त्वा--आपको; आत्मन: --अपने; प्रियम्‌--प्रियतम को |

    इस तरह नश्वर को नित्य, अपने शरीर को आत्मा तथा कष्ट के साधनों को सुख के साधनमानते हुए मैंने भौतिक द्वन्द्दों में आनन्द उठाने का प्रयतत किया है।

    इस तरह अज्ञान से आवृतहोकर मैं यह नहीं पहचान सका कि आप ही मेरे प्रेम के असली लक्ष्य हैं।

    यथाबुधो जल हित्वा प्रतिच्छन्नं तदुद्धवैः ।

    अभ्येति मृगतृष्णां वे तद्वत््वाहं पराड्मुखः ॥

    २६॥

    यथा--जिस तरह; अबुध:--कोई अज्ञानी; जलमू--जल की; हित्वा--उपेक्षा करके; प्रतिच्छन्नम्‌--प्रच्छन्न; तत्‌-उद्धवैः--उसमेंउगे हुए वृक्षों से; अभ्येति--पास पहुँचता है; मृग-तृष्णाम्‌--मृगतृष्णा; वै--निस्सन्देह; तद्वत्‌--उसी तरह; त्वा--तुमसे; अहम्‌--मैंने; पराकू-मुख:--मुख मोड़ लिया।

    जिस तरह कोई मूर्ख व्यक्ति जल के अन्दर उगी हुईं वनस्पति से ढके हुए जल की उपेक्षाकरके मृगतृष्णा के पीछे दौड़ता है उसी तरह मैंने आपसे मुख मोड़ रखा है।

    नोत्सहेहं कृपणधी: कामकर्महतं मनः ।

    रोद्धुं प्रमाथिभिश्चाक्षेह्वयमाणमितस्ततः ॥

    २७॥

    न उत्सहे--शक्ति नहीं पा रहा; अहम्‌--मैं; कृपण--कुंठित; धी:ः--बुर्द्धि; काम--भौतिक इच्छा; कर्म--तथा भौतिक कार्योंसे; हतमू--विचलित; मन:--मेरा मन; रोद्भुमू--रोके रखने के लिए; प्रमाधिभि:--अत्यन्त शक्तिशाली तथा इच्छा करने वाले;च--तथा; अक्षैः --इन्द्रियों से; हियमाणम्‌--घसीटा जाकर; इतः तत:--इधर उधर

    मेरी बुद्धि इतनी कुंठित है कि मैं अपने मन को रोक पाने की शक्ति नहीं जुटा पा रहा जोभौतिक इच्छाओं तथा कार्यों से विचलित होता रहता है और मेरी जिद्दी इन्द्रियों द्वारा निरन्तर इधरउधर घसीटा जाता है।

    सोहं तवाड्ठयुपगतो स्म्यसतां दुरापंतच्चाप्यहं भवदनुग्रह ईश मन्ये ।

    पुंसो भवेद्यर्हि संसरणापवर्ग-स्त्वव्यब्जनाभ सदुपासनया मतिः स्यात्‌ ॥

    २८॥

    सः--ऐसा; अहम्‌--मैं; तब--तुम्हारे; अद्धप्रि--चरणों के ; उपगतः अस्मि--पास आया हूँ; असताम्‌--अशुद्धों के लिए;दुरापमू--प्राप्त करना असम्भव; तत्‌--वह; च--और; अपि-- भी; अहम्‌--मैं; भवत्‌-- आपकी; अनुग्रह:--दया; ईश--हेईश्वर; मन्ये--सोचता हूँ; पुंसः--मनुष्य का; भवेत्‌--होए; यहिं-- जब; संसरण-- भव-चक्र का; अपवर्ग:--अन्त; त्ववि--तुममें; अब्ज--कमल के समान; नाभ--नाभि वाले; सत्‌--शुद्ध भक्तों की; उपासनया--पूजा से; मतिः--चेतना; स्थात्‌--उत्पन्नहोती है|

    हे प्रभु, इस तरह पतित हुआ मैं आपके चरणों में शरण लेने आया हूँ, क्योंकि, यद्यपिअशुद्ध लोग आपके चरणों को कभी भी प्राप्त नहीं कर पाते, मेरा विचार है कि आपकी कृपासे तो यह संभव हो सका है।

    हे कमल-नाभ भगवान्‌, जब किसी का भौतिक जीवन समाप्त होजाता है तभी वह आपके शुद्ध भक्तों की सेवा करके आपके प्रति चेतना उत्पन्न कर सकता है।

    नमो विज्ञानमात्राय सर्वप्रत्ययहेतवे ।

    पुरुषेशप्रधानाय ब्रह्मणेडनन्तशक्तये ॥

    २९॥

    नमः--नमस्कार; विज्ञान--शुद्ध ज्ञान के; मात्राय--स्वरूप को; सर्व--समस्त; प्रत्यय--ज्ञान के रूपों के; हेतबे--कारण को;पुरुष--पुरुष की; ईश--नियंत्रण करने वाली शक्ति के; प्रधानाय--सर्वेसर्वा को; ब्रह्मणे--परब्रह्म को; अनन्त--असीम;शक्तये--शक्ति ।

    असीम शक्तियों के स्वामी परम सत्य को नमस्कार है।

    वे शुद्ध दिव्य-ज्ञान स्वरूप हैं, समस्तचेतनाओं के स्त्रोत हैं और जीव पर शासन चलाने वाली प्रकृति की शक्तियों के अधिपति हैं।

    नमस्ते वासुदेवाय सर्वभूतक्षयाय च ।

    हृषीकेश नमस्तुभ्यं प्रपन्न॑ पाहि मां प्रभो ॥

    ३०॥

    नमः--नमस्कार; ते--तुम्हें; वासुदेवाय--वसुदेव के पुत्र को; सर्ब--समस्त; भूत--जीवों के; क्षयाय--निवास को; च--तथा;हृषीक-ईश--मन तथा इन्द्रियों के स्वामी; नमः--नमस्कार; तुभ्यम्‌ू--तुम्हें; प्रपन्नमू--शरणागत हूँ; पाहि--कृपया बचायें;माम्‌--मुझको; प्रभो--हे स्वामीहे वसुदेवपुत्र आपको नमस्कार है।

    आपमें सारे जीवों का निवास है।

    हे मन तथा इन्द्रियों केस्वामी, मैं पुन: आपको नमस्कार करता हूँ।

    हे प्रभु, मैं आपकी शरण में आया हूँ।

    आप मेरी रक्षाकरें।

    TO

    अध्याय इकतालीसवाँ: कृष्ण और बलराम मथुरा में प्रवेश करते हैं

    10.41श्रीशुक उवाचस्तुवतस्तस्य भगवान्दर्शयित्वा जले वपु: ।

    भूयः समाहरत्कृष्णो नटो नाट्यमिवात्मनः ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; स्तुवतः--स्तुति करते समय; तस्य--अक्रूर का; भगवान्‌-- भगवान्‌ ने;दर्शयित्वा--दिखलाने के बाद; जले--जल में; वपु:--अपना साकार रूप; भूय:--फिर; समाहरत्‌--छिपा लिया; कृष्ण:--श्रीकृष्ण ने; नट:--अभिनेता; नाट्यमू--नाटक, प्रदर्शन; इब--सद्ृश; आत्मन:--अपना।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : अभी अक्रूर स्तुति कर ही रहे थे कि भगवान्‌ कृष्ण ने अपनावह रूप जिसे उन्होंने जल के भीतर प्रकट किया था, उसी तरह छिपा लिया जिस तरह कोई नटअपना खेल समाप्त कर देता है।

    सोडपि चान्तर्हितं वीक्ष्य जलादुन्मज्य सत्वर: ।

    कृत्वा चावश्यकं सर्व विस्मितो रथमागमत्‌ ॥

    २॥

    सः--वह, अक्रूर; अपि--निस्सन्देह; च--तथा; अन्तर्हितम्‌--अप्रकट हुआ; वीक्ष्य--देखकर; जलातू्‌--जल से; उन्मज्य--निकल कर; सत्वर:--तुरन्त; कृत्वा--पूरा करके; च--तथा; आवश्यकमू्‌--नियतकर्म ; सर्वम्‌ू--समस्त; विस्मित:--चकित;रथम्‌--रथ के पास; आगमत्‌-गया

    जब अक्रूर ने उस दृश्य को अन्तर्धान होते देखा तो वे जल के बाहर आ गये और उन्होंनेजल्दी जल्दी अपने विविध अनुष्टान-कर्म सम्पन्न किये।

    तत्पश्चात्‌ वे विस्मित होकर अपने रथ परलौट आये।

    तमपृच्छद्धृषीकेश: किं ते दृष्टमिवाद्भधुतम्‌ ।

    भूमौ वियति तोये वा तथा त्वां लक्षयामहे ॥

    ३॥

    तम्‌--उससे; अपृच्छत्‌--पूछा; हषीक्श:--कृष्ण ने; किम्‌--क्या; ते--तुम्हारे द्वारा; दृष्टमू--देखा गया; इब--निस्सन्देह;अद्भुतमू--कुछ असाधारण; भूमौ--पृथ्वी पर; वियति--आकाश में; तोये--जल में; ब--अथवा; तथा--उसी तरह; त्वामू--तुमको; लक्षयामहे--हम अटकल लगाते हैं |

    भगवान्‌ कृष्ण ने अक्रूर से पूछा: क्‍या आपने पृथ्वी पर, या आकाश में या जल में कोईअदभुत वस्तु देखी है? आपकी सूरत से हमें लगता है कि आपने देखी है।

    श्रीअक्रूर उवाचअद्भुतानीह यावन्ति भूमौ वियति वा जले ।

    त्वयि विश्वात्मके तानि किं मेदृष्ट विपश्यतः ॥

    ४॥

    श्री-अक्रूरः उवाच-- श्री अक्रूर ने कहा; अद्भुतानि--अद्भुत वस्तुएँ; इह--इस लोक में; यावन्ति--जितनी भी; भूमौ--पृथ्वीपर; वियति--आकाश में; वा--अथवा; जले--जल में; त्वयि--तुम में; विश्व-आत्मके --हरवस्तु से युक्त; तानि--वे; किमू--क्या; मे--मेरे द्वारा; अदृष्टमू--नहीं देखा गया; विपश्यतः--आपको देखकर।

    श्री अक्रूर ने कहा : पृथ्वी, आकाश या जल में जो भी अद्भुत वस्तुएँ हैं, वे सभी आपकमेंविद्यमान हैं।

    चूँकि आप हर वस्तु से ओतप्रोत हैं अतः जब मैं आपका दर्शन कर रहा हूँ तो फिरवह कौन सी वस्तु है, जिसे मैंने नहीं देखा है ?

    यत्राद्भधुतानि सर्वाणि भूमौ वियति वा जले ।

    त॑ त्वानुपश्यतो ब्रह्मन्कि मे दृष्टमिहाद्भधुतम्‌ ॥

    ५॥

    यत्र--जिसमें; अद्भुतानि-- अद्भुत वस्तुएँ; सर्वाणि--समस्त; भूमौ--पृथ्वी पर; वियति--आकाश में; वा-- अथवा; जले--जल में; तम्‌--उस; त्वा--तुमको; अनुपश्यत:--देखते हुए; ब्रह्मनू--हे परम सत्य; किम्‌ू--क्या; मे--मेरे द्वारा; दृष्टम्‌ू--देखागया; इह--इस संसार में; अद्भुतम्‌-- आश्चर्यजनक ।

    और अब जबकि हे परम सत्य, मैं आपको देख रहा हूँ जिनमें पृथ्वी, आकाश तथा जल कीसारी अद्भुत वस्तुएँ निवास करती हैं, तो फिर भला मैं इस जगत में और कौन सी अद्भुत्‌ वस्तुएँदेख सकता था?

    इत्युक्त्वा चोदयामास स्यन्दनं गान्दिनीसुतः ।

    मथुरामनयद्रामं कृष्णं चैव दिनात्यये ॥

    ६॥

    इति--इस प्रकार; उक्त्वा--कहकर; चोदयाम्‌ आस--आगे हाँका; स्यन्दनम्‌--रथ को; गान्दिनी-सुत:--गान्दिनी पुत्र, अक्रूरने; मथुरामू--मथुरा में; अनयत्‌--ले आया; रामम्‌--बलराम को; कृष्णम्‌--कृष्ण को; च--तथा; एव-- भी; दिन--दिन के;अत्यये--समाप्त होते |

    इन शब्दों के साथ गान्दिनीपुत्र अक्रूर ने रथ आगे हाँकना शुरू कर दिया।

    दिन ढलते ढलतेवे भगवान्‌ बलराम तथा भगवान्‌ कृष्ण को लेकर मथुरा जा पहुँचे।

    मार्गे ग्रामजना राजंस्तत्र तत्रोपसड्भता: ।

    वसुदेवसुतौ वीक्ष्य प्रीता दृष्टि न चाददु: ॥

    ७॥

    मार्गे--रास्ते में; ग्राम--गाँवों के; जना:--लोग; राजनू्‌--हे राजा ( परीक्षित ); तत्र तत्र--जहाँ तहाँ; उपसड्डता:--पास आकर;वसुदेव-सुतौ--वसुदेव के दोनों पुत्रों को; वीक्ष्य--देखकर; प्रीता:--प्रसन्न; दृष्टिमू--दृष्टि; न--नहीं; च--तथा; आददुः--हटापाते

    हे राजन्‌, वे मार्ग में जहाँ जहाँ से गुजरते, गाँव के लोग पास आकर वसुदेव के इन दोनोंपुत्रों को बड़े ही हर्ष से निहारते।

    वस्तुत: ग्रामीणजन उनसे अपनी दृष्टि हटा नहीं पाते थे।

    तावद्ब्रजौकसस्तत्र नन्दगोपादयोग्रतः ।

    पुरोपवनमासाद्य प्रतीक्षन्तोवतस्थिरे ॥

    ८॥

    तावत्‌ू--तब तक; ब्रज-ओकस:--ब्रजवासी; तत्र-- वहाँ; नन्द-गोप-आदय: --ग्वालों के राजा नन्द इत्यादि; अग्रत:--आगेआगे; पुर--नगर के; उपवनम्‌--उद्यान में; आसाद्य--आकर; प्रतीक्षन्त:ः--प्रतीक्षा में; अवतस्थिरे--रुके रहे ।

    नन्द महाराज तथा वृन्दावन के अन्य वासी रथ से पहले ही मथुरा पहुँच गये थे और कृष्णतथा बलराम की प्रतीक्षा करने के लिए नगर के बाहरी उद्यान में रुके हुए थे।

    तान्समेत्याह भगवानक्रूरं जगदी श्र: ।

    गृहीत्वा पाणिना पाएं प्रश्नितं प्रहसन्निव ॥

    ९॥

    तान्‌ू--उनके साथ; समेत्य--मिलकर; आह--कहा; भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; अक्रूरम्‌--अक्रूर से; जगतू-ईश्वरः --ब्रह्माण्ड केस्वामी; गृहीत्वा--पकड़ कर; पाणिना--अपने हाथ से; पाणिम्‌--उसके हाथ को; प्रश्नितम्‌ू--विनीत; प्रहसन्‌--हँसते हुए;इब--सहश।

    नन्द तथा अन्य लोगों से मिलने के बाद ब्रह्माण्ड के नियन्ता भगवान्‌ कृष्ण ने विनीत अक्रूरके हाथ को अपने हाथ में लेकर हँसते हुए इस प्रकार कहा।

    भवान्प्रविशतामग्रे सहयान: पुरी गृहम्‌ ।

    वबयं त्विहावमुच्याथ ततो द्रक्ष्यामहे पुरीम्‌ू ॥

    १०॥

    भवान्‌--आप; प्रविशताम्‌--प्रवेश करें; अग्रे-- आगे; सह--साथ में; यान:--रथ में; पुरीम्‌--नगर में; गृहम्‌ू--तथा अपने घरमें; वयम्‌--हम; तु--तो; इह--यहाँ; अवमुच्य--उतर कर; अथ--तब; ततः--तत्पश्चात्‌ द्रक्ष्यामहे--देखेंगे; पुरीम्‌--नगरीको

    भगवान्‌ कृष्ण ने कहा आप रथ लेकर हमसे पहले नगरी में प्रवेश करें।

    तत्पश्चात्‌ आपअपने घर जाँय।

    हम यहाँ पर कुछ समय तक ठहर कर बाद में नगरी देखने जायेंगे।

    श्रीअक्रूर उवाचनाहं भवदभ्यां रहितः प्रवेक्ष्ये मथुरां प्रभो ।

    त्यक्तु नाहसि मां नाथ भक्त ते भक्तवत्सल ॥

    ११॥

    श्री-अक्रूर: उवाच-- श्री अक्रूर ने कहा; न--नहीं; अहम्‌--मैं; भवद्भ्याम्‌--आप दोनों के ; रहित:--बिना; प्रवेक्ष्ये--प्रवेशकरूँगा; मथुरामू--मथुरा में; प्रभो--हे प्रभु; त्यक्तुमू--परित्याग करना; न अहसि--आपको नहीं चाहिए; माम्‌ू--मुझ; नाथ--हेनाथ; भक्तम्‌-भक्त को; ते--तुम्हारा; भक्त-वत्सल--अपने भक्तों पर पितृवत्‌ स्नेह रखने वाले |

    श्री अक्रूर ने कहा : हे प्रभु, मैं आप दोनों के बिना मथुरा में प्रवेश नहीं करूँगा।

    हे नाथ, मैंआपका भक्त हूँ अतः यह उच्चित नहीं होगा कि आप मेरा परित्याग कर दें क्योंकि आप अपनेभक्तों के प्रति सदैव वत्सल रहते हैं।

    आगच्छ याम गेहान्न: सनाथान्कुर्वधोक्षज ।

    सहाग्रज: सगोपालै: सुहद्धिश्व सुहत्तम ॥

    १२॥

    आगच्छ--कृपया आइये; याम--चलें; गेहान्‌--घर; नः--हमारे; स--सहित; नाथान्‌-- स्वामी; कुरु--कीजिये; अधोक्षज--हेदिव्य प्रभु; सह--साथ; अग्र-ज:--अपने बड़े भाई; स-गोपालैः--ग्वालों के साथ; सुहद्धिः--अपने मित्रों के साथ; च--तथा;सुहत्‌-तम--

    हे परम शुभचिन्तक आइये, आप अपने बड़े भाई, ग्वालों तथा अपने संगियों समेत मेरे घर चलिये।

    हे मित्रश्रेष्ठ,हे दिव्य प्रभु, इस तरह कृपया मेरे घर को कृतार्थ कीजिये।

    पुनीहि पादरजसा गृहान्नो गृहमेधिनाम्‌ ।

    यच्छौचेनानुतृप्यन्ति पितर: साग्नय: सुरा: ॥

    १३॥

    पुनीहि--पवित्र कीजिये; पाद--अपने पाँवों की; रजसा-- धूल से; गृहान्‌ू--घर को; नः--हमारे; गृह-मेधिनाम्‌--जो गृहस्थों केद्वारा किये जाने वाले अनुष्ठानों में आसक्त हैं; यत्‌--जिससे; शौचेन--शुद्धि से; अनुतृप्यन्ति--तुष्ट हो जायेंगे; पितर: --मेरेपितृगण; स--सहित; अग्नयः--यज्ञ की अग्नियाँ; सुरा:--तथा देवता।

    मैं एक सामान्य गृहस्थ हूँ और विधिवत्‌ यज्ञों का पालन करने वाला हूँ।

    अतः आप अपनेचरणकमलों की धूलि से मेरे घर को पवित्र कीजिये।

    इस शुद्धि कर्म से मेरे पितर, यज्ञ-अग्नियाँतथा सारे देवता तुष्ट हो जायेंगे।

    अवनिज्याड्प्रियुगलमासीत्शलोक्यो बलिमैहान्‌ ।

    ऐश्वर्यमतुलं लेभे गतिं चैकान्तिनां तु या ॥

    १४॥

    अवनिज्य--पखार करके; अद्भघ्रि-युगलम्‌--दोनों पाँव; आसीत्‌--बन गया; एलोक्य: --यशस्वी; बलि:--राजा बलि;महान्‌ू-महान; ऐश्वर्यम्‌-शक्ति; अतुलमू--अनुपम; लेभे--प्राप्त किया; गतीम्‌--लक्ष्य; च--तथा; एकान्तिनाम्‌-- भगवान्‌ केअनन्य भक्तों के; तु--निस्सन्देह; या--जो

    आपके चरणों को पखार कर यशस्वी बलि महाराज ने न केवल यश तथा अनुपम शक्तिप्राप्त की अपितु शुद्धभक्तों की अन्तिम गति भी प्राप्त की।

    आपस्तेड्ठयवनेजन्यस्त्रीललोकान्शुचयो उपुनन्‌ ।

    शिरसाधत्त याः जर्वः स्वर्याता: सगरात्मजा: ॥

    १५॥

    आपः--जल ( यथा गंगा नदी ); ते--तुम्हारे; अड्पघ्रि--पाँवों के; अवनेजन्य: --पखारने से प्राप्त; त्रीन्‌--तीनों; लोकानू--लोकों को; शुच्यय:--नितान्त आध्यात्मिक होने से; अपुनन्‌--पवित्र बना दिया है; शिरसा--सिर पर; आधत्त--धारण करलिया; या: --जिसे; शर्व:--शिव ने; स्व:--स्वर्ग को; याता:--गये; सगर-आत्मजा:--राजा सगर के पुत्र

    आपके चरणों के पखारने से दिव्य होकर गंगा नदी के जल ने तीनों लोकों को पवित्र बनादिया है।

    शिवजी ने उसी जल को अपने शिर पर धारण किया और उसी जल की कृपा से राजासगर के पुत्र स्वर्ग गये।

    देवदेव जगन्नाथ पुण्यश्रवणकीर्तन ।

    यदूत्तमोत्तम:शलोक नारायण नमोउस्तु ते ॥

    १६॥

    देव-देव--हे स्वामियों के स्वामी; जगत्‌-नाथ--हे ब्रह्माण्ड के स्वामी; पुण्य--पवित्र; श्रवण--सुनना; कीर्तन--तथा कीर्तनकरना; यदु-उत्तम--यदुश्रेष्ठ; उत्तम:-शलोक--उत्तम एलोकों से स्तुति किये जाने वाले; नारायण--हे नारायण; नम:ः--नमस्कार; अस्तु--होवे; ते--आपको |

    हे देवों के देव, हे जगन्नाथ, हे आप जिनके यश को सुनना और गायन करना अत्यन्त पवित्र।

    है! हे यदुश्रेष्ठ, हे पुण्यश्लोक, हे परम भगवान्‌ नारायण, मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

    श्रीभगवनुवाचआयास्ये भवतो गेहमहमर्यसमन्वितः ।

    यदुचक्रद्गुहं हत्वा वितरिष्ये सुहृत्प्रियम्‌ ॥

    १७॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; आयास्ये-- आऊँगा; भवत:ः--आपके; गेहम्‌--घर; अहम्‌--मैं; आर्य--अपने अग्रज( बलराम ); समन्वित:--सहित; यदु-चक्र --यदुओं के चक्र ( मंडल ) के; द्रहम्‌--शत्रु ( कंस ) को; हत्वा--मारकर;वितरिष्ये-- प्रदान करूँगा; सुहत्‌--अपने शुभचिन्तकों को; प्रियम्‌--सन्तोष |

    परमेश्वर ने कहा : मैं अपने बड़े भाई के साथ आपके घर आऊँगा किन्तु पहले मुझे यदु जातिके शत्रु को मारकर अपने मित्रों तथा शुभचिन्तकों को तुष्ट करना है।

    श्रीशुक उवाचएवमुक्तो भगवता सोक्रूरो विमना इव ।

    पुरी प्रविष्ट: कंसाय कर्मावेद्य गृह ययौ ॥

    १८ ॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; उक्त: --सम्बोधित करने पर; भगवता-- भगवान्‌ द्वारा; सः--उस; अक्रूरः:--अक्रूर ने; विमना:--निराश; इब--सहश; पुरीम्‌--नगर मे; प्रविष्ट:--प्रवेश किया; कंसाय--कंस को; कर्म--कार्यकलापों के विषय में; आवेद्य--सूचित करके; गृहम्‌-- अपने घर; ययौ--चला गया।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : भगवान्‌ द्वारा ऐसे सम्बोधित किये जाने पर अक्रूर भारी मन सेनगर में प्रविष्ट हुए।

    उन्होंने राजा कंस को अपने ध्येय की सफलता से सूचित किया और तब वेअपने घर चले गये।

    अथापराह्ने भगवान्कृष्ण: सट्डर्षणान्वित: ।

    मथुरां प्राविशद्गोपैर्दिहक्षु:ः परिवारित: ॥

    १९॥

    अथ--तब; अपर-अद्वि--तीसरे पहर, दोपहर के बाद; भगवान्‌-- भगवान्‌; कृष्ण: --कृष्ण ने; सद्डभूर्षण-अन्बित:--बलरामसहित; मथुराम्‌--मथुरा में; प्राविशत्‌-- प्रवेश किया; गोपै:--ग्वालबालों द्वारा; दिदृक्षु:--देखने की इच्छा वाले; परिवारित:--घिरे हुए |

    भगवान्‌ कृष्ण मथुरा देखना चाहते थे अतः संध्या समय अपने साथ बलराम तथाग्वालबालों को लेकर उन्होंने नगर में प्रवेश किया।

    ददर्श तां स्फाटिकतुड्रगोपुर-द्वारां बृहद्वेमकपाटतोरणाम्‌ ।

    ताम्रारकोष्ठां परिखादुरासदा-मुद्यानरम्योपवनोपशोभिताम्‌ ॥

    २०॥

    सौवर्णश्रुड्राटकहर्म्यनिष्कुटै:श्रेणीसभाभिर्भवनैरुपस्कृताम्‌ ।

    बैदूर्यवज्ञामलनीलविद्ुमै-मुक्ताहरिद्धिर्वलभीषु वेदिषु ॥

    २१॥

    जुष्टेचु जालामुखरन्श्रकुट्टिमे-ष्वाविष्टपारावतबर्हिनादिताम्‌ ।

    संसिक्तरथ्यापणमार्गचत्वरांप्रकीर्णमाल्याड्डु रलाजतण्डुलाम्‌ ॥

    २२॥

    आपूर्णकुम्भेर्दधिचन्दनो क्षितैःप्रसूनदीपावलिभि: सपल्‍लवबै: ।

    सवृन्दरम्भाक्रमुकैः सकेतुभिःस्वलड्डू तद्वारगृहां सपट्टिके: ॥

    २३॥

    दरदर्श--देखा; ताम्‌--उस ( नगरी ) को; स्फाटिक--स्फटिक से बने; तुड़--ऊँचा; गोपुर--मुख्य द्वार; द्वारामू-घरों केदरवाजे; बृहत्‌--विशाल; हेम--स्वर्ण; कपाट--किंवाड़; तोरणामू--तथा सजावटी मेहराब; ताप्र--ताँबे; आर--तथा पीतलके; कोष्ठाम्‌-- भंडारघर; परिखा--खाइयों समेत; दुरासदाम्‌--दुल॑ध्य; उद्यान--सार्वजनिक बगीचे; रम्य--आकर्षक; उपवन--तथा उपवन; उपशोभिताम्‌--सजाये गये; सौवर्ण--सोना; श्रुड़्ाटक--चौराहे; हर्म्य--अन्तःपुर, महल; निष्कुटैः--तथा आरामउद्यानों से; श्रेणी--व्यापारियों के; सभाभि:--सभाभवनों से; भवनैः--तथा घरों से; उपस्कृताम्‌--अलंकृत; बैदूर्य --वैदूर्यमणियों से; वज़्॒--हीरा; अमल--खेदार क्वार्ट्ज ( स्फटिक ); नील--नीलमों; विद्रुमैः --तथा मूँगों से; मुक्ता--मोतियों;हरिद्धिः--तथा हरितमणि से; वलभीषु--घरों के दरवाजों पर; वेदिषु--स्तम्भयुक्त छज्जों पर; जुष्टेपु--खचित; जाल-आमुख--जालीदार खिड़कियों के; रन्ध्च--छेदों में; कुट्टिमेषु--तथा रत्नजड़ित फर्श पर; आविष्ट--बैठकर; पारावत--पालतू कबूतरों;बहि--तथा मोरों से; नादितामू--प्रतिध्वनित; संसिक्त--जल से छिड़की हुईं; रथ्या--राजसी गलियों; आपण--व्यापारिक मार्गोंसे; मार्ग--तथा अन्य सड़कों; चत्वरामू--तथा आँगन या चौतरा; प्रकीर्ण--बिखरे हुए; माल्य-- फूल की मालाओं से;अह्'ु र--नवीन कोपलें; लाज--लावा; तण्डुलामू--तथा चावल; आपूर्ण--पूर्ण; कुम्भैः--घड़ों से; दधि--दही से; चन्दन--तथा चन्दनलेप से; उक्षितैः--लेप किया; प्रसून--फूलों की पंखड़ियों से; दीप-आवलिभि:--दीपों की पंक्तियों से; स-पल्‍लबै:--पत्तियों सहित; स-वृन्द--फूलों के गुच्छों सहित; रम्भा--केला के तनों से; क्रमुकैः--तथा सुपाड़ी के वृक्ष के तनोंसे; स-केतुभिः--झंडों से; सु-अलड्डू त--सुन्दर सजाया हुआ; द्वार-द्वारों से युक्त; गृहाम्‌-घरों को; स-पट्डिकैः--पत्नियों से

    हे गवानू ने देखा कि मथुरा के ऊँचे ऊँचे दरवाजे तथा घरों के प्रवेशद्वार स्फटिक के बने हैं,इसके विशाल तोरण तथा मुख्य द्वार सोने के हैं, इसके अन्न गोदाम तथा अन्य भण्डार ताँबे तथापीतल के बने हैं और इसकी परिखा ( खाईं ) अप्रवेश्य है।

    मनोहर उद्यान तथा उपवन इस शहरकी शोभा बढ़ा रहे थे।

    मुख्य चौराहे सोने से बनाये गये थे और इसकी इमारतों के साथ निजीविश्राम-उद्यान थे, साथ ही व्यापारिकों के सभाभवन तथा अन्य अनेक इमारतें थीं।

    मथुरा उनमोर तथा पालतू कबूतरों की बोलियों से गूँज रहा था, जो जालीदार खिड़कियों के छेदों पर,रत्नजटित फर्शों पर तथा ख भेदार छज्जों और घरों के सामने के सज्जित धरनों पर बैठे थे।

    येछज्जे तथा धरने बैदूर्य मणियों, हीरों, स्फटिकों, नीलमों, मूँगों, मोतियों तथा हरित मणियों सेसजाये गये थे।

    समस्त राजमार्गों तथा व्यापारिक गलियों में जल का छिड़काव हुआ था।

    इसीतरह पार्श्गनलियों तथा चबूतरों को भी सींचा गया था।

    सर्वत्र फूल मालाएँ, नव अंकुरित जौ,लावा तथा अक्षत बिखेरे हुए थे।

    घरों के दरवाजों के प्रवेशमार्ग पर जल से भरे सुसज्जित घड़ेशोभा दे रहे थे जिन्हें आम की पत्तियों से अलंकृत किया गया था और दही तथा चन्दनलेप सेपोता गया था।

    उनके चारों ओर फूल की पंखड़ियाँ तथा फीते लपेटे हुए थे।

    इन घड़ों के पासझंडियाँ, दीपों की पंक्ति, फूलों के गुच्छे, केलों के तथा सुपारी के वृशक्षों के तने थे।

    तां सम्प्रविष्टी वसुदेवनन्दनौवृतौ वयस्यैर्नरदेववर्त्मना ।

    द्रष्ठू समीयुस्त्वरिता: पुरस्त्रियो हर्म्याणि चैवारुरुहुनृपोत्सुका: ॥

    २४॥

    तामू--उस ( मथुरा में ); सम्प्रविष्टी--घुसकर; वसुदेव--वसुदेव के; नन्दनौ--दोनों पुत्र; वृतौ--घिरे हुए; वयस्यैः--अपने तरुणमित्रों से; नर-देव--राजा की; वर्त्मना--सड़क से; द्रष्टम

    --देखने के लिए; समीयु;:--निकल आईं; त्वरिता:--तेजी से; पुर--नगर की; स्त्रियः -स्त्रियाँ; हर्म्याणि-- अपने अपने घरों पर; च--तथा; एव-- भी; आरुरुहु:--ऊपर चढ़ गईं; नृप--हे राजा( परीक्षित ); उत्सुका:--उत्सुक ।

    मथुरा की स्त्रियाँ जल्दी-जल्दी एकत्र हुईं और ज्योंही वसुदेव के दोनों पुत्र अपने ग्वाल-बालमित्रों से घिरे हुए राजमार्ग द्वारा नगर में प्रविष्ट हुए वे उन्हें देखने निकल आईं।

    हे राजन, कुछस्त्रियाँ उन्हें देखने की उत्सुकता से अपने घरों की छतों पर चढ़ गईं।

    काश्िद्ठिपर्यग्धृतवस्त्रभूषणाविस्मृत्य चैक॑ युगलेष्वथापरा: ।

    कृतैकपत्रश्रवनैकनूपुरानाड्क्‍्त्वा द्वितीयं त्वपराश्न लोचनम्‌ ॥

    २५॥

    कश्चित्‌--उनमें से कुछ; विपर्यक्‌--उल्टा; धृत--पहन कर; बस्त्र--अपने वस्त्र; भूषण:--तथा गहने; विस्मृत्य-- भूल कर;च--तथा; एकम्‌--एक; युगलेषु--जोड़ी की; अथ--तथा; अपरा: --अन्य; कृत-- धारण करके; एक--केवल एक; पत्र--कुंडल; श्रवण--कान में; एक--या एक; नूपुराः--नूपुरों की जोड़ी; न अड्क्त्वा--बिना आँजे; द्वितीयम्‌--दूसरी; तु--लेकिन; अपराः:--अन्य स्त्रियाँ; च--तथा; लोचनमू--एक आँख ।

    कुछ स्त्रियों ने अपने वस्त्र तथा गहने उल्टे पहन लिये, कुछ अपना एक कुंडल या पायलपहनना भूल गईं और अन्यों ने केवल एक आँख में अंजन लगाया, दूसरी में लगा ही न पाईं।

    अश्नन्त्य एकास्तदपास्थ सोत्सवाअभ्यज्यमाना अकृतोपमज्ना: ॥

    स्वपन्त्य उत्थाय निशम्य निःस्वनंप्रपाययन्त्यो भमपोह्य मातर: ॥

    २६॥

    अएनन्त्य:--भोजन कर रहीं; एक:--कुछ; तत्‌--उसे; अपास्य--छोड़कर; स-उत्सव: --हर्षपूर्वक; अभ्यज्यमाना: --मालिशकी जाती; अकृत--बिना पूरा किये; उपमज्जना: --अपना स्नान करना; स्वपन्त्य:--सोती हुईं; उत्थाय--उठकर; निशम्य--सुनकर; निःस्वनम्‌--तेज आवाजें; प्रपाययन्त्य:--दूध पिलाती; अर्भम्‌--अपने बच्चे को; अपोह्म--एक तरफ रखकर;मातरः--माताएँ।

    जो भोजन कर रही थीं उन्होंने भोजन करना छोड़ दिया, अन्य स्त्रियाँ अधनहाई या उबटन पूरी तरह लगाये बिना ही चली आईं।

    जो स्त्रियाँ सो रही थीं वे शोर सुनकर तुरन्त उठ गई औरमाताओं ने दूध पीते बच्चों को अपनी गोदों से उतारकर अलग रख दिया।

    मनांसि तासामरविन्दलोचन:प्रगल्भलीलाहसितावलोकै: ।

    जहार मत्तद्विरदेन्द्रविक्रमोहशां ददच्छीरमणात्मनोत्सवम्‌ ॥

    २७॥

    मनांसि--मन; तासाम्‌--उनके; अरविन्द--कमल जैसे; लोचन:--आँखें; प्रगल्भ--उद्धत; लीला--अपनी लीलाएँ; हसित--हँसते हुए; अवलोकै:--चितवनों से; जहार--हर लिया; मत्त--मतवाली; द्विरद-इन्द्र--शाही हाथी ( जैसी ); विक्रम: --चाल;इहशाम्‌ू--उनकी आँखों के लिए; ददत्‌--देते हुए; श्री--लक्ष्मी की; रमण-- आनन्द स्त्रोत; आत्मना--अपने शरीर से; उत्सवम्‌--उत्सव

    अपनी साहसिक लीलाओं का स्मरण करके मुसकाते हुए कमल-नेत्रों वाले भगवान्‌ नेअपनी चितवतनों से स्त्रियों के मनों को मोह लिया।

    वे शाही हाथी की तरह मतवाली चाल सेअपने दिव्य शरीर से उन स्त्रियों के नेत्रों के लिए उत्सव उत्पन्न करते हुए चल रहे थे।

    उनका यहशरीर दिव्य देवी लक्ष्मी के लिए आनन्द का स्त्रोत है।

    इष्टा मुहुः श्रुतमनुद्रुतचेतसस्तंतप्प्रेक्षणोत्स्मितसु धोक्षणलब्धमाना: ।

    आनन्दमूर्तिमुपगुहा दशात्मलब्धंहृष्यत्त्तचो जहुरनन्तमरिन्दमाधिम्‌ ॥

    २८ ॥

    इद्ला--देखकर; मुहुः--बारम्बार; श्रुतम्‌--सुना गया; अनुद्गुत--पिघले हुए; चेतस:--हृदय; तम्‌ू--उसको; तत्‌-- उसकी;प्रेक्षण--चितवनों के; उत्‌-स्मित--तथा अट्वहास; सुधा--अमृत; उक्षण--छिड़कने से; लब्ध--प्राप्त करके; माना: --सम्मान;आनन्द-- आनन्द की; मूर्तिमु--साकार रूप को; उपगुह्ा--आलिंगन करके; दहशा--आँखों से होकर; आत्म--अपने भीतर;लब्धम्‌--प्राप्त किया गया; हृष्यत्‌--फूटकर; त्वच:--उनकी चमड़ी; जहुः--त्याग दिया; अनन्तम्‌--असीम; अरिम्‌-दम--हेशत्रुओं के दमनकर्ता ( परीक्षित ); आधिम्‌--मानसिक क्लेश।

    मथुरा की स्त्रियों ने कृष्ण के विषय में बारम्बार सुन रखा था अतः उनका दर्शन पाते हीउनके हृदय द्रवित हो उठे ।

    वे अपने को सम्मानित अनुभव कर रही थीं कि कृष्ण ने उन पर अपनीचितवन तथा हँसी रूपी अमृत का छिड़काव किया है।

    अपने नेत्रों के द्वारा उन्हें अपने हृदयों मेंग्रहण करके उन सबों ने समस्त आनन्द की मूर्ति का आलिंगन किया और हे अरिन्दम! ज्योंहीउन्हें रोमांच हो आया वे उनकी अनुपस्थिति से जन्य असीम कष्ट को भूल गईं।

    प्रासादशिखरारूढा: प्रीत्युत्फुल्लमुखाम्बुजा: ।

    अभ्यवर्षन्सौमनस्यै: प्रमदा बलकेशवौ ॥

    २९॥

    प्रासाद--महलों की; शिखर--छतों पर; आरूढा: --चढ़कर; प्रीति--स्नेह से; उत्फुल्ल--खिले हुए; मुख--मुँह; अम्बुजा:--जो कमलों जैसे थे; अभ्यवर्षन्‌--वर्षा की; सौमनस्यैः--फूलों से; प्रमदा:--सुन्दर स्त्रियों ने; बल-केशवौ--बलराम तथा कृष्णपर

    स्नेह से प्रफुल्लित कमल सहश मुखों वाली स्त्रियों ने जो अपने महलों की छतों पर चढ़ी हुईथीं, भगवान्‌ बलराम तथा भगवान्‌ कृष्ण पर फूलों की वर्षा की।

    दध्यक्षतैः सोदपात्रै: स्रग्गन्धैरभ्युपायने: ।

    तावानर्चुः प्रमुदितास्तत्र तत्र द्विजातय: ॥

    ३०॥

    दधि--दही; अक्षतैः--तथा अखण्डित जौ के बीजों से; स--तथा; उद-पात्रै:--जल से पूरित घड़ों से; स्रकू--मालाओं;गन्धैः--तथा सुगन्धित द्रव्यों से; अभ्युपायनै:--पूजा की अन्य सामग्री से; तौ--दोनों ने; आनर्चु:--पूजा की; प्रमुदिता:--प्रसन्नचित्त; तत्र तत्र--विभिन्न स्थानों पर; द्वि-जातय:--ब्राह्मणों ने |

    रास्ते के किनारे खड़े ब्राह्मणों ने दही, अक्षत ( जौ ), जल-भरे कलशों, फूल-मालाओंसुगन्धित द्र॒व्यों यथा चन्दन के लेप तथा पूजा की अन्य वस्तुओं की भेंटों से दोनों भाइयों कासम्मान किया।

    ऊचु: पौरा अहो गोप्यस्तप: किमचरन्महत्‌ ।

    या होतावनुपश्यन्ति नरलोकमहोत्सवी ॥

    ३१॥

    ऊचु:--कहा; पौरा:--नगर की स्त्रियों ने; अहो--हाय; गोप्य: --( वृन्दावन की ) गोपियों ने; तप:--तपस्या; किमू--कौन-सी;अचरनू--की है; महत्‌--महान; या: --जो; हि--निस्सन्देह; एतौ--इन दोनों को; अनुपश्यन्ति--निरन्तर देखती हैं; नर-लोक--मानव-समाज के लिए; महा-उत्सवौ--आनन्द के महान्‌ स्त्रोत हैं।

    मथुरा की स्त्रियाँ चिल्ला पड़ीं: अहा! समस्त मानव-जाति को अत्यन्त आनन्द प्रदान करनेवाले कृष्ण तथा बलराम को निरन्तर देखते रहने के लिए गोपियों ने कौन-सी कठोर तपस्याएँकी होंगी ?

    रजकं कद्ञिदायान्तं रड़कारं गदाग्रज: ।

    इृष्टायाचत वासांसि धौतान्यत्युत्तमानि च ॥

    ३२॥

    रजकमू--धोबी को; कश्जित्‌--किसी; आयान्तम्‌--आते हुए; रड्र-कारम्‌--रँगाई करने वाले को; गद-अग्रज:--गद के बड़ेभाई कृष्ण ने; हृष्ठा--देखकर; अयाचत--याचना की; वासांसि--वस्त्रों की; धौतानि-- धुले; अति-उत्तमानि--अत्युत्तम; च--तथा।

    कपड़ा रँगने वाले एक धोबी को अपनी ओर आते देखकर कृष्ण ने उससे उत्तमोत्तम धुलेवस्त्र माँगे।

    देह्यावयो: समुचितान्यड्र वासांसि चाईतो: ।

    भविष्यति परं श्रेयो दातुस्ते नात्र संशय: ॥

    ३३॥

    देहि--दो; आवयो: --हम दोनों को; समुचितानि--उपयुक्त; अड्र--हे प्रिय; वासांसि--वस्त्र; च--तथा; अर्हईतोः--दोनों सुपात्रोंको; भविष्यति--होगा; परम्‌--अत्यन्त; श्रेयः--लाभ; दातु:--दाता के लिए; ते--तुम; न--नहीं है; अत्र--इसमें; संशय: --सन्देह।

    भगवान्‌ कृष्ण ने कहा : कृपया हम दोनों को उपयुक्त वस्त्र दे दीजिये क्योंकि हम इनकेयोग्य हैं।

    यदि आप यह दान देंगे तो इसमें सन्देह नहीं कि आपको सबसे बड़ा लाभ प्राप्त होगा।

    स याचितो भगवता परिपूर्णेन सर्वतः ।

    साक्षेपं रुषित: प्राह भृत्यो राज्ञ: सुदुर्मदः ॥

    ३४॥

    सः--वह; याचित:--याचना किया गया; भगवता-- भगवान द्वारा; परिपूर्णेन--परम पूर्ण; सर्वतः--सभी प्रकार से; स-आक्षेपम्‌--अपमान करते हुए; रुषित:--क्रुद्ध; प्राह--बोला; भृत्य:--नौकर; राज्ञ:--राजा का; सु-- अत्यधिक; दुर्मदः --घमंडी।

    सभी प्रकार से परिपूर्ण भगवान्‌ द्वारा इस प्रकार याचना किये जाने पर राजा का वह घमंडीनौकर क्रुद्ध हो उठा और अपमान- भरे बचनों में बोला।

    ईहशान्येव वासांसी नित्यं गिरिवनेचर: ।

    परिधत्त किमुद्वुत्ता राजद्र॒व्याण्यभीप्सथ ॥

    ३५॥

    ईहशानि--इस तरह के; एव--निस्सन्देह; वासांसि--वस्त्र; नित्यमू--सदैव; गिरि--पर्वतों पर; वने--तथा जंगलों में; चरा:--विचरण करने वाले; परिधत्त--पहनेंगे; किम्‌ू--क्या; उद्दुत्ताः:--उहंड; राज--राजा की; द्र॒व्याणि--वस्तुएँ; अभीप्सध--तुमचाहते हो

    धोबी ने कहा : अरे उहंड बालको! तुम पर्वतों तथा जंगलों में घूमने के आदी हो फिर भीतुम इस तरह के वस्त्रों को पहनने का साहस कर रहे हो।

    तुम जिन्हें माँग रहे हो वे राजा कीसम्पत्ति हैं।

    याताशु बालिशा मैवं प्रार्थ्य यदि जिजीवीषा ।

    बध्नन्ति घ्नन्ति लुम्पन्ति ह॒प्तं राजकुलानि वै ॥

    ३६॥

    यात--जाओ; आशु--शीघ्र; बालिश: --मूर्खो; मा--मत; एवम्‌--इस तरह; प्रार्थ्यम्‌--माँगो; यदि--यदि; जिजीविषा--जीवित रहना चाहते हो; बध्नन्ति--बाँध देते हैं; घ्नन्ति--मार डालते हैं; लुम्पन्ति--लूट लेते हैं; दृप्तम्‌--उच्छुृंखल; राज-कुलानि--राजा के लोग; वै--निस्सन्देह

    मूर्खो, यहाँ से तुरन्त निकल जाओ।

    यदि तुम जीवित रहना चाहते हो तो इस तरह मत माँगो।

    जब कोई अत्यधिक उच्छुंखल हो जाता है, तो राजा के कर्मचारी उसे बन्दी बना लेते हैं और जानसे मार डालते हैं।

    और उसकी सारी सम्पत्ति छीन लेते हैं।

    एवं विकत्थमानस्य कुपितो देवकीसुतः ।

    रजकस्य कराग्रेण शिर: कायादपातयत्‌ ॥

    ३७॥

    एवम्‌--इस प्रकार; विकत्थमानस्थ--इस तरह बहककर बोलने वाले; कुपित:--क्रुद्ध; देवकी-सुत:--देवकी-पुत्र, कृष्ण ने;रजकस्य--धोबी का; कर--एक हाथ के; अग्रेण--अगले भाग से; शिर:ः--सिर; कायात्‌--शरीर से; अपातयत्‌--गिरा दिया |

    जब वह धोबी इस तरह बहकी बातें बोला तो देवकी-पुत्र क्रुद्ध हो उठे और उन्होंने अपनीअँगुलियों के अगले भाग से ही उसके शरीर से उसका सिर अलग कर दिया।

    तस्यानुजीविन: सर्वे वासःकोशान्विसृज्य वै ।

    दुह्ुवुः सर्वतों मार्ग वासांसि जगूहेउच्युत: ॥

    ३८॥

    तस्य--उसके; अनुजीविन: --कर्मचारी; सर्वे--सभी; वास: --वस्त्रों के; कोशानू-गट्टरों को; विसृज्य--छोड़कर; बै--निश्चयही; दद्वुवु:--भाग गये; सर्वतः--चारों ओर; मार्गम्‌--रास्ते में; वासांसि--वस्त्र; जगृहे--ले लिया; अच्युत:-- भगवान्‌ कृष्णने

    धोबी के नौकरों ने अपने अपने वस्त्रों के गट्टर गिरा दिये और मार्ग से भागकर चारों ओरतितर-बितर हो गये।

    तब भगवान्‌ कृष्ण ने उन वस्त्रों को ले लिया।

    वसित्वात्मप्रिये वस्त्रे कृष्ण: सड्डूर्षणस्तथा ।

    शेषाण्यादत्त गोपेभ्यो विसृज्य भुवि कानिचित्‌ ॥

    ३९॥

    वसित्वा--वस्त्र पहनकर; आत्म-प्रिये--अपनी इच्छानुसार; वस्त्रे--वस्त्रों की जोड़ी में; कृष्ण:--कृष्ण; सड्डूर्षण:--बलराम;तथा-- भी; शेषाणि--शेष; आदत्त--दे दिया; गोपेभ्य:--ग्वालबालों को; विसृज्य--फेंकते हुए; भुवि-- भूमि पर;कानिचित्‌--अनेक ।

    कृष्ण तथा बलराम ने अपनी मनपसंद के वस्त्रों की जोड़ी पहन ली और तब कृष्ण ने शेषवस्त्रों को ग्वालबालों में वितरित करते हुए कुछ को भूमि पर बिखेर दिया।

    ततस्तु वायकः प्रीतस्तयोवेंषमकल्पयत्‌ ।

    विचित्रवर्ण श्वेलेयैराकल्पैरनुरूपत: ॥

    ४०॥

    ततः--तब; तु--और भी; वायक:--बुनकर ( दर्जी ) ने; प्रीत:--स्नेहवान्‌; तयो:--दोनों के लिए; वेषम्‌--पोशाक;अकल्पयत्‌--व्यवस्था की; विचित्र--विविध; वर्णै:--रंगों से; चैलेयै:--वस्त्र से बने; आकल्पै:--गहनों से; अनुरूपत:--उपयुक्त

    तत्पश्चात्‌ एक बुनकर आया और दोनों विभूतियों के प्रति स्नेह से वशीभूत होकर विविधरंगों बाले वस्त्र-आभूषणों से उनकी पोशाकें सजा दीं।

    नानालक्षणवेषाभ्यां कृष्णरामौ विरेजतु: ।

    स्वलड्डू तौ बालगजौ पर्वणीव सितेतरा ॥

    ४१॥

    नाना--विविध; लक्षण--उत्तम गुणों से युक्त; वेषाभ्याम्‌-- अपने अपने उस्त्रों से; कृष्ण-रामौ--कृष्ण तथा बलराम;विरेजतु:--भव्य लग रहे थे; सु-अलड्डू तौ--अच्छी तरह से आभूषित; बाल--बच्चा; गजौ--हाथी; पर्वणि--उत्सव में; इब--मानो; सित- श्रेत; इतरौ--तथा उसके विपरीत ( श्याम )

    कृष्ण तथा बलराम अपनी अपनी अद्भुत रीति से सजाई गई विशिष्ट पोशाक में शोभायमानदिखने लगे।

    वे उत्सव के समय सजाये गये श्रेत तथा श्याम हाथी के बच्चों की जोड़ी के समानलग रहे थे।

    तस्य प्रसन्नो भगवान्प्रादात्सारूप्यमात्मन: ।

    श्रियं च परमां लोके बलैश्वर्यस्मृतीन्द्रियम्‌ ॥

    ४२॥

    तस्य--उससे; प्रसन्न:--तुष्ट; भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; प्रादात्‌ू-प्रदान किया; सारूप्यम्‌--उसी रूप से युक्त मुक्ति; आत्मन:--जैसाकि अपना था; थ्रियमू--ऐश्वर्य; च--तथा; परमाम्‌ू--परम; लोके--इस जगत में; बल--शारीरिक बल; ऐश्वर्य--प्रभाव;स्मृति--स्मरणशक्ति; इन्द्रियमू--इन्द्रिय दक्षता ।

    उस बुनकर से प्रसन्न होकर भगवान्‌ कृष्ण ने उसे आशीर्वाद दिया कि वह मृत्यु के बादभगवान्‌ जैसा स्वरूप प्राप्त करके मोक्ष प्राप्त्करे और जब तक इस लोक में रहे तब तक वहपरम ऐश्वर्य, शारीरिक बल, प्रभाव, स्मृति तथा एन्द्रिय शक्ति का भोग करे।

    ततः सुदाम्नो भवनं मालाकारस्य जमग्मतु: ।

    तौ हृष्ठा स समुत्थाय ननाम शिरसा भुवि ॥

    ४३॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; सुदाम्न:--सुदामा के; भवनम्‌--घर; माला-कारस्य--माली के; जग्मतुः--दोनों गये; तौ--उन दोनों को;इृष्ठा--देखकर; सः--उसने; समुत्थाय--उठकर; ननाम--नमस्कार किया; शिरसा--सिर के बल; भुवि-- भूमि परतत्पश्चात्‌ दोनों भाई सुदामा माली के घर गये।

    जब सुदामा ने उन्हें देखा तो वह तुरन्त खड़ाहो गया और भूमि पर मस्तक नवाकर उसने उन्हें प्रणाम किया।

    तयोरासनमानीय पाद्य॑ चार्ध्याईणादिभिः ।

    पूजां सानुगयोश्चक्रे स््रक्ताम्बूलानुलेपने: ॥

    ४४॥

    तयो:--उन दोनों के लिए; आसनम्‌ू--आसन; आनीय--जाकर; पाद्यम्‌ू--पाँव धोने के लिये जल; च--तथा; अर्ध्य--हाथधोने के लिए पानी; अर्हण--भेंट; आदिभि:--इत्यादि से युक्त; पूजाम्‌ू--पूजा; स-अनुगयो: -- दोनों की, उनके संगियों समेत;चक्रे--सम्पन्न की; स्रकु--मालाओं से; ताम्बूल--पान से; अनुलेपनै:--तथा चन्दन-लेप से |

    उन्हें आसन प्रदान करके तथा उनके पाँव परवारकर सुदामा ने उनकी तथा उनके साथियोंकी अर्घध्य, माला, पान, चन्दन-लेप तथा अन्य उपहारों के साथ पूजा की।

    प्राह न: सार्थक जन्म पावितं च कुल प्रभो ।

    पितृदेवर्षयो मह्मं तुष्ठा ह्रागमनेन वाम्‌ ॥

    ४५॥

    प्राह--उसने कहा; न:--हमारा; स-अर्थकम्‌--सफल; जन्म--जन्म; पावितम्‌--पवित्र किया गया; च--तथा; कुलमू्‌--परिवार; प्रभो--हे प्रभु; पितृ--मेरे पितरगण; देव--देवतागण; ऋषय:--तथा ऋषिगण; महामम्‌-- मुझसे; तुष्टा: -- प्रसन्न हैं;हि--निस्सन्देह; आगमनेन-- आगमन से; वाम्‌--तुम दोनों के |

    सुदामा ने कहा : हे प्रभु, अब मेरा जन्म पवित्र हो गया और मेरा परिवार निष्कलुष होगया।

    चूँकि अब आप दोनों मेरे यहाँ आये हैं अतः मेंरे पितर, देवता तथा ऋषिगण सभी मुझसेनिश्चय ही संतुष्ट हुये हैं।

    भवन्तौ किल विश्वस्य जगत: कारणं परम्‌ ।

    अवतीर्णाविहांशेन क्षेमाय च भवाय च ॥

    ४६॥

    भवन्तौ--आप दोनों; किल--निस्सन्देह; विश्वस्थ--सम्पूर्ण; जगत:--ब्रह्मण्ड के; कारणम्‌--कारण; परम्‌--चरम;अवतीर्णौ--अवतरित होकर; इह--यहाँ; अंशेन-- अपने अंशों समेत; क्षेमाय--लाभ के लिए; च--तथा; भवाय--समृद्धि केलिए; च--भी

    आप दोनों भगवान्‌ इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के परम कारण हैं।

    इस जगत को भरण-पोषणतथा समृद्धि प्रदान करने के लिए आप अपने अंशों समेत अवतरित हुए हैं।

    नहि वां विषमा दृष्टि: सुहृदोज॑गदात्मनो: ।

    समयो:ः सर्वभूतेषु भजन्तं भजतोरपि ॥

    ४७॥

    न--नहीं है; हि--निस्सन्देह; वाम्‌--तुम दोनों को; विषमा--पक्षपातपूर्ण; दृष्टि:--दृष्टि; सुहदो:--शुभचिन्तक मित्र; जगत्‌--ब्रह्माण्ड का; आत्मनो:--आत्मा; समयो: --समान; सर्व--सभी; भूतेषु--जीवों के प्रति; भजन्तम्‌--आपकी पूजा करने वाले;भजतो:--पूजा करते हुए; अपि-- भी |

    चूँकि आप शुभचिन्तक मित्र तथा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के परमात्मा हैं अतः आप सबों कोनिष्पक्ष दृष्टि से देखते हैं।

    अत: यद्यपि आप अपने भक्तों से प्रेमपूर्ण पूजा का आदान-प्रदान करतेहैं फिर भी आप सभी प्राणियों पर सदा समभाव रखते हैं।

    तावज्ञापयतं भृत्यं किमह॑ं करवाणि वाम्‌ ।

    पुंसोउत्यनुग्रहो होष भवद्धिद्र्यन्नियुज्यते ॥

    ४८॥

    तौ--वे दोनों; आज्ञापयतम्‌--आज्ञा दें; भृत्यमू--अपने सेवक को; किमू-- क्या; अहम्‌--मैं; करवाणि--करूँ; वामू--तुमदोनों को; पुंसः--किसी पुरुष के लिए; अति--अत्यधिक; अनुग्रह:--कृपा; हि--निस्सन्देह; एब: --यह; भवद्ध्धिः--आपकेद्वारा; यत्‌--जिसमें; नियुज्यते--उसे लगाया जाता है।

    कृपया इस अपने दास को आप जो चाहते हों वह करने का आदेश दें।

    आपके द्वारा किसीसेवा में लगाया जाना किसी के लिए भी महान्‌ वरदान है।

    इत्यभिप्रेत्य राजेन्द्र सुदामा प्रीतमानस: ।

    शस्तैः सुगन्धे: कुसुमैर्माला विरचिता ददौ ॥

    ४९॥

    इति--इस प्रकार बोलते हुए; अभिप्रेत्म--उनके अभिप्राय को समझकर; राज-इन्द्र--हे राजाओं में श्रेष्ठ ( परीक्षित ); सुदामा--सुदामा; प्रीत-मानसः--हृदय में प्रसन्न; शस्तैः--ताजे; सु-गन्धैः--तथा सुगन्धित; कुसुमैः--फूलों से; मलः--मालाएँ;विरचिता:--बनाई गईं; ददौ--दिया।

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : हे राजाओं में श्रेष्ठ, ये शब्द कहकर सुदामा ने यह जानलिया कि कृष्ण तथा बलराम क्‍या चाह रहे थे।

    इस तरह उसने अतीव प्रसन्नतापूर्वक उन्हें ताजेसुगन्धित फूलों की मालाएँ अर्पित कीं।

    ताभिः स्वलड्डू तौ प्रीतौ कृष्णरामौ सहानुगौ ।

    प्रणताय प्रपन्नाय ददतुर्वरदौ वरान्‌ ॥

    ५०॥

    ताभिः--उन ( मालाओं ) से; सु-अलड्जू तौ--सुन्दर ढंग से सजकर; प्रीतौ--तुष्ट; कृष्ण-रामौ--कृष्ण तथा बलराम; सह--साथ; अनुगौ--अपने संगियों के; प्रणताय--नतमस्तक; प्रपन्नाय--शरणागत ( सुदामा ) को; ददतुः--दिया; वरदौ--वरदानदेने वाले दोनों ने; वरानू--इच्छित बरों को |

    इन मालाओं से सुसज्जित होकर कृष्ण तथा बलराम अतीव प्रसन्न हुए और उसी तरह उनकेसंगी भी।

    तब दोनों विभूतियों ने अपने समक्ष विनत शरणागत सुदामा को उसके मनवांछित वरप्रदान किये।

    सोपि वद्रेडचलां भक्ति तस्मिन्नेवाखिलात्मनि ।

    तद्धक्तेषु च सौहार्द भूतेषु च दयां पराम्‌ू ॥

    ५१॥

    सः--उसने; अपि--तथा; वद्रे--चुना; अचलाम्‌-- अचल; भक्तिमू-- भक्ति; तस्मिन्‌ू--उन; एब--एकमात्र; अखिल--हरएकके; आत्मनि--परमात्मा के प्रति; तत्‌ू--उसके; भक्तेषु-- भक्तों के प्रति; च--तथा; सौहार्दम्‌--मैत्री; भूतेषु--सामान्य जीवों केप्रति; च--तथा; दयाम्‌--दया; पराम्‌--दिव्य |

    सुदामा ने समस्त जगत के परमात्मा कृष्ण की अचल भक्ति, उनके भक्तों के साथ मित्रतातथा समस्त जीवों के प्रति दिव्य दया को चुना।

    इति तस्मै वरं दत्त्वा भ्ियं चान्वयवर्धिनीम्‌ ।

    बलमायुर्यशः कान्ति निर्जगाम सहाग्रज: ॥

    ५२॥

    इति--इस प्रकार; तस्मै--उसको; वरम्‌--वर; दत्त्वा--देकर; थ्रियम्‌--ऐ श्रर्य; च--तथा; अन्वय--उसका परिवार;वर्धिनीम्‌--वृद्ध्धि करते हुए; बलम्‌ू--बलम; आयु:--दीर्घ-आयु; यश:--यश; कान्तिम्‌--सौन्दर्य ; निर्जगाम--चले गये;सह--साथ; अग्र-ज:--अपने बड़े भाई बलराम के

    भगवान्‌ कृष्ण ने सुदामा को न केवल ये वर दिये अपितु उन्होंने उसे बल, दीर्घायु, यश, कान्ति तथा उसके परिवार की सतत बुद्धिमान हुई समृद्धि भी प्रदान की।

    तत्पश्चात्‌ कृष्ण तथा उनके बड़े भाई ने उससे विदा ली।

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    अध्याय बयालीसवाँ: यज्ञ धनुष को तोड़ना

    10.42श्रीशुक उवाचअथ ब्रजन्राजपथेन माधव:स्त्रियं गृहीताड़्विलेपभाजनाम्‌ ।

    विलोक्य कुब्जां युवतीं वराननांपप्रच्छ यान्तीं प्रहसन्नसप्रद: ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; अथ--तब; ब्रजन्‌--टहलते हुए; राज-पथेन--राजमार्ग से; माधव: --कृष्ण;स्त्रियम्‌--स्त्री को; गृहीत--पकड़े; अड़--शरीर के; विलेप--लेप का; भाजनाम्‌ू-- थाल; विलोक्य--देखकर; कुब्जाम्‌--कुबड़ी को; युवतीम्‌--युवती; वर-आननाम्‌--सुन्दर मुख वाली; पप्रच्छ--पूछा; यान्तीमू--जाते हुए; प्रहसन्‌--हँसते हुए;रस- प्रेम के आनन्द का; प्रदः--देने वाला ।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब भगवान्‌ माधव राजमार्ग पर जा रहे थे तो उन्होंने एक युवाकुबड़ी स्त्री को देखा जिसका मुख आकर्षक था और वह सुगन्धित लेपों का थाल लिए हुए जारही थी।

    प्रेमानन्द दाता ने हँसकर उससे इस प्रकार पूछा।

    का त्वं वरोर्वेतदु हानुलेपनंकस्याडुने वा कथयस्व साधु न: ।

    देह्यावयोरड्रविलेपमुत्तमंश्रेयस्ततस्ते न चिराद्धविष्यति ॥

    २॥

    का--कौन; त्वमू--तुम; वर-ऊरु --सुन्दर जंघाओं वाली; एतत्‌--यह; उ ह--आह, निस्सन्देह; अनुलेपनम्‌--लेप; कस्य--किसके लिए; अड्डने--हे स्त्री; वा--अथवा; कथयस्व--कहो; साधु--सच सच; न:--हमको; देहि--दो; आवयो:--हम दोनोंको; अड्डभ-विलेपम्‌--शरीर का लेप; उत्तमम्‌--सर्वश्रेष्ठ; श्रे:--लाभ, कल्याण; ततः--तत्पश्चात्‌; ते--तुम्हारा; न चिरात्‌--शीघ्र ही; भविष्यति--होगा।

    भगवान्‌ कृष्ण ने कहा : हे सुन्दर जंघाओं वाली, तुम कौन हो ? ओह, लेप! हे सुन्दरी,यह किसके लिए है? हमें सच सच बता दो।

    हम दोनों को अपना कोई उत्तम लेप दो तो तुम्हेंशीघ्र ही महान्‌ वर प्राप्त होगा।

    सैरज्युवाचदास्यस्म्यहं सुन्दर कंससम्मतात्रिवक़्नामा हानुलेपकर्मणि ।

    मद्धावितं भोजपतेरतिप्रियंविना युवां कोउन्यतमस्तदर्हति ॥

    ३॥

    सैरन्श्नी उवाच--दासी ने कहा; दासी--दासी; अस्मि--हूँ; अहम्‌--मैं; सुन्दर--हे सुन्दर; कंस--कंस द्वारा; सम्मता--आदरित;त्रिवक्र-नामा--त्रिवक्रा ( तीन स्थान से टेढ़ी ) नामक; हि--निस्सन्देह; अनुलेप--लेप; कर्मणि--मेरे कार्य के लिए; मत्‌--मेरेद्वारा; भावितमू--तैयार किया हुआ; भोज-पते:--भोजों के प्रमुख के लिए; अति-प्रियम्‌--अत्यन्त प्रिय; विना--के बिना;युवाम्‌--तुम दोनों; क:ः--कौन; अन्यतम:--कोई दूसरा; तत्‌ू--वह; अरहति--पा सकता है, योग्य है

    दासी ने उत्तर दियाः हे सुन्दर, मैं राजा कंस की दासी हूँ।

    वे मेरे द्वारा तैयार किये गये लेपोंका अतीव सम्मान करते हैं।

    मेरा नाम त्रिवक्रा है।

    जिन लेपों को भोजराज इतना अधिक चाहताहै, भला उनका पात्र आप दोनों के अतिरिक्त कौन हो सकता है ?

    रूपपेशलमाधुर्य हसितालापवीक्षितै: ।

    धर्षितात्मा ददौ सान्द्रमुभयोरनुलेपनम्‌ ॥

    ४॥

    रूप--उनसे सौंदर्य; पेशल-- आकर्षण; माधुर्य--मिठास; हसित--मन्द हँसी; आलाप--बातचीत; वीक्षितैः--तथा चितवनोंसे; धर्षित--अभिभूत; आत्मा--अपना मन; ददौ--दे दिया; सान्द्रमू--अत्यधिक; उभयो:--दोनों को; अनुलेपनम्‌-लेप ।

    कृष्ण के सौन्दर्य, आकर्षण, मिठास, हँसी, वाणी तथा चितवनों से अभिभूत मन वालीत्रिवक्रा ने कृष्ण तथा बलराम को पर्याप्त मात्रा में लेप दे दिया।

    ततस्तावड्रागेण स्ववर्णेतशशोभिना ।

    सम्प्राप्पररभागेन शुशुभातेनुरख्जितौ ॥

    ५॥

    ततः--तब; तौ--वे दोनों; अड्ग-- अपने शरीरों के; रागेण--रंगीन प्रसाधनों से; स्व--अपने; वर्ण--रंगों से; इतर--इसकेअतिरिक्त; शोभिना--अलंकृत करके; सम्प्राप्त--जिससे दिखने लगा; पर--सर्वोच्च; भगेन-- श्रेष्ठता; शुशुभाते--सुन्दर लगनेलगे; अनुरक्षितौ--लेप करके |

    इन सर्वोत्तम अंगरागों का लेप करके, जिनसे उनके शरीर अपने रंगों से विपरीत रंगों से सजगए, दोनों भगवान्‌ अत्यधिक सुन्दर लगने लगे।

    प्रसन्नो भगवान्कुब्जां त्रिवक्रां रुचिराननाम्‌ ।

    ऋण्वीं कर्त मनश्चक्रे दर्शयन्दर्शने फलम्‌ ॥

    ६॥

    प्रसन्न:--तुष्ट; भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; कुब्जामू--कुबड़ी; त्रिवक्रा--त्रिवक्रा को; रुचिर--आकर्षक; आननाम्‌--मुख वाली;ऋज्वीम्‌--सीधी; कर्तुमू--करने के लिए; मनः चक्रे--निश्चय किया; दर्शयन्‌--दिखलाते हुए; दर्शने--उन्हें देखने का;'फलम्‌--फल।

    भगवान्‌ कृष्ण त्रिवक्रा से प्रसन्न हो गये अतः उन्होंने उस सुन्दर मुखड़े वाली कुबड़ी लड़कीको अपने दर्शन का फल दिखलाने मात्र के लिए उसे सीधा करने का निश्चय किया।

    पदभ्यामाक्रम्य प्रपदे दर्‌यडुल्युत्तानपाणिना ।

    प्रगृह्य चिबुके ध्यात्ममुदनीनमदच्युत:ः ॥

    ७॥

    पदभ्याम्‌ू--अपने दोनों पैरों से; आक्रम्ध--दबाकर; प्रपदे--उसके अँगूठों पर; द्वि--दो; अद्डुलि--अँगुलियाँ; उत्तान--ऊपरउठाकर; पाणिना--अपने हाथों से; प्रगृह्य--पकड़कर; चिबुके--उसकी ठुड्डी; अध्यात्मम्‌--उसके शरीर को; उदनीनमत्‌--उठाया; अच्युत:--

    कृष्ण ने उसके पैरों के अँगूठों को अपने दोनों पाँवों से दबाते हुए भगवान्‌ अच्युत ने उसकी ठुड्डी केनीचे अपने दोनों हाथों की ऊपर उठी एक एक अँगुली रखी और उसके शरीर को सीधा कर दिया।

    सा तदर्जुसमानाड़ी बृहच्छोणिपयोधरा ।

    मुकुन्दस्पर्शनात्सद्यो बभूव प्रमदोत्तमा ॥

    ८॥

    सा--वह; तदा--तब; ऋजु--सीधी; समान--समतल; अड्जी--अंग वाली; बृहत्‌--विशाल; श्रोणि--कूल्हे ( नितम्ब ); पय:-धरा--तथा स्तन वाली; मुकुन्द-स्पर्शनात्‌--मुकुन्द के स्पर्श से; सद्यः--सहसा; बभूब--हो गईं; प्रमदा --स्त्री ; उत्तमा--अत्यन्तसधी हुई

    भगवान्‌ मुकुंद के स्पर्श मात्र से त्रिवक्रा सहसा एक अतीव सुन्दर स्त्री में बदल गईं जिसकेअंग सधे हुए तथा सम-अनुपात वाले थे और नितम्ब तथा स्तन बड़े-बड़े थे।

    ततो रूपगुणौदार्यसम्पन्ना प्राह केशवम्‌ ।

    उत्तरीयान्तमकृष्य स्मयन्ती जातहच्छया ॥

    ९॥

    ततः--तत्पश्चात्‌८ रूप--सौन्दर्य; गुण--उत्तम आचरण; औदार्य--तथा उदारता से; सम्पन्ना--युक्त; प्राह--बोली; केशवम्‌--कृष्ण से; उत्तरीय--अंगौछे का; अन्तम्‌ू--छोर; आकृष्य--खींचकर; स्मयन्ती--हँसती हुई; जात--उत्पन्न करके; हत्‌-शया--'काम- भावनाएँ।

    अब सौन्दर्य, आचरण तथा उदारता से युक्त त्रिवक्रा को भगवान्‌ केशव के प्रति कामेच्छाओंका अनुभव होने लगा।

    वह उनके अंगवस्त्र के छोर को पकड़कर हँसने लगी और उनसे इसप्रकार बोली।

    एहि वीर गृहं यामो न त्वां त्यक्तुमिहोत्सहे ।

    त्वयोन्मधितचित्ताया: प्रसीद पुरुषर्षभ ॥

    १०॥

    एहि--आओ ; वीर--हे वीर; गृहम्‌--मेरे घर; याम: -- चलें; न--नहीं ; त्वामू--तुमको; त्यक्तुमू--छोड़ना; इह--यहाँ; उत्सहे--सह सकती हूँ; त्ववा--आपके द्वारा; उन्मधित--उत्तेजित, मथा गया; चित्ताया:--चित्त वाली पर; प्रसीद--कृपा करें; पुरुष-ऋषभ--हे पुरुष- श्रेष्ठ

    त्रिवक्रा ने कहा : हे वीर, आओ, मेरे घर चलो।

    मैं आपको यहाँ छोड़कर जा नहींसकती।

    हे नर-श्रेष्ठ, मुझ पर तरस खाओ क्योंकि आपने मेरे चित्त को उद्देलित कर डाला है।

    एवं स्त्रिया याच्यमान: कृष्णो रामस्य पश्यतः ।

    मुखं वीक्ष्यानु गोपानां प्रहसंस्तामुवाच ह ॥

    ११॥

    एवम्‌---इस प्रकार; स्त्रिया--स्त्री द्वारा; याच्य नान: --अनुनय-विनय किये जाने पर; कृष्ण: --कृष्ण ने; रामस्य--बलराम के;'पश्यत:--देखते हुए; मुखम्‌--मुख को; वीक्ष्य--देखकर; अनु--तब; गोपानाम्‌-ग्वालबालों का; प्रहसन्‌--हँसते हुए;तामू--उससे; उवाच ह--कहा |

    स्त्री द्वारा इस प्रकार अनुनय-विनय किये जाने पर भगवान्‌ कृष्ण ने सर्वप्रथम बलराम केमुख की ओर देखा, जो इस घटना को देख रहे थे और तब ग्वालमित्रों के मुखों पर दृष्टि डाली।

    तब हँसते हुए कृष्ण ने उसे इस प्रकार उत्तर दिया।

    एष्यामि ते गृहं सुश्रु पुंसामाधिविकर्शनम्‌ ।

    साधितार्थोगृहाणां नः पान्थानां त्वं परायणम्‌ ॥

    १२॥

    एष्यामि--जाऊँगा; ते--तुम्हारे; गृहम्‌-घर; सु- भ्रु--हे सुन्दर भौंहों वाली; पुंसामू--मनुष्यों की; आधि--मानसिक व्यथा;विकर्शनम्‌--नष्ट करने वाली; साधित--पूरा करके; अर्थ:--अपना कार्य; अगृहाणाम्‌--बिना घर वाले, बेघर; नः--हमारेलिए; पान्थानामू--पथििकों के लिए; त्वमू--तुम; पर--सर्व श्रेष्ठ अयनम्‌-- आश्रय |

    भगवान्‌ कृष्ण ने कहा : हे सुन्दर भौंहों वाली स्त्री, अपना कार्य पूरा करते ही मैं अवश्यतुम्हारे घर आऊँगा जहाँ लोगों को चिन्ता से मुक्ति मिल सकती है।

    निस्सन्देह तुम हम जैसे बेघरपथिकों के लिए सर्वोत्तम आश्रय हो।

    विसृज्य माध्व्या वाण्या ताम्ब्रजन्मार्गे वणिक्पथे: ।

    नानोपायनताम्बूलस््रग्गन्थे: साग्रजोडचित: ॥

    १३॥

    विसृज्य--छोड़कर; माध्व्या--मधुर; वाण्या--वाणी से; तामू--उसको; ब्रजन्‌ू--चलते हुए; मार्गे--मार्ग पर; वणिक्‌-पथै:--व्यापारियों द्वारा; नाना--विविध; उपायन--सादर भेंटें; ताम्बूल--पान; सत्रकू--मालाएँ; गन्धैः--तथा सुगन्धित द्र॒व्यों से; स--सहित; अग्र-ज:--अपने बड़े भाई; अर्चितः --पूजा किया गया।

    इस प्रकार मीठी बातें करके उससे विदा लेकर भगवान्‌ कृष्ण मार्ग पर आगे बढ़े।

    रास्ते-भरव्यापारियों ने पान, मालाएँ तथा सुगन्धित द्रव्य से युक्त नाना प्रकार की सादर भेंटें अर्पित करकेउनकी तथा उनके बड़े भाई की पूजा की।

    तदर्शनस्मरक्षोभादात्मानं नाविदन्स्त्रिय: ।

    विस्त्रस्तवासःकवर वलया लेख्यमूर्तयः ॥

    १४॥

    तत्‌--उसको; दर्शन--देखने से; स्मर--कामदेव के प्रभाव से; क्षोभात्‌--उद्वेलित होने से; आत्मानम्‌-स्वयं को; न अविदन्‌--नहीं पहचान पाई; स्त्रियः--स्त्रियाँ; विस्त्रस्त--ढीले हुए; वास:--वस्त्र; कवर--चोटियाँ; वलया:--तथा उनकी चूड़ियाँ;लेख्य--मानो चित्रित; मूर्तवः--आकृतियाँ।

    कृष्ण के दर्शन से नगर की नारियों के हृदय में कामदेव जाग उठा।

    इस प्रकार क्षुब्ध होकरवे अपनी सुध-बुध खो दीं।

    उनके परिधान, लट तथा उनके कंगन ढीले पड़ जाते और वे चित्र मेंबनी आकृति सी स्तब्ध खड़ी रह जातीं।

    'ततः पौरान्पूच्छमानो धनुष: स्थानमच्युतः ।

    तस्मिग्प्रविष्टो ददृशे धनुरैन्द्रमिवाद्भुतम्‌ ॥

    १५॥

    ततः--तब; पौरान्‌ू--नगरवासियों से; पृच्छमान: --पूछते-पाछते; धनुष:--धनुष के ; स्थानम्‌--स्थान को; अच्युत:--अच्युतभगवान्‌ ने; तस्मिन्‌ू--वहाँ; प्रविष्ट:--घुसते हुए; ददशे--देखा; धनु:--धनुष; ऐन्द्रमू--इन्द्र का; इब--सहृश; अद्भुतम्‌--विस्मयकारी |

    तत्पश्चात्‌ कृष्ण ने स्थानीय लोगों से वह स्थान पूछा जहाँ धनुष-यज्ञ होना था।

    जब वे वहाँगये तो उन्होंने विस्मथकारी धनुष देखा जो इन्द्र के धनुष जैसा था।

    पुरुषैर्बहुभिर्गुप्तमर्चितं परमर्दद्रिमत्‌ ।

    वार्यमाणो नृभि: कृष्ण: प्रसहा धनुराददे ॥

    १६॥

    पुरुषैः:--लोगों द्वारा; बहुभि:-- अनेक; गुप्तम्‌--रक्षित; अर्चितम्‌ू--पूजित; परम--परम; ऋद्धि--ऐश्वर्य से; मत्‌--युक्त;वार्यमाण:--मना किये गये; नृभि:--रक्षकों द्वारा; कृष्ण: --कृष्ण ने; प्रसह्या--बलपूर्वक; धनु:--धनुष को; आददे--उठालिया।

    उस अत्यन्त ऐश्वर्ययुक्त धनुष की लोगों की विशाल टोली द्वारा निगरानी की जा रही थी औरवे लोग उसकी आदर भाव से पूजा कर रहे थे।

    तो भी कृष्ण आगे बढ़ते गये और रक्षकों के मनाकरने के बावजूद उन्होंने उस धनुष को उठा लिया।

    करेण वामेन सलीलमुद्धृतंसज्यं च कृत्वा निमिषेण पश्यताम्‌ ।

    नृणां विकृष्य प्रबभञ्ञ मध्यतोयथेक्षुदण्डं मदकर्युरुक्रम: ॥

    १७॥

    'करेण--हाथ से; वामेन--बाएँ; स-लीलमू--खेल खेल में; उद्ध्ृतम्‌--उठाया; सज्यमू--डोरी चढ़ाकर; च--तथा; कृत्वा--करके; निमिषेण--पलक मारते; पश्यताम्‌--देखते देखते; नृणाम्‌ू--रक्षकों के; विकृष्य--खींचकर; प्रबभञ्--तोड़ डाला;मध्यत:--बीच से; यथा--जिस तरह; इश्लु--ईंख के; दण्डम्‌--तने को; मद-करी--मतवाला हाथी; उरुक्रम:--

    कृष्ण नेअपने बाएँ हाथ से उस धनुष को आसानी से उठाकर भगवान्‌ उरुक्रम ने राजा के रक्षकों केदेखते देखते एक क्षण से भी कम समय में डोरी चढ़ा दी।

    तत्पश्चात्‌ उन्होंने बलपूर्वक डोरीखींची और उस धनुष को बीच से तोड़ डाला जिस तरह मतवाला हाथी गज्ने को तोड़ दे।

    धनुषो भज्यमानस्य शब्द: खं रोदसी दिश: ।

    पूरयामास यं श्रुत्वा कंसस्त्रासमुपागमत्‌ ॥

    १८॥

    धनुष:--धनुष के; भज्यमानस्य--टूटने से; शब्द: -- ध्वनि; खम्‌--पृथ्वी; रोदसी-- आकाश; दिश:--तथा सारी दिशाएँ;पूरयाम्‌ आस--भर गईं; यम्‌--जिसे; श्रुत्वा--सुनकर; कंस:--राजा कंस ने; त्रासम्‌ू-- भय; उपागमत्‌-- अनुभव किया।

    धनुष के टूटने की ध्वनि पृथ्वी तथा आकाश की सारी दिशाओं में भर गई।

    इसे सुनकरकंस भयभीत हो उठा।

    तद्रक्षिण: सानुचरं कुपिता आततायिन: ।

    गृहीतुकामा आवल्नुर्गह्यातां वध्यतामिति ॥

    १९॥

    तत्‌--उसके; रक्षिण:--रक्षक; स--सहित; अनुचरम्‌--अपने संगी जनों; कुपिता:--क्रुद्ध; आततायिन:--हथियार लिए;गृहीतु--पकड़ने के लिए; कामा:--चाहते हुए; आवब्बु:--घेर लिया; गृह्मयतामू--पकड़ लो; वध्यताम्‌--मार डालो; इति--ऐसाकहते हुए

    तब क्रुद्ध रक्षकों ने अपने अपने हथियार उठा लिये और कृष्ण तथा उनके संगियों कोपकड़ने की इच्छा से उन्हें घेर लिया और 'पकड़ लो, मार डालो ' कहकर चिल्लाने लगे।

    अथ तान्दुरभिप्रायान्विलोक्य बलकेशवौ ।

    क्रुद्धों धन्चन आदाय शकले तांश्व जघ्नतु: ॥

    २०॥

    अथ--त्पश्चात्‌; तान्‌ू--उनको; दुरभिप्रायान्‌--दुष्ट अभिप्राय वाले; विलोक्य--देखकर; बल-केशवौ--बलराम तथा कृष्ण ने;क्रुद्धों--क्रुद्ध; धन्वन:-- धनुष के; आदाय--लेकर; शकले--दोनों टूटे खंड; तान्‌ू--उनको; च--तथा; जष्नतु:-- प्रहारकिया।

    दुर्भावना से रक्षकों को अपनी ओर आते देखकर बलराम तथा कृष्ण ने धनुष के दोनोंखण्डों को अपने हाथों में ले लिया और वे उन सबों को इन्हीं से मारने लगे।

    बलं च कंसप्रहितं हत्वा शालामुखात्तत: ।

    निष्क्रम्य चेरतुईएष्टी निरीक्ष्य पुरसम्पद: ॥

    २१॥

    बलम्‌--सेना; च--तथा; कंस-प्रहितम्‌--कंस द्वारा भेजी; हत्वा--मारकर; शाला--यज्ञस्थल के; मुखात्‌--द्वार से; ततः--तब; निष्क्रम्य--निकलकर; चेरतु:--दोनों विचरण करने लगे; हृष्टौ-- प्रसन्न; निरीक्ष्य--देखकर; पुर--नगर की; सम्पद:--सम्पदा।

    कंस द्वारा भेजी गई सैन्य-टुकड़ी को भी मारकर कृष्ण तथा बलराम यज्ञशाला के मुख्य द्वारसे निकल आये और सुखपूर्वक ऐश्वर्यमय दृश्य देखते हुए नगर में घूमते रहे।

    तयोस्तदद्धुतं वीर्य निशाम्य पुरवासिन: ।

    तेज: प्रागल्भ्यं रूपं च मेनिरे विबुधोत्तमौ ॥

    २२॥

    तयो:--उन दोनों के; तत्‌--उस; अद्भुतम्‌-- अद्भुत; वीर्यम्‌--बीरतापूर्ण कार्य को; निशाम्य--देखकर; पुर-वासिन:--नगरनिवासी; तेज:--उनके तेज; प्रागल्भ्यम्‌-प्रगल्भता, साहस; रूपम्‌--सौन्दर्य को; च--तथा; मेनिरे--उन्होंने सोचा; विबुध--देवता; उत्तमौ--दो श्रेष्ठ |

    कृष्ण तथा बलराम द्वारा किये गये अदभुत कार्य तथा उनके बल, साहस एवं सौन्दर्य कोदेखकर नगरवासियों ने सोचा कि वे अवश्य ही दो मुख्य देवता हैं।

    तयोर्विचरतोः स्वैरमादित्योस्तमुपेयिवान्‌ ।

    कृष्णरामौ वृतौ गोपै: पुराच्छकटमीयतु: ॥

    २३॥

    तयो:--उन दोनों के; विचरतो:--विचरण करते; स्वैरम्‌--इच्छानुसार; आदित्य: --सूर्य; अस्तमू-- डूबने के; उपेयिवान्‌--निकट हो आया; कृष्ण-रामौ--कृष्ण तथा बलराम; वृतौ--घिरे; गोपै:--ग्वालों से; पुरात्‌ू--नगरसे; शकटम्‌--जहाँ परबैलगाड़ियाँ खड़ी थीं; ईयतु:--गये |

    जब वे इच्छानुसार विचरण कर रहे थे तब सूर्य अस्त होने लगा था अतः वे ग्वालबालों केसाथ नगर को छोड़कर ग्वालों के बैलगाड़ी वाले खेमे में लौट आये।

    गोप्यो मुकुन्दविगमे विरहातुरा याआशासताशिष ऋता मधुपुर्य भूवन्‌ ।

    सम्पश्यतां पुरुषभूषणगात्रलक्ष्मींहित्वेतरात्रु भजतश्चकमेउयनं श्री: ॥

    २४॥

    गोप्य:--गोपियाँ; मुकुन्द-विगमे--मुकुन्द के विदा होते समय; विरह--वियोग की भावना से; आतुरा:--शोकाकुल; या: --जो; आशासत--बोली थीं; आशिष:--वर, आशीर्वाद; ऋता:--सच; मधु-पुरि--मथुरा में; अभूवन्‌--हो गये; सम्पश्यताम्‌--देखने वालों के लिए; पुरुष--मनुष्यों के; भूषण-- आभूषण के; गात्र--शरीर के; लक्ष्मीमू--सौन्दर्य; हित्वा--त्यागकर;इतरान्‌--अन्य लोग; नु--निस्सन्देह; भजत:--उनकी पूजा करने वाले; चकमे--लालसा करने लगे; अयनम्‌--शरण के लिए;श्री:-- लक्ष्मी |

    वृन्दावन से मुकुन्द ( कृष्ण ) के विदा होते समय गोपियों ने भविष्यवाणी की थी किमथुरावासी अनेक वरों का भोग करेंगे और अब उन गोपियों की भविष्यवाणी सत्य उतर रही थीक्योंकि मथुरा के वासी पुरुष-रत्न कृष्ण के सौन्दर्य को एकटक देख रहे थे।

    निस्सन्देह लक्ष्मीजीउस सौन्दर्य का आश्रय इतना चाहती थीं कि उन्होंने अनेक अन्य लोगों का परित्याग कर दिया,यद्यपि वे उनकी पूजा करते थे।

    अवनिक्ताडूप्रियुगलौ भुक्त्वा क्षीरोपसेचनम्‌ ।

    ऊपषतुस्तां सुख रात्रि ज्ञात्वा कंसचिकीर्षितम्‌ ॥

    २५॥

    अवनिक्त--धुलाकर; अड्प्रि-युगलौ--दोनों के पाँव; भुक्त्वा--खाने के बाद; क्षीर-उपसेचनम्‌--खीर; ऊषतु:--वहाँ टिकेरहे; तामू--उस; सुखम्‌--सुखपूर्वक; रात्रिमू--रात; ज्ञात्वा--जानकर; कंस-चिकीर्षितम्‌--कंस के लिए जो चाह रहा था

    कृष्ण तथा बलराम के पाँव धोये जाने के बाद दोनों भाइयों ने खीर खाई।

    तत्पश्चात्‌ यहजानते हुए ही कि कंस कया करना चाहता है, उन दोनों ने वहाँ सुखपूर्वक रात बिताई।

    कंसस्तु धनुषो भड़ं रक्षिणां स्वबलस्य च ।

    वर्ध॑ निशम्य गोविन्दरामविक्रीडितं परम्‌ ॥

    २६॥

    दीर्घप्रजागरो भीतो दुर्निमित्तानि दुर्मति: ।

    बहून्यचष्टो भयथा मृत्योदौत्यकराणि च ॥

    २७॥

    कंसः--कंस; तु--लेकिन; धनुष:--धनुष का; भड़म्‌--टूटना; रक्षिणाम्‌ू--रक्षकों का; स्व--अपने; बलस्य--सेना का; च--तथा; वधम्‌--मारा जाना; निशम्य--सुनकर; गोविन्द-राम--कृष्ण तथा राम का; विक्रीडितम्‌ू--खेलना; परम्‌--मात्र; दीर्घ--दीर्घकाल तक; प्रजागर:--जगा रहा; भीतः--डरा हुआ; दुर्निमित्तानि--अपशकुन; दुर्मति:--दुष्टबुद्ध्धि; बहूनि-- अनेक;अचष्ट--देखा; उभयथा--दोनों ही दशाओं ( जगते-सोते ) में; मृत्यो:--मृत्यु के; दौत्य-कराणि--दूतों को; च--तथा |

    दूसरी ओर दुर्भति राजा कंस ने जब यह सुना कि किस तरह खेल की भान्ति कृष्ण तथाबलराम ने धनुष तोड़ डाला है और उसके रक्षकों तथा सैनिकों को मार डाला है, तो वहअत्यधिक भयभीत हो उठा।

    वह काफी समय तक जागता रहा और जागते तथा सोते हुए उसनेमृत्यु के दूतों वाले कई अपशकुन देखे।

    अदर्शनं स्वशिरस: प्रतिरूपे च सत्यपि ।

    असत्यपि द्वितीये च द्वैरूप्यं ज्योतिषां तथा ॥

    २८॥

    छिद्रप्रतीतिश्छायायां प्राणघोषानुपश्रुति: ।

    स्वर्णप्रतीतिर्वृक्षेषु स्वपदानामदर्शनम्‌ ॥

    २९॥

    स्वप्ने प्रेतपरिष्वड्र: खरयानं विषादनम्‌ ।

    यायात्नलदमाल्येकस्तैला भ्यक्तो दिगम्बर: ॥

    ३०॥

    अन्यानि चेत्थंभूतानि स्वप्जजागरितानि च ।

    पश्यन्मरणसन्त्रस्तो निद्रां लेभे न चिन्तया ॥

    ३१॥

    अदर्शनम्‌--न दिखाई पड़ना; स्व--अपना; शिरस:--सिर; प्रतिरूपे--परछाई में; च--तथा; सति--उपस्थित रहकर; अपि--भी; असति--नहीं होना; अपि-- भी; द्वितीये--दो-दो का कारण; च--त था; द्वै-रूप्यम्‌--दो प्रतिबिम्ब; ज्योतिषाम्‌--नक्षत्रोंके; तथा-- भी; छिद्गर--छेद का; प्रतीतिः--दिखना; छायायाम्‌-- अपनी छाया में; प्राण--अपनी प्राण-वायु की; घोष--अनुगूँज; अनुपश्रुति:--न सुनाई पड़ना; स्वर्ण--सुनहले रंग की; प्रतीति:--अनुभूति; वृक्षेषु--वृक्षों में; स्व-- अपना;पदानाम्‌-पदचिह्त; अदर्शनमू--न दिखना; स्वप्ने--सोते हुए; प्रेत-- भूत-प्रेतों से; परिष्वड़: --आलिंगित; खर--गधे पर;यानम्‌--सवारी करते; विष--जहर; अदनम्‌-- भक्षण करते; यायात्‌--जा रहा था; नलद--एक फूल, अडहुल; माली--मालापहने; एक:--कोई; तैल--तेल से; अभ्यक्त:--चपोड़े; दिक्‌ू-अम्बर:--नग्न; अन्यानि-- अन्य ( शकुन ); च--तथा; इत्थम्‌-भूतानि--इस तरह के; स्वप्न--सोते समय; जागरितानि--जगते हुए; च-- भी; पश्यन्‌--देखते हुए; मरण--मृत्यु से;सन्त्रस्त:-- भयभीत; निद्रामू--नींद; लेभे--प्राप्त कर सका; न--नहीं; चिन्तया--चिन्ता के कारण।

    जब उसने अपनी परछाईं देखी तो उसमें उसे अपना सिर नहीं दिखा, अकारण ही चन्द्रमातथा तारे दो-दो लगने लगे; उसे अपनी छाया में छेद दिखा, उसे अपनी प्राण-वायु की ध्वनिसुनाई नहीं पड़ी, वृक्ष सुनहली आभा से प्रच्छन्न लगने लगे और वह अपने पदचिन्हों को न देखसका।

    उसने स्वप्न में देखा कि भूत-प्रेत उसका आलिंगन कर रहे हैं, वह गधे पर सवार है औरविष पी रहा है।

    यही नहीं, नलद ( अडहुल ) फूलों की माला पहने और तेल पोते एक नंगाव्यक्ति उधर से जा रहा है।

    इन तथा अन्य ऐसे अपशकुनों को स्वप्न में तथा जागते हुए देखकरकंस अपनी मृत्यु की सम्भावना से भयभीत था और चिन्ता के कारण वह सो न सका।

    व्यूष्टायां निशि कौरव्य सूर्ये चादभ्यः समुत्थिते ।

    कारयामास वै कंसो मल्लक्रीडामहोत्सवम्‌ ॥

    ३२॥

    व्युष्टायामू--बीत जाने पर; निशि--रात; कौरव्य--हे कुरुवंशी ( परीक्षित ); सूर्य--सूर्य; च--तथा; अद्भ्य:--जल से;समुत्थिते--उदय होने पर; कारयाम्‌ आस--पूरा कराया; बै--निस्सन्देह; कंसः--कंस; मल्‍ल--पहलवानों के; क्रीडा--खेल'का; महा-उत्सवम्‌--बहुत विशाल उत्सव।

    जब अन्ततः रात बीत गई और सूर्य पुनः जल में से ऊपर निकला तो कंस विशाल कुश्ती-उत्सव ( दंगल ) का आयोजन करने लगा।

    आनर्च: पुरुषा ऱडं तूर्यभेर्य श्र जघ्निरे ।

    मज्जाश्नालड्डू ता: स्त्रग्भि: पताकाचैलतोरणै: ॥

    ३३॥

    आनर्चु:--पूजा की; पुरुषा:--राजा के लोगों ने; रड्म्‌--रंगभूमि या शाला की; तूर्य--तुरही; भेय:--ढोल; च--तथा;जध्निरि--बजने लगे; मज्ञा: --देखने के मचान, चबूतरे; च--तथा; अलछड्डू ताः--सजाये गये थे; स्त्रग्भिः--मालाओं से;पताका--झंडियों से; चैल--वस्त्र के फीतों से; तोरणैः--द्वारों से, बन्दनवारों से |

    राजा के लोगों ने मल्‍लस्थल ( दंगल ) की विधिवत्‌ पूजा की, अपने ढोल तथा अन्य वाद्यबजाये और दर्शकदीर्घाओं को मालाओं, झंडियों, फीतों तथा बन्दनवारों से खूब सजाया गया।

    तेषु पौरा जानपदा ब्रह्मक्षत्रपुरोगमा: ।

    यथोपजोषं विविशू राजानश्चव॒ कृतासना: ॥

    ३४॥

    तेषु--इन ( मंचों ) पर; पौरा:--नगरनिवासी; जानपदा: --आसपास से आये लोग; ब्रह्म--ब्राह्मणों; क्षत्र--श्षत्रियों के साथ;पुरः-गमाः --इत्यादि; यथा-उपजोषम्‌--सुविधानुसार; विविशु:--आकर बैठ गये; राजान:--राजागण; च-- भी; कृत--दियेगये; असना:--विशेष बैठने के स्थान।

    नगरनिवासी तथा पड़ोसी जिलों के निवासी ब्राह्मण तथा क्षत्रियों इत्यादि के साथ आये औरदीर्घाओं में सुखपूर्वक बैठ गये।

    राजसी अतिथियों को विशिष्ट स्थान दिये गये।

    कंसः परिवृतो<मात्यै राजमञ्ञ उपाविशत्‌ ।

    मण्डलेश्वरमध्यस्थो हृदयेन विदूयता ॥

    ३५॥

    कंसः--कंस; परिवृतः--घिरा हुआ; अमात्यै:--अपने मंत्रियों से; राज-मझ्ले--राजसी मंच पर; उपाविशति--बैठा; मण्डल-ईश्वर--विभिन्न मण्डलों के गौण शासक; मध्य--बीच में; स्थः:--स्थित; हृदयेन--हृदय से; विदूयता--थरथराता, काँपता |

    अपने मंत्रियों से घि हुआ कंस अपने राजमंच पर आसीन हुआ।

    किन्तु अपने विविधमण्डलेश्वरों के बीच में बैठे हुए भी उसका हृदय काँप रहा था।

    वाद्यमानेसु तूर्येषु मल्‍लतालोत्तरेषु च ।

    मल्लाः स्वलड्डू ताः दृप्ताः सोपाध्याया: समासत ॥

    ३६॥

    वाह्यमानेषु--बजाये जाने पर; तूर्येषु--तुरही पर; मल्‍ल--कुश्ती के उपयुक्त; ताल--ताल, थाप; उत्तरेषु--प्रमुख; च--तथा;मल्ला:--पहलवान; सु-अलड्डू ता:--सुसज्जित; हप्ता:--गर्वित; स-उपाध्याया: --अपने अपने प्रशिक्षकों सहित; समासत--आकर बैठ गये।

    जब कुश्ती के उपयुक्त ताल पर वाद्य यंत्र जोर जोर से बजने लगे तो खूब सजे गर्वीलेपहलवान अपने अपने प्रशिक्षकों समेत अखाड़े में प्रविष्ट हुए और बैठ गये।

    चाणूरो मुष्टिक: कूतः शलस्तोशल एव च ।

    त आसेदुरुपस्थानं वल्गुवाद्यप्रहर्षिता: ॥

    ३७॥

    चाणूरः मुष्टिक: कूट:--चाणूर, मुष्टिक तथा कूट नामक पहलवान; शलः तोशल:--शल तथा तोशल; एवं च-- भी; ते--वे;आसेदु:--बैठ गये; उपस्थानमू-- अखाड़े की चटाई पर; वल्गु--मोहक; वाद्य--संगीत से; प्रहर्षिता:--हर्षित, उत्साहित |

    आनंददायक संगीत से उललासित होकर चाणूर, मुपष्टिक, कूट, शल तथा तोशल अखाड़े कीचटाई पर बैठ गये।

    नन्दगोपादयो गोपा भोजराजसमाहुता: ।

    निवेदितोपायनास्त एकस्मिन्मञ्ञ आविशन्‌ ॥

    ३८ ॥

    नन्द-गोप-आदय: --नन्द गोप इत्यादि; गोपा:--ग्वाले; भोज-राज--कंस द्वारा; समाहुता:--आगे बुलाये जाने पर; निवेदित--प्रस्तुत करते हुए; उपायना:--अपनी भेंटें; ते--वे; एकस्मिन्‌--एक; मज्ले--दर्शक दीर्घा में; आविशन्‌--बैठ गये ।

    भोजराज ( कंस ) द्वारा बुलाये जाने पर नंद महाराज तथा अन्य ग्वालों ने उसे अपनी अपनीभेंटें पेश कीं और तब वे एक दीर्घा में जाकर बैठ गये।

    TO

    अध्याय तैंतालीसवाँ: कृष्ण ने हाथी कुवलयापीड को मार डाला

    10.43श्रीशुक उवाचअथ कृष्णश्च रामश्च कृतशौचौ परन्तप ।

    मल्लदुन्दुभिनिर्धोषं श्रुत्वा द्रष्टमुपेयतु: ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; अथ--इसके बाद; कृष्ण: --कृष्ण; च--तथा; राम:--बलराम; च-- भी;कृत--पूरा करके, निवृत्त; शौचौ--शौच कर्म; परम्‌ू-तप--हे शत्रुओं को दण्ड देने वाले; मल्‍ल--कुश्ती की; दुन्दुभि--नगाड़ेकी; निर्घोषम्‌--ध्वनि; श्रुत्वा--सुनकर; द्रष्टमू--देखने के लिए; उपेयत:--पास पहुँचे |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे परन्तप, नित्य शौच कर्मों से निवृत्त होकर जब कृष्ण तथाबलराम ने अखाड़े ( रंगशाला ) में बजने वाले नगाड़े की ध्वनि सुनी तो वे वहाँ यह देखने गयेकि हो क्‍या रहा है।

    रखुद्वारं समासाद्य तस्मिन्नागमवस्थितम्‌ ।

    अपश्यत्कुवलयापीडं कृष्णोःम्बष्ठप्रचोदितम्‌ ॥

    २॥

    रड्टन--अखाड़े के; द्वारम्‌--द्वार पर; समासाद्य--पहुँचकर; तस्मिनू--उस स्थान पर; नागम्‌--हाथी को; अवस्थितम्‌--खड़ा;अपश्यत्‌--देखा; कुवलयापीडम्‌--कुवलयापीड नामक; कृष्ण:--कृष्ण ने; अम्बष्ठ--महावत द्वारा; प्रचोदितम्‌--प्रेरित ।

    जब भगवान्‌ कृष्ण अखाड़े के प्रवेशद्वार पर पहुँचे तो उन्होंने देखा कि कुवबलयापीड नामकहाथी अपने महावत की उत्प्रेरणा से उनका रास्ता रोक रहा है।

    बद्ध्वा परिकरं शौरि: समुह्य कुटिलालकान्‌ ।

    उवाच हस्तिपं वाचा मेघनादगभीरया ॥

    ३॥

    बद्ध्वा--बाँधकर; परिकरम्‌--फेंटा; शौरि:-- कृष्ण ने; समुह्य--समेट कर; कुटिल--घूँघराले; अलकान्‌--बालों को;उवाच--कहा; हस्ति-पम्‌--महावत से; वाचा--शब्दों से; मेघ--बादल जैसे; नाद--गर्जन की तरह; गरभीरया--गम्भीर।

    भगवान्‌ कृष्ण ने अपना फेंटा कसकर तथा अपने घुँघराले बालों को पीछे बाँधकर महावतसे बादलों जैसी गम्भीर गर्जना में ये शब्द कहे।

    अम्बष्ठाम्बष्ठ मार्ग नौ देह्यपक्रम मा चिरम्‌ ।

    नो चेत्सकुझरं त्वाद्य नयामि यमसादनम्‌ ॥

    ४॥

    अम्बष्ठ अम्बष्ठ--रे महावत, रे महावत; मार्गम्‌--रास्ता; नौ--हम दोनों को; देहि--दो; अपक्रम--एक ओर हट जाओ; माचिरम्‌--बिना देरी किये; न उ चेत्‌--यदि नहीं; स-कुझ्जरम्‌--हाथी समेत; त्व--तुमको; अद्य--आज; नयामि-- भेज दूँगा;यम--मृत्यु के स्वामी, यमराज के; सादनम्‌--घर में |

    कृष्ण ने कहा : रे महावत, रे महावत, तुरन्त एक ओर हो जा और हमें निकलने दे।

    यदितू ऐसा नहीं करता तो आज ही मैं तुम्हारे हाथी समेत तुम्हें यमराज के धाम भेज दूँगा।

    एवं निर्भस्सितोम्बष्ठ: कुपितः कोपितं गजम्‌ ।

    चोदयामास कृष्णाय कालान्तकयमोपमम्‌ ॥

    ५॥

    एवम्‌--इस प्रकार; निर्भ्त्सित:-- धमकाया गया; अम्बष्ठ:--महावत ने; कुपित:--कुद्ध; कोपितम्‌--कुपित हुए; गजम्‌--हाथीको; चोदयाम्‌ आस--अंकुश मारा; कृष्णाय--कृष्ण की ओर; काल--समय; अन्तक--मृत्यु; यम--तथा यमराज; उपमम्‌--के सहश।

    इस प्रकार धमकाये जाने पर महावत क्रुद्ध हो उठा।

    उसने अपने उग्र हाथी को अंकुशजमाईं।

    वह आक्रमण करने वाले कृष्ण पर काल, मृत्यु तथा यमराज के समान प्रतीत हुआ।

    करीन्द्रस्तमभिद्गुत्य करेण तरसाग्रहीतू ।

    कराद्विगलितः सोमुं निहत्याड्प्रिष्वलीयत ॥

    ६॥

    'करि--हाथियों के; इन्द्र:--स्वामी ने; तम्‌--उसको; अभिद्वुत्य--की ओर दौड़ते हुए; करेण--सूँड़ से; तरसा--वेग से;अग्रहीतू--पकड़ लिया; करातू--सूँड़ से; विगलित:--छटक कर; सः--वह, कृष्ण; अमुम्‌ू--उस कुवलयापीड को; निहत्य--प्रहार करके; अड्रप्रिषु--उसके पाँवों के बीच; अलीयत--ओझल हो गया।

    उस हस्तिराज ने कृष्ण पर आक्रमण कर दिया और अपनी सूँड़ से तेजी से उन्हें पकड़ लिया।

    किन्तु कृष्ण सरक गये, उस पर एक घूँसा जमाया और उसके पैरों के बीच जाकर उसकीदृष्टि से ओझल हो गये।

    सड्क्रुद्धस्तमचक्षाणो प्राणदृष्टि: स केशवम्‌ ।

    परामृशत्पुष्करेण स प्रसह्य विनिर्गतः ॥

    ७॥

    सड्क्ुद्ध:--क्रुद्ध हुआ; तम्‌--उसको; अचक्षाण:--न देखकर; प्राण --अपनी प्राण-इन्द्रिय से; दृष्टि:--दृष्टि; सः--उस हाथीने; केशवम्‌-- भगवान्‌ केशव को; परामृशत्‌--पकड़ लिया; पुष्करेण--अपने सूँड़ के अग्र भाग से; सः--कृष्ण; प्रसहा--बलपूर्वक; विनिर्गत:ः--छूट गया।

    भगवान्‌ केशव को न देख पाने से क्रुद्ध हुए उस हाथी ने अपनी प्राण-इन्द्रिय से उन्हें खोजनिकाला।

    कुवलयापीड ने एक बार फिर भगवान्‌ को अपनी सूँड़ के अग्र भाग से पकड़ा किन्तुउन्होंने बलपूर्वक अपने को छुड़ा लिया।

    पुच्छे प्रगुद्मातिबलं धनुष: पञ्जञविंशतिम्‌ ।

    विचकर्ष यथा नागं सुपर्ण इब लीलया ॥

    ८॥

    पुच्छे--उसकी पूँछ से; प्रगृह्म--पकड़कर; अति-बलम्‌--अत्यन्त शक्तिशाली ( हाथी ); धनुष:--धनुष के बराबर दूरी; पञ्ञ-विंशतिम्‌ू--पच्चीस; विचकर्ष--घसीटा; यथा--जिस तरह; नागम्‌ू--साँप को; सुपर्ण:--गरुड़; इब--सहृश; लीलया--खेलखेल में।

    तब भगवान्‌ कृष्ण ने बलशाली कुवलयापीड को पूँछ से पकड़ा और खेल खेल में वे उसेपतच्चीस धनुष-दूरी तक वैसे ही घसीट ले गये जिस तरह गरुड़ किसी साँप को घसीटता है।

    स पर्यावर्तमानेन सव्यदक्षिणतोच्युत: ।

    बश्चाम भ्राम्यमाणेन गोवत्सेनेव बालक: ॥

    ९॥

    सः--वह; पर्यावर्तमानेन--घुमाये जाते हाथी के साथ; सव्य-दक्षिणत:--कभी बाएँ तो कभी दाएँ; अच्युत:-- भगवान्‌ कृष्ण;बश्राम--घूमने लगे; भ्राम्यमाणेन--घुमाये जाने वाले के साथ साथ; गो-वत्सेन--बछड़े सहित; इब--जिस तरह; बालक:--कोई बालक ।

    जब भगवान्‌ अच्युत ने हाथी की पूँछ पकड़ी तो वह बाएँ और फिर दाएँ घूमने का प्रयासकरने लगा, जिससे भगवान्‌ उल्टी दिशा में घूमने लगे जिस तरह कि कोई बालक किसी बछड़ेकी पूँछ खींचने पर घूमता है।

    ततोभिमखमभ्येत्य पाणिनाहत्य वारणम्‌ ।

    प्राद्रवन्पातयामास स्पृश्यमान: पदे पदे ॥

    १०॥

    ततः--तब; अभिमुखम्‌--समक्ष; अभ्येत्य--आकर; पाणिना--हाथ से; आहत्य--थप्पड़ लगाकर; वारणम्‌--हाथी को;प्राद्बन्‌ू-- भगते हुए; पातयाम्‌ आस--गिरा दिया; स्पृश्यमान:--स्पर्श किया जाकर; पदे पदे--पग पग पर |

    तब कृष्ण उस हाथी के सामने आये और उसे चपत लगाकर भाग गये।

    कुवलयापीड उनकापीछा करने लगा, वह उन्हें प्रत्येक पग पर बारम्बार छूने का इस तरह का प्रयास करता किन्तुकृष्ण बचकर निकल जाते।

    उन्होंने उसे झाँसा देकर गिरा दिया।

    स धावन्कृईदया भूमौ पतित्वा सहसोत्थितः ।

    तम्मत्वा पतितं क्रुद्धो दन्ताभ्यां सोहनत्क्षितिम्‌ू ॥

    ११॥

    सः--वह; धावन्‌--दौड़ते हुए; क्रीडया--खेल खेल में; भूमौ-- भूमि पर; पतित्वा--गिरकर; सहसा--एकाएक; उत्थित:--उठकर; तम्‌--उसको; मत्वा--मानते हुए; पतितम्‌ू--गिरा हुआ; क्रुद्ध:--छुद्ध; दन्ताभ्याम्‌ू--उसके दाँतों सहित; सः--वह,'कुवलयापीड; अहनत्‌--टकराये; क्षितिम्‌ू--पृथ्वी पर।

    कृष्ण झुठलाते हुए खेल खेल में पृथ्वी पर गिर पड़ते और पुनः तेजी से उठ जाते।

    क्रुद्धहाथी ने कृष्ण को गिरा समझकर उन पर अपने दाँत चुभोने चाहे किन्तु उल्टे वे दाँत धरती से जाटकराये।

    स्वविक्रमे प्रतिहते कुद्धरेन्द्रोउत्यमर्षित: ।

    चोद्यमानो महामात्रै: कृष्णमभ्यद्रवद्रुघा ॥

    १२॥

    स्व--अपने; विक्रमे--पराक्रम में; प्रतिहति--असफल होने पर; कुझ्जर-इन्द्र:--हाथियों का राजा; अति--अत्यधिक;अमर्षित:--क्रोध से विचलित; चोद्यमान: -- प्रेरित किया गया; महामात्रै:--महावत द्वारा; कृष्णम्‌--कृष्ण पर; अभ्यद्रवत्‌--आक्रमण किया; रुषा--क्रोध से |

    जब हस्तिराज कुवलयापीड का पराक्रम व्यर्थ गया तो वह निराशा-जनित क्रोध से जलभुन उठा।

    किन्तु महावत ने उसे अंकुश मारा और उसने पुनः एक बार कृष्ण पर क्रुद्ध होकर आक्रमणकर दिया।

    तमापतन्तमासाद्य भगवान्मधुसूदन: ।

    निगृह्य पाणिना हस्तं पातयामास भूतले ॥

    १३॥

    तम्‌--उसको; आपतन्तमू-- आक्रमण करते; आसाद्य--सामना करके; भगवान्‌-- भगवान्‌; मधु-सूदन:--मधु नामक असुर कावध करने वाले ने; निगृह्य--मजबूती से पकड़ कर; पाणिना--अपने हाथ से; हस्तम्‌--उसके सूँड़ को; पातयाम्‌ आस--गिरादिया; भू-तले--पृथ्वी पर

    भगवान्‌ मधुसूदन ने अपने ऊपर आक्रमण करते हुए हाथी का सामना किया।

    एक हाथ सेउसकी सूँड़ पकड़ कर कृष्ण ने उसे धरती पर पटक दिया।

    'पतितस्य पदाक्रम्य मृगेन्द्र इब लीलया ।

    दन्तमुत्पाट्य तेनेभं हस्तिपांश्चाहनद्धरि: ॥

    १४॥

    'पतितस्य--गिरे हुए ( हाथी ) का; पदा--अपने पाँव से; आक्रम्य--चढ़कर; मृगेन्द्र:--सिंह; इब--सहृश; लीलया--सहज ही;दन्‍्तम्‌--एक दाँत को; उत्पाट्य--उखाड़ कर; तेन--उसी से; इभम्‌--हाथी को; हस्ति-पानू--महावतों को; च-- भी;अहनत्‌--मार डाला; हरिः-- भगवान्‌ कृष्ण ने

    तब भगवान्‌ हरि शक्तिशाली सिंह के ही समान आसानी से हाथी के ऊपर चढ़ गये, उसकाएक दाँत उखाड़ लिया और उसी से उस जानवर को तथा उसके महावतों को मार डाला।

    मृतकं द्विपमुत्सृज्य दन्‍्तपाणि: समाविशत्‌ ।

    अंसन्यस्तविषाणोसूड्मदबिन्दुभिरड्धितः ।

    विरूढस्वेदकणिका वदनाम्बुरुहो बभौ ॥

    १५॥

    मृतकम्‌--मृत; द्विपम्‌ू--हाथी को; उत्सूज्य--फेंक कर, छोड़ कर; दन्‍्त--उसका दाँत; पाणि:--अपने हाथ में; समाविशत्‌--( अखाड़े में ) घुसे; अंस--कंधे पर; न्यस्त--रखकर; विषाण: --दाँत; असृक्‌ू--रक्त की; मद--तथा हाथी के पसीने की;बिन्दुभि:--बूँदों से; अद्धित:--छिड़की हुई; विरूढ--निकालते हुए; स्वेद--अपने पसीने की; कणिका--सूक्ष्म बूँदों से;वदन--मुख; अम्बु-रुह:--कमल जैसा; बभौ--चमक रहा था।

    मरे हुए हाथी को वहीं छोड़कर भगवान्‌ कृष्ण हाथी का दाँत लिये अखाड़े में प्रविष्ट हुए।

    अपने कंधे पर हाथी का दाँत रखे, उस हाथी के रक्त तथा पसीने के छींटे पड़े हुए शरीर औरअपने ही पसीने की छोटी छोटी बूँदों से आच्छादित कमलमुख भगवान्‌ परम सुशोभित लग रहेथे।

    वृतौ गोपै: कतिपयैर्बलदेवजनार्दनौ ।

    रड्डं विविशतू राजन्गजदन्तवरायुधौ ॥

    १६॥

    बृतौ--घिरे हुए; गोपैः--ग्वालबालों से; कतिपयैः--अनेक ; बलदेव-जनार्दनौ--बलराम तथा कृष्ण; रड्रम्‌ू--अखाड़े में;विविशतु:--प्रविष्ट हुए; राजन्‌--हे राजन्‌ ( परीक्षित ); गज-दन्त--हाथी के दाँतों; बर--चुने हुए; आयुधौ--हथियार वालेहे राजनू, भगवान्‌ बलदेव तथा भगवान्‌ जनार्दन दोनों ही उस हाथी के एक एक दाँत कोअपने चुने हुए हथियार के रूप में लिये हुए अनेक ग्वालबालों के साथ अखाड़े में प्रविष्ट हुए।

    मल्लानामशनिर्नुणां नरवरः स्त्रीणां स्मरो मूर्तिमान्‌गोपानां स्वजनोसतां क्षितिभुजां शास्ता स्वपित्रो: शिशु: ।

    मृत्युभोजपतेर्विराडविदुषां तत्त्वं परे योगिनांवृष्णीनां परदेवतेति विदितो रड्ढं गतः साग्रज: ॥

    १७॥

    मल्लानाम्‌--पहलवानों के लिए; अशनि:--वज्; नृणाम्‌--पुरुषों के लिए; नर-वरः-- श्रेष्ठ-पुरुष; स्त्रीणाम्‌ू--स्त्रियों के लिए;स्मरः--कामदेव; मूर्ति-मान्‌ू--अवतार; गोपानाम्‌-ग्वालों के लिए; स्व-जन:--उनके सम्बन्धी; असताम्‌--दुष्ट; क्षिति-भुजामू--राजाओं के लिए; शास्ता--दण्ड देने वाला; स्व-पित्रो:--अपने माता-पिता के लिए; शिशु:--बालक; मृत्यु:--मृत्यु;भोज-पते:--भोजों के राजा कंस के लिए; विराट्‌--सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड; अविदुषाम्‌-मूर्खो के लिए; तत्त्वम्‌-सत्य; परम्‌--परम; योगिनामू--योगियों के लिए; वृष्णीनामू--वृष्टिकुल के सदस्यों के लिए; पर-देवता--परम पूज्य देव; इति--इस तरह;विदित:--समझा; रड्रम्‌--अखाड़े में; गत:--प्रविष्ट हुए; स--सहित; अग्र-ज:--बड़े भाई

    जब कृष्ण अपने बड़े भाई के साथ अखाड़े में प्रविष्ट हुए तो विभिन्न वर्गों के लोगों ने कृष्णको भिन्न भिन्न रूपों में देखा।

    पहलवानों ने कृष्ण को वज्ञ के समान देखा, मथुरावासियों नेश्रेष्ट-पुरुष के रूप में, स्त्रियों ने साक्षात्‌ कामदेव के रूप में, ग्वालों ने अपने सम्बन्धी के रूप में,दुष्ट शासकों ने दण्ड देने वाले के रूप में, उनके माता-पिता ने अपने शिशु के रूप में, भोजराजने मृत्यु के रूप में, मूर्खों ने भगवान्‌ के विराट रूप में, योगियों ने परम ब्रह्म के रूप में तथावृष्णियों ने अपने परम आराध्य देव के रूप में देखा।

    हतं कुवलयापीडं इृष्ट्रा तावपि दुर्जयौ ।

    कंसो मनस्यपि तदा भ्रृशमुद्विविजे नूप ॥

    १८॥

    हतम्‌--मारा गया; कुवलयापीडम्‌--कुवलयापीड हाथी को; हृष्टा--देखकर; तौ--दोनों, कृष्ण तथा बलराम; अपि--तथा;दुर्जयौ--दुर्जय, न जीते जा सकने योग्य; कंस:--कंस ने; मनसि--अपने मन में; अपि--निस्सन्देह; तदा--तब; भूशम्‌--अत्यधिक; उद्विविजे--उद्विग्न हो उठा; नृप--हे राजा ( परीक्षित )॥

    जब कंस ने देखा कि कुबलयापीड मारा गया है और दोनों भाई अजेय हैं, तो हे राजन, वहचिन्ता से उद्विग्न हो उठा।

    तौ रेजतू रड़्गतौ महाभुजौविचित्रवेषाभरणस्त्रगम्बरौ ।

    यथा नटावुत्तमवेषधारिणौमनः क्षिपन्तौ प्रभया निरीक्षताम्‌ ॥

    १९॥

    तौ--दोनों; रेजतु:--चमक रहे थे; रड़-गतौ--अखाड़े में उपस्थित; महा-भुजौ--विशाल भुजाओं वाले; विचित्र--नाना प्रकारका; वेष--वेशभूषा; आभरण--गहने; सत्रकू--मालाएँ; अम्बरौ--तथा वस्त्र; यथा--जिस तरह; नटौ--दो अभिनेता; उत्तम--उत्तम; वेष--पोशाक; धारिणौ-- धारण किये; मनः--मनों को; क्षिपन्तौ--प्रहार करते हुए; प्रभया--अपने तेज से;निरीक्षताम्‌--देखने वालों के |

    नाना प्रकार के गहनों, मालाओं तथा वस्त्रों से सुसज्जित विशाल भुजाओं वाले वे दोनों( भगवान्‌ ) उत्तम वेश धारण किये अभिनेताओं की तरह अखाड़े में शोभायमान हो रहे थे।

    निस्सन्देह उन्होंने अपने तेज से समस्त देखने वालों के मन को अभिभूत कर लिया।

    निरीक्ष्य तावुत्तमपूरुषौ जनामजञ्जस्थिता नागरराष्ट्रका नृप ।

    प्रहर्षवेगोत्कलितेक्षणानना:पपुर्न तृप्ता नयनैस्तदाननम्‌ ॥

    २०॥

    निरीक्ष्य--देखकर; तौ--दोनों; उत्तम-पूरुषौ--परम पुरुषों को; जनाः--लोग; मञ्न--दर्शक-दीर्घाओं में; स्थिता: --बैठे हुए;नागर--नगरनिवासी; राष्ट्रका:--बाहरी जिलों के लोग; नृप--हे राजन; प्रहर्ष--अपने हर्ष के; वेग--वेग से; उत्कलित--विस्तीर्ण हुई, फैली हुई; ईक्षण-- आँखें; आनना:--मुख; पपु:--पिया; न--नहीं; तृप्ता:--तृप्त; नयनैः--आँखों से; तत्‌--उनके; आननमू्‌--मुखों को |

    हे राजनू, जब नगरवासियों तथा पास पड़ोस के जिलों से आये लोगों ने दीर्घाओं में बैठेअपने अपने स्थानों से दोनों परम पुरुषों को देखा तो प्रसन्नता रूपी शक्ति से उनकी आँखें खुलीकी खुली रह गईं और उनके मुखमंडल खिल उठे।

    वे अतृप्त होकर उनके मुखों के दर्शन का पान करते रहे।

    पिबन्त इव चनश्षुर्भ्या लिहन्त इव जिह्यया ।

    जिप्रन्त इव नासाभ्यां श्लिष्यन्त इव बाहुभि: ॥

    २१॥

    ऊचु: परस्परं ते वै यथाहष्टे यथा श्रुतम्‌ ।

    तद्गूपगुणमाधुर्य प्रागल्भ्यस्मारिता इव ॥

    २२॥

    पिबन्त:--पीते हुये; इब--मानो; चक्षु्भ्याम्‌--आँखों से; लिहन्तः--चाटते हुए; इब--मानो; जिहया--अपनी अपनी जीभों से;जिप्रन्त:--सूँघते हुए; इब--मानो; नासाभ्याम्‌--अपने नथुनों से; स्लिष्यन्तः--आलिंगन करते हुए; इब--मानो; बाहुभि:--अपनी बाहों से; ऊचु:--कहा; परस्परमू--एक-दूसरे से; ते--वे; वै--निस्सन्देह; यथा--जिस प्रकार; दृष्टमू--उन्होंने देखा था;यथा--जिस तरह; श्रुतम्‌--सुना था; तत्‌--उनके; रूप--सौन्दर्य; गुण--गुण; माधुर्य--माधुरी; प्रागल्भ्य--तथा बहादुरी;स्मारिता:--स्मरण कराया; इब--मानो

    ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो लोग अपनी आँखों से कृष्ण तथा बलराम का पान कर रहे हों,अपनी जीभों से उन्हें चाट रहे हों, अपने नथुनों से उन्हें ही सूँघ रहे हों तथा अपनी बाहों से उनकाआलिंगन कर रहे हों।

    भगवान्‌ के सौन्दर्य, चरित्र, माधुर्य तथा बहादुरी का स्मरण करकेदर्शकगण देखे तथा सुने गये इन लक्षणों का वर्णन एक-दूसरे से करने लगे।

    एतौ भगवत:ः साक्षाद्धरे्नारायणस्य हि ।

    अवतीर्णाविहांशेन वसुदेवस्य वेश्मनि ॥

    २३॥

    एतौ--ये दोनों; भगवत:--भगवान्‌; साक्षात्‌- प्रत्यक्ष; हरेः--हरि का; नारायणस्य--नारायण का; हि--निश्चय ही;अवतीर्णौ--अवतरित हुए हैं; हह--इस जगत में; अंशेन--अंश रूप में; वसुदेवस्य--वसुदेव के ; वेश्मनि--घर में |

    लोगों ने कहा ये दोनों बालक निश्चय ही भगवान्‌ नारायण के अंश हैं, जो इस जगत में वसुदेव के घर में अवतरित हुए हैं।

    एष वै किल देवक्यां जातो नीतश्च गोकुलम्‌ ।

    कालमेतं वसन्गूढो ववृधे नन्दवेश्मनि ॥

    २४॥

    एष:--यह ( कृष्ण ); वै--निश्चय ही; किल--निस्सन्देह; देवक्याम्‌--देवकी के गर्भ से; जात:ः--उत्पन्न; नीतः--लाया गया;च--तथा; गोकुलम्‌ू--गोकुल में; कालम्‌--समय तक; एतम्‌--इतना; बसन्‌--रहते हुए; गूढः--छिपा हुआ; ववृधे--बड़ाहुआ; नन्द-वेश्मनि--नन्द महाराज के घर में |

    उन्होंने ( कृष्ण ने ) माता देवकी से जन्म लिया और गोकुल ले जाये गए जहाँ वे इतने समयतक राजा नन्द के घर में छिपकर बढ़ते रहे।

    पूतनानेन नीतान्तं चक्रवातश्च दानवः ।

    अर्जुनौ गुह्मकः केशी धेनुकोउन्ये च तद्विधा: ॥

    २५॥

    पूतना--पूतना राक्षसी; अनेन--इसके द्वारा; नीता--लाया गया; अन्तमू--प्राणान्त; चक्रवात:--बवंडर; च--तथा; दानव: --असुर; अर्जुनौ--यमलार्जुन वृक्ष; गुद्मक:ः --शंखचूड़; केशी--घोड़ा असुर; धेनुक:--धेनुक असुर; अन्ये--अन्य; च--तथा;ततू-विधा:--उन्हीं की तरह।

    इन्होंने पूतना तथा चक्रवात असुर का प्राणान्त कर दिया, यमलार्जुन वृक्षों को गिरा दियाऔर शंखचूड़, केशी, धेनुक तथा ऐसे ही असुरों का वध कर दिया।

    गाव: सपाला एतेन दावाग्ने: परिमोचिता: ।

    कालियो दमितः सर्प इन्द्रश्न विमदः कृतः ॥

    २६॥

    सप्ताहमेकहस्तेन धृतो द्विप्रवरोमुना ।

    वर्षवाताशनिभ्यश्च परित्रातं च गोकुलम्‌ ॥

    २७॥

    गावः--गौवें; स--सहित; पाला:--इनके पालक; एतेन--उसके द्वारा; दाव-अग्नेः--जंगल की आग से; परिमोचिता: --बचाये गये; कालिय:--कालिय; दमितः--दमन किया गया; सर्प:--सर्प; इन्द्र: --इन्द्र; च--तथा; विमद:--गर्वरहित;कृतः--किया हुआ; सप्त-अहम्‌--सात दिनों तक; एक-हस्तेन--एक हाथ से; धृतः--धारण किये; अद्वि--पर्वत; प्रवर: --विख्यात; अमुना--इसके द्वारा; वर्ष--वर्षा; वात--हवा; अशनिभ्य:--तथा ओले से; च-- भी; परित्रातम्‌--उद्धार किया;च--तथा; गोकुलम्‌ू--गोकुलवासियों को

    इन्होंने गौवों तथा ग्वालों को जंगल की आग से बचाया और कालिय सर्प का दमन किया।

    इन्होंने अपने एक हाथ में सर्वश्रेष्ठ पर्वत को एक सप्ताह तक धारण किये रखकर इन्द्र देव केमिथ्या गर्व को चूर किया और इस तरह वर्षा, हवा तथा ओलों से गोकुलवासियों की रक्षा की।

    गोप्योस्य नित्यमुदितहसितप्रेक्षणं मुखम्‌ ।

    पश्यन्त्यो विविधांस्तापांस्तरन्ति स्माश्रमं मुदा ॥

    २८ ॥

    गोप्य:--युवा गोपियों ने; अस्य--इसके; नित्य--सदैव; मुदित--प्रसन्न; हसित--हँसी से पूर्ण; प्रेक्षणम्‌--चितवन को;मुखम्‌--मुख को; पश्यन्त्य:--देखती हुई; विविधान्‌--अनेक प्रकार के; तापानू--कष्ट; तरन्ति स्म--पार कर लिया;अश्रमम्‌--बिना थकान के; मुदा--प्रसन्नतापूर्वक

    निरन्तर हँसीली चितवन से प्रसन्न तथा थकान से मुक्त इनके मुखमण्डल को निहार-निहारकर गोपियों ने समस्त प्रकार के कष्टों को पार कर लिया और परम सुख का अनुभव किया।

    वदन्त्यनेन वंशोयं यदो: सुबहुविश्रुतः ।

    श्रियं यशो महत्वं च लप्स्यते परिरक्षित: ॥

    २९॥

    वदन्ति--कहते हैं; अनेन--इसके द्वारा; वंश:--कुल; अयम्‌--यह; यदो:--राजा यदु के; सु-बहु--अत्यधिक; विश्रुत:--प्रसिद्ध; अ्रियम्‌-- धन; यश: --यश; महत्वम्‌--शक्ति; च--तथा; लप्स्यते--प्राप्त करेगा; परिरक्षित:--सभी प्रकार से रक्षित।

    कहा जाता है कि इनके संरक्षण में यदुकुल अत्यधिक विख्यात होगा और संपदा, यश तथाशक्ति अर्जित करेगा।

    अयं चास्याग्रज: श्रीमात्राम:ः कमललोचन: ।

    प्रलम्बो निहतो येन वत्सको ये बकादय: ॥

    ३०॥

    अयम्‌--यह; च--तथा; अस्य--इसका; अग्र-ज:--बड़ा भाई; श्री-मन्‌--समस्त ऐश्वर्य से युक्त; राम:--बलराम; कमल-लोचन:--कमल जैसे नेत्रों वाला; प्रलम्बः--प्रलम्बासुर; निहतः --मारे गये; येन--जिसके द्वारा; वत्सक:--वत्सासुर; ये--जो;बक--बकासुर; आदय:--इत्यादि ये कमलनेत्रों वाले उनके ज्येष्ठ भाई भगवान्‌ बलराम समस्त दिव्य ऐश्वर्यों के स्वामी हैं।

    इन्होंने प्रलम्ब, वत्सक, बक तथा अन्य असुरों का वध किया है।

    जनेष्वेवं ब्रुवाणेषु तूर्येषु निनदत्सु च ।

    कृष्णरामौ समाभाष्य चाणूरो वाक्यमब्रवीत्‌ ॥

    ३१॥

    जनेषु--लोगों में; एवम्‌--इस तरह; ब्रुवाणेषु--बातें करते; तूर्येषु--तुरहियों के ; निनद॒त्सु--निनाद करती हुई; च--तथा;कृष्ण-रामौ--कृष्ण तथा बलराम; समाभाष्य--सम्बोधित करके; चानूर:--चाणूर नामक पहलवान ने; वाक्यम्‌-शब्द;अब्नवीत्‌ू-कहे |

    जिस समय लोग इस तरह बातें कर रहे थे और तुरहियाँ गूँजने लगीं थी तो पहलवान चाणूरने कृष्ण तथा बलराम से ये शब्द कहे।

    हे नन्दसूनो हे राम भवन्तौ वीरसम्मतौ ।

    नियुद्धकुशलौ श्रुत्वा राज्ञाहूतौ दिदक्षुणा ॥

    ३२॥

    हे नन्द-सूनो--ओरे नन्द के पुत्र; हे राम--हे राम; भवन्तौ--तुम दोनों को; वीर--वीरों से; सम्मतौ--आदरित; नियुद्ध--कुश्तीमें; कुशलौ--दक्ष; श्रुत्वा--सुनकर; राज्ञा--राजा द्वारा; आहूतौ--बुलाये गये; दिदक्षुणा--देखने का इच्छुक |

    चाणूर ने कहा : हे नन्दपुत्र, हे राम, तुम दोनों ही साहसी पुरुषों द्वारा समादरित हो औरदोनों ही कुश्ती लड़ने में दक्ष हो।

    तुम्हारे पराक्रम को सुनकर राजा ने स्वतः देखने के उद्देश्य सेतुम दोनों को यहाँ बुलाया है।

    प्रियं राज्ञः प्रकुर्व॑त्यः श्रेयो विन्दन्ति वै प्रजा: ।

    मनसा कर्मणा वाचा विपरीतमतोन्यथा ॥

    ३३॥

    प्रियम्‌ू--प्रसन्नता; राज्:ः--राजा की; प्रकुर्वत्य:--सम्पन्न करते हुए; श्रेयः--सौभाग्य; विन्दन्ति--प्राप्त करते हैं; बै--निस्सन्देह;प्रजा:--लोग, जनता; मनसा--उनके मनों से; कर्मणा--उनके कर्मों से; वाचा--उनके शब्दों से; विपरीतम्‌-- उल्टा; अत:--इसके; अन्यथा-- अन्यथा

    जो प्रजा राजा को अपने विचारों, कर्मों तथा शब्दों से प्रसन्न रखने का प्रयास करती है उसेअवश्य ही सौभाग्य प्राप्त होता है किन्तु जो लोग ऐसा नहीं कर पाते उन्हें विपरीत भाग्य कासामना करना पड़ता है।

    नित्य॑ प्रमुदिता गोपा वत्सपाला यथास्फुटम्‌ ।

    वनेषु मल्लयुद्धेन क्रीडन्तश्वारयन्ति गा; ॥

    ३४॥

    नित्यम्‌--सदैव; प्रमुदिता:--अत्यन्त सुखी; गोपा:--ग्वाले; वत्सपाला:--बछड़े चराते; यथा-स्फुटम्‌--स्पष्टतः; वनेषु--जंगलोंमें; मल्‍ल-युद्धेन--कुश्ती से; क्रीडन्तः--खेलते हुए; चारयन्ति--चराते हैं; गा: --गौवें |

    यह सर्वविदित है कि ग्वालों के बालक अपने बछड़ों को चराते हुए सदैव प्रमुदित रहते हैंऔर विविध जंगलों में अपने पशुओं को चराते हुए खेल खेल में कुश्ती लड़ते रहते हैं।

    तस्माद्वाज्ञः प्रियं यूयं वयं च करवाम हे ।

    भूतानि नः प्रसीदन्ति सर्वभूतमयो नूप: ॥

    ३५॥

    तस्मात्‌--इसलिए; राज्ञ:--राजा की; प्रियम्‌--प्रसन्नता; यूयम्‌--तुम दोनों; वयम्‌--हम; च-- भी; करवाम हे --करें; भूतानि--सारे जीव; नः--हमारे साथ; प्रसीदन्ति--प्रसन्न होंगे; सर्व-भूत--सारे जीवों से; मय: --युक्त; नृप:--राजा |

    अतः जो राजा चाहता है हम वही करें।

    इससे हमारे साथ सारे लोग प्रसन्न होंगे, क्योंकि राजासारे जीवों से समन्वित रूप होता है।

    तन्निशम्याबत्रवीत्कृष्णो देशकालोचितं बच: ।

    नियुद्धमात्मनो भीष्ट॑ मन्यमानोउभिनन्द्य च ॥

    ३६॥

    तत्‌--वह; निशम्य--सुनकर; अब्नवीत्‌--बोले; कृष्ण: --कृष्ण; देश--स्थान; काल--तथा समय के; उचितम्‌--उपयुक्त;वचः--शब्द; नियुद्धमू--कुश्ती; आत्मन:--अपना; अभीष्टम्‌ू--वाड्छित; मन्यमान:--विचार करते हुए; अभिनन्द्य--स्वागतकरते हुए; च--तथा |

    यह सुनकर भगवान्‌ कृष्ण ने, जो कि कुश्ती लड़ना चाहते थे और इस चुनौती का स्वागतकर रहे थे, समय तथा स्थान के अनुसार यह बात कही।

    प्रजा भोजपतेरस्य वयं चापि वनेचरा: ।

    करवाम प्रियं नित्यं तन्न: परमनुग्रह: ॥

    ३७॥

    प्रजा:--जनता; भोज-पते: --भोजों के राजा के; अस्य--इस; वयम्‌--हम; च-- भी; अपि--होते हुए; वने-चरा:--जंगल मेंघूमते हुए; करवाम--हमें करना चाहिए; प्रियम्‌--उसकी प्रसन्नता; नित्यमू--सदैव; तत्‌ू--वह; नः--हमारे लिए; परम्‌--सर्वाधिक; अनुग्रह:--लाभ

    भगवान्‌ कृष्ण ने कहा : यद्यपि हम वनवासी हैं किन्तु हम भी भोजराज की प्रजा हैं।

    हमेंउनकी इच्छा पूरी करनी चाहिए, क्योंकि ऐसे व्यवहार से हमें अत्यधिक लाभ होगा।

    बाला वयं तुल्यबलै: क्रीडिष्यामो यथोचितम्‌ ।

    भवेत्रियुद्धं माधर्म: स्पृशेन्मल्लसभासद: ॥

    ३८॥

    बाला:--बालक; वयम्‌--हम; तुल्य--समान; बलै: --बल वालों के साथ; क्रीडिष्याम:--खेलेंगे; यथा उचितम्‌--उपयुक्त ढंगसे; भवेत्‌--होना चाहिए; नियुद्धम्‌--कुश्ती प्रतियोगिता; मा--नहीं; अधर्म:--अधर्म; स्पृशेत्‌ू--चाहिए; मल्‍ल-सभा--अखाड़ेके; सदः--सदस्य |

    हम तो निरे बालक ठहरें और हमें समान बल वालों के साथ खेलना चाहिए।

    इस कुश्तीप्रतियोगिता को उचित ढंग से चलना चाहिए जिससे सम्माननीय दर्शक वर्ग को किसी प्रकार सेअधर्म का कलंक न लगे।

    चाणूर उवाचन बालो न किशोरस्त्वं बलश्च॒ बलिनां वर: ।

    लीलयेभो हतो येन सहस्त्रद्विपसत्त्वभूत्‌ ॥

    ३९॥

    चाणूर: उवाच--चाणूर ने कहा; न--नहीं; बाल:--बालक; न--न तो; किशोर:--किशोर; त्वम्‌--तुम; बल: --बलराम;च--तथा; बलिनाम्‌ू--बलशालियों में; वर: --सर्व श्रेष्ठ लीलया-- खेल खेल में; इभ: --हाथी; हत:ः--मारा गया; येन--जिसके द्वारा; सहस्त्र--एक हजार; द्विप--हाथियों के; सत्त्त--बल का; भृतू--वाहक

    चाणूर ने कहा : वास्तव में तुम न ही बलशालियों में सर्वश्रेष्ठ बलराम, न तो बालक हो, नही किशोर हो |

    तुमने खेल खेल में एक हाथी को मारा है, जिसमें एक हजार अन्य हाथियों काबल था।

    तस्माद्धवद्भ्यां बलिभिरयेद्धव्यं नानयोउत्र वै ।

    मयि विक्रम वा्णेय बलेन सह मुपष्टिक: ॥

    ४०॥

    तस्मातू--अतएव; भवद्भ्याम्‌ू--तुम दोनों; बलिभि:--बलशालियों से; योद्धव्यमू-- लड़ना चाहिए; न--नहीं है; अनय: --अनीति; अत्र--इसमें; बै--निश्चय ही; मयि--मुझमें; विक्रम-- अपना पराक्रम; वाष्णेय--हे वृष्णि-वंशी; बलेन सह--बलरामके साथ; मुपष्टिक:--मुष्टिक ( लड़ेगा )॥

    अतः तुम दोनों को बलशाली पहलवानों से लड़ना चाहिए।

    इसमें निश्चय ही कुछ भी अनीतिनहीं है।

    हे वृष्णि-वंशी, तुम अपना पराक्रम मुझ पर आजमा सकते हो और बलराम मुष्टिक केसाथ लड़ सकता है।

    TO

    अध्याय चवालीसवाँ: कंस का वध

    10.44श्रीशुक उबाचएवं चर्चितसड्डल्पो भगवान्मधुसूदन: ।

    आससादाथ चणूरं मुप्टितकं रोहिणीसुतः ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; चर्चित--स्थिर करते हुए; सद्जूल्प:--अपना संकल्प;भगवानू-- भगवान्‌; मधुसूदन:--कृष्ण ने; आससाद--मुठभेड़ की; अथ--तत्पश्चात्‌; चाणूरम्‌--चाणूर से; मुष्टिकम्‌--मुष्टिकसे; रोहिणी-सुतः--रोहिणी के पुत्र, बलराम ने

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस तरह सम्बोधित किये जाने पर कृष्ण ने इस चुनौती कोस्वीकार करने का मन बना लिया।

    उन्होंने चाणूर को और भगवान्‌ बलराम ने मुपष्टिक को अपनाप्रतिद्वन्द्वी चुना।

    हस्ताभ्यां हस्तयोरब॑द्ध्वा पदृभ्यामेव च पादयो: ।

    विचकर्षतुरन्योन्यं प्रसह्या वजिगीषया ॥

    २॥

    हस्ताभ्याम्‌-हाथों से; हस्तयो:--हाथों द्वारा; बद्ध्वा--पकड़कर; पद्भ्यामू--पाँवों से; एव च-- भी; पादयो: -- अपने पैरों से;विचकर्षतु:--वे घसीटने लगे ( कृष्ण चाणूर को तथा बलराम मुष्टिक को ); अन्योन्यम्‌--एक-दूसरे को; प्रसह्या--बलपूर्वक;विजिगीषया--विजय की इच्छा से |

    एक-दूसरे के हाथों को पकड़ कर और एक-दूसरे के पाँवों को फँसा कर ये प्रतिद्वन्द्दीविजय की अभिलाषा से बलपूर्वक संघर्ष करने लगे।

    अरली द्वे अरलिभ्यां जानुभ्यां चैव जानुनी ।

    शिरः शीष्णोरसोरस्तावन्योन्यमभिजघ्नतु: ॥

    ३॥

    अरली--मुट्टियों के विरुद्ध; द्वे--दो; अरलिभ्याम्‌--उनकी मुट्टियों से; जानुभ्यामू--उनके घुटनों से; च एब-- भी; जानुनी--विपक्षी के घुटनों के विरुद्ध; शिर:--सिर; शीर्ष्णा--सिर से; उरसा--छाती से; उरः--छाती; तौ--वे जोड़ियाँ; अन्योन्यम्‌--एक-दूसरे पर; अभिजष्नतु:--प्रहार करने लगीं वे एक-दूसरे से मुट्ठियों से मुट्टियाँ, घुटनों से घुटनें, सिर से सिर तथा छाती से छाती भिड़ाकर प्रहार करने लगे।

    परिभ्रामणविक्षेपपरिरम्भावपातनै: ।

    उत्सर्पणापसर्पणै ्षान्योन्यं प्रत्यरुन्धताम्‌ ॥

    ४॥

    परिभ्रामण--एक-दूसरे के चारों ओर घूमते हुए; विक्षेप-- धक्का देते; परिरम्भ--कुचलते; अवपातनैः--तथा नीचे गिराते हुए;उत्सर्पण--छोड़कर फिर दौड़ना; अपसर्पणै:--पीछे जाकर; च--तथा; अन्योन्यम्‌--एक-दूसरे को; प्रत्यरून्धताम्‌--प्रतिरोध याबचाव करने लगे।

    प्रत्येक कुश्ती लड़ने वाला अपने विपक्षी को खींचकर चक्कर लगवाता, धक्के देकर उसे नीचेगिरा देता ( पटक देता ) और उसके आगे तथा पीछे दौड़ता।

    उत्थापनैरुन्नयनैश्चालनै: स्थापनैरपि ।

    परस्परं जिगीषन्तावपचक्रतुरात्मन: ॥

    ५॥

    उत्थापनैः--ऊपर उठा लेने से; उन्नयनैः:--कंधे पर उठाने से; चालनैः--आगे धकेलने से; स्थापनै:--एक स्थान पर अटका देनेसे; अपि-- भी; परस्परम्‌--एक-दूसरे को; जिगीषन्तौ--विजय चाहते हुए; अपचक्रतु:--हानि पहुँचाया; आत्मन:--अपने आपतक को।

    एक-दूसरे को बलपूर्वक उठाकर, ले जाकर, धकेलकर तथा पकड़कर, कुश्ती लड़ने वालेविजय की महती आकांक्षा से अपने शरीरों को भी चोट पहुँचा बैठते।

    तद्दबलाबलवद्युद्धं समेता: सर्वयोषित:ः ।

    ऊचुः परस्परं राजन्सानुकम्पा वरूथशः ॥

    ६॥

    तत्‌--वह; बल-अबल--बली तथा निर्बल; वत्‌--के बीच; युद्धम्‌ू-- लड़ाई; समेता: --एकत्र; सर्व--सभी; योषित:--स्त्रियोंने; ऊचु:--कहा; परस्परम्‌--एक-दूसरे से; राजन्‌--हे राजन्‌ ( परीक्षित ); स-अनुकम्पा: --दया का अनुभव करती;वरूथश:--झुंड की झुंड।

    हे राजन, वहाँ पर उपस्थित सारी स्त्रियों ने बलवान्‌ तथा निर्बल के बीच होने वाली इसअनुचित लड़ाई पर विचार करते हुए दया के कारण अत्यधिक चिन्ता का अनुभव किया।

    वेअखाड़े के चारों ओर झुंड की झुंड एकत्र हो गईं और परस्पर इस तरह बातें करने लगीं।

    महानयं बताधर्म एषां राजसभासदाम्‌ ।

    ये बलाबलवच्युद्धं राज्ञोडन्विच्छन्ति पश्यत: ॥

    ७॥

    महान्‌--महान; अयम्‌--यह; बत--हाय; अधर्म:--अधर्म का कार्य; एषाम्‌--इनके लिए; राज-सभा--राजा की सभा में;सदाम्‌--उपस्थित लोग; ये--जो; बल-अबल-वत्‌--बली तथा निर्बल के बीच; युद्धम्‌--युद्ध; राज्ञ:--जबकि राजा;अन्विच्छन्ति--वे भी चाहते हैं; पश्यत:--देख रहा है।

    स्त्रियों ने कहा हाय! इस राजसभा के सदस्य यह कितना बड़ा अधर्म कर रहे हैं! जिसतरह राजा बलवान तथा निर्बल के मध्य इस युद्ध को देख रहा है, वे भी उसी तरह इसे देखनाचाहते हैं।

    क्व वज़सारसर्वाड्रौ मल्‍लौ शैलेन्द्रसन्निभौ ।

    क्व चातिसुकुमाराड्ठो किशोरौ नाप्तयौवनौ ॥

    ८॥

    क्व--कहाँ तो; वज़--वज़ के; सार--बल से; सर्व--सभी; अड्लौ--अंग वाले; मलल्‍लौ--कुश्ती लड़ने वाले दोनों; शैल--पर्वत; इन्द्र--प्रधान की तरह; सन्निभौ--जिनके स्वरूप; क्व--कहाँ; च--तथा; अति--अ त्यन्त; सु-कुमार--कोमल; अड्रौ --अंग वाले; किशोरौ--दोनों किशोर; न आप्त--अभी भी प्राप्त नहीं किया; यौवनौ--युवावस्था |

    कहाँ ये वज्ज जैसे पुष्ट अंगों वाले तथा शक्तिशाली पर्वतों जैसे शरीर वाले दोनों पेशेवरपहलवान और कहाँ ये सुकुमार अंगों वाले किशोर अल्प-वयस्क बालक ?

    धर्मव्यतिक्रमो हास्य समाजस्य श्वुवं भवेत्‌ ।

    यत्राधर्म: समुन्तिष्ठेन्न स्थेयं तत्र कहिंचित्‌ ॥

    ९॥

    धर्म--धर्म का; व्यतिक्रम:--उल्लंघन; हि--निस्सन्देह; अस्य--इस; समाजस्य--समाज का; ध्रुवम्‌--निश्चित रूप से; भवेत्‌--होगा; यत्र--जिसमें; अधर्म:--अधर्म ; समुत्तिष्ठेत्‌--पूरी तरह उदित हुआ है; न स्थेयम्‌--नहीं रहना चाहिए; तत्र--वहाँ;कह्िंचितू-- क्षण-भर भी |

    इस सभा में धर्म का निश्चय ही अति-क्रमण हो चुका है।

    जहाँ अधर्म पल रहा हो उस स्थानमें एक पल भी नहीं रुकना चाहिए।

    न सभां प्रविशेत्प्राज्ञ: सभ्यदोषाननुस्मरन्‌ ।

    अब्लुवन्विब्लुवन्नज्ञो नर: किल्बिषमश्नुते ॥

    १०॥

    न--नहीं; सभामू--सभा में; प्रविशेत्‌--प्रवेश करे; प्राज्ञ:ः --चतुर व्यक्ति; सभ्य--सभा के सदस्यों की; दोषान्‌--पापपूर्णत्रुटियों को; अनुस्मरन्‌ू-मन में लाते हुए; अब्लुवन्‌--न बोलते हुए; विब्रुवन्‌--गलत बोलते हुए; अज्ञ:--अज्ञानी ( या बननेवाला ); नरः--मनुष्य; किल्बिषम्‌--पाप; अश्नुते--करता है ।

    बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि यदि वह जान ले कि किसी सभा के सभासद अनुचितकार्य कर रहे हैं, तो वह उस सभा में प्रवेश न करे।

    और यदि ऐसी सभा में प्रवेश कर लेने पर वहसत्यभाषण करने से चूक जाता है, या मिथ्या भाषण करता है या अज्ञानता की दुहाई देता है, तो वह निश्चित ही पाप का भागी बनता है।

    बल्गतः शत्रुमभितः कृष्णस्थ वदनाम्बुजम्‌ ।

    वीक्ष्यतां श्रमवार्युप्तं पद्यकोशमिवाम्बुभि: ॥

    ११॥

    बल्गत:--कूदते हुए; शत्रुम्‌ू--अपने शत्रु को; अभित:--चारों ओर; कृष्णस्य--कृष्ण का; वदन--मुख; अम्बुजम्‌--'कमलवत्‌; वीक्ष्यताम्‌--जरा देखो तो; श्रम--थकान के; वारि--जल से; उप्तम्‌--आच्छादित; पद्य--कमल के फूल के;कोशम्‌--दलपुंज; इव--सहृश; अम्बुभि:--जल की बूँदों से |

    अपने शत्रु के चारों ओर उछलते-कूदते कृष्ण के कमलमुख को तो जरा देखो! भीषणलड़ाई लड़ने से आये हुए पसीने की बूँदों से ढका यह मुख ओस से आच्छादित कमल जैसा लगरहा है।

    कि न पश्यत रामस्य मुखमाताप्रलोचनम्‌ ।

    मुष्टिकं प्रति सामर्ष हाससंरम्भशोभितम्‌ ॥

    १२॥

    किमू--क्‍्यों; न पश्यत--नहीं देखती; रामस्थ--बलराम के; मुखम्‌--मुख को; आताग्र--ताँबे जैसी; लोचनम्‌--आँखों वाले;मुष्टिकम्‌--मुष्टिक के; प्रति--प्रति; स-अमर्षम्‌--क्रो ध से युक्त; हास--अपनी हँसी; संरम्भ--तथा अपनी तल्लीनता से;शोभितम्‌--शोभा पा रहे।

    क्या तुम भगवान्‌ बलराम के मुख को नहीं देख रही हो जो मुष्टिक के प्रति उनके क्रोध केकारण ताँबे जैसी लाल लाल आँखों से युक्त है और जिसकी शोभा उनकी हँसी तथा युद्ध मेंउनकी तललीनता के कारण बढ़ी हुई है?

    पुण्या बत ब्रजभुवो यदयं नूलिड्र-गूढः पुराणपुरुषो वनचित्रमाल्य: ।

    गा: पालयन्सहबल: क्वणयंश्र वेणुंविक्रीदयाञ्जति गिरित्ररमार्चिताडूप्रि: ॥

    १३॥

    पुण्या:--पवित्र; बत--निस्सन्देह; ब्रज-भुवः--व्रज-भूमि के विविध भाग; यत्‌--जिसमें; अयम्‌--यह; नू--मनुष्य के;लिड्ग--गुणों से; गूढः--छिपा; पुराण-पुरुष:--आदि-भगवान्‌; वन-- फूलों तथा वनस्पतियों से बनी; चित्र--अद्भुत प्रकारकी; माल्य:--मालाएँ; गा: --गौवें; पालयन्‌--चराते हुए; सह--साथ में; बल:--बलराम; क्वणयन्‌--बजाते; च--तथा;वेणुमू-- अपनी वंशी; विक्रीडया--विविध लीलाओं से; अज्ञति--इधर-उधर घूमता है; गिरित्र--शिवजी; रमा--लक्ष्मीजी द्वारा;अर्चित--पूजित; अड्धूप्रि:--चरण।

    ब्रज के भूमि-खण्ड कितने पवित्र हैं जहाँ आदि-भगवान्‌ मनुष्य के वेश में विचरण करते हुए अनेक लीलाएँ करते हैं।

    जो नाना प्रकार की वनमालाओं से अद्भुत ढंग से विभूषित हैं एवंजिनके चरण शिवजी तथा देवी रमा द्वारा पूजित हैं, वे बलराम के साथ गौवें चराते हुए अपनीवंशी बजाते हैं।

    गोप्यस्तप: किमचरन्यदमुष्य रूप॑लावण्यसारमसमोर्ध्वमनन्यसिद्धम्‌ ।

    हमग्भि: पिबन्त्यनुसवाभिनवं दुराप-मेकान्तधाम यशसः श्रीय ऐश्वरस्य ॥

    १४॥

    गोप्य:--गोपियों ने; तप:--तपस्या; किमू--कौन-सी; अचरन्‌--सम्पन्न की; यत्‌--जिससे; अमुष्य--ऐसे ( कृष्ण ) के;रूपम्‌--स्वरूप को; लावण्य-सारम्‌--सुन्दरता के सार; असम-ऊर्ध्वम्‌ू--जिसकी समता न की जा सके या जिसको पछाड़ा नजा सके; अनन्य-सिद्धम--किसी अन्य आभूषण से पूरा न होने वाला ( आत्म-सिद्ध ); दग्भिः--आँखों से; पिबन्ति--पीती हैं;अनुसव-अभिनवमू--निरन्तर नवीन; दुरापमू--प्राप्त करना कठिन; एकान्त-धाम--एकमात्र धाम; यशसः--यश का; थ्रिय:--सौन्दर्य का; ऐश्वरस्थ--ऐश्वर्य का।

    आखिर गोपियों ने कौन-सी तपस्याएँ की होंगी? वे निरन्तर अपनी आँखों से कृष्ण के उसरूप का अमृत-पान करती हैं, जो लावण्य का सार है और जिसकी न तो बराबरी हो सकती है नही जिससे बढ़कर और कुछ है।

    वही लावण्य सौन्दर्य, यश तथा ऐश्वर्य का एकमात्र धाम है।

    यहस्वयंसिद्ध, नित्य नवीन तथा अत्यन्त दुर्लभ है।

    या दोहनेवहनने मथनोपलेप-प्रेड्डेड्डनार्भरुदितोक्षणमार्जनादौ ।

    गायन्ति चैनमनुरक्तधियो श्रुकण्ठ्योधन्या ब्रजस्त्रिय उरुक्रमचित्तयाना: ॥

    १५॥

    या:--जो ( गोपियाँ ); दोहने--दुहते समय; अवहनने--कूटते; मथन--मथते हुए; उपलेप--लेप करते; प्रेड्ड--झूलों पर;इब्लुन--झूलते; अर्भ-रुदित--रोते शिशुओं ( की देखभाल करते ); उक्षण--छिड़कते; मार्जन--धोते हुए; आदौ--इत्यादि;गायन्ति--गाती हैं; च--तथा; एनम्‌--उससे; अनुरक्त-- अत्यधिक अनुरक्त; धियः--मन; अश्रु--अश्रु सहित; कण्ठ्य:--गले;धन्या:-- भाग्यशाली; ब्रज-स्त्रियः:--व्रज की स्त्रियाँ; उरुक़म--कृष्ण की; चित्त--चेतना से; याना:--इच्छित की प्राप्ति

    ब्रज की स्त्रियाँ परम भाग्यशाली हैं क्योंकि कृष्ण के प्रति पूर्णतया अनुरक्त चित्तों से तथाअश्रुओं से सदैव अवरुद्ध कण्ठों से वे गौवें दुहते, अनाज कूटते, मक्खन मथते, ईंधन के लिएगोबर एकत्र करते, झूलों पर झूलते, अपने रोते बालकों की देखरेख करते, फर्श पर जलछिड़कते, अपने घरों को बुहारते इत्यादि के समय निरन्तर उनके गुणों का गान करती हैं।

    अपनीउच्च कृष्ण-चेतना के कारण वे समस्त वाँछित वस्तुएँ स्वतः प्राप्त कर लेती हैं।

    प्रातर्त्रजादूत्रजत आविशतश्च सायंगोभि: सम॑ क्वणयतोउस्य निशम्य वेणुम्‌ ।

    निर्गम्य तूर्णमबला: पथ भूरिपुण्याः'पश्यन्ति सस्मितमुखं सदयावलोकम्‌ ॥

    १६॥

    प्रात:--प्रातःकाल; ब्रजात्‌--ब्रज से; ब्रजत:--जाने वाले का; आविशत: -- प्रवेश करते; च--तथा; सायम्‌--संध्या-समय;गोभि: समम्‌--गौवों के साथ; क्वणयतः--बजाते हुए; अस्थ--इसकी; निशम्य--सुनकर; वेणुम्‌--बाँसुरी को; निर्गम्य--बाहर निकलकर; तूर्णम्‌ू--तेजी से; अबला:--स्त्रियाँ; पथि--मार्ग पर; भूरि--अत्यन्त; पुण्या:--पवित्र; पश्यन्ति--देखती हैं;स--सहित; स्मित--हँसते हुए; मुखम्‌ू--मुख को; स-दय--दयामय; अवलोकम्‌--चितवनों से |

    प्रातःकाल कृष्ण को अपनी गौवों के साथ ब्रज से बाहर जाते या संध्या-समय उनके साथलौटते हुए और अपनी बाँसुरी को बजाते हुए जब गोपियाँ सुनती हैं, तो उन्हें देखने के लिए वेअपने अपने घरों से तुरन्त बाहर निकल आती हैं।

    मार्ग पर चलते समय, उन पर दयापूर्ण दृष्टिडालते हुए उनके हँसी से पूर्ण मुख को देखने में सक्षम होने के लिए, उन सबों ने अवश्य हीअनेक पुण्य-कर्म किये होंगे।

    एवं प्रभाषमाणासु स्त्रीषु योगेश्वरो हरि: ।

    शत्रु हन्तुं मनश्चक्रे भगवान्भरतर्षभ ॥

    १७॥

    एवम्‌--इस प्रकार; प्रभाषमाणासु--बोलती हुई; स्त्रीषु--स्त्रियों के; योग-ई श्वरः-- समस्त योग-शक्ति के स्वामी; हरि:ः--कृष्णने; शत्रुम्‌--अपने शत्रु को; हन्तुमू--मारने के लिए; मनः चक्रे--अपना मन बनाया; भगवानू-- भगवान्‌; भरत-ऋषभ-हेभरत-श्रेष्ठ

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा हे भरत-श्रेष्ठ, जब स्त्रियाँ इस तरह बोल रही थीं तोसमस्त योग-शक्ति के स्वामी भगवान्‌ कृष्ण ने अपने शत्रु को मार डालने का निश्चय कर लिया।

    सभया: स्त्रीगिर: श्रुत्वा पुत्रस्नेशशुचातुरो ।

    पितरावन्वतप्येतां पुत्रयोरबुधौ बलम्‌ ॥

    १८॥

    स-भया: -- भयभीत; स्त्री--स्त्रियों के; गिर:ः--शब्द; श्रुत्वा--सुनकर; पुत्र--अपने पुत्रों के; स्नेह--स्नेह से; शुच्च--शोक से;आतुरौ--विह्ल; पितरौ--उनके माता-पिता ( देवकी तथा वसुदेव ); अन्वतप्येताम्‌--सन्‍्ताप का अनुभव करते; पुत्रयो: --अपनेदोनों पुत्रों के; अबुधौ--न जानते हुए; बलम्‌--बल को |

    दोनों भगवानों पर स्नेह होने के कारण उनके माता-पिता ( देवकी तथा वसुदेव ) ने जबस्त्रियों के भयपूर्ण वचन सुने तो वे शोक से विह्ल हो उठे।

    वे अपने पुत्रों के बल को न जाननेके कारण सनन्‍्तप्त हो गए।

    तैस्तैर्नियुद्धविधिभिर्विविधेरच्युतेतरी ।

    युयुधाते यथान्योन्यं तथेव बलमुष्टिकौ ॥

    १९॥

    तैः तैः--इन सबों से; नियुद्ध--कुश्ती लड़ने की; विधिभि: --विधियों से; विविधै: --नाना प्रकार की; अच्युत-इतरौ--अच्युततथा उसके प्रतिद्वन्द्दी ने; युयुधाते--युद्ध किया; यथा--जिस तरह; अन्योन्यम्‌--एक-दूसरे से; तथा एब--उसी तरह; बल-मुष्टिकौ--बलराम तथा मुष्टिक

    भगवान्‌ बलराम तथा मुष्टिक ने मल्लयुद्ध की अनेक शैलियों का कुशलतापूर्वक प्रदर्शनकरते हुए एक-दूसरे से उसी तरह युद्ध किया जिस तरह कृष्ण तथा उनके प्रतिपक्षी ने किया।

    भगवदगात्रनिष्पातैर्वज़नीष्पेषनिष्ठरै: ।

    चाणूरो भज्यमानाज़ो मुहुग्लानिमवाप ह ॥

    २०॥

    भगवत्‌-- भगवान्‌ का; गात्र--अंगों द्वारा; निष्पातै:--वारों से; वज्ञ--वज् के; निष्पेष-- धमाके की तरह; निष्ठरै:--कठोर;चाणूर:--चाणूर; भज्यमान-- भंग किया गया; अड्ढड:--सारा शरीर; मुहुः--अधिकाधिक; ग्लानिमू-- पीड़ा तथा थकान; अवापह--अनुभव किया।

    भगवान्‌ के अंगों से होने वाले कठोर बार चाणूर पर वज्रपात सहश लग रहे थे जिससे उसकेशरीर का अंग-प्रत्यंग चूर हो रहे थे और उसे अधिकाधिक पीड़ा तथा थकान उत्पन्न हो रही थी।

    स एयेनवेग उत्पत्य मुष्टीकृत्य करावुभौ ।

    भगवन्तं वासुदेवं क्रुद्धो वक्षस्यताधत ॥

    २१॥

    सः--वह, चाणूर; श्येन--बाज की; वेग:--चाल से; उत्पत्य--उसपर टूटते हुए; मुष्टी -- मुट्ठी, मुक्का।

    कृत्य--बाँधकर; करौ--हाथ; उभौ--दोनों; भगवन्तमू-- भगवान्‌; वासुदेवम्‌--कृष्ण की; क्रुद्ध: --क्रोधित; वक्षसि--वक्षस्थल पर; अबाधत-प्रहारकिया।

    क्रुद्ध चाणूर ने बाज की गति से भगवान्‌ वासुदेव पर आक्रमण किया और उनकी छाती परअपनी दोनों मुट्टियों ( घूँसों ) से प्रहार किया।

    नाचलत्तत्प्रहरेण मालाहत इब द्विपः ॥

    बाह्वोर्नियूह्य चाणूरं बहुशो भ्रामयन्हरि: ॥

    २२॥

    भूपृष्ठ पोथयामास तरसा क्षीण जीवितम्‌ ।

    विस्त्रस्ताकल्पकेशस्त्रगिन्द्रध्वज इवापतत्‌ ॥

    २३॥

    न अचलतू--( कृष्ण ) टस से मस नहीं हुए; तत्‌ू-प्रहारेण--उसके प्रहार से; माला--मालाओं से; आहत--मारा गया; इब--सहश; द्विप:--हाथी; बाह्मोः--दो भुजाओं द्वारा; निगृह्--पकड़कर; चाणूरम्‌--चाणूर को; बहुश:--अनेक बार; भ्रामयन्‌--घुमाकर; हरि: -- भगवान्‌ कृष्ण ने; भू--पृथ्वी के; पृष्ठे--ऊपर; पोथयाम्‌ आस--फेंक दिया; तरसा--बलपूर्वक; क्षीण--रहित; जीवितम्‌ू--अपना जीवन; विस्रस्त--बिखरे; आकल्प--वस्त्र; केश--बाल; सत्रकु--तथा फूल की माला; इन्द्र-ध्वज:--ऊँचा लट्ठा; इब--मानो; अपतत्‌--वह गिर पड़ा |

    जिस तरह फूल की माला से मारने से हाथी कुछ भी नहीं होता उसी तरह असुर के बलशालीवारों से विचलित न होते हुए भगवान्‌ कृष्ण ने चाणूर की भुजाओं को पकड़कर कई बार चारों ओर घुमाया और उसे बड़े वेग से पृथ्वी पर पटक दिया।

    उसके वस्त्र, केश तथा माला बिखर गयेऔर वह पहलवान पृथ्वी पर गिरकर मर गया मानो कोई विशाल उत्सव-स्तम्भ गिर पड़ा हो।

    तथेव मुष्टिकः पूर्व स्वमुष्ठयाभिहतेन वे ।

    बलभद्रेण बलिना तलेनाभिहतो भूशम्‌ ॥

    २४॥

    प्रवेषित: स रुधिरमुद्ठमन्मुखतोउर्दित: ।

    व्यसु: पपातोर्व्युपस्थे वाताहत इवाड्प्रिप: ॥

    २५॥

    तथा--भी; एव--इसी तरह; मुष्टिक: --मुष्टिक; पूर्वम्‌--इसके पहले; स्व-मुष्ठया--अपने ही घूँसे से; अभिहतेन-- प्रहार कियागया; बै--निस्सन्देह; बलभद्रेण--बलराम द्वारा; बलिना--बलशाली; तलेन--हथेली से; अभिहत: -- प्रहार किया गया;भूशम्‌-तेजी से; प्रवेषित:--काँपते हुए; सः--वह, मुष्टिक; रुधिरम्‌ू--रक्त; उद्दयमनू--वमन करता; मुखतः--मुँह से;अर्दितः--व्यथित; व्यसु:--प्राणरहित; पपात--गिर पड़ा; उर्बी-- भूमि की; उपस्थे--गोद में; वात--वायु द्वारा; आहत: --गिराया गया; इब--सहश; अद्धप्रिप: --वृक्ष |

    इसी प्रकार मुष्टिक पर भगवान्‌ बलभद्व ने अपने मुक्के से प्रहार किया और उसका वध करदिया।

    बलशाली भगवान्‌ बलभद्र के हाथ का करारा थप्पड़ खाकर वह असुर भारी पीड़ा सेकाँपने लगा और रक्त वमन करने लगा।

    तत्पश्चात्‌ निष्प्राण होकर जमीन पर उसी तरह गिर पड़ाजिस तरह हवा के झोंके से कोई वृक्ष धराशायी होता है।

    ततः कूटमनुप्राप्तं राम: प्रहरतां वर: ।

    अवधील्लीलया राजन्सावज्ञं वाममुष्टिना ॥

    २६॥

    ततः--तब; कूटम्‌ू--कूट नामक असुर मल्ल; अनुप्राप्तम्‌-वहाँ पर प्रकट हुआ; राम:--बलराम ने; प्रहरताम्‌--योद्धाओं में;वरः-श्रेष्ठ; अवधीत्‌--मार डाला; लीलया--खेल खेल में; राजन्‌--हे राजा, परीक्षित; स-अवज्ञम्‌--उपेक्षित होकर; वाम--बायीं; मुप्टिना--मुट्ठी से |

    इसके बाद कूट नामक पहलवान से योद्धाओं में श्रेष्ठ बलराम का सामना हुआ जिसे हेराजन्‌, उन्होंने अपनी बाईं मुट्ठी से खेल खेल में यों ही मार डाला।

    तहोंव हि शल: कृष्णप्रपदाहतशीर्षक: ।

    द्विधा विदीर्णस्तोशलक उभावपि निपेततु: ॥

    २७॥

    तहिं एव--और तब; हि--निस्सन्देह; शलः--शल नामक मल्ल; कृष्ण--कृष्ण के; प्रपद--अँगूठे से; आहत--चोट खाकर;शीर्षक: --उसका सिर; द्विधा--दो टूक; विदीर्न:--फटा हुआ; तोशलक--तोशल; उभौ अपि--दोनों ही; निपेततु:--गिर पड़े |

    तत्पश्चात्‌ कृष्ण ने अपने पाँव के अँगूठों से शल पहलवान के सिर पर प्रहार करके उसे दो'फाड़ कर दिया।

    भगवान्‌ ने तोशल के साथ भी इसी तरह किया और वे दोनों मलल्‍ल धराशायी होगये।

    चाणूरे मुष्टिके कूटे शले तोशलके हते ।

    शेषाः प्रदुद्गुवुर्मलला: सर्वे प्राणपरीप्सव: ॥

    २८ ॥

    चाणूरे मुष्टिके कूटे--चाणूर, मुष्टिक तथा कूट के; शले तोशलके--शल तथा तोशल के; हते--मारे जाने पर; शेषा: --बचेहुए; प्रदुद्रुबुः--भाग गये; मल्‍ला:--पहलवान; सर्वे--सभी ; प्राण--अपने प्राण; परीप्सव:--बचाने की आशा से |

    चाणूर, मुष्टिक, कूट, शल तथा तोशल के मारे जाने के बाद बचे हुए पहलवान अपनी जानबचाकर भाग लिये।

    गोपान्वयस्यानाकृष्य तैः संसृज्य विजह॒तु: ।

    वाद्यमानेषु तूर्येषु वल्गन्तौ रूतनूपुरी ॥

    २९॥

    गोपानू--ग्वालबाल; वयस्यान्‌ू--उनके वयस्क मित्रगण; आकृष्य--एकत्र करके; तैः--उनके साथ; संसृज्य--मिलकर;विजहतु:--खेला-कूदा; वाद्यमानेषु--बजाते हुए; तूर्येषु--तुरहियों में; वल्गन्तौ--दोनों नाचते हुए; रुत--प्रतिध्वनित करते हुए;नूपुरौ--अपने घुंघरू।

    तब कृष्ण तथा बलराम ने अपने समवयस्क ग्वालबाल सखाओं को अपने पास बुलाया औरउनके साथ दोनों भगवानों ने खूब नाच किया और खेला।

    उनके घुंघरू वाद्य-यंत्रों की भान्तिध्वनि करने लगे।

    जना: प्रजहृषु: सर्वे कर्मणा रामकृष्णयो: ।

    ऋते कंसं विप्रमुख्या: साधव: साधु साध्विति ॥

    ३०॥

    जना:--लोगों ने; प्रजहषु;:--खुशी मनाई; सर्वे--सभी; कर्मणा--इस कार्य से; राम-कृष्णयो:--बलराम तथा कृष्ण के;ऋते--सिवाय, अतिरिक्त; कंसम्‌--कंस के; विप्र--ब्राह्मणों के; मुख्या:--सर्व श्रेष्ठ; साधव: --सन्तपुरुष; साधु साधु इति--बहुत अच्छा! बहुत अच्छा! ( कहकर चिल्ला पड़े )।

    कंस के अतिरिक्त सभी व्यक्तियों ने कृष्ण तथा बलराम द्वारा सम्पन्न इस अद्भुत कृत्य परहर्ष प्रकट किया।

    पूज्य ब्राह्मणों तथा महान्‌ सन्तपुरुषों ने 'बहुत अच्छा, बहुत अच्छा, ' कहा।

    हतेषु मल्लवर्येषु विद्वुतेषु च भोजराद्‌ ।

    न्यवारयत्स्वतूर्याणि वाक्य चेदमुवाच ह ॥

    ३१॥

    हतेषु--मारे गये; मल्ल-वर्येषु-- श्रेष्ठ पहलवान; विद्गुतेषु -- भगे हुए; च--तथा; भोज-राट्‌ू-- भोजराज, कंस ने; न्यवारयत्‌--रोका; स्व--अपना; तूर्याणि--तुरहियाँ; वाक्यम्‌--शब्द; च--तथा; इृदम्‌ू--यह; उबाच ह--कहा |

    जब भोजराज ने देखा कि उसके सर्वश्रेष्ठ पहलवान या तो मारे जा चुके हैं अथवा भाग गयेहैं, तो उसने वाद्य-यंत्रों को बजाना रूकवा दिया जो मूलतः उसके मनोविनोद के लिए बजाये जारहे थे और इस प्रकार के शब्द कहे।

    निःसारयत दुर्वृत्तौ वसुदेवात्मजौ पुरात्‌ ।

    धनं हरत गोपानां नन्दं बध्नीत दुर्मतिमू ॥

    ३२॥

    निःसारयत--निकाल दो; दुर्वृत्तौ--दुर्व्यवहार करने वाले; बसुदेव-आत्मजौ--वसुदेव के दोनों पुत्रों को; पुरातू--नगरी से;धनम्‌-- धन; हरत--छीन लो; गोपानाम्‌-ग्वालों का; नन्दम्‌--नन्द महाराज को; बध्नीत--बाँध दो; दुर्मतिम्‌--मूर्ख , दुष्ट |

    कंस ने कहा : वसुदेव के दोनों दुष्ट पुत्रों को नगरी से बाहर निकाल दो।

    ग्वालों कीसम्पत्ति छीन लो और उस मूर्ख नन्‍द को बन्दी बना लो।

    वसुदेवस्तु दुर्मेधा हन्यतामा श्रसत्तम: ।

    उग्रसेन: पिता चापि सानुगः परपक्षग: ॥

    ३३॥

    बसुदेव:--वसुदेव; तु-- भी; दुर्मेधा--दुर्बुर्द्ि; हन्यताम्‌--मार डाला जाय; आशु--तुरन्‍्त; असतू-तम:--अशुद्ध में निकृष्ट;उग्रसेन:--उग्रसेन; पिता--मेरा पिता; च अपि-- भी; स--सहित; अनुग:--अपने अनुचरों; पर--शत्रु का; पक्ष-ग:--पक्ष लेनेबाला

    उस अत्यन्त दुष्ट मूर्ख वसुदेव को मार डालो! और मेरे पिता उग्रसेन को भी उसकेअनुयायियों सहित मार डालो क्योंकि उन सब ने हमारे शत्रुओं का पश्ष लिया है।

    एवं विकत्थमाने वै कंसे प्रकुपितोव्यय: ।

    लघिम्नोत्पत्य तरसा मझ्ञमुत्तुड्रमारुहत्‌ ॥

    ३४॥

    एवम्‌--इस प्रकार; विकत्थमाने--बढ़-बढ़कर बातें कर रहे; वै--निस्सन्देह; कंसे-- कंस पर; प्रकुपित:--अत्यन्त क्रुद्ध हुए;अव्यय:--अच्युत भगवान्‌ ने; लघिम्ना--आसानी से; उत्पत्य--उछलकर; तरसा--तेजी से; मञ्लम्‌ू--राजमंच पर; उत्तुड्रम्‌--ऊँचे; आरुहत्‌--चढ़ गये जब कंस इस तरह दम्भ से गरज रहा था, तो अच्युत भगवान्‌ कृष्ण अत्यन्त क्रुद्ध होकरतेजी के साथ सरलता से उछलकर ऊँचे राजमंच पर जा पहुँचे।

    तमाविशन्तमालोक्य मृत्युमात्मन आसनात्‌ ।

    मनस्वी सहसोत्थाय जगूृहे सोडसिचर्मणी ॥

    ३५॥

    तम्‌--उसे, कृष्ण को; आविशन्तम्‌--( निजी बैठक में ) प्रवेश करते हुए; आलोक्य--देखकर; मृत्युम्‌--मृत्यु को; आत्मन:--अपनी; आसनात्‌--अपने आसन से; मनस्वी--प्रखर बुद्धिवाला; सहसा--तुरन्‍्त; उत्थाय--उठकर; जगृहे--ले ली; सः--उसने;असि--अपनी तलवार; चर्मणी--तथा अपनी ढाल।

    भगवान्‌ कृष्ण को साक्षात्‌ मृत्यु के समान आते देखकर प्रखर बुद्धिवाला कंस तुरन्त अपनेआसन से उठ खड़ा हुआ और उसने अपनी तलवार तथा ढाल उठा ली।

    त॑ं खड़्गपाणिं विचरन्तमाशुएयेनं यथा दक्षिणसव्यमम्बरे ।

    समग्रहीदुर्विषहो ग्रतेजायथोरगं ताक्ष्यसुतः प्रसहा ॥

    ३६॥

    तम्‌--उसे, कंस को; खड़्ग--तलवार; पाणिम्‌--हाथ में लिए; विचरन्तम्‌--इधर-उधर घूमते; आशु--तेजी से; श्येनमम्‌--बाजको; यथा--जिस तरह; दक्षिण-सव्यम्‌-दाएँ तथा बाएँ; अम्बरे-- आकाश में; समग्रहीत्‌ू--पकड़ ले; दुर्विषह--दुस्सह; उग्र--तथा भयानक; तेजा:--जिनकी शक्ति; यथा--जिस तरह; उरगमू--साँप को; तार्श््य-सुतः--तार्श््य का पुत्र, गरुड़; प्रसहा--बलपूर्वक

    हाथ में तलवार लिए कंस तेजी से एक ओर से दूसरी ओर भाग रहा था जिस तरह आकाश में बाज हो।

    किन्तु दुस्सह भयानक शक्ति वाले भगवान्‌ कृष्ण ने उस असुर को बलपूर्वक उसीतरह पकड़ लिया जिस तरह तार्क््य-पुत्र ( गरुड़ ) किसी साँप को पकड़ लेता है।

    प्रगृह्य केशेषु चलत्किरीतंनिपात्य रड्ढोपरि तुड़मझात्‌ ।

    तस्योपरिष्टात्स्वयमब्जनाभ:पपात विश्वाश्रय आत्मतन्त्र: ॥

    ३७॥

    प्रगृह्दा--पकड़कर; केशेषु--बालों से; चलत्‌--ठोकर मार कर; किरीटम्‌--मुकुट को; निपात्य--फेंककर; रड्ढड-उपरि--अखाड़े के ऊपर; तुड्ढड-- ऊँचे; मञ्ञात्‌ू--मंच से; तस्य--उसके; उपरिष्टात्‌--ऊपर से; स्वयम्‌--स्वयं; अब्ज-नाभ:--कमल-नाभ भगवान्‌ ने; पपात--फेंक दिया; विश्व--ब्रह्माण्ड-भर के; आश्रय: --आधार; आत्म-तन्त्र:--स्वतंत्र |

    कंस के बालों को पकड़कर तथा उसके मुकुट को ठोकर मारते हुए कमल-नाभ भगवान्‌ नेउसे ऊँचे मंच से अखाड़े के फर्श पर फेंक दिया।

    तत्पश्चात्‌ समस्त ब्रह्माण्ड के आश्रय, स्वतंत्रभगवान्‌ उस राजा के ऊपर कूद पड़े।

    त॑ सम्परेतं विचकर्ष भूमौहरिर्यथेभं जगतो विपश्यतः ।

    हा हेति शब्दः सुमहांस्तदाभू-दुदीरितः सर्वजनैनरिन्द्र ॥

    ३८ ॥

    तम्‌--उसको; सम्परेतम्‌--मृत; विचकर्ष--घसीटा; भूमौ--पृथ्वी पर; हरिः--सिंह; यथा--जिस तरह; इभम्‌--हाथी को;जगतः--सारे लोगों के; विपश्यतः --देखते देखते; हा हा इति--' हाय हाय ' इस प्रकार; शब्द:--ध्वनि; सु-महान्‌ू--विशाल;तदा--तब; अभूत्‌--उठी; उदीरित:--बोला गया; सर्व-जनैः--सभी लोगों के द्वारा; नर-इन्द्र--हे मनुष्यों के शासक ( राजापरीक्षित ) ॥

    जिस तरह सिंह मृत हाथी को घसीटता है उसी तरह भगवान्‌ ने वहाँ पर उपस्थित सारे लोगोंके समक्ष जमीन पर कंस के मृत शरीर को घसीटा।

    हे राजन्‌, अखाड़े के सारे लोग तुमुल स्वर में'हाय हाय ' चिल्ला उठे।

    स नित्यदोद्विग्नधिया तमी श्वरंपिबन्नदन्वा विचरन्स्वपन्ध्रसन्‌ ।

    ददर्श चक्रायुधमग्रतो यत-स्तदेव रूप दुरवापमाप ॥

    ३९॥

    सः--उसने, कंस ने; नित्यदा--निरन्तर; उद्विग्न--चिन्तित; धिया--मन से; तमू--उस; ईश्वरम्‌ू--ई श्वर को; पिबन्‌--पानी पीते;अदनू-- भोजन करते; वा--अथवा; विचरनू-- घूमते हुए; स्वपन्‌--सोते हुए; श्रसन्‌--साँस लेते; दरदर्श--देखा; चक्र--चक्र ;आयुधम्‌-- अपने हाथ में; अग्रत:--अपने समक्ष; यत:--क्योंकि; तत्‌ू--वह; एब--वही; रूपमू--साकार रूप को;दुरवापम्‌-दुर्लभ; आप--प्राप्त किया

    कंस इस विचार से सदैव विचलित रहता था कि भगवान्‌ द्वारा उसका वध होने वाला है।

    अतः वह खाते, पीते, चलते, सोते, यहाँ तक कि साँस लेते समय भी भगवान्‌ को अपने समक्षहाथ में चक्र धारण किये देखा करता था।

    इस तरह कंस ने भगवान्‌ जैसा रूप ( सारूप्य ) प्राप्तकरने का दुर्लभ वर प्राप्त किया।

    तस्यानुजा भ्रातरोषष्टौ कड्डन्यग्रोधकादय: ।

    अभ्यधावज्नतिक्रुद्धा भ्रातुर्निवेशकारिण: ॥

    ४०॥

    तस्य--उसके, कंस के; अनुजा:--छोटे; भ्रातर:-- भाई; अष्टौ--आठ; कड्जू-न्यग्रोधक-आदय:--कंक, न्यग्रोधक इत्यादि;अभ्यधावन्‌--आक्रमण करने दौड़े; अति-क्रुद्धाः:--अत्यन्त क्रुद्ध होकर; भ्रातु:--अपने भाई के प्रति; निर्वेश--उऋण;कारिण:--होने के लिए

    तत्पश्चात्‌ कंक, न्यग्रोधक इत्यादि कंस के आठ भाइयों ने क्रोध में आकर अपने भाई काबदला लेने के लिए उन दोनों भगवानों पर आक्रमण कर दिया।

    तथातिरभसांस्तांस्तु संयत्तात्रोहिणीसुतः ।

    अहन्परिधमुद्यम्य पशूनिव मृगाधिप: ॥

    ४१॥

    तथा--इस तरह से; अति-रभसान्‌--तेजी से दौड़ते; तान्‌ू--उन्हें; तु--तथा; संयत्तान्‌-- प्रहार करने के लिए उद्यत; रोहिणी-सुतः--रोहिणी-पुत्र बलराम ने; अहन्‌--मार गिराया; परिघम्‌-- अपनी गदा; उद्यम्य-- भाँज कर; पशून्‌ू-- पशुओं को; इब--सहश; मृग-अधिप:--पशुओं का राजा, सिंह।

    ज्योंही आक्रमण करने के लिए तैयार होकर वे सभी उन दोनों भगवानों की ओर तेजी सेदौड़े तो रोहिणी-पुत्र ने अपनी गदा से उन सबों को उसी तरह मार डाला जिस तरह सिंह अन्यपशुओं को आसानी से मार डालता है।

    नेदुर्दुन्दुभयो व्योम्नि ब्रहोशाद्या विभूतय: ।

    पुष्पै: किरन्तस्तं प्रीता: शशंसुर्ननृतुः स्त्रियः ॥

    ४२॥

    नेदु:--बज उठीं; दुन्दुभय:--दुन्दुभियाँ; व्योग्नि--आकाश में; ब्रह्म-ईश-आद्या: --ब्रह्मा, शिव इत्यादि देवतागण; विभूतय:--अपने अंश; पुष्पैः --फूलों के द्वारा; किरन्तः--बिखेरते हुए; तम्‌--उस पर; प्रीता:--प्रसन्न; शशंसु:--उनकी प्रशंसा में गानागाया; ननृतुः--नाची ; स्त्रियः--उनकी पत्लियाँ

    जिस समय ब्रह्मा, शिव तथा भगवान्‌ के अंश-रूप अन्य देवताओं ने हर्षित होकर उन पर'फूलों की वर्षा की उस समय आकाश में दुन्दुभियाँ बज उठीं।

    वे सभी उनका यश-गान करनेलगे और उनकी पत्लियाँ नाचने लगीं।

    तेषां स्त्रियो महाराज सुहन्मरणदु:खिता: ।

    तत्राभीयुर्विनिध्नन्त्यः शीर्षाण्यश्रुविलोचना: ॥

    ४३॥

    तेषाम्‌--उनकी ( कंस तथा उसके भाइयों की ); स्त्रियः--पत्नियाँ; महाराज--हे राजन्‌ ( परीक्षित ); सुहृत्‌--शुभचिन्तकों( पत्नियों ) के; मरण-- मृत्यु के कारण; दुःखिता:--दुखित; तत्र--उस स्थान पर; अभीयु: --पहुँचे; विनिध्नन्त्य:--पीटते हुए;शीर्षाणि--- अपने सिर; अश्रु--आँसू से युक्त; विलोचना:--उनकी आँखें

    हे राजनू, कंस तथा उसके भाइयों की पत्नियाँ अपने अपने शुभचिन्तक पतियों की मृत्यु सेशोकाकुल होकर अपने सिर पीटती हुई तथा आँखों में आँसू भरे वहाँ पर आईं।

    शयानान्वीरशयायां पतीनालिड्ग्य शोचतीः ।

    बिलेपु: सुस्वरं नार्यो विसृजन्त्यो मुहु:ः शुच्च: ॥

    ४४॥

    शयानान्‌--लेटे हुए; वीर--वीर की; शयायाम्‌--शय्या पर ( भूमि पर ); पतीन्‌-- अपने अपने पतियों को; आलिड्ग्य--चूमकर; शोचती:--शोक का अनुभव करतीं; विलेपु:--विलाप करने लगीं; सु-स्वरम्‌--जोर-जोर से; नार्य:--स्त्रियाँ;विसूजन्त्य:--गिराती हुई; मुहुः--बारम्बार; शुचः--आँसू।

    वीरों की मृत्यु शय्या पर लेटे अपने पतियों का आलिंगन करते हुए शोकमग्न स्त्रियाँ आँखोंसे निरन्तर अश्रु गिराती हुईं जोर-जोर से विलाप करने लगीं।

    हा नाथ प्रिय धर्मज्ञ ककणानाथवत्सल ।

    त्वया हतेन निहता वयं ते सगृहप्रजा: ॥

    ४५॥

    ह--हाय; नाथ--हे स्वामी; प्रिय--हे प्यारे; धर्म-ज्ञ--धर्म के ज्ञाता; करूण--हे दयावान्‌; अनाथ--बिना रक्षकों वाले के;वत्सल--हे दयालु; त्ववा--तुम्हारे द्वारा; हतेन--मारे जाकर; निहता:--मारी जाती हैं; वयम्‌--हम; ते--तुम्हारे; स--सहित;गृह--घर; प्रजा:--तथा सन्‍्तानों |

    स्त्रियाँ विलाप करने लगीं : हाय! हे नाथ, हे प्रिय, हे धर्मज्ञ, हे आश्रयहीनों के दयालुरक्षक, तुम्हारा वध हो जाने से हम भी तुम्हारे घर तथा सन्‍्तानों समेत मारी जा चुकी हैं।

    त्वया विरहिता पत्या पुरीयं पुरुषर्षभ ।

    न शोभते वयमिव निवृत्तोत्सवमड्रला ॥

    ४६॥

    त्वया--तुमसे; विरहिता--बिछुड़कर; पत्या--स्वामी से; पुरी--नगरी; इयम्‌--यह; पुरुष--पुरुषों में; ऋषभ-- श्रेष्ठ वीर; नशोभते--शोभा नहीं देता; वयम्‌--हमको; इब--जिस तरह; निवृत्त--समाप्त; उत्सव--उत्सव; मड़ला--तथा सौभाग्य

    हे पुरुषों में श्रेष्ठ वीर, यह नगरी अपने स्वामी तुमसे बिछुड़कर अपना सौन्दर्य उसी प्रकार खोचुकी है, जिस तरह हम खो चुकी हैं और इसके भीतर के सारे हर्षोल्लास तथा सौभाग्य का अन्तहो चुका है।

    अनागसां त्वं भूतानां कृतवान्द्रोहमुल्बणम्‌ ।

    तेनेमां भो दशां नीतो भूतश्रुक्को लभेत शम्‌ ॥

    ४७॥

    अनागसाम्‌--निष्पाप, निरपराध; त्वमू--तुमने; भूतानाम्‌--प्राणियों के प्रति; कृतवान्‌ू--किया था; द्रोहम्‌--हिंसा; उल्बणम्‌--घोर; तेन--उसी से; इमामू--इस; भो--हे प्रिय; दशाम्‌ू--दशा को; नीतः--लाये गये; भूत--जीवों के प्रति; ध्ुक्‌--क्षतिपहुँचाते हुए; कः--कौन; लभेत--प्राप्त कर सकता है; शम्‌--सुख |

    हे प्रिय, तुम्हारी यह दशा इसीलिए हुई है क्योंकि तुमने निर्दोष प्राणियों के प्रति घोर हिंसाकी है।

    भला दूसरों को क्षति पहुँचाने वाला कैसे सुख पा सकता है ?

    सर्वेषामिह भूतानामेष हि प्रभवाप्यय: ।

    गोप्ता च तदवध्यायी न क्वचित्सुखमेधते ॥

    ४८॥

    सर्वेषाम्‌--समस्त; इह--इस जगत में; भूतानाम्‌ू--जीवों का; एष:--यह ( कृष्ण ); हि--निश्चय ही; प्रभव--उद्‌गम;अप्ययः--तथा तिरोधान; गोप्ता--पालक; च--तथा; तत्‌--उसका; अवध्यायी--उपेक्षा करने वाला; न क्वचित्‌--कभी नहीं;सुखम्‌--सुखपूर्वक; एधते--फूलता-फलता है।

    भगवान्‌ कृष्ण इस जगत में सारे जीवों को प्रकट करते हैं और उनका संहार करने वाले हैं।

    साथ ही वे उनके पालनकर्ता भी हैं।

    जो उनका अनादर करता है, वह कभी भी सुखपूर्वक फल-'फूल नहीं सकता।

    श्रीशुक उबाचराजयोषित आश्वा स्य भगवॉाललोकभावन: ।

    यामाहुलौंकिकीं संस्थां हतानां समकारयत्‌ ॥

    ४९॥

    श्री-शुक: उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; राज--राजा ( तथा उसके भाइयों ) की; योषित:--पत्लियों को; आश्वास्य--आश्वासन देकर; भगवान्‌-- भगवान्‌; लोक--समस्त लोकों के; भावन:--पोषणकर्ता; यामू--जो; आहु: --वे ( वेदादि )आदेश देते हैं; लौकिकीम्‌ संस्थाम्‌--लोकरीति, दाह-संस्कार; हतानाम्‌ू--मृतकों के लिए; समकारयत्‌--किये जाने कीव्यवस्था की

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : रानियों को सान्त्वना देने के बाद समस्त जगतों के पालनकर्ताभगवान्‌ कृष्ण ने नियत दाह-संस्कार सम्पन्न किये जाने की व्यवस्था की।

    मातरं पितरं चैव मोचयित्वाथ बन्धनात्‌ ।

    कृष्णरामौ बवन्दाते शिरसा स्पृश्य पादयो: ॥

    ५०॥

    मातरम्‌ू--अपनी माता को; पितरम्‌--पिता को; च--तथा; एव-- भी; मोचयित्वा--छुड़ाकर; अथ--तब; बन्धनात्‌ू--हथकड़ी,बेड़ी से; कृष्ण-रामौ--कृष्ण तथा बलराम ने; ववन्दाते--नमस्कार किया; शिरसा--सिर से; स्पृश्य--छूकर; पादयो: --उनकेपैर

    तत्पश्चात्‌ कृष्ण तथा बलराम ने अपने माता-पिता को बन्धन से छुड़ाया और अपने सिर सेउनके पैरों को छूकर उन्हें नमस्कार किया।

    देवकी वसुदेवश्च विज्ञाय जगदी श्वरौ ।

    कृतसंवन्दनौ पुत्रौ सस्वजाते न शद्धितो ॥

    ५१॥

    देवकी--देवकी; वसुदेव:--वसुदेव; च--तथा; विज्ञाय--पहचान कर; जगत्‌--ब्रह्माण्ड के; ईश्वरा--दो ई श्वरों के रूप में;कृत--किया गया; संवन्दनौ--हाथ जोड़कर की गई वन्दना; पुत्रौ--अपने दोनों पुत्रों को; सस्वजाते न--आलिंगन नहीं किया;शद्धितौ--शंकालु।

    अब कृष्ण तथा बलराम को ब्रह्माण्ड के विभुओं के रूप में जानकर देवकी तथा वसुदेवकेवल हाथ जोड़े खड़े रहे।

    शंकित होने के कारण उन्होंने अपने पुत्रों का आलिंगन नहीं किया।

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    अध्याय पैंतालीसवाँ: कृष्ण ने अपने शिक्षक के पुत्र को बचाया

    10.45श्रीशुक उबाचपितराबुपलब्धार्थों विदित्वा पुरुषोत्तम: ।

    मा भूदिति निजांमायां ततान जनमोहिनीम्‌ ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; पितरौ--माता-पिता ने; उपलब्ध--अनुभव करने के बाद; अर्थौ-- भाव ( ईश्वरके रूप में उनका वैभवशाली पद ); विदित्वा--जानकर; पुरुष-उत्तम:--परम पुरुष ने; मा भूत्‌ इति--'ऐसा नहीं होनाचाहिए'; निजाम्‌ू--अपनी; मायाम्‌--माया को; ततान--विस्तार दिया; जन--भक्तगण को; मोहिनीम्‌--मोहने वाली

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : यह जानकर कि उनके माता-पिता उनके दिव्य ऐश्वर्य से अवगतहो चुके हैं, भगवान्‌ ने यह सोचा कि ऐसा नहीं होने दिया जाना चाहिए।

    अतः उन्होंने अपनेभक्तों को मोहने वाली अपनी योगमाया का विस्तार किया।

    उवबाच पितरावेत्य साग्रज: सात्वनर्षभ: ।

    प्रश्रयावनत: प्रीणन्नम्ब तातेति सादरम्‌ ॥

    २॥

    उवबाच--कहा; पितरौ--अपने माता-पिता के; एत्य--निकट जाकर; स--सहित; अग्र-ज:--बड़े भाई, बलराम; सात्वत--सात्वत वंश का; ऋषभ:--महानतम वीर; प्रश्रय--विनीत भाव से; अवनत:--झुककर; प्रीणन्‌--प्रसन्न करते हुए; अम्ब तातइति--' हे माता, हे पिता '; स-आदरम्‌--सम्मानपूर्वक |

    सात्वतों में महानतम भगवान्‌ कृष्ण अपने बड़े भाई सहित अपने माता-पिता के पास पहुँचे।

    वे उन्हें विनयपूर्वक शीश झुकाकर और आदरपूर्वक 'हे माते' तथा 'हे पिताश्री ' संबोधितकरके प्रसन्न करते हुए इस प्रकार बोले।

    नास्मत्तो युवयोस्तात नित्योत्कण्ठितयोरपि ।

    बाल्यपौगण्डकैशोराः पुत्राभ्यामभवन्क्वचित्‌ ॥

    ३॥

    न--नहीं; अस्मत्त:--हमारे कारण; युवयो: --आप दोनों के लिए; तात--हे पिता; नित्य--सदैव; उत्कण्ठितयो:--चिन्तित;अपि--निस्सन्देह; बाल्य--बालकाल का ( आनन्द ); पौगण्ड--बालपना; कैशोर: --तथा किशोरावस्था; पुत्राभ्यामू--आपकेदोनों पुत्रों के कारण; अभवनू्‌--हुआ था; क्वचित्‌--कुछ।

    भगवान्‌ कृष्ण ने कहा : हे पिताश्री, हम दो पुत्रों के कारण आप तथा माता देवकी सदैवचिन्ताग्रस्त रहते रहे और कभी भी हमारे बाल्यकाल, पौगण्ड तथा किशोर अवस्थाओं काआनन्द भोग नहीं पाये।

    न लब्धो दैवहतयोवासो नौ भवदन्तिके ।

    यां बाला: पितृगेहस्था विन्दन्ते लालिता मुदम्‌ ॥

    ४॥

    न--नहीं; लब्ध: --प्राप्त; दैव-- भाग्य द्वारा; हतयो: -- वंचित; वास:--आवास; नौ--हम दोनों के द्वारा; भवत्‌-अन्तिके--आपकी उपस्थिति में; यामू--जो; बाला:--बालक; पितृ--अपने माता-पिता के; गेह--घरमें; स्थ:--रहकर; विन्दन्ते--अनुभव करते हैं; लालिता:--पाले गये, लाड़-प्यार किये गये; मुदम्‌--सुख |

    भाग्य द्वारा वंचित हम दोनों न तो आपके साथ रह पाये, न ही अधिकांश बालकों को उनकेमाता-पिता के घर में मिलने वाले लाड़-प्यार के सुख को हम भोग सके।

    सर्वार्थसम्भवो देहो जनितः पोषितो यतः ।

    न तयोर्याति निर्वेशं पित्रोर्मर्य: शतायुषा ॥

    ५॥

    सर्व--समस्त; अर्थ--जीवनलक्ष्य का; सम्भव:--स्त्रोत; देह:--शरीर; जनित:--उत्पन्न; पोषित:--पालित; यत:--जिससे;न--नहीं; तयो:--उन दोनों को; याति--मिलता है; निर्वेशम्‌--उऋण होना; पित्रो:--माता-पिता के प्रति; मर्त्य:--मरणशील;शत--एक सौ ( वर्ष )) आयुषा--आयु से |

    मनुष्य अपने शरीर से जीवन के सारे लक्ष्य प्राप्तकर सकता है और उसके माता-पिता ही हैंजो इस शरीर को जन्म देते और उसका पोषण करते हैं।

    अतः कोई भी मर्त्यप्राणी, एक सौ वर्षके पूरे जीवन-काल तक उनकी सेवा करके भी, मातृ-पितृ ऋण से उक्करण नहीं हो सकता।

    यस्तयोरात्मज: कल्प आत्मना च धनेन च ।

    वृत्ति न द्यात्तं प्रेत्य स्वमांसं खादयन्ति हि ॥

    ६॥

    यः--जो; तयो:--उन दोनों का; आत्म-ज:--पुत्र; कल्प:--समर्थ; आत्मना--अपने शारीरिक साधनों से; च--तथा; धनेन--सम्पत्ति से; च--भी; वृत्तिमू--जीविका; न दद्यात्‌--नहीं देती; तमू--उसको; प्रेत्य--मरने के बाद; स्व--अपना; मांसम्‌--मांस; खादयन्ति--खिलवाते हैं; हि--निस्सन्देह।

    जो पुत्र समर्थ होते हुए भी अपने माता-पिता को अपने शारीरिक साधन तथा सम्पत्ति दिलानेमें विफल रहता है, उसे मृत्यु के बाद अपना ही मांस खाने के लिए बाध्य होना पड़ता है।

    मातरं पितरं वृद्ध भार्यां साध्वीं सुतम्शिशुम्‌ ।

    गुरुं विप्रं प्रपन्नं च कल्पो बिशभ्रच्छुसन्मृतः ॥

    ७॥

    मातरम्‌--माता को; पितरमू--तथा पिता को; वृद्धम्‌--बूढ़े; भार्यामू--पत्नी को; साध्वीम्‌ू--सती-साध्वी; सुतम्‌--बेटे को;शिशुम्‌--अल्पायु वाले; गुरुम्‌-गुरु को; विप्रमू--ब्राह्मण को; प्रपन्नम्‌ू--शरण में आये हुए को; च--तथा; कल्प: --समर्थ;अबिभ्रतू--पालन न करके; श्वसन्‌-- श्वास लेता हुआ; मृत:--मरा हुआ।

    जो व्यक्ति समर्थ होकर भी अपने बूढ़े माता-पिता, साध्वी-पत्नी, छोटे पुत्र या गुरु काभरण-पोषण करने से चूकता है या किसी ब्राह्मण या शरण में आये हुए की उपेक्षा करता है,वह जीवित होते हुए भी मरा हुआ माना जाता है।

    तन्नावकल्पयो: कंसात्नित्यमुद्दिग्नचेतसो: ।

    मोघमेते व्यतिक्रान्ता दिवसा वामनर्चतो: ॥

    ८॥

    तत्‌--इसलिए; नौ--हम दोनों का; अकल्पयो:-- असमर्थ; कंसात्‌--कंस के कारण; नित्यम्‌ू--सदैव; उद्विग्न--चिन्तित;चेतसो: --मनों वाले; मोघम्‌--व्यर्थ ही; एते--ये; व्यतिक्रान्ता:--बिताया; दिवसा:--दिन; वाम्‌--आपको; अनर्चतो: --सम्मान न देकर।

    इस तरह हमने इतने सारे दिन आपका समुचित सम्मान करने में असमर्थ होने के कारणव्यर्थ में ही गँवा दिये, क्योंकि हमारे मन सदैव कंस के भय से विचलित थे।

    तद्षन्तुमई थस्तात मातनों परतन्त्रयो: ।

    अकुर्वतोर्वा शुश्रूषां क्लष्टयोर्दुईदा भूशम्‌ ॥

    ९॥

    ततू--उसे; क्षन्तुम्‌-- क्षमा करें; अर्हथ:--आप चाहें तो; तात--हे पिता; मातः--हे माता; नौ--हम दोनों को; पर-तन्त्रयो: --अन्यों के अधीन; अकुर्वतो:--न करते हुए; वामू--आपकी; शुश्रूषाम्‌-सेवा; क्लिष्टयो:--कष्ट पहुँचाया गया; दुईदा--कठोरहृदय ( कंस ) द्वारा; भूशम्‌-- अत्यधिक |

    है पिता तथा माता, आप हम दोनों को आपकी सेवा न कर पाने के लिए क्षमा कर दें।

    हमस्वतंत्र नहीं थे और क्रूर कंस द्वारा अत्यधिक त्रस्त कर दिये गये थे।

    श्रीशुक उबाचइति मायामनुष्यस्य हरेविश्वात्मनो गिरा ।

    मोहितावड्डजूमारोप्य परिष्वज्यापतुर्मुदम्‌ ॥

    १०॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; माया--अपनी अन्तरंगा शक्ति द्वारा; मनुष्यस्थ--मनुष्य के रूपमें प्रकट होने वाले; हरेः-- भगवान्‌ हरि का; विश्व--ब्रह्माण्ड का; आत्मन:--आत्मा; गिरा--शब्दों से; मोहितौ--मोह ग्रस्त;अड्डम्‌-गोद में; आरोप्य--उठाकर; परिष्वज्य--आलिंगन करके; आपतु:--अनुभव किया; मुदम्‌-हर्ष |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस प्रकार ब्रह्माण्ड के परमात्मा एवं अपनी अन्तरंगा भ्रामकशक्ति से मनुष्य-रूप में प्रकट होने वाले भगवान्‌ हरि के बचनों से मोहित होकर उनके माता-पिता ने हर्षपूर्वक उन्हें अपनी गोद में उठाकर उनका आलिंगन किया।

    सिद्जन्तावश्रुधाराभि: स्नेहपाशेन चावृतौ ।

    न किझ्चिदूचतू राजन्बाष्पकण्ठौ विमोहितौ ॥

    ११॥

    सिद्न्तौ--सिक्त करते हुए; अश्रु--आँसुओं की; धाराभि:--धाराओं से; स्नेह--प्रेममयी; पाशेन--रस्सी से; च--तथा;आवृतौ-घिरे; न--नहीं; किल्लित्‌ू--कुछ भी; ऊचतु:--वे बोले; राजनू--हे राजा ( परीक्षित ); बाष्प--आँसुओं ( से पूर्ण );'कण्ठौ--गले; विमोहितौ--अवरुद्धभगवान्‌ के ऊपर अश्रुओं की धारा ढुलकाते हुए, स्नेह की रस्सी से बँधे उनके माता-पिताबोल न पाये।

    हे राजन, वे भावविभोर थे और उनके गले अश्रुओं से अवरुद्ध हो चले थे।

    एवमाश्चास्य पितरौ भगवान्देवकीसुतः ।

    मातामहं तूग्रसेनं यदूनामकरोन्णूपम्‌ ॥

    १२॥

    एवम्‌--इस प्रकार; आश्वास्य--आश्वासन देकर; पितरौ--माता-पिता को; भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; देवकी-सुतः--देवकी-पुत्र;मातामहम्‌--अपने नाना को; तु--तथा; उग्रसेनम्‌--उग्रसेन को; यदूनामू--यदुओं का; अकरोत्‌--बना दिया; नृपम्‌--राजा।

    अपने माता-पिता को इस तरह सान्त्वना देकर तथा देवकी-पुत्र के रूप में प्रकट हुए,भगवान्‌ ने अपने नाना उग्रसेन को यदुओं का राजा बना दिया।

    आह चास्मान्महाराज प्रजाश्षाज्ञप्तुमहसि ।

    ययातिशापाद्यदुभिर्नासितव्यं नूपासने ॥

    १३॥

    आह--उसने ( कृष्ण ने ) कहा; च--तथा; अस्मान्‌--हमको; महा-राज--हे महान्‌ राजा; प्रजा:--आपकी प्रजा; च-- भी;आज्ञप्तुम्‌ अहंसि--आदेश दें; ययाति--प्राचीन राजा ययाति द्वारा; शापात्‌ू--शाप से; यदुभि:--यदुओं के; न आसितव्यम्‌--नहीं बैठना चाहिए; नृप--शाही; आसने--सिंहासन पर।

    भगवान्‌ ने उनसे कहा : हे महाराज, हम आपकी प्रजा हैं, अतः आप हमें आदेश दें।

    दरअसल, ययाति के शाप के कारण कोई भी यदुवंशी राज-सिंहासन पर नहीं बैठ सकता।

    मयि भृत्य उपासीने भवतो विबुधादय: ।

    बलिं हरन्त्यवनता: किमुतान्ये नराधिपा: ॥

    १४॥

    मयि--मुझमें; भृत्ये--सेवक रूप; उपासीने--सेवा में उपस्थित; भवत:--आपकी; विबुध--देवता; आदय: --इ त्यादि;बलिम्‌--प्रशस्ति, भेंट; हरन्ति--लायेंगे; अवनता: --विनीत भाव से झुके हुए; किम्‌ उत--तो फिर क्‍या कहा जाय; अन्ये--दूसरे; नर--मनुष्य का; अधिपा:ः--शासक |

    चूँकि मैं आपके निजी सेवक के रूप में आपके पार्षदों के बीच उपस्थित हूँ अतः सारे देवतातथा अन्य प्रतिष्ठित व्यक्ति आपको अभिवादन करने के लिए सिर झुकाते हुए आयेंगे।

    तो फिरमनुष्यों के शासकों के लिए क्‍या कहा जाय ?

    सर्वान्स्वान्ज्नतिसम्बन्धान्दिग्भ्य: कंसभयाकुलान्‌ ।

    यदुवृष्ण्यन्धकमधु दाशाहकुकुरादिकान्‌ ॥

    १५॥

    सभाजितान्समाश्चवास्य विदेशावासकर्शितान्‌ ।

    न्यवासयत्स्वगेहेषु वित्तै: सन्तर्प्य विश्वकृत्‌ ॥

    १६॥

    सर्वानू--समस्त; स्वान्‌-- अपने; ज्ञाति--परिवार के लोग; सम्बन्धान्‌--तथा अन्य सम्बन्धी; दिग्भ्यः--सभी दिशाओं से; कंस-भय--कंस के डर से; आकुलान्‌--विचलित; यदु-वृष्णि-अन्धक-मधु-दाशाई कुकुर-आदिकान्‌--यदुओं, वृष्णियों, अन्धकों,मधुओं, दाशाहों, कुकुरों तथा अन्य को; सभाजितान्‌--समादरित; समाश्चास्य--आ श्वासन देकर; विदेश--विदेशी क्षेत्रों में;आवास--रहते हुए; कर्शितान्‌-- थकाये गये; न्‍्यवासयत्‌--बसा दिया; स्व--अपने; गेहेषु--घरों में; वित्तै:--बहुमूल्य भेंटोंसहित; सन्तर्प्यच--सत्कार करके; विश्व--ब्रह्माण्ड का; कृत्‌ू--निर्माता |

    तत्पश्चात्‌ भगवान्‌ अपने सारे नजदिकी परिवार वालों को तथा अन्य सम्बन्धियों को उनविविध स्थानों से वापस लाये जहाँ वे कंस के भय से भाग कर गये थे।

    उन्होंने यदुओं, वृष्णियों,अन्धकों, मधुओं, दाशाहों, कुकुरों इत्यादि जाति-पक्ष वालों को सम्मानपूर्वक बुलवाया और उन्हेंसान्त्वना भी दी क्‍योंकि वे विदेशी स्थानों में रहते-रहते थक चुके थे।

    तत्पश्चात्‌ ब्रह्माण्ड के स्त्रष्टाभगवान्‌ कृष्ण ने उन्हें उनके अपने घरों में फिर से बसाया और बहुमूल्य भेंटों से उनका सत्कारकिया।

    कृष्णसड्डूर्षणभुजैर्गुप्ता लब्धमनोरथा: ।

    गृहेषु रेमिरे सिद्धा: कृष्णरामगतज्वरा: ॥

    १७॥

    वीक्षन्तोहरहः प्रीता मुकुन्दबदनाम्बुजम्‌ ।

    नित्य॑ प्रमुदितं श्रीमत्सदयस्मितवीक्षणम्‌ ॥

    १८ ॥

    कृष्ण-सड्डर्षण--कृष्ण तथा बलराम के; भुजैः:--बाहुओं से; गुप्ता: --सुरक्षित; लब्ध--प्राप्त करके; मन:-रथा: -- अपनीइच्छाएँ; गृहेषु-- अपने घरों में; रेमिरि-- भोग किया; सिद्धा:--पूर्णकाम; कृष्ण-राम--कृष्ण तथा बलराम के कारण; गत--दूरहो गया; ज्वरा:--ज्वर ( भौतिक जीवन का ); वीक्षन्त:--देखने से; अह: अह:--दिन-प्रतिदिन; प्रीता:--प्रिय; मुकुन्द--कृष्णका; वदन--मुख; अम्बुजमू--कमल सहश; नित्यमू--सदैव; प्रमुदितम्‌--प्रफुल्लित; श्रीमत्‌--सुन्दर; स-दय--दयालु;स्मित--मन्द हास युक्त; वीक्षणम्‌--चितवनों से |

    इन वंशों के लोगों ने भगवान्‌ कृष्ण तथा संकर्षण की बाहुओं का संरक्षण पाकर यहअनुभव किया कि उनकी सारी इच्छाएँ पूरी हो गईं।

    इस तरह वे अपने परिवारों के साथ अपने घरों में रहते हुए पूर्ण सुख का भोग करने लगे।

    कृष्ण तथा बलराम की उपस्थिति से अब उन्हेंसांसारिक ज्वर नहीं सताता था।

    ये प्रेमी भक्त प्रतिदिन मुकुन्द के कमल सहश नित्य प्रफुल्लितमुख को देख सकते थे, जो सुन्दर दयामय मन्द हास युक्त चितवनों से विभूषित था।

    तत्र प्रवयसोप्यासन्युवानोडइतिबलौजस: ।

    पिबन्तोक्षेर्मुकुन्दस्य मुखाम्बुजसुधां मुहु: ॥

    १९॥

    तत्र--वहाँ ( मथुरा में ); प्रवचयस:--गुरुजन; अपि-- भी; आसनू-- थे; युवान:--युवक; अति--अत्यधिक; बल--शक्ति;ओजसः:--तथा ओज से युक्त; पिबन्तः--पीते हुए; अक्षैः--अपने अपने नेत्रों से; मुकुन्दस्थ-- भगवान्‌ कृष्ण के; मुख-अम्बुज--कमल सहश मुख का; सुधाम्‌-- अमृत; मुहुः--बारम्बार

    यहाँ तक कि उस नगरी के अत्यन्त वृद्धजन भी शक्ति तथा ओज से पूर्ण युवा लगने लगेक्योंकि वे अपनी आँखों से निरन्तर भगवान्‌ मुकुन्द के कमल-मुख का अमृत-पान करते थे।

    अथ नन्दं समसाद्य भगवान्देवकीसुतः ।

    सड्डूर्षणश्व राजेन्द्र परिष्वज्येदमूचतु: ॥

    २०॥

    अथ--तब; नन्दम्‌--नन्द महाराज के पास; समासाद्य-पहुँचकर; भगवान्‌-- भगवान्‌; देवकी-सुतः--देवकी-पुत्र, कृष्ण;स्डूर्षण:--बलराम; च--तथा; राज-इन्द्र--हे महान्‌ राजा ( परीक्षित ); परिष्वज्य--उसका आलिंगन करके; इदम्‌--यह;ऊचतु:--उन्होंने कहा

    तत्पश्चात

    हे महान्‌ राजा परीक्षित, देवकी-पुत्र भगवान्‌ कृष्ण भगवान्‌ बलराम के साथ नन्दमहाराज के पास पहुँचे ।

    दोनों विभुओं ने उनका आलिंगन किया और उनसे इस प्रकार बोले।

    पितर्युवाभ्यां स्निग्धाभ्यां पोषितो लालितौ भूशम्‌ ।

    पित्रोरभ्यधिका प्रीतिरात्मजेष्वात्मनोडपि हि ॥

    २१॥

    पित:--हे पिताश्री; युवाभ्यामू--आप दोनों के द्वारा; स्निग्धाभ्यामू--स्नेहिल; पोषितौ--पालित-पोषित; लालितौ--दुलराये;भूशम्‌-- भलीभाँति; पित्रो: --माता-पिता के लिए; अभ्यधिका--से बढ़कर; प्रीति:ः--प्रेम; आत्मजेषु-- अपनी सन्‍्तानों के लिए;आत्मन:--अपनी अपेक्षा; अपि-- भी; हि--निस्सन्देह

    कृष्ण और बलराम ने कहा : हे पिताश्री, आप तथा माता यशोदा ने हम दोनों को बड़ेस्नेह से पाला-पोसा है और हमारी इतनी अधिक परवाह की है।

    निस्सन्देह माता-पिता अपनीसन्‍्तानों को अपने प्राणों से भी अधिक प्यार करते हैं।

    सपितासा च जननी यौ पुष्णीतां स्वपुत्रवत्‌ ।

    शिशून्बन्धुभिरुत्सृष्टानकल्पै: पोषरक्षणे ॥

    २२॥

    सः--वह; पिता--पिता; सा--वह; च--तथा; जननी--माता; यौ--जो; पुष्णीतामू--पालन-पोषण करते हैं; स्व--अपने;पुत्र--पुत्रों की; बत्‌ू--तरह; शिशून्‌ू--बालकों को; बन्धुभि: --अपने परिवार के द्वारा; उत्सृष्टानू--परित्यक्त; अकल्पै:--असमर्थ; पोष--पोषण करने के लिए; रक्षणे--तथा रक्षा करने के लिए

    वे ही असली माता-पिता हैं, जो पालन-पोषण और देख-रेख करने में असमर्थ सम्बन्धियोंद्वारा परित्यक्त बालकों की देख-भाल अपने ही पुत्रों की तरह करते हैं।

    यात यूय॑ ब्र॒ज॑न्तात वय॑ च स्नेहदुःखितान्‌ ।

    ज्ञातीन्वो द्रष्टमेष्यामो विधाय सुहदां सुखम्‌ ॥

    २३॥

    यत--कृपया जाइये; यूयम्‌--तुम सब ( ग्वाले ); ब्रजमू--त्रज को; तात--हे पिता; वयम्‌--हम; च--तथा; स्नेह--स्नेह केकारण; दुःखितान्‌--दुखी; ज्ञातीन्‌ू--सम्बन्धियों को; व:ः--तुमको; द्रष्टू--देखने के लिए; एष्याम:--आयेंगे; विधाय--प्रदानकरके; सुहृदामू--आपके मित्रों को; सुखम्‌--सुख |

    हे पिताश्री, अब आप सब ब्रज लौट जाँय।

    हम आपके शुभचिन्तक मित्रों को कुछ सुख देलेने के बाद तुरन्त ही आपको तथा अपने उन प्रिय सम्बन्धियों को देखने के लिए आयेंगे जोहमारे वियोग से दुखी हैं।

    एवं सान्त्वय्य भगवान्नन्दं सतब्रजमच्युतः ।

    वासोलड्डारकुप्यादरहयामास सादरम्‌ ॥

    २४॥

    एवम्‌--इस प्रकार; सान्त्व्य--सान्त्वना देकर; भगवान्‌-- भगवान्‌; नन्दम्‌-राजा ननन्‍्द को; स-ब्रजम्‌-व्रज के अन्य लोगोंसहित; अच्युत:--अच्युत भगवान्‌; वास:--वस्त्र समेत; अलड्रार--आभूषण; कुप्य--धातुओं के बने पात्र; आद्यै:--इत्यादिसे; अर्हदयाम्‌ आस--उनका सत्कार किया; स-आदरम्‌--आदर पूर्वक

    इस प्रकार नन्‍्द महाराज तथा ब्रज के अन्य लोगों को सान्त्वना देकर अच्युत भगवान्‌ ने उनसबों का वस्त्र, आभूषण, घरेलू-पात्र इत्यादि उपहारों से आदर समेत सत्कार किया।

    इत्युक्तस्तौ परिष्वज्य नन्दः प्रणयविह्नलः ।

    पूरयन्नश्रुभिनेत्रे सह गोपैद््रेजं ययौ ॥

    २५॥

    इति--इस प्रकार; उक्त:--सम्बोधित; तौ--दोनों को; परिष्वज्य--आलिंगन करके; नन्दः--नन्द महाराज; प्रणय--स्नेहपूर्वक;विहल:--भावविभोर; पूरयन्‌-- भरकर; अश्लुभि:--आँसुओं से; नेत्रे-- अपने नेत्रों में; सह--साथ; गोपै: --ग्वालों के; ब्रजम्‌--ब्रज को; ययौ--चला गया।

    कृष्ण के शब्द सुनकर ननन्‍्द महाराज भावविह्नल हो गये और अश्रूपूरित नेत्रों से उन्होंने दोनोंभाइयों को गले लगाया।

    तत्पश्चात्‌ वे ग्वालजनों के साथ ब्रज लौट गये।

    अथ शूरसुतो राज-न्पुत्रयो: समकारयत्‌ ।

    पुरोधसा ब्राह्मणैश्व यथावदिद्वजसंस्कृतिम्‌ ॥

    २६॥

    अथ--तब; शूर-सुतः--शूरसेन के पुत्र ( बसुदेव ) ने; राजन्‌ू--हे राजा ( परीक्षित ); पुत्रयो:--दोनों पुत्रों के; समकारयत्‌--सम्पन्न कराया; पुरोधसा-- पुरोहित द्वारा; ब्राह्मणै: --ब्राह्मणों द्वारा; च--तथा; यथा-वत्‌--उचित ढंग से; द्विज-संस्कृतिम्‌ू--ब्राह्मण की दीक्षा |

    हे राजन, तब शूरसेन-पुत्र वसुदेव ने अपने दोनों पुत्रों का द्विज-संस्कार कराने के लिए एकपुरोहित तथा अन्य ब्राह्मणों की व्यवस्था की।

    तेभ्योदाइक्षिणा गावो रुक्‍्ममाला: स्वलड्डू ता: ।

    स्वलड्ड तेभ्य: सम्पूज्य सवत्सा: क्षौममालिनी: ॥

    २७॥

    तेभ्य:--उनको ( ब्राह्मणों को ); अदात्‌-दिया; दक्षिणा:--दक्षिणा, भेंट; गाव:--गौवें; रुक्म--सोने की; माला:--गले काहार; सु--सुन्दर; अलड्डू ता:--सज्जित; सु-अलड्डू तेभ्य:--अच्छे आभूषण पहने हुओं ( ब्राह्मणों ) को; सम्पूज्य--पूजा करके;स--सहित; वत्सा:--बछड़े; क्षौम--रेशमी; मालिनी:--मालाएँ धारण किये।

    बसुदेव ने इन ब्राह्मणों की पूजा करते हुए तथा उन्हें सुन्दर आभूषण और सुन्दर आभूषणों सेसजी बछड़ों युक्त गौवें भेंट करके सम्मानित किया।

    ये सभी गौवें सुनहरे हार तथा रेशमी मालाएँधारण किये थीं।

    या: कृष्णरामजन्मक्षें मनोदत्ता महामति: ।

    ताश्चाददादनुस्मृत्य कंसेनाधर्मतो हता: ॥

    २८॥

    यः--जो ( गौवें ); कृष्ण-राम--कृष्ण तथा बलराम के; जन्मऋक्षे-- जन्मदिन पर; मन:--मन में; दत्ता:--दान में दी गईं; महा-मति:--वदान्य ( बसुदेव ); ता:--उन्हें; च--तथा; आददातू्‌--दिया; अनुस्मृत्य--स्मरण करके; कंसेन--कंस द्वारा;अधर्मत:ः--अधर्मपूर्वक; हृत:ः--छीन ली गई

    तब महात्मा वसुदेव को कृष्ण तथा बलराम के जन्म के अवसर पर मन ही मन दान की गईगौवों का स्मरण हो आया।

    कंस ने वे गाएँ चुरा ली थीं किन्तु अब वसुदेव ने उन्हें फिर से प्राप्तकिया था और उन्हें भी दान में दे डाला।

    ततश्च लब्धसंस्कारी द्विजत्वं प्राप्य सुत्रतौ ।

    गर्गद्यदुकुलाचार्यादगायत्रं ब्रतमास्थितो ॥

    २९॥

    ततः--तब; च--तथा; लब्ध--प्राप्त करके; संस्कारौ--दीक्षा ( कृष्ण तथा बलराम की ); द्विजत्वम्‌-द्विज बनने की; प्राप्प--प्राप्त करके; सु-ब्रतौ--अपने ब्रत में निष्ठावान; गर्गात्‌--गर्ग मुनि से; यदु-कुल--यदुवबंश के; आचार्यात्‌--आध्यात्मिक गुरु से;गायत्रम्‌ू--ब्रह्मचर्य का; ब्रतम्‌-त्रत; आस्थितौ-- धारण किया।

    दीक्षा द्वारा द्विजत्व प्राप्त कर लेने के बाद ब्रतनिष्ठ दोनों भाइयों ने यदुवंश के गुरु गर्ग मुनिसे ब्रह्मचर्य का व्रत ग्रहण किया।

    प्रभवौ सर्वविद्यानां सर्वज्ञौ जगदी श्वरौ ।

    नान्यसिद्धामलं ज्ञानं गूहमानौ नरेहितैः ॥

    ३०॥

    अथो गुरुकुले वासमिच्छन्तावुपजग्मतु: ।

    काश्यं सान्दीपनिं नाम हावन्तिपुरवासिनम्‌ ॥

    ३१॥

    प्रभवौ--उद्‌गम स्वरूप; सर्व--समस्त विविधताओं के; विद्यानाम्‌--ज्ञान के; सर्व-ज्ञौ--सर्वज्ञाता; जगत्‌-ई श्ररौ-- ब्रह्माण्ड केस्वामी; न--नहीं; अन्य--अन्य किसी स्त्रोत से; सिद्ध--प्राप्त: अमलम्‌--विशुद्ध; ज्ञानम्‌ू--ज्ञान; गूहमानौ--छिपाते हुए; नर--मनुष्य की तरह; ईहितैः--अपने कार्यों से; अथ उ--तब; गुरु--गुरु की; कुले--पाठशाला में; वासम्‌-- आवास; इच्छन्तौ--चाहते हुए; उपजगतु:--पहुँचे; काश्यमू--काशी ( वाराणसी ) के वासी; सान्दीपनिम्‌ नाम--सान्दीपनि नामक; हि--निस्सन्देह;अवन्ति-पुर--अवन्ती नगरी ( वर्तमान उज्जैन ) में; वासिनमू--रह रहे

    अपने मनुष्य जैसे कार्यों से अपने पूर्णज्ञान को भीतर ही भीतर रखते हुए, ब्रह्माण्ड के इन दोसर्वज्ञ भगवानों ने, ज्ञान की समस्त शाखाओं के उदगम होते हुए भी, गुरुकुल में जाकर रहने कीइच्छा व्यक्त की।

    इस तरह वे काशीवासी सान्दीपनि मुनि के पास पहुँचे जो अवन्ती नगरी में रहरहे थे।

    यथोपसाद्य तौ दान्तौ गुरौ वृत्तिमनिन्दिताम्‌ ।

    ग्राहयन्ताबुपेतौ सम भकत्या देवमिवाहतौ ॥

    ३२॥

    यथा--विधिपूर्वक; उपसाद्य--प्राप्त करके; तौ--वे दोनों; दान्तौ--आत्मसंयमी; गुरौ--गुरु के लिए; वृत्तिमू--सेवा;अनिन्दिताम्‌--निन्दारहित; ग्राहयन्तौ--दूसरों को भी ग्रहण कराते हुए; उपेतौ--सेवा के लिए पहुँचे; स्म--निस्सन्देह; भकत्या--भक्तिपूर्वक; देवम्‌-- भगवान्‌ को; इब--मानो; आहतौ--सम्मानित ( गुरु द्वारा ) |

    सान्दीपनि इन दोनों आत्मसंयमी शिष्यों के प्रति बहुत ही उच्च विचार रखते थे जिन्हें उन्होंनेअकस्मात प्राप्त किया था।

    दोनों ने गुरु की साक्षात्‌ भगवान्‌ जैसी ही भक्तिपूर्वक सेवा करते हुएअन्यों के समक्ष अनिन्द्य उदाहरण प्रस्तुत किया कि किस तरह आध्यात्मिक गुरु की पूजा कीजाती है।

    तयोद्विजवसस्तुष्ट: शुद्धभावानुवृत्तिभि: ।

    प्रोवाचच वेदानखिलान्साझ्ैपनिषदो गुरु: ॥

    ३३॥

    तयो:--दोनों का; द्विज-वरः --ब्राह्मणों में श्रेष्ठ ( सान्दीपनि ); तुष्ट:--सन्तुष्ट; शुद्ध-शुद्ध; भाव--प्रेम से; अनुवृत्तिभि: --विनीत कार्यो से; प्रोवाच--बतलाया; वेदान्‌ू--वेद; अखिलान्‌ू--समस्त; स--सहित; अड़--छहो वेदांग; उपनिषदः--तथाउपनिषदों; गुरु:--गुरु ने।

    ब्राह्मण- श्रेष्ठ गुरु सान्दीपनि उनके विनीत आचरण से सनन्‍्तुष्ट थे अतः उन्होंने दोनों को सारे वेद छह वेदांगों सहित तथा उपनिषद्‌ पढ़ाये।

    सरहस्यं धनुर्वेदं धर्मान््यायपथांस्तथा ।

    तथा चान्वीक्षिकीं विद्यां राजनीतिं च षड्वधाम्‌ ॥

    ३४॥

    स-रहस्यम्‌-गुहा अंश समेत; धनु:-वेदम्‌-- धनुर्विद्या; धर्मान्‌ू--मानवीय विधि के सिद्धान्त; न्‍्याय--तर्क की; पथान्‌--विधियाँ; तथा-- भी; तथा च--और इसी तरह से; आन्सीक्षिकीम्‌--दार्शनिक वाद-विवाद की; विद्याम्‌--ज्ञान की शाखा;राज-नीतिम्‌--राजनीति शास्त्र; च--तथा; षट्‌-विधाम्‌ू--छह पक्षों में |

    उन्होंने दोनों को रहस्यों सहित धनुर्वेद की शिक्षा दी।

    साथ ही मानक विधि ग्रंथ, तर्क तथादर्शन विषयक वाद-विवाद की विधियाँ और राजनीति शास्त्र के छह भेदों की भी शिक्षा दी।

    सर्व नरवरश्रेष्ठी सर्वविद्याप्रवर्तकौ ।

    सकृन्निगदमात्रेण तौ सझ्जगृहतुर्नुप ॥

    ३५॥

    अहोरात्रैश्वतु:षष्टया संयत्तौ तावती: कला: ।

    गुरुदक्षिणयाचार्य छन्दयामासतुर्नुप ॥

    ३६॥

    सर्वम्‌--हर बात; नर-वर--प्रथम श्रेणी के पुरुषों की; श्रेष्ठी -- श्रेष्ठ; सर्व--सभी; विद्या--ज्ञान की शाखाओं के; प्रवर्तकौ--शुभारम्भ करने वाले; सकृत्‌--एक बार; निगद--बतलाया जाकर; मात्रेण--केवल; तौ--दोनों; सञ्भगृहतु:-- आत्मसात्‌ करलेते; नृप--हे राजा ( परीक्षित ); अह:--दिन; रात्रै:--तथा रातों में; चतुः-षष्टया--चौंसठ; संयत्तौ-- ध्यानमग्न रहकर;तावती:--उतनी ही; कलाः--कलाएँ; गुरु-दक्षिणया-- गुरु-दक्षिणा से; आचार्यम्‌-- अपने गुरु को; छन्दयाम्‌ आसतु:--प्रसन्नकिया; नृप--हे राजा

    हे राजन, पुरुष-श्रेष्ठ कृष्ण तथा बलराम स्वयं ही सभी प्रकार की विद्याओं के आदि-प्रवर्तक होने के कारण किसी भी विषय की व्याख्या को एक ही बार में सुनकर तुरन्त आत्मसातकर सकते थे।

    इस तरह उन्होंने एकाग्र चित्त से चौंसठ कलाओं तथा चातुरियों को उतने ही दिनोंतथा रातों में सीख लिया।

    तत्पश्चात्‌ हे राजन, उन्होंने गुरु-दक्षिणा देकर अपने गुरु को प्रसन्न हे राजन, विद्वान ब्राह्मण सान्दीपनि ने दोनों विभुओं के यशस्वी तथा अद्भुत गुणों एवंउनकी अति मानवीय बुद्धि के बारे में ध्यानपूर्वक विचार किया।

    तत्पश्चात्‌ अपनी पत्नी सेपरामर्श करके उन्होंने गुरु-दक्षिणा के रूप में अपने नन्हे पुत्र की वापसी को चुना जो प्रभास क्षेत्रके समुद्र में मर चुका था।

    विजस्तयोस्तं महिमानमद्धभुत संलोक्ष्य राजन्नतिमानुसीं मतिम्‌ ।

    सम्मन्त्रय पत्या स महार्णवे मृत बालं प्रभासे वरयां बभूव ह ॥

    ३७॥

    द्विज:--विद्वान ब्राह्मण; तयो:--उन दोनों की; तम्‌--उस; महिमानमू--महानता को; अद्भुतमू-- अद्भुत; संलक्ष्य-- भली-भाँतिदेखकर; राजन्‌--हे राजा; अति-मानुषीम्‌--मनुष्य की क्षमता से परे; मतिम्‌--बुद्धि; सम्मन्य--परामर्श करके; पल्या-- अपनीपतली से; सः--उसने; महा-अर्णवे-- महासागर में; मृतम्‌-मरे हुए; बालम्‌--अपने छोटे से पुत्र को; प्रभासे--प्रभास नामकपवित्र स्थान में; वरयाम्‌ बभूव ह--चुना |

    है राजन, विद्वान ब्राह्मण सान्दीपनि ने दोनों विभुओं के यशस्वी तथा अद्भुत गुणों एव उनकी अति मानवीय बुद्धि के बारे में ध्यानपूर्वक विचार किया।

    तत्पश्चात्‌ अपनी पत्नी स परामर्श करके उन्होंने गुरु-दक्षिणा के रूप में अपने नन्हे पुत्र की वापसी को चुना जो प्रभास क्षेत् के समुद्र में मर चुका था।

    तेथेत्यथारुह्म महारथौ रथंप्रभासमासाद्य दुरन्तविक्रमौ ।

    वेलामुपत्रज्य निषीदतुः क्षनंसिन्धुर्विदित्वाईनमाहरत्तयो: ॥

    ३८ ॥

    तथा--ऐसा ही हो, बहुत अच्छा; इति--ऐसा कहकर; अथ--तब; आरुह्म-- चढ़कर; महा-रथौ--दो महारथी; रथम्‌--रथ पर;प्रभासमू-प्रभास तीर्थ; आसाद्य--पहुँचकर; दुरन्‍्त--असीम; विक्रमौ--पराक्रम वाले; वेलाम्‌--समुद्र तट तक; उपब्रज्य--चलकर; निषीदतु:--बैठ गये; क्षणम्‌-- क्षण-भर के लिए; सिन्धु:--सागर ( का अधिष्ठाता देव ); विदित्वा--पहचान कर;अह्णम्‌--सादर भेंट; आहरत्‌--लाया; तयो:--दोनों के लिए

    असीम पराक्रम वाले दोनों महारथियों ने उत्तर दिया, 'बहुत अच्छा ' और तुरन्त ही अपनेरथ पर सवार होकर प्रभास के लिए रवाना हो गये।

    जब वे उस स्थान पर पहुँचे तो वे समुद्र तटतक पैदल गये और वहाँ बैठ गये।

    क्षण-भर में समुद्र का देवता उन्हें भगवान्‌ के रूप में पहचानकर श्रद्धा-रूप में भेंट लेकर उनके निकट आया।

    तमाह भगवानाशू गुरुपुत्र: प्रदीयताम्‌ ।

    योअसाविह त्वया ग्रस्तो बालको महतोर्मिणा ॥

    ३९॥

    तम्‌--उससे; आह--कहा; भगवानू्‌-- भगवान्‌ ने; आशु--तुरन्‍्त; गुरु--मेरे गुरु का; पुत्र:--पुत्र; प्रदीयताम्‌-- प्रस्तुत कियाजाय; यः--जो; असौ--वह; इह--इस स्थान पर; त्वया--तुम्हारे द्वारा; ग्रस्त:--पकड़ा गया; बालक:--बालक; महता--बलशाली; ऊर्मिणा--तुम्हारी लहरों द्वारा

    भगवान्‌ कृष्ण ने समुद्र के स्वामी से कहा, 'मेरे गुरु के पुत्र को तुरन्त उपस्थित किया जायेजिसे तुमने अपनी बलशाली लहरों से यहाँ जकड़ रखा है।

    रीसमुद्र उवाचन चाहार्षमहं देव दैत्य: पञ्नजनो महान्‌ ।

    अन्तर्जलचर: कृष्ण शद्भुरूपधरोसुर: ॥

    ४०॥

    श्री-समुद्र: उबाच--साक्षात्‌ समुद्र ने कहा; न--नहीं; च--तथा; अहार्षम्‌--उसे ले गया; अहम्‌--मैं; देव--हे प्रभु; दैत्य:--दित वंशज; पञ्ञजन:--पञ्जजन नामक; महान्‌--शक्तिशाली; अन्त:--भीतर; जल--जल के; चर:--चलने वाला; कृष्ण--हेकृष्ण; शद्बु--शंख का; रूप--स्वरूप; धर:--धारण करके; असुर: --असुर।

    समुद्र ने उत्तर दिया, 'हे भगवान्‌ कृष्ण, उसका हरण मैंने नहीं अपितु दिति के वंशजपञ्जजन नामक एक दैत्य ने किया है, जो शंख के रूप में जल में विचरण करता रहता है।

    ' आस्ते तेनाहतो नूनं तच्छ॒त्वा सत्वरं प्रभु: ।

    जलमाविश्य तं हत्वा नापश्यदुदरेर्भकम्‌ ॥

    ४१॥

    आस्ते--वह वहाँ है; तेन--उसके ( पञ्णञजन ) द्वारा; आहतः--हरण किया गया; नूनम्‌--निस्सन्देह; ततू--वह; श्रुत्वा--सुनकर;सत्वरम्‌-तेजी से; प्रभु:--प्रभु; जलम्‌--जल में; आविश्य--घुसकर; तम्‌--उसदैत्य को; हत्वा--मारकर; न अपश्यत्‌--नहींदेखा; उदरे--उसके पेट में; अर्भगम्‌--बालक को

    सागर ने कहा, 'निस्सन्देह उसी देत्य ने उस बालक को चुरा लिया है।

    यह सुनकर भगवान्‌कृष्ण समुद्र में घुस गये, पञ्नजन को ढूँढ़ लिया और उसको मार डाला।

    किन्तु भगवान्‌ को उसदैत्य के पेट के भीतर वह बालक नहीं मिला।

    तदड़ुप्रभवं शद्भुमादाय रथमागमत्‌ ।

    ततः संयमनीं नाम यमस्य दयितां पुरीम्‌ ।

    गत्वा जनार्दनः शट्डुं प्रदध्मौ सहलायुध: ॥

    ४२॥

    शद्भुनिर्हांदमाकर्ण्य प्रजासंयमनो यम: ।

    तयोः सपर्या महतीं चक्रे भक्त्युपबृंहिताम्‌ ॥

    ४३॥

    उवाचावनतः कृष्णं सर्वभूताशयालयम्‌ ।

    लीलामनुष्ययोर्विष्णो युवयो: करवाम किम्‌ ॥

    ४४॥

    तत्‌--उस ( दैत्य ) के; अड़--शरीर से; प्रभवम्‌--उत्पन्न; शद्डमू--शंख को; आदाय--लेकर; रथम्‌--रथ पर; आगमत्‌--लौटआये; तत:ः--तब; संयमनीम्‌ नाम--संयमनी नामक; यमस्य--यमराज की; दयिताम्‌--प्रिय; पुरीम्‌--नगरी में; गत्वा--जाकर;जन-अर्दन:--समस्त पुरुषों के धाम, भगवान्‌ कृष्ण; शद्बुमू--शंख को; प्रदध्मौ--जोर से बजाया; स--सहित; हल-आयुध:--बलराम जिनका आयुध हल है; शट्बु--शंख की; निर्हादम्‌ू--गूँज; आकर्ण्य--सुनकर; प्रजा--जन्म लेने वाले का;संयमन: --संयमनी नामक; यम:--यमराज; तयो:--दोनों की; सपर्याम्‌--पूजा; महतीम्‌--विशद; चक्रे--सम्पन्न की; भक्ति--भक्ति के साथ; उपबृूंहितामू--उफनते; उबाच--कहा; अवनत:--झुककर; कृष्णम्‌--कृष्ण को; सर्व--समस्त; भूत--जीवितप्राणी; आशय--मन; आलयम्‌--आवास; लीला--आपकी लीला के रूप में; मनुष्ययो:--मनुष्यों के रूप में प्रकट हुए;विष्णो--हे विष्णु; युवयो:--तुम दोनों के लिए; करवाम--करूँ; किमू--क्या |

    भगवान्‌ जनार्दन ने वह शंख ले लिया जो उस दैत्य के शरीर के चारों ओर उगा हुआ था औररथ पर वापस चले गये।

    इसके पश्चात्‌ वे यमराज की प्रिय राजधानी संयमनी गये।

    भगवान्‌बलराम के साथ वहाँ पहुँचकर उन्होंने तेजी से अपना शंख बजाया और उस गूँजती हुई आवाजको सुनते ही बद्धजीवों को नियंत्रण में रखने वाला यमराज वहाँ पहुँचा।

    यमराज ने दोनों विभुओंकी अत्यन्त भक्तिपूर्वक पूजा की और तब प्रत्येक हृदय में वास करने वाले भगवान्‌ कृष्ण से कहा, 'हे भगवान्‌ विष्णु, मैं आप के लिए तथा भगवान्‌ बलराम के लिए जो सामान्य मनुष्योंकी भूमिका अदा कर रहे हैं, क्या करूँ?

    श्रीभगवानुवाचगुरुपुत्रमिहानीतं निजकर्मनिबन्धनम्‌ ।

    आनयस्व महाराज मच्छासनपुरस्कृत: ॥

    ४५ ॥

    श्री-भगवान्‌ उबाच-- भगवान्‌ ने कहा; गुरु-पुत्रम्‌ू--मेरे गुरु के पुत्र को; हह--यहाँ; आनीतम्‌ू--लाया गया; निज--उसकाअपना; कर्म--पूर्वकर्मों के फलों का; निबन्धनम्‌--बन्धन-भोग करता हुआ; आनयस्व--ले आओ; महा-राज--हे महान्‌ राजा;मत्‌-मेरा; शासन--आदेश; पुरः-कृतः--प्राथमिकता देते हुए।

    भगवान्‌ ने कहा, ' अपने विगत कर्म-बन्धन का भोग करने से मेरे गुरु का पुत्र आपके पासयहाँ लाया गया है।

    हे महान्‌ राजा, मेरे आदेश का पालन करो और अविलम्ब उस बालक को मेरे पास ले आओ।

    तथेति तेनोपानीतं गुरुपुत्र॑ यदूत्तमौ ।

    दत्त्वा स्वगुरवे भूयो वृणीष्वेति तमूचतुः ॥

    ४६॥

    तथा--ऐसा ही हो; इति--( यमराज ने ) ऐसा कहते हुए; तेन--उसके द्वारा; उपानीतम्‌--आगे लाया गया; गुरु-पुत्रमू--गुरु केपुत्र को; यदु-उत्तमौ--यदुओं में श्रेष्ठ कृष्ण तथा बलराम; दत्त्वा--देकर; स्व-गुरवे --अपने गुरु को; भूय:--फिर से;वृणीष्व--कृपया चुन लीजिए; इति--इस प्रकार; तम्‌--उससे; ऊचतु:--उन्होंने कहा ।

    यमराज ने कहा, 'जो आज्ञा' और गुरु-पुत्र को सामने ला दिया।

    तत्पश्चात्‌ यदुओं में श्रेष्ठउन दोनों ने उस बालक को लाकर अपने गुरु को भेंट करते हुए उनसे कहा, 'कृपया दूसरा वरमाँगिये।

    श्रीगुरुकुवाचसम्यक्सम्पादितो वत्स भवदभ्यां गुरुनिष्क्रयः ।

    को नु युष्मद्विधगुरो: कामानामवशिष्यते ॥

    ४७॥

    श्री-गुरु: उवाच--उनके गुरू सान्दीपनि मुनि ने कहा; सम्यक्‌--पूरी तरह; सम्पादितः--पूरा हुआ; वत्स--मेरे बालक;भवद्भ्याम्‌--तुम दोनों के द्वारा; गुरु-निष्क्रयः--गुरु-दक्षिणा; क:--जो; नु--निस्सन्देह; युष्मत्‌ू-विध--आप जैसे पुरुषों के;गुरोः--गुरु के लिए; कामानाम्‌--उसकी इच्छाओं का; अवशिष्यते--शेष रहता है।

    गुरु ने कहा : मेरे प्रिय बालको, तुम दोनों ने अपने गुरु को दक्षिणा देने के शिष्य-दायित्वको पूरा कर लिया है।

    निस्सन्देह, तुम जैसे शिष्यों से गुरु को और क्या इच्छाएँ हो सकती हैं ?

    गच्छतं स्वगृहं वीरौ कीर्तिवामस्तु पावनी ।

    छन्‍्दांस्ययातयामानि भवन्त्विह परत्र च ॥

    ४८ ॥

    गच्छतम्‌--जाओ; स्व-गृहम्‌-- अपने घर को; वीरौ--हे दोनों वीर; कीर्ति:--यश; वाम्‌--तुम्हारा; अस्तु--होए; पावनी--पावन बनाने वाला; छन्दांसि--वैदिक स्तुतियाँ; अयात-यामानि--नित नूतन; भवन्तु--होए; इह--इस जीवन में; परत्र--अगलेजीवन में; च--तथाहे वीरो, अब तुम अपने घर लौट जाओ।

    तुम्हारा यश संसार को पवित्र बनाये और इस जन्ममें तथा अगले जन्म में वैदिक स्तुतियाँ तुम्हारे मन में सदैव ताजी बनी रहें।

    गुरुणैवमनुज्ञातौ रथेनानिलरंहसा ।

    आयातीौ स्वपुरं तात पर्जन्यनिनदेन वै ॥

    ४९॥

    गुरुणा--उनके गुरु द्वारा; एबम्‌--इस तरह से; अनुज्ञातौ--विदा किये जाने पर; रथेन--अपने रथ में; अनिल--वायु की तरह;रंहसा--वेगवान; आयातौ--आये; स्व--अपने; पुरम्‌ू--नगर ( मथुरा ); तात--हे प्रिय ( राजा परीक्षित ); पर्जन्य--बादल कीतरह; निनदेन--गर्जन; बै--निस्सन्देह।

    इस तरह अपने गुरु से विदा होने की अनुमति पाकर दोनों भाई अपने रथ पर बैठ अपनीनगरी लौट आये।

    यह रथ वायु की तेजी से चल रहा था और बादल की तरह गूँज रहा था।

    समनन्‍दन्प्रजा: सर्वा इृष्ठा रामजनार्दनौ ।

    अपश्यन्त्यो बह्लहानि नष्टलब्धधना इव ॥

    ५०॥

    समनन्दन्‌--खुशी मनाई; प्रजा:--नागरिकों ने; सर्वा:--सभी; हृष्टा--देखकर; राम-जनार्दनौ--बलराम तथा कृष्ण को;अपशयन्त्य:--न देख पाने से; बहु--अनेक; अहानि--दिन; नष्ट--खोया हुआ; लब्ध-- पुनः प्राप्त; धना:--सम्पत्ति वालों को;इब--सहश

    सारे नागरिकजिन्होंने अनेक दिनों से कृष्ण तथा बलराम को नहीं देखा था, उन्हें देखकरपरम प्रसन्न हुए।

    लोगों को वैसा ही लगा, जिस तरह धन खोये हुओं को उनका धन वापस मिलजाय।

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    अध्याय छियालीसवाँ: उद्धव ने वृन्दावन का दौरा किया

    10.46श्रीशुक उबाचवृष्णीनां प्रवरो मन्त्री कृष्णस्य दयितः सखा ।

    शिष्यो बृहस्पते: साक्षादुद्धवो बुद्धिसत्तम: ॥

    १॥

    श्री-शुक: उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; वृष्णीनाम्‌--वृष्णियों में से; प्रवर: -- श्रेष्ठ; मन्त्री--सलाहकार; कृष्णस्य--कृष्णका; दयितः--प्रिय; सखा--मित्र; शिष्य:--शिष्य; बृहस्पते: --देवताओं के गुरु बृहस्पति का; साक्षात्‌-प्रत्यक्ष; उद्धव:--उद्धव; बुद्धि--बुद्धि वाला; सतू-तम:--सर्वोच्च गुण वाला

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : अत्यन्त बुद्धिमान उद्धव वृष्णि वंश के सर्वश्रेष्ठ सलाहकार,भगवान्‌ कृष्ण के प्रिय मित्र तथा बृहस्पति के प्रत्यक्ष शिष्य थे।

    तमाह भगवान्प्रेष्ठ भक्तमेकान्तिनं क्वचित्‌ ।

    गृहीत्वा पाणिना पाएिं प्रपन्नार्तिहरो हरि: ॥

    २॥

    तम्‌--उससे; आह--बोले; भगवान्‌-- भगवान प्रेष्ठमू-- अपने अत्यन्त प्रिय; भक्तम्‌-- भक्त; एकान्तिनम्‌-- अनन्य; क्वचित्‌--एक अवसर पर; गृहीत्वा--पकड़कर; पाणिना--हाथ से; पाणिम्‌--( उद्धव का ) हाथ को; प्रपन्न--शरणागत; आर्ति--दुखी;हरः--हरने वाले; हरि:ः--हरि ने

    भगवान्‌ हरि ने जो अपने शरणागतों के सारे कष्टों को हरने वाले हैं, एक बार अपने भक्तएवं प्रियतम मित्र उद्धव का हाथ अपने हाथ में लेकर उससे इस प्रकार कहा।

    गच्छोद्धव ब्र॒जं सौम्य पित्रो्नों प्रीतिमावह ।

    गोपीनां मद्वियोगाधि मत्सन्देशै्विमोचय ॥

    ३॥

    गच्छ--जाओ; उद्धव--हे उद्धव; ब्रजम्‌--त्रज को; सौम्य--हे भद्र; पित्रो:--माता-पिता तक; नौ--हमारे; प्रीतिम्‌--तुष्टि;आवह--ले जाओ; गोपीनाम्‌--गोपियों का; मत्‌--मुझसे; वियोग--वियोगजनित; आधिम्‌--मानसिक क्लेश का; मत्‌--मुझसे लाये गये; सन्देशैः--सन्देशों से; विमोचय--उन्‍्हें छुटकारा दिलाओ।

    भगवान्‌ कृष्ण ने कहा हे भद्र उद्धव, तुम तब्रज जाओ और हमारे माता-पिता को आनन्दप्रदान करो।

    यही नहीं, मेरा सन्देश देकर उन गोपियों को भी क्लेश-मुक्त करो जो मेरे वियोग केकारण कष्ट पा रही हैं।

    ता मन्मनस्का मत्प्राणा मतर्थ त्यक्तदैहिका: ॥

    मामेव दयितं प्रेष्ठमात्मानं मनसा गताः ।

    ये त्यक्तलोकधर्माश्च मदर्थ तान्बिभर्म्यहम्‌ ॥

    ४॥

    ताः--वे ( गोपियाँ ); मत्‌--मुझमें लीन; मनस्का:--उनके मन; मत्‌--मुझमें टिके; प्राणा:--उनके प्राण; मत्‌-अर्थे--मेंरे लिए;त्यक्त--छोड़कर; दैहिकाः--शारीरिक स्तर पर सारी वस्तुएँ; माम्‌ू--मुझको; एव--एकमात्र; दयितम्‌--अपने प्रिय; प्रेष्ठमू --सर्वाधिक प्रिय; आत्मानम्‌--आत्मा; मनसा गता:--समझ गईं; ये--जो ( गोपियाँ या अन्य ); त्यक्त--त्यागकर; लोक--यहजगत; धर्मा:--धार्मिकता; च--तथा; मत्‌-अर्थे--मेंरे लिए; तानू--उनको; बिभर्मि--- भरण-पोषण करता हूँ; अहम्‌--मैं |

    उन गोपियों के मन सदैव मुझमें लीन रहते हैं और उनके प्राण सदैव मुझी में अनुरक्त रहते हैं।

    उन्होंने मेरे लिए ही अपने शरीर से सम्बन्धित सारी वस्तुओं को त्याग दिया है, यहाँ तक इसजीवन के सामान्य सुख के साथ साथ अगले जीवन में सुख-प्राप्ति के लिए जो धार्मिक कृत्यआवश्यक हैं, उन तक का परित्याग कर दिया है।

    मैं उनका एकमात्र परम प्रियतम हूँ, यहाँ तककि उनकी आत्मा हूँ।

    अतः मैं सभी परिस्थितियों में उनका भरण-पोषण करने का दायित्व अपनेऊपर लेता हूँ।

    मयि ताः प्रेयसां प्रेष्ठे दूरस्थे गोकुलस्त्रिय: ।

    स्मरन्त्योड़ विमुहान्ति विरहौत्कण्ठ्यविहला: ॥

    ५॥

    मयि--मुझमें; ताः--वे; प्रेयसाम्‌--समस्त प्रिय वस्तुओं में से; प्रेष्ठे--सर्वाधिक प्रिय; दूर-स्थे--दूर होने से; गोकुल-स्त्रिय:--गोकुल की स्त्रियाँ; स्मरन्त्य:--स्मरण करती हुई; अड्ग--हे प्रिय ( उद्धव ); विमुहान्ति--स्तम्भित हो जाती हैं; विरह--वियोगकी; औत्कण्ठ्य--चिन्ता से; विहला:--विहल |

    हे उद्धव, गोकुल की उन स्त्रियों के लिए मैं सर्वाधिक स्नेहयोग्य प्रेम-पात्र हूँ।

    इस तरह जबवे दूर-स्थित मुझको स्मरण करती हैं, तो वे वियोग की उद्विग्नता से विहल हो उठती हैं।

    धारयन्त्यतिकृच्छेण प्राय: प्राणान्‍्कथञ्ञन ।

    प्रत्यागमनसन्देशैर्बल्लव्यो मे मदात्मिका: ॥

    ६॥

    धारयन्ति-- धारण करती हैं; अति-कृच्छेण --बड़ी कठिनाई से; प्राय:--मुश्किल से; प्राणानू--अपने प्राणों को; कथज्लन--किसी तरह; प्रति-आगमन--वापसी के; सन्देशैः--वादों से; बल्लव्य:--गोपियाँ; मे--मेरी; मत्‌-आत्मिका: --मेंरे प्रतिअनुरक्त

    चूँकि मैंने उनसे वापस आने का वादा किया है इसीलिए मुझमें पूर्णतः अनुरक्त मेरी गोपियाँकिसी तरह से अपने प्राणों को बनाये रखने के लिए संघर्ष कर रही हैं।

    श्रीशुक उबाचइत्युक्त उद्धवो राजन्सन्देशं भर्तुराहतः ।

    आदाय रथमारुह्य प्रययौ नन्दगोकुलम्‌ ॥

    ७॥

    श्री-शुक: उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; उक्त:--कहे गये; उद्धव:--उद्धव; राजन्‌ू--हे राजा( परीक्षित ); सन्देशम्‌--सन्देश; भर्तु:--अपने स्वामी का; आहत:--आदरपूर्वक; आदाय--लेकर; रथम्‌-- अपने रथ पर;आरुह्म--सवार होकर; प्रययौ--चले गये; नन्द-गोकुलम्‌ू--नन्द महाराज के ग्राम गोकुल को |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजनू, इस तरह कहे जाने पर उद्धव ने आदरपूर्वक अपनेस्वामी के सन्देश को स्वीकार किया।

    वे अपने रथ पर सवार होकर नन्द-गोकुल के लिए चलपड़े।

    प्राप्तो नन्दत्रजं श्रीमान्निम्लोचति विभावसौ ।

    छन्नयानः प्रविशतां पशूनां खुरेणुभि: ॥

    ८॥

    प्राप्त: --पहुँचकर; नन्द-ब्रजम्‌--नन्द महाराज की चरागाहों में; श्रीमान्‌-- भाग्यशाली ( उद्धव ); निम्लोचति--जब अस्त हो रहाथा; विभावसौ--सूर्य; छन्न--अदृश्य; यान:--जिसका जाना; प्रविशताम्‌--प्रवेश करने वाले; पशूनाम्‌--पशुओं के; खुर--खुर; रेणुभि:-- धूल से

    भाग्यशाली उद्धव नन्‍्द महाराज के चरागाहों में उस समय पहुँचे जब सूर्य अस्त होने वालाथा और चूँकि लौटती हुई गौवें तथा अन्य पशु अपने खुरों से धूल उड़ा रहे थे अतः: उनका रथअनदेखे ही निकल गया।

    वासितार्थेभियुध्यद्धिर्नादितं शुश्मिभि्वृषे: ।

    धावन्तीभिश्च वासत्राभिरुधोभारै: स्ववत्सकान्‌ ॥

    ९॥

    इतस्ततो विलल्डृद्धिर्गोवत्सै्मण्डितं सितैः ।

    गोदोहशब्दाभिरवं वेणूनां निःस्वनेन च ॥

    १०॥

    गायन्तीभिश्च कर्माणि शुभानि बलकृष्णयो: ।

    स्वलड्डू ताभिगोंपीभिगोंपै श्र सुविराजितम्‌ ॥

    ११॥

    अम्न्यर्कातिथिगोविप्रपितृदेवार्चनान्वितै: ।

    धूपदीपैश्न माल्यैश्व गोपावासैर्मनोरमम्‌ ॥

    १२॥

    सर्वतः पुष्पितवनं द्विजालिकुलनादितम्‌ ।

    हंसकारण्डवाकीणें: पदाषण्डै श्र मण्डितम्‌ ॥

    १३॥

    वासित--ऋतुमती ( गौवें ); अर्थ--के हेतु; अभियुध्यद्धधि:--एक-दूसरे से लड़ रहे; नादितम्‌--नाँदते हुए; शुश्मिभि:--कामुक;वृषैः--साँड़ों से; धावन्तीभि:--दौड़ते हुए; च--तथा; वास्त्राभि:--गौवों समेत; उध:--अपने थनों के; भारैः-- भार से; स्व--अपने ही; वत्सकान्‌ू--बछड़ों के पीछे; इत: तत:--इधर-उधर; विलड्डद्धिः--कूदती; गो-वत्सै:--बछड़ों द्वारा; मण्डितम्‌--अलंकृत; सितैः-- श्रेत; गो-दोह--गौवों के दुहने के; शब्द--शब्द से; अभिरवम्‌--गुझ्जायमान; वेणूनाम्‌--वंशियों की;निःस्वनेन--उच्च ध्वनि से; च--तथा; गायन्तीभि:--गाती हुईं; च--तथा; कर्माणि--कर्मो के विषय में; शुभानि--शुभ; बल-कृष्णयो:--बलराम तथा कृष्ण के; सु--सुन्दर; अलड्डू ताभि:ः--अलंकृत; गोपीभि:--गोपियों समेत; गोपै:--गोपजन; च--तथा; सु-विराजितम्‌--सुशोभित; अग्नि--यज्ञ की अग्नि; अर्क --सूर्य; अतिथि--मेहमान; गो--गाय; विप्र-- ब्राह्मण; पितृ--पूर्वज; देव--तथा देवतागण की; अर्चन--पूजा से; अन्वितैः:-- पूरित; धूप--अगुरु; दीपैः--दीपकों से; च--तथा; माल्यै:--'फूलों की मालाओं से; च-- भी; गोप-आवासै:--ग्वालों के घरों के कारण; मनः-रमम्‌--अत्यन्त आकर्षक; सर्वतः--चारोंओर; पुष्पित--फूले हुए; बनमू--वन; द्विज--पक्षियों; अलि--तथा भौंरों के; कुल--झुंड से; नादितम्‌-- प्रतिध्वनित; हंस--हंस; कारण्डव--विशेष प्रकार की बत्तखों से युक्त; आकीणणें: --झुंडों से भरा; पद्मय-षण्डै:ः--कमल के कुंजों से; च--तथा;मण्डितमू--सुशोभित

    ऋतुमती गौवों के लिए परस्पर लड़ रहे साँड़ों की ध्वनि से, अपने बछड़ों का पीछा कर रहीअपने थनों के भार से रँभाती गौवों से, दुहने की तथा इधर-उधर कूद-फाँद कर रहे श्वेत बछड़ोंकी आवाज से, वंशी बजाने की ऊँची गूँज से, उन गोपों तथा गोपिनों द्वारा, जो गाँव को अपनीअद्भुत रीति से अलंकृत वेशभूषा से सुशोभित कर रहे थे, कृष्ण तथा बलराम के शुभ कार्यो केगुणगान से गोकुलग्राम सभी दिशाओं में गुंजायमान था।

    गोकुल में ग्वालों के घर यज्ञ-अग्नि,सूर्य, अचानक आए अतिथियों, गौबों, ब्राह्मणों, पितरों तथा देवताओं की पूजा के लिए प्रचुरसामग्रियों से युक्त होने से अतीव आकर्षक प्रतीत हो रहे थे।

    सभी दिशाओं में पुष्पित वन फैलेथे, जो पक्षियों तथा मधुमक्खियों के झुण्डों से गुँजायमान हो रहे थे और हंस, कारण्डव तथाकमल-कुंजों से भरे-पूरे सरोवरों से सुशोभित थे।

    'तमागतं समागम्य कृष्णस्यानुचरं प्रियम्‌ ।

    नन्दः प्रीतः परिष्वज्य वासुदेवधियार्चयत्‌ ॥

    १४॥

    तम्‌--उसके ( उद्धव के ) पास तक; आगतम्‌-- आया हुआ; समागम्य--पहुँचकर; कृष्णस्य--कृष्ण का; अनुचरम्‌-- अनुयायी;प्रियम्‌--प्रिय; नन्दः--नन्द महाराज; प्रीत:--सुखी; परिष्वज्य--आलिंगन करके; वासुदेव-धिया--वासुदेव के बारे में ध्यानकरते हुए; आर्चयत्‌--पूजा की |

    ज्योंही उद्धव नन्‍्द महाराज के घर पहुँचे, नन्द उनसे मिलने के लिए आगे आ गये।

    गोपों केराजा ने अत्यन्त सुखपूर्वक उनका आलिंगन किया और वासुदेव की ही तरह उनकी पूजा की।

    भोजितं परमान्नेन संविष्ट कशिपौ सुखम्‌ ।

    गतश्रमं पर्यपृच्छत्पादसंवाहनादिभि: ॥

    १५॥

    भोजितम्‌--खिलाया; परम-अन्नेन--उत्तम कोटि के भोजन से; संविष्टमू--बैठाया; कशिपौ--सुन्दर सेज पर; सुखम्‌--सुखपूर्वक; गत--दूर किया; श्रमम्‌-- थकान; पर्यपृच्छत्‌--पूछा; पाद--पाँव की; संवाहन--मालिश; आदिभि:--इत्यादि केद्वारा

    जब उद्धव उत्तम भोजन कर चुके और उन्हें सुखपूर्वक बिस्तर पर बिठा दिया गया तथापाँवों की मालिश तथा अन्य साधनों से उनकी थकान दूर कर दी गई तो नन्द ने उनसे इस प्रकारपूछा।

    कच्चिदड़ महाभाग सखा न: शूरनन्दनः ।

    आस्ते कुशल्यपत्यादैर्युक्तो मुक्त: सुहृद्व़्तः ॥

    १६॥

    कच्चित्‌ू--क्या; अड्ड-- प्रिय; महा-भग--हे अत्यन्त भाग्यशाली; सखा--मित्र; न:--हमारा; शूर-नन्दन:--शूर का पुत्र( वसुदेव ); आस्ते--रहता है; कुशली--कुशलपूर्वक; अपत्य-आइ्यै: --अपने बच्चों आदि समेत; युक्त:--मिल कर; मुक्त:--मुक्त; सुहत्‌--अपने मित्रों से; ब्रतः--अनुरक्त |

    ननन्‍्द महाराज ने कहा : हे परम भाग्यशाली, अब शूर का पुत्र मुक्त हो चुकने और अपनेबच्चों तथा अन्य सम्बन्धियों से पुन: मिल जाने के बाद कुशल से है न?

    दिष्टय्या कंसो हतः पाप: सानुगः स्वेन पाप्मना ।

    साधूनां धर्मशीलानां यदूनां द्वेष्टि य:ः सदा ॥

    १७॥

    दिछ्टया--सौभाग्य से; कंस:--कंस; हत:ः--मारा जा चुका है; पाप:--पापी; स--सहित; अनुग: --अपने अनुयायियों( भाइयों ); स्वेन--अपने से; पाप्मना--पापमयता; साधूनाम्‌-- सन्त; धर्म-शीलानाम्‌-- धर्मात्मा; यदूनाम्‌ू--यदुओं से; द्वेष्टि--द्वेष करता है; यः--जो; सदा--सदैव |

    सौभाग्यवश, अपने ही पापों के कारण पापात्मा कंस अपने समस्त भाइयों सहित मारा जाचुका है।

    वह सदैव सन्त तथा धर्मात्मा यदुओं से घृणा करता था।

    अपि स्मरति नः कृष्णो मातरं सुहृदः सखीन्‌ ।

    गोपान्त्रजं चात्मनाथं गावो वृन्दावनं गिरिम्‌ू ॥

    १८॥

    अपि--शायद; स्मरति-- स्मरण करता है; नः--हमको; कृष्ण: --कृष्ण; मातरम्‌--अपनी माता को; सुहृदः --उसकेशुभचिन्तक; सखीनू--तथा सारे मित्र; गोपान्‌ू--ग्वालों को; ब्रजम्‌ू--त्रज के गाँव; च--तथा; आत्म--स्वयं; नाथम्‌--स्वामी;गाव:--गौवें; वृन्दावनम्‌--वृन्दावन के जंगल को; गिरिम्‌--गोवर्धन पर्वत को

    क्या कृष्ण हमारी याद करता है? क्या वह अपनी माता तथा अपने मित्रों एवं शुभचिन्तकोंकी याद करता है? क्‍या वह ग्वालों तथा उनके गाँव ब्रज को, जिसका वह स्वामी है, स्मरणकरता है? क्‍या वह गौवों, वृन्दावन के जंगल तथा गोवर्धन पर्वत की याद करता है?

    अप्यायास्यति गोविन्द: स्वजनान्सकृदीक्षितुम्‌ ।

    तर्हिं द्रक्ष्याम तद्बक्त्रं सुनसं सुस्मितेक्षणम्‌ ॥

    १९॥

    अपि--क्या; आयास्यति--वापस आयेगा; गोविन्द: --कृष्ण; स्व-जनान्‌-- अपने सम्बन्धियों को; सकृत्‌ू--एक बार;ईक्षितुम्‌ू--देखने के लिए; तहिं--तब; द्रक्ष्याम--हम देख सकते हैं; तत्‌--उसका; वक्त्रमू--मुख; सु-नसम्‌--सुन्दर नाक सेयुक्त; सु--सुन्दर; स्मित--हँसी; ईक्षणम्‌--तथा नेत्र |

    क्या गोविन्द अपने परिवार को देखने एक बार भी वापस आयेगा? यदि वह कभी आयेगातो हम उसके सुन्दर नेत्र, नाक तथा मुसकाते सुन्दर मुख को देख सकेंगे।

    दावाननेर्वातवर्षाच्च वृषसर्पाच्च रक्षिता: ।

    दुरत्यये भ्यो मृत्युभ्य: कृष्णेन सुमहात्मना ॥

    २०॥

    दाव-अग्ने:--जंगल की आग से; वात--तेज हवा से; वर्षातू-तथा वर्षा से; च-- भी; वृष--बैल से; सर्पात्‌ू--सर्प से; च--तथा; रक्षिता:--रक्षा किये गये की; दुरत्ययेभ्य:--दुल॑ध्य; मृत्युभ्य:--मानवीय संकटों से; कृष्णेन--कृष्ण द्वारा; सु-महा-आत्मना--बहुत बड़े महात्मा

    उस महान-आत्मा कृष्ण द्वारा हम जंगल की आग, तेज हवा तथा वर्षा, साँड़ तथा सर्प रूपीअसुरों जैसे दुर्लघ्य घातक संकटों से बचा लिये गये थे।

    स्मरतां कृष्णवीर्याणि लीलापाडूनिरीक्षितम्‌ ।

    हसितं भाषितं चाड़ सर्वा न: शिथधिला: क्रिया: ॥

    २१॥

    स्मरताम्‌--स्मरण करने वाले; कृष्ण-वीर्याणि--कृष्ण के पराक्रमपूर्ण कार्यो को; लीला--क्रीड़ापूर्ण; अपाड्र--चितवन से;निरीक्षितम्‌--उनका देखना; हसितम्‌--हँसना; भाषितम्‌--बोलना; च--तथा; अड्ग-हे प्रिय ( उद्धव ); सर्वा:--सभी; नः--हमारे लिए; शिथिला:--शिथिल; क्रिया:-- भौतिक कार्यकलाप

    जब हम कृष्ण द्वारा सम्पन्न किये गये अद्भुत कार्यो, उसकी चपल चितवन, उसकी हँसीतथा उसकी वाणी का स्मरण करते हैं, तो हे उद्धव, हम अपने सारे भौतिक कार्यों को भूल जातेहैं।

    सरिच्छैलवनोद्देशान्मुकुन्दपदभूषितान्‌ ।

    आक्रीडानीक्ष्यमाणानां मनो याति तदात्मताम्‌ ॥

    २२॥

    सरित्‌--नदियाँ; शैल--पर्वत; बन--जंगल के; उद्देशान्‌ू--तथा विभिन्न भाग; मुकुन्द--कृष्ण के; पद--पाँवों से; भूषितानू--सुशोभित; आक्रीडान्‌ू--उनके खेल के स्थान; ईक्ष्यमाणानाम्‌ू-- देखने वालों के लिए; मनः--मन; याति--प्राप्त करता है; ततू-आत्मताम्‌--उनमें पूर्ण तल्‍लीनता |

    जब हम उन स्थानों को--यथा नदियों, पर्वतों तथा जंगलों को--देखते हैं, जिन्हें उसनेअपने पैरों से सुशोभित किया और जहाँ उसने क्रीड़ाएँ तथा लीलाएँ कीं तो हमारे मन उसमेंपूर्णतया लीन हो जाते हैं।

    मन्ये कृष्णं च राम च प्राप्ताविह सुरोत्तमौ ।

    सुराणां महदर्थाय गर्गस्थ वचन यथा ॥

    २३॥

    मन्ये--मैं सोचता हूँ; कृष्णम्‌--कृष्ण को; च--तथा; रामम्‌--राम को; च--तथा; प्राप्तौ--प्राप्त कर लिया; इह--इस लोकमें; सुर--देवताओं के; उत्तमौ--दो सर्वश्रेष्ठ; सुराणामू--देवताओं के; महत्‌--महान्‌; अर्थाय--हेतु; गर्गस्थ--गर्ग मुनि का;वचनम्‌--कथन; यथा--जैसा |

    मेरे विचार से कृष्ण तथा बलराम अवश्य ही दो श्रेष्ठ देवता हैं, जो इस लोक में देवताओं का कोई महान्‌ उद्देश्य पूरा करने आये हैं।

    गर्ग ऋषि ने ऐसी ही भविष्यवाणी की थी।

    कंसं नागायुतप्राणं मल्‍लौ गजपतिं यथा ।

    अवधिष्टां लीलयैव पशूनिव मृगाधिप: ॥

    २४॥

    कंसम्‌--कंस को; नाग--हाथियों की; अयुत--दस हजार; प्राणम्‌--प्राण-शक्ति वाले; मल्‍लौ--दो पहलवान ( चाणूर तथामुष्टिक ); गज-पतिम्‌ू--हाथियों के राजा ( कुबलयापीड ) को; यथा--जिस तरह; अवधिष्टाम्‌--दोनों ने मार डाला; लीलया--खेल-खेल में; एब--केवल; पशून्‌--पशुओं को; इब--सहृश; मृग-अधिप:--पशुओं का राजा सिंह |

    अन्ततः कृष्ण तथा बलराम ने दस हजार हाथियों जितने बलशाली कंस को और साथ हीसाथ चाणूर और मुप्टिक पहलवानों एवं कुबलयापीड हाथी को मार डाला।

    उन्होंने इन सबों कोउसी तरह खेल-खेल में आसानी से मार डाला जिस तरह सिंह छोटे पशुओं का सफाया कर देताहै।

    तालत्रयं महासारं धनुर्यपष्टिमिवेभराट्‌ ।

    बभज्जैकेन हस्तेन सप्ताहमदधादिगरिम्‌ ॥

    २५॥

    ताल-बत्रयम्‌--तीन ताड़ों जितना लम्बा; महा-सारम्‌--अत्यन्त ठोस; धनु:--धनुष; यष्टिमू--डंडा; इब--सहृश; इभ-राट्‌--शाही हाथी; बभञ्ञ--तोड़ दिया; एकेन--एक; हस्तेन--हाथ से; सप्त-अहम्‌--सात दिनों तक; अदधात्‌--पकड़े रहे;गिरिम्‌ू--पर्वत को |

    जिस आसानी से कोई तेजस्वी हाथी किसी छड़ी को तोड़ देता है उसी तरह से कृष्ण ने तीनताल जितने लम्बे एवं सुदृढ़ धनुष को तोड़ डाला।

    वे सात दिनों तक पर्वत को केवल एक हाथसे ऊपर उठाये रहे।

    प्रलम्बो धेनुकोरिष्टस्तृणावर्तो बकादय: ।

    दैत्या: सुरासुरजितो हता येनेह लीलया ॥

    २६॥

    प्रलम्ब: धेनुकः अरिष्ट:--प्रलम्ब, धेनुक तथा अरिष्ट; तृणावर्त:--तृणावर्त; बक-आदय:--बक इत्यादि; दैत्या:--असुर; सुर-असुर--देवता तथा असुर दोनों; जितः--जीता; हता:--मारा; येन--जिसके द्वारा; हह--यहाँ ( वृन्दावन में ); लीलया--आसानी से।

    इसी वृन्दावन में कृष्ण तथा बलराम ने बड़ी ही आसानी से प्रलम्ब, धेनुक, अरिष्ट, तृणावर्ततथा बक जैसे उन असुरों का वध किया जो स्वयं देवताओं तथा अन्य असुरों को पराजित करचुके थे।

    श्रीशुक उबाचइति संस्मृत्य संस्मृत्य नन्दः कृष्णानुरक्तधी: ।

    अत्युत्कण्ठोभवत्तृष्णीं प्रेमप्रसरविह्लल: ॥

    २७॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; संस्मृत्य संस्मृत्य--बार बार उत्कट भाव से स्मरण करके;नन्दः--नन्द महाराज; कृष्ण--कृष्ण के प्रति; अनुरक्त--पूर्णतया समर्पित; धी: --मन; अति--अत्यन्त; उत्कण्ठ: --उत्सुक;अभवत्‌--हो गये; तूष्णीम्‌--मौन; प्रेम--अपने शुद्ध-प्रेम के; प्रसर--वेग से; विहलः--अभिभूत |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस तरह बारम्बार कृष्ण को उत्कटता से स्मरण करते हुए,भगवान्‌ में पूर्णतया अनुरक्त मन वाले नन्‍्द महाराज को अत्यधिक उद्धिग्नता का अनुभव हुआऔर वे अपने प्रेम के वेग से अभिभूत होकर मौन हो गये।

    यशोदा वर्ण्यमानानि पुत्रस्य चरितानि च ।

    श्रुण्वन्त्यश्रूण्यवास्त्राक्षीत्स्नेहस्नुतपयोधरा ॥

    २८ ॥

    यशोदा--माता यशोदा; वर्ण्यमानानि--वर्णन किये जाते हुए; पुत्रस्य--अपने पुत्र के; चरितानि--कार्यकलापों को; च--तथा;श्रृण्वन्ती--ज्योंही सुना; अश्रूणि--आँसू; अवास्त्राक्षीत्‌-ढारने लगीं; स्नेह--स्नेह के कारण; स्नुत--गीले; पयोधरा--उनकेस्तन

    ज्योंही माता यशोदा ने अपने पुत्र के कार्यकलापों का वर्णन सुना त्योंही उनके आँखों सेआँसू बहने लगे और प्रेम के कारण उनके स्तनों से दूध बहने लगा।

    तयोरित्थं भगवति कृष्णे नन्दयशोदयो: ।

    वीक्ष्यानुरागं परमं नन्दमाहोद्धवो मुदा ॥

    २९॥

    तयो:--उन दोनों का; इत्थम्‌--इस प्रकार से; भगवति-- भगवान्‌ के लिए; कृष्णे--कृष्ण; नन्द-यशोदयो: --नन्‍्द तथा यशोदाका; वीक्ष्य--स्पष्ट देखकर; अनुरागम्‌--प्रेममय आकर्षण; परमम्‌--परम; नन्दम्‌--नन्द से; आह--बोले; उद्धव:--उद्धव;मुदा--हर्षपूर्वक ।

    तब भगवान्‌ कृष्ण के प्रति नन्‍्द तथा यशोदा के परम अनुराग को स्पष्ट देखकर उद्धव नेहर्षपूर्वक नन्‍्द से कहा।

    श्रीउद्धव उबाचयुवां एलाघ्यतमौ नूनं देहिनामिह मानद ।

    नारायणेखिलगुरौ यत्कृता मतिरीहशी ॥

    ३०॥

    श्री-उद्धवः उबाच-- श्री उद्धव ने कहा; युवाम्‌-तुम दोनों; श्लाध्यतमौ--सर्वाधिक प्रशंसनीय; नूनम्‌--निश्चय ही; देहिनाम्‌--देहधारी जीवों का; इह--इस संसार में; मन-द--हे सम्माननीय; नारायणे-- भगवान्‌ नारायण के लिए; अखिल-गुरौ--सबों केगुरु; यतू--क्योंकि; कृता--उत्पन्न; मतिः--मानसिकता; ईहशी--इस प्रकार की |

    श्री उद्धव ने कहा : हे माननीय नन्द, सम्पूर्ण जगत में निश्चय ही आप तथा माता यशोदासर्वाधिक प्रशंसनीय हैं क्योंकि आपने समस्त जीवों के गुरु भगवान्‌ नारायण के प्रति ऐसा प्रेम-भाव उत्पन्न कर रखा है।

    एतौ हि विश्वस्थ च बीजयोनी रामो मुकुन्दः पुरुष: प्रधानम्‌ ।

    अन्वीय भूतेषु विलक्षणस्यज्ञानस्य चेशात इमौ पुराणौ ॥

    ३१॥

    एतौ--ये दोनों; हि--निस्सन्देह; विश्वस्य--ब्रह्माण्ड के; च--तथा; बीज--बीज; योनी--तथा गर्भ; राम:-- बलराम;मुकुन्दः--कृष्ण; पुरुष:--सृजन करने वाले भगवान्‌; प्रधानम्‌ू--उनकी सृजन शक्ति; अन्बीय-- प्रवेश करके; भूतेषु-- सारेजीवों के भीतर; विलक्षणस्य-- भ्रमित या अनुभव करते; ज्ञानस्य--ज्ञान का; च--तथा; ईशाते--नियंत्रण करते हैं; इमौ--दोनों; पुराणौ-- प्राचीन, आदि।

    मुकुन्द तथा बलराम--ये दोनों विभु ब्रह्माण्ड के बीज तथा योनि, स्त्रष्टा तथा उनकी सृजनशक्ति हैं।

    ये जीवों के हृदयों में प्रवेश करके उनकी बद्ध जागरूकता को नियंत्रित करते हैं।

    येआदि परम पुरुष हैं।

    यस्मिनजनः प्राणवियोगकालेक्षनं समावेश्य मनोविशुद्धम्‌ ।

    नित्य कर्माशयमाशु यातिपरां गतिं ब्रह्ममयोउर्कवर्ण: ॥

    ३२॥

    'तस्मिन्भवन्तावखिलात्महेतौनारायणे कारणमर्त्यमूर्तों ।

    भावं विधत्तां नितरां महात्मन्‌ कि वावशिष्ट युवयो: सुकृत्यम्‌ ॥

    ३३॥

    यस्मिनू--जिसमें; जन: --कोई व्यक्ति; प्राण--अपने प्राण से; वियोग--विरह के; काले--समय पर; क्षणम्‌--क्षण-भर केलिए; समावेश्य--लीन करके; मन:--अपना मन; अविशुद्धम्‌-- अशुद्ध; निईत्य--समूल नष्ट करके; कर्म--कर्मो के फलोंका; आशयमू--सारे चिह्ृ; आशु--तुरन्‍्त; याति--जाता है; परामू-- परम; गतिम्‌--गन्तव्य को; ब्रह्म -मयः--शुद्ध आध्यात्मिकस्वरूप में; अर्क--सूर्य की तरह; वर्ण: --रंग; तस्मिन्‌ू--उसमें; भवन्तौ-- आप दोनों; अखिल--समस्त; आत्म--परमात्मा;हेतौ--तथा कारण; नारायणे-- भगवान्‌ नारायण में; कारण--हर वस्तु का कारण; मर्त्य--मनुष्य के ; मूर्तों--रूप में; भावम्‌--शुद्ध-प्रेम; विधत्तामू--दिया है; नितराम्‌--अत्यधिक; महा-आत्मन्‌--पूर्ण को; किम्‌ वा--तो कया; अवशिष्टम्‌-शेष;युवयो:--तुम दोनों के लिए; सु-कृत्यमू--आवश्यक शुभ कर्म |

    कोई भी व्यक्ति, चाहे वह अशुद्ध अवस्था में ही क्‍यों न हो, यदि मृत्यु के समय क्षण-भर केलिए भी अपने मन को उन ( भगवान्‌ ) में लीन कर देता है, तो उसके सारे पापमय कर्मो के फलभस्म हो जाते हैं जिससे उनका नाम-निशान भी नहीं रह जाता और वह सूर्य के समान तेजस्वीशुद्ध आध्यात्मिक स्वरूप में परम दिव्य गन्तव्य को प्राप्त करता है।

    आप दोनों ने उन मनुष्य-रूपभगवान्‌ नारायण की अद्वितीय प्रेमाभक्ति की है, जो सबों के परमात्मा हैं और सारे प्राणियों केकारण-स्वरूप हैं और जो सबों के मूल कारण हैं।

    भला अब भी आपको कौन-से शुभ कर्मकरने की आवश्यकता है ?

    आममिष्यत्यदीर्घेण कालेन ब्रजमच्युतः ।

    प्रियं विधास्यते पित्रोर्भगवान्सात्वतां पति: ॥

    ३४॥

    आगमिष्यति--वापस आयेगा; अदीर्घेण--अल्प; कालेन--समय में; ब्रजम्‌--ब्रज में; अच्युत:--अच्युत कृष्ण; प्रियम्‌--तुष्टि;विधास्यते--देगा; पित्रो:--अपने माता-पिता को; भगवान्‌-- भगवान्‌; सात्वताम्‌-- भक्तों का; पति: --स्वामी तथा रक्षक |

    भक्तों के स्वामी अच्युत कृष्ण शीघ्र ही अपने माता-पिता को तुष्टि प्रदान करने के लिए ब्रजलौटेंगे।

    हत्वा कंसं रड्रमध्ये प्रतीपं सर्वसात्वताम्‌ ।

    यदाह व: समागत्य कृष्ण: सत्यं करोति ततू ॥

    ३५॥

    हत्वा--मारकर; कंसम्‌--कंस को; रड्--रंगभूमि के ; मध्ये--बीच में; प्रतीपम्‌--शत्रु; सर्व-सात्वताम्‌--समस्त यदुओं का;यत्‌--जो; आह--कहा; वः--तुमसे; समागत्य--वापस आकर; कृष्ण: --कृष्ण ने; सत्यम्‌--सत्य; करोति--करेगा; तत्‌--वही।

    रंगभूमि में समस्त यदुओं के शत्रु कंस का वध कर चुकने के बाद अब कृष्ण वापस आकर आपको दिये गये वचन को अवश्य ही पूरा करेंगे।

    मा खिलद्यतं महाभागौ द्रक्ष्यथः कृष्णमन्तिके ।

    अन्तईदि स भूतानामास्ते ज्योतिरिवैधसि ॥

    ३६॥

    मा खिद्यतम्‌--आप शोक न करें; महा-भागौ--हे दोनों भाग्यशाली जन; द्रक्ष्यथ:--देखेंगे; कृष्णम्‌--कृष्ण को; अन्तिके--निकट भविष्य में; अन्तः-- भीतर; हृदि--हृदयों में; सः--वह; भूतानाम्‌--सारे जीवों के; आस्ते--उपस्थित है; ज्योति:--अग्नि;इब--सहश; एधसि--काठ के भीतर।

    हे भाग्यशालीजनो, आप शोक मत करें।

    आप शीघ्र ही कृष्ण को देख सकेंगे।

    वे समस्तजीवों के हृदयों में उसी तरह विद्यमान हैं जिस तरह काष्ट में अग्नि सुप्त रहती है।

    न हास्यास्ति प्रियः कश्रिन्नाप्रियो वास्त्यमानिनः ।

    नोत्तमो नाधमो वापि समानस्यथासमोपि वा ॥

    ३७॥

    न--नहीं; हि--निस्सन्देह; अस्य--उसके लिए; अस्ति--है; प्रिय: --प्रिय; कश्चित्‌--कोई; न--नहीं; अप्रिय:--अप्रिय; वा--अथवा; अस्ति-- है; अमानिन:--सम्मान पाने की इच्छा से रहित; न--नहीं; उत्तम:--श्रेष्ठ; न--नहीं; अधम:--निम्न; वा--अथवा; अपि--भी; समानस्य--अन्यों का आदर करने वाले के लिए; आसम:--नितान्त सामान्य; अपि-- भी; वा--अथवा

    उनके लिए कोई न तो विशेष प्रिय है, न अप्रिय; न तो श्रेष्ठ है न निम्न है; फिर भी वे किसीसे अन्यमनस्क नहीं हैं।

    वे सम्मान पाने की सारी इच्छा से रहित हैं फिर भी वे सबों का सम्मानकरते हैं।

    न माता न पिता तस्य न भार्या न सुतादय: ।

    नात्मीयो न परश्रापि न देहो जन्म एवच ॥

    ३८॥

    न--नहीं है; माता--माता; न--न तो; पिता--पिता; तस्य--उनका; न--नहीं; भार्या--पत्ती; न--न तो; सुत-आदयः:--पुत्रइत्यादि; न--न कोई; आत्मीय:-- अपने से सम्बद्ध; न--न तो; पर: --बाहरी, पराया; च अपि-- भी; न--नहीं; देह:--शरीर;जन्म--जन्म; एव--या तो; च--तथा।

    न तो उनके माता है, न पिता, न पत्नी, न पुत्र या अन्य कोई सम्बन्धी।

    उनसे किसी कासम्बन्ध नहीं है फिर भी उनका कोई पराया नहीं है।

    न तो उनका भौतिक शरीर है, न कोई जन्म।

    न चास्य कर्म वा लोके सदसन्मिश्रयोनिषु ।

    क्रीडार्थ सोपि साधूनां परित्राणाय कल्पते ॥

    ३९॥

    न--नहीं है; च--तथा; अस्य--इसका; कर्म--कर्म; वा--अथवा; लोके --इस जगत में; सत्‌--शुद्ध; असत्‌--अशुद्ध;मिश्र--या मिश्रित; योनिषु--योनियों में; क्रीडा--खिलवाड़ के; अर्थम्‌--लिए; सः--वह; अपि-- भी; साधूनाम्‌-- अपनेसाधु-भक्तों की; परित्राणाय--रक्षा करने के लिए; कल्पते--प्रकट होता है।

    उन्हें इस जगत में ऐसा कोई कर्म करना शेष नहीं जो उन्हें शुद्ध, अशुद्ध या मिश्रित योनियोंमें जन्म लेने के लिए बाध्य कर सके।

    फिर भी अपनी लीलाओं का आनन्द लेने और अपनेसाधु-भक्तों का उद्धार करने के लिए वे स्वयं प्रकट होते हैं।

    सत्त्वं रजस्तम इति भजते निर्गुणो गुणान्‌ ।

    क्रीडन्नतीतोपि गुणै: सृजत्यवन्हन्त्यज: ॥

    ४०॥

    सत्त्वम्‌--सतो गुण; रज:--रजो गुण; तमः--तथा तमो गुण; इति--इस प्रकार कहे जाने वाले; भजते--स्वीकार करता है;निर्गुण:--भौतिक गुणों से परे; गुणानू--गुणों को; क्रीडन्‌--क्रीड़ा करते हुए; अतीत:--परे; अपि--यद्यपि; गुणै: --गुणों केद्वारा; सृजति--सूजन करता है; अवति--पालन-पोषण करता है; हन्ति--तथा संहार करता है; अजः--अजन्मा भगवान्‌

    यद्यपि दिव्य भगवान्‌ भौतिक प्रकृति के तीन गुणों--सतो, रजो तथा तमो गुणों--से परे हैंफिर भी क्रिड़ा के रूप में वे इनकी संगति स्वीकार करते हैं।

    इस तरह अजन्मा भगवान्‌ इनभौतिक गुणों का उपयोग सृजन, पालन तथा संहार के लिए करते हैं।

    यथा भ्रमरिकाहष्टया भ्राम्यतीव महीयते ।

    चित्ते कर्तरि तत्रात्मा कर्तेवाहंधिया स्मृत: ॥

    ४१॥

    यथा--जिस तरह; भ्रमरिका--घुमरी के कारण; दृष्या--किसी की दृष्टि में; भ्राम्यति--घूमते हुए; इब--मानो; मही --पृथ्वी;ईयते--प्रकट होता है; चित्ते--मन में; कर्तरि--कर्ता होने से; तत्र--वहाँ; आत्मा--आत्मा; कर्ता--कर्ता; इब-- सहृश; अहमू-धिया--मिथ्या अहंकार से; स्मृत:--सोचा जाता है |

    जिस तरह चक्री में घूमने वाला व्यक्ति धरती को घूमता देखता है उसी तरह जो व्यक्ति मिथ्याअहंकार के वशीभूत होता है, वह अपने को कर्ता मानता है, जबकि वास्तव में उसका मन कार्यकरता होता है।

    युवयोरेव नैवायमात्मजो भगवान्हरिः ।

    सर्वेषामात्मजो ह्यात्मा पिता माता स ईश्वर: ॥

    ४२॥

    युवयो:--तुम दोनों का; एब--अकेले; न--नहीं; एब--निस्सन्देह; अयम्‌ू--यह; आत्म-ज: --पुत्र; भगवान्‌-- भगवान्‌;हरिः--कृष्ण; सर्वेषाम्‌--सबों का; आत्म-जः--पुत्र; हि--निस्सन्देह; आत्मा--आत्मा; पिता--पिता; माता--माता; सः--वह; ईश्वरः--नियन्ता |

    निश्चय ही भगवान्‌ हरि एकमात्र आपके पुत्र नहीं हैं, प्रत्युत भगवान्‌ होने के कारण वे हरएक के पुत्र, आत्मा, पिता तथा माता हैं।

    हृष्ड श्रुत॑ भूतभवद्धविष्यत्‌स्थास्नुश्नरिष्णुर्महदल्पकं च ।

    विनाच्युताद्वस्तु तरां न वाच्यंसएबव सर्व परमात्मभूत: ॥

    ४३॥

    इृष्टमू--देखा हुआ; श्रुतम्‌--सुना हुआ; भूत-- भूतकाल; भवत्‌--वर्तमान्‌; भविष्यत्‌ -- भविष्य; स्थास्नु:-- अचल ; चरिष्णु:--चल; महत्‌--विशाल; अल्पकमू-- क्षुद्र; च--तथा; विना--के बिना; अच्युतात्‌--अच्युत कृष्ण से; वस्तु--वस्तु; तरामू--तनिक भी; न--नहीं है; वाच्यम्‌--नाम लेने के योग्य; सः--वह; एव--अकेले; सर्वम्‌--हर वस्तु; परम-आत्म--परमात्मा रूपमें; भूतः--प्रकट

    भगवान्‌ अच्युत से किसी भी वस्तु का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है--चाहे वह भूत से या वर्तमानसे अथवा भविष्य से सम्बन्धित हो, वह देखी हो या सुनी हो, चर हो या अचर हो, विशाल हो या क्षुद्र।

    दरअसल वे ही सर्वस्व हैं क्योंकि वे परमात्मा हैं।

    एवं निशा सा ब्रुवतोर्व्यतीतानन्दस्य कृष्णानुचरस्य राजन ।

    गोप्यः समुत्थाय निरूप्य दीपान्‌वास्तून्समभ्यर्च्य दौधीन्यमन्थुन्‌ ॥

    ४४॥

    एवम्‌--इस तरह से; निशा--रात; सा--वह; ब्रुवतो:--दोनों के बातचीत करते; व्यतीता--बीत गई; नन्दस्य--नन्द महाराजका; कृष्ण-अनुचरस्य--तथा कृष्ण का दास ( उद्धव ); राजन्‌--हे राजा ( परीक्षित ); गोप्य:--गोपियाँ; समुत्थाय--नींद से उठकर; निरूप्य--जलाकर; दीपान्‌--दीपकों को; वास्तूनू--घरेलू अर्चाविग्रहों को; समभ्यर्च्य--पूजा करके; दधीनि--दही;अमन्थन्‌--मथने लगीं।

    हे राजन्‌ जब कृष्ण के दूत उद्धव नन्द महाराज से बातें करे जा रहे थे तो रात बीत गई।

    गोकुल की स्त्रियाँ तब नींद से जग गई और उन्होंने दीपक जलाकर अपने अपने घरों केअर्चाविग्रहों की पूजा की।

    इसके बाद वे दही मथने लगीं।

    ता दीपदीप्तैर्मणिभिर्विरेजूरज्जूविकर्षद्धुजकड्डणस्त्रज: ।

    अलन्नितम्बस्तनहारकुण्डल-त्विषत्कपोलारुणकुड्ड मानना: ॥

    ४५॥

    ताः--वे स्त्रियाँ; दीप--दीपकों द्वारा; दीप्तै:--दीपित; मणिभि:--मणियों से; विरेजु:--चमक रही थीं; रज्जू:--रस्सियाँ;विकर्षत्‌--खींचते हुए; भुज--अपनी भुजाओं में; कड्डण--चूड़ियों की; सत्रज:--पंक्तियाँ; चलन्‌--हिलाती; नितम्ब--कटि केनीचे का भाग; स्तन--वश्षस्थल; हार--तथा गले की दुलरी; कुण्डल--कान की बालियों के कारण; त्विषत्‌ू--चमचमाते;कपोल-गाल; अरुण--लाल; कुड्डढु म-कुंकुम चूर्ण से; आनना:--उनके मुखमंडल।

    जब ब्रज की स्त्रियाँ कंगन पहने हुए हाथों से मथानी की रस्सियाँ खींच रही थीं तो वे दीपकके प्रकाश से प्रतिबिम्बित मणियों की चमक से दीपित हो रही थीं।

    उनके नितम्ब, स्तन तथा गलेके हार हिल-डुल रहे थे और लाल कुंकुम से पुते उनके मुखमण्डल, गालों पर पड़ी कान कीबालियों की चमक से चमचमा रहे थे।

    उद्‌गायतीनामरविन्दलोचनंब्रजाडुनानां दिवमस्पृशद्ध्वनि: ।

    दश्नश्व निर्मन्थनशब्दमिश्रितोनिरस्यते येन दिशाममड्रलम्‌ ॥

    ४६॥

    उदगायतीनाम्‌--जोर से गाती हुईं; अरविन्द--कमलों की तरह; लोचनम्‌--नेत्र; ब्रज-अड्डनानाम्‌-ब्रज की स्त्रियों के; दिवम्‌--आकाश; अस्पृशत्‌--स्पर्श किया; ध्वनि:--ध्वनि, गूँज; दध्न:--दही का; च--तथा; निर्मनथन--मथने का; शब्द--शब्द से;मिश्रित:--मिश्रित; निरस्यते--दूर हो जाती है; येन--जिससे; दिशाम्‌ू--सभी दिशाओं का; अमड्गलम्‌--अमंगल

    जब ब्रज की स्त्रियाँ कमल-नेत्र कृष्ण की महिमा का गायन जोर-जोर से करने लगीं तोउनके गीत उनके मथने की ध्वनि से मिल कर आकाश तक उठ गये और उन्होंने सारी दिशाओंके अमंगल को दूर कर दिया।

    भगवत्युदिते सूर्य नन्दद्वारि त्रजौकस: ।

    इृष्ठा रथं शातकौम्भं कस्यायमिति चात्रुवन्‌ ॥

    ४७॥

    भगवति--देव; उदिते--उदय होने पर; सूर्य --सूर्य के; नन्द-द्वारि--नन्द महाराज के दरवाजे; ब्रज-ओकसः:--व्रज के निवासी;इृष्ठा--देखकर; रथम्‌--रथ को; शातकौम्भम्‌--स्वर्ण से बने; कस्य--किसका; अयम्‌--यह; इति--इस प्रकार; च--तथा;अब्लुवन्‌ू--वे बोले |

    जब सूर्यदेव उदित हो चुके तो ब्रजवासियों ने नन्द महाराज के दरवाजे के सामने एकसुनहरा रथ देखा।

    ( अतः ) उन्होंने पूछा, 'यह किसका रथ है ?

    'अक्रूर आगतः कि वा यः कंसस्यार्थसाधक: ।

    येन नीतो मधुपुरीं कृष्ण: कमललोचन: ॥

    ४८॥

    अक्ूरः--अक्रूर; आगत:--आया है; किम्‌ वा--शायद; यः--जो; कंसस्य--कंस के; अर्थ--कार्य के लिए; साधक:--सम्पन्नकरने वाला; येन--जिससे; नीत:--लाया गया; मधु-पुरीम्‌--मथुरा नगरी में; कृष्ण:--कृष्ण; कमल--कमल सहश;लोचन:--आँखों वाले |

    शायद अक्रूर लौट आया है--वही जिसने कमल-नेत्र कृष्ण को मथुरा ले जाकर कंस कीइच्छा पूरी की थी।

    कि साधयिष्यत्यस्माभिर्भतु: प्रीतस्य निष्कृतिम्‌ ।

    ततः स्त्रीणां वदन्तीनामुद्धवोगात्कृताहिकः ॥

    ४९॥

    किमू्‌--क्या; साधयिष्यति--सम्पन्न करेगा; अस्माभि:--हमसे; भर्तु:--स्वामी का; प्रीतस्थ--तुष्ट रहने वाले का; निष्कृतिम्‌ू--पिण्डदान; ततः--तत्पश्चात्‌; स्रीणाम्‌ू--स्त्रियाँ; वदन्‍्तीनामू--बोलती हुईं; उद्धवः--उद्धव; अगात्‌--वहाँ आया; कृत--करके;अहिकः--प्रातःकालीन धार्मिक कृत्य |

    जब स्त्रियाँ इस तरह बोल ही रही थीं कि, 'क्या वह अपनी सेवाओं से प्रसन्न हुए अपनेस्वामी के पिण्डदान के लिए हमारे मांस को अर्पित करने जा रहा है ?' तभी प्रातःकालीन कृत्योंसे निवृत्त हुए उद्धव दिखलाई पड़े।

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    अध्याय सैंतालीस: मधुमक्खी का गीत

    10.47श्रीशुक उबाचत॑ वीक्ष्य कृषानुचरं ब्रजस्त्रिय:प्रलम्बबाहुं नवकझ्जलोचनम्‌ ।

    पीताम्बरं पुष्करमालिनं लसन्‌ू-मुखारविन्दं परिमृष्टकुण्डलम्‌ ॥

    १॥

    सुविस्मिता: कोयमपीव्यदर्शनःकुतश्च कस्याच्युतवेषभूषण: ।

    इति स्म सर्वा: परिवत्रुरुत्सुका-स्तमुत्तम:ःशलोकपदाम्बुजा श्रयम्‌ ॥

    २॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; तम्‌--उस; वीक्ष्य--देखकर; कृष्ण-अनुचरम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण के अनुचर( उद्धव ) को; ब्रज-स्त्रिय:--व्रज की स्त्रियाँ; प्रलम्ब--नीचे तक; बाहुमू--बाँहों को; नव--नवीन; कज्ञ--कमल सहश;लोचनमू--आँखों को; पीत--पीला; अम्बरम्‌--वस्त्र पहने; पुष्कर--कमल की; मालिनम्‌ू--माला पहने; लसत्‌--शो भायमान;मख--मुख; अरविन्दमू--कमल सहश; परिमृष्ट--परिष्कृत किया; कुण्डलम्‌--कान का कुण्डल; सु-विस्मिता: -- अत्यधिकचकित; कः--कौन; अयम्‌--यह; अपीव्य--सुन्दर; दर्शन: --दर्शन; कुतः--कहाँ से; च--तथा; कस्य--किसका; अच्युत--कृष्ण का; वेष--वस्त्र धारण किये; भूषण:--तथा आभूषण; इति--इस प्रकार; स्म--निस्सन्देह; सर्वा:--सभी; परिवद्रु:--घिरे हुए; उत्सुका: --उत्सुक; तम्‌--उसको; उत्तम:-शलोक-- भगवान्‌ कृष्ण का, जिनकी प्रशंसा सुन्दर श्लोकों द्वारा की जातीहै; पद-अम्बुज--चरणकमल की; आश्रयम्‌--शरण में आये हुए

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : ब्रज की ललनाएँ कृष्ण के अनुचर को देखकर चकित हो गईं।

    उसके हाथ लम्बे लम्बे थे और आँखें नये खिले कमल जैसी थीं।

    वह पीत वस्त्र धारण किये था,गले में कमल की माला थी तथा अत्यन्त परिष्कृत किये हुए कुण्डलों से चमकता उसकामुखमण्डल कमल जैसा था।

    गोपियों ने पूछा, 'यह सुन्दर पुरुष कौन है? यह कहाँ से आया है?यह किसकी सेवा करता है? यह तो कृष्ण के वस्त्र और आभूषण पहने है!' यह कहकरगोपियाँ उद्धव के चारों ओर उत्सुकता से एकत्र हो गईं जिनका आश्रय भगवान्‌ उत्तमश्लोकश्रीकृष्ण के चरणकमल थे।

    त॑ प्रश्रयेणावनता: सुसत्कृतंसक्रीडहासेक्षणसूनृतादिभि: ।

    रहस्यपृच्छन्रुपविष्टमासनेविज्ञाय सन्देशहरं रमापते: ॥

    ३॥

    तमू--उसको; प्रश्रयेण--विनयपूर्वक ; अवनता:--झुककर ( गोपियाँ ); सु--उचित रीति से; सत्‌-कृतम्‌--आदर किया; स-ब्रीड--लज्जा सहित; हास--तथा हँसते हुए; ईक्षण--चितवनों; सूनृूत--मधुर शब्द; आदिभि:--इत्यादि से; रहसि--एकान्त में;अपृच्छनू--पूछा; उपविष्टम्‌ू--बैठा हुआ; आसने-- आसन पर; विज्ञाय-- समझ कर; सन्देश-हरम्‌--संदेशवाहक; रमा-पते: --लक्ष्मी के स्वामी का।

    विनयपूर्वक अपना शीश झुकाते हुए गोपियों ने अपनी लजीली मुसकराती चितवनों तथामधुर शब्दों से उद्धव का उचित रीति से सम्मान किया।

    वे उन्हें एकान्त स्थान में ले गईं, उन्हेंआराम से बैठाया और तब उन्हें लक्ष्मीपति कृष्ण का सन्देशवाहक मान कर उनसे प्रश्न करनेलगीं।

    जानीमस्त्वां यदुपतेः पार्षदं समुपागतम्‌ ।

    भर्त्रेह प्रेषित: पित्रोर्भवान्प्रियचििकीर्षया ॥

    ४॥

    जानीम:--हम जानती हैं; त्वाम्‌--तुमको; यदु-पतेः --यदुओं के प्रमुख का; पार्षदम्‌--निजी संगी; समुपागतम्‌--यहाँ आया;भर्त्रा--अपने स्वामी द्वारा; हह--यहाँ; प्रेषित:-- भेजा हुआ; पित्रो:--अपने माता-पिता का; भवान्‌--आप; प्रिय--सन्तोष,सुख; चिकीर्षया--देने के लिए इच्छुक |

    गोपियों ने कहा : हम जानती हैं कि आप यदुश्रेष्ठ कृष्ण के निजी पार्षद हैं और अपने उसश्रेष्ठ स्वामी के आदेश से यहाँ आये हैं, जो अपने माता-पिता को सुख प्रदान करने के इच्छुक हैं।

    अन्यथा गोब्जे तस्य स्मरणीयं न चक्ष्महे ।

    स्नेहानुबन्धो बन्धूनां मुनेरपि सुदुस्त्यज: ॥

    ५॥

    अन्यथा--नहीं तो; गो-ब्रजे--चरागाह में; तस्थ--उसका; स्मरणीयम्‌--स्मरण करने योग्य; न चक्ष्महे --हम नहीं देखती;स्नेह--स्नेह की; अनुबन्ध:--आसक्ति; बन्धूनाम्‌--सम्बन्धियों के लिए; मुने:--मुनियों के लिए; अपि-- भी; सु-दुस्त्यज:--छोड़ पाना मुश्किल।

    अन्यथा हमें और कुछ भी ऐसा नहीं दीखता जिसे वे ब्रज के इन चरागाहों में स्मरणीयसमझते होंगे।

    निस्सन्देह एक मुनि के लिए भी अपने पारिवारिक जनों का स्नेह-बंधन तोड़ पानाकठिन होता है।

    अन्येष्वर्थकृता मैत्री यावदर्थविडम्बनम्‌ ।

    पुम्भिः स्त्रीषु कृता यद्वत्सुमन:स्विव घट्पदै: ॥

    ६॥

    अन्येषु--अन्यों के प्रति; अर्थ--किसी उद्देश्य से; कृता--प्रकट; मैत्री--मित्रता; यावत्‌--जब तक; अर्थ--उद्देश्य ( जिसे कोईपूरा करता है ); विडम्बनम्‌ू--बहाना; पुम्भि:--मनुष्यों द्वारा; स्त्रीषु--स्त्रियों के लिए; कृता--दिखलाया गया; यद्वत्‌ू--जितना;सुमन:सु--फूलों के लिए; इब--सहश; षट््‌-पदै:-- भौरे द्वारा

    किसी अन्य के प्रति, जो पारिवारिक सदस्य नहीं है, दिखलाई जाने वाली मित्रता स्वार्थ सेप्रेरित होती है।

    अतः यह तो एक बहाना होता है, जो तब तक चलता है जबतक किसी का उद्देश्यपूरा नहीं हो जाता।

    ऐसी मित्रता वैसी ही है, जिस तरह कि स्त्रियों के प्रति पुरुषों की या फूलों केप्रति भौंरों की रुचि।

    निःस्वं त्यजन्ति गणिका अकल्पं नृपतिं प्रजा: ।

    अधीतविद्या आचार्यमृत्विजो दत्तदक्षिणम्‌ ॥

    ७॥

    निःस्वमू--सम्पत्तिविहीन को; त्यजन्ति--छोड़ देती हैं; गणिका:--वेश्याएँ; अकल्पम्‌--अदक्ष; नू-पतिम्‌--राजा को; प्रज:--नागरिक; अधीत-विद्या:--जिन्होंने अपनी शिक्षा पूरी कर ली है; आचार्यम्‌--शिक्षक को; ऋत्विज:--पुरोहितगण; दत्त--( यज्ञकर्त्ता द्वारा ) दे चुकने पर; दक्षिणम्‌--दक्षिणाभेंट

    वेश्याएँ निर्धन व्यक्ति को, प्रजा अयोग्य राजा को, शिक्षा पूरी होने पर विद्यार्थी अपनेशिक्षक को तथा पुरोहितगण दक्षिणा पाने के बाद यज्ञ करने वाले व्यक्ति को छोड़ जाते हैं।

    खगा वीतफल वृक्ष भुक्त्वा चातिथयो गृहम्‌ ।

    दग्धं मृगास्तथारण्यं जारा भुकत्वा रतां स्त्रियम्‌ ॥

    ८॥

    खगा:--पक्षीगण; वीत--रहित; फलम्‌--फलों से; वृक्षम्‌--वृक्षको; भुक्त्वा--खाने के बाद; च--तथा; अतिथय: --अतिथिगण; गृहम्‌--घर को; दग्धम्‌--जले हुए; मृगा:--पशुगण; तथा--उसी प्रकार; अरण्यम्‌--जंगल को; जारा:--उपपति;भुक्त्वा-- भोग करने के बाद; रताम्‌--आकृष्ट; स्त्रियम्‌--स्त्री को |

    फल न रहने पर पक्षी वृक्ष को, भोजन करने के बाद अतिथि घर को, जंगल जल जाने परपशु जंगल को तथा प्रेमी के प्रति आकृष्ट रहने के बावजूद भी स्त्री का भोग कर लेने पर प्रेमीउसका परित्याग कर देते हैं।

    इति गोप्यो हि गोविन्दे गतवाक्कायमानसाः ।

    कृष्णदूते समायाते उद्धवे त्यक्तलौकिका: ॥

    ९॥

    गायन्त्य: प्रीयकर्माणि रुदन्त्यश्च गतहियः ।

    तस्य संस्मृत्य संस्मृत्य यानि कैशोरबाल्ययो: ॥

    १०॥

    इति--इस प्रकार; गोप्य:--गोपियाँ; हि--निस्सन्देह; गोविन्दे--गोविन्द में; गत--केन्द्रित करके; वाकु--वाणी; काय--शरीर; मानस:--तथा अपने मन; कृष्ण-दूते--कृष्ण के दूत; समायाते--आकर उनके साथ हो लेने वाले; उद्धवे--उद्धव में;त्यक्त--छोड़कर; लौकिका:--सांसारिक कार्य; गायन्त्य: --गाती हुईं; प्रिय--अपने प्रिय के; कर्माणि--कार्यकलापों के विषयमें; रूदन्त्य:--फूट फूट कर रोती हुई; च--तथा; गत-हिय:--सारी लाज छोड़कर; तस्य--उसकी; संस्मृत्य संस्मृत्य--बार-बारयाद करके; यानि-- जो; कैशोर--किशोरावस्था; बाल्ययो:--तथा बालपन कीइस तरह बोलती हुई गोपियों ने जिनके वचन, शरीर तथा मन भगवान्‌ गोविन्द के प्रतिपूर्णतया समर्पित थे, अपना नैत्यिक कार्य करना छोड़ दिया क्योंकि अब कृष्णदूत श्री उद्धवउनके बीच आया था।

    वे अपने प्रिय कृष्ण के बाल्यकाल तथा किशोरावस्था की लीलाओं काअविरत स्मरण करके उनका गुणगान करने लगीं और लाज छोड़कर फूट-फूटकर रोने लगीं।

    काचिन्मधुकरं हृष्ठा ध्यायन्ती कृष्णसड्रमम्‌ ।

    प्रियप्रस्थापितं दूत॑ं कल्पयित्वेदमब्रवीत्‌ ॥

    ११॥

    काचित्‌--कोई ( एक गोपी ); मधु-करम्‌-- भौरे को; हृष्ठा--देखकर; ध्यायन्ती--ध्यान में मग्न; कृष्ण-सड्रमम्‌--कृष्ण केसाथ अपने सान्रिध्य के विषय में; प्रिय--अपने प्रिय द्वारा; प्रस्थापितम्‌-- भेजे गये; दूतम्‌--दूत को; कल्पयित्वा--कल्पनाकरते हुए; इदम्‌--यह; अब्रवीत्‌--बोली

    कोई एक गोपी जब कृष्ण के साथ अपने पूर्व सान्निध्य का ध्यान कर रही थी, तो उसनेअपने सामने एक भौंरा देखा और उसे लगा कि यह उसके प्रियतम द्वारा भेजा गया कोई दूत है।

    अतः वह इस प्रकार बोली।

    गोप्युवाचमधुप कितवबन्धो मा स्पृशडिंघ्रि सपत्या:'कुचविलुलितमालाकुड्डू मश्म श्रुभिर्न: ।

    बहतु मधुपतिस्तन्मानिनीनां प्रसादयदुसदसि विडम्ब्यं यस्य दूतस्त्वमीहक्‌ ॥

    १२॥

    गोपी उवाच--गोपी ने कहा; मधुप--हे भौरे; कितव--ठग के; बन्धो--हे मित्र; मा स्पृश--मत छूना; अद्धप्रिमू--पाँवों को;सपत्या:--हमारी प्रतियोगिनी प्रेमिका का; कुच--स्तन; विलुलित--गिरी हुईं; माला--माला से; कुट्डु म--लाल रंग काअंगराग; एम श्रुभि: --मूछों से; न:--हमारे; वहतु--लाने दो; मधु-पति:--मधुवंश के स्वामी; तत्‌--उसका; मानिनीनाम्‌--स्त्रियों के लिए; प्रसादम्‌ू--कृपा या दया; यदु-सदसि--यदुओं की राजसभा में; विडम्ब्यम्‌ू--उपहास का पात्र; यस्य--जिसका;दूतः--दूत; त्वमू--तुम; ईहक्‌--ऐसा

    गोपी ने कहा : हे भौरे, हे छलिये के मित्र, अपनी उन मूछों से मेरे पाँवों को मत छूना जो उसकुंकुम से लेपित हैं, जो कृष्ण की माला में तब लग जाता था जब वह मेरी सौत के स्तनों द्वारामर्दित होती थी।

    कृष्ण अब मथुरा की स्त्रियों को तुष्ट करें।

    जो व्यक्ति तुम जैसे दूत को भेजेगा वह यदुओं की सभा में निश्चित रूप से उपहास का पात्र बनेगा।

    सकृदधरसुधां स्वां मोहिनीं पाययित्वासुमनस इबव सद्यस्तत्यजेस्मान्भवाहक्‌ ॥

    'परिचरति कथं तत्पादपद्ां नु पद्माहापि बत हतचेता ह्युत्तम:ःशलोकजल्पै: ॥

    १३॥

    सकृत्‌--एक बार; अधर--होठों का; सुधाम्‌-- अमृत; स्वाम्‌-- अपने; मोहिनीम्‌--मोहते हुए; पाययित्वा--पिलाकर;सुमनसः--फूल; इब--सहश; सद्यः--एकाएक; तत्यजे--परित्याग कर दिया; अस्मान्‌ू--हमको; भवाहक्‌ --तुम्हारी तरह;'परिचरति--सेवा करता है; कथम्‌--क्‍्यों; तत्‌--उसका; पद-पद्ममू--चरणकमल; नु--मुझे आश्चर्य होता है; पद्मा--लक्ष्मी; हिअपि--निस्सन्देह, क्योंकि; बत--हाय; हृत--चुराया गया; चेता:--उसका मन; हि--निश्चय ही; उत्तम:-शलोक--कृष्ण के;जल्पै:--झूठे बचनों से

    केवल एक बार अपने होठों का मोहक अमृत पिलाकर कृष्ण ने सहसा उसी तरह हमारापरित्याग कर दिया है, जिस तरह तुम किसी फूल को तुरन्त छोड़ देते हो।

    तो फिर यह कैसे सम्भव है कि देवी पद्मा स्वेच्छा से उनके चरणकमलों की सेवा करती हैं? हाय! इसका उत्तरयही हो सकता है कि उनका चित्त उनके छलपूर्ण शब्दों द्वारा चुरा लिया गया है।

    किमिह बहु षडड्श्ने गायसि त्वं यदूना-मधिपतिमगृहाणामग्रतो नः पुराणम्‌ ।

    विजयसखसखानां गीयतां तत्प्रसड़:क्षपितकुचरुजस्ते कल्पयन्तीष्टमिष्टा: ॥

    १४॥

    किम्‌-क्यों; इह--यहाँ; बहु-- अधिक; षट्‌-अड्घ्रे--हे घटपद; गायसि--गा रहे हो; त्वमू--तुम; यदूनाम्‌ू--यदुओं के;अधिपतिम्‌--स्वामी के विषय में; अगृहाणाम्‌--बिना घर-बार वाले; अग्रतः--समक्ष; न:--हमारे; पुराणम्‌-- पुरानी; विजय--अर्जुन के; सख--मित्र का; सखीनाम्‌--मित्रों के लिए; गीयताम्‌--गाया जाना चाहिए; तत्‌--उसकी; प्रसड्र:--कथाएँ;क्षपित--दूर हुई; कुच--जिनके स्तनों की; रुज:--पीड़ा; ते--वे; कल्पयन्ति--प्रदान करेंगी; इष्टम्‌ू--मनवांछित दान; इष्टा: --अपनी प्रियाओं को

    हे भौरे, तुम घर-बार से रहित हम लोगों के समक्ष यदुओं के स्वामी के विषय में इतनाअधिक क्‍यों गाये जा रहे हो? ये कथाएँ हमारे लिए अब पुरानी हो चुकी हैं।

    अच्छा हो कि तुमअर्जुन के उस मित्र के विषय में उसकी उन नई सखियों के समक्ष जाकर गाओ जिनके स्तनों कीदाहक इच्छा( कामेच्छा ) को उसने शान्त कर दिया है।

    वे स्त्रियाँ अवश्य ही तुम्हें मनवांछितभिक्षा-दान देंगी।

    दिवि भुवि च रसायां काः स्त्रियस्तहुरापा:कपटरुचिरहासभ्रूविजूम्भस्य या: स्युः ।

    चरणरज उपास्ते यस्य भूतिर्वयं काअपि च कृपणपक्षे ह्युत्तम:ःशलोकशब्द: ॥

    १५॥

    दिवि--स्वर्ग में; भुवि--पृथ्वी में; च--तथा; रसायाम्‌ू--तथा रसातल में; का:--क्या; स्त्रियः--स्त्रियाँ; तत्‌ू--उसके द्वारा;दुरापा:--अप्राप्प; कपट--छल; रुचिर-- आकर्षक; हास--हँसी से युक्त; भ्रू-- भौंहें; विजृम्भस्य--टेढ़ी; या:-- जो; स्यु:--बन जाती हैं; चरण--पैरों की; रज:--धूल; उपास्ते--पूजा करती है; यस्थ--जिसकी; भूतिः--लक्ष्मी, नारायण-पत्ली;वयम्‌--हम; का--कौन; अपि च--फिर भी; कृपण-पक्षे--बेचारे दीनों के लिए; हि--निस्सन्देह; उत्तमः-शलोक-- भगवान्‌जिनका गुणगान उत्तम स्तुतियों द्वारा किया जाता है; शब्द:--नाम |

    उन्हें स्वर्ग, पृथ्वी या पाताल में कौन-सी स्त्रियाँ अनुपलब्ध हैं ? वे केवल अपनी भौंहों कोतिरकी करके छलपूर्ण आकर्षण से हँसते हैं, तो वे सब उनकी हो जाती हैं।

    लक्ष्मीजी तक उनकेचरण-रज की पूजा करती हैं, तो उनकी तुलना में हमारी क्या बिसात है? किन्तु जो दीन-दुखियारी हैं, वे कम से कम उनका उत्तमएलोक नाम तो ले ही सकती हैं! विसृज शिरसि पादं वेद्म्यहं चातुकारै-रनुनयविदुषस्ते भ्येत्य दौत्यर्मुकुन्दात्‌ ।

    स्वकृत इह विषुृष्टापत्यपत्यन्यलोकाव्यसृजदकृतचेता: कि नु सन्धेयमस्मिन्‌ ॥

    १६॥

    विसृज--जाने दें; शिरसि--तुम्हारे सिर पर; पादम्‌--मेरा पाँव; वेदि--जानती हूँ; अहम्‌--मैं; चाठु-कारैः--चापलूसी भरेशब्दों से; अनुननय--समझौता करने की कला में; विदुष: -- प्रवीण; ते--तुम्हारा; अभ्येत्य--जानकर; दौत्यैः--दूत की तरहकार्य करके; मुकुन्दात्‌--कृष्ण से; स्व--उनके अपने; कृते--लिए, हेतु; इहह--इस जीवन में; विसृष्ट--परित्यक्त; अपत्य--बच्चे; पती--पति; अन्य-लोकाः --अन्य सारे लोग; व्यसृजत्‌--उसने छोड़ दिया है; अकृत-चेता:--कृतघ्न; किम्‌ नु--क्योंकि;सन्धेयम्‌--क्या मैं समझौता कर लूँ; अस्मिन्‌--उससे |

    तुम अपने सिर को मेरे पैरों से दूर ही रखो।

    मुझे पता है कि तुम क्या कर रहे हो।

    तुमने बहुतही दक्षतापूर्वक मुकुन्द से कूटनीति सीखी है और अब चापलूसी भरे शब्द लेकर उनके दूतबनकर आये हो।

    किन्तु उन्होंने तो उन बेचारियों को ही छोड़ दिया है जिन्होंने उनके लिए अपनेबच्चों, पतियों तथा अन्य सम्बन्धियों का परित्याग किया है।

    वे निपट कृतघ्न हैं।

    तो मैं अब उनसे समझौता क्‍यों करूँ ?

    मृगयुरिव कपीन्द्रं विव्यधे लुब्धधर्मास्त्रियमकृत विरूपां स्त्रीजित: कामयानाम्‌ ।

    बलिमपि बलिम््त्वावेष्टयद्ध्वाइ्ज्षवद्य-स्तदलमसितसख्यर्दुस्त्यजस्तत्कथार्थ: ॥

    १७॥

    मृगयु:--शिकारी; इब--सहश; कपि--बन्दरों के; इन्द्रमू--राजा; विव्यधे--बींध दिया; लुब्ध-धर्मा--क्रूर शिकारी जैसाआचरण करते हुए; स्त्रियम्‌--स्त्री ( शूर्पणखा ) को; अकृत--बना दिया; विरूपाम्‌--विकृत; स्त्री --स्त्री ( सीता देवी ) द्वारा;जितः--जीता गया; कामयानामू्‌--कामेच्छा से प्रेरित; बलिम्‌--राजा बलि को; अपि-- भी; बलिमू--उसका सम्मान, भाग;अत्त्वा--खाकर; अवेष्टयत्‌--बाँध लिया; ध्वाइज्लवत्‌--कौवे की तरह; यः--जो; तत्‌--इसलिए; अलमू--जाने भी दो;असित--श्याम कृष्ण से; सख्यै:--सभी प्रकार की मित्रता से; दुस्त्यज:--छोड़ पाना असम्भव; तत्‌--उसके विषय में; कथा--कथा का; अर्थ:--विस्तार।

    शिकारी की तरह उन्होंने कपिराज को बाणों से निर्दयतापूर्वक बींध दिया।

    चूँकि वे एक स्त्रीद्वारा जीते जा चुके थे इसलिए उन्होंने एक दूसरी स्त्री को, जो उनके पास कामेच्छा से आईं थीकुरूप कर दिया।

    यही नहीं, बलि महाराज की बलि खाकर भी उन्होंने उन्हें रस्सियों से बाँधदिया मानो वे कोई कौवा हों।

    अतः हमें इस श्यामवर्ण वाले लड़के से सारी मित्रता छोड़ देनीचाहिए भले ही हम उसके विषय में बातें करना बन्द न कर पायें।

    यदनुचरितलीलाकर्णपीयूषविप्रुट्‌-सकृददनविधूतद्वन्द्धर्मा विनष्टा: ।

    सपदि गृहकुटुम्बं दीनमुत्सूज्य दीनाबहव इह विहड्जा भिक्षुचर्या चरन्ति ॥

    १८॥

    यत्‌--जिसके; अनुचरित--निरन्तर किये गये कार्य; लीला--ऐसी लीलाओं के ; कर्ण--कानों के लिए; पीयूष-- अमृत की;विप्रुटू--एक बूँद का; सकृत्‌ू--केवल एक बार; अदन--पान; विधूत--पूर्णतया विलग; द्वन्द्द--द्वैत का; धर्मा:--उनकीरुचियाँ; विनष्टा:--नष्ट- भ्रष्ट; सपदि--तुरन्‍्त; गृह-- अपने घर; कुटुम्बम्‌--तथा परिवार को; दीनम्‌--बेचारी; उत्सूज्य--त्यागकर; दीना:--स्वयं दीन बनकर; बहव:--अनेक व्यक्ति; उहह--यहाँ ( वृन्दावन में ); विहड्जाः--पक्षियों ( की तरह ); भिक्षु--भीख माँगने की; चर्यामू--आजीविका; चरन्ति--अपनाते हैं ।

    कृष्ण द्वारा नियमित रूप से की जाने वाली लीलाओं के विषय में सुनना कानों के लिएअमृत के समान है।

    जो लोग इस अमृत की एक बूँद का एक बार भी आस्वादन करते हैं, उनकीभौतिक द्वैत के प्रति अनुरक्ति विनष्ट हो जाती है।

    ऐसे अनेक लोगों ने एकाएक अपने भाग्यहीनघरों तथा परिवारों को त्याग दिया है और वे स्वयं दीन बनकर पक्षियों की तरह इधर-उधर घूमते-फिरते हुए जीवन-निर्वाह के लिए भीख माँग-माँग कर वृन्दावन आये हैं।

    वयमृतमिव जिह्ाव्याहतं अ्रहधाना:कुलिकरुतमिवाज्ञा: कृष्णवध्वो हरिण्य: ।

    ददृशुरसकृदेतत्तन्नखस्पर्शतीब्र-स्मररुज उपमन्त्रिन्भण्यतामन्यवार्ता ॥

    १९॥

    वयम्‌--हम; ऋतम्‌--सच्ची; इव--सहृश; जिहा-- धोखेबाज, छलिया; व्याहतम्‌--उसकी वाणी; श्रद्दधाना:--विश्वास करके;कुलिक--शिकारी; रुतमू--गीत; इब--मानो; अज्ञा:--मूर्ख; कृष्ण--काले हिरन की; वध्व:--पत्नियाँ; हरिण्य:--हिरनी;दहशु:--अनु भव किया; असकृत्‌--बारम्बार; एतत्‌--यह; तत्‌--उसका; नख--नाखुनों के; स्पर्श--स्पर्श से; तीव्र--तेज;स्मर--कामदेव की; रुज:--वेदना; उपमन्धत्रिनू--हे दूत; भण्यताम्‌--बोलो; अन्य--दूसरी; वार्ता--कथा, बात |

    उनके छलपूर्ण शब्दों को सच मानकर हम उस काले हिरन की मूर्ख पत्नियों के समान बनगईं जो निष्ठर शिकारी के गीत में भरोसा कर बैठती हैं।

    इस तरह हम उनके नाखुनों के स्पर्श सेउत्पन्न काम की तीव्र पीड़ा का बारम्बार अनुभव करती रहीं।

    हे दूत, अब कृष्ण के अतिरिक्तअन्य कोई बात कहो।

    प्रियसख पुनरागा: प्रेयसा प्रेषित: किवरय किमनुरुन्धे माननीयोउसि मेउड्र ।

    नयसि कथमिहास्मान्दुस्त्यजद्व न्धपा श्रसततमुरसि सौम्य श्रीर्वधू: साकमास्ते ॥

    २०॥

    प्रिय--मेरे प्यारे; सख--हे मित्र; पुनः--एक बार फिर; आगा: --आये हो; प्रेयसा--मेरे प्रेमी; प्रेषित:-- भेजा गया; किम्‌--क्या; वरय--चुन लो; किम्‌--क्या; अनुरुन्धे --जो चाहो; माननीय: --सम्मान के योग्य; असि--हो; मे--मेरे द्वारा; अड़--हेप्रिय; नयसि--लाये हो; कथम्‌--क्यों; इह--यहाँ; अस्मान्‌ू--हमको; दुस्त्यज--छोड़ पाना मुश्किल; द्वन्द्द--जिसके साथमाधुर्य सम्बन्ध हो; पार्श्रमू--बगल में; सततम्‌--निरन्तर; उरसि--वश्षस्थल पर; सौम्य--हे भद्ग; श्री:--लक्ष्मीजी; वधू:--उनकीप्रेयसी; साकम्‌--उनके साथ; आस्ते--उपस्थित है

    हे मेरे प्रियतम के मित्र, क्या मेरे प्रेमी ने फिर से तुम्हें यहाँ भेजा है? हे मित्र, मुझे तुम्हारासम्मान करना चाहिए, अतः जो चाहो वर माँग सकते हो।

    किन्तु तुम हमें उसके पास फिर से लेजाने के लिए यहाँ क्‍यों आये हो जिसके मधुर प्रेम को छोड़ पाना इतना कठिन है? कुछ भी हो,है भद्र भौरे, उनकी प्रेयसी तो लक्ष्मीजी हैं और वे उनके साथ सदैव ही उनके वशक्षस्थल परविराजमान रहती हैं।

    अपि बत मधुपुर्यामार्यपुत्रो धु नास्तेस्मरति स पितृगेहान्सौम्य बन्धूंश्र गोपान्‌ ।

    क्वचिदपि स कथा नः किड्डूरीणां गृणीतेभुजमगुरुसुगन्धं मूर्ध््यधास्यत्कदा नु ॥

    २१॥

    अपि--निश्चय ही; बत--खेद है; मधु-पुर्याम्‌--मथुरा नगरी में; आर्य-पुत्र:--नन्‍्द महाराज का पुत्र; अधुना--इस समय;आस्ते--रहता है; स्मरति--स्मरण करता है; सः--वह; पितृ-गेहान्‌-- अपने पिता के घरेलू काम-काज को; सौम्य--हे महात्मा( उद्धव ); बन्धून्‌ू-- अपने मित्रगण को; च--तथा; गोपान्‌ू--ग्वालबालों को; क्वचित्‌--कभी कभी; अपि--अथवा; सः--वह; कथा:--बातें; नः--हम; किड्डूरीणाम्‌-दासियों की; गृणीते--कहकर सुनाता है; भुजम्‌--हाथ; अगुरु-सु-गन्धम्‌--अगुरु की सुगंध वाला; मूर्ध्वि--सिर पर; अधास्यत्‌--रखेगा; कदा--कब; नु--हो सकता है।

    हे उद्धव, दरअसल यह बहुत ही खेदजनक है कि कृष्ण मथुरा में वास करते हैं।

    कया वेअपने पिता के गृहकार्यों तथा अपने ग्वालबाल मित्रों की याद करते हैं? हे महात्मा, क्या वे कभीअपनी इन दासियों की भी बातें चलाते हैं? वे कब अपने अगुरु-सुगन्धित हाथ को हमारे सिरोंपर रखेंगे ?

    श्रीशुक उबाचअथोद्धवो निशम्यैवं कृष्णदर्शनलालसा: ।

    सान्त्वयन्प्रियसन्देशैगोपीरिदमभाषत ॥

    २२॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; अथ--तब; उद्धव: --उद्धव ने; निशम्य--सुनकर; एवम्‌--इस प्रकार; कृष्ण-दर्शन--कृष्ण को देखने के पश्चात; लालसा:--लालायित; सान्त्वयन्‌ू-ढाढ़स बँधाते हुए; प्रिय--उनके प्रेमी के; सन्देशै:--संदेशों से; गोपी:--गोपियों से; इदम्‌--यह; अभाषत--उसने कहा।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : यह सुनकर उद्धव ने गोपियों को ढाढ़स बँधाने का प्रयास कियाजो कृष्ण का दर्शन पाने के लिए अत्यन्त लालायित थीं।

    इस तरह वे उनके प्रेमी का सन्देश उनसेबताने लगे।

    श्रीउद्धव उवाचअहो यूय॑ सम पूर्णार्था भवत्यो लोकपूजिता: ।

    वबासुदेवे भगवति यासामित्यर्पितं मन: ॥

    २३॥

    श्री-उद्धव: उवाच-- श्री उद्धव ने कहा; अहो--निस्सन्देह; यूयम्‌--तुम सभी; स्म--निश्चय ही; पूर्ण--पूरे हो चुके; अर्था:--प्रयोजन; भवत्य:--तुम लोग; लोक--सभी लोगों द्वारा; पूजिता: --पूजित; वासुदेवे भगवति-- भगवान्‌ वासुदेव कृष्ण में;यासाम्‌--जिनका; इति--इस प्रकार से; अर्पितम्‌--अर्पित किया हुआ; मन:--मन |

    श्री उद्धव ने कहा : निश्चय ही तुम सारी गोपियाँ सभी प्रकार से सफल हो और विश्व-भर मेंपूजित हो क्योंकि तुमने इस तरह से भगवान्‌ वासुदेव में अपने मन को समर्पित कर रखा है।

    दानव्रततपोहोम जपस्वाध्यायसंयमै: ।

    श्रेयोभिर्विविधैश्ान्यै: कृष्णे भक्तिहिं साध्यते ॥

    २४॥

    दान--दान; ब्रत--कठिन ब्रत; तपः--तपस्या; होम-- अग्नि यज्ञ; जप--मंत्रों का गुप्त उच्चारण; स्वाध्याय--वैदिक ग्रंथों काअध्ययन; संयमैः--तथा विधि-विधानों से; श्रेयोभि:--शुभ साधनों द्वारा; विविधै:--विविध; च-- भी; अन्यैः--अन्य;कृष्णे--कृष्ण के प्रति; भक्तिः--भक्ति; हि--निस्सन्देह; साध्यते--सम्पन्न की जाती है।

    दान, कठिन ब्रत, तपस्या, अग्नि यज्ञ, जप, वैदिक ग्रंथों का अध्ययन, विधि-विधानों कापालन तथा अन्य अनेक शुभ साधनों द्वारा भगवान्‌ कृष्ण की भक्ति प्राप्त की जाती है।

    भगवत्युत्तम:श्लोके भवतीभिरनुत्तमा ।

    भक्ति: प्रवर्तिता दिष्टया मुनीनामपि दुर्लभा ॥

    २५॥

    भगवति-- भगवान्‌ में; उत्तम:-श्लोके --उत्तम काव्य द्वारा जिनका यशोगान किया जाये; भवतीभि: --अपने द्वारा; अनुत्तमा --अद्वितीय; भक्ति:--भक्ति; प्रवर्तीता--स्थापित; दिष्टघ्या--( बधाई है तुम्हारे ) सौभाग्य की; मुनीनाम्‌--बड़े बड़े मुनियों के लिए;अपि-भी; दुर्लभा--प्राप्त करना कठिन।

    अपने सौभाग्य से तुम सबों ने भगवान्‌ उत्तमश्लोक के प्रति शुद्ध-भक्ति का अद्वितीयमानदण्ड स्थापित किया है--यह मानदण्ड ऐसा है, जिसे मुनि भी कठिनाई से प्राप्त कर सकतेहैं।

    दिष्टद्या पुत्रान्पतीन्देहान्स्वजनान्भवनानि च ।

    हित्वावृनीत यूयं यत्कृष्णाख्यं पुरुषं परम्‌ ॥

    २६॥

    दिष्टयया--सौभाग्य से; पुत्रान्‌--पुत्रों को; पतीन्‌ू--पतियों को; देहानू--शरीरों को; स्व-जनान्‌--सम्बन्धियों को; भवनानि-घरोंको; च--तथा; हित्वा--छोड़कर; अवृणीत--चुना; यूयम्‌--तुम सबों ने; यत्‌--यह तथ्य कि; कृष्ण-आख्यम्‌--कृष्ण नामक;पुरुषम्‌--पुरुष को; परमू--परम।

    सौभाग्य से तुम लोगों ने अपने पुत्रों, पतियों, शारीरिक सुविधाओं, सम्बन्धियों तथा घरों कापरित्याग उस परम पुरुष के लिए किया है, जो कृष्ण नाम से जाना जाता है।

    सर्वात्मभावोधिकृतो भवतीनामधोक्षजे ।

    विरहेण महाभागा महान्मेनुग्रहः कृत: ॥

    २७॥

    सर्व-आत्म--सर्वतो भावेन; भाव: --प्रेम; अधिकृत:--अधिकार प्राप्त; भवतीनाम्‌--आपके द्वारा; अधोक्षजे--दिव्य स्वामी केलिए; विरहेण--विरह भाव से; महा-भागा:--हे अत्यन्त भाग्यशालिनी; महान्‌ू--महान्‌; मे--मुझको; अनुग्रह:--दया; कृत: --की गई।

    हे परम भाग्यशालिनी गोपियो, तुम लोगों ने दिव्य स्वामी के लिए अनन्य प्रेम का अधिकारठीक ही प्राप्त किया है।

    निस्सन्देह, कृष्ण के विरह में उनके प्रति अपना प्रेम प्रदर्शित करके तुमलोगों ने मुझ पर महती कृपा दिखलाई है।

    श्रूयतां प्रियसन्देशों भवतीनां सुखावहः ।

    यमादायागतो भद्गा अहं भर्तू रहस्करः ॥

    २८॥

    श्रूयताम्‌--कृपया सुनें; प्रिय-- अपने प्रेमी का; सन्देश:--सन्देश; भवतीनाम्‌ू--तुम लोगों के लिए; सुख--सुख; आवह:--लाकर; यम्‌ू--जो; आदाय--ढोकर; आगत:--आया हूँ; भद्गा:--उत्तम स्त्रियो; अहम्‌--मैं; भर्तु:--मेरे स्वामी का; रह: --गुहाकार्यो का; करः--करने वाला।

    हे भद्र-देवियो, अब तुम सब अपने प्रेमी का सन्देश सुनो जिसे अपने स्वामी का विश्वसनीयदास होने से मैं तुम लोगों के पास लेकर आया हूँ।

    श्रीभगवानुवाचभवतीनां वियोगो मे न हि सर्वात्मना क्वचित्‌ ।

    यथा भूतानि भूतेषु खं वाय्वग्निर्जलं मही ।

    तथाहं च मनःप्राणभूतेन्द्रियगुणा अ्रयः ॥

    २९॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; भवतीनाम्‌--तुम स्त्रियों का; वियोग:--विरह; मे--मुझसे; न--नहीं; हि--निस्सन्देह;सर्व-आत्मना--सारे जीवों की आत्मा से; क्वचित्‌--क भी; यथा--जिस तरह; भूतानि-- भौतिक तत्त्व; भूतेषु--सारे सृजितप्राणियों में; खम्‌-- आकाश; वायु-अग्नि:--वायु तथा अग्नि; जलम्‌--जल; मही--पृथ्वी; तथा--अत:; अहम्‌--मैं; च--तथा; मनः--मन; प्राण-- प्राण-वायु; भूत-- भौतिक तत्त्व; इन्द्रिय--शारीरिक इन्द्रियाँ; गुण--तथा प्रकृति के आदि गुण के;आश्रय:--आश्रय के रूप में उपस्थित |

    भगवान्‌ ने कहा है, 'तुम वास्तव में कभी भी मुझसे विलग नहीं हो क्योंकि मैं सारी सृष्टिका आत्मा हूँ।

    जिस तरह प्रकृति के तत्त्व--आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी--प्रत्येकसृजित वस्तु में उपस्थित रहते हैं उसी तरह मैं हर एक के मन, प्राण तथा इन्द्रियों में और भौतिकतत्त्वों के भीतर तथा प्रकृति के गुणों में उपस्थित रहता हूँ।

    आत्मन्येवात्मनात्मानं सूजे हन्म्यनुपालये ।

    आत्ममायानुभावेन भूतेन्द्रियगुणात्मना ॥

    ३०॥

    आत्मनि--अपने में; एब--निस्सन्देह; आत्मना--अपने से; आत्मानम्‌--स्वयं; सृजे--उत्पन्न करता हूँ; हन्मि--नष्ट करता हूँ;अनुपालये--पालनपोषण करता हूँ; आत्म--निजी; माया--योग शक्ति के; अनुभावेन--बल से; भूत-- भौतिक तत्त्व;इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; गुण--तथा गुण; आत्मना--से युक्त ।

    मैं ही अपनी निजी शक्ति के द्वारा भौतिक तत्त्वों, इन्द्रियों तथा प्रकृति के गुणों का सृजन करता हूँ, उन्हें बनाये रखता हूँ और फिर अपने भीतर समेट लेता हूँ।

    आत्मा ज्ञानमय: शुद्धो व्यतिरिक्तोडगुणान्वयः ।

    सुषुप्तिस्वण्नजाग्रद्धिर्मायावृत्तिभिरीयते ॥

    ३१॥

    आत्मा--आत्मा; ज्ञान-मय:ः--दिव्य ज्ञान से युक्त; शुद्धः --शुद्ध; व्यतिरिक्त:--पृथक्‌; अगुण-अन्वयः-- भौतिक गुणों केकर्मफलों से अलिप्त; सुषुप्ति--प्रगाढ़ निद्रा में; स्वप्न--सामान्य नींद; जाग्रद्धिः--तथा जागृत चेतना; माया--माया को;वृत्तिभिः--कार्यों से; ईयते-- अनुभव किया जाता है।

    शुद्ध चेतना या ज्ञान से युक्त होने से आत्मा प्रत्येक भौतिक वस्तु से पृथक्‌ है और प्रकृति केगुणों के पाश से अलिप्त है।

    आत्मा का अनुभव भौतिक प्रकृति के तीन कार्यो के माध्यम सेकिया जा सकता है--ये हैं जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुष्ति।

    येनेन्द्रियार्थान्ध्यायेत मृषा स्वप्नवदुत्थितः ।

    तन्निरुन्ध्यादिन्द्रियाणि विनिद्र: प्रत्यपद्यत ॥

    ३२॥

    येन--जिस ( मन ) से; इन्द्रिय--इन्द्रियों के; अर्थान्‌ू--विषयों पर; ध्यायेत-- ध्यान करता है; मृषा--झूठा; स्वप्न-वत्‌--सपनेकी तरह; उत्थित:--नींद से जगा; तत्‌--उस ( मन ); निरुन्ध्यात्‌ू--वश में करे; इन्द्रियाणि--इन्द्रियों को; विनिद्र:--सोता हुआनहीं ( सतर्क ); प्रत्यपद्यत--प्राप्त करते हैं।

    जिस तरह तुरन्त का जगा हुआ व्यक्ति स्वप्न के विषय में सोचता रह सकता है यद्यपि वहभ्रामक होता है उसी तरह मन के द्वारा मनुष्य इन्द्रियविषयों का ध्यान करता है जिन्हें बाद मेंइन्द्रियाँ प्राप्त कर सकती हैं।

    इसलिए मनुष्य को पूर्णतया सतर्क रहना चाहिए और मन को वश में लाना चाहिए।

    एतदन्तः समाम्नायो योग: साड्ख्यं मनीषिणाम्‌ ।

    त्यागस्तपो दमः सत्यं समुद्रान्ता इबापगा: ॥

    ३३॥

    एतत्‌--यह; अन्त:--निष्कर्ष रूप में; समाम्नाय: --सम्पूर्ण वैदिक वाड्मय; योग:--योग पद्धति; साइड्ख्यम्‌--सांख्य ध्यान कीविधि जिससे मनुष्य आत्मा तथा पदार्थ के अन्तर को जान सकता है; मनीषिणाम्‌--बुद्ध्रिमानों का; त्याग:--त्याग; तप: --तपस्या; दम:--इन्द्रिय संयम; सत्यमू--तथा ईमानदारी; समुद्र-अन्ता:--समुद्र में जाने वाली; इब--सहृश; आप-गा:ः--नदियाँ |

    बुद्धिमान अधिकारी जनों के अनुसार यही सारे वेदों तथा योगाभ्यास, सांख्य, त्याग,तपस्या, इन्द्रिय संयम तथा सचाई का चरम निष्कर्ष है, जिस तरह कि सारी नदियों का चरमगन्तव्य समुद्र है।

    यत्त्वहं भवतीनां वै दूरे वर्ते प्रियो दहशाम्‌ ।

    मनसः सन्निकर्षार्थ मदनुध्यानकाम्यया ॥

    ३४॥

    यत्‌--तथ्य यह है; तु--किन्तु; अहम्‌ू--मैं; भवतीनाम्‌--तुम सबों से; वै--निस्सन्देह; दूरे--बहुत दूर; वर्ते--स्थित हूँ; प्रियः--प्रिय; दहशाम्‌--आँखों के लिए; मनसः--मन का; सन्निकर्ष--आकर्षण; अर्थम्‌ू--के लिए; मत्‌--मुझ पर; अनुध्यान-- तुम्हारेध्यान के लिए; काम्यया--कामना करते हुए

    किन्तु जिस असली कारण से तुम सबों की आँखों की प्रिय वस्तुरुप, मैं, तुम लोगों से अतिदूर रह रहा हूँ, वह यह है कि मैं अपने प्रति तुम सबों के चिंतन को प्रगाढ़ करना चाहता था औरइस तरह तुम्हारे मनों को अपने अधिक निकट लाना चाहता था।

    यथा दूरच्रे प्रेष्ठि मन आविश्य वर्तते ।

    स्त्रीणां च न तथा चेतः सन्निकृष्टेउश्षिगोचरे ॥

    ३५॥

    यथा--जिस तरह; दूर-चरे--दूर स्थित होने पर; प्रेष्ठ--प्रेमी; मनः--मन; आविश्य--लीन होकर; वर्तते--रहता है; स्त्रीणाम्‌--स्त्रियों का; च--तथा; न--नहीं; तथा--अतः ; चेत:--उनके मन; सन्निकृष्ट--पास होने पर; अक्षि-गोचरे--उनकी आँखों केसामने मौजूद

    जब प्रेमी दूर होता है, तो स्त्री उसके विषय में अधिक सोचती है बजाय इसके कि जब वहउसके समक्ष उपस्थित होता है।

    मय्यावेश्य मनः कृत्स्नं विमुक्ताशेषवृत्ति यत्‌ ।

    अनुस्मरन्त्यो मां नित्यमचिरान्मामुपैष्यथ ॥

    ३६॥

    मयि--मुझमें; आवेश्य--लीन होकर; मन: --अपने मन; कृत्स्म्‌--सम्पूर्ण; विमुक्त--छोड़ने के बाद; अशेष--समस्त;वृत्ति--अपना ( भौतिक ) कार्य; यत्‌-- क्योंकि; अनुस्मरन्त्य: --स्मरण कर करके; माम्‌--मुझको; नित्यम्‌--निरन्तर;अचिरातू--शीघ्र ही; मामू--मुझको; उपैष्यथ--तुम प्राप्त करोगी |

    चूँकि तुम्हारे मन पूर्णतया मुझमें लीन रहते हैं और अन्य सारे कार्यो से मुक्त रहते हैं, तुमसदैव मेरा स्मरण करती हो और इसीलिए तुम लोग शीघ्र ही मुझे पुन: अपने सामने पा सकोगी।

    या मया क्रीडता रात्र्यां वनेउस्मिन्त्रज आस्थिता: ।

    अलब्धरासा: कल्याण्यो मापुर्मद्वीर्यचिन्तया ॥

    ३७॥

    या:--जो स्त्रियाँ; मया--मेरे साथ; क्रीडता--खेल रही थीं; रात््यामू--रात में; वने--जंगल में; अस्मिनू--इस; ब्रजे--त्रज केग्राम में; आस्थिता: --रह गईं; अलब्ध--अनुभव न करते हुए; रासा:--रास-नृत्य; कल्याण्य:-- भाग्यशाली; मा--मुझको;आपु:--उन्‍्होंने प्राप्त किया; मत्‌ू-बीर्य--मेरी शक्तिशाली लीलाओं पर; चिन्तया--एकाग्रता द्वारा |

    यद्यपि कुछ गोपियों को ग्वाल-ग्राम में ही रह जाना पड़ा था जिससे वे रात में जंगल मेंरचाये गये रास-नृत्य में मेरे साथ क्रीड़ा नहीं कर पाईं, तो भी वे परम भाग्यशालिनी थीं।

    दरअसल वे मेरी शक्तिशाली लीलाओं का ध्यान करके ही मुझे प्राप्त कर सकीं।

    श्रीशुक उबाचएवं प्रियतमादिष्टमाकर्ण्य ब्रजयोषितः ।

    ता ऊच्चुरुद्धवं प्रीतास्तत्सन्देशागतस्मृती: ॥

    ३८ ॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस तरह से; प्रिय-तम--अपने प्रेमी ( कृष्ण ) द्वारा दिये; आदिष्टम्‌--आदेशों को; आकर्णर्य--सुनकर; ब्रज-योषित:--व्रज की स्त्रियाँ; ताः--वे; ऊचु:--बोली; उद्धववम्‌--उद्धव से; प्रीत:--प्रसन्न;तत्‌--उस; सन्देश--सन्देश; आगत--वापस आयी हुईं; स्मृती: --स्मृतियाँ

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा: ब्रज की स्त्रियाँ अपने प्रियतम कृष्ण से यह सन्देशा सुनकरप्रसन्न हुईं।

    उनके शब्दों से उनकी स्मृतियाँ ताजी हो गईं अतः उन्होंने उद्धव से इस प्रकार कहा।

    गोप्य ऊचुःदिष्ट्याहितो हतः कंसो यदूनां सानुगोउघकृत्‌ ।

    दिष्टयाप्तैलब्धसर्वार्थें: कुशल्यास्तेच्युतोधुना ॥

    ३९॥

    गोप्य: ऊचुः--गोपियों ने कहा; दिष्टया--सौभाग्य से; अहित:--शत्रु; हतः--मारा जा चुका है; कंस:--राजा कंस; यदूनाम्‌--यदुओं का; स-अनुग:--अपने अनुयायियों सहित; अघ--कष्ट का; कृतू--कारण; दिष्टया--सौभाग्य से; आप्तैः:--अपनेशुभचिन्तकों सहित; लब्ध--प्राप्त हुए; सर्व--समस्त; अर्थ: --अपनी इच्छाओं से; कुशली--सुखपूर्वक; आस्ते--रह रहा है;अच्युत:ः--कृष्ण; अधुना--इस समय |

    गोपियों ने कहा : यह अच्छी बात है कि यदुओं का शत्रु एवं उन्हें सताने वाला कंस अबअपने अनुयायियों सहित मारा जा चुका है।

    और यह भी अच्छी बात है कि भगवान्‌ अच्युत अपनेशुभषी मित्रों तथा सम्बन्धियों के साथ सुखपूर्वक रह रहे हैं जिनकी हर इच्छा अब पूरी हो रही है।

    कच्चिद्गदाग्रज: सौम्य करोति पुरयोषिताम्‌ ।

    प्रीति नः स्निग्धसब्रीडहासोदारेक्षणार्चित: ॥

    ४० ॥

    'कच्चितू--शायद; गद-अग्रज:--गद के बड़े भाई, कृष्ण; सौम्य--हे भद्ग ( उद्धव ); करोति--दे रहा है; पुर--नगर की;योषिताम्‌--स्त्रियों का; प्रीतिम्‌--प्रेमपूर्ण सुख; नः--हमारा; स्निग्ध--वत्सल; स-ब्रीड--तथा लज्जालु; हास--हँसी से;उदार--उदार; ईक्षण--चितवनों से; अर्चित: --पूजित

    है भद्र उद्धव, क्‍या गद का बड़ा भाई नगर की स्त्रियों को वह आनन्द प्रदान कर रहा है, जोवास्तव में हमारा है? हम ऐसा समझती हैं कि वे स्त्रियाँ उदार चितवनों तथा प्यारी लजीलीमुसकानों से उनकी पूजा करती होंगी।

    कथं रतिविशेषज्ञ: प्रियश्च पुरयोषिताम्‌ ।

    नानुबध्येत तद्वाक्यर्विभ्रमैश्चानुभाजित: ॥

    ४१॥

    कथम्‌--कैसे; रति--माधुर्य व्यापार का; विशेष--विशेष रूप से; ज्ञ:--ज्ञाता; प्रियः--प्रिय; च--तथा; पुर-योषिताम्‌--नगरकी स्त्रियों का; न अनुबध्येत--बँधा नहीं होगा; तत्‌--उनके; वाक्यै:--शब्दों से; विभ्रमैः--मोह में डालने वाले संकेतों से;च--तथा; अनुभाजित: --निरन्तर पूजित |

    श्रीकृष्ण सभी प्रकार के माधुर्य व्यापार में दक्ष हैं और नगर की स्त्रियों के प्रिय हैं।

    चूँकिअब वे उनके मोहक शब्दों तथा इशारों से निरन्तर पूजित हैं, तो भला फिर वे उनके पाश मेंक्योंकर नहीं बँधेंगे ?तात्पर्य : श्रीधर स्वामी के अनुसार इनमें से प्रत्येक श्लोक भिन्न भिन्न गोपियों द्वारा कहा गया है।

    अपि स्मरति नः साधो गोविन्द: प्रस्तुते क्वचित्‌ ।

    गोष्टिमध्ये पुरस्त्रीणाम्ग्राम्या: स्वैरकथान्तरे ॥

    ४२॥

    अपि--यही नहीं; स्मरति--स्मरण करता है; नः--हमको; साधो--हे पवित्रात्मा; गोविन्द: --कृष्ण; प्रस्तुते--बातचीत केदौरान; क्वचित्‌--कभी; गोष्टि--सभा; मध्ये--में; पुर-स्त्रीणाम्‌--नगर की स्त्रियों के; ग्राम्या:--ग्रामीण बालिकाएँ; स्वैर--स्वतंत्र; कथा--बातचीत; अन्तरे--के दौरान।

    हे साधु-पुरुष, नगर की स्त्रियों से बातचीत के दौरान कया गोविन्द कभी हमारी याद करते हैं? क्‍या वे उनसे खुल कर वार्ता करते समय कभी हम ग्रामीण बालाओं का भी स्मरण करतेहैं?

    ताः कि निशा: स्मरति यासु तदा प्रियाभि-वृन्दावने कुमुदकुन्दशशाड्ूरम्ये ।

    रेमे क्वणच्चरणनूपुररासगोष्ठयाम्‌अस्माभिरीडितमनोज्ञकथः कदाचित्‌ ॥

    ४३॥

    ताः--वे; किम्‌--क्या; निशा:--रातें; स्मरति--स्मरण करता है; यासु--जिनमें ; तदा--तब; प्रियाभि:--अपनी प्रेयसियों केसाथ; वृन्दावने--वृन्दावन के जंगल में; कुमुद--कमलों; कुन्द--तथा चमेली के कारण; शशाद्भू--तथा चन्द्रमा के कारण;रम्ये--आकर्षक; रेमे--विहार या रमण किया; क्वणत्‌--बजते हुए; चरण-नूपुर--पाँव के घुूँघरू; रास-गोष्ठययाम्‌--रास-नृत्यकी गोष्ठी में; अस्माभिः--हमारे साथ; ईंडित-- प्रशंसित; मनोज्ञ--सुहावनी; कथ:--कथाएँ; कदाचित्‌ू--क भी ।

    क्या वे वृन्दावन के जंगल में उन रातों का स्मरण करते हैं, जो कमल, चमेली तथाप्रकाशमान चन्द्रमा से सुन्दर लगती थीं? जब हम उनकी मनमोहिनी लीलाओं का गुणगान करतींतो वे रास-नृत्य के घेरे में जो कि घुँघरुओं के संगीत से गुंजायमान होता था, हम प्रेयसियों केसाथ आनन्द विहार करते थे।

    अप्येष्यतीह दाशाईस्तप्ता: स्वकृतया शुच्ा ।

    सञ्जीवयच्नु नो गात्रैर्यथेन्द्रो वनमम्बुदे: ॥

    ४४॥

    अपि--क्या; एष्यति-- आयेगा; इह--यहाँ; दाशाई:--दशाईवंशी कृष्ण; तप्ता:--संतप्त; स्व-कृतया-- अपनी ही करनी से;शुचा--शोक से युक्त; सझ्ीवयन्‌ू--जीवनदान दिलाते हुए; नु--शायद; नः--हमको; गात्रै:--अपने अंगों के ( स्पर्श ) द्वारा;यथा--जिस तरह; इन्द्र: --इन्द्र; वनमू--जंगल को; अम्बुदैः--बादलों से

    क्या वह दाशाई वंशज यहाँ फिर से आयेगा और अपने अंगों के स्पर्श से उन सबों को फिरसे जिलायेगा जो अब उन्हीं के द्वारा उत्पन्न किए गए शोक से जल रहे हैं? कया वह हमें उसीप्रकार बचा लेगा जिस तरह भगवान्‌ इन्द्र जलधारी बादलों से जंगल को पुनः जीवनदान देते हैं ?

    कस्मात्कृष्ण इहायाति प्राप्तराज्यो हताहितः ।

    नरेन्द्रकन्या उद्घाह्म प्रीतः सर्वसुहृद्दृत: ॥

    ४५ ॥

    कस्मातू-क्यों; कृष्ण:--कृष्ण; इहह--यहाँ; आयाति--आयेगा; प्राप्त--पाकर; राज्य; --राज्य; हत--मारकर; अहित:ः--अपने शत्रुओं को; नर-इन्द्र--राजाओं की; कन्या: --पुत्रियों को; उद्दाह्मय--विवाह कर; प्रीत:--सुखी; सर्व--सभी; सुहृत्‌--शुभचिन्तकों से; वृतः--घिरा हुआ।

    भला राज्य जीत लेने, अपने शत्रुओं का वध कर लेने और राजाओं की पुत्रियों के साथविवाह कर लेने के बाद कृष्ण यहाँ क्‍यों आने लगे? वे वहाँ अपने सारे मित्रों तथा शुभचिन्तकोंसे घिरेरहकर प्रसन्न हैं।

    किमस्माभिर्वनौकोभिरन्याभिर्वा महात्मन: ।

    श्रीपतेराप्तकामस्य क्रियेतार्थ: कृतात्मनः ॥

    ४६॥

    किम्‌--क्या; अस्माभि: --हम सबों के साथ; वन--जंगल; ओकोभि:--जिनका आवास; अन्याभि:--अन्य स्त्रियों के साथ;वा--अथवा; महा-आत्मन:--महापुरुष ( कृष्ण ) के लिए; श्री-- लक्ष्मी के; पतेः--पति के लिए; आप्त-कामस्य--जिनकीइच्छाएँ पूरी हो चुकी हैं; क्रियेत--सेवा की जानी है; अर्थ:--प्रयोजन; कृत-आत्मन:--जो पूर्ण है उसके लिए

    महापुरुष कृष्ण लक्ष्मी के स्वामी हैं और वे जो भी चाहते हैं वह स्वतः पा लेते हैं।

    जब वेअपने में पहले से पूर्ण हैं, तो हम वनवासिनियाँ या अन्य स्त्रियाँ उनके प्रयोजन को कैसे पूरा करसकती हैं ?

    परं सौख्य॑ हि नैराशएयं स्वैरिण्यप्याह पिड़ला ।

    तज्जानतीनां नः कृष्णे तथाप्याशा दुरत्यया ॥

    ४७॥

    परमू--सर्वोच्च; सौख्यम्‌--सुख; हि--निस्सन्देह; नैराश्यम्‌ू-- अन्यमनस्कता; स्वैरिणी--व्यभिचारिणी; अपि--यद्यपि; आह--कहा; पिड्ुला--पिंगला नामक वेश्या; तत्‌--उस; जानतीनाम्‌--जानने वालों का; न:ः--हमारे लिए; कृष्णे--कृष्ण पर केन्द्रित;तथा अपि--फिर भी; आसा--आश्ा; दुरत्यया--पार करना असम्भव।

    दरअसल सर्वोच्च सुख तो समस्त इच्छाओं का परित्याग करने में है जैसा कि पिंगला नामकवेश्या तक ने भी कहा है।

    यह जानते हुए भी हम कृष्ण को पाने की अपनी आशाएँ नहीं छोड़सकतीं।

    क उत्सहेत सन्त्यक्तुमुत्तम:शलोकसंविदम्‌ ।

    अनिच्छतोपि यस्य श्रीरज्भान्न च्यवते क्वचित्‌ ॥

    ४८॥

    कः--कौन; उत्सहेत--सहन कर सकता है; सन्त्यक्तुमू--त्याग कर पाना; उत्तम:ःशलोक-- भगवान्‌ कृष्ण से; संविदम्‌-घनिष्टबातें; अनिच्छत: --न चाहते हुए; अपि-- भी; यस्य--जिसके ; श्री:--लक्ष्मीजी; अड्भत्‌--शरीर से; न च्यवते--विलग नहीं होनेदेते; क्वचित्‌ू--कभी

    भला भगवान्‌ कृष्ण से घुल-मिल कर बातें करने को छोड़ पाना कौन सहन कर सकता है ?यद्यपि वे श्रीदेवी में तनिक भी रुचि नहीं दर्शाते किन्तु वे उनके वक्षस्थल पर बने स्थान से कभीइधर-उधर नहीं होती।

    सरिच्छैलवनोद्देशा गावो वेणुरवा इमे ।

    सड्डर्षणसहायेन कृष्णेनाचरिता: प्रभो ॥

    ४९॥

    सरित्‌--नदियाँ; शैल--पर्वत; वन-उद्देशा:--जंगली क्षेत्र; गाव: --गौवें; वेणु-रवा:--वंशी की ध्वनि; इमे--ये सब;सड्डूर्षण--बलराम; सहायेन--जिनके साथी; कृष्णेन--कृष्ण द्वारा; आचरिता:--उपभोग की गईं; प्रभो--हे स्वामी ( उद्धव )॥

    हे उद्धव प्रभु, जब यहाँ कृष्ण बलराम के साथ थे तो वे इन सारी नदियों, पर्वतों, जंगलों,गौवों तथा वंशी की ध्वनियों का आनन्द लिया करते थे।

    पुनः पुनः स्मारयन्ति नन्दगोपसुतं बत ।

    श्रीनिकेतैस्तत्पदकैर्विस्मर्तु नैव शक्नुम: ॥

    ५०॥

    पुनः पुन:ः--बारम्बार; स्मारयन्ति--याद दिलाती हैं; नन्द-गोप-सुतम्‌-ग्वालों के राजा नन्द के पुत्र की; बत--निश्चय ही;श्री--दैवी; निकेतैः--चिह्लों से युक्त; तत्‌ू--उसका; पदकै:ः--चरण-चिह्नों के कारण; विस्मर्तुमू- भुलाने के लिए; न--नहीं;एव--निस्सन्देह; शक्‍्नुम:--हम सक्षम हैं।

    ये सब हमें नन्द के पुत्र की सदैव याद दिलाते हैं।

    निस्सन्देह चूँकि हम दैवी-चिन्हों सेअंकित कृष्ण के चरण-चिन्हों को देखती हैं अतः हम उन्हें कभी भी नहीं भुला सकतीं।

    गत्या ललितयोदारहासलीलावलोकनै: ।

    माध्व्या गिरा हतधिय: कथं तं विस्मराम हे ॥

    ५१॥

    गत्या--अपनी चाल से; ललितया--आकर्षक; उदार--उदार; हास--हँसी; लीला--क्रौड़ापूर्ण;, अवलोकनै:--चितवतनों से;माध्व्या--मधु जैसी; गिरा--वाणी से; हत--चुराये गये; धिय:--चित्त; कथम्‌--कैसे; तम्‌--उसको; विस्मराम--हम भूलसकती हैं; हे-हे ( उद्धव )

    हे उद्धव, हम उन्हें कैसे भुला सकती हैं जब उनकी मनोहर चाल, उनकी उदार हँसी, चपलचितवनों एवं मधुर शब्दों से हमारे चित्त चुराये जा चुके हैं ?

    हे नाथ हे रमानाथ ब्रजनाथार्तिनाशन ।

    मम्नमुद्धर गोविन्द गोकुलं वृजिनार्णवात्‌ ॥

    ५२॥

    है नाथ--हे स्वामी; हे रमा-नाथ--हे लक्ष्मीपति; वब्रज-नाथ--हे ब्रज के स्वामी; आर्ति--कष्ट के; नाशन--हे नष्ट करने वाले;मग्नमू--डूबी हुईं; उद्धर--उबारो; गोविन्द--हे गोविन्द; गोकुलम्‌ू--गोकुल को; वृजिन--दुख के; अर्णवात्‌--समुद्र से |

    हे नाथ, हे रमानाथ, हे ब्रजनाथ! हे समस्त कष्टों के विनाशक गोविन्द! कृपया अपने गोकुलको व्यथा के उस सागर से उबार लें, जिसमें वह डूबा जा रहा है।

    श्रीशुक उबाचततस्ताः कृष्णसन्देशैव्यपेतविरहज्वरा: ।

    उद्धवं पूजयां चक्रुर्ज्ात्वात्मानमधोक्षजम्‌ ॥

    ५३॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; ततः--तब; ताः--वे ; कृष्ण-सन्देशै:--कृष्ण के संदेशों से; व्यपेत--हटादिया; विरह--वियोग का; ज्वरा:--ज्वर; उद्धवम्‌--उद्धव को; पूजयाम्‌ चक्रु:--पूजा की; ज्ञात्वा--जान कर; आत्मानम्‌--अपने आपको; अधोक्षजम्‌--परमेश्वर के रूप में

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : कृष्ण के सन्देशों से विरह का ज्वर हट जाने पर गोपियों नेउद्धव को अपने प्रभु कृष्ण से अभिन्न जान कर, उनकी पूजा की।

    उवास कतिचिन्मासान्गोपीनां विनुदन्शुच्च: ।

    कृष्णलीलाकथां गायत्रमयामास गोकुलम्‌ ॥

    ५४॥

    उबास--रहते थे; कतिचित्‌--कुछ; मासान्‌--महीनों तक; गोपीनाम्‌--गोपियों के; विनुदन्‌--दूर करते हुए; शुचः --दुख;कृष्ण-लीला--कृष्ण लीलाओं की; कथाम्‌ू--कथाएँ; गायन्‌--गाते हुए; रमयाम्‌ आस--आनन्‍्द दिया; गोकुलमू--गोकुलको।

    उद्धव वहाँ पर कृष्ण की लीलाओं की कथाएँ कहकर गोपियों का दुख दूर करते हुए कईमहीनों तक रहे।

    इस तरह वे सभी गोकुलवासियों के लिए आनन्द ले आये।

    यावन्त्यहानि नन्दस्य ब्रजेवात्सीत्स उद्धव: ।

    ब्रजौकसां क्षणप्रायाण्यासन्कृष्णस्य वार्तया ॥

    ५५॥

    यावन्ति--जितने; अहानि--दिन; नन्दस्य--राजा नन्द के; ब्रजे--ब्रज में; अवात्सीत्‌--रहे; सः--वह; उद्धव:--उद्धव; ब्रज-ओकसामू--ब्रजवासियों को; क्षण-प्रायाणि--एक क्षण बीतने जैसे; आसनू-- थे; कृष्णस्य--कृष्ण की; वार्तया--वार्ताओं केकारण।

    उद्धव जितने दिनों तक नन्द के ब्रज ग्राम में रहे वे सारे दिन वब्रजवासियों को एक क्षण केतुल्य प्रतीत हुए क्योंकि उद्धव सदा कृष्ण की वार्ताएँ करते रहते थे।

    सरिद्वनगिरिद्रोणीर्वीक्षन्कुसुमितान्द्रमान्‌ ।

    कृष्णं संस्मारयन्रेमे हरिदासो बत्रजौकसाम्‌ ॥

    ५६॥

    सरित्‌--नदियाँ; वन--जंगल; गिरि--पर्वत; द्रोणी:--घाटियाँ; वीक्षन्‌--देखते हुए; कुसुमितानू--फूले हुए; द्रुमान्‌--वृश्षोंको; कृष्णम्‌--कृष्ण के विषय में; संस्मारयन्‌ू--याद दिलाते हुए; रेमे--आनन्द लिया; हरि-दास:--भगवान्‌ हरि के सेवक ने;ब्रज-ओकसाम्‌--ब्रजवासियों के लिए

    हरि के दास (उद्धव ) ने ब्रज की नदियों, जंगलों, पर्वतों, घाटियों तथा पुष्पित वृक्षों कोदेख देखकर और भगवान्‌ कृष्ण के विषय में स्मरण करा-कराकर वृन्दावनवासियों को प्रेरणा देने में आनन्द का अनुभव किया।

    इृष्टेवमादि गोपीनां कृष्णावेशात्मविक्लवम्‌ ।

    उद्धवः परमप्रीतस्ता नमस्यन्निदं जगौ ॥

    ५७॥

    इृष्टा--देखकर; एवम्‌--इस तरह; आदि--तथा अधिक; गोपीनाम्‌--गोपियों के; कृष्ण-आवेश --कृष्ण के विचारों में उनकीतललीनता; आत्म--से युक्त; विक्लवम्‌--मानसिक क्षोभ; उद्धव:--उद्धव ने; परम--परम; प्रीत:--प्रसन्न; ताः--उनको;नमस्यन्‌--नमस्कार करते हुए; इृदम्‌--यह; जगौ--गाया।

    इस तरह यह देखकर कि गोपियाँ किस तरह कृष्ण में पूर्णतया तल्‍लीन रहने से सदैवविश्लुब्ध रहती हैं, उद्धव अत्यधिक प्रसन्न थे।

    उन्हें नमस्कार करने की इच्छा से उन्होंने यह गीतगाया।

    एताः परं तनुभूतो भुवि गोपवध्वोगोविन्द एव निखिलात्मनि रूढभावा: ।

    वाउ्छन्ति यद्भवभियो मुनयो वय॑ं चकि ब्रह्मजन्मभिरनन्तकथारसस्य ॥

    ५८ ॥

    एताः--ये स्त्रियाँ; परमू--अकेले; तनु--अपने शरीर; भूतः--ठीक से पालती हैं; भुवि--पृथ्वी पर; गोप-वध्व: --ये युवतीगोपियाँ; गोविन्दे--गोविन्द में; एब--एकान्त रूप से; निखिल--सबों के; आत्मनि--आत्मा; रूढ-- पूर्ण; भावा:--प्रेमपूर्णआकर्षण; वाउ्छन्ति-- चाहती हैं; यत्‌--जो; भव-- भौतिक जगत; भिय:-- भयभीत; मुनयः-- मुनिगण; वयम्‌--हम; च--भी; किमू--क्या लाभ; ब्रह्म--ब्राह्मण के रूप में या ब्रह्मा के रूप में; जन्मभि:--जन्म लेने से; अनन्त--अनन्त भगवान्‌ की;कथा--कथा के; रसस्य--रसिक के लिए

    उद्धव ने गाया : पृथ्वी के समस्त व्यक्तियों में ये गोपियाँ ही वास्तव में अपने देहधारीजीवनों को सफल बना पाई हैं क्योंकि इन्होंने भगवान्‌ गोविन्द के लिए शुद्ध प्रेम की पूर्णताप्राप्त कर ली है।

    इस संसार से डरने वालों, बड़े-बड़े मुनियों तथा हम सबों को इनके शुद्ध प्रेमकी लालसा बनी रहती है।

    जिसने अनन्त भगवान्‌ की कथाओं का आस्वाद कर लिया है उसकेलिए उच्च ब्राह्मण के रूप में या साक्षात्‌ ब्रह्मा के रूप में भी जन्म लेने से क्या लाभ ?

    क्वेमा: स्त्रियो वनचरीव्यभिचारदुष्टा:कृष्णे क्व चैष परमात्मनि रूढभाव: ।

    नन्‍्वी श्वरो नु भजतो विदुषो पि साक्षा-च्छेयस्तनोत्यगदराज इवोपयुक्त: ॥

    ५९॥

    क्व--कहाँ तो; इमाः --ये ; स्त्रियः--स्त्रियाँ; वन--वनों में; चरी:--विचरण करने वाली; व्यभिचार-- अनुचित आचरण से;दुष्टाः--दूषित; कृष्णे--कृष्ण के लिए; क्‍्व च--और कहाँ; एष:--यह; परम-आत्मनि--परमात्मा में; रूढ-भाव:--पूर्ण-प्रेमकी अवस्था ( महाभाव ); ननु--निश्चय ही; ईश्वर: -- भगवान्‌; अनुभजत:--निरन्तर पूजा करने वाले के लिए; अविदुष:--विद्वान नहीं; अपि--यद्यपि; साक्षात्‌--साक्षात; श्रेयः--कल्याण; तनोति-- प्रदान करता है; अगद-- औषधियों का; राज:--राजा ( अमृत, जिसे देवता अमर होने के लिए पीते थे ); इब--मानो; उपयुक्त:--लिया हुआ।

    यह कितना आश्चर्यजनक है कि जंगल में विचरण करने वाली एवं अनुपयुक्त आचरण केकारण दूषित सी प्रतीत होने वाली इन सीधी-सादी स्त्रियों ने परमात्मा कृष्ण के लिए शुद्ध प्रेमकी पूर्णता प्राप्त कर ली है।

    तो भी यह सच है कि भगवान्‌ एक अज्ञानी पूजक को भी अपनाआशीर्वाद देते हैं जिस प्रकार कि अज्ञानी व्यक्ति द्वारा किसी उत्तम औषधि के अवयवों सेअनजान होते हुए पी लेने पर भी वह अपना प्रभाव दिखलाती है।

    नायं श्रियोउड् उ नितान्तरते: प्रसाद:स्वर्योषितां नलिनगन्धरुचां कुतोउन्या: ।

    रासोत्सवेस्यथ भुजदण्डगृहीतकण्ठ-लब्धाशिषां य उदगादब्रजवल्लभीनाम्‌ ॥

    ६०॥

    न--नहीं; अयम्‌--यह; थ्रिय:--लक्ष्मी का; अड्जे--वक्षस्थल पर; उ--हाय; नितान्त-रतेः --घनिष्टतापूर्वक सम्बन्धित;प्रसाद:--अनुग्रह; स्व:ः--स्वर्गलोक की; योषिताम्‌--स्त्रियों का; नलिन--कमल के फूल की; गन्ध--सुगन्ध वाला; रुचामू--तथा शारीरिक कान्ति; कुतः:--काफी कम; अन्या: --अन्य; रस-उत्सवे--रास-नृत्य के उत्सव में; अस्य-- भगवान्‌ कृष्ण की;भुज-दण्ड-- भुजाओं से; गृहीत--आलिंगित; कण्ठ--गले; लब्ध-आशिषाम्‌--ऐसा आशीर्वाद प्राप्त; यः--जो; उदगात्‌--प्रकट हुआ; ब्रज-वल्लभीनाम्‌--व्रजभूमि की दिव्य बालाओं का, सुन्दरी गोपियों का।

    जब श्रीकृष्ण रासलीला में गोपियों के साथ नाच रहे थे तो भगवान्‌ की भुजाएँ गोपियों काआलिंगन कर रही थीं।

    यह दिव्य अनुग्रह न तो कभी लक्ष्मीजी को प्राप्त हुआ न वैकुण्ठ कीललनाओं ( अंगनाओं ) को।

    निस्सन्देह कमल के फूल जैसी शारीरिक कान्ति तथा सुगंध से युक्तस्वर्गलोक की सबसे सुन्दर बालाओं ने भी कभी इस तरह की कल्पना तक नहीं की थी।

    तो फिर उन संसारी स्त्रियों के विषय में क्या कहा जाय जो भौतिक दृष्टि से अतीव सुन्दर हैं ?

    आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यांवृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम्‌ ।

    या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपर्थ च॒ हित्वाभेजुर्मुकुन्दपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्याम्‌ू ॥

    ६१॥

    आसमू--गोपियों की; अहो--ओह; चरण-रेणु--चरणकमलों की धूलि; जुषाम्‌--अनुरक्त; अहम्‌ स्याम्‌-मैं बनूँ; वृन्दावने--वृन्दावन में; किम्‌ अपि--कोई एक; गुल्म-लता-ओषधीनाम्‌--झाड़ियों, लताओं तथा वनौषधियों में से; या--जो; दुस्त्यजम्‌--छोड़ पाना अतीव कठिन; स्व-जनम्‌--पारिवारिक सदस्यों को; आर्य-पथम्‌--सतीत्व-मार्ग; च--तथा; हित्वा--त्यागकर;भेजु:--पूजा किया; मुकुन्द-पदवीम्‌--मुकुन्द या कृष्ण के चरणकमलों की; श्रुतिभि:--वेदों के द्वारा; विमृग्यामू--खोजे जानेके लिए

    वृन्दावन की गोपियों ने अपने पतियों, पुत्रों तथा अन्य परिवार वालों का साथ त्याग दिया हैजिनको त्याग पाना अतीव कठिन होता है।

    उन्होंने मुकुन्द कृष्ण के चरणकमलों की शरण पानेके लिए सतीत्व मार्ग का परित्याग कर दिया है, जिसे वैदिक ज्ञान द्वारा खोजा जाता है।

    ओह! मैंवृन्दावन की इन झाड़ियों, लताओं तथा जड़ी-बूटियों में से कोई एक भी होने का सौभाग्य प्राप्तकरूँ क्योंकि गोपियाँ उन्हें अपने चरणों से रौंदती हैं और अपने चरणकमलों की धूल से उन्हेंआशीर्वाद देती हैं।

    या वे श्रियार्चितमजादिभिराप्तकामै-येगिश्वरैरपि यदात्मनि रासगोष्ठय्याम्‌ ।

    कृष्णस्य तद्धगवतः चरणारविन्दंन्यस्तं स्तनेषु विजहुः परिरभ्य तापम्‌ ॥

    ६२॥

    याः--जो ( गोपियाँ ); बै--निस्सन्देह; श्रिया--लक्ष्मी द्वारा; अर्चितम्‌--पूजित; अज--अजन्मा ब्रह्मा; आदिभि:--तथा अन्यदेवताओं द्वारा; आप्त-कामैः --जिनकी समस्त इच्छाएँ पूर्ण हो चुकी हैं; योग-ई श्र:--योगशक्ति के स्वामियों द्वारा; अपि--यद्यपि; यत्‌--जो; आत्मनि--मन में; रास--रास-नृत्य की; गोष्ठय्याम्‌--गोष्टी में; कृष्णस्य--कृष्ण की; तत्‌--वे; भगवत: --भगवान्‌ के; चरण-अरविन्दमू--चरणकमलों को; न्यस्तम्‌--रखा हुआ; स्तनेषु--अपने स्तनों पर; विजहु:--उन्होंने त्याग दिया;परिरभ्य--आलिंगन करके; तापमू--अपनी जलन

    स्वयं लक्ष्मीजी तथा ब्रह्मा एवं अन्य सारे देवता जो योग सिद्धि के स्वामी हैं, भगवान्‌ कृष्णके चरणकमलों की पूजा अपने मन के भीतर ही कर सकते हैं।

    किन्तु रास-नृत्य के समय कृष्णने तो इन गोपियों के स्तनों पर अपने चरण रखे और गोपियों ने उन्हीं चरणों का आलिंगन करकेसारी व्यथाएँ त्याग दी।

    वबन्दे नन्दब्रजस्त्रीणां पादरेणुमभीक्ष्णश: ।

    यासां हरिकथोदगीतं पुनाति भुवनत्रयम्‌ ॥

    ६३॥

    वन्दे--मैं वन्दना करता हूँ; नन्द-ब्रज--ननन्‍्द महाराज के गोप-ग्राम को; स्त्रीणाम्‌--स्त्रियों के; पाद--चरणों की; रेणुम्‌ू-- धूलको; अभीक्ष्णश: --निरन्तर; यासाम्‌--जिनकी; हरि--कृष्ण की; कथा--कथा के विषय में; उद्गीतम्‌--जोर से उच्चारण करतेहुए; पुनाति--पवित्र करती है; भुवन-त्रयम्‌ू--तीनों लोकों कोमैं

    नन्द महाराज के गोप-ग्राम की स्त्रियों की चरण-रज की बारम्बार वन्दना करता हूँ।

    जबये गोपियाँ श्रीकृष्ण के यश का जोर जोर से कीर्तन करती हैं, तो वह ध्वनि तीनों लोकों कोपवित्र कर देती है।

    श्रीशुक उबाचअथ गोपीरनुज्ञाप्य यशोदां नन्दमेव च ।

    गोपानामन्त्य दाशाहों यास्यन्नारुकुहे रथम्‌ ॥

    ६४॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; अथ--तब; गोपी: --गोपियों की; अनुज्ञाप्प--अनुमति लेकर; यशोदाम्‌ू--मातायशोदा को; नन्दम्‌--राजा नन्‍्द को; एव च--भी; गोपान्‌ू--ग्वालों को; आमन््रय--विदा लेकर; दाशाई: --दशाईवंशी उद्धव;यास्यन्‌--जाने ही वाले; आरुरुहे --चढ़ गये; रथम्‌--अपने रथ में |

    शुकदेव गोस्वमी ने कहा : तत्पश्चात्‌ दशाहवंशी उद्धव ने गोपियों तथा माता यशोदा एवं नन्दमहाराज से विदा होने की अनुमति ली।

    उन्होंने सारे ग्वालों से विदा ली और प्रस्थान करने केलिए वे अपने रथ पर सवार हो गये।

    त॑ निर्गत॑ समासाद्य नानोपायनपाणय: ।

    नन्दादयो<नुरागेण प्रावोचन्नश्रुलोचना: ॥

    ६५॥

    तमू--उसको ( उद्धव को ); निर्गतम्‌ू--गया हुआ; समासाद्य--पास आकर; नाना--विविध; उपायन--पूजा की व्स्तुएँ;'पाणय:--अपने हाथों में ; नन्द-आदय:--नन्द तथा अन्य लोग; अनुरागेण--स्नेहपूर्वक; प्रावोचन्‌--बोले; अश्रु-- आँसुओंसहित; लोचना:--आँखें |

    जब उद्धव प्रस्थान करने वाले थे तो नन्द तथा अन्य लोग पूजा की विविध वस्तुएँ लेकरउनके पास पहुँचे।

    उन लोगों ने अश्रुपूरित नेत्रों से उन्हें इस प्रकार सम्बोधित किया।

    मनसो वृत्तयो नः स्युः कृष्ण पादाम्बुजाश्रया: ।

    वाचोभिधायिनीर्नाम्नां कायस्तत्प्रहणादिषु ॥

    ६६॥

    मनसः--मन के; वृत्तय:--कार्य; नः--हमारे; स्यु:--होयें; कृष्ण--कृष्ण के; पाद-अम्बुज--चरणकमलों की; आश्रया: --शरण लेकर; वाच: --हमारे शब्द; अभिधायिनी: --व्यक्त करते हुए; नाम्नामू--उनके नामों को; काय:--हमारे शरीर; तत्‌--उसके प्रति; प्रहण-आदिषु--नमस्कार इत्यादि में ( व्यस्त )

    नन्द तथा अन्य ग्वालों ने कहा : हमारे मानसिक कार्य सदैव कृष्ण के चरणकमलों कीशरण ग्रहण करें, हमारे शब्द सदैव उन्हीं के नामों का कीर्तन करें और हमारे शरीर सदैव उन्हींको नमस्कार करें तथा उनकी ही सेवा करें।

    कर्मभिर्भ्राम्यमाणानां यत्र क्वापी श्वरेच्छया ।

    मड्ुलाचरितिदनि रतिर्न: कृष्ण ईश्वेर ॥

    ६७॥

    कर्मभि:--सकाम कर्मों द्वारा; भ्राम्यमाणानामू--घुमाये जाने वालों का; यत्र क्व अपि--जहाँ कभी भी; ईश्वर-- भगवान्‌ की;इच्छया--इच्छा से; मड्ल--शुभ; आचरितै:--कार्यो से; दानैः--दान से; रतिः--आसक्ति; न:--हमारी; कृष्णे--कृष्ण में;ईश्वरे-- भगवान्‌

    भगवान्‌ की इच्छा से हमें अपने सकाम कर्मों के फलस्वरूप इस संसार में जहाँ भी घूमनापड़े हमारे सत्कर्म तथा दान हमें सदा भगवान्‌ कृष्ण का प्रेम प्रदान करें।

    एवं सभाजितो गोपै: कृष्णभक्त्या नराधिप ।

    उद्धव: पुनरागच्छन्मथुरां कृष्णपालिताम्‌ ॥

    ६८ ॥

    एवम्‌--इस प्रकार; सभाजित:--सम्मान प्रदर्शित; गोपै:--ग्वालों द्वारा; कृष्ण-भक्त्या--कृष्ण के प्रति भक्ति से; नर-अधिप--हे मनुष्यों के शासक ( परीक्षित ); उद्धव:--उद्धव; पुनः--फिर; आगच्छत्‌--लौट आया; मथुराम्‌--मथुरा; कृष्ण-पालिताम्‌--कृष्ण द्वारा सुरक्षित ।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे नृपति, इस तरह कृष्ण के प्रति भक्ति की अभिव्यक्ति द्वाराग्वालों से सम्मानित होकर उद्धव मथुरा नगरी वापस चले गये जो कृष्ण के संरक्षण में थी।

    कृष्णाय प्रणिपत्याह भक्त्युद्रेके त्रजौकसाम्‌ ।

    वसुदेवाय रामाय राज्ञे चोपायनान्यदात्‌ ॥

    ६९॥

    कृष्णाय--कृष्ण को; प्रणिपत्य--सम्मान जताने के लिए गिर कर; आह--कहा; भक्ति--शुद्ध भक्ति की; उद्रेकम्‌--प्रचुरता;ब्रज-ओकसाम्‌--व्रजवासियों की; वसुदेवाय--वसुदेव को; रामाय--बलराम को; राज्ञे--राजा ( उग्रसेन ) को; च--तथा;उपायनानि--भेंट के रूप में प्राप्त वस्तुएँ; अदात्‌ू--दिया।

    गिर कर प्रणाम करने के बाद उद्धव ने कृष्ण से व्रजवासियों की महती भक्ति का वर्णनकिया।

    उद्धव ने इसका वर्णन वसुदेव, बलराम तथा राजा उग्रसेन से भी किया और उन्हें वेवस्तुएँ भेंट कीं जिन्हें वे अपने साथ लाये थे।

    TO

    अध्याय अड़तालीसवाँ: कृष्ण अपने भक्तों को प्रसन्न करते हैं

    10.48श्रीशुक उबाचअथ विज्ञाय भगवास्सववत्मा सर्वदर्शनः ।

    सैरन्या:कामतप्ताया: प्रियमिच्छन्गृहं ययौ ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; अथ--तब; विज्ञाय--जानकर; भगवान्‌-- भगवान्‌; सर्व--सबों के;आत्मा--आत्मा; सर्व--सबों के ; दर्शन: --द्रष्टा; सैरन्या:--सेवा करने वाली लड़की त्रिवक्रा के; काम--कामवासना से;तप्ताया:--संतप्त; प्रियम्‌--तुष्टि; इच्छन्‌--चाहने वाली; गृहम्‌--घर; ययौ--गये

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : उद्धव के सन्देश को आत्मसात करने के बाद समस्त प्राणियोंके सर्वज्ञ आत्मा भगवान्‌ कृष्ण ने सेवा करने वाली लड़की त्रिवक्रा को तुष्ट करना चाहा जोकामवासना से पीड़ित थी।

    अतः वे उसके घर गये।

    महाहोंपस्करैराढ्यं कामोपायोपबूंहितम्‌ ।

    मुक्तादामपताकाभिर्वितानशयनासने: ।

    धूपै: सुरभिभिर्दीपै: स्त्रग्गन्थेरपि मण्डितम्‌ ॥

    २॥

    महा-अर्ह--महँगे; उपस्करैः --साज-सामान से; आढ्यम्‌--सम्पन्न; काम--कामवासना का; उपाय--साज-सामान;उपबृंहितम्‌-- भरा-पुरा; मुक्ता-दाम--मोतियों की लड़ियों से; पताकाभि:--तथा झंडों से; वितान--चँदोवों से; शयन--पलँग;आसनै:--तथा आसमनों से; धूपैः--अगुरु से; सुरभिभि: --सुगन्धित; दीपैः--दीपकों से; सत्रकु--फूल की मालाओं से; गन्धै:--तथा सुगन्धित चन्दन-लेप से; अपि-- भी; मण्डितम्‌--सजाया हुआ।

    त्रिवक्रा का घर ऐश्वर्ययुक्त साज-सामान से बड़ी शान से सजाया हुआ था और कामोत्तेजनाउभाड़ने वाली साज-सामग्री से भरा-पूरा था।

    उसमें झंडियाँ, मोती की लड़ें, चँदोवा, सुन्दर सेजतथा बैठने के आसन थे और सुगन्धित अगुरु, दीपक, फूल-मालाएँ तथा सुगन्धित चन्दन-लेपभी था।

    गृहं तमायान्तमवेक्ष्य सासनात्‌सद्यः समुत्थाय हि जातसम्भ्रमा ।

    यथोपसड़ुम्य सखीभिरच्युतंसभाजयामास सदासनादिभि:ः ॥

    ३॥

    गृहम्‌--अपने घर पर; तम्‌--उसको; आयान्तम्‌--आया हुआ; अवेक्ष्य--देखकर; सा--वह; आसनात्‌--आसन से; सद्यः --तुरन्त; समुत्थाय--उठकर; हि--निस्सन्देह; जात-सम्भ्रमा-- हड़बड़ाकर; यथा--समुचित ढंग से; उपसण्गम्य-- आगे आकर;सखीभि:--अपनी सखियों सहित; अच्युतम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण को; सभाजयाम्‌ आस--आदरपूर्वक सत्कार किया; सतू-आसन--उत्तम आसन; आदिभिः--इत्यादि से ।

    जब त्रिवक्रा ने उन्हें अपने घर की ओर आते देखा तो वह हड़बड़ाकर तुरन्त ही अपने आसनसे उठ खड़ी हुईं।

    अपनी सखियों समेत आगे आकर उसने भगवान्‌ अच्युत को उत्तम आसन तथा पूजा की अन्य सामग्रियाँ अर्पित करते हुए उनका सत्कार किया।

    तथोद्धव: साधुतयाभिपूजितोन्यषीददुर्व्यामभिमृश्य चासनम्‌ ।

    कृष्णोपि तूर्ण शयनं महाधनंविवेश लोकाचरितान्यनुव्रत: ॥

    ४॥

    तथा--भी; उद्धव: --उन्दधव; साधुतया--साधु-पुरुष की तरह; अभिपूजित:--पूजित; न्यषीदत्‌--बैठ गये; उर्व्यामू--जमीन पर;अभिमृश्य--स्पर्श करके; च--तथा; आसनम्‌--आसन का; कृष्ण: -- भगवान्‌ कृष्ण; अपि--तथा; तूर्णम्‌--अविलम्ब;शयनमू--सेज पर; महा-धनम्‌-- अत्यन्त वैभवशाली; विवेश--लेट गये; लोक--मानव समाज का; आचरितानि--आचरणोंका; अनुब्रत:--अनुकरण करते हुए।

    उद्धव को भी सम्मानयुक्त आसन प्राप्त हुआ।

    चुँकि वे साधु सदृश पुरुष थे अतः उन्होंनेउसका स्पर्श ही किया और फिर फर्श पर बैठ गये।

    तब भगवान्‌ कृष्ण मानव समाज के आचारों( लोकाचार ) का अनुकरण करते हुए ऐश्वर्यशाली शय्या पर लेट गये।

    सा मज्जनालेपदुकूलभूषण-सर्रग्गन्धताम्बूलसुधासवादिभि: ।

    प्रसाधितात्मोपससार माधवसब्रीडलीलोत्स्मितविशभ्रमेक्षितै: ॥

    ५॥

    सा--वह, त्रिवक्रा; मज्जन--स्नान करके; आलेप--लेप लगाकर; दुकूल--सुन्दर वस्त्र पहनकर; भूषण-- आभूषणों से;सत्रकू--मालाओं से; गन्ध--सुगन्ध; ताम्बूल--पान; सुधा-आसव--सुगन्धित पेय; आदिभि:--आदि से; प्रसाधित--तैयारकिया; आत्मा--अपना शरीर; उपससार--पास आई; माधवम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण के; स-ब्रीड--सलज; लीला--खिलवाड़-भरी, लीलामयी; उत्स्मित--अपनी हँसी का; विभ्रम--लुभाने वाली; ईक्षितैः--चितवनों से|

    त्रिवक्रा नहाकर, अपने शरीर में लेप लगाकर तथा सुन्दर वस्त्र पहनकर और तब आभूषणऔर मालाएँ पहन कर और सुगन्ध लगाने के बाद पान-सुपारी चबाकर और सुगन्धित पेय पीकरतैयार हुई।

    तब वह लजीली, लीलामयी हँसी तथा लुभाने वाली चितवनों से माधव के पासपहुँची।

    आहूय कान्तां नवसड्रमहियाविशद्ितां कट्ढडणभूषिते करे ।

    प्रगृह्म शय्यामधिवेश्य रामयारेमेउनुलेपार्पणपुण्यलेशया ॥

    ६॥

    आहूय--बुलाकर; कान्ताम्‌--अपनी प्रियतमा को; नव--नवीन; सड्रम--संसर्ग का; हिया--लाज से युक्त; विशद्धिताम्‌--सशंकित; कड्ढडण--चूड़ियों से; भूषिते--आभूषित; करे--दोनों हाथों में; प्रगृह्क--पकड़े; शय्याम्‌--सेज पर; अधिवेश्य--बैठकर; रामया--सुन्दरी स्त्री के साथ; रेमे--रमण किया; अनुलेप--लेप का; अर्पण--अर्पण; पुण्य--पवित्रता का;लेशया--तनिक भी |

    इस नवीन सम्पर्क ( मिलन ) की प्रत्याशा से सशंकित तथा लजीली प्रेमिका को आगे आनेके लिए बुलाते हुए भगवान्‌ ने कंगन से सुशोभित उसके हाथों को पकड़कर अपनी सेज परखींच लिया।

    इस तरह उन्होंने उस सुन्दरी के साथ रमण किया जिसकी एकमात्र पवित्रता इतनीही थी कि उसने पहले किसी समय भगवान्‌ को लेप अर्पित किया था।

    सानड्रतप्तकुचयोरुरसस्तथाक्ष्णो -जिप्रन्त्यनन्तचरणेन रुजो मृजन्ती ।

    दोर्भ्या स्तनान्तरगतं परिरभ्य कान्त-मानन्दमूर्तिमजहादतिदीर्घतापम्‌ ॥

    ७॥

    स--वह; अनड्ु--कामदेव द्वारा; तप्त--जलती हुई; कुचयो:--अपने स्तनों के; उरसः--अपनी छाती के; तथा--और;अक्ष्णो:--अपनी आँखों के; जिप्रन्ती --सूँघती; अनन्त-- अनन्त भगवान्‌ कृष्ण के; चरणेन--चरणों से; रुज:--पीड़ा;मृजन्ती--पोंछती हुई; दोर्भ्यामू-- अपनी बाहुओं से; स्तन--स्तनों के; अन्तर-गतम्‌--बीच; परिरभ्य--आलिंगन करके;कान्तम्‌-प्रेमी को; आनन्द--समस्त आनन्द की; मूर्तिम्‌--साक्षात्‌ अभिव्यक्तिको; अजहातू--त्याग दिया; अति--अत्यधिक;दीर्घ--दीर्घकालीन; तापम्‌-कष्ट को

    भगवान्‌ के चरणकमलों की सुगन्धि से ही त्रिवक्रा ने अपने स्तनों, छाती तथा आँखों मेंकामदेव द्वारा उत्पन्न जलती हुई कामवासना को धो दिया।

    अपनी दोनों बाँहों से उसने अपने स्तनों के मध्य स्थित अपने प्रेमी श्रीकृष्ण का आलिंगन किया जो आनन्द की मूर्ति हैं और इस तरहउसने अपने दीर्घकालीन व्यथा को त्याग दिया।

    सैवं कैवल्यनाथं त॑ प्राप्य दुष्प्राप्पमी श्वरम्‌ ।

    अड्डरागार्पणेनाहो दुर्भगेदमयाचत ॥

    ८॥

    स--उसने; एवम्‌--इस प्रकार; कैवल्य--मुक्ति के; नाथम्‌--नियन्ता; तम्‌--उस; प्राप्प--प्राप्त करके; दुष्प्राप्पम्‌-प्राप्त न होसकने वाले; ईश्वरम्‌-- भगवान्‌ को; अड्ड-राग--शरीर का लेप; अर्पणेन-- प्रदान करने से; अहो-- ओह; दुर्भगा--अभागी;इदम्‌--यह; अयाचत--उसने माँगा

    केवल शरीर का लेप प्रदान करने से ही अलभ्य भगवान्‌ को इस प्रकार पाकर उस अभागीत्रिवक्रा ने स्वतंत्रता ( मोक्ष ) के उन स्वामी से निम्नलिखित याचना की।

    सहोष्यतामिह प्रेष्ठ दिनानि कतिचिन्मया ।

    रमस्व नोत्सहे त्यक्तु सड़ूं तेम्बुरुहेक्षण ॥

    ९॥

    सह--साथ में; उष्यताम्‌-ठहरें; इह--यहाँ; प्रेष्ट--हे प्रिय; दिनानि--दिन; कतिचित्‌--कुछ; मया--मेंरे साथ; रमस्व--रमणकरें; न उत्सहे--सहन नहीं कर सकती; त्यक्तुमू--छोड़ पाना; सड्रम्‌--साथ; ते--तुम्हारा; अम्बुरुह-ईक्षण--हे कमल-नेत्र |

    त्रिवक्रा ने कहा : हे प्रियतम! आप यहाँ पर मेरे साथ कुछ दिन और रुकें और रमण करें।

    है कमल-नेत्र! मैं आपका साथ छोड़कर नहीं रह सकती।

    तस्ये कामवरं दत्त्वा मानयित्वा च मानदः ।

    सहोद्धवेन सर्वेश: स्वधामागमहद्द्धिमत्‌ू ॥

    १०॥

    तस्यै--उसको; काम-- भौतिक इच्छा का; वरम्‌ू--वर; दत्त्वा--देकर; मानयित्वा--अपना आदर दिखलाकर; च--तथा; मान-दः--अन्यों का आदर करने वाले; सह उद्धवेन--उद्धव के साथ; सर्व-ईश:--सभी जीवों के प्रभु; स्‍्व--अपने; धाम--वासस्थान; अगमत्‌--चले गये; ऋद्द्धि-मत्‌--अत्यन्त समृद्धिवान।

    इस काम-इच्छा को पूरा करने का वचन देकर, समस्त जीवों के स्वामी, सबका मान रखनेवाले कृष्ण ने त्रिवक्रा का अभिवादन किया और तब उद्धव समेत अपने अत्यन्त समृद्द्रिशालीधाम को लौट आये।

    दुरा्ध्य समाराध्य विष्णु सर्वेश्रेश्वरम्‌ ।

    यो वृणीते मनोग्राह्ममसत्त्वात्कुमनीष्यसौ ॥

    ११॥

    दुराराध्यम्‌--विरले ही पूजित; समाराध्य--पूरी तरह पूजा करके ; विष्णुम्‌--विष्णु की; सर्व--सबों के; ईश्वर--नियन्ता के;ईश्वरमू--परम नियन्ता; यः--जो; वृणीते--वर के रूप में चुनता है; मन:ः--मन तक; ग्राह्ममू--पहुँच रखने वाला, अर्थात्‌ इन्द्रियतृप्ति; असत्त्वात्‌ू-तुच्छता के कारण; कुमनीषी--बुद्धिहीन; असौ--वह व्यक्ति

    सामान्यतया समस्त ई श्वरों के परम ईश्वर भगवान्‌ विष्णु तक पहुँच पाना कठिन है।

    अतः जोव्यक्ति उनकी समुचित पूजा करने के बाद उनसे इन्द्रियतृप्ति का वर माँगता है, वह निश्चित रूपसे कम बुद्धि वाला ( दुर्बुद्धि ) है क्योंकि वह तुच्छ फल से तुष्ट हो जाता है।

    अक्रूरभवनं कृष्ण: सहरामोद्धव: प्रभु: ।

    किज्ञिच्चिकीर्षयन्प्रागादक्रूरप्रीयकाम्यया ॥

    १२॥

    अक्रूर-भवनम्‌--अक्रूर के घर; कृष्ण: --कृष्ण के सह--साथ; राम-उद्धव: -- बलराम तथा उद्धव; प्रभुः --परमेश्वर;किझ्जित्‌ू--कुछ-कुछ; चिकीर्षयन्‌--कराने की इच्छा से; प्रागात्‌--गये; अक्वूर--अक्रूर की; प्रिय--तुष्टि; काम्यया--इच्छासे।

    तत्पश्चात्‌ भगवान्‌ कृष्ण कुछ कार्य कराने की इच्छा से अक्रूर के घर बलराम और उद्धव केसाथ गये।

    भगवान्‌ अक्रूर को भी तुष्ठट करना चाहते थे।

    स तान्नरवरश्रेष्ठानाराद्वीक्ष्य स्वबान्धवान्‌ ।

    प्रत्युत्थाय प्रमुदितः परिष्वज्याभिनन्द्य च ॥

    १३॥

    ननाम कृष्णं रामं च स तैरप्यभिवादितः ।

    'पूजयामास विधिवत्कृतासनपरिग्रहान्‌ ॥

    १४॥

    सः--वह ( अक्रूर ); तान्‌ू--उनको ( कृष्ण, बलराम तथा उद्धव को ); नर-वर-- श्रेष्ठ पुरुषों में; श्रेष्ठानू--सबसे बड़ा; आरातू--दूर से; वीक्ष्य--देखकर; स्व--अपने ( अक्रूर के ); बान्धवान्‌--सम्बन्धियों को; प्रत्युत्थाय--उठकर; प्रमुदित:--प्रसन्न;परिष्वज्य--आलिंगन करके; अभिनन्द्य-- स्वागत करके; च--तथा; ननाम--नमस्कार किया; कृष्णम्‌ रामम्‌ च--कृष्ण तथाबलराम को; सः--वह; तैः--उनके द्वारा; अपि--तथा; अभिवादित:--स्वागत किया; पूजयाम्‌ आस--पूजा की; विधि-वत्‌--शास्त्रीय आदेशों के अनुसार; कृत--किया हुआ; आसन--बैठने के आसनों का; परिग्रहान्‌ू--स्वीकार करना ।

    जब अक्ूर ने अपने ही सम्बन्धियों एवं पुरुष शिरोमणियों को दूर से आते देखा तो वेहर्षपूर्वक उठकर खड़े हो गये।

    उनको गले मिलने आलिंगन और स्वागत करने के बाद अक्रूर नेकृष्ण और बलराम को नमस्कार किया और बदले में उन दोनों ने उनका अभिवादन किया।

    फिरजब उनके अतिथि आसन ग्रहण कर चुके तो उन्होंने शास्त्रीय नियमों के अनुसार उनकी पूजाकी।

    पादावनेजनीरापो धारयन्शिरसा नृप ।

    अर्हणेनाम्बरर्दिव्यर्गन्धस्त्रग्भूषणोत्तमै: ॥

    १५॥

    अर्चित्वा शिरसानम्य पादावड्डूगतौ मृजन्‌ ।

    प्रश्रयावनतोक्रूरः कृष्णरामावभाषत ॥

    १६॥

    पाद--उनके पाँव; अवनेजनी:--स्नान के काम आने वाला; आ--सर्वत्र; आप:--जल; धारयन्‌-- धारण करते हुए; शिरसा--सिर पर; नृप--हे राजा ( परीक्षित ); अर्हणेन-- भेंटों से; अम्बरैः--वस्त्रों से; दिव्यै:--स्वर्गिक; गन्ध--सुगन्धित चन्दन का लेप;सत्रकू--फूल-मालाएँ; भूषण--तथा आभूषण; उत्तमैः --उत्तम; अर्चित्वा--पूजा करके; शिरसा--सिर के बल; आनम्य--झुककर; पादौ--( कृष्ण के ) पाँव; अड्डू--- अपनी गोद में; गतौ--रख लिए; मृजन्‌--दबाते हुए; प्रश्रय--दीनतापूर्वक;अवनतः--सिर झुकाकर; अक्रूरः:--अक्रूर; कृष्ण-रामौ--कृष्ण तथा बलराम से; अभाषत--बोला |

    हे राजन, अक्रूर ने भगवान्‌ कृष्ण तथा बलराम के चरण पखारे और तब उस चरणोदक कोअपने सिर पर छिड़का।

    उन्होंने उन दोनों को उत्तम वस्त्र, सुगन्धित चन्दन-लेप, फूल-मालाएँतथा उत्तम आभूषण भेंट में दिये।

    इस तरह दोनों विभुओं की पूजा करने के बाद उन्होंने अपनेशिर से फर्श को स्पर्श करके नमस्कार किया।

    फिर वे कृष्ण के चरणों को अपनी गोद में लेकरदबाने लगे और नप्रभाव से अपना सिर नीचे किये कृष्ण तथा बलराम से इस प्रकार बोले।

    दिष्ठ्या पापो हतः कंस: सानुगो वामिदं कुलम्‌ ।

    भवद्भ्यामुद्धृतं कृच्छाहुरन्ताच्चय समेधितम्‌ ॥

    १७॥

    दिछ्टया-- भाग्य से; पाप:--पापी; हतः --मारा गया; कंसः--कंस; स-अनुग: -- अपने भाइयों तथा अन्य अनुयायियों सहित;वाम्‌--आपके; इृदम्‌--इस; कुलमू--वंश को; भवद्भ्याम्‌--आप दोनों के द्वारा; उद्धृतम्‌--उद्धार किया गया; कृच्छात्‌--कठिनाई से; दुरन्तात्‌--अन्तहीन; च--तथा; समेधितम्‌ू--सम्पन्न बनाया |

    अक्रूर ने कहा : यह तो हमारा सौभाग्य है कि आप दोनों ने दुष्ट कंस तथा उसके अनचरोंका वध कर दिया है।

    इस तरह आपने अपने वंश को अन्तहीन कष्ट से उबारकर उसे समृद्धबनाया है।

    युवां प्रधानपुरुषौ जगद्धेतू जगन्मयौ ।

    भवदृभ्यां न विना किद्ञित्परमस्ति न चापरम्‌ ॥

    १८॥

    युवाम्‌--तुम दोनों; प्रधान-पुरुषौ--आदि-पुरुषों ने; जगत्‌--ब्रह्माण्ड के; हेतू--कारण; जगत्‌-मयौ--ब्रह्माण्ड से अभिन्न;भवद्भ्यामू--आपकी अपेक्षा; न--नहीं; विना--के अतिरिक्त; किल्ञित्‌--कुछ भी; परम्‌--कारण; अस्ति--है; न च--न तो;अपरम्‌ू--फल।

    आप दोनों आदि परम पुरुष, ब्रह्माण्ड के कारण तथा इसके सार हैं।

    जरा सा भी सूक्ष्मकारण या सृष्टि की कोई भी अभिव्यक्ति आपसे पृथक्‌ नहीं रह सकती।

    आत्मसृष्टमिदं विश्वमन्वाविश्य स्वशक्तिभि: ।

    ईयते बहुधा ब्रह्मन्श्रु तप्रत्यक्षणोचरम्‌ ॥

    १९॥

    आत्म-सृष्टमू--आपके द्वारा सृजित; इदम्‌--यह; विश्वम्‌--ब्रह्माण्ड; अन्वाविश्य--बाद में प्रवेश करके ; स्व-- अपनी;शक्तिभि:--शक्तियों से; ईयते-- अनुभव किये जाते हो; बहुधा--विविध; ब्रह्मनू--हे परब्रहम; श्रुत--शास्त्रों से सुनकर;प्रत्यक्ष--तथा प्रत्यक्ष अनुभूति से; गोचरम्‌--ज्ञेय ।

    हे परम सत्य आप अपनी निजी शक्तियों से इस ब्रह्माण्ड का सृजन करते हैं और तब उसमेंप्रवेश करते हैं।

    इस तरह महाजनों से सुनकर तथा प्रत्यक्ष अनुभव करके मनुष्य आपको अनेकविभिन्न रूपों में अनुभव कर सकता है।

    यथा हि भूतेषु चराचरेषुमह्यादयो योनिषु भान्ति नाना ।

    एवं भवान्केवल आत्मयोनि-घ्वात्मात्मतन्त्रो बहुधा विभाति ॥

    २०॥

    यथा--जिस तरह; हि--निस्सन्देह; भूतेषु--प्रकट जीवों में; चर--चेतन; अचरेषु--तथा जड़ में; मही-आदय: --पृथ्वी इत्यादि( सृष्टि के मूलभूत तत्त्व ); योनिषु--योनियों में; भान्ति--प्रकट होते हैं; नाना--विविध प्रकार से; एवम्‌--इस तरह; भवान्‌--आप; केवल: --एकमात्र; आत्म--स्वयं; योनिषु--योनियों में; आत्मा--परमात्मा; आत्म-तन्त्र:--आत्म-निर्भर; बहुधा--कईप्रकार से; विभाति--प्रकट होता है।

    जिस प्रकार जड़ तथा चेतन जीव-योनियों में मूलभूत तत्त्व अपने को पृथ्वी इत्यादिअनेकानेक किस्मों के रूप में प्रकट करते हैं उसी तरह आप एक स्वतंत्र परमात्मा के रूप मेंअपनी सृष्टि के विविधतापूर्ण पदार्थों में अनेक रूपों में प्रकट होते हैं।

    सृजस्यथो लुम्पसि पासि विश्वरजस्तमःसत्त्वगुणै: स्वशक्तिभि: ।

    न बध्यसे तदगुणकर्मभिर्वाज्ञानात्मनस्ते क्व च बन्धहेतु: ॥

    २१॥

    सृजसि--सृजन करते हो; अथ उ--और तब; लुम्पसि--संहार करते हो; पासि--रक्षा करते हो; विश्वम्‌--ब्रह्मण्ड को; रज:--रजो; तम:ः--तमो; सत्त्व--तथा सतो; गुणैः --गुणों के द्वारा; स्व-शक्तिभि:--अपनी शक्तियों से; न बध्यसे--बँधते नहीं हो;तत्‌--इस जगत के; गुण--गुणों से; कर्मभि:-- भौतिक कार्यकलापों द्वारा; वा--अथवा; ज्ञान-आत्मन: --साक्षात्‌ ज्ञान हैं;ते--तुम्हारे लिए; क्व च--जहाँ कोई भी; बन्ध--बन्धन का; हेतु:--कारण |

    आप अपनी निजी शक्तियों रजो, तमो तथा सतो गुणों से इस ब्रह्माण्ड का सृजन, संहार औरपालन भी करते हैं।

    फिर भी आप इन गुणों द्वारा या इनसे उत्पन्न कर्मों द्वारा बाँधे नहीं जाते।

    चूँकि आप समस्त ज्ञान के आदि-स्रोत हैं, तो फिर मोह द्वारा आपके बंधन का कारण क्‍या होसकता है?

    हाद्युपाधेरनिरूपितत्वाद्‌भवो न साक्षान्न भिदात्मनः स्यात्‌ ।

    अतो न बन्धस्तव नैव मोक्षःस्याताम्निकामस्त्वयि नोडविवेक: ॥

    २२॥

    देह--शरीर; आदि--इत्यादि की; उपाधे: --उपाधियों के रूप में; अनिरूपितत्वात्‌ू--निश्चित न हो पाने से; भव:--जन्म; न--नहीं; साक्षात्‌--शाब्दिक; न--न तो; भिदा--द्वैत; आत्मन:--परमात्मा के लिए; स्यात्‌--विद्यमान है; अत:--इसलिए; न--नहीं; बन्ध:--बन्धन; तब--तुम्हारा; न एब--न तो, वास्तव में; मोक्ष: --मुक्ति; स्थाताम्‌--यदि हो; निकाम: --तुम्हारी स्वयं कीइच्छा से; त्वयि--तुममें; न:--हमारा; अविवेक: --त्रुटिपूर्ण विवेक |

    चूँकि यह कभी प्रदर्शित नहीं हुआ है कि आप भौतिक शारीरिक उपाधियों से प्रच्छन्न हैंअतः यह निष्कर्ष रूप में यह समझना होगा कि शाब्दिक अर्थ में नतो आपका जन्म होता है नही कोई द्वैत है।

    इसलिए आपको बन्धन या मोक्ष का सामना नहीं करना होता।

    और यदि आपऐसा करते प्रतीत होते हैं, तो यह आपकी इच्छा के कारण ही है कि हम आपको इस रूप मेंदेखते हैं या कि हममें विवेक का अभाव है इसलिए ऐसा है।

    त्वयोदितोयं जगतो हिताययदा यदा वेदपथ:ः पुराण: ।

    बाध्येत पाषण्डपथेरसद्धि -स्तदा भवान्सत्त्वगुणं बिभर्ति ॥

    २३॥

    त्वया--तुम्हारे द्वारा; उदित:--कहा गया है; अयम्‌--यह; जगतः--ब्रह्माण्ड के; हिताय--लाभ के लिए; यदा यदा--जब जब;वेद--वैदिक शास्त्रों का; पथ:--( धार्मिकता का ) मार्ग; पुराण: -- प्राचीन; बाध्येत--रोका जाता है; पाषण्ड--नास्तिकता का;पथे:--मार्ग का अनुसरण करने वालों के द्वारा; असद्द्धिः--दुष्ट पुरुष द्वारा; तदा--तब; भवान्‌--आप; सत्त्व-गुणम्‌-शुद्धसतो गुण; बिभर्ति-- धारण करते हैं।

    आपने समस्त विश्व के लाभ के लिए प्रारम्भ में वेदों के प्राचीन धार्मिक पथ की व्याख्या कीथी।

    जब भी दुष्ट व्यक्तियों द्वारा नास्तिकता का मार्ग ग्रहण करने के फलस्वरूप यह पथ अवरुद्धहोता है, तो आप दिव्य सतोगुण से युक्त कोई न कोई रूप में अवतरित होते हैं।

    स त्वम्प्रभोड्द्य वसुदेवगृहेउवर्तीर्ण:स्वांशेन भारमपनेतुमिहासि भूमेः ।

    अक्षौहिणीशतवधेन सुरेतरांश-राज्ञाममुष्य च कुलस्य यशो वितन्वन्‌ ॥

    २४॥

    सः--वह; त्वमू--तुम; प्रभो--हे स्वामी; अद्य--अब; वसुदेव-गृहे--वसुदेव के घर में; अवतीर्ण: --अवतरित; स्व--अपने ही;अंशेन-प्रत्यक्ष अंश ( बलराम ); भरम्‌-- भार; अपनेतुम्‌--हटाने के लिए; इह--यहाँ; असि--हो; भूमेः--पृथ्वी का;अक्षौहिणी--सेनाओं का; शत--सौ; वधेन--मारकर; सुर-इतर--देवताओं के विपक्षियों का; अंश--अंश रूप; राज्ञाम्‌--राजाओं का; अमुष्य--इसका; च--तथा; कुलस्थ--कुल का ( यदुकुल का ); यशः--ख्याति; वितन्वन्‌--विस्तार करते हुए

    हे प्रभु, आप वही परम पुरुष हैं और अब आप अपने अंश समेत वसुदेव के घर में प्रकट हुएहैं।

    आपने देवताओं के शत्रुओं के अंश रूप राजाओं के नेतृत्व वाली हजारों सेनाओं का वधकरके पृथ्वी का भार हटाने तथा हमारे कुल की ख्याति का विस्तार करने के लिए ऐसा कियाहै।

    अद्येश नो वसतयः खलु भूरिभागायः सर्वदेवपितृभूतनृदेवमूर्ति: ।

    यत्पादशौचसलिल त्रिजगत्पुनातिस त्वं जगद्गुरुरधोक्षज या: प्रविष्ट: ॥

    २५॥

    अद्य--आज; ईश--हे भगवन्‌; नः--हमारे; वसतय:--निवासस्थान; खलु--निस्सन्देह; भूरि-- अत्यन्त; भागा: -- भाग्यशाली;यः--जो; सर्व-देव--परमे श्वर; पितृ--पूर्वज, पितरगण; भूत--सारे जीव; नृ--मनुष्य; देव--तथा देवता; मूर्तिः--देहधारी;यत्‌--जिसके; पाद--पाँवों को; शौच-- धोने वाला है; सलिलम्‌ू--जल ( गंगाजल ); त्रि-जगत्‌--तीनों लोक; पुनाति--पवित्रकरता है; सः--वह; त्वमू--तुम; जगत्‌-- ब्रह्माण्ड के; गुरु:ः--गुरु; अधोक्षज-- भौतिक इन्द्रियों के क्षेत्र से परे रहने वाले,इन्द्रियातीत; या:--जो; प्रविष्ट:--प्रविष्ट होकर

    हे प्रभु, आज मेरा घर अत्यन्त भाग्यशाली बन गया है क्योंकि आपने इसमें प्रवेश किया है।

    परम सत्य के रूप में आप पितरों, सामान्य प्राणियों, मनुष्यों एवं देवताओं की मूर्ति हैं और जिसजल से आपके पाँवों को प्रक्षालित किया गया है, वह तीनों लोकों को पवित्र बनाता है।

    निस्सन्देह हे इन्द्रियातीत, आप ब्रह्माण्ड के आध्यात्मिक गुरु हैं।

    कः पण्डितस्त्वदपरं शरणं समीयाद्‌भक्तप्रियाहतगिर: सुहृदः कृतज्ञात्‌ ।

    सर्वान्ददाति सुहदो भजतोडभिकामा-नात्मानमप्युपचयापचयौ न यस्य ॥

    २६॥

    कः--कौन; पण्डित:--विद्वान; त्वत्‌--आपसे बढ़कर; अपरम्‌--दूसरा; शरणम्‌--शरण के लिए; समीयात्‌--जाये; भक्त--अपने भक्त के लिए; प्रियात्‌ू--स्नेहिल; ऋत--सदैव सच; गिर: --शब्द; सुहृद:--शुभचिन्तक; कृत-ज्ञातू-कृतज्ञ; सर्वानू--सभी; ददाति--आप देते हैं; सुहद:--अपने शुभचिन्तक भक्तों को; भजत:--आपकी पूजा करने वाले; अभिकामान्‌-चच्छाएँ;आत्मानम्‌-- अपने आपको; अपि-- भी; उपचय--वृद्धि; अपचयौ---या हास; न--कभी नहीं; यस्य--जिसका |

    जब आप अपने भक्तों के प्रति इतने स्नेहिल, कृतज्ञ तथा सच्चे शुभचिन्तक हैं, तो फिर कौनऐसा विद्वान होगा जो आपको छोड़कर किसी दूसरे के पास जायेगा ? जो लोग सच्चे साख्यभावसे आपकी पूजा करते हैं उन्हें आप मुँहमाँगा वरदान, यहाँ तक कि अपने आपको भी, दे देते हैंफिर भी आपमें न तो वृद्धि होती है न हास।

    दिष्टद्या जनार्दन भवानिह नः प्रतीतोयोगेश्वरैरपि दुरापगतिः सुरेशैः ।

    छिन्ध्याशु न: सुतकलत्रधनाप्तगेह-देहादिमोहरशनां भवदीयमायाम्‌ ॥

    २७॥

    दिछ्टद्या-- भाग्य से; जनार्दन--हे कृष्ण; भवान्‌--आप; इह--यहाँ; न:ः--हमरे द्वारा; प्रतीत:--अनुभवगम्य; योग-ई श्ररै: -- योगके स्वामियों द्वारा; अपि-- भी; दुराप-गति:--लक्ष्य को प्राप्त करना कठिन; सुर-ईशैः--तथा देवताओं के शासकों द्वारा;छिन्धि--काट दें; आशु--तुरन्त; नः--हमारे; सुत--सन्तान; कलत्र--पत्नी; धन--सम्पत्ति; आप्त--योग्य मित्र; गेह--घर;देह--शरीर; आदि--इत्यादि; मोह--मोह की; रशनाम्‌--रस्सियों को; भवदीय--अपनी; मायाम्‌--माया को |

    हे जनार्दन, हमारे बड़े भाग्य हैं कि हमें आपके दर्शन हो रहे हैं क्योंकि बड़े बड़े योगेश्वर तथाअग्रणी देवता भी इस लक्ष्य को बड़ी मुश्किल से प्राप्त कर पाते हैं।

    कृपया शीघ्र ही सन्तान,पत्नी, धन, समृद्ध मित्र, घर तथा शरीर के प्रति हमारी मायामयी आसक्ति की रस्सियों को काटदें।

    ऐसी सारी आसक्ति आपकी भ्रामक एवं भौतिक माया का ही प्रभाव है।

    इत्यर्चितः संस्तुतश्च भक्तेन भगवान्हरि: ।

    अक्रूरं सस्मितं प्राह गीर्भि: सम्मोहयन्निव ॥

    २८ ॥

    इति--इस प्रकार; अर्चित: --पूजित; संस्तुत:ः--अत्यधिक स्तुति किये गये; च--तथा; भक्तेन--अपने भक्त द्वारा; भगवान्‌--भगवान्‌; हरि:ः--कृष्ण; अक्रूरम्‌ू--अक्रूर से; स-स्मितम्‌--हँसते हुए; प्राह--बोले; गीर्भि:--वाणी से; सम्मोहयन्‌--पूरी तरहमोहित करते हुए; इब--प्राय: ।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : अपने भक्त द्वारा इस तरह पूजित तथा संस्तुत होकर भगवान्‌हरि ने हँसते हुए अपनी वाणी से अक्रूर को पूर्णतया मोहित करके सम्बोधित किया।

    श्रीभगवानुवाचत्वं नो गुरु: पितृव्यश्न श्लाघ्यो बन्धुश्न नित्यदा ।

    वबयं तु रक्ष्या: पोष्याश्च अनुकम्प्या: प्रजा हि व: ॥

    २९॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; त्वम्‌--तुम; नः--हमारे; गुरु: --गुरु; पितृव्य;--चाचा ( ताऊ ); च--तथा; श्लाघ्य: --प्रशंसनीय; बन्धु:--मित्र; च--तथा; नित्यदा--सदैव; वयम्‌ू--हम; तु--तो; रक्ष्या:--रक्षा किये जाने के लिए; पोष्या:--पालन किये जाने के लिए; च--तथा; अनुकम्प्या:--दया दिखाये जाने के लिए; प्रजा:--आशञ्रित; हि--निस्सन्देह; व:--आपके

    भगवान्‌ ने कहा : आप हमारे गुरु, चाचा तथा इलाधघ्य मित्र हैं और हम आपके पुत्रवत्‌ हैं;अतः हम सदैव आपकी रक्षा, पालन तथा दया पर अश्रित हैं।

    भवद्विधा महाभागा निषेव्या अर्हसत्तमा: ।

    श्रेयस्कामैनृभिर्नित्यं देवा: स्वार्था न साधव: ॥

    ३०॥

    भवतू-विधा: --आपके समान; महा-भागा: --अत्यन्त विख्यात; निषेव्या:--सेवा किये जाने के योग्य; अर्ह--पूज्य; सत्‌-तमाः--अतीव साधु; श्रेयः--सर्वोच्च शुभ, मंगल; कामैः--चाहने वाले; नृभि:--पुरुषों के द्वारा; नित्यमू--सदैव; देव: --देवतागण; स्व-अर्था:--निजी लाभ के लिए; न--ऐसे नहीं; साधव: --साधु भक्तगण

    आप जैसे महात्मा ही सेवा के असली पात्र हैं और जीवन में सर्वोच्च मंगल के इच्छुक लोगोंके लिए अत्यन्त पूज्य महाजन हैं।

    देवतागण सामान्यतया अपने स्वार्थों में लगे रहते हैं किन्तुसाधु-भक्त ऐसे नहीं होते।

    न हाम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामया: ।

    ते पुनन्त्युरूकालेन दर्शनादेव साधव: ॥

    ३१॥

    न--नहीं; हि--निस्सन्देह; अपू-मयानि--जल से बना; तीर्थानि--पवित्र स्थान; न--ऐसा नहीं है; देवा:--अर्चा विग्रह; मृत्‌--मिट्टी; शिला--तथा पत्थर से; मया: --निर्मित; ते--वे; पुनन्ति--पवित्र बनाते हैं; उर-कालेन--दीर्घकाल के बाद; दर्शनात्‌ू--दर्शन से; एबव--केवल; साधव:--साधु-सन्त |

    इससे कोई इनकार नहीं करेगा कि अनेक तीर्थस्थानों में पवित्र नदियाँ होती हैं या किदेवताओं के अर्चाविग्रह मिट्टी तथा पत्थर से बने होते हैं।

    किन्तु ये सब दीर्घकाल के बाद हीआत्मा को पवित्र करते हैं जबकि सनन्‍्त-पुरुषों के दर्शनमात्र से आत्मा पवित्र हो जाती है।

    स भवान्सुहदां वै नः श्रेयान्श्रेयश्चिकीर्षया ।

    जिज्ञासार्थ पाण्डवानां गच्छस्व त्वं गजाह्ययम्‌ ॥

    ३२॥

    सः--वह व्यक्ति; भवानू--आप; सुहृदाम्‌--शुभचिन्तकों का; वै--निश्चय ही; न:--हमारा; श्रेयान्‌--सर्व श्रेष्ठ में से; श्रेय: --मंगल के लिए; चिकीर्षबा--नियोजित करने की इच्छा से; जिज्ञासा--पूछताछ के; अर्थम्‌--लिए; पाण्डवानाम्‌--पाएडु के पुत्रोंकी; गच्छस्व--जाओ; त्वम्‌ू--तुम; गज-आह्यम्‌--गजाह्यय ( कुरुवंश की राजधानी, हस्तिनापुर )।

    दरअसल आप हमारे सर्वश्रेष्ठ मित्र हैं अतः आप हस्तिनापुर जाँय और पाण्डवों केशुभचिन्तक के रूप में पता लगायें कि वे कैसे हैं।

    पितर्युपरते बाला: सह मात्रा सुदु:खिता: ।

    आनीताः स्वपुरं राज्ञा वसन्‍्त इति शुश्रुम ॥

    ३३॥

    पितरि--पिता के; उपरते--देहान्त होने पर; बाला:--छोटे बालक; सह--साथ; मात्रा--माता के; सु--अत्यन्त; दु:ःखिता:--दुखी; आनीता:--लाये गये; स्व--अपने; पुरम्‌--राजधानी में; राज्ञा--राजा द्वारा; वसन्ते--रह रहे हैं; इति--इस प्रकार;शुश्रुम--हमने सुना है।

    हमने सुना है कि अपने पिता के दिवंगत हो जाने के बाद बालक पाण्डवों को उनकी दुखीमाता समेत राजा धृतराष्ट्र द्वारा राजधानी में लाये गए थे और अब वे वहीं रह रहे हैं।

    तेषु राजाम्बिकापुत्रो भ्रातृपुत्रेषु दीनधीः ।

    समो न वर्तते नूनं दुष्पुत्रवशगोन्धहक्‌ ॥

    ३४॥

    तेषु--उनके प्रति; राजा--राजा ( धृतराष्ट्र )अम्बिका--अम्बिका का; पुत्र:--पुत्र; भ्रातृ--अपने भाई के; पुत्रेषु--पुत्रों के प्रति;दीन-धी:--दुष्ट बुद्धि; सम:ः--समभाव; न वर्तते--नहीं बरतता; नूनम्‌--निश्चय ही; दुः--दुष्ट; पुत्र--अपने पुत्रों का; वश-गः--अधीन; अन्ध--अन्धा; हक्‌--दृष्टि |

    असल में अम्बिका का दुर्बल चित्त वाला पुत्र धृतराष्ट्र अपने दुष्ट पुत्रों के वश में आ चुका हैअतएव वह अन्धा राजा अपने भाई के पुत्रों के साथ ठीक व्यवहार नहीं कर रहा है।

    गच्छ जानीहि तद्गुत्तमधुना साध्वसाधु वा ।

    विज्ञाय तद्ठिधास्यामो यथा शं सुहृदां भवेत्‌ ॥

    ३५॥

    गच्छ--जाओ; जानीहि--पता लगाओ; तत्‌--उस ( धृतराष्ट्र ) की; वृत्तमू--करतूत; अधुना--इस समय; साधु-- अच्छा;असाधु--बुरा; वा--अथवा; विज्ञाय--जान कर; तत्‌--ऐसी; विधास्याम: --हम व्यवस्था करेंगे; यथा--जिससे; शम्‌--लाभ;सुहृदाम--हमारे प्रियजनों का; भवेत्‌--हो सके |

    जाइये और देखिये कि धृतराष्ट्र ठीक से कार्य कर रहा है या नहीं।

    पता लग जाने पर हमअपने प्रिय मित्रों की सहायता करने की आवश्यक व्यवस्था करेंगे।

    इत्यक्रूरं समादिश्य भगवान्हरिरी श्वर: ।

    सड्डर्षणोद्धवाभ्यां वै ततः स्वभवनं ययौ ॥

    ३६॥

    इति--इन शब्दों से; अक्रूरम्‌--अक्रूर को; समादिश्य--आदेश देकर; भगवनू-- भगवान्‌; हरिः ईश्वर: -- भगवान्‌ हरि;सड्डर्षण--बलराम; उद्धवाभ्यामू-तथा उद्धव के साथ; बै--निस्सन्देह; ततः--तब; स्व--अपने; भवनम्‌--घर; ययौ--चलेगये।

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : इस प्रकार से अक्रूर को पूरी तरह से आदेश देकरसंकर्षण एवं उद्धव के साथ भगवान्‌ हरि अपने घर लौट आये।

    TO

    अध्याय उनतालीस: अक्रूर का हस्तिनापुर में मिशन

    10.49श्रीशुक उबाचस गत्वा हास्तिनपुरं पौरवेन्द्रयशोड्डितम्‌ ।

    ददर्शतत्राम्बिकेयं सभीष्मं विदुरं पृथाम्‌ ॥

    १॥

    सहपुत्रं च बाह्लीक॑ भारद्वाजं सगौतमम्‌ ।

    कर्न सुयोधनं द्रौणिं पाण्डवान्सुहददोपरान्‌ ॥

    २॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; सः--वह ( अक्रूर ); गत्वा--जाकर; हास्तिन-पुरम्‌--हस्तिनापुर में; पौरव-इन्द्र--पुरुवंश के शासकों का; यशः--यश से; अड्भितम्‌--अलंकृत; ददर्श--देखा; तत्र--वहाँ; आम्बिकेयम्‌--अम्बिका कापुत्र ( धृतराष्ट्र )) स--सहित; भीष्मम्‌-- भीष्म; विदुरम्‌-विदुर को; पृथाम्‌-पृथा ( पाण्डु की विधवा, कुन्ती ); सह-पुत्रम्‌ू--अपने पुत्र सहित ( सोमदत्त ); च--तथा; बाहीकम्‌--महाराज बाह्लीक; भारद्वाजमू--द्रोण; स--तथा; गौतमम्‌ू--कृप;कर्णम्‌-कर्ण; सुयोधनम्‌--दुर्योधन; द्रौणिम्‌--द्रोण का पुत्र ( अश्वत्थामा ); पाण्डवान्‌ू--पाए-डु के पुत्रों को; सुहृदः --मित्र;अपरान्‌ू--अन्य।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : अक्रूर पौरव शासकों की ख्याति से प्रसिद्ध नगरी हस्तिनापुरगये।

    वहाँ वे धृतराष्ट्र, भीष्म, विदुर तथा कुन्ती के साथ साथ बाह्लीक तथा उसके पुत्र सोमदत्त सेमिले।

    उन्होंने द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, दुर्योधन, अश्वत्थामा, पाण्डकगण तथा अन्य घनिष्टमित्रों से भी भेंट की।

    यथावदुपसड्म्य बन्धुभिर्गान्दिनीसुत: ।

    सम्पृष्ठस्तेः सुहद्वार्ता स्वयं चापृच्छद॒व्ययम्‌ ॥

    ३॥

    यथा-वत्‌-- भलीभाँति; उपसड्म्ध--मिलकर; बन्धुभि:--अपने सम्बन्धियों तथा मित्रों से; गान्दिनी-सुत:--गान्दिनी-पुत्र,अक्रूर; सम्पृष्ट:--पूछा; तैः--उनसे; सुहृत्‌--उनके प्रियजनों को; वार्तामू--समाचार के लिए; स्वयम्‌--स्वयं; च--साथ ही;अपृच्छत्‌--पूछा; अव्ययम्‌--उनकी कुशलता के बारे में |

    जब गान्दिनी-पुत्र अक्रूर अपने समस्त सम्बन्धियों तथा मित्रों से भलीभाँति मिल चुके तो उनलोगों ने अपने परिवार वालों के समाचार पूछे और प्रत्युत्तर में अक्रूर ने उनकी कुशलता पूछी।

    उवास कतिचिन्मासात्राज्ञो वृत्तविवित्सया ।

    दुष्प्रजस्यथाल्पसारस्य खलच्छन्दानुवर्तिन: ॥

    ४॥

    उबास--रहे; कतिचित्‌--कुछ; मासान्‌--महीने; राज्ञ:--राजा ( धृतराष्ट्र ) का; वृत्त--कार्यकलाप; विवित्सया--जानने कीइच्छा से; दुष्प्रजस्य--जिसके पुत्र दुष्ट थे; अल्प--निर्बल; सारस्य--जिसका संकल्प; खल--दुष्ट पुरुषों ( यथा कर्ण ) की;छन्‍्द--इच्छाएँ; अनुवर्तिन:--अनुगमन करने वाला |

    वे हस्तिनापुर में दुर्बल-इच्छा शक्ति वाले राजा के आचरण की छानबीन करने के लिए कईमास रहे जिसके पुत्र बुरे थे और जो अपने दुष्ट सलाहकारों की इच्छानुसार कार्य करता रहता था।

    तेज ओजो बल वीर्य प्रश्रयादींश्व सदगुणान्‌ ।

    प्रजानुरागं पार्थेषु न सहद्धिश्चिकीऋषितम्‌ ॥

    ५॥

    कृतं च धार्तराष्ट्रेयंद्गरदानाद्यपेशलम्‌ ।

    आचख्यौ सर्वमेवास्मै पृथा विदुर एव च ॥

    ६॥

    तेज:--प्रभाव; ओज:--चातुरी; बलम्‌--बल; वीर्यम्‌--बहादुरी; प्रश्रय--दीनता, विनय; आदीनू--इत्यादि; च--तथा; सत्‌ --उत्तम; गुणान्‌ू--गुणों को; प्रजा--नागरिकों का; अनुरागम्‌-महान्‌ स्नेह; पार्थेषु--पृथा के पुत्रों के लिए; न सहद्धिः--सहन नकर सकने वालों के; चिकीर्षितम्‌--मनो भाव; कृतम्‌--किया जा चुका; च-- भी; धार्तराष्ट्र: -- धृतराष्ट्र के पुत्रों द्वारा; यत्‌--जो;गर--विष का; दान--दान; आदि--इत्यादि; अपेशलम्‌-- अशो भनीय; आचख्यौ--बताया; सर्वम्‌--हर बात; एव--निस्सन्देह;अस्मै--उसको ( अक्रूर को ); पृथा--कुन्ती; विदुरः--विदुर; एव च--दोनों ने।

    अक्रूर से कुन्ती तथा विदुर ने धृतराष्ट्र के पुत्रों की दुर्भावनाओं का विस्तार से वर्णन किया।

    वे कुन्ती के पुत्रों के महान्‌ गुणों-यथा उनके शक्तिशाली प्रभाव, सैन्य-कौशल, शारीरिकबल, बहादुरी तथा विनयशीलता--या उनके प्रति नागरिकों के अगाध स्नेह को सहन नहीं करसकते थे।

    कुन्ती तथा विदुर ने अक्रूर को यह भी बतलाया कि धुृतराष्ट्र के पुत्रों ने किस तरहपाण्डवों को विष देने तथा ऐसे ही अन्य षड्यंत्रों को रचने का प्रयास किया था।

    पृथा तु भ्रातरं प्राप्तमक्रूरमुपसूृत्य तम्‌ ।

    'उवाच जन्मनिलयं स्मरन्त्यश्रुकलेक्षणा ॥

    ७॥

    पृथा--कुन्ती; तु--तथा; भ्रातरम्‌--अपने भाई ( वृष्णि का पौत्र, कुन्ती तथा बसुदेव की दसवीं पीढ़ी का पूर्बज ); प्राप्तम्‌--पाकर; अक्रूरम्‌--अक्रूर को; उपसृत्य--पास जाकर; तम्‌--उससे; उबवाच--बोलीं; जन्म--अपने जन्म; निलयम्‌--घर( मथुरा ); स्मरन्ती--स्मरण करती हुई; अश्रु--आँसुओं के; कला--अवशेषों से; ईक्षणा--जिसकी आँखें

    अपने भाई अक्ूर के आने का लाभ उठाकर कुन्तीदेवी उनके पास चुपके से पहुँचीं।

    अपनीजन्मभूमि ( मायका ) का स्मरण करते हुए वे अपनी आँखों में आँसू भरकर बोलीं।

    अपि स्मरन्ति नः सौम्य पितरौ भ्रातरश्न मे ।

    भगिन्यौ भ्रातृपुत्राश्च जामय: सख्य एव च ॥

    ८॥

    अपि--क्या; स्मरन्ति--स्मरण करते हैं; न:--हमको; सौम्य--हे भद्र; पितरौ--माता-पिता; भ्रातर:-- भाई; च--तथा; मे--मेरी; भगिन्यौ--बहनें; भ्रातृ-पुत्राः-- भाइयों के बेटे; च--तथा; जामय:ः--परिवार की स्त्रियाँ; सख्य:--सखियाँ; एवं च--भी।

    महारानी कुन्ती ने कहा : हे भद्र पुरुष, क्‍या मेरे माता-पिता, भाई, बहनें, भतीजे, परिवारकी स्त्रियाँ तथा बचपन की सखियाँ अब भी हमें याद करती हैं?भ् रात्रेयो भगवान्कृष्ण: शरण्यो भक्तवत्सलः ।

    पैतृष्वस्त्रेयान्स्मरति रामश्चाम्बुरुहे क्षण: ॥

    ९॥

    भ्रात्रे:-- भाई का पुत्र, भतीजा; भगवान्‌-- भगवान्‌; कृष्ण: --कृष्ण; शरण्य: --शरण देने वाला; भक्त--अपने भक्तों को;वत्सल:--दयालु; पैतृ-स्वस्त्रेयान्‌-- अपने पिता की बहन के लड़कों को; स्मरति--स्मरण करता है; राम:--बलराम; च--तथा;अम्बुरुह--कमल की पंखड़ियों जैसे; ईक्षण: --आँखें |

    क्या मेरा भतीजा कृष्ण, जो भगवान्‌ है और अपने भक्तों की कृपालु शरण रूप है, अब भीअपनी बुआ के पुत्रों को स्मरण करता है? क्या कमल जैसी आँखों वाला राम भी उन्हें स्मरण करता है?सपतनमध्ये शोचन्तीं वृकानां हरिणीमिव ।

    सान्त्वयिष्यति मां वाक्य: पितृहीनांश्च बालकान्‌ ॥

    १०॥

    सपल--शत्रुओं के; मध्ये--मध्य में; शोचन्तीमू--शोच करती; वृकानाम्‌-- भेड़ियों के; हरिणीम्‌--हिरनी; इब--सहृश;सान्त्वयिष्यति--क्या वह सान्त्वना दिलायेगा; मामू--मुझको; वाक्यैः --अपने शब्दों से; पितृ--उनके पिता; हीनानू--वंचित;च--तथा; बालकान्‌--बालकों को |

    इस समय जब मैं अपने शत्रुओं के बीच में उसी तरह कष्ट भोग रही हूँ जिस तरह एक हिरनीभेड़ियों के बीच में पाती है, तो कया कृष्ण मुझे तथा पितृविहीन मेरे पुत्रों को अपनी वाणी सेसान्त्वना देने आयेंगे ?

    कृष्ण कृष्ण महायोगिन्विश्वात्मन्विश्वभावन ।

    प्रपन्नां पाहि गोविन्द शिशुभिश्चावसीदतीम्‌ ॥

    ११॥

    कृष्ण कृष्ण--हे कृष्ण, हे कृष्ण; महा-योगिन्‌ू--महान्‌ आध्यात्मिक शक्ति के स्वामी; विश्व-आत्मनू--हे ब्रह्माण्ड के परमात्मा;विश्व-भावन--हे ब्रह्माण्ड के रक्षक; प्रपन्नामू--शरणागत स्त्री की; पाहि--रक्षा करो; गोविन्द--हे गोविन्द; शिशुभि: --मेंरेबच्चों समेत; च--तथा; अवसीदतीम्‌--दुख में डूब रही ।

    हे कृष्ण, हे कृष्ण! हे महान्‌ योगी! हे परमात्मा तथा ब्रह्माण्ड के रक्षक! हे गोविन्द! मेरी रक्षाकीजिये।

    मैं आपकी शरण में हूँ।

    मैं तथा मेरे पुत्र दुख से अभिभूत हैं।

    नान्यत्तव पदाम्भोजात्पश्यामि शरणं नृणाम्‌ ।

    बिभ्यतां मृत्युसंसारादीस्वरस्यापवर्गिकात्‌ ॥

    १२॥

    न--नहीं; अन्यत्‌-- अन्य; तव--तुम्हारे; पद-अम्भोजात्‌--चरणकमल की अपेक्षा; पश्यामि--देख रही हूँ; शरणम्‌--शरण;नृणाम्‌-मनुष्यों के लिए; बिभ्यताम्‌--डरे हुए; मृत्यु--मृत्यु का; संसारातू--तथा पुनर्जन्म से; ईश्वरस्थ-- भगवान्‌ का;आपवर्गिकात्‌-मोक्ष देने वाले

    जो लोग मृत्यु तथा पुनर्जन्म से भयभीत हैं, उनके लिए मैं आपके मोक्षदाता चरणकमलों केअतिरिक्त अन्य कोई शरण नहीं देखती, क्योंकि आप परमेश्वर हैं।

    नमः कृष्णाय शुद्धाय ब्रह्मणे परमात्मने ।

    योगेश्वराय योगाय त्वामहं शरणं गता ॥

    १३॥

    नमः--नमस्कार; कृष्णाय--कृष्ण को; शुद्धाय--शुद्ध; ब्रह्मणे--ब्रह्म, परम सत्य; परम-आत्मने--परमात्मा; योग--शुद्ध-भक्ति के; ईश्वराय--नियन्ता को; योगाय--समस्त ज्ञान के उद्गम को; त्वामू--तुमको; अहम्‌--मैं; शरणम्‌--शरण के लिए;गता--पास आई हूँ।

    मैं परम शुद्ध, परम सत्य, परमात्मा, शुद्ध-भक्ति के स्वामी तथा समस्त ज्ञान के उद्गम कोनमस्कार करती हूँ।

    मैं आपकी शरण में आई हूँ।

    श्रीशुक उबाचइत्यनुस्मृत्य स्वजनं कृष्णं च जगदी श्वरम्‌ ।

    प्रारुदहु:खिता राजन्भवतां प्रपितामही ॥

    १४॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इन शब्दों के साथ; अनुस्मृत्य--स्मरण करके; स्व-जनम्‌-- अपने सगे-सम्बन्धियों को; कृष्णम्‌--कृष्ण को; च--तथा; जगत्‌--ब्रह्माण्ड के; ईश्वरम्‌-- भगवान्‌ को; प्रारुदत्‌--जोर से रोने लगीं;दुःखिता--दुखी; राजन्‌--हे राजन्‌ ( परीक्षित ); भवताम्‌--आपकी; प्रपितामही --परदादी

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजनू, इस तरह अपने परिवार वालों का तथा ब्रह्माण्ड केस्वामी कृष्ण का स्मरण करके आपकी परदादी कुन्तीदेवी शोक में रोने लगीं।

    समदुःखसुखो क्रूरो विदुरश्च महायशा: ।

    सान्त्वयामासतु: कुन्तीं तत्पुत्रोत्पत्तिहेतुभि: ॥

    १५॥

    सम--समान; दुःख--दुख में; सुख: --तथा सुख में; अक्रूर:ः--अक्रूर; विदुर: --विदुर; च--तथा; महा-यशा: --अत्यन्तविख्यात; सान्त्वयाम्‌ आसतु:--दोनों ने सान्त्वना दी; कुन्तीम्‌-- श्रीमती कुन्तीदेवी को; तत्‌--उसके; पुत्र--पुत्रों के; उत्पत्ति--जन्मों के; हेतुभि:--कारणों के विषय में व्याख्या समेत |

    महारानी कुन्ती के सुख-दुख में हिस्सा बँटाने वाले अक्रूर तथा सुविख्यात विदुर दोनों ने हीकुन्ती को उनके पुत्रों के जन्म की असाधारण घटना की याद दिलाते हुए सान्त्वना दी।

    यास्यन्नाजानमभ्येत्य विषमं पुत्रलालसम्‌ ।

    अवदत्सुहृदां मध्ये बन्धुभि: सौहदोदितम्‌ ॥

    १६॥

    यास्यन्‌ू--जब वह जाने ही वाला था; राजानम्‌-राजा ( धृतराष्ट्र ) के; अभ्येत्य--पास जाकर; विषमम्‌--ईर्ष्यालु; पुत्र--पुत्रों केप्रति; लालसम्‌--लाड़-प्यार से; अवदत्‌--बोला; सुहृदाम्‌--सम्बन्धियों के; मध्ये--बीच में; बन्धुभि: --शुभचिन्तक सम्बन्धियों(कृष्ण तथा बलराम ) द्वारा; सौहद-मैत्री में; उदितम्‌ू--जो कहा जा चुका है।

    राजा धृतराष्ट्र के अपने पुत्रों के प्रति अत्यधिक स्नेह ने उसे पाण्डवों के प्रति अन्यायपूर्णव्यवहार करने के लिए बाध्य किया था।

    प्रस्थान करने के पूर्व अक्रूर राजा के पास गये जो उससमय अपने मित्रों तथा समर्थकों के बीच बैठा था।

    अक्रूर ने उसे वह सन्देश दिया जो उनकेसम्बन्धी कृष्ण तथा बलराम ने मैत्रीवश भेजा था।

    अक़रूर उबाचभो भो वैचित्रवीर्य त्वं कुरूणां कीर्तिवर्धन ।

    भ्रातर्युपरते पाण्डावधुनासनमास्थित: ॥

    १७॥

    अक्रूरः उबाच--अक्रूर ने कहा; भोः भो:--हे प्रिय, हे प्रिय; वैचित्रवीर्य--विचित्रवीर्य के पुत्र; त्वम्‌ू--तुम; कुरूणाम्‌--कुरुओंकी; कीर्ति--यश; वर्धन--हे बढ़ाने वाले; भ्रातरि--अपने भाई के; उपरते--दिवंगत हो जाने के बाद; पाण्डौ--महाराज पाण्डुके; अधुना--अब; आसनमू्‌--सिंहासन पर; आस्थित:-- आसीन |

    अक्रूर ने कहा : हे प्रिय विचित्रवीर्य के पुत्र, हे कुरूुओं की कीर्ति को बढ़ाने वाले, आपनेअपने भाई पाण्डु के दिवंगत होने के बाद राज-सिंहासन ग्रहण किया है।

    धर्मेण पालयचुर्वी प्रजा: शीलेन रक्जयन्‌ ।

    वर्तमान: समः स्वेषु श्रेयः कीर्तिमवाप्स्यसि ॥

    १८॥

    धर्मेण-- धर्मपूर्वक; पालयन्‌--रक्षा करते हुए; उर्बीम्‌--पृथ्वी को; प्रजा:--नागरिकजन; शीलेन--सच्चरित्रता से; रक्नयन्‌ --प्रसन्न करते हुए; वर्तमान: --रहते हुए; सम:--समभाव; स्वेषु-- अपने सम्बन्धियों के प्रति; श्रेय:--सफलता; कीर्तिम्‌ू--कीर्ति;अवाप्स्यसि--प्राप्त करोगे |

    धर्मपूर्वक पृथ्वी की रक्षा करते हुए, अपनी सच्चरित्रता से अपनी प्रजा को प्रसन्न रखते हुएतथा अपने सारे सम्बन्धियों के साथ एकसमान व्यवहार करते हुए आप अवश्य ही सफलता तथाकीर्ति प्राप्त करेंगे।

    अन्यथा त्वाचरँल्लोके गर्हितो यास्यसे तम:ः ।

    तस्मात्समत्वे वर्तस्व पाण्डवेष्वात्मजेषु च ॥

    १९॥

    अन्यथा--नहीं तो; तु--फिर भी; आचरनू्‌--कर्म करते हुए; लोके--इस जगत में; गर्हित: --निन्‍्दनीय; यास्यसे --प्राप्त करोगे;तम:--अंधकार; तस्मात्‌--इसलिए; समत्वे--समभाव में; वर्तस्व--स्थित रहो; पाण्डवेषु--पाण्डवों के प्रति; आत्म-जेषु--अपने पुत्रों के प्रति; च--तथा

    किन्तु यदि आप अन्यथा आचरण करेंगे तो लोग इसी लोक में आपकी निन्दा करेंगे औरअगले जन्म में आपको नारकीय अंधकार में प्रवेश करना होगा।

    अतः आप पाण्डु के पुत्रों तथाअपने पुत्रों के प्रति एक-सा बर्ताव करें।

    नेह चात्यन्तसंवास: कस्यचित्केनचित्सह ।

    राजन्स्वेनापि देहेन किमु जायात्मजादिभि: ॥

    २०॥

    न--नहीं; इह--इस जगत में; च--तथा; अत्यन्त--शा श्रवत; संवास: --संगति ( एक साथ निवास ); कस्यचित्‌--किसी का;केनचित्‌ सह--किसी के साथ; राजनू--हे राजन; स्वेन--अपने; अपि-- भी; देहेन--शरीर से; किम्‌ उ--तो फिर कया कहा जासकता है; जाया-- पत्नी; आत्म-ज--सन्तान; आदिभि:ः--इत्यादि से

    हे राजनू, इस जगत में किसी का किसी अन्य से कोई स्थायी सम्बन्ध नहीं है।

    हम अपने हीशरीर के साथ जब सदा के लिए नहीं रह सकते तो फिर हमारी पत्नी, सन्‍्तान तथा अन्यों के लिएक्‍या कहा जा सकता है ?

    एकः प्रसूयते जन्तुरेक एवं प्रलीयते ।

    एकोबनुभुड़े सुकृतमेक एवं च दुष्कृतम्‌ ॥

    २१॥

    एकः--अकेला; प्रसूयते--जन्म लेता है; जन्तु:--जीव; एक:--अकेला; एव-- भी; प्रलीयते--विनष्ट हो जाता है; एक: --अकेला; अनुभुड़े -- भोग करता है; सुकृतम्‌--अपने अच्छे कर्म-फलों को; एक:--अकेला; एव च--तथा निश्चय ही;दुष्कृतम्‌-बुरे कर्म-फलों को |

    हर प्राणी अकेला उत्पन्न होता है और अकेला मरता है।

    अकेला ही वह अपने अच्छे और बुरेकर्मों के फलों का भी अनुभव करता है।

    अधर्मोपचितं वित्त हरन्त्यन्येडइल्पमेधस: ।

    सम्भोजनीयापदेशैर्जलानीव जलौकसः ॥

    २२॥

    अधर्म--अधर्म से; उपचितम्‌ू--जोड़ी गईं; वित्तम्‌--सम्पत्ति; हरन्ति--चुरा लेते हैं; अन्ये-- अन्य लोग; अल्प-मेधस: --अल्पज्ञकी; सम्भोजनीय--मदद चाहने वाला; अपदेशैः --झूठी उपाधियों से; जलानि--जल; इब--सह्ृश; जल-ओकसः:--जल केनिवासियों का

    प्रिय आश्नितों के वेश में अनजाने लोग मूर्ख व्यक्ति द्वारा पाप से अर्जित सम्पत्ति को उसीतरह चुरा लेते हैं जिस तरह मछली की सनन्‍्तानें उस जल को पी जाती हैं, जो उनका पालन करनेवाला है।

    पुष्णाति यानधर्मेण स्वबुद्धया तमपण्डितम्‌ ।

    तेकृतार्थ प्रहिण्वन्ति प्राणा राय: सुतादय: ॥

    २३॥

    पुष्णाति--पोषण करता है; यान्‌ू--जो वस्तुएँ; अधर्मेण--पाप-कर्म से; स्व-बुद्धयघा--उन्हें अपनी सोचकर; तम्‌ू--उसको;अपण्डितमू--अशिक्षित; ते--वे; अकृत-अर्थम्‌--मनोरथ का निष्फल होना; प्रहिण्वन्ति--छोड़ देते हैं; प्राणा: -- प्राण; राय: --सम्पत्ति; सुत-आदय:--सन्तान इत्यादि |

    मूर्ख व्यक्ति अपने जीवन, सम्पत्ति तथा सन्‍्तान एवं अन्य सम्बन्धियों का भरण-पोषण करनेके लिए पाप-कर्म में प्रवृत्त होता है क्योंकि वह सोचता है 'ये वस्तुएँ मेरी हैं।

    किन्तु अन्त में येही वस्तुएँ उसे कुंठित अवस्था में छोड़ जाती हैं।

    स्वयं किल्बिषमादाय तैस्त्यक्तो नार्थकोविद: ।

    असिद्धार्थो विशत्यन्धं स्वधर्मविमुखस्तम: ॥

    २४॥

    स्वयम्‌--अपने लिए; किल्बिषम्‌--पापपूर्ण कर्म-फल; आदाय--लेकर; तैः --उनके द्वारा; त्यक्त:--छोड़ा हुआ; न--नहीं;अर्थ--अपने जीवन के लिए; कोविद:--ठीक से जानते हुए; असिद्ध--अपूर्ण; अर्थ: --लक्ष्य; विशति-- प्रवेश करता है;अन्धम्‌--गहन, घोर; स्व--निजी; धर्म--धर्म से; विमुख: --उदासीन; तम:--अंधकार ( नर्क का )

    अपने तथाकथित आश्रितों से परित्यक्त होकर, जीवन के वास्तविक लक्ष्य से अनजान,अपने असली कर्तव्य से उदासीन तथा अपने उद्देश्यों को पूरा करने में असफल होकर, बह मूर्खव्यक्ति अपने पाप-कर्मों को अपने साथ लेकर नर्क के अंधकार में प्रवेश करता है।

    तस्माललोकमिमं राजन्स्वप्नमायामनोरथम्‌ ।

    वीक्ष्यायम्यात्मनात्मानं समः शान्तो भव प्रभो ॥

    २५॥

    तस्मात्‌ू--इसलिए; लोकम्‌--संसार को; इमम्‌--इस; राजनू--हे राजन; स्वप्न--स्वण; माया--जादूगरी; मन:-रथम्‌ू--या मनकी कल्पना के रूप में; वीक्ष्य--देखकर; आयम्य--वश में करके; आत्मना--बुद्धि से; आत्मानम्‌--मन को; सम:--समभाव;शान्तः--शान्त; भव--बनो; प्रभो--हे स्वामी |

    अतः हे राजनू, इस संसार को स्वप्नवत, जादूगर का मायाजाल या मन की उड़ान समझकर, बुद्धि से अपने मन को वश में कीजिये और हे स्वामी! आप समभाव तथा शान्त बनिये।

    धृतराष्ट्र उबाचयथा वदति कल्याणीं वाचं दानपते भवान्‌ ।

    तथानया न तृप्यामि मर्त्य: प्राप्पय यथामृतम्‌ ॥

    २६॥

    धृतराष्ट्र: उवाच-- धृतराष्ट्र ने कहा; यथा--जिस तरह; वदति--बोलते हैं; कल्याणीम्‌--शुभ, मंगल; वाचम्‌--शब्द; दान--दानके; पते--हे स्वामी; भवान्‌ू--आप; तथा--उसी तरह; अनया--इससे; न तृप्यामि--मैं तृप्त नहीं हूँ; मर्त्य:--मरणशील;प्राप्प--प्राप्त करके; यथा--मानो; अमृतम्‌-- अमृत |

    धृतराष्ट्र ने कहा : हे दानपति, मैं आपके शुभ-वचनों को सुनते हुए कभी भी तृप्त नहीं होसकता।

    निस्सन्देह, मैं उस मर्त्य प्राणी की तरह हूँ जिसे देवताओं का अमृत प्राप्त हो चुका है।

    तथापि सूनृता सौम्य हृदि न स्थीयते चले ।

    पुत्रानुरागविषमे विद्युत्सौदामनी यथा ॥

    २७॥

    तथा अपि--फिर भी; सूनृता--मोहक शब्द; सौम्य--हे भद्र; हदि--मेरे हृदय में; न स्थीयते--स्थिर नहीं रहते; चले--जोचलायमान है; पुत्र--मेरे पुत्रों के लिए; अनुराग--स्नेह से; विषमे--पक्षपातपूर्ण ; विद्युतू--बिजली; सौदामनी--बादल में;यथा--जिस तरह।

    फिर भी, हे भद्र अक्रूर, क्योंकि मेरा अस्थिर हृदय अपने पुत्रों के स्नेह से पक्षपातयुक्त हैइसलिए आपके ये मोहक शब्द हृदय में स्थिर नहीं टिक पाते, जिस तरह बिजली बादल में स्थिरनहीं रह सकती।

    ईश्वरस्य विधि को नु विधुनोत्यन्यथा पुमान्‌ ।

    भूमेर्भारावताराय योवतीर्णो यदो: कुले ॥

    २८॥

    ईश्वरस्थ-- भगवान्‌ के; विधिम्‌--कानून को; कः-- क्या; नु--तनिक भी; विधुनोति--हटा सकता है; अन्यथा--नहीं तो;पुमानू-- पुरुष; भूमेः: --पृथ्वी का; भार--बोझ; अवताराय--कम करने के लिए; यः--जो; अवतीर्ण:--अवतरित हुआ है;यदोः--यदु के; कुले--परिवार में

    भला उन भगवान्‌ के आदेशों का उल्लंघन कौन कर सकता है, जो पृथ्वी का भार कमकरने के लिए अब यदुवंश में अवतार ले चुके हैं?

    यो दुर्विमर्शपथया निजमाययेदंसृष्ठा गुणान्विभजते तदनुप्रविष्ट: ।

    तस्मै नमो दुरवबो धविहारतन्त्र-संसारचक्रगतये परमेश्वराय ॥

    २९॥

    यः--जो; दुर्विमर्श--अचिन्त्य; पथया--जिसका मार्ग; निज--अपनी; मायया--सृजनात्मक शक्ति से; इृदम्‌--इस ब्रह्माण्डको; सृष्टा--सूजित करके ; गुणानू--इसके गुणों को; विभजते--बाँट देता है; तत्‌--उसी के भीतर; अनुप्रविष्ट:--प्रवेश करतेहुए; तस्मै--उसको; नमः--नमस्कार; दुरवबोध--- अथाह; विहार--लीला; तन्त्र--तात्पर्य; संसार--जन्म तथा मृत्यु का;चक्र--चक्कर; गतये--तथा मोक्ष; परम-ईश्रराय-- परम नियन्ता के प्रति।

    मैं उन भगवान्‌ को नमस्कार करता हूँ जो अपनी भौतिक शक्ति की अचिन्त्य क्रियाशीलतासे इस ब्रह्माण्ड का सृजन करते हैं और फिर सृष्टि के भीतर प्रविष्ट होकर प्रकृति के विभिन्न गुणोंको वितरित कर देते हैं।

    जिनकी लीलाओं का अर्थ अगाध है, उन्हीं से यह जन्म-मृत्यु काबन्धनकारी चक्र तथा उससे मोक्ष पाने की विधि उत्पन्न हुए हैं।

    तात्पर्य : इतना सब कुछ कहने पर भी धृतराष्ट्र सामान्य व्यक्ति न होकर भगवान्‌ कृष्ण का संगीथा।

    निश्चय ही भगवान्‌ के प्रति ऐसी विद्वत्तापूर्ण स्तुति कोई सामान्य व्यक्ति नहीं कर सकता था।

    श्रीशुक उबाचइत्यभिप्रेत्य नृपतेरभिप्रायं स यादव: ।

    सुहद्धि: समनुज्ञातः पुनर्यदुपुरीमगात्‌ ॥

    ३०॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; अभिप्रेत्य--निश्चित करके; नृपतेः--राजा की; अभिप्रायम्‌--मनोवृत्ति; सः--वह; यादव: --राजा यदु का वंशज, अक्रूर; सुहर्द्धिः--अपने शुभचिन्तकों द्वारा; समनुज्ञात:--विदा होने कीअनुमति दिया हुआ; पुनः --फिर; यदु-पुरीम्‌--यदुवंश की नगरी में; अगात्‌ू--गया।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा, इस तरह राजा के अभिप्राय को समझकर यदुवंशी अक्रूर नेअपने शुभचिन्तक सम्बन्धियों तथा मित्रों से अनुमति ली और यादवों की राजधानी लौट आये।

    शशंस रामकृष्णाभ्यां धृतराष्ट्रविचेष्टितम्‌ ।

    पाण्दवान्प्रति कौरव्य यदर्थ प्रेषित: स्वयम्‌ ॥

    ३१॥

    शशंस--सूचित किया; राम-कृष्णाभ्याम्‌ू--बलराम तथा कृष्ण को; धृतराष्ट्र-विचेष्टितम्‌-- धृतराष्ट्र के आचरण; पाण्डवान्‌प्रति--पाण्डु के पुत्रों के प्रति; कौरव्य--हे कुरुवंशी ( परीक्षित ); यत्‌--जिस; अर्थम्‌--प्रयोजन के लिए; प्रेषित:-- भेजा गया;स्वयम्‌--स्वयं।

    अक्रूर ने बलराम तथा कृष्ण को यह सूचित किया कि धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति कैसाबर्ताव है।

    इस तरह हे कुरुवंशी, उन्होंने उस अभिप्राय की पूर्ति कर दी जिसके लिए वे भेजे गयेथे।

    TO

    अध्याय पचास: कृष्ण ने द्वारका शहर की स्थापना की

    10.50श्रीशुक उबाचअस्तिः प्राप्तिश्न कंसस्य महिष्यौ भरतर्षभ ।

    मृते भर्तरि दुःखार्ते ईयतुः सम पितुर्गृहान्‌ ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; अस्तिः प्राप्ति: च--अस्ति तथा प्राप्ति; कंसस्य--कंस की; महिष्यौ--दोपटरानियाँ; भरत-ऋषभ--हे भरतवंशी के बीर ( परीक्षित ); मृते--मार डाले जाने पर; भर्तरि--अपने पति के; दुःख--दुख से;आर्ते--शोकमग्न; ईयतु: स्म--चली गईं; पितु:--अपने पिता के; गृहान्‌ू--घरों |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब कंस मार डाला गया तो हे भरतर्षभ, उसकी दो पटरानियाँअस्ति तथा प्राप्ति अत्यन्त दुखी होकर अपने पिता के घर चली गईं।

    पित्रे मगधराजाय जरासन्धाय दुःखिते ।

    बेदयां चक्रतु: सर्वमात्मवैधव्यकारणम्‌ ॥

    २॥

    पित्रे--अपने पिता; मगध-राजाय--मगध के राजा; जरासन्धाय--जरासंध से; दु:ःखिते--दुखी; वेदयाम्‌ चक्रतु: --उन्होंने कहसुनाया; सर्वम्‌--सारे; आत्म--अपने; वैधव्य--विधवा होने का; कारणमू--कारण।

    दुखी रानियों ने अपने पिता मगध के राजा जरासन्ध से सारा हाल कह सुनाया कि वे किसतरह विधवा हुईं।

    स तदप्रियमाकर्ण्य शोकामर्षयुतो नूप ।

    अयादवीं महीं कर्तु चक्रे परममुद्यमम्‌ ॥

    ३ ॥

    सः--वह, जरासन्ध; तत्‌--उस; अप्रियम्‌--बुरे समाचार को; आकर्णर्य--सुनकर; शोक--शोक; अमर्ष--तथा असह्य क्रोध;युतः--अनुभव करते हुए; नृप--हे राजा; अयादवीम्‌ू--यादवों से विहीन; महीम्‌--पृथ्वी को; कर्तुम्‌ू--करने के लिए; चक्रे --किया; परमम्‌-- अत्यधिक; उद्यमम्‌-प्रयत |

    हे राजन, यह अप्रिय समाचार सुनकर जरासन्ध शोक तथा क्रोध से भर गया और पृथ्वी कोयादवों से विहीन करने के यथासम्भव प्रयास में जुट गया।

    अक्षौहिणीभिर्विशत्या तिसृभिश्चापि संवृतः ।

    यदुराजधानीं मथुरां न्यरु धत्सर्वती दिशम्‌ ॥

    ४॥

    अक्षौहिणीभि:--अक्षौहिणियों से ( एक अक्षौहिणी में २१,८७० हाथी, २९,८७० रथ, ६५,६१० घुड़सवार तथा १,०९,३५०पैदल सैनिक होते हैं ); विंशत्या--बीस; तिसृभि: च अपि--तीन और; संवृतः--घेर लिया; यदु--यदुवंश की; राजधानीम्‌ू--राजधानी; मथुराम्‌--मथुरा को; न्यरुधत्‌ू--घेरा डाल दिया; सर्वतः दिशम्‌-ओन्‌ अल्ल्‌ सिदेस्‌

    उसने तेईस अक्षौहिणी सेना लेकर यदुओं की राजधानी मथुरा के चारों ओर घेरा डाल दिया।

    निरीक्ष्य तद्वलं कृष्ण उद्देलमिव सागरम्‌ ।

    स्वपुरं तेन संरुद्धं स्वजनं च भयाकुलम्‌ ॥

    ५॥

    चिन्तयामास भगवान्हरि: कारणमानुष: ।

    तद्देशकालानुगुणं स्वावतारप्रयोजनम्‌ ॥

    ६॥

    निरीक्ष्य--देखकर; तत्‌--उस ( जरासन्ध ) के; बलम्‌ू--सैनिक-शक्ति; कृष्ण: --कृष्ण; उद्देलम्‌ू--सीमाओं को लाँघकर; इब--सहश; सागरम्‌--समुद्र; स्व-- अपनी; पुरम्‌ू--नगरी, मथुरा को; तेन--उससे; संरुद्धम्‌--घिरी; स्व-जनमू--अपनी प्रजा को;च--तथा; भय-- भय से; आकुलमू--व्याकुल; चिन्तयाम्‌ आस--सोचा; भगवानू-- भगवान्‌; हरि: -- हरि ने; कारण --सभीके कारण; मानुष:--मनुष्य रूप में प्रकट होकर; तत्‌ू--उस; देश--स्थान; काल--तथा समय के; अनुगुणम्‌--उपयुक्त; स्व-अवतार--इस संसार में अपने अवतरण के; प्रयोजनम्‌--कारण के विषय में

    यद्यपि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ कृष्ण इस संसार के आदि-कारण हैं किन्तु जब वे इस पृथ्वीपर अवतरित हुए तो उन्होंने मनुष्य की भूमिका निबाही।

    अतः जब उन्होंने देखा कि जरासन्ध कीसेना ने उनकी नगरी को उसी तरह घेर लिया है, जिस तरह महासागर अपने किनारों को तोड़करबहने लगता है और जब उन्होंने देखा कि यह सेना उनकी प्रजा में भय उत्पन्न कर रही है, तो भगवान्‌ ने विचार किया कि देश, काल तथा उनके वर्तमान अवतार के विशिष्ट प्रयोजन केअनुकूल उनकी उपयुक्त प्रतिक्रिया क्या होनी चाहिए।

    हनिष्यामि बल॑ होतद्भुवि भारं समाहितम्‌ ।

    मागधेन समानीतं वश्यानां सर्वभूभुजाम्‌ ॥

    ७॥

    अक्षौहिणीभि: सड्ख्यातं भटाश्वरथकुञ्धरै: ।

    मागधस्तु न हन्तव्यो भूयः कर्ता बलोद्यमम्‌ ॥

    ८॥

    हनिष्यामि--मैं मार डालूँगा; बलम्‌ू--सेना को; हि--निश्चय ही; एतत्‌--इस; भुवि--पृथ्वी पर; भारम्‌-- भार को;समाहितम्‌--एकत्र; मागधेन--मगध के राजा, जरासन्ध द्वारा; समानीतम्‌--लाया गया; वश्यानामू--अधीन; सर्व--सभी; भू-भुजाम्‌--राजाओं को; अक्षौहिणीभि:--अक्षौहिणियों में ; सड्ख्यातम्‌--गिनी जाने वाली; भट--पैदल सैनिकों; अश्व--घोड़े;रथ--रथ; कुझ्रैः--तथा हाथियों से युक्त; मागध:--जरासन्ध; तु--किन्तु; न हन्तव्य:--नहीं मारा जाना चाहिए; भूय:ः--फिरसे; कर्ता--करेगा; बल--सेना ( एकत्र करने के लिए ); उद्यमम्‌-प्रयास

    भगवान्‌ ने सोचा : चूँकि पृथ्वी पर इतना भार है, अतः मैं जरासन्ध की इस सेना कोविनष्ट कर दूँगा जिसमें अक्षौहिणियों पैदल सैनिक, घोड़े, रथ तथा हाथी हैं, जिसे मगध के राजाने अपने अधीनस्थ राजाओं से बटोरकर यहाँ ला खड़ा किया है।

    किन्तु मुझे जरासंध को नहींमारना चाहिए क्योंकि भविष्य में वह निश्चित रूप से दूसरी सेना जोड़ लेगा।

    एतदर्थोवतारोयं भूभारहरणाय मे ।

    संरक्षणाय साधूनां कृतोउन्येषां वधाय च ॥

    ९॥

    एतत्‌--इस; अर्थ:--प्रयोजन के लिए; अवतार:--अवतार; अयम्‌--यह; भू--पृथ्वी का; भार--बोझ; हरणाय--हटाने केलिए; मे--मेरे द्वारा; संरक्षणाय--पूरी सुरक्षा के लिए; साधूनामू--साधुओं की; कृत:--किया गया; अन्येषाम्‌--अन्यों( असाधुओं ) का; वधाय--मारने के लिए; च--तथा।

    मेरे इस अवतार का यही प्रयोजन है--पृथ्वी के भार को दूर करना, साधुओं की रक्षा करनाऔर असाधुओं का वध करना।

    अन्योपि धर्मरक्षायै देह: संभ्रियते मया ।

    विरामायाप्यधर्मस्य काले प्रभवतः क्वचित्‌ ॥

    १०॥

    अन्य:--दूसरा; अपि-- भी; धर्म-- धर्म की; रक्षायै--रक्षा के लिए; देह:--शरीर; संथ्रियते-- धारण किया जाता है; मया--मेरेद्वारा; विरामाय--रोकने के लिए; अपि-- भी; अधर्मस्य--अधर्म का; काले--समय के साथ; प्रभवत:--प्रधान बनने पर;क्वचित्‌--जब भी |

    मैं धर्म की रक्षा करने तथा जब जब समय के साथ अधर्म की प्रधानता होती है, तो उसकाअन्त करने के लिए भी अन्य शरीर धारण करता हूँ।

    एवं ध्यायति गोविन्द आकाशात्सूर्यवर्चसौ ।

    रथावुपस्थितौ सद्य: ससूतौ सपरिच्छदौ ॥

    ११॥

    एवम्‌--इस प्रकार से; ध्यायति--विचार करते हुए; गोविन्दे-- भगवान्‌ कृष्ण द्वारा; आकाशात्‌--आकाश से; सूर्य--सूर्य जैसे;वर्चसौ--तेज वाले; रथौ--दो रथ; उपस्थितौ--प्रकट हो गये; सद्यः--सहसा; स--सहित; सूतौ--सारथियों; स--सहित;परिच्छदौ--साज-सामान।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब भगवान्‌ गोविन्द इस तरह सोच रहे थे तो सूर्य के समानतेज वाले दो रथ आकाश से सहसा नीचे उतरे।

    वे सारथियों तथा साज-सज्जा से युक्त थे।

    आयुधानि च दिव्यानि पुराणानि यहच्छया ।

    इृष्ठा तानि हषीकेश: सड्डूर्षणमथात्रवीत्‌ ॥

    १२॥

    आयुधानि--हथियार; च--तथा; दिव्यानि--दिव्य; पुराणानि--पुराने; यहच्छया--स्वतः; इृष्ला --देखकर; तानि-- उनको;हृषीकेश:-- भगवान्‌ कृष्ण; सद्डूर्षणम्‌--बलराम से; अथ--तब; अब्रवीत्‌--बोलेउसी समय भगवान्‌ के दिव्य हथियार भी स्वतः उनके समक्ष प्रकट हो गये।

    इन्हें देखकरइन्द्रियों के स्वामी श्रीकृष्ण ने भगवान्‌ संकर्षण से कहा।

    पश्यार्य व्यसन प्राप्तं यदूनां त्वावतां प्रभो ।

    एष ते रथ आयातो दयितान्यायुधानि च ॥

    १३॥

    एतदर्थ हि नौ जन्म साधूनामीश शर्मकृत्‌ ।

    त्रयोविंशत्यनीकाख्यं भूमेर्भारमपाकुरू ॥

    १४॥

    पश्य--देखिये; आर्य--सम्मान्य; व्यसनम्‌--खतरा, संकट; प्राप्तम्‌--आया हुआ; यदूनाम्‌ू--यदुओं के लिए; त्वा--तुम्हारेद्वारा; अवताम्‌--सुरक्षित; प्रभो--हे स्वामी; एब: --यह; ते--तुम्हारा; रथ: --रथ; आयात:--आ चुका है; दयितानि--प्रिय;आयुधानि--हथियार; च--तथा; एतत्‌-अर्थम्‌--इस प्रयोजन के लिए; हि--निस्सन्देह; नौ--हमारा; जन्म--जन्म; साधूनामू--साधु-भक्तों का; ईश-े प्रभु; शर्म--लाभ; कृत्‌ू--करते हुए; त्रय:-विंशति--तेईस; अनीक--सेनाएँ; आख्यम्‌--के नाम से;भूमे:--पृथ्वी का; भारमू-- भार; अपाकुरु--हटाइये

    भगवान्‌ ने कहा : हे पूज्य ज्येष्ठ भ्राता, आप अपने आश्रित यदुओं पर आये हुए इससंकट को तो देखिये! और हे प्रभु, यह भी देखिये कि आपका निजी रथ तथा आपकी पसन्द केहथियार आपके समक्ष आ चुके हैं।

    हे प्रभु! हमने जिस उद्देश्य से जन्म लिया है, वह अपने भक्तोंके कल्याण को सुरक्षित करना है।

    कृपया अब इन तेईस सैन्य-टुकड़ियों के भार को पृथ्वी सेहटा दीजिये।

    एवं सम्मन्य दाशाहों दंशितौ रथिनौ पुरात्‌ ।

    निर्जग्मतु: स्वायुधाढ्यौं बलेनाल्‍्पीयसा वृतौ ॥

    १५॥

    एवम्‌--इस तरह; सम्मन्त्य--आमंत्रित करके; दाशाहौं--दशाई के दो वंशज ( कृष्ण तथा बलराम ); दंशितौ--कवच पहनकर;रथिनौ--रथों पर आरूढ़ होकर; पुरात्‌--नगरी से; निर्जग्मतु:--बाहर गये; स्व--अपने; आयुध--हथियार; आढ्यौ--चमचमाते; बलेन--सेना द्वारा; अल्पीयसा--अत्यन्त लघु; वृतौ--साथ में लेकर

    भगवान्‌ कृष्ण द्वारा अपने भाई को इस तरह आमंत्रित करने के बाद, दोनों दशा कृष्णतथा बलराम कवच पहन कर और अपने अपने चमचमाते हथियारों को प्रदर्शित करते हुए अपनेरथों पर चढ़कर नगरी के बाहर चले गये।

    उनके साथ सैनिकों की छोटी-सी टुकड़ी ही थी।

    शड्डुं दध्मौ विनिर्गत्य हरिदारुकसारथि: ।

    ततो<भूत्परसैन्यानां हृदि वित्रासवेपथु: ॥

    १६॥

    शब्डबुमू-- अपना शंख; दध्मौ--बजाया; विनिर्गत्य--बाहर जाकर; हरि: --कृष्ण ने; दारूक-सारथि:--जिनका सारथी दारुकथा; ततः--तत्पश्चात्‌; अभूत्‌--उठी; पर--शत्रु के; सैन्यानामू--सैनिकों के; हृदि--हृदयों में; वित्रास-- भय से; वेपथु:--कँपकँपी।

    जब भगवान्‌ कृष्ण दारुक द्वारा हाँके जा रहे अपने रथ पर चढ़कर नगरी से बाहर आ गयेतो उन्होंने अपना शंख बजाया।

    इससे शत्रु-सैनिकों के हृदय भय से काँपने लगे।

    तावाह मागधो वीक्ष्य हे कृष्ण पुरुषाधम ।

    न त्वया योद्धुमिच्छामि बालेनैकेन लजया ।

    गुप्तेन हि त्वया मन्द न योत्स्ये याहि बन्धुहन्‌ ॥

    १७॥

    तौ--दोनों से; आह--कहा; मागध: --जरासंध ने; वीक्ष्य--देखकर; हे कृष्ण--हे कृष्ण; पुरुष-अधम--पुरुषों में सबसे निम्न;न--नहीं; त्ववा--तुमसे; योद्दुमू--लड़ने के लिए; इच्छामि--इच्छा करता हूँ; बालेन--बालक के साथ; एकेन--अकेला;लज्या--शर्म से; गुप्तेत--छिपी; हि--निस्सन्देह; त्वया--तुम्हारे द्वारा; मन्द--हे मूर्ख; न योत्स्ये--नहीं लड़ूँगा; याहि--चलेजाओ; बन्धु--सम्बन्धियों का; हन्‌ू--ओरे वध करने वाले

    जरासन्ध ने दोनों की ओर देखा और कहा : ओरे पुरुषों में अधम कृष्ण, मैं तुझसे अकेलेनहीं लड़ना चाहता क्योंकि एक बालक से युद्ध करना लज्जा की बात होगी।

    अरे अपने को गुप्तरखने वाले मूर्ख, अपने सम्बन्धियों की हत्या करने वाले, तू भाग जा! मैं तुझसे युद्ध नहींकरूँगा।

    तब राम यदि श्रद्धा युध्यस्व धैर्यमुद्ठह ।

    हित्वा वा मच्छरैश्छन्नं देहं स्वर्याहि मां जहि ॥

    १८ ॥

    तव--तुम्हारा; राम--हे बलराम; यदि--यदि; अ्रद्धा--विश्वास; युध्यस्व--लड़ो; धैर्यम्‌--थैर्य; उद्दद-- धारण करो; हित्वा--छोड़कर; वा--या तो; मत्‌--मेरे; शरैः--बाणों से; छिन्नमू--खण्ड खण्ड होकर; देहम्‌ू--तुम्हारा शरीर; स्वः--स्वर्ग को;याहि--जाओ; मामू--( या फिर ) मुझको; जहि--मारो |

    रे बलराम, तू थैर्य सँजो करके मुझसे लड़, यदि तू सोचता है कि तू ऐसा कर सकता है।

    यातो तू मेरे बाणों के द्वारा खण्ड खण्ड होने से अपना शरीर त्याग और इस तरह स्वर्ग प्राप्त कर याफिर तू मुझे जान से मार।

    श्रीभगवानुवाचन वै शूरा विकत्थन्ते दर्शयन्त्येव पौरुषम्‌ ।

    न गृह्वीमो बचो राजन्नातुरस्य मुमूर्षत: ॥

    १९॥

    श्री-भगवान्‌ उबाच-- भगवान्‌ ने कहा; न--नहीं; बै--निस्सन्देह; शूरा:--वीर; विकत्थन्ते--डींग मारते हैं; दर्शबन्ति--दिखलाते हैं; एब--केवल; पौरुषम्‌-- अपना पराक्रम; न गृह्वीम:--हम नहीं मानते; वचः--शब्द; राजन्‌ू--हे राजन;आतुरस्य--मानसिक रूप से व्याकुल के; मुमूर्षतः--मरने वाले ।

    भगवान्‌ ने कहा : असली वीर केवल डींग नहीं मारते अपितु अपने कार्य के द्वारा पराक्रमका प्रदर्शन करते हैं।

    जो चिन्ता से पूर्ण हो और मरना चाहता हो उसके शब्दों को हम गम्भीरतासे नहीं ले सकते।

    श्रीशुक उबाचजरासुतस्तावभिसृत्य माधवौमहाबलौघेन बलीयसावूनोत्‌ ।

    ससैन्ययानध्वजवाजिसारथी सूर्यानलौ वायुरिवाभ्ररेणुभि: ॥

    २०॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; जरा-सुतः--जरा का पुत्र; तौ--वे दोनों; अभिसृत्य--पास जाकर; माधवौ--मधु के वंशज; महा--विशाल; बल--सैनिक-शक्ति की; ओघेन--बाढ़ से; बलीयसा--बलवान; आवृणोत्‌--घेर लिया; स--सहित; सैन्य--सैनिकों के; यान--रथ; ध्वज--झंडे; वाजि--घोड़े; सारथी --रथ हाँकने वाले; सूर्य--सूर्य; अनलौ--तथाअग्नि; वायु:--वायु; इब--सहृश; अभ्र--बादलों से; रेणुभि:--धूल के कणों से |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जिस तरह वायु बादलों से सूर्य को या धूल से अग्नि को ढकलेती है उसी तरह जरा का पुत्र, मधु के दो वंशजों की ओर चल पड़ा और उसने अपनी विशालसेनाओं से उन्हें तथा उनके सैनिकों, रथों, पताकाओं, घोड़ों तथा सारथधियों को घेर लिया।

    सुपर्णतालध्वजचिहित्नौ रथा-वलक्षयन्त्यो हरिरामयोर्मुधे ।

    स्त्रियः पुराह्ालकहर्म्यगोपुरंसमाश्रिता: सम्मुमुहु: शुचार्दित: ॥

    २१॥

    सुपर्ण--गरुड़; ताल--तथा ताड़ ( चिह्नों ) से युक्त; ध्वज--झंडों से; चिह्नितौ-- अंकित; रथौ--दोनों रथ; अलक्षयन्त्य:--नपहचान पाती हुई; हरि-रामयो: --कृष्ण तथा बलराम के; मृधे--युद्ध में; स्त्रियः--स्त्रियाँ; पुर--नगरी की; अट्टालक--अटारियों; हर्म्ष--प्रासादों; गोपुरम्‌--तथा द्वारों पर; समाञ्रिता:--चढ़कर; सम्मुमुहुः--मूर्च्छित हो गईं; शुचचा--शोक से;अर्दिता:--पीड़ित |

    स्त्रियाँ अटारियों, महलों तथा नगर के ऊँचे द्वारों पर खड़ी हुई थीं।

    जब उन्हें कृष्ण तथाबलराम के रथ नहीं दिखाई पड़े, जिनकी पहचान गरुड़ तथा ताड़-वृक्ष के प्रतीकों से चिन्हितपताकाओं से होती थी, तो वे शोकाकुल होकर मूच्छित हो गईं।

    हरिः परानीकपयोमुचां मुहुःशिलीमुखात्युल्बणवर्षपीडितम्‌ ।

    स्वसैन्यमालोक्य सुरासुरार्चितंव्यस्फूर्जयच्छार्डशरासनोत्तमम्‌ ॥

    २२॥

    हरि: --कृष्ण; पर--शत्रु की; अनीक--सेनाओं के; पयः-मुचाम्‌--( जो ) बादलों ( की तरह थे ); मुहुः--बारम्बार;शिलीमुख--उनके बाणों के; अति--अत्यधिक; उल्बण-- भयावनी; वर्ष--वर्षा से; पीडितम्‌ू-- पीड़ित; स्व--अपनी;सैन्यम्‌ू--सेना को; आलोक्य--देखकर; सुर--देवताओं; असुर--तथा असुरों द्वारा; अर्चितम्‌--पूजित; व्यस्फूर्जवत्‌--टंकारकिया; शार्इ्--शार्ड्ध नामक; शर-असन--अपना धनुष; उत्तमम्‌--उत्तम |

    अपने चारों ओर बादलों जैसी विशाल शत्रु सेनाओं के बाणों की भयानक तथा निर्मम वर्षासे अपनी सेना को पीड़ित देखकर भगवान्‌ हरि ने अपने उस उत्तम धनुष शार्ड़र पर टंकार की जोदेवताओं तथा असुरों दोनों के द्वारा पूजित है।

    गृह्नत्रिशज्ञदथ सन्दधच्छरान्‌विकृष्य मुझ्नन्शितबाणपूगान्‌ ।

    निष्नत्रथान्कुझ्रवाजिपत्तीन्‌निरन्तरं यद्वदलातचक्रम्‌ ॥

    २३॥

    गृहननू--निकालते हुए; निशज्ञत्‌--तरकस से; अथ--त्पश्चात; सन्दधत्‌--स्थिर करते हुए; शरान्‌--बाणों को; विकृष्य--खींचकर; मुझ्नन्‌--छोड़ते हुए; शित--तीक्षण; बाण--बाणों की; पूगान्‌--बाढ़; निघ्नन्‌ू-- प्रहार करते हुए; रथान्‌--रथों;कुझर--हाथियों; वाजि--घोड़ों; पत्तीनू--तथा पैदल सिपाहियों को; निरन्तरम्‌--लगातार; यद्वतू--की तरह; अलात-चक्रम्‌--आग का गोला, लुकाठी।

    भगवान्‌ कृष्ण ने अपने तरकस से तीर निकाले, उन्हें प्रत्यंचा ( धनुष की डोरी ) पर स्थितकिया ( चढ़ाया ), डोरी खींची और तीक्ष्ण बाणों की झड़ी लगा दी जिसने शत्रु के रथों,हाथियों, घोड़ों तथा पैदल सिपाहियों पर जाकर वार किया।

    भगवान्‌ अपने तीरों को अलात-चक्र की तरह छोड़ रहे थे।

    निर्मिन्नकुम्भा: करिणो निपेतु-रनेकशो श्रा: शरवृक्णकन्धरा: ।

    रथा हताश्चवध्वजसूतनायका:पदायतश्छिन्नभुजोरुकन्धरा: ॥

    २४॥

    निर्भिन्न--फटे हुए; कुम्भा:--माथे का गण्डस्थल; करिण:--हाथी; निपेतु:--गिर पड़े; अनेकश:--एक बार में कई कई;अश्वा:--घोड़े; शर--बाणों से; वृकण--कटे हुए; कन्धरा: -गर्दनें; रथा: --रथ; हत--मारे गये; अश्व--घोड़े; ध्वज--पताकाएँ; सूत--सारथी; नायकाः--तथा नायक ( स्वामी ); पदायत:ः--पैदल सैनिक; छिन्न--कटी हुई; भुज-- भुजाएँ; ऊरुू--जाँघें; कन्धरा:--तथा कंधे

    हाथी धराशायी हो गये, उनके माथे फट गये, कटी गर्दनों वाले सेना के घोड़े गिर गये, रथघोड़ों, झंडों, सारथियों तथा स्वामियों समेत टूट-फूटकर गिर गये और कटी हुई भुजाओं, जाँघोंतथा कन्धों वाले पैदल सिपाहियों ने दम तोड़ दिए।

    सज्छिद्यमानद्विपदेभवाजिना-मड्डप्रसूता: शतशोसृगापगा: ।

    भुजाहयः पूरुषशीर्षकच्छपाहतद्विपद्वीपहय ग्रहाकुला: ॥

    २५॥

    'करोरुमीना नरकेशशैवलाधनुस्तरड्रायुधगुल्मसह्लू ला: ।

    अच्छूरिकावर्तभयानका महा-मणिप्रवेकाभरणाएमशर्करा: ॥

    २६॥

    प्रवर्तिता भीरु भयावहा मृथेमनस्विनां हर्षकरीः परस्परम्‌ ।

    विनिध्नतारीन्मुषलेन दुर्मदान्‌सड्डूर्षणेनापरीमेयतेजसा ॥

    २७॥

    बल॑ तदड्ार्णवदुर्ग भैरवंदुरन्तपारं मगधेन्द्रपालितम्‌ ।

    क्षयं प्रणीतं वसुदेवपुत्रयो-विक्रीडितं तजगदीशयो: परम्‌ ॥

    २८ ॥

    सज्छिद्यमान--खण्ड खण्ड होकर; द्वि-पद--दो पैर वाले ( मनुष्य ); इभ--हाथी; वाजिनाम्‌--तथा घोड़ों के; अड्ड--अंगों से;प्रसूताः--बहते हुए; शतशः--सैकड़ों; असृक्‌ --रक्त की; आप-ग:ः--नदियाँ; भुज--बाँहें; अहय:--सर्पों की तरह; पूरूुष--मनुष्यों की; शीर्ष--सिर; कच्छपा:-- कछुवों की तरह; हत--मृत; द्विप--हाथी; द्वीप--द्वीपों की तरह; हय--तथा घोड़ों से;ग्रह--घड़ियालों की तरह; आकुला:--पूरित; कर--हाथ; ऊरु--तथा जाँघें; मीन:--मछलियों की तरह; नर--मनुष्य के;केश--बाल; शैवला: --सिवार की तरह; धनु:--धनुष; तरड्ग--लहरों की तरह; आयुध--तथा हथियार; गुल्म--झाड़ियों केकुंज की तरह; सह्डू लाः --एकत्रित; अच्छूरिका--रथ के पहिए; आवर्त--भँवरों की तरह; भयानका:-- भयावनी; महा-मणि--बहुमूल्य मणियाँ; प्रवेक--उत्तम; आभरण--तथा गहने; अश्म--पत्थरों की तरह; शर्करा:--तथा बालू; प्रवर्तिता:--बाहर निकालते हुए; भीरू--कायर के लिए; भय-आवहा:--डराने वाले; मृधे --युद्धभूमि में; मनस्विनाम्‌--बुद्धिमानों के लिए;हर्ष-करी:--हर्ष प्रदान करने वाले; परस्परम्‌--एक-दूसरे से; विनिषध्नता--प्रहार करते हुए; अरीन्‌--अपने शत्रुओं को;मुषलेन--अपने हलायुध से; दुर्मदान्‌--प्रचण्ड, क्रुद्ध; सड्डूर्षणेन--बलराम द्वारा; अपरिमेय--अथाह; तेजसा--बल से;बलमू--सैन्य-शक्ति; तत्‌--उस; अड़--हे प्रिय ( राजा परीक्षित ); अर्गब--सागर की तरह; दुर्ग--अगाध; भेरवम्‌--तथाभयावना; दुरन्‍्त--दुर्लध्य; पारम्‌ू--सीमा; मगध-इन्द्र--मगध के राजा जरासन्ध द्वारा; पालितमू--देखभाल किया हुआ;क्षयम्‌--विनाश को; प्रणीतम्‌--प्राप्त हुआ; बसुदेव-पुत्रयो: --वसुदेव के पुत्रों के लिए; विक्रीडितम्‌-- खेल; तत्‌ू--वह;जगत्‌--ब्रह्माण्ड; ईशयो:--प्रभुओं के लिए; परम्‌ू--परम |

    युद्धभूमि में मनुष्यों, हाथियों तथा घोड़ों के खण्ड खण्ड हो जाने से रक्त की सैकड़ों नदियाँबह चलीं।

    इन नदियों में बाँहें सर्पों के तुल्य, मनुष्यों के सिर कछुवों की तरह, मृत हाथी द्वीपोंकी तरह तथा मृत घोड़े घड़ियालों की तरह प्रतीत हो रहे थे।

    उनके हाथ तथा जाँघें मछली कीतरह, मनुष्यों के बाल सिवार की तरह, बाण लहरों की तरह तथा विविध हथियार झाड़ियों के कुंज जैसे लग रहे थे।

    रक्त की नदियाँ इन सारी वस्तुओं से पड़ी थीं।

    रथ के पहिए भयावनी भँवरों जैसे और बहुमूल्य मोती तथा आभूषण तेजी से बहती लालरंग की नदियों में पत्थरों तथा रेत की तरह लग रहे थे, जो कायरों में भय और बुद्ध्रिमानों में हर्षउत्पन्न करने वाले थे।

    अपने हलायुध के प्रहारों से अत्यधिक शक्तिशाली बलराम ने मगधेन्द्र कीसैनिक-शक्ति विनष्ट कर दी।

    यद्यपि यह सेना दुर्लध्य सागर की भाँति अथाह एवं भयावनी थीकिन्तु वसुदेव के दोनों पुत्रों के लिए, जो कि ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं, यह युद्ध खिलवाड़ सेअधिक नहीं था।

    स्थित्युद्धवान्तं भुवनत्रयस्य यःसमीहितेनन्तगुण: स्वलीलया ।

    न तस्य चित्र परपश्षनिग्रह-स्तथापि मर्त्यानुविधस्य वर्ण्यते ॥

    २९॥

    स्थिति--पालन; उद्धव--सूजन; अन्तम्‌--तथा संहार; भुवन-त्रयस्य--तीनों लोकों का; यः--जो; समीहिते-- प्रभाव;अनन्त--अनन्त; गुण: --जिनके दिव्य गुण; स्व-लीलया--अपनी लीलाओं के रूप में; न--नहीं; तस्य--उसका; चित्रम्‌--अद्भुत; पर--विरोधी; पक्ष--पक्ष का; निग्रह:--दमन; तथा अपि--फिर भी; मर्त्य--मनुष्य; अनुविधस्थ-- अनुकरण करनेवाला; वर्ण्यते--वर्णन किया जाता है।

    जो तीनों लोकों के सृजन, पालन और संहार को एकसाथ सम्पन्न करने वाले हैं तथा जोअसीम दिव्य गुणों वाले हैं उनके लिए विरोधी दल का दमन कर देना आश्चर्यजनक नहीं है।

    फिरभी जब भगवान्‌ मानव-आचरण का अनुकरण करते हुए ऐसा करते हैं, तो साधुगण उनकेकार्यो का गुणगान करते हैं।

    जग्राह विरथं रामो जरासन्ध॑ महाबलम्‌ ।

    हतानीकावशिष्टासूं सिंह: सिंहमिवौजसा ॥

    ३०॥

    जग्राह--पकड़ लिया; विरथम्‌--रथविहीन; राम: --बलराम; जरासन्धम्‌--जरासन्ध को; महा--अत्यन्त; बलमू--बलवान;हत--मारी गई; अनीक--सेना; अवशिष्ट--शेष; असुम्‌-- श्वास; सिंहः--एक सिंह; सिंहम्‌--दूसरे सिंह को; इब--सहृश;ओजसा--बलपूर्वक |

    रथविहीन होने तथा सारे सैनिक मारे जाने से जरासन्ध के पास केवल श्वास शेष थी।

    उससमय बलराम ने उस बलशाली योद्धा को उसी तरह पकड़ लिया जिस तरह एक सिंह दूसरे सिंहको पकड़ लेता है।

    बध्यमानं हतारातिं पाशै्वारुणमानुषै: ।

    वारयामास गोविन्दस्तेन कार्यचिकीर्षया ॥

    ३१॥

    बध्यमानमू--बाँधे जाते समय; हत--मारा गया; अरातिम्‌ू--शत्रु को; पाशै:--रस्सियों से; वारुण--वरुणदेव की; मानुषै:--तथा सामान्य मनुष्यों की; वारयाम्‌ आस--रोका; गोविन्द:--कृष्ण ने; तेन--उसके ( जरासन्ध ) द्वारा; कार्य--कुछ काम;चिकीर्षया--करने की इच्छा से |

    अनेक शत्रुओं का वध करने वाले बलराम, जरासन्ध को वरुण के दैवी-पाश से तथा अन्यलौकिक रस्सियों से बाँधने लगे।

    किन्तु गोविन्द को अभी जरासन्ध के माध्यम से कुछ कार्यकरना शेष था अतः उन्होंने बलराम से रुक जाने के लिए कहा।

    सा मुक्तो लोकनाथाभ्यां ब्रीडितो वीरसम्मतः ।

    तपसे कृतसड्डूल्पो बारित: पथ्चि राजभि: ॥

    ३२॥

    वाक्य: पवित्रार्थपदेर्नयनैः प्राकृतैरपि ।

    स्वकर्मबन्धप्राप्तोयं यदुभिस्ते पराभव: ॥

    ३३॥

    सः--वह, जरासन्ध; मुक्त:--छोड़ दिया गया; लोक-नाथाभ्याम्‌--दोनों लोके श्वरों द्वारा; ब्रीडित:--लज्जित; वीर--वीरों से;सम्मत:--आदरित; तपसे--तपस्या करने; कृत-सट्लल्प:--मन को पक्का करके; वारित:--रोका गया; पथ्चि--मार्ग में;राजभि:ः--राजाओं द्वारा; वाक्यै:--वाक्यों द्वारा; पवित्र--शुद्ध करने वाला; अर्थ--अर्थ वाला; पदैः--शब्दों के द्वारा;नयनैः--तर्क से; प्राकृतेः--संसारी; अपि-- भी; स्व--निजी; कर्म-बन्ध--गत कर्म के न बच पाने वाले फल के कारण;प्राप्त: --प्राप्त; अयम्‌--यह; यदुभि:--यदुओं द्वारा; ते--तुम्हारी; परा भव: --हार

    जरासन्ध जिसको योद्धा अत्यधिक सम्मान देते थे, जब ब्रह्माण्ड के दोनों स्वामियों ने उसेछोड़ दिया तो वह अत्यन्त लज्जित हुआ और उसने तपस्या करने का निश्चय किया।

    किन्तु मार्ग मेंकई राजाओं ने आध्यात्मिक ज्ञान तथा संसारी तर्को के द्वारा उसे आश्वस्त किया कि उसेआत्मोत्सर्ग का विचार त्याग देना चाहिए उन्होंने उससे कहा, 'यदुओं द्वारा आपको हराया जानातो आपके गत कर्मों का परिहार्य फल है।

    'हतेषु सर्वानीकेषु नृपो बाईद्रथस्तदा ।

    उपेक्षितो भगवता मगधान्दुर्ममा ययौ ॥

    ३४॥

    हतेषु--मारे जाने पर; सर्व--सारे; अनीकेषु--सेना के सारे सैनिक; नृप:--राजा; बाईद्रथ: --बृहद्रथ का पुत्र, जरासन्ध; तदा--तब; उपेक्षित ह--उपेक्षित; भगवता-- भगवान्‌ द्वारा; मगधान्‌ू--मगध राज्य में; दुर्मना:--उदास; ययौ--चला गया।

    अपनी सारी सेना मारी जाने तथा स्वयं भी भगवान्‌ द्वारा उपेक्षित होने से बृहद्रथ-पुत्र राजाजरासन्ध उदास मन से अपने राज्य मगध को लौट गया।

    मुकुन्दोप्यक्षतबलो निस्तीर्णारिबलार्णव: ।

    विकीर्यमाण: कुसुमैस्त्रीदशैरनुमोदित: ॥

    ३५॥

    माथ्रैरुपसड्रम्य विज्वरैर्मुदितात्मभि: ।

    उपगीयमानविजयः सूतमागधवन्दिभि: ॥

    ३६॥

    मुकुन्द:--कृष्ण; अपि-- भी; अक्षत--बाल बाँका न होने से; बलः--अपनी सेना; निस्‍्तीर्ण--पार कराकर; अरि--अपने शत्रुकी; बल--सेना के; अर्णव:--समुद्र; विकीर्यमाण:--उन पर बरसाये गये; कुसुमैः --फूलों से; त्रिदशै:--देवताओं द्वारा;अनुमोदित:--बधाई दिये गये; माथुरै:--मथुरा के लोगों के द्वारा; उपसड्रम्य--मिलकर; विज्वरैः --ज्वर से मुक्त; मुदित-आत्मभि:--अतीव हर्ष से युक्त; उपगीयमान--गीत गाये जाकर; विजय:--विजय; सूत-मागध--पुराण के गायक; वन्दिभि:--उन्दीजनों द्वारा |

    भगवान्‌ मुकुन्द ने अक्षत अपनी पूर्णतः सेना के द्वारा अपने शत्रु की सेनाओं के समुद्र कोपार कर लिया था।

    स्वर्ग के निवासियों ने उन पर फूलों की वर्षा करते हुए उन्हें बधाइयाँ दीं।

    मथुरा के निवासी अपनी ज्वरयुक्त चिन्ता से मुक्त होकर तथा हर्ष से पूरित होकर उनसे मिलने केलिए बाहर निकल आये और सूतों, मागधों तथा बन्दीजनों ने उनकी विजय की प्रशंसा में गीतगाये।

    शद्डदुन्दुभयो नेदुर्भेरीतूर्याण्यनेकशः ।

    वीणावेणुमृदड्जानि पुरं प्रविशति प्रभा ॥

    ३७॥

    सिक्तमार्गा हृष्टजनां पताकाभिरभ्यलड्डू ताम्‌ ।

    निर्धुष्ठां ब्रह्मघोषेण कौतुकाबद्धतोरणाम्‌ ॥

    ३८॥

    शट्भु--शंख; दुन्दुभय:--तथा दुन्दुभियाँ; नेदु:--बजने लगीं; भेरी--ढोल; तूर्याणि--तथा तुरहियाँ; अनेकश:ः --एकसाथ कई;वीणा-वेणु-मृदड्रानि--वीणा, बाँसुरी तथा मृदंग; पुरम्‌--नगर में; प्रविशति--उनके प्रवेश करते ही; प्रभौ--प्रभु; सिक्त--पानीसे सींचा गया; मार्गामू--रास्तों का; हष्ट--प्रसन्न; जनाम्‌--नागरिकों को; पताकाभि:--पताकाओं से; अभ्यलड्डू तामू--खूबसजाया गया; निर्धुष्ठामू--प्रतिध्वनित; ब्रह्म--वेदों के; घोषेण--उच्चारण से; कौतुक--उत्सवपूर्ण; आबद्ध--आभूषण;तोरणाम्‌-प्रवेशद्वारों पर

    ज्योंही भगवान्‌ ने नगरी में प्रवेश किया, शंख तथा दुन्दुभियाँ बजने लगीं और अनेक ढोल,तुरहियाँ, वीणा, वंशी तथा मृदंग एकसाथ बजने लगे।

    रास्तों को जल छिड़का गया था, सर्वत्रपताकाएँ लगी थीं तथा प्रवेशद्वारों को समारोह के लिए सजाया गया था।

    उसके नागरिकउत्साहित थे और नगरी वैदिक स्तोत्रों के उच्चारण से गूँज रही थी।

    निच्ीयमानो नारीभिर्माल्यदध्यक्षताडु रैः ।

    निरीक्ष्ममाण: ससनेहं प्रीत्युत्तलितलोचनै: ॥

    ३९॥

    निचीयमान: --उन पर बिखेरकर; नारीभि:--स्त्रियों द्वारा; माल्य--फूलों की मालाएँ; दधि--दही; अक्षत--लईया; अह्डुरैः ज-तथा अंकुर; निरीक्ष्यमाण:--देखे जा रहे; स-स्नेहम्‌--स्नेहपूर्वक; प्रीति--प्रेमवश; उत्कलित--फैली हुई; लोचनैः:--आँखों से ॥

    ज्योंही नगरी की स्त्रियों ने भगवान्‌ पर स्नेहयुक्त दृष्टि डाली, उनके नेत्र प्रेमवश खुले के खुलेरह गये।

    उन्होंने भगवान्‌ पर फूल-मालाएँ, दही, अक्षत तथा नवांकुरों की वर्षा की।

    आयोधनगतं वित्तमनन्तं वीरभूषणम्‌ ।

    यदुराजाय तत्सर्वमाहतं प्रादिशत्प्रभु; ॥

    ४० ॥

    आयोधन-गतम्‌--युद्धभूमि में गिरी हुई; वित्तमू--बहुमूल्य सामग्री; अनन्तम्‌--अनगिनत; वीर--वीरों के; भूषणम्‌--आभूषण;यदु-राजाय--यदुओं के राजा, उग्रसेन को; तत्‌ू--वह; सर्वम्‌--सब; आहतम्‌--लाई गई; प्रादिशत्‌-- भेंट की; प्रभुः--भगवान्‌ने

    तत्पश्चात्‌ भगवान्‌ कृष्ण ने यदुराज को वह सारी सम्पत्ति लाकर भेंट की जो युद्धभूमि मेंगिरी थी अर्थात्‌ जो मृत योद्धाओं के अनगिनत आभूषणों के रूप में थी।

    एवं सप्तदशकृत्वस्तावत्यक्षीहिणीबल: ।

    युयुधे मागधो राजा यदुभि: कृष्णपालितैः ॥

    ४१॥

    एवम्‌--इस प्रकार; सप्त-दश--सत्रह; कृत्व: --बार; तावति--इतने पर भी ( हारने पर ); अक्षौहिणी--कई अक्षौहिणी वाली;बलः:--सैनिक-शक्ति; युयुधे--युद्ध किया; मागध: राजा--मगध के राजा ने; यदुभि:--यदुओं से; कृष्ण-पालितै:--कृष्णद्वारा सुरक्षित,मगध का राजा इसी तरह से सत्रह बार पराजित होता रहा।

    फिर भी इन पराजयों में वहअपनी कई अक्षौहिणी सेनाओं से यदुबंश की उन सेनाओं के विरुद्ध लड़ता रहा जो श्रीकृष्णद्वारा संरक्षित थीं।

    अक्षिण्वंस्तद्वलं सर्व वृष्णय: कृष्णतेजसा ।

    हतेषु स्वेष्वनीकेषु त्यक्तोगादरिभिनप: ॥

    ४२॥

    अक्षिण्वनू--नष्ट कर दी; तत्‌--उसकी; बलमू--सेना; सर्वम्‌--सारी; वृष्णय:--वृष्णियों ने; कृष्ण-तेजसा-- भगवान्‌ कृष्णकी शक्ति से; हतेषु--मृत होने पर; स्वेषु--अपनी; अनीकेषु --सेना के; त्यक्त:--छोड़ा गया; अगात्‌--चला जाता; अरिभि:--शत्रुओं द्वारा; नृप:--राजा, जरासन्ध |

    भगवान्‌ कृष्ण की शक्ति से, वृष्णिजन जरासन्ध की सारी सेना को नष्ट करते रहे और जबउसके सारे सैनिक मार डाले जाते तो राजा ( जरासन्ध ) अपने शत्रुओं द्वारा छोड़ दिये जाने परपुनः वहाँ से चला जाता।

    अष्टादशम सड़्ग्राम आगामिनि तदन्तरा ।

    नारदप्रेषितो वीरो यवन: प्रत्यहश्यत ॥

    ४३॥

    अष्टा-दशम--अठारहवें; सड़ग्रामे--युद्ध में; आगामिनि--घटित होने वाले; तत्‌-अन्तरा--उस बीच; नारद--नारदमुनि द्वारा;प्रेषित: -- भेजा हुआ; वीर: --योद्धा; यवन:--बर्बर ( कालयवन नामक ); प्रत्यदहश्यत--प्रकट हुआ

    जब अठारहवाँ युद्ध होने ही वाला था, तो कालयवन नामक एक बर्बर योद्धा, जिसे नारद नेभेजा था, युद्ध-दक्षेत्र में प्रकट हुआ।

    रुरोध मथुरामेत्य तिसूभिम्लेच्छकोटिभि: ।

    नूलोके चाप्रतिद्वन्द्ो वृष्णीन्श्रुत्वात्मसम्मितानू ॥

    ४४॥

    रुरोध--घेर लिया; मथुराम्‌ू--मथुरा नगरी को; एत्य--आकर; तिसृभि: --तीन गुना; म्लेच्छ--बर्बरों से; कोटिभि: --एककरोड़; नू-लोके--मनुष्यों में; च--तथा; अप्रतिद्वन्द्वः --जिसका कोई उपयुक्त प्रतिद्वन्द्दी न हो; वृष्णीन्‌--वृष्णियों को; श्रुत्वा--सुनकर; आत्म--अपनी ही; सम्मितानू--जोड़ वाला |

    मथुरा आकर इस यवन ने तीन करोड़ बर्बर ( म्लेच्छ ) सैनिकों समेत इस नगरी में घेरा डालदिया।

    उसे कभी अपने से लड़ने योग्य प्रतिद्वन्द्दी व्यक्ति नहीं मिला था किन्तु उसने सुना था किवृष्णिजन उसकी जोड़ के हैं।

    तं दृष्टाचिन्तयत्कृष्ण: सड्डर्षण सहायवान्‌ ।

    अहो यदूनां वृजिन प्राप्त ह्युभयतो महत्‌ ॥

    ४५॥

    तम्‌--उसको ;; हृष्ठा--देखकर; अचिन्तयत्‌--सोचा; कृष्ण: --कृष्ण ने; स्जूरषण --बलराम द्वारा; सहाय-वन्‌--सहायतापहुँचाया हुआ; अहो--आह; यदूनामू--यदुओं के लिए; वृजिनम्‌--समस्या; प्राप्तम्‌--आई हुईं; हि--निस्सन्देह; उभयत:--दोनों ओर से ( कालयवन से तथा जरासन्ध से ); महत्‌--महान्‌ |

    जब भगवान्‌ कृष्ण तथा भगवान्‌ संकर्षण ने कालयवन को देखा तो कृष्ण ने स्थिति परविचार किया और कहा, 'ओह! अब तो यदुओं पर दो ओर से संकट आ पड़ा है।

    यवनोयं निरुन्धेस्मानद्य तावन्‍्महाबल: ।

    मागधोप्यद्य वा श्रो वा परश्रो वागमिष्यति ॥

    ४६॥

    यवनः--विदेशी बर्बर, म्लेच्छ; अयम्‌ू--यह; निरुन्धे--विरोध कर रहा है; अस्मान्‌--हमको; अद्य--आज; तावत्‌--तब तक;महा-बलः--अत्यन्त बलवान; मागध:--जरासन्ध; अपि-- भी; अद्य--आज; वा--अथवा; श्रः--कल; वा-- अथवा; पर-श्र:ः--परसों; वा-- अथवा; आगमिष्यति-- आयेगा |

    हमें यह यवन पहले से घेरे हुए है और शीघ्र ही यदि आज नहीं, तो कल या परसों तकमगध का बलशाली राजा यहाँ आ पहुँचेगा।

    आवयो: युध्यतोरस्य यद्यागन्ता जरासुत: ।

    बन्धून्हनिष्यत्यथ वा नेष्यते स्वपुरं बली ॥

    ४७॥

    आवयोः: --हम दोनों; युध्यतो: -- लड़ते हुए; अस्य--उससे ( कालयवन से ); यदि--यदि; आगन्ता--आता है; जरा-सुतः--जराका पुत्र; बन्धून्‌ू--हमारे सम्बन्धी; हनिष्यति--मार डालेगा; अथ वा--या फिर; नेष्यते--ले जायेगा; स्व-- अपनी; पुरम्‌--नगरीमें; बली--बलवान |

    यदि हमारे दोनों के कालयवन से युद्ध करने में संलग्न रहते समय, बलशाली जरासन्धआता है, तो वह या तो हमारे सम्बन्धियों को मार सकता है या फिर उन्हें पकड़कर अपनीराजधानी ले जा सकता है।

    'तस्मादद्य विधास्यामो दुर्ग द्विपददुर्गमम्‌ ।

    तत्र ज्ञातीन्समाधाय यवनं घातयामहे ॥

    ४८॥

    तस्मात्‌--इसलिए; अद्य-- आज; विधास्थाम:--बनायेंगे; दुर्गम्‌--किला; द्विपद--मनुष्यों के लिए; दुर्गमम्‌--दुर्गम; तत्र--वहाँ; ज्ञातीनू--अपने परिवार वालों को; समाधाय--रखकर; यवनम्‌--बर्बर को; घातयामहे--हम मार डालेंगे

    अतः हम तुरन्त ऐसा किला बनायेंगे जिसमें मानवी सेना प्रवेश न कर पाये।

    अपनेपारिवारिक जनों को उसमें वसा देने के पश्चात्‌ हम म्लेच्छकज का वध करेंगे।

    इति सम्मन्त्रय भगवान्दुर्ग द्वादशयोजनम्‌ ।

    अन्तःसमुद्रे नगरं कृत्स्नाद्भुतमचीकरत्‌ ॥

    ४९॥

    इति--इस प्रकार; सम्मन््य--सलाह करके; भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; दुर्गम्‌--किला; द्वादइश-योजनम्‌--बारह योजन का(लगभग १०० मील ); अन्तः--भीतर; समुद्रे--समुद्र के; नगरम्‌--नगर; कृत्सन--हर वस्तु से युक्त; अद्भुतम्‌ू-- अद्भुत;अचीकरत्‌--बनवा दिया।

    इस तरह बलराम से सलाह करने के बाद भगवान्‌ ने समुद्र के भीतर बारह योजन परिधिवाला एक किला बनवाया।

    इस किले के भीतर उन्होंने एक ऐसा नगर बनाया जिसमें एक सेएक बढ़ कर अद्भुत वस्तुएँ उपलब्ध थीं।

    हृश्यते यत्र हि त्वाष्ट विज्ञानं शिल्पनैपुणम्‌ ।

    रथ्याचत्वरवीथीभिर्यथावास्तु विनिर्मितम्‌ ॥

    ५०॥

    सुरद्रुमलतोद्यानविचित्रोपवनान्वितम्‌ ।

    हेमश्रुड्रैदिविस्पृर्भि: स्फटिकाड्टालगोपुरै: ॥

    ५१॥

    राजतारकुटै: कोष्ठैहमकुम्भरलड्ड तैः ।

    रलकूतैगहिर्हमैर्महामारकतस्थलै: ॥

    ५२॥

    वास्तोष्पतीनां च गृहैर्वल्लभीभिश्च निर्मितम्‌ ।

    चातुर्वर्ण्यजनाकीर्ण यदुदेवगृहोल्लसत्‌ ॥

    ५३॥

    हृश्यते--देखा जाता था; यत्र--जिसमें; हि--निस्सन्देह; त्वाप्टमू-त्वष्टा ( विश्वकर्मा ) का; विज्ञानम्‌--वैज्ञानिक ज्ञान; शिल्प--शिल्पकला में; नैपुणम्‌--निपुणता; रथ्या--मुख्य मार्गों सहित; चत्वर--चौराहा या चौक; वीथीभि:--तथा व्यापारिक मार्गों से;यथा-वास्तु--काफी बड़े भू-खण्ड पर; विनिर्मितम्‌--बनाया हुआ; सुर--देवताओं के; द्रुम--वृक्षों; लता--तथा लताओं सेयुक्त; उद्यान--बगीचों; विचित्र--विचित्र; उपवन--तथा पार्को; अन्वितम्‌--से युक्त; हैम--स्वर्ण; श्रृद्रै:--चोटी से युक्त;दिवि--आकाश को; स्पृग्भि:--स्पर्श करते हुए; स्फटिका--स्फटिक के; अट्टाल--अटारियाँ; गोपुरैः--दरवाजों से युक्त;राजत--चाँदी के; आरकुटैः--तथा पीतल के; कोष्ठेः:--कोषागार, भंडार, अस्तबल आदि से युक्त; हेम--स्वर्ण; कुम्भेः-घड़ोंसे; अलड्डू तैः--सुसज्जित; रत्न--रत्तजटित; कूतैः--चोटियों वाले; गृहैः--घरों से; हेमैः --सोने के; महा-मारकत--बहुमूल्यमरकत मणियों से; स्थलै:--फर्श से युक्त; वास्तो:--घर-बार के; पतीनाम्‌--अधिष्ठाता देवों के; च--तथा; गृहैः--मन्दिरों से;वलल्‍लभीभि:--चौकसी बुर्जों से; च--तथा; निर्मितम्‌--बनाये गये; चातु:-वर्ण्य--चारों वर्णो के; जन--लोगों से;आकी्णम्‌--पूरित; यदु-देव--यदुओं के स्वामी, श्रीकृष्ण का; गृह--घरों से; उललसत्‌--अलंकृत

    उस नगर के निर्माण में विश्वकर्मा के पूर्ण विज्ञान तथा शिल्पकला को देखा जा सकता था।

    उसमें चौड़े मार्ग, व्यावसायिक सड़कें तथा चौराहे थे, जो विस्तृत भू-खण्ड में बनाये गये थे।

    उसमें भव्य पार्क थे और स्वर्ग-लोक से लाये गये वृक्षों तथा लताओं से युक्त बगीचे भी थे।

    उसके गोपुर के मीनारों के ऊपर सोने के बुर्ज थे, जो आकाश को चूम रहे थे।

    उनकी अटारियाँस्फटिक मणियों से बनी थीं।

    सोने से आच्छादित घरों के सामने का भाग सुनहरे घड़ों से सजायागया था और उनकी छतें रलजटित थीं तथा फर्श में बहुमूल्य मरकत मणि जड़े थे।

    घरों के पासही कोषागार, भंडार तथा आकर्षक घोड़ों के अस्तबल थे, जो चाँदी तथा पीतल के बने हुए थे।

    प्रत्येक आवास में एक चौकसी बुर्जी थी और घरेलू अर्चाविग्रह के लिए मन्दिर था।

    यह नगरचारों वर्णों के लोगों से पूरित था और यदुओं के स्वामी श्रीकृष्ण के महलों के कारण विशेषरूप से अलंकृत था।

    सुधर्मा पारिजातं च महेन्द्र: प्राहिणोद्धरे: ।

    यत्र चावस्थितो मर्त्यों मर्त्यधर्मर्न युज्यते ॥

    ५४॥

    सुधर्माम्‌--सुधर्मा नामक सभागार; पारिजातम्‌--पारिजात वृक्ष; च--तथा; महा-इन्द्र: --स्वर्ग के राजा इन्द्र ने; प्राहिणोत्‌--लाकर दिया; हरेः --कृष्ण को; यत्र--जिसमें ( सुधर्मा में ); च--तथा; अवस्थित: --स्थित; मर्त्य:--मर्त्य, मरणशील; मर्त्य-धर्म: --मरने के नियमों से; न युज्यते--प्रभावित नहीं है

    इन्द्र ने श्रीकृष्ण के लिए सुधर्मा सभागार ला दिया जिसके भीतर खड़ा मनुष्य मृत्यु केनियमों से प्रभावित नहीं होता।

    इन्द्र ने पारिजात वृक्ष भी लाकर दिया।

    श्यामैकवर्णान्वरुणो हयान्शुक्लान्मनोजवान्‌ ।

    अष्टौ निधिपति: कोशान्लोकपालो निजोदयान्‌ ॥

    ५५॥

    श्याम--गहरा नीला; एक--नितान्त; वर्णान्‌ू--रंग का; वरुण:--सागरों का शासक वरुण; हयान्‌--घोड़े; शुक्लान्‌ू--सफेद;मनः--मन ( की तरह के ); जवान्‌--तेज; अष्टौ--आठ; निधि-पति:--देवताओं का कोषाध्यक्ष, कुवेर; कोशानू--खजाने को;लोक-पाल:--विभिन्न लोकों के शासक; निज--अपने; उदयान्‌--ऐश्वर्य विभूति

    वरुण ने मन के समान वेग वाले घोड़े दिये जिनमें से कुछ शुद्ध श्याम रंग के थे और कुछसफेद थे।

    देवताओं के कोषाध्यक्ष कुवेर ने अपनी आठों निधियाँ दीं और विभिन्न लोकपालों नेअपने अपने ऐश्वर्य प्रदान किये।

    यद्यद्धगवता दत्तमाधिपत्यं स्वसिद्धये ।

    सर्व प्रत्यर्पयामासुईरो भूमिगते नूप ॥

    ५६॥

    यत्‌ यत्‌--जो जो; भगवता-- भगवान्‌ द्वारा; दत्तम्‌ू--दी गई; आधिपत्यम्‌--नियंत्रण करने की प्रदत्त शक्ति; स्व--निजी;सिद्धये--अधिकार जताने की सुविधा के लिए; सर्वम्‌ू--सारी; प्रत्यर्पयाम्‌ आसु:--वापस दे दीं; हरौ--कृष्ण को; भूमि--पृथ्वीमें; गते--आये हुए; नृप--हे राजा ( परीक्षित )

    हे राजन, जब भगवान्‌ पृथ्वी पर आ गये तो इन देवताओं ने उन सभी सिद्द्रियों को उन्हेंअर्पित कर दिया जो उन्हें अपने विशेष अधिकार के निष्पादन के लिए पहले प्राप्त हुई थीं।

    तत्र योगप्रभावेन नीत्वा सर्वजनं हरिः ।

    प्रजापालेन रामेण कृष्ण: समनुमन्त्रित: ।

    निर्जगाम पुरद्वारात्पदामाली निरायुध: ॥

    ५७॥

    तत्र--वहाँ; योग--अपनी योगशक्ति के; प्रभावेन--प्रभाव से; नीत्वा--लाकर; सर्व--सभी; जनम्‌--अपनी प्रजा को; हरि: --भगवान्‌ कृष्ण; प्रजा--नागरिकों के; पालेन--रक्षक; रामेण--बलराम द्वारा; कृष्ण: --कृष्ण ने; समनुमन्त्रित:--सलाह की;निर्जगाम--बाहर चले गये; पुर--नगर के; द्वारातू-द्वार से; पदा--कमल के फूलों की; माली--माला पहन कर; निरायुध: --बिना हथियार के |

    अपनी योगमाया-शक्ति के बल से जब भगवान्‌ कृष्ण ने अपनी सारी प्रजा को नये नगर मेंपहुँचा दिया तो उन्होंने बलराम से सलाह की जो मथुरा में उसकी रक्षा करने के लिए रह गये थे।

    तब गले में कमल के फूलों की माला पहने और बिना हथियार के भगवान्‌ कृष्ण मुख्य दरवाजेसे होकर मथुरा से बाहर चले गये।

    TO

    अध्याय इक्यावन: मुकुकुंद का उद्धार

    10.51श्रीशुक उबाचत॑ विलोक्य विनिष्क्रान्तमुज्जिहानमिवोडुपम्‌ ।

    दर्शनीयतमंश्याम॑ं पीतकौशेयवाससम्‌ ॥

    १॥

    श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौस्तुभामुक्तकन्धरम्‌ ।

    पृथुदीर्घचतुर्बाहुं नबकझ्जारुणेक्षणम्‌ ॥

    २॥

    नित्यप्रमुदितं श्रीमत्सुकपोलं शुचिस्मितम्‌ ।

    मुखारविन्दं बिभ्राणं स्फुरन्मकरकुण्डलम्‌ ॥

    ३॥

    वबासुदेवो ह्ायमिति पुमान्श्रीवत्सलाज्छन: ।

    चतुर्भुजोरविन्दाक्षो वनमाल्यतिसुन्दर: ॥

    ४॥

    लक्षणैर्नारदप्रोक्तेर्नान्यों भवितुमहति ।

    निरायुधश्चलन्पद्भ्यां योत्स्येडनेन निरायुध: ॥

    ५॥

    इति निश्चित्य यवनः प्राद्रवन्तं पराड्मुखम्‌ ।

    अन्वधावजिषुक्षुस्तं दुरापमपि योगिनाम्‌ ॥

    ६॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; तम्‌--उसको; विलोक्य विनिष्क्रान्तम्‌--बाहर आते; उज्जिहानम्‌--उठते हुए;इब--मानो; उडुपम्‌--चन्द्रमा को; दर्शनीय-तमम्‌--देखने में सर्वाधिक सुन्दर; श्यामम्‌--गहरे नीले; पीत--पीला; कौशेय--रेशम; वाससम्‌--वस्त्र; श्रीवत्स--लक्ष्मी का चिह्न, जो भगवान्‌ के बालों के गुच्छे का होता है; वक्षसम्‌--वक्षस्थल पर;भ्राजतू--चमकीला; कौस्तुभ--कौस्तुभ मणि से युक्त; आमुक्त--अलंकृत; कन्धरम्‌--कन्धा; पृथु--विशाल; दीर्घ--तथालम्बा; चतुः--चार; बाहुमू-- भुजाओं वाला; नव--नये खिले; कजञ्ञ--कमलों की तरह; अरुण--गुलाबी; ईक्षणम्‌-- आँखें;नित्य--सदैव; प्रमुदितम्‌--प्रसन्न; श्रीमत्‌--ऐश्वर्यवान; सु--सुन्दर; कपोलम्‌--गालों वाला; शुचि--स्वच्छ; स्मितम्‌--मन्द-हास युक्त; मुख--उनका मुँह ( मुखमण्डल ); अरविन्दम्‌ू--कमल सहृश; बिभ्राणम्‌-- प्रदर्शित करते; स्फुरनू--चमकते हुए;मकर--मछली की आकृति के; कुण्डलमू--कान की बालियाँ; वासुदेव:--वासुदेव; हि--निस्सन्देह; अयम्‌--यह; इति--इसप्रकार सोचते हुए; पुमान्‌--पुरुष; श्रीवत्स-लाउ्छन: -- श्रीवत्स से अंकित; चतु:-भुज:--चार भुजाओं वाले; अरविन्द-अक्ष:--कमल जैसे नेत्रों वाले; वन--जंगल के फूलों की; माली--माला पहने; अति--अत्यधिक; सुन्दर:--सुन्दर; लक्षणै:ः--लक्षणोंसे; नारद-प्रोक्तै:--नारदमुनि द्वारा बतलाये गये; न--नहीं; अन्य: --दूसरा; भवितुम्‌ अर्हति--हो सकता है; निरायुध:--बिनाहथियार के; चलनू्‌--जाते हुए; पद्भ्यामू-पैदल; योत्स्ये--लड़ँगा; अनेन--इससे; निरायुध:--बिना हथियार के; इति--इसप्रकार; निश्चित्य--निश्चय करके; यवन:--म्लेच्छ कालयवन; प्राद्रवन्तम-- भागता हुआ; पराक्‌-- मुड़ा; मुखम्‌-- मुँह;अन्वधावत्‌--पीछा करने लगा; जिधृश्षुः--पकड़ने की इच्छा से; तम्‌--उसको; दुरापम्‌--दुष्प्राप्प; अपि-- भी; योगिनाम्‌--योगियों द्वारा

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : कालयवन ने भगवान्‌ को मथुरा से उदित होते चन्द्रमा की भाँतिआते देखा।

    देखने में भगवान्‌ अतीव सुन्दर थे, उनका वर्ण श्याम था और वे रेशमी पीताम्बरधारण किये थे।

    उनके वशक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह था और उनके गले में कौस्तुभमणिसुशोभित थी।

    उनकी चारों भुजाएँ बलिष्ठ तथा लम्बी थीं।

    उनका मुख कमल सद्दश सदैव प्रसन्नरहने वाला था, आँखें गुलाबी कमलों जैसी थीं, उनके गाल सुन्दर तेजवान थे, हँसी स्वच्छ थीतथा उनके कान की चमकीली बालियाँ मछली की आकृति की थीं।

    उस म्लेच्छ ने सोचा, 'यहव्यक्ति अवश्य ही वासुदेव होगा क्योंकि इसमें वे ही लक्षण दिख रहे हैं, जिनका उल्लेख नारद नेकिया था--उसके श्रीवत्स का चिन्ह है, चार भुजाएँ हैं, आँखें कमल जैसी हैं और वह वनफूलोंकी माला पहने है और अत्यधिक सुन्दर है।

    वह और कोई नहीं हो सकता।

    चूँकि वह पैदल चलरहा है और कोई हथियार नहीं लिए है, अतएव मैं भी बिना हथियार के उससे युद्ध करूँगा।

    यह मन में ठान कर वह भगवान्‌ के पीछे पीछे दौड़ने लगा और भगवान्‌ उसकी ओर पीठ करकेभागते गये।

    कालयवन को आशा थी कि वह कृष्ण को पकड़ लेगा यद्यपि बड़े बड़े योगी भीउन्हें प्राप्त नहीं कर पाते।

    हस्तप्राप्तमिवात्मानं हरीणा स पदे पदे ।

    नीतो दर्शयता दूरं यवनेशोउद्विकन्दरम्‌ ॥

    ७॥

    हस्त--अपने हाथ में; प्राप्तम्‌--प्राप्त हुआ; इब--मानो; आत्मानम्‌--अपने को; हरिणा-- भगवान्‌ कृष्ण द्वारा; सः--वह; पदेपदे--हर डग पर; नीत:--लाया गया; दर्शयता--दिखाये जाने वाले के द्वारा; दूरमू--दूर; यवन-ईश:--यवनों का राजा;अद्वि--पर्वत की; कन्दरम्‌-गुफा में

    प्रति क्षण कालयवन के हाथों की पहुँच में प्रतीत होते हुए भगवान्‌ हरि उस यवनराज को दूरएक पर्वत--कन्दरा तक ले गये।

    पलायन यदुकुले जातस्य तव नोचितम्‌ ।

    इति क्षिपन्ननुगतो नैनं प्रापाहताशुभ: ॥

    ८॥

    पलायनमू्‌-- भागना; यदु-कुले--यदुवंश में; जातस्य--जन्म लेने वाले; तब--तुम्हारा; न--नहीं है; उचितम्‌--ठीक; इति--इनशब्दों में; क्षिपनू-- अपमान करता हुआ; अनुगतः --पीछा करता; न--नहीं; एनम्‌--उसको; प्राप--पहुँच पाया; अहत--दूरहुआ; अशुभः--जिसके पापमय कर्म-फल।

    भगवान्‌ का पीछा करते हुए वह यवन उन पर यह कह कर अपमान कर रहा था, 'तुमनेयदुवंश में जन्म ले रखा है, तुम्हारे लिए इस तरह भागना उचित नहीं है!' तो भी कालयवनभगवान्‌ कृष्ण के पास तक नहीं पहुँच पाया क्योंकि उसके पाप कर्म-फल अभी थधुले नहीं थे।

    एवं क्षिप्तोडपि भगवान्प्राविशद्गिरिकन्दरम्‌ ।

    सोपि प्रविष्टस्तत्रान्यं शयानं ददशे नरम्‌ ॥

    ९॥

    एवम्‌--इस प्रकार; क्षिप्त:--अपमानित; अपि-- भी; भगवानू्‌-- भगवान्‌; प्राविशत्‌--घुस गये; गिरि-कन्दरम्‌-पर्वत की गुफामें; सः--वह, कालयवन; अपि--भी; प्रविष्ट:--घुसते हुए; तत्र--वहाँ; अन्यम्‌--दूसरे; शयानम्‌ू--लेटे हुए; ददृशे--देखा;नरम्‌--मनुष्य कोयद्यपि भगवान्‌ इस तरह से अपमानित हो रहे थे किन्तु वे पर्वत की गुफा में घुस गये।

    उनकेपीछे पीछे कालयवन भी घुसा और उसने वहाँ एक अन्य पुरुष को सोये हुए देखा।

    ननन्‍्वसौ दूरमानीय शेते मामिह साधुवत्‌ ।

    इति मत्वाच्युतं मूढस्तं पदा समताडयत्‌ ॥

    १०॥

    ननु--ऐसा लगता है; असौ--वह; दूरमू--काफी दूरी तक; आनीय--लाकर; शेते--लेटा हुआ है; माम्‌--मुझको; इह--यहाँ;साधु-वत्‌--सन्त-पुरुष की तरह; इति--ऐसा; मत्वा--( मुझको ) सोचकर; अच्युतम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण होने का; मूढ:--ठगागया; तमू--उसको; पदा--अपने पाँव से; समताडयत्‌-- पूरे बल से प्रहार किया |

    'यह तो मुझे इतनी दूर लाकर अब किसी साधु-पुरुष की तरह यहाँ लेट गया है।

    ' इस तरहसोते हुए उस व्यक्ति को भगवान्‌ कृष्ण समझ कर, उस ठगे हुए मूर्ख ने पूरे बल से उस पर पाद-प्रहार किया।

    स उत्थाय चिरं सुप्त: शनैरुन्मील्य लोचने ।

    दिशो विलोकयन्पाश्वें तमद्राक्षीदवस्थितम्‌ ॥

    ११॥

    सः--वह; उत्थाय--जग कर; चिरम्‌--दीर्घकाल से; सुप्त:--सोया हुआ; शनै:--धीरे से; उन्‍्मील्य--खोलते हुए; लोचने--अपनी आँखें; दिशः--सारी दिशाओं में; विलोकयन्‌ू--देखते हुए; पाश्व-- अपनी बगल में; तम्‌--उसको, कालयवन को;अद्राक्षीत्‌--देखा; अवस्थितम्‌--खड़ा |

    वह पुरुष दीर्घकाल तक सोने के बाद जागा था और धीरे धीरे उसने अपनी आँखें खोलीं।

    चारों ओर देखने पर उसे अपने पास ही कालयवन खड़ा हुआ दिखाई दिया।

    स तावत्तस्य रुष्टस्य दृष्टिपातेन भारत ।

    देहजेनाग्निना दग्धो भस्मसादभवर्क्षणात्‌ ॥

    १२॥

    सः--वह, कालयवन; तावत्‌--तब तक; तस्य--उस जगे हुए पुरुष का; रुष्टस्थ--क्रुद्ध; दृष्टि--दृष्टि को; पातेन--डालने से;भारत--हे भरतवंशी ( परीक्षित महाराज ); देह-जेन-- अपने शरीर से ही उत्पन्न; अग्निना-- अग्नि से; दग्ध:--जल कर; भस्म-सातू--राख; अभवत्‌--हो गया; क्षणात्‌--क्षण-भर मेंवह जगाया हुआ पुरुष अत्यन्त क्रुद्ध था।

    उसने अपनी दृष्टि कालयवन पर डाली तो उसकेशरीर से लपटें निकलने लगीं।

    हे राजा परीक्षित, कालयवन क्षण-भर में जल कर राख हो गया।

    श्रीराजोबवाचको नाम स पुमान्ब्रह्मन्कस्य किंवीर्य एवच ।

    कस्मादगुहां गतः शिष्ये किंतेजो यवनार्दन: ॥

    १३॥

    श्री-राजा उबाच--राजा ( परीक्षित ) ने कहा; कः--कौन; नाम--विशेष रूप से; सः--वह; पुमान्‌--पुरुष; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण( शुकदेव ); कस्य--किस ( वंश ) का; किम्‌--क्या; वीर्य:--शक्ति; एव च--और भी; कस्मात्‌--क्यों; गुहाम्‌--गुफा में;गतः--जाकर के; शिष्ये--सोने के लिए लेट गया; किमू--किसका; तेज: --वीर्य ( सन्‍्तान ); यवन--यवन का; अर्दन:--संहार करने वाला

    राजा परीक्षित ने कहा : हे ब्राह्मण, वह पुरुष कौन था? वह किस वंश का था और उसकीशक्तियाँ कया थीं? म्लेच्छ का संहार करने वाला वह व्यक्ति गुफा में क्यों सोया हुआ था और वहकिसका पुत्र था?श्रीशुक उबाच स इक्ष्वाकुकुले जातो मान्धातृतनयो महान्‌ ।

    मुचुकुन्द इति ख्यातो ब्रह्मण्य: सत्यसड्रर: ॥

    १४॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; सः--वह; इक्ष्वाकु-कुले--इश्ष्वाकु वंश में ( सूर्य देवता विवस्वान का नाती );जातः--उत्पन्न; मान्धातृ-तनय: --राजा मान्धाता का पुत्र; महानू--महापुरुष; मुचुकुन्दः इति ख्यात:--मुचुकुन्द नाम से विख्यात;ब्रह्मण्य:--ब्राह्मणों का भक्त; सत्य--अपने ब्रत का सच्चा; सड्डरः--युद्ध में |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : उस महापुरुष का नाम मुचुकुन्द था और वह इक्ष्वाकु वंश मेंमान्धाता के पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ था।

    वह ब्राह्मण संस्कृति का उपासक था और युद्ध में अपनेब्रत का पक्का था।

    स याचितः सुरगणैरिन्द्राद्यरात्मरक्षणे ।

    असुरेभ्य: परित्रस्तैस्तद्रक्षां सोउइकरोच्चिरम्‌ ॥

    १५॥

    सः--वह; याचित:ः--याचना करने पर; सुर-गणै:--देवताओं द्वारा; इन्द्र-आद्यै: --इन्द्र इत्यादि द्वारा; आत्म--अपनी; रक्षणे--रक्षा के लिए; असुरेभ्य:--असुरों से; परित्रस्तै:-- भयभीत; तत्‌--उनकी; रक्षाम्‌--रक्षा; सः--उसने; अकरोत्‌--की; चिरम्‌--दीर्घकाल तक।

    जब इन्द्र तथा अन्य देवताओं को असुरों द्वारा त्रास दिये जा रहे थे तो उनके द्वारा अपनी रक्षाके लिए सहायता की याचना किये जाने पर मुचुकुन्द ने दीर्घकाल तक उनकी रक्षा की।

    लब्ध्वा गुहं ते स्वःपालं मुचुकुन्दमथाब्रुवन्‌ ।

    राजन्विरमतां कृच्छाद्धवान्न: परिपालनात्‌ ॥

    १६॥

    लब्ध्वा-प्राप्त करके; गुहम्‌--कार्तिकेय को; ते--वे; स्व:ः--स्वर्ग का; पालमू--रक्षक के रूप में; मुचुकुन्दम्‌--मुचुकुन्द को;अथ--तब; अन्लुवन्‌ू--कहा; राजन्‌--हे राजन; विरमताम्‌--कृपया दूर रहें; कृच्छातू--कष्टकर; भवानू--आप; न:--हमारे;परिपालनात्‌--रक्षा करने से।

    जब देवताओं को अपने सेनापति के रूप में कार्तिकेय प्राप्त हो गये तो उन्होंने मुचुकुन्द सेकहा, 'हे राजनू, अब आप हमारी रक्षा का कष्टप्रद कार्य छोड़ सकते हैं।

    'नरलोकं परित्यज्य राज्यं निहतकण्टकम्‌ ।

    अस्मान्पालयतो वीर कामास्ते सर्व उज्लिता: ॥

    १७॥

    नर-लोकम्‌--मनुष्यों के लोक में; परित्यज्य--छोड़कर; राज्यमू--राज्य; निहत--दूर हुए; कण्टकम्‌--काँटे; अस्मान्‌--हमको;पालयतः--पालने वाले; वीर--हे वीर; काम:--इच्छाएँ; ते--तुम्हारी; सर्वे-- सभी; उज्झिता:--उखाड़कर फेंक दी गईं |

    'हे वीर पुरुष, नर-लोक में अपने निष्कण्टक राज्य को छोड़कर आपने हमारी रक्षा करते हुए अपनी निजी आकांक्षाओं की परवाह नहीं की।

    'सुता महिष्यो भवतो ज्ञातयोमात्यमन्त्रिन: ।

    प्रजाश्न॒ तुल्यकालीना नाधुना सन्ति कालिता: ॥

    १८॥

    सुता:ः--सन्तानें; महिष्य:--पटरानियाँ; भवत:--आपके ; ज्ञातवः--अन्य सम्बन्धी; अमात्य--मंत्री; मन्त्रिण:--तथा सलाहकार;प्रजा: -- प्रजा; च--तथा; तुल्य-कालीना:--समकालीन; न--नहीं; अधुना-- अब; सन्ति--जीवित हैं; कालिता:ः--काल सेप्रेरित बच्चे, रानियाँ, सम्बन्धी, मंत्री, सलाहकार तथा आपकी समकालीन प्रजा--इनमें से कोईअब जीवित नहीं रहे।

    वे सभी काल के द्वारा बहा ले जाये गये हैं।

    'कालो बलीयान्बलिनां भगवानीश्वरोव्यय: ।

    प्रजा: कालयते क्रीडन्पशुपालो यथा पशून्‌ ॥

    १९॥

    काल:--काल, समय; बलीयान्‌--अत्यन्त बलवान; बलिनाम्‌--बलवानों की अपेक्षा; भगवान्‌ ईश्वर: --परमेश्वर; अव्यय: --अव्यय, अविनाशी; प्रजा:--मर्त्य प्राणी; कालयते--हाँकता है; क्रीडन्‌ू--खेल खेल में; पशु-पाल:--पशु-पालक; यथा--जिस तरह; पशून्‌ू--पालतू जानवरों को |

    अनंत काल समस्त बलवानों से भी बलवान है और वही साक्षात्‌ परमेश्वर है।

    जिस तरहपशु-पालक ( ग्वाला ) अपने पशुओं को हॉकता रहता है उसी तरह परमेश्वर मर्त्य प्राणियों कोअपनी लीला के रूप में हाँकते रहते हैं।

    वरं वृणीष्व भद्रं ते ऋते कैवल्यमद्य न: ।

    एक एवेश्वरस्तस्य भगवान्विष्णुरव्यय: ॥

    २०॥

    वरम्‌ू--वर; वृणीष्व--चुनो; भद्रमू--कल्याण हो; ते--तुम्हारा; ऋते--सिवाय; कैवल्यम्‌--मोक्ष के; अद्य--आज; न:--हमसे; एक:--एक; एव--एकमात्र; ईश्वरः--सक्षम; तस्थय--उसका; भगवान्‌-- भगवान्‌; विष्णु: -- श्री विष्णु; अव्यय: --अविनाशी।

    आपका कल्याण हो, अब आप मोक्ष के सिवाय कोई भी वर चुन सकते हैं क्योंकि मोक्षको तो एकमात्र अविनाशी भगवान्‌ विष्णु ही प्रदान कर सकते हैं।

    'एवमुक्तः स वै देवानभिवन्द्य महायशा: ।

    अशयिष्ट गुहाविष्टो निद्रया देवदत्तया ॥

    २१॥

    एवम्‌--इस प्रकार; उक्त:--कहकर; सः--वह; वै--निस्सन्देह; देवानू--देवताओं को; अभिवन्द्य--नमस्कार करके; महा--महान्‌; यशा:--जिसकी ख्याति; अशयिष्ट--लेट गया; गुहा-विष्ट:--गुफा में घुसकर; निद्रया--नींद में; देव--देवताओं द्वारा;दत्तया--दी गई

    ऐसा कहे जाने पर राजा मुचुकुन्द ने देवताओं से ससम्मान विदा ली और एक गुफा में गयाजहाँ वे देवताओं द्वारा दी गई नींद का आनन्द लेने के लिए लेट गया।

    यवने भस्मसान्नीते भगवान्सात्वतर्षभः ।

    आत्मानं दर्शयामास मुचुकुन्दाय धीमते ॥

    २२॥

    यवने--जब यवन; भस्म-सात्‌--राख में; नीते--बदल गया; भगवान्‌-- भगवान्‌; सात्वत--सात्वत वंशजाति का; ऋषभ: --सबसे बड़ा वीर; आत्मानम्‌--स्वयं; दर्शयाम्‌ आस--प्रकट किया; मुचुकुन्दाय--मुचुकुन्द के पास; धी-मते--बुद्धिमान |

    जब यवन जल कर राख हो गया तो सात्वतों के प्रमुख भगवान्‌ ने उस बुद्धिमान मुचुकुन्दके समक्ष अपने को प्रकट किया।

    तमालोक्य घनश्यामं पीतकौशेयवाससम्‌ ।

    श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौस्तुभेन विराजितम्‌ ॥

    २३॥

    चतुर्भुजं रोचमानं वैजयन्त्या च मालया ।

    चारुप्रसन्नवदनं स्फुरन्मकरकुण्डलम्‌ ॥

    २४॥

    प्रेक्षणीयं नूलोकस्य सानुरागस्मितेक्षणम्‌ ।

    अपीव्यवयसं मत्तमृगेन्द्रोदारविक्रमम्‌ ॥

    २५॥

    पर्यपृच्छन्महाबुद्धिस्तेजसा तस्य धर्षित: ।

    शद्डितः शनकै राजा दुर्धर्षमिव तेजसा ॥

    २६॥

    तम्‌--उसको; आलोक्य--देखकर; घन--बादल की तरह; श्यामम्‌--गहरे नीले रंग के; पीत--पीला; कौशेय--रेशमी ;वाससम्‌--वस्त्र; श्रीवत्स-- श्रीवत्स चिह्न; वक्षसम्‌-वक्षस्थल पर; भ्राजत्‌ू--चमकीला; कौस्तुभेन--कौस्तुभ मणि से;विराजितम्‌--चमकता हुआ; चतु:-भुजम्‌--चार भुजाओं वाला; रोचमानम्‌--सुन्दर लगने वाला; बैजयन्त्या--वैजयन्ती नामक;च--तथा; मालया--फूल की माला से; चारु--आकर्षक; प्रसन्न--तथा शान्त; वदनम्‌--मुख; स्फुरत्‌--चमचमाती; मकर--मछली के आकार की; कुण्डलमू--कान की बालियाँ; प्रेक्षणीयम्‌--आँखों को आकृष्ट करने वाली; नृू-लोकस्थ--मनुष्यों की;स--सहित; अनुराग--स्नेह; स्मित--मन्द हँसते हुए; ईक्षणम्‌--नेत्र या चितवन; अपीव्य--सुन्दर; वबसम्‌ू--जिसका तरुणस्वरूप; मत्त--क्रुद्ध; मृग-इन्द्र--सिंह की तरह; उदार--भद्ग; विक्रममू--चाल; पर्य-पृच्छत्‌--प्रश्न किया; महा-बुद्धि: --बुद्धिमान; तेजसा--तेज से; तस्य--उसका; धर्षित:ः--अभिभूत; शद्धित:ः--शंकालु; शनकै: --धीरे धीरे; राजा--राजा ने;दुर्धषम्‌-- अजेय; इब--निस्सन्देह; तेजसा--तेज से

    जब राजा मुचुकुन्द ने भगवान्‌ की ओर निहारा तो देखा कि वे बादल के समान गहरे नीलेरंग के थे, उनकी चार भुजाएँ थीं और वे रेशमी पीताम्बर पहने थे।

    उनके वक्षस्थल पर श्रीवत्सका चिन्ह था और गले में चमचमाती कौस्तुभ मणि थी।

    वैजयन्ती माला से सज्जित भगवान्‌ नेउसे अपना मनोहर शान्त मुख दिखलाया जो मछली की आकृति के कुण्डलों तथा स्नेहपूर्णमन्द-हास से युक्त चितवन से सारे मनुष्यों की आँखों को आकृष्ट कर लेता है।

    उनके तरुणस्वरूप का सौन्दर्य अद्वितीय था और वे क्रुद्ध सिंह की भव्य चाल से चल रहे थे।

    अत्यन्तबुद्धिमान राजा भगवान्‌ के तेज से अभिभूत हो गया।

    यह तेज उसे दुर्धर्ष जान पड़ा।

    अपनी अनिश्चयता व्यक्त करते हुए मुचुकुन्द ने झिझकते हुए भगवान्‌ कृष्ण से इस प्रकार पूछा।

    श्रीमुचुकुन्द उबाचको भवानिह सप्प्राप्तो विपिने गिरिगह्रे ।

    पदभ्यां पद्यपलाशाभ्यां विचरस्युरुकण्टके ॥

    २७॥

    श्री-मुचुकुन्दः उबाच-- श्री मुचुकुन्द ने कहा; कः--कौन हैं; भवानू--आप; इह--यहाँ; सम्प्राप्त:--( मेरे साथ ) पधारे हुए;विपिने--जंगल में; गिरि-गह्वे--पर्वत की गुफा में; पद्भ्याम्‌--अपने पाँव से; पद्य--कमल के; पलाशाभ्याम्‌--पंखड़ियों( की तरह ); विचरसि--घूम रहे हो; उरू-कण्टके--काँटों से भरे हुए

    श्री मुचुकुन्द ने कहा, 'आप कौन हैं, जो जंगल में इस पर्वत-गुफा में अपने कमल कीपंखड़ियों जैसे कोमल पाँवों से कँटीली भूमि पर चलकर आये हैं ?

    कि स्वित्तेजस्विनां तेजो भगवान्वा विभावसु: ।

    सूर्य: सोमो महेन्द्रो वा लोकपालो परोपि वा ॥

    २८॥

    किम्‌ स्वित्‌ू--शायद; तेजस्विनाम्‌--सारे शक्तिशाली जीवों में; तेज:--आदि रूप; भगवान्‌--शक्तिशाली प्रभु; बा--अथवा;विभावसु: -- अग्नि देवता; सूर्य: --सूर्यदेव; सोम: --चन्द्रदेव; महा-इन्द्र:--स्वर्ग का राजा इन्द्र; ब--अथवा; लोक--लोक का;पाल:--शासक; अपर:--दूसरा; अपि बा--या फिर।

    शायद आप समस्त शक्तिशाली जीवों की शक्ति हैं।

    या फिर आप शक्तिशाली अग्नि देव यासूर्यदेव, चन्द्रदेव, स्वर्ग के राजा इन्द्र या अन्य किसी लोक के शासन करने वाले देवता तो नहींहैं?

    मन्ये त्वां देवदेवानां त्रयाणां पुरुषर्षभम्‌ ।

    यद्वाधसे गुहाध्वान्तं प्रदीप: प्रभया यथा ॥

    २९॥

    मन्ये--मानता हूँ; त्वामू-तुमको; देव-देवानाम्‌-देवताओं के प्रमुख के ; त्रयाणाम्‌--तीनों ( ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव );पुरुष--पुरुषों के; ऋषभम्‌--सबसे बड़ा; यत्‌--क्योंकि ; बाधसे -- भगा देते हो; गुह--गुफा का; ध्वान्तम्‌--अँधेरा; प्रदीप: --दीपक; प्रभवया--अपने प्रकाश से; यथा--जिस तरह।

    मेरे विचार से आप तीन प्रमुख देवताओं में भगवान्‌ हैं क्योंकि आप इस गुफा के अँधेरे कोउसी तरह भगा रहे हैं जिस तरह दीपक अपने प्रकाश से अँधकार को दूर कर देता है।

    शुश्रूषतामव्यलीकमस्माक॑ नरपुड़्व ।

    स्वजन्म कर्म गोत्र वा कथ्यतां यदि रोचते ॥

    ३०॥

    शुश्रूषताम्‌ू--सुनने के इच्छुक लोगों को; अव्यलीकम्‌--सही सही; अस्माकम्‌--हमको; नर--मनुष्यों में; पुमू-गव--हे अत्यन्तप्रसिद्ध; स्व--अपना; जन्म--जन्म; कर्म--कार्य; गोत्रमू--वंश परम्परा; वा--अथवा; कथ्यताम्‌--कहने की कृपा करें;यदि--यदि; रोचते-- अच्छा लगे।

    हे पुरुषोत्तम यदि आपको ठीक लगे तो आप अपने जन्म, कर्म तथा गोत्र के विषय में हमसेसही सही ( स्पष्ट ) बतलायें क्योंकि हम सुनने के इच्छुक हैं।

    वबयं तु पुरुषव्याप्र ऐश्ष्वाका: क्षत्रबन्धव: ।

    मुचुकुन्द इति प्रोक्तो यौवनाश्वात्मज: प्रभो ॥

    ३१॥

    वयम्‌--हम; तु--दूसरी ओर; पुरुष--पुरुषों में; व्याप्र--हे बाघ; ऐशक्ष्वाका:--इ क्ष्वाकु वंशी; क्षत्र--क्षत्रियों के; बन्धव:--परिवार के सदस्य; मुचुकुन्दः--मुचुकुन्द; इति--इस प्रकार; प्रोक्त:--कहागया; यौवनाश्व--यौवनाश्व ( युवना श्व का पुत्र ) का;आत्म-जः-पुत्र; प्रभो-हे प्रभु

    हे पुरुष-व्याप्र, जहाँ तक हमारी बात है, हम तो पतित क्षत्रियों के वंश से सम्बन्धित हैं औरराजा इक्ष्वाकु के वंशज हैं।

    हे प्रभु, मेरा नाम मुचुकुन्द है और मैं युवनाश्व का पुत्र हूँ।

    चिरप्रजागरश्रान्तो निद्रयापहतेन्द्रिय: ।

    शयेउस्मिन्विजने काम केनाप्युत्थापितोधुना ॥

    ३२॥

    चिर--दीर्घकाल से; प्रजागर--जगे रहने से; श्रान्तः--थका हुआ; निद्रया--नींद से; अपहत-- आच्छादित; इन्द्रियः --मेरीइन्द्रियाँ; शये--मैं लेटा रहा हूँ; अस्मिनू--इस; विजने--निर्जन स्थान में; कामम्‌--इच्छानुसार; केन अपि--किसी के द्वारा;उत्थापित:--जगाया गया; अधुना--अब

    दीर्घकाल तक जागे रहने के कारण मैं थक गया था और नींद से मेरी इन्द्रियाँ वशीभूत थीं।

    इस तरह मैं तब से इस निर्जन स्थान में सुखपूर्वक सोता रहा हूँ किन्तु अब जाकर किसी ने मुझेजगा दिया है।

    सोपि भस्मीकृतो नूनमात्मीयेनैव पाप्मना ।

    अनन्तरं भवान्श्रीमॉल्लक्षितोमित्रशासन: ॥

    ३३॥

    सः अपि--यही व्यक्ति; भस्मी-कृत:ः--राख हुआ; नूनम्‌ू--निस्सन्देह; आत्मीयेन-- अपने ही; एब--एकमात्र; पाप्मना--पापपूर्णकर्म से; अनन्तरम्‌-तुरन्त बाद; भवान्‌ू-- आप; श्रीमान्‌--यशस्वी; लक्षित: --देखा गया; अमित्र--शत्रुओं का; शासन:--दण्ड देने वाला।

    जिस व्यक्ति ने मुझे जगाया था वह अपने पापों के फल से जल कर राख हो गया।

    तभी मैंनेयशस्वी स्वरूप वाले एवं अपने शत्रुओं को दण्ड देने की शक्ति से सामर्थ्यवान आपको देखा।

    तेजसा तेविषह्योण भूरि द्रष्ट न शक्नुमः ।

    हतौजसा महाभाग माननीयोसि देहिनाम्‌ ॥

    ३४॥

    तेजसा--तेज के कारण; ते--तुम्हारे; अविषद्ेण -- असहा; भूरि-- अधिक; द्रष्टम

    ू--देख पाना; न शक्नुम:--हम समर्थ नहीं हैं;हत--घटा हुआ; ओजसा--अपने ओज से; महा-भग--हे परम ऐश्वर्यवान; माननीय: --सम्मान पाने के योग्य; असि--हो;देहिनम्‌-देहधारी जीवों द्वारा

    आपके असह्य तेज से हमारी शक्ति दबी जाती है और हम आप पर अपनी दृष्टि स्थिर नहींकर पाते।

    हे माननीय, आप समस्त देहधारियों द्वारा आदर किये जाने के योग्य हैं।

    एवं सम्भाषितो राज्ञा भगवान्भूतभावन: ।

    प्रत्याह प्रहसन्वाण्या मेघनादगभीरया ॥

    ३५॥

    एवम्‌--इस प्रकार; सम्भाषित:--कहा गया; राज्ञा--राजा द्वारा; भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; भूत--समस्त सृष्टि के; भावन: --उद्गम; प्रत्याह--उत्तर दिया; प्रहसन्‌--हँसते हुए; वाण्या--शब्दों से; मेघ--बादलों की; नाद--गड़गड़ाहट की तरह;गभीरया--गम्भीर |

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : राजा द्वारा इस तरह कहे जाने पर समस्त सृष्टि के उद्गमभगवान्‌ मुसकराने लगे और तब उन्होंने बादलों की गर्जना के सहश गम्भीर वाणी में उसे उत्तरदिया।

    श्रीभगवानुवाचजन्मकर्माभिधानानि सन्ति मेड़ सहस््रशः ।

    न शक्यन्तेडनुसड्ख्यातुमनन्तत्वान्मयापि हि ॥

    ३६॥

    श्री-भगवान्‌ उबाच-- भगवान्‌ ने कहा; जन्म--जन्म; कर्म--कार्य; अभिधानानि--तथा नाम; सन्ति--हैं; मे--मेरे; अड़--हेप्रिय; सहस्रश:ः--हजारों; न शक्यन्ते--वे नहीं हो सकते; अनुसड्ख्यातुम्‌--गिने जाना; अनन्तत्वात्‌--अन्त न होने से; मया--मेरे द्वारा; अपि हि-- भी |

    भगवान्‌ ने कहा : हे मित्र, मैं हजारों जन्म ले चुका हूँ; हजारों जीवन जी चुका हूँ; औरहजारों नाम धारण कर चुका हूँ।

    वस्तुतः मेरे जन्म, कर्म तथा नाम अनन्त हैं, यहाँ तक कि मैं भीउनकी गणना नहीं कर सकता।

    क्वचिद्रजांसि विममे पार्थिवान्युरुजन्मभि: ।

    गुणकर्माभिधानानि न मे जन्मानि कह्िचित्‌ ॥

    ३७॥

    क्वचित्‌--कभी; रजांसि-- धूल के कण; विममे--गिन सकता है; पार्थिवानि--पृथ्वी पर; उरू-जन्मभि: --अनेक जन्मों में;गुण--गुण; कर्म--कार्यकलाप; अभिधानानि--तथा नाम; न--नहीं; मे--मेरे; जन्मानि-- अनेक जन्म; कर्हिचित्‌ू--कभी

    यह सम्भव है कि कोई व्यक्ति पृथ्वी पर धूल-कणों की गणना कई जन्मों में कर ले किन्तुमेरे गुणों, कर्मों, नामों तथा जन्मों की गणना कोई भी कभी पूरी नहीं कर सकता।

    कालत्रयोपपन्नानि जन्मकर्माणि मे नृप ।

    अनुक्रमन्तो नैवान्तं गच्छन्ति परमर्षय: ॥

    ३८ ॥

    काल--समय का; त्रय--तीन अवस्थाओं ( भूत, वर्तमान तथा भविष्य ) में; उपपन्नानि--घटित होना; जन्म--जन्म; कर्माणि--तथा कर्म; मे--मेरे; नृप--हे राजा ( मुचुकुन्द ); अनुक्रमन्त:--गिनती करते हुए; न--नहीं; एब--तनिक भी; अन्तम्‌ू--अन्त;गच्छन्ति--पहुँचते हैं; परम--महानतम; ऋषय:--ऋषिगण |

    हे राजन, बड़े से बड़े ऋषि मेरे उन जन्मों तथा कर्मों की गणना करते रहते हैं, जो काल कीतीनों अवस्थाओं में घटित होते हैं किन्तु वे कभी उसका अन्त नहीं पाते।

    तथाप्यद्यतनान्यडु श्रुनुष्व गदतो मम ।

    विज्ञापितो विरि्ञेन पुराहं धर्मगुप्तये ।

    भूमेर्भारायमाणानामसुराणां क्षयाय च ॥

    ३९॥

    अवतीर्णो यदुकुले गृह आनकदुन्दुभे: ।

    वदन्ति वासुदेवेति वसुदेवसुतं हि मामू ॥

    ४०॥

    तथा अपि--फिर भी; अद्यतनानि--वर्तमान; अड्र--हे मित्र; श्रृणुष्व--सुनो; गदत:--मेरे द्वारा कहा गया; मम--मुझसे;विज्ञापित:--प्रार्थना किया जाकर; विरिज्ञेन--ब्रह्म द्वारा; पुरा-- भूतकाल में; अहम्‌--मैं; धर्म--धर्म की; गुप्तये--रक्षा करनेके लिए; भूमेः--पृथ्वी के लिए; भारायमाणानाम्‌-- भार स्वरूप; असुराणाम्‌--असुरों के; क्षयाय--विनाश के लिए; च--तथा; अवतीर्ण: --अवतरित; यदु--यदु के; कुले--वंश में; गृहे--घर में; आनकदुन्दुभेः--वसुदेव के; वदन्ति--लोग कहकरपुकारते हैं; वासुदेवः इति--वासुदेव नाम से; वसुदेव-सुतम्‌--वसुदेव के पुत्र को; हि--निस्सन्देह; माम्‌--मुझे |

    तो भी हे मित्र, मैं अपने इस ( वर्तमान ) जन्म, नाम तथा कर्म के विषय में तुम्हें बतलाऊँगा।

    कृपया सुनो।

    कुछ काल पूर्व ब्रह्मा ने मुझसे धर्म की रक्षा करने तथा पृथ्वी के भारस्वरूप असुरोंका संहार करने की प्रार्थना की थी।

    इस तरह मैंने यदुवंश में आनकदुन्दुभि के घर अवतारलिया।

    चूँकि मैं वसुदेव का पुत्र हूँ इसलिए लोग मुझे वासुदेव कहते हैं।

    कालनेमिईतः कंस: प्रलम्बाद्याश्न सदिद्वष: ।

    अयं च यवनो दग्धो राजंस्ते तिग्मचक्षुषा ॥

    ४१॥

    कालनेमि: --कालनेमि असुर; हत:--मारा गया; कंस:ः--कंस; प्रलम्ब--प्रलम्ब; आद्या:--इत्यादि; च-- भी; सत्‌--पुण्यात्मालोगों का; द्विष:--ईर्ष्यालु; अयम्‌--यह; च--तथा; यवन:--यवन; दग्ध: -- जला हुआ; राजन्‌--हे राजा; ते--तुम्हारी;तिग्म--तेज, तीक्ष्ण; चक्षुषा--चितवन से मैंने कालनेमि का वध किया है, जो कंस रूप में फिर से जन्मा था।

    साथ ही मैंने प्रलम्बतथा पुण्यात्मा लोगों के अन्य शत्रुओं का भी संहार किया है।

    और अब हे राजन, यह बर्बरतुम्हारी तीक्षण चितवन से जल कर भस्म हो गया है।

    सोऊहं तवानुग्रहार्थ गुहामेतामुपागत: ।

    प्रार्थित: प्रचुरं पूर्व त्वयाहं भक्तवत्सल: ॥

    ४२॥

    सः--वही पुरुष; अहम्‌--मैं; तब--तुम्हारे; अनुग्रह--अनुग्रह; अर्थम्‌--के लिए; गुहाम्‌-गुफा में; एताम्‌--इस; उपागत: --आया हुआ; प्रार्थित:--के लिए प्रार्थना किया गया; प्रचुरम्‌--अत्यधिक; पूर्वम्‌--पहले; त्वया--तुम्हारे द्वारा; अहम्‌ू--मैं;भक्त--अपने भक्तों का; वत्सल:--स्नेही |

    चूँकि भूतकाल में तुमने मुझसे बारम्बार प्रार्थना की थी इसलिए मैं स्वयं तुम पर अनुग्रहदर्शाने के लिए इस गुफा में आया हूँ, क्योंकि मैं अपने भक्तों के प्रति वत्सल रहता हूँ।

    वरान्वृणीष्व राजर्षे सर्वान्कामान्ददामि ते ।

    मां प्रसन्नो जन: कश्िन्न भूयोहति शोचितुम्‌ ॥

    ४३॥

    वरान्‌ू--वर; वृणीष्व--चुन लो; राज-ऋषे--हे राजर्षि; सर्वान्‌ू--समस्त; कामान्‌--इच्छित वस्तुएँ; ददामि--देता हूँ; ते--तुमको; माम्‌ू--मुझको; प्रसन्न:--प्रसन्न करके; जन:--व्यक्ति; कश्चित्‌ू--कोई; न भूयः--फिर नहीं; अहति-- आवश्यकताहोती है; शोचितुमू--शोक करने की

    हे राजर्षि, अब मुझसे कुछ वर ले लो।

    मैं तुम्हारी समस्त इच्छाएँ पूरी कर दूँगा।

    जो मुझेप्रसन्न कर लेता है, उसे फिर कभी शोक नहीं करना पड़ता।

    श्रीशुक उबाचइत्युक्तस्तं प्रणम्याह मुचुकुन्दो मुदान्वित: ।

    ज्ञात्वा नारायण देवं गर्गवाक्यमनुस्मरन्‌ ॥

    ४४॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; उक्त:--कहे जाने पर; तम्‌ू--उनसे; प्रणम्य--प्रणाम करके;आह--कहा; मुचुकुन्दः--मुचुकुन्द ने; मुदा--प्रसन्नतापूर्वक; अन्वित:--पूरित; ज्ञात्वा--जानकर; नारायणम्‌ देवम्‌-- भगवान्‌नारायण के रूप में; गर्ग-वाक्यम्‌-गर्ग मुनि के वचन; अनुस्मरन्‌--स्मरण करते हुए।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : यह सुनकर मुचुकुन्द ने भगवान्‌ को प्रणाम किया।

    गर्ग मुनि केबचनों का स्मरण करते हुए उसने कृष्ण को भगवान्‌ नारायण रूप में हर्षपूर्वक पहचान लिया।

    फिर राजा ने उनसे इस प्रकार कहा।

    श्रीमुचुकुन्द उबाचविमोहितोयं जन ईश माययात्वदीयया त्वां न भजत्यनर्थहक्‌ ।

    सुखाय दुःखप्रभवेषु सज्जतेगृहेषु योषित्पुरुषश्च वच्चितः ॥

    ४५॥

    श्री-मुचुकुन्दः उबाच-- श्री मुचुकुन्द ने कहा; विमोहितः--मोहग्रस्त; अयम्‌--यह; जन:--व्यक्ति; ईश-हे प्रभु; मायया--माया द्वारा; त्॒वदीयया--आपकी ; त्वामू--आपको; न भजति--नहीं पूजता; अनर्थ-हक्‌--असली लाभ न देखते हुए; सुखाय--सुख के लिए; दुःख--दुख; प्रभवेषु--उत्पन्न करने वाली वस्तुओं में; सजजते--फँस जाता है; गृहेषु--पारिवारिक मामलों में;योषित्‌--स्त्री; पुरुष:-- पुरुष; च--तथा; वज्धित:--ठगे गये।

    श्री मुचुकुन्द ने कहा : हे प्रभु, इस जगत के सभी स्त्री-पुरुष आपकी मायाशक्ति के द्वारामोहग्रस्त हैं।

    वे अपने असली लाभ से अनजान रहते हुए आपको न पूजकर अपने को कष्टों केमूल स्त्रोत अर्थात्‌ पारिवारिक मामलों में फँसाकर सुख की तलाश करते हैं।

    लब्ध्वा जनो दुर्लभमत्र मानुषंकथश्ञिदव्यड्रमयलतोनघ ।

    पादारविन्दं न भजत्यसन्मति-गृहान्धकूपे पतितो यथा पशु: ॥

    ४६॥

    लब्ध्वा--प्राप्त करके; जन:--व्यक्ति; दुर्लभम्‌-दुर्लभ; अत्र--इस संसार में; मानुषम्‌--मनुष्य जीवन; कथज््ित्‌--किसी नकिसी तरह से; अव्यड्रमू--बिना प्रयास के; अयलतः --स्वतः प्राप्त; अनघ--हे निष्पाप; पाद--आपके पाँव; अरविन्दम्‌--कमल सहश; न भजति--नहीं पूजा करता; असत्‌--अशुद्ध; मतिः--मानसिकता; गृह--घर के; अन्ध--अन्धा; कूपे--कुएं में;'पतित:ः--गिरा हुआ; यथा--जिस तरह; पशु: --कोई पशु।

    उस मनुष्य का मन अशुद्ध होता है, जो अत्यन्त दुर्लभ एवं अत्यन्त विकसित मनुष्य-जीवनके येन-केन-प्रकारेण स्वतः प्राप्त होने पर भी आपके चरणकमलों की पूजा नहीं करता।

    ऐसाव्यक्ति अंधे क॒एँ में गिरे हुए पशु के समान, भौतिक घरबार रूपी अंधकार में गिर जाता है।

    ममैष कालोजित निष्फलो गतोराज्यश्रियोत्रद्धमदस्य भूपते: ।

    मर्त्यात्मबुद्धेः सुतदारकोश भू-ष्वासजमानस्य दुरन्तचिन्तया ॥

    ४७॥

    मम--मेरा; एब: --यह; काल: --समय; अजित--हे अजेय; निष्फल:--व्यर्थ; गत:--अब व्यतीत हुआ; राज्य--राज्य;भ्िया--तथा ऐश्वर्य से; उन्नद्ध--बनाया गया; मदस्य--नशा; भूपते:--पृथ्वी के राजा का; मर्त्य--मर्त्य शरीर; आत्म--आत्माके रूप में; बुद्धेः --बुद्धि का; सुत--सन्तान; दार--पत्नियाँ; कोश-- खजाना; भूषु--तथा भूमि में; आसज्ञमानस्थ--आसक्तहोकर; दुरन्‍्त--अन्तहीन; चिन्तया--चिन्ता से |

    हे अजित, मैंने पृथ्वी के राजा के रूप में अपने राज्य तथा वैभव के मद में अधिकाधिकउन्मक्त होकर सारा समय गँवा दिया है।

    मर्त्प शरीर को आत्मा मानते हुए तथा संतानों, पत्नियों,खजाना तथा भूमि में आसक्त होकर मैंने अनन्त क्लेश भोगा है।

    कलेवरेस्मिन्धटकुड्यसन्निभेनिरूढमानो नरदेव इत्यहम्‌ ।

    बृतो रथेभाश्रपदात्यनीकपै-गाँ पर्यटंस्त्वागणयन्सुदुर्मद: ॥

    ४८ ॥

    कलेबरे--शरीर में; अस्मिन्‌ू--इस; घट--घड़ा; कुड्य--या दीवाल; सन्निभे--के सहृश; निरूढ--बढ़ा-चढ़ाकर वर्णित;मान:--जिसकी झूठी पहचान; नर-देव:--मनुष्यों में देवता ( राजा ); इति--इस प्रकार ( अपने बारे में समझकर ); अहम्‌--मैं;वृतः--घिरा हुआ; रथ--रथों; इभ--हाथियों; अश्व--घोड़ों; पदाति--पैदल सैनिकों; अनीकपैः --तथा सेनापतियों से; गाम्‌--पृथ्वी की; पर्यटन्‌ू--यात्रा करते हुए; त्वा--तुम; अगणयनू--ठीक से न मानते हुए; सु-दुर्मदः--गर्व से प्रवंचित ।

    अत्यन्त गर्वित होकर मैंने अपने को शरीर मान लिया था, जो घड़े या दीवाल जैसी एकभौतिक वस्तु है।

    अपने को मनुष्यों में देवता समझ कर मैंने अपने सारथियों, हाथियों,अश्वारोहियों, पैदल सैनिकों तथा सेनापतियों से घिरकर और अपने प्रवंचित गर्व के कारणआपकी अवमानना करते हुए पृथ्वी भर में विचरण किया।

    प्रमत्तमुच्चैरितिकृत्यचिन्तयाप्रवृद्धलोभं विषयेषु लालसम्‌ ।

    त्वमप्रमत्त: सहसाभिपद्यसेक्षुल्लेलिहानोउहिरिवाखुमन्तकः ॥

    ४९॥

    प्रमत्तम्‌--पूर्णतया ठगा हुआ; उच्चै:--विस्तृत; इति-कृत्य--करणीय; चिन्तबा--विचार से; प्रवृद्ध--बढ़ा हुआ; लोभम्‌--लालच; विषयेषु--इन्द्रिय विषयों के लिए; लालसम्‌--लालसा; त्वमू--आप; अप्रमत्त:--जो मोहग्रस्त नहीं है; सहसा--एकाएक; अभिपद्यसे-- मुठभेड़ होती है; क्षुतू--प्यास से; लेलिहान: --अपने विषैले दाँतों को चाटता हुआ; अहि:--सर्प;इब--सहश; आखुम्‌--चूहे को; अन्तक:--मृत्यु |

    करणीय के विचारों में लीन, अत्यन्त लोभी तथा इन्द्रिय-भोग से प्रसन्न रहने वाले मनुष्य कासदा सतर्क रहने वाले आपसे अचानक सामना होता है।

    जैसे भूखा साँप चूहे के आगे अपनेविषैले दाँतों को चाटता है उसी तरह आप उसके समक्ष मृत्यु के रूप में प्रकट होते हैं।

    पुरा रथैहेमपरिष्कृतै श्वरन्‌मतंगजैर्वा नरदेवसंज्ञितः ।

    स एव कालेन दुरत्ययेन तेकलेवरो विट्कृमिभस्मसंज्ञित: ॥

    ५०॥

    पुरा--इससे पहले; रथैः --रथों पर; हेम--सोने से; परिष्कृते:--सजाये; चरन्‌--आरूढ़ होकर; मतम्‌-- भयानक; गजै:--हाथियों पर; वा--अथवा; नर-देव--राजा; संज्ञित:--नामक; सः--वह; एबव--वही; कालेन--काल के द्वारा; दुरत्ययेन--नबच पाने वाले; ते--तुम्हारा; कलेवर:--शरीर; विट्‌ू--मल; कृमि--कीड़े-मकोड़े; भस्म--राख ; संज्ञित:--नामक |

    जो शरीर पहले भयानक हाथियों या सोने से सजाये हुए रथों पर सवार होता है और 'राजा'के नाम से जाना जाता है, वही बाद में आपकी अजेय काल-शक्ति से मल, कृमि या भस्मकहलाता है।

    निर्जित्य दिक्लक्रमभूतविग्रहोवरासनस्थ: समराजवन्दितः ।

    गृहेषु मैथुन्यसुखेषु योषितांक्रीडामृग: पूरुष ईश नीयते ॥

    ५१॥

    निर्जित्य--जीत कर; दिक्‌ू--दिशाओं के ; चक्रम्‌--पूरे चक्कर के; अभूत--न रहने पर; विग्रह:--लड़ाई, संघर्ष; वर-आसन--उत्तम सिंहासन पर; स्थ:--आसीन; सम--समान; राज--राजाओं से; वन्दित:--पप्रशंसित; गृहेषु--घरों में; मैथुन्य--संभोग;सुखेषु--सुख में; योषिताम्‌--स्त्रियों के; क्रीडा-मृग:--पालतू पशु; पुरुष:--पुरुष; ईश--हे प्रभु; नीयते--ले जाया जाता है

    समस्त दिग-दिगान्तरों को जीत कर और इस तरह लड़ाई से मुक्त होकर मनुष्य भव्य राजसिंहासन पर आसीन होता है और अपने उन नायको से प्रशंसित होता है, जो किसी समय उसकेबराबर थे।

    किन्तु जब वह स्त्रियों के कक्ष में प्रवेश करता है जहाँ संभोग-सुख पाया जाता है, तोहे प्रभु, वह पालतू पशु की तरह हाँका जाता है।

    करोति कर्माणि तपःसुनिष्ठितोनिवृत्तभोगस्तदपेक्षयाददत्‌ ।

    पुनश्च भूयासमहं स्वराडितिप्रवृद्धतर्षो न सुखाय कल्पते ॥

    ५२॥

    करोति--करता है; कर्माणि--कर्तव्य; तपः--तपस्या; सु-निष्ठित:ः--अत्यन्त स्थिर; निवृत्त--बचाते हुए; भोग:--इन्द्रिय भोग;तत्‌--उस ( पद ) से; अपेक्षया--तुलना में; अददत्‌--मानते हुए; पुनः--आगे; च--तथा; भूयासम्‌--अधिक बड़ा; अहम्‌--मैं;स्व-राट्‌--सम्राट, एकछत्र शासक; इति--इस प्रकार सोचते हुए; प्रवृद्ध--बढ़ी हुईं; तर्ष:--वेग, तृष्णा; न--नहीं; सुखाय--सुख; कल्पते--प्राप्त कर सकता है

    जो राजा पहले से प्राप्त शक्ति से भी और अधिक शक्ति ( अधिकार ) की कामना करता है,वह तपस्या करके तथा इन्द्रिय-भोग का परित्याग करके कठोरता से अपने कर्तव्य पूरा करता है।

    किन्तु जिसके वेग ( तृष्णाएँ ) यह सोचते हुए कि 'मैं स्वतंत्र तथा सर्वोच्च हूँ, ' इतने प्रबल हैं,वह कभी सुख प्राप्त नहीं कर सकता।

    भवापवर्गो भ्रमतो यदा भवे-ज्नस्य तहा॑च्युत सत्समागम:ः ।

    सत्सड्रमो यहिं तदेव सदगतौपरावरेशे त्वयि जायते मतिः ॥

    ५३॥

    भव--अस्तित्व का; अपवर्ग:--समाप्ति; भ्रमतः--घूमने वाला; यदा--जब; भवेत्‌--होता है; जनस्य--मनुष्य के लिए; तहिं--उस समय; अच्युत--हे अच्युत; सत्‌--साधु-भक्तों की; समागम: --संगति; सत्‌-सण्गम:--साधु-संगति; यहिं--- जब; तदा--तब; एव--केवल; सत्‌--सन्‍्तों का; गतौ--लक्ष्य है, जो; पर-- श्रेष्ठ का ( जगत के कारण ); अवर--तथा निकृष्ट ( कार्य );ईशे-- भगवान्‌ में; त्वयि--तुम; जायते--उत्पन्न होती है; मतिः--भक्ति

    हे अच्युत, जब भ्रमणशील आत्मा ( जीव ) का भौतिक जीवन समाप्त हो जाता है, तो वहआपके भक्तों की संगति प्राप्त कर सकता है।

    और जब वह उनकी संगति करता है, तो भक्तों केलक्ष्य और समस्त कारणों तथा उनके प्रभावों के स्वामी आपके प्रति उसमें भक्ति उत्पन्न होती है।

    मन्ये ममानुग्रह ईश ते कृतोराज्यानुबन्धापगमो यहच्छया ।

    यः प्रार्थ्यते साधुभिरिकचर्ययावन विविश्वद्धिरखण्डभूमिपै: ॥

    ५४॥

    मन्ये--मैं सोचता हूँ; मम--मुझ पर; अनुग्रहः--दया; ईश--हे प्रभु; ते--आपके द्वारा; कृत:--की गई; राज्य--साप्राज्य;अनुबन्ध--आसक्ति का; अपगम:--विलगाव; यदृच्छया--जहाँ की तहाँ; य:--जो; प्रार्थ्यते--के लिए प्रार्थना की जाती है;साधुभि:--सन्तों द्वारा; एक-चर्यया--एकान्त में; वनमू--जंगल; विविश्वद्धिः--प्रवेश करने के इच्छुक; अखण्ड---असीम;भूमि-- भूमि के; पैः--शासकों द्वारा

    हे प्रभु, मैं सोचता हूँ कि आपने मुझ पर कृपा की है क्योंकि आपने साम्राज्य के प्रति मेरीआसक्ति अपने आप समाप्त हो गई है।

    ऐसी मुक्ति (स्वतंत्रता ) के लिए विशाल साम्राज्य केसाधु शासकों द्वारा प्रार्थना की जाती है, जो एकान्त जीवन बिताने के लिए जंगल में जाना चाहतेहैं।

    न कामयेउन्यं तव पादसेवना-दकिख्ञनप्रार्थ्यतमाद्वरं विभो ।

    आरशाध्य कर्त्वां ह्पवर्गदं हरेवृणीत आर्यो वरमात्मबन्धनम्‌ ॥

    ५५॥

    न कामये--मैं इच्छा नहीं करता; अन्यम्‌--दूसरी; तव--तुम्हारे; पाद--चरणों के; सेवनात्‌ू--सेवा के अतिरिक्त; अकिलज्लन--कुछ न चाहने वालों के द्वारा; प्रार्थ्य-तमात्‌--जो प्रार्थनीय हो; वरम्‌--वर; विभो--हे सर्वशक्तिमान; आराध्य-- पूज्य; कः--कौन; त्वामू--तुमको; हि--निस्सन्देह; अपवर्ग--मोक्ष का; दम्‌--प्रदाता; हरे--हे हरि; वृणीत--चुनेगा; आर्य:-- श्रेष्ठ पुरुष;वरम्‌ू--वर; आत्म--अपना; बन्धनम्‌--बन्धन ( का कारण )

    हे सर्वशक्तिमान, मैं आपके चरणकमलों की सेवा के अतिरिक्त और किसी वर की कामनानहीं करता क्योंकि यह वर उन लोगों के द्वारा उत्सुकतापूर्वक चाहा जाता है, जो भौतिककामनाओं से मुक्त हैं।

    हे हरि! ऐसा कौन प्रबुद्ध व्यक्ति होगा जो मुक्तिदाता अर्थात्‌ आपकी पूजाकरते हुए ऐसा वर चुनेगा जो उसका ही बन्धन बने ?

    तस्माद्विसृज्याशिष ईश सर्वतोरजस्तमःसत्त्वगुणानुबन्धना: ।

    निरज्जनं निर्गुणमद्दय॑ परंत्वां ज्ञाप्तिमात्रं पुरुषं ब्रजाम्यहम्‌ ॥

    ५६॥

    तस्मात्‌--इसलिए; विसृज्य--त्यागकर; आशिष: --इच्छित वस्तुएँ; ईश-हे प्रभु; सर्वतः--नितान्त; रज: --रजो; तम:--तमो;सत्तत--तथा सतो; गुण-- भौतिक गुण; अनु-बन्धना:--फँसा हुआ; निरज्ञनम्‌-- भौतिक उपाधियों से मुक्त; निर्गुणम्‌-गुणों सेपरे; अद्दयम्‌--अद्वय; परम्‌--परम; त्वाम्‌--तुम्हारे पास; ज्ञाप्ति-मात्रमू-शुद्ध ज्ञान; पुरुषम्‌-- आदि-पुरुष को; ब्रजामि--पासआ रहा हूँ; अहम्‌-इइसलिए

    हे प्रभु, उन समस्त भौतिक इच्छाओं को त्यागकर जो रजो, तमो तथा सतो गुणों से बद्ध हैं, मैं शरण लेने के लिए आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ से प्रार्थना कर रहा हूँ।

    आप संसारीउपाधियों से प्रच्छन्न नहीं हैं, प्रत्युत आप शुद्ध ज्ञान से पूर्ण तथा भौतिक गुणों से परे परम सत्यहैं।

    चिरमिह वृजिनार्तस्तप्यमानोनुतापै-रवितृषषडमित्रो इलब्धशान्ति: कथझ्ञित्‌ ।

    शरणद समुपेतस्त्वत्पदाब्ज॑ परात्म-नभयमृतमशोकं पाहि मापन्नमीश ॥

    ५७॥

    चिरम्‌--दीर्घकाल से; इह--इस संसार में; वृजिन--उत्पातों द्वारा; आर्त:--दुखी; तप्यमान:--सताये; अनुतापैः --पश्चाताप से;अवितृष--अतृप्त; षघटू--छ:; अमित्र: --शत्रु ( पाँच इन्द्रियाँ तथा मन ); अलब्ध--न प्राप्त करते हुए; शान्ति:--शान्ति;कथश्ञित्‌--किसी तरह से; शरण--शरण का; द--हे देने वाले; समुपेत:--आने वाले; त्वत्‌--तुम्हारे; पद-अब्जम्‌--चरणकमल; पर-आत्मनू--हे परमात्मा; अभयम्‌--निर्भीक; ऋतम्‌ू--सत्य; अशोकम्‌--शोकरहित; पाहि-- रक्षा करो; मा--मेरी; आपन्नम्‌--संकट से घिरा; ईश-हे प्रभु |

    इतने दीर्घकाल से मैं इस जगत में कष्टों से पीड़ित होता रहा हूँ और शोक से जलता रहा हूँ।

    मेरे छह शत्रु कभी भी तृप्त नहीं होते और मुझे शान्ति नहीं मिल पाती।

    अतः हे शरणदाता, हेपरमात्मा! मेरी रक्षा करें।

    हे प्रभु, सौभाग्य से इतने संकट के बीच मैं आपके चरणकमलों तकपहुँचा हूँ, जो सत्य रूप हैं और जो निर्भय तथा शोक-रहित बनाने वाले हैं।

    श्रीभगवानुवाचसार्वभौम महाराज मतिस्ते विमलोर्जिता ।

    बरैः प्रलोभितस्यापि न कामैर्विहता यतः ॥

    ५८॥

    श्री-भगवान्‌ उबाच-- भगवान्‌ ने कहा; सार्वभौम--हे सम्राट; महा-राज--महान्‌ राजा; मति:--मन; ते--तुम्हारा; विमल--निष्कलंक; ऊर्जिता--शक्तिशाली; वरैः--वरों से; प्रलोभितस्य--प्रलोभन में फँसे, तुम्हारा; अपि--यद्यपि; न--नहीं; कामै:--भौतिक इच्छाओं द्वारा; विहता--विनष्ट; यतः--चूँकि ।

    भगवान्‌ ने कहा : हे सप्राट, महान्‌ राजा, तुम्हारा मन शुद्ध तथा सामर्थ्यवान है।

    यद्यपि मैंने वरों के द्वारा तुम्हें प्रलोभित करना चाहा किन्तु तुम्हारा मन भौतिक इच्छाओं के वशीभूत नहींहुआ।

    प्रलोभितो वरैर्यत्त्वमप्रमादाय विद्द्धि तत्‌ ।

    न धीरेकान्तभक्तानामाशीर्भिर्भिद्यते क्वचित्‌ ॥

    ५९॥

    प्रलोभित:ः--प्रलो भन में आये; बरै:--वरों से; यत्‌--जो तथ्य; त्वमू--तुम; अप्रमादाय--मोह से मुक्त होने के लिए; विद्द्धि--जानो; तत्‌--वह; न--नहीं; धी:--बुद्धि; एकान्त--एकमात्र; भक्तानामू-भक्तों के; आशीर्भि:--आशीर्वादों से; भिद्यते--विपथ होती है, भटकती है; क्वचित्‌ू--कभी |

    यह जान लो कि मैं यह सिद्ध करने के लिए तुम्हें वरों से प्रलोभन दे रहा था कि तुम धोखानहीं खा सकते।

    मेरे शुद्ध भक्त की बुद्धि कभी भी भौतिक आशीर्वादों से विषथ नहीं होती।

    युज्ञानानामभक्तानां प्राणायामादिभिर्मन: ।

    अक्षीणवासन राजन्हश्यते पुनरुत्थितम्‌ ॥

    ६०॥

    युज्ञानानाम्‌--लगे रहने वाले का; अभक्तानाम्‌--अभ क्तों का; प्राणायाम--प्राणायाम से; आदिभि:--इत्यादि से; मन: --मन;अक्षीण--निर्मूल नहीं हुई; वासनम्‌--वासना के अन्तिम अवशेष; राजनू्‌--हे राजन्‌ ( मुचुकुन्द ); दृश्यते--देखी जाती हैं;पुनः--फिर; उत्थितम्‌--जगती हुई ( इन्द्रिय तृप्ति के विचारों के प्रति )

    ऐसे अभक्तगण जो प्राणायाम जैसे अभ्यासों में लगते हैं उनके मन भौतिक इच्छाओं से कभीविमल नहीं होते।

    इस तरह हे राजन, उनके मन में भौतिक इच्छाएँ पुनः उठती हुई देखी गई हैं।

    विचरस्व महीं काम मय्यावेशितमानस: ।

    अस्त्वेवं नित्यदा तुभ्यं भक्तिमय्यनपायिनी ॥

    ६१॥

    विचरस्व-- भ्रमण करो; महीम्‌--इस पृथ्वी पर; कामम्‌--इच्छानुसार; मयि--मुझमें; आवेशित--स्थिर; मानस: --तुम्हारा मन;अस्तु--होए; एवम्‌--इस प्रकार; नित्यदा--सदैव; तुभ्यम्‌--तुम्हारे लिए; भक्ति:-- भक्ति; मयि--मुझमें; अनपायिनी--अविचल।

    अपना मन मुझमें स्थिर करके तुम इच्छानुसार इस पृथ्वी पर विचरण करो।

    मुझमें तुम्हारीऐसी अविचल भक्ति सदैव बनी रहे।

    क्षात्रधर्मस्थितो जन्तूज््यवधीमृगयादिभि: ।

    समाहितस्तत्तपसा जहाघं मदुपाभ्रित: ॥

    ६२॥

    क्षात्र--क्षत्रियों के; धर्म--धर्म में; स्थित:--स्थित; जन्तून्‌ू--जीवों को; न्‍्यवधी: --तुमने मारा; मृगया--शिकार के समय;आदिभि:--तथा अन्य कार्यों से; समाहित: --पूर्णतया केन्द्रित; तत्‌ू--उस; तपसा--तपस्या से; जहि--समूल उखाड़ फेंको;अधघम्‌ू--पापपूर्ण फल को; मत्‌--मुझमें; उपाभ्रित:--शरण लिये हुए।

    चूँकि तुमने क्षत्रिय के सिद्धान्तों का पालन किया है, अतः शिकार करते तथा अन्य कार्यसम्पन्न करते समय तुमने जीवों का वध किया है।

    तुम्हें चाहिए कि सावधानी के साथ तपस्याकरते हुए तथा मेरे शरणागत रहते हुए इस तरह से किए हुए पापों को मिटा डालो।

    जन्मन्यनन्तरे राजन्सर्वभूतसुहत्तम: ।

    भूत्वा द्विजवरस्त्वं वै मामुपैष्यसि केवलम्‌ ॥

    ६३॥

    जन्मनि--जन्म में; अनन्तरे--इसके तुरन्त बाद; राजन्‌ू--हे राजन; सर्ब--सभी; भूत--जीवों का; सुहत्‌-तमः --सर्व श्रेष्ठशुभचिन्तक; भूत्वा--बनकर; द्विज-वरः-- श्रेष्ठ ब्राह्मण; त्वमू--तुम; बै--निस्सन्देह; मम्‌--मेंरे पास; उपैष्यसि-- आओगे;केवलम्‌--एकमात्र |

    हे राजन, तुम अगले जीवन में श्रेष्ठ ब्राह्मण, समस्त जीवों के सर्वोत्तम शुभचिन्तक बनोगेऔर अवश्य ही मेरे पास आओगे।

    TO

    अध्याय बावन: रुक्मिणी का भगवान कृष्ण को संदेश

    10.52श्रीशुक उबाचइत्थं सोउनग्रहीतो न्‍ग कृष्णेनेक्ष्वाकु नन्दनः ।

    त॑ परिक्रम्य सन्नम्य निश्चक्राम गुहामुखात्‌ ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इत्थम्‌--इस प्रकार; सः--वह; अनुग्रहीतः--दया दिखलाया गया; अड्ढड--हेप्रिय ( परीक्षित महाराज ); कृष्णेन--कृष्ण द्वारा; इक्ष्बाकु-नन्दन:--इक्ष्वाकुवंशी मुचुकुन्द; तम्‌--उन्‍्हें; परिक्रम्य--परिक्रमाकरके; सन्नम्य--नमस्कार करके; निश्चक्राम--बाहर चला गया; गुहा--गुफा के; मुखात्‌--मुँह से होकर

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा, इस प्रकार कृष्ण द्वारा दया दिखाये गये मुचुकुन्द नेउनकी प्रदक्षिणा की और उन्हें नमस्कार किया।

    तब इक्ष्वाकुवंशी प्रिय मुचुकुन्द गुफा के मुँह सेहोकर बाहर आये।

    संवीक्ष्य क्षुल्लकान्मर्त्यान्‍्पशून्वीरुद्दनस्पतीन्‌ ।

    मत्वा कलियुगं प्राप्त जगाम दिशमुत्तराम्‌ ॥

    २॥

    संवीक्ष्य--देखकर; श्षुल्लकान्‌--छोटे छोटे; मर्त्यान्‌ू--मनुष्यों को; पशूनू--पशुओं को; वीरुतू--लताओं; वनस्पतीन्‌--तथावृक्षों को; मत्वा--मान कर; कलि-युगम्‌--कलियुग को; प्राप्तम्‌--आया हुआ; जगाम--चला गया; दिशम्‌--दिशा में;उत्तरामू--उत्तरी

    यह देखकर कि सभी मनुष्यों, पशुओं, लताओं तथा वृक्षों के आकार अत्यधिक छोटे होगये हैं और इस तरह यह अनुभव करते हुए कि कलियुग सन्निकट है, मुचुकुन्द उत्तर दिशा की ओर चल पड़े।

    तपः श्रद्धायुतो धीरो निःसझ़े मुक्तसंशय: ।

    समाधाय मन: कृष्णे प्राविशद्गन्धमादनम्‌ ॥

    ३॥

    तपः--तपस्या; श्रद्धा -- श्रद्धा से; युतः--युक्त; धीर:--गम्भीर; निःसड्र:-- भौतिक संगति से विरक्त; मुक्त--स्वतंत्र; संशय: --सन्देहों से; समाधाय--समाधि में स्थिर करके; मन:ः--अपना मन; कृष्णे--कृष्ण में; प्राविशत्‌-- प्रवेश किया; गन्धमादनम्‌--गन्धमादन नामक पर्वत पर।

    भौतिक संगति से परे तथा सन्देह से मुक्त सौम्य राजा तपस्या के महत्व के प्रति विश्वस्त था।

    अपने मन को कृष्ण में लीन करते हुए वह गन्धमादन पर्वत पर आया।

    बदर्याश्रममासाद्य नरनारायणालयम्‌ ।

    सर्वद्वन्द्डसहः शान्तस्तपसाराधयद्धरिम्‌ ॥

    ४॥

    बदरी-आश्रमम्‌--बदरिका श्रम में; आसाद्य--पहुँच कर; नर-नारायण--नर तथा नारायण नामक भगवान्‌ के दो अवतारों का;आलयमू--आवास; सर्व--समस्त; दन्द्र--द्वैतताओं को; सह:--सहते हुए; शान्तः--शान्त; तपसा--कठिन तपस्या से;आराधयत्‌-- पूजा; हरिम्‌ू-- भगवान्‌ को

    वहाँ वह नर-नारायण के धाम बदरिकाश्रम आया जहाँ पर समस्त द्वन्द्दों को सहते हुए उसनेकठोर तपस्या करके भगवान्‌ हरि की शान्तिपूर्वक पूजा की।

    भगवान्युनराब्रज्य पुरीं यवनवेष्टिताम्‌ ।

    हत्वा म्लेच्छबलं निन्‍ये तदीयं द्वारकां धनम्‌ ॥

    ५॥

    भगवान्‌-- भगवान्‌; पुनः--फिर से; आव्रज्य--लौटकर; पुरीम्‌--अपनी नगरी में; यवन--यवतों द्वारा; वेष्टितामू--घिरी;हत्वा--मारकर; म्लेच्छ--यवनों की; बलम्‌--सेना को; निन्‍्ये--ले आये; तदीयम्‌--उनकी; द्वारकाम्‌--द्वारका को; धनम्‌--सम्पत्ति)भगवान्‌ मथुरा नगरी लौट आये जो अब भी यवतनों से घिरी थी।

    तत्पश्चात्‌ उन्होंने बर्बर यवनोंकी सेना नष्ट की और उन यवनों की बहुमूल्य वस्तुएँ द्वारका ले गये।

    नीयमाने धने गोभिरनृभिश्चाच्युतचोदितेः ।

    आजगाम जरासन्धस्त्रयोविंशत्यनीकप: ॥

    ६॥

    नीयमाने--ले जाते समय; धने--सम्पत्ति को; गोभि:--बैलों द्वारा; नृभि:--मनुष्यों द्वारा; च--तथा; अच्युत--भगवान्‌ कृष्णद्वारा; चोदितेः--लगाये गये; आजुगाम--वहाँ आया; जरासन्ध: --जरासन्ध; त्रय:--तीन; विंशति-- बीस; अनीक--सेनाओंका; पः--नायक

    जब यह सम्पदा भगवान्‌ कृष्ण के आदेशानुसार बैलों तथा मनुष्यों द्वारा ले जाई जा रही थीतो जरासन्ध तेईस सैन्यटुकड़ियों के प्रधान के रूप में वहाँ प्रकट हुआ।

    विलोक्य वेगरभसं रिपुसैन्यस्थ माधवौ ।

    मनुष्यचेष्टामापन्नौ राजन्दुद्रुवतुर्द्तम्‌ ॥

    ७॥

    विलोक्य--देखकर; वेग--लहरों की; रभसम्‌--डरावनापन; रिपु--शत्रु की; सैन्यस्थ--सेनाओं का; माधवौ--दोनों माधव(कृष्ण तथा बलराम ); मनुष्य--मनुष्य जैसा; चेष्टामू--आचरण; आपतन्नौ-- धारण करते हुए; राजनू--हे राजा ( परीक्षित );दुद्गुबतु:-- भाग गये; द्रुतम्‌--तेजी से

    हे राजन, शत्रु की सेना की भयंकर हलचल को देखकर माधव-बन्धु मनुष्य का-साव्यवहार करते हुए तेजी से भाग गये।

    विहाय वित्त प्रचुरमभीतौ भीरुभीतवत्‌ ।

    पद्भ्यां पलाशाभ्यां चेलतुर्बहुयोजनम्‌ ॥

    ८॥

    विहाय--छोड़ कर; वित्तम्‌--धन; प्रचुरम्‌--पर्याप्त; अभीतौ--वस्तुतः बिना डरे; भीरु--डरपोकों के समान; भीत-वत्‌--डरेजैसे; पदभ्याम्‌--अपने पाँवों से; पद्य--कमलों की; पलाशाभ्याम्‌-पंखड़ियों जैसे; चेलतु:--चले गये; बहु-नोजनम्‌--कईयोजन तक ( एक योजन आठ मील से कुछ अधिक की दूरी है )

    प्रचुर सम्पत्ति को छोड़ कर निर्भय किन्तु भय का स्वाँग करते हुए वे अपने कमलवत्‌ चरणोंसे पैदल अनेक योजन चलते गये।

    'पलायमानोौ तौ दृष्ठा मागध: प्रहसन्बली ।

    अन्वधावद्रथानीकैरीशयोरप्रमाणवित्‌ ॥

    ९॥

    'पलायमानौ-- भागते हुए; तौ--उन दोनों को; दृष्टा--देखकर; मागध:--जरासन्ध; प्रहसन्‌--जोर से हँसते हुए; बली--बलवान;अन्वधावत्‌--पीछे पीछे दौड़ा; रथ--रथ; अनीकै:ः--तथा सैनिकों के साथ; ईशयो:--दोनों प्रभुओं का; अप्रमाण-वित्‌--कार्यक्षेत्र से अनभिज्ञ

    उन दोनों को भागते देखकर शक्तिशाली जरासन्ध अट्टाहास करने लगा और सारथियों तथापैदल सैनिकों को साथ लेकर उनका पीछा करने लगा।

    वह दोनों प्रभुओं के उच्च पद को समझनहीं सका।

    प्रद्गुत्य दूरं संभ्रान्तौ तुड़मारुहतां गिरिम्‌ ।

    प्रवर्षणाख्यं भगवान्नित्यदा यत्र वर्षति ॥

    १०॥

    प्रद्वुत्य--पूरे वेग से दौड़कर; दूरम्‌--काफी दूरी; संश्रान्तौ--थके हुए; तुड़्म्‌--खूब ऊँचे; आरुहताम्‌--चढ़ गये; गिरिम्‌--पर्वतपर; प्रवर्षण-आख्यम्‌--प्रवर्षण नामक; भगवान्‌--इन्द्र; नित्यदा--सदैव; यत्र--जहाँ; वर्षति-- वर्षा करता है।

    काफी दूरी तक भागने से थक कर चूर-चूर दिखते हुए दोनों प्रभु प्रवर्षण नामक ऊँचे पर्वतपर चढ़ गये जिस पर इन्द्र निरंतर वर्षा करता है।

    गिरौ निलीनावाज्ञाय नाधिगम्य पदं नृप ।

    ददाह गिरिमेधोभि: समन्तादग्निमुत्सूजन्‌ू ॥

    ११॥

    गिरौ--पर्वत पर; निलीनौ--छिपे हुए; आज्ञाय--अवगत होकर; न अधिगम्य--न ढूँढ़कर; पदम्‌--उनका स्थान; नृप--हे राजा( परीक्षित ); ददाह--आग लगा दी; गिरिम्‌--पर्वत में; एधोभि:--ईंधन से; समन्तात्‌ू--चारों ओर; अग्निमू--आग; उत्सूजन्‌--उत्पन्न करते हुए

    यद्यपि जरासन्ध जानता था कि वे दोनों ही पर्वत में छिपे हैं किन्तु उसे उनका कोई पता नहींचल सका।

    अतः हे राजा, उसने सभी ओर लकड़ियाँ रखकर पर्वत में आग लगा दी।

    तत उत्पत्य तरसा दह्ममानतटादुभौ ।

    दशैकयोजनात्तुड्डान्रिपेततुरधो भुवि ॥

    १२॥

    ततः--उस ( पर्वत ) से; उत्पत्य--कूद कर; तरसा--जल्दी से; दह्ममान--जलते हुए; तटात्‌--छोरों से; उभौ--दोनों; दश-एक- ग्यारह; योजनात्‌ू--योजन; तुझत्‌--उच्च; निपेततु:--वे गिरे; अध:--नीचे; भुवि--जमीन पर।

    तब वे दोनों सहसा उस जलते हुए ग्यारह योजन ऊँचे पर्वत से नीचे कूद कर जमीन पर आगिरे।

    अलक्ष्यमाणौ रिपुणा सानुगेन यदूत्तमौ ।

    स्वपुरं पुनरायातौ समुद्रपरिखां नूप ॥

    १३॥

    अलक्ष्यमाणौ--न दिखाई देते हुए; रिपुणा--अपने शत्रुओं द्वारा; स--सहित; अनुगेन-- अपने अनुयायियों के साथ; यदु--यदुओं के; उत्तमौ--दो अतीव उत्तम; स्व-पुरम्‌--अपनी पुरी ( द्वारका ) में; पुन:--फिर; आयातौ--गये; समुद्र--समुद्र;परिखाम्‌--रक्षा-खाई से युक्त; नृप--हे राजन्‌ |

    अपने प्रतिपक्षी या उसके अनुचरों द्वारा न दिखने पर, हे राजन, वे दोनों यदु श्रेष्ठ अपनीद्वारकापुरी लौट गये जिसकी सुरक्षा-खाई समुद्र थी।

    सोपि दग्धाविति मृषा मन्वानो बलकेशवौ ।

    बलमाकृष्य सुमहन्मगधान्मागधो ययौ ॥

    १४॥

    सः--वह; अपि-- भी; दग्धौ--अग्नि में जले हुए दोनों; इति--इस प्रकार; मृषा--झूठे ही; मन्वान:--सोचते हुए; बल-केशवौ--बलराम तथा कृष्ण; बलम्‌--अपनी सेना; आकृष्य--पीछे हटाकर; सु-महत्‌--विशाल; मगधानू--मगधों के राज्यमें; मागध:--मगधों का राजा; ययौ--चला गया ।

    यही नहीं, जरासन्ध ने गलती से सोचा कि बलराम तथा कृष्ण अग्नि में जल कर मर गये हैं।

    अतः उसने अपनी विशाल सेना पीछे हटा ली और मगध राज्य को लौट गया।

    आनर्ताधिपति: श्रीमात्रैवतो रैवतीं सुताम्‌ ।

    ब्रह्मणा चोदित: प्रादाद्वलायेति पुरोदितम्‌ ॥

    १५॥

    आनर्त--आनर्त प्रदेश का; अधिपति:--अधी श्वर; श्रीमान्‌--ऐ श्वर्यवान्‌; रैवत:--रैवत; रैवतीमू--रैवती नामक; सुताम्‌ू--उसकीपुत्री; ब्रह्मणा--ब्रह्मा द्वारा; चोदित:--आज्ञा दिया गया; प्रादात्‌ू--दिया; बलाय--बलराम को; इति--इस प्रकार; पुरा--प्राचीन काल में; उदितम्‌--उल्लिखित |

    ब्रह्म के आदेश से आनर्त के वैभवशाली राजा रैवत ने अपनी पुत्री रैवती का विवाह बलरामसे कर दिया।

    इसका उल्लेख पहले ही हो चुका है।

    भगवानपि गोविन्द उपयेमे कुरूद्वह ।

    वैदर्भी भीष्मकसुतां थ्रियो मात्रां स्वयंवरे ॥

    १६॥

    प्रमथ्य तरसा राज्ञः शाल्वादों श्रेद्यपक्षगान्‌ ।

    पश्यतां सर्वलोकानां तार््च्यपुत्र: सुधामिव ॥

    १७॥

    भगवान्‌-- भगवान्‌; अपि--निस्सन्देह; गोविन्द: --कृष्ण ने; उपयेमे--ब्याहा; कुरु-उद्दद--हे कुरुओं में वीर ( परीक्षित );वैदर्भीमू--रुक्मिणी को; भीष्मक-सुताम्‌--राजा भीष्मक की पुत्री; अ्रिय:--लक्ष्मी को; मात्रामू--स्वांश; स्वयमू-वरे-- अपनीरुचि से; प्रमथ्य--दमन करके; तरसा--बल से; राज्:--राजाओं को; शाल्व-आदीन्‌--शाल्व इत्यादि; चैद्य--शिशुपाल के;पक्ष-गान्‌--पक्षधरों को; पश्यताम्‌--देखते देखते; सर्व--सारे; लोकानामू--लोगों के; तार्क्ष्य-पुत्र:--तार्श््य का पुत्र ( गरुड़ );सुधाम्‌--स्वर्ग का अमृत; इब--सहश |

    हे कुरुवीर, भगवान्‌ गोविन्द ने भीष्मक की पुत्री वैदर्भी ( रुक्मिणी ) से विवाह किया जो साक्षात्‌ लक्ष्मी की अंश थी।

    भगवान्‌ ने उसकी इच्छा से ही ऐसा किया और इस कार्य के लिएउन्होंने शाल्व तथा शिशुपाल के पक्षधर अन्य राजाओं को परास्त किया।

    दरअसल सबों केदेखते देखते श्रीकृष्ण रुक्मिणी को उसी तरह उठा ले गये जिस तरह निःशंक गरुड़ देवताओं सेअमृत चुरा कर ले आया था।

    श्रीराजोबाचभगवान्भीष्मकसुतां रुक्मिणीं रुचिराननाम्‌ ।

    राक्षसेन विधानेन उपयेम इति श्रुतम्‌ ॥

    १८॥

    श्री-राजा उवाच--राजा ( परीक्षित ) ने कहा; भगवान्‌-- भगवान्‌; भीष्मक-सुताम्‌-- भीष्मक की पुत्री; रुक्मिणीम्‌-- श्रीमतीरुक्मिणीदेवी को; रुचिर--मनोहर; आननाम्‌--मुख वाली; राक्षसेन--राक्षस नामक; विधानेन--विधि से ( अपहरण करके );उपयेमे--ब्याह लिया; इति--इस प्रकार; श्रुतम्‌--सुना गया है

    राजा परीक्षित ने कहा : मैंने सुना है कि भगवान्‌ ने भीष्मक की सुमुखी पुत्री रुक्मिणी से राक्षस-विधि से विवाह किया।

    भगवन्श्रोतुमिच्छामि कृष्णस्यामिततेजस: ।

    यथा मागधशाल्वादीन्जित्वा कन्यामुपाहरत्‌ ॥

    १९॥

    भगवनू--हे प्रभु ( शुकदेव गोस्वामी ); श्रोतुम्‌--सुनना; इच्छामि--चाहता हूँ; कृष्णस्थ--कृष्ण के विषय में; अमित-- असीम;तेजसः--जिसका बल; यथा--किस तरह; मागध-शाल्व-आदीन्‌--जरासन्ध तथा शाल्व जैसे राजाओं को; जित्वा--हराकर;कन्याम्‌--दुलहन को; उपाहरत्‌ू--हर लाए

    हे प्रभु, में यह सुनने का इच्छुक हूँ कि असीम बलशाली भगवान्‌ कृष्ण किस तरह मागधतथा शाल्व जैसे राजाओं को हराकर अपनी दुलहन को हर ले गये।

    ब्रह्मन्कृष्णकथा: पुण्या माध्वीलोेकमलापहा: ।

    को नु तृप्येत श्रुण्वान: श्रुतज्ञो नित्यनूतना: ॥

    २०॥

    ब्रह्मनू-हे ब्राह्मण; कृष्ण-कथाः--कृष्ण की कथाएँ; पुण्या:--पवित्र; माध्वी:--मधुर; लोक--संसार के; मल--कल्मष को;अपहा:--दूर करने वाली; कः --कौन; नु--तनिक भी; तृप्येत--तृप्त होगा; श्रृण्वान:--सुनते हुए; श्रुत--सुना जाने वाला;ज्ञ:--जानने वाला; नित्य--सदा; नूतना:--नवीन |

    हे ब्राह्मण, ऐसा कौन-सा अनुभवी श्रोता होगा जो श्रीकृष्ण की पवित्र, मनोहर तथा नित्यनवीन कथाओं को, जो संसार के कल्मष को धो देने वाली हैं, सुनकर कभी तृप्त हो सकेगा ?

    श्रीबादरायणिरुवाचराजासीद्धीष्मको नाम विदर्भाधिपतिर्महान्‌ ।

    तस्य पन्चाभवन्पुत्रा: कन्यैका च वरानना ॥

    २१॥

    श्री-बादरायणि:-- श्री बादरायणि ( बादरायण वेदव्यास के पुत्र शुकदेव ) ने; उबाच--कहा; राजा--राजा; आसीत्‌-- था;भीष्पकः नाम--भीष्मक नामक; विदर्भ-अधिपति:--विदर्भ राज्य का शासक; महानू--महान्‌; तस्थ--उसके; पशञ्ञ--पाँच;अभवनू--थे; पुत्रा:--पुत्र; कन्या--पुत्री; एका--एक; च--तथा; वर--अतीव सुन्दर; आनना--मुख वाली |

    श्री बादरायणि ने कहा : भीष्मक नामक एक राजा था, जो विदर्भ का शक्तिशाली शासकथा।

    उसके पाँच पुत्र तथा एक सुमुखी पुत्री थी।

    रुक्म्यग्रजो रुक्मरथो रुक्मबाहुरनन्तरः ।

    रुक्‍्मकेशो रुक्‍्ममाली रुक्मिण्येषा स्वसा सती ॥

    २२॥

    रुक्मी--रुक्‍्मी; अग्र-ज: --सबसे बड़ा; रुक्म-रथः रुक्‍्मबाहु:--रुक्मरथ तथा रुकक्‍्मबाहु; अनन्तर:--इनके बाद; रुक्म-केशःरुक्‍्म-माली--रुक्मकेश तथा रुक्‍्ममाली; रुक्मिणी--रुक्मिणी; एघा--वह; स्वसा--बहिन; सती--साधु चरित्र वाली |

    रुक्‍मी सबसे बड़ा पुत्र था, उसके बाद रुक्‍्मरथ, रुकक्‍्मबाहु, रुक्मकेश तथा रुक्‍्ममाली थे।

    उनकी बहिन सती रुक्मिणी थी।

    सोपश्रुत्य मुकुन्दस्य रूपवीर्यगुणअ्रियः ।

    गृहागतैर्गीयमानास्तं मेने सहर्श पतिम्‌ ॥

    २३॥

    सा--उसने; उपश्रुत्य--सुनकर; मुकुन्दस्थ--कृष्ण के; रूप--सौन्दर्य; वीर्य--पराक्रम; गुण--चरित्र; भ्रियः--तथा ऐश्वर्य केविषय में; गृह--उसके पारिवारिक घर में; आगतै:ः--आने वालों द्वारा; गीयमाना:--गाया जाकर; तम्‌--उसको; मेने--सोचा;सहशम्‌--उपयुक्त; पतिम्‌--पति।

    महल में आने वालों के मुख से जो प्रायः मुकुन्द के बारे में गुणगान करते थे, मुकुन्द केसौन्दर्य, पराक्रम, दिव्य चरित्र तथा ऐश्वर्य के बारे में सुनकर, रुक्मिणी ने निश्चय किया कि वे हीउसके उपयुक्त पति होंगे।

    तां बुद्धिलक्षणौदार्यरूपशीलगुणा श्रयाम्‌ ।

    कृष्णश्व सही भार्या समुद्गोढुं मनो दधे ॥

    २४॥

    ताम्‌ू--उसकी; बुद्धि--बुद्धि के; लक्षण--शुभ शारीरिक चिह्न; औदार्य --उदारता; रूप--सौन्दर्य; शील--उचित व्यवहार;गुण--तथा अन्य व्यक्तिगत गुण के; आश्रयाम्‌--आगार; कृष्ण:-- भगवान्‌ कृष्ण; च--तथा; सहशीम्‌--उपयुक्त; भार्याम्‌--पत्नी; समुद्देदम--विवाह करने के लिए; मनः--अपना मन; दधे--बनाया।

    भगवान्‌ कृष्ण जानते थे कि रुक्मिणी बुद्धि, शुभ शारीरिक चिह्न, सौन्दर्य, उचित व्यवहारतथा अन्य उत्तम गुणों से युक्त है।

    यह निष्कर्ष निकाल करके कि वह उनके योग्य एक आदर्शपत्नी होगी, कृष्ण ने उससे विवाह करने का निश्चय किया।

    बन्धूनामिच्छतां दातुं कृष्णाय भगिनीं नृूप ।

    ततो निवार्य कृष्णद्विड्क्मी चेद्मममन्यत ॥

    २५॥

    बन्धूनाम्‌--अपने परिवार के लोगों के; इच्छताम्‌--चाहने से; दातुम्‌-देने के लिए; कृष्णाय--कृष्ण को; भगिनीम्‌--अपनीबहन; नृप--हे राजा; ततः--इससे; निवार्य--उन्हें रोककर; कृष्ण-द्विट्‌--कृष्ण से द्वेष रखने से; रुक्मी--रुक्मी; चैद्यमू--चैद्य( शिशुपाल ) को; अमन्यत--मानता था।

    हे राजनू, चूँकि रुक्मी भगवान्‌ से द्वेष रखता था अतएव उसने अपने परिवार वालों को,उनकी इच्छा के विपरीत, अपनी बहन कृष्ण को दिये जाने से रोका।

    उल्टे रुक्‍्मी ने रुक्मिणी कोशिशुपाल को देने का निश्चय किया।

    तदवेत्यासितापाड़ी वैदर्भी दुर्मना भूशम्‌ ।

    विच्न्त्यापंतं द्विजं कश्ञित्कृष्णाय प्राहिणोद्द्रुतम्‌ ॥

    २६॥

    तत्‌--वह; अवेत्य--जानकर; असित--श्याम; अपाड़ी--जिसकी आँखों के कोर; बैदर्भी--विदर्भ की राजकुमारी; दुर्मना--दुखी; भूशम्‌-- अत्यधिक; विचिन्त्य--सोचकर; आप्तम्‌--विश्वस्त; द्विजम्‌--ब्राह्मण को; कञ्जित्‌--किसी; कृष्णाय--कृष्णके पास; प्राहिणोत्‌-- भेजा; द्रतम्‌ू--जल्दी से |

    शयाम-नेत्रों वाली वैदर्भी इस योजना से अवगत थी अतः वह इससे अत्यधिक उदास थी।

    उसने सारी परिस्थिति पर विचार करते हुए तुरन्त ही कृष्ण के पास एक विश्वासपात्र ब्राह्मण को भेजा।

    द्वारकां स समभ्येत्य प्रतीहारैः प्रवेशित: ।

    अपशयदाद्यं पुरुषमासीनं काझ्ननासने ॥

    २७॥

    द्वारकाम्‌-दद्वारका में; सः--वह ( ब्राह्मण ); समभ्येत्य--पहुँच कर; प्रतीहारैः--द्वारपालों के द्वारा; प्रवेशितः-- भीतर लायागया; अपश्यत्‌ू--देखा; आद्यम्‌ू--आदि; पुरुषम्‌--परम पुरुष को; आसीनम्‌--आसीन, बैठा; काज्नन--सुनहरे; आसने--सिंहासन पर।

    द्वारका पहुँचने पर उस ब्राह्मण को द्वारपाल भीतर ले गये जहाँ उसने आदि-भगवान्‌ को सोनेके सिंहासन पर आसीन देखा।

    इृष्टा ब्रह्मण्यदेवस्तमवरुह्म निजासनात्‌ ।

    उपवेश्याईयां चक्रे यथात्मानं दिवौकस: ॥

    २८ ॥

    इृष्ठा--देखकर; ब्रह्मण्य--ब्राह्मणों का ध्यान रखने वाला; देव: --प्रभु; तम्‌ू--उसको; अवरुह्मय --उतर कर; निज--अपने;आसनातू--सिंहासन से; उपवेश्य--बैठाकर; अर्हयाम्‌ चक्रे --पूजा की; यथा--जिस तरह; आत्मानम्‌--स्वयं को; दिव-ओकसः--स्वर्ग के वासी।

    ब्राह्मण को देखकर, ब्राह्मणों के प्रभु श्रीकृष्ण अपने सिंहासन से नीचे उतर आये और उसेबैठाया।

    तत्पश्चात्‌ भगवान्‌ ने उसकी उसी तरह पूजा की जिस तरह वे स्वयं देवताओं द्वारा पूजितहोते हैं।

    त॑ं भुक्तवन्तं विश्रान्तमुपगम्य सतां गति: ।

    पाणिनाभिमृशन्पादावव्यग्रस्तमपृच्छत ॥

    २९॥

    तम्‌--उसको; भुक्तवन्तम्‌--खा चुकने पर; विश्रान्तम्‌--आराम किया; उपगम्य--पास जाकर; सताम्‌--साधु-भक्तों का;गतिः--लक्ष्य; पाणिना--अपने हाथों से; अभिमृशन्‌--दबाते हुए; पादौ--उसके पाँव; अव्यग्र:--बिना क्षुब्ध हुए; तम्‌--उससे;अपृच्छत--पूछा

    जब वह ब्राह्मण खा-पीकर आराम कर चुका तो साधु-भक्तों के ध्येय श्रीकृष्ण उसके पासआये और अपने हाथों से उस ब्राह्मण के पाँवों को दबाते हुए बड़े ही थैर्य के साथ इस प्रकारपूछा।

    'कच्चिद्दिवजवर श्रेष्ठ धर्मस्ते वृद्धसम्मतः ।

    वर्तते नातिकृच्छेण सन्तुष्टमनस: सदा ॥

    ३०॥

    कच्चित्‌--क्या; द्विज--ब्राह्मणों में; वर-- श्रेष्ठ; श्रेष्ट-हे श्रेष्ठ; धर्म: --धर्म; ते--तुम्हारा; वृद्ध--गुरुजनों के द्वारा; सम्मतः--अनुमोदित; वर्तते--चल रहा है; न--नहीं; अति--अत्यधिक; कृच्छेण -- कठिनाई से; सन्तुष्ट--पूर्णतया संतुष्ट; मनस:--मनवाले; सदा--सदैव |

    भगवान्‌ ने कहा : हे ब्राह्मण-श्रेष्ठ, आपके गुरुजनों द्वारा अनुमोदित धार्मिक अनुष्ठानबिना किसी बड़ी कठिनाई के चल तो रहे हैं न? आपका मन सदैव संतुष्ट तो रहता है न?

    सन्तुष्टो यहिं वर्तेत ब्राह्मणो येन केनचित्‌ ।

    अहीयमान: स्वद्धर्मात्स हास्याखिलकामधुक्‌ ॥

    ३१॥

    सन्तुष्ट:--सन्तुष्ट; यहिं--- जब; वर्तेत--पालन करता है; ब्राह्मण: --ब्राह्मण; येन केनचित्‌--जिस किसी से; अहीयमान:--न्यूननहीं; स्वात्‌ू--अपने; धर्मातू--धार्मिक कर्तव्य से; सः--वे धार्मिक सिद्धान्त ( धर्म ); हि--निस्सन्देह; अस्य--उसके लिए;अखिल-हर वस्तु का; काम-धुक्‌ू--कामधेनु गाय, किसी भी कामना-पूर्ति के लिए दुही जाने वाली

    जो कुछ भी मिल जाय उससे सनन्‍्तुष्ट हो जाना और अपने धार्मिक कर्तव्य से च्युत नहीं होनाये धार्मिक सिद्धान्त ब्राह्मण की सारी इच्छाओं को पूरी करने वाली कामधेनु बन जाते हैं।

    असन्तुष्टोडइसकूल्लोकानाणोत्यपि सुरे श्वरः ।

    अकिद्ञनोपि सन्तुष्टः शेते सर्वाड्रविज्वर: ॥

    ३२॥

    असन्तुष्ट:--असन्तुष्ट; असकृत्‌--बारम्बार; लोकानू--विविध लोकों को; आप्नोति--प्राप्त करता है; अपि--यद्यपि; सुर--देवताओं का; ईश्वरः--स्वामी; अकिज्ञन: --निर्धन; अपि--हो ते हुए भी; सन्तुष्ट:--सन्तुष्ट; शेते--सोता है; सर्व--सारे; अड्ड--शरीर के अंग; विज्वर: --दुख से रहित

    असन्तुष्ट ब्राह्मण स्वर्ग का राजा बन जाने पर भी एक लोक से दूसरे लोक में बेचैन होकर भटकता रहता है।

    किन्तु संतुष्ट ब्राह्मण, अपने पास कुछ न होने पर भी शान्तिपूर्वक विश्रामकरता है और उसके सारे अंग कष्ट से मुक्त रहते हैं।

    विप्रान्स्वलाभसन्तुष्टान्साधून्भूतसुहृत्तमान्‌ ।

    निरहड्ढारिण: शान्तान्नमस्ये शिरसासकृत्‌ ॥

    ३३॥

    विप्रान्‌ू--विद्वान ब्राह्मणों को; स्व--अपना; लाभ--लाभ से; सनन्‍्तुष्टान्‌ू--संतुष्ट; साधून्‌ू--साधु; भूत--सारे जीवों का; सुहृत्‌-तमान्‌--सर्वश्रेष्ठ शुभचिन्तक मित्र; निरहड्डारिण:--मिथ्या अहंकार से रहित; शान्तान्‌ू--शान्त; नमस्ये -- नमस्कार करता हूँ;शिरसा--सिर के बल; असकृत्‌-पुनः पुनः

    मैं उन ब्राह्मणों को बारम्बार अपना शीश नवाता हूँ जो अपने भाग्य से संतुष्ट हैं।

    साधु,अहंकारशून्य तथा शान्त होने से वे समस्त जीवों के सर्वोत्तम शुभचिन्तक हैं।

    कच्चिद्वः कुशल ब्रह्मत्राजतो यस्य हि प्रजा: ।

    सुखं वसन्ति विषये पाल्यमाना: स मे प्रिय: ॥

    ३४॥

    कच्चित्‌ू--क्या, कहीं; व:--तुम्हारा; कुशलम्‌--कुशलमंगल; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; राजत:ः--राजा से; यस्थ--जिसका; हि--निस्सन्देह; प्रजा:--जनता; सुखम्‌--सुखपूर्वक; वसन्ति--रहती हैं; विषये--देश में; पाल्यमाना: --रक्षित होकर; सः--वह;मे--मुझको; प्रियः--प्रिय |

    हे ब्राह्मण, आपका राजा आप लोगों के कुशल-मंगल का ध्यान तो रखता है? निस्सन्देह,जिस राजा के देश में प्रजा सुखी तथा सुरक्षित है, वह मुझे अत्यन्त प्रिय है।

    यतस्त्वमागतो दुर्ग निस्तीर्येह यदिच्छया ।

    सर्व नो ब्रूह्मगुह्मं चेत्कि कार्य करवाम ते ॥

    ३५॥

    यतः--जहाँ से; त्वम्‌ू--तुम; आगतः --आये हो; दुर्गम्‌-दुर्गम समुद्र; निस्तीर्य--पार करके; इह--यहाँ; यत्‌--किस;इच्छया--इच्छा से; सर्वम्‌--सारी वस्तुएँ; नः--हमारे प्रति; ब्रूहि--कहो; अगुह्मम्‌--गुप्त नहीं; चेत्‌ू--यदि; किमू--क्या;कार्यम्‌-कार्य; करवाम--हम करें; ते--तुम्हारे लिए

    दुल्ल॑ध्य समुद्र पार करके आप कहाँ से और किस कार्य से यहाँ आये हैं ? यदि यह गुप्त न होतो हमें बतलाइये और यह कहिये कि आपके लिए हम क्‍या कर सकते हैं ?

    एवं सम्पृष्टसम्प्रश्नो ब्राह्मण: परमेष्ठिना ।

    लीलागृहीतदेहेन तस्मै सर्वमवर्णयत्‌ ॥

    ३६॥

    एवम्‌--इस प्रकार; सम्पृष्ट--पूछा गया; सम्प्रश्न:--प्रश्न; ब्राह्मण: --ब्राह्मण; परमेष्ठिना-- भगवान्‌ द्वारा; लील--अपनी लीलाके रूप में; गृहीत--ग्रहण किये गये; देहेन--अपने शरीरों से; तस्मै--उसको; सर्वम्‌--हर वस्तु; अवर्णयत्‌--कह सुनाया।

    अपनी लीला सम्पन्न करने के लिए अवतार लेने वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ द्वारा इस तरहपूछे जाने पर ब्राह्मण ने उन्हें सारी बात बता दी।

    श्रीरुक्मिण्युवाचश्रुत्वा गुणान्भुवनसुन्दर श्रण्वतां तेनिर्विश्य कर्णविवरहरतोड्डरतापम्‌ ।

    रूप॑ं ह॒शां हशिमतामखिलार्थलाभंत्वय्यच्युताविशति चित्तमपत्रपं मे ॥

    ३७॥

    श्री-रुक्मिणी उबाच-- श्री रुक्मिणी ने कहा; श्रुत्वा--सुनकर; गुणान्‌--गुणों को; भुवन--सारे लोकों के; सुन्दर--हे सौन्दर्य;श्रृण्वताम्‌--सुनने वालों के लिए; ते--तुम्हारा; निर्विश्य--प्रवेश करके; कर्ण--कानों के; विवरै:--छेदों से; हरतः--हटातेहुए; अड्ड-- उनके शरीरों की; तापमू--पीड़ा; रूपम्‌--सौन्दर्य; दहशाम्‌--देखने की इन्द्रिय का; हशि-मताम्‌--आँख वालों का;अखिल--समग्र; अर्थ--इच्छापूर्ति का; लाभम्‌--प्राप्ति; त्वयि--तुममें; अच्युत--हे अच्युत कृष्ण; आविशति--प्रवेश करतीहै; चित्तम्‌-चित्त में; अपत्रपम्‌--निर्लज्ज; मे--मेरे |

    ब्राह्मण द्वारा पढ़े जा रहे अपने पत्र में श्री रुक्मिणी ने कहा : हे जगतों के सौन्दर्य,आपके गुणों के विषय में सुनकर जो कि सुनने वालों के कानों में प्रवेश करके उनके शारीरिकताप को दूर कर देते हैं और आपके सौन्दर्य के बारे में सुनकर कि वह देखने वाले की सारी दृष्टिसम्बन्धी इच्छाओं को पूरा करता है, हे कृष्ण, मैंने अपना निर्लज् मन आप पर स्थिर कर दियाहै।

    का त्वा मुकुन्द महती कुलशीलरूप-विद्यावयोद्रविणधामभिरात्मतुल्यम्‌ ।

    धीरा पतिं कुलवती न वृणीत कन्याकाले नृसिंह नरलोकमनोभिरामम्‌ ॥

    ३८ ॥

    का--कौन; त्वा--तुम; मुकुन्द--हे कृष्ण; महती--राजसी; कुल--पारिवारिक पृष्ठभूमि के रूप में; शील--चरित्र; रूप--सौन्दर्य; विद्या--ज्ञान; वय: --युवावस्था; द्रविण-- धन; धामभि:--तथा प्रभाव से; आत्म-- अपने ही; तुल्यम्‌--समान;धीरा--जो धीर है; पतिम्‌--अपने पति रूप में; कुल-वती--अच्छे परिवार वाली; न वृणीत--वरण नहीं करेगी; कन्या--विवाहयोग्य तरुणी; काले--ऐसे समय में; नृ--लोगों में; सिंह--हे सिंह; नर-लोक--मानव समाज का; मनः--मनों को;अभिरामम्‌-- आनन्द देने वाले।

    हे मुकुन्द, आप वंश, चरित्र, सौन्दर्य, ज्ञान, युवावस्था, सम्पदा तथा प्रभाव में केवल अपनेसमान हैं।

    हे पुरुषों में सिंह, आप सारी मानवता के मन को आनन्दित करते हैं।

    उपयुक्त समय आजाने पर ऐसी कौन-सी राजकुल की धीर तथा विवाहयोग्य कन्या होगी जो आपको पति रूप मेंनहीं चुनेगी ?

    तन्मे भवान्खलु वृतः पतिरड़ जाया-मात्मार्पितश्व भवतोत्र विभो विधेहि ।

    मा वीरभागमभिमर्शतु चैद्य आराद्‌गोमायुवन्मृगपते्बलिमम्बुजाक्ष ॥

    ३९॥

    तत्‌--अतः; मे--मेरे द्वारा; भवान्‌ू--आप; खलु--निस्सन्देह; वृत:ः--चुने गये; पति:--पति रूप में; अड्भ--प्रिय स्वामी;जायाम्‌--पत्नी रूप में; आत्मा--अपने को; अर्पित:--अर्पित; च--और; भवतः--आपको; अत्र--यहाँ; विभो--हेसर्वशक्तिमान; विधेहि-- स्वीकार करें; मा--कभी नहीं; वीर--वीर का; भागम्‌-- अंश; अभिमर्शतु--छूना चाहिए; चैद्य:-- चेदिराज का पुत्र, शिशुपाल; आरात्‌--तेजी से; गोमायु-वत्‌--सियार की तरह; मृग-पते: --पशुओं के राजा सिंह से सम्बन्धित;बलिम्‌--बलि; अम्बुज-अक्ष--हे कमल-नेत्र |

    अतएव हे प्रभु, मैंने आपको अपने पति-रूप में चुना है और मैं आपकी शरण में आई हूँ।

    हेसर्वशक्तिमान, तुरन्त आइये और मुझे अपनी पत्नी बना लीजिये।

    हे मेरे कमल-नेत्र स्वामी, किसीसिंह की सम्पत्ति को चुराने वाले सियार जैसे शिशुपाल को एक वीर के अंश को कभी छूने नदीजिये।

    पूर्तेष्टदत्तनियमत्रतदेवविप्र-गुर्वर्चनादिभिरलं भगवान्परेश: ।

    आराधितो यदि गदाग्रज एत्य पाणिंगृह्नातु मे न दमघोषसुतादयोउन्ये ॥

    ४०॥

    पूर्त--पुण्य कार्यो ( ब्राह्मणों को भोजन कराना, कुंआ खुदवाना आदि ) के द्वारा; इष्ट--यज्ञादि करना; दत्त--दान; नियम--अनुष्ठान पालन ( यथा तीर्थस्थान जाना ); ब्रत--तपस्या का ब्रत; देव--देवताओं; विप्र--ब्राह्मणों; गुरु--तथा गुरुओं की;अर्चन--पूजा; आदिभि: --इत्यादि से; अलमू--पर्याप्त; भगवान्‌-- भगवान्‌; पर--परम; ईशः--नियंत्रक; आराधित: -- भक्तिकिया हुआ; यदि--यदि; गद-अग्रज:--गद के बड़े भाई, कृष्ण; एत्य--आकर; पाणिम्‌--हा थ; गृह्नातु-- ग्रहण करें; मे--मेरा; न--नहीं; दमघोष-सुत--दमघोष-पुत्र, शिशुपाल; आदय: --इत्यादि; अन्ये-- अन्य |

    यदि मैंने पुण्य कर्म, यज्ञ, दान, अनुष्ठान-ब्रत के साथ साथ देवताओं, ब्राह्मणों तथा गुरुओंकी पूजा द्वारा भगवान्‌ की पर्याप्त रूप से उपासना की हो तो हे गदाग्रज, आप आकर मेरा हाथग्रहण करें और दमघोष का पुत्र या कोई अन्य ग्रहण न करने पाये।

    श्रो भाविनि त्वमजितोद्वहने विदर्भान्‌गुप्त: समेत्य पृतनापतिभि: परीतः ।

    निर्मथ्य चैद्यमगधेन्द्रबलं प्रसह्यमां राक्षसेन विधिनोद्वह वीर्यशुल्काम्‌ ॥

    ४१॥

    श्र: भाविनि--कल; त्वम्‌--तुम; अजित--हे अजेय; उद्दहने--विवाहोत्सव के समय; विदर्भानू-विदर्भ में; गुप्त:-- अहृश्य;समेत्य--आकर; पृतना--अपनी सेना के; पतिभि:--नायकों द्वारा; परीत:--घिरा हुआ; निर्मथ्य--दलन करके; चैद्य--शिशुपाल; मगध-इन्द्र--तथा मगध का राजा, जरासन्ध की; बलम्‌--सैन्य-शक्ति; प्रसह्या--बलपूर्वक; माम्‌--मुझको; राक्षसेनविधिना--राक्षस विधि से; उद्दद--विवाह करके ले जाओ; वीर्य--अपने पराक्रम के; शुल्काम्‌--मूल्य रूप में

    है अजित, कल जब मेरा विवाहोत्सव प्रारम्भ हो तो आप विदर्भ में अपनी सेना के नायकोंसे घिर कर गुप्त रूप से आयें।

    तत्पश्चात्‌ चैद्य तथा मगथेन्द्र की सेनाओं को कुचल कर अपनेपराक्रम से मुझे जीत कर राक्षस विधि से मेरे साथ विवाह कर लें।

    अन्तःपुरान्तरचरीमनिहत्य बन्धूनू-त्वामुद्ठेद कथमिति प्रवदाम्युपायम्‌ ।

    पूर्वेद्यरस्ति महती कुलदेबयात्रायस्यां बहिर्नववरधूर्गिरिजामुपेयात्‌ ॥

    ४२॥

    अन्तः-पुर--महल में स्त्रियों के कक्ष, रनिवास के; अन्तर-- भीतर; चरीम्‌--घूमने वाले; अनिहत्य--बिना मारे; बन्धून्‌--तुम्हारेसम्बन्धियों को; त्वामू--तुमको; उद्दद--मैं ले जाऊँगा; कथम्‌--कैसे; इति--ऐसे शब्द कहते हुए; प्रवदामि--मैं बतलाऊँगी;उपायम्‌--उपाय; पूर्वे-द्य;--एक दिन पहले; अस्ति-- है; महती--विशाल; कुल--राजपरिवार के; देव--कुलदेवता के लिए;यात्रा--जुलूस; यस्याम्‌--जिसमें; बहि:--बाहर; नव--नवीन; वधू: --दुलहन; गिरिजाम्‌--देवी गिरिजा ( अम्बिका ) के पास;उपेयात्‌--जाती है|

    चूँकि मैं रनिवास के भीतर रहूँगी अतः आप आश्चर्य करेंगे और सोचेंगे कि 'मैं तुम्हारे कुछसम्बन्धियों को मारे बिना तुम्हें कैसे ले जा सकता हूँ ?' किन्तु मैं आपको एक विधि बतलाऊँगी:ःविवाह के एक दिन पूर्व राजकुल के देवता के सम्मान में एक विशाल जुलूस निकलेगा जिसमेंदुलहन नगर के बाहर देवी गिरिजा का दर्शन करने जाती है।

    यस्याड्प्रिपड्टूजरज:स्नपनं महान्तोवाउछन्त्युमापतिरिवात्मतमोपहत्ये ।

    यहाम्बुजाक्ष न लभेय भवत्प्रसादंजह्मामसून्त्रतकृशान्शतजन्मभि: स्यात्‌ ॥

    ४३॥

    यस्य--जिसके; अद्धूघ्रि--चरणों की; पड्डूज--कमल; रज:-- धूलि से; स्नपनम्‌--स्नान करते हुए; महान्तः--महात्मागण;वाज्छन्ति--लालायित रहते हैं; उमा-पति:--उमादेवी के पति, शिवजी; इब--जिस तरह; आत्म--अपने; तम:--अज्ञान के;अपहत्यै--नष्ट करने के लिए; यहिं---जब; अम्बुज-अक्ष--हे कमल-नयन; न लभेय--मैं नहीं पा सकती; भवत्‌--आपकी;प्रसादम्‌ू--दया; जह्याम्‌--मुझे त्याग देना चाहिए; असून्‌--अपने प्राण; ब्रत--तपस्या द्वारा; कृशान्‌--दुर्बल हुए; शत--सौ;जन्मभि:--जन्मों के बाद; स्यात्‌--हो सके

    हे कमल-नयन, शिवजी जैसे महात्मा आपके चरणकमलों की धूलि में स्नान करके अपनेअज्ञान को नष्ट करना चाहते हैं।

    यदि मुझे आपकी कृपा प्राप्त नहीं होती तो मैं अपने उस प्राणको त्याग दूँगी जो मेरे द्वारा की जाने वाली कठिन तपस्या के कारण क्षीण हो चुका होगा।

    तबकहीं सैकड़ों जन्मों तक परिश्रम करने के बाद शायद आपकी कृपा प्राप्त हो सके।

    'ब्राह्मण उवाचइत्येते गुह्मसन्देशा यदुदेव मयाहता: ।

    विमृश्य कर्तु यच्चात्र क्रियतां तदनन्तरम्‌ ॥

    ४४॥

    ब्राह्मण: उवाच--ब्राह्मण ने कहा; इति--इस प्रकार; एते--ये; गुह्म--गुप्त; सन्देशा: --सन्देश; यदु-देव--हे यदुओं के स्वामी;मया--मेरे द्वारा; आहता: --लाये गये; विमृश्य--विचार करके; कर्तुमू--करणीय; यत्‌--जो; च--तथा; अत्र--इस बारे में;क्रियताम्‌-करें; तत्‌--वह; अनन्तरम्‌--इसके तुरन्त बाद

    ब्राह्मण ने कहा, हे यदु-देवमैं यह गोपनीय संदेश अपने साथ लाया हूँ।

    कृपया सोचें-विचारें कि इन परिस्थितियों में क्या किया जाना चाहिये और उसे तुरन्त ही कीजिये।

    TO

    अध्याय तिरपनवां: कृष्ण ने रुक्मिणी का अपहरण कर लिया

    10.53श्रीशुक उबाचवैदर्भ्या: स तु सन्देशं निशम्य यदुनन्दनः ।

    प्रगृह्य पाणिना पाणिं प्रहसन्निदमब्रवीत्‌ ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; वैदर्भ्या:--विदर्भ की राजकुमारी का; सः--वह; तु--तथा; सन्देशम्‌--गुप्तसन्देश; निशम्य--सुनकर; यदु-नन्दन:--यदुवंशी श्रीकृष्ण ने; प्रगृह्य--पकड़ कर; पाणिना--अपने हाथ से; पाणिम्‌--हाथ( ब्राह्मण-दूत का ); प्रहसन्‌--मुसकाते हुए; इृदम्‌--यह; अब्रवीतू-- कहा |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस तरह कुमारी वैदर्भी का गुप्त सन्देश सुनकर यदुनन्दन नेब्राह्मण का हाथ अपने हाथ में ले लिया और मुसकाते हुए उससे इस प्रकार बोले।

    श्रीभगवानुवाचतथाहमपि तच्चित्तो निद्रां च न लभे निशि ।

    वेदाहग्रुक्मिणा द्वेषान्ममोद्दाहों निवारित: ॥

    २॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; तथा--इसी तरह से; अहम्‌--मैं; अपि-- भी; तत्‌--उस पर स्थिर किये; चित्त: --अपनेमन को; निद्रामू--नींद; च--तथा; न लभे--नहीं पाता; निशि--रात में; वेद--जानता हूँ; अहम्‌--मैं; रुक्मिणा --रुक्मी द्वारा;द्वेषातू-शत्रुतावश; मम--मेरी; उद्बाह: --विवाह; निवारित:--रोका गया।

    भगवान्‌ ने कहा : जिस तरह रुक्मिणी का मन मुझ पर लगा है उसी तरह मेरा मन उस परलगा है।

    मैं रात में सो तक नहीं सकता।

    मैं जानता हूँ कि द्वेषवश रुक्‍्मी ने हमारा विवाह रोकदिया है।

    तामानयिष्य उन्मथ्य राजन्यापसदान्मृधे ॥

    मत्परामनवद्याड्रमेधसो ग्नेशिखामिव ॥

    ३॥

    तामू--उसको; आनयिष्ये--मैं यहाँ लाऊँगा; उन्मथ्य--मथ कर; राजन्य--राजवर्ग के; अपसदानू--अयोग्य सदस्यों को;मृधे--युद्ध में; मत्‌--मेरे प्रति; पराम्‌-पूर्णतया समर्पित; अनवद्य--निर्विवाद; अड्जीम्‌--शारीरिक सौन्दर्य वाली को; एधस:--अग्नि जलाने वाला काष्ठ; अग्नि--अग्नि की; शिखाम्‌ू--लपटों; इब--सहृश |

    वह अपने आपको एकमात्र मेरे प्रति समर्पित कर चुकी है और उसका सौन्दर्य निष्कलंक है।

    मैं उन अयोग्य राजाओं को युद्ध में उसी तरह मथ कर उसे यहाँ लाऊँगा जिस तरह काठ सेप्रज्वलित अग्नि उत्पन्न की जाती है।

    श्रीशुक उबाचउद्धाहर्श्न च विज्ञाय रुक्मिण्या मधुसूदन: ।

    रथ: संयुज्यतामाशु दारुकेत्याह सारथिम्‌ ॥

    ४॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; उद्बाह--विवाह की; ऋशक्षम्‌--लग्न; च--तथा; विज्ञाय--जान कर;रुक्मिण्या:--रुक्मिणी के; मधुसूदन:--भगवान्‌ कृष्ण ने; रथ:--रथ; संयुज्यताम्‌ू--जोता जाय; आशु--तुरनन्‍्त; दारूक--हेदारूक; इति--इस प्रकार; आह--कहा; सारथिम्‌--अपने सारथी से

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : भगवान्‌ मधुसूदन रुक्मिणी के विवाह की सही सही लग्न कासमय भी समझ गये।

    अतः उन्होंने अपने सारथी से कहा, 'हे दारुक, मेरा रथ तुरन्त तैयारकरो।

    सचाश्वै: शैब्यसुग्रीवमेघपुष्पललाहकै: ।

    युक्त रथमुपानीय तस्थौ प्राज्ललिरग्रत: ॥

    ५॥

    सः--वह, दारुक; च--तथा; अश्वै:--घोड़ों से; शैब्य-सुग्रीव-मेघपुष्प-बलाहकै: --शैब्य, सुग्रीव, मेघपुष्प तथा बलाहकनामक; युक्तम्‌--जोता; रथम्‌--रथ को; उपानीय--लाकर; तस्थौ--खड़ा हुआ; प्राज्ललिः--आदरपूर्वक हाथ जोड़ कर;अग्रतः--सामने

    दारुक भगवान्‌ का रथ ले आया जिसमें शैब्य, सुग्रीव, मेघपुष्प तथा बलाहक नामक घोड़ेजुते थे।

    फिर वह अपने हाथ जोड़ कर भगवान्‌ कृष्ण के सामने खड़ा हो गया।

    आरुह्य स्यन्दनं शौरिद्विजमारोप्य तूर्णगैः ।

    आनर्तादेकरात्रेण विदर्भानगमद्धयै: ॥

    ६॥

    आरुह्म--चढ़ कर; स्यन्दनम्‌--अपने रथ में; शौरि:--कृष्ण; द्विजम्‌--ब्राह्मण को; आरोप्य--बैठाकर; तूर्ण-गैः--तेज;आनर्तातू--आनर्त जिले से; एक--एकही; रात्रेण--रात में; विदर्भान्‌ू--विदर्भ राज्य तक; अगमत्‌--गये; हयैः--अपने घोड़ोंसेभगवान्‌ शौरि अपने रथ में सवार हुए और फिर ब्राह्मण को चढ़ाया।

    तत्पश्चात्‌ भगवान्‌ केतेज घोड़े एक रात में ही उन्हें आनर्त जिले से विदर्भ ले गये।

    राजा स कुण्डिनपतिः पुत्रस्नेहवशानुग: ।

    शिशुपालाय स्वां कन्यां दास्यन्कर्माण्यकारयत्‌ ॥

    ७॥

    राजा--राजा; सः--वह, भीष्मक; कुण्डिन-पति:--कुण्डिन का स्वामी; पुत्र--अपने पुत्र के; स्नेह--स्नेह के; वश--वशीभूत;अनुग:--आज्ञापालन करते हुए; शिशुपालाय--शिशुपाल को; स्वाम्‌--अपनी; कन्याम्‌--पुत्री; दास्यनू-देने ही वाला;कर्माणि--आवश्यक कार्य; अकारयत्‌--कर चुका था

    कुण्डिन का स्वामी राजा भीष्मक अपने पुत्र के स्नेह के वशीभूत होकर अपनी कन्याशिशुपाल को देने ही वाला था।

    राजा ने समस्त आवश्यक तैयारियाँ पूरी कर ली थीं।

    पुरं सम्मृष्टसंसिक्तमार्गरथ्याचतुष्पथम्‌ ।

    चित्रध्वजपताकाभिस्तोरणै: समलड्डू तम्‌ ॥

    ८॥

    स््रग्गन्धमाल्याभरणैर्विरजोम्बरभूषितै: ।

    जुष्ट स्त्रीपुरुषै: श्रीमद्‌गृहैरगुरुधूपिते: ॥

    ९॥

    पुरम्‌ू--नगरी को; सम्पृष्ट--अच्छी तरह साफ कराया; संसिक्त--तथा जल छिड़काया; मार्ग--मुख्य सड़कें; रथ्या--व्यावसायिक सड़कें; चतु:-पथम्‌--तथा चौराहों को; चित्र--रंगबिरंगे; ध्वज--झंडियों; पताकाभि:--पताकाओं से; तोरणै: --तथा गोल दरवाजों से; समलड्डू तम्‌ू--सजाया; सत्रकू--रत्लजटित हारों से; गन्ध--सुगन्धित वस्तुएँ, यथा चन्दन-लेप; माल्य--'फूल की मालाएँ; आभरणै:--तथा अन्य आभूषणों से; विरज:--स्वच्छ; अम्बर--वस्त्र से; भूषितैः--सजाये गये; जुष्टम्‌--युक्त; स्त्री--स्त्रियों; पुरुष: --तथा पुरुषों से; श्री-मत्‌--ऐश्वर्यवान्‌; गृहैः--घरों से; अगुरु-धूपितैः--अगुरु धूप से सुगन्धित।

    राजा ने मुख्य मार्गों, व्यापारिक सड़कों तथा चौराहों को ठीक से साफ कराया और तब उनपर जल छिड़कवाया।

    उसने विजय तोरणों तथा खंभों पर रंगबिरंगी झंडियों से नगर को सजवाया।

    नगर के स्त्री-पुरुषों ने साफ-सुथरे वस्त्र पहने और अपने अपने शरीरों पर सुगन्धितचन्दन-लेप लगाया और बहुमूल्य हार, फूल की मालाएँ तथा रलजटित आभूषण धारण किये।

    उनके भव्य घर अगुरु की सुगन्ध से भर गये।

    पितृन्देवान्समभ्यर्च्य विप्रांश्व विधिवन्नप ।

    भोजयित्वा यथान्यायं वाचयामास मड़़लम्‌ ॥

    १०॥

    पितृन्‌--पूर्वजों; देवान्‌ू--देवतागण; समभ्यर्च्य--ठीक से पूजा की; विप्रान्‌--ब्राह्मणों को; च--तथा; विधि-बत्‌--विधि-विधानों के अनुसार; नृप--हे राजा ( परीक्षित ); भोजयित्वा-- भोजन कराकर; यथा--जिस तरह; न्यायम्‌ू--उचित है; वाचयाम्‌आस--उच्चारित किया था; मड़लम्‌--शुभ मंत्र

    हे राजनू, महाराज भीष्मक ने पितरों, देवताओं तथा ब्राह्मणों को भलीभाँति भोजन कराकरउनकी विधिवत पूजा की।

    तत्पश्चात्‌ उसने दुलहन के मंगल के लिए परम्परागत मंत्रों का उच्चारणकरवाया।

    सुस्नातां सुद्ती कन्यां कृतकौतुकमड्लाम्‌ ।

    आहतांशुकयुग्मेन भूषितां भूषणोत्तमै: ॥

    ११॥

    सु-स्नातामू--ठीक से स्नान कराई गई; सु-दतीम्‌--सुन्दर दाँतों वाली; कन्याम्‌ू--दुलहन को; कृत--सम्पन्न करके; कौतुक-मड्डलाम्‌--मांगलिक वैवाहिक हार पहनाने का उत्सव; आहत--कोरा; अंशुक--वस्त्र की; युग्मेन--जोड़ी से; भूषिताम्‌--अलंकृत; भूषण--गहनों से; उत्तमैः--सुन्दर सुन्दर

    दुलहन ने अपने दाँत साफ किये और फिर स्नान किया और इसके बाद उसने मांगलिकवैवाहिक हार धारण किया।

    तत्पश्चात्‌ उसे उत्तम कोटि के नये वस्त्रों की जोड़ी पहनाई गई औरअत्यन्त सुन्दर रत्तजटित गहनों से सजाया गया।

    चक्रुः सामर्ग्यजुर्मन्त्रैरवध्वा रक्षां द्विजोत्तमा: ।

    पुरोहितोथर्वविद्वै जुहाव ग्रहशान्तये ॥

    १२॥

    चक्रुः--किया; साम-ऋगू-यजु:--साम, ऋग तथा यजुर्वेदों के; मन्त्रै:--मंत्रों से; वध्वा:--दुलहन या वधू की; रक्षाम्‌--रक्षा;द्विज-उत्तम:--उत्तम ब्राह्मण; पुरोहित:ः--पुरोहित; अथर्व-वित्‌-- अथर्ववेद के मंत्रों में पठु; बै--निस्सन्देह; जुहावब--घी कीआहुति डाली; ग्रह--नियन्ता ग्रहों को; शान्तये--शान्त करने के लिए

    उत्तमोत्तम ब्राह्मणजनों ने वधू की रक्षा के लिए ऋगू, साम तथा यजुर्वेदों के मंत्रों काउच्चारण किया और अथर्ववेद में पटु पुरोहित ने नियन्ता ग्रहों को शान्त करने के लिए आहुतियाँदीं।

    हिरण्यरूप्य वासांसि तिलांश्व गुडमिश्रितान्‌ ।

    प्रादाद्धेनूश्व विप्रेभ्यो राजा विधिविदां वर: ॥

    १३॥

    हिरण्य--सोना; रूप्य--चाँदी; वासांसि--तथा वस्त्र; तिलानू--तिल; च--तथा; गुड--गुड़; मिश्रितानू--से मिश्रित;प्रादात्‌ू--दिया; धेनू: --गौवें; च-- भी ; विप्रेभ्य: --ब्राह्मणों को; राजा--राजा भीष्मक ने; विधि--विधि-विधान; विदाम्‌--जानने वालों में; वर:-- श्रेष्ठ |

    राजा ने विधि-विधानों के ज्ञान में दक्ष व अद्वितीय ब्राह्मणों को सोना, चाँदी, वस्त्र, गौवेंतथा गुड़-मिश्रित तिलों की दक्षिणा दी।

    एवं चेदिपती राजा दमघोष: सुताय वै ।

    कारयामास मन्त्रज् सर्वमभ्युदयोचितम्‌ ॥

    १४॥

    एवम्‌--इस प्रकार; चेदि-पति:--चेदि का राजा; राजा दमघोष: --राजा दमघोष ने; सुताय--अपने पुत्र ( शिशुपाल ) के लिए;वै--निस्सन्देह; कारयामू आस--कराया था; मन्त्र-ज्जैः--मंत्र जानने वालों के द्वारा; सर्वम्‌ू--सबकुछ; अभ्युदय--उसके उत्थानके लिए; उचितमू--उपयुक्त |

    चेदि नरेश राजा दमघोष ने भी अपने पुत्र की समृद्धि सुनिश्चित करने के लिए समस्त कृत्योंको सम्पन्न करने के लिए मंत्रोच्चार में पटु ब्राह्मणों को लगाया था।

    मदच्युद्धिर्गजानीकै: स्वन्दनैर्देममालिभि: ।

    पत्त्यश्वसड्जू लै: सैन्य: परीतः कुण्दीनं ययौ ॥

    १५॥

    मद--मस्तक से चूने वाला द्रव; च्युद्धिः--चूता हुआ; गज--हाथियों के; अनीकै: --समूह से; स्यन्दनैः--रथों के साथ; हेम--सुनहला; मालिभि:--मालाओं से सुसज्जित; पत्ति--पैदल सैनिकों; अश्व--तथा घोड़ों सहित; सह्ड लैः--एकत्रित; सैन्यैः --सेनाओं द्वारा; परीत:--साथ साथ; कुण्डिनम्‌-- भीष्यक की राजधानी कुण्डिन में; ययौ--गया |

    राजा दमघोष ने मद टपकाते हाथियों, लटकती सुनहरी साँकलों वाले रथों तथा असंख्यघुड़सवार और पैदल सैनिकों के साथ कुण्डिन की यात्रा की।

    तं वै विदर्भाधिपति: समभ्येत्याभिपूज्य च ।

    निवेशयामास मुदा कल्पितान्यनिवेशने ॥

    १६॥

    तम्‌--उस ( दमघोष ) को; बै--दरअसल ; विदर्भ-अधिपति:--विदर्भ के स्वामी भीष्यक ने; समभ्येत्य--बढ़कर अगवानीकरके; अभिपूज्य--आदर करके; च--तथा; निवेशयाम्‌ आस--ठहराया; मुदा--हर्षपूर्वक; कल्पित--बनवाया; अन्य--विशेष; निवेशने-- जनवासे में ।

    विदर्भराज भीष्मक नगर से बाहर गये और राजा दमघोष से विशेष सत्कार के प्रतीकों केसाथ मिले।

    फिर भीष्मक ने दमघोष को इस अवसर के लिए विशेष रूप से निर्मित आवास- ग्रहमें ठहराया।

    तत्र शाल्वो जरासन्धो दन्तवक्रो विदूरथः ।

    आजममुश्चद्यपक्षीया: पौण्ड्रकाद्या: सहस्त्रश: ॥

    १७॥

    तत्र--वहाँ; शाल्व: जरासन्ध: दन्तवक्र: विदूरथ:--शाल्व, जरासन्ध, दन्तवक्र तथा विदूरथ; आजग्मु:--आये; चैद्य--शिशुपालके; पक्षीया:--पक्षधर; पौण्ड्रक--पौण्ड्रक; आद्या:--इत्यादि; सहस्त्रशः--हजारों |

    शाल्व, जरासन्ध, दन्तवक्र तथा विदूरथ जो शिशुपाल के समर्थक थे, वे सभी पौण्ड्रक तथाहजारों अन्य राजाओं के साथ आये।

    कृष्णरामद्विषो यत्ता: कन्यां चैद्याय साधितुम्‌ ।

    यद्यागत्य हरेत्कृष्नो रामाद्यैर्यदुभिवृतः ॥

    १८ ॥

    योत्स्यामः संहतास्तेन इति निश्चितमानसा: ।

    आजममुर्भूभुज: सर्वे समग्रबलवाहना: ॥

    १९॥

    कृष्ण-राम-द्विष:--कृष्ण तथा बलराम से द्वेष करने वालों ने; यत्ता:--तैयारी की; कन्याम्‌--दुलहन को; चैद्याय--शिशुपालके लिए; साधितुम्‌--प्राप्त करने के लिए; यदि--यदि; आगत्य--आकर; हरेत्‌ू--हरण कर ली जाय; कृष्ण: --कृष्ण; राम--बलराम; आइद्यि:--इत्यादि के द्वारा; यदुभि:--यादवों के; वृतः--साथ में; योत्स्थाम: --हम युद्ध करेंगे; संहताः--साथ होकर;तेन--उसके साथ; इति--इस प्रकार; निश्चित-मानसा: --कृतसंकल्प; आजग्मु:--आये; भू-भुज:--राजा; सर्वे--सभी;समग्र--पूर्ण; बल--सैन्य-शक्ति; वाहना:--तथा वाहनों के साथ |

    शिशुपाल को दुलहन दिलाने के लिए कृष्ण तथा बलराम से ईर्ष्या करने वाले राजाओं नेपरस्पर यह निश्चय किया, 'यह कृष्ण यदि बलराम तथा अन्य यदुओं के साथ दुलहन काअपहरण करने यहाँ आता है, तो हम सब मिलकर उससे युद्ध करेंगे।

    अतः वे ईर्ष्यालु राजाअपनी सारी सेनाएँ तथा सारे सैन्य वाहन लेकर विवाह में गये।

    श्र॒ुत्वैतद्धगवात्रामो विपक्षीय नृपोद्यमम्‌ ।

    कृष्णं चैकं गतं हर्तु कन्यां कलहशड्ितः ॥

    २०॥

    बलेन महता सार्ध भ्रातृस्नेहपरिप्लुतः ।

    त्वरित: कुण्डिनं प्रागादगजाश्वरथपत्तिभि: ॥

    २१॥

    श्रुत्वा--सुनकर; एतत्‌--यह; भगवान्‌ राम:--बलराम; विपक्षीय--शत्रुपक्ष के; नृूप--राजाओं की; उद्यमम्‌--तैयारियाँ;कृष्णम्‌--कृष्ण को; च--तथा; एकम्‌--अकेला; गतम्‌--गया हुआ; हर्तुम्‌--हरण करने केलिए; कन्याम्‌--कन्या को;कलह--युद्ध की; शद्धित:ः--आशंका से; बलेन--सेना; महता--विशाल; सार्धम्‌--साथ; भ्रातृ--अपने भाई के प्रति; स्नेह--स्नेह में; परिप्लुत:--निमग्न; त्वरित:--तुरन्त; कुण्डिनम्‌--कुण्डिन को; प्रागातू--गये; गज--हाथी; अश्व--घोड़े; रथ--रथ;पत्तिभिः--पैदल सेना सहित।

    जब बलराम ने विपक्षी राजाओं की इन तैयारियों तथा कृष्ण द्वारा दुलहन का हरण करने केलिए अकेले ही प्रस्थान किये जाने के बारे में सुना तो उन्हें शंका होने लगी कि कहीं युद्ध न ठनजाय।

    अत: वे अपने भाई के स्नेह में निमग्न होकर अपनी विशाल सेना के साथ तेजी से कुण्डिनके लिए कूच कर गये।

    उनकी सेना में पैदल तथा हाथी, घोड़े और रथ पर सवार सैनिक थे।

    भीष्पकन्या वरारोहा कादुक्षन्त्यागमनं हरे: ।

    प्रत्यापत्तिमपश्यन्ती द्विजस्यथाचिन्तयत्तदा ॥

    २२॥

    भीष्प-कन्या-- भीष्मक-पुत्री ने; वर-आरोहा --सुन्दर नितम्बों वाली; काड्क्षन्ती -- प्रतीक्षा करती; आगमनम्‌--आने की;हरे: --कृष्ण के; प्रत्यापत्तिमू--वापसी; अपश्यन्ती --न देखती हुईं; द्विजस्य--ब्राह्मण की; अचिन्तयत्‌--सोचा; तदा--तब |

    भीष्मक की सुप्रिया पुत्री कृष्ण के आगमन की प्रतीक्षा उत्सुकतापूर्वक कर रही थी किन्तुजब उसने ब्राह्मण को वापस आए हुए नहीं देखा तो उसने इस प्रकार सोचा।

    अहो त्रियामान्तरित उद्घाहो मेउल्पराधस: ।

    नागच्छत्यरविन्दाक्षो नाहं वेद्म्यत्र कारणम्‌ ।

    सोउपि नावर्ततेउद्यापि मत्सन्देशहरो द्विज:ः ॥

    २३॥

    अहो--हाय; त्रि-याम--तीन पहर ( नौ घंटे ) अर्थात्‌ पूरी रात; अन्तरितः--बीत चुकी; उद्बाह: --विवाह; मे--मेरा; अल्प--अपर्याप्त; राधसः--सौभाग्य; न आगच्छति--नहीं आता है; अरविन्द-अक्ष:--कमल-नेत्रों वाले कृष्ण; न--नहीं; अहम्‌--मैं;वेद्ि--जानती हूँ; अत्र--इस; कारणम्‌--कारण के लिए; सः--वह; अपि-- भी; न आवर्तते--नहीं लौटा है; अद्य अपि--अबभी; मत्‌-मेरे; सन्देश--सन्देश का; हर: --ले जाने वाला; द्विज:--ब्राह्मण |

    राजकुमारी रुक्मिणी ने सोचा : हाय! रात बीत जाने पर मेरा विवाह होना है! मैं कितनीअभागिनी हूँ! कमल-नेत्र कृष्ण अभी भी नहीं आये।

    मैं नहीं जानती क्‍यों? यहाँ तक किब्राह्मण-दूत भी अभी तक नहीं लौटा।

    अपि मय्यनवद्यात्मा इष्ठा किज्ञिज्जुगुप्सितम्‌ ।

    मत्पाणिग्रहणे नूनं नायाति हि कृतोद्यम: ॥

    २४॥

    अपि--शायद; मयि--मुझमें; अनवद्य--निर्दोष; आत्मा--मन तथा शरीर वाला; दृष्टा--देखकर; किश्ञित्‌--कुछ कुछ;जुगुप्सितम्‌ू--घृणित; मत्‌--मेरा; पाणि--हाथ; ग्रहणे--ग्रहण करने के लिए; नूनम्‌--निस्सन्देह; न आयाति--नहीं आया है;हि--निश्चय ही; कृत-उद्यम:--पहले ऐसा चाहते हुए भी |

    लगता है कि निर्दोष प्रभु ने यहाँ आने के लिए तैयार होते समय भी मुझमें कुछ घृष्णगित बातदेखी हो, जिससे वे मेरा पाणिग्रहण करने नहीं आये।

    दुर्भगाया न मे धाता नानुकूलो महेश्वरः ।

    देवी वा विमुखी गौरी रुद्राणी गिरिजा सती ॥

    २५॥

    दुर्भगाया:--अभागी; न--नहीं; मे--मुझ पर; धाता--स्त्रष्टा ( ब्रह्म )विधाता; न--नहीं; अनुकूल:--अनुकूल; महा-ई श्वर: --शिवजी; देवी--देवी ( उनकी प्रिया ); वा--अथवा; विमुखी--विरुद्ध; गौरी--गौरी; रुद्राणी--रुद्र की पत्ती; गिरि-जा--हिमालय की पुत्री; सती--सती, जो पूर्वजन्म में दक्ष पुत्री थी और जिसने अपना शरीर-त्याग किया था।

    मैं घोर अभागिनी हूँ क्योंकि न तो स्त्रष्टा विधाता मेरे अनुकूल है, न ही महेश्वर ( शिवजी )अथवा शायद शिव-पत्नी देवी जो गौरी, रुद्राणी, गिरिजा तथा सती नाम से विख्यात हैं, मेरेविपरीत हो गई हैं।

    एवं चिन्तयती बाला गोविन्दहतमानसा ।

    न्‍्यमीलयत कालन्ना नेत्रे चाश्रुकलाकुले ॥

    २६॥

    एवम्‌--इस प्रकार; चिन्तयती--सोचती हुई; बाला--युवती; गोविन्द--कृष्ण द्वारा; हृत--चुराया हुआ; मानसा--मन से;न्यमीलयत--बन्द कर लिया; काल--समय; ज्ञा--जानने वाली; नेत्रे--अपनी आँखें; च--तथा; अश्रु-कला-- आँसू से;आकुले--डबडबाये।

    इस तरह से सोच रही तरुण बाला ने, जिसका मन कृष्ण ने चुरा लिया था, यह सोचकर किअब भी समय है, अपने अश्रुपूरित नेत्र बन्द कर लिये।

    एवं वध्वा: प्रतीक्षन्त्या गोविन्दागमनं नृप ।

    वाम ऊरुर्भुजो नेत्रमस्फुरन्प्रियभाषिण: ॥

    २७॥

    एवम्‌--इस प्रकार; वध्वा:--बधु, दुलहन; प्रतीक्षन्त्या: --प्रतीक्षारत; गोविन्द-आगमनम्‌--कृष्ण का आगमन; नृप--हे राजा( परीक्षित ); वाम:--बाँईं; ऊरु:--जाँघ; भुज:--बाँह; नेत्रमू--तथा आँख; अस्फुरनू--फड़कने लगीं; प्रिय--वांछित;भाषिण:--बताती हुईं |

    हे राजनू, जब वह दुलहन गोविन्द के आगमन की इस तरह प्रतीक्षा कर रही थी तो उसे लगाकि उसकी बाईं जाँघ, बाईं भुजा तथा बाईं आँख फड़क रही हैं।

    यह इसका संकेत था कि कुछप्रिय घटना घटने वाली है।

    अथ कृष्णविनिर्दिष्ट: स एव द्विजसत्तम: ।

    अन्तःपुरचरीं देवीं राजपुत्रीम्ददर्श ह ॥

    २८ ॥

    अथ--तत्पश्चात; कृष्ण-विनिर्दिष्ट:--कृष्ण द्वारा आदेश दिया गया; सः--वह; एव--ही; द्विज--विद्वान ब्राह्मण; सत्‌-तम:--परम शुद्ध; अन्तः-पुर-- भीतरी महल में; चरीम्‌--ठहरी हुई; देवीम्‌--देवी रुक्मिणी को; राज--राजा की; पुत्रीम्‌-पुत्री को;ददर्श ह--देखातभी

    वह शुद्धतम विद्वान ब्राह्मण, कृष्ण के आदेशानुसार दिव्य राजकुमारी रुक्मिणी से भेंटकरने राजमहल के अन्तःपुर में आया।

    सातं प्रहष्टवदनमव्यग्रात्मगतिं सती ।

    आलक्ष्य लक्षणाभिज्ञा समपृच्छच्छुचिस्मिता ॥

    २९॥

    स--वह; तम्‌--उसको; प्रहष्ट--प्रसन्न; वदनम्‌--मुख वाला; अव्यग्र--व्यग्रतारहित; आत्म--जिसके शरीर की; गतिमू--चाल;सती--साध्वी तरुणी; आलक्ष्य--देखकर; लक्षण--लक्षणों की; अभिज्ञा--जानने वाली; समपृच्छत्‌-- पूछा; शुचि--शुद्ध;स्मिता--मुसकान सहित |

    ब्राह्मण के प्रसन्न मुख तथा शान्त चाल को देखकर ऐसे लक्षणों की दक्ष-व्याख्या करनेवाली साध्वी रुक्मिणी ने शुद्ध मन्द-हास के साथ उससे पूछा।

    तस्या आवेदयत्प्राप्त शशंस यदुनन्दनम्‌ ।

    उक्त च सत्यवचनमात्मोपनयनं प्रति ॥

    ३०॥

    तस्या:--उससे; आवेदयत्‌--सूचना दी; प्राप्तम्‌--आकर; शशंस--बतलाया; यदु-नन्दनम्‌ू--यदुओं के पुत्र कृष्ण ने; उक्तम्‌--जो कहा था; च--तथा; सत्य--आश्वासन के; वचनम्‌--शब्द; आत्म--उसके साथ; उपनयनम्‌--विवाह के; प्रति--विषय में

    ब्राह्मण ने उनसे यदुनन्दन के आगमन की सूचना सुनाई और उनके साथ विवाह करने केभगवान्‌ के वचन को कह सुनाया।

    तमागतं समाज्ञाय बैदर्भी हृष्टमानसा ।

    न पश्यन्ती ब्राह्मणाय प्रियमन्यन्ननाम सा ॥

    ३१॥

    तम्‌--उसको, कृष्ण को; आगतम्‌--आया हुआ; समाज्ञाय-- अच्छी तरह समझकर; बैदर्भी--रुक्मिणी; हष्ट--प्रफुल्लित;मानसा--मन वाली; न पश्यन्ती--न देखती हुई; ब्राह्यणाय--ब्राह्मण को; प्रियम्‌--प्रिय; अन्यत्‌--कुछ और; ननाम--नमस्कारकिया; सा--उसने |

    राजकुमारी वैदर्भी कृष्ण का आगमन सुनकर अत्यधिक प्रसन्न हुई।

    पास में देने योग्य कोईउपयुक्त वस्तु न पाकर उसने ब्राह्मण को केवल नमस्कार किया।

    प्राप्तौ श्रुत्वा स्वदुहितुरुद्वाहप्रेक्षणोत्सुकौ ।

    अभ्ययात्तूर्यघोषेण रामकृष्णौ समईहणै: ॥

    ३२॥

    प्राप्ती--आया हुआ; श्रुत्वा--सुनकर; स्व--अपनी ( मेरी ); दुहितु:--पुत्री का; उद्बाह--विवाह; प्रेक्षण--देखने के लिए;उत्सुकौ--उत्सुक; अभ्ययात्‌--आगे आया; तूर्य--बाजे; घोषेण--शब्द से; राम-कृष्णौ--बलराम तथा कृष्ण के पास;समर्ईणै:--पर्याप्त भेंटों सहित |

    जब राजा ने सुना कि कृष्ण तथा बलराम आये हैं और वह उसकी पुत्री का विवाह देखने केलिए उत्सुक हैं, तो वह बाजे-गाजे के साथ उनका सत्कार करने के लिए पर्याप्त भेंटें लेकर आगेबढ़ा।

    मधुपर्कमुपानीय वासांसि विरजांसि सः ।

    उपायनान्यभीष्टानि विधिवत्समपूजयत्‌ ॥

    ३३॥

    मधु-पर्कम्‌--दूध तथा शहद का मिश्रण; उपानीय--लेकर; वासांसि-- वस्त्र; विरजांसि-- स्वच्छ; सः --उसने; उपायनानि--भेंटें; अभीष्टानि-- वांछित; विधि-वत्‌--शास्त्रीय विधियों के अनुसार; समपूजयत्‌-पूजा की।

    उन्हें मधुपर्क, नये वस्त्र तथा अन्य वांछित भेंटें देकर उसने निर्धारित विधियों के अनुसारउनकी पूजा की।

    तयोर्निवेशनं श्रीमदुपाकल्प्य महामतिः ।

    ससैन्ययो: सानुगयोरातिथ्यं विदधे यथा ॥

    ३४॥

    तयो:--दोनों के लिए; निवेशनम्‌--ठहरने का स्थान; श्री-मत्‌--ऐश्वर्यशाली, भव्य; उपाकल्प्य--व्यवस्था करके; महा-मतिः--उदार; स--सहित; सैन्ययो:--उनके सैनिकों; स--सहित; अनुगयो:--उनके निजी संगियों; आतिथ्यम्‌--सत्कार;विदधे--किया; यथा--उचित रीति से

    उदार राजा ने दोनों प्रभुओं के लिए तथा उनकी सेना एवं उनके संगियों के लिए भव्यआवासों की व्यवस्था की।

    इस तरह उसने उनको समुचित आतिथ्य प्रदान किया।

    एवं राज्ञां समेतानां यथावीर्य यथावय: ।

    यथाबलं यथावित्तं सर्व: कामैः समरहयत्‌ ॥

    ३५॥

    एवम्‌---इस प्रकार; राज्ञामू--राजाओं के लिए; समेतानाम्‌--एकत्र हुए; यथा--के अनुसार; वीर्यम्‌ू--उनके पराक्रम; यथा--केअनुसार; वबः--उनकी आयु; यथा--के अनुसार; बलमू--उनकी शक्ति; यथा--के अनुसार; वित्तम्‌ू--उनकी सम्पत्ति; सर्वै:--समस्त; कामै:--इच्छित वस्तुओं से; समर्हयत्‌--उनका आदर किया |

    इस तरह भीष्मक ने इस अवसर पर एकत्र हुए राजाओं को सारी वांछित वस्तुएँ प्रदान कींऔर उनकी राजनैतिक शक्ति, आयु, शारीरिक बल तथा सम्पत्ति के अनुसार उनका सम्मान किया।

    कृष्णमागतमाकर्णय्य विदर्भपुरवासिन: ।

    आगत्य नेत्राज्जलिभि: पपुस्तन्मुखपड्डजम्‌ ॥

    ३६॥

    कृष्णम्‌--कृष्ण को; आगतम्‌--आया हुआ; आकर्ण्य--सुनकर; विदर्भ-पुर--विदर्भ की राजधानी के; वासिन:--निवासी;आगत्य--आकर; नेत्र--अपनी आँखों की; अज्ञलिभि: --अंजुलियों से; पपु:--पिया; तत्‌--उसका; मुख--मुँह; पड्डजम्‌--कमल।

    जब विदर्भवासियों ने सुना कि भगवान्‌ कृष्ण आए हैं, तो वे सब उनका दर्शन करने गये।

    अपनी आँखों की अंजुली से उन्होंने उनके कमलमुख के मधु का पान किया।

    अस्यैव भार्या भवितुं रुक्मिण्यहति नापरा ।

    असावप्यनवद्यात्मा भैष्या: समुचितः पति: ॥

    ३७॥

    अस्य--उसकी; एव--एकमात्र; भार्या--पत्नी; भवितुम्‌-होने के लिए; रुक्मिणी--रुक्मिणी; अर्हति--पात्र है; न अपरा--कोई दूसरी नहीं; असौ--वह; अपि-- भी; अनवद्य--निर्दोष; आत्मा--स्वरूप; भैष्म्या:--भीष्मक की पुत्री के लिए;समुचित:--उपयुक्त; पति:--पति।

    नगरवासियों ने कहा एकमात्र रुक्मिणी उनकी पत्नी बनने के योग्य हैं और वे भीदोषरहित सौन्दर्यवान होने से राजकुमारी भेष्मी के लिए एकमात्र उपयुक्त पति हैं।

    किश्ञित्सुचरितं यन्नस्तेन तुष्टस्त्रलोककृत्‌ ।

    अनुगृह्वातु गृह्नातु वैदर्भ्या: पाणिमच्युत: ॥

    ३८ ॥

    किझ्जित्‌--तनिक भी; सु-चरितम्‌--पुण्य कर्म; यत्‌ू--जो भी; न:--हमारे; तेन--उसी से; तुष्ट:--संतुष्ट; त्रि-लोक--तीनोंलोक का; कृत्‌--स्त्रष्टा, विधाता; अनुगृह्वातु--दया दिखलाये; गृह्नातु--जिससे ग्रहण करे; वैदर्भ्या:--रुक्मिणी का; पाणिमू--हाथ; अच्युत:--कृष्ण |

    हम लोगों ने जो भी पुण्य कर्म किये हों उनसे तीनों लोकों के स्त्रष्टा अच्युत प्रसन्न हों और वेवैदर्भी का पाणिग्रहण करने की अनुकम्पा दिखलायें।

    एवं प्रेमकलाबद्धा वदन्ति सम पुरौकसः ।

    कन्या चान्तःपुराद्रागाद्धटैर्गुप्ताम्बिकालयम्‌ ॥

    ३९॥

    एवम्‌--इस प्रकार; प्रेम--शुद्ध प्रेम की; कला--वृद्ध्ि से; बद्धा:--बँधे हुए; वदन्ति स्म--बोल रहे थे; पुरओकसः --नगरनिवासी; कन्या--दुलहन; च--तथा; अन्तः-पुरातू--अन्तःपुर से; प्रागातू--बाहर गई; भटैः--अंगरक्षकों द्वारा; गुप्ता--रक्षित; अम्बिका-आलयमू--देवी अम्बिका के मन्दिर तक।

    अपने उमड़ते प्रेम से बँध कर नगर के निवासी इस तरह की बातें कर रहे थे।

    तभीअंगरक्षकों से संरक्षित दुलहन अम्बिका के मन्दिर में जाने के लिए अंतःपुर से बाहर आईं।

    पदभ्यां विनिर्ययौ द्र॒ष्टर भवान्या: पादपललवम्‌ ।

    सा चानुध्यायती सम्यड्मुकुन्दचरणाम्बुजम्‌ ।

    यतवाड्मातृभि: सार्थ सखीभिः परिवारिता ॥

    ४०॥

    गुप्ता राजभटै: शूरैः सन्नद्धैरुद्मयतायुथे: ।

    मृडड्भशशट्भुपणवास्तूर्यभेर्य श्र जघ्निरि ॥

    ४१॥

    पद्भ्यामू-पैदल; विनिर्ययौ--बाहर गईं; द्रष्टमू--देखने के लिए; भवान्या:--माता भवानी के; पाद-पलल्‍लवम्‌--कमल कीपंखड़ियों जैसे चरण; सा--वह; च--तथा; अनुध्यायती-- ध्यान करती हुई; सम्यक्‌ --पूर्णत:; मुकुन्द--कृष्ण के; चरण-अम्बुजमू--चरणकमलों पर; यत-वाक्‌--मौन धारण किये; मातृभि:--अपनी माताओं के; सार्थम्‌--साथ; सखीभि: --सखियोंसे; परिवारिता--घिरी; गुप्ता--रक्षित; राज--राजा के; भटैः--अंगरक्षकों द्वारा; शूरः--बहादुर; सन्नद्धैः--सशस्त्र तथा तत्पर;उद्यत--उठे हुए; आयुधे:--हथियारों से; मृदड़-शद्डगु-पणवा:--मृदंग, शंख तथा ढोल; तूर्य--तुरही; भेर्य:--भेरी, सींग काबाजा; च--तथा; जध्निरि--बज रहे थे।

    रुक्मिणी मौन होकर देवी भवानी के चरणकमलों का दर्शन करने के लिए पैदल ही चलपड़ी।

    उनके साथ माताएँ तथा सखियाँ थीं और वे राजा के बहादुर सैनिकों द्वारा संरक्षित थीं जोअपने हथियार ऊपर उठाये हुए सन्नद्ध थे।

    रुक्मिणी केवल कृष्ण के चरणकमलों में अपने मनको ध्यानस्थ किये थीं।

    मार्ग-भर में मृदंग, शंख, पणव, तुरही तथा अन्य बाजे बजाये जा रहे थे।

    नानोपहार बलिभिर्वारमुख्या: सहस््रशः ।

    स्रग्गन्धवस्त्राभरणैद्विजपत्य: स्वलड्डू ता: ॥

    ४२॥

    गायन्त्यश्व स्तुवन्तश्च गायका वाद्यवादका: ।

    परिवार्य बधूं जग्मु: सूतमागधवन्दिन: ॥

    ४३॥

    नाना--विविध; उपहार--पूजा-सामग्री; बलिभि:--तथा भेंटों सहित; वार-मुख्या:-- प्रमुख गणिकाएँ; सहस्त्रश:--हजार;सत्रकू--फूल की मालाओं; गन्ध--सुगन्धियों; वस्त्र--वस्त्र; आभरणैः--तथा आभूषणों से; द्विज--ब्राह्मणों की; पत्य:--पत्नियाँ; स्व्‌-अलड्डू ता:--भलीभाँति आभूषित; गायन्त्य:--गाती हुईं; च--तथा; स्तुवन्तः--स्तुतियाँ करतीं; च--तथा;गायका:--गवैये; वाद्य-वादका:--बाजे बजाने वाले; परिवार्य--साथ होकर; वधूम्‌--दुलहन के ; जग्मुः--गये; सूत--सूत;मागध--मागध; वन्दिन:--तथा वन्दीजन |

    दुलहन के पीछे पीछे हजारों प्रमुख गणिकाएँ थीं जो नाना प्रकार की भेंटें लिये थीं।

    उनकेसाथ ब्राह्मणों की सजी-धजी पत्नियाँ गीत गा रही थीं और स्तुतियाँ कर रही थीं।

    वे माला,सुगन्ध, वस्त्र तथा आभूषण की भेंटें लिये थीं।

    साथ ही पेशेवर गवैये, संगीतज्ञ, सूत, मागध तथावन्दीजन थे।

    आसाद्य देवीसदनं धौतपादकराम्बुजा ।

    उपस्पृश्य शुच्ि: शान्ता प्रविवेशाम्बिकान्तिकम्‌ ॥

    ४४॥

    आसाद्य-पहुँचकर; देवी --देवी के; सदनम्‌ू--आवास; धौत-- धोकर; पाद--पाँव; कर--तथा हाथ; अम्बुजा--कमल जैसे;उपस्पृश्य--जल का आचमन करके; शुच्ि:--पवित्र होकर; शान्ता--शान्त; प्रविवेश-- अन्दर गई; अम्बिका-अन्तिकम्‌--अम्बिका के समक्ष।

    देवी के मन्दिर में पहुँचकर रुक्मिणी ने सबसे पहले अपने कमल सहश पैर तथा हाथ धोयेऔर तब शुद्धि के लिए आचमन किया।

    इस तरह पवित्र एवं शान्त भाव से वे माता अम्बिका केसमक्ष पधारीं।

    तां वै प्रवयसो बालां विधिज्ञा विप्रयोषित: ।

    भवानीं वन्दयां चक्रुर्भवपतलीं भवान्विताम्‌ ॥

    ४५॥

    तामू--उसको; बै--निस्सन्देह; प्रवयस:--बड़ी बूढ़ी; बालाम्‌--युवती को; विधि--विधि-विधान की; ज्ञा:--जानने वाली;विप्र--ब्राह्मणों की; योषित:ः--पत्नियाँ; भवानीमू--देवी भवानी को; वन्दयाम्‌ चक्कु:--वन्दना करायी; भव-पत्लीम्‌ू-- भव( शिवजी ) की पत्नी की; भव-अन्विताम्‌-- भव समेत |

    ब्राह्मणों की बड़ी बूढ़ी पत्तियाँ जो विधि-विधान में पटु थीं, रुक्मिणी को भवानी कोनमस्कार कराने ले गईं जो अपने प्रियतम भगवान्‌ भव ( शिवजी ) के साथ प्रकट हुईं।

    नमस्ये त्वाम्बिकेभीक्ष्णं स्वसन्तानयुतां शिवाम्‌ ।

    भूयात्पतिर्में भगवान्कृष्णस्तदनुमोदताम्‌ ॥

    ४६॥

    नमस्ये--मैं नमस्कार करती हूँ; त्वा--तुम्हें; अम्बिके --हे अम्बिका; अभीक्ष्णम्‌--निरन्तर; स्व-- आपके; सनन्‍्तान--बच्चों;युताम्‌-सहित; शिवाम्‌ू--शिव-पत्नी को; भूयात्‌--होयें; पति: --पति; मे--मेरे; भगवान्‌-- भगवान्‌; कृष्ण: -- कृष्ण; तत्‌--उसे; अनुमोदताम्‌--अनुमति दें

    राजकुमारी रुक्मिणी ने प्रार्थना की हे शिव-पत्नी माता अम्बिका! मैं बारम्बार आपकोतथा आपकी सन्‍्तान को नमस्कार करती हूँ।

    कृपया यह वर दें कि भगवान्‌ कृष्ण मेरे पति होएँ।

    अद्िर्गन्धाक्षतैर्धपैरवास:सत्रड्माल्य भूषणै: ।

    नानोपहारबलिभि: प्रदीपावलिभि: पृथक्‌ ॥

    ४७॥

    विप्रस्न्रियः पतिमतीस्तथा तैः समपूजयत्‌ ।

    लवणापूपताम्बूलकण्ठसूत्रफले क्षुभि: ॥

    ४८ ॥

    अद्धिः--जल से; गन्ध--सुगन्धित वस्तु; अक्षतैः--तथा अन्नों से; धूपैः-- धूप से; वास:--वस्त्र से; स्रकू--फूल की मालाओंसे; माल्य--रत्नजटित हारों; भूषणै: --तथा गहनों से; नाना--अनेक प्रकार की; उपहार-- भेंटों; बलिभि: --तथा भेंटों से;प्रदीप--दीपक की; आवलिभि:--पंक्तियों से; पृथक्‌-- अलग; विप्र-स्त्रियः--ब्राह्मण पत्नियाँ; पति--पतियों; मती:--सेयुक्त; तथा--भी; तैः--इन वस्तुओं से; समपूजयत्‌--पूजा की; लवण--नमकीन पदार्थ; आपूप--पुए; ताम्बूल--पान; कण्ठ-सूत्र--उपबीत या जनेऊ; फल--फल; इक्षुभि: --तथा गन्ना से

    रुक्मिणी ने जल, सुगन्धि, अन्न, धूप, वस्त्र, माला, हार, आभूषण तथा अन्य संस्तुत उपहारोंसे और दीपकों की पंक्तियों से देवी की पूजा की।

    उन्हीं के साथ साथ विवाहिता ब्राह्मणियों नेउन्हीं वस्तुओं से और नमकीन, पूए, पान-सुपारी, जनेऊ, फल तथा गन्ने के रस की भेंटें चढ़ाकर पूजा की।

    तस्यै स्त्रियस्ता: प्रददु: शेषां युयुजुराशिष: ।

    ताभ्यो देव्ये नमश्नक्रे शेषां च जगृहे वधू: ॥

    ४९॥

    तस्वै--रुक्मिणी को; स्त्रियः--स्त्रियों ने; ताः--उन; प्रददुः--दिया; शेषघाम्‌ू--बचा हुआ ( प्रसाद ); युयुजु:--प्रदान किया;आशिष:--आशीर्वाद; ताभ्य: --उनको; देव्यै--तथा देवी को; नमः चक्रे--नमस्कार किया; शेषाम्‌--बचा हुआ ( प्रसाद );च--तथा; जगूृहे-- ग्रहण किया; वधू:--दुलहन ने |

    स्त्रियों ने दुलहन को प्रसाद दिया और फिर आशीर्वाद प्रदान किया।

    उसने भी उन्हें तथा देवीको नमस्कार किया और प्रसाद ग्रहण किया।

    मुनिव्रतमथ त्यक्त्वा निश्चक्रामाम्बिकागृहात्‌ ।

    प्रगृह्य पाणिना भृत्यां रत्लमुद्रोपशोभिना ॥

    ५०॥

    मुनि--मौन; ब्रतम्‌-द्रत; अथ--तब; त्यक्त्वा--त्याग कर; निश्चक्राम--बाहर आई; अम्बिका-गृहात्‌-- अम्बिका मन्दिर से;प्रगृह्ा-पकड़कर; पाणिना--हाथ से; भृत्याम्‌--दासी को; रत्त--रलजटित; मुद्रा--अँगूठी से; उपशोभिना--शोभित |

    तब राजकुमारी ने अपना मौन-ब्रत तोड़ दिया और वह रत्नजटित अँगूठी से सुशोभित अपनेहाथ से एक दासी को पकड़ कर अम्बिका मन्दिर के बाहर आई।

    तां देवमायामिव धीरमोहिनींसुमध्यमां कुण्डलमण्डिताननाम्‌ ।

    श्यामां नितम्बार्पितरत्नमेखलांव्यञ्ञत्त्तनीं कुन्तलशड्वितेक्षणाम्‌ ।

    शुचिस्मितां बिम्बफलाधरद्युति-शोणायमानद्विजकुन्दकुड्मलाम्‌ ॥

    ५१॥

    पदा चलन्तीं कलहंसगामिनींसिज्ञत्कलानूपुरधामशोभिना ।

    विलोक्य वीरा मुमुहु: समागतायशस्विनस्तत्कृतहच्छयार्दिता: ॥

    ५२॥

    यां वीक्ष्य ते नृपतयस्तदुदारहास-ब्रीदावलोकहतचेतस उज्झ्ितास्त्रा: ।

    पेतु: क्षितौ गजरथाश्वगता विमूढायात्राच्छलेन हरयेडर्पयतीं स्‍्वशोभाम्‌ ॥

    ५३॥

    सैवं शनैश्वलयती चलपद्यकोशौप्राप्ति तदा भगवतः प्रसमीक्षमाणा ।

    उत्सार्य वामकरजैरलकानपडैःप्राप्तान्हियैक्षत नृपान्ददृशे उच्युतं च ॥

    ५४॥

    तां राजकन्यां रथमारुरक्षतींजहार कृष्णो द्विषतां समीक्षताम्‌ ॥

    ५५॥

    तामू--उसको; देव-- भगवान्‌ की; मायाम्‌-- माया; इब--सहृश; धीर--गम्भीर रहने वाले भी; मोहिनीम्‌--मोहने वाली; सु-मध्यमाम्‌--सुघड़ कमर वाली; कुण्डल--कान के कुण्डलों से; मण्डित--सुसज्जित; आननाम्‌--मुख वाली; श्यामाम्‌--निष्कलुष सौन्दर्य; नितम्ब--कूल्हे पर; अर्पित--स्थित; रत्तन--रलजटित; मेखलाम्‌--करधनी; व्यञ्ञत्‌ू--उभड़ रहे; स्तनीम्‌--स्तनों वाली; कुन्तल--केशराशि का; शद्डगित--डरी हुई; ईक्षणाम्‌--नेत्रों वाली; शुचि--शुद्ध; स्मितामू--मन्दहास-युक्त;बिम्ब-फल--बिम्ब फल की तरह; अधर--होंठों वाली; द्युति--चमक से; शोणायमान--लाल लाल हो रही; द्विज--दाँत;कुन्द--चमेली की; कुड्मलाम्‌--कलियों जैसे; पदा--पाँवों से; चलन्तीम्‌--चलती हुई; कल-हंस--राजहंस की तरह;गामिनीम्‌--गमन करने वाली; सिज्ञत्‌ू--रुनझुन करती; कला--पदुता से सँवारे; नूपुर--पायलों के; धाम--तेज से;शोभिना--सुशोभित; विलोक्य--देखकर; वीरा:--वीरगण; मुमुहुः --मुग्ध हो गये; समागता:--एकत्र हुए; यशस्विन: --सम्मानित; तत्‌--उससे; कृत--उत्पन्न; हत्‌ू-शय--कामवासना से; अर्दिता:--पीड़ित; यामू--जिसको; वीक्ष्य--देखकर; ते--वे; नू-पतयः--राजागण; तत्‌--उसकी; उदार--विस्तृत; हास--हँसी से; ब्रीडा--लज्जा का; अवलोक--तथा चितवन; हत--चुराये गये; चेतस:--जिनके मन; उज्झित--डालकर; अस्त्रा:--अपने हथियार; पेतु:--गिर पड़े; क्षितौ--पृथ्वी पर; गज--हाथियों; रथ--रथों; अश्व--तथा घोड़ों पर; गता:--बैठे; विमूढा:--मूर्छित होकर; यात्रा-- जुलूस के; छलेन--बहाने; हरये--हरि या कृष्ण के प्रति; अर्पयतीम्‌--अर्पित कर रही; स्व-- अपना; शोभाम्‌--सौन्दर्य; सा--वह; एवम्‌--इस तरह; शनै:--ध धीरेधीरे; चलयती--चलती हुई; चल--हिल रहे; पद्मय--कमल के फूल के; कोशौ--दो कोश ( दो पाँव ); प्राप्तिमू--आगमन;तदा--तब; भगवतः-- भगवान्‌ की; प्रसमीक्षमाणा --उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा करती; उत्सार्य--धकेलते हुए; वाम--बाँयें; कर-जैः--अपने हाथ के नाखुनों से; अलकान्‌--बालों को; अपाडु्रैः--तिरछी चितवन से; प्राप्तान्‌--वहाँ उपस्थित; हिया--लज्जासे; ऐक्षत--उसने देखा; नृपानू--राजाओं को; दहशे--देखा; अच्युतम्‌--कृष्ण को; च--तथा; ताम्‌--उस; राज-कन्याम्‌--राजकुमारी को; रथम्‌--उसका रथ; आरुरुक्षतीम्‌ू--चढ़ने के लिए तैयार; जहार--पकड़ लिया; कृष्ण: --कृष्ण ने; द्विषताम्‌ू--अपने शत्रु के; समीक्षताम्‌--देखते देखतेरुक्मिणी भगवान्‌ की उस मायाशक्ति की तरह मोहने वाली प्रतीत हो रही थीं जो बड़े बड़ेधीर-गम्भीर पुरुषों को भी मोह लेती है।

    इस तरह राजागण उनके सुकुमार सौन्दर्य, उनकी सुघड़कमर तथा कुण्डलों से सुशोभित मुख को निहारने लगे।

    उनके कूल्हे पर रलजटित करधनीशोभा पा रही थी, उनके स्तन अभी उभड़ ही रहे थे और उनकी आँखें उनकी लटकती केशराशिसे चंचल लग रही थीं।

    वे मधुर हँसी से युक्त थीं और उनके चमेली की कली जैसे दाँतों से उनकेबिम्ब जैसे लाल होंठों की चमक प्रतिबिम्बित हो रही थी।

    जब वे राजहंस जैसी चाल से चलनेलगीं तो उनके रुनझुन करते पायलों के तेज से उनके चरणों की शोभा बढ़ गई।

    उन्हें देखकर एकत्रित वीरजन पूर्णतया मोहित हो गये।

    कामवासना से उनके हृदय विदीर्ण हो गये।

    दरअसलजब राजाओं ने उनकी विस्तृत मुसकान तथा लजीली चितवन देखी तो वे सम्मोहित हो गये,उन्होंने अपने अपने हथियार डाल दिये और वे मूछित होकर अपने अपने हाथियों, रथों तथा घोड़ोंपर से जमीन पर गिर पड़े।

    जुलूस के बहाने रुक्मिणी ने अकेले कृष्ण के लिए ही अपना सौन्दर्यप्रदर्शित किया।

    उन्होंने भगवान्‌ के आगमन की प्रतीक्षा करते हुए धीरे धीरे चलायमानकमलकोश रूपी दो चरणों को आगे बढ़ाया।

    उन्होंने अपने बाँए हाथ के नाखुनों से अपने मुखपर लटकते केश-गुच्छों को हटाया और अपने समक्ष खड़े राजाओं की ओर कनखियों से देखा।

    उसी समय उन्हें कृष्ण दिख गये।

    तभी अपने दुश्मनों के देखते देखते भगवान्‌ ने राजकुमारी कोपकड़ लिया जो उनके रथ पर चढ़ने के लिए आतुर थी।

    रथं समारोप्य सुपर्णलक्षणंराजन्यचक्रं परिभूय माधव: ।

    ततो ययौ रामपुरोगमः शनेःश्रूगालमध्यादिव भागहद्धरि: ॥

    ५६॥

    रथम्‌--रथ पर; समारोप्य--उठाकर; सुपर्ण--गरुड़; लक्षणम्‌--चिह्न वाले; राजन्य--राजाओं के; चक्रम्‌--घेरे को;'परिभूय--हराकर; माधव:--कृष्ण; ततः--वहाँ से; ययौ--चले गये; राम--राम द्वारा; पुर:-गमः--आगे आगे; शनैः--धीरेधीरे; श्रगाल--सियारों के; मध्यात्‌ू--बीच से; इब--जिस तरह; भाग--अपना हिस्सा; हतू--निकाल कर; हरि:ः--सिंह |

    राजकुमारी को उठाकर अपने गरुड़-ध्वज वाले रथ में बैठाकर माधव ने राजाओं के घेरे कोपीछे धकेल दिया।

    वे बलराम को आगे करके धीरे से उसी तरह बाहर निकल गये जिस तरहसियारों के बीच से अपना शिकार उठाकर सिंह चला जाता है।

    तं॑ मानिनः स्वाभिभवं यश्ञः क्षयंपरे जरासन्धमुखा न सेहिरे ।

    अहो धिगस्मान्यश आत्तधन्वनांगोपैईतं केशरिणां मृगैरिव ॥

    ५७॥

    तम्‌--उसको; मानिनः --अभिमानी; स्व--अपने; अभिभवम्‌--हार; यश:--अपने सम्मान; क्षयम्‌--विनष्ट करते हुए; परे--शत्रुगण; जरासन्ध-मुखा:--जरासन्ध इत्यादि; न सेहिरि--सहन नहीं कर सके; अहो--ओह; धिक्‌ --धिक्कार है; अस्मान्‌-हमें;यशः--सम्मान; आत्त-धन्वनाम्‌-- धनुषधारियों का; गोपैः--ग्वालों द्वारा; हतम्‌--ले जाये गये; केशरिणाम्‌--सिंहों के;मृगैः--छोटे जानवरों द्वारा; इब--मानो |

    भगवान्‌ के जरासन्ध जैसे शत्रु राजा, इस अपमानजनक हार को सहन नहीं कर सके।

    वेचीख पड़े, 'ओह! हमें धिक्कार है! यद्यपि हम बलशाली धनुर्धर हैं, किन्तु इन ग्वालों मात्र नेहमसे हमारा सम्मान उसी तरह छीन लिया है, जिस तरह छोटे छोटे पशु सिंहों का सम्मान हरलें ।

    TO

    अध्याय चौवन: कृष्ण और रुक्मिणी का विवाह

    10.54श्रीशुक उबाचइति सर्वे सुसंरब्धा वाहानारुह्म दंशिता: ।

    स्वै:स्वैर्बलै: परिक्रान्ता अन्वीयुर्धृतकार्मुका: ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार कहते हुए; सर्वे--सभी; सु-संरब्धा:--अत्यन्त क्रुद्ध; वाहान्‌--अपने अपने वाहनों में; आरुह्म-- चढ़ कर; दंशिता:--कवच पहने हुए; स्वै: स्वै:--अपनी अपनी; बलै:--सेना से;परिक्रान्ता:--घिरे हुए; अन्बीयु:--पीछा करने लगे; धृत--पकड़े हुए; कार्मुकाः--अपने धनुष ।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : यह कह कर उन सरे क्रुद्ध राजाओं ने अपने कवच पहने औरअपने अपने वाहनों में सवार हो गये।

    प्रत्येक राजा अपने हाथ में धनुष धारण किये भगवान्‌कृष्ण का पीछा करते समय अपनी सेना से घिरा हुआ था।

    तानापतत आलोक्य यादवानीकयूथपा: ।

    तस्थुस्तत्सम्मुखा राजन्विस्फूर्ज्य स्वधनूंषि ते ॥

    २॥

    तानू--उनको; आपततः--पीछा करते; आलोक्य--देख कर; यादब-अनीक--यादव सेना के; यूथ-पः--अधिकारी; तस्थु:--खड़े हो गये; तत्‌--उनके ; सम्मुखा:--समक्ष; राजन्‌--हे राजा ( परीक्षित ); विस्फूर्ज्य--टंकार देकर; स्व--अपने अपने;धनूंषि-- धनुष; ते--वे |

    जब यादव सेना के सेनापतियों ने देखा कि शत्रुगण उन पर आक्रमण करने के लिए दौड़रहे हैं, तो हे राजनू, वे सब अपने धनुषों में टंकार देकर उनका सामना करने के लिए मुड़े औरहढ़तापूर्वक अड़ गये।

    अश्रपृष्ठे गजस्कन्धे रथोपस्थेस्त्र कोविदा: ।

    मुमुचु: शरवर्षाणि मेघा अद्विष्वपो यथा ॥

    ३॥

    अश्व-पृष्ठ--घोड़े की पीठ पर; गज--हाथी के; स्कन्धे--कंधों पर; रथ--रथों के; उपस्थे--आसनों पर; अस्त्र--हथियारों के;कोविदा:--पटु; मुमुचु;--छोड़ा; शर--बाणों की; वर्षाणि--वर्षा; मेघा:--बादल; अद्विषु--पर्वतों पर; अप:--जल; यथा--जिस तरह।

    घोड़ों की पीठों पर, हाथियों के कन्धों पर तथा रथों के आसनों पर सवार होकर अम््नों मेंपटु शत्रु राजाओं ने यदुओं पर बाणों की वर्षा की जिस तरह बादल पर्वतों पर वर्षा करते हैं।

    पत्युर्बलं शरासारैश्छन्न॑ं वीक्ष्य सुमध्यमा ।

    सक्रीडमैक्षत्तद्वक्त्रं भयविह्ललोचना ॥

    ४॥

    पत्यु:--अपने पति की; बलम्‌--सेना; शर--बाणों की; आसारैः -- भीषण वर्षा से; छन्नममू--ढका हुआ; वीक्ष्य--देख कर; सु-मध्यमा--पतली कमर वाली ( रुक्मिणी ) ने; स-ब्रीडम्‌ू--लजाते हुए; ऐशक्षत्‌--देखा; तत्‌--उसके; वक्त्रमू--मुख को; भय--भय से; विहल--विचलित; लोचना--आँखों वाली |

    पतली कमर वाली रुक्मिणी ने अपने स्वामी की सेना को बाणों की धुँआधार वर्षा सेआच्छादित देख कर भयभीत आँखों से लजाते हुए कृष्ण के मुख की ओर निहारा।

    प्रहस्य भगवानाह मा स्म भे्वामलोचने ।

    विनदृछ्चयत्यधुनेवैतत्तावकै: शात्रवं बलम्‌ ॥

    ५॥

    प्रहस्थ--हँस कर; भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; आह--कहा; मा सम भेः--तुम डरो नहीं; वाम-लोचने--हे सुन्दर नेत्रों वाली;विनड्छ्यति--नष्ट कर दी जायेगी; अधुना एब--अभी ही; एतत्‌--यह; तावकै :--तुम्हारी ( सेना ) द्वारा; शात्रवम्‌--शत्रुओं की;बलमू--सेना।

    भगवान्‌ ने हँसते हुए उसे विश्वास दिलाया, 'हे सुन्दर नेत्रों वाली, तुम डरो मत! यह शत्रुसेना तुम्हारे सैनिकों द्वारा विनष्ट होने ही वाली है।

    तेषां तद्विक्रमं वीरा गदसड्डूर्षनादय: ।

    अमृष्यमाणा नाराचैज॑घ्नुईयगजात्रथान्‌ ॥

    ६॥

    तेषाम्‌--उनके ( विरोधी राजाओं ) द्वारा; तत्‌--वह; विक्रमम्‌--पराक्रम-प्रदर्शन; वीरा:--बीरगण; गद--गद, कृष्ण के छोटेभाई; सट्डर्षण--बलराम; आदय: --इत्यादि; अमृष्यमाणा: --न सहन करते हुए; नाराचै:--लोहे के बाणों से; जघ्नु: --प्रहारकिया; हय--घोड़े; गजान्‌--हा थी; रथान्‌ू--तथा रथों पर |

    भगवान्‌ की सेना में गद, संकर्षण इत्यादि बीर विरोधी राजाओं के आक्रमण को सहन नहींकर सके।

    अतः वे लोहे के बाणों से शत्रुओं के घोड़ों, हाथियों तथा रथों पर प्रहार करने लगे।

    पेतुः शिरांसि रथिनामश्विनां गजिनां भुवि ।

    सकुण्डलकिरीटानि सोष्णीषाणि च कोटिश: ॥

    ७॥

    पेतु:--गिरने लगे; शिरांसि--सिर; रथिनाम्‌-रथारोहियों के; अश्विनाम्‌-घुड़सवारों के; गजिनाम्‌--हाथी पर सवार होने वालोंके; भुवि--पृथ्वी पर; स--सहित; कुण्डल--कान की बालियाँ; किरीटानि--तथा मुकुट; स--सहित; उष्णीषाणि--पगड़ियाँ;च--तथा; कोटिशः--करोड़ों |

    रथों, घोड़ों तथा हाथियों पर सवार होकर लड़ने वाले सैनिकों के सिर करोड़ों की संख्या मेंगिरने लगे।

    इनमें से कुछ सिर कुण्डलों से युक्त थे तो कुछों पर मुकुट एवं पगड़ियाँ थी।

    हस्ता: सासिगदेष्वासा: करभा ऊरवोड्घ्रयः ।

    अश्वाश्वतरनागोष्ट्खरमर्त्पशिरांसि च ॥

    ८॥

    हस्ता:--हाथ; स--सहित; असि--तलवारें; गदा--गदा; इषु-आसा:--बाण; करभा: --अंगुलियों से विहीन हाथ; ऊरव:--जाँघें; अड्घ्रय:--पाँव; अश्व--घोड़ों; अश्वतर--गधों; नाग--हाथियों; उद्द--ऊँटों; खर--जंगली गधों; मर्त्य--तथा मनुष्योंके; शिरांसि--सिर; च-- भी

    चारों ओर जाँघें, पाँव तथा अंगुलियों से विहीन हाथों के साथ ही साथ तलवार, गदा तथाधनुष पकड़े हुए हाथ और घोड़ों, गधों, हाथियों, ऊँटों, जंगली गधों तथा मनुष्यों के सिर भी पड़ेहुए थे।

    जनहन्यमानबलानीका वृष्णिभिर्जयकाड्क्षिभि: ।

    राजानो विमुखा जम्मुर्जरासन्धपुरःसरा: ॥

    ९॥

    हन्यमान--मारे जा रहे; बल-अनीका:--जिनकी सेनाएँ; वृष्णिभि:--वृष्णियों द्वारा; जय--विजय के लिए; काड्क्षिभि: --इच्छुक; राजान:--राजागण; विमुखा: --निरुत्साहित; जग्मु:--छोड़ दिया; जरासन्ध-पुर:-सरा: --जरासन्ध इत्यादि ।

    विजय के लिए उत्सुक वृष्णियों द्वारा अपनी सेनाओं को मारे जाते देखकर जरासन्ध इत्यादिराजा हतोत्साहित हुए और युद्ध-भूमि छोड़ कर भाग गये।

    शिशुपालं समभ्येत्य हृतदारमिवातुरम्‌ ।

    नष्टत्विषं गतोत्साहं शुष्यद्वदनमब्रुवन्‌ ॥

    १०॥

    शिशुपालम्‌--शिशुपाल के; समभ्येत्य--पास जाकर; हत--चुरायी गई; दारम्‌--पत्नी वाला; इब--मानो; आतुरम्‌--विचलित;नष्ट--खोया हुआ; त्विषम्‌--रंग; गत--गया हुआ; उत्साहम्‌--उत्साह; शुष्यत्‌--सूख गया; वदनम्‌--मुँह; अब्ुवन्‌--उन्होंनेकहा

    सारे राजा शिशुपाल के पास गये जो उस व्यक्ति के समान उद्धिग्न था जिसकी पत्नी छिनचुकी हो।

    उसके शरीर का रंग उतर गया, उसका उत्साह जाता रहा और उसका मुख सूखा हुआप्रतीत होने लगा।

    राजाओं ने उससे इस प्रकार कहा।

    भो भोः पुरुषशार्दूल दौर्मनस्यमिदं त्यज ।

    न प्रियाप्रिययो राजन्निष्ठा देहिषु हश्यते ॥

    ११॥

    भो: भो:--ओरे महाशय; पुरुष--पुरुषों में; शार्टूल--हे बाघ; दौर्मन-स्यम्‌--मन की उदास अवस्था; इृदम्‌-यह; त्यज--छोड़ो; न--नहीं; प्रिय--वांछित; अप्रिययो: --या अवांछित का; राजन्‌--हे राजन्‌; निष्ठा--स्थायित्व; देहिषु--देहधारी जीवोंमें; दृश्यते--देखा जाता है।

    जरासन्ध ने कहा हे पुरुषों में व्याप्र शिशुपाल, सुनो।

    तुम अपनी उदासी छोड़ दो।

    हेराजन्‌, सारे देहधारियों का सुख तथा दुख कभी भी स्थायी नहीं देखे गये हैं।

    यथा दारूमयी योषिलूृत्यते कुहकेच्छया ।

    एवमी श्वरतन्त्रोौयमीहते सुखदुःखयो: ॥

    १२॥

    यथा--जिस तरह; दारु-मयी--काठ की बनी; योषित्‌--स्त्री; नृत्यते--नाचती है; कुहक--दिखाने वाले की; इच्छया--इच्छासे; एवम्‌--उसी तरह से; ईश्वर--ई श्वर के; तन्त्र:--नियंत्रण में; अयम्‌--यह जगत; ईहते--चेष्टा करता है; सुख--सुख;दुःखयो:--तथा दुख में |

    जिस तरह स्त्री के वेश में एक कठपुतली अपने नचाने वाले की इच्छानुसार नाचती है उसीतरह भगवान्‌ द्वारा नियंत्रित यह जगत सुख तथा दुख दोनों से भिड़ता रहता है।

    शौरे: सप्तदशाहं वै संयुगानि पराजित: ।

    त्रयोविंशतिभि: सैन्यैर्जिग्ये एकमहं परम्‌ ॥

    १३॥

    शौरे:--कृष्ण से; सप्त-दश--सत्रह; अहम्‌--मैं; वै--निस्सन्देह; संयुगानि--युद्ध; पराजित:--हारा हुआ; त्रयः-विंशतिभि: --तेईस; सैन्यै:--सेनाओं से; जिग्ये--जीता; एकम्‌--एक; अहम्‌--मैंने; परमू--केवल |

    मैं कृष्ण के साथ युद्ध में अपनी तेईस सेनाओं सहित सत्रह बार हारा--केवल एक बार उन्हेंपराजित कर सका।

    तथाप्यहं न शोचामि न प्रहृष्यामि कर्हिचित्‌ ।

    कालेन दैवयुक्तेन जानन्विद्रावितं जगत्‌ ॥

    १४॥

    तथा अपि--तो भी; अहम्‌--मैं; न शोचामि--शोक नहीं करता; न प्रहृष्यामि--हर्ष प्रकट नहीं करता; कहिंचित्‌--क भी;कालेन--समय से; दैव-- भाग्य से; युक्तेन--जुड़ा हुआ; जानन्‌ू--जानते हुए; विद्रावितम्‌--संचालित; जगत्‌--संसार।

    तो भी मैं न तो कभी शोक करता हूँ, न हर्षित होता हूँ, क्योंकि मैं जानता हूँ कि यह संसारकाल तथा भाग्य द्वारा संचालित है।

    अधुनापि वयं सर्वे वीरयूथपयूथपा: ।

    पराजिता: फल्गुतन्त्रैयदुभिः कृष्णपालितै: ॥

    १५॥

    अधुना--अब; अपि-- भी; वयम्‌--हम; सर्वे--सभी; वीर--वीरों के; यूथ-प--सेनानायकों के; यूथ-पा:--नायक;'पराजिता:--हारे हुए; फल्गु-- थोड़े से; तन्त्रै:--परिचारकों द्वारा; यदुभि:--यदुओं द्वारा; कृष्ण-पालितैः--कृष्ण द्वारा रक्षित

    और अब हम सभी, सेनानायकों के बड़े बड़े सेनापति, यदुओं तथा उनकी छोटी सेना केद्वारा हराये जा चुके हैं क्योंकि वे सभी कृष्ण द्वारा संरक्षित हैं।

    रिपवो जिग्युरधुना काल आत्मानुसारिणि ।

    तदा बयं विजेष्यामो यदा काल: प्रदक्षिण: ॥

    १६॥

    रिपवः--हमारे शत्रुओं ने; जिग्यु:--जीत लिया है; अधुना--अब; काले--समय; आत्म--उनको; अनुसारीणि--पक्षपात करनेवाले; तदा--तब; वयम्‌--हम; विजेष्याम: --जीत लेंगे; यदा--जब; काल:--समय; प्रदक्षिण:--हमारी ओर मुड़ेगा |

    अभी हमारे शत्रुओं ने हमें जीत लिया है क्योंकि समय ने उनका साथ दिया, किन्तु भविष्यमें जब समय हमारे लिए शुभ होगा तो हम जीतेंगे।

    श्रीशुक उबाचएवं प्रबोधितो मित्रैश्वद्योगात्सानुग: पुरम्‌ ।

    हतशेषा: पुनस्तेडपि ययुः स्वं स्व पुरे नृपा: ॥

    १७॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; प्रबोधित:--समझाया-बुझाया; मित्रै: -- अपने मित्रों के द्वारा;चैद्य:ः--शिशुपाल; अगात्‌--गया; स-अनुग: --अपने अनुयायियों सहित; पुरम्‌--अपने नगर में; हत--मारे हुओं से; शेषा: --बचे; पुनः--फिर; ते--वे; अपि-- भी; ययु: --गये; स्वम्‌ स्वम्‌-- अपने अपने; पुरमू--नगर; नृपा:--राजा

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस तरह अपने मित्रों द्वारा समझाने-बुझाने पर शिशुपाल अपनेअनुयायियों सहित अपनी राजधानी लौट गया।

    जो योद्धा बच रहे थे वे भी अपने अपने नगरों कोलौट गये।

    रुक्मी तु राक्षसोद्वाहं कृष्णट्विडसहन्स्वसु: ।

    पृष्ठतो उन्वगमत्कृष्णमक्षौहिण्या वृतो बली ॥

    १८॥

    रुक्मी--रुक्‍्मी; तु--किन्तु; राक्षस--राक्षसी विधि से; उद्बाहमू--विवाह; कृष्ण-द्विटू--कृष्ण से घृणा करने वाला; असहनू --सहन कर पाने में असमर्थ; स्वसु:--अपनी बहिन का; पृष्ठतः--पीछे से; अन्वगमत्‌--पीछा किया; कृष्णम्‌--कृष्ण को;अक्षौहिण्या--एक अक्षौहिणी सेना लेकर; वृतः--घेर लिया; बली--शक्तिशाली

    किन्तु बलवान रुक्‍्मी कृष्ण से विशेष रूप से द्वेष रखता था।

    उससे यह बात सहन नहीं होसकी कि कृष्ण बलपूर्वक उसकी बहिन को ले जाकर उससे राक्षस-विधि से विवाह कर ले।

    अतः उसने सेना की एक पूरी टुकड़ी लेकर भगवान्‌ का पीछा किया।

    रुक्म्यमर्षी सुसंरब्ध: श्रुण्वतां सर्वभूभुजाम्‌ ।

    प्रतिजज्ञे महाबाहुर्दशित: सशरासन: ॥

    १९॥

    अहत्वा समरे कृष्णमप्रत्यूह्वा च रुक्मिणीम्‌ ।

    कुण्डिनं न प्रवेक्ष्यामि सत्यमेतद्रवीमि व: ॥

    २०॥

    रुक्‍्मी--रुक्‍्मी; अमर्षी --असहिष्णु; सु-संरब्ध:--अत्यन्त क्रुद्ध; श्रृण्वताम्‌--सुनते हुए; सर्व--समस्त; भू-भुजाम्‌ू--राजाओंके; प्रतिजज्ञे-- प्रतिज्ञा की; महा-बाहु:--बाहुबली; दंशित:--कवच पहने; स-शरासन:-- अपने धनुष सहित; अहत्वा--बिनामारे; समरे--युद्ध में; कृष्णम्‌--कृष्ण को; अप्रत्यूह्ा--वापस लाये बिना; च--तथा; रुक्मिणीम्‌--रुक्मिणी को; कुण्डिनम्‌ू--कुण्डिन नगर में; न प्रवेक्ष्यामि-- प्रवेश नहीं करूँगा; सत्यमू--सच; एतत्‌--यह; ब्रवीमि--मैं कहता हूँ; वः--तुम सबों से |

    उद्विग्न एवं क्रुद्ध महाबाहु रुक्मी ने कवच पहने तथा धनुष धारण किये सभी राजाओं केसमक्ष यह शपथ ली थी, 'यदि मैं युद्ध में कृष्ण को मार कर रुक्मिणी को अपने साथ वापसनहीं ले आता तो मैं फिर कुण्डिन नगर में प्रवेश नहीं करूँगा।

    यह मैं आप लोगों के समक्ष शपथलेता हूँ।

    '!इत्युक्त्वा रथमारुहा सारथि प्राह सत्वर: ।

    चोदयाश्वान्यत: कृष्ण: तस्य मे संयुगं भवेत्‌ ॥

    २१॥

    इति--इस प्रकार; उक्त्वा--कहकर; रथम्‌--रथ पर; आरुह्म --चढ़ कर; सारथिम्‌--सारथी से; प्राह--कहा; सत्वर:--तेजी से;चोदय--हाँको; अश्वानू--घोड़ों को; यतः--जहाँ; कृष्ण: --कृष्ण; तस्य--उसका; मे--मेंरे साथ; संयुगम्‌--युद्ध; भवेत्‌--होना चाहिए।

    यह कहकर वह अपने रथ पर चढ़ गया और अपने सारथी से कहा, 'तुम घोड़ों को जल्दीसे हाँक कर वहीं ले चलो जहाँ कृष्ण है।

    उससे मुझे युद्ध करना है।

    अद्याहं निशितैर्बाणैगोपालस्य सुदुर्मते: ।

    नेष्ये वीर्यमदं येन स्वसा मे प्रसभं हता ॥

    २२॥

    अद्य--आज; अहमू--मैं; निशितैः--ती क्षण; बाणैः--बाणों से; गोपालस्य--ग्वाले का; सु-दुर्मतेः--दुष्टरबुद्धि; नेष्ये--नष्ट करदूँगा; वीर्य--अपने बल में; मदम्‌--घमंड; येन--जिससे; स्वसा--बहिन; मे--मेरी; प्रसभम्‌--बलपूर्वक; हता--अपहरण कीगईं।

    'इस दुष्टबुद्धि ग्वालबाल ने अपने बल के घमण्ड में चूर होकर मेरी बहन का बलपूर्वकअपहरण किया है।

    किन्तु आज मैं उसके घमंड को अपने तीखे बाणों से चूर कर दूँगा।

    'विकत्थमान: कुमतिरीश्वरस्याप्रमाणवित्‌ ।

    रथेनैकेन गोविन्द तिष्ठ तिष्ठेत्यथाह्ययत्‌ ॥

    २३॥

    विकत्थमान:--डींग मारते हुए; कु-मति:--मूर्ख ; ई श्वरस्थ-- भगवान्‌ का; अप्रमाण-वित्‌--परिमाप न जानते हुए; रथेनएकेन--एकाकी रथ सहित; गोविन्दम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण को; तिष्ठ तिष्ठ--रुको और युद्ध करो; इति--ऐसा कहकर; अथ--तब; आह्यत्‌--उसने पुकारा |

    इस प्रकार डींग हाँकता, भगवान्‌ के पराक्रम के असली विस्तार से अपरिचित मूर्ख रुक्‍्मी,अपने एकाकी रथ में भगवान्‌ गोविन्द के पास पहुँचा और उन्हें ललकारा, 'जरा ठहरो औरलड़ो ।

    कैधनुर्विकृष्य सुहृढं जघ्ने कृष्णं त्रिभि: शरै: ।

    आह चात्र क्षणं तिष्ठ यदूनां कुलपांसन ॥

    २४॥

    धनु:--अपना धनुष; विकृष्य--खींचकर; सु--अत्यन्त; हढम्‌--हढ़तापूर्वक ; जघ्ने-- प्रहार किया; कृष्णम्‌--कृष्ण पर;त्रिभिः--तीन; शरैः --बाणों से; आह--कहा; च--तथा; अत्र--यहाँ; क्षणम्‌--एकक्षण; तिष्ठट--ठहरो; यदूनाम्‌--यदुओं के;कुल--वंश को; पांसन--ेरे दूषित करने वाले।

    रुक्‍मी ने भारी जोर लगाकर अपना धनुष खींचा और कृष्ण पर तीन बाण चलाये।

    तब उसनेकहा, रे यदुवंश को दूषित करने वाले! जरा एक क्षण ठहर तो! 'यत्र यासि स्वसारं मे मुषित्वा ध्वाइक्षवद्धवि: ।

    हरिष्येडद्य मदं मन्द मायिन: कूटयोधिन: ॥

    २५॥

    यत्र--जहाँ भी; यासि--जाओगे; स्वसारमू--बहन को; मे--मेरी; मुधित्वा--चुराकर; ध्वाड्क्ष-वत्‌--कौवे की तरह; हवि: --यज्ञ का घृत; हरिष्ये--मैं वध करूँगा; अद्य---आज; मदम्‌-- तुम्हारे मिथ्या गर्व को; मन्द--रे मूर्ख; मायिन:-- धोखेबाज का;कूट--ठग; योधिन:--युद्ध करने वाले का

    तुम यज्ञ का घृत चुराने वाले कौवे की भाँति मेरी बहन को जहाँ जहाँ ले जाओगे वहाँ वहाँमैं तुम्हारा पीछा करूँगा।

    रे मूर्ख, धोखेबाज, ओरे युद्ध में ठगने वाले! मैं आज ही तुम्हारे मिथ्यागर्व को चूर चूर कर दूँगा।

    'यावतन्न मे हतो बाणैः शयीथा मुझ्न दारीकाम्‌ ।

    स्मयन्कृष्णो धनुएश्छित्त्वा षड्भिर्विव्याध रुक्मिणम्‌ ॥

    २६॥

    यावत्‌--जब तक; न--नहीं; मे--मेरे; हतः--मारा गया; बाणैः--बाणों से; शयीथ:--लिटा दिया गया; मुझ्न--छोड़ दो;दारीकाम्‌--लड़की को; स्मयन्‌--हँसते हुए; कृष्ण:--कृष्ण ने; धनु:--अपना धनुष; छित्त्वा--तोड़ कर; षड़्भि: --छः( बाणों ) से; विव्याध--बेध दिया; रुक्मिणम्‌--रुक्‍्मी को |

    'इसके पूर्व कि तुम मेरे बाणों के प्रहार से मरो और लोट-पोट हो जाओ तुम इस लड़कीको छोड़ दो।

    ' इसके उत्तर में भगवान्‌ कृष्ण मुसकरा दिये और अपने छः बाणों से रुक्मी परप्रहार करके उसके धनुष को तोड़ डाला।

    अष्टभिश्चतुरो वाहान्द्वाभ्यां सूतं ध्वजं त्रिभि: ।

    स चान्यद्धनुराधाय कृष्णं विव्याध पदञ्ञभिः ॥

    २७॥

    अष्टभि:--आठ ( बाणों ) से; चतुरः--चारों; वाहान्‌--घोड़ों को; द्वाभ्यामू--दो से; सूतम्‌--सारथी को; ध्वजम्‌ू--झंडे को;त्रिभि:ः--तीन से; सः--वह, रुक्मी; च--तथा; अन्यत्‌-- अन्य; धनु:--धनुष; आधाय--लेकर; कृष्णम्‌--कृष्ण को;विव्याध--बेध डाला; पञ्नभि:--पाँच से |

    भगवान्‌ ने रुक्‍्मी के चारों घोड़ों को आठ बाणों से, उसके सारथी को दो बाणों से तथा रथकी ध्वजा को तीन बाणों से नष्ट-भ्रष्ट कर दिया।

    रुक्मी ने दूसरा धनुष उठाया और कृष्ण परपाँच बाणों से प्रहार किया।

    तैस्तादितः शरौघैस्तु चिच्छेद धनुरच्युतः ।

    पुनरन्यदुपादत्त 'तदप्यच्छिनदव्यय: ॥

    २८ ॥

    तैः--इनके द्वारा; ताडितः--प्रहार किया गया; शर--बाणों की; ओघै:--बाढ़ से; तु--यद्यपि; चिच्छेद--तोड़ डाला; धनु:--( रुक्‍्मी का ) धनुष; अच्युत:--भगवान्‌ कृष्ण ने; पुन:--फिर; अन्यत्‌--दूसरा; उपादत्त--उसने ( रुक्‍्मी ने ) उठा लिया; तत्‌--वह; अपि-- भी; अच्छिनत्‌--तोड़ दिया; अव्यय:--अविनाशी |

    यद्यपि भगवान्‌ अच्युत पर इन अनेक बाणों से प्रहार हुआ किन्तु उन्होंने पुन: रुक्मी के धनुषको तोड़ दिया।

    रुक्‍्मी ने दूसरा धनुष उठाया किन्तु अविनाशी भगवान्‌ ने उसे भी खण्ड खण्डकर डाला।

    परिघं पट्टिशं शूलं चर्मासी शक्तितोमरौ ।

    यद्यदायुधमादत्त तत्सर्व सोच्छिनद्धरि: ॥

    २९॥

    परिघम्‌--परिघ; पट्टिशम्‌-त्रिशूल; शूलम्‌-- भाला; चर्म-असी--ढाल तथा तलवार; शक्ति--शक्ति; तोमरौ--तोमर; यत्‌यत्‌--जो जो; आयुधम्‌--हथियार; आदत्त--उठाया; तत्‌ सर्वम्‌--उन सबों को; सः--उस; अच्छिनत्‌--तोड़ डाला; हरि: --भगवान्‌

    कृष्ण नेरुक्‍मी ने जो भी हथियार--परिघ, पट्टिश, त्रिशूल, ढाल तथा तलवार, शक्ति और तोमर--उठाया, उन्हें भगवान्‌ हरि ने छिन्न-भिन्न कर डाला।

    ततो रथादवप्लुत्य खड़्गपाणिर्जिघांसया ।

    कृष्णमभ्यद्रवत्क्ुचद्दधधः पतड़ इव पावकम्‌ ॥

    ३०॥

    ततः--तब; रथात्‌--रथ से; अवपष्लुत्य--नीचे कूदकर; खड्ग--तलवार; पणि:--अपने हाथ में; जिघांसया--मारने की इच्छासे; कृष्णम्‌--कृष्ण की ओर; अभ्यद्रवत्‌-दौड़ा; क्रुद्ध:--क्रुद्ध होकर; पतड्भ:--पक्षी; इब--सहृश; पावकम्‌--हवावायुमें

    तब रुक्‍मी अपने रथ से नीचे कूद पड़ा और अपने हाथ में तलवार लेकर कृष्ण को मारने केलिए उनकी ओर अत्यन्त क्रुद्ध होकर दौड़ा जिस तरह कोई पक्षी वायु में उड़े।

    तस्य चापतत:ः खड्ग॑ तिलशश्चर्म चेषुभि: ।

    छित्त्वासिमाददे तिम्मं रुक्मिणं हन्तुमुद्यतः ॥

    ३१॥

    तस्य--उसके; च--तथा; आपतत:ः--आक्रमण करते हुए; खड्गम्‌--तलवार; तिलश: --छोटे छोटे खंडों में; चर्म--ढाल;च--तथा; इषुभि: --अपने बाणों से; छित्त्ता--तोड़ कर; असिमू--तलवार को; आददे--उसने ग्रहण किया; तिग्मम्‌--तेज;रुक्मिणम्‌--रुक्‍्मी को; हन्तुमू--मारने के लिए; उद्यतः--तैयार |

    ज्योंही रुक्मी ने उन पर आक्रमण किया, भगवान्‌ ने तीर चलाये जिससे रुक्मी की तलवारतथा ढाल के खंड खंड हो गये।

    तब कृष्ण ने अपनी तेज तलवार धारण की और रुक्‍मी कोमारने की तैयारी की।

    इष्ठा भ्रातृवधोद्योगं रुक्मिणी भयविहला ।

    पतित्वा पादयोर्भतुरुवाच करुणं सती ॥

    ३२॥

    इृष्टा--देख कर; भ्रातृ--अपने भाई को; वध--मारने के लिए; उद्योगम्‌--प्रयास; रुक्मिणी-- श्रीमती रुक्मिणी ने; भय-- भयसे; विहला--घबड़ाई; पतित्वा--गिर कर; पादयो: --पैरों पर; भर्तु:--अपने पति के; उवाच--कहा; करुणम्‌--करुण स्वरमें; सती--साध्वी |

    अपने भाई को मार डालने के लिए उद्यत भगवान्‌ कृष्ण को देख कर साध्वी सदृशरुक्मिणी अत्यन्त भयभीत हो उठीं।

    वे अपने पति के पैरों पर गिर पड़ीं और बड़े ही करुण-स्वरमें बोलीं।

    श्रीरुक्मिण्युवाचयोगेश्वराप्रमेयात्मन्देबदेव जगत्पते ।

    हन्तुं नाहँसि कल्याण भ्रातरं मे महाभुज ॥

    ३३॥

    श्री-रुक्मिणी उवाच-- श्री रुक्मिणी ने कहा; योग-ई श्वर--समस्त योगशक्ति के नियन्ता; अप्रमेय-आत्मन्‌ू--न मापे जा सकनेवाले; देव-देव--हे देवताओं के स्वामी; जगत्‌-पते--हे ब्रह्माण्ड के स्वामी; हन्तुम्‌ू न अहंसि--आप वध न करें; कल्याण--हेमंगलमय; भ्रातरम्‌-- भाई को; मे--मेरे; महा-भुज--हे बाहुबली |

    श्री रुक्मिणी ने कहा : हे योगेश्वर, हे अप्रमेय, हे देवताओं के देव, हे ब्रह्माण्ड के स्वामी! हेमंगलमय एवं बाहुबली! कृपया मेरे भाई का वध न करें।

    श्रीशुक उबाचतया परित्रासविकम्पिताड़ुयाशुच्चावशुष्यन्मुखरुद्धकण्ठया ।

    कातर्यविसत्रंसितहेममालयागृहीतपाद:ः करुणो न्यवर्तत ॥

    ३४॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; तया--उसके द्वारा; परित्रास--पूर्णतया भयभीत; विकम्पित--काँपती हुई;अड्डया--जिसके अंग; शुचा--शोक से; अवशुष्यत्‌--सूखता हुआ; मुख--जिसका मुख; रुद्ध--तथा भरे हुए; कण्ठया--गलेसे; कातर्य--आतुरतावश; विस्त्रंसित--बिखर गई; हेम--सोने की; मालया--गले की माला; गृहीत--पकड़ लिया; पाद: --उसके पाँव; करुण:--दयालु ने; न्यवर्तत--छोड़ दिया।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : रुक्मिणी के अत्यधिक भयभीत होने से उसके अंग-अंग काँपनेलगे, मुँह सूखने लगा तथा त्रास के मारे उसका गला रुँध गया।

    उद्देलित होने से उसका सोने काहार माला बिखर गया।

    उसने कृष्ण के पैर पकड़ लिये।

    तब भगवान्‌ ने दया दिखलाकर उसेछोड़ दिया।

    चैलेन बद्ध्वा तमसाधुकारीणंसप्मश्रुकेशं प्रवपन्व्यरूपयत्‌ ।

    तावन्ममर्दु: परसैन्यमद्भुतंयदुप्रवीरा नलिनीं यथा गजा: ॥

    ३५॥

    चैलेन--कपड़े की पट्टी से; बद्ध्वा--बाँध कर; तम्‌--उसको; असाधु-कारिणम्‌--दुष्कर्म करने वाले; स-श्म श्रु-केशम्‌--कुछमूछें तथा बाल छोड़ कर; प्रवपन्‌ू--मूँड॒ करके; व्यरूपयत्‌--विरूप बना दिया; तावत्‌--तब तक; ममर्दु:--कुचल दिया था;'पर--विपक्षी; सैन्यम्‌--सेना को; अद्भुतम्‌ू-- अद्भुत; यदु-प्रवीरा:--यदुकुल के वीरों ने; नलिनीमू--कमल के फूलों को;यथा--जिस तरह; गजा: --हाथी |

    भगवान्‌ कृष्ण ने उस दुकृत्य करने वाले को कपड़े की पट्टी ( दुपट्टे ) से बाँध दिया।

    इसके बाद उन्होंने उसकी कुछ कुछ मूँछें तथा बाल छोड़ कर शेष सारे बाल हास्यजनक रूप से मूँड़कर उसको विरूप बना दिया।

    तब तक यदु-वीरों ने अपने विपक्षियों की अद्भुत सेना कोकुचल दिया था जिस तरह हाथी कमल के फूल को कुचल देता है।

    कृष्णान्तिकमुपत्रज्य दहशुस्तत्र रुक्मिणम्‌ ।

    तथाभूत॑ हतप्रायं इृष्ठा सड्डर्षणो विभु: ।

    विमुच्य बद्धं करुणो भगवान्कृष्णमत्रवीत्‌ ॥

    ३६॥

    कृष्ण--कृष्ण के; अन्तिकम्‌--निकट; उपब्रज्य--जाकर; दहशु:--उन्होंने ( यदु-वीरों ने ) देखा; तत्र--वहाँ; रुक्मिणम्‌--रुक्‍्मी; तथा-भूतम्‌--ऐसी अवस्था में; हत--मृत; प्रायमू--लगभग; दृष्ठटा--देख कर; सद्डूर्षण: --बलराम ने; विभुः--सर्वशक्तिमान; विमुच्य--छोड़ कर; बद्धम्‌--बँधा हुआ ( रुक्मी )) करूण:--दयालु; भगवानू्‌-- भगवान्‌; कृष्णम्‌-- कृष्ण से;अब्रवीत्‌ू--कहा |

    जब यदुगण भगवान्‌ कृष्ण के पास पहुँचे तो उन्होंने रुक्मी को इस शोचनीय अवस्था मेंप्रायः शर्म से मरते देखा।

    जब सर्वशक्तिमान बलराम ने रुक्मी को देखा तो दयावश उन्होंने उसेछुड़ा दिया और वे भगवान्‌ कृष्ण से इस तरह बोले।

    असाध्वदं त्वया कृष्ण कृतमस्मज्जुगुप्सितम्‌ ।

    वपन॑ एमश्रुकेशानां वैरूप्यं सुहदो वध: ॥

    ३७॥

    असाधु--अनुचित; इृदम्‌--यह; त्वया--तुम्हारे द्वारा; कृष्ण--हे कृष्ण; कृतम्‌--किया गया; अस्मत्‌--हमारे लिए;जुगुप्सितम्‌-- भयावह; वपनम्‌--मूँड़ना; श्म श्रु-केशानाम्‌-- उसके मूँछ तथा बालों को; वैरूप्यम्‌ू--विरूप करना; सुहृद:ः--पारिवारिक सदस्य का; वध:--मृत्यु |

    बलराम ने कहा : हे कृष्ण, तुमने अनुचित कार्य किया है।

    इस कार्य से हमको लज्जितहोना पड़ेगा, क्योंकि किसी निकट सम्बन्धी के मूँछ तथा बाल मूँड़ कर उसे विरूपित करनाउसका वध करने के ही समान है।

    मैवास्मान्साध्व्यसूयेथा भ्रातुर्वैरूप्यचिन्तया ।

    सुखदुःखदो न चान्योस्ति यतः स्वकृतभुक्पुमान्‌ ॥

    ३८ ॥

    मा--मत; एव--निस्सन्देह; अस्मान्‌--हमारे प्रति; साध्वि--हे साध्वी; असूयेथा:--शत्रुता अनुभव करो; भ्रातु:-- अपने भाईके; वैरूप्य--विरूप होने की; चिन्तया--चिन्ता से; सुख--सुख; दुःख--तथा दुख का; दः--देने वाला; न--नहीं; च--तथा;अन्य:--अन्य कोई; अस्ति-- है; यत:ः--क्योंकि; स्व-- अपना; कृत--कर्म; भुक्‌ू--फल भोगने वाला; पुमान्‌ू--मनुष्य |

    हे साध्वी, तुम अपने भाई के विरूप होने की चिन्ता से हम पर रुष्ट न होओ।

    किसी के सुखतथा दुख का उत्तरदायी उसके अपने सिवा कोई दूसरा नहीं होता है, क्योंकि मनुष्य अपने हीकर्मों का फल पाता है।

    बन्धुर्वधाईदोषोपि न बन्धोर्वधमर्हति ।

    त्याज्य: स्वेनेव दोषेण हतः किं हन्यते पुनः ॥

    ३९॥

    बन्धु:--सम्बन्धी; वध--मारे जाने के; अ्--योग्य होता है; दोष:--जिसकी बुराइयाँ; अपि--यद्यपि; न--नहीं; बन्धो:--सम्बन्धी से; वधम्‌--मारे जाने के; अ्हति--योग्य होता है; त्याज्य:--त्याग करने योग्य; स्वेन एब--अपने ही; दोषेण--दोष से;हतः--मारा गया; किम्‌--क्यों; हन्यते-- मारा जाये; पुनः--फिर |

    अब कृष्ण को सम्बोधित करते हुए बलराम ने कहा : यदि सम्बन्धी के दोष मृत्यु-दण्डदेने योग्य हों तब भी उसका वध नहीं किया जाना चाहिए।

    प्रत्युत उसे परिवार से निकाल देनाचाहिए।

    चूँकि वह अपने पाप से पहले ही मारा जा चुका है, तो उसे फिर से क्‍यों मारा जाये ?

    क्षत्रियाणामयं धर्म: प्रजापतिविनिर्मित: ।

    भ्रातापि भ्रातरं हन्याद्येन घोरतमस्तत: ॥

    ४०॥

    क्षत्रियाणाम्‌--क्षत्रियों का; अयम्‌ू--यह; धर्म:--पतवित्र कर्तव्य की संहिता; प्रजापति--आदि सन्तान उत्पन्न करने वाले ब्रह्मा केद्वारा; विनिर्मित:--स्थापित; भ्राता-- भाई; अपि-- भी; भ्रातरम्‌--अपने भाई को; हन्यात्‌--मारना पड़ता है; येन--जिस( संहिता ) से; घोर-तम:--अत्यन्त भयावह; तत:ः--अतः |

    क्षत्रियाणाम्‌--क्षत्रियों का; अयम्‌ू--यह; धर्म:--पतवित्र कर्तव्य की संहिता; प्रजापति--आदि सन्तान उत्पन्न करने वाले ब्रह्मा केद्वारा; विनिर्मित:--स्थापित; भ्राता-- भाई; अपि-- भी; भ्रातरम्‌--अपने भाई को; हन्यात्‌--मारना पड़ता है; येन--जिस( संहिता ) से; घोर-तम:--अत्यन्त भयावह; ततः--अतः।

    रुक्मिणी की ओर मुड़कर बलराम ने कहा : ब्रह्मा द्वारा स्थापित योद्धाओं के लिए पवित्रकर्तव्य की संहिता का आदेश है कि उसे अपने सगे भाई तक का वध करना पड़ सकता है।

    निस्सन्देह यह सबसे अथावह नियम है।

    राज्यस्य भूमेर्वित्तस्य स्त्रियो मानस्य तेजस: ।

    मानिनो<न्यस्य वा हेतो: श्रीमदान्धा: क्षिपन्ति हि ॥

    ४१॥

    राज्यस्य--राज्य का; भूमे: -- भूमि का; वित्तस्य--सम्पत्ति का; स्त्रिय:ः--स्त्री का; मानस्य--सम्मान का; तेजस:--बल का;मानिन:--गर्व करने वाले; अन्यस्य--अन्यों का; वा--अथवा; हेतो: --कारण से; श्री--उनके ऐश्वर्य में; मद--उनकी उन्मत्ततासे; अन्धा: -- अंधे; क्षिपन्ति-- अनादर ( तिरस्कार ) करते हैं; हि--निस्सन्देह |

    पुनः बलराम ने कृष्ण से कहा : अपने ऐश्वर्य के मद से अन्धे हुए दम्भी लोग राज्य, भूमि,सम्पत्ति, स्त्री, सम्मान तथा अधिकार जैसी वस्तुओं के लिए अन्यों का तिरस्कार कर सकते हैं।

    तवेयं विषमा बुद्ध्धि: सर्वभूतेषु दुईददाम्‌ ।

    यन्मन्यसे सदाभद्रं सुहृदां भद्रमज्ञवत्‌ ॥

    ४२॥

    तब--तुम्हारे; इयमू--यह; विषमा--पक्षपातपूर्ण ; बुर्दधिः--मनोवृत्ति; सर्व-भूतेषु--सारे जीवों के प्रति; दुईदाम्‌--विचारों वाले;यत्‌--जो; मन्यसे--तुम चाहते हो; सदा--सदैव; अभद्रम्‌--बुराई; सुहृदाम्‌--तुम्हारे शुभचिन्तकों को; भद्रम्‌ू--मंगल; अज्ञ-वत्‌--अज्ञानी पुरुष की भाँति)

    बलराम ने रुक्मिणी से कहा : तुम्हारी मनोवृत्ति सही नहीं है क्योंकि तुम अज्ञानी व्यक्तिकी भाँति उनका मंगल चाहती हो जो सारे जीवों के प्रति शत्रुतापूर्ण हैं और जिन्होंने तुम्हारेअसली शुभचिन्तकों के साथ दुष्कृत्य किया है।

    आत्ममोहो नृणामेव कल्पते देवमायया ।

    सुहहुदुदासीन इति देहात्ममानिनाम्‌ ॥

    ४३॥

    आत्म--अपने विषय में; मोह:--मोह; नृणाम्‌ू--मनुष्यों का; एव--एकमात्र; कल्पते--पूरा होता है; देव-- भगवान्‌ की;मायया--माया द्वारा; सुहत्‌--मित्र; दुईत्‌--शत्रु; उदासीन:--उदासीन; इति--ऐसा सोचकर; देह--शरीर; आत्म--आत्मा केरूप में; मानिनाम्‌ू--मानने वालों के लिए

    भगवान्‌ की माया लोगों को उनके असली स्वरूपों को भुलवा देती है और इस तरह शरीरको आत्मा मान कर वे अन्यों को मित्र, शत्रु या तटस्थ मानते हैं।

    एक एव परो ह्ात्मा सर्वेषामपि देहिनाम्‌ ।

    नानेव गृह्मते मूढेर्यथा ज्योतिर्यथा नभः ॥

    ४४॥

    एकः--एक; एव--अकेला; पर:--परम; हि--निस्सन्देह; आत्मा--आत्मा; सर्वेषामू--सभी; अपि--तथा; देहिनाम्‌ू--देहधारियों में; नाना-- अनेक; इब--मानो; गृह्मते-- अनुभव की जाती है; मूढैः--मोहग्रस्तों द्वारा; यथा--जैसे; ज्योति: --नैसर्गिक पिण्ड; यथा--जिस तरह; नभः--आकाश में |

    जो लोग मोहग्रस्त हैं, वे समस्त जीवधारियों के भीतर निवास करने वाले एक परमात्मा कोअनेक करके मानते हैं जिस तरह से कोई आकाश में प्रकाश को, या आकाश को ही, अनेकरूपों में अनुभव करता हो।

    देह आद्यन्तवानेष द्रव्यप्राणगुणात्मक: ।

    आत्मन्यविद्यया क्रिप्त: संसारयति देहिनम्‌ ॥

    ४५॥

    देह:-- भौतिक शरीर; आदि--प्रारम्भ; अन्त--तथा अन्त; वान्‌--से युक्त; एष:--यह; द्रव्य--भौतिक तत्त्वों का; प्राण--इन्द्रियाँ; गुण--तथा प्रकृति के मूल गुण ( सात्विक, रजो तथा तमो ); आत्मक:--रचित; आत्मनि--आत्मा में; अविद्यया--भौतिक अज्ञान का; क्रिप्त:--थोपा हुआ; संसारयति--जन्म तथा मृत्यु के चक्र का बोध कराता है; देहिनम्‌--देहधारी को

    यह भौतिक शरीर, जिसका आदि तथा अन्त है, भौतिक तत्त्वों, इन्द्रियों तथा प्रकृति केगुणों से बना हुआ होता है।

    यह शरीर भौतिक अज्ञान द्वारा आत्मा पर लादे जाने से मनुष्य कोजन्म तथा मृत्यु के चक्र का अनुभव कराता है।

    नात्मनोन्येन संयोगो वियोगश्रसतः सति ।

    तद्धेतुत्वात्तव्प्रसिद्धेग्रूपा भ्यां यथा रवे: ॥

    ४६॥

    न--नहीं; आत्मन:--आत्मा के लिए; अन्येन--अन्य किसी से; संयोग:--सम्पर्क; वियोग:--विछोह; च--तथा; असतः--जोसारभूत नहीं है; सति--हे अच्छे-बुरे का ज्ञान रखने वाले; तत्‌ू--उस ( आत्मा ) से; हेतुत्वात्‌--उत्पन्न होने से; तत्‌--उस( आत्मा ) से; प्रसिद्धेः--प्रकट होने से; हक्‌ू--हृश्य-इन्द्रिय; रूपाभ्यामू--तथा हृश्य-रूप से; यथा--जिस तरह; रबे:--सूर्य केलिए

    हे बुद्धिमान देवी, आत्मा न तो कभी असत्‌ भौतिक पदार्थों के सम्पर्क में आता है न उससेवियुक्त होता है क्योंकि आत्मा ही उनका उद्गम एवं प्रकाशक है।

    इस तरह आत्मा सूर्य के समानहै, जो न तो कभी दृश्य-इन्द्रिय ( नेत्र ) तथा दहृश्य-रूप के सम्पर्क में आता है, न ही उससे विलगहोता है।

    जन्मादयस्तु देहस्य विक्रिया नात्मन: क्वचित्‌ ।

    कलानामिव नैवेन्दोर्मृतिह्ास्थ कुहूरिव ॥

    ४७॥

    जन्म-आदय: --जन्म इत्यादि; तु--लेकिन; देहस्य--शरीर के ; विक्रिया:--विकार; न--नहीं; आत्मन:-- आत्मा के;क्वचित्‌--सदैव; कलानाम्‌--कलाओं का; इव--सहृश; न--नहीं; एव--निस्सन्देह; इन्दो:--चन्द्रमा की; मृतिः--मृत्यु; हि--निस्सन्देह; अस्य--इसका; कुहू: --नवीन चान्द्र-दिवस; इब--सहृश |

    जन्म तथा अन्य विकार शरीर में ही होते हैं, आत्मा में नहीं।

    जिस प्रकार चन्द्रमा की कलाएँबदलती हैं, चन्द्रमा नहीं यद्यपि नव-चान्द्र दिवस को चन्द्रमा की 'मृत्यु' कहा जा सकता है।

    यथा शयान आत्मानं विषयानन्‍्फलमेव च ।

    अनुभुड़े प्यसत्यर्थे तथाप्नोत्यबुधो भवम्‌ ॥

    ४८॥

    यथा--जिस तरह; शयान:--सोया हुआ व्यक्ति; आत्मानम्‌--अपने को; विषयान्‌--इन्द्रिय-विषयों को; फलम्‌--फल को;एव--निस्सन्देह; च--भी; अनुभुड्ढे --अनुभव करता है; अपि-- भी; असति अर्थे--जो सत्य नहीं है उसमें; तथा--उसी प्रकार;आप्नोति--प्राप्त होता है; अबुध:--अज्ञानी; भवम्‌--संसार को |

    जिस प्रकार सोया हुआ व्यक्ति स्वण के भ्रम के अन्तर्गत अपना, इन्द्रिय भोग के विषयों कातथा अपने कर्म-फलों का अनुभव करता है, उसी तरह अज्ञानी व्यक्ति इस संसार को प्राप्त होताहै।

    तस्मादज्ञानजं शोकमात्मशोषविमोहनम्‌ ।

    तत्त्वज्ञानेन निईत्य स्वस्था भव शुचिस्मिते ॥

    ४९॥

    तस्मात्‌ू--इसलिए; अज्ञान--अज्ञान से; जम्‌--उत्पन्न; शोकम्‌--शोक; आत्म--स्वयं; शोष--सुखाते हुए; विमोहनम्‌--तथामोहपग्रस्त होना; तत्त्त--सत्य के; ज्ञानेन--ज्ञान से; निईत्य--दूर करके; स्व-स्था--अपने सहज भाव में स्थित; भव--होओ;शुचि-स्मिते--शुद्ध हँसी वाली।

    अतः दिव्य ज्ञान से उस शोक को दूर करो जो तुम्हारे मन को दुर्बल तथा भ्रमित कर रहा है।

    हे आदि हँसी वाली राजकुमारी, तुम अपने सहज भाव को फिर से प्राप्त करो।

    श्रीशुक उबाचएवं भगवता तन्‍्वी रामेण प्रतिबोधिता ।

    वैमनस्यं परित्यज्य मनो बुद्धया समादधे ॥

    ५०॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; भगवता-- भगवान्‌ द्वारा; तन्‍न्वी --पतली कमर वालीरुक्मिणी; रामेण--बलराम द्वारा; प्रतिबोधिता--समझाई गई; वैमनस्थम्‌-- अपनी उदासी को; परित्यज्य--त्याग कर; मन:--अपना मन; बुद्धया--बुद्धि से; समादधे--स्थिर किया।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस प्रकार बलराम द्वारा समझाये जाने पर क्षीण-कटि वालीरुक्मिणी अपनी उदासी भूल गईं और आध्यात्मिक बुद्धि से उन्होंने अपना मन स्थिर किया।

    प्राणावशेष उत्सूष्टो द्विडभिहंतबलप्रभः ।

    स्मरन्विरूपकरणं वितथात्ममनोरथः ।

    चक्रे भोजकरट्ट नाम निवासाय महत्पुरम्‌ ॥

    ५१॥

    प्राण--उसकी प्राण-वायु; अवशेष: --बची हुई; उत्बृष्ट: --निकाला गया; द्विड्भि: --शत्रुओं द्वारा; हत--विनष्ट; बल--उसकाबल; प्रभ:--तथा शारीरिक तेज; स्मरन्‌--स्मरण करके ; विरूप-करणम्‌--अपना विरूपित होना; वितथ--हताश; आत्म--अपनी; मनः-रथ:--इच्छाएँ; चक्रे --बनाया; भोज-कटम्‌ नाम-- भोजकट नामक; निवासाय--अपने रहने के लिए; महत्‌--बड़ी; पुरमू--नगरी

    अपने शत्रुओं द्वारा निष्कासित तथा बल और शारीरिक कान्ति से विहीन अपने प्राण बचायाहुआ रुक्‍मी यह नहीं भूल पाया कि उसको किस तरह विरूपित किया गया था।

    हताश हो जाने के कारण उसने अपने रहने के लिए एक विशाल नगरी बनवाई जिसका नाम उसने भोजकटरखा।

    अहत्वा दुर्मतिं कृष्णमप्रत्यूह्या यवीयसीम्‌ ।

    कुण्डिनं न प्रवेक्ष्यामीत्युक्त्वा तत्रावसद्रुषा ॥

    ५२॥

    अहत्वा--बिना वध किये; दुर्मतिम्‌--दुष्टबुद्धि; कृष्णम्‌--कृष्ण को; अप्रत्यूह्--वापस लाये बिना; यवीयसीम्‌--अपनी छोटीबहन; कुण्डिनमू--कुण्डिन में; न प्रवेक्ष्यामि--नहीं प्रवेश करूँगा; इति--ऐसा; उक्त्वा--कहकर; तत्र--वहाँ ( जहाँ उसेविरूपित किया गया था ); अवसत्‌--रहने लगा; रुषा--क्रोध में

    चूँकि उसने प्रतिज्ञा की थी कि 'मैं तब तक कुण्डिन में प्रवेश नहीं करूँगा जब तक दुष्टकृष्ण को मार कर अपनी छोटी बहन को वापस नहीं ले आता' अतः रुक्‍्मी हताश होकर उसीस्थान पर रहने लगा।

    भगवान्भीष्मकसुतामेवं निर्जित्य भूमिपान्‌ ।

    पुरमानीय विधिवदुपयेमे कुरूद्गह ॥

    ५३॥

    भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; भीष्मक-सुताम्‌-- भीष्मक-पुत्री को; एवम्‌--इस प्रकार; निर्जित्य--पराजित करके; भूमि-पान्‌--राजाओं को; पुरम्‌ू--अपनी राजधानी में; आनीय--लाकर; विधि-वत्‌--वैदिक आदेशों के अनुसार; उपयेमे--विवाह किया;कुरु-उद्दद--हे कुरुओं के रक्षक |

    हे कुरुओं के रक्षक, इस तरह भगवान्‌ सारे विरोधी राजाओं को हरा कर भीष्मक की पुत्रीको अपनी राजधानी ले आये और जहाँ वैदिक आदेशों के अनुसार उससे विवाह कर लिया।

    तदा महोत्सवो नृणां यदुपुर्या गृहे गृहे ।

    अभूदनन्यभावानां कृष्णे यदुपतौ नूप ॥

    ५४॥

    तदा--तब; महा-उत्सव:--महान्‌ उत्साह; नृणाम्‌--लोगों द्वारा; यदु-पुर्यामू--यदुओं की राजधानी द्वारका में; गृहे गृहे--घर घरमें; अभूत्‌--उठा; अनन्य-भावानाम्‌--अनन्य प्रेम; कृष्णे--कृष्ण के लिए; यदु-पतौ--यदुओं के प्रमुख; नूप--हे राजा( परीक्षित )

    हे राजन, उस समय यदुपुरी के सारे घरों में महान्‌ उत्साह था क्योंकि उसके नागरिक यदुओं के एकमात्र प्रधान कृष्ण से प्रेम करते थे।

    नरा नार्यश्व मुदिताः प्रमृष्टभणिकुण्डला: ।

    पारिबईमुपाजहुर्वरयोश्चित्रवाससो: ॥

    ५५॥

    नराः--पुरुष; नार्य:--स्त्रियाँ; च-- और; मुदिता: -- प्रसन्न; प्रमष्ट--चमकीली; मणि--मणियाँ; कुण्डला:--तथा कुण्डल;पारिबरहम्‌--विवाह के उपहार; उपाजहुः--आदरपूर्वक भेंट किया; वरयो:--दूल्हा-दुलहिन को; चित्र--अद्भुत; वाससो:--उस्त्रों वाले

    प्रसन्नता से पूरित होकर एवं चमकीली मणियों तथा कुण्डलों से अलंकृत सारे स्त्री-पुरुषविवाह के उपहार ले आये जिन्हें उन्होंने अति सुन्दर वस्त्र पहने दूल्हा-दुलहिन को आदरपूर्वकभेंट किया।

    सा वृष्णिपुर्युत्तम्भितेन्द्रकेतुभि-विचित्रमाल्याम्बररत्नतोरणै: ।

    बभौ प्रतिद्वार्युपक्रिप्तमड्रलै-रापूर्णकुम्भागुरुधूपदीपकै: ॥

    ५६॥

    सा--वह; वृष्णि-पुरी--वृष्णियों की नगरी; उत्तम्भित--ऊपर उठी; इन्द्र-केतुभि:--मांगलिक ख भों से; विचित्र--नाना प्रकारके; माल्य--फूलों की माला से युक्त; अम्बर--कपड़े के झंडे; रत्त--तथा मणियाँ; तोरणै: --बन्दनवारों से; बभौ--सुन्दर लगरहा था; प्रति--प्रत्येक; द्वारि--दरवाजे पर; उपक्रिप्त--सजा; मड़लै:--मांगलिक वस्तुओं से; आपूर्ण--भरे; कुम्भ--जलपात्र;अगुरु--अगुरु से सुगन्धित; धूप--धूप से; दीपकै:--तथा दीपकों से

    वृष्णियों की नगरी अत्यन्त सुन्दर लग रही थीः ऊँचे ऊँचे मांगलिक ख भे तथा फूल-मालाओं, कपड़े के झंडों और बहुमूल्य रत्नों से अलंकृत तोरण भी थे।

    प्रत्येक दरवाजे पर भरेहुए मंगल घट, अगुरु से सुगन्धित धूप तथा दीपक सजे थे।

    सिक्तमार्गा मदच्युद्धिराहूतप्रेष्ठभूभुजाम्‌ ।

    गजैद्दा:सु परामृष्टरम्भापूगोपशोभिता ॥

    ५७॥

    सिक्त--छिड़काव की गई; मार्गा--सड़कें; मद--हाथियों के गण्डस्थल से निकला रस; च्युद्धिः--रसता हुआ; आहूत--बुलाया; प्रेष्ट--प्रिय; भू-भुजाम्‌ू--राजाओं के ; गजैः--हाथियों से; द्वाःसु--द्वारों पर; परामृष्ट--रख कर; रम्भा--केला; पूण--तथा सुपारी से; उपशोभिता--सजाया गया।

    नगरी की सड़कों का छिड़काव उन उन्मुक्त हाथियों द्वारा हुआ था, जो विवाह के अवसर परअतिथि बनकर आये प्रिय राजाओं के थे।

    इन हाथियों ने सारे द्वारों पर केले के तने तथा सुपारी के वृक्ष रख कर नगरी की शोभा और भी बढ़ा दी थी।

    कुरुसृञ़्यकैकेयविदर्भयदुकुन्तयः ।

    मिथो मुमुदिरे तस्मिन्सम्भ्रमात्परिधावताम्‌ ॥

    ५८॥

    कुरु-सूझ्ञय-कैकेय-विदर्भ-यदु-कुन्तवः--कुरु, सृज्ञय, कैकेय, विदर्भ, यदु तथा कुन्ति वंश के सदस्यों के; मिथ: --परस्पर;मुमुदिरि--आनन्द लूटा; तस्मिन्‌ू--उस ( उत्सव ) में; सम्भ्रमातू--उत्तेजनावश; परिधावताम्‌--जो दौड़ने वाले थे उनमें से

    कुरु, सृक्षय, कैकेय, विदर्भ, यदु तथा कुन्ति वंश वाले लोग, उत्तेजना में इधर-उधर दौड़तेलोगों की भीड़ में, एक-दूसरे से उल्लासपूर्वक मिल रहे थे।

    रुक्मिण्या हरणं श्रुत्वा गीयमानं ततस्ततः ।

    राजानो राजकन्याश्व बभूवुर्भूशविस्मिता: ॥

    ५९॥

    रुक्मिण्या:--रुक्मिणी के; हरणम्‌--हरण के विषय में; श्रुत्वा--सुनकर; गीयमानम्‌--गाया जाता; ततः ततः --सर्वत्र;राजान:--राजागण; राज-कन्या:--राजाओं की पुत्रियाँ; च--तथा; बभूवु:--हो गईं; भूश--अत्यन्त; विस्मिता:--चकित |

    सारे राजा तथा उनकी पुत्रियाँ रक्मिणी-हरण की उस वृतान्त को सुनकर अत्यन्त चकित थे,जो सर्वत्र गीत के रूप में गायी जा रही थी।

    द्वारकायामभूद्राजन्महामोद: पुरौकसाम्‌ ।

    रुक्मिण्या रमयोपेतं हृष्ठा कृष्णं अ्रियः पतिम्‌ ॥

    ६०॥

    द्वारकायाम्‌-द्वारका में; अभूत्‌-- था; राजन्‌ू--हे राजन्‌; महा-मोद:--परम उत्साह; पुर-ओकसाम्‌--नगरवासियों के लिए;रुक्मिण्या--रुक्मिणी से; रमया--लक्ष्मी स्वरूप; उपेतम्‌--संयुक्त; दृघ्लटा--देख कर; कृष्णम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण को; थिय:--समस्त ऐश्वर्य के; पतिमू--स्वामी को |

    द्वारका के निवासी समस्त ऐश्वर्य के स्वामी कृष्ण को लक्ष्मी स्वरूप रुक्मिणी से संयुक्तदेखकर अत्यधिक प्रमुद्ति थे।

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    अध्याय पचपन: प्रद्युम्न का इतिहास

    10.55श्रीशुक उबाचकामस्तु वासुदेवांशो दग्धः प्राग्रुद्रमन्‍्युना ।

    देहोपपत्तये भूयस्तमेव प्रत्यपद्मयत ॥

    १॥

    श्री-शुक: उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; काम:--कामदेव; तु--तथा; वासुदेव-- भगवान्‌ वासुदेव का; अंश: --अंश;दग्ध:--जला हुआ; प्राक्‌--पूर्वकाल में; रुद्र--शिव के; मन्युना--क्रोध से; देह--शरीर; उपपत्तये--प्राप्त करने के उद्देश्य से;भूय:--पुनः; तम्‌ू--उसको, वासुदेव को; एब--निस्सन्देह; प्रत्यपद्यत्‌--वापस आ गया।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : वासुदेव का अंश कामदेव पहले ही रुद्र के क्रोध से जल करराख हो चुका था।

    अब नवीन शरीर प्राप्त करने के लिए वह भगवान्‌ वासुदेव के शरीर में पुनःलीन हो गया।

    स एव जातो वैदर्भ्या कृष्णवीर्यसमुद्धव: ।

    प्रद्युम्न इति विख्यात: सर्वतोडनवम: पितु; ॥

    २॥

    सः--वह; एव--निस्सन्देह; जात:--उत्पन्न; वैदर्भ्याम्‌--विदर्भ की पुत्री से; कृष्ण-वीर्य--भगवान्‌ कृष्ण के वीर्य से;समुद्धव:--उत्पन्न; प्रद्युम्न: --प्रद्युम्म; इति--इस प्रकार; विख्यात:--विख्यात; सर्वतः--सभी प्रकार से; अनवम:--निकृष्ट(कम ) नहीं; पितु:-तो हिस्‌ फथेर्‌

    उसका जन्म वैदर्भी की कोख से भगवान्‌ कृष्ण के वीर्य से हुआ और उसका नाम प्रद्युम्न'पड़ा।

    वह अपने पिता से किसी भी तरह कम नहीं था।

    तं शम्बर: कामरूपी हत्वा तोकमनिर्दशम्‌ ।

    स विदित्वात्मन: शत्रु प्रास्योदन्वत्यगादगृहम्‌ ॥

    ३ ॥

    तम्‌--उसको; शम्बर:--शम्बर नामक असुर; काम--इच्छित; रूपी--रूप धारण करके; हत्वा--चुरा कर; तोकम्‌--शिशु को;अनि:-दशम्‌--अभी दस दिन का भी नहीं था; सः--वह ( शम्बर ); विदित्वा--जान कर; आत्मन:--अपना; शत्रुम्‌-शत्रु;प्रास्य--फेंक कर; उदन्वति--समुद्र में; अगात्‌ू--चला गया; गृहम्‌-- अपने घर।

    इच्छानुसार कोई भी रूप धारण कर लेने वाला शम्बर असुर उस शिशु को, जो अभी दसदिन का भी नहीं हुआ था, उठा ले गया।

    प्रद्युम्म को अपना शत्रु समझ कर शम्बर ने उसे समुद्र मेंफेंक दिया और फिर अपने घर लौट आया।

    त॑ निर्जगार बलवान्मीनः सोउप्यपरै: सह ।

    वृतो जालेन महता गृहीतो मत्स्यजीविभि: ॥

    ४॥

    तम्‌--उसको; निर्जगार--निगल गई; बल-वान्‌--बलशाली; मीन:--मछली; सः--वह ( मछली ); अपि--तथा; अपरै:--अन्यों के; सह--साथ; वृत:--घिर कर, फँस कर; जालेन--जाल से; महता--विशाल; गृहीत:--पकड़ ली गईं; मत्स्य-जीविभि:--मछुआरों द्वारा ॥

    प्रद्यम्म को एक बलशाली मछली निगल गई और यह मछली अन्य मछलियों के साथमछुआरों द्वारा एक बड़े से जाल में फँसा कर पकड़ी गई।

    तं शम्बराय कैवर्ता उपाजहुरुपायनम्‌ ।

    सूदा महानसं नीत्वावद्यन्सुधितिनाद्भधुतम्‌ ॥

    ५॥

    तम्‌--उस ( मछली ) को; शम्बराय--शम्बर को; कैवर्ता:--मछुआरों ने; उपाजह्ु:--भेंट कर दिया; उपायनम्‌--उपहार;सूदा:--रसोइयों ने; महानसम्‌--रसोई-घर में; नीत्वा--ले जाकर; अवद्यन्‌ू--खंड खंड कर दिया; सुधितिना--कसाई के चाकूसे; अद्भुतम्‌ू-- अद्भुत

    मछुआरों ने वह असामान्य मछली लाकर शम्बर को भेंट कर दी, जिसके रसोइये उसे रसोई-घर में ले आये, जहाँ वे उसे कसाई के चाकू से काटने लगे।

    इृष्टा तदुदरे बालम्मायावत्यै न्‍यवेदयन्‌ ।

    नारदोकथयत्सर्व तस्या: शड्धितचेतस: ।

    बालस्य तत्त्वमुत्पत्ति मत्स्योदरनिवेशनम्‌ ॥

    ६॥

    इृष्टा--देख कर; तत्‌--उसके ; उदरे--पेट में; बालम्‌ू--शिशु को; मायावत्यै--मायावती को; न्‍्यवेदयन्‌--दे दिया; नारदः--नारदमुनि ने; अकथयत्‌--कह सुनाया; सर्वम्‌--सभी; तस्या: --उससे; शद्धित--चकित; चेतस:--जिसका मन; बालस्थ--शिशु के; तत्त्वमू--विषयक बातें; उत्पत्तिमू--जन्म; मत्स्य--मछली के; उदर--पेट में; निवेशनम्‌--प्रवेश |

    मछली के पेट में बालक पाकर रसोइयों ने यह बालक मायावती को दे दिया, जो चकितरह गई।

    तब नारदमुनि प्रकट हुए और उन्होंने उससे बालक के जन्म तथा मछली के पेट में उसकेप्रवेश की सारी बातें कह सुनाईं।

    सा च कामस्य बवै पत्नी रतिर्नाम यशस्विनी ।

    पत्युर्निर्दग्धदेहस्य देहोत्पत्तिम्प्रतीक्षती ॥

    ७॥

    निरूपिता शम्बरेण सा सूदौदनसाधने ।

    कामदेवं शिशुं बुद्ध्वा चक्रे स्नेह तदार्भके ॥

    ८॥

    सा--वह; च--तथा; कामस्थ--कामदेव की; बै--वस्तुतः; पत्ती-- पतली; रति: नम--रति नामक; यशस्विनी--सुप्रसिद्ध;पत्यु:--अपने पति के; निर्दग्ध-- भस्म हुए; देहस्य--शरीर के; देह--शरीर की; उत्पत्तिम्‌--प्राप्ति; प्रती क्षती--प्रती क्षा करती;निरूपिता--नियुक्त; शम्बरेण --शम्बर द्वारा; सा--वह; सूद-ओदन--तरकारियों तथा चावल के; साधने--तैयार करने में;काम-देवम्‌--कामदेव के रूप में; शिशुम्‌--शिशु को; बुद्ध्वा--समझ कर; चक्रे --करने लगी; स्नेहम्‌--प्रेम; तदा--तब;अर्भके-शिशु के लिएवस्तुतः

    मायावती कामदेव की सुप्रसिद्ध पत्ती रति थी।

    वह अपने पति द्वारा नवीन शरीरप्राप्त करने की प्रतीक्षा में थी क्योंकि उसके पति का पिछला शरीर भस्म कर दिया गया था।

    मायावती को शम्बर द्वारा तरकारियाँ तथा चावल पकाने का काम सौंपा गया था।

    मायावतीसमझ गई थी कि यह शिशु वास्तव में कामदेव है, अतएवं वह उससे प्रेम करने लगी थी।

    नातिदीर्घेण कालेन स कार्णिण रूढयौवन: ।

    जनयामास नारीणां वीक्षन्तीनां च विभ्रमम्‌ ॥

    ९॥

    न--नहीं; अति-दीर्घेण--बहुत लम्बे; कालेन--समय के बाद; सः--वह; कार्णिण: --कृष्ण का पुत्र; रूढ--प्राप्त; यौवन:--युवावस्था; जनयाम्‌ आस--उत्पन्न किया; नारीणाम्‌--स्त्रियों के लिए; वीक्षन्तीनामू--उस पर टकटकी लगाने वाली; च--तथा;विध्रमम्‌--जादू।

    कुछ काल बाद कृष्ण के इस पुत्र, प्रद्युम्न ने पूर्ण यौवन प्राप्त कर लिया।

    वह उन सारीस्त्रियों को मोहने लगा जो उसे देखती थीं।

    सा तम्पतिं पद्मदलायतेक्षणंप्रलम्बबाहुं नरलोकसुन्दरम्‌ ।

    सक्रीडहासोत्तभितभ्रुवेक्षतीप्रीत्योपतस्थे रतिरड़ सौरतेः ॥

    १०॥

    सा--वह; तम्‌--उस; पतिम्‌ू-- अपने पति को; पद्म--कमल के फूल की; दल-आयत--पंखड़ियों के समान फैली; ईक्षणम्‌--आँखें; प्रलम्ब--लटकती हुईं; बाहुमू--बाँहें; नर-लोक--मानव समाज की; सुन्दरम्‌--सुन्दरता की सबसे बड़ी वस्तु; स-ब्रीड--सलज्ज; हास--हँसी से युक्त; उत्तभित--उठी हुईं; भ्रुवा--तथा भौंहों से युक्त; ईक्षती--देखती हुई; प्रीत्या--प्रेमपूर्वक;उपतस्थे--पास आई; रति:--रति; अड्ग--हे प्रिय ( राजा परीक्षित ); सौरतै:ः--दाम्पत्य आकर्षण ( सुरति ) के सूचक संकेतों से |

    हे राजनू, सलज्ज हास तथा भौंहें ताने मायावती जब प्रेमपूर्वक अपने पति के पास पहुँची तोउसने दाम्पत्य आकर्षण के विविध संकेत प्रकट किये।

    उसके पति की आँखें कमल कीपंखड़ियों की तरह फैली हुई थीं, उसकी भुजाएँ काफी लम्बी थीं और मनुष्यों में वह सर्वाधिक मनोहर था।

    तामह भगवान्कार्णिर्मातस्ते मतिरन्यथा ।

    मातृभावमतिक्रम्य वर्तसे कामिनी यथा ॥

    ११॥

    तामू--उससे; आह--कहा; भगवान्‌-- भगवान्‌; कार्णिण: -- प्रद्युम्न ने; मात:ः--हे माता; ते--तुम्हारा; मति:--झुकाव;अन्यथा--अन्यथा; मातृ-भावम्‌--माता का भाव या मुद्रा; अतिक्रम्य--अतिक्रमण करके ; वर्तसे--आचरण कर रही हो;कामिनी--प्रेयसी; यथा--सहश |

    भगवान्‌ प्रद्युम्न ने उससे कहा, 'हे माता, तुम्हारे मनोभाव बदल गये हैं।

    तुम मातोचित भावोंका अतिक्रमण कर रही हो और एक प्रेयसी की भाँति आचरण कर रही हो।

    'रतिरुवाचभवान्नारायणसुतः शम्बरेण हतो गृहात्‌ ।

    अहं तेडधिकृता पत्नी रति: कामो भवान्प्रभो ॥

    १२॥

    रतिः उबाच--रति ने कहा; भवान्‌--आप; नारायण-सुत ह-- भगवान्‌ नारायण के पुत्र; शम्बरेण--शम्बर द्वारा; हृत:--चुरायेजाकर; गृहात्‌--अपने घर से; अहम्‌--मैं; ते--तुम्हारी; अधिकृता--वैध; पत्ती-- पत्नी; रतिः--रति; काम: -- कामदेव;भवान्‌ू--आप; प्रभो-हे प्रभु |

    रति ने कहा : आप भगवान्‌ नारायण के पुत्र हैं और शम्बर द्वारा अपने माता-पिता के घर सेहर लिए गये थे।

    हे प्रभु, मैं आपकी वैध पत्नी रति हूँ, क्योंकि आप कामदेव हैं।

    एष त्वानिर्दशं सिन्धावक्षिपच्छम्बरो सुर: ।

    मल्सयोग्रसीत्तदुदरादितः प्राप्तो भवान्प्रभो ॥

    १३॥

    एषः--वह; त्वा--तुम; अनि:-दशम्‌--दस दिन के भी नहीं; सिन्धौ--समुद्र में; अक्षिपत्‌--फेंक दिया; शम्बर:--शम्बर ने;असुरः--असुर; मत्स्य:--मछली; अग्रसीत्‌ू--निगल गई; तत्‌--उसके ; उदरात्‌ू--पेट से; इतः--यहाँ; प्राप्त:--प्राप्त किया;भवान्‌--आप; प्रभो-हे प्रभु

    उस शम्बर असुर ने जबकि आप अभी दस दिन के भी नहीं थे आपको समुद्र में फेंक दियाऔर एक मछली आपको निगल गई।

    तत्पश्चात्‌ हे प्रभु, हमने इसी स्थान पर आपको मछली के पेट से प्राप्त किया।

    तमिमं जहि दुर्धर्ष दुर्जयं शत्रुमात्मनः ।

    मायाशतविदं तं च मायाभिमोहनादिभि: ॥

    १४॥

    तम्‌ इमम्‌--उसको; जहि--कृपया मार डालें; दुर्धर्षमू--जिसके पास तक पहुँचना कठिन है; दुर्जयम्‌--तथा जीत पाना कठिनहै; शत्रुम्‌--शत्रु को; आत्मन:--अपनी; माया--जादूगरी से; शत--सैकड़ों; विदम्‌--जानने वाले; तम्‌--उसको; च--तथा;मायाभि:--अपने जादू से; मोहन-आदिभि:--मोहने के तथा अन्य

    आप अपने इस अत्यन्त दुर्धर्ष तथा भयानक शत्रु का वध कर दें।

    यद्यपि यह सैकड़ों प्रकारके जादू जानता है किन्तु आप उसे जादू तथा अन्य विधियों से मोहित करके हरा सकते हैं।

    'परीशोचति ते माता कुररीव गतप्रजा ।

    पुत्रस्नेहाकुला दीना विवत्सा गौरिवातुरा ॥

    १५॥

    'परिशोचति--विलाप कर रही है; ते--तुम्हारी; माता--माता ( रुक्मिणी ); कुररी इब--कुररी पक्षी की तरह; गत--गई हुई,विनष्ट; प्रजा--सन्तान; पुत्र--अपने पुत्र के लिए; स्नेह--स्नेह से; आकुला--विहल; दीना--दयनीय; विवत्सा--बछड़े सेविहीन; गौ:--गाय; इब--सदृश; आतुरा--अत्यन्त दुखी ।

    अपना पुत्र खो जाने से बेचारी तुम्हारी माता तुम्हारे लिए कुररी पक्षी की भाँति विलख है।

    वह अपने पुत्र के प्रेम से उसी तरह अभिभूत है, जिस तरह अपने बछड़े से विलग हुई गाय।

    प्रभाष्यैवं ददौ विद्यां प्रद्युम्गाय महात्मने ।

    मायावती महामायां सर्वमायाविनाशिनीम्‌ ॥

    १६॥

    प्रभाष्य--कह कर; एवम्‌--इस प्रकार; ददौ--दे दिया; विद्यामू--योग-विद्या; प्रद्युम्नाय--प्रद्युम्मन को; महा-आत्मने--महान्‌आत्मा; मायावती--मायावती; महा-मायाम्‌--महामाया नामक; सर्व--समस्त; माया--मोहनी शक्ति; विनाशिनीम्‌--विनाशकरने वाली |

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे बताया : इस प्रकार कहते हुए मायावती ने महात्मा प्रद्युम्म कोमहामाया नामक योग-विद्या प्रदान की, जो अन्य समस्त मोहिनी शक्तियों को विनष्ट कर देती है।

    सच शम्बरमभ्येत्य संयुगाय समाहयत्‌ ।

    अविषह्लोस्तमाक्षेपै: क्षिपन्‍्सझनयन्कलिम्‌ ॥

    १७॥

    सः--वह; च--तथा; शम्बरम्‌--शम्बर को; अभ्येत्य--के पास जाकर; संयुगाय--युद्ध करने के लिए; समाहयत्‌--ललकारा;अविषह्नैः--असहा; तम्‌--उसको; आक्षेपै:--अपमान द्वारा; क्षिपन्‌ सझ्ञनयन्‌--उकसाते हुए; कलिम्‌--लड़ने के लिए।

    प्रद्युम्म शम्बर के पास गया और विवाद बढ़ाने के लिए उसे असह्ा अपमानजनक बातें कहकर युद्ध करने के लिए ललकारा।

    सोडधिक्षिप्तो दुर्वाचोभि: पदाहत इवोरग: ।

    निश्चक्राम गदापाणिरमर्षात्ताप्रलोचन: ॥

    १८॥

    सः--वह, शम्बर; अधिक्षिप्त:--अपमानित; दुर्वाचोभि: --कटु वचनों द्वारा; पदा--पाँव से; आहत:ः-- प्रहार किया गया; इब--सहश; उरग: --सर्प; निश्चक्राम--बाहर निकल आया; गदा--गदा; पाणि: --अपने हाथ में लिये; अमर्षात्‌ू-- असह्य क्रोध से;ताम्र--ताँबे जैसी लाल; लोचन:--आँखें किये

    इन कटु बचनों से अपमानित होकर शम्बर पाँव से कुचले गये सर्प की भाँति विश्षुब्ध होउठा।

    वह हाथ में गदा लेकर बाहर निकल आया।

    उसकी आँखें क्रोध से लाल थीं।

    गदामाविध्य तरसा प्रद्यम्नाय महात्मने ॥

    प्रक्षिप्य व्यनदन्नादं वज्जनिष्पेषनिष्ठरम्‌ ॥

    १९॥

    गदाम्‌--अपनी गदा को; आविध्य--घुमाकर; तरसा--तेजी से; प्रद्युम्नाय--प्रद्युम्न पर; महा-आत्मने--चतुर; प्रक्षिप्प--फेंककर; व्यनदन्‌ नादम्‌--शोर उत्पन्न करता; वज़--बिजली का; निष्पेष--प्रहार; निष्ठरम्‌--तीब्र |

    शम्बर ने तेजी से अपनी गदा घुमाई और इसे चतुर प्रद्युम्म पर फेंक दिया जिससे बिजलीकड़कने जैसी तीव्र आवाज उत्पन्न हुई।

    तामापतन्तीं भगवान्प्रद्युम्गो गदया गदाम्‌ ।

    अपास्य शत्रवे क्रुद्धः प्राहिणोत्स्वगदां नूप ॥

    २०॥

    ताम्‌ू--उस; आपतन्तीम्‌ू--अपनी ओर आती; भगवानू-- भगवान प्रद्युम्न:--प्रद्युम्न ने; गदया--अपनी गदा से; गदामू--गदाको; अपास्थ--दूर भगाते; शत्रवे -- अपने शत्रु पर; क्रुद्ध: --क्रुद्ध; प्राहिणोत्‌--फेंका; स्त-गदाम्‌--अपनी गदा; नृप--हे राजा( परीक्षित )

    जैसे ही शम्बर की गदा उड़ती हुई भगवान्‌ प्रद्यम्म की ओर आई, उन्होंने अपनी गदा से उसेदूर छिटका दिया।

    तब हे राजन्‌, प्रद्युम्न ने क्रुद्ध होकर शत्रु पर अपनी गदा फेंकी ।

    सच मायां समाश्रित्य दैतेयीं मयदर्शितम्‌ ।

    मुमुचेउस्त्रमयं वर्ष काष्णों वैहायसोसुर: ॥

    २१॥

    सः--वह, शम्बर; च--तथा; मायाम्‌--जादू का; समाश्रित्य--आश्रय लेकर; दैतेयीम्‌-- आसुरी; मय--मय दानव द्वारा;दर्शितमू--दिखलाई गई; मुमुचे--छोड़ा; अस्त्र-मयम्‌--हथियारों की; वर्षम्‌--वर्षा; काष्णौं--कृष्ण के पुत्र पर; वैहायस:--आकाश में खड़े; असुरः--असुर ने।

    मय दानव द्वारा सिखलाए गये दैत्यों के काले जादू का प्रयोग करते हुए शम्बर सहसाआकाश में प्रकट हुआ और उसने कृष्ण के पुत्र पर हथियारों की झड़ी लगा दी।

    बाध्यमानोस्त्रवर्षण रौक्मिणेयो महारथ: ।

    सत्त्वात्मिकां महाविद्यां सर्वमायोपमर्दिनीम्‌ू ॥

    २२॥

    बाध्यमान:--सताया गया; अस्त्र--हथियारों की; वर्षेण--वर्षा से; रौक्मिणेय: --रूक्मिणी-पुत्र, प्रद्मम्म; महा-रथ:--शक्तिशाली योद्धा; सत्तत-आत्मिकाम्‌--सतोगुण से उत्पन्न; महा-विद्यामू--महामाया नामक योग-विद्या ( का प्रयोग किया );सर्व--समस्त; मया--जादू को; उपमर्दिनीम्‌--परास्त करने वाली

    हथियारों की इस झड़ी से तंग आकर महाबलशाली योद्धा रौक्मिणेय ने महामाया नामकयोग-विद्या का प्रयोग किया जो सतोगुण से उत्पन्न थी और अन्य समस्त योगशक्तियों को परास्तकरने वाली थी।

    ततो गौह्मकगान्धर्वपैशाचोरगराक्षसी: ।

    प्रायुड्र शतशो दैत्य: कार्णिणव्यधमयत्स ता; ॥

    २३॥

    ततः--तब; गौह्मक-गान्धर्व-पैशाच-उरग-राक्षसी:--गुह्यकों, गन्धर्वों, पिशाचों, उरगों तथा राक्षसों के ( हथियार ); प्रायुड्ड --प्रयोग किया; शतश:--सैकड़ों; दैत्यः--असुर ने; कार्णिण: --प्रद्युम्न ने; व्यधमयत्‌--मार गिराया; सः--उस; ताः--इनको ।

    तब उस असुर ने गुह्मकों, गन्धर्वों, पिशाचों, उरगों तथा राक्षसों से सम्बन्धित सैकड़ों मायावीहथियार छोड़े किन्तु भगवान्‌ कार्णिण अर्थात्‌ प्रद्यम्ग ने उन सबों को विनष्ट कर दिया।

    निशातमसिमुद्यम्य सकिरीटं सकुण्डलम्‌ ।

    शम्बरस्य शिरः कायात्ताग्रश्मवोजसाहरत्‌ ॥

    २४॥

    निशातम्‌--तेज धार वाली; असिम्‌ू--तलवार; उद्यम्य--उठाकर; स--सहित; किरीटम्‌ू--मुकुट; स--सहित; कुण्डलम्‌--कानके कुंडल; शम्बरस्य--शम्बर का; शिर:--सिर; कायात्‌--उसके शरीर से; ताम्र--ताम्र ( लाल ) रंग की; एम श्रु--मूछें;ओजसा--बल से; अहरत्‌--अलग कर दिया

    अपनी तेज धार वाली तलवार खींच कर प्रद्युम्न ने बड़े ही वेग से शम्बर के सिर को लालमूछों, मुकुट तथा कुंडलों समेत काट कर अलग कर दिया।

    आकीर्यमाणो दिविजै: स्तुवद्धिः कुसुमोत्करै: ।

    भार्ययाम्बरचारिण्या पुरं नीतो विहायसा ॥

    २५॥

    आकीर्यमाण:--वर्षा किया गया; दिवि-जै:--स्वर्ग के वासियों द्वारा; स्तुवर्द्धि:-- प्रशंसा करते हुए; कुसुम--फूलों के;उत्करैः--बिखेरने से; भार्यया--अपनी पतली द्वारा; अम्बर--आकाश में; चारिण्या--विचरण करने वाले; पुरम्‌--पुरी( द्वारका ) में; नीत:--लाया गया; विहायसा-- आकाश के मार्ग से |

    जब उच्च लोकों के वासी प्रद्युम्म पर फूलों की वर्षा करके उनकी प्रशंसा के गीत गा रहे थेतो उनकी पत्नी आकाश में प्रकट हुईं और उन्हें आकाश के मार्ग से होते हुए द्वारकापुरी वापस लेगईं।

    अन्तःपुरवर राजनललनाशतसलझ्डु लम्‌ ।

    विवेश पल्या गगनाद्विद्यतेव बलाहक: ॥

    २६॥

    अन्तः-पुर-- भीतरी महल; वरमू--सर्वोत्तम; राजन्‌ू--हे राजन्‌ ( परीक्षित ); ललना--स्नेहमयी स्त्रियाँ; शत--सैकड़ों;सह्ढु लम्‌--एकत्रित; विवेश--प्रवेश किया; पत्या--अपनी पत्नी सहित; गगनात्‌ू--आकाश से; विद्युता--बिजली समेत;इब--सहृश; बलाहक:--बादल

    हे राजन, जब प्रद्युम्म अपनी पत्नी समेत कृष्ण के सर्वोत्कृष्ट महल के भीतरी कक्षों मेंआकाश से उतरे, जो सुन्दर स्त्रियों से भरे थे तो वे बिजली से युक्त बादल जैसे प्रतीत हो रहे थे।

    त॑ इृष्ठा जलदश्यामं पीतकौशेयवाससम्‌ ।

    प्रलम्बबाहुं ताप्राक्षं सुस्मितं रुचिराननम्‌ ॥

    २७॥

    स्वलड्डू तमुखाम्भोज॑ नीलवक्रालकालिभि: ।

    कृष्णं मत्वा स्त्रियो ढीता निलिल्युस्तत्र तत्र ह ॥

    २८॥

    तम्‌--उसको; हदृष्टा--देख कर; जल-द--बादल के समान; श्यामम्‌--साँवले रंग के; पीत--पीले; कौशेय--रेशमी;वाससम्‌-- वस्त्र; प्रलम्ब--लम्बी; बाहुमू- भुजाएँ; ताम्र--लाल लाल; अक्षम्‌--आँखें; सु-स्मितम्‌--मनोहर मुस्कान से युक्त;रुचिर--लुभावना; आननम्‌--मुखमण्डल; सु-अलड्डू त--सुन्दर रंग से सजाया; मुख--मुँह; अम्भोजम्‌ू--कमल सहश;नील--नीला; वक्र-- कुंचित; आलक-आलिभि: --केशों की लटों से; कृष्णम्‌--कृष्ण; मत्वा--सोचते हुए; स्त्रिय:--स्त्रियाँ;ह्ीताः--सकुचाईं; निलिल्यु;--छिप गई; तत्र तत्र--इधर-उधर; ह--निस्सन्देह

    जब उस महल की स्त्रियों ने उनके वर्षा के बादल जैसे साँवले रंग, उनके पीले रेशमी वस्त्रों,उनकी लम्बी भुजाओं, मनोहर हँसी से युक्त उनके आकर्षक कमल मुख, उनके सुन्दर आभूषणतथा उनके घुँघराले श्यामल बालों को देखा तो उन्होंने सोचा कि वे कृष्ण हैं।

    इस तरह सारीरियाँ सकुचाकर इधर-उधर छिप गईं।

    अवधार्य शनेरीषद्वै लक्षण्येन योषितः ।

    उपजम्मुः प्रमुदिता: सस्त्री रत्न॑ सुविस्मिता: ॥

    २९॥

    अवधार्य--अनुभव करके; शनै:-- धीरे-धीरे; ईषघत्‌--कुछ कुछ; बैलक्षण्येन--दिखावे में अन्तर होने से; योषित:--स्त्रियाँ;उपजग्मु:--पास आई; प्रमुदिता:--प्रफुल्लित; स--सहित; स्त्री--स्त्रियों के; रलम्‌--रत्न के; सु-विस्मित: --अत्यन्त चकित |

    धीरे-धीरे उनके तथा कृष्ण के वेश में कुछ कुछ अन्तरों से स्त्रियों को लगा कि वे भगवान्‌कृष्ण नहीं हैं।

    वे अत्यन्त प्रफुल्लित एवं चकित होकर प्रद्युम्म तथा उनकी प्रेयसी स्त्री-रत्न केपास आईं।

    अथ तत्रासितापाड़ी बैदर्भी वल्गुभाषिणी ।

    अस्मरत्स्वसुतं नष्टं स्नेहस्नुतपयोधरा ॥

    ३०॥

    अथ--तब; तत्र--वहाँ; असित--श्याम; अपाड्री--जिनकी आँखों की कोरें; वैदर्भी--रुक्मिणी ने; वल्गु--मधुर; भाषिनी --वाणी वाली; अस्मरत्‌--स्मरण किया; स्व-सुतम्‌--अपने पुत्र को; नष्टम्‌--खोये हुए; स्नेह--प्रेमवश; स्नुत--गीली; पय:-धरा--स्तनों वाली |

    प्रद्यम्म को देखकर मधुर वाणी एवं शएयाम नेत्रों वाली रुक्मिणी ने अपने खोये हुए पुत्र कास्मरण किया, तो स्नेह से उनके स्तन भीग गये।

    को न्वयम्नरवैदूर्य: कस्य वा कमलेक्षण: ।

    धृतः कया वा जठरे केयं लब्धा त्वनेन वा ॥

    ३१॥

    कः--कौन; नु--निस्सन्देह; अयम्‌--यह; नर-बैदूर्य:--पुरुषों में मणि; कस्य--किसका ( पुत्र ); वा--तथा; कमल-ईक्षण: --कमल नेत्रों वाला; धृत:-- धारण किया हुआ; कया--किस स्त्री द्वारा; वा--तथा; जठरे--अपने गर्भ में; का--कौन; इयम्‌--यह स्त्री; लब्धा--प्राप्त; तु--और भी; अनेन--उसके द्वारा; वा--तथा |

    श्रीमती रुक्मिणीदेवी ने कहा : पुरुषों में रल यह कमल नेत्रों वाला कौन है? यह किसपुरुष का पुत्र है और किस स्त्री ने इसे अपने गर्भ में धारण किया? और यह स्त्री कौन है, जिसेउसने अपनी पत्नी बनाया है?

    मम चाप्यात्मजो नष्टो नीतो यः सूतिकागृहात्‌ ।

    एतत्तुल्यवयोरूपो यदि जीवति कुत्रचित्‌ ॥

    ३२॥

    मम--मेरा; च--तथा; अपि-- भी; आत्मज: --पुत्र; नष्ट: --खोया; नीत:--ले जाया गया; य:--कौन; सूतिका-गृहात्‌ --प्रसूतिगृह से; एतत्‌--इसके ; तुल्य--समान; वयः--उम्र; रूप: --तथा स्वरूप में; यदि--यदि; जीवति--जिन्दा है; कुत्रचित्‌ --कहीं।

    यदि मेरा खोया हुआ पुत्र, जो प्रसूतिगृह से हर लिया गया था, अब भी कहीं जिन्दा होता तोवह इसी नवयुवक की ही आयु तथा रूप का होता।

    कथं त्वनेन सम्प्राप्तं सारूप्यं शार्डधन्वन: ।

    आकृत्यावयवैर्गत्या स्वरहासावलोकनै: ॥

    ३३॥

    कथम्‌--कैसे; तु--लेकिन; अनेन--उसके द्वारा; सम्प्राप्तम्‌-प्राप्त; सारूप्यमू--एक जैसा रूप; शार्ड्-धन्वन:--शार्ड़र धनुषको धारण करने वाले कृष्ण के रूप में; आकृत्या--आकृति में; अवयवबै:--अंगों से; गत्या--चाल से; स्वर--वाणी से; हास--हँसी; अवलोकनैः --तथा चितवन से |

    किन्तु यह कैसे है कि यह नवयुवक अपने शारीरिक रूप तथा अपने अंगों, अपनी चालतथा अपने स्वर और अपनी हँसी युक्त दृष्टि में मेरे स्वामी, शार्ड्धर कृष्ण से इतनी समानता रखताहै?

    स एव वा भवेब्रूनं यो मे गर्भ धृतोर्भकः ।

    अमुष्मिन्प्रीतिरधिका वाम: स्फुरति मे भुज: ॥

    ३४॥

    सः--वह; एव--निस्सन्देह; वा--अथवा; भवेत्‌--होये; नूनम्‌ू--निश्चय ही; यः--जो; मे--मेरे; गर्भ --गर्भ में; धृत:--धारणकिया हुआ; अर्भक:--शिशु; अमुष्मिनू--उसके लिए; प्रीति:--स्नेह; अधिका--अधिक; वाम:--बाईं; स्फुरति--फड़कती है;मे--मेरी; भुज:--बाँहहाँ

    यह वही बालक हो सकता है, जिसे मैंने अपने गर्भ में धारण किया था क्योंकि इसकेप्रति मुझे अतीव स्नेह का अनुभव हो रहा है और मेरी बाईं भुजा भी फड़क रही है।

    एवं मीमांसमणायां बैदर्भ्या देवकीसुतः ।

    देवक्यानकदुन्दुभ्यामुत्तम:ःश्लोक आगमत्‌ ॥

    ३५॥

    एवम्‌--इस प्रकार; मीमांसमानायाम्‌ू--सोच-विचार करती हुई; वैदर्भ्यामू--रानी रुक्मिणी द्वारा; देवकी-सुतः--देवकी-पुत्र;देवकी-आनकदुन्दुभ्यामू-देवकी तथा वसुदेव सहित; उत्तम:-एलोक:-- भगवान्‌ कृष्ण; आगमत्‌--वहाँ आ गये |

    जब रानी रुक्मिणी इस तरह सोच-विचार में पड़ी थीं तब देवकी-पुत्र कृष्ण, वसुदेव तथादेवकी सहित, घटनास्थल पर आ गये।

    विज्ञातार्थोपि भगवांस्तृष्णीमास जनार्दनः ।

    नारदोकथयत्सर्व शम्बराहरणादिकम्‌ ॥

    ३६॥

    विज्ञात--पूरी तरह जानते हुए; अर्थ:--बात; अपि--यद्यपि; भगवान्‌-- भगवान्‌; तृष्णीम्‌ू--मौन; आस--रहे; जनार्दन:--कृष्ण; नारद: --नारदमुनि ने; अकथयत्‌--कह सुनाया; सर्वम्‌--सारी बातें; शम्बर--शम्बर द्वारा; आहरण --- अपहरण;आदिकम्‌--इत्यादि |

    यद्यपि भगवान्‌ जनार्दन यह भलीभाँति जानते थे कि क्या हुआ है किन्तु वे मौन रहे।

    तथापिनारदमुनि ने शम्बर द्वारा बालक के अपहरण से लेकर अब तक की सारी बातें कह सुनाईं।

    तच्छुत्वा महदाश्चर्य कृष्णान्तःपुरयोषित: ।

    अभ्यनन्दन्बहूनब्दान्रष्ट मृतमिवागतम्‌ ॥

    ३७॥

    तत्‌--उसे; श्रुत्वा--सुनकर; महत्‌--महान्‌; आश्वर्यम्‌-- आश्चर्य; कृष्ण-अन्त:-पुर--कृष्ण के निजी आवास की; योषित:--स्त्रियों ने; अभ्यनन्दन्‌ू--अभिनन्दन किया; बहूनू--अनेक; अब्दानू--वर्षो के ; नष्टम्‌--खोये; मृतम्‌--मरे हुए; इब--सहश;आगतम्‌--वापस आया हुआ।

    जब भगवान्‌ कृष्ण के महल की स्त्रियों ने इस अत्यन्त आश्चर्यमय विवरण को सुना तोउन्होंने बड़े ही हर्ष के साथ प्रद्युम्म का अभिनन्दन किया जो वर्षों से खोये हुए थे किन्तु अब इसतरह लौटे थे मानो मृत्यु से लौट आये हों।

    देवकी वसुदेवश्च कृष्णरामौ तथा स्त्रिय: ।

    दम्पती तौ परिष्वज्य रुक्मिणी च ययुर्मुदम्‌ ॥

    ३८ ॥

    देवकी--देवकी; वसुदेव:--वसुदेव; च--तथा; कृष्ण-रामौ--कृष्ण तथा बलराम; तथा-- भी; स्त्रिय:--स्त्रियाँ; दम्‌-पती--पति-पत्नी; तौ--ये दोनों; परिष्वज्य--आलिंगन करके ; रुक्मिणी--रुक्मिणी; च--तथा; ययु: मुदम्‌--प्रसन्नता को प्राप्त हुए

    देवकी, वसुदेव, कृष्ण, बलराम तथा महल की सारी स्त्रियों, विशेषतया रानी रुक्मिणी ने,तरुण दम्पति को गले लगाया किया और आनन्द मनाया।

    नष्ट प्रद्युम्ममायातमाकर्णय्य द्वारमौकसः ।

    अहो मृत इवायातो बालो दिष्टग्रेति हाब्रुवन्‌ ॥

    ३९॥

    नष्टम्‌ू--खोया हुआ; प्रद्यम्नम्‌-प्रद्यम्न को; आयातम्‌--आया हुआ; आकर्णर्य --सुनकर; द्वारका-ओकस:--द्वारकावासी;अहो--ओह; मृत:--मरा हुआ; इब--मानो; आयात: --वापस आया; बाल: --बच्चा; दिष्ठदय्या-- भाग्यवश; इति--इस प्रकार;ह--निस्सन्देह; अन्लुवन्‌ू--वे बोले

    यह सुनकर कि खोया हुआ प्रद्युम्म घर आ गया है, द्वारकावासी चिल्ला उठे, 'ओह!विधाता ने इस बालक को मानो मृत्यु से वापस आने दिया है।

    'यं वै मुहु: पितृसरूपनिजेशभावा-स्तन्मातरो यदभजन्रहरूढभावा: ।

    चित्र॑ न तत्खलु रमास्पदबिम्बबिम्बेकामे स्मरेक्षविषये किमुतान्यनार्य: ॥

    ४०॥

    यम्‌--जिसको; बै--निस्सन्देह; मुहुः--बारम्बार; पितृ--पिता; स-रूप--समान; निज--अपने; ईश--स्वामी; भावा:--सोचनेबाले; तत्‌--उसकी; मातरः --माताएँ; यत्‌--जितना कि; अभजनू--पूजा की; रह--एकान्त में; रूढ--पूर्ण विकसित;भावा:-- भाव; चित्रम्‌ू--अद्भुत; न--नहीं; तत्‌--वह; खलु--निस्सन्देह; रमा--लक्ष्मी; आस्पद--शरण ( कृष्ण ); बिम्ब--स्वरूप का; बिम्बे--प्रतिबिम्ब रूप; कामे--साक्षात्‌ कामवासना; स्मरे--कामदेव; अक्ष-विषये-- अपनी आँखों के समक्ष;किम्‌ उत--तो फिर क्या कहा जाय; अन्य--दूसरी; नार्य:--स्त्रियाँ |

    यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि महल की स्त्रियाँ, जो प्रद्युम्न के प्रति मातृ-स्नेह रखतीं,एकान्त में उनके प्रति प्रेमाकर्षण का अनुभव करने लगीं मानो वे उनके स्वामी हों।

    दरअसलप्रद्युम्न लक्ष्मी के आश्रय भगवान्‌ कृष्ण के सौन्दर्य के पूर्ण प्रतिबिम्ब थे और उनकी आँखों केसामने साक्षात्‌ कामदेव के रूप में प्रकट हुए थे।

    चूँकि उनकी माता जैसे पद को प्राप्त स्त्रियों कोभी उनके प्रति दाम्पत्य आकर्षण का अनुभव हुआ तो फिर इस विषय में क्या कहा जा सकता हैकि उन्हें देखकर अन्य स्त्रियों ने क्या अनुभव किया होगा ?

    TO

    अध्याय छप्पनवाँ: स्यमंतक रत्न

    10.56रीशुक उबाचसत्राजित: स्वतनयां कृष्णाय कृतकिल्बिष: ।

    स्यमन्तकेन मणिनास्वयमुद्यम्थ दत्तवान्‌ ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; सत्राजित:--राजा सत्राजित ने; स्व-- अपनी; तनयाम्‌--पुत्री; कृष्णाय--कृष्णको; कृत--कर चुकने पर; किल्बिष:--अपराध; स्यमन्तकेन--स्यमन्तक नामक; मणिना--मणि सहित; स्वयम्‌--स्वयं;उद्यम्य--प्रयास करके; दत्तवान्‌ू-दे दिया।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : कृष्ण का अपमान करने के बाद सत्राजित ने अपनी पुत्री तथास्यमन्तक मणि उन्हें भेंट करके प्रायश्चित करने का भरसक प्रयत्न किया।

    श्रीराजोबाचसत्राजितः किमकरोद्वहान्कृष्णस्य किल्बिष: ।

    स्वमन्तक:ः कुतस्तस्य कस्माचइत्ता सुता हरेः ॥

    २॥

    श्री-राजा--राजा ( परीक्षित महाराज ) ने; उबाच--कहा; सत्राजित:--सत्राजित ने; किमू--क्या; अकरोत्‌--किया; ब्रह्मनू-हेब्राह्मण; कृष्णस्थय--कृष्ण के विरुद्ध; किल्बिष:--अपराध; स्यमन्तक:--स्यमन्तक मणि; कुत:--कहाँ से; तस्य--उसका;कस्मातू्‌-क्यों; दत्ता--दिया; सुता--अपनी पुत्री; हरेः-- भगवान्‌ हरि को ।

    महाराज परीक्षित ने पूछा : 'हे ब्राह्मण, राजा सत्राजित ने भगवान्‌ कृष्ण को रुष्ट करने केलिए क्‍या कर दिया? उसे स्यमन्तक मणि कहाँ से मिला? और उसने अपनी पुत्री भगवान्‌ कोक्यों दी श्रीशुक उबाचआसीत्सत्राजित: सूर्यो भक्तस्य परम: सखा ।

    प्रीतस्तस्मै मणिं प्रादात्स च तुष्ट: स्यमन्‍्तकम्‌ ॥

    ३॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; आसीत्‌-- था; सत्राजित: --सत्राजित का; सूर्य:--सूर्यदेव; भक्तस्य--भक्त का;'परम:ः--परम; सखा--शुभचिन्तक मित्र; प्रीतः--प्रिय; तस्मै--उसको; मणिमू्‌--मणि; प्रादात्‌--दिया; सः--उसने; च--तथा;तुष्ट:--प्रसन्न होकर; स्यमन्तकम्‌--स्यमन्तक नामक

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : सूर्यदेव अपने भक्त सत्राजित के प्रति अत्यन्त वत्सल थे।

    अतःउनके श्रेष्ठ मित्र के रूप में उन्होंने अपनी तुष्टि के चिन्ह रूप में उसे स्थमन्‍्तक नामक मणि प्रदान सतं बिशभ्रन्मणिं कण्ठे भ्राजमानो यथा रवि: ।

    प्रविष्टो द्वारकां राजन्तेजसा नोपलक्षित: ॥

    ४॥

    सः--वह, राजा सत्राजित; तमू--उस; बिभ्रत्‌--पहने हुए; मणिम्‌--मणि को; कण्ठे-- अपने गले में; भ्राजमान: --खूबचमकीला; यथा--सहश; रवि: --सूर्य ; प्रविष्ट: --प्रविष्ट हुआ; द्वारकाम्‌-द्वारकापुरी में; राजन्‌ू--हे राजा ( परीक्षित );तेजसा--तेज से; न--नहीं; उपलक्षित:--पहचाना जाता थासत्राजित उस मणि को गले में पहन कर द्वारका में प्रविष्ट हुआ।

    हे राजन, वह साक्षात्‌ सूर्यके समान चमक रहा था और मणि के तेज से पहचाना नहीं जा रहा था।

    त॑ विलोक्य जना दूरात्तेजसा मुष्टदृष्टयः ।

    दीव्यतेउक्षेर्भगवते शशंसु: सूर्यशद्धिता: ॥

    ५॥

    तम्‌--उसे; विलोक्य--देख कर; जना:--लोग; दूरात्‌ू-दूर से ही; तेजसा--उसके तेज से; मुष्ट--चुरायी हुई; दृष्टयः--देखनेकी शक्ति; दीव्यते--खेलते हुए; अक्षैः --पाँसा से; भगवते-- भगवान्‌ कृष्ण से; शशंसु:--उन्होंने सूचना दी; सूर्य--सूर्यदेव;शद्डिताः--उसे मान कर |

    जब लोगों ने सत्राजित को दूर से आते देखा तो उसकी चमक से वे चौंधिया गये।

    उन्होंनेमान लिया कि वह सूर्यदेव है और भगवान्‌ कृष्ण से बताने गये जो उस समय पाँसा खेल रहे थे।

    नारायण नमस्तेःस्तु शद्भुचक्रगदाधर ॥

    दामोदरारविन्दाक्ष गोविन्द यदुनन्दन ॥

    ६॥

    नारायण--हे नारायण; नम:--नमस्कार; ते--आपको; अस्तु--हो; शद्भु-- शंख; चक्र--चक्र; गदा--तथा गदा के; धर--धारण करने वाले; दामोदर--हे दामोदर; अरविन्द-अक्ष--हे कमल-नेत्र; गोविन्द--हे गोविन्द; यदु-नन्दन--हे यदुओं केलाड़ले बेटे

    द्वारकावासियों ने कहा : हे नारायण, हे शंख, चक्र, गदा धारण करने वाले, है कमल-नेत्र दामोदर, हे गोविन्द, हे यदुवंशी, आपको नमस्कार है।

    एष आयाति सविता त्वां दिहश्लुर्जगत्पते ।

    मुष्णन्गभस्तिचक्रेण नृणां चक्षूंषि तिग्मगु: ॥

    ७॥

    एष:--यह; आयाति--आ रहा है; सविता--सूर्यदेव; त्वाम्‌--तुमको; दिदृक्षु:ः--देखने की इच्छा से; जगत्‌-पते--हे ब्रह्माण्ड केस्वामी; मुष्णन्‌ू--चुरा कर; गभस्ति--अपनी किरणों के; चक्रेण--गोले से; नृणाम्‌--लोगों की; चक्षूंषि-- आँखों को; तिग्म--प्रखर; गु:--विकिरण वाला ।

    हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, सवितादेव आपको मिलने आये हैं।

    वे अपनी प्रखर तेजोमय किरणोंसे सबों की आँखों को चौंधिया रहे हैं।

    नन्वन्विच्छन्ति ते मार्ग त्रीलोक्यां विबुधर्षभा: ।

    ज्ञात्वाद्य गूढं यदुषु द्रष्टट त्वां यात्यज: प्रभो ॥

    ८॥

    ननु--अवश्य ही; अन्विच्छन्ति--ढूँढ़ लेते हैं; ते--तुम्हारा; मार्गम्‌--रास्ता; त्रि-लोक्याम्‌-तीनों लोकों में; विबुध--चतुरदेवताओं के; ऋषभा: --अत्यन्त पूज्य; य्ञात्वा--जान कर; अद्य--अब; गूढम्‌--वेश बदले; यदुषु--यदुओं के बीच; द्रष्टम्‌--देखने के लिए; त्वामू--तुमको; याति--आता है; अज:--अजन्मा ( सूर्यदेव ); प्रभो-हे प्रभु

    हे प्रभु, अब तीनों लोकों के परम श्रेष्ठ देवता आपको खोज निकालने के लिए उत्सुक हैंक्योंकि आपने अपने को यदुवंशियों के बीच छिपा रखा है।

    अत: अजन्मा सूर्यदेव आपका दर्शनकरने यहाँ आये हैं।

    श्रीशुक उबाचनिशम्य बालवचनं प्रहस्याम्बुजलोचन: ।

    प्राह नासौ रविर्देव: सत्राजिन्मणिना ज्वलन्‌ ॥

    ९॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; निशम्य--सुनकर; बाल--बचकाना; वचनम्‌--वचनों को; प्रहस्य--हँस कर;अम्बुज--कमल सहृश; लोचन:--आँखों वाले; प्राह--कहा; न--नहीं; असौ--यह व्यक्ति; रवि: देव: --सूर्यदेव; सत्राजित्‌--राजा सत्राजित; मणिना--अपनी मणि के कारण; ज्वलन्‌ू--चमकता हुआ।

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे बताया : ये भोलेभाले वचन सुनकर कमलनयन भगवान्‌ जोर सेहँसे और बोले, 'यह सूर्यदेव, रवि नहीं, अपितु सत्राजित है, जो अपनी मणि के कारण चमकरहा है।

    'सत्राजित्स्वगृहं श्रीमत्कृतकौतुकमड्लम्‌ ।

    प्रविश्य देवसदने मण्णि विप्रैन्यवेशयत्‌ ॥

    १०॥

    सत्राजितू--सत्राजित; स्व--अपने; गृहम्‌-घर; श्रीमत्‌--ऐश्वर्यवान; कृत--किया; कौतुक--उत्सव के साथ; मड़लम्‌ू--शुभअनुष्ठान; प्रविश्य--प्रवेश करके; देव-सदने--मन्दिर-कक्ष में; मणिम्‌--मणि को; विप्रै:--विद्वान ब्राह्मणों द्वारा; न्‍्यवेशयत्‌--उसने स्थापित करा दिया।

    राजा सत्राजित समारोह के साथ शुभ अनुष्ठान सम्पन्न करके अपने एश्वर्यशाली घर में प्रविष्ट उसने योग्य ब्राह्मणों से अपने घर के मन्दिर-कक्ष में स्थमन्‍्तक मणि की स्थापना करा दी।

    दिने दिने स्वर्णभारानष्टी स सृजति प्रभो ।

    दुर्भिक्षमार्यरिष्टानि सर्पाधिव्याधयोडशुभा: ।

    न सन्ति मायिनस्तत्र यत्रास्ते भ्यर्चितो मणि: ॥

    ११॥

    दिने दिने--प्रति दिन; स्वर्ण--स्वर्ण के; भारानू-- भार ( एक तौल ); अष्टौ--आठ; सः--वह; सृजति--उत्पन्न करता है;प्रभो--हे प्रभु ( परीक्षित महाराज ); दुर्भिक्ष-- अकाल; मारि--असामयिक मृत्युएँ; अरिष्टानि--आपदाएँ; सर्प--साँप; आधि--मानसिक रोग; व्याधय: --रोग; अशुभाः -- अशुभ; न सन्ति--नहीं होते हैं; मायिन:--ठग; तत्र--वहाँ; यत्र--जहाँ; आस्ते--रहती है; अभ्यर्चित:--ठीक से पूजित; मणि:--मणि |

    हे प्रभु, बह मणि प्रति दिन आठ भार सोना उत्पन्न करता था और जिस स्थान में वह रखारहता था और पूजा जाता था वह स्थान आपदाओं से तथा अकाल, असामयिक मृत्यु तथासर्पदंश, मानसिक तथा भौतिक रोगों और ठगों से मुक्त रहता था।

    स याचितो मणि क्वापि यदुराजाय शौरिणा ।

    नैवार्थकामुकः प्रादाद्याच्ञाभड्रमतर्कयन्‌ ॥

    १२॥

    सः--उसने, सत्राजित ने; याचितः--माँगे जाने पर; मणिमू--मणि को; क्व अपि--एक अवसर पर; यदु-राजाय--यदुराजउग्रसेन के लिए; शौरिणा--कृष्ण द्वारा; न--नहीं; एब--निस्सन्देह; अर्थ--सम्पत्ति का; कामुक: --लालची; प्रादात्‌--दिया;याच्ञा--अनुरोध का; भडुम्‌--इनकार; अतर्कयन्‌--विचार न करता हुआ।

    एक अवसर पर भगवान्‌ कृष्ण ने सत्राजित से अनुरोध किया कि वह इसे यदुराज उग्रसेनको दे दे किन्तु सत्राजित इतना लालची था कि उसने देने से इनकार कर दिया।

    उसने भगवान्‌ की याचना को ठुकराने से होने वाले अपराध की गम्भीरता पर विचार नहीं किया।

    तमेकदा मर्णि कण्ठे प्रतिमुच्य महाप्रभम्‌ ।

    प्रसेनो हयमारुहा मृगायां व्यचरद्वने ॥

    १३॥

    तम्‌ू--उस; एकदा--एक बार; मणिम्‌ू--मणि को; कण्ठे--गले में; प्रतिमुच्य--पहन कर; महा--अत्यन्त; प्रभमू--तेजवान;प्रसेन:--प्रसेन ( सत्राजित का भाई ); हयम्‌--घोड़े पर; आरुह्म --सवार होकर; मृगायाम्‌--शिकार के लिए; व्यचरत्‌--चलागया; बने--वन में |

    एक बार सत्राजित का भाई प्रसेन उस चमकीली मणि को गले में पहन कर घोड़े पर सवारहुआ और जंगल में शिकार खेलने चला गया।

    प्रसेनं सहयं हत्वा मणिमाच्छिद्य केशरी ।

    गिरिं विशन्जाम्बवता निहतो मणिमिच्छता ॥

    १४॥

    प्रसेनम्‌-- प्रसेन को; स--सहित; हयम्‌--उसके घोड़े; हत्वा--मार कर; मणिम्‌--मणि को; आच्छिद्य--पकड़कर; केशरी --सिंह; गिरिम्‌--पर्वत ( की गुफा ) में; विशन्‌--प्रवेश करते हुए; जाम्बवता--ऋशक्षराज जाम्बवान्‌ द्वारा; निहतः--मारा गया;मणिम्‌--मणि; इच्छता--चाहने वाला

    प्रसेन तथा उसके घोड़े को एक सिंह ने मार कर वह मणि ले लिया।

    किन्तु जब वह सिंहपर्वत की गुफा में घुसा तो उस मणि के इच्छुक जाम्बवान ने उसे मार डाला।

    सोपि चक्रे कुमारस्य मणि क्रीडनकं बिले ।

    अपश्यन्ध्रातरं भ्राता सत्राजित्पर्यतप्यत ॥

    १५॥

    सः--उसने, जाम्बवान्‌ ने; अपि-- भी; चक्रे --बनाया; कुमारस्य-- अपने पुत्र के लिए; मणिम्‌--मणि को; क्रीडनकम्‌--खिलौना; बिले--गुफा में; अपश्यन्‌ू--न देखते हुए; भ्रातरम्‌--अपने भाई को; भ्राता--भाई; सत्राजित्‌ू--सत्राजित;पर्यतप्यत--अत्यन्त दुखी हुआ।

    गुफा के भीतर जाम्बवान ने उस मणि को अपने पुत्र को खिलौने के तौर पर खेलने के लिएदे दिया।

    इस बीच सत्राजित अपने भाई को वापस आता न देख कर अत्यन्त व्याकुल हो गया।

    प्रायः कृष्णेन निहतो मणिग्रीवो बनं गत: ।

    भ्राता ममेति तच्छुत्वा कर्णे कर्णेडजपन्जना: ॥

    १६॥

    प्राय:--सम्भवतया; कृष्णेन--कृष्ण द्वारा; निहतः--मारा गया; मणि--मणि; ग्रीव:-- अपने गले में पहने; वनम्‌--वन में;गतः--गया हुआ; भ्राता-- भाई; मम--मेरा; इति--ऐसा कहकर; तत्‌--वह; श्रुत्वा--सुनकर; कर्ण कर्णे--एक कान से दूसरेकान में; अजपन्‌--कानाफूसी करते; जना:--लोग

    उसने कहा : 'सम्भवतया कृष्ण ने मेरे भाई को मार डाला है क्योंकि वह अपने गले में मणिपहन कर जंगल गया था।

    ' जब लोगों ने यह दोषारोपण सुना तो वे एक-दूसरे से कानाफूसीकरने लगे।

    भगवांस्तदुपश्रुत्य दुर्यशो लिप्तमात्मनि ।

    मा्टू प्रसेनयदवीमन्वपद्यत नागर: ॥

    १७॥

    भगवान्‌-- भगवान्‌, कृष्ण; तत्‌ू--वह; उपश्रुत्य--लोगों से सुनकर; दुर्यश:--अपयश; लिप्तमू--पोता हुआ; आत्मनि-- अपनेऊपर; माईम्‌--साफ करने के लिए; प्रसेन-पदवीम्‌--प्रसेन द्वारा अपनाये गये मार्ग का; अन्वपद्यत--पीछा किया; नागरै:--नगर के निवासियों के साथ।

    जब भगवान्‌ कृष्ण ने यह अफवाह सुनी तो उन्होंने अपने यश में लगे कलंक को मिटानाचाहा।

    अतः द्वारका के कुछ नागरिकों को अपने साथ लेकर वे प्रसेन के मार्ग को ढूँढ़ने के लिएरवाना हो गये।

    हतं प्रसेन॑ अश्व॑ च वीक्ष्य केशरिणा बने ।

    त॑ चाद्रिपृष्ठे निहतमृक्षेण दहशुर्जना: ॥

    १८॥

    हतम्‌--मारा गया; प्रसेनम्‌--प्रसेन को; अश्वम्‌--उसके घोड़े को; च--तथा; वीक्ष्य--देख कर; केशरिणा--सिंह द्वारा; वने--जंगल में; तम्‌--उस ( सिंह ) को; च-- भी; अद्वि--पर्वत के; पृष्ठे--बगल में; निहतम्‌--मारा गया; ऋक्षेण--ऋशक्ष( जाम्बवान ) द्वारा; ददशुः--उन्होंने देखा; जना: --लोगों ने।

    जंगल में उन्होंने प्रसेन तथा उसके घोड़े दोनों को ही सिंह द्वारा मारा गया पाया।

    इसके आगेउन्होंने पर्वत की बगल में सिंह को ऋशक्ष ( जाम्बवान ) द्वारा मारा गया पाया।

    ऋक्षराजबिलं भीममन्धेन तमसावृतम्‌ ।

    एको विवेश भगवानवस्थाप्य बहिः प्रजा: ॥

    १९॥

    ऋक्ष-राज--रीछों का राजा; बिलम्‌--गुफा में; भीमम्‌-- भयावह; अन्धेन तमसा--घने अंधकार से; आवृतम्‌--घिरा; एक: --अकेले; विवेश--घुसे; भगवान्‌-- भगवान्‌; अवस्थाप्य--रखकर; बहि:--बाहर; प्रजा:--नागरिकों को |

    भगवान्‌ ने ऋक्षराज की भयावनी घनान्धकारमय गुफा के बाहर नागरिकों को बैठा दियाऔर अकेले ही भीतर घुसे।

    तत्र दृष्ठा मणिप्रेष्ठं बालक्रीडनकं कृतम्‌ ।

    हर्तु कृतमतिस्तस्मिन्नवतस्थे$र्भकान्तिके ॥

    २०॥

    तत्र--वहाँ; दृष्टा--देखकर; मणि-प्रेष्ठम्‌-- अत्यन्त मूल्यवान मणि; बाल--बच्चे का; क्रीडनकम्‌--खिलौना; कृतम्‌--बनाकर; हर्तुमू--ले लेने के लिए; कृत-मति:--निश्चय करके; तस्मिन्‌--वहाँ; अवतस्थे--ठहर गये; अर्भक-अन्तिके--बालक केपास

    वहाँ भगवान्‌ कृष्ण ने देखा कि वह बहुमूल्य मणि बच्चे का खिलौना बना हुआ है।

    उसे लेनेका संकल्प करके वे उस बालक के निकट गये।

    तमपूर्व नर हृष्ठा धात्री चुक्रोश भीतवत्‌ ।

    तच्छुत्वाभ्यद्रवत्क्रुद्धो जाम्बवान्बलिनां वर: ॥

    २१॥

    तम्‌--उस; अपूर्वम्‌--पहले कभी नहीं ( देखा ); नरम्‌--व्यक्ति को; हृष्ठा--देखकर; धात्री-- धाई; चुक्रोश--चिल्ला उठी;भीत-वत्‌--डरी हुईं; तत्‌--उसे; श्रुत्वा--सुनकर; अभ्यद्रवत्‌--दौड़ा; क्रुद्ध:--नाराज; जाम्बवान्‌--जाम्बवान; बलिनामू--बलवानों में; वर: -- श्रेष्ठ |

    उस असाधारण व्यक्ति को अपने समक्ष खड़ा देखकर बालक की धाई भयवश चिल्लाउठी।

    उसकी चीख सुनकर बलवानों में सर्वाधिक बलवान जाम्बवान क्रुद्ध होकर भगवान्‌ कीओर दौड़ा।

    स वै भगवता तेन युयुधे स्वामिनात्मन: ।

    पुरुषं प्राकृतं मत्वा कुपितो नानुभाववित्‌ ॥

    २२॥

    सः--वह; वै--निस्सन्देह; भगवता-- भगवान्‌ के साथ; तेन--उन; युयुधे--लड़ने लगा; स्वामिना--स्वामी से; आत्मन: --अपने ही; पुरुषम्‌--पुरुष; प्राकृतम्‌--संसारी; मत्वा--मान कर; कुपितः--क्रुद्ध; न--नहीं; अनुभाव--उनके पद से; वित्‌ू--अवगत

    उनके असली पद से अनजान तथा उन्हें सामान्य व्यक्ति समझते हुए जाम्बवान अपने स्वामीभगवान्‌ से क्रुद्ध होकर लड़ने लगे।

    दन्द्ययुद्धं सुतुमुलमुभयोर्विजिगीषतो: ।

    आयुधाश्मद्गुमैदोर्भि: क्रव्यार्थ श्येनयोरिव ॥

    २३॥

    दन्द्द--जोड़ी; युद्धम्‌--युद्ध; सु-तुमुलम्‌-- अत्यन्त भयानक; उभयो:--दोनों के बीच; विजिगीषतो:--जीतने के लिएप्रयतललशील; आयुध--हथियारों; अश्म--पत्थरों; द्रुमैः--तथा वृक्षों से; दोर्भि:--अपनी बाहुओं से; क्रव्य--मांस; अर्थे--केहेतु; श्येनयो: --दो बाजों में; इब--मानो दोनों जीतने के लिए कृत

    संकल्प होकर घमासान द्वन्द्र युद्ध करने लगे।

    पहले विविधहथियारों से और तब पत्थरों, वृक्षों के तनों और अन्त में निःशस्त्र बाहुओं से एक-दूसरे से भिड़कर, वे मांस के टुकड़े के लिए झपट रहे दो बाजों की तरह लड़ रहे थे।

    आसीत्तदष्टाविम्शाहमितरेतरमुप्टिभि: ।

    वज़निष्पेषपरुषैरविश्रममहर्निशम्‌ ॥

    २४॥

    आसीतू-- था; तत्‌--वह; अष्टा-विंश--अट्टाईस; अहम्‌--दिन; इतर-इतर--एक-दूसरे से; मुपष्टिभि:--मुक्कों से; वज़--बिजलीके; निष्पेष-- प्रहारों की तरह; परुषै:--कठोर; अविश्रमम्‌--बिना रुके; अहः-निशम्‌--अहर्निश, दिन-रात |

    यह युद्ध बिना विश्राम के अट्टाईस दिनों तक चलता रहा।

    दोनों एक-दूसरे पर मुक्कों से प्रहारकर रहे थे, जो टूक-टूक करने वाले बिजली के प्रहारों जैसे गिरते थे।

    कृष्णमुष्टिविनिष्पात निष्पिष्टाज्ञेर बन्धनः ।

    क्षीणसत्त्व: स्विन्नगात्रस्तमाहातीव विस्मित: ॥

    २५॥

    कृष्ण-मुष्टि--कृष्ण के मुक्के के; विनिष्पात--प्रहारों से; निष्पिष्ट--चटनी होकर; अड़--शरीर के; उरू--विशाल; बन्धन:--पुद्ठे, पेशियाँ; क्षीण--निर्बल; सत्त्व:--शक्ति; स्विन्न--पसीना छोड़ता; गात्र:--अंग; तम्‌--उससे; आह--बोला; अतीव--अत्यन्त; विस्मित:--चकित |

    भगवान्‌ कृष्ण के मुक्कों से जाम्बवान की उभरी मांस-पेशियाँ कुचलती गईं, उसका बलघटने लगा और अंग पसीने से तर हो गये, तो वह अत्यन्त चकित होकर भगवान्‌ से बोला।

    जाने त्वां सऋवभूतानां प्राण ओज: सहो बलम्‌ ।

    विष्णुं पुराणपुरुषं प्रभविष्णुमधी श्वररम्‌ ॥

    २६॥

    जाने--जानता हूँ; त्वाम्‌ू-तुमको ( कि हो ); सर्व--समस्त; भूतानामू--जीवों का; प्राण: --प्राण; ओज:--ऐन्द्रिय शक्ति;सहः--मानसिक बल; बलमू्‌--शरीरिक शक्ति; विष्णुम्‌-- भगवान्‌ विष्णु को; पुराण--आदि; पुरुषम्‌--पुरुष; प्रभविष्णुम्‌--सर्वशक्तिमान; अधी श्वरम्‌--परम नियन्ता |

    जाम्बवान ने कहा : मैं जानता हूँ कि आप समस्त जीवों के प्राण हैं और ऐन्द्रिय,मानसिक तथा शारीरिक बल हैं।

    आप आदि-पुरुष, परम पुरुष, सर्व शक्तिमान नियन्ता भगवान्‌विष्णु हैं।

    त्वं हि विश्वसृजाम्स्त्रष्टा सृष्टानामपि यच्च सत्‌ ।

    कालः 'कलयतामीशः पर आत्मा तथात्मनाम्‌ ॥

    २७॥

    त्वमू--तुम; हि--निस्सन्देह; विश्व--त्रह्माण्ड के; सृजामू--सृजनकर्ताओं के ; स्त्रष्टा--सृजनकर्ता ; सृष्टानामू--उत्पन्न जीवों के;अपि--भी; यत्‌--जो; च--तथा; सत्‌--निहित वस्तु; काल:--दमनकारी; कलयताम्‌--दमनकर्ताओं के; ईशः--पर मे श्वर;परः आत्मा--परम आत्मा; तथा--भी; आत्मनाम्‌--समस्त आत्माओं के |

    आप ब्रह्माण्ड के समस्त स्त्रष्टाओं के परम स्त्रष्टा तथा समस्त सृजित वस्तुओं में निहित वस्तु(सत्‌ ) हैं।

    आप समस्त दमनकरियों के दमनकर्ता, परमेश्वर तथा समस्त आत्माओं के परमात्माहैं।

    यस्येषदुत्कलितरोषकटाक्षमोक्षे-वर्ममादिशक्क्षुभितनक्रतिमिड्नलोउब्धि: ।

    सेतु: कृत: स्वयवश उज्वलिता च लट्ढारक्ष:शिरांसि भुवि पेतुरिषुक्षतानि ॥

    २८॥

    यस्य--जिसके; ईषत्‌--किंचित; उत्कलित-- प्रकट; रोष--क्रोध से; कटा-अक्ष--चितवन से; मोक्षैः--मुक्त होने से; वर्त्म--मार्ग; आदिशत्‌--दिखलाया; क्षुभित--श्षुब्ध; नक्र--( जिसमें ) घड़ियाल; तिमिड्ल:--बड़ी मछली; अब्धि: --समुद्र; सेतु:ः--पुल; कृत:--बनाया; स्व--अपने; यश:--यश; उज्वलिता--जला दिया; च--तथा; लड्जा--लंका नगरी; रक्ष:--( रावण )असुर के; शिरांसि--सिर; भुवि--पृथ्वी पर; पेतु:--गिरे; इषु--जिसके बाणों से; क्षतानि--कट कर।

    आप वही हैं जिनके क्रोध को तनिक प्रकट करने वाली चितवन ने अथाह जल के भीतर केघड़ियालों तथा तिमिंगिल मछलियों को क्षुब्ध बना दिया था, जिससे सागर मार्ग देने के लिएबाध्य हुआ था।

    आप वही हैं जिन्होंने अपना यश स्थापित करने के लिए एक महान्‌ पुल बनाया,लंका नगरी को जला दिया और जिनके बाणों ने रावण के सिरों को छिन्न कर दिया, जो पृथ्वीपर जा गिरे।

    इति विज्ञातविइज्ञानमृक्षराजानमच्युत: ।

    व्याजहार महाराज भगवान्देवकीसुत: ॥

    २९॥

    अभिमृश्यारविन्दाक्ष: पाणिना शंकरेण तम्‌ ।

    कृपया परया भक्त मेघगम्भीरया गिरा ॥

    ३०॥

    इति--इस प्रकार; विज्ञात-विज्ञानम्‌--जिसने सत्य को समझ लिया था; ऋक्ष--रीछों के; राजानम्‌--राजा से; अच्युत:--कृष्ण;व्याजहार--बोले; महा-राज--हे राजा ( परीक्षित ); भगवान्‌-- भगवान्‌; देवकी-सुर:--देवकी-पुत्र; अभिमृश्य--स्पर्श करके;अरविन्द-अक्ष:--कमल-नेत्र; पाणिना--अपने हाथ से; शम्‌--मंगल; करेण--प्रदान करने वाला; तम्‌--उसको; कृपया--कृपा से; परया--महान्‌; भक्तम्‌-भक्त को; मेघ--बादल के समान; गम्भीरया--गम्भीर; गिरा--वाणी में |

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : हे राजनू, तब भगवान्‌ कृष्ण ने ऋक्षराज को सम्बोधितकिया जो सच्चाई जान गया था।

    देवकी-पुत्र कमल-नेत्र भगवान्‌ ने समस्त, आशीर्वादों केदाता, अपने हाथ से जाम्बवान का स्पर्श किया और अपने भक्त से अत्यन्त कृपापूर्वक मेघ कीगर्जना जैसी गम्भीर वाणी में बोले।

    मणिहेतोरिह प्राप्ता वयमृक्षपते बिलम्‌ ।

    मिथ्याभिशापं प्रमृजन्नात्मनो मणिनामुना ॥

    ३१॥

    मणि--मणि; हेतो: --के कारण; इह--यहाँ; प्राप्ताः--आये हैं; वयम्‌--हम; ऋशक्ष-पते--हे रीछों के स्वामी; बिलमू--गुफातक; मिथ्या--झूठा; अभिशापम्‌--दोषारोपण; प्रमूजन्‌--दूर करने के लिए; आत्मन:--अपने विरुद्ध; मणिना--मणि केसाथ; अमुना--इस

    भगवान्‌ कृष्ण ने कहा : हे ऋक्षराज, हम इसी मणि के लिए आपकी गुफा में आये हैं।

    मैंइस मणि का उपयोग अपने विरुद्ध लगाये गये आरोपों को झूठा सिद्ध करने के लिए करना चाहता हूँ।

    इत्युक्त: स्वां दुहितरं कन्यां जाम्बवतीं मुदा ।

    अर्हणार्थम्स मणिना कृष्णायोपजहार ह ॥

    ३२॥

    इति--इस प्रकार; उक्त:--कहा गया; स्वाम्‌-- अपनी; दुहितरम्‌--पुत्री; कन्याम्‌ू--कुमारी; जाम्बवतीम्‌--जाम्बवती को;मुदा--खुशी खुशी; अर्हण-अर्थम्‌--सादर भेंट के रूप में; सः--उसने; मणिना--मणि समेत; कृष्णाय--कृष्ण को; उपजहारह-भेंट कर दिया।

    इस प्रकार कहे जाने पर जाम्बवान ने प्रसन्नतापूर्वक अपनी कुमारी पुत्री जाम्बवती के साथसाथ मणि को भेंट अर्पित करते हुए भगवान्‌ कृष्ण का सम्मान किया।

    अद्दष्टा निर्गमं शौरे: प्रविष्टस्थ बिल जना: ।

    प्रतीक्ष्य द्वादशाहानि दु:खिता: स्वपुरं ययु: ॥

    ३३॥

    अह्ृध्वा--न देख कर; निर्गमम्‌ू--बाहर आना; शौरे: --कृष्ण का; प्रविष्टस्थ-- भीतर गये हुए; बिलम्‌--गुफा में; जन:ः--लोग;प्रतीक्ष्य--प्रतीक्षा करने के बाद; द्वादश--बारह; अहानि--दिन; दुःखिता: --दुखी; स्व--अपने; पुरमू--नगर को; ययु:--चलेगये

    भगवान्‌ शौरि के गुफा में प्रविष्ट होने के बाद उनके साथ आये द्वारका के लोग बारह दिनोंतक उनकी प्रतीक्षा करते रहे किन्तु वे बाहर नहीं आये।

    अन्त में वे सब निराश होकर अत्यन्तदुखी मन से अपने नगर लौट गये थे।

    निशम्य देवकी देवी रक्मिण्यानकदुन्दुभि: ।

    सुहृदो ज्ञातयोइशोचन्बिलात्कृष्णमनिर्गतम्‌ ॥

    ३४॥

    निशम्य--सुनकर; देवकी--देवकी; देवी रुक्मिणी--देवी रुक्मिणी; आनकदुन्दुभि:--वसुदेव; सुहृदः --मित्रगण; ज्ञातय:ः --सम्बन्धी लोग; अशोचन्‌--पछतावा करने लगे; बिलात्‌-गुफा से; कृष्णम्‌--कृष्ण को; अनिर्गतमू--बाहर न आते हुए।

    जब देवकी, रुक्मिणी देवी, वसुदेव तथा भगवान्‌ के अन्य सम्बन्धियों ने सुना कि वे गुफासे बाहर नहीं निकले तो वे सभी दुःखी होने लगे।

    सत्राजितं शपन्तस्ते दुःखिता द्वारमौकसः ।

    उपतस्थुश्रन्द्रभागां दुर्गा कृष्णोपलब्धये ॥

    ३५॥

    सत्राजितम्‌ू--सत्राजित को; शपन्तः--कोसते हुए; ते--वे; दुःखिता: --दुखित; द्वारका-ओकसः:-द्वारकावासियों ने;उपतस्थु:--पूजा की; चन्द्रभागाम्‌-- चन्द्रभागा; दुर्गामू--दुर्गा की; कृष्ण-उपलब्धये--कृष्ण को प्राप्त करने के लिए।

    सत्राजित को कोसते हुए व्याकुल द्वारकावासी चन्द्रभागा नामक दुर्गा अर्चाविग्रह के समीपगये और कृष्ण की वापसी के लिए उनसे प्रार्थना करने लगे।

    तेषां तु देव्युपस्थानात्प्रत्यादिष्टाशिषा स च ।

    प्रादुर्बभूव सिद्धार्थ: सदारो हर्षयन्हरि: ॥

    ३६॥

    तेषाम्‌-- उनसे; तु--लेकिन; देवी --देवी की; उपस्थानात्‌--पूजा के बाद; प्रत्यादिष्ट--बदले में प्रदान किया; आशिषा:--वर;सः--वह; च--तथा; प्रादुर्बभूब--प्रकट हुआ; सिद्ध--प्राप्त करके; अर्थ: --अपना लक्ष्य; स-दार:--अपनी पत्नी के सहित;हर्षयन्‌--हर्षित करते हुए; हरिः-- भगवान्‌ कृष्ण |

    जब नगरनिवासी देवी की पूजा कर चुके तो वे उनसे बोलीं कि तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार कीजाती है।

    तभी अपने लक्ष्य की पूर्ति करके भगवान्‌ कृष्ण अपनी नई पत्नी के साथ उनके समक्षप्रकट हुए और उन्हें हर्ष से सरबोर कर दिया।

    उपलभ्य हषीकेशं मृतं पुनरिवागतम्‌ ।

    सह पत्या मणिग्रीवं सर्वे जातमहोत्सवा: ॥

    ३७॥

    उपलभ्य--पहचान कर; हषीकेशम्‌--इन्द्रियों के स्वामी को; मृतम्‌--मृत व्यक्ति; पुन: --फिर; इब--मानो; आगतम्‌--आयाहुआ; सह--साथ; पत्या--पत्नी के; मणि--मणि; ग्रीवम्‌--गर्दन में; सर्वे--सारे; जात--उत्पन्न किया; महा--अत्यधिक;उत्सवा:--हँसी-खुशी

    भगवान्‌ हषीकेश को उनकी नवीन पत्नी के साथ तथा उनके गले में स्थमंतक मणि पड़ीदेखकर सारे लोगों में अत्यधिक प्रसन्नता छा गई, मानों कृष्ण मृत्यु से वापस लौटे हों।

    सत्राजितं समाहूय सभायां राजसत्निधौ ।

    प्राप्ति चाख्याय भगवान्मणिं तस्मै न्‍्यवेदयत्‌ ॥

    ३८ ॥

    सत्राजितमू--सत्राजित को; समाहूय--बुलवाकर; सभायाम्‌--राजसभा में; राज--राज ( उग्रसेन ) की; सन्निधौ--उपस्थिति में;प्राप्तिमू-- प्राप्ति: च--तथा; आख्याय--घोषित करके; भगवानू-- भगवान्‌ ने; मणिम्‌--मणि; तस्मै--उसको; न्यवेदयत्‌-- भेंटकर दियाभगवान्‌ कृष्ण ने सत्राजित को राजसभा में बुलवाया।

    वहाँ राजा उग्रसेन की उपस्थिति में कृष्ण ने मणि पाये जाने की घोषणा की और तब उसे औपचारिक रीति से सत्राजित को भेंट करदिया।

    स चातिक्रीडितो रत्न॑ गृहीत्वावाइमुखस्ततः ।

    अनुतप्यमानो भवनमगमत्स्वेन पाप्मना ॥

    ३९॥

    सः--वह, सत्राजित; च--तथा; अति--अत्यधिक; ब्रीडित:--लज्जित; रत्मम्‌ू--मणि को; गृहीत्वा--ले करके; अवाक्‌--नीचेकी ओर; मुख:--अपना मुँह; तत:ः--वहाँ से; अनुतप्यमान:--पश्चाताप अनुभव करते हुए; भवनम्‌--घर; अगमत्‌--गया;स्वेन--अपने; पाप्मना--पापपूर्ण आचरण के साथ

    अत्यधिक लज्जा से मुँह लटकाये सत्राजित ने वह मणि ले लिया और घर लौट गया किन्तुसारे समय वह अपने पापपूर्ण आचरण पर पश्चाताप का अनुभव करता रहा।

    सोबनुध्यायंस्तदेवाघं बलवद्ठिग्रहाकुल: ।

    कथं मृजाम्यात्मरज: प्रसीदेद्वाच्युत: कथम्‌ ॥

    ४०॥

    किम्कृत्वा साधु मह्ां स्यान्न शपेद्वा जनो यथा ।

    अदीर्घदर्शन क्षुद्रं मूढ॑ द्रविणलोलुपम्‌ ॥

    ४१॥

    दास्ये दुहितरं तस्मै स्त्रीर॒त्नं रत्तमेव च ।

    उपायोयं समीचीनस्तस्य शान्तिर्न चान्यथा ॥

    ४२॥

    सः--वह; अनुध्यायन्‌ू--सोच-विचार करता; तत्‌ू--वह; एव--निस्सन्देह; अधम्‌-- अपराध; बल-वत्‌--बलवानों से; विग्रह--झगड़े के बारे में; आकुल:--चिन्तित; कथम्‌--कैसे; मृजामि-- धो सकूँगा; आत्म--अपने; रज:--कल्मष; प्रसीदेत्‌--प्रसन्नहों; वा--अथवा; अच्युत:--कृष्ण; कथम्‌--कैसे; किम्‌ू--क्या; कृत्वा--करके; साधु-- अच्छा; महाम्‌--मेंरे लिए; स्थात्‌--हो सकता है; न शपेत्‌--शाप न दें; वा--अथवा; जन:ः--लोग; यथा--जिस तरह; अदीर्घ--कम अवधि का; दर्शनम्‌ू--जिनका दर्शन; क्षुद्रम्‌-- क्षुद्र; मूढम्‌--मूढ़; द्रविण--सम्पत्ति के; लोलुपम्‌--लोभी; दास्ये--मैं दूँगा; दुहितरम्‌--अपनी पुत्री;तस्मै--उनको; स्त्री--स्त्रियों का; रत्मम्‌-- भूषण; रत्तमू--रत्त; एव च--तथा; उपाय:--साधन; अयम्‌--यह; समीचीन: --प्रभावशाली; तस्य--उसका; शान्ति:--शमन; न--नहीं; च--तथा; अन्यथा--नहीं तो |

    अपने घोर अपराध के बारे में सोच-विचार करते और भगवान्‌ के शक्तिशाली भक्तों सेसंघर्ष की सम्भावना के बारे में चिन्तित राजा सत्राजित ने सोचा, 'मैं किस तरह अपने कल्मषको स्वयं धो सकता हूँ और किस तरह भगवान्‌ अच्युत मुझ पर प्रसन्न हों? मैं अपने सौभाग्य कीपुनप्राप्ति के लिए क्या कर सकता हूँ? दूरद्ृष्टि न होने, कंजूस, मूर्ख तथा लालची होने से मैंजनता से शापित होने से कैसे बचूँ? मैं अपनी पुत्री, जो कि सभी स्त्रियों में रत्न है, स्यमन्तकमणि के साथ ही भगवान्‌ को भेंट कर दूँगा।

    निस्सन्देह उन्हें शान्‍्त करने का यही एकमात्र उचित उपाय है।

    'एवं व्यवसितो बुद्धद्या सत्राजित्स्वसुतां शुभाम्‌ ।

    मणि स्वयमुद्यम्य कृष्णायोपजहार हु ॥

    ४३॥

    एवम्‌--इस प्रकार; व्यवसित:--हढ़ संकल्प करके; बुद्धय्या--बुद्धि के उपयोग से; सत्राजित्‌--सत्राजित; स्व-- अपनी;सुताम्‌--पुत्री; शुभामू--गौर वर्ण की; मणिमू--मणि; च--तथा; स्वयम्‌--स्वयं; उद्यम्य--प्रयास करके; कृष्णाय--कृष्णको; उपजहार ह-- भेंट कर दिया |

    इस तरह बुद्धिमानी के साथ मन को हृढ़ करके राजा सत्राजित ने स्वयं अपनी गौर-वर्णवाली पुत्री के साथ साथ स्यमन्तक मणि भी भगवान्‌ कृष्ण को भेंट करने की व्यवस्था की।

    तां सत्यभामां भगवानुपयेमे यथाविधि ।

    बहुभिर्याचितां शीलरूपौदार्यगुणान्विताम्‌ ॥

    ४४॥

    तामू--उस; सत्यभामाम्‌--सत्यभामा से; भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; उपयेमे--विवाह कर लिया; यथा-विधि--उचित अनुष्ठान द्वारा;बहुभि:--अनेक लोगों द्वारा; याचिताम्‌--माँगी गई; शील--उत्तम चरित्र वाली; रूप--सौन्दर्य; औदार्य--तथा उदारता; गुण--गुणों से; अन्विताम्‌--युक्त, सम्पन्न |

    भगवान्‌ ने उचित धार्मिक रीति से सत्यभामा के साथ विवाह कर लिया।

    उत्तम आचरण,सौन्दर्य, उदारता तथा अन्य सदगुणों से सम्पन्न होने के कारण अनेक लोगों ने उसे लेना चाहाथा।

    भगवानाह न मणि प्रतीच्छामो बय॑ नृप ।

    तवास्तां देवभक्तस्यथ वयं च फलभागिन: ॥

    ४५॥

    भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; आह--कहा; न--नहीं; मणिम्‌--मणि; प्रतीच्छाम:--वापस चाहते हैं; वयम्‌--हम; नूप--हे राजन;तब--तुम्हारा; आस्ताम्‌ू--रहने दो; देव--देवता ( सूर्यदेव ) के; भक्तस्य-- भक्त का; वयम्‌--हम; च-- भी; फल--इसके फलके; भागिन:-- भोक्ता ।

    भगवान्‌ ने सत्राजित से कहा : हे राजन, हमें इस मणि को वापस लेने की इच्छा नहीं है।

    तुमसूर्यदेव के भक्त हो अतः इसे अपने ही पास रखो।

    इस प्रकार हम भी इससे लाभ उठा सकेंगे।

    TO

    अध्याय सत्तावन: सत्राजित की हत्या, रत्न लौटाया गया

    10.57श्रीबादरायणिरुवाचविज्ञातार्थोपि गोविन्दो दग्धानाकर्ण्य पाण्डवान्‌ ।

    कुन्तीं च कुल्यकरणे सहरामो ययौ कुरून्‌ ॥

    १॥

    श्री-बादरायणि: उवाच--बादरायण के पुत्र श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; विज्ञात--अवगत; अर्थ:--तथ्यों से; अपि--यद्यपि;गोविन्द: -- भगवान्‌ कृष्ण; दग्धान्‌ू--जल कर भस्म हुए; आकर्णर्य--सुनकर; पाण्डवान्‌--पाण्डु-पुत्रों को; कुन्तीमू--उनकीमाता कुन्ती को; च--तथा; कुल्य--कुलरीति; करणे--पूरा करने के लिए; सह-राम:--बलराम के साथ; ययौ--गये;कुरूनू--कुरुओं के राज्य में |

    श्री बादरायणि ने कहा : यद्यपि जो कुछ घटित हुआ था भगवान्‌ गोविन्द उससे पूर्णतयाअवगत थे, फिर भी जब उन्होंने यह समाचार सुना कि पाण्डव तथा महारानी कुन्ती जल करमृत्यु को प्राप्त हुए हैं, तो वे कुलरीति पूरा करने के उद्देश्य से बलराम के साथ कुरुओं के राज्यमें गये।

    भीष्म कृपं स विदुरं गान्धारीं द्रोणमेव च ।

    तुल्यदुःखौ च सड्भम्य हा कष्टमिति होचतु: ॥

    २॥

    भीष्मम्‌-- भीष्म; कृपमू-- आचार्य कृप; स-विदुरम्‌--तथा विदुर से भी; गान्धारीम्‌-- धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी से; द्रोणम्‌--आचार्य द्रोण से; एव च--तथा; तुल्य--समान रूप से; दुःखौ--शोकपूर्ण; च--तथा; सड्भम्य--मिल कर; हा--हाय;कष्टमू--कितना कष्टकारक; इति--इस प्रकार; ह ऊचतु:--वे बोले।

    दोनों ही विभु भीष्म, कृप, विदुर, गान्धारी तथा द्रोण से मिले।

    उन्हीं के समान दुख प्रकटकरते हुए वे बिलख उठे, 'हाय! यह कितना कष्ट प्रद है! 'लब्ध्वैतदन्तरं राजन्शतधन्वानमूचतु: ।

    अक्रूरकृतवर्माणौ मनि: कस्मान्न गृह्मते ॥

    ३॥

    लब्ध्वा--पाकर; एतत्‌--इस; अन्तरम्‌--अवसर को; राजनू्‌--हे राजा ( परीक्षित ); शतधन्वानम्‌--शतधन्वा से; ऊचतु: --कहा; अक्ूर-कृतवर्माणौ--अक्रूर तथा कृतवर्मा ने; मनि:--मणि; कस्मात्‌--क्यों; न गृह्मतवे--न ले लिया जाय

    इस अवसर का लाभ उठा कर हे राजन, अक्रूर तथा कृतवर्मा शतधन्वा के पास गये औरउससे कहा, 'क्यों न स्यथमंतक मणि को हथिया लिया जाय ?

    'योउस्मभ्यं सम्प्रतिश्रुत्य कन्यारत्न॑ विगह्मय नः ।

    कृष्णायादान्न सत्राजित्कस्मादभ्रातरमन्वियात्‌ ॥

    ४॥

    यः--जिसने; अस्मभ्यम्‌ू--हममें से प्रत्येक को; सम्प्रतिश्रुत्य--वादा करके; कनन्‍्या--उसकी पुत्री; रत्मम्‌--रत्न जैसी; विगर्ई--अवमानना करके; न:--हमको; कृष्णाय--कृष्ण को; अदात्‌--दिया; न--नहीं; सत्राजित्‌--सत्राजित ने; कस्मात्‌-क्यों;भ्रातरमू--उसके भाई को; अन्वियात्‌ू--अनुगमन करना चाहिए।

    'सत्राजित ने वादा करके हमारी तिरस्कारपूर्वक अवहेलना करते हुए अपनी रल जैसी पुत्रीहमें न देकर कृष्ण को दे दी।

    तो फिर सत्राजित अपने भाई के ही मार्ग का अनुगमन क्‍यों नकरे कैएवं भिन्नमतिस्ताभ्यां सत्राजितमसत्तम: ।

    शयानमवधील्लोभात्स पाप: क्षीण जीवित: ॥

    ५॥

    एवम्‌--इस प्रकार; भिन्न-- प्रभावित; मतिः --मन वाला; ताभ्याम्‌--उन दोनों के द्वारा; सत्राजितम्‌--सत्राजित को; असतू-तमः--अत्यन्त दुष्ट; शयानम्‌--सोते हुए; अवधीत्‌--मार डाला; लोभात्‌--लालच में आकर; सः--उसने; पाप: --पापी;क्षीण--घटी हुई; जीवित:--आयु वाला

    इस तरह उसका मन उनकी सलाह से प्रभावित हो गया और दुष्ट शतधन्वा ने लोभ में आकरसत्राजित को सोते हुए मार डाला।

    इस तरह पापी शतधन्वा ने अपनी आयु क्षीण कर ली।

    स्त्रीणां विक्रोशमानानां क्रन्दन्तीनामनाथवत्‌ ।

    हत्वा पशून्सौनिकवन्मणिमादाय जग्मिवान्‌ ॥

    ६॥

    स्त्रीणाम्‌--स्त्रियों के; विक्रोशमानानामू--चीखती; क्रन्दन्तीनामू--तथा चिल्‍लाती; अनाथ--जिनके कोई रक्षक न हो, ऐसेव्यक्ति; बत्‌--सहश; हत्वा--मार कर; पशून्‌ू--पशुओं को; सौनिक--कसाई; वत्‌--सहृश; मणिम्‌--मणि को; आदाय--लेकर; जग्मिवान्‌--चला गया।

    जब सत्राजित के महल की स्त्रियाँ चीख रही थीं और असहाय की तरह रो रही थीं तबशतथन्वा ने वह मणि ले लिया और वहाँ से चलता बना जैसे कुछ पशुओं का वध करने के बादकोई कसाई करता है।

    सत्यभामा च पितरं हतं वीक्ष्य शुचार्पिता ।

    व्यलपत्तात तातेति हा हतास्मीति मुहाती ॥

    ७॥

    सत्यभामा--रानी सत्यभामा; च--तथा; पितरम्‌--अपने पिता को; हतम्‌--मारा हुआ; वीक्ष्य--देख कर; शुचा-अर्पिता --शोकमग्न; व्यलपत्‌--विलाप करती; तत तात--हे पिता, हे पिता; इति--इस प्रकार; हा--हाय; हता--मारी गई; अस्मि--हूँ;इति--इस प्रकार; मुहाती--मूर्च्छित हुई ॥

    जब सत्यभामा ने अपने मृत पिता को देखा तो वे शोक में डूब गईं।

    'मेरे पिता, मेरे पिता!हाय, मैं मारी गयी ' विलाप करती हुई वे मूर्छित होकर गिर गई।

    तैलद्रोण्यां मृतं प्रास्य जगाम गजसाह्ययम्‌ ।

    कृष्णाय विदितार्थाय तप्ताचख्यौ पितुर्वधम्‌ ॥

    ८ ॥

    तैल--तेल के; द्रोण्यामू--विशाल पात्र में; मृतम्‌ू--शव को; प्रास्य--रख कर; जगाम--गई; गज-साहयम्‌--कुरु-राजधानीहस्तिनापुर; कृष्णाय--कृष्ण को; विदित-अर्थाय--जो पहले से ही अवगत थे; तप्ता--शोकयुक्त; आचख्यौ--उसने कहसुनाया; पितुः--अपने पिता का; वधम्‌--वध

    रानी सत्यभामा अपने पिता के शव को तेल के एक विशाल कुंड में रख कर हस्तिनापुर गईंजहाँ उन्होंने अपने पिता की हत्या के बारे में बहुत ही शोकातुर होकर कृष्ण को बतलाया जोपहले से इस स्थिति को जान रहे थे।

    तदाकरणण्यें श्वरौ राजन्ननुसृत्य नूलोकताम्‌ ।

    अहो नः परम कष्टमित्यस्त्राक्षो विलेपतु: ॥

    ९॥

    तत्‌--उसे; आकर्ण्य --सुनकर; ईश्वरौ--दोनों प्रभु; राजन्‌ू--हे राजन्‌ ( परीक्षित ); अनुसृत्य-- अनुकरण करते हुए; नू-लोकताम्‌--मानव समाज की रीति; अहो--हाय; न:ः--हमारे लिए; परमम्‌--महानतम; कष्टम्‌--दुख; इति--इस प्रकार;अस्त्र--आँसू-भरे; अक्षौ--दोनों नेत्रों में; विलेपतु:--दोनों ने विलाप किया।

    हे राजन, जब कृष्ण तथा बलराम ने यह समाचार सुना तो वे आह भर उठे, 'हाय! यह तोहमारे लिए सबसे बड़ी दुर्घटना ( विपत्ति ) है!' इस तरह मानव समाज की रीतियों का अनुकरणकरते हुए वे शोक करने लगे और उनकी आँखें आँसुओं से डबडबा आईं।

    आगत्य भगवांस्तस्मात्सभार्य: साग्रज: पुरम्‌ ।

    शतधन्वानमारेभे हन्तुं हर्तु मणि तत: ॥

    १०॥

    आगत्य--लौट कर; भगवान्‌-- भगवान्‌; तस्मात्‌--उस स्थान से; स-भार्य:--अपनी पत्नी सहित; स-अग्रज:--तथा अपने बड़ेभाई के साथ; पुरम्‌--अपनी राजधानी में; शतधन्वानम्‌--शतधन्वा को; आरेभे--तैयारी की; हन्तुम्‌ू--मारने के लिए; हर्तुम्‌--छीन लेने के लिए; मणिम्‌ू--मणि को; ततः--उससे

    भगवान्‌ अपनी पत्नी तथा बड़े भाई के साथ अपनी राजधानी लौट आये।

    द्वारका आकरउन्होंने शतधन्वा को मारने और उससे मणि छीन लेने की तैयारी की।

    सोपि कृतोद्यम॑ ज्ञात्वा भीतः प्राणपरीप्सया ।

    साहाय्ये कृतवर्माणमयाचत स चाब्रवीत्‌ ॥

    ११॥

    सः--वह ( शतधन्वा ); अपि-- भी; कृत-उद्यमम्‌--अपने को तैयार किये हुए; ज्ञात्वा--जान कर; भीतः--डरा हुआ; प्राण--अपना प्राण; परीप्सया--बचाने की इच्छा से; साहाय्ये--सहायता के लिए; कृतवर्माणम्‌--कृतवर्मा से; अयाचत--याचना की;सः--उसने; च--तथा; अब्नवीत्‌--कहा |

    यह जान कर कि भगवान्‌ कृष्ण उसे मार डालने की तैयारी कर रहे हैं, शतधन्वा भयभीत होउठा।

    वह अपने प्राण बचाने के लिए कृतवर्मा के पास गया और उससे सहायता माँगी किन्तुकृतवर्मा ने इस प्रकार उत्तर दिया।

    नाहमीस्वरयो: कुर्या हेलनं रामकृष्णयो: ।

    को नु क्षेमाय कल्पेत तयोर्वृजिनमाचरन्‌ ॥

    १२॥

    कंसः सहानुगोपीतो यदूदवेषात्त्याजित: अ्रिया ।

    जरासन्धः सप्तदशसंयुगाद्विरथो गतः ॥

    १३॥

    न--नहीं; अहम्‌--ैं; ईश्वरयो: --दोनों प्रभुओं के प्रति; कुर्यामू--कर सकता हूँ; हेलनम्‌--अपराध; राम-कृष्णयो: --बलरामतथा कृष्ण के प्रति; कः--कौन; नु--निस्सन्देह; क्षेमाय--सौभाग्य; कल्पेत-- प्राप्त कर सकता है; तयो: --उन दोनों को;वृजिनम्‌--कष्ट; आचरन्‌--पहुँचाते हुए; कंसः--कंस; सह--सहित; अनुग: -- उसके अनुयायी; अपीत:--मृत; यत्‌--जिसकेविरुद्ध; द्वेषात्‌-द्वेष से; त्याजित:--त्यक्त; अिया--अपने ऐश्वर्य से; जरासन्ध:--जरासन्ध; सप्तद्श--सत्रह; संयुगात्‌--युद्धोंसे; विरथः--रथविहीन; गत:--हो गया

    कृतवर्मा ने कहा : मैं भगवान्‌ कृष्ण तथा बलराम के विरुद्ध अपराध करने का दुस्साहसनहीं कर सकता।

    भला उन्हें कष्ट देने वाला अपने सौभाग्य की आशा कैसे कर सकता है? कंसतथा उसके सारे अनुयायियों ने उनसे शत्रुतावश अपनी सम्पत्ति तथा अपने प्राण गँवाये और उनसेसत्रह बार युद्ध करने के बाद जरासन्ध के पास एक भी रथ नहीं बचा।

    प्रत्याख्यात: स चाक्रूरं पार्णिगग्राहमयाचत ।

    सोप्याह को विरुध्येत विद्वानी श्वरयोर्बलम्‌ ॥

    १४॥

    प्रत्याख्यात:--मना किया गया; सः--वह, शतधन्वा; च--तथा; अक्रूरम्‌--अक्रूर से; पार्णिण-ग्राहमू--सहायता के लिए;अयाचत--विनती की; सः--वह, अक्रूर; अपि-- भी; आह--बोला; कः--कौन; विरुध्येत--उनका विरोध कर सकता है;विद्वान्‌ू--जानते हुए; ईश्वरयो: --दोनों विभुओं के; बलम्‌--बल को |

    अपनी याचना अस्वीकृत हो जाने पर शतधन्वा अक्रूर के पास गया और अपनी रक्षा के लिएउनसे अनुनय-विनय की।

    किन्तु अक्रूर ने भी उसी तरह उससे कहा : भला ऐसा कौन है, जो उन दोनों के बल को जानते हुए उन दोनों विभुओं का विरोध करेगा ?

    य इदं लीलया विश्व सृजत्यवति हन्ति च ।

    चेष्टां विश्वस्ृजो यस्य न विदुर्मोहिताजया ॥

    १५॥

    यः--जो; इदम्‌ू--इस; लीलया--खेल-खेल में ; विश्वम्‌--ब्रह्माण्ड को; सृजति--उत्पन्न करता है; अवति--पालन करता है;हन्ति--नष्ट करता है; च--तथा; चेष्टाम्‌ू--प्रयोजन; विश्व-सृज: --ब्रह्माण्ड के ( गौण ) स्त्रष्टा ( ब्रह्म आदि ); यस्य--जिसका;न विदुः--नहीं जानते; मोहिता:--मोहग्रस्त; अजया-- अपनी मोहनी शक्ति द्वारा।

    यह तो परमेश्वर ही हैं, जो अपनी लीला के रूप में इस ब्रह्माण्ड का सृजन, पालन तथा संहारकरते हैं।

    यहाँ तक कि विश्व स्त्रष्टागण भी उनके प्रयोजन को नहीं समझ पाते क्योंकि वे उनकीमाया द्वारा मोहग्रस्त रहते हैं।

    यः सप्तहायनः शैलमुत्पाट्यैकेन पाणिना ।

    दधार लीलया बाल उच्छिलीन्ध्रमिवार्भक: ॥

    १६॥

    यः--जो; सप्त--सात; हायन: -- वर्षीय; शैलम्‌--पर्वत को; उत्पाट्य--उखाड़ कर; एकेन--केवल एक; पाणिना--हाथ से;दधार--धारण किया; लीलया--खेल-खेल में; बाल:--निरा बालक ; उच्छिलीन्ध्रम्‌ू--कुकुरमुत्ता; इब--सहृश; अर्भक:--एकबालक।

    सात वर्षीय एक बालक के रूप में कृष्ण ने समूचा पर्वत उखाड़ लिया और आसानी से इसेऊपर उठाये रखा जिस तरह एक बालक कुकुरमुत्ता उठा लेता है।

    नमस्तस्मै भगवते कृष्णायाद्धुतकर्मणे ।

    अनन्तायादिभूताय कूटस्थायात्मने नम: ॥

    १७॥

    नमः--नमस्कार; तस्मै--उस; भगवते-- भगवान्‌ को; कृष्णाय--कृष्ण को; अद्भुत--चकित करने वाले; कर्मणे--जिसकेकार्य; अनन्ताय--असीम; आदि-भूताय--समस्त जगत के उद्गम को; कूट-स्थाय--जगत के अचल केन्द्र को; आत्मने--परमात्मा को; नमः--नमस्कार।

    'मैं उन भगवान्‌ कृष्ण को नमस्कार करता हूँ जिनका हर कार्य चकित करने वाला है।

    वेपरमात्मा हैं, असीम स्त्रोत तथा समस्त जगत के स्थिर केन्द्र हैं।

    'प्रत्याख्यातः स तेनापि शतधन्वा महामणिम्‌ ।

    तस्मिन्न्यस्याश्रमारुहम शतयोजनगं ययौ ॥

    १८॥

    प्रत्याख्यात: --अस्वीकार; सः--वह; तेन--उस ( अक्रूर ) के द्वारा; अपि-- भी; शतधन्वा--शतधन्वा; महा-मणिम्‌--बहुमूल्यमणि को; तस्मिन्‌ू--उसके पास; न्यस्य--छोड़ कर; अश्वम्‌--घोड़े पर; आरुह्म--सवार होकर; शत--एक सौ; योजन--योजन(८ मील-१ योजन ); गम्‌--जा सकने वाले; ययौ--रवाना हो गया

    जब अक़्ूर ने भी उसकी याचना अस्वीकार कर दी तो शतधन्वा ने उस अमूल्य मणि कोअक्रूर के संरक्षण में रख दिया और एक घोड़े पर चढ़ कर भाग गया जो एक सौ योजन ( आठसौ मील ) यात्रा कर सकता था।

    गरुडध्वजमारुह्य रथं रामजनार्दनौ ।

    अन्वयातां महावेगैरश्वे राजन्गुरुद्रहम्‌ू ॥

    १९॥

    गरुड-ध्वजमू्‌--झंडे में गरुड़ चिह्न वाले; आरुह्म--सवार होकर; रथम्‌--रथ में; राम--बलराम; जनार्दनौ--तथा कृष्ण ने;अन्वयाताम्‌--पीछा किया; महा-वेगै:--अत्यन्त तेज; अश्वै:--घोड़ों से; राजन्‌--हे राजा ( परीक्षित ); गुरु--अपने श्रेष्ठ की( सत्राजित की जो उनके श्वसुर थे ); द्रहम्‌--हिंसा करने वाला।

    हे राजन, कृष्ण तथा बलराम, कृष्ण के रथ पर सवार हुए जिस पर गरुड़चिन्हित ध्वजा'फहरा रहा था और जिसमें अत्यन्त तेज घोड़े जुते थे।

    वे अपने श्रेष्ठ ( श्वसुर ) के हत्यारे का पीछाकरने लगे।

    मिथिलायामुपवने विसृज्य पतितं हयम्‌ ।

    पद्भ्यामधावत्सन्त्रस्त: कृष्णोप्यन्वद्रवद्गुषा ॥

    २०॥

    मिथिलायाम्‌--मिथिला में; उपवने--एक उपवन में; विसृज्य--छोड़ कर; पतितम्‌--गिरे हुए; हयम्‌--घोड़े को; पद्भ्याम्‌--पैदल; अधावत्‌--दौड़ने लगा; सन्त्रस्त:-- भयभीत; कृष्ण: --कृष्ण; अपि-- भी; अन्वद्रवत्‌-पीछे दौड़े; रुषा--क्रुद्ध होकर।

    मिथिला के बाहर एक बगीचे में वह घोड़ा जिस पर शतधन्वा सवार था गिर गया।

    भयभीतहोकर उसने घोड़ा वहीं छोड़ दिया और पैदल ही भागने लगा।

    कृष्ण क्रुद्ध होकर उसका पीछाकर रहे थे।

    पदातेर्भगवांस्तस्थ पदातिस्तिग्मनेमिना ।

    चक्रेण शिर उत्कृत्य वाससोर्व्यचिनोन्मणिम्‌ ॥

    २१॥

    पदातेः--पैदल का; भगवान्‌-- भगवान्‌; तस्थ-- उस; पदाति:--पैदल ही; तिग्म--तेज; नेमिना-- धार वाले; चक्रेण-- अपनेचक्र से; शिर:--सिर; उत्कृत्य--काट कर; वाससो: --शतधन्वा के व्त्रों के भीतर; व्यचिनोत्‌--ढूँढ़ा; मणिम्‌--मणि को

    चूँकि शतधन्वा पैदल ही भागा था इसलिए भगवान्‌ ने भी पैदल ही जाते हुए अपने तेज धारवाले चक्र से उसका सिर काट लिया।

    तब भगवान्‌ ने स्यमन्‍्तक मणि के लिए शतथन्वा के सभीवस्त्रों को छान मारा।

    अलब्धमणिरागत्य कृष्ण आहाग्रजान्तिकम्‌ ।

    बृथा हतः शतधनुर्मणिस्तत्र न विद्येत ॥

    २२॥

    अलब्ध--न पाकर; मणि:--मणि; आगत्य--पास आकर; कृष्ण:--कृष्ण ने; आह--कहा; अग्र-ज--अपने बड़े भाई के;अन्तिकमू--निकट; वृथा--व्यर्थ ही; हतः--मारा गया; शतधनु:--शतधन्वा; मणि:--मणि; तत्र--उसके पास; न विद्यते--नहीं है।

    मणि न पाकर भगवान्‌ कृष्ण अपने बड़े भाई के पास गये और कहने लगे, 'हमने व्यर्थ हीशतधन्वा को मार डाला।

    उसके पास वह मणि नहीं है।

    'तत आह बलो नूनं स मणि: शतधन्वना ।

    कस्मिश्वित्पुरुषे न्यस्तस्तमन्वेष पुरं ब्रज ॥

    २३॥

    ततः--तब; आह--कहा; बल:--बलराम ने; नूनम्‌--निश्चय ही; सः--वह; मणि:--मणि; शतधन्वना--शतधन्वा द्वारा;कस्मिश्वितू-किसी विशेष; पुरुषे--व्यक्ति के पास; न्यस्त:--छोड़ी गई है; तम्‌--उसको; अन्वेष--ढूँढ़ो; पुरम्‌--पुरी में;ब्रज--जाओ।

    इस पर बलराम ने उत्तर दिया, 'निस्सन्देह, शतधन्वा ने मणि को किसी के संरक्षण में रख छोड़ा होगा।

    तुम नगरी में लौट जाओ और उस व्यक्ति को ढूँढ़ो।

    'अहं वैदेहमिच्छामि द्रष्ठु प्रियतमं मम ।

    इत्युक्त्वा मिथिलां राजन्विवेश यदनन्दनः ॥

    २४॥

    अहमू--ैं; वैदेहम्‌--विदेह के राजा को; इच्छामि--चाहता हूँ; द्रष्टमू-- देखना; प्रिय-तमम्‌-- अत्यन्त प्रिय; मम--मेरा; इति--इस प्रकार; उक्त्वा--कह कर; मिधिलामू--मिथिला ( विदेह राज्य की राजधानी ); राजन्‌--हे राजा ( परीक्षित ); विवेश--प्रवेश किया; यदु-नन्दन:--यदुवंशी बलराम ने |

    'मैं विदेह के राजा से भेंट करना चाहता हूँ क्योंकि वे मेरे अत्यन्त प्रिय हैं।

    ' हे राजन, यहकह कर, प्रिय यदुवंशी बलराम ने मिथिला नगरी में प्रवेश किया।

    त॑ दृष्ठा सहसोत्थाय मैथिलः प्रीतमानसः ।

    अ्हयां आस विधिवदर्हणीयं समर्ईहणै: ॥

    २५॥

    तमू--उसको, बलराम को; दृष्टा--देख कर; सहसा--तुरन्‍्त; उत्थाय--उठ कर; मैथिल:--मिथिला के राजा ने; प्रीत-मानस:--स्नेह का अनुभव करते हुए; अर्हयाम्‌ आस--उनका आदर किया; विधि-वत्‌--शास्त्रीय आदेशों के अनुसार; अहंणीयम्‌--पूज्य;समर्हणै:--पूजा-सामग्री से

    जब मिथिला के राजा ने बलराम को समीप आते देखा तो वह तुरन्त अपने आसन से उठखड़ा हुआ।

    राजा ने बड़े प्रेम से विशद पूजा करके परम आरशरध्य प्रभु का सम्मान शास्त्रीयआदेशों के अनुसार किया।

    उवास तस्यां कतिचिन्मिथिलायां समा विभु: ।

    मानितः प्रीतियुक्तेन जनकेन महात्मना ।

    ततोशिक्षद्गदां काले धार्तराष्ट्र: सुयोधन: ॥

    २६॥

    उवास--रहे; तस्यामू--उस; कतिचित्‌--कई; मिथिलायाम्‌--मिथिला में; समा: --वर्ष; विभु:--सर्वशक्तिमान श्री बलराम;मानितः--सम्मानित; प्रीति-युक्तेन--वत्सल; जनकेन--राजा जनक ( विदेह ) द्वारा; महा-आत्मना--महात्मा; ततः--तब;अशिक्षत्‌--सीखा; गदाम्‌--गदा; काले--समय में; धार्तराष्ट्र: -- धृतराष्ट्र के पुत्र; सुयोधन:--दुर्योधन ने |

    सर्वशक्तिमान भगवान्‌ बलराम अपने प्रिय भक्त जनक महाराज से सम्मानित होकर मिथिलामें कई वर्षों तक रुके रहे।

    इसी समय धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन ने बलराम से गदा युद्ध करने कीकला सीखी।

    केशवो द्वारकामेत्य निधनं शतधन्वन: ।

    अप्राप्ति च मणे: प्राह प्रियाया: प्रियकृद्धिभु: ॥

    २७॥

    केशव: --कृष्ण; द्वारकाम्‌-द्वारका में; एत्य-- आकर; निधनम्‌--मृत्यु; शतधन्वन:--शतधन्वा की; अप्राप्तिमू--न मिलने से;च--तथा; मणे:--मणि; प्राह--कहा; प्रियाया:--अपनी प्रियतमा ( सत्यभामा ) के ; प्रिय--आनन्दित; कृत्‌--करते हुए;विभु:--सर्वशक्तिमान प्रभु |

    भगवान्‌ केशव द्वारका आये और उन्होंने शतधन्वा की मृत्यु तथा स्यमन्‍्तक मणि को खोजपाने में अपनी असफलता का विवरण दिया।

    वे इस तरह बोले जिससे उनकी प्रियतमा सत्यभामाप्रसन्न हो सकें।

    ततः स कारयामास क्रिया बन्धो्हतस्य वे ।

    साकं सुहद्धिर्भगवान्या या: स्युः साम्परायिकी: ॥

    २८॥

    ततः--तब; सः--उसने, कृष्ण ने; कारयाम्‌ आस--सम्पन्न कराया; क्रिया--अनुष्ठान कर्म; बन्धो: --अपने सम्बन्धी( सत्राजित ) का; हतस्थ--मारे गये; वै--निस्सन्देह; साकमू--साथ साथ; सुहृद्धिः--शुभचिन्तकों के; भगवान्‌-- भगवान्‌; याःया:--जो जो; स्युः--होना चाहिए; साम्परायिकी: --इस संसार से कूच करने के समय ।

    तब भगवान्‌ कृष्ण ने अपने मृत सम्बन्धी सत्राजित के लिए विविध अन्तिम संस्कार सम्पन्नकराये।

    भगवान्‌ परिवार के शुभचिन्तकों के साथ शवसयात्रा में सम्मिलित हुए।

    अक्रूरः कृतवर्मा च श्रुत्वा शतधनोर्वधम्‌ ।

    व्यूषतुर्भयवित्रस्तौ द्वारकाया: प्रयोजकौ ॥

    २९॥

    अक्रूरः कृतवर्मा च--अक्रूर तथा कृतवर्मा; श्रुत्वा--सुनकर; शतधनो: --शतधन्वा का; वधम्‌--वध; व्यूषतु:--बाहर चले गये;भय-वित्रस्तौ-- भय से त्रस्त; द्वारकाया:--द्वारका से; प्रयोजकौ--उकसाने वाले।

    जब अक्रूर तथा कृतवर्मा ने, जिन्होंने शुरू में श़तधन्वा को अपराध करने के लिए उकसाया था, यह सुना कि वह मारा गया है, तो वे भय के कारण द्वारका से भाग गये और उन्होंने अन्यत्रजाकर शरण ली।

    अक्रूरे प्रोषितेउरिष्टान्यासन्वै द्वारौकसाम्‌ ।

    शारीरा मानसास्तापा मुहुर्देविकभौतिका: ॥

    ३०॥

    अक्रे--अक्रूर के; प्रोषिते--प्रवास में रहते हुए; अरिष्टानि--अपशकुन; आसनू--उत्पन्न हुए; बै--निस्सन्देह; द्वारका-ओकसामू--द्वारकावासियों के लिए; शारीरा:--शारीरिक; मानस:--तथा मानसिक; तापा:ः--कष्ट; मुहुः--बारम्बार; दैविक--उच्चतर शक्तियों द्वारा उत्पन्न; भौतिकाः--अन्य प्राणियों द्वारा उत्पन्न

    अक्रूर की अनुपस्थिति में द्वारका में तमाम अपशकुन होने लगे और वहाँ के निवासीशारीरिक तथा मानसिक कष्टों के अतिरिक्त दैविक तथा भौतिक उत्पातों से भी त्रस्त रहने लगे।

    इत्यज्रोपदिशन्त्येके विस्मृत्य प्रागुदाहतम्‌ ।

    मुनिवासनिवासे किं घटेतारिष्टदर्शनम्‌ ॥

    ३१॥

    इति--इस प्रकार; अड्र--हे प्रिय ( राजा परीक्षित ); उपदिशन्ति--प्रस्ताव कर रहे थे; एके--कुछ; विस्मृत्य-- भूल कर;प्राकु--पूर्वकाल में; उदाहतम्‌--कहा गया; मुनि--मुनियों के; वास--आवास में; निवासे--में रहते हुए; किम्‌--कैसे;घटेत--घटित हो सकती हैं; अरिष्ट--विपत्तियाँ; दर्शनम्‌--प्राकट्य |

    कुछ लोगों ने प्रस्तावित तो किया

    कि ये विपत्तियाँ अक्रूर की अनुपस्थिति के कारण हैं :किन्तु वे भगवान्‌ की उन महिमाओं को भूल गए थे, जिनका वर्णन बे प्राय: स्वयं किया करतेथे।

    निस्सन्देह उस स्थान में विपत्तियाँ कैसे आ सकती हैं, जहाँ समस्त मुनियों के आश्रय रूपभगवान्‌ निवास करते हों ?

    देवेउवर्षति काशीशः श्रफल्कायागताय वै ।

    स्वसुतां गाण्दिनीं प्रादात्ततोवर्षत्स्म काशिषु ॥

    ३२॥

    देवे--जब देवता, इन्द्र; अवर्षति--वर्षा नहीं करता था; काशी-ईश: --वाराणसी का राजा; श्रफल्काय-- श्रफल्क ( अक्रूर केपिता ) को; आगताय--आये हुए; बै--निश्चय ही; स्व--अपनी; सुताम्‌-- पुत्री; गान्दिनीम--गान्दिनी को; प्रादात्‌ू--दे दिया;ततः--तब; अवर्षत्‌--वर्षा हुई; स्म--निस्सन्देह; काशिषु--काशी राज्य में |

    बड़े बूढ़ों ने कहा : पूर्वकाल में जब इन्द्र ने काशी ( बनारस ) पर वर्षा करनी बन्द करदी तो उस शहर के राजा ने अपनी पुत्री गान्दिनी श्रफल्क को दे दी जो उस समय उससे मिलनेआया था।

    तब तुरन्त ही काशी राज्य में वर्षा हुई।

    तत्सुतस्तत्प्रभावोसावक्रूरो यत्र यत्र ह ।

    देवोभिवर्षते तत्र नोपतापा न मारीका: ॥

    ३३॥

    तत्‌--उसका ( श्रफल्क का ); सुतः--पुत्र; तत्‌-प्रभाव: --उसकी शक्ति से सम्पन्न; असौ--वह; अक्रूर:--अक्रूर; यत्र यत्र--जहाँ जहाँ; ह--निस्सन्देह; देव:--इन्द्र; अभिवर्षते--वर्षा करेगा; तत्र--वहाँ; न--नहीं; उपतापा:--कष्टप्रद उत्पात; न--नहीं;मारिका:ः--असामयिक मृत्युएँ।

    जहाँ भी इन्द्र के ही समान शक्तिशाली उसका बेटा अक्रूर ठहरता है, वहीं वह पर्याप्त वर्षाकरेगा।

    निस्सन्देह, वह स्थान समस्त कष्टों तथा असामयिक मृत्युओं से रहित हो जायेगा।

    इति वृद्धवच: श्रुत्वा नेतावदिह कारणम्‌ ।

    इति मत्वा समानाय्य प्राहाक्रूरं जनार्दन: ॥

    ३४॥

    इति--इस प्रकार; वृद्ध--वृद्धजनों के; बच:--शब्द; श्रुत्वा--सुनकर; न--नहीं; एतावत्‌--एकमात्र यह; इह--विचाराधीनबात का; कारणम्‌--कारण; इति--इस प्रकार; मत्वा--मान कर; समानाय्य--उसे वापस लाकर; प्राह--कहा; अक्रूरम्‌--अक्ूर से; जनार्दन: -- भगवान्‌ कृष्ण ने

    वृद्धजनों से ये वचन सुनकर भगवान्‌ जनार्दन ने यह जानते हुए कि अपशकुनों का एकमात्रकारण अक्रूर की अनुपस्थिति नहीं थी, उन्हें द्वारका वापस बुलवाया और उनसे बोले।

    'पूजयित्वाभिभाष्यैनं कथयित्वा प्रिया: कथा: ।

    विज्ञाताखिलचित्त ज्ञ: स्मयमान उवाच ह ॥

    ३५॥

    ननु दानपते न्यस्तस्त्वय्यास्ते शतधन्वना ।

    स्यमन्तको मणि: श्रीमान्‌ विदितः पूर्वमेव नः ॥

    ३६॥

    पूजयित्वा--आदर करके; अभिभाष्य--सत्कार करके; एनम्‌--उसको ( अक्ूर को ); कथयित्वा--विचार-विमर्श करके;प्रियाः--मधुर; कथा:--कथाएँ; विज्ञात--पूर्णतया अवगत; अखिल--सारी बातों का; चित्त--( अक्रूर का ) हृदय; ज्ञ:--जानने वाले; स्मयमान: --हँसते हुए; उवाच ह--कहा; ननु--निश्चय ही; दान--दान के; पते--हे स्वामी; न्यस्त:--रखा गया;त्वयि--तुम्हारे संरक्षण में; आस्ते--है; शतधन्वना--शतथन्वा द्वारा; स्थमन्तक: मणि:--स्यमंतक मणि; श्री-मान्‌ू--ऐश्वर्यवान्‌;विदितः--ज्ञात; पूर्वमू--पहले ही; एब--निस्सन्देह; नः--हमारे द्वारा |

    भगवान्‌ कृष्ण ने अक्रूर का स्वागत-सत्कार किया, उनका गोपनीय तौर पर अभिवादनकिया और उनसे मधुर शब्द कहे।

    तब हर बात जानने वाले होने के कारण भगवान्‌, जो किअक्रूर के हृदय से भलीभाँति अवगत थे, हँसे और उनको सम्बोधित किया, 'हे दानपति, अवश्यही वह ऐश्वर्यशाली स्यमन्तक मणि शतथन्वा तुम्हारे संरक्षण में छोड़ गया था और अब भी तुम्हारेपास है।

    असल में, हम इसे लगातार जानते रहे हैं।

    'सत्राजितोनपत्यत्वादगृह्ीयुर्दुहितु: सुता: ।

    दायं निनीयाप: पिण्डान्विमुच्यर्ण च शेषितम्‌ ॥

    ३७॥

    सत्राजित:--सत्राजित के; अनपत्यत्वात्‌-पुत्ररहित होने से; गृह्लीयु:--लेना चाहिए; दुहितु:--उसकी पुत्री के; सुता:--पुत्रों को;दायमू्‌--उत्तराधिकार; निनीय--अर्पित करके; आप:--जल; पिण्डान्‌ू--तथा पिंडदान; विमुच्य--ऋण चुका कर; ऋणम्‌--ऋण, कर्जा; च--तथा; शेषितम्‌--शेष |

    'चूँकि सत्राजित के कोई पुत्र नहीं है, अतः उसकी पुत्री के पुत्र उसके उत्तराधिकारी होंगे।

    उन्हें ही श्राद्ध के निमित्त तर्पण तथा पिण्डदान करना चाहिए, अपने नाना का ऋण चुकताकरना चाहिए और शेष धन अपने लिए रखना चाहिए।

    तथापि दुर्धरस्त्वन्यैस्त्वय्यास्तां सुत्रते मणि: ।

    किन्तु मामग्रज: सम्यड्न प्रत्येति मणिं प्रति ॥

    ३८॥

    दर्शयस्व महाभाग बन्धूनां शान्तिमावह ।

    अव्युच्छिन्ना मखास्तेउद्य वर्तन्ते रुक्मवेदयः ॥

    ३९॥

    तथा अपि--तो भी; दुर्धर:--धारण करना असम्भव; तु--लेकिन; अन्यै:--दूसरों के द्वारा; त्वयि--तुम्हारे पास; आस्ताम्‌--रहना चाहिए; सुब्रते--हे विश्वसनीय व्रतधारी; मणि:--मणि; किन्तु--केवल; मम्‌--मुझ पर; अग्र-ज:--मेरे बड़े भाई;सम्यक्‌--पूरी तरह; न प्रत्येति--विश्वास करते हैं; मणिम्‌ प्रति--मणि के सम्बन्ध में; दर्शयस्व-- इसे दिखला दो; महा-भाग--हे परम भाग्यशाली; बन्धूनाम्‌--मेरे सम्बन्धियों को; शान्तिमू--शान्ति; आवह--लाओ; अव्युच्छिन्ना:--अविच्छिन्न; मखा:--यज्ञ; ते-- तुम्हारे; अद्य--अब; वर्तन्ते--चल रहे हैं; रुक्म--सोने की; वेदय:--वेदियों वाले |

    'तो भी, हे विश्वासपात्र अक्रूर, यह मणि तुम्हारे संरक्षण में रहना चाहिए क्योंकि अन्य कोईइसे सुरक्षित नहीं रख सकता।

    बस एक बार यह मणि दिखला दो क्योंकि मैंने इसके विषय मेंअपने अग्रज से जो कुछ कहा है वे उस पर पूरी तरह विश्वास नहीं करते।

    इस तरह हे परमभाग्यशाली, तुम मेरे सम्बन्धियों को शान्त कर सकोगे।

    हर व्यक्ति जानता है कि मणि तुम्हारेपास है क्योंकि तुम इस समय लगातार सोने की बनी वेदिकाओं में यज्ञ सम्पन्न कर रहे हो।

    'एवं सामभिरालब्ध: श्रफल्कतनयो मणिम्‌ ।

    आदाय वाससाच्छन्न: ददौ सूर्यसमप्रभम्‌ ॥

    ४० ॥

    एवम्‌--इस प्रकार; सामभि:--समन्वयात्मक, सन्धिपूर्ण; आलब्ध:--धिक्कारा हुआ; श्रफल्क-तनय:--श्रफल्क का पुत्र;मणिम्‌--स्यमन्तक मणि को; आदाय--लेकर; वाससा--अपने वस्त्र में; आच्छन्न:--छिपाया हुआ; ददौ--दे दिया; सूर्य--सूर्यके; सम--समान; प्रभम्‌ू--तेज

    इस तरह भगवान्‌ कृष्ण के समन्वयात्मक शब्दों से लज्जित होकर श्रफल्क-पुत्र उस मणिको वहाँ से निकाल कर ले आया जहाँ उसने अपने वस्त्रों में छिपा रखा था और उसे भगवान्‌ कोदे दिया।

    यह चमकीला मणि सूर्य की तरह चमक रहा था।

    स्यमन्तकं दर्शयित्वा ज्ञातिभ्यो रज आत्मनः ।

    विमृज्य मणिना भूयस्तस्मै प्रत्यर्पयत्प्रभु; ॥

    ४१॥

    स्यमन्तकम्‌--स्यमन्तक मणि को; दर्शयित्वा--दिखलाकर; ज्ञातिभ्य:-- अपने सम्बन्धियों को; रज:--कल्मष; आत्मन: --अपने ( झूठा थोपा हुआ ); विमृज्य--पोंछ कर; मणिना--मणि से; भूयः--पुनः ; तस्मै--उसको, अक्रूर को; प्रत्यर्पयत्‌--देदिया; प्रभु;--भगवान्‌ ने |

    अपने सम्बन्धियों को स्थमन्‍्तक मणि दिखला चुकने के बाद सर्वशक्तिमान भगवान्‌ ने अपनेविरुद्ध लगे झूठे आक्षेपों को दूर करते हुए उसे अक्रूर को लौटा दिया।

    यस्त्वेतद्धगवत ई श्वरस्य विष्णो-वीर्याढ्यं वृजिनहरं सुमड्रलं च ।

    आख्यानं पठति श्रुणोत्यनुस्मरेद्दादुष्कीर्ति दुरितमपोह्य याति शान्तिम्‌ू ॥

    ४२॥

    यः--जो भी; तु--निस्सन्देह; एतत्‌--यह; भगवतः -- भगवान्‌ का; ईश्वरस्थ--परम नियन्ता; विष्णो: --विष्णु का; वीर्य--पराक्रम से; आढ्यम्‌--समृद्ध; वृजिन--पापपूर्ण फल; हरम्‌--दूर करने वाला; सु-मड्रलम्‌--अत्यन्त शुभ; च--तथा;आख्यानमू--कथानक; पठति--पढ़ता है; श्रूणोति--सुनता है; अनुस्मरेत्‌--स्मरण करता है; वा--अथवा; दुष्कीर्तिम्‌--अपकीर्ति; दुरितम्‌--तथा पाप को; अपोह्य--दूर करके; याति--प्राप्त करता है; शान्तिमू--शान्ति |

    यह आख्यान, जो भगवान्‌ विष्णु के पराक्रम के वर्णनों से युक्त है, पापपूर्ण फलों को दूरकरता है और समस्त मंगल प्रदान करता है।

    जो कोई भी इसे पढ़ता, सुनता या स्मरण करता है,वह अपनी अपकीर्ति तथा पापों को भगा सकेगा और शान्ति प्राप्त करेगा।

    TO

    अध्याय अट्ठावन: कृष्ण ने पाँच राजकुमारियों से विवाह किया

    10.58श्रीशुक उवाचएकदा पाण्डवान्द्रष्ट प्रतीतान्पुरुषोत्तम: ।

    इन्द्रप्रस्थं गत: श्रुईमान्युयुधानादिभिर्वृतः ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एकदा--एक बार; पाण्डवान्‌--पाण्डु-पुत्रों को; द्रष्टम्‌--देखने के लिए;प्रतीतानू--दृश्य; पुरुष-उत्तम:--भगवान्‌; इन्द्रप्रस्थम्‌--इन्द्रप्रस्थ, पाण्डवों की राजधानी; गत:--गये; श्री-मान्‌--समस्त ऐश्वर्यके स्वामी; युयुधान-आदिभिर्‌--युयुधान ( सात्यकि ) तथा अन्यों से; वृत:--घिर कर।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : एक बार परम ऐश्वर्यवान भगवान्‌ पाण्डवों को देखने के लिएइन्द्रप्रस्थ गये जो पुनः जनता के बीच प्रकट हो चुके थे।

    भगवान्‌ के साथ युयुधान तथा अन्यसंगी थे।

    इृष्ठा तमागतं पार्था मुकुन्दमखिले श्वरम्‌ ।

    उत्तस्थुर्युगपद्दीरा: प्राणा मुख्यमिवागतम्‌ ॥

    २॥

    इष्ठा--देखकर; तमू--उस; आगतम्‌--आया हुआ; पार्था:--पृथा ( कुन्ती ) के पुत्र; मुकुन्दम्‌ू--कृष्ण को; अखिल--हर वस्तुके; ईश्वरम्‌--स्वामी; उत्तस्थु:--उठ खड़े हुए; युगपत्‌--एकसाथ; वीर: --वीरगण; प्राणा: --इन्द्रियाँ; मुख्यम्‌--मुख्य, प्राणको; इब--मानो; आगतम्‌--वापस आ गया।

    जब पाण्डवों ने देखा कि भगवान्‌ मुकुन्द आए हैं, तो पृथा के वे वीर पुत्र एकसाथ उसीतरह उठ खड़े हुए जिस तरह इन्द्रियाँ प्राण के वापस आने पर सचेत हो उठती हैं।

    परिष्वज्याच्युतं वीरा अड्डसड्रहतैनसः ।

    सानुरागस्मितं वक्त्र॑ वीक्ष्य तस्य मु्दं ययु; ॥

    ३॥

    परिष्वज्य--आलिंगन करके; अच्युतम्‌--कृष्ण को; बीरा: --उन वीरों ने; अड़--उनके शरीर के; सड्ग--स्पर्श से; हत--विनष्ट;एनसः--उनके सारे पापकर्म; स-अनुराग--स्नेहिल; स्मितम्‌--हँसी के साथ; वक्त्रमू--मुखमंडल को; वीक्ष्य--देखकर;तस्य--उसका; मुदम्‌ू--हर्ष; ययु:--अनुभव किया।

    इन वीरों ने भगवान्‌ अच्युत का आलिंगन किया और उनके शरीर के स्पर्श से उन सबों केपाप दूर हो गये।

    उनके स्नेहिल, हँसी से युक्त मुखमण्डल को देख कर वे सब हर्ष से अभिभूत होगये।

    युधिष्ठिरस्थ भीमस्य कृत्वा पादाभिवन्दनम्‌ ।

    फाल्गुनं परिरभ्याथ यमाभ्यां चाभिवन्दितः ॥

    ४॥

    युधिष्ठटिरस्थ भीमस्य--युधिष्ठिर तथा भीम के; कृत्वा--करके ; पाद--पाँवों का; अभिवन्दनम्‌--नमस्कार; फाल्गुनम्‌--अर्जुनको; परिरभ्य--जोर से आलिंगन करके; अथ--तब; यमाभ्याम्‌--जुड़वा भाइयों, नकुल तथा सहदेव द्वारा; च--तथा;अभिवन्दित:--सादर सत्कार किये जाकर।

    युधिष्ठटिर तथा भीम के चरणों पर सादर नमस्कार करने तथा अर्जुन का प्रगाढ़ आलिंगनकरने के बाद उन्होंने नकुल तथा सहदेव जुड़वाँ भाइयों का नमस्कार स्वीकार किया।

    'परमासन आसीन कृष्णा कृष्णमनिन्दिता ।

    नवोढा ब्रीडिता किश्ञिच्छनैरेत्याभ्यवन्दत ॥

    ५॥

    'परम--उच्च; आसने--आसन पर; आसीनमू--बैठे हुए; कृष्णा--द्रौपदी ने; कृष्णम्‌--कृष्ण को; अनिन्दिता--दोषरहित;नव--हाल ही की; ऊढा--विवाहिता; ब्रीडिता--लजीली; किश्जितू--कुछ कुछ; शनै: -- धीरे धीरे; एत्थ--पास आकर;अभ्यवन्दत--नमस्कार किया।

    पाण्डवों की नवविवाहिता पत्नी, जो कि दोषरहित थी, धीरे धीरे तथा कुछ कुछ लजाते हुएभगवान्‌ कृष्ण के पास आई, जो उस समय उच्च आसन पर बैठे थे और उन्हें नमस्कार किया।

    तथैव सात्यकिः पार्थे: पूजितश्चाभिवन्दितः ।

    निषसादासनेन्ये च पूजिता: पर्युपासत ॥

    ६॥

    तथा एव--इसी तरह; सात्यकि:--सात्यकि; पार्थ: --पृथा के पुत्रों द्वारा; पूजित:--पूजित; च--तथा; अभिवन्दित:--स्वागतकिया गया; निषसाद--बैठ गया; आसने-- आसन पर; अन्ये--अन्य लोग; च--तथा; पूजिता:--पूजित; पर्युपासत--चारोंओर बैठ गये।

    सात्यकि ने भी पाण्डवों से पूजा तथा स्वागत प्राप्त करके सम्मानजनक आसन ग्रहण कियाऔर भगवान्‌ के अन्य संगी भी उचित सम्मान पाकर विविध स्थानों पर बैठ गये।

    पृथाम्समागत्य कृताभिवादन-स्तयातिहार्दाद्रहशाभिरम्भितः ।

    आपृष्टवांस्तां कुशलं सहस्नुषांपितृष्वसारम्परिपृष्टबान्धवः ॥

    ७॥

    पृथाम्‌--महारानी कुन्ती तक; समागत्य--जाकर; कृत--करके; अभिवादन:--अपना नमस्कार; तया--उनके द्वारा; अति--अत्यन्त; हार्द--स्नेहपूर्वक; अर्द्र--नम; दशा--जिनकी आँखें; अभिरम्भित:--आलिंगन किया; आपृष्टवान्‌ -- उन्होंने पूछा;तामू--उनसे; कुशलम्‌--उनकी कुशलता के बारे में; सह--साथ; स्नुषाम्‌--अपनी पुत्रवधू द्रौपदी के साथ; पितृ-- अपने पितावसुदेव की; स्वसारम्‌--बहिन; परिपृष्ट--विस्तार से पूछा; बान्धव:--उनके सम्बन्धियों के ( द्वारका में रह रहे ) बारे में ॥

    तब भगवान्‌ अपनी बुआ महारानी कुन्ती को देखने गये।

    वे उनके समक्ष झुके और उन्होंनेउनका आलिंगन किया, तो अति स्नेह से उनकी आँखें नम हो गईं।

    भगवान्‌ कृष्ण ने उनसे तथाउनकी पुत्रवधू द्रौपदी से उनकी कुशलता पूछी और उन्होंने भगवान्‌ से उनके सम्बन्धियों ( द्वारकाके ) के विषय में पूछा।

    तमाह प्रेमवैक्लव्यरुद्धकण्ठा श्रुलोचना ।

    स्मरन्ती तान्बहून्क्लेशान्क्लेशापायात्मदर्शनम्‌ ॥

    ८ ॥

    तम्‌ू--उनसे; आह--कहा; प्रेम--प्रेम का; वैक्लव्य--शोक के कारण; रुद्ध--अवरुद्ध; कण्ठा--कण्ठ वाली; अश्रु--आँसुओं से ( पूरित ); लोचना--आँखों वाली; स्मरन्ती--स्मरण करती; तानू--उन; बहूनू-- अनेक; क्लेशान्‌-- क्लेशों को;क्लेश--क्लेश; अपाय--दूर करने के लिए; आत्म--स्वयं; दर्शनम्‌--दर्शन देने वाले |

    महारानी कुन्ती प्रेम से इतनी अभिभूत हो गयी कि उनका गला रुँध गया और उनकी आँखेंआँसुओं से भर गईं।

    उन्होंने उन तमाम कष्टों का स्मरण किया जिसे उन्होंने तथा उनके पुत्रों नेसहा था।

    इस तरह उन्होंने भगवान्‌ कृष्ण को सम्बोधित करते हुए कहा जो अपने भक्तों के समक्षउनका कष्ट भगाने के लिए प्रकट होते हैं।

    तदैव कुशल नो भूत्सनाथास्ते कृता वयम्‌ ।

    ज्ञतीन्न: स्मरता कृष्ण क्षाता मे प्रेषितस्त्वया ॥

    ९॥

    तदा--उस समय; एव--केवल; कुशलम्‌--कुशल-क्षेम; न:--हमारी; अभूत्‌--हो गई; स--सहित; नाथा: --रक्षक; ते--तुम्हारे द्वारा; कृता:--निर्मित; वयम्‌--हम; ज्ञातीन्‌--तुम्हारे सम्बन्धी; न:--हमको; स्मरता--जिन्होंने स्मरण किया; कृष्ण--हेकृष्ण; भ्राता-- भाई ( अक्वूर ); मे--मेरा; प्रेषित:-- भेजा गया; त्वया--तुम्हारे द्वारा

    महारानी कुन्ती ने कहा : हे कृष्ण, हमारी कुशल-मंगल तो तभी आश्वस्त हो गई जबआपने अपने सम्बन्धियों का अर्थात्‌ हमारा स्मरण किया और मेरे भाई ( अक्रूर को ) को हमारेपास भेज कर हमें अपना संरक्षण प्रदान किया।

    न तेस्ति स्वपरभ्रान्तिर्विश्वस्य सुहृदात्मन: ।

    तथापि स्मरतां शश्वत्क्लेशान्हंसि हृदि स्थित: ॥

    १०॥

    न--नहीं; ते--तुम्हारे लिए; अस्ति-- है; स्व-- अपना; पर--तथा दूसरों का; भ्रान्तिः-- भ्रम; विश्वस्य--ब्रह्माण्ड का; सुहत्‌--शुभचिन्तक; आत्मन:--तथा आत्मा के लिए; तथा अपि--तो भी; स्मरताम्‌--स्मरण करने वाले के; शश्वत्‌--निरन्तर;क्लेशान्‌--क्लेशों को; हंसि--नष्ट करते हो; हृदि--हृदय में; स्थित:--स्थित |

    आप जो कि ब्रह्माण्ड के शुभचिन्तक मित्र एवं परमात्मा हैं उनके लिए 'अपना' तथा'पराया' का कोई मोह नहीं रहता।

    तो भी, सबों के हृदयों में निवास करने वाले आप उनकेकष्टों को समूल नष्ट कर देते हैं, जो निरन्तर आपका स्मरण करते हैं।

    युधिष्टिर उवाचकिन आचरितं श्रेयो न वेदाहमधी श्वर ।

    योगेश्वराणां दुर्द्शों यन्नो दृष्टः कुमेधसाम्‌ ॥

    ११॥

    युथिष्ठटिर: उवाच--युधिष्ठिर ने कहा; किम्‌ू--क्या; न:--हमारे द्वारा; आचरितम्‌--किया गया; श्रेयः--पुण्य-कर्म; न वेद--नहींजानता; अहम्‌--ैं; अधीश्वर--हे परम नियन्ता; योग--योग के; ईश्वराणाम्‌-- स्वामियों द्वारा; दुर्दर्शः--विरले ही दिखने वाला;यत्‌--वह; नः--हमररे द्वारा; दृष्ट:--देखा हुआ; कु-मेधसम्‌--अज्ञानियों द्वारा

    राजा युधिष्ठिर ने कहा : हे परम नियन्ता, मैं नहीं जानता कि हम मूर्खो ने कौन से पुण्य-कर्मकिये हैं कि आपका दर्शन पा रहे हैं जिसे बड़े बड़े विरले योगेश्वर ही कर पाते हैं।

    इति बै वार्षिकान्मासात्राज्ञा सो भ्यर्थित: सुखम्‌ ।

    जनयन्नयनानन्दमिन्द्रप्रस्थौकसां विभु: ॥

    १२॥

    इति--इस प्रकार; वै--निस्सन्देह; वार्षिकानू--वर्षा ऋतु के; मासान्‌ू--महीने; राज्ञा--राजा द्वारा; सः--वह; अभ्यर्थित: --अनुरोध किया गया; सुखम्‌--सुखपूर्वक; जनयन्‌--उत्पन्न करते हुए; नयन--आँखों के लिए; आनन्दम्‌--आनन्द; इन्द्रप्रस्थ-ओकसाम्‌--इन्द्रप्रस्थ के निवासियों के; विभुः--सर्वशक्तिमान प्रभु

    जब राजा ने भगवान्‌ कृष्ण को सबों के साथ रहने का अनुरोध किया, तो वर्षा ऋतु केमहीनों में नगर के निवासियों के नेत्रों को आनन्द प्रदान करते हुए भगवान्‌ सुखपूर्वक इन्द्रप्रस्थ मेंरहते रहे।

    एकदा रथमारुहा विजयो वानरध्वजम्‌ ।

    गाण्डीवं धनुरादाय तूणौ चाक्षयसायकौ ॥

    १३॥

    साकं कृष्णेन सन्नद्धो विहर्तु विपिनं महत्‌ ।

    बहुव्यालमृगाकीर्ण प्राविशत्परवीरहा ॥

    १४॥

    एकदा--एक बार; रथम्‌--रथ में; आरुह्मय --सवार होकर; विजय: --अर्जुन; वानर--बन्दर ( हनुमान ); ध्वजम्‌--जिसकीध्वजा में; गाण्डीवम्‌--अपना गाण्डीव; धनु:-- धनुष; आदाय--लेकर; तृणौ--दो तरकस; च--तथा; अक्षय--न चुकने वाले;सायकौ--बाण; साकम्‌--साथ; कृष्णेन--कृष्ण के; सन्नद्ध:--कवच पहन कर; विहर्तुमु--आखेट करने; विपिनमू--जंगल में; महत्‌--विशाल; बहु--अनेक; व्याल-मृग--शिकारी पशु; आकीर्णम्‌--भेरे हुए; प्राविशत्‌--घुसा; पर--शत्रु; वीर--वीरोंका; हा--मारने वाला

    एक बार बलशाली शत्रुओं का हन्ता अर्जुन अपना कवच पहन करहनुमान से चिन्हितध्वजा वाले अपने रथ पर सवार होकर, अपना धनुष तथा दो अक्षय तरकस लेकर, भगवान्‌कृष्ण के साथ एक विशाल जंगल में शिकार खेलने गया जो हिंस्त्र पशुओं से परिपूर्ण था।

    तत्राविध्यच्छरैव्यप्रान्शूकरान्महिषान्रुरून्‌ ।

    शरभान्गवयान्खड्गान्हरिणान्शशशल्लकान्‌ ॥

    १५॥

    तत्र--वहाँ; अविध्यत्‌ू-बींध दिया; शरैः--बाणों से; व्याप्रान्‌ू--बाघों को; शूकरान्‌ू--सुअरों को; महिषान्‌--जंगली भैसों को;रुरूनू--एक किस्म के हिरनों को; शरभान्‌--हिरनों को; गवयान्‌--नील-गायों को; खड़्गान्‌ू--गैंडों को; हरिणान्‌ू--श्याममृगों को; शश--खरगोशों; शल्लकान्‌--तथा साहियों को |

    अर्जुन ने अपने बाणों से उस जंगल के बाघों, सुअरों, जंगली भेसों, रुरूओं, शरभों, गबयों,गैडों, श्याम हिरनों, खरगोशों तथा साहियों को बेध डाला।

    ताब्निन्युः किड्डूरा राज्ञे मेध्यान्पर्वण्युपागते ।

    तृट्परीतः परिश्रान्तो बिभत्सुर्यमुनामगात्‌ ॥

    १६॥

    तान्‌--उनको; निन्यु:--ले गये; किड्डूरा:--नौकर; राज्ञे--राजा तक; मेध्यान्‌ू--यज्ञ में बलि के योग्य; पर्वणि--विशेष अवसर( पर्व ) पर; उपागते--पास आ रहे; तृटू--प्यास से; परीत:ः--हारे; परिश्रान्त:--थके; बिभत्सु:--अर्जुन; यमुनाम्‌--यमुना नदीके तट पर; अगातू--गया।

    नौकरों का एक दल मारे गये उन पशुओं को राजा युथ्िष्टिर के पास ले गया जो किसीविशेष पर्व पर यज्ञ में अर्पित करने के योग्य थे।

    तत्पश्चात्‌ प्यासे तथा थके होने से अर्जुन यमुनानदी के तट पर गया।

    तत्रोपस्पृश्य विशदं पीत्वा वारि महारथौ ।

    कृष्णौ ददृशतु: कन्यां चरन्तीं चारुदर्शनाम्‌ ॥

    १७॥

    तत्र--वहाँ; उपस्पृश्य--नहाकर; विशदम्‌--स्वच्छ; पीत्वा-- पीकर; वारि--जल; महा-रथौ--महारथी योद्धा; कृष्णौ--दोनोंकृष्णों ने; ददशतु:--देखा; कन्याम्‌--कन्या को; चरन्तीम्‌--विचरण करती; चारू-दर्शनाम्‌--देखने में सुन्दरदोनों कृष्णों ने वहाँ स्नान करने के बाद नदी का स्वच्छ जल पिया।

    तब दोनों महारथियों नेपास ही टहलती एक आकर्षक युवती को देखा।

    तामासाद्य वरारोहां सुद्विजां रुचिराननाम्‌ ।

    पप्रच्छ प्रेषित: सख्या फाल्गुन: प्रमदोत्तमाम्‌ ॥

    १८॥

    तामू--उसके; आसाद्य--पास पहुँचकर; वरा--उत्तम; आरोहाम्‌ू--नितम्ब वाली; सु--सुन्दर; द्विजामू--दाँतों वाली; रूचिर--आकर्षक; आननामू--मुख वाली; पप्रच्छ--पूछा; प्रेषित:-- भेजा गया; सख्या--मित्र श्रीकृष्ण द्वारा; फाल्गुन:--अर्जुन ने;प्रमदा--स्त्री से; उत्तमामू--असाधारण |

    अपने मित्र द्वारा भेजे जाने पर अर्जुन उस असाधारण युवती के पास गये।

    वह सुन्दर नितम्ब,उत्तम दाँत तथा आकर्षक मुख वाली थी।

    उन्होंने उससे इस प्रकार पूछा।

    का त्वं कस्यासि सुश्रोणि कुतो वा कि चिकीर्षसि ।

    मन्ये त्वां पतिमिच्छन्तीं सर्व कथय शोभने ॥

    १९॥

    का--कौन; त्वमू--तुम; कस्य--किसकी; असि--हो; सु- श्रोणि--हे सुन्दर कटि वाली; कुतः--कहाँ से; वा--अथवा;किम्‌--क्या; चिकीर्षसि--करना चाहती हो; मन्ये--मैं सोचता हूँ; त्वामू--तुम; पतिम्‌ू--पति की; इच्छन्तीम्‌ू--खोज करती;सर्वम्‌-प्रत्येक वस्तु; कथय--कहो; शोभने--हे सुन्दरी |

    अर्जुन ने कहा : हे सुन्दर कटि वाली, तुम कौन हो ? तुम किसकी पुत्री हो और तुम कहाँसे आई हो ? तुम यहाँ क्या कर रही हो? मैं सोच रहा हूँ कि तुम पति की आकांक्षी हो।

    हे सुन्दरी,मुझसे प्रत्येक बात बतला दो।

    श्रीकालिन्द्युवाचअहं देवस्य सवितुर्दुहििता पतिमिच्छती ।

    विष्णुं वरेण्यं बरदं तप: परममास्थित: ॥

    २०॥

    श्री-कालिन्दी उबाच-- श्री कालिन्दी ने कहा; अहम्‌--मैं; देवस्थ--देवता की; सवितु:--सूर्य; दुहिता--पुत्री; पतिमू--पति रूपमें; इच्छती--चाहती हुईं; विष्णुम्‌-- भगवान्‌ विष्णु को; वरेण्यम्‌--सर्व श्रेष्ठ रूचि; वर-दम्‌--वर देने वाले; तप: --तपस्या में;परमम्‌--कठोर; आस्थित:ः--लगी हुई

    श्री कालिन्दी ने कहा : मैं सूर्यदेव की पुत्री हूँ।

    मैं परम सुन्दर तथा वरदानी भगवान्‌ विष्णुको अपने पति के रूप में चाहती हूँ और इसीलिए मैं कठोर तपस्या कर रही हूँ।

    नान्‍्यं पतिं वृणे वीर तमृते श्रीनिकेतनम्‌ ।

    तुष्यतां मे स भगवान्मुकुन्दोइनाथसंश्रय: ॥

    २१॥

    न--नहीं; अन्यम्‌ू--दूसरा; पतिम्‌--पति; वृणे--वरण करूँगी; वीर--हे वीर; तम्‌ू--उसके; ऋते--अतिरिक्त; श्री--लक्ष्मीका; निकेतनम्‌-- धाम; तुष्यताम्‌- प्रसन्न हों; मे--मुझसे; सः--वह; भगवान्‌-- भगवान्‌ मुकुन्दः -- कृष्ण; अनाथ--स्वामीविहीन का; संश्रय: --आश्रय |

    मैं उनको जो लक्ष्मी देवी के धाम हैं, छोड़कर और कोई पति स्वीकार नहीं करूँगी।

    वेभगवान्‌ मुकुन्द, जो कि अनाथों के आश्रय हैं, मुझ पर प्रसन्न हों।

    कालिन्दीति समाख्याता वसामि यमुनाजले ।

    निर्मिते भवने पित्रा यावदच्युतदर्शनम्‌ ॥

    २२॥

    कालिन्दी--कालिन्दी; इति--इस प्रकार; समाख्याता--नाम वाली; वसामि--रह रही हूँ; यमुना-जले--यमुना के जल में;निर्मिते--निर्मित; भवने-- भवन में; पित्रा--अपने पिता द्वारा; यावत्‌--जब तक; अच्युत-- भगवान्‌ कृष्ण के; दर्शनम्‌--दर्शन

    मेरा नाम कालिन्दी है और मैं अपने पिता द्वारा यमुना जल के भीतर निर्मित भवन में रहतीहूँ।

    मैं भगवान्‌ अच्युत से भेंट होने तक यहीं रुकूँगी।

    तथावदद्‌गुडाकेशो वासुदेवाय सोपि ताम्‌ ।

    रथमारोप्य तद्विद्वान्धर्मराजमुपागमत्‌ ॥

    २३॥

    तथा--इस प्रकार; अवदत्‌--कहा; गुडाकेश: --अर्जुन ने; वासुदेवाय-- भगवान्‌ कृष्ण से; सः--वह; अपि--तथा; तामू--उसको; रथम्‌--रथ पर; आरोप्य--चढ़ा कर; तत्‌--इन सबसे; विद्वान्‌ू-- अवगत; धर्म-राजम्‌--युधिष्ठटिर के पास; उपागमत्‌--गया।

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : अर्जुन ने ये सारी बातें वासुदेव से बतलाईं जो पहले सेइनसे अवगत थे।

    तब भगवान्‌ ने कालिन्दी को अपने रथ पर चढ़ा लिया और राजा युथ्चिष्ठिर को मिलने वापस चले गये।

    यदैव कृष्ण: सन्दिष्ट: पार्थानां परमाह्ठुतम्‌ ।

    'कारयामास नगर विचित्र विश्वकर्मणा ॥

    २४॥

    यदा एब--जब; कृष्ण:--कृष्ण; सन्दिष्ट:--प्रार्थना करने पर; पार्थानाम्‌--पृथा के पुत्रों के लिए; परम--अतीव; अद्भुतम्‌ू--अद्भुत; कारयाम्‌ आस--बनवाया था; नगरम्‌ू--नगर; विचित्रम्‌--विविधता से युक्त; विश्वकर्मणा--देवताओं के शिल्पीविश्वकर्मा द्वारा

    एक पुरानी घटना बतलाते हुए शुकदेव गोस्वामी ने कहा : पाण्डवों के अनुरोध परभगवान्‌ कृष्ण ने एक अत्यन्त अद्भुत एवं विचित्र नगरी का निर्माण विश्वकर्मा से कराया था।

    भगवांस्तत्र निवसन्स्वानां प्रियचिकीर्षया ।

    अग्नये खाण्डवं दातुमर्जुनस्यास सारथि: ॥

    २५॥

    भगवानू्‌-- भगवान्‌; तत्र-- वहाँ; निवसन्‌--रहते हुए; स्वानामू--अपने ( भक्तों ) के लिए; प्रिय-- आनन्द; चिकीर्षया--देने कीइच्छा से; अग्नये--अग्नि को; खाण्डवम्‌--खाण्डव वन; दातुम्‌-देने के लिए; अर्जुनस्य--अर्जुन के; आस--बने; सारथि: --रथचालक |

    भगवान्‌ अपने भक्तों को प्रसन्न करने के लिए उस नगरी में कुछ समय तक रहते रहे।

    एकअवसर पर श्रीकृष्ण ने अग्नि को दान के रूप में खाण्डव वन देना चाहा अतः वे अर्जुन केसारथी बने।

    सोग्निस्तुष्टो धनुरदाद्धयान्श्वेतात्रथं नृप ।

    अर्जुनायाक्षयौ तूणौ वर्म चाभेद्यमस्त्रभि: ॥

    २६॥

    सः--उस; अग्नि:--अग्निदेव ने; तुष्ट:--प्रसन्न होकर; धनु:-- धनुष; अदात्‌--दिया; हयान्‌--घोड़ों को; श्रेतान्‌--सफेद;रथम्‌--रथ; नृप--हे राजा ( परीक्षित ); अर्जुनाय--अर्जुन को; अक्षयौ--न समाप्त होने वाले; तूणौ--दो तरकस; वर्म--कवच; च--तथा; अभेद्यमू--न टूटने वाला; अस्त्रिभि:--हथियार चलाने वालों के द्वारा |

    हे राजन, अग्नि ने प्रसन्न होकर अर्जुन को एक धनुष, श्वेत घोड़ों की एक जोड़ी, एक रथ,कभी रिक्त न होने वाले दो तरकस दिये तथा एक कवच दिया जिसे कोई योद्धा हथियारों से भेदनहीं सकता था।

    मयश्न मोचितो वह्ठेः सभां सख्य उपाहरत्‌ ।

    यस्मिन्दुर्योधनस्यासीजजलस्थलदृशिभ्रम: ॥

    २७॥

    मय: --मय नामक दानव ने; च--तथा; मोचित: --मुक्त हुआ; वह्ेः--अग्नि से; सभामू--सभाभवन; सख्ये--अपने मित्र,अर्जुन को; उपाहरत्‌--भेंट किया; यस्मिन्‌--जिसमें; दुर्योधनस्य--दुर्योधन का; आसीत्‌-- था; जल--जल; स्थल--तथा भूमिके; हशि--देखने में; भ्रम: -- भ्रम ।

    जब मय दानव अपने मित्र अर्जुन द्वारा अग्नि से बचा लिया गया तो उसने उन्हें एकसभाभवन भेंट किया जिसमें आगे चलकर दुर्योधन को जल के स्थान पर ठोस फर्श का भ्रमहोता है।

    स तेन समनुज्ञातः सुहद्धिश्चानुमोदितः ।

    आययी द्वारकां भूयः सात्यकिप्रमखैर्वृत: ॥

    २८॥

    सः--वह, कृष्ण; तेन--उसके ( अर्जुन के ) द्वारा; समनुज्ञात:--विदा होकर; सु-हृद्धिः --शुभचिन्तकों द्वारा; च--तथा;अनुमोदित: -- अनुमति दिया गया; आययौ--गया; द्वारकाम्‌ू--द्वारका; भूयः--फिर; सात्यकि-प्रमुखैः--सात्यकि इत्यादि के;वृतः--साथ।

    तब अर्जुन तथा अन्य शुभचिन्तक संबन्धियों एवं मित्रों से विदा लेकर भगवान्‌ कृष्णसात्यकि तथा अपने अन्य परिचरों समेत द्वारका लौट गये।

    अथोपयेमे कालिन्दीं सुपुण्यरत्व॑क्ष ऊर्जिते ।

    वितन्वन्परमानन्दं स्वानां परममड्भगलः ॥

    २९॥

    अथ--तब; उपयेमे--विवाह किया; कालिन्दीम्‌--कालिन्दी से; सु--अत्यन्त; पुण्य--शुभ; ऋतु--ऋतु; ऋक्षे--तथा चान्द्रलग्न; ऊर्जिते--जिस दिन सूर्य तथा अन्य ग्रहों की स्थिति उत्तम थी; वितन्वन्‌ू--फैलाते हुए; परम--परम; आनन्दम्‌-- आनन्द;स्वानामू-- अपने भक्तों के लिए; परम--अत्यन्त; मड्ुलः-शुभ।

    तब परम ऐश्वर्यशाली भगवान्‌ ने कालिन्दी के साथ उस दिन विवाह कर लिया जिस दिनऋतु, चन्द्र लग्न एवं सूर्य तथा अन्य ग्रहों की स्थिति इत्यादि सभी शुभ थे।

    इस तरह उन्होंने अपनेभक्तों को परम आनन्द प्रदान किया।

    विन्द्यानुविन्द्यावावन्त्यौ दुर्योधनवशानुगौ ।

    स्वयंवरे स्वभगिनीं कृष्णे सक्तां न्‍्यघेधताम्‌ ॥

    ३०॥

    विन्द्य-अनुविन्दयौ--विन्द्य तथा अनुविन्द्य; आवन्त्यौ--अवन्ती के दो राजा; दुर्योधन-वश-अनुगौ--दुर्योधन के अधीन;स्वयम्बरे--स्वयम्वर में; स्व-- अपनी; भगिनीम्‌--बहन को; कृष्णे--कृष्ण को; सक्तामू--जो आसक्त थी; न्यषेधताम्‌--रोकदिया।

    विन्द्य तथा अनुविन्द्य जो अवन्ती के संयुक्त राजा थे, दुर्योधन के अनुयायी थे।

    जब स्वयंवरउत्सव में पति चुनने का अवसर आया तो उन्होंने अपनी बहिन ( मित्रविन्दा ) को कृष्ण का वरणकरने से मना किया यद्यपि वह उनके प्रति अत्यधिक आसक्त थी।

    राजाधिदेव्यास्तनयां मित्रविन्दां पितृष्वसु: ।

    प्रसह्य हृतवान्कृष्णो राजन्नाज्ञां प्रपश्यताम्‌ ॥

    ३१॥

    राजाधिदेव्या:--राजाधिदेवी महारानी की; तनयामू--पुत्री; मित्रविन्दाम्‌--मित्रविन्दा को; पितृ--पिता की; स्वसु:--बहन का;प्रसह्या--बलपूर्वक; हृतवान्‌--हरण कर लिया; कृष्ण: --कृष्ण ने; राजन्‌--हे राजा ( परीक्षित ); राज्ञामू--राजाओं के;प्रपश्यताम्‌--देखते हुए।

    हे राजन, अपनी बुआ राजाधिदेवी की पुत्री मित्रविन्दा को प्रतिद्वन्दी राजाओं की आँखों केसामने से भगवान्‌ कृष्ण बलपूर्वक उठा ले गये।

    नग्नजिन्नाम कौशल्य आसीद्राजातिधार्मिक: ।

    तस्य सत्याभवत्कन्या देवी नाग्नजिती नृूप ॥

    ३२॥

    नग्नजित्‌ू--नग्नजित; नाम--नामक; कौशल्य: --कौशल्य ( अयोध्या ) का राजा; आसीतू-- था; राजा--राजा; अति--अत्यन्त;धार्मिक: --धार्मिक; तस्थ--उसकी; सत्या--सत्या; अभवत्‌-- थी; कन्या--पुत्री; देवी--सुन्दर; नाग्गजिती--नाग्नजिती नामभी था; नृप--हे राजा

    हे राजनू, कौशल्य के अत्यन्त धार्मिक राजा नग्नजित के एक सुन्दर कन्या थी जिसका नामसत्या अथवा नाग्नजिती था।

    नतां शेकुर्नूपा वोढुमजित्वा सप्तगोवृषान्‌ ।

    तीक्ष्णश्रृड्नान्सुदुर्धर्षान्वीर्यगन्‍्धासहान्खलान्‌ ॥

    ३३ ॥

    न--नहीं; ताम्‌ू--उसको; शेकु:--समर्थ थे; नृपा:--राजागण; बोढुम्‌ू--ब्याहने के लिए; अजित्वा--हराये बिना; सप्त--सात;गो-वृषान्‌--बैलों को; तीक्षण--तेज; श्रृड्ानू--सींग वाले; सु--अत्यन्त; दुर्धर्षानू--वश में न आने वाले; वीर्य--वीरों की;गन्ध--महक; असहान्‌--सहन न करते हुए; खलानू--दुष्ट |

    जो राजा ब्याहने के लिए आते थे उन्हें तब तक विवाह नहीं करने दिया जाता था जब तक वेतेज सींगों वाले सात बैलों को वश में न कर लें।

    ये बैल अत्यन्त दुष्ट तथा वश में न आने वाले थेऔर वे वीरों की गंध भी सहन नहीं कर सकते थे।

    तां श्रुत्वा वृषजिल्लभ्यां भगवान्सात्वतां पति: ।

    जगाम कौशल्यपुरं सैन्येन महता वृतः ॥

    ३४॥

    ताम्‌--उसके विषय में; श्रुत्वा--सुनकर; वृष--बैल; जित्‌ू--जीतने वाला; लभ्याम्‌--प्राप्तनीय; भगवान्‌-- भगवान्‌;सात्वताम्‌ू--वैष्णवों के; पति:--स्वामी; जगाम--गये; कौशल्य-पुरम्‌ू--कौशल्य राज्य की राजधानी में; सैन्येन--सेना से;महता--विशाल; वृत:--घिर कर।

    जब वैष्णवों के स्वामी भगवान्‌ ने उस राजकुमारी के बारे में सुना जो बैलों के विजेता द्वाराजीती जानी थी, तो वे विशाल सेना के साथ कौशल्य की राजधानी गये।

    स कोशलपति: प्रीतः प्रत्युत्थानासनादिभि: ।

    अर्हणेनापि गुरुणा पूजयन्प्रतिनन्दितः ॥

    ३५॥

    सः--उस; कोशल-पति:--कोशल के स्वामी ने; प्रीत:--प्रसन्न; प्रत्युतधान--खड़े होकर; आसन--आसन; आदिभिः--इ त्यादिप्रदान करके; अर्हणेन--तथा भेंटों से; अपि-- भी; गुरुणा--पर्याप्त; पूजबन्‌--पूजा करते हुए; प्रतिनन्दित:--उसका भीसत्कार किया।

    कोशल का राजा कृष्ण को देखकर हर्षित हुआ।

    उसने अपने सिंहासन से उठकर तथाप्रतिष्ठित पद एवं पर्याप्त उपहार देकर भगवान्‌ कृष्ण की पूजा की।

    भगवान्‌ कृष्ण ने भी राजाका आदरपूर्वक अभिवादन किया।

    वरं विलोक्याभिमतं समागतंनरेन्द्रकन्या चकमे रमापतिम्‌ ।

    भूयादयं मे पतिराशिषोनलःकरोतु सत्या यदि मे धृतो व्रत: ॥

    ३६॥

    वरम्‌--दूल्हे को; विलोक्य--देखकर; अभिमतम्‌ू--ग्राह्म; समागतम्‌--आई ; नरेन्द्र--राजा की; कन्या--पुत्री; चकमे--इच्छाकी; रमा--लक्ष्मी के; पतिमू--पति को; भूयात्‌--बन सके; अयम्‌--वह; मे--मेरा; पतिः--पति; आशिष:--आशाएँ;अनलः--अग्नि; करोतु--कर दे; सत्या:--सच; यदि--यदि; मे--मेरे द्वारा; धृत:--पालन किया गया; ब्रत:--मेरा व्रत |

    जब राजा की पुत्री ने देखा कि वह सर्वाधिक उपयुक्त दूल्हा आया है, तो उसने तुरन्त हीरमापति श्रीकृष्ण को पाने की कामना की।

    उसने प्रार्थना की, 'वे मेरे पति बनें।

    यदि मैंने व्रतकिये हैं, तो पवित्र अग्नि मेरी आशाओं को पूरा करे।

    'यत्पादपड्भगुजरज: शिरसा बिभर्तिश्रीरब्जज: सगिरिश: सहलोकपालै: ।

    लीलातनु: स्वकृतसेतुपरीप्सया यःकालेदधत्स भगवान्मम केन तुष्येत्‌ ॥

    ३७॥

    यत्‌--जिसके; पाद--पैरों की; पड्टूज--कमल सहश; रज:-- धूलि; शिरसा--सिर पर; बिभर्ति-- धारण करती है; श्री:--लक्ष्मी; अब्जन-ज:--कमल से जन्मे, ब्रह्माजी; स--सहित; गिरि-शः--कैलाश पर्वत के स्वामी, शिवजी; सह--सहित;लोक--लोकों के; पालैः--शासकों द्वारा; लीला--उनकी लीला के रूप में; तनु;:--शरीर; स्व--अपने से; कृत--उत्पन्न;सेतु--धर्म-संहिता; परीप्सया--रक्षा करने की इच्छा से; यः--जिसने; काले--कालक्रम में; अदधत्‌-- धारण किया; सः--वह; भगवानू्‌-- भगवान्‌; मम--मुझसे; केन--किस प्रकार से; तुष्येत्‌--प्रसन्न हो सकेंगे।

    'देवी लक्ष्मी, ब्रह्मा, शिव तथा विभिन्न लोकों के शासक उनके चरणकमलों की धूलि कोअपने सिरों पर चढ़ाते हैं और जो अपने द्वारा निर्मित धर्म-संहिता की रक्षा के लिए विभिन्न कालोंमें लीलावतार धारण करते हैं।

    भला वे भगवान्‌ मुझ पर कैसे प्रसन्न हो सकेंगे ?

    'अर्चितं पुनरित्याह नारायण जगत्पते ।

    आत्मानन्देन पूर्णस्य करवाणि किमल्पकः ॥

    ३८॥

    अर्चितम्‌--पूजे जाने वाले को; पुनः--और भी; इति--इस प्रकार; आह--( राजा नग्नजित ने ) कहा; नारायण--हे नारायण;जगतू--ब्रह्माण्ड के; पते--हे स्वामी; आत्म--अपने भीतर; आनन्देन--आनन्द के साथ; पूर्णस्य--जो पूर्ण है उसका;'करवाणि--कर सकता हूँ; किम्‌--क्या; अल्पक:--तुच्छ |

    सर्वप्रथम राजा नग्नजित ने भगवान्‌ की समुचित पूजा की और तब उन्हें सम्बोधित किया,'हे नारायण, हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, आप अपने आध्यात्मिक आनन्द में पूर्ण रहते हैं।

    अतः यहतुच्छ व्यक्ति आपके लिए क्‍या कर सकता है ?'! श्रीशुक उवाचतमाह भगवान्हष्टः कृतासनपरिग्रहः ॥

    मेघगम्भीरया वाचा सस्मितं कुरुनन्दन ॥

    ३९॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; तम्‌--उससे; आह--कहा; भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; हष्ट:--प्रसन्न; कृत--कियाहुआ; आसन--आसन; परिग्रह:--स्वीकृति; मेघ--बादल की तरह; गम्भीरया--गम्भीर; वाचा--वाणी में; स--सहित;स्मितम्‌-मन्द हँसी से; कुरू--कुरुओं के; नन्दन--हे प्रिय वंशज।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे कुरुनन्दन, भगवान्‌ प्रसन्न थे और सुविधाजनक आसनस्वीकार करके वे मुसकाये तथा मेघ-गर्जना सदृश धीर-गम्भीर वाणी में राजा से बोले।

    श्रीभगवानुवाचनरेन्द्र याच्ञा कविभिर्विगर्हिताराजन्यबन्धोर्निजधर्मवर्तिन: ।

    तथापि याचे तव सौहदेच्छयाकन्यां त्वदीयां न हि शुल्कदा वयम्‌ ॥

    ४०॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; नर-इन्द्र--हे मनुष्यों के शासक; याच्ञा--माँगना; कविभि:--विद्धानों द्वारा;विगर्हिता--निन्दनीय; राजन्य--राजवर्ग के; बन्धो:--सदस्य के लिए; निज--अपने; धर्म--धार्मिक मानदण्ड में; वर्तिनः --स्थित; तथा अपि--तो भी; याचे--मैं माँग रहा हूँ; तब--तुमसे; सौहद--मैत्री की; इच्छया--इच्छा से; कन्याम्‌--कन्या;त्वदीयाम्‌--तुम्हारी; न--नहीं; हि--निस्सन्देह; शुल्क-दा:ः--कर देने वाले; वयम्‌--हम

    भगवान्‌ ने कहा : हे मनुष्यों के शासक, विद्वानजन धर्म में रत राजवर्य व्यक्ति से याचनाकरने की निन्दा करते हैं।

    तो भी, तुम्हारी मित्रता का इच्छुक मैं तुमसे तुम्हारी कन्या को माँग रहाहूँ यद्यपि हम बदले में कोई भेंट नहीं दे रहे।

    श्रीराजोबाचको<न्यस्ते भ्यधिको नाथ कन्यावर इहेप्सित: ।

    गुणैकधाम्नो यस्याड्रे श्रीव॑सत्यनपायिनी ॥

    ४१॥

    श्री-राजा उबाच--राजा नग्नजित ने कहा; कः--कौन; अन्य:--दूसरा; ते--तुमसे; अभ्यधिक:-- श्रेष्ठ; नाथ--हे स्वामी;कन्या--मेरी कन्या के लिए; वरः--दूल्हा; इह--इस संसार में; ईप्सित:--इच्छित; गुण--दिव्य गुणों का; एक--एकमात्र;धाम्न:--धाम; यस्य--जिसके; अड्जे--शरीर में; श्री:--लक्ष्मी; बसति--वास करती है; अनपायिनी--कभी न छोड़ने वाली |

    राजा ने कहा : हे प्रभु, भला मेरी पुत्री के लिए आपसे बढ़कर और कौन वर हो सकता है ?आप सभी दिव्य गुणों के धाम हैं।

    आपके शरीर पर साक्षात्‌ लक्ष्मी निवास करती हैं और वे किसी भी कारण से आपको कभी नहीं छोड़तीं।

    किन्त्वस्माभि: कृत: पूर्व समय: सात्वतर्षभ ।

    पुंसां वीर्यपरीक्षार्थ कन्यावरपरीप्सया ॥

    ४२॥

    किन्तु--लेकिन; अस्माभि:--हमारे ( परिवार के ) द्वारा; कृतः--बनाया; पूर्वम्‌ू--पहले की; समय:-- प्रतिज्ञा; सात्वत-ऋषभ--हे सात्वतों के प्रमुख; पुंसामू--मनुष्यों का ( जो यहाँ आये हैं ); वीर्य--पराक्रम; परीक्षा--परीक्षा के; अर्थम्‌-हेतु;कन्या-मेरी पुत्री के लिए; वर--दूल्हा, पति; परीप्सबा--खोजने की इच्छा से |

    किन्तु हे सात्वत-प्रमुख, अपनी पुत्री के लिए उपयुक्त पति सुनिश्चित करने के लिए हमनेउसके संभावित वरों के पराक्रम की परीक्षा करने के लिए पहले से ही एक शर्त निश्चित की हुईहै।

    सप्तैते गोवृषा वीर दुर्दान्ता दुरवग्रहा: ।

    एतैर्भग्ना: सुबहवो भिन्नगात्रा नृपात्मजा: ॥

    ४३॥

    सप्त--सात; एते--ये; गो-वृषा:--बैल; वीर--हे वीर; दुर्दान्ताः--खूँखार; दुरवग्रहा: --अखंड; एतै:--उनके द्वारा; भग्ना:--पराजित; सु-बहव:--अनेकानेक; भिन्न--टूटे; गात्रा:--अंगों वाले; नृप--राजाओं के; आत्म-जा:--पुत्र |

    हे वीर, इन सातों खूँखार बैलों को वश में करना असम्भव है।

    इन्होंने (इन बैलों ने ) अनेकराजकुमारों के अंगों को खण्डित करके उन्हें परास्त किया है।

    यदिमे निगृहीता: स्युस्त्वयैव यदुनन्दन ।

    वरो भवानभिमतो दुहितुर्मे श्रियःपते ॥

    ४४॥

    यतू--यदि; इमे--वे; निगृहीता:--वशी भूत; स्युः--हो जाते हैं; त्वया--तुम्हारे द्वारा; एब--निस्सन्देह; यदु-नन्दन--हे यदुवंशी;वरः--दूल्हा; भवान्‌ू--आप; अभिमतः --स्वीकृत, अभीष्ट; दुहितुः--पुत्री के लिए; मे--मेरी; श्रियः--लक्ष्मी के; पते--हेपति

    हे यदुवंशी, यदि आप इन्हें वश में कर लें तो निश्चित रूप से, हे श्रीपति, आप ही मेरी पुत्रीके उपयुक्त वर होंगे।

    एवं समयमाकर्णय्य बद्ध्वा परिकरं प्रभु: ।

    आत्मानं सप्तधा कृत्वा न्यगृह्ञाल्लीलयैव तान्‌ ॥

    ४५॥

    एवम्‌--इस प्रकार; समयम्‌--शर्त, प्रतिज्ञा; आकर्ण्य--सुनकर; बद्ध्वा--कस कर; परिकरम्‌-- अपने वस्त्र; प्रभु:--प्रभु;आत्मानम्‌ू--अपने को; सप्तधा--सात रूप; कृत्वा--करके; न्यगृह्ञत्‌ू--वश में कर लिया; लीलया--खेल खेल में; एब--केवल; तान्‌ू--उनको |

    इन शर्तों को सुनकर भगवान्‌ ने अपने वस्त्र कसे, अपने आपको सात रूपों में विस्तारितकिया और बड़ी आसानी से बैलों को वश में कर लिया।

    बद्ध्वा तान्दामभिः शौरिभभग्नदर्पान्हतौजसः ।

    व्यकर्सललीलया बद्धान्बालो दारुमयान्यथा ॥

    ४६॥

    बद्ध्वा--बाँध कर; तानू--उनको; दामभि:--रस्सियों से; शौरि:-- भगवान्‌ कृष्ण ने; भग्न--खण्डित; दर्पानू--घमंड; हत--विनष्ट; ओजसः--पराक्रम; व्यकर्षत्‌--घसीटा; लीलया--खेल खेल में; बद्धानू--बँधे हुए; बाल:--बालक; दारु--लकड़ीके; मयान्‌ू--बने; यथा--जिस तरह |

    भगवान्‌ शौरि ने उन बैलों को बाँध लिया जिनका घमंड तथा बल अब टूट चुका था औरउन्हें रस्सियों से इस तरह खींचा जिस तरह कोई बालक खेल में लकड़ी के बने बैलों केखिलौनों को खींचता है।

    ततः प्रीत: सुतां राजा ददौ कृष्णाय विस्मित: ।

    तां प्रत्यगृह्माद्धनवान्विधिवत्सहशी प्रभु: ॥

    ४७॥

    ततः--तब; प्रीतः--प्रसन्न; सुतामू--अपनी पुत्री को; राजा--राजा ने; ददौ--दे दिया; कृष्णाय--कृष्ण को; विस्मित: --चकित; ताम्‌--उसको ; प्रत्यगृह्मत्‌ू--स्वीकार किया; भगवानू--परम पुरुष ने; विधि-बत्‌--वैदिक विधि के अनुसार;सहशीम्‌--अनुरूप; प्रभु:--भगवान्‌ के |

    तब प्रसन्न तथा चकित राजा नग्नजित ने अपनी पुत्री भगवान्‌ कृष्ण को भेंट कर दी।

    भगवान्‌ ने इस अनुरूप दुलहन को वैदिक विधि के साथ स्वीकार किया।

    राजपल्यश्च दुहितु: कृष्णं लब्ध्वा प्रियं पतिम्‌ ।

    लेभिरे परमानन्दं जातश्च परमोत्सव: ॥

    ४८ ॥

    राज--राजा की; पत्य:--पत्नियाँ; च--तथा; दुहितु:--तथा उसकी पुत्री के; कृष्णम्‌--कृष्ण को; लब्ध्वा--प्राप्त करके ;प्रियम्‌--प्रिय; पतिम्‌--पति; लेभिरि-- अनुभव किया; परम--महानतम; आनन्दम्‌--आनन्द; जात:--उत्पन्न; च--तथा;'परम--महानतम ; उत्सव:--उत्सव |

    राजकुमारी को भगवान्‌ कृष्ण के प्रिय पति के रूप में प्राप्त होने पर राजा की पत्नियों कोसर्वाधिक आनन्द प्राप्त हुआ और अतीब उत्सव का भाव जाग उठा।

    श्भुभेर्यानका नेदुर्गीतवाद्यद्विजाशिष: ।

    नरा नार्य: प्रमुदिता: सुवास:सत्रगलड्डू ता: ॥

    ४९॥

    शब्भु--शंख; भेरी--तुरही; आनका:--तथा ढोल; नेदु:--बज उठे; गीत--गीत; वाह्य--वाद्य-संगीत; द्विज--ब्राह्मणों के;आशिषः:--आशीर्वाद; नराः--मनुष्य; नार्य:--स्त्रियाँ; प्रमुदिता:-- प्रसन्न; सु-वास: --सुन्दर बस्त्रों; स्रकू--तथा मालाओं से;अलट्डू ता:--सुसज्जित

    गीत तथा वाद्य संगीत और ब्राह्मणों द्वारा आशीर्वाद देने की ध्वनियों के साथ साथ शंख,तुरही तथा ढोल बजने लगे।

    प्रमुदित नर-नारियों ने अपने को सुन्दर बस्त्रों तथा मालाओं सेअलंकृत किया।

    दशधेनुसहस्त्राणि पारिबईमदाद्विभु: ।

    युवतीनां त्रिसाहस्त्रं निष्कग्रीवसुवाससम्‌ ॥

    ५०॥

    नवनागसहस्त्राणि नागाच्छतगुणात्रथान्‌ ।

    रथाच्छतगुणानश्वानश्वाच्छतगुणान्नरान्‌ ॥

    ५१॥

    दश--दस; धेनु--गायों का; सहस्त्राणि--हजार; पारिबर्हम्‌--दहेज; अदात्‌--दिया; विभु:--शक्तिशाली ( राजा नग्नजित );युवतीनाम्‌--युवतियों के; त्रि-साहस्त्रमू--तीन हजार; निष्क--सुनहरे आभूषण; ग्रीव--गर्दन में; सु--उत्तम; वाससम्‌--वस्त्र;नव--नौ; नाग--हाथियों का; सहस्त्राणि --हजार; नागात्‌--हाथियों की अपेक्षा; शत-गुणान्‌ू--सौ गुना अधिक( ९,००,००० ); रथान्‌--रथ; रथात्‌--रथों से; शत-गुणान्‌--सौ गुना अधिक; अश्वान्‌--धघोड़े; अश्वात्‌--अश्वों की तुलना में;शत-गुणान्‌--एक सौ गुना अधिक ( ९ अरब ); नरान्‌-मनुष्यों को |

    शक्तिशाली राजा नग्नजित ने दहेज के रूप में दस हजार गौवें, तीन हजार युवा-दासियाँ जोअपने गलों में सोने के आभूषण पहने थीं तथा सुन्दर वस्त्रों से अलंकृत थीं, नौ हजार हाथी,हाथियों के एक सौ गुना रथ, रथों के एक सौ गुना घोड़े तथा घोड़ों के सौ गुने नौकर दिये।

    दम्पती रथमारोप्य महत्या सेनया वृतौ ।

    स्नेहप्रक्लिन्नददयो यापपयामास कोशलः ॥

    ५२॥

    दम्‌-पती--जोड़ी; रथम्--रथ पर; आरोप्य--बैठाकर; महत्या--विशाल; सेनया--सेना से; वृतौ--युक्त; स्नेह--स्नेह से;प्रक्लिन्न--द्रवित; हृदयः--हृदय वाला; यापयाम्‌ आस--विदा किया; कोशल:--कोशल के राजा ने

    स्नेह से द्रवीभूत हृदय से, कोशल के राजा ने वर-वधू को उनके रथ पर बैठा दिया और तबएक विशाल सेना के साथ उन्हें विदा कर दिया।

    श्रुत्वैतद्रुरु धु भूपा नयन्तं पथि कन्यकाम्‌ ।

    भग्नवीर्या: सुदुर्मर्षा यदुभिगोंवृषै: पुरा ॥

    ५३॥

    श्रुत्वा--सुनकर; एतत्‌--यह; रुरुधु;--रोक दिया; भू-पा:--राजाओं ने; नयन्तम्‌--ले जा रहे; पथि--रास्ते में; कन्‍्यकाम्‌--दुलहन को; भग्न--खण्डित; वीर्या:--शक्ति वाले; सु--अत्यन्त; दुर्मर्षा:--असहिष्णु; यदुभि:--यदुओं द्वारा; गो-वृषैः --बैलोंसे; पुरा--पहले।

    जब स्वयंवर में आये असहिष्णु प्रतिद्वन्द्ी राजाओं ने सारी घटना के बारे में सुना तो उन्होंनेभगवान्‌ कृष्ण को, अपनी दुलहन घर ले जाते समय मार्ग में रोकना चाहा।

    किन्तु जिस तरहइसके पूर्व बैलों ने राजाओं के बल को तोड़ दिया था उसी तरह अब यदु-योद्धाओं ने उनके बलको तोड़ दिया।

    तानस्यतः शरक्रातान्बन्धुप्रियकृदर्जुन: ।

    गाण्डीवी कालयामास सिंहः क्षुद्रमृगानिव ॥

    ५४॥

    तान्‌--उनको; अस्यत:ः--फेंकते हुए; शर--बाणों के; ब्रातान्‌--झुंड के झुंड; बन्धु --उसके मित्र ( श्रीकृष्ण ); प्रिय--प्रसन्नकरने के लिए; कृतू-करते हुए; अर्जुन:--अर्जुन ने; गण्डीवी--गाण्डीव धनुष का स्वामी; कालयाम्‌ आस-- भगा दिया;सिंह:--सिंह; क्षुद्र--तुच्छ; मृगान्‌--पशुओं को; इब--जिस तरह |

    गाण्डीव थधनुर्धारी अर्जुन अपने मित्र कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए सदैव उत्सुक रहते थेअतः उन्होंने उन सारे प्रतिद्वन्द्रियों को भगा दिया जो भगवान्‌ पर बाणों की झड़ी लगाये हुए थे।

    उन्होंने यह सब वैसे ही किया जिस तरह एक सिंह क्षुद्र पशुओं को खदेड़ देता है।

    पारिबर्हमुपागृह्य द्वारकामेत्य सत्यया ।

    रेमे यदूनामृषभो भगवान्देवकीसुतः ॥

    ५५॥

    पारिबरहम्‌--दहेज; उपागृह्य--लेकर; द्वारकाम्‌-दद्वारका में; एत्य-- आकर; सत्यया--सत्या के साथ; रेमे--विलास किया;यदूनाम्‌ू--यदुओं के; ऋषभ: -- प्रमुख; भगवान्‌-- भगवान्‌; देवकी-सुत:--देवकी -पुत्र ने

    तब यदुओं के प्रधान भगवान्‌ देवकीसुत दहेज तथा सत्या को लेकर द्वारका गये और वहाँसुखपूर्वक रहने लगे।

    श्रुतकीर्ते: सुतां भद्रां उपयेमे पितृष्वसु: ।

    कैकेयीं भ्रातृभिर्दत्तां कृष्ण: सन्तर्दनादिभि: ॥

    ५६॥

    श्रुतकीर्ते:--श्रुतकीर्ति की; सुताम्‌--पुत्री; भद्राम्‌-- भद्गा को; उपयेमे--ब्याहा; पितृ-स्वसु:--अपने पिता की बहन की;कैकेयीम्‌--कैकेय की राजकुमारी; भ्रातृभिः--उसके भाइयों द्वारा; दत्तामू-दी हुईं; कृष्ण:--कृष्ण; सन्तर्दन-आदिभि:--सन्तर्दन इत्यादि द्वारा

    भद्गा कैकेय राज्य की राजकुमारी तथा कृष्ण की बुआ श्रुतकीर्ति की पुत्री थी।

    जब सनन्‍्तर्दनइत्यादि उसके भाइयों ने उसे कृष्ण को भेंट किया, तो उन्होंने भद्रा से विवाह कर लिया।

    सुतां च मद्राधिपतेर्लक्ष्मणां लक्षणैर्यताम्‌ ।

    स्वयंवरे जहारैक: स सुपर्ण: सुधामिव ॥

    ५७॥

    सुताम्‌--पुत्री को; च--तथा; मद्र-अधिपते: --मद्र देश के शासक की; लक्ष्मणाम्‌--लक्ष्मणा को; लक्षणै:--सारे सदगुणों से;युताम्‌ू--युक्त; स्वयमू्‌-वरे--स्वयंवर उत्सव में; जहार--हर ले गया; एक:--अकेले; सः--वह, कृष्ण; सुपर्ण:--गरुड़;सुधाम्‌-- अमृत को; इब--जिस तरह।

    तब भगवान्‌ ने मद्रराज की कन्या लक्ष्मणा से विवाह किया।

    कृष्ण अकेले ही उसकेस्वयंवर समारोह में गये थे और उसे उसी तरह हर ले आये जिस तरह गरुड़ ने एक बार देवताओंका अमृत चुरा ले गया था।

    अन्याश्चेवंविधा भार्या: कृष्णस्यासन्सहस्त्रशः ।

    भौम॑ हत्वा तन्निरोधादाहताश्चारुदर्शना: ॥

    ५८ ॥

    अन्या:--अन्य; च--तथा; एवमू-विधा: --इन्हीं की तरह; भार्या:--पत्नियाँ; कृष्णस्य--कृष्ण की; आसन्‌-- हुईं; सहस्नश:--हजारों; भौमम्‌-- भौम असुर को; हत्वा--मार कर; तत्‌--उस भौम से; निरोधात्‌--उनके बन्दीगृह से; आहता:--हरण की गई;चारु--सुन्दर; दर्शना:--जिनकी सूरत ।

    भगवान्‌ कृष्ण ने इन्हीं के समान अन्य हजारों पत्नियाँ तब प्राप्त कीं जब उन्होंने भौमासुर कोमारा और उसके द्वारा बन्दी बनाई गई सुन्दरियों को छुड़ाया।

    TO

    अध्याय उनसठवाँ: राक्षस नरक का वध

    10.59श्रीराजोवाच यथा हतो भगवता भौमो येने च ताः स्त्रिय: ।

    निरुद्धा एतदाचक्ष्व विक्रमं शार्ड्धन्‍्वनः ॥

    १॥

    श्री-राजा उवाच--राजा ( परीक्षित ) ने कहा; यथा--कैसे; हतः--मारा गया; भगवता-- भगवान्‌ द्वारा; भौम: --नरकासुर, भूमिया पृथ्वीदेवी का पुत्र; येन--जिसके द्वारा; च--तथा; ता: --वे; स्त्रिय:--स्त्रियाँ; निरुद्धा:--बन्दी; एतत्‌--यह; आचक्ष्व--'कहिये; विक्रमम्‌-शौर्य; शार्ड-धन्वन:--शार्ड्र धनुष के स्वामी कृष्ण का।

    राजा परीक्षित ने कहा : अनेक स्त्रियों का अपहरण करने वाला भौमासुर किस तरहभगवान्‌ द्वारा मारा गया ? कृपा करके भगवान्‌ शार्ड्धन्वा के इस शौर्य का वर्णन कीजिये।

    श्रीशुक उबाच इन्द्रेण हृतछत्रेण हृतकुण्डलबन्धुना ।

    हतामराद्रिस्थानेन ज्ञापितो भौमचेष्टितम्‌ ।

    सभार्यो गरुडारूढ:ः प्राग्ज्योतिषपुरं ययौ ॥

    २॥

    गिरिदुर्गं: शस्त्रदुर्गैर्जलाग्न्यनिलदुर्गमम्‌ ।

    मुरपाशायुतै्घोरेर्डढै: सर्वत आवृतम्‌ ॥

    ३॥

    श्री-शुक: उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इन्द्रेण--३इन्द्र द्वारा; हृत-छत्रेण--जिससे ( वरुण का ) छाता चुरा लिया गया;हत-कुण्डल--कुण्डलों की चोरी; बन्धुना--उसके सम्बन्धियों ( माता अदिति ) के; हत--तथा चोरी; अमर-अद्वि--देवताओंके पर्वत ( मन्दर ) पर; स्थानेन--विशेष स्थान ( पर्वत की चोटी पर बने क्रीड़ास्थल, मणिपर्वत ) पर; ज्ञापित:--सूचित किया;भौम-चेष्टितम्‌-- भौम के कार्यकलापों का; स--सहित; भार्य:--अपनी पत्नी ( सत्यभामा ); गरूुड-आरूढ:--गरुड़ पर सवारहोकर; प्रागू-ज्योतिष-पुरम्‌-- भौम की राजधानी प्राग्ज्योतिषपुर ( आसाम में स्थित-वर्तमान तेजपुर ); ययौ--गया; गिरि--पर्वत;दुर्ग:--किलेबन्दी द्वारा; शस्त्र--हथियारों से युक्त; दुर्गै:--किलेबन्दी द्वारा; जल--जल; अग्नि--आग; अनिल--तथा वायु के;दुर्गमम--किलेबन्दी से दुर्गम बनाया गया; मुर-पाश--केबलों ( तारों ) की घातक दीवाल से; अयुतैः --दसियों हजार; घोरैः --भयावना; हृढेः--तथा मजबूत; सर्वतः--सभी दिशाओं से; आवृतम्‌--घिरा हुआ

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब भौम ने इन्द्र की माता के कुंडलों के साथ साथ वरुण काछत्र तथा मन्दर पर्वत की चोटी पर स्थित देवताओं की क्रीड़ास्थली को चुरा लिया तो इन्द्र कृष्णके पास गया और उन्हें इन दुष्कृत्यों की सूचना दी।

    तब भगवान्‌ अपनी पत्नी सत्यभामा को साथलेकर गरुड़ पर सवार होकर प्राग्ज्योतिषपुर के लिए रवाना हो गये जो चारों ओर से पर्वतों, बिनापुरुषों के चलाये जाने वाले हथियारों, जल, अग्नि तथा वायु से और मुर पाशतारों ( फन्दों ) केअवरोधों से घेरा हुआ था।

    गदया निर्जिभेदाद्रीन्शस्त्रदुर्गाणि सायकै: ।

    चक्रेणारिन जल वायुं मुरपाशांस्तथासिना ॥

    ४॥

    गदया--अपनी गदा से; निर्विभेद--तोड़ डाला; अद्रीन्‌--पर्वतों को; शस्त्र-दुर्गाणि -- अवरोधक हथियार; सायकै:--अपनेबाणों से; चक्रेण--अपने चक्र से; अग्निमू--अग्नि को; जलम्‌ू--जल को; वायुम्‌--तथा वायु को; मुर-पाशान्‌--तारों केफंदों के अवरोधों को; तथा--इसी तरह; असिना--अपनी तलवार से।

    भगवान्‌ ने अपनी गदा से चट्टानी किलेबन्दी को, अपने बाणों से हथियारों की नाकेबन्दीको, अपने चक्र से अग्नि, जल तथा वायु की किलेबन्दी को और अपनी तलवार से मुर पाश कीतारों को नष्ट- भ्रष्ट कर दिया।

    श्भुनादेन यन्त्राणि हृदयानि मनस्विनाम्‌ ।

    प्राकारं गदया गुर्व्या निर्विभेद गदाधर: ॥

    ५॥

    शद्भु-- अपने शंख की; नादेन--ध्वनि से; यन्त्राणि--योग के तिलिस्मों को; हृदयानि--हृदयों को; मनस्विनाम्‌--बहादुरों के;प्राकारमू--परकोटे को; गदया--अपनी गदा से; गुर्व्या--भारी; निर्व$िभेद--तोड़ डाला; गदाधर:-- भगवान्‌ कृष्ण ने |

    तब गदाधर ने अपने शंख की ध्वनि से दुर्ग के जादुई तिलिस्मों को और उसी के साथ उसकेवीर रक्षकों के हृदयों को ध्वस्त कर दिया।

    उन्होंने अपनी भारी गदा से किले के मिट्टी से बनेपरकोटे को ढहा दिया।

    पाझ्जजन्यध्वनिं श्रुत्वा युगान्‍्तशनिभीषणम्‌ ।

    मुरः शयान उत्तस्थौ दैत्य: पञ्ञशिरा जलात्‌ ॥

    ६॥

    पाञ्जजन्य--कृष्ण के शंख की; ध्वनिमू--आवाज को; श्रुत्वा--सुनकर; युग--ब्रह्माण्ड के युग के; अन्त--अन्त में; अशनि--बिजली की ( ध्वनि के समान ); भीषणम्‌--दिल दहलाने वाली; मुर:--मुर; शयान:--सोया हुआ; उत्तस्थौ--उठ गया;दैत्य:--असुर; पशञ्ञ-शिरा:--पाँच सिरों वाला; जलात्‌--( किले के चारों ओर की खाईं के ) जल में से |

    जब पाँच सिरों वाले असुर मुर ने भगवान्‌ कृष्ण के पांचजन्य शंख की ध्वनि सुनी, जो युगके अन्त में बिजली (वज्ज ) की कड़क की भाँति भयावनी थी तो नगर की खाई की तली मेंसोया हुआ वह असुर जग गया और पानी से बाहर निकल आया।

    त्रिशूलमुद्यम्य सुदुर्निरी क्षणोयुगान्तसूर्यानलरोचिरुल्बण: ।

    ग्रसंस्त्रिलोकीमिव पशञ्ञभिर्मुखै-रभ्यद्रवत्ताक्ष्यसुतं यथोरग: ॥

    ७॥

    त्रि-शूलम्‌--अपना त्रिशूल; उद्यम्य-- उठाकर; सु--अत्यन्त; दुर्निरीक्षण: -- जिसकी ओर देख पाना कठिन था; युग-अन्त--युगके अन्त में; सूर्य--सूर्य; अनल--अग्नि ( वत्‌ ); रोचि: --जिसका तेज; उल्बण: -- भीषण; ग्रसन्‌--निगलते हुए; त्रि-लोकीम्‌--तीनों लोकों को; इब--मानो; पञ्ञभि:--अपने पाँच; मुखै:--मुखों से; अभ्यद्रवत्‌-- आक्रमण किया; तार्क्ष्य-सुतम्‌-तार््व्य के पुत्र, गरुड़ पर; यथा--जिस तरह; उरग: --सर्प |

    युगान्त के समय की सूर्य की अग्नि सदृश अन्धा बना देने वाले भयंकर तेज से चमकताहुआ, मुर अपने पाँचों मुखों से तीनों लोकों को निगलता-सा प्रतीत हो रहा था।

    उसने अपनात्रिशूल उठाया और तार्श््य-पुत्र गरुड़ पर वैसे ही टूट पड़ा जिस तरह आक्रमण करता हुआ सर्प ।

    आविध्य शूलं तरसा गरुत्मतेनिरस्य वक्लैरव्यनदत्स पञ्ञभिः ।

    स रोदसी सर्वदिशो म्बरं महा-नापूरयन्नण्डकटाहमावृणोत्‌ ॥

    ८ ॥

    आविध्य--घुमाते हुए; शूलम्‌--अपना त्रिशूल; तरसा--बलपूर्वक; गरुत्मते--गरुड़ पर; निरस्थ--फेंककर; वक्‍्टै:ः--मुखों से;व्यनदत्‌-गर्जना की; सः--उसने; पदञ्ञभि: --पाँचो; सः--वह; रोदसी--पृथ्वी तथा आकाश; सर्व--सभी; दिश:--दिशाएँ;अम्बरम्‌--बाह्य आकाश; महान्‌--महान्‌ ( गर्जना ); आपूरयन्‌--पूर्ण करते हुए; अण्द--ब्रह्माण्ड के अंडे जैसे आवरणों के;कटाहम्‌ू--कड़ाह को; आवृणोत्‌--ढक

    दियामुर ने अपना त्रिशूल घुमाया और अपने पाँचों मुखों से दहाड़ते हुए उसे गरुड़ पर बड़ी उग्रतासे फेंक दिया।

    यह ध्वनि पृथ्वी, आकाश, सभी दिशाओं तथा बाह्य अंतरिक्ष की सीमाओं में भरकर ब्रह्माण्ड की खोल से टकराकर प्रतिध्वनित होने लगी।

    तदापतद्ठै त्रिशिखं गरुत्मतेहरिः शराभ्यामभिनत्तविधोजसा ।

    मुखेषु त॑ चापि शरैरताडयत्‌तस्मै गदां सोपि रुषा व्यमुझ्ञत ॥

    ९॥

    तदा--तब; आपतत्‌--उड़ती हुई; बै--निस्सन्देह; त्रि-शिखम्‌--त्रिशूल; गरुत्मते--गरुड़ की ओर; हरिः-- भगवान्‌ कृष्ण ने;शराभ्याम्‌--दो बाणों से; अभिनत्‌--खंड कर दिया; त्रिधा--तीन भागों में; ओजसा--बलपूर्वक; मुखेषु--उसके मुखों पर;तमू--उसको, मुर को; च--तथा; अपि-- भी; शरैः--बाणों से; अताडयत्‌-- प्रहार किया; तस्मै--उस ( कृष्ण ) पर; गदाम्‌--अपनी गदा को; सः--उसने, मुर ने; अपि--तथा; रुषा--क्रोध में; व्यमुज्ञत--छोड़ा |

    तब भगवान्‌ हरि ने गरुड़ की ओर उड़ते हुए त्रिशूल पर दो बाणों से प्रहार किया और उसेतीन खण्डों में काट डाला।

    इसके बाद भगवान्‌ ने मुर के मुखों पर कई बाण मारे और असुर नेभी क्रुद्ध होकर भगवान्‌ पर अपनी गदा फेंकी ।

    तामापतन्तीं गदया गदां मृधेगदाग्रजो निर्बिभिदे सहस्त्रधा ।

    उद्यम्य बाहूनभिधावतोजित:शिरांसि चक्रेण जहार लीलया ॥

    १०॥

    तामू--उस; आपतन्तीम्‌--अपनी ओर आती हुई; गदया--अपनी गदा से; गदामू--गदा को; मृधे--युद्धभूमि में; गद-अग्रज: --गद के बड़े भाई, कृष्ण ने; निर्विभिदे--तोड़ डाला; सहस्त्रधा--हजारों टुकड़ों में; उद्यम्य--उठाकर; बाहूनू-- अपनी भुजाएँ;अभिधावतः--उसकी ओर दौड़ने वाले का; अजित:--अजेय कृष्ण; शिरांसि--सिरों को; चक्रेण-- अपने चक्र से; जहार--अलग कर दिया; लीलया--आसानी से।

    जब युद्धभूमि में मुर॒ की गदा कृष्ण की ओर लपकी तो गदाग्रज ने अपनी गदा से उसे बीचमें ही रोक दिया और उसे हजारों टुकड़ों में तोड़ डाला।

    तब मुर ने अपनी बाहें ऊपर उठा लीं औरअजेय भगवान्‌ की ओर दौड़ा जिन्होंने अपने चक्र से उसके सिरों को सरलता से काट गिराया।

    व्यसु: पपाताम्भसि कृत्तशीर्षोनिकृत्तश्वुक्ेउद्विरिवेन्द्रतेजसा ।

    तस्यात्मजा: सप्त पितुर्वधातुरा:प्रतिक्रियामर्षजुष: समुद्यता: ॥

    ११॥

    व्यसु:--प्राणविहीन; पपात--गिर पड़ा; अम्भसि--जल के भीतर; कृत्त--कटे हुए; शीर्ष:--सिरों; निकृत्त--कटा हुआ;श्रृड्अ:--चोटी; अद्वि:--पर्वत; इब--मानो; इन्द्र--इन्द्र की; तेजसा--शक्ति से ( उसके वज्ञ से ); तस्य--उस ( मुर ) के; आत्म-जा:--पुत्रगण; सप्त--सात; पितु:--अपने पिता के; वध--मारे जाने से; आतुरा: --अत्यन्त दुखित; प्रतिक्रिया--बदले केलिए; अमर्ष--क्रोध; जुष: -- भावना; समुद्यता: --सन्नद्ध

    प्राणविहीन मुर का सिरकटा शरीर पानी में उसी तरह गिर पड़ा जैसे कोई पर्वत जिसकीचोटी इन्द्र के वज्ञ की शक्ति से छिन्न हो गई हो।

    अपने पिता की मृत्यु से क्रुद्ध होकर असुर केसात पुत्र बदला लेने के लिए उद्यत हो गये।

    ताम्रोउन्तरिक्ष: श्रवणो विभावसु-वसुर्नभस्वानरुणश्व सप्तम: ।

    पीठं पुरस्कृत्य चमूपतिं मृथेभौमप्रयुक्ता निरगन्धृतायुधा: ॥

    १२॥

    ताम्र: अन्तरिक्ष: श्रवण: विभावसु:--ताम्र, अन्तरिक्ष, श्रवण तथा विभावसु; बसु: नभस्वान्‌--वसु तथा नभस्वान; अरुण:--अरुण; च--तथा; सप्तम:--सातवाँ; पीठम्‌--पीठ को; पुरः-कृत्य--आगे करके ; चमू-पतिम्‌-- अपने सेनापति को; मृथे--युद्धभूमि में; भौम-- भौमासुर द्वारा; प्रयुक्ता:--नियुक्त; निरगन्‌--( किले से ) बाहर निकल आये; धृत-- धारण किये;आयुधा:--हथियार।

    भौमासुर का आदेश पाकर ताम्र, अन्तरिक्ष, श्रवण, विभावसु, वसु, नभस्वान्‌ तथा अरुणनामक सातों पुत्र अपने हथियार धारण किये पीठ नामक अपने सेनापति के पीछे पीछे युद्ध-ु्षेत्रमें आ गये।

    प्रायुज्तासाद्य शरानसीन्गदाःशक्त्यूष्टिशूलान्यजिते रुषोल्बणा: ।

    तच्छस्त्रकू्टं भगवान्स्वमार्गणै-रमोघवीर्यस्तिलशश्चवकर्त ह ॥

    १३॥

    प्रायुज्त--प्रयोग किया; आसाद्य--आक्रमण करके; शरान्‌--बाणों; असीन्‌--तलवारों; गदा:--गदाओं; शक्ति--भालों;ऋष्ति--ऋष्टि; शूलानि--त था त्रिशूलों से; अजिते--अजित भगवान्‌ कृष्ण पर; रुषा--क्रो धपूर्वक; उल्बणा:-- भयानक;तत्‌--उनके; शस्त्र--हथियारों के; कूटम्‌--पर्वत को; भगवानू-- भगवान्‌ ने; स्व--अपने; मार्गणै:--बाणों से; अमोघ--अचूक; वीर्य:--जिनका पराक्रम; तिलश:--तिल जितने छोटे छोटे कणों में; चकर्त ह--काट डाला

    इन भयानक योद्धाओं ने क्रुद्ध होकर बाणों, तलवारों, गदाओं, भालों, ऋष्टियों तथात्रिशूलों से अजेय भगवान्‌ कृष्ण पर आक्रमण कर दिया किन्तु भगवान्‌ ने अपनी अमोघ शक्तिसे हथियारों के इस पर्वत को अपने बाणों से छोटे छोटे टुकड़ों में काट डाला।

    तान्पीठमुख्याननयद्यमक्षयं निकृत्तशीर्षोरु भुजाडूप्रिवर्मण: ।

    स्वानीकपानच्युतचक्रसायकै -स्तथा निरस्तान्नरको धरासुतः ।

    निरीक्ष्य दुर्मषण आस्त्रवन्मदै-गज: पयोधिप्रभवैर्निराक्रमात्‌ू ॥

    १४॥

    तानू--उन; पीठ-मुख्यान्‌--पीठ इत्यादि को; अनयत्‌-- भेज दिया; यम--मृत्यु के स्वामी यम के; क्षयम्‌-- धाम को; निकृत्त--कटे हुए; शीर्ष--सिर; ऊरुू--जाँघें; भुज--बाँहें; अड्घ्रि-- पाँव; वर्मण:--तथा कवच; स्व--अपनी; अनीक--सेना के;पानू--नायक; अच्युत-- भगवान्‌ कृष्ण के; चक्र --चक्र; सायकैः--तथा बाणों से; तथा--इस प्रकार; निरस्तानू--हटायागया; नरक: --भौम; धरा--पृथ्वीदेवी का; सुतः--पुत्र; निरीक्ष्य--देखकर; दुर्मर्षण:--सहन करने में अक्षम; आस्त्रवत्‌--चू रहेथे; मदैः --उन्मत्त हाथियों के गण्डस्थल से निकलने वाला चिपचिपा द्रव; गजैः--हाथियों के साथ; पयः-धि--क्षीर सागर से;प्रभवै:--उत्पन्न; निराक्रमातू--वह बाहर आया

    भगवान्‌ ने पीठ इत्यादि प्रतिद्वन्द्रियों के सिर, जाँघें, बाँहें, पाँव तथा कवच काट डाले औरउन सबों को यमराज के लोक भेज दिया।

    जब पृथ्वी-पुत्र नरकासुर ने अपने सेना-नायकों कायह हाल देखा तो उसका क्रोध आपे में न रह सका।

    अतः वह क्षीर सागर से उत्पन्न हाथियों केसाथ, जो उन्मत्तता के कारण अपने गण्डस्थल से मद चूआ रहे थे, अपने दुर्ग से बाहर आया।

    इृष्ठा सभार्य गरुडोपरि स्थितंसूर्योपरिष्टात्सलडिद्धनं यथा ।

    कृष्णं स तस्मै व्यसृजच्छतघ्नींयोधाश्व सर्वे युगपच्च विव्यधु: ॥

    १५॥

    इृष्टठा--देखकर; स-भार्यम्‌--अपनी पत्नी के साथ; गरुड-उपरि--गरुड़ के ऊपर; स्थितम्‌--आसीन; सूर्य--सूर्य से;उपरिष्टात्‌--ऊँचा; स-तडित्‌--बिजली से युक्त; घनम्‌--बादल को; यथा--जिस तरह; कृष्णम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण को; सः--उसने, भौम ने; तस्मै--उस पर; व्यसृजत्‌--छोड़ा; शत-घ्नीम्‌--शतघ्नी ( भाले का नाम ); योधा:--उसके सैनिकों ने; च--तथा; सर्वे--सभी; युगपत्‌ू--एक ही साथ; च--तथा; विव्यधु:-- आक्रमण कर दिया

    गरुड़ पर आसीन भगवान्‌ कृष्ण और उनकी पत्नी सूर्य को ढकने वाले बिजली से युक्तबादल जैसे प्रतीत हो रहे थे।

    भगवान्‌ को देखकर भौम ने उन पर अपना शतघ्नी हथियार छोड़ा।

    तत्पश्चात्‌ भौम के सारे सैनिकों ने एकसाथ अपने अपने हथियारों से आक्रमण कर दिया।

    तद्धौमसैन्यं भगवान्गदाग्रजोविचित्रवाजैर्निशितैः शिलीमुखै: ।

    निकृत्तबाहूरुशिरो क्षविग्रहंचकार तहोंव हताश्वकुझ्ऋरम्‌ ॥

    १६॥

    तत्‌--उस; भौम-सैन्यमू-- भौमासुर की सेना को; भगवान्‌-- भगवान्‌; गदाग्रज:--कृष्ण ने; विचित्र--नाना प्रकार के;वाजै:--पंखों वाले; निशितैः--नुकीले; शिलीमुखै:ः--बाणों से; निकृत्त--काट दिया; बाहु--बाँहें; ऊरु--जाँघें; शिर:-क्ष--तथा गर्दन; विग्रहम्‌--शरीरों को; चकार--बनाया; तहिं एव--उसी क्षण; हत--मार डाला; अश्व--घोड़ों; कुझ्मम्‌--तथा

    हाथियों कोउस क्षण भगवान्‌ गदाग्रज ने अपने तीक्ष्ण बाण भौमासुर की सेना पर छोड़े।

    नाना प्रकार केपंखों से युक्त इन बाणों ने उस सेना को शरीरों के ढेर में बदल दिया जिनकी बाँहें, जाँघें तथागर्दनें कटी थीं।

    इसी तरह कृष्ण ने विपक्षी घोड़ों तथा हाथियों को मार डाला।

    यानि योधे: प्रयुक्तानि शस्त्रास्त्राणि कुरूद्रह ।

    हरिस्तान्यच्छिनत्ती कै: शररेकैकशस्त्रीभि: ॥

    १७॥

    उहामानः सुपर्णेन पक्षाभ्यां निघ्नता गजान्‌ ।

    गुरुत्मता हन्यमानास्तुण्डपक्षनखेर्गजा: ॥

    १८॥

    पुरमेवाविशतन्नार्ता नरको युध्ययुध्यत ॥

    १९॥

    यानि--वे जो; योधै: --योद्धाओं द्वारा; प्रयुक्तानि--प्रयुक्त; शस्त्र--काटने वाले हथियार; अस्त्राणि--तथा फेंककर चलाये जानेवाले हथियार; कुरु-उद्ठद--हे कुरुओं के वीर ( राजा परीक्षित ); हरिः-- भगवान्‌ कृष्ण ने; तानि--उनको; अच्छिनत्‌ू--खण्डखण्ड कर दिया; तीक्ष्णै:--नुकीले; शरैः--बाणों से; एक-एकशः--एक एक करके; त्रिभि:--तीन; उह्ामान: -- ले जाये गये;सु-पर्णेन--बड़े बड़े पंखो वाले ( गरुड़ ) द्वारा; पक्षाभ्याम्‌ू--दोनों पंखों से; निघ्नता-- प्रहार करता; गजान्‌--हाथियों को;गुरुत्मता--गरुड़ द्वारा; हन्यमाना:--मारा जाकर; तुण्ड--चोंच; पक्ष--पंखों; नखे: --तथा पंजों से; गजा:--हाथी; पुरम्‌--नगर में; एब--निस्सन्देह; आविशन्‌--फिर से भीतर जाकर; आर्ता:--दुखी; नरकः--नरक ( भौम ); युधि--युद्ध में;अयुध्यत--लड़ता रहा।

    हे कुरुवीर, तब भगवान्‌ हरि ने उन सारे अस्त्रों तथा शस्त्रों को मार गिराया जिन्हें शत्रु-सैनिकों ने उन पर फेंका था और हर एक को तीन तेज बाणों से नष्ट कर डाला।

    इस बीच,भगवान्‌ को उठाकर ले जाते हुए गरुड़ ने अपने पंखों से शत्रु के हाथियों पर प्रहार किया।

    येहाथी गरुड़ के पंखों, चोंच तथा पंजों से प्रताड़ित होने से भाग कर नगर के भीतर जा घुसेजिससे कृष्ण का सामना करने के लिए युद्धभूमि में केवल नरकासुर बच रहा।

    इृष्ठा विद्रावितं सैन्यं गरुडेनार्दितं स्वकं ।

    तं॑ भौमः प्राहरच्छक्त्या वज्ञः प्रतिहतो यतः ।

    नाकम्पत तया विद्धो मालाहत इव द्विप: ॥

    २०॥

    इृष्ठा--देखकर; विद्रावितम्‌-- भगाई हुईं; सैन्यम्‌ू--सेना के; गरूडेन--गरुड़ द्वारा; अर्दितम्‌--तंग की गई; स्वकम्‌--अपनी;तम्‌--उस पर, गरुड़ पर; भौम: -- भौमासुर ने; प्राहरत्‌--प्रहार किया; शक्त्या--अपने भाले से; वज्ञः--( इन्द्र का ) वज्र;'प्रतिहत:--उलट कर प्रहार किया गया; यत:--जिससे; न अकम्पत--वह ( गरुड़ ) हिला नहीं; तया--उससे; विद्ध:--प्रहारकिया गया; माला--फूलों की माला से; आहतः --मारा गया; इब--सहश; द्विप:--हाथी |

    जब भौम ने देखा कि गरुड़ द्वारा उसकी सेना खदेड़ी तथा सतायी जा रही है, तो उसने गरुड़पर अपने उस भाले से आक्रमण किया जिससे उसने एक बार इन्द्र के वज्ञ को परास्त किया था।

    किन्तु उस शक्तिशाली हथियार से प्रहार किये जाने पर भी गरुड़ तिलमिलाये नहीं।

    निस्सन्देहवेफूलों की माला से प्रहार किए जाने वाले हाथी के समान थे।

    शूलं भौमोच्युतं हन्तुमाददे वितथोद्यम: ।

    तद्विसर्गात्पूर्वमेव नरकस्य शिरो हरिः ।

    अपाहरदगजस्थस्य चक्रेण क्षुरनेमिना ॥

    २१॥

    शूलम्‌--त्रिशूल को; भौम:--भौम ने; अच्युतम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण को; हन्तुमू-मारने के लिए; आददे--ग्रहण किया; वितथ--व्यग्र; उद्यम:--प्रयास; तत्‌--उसके ; विसर्गात्‌--छोड़ने से; पूर्वम्‌ू--पहले; एब-- भी; नरकस्य-- भौम का; शिर:--सिर;हरिः--भगवान्‌ कृष्ण ने; अपाहरत्‌--काट दिया; गज--हाथी पर; स्थस्य--बैठे हुए; चक्रेण--चक्र से; क्षुर--छुरे सी;नेमिना--धार वाले

    तब अपने सारे प्रयासों में विफल भौम ने भगवान्‌ कृष्ण को मारने के लिए अपना त्रिशूलउठाया।

    किन्तु इसके पहले कि वह उसे चलाये, भगवान्‌ ने अपने तेज धार वाले चक्र से हाथी केऊपर बैठे हुए उस असुर के सिर को काट डाला।

    सकुण्डलं चारुकिरीटभूषणंबभौ पृथिव्यां पतितम्समुज्चलम्‌ ।

    ह हेति साध्वित्यूषय: सुरेश्वरामाल्यैर्मुकुन्दं विकिरन्त ईदिरि ॥

    २२॥

    स--सहित; कुण्डलम्‌ू--कुण्डल; चारु--सुन्दर; किरीट--मुकुट से; भूषणम्‌--सुशोभित; बभौ--चमकने लगा; पृथिव्याम्‌--पृथ्वी पर; पतितम्‌--गिरा हुआ; समुज्वलम्‌--चमकीला; हा हा इति--हाय हाय; साधु इति--बहुत अच्छा; ऋषय:--ऋषियोंने; सुर-ईश्वरः--तथा प्रमुख देवताओं ने; माल्यैः--फूल की मालाओं से; मुकुन्दम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण की; विकिरन्त:--बिखरतेहुए; ईडिरे--पूजा की |

    भूमि पर गिरे हुए भौमासुर का सिर तेजी से चमक रहा था क्‍योंकि यह कुण्डलों तथा आकर्षक मुकुट से सज्जित था।

    ज्यों ही 'हाय हाय ' तथा 'बहुत अच्छा हुआ ' के क्रन्दन उठनेलगे, त्योंही ऋषियों तथा प्रमुख देवताओं ने फूल-मालाओं की वर्षा करते हुए भगवान्‌ मुकुन्दकी पूजा की।

    ततश्च भू: कृष्णमुपेत्य कुण्डलेप्रतप्तजाम्बूनदरलभास्वरे ॥

    सर्वैजयन्त्या वनमालयार्पयत्‌प्राचेतसं छत्रमथो महामणिम्‌ ॥

    २३॥

    ततः--तब; च--तथा; भू: --भूमिदेवी; कृष्णम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण के; उपेत्य--पास आकर; कुण्डले--दोनों कुण्डल ( जोअदिति के थे ); प्रतप्त--चमकीले; जाम्बूनद--सोना; रत्त--रत्नों से; भास्वरे--चमकते हुए; स--सहित; बैजयन्त्या--वैजयन्ती नामक; वन-मालया--तथा फूलों की माला से; अर्पयत्‌-- भेंट किया; प्राचेतसम्‌--वरुण का; छत्रमू--छाता; अथउ--तत्पश्चात; महा-मणिम्‌--मन्दर पर्वत की चोटी, मणिपर्वत।

    तब भूमिदेवी भगवान्‌ कृष्ण के पास आईं और भगवान्‌ को अदिति के कुण्डल भेंट कियेजो चमकीले सोने के बने थे और जिसमें चमकीले रत्न जड़े थे।

    उसने उन्हें एक वैजयन्ती माला,वरुण का छत्र तथा मन्दर पर्वत की चोटी भी दी।

    अस्तौषीदथ विश्वेशं देवी देववराचितम्‌ ।

    प्राज्ललि: प्रणता राजन्भक्तिप्रवणया धिया ॥

    २४॥

    अस्तौषीत्‌--स्तुति की; अथ--तब; विश्व--ब्रह्माण्ड के; ईशम्‌--स्वामी की; देवी--देवी; देव--देवतागण का; वर-- श्रेष्ठ;अर्चितमू--पूजित; प्रा्ललि:ः--अपने हाथ जोड़ कर; प्रणता-- प्रणाम किया; राजन्‌--हे राजा ( परीक्षित ); भक्ति-- भक्ति;प्रवणया--से पूरित; धिया--प्रवृत्ति से

    है राजन, उनको प्रणाम करके तथा उनके समक्ष हाथ जोड़े खड़ी वह देवी भक्ति-भाव सेपूरित होकर ब्रह्माण्ड के उन स्वामी की स्तुति करने लगी जिनकी पूजा श्रेष्ठ देवतागण करते हैं।

    भूमिरुवाचनमस्ते देवदेवेश शट्डुच्क्रगदाधर ।

    भक्तेच्छोपात्तरूपाय परमात्मन्नमोउस्तु ते ॥

    २५॥

    भूमि: उवाच-- भूमिदेवी ने कहा; नम:--नमस्कार; ते--आपको; देव-देव--देवताओं के स्वामी; ईश--हे ईश्वर; शद्बु--शंख;चक्र--चक्र; गदा--गदा; धर--हे धारण करने वाले; भक्त--अपने भक्तों की; इच्छा--इच्छा से; उपात्त-- धारण किये हुए;रूपाय--आपके रूपों को; परम-आत्मन्‌--हे परमात्मा; नम:ः--नमस्कार; अस्तु--होए; ते--आपको

    भूमिदेवी ने कहा : हे देवदेव, हे शंख, चक्र तथा गदा के धारणकर्ता, आपको नमस्कार है।

    हे परमात्मा, आप अपने भक्तों की इच्छाओं को पूरा करने के लिए विविध रूप धारण करते हैं।

    आपको नमस्कार है।

    नमः पड्डुजनाभाय नमः पड्डूजमालिने ।

    नमः पड्डूजनेत्राय नमस्तेपड्डूजाइ्म्ये ॥

    २६॥

    नमः--सादर नमस्कार; पड्डूज-नाभाय-- भगवान्‌ को, जिनके उदर के बीच में कमल के फूल जैसा गट्ढा है; नम:--नमस्कार;पड्लुज-मालिने--जो सदैव कमल के फूलों की माला से सुसज्जित रहते हैं; नम:--नमस्कार; पड्डूज-नेत्राय--जिनकी चितवनकमल के फूल जैसी शीतलता प्रदान करने वाली है; नमः ते--आपको नमस्कार; पड्डूज-अद्घ्रये--आपको, जिनके पैरों केतलवों पर कमल के फूल अंकित हैं।

    हे प्रभु, आपको मेरा सादर नमस्कार है।

    आपके उदर में कमल के फूल जैसा गड्ढा अंकितहै, आप सदैव कमल के फूल की मालाओं से सुसज्जित रहते हैं, आपकी चितवन कमल जैसीशीतल है और आपके चरणों में कमल अंकित हैं।

    नमो भगवते तुभ्यं वासुदेवाय विष्णवे ।

    पुरुषायादिबीजाय पूर्णबोधाय ते नम: ॥

    २७॥

    नमः--नमस्कार; भगवते-- भगवान्‌ को; तुभ्यमू-- आपको ; वासुदेवाय--वासुदेव को, जो समस्त प्राणियों के आश्रय हैं;विष्णवे--सर्वव्यापक विष्णु को; पुरुषाय--आदि-पुरुष को; आदि--मूल, आदि; बीजाय--बीज को; पूर्ण--पूर्ण; बोधाय--ज्ञान को; ते--आपको; नमः -- नमस्कार ।

    हे वासुदेव, हे विष्णु, हे आदि-पुरुष, हे आदि-बीज भगवान्‌, आपको सादर नमस्कार है।

    हेसर्वज्ञ, आपको नमस्कार है।

    अजाय जनयियत्रेउस्य ब्रह्मणेनन्तशक्तये ।

    परावरात्मन्भूतात्मन्परमात्मन्नमोस्तु ते ॥

    २८ ॥

    अजाय--अजन्मा को; जनयित्रे--जनक; अस्य--इस ( ब्रह्माण्ड ) के; ब्रह्मणे-- ब्रह्म को; अनन्त-- असीम; शक्तये-- जिनकीशक्तियाँ; पर-- श्रेष्ठ अवर--तथा निकृष्ट; आत्मन्‌ू--हे आत्मा; भूत-- भौतिक जगत का; आत्मन्‌--हे आत्मा; परम-आत्मन्‌--हे परमात्मा जो सर्वव्यापी हैं; नमः--नमस्कार; अस्तु--हो; ते--आपको |

    अनन्त शक्तियों वाले, इस ब्रह्माण्ड के अजन्मा जनक ब्रह्म, आपको नमस्कार है।

    हे वर तथाअबर के आत्मा, हे सृजित तत्त्वों के आत्मा, हे सर्वव्यापक परमात्मा, आपको नमस्कार है।

    त्वं वै सिसृक्षुरज उत्कटं प्रभोतमो निरोधाय बिभर्ष्यसंवृतः ।

    स्थानाय सत्त्वं जगतो जगत्पतेकाल: प्रधानं पुरुषो भवान्पर: ॥

    २९॥

    त्वमू--तुम; वै--निस्सन्देह; सिसृक्षुः--सृजन करने की इच्छा वाले; अजः--अजन्मा; उत्कटम्‌-- प्रमुख; प्रभो--हे प्रभु; तम:--तमो गुण; निरोधाय--संहार के लिए; बिभर्षि-- धारण करते हो; असंवृतः--अनावृत; स्थानाय--पालन के लिए; सत्त्वमू--सतो गुण; जगत: --ब्रह्माण्ड के; जगत्‌ -पते--हे ब्रह्माण्ड के स्वामी; काल:--काल, समय; प्रधानम्‌-- भौतिक प्रकृति ( अपनेआदि-रूप में ); पुरुष: --स्त्रष्टा ( भौतिक प्रकृति के साथ अंतः क्रिया करने वाला ); भवान्‌ू--आप; पर:--पृथक्‌, परे

    हे अजन्मा प्रभु, सृजन की इच्छा करके आप वृद्धि करते हैं और तब रजो गुण धारण करतेहैं।

    इसी तरह जब आप ब्रह्माण्ड का संहार करना चाहते हैं, तो तमो गुण और जब इसका पालनकरना चाहते हैं, तो सतो गुण धारण करते हैं।

    तो भी आप इन गुणों से अनाच्छादित रहते हैं।

    हेजगत्पति, आप काल, प्रधान तथा पुरुष हैं फिर भी आप पृथक्‌ एवं भिन्न रहते हैं।

    अहं पयो ज्योतिरथानिलो नभोमात्राणि देवा मन इन्द्रियाणि ।

    कर्ता महानित्यखिलं चराचरंत्वय्यद्वितीये भगवनयं भ्रम: ॥

    ३०॥

    अहमू-मैं ( पृथ्वी ); पथः--जल; ज्योति:--अग्नि; अथ--तथा; अनिल: --वायु; नभः--आकाश; मात्राणि--विभिन्न इन्द्रिय-विषय ( पाँच स्थूल तत्त्वों के संगत ); देवा:--देवतागण; मन:ः--मन; इन्द्रियाणि--इन्द्रियाँ; कर्ता--करने वाले, मिथ्या अहंकार; महान्‌ू--समग्र भौतिक शक्ति ( महत्‌ तत्त्व ); इति--इस प्रकार; अखिलम्‌--सम्पूर्ण;, चर--चलायमान; अचरमू्‌--जड़; त्वयि--तुम्हारे भीतर; अद्वितीये--अद्वितीय; भगवनू--हे प्रभु; अयम्‌--यह; भ्रम:--मोह |

    यह भ्रम है कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, इन्द्रिय-विषय, देवता, मन, इन्द्रियाँ,मिथ्या अहंकार तथा महत्‌ तत्त्व आपसे स्वतंत्र होकर विद्यमान हैं।

    वास्तव में वे सब आपकेभीतर हैं क्योंकि हे प्रभु, आप अद्वितीय हैं।

    तस्यात्मजोयं तव पादपड्डजंभीतः प्रपन्नार्तिहरोपसादितः ।

    तत्पालयैनं कुरु हस्तपड्डजंशिरस्यमुष्याखिलकल्मषापहम्‌ ॥

    ३१॥

    तस्य--उसका ( भौमासुर का ); आत्म-ज:--पुत्र; अयम्‌--यह; तब--तुम्हारे; पाद--पाँव; पड्डूजम्‌ू--कमल सहश; भीत:--डरा हुआ; प्रपन्न--शरणागत; आर्ति--दुख, शोक; हर--हे हरने वाले; उपसादित:--पास आया है; तत्‌ू--इसलिए; पालय--रक्षा करें; एनमू--उसकी; कुरु--रखिये; हस्त-पड्डूजम्‌--अपना कर-कमल; शिरसि--सिर पर; अमुष्य--उसके; अखिल--सारे; कल्मष--पाप; अपहम्‌--समूल नष्ट करने वालेयह भौमासुर का पुत्र है।

    यह भयभीत है और आपके चरणकमलों के समी आ रहा हैक्योंकि आप उन सबों के कष्टों को हर लेते हैं, जो आपकी शरण में आते हैं।

    कृपया इसकी रक्षाकीजिये।

    आप इसके सिर पर अपना कर-कमल रखें जो समस्त पापों को दूर करने वाला है।

    श्रीशुक उबाचइति भूम्यर्थितो वाग्भिर्भगवान्भक्तिनप्रया ।

    दत्त्वाभयं भौमगृहम्प्राविशत्सकलर्द्द्रमत्‌ ॥

    ३२॥

    श्री-शुक: उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; भूमि-- भूमिदेवी द्वारा; अर्थित: -- प्रार्थना किये जाने पर;वाग्भि:--उन शब्दों से; भगवान्‌-- भगवान्‌; भक्ति--भक्तिपूर्वक; नप्रया--विनीत; दत्त्वा--देकर; अभयम्‌-- अभय; भौम-गृहम्‌--भौमासुर के घर में; प्राविशत्‌-प्रविष्ट हुए; सकल--समस्त; ऋद्धि--ऐश्वर्य से; मत्‌-युक्त |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस तरह विनीत भक्ति के शब्दों से भूमिदेवी द्वारा प्रार्थना कियेजाने पर परमेश्वर ने उसके पोते को अभय प्रदान किया और तब भौमासुर के महल में प्रवेशकिया जो सभी प्रकार के ऐश्वर्य से पूर्ण था।

    तत्र राजन्यकन्यानां षट्सहस्त्राधिकायुतम्‌ ।

    भौमाहतानां विक्रम्य राजभ्यो ददशे हरि: ॥

    ३३॥

    तत्र--वहाँ; राजन्य--राजवर्ग की; कन्यानाम्‌--कन्याओं का; षट्‌्-सहस्त्र--छह हजार; अधिक--से अधिक; अयुतम्‌--दसहजार; भौम--भौम द्वारा; आहतानाम्‌ू--छीन ली गईं; विक्रम्य--बल से; राजभ्य:--राजाओं से; दहशे--देखा; हरि: -- भगवान्‌कृष्ण ने।

    वहाँ भगवान्‌ कृष्ण ने सोलह हजार से अधिक राजकुमारियाँ देखीं, जिन्हें भौम ने विभिन्नराजाओं से बलपूर्वक छीन लिया था।

    तम्प्रविष्ट॑ स्त्रियो वीक्ष्य नरवर्य विमोहिता: ।

    मनसा वद्षिरेअभीष्टे पतिं दैवोपसादितम्‌ ॥

    ३४॥

    तमू--उसको; प्रविष्टमू-प्रवेश करते हुए; स्त्रियः--स्त्रियाँ; वीक्ष्य--देखकर; नर--मनुष्यों में; वर्यम्‌-- श्रेष्ठ; विमोहिता:--मुग्ध; मनसा--अपने मनों में; वक्रिरि--चुना; अभीष्टम्‌-- अभीष्ट; पतिम्‌--पति के रूप में; दैव-- भाग्य से; उपसादितम्‌--लाईगईं।

    जब स्त्रियों ने पुरुषों में सर्वोत्तम पुरुष को प्रवेश करते देखा तो वे मोहित हो गईं।

    उन्होंने मनही मन उन्हें, जो कि वहाँ भाग्यवश लाये गये थे, अपने अभीष्ट पति के रूप में स्वीकार करलिया।

    भूयात्पतिरयं मह्यं धाता तदनुमोदताम्‌ ।

    इति सर्वा: पृथक्रृष्णे भावेन हृदयं दधु; ॥

    ३५॥

    भूयात्‌ू--बन सके; पति:--पति; अयम्‌--वह; महाम्‌--मेरा; धाता--विधाता; तत्‌--वह; अनुमोदताम्‌--स्वीकृति प्रदान करें;इति--इस प्रकार; सर्वा:--वे सभी; पृथक्‌ू--अलग-अलग; कृष्णे--कृष्ण में; भावेन-- भाव से; हृदयम्‌--अपने हृदयों में;दधु:--रख लिया |

    हर राजकुमारी ने इस विचार से कि 'विधाता इस पुरुष को मेरा पति बनने का वर दें'!अपने हृदय को कृष्ण के विचार में लीन कर दिया।

    ताः प्राहिणोद्द्वारवर्ती सुमृष्ठविरजोम्बरा: ।

    नरयानैर्महाकोशात्रथाश्रान्द्रविणं महात्‌ ॥

    ३६॥

    ताः--उनको; प्राहिणोत्‌-- भेजा; द्वारवतीम्‌--द्वारका तक; सु-मृष्ट--स्वच्छ; विरज:--निष्कलंक; अम्बरा: --वस्त्रों से; नर-यानैः--मनुष्यों के वाहनों ( पालकियों ) द्वारा; महा--विशाल; कोशान्‌--खजाने; रथ--रथ; अश्वानू--तथा घोड़े; द्रविणम्‌--धन-सम्पदा; महत्‌--विस्तृत |

    भगवान्‌ ने राजकुमारियों को स्वच्छ, निर्मल वस्त्रों से सजवाया और फिर उन्हें रथ, घोड़े तथाअन्य मूल्यवान वस्तुओं के विशाल कोषों समेत पालकियों में द्वारका भिजवा दिया।

    ऐरावतकुलेभांश्व चतुर्दन्तांस्तरस्विन: ।

    पाण्डुरां श्र चतुःषष्टिं प्रेरयामास केशव: ॥

    ३७॥

    ऐरावत--इन्द्र के वाहन ऐरावत के; कुल--कुल से; इभान्‌ू--हाथियों को; च-- भी; चतु:--चार; दन्तान्‌ू--दाँत वाले;तरस्विन:--तेज; पाण्डुरानू-- श्वेत; च--तथा; चतु:-षष्टिमू--चौंसठ; प्रेरयाम्‌ आस--भेज दिया; केशव: -- भगवान्‌ कृष्ण ने |

    भगवान्‌ कृष्ण ने ऐरावत प्रजाति के कुल के चौंसठ तेज, सफेद एवं चार दाँतों वाले हाथीभी भिजवा दिये।

    गत्वा सुरेन्द्रभवनं दत्त्वादित्ये च कुण्डले ।

    पूजितस्त्रिदशेन्द्रेण महेन्द्रयाण्या च सप्रिय: ॥

    ३८ ॥

    चोदितो भार्ययोत्पाट्य पारीजातं गरुत्मति ।

    आरगोप्य सेन्द्रान्विबुधान्निर्जित्योपानयत्पुरम्‌ ॥

    ३९॥

    गत्वा--जाकर; सुर--देवताओं के; इन्द्र--राजा के; भवनम्‌-- धाम में; दत्त्वा--देकर; अदित्यै--इन्द्र की माता अदिति को;च--तथा; कुण्डले--उसके कुंडल; पूजित:--पूजा किया गया; त्रिदश--तीस ( मुख्य देवताओं ); इन्द्रेण -- प्रधान द्वारा; महा-इन्द्रयाण्या--इन्द्राणी द्वारा; च--तथा; स--सहित; प्रियः--प्रियतमा ( सत्यभामा ); चोदितः--प्रेरित; भार्यया--अपनी पत्नीद्वारा; उत्पाट्य--उखाड़ कर; पारिजातम्‌--पारिजात वृक्ष को; गरुत्मति--गरुड़ पर; आरोप्य--रख कर; स-इन्द्रानू--इन्द्रसहित; विबुधान्‌--देवताओं को; निर्जित्य--हरा कर; उपानयत्‌--ले गया; पुरम्‌--अपनी नगरी में |

    भगवान्‌ तब इन्द्र के घर गये और माता अदिति को उनके कुंडल प्रदान किये।

    वहाँ इन्द्र तथाउसकी पत्नी ने कृष्ण तथा उनकी प्रिया सत्यभामा की पूजा की।

    फिर सत्यभामा के अनुरोध परभगवान्‌ ने स्वर्गिक पारिजात वृक्ष उखाड़ लिया और उसे गरुड़ की पीठ पर रख दिया।

    इन्द्र तथाअन्य सारे देवताओं को परास्त करने के बाद कृष्ण उस पारिजात को अपनी राजधानी ले आये।

    स्थापितः सत्यभामाया गृहोद्यानोपशोभन: ।

    अन्वगुभ्र॑मराः स्वर्गात्तद्गन्‍न्धासवलम्पटा: ॥

    ४०॥

    स्थापित:--स्थापित किया; सत्यभामाया:--सत्यभामा के; गृह--घर के; उद्यान--बाग को; उपशोभन: --सुन्दर बनाते हुए;अन्वगु:--पीछे लग गये; भ्रमरा: -- भौरे; स्वर्गात्‌--स्वर्ग से; तत्‌--उसकी; गन्ध--सुगन्ध; आसवब--तथा मीठे रस के;लम्पटा:--लालची |

    एक बार रोप दिये जाने पर पारिजात वृक्ष ने रानी सत्यभामा के महल के बाग को मनोहरबना दिया।

    इस वृक्ष की सुगन्ध तथा मधुर रस के लालची भौरे स्वर्ग से ही इसका पीछा करनेलगे थे।

    ययाच आनम्य किरीटकोटिभि:पादौ स्पृशन्नच्युतमर्थसाधनम्‌ ।

    सिद्धार्थ एतेन विगृह्मयते महा-नहो सुराणां च तमो धिगाढ्यताम्‌ ॥

    ४१॥

    ययाच--उसने ( इन्द्र ने) विनती की; आनम्य--झुक कर; किरीट--मुकुट की; कोटिभि:ः--नोकों से; पादौ--उनके चरणों;स्पृशन्‌--स्पर्श करते हुए; अच्युतम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण को; अर्थ--उसके ( इन्द्र के ) कार्य; साधनम्‌-पूरा करने के लिए;सिद्ध--पूरा हुआ; अर्थ:--जिसका प्रयोजन; एतेन--उनके साथ; विगृह्यते--झगड़ता है; महान्‌--महात्मा; अहो--निस्सन्देह;सुराणाम्‌-देवताओं के; च--तथा; तमः--अंधकार; धिक्‌ू--धिक्कार है; आढ्यताम्‌--उनकी सम्पत्ति को

    भगवान्‌ अच्युत को नमस्कार करने, उनके पैरों को अपने मुकुट की नोकों से स्पर्श करनेतथा अपनी इच्छा पूरी करने के लिए भगवान्‌ से याचना करने के बाद भी, उस महान्‌ देवता नेअपना काम सधवाने के बाद भगवान्‌ से झगड़ना चाहा।

    देवताओं में कैसा अज्ञान समाया है!थधिक्कार है उनके ऐश्वर्य को।

    अथो मुहूर्त एकस्मिन्नानागारेषु ता: स्त्रियः ।

    यथोपयेमे भगवान्तावद्रूपधरोव्यय: ॥

    ४२॥

    अथ उ--और तब; मुहूर्ते--शुभ समय पर; एकस्मिनू--उसी; नाना--अनेक; अगारेषु-- भवनों में; ता:--वे; स्त्रियः--स्त्रियाँ;यथा--उचित रीति से; उपयेमे--विवाह किया; भगवान्‌-- भगवान्‌; तावत्‌--उतने; रूप--रूप; धर: -- धारण करते हुए;अव्यय:--अव्यय |

    तब उन अव्यय महापुरूष ने प्रत्येक दुलहन ( वधू ) के लिए पृथक्‌ रूप धारण करते हुएएकसाथ सारी राजकुमारियों से उनके अपने अपने भवनों में विवाह कर लिया।

    गृहेषु तासामनपाय्यतर्ककृ-न्रिरस्तसाम्यातिशयेष्ववस्थितः ।

    रैमे रमाभिर्निजकामसम्प्लुतोयथेतरो गाईकमेधिकां श्वरन्‌ ॥

    ४३ ॥

    गृहेषु--घरों में; तासामू--उनके ; अनपायी--कभी न छोड़ते हुए; अतर्क--अचिन्त्य; कृत्‌--किये गये कार्य; निरस्त--निराकरण किये गये; साम्य--समानता; अतिशयेषु --तथा श्रेष्ठता; अवस्थित: --रहते हुए; रेमे--रमण किया; रमाभि: --मनोहरस्त्रियों के साथ; निज--अपने; काम--आननद में; सम्प्लुत:--लीन; यथा--जिस प्रकार; इतर:--कोई अन्य व्यक्ति; गाहक-मेधिकान्‌--गृहस्थ जीवन के कार्य; चरन्‌--सम्पन्न करता हुआ।

    अचिन्त्य कृत्य करने वाले भगवान्‌ निरन्तर अपनी प्रत्येक रानी के महल में रहने लगे जोअन्य किसी आवास की तुलना में अद्वितीय थे।

    वहाँ पर उन्होंने अपनी मनोहर पत्नियों के साथरमण किया यद्यपि वे अपने आपमें पूर्ण तुष्ट रहते हैं और सामान्य पति की तरह अपने गृहस्थकार्य सम्पन्न किये।

    इत्थं रमापतिमवाप्य पतिं स्त्रियस्ताब्रह्मादयोपि न विदु: पदवीं यदीयाम्‌ ।

    भेजुर्मुदाविरतमेधितयानुराग-हासावलोकनवसड्भमजल्पलज्ञा: ॥

    ४४॥

    इत्थमू--इस प्रकार से; रमा-पतिम्‌ू--लक्ष्मी-पति को; अवाप्य--प्राप्त करके; पतिम्‌--अपने पति रूप में; स्त्रिय:--स्त्रियाँ;ताः--वे; ब्रह्मा-आदय:--ब्रह्मा तथा अन्य देवता; अपि--भी; न विदु:--नहीं जानते; पदवीम्‌--प्राप्त करने की विधियों को;यदीयाम्‌--जिसको; भेजु:--भाग लिया; मुदा--प्रसन्नतापूर्वक; अविरतमू--निरन्तर; एधितया--वर्धित; अनुराग --प्रेम काआकर्षण; हास--हँसी; अवलोक--चितवन; नव--नवीन; सड्रम--साथ; जल्प--हास-परिहास; लज्जा:--तथा शर्म |

    इस तरह उन स्त्रियों ने लक्ष्मी-पति को अपने पति के रूप में प्राप्त किया यद्यपि ब्रह्मा जैसेबड़े से बड़े देवता भी उन तक पहुँचने की विधि नहीं जानते।

    वे उनके प्रति निरन्तर वृद्धिमानअनुराग का अनुभव करतीं, उनसे हँसीयुक्त चितवन का आदान-प्रदान करतीं और हास-परिहासतथा स्त्रियोन्वित लज्जा से पूर्ण नित नवीन घनिष्ठता का आदान-प्रदान करतीं ।

    प्रत्युदूगमासनवराहणपदशौच-ताम्बूलविश्रमणवीजनगन्धमाल्यै: ।

    केशप्रसारशयनस्नपनोपहार्य :दासीशता अपि विभोर्विदधु: सम दास्यम्‌ ॥

    ४५॥

    प्रत्युदूगप--पास जाकर; आसन--बैठने का स्थान; वर--उच्च कोटि का; अहण--पूजा; पाद--उनके पाँव; शौच-- प्रक्षालन;ताम्बूलन--पान; विश्रमण--( उनके पाँव दबाकर ) विश्राम करने में सहायता करतीं; वीजन--पंखा झलतीं; गन्ध--सुगन्धितवस्तुएँ ( भेंट करतीं ); माल्यै:--तथा फूल-मालाओं से; केश--बाल; प्रसार--सँवारती; शयन--बिस्तर पर लेटती; स्नपन--नहलातीं; उपहायैं:--तथा भेंटें देकर; दासी--सेविकाएँ; शता:--सैकड़ों; अपि--यद्यपि; विभो:--शक्तिशाली भगवान्‌ केलिए; विदधु: स्म--सम्पन्न किया; दास्यम्‌--सेवा |

    यद्यपि भगवान्‌ की प्रत्येक रानी के पास सैकड़ों दासियाँ थीं तो भी वे भगवान्‌ के पासविनयपूर्वक जाकर, उन्हें आसन प्रदान करके, उत्तम सामग्री से उनकी पूजा करके, उनके पाँवोंका प्रक्षालल करके तथा मालिश करके, उन्हें खाने के लिए पान देकर, उन्हें पंखा झलकर, उन्हेंसुगन्धित चन्दन-लेप से लेपित करके, फूलों की माला से सजाकर, उनके बाल सँवारकर,उनका बिस्तर ठीक करके, उन्हें नहलाकर तथा उन्हें विविध उपहार देकर स्वयं उनकी सेवाकरना पसन्द करतीं।

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    अध्याय साठ: भगवान कृष्ण रानी रुक्मिणी को चिढ़ाते हैं।

    10.60श्रीबादरायणिरुवाचकर्हिचित्सुखमासीनं स्वतल्पस्थं जगदगुरुम्‌ ।

    पतिं पर्यचरद्धैष्मी व्यजनेन सखीजनै: ॥

    १॥

    श्री-बादरायणि: --बादरायण व्यासदेव के पुत्र शुकदेव गोस्वामी ने; उवाच--कहा; कर्हिचितू--एक अवसर पर; सुखम्‌--सुखपूर्वक; आसीनम्‌--बैठे हुए; स्व--अपने; तल्प--बिस्तर में; स्थम्‌--स्थित; जगत्‌--ब्रह्मण्ड के; गुरुम्‌--गुरु; पतिम्‌ू--अपने पति को; पर्यचरत्‌--सेवा कर रही थी; भैष्मी--रुक्मिणी; व्यजनेन--पंखे से; सखी-जनैः--अपनी सखियों सहित |

    श्री बादरायणि ने कहा : एक बार अपनी दासियों के साथ महारानी रुक्मिणी ब्रह्माण्ड केआध्यात्मिक गुरु अपने पति की सेवा कर रही थीं।

    वे उनके बिस्तर पर विश्राम कर रहे थे तथा वेउन पर पंखा झल रही थीं।

    यस्त्वेतल्‍लीलया विश्व सृजत्यत्त्यवतीश्वर: ।

    स हि जातः स्वसेतूनां गोपीथाय यदुष्वज: ॥

    २॥

    यः--जो; तु--तथा; एतत्‌--यह; लीलया--खेल की तरह; विश्वम्‌--ब्रह्माण्ड को; सृजति--उत्पन्न करता है; अत्ति--निगलजाता है; अवति--रक्षा करता है; ईश्वरः--परम नियन्ता; सः--वह; हि--निस्सन्देह; जात:--उत्पन्न; स्व--निजी; सेतूनाम्‌--नियमों की; गोपीथाय--सुरक्षा के लिए; यदुषु--यदुओं के मध्य; अज:--अजन्मा प्रभु

    इस ब्रह्माण्ड को खेल-खेल में उत्पन्न करने वाले, उसका पालन करने वाले तथा अन्त मेंउसको निगल जाने वाले अजन्मे परम नियन्ता भगवान्‌ ने अपने नियमों को सुरक्षित रखने केलिए यदुओं के मध्य जन्म लिया।

    तस्मिनन्तर्गृहे भ्राजन्मुक्तादामविलम्बिना ।

    विराजिते वितानेन दीपैर्मणिमयैरपि ॥

    ३॥

    मल्लिकादामश्िि: पुष्पैद्दिफकुलनादिते ।

    जालरन्श्रप्रविष्टे श्व गोभिश्वन्द्रमसो मलै: ॥

    ४॥

    पारिजातवनामोदवायुनोद्यानशालिना ।

    धूपैरगुरुजै राजन्जालरन्श्रविनिर्गति: ॥

    ५॥

    पयःफेननिभे शुभ्रे पर्यड्डे कशिपूत्तमे ।

    उपतस्थे सुखासीनं जगतामी श्वरं पतिम्‌ू ॥

    ६॥

    तस्मिन्‌--उसमें; अन्त:-गृहे--महल के भीतरी भाग में; भ्राजत्‌--चमकीली; मुक्ता--मोतियों की; दाम--डोरियों से;विलम्बिना--लटकती हुईं; विराजिते--चमकीली; वितानेन--चँदोवे से; दीपैः--दीपकों से; मणि--मणियों के; मयै:--निर्मित; अपि-- भी; मल्लिका-- चमेली की; दामभि:ः--मालाओं से; पुष्पै:-- फूलों से; द्विफ--भौंरों के; कुल--झुंड के साथ;नादिते--शब्दायमान; जाल--झरोखों के; रन्श्र--छोटे छोटे छेदों से होकर; प्रविष्टे:--प्रविष्ट; च--तथा; गोभि:--किरणों से;चन्द्रमसः--चन्द्रमा की; अमलै:--निर्मल; पारिजात--पारिजात वृक्षों के; बन--कुंज के; आमोद--सुगंध ( वहन करते );वायुना--हवा द्वारा; उद्यान--बगीचे की; शालिना--उपस्थिति लाते हुए; धूपैः-- धूप से; अगुरु--अगुरु से; जैः--उत्पन्न;राजनू--हे राजा ( परीक्षित ); जाल-रन्ध्र--झरोखे के छेदों से; विनिर्गतः--बाहर निकलते हुए; पथः--दूध के; फेन--झाग;निभे--सहश; शुभ्रे--चमकीला; पर्यद्ले--बिस्तर पर, सेज पर; कशिपु--तकिया पर; उत्तमे--सर्वश्रेष्ठ; उपतस्थे--सेवा कर रहीथी; सुख--सुखपूर्वक; आसीनम्‌--बैठे; जगताम्‌ू--सारे लोकों के; ईश्वरम्‌--परम नियन्ता; पतिम्‌--अपने पति की |

    महारानी रुक्मिणी के कमरे अत्यन्त सुन्दर थे।

    उसमें एक चँदोवे से मोतियों की चमकीलीलड़ें लटक रही थीं और तेजोमय मणियाँ दीपकों का काम दे रही थीं।

    उसमें यत्र-तत्र चमेलीतथा अन्य फूलों की मालाएँ लटक रही थीं जिनसे गुनगुनाते भौंरों के समूह आकृष्ट हो रहे थेऔर चन्द्रमा की निर्मल किरणें जाली की खिड़कियों के छेदों से होकर चमक रही थीं।

    हे राजन्‌,जब इन खिड़कियों के छेदों में से अगुरु की सुगंध बाहर निकलती तो पारिजात कुंज की सुगंधको ले जाने वाली मन्द बयार कमरे के भीतर बगीचे का वातावरण पैदा कर देती।

    इस कमरे मेंमहारानी समस्त लोकों के परमेश्वर अपने पति की सेवा कर रही थीं जो उनके मुलायम तथा दूधके फेन जैसे सफेद बिस्तर पर एक भव्य तकिये के सहारे बैठे थे।

    वालव्यजनमादाय रतलदण्डं सखीकरात्‌ ॥

    तेन वीजयती देवी उपासां चक्र ईश्वरम्‌ ॥

    ७॥

    वाल--चमरी के बाल के; व्यजनम्‌ू--पंखे को; आदाय--लेकर; रल--रत्ल की; दण्डम्‌--डंडी वाले; सखी--अपनी सहेलीके; करात्‌ू--हाथ से; तेन--उससे; वीजयती--पंखा झलती; देवी -- देवी; उपासाम्‌ चक्रे --पूजा की; ईश्वरम्‌-- अपने स्वामीकी।

    देवी रुक्मिणी ने अपनी दासी के हाथ से रत्नों की डंडी वाला चमरी के बाल का पंखा लेलिया और तब अपने पति पर पंखा झलकर सेवा करने लगीं।

    सोपाच्युतं क्वणयती मणिनूपुराभ्यांरेजेड्डुलीयवलयव्यजनाग्रहस्ता ।

    वस्त्रान्तगूढकुचकुड्डु मशोणहार-भासा नितम्बधृतया च परार्ध्यकाञ्च्या ॥

    ८॥

    सा--वह; उप--समीप; अच्युतम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण के; क्वणयती--शब्द करती; मणि--मणिजटित; नूपुराभ्याम्‌--अपने नूपुरोंसे; रेजे--सुन्दर लग रही थी; अद्डुलीय--अँगूठी $ वलय--चूड़ियाँ; व्यजन--तथा पंखे सहित; अग्र-हस्ता--अपने हाथ में;वस्त्र--अपने वस्त्र के; अन्त--छोर से; गूढ--छिपे; कुच--स्तनों से; कुद्डू म--सिंदूर से; शोण--लाल हुए; हार--गले के हारकी; भासा-- चमक से; नितम्ब--उसके कूल्हे पर; धृतया--पहनी हुईं; च--तथा; परार्ध्य--बहुमूल्य; काउ्च्या--करधनी से।

    महारानी रुक्मिणी का हाथ अँगूठियों, चूड़ियों तथा चामर पंखे से सुशोभित था और वेभगवान्‌ कृष्ण के निकट खड़ी हुई अतीव सुन्दर लग रही थीं।

    उनके रत्नजटित पायल शब्द कररहे थे तथा उनके गले की माला चमचमा रही थी जो उनकी साड़ी के पल्‍ले से ढके उनके स्तनोंपर लगे कुमकुम से लाल लाल हो रही थी।

    वे अपनी कमर में अमूल्य करधनी पहने थीं।

    तां रूपिणीं श्रीयमनन्यगतिं निरीक्ष्यया लीलया धृततनोरनुरूपरूपा ।

    प्रीत: स्मयन्नलककुण्डलनिष्ककण्ठ-वकक्‍्त्रोल्लसत्स्मितसुधां हरिराबभाषे ॥

    ९॥

    ताम्‌ू--उस; रूपिणीम्‌--रूप धारण किये; श्रीयम्‌ू--लक्ष्मी को; अनन्य--जिसके कोई अन्य न हो, एकमात्र; गतिम्‌--लक्ष्य;निरीक्ष्य--देखकर; या--जो; लीलया--लीला के रूप में; धृत--धारण करने वाले; तनो:--शरीरों के; अनुरूप--संगत;रूपा--जिसके रूप; प्रीत:--प्रसन्न; स्मयनू--हँसते हुए; अलक--बालों के गुच्छे; कुण्डल--कान के आभूषण; निष्क--गलेका आभूषण; कण्ठ--गले में; वकत्र--मुखमंडल; उललसत्‌--चमकता हुआ एवं सुखी; स्मित--हँसी; सुधाम्‌-- अमृत; हरि: --कृष्ण ने; आबभाषे--कहा

    ज्योंही भगवान्‌ कृष्ण ने उनका लक्ष्मी के रूप में चिन्तन किया, जो केवल उन्हें ही चाहतीहैं, तो उन्हें मन्द हँसी आ गई।

    भगवान्‌ अपनी लीलाएँ करने के लिए नाना रूप धारण करते हैंऔर वे यह सोच कर अत्यन्त प्रसन्न थे कि लक्ष्मी ने जो रूप धारण कर रखा था वह उनकीप्रेयसी होने के अनुरूप था।

    उनका मनोहर मुखमण्डल घुँघराले बालों, कुण्डलों, गले में पड़े हारतथा उनकी उज्जवल प्रसन्न मुसकान के अमृत से सुशोभित था।

    तब भगवान्‌ ने उनसे इस प्रकारकहा।

    श्रीभगवानुवाचराजपुत्रीप्सिता भूपलोकपालविभूतिभि: ।

    महानुभावै: श्रीमद्धी रूपौदार्यबलोरजितै: ॥

    १०॥

    श्री-भगवान्‌ उबाच-- भगवान्‌ ने कहा; राज-पुत्रि--हे राजकुमारी; ईप्सिता--( तुम्हीं ) अभीष्ट ( थीं ); भू-पैः --राजाओं द्वारा;लोक--लोकों के; पाल--शासकों जैसे; विभूतिभि: --शक्तियों वाले; महा--महान्‌; अनुभावै:--प्रभाव वाले; श्री-मद्धि:--ऐश्वर्यशाली; रूप--सौन्दर्य से युक्त; औदार्य--उदारता; बल--तथा शारीरिक बल; ऊर्जितैः--समन्वित |

    भगवान्‌ ने कहा : हे राजकुमारी, तुम्हारे साथ लोकपालों जैसे शक्तिशाली अनेक राजापाणिग्रहण करना चाहते थे।

    वे सभी राजनेतिक प्रभाव, सम्पत्ति, सौन्दर्य, उदारता तथा शारीरिकशक्ति से ऊर्जित थे।

    ताय्प्राप्तानर्थिनो हित्वा चैद्यादीन्स्मरदुर्मदान्‌ ।

    दत्ता क्षात्रा स्वपित्रा च कस्मान्नो ववृषेडसमान्‌ ॥

    ११॥

    तानू--उनको; प्राप्तानू--आये हुए; अर्थिन:--चाहने वालों को; हित्वा--अस्वीकार करके ; चैद्य--शिशुपाल; आदीनू्‌--इत्यादिको; स्मर--कामदेव द्वारा; दर्मदान्‌ू--उन्मत्त; दत्ता--दी गई; भ्रात्रा--तुम्हारे भाई द्वारा; स्व--अपने; पित्रा--पिता द्वारा; च--तथा; कस्मात्‌--क्यों; नः--हमको; ववृषे --तुमने चुना; असमान्‌--असमान।

    जब तुम्हें तुम्हारे भाई तथा पिता ने उनको अर्पित कर दिया था, तो फिर तुमने चेदि के राजातथा उन अन्य विवाहार्थियों को क्‍यों अस्वीकार कर दिया जो कामदेव द्वारा उन्मत्त हुए तुम्हारेसमक्ष खड़े थे? तुमने हमें क्‍यों चुना जो रंच-भर भी तुम्हारे समान नहीं हैं ?

    राजभ्यो बिभ्यतः सुभ्रु समुद्रं शरणं गतान्‌ ।

    बलवद्धिः कृतद्वेषान्प्रायस्त्यक्तनृपासनान्‌ ॥

    १२॥

    राजभ्य:--राजाओं से; बिभ्यतः-- भयभीत; सु-श्रु--हे सुन्दर भौंहों वाली; समुद्रमू--समुद्र के पास; शरणम्‌--शरण के लिए;गतान्‌ू-गए हुए; बल-वद्द्धिः--बलवानों के प्रति; कृत-द्वेषानू--शत्रुता दिखला चुके हुए; प्रायः--अधिकांशत:ः; त्यक्त--छोड़ाहुआ; नृप--राजा के; आसनान्‌--आसन कोहे सुन्दर भौंहों वाली, इन राजाओं से भयभीत होकर हमने समुद्र में शरण ली।

    हमशक्तिशाली व्यक्तियों के शत्रु बन गए और हमने अपने राज सिंहासन को प्राय: त्याग दिया था।

    अस्पष्टवर्त्मनाम्पुंसामलोकपथमीयुषाम्‌ ।

    आस्थिता: पदवीं सुश्रु प्रायः सीदन्ति योषित: ॥

    १३॥

    अस्पष्ट--अनिश्चित; वर्त्मनामू--आचरण वाले; पुंसामू-पुरुषों के; अलोक--सामान्य समाज द्वारा अस्वीकार्य; पथम्‌--मार्गको; ईयुषां--ग्रहण करने वाले; आस्थिता:--अनुसरण करते हुए; पदवीम्‌--मार्ग को; सु-श्रु-हे सुन्दर भौंहों वाली; प्राय:--सामान्यतया; सीदन्ति--कष्ट पाती हैं; योषित:--स्त्रियाँ |

    हे सुन्दर भौंहों वाली, जब स्त्रियाँ ऐसे पुरुषों के साथ रहती हैं जिनका आचरण अनिश्चितहोता है और जो समाज-सम्मत मार्ग का अनुसरण नहीं करते तो प्राय: उन्हें कष्ट भोगना पड़ता है।

    निष्किद्जना वयं शश्चन्निष्किक्ननजनप्रिया: ।

    तस्मा त्प्रायेण न ह्याढ्या मां भजन्ति सुमध्यमे ॥

    १४॥

    निष्किज्लनना:--जिनके पास कुछ भी नहीं है; वयम्‌--हम; शश्वत्‌--सदैव; निष्किज्नन-जन--उन्हें, जिनके पास कुछ भी नहीं है;प्रिया: --प्रिय; तस्मात्‌--इसलिए; प्रायेण--प्राय:; न--नहीं; हि--निस्सन्देह; आढ्या: -- धनी; माम्‌--मुझको; भजन्ति--पूजतेहैं; सु-मध्यमे--हे सुन्दर कटि वाली |

    हमारे पास भौतिक सम्पत्ति नहीं है और हम उन्हें ही प्रिय हैं जिनके पास हमारी ही तरह कुछभी नहीं होता।

    इसलिए हे सुमध्यमे, धनी लोग शायद ही हमारी पूजा करते हों।

    ययोरात्मसमं वित्त जन्मैश्वर्याकृतिर्भव: ।

    तयोर्विवाहो मैत्री च नोत्तमाधमयो: क्वचित्‌ ॥

    १५॥

    ययो:--जिन दो का; आत्म-समम्‌--अपने समान; वित्तमू--सम्पत्ति; जन्म--जन्म; ऐश्वर्य--प्रभाव; आकृति: --तथा शारीरिकस्वरूप; भवः--भावी सनन्‍्तान; तयो:--दोनों का; विवाह: --विवाह; मैत्री--मित्रता; च--तथा; न--नहीं; उत्तम-- श्रेष्ठ का;अधमयो:--तथा निम्न; क्वचित्‌--कभी |

    विवाह तथा मैत्री उन दो मनुष्यों के बीच ही उचित होती है जो समान सम्पत्ति, जन्म, प्रभाव,आकृति तथा उत्तम सन्‍्तान की क्षमता वाले हों, किन्तु उत्तम तथा अधम के बीच कभी नहीं।

    बैदर्भ्येतदविज्ञाय त्वयादीर्घसमीक्षया ।

    वबृता वयं गुणैहीना भिक्षुभि: एलाघिता मुधा ॥

    १६॥

    वैदर्भि--हे विदर्भ की राजकुमारी; एतत्‌--यह; अविज्ञाय--न जानते हुए; त्वया--तुम्हारे द्वारा; अदीर्घ-समीक्षया--दूर-दृष्टि केबिना; वृता:--चुना; वयम्‌--हम; गुणैः--सदगुणों से; हीना:--रहित; भिक्षुभि:--भिखारियों द्वारा; शलाघिता:--प्रशंसित;मुधा--मोहवश |

    हे वैदर्भी, दूरदर्शी न होने से तुमने इसका विचार नहीं किया और इसीलिए तुमने अपने पतिरूप में हमें चुना है यद्यपि हममें कोई सद्‌गुण नहीं हैं और मुग्ध भिखारी ही हमारी प्रशंसा करतेहैं।

    अथात्मनोनुरूपं वै भजस्व क्षत्रियर्षभम्‌ ।

    येन त्वमाशिष: सत्या इहामुत्र च लप्स्यसे ॥

    १७॥

    अथ--अब; आत्मन:--अपने; अनुरूपम्‌--उपयुक्त; बै--निस्सन्देह; भजस्व--स्वीकार करो; क्षत्रिय-ऋषभम्‌--किसी उच्चकोटि के राजवर्ग को; येन--जिससे; त्वमू--तुम; आशिष:--आशाएँ; सत्या:--पूरी हो सकने वाली; इह--इस जीवन में;अमुत्र--अगले जीवन में; च-- भी; लप्स्यसे--प्राप्त करोगी |

    अब तुम्हें चाहिए कि अधिक उपयुक्त किसी उच्च कोटि के राजन्य पुरुष को स्वीकार करलो जो तुम्हें इस जीवन तथा अगले जीवन में भी ऐसी प्रत्येक वस्तु को प्राप्त करने में सहायताकर सके, जो तुम चाहती हो।

    चैद्यशाल्वजरासन्ध दन्तवक्रादयो नृपा: ।

    मम द्विषन्ति वामोरु रुक्मी चापि तवाग्रज: ॥

    १८ ॥

    चैद्य-शाल्व-जरासन्ध-दन्तवक्र-आदय:ः --चैद्य ( शिशुपाल ), शाल्व, जरासन्ध, दन्तवक्र इत्यादि; नृपा:--राजागण; मम--मुझसे; द्विषन्ति--घृणा करते हैं; वाम-ऊरु--हे सुन्दर जाँघों वाली; रुक्मी--रुक्मी; च अपि-- भी; तव--तुम्हारा; अग्र-जः --बड़ा भाई

    हे सुन्दर जांघों वाली भद्गे, शिशुपाल, शाल्व, जरासन्ध तथा दन्तवक्र जैसे सभी राजा मुझसेघृणा करते हैं और उसी तरह तुम्हारा बड़ा भाई रुक्मी भी करता है।

    तेषां वीर्यमदान्धानां हप्तानां स्मयनुत्तये ।

    आनितासि मया भद्रे तेजोपहरतासताम्‌ ॥

    १९॥

    तेषाम्‌--उन सबों का; वीर्य--अपनी शक्ति के; मद--नशे से; अन्धानाम्‌--अन्धे हुए; हप्तानामू--घमंडी; स्मय--उहंडता;नुत्तये--दूर करने के लिए; आनिता असि--तुम्हें विवाह में हर लिया गया; मया--मेरे द्वारा; भद्रे--कल्याणी, भद्र महिला;तेज:--बल; उपहरता--हटाते हुए; असताम्‌--दुष्टों के |

    इन्हीं राजाओं की उहंडता को दूर करने के लिए ही, हे कल्याणी, मैं तुम्हें हट ले आयाक्योंकि वे सभी शक्ति के मद से अन्धे हो चले थे।

    मेरा उद्देश्य दुष्ठों की शक्ति को चूर करना था।

    उदासीना वयं नून॑ न स्व्यपत्यार्थकामुका: ।

    आत्मलब्ध्यास्महे पूर्णा गेहयोज्योतिरक्रिया: ॥

    २०॥

    उदासीना:--अन्यमनस्क; वयम्‌--हम; नूनम्‌ू--निस्सन्देह; न--नहीं; स्त्री--पत्लियों; अपत्य--सन्तानों; अर्थ--तथा धन केलिए; कामुकाः--लालसा करते हुए, लोलुप; आत्म-लब्ध्या--आत्मतुष्ट होकर; आस्महे--हम रह रहे हैं; पूर्णा:--पूर्ण;गेहयो:--शरीर तथा घर के प्रति; ज्योतिः--अग्नि की तरह; अक्रिया:--किसी कार्य में न लगे हुए

    हम स्त्रियों, बच्चों तथा सम्पत्ति की तनिक भी परवाह नहीं करते।

    सदैव आत्मतुष्ट रहते हुएहम शरीर तथा घर के लिए कार्य नहीं करते बल्कि प्रकाश की तरह हम केवल साक्षी रहते हैं।

    श्रीशुक उबाचएतावदुक्त्वा भगवानात्मानं वल्‍लभामिव ।

    मन्यमानामविएलेषात्तदर्पघ्न उपारमत्‌ ॥

    २१॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एतावत्‌--इतना; उक्त्वा--कहकर; भगवान्‌-- भगवान्‌; आत्मानम्‌--अपनेआप; वललभाम्‌--प्रिया को; इब--सहश; मन्यमानाम्‌--मानते हुए; अविश्लेषात्‌--( उससे ) कभी विलग न होने से; तत्‌--उस; दर्प--धमंड का; घ्नः--विनाश करने वाला; उपारमत्‌--बन्द कर दिया।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : रुक्मिणी ने अपने को भगवान्‌ की विशिष्ट प्रिया समझ रखा थाक्योंकि उन्होंने कभी उनका संग नहीं छोड़ा था।

    ये बातें कहकर भगवान्‌ ने उनके गर्व को दूरकर दिया और तब बोलना बन्द कर दिया।

    इति त्रिलोकेशपतेस्तदात्मनःप्रियस्य देव्यश्रुतपूर्वमप्रियम्‌ ।

    आश्रुत्य भीता हृदि जातवेपथु-श्विन्तां दुरन्‍्तां रूदती जगाम ह ॥

    २२॥

    इति--इस प्रकार; त्रि-लोक--तीनों लोकों के; ईश--स्वामियों के; पतेः--स्वामी के; तदा--तब; आत्मन:-- अपने ही;प्रियस्थ--प्रेमी का; देवी--देवी रुक्मिणी ने; अश्रुत--कभी न सुना गया; पूर्वमू--पहले; अप्रियम्‌--अप्रियता; आश्रुत्य--सुनकर; भीता-- भयभीत; हृदि--अपने हृदय में; जात--उत्पन्न; वेपथु; --कम्पन; चिन्ताम्‌--चिन्ता; दुरन्‍्ताम्‌ू-- भयानक;रुदती--सिसकती; जगाम ह--अनुभव किया।

    रुक्मिणीदेवी ने इसके पूर्व कभी भी अपने प्रिय त्रिलोकेश-पति से ऐसी अप्रिय बातें नहींसुनी थीं अतः वे भयभीत हो उठीं।

    उनके हृदय में कँपकपी शुरू हो गई और भीषण उद्दिग्नता मेंवे रोने लगीं।

    पदा सुजातेन नखारुणश्रीयाभुव॑ लिखन्त्यश्रुभिरज्ञनासितै: ।

    आसिज्जती कुड्डू मरूषितौ स्तनौ तस्थावधोमुख्यतिदुःखरुद्धवाक्‌ ॥

    २३॥

    'पदा--अपने पाँव से; सु-जातेन--अत्यन्त कोमल; नख--नाखूनों के; अरूण--लाल लाल; श्रीया--तेज वाले; भुवम्‌--पृथ्वीको; लिखन्ती--कुरेदती हुई; अश्रुभि:--अपने आँसुओं से; अज्ञन--काजल; असितैः--काले; आसिशञ्ञती--सींचती हुई;कुद्डू म--कुंकुम-चूर्ण से; रूषितौ--लाल; स्तनौ--दोनों स्तन; तस्थौ--शान्त खड़ी हो गईं; अध:--नीचे की ओर; मुखी--मुख किये; अति--अत्यन्त; दुःख--दुख से; रुद्ध--रुकी; वाक्‌ू--वाणी |

    वे लाल-लाल चमकीले वाले नाखुनों से युक्त अपने कोमल पाँव से भूमि कुरेदने लगीं औरअपनी आँख में लगे काजल द्वारा काले हुए आँसुओं से कुंकुम के कारण लाल हुए स्तनों कोभिगो दिया।

    वे मुख नीचा किये खड़ी रहीं और अत्यधिक शोक से उनकी वाणी अवरुद्ध होगई।

    तस्या: सुदुःखभयशोकविनष्टबुद्धे-ईस्ताच्छूलथद्बलयतो व्यजनं पपात ।

    देहश्व विक्लवधिय:ः सहसैव मुहान्‌रम्भेव वायुविहतो प्रविकीर्य केशान्‌ ॥

    २४॥

    तष्या:--उसके; सु-दुःख--अत्यधिक दुख; भय--डर; शोक--तथा शोक से; विनष्ट--नष्ट हुई; बुद्धेः --बुद्दि वाली;हस्तात्‌ू--हाथ से; एलथत्‌--खिसकते हुए; वलयतः --चूड़ियों वाली; व्यजनम्‌--पंखा; पपात--गिर गया; देह:--उसकाशरीर; च--भी; विक्लब--विकल; धिय:--जिसका मन; सहसा एब--सहसा; मुहान्‌ू--मूर्छित हुई; रम्भा--केले के वृक्ष;इब--सहश; वायु--वायु से; विहतः--उखाड़े गये; प्रविकीर्य--बिखराते हुए; केशानू--अपने बाल |

    रुक्मिणी का मन दुख, भय तथा शोक से अभिभूत हो गया।

    उनकी चूड़ियाँ उनके हाथ सेसरक गईं और उनका पंखा जमीन पर गिर पड़ा।

    वे मोहवश सहसा मूछित हो गईं, उनके बालइधर-उधर बिखर गये और उनका शरीर भूमि पर इस तरह गिर गया जिस तरह हवा से उखड़ाहुआ केले का वृक्ष गिर पड़ता है।

    तह्दृष्ठा भगवान्कृष्ण: प्रियाया: प्रेमबन्धनम्‌ ।

    हास्यप्रौढिमजानन्त्या: करुण: सोन्वकम्पत ॥

    २५॥

    तत्‌--यह; दृष्टा--देखकर; भगवान्‌-- भगवान्‌; कृष्ण: --कृष्ण; प्रियाया: --अपनी प्रिया के; प्रेम--शुद्ध ईश प्रेम के;बन्धनम्‌--बन्धन; हास्य--उनके परिहास का; प्रौढिमू--पूर्ण आशय; अजानन्त्या:--न जान सकने वाली; करुण:--दयालु;सः--उन्होंने; अन्बकम्पत--दया का अनुभव किया।

    यह देखकर कि उनकी प्रिया उनके प्रेम से इस तरह बँधी हैं, वे उनके तंग करने के पूरेआशय को नहीं समझ सकीं, दयालु भगवान्‌ कृष्ण को उन पर दया आ गई।

    पर्यड्भादवरुह्माशु तामुत्थाप्य चतुर्भुज:ः ।

    केशान्समुद्य तद्ठक्त्रं प्रामुजत्पदापाणिना ॥

    २६॥

    पर्यड्ञातू--बिस्तर से; अवरुह्य--उतर कर; आशु--जल्दी से; ताम्‌--उसको; उत्थाप्य--उठाते हुए; चतुर्‌-भुज:--चार भुजाएँप्रदर्शित करते; केशान्‌ू--उसके बालों को; समुहा--ठीक करते; तत्‌--उसके ; वक्त्रमू--मुख को; प्रामृजत्‌--पोंछा; पद्मय-पाणिना--अपने कर-कमल से |

    भगवान्‌ तुरन्त बिस्तर से उतर आये।

    चार भुजाएँ प्रकट करते हुए उन्होंने उन्हें ( रुक्मिणीको ) उठाया, उनके बाल ठीक-ठाक किए और अपने कर-कमलों से उनका मुख सहलाया।

    प्रमृज्या श्रुकले नेत्रे स्‍्तनौ चोपहतौ शुचा ।

    आएिलिष्य बाहुना राजननन्यविषयां सतीम्‌ ॥

    २७॥

    सान्त्वयामास सान्त्वज्ञ: कृपया कृपणां प्रभु: ।

    हास्यप्रौढि भ्रमच्चित्तामतदर्हा सतां गति: ॥

    २८॥

    प्रमूज्य--पोंछकर; अश्रु-कले--आँसुओं से पूरित; नेत्रे--उसकी आँखें; स्तनौ--दो स्तनों को; च--तथा; उपहतौ--बिखरे;शुचा--शोकयुक्त आँसुओं से; अश्लिष्य--उसका आलिंगन करके; बाहुना--अपनी बाँह से; राजन्‌--हे राजा ( परीक्षित );अनन्य--कोई अन्य नहीं; विषयाम्‌--जिसकी इच्छित वस्तु; सतीम्‌--सती को; सान्त्वयाम्‌ आस--सान्त्वना दी; सान्त्व--सान्त्वना विधियों के; ज्ञ:--जानने वाले; कृपया--कृपापूर्वक; कृपणाम्‌--दयनीय; प्रभुः-- भगवान्‌; हास्य--अपने परिहासका; प्रौढि--चतुरता से; भ्रमत्‌ू--मोहित हुए; चित्तामू-चित्त वाले; अतत्‌-अर्हाम्‌--उसके योग्य नहीं; सताम्‌ू--शुद्ध भक्तों का;गति:--गन्तव्य

    हे राजन, उनके अश्रुपूरित नेत्रों तथा संताप के आँसुओं से सने हुए उनके स्तनों को पोंछ करअपने भक्तों के लक्ष्य भगवान्‌ ने अपनी सती पत्ती का आलिंगन किया जो एकमात्र उन्हीं कोचाह रही थीं।

    सान्त्वना देने की कला में पटु श्रीकृष्ण ने दयनीय रुक्मिणी को मृदुता से ढाढ़सबँधाया जिनका मन भगवान्‌ के चातुरीपूर्ण हास-परिहास से भ्रमित था और जो इस तरह कष्टभोगने के योग्य न थीं।

    श्रीभगवानुवाचमा मा वैदर्भ्यसूयेथा जाने त्वां मत्परायणाम्‌ ।

    त्वद्बचच: श्रोतुकामेन क्ष्वेल्याचरितमड़ने ॥

    २९॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; मा--मत; मा-- मुझसे; वैदर्भि--हे वैदर्भी; असूयेथा: --रुष्ट होओ; जाने--मैं जानता हूँ;त्वामू--तुम; मत्‌--मुझमें; परायणाम्‌--पूर्णतया समर्पित; त्वत्‌--तुम्हारे; बच: --शब्द; श्रोतु--सुनने की; कामेन--इच्छाकरते हुए; क्ष्वेल्या--हँसी में; आचरितम्‌--कार्य किया; अड्डने--हे अंगना (स्त्री )

    भगवान्‌ ने कहा : हे वैदर्भी, तुम मुझसे नाराज मत होओ।

    मैं जानता हूँ कि तुम पूरी तरहमुझमें समर्पित हो।

    हे प्रिय देवी, मैंने तो ठिठोली में ऐसा कहा था क्योंकि मैं सुनना चाहता थाकि तुम कया कहोगी।

    मुखं च॒ प्रेमसंरम्भस्फुरिताधरमीक्षितुम्‌ ।

    कटाक्षेपारुणापाड़ं सुन्दरभ्रुकुटीतटम्‌ ॥

    ३०॥

    मुखम्‌--मुख; च--तथा; प्रेम--प्रेम के; संरम्भ--कोप से; स्फुरित--हिलते; अधरम्‌--होठों से; ईक्षितुमू--देखने के लिए;कटा--तिरछी चितवन के; क्षेप--फेंके जाने से; अररूण--लाल लाल; अपाडुम्‌--आँखों के कोर; सुन्दर--सुन्दर; भ्रु--भौंहोंका; कुटी--गहराना; तटम्‌--किनारों पर

    मैं यह भी चाहता था कि प्रणयकोप में काँपते तुम्हारे अधर, तिरछी चितवनों वाली तुम्हारीआँखों के लाल-लाल कोर तथा क्रोध से तनी तुम्हारी सुन्दर भौंहों की रेखा से युक्त तुम्हारा मुखदेख सकूँ।

    अयं हि परमो लाभो गृहेषु गृहमेधिनाम्‌ ।

    यन्नमैरीयते याम: प्रियया भीरू भामिनि ॥

    ३१॥

    अयम्‌--यह; हि--निस्सन्देह; परम:--परम; लाभ:--लाभ; गृहेषु--गृहस्थ जीवन में; गृह-मेधिनाम्‌--संसारी गृहस्थों के लिए;यतू--जो; नर्मै:--परिहास से; ईयते--बिताया जाता है; याम: --समय; प्रियया--प्रियतमा के साथ; भीरू--हे डरपोक;भामिनि--हे तुनुकमिजाज |

    हे भीरु एवं चंचल, संसारी गृहस्थजन घर में जो सबसे बड़ा आनन्द लूट सकते हैं वह हैअपनी प्रियतमाओं के साथ परिहास करने में बिताया जाने वाला समय।

    श्रीशुक उबाचसैवं भगवता राजन्वैदर्भी परिसान्त्विता ।

    ज्ञात्वा तत्परिहासोक्ति प्रियत्यागभयं जहौ ॥

    ३२॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; सा--वह; एवम्‌--इस प्रकार; भगवता-- भगवान्‌ द्वारा; राजन्‌--हे राजन;वैदर्भी--महारानी रुक्मिणी; परिसान्त्विता--पूर्णतया सान्त्वना दी गई, समझाई-बुझाई गई; ज्ञात्वा--जान कर; तत्‌--उसके;परिहास--मजाक में कहे गये; उक्तिम्‌--शब्द; प्रिय--अपने प्रेमी द्वारा; त्याग--परित्याग के; भयम्‌-- भय को; जहौ--त्यागदिया।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन, महारानी वैदर्भी भगवान्‌ द्वारा पूरी तरह परिशान्त करदी गईं और वे यह समझ गईं कि भगवान्‌ ने परिहास में वे शब्द कहे हैं।

    इस तरह उनका यह भयजाता रहा कि उनके पति उनका परित्याग कर देंगे।

    बभाष ऋषभे पुंसां वीक्षन्ती भगवन्मुखम्‌ ।

    सब्रीडहासरूचिरस्निग्धापाड़ेन भारत ॥

    ३३॥

    बभाष--बोली; ऋषभम्‌-- अत्यन्त प्रसिद्ध; पुंसामू-पुरुष से; वीक्षन्ती--देखती हुईं; भगवत्‌-- भगवान्‌ के; मुखम्‌--मुख को;स-ब्रीड--सलज्ज; हास--हँसी से युक्त; रुचिर--आकर्षक; स्निग्ध--स्नेहिल; अपाड्रेन--तथा चितवन से; भारत--हेभरतवंशी ।

    हे भरतवंशी, भगवान्‌ के मुख पर अपनी आकर्षक तथा स्नेहिल चितवन डालते हुएरुक्मिणी लज्जा से हँसते हुए नर- श्रेष्ठ भगवान्‌ से इस प्रकार बोलीं।

    श्रीरुक्मिण्युवाचनन्वेवमेतदरविन्दविलोचनाह यद्वै भवान्भगवतोसहृशी विभूम्न: ।

    व स्वे महिम्न्यभिरतो भगवांस्त्यधीश:क्वाहं गुणप्रकृतिरज्ञगृहीतपादा ॥

    ३४॥

    श्री-रुक्मिणी उवाच-- श्री रुक्मिणी ने कहा; ननु--ठीक है; एवम्‌--ऐसी ही हो; एतत्‌--यह; अरविन्द-विलोचन--हे कमलजैसे नेत्रों वाले; आह--कहा; यत्‌--जो; वै--निस्सन्देह; भवान्‌--आप; भगवतः -- भगवान्‌ के; असहशी--असमान;विभूम्न:--सर्वशक्तिमान से; क्व--कहाँ, तुलना में; स्वे-- अपनी; महिम्नि--महिमा में; अभिरत:-- आनन्द लेते हुए;भगवानू्‌-- भगवान्‌; त्रि--तीन ( मुख्य देवता, ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव ) के; अधीश:--नियन्ता; क्व--तथा कहाँ; अहम्‌--मैं;गुण--गुणों का; प्रकृति:ः--स्वभाव; अज्ञ--मूर्ख व्यक्तियों द्वारा; गृहीत--पकड़े हुए; पादा--जिनके चरण।

    श्री रुक्मिणी ने कहा : हे कमल-नयन, आपने जो कहा है वस्तुतः वह सच है।

    मैं सचमुचसर्वशक्तिमान भगवान्‌ के अनुपयुक्त हूँ।

    कहाँ तीन प्रमुख देवों के स्वामी एवं अपनी ही महिमा मेंमग्न रहने वाले भगवान्‌ और कहाँ मैं संसारी गुणों वाली स्त्री जिसके चरण मूर्खजन ही पकड़तेहैं?

    सत्यं भयादिव गुणेभ्य उरुक्रमान्तःशेते समुद्र उपलम्भनमात्र आत्मा ।

    नित्यं कदिन्द्रियगणै: कृतविग्रहस्त्वं त्वत्सेवकैर्नूपपदं विधुतं तमो उन्धम्‌ ॥

    ३५॥

    सत्यमू--सच; भयात्‌-- भय से; इब--मानो; गुणेभ्यः--भौतिक गुणों के; उरुक्रम--हे दिव्य कौशल करने वाले; अन्त: --भीतर; शेते--शयन करते हो; समुद्रे--समुद्र में; उपलम्भन-मात्र:--पूर्ण भिज्ञता; आत्मा--परमात्मा; नित्यमू--सदैव; कत्‌--बुरा; इन्द्रिय-गणै: --समस्त इन्द्रियों के विरुद्ध; कृत-विग्रह: --युद्ध करते हुए; त्वम्‌ू--तुम; त्वत्‌--तुम्हारे; सेवकै :--सेवकोंद्वारा; नृूप--राजा का; पदम्‌--पद; विधुतम्‌--अस्वीकृत, दुत्कारा गया; तम:ः--अंधकार; अन्धम्‌-घना |

    हाँ, भगवान्‌ उरुक्रम, आप समुद्र के भीतर शयन करते हैं मानो भौतिक गुणों से भयभीत होंऔर इस तरह आप शुद्ध चेतना में हृदय के भीतर परमात्मा रूप में प्रकट होते हैं।

    आप निरन्तरमूर्ख इन्द्रियों के विरुद्ध संघर्ष करते रहते हैं, यहाँ तक कि आपके दास भी अज्ञान के अंधकार मेंले जाने वाले साम्राज्य के अवसर को दुत्कार देते हैं।

    त्वत्पादपदामकरन्दजुषां मुनीनांवर्त्मास्फुट्टं खपशुभिर्ननु दुर्विभाव्यम्‌ ।

    यस्मादलौकिकमिवेहितमी श्वरस्यभूमंस्तवेहितमथो अनु ये भवन्तम्‌ ॥

    ३६॥

    त्वत्‌-तुम्हारे; पाद--पैरों की; पद्य--कमल जैसे; मकरन्द--मधु, शहद; जुषाम्‌--आस्वादन करने वाले; मुनीनाम्‌--मुनियोंका; वर्त्त--( आपका ) मार्ग; अस्फुटम्--अप्रकट; नृ--मनुष्य रूप में; पशुभि:--पशुओं द्वारा; ननु--निश्चय ही, तब;दुर्विभाव्यमू--समझ पाना असम्भव; यस्मात्‌--क्योंकि; अलौकिकम्‌-- अलौकिक; इब--मानो; ईहितमू--कार्यकलाप;ईश्वरस्थ-- भगवान्‌ के; भूमन्‌--हे सर्वशक्तिमान; तव--तुम्हारे; ईहितम्‌--कार्यकलाप; अथ उ--अतः; अनु--अनुसरण करतेहुए; ये--जो; भवन्तम्‌--आपको

    जब आपकी गतिविधियाँ, उन मुनियों के लिए भी अस्पष्ट हैं, जो आपके चरणकमलों केमधु का आस्वादन करते हैं, तो फिर वे निश्चय ही मनुष्यों की समझ में न आने वाली हैं, जोपशुओं जैसा आचरण करते हैं।

    और हे सर्वशक्तिमान प्रभु, जिस तरह आपके कार्यकलाप दिव्यहैं उसी तरह आपके अनुयायियों के भी हैं।

    निष्किज्ञनो ननु भवान्न यतोस्ति किल्ञिद्‌यस्मै बलिं बलिभुजोपि हरन्त्यजाद्या: ।

    न त्वा विदन्त्यसुतृपो उन्‍्तकमाढ्यतान्धा:प्रेष्ठो भवान्बलिभुजामपि तेडपि तुभ्यम्‌ ॥

    ३७॥

    निष्किलज्लन:--सम्पत्तिविहीन; ननु--निस्सन्देह; भवान्‌ू--आप; न--नहीं; यत:--जिसके परे; अस्ति--है; किल्ञित्‌ू--कुछ भी;यस्मै--जिसको; बलिमू-- भेंट; बलि-- भेंट का; भुज: -- भोक्ता; अपि-- भी; हरन्ति--वहन करते हैं; अज-आद्या:--ब्रह्माइत्यादि; न--नहीं; त्वा--तुमको; विदन्ति--जानते हैं; असु-तृप:--शरीर से तुष्ट रहने वाले व्यक्ति; अन्तकम्‌-- मृत्यु के रूप में;आद्यता--सम्पत्ति के अपने पद द्वारा; अन्धा:--अच्धे हुए; प्रेष्ठ;--परम प्रिय; भवान्‌ू--आप; बलि-भुजाम्‌--उपहार के परमभोक्ता के लिए; अपि--भी; ते--वे; अपि-- भी ; तुभ्यम्‌--तुमको ( प्रिय हैं )॥

    आपके पास कुछ भी नहीं है क्योंकि आपसे परे कुछ भी नहीं है।

    बलि के परम भोक्ता,ब्रह्म तथा अन्य देवता तक आपको नमस्कार करते हैं।

    जो लोग अपनी सम्पत्ति से अन्धे हुए रहतेहैं और अपनी इन्द्रियों को तृप्त करने में लीन रहते हैं, वे काल रूप आपको नहीं पहचान पाते।

    बलि के भोक्ता देवताओं को आप उसी तरह परम प्रिय हैं जिस तरह कि वे आपको हैं।

    त्वं वै समस्तपुरुषार्थभयः फलात्मायद्वा्॒छया सुमतयो विसृजन्ति कृत्स्नम्‌ ।

    तेषां विभो समुचितो भवतः समाज:पुंसः स्त्रियाश्न रतयो: सुखदुःखिनोर्न ॥

    ३८ ॥

    त्वमू--तुम; बै--निस्सन्देह; समस्त--सारे; पुरुष--मानव जीवन के; अर्थ--लक्ष्यों से; मयः--युक्त; फल--चरम लक्ष्य के;आत्मा--आत्मा; यत्‌--जिसके लिए; वाउ्छया--इच्छा से; सु-मतयः--बुद्ध्धिमान व्यक्ति; विसृजन्ति--त्याग देते हैं; कृत्समम्‌--हर वस्तु को; तेषामू--उनके लिए; विभो--हे सर्वशक्तिमान; समुचित:--समुचित; भवतः--आपका; समाज:--सान्निध्य;पुंस:--मनुष्य; स्त्रिया:--तथा स्त्री के लिए; च--तथा; रतयो:--विषय-भोग में अनुरक्त; सुख-दुःखिनो:--सुख तथा दुख काअनुभव करने वाले; न--नहीं

    आप समस्त मानवीय लक्ष्यों के साकार रूप हैं और आप ही जीवन के अन्तिम लक्ष्य हैं।

    हेसर्वशक्तिमान विभु, आपको प्राप्त करने के इच्छुक बुद्धिमान व्यक्ति अन्य सारी वस्तुओं कापरित्याग कर देते हैं।

    वे ही आपके सान्निध्य के पात्र हैं, न कि वे स्त्री तथा पुरुष जो पारस्परिकविषय-वासना से उत्पन्न सुख तथा दुख में लीन रहते हैं।

    त्वं न्‍्यस्तदण्डमुनिभिर्गदितानुभावआत्मात्मदश्च जगतामिति मे वृतोडसि ।

    हित्वा भवदभ्वुव उदीरितकालवेगध्वस्ताशिषोब्जभवनाकपतीन्कुतोन्ये ॥

    ३९॥

    त्वमू--तुम; न्‍्यस्त-- जिन्होंने त्याग दिया है; दण्ड--संन्यासी का दंड; मुनिभि:--मुनियों द्वारा; गदित--कहा गया; अनुभाव:--जिसका पराक्रम; आत्मा--परमात्मा; आत्मा--स्वयं आप; दः--देने वाला; च-- भी; जगताम्‌--सारे जगतों के; इति--इसप्रकार; मे--मेरे द्वारा; वृत:--चुना हुआ; असि--हो; हित्वा--त्याग कर; भवत्‌--आपकी; भ्रुव:--भौंहों से; उदीरित--उत्पन्न;काल--समय के; वेग--वेग से; ध्वस्त--नष्ट- भ्रष्ट आशिष:--जिनकी आशाएँ; अब्ज--कमल से उत्पन्न ( ब्रह्मा )) भव--शिवजी; नाक--स्वर्ग के; पतीन्‌--स्वामियों को; कुतः--तो फिर क्या; अन्ये-ओशथेर्स

    यह जानते हुए कि सन्यासियों का दंड त्यागे हुए महामुनि आपके यश का बखान करते हैं,कि आप तीनों जगतों के परमात्मा हैं और आप इतने दानी हैं कि अपने आपको भी दे डालते हैं,मैंने ब्रह्म, शिव तथा स्वर्ग के शासकों को, जिनकी महत्वाकांक्षाएँ आपकी भ्रकुटी से उत्पन्नकाल के वेग से नष्ट-भ्रष्ट हो जाती हैं, त्याग कर आपको अपने पति रूप में चुना है।

    तो फिरअन्य किसी विवाहार्थी में मेरी क्या रूचि हो सकती थी ?

    जाडयं वचस्तव गदाग्रज यस्तु भूपान्‌विद्राव्य शार्ड्निनदेन जहर्थ मां त्वम्‌ ।

    सिंहो यथा स्वबलिमीश पशून्स्वभागंतेभ्यो भयाद्यदुदधि शरणं प्रपन्न: ॥

    ४०॥

    जाडबग्रम्‌--मूर्खता; वच:--शब्द; तब--तुम्हारे; गदाग्रज--हे गदाग्रज; य:--जो; तु--भी; भू-पान्‌ू--राजाओं को; विद्राव्य--भगाकर; शार्ड--शार्ड् की, तुम्हारे धनुष की; निनदेन--टंकार से; जहर्थ--ले गये; मामू--मुझको; त्वमू--तुम; सिंह: --सिंह;यथा--जिस तरह; स्व--आपकी; बलिम्‌--बलि, भेंट; ईश-हे प्रभु; पशून्‌ू--पशुओं को; स्व-भागम्‌--अपना भाग;तेभ्य:--उनके; भयात्‌-- भय से; यत्‌--जिसने; उदधिम्‌--समुद्र की; शरणं-प्रपन्न:--शरण ग्रहण की ।

    हे प्रभु, जिस तरह सिंह भेंट का अपना उचित भाग लेने के लिए छोटे पशुओं को भगा देताहै उसी तरह आपने अपने शार्ड़् धनुष की टंकार से एकत्रित राजाओं को भगा दिया और फिरमुझे अपने उचित भाग के रूप में अपना बना लिया।

    अतः हे गदाग्रज, आपके द्वारा यह कहनानिरी मूर्खता है कि आपने उन राजाओं के भय से समुद्र में शरण ग्रहण की।

    यद्वाज्छया नृूपशिखामणयोउनगवैन्य-जायन्तनाहुषगयादय ऐक्यपत्यम्‌ ।

    राज्यं विसृज्य विविशुर्वनमम्बुजाक्ष सीदन्ति तेडनुपदवीं त इहास्थिता: किम्‌ ॥

    ४१॥

    यत्‌--जिसके लिए; वाउ्छया--इच्छा से; नृप--राजाओं के; शिखामणय:--मुकुट के मणि; अड्ड-वैन्य-जायन्त-नाहुष-गय-आदयः--अंग ( वेन का पिता ), वैन्य ( वेन का पुत्र, पृथु ), जायन्त ( भरत ), नाहुष ( ययाति ), गय आदि; ऐक्य--एकमात्र;पत्थम्‌-प्रभुसत्ता युक्त, एकछत्र; राज्यमू--उनके राज्य; विसृज्य--त्याग कर; विविशु:--प्रवेश किया; वनम्‌--जंगल में;अम्बुज-अक्ष--हे कमल-नेत्र; सीदन्ति--कष्ट उठाते हैं, हताश होते हैं; ते--तुम्हारे; अनुपदवीम्‌--पथ पर; ते--वे; इह--इसजगत में; आस्थिता:--स्थिर; किमू--क्या।

    आपका सात्रिध्य प्राप्त करने की अभिलाषा से अंग, वैन्य, जायन्त, नाहुष, गय तथा अन्यश्रेष्ठ राजाओं ने अपने मरा पूरा साम्राज्य त्याग कर आपकी खोज करने के लिए जंगल में प्रवेशकिया।

    हे कमल-नेत्र, भला वे राजा क्योंकर इस जगत में हताश होंगे ?

    कान्य॑ श्रयेत तव पादसरोजगन्ध-माप्राय सन्मुखरितं जनतापवर्गम्‌ ।

    लक्ष्म्यालयं त्वविगणय्य गुणालयस्यमर्त्या सदोरुभयमर्थविविक्तदृष्टि: ॥

    ४२॥

    का--कौन स्त्री; अन्यम्‌ू--दूसरे पुरुष की; श्रयेत--शरण ग्रहण करेगी; तब--तुम्हारे; पाद--चरण की; सरोज--कमल रूपी;गन्धम्‌ू--सुगन्ध; आधप्राय--सूँघ कर; सत्‌--महान्‌ सन्तों द्वारा; मुखरितम्‌--वर्णित; जनता--सारे लोगों के लिए; अपवर्गम्‌--मोक्ष प्रदान करते हुए; लक्ष्मी--लक्ष्मी का; आलयम्‌--निवासस्थान; तु--लेकिन; अविगणय्य--गम्भीरतापूर्वक न लेकर;गुण--दिव्य गुणों के; आलयस्य-- धाम का; मर्त्या--मर्त्य; सदा--सदैव; उरुू--महान्‌; भयम्‌ू-- भय; अर्थ--स्वार्थ;विविक्त--निश्चित करते हुए; दृष्टि:--दृष्टि

    आपके चरणकमलों की सुगन्ध, जिसकी महिमा बड़े बड़े सन्त गाते हैं, लोगों को मोक्षप्रदान करती है और यही लक्ष्मीजी का धाम है।

    इस सुगन्ध को सूँघ कर कौन स्त्री होगी जोकिसी अन्य पुरुष की शरण में जायेगी? चूँकि आप दिव्य गुणों के धाम हैं अत: ऐसी कौन-सीमर्त्य स्त्री होगी जो अपने सच्चे स्वार्थ को पहचानने की अन्तर्दष्टि से युक्त होकर उस सुगन्ध काअनादर करेगी और किसी ऐसे पर आश्रित होगी जो सदैव महान्‌ भय से आतंकित रहता हो ?

    त॑ त्वानुरूपमभजं जगतामधीश-मात्मानमत्र च परत्र च कामपूरम्‌ ।

    स्यान्मे तवाड्प्रिरएणं सृतिभिभ्र॑मन्त्यायो वै भजन्तमुपयात्यनृतापवर्ग: ॥

    ४३॥

    तम्‌--उस; त्वा--आपको ; अनुरूपम्‌--उपयुक्त; अभजमू--मैंने चुना है; जगताम्‌--सारे संसारों के; अधीशम्‌--अनन्तिमस्वामी को; आत्मानम्‌--परमात्मा को; अत्र--इस जीवन में; च--तथा; परत्र--अगले जीवन में; च-- भी; काम--इच्छाओंका; पूरम्‌--पूरा करने वाला; स्यात्‌--वे होयें; मे--मेरे लिए; तव--तुम्हारे; अड्घ्रि:--चरण; अरणम्‌--शरण; सृतिभि:--विविध चक्करों द्वारा ( एक योनि से दूसरी योनि में ); भ्रमन्त्या:-- भ्रमण कर रहे; यः--जो ( चरण ); बै--निस्सन्देह; भजन्तम्‌ू--उनका पूजक, भजन करने वाला; उपयाति--पहुँचते हैं; अनृत--असत्य से; अपवर्ग:--मोक्ष |

    चूँकि आप मेरे अनुरूप हैं इसलिए मैंने तीनों जगत के स्वामी तथा परमात्मा आपको ही चुनाहै, जो इस जीवन में तथा अगले जीवन में हमारी इच्छाओं को पूरा करते हैं।

    आपके चरण जोअपने उन पूजकों के पास पहुँच कर मोह से मुक्ति दिलाते हैं, जो एक योनि से दूसरी योनि मेंभ्रमण करते रहे हैं, मुझे शरण प्रदान करें।

    तस्या: स्युरच्युत नृपा भवतोपदिष्टा:स्त्रीणां गृहेषु खरगोश्वविडालभृत्या: ।

    यत्कर्णमूलमन्कर्षण नोपयायाद्‌युष्पत्कथा मृडविरिज्ञसभासु गीता ॥

    ४४॥

    तस्या:--उसके; स्युः--( पतियों को ) होने दो; अच्युत--हे अच्युत कृष्ण; नृपा:--राजा; भवता--आपके द्वारा; उपदिष्टा: --कथित; स्त्रीणाम्‌--स्त्रियों के; गृहेषु--घरों में; खर--गधा; गो--बैल; श्व--कुत्ते; विडाल--बिल्ली; भृत्या:--तथा नौकर;यत्‌--जिसके; कर्ण--कान के; मूलम्‌--आन्तरिक भाग; अरि--आपके शत्रु; कर्षण--हे तंग करने वाले; न--कभी नहीं;उपयायात्‌--पास आते हैं; युष्मत्‌--आपके विषय में; कथा--विचार-विमर्श; मृड--शिव; विरिज्न--तथा ब्रह्म की; सभासु--विद्वानों की मण्डली; गीता--गाया हुआ |

    हे अच्युत कृष्ण, आपने जिन-जिन राजाओं के नाम लिये हैं उनमें से हर एक राजा ऐसी स्त्रीका पति बन जाये जिसके कानों ने कभी भी आपकी उस महिमा का श्रवण नहीं किया जो शिवतथा ब्रह्मा की सभाओं में गाई जाती है।

    कुछ भी हो ऐसी स्त्रियों के घरों में ये राजा गधों, बैलों,कुत्तों, बिल्लियों तथा नौकरों की तरह रहते हैं।

    त्वकश्मश्रुरोमनखकेशपिनद्धमन्त-मांसास्थिरक्तकृमिविट्कफपित्तवातम्‌ ।

    जीवच्छवं भजति कान्तमतिर्विमूढाया ते पदाब्जमकरन्दमजिप्रती स्त्री ॥

    ४५॥

    त्वक्‌्--चमड़ी; श्म श्रु-- मूँछें; रोम--रोएँ; नख--नाखुन; केश--तथा सिर के बाल से; पिनद्धम्‌ू--ढके हुए; अन्तः-- भीतर;मांस--मांस; अस्थि--हड्डी; रक्त--खून; कृमि--कीड़े; विटू--मल; कफ--बलगम; पित्त--पित्त; वातमू--तथा वायु;जीवत्‌--जीवित; शवम्‌--मृत शरीर; भजति--पूजा करता है; कान्त--पति या प्रेमी; मतिः--विचार; विमूढा--पूर्णतयामोहग्रस्त; या--जो; ते--तुम्हारे; पद-अब्ज--चरणकमलों का; मकरन्दम्‌--मधु; अजिप्रती--न सूँघते हुए; स्त्री--स्त्री |

    जो स्त्री आपके चरणकमलों के मधु की सुगन्धि का आस्वादन करने से वंचित रह जाती है,वह पूरी तरह मूर्ख ( मूढ ) बन कर रह जाती है और चमड़ी, मूँछ, नाखून, बाल तथा रोओं सेढके और माँस, अस्थियों, रक्त, कीट, मल, कफ, पित्त तथा वायु से भरे जीवित शव को पतिया प्रेमी रूप में स्वीकार करती है।

    अस्त्वम्बुजाक्ष मम ते चरणानुरागआत्मन्रतस्य मयि चानतिरिक्तदष्टे: ।

    हास्य वृद्धय उपात्तरजोतिमात्रोमामीक्षसे तदु ह न: परमानुकम्पा ॥

    ४६॥

    अस्तु--हो; अम्बुज-अक्ष--हे कमल-नयन; मम--मेरा; ते--तुम्हारे; चरण--चरणों के प्रति; अनुराग:--स्थायी आकर्षण;आत्मन्‌--आपमें; रतस्य--आनन्द लेने वाले का; मयि--मेरे प्रति; च--तथा; अनतिरिक्त--अपर्याप्त; दृष्टे:--जिसकी दृष्टि;यहि--जब; अस्य--इस ब्रह्माण्ड की; वृद्धये--वृद्धि के लिए; उपात्त--कल्पना करते हुए; रज:--रजोगुण का; अति-मात्र:--आधिक्य; मामू--मुझ पर; ईक्षसे--आप देखते हैं; तत्‌ू--वह; उ ह--निस्सन्देह; नः--हमारे लिए; परम--सर्वाधिक;अनुकम्पा--कृपा का प्रदर्शन

    हे कमल-नयन, यद्यपि आप अपने में तुष्ट रहते हैं जिससे शायद ही कभी मेरी ओर ध्यान देतेहैं, तो भी कृपा करके मुझे अपने चरणकमलों के प्रति स्थायी प्रेम का आशीर्वाद दें।

    जब आपब्रह्माण्ड की सृष्टि करने के लिए रजोगुण की प्रधानता धारण करते हैं तभी आप मुझ पर दृष्टिडालते हैं, जो निस्सन्देह मेरे ऊपर आपकी महती कृपा होती है।

    नैवालीकमहं मन्ये वचस्ते मधुसूदन ।

    अम्बाया एव हि प्रायः कन्याया: स्याद्रति: क्वचित्‌ ॥

    ४७॥

    न--नहीं; एव--निस्सन्देह; अलीकम्‌--असत्य; अहम्‌--मैं; मन्ये--सोचती हूँ; वचः--शब्दों को; ते--तुम्हारे; मधु-सूदन--हेमधु-हन्ता; अम्बाया:--अम्बा का; एव हि--निश्चय ही; प्रायः--सामान्यतया; कन्याया:--कन्या का; स्यात्‌ू--उत्पन्न हुआ;रतिः--आकर्षण ( शाल्व के प्रति ); क्वचित्‌--एक बार।

    हे मधु-सूदन, मैं आपके बचनों को वास्तव में असत्य नहीं मानती।

    प्रायः अविवाहितालड़की पुरुष के प्रति आकृष्ट हो जाती है जैसा अम्बा के साथ हुआ।

    व्यूढायाश्चापि पुंश्चल्या मनोभ्येति नव॑ नवम्‌ ।

    बुधोउसतीं न बिभूयात्तां बिभ्रदुभयच्युत: ॥

    ४८॥

    व्यूढाया:--विवाहित स्त्री का; च--तथा; अपि-- भी; पुंश्चल्या:--पुंश्चली, कुलटा; मनः--मन; अभ्येति--आकृष्ट होता है;नवम्‌ नवम्‌--नये से नये ( प्रेमी ) के प्रति; बुध:--बुद्धिमान; असतीम्‌--कुलटा स्त्री को; न बिप्यात्‌ू--पालन नहीं करनाचाहिए; ताम्‌--उसका; बिभ्रत्‌ू--पालन; उभय--दोनों ( इस लोक में तथा परलोक में ) से; च्युत:--गिरी हुई ॥

    कुलटा स्त्री का मन सदैव नवीन प्रेमियों के लिए लालायित रहता है, चाहे वह विवाहिताक्यों न हो।

    बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह ऐसी कुलटा स्त्री को अपने साथ न रखे क्योंकियदि वह ऐसा करेगा तो वह इस जीवन में तथा अगले जीवन में सौभाग्य से वंचित रहेगा।

    श्रीभगवानुवाचसाध्व्येतच्छोतुकामैस्त्वं राजपुत्री प्रलम्भिता ।

    मयोदितं यदन्वात्थ सर्व तत्सत्यमेव हि ॥

    ४९॥

    श्री-भगवान्‌ उबाच-- भगवान्‌ ने कहा; साध्वि--हे साधु नारी; एतत्‌--यह; श्रोतु--सुनने के लिए; कामै:--( हमारे द्वारा )अभीष्ट; त्वमू-तुम; राज-पुत्रि--हे राजकुमारी; प्रलम्भिता--बेवकूफ बनाई गई; मया--मेरे द्वारा; उदितम्‌--कहे गये; यत्‌--जो; अन्वात्थ--तुमने जिनके उत्तर दिये; सर्वम्‌ू--सभी; तत्‌--वह; सत्यम्‌ू--सही; एव हि--निस्सन्देह

    भगवान्‌ ने कहा : हे साध्वी, हे राजकुमारी, हमने तुम्हें इसीलिए झुठलाया क्योंकि हम तुम्हेंइस प्रकार बोलते सुनना चाहते थे।

    निस्सन्देह तुमने हमारे बचनों के उत्तर में जो बातें कही हैं, वेएकदम सही हैं।

    यान्यान्कामयसे कामान्मय्यकामाय भामिनि ।

    सन्ति होकान्तभक्तायास्तव कल्याणि नित्यद्‌ ॥

    ५०॥

    यान्‌ यान्‌--जो जो; कामयसे--कामना करती हो; कामान्‌ू--वरों को; मयि--मुझसे; अकामाय--इच्छा से रहित होने के लिए;भामिनि-हे सुन्दरी; सन्ति--हैं; हि--निस्सन्देह; एक-अन्त--नितान्त; भक्ताया:--भक्तों के लिए; तब--तुम्हारे; कल्याणि--हे'कल्याणी; नित्यदा--सदैव |

    हे सुन्दर तथा सुशील स्त्री, तुम भौतिक इच्छाओं से मुक्त होने के लिए जिस भी वर कीआशा रखती हो वे तुम्हारे हैं क्योंकि तुम मेरी अनन्य भक्त हो।

    उपलब्ध पतिप्रेम पातिव्रत्यं च तेडनघे ।

    यद्वाक्यैश्वाल्यमानाया न धीर्मय्यपकर्षिता ॥

    ५१॥

    उपलब्धम्‌--अनुभूत; पति--पति के लिए; प्रेम--शुद्ध-प्रेम; पाति--पति के प्रति; ब्रत्यमू--सती व्रत का हृढ़ता से पालन; च--तथा; ते--तुम्हारा; अनघे--हे निष्पाप; यत्‌--जो; वाक्यैः --शब्दों से; चाल्यमानाया:--विचलित हुए; न--नहीं; धीः --तुम्हारामन; मयि--मुझमें अनुरक्त; अपकर्षिता--दूर खींचा गया।

    हे निष्पाप, अब मैंने तुम्हारा शुद्ध पति-प्रेम तथा पातिब्रत्य देख लिया है।

    यद्यपि तुम मेरेबचनों से विचलित थीं किन्तु तुम्हारा मन मुझसे दूर नहीं ले जाया जा सका।

    ये मां भजन्ति दाम्पत्ये तपसा ब्रतचर्यया ।

    कामात्मानोपवर्गेशं मोहिता मम मायया ॥

    ५२॥

    ये--जो; मामू-- मुझको; भजन्ति--पूजता है; दाम्पत्ये--गृहस्थ जीवन में रहने के लिए; तपसा--तपस्या द्वारा; ब्रत--ब्रतों को;चर्यया--सम्पन्न करके; काम-आत्मान: -- प्रकृति से कामुक विषयी; अपवर्ग--मो क्ष का; ईशम्‌--नियन्ता; मोहिता:-- मोहित;मम--मेरी; मायया-- भ्रामक भौतिक-शक्ति द्वारा

    यद्यपि मुझमें आध्यात्मिक मोक्ष प्रदान करने की शक्ति है किन्तु विषयी लोग अपने संसारीगृहस्थ जीवन के लिए मेरा आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए तपस्या तथा ब्रतों द्वारा मेरी पूजा करतेहैं।

    ऐसे लोग मेरी माया-शक्ति द्वारा मोहग्रस्त रहते हैं।

    मां प्राप्य मानिन्यपवर्गसम्पदंवाउ्छन्ति ये सम्पद एव तत्पतिम्‌ ।

    ते मन्दभागा निरयेउपि ये नृणांमात्रात्मकत्वात्निरय: सुसड्रम: ॥

    ५३॥

    माम्‌--मुझको; प्राप्प--पाकर; मानिनि--हे प्रेम की आगार; अपवर्ग--मोक्ष का; सम्पदम्‌--कोष; वाउछन्ति--चाहते हैं; ये--जो; सम्पद:ः--( भौतिक ) कोष; एव--केवल; तत्‌--ऐसे; पतिम्‌--पति को; ते--वे; मन्द-भागा: --कम भाग्यशाली;निरये--नरक में; अपि-- भी; ये--जो; नृणाम्‌--मनुष्यों के लिए; मात्रा-आत्मकत्वात्‌--इन्द्रिय-तृप्ति में लीन रहने के कारण;निरय:--नरक; सु-सड़मः --उपयुक्त |

    हे मानिनी, अभागे वे हैं, जो मोक्ष तथा भौतिक सम्पदा दोनों ही के स्वामी मुझको पाकर केभी, केवल भौतिक सम्पदा के लिए ही लालायित रहते हैं।

    ये सांसारिक लाभ तो नरक में भीपाये जा सकते हैं।

    चूँकि ऐसे व्यक्ति इन्द्रिय-तृप्ति में लीन रहते हैं इसलिए नरक ही उनके लिएउपयुक्त स्थान है।

    दिष्टद्या गृहे ध्र्यसकृन्मयि त्वयाकृतानुवृत्तिर्भवमोचनी खलै: ।

    सुदुष्करासौ सुतरां दुराशिषोछासुंभराया निकृतिं जुषः स्त्रिया: ॥

    ५४॥

    दिछ्या-- भाग्यवश; गृह--घर की; ईश्वरी --स्वामिनी; असकृत्‌--निरन्तर; मयि--मुझमें; त्वया--तुम्हारे द्वारा; कृता--की हुई;अनुवृत्ति:-- श्रद्धापूर्ण सेवा; भव--संसार से; मोचनी--मुक्ति दिलाने वाली; खलै:--ईर्ष्यालुओं के लिए; सु-दुष्कर--करनाअत्यन्त कठिन; असौ--यह; सुतराम्‌--विशेष रूप से; दुराशिष:--दुष्ट मनो भावों वाले; हि--निस्सन्देह; असुम्‌--उसका प्राण;भरायाः--जो ( एकमात्र ) पालन करती है; निकृतिमू--छलावा; जुष:--लिप्त; स्त्रिया:--स्त्री के लिए।

    हे गृहस्वामिनी, सौभाग्यवश तुमने मेरी श्रद्धापूर्वक भक्ति की है, जो मनुष्य को संसार सेमुक्त कराती है।

    ईर्ष्षालु के लिए यह सेवा अत्यन्त कठिन है, विशेषतया उस स्त्री के लिए जिसकेमनोभाव दूषित हैं और जो शारीरिक शक्षुधा शान्त करने के लिए ही जीवित है और जो छलछठ्म मेंलिप्त रहती है।

    न त्वाहशीम्प्रणयिनीं गृहिणीं गृहेषु'पश्यामि मानिनि यया स्वविवाहकाले ।

    प्राप्तान्नपान्न विगणय्य रहोहरो मेप्रस्थापितो द्विज उपश्रुतसत्क थस्य ॥

    ५५॥

    न--नहीं; त्वाहशीम्‌--तुम जैसी; प्रणयिनीम्‌--प्रेम करने वाली; गृहिणीम्‌--पत्नी को; गृहेषु--मेंरे आवासों में; पश्यामि--देखता हूँ; मानिनि--हे आदरणीय; यया--जिससे; स्व--अपने; विवाह--विवाह के; काले--समय में; प्राप्तान्‌-- आये हुए;नृपानू--राजाओं को; न विगणय्य--परवाह न करते हुए; रह:ः--गुप्त सन्देश का; हर:--ले जाने वाला; मे--मेरे पास;प्रस्थापित:-- भेजा गया; द्विज:--ब्राह्मण; उपश्रुत--सुनी हुई; सत्‌--सच्ची; कथस्य--जिसके विषय में कथाएँ ।

    हे सर्वाधिक आदरणीया, मुझे अपने सारे आवासों में तुम जैसी प्रेम करने वाली अन्य पत्नीढूँढ़े नहीं मिलती।

    जब तुम्हारा ब्याह होने वाला था, तो तुमसे विवाह करने के इच्छुक जितनेराजा एकत्र हुए थे उनकी परवाह तुमने नहीं की और क्योंकि तुमने मेरे विषय में प्रामाणिक बातेंही सुन रखी थीं तुमने अपना गुप्त सन्देश एक ब्राह्मण के हाथ मेरे पास भेजा।

    भ्रातुर्विरूपकरणं युधि निर्जितस्यप्रोद्नाहपर्वणि च तद्बधमक्षगोष्ठयाम्‌ ।

    दुःखं समुत्थमसहो स्मदयोगभीत्यानैवाब्रवी: किमपि तेन वयं जितास्ते ॥

    ५६॥

    भ्रातु:--तुम्हारे भाई का; विरूप-करणम्‌--विरूप किया जाना; युधि--युद्ध में; निर्जितस्थ--पराजित; प्रोद्गाह--विवाहोत्सवका (रुक्मिणी के पौत्र अनिरुद्ध का ); पर्वणि--नियत दिन पर; च--तथा; तत्‌--उसका; वधम्‌--मारा जाना; अक्ष-गोष्ठयाम्‌--द्यूत-क्रीड़ा ( चौसर ) के समय; दुःखम्‌--दुख; समुट्थम्‌--पूर्णरूप से अनुभवी; असहः--असह्ा; अस्मत्‌--हमसे;अयोग--वियोग के; भीत्या-- भय से; न--नहीं; एब--निस्सन्देह; अब्नवी: --तुमने कहा; किम्‌ अपि--कुछ भी; तेन--उससे;वयम्‌--हम; जिता:--जीते गये; ते--तुम्हारे द्वारा |

    जब तुम्हारा भाई युद्ध में पराजित होकर विरूप कर दिया गया और अनिरुद्ध के विवाह केदिन चौसर खेलते समय मार डाला गया तो तुम्हें असहा दुख हुआ।

    फिर भी तुमने मुझसे विलगहोने के भय से एक शब्द भी नहीं कहा।

    अपनी इस चुप्पी से तुमने मुझे जीत लिया है।

    दूतस्त्वयात्मलभने सुविविक्तमन्त्र:प्रस्थापितो मयि चिरायति शून्यमेतत्‌ ।

    मत्वा जिहास इदं अड्भमनन्ययोग्यंतिष्ठेत तत्त्वयि वयं प्रतिनन्दयाम: ॥

    ५७॥

    दूतः--दूत; त्वया--तुम्हारे द्वारा; आत्म--मुझको; लभने--प्राप्त करने के लिए; सु-विविक्त--अत्यन्त गोपनीय; मन्त्र:--सलाह; प्रस्थापित: -- भेजा; मयि--जब मैंने; चिरायति--विलम्ब हुआ; शून्यमू--रिक्त; एतत्‌--यह ( संसार ); मत्वा--सोचकर; जिहासे-- तुमने त्यागना चाहा; इृदम्‌--यह; अड्रम्‌--शरीर; अनन्य--किसी दूसरे के लिए नहीं; योग्यम्‌--उपयुक्त;तिष्ठेत--रुक सकता है; तत्‌--वह; त्वयि--तुममें; वयम्‌--हम; प्रतिनन्द-याम:--प्रसन्न होकर उत्तर देते हैं।

    जब तुमने अपनी अत्यन्त गुप्त योजना के साथ अपना दूत भेजा था और तब मुझे तुम्हारेपास जाने में विलम्ब हुआ था, तो तुम्हें सारा संसार शून्य जैसा दिखने लगा था और तुम अपनावह शरीर त्यागना चाह रही थी जिसे तुम मेरे अतिरिक्त अन्य किसी को नहीं दे सकती थी।

    तुम्हारी यह महानता सदैव तुममें बनी रहे।

    में इसके बदले में तुम्हें तुम्हारी भक्ति के लिए हर्षपूर्वकधन्यवाद देने के अतिरिक्त कर ही क्या सकता हूँ! श्रीशुक उबाचएवं सौरतसंलापैर्भगवान्जगदी श्वरः ।

    स्वरतो रमया रेमे नरलोक॑ विडम्बयन्‌ ॥

    ५८ ॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; सौरत--सुरति सम्बन्धी; संलापैः--बातचीत से; भगवान्‌ --भगवान्‌; जगत्‌--ब्रह्माण्ड के; ईश्वर: -- स्वामी; स्व--अपने में; रत:--आनन्दमग्न; रमया--रमा या लक्ष्मी के साथ ( अर्थात्‌रुक्मिणी के साथ ); रेमे--रमण किया; नर-लोकम्‌--मनुष्यों के संसार का; विडम्बयन्‌-- अनुकरण करते हुए।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस तरह ब्रह्माण्ड के स्वामी आत्माराम भगवान्‌ ने उन्हें प्रेमियोंकी वार्ता में लगाकर और इस तरह मानव समाज की रीतियों का अनुकरण करते हुए लक्ष्मी केसाथ रमण किया।

    तथान्यासामपि विभुर्गृहेसु गृहवानिव ।

    आस्थितो गृहमेधीयान्धर्मानलोकगुरुहरि: ॥

    ५९॥

    तथा--इसी तरह से; अन्यासाम्‌--अन्यों ( रानियों ) के; अपि-- भी; विभुः--सर्वशक्तिमान भगवान्‌; गृहेषु--घरों में; गृह-वान्‌--गृहस्थ; इब--मानो; आस्थित: --पूरी की गई; गृह-मेधीयान्‌--पवित्र गृहस्थों के; धर्मानू--धार्मिक कर्तव्य; लोक--सारेजगतों के; गुरु:--गुरु; हरिः--कृष्ण ने।

    समस्त लोकों के गुरु सर्वशक्तिमान भगवान्‌ हरि ने इसी तरह से अपनी अन्य रानियों केमहलों में गृहस्थ के धार्मिक कृत्य सम्पन्न करते हुए पारम्परिक गृहस्थ की तरह आचरण किया।

    TO

    अध्याय इकसठवाँ: भगवान बलराम ने रुक्मी का वध किया

    10.61श्रीशुक उबाचएकेकशस्ताः कृष्णस्थ पुत्रान्दशदशाबआः।

    अजीजनन्ननवमान्पितु: सर्वात्मसम्पदा ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एक-एकश: --एक एक करके; ता: --वे; कृष्णस्य--कृष्ण के; पुत्रान्‌--पुत्रों को; दश-दश--हर एक के दस दस; अबला: --पत्नियों ने; अजीजनन्‌--जन्म दिया; अनवमानू---उत्तम; पितु:--उनकेपिता का; सर्व--सारा; आत्म--निजी; सम्पदा--ऐश्वर्य |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : भगवान्‌ कृष्ण की हर पत्नी से दस दस पुत्र हुए जो अपने पितासे कम नहीं थे और जिनके पास अपने पिता का सारा निजी ऐश्वर्य था।

    गृहादनपगं वीक्ष्य राजपुत्र्योच्युतं स्थितम्‌ ।

    प्रेष्ठ न्‍्यमंसत स्व स्वं न तत्तत्त्वविदः स्त्रियः ॥

    २॥

    गृहात्‌--अपने महलों से; अनपगम्‌--कभी बाहर न जाते; वीक्ष्य--देखकर; राज-पुत्रयः--राजाओं की पुत्रियाँ; अच्युतम्‌--भगवान्‌ कृष्ण को; स्थितम्‌ू-रहते हुए; प्रेष्ठम-- अत्यन्त प्रिय; न्‍्यमंसत--उन्होंने विचार किया; स्वम्‌ स्वम्‌--अपने अपने; न--नहीं; तत्‌--उसके विषय में; तत्त्त--सचाई; विद:ः--जानने वाली; स्त्रियः-स्त्रियाँ |

    चूँकि इनमें से हर राजकुमारी यह देखती थीं कि भगवान्‌ अच्युत कभी उसके महल से बाहरनहीं जाते अतएवं हर एक अपने को भगवान्‌ की प्रिया समझती थी।

    ये स्त्रियाँ उनके विषय मेंपूरी सच्चाई नहीं समझ पाई।

    चार्वव्जकोशवदनायतबाहुनेत्र-सप्रेमहासरसवीक्षितवल्गुजल्पै: ।

    सम्मोहिता भगवतो न मनो विजेतुंस्वैर्विभ्रमि: समशकन्वनिता विभूम्न: ॥

    ३॥

    चारू--सुन्दर; अब्न--कमल के; कोश--कोश के समान; वदन--मुख से; आयत--विस्तृत; बाहु--अपनी बाहुओं से;नेत्र--तथा आँखों से; स-प्रेम--प्रेमपूर्ण; हास--हास्य के; रस--रस में; वीक्षित--चितवनों से; वल्गु--आकर्षक; जल्पै:--तथा अपनी बातों से; सम्मोहिता:--पूर्णतया मोहित; भगवत: -- भगवान्‌ के; न--नहीं; मन: --मन के; विजेतुम्‌--जीतने केलिए; स्वै:-- अपने; विशभ्रमैः --प्रलोभनों से; समशकन्‌--समर्थ थीं; वनिता:--स्त्रियाँ; विभूम्न:--परम पूर्ण का

    भगवान्‌ की पत्नियाँ उनके कमल जैसे सुन्दर मुख, उनकी लम्बी बाँहों तथा बड़ी बड़ीआँखों, हास्य से पूर्ण उनकी प्रेममयी चितवनों तथा अपने साथ उनकी मनोहर बातों से पूरी तरहमोहित थीं।

    किन्तु ये स्त्रियाँ अपने समस्त आकर्षण के होते हुए भी सर्वशक्तिमान भगवान्‌ के मनको नहीं जीत पाईं।

    स्मायावलोकलवदर्शितभावहारि-भ्रूमण्डलप्रहितसौरतमन्त्रशौण्डै: ।

    पल्यस्तु शोडशसहस्त्रमनड्रबाणै-यस्येन्द्रियं विमथितुम्करणैर्न शेकुः ॥

    ४॥

    स्माय--छिपी हँसी से; अवलोक--चितवन का; लव--रंच-भर भी; दर्शित-- प्रदर्शित किया; भाव-- भावों से; हारि--मोहक;भ्रू-भौंहों के; मण्डल--गोलाकृति से; प्रहित--भेजती थीं; सौरत--काम कला; मन्त्र--संदेशों का; शौण्डै:--निर्भीकता कीअभिव्यक्तियों से; पत्य:--पत्ियाँ; तु--लेकिन; षघोडश--सोलह; सहस्त्रमू--हजार; अनड्ग--कामदेव के; बाणैः--बाणों से;यस्य--जिसकी; इन्द्रियम्‌ू--इन्द्रियाँ; विमथितुम्‌--उद्वेलित करने के लिए; करणैः--तथा ( अन्य ) साधनों से; न शेकुः--असमर्थ थीं।

    इन सोलह हजार रानियों की टेढ़ी भौंहें उनके गुप्त मनोभावों को लजीली हास्ययुक्त तिरछीचितवनों से व्यक्त करती थीं।

    इस तरह उनकी भौंहें निडर होकर माधुर्य सन्देश भेजती थीं।

    तो भीकामदेव के इन बाणों तथा अन्य साधनों से वे सब भगवान्‌ कृष्ण की इन्द्रियों को उद्वेलित नहींबना सकीं।

    इत्थं रमापतिमवाप्य पतिं स्त्रियस्ताब्रह्मादयोपि न विदु: पदवीं यदीयाम्‌ ।

    भेजुर्मुदाविरतमेधितयानुराग-हासावलोकनवसड्रमलालसाद्यम्‌ ॥

    ५॥

    इत्थम्‌--इस प्रकार से; रमा-पतिम्‌--लक्ष्मी के पति को; अवाप्य--प्राप्त करके; पतिम्‌--पति रूप में; स्त्रियः--स्त्रियाँ; ता:--वे; ब्रह्य-आदय:--ब्रह्मा तथा अन्य देवता; अपि-- भी; न विदु:--नहीं जानते; पदवीम्‌--प्राप्त करने के साधन; यदीयाम्‌--जिनको; भेजु:--भाग लिया; मुदा--हर्षपूर्वक; अविरतम्‌--निरन्तर; एधितया--वर्धित; अनुराग--प्रेमाकर्षण; हास--हँसी;अवलोक--चितवन; नव--नया; सड़्म--घनिष्ठ साथ की; लालस--उत्सुकता; आद्यम्‌ू--इत्यादि |

    इस तरह इन स्त्रियों ने लक्ष्मीपति को अपने पति रूप में प्राप्त किया यद्यपि ब्रह्मा जैसे बड़ेबड़े देवता भी उन तक पहुँचने की विधि नहीं जानते।

    प्रेम में निरन्तर वृद्धि के साथ वे उनके प्रतिअनुराग का अनुभव करतीं, उनसे हास्ययुक्त चितवनों का आदान-प्रदान करतीं, नित नवीनघनिष्ठता के साथ उनसे समागम की लालसा करती हुईं अन्यान्य अनेक विधियों से रमण करतीं।

    प्रत्युदूगरमासनवराहणपादशौच-ताम्बूलविश्रमणवीजनगन्धमाल्यै: ॥

    केशप्रसारशयनस्नपनोपहार्य :दासीशता अपि विभोर्विदधु: सम दास्यम्‌ ॥

    ६॥

    प्रत्युदूगम--पास जाकर; आसन--आसन प्रदान करके; वर--उच्च कोटि का; अ्हण--पूजा; पाद--उसके पाँव; शौच--मार्जन; ताम्बूल--पान ( की भेंट ); विश्रमण--( उनके पाँव दबाकर ) विश्राम करने में सहायता करते हुए; वीजन--पंखाझलना; गन्ध--सुगंधित वस्तुएँ ( भेंट करके ); माल्यैः--तथा फूल की मालाओं से; केश--उनके बाल; प्रसार--सँवार कर;शयन--बिछौने की व्यवस्था; स्नपन--स्नान कराकर; उपहार्यैं: --तथा भेंटें प्रदान करके; दासी--नौकरानियाँ; शता: --सैकड़ों; अपि--यद्यपि; विभो:--सर्वशक्तिमान प्रभु की; विदधु:-स्म--सम्पन्न किया; दास्यम्‌ू--सेवा |

    यद्यपि भगवान्‌ की रानियों में से हर एक के पास सैकड़ों दासियाँ थीं, फिर भी वेविनयपूर्वक उनके पास जाकर, उन्हें आसन देकर, उत्तम सामग्री से उनकी पूजा करके, उनकेचरणों का प्रक्षालन करके तथा दबाकर, उन्हें खाने के लिए पान देकर, उन्हें पंखा झलकर,सुगन्धित चन्दन का लेप करके, फूल की मालाओं से सजाकर, उनके केश सँवार कर, उनकाबिस्तर ठीक करके, उन्हें नहलाकर तथा उन्हें नाना प्रकार की भेंटें देकर स्वयं उनकी सेवा करतीथीं।

    तासां या दशपुत्राणां कृष्णस्त्रीणां पुरोदिता: ।

    अष्टौ महिष्यस्तत्पुत्रान्प्रद्युम्नादीन्‍्गूणामि ते ॥

    ७॥

    तासाम्‌--उनमें से; या:--जो; दश--दस; पुत्राणाम्‌--पुत्रों के; कृष्ण-स्त्रीणाम्‌--कृष्ण की स्त्रियों के; पुरा--पहले; उदिता: --उल्लिखित; अष्टौ--आठ; महिष्य:--पटरानियाँ; तत्‌--उनके; पुत्रान्‌ू--पुत्रों को; प्रद्यम्म-आदीनू--प्रद्युम्म आदि; गृणामि--मैंकहूँगा; ते--तुम्हारे लिए

    भगवान्‌ कृष्ण की पत्नियों में से हर एक के दस दस पुत्र थे।

    उन पत्नियों में से आठपटरानियाँ थीं, इसका उल्लेख मैं पहले कर चुका हूँ।

    अब मैं तुम्हें उन आठों रानियों के पुत्रों केनाम बतलाऊँगा जिनमें प्रद्मुम्न मुख्य थे।

    चारुदेष्ण: सुदेष्णश्च चारुदेहश्न वीर्यवान्‌ ।

    सुचारुश्चारुगुप्तश्च भद्रचारुस्तथापर: ॥

    ८ ॥

    चारुचन्द्रो विचारुश्च चारुश्च दशमो हरे: ।

    प्रद्युम्मप्रमुखा जाता रुक्मिण्यां नावमा: पितु: ॥

    ९॥

    चारुदेष्ण: सुदेष्ण: च--चारुदेष्ण तथा सुदेष्ण; चारुदेह:--चारुदेह; च--तथा; वीर्य-वान्‌ू--शक्तिशाली; सुचारु: चारुगुप्तःच--सुचारु तथा चारुगुप्त; भद्गचारु:-- भद्गचारु; तथा-- भी; अपर: --दूसरा; चारुचन्द्र: विचार: च--चारुचन्द्र तथा विचारु;चार:--चारु; च-- भी; दशमः--दसवाँ; हरेः-- भगवान्‌ हरि द्वारा; प्रद्युम्न-प्रमुखा:-- प्रद्युम्न इत्यादि; जात:--उत्पन्न;रुक्मिण्याम्‌--रुक्मिणी के; न--नहीं; अवमा:--निकृष्ट, कम; पितु:--अपने पिता से

    महारानी रुक्मिणी का प्रथम पुत्र प्रद्युम्न था।

    उन्हीं के पुत्रों में चारुदेष्ण, सुदेष्ण, बलशालीचारुदेह, सुचारु, चारुगुप्त, भद्गरचारु, चारुचन्द्र, विचारु तथा दसवाँ पुत्र चारु थे।

    भगवान्‌ हरिके इन पुत्रों में से कोई भी अपने पिता से कम नहीं था।

    भानुः सुभानुः स्वर्भानु: प्रभानुर्भानुमांस्तथा ।

    चन्द्रभानुर्बृहद्धानुरतिभानुस्तथाष्टम: ॥

    १०॥

    श्रीभानु: प्रतिभानुश्न सत्यभामात्मजा दश ।

    साम्बः सुमित्र: पुरुजिच्छतजिच्च सहस्त्रजित्‌ ॥

    ११॥

    विययश्नित्रकेतुश्च वसुमान्द्रविड: क्रतु: ।

    जाम्बवत्या: सुता होते साम्बाद्या: पितृसम्मता: ॥

    १२॥

    भानुः सुभानुः स्वर्भानु:-- भानु, सुभानु तथा स्वर्भानु; प्रभान: भानुमान्‌--प्रभानु तथा भानुमान; तथा-- भी; चन्द्रभानुःबृहद्धानु:--चन्द्रभानु तथा बृहदभानु; अतिभानु:--अतिभानु; तथा-- भी; अष्टम:--आठवाँ; श्रीभानु:-- श्रीभानु; प्रतिभानु: --प्रतिभानु; च--तथा; सत्यभामा--सत्यभामा के; आत्मजा:--पुत्र; दश--दस; साम्ब: सुमित्र: पुरुजित्‌ शतजित्‌ च सहस्त्रजितू--साम्ब, सुमित्र, पुरुजित, शतजित तथा सहस्त्रजित; विजय: चित्रकेतु: च--विजय तथा चित्रकेतु; बसुमान्‌ द्रविड: क्रतुः--वसुमान, द्रविड़ तथा क्रतु; जाम्बवत्या:--जाम्बवती के ; सुता:--पुत्र; हि--निस्सन्देह; एते--ये; साम्ब-आद्या: --साम्ब आदि;पितृ--उनके पिता के; सम्मता:--प्यारे |

    सत्यभामा से दस पुत्र थे-भानु, सुभानु, स्वर्भानु, प्रभानु, भानुमान, चन्द्रभानु, बृहद्भानु,अतिभानु ( आठवाँ ), श्रीभानु तथा प्रतिभानु।

    जाम्बवती के पुत्रों के नाम थे--साम्ब, सुमित्र,पुरुजित, सतजित, सहस्त्रजित, विजय, चित्रकेतु, वसुमान्‌, द्रविड़ तथा क्रतु।

    साम्ब आदि ये दसोंअपने पिता के अत्यन्त लाड़ले थे।

    वीरनन्द्रो श्रसेनश्व चित्रगुर्वेगवान्वृष: ।

    आम: शह्डू वसु: श्रीमान्कुन्तिर्नाग्नजिते: सुता: ॥

    १३॥

    बीरः चन्द्र: अश्वसेन: च--वीर, चन्द्र तथा अश्वसेन; चित्रगु: वेगवान्‌ वृष: -चित्रगु, वेगवान्‌ तथा वृष; आम: शह्डलु : वसु:--आम, शंकु तथा बसु; श्री-मान्‌--ऐश्वर्यशाली; कुन्तिः--कुन्ति; नाग्नजिते:--नाग्नजिती के; सुता:--पुत्र |

    नाग्नजिती के पुत्र थे वीर, चन्द्र, अश्वसेन, चित्रगु, वेगवानू, वृष, आम, शंकु, वसु तथाऐश्वर्यशाली कुन्ति।

    श्रुतः कविर्वृषो वीर: सुबाहुर्भद्र एकल: ।

    शान्तिर्दर्श: पूर्णमास: कालिन्द्या: सोमकोवर: ॥

    १४॥

    श्रुतः कवि: वृष: वीर: -- श्रुत, कवि, वृष तथा वीर; सुबाहु:--सुबाहु; भद्ग: -- भद्र; एकल: --इनमें से एक; शान्ति: दर्शःपूर्णमास:--शान्ति, दर्श तथा पूर्णमास; कालिन्द्या:--कालिन्दी के; सोमक:--सोमक; अवर:--सबसे छोटाश्रुत, कवि, वृष, वीर, सुबाहु, भद्गर, शान्ति, दर्श तथा पूर्णमास कालिन्दी के पुत्र थे।

    उनकासबसे छोटा पुत्र सोमक था।

    प्रघोषो गात्रवान्सिंहो बल: प्रबल ऊर्धग: ।

    मादर्‌याः पुत्रा महाशक्ति: सह ओजोपराजित: ॥

    १५॥

    प्रघोष: गात्रवान्‌ सिंह:--प्रघोष, गात्रवान तथा सिंह; बल: प्रबल: ऊर्धग:--बल, प्रबल तथा ऊर्धग; माद्र्‌या: --माद्रा के;पुत्रा:--पुत्र; महाशक्ति: सह: ओज: अपराजित:--महाशक्ति, सह, ओज तथा अपराजित।

    माद्रा के पुत्र थे प्रघोष, गात्रवान, सिंह, बल, प्रबल, ऊर्धग, महाशक्ति, सह, ओज तथाअपराजित।

    वृको हर्षोउनिलो गृश्नो वर्धनोन्नाद एबच ।

    महांसः पावनो वह्िर्मित्रविन्दात्मजा: क्षुधि: ॥

    १६॥

    वृकः हर्ष: अनिल: गृश्च:--वृक, हर्ष, अनिल तथा गृश्ष; वर्धन-उन्नाद:ः --वर्धन तथा उन्नाद; एव च-- भी; महांसः पावन: वहिः--महांस, पावन तथा वह्नि; मित्रविन्दा--मित्रविन्दा के; आत्मजा: --पुत्र; क्षुधि: --क्षुधि |

    मित्रविन्दा के पुत्रों के नाम थे वृक, हर्ष, अनिल, गृश्न, वर्धन, उन्नाद, महांस, पावन, वह्नितथा क्षुधि।

    सड्ग्रामजिद्ठहत्सेन: शूर: प्रहरणोरिजित्‌ ।

    जयः सुभद्रो भद्राया वाम आयुश्च सत्यकः ॥

    १७॥

    सड़्य्रामजित्‌ बृहत्सेन:--संग्रामजित तथा बृहत्सेन; शूरः प्रहरण: अरिजित्‌--शूर, प्रहरण तथा अरिजित; जय: सुभद्र:--जय तथासुभद्र; भद्राया: -- भद्रा ( शैब्या ) के; वाम: आयुश्‌ च सत्यक:--वाम, आयुर्‌ तथा सत्यक |

    भद्गा के पुत्र थे संग्रामजित, बृहत्सेन, शूर, प्रहरण, अरिजित, जय, सुभद्र, वाम, आयुर्‌ तथासत्यक।

    दीप्तिमांस्ताप्रतप्ताद्या रोहिण्यास्तनया हरे: ।

    प्रद्यम्नाच्चानिरुद्धो भूद्रुक्मवत्यां महाबल: ।

    पुत्रयां तु रुक्मिणो राजन्नाम्ना भोजकटे पुरे ॥

    १८॥

    दीप्तिमान्‌ ताम्रतप्त-आद्या: --दीप्तिमान, ताम्रतप्त तथा अन्य; रोहिण्या:--रोहिणी ( शेष १६ १०० रानियों में से प्रमुख );तनया: --पुत्र; हरेः-- भगवान्‌ कृष्ण के; प्रद्युम्नातू--प्रद्युम्न से; च--तथा; अनिरुद्ध:--अनिरुद्ध; अभूत्‌--उत्पन्न हुआ;रुक्‍्मवत्याम्‌-रुक्‍्मवती से; महा-बलः--अत्यन्त बलवान; पुत्रयाम्‌-पुत्री से; तु--निस्सन्देह; रुक्मिण:--रुक्मी की; राजनू--हे राजा ( परीक्षित ); नाम्ना--नामक; भोजकटे पुरे-- भोजकट( रुक्मी के राज्य में ) नगर में |

    दीप्तिमान, ताम्रतप्त इत्यादि भगवान्‌ कृष्ण द्वारा रोहिणी से उत्पन्न किये गये पुत्र थे।

    भगवान्‌ कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न ने रुक्मी की पुत्री रुक्मवती के गर्भ से शक्तिशाली अनिरुद्ध को जन्मदिया।

    हे राजन, यह सब तब हुआ जब वे भोजकटक नगर में रह रहे थे।

    एतेषां पुत्रपौत्रा श्र बभूवु: कोटिशो नृूप ।

    मातरः कृष्णजातीनां सहस्त्राणि च घोडश ॥

    १९॥

    एतेषाम्‌--इनके; पुत्र--पुत्र; पौत्रा:--तथा पौत्र; च--तथा; बभूवु:--उत्पन्न हुए; कोटिश:--करोड़ों; नूप--हे राजा; मातर:ः --माताओं से; कृष्ण-जातीनाम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण के वंशजों के; सहस्त्राणि--हजारों; च--तथा; षोडश--सोलह।

    हे राजन, कृष्ण के पुत्रों के पुत्रों तथा पौत्रों की संख्या करोड़ों में थी।

    सोलह हजार माताओंने इस वंश को आगे बढ़ाया।

    श्रीराजोवाचकथ॑ रुक्म्यरीपुत्राय प्रादाहुहितरं युधि ।

    कृष्णेन परिभूतस्तं हन्तुं रन्श्न॑ प्रतीक्षते ।

    एतदाख्याहि मे विद्वन्द्रिषोर्वैवाहिकं मिथ: ॥

    २०॥

    श्री-राजा उवाच--राजा ने कहा; कथम्‌--कैसे; रुक्मी--रुक्मी ने; अरि--अपने शत्रु के ; पुत्रनाय--पुत्र को; प्रादात्‌--दिया;दुहितरम्‌--अपनी पुत्री को; युधि--युद्ध में; कृष्णेन--कृष्ण द्वारा; परिभूतः--पराजित; तम्‌--उसको ( कृष्ण को ); हन्तुमू--मारने के लिए; रन्ध्रमू--सुअवसर की; प्रतीक्षते--प्रतीक्षा कर रहा था; एतत्‌--यह; आख्याहि--कृपया बतलाइये; मे--मुझको;विद्वनू-हे विद्वान; द्विषो:--दो शत्रुओं के; वैवाहिकम्‌--विवाह का प्रबंध; मिथ:--दोनों के बीच |

    राजा परीक्षित ने कहा : रुक्‍्मी ने कैसे अपने शत्रु के पुत्र को अपनी पुत्री प्रदान की ? रुक्मीतो युद्ध में भगवान्‌ कृष्ण द्वारा पराजित किया गया था और उन्हें मार डालने की ताक में था।

    हेविद्वान, कृपा करके मुझे बतलाइये कि ये दोनों शत्रु-पक्ष किस तरह विवाह के माध्यम से जुड़सके।

    अनागतमतीतं च वर्तमानमतीन्द्रियम्‌ ।

    विप्रकृष्टे व्यवहितं सम्यक्पश्यन्ति योगिन: ॥

    २१॥

    अनागतम्‌--अभी घटित नहीं हुआ; अतीतम्‌-- भूतकाल; च-- भी; वर्तमानम्‌ू--वर्तमान; अतीन्द्रियमू--इन्द्रियों की सीमा से परे;विप्रकृष्टम्‌--सुदूर; व्यवहितम्‌-- अवरुद्ध; सम्यक्‌-- भली भाँति; पश्यन्ति-- देखते हैं; योगिन:--योगीजन

    जो अभी घटित नहीं हुआ तथा भूतकाल या वर्तमान की बातें जो इन्द्रियों के परेसुदूर याभौतिक अवरोधों से अवरुद्ध हैं, उन्हें योगीजन भलीभाँति देख सकते हैं।

    श्रीशुक उबाचवबृतः स्वयंवरे साक्षादनण्गोण्गयुतस्तया ।

    राज्ञः समेतान्निर्जित्य जहारैकरथो युधि ॥

    २२॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; वृतः--चुना हुआ; स्वयं-वरे--उसके स्वयंवर उत्सव में; साक्षात्‌--प्रकट;अनडु:--कामदेव; अड़-यतः--अवतार; तया--उसके द्वारा; राज्ञ:--राजाओं को; समेतान्‌ू--एकत्र; निर्जित्य--हराकर;जहार--ले गया; एक-रथ: --केवल एक रथ का स्वामी; युधि--युद्ध में |

    श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : अपने स्वयंवर उत्सव में रुक्मावती ने स्वयं ही प्रद्युम्म कोचुना, जो कि साक्षात्‌ कामदेव थे।

    तब एक ही रथ पर अकेले लड़ते हुए प्रद्युम्न ने एकत्र राजाओंको युद्ध में पपाजित किया और वे उसे हर ले गये।

    यद्यप्यनुस्मरन्वैरं रुक्मी कृष्णावमानितः ।

    व्यतरद्धागिनेयाय सुतां कुर्वनस्वसु: प्रियम्‌ ॥

    २३॥

    यदि अपि--यद्यपि; अनुस्मरन्‌ू--सदैव स्मरण करते हुए; वैरम्‌-- अपनी शत्रुता; रुक्मी--रुक्मी; कृष्ण--कृष्ण द्वारा;अवमानित:--अपमानित; व्यतरत्‌--स्वीकृति दे दी; भागिनेयाय--अपनी बहन के बेटे को; सुताम्‌--अपनी पुत्री; कुर्वनू--करते हुए; स्वसुः--अपनी बहन का; प्रियम्‌-प्रसन्न करना |

    यद्यपि रुक्‍मी कृष्ण के प्रति अपनी शत्रुता को सदैव स्मरण रखे रहा क्योंकि उन्होंने उसकाअपमानित किया था किन्तु अपनी बहन को प्रसन्न करने के लिए उसने अपनी पुत्री का विवाहअपने भाझे के साथ होने की स्वीकृति प्रदान कर दी।

    रुक्मिण्यास्तनयां राजन्कृतवर्मसुतो बली ।

    उपयेमे विशालाक्षीं कन्यां चारुमतीं किल ॥

    २४॥

    रुक्मिण्या:--रुक्मिणी की; तनयाम्‌--पुत्री को; राजन्‌--हे राजन; कृतवर्म-सुतः--कृतवर्मा के पुत्र ने; बली--बली नामक;उपयेमे--विवाह लिया; विशाल--बड़े बड़े; अक्षीम्‌--नेत्रों वाली; कन्याम्‌ू--युवती को; चारुमतीम्‌ू--चारुमती नामक;किल--निस्सन्देह |

    हे राजन, कृतवर्मा के पुत्र बली ने रुक्मिणी की विशाल नेत्रों वाली तरुण कन्या चारुमतीसे विवाह कर लिया।

    दौहित्रायानिरुद्धाय पौत्रीं रुक्म्याददाद्धरेः ।

    रोचनां बद्धवैरोपि स्वसु: प्रियचिकीर्षया ।

    जानन्नधर्म तद्यौनं स्नेहपाशानुबन्धन: ॥

    २५॥

    दौहित्राय--अपनी पुत्री के पुत्र; अनिरुद्धाय--अनिरुद्ध के लिए; पौत्रीम्‌-- अपनी पौत्री को; रुक्मी--रुक्मी ने; आददातू--देदिया; हरेः-- भगवान्‌ कृष्ण के; रोचनामू--रोचना नामक; बद्ध--बँधा हुआ; वैर:--शत्रुता में; अपि--यद्यपि; स्वसु:--अपनीबहन; प्रिय-चिकीर्षया--प्रसन्न करने की इच्छा से; जानन्‌--जानते हुए; अधर्मम्‌--अधर्म को; तत्‌ू--वह; यौनमू--विवाह;स्नेह--स्नेह की; पाश--रस्सियों से; अनुबन्धन: --जिसका बन्धन।

    रुक्‍मी ने अपनी पौत्री रोचना को अपनी कन्या के पुत्र अनिरुद्ध को दे दिया यद्यपि भगवान्‌हरि से उसकी घोर शत्रुता थी।

    इस विवाह को अधार्मिक मानते हुए भी रुकक्‍्मी स्नेह-बन्धन सेबँधकर अपनी बहन को प्रसन्न करने का इच्छुक था।

    तस्मिन्नभ्युदये राजन्रुक्मिणी रामकेशवौ ।

    पुरं भोजकर्ट जग्मु: साम्बप्रद्यम्ककादय: ॥

    २६॥

    तस्मिनू--उस; अभ्युदये--हर्ष की घड़ी में; राजनू--हे राजन्‌; रुक्मिणी--रुक्मिणी; राम-केशवौ--बलराम तथा कृष्ण;पुरम--नगरी में; भोजकटम्‌ू--भोजकट; जग्मु;--गये; साम्ब-प्रद्युम्कक-आदय:--साम्ब, प्रद्यम्म तथा अन्य

    हे राजा, उस विवाह के उल्लासपूर्ण अवसर पर महारानी रुक्मिणी, बलराम, कृष्ण तथाकृष्ण के अनेक पुत्र, जिनमें साम्ब तथा प्रद्यम्न मुख्य थे, भोजकट नगर गये।

    तस्मिन्रिवृत्त उद्बाहे कालिड्डप्रमुखा नूपा: ।

    हप्तास्ते रुक्मिणं प्रोचुर्बलमशक्षेविनिर्जय ॥

    २७॥

    अनक्षज्ञो हायं राजन्नपि तद्व्यसनं महत्‌ ।

    इत्युक्तो बलमाहूय तेनाक्षेरूक्म्यदीव्यत ॥

    २८ ॥

    तस्मिन्‌ू--उसके ; निवृत्ते--समाप्त हो जाने पर; उद्बाहे --विवाहोत्सव में; कालिड्र-प्रमुखा:--कालिंगराज इत्यादि; नृपा:--राजा;हप्ता:--घमंडी; ते--वे; रुक्मिणम्‌--रुक्मी से; प्रोचु:--बोले; बलम्‌ू--बलराम को; अक्षे:--चौसर से; विनिर्जय--जीत लो;अनक्ष-ज्ञ:--चौसर खेलने में पटु नहीं; हि--निस्सन्देह; अयमू--वह; राजन्‌--हे राजा; अपि--यद्यपि; तत्‌--उससे; व्यसनम्‌--उसके व्यसन को; महत्‌--महान्‌; इति--इस प्रकार; उक्त:--कहा गया; बलमू--बलराम को; आहूय--बुलाकर; तेन--उससे;अक्षैः--चौसर से; रुक्मी --रुक्मी; अदीव्यत--खेलने लगा।

    विवाह हो चुकने के बाद कालिंगराज इत्यादि दम्भी राजाओं की टोली ने रुक्मी से कहा,'तुम्हें चाहिए कि बलराम को चौसर में हरा दो।

    हे राजन, वे चौसर में पटु नहीं हैं फिर भी उन्हेंइसका व्यसन है।

    ' इस तरह सलाह दिये जाने पर रुक्‍्मी ने बलराम को ललकारा और उनकेसाथ चौसर की बाजी खेलने लगा।

    शतं सहस्त्रमयुतं रामस्तत्राददे पणम्‌ ।

    तं तु रुक्म्यजयत्तत्र कालिडु: प्राहसट्ठलम्‌ ।

    दन्तान्सन्दर्शयच्रुच्चैर्नामृष्यत्तद्धलायुध: ॥

    २९॥

    शतम्‌--एक सौ; सहस्त्रमू--एक हजार; अयतम्‌--दस हजार; राम: --बलराम; तत्र-- उस ( खेल ) में; आददे--स्वीकार किया;'पणम्‌--दाँव को; तमू--उस; तु--लेकिन; रुक्मी--रुक्मी; अजयत्‌--जीत गया; तत्र--तत्पश्चात; कालिड्र:--कालिंग काराजा; प्राहइसत्‌--जोर से हँस पड़ा; बलमू--बलराम पर; दन्तान्‌--अपने दाँत; सन्दर्शयन्‌--दिखाते हुए, निपोरते हुए; उच्चै:--खुलकर; न अमृष्यत्‌-- क्षमा नहीं किया; तत्‌ू--यह; हल-आयुध: --हल धारण करने वाले, बलराम ने।

    उस स्पर्धा में सर्वप्रथम बलराम ने एक सौ सिक्कों की बाजी स्वीकार की, फिर एक हजारकी और तब दस हजार की।

    रुक्‍्मी ने इस पहली पारी को जीत लिया तो कालिंगराज अपने सारेदाँत निपोर कर बलराम पर ठहाका मारकर हँसा।

    बलराम इसे सहन नहीं कर पाये।

    ततो लक्षं रुक्म्यगृह्लादग्लहं तत्राजयद्वल: ।

    जितवानहमित्याह रुक्मी कैतवमाथितः ॥

    ३०॥

    ततः--तब; लक्षम्‌--एक लाख; रुक्मी--रुक्मी ने; अगृह्वात्‌--स्वीकार किया; ग्लहम्‌--बाजी; तत्र--उसमें; अजयत्‌--जीता;बलः--बलराम; जितवानू--जीत गया हूँ; अहम्‌--मैं; इति--इस प्रकार; आह--कहा; रुक्मी--रुक्मी ने; कैतवम्‌--छलावेमें; आअ्रित:--आश्रित |

    इसके बाद रुक्‍मी ने एक लाख सिक्कों की बाजी लगाई जिसे बलराम ने जीत लिया।

    किन्तुरुक्‍्मी ने यह घोषित करते हुए धोका देना चाहा कि ' मैं विजेता हूँ।

    'मन्युना क्षुभितः श्रीमान्समुद्र इव पर्वणि ।

    जात्यारुणाक्षोतिरुषा न्यर्बुदं ग्लगमाददे ॥

    ३१॥

    मन्युना--क्रोध से; क्षुभित:--श्षुब्ध; श्री-मान्‌--सौन्दर्य से युक्त या सुन्दरी लक्ष्मी से युक्त; समुद्र: --समुद्र; इब--सहश;पर्वणि--पूर्णमासी के दिन; जात्या--प्रकृति द्वारा; अरुण--लाल-लाल; अक्ष:--नेत्रों वाली; अति--अत्यधिक; रुषा--क्रोधसे; न्यर्बुदमू-- १० करोड़; ग्लहम्‌ू--दाँव या बाजी; आददे--लगाई

    रूपवान बलराम ने जिनके लाल लाल नेत्र क्रोध से और अधिक लाल हो रहे थे, पूर्णमासीके दिन उफनते समुद्र की भाँति क्रुद्ध होकर दस करोड़ मुहरों की बाजी लगाई।

    तं चापि जितवात्रामो धर्मेण छलमाश्रित: ।

    रुक्‍मी जितं मयात्रेमे वदन्तु प्राशिनिका इति ॥

    ३२॥

    तम्‌--उसको; च अपि-- भी; जितवान्‌--जीत लिया; राम:--बलराम ने; धर्मेण--न्यायपूर्वक; छलम्‌--छल का; आश्रित: --आश्रय लेकर; रुक्मी--रुक्मी; जितम्‌--जीत गया; मया-- मुझसे; अत्र--इस बार; इमे--ये; वदन्तु--कह दें; प्राश्निका: --गवाह; इति--इस प्रकार।

    इस बाजी को भी बलराम ने स्पष्टतः जीत लिया किन्तु रुक्मी ने फिर से छल करके यहघोषित किया, 'मैं जीता हूँ।

    यहाँ उपस्थित ये गवाह कहें जो कुछ उन्होंने देखा है।

    'तदाब्रवीन्नभोवाणी बलेनैव जितो ग्लह: ।

    धर्मतो वचनेनेव रुक्मी वदति वै मृषा ॥

    ३३॥

    तदा--तब; अब्रवीत्‌--कहा; नभ:--आकाश में; वाणी--शब्द; बलेन--बलराम द्वारा; एब--निस्सन्देह; जित:--जीती गई;ग्लहः--बाजी; धर्मत:--न्यायपूर्वक; वचनेन--शब्दों से; एबव--निश्चय ही; रुक्मी--रुक्मी; वदति--कहता है; वै--निस्सन्देह;मृषा--झूठ

    तभी आकाशवाणी हुई 'इस बाजी को बलराम ने न्यायपूर्वक जीता है।

    रुक्मी निश्चित रूपसे झूठ बोल रहा है।

    'तामनाहत्य बैदर्भो दुष्टराजन्यचोदितः ।

    स्डूर्षणं परिहसन्ब॒भाषे कालचोदितः ॥

    ३४॥

    तामू--उस ( वाणी ) को; अनाहत्य--अनादर करके; बैदर्भ:--विदर्भ का राजकुमार, रुक्‍्मी; दुष्ट--दुष्ट; राजन्य--राजाओंद्वारा; चोदित:--प्रेरित, उभाड़ा गया; सड्डर्षणम्‌--बलराम की; परिहसन्‌--हँसी उड़ाते हुए; बभाषे--बोला; काल--समय केबल से; चोदितः--प्रेरितदुष्ट राजाओं द्वारा उभाड़े जाने से रुक्मी ने इस दैवी वाणी की उपेक्षा कर दी।

    वस्तुतः साक्षात्‌भाग्य रुक्‍्मी को प्रेरित कर रहा था अत: उसने बलराम की इस तरह हँसी उड़ाई।

    नैवाक्षकोविदा यूयं गोपाला वनगोचरा: ।

    अक्षै्दीव्यन्ति राजानो बाणैश्व न भवाह॒शा: ॥

    ३५॥

    न--नहीं; एव--निस्सन्देह; अक्ष--चौसर खेलने में; कोविदा:--दक्ष; यूयम्‌ू--तुम; गोपाला:--ग्वाले; वबन--जंगल में;गोचरा:--गाय चराते हुए; अक्षैः--चौसर से; दीव्यन्ति--खेलते हैं; राजान:--राजा लोग; बाणैः --बाणों से; च--तथा; न--नहीं; भवाह॒शा:--आप जैसे ।

    रुक्‍्मी ने कहा : तुम ग्वाले तो जंगलों में घूमते रहते हो चौसर के बारे में कुछ भी नहींजानते।

    चौसर खेलना और बाण चलाना तो एकमात्र राजाओं के लिए हैं, तुम जैसों के लिएनहीं।

    रुक्मिणैवमधिक्षिप्तो राजभिश्चोपहासितः ।

    क्रुद्धः परिधमुद्यम्य जघ्ने त॑ नृम्णसंसदि ॥

    ३६॥

    रुक्मिणा--रुक्मी द्वारा; एवम्‌--इस प्रकार; अधिक्षिप्त:--अपमानित; राजभि: --राजाओं द्वारा; च--तथा; उपहासित: --मजाक उड़ाया गया; क्रुद्ध:--क्रुदध; परिघम्‌--अपनी गदा को; उद्यम्य--उठाकर; जघ्ने--मार डाला; तम्‌--उसको; नृम्ण-संसदि--उस शुभ सभा में।

    इस प्रकार रुक्‍्मी द्वारा अपमानित करने तथा राजाओं द्वारा उपहास किये जाने पर बलराम का क्रोध भड़क उठा।

    उन्होंने शुभ विवाह की सभा में ही अपनी गदा उठाई और रुक्‍्मी को मारडाला।

    कलिडूराजं तरसा गृहीत्वा दशमे पदे ।

    दनन्‍्तानपातयत्क्रुद्धो योहसद्विवृतैद्धिजे: ॥

    ३७॥

    कलिड्ु-राजम्‌--कलिंग के राजन्‌ को; तरसा--तेजी से; गृहीत्वा--पकड़ कर; दशमे--उसके दसवें; पदे--पग ( भागते हुए )पर; दन्तान्‌ू--उसके दाँतों को; अपातयत्‌--तोड़ डाला; क्रुद्ध:-क्रुद्ध; चः--जो; अहसत्‌--हँसा था; विवृतैः--खुले हुए;द्विजैः -दाँतों से

    कलिंग के राजन्‌ ने, जो बलराम पर हँसा था और जिसने अपने दाँत निपोरे थे, भागने काप्रयास किया किन्तु क्रुद्ध बलराम ने तेजी से उसे दसवें कदम में ही पकड़ लिया और उसके सारेदाँत तोड़ डाले।

    अन्ये निर्भिन्नबाहूरुशिरसो रुधिरोक्षिता: ।

    राजानो दुद्रवर्भीता बलेन पड्लार्दिता: ॥

    ३८॥

    अन्ये--अन्य; निर्भिन्न--टूटे; बाहु-- भुजाएँ; ऊरु-- जाँघें; शिरस:--तथा सिरों वाले; रुधिर--रक्त से; उक्षिता: --सने;राजान:--राजागण; दुद्गुवु:ः-- भागे; भीता: -- डरे हुए; बलेन--बलराम द्वारा; परिघ--अपनी गदा से; अर्दिता:--चोट खाकर।

    बलराम की गदा से चोट खाकर अन्य राजा भय के मारे भाग खड़े हुए।

    उनकी बाहें, जाँघेंतथा सिर टूटे थे और उनके शरीर रक्त से लथपथ थे।

    निहते रुक्मिणि एयाले नाब्रवीत्साध्वसाधु वा ।

    रक्मिणीबलयो राजन्स्नेहभड़भयाद्धरि: ॥

    ३९॥

    निहते--मारे जाने पर; रुक्मिणि--रुक्मी के; श्याले--उसके साले; न अब्रवीत्‌ू--नहीं कहा; साधु--अच्छा; असाधु--बुरा;वा--अथवा; रुक्मिणी-बलयो: --रुक्मिणी तथा बलराम के; राजन्‌--हे राजा; स्नेह--स्नेह; भड्--दूटने के; भयात्‌-- भय से;हरिः-- भगवान्‌ कृष्ण ने |

    हे राजनू, जब भगवान्‌ कृष्ण का साला मार डाला गया तो उन्होंने न तो इसे सराहा न हीविरोध प्रकट किया।

    क्योंकि उन्हें भय था कि रुक्मिणी या बलराम से स्नेह-बन्धन बिगड़ सकतेहैं।

    ततोनिरुद्धं सह सूर्यया वरंरथं समारोप्य ययु: कुशस्थलीम्‌ ।

    रामादयो भोजकटाहशाा:सिद्धाखिलार्था मधुसूदना श्रया: ॥

    ४०॥

    ततः--तब; अनिरुद्धम्‌--अनिरुद्ध को; सह--साथ; सूर्यया--उसकी पत्नी के; वरम्‌--दूल्हा; रथम्‌--रथ पर; समारोप्य--बैठाकर; ययु:--वे चले गये; कुशस्थलीम्‌--कुशस्थली ( द्वारका ); राम-आदय:ः--बलराम इत्यादि; भोजकटात्‌ू-- भोजकटसे; दशाहा:--दशाईवंशी; सिद्ध--पूर्ण;।

    अखिल--समस्त; अर्था:--कार्य; मधुसूदन-- भगवान्‌ कृष्ण के; आश्रया: --शरणागत।

    तब बलराम इत्यादि दशाहों ने अनिरुद्ध तथा उसकी पत्नी को एक सुन्दर रथ में बैठा लियाऔर भोजकट से द्वारका के लिए प्रस्थान कर गये।

    भगवान्‌ मधुसूदन की शरण ग्रहण करने सेउनके सारे कार्य पूर्ण हो गये।

    TO

    अध्याय बासठवाँ: शषा और अनिरुद्ध का मिलन

    10.62बाणस्य तनयामूषामुपयेमे यदूत्तम: ।

    तत्र युद्धमभूद्धोरं हरिशद्जरयोर्महत्‌ ।

    एतत्सर्व महायोगिन्समाख्यातुं त्वमहसि ॥

    १॥

    श्री-राजा उबाच--राजा ( परीक्षित महाराज ) ने कहा; बाणस्य--बाणासुर की; तनयाम्‌--पुत्री; ऊषाम्‌ू--उषा को; उपयेमे--ब्याहा; यदु-उत्तम:--यदुओं में श्रेष्ठ ( अनिरुद्ध ने ); तत्र--उसी सन्दर्भ में; युद्धम्‌--युद्ध।

    अभूत्‌--हुआ; घोरम्‌-- भयावह; हरि-शट्जूरयो:--हरि ( कृष्ण ) तथा शंकर ( शिव ) के बीच; महत्‌--महान्‌; एतत्‌--यह; सर्वम्‌--सब; महा-योगिन्‌--हे महान्‌योगी; समाख्यातुम्‌ू--बतलाने के लिए; त्वम्‌ू-तुम; अ्हसि--योग्य हो।

    राजा परीक्षित ने कहा : यदुओं में श्रेष्ठ ( अनिरुद्ध ) ने बाणासुर की पुत्री ऊषा से विवाहकिया।

    फलस्वरूप हरि तथा शंकर के बीच महान्‌ युद्ध हुआ।

    हे महायोगी, कृपा करके इसघटना के विषय में विस्तार से बतलाइये।

    श्रीशुक उबाचबाण: पुत्रशतज्येष्ठो बलेरासीन्महात्मन: ।

    येन वामनरूपाय हरयेदायि मेदिनी ॥

    तस्यौरसः सुतो बाण: शिवभक्तिरत: सदा ।

    मान्यो वदान्यो धीमांश्व सत्यसन्धो हृढब्रतः ।

    शोणिताख्े पुरे रम्ये स राज्यमकरोत्पुरा ॥

    तस्य शम्भो: प्रसादेन किल्लूरा इव तेउमरा: ।

    सहस्त्रबाहुर्वाद्योन ताण्दवेडइतोषयन्मूडम्‌ ॥

    २॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; बाण:--बाण; पुत्र--पुत्रों में; शत--एक सौ; ज्येष्ठ:--सबसे बड़ा; बले:--महाराज बलि के; आसीत्‌-- था; महा-आत्मन: --महात्मा; येन--जिसके ( बलि ) द्वारा; वामन-रूपाय--वामनदेव के रूप में;हरये--भगवान्‌ हरि को; अदायि--दी गई; मेदिनी--पृथ्वी; तस्य--उसके ; औरस: --वीर्य से; सुत:--पुत्र; बाण:--बाण;शिव-भक्ति--शिवजी की भक्ति में; रतः--स्थिर; सदा--सदैव; मान्य:--सम्मानित; वदान्य:--दयालु; धी-मानू-- बुद्धिमान;च--तथा; सत्य-सन्ध:--सत्यवादी; हृढ-ब्रतः--अपने ब्रत में हढ़; शोणित-आख्ये--शोणित नामक; पुरे--नगर में; रम्ये--सुहावने; सः--वह; राज्यम्‌ अकरोत्‌--अपना राज्य बनाया; पुरा--प्राचीनकाल में; तस्य--उस; शम्भो:--शम्भु ( शिव ) की;प्रसादेन--खुशी से; किड्जूरा:--दास; इब--मानो; ते--वे; अमरा: --देवतागण; सहस्त्र--एक हजार; बाहु: --बाहें; वाद्येन--बाजा बजाने से; ताण्डबे--उनके ताण्डव-नृत्य करते समय; अतोषयत्‌--प्रसन्न कर लिया; मृडम्‌ू--शिवजी को |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : बाण महान्‌ सन्त बलि महाराज के एक सौ पुत्रों में सबसे बड़ाथा।

    जब भगवान्‌ हरि वामनदेव के रूप में प्रकट हुए थे तो बलि महाराज ने सारी पृथ्वी उन्हें दानमें दे दी थी।

    बलि महाराज के वीर्य से उत्पन्न बाणासुर शिवजी का महान्‌ भक्त हो गया।

    उसकाआचरण सदैव सम्मानित था।

    वह उदार, बुद्धिमान, सत्यवादी तथा अपने ब्रत का पक्का था।

    शोणितपुर नामक सुन्दर नगरी उसके अधीनस्थ में थी।

    चूँकि बाणासुर को शिवजी का वरदहस्तप्राप्त था इसलिए देवता तक तुच्छ दासों की तरह उसकी सेवा में लगे रहते थे।

    एक बार जब शिवजी ताण्डव-नृत्य कर रहे थे तो बाण ने अपने एक हजार हाथों से वाद्य-यंत्र बजाकर उन्हेंविशेष रूप से प्रसन्न कर लिया था।

    भगवास्सर्वभूतेश: शरण्यो भक्तवत्सल: ।

    वरेण छन्दयामास स तं बत्रे पुराधिपम्‌ ॥

    ३॥

    भगवानू-प्रभु; सर्व--समस्त; भूत--जीवगण के; ईश: --स्वामी; शरण्य:--शरण देने वाला; भक्त--अपने भक्तों के प्रति;वत्सल:ः--दयालु; वरेण--वर द्वारा; छन्‍्दयाम्‌ आस--तुष्ट किया; सः--उस बाण ने; तम्‌ू--उस ( शिव ) को; वद्रे--चुना;पुर--अपनी नगरी का; अधिपम्‌--प्रहरी, संरक्षक |

    समस्त जीवों के स्वामी, अपने भक्तों के दयामय आश्रय ने बाणासुर को उसका मनचाहा वरदेकर खूब प्रसन्न कर दिया।

    बाण ने उन्हें ( शिवजी को ) अपनी नगरी के संरक्षक के रूप मेंचुना।

    स एकदाह गिरिशं पार्श्रस्थं वीर्यदुर्मदः ।

    किरीटेनार्कवर्णेन संस्पृशंस्तत्पदाम्बुजम्‌ ॥

    ४॥

    सः--वह, बाणासुर; एकदा--एक बार; आह--बोला; गिरि-शम्‌--शिवजी से; पार्थव--अपनी बगल में; स्थम्‌--उपस्थित;वीर्य--अपने बल से; दुर्मद:--उन्मत्त; किरीटेन--अपने मुकुट से; अर्क--सूर्य जैसे; वर्णेन--रंग वाले; संस्पृशन्‌ू--छूते हुए;तत्‌--उसके, शिवजी के; पद-अम्बुजमू--चरणकमल |

    बाणासुर अपने बल से उन्मत्त था।

    एक दिन जब शिवजी उसकी बगल में खड़े थे, तोबाणासुर ने अपने सूर्य जैसे चमचमाते मुकुट से उनके चरणकमलों का स्पर्श किया और उनसेइस प्रकार कहा।

    नमस्ये त्वां महादेव लोकानां गुरुमी श्वरम्‌ ।

    पुंसामपूर्णकामानां कामपूरामराड्प्रिपम्‌ ॥

    ५॥

    नमस्ये--मैं नमस्कार करता हूँ; त्वामू--तुमको; महा-देव--हे देवताओं में सबसे महान्‌; लोकानाम्‌ू--सारे लोकों के; गुरुम्‌--आध्यात्मिक गुरु को; ईश्वरमू--नियन्ता को; पुंसामू--मनुष्यों के लिए; अपूर्ण--अपूर्ण; कामानाम्‌--इच्छाओं वाले; काम-पूर--इच्छा पूरी करते हुए; अमर-अड्ूप्रिपम्‌--स्वर्ग के वृक्ष या कल्पवृक्ष ( सहश )।

    बाणासुर ने कहा : हे महादेव, मैं समस्त लोकों के आध्यात्मिक गुरु तथा नियन्ता, आपको नमस्कार करता हूँ।

    आप उस स्वर्गिक-वृक्ष की तरह हैं, जो अपूर्ण इच्छाओं वाले व्यक्तियोंकी इच्छाएँ पूरी करता है।

    दोःसहस्त्रं त्वया दत्तं परं भाराय मेभवत्‌ ।

    त्रिलोक्यां प्रतियोद्धारं न लभे त्वहते समम्‌ ॥

    ६॥

    दोः--भुजाएँ; सहस्रमू--एक हजार; त्वया--तुम्हारे द्वारा; दत्तम--प्रदान की हुई; परम्‌--केवल; भाराय--बोझ; मे--मेरेलिए; अभवत्‌--बन गई हैं; त्रि-लोक्यम्‌ू--तीनों लोकों में; प्रतियोद्धारम्‌--विपक्षी योद्धा; न लभे--मुझे नहीं मिल रहा; त्वत्‌--तुम्हारे; ऋते-- सिवाय; समम्‌--समान |

    आपके द्वारा प्रदत्त ये एक हजार भुजाएँ मेरे लिए केवल भारी बोझ बनी हुई हैं।

    तीनों लोकोंमें मुझे आपके सिवाय लड़ने के योग्य कोई व्यक्ति नहीं मिल पा रहा।

    कण्डूत्या निभूतर्दोर्भियुयुत्सुर्दिगगजानहम्‌ ।

    आद्यायां चूर्णयब्रद्रीन्भीतास्तेडपि प्रदुद्रुवुः ॥

    ७॥

    'कण्डूत्या--खुजलाती; निभूतैः --पूरित; दोर्भि:--मेरी भुजाओं से; युयुत्सु:--लड़ने के लिए उत्सुक; दिकु--दिशाओं के;गजानू्‌--हाथियों से; अहम्‌ू--मैं; आद्य--हे आदि-देव; अयमू--गया; चूर्णयन्‌ू--चूर्ण करते हुए; अद्वीन्‌--पर्वतों को;भीता:-- भयभीत; ते--वे; अपि-- भी ; प्रदुद्रुवु:-- भाग गये।

    है आदि-देव, दिशाओं पर शासन करने वाले हाथियों से लड़ने के लिए उत्सुक मैं युद्ध केलिए खुजला रही अपनी भुजाओं से पर्वतों को चूर करते हुए आगे बढ़ता गया।

    किन्तु वे बड़ेबड़े हाथी भी डर के मारे भाग गये।

    तच्छृत्वा भगवान्क्रुद्धः केतुस्ते भज्यते यदा ।

    त्वदर्पघ्न॑ भवेन्मूढ संयुगं मत्समेन ते ॥

    ८॥

    तत्‌--वह; श्रुत्व--सुनकर; भगवान्‌-- भगवान; क्रुद्ध:--छुद्ध; केतु:--ध्वजा; ते--तुम्हारी; भज्यते--टूट जायेगी; यदा--जब; त्वत्‌-तुम्हारा; दर्प--घमंड; घ्नम्‌-विनष्ट; भवेत्‌--हो जायेगा; मूढ-रे मूर्ख ; संयुगम्‌--युद्ध में; मत्‌--मेरे; समेन--समान वाले से; ते--तुम्हारा

    यह सुनकर शिवजी क्रुद्ध हो उठे और बोले, 'रे मूर्ख! जब तू मेरे समान व्यक्ति से युद्ध करचुकेगा तो तेरी ध्वजा टूट जायेगी।

    उस युद्ध से तेरा दर्प नष्ट हो जायेगा।

    इत्युक्त: कुमतिर्ईष्ट: स्वगृहं प्राविशन्वूप ।

    प्रतीक्षन्गिरिशादेशं स्ववीर्यनशनम्कुधी: ॥

    ९॥

    इति--इस प्रकार; उक्त:--कहे जाने पर; कु-मति:--मूर्ख; हष्ट:--प्रसन्न; स्व--अपने; गृहम्‌--घर में; प्राविशत्‌--प्रवेश किया;नृप--हे राजा ( परीक्षित ); प्रतीक्षन्‌--प्रती क्षा करते हुए; गिरिश--शिव की; आदेशम्‌-- भविष्यवाणी को; स्व-वीर्य--अपनेपराक्रम से; नशनम्‌--विनाश; कु-धी:--अज्ञानी

    इस प्रकार उपदेश दिये जाने पर अज्ञानी बाणासुर प्रसन्न हुआ।

    तत्पश्चात्‌ हे राजन्‌ू, गिरीश नेजो भविष्यवाणी की थी उसकी प्रतीक्षा करने--अपने पराक्रम के विनाश की प्रतीक्षा करने--वह अपने घर चला गया।

    तस्योषा नाम दुहिता स्वप्ने प्राद्युम्निना रतिम्‌ ।

    कन्यालभत कान्तेन प्रागदृष्टभ्रुतेन सा ॥

    १०॥

    तस्य--उसकी; ऊषा नाम--उषा नामक; दुहिता--पुत्री; स्वप्ने--स्वण में; प्राद्युम्निना--प्रद्युम्न के पुत्र ( अनिरुद्ध ) के साथ;रतिम्‌--संभोग; कन्या--अविवाहिता कुमारी; अलभत--प्राप्त किया; कान्तेन--अपने प्रेमी के साथ; प्राक्‌ --इसके पूर्व;अदृष्ट--कभी न देखा हुआ; श्रुतेन--या सुना हुआ; सा--उसने |

    बाण की पुत्री कुमारी ऊषा ने स्वण में प्रद्मम्म के पुत्र के साथ संभोग किया यद्यपि उसनेइसके पूर्व कभी भी अपने प्रेमी को देखा या सुना नहीं था।

    सा तत्र तमपश्यन्ती क्वासि कान्तेति वादिनी ।

    सखीनां मध्य उत्तस्थौ विहला ब्रीडिता भूशम्‌ ॥

    ११॥

    सा--वह; तत्र--वहाँ ( स्वप्न में ); तम्‌ू--उसको; अपश्यन्ती--न देखती हुई; क्व--कहाँ; असि--हो; कान्त--मेरे प्रिय;इति--इस प्रकार; वादिनी--बोलती हुई; सखीनाम्‌--अपनी सखियों के; मध्ये--बीच में; उत्तस्थौ--उठी; विहला--विश्लुब्ध;ब्रीडिता--चिन्तित; भूशम्‌-- अत्यधिक |

    स्वप्न में उसे न देखकर ऊषा अपनी सखियों के बीच में यह चिल्लाते हुए अचानक उठबैठी, 'कहाँ हो, मेरे प्रेमी ?' वह अत्यन्त विचलित एवं हड़बड़ाई हुई थी।

    बाणस्य मन्त्री कुम्भाण्डश्चित्रलेखा च तत्सुता ।

    सख्यपृच्छत्सखीमूषां कौतूहलसमन्विता ॥

    १२॥

    बाणस्य--बाण का; मन्त्री--सचिव; कुम्भाण्ड:--कुम्भाण्ड; चित्रलेखा--चित्रलेखा; च--तथा; तत्‌--उसकी; सुता--पुत्री;सखी--सहेली; अपृच्छत्‌--पूछा; सखीम्‌-- अपनी सहेली; ऊषाम्‌--उषा से; कौतूहल--उत्सुकता से; समन्विता--पूर्ण

    बाणासुर का मंत्री कुम्भाण्ड था जिसकी पुत्री चित्रलेखा थी।

    वह ऊषा की सखी थी, अतःउसने उत्सुकतापूर्वक अपनी सखी से पूछा।

    क॑ त्वं मृगयसे सुभ्रु कीदशस्ते मनोरथ: ।

    हस्तग्राहं न तेउ्द्यापि राजपुत्र्युपलक्षये ॥

    १३॥

    कम्‌--किसको; त्वम्‌-तुम; मृगयसे--ढूँढ़ रही हो; सु-भ्रु--हे सुन्दर भौंहों वाली; कीहृष: --किस तरह की; ते--तुम्हारी;मनः-रथ:--लालसा; हस्त--हाथ का; ग्राहमू-ग्रहण करने वाला; न--नहीं; ते--तुम्हारा; अद्य अपि--आज तक; राज-पुत्रि--हे राजकुमारी; उपलक्षये--मैं देख रही हूँ

    चित्रलेखा ने कहा : हे सुन्दर भौंहों वाली, तुम किसे ढूँढ़ रही हो? तुम यह कौन-सीइच्छा अनुभव कर रही हो ? हे राजकुमारी, अभी तक मैंने किसी को तुमसे पाणिग्रहण करते नहींदेखा।

    इृष्ट: कश्चिन्नरः स्वप्ने श्याम: कमललोचन: ।

    पीतवासा बृहद्वाहुर्योषितां हृदयंगम: ॥

    १४॥

    इृष्ट:--देखा हुआ; कश्चित्‌--कोई; नर: --मनुष्य; स्वप्ने--सपने में; श्याम: --गहरा नीला, साँवला; कमल--कमल सहश;लोचन:--आँखों वाला; पीत--पीला; वासा:--वस्त्र धारण किये; बृहत्‌--बलिष्ठ; बाहु:--बाहों वाला; योषिताम्‌--स्त्रियों के;हृदयम्‌ू--हृदयों को; गम: --स्पर्श करता हुआ |

    ऊषा ने कहा : मैंने सपने में एक पुरुष देखा जिसका रंग साँवला था, जिसकी आँखेंकमल जैसी थीं, जिसके वस्त्र पीले थे और भुजाएँ बलिष्ठ थीं।

    वह ऐसा था, जो स्त्रियों के हृदयोंको स्पर्श कर जाता है।

    तमहं मृगये कान्तं पाययित्वाधरं मधु ।

    क्वापि यातः स्पृहयतीं क्षिप्त्वा मां वृजिनार्णवे ॥

    १५॥

    तम्‌--उस; अहम्‌--मैं; मृगये--ढूँढ़ रही हूँ; कान्तम्‌--प्रेमी को; पाययित्वा--पिलाकर; आधरम्‌--अपने होंठों की; मधु--शहद; क्व अपि--कहीं; यातः--चला गया है; स्पृहयतीम्‌--उसके लिए लालायित, तरसती; क्षिप्तता--फेंक कर; माम्‌--मुझको; वृजिन--दुख के; अर्णवे --समुद्र में |

    मैं उसी प्रेमी को ढूँढ़ रही हूँ।

    मुझे अपने अधरों की मधु पिलाकर वह कहीं और चला गया हैऔर इस तरह उसने मुझे दुख के सागर में फेंक दिया है।

    मैं उसके लिए अत्यधिक लालायित हूँ।

    चित्रलेखोबाचव्यसन तेपकर्षामि त्रिलोक्यां यदि भाव्यते ।

    तमानेष्ये वरं यस्ते मनोहर्ता तमादिश ॥

    १६॥

    चित्रलेखा उवाच--चित्रलेखा ने कहा; व्यसनम्‌--दुख; ते--तुम्हारा; अपकर्षामि--दूर कर लूँगी; त्रि-लोक्याम्‌ू--तीनों लोकोंमें; यदि--यदि; भाव्यते--मिल पायेगा; तमू--उसको; आनेष्ये--लाऊँगी; वरम्‌--होने वाले पति को; यः--जो; ते--तुम्हारा;मनः--हृदय का; हर्ता--चोर; तम्‌--उसको; आदिश--जरा संकेत तो करो |

    चित्रलेखा ने कहा : मैं तुम्हारी व्याकुलता दूर कर दूँगी।

    यदि वह तीनों लोकों के भीतर कहींभी मिलेगा तो मैं तुम्हारे चित्त को चुराने वाले इस भावी पति को ले आऊँगी।

    तुम मुझे बतला दोकि आखिर वह है कौन।

    इत्युक्त्वा देवगन्धर्व सिद्धचारणपन्नगान्‌ ।

    दैत्यविद्याधरान्यक्षान्मनुजांश्चव यथालिखत्‌ ॥

    १७॥

    इति--इस प्रकार; उक्‍्त्वा--कह कर; देव-गन्धर्व--देवताओं तथा गन्धर्वों; सिद्ध-चारण-पन्नगान्‌--सिद्धों, चारणों तथा पन्नगोंको; दैत्य-विद्याधरानू--असुरों तथा विद्याधरों को; यक्षान्‌ू--यक्षों को; मनु-जानू--मनुष्यों को; च-- भी; यथा--सही सही;अलिखत्‌--उसने चित्रित किया।

    यह कह कर चित्रलेखा विविध देवताओं, गन्धर्वों, सिद्धों, चारणों, पन्नगों, दैत्यों, विद्याधरों,यक्षों तथा मनुष्यों के सही सही चित्र बनाती गयी।

    मनुजेषु च सा वृष्नीन्शूरमानकदुन्दुभिम्‌ ।

    व्यलिखद्रामकृष्णौ च प्रद्युम्न॑ बीक्ष्य लज्जिता ॥

    १८॥

    अनिरुद्धं विलिखितं वीक्ष्योषावाड्मुखी हिया ।

    सोसावसाविति प्राह स्मयमाना महीपते ॥

    १९॥

    मनुजेषु--मनुष्यों में से; च--तथा; सा--वह ( चित्रलेखा ); वृष्णीन्‌--वृष्णियों को; शूरम्‌-शूरसेन को; आनकदुन्दुभिम्‌ू--वसुदेव को; व्यलिखत्‌-- अंकित किया; राम-कृष्णौ--बलराम तथा कृष्ण; च--और; प्रद्यम्नम्‌--प्रद्युम्न को; वीक्ष्य--देखकर;लज्जिता--लज्जित होकर; अनिरुद्धम्‌-- अनिरुद्ध को; विलिखितमू--अंकित किया हुआ; वीक्ष्य--देखकर; ऊषा--उषा;अवाक्‌--झुकाकर; मुखी--अपना सिर; हिया--उलझन से; सः असौ असौ इति--' वही है, वही है '; प्राह--उसने कहा;स्मयमाना--हँसती हुई; मही-पते--हे राजन्‌ |

    हे राजन, चित्रलेखा ने मनुष्यों में से वृष्णियों के चित्र खींचे जिनमें शूरसेन, आनकदुन्दुभि,बलराम तथा कृष्ण सम्मिलित थे।

    जब ऊषा ने प्रद्युम्म का चित्र देखा तो वह लजा गई और जबउसने अनिरुद्ध का चित्र देखा तो उलझन के मारे उसने अपना सिर नीचे झुका लिया।

    उसने हँसतेहुए कहा, 'यही है, यही है, वह।

    'चित्रलेखा तमाज्ञाय पौत्रं कृष्णस्य योगिनी ।

    ययौ विहायसा राजन्द्वारकां कृष्णपालिताम्‌ ॥

    २०॥

    चित्रलेखा--चित्रलेखा; तमू--उसको; आज्ञाय--पहचान कर; पौत्रम्‌--पौत्र के रूप में; कृष्णस्य--कृष्ण के; योगिनी--योगिन; ययौ--गई; विहायसा--आकाश--मर्ग द्वारा; राजन्‌--हे राजन्‌; द्वारकाम्‌-द्वारका; कृष्ण-पालिताम्‌--कृष्ण द्वारारक्षित।

    योगशक्ति से चित्रलेखा ने उसे कृष्ण के पौत्र ( अनिरुद्ध ) रूप में पहचान लिया।

    हे राजन्‌,तब वह आकाश--मार्ग से द्वारका नगरी गई जो कृष्ण के संरक्षण में थी।

    तत्र सुप्तं सुपर्यड्े प्राद्युम्नि योगमास्थिता ।

    गृहीत्वा शोणितपुरं सख्यै प्रियमदर्शयत्‌ ॥

    २१॥

    तत्र--वहाँ; सुप्तम्‌--सोया हुआ; सु--सुन्दर; पर्यड्ले--बिस्तर पर; प्रद्युम्निम्‌--प्रद्युम्न के पुत्र को; योगम्‌--योगशक्ति;आस्थिता--प्रयोग करते हुए; गृहीत्वा--लेकर; शोणित-पुरम्‌--बाणासुर की राजधानी, शोणितपुर में; सल्शयै-- अपनी सखीके पास; प्रियम्‌--उसके प्रेमी को; अदर्शयत्‌--दिखलाया।

    वहाँ पर उसने प्रद्यम्न-पुत्र अनिरुद्ध को एक सुन्दर बिस्तर पर सोते पाया।

    उसे वह अपनीयोगशक्ति से शोणितपुर ले गई जहाँ उसने अपनी सखी ऊषा को उसका प्रेमी लाकर भेंट करदिया।

    साच तं सुन्दरवरं विलोक्य मुदितानना ।

    दुष्प्रेक्ष्य स्वगृहे पुम्भी रेमे प्राद्यम्निना समम्‌ ॥

    २२॥

    सा--वह; च--तथा; तम्‌ू--उसको; सुन्दर-वरम्‌--अतीव सुन्दर पुरुष; विलोक्य--देखकर; मुदित--प्रसन्न; आनना--मुखवाली; दुष्प्रेन्‍्ये--जो देखा नहीं जा सकता था; स्व--अपने; गृहे--धर में; पुम्भि:--पुरुषों द्वारा; रेमे--उसने रमण किया;प्रद्युम्निना समम्‌-प्रद्युम्न के पुत्र के साथ।

    जब ऊषा ने पुरुषों में सर्वाधिक सुन्दर उस पुरुष को देखा तो प्रसन्नता के मारे उसका चेहराखिल उठा।

    वह प्रद्युम्न के पुत्र को अपने निजी कक्ष में ले गयी जिसे मनुष्यों को देखने तक कीमनाही थी और वहाँ उसने उसके साथ रमण किया।

    परार्ध्यवास:स्त्रग्गन्धधूपदीपासनादिभि: ।

    'पानभोजनभक्ष्यैश्व वाक्यै: शुश्रूषणार्चित: ॥

    २३॥

    गूढः कन्यापुरे शश्वत्प्रवृद्धस्नेहया तया ।

    नाहर्गणान्स बुबुधे ऊषयापहतेन्द्रियः ॥

    २४॥

    परार्ध्य-- अमूल्य; वास:--वस्त्रों; स्रकु--मालाओं; गन्ध--सुगन्धियों; धूप-- धूप; दीप--दीपकों; आसन--बैठने के स्थान;आदिभि: --इत्यादि के द्वारा; पान--पेयों; भोजन--चबाकर खाया जाने वाला भोजन; भक्ष्य:--बिना चबाये खाया जाने वालाभोजन; च--भी; वाक्यै:--शब्दों से; शुश्रूषण-- श्रद्धापूर्ण सेवा से; अर्चित:--पूजा किया गया; गूढ:--छिपाकर रखा; कन्या-पुरे--कुमारियों के कक्ष में; शश्वत्‌ू--निरन्तर; प्रवृद्ध--अत्यधिक बढ़ा हुआ; स्नेहया--स्नेह से; तया--उसके द्वारा; न--नहीं;अहः-गणानू--दिन; सः--वह; बुबुधे --देखा; ऊषया--उषा द्वारा; अपहत--मोड़ी हुई, वशीभूत; इन्द्रियः--उसकी इन्द्रियाँ।

    ऊषा ने अमूल्य वस्त्रों के साथ साथ मालाएँ, सुगन्धियाँ, धूप, दीपक, आसन इत्यादि देकरश्रद्धापूर्ण सेवा द्वारा अनिरुद्ध की पूजा की।

    उसने उसे पेय, सभी प्रकार के भोजन तथा मधुरशब्द भी प्रदान किये।

    इस तरह तरुणियों के कक्ष में छिप कर रहते हुए अनिरुद्ध को समयबीतने का कोई ध्यान न रहा क्योंकि उसकी इन्द्रियाँ ऊषा द्वारा मोहित कर ली गई थीं।

    उसकेप्रति ऊषा का स्नेह निरन्तर बढ़ता जा रहा था।

    तां तथा यदुवीरेण भुज्यमानां हतब्रताम्‌ ।

    हेतुभिल॑क्षयां चक्कुरापुईतां दुरवच्छदै: ॥

    २५॥

    भटा आवेदयां चक्रू राजंस्ते दुहितुर्वयम्‌ ।

    विचेष्टितं लक्षयाम कन्याया: कुलदूषणम्‌ ॥

    २६॥

    ताम्‌ू--उसको; तथा--इस प्रकार; यदु-बीरेण --यदुओं के वीर द्वारा; भुज्यमानाम्‌ू-- भोग किया जाता; हत--टूटा; ब्रताम्‌ू--( कौमार्य ) व्रत; हेतुभिः:--लक्षणों से; लक्षयाम्‌ चक्कु:--उन्होंने निश्चित किया; आ-प्रीताम्‌ू--जो अत्यधिक सुखी था;दुरवच्छदैः--वेश बदलना असम्भव; भटा:--रक्षिकाएँ; आवेदयाम्‌ चक्रुः--घोषित किया; राजनू्‌--हे राजन; ते--तुम्हारी;दुहितुः--पुत्री का; वयम्‌--हमने; विचेष्टितम्‌ू--अनुचित आचरण; लक्षयाम:--देखा है; कन्याया:--कुमारी का; कुल--परिवार; दूषणम्‌--बट्ठा लगाने वाला

    अंत में रक्षिकाओं ने ऊषा में संभोग ( सहवास ) के अचूक लक्षण देखे जिसने अपनाकौमार्य-ब्रत भंग कर दिया था और यदुवीर द्वारा भोगी जा रही थी तथा जिसमें माधुर्य-सुख केलक्षण प्रकट हो रहे थे।

    ये रक्षिकाएँ बाणासुर के पास गईं और उससे कहा, 'हे राजन, हमनेआपकी पुत्री में अनुचित आचरण देखा है, जो किसी तरुणी के परिवार की ख्याति को नष्ट- भ्रष्टकरने वाला है।

    अनपायिभिरस्माभिर्गुप्तायाश्न गृहे प्रभो ।

    कन्याया दूषणं पुम्भिर्दुष्प्रेश्याया न विद्दाह ॥

    २७॥

    अनपायिभि:--जो कभी बाहर नहीं गये; अस्माभि:--हमरे द्वारा; गुप्ताया:--जिसकी रखवाली की जा रही हो, उसका; च--तथा; गृहे--महल के भीतर; प्रभो--हे स्वामी; कन्याया:--कुमारी का; दूषणम्‌--दूषित होना; पुम्भि: --मनुष्यों द्वारा;दुष्प्रेकष्याया:--जिसको देख पाना असम्भव हो; न विद्देह -- हमारी समझ में नहीं आता

    हे स्वामी, हम अपने स्थानों से कहीं नहीं हटीं और सतर्कतापूर्वक उसकी निगरानी करतीरही हैं अतः यह हमारी समझ में नहीं आता कि यह कुमारी जिसे कोई पुरुष देख भी नहीं पासकता महल के भीतर कैसे दूषित हो गई है।

    'ततः प्रव्यधितो बाणो दुहितु: श्रुतदूषण: ।

    त्वरितः कन्यकागार प्राप्तोउद्राक्षीद्यदूद्वहम्‌ ॥

    २८ ॥

    ततः:--तब; प्रव्यधित:--अत्यन्त क्षुब्ध; बाण:--बाणासुर; दुहितु:--अपनी पुत्री का; श्रुत--सुना हुआ; दूषण:--कलंक,व्यभिचार; त्वरित:--तुरन्त; कन्‍्यका--अविवाहित लड़कियों के; आगारम्‌--आवासों में; प्राप्त: --पहुँचकर; अद्राक्षीत्‌--देखा;यदु-उद्दहम्‌--यदुओं में सर्वाधिक प्रसिद्ध ॥

    अपनी पुत्री के व्यभिचार को सुनकर अत्यन्त क्षुब्ध बाणासुर तुरन्त ही कुमारियों के आवासोंकी ओर लपका।

    वहाँ उसने यदुओं में विख्यात अनिरुद्ध को देखा।

    कामात्मजं तं भुवनैकसुन्दरंश्याम पिशड्भाम्बरमम्बुजेक्षणम्‌ ।

    बृहद्भुजं कुण्डलकुन्तलत्विषास्मितावलोकेन च मण्डिताननम्‌ ॥

    २९॥

    दीव्यन्तमक्षै: प्रिययाभिनृम्णया तदड़सड्गस्तनकुड्डू मसत्रजम्‌ ।

    बह्लोर्दधानं मधुमल्लिका श्रितांतस्याग्र आसीनमवेक्ष्य विस्मित: ॥

    ३०॥

    काम--कामदेव ( प्रद्युम्न ) के; आत्मजम्‌--पुत्र को; तम्‌ू--उस; भुवन--सारे लोकों का; एक--एकमात्र; सुन्दरम्‌--सौन्दर्य;श्यामम्‌--साँवले रंग का; पिशड्ु--पीला; अम्बरम्‌ू--वस्त्र को; अम्बुज--कमलों जैसी; ईक्षणम्‌-- आँखों को; बृहत्‌--बलवान; भुजम्‌-भुजाओं को; कुण्डल--कुण्डलों के; कुन्तल--तथा बालों के गुच्छों की; त्विषा--चमक से; स्मित--हँसतेहुए; अवलोकेन--चितवनों से; च-- भी; मण्डित--सुशोभित; आननमू्‌--मुखमण्डल को; दीव्यन्तम्‌ू--खेलते हुए; अक्षैः--पाँसों से; प्रियया--अपनी प्रिया के साथ; अभिनृम्णया--सर्व मंगलमय; तत्‌--उसके साथ; अड्ग--शारीरिक; सड़--स्पर्श केकारण; स्तन--उसके स्तनों से; कुब्ढु म-कुंकुम से युक्त; स्नजम्‌--फूलमाला को; बाह्नोः:--उसकी बाहुओं के बीच में;दधानम्‌--पहने; मधु--वसन्त ऋतु; मल्लिका--चमेली का; आश्रिताम्‌--बना हुआ; तस्या:--उसके ; अग्रे--सामने;आसीनमू--बैठा हुआ; अवेक्ष्य--देखकर; विस्मित:--चकित |

    बाणासुर ने अपने समक्ष अद्वितीय सौन्दर्य से युक्त, साँवले रंग का, पीतवस्त्र पहने कमल-जैसे नेत्रों वाले एवं विशाल बाहुओं वाले कामदेव के आत्मज को देखा।

    उसका मुखमंडलतेजोमय कुण्डलों तथा केश से तथा हँसीली चितवनों से सुशोभित था।

    जब वह अपनी अत्यन्तमंगलमयी प्रेमिका के सम्मुख बैठा हुआ उसके साथ चौसर खेल रहा था, तो उसकी भुजाओं केबीच में वासन्ती चमेली की माला लटक रही थी जिस पर कुंकुम पुता था, जो उसके द्वाराआलिंगन करने पर उसके स्तनों पर से माला में चुपड़ गया था।

    यह सब देखकर बाणासुरचकित था।

    सतं प्रविष्ट वृतमाततायिभि-भंटैरनीकेरवलोक्य माधव: ।

    उद्यम्य मौर्व परिघं व्यवस्थितोयथान्तको दण्डधरो जिघांसया ॥

    ३१॥

    सः--वह, अनिरुद्ध; तम्‌--उसको, बाणासुर को; प्रविष्टम्‌--प्रविष्ट हुआ; वृतम्‌--घिरा हुआ; आततायिभि:--हथियार लियेहुए; भटैः--रक्षकों द्वारा; अनीकैः--अनेक; अवलोक्य--देखकर; माधव: --अनिरुद्ध; उद्यम्य--उठ कर; मौर्वम्‌--मुरु लोहेकी बनी; परिघम्‌--गदा को; व्यवस्थित:--हढ़तापूर्वक खड़े होकर; यथा--सहृश; अन्टक:--साक्षात्‌ काल; दण्ड--डंडा;धर:--लिए हुए; जिघांसबा--मारने के लिए उद्यत |

    बाणासुर को अनेक सशस्त्र रक्षकों सहित घुसते हुए देखकर अनिरुद्ध ने अपनी लोहे की गदा उठाई और अपने ऊपर आक्रमण करने वाले पर प्रहार करने के लिए सन्नद्ध होकर तनकरखड़ा हो गया।

    वह दण्डधारी साक्षात्‌ काल की तरह लग रहा था।

    जिधघृक्षया तान्परितः प्रसर्पत:ःशुनो यथा शूकरयूथपोहनत्‌ ।

    ते हन्यमाना भवनाद्विनिर्गतानिर्भिन्नमूर्धोरु भुजाः प्रदुद्वुवुः ॥

    ३२॥

    जिघृक्षया--दबोच लेने के लिए; तान्‌ू--उनको; परितः--चारों ओर से; प्रसर्पत:--पास आकर; शुन:--कुत्ते; यथा--जिसप्रकार; शूकर--सुअरों के; यूथ--झुंड का; प:--नायक, अगुआ; अहनत्‌-- उसने प्रहार किया; ते--वे; हन्यमाना: -- प्रहारकिये गये; भवनात्‌--महल से; विनिर्गता:--बाहर चले गये; निर्भिन्न--टूटे हुए; मूर्ध--सिर; ऊरु--जाँघें; भुजा:--तथाभुजाएँ; प्रदुद्वुवु:--वे भाग गये |

    जब रक्षकगण उसे पकड़ने के प्रयास में चारों ओर से उसकी ओर टूट पड़े तो अनिरुद्ध नेउन पर उसी तरह वार किया जिस तरह कुत्तों पर सूअरों का झुंड मुड़ कर प्रहार करता है।

    उसकेवारों से आहत रक्षकगण महल से अपनी जान बचाकर भाग गये।

    उनके सिर, जाँघें तथा बाहुएँटूट गई थीं।

    तं॑ नागपाशैर्बलिनन्दनो बलीघ्नन्तं स्वसैन्यं कुपितो बबन्ध ह ।

    ऊषा भृशं शोकविषादविहलाबद्धं निशम्याश्रुकलाक्ष्यरौत्सीतू ॥

    ३३॥

    तम्‌--उसको; नाग-पाशै:--नाग-पाश से; बलि-नन्दन:--बलि-पुत्र ( बाणासुर ) ने; बली--बलशाली; घ्लन्तम्‌--प्रहार करतेहुए; स्व--अपनी; सैन्यम्‌--सेना पर; कुपित:--क्रुद्ध होकर; बबन्ध ह--बाँध लिया; ऊषा--उषा; भृशम्‌-- अत्यन्त; शोक --शोक; विषाद--तथा हताशा से; विहला--अभिभूत; बद्धम्‌--बँधा हुआ; निशम्य--सुनकर; अश्रु-कला--आँसुओं की बूँदोंसे; अक्षी--आँखों में; अरौत्सीत्‌ू--चिल्लाई।

    किन्तु जब अनिरुद्ध बाण की सेना पर प्रहार कर रहा था, तो शक्तिशाली बलि-पुत्र नेक्रोधपूर्वक उसे नागपाश से बाँध लिया।

    जब ऊषा ने अनिरुद्ध का बाँधा जाना सुना तो वहशोक तथा विषाद से अभिभूत हो गई।

    उसकी आँखें आँसू से भर आईं और वह रोने लगी।

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    अध्याय त्रेसठ: भगवान कृष्ण का बाणासुर से युद्ध

    10.63रृशुक उबाच अपश्यतां चानिरुद्धं तद्वन्धूनां च भारत ।

    चत्वारो वार्षिकामासा व्यतीयुरनुशोचताम्‌ ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; अपश्यताम्‌-न देखते हुए; च--तथा; अनिरुद्धम्‌ू--अनिरुद्ध को; तत्‌--उसके;बन्धूनाम्‌ू-परिवार वालों के लिए; च--तथा; भारत--हे भरतवंशी ( परीक्षित महाराज ); चत्वार:--चार; वार्षिक:--वर्षा ऋतु के; मासा:--महीने; व्यतीयु:--बीत गये; अनुशोचताम्‌--शोक करते हुए

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे भारत, अनिरुद्ध के सम्बन्धीजन उसे लौटे न देखकरशोकग्रस्त रहे और इस तरह वर्षा के चार मास बीत गये।

    नारदात्तदुपाकर्णय्य वार्ता बद्धस्य कर्म च ।

    प्रययु: शोणितपुरं वृष्णय: कृष्णदैवता: ॥

    २॥

    नारदात्‌ू--नारद से; तत्‌--उस; उपाकर्ण्य--सुनकर; वार्ताम्‌ू--समाचार को; बद्धस्य--पकड़े हुए के विषय में; कर्म--कर्म;च--तथा; प्रययु:--वे गये; शोणित-पुरम्‌--शोणितपुर; वृष्णय: --वृष्णिजन; कृष्ण-- भगवान्‌ कृष्ण; दैवता: --उनके पूज्यदेव के रूप में प्राप्त ।

    नारद से अनिरुद्ध के कार्यो तथा उसके बन्दी होने के समाचार सुनकर, भगवान्‌ कृष्ण कोअपना पूज्य देव मानने वाले वृष्णिजन शोणितपुर गये।

    प्रद्युम्नो युयुधानश्व गद: साम्बोथ सारण: ।

    नन्दोपनन्दभद्राद्या रामकृष्णानुवर्तिन: ॥

    ३॥

    अक्षौहिणीभिद्ठादशभि:ः समेता: सर्वतो दिशम्‌ ।

    रुरुधुर्बाणनगरं समन्तात्सात्वतर्षभा: ॥

    ४॥

    प्रद्युम्न: युयुधान: च--प्रद्युम्न तथा युयुधान ( सात्यकि ); गदः साम्ब: अथ सारण: --गद, साम्ब तथा सारण; नन्द-उपनन्द-भद्ग--नन्द, उपनन्द तथा भद्ग; आद्या: --इत्यादि; राम-कृष्ण-अनुवर्तिन: --बलराम तथा कृष्ण के पीछे पीछे; अक्षौहिणीभि:--अक्षौहिणी के साथ; द्वादशभि:--बारह; समेता:--एकत्र; सर्वतः दिशम्‌--सारी दिशाओं में; रुरुधु; --घेर लिया; बाण-नगरम्‌--बाणासुर की नगरी को; समन्तात्‌--पूर्णतया; सात्वत-ऋषभा: --सात्वतों के प्रमुखों ने।

    श्री बलराम तथा कृष्ण को आगे करके सात्वत वंश के प्रमुख--प्रद्युम्म, सात्यकि, गद,साम्ब, सारण, नन्द, उपनन्द, भद्र तथा अन्य लोग बारह अक्षौहिणी सेना के साथ एकत्र हुए औरचारों ओर से बाणासुर की नगरी को पूरी तरह से घेर लिया।

    भज्यमानपुरोद्यानप्राकाराट्टालगोपुरम्‌ ।

    प्रेक्षमाणो रुषाविष्टस्तुल्यसैन्यो भिनिर्ययौं ॥

    ५॥

    भज्यमान--टूट जाने से; पुर--नगरी के; उद्यान--बगीचे; प्राकार--ऊँची दीवारें, परकोटे; अट्टाल--चौकसी मीनोरें, बुर्ज;गोपुरम्‌--तथा प्रवेशद्वार, सिंहद्वार; प्रेश्षकण:--देखते हुए; रुषा--क्रोध से; आविष्ट:--पूरित; तुल्य--समान; सैन्य:--सेना केसाथ; अभिनिर्ययौ--उनकी ओर गये |

    उन्हें अपनी नगरी के बाहरी बगीचे, ऊँची दीवारें, मीनारें तथा प्रवेशद्वार नष्ट-भ्रष्ट करतेदेखकर बाणासुर क्रोध से भर उठा और वह उन्हीं के बराबर सेना लेकर उनसे मुठभेड़ करने के लिए निकल आया।

    बाणार्थे भगवान्रुद्र: ससुतः प्रमथेर्वृतः ।

    आरुह्य नन्दिवृषभं युयुधे रामकृष्णयो: ॥

    ६॥

    बाण-अर्थ--बाण के लिए; भगवान्‌ रुद्र:--शिवजी ने; स-सुतः--पुत्र ( कार्तिकेय, जो कि देव-सेना के सेनापति हैं ) सहित;प्रमथे:--प्रमथों ( योगीजन जो कई रूपों में शिवजी की सेवा करते हैं ) सहित; वृतः--संग में लेकर; आरुह्म--चढ़ कर;नन्दि--नन्दि पर; वृषभम्‌--अपने बैल; युयुधे--युद्ध किया; राम-कृष्णयो: --बलराम तथा कृष्ण से |

    भगवान्‌ रुद्र अपने पुत्र कार्तिकेय तथा प्रमथों को साथ लेकर बाणासुर के पक्ष में बलरामतथा कृष्ण से लड़ने के लिए अपने बैल-वाहन नन्दि पर सवार होकर आये।

    आसीत्सुतुमुलं युद्धमद्भुतं रोमहर्षणम्‌ ।

    कृष्णशड्डूरयो राजन्प्रद्यम्नगुहयोरपि ॥

    ७॥

    आसीत्‌--हुआ; सु-तुमुलम्‌--अत्यन्त घमासान; युद्धम्‌-युद्ध; अद्भुतम्‌-- अद्भुत; रोम-हर्षणम्‌--शरीर के रोंगटे खड़ा करदेने वाला; कृष्ण-शद्भूरयो:--कृष्ण तथा शिव के मध्य; राजन्‌--हे राजा ( परीक्षित ); प्रद्युम्न-गुहयो: --प्रद्युम्न तथा कार्तिकेयके मध्य; अपि--भी

    तत्पश्चात्‌ अत्यन्त अद्भुत, घमासान तथा रोंगटे खड़ा कर देने वाला युद्ध प्रारम्भ हुआ जिसमें भगवान्‌ कृष्ण शंकर से और प्रद्युम्न कार्तिकेय से भिड़ गये।

    कुम्भाण्डकूपकर्णाभ्यां बलेन सह संयुग: ।

    साम्बस्य बाणपुत्रेण बाणेन सह सात्यके: ॥

    ८॥

    कुम्भाण्ड-कूपकर्णा भ्यामू--कुम्भाण्ड तथा कूृपकर्ण द्वारा; बलेन सह--बलराम के साथ; संयुग: --युद्ध; साम्बस्य--साम्बका; बाण-पुत्रेण--बाण के पुत्र के साथ; बाणेन सह--बाण के साथ; सात्यके:--सात्यकि का।

    बलरामजी ने कुम्भाण्ड तथा कूृपकर्ण से, साम्ब ने बाण-पुत्र से और सात्यकि ने बाण सेयुद्ध किया।

    ब्रह्मादय: सुराधीशा मुनयः सिद्धचारणा: ।

    गन्धर्वाप्सरसो यक्षा विमानेद्द्रष्ठमागमन्‌ ॥

    ९॥

    ब्रह्-आदय: --ब्रह्मा इत्यादि; सुर--देवताओं के; अधीशा:--शासक; मुनय:--मुनिगण; सिद्ध-चारणा:--सिद्ध तथा चारणदेवतागण; गन्धर्व-अप्सरस:--गन्धर्व तथा अप्सराएँ; यक्षा:--यक्षगण; विमानै: --विमानों से; द्रष्टमू--देखने के लिए;आगमन्‌--आये।

    सिद्धों, चारणों, महामुनियों, गन्धर्वों, अप्सराओं तथा यक्षों के साथ ब्रह्म तथा अन्य शासकदेवतागण अपने अपने दिव्य विमानों में चढ़ कर ( युद्ध ) देखने आये।

    शड्डूरानुचरान्शौरिभूतप्रम थगुह्मकान्‌ ।

    डाकिनीर्यातुधानां श्र वेतालान्सविनायकान्‌ ॥

    १०॥

    प्रेतमातृपिशाचां श्र कुष्माण्डान्ब्रह्मराक्षसान्‌ ।

    द्रावयामास तीक्ष्णाग्रै: शरैः शार्ड्धनुश्च्युते: ॥

    ११॥

    शह्ढभर--शंकर के ; अनुचरान्‌--अनुयायी; शौरि:-- भगवान्‌ कृष्ण ने; भूत-प्रमथ-- भूतों तथा प्रमथगणों; गुह्कान्‌ू--गुह्मकजन( कुबेर के सेवक जो स्वर्ग के कोष की रक्षा करते हैं )) डाकिनी: --देवी काली की सेवा करने वाली असुरिनियों; यातुधानानू--मनुष्यों को खा जाने वाले असुर, जो राक्षस भी कहे जाते हैं; च--तथा; बेतालानू--वेतालों को; स-विनायकान्‌--विनायकोंसमेत; प्रेत--प्रेतगणों; मातृ--मातृपक्ष के असुरों; पिशाचान्‌--अन्तरिक्ष में रहने वाले मांस-भक्षी असुरों; च-- भी;कुष्माण्डानू--शिव के अनुयायियों को जो योगियों के ध्यान को भंग करते रहते हैं; ब्रह्म-राक्षसान्‌ू--उन ब्राह्मणों की आसुरीआत्माएँ जिनकी मृत्यु पाप-कृत्यों से हुई है; द्राववाम्‌ आस--भगा दिया; तीक्ष्ण-अग्रै:--तेज नोक वाले; शरैः--बाणों से;शार्ई-धनु:--शार्ड़् नामक धनुष से; च्युतैः--छोड़े गये।

    अपने शार्ड़ धनुष से तेज नोक वाले बाणों को छोड़ते हुए भगवान्‌ कृष्ण ने शिवजी केविविध अनुचरों--भूतों, प्रमथों, गुह्मकों, डाकिनियों, यातुधानों, वेतालों, विनायकों , प्रेतों, माताओं, पिशाचों, कुष्माण्डों तथा ब्रह्म-राक्षमों--को भगा दिया।

    पृथग्विधानि प्रायुड्ग पिणाक्यस्त्राणि शा्ईिणे ।

    प्रत्यस्त्रे: शमयामास शार्ड्पराणिरविस्मित: ॥

    १२॥

    पृथक्‌-विधानि--विविध प्रकारों के; प्रायुड्र --लगे हुए; पिणाकी--ब्रिशूलधारी शिवजी ने; अस्त्राणि--हथियार; शार्इिणे--शार्ड़ धनुषधारी कृष्ण के विरुद्ध; प्रति-अस्त्रै:--विरोधी अस्त्रों द्वारा; शमयाम्‌ आस--शान्त कर दिया; शार्ड्-पाणि: -शार्डधनुषधारी; अविस्मित:--तनिक भी चकित हुए बिना।

    त्रिशूलधारी शिवजी ने शार्ड्र धनुषधारी कृष्ण पर अनेक हथियार चलाये।

    किन्तु कृष्णतनिक भी विचलित नहीं हुए--उन्होंने उपयुक्त प्रतिअस्त्रों द्वारा इन सारे हथियारों को निष्प्रभावितकर दिया।

    ब्रह्मास्त्रस्य च ब्रह्मास्त्रं वायव्यस्य च पार्वतम्‌ ॥

    आग्नेयस्य च पार्जन्यं नैजं पाशुपतस्य च ॥

    १३॥

    ब्रह्म-अस्त्रस्य--ब्रह्मासत्र का; च--तथा; ब्रह्म-अस्त्रम्‌ू--ब्रह्मास्त्र से; वायव्यस्थ--हवाई हथियार का; च--तथा; पार्वतम्‌--पर्वतअस्त्र से; आग्नेयस्थ--आग्नेयास्त्र का; च--तथा; पार्जन्यम्‌ू--वर्षा अस्त्र से; नैजम्‌ू--अपने निजी ( नारायणास्त्र ) से;पाशुपतस्य--शिवजी के पाशुपतास्त्र का; च--तथा |

    भगवान्‌ कृष्ण ने ब्रह्मास्त्र का सामना दूसरे ब्रह्मास्त्र से, वायुअस्त्र का सामना पर्वत अस्त्र से,अग्नि अस्त्र का वर्षा अस्त्र से तथा शिवजी के निजी पाशुपतास्त्र का सामना अपने निजी अस्त्रनारायणास्त्र से किया।

    मोहयित्वा तु गिरिशं जृम्भणास्त्रेण जृम्भितम्‌ ।

    बाणस्य पृतनां शौरिर्जघानासिगदेषुभि: ॥

    १४॥

    मोहयित्वा--मोहित करके; तु--तब; गिरिशम्‌--शिवजी को; जृम्भण-अस्त्रेण-- जँभाई लाने वाले अस्त्र से; जृम्भितम्‌--जँभाईलाते हुए; बाणस्य--बाण की; पृतनाम्‌--सेना को; शौरि: --कृष्ण; जघान--मारने लगे; असि--तलवार; गदा--गदा;इषुशि:--तथा बाणों से

    जृम्भणास्त्र द्वारा जम्भाई लिवाकर शिवजी को मोहित कर देने के बाद कृष्ण बाणासुर कीसेना को अपनी तलवार, गदा तथा बाणों से मारने लगे।

    स्कन्दः प्रद्युम्मनबाणौघैरर्यमान: समन्ततः ।

    असृग्विमुज्ञन्गात्रेभ्य: शिरखिनापक्रमद्रणात्‌ ॥

    १५॥

    स्कन्दः--कार्तिकेय; प्रद्यम्न-लाण--प्रद्युम्न के बाणों की; ओघै:--वर्षा से; अर्द्मान:--व्यधित हुआ; समन्तत:--चारों ओर;असृक्‌--रक्त; विमुझ्नन्‌-गिराते हुए; गात्रेभ्य:--अपने अंगों से; शिखिना--मोर वाहन पर; अपाक्रमत्‌--चला गया; रणात्‌--युद्धभूमि से।

    कार्तिकेय चारों ओर से हो रही प्रद्युम्म के बाणों की वर्षा से व्यथित थे अतः वे अपने मोर-वाहन पर चढ़ कर युद्धभूमि से भाग गये क्योंकि उनके अंग-प्रत्यंग से रक्त निकलने लगा था।

    कुम्भाण्डकूपकर्णश्च पेततुर्मुषलार्दितो ।

    दुद्वुवुस्तदनीकनि हतनाथानि सर्वत: ॥

    १६॥

    कुम्भाण्ड-कूपकर्ण: च--कुम्भाण्ड तथा कूपकर्ण; पेततु:--गिर पड़े; मुषल--( बलराम की ) गदा से; अर्दितौ--चोट खाकर;दुद्दुव:-- भाग गये; तत्‌--उनकी; अनीकानि--सेनाएँ; हत--मारे गये; नाथानि--जिनके सेना-नायक; सर्वतः--सभी दिशाओंमें

    कुम्भाण्ड तथा कूपकर्ण बलराम की गदा से चोट खाकर धराशायी हो गये।

    जब इन दोनोंअसुरों के सैनिकों ने देखा कि उनके सेना-नायक मारे जा चुके हैं, तो वे सभी दिशाओं मेंतितर-बितर हो गये।

    विशीर्यमाणम्स्वबलं दृष्ठा बाणोउत्यमर्षित: ।

    कृष्णमभ्यद्रवत्सड्ख्ये रथी हित्वैव सात्यकिम्‌ ॥

    १७॥

    विशीर्यमाणम्‌--छिन्न-भिन्न किये हुए; स्व--अपनी; बलम्‌--सेना को; हृष्टा--देखकर; बाण:--बाण; अति--अत्यन्त;अमर्षित:--क्रुद्ध; कृष्णम्‌--कृष्ण पर; अभ्यद्रवत्‌-- आक्रमण कर दिया; सड्ख्ये--युद्धभूमि में; रथी--रथ पर सवार;हित्वा--एक तरफ छोड़ कर; एव--निस्सन्देह; सात्यकिम्‌--सात्यकि को |

    बाणासुर अपनी समूची सेना को छिन्नभिन्न होते देखकर अत्यन्त क्रुद्ध हुआ।

    सात्यकि सेलड़ना छोड़ कर और अपने रथ पर सवार होकर युद्धभूमि को पार करते हुए उसने कृष्ण परआक्रमण कर दिया।

    ध्नूंष्याकृष्य युगपद्‌ बाण: पञ्नशतानि वे ।

    एकैकस्मिन्शरी द्वौ द्वौ सन्दधे रणदुर्मद: ॥

    १८॥

    धनूंषि-- धनुषों को; आकृष्य--खींचकर; युगपत्‌--एकसाथ; बाण:--बाण ने; पञ्ञ-शतानि--पाँच सौ; वै--निस्सन्देह; एक-एकस्मिनू--हर एक पर; शरौ--तीर; द्वौ द्वौ--दो दो; सन्दधे-- चढ़ाया; रण--युद्ध के कारण; दुर्मद:--घमंड से मतवाला।

    युद्ध करने की सनक में बहकर बाण ने एकसाथ अपने पाँच सौ धनुषों की डोरियाँ खींचकर हर डोरी पर दो दो बाण चढ़ाये।

    तानि चिच्छेद भगवान्धनूंसि युगपद्धरिः ।

    सारथि रथमश्रां श्र हत्वा शद्बुमपूरयत्‌ ॥

    १९॥

    तानि--उन; चिच्छेद--काट दिया; भगवान्‌--भगवान्‌; धनूंसि--धनुषों को; युगपत्‌--एक ही बार में; हरि: -- श्रीकृष्ण ने;सारथिम्‌--रथ हाँकने वाले को; रथम्‌-रथ को; अश्वान्‌--घोड़ों को; च--तथा; हत्वा--मार कर; शद्भुमू--अपना शंख;अपूरयत्‌--बजाया |

    भगवान्‌ श्री हरि ने बाणासुर के सारे धनुषों को एक ही साथ काट दिया और उसके सारथी,रथ तथा घोड़ों को मार गिराया।

    तत्पश्चात्‌ भगवान्‌ ने अपना शंख बजाया।

    तन्माता कोटरा नाम नग्ना मक्तशिरोरुहा ।

    पुरोवतस्थे कृष्णस्य पुत्रप्राणरिरक्षया ॥

    २०॥

    तत्‌--उसकी ( बाणासुर की ); माता--माता; कोटरा नाम--कोटरा नामक; नग्ना--नंगी; मुक्त--खोले; शिर:-रूहा--अपनेबाल; पुर:--सामने; अवतस्थे--खड़ी हो गईं; कृष्णस्य--कृष्ण के; पुत्र--अपने पुत्र के; प्राण--जीवन; रिरक्षया--बचाने कीआशा से।

    तभी बाणासुर की माता कोटरा अपने पुत्र के प्राण बचाने की इच्छा से भगवान्‌ कृष्ण केसमक्ष नंग-धड़ंग तथा बाल बिखेरे आ धमकी।

    ततस्तिर्यड्मुखो नग्नामनिरीक्षन्गदाग्रज: ।

    बाणश्च तावद्विरथश्छिन्नधन्वाविशत्पुरम्‌ ॥

    २१॥

    ततः--तब; तिर्यक्‌ू--पीछे की ओर किये; मुखः--अपना मुँह; नग्नामू--नग्न स्त्री को; अनिरीक्षन्‌--न देखते हुए; गदाग्रज:--कृष्ण; बाण: --बाण; च--तथा; तावत्‌--उस अवसर पर; विरथ:--रथविहीन; छिन्न--टूटा हुआ; धन्वा-- धनुष; आविशत्‌--प्रविष्ट हुआ; पुरम्‌--नगरी में

    भगवान्‌ गदाग्रज ने उस नंगी स्त्री को देखे जाने से बचने के लिए अपना मुख पीछे की ओरमोड़ लिया और रथविहीन हो जाने तथा धनुष के टूट जाने से बाणासुर इस अवसर का लाभउठाकर अपने नगर को भाग गया।

    विद्राविते भूतगणे ज्वरस्तु त्रीशिरास्त्रीपात्‌ ।

    अभ्यधावत दाशाहई दहन्निव दिशो दश ॥

    २२॥

    विद्राविते-- भगा दिये जाने पर; भूत-गणे--शिवजी के सारे अनुचरों के; ज्वरः--शिवजी की सेवा करने वाला साक्षात्‌ ज्वर;तु--लेकिन; त्रि--तीन; शिरा:--सिर वाले; त्रि--तीन; पातू--पाँव वाले; अभ्यधावत--की ओर दौड़ा; दाशाईम्‌-- भगवान्‌कृष्ण को; दहन्‌--जलाते हुए; इब--सहृश; दिशः--दिशाएँ; दश--दसों |

    जब शिवजी के अनुचर भगा दिये गये, तो तीन सिर तथा तीन पैर वाला शिवज्वर कृष्ण परआक्रमण करने के लिए आगे लपका।

    ज्योंही शिवज्वर निकट पहुँचा तो ऐसा लगा कि वह दसोंदिशाओं की सारी वस्तुओं को जला देगा।

    अथ नारायण: देव: तं दृष्ठा व्यसृजज्वरम्‌ ।

    माहे श्वरो वैष्णवश्च युयुधाते ज्वरावुभी ॥

    २३॥

    अथ--तत्पश्चात; नारायण: देव:--भगवान्‌ नारायण ( कृष्ण ) ने; तम्‌--उस ( शिवज्वर ) को; दृष्टा--देखकर; व्यसृजत्‌ू--छोड़दिया; ज्वरम्‌--अपना साक्षात्‌ ज्वर ( जो अतीव शीतल था, जबकि शिवज्वर अतीव गर्म था ); माहेश्वरः--महे ध्वर का;वैष्णव: -- भगवान्‌ विष्णु के; च--तथा; युयुधाते-- लड़ने लगे; ज्वरौ--दो ज्वर; उभौ--एक-दूसरे के विरुद्ध |

    तत्पश्चात्‌ इस अस्त्र को पास आते देखकर भगवान्‌ नारायण ने अपना निजी ज्वर अस्त्र,विष्णुज्वर, छोड़ा ।

    इस तरह शिवज्वर तथा विष्णुज्वर एक-दूसरे से युद्ध करने लगे।

    महे श्वरः समाक्रन्दन्वैष्णवेन बलार्दित: ।

    अलब्ध्वाभयमन्यत्र भीतो माहे श्वरो ज्वरः ।

    शरणार्थी हृषीकेशं तुष्टाव प्रयताझ्ललि: ॥

    २४॥

    माहेश्वः --शिव का ( ज्वर अस्त्र ); समाक्रन्दन्‌--चिल्लाता हुआ; वैष्णवेन--वैष्णवज्वर के; बल--बल से; अर्दित:--पीड़ित;अलब्ध्वा--न पाकर; अभयम्‌--निडरता; अन्यत्र--और कहीं; भीत:--डरा हुआ; माहेश्वर: ज्वरः --शिव ज्वर; शरण--शरणके लिए; अर्थी--लालायित; हषीकेशम्‌--हर एक की इन्द्रियों के स्वामी, भगवान्‌ कृष्ण की; तुष्टाव--उसने प्रशंसा की; प्रयत-अज्जलि:ः--हाथ जोड़कर

    विष्णुज्वर के बल से परास्त शिवज्वर पीड़ा से चिल्ला उठा।

    किन्तु कहीं आश्रय न पाकर भयभीत हुआ शिवज्वर इन्द्रियों के स्वामी कृष्ण के पास शरण पाने की आशा से आया।

    इसतरह वह अपने हाथ जोड़कर उनकी प्रशंसा करने लगा।

    ज्वर उवाचनमामि त्वानन्तशक्ति परेशम्‌सर्वात्मानं केवल ज्ञप्तिमात्रम्‌ ।

    विश्वोत्पत्तिस्थानसंरो धहेतुयक्तद्रह्म ब्रह्मलिड्डम्प्रशान्तम्‌ ॥

    २५॥

    ज्वरः उबाच--( शिव ) ज्वर ने कहा; नमामि--मैं नमस्कार करता हूँ; त्वा--तुमको; अनन्त--अनन्त; शक्तिमू--शक्ति वाले;पर--परम; ईशम्‌--स्वामी; सर्व--सबों के; आत्मानम्‌ू--आत्मा; केवलम्‌-- शुद्ध; ज्ञप्ति-- चेतना की; मात्रमू--समग्रता;विश्व--ब्रह्माण्ड की; उत्पत्ति--उत्पत्ति; स्थान--पालन; संरोध--तथा संहार का; हेतुमू--कारण; यत्‌--जो; तत्‌--वह; ब्रह्म--ब्रह्म, परम सत्य; ब्रह्म--वेदों द्वारा; लिन्गमू--जिसका अप्रत्यक्ष प्रसंग ( अनुमान ); प्रशान्तम्‌--पूर्णतया शान्त ।

    शिवज्वर ने कहा : हे अनन्त शक्ति वाले, समस्त जीवों के परमात्मा भगवान्‌, मैं आपकोनमस्कार करता हूँ।

    आप शुद्ध तथा पूर्ण चेतना से युक्त हैं और इस विराट ब्रह्माण्ड की सृष्टि,पालन तथा संहार के कारण हैं।

    आप पूर्ण शान्त हैं और आप परम सत्य ( ब्रह्म ) हैं जिनकाप्रकारान्तर से सारे वेद उल्लेख करते हैं।

    कालो दैवं कर्म जीव: स्वभावोद्रव्यं क्षेत्र प्राण आत्मा विकार: ।

    तत्सझ्लातो बीजरोहप्रवाह-स्त्वन्मायैषा ततन्निषेधं प्रपह्ये ॥

    २६॥

    'काल:--समय; दैवम्‌-- भाग्य; कर्म-- भौतिक कर्म के फल; जीव:--व्यष्टि जीव; स्वभाव:--उसकी इच्छाएँ; द्रव्यम्‌--पदार्थका सूक्ष्म रूप; क्षेत्रमू--शरीर; प्राण:--प्राण-वायु; आत्मा--मिथ्या अहंकार; विकार: --( ग्यारह इन्द्रियों के ) रूपान्तर; तत्‌--इन सबों का; सट्भाट:--संमेल ( सूक्ष्म शरीर के रूप में ); बीज--बीज; रोह--तथा अंकुर का; प्रवाह: --निरन्तर बहाव; त्वत्‌--तुम्हारा; माया-- भौतिक मोहिनी शक्ति; एघा--यह; तत्‌--इसके; निषेधम्‌--निषेध ( आप ); प्रपद्ये--शरण के लिए आया हूँ।

    काल, भाग्य, कर्म, जीव तथा उसका स्वभाव, सूक्ष्म भौतिक तत्त्व, भौतिक शरीर, प्राण-वायु, मिथ्या अहंकार, विभिन्न इन्द्रियाँ तथा जीव के सूक्ष्म शरीर में प्रतिबिम्बित इन सबों कीसमग्रता--ये सभी आपकी माया हैं, जो बीज तथा पौधे के अन्तहीन चक्र जैसे हैं।

    इस माया कानिषेध, मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूँ।

    नानाभावैलीलयैवोपपन्नै -देवान्साधूनलोकसेतून्बिभर्षि ।

    हंस्युन्मार्गान्हिंसया वर्तमानान्‌जन्मैतत्ते भारहाराय भूमे: ॥

    २७॥

    नाना--विविध; भावै: --मनो भावों से; लीलया--लीलाओं के रूप में; एब--निस्सन्देह; उपपन्नैः--कल्पित; देवानू--देवताओं;साधूनू--साधुओं; लोक--संसार के; सेतून्‌-- धर्मसंहिता को; बिभर्षि--स्थिर रखते हो; हंसि--संहार करते हो; उत्‌-मार्गानू--मार्ग से विपथ; हिंसया--हिंसा द्वारा; वर्तमानान्‌ू--जीवित; जन्म--जन्म; एतत्‌--यह; ते--तुम्हारा; भार-- भार; हाराय--उतारने के लिए; भूमेः--पृथ्वी का ।

    आप देवताओं, साधुओं तथा इस जगत के लिए धर्मसंहिता को बनाये रखने के लिए अनेकभावों से लीलाएँ करते हैं।

    इन लीलाओं से आप उनका भी वध करते हैं, जो सही मार्ग से हटजाते हैं और हिंसा द्वारा जीवन-यापन करते हैं।

    निस्सन्देह आपका वर्तमान अवतार पृथ्वी का भारउतारने के लिए है।

    तप्तोहम्ते तेजसा दुःसहेनशान्तोग्रेणात्युल्बणेन ज्वरेण ।

    तावत्तापो देहिनां तेडन्ध्रिमूलंनो सेवेरन्यावदाशानुबद्धा: ॥

    २८॥

    तप्त:--जलाया हुआ; अहम्‌--मैं; ते--तुम्हारी; तेजसा--शक्ति द्वारा; दुःसहेन--दुस्सह; शान्त--ठण्डा, शीतल; उग्रेण--फिरभी तप्त; अति--अत्यधिक; उल्बणेन-- भयानक; ज्वरेण--ज्वर से; तावत्‌--तब तक; ताप:-- जलन; देहिनामू--देहधारियोंकी; ते--तुम्हारे; अड्प्रि--चरणों के; मूलम्‌ू--तलवा; न--नहीं; उ--निस्सन्देह; सेवेरन्‌ू--सेवा करते हैं; यावत्‌--जब तक;आशा--भौतिक इच्छाओं से; अनुबद्धा:--सतत बँधे हुए।

    मैं आपके भयानक ज्वर अस्त्र के भयानक तेज से त्रस्त हूँ जो शीतल होकर भी ज्वल्यमानहै।

    सारे देहधारी जीव तब तक कष्ट भोगते हैं जब तक वे भौतिक महत्वाकांक्षाओं से बँधे रहते हैंऔर आपके चरणकमलों की सेवा करने से दूर भागते हैं।

    श्रीभगवानुवाचत्रिशिरस्ते प्रसन्नोउस्मि व्येतु ते मज्चराद्धयम्‌ ।

    यो नौ स्मरति संवादं तस्य त्वन्न भवेद्धयम्‌ ॥

    २९॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; त्रि-शिरः--हे तीन सिरों वाले; ते--तुमसे; प्रसन्न: --प्रसन्न; अस्मि--हूँ; व्येतु--चलाजाये; ते--तुम्हारा; मत्‌-- मेरे; ज्वरात्‌--ज्वर अस्त्र से; भयम्‌-- भय; यः--जो भी; नौ--हमारा; स्मरति--स्मरण करता है;संवादम्‌--वार्तालाप; तस्य--उसका; त्वत्‌--तुम्हारा; न भवेत्‌--नहीं हो; भयम्‌-- भय |

    भगवान्‌ ने कहा : हे तीन सिरों वाले, मैं तुमसे प्रसन्न हूँ।

    मेरे ज्वर अस्त्र से तुम्हारा भय दूर होऔर जो कोई भी हमारी इस वार्ता को सुने वह तुमसे भयभीत न हो।

    इत्युक्तोच्युतमानम्य गतो माहे श्वरो ज्वरः ।

    बाणस्तु रथमारूढः प्रागाद्योत्स्यन्जनार्दनम्‌ ॥

    ३०॥

    इति--इस प्रकार; उक्त: --कहे जाने पर अच्युतम्‌ --- अच्युत भगवान्‌ कृष्ण द्वारा; आनम्य---झुक कर; गत:--चला गया;माहेश्वरः:--शिव का; ज्वर:--ज्वर अस्त्र; बाण:--बाण; तु--लेकिन; रथम्‌ू--अपने रथ पर; आरूढ:--चढ़ कर; प्रागात्‌--आगे आया; योत्स्यन्‌--युद्ध करने के उद्देश्य से; जनार्दनम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण से।

    ऐसा कहे जाने पर माहे श्वर-ज्वर ने अच्युत भगवान्‌ को प्रणाम किया और चला गया।

    किन्तुतभी बाणासुर अपने रथ पर सवार होकर भगवान्‌ कृष्ण से लड़ने के लिए प्रकट हुआ।

    ततो बाहुसहस्त्रेण नानायुधधरोउसुर: ।

    मुमोच परमक्रुद्धो बाणांश्रक्रायुधे नूप ॥

    ३१॥

    ततः--तत्पश्चात; बाहु--अपनी भुजाओं से; सहस्त्रेण--एक हजार; नाना--अनेक; आयुध--हथियार; धर: -- धारण किये;असुरः--असुर ने; मुमोच--छोड़ा; परम--अत्यधिक; क्ुद्ध:--क्रुद्ध: बाणान्‌ू--बाणों को; चक्र-आयुधे --चक्रधारी पर;नृप--हे राजा ( परीक्षित )

    हे राजन, अपने एक हजार हाथों में असंख्य हथियार लिए उस अतीव क्रुद्ध असुर नेचक्रधारी भगवान्‌ कृष्ण पर अनेक बाण छोड़े।

    तस्यास्यतोउस्त्राण्यसकृच्चक्रेण क्षुरनेमिना ।

    चिच्छेद भगवान्बाहून्शाखा इव वनस्पते: ॥

    ३२॥

    तस्य--उसके ; अस्यतः--फेंके गये; अस्त्राणि--हथियारों को; असकृत्‌--बारम्बार; चक्रेण -- अपने चक्र से; क्षुर--तेज;नेमिना--परिधि वाले; चिच्छेद--काट डाला; भगवानू-- भगवान्‌ ने; बाहूनू-- भुजाएँ; शाखा:--टहनियों; इब--की तरह;वनस्पते:--वृक्ष की |

    जब बाण भगवान्‌ पर लगातार हथियार बरसाता रहा तो उन्होंने अपने तेज चक्र से बाणासुरकी भुजाओं को काट डाला मानो वे वृक्ष की टहनियाँ हों।

    बाहुषु छिद्यमानेषु बाणस्य भगवान्भव: ।

    भक्तानकमप्प्युपब्रज्य चक्रायुधमभाषत ॥

    ३३॥

    बाहुषु--बाहों पर; छिद्यमानेषु--काटी जाती हुईं; बाणस्य--बाणासुर की; भगवान्‌ भव:--शिवजी; भक्त--अपने भक्त केप्रति; अनुकम्पी--दयालु; उपब्रज्य--पास जाकर; चक्र-आयुधम्‌--चक्र धारी कृष्ण से; अभाषत--बोले।

    बाणासुर की भुजाएँ कटते देखकर शिवजी को अपने भक्त के प्रति दया आ गयी अतः वेभगवान्‌ चक्रायुध ( कृष्ण ) के पास पहुँचे और उनसे इस प्रकार बोले।

    श्रीरुद्र उबाचत्वं हि ब्रह्म परं ज्योतिर्गूढ ब्रह्मणि वाड्मये ।

    यं पश्यन्त्यमलात्मान आकाशमिव केवलम्‌ ॥

    ३४॥

    श्री-रुद्रः उबाच--शिव ने कहा; त्वम्‌--तुम; हि-- अकेले; ब्रह्म--परम सत्य; परमू--परम; ज्योति:-- प्रकाश; गूढम्‌--छिपाहुआ; ब्रह्मणि--ब्रह्म में; वाक्‌ू-मये-- भाषा के रूप में ( वेदों में )।

    यम्‌--जिसको; पश्यन्ति--देखते हैं; अमल--निष्कलंक;आत्मान:--जिनके हृदय; आकाशम्‌--आकाश के; इब--सहृश; केवलम्‌--शुद्धश्री रुद्र ने कहा: आप ही एकमात्र परम सत्य, परम ज्योति तथा ब्रह्म की शाब्दिकअभिव्यक्ति के भीतर के गुह्य रहस्य हैं।

    जिनके हृदय निर्मल हैं, वे आपका दर्शन कर सकते हैंक्योंकि आप आकाश की भाँति निर्मल हैं।

    नाभिर्नभो उग्निर्मुखमम्बु रेतोहो: शीर्षमाशा: श्रुतिरड्प्रिरुर्वी ।

    चन्द्रो मनो यस्य हगर्क आत्माअहं समुद्रो जठरं भुजेन्द्र: ॥

    ३५॥

    रोमाणि यस्यौषधयोम्बुवाहा:केशा विरिश्ञो धिषणा विसर्ग: ।

    प्रजापतिहदयं यस्य धर्म:स वे भवान्पुरुषो लोककल्प: ॥

    ३६॥

    नाभि:--नाभि; नभ:ः--आकाश; अग्नि:--अग्नि; मुखम्‌--मुख; अम्बु--जल; रेत:--वीर्य; द्यौ:--स्वर्ग; शीर्षम्‌--सिर;आशा:-दिशाएँ; श्रुति:-- श्रवणेन्द्रिय; अड्धध्रि:--पाँव; उर्वी--पृथ्वी; चन्द्र:--चन्द्रमा; मन:--मन; यस्य--जिसकी; हक्‌--दृष्टि; अर्क:--सूर्य; आत्मा--आत्मचेतना; अहम्‌--मैं ( शिव ); समुद्र:--समुद्र; जठरम्‌--उदर; भुज--बाहु; इन्द्र:--इन्द्र;रोमाणि--शरीर के रोएँ; यस्य--जिसके; ओषधय: -- औषधीय पौधे; अम्बु-वाहा:--जलवाहक बादल; केशा:--सिर केबाल; विरिज्ञ:--ब्रह्मा; धिषणा--विवेक, बुद्धि; विसर्ग:--जननेन्द्रियाँ; प्रजा-पति:--मनुष्य को उत्पन्न करने वाला; हृदयम्‌--हृदय; यस्य--जिसका; धर्म:--धर्म; सः--वह; बै--निस्सन्देह; भवान्‌ू--आप; पुरुष:--आदि-स्त्रष्टा।

    लोक--सारे लोक;कल्पः--जिससे उत्पन्नआकाश आपकी नाभि है, अग्नि आपका मुख है, जल आपका वीर्य है और स्वर्ग आपकासिर है।

    दिशाएँ आपकी श्रवणेन्द्रिय ( कान ) हैं, औषधि-पौधे आपके शरीर के रोएँ हैं तथाजलधारक बादल आपके सिर के बाल हैं।

    पृथ्वी आपका पाँव है, चन्द्रमा आपका मन है तथासूर्य आपकी दृष्टि ( नेत्र ) है, जबकि मैं आपका अहंकार हूँ।

    समुद्र आपका उदर है, इन्द्र आपकीभुजा है, ब्रह्मा आपकी बुद्धि है, प्रजापति आपकी जननेन्द्रिय ( लिंग ) है और धर्म आपका हृदयहै।

    असल में आप आदि-पुरुष हैं, लोकों के स्रष्टा हैं।

    तवावतारोयमकुण्ठधामन्‌धर्मस्य गुप्त्य जगतो हिताय ।

    बयं च सर्वे भवतानुभाविताविभावयामो भुवनानि सप्त ॥

    ३७॥

    तवब--तुम्हारा; अवतार: -- अवतार; अयम्‌--यह; अकुण्ठ--असीम; धामन्‌--हे शक्ति वाले; धर्मस्य--न्याय की; गुप्त्यै--रक्षाके लिए; जगत:--ब्रह्माण्ड के; हिताय--लाभ के लिए; वयम्‌--हम; च--भी; सर्वे--सभी; भवता--आपके द्वारा;अनुभाविता:-प्रबुद्ध तथा अधिकारप्राप्त; विभावयाम:--हम प्रकट करते तथा उत्पन्न करते हैं; भुवनानि--जगतों को; सप्त--सात

    है असीम शक्ति के स्वामी, इस भौतिक जगत में आपका वर्तमान अवतार न्याय केसिद्धान्तों की रक्षा करने तथा समग्र ब्रह्माण्ड को लाभ दिलाने के निमित्त है।

    हममें से प्रत्येकदेवता आपकी कृपा तथा सत्ता पर आश्रित है और हम सभी देवता सात लोक मण्डलों को उत्पन्न करते हैं।

    त्वमेक आद्यः पुरुषोद्वितीय-स्तुर्यः स्वच्ग्धेतुरहेतुरीश: ।

    प्रतीयसेथापि यथाविकारंस्वमायया सर्वगुणप्रसिद्धय॑ ॥

    ३८ ॥

    त्वमू--तुम; एक:--एक; आद्य:--आदि; पुरुष: --परम पुरुष; अद्वितीय: --अद्वितीय; तुर्य: --दिव्य; स्व-हक्‌--स्वयं प्रकाश;हेतु:--कारण; अहेतु:--कारणरहित; ईशः --परम नियन्ता; प्रतीयसे-- अनुभव किये जाते हो; अथ अपि--इतने पर भी;यथा--के अनुसार; विकारम्‌--विविध रूपान्तरों; स्व--अपनी; मायया--माया से; सर्व--समस्त; गुण--गुणों की;प्रसिद्धबै--पूर्ण अभिव्यक्ति के लिए

    आप अद्वितीय, दिव्य तथा स्वयं-प्रकाश आदि-पुरुष हैं।

    अहैतुक होकर भी आप सबों केकारण हैं और परम नियन्ता हैं।

    तिस पर भी आप पदार्थ के उन विकारों के रूप में अनुभव कियेजाते हैं, जो आपकी माया द्वारा उत्पन्न हैं।

    आप इन विकारों की स्वीकृति इसलिए देते हैं जिससेविविध भौतिक गुण पूरी तरह प्रकट हो सकें।

    यथैव सूर्य: पिहितश्छायया स्वयाछायां च रूपाणि च सज्ञकास्ति ।

    एवं गुणेनापिहितो गुणांस्त्व-मात्मप्रदीपो गुणिनश्च भूमन्‌ ॥

    ३९॥

    यथा एब--जिस तरह; सूर्य:--सूर्य; पिहित: --ढका; छायया--छाया से; स्वया--अपनी; छायाम्‌--छाया को; च--तथा;रूपाणि--हृश्य रूप; च-- भी; सज्ञकास्ति-- प्रकाशित करता है; एवम्‌--उसी तरह से; गुणेन--भौतिक गुण ( मिथ्या अहंकारका ) द्वारा; अपिहित:--ढका हुआ; गुणान्‌ू--पदार्थ के गुणों के; त्वमू--तुम; आत्म-प्रदीप:--स्वयं प्रकाशित; गुणिन:--इनगुणों का स्वामी ( जीव ); च--तथा; भूमन्‌--हे सर्वशक्तिमान |

    हे सर्वशक्तिमान, जिस प्रकार सूर्य बादल से ढका होने पर भी बादल को तथा अन्य सारेहृश्य रूपों को भी प्रकाशित करता है उसी तरह आप भौतिक गुणों से ढके रहने पर भी स्वयंप्रकाशित बने रहते हैं और उन सारे गुणों को, उन गुणों से युक्त जीवों समेत, प्रकट करते हैं।

    यन्मायामोहितधिय: पुत्रदारगृहादिषु ।

    उन्मज्जन्ति निमज्नन्ति प्रसक्ता वृजिनार्णवे ॥

    ४०॥

    यत्‌--जिसकी; माया--माया से; मोहित--मोहित; धिय:--उनकी बुद्धि; पुत्र--पुत्र; दार--पती; गृह--घर; आदिषु--इत्यादिमें; उनन्‍्मज्जन्ति--वे ऊपर उठ आते हैं; निमज्जन्ति--डूब जाते हैं; प्रसक्ता:--पूरी तरह फँसे हुए; वृजिन--दुख के; अर्गवे--समुद्रमें

    आपकी माया से मोहित बुद्धि वाले अपने बच्चों, पत्नी, घर इत्यादि में पूरी तरह से लिप्तऔर भौतिक दुख के सागर में निमग्न लोग कभी ऊपर उठते हैं, तो कभी नीचे डुब जाते हैं।

    देवदत्तमिमं लब्ध्वा नूलोकमजितेन्द्रिय: ।

    यो नाद्रियेत त्वत्पादौ स शोच्यो ह्यात्मवज्ञकः: ॥

    ४१॥

    देव--भगवान्‌ द्वारा; दत्तमू--दिया हुआ; इमम्‌--इसको; लब्ध्वा--प्राप्त करके; नू--मनुष्यों का; लोकम्‌--संसार; अजित--अवश्य; इन्द्रियः--उसकी इन्द्रियाँ; यः--जो; न आद्रियेत--आदर नहीं करेगा; त्वत्‌ू--तुम्हारे; पादौ--पाँव; सः--वह;शोच्य:--दयनीय; हि--निस्सन्देह; आत्म-- अपना; वज्ञक:--ठग, धोखा देने वाली |

    जिसने ईश्वर से यह मनुष्य जीवन उपहार के रूप में प्राप्त किया है किन्तु फिर भी जो अपनीइन्द्रियों को वश में करने तथा आपके चरणों का आदर करने में विफल रहता है, वह सचमुचशोचनीय है क्योंकि वह अपने को ही धोखा देता है।

    यस्त्वां विसृजते मर्त्य आत्मानं प्रियमी ध्वरम्‌ ।

    विपर्ययेन्द्रियार्थार्थ विषमत्त्यमृतं त्यजन्‌ ॥

    ४२॥

    यः--जो; त्वाम्‌--तुमको; विसृजते--छोड़ देता है; मर्त्य:--मरणशील मनुष्य; आत्मानमू--उसकी सही आत्मा; प्रियम्‌--सर्वप्रिय; ईश्वरम्‌-- भगवान्‌ को; विपर्यय--जो सर्वथा विपरीत हैं; इन्द्रिय-अर्थ--इन्द्रियविषयों के; अर्थम्‌--हेतु; विषम्‌ू--विषको; अत्ति--खाता है; अमृतम्‌--अमृत को; त्यजन्‌--त्यागते हुए।

    जो मर्त्य प्राणी अपने इन्द्रियविषयों के लिए, जिनका की स्वभाव सर्वथा विपरीत है,आपको, अर्थात्‌ उसकी असली आत्मा, सर्वप्रिय मित्र तथा स्वामी हैं, छोड़ देता है, वह अमृतछोड़ कर उसके बदले में विष-पान करता है।

    अहं ब्रह्माथ विबुधा मुनयश्चामलाशया: ।

    सर्वात्मना प्रपन्नास्त्वामात्मानं प्रेष्ठमी श्वरम्‌ ॥

    ४३ ॥

    अहम्‌--ैं; ब्रह्मा --ब्रह्मा; अथ--तथा; विबुधा:--देवतागण; मुनयः--मुनिगण; च--और; अमल--शुद्ध; आशया: --चेतनावाले; सर्व-आत्मना--हार्दिक रूप से; प्रपन्ना:--शरणागत; त्वाम्‌--तुमको; आत्मानम्‌--आत्मा; प्रेष्ठम--प्रियतम; ईश्वरम्‌-प्रभुको

    मैंने, ब्रह्मा ने, अन्य देवता तथा शुद्ध मन वाले मुनिगण--सभी लोगों ने पूर्ण मनोयोग सेआपकी शरण ग्रहण की है।

    आप हमारे प्रियतम आत्मा तथा प्रभु हैं।

    त॑ त्वा जगत्स्थित्युदयान्तहेतुसम॑ प्रसान्तं सुहृदात्मदैवम्‌ ।

    अनन्यमेकं॑ जगदात्मकेतंभवापवर्गाय भजाम देवम्‌ ॥

    ४४॥

    तम्‌--उसको; त्वा--तुम; जगत्‌--ब्रह्माण्ड के; स्थिति--पालन; उदय--उत्थान; अन्त--तथा मृत्यु; हेतुमू--कारण; समम्‌--समभाव; प्रशान्तम्‌--परम शान्त; सुहत्‌--मित्र; आत्म--आत्मा; दैवम्‌--तथा पूज्य स्वामी; अनन्यम्‌ू--अद्वितीय; एकम्‌--अनोखा; जगत्‌--जगतों के; आत्म--तथा सारे जीवों के; केतम्‌ू--आश्रय; भव--भौतिक जीवन के; अपवर्गाय--समाप्ति( मुक्ति ) के लिए; भजाम--हम पूजा करें; देवमू-- भगवान्‌ की |

    हे भगवन्‌, भौतिक जीवन से मुक्त होने के लिए हम आपकी पूजा करते हैं।

    आप ब्रह्माण्ड के पालनकर्ता और इसके सृजन तथा मृत्यु के कारण हैं।

    आप समभाव तथा पूर्ण शान्त, असलीमित्र, आत्मा तथा पूज्य स्वामी हैं।

    आप अद्वितीय हैं और समस्त जगतों तथा जीवों के आश्रय हैं।

    अयं ममेष्टो दयितोनुवर्तीमयाभयं दत्तममुष्य देव ।

    सम्पाद्यतां तद्धवतः प्रसादोयथा हि ते दैत्यपतौ प्रसाद: ॥

    ४५॥

    अयम्‌--यह; मम--मेरा; इष्ट:ः--कृपा किया हुआ; दयित:--अत्यन्त प्रिय; अनुवर्ती--अनुचर; मया--मेरे द्वारा; अभयम्‌--अभय; दत्तम्‌-दिया गया; अमुष्य--उसका; देव-हे प्रभु; सम्पाद्यताम्‌-- आप इसे प्रदान करें; तत्‌ू--इसलिए; भवतः --अपनी; प्रसाद:--कृपा; यथा--जिस तरह; हि--निस्सन्देह; ते--तुम्हारा; दैत्य--असुरों का; पतौ--प्रमुख ( प्रह्मद ) के लिए;प्रसाद:--कृपा |

    यह बाणासुर मेरा अति प्रिय तथा आज्ञाकारी अनुचर है और इसे मैंने अभयदान दिया है।

    अतएव हे प्रभु, इसे आप उसी तरह अपनी कृपा प्रदान करें जिस तरह आपने असुर-राज प्रह्लादपर कृपा दर्शाई थी।

    श्रीभगवानुवाच यदात्थ भगवंस्त्वं न: करवाम प्रियं तव ।

    भवतो यद्व्यवसितं तन्मे साध्वनुमोदितम्‌ ॥

    ४६॥

    श्री-भगवान्‌ उबाच-- भगवान्‌ ने कहा; यत्‌--जो; आत्थ--कहा है; भगवनू--हे प्रभु; त्वम्‌--तुमने; नः--हम पर; करवाम--हमें करना चाहिए; प्रियम्‌--सन्तोषप्रद, सुखकर; तब--तुम्हारा; भवत:ः--आपके द्वारा; यतू--जो; व्यवसितम्‌--निश्चित;तत्‌--वह; मे--मेरे द्वारा; साधु--उत्तम; अनुमोदितम्‌--सहमति व्यक्त की गईं।

    भगवान्‌ ने कहा : हे प्रभु, आपकी प्रसन्नता के लिए हमें अवश्य ही वह करना चाहिएजिसके लिए आपने हमसे प्रार्थना की है।

    मैं आपके निर्णय से पूरी तरह सहमत हूँ।

    अवध्योयं ममाप्येष वैरोचनिसुतोसुरः ।

    प्रह्मदाय वरो द॒त्तो न वध्यो मे तवान्वय: ॥

    ४७॥

    अवध्य:--जिसका वध नहीं किया जाये; अयम्‌--वह; मम--मेरे द्वारा; अपि--निस्संदेह; एष:--यह; वैरोचनि-सुत:--वैरोचनि( बलि ) का पुत्र; असुरः--असुर; प्रह्दाय--प्रहाद को; वर:--वर; दत्त:--दिया हुआ; न वध्य: --अवध्य; मे-- मेरे द्वारा;तव--तुम्हारा; अन्वयः--वंशज ।

    मैं वैरोचनि के इस असुर-पुत्र को नहीं मारूँगा क्योंकि मैंने प्रहाद महाराज को वर दिया हैकि मैं उसके किसी भी वंशज का वध नहीं करूँगा।

    दर्पोपशमनायास्य प्रवृकणा बाहवो मया ।

    सूदितं च बल॑ भूरि यच्च भारायितं भुवः ॥

    ४८ ॥

    दर्प--मिथ्या गर्व; उपशमनाय--दमन करने के लिए; अस्य--उसका; प्रवृक्णा:--काटे हुए; बाहवः-- भुजाएँ; मया-- मेरे द्वारा;सूदितम्‌--मारी गयी; च--तथा; बलम्‌--सेना; भूरि--विशाल; यत्‌--जो; च--तथा; भारायितमू्‌-- भार बन जाने से; भुवः--पृथ्वी के लिए

    मैंने बाणासुर के मिथ्या गर्व का दमन करने के लिए ही इसकी भुजाएँ काट दी हैं।

    और मैंनेइसकी विशाल सेना का वध किया है क्योंकि वह पृथ्वी पर भार बन चुकी थी।

    चत्वारोस्य भुजा: शिष्टा भविष्यत्यजरामरः ।

    पार्षदमुख्यो भवतो न कुतश्चिद्धयोउसुर: ॥

    ४९॥

    चत्वार:--चार; अस्य--इसकी; भुजा:--बाँहें; शिष्टा:--बची हुई; भविष्यति--होंगी; अजर--बूढ़ी न होने वाली; अमर: --तथा अमर; पार्षद--संगी; मुख्य:--प्रधान; भवत:--आपका; न कुतश्चित्‌ू-भयः--किसी भी तरह का इसे भय नहीं रहेगा;असुरः--असुर।

    यह असुर, जिसकी अभी भी चार बाँहें हैं अजर तथा अमर होगा और आपके प्रधान सेवकके रूप में सेवा करेगा।

    इस तरह उसे किसी प्रकार का भय नहीं रहेगा।

    इति लब्ध्वाभयं कृष्णं प्रणम्य शिरसासुरः ।

    प्राद्युम्नि रथमारोप्य सवध्वो समुपानयत्‌ ॥

    ५०॥

    इति--इस प्रकार; लब्ध्वा--पाकर; अभयम्‌--भय से मुक्ति; कृष्णम्‌--कृष्ण को; प्रणम्य--प्रणाम करके; शिरसा--सिर केबल; असुरः --असुर; प्रद्युम्निम्‌--प्रद्युम्न-पुत्र, अनिरुद्ध को; रथम्‌--अपने रथ पर; आरोप्य--बैठाकर; स-वध्व: --उसकीपत्नी सहित; समुपानयत्‌--उन्हें ले आया।

    इस तरह भयमुक्त होकर बाणासुर ने अपना माथा जमीन पर टेककर भगवान्‌ कृष्ण कोनमस्कार किया।

    तब बाण ने अनिरुद्ध तथा उसकी पत्नी को उनके रथ पर बैठाया और उन्हेंकृष्ण के सामने ले आया।

    अक्षौहिण्या परिवृतं सुवास:समलड्डू तम्‌ ।

    सपलीकं पुरस्कृत्य ययौ रुद्रानुमोदितः ॥

    ५१॥

    अक्षौहिण्या--पूरी अक्षौहिणी के द्वारा; परिवृतम्‌--घिरा; सु--सुन्दर; वास:--वस्त्र; समलड्डू तम्‌--तथा गहनों से सजा; स-पतलीकम्‌--पत्नी सहित अनिरुद्ध को; पुरः-कृत्य--सामने करके ; ययौ--वह ( कृष्ण ) गया; रुद्र--शिवजी से; अनुमोदित: --विदा लेकर

    तब भगवान्‌ कृष्ण ने अपनी टोली के आगे अनिरुद्ध तथा उसकी पत्नी को कर लिया।

    दोनों सुन्दर वस्त्रों तथा आभूषणों से खूब सजाये गये थे और उन्होंने उन दोनों को पूरी अक्षौहिणीसे घेर लिया।

    इस तरह भगवान्‌ कृष्ण ने शिव से विदा ली और प्रस्थान कर दिया।

    स्वराजधानीं समलड्डू तां ध्वजै:सतोरणैरुक्षितमार्गचत्वराम्‌ ।

    विवेश शद्भानकदुन्दुभिस्वनै-रभ्युद्यतः पौरसुहद्दूवजातिभि: ॥

    ५२॥

    स्व--अपनी; राजधानीम्‌--राजधानी को; समलड्डू तामू--पूरी तरह सजायी गयी; ध्वजै: --झंडियों से; स--तथा सहित;तोरणै:--विजय तोरणों; उक्षित--पानी से छिड़काव किये गये; मार्ग--जिसके रास्ते; चत्वराम्‌ू--तथा चौराहे; विवेश--प्रवेशकिया; शद्भ--शंख; आनक--ढोल; दुन्दुभि--तथा नगाड़ों की; स्वनै:--गूँज से; अभ्युद्यतः--सत्कार किया गया; पौर--नगरवासियों द्वारा; सुहत्‌-- अपने सम्बन्धियों द्वारा; द्विजातिभि:--तथा ब्राह्मणों द्वारा |

    तत्पश्चात्‌ भगवान्‌ अपनी राजधानी में प्रविष्ट हुए।

    नगर को झंडियों तथा विजय तोरणों सेखूब सजाया गया था और इसकी गलियों तथा चौराहों पर पानी छिड़कवाया गया था।

    ज्योंहीशंख, आनक तथा दुन्दुभियाँ गूँजने लगीं त्योंही भगवान्‌ के सम्बन्धी, ब्राह्मण तथा जनता केलोग उनका स्वागत करने के लिए आगे आये।

    य एवं कृष्णविजयं शट्डरेण च संयुगम्‌ ।

    संस्मरेत्प्रातरुत्थाय न तस्य स्यात्पराजय: ॥

    ५३॥

    यः--जो भी; एवम्‌--इस प्रकार; कृष्ण-विजयम्‌--कृष्ण की विजय को; शट्डरेण--शंकर के साथ; च--तथा; संयुगम्‌--युद्ध को; संस्मरेत्‌ू--स्मरण करता है; प्रातः--सुबह; उत्थाय--जाग कर; न--नहीं; तस्थ--उसकी; स्यात्‌--होगी; पराजय: --हार।

    जो भी व्यक्ति प्रातःकाल उठकर शिव के साथ युद्ध में कृष्ण की विजय का स्मरण करता हैउसे कभी भी पराजय का अनुभव नहीं करना होगा।

    TO

    अध्याय चौंसठ: राजा नृग का उद्धार

    10.64श्रीबादरायणिरुवाचएकदोपवनं राजन्जम्मुर्यदुकुमारका: ।

    विहर्तुसाम्बप्रद्युम्म चारुभानुगदादय: ॥

    १॥

    श्री-बादरायणि: --बादरायण के पुत्र ( शुकदेव गोस्वामी ) ने; उबाच--कहा; एकदा--एक दिन; उपवनमू--छोटे से जंगल में;राजनू--हे राजा ( परीक्षित ); जग्मु:--गये; यदु-कुमारका:--यदुवंश के बालक; विहर्तुमू--खेलने के लिए; साम्ब-प्रद्युम्न -चारु-भानु-गद-आदयः: --साम्ब, प्रद्युम्न, चारु, भानु, गद तथा अन्य |

    श्री बादरायणि ने कहा : हे राजा, एक दिन साम्ब, प्रद्यम्न, चारु, भानु, गद तथा यदुवंश केअन्य बालक खेलने के लिए एक छोटे से जंगल में गये।

    क्रीडित्वा सुचिरं तत्र विचिन्वन्त:ः पिपासिता: ।

    जल निरुदके कूपे दहशु: सत्त्वमद्भुतम्‌ ॥

    २॥

    क्रीडित्वा--खेल चुकने के बाद; सु-चिरम्‌--दीर्घकाल तक; तत्र--वहाँ; विचिन्वन्तः--ढूँढ़ते हुए; पिपासिता:--प्यासे;जलम्‌--जल; निरुदके--जलरहित; कूपे--कुएँ में; ददशु:--देखा; सत्त्वम्‌--जीव; अद्भुतम्‌-- अद्भुत |

    देर तक खेलते रहने के बाद उन्हें प्यास लगी।

    जब वे पानी की तलाश कर रहे थे तो उन्होंनेएक सूखे कुएँ के भीतर झाँका और उन्हें एक विचित्र सा जीव दिखा।

    कृकलासं गिरिनिभं वीक्ष्य विस्मितमानसा: ।

    तस्य चोद्धरणे यत्ल॑ चक्रुस्ते कृपयान्विता: ॥

    ३॥

    कृकलासम्‌--छिपकली, गिरगिट; गिरि--पर्वत; निभम्‌ू--सहश; वीक्ष्य--देखकर; विस्मित-- चकित; मानसा:--मनों वाले;तस्य--उसके ; च--तथा; उद्धरणे--बाहर निकालने का; यत्तम्‌-- प्रयास; चक्कु:--किया; ते--उन्होंने; कृपया अन्विता: --दयाभाव अनुभव करते हुए।

    लड़के इस जीव को, जो कि छिपकली थी और पर्वत जैसी दिख रही थी, देखकर विस्मितहो गए उन्हें उसके प्रति दया आ गई और वे उसे कुएँ से बाहर निकालने का प्रयास करने लगे।

    चर्मजैस्तान्तवै: पाशैर्बद्ध्वा पतितमर्भका: ।

    नाशबनुरन्समुद्धर्तु कृष्णायाचख्युरुत्सुका: ॥

    ४॥

    चर्म-जैः--चमड़े की बनी; तान्तवैः--तथा काते सूत की बनी; पाशैः--रस्सियों से; बद्ध्वा--बाँधकर; पतितम्‌--गिरे हुए जीवको; अर्भका:--लड़के; न अशक्नुरन्‌ू--समर्थ नहीं हो सके; समुद्धर्तुमु--बाहर निकालने में; कृष्णाय--कृष्ण को;आचख्यु:--सूचना दी; उत्सुका: --उत्तेजित

    उन्होंने वहाँ फँसी उस छिपकली को चमड़े की पट्टियों तथा सूत की रस्सियों से पकड़ा किन्तुफिर भी वे उसे बाहर नहीं निकाल सके।

    अतः वे कृष्ण के पास गये और उत्तेजित होकर उनसेउस जीव के विषय में बतलाया।

    तत्रागत्यारविन्दाक्षो भगवान्विश्वभावन: ।

    वीक्ष्योजहार वामेन तं करेण स लीलया ॥

    ५॥

    तत्र--वहाँ; आगत्य--जाकर; अरविन्द-अक्ष:--कमलनेत्रों वाले; भगवान्‌ू-- भगवान्‌ ने; विश्व--ब्रह्माण्ड के; भावन:--'पालनकर्ता; वीक्ष्य--देखकर; उजहार--ऊपर खींच लिया; वामेन--बाएँ; तम्‌--उसको; करेण--हाथ से; सः--वह;लीलया--आसानी से।

    ब्रह्माण्ड के पालनकर्ता कमलनेत्र भगवान्‌ उस कुएँ के पास गये और वहाँ वह छिपकलीदेखी।

    तत्पश्चात्‌ उन्होंने अपने बाएँ हाथ से उसे आसानी से बाहर निकाल लिया।

    स उत्तमःशलोककराभिमृष्टोविहाय सद्य: कृकलासरूपम्‌ ।

    सनन्‍्तप्तचामीकरचारुवर्ण:स्वर्ग्यद्धुतालड्डूरणाम्बरस्त्रक्‌ ॥

    ६॥

    सः--वह; उत्तम:-शलोक--यशस्वी भगवान्‌ के; कर--हाथ द्वारा; अभिमृष्ठट: --स्पर्श की गई; विहाय--छोड़कर; सद्यः --तुरन्त; कृकलास--छिपकली का; रूपम्‌--स्वरूप; सन्तप्त--पिघले; चामीकर--सोने के; चरु--सुन्दर; वर्ण: --रंग; स्वर्गी --स्वर्ग का निवासी; अद्भुत--विचित्र; अलड्डूरण--गहने; अम्बर--वस्त्र; स्रकू-तथा मालाएँ।

    यशस्वी भगवान्‌ के हाथों का स्पर्श पाते ही उस जीव ने तुरन्त अपना छिपकली का रूपत्याग दिया और स्वर्ग के वासी का रूप धारण कर लिया।

    उसका रंग पिघले सोने जैसा सुन्दर थाऔर वह अद्भुत गहनों, वस्त्रों तथा मालाओं से अलंकृत था।

    पप्रच्छ विद्वानपि तन्निदानंजनेषु विख्यापयितु मुकुन्दः ।

    कस्त्वं महाभाग वरेण्यरूपोदेवोत्तमं त्वां गणयामि नूनम्‌ ॥

    ७॥

    पप्रच्छ--पूछा; विद्वानू--भलीभाँति अवगत; अपि--यद्यपि; तत्‌--इसका; निदानमू--कारण; जनेषु--सामान्य लोगों में;विख्यापयितुम्‌--जनाने के लिए; मुकुन्दः--भगवान्‌ कृष्ण ने; क:--कौन; त्वम्‌--तुम; महा-भाग--हे भाग्यशाली; वरेण्य--सर्वोत्तम; रूप:--स्वरूप; देव-उत्तमम्‌--उत्तम देवता; त्वामू--तुमको; गणयामि--मैं मानता हूँ; नूनमू--निश्चय ही |

    भगवान्‌ कृष्ण परिस्थिति को समझ गये किन्तु सामान्य जनों को सूचित करने के लिएउन्होंने पूछा, 'हे महाभाग, आप कौन हैं ? आपके उत्तम स्वरूप को देखकर मैं सोच रहा हूँ किआप अवश्य ही कोई श्रेष्ठ देवता हैं।

    दशामिमां वा कतमेन कर्मणासम्प्रापितोस्यतदर्ह: सुभद्र ।

    आत्मानमाख्याहि विवित्सतां नोयन्मन्यसे नः क्षममत्र वक्तुम्‌ ॥

    ८॥

    दशाम्‌--दशा; इमामू--इस; वा--तथा; कतमेन--किस; कर्मणा--कर्म से; सम्प्रापित:--तक लाये गये; असि--तुम हो;अततू-अर्ह: --उसके पात्र नहीं; सु-भद्ग--हे महात्मा; आत्मानम्‌ू--अपने आप; आख्याहि--बतलाओ; विवित्सताम्‌--जानने केइच्छुक; न:ः--हमसे; यत्‌ू--यदि; मन्यसे--सोचते हो; नः--हमसे; क्षमम्‌--उचित; अत्र--यहाँ; वक्तुमू--कहना |

    'आप किस विगत कर्म से इस दशा को प्राप्त हुए? हे महात्मन, ऐसा लगता है कि आपऐसे भाग्य के योग्य नहीं थे।

    हम आपके विषय में जानना चाहते हैं अतः यदि आप हमें बतानेका यह समय तथा स्थान उचित समझते हों तो कृपा करके अपने विषय में बतलाइये।

    'श्रीशुक उबाचइति सम राजा सम्पृष्ट: कृष्णेनानन्तमूर्तिना ।

    माधवं प्रणिपत्याह किरीटेनार्कवर्चसा ॥

    ९॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; स्म--निस्सन्देह; राजा--राजा; सम्पृष्ठ: --पूछे जाने पर;कृष्णेन--कृष्ण द्वारा; अनन्त--अनन्त; मूर्तिना--स्वरूपों वाले; माधवम्‌--माधव को; प्रणिपत्य--प्रणाम करके; आह--वहबोला; किरीटेन--अपने मुकुट से; अर्क--सूर्य जैसी; वर्चसा--चमक से ।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस प्रकार अनन्त रूप कृष्ण द्वारा पूछे जाने पर सूर्य के समानचमचमाते मुकुट वाले राजा ने माधव को प्रणाम किया और वह इस प्रकार बोला।

    नृग उवाचनृगो नाम नरेन्‍्द्रोडहमिक्ष्वाकुतनयः प्रभो ।

    दानिष्वाख्यायमानेषु यदि ते कर्णमस्पृशम्‌ ॥

    १०॥

    नृग: उवाच--राजा नृग ने कहा; नृग: नाम--नृग नामक; नर-इन्द्र: --मनुष्यों के ऊपर शासन करने वाला; अहमू--मैं; इक्ष्वाकु-तनयः--इश्ष्वाकु पुत्र; प्रभो--हे प्रभु; दानिषु--दानियों में; आख्यायमानेषु--गिनती किये जानेवाले; यदि--शायद; ते--तुम्हारे; कर्णम्‌--कानों को; अस्पृशम्‌--मैंने छुआ हो

    राजा नृग ने कहा : मैं इक्ष्वाकु का पुत्र नृग नामक राजा हूँ।

    हे प्रभु, शायद आपने मेरे विषयमें तब सुना होगा जब दानी पुरुषों की सूची बाँची जा रही होगी।

    कि नु तेउविदितं नाथ सर्वभूतात्मसाक्षिण: ।

    'कालेनाव्याहतदृशो वक्ष्येथापि तवाज्ञया ॥

    ११॥

    किम्‌--क्या; नु--निस्सन्देह; ते--तुम्हें; अविदितम्‌-- अज्ञात; नाथ--हे स्वामी; सर्व--समस्त; भूत--जीवों के; आत्म--बुद्धधिके; साक्षिण:--साक्षी को; कालेन--समय द्वारा; अव्याहत--अविचल; दृशः--जिसकी दृष्टि; वक्ष्ये--मैं कहूँगा; अथ अपि--तो भी; तब--तुम्हारी; आज्ञया--आज्ञा से |

    है स्वामी, आपसे अज्ञात है ही क्या? आपकी दृष्टि काल द्वारा अविचलित है और आप सारेजीवों के मनों के साक्षी हैं।

    तो भी आपकी आज्ञा पाकर मैं कहूँगा।

    यावत्य: सिकता भूमेर्यावत्यो दिवि तारका: ।

    यावत्यो वर्षधाराश्व तावतीरददं सम गा: ॥

    १२॥

    यावत्य:--जितने; सिकता: --बालू के कण; भूमेः--पृथ्वी से सम्बन्धित; यावत्य:--जितने; दिवि-- आकाश में; तारका:--तारे; यावत्य:--जितनी; वर्ष--वर्षा की; धारा:--बूँदें; च--तथा; तावती:--उतनी ही; अददम्‌--मैंने दीं; स्म--निस्सन्देह;गाः-गौवें |

    मैंने दान में उतनी ही गौवें दीं जितने कि पृथ्वी पर बालू के कण हैं, आकाश में तारे हैं यावर्षा की बूंदें होती हैं।

    'पयस्विनीस्तरुणी: शीलरूप-गुणोपपन्ना: कपिला हेमसूड्री: ।

    न्यायार्जिता रूप्यखुरा: सवत्सादुकूलमालाभरणा ददावहम्‌ ॥

    १३॥

    'पयः-विनी: --दूधवाली; तरुणी:-- जवान; शील--- अच्छा आचरण; रूप--सौन्दर्य; गुण--तथा अन्य गुण; उपपन्ना:--सेयुक्त; कपिला:--भूरे रंग की; हेम--सोने के; श्रूड़ी:--सींगों वाली; न्‍्याय--न्यायपूर्वक; अर्जिता:--अर्जित की गईं; रूप्प--चाँदी के; खुरा:--खुरों वाली; स-वत्सा:--अपने बछड़ों सहित; दुकूल--सुन्दर वस्त्र; माला--मालाओं से; आभरणा:--विभूषित; ददौ--दिया; अहम्‌--मैंने |

    मैंने दान में जो बछड़ों सहित गौवें दीं वे जवान, भूरी, दूध देनेवाली थीं और अच्छे आचरणऔर सुन्दर तथा अच्छे गुणों से सम्पन्न थीं, जिन्हें ईमानदारी से अर्जित किया गया था तथा जिनकेसींग सोने से, खुर चाँदी से मढ़े थे और जो सुन्दर सजावटी बस्त्रों एवं मालाओं से अलंकृत थीं।

    स्वलड्डू ते भ्यो गुणशीलवद्भ्य:सीदत्कुटुम्बेभ्य ऋतव्रतेभ्य: ।

    तप: श्रुतब्रह्म वदान्यसद्‌ भ्य:प्रादां युवभ्यो द्विजपुड़वेभ्य: ॥

    १४॥

    गोभूहिरण्यायतना श्रहस्तिनःकन्या; सदासीस्तिलरूप्यशय्या: ॥

    वासांसि रत्नानि परिच्छदान्रथा-निष्ठं च यज्जै श्वरितं च पूर्तम्‌ ॥

    १५॥

    सु--अच्छी तरह; अलड्डू तेभ्य:--आभूषणों से सजाई गई; गुण--अच्छे गुण; शील--तथा चरित्र; बद्भ्य:--से युक्त; सीदत्‌--पीड़ित; कुट॒म्बेभ्य:--कुटुम्बियों को; ऋत--सत्य; ब्रतेभ्य:--समर्पित; तपः--तपस्या के लिए; श्रुत-- भलीभाँति परिचित;ब्रह्म--वेदों से; वदान्य--अत्यन्त विद्वान; सद्भ्य:--सन्‍्त स्वभाव वालों को; प्रादाम्‌--मैंने दिया; युवभ्य:--युवकों को;द्विज--ब्राह्मणों को; पुमू-गवेभ्य:--अतीव विशिष्ट; गो--गौवें; भू-- भूमि; हिरण्य--सोना; आयतन--घर; अश्व--घोड़े;हस्तिन:--तथा हाथी; कन्या: --विवाह योग्य पुत्रियाँ; स--सहित; दासी:--दासियाँ; तिल--तिल; रूप्य--चाँदी; शय्या: --तथा पलंग; वासांसि-- वस्त्र; रलानि--रत; परिच्छदानू-- गृह सामग्री; रथान्‌--रथ; इष्टम्‌--की गई पूजा; च--तथा; यज्जैः --अग्नि यज्ञों द्वारा; चरितम्‌--किया गया; च--तथा; पूर्तम्‌--पतवित्र कार्य |

    सर्वप्रथम मैंने दान प्राप्त करने वाले ब्राह्मणों को उत्तम आभूषणों से अलंकृत करकेसम्मानित किया।

    वे अतीव सम्मानित ब्राह्मण जिनके परिवार कष्ट में थे, युवक थे तथा उत्तमचरित्र और गुणों से युक्त थे।

    वे सत्यनिष्ठ, तपस्या के लिए विख्यात, वैदिक शास्त्रों में पारंगत तथा आचरण में साधुवत थे।

    मैंने उन्हें गौवें, भूमि, सोना, मकान, घोड़े, हाथी तथा दासी समेतविवाह के योग्य कुमारियाँ, तिल, चाँदी, सुन्दर शय्या, वस्त्र, रत्न, गृहसज्ञा-सामग्री तथा रथदान में दिये।

    इसके अतिरिक्त मैंने वैदिक यज्ञ किये और अनेक पवित्र कल्याण कार्य सम्पन्नकिये।

    कस्यचिद्दवजमुख्यस्य भ्रष्टा गौर्मम गोधने ।

    सम्पृक्ताविदुषा सा च मया दत्ता द्विजातये ॥

    १६॥

    'कस्यचित्‌--किसी; द्विज--ब्राह्मण की; मुख्यस्य--प्रमुख; भ्रष्टा--खोई हुई; गौः:--गाय; मम--मेरे; गो-धने --झुंड में;सम्पृक्ता--मिल जाने से; अविदुषा-- अनजान; सा--वह; च--तथा; मया--मेरे द्वारा; दत्ता--दी गई; द्वि-जातये--( दूसरे )ब्राह्मण को |

    एकबार किसी उत्तम ब्राह्मण की गाय भटक गई और मेरे झुंड में आ मिली।

    इससे अनजानहोने के कारण मैंने वह गाय किसी दूसरे ब्राह्मण को दान में दे दी।

    तां नीयमानां तत्स्वामी हृष्टोवाच ममेति तम्‌ ।

    ममेति परिग्राह्माह नृगो मे दत्तवानिति ॥

    १७॥

    ताम्‌ू--उस ( गाय ) को; नीयमानाम्‌--ले जाते हुए; तत्‌--उसका; स्वामी --मालिक; हृष्ठा --देखकर; उवाच--कहा; मम--मेरा; इति--इस प्रकार; तम्‌--उसको; मम--मेरी; इति--इस प्रकार; परिग्राही --दान लेने वाला; आह--कहा; नृग:--राजानृग ने; मे--मुझको; दत्तवानू--दिया; इति--इस प्रकार।

    जब गाय के पहले मालिक ने उसे ले जाते हुए देखा तो उसने कहा, 'यह मेरी है।

    ' दूसरेब्राह्मण ने जिसने उसे दान के रूप में स्वीकार किया था उत्तर दिया 'नहीं, यह तो मेरी है।

    इसेनृग ने मुझे दिया था।

    'विप्रौ विवदमानौ मामूचतु: स्वार्थसाधकौ ।

    भवान्दातापहर्तेति तच्छुत्वा मेभवद्भ्रम: ॥

    १८॥

    विप्रौ--दोनों ब्राह्मण; विवदमानौ--झगड़ते हुए; माम्‌--मुझसे; ऊचतु:--कहा; स्व--अपना; अर्थ--स्वार्थ; साधकौ--पूराकरते हुए; भवान्‌--आप; दाता--देने वाले; अपहर्ता--ले लेने वाले; इति--इस प्रकार; तत्‌--यह; श्रुत्वा--सुनकर; मे--मेरा;अभवत्‌--हो गया; भ्रम:--मोह ग्रस्त |

    दोनों ब्राह्मण झगड़ते हुए और उनमें से हरएक अपने प्रयोजन की पुरजोर कोशिश करताहुआ, मेरे पास आये।

    उनमें से एक ने कहा, 'आपने यह गाय मुझे दी' तथा दूसरे ने कहा,'किन्तु तुमने उसे मुझसे चुराया था।

    ' यह सुनकर मैं भ्रमीत हो गया।

    अनुनीताबुभौ विप्रौ धर्मकृच्छुगतेन वै ।

    गवां लक्ष॑ प्रकृष्टानां दास्याम्येषा प्रदीयताम्‌ ॥

    १९॥

    भवन्तावनुगृह्गीतां किल्लडरस्थाविजानतः ।

    समुद्धरतं मां कृच्छात्पतन्तं निरयेडशुचौ ॥

    २०॥

    अनुनीतौ--विनीत भाव से प्रार्थित; उभौ--दोनों; विप्रौ--ब्राह्मणों से; धर्म--धार्मिक कर्तव्य का; कृच्छुू--कठिन स्थिति;गतेन--( मेरे ) द्वारा, जो अन्दर था; बै--निस्सन्देह; गवामू--गौवों का; लक्षम्‌--एक लाख; प्रकृष्टानामू--उत्तम गुणों वाली;दास्यामि--मैं दूँगा; एघा--इस एक; प्रदीयताम्‌--दे दें; भवन्तौ--आप दोनों; अनुगृह्वीतामू--कृपा दिखलाते हुए; किड्डूरस्थ--अपने सेवक का; अविजानत:--अनजान; समुद्धरतम्‌--बचा लीजिये; माम्‌--मुझको; कृच्छात्‌--संकट से; पतन्तम्‌--गिरतेहुए; निरये--नरक में; अशुचौ--मलिन।

    इस स्थिति में अपने को कर्तव्य के घोर संकट में पाकर मैंने दोनों ब्राह्मणों से अनुनय-विनयकी 'मैं इस गाय के बदले एक लाख उत्तम गौवें दूँगा।

    कृपा करके उसे मुझे वापस कर दीजिये।

    आप अपने इस दास मुझपर कृपालु हों।

    मैं जो कर रहा था उससे अनजान था।

    मुझे इस कठिनस्थिति से बचा लें अन्यथा मैं निश्चित रूप से मलिन नरक में गिरूँगा।

    'नाहं प्रतीच्छे वै राजन्नित्युक्त्वा स्वाम्यपाक्रमत्‌ ।

    नान्यद्गवामप्ययुतमिच्छामीत्यपरो ययौ ॥

    २१॥

    न--नहीं; अहम्‌--मैं; प्रतीच्छे--चाहता हूँ; वै--निस्सन्देह; राजन्‌ू--हे राजन; इति--इस प्रकार; उक्‍्त्वा--कहकर; स्वामी --मालिक; अपाक्रमत्‌--चला गया; न--नहीं; अन्यत्‌--अतिरिक्त; गवाम्‌--गौवों के; अपि-- भी; अयुतम्‌--दस हजार;इच्छामि--चाहता हूँ; इति--ऐसा कहकर; अपर: --दूसरा ( ब्राह्मण ); ययौ--चला गया।

    गाय के इस मालिक ने कहा, 'हे राजन, मैं इस गाय के बदले में कुछ भी नहीं चाहता।

    'और वह चला गया।

    दूसरे ब्राह्मण ने घोषित किया, 'मैं दस हजार अधिक गौवें भी ( जितना तुमदे रहे हो उससे अधिक ) नहीं चाहता।

    ' और वह भी चला गया।

    एतस्मिन्नन्तरे यामैर्दूतिनीतो यमक्षयम्‌ ।

    यमेन पृष्टस्तत्राहं देवदेव जगत्पते ॥

    २२॥

    एतस्मिनू--इस; अन्तरे--अवसर में; यामैः--यमराज के; दूतैः--दूतों द्वारा; नीत:--ले जाया गया; यम-क्षयमू--यमराज केधाम तक; यमेन--यमराज द्वारा; पृष्ट:--पूछा गया; तत्र--वहाँ; अहम्‌--मैं; देव-देव--हे देवताओं के स्वामी; जगत्‌--ब्रह्माण्डके; पते--हे स्वामी |

    हे देवों के देव, हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, इस तरह उत्पन्न परिस्थिति से लाभ उठाकर यमराज केदूत बाद में मुझे यमराज के धाम ले गये।

    वहाँ स्वयं यमराज ने मुझसे पूछा।

    पूर्व त्वमशुभं भुड्क्ष उताहो नूपते शुभम्‌ ।

    नान्तं दानस्य धर्मस्य पश्ये लोकस्य भास्वतः ॥

    २३॥

    पूर्वमू--पहले; त्वम्‌ू--तुम; अशुभमू--अशुभ फल; भुड्क्षे--अनुभव करना चाहते हो; उत आह उ--या अन्य कुछ; नू-पते--हेराजा; शुभम्‌ू--शुभफल; न--नहीं; अन्तम्‌-- अन्त; दानस्य--दान का; धर्मस्थ--धार्मिक; पश्ये--मैं देखता हूँ; लोकस्य--जगत का; भास्वतः--चमकते हुए

    यमराज ने कहा हे राजा, सर्वप्रथम आप अपने पापों के फलों का अनुभव करना चाहतेहैं या अपने पुण्य का।

    निस्सन्देह मुझे न तो आपके द्वारा सम्पन्न कर्तव्यपूर्ण दान का अन्त दीखताहै, न ही उस दान के परिणामस्वरूप तेजपूर्ण स्वर्गलोक में आपके भोगों का।

    पूर्व देवाशुभं भुद्ज इति प्राह पतेति सः ।

    तावदद्वाक्षमात्मानं कृकलासं पतन्प्रभो ॥

    २४॥

    पूर्वमू--पहले; देव--हे प्रभु; अशुभम्‌--पापपूर्ण फल; भुञ्जे--अनुभव करूँगा; इति--ऐसा कहकर; प्राह--कहा; पत--नीचेगिरो; इति--इस प्रकार; सः--वह; तावत्‌--तभी; अद्वाक्षम्‌--मैंने देखा; आत्मानम्‌ू--अपने आपको; कृकलासम्‌--छिपकली;पतनू्‌-गिरते हुए; प्रभो--हे स्वामी |

    मैंने कहा : हे प्रभु, पहले मुझे अपने पापों का फल भोगने दें और यमराज बोले, तो नीचे गिरो।

    मैं तुरन्त नीचे गिरा और हे स्वामी, गिरते समय मैंने देखा कि मैं छिपकली बन गया हूँ।

    ब्रह्मण्यस्य वदान्यस्य तव दासस्य केशव ।

    स्मृतिर्नाद्यापि विध्वस्ता भवत्सन्दर्शनार्थिन: ॥

    २५॥

    ब्रह्मण्यस्य--ब्राह्मण भक्त; वदान्यस्य--उदार; तब--तुम्हारे; दासस्य--दास की; केशव--हे कृष्ण; स्मृतिः--स्मरणशक्ति;न--नहीं; अद्य--आज; अपि--तक; विध्वस्ता--विनष्ट; भवत्‌--आपके; सन्दर्शन--दर्शन का; अर्थिन:--इच्छुक |

    है केशव, मैं आपके दास रूप में ब्राह्मणों का भक्त था और उनके प्रति उदार था और मैंसदैव आपके दर्शन के लिए लालायित रहता था।

    इसीलिए आजतक मैं ( अपने विगत जीवनको ) नहीं भल पाया।

    स त्वं कथ्थ मम विभोड$क्षिपथ: परात्मायोगेश्वर: श्रुतिहशामलहद्विभाव्य: ।

    साक्षादधोक्षज उरुव्यसनान्थबुद्धेःस्यान्मेडनुदश्य इह यस्य भवापवर्ग: ॥

    २६॥

    सः--वह; त्वमू--तुम; कथम्‌--कैसे; मम--मेरा; विभो--हे सर्वशक्तिमान; अक्षि-पथ:--दृष्टिगोचर; पर-आत्मा--परमात्मा;योग--योग के; ईश्वरः--स्वामियों द्वारा; श्रुति-- श्रुतियों की; हशा--आँखों के द्वारा; अमल--निर्मल; हत्‌ू--उनके हृदयों केभीतर; विभाव्य:--ध्यान किये जाने योग्य; साक्षात्‌-- प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर; अधोक्षज--हे दिव्य प्रभु, जो इन्द्रियों से नहीं देखे जासकते; उरु--कठिन; व्यसन--कष्टों द्वारा; अन्ध--अन्धा; बुद्धेः--बुद्धिवाला; स्थात्‌ू--शायद हो; मे--मेंरे लिए; अनुदृश्य: --देखे जाने योग्य; इह--इस जगत में; यस्य--जिसका; भव-- भौतिक जीवन का; अपवर्ग:--अन्त |

    हे विभु! मैं आपको अपने समक्ष कैसे देख पा रहा हूँ ? आप तो परमात्मा हैं जिस पर बड़े सेबड़े योगेश्वर केवल वेद रूपी दिव्य आँख के द्वारा अपने शुद्ध हृदयों के भीतर ध्यान लगा सकतेहैं।

    तो हे दिव्य प्रभु, आप किस तरह मुझे प्रत्यक्ष दिख रहे हैं क्योंकि मेरी बुन्धि भौतिक जीवनके कठिन कष्टों से अन्धी हो चुकी है? जिसने इस जगत के भव-बन्धनों को समाप्त कर दियाहै, वही आपको देख सकता है।

    देवदेव जगन्नाथ गोविन्द पुरुषोत्तम ।

    नारायण हषीकेश पुण्यश्लोकाच्युताव्यय ॥

    २७॥

    अनुजानीहि मां कृष्ण यान्तं देवगतिं प्रभो ।

    यत्र क्वापि सतश्चेतो भूयान्मे त्वत्पदास्पदम्‌ ॥

    २८ ॥

    देव-देव--स्वामियों के स्वामी; जगत्‌--ब्रह्माण्ड के; नाथ--हे स्वामी; गो-विन्द--हे गौवों के स्वामी; पुरुष-उत्तम--हेपुरुषोत्तम; नारायण--हे समस्त जीवों के आधार; हृषीकेश--हे इन्द्रियों के स्वामी; पुण्य-शइलोक--हे दिव्य एलोकों द्वारा स्तुतिकिये जाने वाले; अच्युत--हे अच्युत; अव्यय--हे न बदलने वाले; अनुजानीहि--कृपया जाने दें; माम्‌ू--मुझको; कृष्ण--हेकृष्ण; यान्तम्‌--जाने वाले को; देव-गतिम्‌--देवताओं के लोक में; प्रभो--हे प्रभु; यत्र क्व अपि--जहाँ कहीं भी; सत:ः--रहतेहुए; चेत:--मन; भूयात्‌--हो; मे--मेरा; त्वत्‌--तुम्हारे; पद--पैरों की; आस्पदम्‌--शरण।

    हे देवदेव, जगन्नाथ, गोविन्द, पुरुषोत्तम, नारायण, हषीकेश, पुण्यश्लोक, अच्युत, अव्यय,है कृष्ण, कृपा करके मुझे अब देवलोक के लिए प्रस्थान करने की अनुमति दें।

    हे प्रभु, मैं जहाँभी रहूँ, मेरा मन सदैव आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करे।

    नमस्ते सर्वभावाय ब्रह्मणे उनन्तशक्तये ।

    कृष्णाय वासुदेवाय योगानां पतये नमः ॥

    २९॥

    नमः--नमस्कार; ते-- आपको; सर्व-भावाय--समस्त प्राणियों के स्त्रोत; ब्रह्मणे --परम सत्य को; अनन्त-- असीम; शक्तये--शक्ति वाले; कृष्णाय--कृष्ण को; वासुदेवाय--वसुदेव के पुत्र; योगानामू--योग की समस्त विधियों के; पतये--स्वामी को;नमः--नमस्कार

    हे वसुदेवपुत्र कृष्ण, मैं आपको बारम्बार नमस्कार करता हूँ आप समस्तजीवों के उद्गम हैं,परम सत्य हैं, अनन्त शक्तियों के स्वामी हैं और समस्त आध्यात्मिक प्रवर्गों के स्वामी हैं।

    इत्युक्त्वा तं परिक्रम्य पादौ स्पृष्ठा स्वमौलिना ।

    अनुज्ञातो विमानाछयमारुहत्पश्यतां नृणाम्‌ ॥

    ३०॥

    इति--इस प्रकार; उक्त्वा--कहकर; तम्‌ू--उनको; परिक्रम्य--परिक्रमा करके; पादौ--पाँवों को; स्पृष्टा--छूकर; स्व-- अपने;मौलिना--मुकुट से; अनुज्ञात:--विदा पाकर; विमान--दैवीयान पर; अछयम्‌--अत्युत्तम; आरुहतू--चढ़ गया; पश्यताम्‌--देखते देखते; नृणाम्‌-मनुष्यों के

    इस तरह कह कर महाराज नृग ने भगवान्‌ कृष्ण की परिक्रमा की और उनके चरणों परअपना मुकुट छुवाया तब विदाई की अनुमति पाकर वहाँ पर उपस्थित लोगों के देखते देखतेराजा नृग एक अदभुत स्वर्गिक विमान पर चढ़ गया कृष्ण: परिजन प्राह भगवान्देवकीसुतः ।

    ब्रह्मण्यदेवो धर्मात्मा राजन्याननुशिक्षयन्‌ ॥

    ३१॥

    कृष्ण:--कृष्ण ने; परिजनम्‌--निजी संगियों से; प्राह--बोले; भगवान्‌-- भगवान्‌; देवकी-सुत:--देवकी का पुत्र; ब्रहण्य--ब्राह्मण भक्त; देव:--ई श्वर; धर्म--धर्म का; आत्मा--आत्मा; राजन्यान्‌--राजसी वर्ग को; अनुशिक्षयन्‌ू--शिक्षा देने के लिए

    तब देवकी पुत्र, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ कृष्ण जो ब्राह्मणों के प्रति विशेष रूप से अनुरक्तहैं और जो साक्षात्‌ धर्म के सार हैं अपने निजी संगियों से बोले और इस प्रकार राजसी वर्ग कोशिक्षा दी।

    दुर्जरं बत ब्रह्मस्वं भुक्तमग्नेमनागपि ।

    तेजीयसोपि किमुत राज्ञां ईश्वररमानिनाम्‌ ॥

    ३२॥

    दुर्जम्‌--अपाच्य; बत--निस्सन्देह; ब्रह्य--ब्राह्मण की; स्वम्‌--सम्पत्ति; भुक्तम्‌-- भोगी गई; अग्ने:--अग्नि की अपेक्षा;मनाक्‌ू--रंच भर; अपि-- भी; तेजीयस:--तेजस्वी के लिए; अपि-- भी; किम्‌ उत--तो क्‍या कहा जाय; राज्ञामू--राजाओं के;ईश्वर--नियंत्रक; मानिनामू--मानने वाले

    भगवान्‌ कृष्ण ने कहा : एक ब्राह्मण की सम्पत्ति कितनी अपाच्य होती है, भले हीउसका रंचभर हो और अग्नि से भी अधिक तेजस्वी द्वारा उपभोग क्‍यों न किया जाय! तो फिरउन राजाओं के विषय में क्या कहा जाय जो अपने को स्वामी मानकर उसका भोग करना चाहतेहैं।

    नाह हालाहलं मन्ये विषं यस्य प्रतिक्रिया ।

    ब्रह्मस्वं हि विषं प्रोक्त नास्य प्रतिविधिर्भुवि ॥

    ३३॥

    न--नहीं; अहम्‌--मैं; हालाहलम्‌ू--हालाहल नामक विष जिसका पान शिवजी ने बिना नशे के प्रभाव से किया; मन्ये--मैंमानता हूँ; विषम्‌ू--विष; यस्थ--जिसका; प्रतिक्रिया--प्रभाव; ब्रह्म-स्वम्‌--ब्राह्मण की सम्पत्ति; हि--निस्सन्देह; विषम्‌--विष; प्रोक्तमू--कहा गया; न--नहीं; अस्य--इसका; प्रतिविधि: --उपचार, निराकरण; भुवि--संसार में

    मैं हालाहल को असली विष नहीं मानता क्योंकि इसका भी निराकरण हो जाता है, किन्तुब्राह्मण की सम्पत्ति चुराये जानो को असली विष कहा जा सकता है, क्योंकि इस संसार मेंइसका कोई उपचार नहीं है।

    हिनस्ति विषमत्तारं वह्विरद्धिः प्रशाम्यति ।

    कुलं समूलं दहति ब्रह्मस्वारणिपावक: ॥

    ३४॥

    हिनस्ति--नष्ट करता है; विषम्‌--विष को; अत्तारम्‌ू--निगलने वाले को; वह्िः--अग्नि; अद्धिः--जल से; प्रशाम्धति--बुझाईजाती है; कुलमू-- परिवार को; स-मूलम्‌ू--जड़ समेत; दहति--जलाती है; ब्रह्म-स्व-- ब्राह्मण की सम्पत्ति; अरणि---आगजलाने वाला काष्ठ; पावकः--अग्नि

    विष केवल उसी को मारता हैजो उसे निगलता है और सामान्य अग्नि को पानी से बुझायाजा सकता है किन्तु ब्राह्मण की सम्पत्ति रूपी अरणि से उत्पन्न अग्नि चोर के समस्त परिवार कोसमूल नष्ट कर देती है।

    ब्रह्मस्वं दुरनुज्ञातं भुक्त हन्ति त्रिपूरुषम्‌ ।

    प्रसह्य तु बलाद्भुक्तं दश पूर्वान्द्शापरान्‌ ॥

    ३५॥

    ब्रह्म-स्वम्‌--ब्राह्मण की सम्पत्ति; दुरनुज्ञातम्‌--समुचित अनुमति न दिये जाने पर; भुक्तम्‌-- भोगी गई; हन्ति--विनष्ट करती है;त्रि--तीन; पूरुषम्‌--व्यक्तियों को; प्रसहा--बलपूर्वक; तु--लेकिन; बलात्‌--बाह्य शक्ति ( सरकारी इत्यादि ) का प्रयोग करनेसे; भुक्तमू-- भोगी गई; दश--दस; पूर्वान्‌--पहले के; दश--दस; अपरान्‌--बाद के

    यदि कोई व्यक्ति बिना उचित अनुमति के ब्राह्मण की सम्पत्ति का भोग करता है, तो वहसम्पत्ति उस व्यक्ति की तीन पीढ़ियों तक को नष्ट कर देती है।

    किन्तु यदि वह इसे बलपूर्वक याराजकीय अथवा किसी बाहरी सहायता से छीन लेता है, तो उसके पूर्वजों की दस पीढ़ियाँ तथाउसके उत्तराधिकारियों की दस पीढ़ियाँ विनष्ट हो जाती हैं।

    राजानो राजलक्ष्म्यान्धा नात्मपातं विचक्षते ।

    निरयं येउभिमन्यन्ते ब्रह्मस्व॑ं साधु बालिशा: ॥

    ३६॥

    राजान:--राजपरिवार के सदस्य; राज--राजसी; लक्ष्म्या--ऐश्वर्य से; अन्धा: --अन्धे हुए; न--नहीं; आत्म--अपना; पातमू--पतन; विचक्षते--पहले से देख पाते हैं; निरयम्‌ू--नरक; ये--जो; अभिमन्यन्ते--लालायित रहते हैं; ब्रह्म-स्वम्‌ू--ब्राह्मण कीसम्पत्ति; साधु--उपयुक्त; बालिश:--बचकाना मूर्ख

    राजसी ऐश्वर्य से मदान्ध राजा अपना पतन पहले से देख पाने में असमर्थ रहते हैं।

    वे ब्राह्मणकी सम्पत्ति के लिए मूर्खतापूर्वक लालायित रहकर वास्तव में नरक जाने के लिए लालायितरहते हैं।

    गृह्न्ति यावतः पांशून्क्रन्दतामश्रुबिन्दव: ।

    विप्राणां हतवृत्तीनाम्वदान्यानां कुटुम्बिनामू ॥

    ३७॥

    राजानो राजकुल्याश्व तावतोब्दान्निर्डु शा: ।

    कुम्भीपाकेषु पच्यन्ते ब्रह्ददायापहारिण: ॥

    ३८॥

    गृहन्ति--स्पर्श करते हैं; यावत:--जितने; पांशून्‌ू--धूल के कण; क्रन्दताम्‌-क्रन्दन करते हुए; अश्रु-बिन्दवः --आँसू की बूँदें;विप्राणाम्‌--ब्राह्मणों के; हत--हरण की गई; वृत्तीनामू--जीविका के साधनों का; वदान्यानाम्‌--उदार; कुटुम्बिनाम्‌--परिवारके लोगों के; राजान:--राजालोग; राज-कुल्या: --राज परिवार के अन्य सदस्य; च--भी; तावत: --उतने; अब्दान्‌ू--वर्षों तक;निरद्भु शा:--अनियंत्रित; कुम्भी-पाकेषु--कुम्भीपाक नामक नरक में; पच्यन्ते--पकाये जाते हैं; ब्रह्म-दाय--ब्राह्मण के हिस्सेका; अपहारिण: --अपहरण करने वाले

    जिनके ऊपर आश्रित परिवार हो तथा जिनकी सम्पत्ति हड़प ली गई हो, ऐसे उदारचेताब्राह्मणों के आँसुओं से धूल के जितने कणों का स्पर्श होता है, उतने वर्षों तक वे अनियंत्रितराजा, जो ब्राह्मण की सम्पत्ति को हड़प लेते हैं, अपने राज परिवारों के साथ कुम्भीपाक नामकनर्क में भुने जाते हैं।

    स्वदत्तां परदत्तां वा ब्रह्मवृत्ति हरेच्च यः ।

    षष्टिवर्षसहस्त्राणि विष्ठायां जायते कृमि: ॥

    ३९॥

    स्व--अपने द्वारा; दत्तामू--दिया गया; पर--दूसरे के द्वारा; दत्तामू--दिया गया; वा--अथवा; ब्रह्म-वृत्तिमू-- ब्राह्मण कीसम्पत्ति; हरेत्‌ू--चुराता है; च--तथा; य:ः--जो; षष्टि--साठ; वर्ष--वर्षों तक; सहस्त्राणि--हजारों; विष्ठायाम्‌--मल में;जायते--उत्पन्न होता है; कृमिः--कीट

    चाहे अपना दिया दान हो या किसी अन्य का, जो व्यक्ति किसी ब्राह्मण की सम्पत्ति कोचुराता है, वह साठ हजार वर्षों तक मल में कीट के रूप में जन्म लेगा न मे ब्रह्मधनं भूयाद्यद्‌्गृध्वाल्पायुषो नरा: ।

    पराजिताश्च्युता राज्याद्धवन्त्युद्वेजिनोउहहय: ॥

    ४०॥

    न--नहीं; मे--मुझको; ब्रह्म--ब्राह्मणों की; धनम्‌--सम्पत्ति; भूयात्‌ू--चाहे जो हो; यत्‌--जो; गृध्वा--इच्छा करके; अल्प-आयुष:--अल्पायु; नराः--मनुष्यगण;; पराजिता: -- पराजित; च्युता:--विहीन; राज्यातू--राज्य से; भवन्ति--हो जाते हैं;उद्देजिन:--कष्ट पहुँचाने वाले; अहयः --सर्प

    मैं ब्राह्मणों की सम्पत्ति की कामना नहीं करता जो इसका लोभ करते हैं उनकी आयु क्षीणहोती है और वे पराजित होते हैं, वे अपने राज्य खो देते हैं और दुसरों को कष्ट पहुँचाने वाले सर्पबनते हैं।

    विप्र॑ं कृतागसमपि नैव द्रह्मत मामकाः ।

    घ्नन्तं बहु शपन्तं वा नमस्कुरुत नित्यशः ॥

    ४१॥

    विप्रमू--विद्वान ब्राह्मण के प्रति; कृत--किया गया; आगसम्‌--पाप; अपि-- भी; न--नहीं; एव--निस्सन्देह; द्रह्मत--शत्रु कीतरह व्यवहार करते हैं; मामका: --हे मेरे अनुयायियो; घ्नन्तम्‌--शारीरिक प्रहार करते हुए; बहु--बारम्बार; शपन्तम्‌--शाप देतेहुए; वा--अथवा; नम:ः-कुरुत--तुम्हें नमस्कार करना चाहिए; नित्यश:--सदैव

    हे मेरे अनुयायियो, तुम कभी भी विद्वान ब्राह्मण के साथ कठोर व्यवहार न करो, भले हीउसने पाप क्‍यों न किये हों।

    यदि वह तुम्हारे शरीर पर वार भी करे या बारम्बार तुम्हें शाप दे तोभी उसे नमस्कार करते रहो यथाहं प्रणमे विप्राननुकालं समाहित: ।

    तथा नमत यूयं च योउन्यथा मे स दण्डभाक्‌ ॥

    ४२॥

    यथा--जिस तरह; अहम्‌--मैं; प्रणमे--प्रणाम करता हूँ; विप्रान्‌--ब्राह्मणों को; अनु-कालम्‌--सर्वदा; समाहित: --सावधानीके साथ; तथा--उसी तरह; नमत--नमस्कार करना चाहिए; यूयम्‌--तुम सबों को; च-- भी; यः--जो; अन्यथा-- अन्यथा;मे--मेरे द्वारा; स:ः--वह; दण्ड--दण्ड का; भाक्‌-- भागी

    जिस तरह मैं सदैव ध्यान रखते हुए ब्राह्मणों को नमस्कार करता हूँ उसी तरह तुम सबों कोचाहिए कि उन्हें नमस्कार करो।

    जो कोई भी अन्यथा कर्म करता है, उसे मैं दण्ड देता हूँ ब्राह्मणार्थों ह्पहतो हर्तारें पातयत्यधः ।

    अजानन्तमपि होन॑ नृगं ब्राह्मणगौरिव ॥

    ४३॥

    ब्राह्मण--ब्राह्मण की; अर्थ: --सम्पदा; हि--निस्सन्देह; अपहत:ः--हरण की गई; हर्तारम्‌--लेने वाले को; पातयति--गिरादिया जाता है; अध:--नीचे; अजानन्तमू--अनजाने में; अपि-- भी; हि--निस्सन्देह; एनम्‌--इस; नृगम्‌--राजा नृग को;ब्राह्षण--ब्राह्मण की; गौ:--गाय; इब--सहृश

    जब किसी ब्राह्मण की सम्पत्ति अनजाने में भी चुराई जाती है, तो उस व्यक्ति को निश्चितरूप से पतित होना पड़ता है, जिस तरह ब्राह्मण की गाय से नृग को पतित होना पड़ा एवं विश्राव्य भगवान्मुकुन्दो द्वारकौकसः ।

    पावन: सर्वलोकानां विवेश निजमन्दिरम्‌ ॥

    ४४॥

    एवम्‌--इस प्रकार; विश्राव्य--सुनाकर; भगवान्‌-- भगवान्‌; मुकुन्द:--कृष्ण; द्वारका-ओकसः--द्वारकावासियों को;'पावन:--शुद्ध करने वाले; सर्ब--सभी; लोकानाम्‌--लोकों के; विवेश--प्रविष्ट हुए; निज--अपने; मन्दिरम्‌ू--महल में

    इस तरह से द्वारका निवासियों को उपदेश देने के बाद, समस्त लोकों को पवित्र करने वालेभगवान्‌ मुकुन्द अपने महल में प्रविष्ट हुए।

    TO

    अध्याय पैंसठ: भगवान बलराम का वृन्दावन भ्रमण

    10.65श्रीशुक उबाचबलभद्र: कुरुश्रेष्ठ भगवात्रथमास्थित: ।

    सुहद्दिहिक्षुरुत्कण्ठ: प्रययौ नन्दगोकुलम्‌ ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; बलभद्र:--बलराम; कुरु- श्रेष्ट--हे कुरुओं में श्रेष्ठ ( राजा परीक्षित ); भगवान्‌--भगवान्‌; रथम्‌-- अपने रथ में; आस्थित:--सवार; सुहृत्‌ू--शुभचिन्तक मित्रों को; दिदृदक्षु:ः--देखने की इच्छा से; उत्कण्ठ:--उत्सुक; प्रययौ--यात्रा की; नन्द-गोकुलम्‌--नन्द महाराज के गोकुल-ग्राम की

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे कुरुश्रेष्ठ, एक बार अपने शुभचिन्तक मित्रों को देखने केलिए उत्सुक भगवान्‌ बलराम अपने रथ पर सवार हुए और उन्होंने नन्द गोकुल की यात्रा की।

    परिष्वक्तश्चिरोत्कण्ठैगोंपिगोपीभिरेव च ।

    रामोभिवाद्य पितरावाशीभिरभिनन्दित: ॥

    २॥

    परिष्वक्त:--आलिंगन किया हुआ; चिर--दीर्घकाल से; उत्कण्ठै:--चिन्तित; गोपैः --ग्वालों के द्वारा; गोपीभि:--गोपियों केद्वारा; एव--निस्सन्देह; च-- भी; राम:-- बलराम; अभिवाद्य--अभिवादन करके; पितरौ--अपने माता-पिता ( नन्‍्द तथायशोदा ) को; आशीर्भि: --प्रार्थनाओं से; अभिनन्दित:--हर्षपूर्वक सत्कार किया हुआ।

    दीर्घकाल से वियोग की चिन्ता सह चुकने के कारण गोपों तथा उनकी पत्नियों ने बलरामका आलिंगन किया।

    तब बलराम ने अपने माता-पिता को प्रणाम किया और उन्होंने स्तुतियोंद्वारा बलराम का हर्ष के साथ सत्कार किया।

    चिरं नः पाहि दाशाई सानुजो जगदी श्वरः ।

    इत्यारोप्याड्डूमालिड्ग्य नेत्रै: सिषिचतुर्जलै: ॥

    ३॥

    चिरम्‌--दीर्घकाल से; न:--हमारी; पाहि--रक्षा करें; दाशाह--हे दशाई वंशज; स--सहित; अनुज: --तुम्हारे छोटे भाई के;जगत्‌--ब्रह्माण्ड के; ईश्वरः--स्वामी; इति--ऐसा कह कर; आरोप्य--उठाकर; अड्जम्‌-- अपनी गोद में; आलिड्ग्य--आलिंगनकरके; नेत्रै:--आँखों के; सिषिचतु:--सिक्त कर दिया; जलै:ः--जल से

    नन्द तथा यशोदा ने प्रार्थना की : 'हे दशाई वंशज, हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, तुम तथातुम्हारे छोटे भाई कृष्ण सदैव हमारी रक्षा करते रहो।

    यह कह कर उन्होंने श्री बलराम कोअपनी गोद में उठा लिया, उनका आलिंगन किया और अपने नेत्रों के आँसुओं से उन्हें सिक्त करदिया।

    गोपवृद्धांश्व विधिवद्यविष्ठैरभिवन्दित: ।

    यथावयो यथासख्य॑ यथासम्बन्धमात्मन: ॥

    ४॥

    समुपेत्याथ गोपालान्हास्यहस्तग्रहादिभि: ।

    विश्रान्तम्सुखमासीन पप्रच्छु: पर्युपागता: ॥

    ५॥

    पृष्टाश्चानामयं स्वेषु प्रेमगद्गदया गिरा ।

    कृष्णे कमलपत्राक्षे सन्यस्ताखिलराधस: ॥

    ६॥

    गोप--्वालों के ; वृद्धानू--गुरुजन; च--तथा; विधि-वत्‌-- वैदिक आदेशों के अनुसार; यविष्ठै: --छोटों के द्वारा;अभिवन्दितः--आदर पूर्वक सत्कार किया; यथा-वय:--आयु के अनुसार; यथा-सख्यम्‌--मैत्री के अनुसार; यथा-सम्बन्धम्‌--पारिवारिक सम्बन्ध के अनुसार; आत्मन:--अपने से; समुपेत्य--पास जाकर; अथ--तब; गोपालानू--ग्वालों को; हास्य--मुसकानों से; हस्त-ग्रह--उनके हाथ लेकर; आदिभि:--इत्यादि द्वारा; विश्रान्तम्‌--विश्राम किया; सुखम्‌--सुखपूर्वक;आसीनमू--बैठकर; पप्रच्छु:--पूछा; पर्युपागता: --चारों ओर एकत्र होकर; पृष्टा:--पूछा; च--तथा; अनामयमू--स्वास्थ्य केविषय में; स्वेषु--उनके मित्रों के बारे में; प्रेम--प्रेमवश; गद्गदया--रूक रुककर; गिरा--वाणी से; कृष्णे--कृष्ण के लिए;कमल--कमल की; पत्र--पंखड़ी ( जैसी ); अक्षे--आँखों वाले; सन्न्यस्त--समर्पित करके; अखिल--समस्त; राधस:--भौतिक सम्पत्ति

    तब बलराम ने अपने से बड़े ग्वालों के प्रति समुच्चित सम्मान प्रकट किया तथा जो छोटे थेउन्होंने उनका सादर-सत्कार किया।

    वे आयु, मैत्री की कोटि तथा पारिवारिक सम्बन्ध केअनुसार हरएक से हँसकर, हाथ मिलाकर स्वयं मिले।

    तत्पश्चात्‌ विश्राम कर लेने के बाद उन्होंनेसुखद आसन ग्रहण किया और सारे लोग उनके चारों ओर एकत्र हो गये।

    उनके प्रति प्रेम से रुद्धवाणी से उन ग्वालों ने, जिन्होंने कमल-नेत्र कृष्ण को सर्वस्व अर्पित कर दिया था, अपने( द्वारका के ) प्रियजनों के स्वास्थ्य के विषय में पूछा।

    बदले में बलराम ने ग्वालों की कुशल-मंगल के विषय में पूछा।

    कच्चिन्नो बान्धवा राम सर्वे कुशलमासते ।

    कच्चित्स्मरथ नो राम यूयं दारसुतान्विता: ॥

    ७॥

    कच्चित्‌ू--क्या; नः--हमारे; बान्धवा:--सम्बन्धी; राम--हे बलराम; सर्वे--सभी; कुशलम्‌--ठीक से; आसते--हैं;कच्चित्‌--क्या; स्मरथ--स्मरण करते हैं; नः--हमको; राम--हे राम; यूयम्‌--तुम सभी; दार--पत्नियों; सुत--तथा पुत्रों;अन्विता:--सहित |

    ग्वालों ने कहा : हे राम, हमारे सारे सम्बन्धी ठीक से तो हैं न? और हे राम क्या तुम सभीलोग अपनी पत्नियों तथा पुत्रों सहित अब भी हमें याद करते हो ?

    दिष्टय्या कंसो हतः पापो दिष्टद्या मुक्ता: सुहज्जना: ।

    निहत्य निर्जित्य रिपून्दिष्टया दुर्ग समाश्रीता: ॥

    ८ ॥

    दिष्टयया-- भाग्य से; कंस:ः--कंस; हत:ः--मारा गया; पाप:--पापी; दिछ्टएया-- भाग्य से; मुक्ता: --मुक्त हुए; सुहृत्‌-जना:--प्रियसम्बन्धी; निहत्य--मार कर; निर्जित्य--जीत कर; रिपूनू--शत्रुओं को; दिछ्या-- भाग्यवश; दुर्गम्‌-दुर्ग या किले में;समाश्रीता:--शरण ले ली है।

    यह हमारा परम सौभाग्य है कि पापी कंस मारा जा चुका है और हमारे प्रिय सम्बन्धी मुक्त होचुके हैं।

    हमारा यह भी सौभाग्य है कि हमारे सम्बन्धियों ने अपने शत्रुओं को मार डाला है औरपराजित कर दिया है तथा एक विशाल दुर्ग में पूर्ण सुरक्षा प्राप्त कर ली है।

    गोप्यो हसन्त्यः पप्रच्छू रामसन्दर्शनाहता: ।

    कच्चिदास्ते सुखं कृष्ण: पुरस्त्रीजनवललभः ॥

    ९॥

    गोप्य:--तरुण गोपियों ने; हसन्त्य:--हँसती हुई; पप्रच्छ:--पूछा; राम--बलराम से; सन्दर्शन--साक्षात्‌ दर्शन द्वारा; आहता:--आदरित; कच्चित्‌ू-- क्या; आस्ते--रह रहा है; सुखम्‌--सुखपूर्वक; कृष्ण:--कृष्ण; पुर--नगर के; स्त्री-जन--स्त्रियों के;वलल्‍लभ:--प्राणप्रिय |

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : भगवान्‌ बलराम के साक्षात्‌ दर्शन से गौरवान्वित हुईगोपियों ने हँसते हुए उनसे पूछा, 'नगर की स्त्रियों के प्राणप्रिय कृष्ण सुखपूर्वक तो हैं?

    'कच्चित्स्मरति वा बन्धून्पितरं मातरं च सः ।

    अप्यसौ मातरं द्रष्ट सकृदप्यागमिष्यति ।

    अपि वा स्मरतेउस्माकमनुसेवां महाभुज: ॥

    १०॥

    'कच्चित्‌--क्या; स्मरति--स्मरण करता है; वा--अथवा; बन्धूनू-- अपने परिवार के सदस्यों को; पितरम्‌--पिता को;मातरम्‌--अपनी माता को; च--तथा; सः--वह; अपि-- भी; असौ--स्वयं; मातरम्‌-- अपनी माता को; द्रष्टभ्‌--देखने केलिए; सकृतू--एक बार; अपि-- भी; आगमिष्यति-- आयेगा; अपि--निस्सन्देह; वा--अथवा; स्मरते--स्मरण करता है;अस्माकम्‌--हमारी; अनुसेवाम्‌--स्थिर सेवा; महा--बलशाली; भुज:--भुजाओं वाला

    क्या वे अपने परिवार वालों को, विशेषतया अपने माता-पिता को याद करते हैं? क्‍याआपके विचार में वे अपनी माता को एक बार भी देखने वापस आयेंगे ? और क्या बलशालीभुजाओं वाले कृष्ण हमारे द्वारा सदा की गई सेवा का स्मरण करते हैं ?

    मातरं पितरं भ्रातृन्पतीन्पुत्रान्स्वसूनपि ।

    यदर्थ जहिम दाशाई दुस्त्यजान्स्वजनान्प्रभो ॥

    ११॥

    ता नः सद्यः परित्यज्य गतः सज्छिन्नसौहदः ।

    कथ॑ नु ताहशं स्त्रीभिर्न श्रद्धीयेत भाषितम्‌ ॥

    १२॥

    मातरम्‌--माता को; पितरम्‌-पिता को; भ्रातृनू-- भाइयों को; पतीन्‌--पतियों को; पुत्रान्‌--पुत्रों को; स्वसून्‌ू--बहनों को;अपि--भी; यत्‌--जिनके; अर्थ--लिए; जहिम--हमने छोड़ दिया; दाशाह--हे दशाईवंशी; दुस्त्यजानू--त्याग पाना कठिन;स्व-जनान्‌--अपने ही लोगों को; प्रभो--हे प्रभु; ताः--उन्हीं स्त्रियों को; नः--हम; सद्य;ः --सहसा; परित्यज्य--त्याग कर;गतः--चले गये; स्छिन्न--तोड़ कर; सौहृदः--मित्रता; कथम्‌--कैसे; नु--निस्सन्देह; ताहशम्‌--ऐसा; स्त्रीभि:--स्त्रियों द्वारा;न श्रद्धीयेत--विश्वास नहीं किया जायेगा; भाषीतम्‌--कहे गये शब्द

    हे दाशाई, हमने कृष्ण की खातिर अपनी माताओं, पिताओं, भाइयों, पतियों, पुत्रों तथाबहनों का भी परित्याग कर दिया यद्यपि इन पारिवारिक सम्बन्धों का परित्याग कर पाना कठिनहै।

    किन्तु हे प्रभु, अब उन्हीं कृष्ण ने सहसा हम सबों को त्याग कर हमारे साथ के समस्त स्नेह-बन्धनों को तोड़ दिया है और वे चले गये हैं।

    और ऐसे में कोई स्त्री उनके वादों पर कैसे विश्वासकर सकती है ?

    कथ्थ॑ नु गृहन्त्यनवस्थितात्मनोबच: कृतघ्नस्य बुधाः पुरस्त्रियः ।

    गृहन्ति वै चित्रकथस्य सुन्दर-स्मितावलोकोच्छुसितस्मरातुरा: ॥

    १३॥

    कथम्‌-कैसे; नु--निस्सन्देह; गृह्न्ति--स्वीकार करती हैं; अनवस्थित--अस्थिर; आत्मन:--हृदय वाले के; वच:--शब्द;कृत-ध्नस्य--कृतघ्न का; बुधा:--बुद्धिमान; पुर--नगर की; स्त्रियः--स्त्रियाँ; गृहन्ति--स्वीकार करती हैं; बै--निस्सन्देह;चित्र--आश्चर्यजनक; कथस्य--कथाओं के; सुन्दर--सुन्दर; स्मित--हँसती हुई; अवलोक--तिरछी नजरों से; उच्छुसित--पुनःजीवन प्रदान की गई; स्मर--काम-वासना द्वारा; आतुरा:--विश्लुब्ध, चंचल।

    'नगर की बुद्धिमान स्त्रियाँ ऐसे व्यक्ति के वचनों पर कैसे विश्वास कर सकती हैं जिसकाहृदय इतना अस्थिर है और जो इतना कृतघ्न है? वे उन पर इसलिए विश्वास कर लेती थीं क्योंकिवे इतने अद्भुत ढंग से बोलते हैं और उनकी सुन्दर हँसी से युक्त चितवनें काम-वासना जगा देतीहैं।

    कि नस्तत्कथया गोप्य: कथा: कथयतापरा: ।

    यात्यस्माभिरविना कालो यदि तस्य तथेव नः ॥

    १४॥

    किम्‌--क्या ( लाभ ); न:--हमारे लिए; तत्‌--उसके विषय में; कथया--विचार-विमर्श से; गोप्य:--हे गोपियो; कथा: --कथाएँ; कथयत--कृपा करके कहो; अपरा:--अन्य; याति--बीतता है; अस्माभि:--हमारे; विना--बिना; काल:--समय;यदि--यदि; तस्य--उसका; तथा एव--उसी विधि से; न:--हमारा |

    हे गोपियो, उनके विषय में बातें करने में क्‍यों पड़ी हो? कृपा करके किसी अन्य विषय परबात चलाओ।

    यदि वे हमारे बिना अपना समय बिता लेते हैं, तो हम भी उसी तरह से ( उनकेबिना ) अपना समय बिता लेंगी।

    इति प्रहसितं शौरेर्जल्पितं चारुवीक्षितम्‌ ।

    गतिं प्रेमपरिष्वड़ं स्मरन्त्यो रुरुदु: स्त्रिय: ॥

    १५॥

    इति--इस प्रकार कह कर; प्रहसितम्‌-- अट्टहास; शौरे: -- भगवान्‌ कृष्ण का; जल्पितम्‌ू--मोहक बातचीत; चारु--आकर्षक;वीक्षितम्‌-चितवनें; गतिम्‌--चाल; प्रेम--प्रेममय; परिष्वड्रमू-- आलिंगन; स्मरन्त्य:--स्मरण करती हुईं; रुरुदु;--चिल्लाञ्ठीं $ स्त्रियः--स्त्रियाँ |

    ये शब्द कहती हुईं तरूण गोपियों को भगवान्‌ शौरि की हँसी, अपने साथ उनकी मोहकबातें, उनकी आकर्षक चितवनें, उनके चलने का ढंग तथा उनके प्रेमपूर्ण आलिंगनों का स्मरणहो आया।

    इस तरह वे सिसकने लगीं।

    सड्डूर्षणस्ता: कृष्णस्य सन्देशैईदयंगमैः: ।

    सान्त्वयामास भगवाजन्नानानुनयकोविद: ॥

    १६॥

    सड्डूर्षण: --परम आकर्षण वाले, बलराम ने; ता:--उनको; कृष्णस्य--कृष्ण के; सन्देशै:--गुप्त सन्देश से; हृदयम्‌ू--हृदयको; गमै: --स्पर्श करते; सान्त्वयाम्‌ आस--ढाढ़स बँधाया; भगवान्‌-- भगवान्‌; नाना--अनेक प्रकार के; अनुनय--बीच-बचाव में; कोविद: --पटु |

    सबों को आकृष्ट करने वाले भगवान्‌ बलराम ने नाना प्रकार से समझाने-बुझाने में पटु होनेके कारण, गोपियों को भगवान्‌ कृष्ण द्वारा उनके साथ भेजे हुए गुप्त सन्देश सुनाकर उन्हें धीरजबँधाया।

    ये सन्देश गोपियों के हृदयों को भीतर तक छू गये।

    द्वौ मासौ तत्र चावात्सीन्मधुं माधवं एव च ।

    रामः क्षपासु भगवान्गोपीनां रतिमावहन्‌ ॥

    १७॥

    द्वौ--दो; मासौ--माह; तत्र--वहाँ ( गोकुल में ); च--तथा; अवात्सीत्‌--निवास किया; मधुम्‌--मधु ( चैत्र ); माधवम्‌--माधव ( वैशाख ); एव--निस्सन्देह; च-- भी; राम:--बलराम; क्षपासु--रातों में; भगवान्‌-- भगवान्‌; गोपीनाम्‌--गोपियों को;रतिम्‌--माधुर्य सुख; आवहनू्‌--लाते हुए

    भगवान्‌ बलराम वहाँ मधु चैत्र तथा माधव वैशाख दो मास तक रहे और रात में अपनीगोपिका-मित्रों को माधुर्य आनन्द प्रदान करते रहे।

    पूर्णचन्द्रकलामृष्टे कौमुदीगन्धवायुना ।

    यमुनोपवतने रेमे सेविते स्त्रीगणैर्वृत: ॥

    १८ ॥

    पूर्ण--पूर्ण; चन्द्र--चन्द्रमा की; कला--किरणों से; मृष्ट--नहलाई, स्नात; कौमुदी--कुमुदिनी की, जो चाँदनी पाकर खिलतीहै; गन्ध--सुगन्ध ( ले जाने वाली ); वायुना--हवा से; यमुना--यमुना नदी के; उपवने--उद्यान में; रेमे--रमण किया;सेविते--सेवित; स्त्री--स्त्रियों से; गणैः--अनेक; वृतः--घिरे हुए।

    अनेक स्त्रियों के संग भगवान्‌ बलराम ने यमुना नदी के तट पर एक उद्यान में रमण किया।

    यह उद्यान पूर्ण चन्द्रमा की किरणों से नहलाया हुआ था और रात में खिली कुमुदिनियों कीसुगन्ध ले जाने वाली मन्द वायु के द्वारा स्पर्शित था।

    वरुणप्रेषिता देवी वारुणी वृक्षकोटरात्‌ ।

    पतन्‍्ती तद्वनं सर्व स्वगन्धेनाध्यवासयत्‌ ॥

    १९॥

    वरुण--समुद्र के देवता वरुण द्वारा; प्रेषिता-- भेजी गई; देवी--दैवी; वारुणी--वारुणी शराब; वृक्ष--पेड़ के; कोटरातू--खोखले छिद्र से; पतन्ती--बह निकली; तत्‌--उस; वनम्‌--जंगल को; सर्वम्‌--सारे; स्व--अपनी; गन्धेन--सुगन्ध से;अध्यवासयत्‌--- अधिक सुगन्धित बना दिया।

    वरुण देव द्वारा भेजी गयी दैवी वारुणी मदिरा एक वृक्ष के खोखले छिद्र से बह निकलीऔर अपनी मधुर गन्ध से सारे जंगल को और अधिक सुगन्धित बना दिया।

    त॑ गन्ध॑ मधुधाराया वायुनोपहतं बल: ।

    आप्रायोपगतस्तत्र ललनाभि: समं॑ पपौ ॥

    २०॥

    तम्‌--उस; गन्धम्‌--सुगन्ध को मधु--शहद की » धाराया:-- धारा का; वायुना--वायु द्वारा; उपहतम्‌--पास लाई गई » बल:--बलराम; आप्राय--सूँघ कर; उपगत:--पास जाकर; तत्र--वहाँ; ललनाभि: --तरुण स्त्रियों के; समम्‌--साथ; पपौ--पिया |

    वायु उस मधुर पेय की धारा की सुगन्ध को बलराम के पास ले गई और जब उन्होंने उसेसूँघा तो वे ( वृक्ष के पास ) गये।

    वहाँ उन्होंने तथा उनकी संगिनियों ने उसका पान किया।

    उपगीयमानो गन्धर्वेरवनिताशोभिमण्डले ।

    रेमे करेणुयूथेशो माहेन्द्र इब वारण: ॥

    २१॥

    उपगीयमान:ः--गीतों के द्वारा प्रशंसित; गन्धर्वैं:--गन्धर्वो द्वारा; वनिता--युवतियों द्वारा; शोभि--सुशोभित; मण्डले--गोले में;रैमे--रमण किया; करेणु--हथनियों के; यूथ--झुंड के; ईशः --स्वामी; माहा-इन्द्र: --इन्ध के; इब--सहृश; वारण: --हाथी( ऐरावत )

    जब गन्धर्वगण उनका यशोगान कर रहे थे तो भगवान्‌ बलराम तरुण स्त्रियों के तेजोमयवृत्त के मध्य रमण कर रहे थे।

    वे इन्द्र के शानदार हाथी ऐरावत, जो हथनियों के झुंड में रमणकर रहा हो की तरह लग रहे थे।

    नेदुर्दुन्दुभयो व्योम्नि ववृषु: कुसुमैर्मुदा ।

    गन्धर्वा मुनयो राम॑ तद्वीयैरीडिर तदा ॥

    २२॥

    नेदु:--ध्वनि करने लगीं; दुन्दुभय: --दुन्दुभियाँ; व्योग्नि--आकाश् में; ववृषु:--वर्षा की; कुसुमैः --फूलों से; मुदा--हर्षपूर्वक;गन्धर्वा:--गश्धर्वों ने; मुन॒बः--मुनियों ने; राममू--बलराम की; तत्ू-वीर्यं: --उनके बीरतापूर्ण कार्यों समेत; ईडिरे-- प्रशंसा की;तदा--तब

    उस समय आकाश में दुन्दुभियाँ बजने लगीं, गन्धर्वों ने प्रसन्नतापूर्वक फूलों की वर्षा कीऔर मुनियों ने भगवान्‌ बलराम के वीरतापूर्ण कार्यो की प्रशंसा की।

    उपगीयमानचरितो वनिताभिहलायुध ।

    वनेषु व्यचरत्क्षीवो मदविहललोचन: ॥

    २३॥

    उपगीयमान--गायी जाकर; चरितः--उनकी लीलाएँ; वनिताभि:--स्त्रियों सहित; हलायुध:--बलराम; वनेषु--वनों के बीच;व्यचरत्‌--घूमने लगे; क्षीव:--चूर; मद--नशे में; विहल--पराजित; लोचन:--आँखें |

    जब उनके कार्यों का गान हो रहा था, तो हलायुध मदोन्मत्त जैसे होकर अपनी संगिनियों केसंग विविध जंगलों में घूम रहे थे।

    उनकी आँखें नशे में चूर थीं।

    स्रग्व्येककुण्डलो मत्तो वैजयन्त्या च मालया ।

    बिश्रत्स्मितमुखाम्भोजं स्वेदप्रालेयभूषितम्‌ ।

    स आजुहाव यमुनां जलक्रीडार्थमी श्वर: ॥

    २४॥

    निजं वाक्यमनाहत्य मत्त इत्यापगां बल: ।

    अनागतां हलाग्रेण कुपितो विचकर्ष ह ॥

    २५॥

    सत्रकू-वी--माला धारण किये; एक--एक; कुण्डल:--कुण्डल; मत्त:--हर्ष से उन्मत्त; वैजयन्त्या--वैजयन्ती नामक; च--तथा; मालया--माला से; बिभ्रतू--प्रदर्शित करते हुए; स्मित--हँसता हुआ; मुख--उसका मुख; अम्भोजमू--कमल सहश;स्वेद--पसीने का; प्रालेय--बर्फ के साथ; भूषितम्‌ू--अलंकृत; सः--उसने; आजुहाव--बुलाया; यमुनाम्‌--यमुना नदी को;जल--जल में; कृईंडा--खेलने के; अर्थम्‌--हेतु; ई श्वः-- भगवान्‌; निजम्‌--अपने; वाक्यम्‌--शब्द; अनाहत्य-- अनादरकरके; मत्त:--उन्मत्त; इति--इस प्रकार ( सोचते हुए ); आप-गाम्‌ू--नदी को; बल:--बलराम ने; अनागताम्‌--न आती हुई;हल--अपने हल के; अग्रेण--अगले भाग या नोक से; कुपित:--क्रुद्ध; विचकर्ष ह--खींचा |

    हर्ष से उन्मत्त बलराम फूल-मालाओं से खेल रहे थे।

    इनमें सुप्रसिद्ध वैजयन्ती मालासम्मिलित थी।

    वे कान में एक कुण्डल पहने थे और उनके मुसकान-भरे कमल-मुख पर पसीनेकी बूँदें इस तरह सुशोभित थीं मानो बर्फ के कण हों।

    तब उन्होंने यमुना को बुलाया जिससे वेउसके जल में क्रीडा कर सकें किन्तु उसने उनके आदेश की उपेक्षा इसलिए कर दी क्योंकि वेमदोन्मत्त थे।

    इससे बलराम क्रुद्ध हो उठे और वे अपने हल की नोक से नदी को खींचने लगे।

    पापे त्वं मामवज्ञाय यन्नायासि मयाहुता ।

    नेष्ये त्वां लाडुलाग्रेण शतधा कामचारिणीम्‌ ॥

    २६॥

    पापे--रे पापिनी; त्वमू--तुम; मामू--मेरा; अवज्ञाय--अनादर करके; यत्‌--क्योंकि; न आयासि--नहीं आती हो; मया--मेरेद्वारा; आहुता--बुलाई गई; नेष्ये--मैं लाऊँगा; त्वामू-तुमको; लाडुल--अपने हल की; अग्रेण--नोक से; शतधा--सौ भागोंमें; काम--स्वेच्छा से; चारिणीम्‌--चलने वाली |

    बलराम ने कहा : मेरा अनादर करने वाली पापिनी! तुम मेरे बुलाने पर न आकर केवलमनमाने चलने वाली हो।

    अतः मैं अपने हल की नोक से सौ धाराओं के रूप में तुम्हें यहाँ लेआऊँगा।

    एवं निर्भ््सिता भीता यमुना यदुनन्दनम्‌ ।

    उवाच चकिता वाचं पतिता पादयो्नुप ॥

    २७॥

    एवम्‌--इस प्रकार; निर्भ््सिता--फटकारी गई; भीता--डरी हुईं; यमुना--यमुना नदी की अधिष्ठात्री देवी; यदु-नन्दनम्‌--यदुके प्रिय वंशज बलराम से; उवाच--बोली; चकिता--काँपती हुई; वाचम्‌--शब्द; पतिता--गिरी हुई; पादयो:--पाँवों पर;नृप--हे राजा ( परीक्षित )

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजनू, बलराम द्वारा इस प्रकार फटकारी जाकर डरी हुईंयमुनादेवी आईं और यदुनन्दन बलराम के चरणों पर गिर पड़ीं।

    काँपते हुए उसने उनसेनिम्नलिखित शब्द कहे।

    राम राम महाबाहो न जाने तब विक्रमम्‌ ।

    यस्यैकांशेन विधृता जगती जगतः पते ॥

    २८॥

    राम राम--हे राम, राम; महा-बाहो--हे विशाल भुजाओं वाले; न जाने--मैं नहीं जानती; तव--तुम्हारा; विक्रमम्‌--पराक्रम;यस्य--जिसका; एक--एक; अंशेन-- अंश से; विधृता-- धारण की गई; जगती--पृथ्वी; जगत:--ब्रह्माण्ड के; पते--हेस्वामी

    यमुनादेवी ने कहा : हे विशाल भुजाओं वाले राम, हे राम, मैं आपके पराक्रम के बारे मेंकुछ भी नहीं जानती।

    हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, आप अपने एक अंशमात्र से पृथ्वी को धारण किएहुए हैं।

    परं भावं भगवतो भगवन्मामजानतीम्‌ ।

    मोक्तुमहसि विश्वात्मन्प्रपन्नां भक्तवत्सल ॥

    २९॥

    'परमू--परम; भावम्‌--पद को; भगवतः -- भगवान्‌ का; भगवन्‌--हे भगवान्‌; माम्‌--मुझको; अजानतीम्‌--न जानती हुई;मोक्तुम्‌ अहंसि--कृपया छोड़ दें; विश्व--ब्रह्माण्ड के; आत्मन्‌ू--हे आत्मा; प्रपन्नामू--शरणागत; भक्त--अपने भक्तों पर;बत्सल--हे दयालु |

    हे प्रभु, आप मुझे छोड़ दें।

    हे ब्रह्माण्ड के आत्मा, मैं भगवान्‌ के रूप में आपके पद को नहींजानती थी किन्तु अब मैं आपकी शरण में हूँ और आप अपने भक्तों पर सदैव दयालु रहते हैं।

    ततो व्यमुझ्द्यमुनां याचितो भगवान्बल: ।

    विजगाह जल स्त्रीभि: करेणुभिरिवेभराट्‌ ॥

    ३०॥

    ततः--तब; व्यमुझ्नत्‌ू--छोड़ दिया; यमुनाम्‌--यमुना को; याचितः--याचना करती हुई; भगवान्‌-- भगवान्‌; बल:--बलराम;विजगाह--घुस गये; जलम्‌--जल में; स्त्रीभि:--स्त्रियों के साथ; करेणुभि:--अपनी हथनियों के साथ; इब--सहृश; इभ--हाथियों के; राटू--राजा |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : तब बलराम ने यमुना को छोड़ दिया और जिस तरह हाथियोंका राजा अपनी हथनियों के झुण्ड के साथ जल में प्रवेश करता है उसी तरह वे अपनी संगिनियोंके साथ नदी के जल में प्रविष्ट हुए।

    काम विहृत्य सलिलादुत्तीर्णायासीताम्बरे ।

    भूषणानि महाहाणि ददौ कान्तिः शुभां सत्रजम्‌ ॥

    ३१॥

    कामम्‌--इच्छानुसार; विहत्य--क्रीड़ा कर चुकने के बाद; सलिलात्‌ू--जल से; उत्तीर्णाय--बाहर निकले हुए को; असित--नीला; अम्बरे--कपड़ों की जोड़ी ( ऊपर तथा नीचे के ); भूषणानि--गहने; महा--अत्यधिक; अर्हाणि--मूल्यवान; ददौ--दिया; कान्ति:--देवी कान्ति; शुभाम्‌--अतीव सुन्दर; स्त्रजमू--गले का हार।

    बलराम ने जी भरकर जल-क्रीड़ा की और जब वे बाहर निकले तो देवी कान्ति ने उन्हें नीलेवस्त्र, मूल्यवान आभूषण तथा चमकीला गले का हार भेंट किया।

    वसित्वा वाससी नीले मालां आमुच्य काझ्ननीम्‌ ।

    रेये स्वलड्डू तो लिप्तो माहेन्द्र इब वारण: ॥

    ३२॥

    वसित्वा--पहन कर; वाससी--वस्त्रों की जोड़ी; नीले--नीले रंग की; मालामू--गले का हार; आमुच्य--पहन कर;काझ्ननीम्‌--सुनहली; रेजे--शोभायमान हो रहे थे; सु--सुन्दर; अलड्डू तः--आभूषित; लिप्त:--लेप किया; माहा-इन्द्र: --महेन्द्र का; इब--सहृश; वारण: --हाथी |

    भगवान्‌ बलराम ने नीले वस्त्र पहने और गले में सुनहरा हार डाल लिया।

    सुगन्धियों सेलेपित और सुन्दर ढंग से अलंकृत होकर वे इन्द्र के हाथी जैसे सुशोभित हो रहे थे।

    अद्यापि हृश्यते राजन्यमुनाकृष्टवर्त्मना ।

    बलस्यानन्तवीर्यस्य वीर्य सूचयतीव हि ॥

    ३३॥

    अद्य--आज; अपि-- भी; दृश्यते--देखी जाती है; राजन्‌ू--हे राजा ( परीक्षित ); यमुना--यमुना नदी; आकृष्ट--खींची हुई;वर्त्मना--धाराओं से; बलस्य--बलराम के; अनन्त-- असीम; वीर्यस्य--बल के; वीर्यम्‌--पराक्रम; सूचयती--सूचित करतीहुई; इब--मानो; हि--निस्सन्देह |

    हे राजनू, आज भी यह देखा जा सकता है कि किस तरह यमुना अनेक धाराओं में होकरबहती है, जो असीम बलशाली बलराम द्वारा खींचे जाने पर बन गई थीं।

    इस प्रकार यमुना उनकेपराक्रम को प्रदर्शित करती है।

    एवं सर्वा निशा याता एकेव रमतो ब्रजे ।

    रामस्याक्षिप्तचित्तस्य माधुर्यत्रजयोषिताम्‌ ॥

    ३४॥

    एवम्‌--इस प्रकार; सर्वा--सभी; निशा: --रातें; याता:--बीत गईं; एका--एक; इब--मानो; रमत:--रमण करते हुए; ब्रजे--ब्रज में; रामस्थ--बलराम के; आक्षिप्त--मोहित; चित्तस्य--चित्त का; माधुरयैं: -- अद्वितीय सौन्दर्य से; ब्रज-योषितामू--व्रजकी स्त्रियों के

    इस तरह बलराम के लिए सारी रातें ब्रज में रमण करते करते एक रात की तरह बीत गईं।

    उनका मन ब्रज की तरुण स्त्रियों की अद्वितीय माधुरी से मोहित था।

    TO

    अध्याय छियासठ: पौंड्रक, झूठा वासुदेव

    10.66श्रीशुक उवाचनन्दब्रजं गते रामे करूषाधिपतिनूप ।

    वासुदेवोहमित्यज्ञोदूतं कृष्णाय प्राहिणोत्‌ ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; नन्द--महाराज नन्द के; ब्रजम्‌-ग्वालों के ग्राम की ओर; गते--चले जाने पर;रामे--बलराम के; करूष-अधिपति:--करूष के शासक ( पौण्ड्क ) ने; नृप--हे राजा ( परीक्षित ); वासुदेव: --भगवान्‌,वबासुदेव; अहम्‌--मैं; इति--इस प्रकार सोचते हुए; अज्ञ:--मूर्ख; दूतम्‌ू--संदेशवाहक को; कृष्णाय--भगवान्‌ कृष्ण के पास;प्राहिणोतू-- भेजा

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजनू, जब बलराम नन्द के ग्राम ब्रज को देखने गये हुए थेतो करूष के राजा ने मूखर्तापूर्वक यह सोचकर कि 'मैं भगवान्‌ वासुदेव हूँ' भगवान्‌ कृष्ण केपास अपना दूत भेजा।

    त्वं वासुदेवो भगवानवतीऋनो जगत्पति: ।

    इति प्रस्तोभितो बालैमेन आत्मानमच्युतम्‌ ॥

    २॥

    त्वमू--तुम; वासुदेव: --वासुदेव; भगवान्‌-- भगवान्‌; अवतीर्ण:--अवतरित; जगत्‌--ब्रह्माण्ड के; पति: --स्वामी; इति--इसप्रकार; प्रस्तोभित:--चापलूसी में आकर, बहकावे में आकर; बालैः--बचकाने मनुष्यों द्वारा; मेने--उसने कल्पना की;आत्मानम्‌--अपने को; अच्युतम्‌--अच्युत भगवान्‌)

    पौण्ड्क मूर्ख लोगों की चापलूसी में आ गया जिन्होंने उससे कहा, 'तुम भगवान्‌ वासुदेवहो और ब्रह्माण्ड के स्वामी के रूप में अब पृथ्वी में अवतरित हुए हो।

    ' इस तरह वह अपनेआपको भगवान्‌ अच्युत मान बैठा।

    दूतं च प्राहिणोन्मन्दः कृष्णायाव्यक्तवर्त्मने ।

    द्वारकायां यथा बालो नृपो बालकृतोबुध: ॥

    ३॥

    दूतम्‌--दूत को; च--तथा; प्राहिणोत्‌-- भेजा; मन्द: --मन्द बुद्धि; कृष्णाय--कृष्ण के पास; अव्यक्त--अकथ्य; वर्त्मने--जिसका मार्ग; द्वारकायाम्‌ू-द्वारका में; यथा--जिस तरह; बाल:--बालक; नृप:--राजा; बाल--बालकों द्वारा; कृत:--बनाया गया; अबुध: --मूर्ख ।

    अतएव उस मन्द बुद्धि पौण्ड्रक ने अव्यक्त भगवान्‌ कृष्ण के पास द्वारका में एक दूत भेजा।

    पौण्डुक ऐसे मूर्ख बालक की तरह आचरण कर रहा था जिसे अन्य बालक राजा मान लेते हैं।

    दूतस्तु द्वारकामेत्य सभायामास्थितं प्रभुम्‌ ।

    कृष्णं कमलपत्राक्षं राजसन्देशमब्रवीत्‌ ॥

    ४॥

    दूतः--सन्देशवाहक ने; तु--तब; द्वारकाम्‌-द्वारका में; एत्य--पहुँच कर; सभायाम्‌--राजसभा में; आस्थितम्‌--उपस्थित;प्रभुमू--सर्वशक्तिमान स्वामी; कृष्णम्‌--कृष्ण से; कमल--कमल की; पत्र--पंखुड़ियों ( सहश ); अक्षम्‌--आँखों वाले;राज--अपने राजा का; सन्देशम्‌--सन्देश; अब्नवीत्‌ू--कहा |

    द्वारका पहुँचने पर दूत ने कमल-नेत्र कृष्ण को उनकी राजसभा में उपस्थित पाया।

    उसनेराजा का सन्देश उन सर्वशक्तिमान प्रभु को कह सुनाया।

    वासुदेवोवतती्नों हमेक एव न चापरः ।

    भूतानामनुकम्पार्थ त्वं तु मिथ्याभिधां त्यज ॥

    ५॥

    वासुदेव:--वासुदेव; अवतीर्ण:--इस जगत में अवतरित हुआ; अहम्‌--मैं; एकः एव--एकमात्र; न--नहीं; च--तथा;अपरः--दूसरा कोई; भूतानामू--जीवों पर; अनुकम्पा--दया दिखाने के ; अर्थम्‌-हेतु; त्वमू--तुम; तु--किन्तु; मिथ्या--झूठा;अभिधाम्‌--उपाधि; त्यज--छोड़ दो |

    पौण्ड्रक की ओर से दूत ने कहा : मैं ही एकमात्र भगवान्‌ वासुदेव हूँ और दूसरा कोईनहीं है।

    मैं ही इस जगत में जीवों पर दया दिखलाने के लिए अवतरित हुआ हूँ।

    अतः तुम अपनाझूठा नाम छोड़ दो।

    यानि त्वमस्मच्चिह्ननि मौद्याद्विभर्षि सात्वत ।

    त्यक्त्वैहि मां त्वं शरणं नो चेद्देहि ममाहवम्‌ ॥

    ६॥

    यानि--जिन; त्वम्‌ू--तुम; अस्मत्‌--हमारे; चिह्नानि--प्रतीकों को; मौढ्यात्‌--मूढ़तावश; बिभर्षि-- धारण करते हो; सात्वत--हे सात्वतों में प्रमुख; त्यक्त्वा--छोड़ कर; एहि--आओ; माम्‌--मेरी; त्वमू--तुम; शरणम्‌--शरण के लिए; न--नहीं; उ--अन्यथा; चेत्‌--यदि; देहि--दो; मम--मुझको; आहवमू--युद्ध

    हे सात्वत, तुम मेरे निजी प्रतीकों को छोड़ दो जिन्हें इस समय तुम मूर्खतावश धारण करतेहो और आकर मेरी शरण लो।

    यदि तुम ऐसा नहीं करते तो मुझसे युद्ध करो।

    श्रीशुक उवाचकत्थनं तदुपाकर्ण्य पौण्ड्रकस्याल्पमेधस: ।

    उग्रसेनादय: सभ्या उच्चकैर्जहसुस्तदा ॥

    ७॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; कत्थनम्‌ू--शेखी बघारने, डींग हाँकने को; तत्‌--उस; उपाकर्णय्य --सुनकर;पौण्ड्रकस्य--पौण्ड्रक की; अल्प--छोटी; मेधस:--बुद्धि वाले; उग्रसेन-आदय: --राजा उग्रसेन इत्यादि; सभ्या:--सभा केसदस्य; उच्चकै:--जोरों से; जहसु:--हँसने लगे; तदा--तब

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब अज्ञानी पौण्ड्रक की इस व्यर्थ की डींग को राजा उग्रसेनतथा सभा के अन्य सदस्यों ने सुना तो वे जोर-जोर से हँसने लगे।

    उवाच दूत॑ भगवान्परिहासकथामनु ।

    उत्स्रक्ष्ये मूढ चिह्नानि यैस्त्वमेवं विकत्थसे ॥

    ८॥

    उवाच--कहा; दूतम्‌-दूत से; भगवान्‌-- भगवान्‌; परिहास--हँसी-मजाक; कथाम्‌--वाद-विवाद के; अनु--बाद;उत्स्रक्ष्ये--मैं फेंक दूँगा; मूढ--हे मूर्ख; चिह्नानि--प्रतीक; यैः--जिनके बारे में; त्वमू--तुम; एवम्‌--इस तरह से; विकत्थसे--डींग मार रहे हो।

    सभा के हँसी-मजाक का आनन्द लेने के बाद भगवान्‌ ने दूत से ( अपने स्वामी को सूचितकरने के लिए ) कहा, रे मूर्ख! मैं निस्सनदेह उन हथियारों को फेंक दूँगा जिनके विषय में तुमइस तरह डींग मार रहे हो।

    मुखं तदपिधायाज्ञ कड्डगृश्नवटै्वृत: ।

    शयिष्यसे हतस्तत्र भविता शरणं शुनाम्‌ ॥

    ९॥

    मुखम्‌--मुख को; तत्‌--उस; अपिधाय--ढक कर; अज्ञ-रे अज्ञानी; कड्डू--चील्हों; गृक्ष--गीधों; बटै: --वट पक्षियों से;बृतः--घिरा; शयिष्यसे-- तुम सो जाओगे; हतः--मारे हुए; तत्र--तत्पश्चात्‌; भविता--तुम बनोगे; शरणम्‌--आश्रय; शुनाम्‌--कुत्तों के |

    'रे मूर्ख! जब तुम मारे जाओगे और तुम्हारा मुख गीधों, चील्हों तथा वट पक्षियों से ढकारहेगा तो तुम कुत्तों का आश्रय-स्थल बनोगे।

    '!इति दूतस्तमाक्षेपं स्वामिने सर्वमाहरत्‌ ।

    कृष्णोपि रथमास्थाय काशीमुपजगाम ह ॥

    १०॥

    इति--इस प्रकार कह कर; दूतः--दूत; तम्‌--उन; आक्षेपम्‌--अपमानों को; स्वामिने--अपने स्वामी के प्रति; सर्वम्‌--पूर्णतः;आहरत्‌--ले गया; कृष्ण:--कृष्ण; अपि--तथा; रथम्‌--अपने रथ पर; आस्थाय--सवार होकर; काशीम्‌--वाराणसी;उपजगाम ह--के निकट गये।

    जब भगवान्‌ इस तरह बोल चुके तो उनके अपमानपूर्ण उत्तर को उस दूत ने अपने स्वामी केपास जाकर पूरी तरह कह सुनाया।

    तब भगवान्‌ कृष्ण अपने रथ पर सवार हुए और काशी केनिकट गये।

    पौण्ड्रकोपि तदुद्योगमुपलभ्य महारथः ।

    अक्षौहिणीभ्यां संयुक्तो निश्चक्राम पुराददूरतम्‌ ॥

    ११॥

    पौण्डूक:--पौण्ड्क; अपि--तथा; तत्‌--उसका; उद्योगम्‌--तैयारी; उपलभ्य--देखकर; महा-रथ: --बलशाली योद्धा;अक्षौहिणीभ्याम्‌--दो अक्षौहिणियों द्वारा; संयुक्त:--साथ हो लिए; निश्चक्राम--बाहर गया; पुरात्‌ू--नगर से; द्रुतम्‌--तुरन्त |

    भगवान्‌ कृष्ण द्वारा युद्ध की तैयारी को देखते हुए बलशाली योद्धा पौण्ड्रक तुरन्त ही दोअक्षौहिणी सेना के साथ नगर के बाहर निकल आया।

    तस्य काशीपतिर्मित्रं पार्णिगग्राहोन्वयान्रूप ।

    अक्षौहिणीभिस्तिसृभिरपश्यत्पौण्ड्रकं हरि: ॥

    १२॥

    शद्जार्यसिंगदाशार्ड्श्रीवत्साद्युपलक्षितम्‌ ।

    बिश्राणं कौस्तुभमरणिं वनमालाविभूषितम्‌ ॥

    १३॥

    'कौशेयवाससी पीते वसानं गरुडध्वजम्‌ ।

    अमूल्यमौल्याभरणं स्फुरन्मकरकुण्डलम्‌ ॥

    १४॥

    तस्य--उसका ( पौण्ड्रक का ); काशी-पतिः --काशी का स्वामी; मित्रम्‌--मित्र; पार्णिण-ग्राह: --पीछे से रक्षक के रूप में;अन्वयात्‌--पीछे पीछे गया; नृप--हे राजा ( परीक्षित ); अक्षौहिणीभि:--अक्षौहिणियों समेत; तिसृभि:--तीन; अपश्यत्‌--देखा; पौण्ड्रकम्‌-पौण्ड्रक को; हरिः--कृष्ण ने; शद्ध--शंख; अरि--चक्र; असि--तलवार; गदा-गदा; शार्ई--शार्डधनुष; श्रीवत्स--वक्षस्थल पर बालों का श्रीवत्स चिह्न सहित; आदि--तथा अन्य प्रतीक; उपलक्षितम्‌--अंकित; बिभ्राणम्‌-धारण किये हुए; कौस्तुभ-मणिम्‌--कौस्तुभ मणि; वन-माला--जंगली फूलों की माला से; विभूषितम्‌--सुशोभित; कौशेय--सुन्दर रेशम के; वाससी--वस्त्रों की जोड़ी; पीते--पीत; वसानम्‌--पहने; गरुड-ध्वजम्‌ू--जिसके झंडे में गरुड़ अंकित है;अमूल्य--अनमोल; मौलि--मुकुट; आभरणम्‌--आभूषण; स्फुरत्‌ू--चमकते हुए; मकर--मकर के आकार वाले;कुण्डलम्‌ू-कुण्डलों सहित।

    हे राजन, पौण्ड्रक का मित्र काशीराज उसके पीछे पीछे गया और वह तीन अक्षौहिणी सेनासमेत पीछे के रक्षकों की अगुआई कर रहा था।

    भगवान्‌ कृष्ण ने देखा कि पौण्ड्रक भगवान्‌ केही प्रतीक यथा शंख, चक्र, तलवार तथा गदा और दिखावटी शाऱ्् धनुष तथा श्रीवत्स चिन्ह भीधारण किये था।

    वह नकली कौस्तुभ मणि भी पहने था।

    वह जंगली फूलों की माला सेसुशोभित था और ऊपर और नीचे उत्तम पीले रेशमी वस्त्र पहने था।

    उसके झंडे में गरुड़ काचिन्ह था और वह मूल्यवान मुकुट तथा चमचमाते मकराकृति वाले कुंडल पहने था।

    इष्ठा तमात्मनस्तुल्यं वेषं कृत्रिममास्थितम्‌ ।

    यथा नटं रड़्गतं विजहास भूशं हरी: ॥

    १५॥

    इृष्ठा--देखकर; तमू--उसको; आत्मन:--अपने ही; तुल्यम्‌--तुल्य, समान; वेषम्‌--वेश में; कृत्रिमम्‌ू--कृत्रिम, नकली;आस्थितम्‌--सजाये हुए; यथा--सहृश; नटम्‌ू--अभिनयकर्ता; रड्ग--मंच में; गतम्‌--प्रवेश हुआ; विजहास--हँसे; भूशम्‌--खूब कस कर; हरिः-- भगवान्‌ कृष्ण |

    जब भगवान्‌ हरि ने देखा कि राजा ने उन्हीं जैसा अपना वेश बना रखा है, जिस तरह मंच परकोई अभिनेता करता है, तो वे खूब हँसे।

    शूलैर्गदाभि: परिधै: शक्त्यृष्टिप्रासतोमरै: ।

    असिभ्निः पट्टिशैर्बाणै: प्राहरन्नरयो हरिमू ॥

    १६॥

    शूलैः--त्रिशूल से; गदाभि:--गदा से; परिधैः--नेचों से; शक्ति--शक्ति; ऋष्टि--एक प्रकार की तलवार; प्रास--लम्बानुकीला अस्त्र; तोमैरः:--तथा भालों से; असिभि:--तलवारों से; पद्टिशैः:--कुल्हाड़ियों से; बाणैः--तथा बाणों से; प्राहरन्‌--आक्रमण किया; अरयः--शत्रुओं ने; हरिम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण पर।

    भगवान्‌ हरि के शत्रुओं ने उन पर त्रिशूलों, गदाओं, नेचों, शक्तियों, ऋष्टियों, प्रासों, तोमरों,तलवारों, कुल्हाड़ियों तथा बाणों से आक्रमण किया।

    कृष्णस्तु तत्पौण्ड्रक्काशिराजयोर्‌बल॑ गजस्यन्दनवाजिपत्तिमत्‌ ।

    गदासिचक्रेषुभिरार्दयद्धूशंयथा युगान्ते हुतभुक्पृथक्प्रजा: ॥

    १७॥

    कृष्ण: --कृष्ण; तु--किन्तु; तत्‌ू--उस; पौण्ड्रक-काशिराजयो: --पौण्ड्रक तथा काशिराज की; बलम्‌--सेना को; गज--हाथी; स्वन्दन--रथ; वाजि--घोड़े; पत्ति-- तथा पैदल; मत्‌--से युक्त; गदा--गदा; असि--तलवार; चक्र -- चक्र; इसुभि:--तथा बाणों से; आर्दयत्‌--रौंदते हुए; भूशम्‌--बुरी तरह से; यथा--जिस प्रकार; युग--ऐतिहासिक युग के; अन्ते--अन्त में;हुत-भुक्‌ू --अग्नि ( प्रलयंकारी ); पृथक्‌--विभिन्न प्रकार के; प्रजा:--जीव

    किन्तु भगवान्‌ कृष्ण ने पौण्ड्रक तथा काशिराज की सेना पर भीषण वार किया, जिसमेंहाथी, रथ, घोड़े तथा पैदल सम्मिलित थे।

    भगवान्‌ ने अपनी गदा, तलवार, सुदर्शन चक्र तथाबाणों से अपने शत्रुओं को उसी तरह रौंद दिया जिस तरह युगान्त में प्रलयाग्नि विविध प्रकारकेप्राणियों को रौंदती है।

    आयोधनं तद्रथवाजिकुञ्जर-द्विपत्खरोष्टररिणावखण्डितैः ।

    बभौ चितं मोदवहं मनस्विना-माक्रीडनं भूतपतेरिवोल्बणम्‌ ॥

    १८॥

    आयोधनम्‌--युद्ध भूमि; तत्‌--उस; रथ--रथों; वाजि--घोड़ों; कुझ़्र--हाथियों; द्विपत्‌--दौ पैर वालों ( मनुष्यों ); खर--गठहों; उद्ढने:--तथा ऊँटों से; अरिणा--अपने चक्र से; अवखण्डितै:ः--खण्ड खण्ड किये; बभौ--चमक रही थी; चितम्‌-फैलेहुए; मोद--हर्ष; वहम्‌--लाते हुए; मनस्विनाम्‌ू--बुद्धिमान को; आक्रीडनम्‌--खेल का मैदान, अखाड़ा; भूत-पतेः -- भूतों केस्वामी, शिवजी के; इब--सहृश; उल्बणम्‌-- भयंकर |

    भगवान्‌ के चक्र द्वारा खण्ड-खण्ड किये गये रथों, घोड़ों, हाथियों, मनुष्यों, खच्चरों तथाऊँटों से पटा हुआ युद्ध क्षेत्र उसी तरह चमक रहा था मानो विद्वान को आनन्द प्रदान करने वालाभूतपति का भयावना अखाड़ा हो।

    अथाह पौण्ड्कं शौरिर्भों भो पौण्ड्रक यद्धवान्‌ ।

    दूतवाक्येन मामाह तान्यस्त्रण्युत्मूजामि ते ॥

    १९॥

    अथ--तब; आह--कहा; पौण्ड्रकम्‌-पौण्ड्रक से; शौरि: -- भगवान्‌ कृष्ण ने; भो: भो: पौण्ड्रक--अरे पौण्ड्रक; यत्‌--जो;भवान्‌--आपने; दूत--दूत के; वाक्येन--शब्दों से; मामू--मुझसे; आह--कहा; तानि--वे; अस्त्राणि-- हथियार; उत्सृजामि--मैं छोड़ रहा हूँ; ते--तुम्हारे ऊपर |

    तब भगवान्‌ कृष्ण ने पौण्ड्रक को सम्बोधित किया : रे पौण्ड्रक! तूने अपने दूत के माध्यमसे जिन हथियारों के लिए कहलवाया था अब मैं उन्हीं को तुझ पर छोड़ रहा हूँ।

    त्याजयिष्येभिधान मे यत्त्वयाज्ञ मृषा धृतम्‌ ।

    ब्रजामि शरनं तेउद्य यदि नेच्छामि संयुगम्‌ ॥

    २०॥

    त्याजयिष्ये--( तुमसे ) छुड़वाकर रहूँगा; अभिधानम्‌--उपाधि; मे--मेरा; यत्‌--जो; त्वया--तुम्हारे द्वारा; अज्ञ-रे मूर्ख;मृषा--झूठे ही; धृतम्‌-- धारण किये हुए; ब्रजामि--जाऊँगा; शरणम्‌--शरण में; ते--तुम्हारी; अद्य--आज; यदि--यदि; नइच्छामि--नहीं चाहता हूँ; संयुगम्‌--युद्ध |

    रे मूर्ख! अब मैं तुझसे अपना नाम छुड़वाकर रहूँगा जिसे तूने झूठे ही धारण कर रखा है।

    मैंतब अवश्य ही तेरी शरण ग्रहण करूँगा यदि मैं तुझसे युद्ध नहीं करना चाहूँगा।

    इति क्षिप्त्वा शितैर्बाणैर्विरथीकृत्य पौण्ड्रकम्‌ ।

    शिरोवृश्चद्रथाड्रेन बज्रेणेन्द्रो यथा गिरे: ॥

    २१॥

    इति--इन शब्दों के साथ; क्षिप्त्वा--चिढ़ाते हुए; शितैः--तेज; बाणै:--बाणों से; विरथी--रथविहीन; कृत्य--करके;पौण्ड्कम्‌-पौण्ड्क को; शिर:--उसका सिर; अवृश्चत्‌--काट लिया; रथ-अड्लेन--अपने सुदर्शन चक्र से; वज़ेण--अपने वज्चसे; इन्द्र:--इन्द्र; यथा--जिस तरह; गिरेः--पर्वत का ॥

    पौण्ड्रक को इस तरह चिढ़ा कर भगवान्‌ कृष्ण ने अपने तेज बाणों से उसका रथ विनष्ट करदिया।

    फिर भगवान्‌ ने अपने सुदर्शन चक्र से उसका सिर उसी तरह काट लिया जिस तरह इन्द्रअपने वज् से पर्वत की चोटी को काट गिराता है।

    तथा काशीपते: कायाच्छिर उत्कृत्य पत्रिभि: ।

    न्यपातयत्काशीपुर्या पद्दकोशमिवानिल: ॥

    २२॥

    तथा--उसी तरह; काशी-पते:--काशिराज के; कायात्‌--शरीर से; शिरः --सिर; उत्कृत्य--काट कर; पत्रिभि:--अपने बाणोंसे; न्‍्यपातयत्‌--उड़ते हुए भेज दिया; काशि-पुर्यामू--काशी नगरी में; पद्य--कमल के; कोशम्‌--फूल के कोश को; इब--सहश; अनिलः-वायु।

    भगवान्‌ कृष्ण ने अपने बाणों से काशिराज के सिर को उसके शरीर से उसी तरह काट करउसे काशी नगरी में जा गिराया मानो वायु द्वारा फेंका गया कमल का फूल हो।

    एवं मत्सरिणम्हत्वा पौण्डुक॑ं ससखं हरि: ।

    द्वारकामाविशत्सिद्धै्गीयमानकथामृत: ॥

    २३॥

    एवमू--इस प्रकार; मत्सरिणम्‌--ईर्ष्यालु; हत्वा--मार कर; पौण्ड्रकम्‌--पौण्ड्क को; स--सहित; सखम्‌--उसके मित्र;हरिः--भगवान्‌ कृष्ण; द्वारकामू-द्वारका में; आविशत्‌-- प्रवेश किया; सिद्धैः--स्वर्ग के योगियों द्वारा; गीयमान--गायीजाकर; कथा--उनके विषय में कथाएँ; अमृतः--अमृत तुल्य।

    इस तरह ईर्ष्यालु पौण्ड्रक तथा उसके सहयोगी का वध करने के बाद भगवान्‌ कृष्ण द्वारकालौट गये।

    ज्योंही वे नगर में प्रविष्ट हुए स्वर्ग के सिद्धों ने उनकी अमर अमृतमयी महिमा का गानकिया।

    स नित्यं भगवद्धद्यानप्रध्वस्ताखिलबन्धन: ।

    बिभ्राणश्व हरे राजन्स्वरूपं तन्मयोभवत्‌ ॥

    २४॥

    सः--वह ( पौण्ड्रक ); नित्यम्‌--निरन्तर; भगवत्‌-- भगवान्‌ के; ध्यान--ध्यान द्वारा; प्रध्वस्त--पूर्णतया ध्वस्त; अखिल--समस्त; बन्धन:--बन्धन; बिभ्राण: --मानते हुए; च--तथा; हरे: -- भगवान्‌ कृष्ण का; राजन्‌--हे राजा ( परीक्षित );स्वरूपम्‌--साकार रूप; ततू्‌-मय:--उनकी चेतना में लीन; अभवत्‌--हो गया

    निरन्तर भगवान्‌ का ध्यान करते रहने से पौण्ड्रक ने अपने सारे भौतिक बन्धनों को ध्वंस करदिया था।

    हे राजन, निस्सन्देह भगवान्‌ कृष्ण के स्वरूप का अनुकरण करके अन्ततोगत्वा वहकृष्णभावनाभावित हो गया।

    शिरः पतितमालोक्य राजद्वारे सकुण्डलम्‌ ।

    किमिदं कस्य वा वक्त्रमिति संशिशिरे जना; ॥

    २५॥

    शिरः--सिर; पतितम्‌ू--गिरा हुआ; आलोक्य--देखकर; राज-द्वारे--राजमहल के द्वार पर; स-कुण्डलमू--कुण्डल सहित;किमू--क्या; इृदम्‌ू--यह है; कस्य--किसका; वा--अथवा; वक्त्रमू--सिर; इति--इस प्रकार; संशिशिरे--सन्देह व्यक्त किया;जना:ः--लोगों ने

    राजमहल के द्वार पर पड़े हुए कुण्डल से विभूषित सिर को देखकर वहाँ पर उपस्थित सारेलोग चकित थे।

    उनमें से कुछ ने पूछा, 'यह क्‍या है?' और दूसरों ने कहा, 'यह सिर हैलेकिन, यह है किसका ?

    राज्ञ: काशी पतेरज्ञात्वा महिष्य: पुत्रबान्धवा: ।

    पौराश्च हा हता राजन्नाथ नाथेति प्रारुदन्‌ ॥

    २६॥

    राज्ञ:--राजा का; काशी-पते:--काशी के स्वामी; ज्ञात्वा--पहचान कर; महिष्य: --उसकी रानियाँ; पुत्र--उसके पुत्र;बान्धवा:--तथा उसके अन्य सम्बन्धी; पौरा:--नगर के निवासी; च--तथा; हा--हाय; हता: --( हम ) मारे गये; राजन्‌ू--हेराजा ( परीक्षित ); नाथ नाथ--हे नाथ, हे नाथ; इति--इस प्रकार; प्रारूदनू--जोर जोर से विलखने लगे।

    हे राजन्‌ू, जब उन लोगों ने पहचाना कि यह उनके राजा--काशीपति का सिर है, तो उसकीरानियाँ, पुत्र तथा अन्य सम्बन्धी एवं नगर के सारे निवासी 'हाय! हम मारे गये! हे नाथ, हेनाथ! ' कह कर रोने लगे।

    सुदक्षिणस्तस्य सुतः कृत्वा संस्थाविधि पते: ।

    निहत्य पितृहन्तारं यास्याम्यपचितिं पितु: ॥

    २७॥

    इत्यात्मनाभिसन्धाय सोपाध्यायो महेश्वरम्‌ ।

    सुदक्षिणो<र्चयामास परमेण समाधिना ॥

    २८॥

    सुदक्षिण:--सुदक्षिण नामक; तस्य--उसका ( काशिराज का ); सुत:--पुत्र; कृत्वा--सम्पन्न करके; संस्था-विधिम्‌--दाह-संस्कार; पतेः--अपने पिता का; निहत्य--मार कर; पितृ--पिता का; हन्तारम्‌--मारने वाले को; यास्यामि--ले सकूँगा;अपचितिम्‌--बदला; पितु:--अपने पिता का; इति--इस प्रकार; आत्मना--अपनी बुद्धि से; अभिसन्धाय--निश्चय करके;स--सहित; उपाध्याय: --पुरोहितों; महा-ईश्वरम्‌--शिवजी की; सु-दक्षिण:--अत्यन्त दानी होने से; अर्चयाम्‌ आस--पूजा की;'परमेण-- अत्यधिक; समाधिना-- ध्यान से

    जब राजा का पुत्र सुदक्षिण अपने पिता का दाह-संस्कार कर चुका तो उसने अपने मन मेंनिश्चय किया, 'मैं अपने पिता के हत्यारे का वध करके ही उसकी मृत्यु का बदला ले सकताहूँ।

    ' इस तरह दानी सुदक्षिण अपने पुरोहितों सहित बहुत ही लगन से भगवान्‌ महेश्वर की पूजाकरने लगा।

    प्रीतोविमुक्ते भगवांस्तस्मै वरमदाद्विभु: ।

    पितृहन्तृवधोपायं स बब्रे वरमीप्सितम्‌ ॥

    २९॥

    प्रीत:--सन्तुष्ट; अविमुक्ते--अविमुक्त में, काशी जनपद के अन्तर्गत पवित्र स्थल में; भगवान्‌--शिवजी; तस्मै-- उसको; वरम्‌--वर; अदात्‌ू--दिया; विभुः--शक्तिशाली देवता; पितृ--पिता का; हन्तृ--वध करने वाला; वध--हत्या करने के लिए;उपायम्‌--साधन; सः--उसने; वद्रे--चुना; वरम्‌--अपने वर के रूप में; ईप्सितम्‌--इच्छित |

    पूजा से सन्तुष्ट होकर शक्तिशाली शिवजी अविमुक्त नामक पवित्र स्थल में प्रकट हुए औरसुदक्षिण को इच्छित वर माँगने को कहा।

    राजकुमार ने अपने पिता के वध करने वाले की हत्याकरने के साधन को ही अपने वर के रूप में चुना।

    दक्षिणाग्निं परिचर ब्राह्मणै: सममृत्विजम्‌ ।

    अभिचारविधानेन स चाग्नि: प्रमथेर्वृत: ॥

    ३०॥

    साधयिष्यति सट्डूल्पमब्रह्मण्ये प्रयोजितः ।

    इत्यादिष्टस्तथा चक्रे कृष्णायाभिचरन्त्रती ॥

    ३१॥

    दक्षिण-अग्निमू--दक्षिण अग्नि को; परिचर--तुम्हें सेवा करनी चाहिए; ब्राह्मणैः --ब्राह्मणों के; समम्‌--साथ; ऋत्विजम्‌--आदि पुरोहित को; अभिचार-विधानेन--अभिचार अनुष्ठान द्वारा ( शत्रु को मारने या हानि पहुँचाने के लिए किया गया अनुष्ठान;सः--वह; च--तथा; अग्नि:-- अग्नि; प्रमथै: --प्रमथों द्वारा ( शिवजी की टोली के शक्तिशाली योगी जो विभिन्न रूप धारणकर सकते हैं ); वृतः:--घिरे हुए; साधयिष्यति--सम्पन्न करेगा; सड्डूल्पम्‌--तुम्हारे मनोभाव को; अब्रह्मण्ये--ब्राह्मणों के शत्रु केविरुद्ध; प्रयोजित:--प्रयुक्त; इति--इस तरह; आदिष्ट:--आदेश दिया हुआ; तथा--उसी तरह से; चक्रे --किया; कृष्णाय--कृष्ण के विरुद्ध; अभिचरन्‌--हानि पहुँचाने की इच्छा से; ब्रती--ब्रत करने वाला

    शिवजी ने कहा : 'तुम ब्राह्मणों के साथ अभिचार अनुष्ठान के आदेशों का पालन करते हुएआदि पुरोहित दक्षिणाग्नि की सेवा करो।

    तब दक्षिणाग्नि अनेक प्रमथों सहित तुम्हारी इच्छा पूरीकरेगा यदि तुम इसे ब्राह्मणों से शत्रुता रखने वाले किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध निर्देशित करसकोगे।

    ' इस प्रकार आदिष्ट सुदक्षिण ने अनुष्ठान ब्रतों का हढ़ता से पालन किया और कृष्ण केविरुद्ध अभिचार का आह्वान किया।

    ततोग्निरुत्थितः कुण्डान्मूर्तिमानतिभीषण: ।

    तप्तताग्रशिखाएमश्रुरड्जरोद्गारिलोचन: ॥

    ३२॥

    दंष्ट्रीग्रभुकुटीदण्डकठोरास्यः स्वजिह्या ।

    आलिहन्सृक्वणी नग्नो विधुन्व॑स्त्रशिखं ज्वलत्‌ ॥

    ३३॥

    ततः--तब; अग्नि:--अग्नि; उत्थित: --उठा; कुण्डात्‌--यज्ञ वेदी के कुंड से; मूर्ति-मान्‌ू--साक्षात; अति--अत्यधिक;भीषण: -- भयावना; तप्त--पिघले; ताम्र--ताँबे ( जैसा ); शिखा--चोटी; एमश्रु: --दाढ़ी; अड्रार--गर्म अंगारे; उद्गारि--उगलती हुई; लोचन:--आँखें; दंष्ट--दाँत; उग्र-- भयावह; श्रु--भौंहों के; कुटी-गटड्टों के; दण्ड--तथा तोरण से; कठोर--कर्कश; आस्य:--मुख; स्व--अपनी; जिह्या--जीभ से; आलिहनू--चाटते हुए; सृक्वणी-- अपने मुँह के कोनों को; नग्न:--नंग-धडंग; विधुन्वन्‌--हिलाता हुआ; त्रि-शिखम्‌-- अपना त्रिशूल; ज्वलत्‌--लपलपाता

    तत्पश्चात्‌ यज्ञकुण्ड से अत्यन्त भयावने नंग-धडंग पुरुष का रूप धारण कर अग्नि बाहरनिकली।

    इस अग्नि सरीखे प्राणी की दाढ़ी तथा चोटी पिघले ताँबे जैसी थीं और उसकी आँखों से जलते हुए गर्म अंगारे निकल रहे थे।

    उसका मुख दाढ़ों तथा भयावह कुटिल एवं गहरी भौंहोंके साथ अत्यन्त भयावना लग रहा था।

    अपने मुख के कोनों को अपनी जीभ से चाटता हुआ यहअसुर अपना ज्वलित त्रिशूल हिला रहा था।

    पदभ्यां तालप्रमाणाभ्यां कम्पयन्नवनीतलम्‌ ।

    सो<भ्यधावद्वुतो भूतैर्द्वारिकां प्रदृहन्दिशः ॥

    ३४॥

    पदभ्याम्‌ू--अपने पैरों से; ताल--ताड़-वृक्षों की; प्रमाणाभ्यामू--माप वाला; कम्पयन्‌--हिलाता हुआ; अवनी--पृथ्वी के;तलमू--पृष्ठ को; सः--वह; अभ्यधावत्‌--दौड़ा; वृतः--घिर कर; भूतैः -- भूत-प्रेतों के द्वारा; द्वारकाम्‌--द्वारका की ओर;प्रदहन्‌ू--जलाता हुआ; दिश:--दिशाओं को

    यह दैत्य ताड़-वृक्ष जैसी लंबी टाँगों से अपने साथ भूतों को लेकर, धरती को हिलाता तथासंसार को सभी दिशाओं में जलाता हुआ द्वारका की ओर भागा।

    'तमाभिचारदहनमायान्तं द्वाकौकसः ॥

    विलोक्य तत्रसु: सर्वे वनदाहे मृगा यथा ॥

    ३५॥

    तम्‌--उसको; आभिचार--अभिचार अनुष्ठान से उत्पन्न; दहनम्‌--अग्नि को; आयान्तम्‌--निकट आते हुए; द्वारका -ओकस:--द्वारकावासी; विलोक्य--देखकर; तत्रसु:--भयभीत हो उठे; सर्वे--सभी; वन-दाहे--जंगल में आग लगने पर; मृगा: --पशु;यथा--जिस तरह।

    अभिचार अनुष्ठान से उत्पन्न अग्नि तुल्य असुर को निकट आते देखकर द्वारका के सारेनिवासी उसी तरह भयभीत हो उठे जिस तरह दावाग्नि ( जंगल की अग्नि ) से पशु भयभीत होउठते हैं।

    अक्षै: सभायां क्रीडन्तं भगवन्तं भयातुरा: ।

    त्राहि त्राहि त्रिलोकेश वह्लेः प्रदहतः पुरम्‌ ॥

    ३६॥

    अक्षै:--चौसर से; सभायाम्‌--राज-दरबार में; क्रीडन्तम्‌--खेलते हुए; भगवन्तम्‌ू-- भगवान्‌ को; भय-- भय से; आतुरा:--श्षुब्ध; त्राहि त्राहि--रक्षा करो, रक्षा करो; त्रि--तीन; लोक--लोकों के; ईश--हे स्वामी; वह्लेः--अग्नि से; प्रदहत:--जल रहे;पुरमू--नगर को

    भय से किंकर्तव्यविमूढ़ लोगों ने उस समय राज-दरबार में चौसर खेल रहे भगवान्‌ के पासरो-रो कर कहा, 'हे तीनों लोकों के स्वामी, नगर को जलाने वाली इस अग्नि से हमारी रक्षाकीजिये! रक्षा कीजिये! ' श्रुत्वा तज्जनवैक्लव्यं हृष्ठा स्वानां च साध्वसम्‌ ।

    शरण्य:ः सम्प्रहस्याह मा भैष्टेत्यवितास्म्यहम्‌ ॥

    ३७॥

    श्रुत्वा--सुनकर; तत्‌--यह; जन--जनता की; बैक्लव्यम्‌ू--विकलता; दृष्टा--देखकर; स्वानामू--अपने ही लोगों को; च--तथा; साध्वसम्‌--विश्षुब्ध; शरण्य:--शरण के सर्वोत्तम साधन ने; सम्प्रहस्थ--जोर से हँस कर; आह--कहा; मा भैष्ट--मतडरो; इति--इस प्रकार; अविता अस्मि--संरक्षण प्रदान करूँगा; अहम्‌--मैं

    जब कृष्ण ने लोगों की व्याकुलता सुनी और देखा कि उनके अपने लोग भी विश्वुब्ध हैं, तोएकमात्र सर्वश्रेष्ठ शरणदाता हँस पड़े और उनसे कहा, 'डरो मत, मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा।

    'सर्वस्यान्तर्बहि:साक्षी कृत्यां माहे ध्वरीं विभुः ।

    विज्ञाय तद्ठिषातार्थ पार्श्वस्थं चक्रमादिशत्‌ ॥

    ३८॥

    सर्वस्य--सबों के; अन्त:ः-- भीतर; बहि:--तथा बाहर के; साक्षी --गवाह; कृत्याम्‌--निर्मित प्राणी को; माहा-ई श्ररीम्‌ --शिवजी के; विभु:--सर्वशक्तिमान भगवान्‌; विज्ञाय--पूरी तरह जानते हुए; तत्‌--उसको; विघात--हराने के; अर्थम्‌ू--हेतु;पार्शचन--अपने निकट; स्थम्‌--खड़े; चक्रम्‌-- अपने चक्र को; आदिशत्‌--आदेश दिया।

    सबों के अन्त: और बाह्य साक्षी सर्वशक्तिमान भगवान्‌ समझ गये कि यह दैत्य शिवजी द्वारायज्ञ-अग्नि से उत्पन्न किया गया है।

    इस असुर को पराजित करने के लिए कृष्ण ने अपनी बगलमें प्रतीक्षा कर रहे अपने सूदर्शन चक्र को रवाना कर दिया।

    तत्सूर्यकोटिप्रतिमं सुदर्शनजाज्वल्यमानं प्रलयानलप्रभम्‌ ।

    स्वतेजसा खं ककुभोथ रोदसीअक्र मुकुन्दास्त्र अथाग्निमार्दयत्‌ ॥

    ३९॥

    तत्‌--उस; सूर्य--सूर्यों के; कोटि--करोड़ों; प्रतिमम्‌--सहश; सुदर्शनम्‌--सुदर्शन को; जाज्वल्यमानम्‌--अग्नि से प्रज्वलित;प्रलय--ब्रह्माण्ड के संहार की; अनल--अग्नि ( सहश ); प्रभम्‌--तेज; स्व--अपनी; तेजसा--गर्मी से; खम्‌--आकाश;ककुभः-दिशाएँ; अथ--तथा; रोदसी--स्वर्ग तथा पृथ्वी; चक्रमू--चक्र को; मुकुन्द--कृष्ण के; अस्त्रमू--हथियार; अथ--भी; अग्निमू--( सुद॒क्षिण द्वारा उत्पन्न ) अग्नि को; आर्दयत्‌--सताया।

    भगवान्‌ मुकुन्द का वह सुदर्शन चक्र करोड़ों सूर्यों की तरह प्रज्वलित हो उठा।

    उसका तेज ब्रह्माण्ड की प्रलयाग्नि सदश प्रज्वलित था और अपनी गर्मी से वह आकाश, सारी दिशाओं,स्वर्ग तथा पृथ्वी एवं उस अग्नि-तुल्य असुर को भी पीड़ा देने लगा।

    कृत्यानलः प्रतिहतः स रथान्गपाणे-रस्त्रौजसा स नृप भग्नमुखो निवृत्त: ।

    वाराणसी परिसमेत्य सुदक्षिणं तंसर्तिग्जनं समदहत्स्वकृतोभिचार:, ॥

    ४०॥

    कृत्या--योग-बल से उत्पन्न; अनल:--अग्नि; प्रतिहत:--हताश; सः--वह; रथ-अड्गभ-पाणे: --सुदर्शन चक्र को धारण करनेवाले कृष्ण के; अस्त्र--हधियार की; ओजसा--शक्ति से; सः--वह; नृप--हे राजा; भग्न-मुख:--पीछे मुड़कर; निवृत्त:--विरत; वारानसीम्‌--वाराणसी में; परिसमेत्य--सभी दिशाओं में पहुँचकर; सुदक्षिणम्‌--सुदक्षिण के; तम्‌--उस; स--सहित;ऋत्विक्‌ू-जनम्‌--उसके पुरोहितों को; समदहत्‌--जला दिया; स्व--अपने आप ( सुदक्षिण ); कृत: --उत्पन्न; अभिचार: --हिंसाकरने के निमित्त।

    हे राजन, भगवान्‌ कृष्ण के अस्त्र की शक्ति से विचलित, तंत्र से उत्पन्न वह अग्नि-तुल्यप्राणी अपना मुँह मोड़कर चला गया।

    तब हिंसा के लिए उत्पन्न किया गया वह असुर वाराणसीलौट आया जहाँ उसने नगर को घेर लिया और सुदक्षिण तथा उसके पुरोहितों को जलाकर भस्मकर दिया यद्यपि सुदक्षिण ही उसका उत्पन्न करने वाला था।

    अक्रं च विष्णोस्तदनुप्रविष्टवारानसीं साइसभालयापणाम्‌ ।

    सगोपुरा्लककोष्ठसड्डू लां सकोशहस्त्यश्वरथान्नशालिनीम्‌ ॥

    ४१॥

    अक्रमू--चक्र; च--तथा; विष्णो: -- भगवान्‌ विष्णु का; ततू--वह ( अग्नि से उत्पन्न असुर ); अनुप्रविष्टम्‌-- प्रवेश करके;वाराणसीम्‌--वाराणसी को; स--सहित; अट्ट--अटालिकाएँ; सभा--उसके सभाभवन; आलय--निवास; आपणामू--तथाबाजार; स--सहित; गोपुर--नगरद्वार; अद्डालक--बुर्जियों; कोष्ठ--तथा भण्डारों; सड्डु लाम्‌--पुंजित; स--सहित; कोश--खजाने; हस्ति--हाथियों; अश्व--घोड़ों; रथ--रथों; अन्न--तथा अन्नों के लिए; शालिनीम्‌--महलों ( गोदामों ) सहित

    भगवान्‌ विष्णु का चक्र अग्नि तुल्य असुर का पीछा करते हुए वाराणसी के भीतर भी घुसाऔर फिर नगर को भस्म करने लगा, जिसमें नगर के सभाभवन तथा अट्टालिकाओं से युक्तआवासीय महल, सारे बाजार, नगरद्वार, बुर्जियाँ, भण्डार तथा खजाने और हथसाल, घुड़साल,रथसाल तथा अन्नों के गोदाम सम्मिलित थे।

    दग्ध्वा वाराणसीं सर्वा विष्णोश्चक्रं सुदर्शनम्‌ ।

    भूयः पार्श्रमुपातिष्ठ त्कृष्णस्याक्लिष्टकर्मण: ॥

    ४२॥

    दग्ध्वा--जलाकर; वाराणसीम्‌--वाराणसी को; सर्वाम्‌--पूरी; विष्णो: --विष्णु का; चक्रम्‌--चक्र; सुदर्शनम्‌--सुदर्शन;भूय:--फिर से; पार्श्रमू--बगल में; उपातिष्ठत्‌--गया; कृष्णस्य--कृष्ण के; अक्लिष्ट--बिना किसी कष्ट या थकावट के;कर्मण:--जिसके कर्म |

    सम्पूर्ण वाराणसी नगरी को जलाने के बाद भगवान्‌ विष्णु का सुदर्शन चक्र बिना प्रयास केकर्म करने वाले श्रीकृष्ण के पास लौट आया।

    य एन श्रावयेन्मर्त्य उत्तम:शलोकविक्रमम्‌ ।

    समाहितो वा श्रृणुयात्सर्वपापै: प्रमुच्यते ॥

    ४३॥

    यः--जो; एनम्‌--इसको; श्रावयेत्‌--सुनाता है; मर्त्य:--मरणशील मनुष्य; उत्तम:-शएलोक--उत्तम एलोकों से प्रशंसित भगवान्‌कृष्ण की; विक्रमम्‌--वीरतापूर्ण लीला को; समाहितः--पूरे ध्यान से; वा--अथवा; श्रृणुयात्‌--सुनता है; सर्व--समस्त;पापैः--पापों से; प्रमुच्यते--छूट जाता है

    जो भी मर्त्य प्राणी भगवान्‌ उत्तमश्लोक की इस वीरतापूर्ण लीला को सुनाता है या केवलइसे ध्यानपूर्वक सुनता है, वह सारे पापों से मुक्त हो जाएगा।

    TO

    अध्याय सड़सठ: भगवान बलराम ने द्विविद्या गोरिल्ला का वध किया

    10.67श्रीराजोबवाचभुयोहं श्रोतुमिच्छामि रामस्याद्भधुतकर्मण: ।

    अनन्तस्याप्रमेयस्य यदन्यत्कृतवान्प्रभु: ॥

    १॥

    श्री-राजा--यशस्वी राजा ( परीक्षित ) ने; उवाच--कहा; भूय:ः--आगे; अहम्‌--मैं; श्रोतुम्‌--सुनने के लिए; इच्छामि--इच्छाकरता हूँ; रामस्य--बलराम के; अद्भुत--विस्मयकारी; कर्मण: --कार्यकलाप; अनन्तस्य--अनन्त के; अप्रमेयस्थ--अथाह,अपार; यत्‌--जो; अन्यत्‌--दूसरा; कृतवान्‌ू--किया; प्रभुः--प्रभु ने |

    यशस्वी राजा परीक्षित ने कहा : मैं अनन्त तथा अपार भगवान्‌ श्रीबलराम के विषय में औरआगे सुनना चाहता हूँ जिनके कार्यकलाप अतीव विस्मयकारी हैं।

    उन्होंने और क्या किया ?

    श्रीशुक उबाचनरकस्य सखा कश्चिद्द््‌वविदो नाम वानर: ।

    सुग्रीवसचिव: सोथ भ्राता मैन्दस्य वीर्यवान्‌ ॥

    २॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; नरकस्य--नरकासुर का; सखा--मित्र; कश्चित्‌--कोई; द्विविदः --द्विविद;नाम--नामक; वानर:--वानर; सुग्रीव--राजा सुग्रीव; सचिव:--जिसका सलाहकार; सः--वह; अथ-- भी; भ्राता-- भाई;मैन्दस्थ--मैन्द का; वीर्य-वानू--शक्तिशाली

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : द्विविद नाम का एक वानर था, जो नरकासुर का मित्र था।

    यहशक्तिशाली द्विविद मैन्द का भाई था और राजा सुग्रीव ने उसे आदेश दिया था।

    सख्यु: सोपचितिं कुर्वन्वानरो राष्ट्रविप्लवम्‌ ।

    पुरग्रामाकरान्धोषानदहद्ठहिमुत्सूजन्‌ ॥

    ३॥

    सख्यु:--अपने मित्र ( नरक, जिसका वध कृष्ण ने किया था ) का; सः--वह; अपचितिमू--उऋण; कुर्वन्‌ू--होने के लिए;वानर:--वानर; राष्ट्र--राज्य का; विप्लवम्‌--उत्पात करते हुए; पुर--नगर; ग्राम--गाँव; आकरान्‌--तथा खानों को; घोषान्‌ू--ग्वालों के समुदायों ( बस्तियों ) को; अदहत्‌--जला डाला; वहिम्‌--आग; उत्सूजन्‌ू--फैलाकर।

    अपने मित्र ( नरक ) की मृत्यु का बदला लेने के लिए द्विविद वानर ने नगरों, गाँवों, खानोंतथा ग्वालों की बस्तियों में आग लगाते हुए उन्हें जलाकर पृथ्वी को तहस-नहस कर दिया।

    क्वचित्स शैलानुत्पाट्य तैर्देशान्समचूर्णयत्‌ ।

    आनर्तान्सुतरामेव यत्रास्ते मित्रहा हरि: ॥

    ४॥

    क्वचित्‌--एक बार; सः--वह, द्विविद; शैलान्‌--पर्वतों को; उत्पाट्य--उखाड़ कर; तैः--उनके साथ; देशान्‌--सारे राज्योंको; समचूर्णयत्‌--विनष्ट कर दिया; आनर्तान्‌ू--आनर्तन प्रदेश ( जिसमें द्वारका स्थित है ) के लोगों को; सुतराम्‌ एब--विशेषरूप से; यत्र--जहाँ; आस्ते--उपस्थित है; मित्र--उसके मित्र का; हा--मारने वाला; हरिः--कृष्ण |

    एक बार द्विविद ने अनेक पर्वतों को उखाड़ लिया और उनका प्रयोग सभी निकटवर्ती राज्योंको, विशेषतया आनर्त प्रदेश को विध्वंस करने के लिए किया जहाँ उसके मित्र को मारने वाले,भगवान्‌ हरि रहते थे।

    क्वचित्समुद्रमध्यस्थो दोर्भ्यामुत्क्षिप्प तजजलम्‌ ।

    देशान्नागायुतप्राणो वेलाकूले न्यमज्जयत्‌ ॥

    ५॥

    क्वचित्‌--एक बार; समुद्र--समुद्र के; मध्य--बीच में; स्थः--स्थित; दोर्भ्यामू--अपनी भुजाओं से; उत्क्षिप्प--मथ कर;तत्‌--उसके; जलम्‌--जल को; देशान्‌--राज्यों को; नाग--हाथी; अयुत--दस हजार; प्राण:--शक्ति वाले; वेला--समुद्रतटीय; कूले--किनारों को; न्यमजजयत्‌--डुबो दिया

    दूसरे अवसर पर वह समुद्र में घुस गया और दस हजार हाथियों के बल के बराबर अपनीबाहों से उसके पानी को मथ डाला और इस तरह समुद्रतट के भागों को डुबो दिया।

    आश्रमानृषिमुख्यानां कृत्वा भग्नवनस्पतीन्‌ ।

    अदूषयच्छकृम्मूत्रैरग्नीन्वैतानिकान्खल:ः ॥

    ६॥

    आश्रमान्‌ू--आश्रमों को; ऋषि--ऋषियों के; मुख्यानाम्‌--प्रमुख; कृत्वा--करके; भग्न--तोड़-फोड़; वनस्पतीन्‌--वृक्षों को;अदूषयत्‌--दूषित कर डाला; शकृत्‌--मल से; मूत्रै:--मूत्र से; अग्नीन्‌ू--अग्नियों को; बैतानिकान्‌ू--यज्ञ की; खलः--दुष्ट ने |

    उस दुष्ट वानर ने प्रमुख ऋषियों के आश्रमों के वृक्षों को तहस-नहस कर डाला और अपनेमल-मूत्र से यज्ञ की अग्नियों को दूषित कर दिया।

    पुरुषान्योषितो ह्तः क्ष्माभूद्द्रोनीगुहासु सः ।

    निश्षिप्य चाप्यधाच्छैलै: पेशष्कारीव कीटकम्‌ ॥

    ७॥

    पुरुषान्‌ू--पुरुषों को; योषितः--तथा स्त्रियों को; दृप्तः--ढीठ या उद्धत; क्ष्मा-भृत्‌-पर्वत की; द्रोणी--घाटी के भीतर;गुहासु--गुफाओं में; सः--उसने; निश्षिप्प--फेंक कर; च--तथा; अप्यधात्‌--बन्द कर दिया; शैलैः--बड़े बड़े शिलाखण्डोंसे; पेशष्कारी--भिड़, बर; इब--सहृश; कीटकम्‌--छोटे कीड़े को |

    जिस तरह भिड़-कीट छोटे छोटे कीड़ों को बन्दी बना लेता है, उसी तरह उसने ढिठाई करकेपुरुषों तथा स्त्रियों को पर्वत की घाटी में गुफाओं के भीतर डाल कर इन गुफाओं को बड़े बड़ेशिलाखजण्डों से बन्द कर दिया।

    एवं देशान्विप्रकुर्वन्दूषयंश्व॒ कुलस्त्रिय: ।

    श्रुत्वा सुललितं गीत॑ गिरिं रैवतक॑ ययौ ॥

    ८॥

    एवम्‌--इस प्रकार; देशान्‌ू--विविध राज्यों को; विप्रकुर्बनू--तंग करते; दूषयन्‌--दूषित करते हुए; च--तथा; कुल--कुलीन;स्त्रियः--स्त्रियों को; श्रुत्वा--सुनकर; सु-ललितम्‌--अत्यन्त मधुर; गीतम्‌--गीत; गिरिम्‌--पर्वत में; रैवतकम्‌--रैवतकनामक; ययौ--गया।

    एक बार जब द्विविद निकटवर्ती राज्यों को तंग करने तथा कुलीन स्त्रियों को दूषित करने मेंइस तरह लगा हुआ था, तो उसने रैवतक पर्वत से आती हुई अत्यन्त मधुर गायन की आवाजसुनी।

    अतएव वह वहाँ जा पहुँचा।

    तत्रापश्यद्यदुपतिं राम॑ पुष्करमालिनम्‌ ।

    सुदर्शनीयसर्वाड्रं ललनायूथमध्यगम्‌ ॥

    ९॥

    गायन्तं वारुणीं पीत्वा मदविह्ललोचनम्‌ ।

    विध्राजमानं वपुषा प्रभिन्नमिव वारणम्‌ ॥

    १०॥

    तत्र--वहाँ; अपश्यत्‌--देखा; यदु-पतिम्‌--यदुओं के स्वामी; रामम्‌--बलराम को; पुष्कर--कमल की; मालिनम्‌ू--मालापहने; सु-दर्शनीय--अत्यन्त आकर्षक; सर्व--समस्त; अड्भमू--अंगों को; ललना--युवतियों के; यूथ--समूह के; मध्य-गम्‌--बीच में; गायन्तम्‌--गाते हुए; वारुणीम्‌--वारुणी शराब को; पीत्वा--पीकर; मद--नशा से; विहल--अस्थिर; लोचनम्‌--आँखों को; विश्राजमानम्‌--शोभायमान, चमचमाते; वपुषा--अपने शरीर से; प्रभिन्नमू--कामोन्मत्त; इब--मानो; वारणम्‌--हाथी।

    वहाँ उसने यदुओं के स्वामी श्री बलराम को देखा जो कमल-पुष्पों की माला से सुशोभितथे और जिनका हर अंग अत्यन्त आकर्षक लग रहा था।

    वे युवतियों के मध्य गा रहे थे औरचूँकि उन्होंने वारुणी मदिरा पी रखी थी अतएवं उनकी आँखें इस तरह घूम रही थीं मानो वे नशेमें हों।

    उनका शरीर चमचमा रहा था और वे कामोन्‍्मत्त हाथी की तरह व्यवहार कर रहे थे।

    दुष्ट: शाखामृग: शाखामारूढ: कम्पयन्द्रमान्‌ ।

    चक्रे किलकिलाशब्दमात्मानं सम्प्रदर्शयन्‌ ॥

    ११॥

    दुष्ट:--दुष्ट; शाखा-मृग:--वानर ( वृक्षों की शाखाओं में रहने वाला पशु ); शाखाम्‌--शाखा पर; आरूढ:--चढ़ कर;कम्पयन्‌--हिलाते हुए; द्रमान्‌--वृक्षों को; चक्रे --किया; किलकिला-शब्दमू--किलकिल की आवाज किलकारियाँ;आत्मानम्‌--अपने आपको; सम्प्रदर्शयन्‌--दिखलाते हुए

    वह दुष्ट वानर वृक्ष की शाखा पर चढ़ गया और वृक्षों को हिलाकर तथा किलकारियाँ मारतेहुए अपनी उपस्थिति जताने लगा।

    तस्य धाए्टर्य कपेवीक्ष्य तरुण्यो जातिचापला: ।

    हास्यप्रिया विजहसुर्बलदेवपरिग्रहा: ॥

    १२॥

    तस्य--उस; धाए्टर्यम्‌-- धृष्टता, ढिठाई; कपेः--वानर की; वीक्ष्य--देखकर; तरुण्य:--तरुण स्त्रियाँ; जाति--स्वभाव से;चापला:--चंचल, अगम्भीर; हास्य-प्रिया:--हँसोड़; विजहसुः--जोर से हँसीं; बलदेव-परिग्रहा:--बलदेव की प्रेयसियाँ ।

    जब बलदेव की प्रेयसियों ने वानर की ढिठाई देखी तो वे हँसने लगीं।

    आखिर वे तरुणियाँथीं, जिन्हें हँसी-मजाक भाता था और वे चपल थीं।

    ता हेलयामास कपिभ्रूक्षेपैर्सम्मुखादिभि: ।

    दर्शयन्स्वगुदं तासां रामस्य च निरीक्षित: ॥

    १३॥

    ताः--उन ( तरुणियों ) का; हेलयाम्‌ आस--मजाक उड़ाया; कपि:--वानर ने; भ्रू--अपनी भौंहों के; क्षेपै:--गंदे संकेतों से;सम्मुख--उनके सामने खड़े होकर; आदिभि:--इत्यादि से; दर्शयन्‌--दिखलाते हुए; स्व--अपना; गुदम्‌--मलद्वार; तासाम्‌--उनको; रामस्थ--बलराम के; च--तथा; निरीक्षित:--देखते हुए

    बलराम के देखते हुए भी द्विविद ने उन तरुणियों को अपनी भौंहों से गंदे इशारे करते हुए,उनके सामने आकर खड़े होकर और उन्हें अपनी गुदा ( मलद्वार ) दिखलाकर अपमानित किया।

    त॑ ग्राव्णा प्राहरत्क्ुद्धो बलः प्रहरतां वर: ।

    स वज्जयित्वा ग्रावाणं मदिराकलशं कपिः ।

    गृहीत्वा हेलयामास धूर्तस्तं कोपयन्हसन्‌ ॥

    १४॥

    निर्भिद्य कलशं दुष्टो वासांस्यास्फालयद्वलम्‌ ।

    कदर्थीकृत्य बलवान्विप्रचक्रे मदोद्धतः ॥

    १५॥

    तम्‌--उस पर, द्विविद पर; ग्राव्णा--शिला; प्राहरत्‌-फेंका; क्रुद्ध:--क्ुद्ध; बल:--बलराम ने; प्रहरताम्‌--हथियार फेंकनेवालों का; वर: --सर्व श्रेष्ठ; सः--वह, द्विविद; वज्ञयित्वा--बचाकर; ग्रावाणम्‌--शिला को; मदिरा--शराब का; कलशम्‌--पात्र; कपि:--वानर ने; गृहीत्वा--पकड़ कर; हेलयाम्‌ आस--मजाक उड़ाया; धूर्त:--धूर्त; तम्‌ू--उसको, बलराम को;कोपयनू--क्रोध करते; हसन्‌--हँसते; निर्भिद्य--तोड़ कर; कलशम्‌--पात्र को; दुष्ट:--दुष्ट; वासांसि--वस्त्रों को ( तरुणियोंके ); आस्फालयतू्‌--खींच लिया; बलम्‌ू--बलराम को; कदर्थीकृत्य--अनादर करके ; बल-वान्‌--शक्तिशाली; विप्रचक्रे --अपमान किया; मद--मिथ्या अहंकार से; उद्धतः--फूला हुआ।

    सर्वश्रेष्ठ योद्धा बलराम ने क्रुद्ध होकर उस पर एक शिला फेंकी किन्तु उस धूर्त वानर नेअपने को उस शिला से बचा कर बलराम के शराब के पात्र को उड़ा ले गया।

    दुष्ट द्विविद नेबलराम की हँसी उड़ाते हुए उन्हें और अधिक क्रुद्ध करके उस पात्र को तोड़ डाला और तरुणियोंके वस्त्र खींच कर बलराम को और भी अधिक अपमानित किया।

    इस तरह भिथ्या गर्व सेफूलकर कुप्पा हुआ बलशाली वानर श्री बलराम का अपमान करता रहा।

    त॑ तस्याविनयं दृष्ठा देशांश्व तदुपद्गुतान्‌ ।

    क्रुद्धो मुषलमादत्त हलं चारिजिघांसया ॥

    १६॥

    तम्‌--उसको; तस्य--उसकी; अविनयम्‌--ढिठाई; हृष्ठा--देखकर; देशान्‌--राज्यों को; च--तथा; तत्‌--उसके द्वारा;उपद्गुतानू--तहस-नहस किये; क्रुद्ध:-क्रुद्ध: मुषलम्‌--अपनी गदा; आदत्त-ग्रहण की; हलम्‌--अपना हल; च--तथा;अरि--शत्रु; जिघांसया--मारने की इच्छा से

    भगवान्‌ बलराम ने उस वानर के ढीठ आचरण को देखा और आसपास के राज्यों में उसकेद्वारा उत्पन्न विनाश-लीला ( उपद्रव ) का विचार किया।

    इस तरह बलराम ने क्रुद्ध होकर अपनेशत्रु का अन्त करने का निश्चय करके अपनी गदा तथा अपना हल उठा लिया।

    द्विविदोपि महावीर्य: शालमुद्यम्य पाणिना ।

    अभ्येत्य तरसा तेन बल मूर्धन्यताडयत्‌ ॥

    १७॥

    द्विविद:ः--द्विविद; अपि-- भी; महा--महान्‌; वीर्य:--बल वाला; शालम्‌--शाल वृक्ष को; उद्यम्य--उठाकर; पाणिना--अपनेहाथ से; अभ्येत्य--पास आकर; तरसा--तेजी से; तेन--उससे; बलम्‌--बलराम को; मूर्थनि--सिर पर; अताडयतू--मारा।

    बलशाली द्विविद भी युद्ध करने के लिए आगे बढ़ा।

    एक हाथ से शाल का वृक्ष उखाड़ कर वह बलराम की ओर दौड़ा और उनके सिर पर उस वृक्ष के तने से प्रहार किया।

    तं तु सड्डर्षणो मूर्धिन पतन्‍्तमचलो यथा ।

    प्रतिजग्राह बलवान्सुनन्देनाहनच्च तम्‌ ॥

    १८॥

    तम्‌--उस ( तने ) को; तु--लेकिन; सह्डूर्षण: --बलराम ने; मूर्ध्नि--सिर पर; पतन्तम्‌ू--गिरते हुए; अचलः--न हिलने वालापर्वत; यथा--जिस तरह; प्रतिजग्राह--पकड़ लिया; बल-वान्‌--बलशाली; सुनन्देन--अपनी गदा सुनन्द से; अहनतू-- प्रहारकिया; च--तथा; तम्‌--उस ( द्विविद ) पर

    किन्तु भगवान्‌ संकर्षण पर्वत की तरह अचल बने रहे और अपने सिर के ऊपर गिरते हुएलट्ठे को यों ही दबोच लिया।

    तब उन्होंने द्विविद पर अपनी सुनन्द गदा से प्रहार किया।

    मूषलाहतमस्तिष्को विरेजे रक्तधारया ।

    गिरिर्यथा गैरिकया प्रहारं नानुचिन्तयन्‌ ॥

    १९॥

    पुनरन्य॑ समुक्क्षिप्य कृत्वा निष्पत्रमोजसा ।

    तेनाहनत्सुसड्क्रुद्धस्तं बल: शतधाच्छिनत्‌ ॥

    २०॥

    ततोन्येन रुषा जघ्ने तं चापि शतधाच्छिनत्‌ ॥

    २१॥

    मूषल--गदा से; आहत--प्रहार किया; मस्तिष्क:--खोपड़ी; विरेजे--सुशोभित हुई; रक्त--खून की; धारया--धारा से;गिरिः--पर्वत; यथा--जिस तरह; गैरिकया--गेरू से; प्रहारम्‌-- प्रहार; न--नहीं; अनुचिन्तयन्‌ू--गम्भीर मानते हुए; पुन:--फिर; अन्यम्‌--दूसरे ( वृक्ष ) को; समुद्क्षिण्प--उखाड़ कर; कृत्वा--करके; निष्पत्रम्‌ू--पत्तियों से रहित; ओजसा--बलपूर्वक;तेन--उसके द्वारा; अहनत्‌-- प्रहार किया; सु-सड्क्ुद्ध:--पुरजोर क्रोध के साथ; तमू--उसको; बल:--बलराम ने; शतधा--सैकड़ों खंडों में; अच्छिनत्‌--छिन्न-भिन्न कर डाला; तत:ः--तब; अन्येन--दूसरे से; रुषा--क्रोधपूर्वक ; जघ्ने--चूर चूर करदिया; तमू--उसको; च--तथा; अपि--भी; शतधा--सैकड़ों खंडों में; अच्छिनत्‌ू--तोड़ डाला।

    खोपड़ी पर भगवान्‌ की गदा से चोट खाकर द्विविद रक्त की धार बहने से उसी तरहसुशोभित हो रहा था जिस तरह कोई पर्वत गेरू से सुन्दर लगने लगता है।

    उसने घाव की परवाहन करके दूसरा वृक्ष उखाड़ा, बलपूर्वक उसकी पत्तियाँ विलग कीं और पुनः भगवान्‌ पर प्रहारकिया।

    अब बलराम ने क्रुद्ध होकर वृक्ष के सैकड़ों टुकड़े कर डाले।

    इस पर द्विविद ने दूसरावृक्ष हाथ में लिया और फिर से बहुत ही रोषपूर्वक भगवान्‌ पर प्रहार किया।

    भगवान्‌ ने इस वृक्षके भी सैकड़ों खण्ड कर डाले।

    एवं युध्यन्भगवता भग्ने भग्ने पुनः पुनः ।

    आकृष्य सर्वतो वृक्षान्रिर्वृक्षमकरोद्दनम्‌ ॥

    २२॥

    एवम्‌--इस प्रकार; युध्यनू--( द्विविद ने ) युद्ध करते हुए; भगवता-- भगवान्‌ द्वारा; भग्ने भग्ने--बारम्बार तोड़े जाने पर; पुनःपुनः--फिर फिर; आकृष्य--उखाड़ कर; सर्वतः--सभी ओर से; वृक्षान्‌--वृजक्षों को; निर्वृक्षम्‌--वृक्षरहित; अकरोत्‌--करदिया; वनमू--वन को |

    इस तरह भगवान्‌ से युद्ध करते द्विविद जिस भी वृक्ष से भगवान्‌ पर प्रहार करता उसकेबारम्बार विनष्ट हो जाने पर वह चारों ओर से तब तक वृक्ष उखाड़ता रहा जब तक कि जंगलवृक्षविहीन नहीं हो गया।

    ततो<मुझ्जच्छिलावर्ष बलस्योपर्यमर्षित: ।

    तत्सर्व चूर्णयां आस लीलया मुषलायुध: ॥

    २३॥

    ततः--तब; अमुझत्‌--उसने फेंका; शिला--चट्टान की; वर्षम्‌--वर्षा; बलस्य उपरि--बलराम के ऊपर; अमर्षित:--हताशहोकर; तत्‌--उस; सर्वम्‌--समस्त; चूर्णयाम्‌ आस--पीस डाला; लीलया--आसानी से; मुषल-आयुध:--गदाधारी ने |

    तत्पश्चात्‌ क्रुद्ध वानर ने बलराम पर पत्थरों की वर्षा की किन्तु उस गदाधारी ने उन सबों कोचकनाचूर कर डाला।

    स बाहू तालसड्डजाशौ मुष्टीकृत्य कपी श्वरः ।

    आसाद्य रोहिणीपुत्र ताभ्यां वक्षस्यरूरूजतू ॥

    २४॥

    सः--वह; बाहू--दोनों भुजाएँ; ताल--ताड़ के वृक्ष; सड्ढाशौ--जितनी बड़ी; मुष्ठी --मुक्का में; कृत्य--करके ; कपि--वानरोंमें; ईश्वरः--सबसे शक्तिशाली; आसाद्य--सामना करके; रोहिणी-पुत्रमू--रोहिणी के पुत्र बलराम को; ताभ्याम्‌--उन;वक्षसि--छाती पर; अरूरुजत्‌--मारा

    सर्वाधिक शक्तिशाली वानर द्विविद अब ताड़-वृक्ष जैसे आकार वाली भुजाओं के सिरे परमुक्के बाँध कर बलराम के समक्ष आया और उनके शरीर पर अपने मुक्के मारे।

    याददवेन्द्रोडपि तं दोर्भ्या त्यक्त्वा मुषललाड्ले ।

    जत्रावश्यर्दयत्क्रुद्ध: सोपतद्गुधिरं वमन्‌ ॥

    २५॥

    यादव-इन्द्र:--यादवों के प्रभु, बलराम ने; अपि-- भी; तम्‌--उसको; दोर्भ्याम्‌--अपने हाथों से; त्यक्वा--एक ओर फेंक कर;मुषल-लाडूले--गदा तथा हल; जत्रौ--हँसली पर; अभ्यर्दयत्‌--जोर का प्रहार किया; क्रुद्ध:--क्रुद्ध; सः--वह, द्विविद;अपततू--गिर पड़ा; रुधिरम्‌--रक्त; वमन्‌ू--वमन करता हुआ।

    तत्पश्चात्‌ क्रुद्ध यादवेन्द्र ने अपनी गदा और हल को एक ओर फेंक दिया और अपने खालीहाथों से द्विविद की हँसली पर जोर का प्रहार किया।

    वह वानर रक्त वमन करता हुआ भूमि परगिर पड़ा।

    चअकम्पे तेन पतता सटड्डू: सवनस्पति: ।

    पर्वतः कुरुशार्दूल वायुना नौरिवाम्भसि ॥

    २६॥

    चअकम्पे--हिल उठा; तेन--उसके; पतता--गिरने से; स--सहित; टट्ठः--चोटियों; स--सहित; वनस्पति:--वृक्ष; पर्वत: --पर्वत; कुरु-शार्टूल--हे कुरूओं में सिंह ( महाराज परीक्षित ); वायुना--वायु से; नौ: --नाव; इब--मानो; अम्भसि--जल में |

    हे कुरु-शार्दूल, जब वह गिरा तो रैवतक पर्वत अपनी चोटियों तथा वृक्षों समेत हिल उठामानो समुद्र में वायु द्वारा हिलाई गई कोई नाव हो।

    जयशब्दो नमःशब्द: साधु साध्विति चाम्बरे ।

    सुरसिद्धमुनीन्द्राणामासीत्कुसुमवर्षिणाम्‌ ॥

    २७॥

    जय-शब्द:--जय ( विजय ) की ध्वनि; नम:-शब्द:--नमः ( नमस्कार ) की ध्वनि; साधु साधु इति--बहुत अच्छा, बहुत अच्छाकी पुकार; च--तथा; अम्बरे-- आकाश में; सुर--देवताओं के; सिद्ध--सिद्धों के; मुनि-इन्द्राणामू--तथा मुनियों के;आसीत्‌--थे; कुसुम--फूल; वर्षिणाम्‌--वर्षा करते।

    स्वर्ग में देवता, सिद्धणण तथा मुनिगण निनाद करने लगे, 'आपकी जय हो, आपको नमस्कार है, बहुत अच्छा, बहुत अच्छा हुआ! ' और भगवान्‌ पर फूल बरसाने लगे।

    एवं निहत्य द्विविदं जगद्व्यतिकरावहम्‌ ।

    संस्तूयमानो भगवान्जनै: स्वपुरमाविशत्‌ ॥

    २८॥

    एवम्‌--इस प्रकार; निहत्य--मार कर; ट्विविदम्‌--ट्विविद को; जगत्‌--संसार के; व्यतिकर--उपद्रव; आवहम्‌--लाने वालेको; संस्तूयमान:--स्तुतियों द्वारा प्रशंसा किये जा रहे; भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; जनैः --लोगों द्वारा; स्व--अपने; पुरम्‌--नगर( द्वारका ) में; आविशत्‌-- प्रवेश किया

    सारे संसार में उपद्रव मचाने वाले द्विविद को इस तरह मार कर भगवान्‌ अपनी राजधानीलौट आये और लोगों ने रास्ते में उनका यशोगान किया।

    TO

    अध्याय अड़सठवाँ: सांबा का विवाह

    10.68श्रीशुक उबाच दुर्योधनसुतां राजन्लक्ष्मणां समितिंजय: ।

    स्वयंवरस्थामहरत्साम्बो जाम्बवतीसुत: ॥

    १॥

    श्री-शुक: उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; दुर्योधन-सुताम्‌-दुर्योधन की पुत्री; राजन्‌ू--हे राजा ( परीक्षित ); लक्ष्मणाम्‌ू-- लक्ष्मणा को; समितिम्‌-जय:--युद्ध में विजयी; स्वयं-बर--स्वयंवर समारोह में ; स्थाम्‌--स्थित; अहरत्‌--चुरा लिया; साम्ब:--साम्ब ने; जाम्बबती-सुत: --जाम्बवती का पुत्र |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन, जाम्बवती के पुत्र साम्ब ने जो सदैव युद्ध में विजयी होता था, दुर्योधन की पुत्री लक्ष्मणा उसके स्वयंवर समारोह से अपहरण कर लिया।

    कौरवा: कुपिता ऊचुर्दुर्विनीतोयमर्भकः ।

    कदर्थीकृत्य नः कन्यामकामामहरद्ठलातू ॥

    २॥

    कौरवा:--कुरुओं ने; कुपिता:--क्रुद्ध; ऊचु:--कहा; दुर्विनीत:--बुरे आचरण वाला; अयम्‌--यह; अर्भक:--बालक;कदर्थी-कृत्य--अपमानित करके; न:--हमको; कन्याम्‌--कुमारी लड़की को; अकामाम्‌--अनचाहे; अहरत्‌--ले गया;बलातू--बलपूर्वक

    क्रुद्ध कौरवों ने कहा : इस बुरे आचरण वाले बालक ने हमारी अविवाहिता कन्या कोउसकी इच्छा के विरुद्ध बलपूर्वक हर कर हमारा अपमान किया है।

    बध्नीतेम॑ दुर्विनीतं कि करिष्यन्ति वृष्णय: ।

    येउस्मत्प्रसादोषचितां दत्तां नो भुझ्जते महीम्‌ ॥

    ३॥

    बध्नीत--बन्दी बना लो; इमम्‌--इस; दुर्विनीतम्‌--बुरे आचरण वाले को; किम्‌ू--क्या; करिष्यन्ति--कर लेंगे; वृष्णय:--वृष्णिजन; ये--जो; अस्मत्‌--हमारी; प्रसाद--कृपा से; उपचिताम्‌--अर्जित; दत्ताम्‌--प्रदत्त; न:--हमारा; भुझ्जते-- भोग रहेहैं; महीम्‌-पृथ्वी को

    बुरे आचरण वाले इस साम्ब को बन्दी बना लो।

    आखिर वृष्णिजन हमारा क्या कर लेंगे? वेहमारी ही कृपा से हमारे द्वारा प्रदत्त पृथ्वी पर शासन कर रहे हैं।

    निगृहीतं सुतं श्रुत्वा यद्येष्यन्तीह वृष्णय: ।

    भग्नदर्पा: शमं यान्ति प्राणा इव सुसंयता: ॥

    ४॥

    निगृहीतम्‌--बन्दी बनाया; सुतम्‌--अपने पुत्र को; श्रुत्वा--सुन कर; यदि--यदि; एष्यन्ति-- आयेंगे; इह--यहाँ; वृष्णय: --वृष्णिजन; भग्न--चूर चूर; दर्पा:--जिनका घमंड; शमम्‌--शान्ति; यान्ति--प्राप्त करेंगे; प्राणा:--इन्द्रियाँ; इब--सहश; सु--उचित रीति से; संयता: --वशीभूत |

    यदि वृष्णि लोग यह सुनकर कि उनका पुत्र पकड़ा गया है यहाँ आते हैं, तो हम उनके घमंडको तोड़ डालेंगे।

    इस प्रकार से वे उसी तरह दमित हो जायेंगे जिस तरह कठोर नियंत्रण केअन्तर्गत शारीरिक इन्द्रियाँ दमित हो जाती हैं।

    इति कर्ण: शलो भूरिर्यज्ञकेतु: सुयोधन: ।

    साम्बमारेभिरे योद्धुं कुरुवृद्धानुमोदिता: ॥

    ५॥

    इति--यह कह कर; कर्ण: शलः भूरिः--कर्ण, शल तथा भूरि ( सौमदत्ति ); यज्ञकेतु: सुयोधन:--यज्ञकेतु ( भूरिश्रवा ) तथादुर्योधन; साम्बम्‌--साम्ब के विरुद्ध; आरेभिरे--रवाना हो गये; योद्धुमू-युद्ध करने के लिए; कुरु-वृद्ध--कुरुओं के गुरुजन( भीष्म ) द्वारा; अनुमोदिता: --स्वीकृति दिये जाने पर।

    यह कह कर तथा कुरुवंश के वयोवृद्ध सदस्य द्वारा अपनी योजना की स्वीकृति लेने परकर्ण, शल, भूरि, यज्ञकेतु तथा सुयोधन साम्ब पर आक्रमण करने के लिए कूच कर गए।

    इृष्ठानुधावतः साम्बो धार्तराष्ट्रान्महारथ: ।

    प्रगृह्य रुचिरं चापं तस्थौ सिंह इबैकलः ॥

    ६॥

    इष्ठा--देख कर; अनुधावत:--अपनी ओर दौड़ते हुए; साम्ब:--साम्ब; धार्तराष्ट्रानू-- धृतराष्ट्र के अनुयायियों को; महारथ:--महान्‌ रथ-योद्धा; प्रगृह्य--पकड़ कर; रुचिरम्‌--सुन्दर; चापमू-- अपना धनुष; तस्थौ--खड़ा रहा; सिंहः--सिंह; इब--सहश;एकलः:--अकेला।

    दुर्योधन तथा उसके साथियों को अपनी ओर दौड़ते देखकर, महारथी साम्ब ने अपना सुन्दरधनुष धारण कर लिया और वह सिंह की तरह अकेला खड़ा हो गया।

    त॑ ते जिधृक्षव: क्रुद्धास्तिष्ठ तिष्ठति भाषिण: ।

    आसाद्य धन्विनो बाणै: कर्णाग्रण्य: समाकिरन्‌ ॥

    ७॥

    तम्‌--उसको; ते--वे; जिघृक्षव:ः--पकड़ने के लिए हृढ़-संकल्प; क्रुद्धा:--क्रुद्ध; तिष्ठ तिष्ठ इति--जरा ठहरो, ठहरो;भाषिण:--कहते हुए; आसाद्य--सामने आकर; धन्विन:ः--धनुर्धर; बाणै:ः--अपने बाणों से; कर्ण-अग्रण्य:--कर्ण इत्यादि ने;समाकिरन्‌--उस पर वर्षा की ।

    पकड़ने के लिए कृतसंकल्प, क्रुद्ध कर्ण इत्यादि धनुर्धरों ने जोर-जोर से साम्ब से कहा,'ठहरो और युद्ध करो, ठहरो और युद्ध करो।

    ' वे उसके पास आये और उस पर बाणों की वर्षाकरने लगे।

    सोपविद्धः कुरु श्रेष्ठ कुरुभिर्यदुनन्दनः ।

    नामृष्यत्तदचिन्त्यार्भ: सिंह क्षुद्रमृगैरिव ॥

    ८ ॥

    सः--वह; अपविद्ध:--अन्यायपूर्वक आक्रमण किया गया; कुरु-श्रेष्ट--हे कुरु- श्रेष्ठ ( परीक्षित महाराज ); कुरुभि:ः--कुरुओंद्वारा; यदु-नन्दन:--यदुकुल के प्रिय पुत्र ने; न अमृष्यत्‌--सहन नहीं किया; तत्‌--उसे; अचिन्त्य-- भगवान्‌ कृष्ण का;अर्भ:--बालक; सिंह:--सिंह; क्षुद्र--नगण्य; मृगैः--पशुओं द्वारा; इब--सहृश |

    हे कुरु-श्रेष्ठ, चूँकि कृष्ण के पुत्र साम्ब को कुरुगण अनैतिक रीति से तंग कर रहे थे अतःयदुकुल का वह प्रिय पुत्र उनके आक्रमण को सहन नहीं कर सका जिस तरह एक सिंह श्षुद्रपशुओं के आक्रमण को सहन नहीं कर पाता।

    विस्फूर्ज्य रुचिरं चाप॑ सर्वान्विव्याध सायकै: ।

    कर्णादीन्षड्रथान्वीरस्तावद्धिर्युगपत्पूृथक्‌ ॥

    ९॥

    चतुर्मिश्चतुरो वाहानेकेकेन च सारथीन्‌ ।

    रथिनश्व महेष्वासांस्तस्य तत्ते भ्यपूजयन्‌ ॥

    १०॥

    विस्फूर्ण्य--टंकार करके; रुचिरमू-- आकर्षक; चापम्‌--अपने धनुष को; सर्वान्‌ू--सबों को; विव्याध--बेध डाला;सायकै:--बाणों से; कर्ण-आदीन्‌--कर्ण तथा अन्यों को; घट्‌--छः; रथान्‌ू--रथों को; वीर: --वीर, साम्ब ने; तावद्धिः--उतने ही; युगपत्‌ू--एकसाथ; पृथक्‌--अलग अलग; चतुर्भि: --चार ( बाणों ) से; चतुरः--चार; वाहान्‌--घोड़ों को ( प्रत्येकरथ के ); एक-एकेन--एक-एक से; च--तथा; सारथीन्‌--सारथियों को; रथिन:--रथ की बागडोर सँभालने वाले योद्धाओंको; च--तथा; महा-इषु-आसान्‌--बड़े बड़े धनुर्धरों को; तस्य--उसका; तत्‌--वह; ते--उन्होंने; अभ्यपूजयन्‌ू--आदरकिया।

    अपने अद्भुत धनुष को टंकार करके वीर साम्ब ने बाणों से कर्ण आदि छहों योद्धाओं परप्रहार किया।

    उसने छहों रथों को उतने ही बाणों से, चारों घोड़ों की टोली को चार बाणों से औरप्रत्येक सारथी को एक एक बाण से बेध डाला।

    इसी तरह उसने रथों की बागडोर सँभालने वाले( रथी ) महान्‌ धनुर्धरों पर भी प्रहार किया।

    शत्रु योद्धाओं ने साम्ब को उसके इस पराक्रम प्रदर्शनके लिए बधाई दी।

    तं तुते विरथं चक्रुश्वत्वारश्नतुरो हयान्‌ ।

    एकस्तु सारथि जघ्ने चिच्छेदण्य: शरासनम्‌ ॥

    ११॥

    तम्‌--उसको; तु--लेकिन; ते--उन्होंने; विरथम्‌--रथविहीन; चक्कुः--किया गया; चत्वार: --चार; चतुरः --उनमें से चार;हयानू--घोड़ों को; एक:--एक ने; तु--तथा; सारधिम्‌--सारथी को; जघ्मे--मारा; चिछेद--चीर डाला; अन्य: --दूसरा; शर-असनमू--उसके धनुष को।

    किन्तु उन्होंने उसे रथ से नीचे उतरने पर विवश कर दिया और उसके बाद उनमें से चार नेउसके चारों घोड़ों को मार दिया, एक ने उसके सारथी को मार डाला और दूसरे ने उसके धनुषको तोड़ डाला।

    त॑ बद्ध्वा विरथीकृत्य कृच्छेण कुरवो युधि ।

    कुमारं स्वस्थ कन्यां च स्वपुरं जयिनोविशन्‌ ॥

    १२॥

    तमू--उसको; बद्ध्वा--बाँधकर; विरथी-कृत्य--उसको रथ से विहीन करके; कृच्छेण --कठिनाई से; कुरव:--कुरुओं ने;युधि--युद्ध में; कुमारमू--कुमार या बालक को; स्वस्य--अपनी; कन्याम्‌--पुत्री; च--तथा; स्व-पुरम्‌--अपने नगर;जयिन:ः--विजयी; अविशनू--प्रवेश किया |

    युद्ध के दौरान साम्ब को रथविहीन करके कुरु-योद्धाओं ने बड़ी मुश्किल से उसे बाँधलिया और तब वे उस कुमार तथा अपनी राजकुमारी को लेकर विजयी भाव से अपने नगर मेंप्रविष्ट हुए।

    तच्छ॒त्वा नारदोक्तेन राजन्सज्जातमन्यवः ।

    कुरूय्प्रत्युद्यमं चक्रुरुग्रसेनप्रचोदिता: ॥

    १३॥

    तत्‌--यह; श्रुत्वा--सुनकर; नारद--नारदमुनि के; उक्तेन--कथनों से; राजन्‌ू--हे राजा ( परीक्षित ); सज्ञात--जागा हुआ;मन्यव:ः--जिसका क्रोध; कुरून्‌ू--कुरुओं के; प्रति--प्रति; उद्यमम्‌--युद्ध की तैयारियाँ; चक्रु:--कीं; उग्रसेन--उग्रसेन द्वारा;प्रचोदिता:--प्रेरित

    हे राजन, जब यादवों ने श्री नारद से यह समाचार सुना तो वे क्रुद्ध हो उठे।

    राजा उग्रसेनद्वारा प्रेरित किये जाने पर उन्होंने कुरूओं के विरुद्ध युद्ध की तैयारी कर ली।

    सान्त्वयित्वा तु तान्रामः सन्नद्धान्वृष्णिपुड्रवान्‌ ।

    नैच्छत्कुरूणां वृष्णीनां कलिं कलिमलापह: ॥

    १४॥

    जगाम हास्तिनपुरं रथेनादित्यवर्चसा ।

    ब्राह्मण: कुलवृद्धैश्च वृतश्चन्द्र इव ग्रह: ॥

    १५॥

    सान्त्वयित्वा--शान्त करके; तु--लेकिन; तान्‌ू--उनको; राम:--बलराम; सन्नद्धानू--कवच पहने; वृष्णि-पुड्रवान्‌--वृष्णिवंशीवबीरों को; न ऐच्छत्‌--नहीं चाहा; कुरूणाम्‌ वृष्णीनाम्‌ू--कुरुओं तथा वृष्णियों के मध्य; कलिमू--कलह, झगड़ा; कलि--कलह के युग का; मल--कल्मष; अपहः --हटाने वाले; जगाम--गया; हास्तिन-पुरम्‌--हस्तिनापुर; रथेन--अपने रथ से;आदित्य--सूर्य ( सहश ); वर्चसा--तेज वाले; ब्राह्मणैः:--ब्राह्मणों के साथ; कुल--परिवार के; वृद्धैः--गुरुजनों के साथ;च--तथा; वृतः--घिरे हुए; चन्द्र: --चन्द्रमा; इब--सहश; ग्रहैः--सात ग्रहों से ।

    किन्तु भगवान्‌ बलराम ने वृष्णि-वीरों के क्रोध को शान्त किया जिन्होंने पहले से अपनेकवच धारण कर लिये थे।

    कलह के युग को शुद्ध करने वाले ( बलराम ) कुरुओं तथा वृष्णियों के बीच कलह नहीं चाहते थे।

    अतः वे ब्राह्मणों तथा परिवार के गुरुजनों ( बड़े-बूढ़ों ) के साथअपने रथ पर हस्तिनापुर गये।

    उनका रथ सूर्य की तरह तेजोमय था।

    जब वे जा रहे थे तो ऐसेलग रहे थे मानो प्रधान ग्रहों द्वारा घिरा चन्द्रमा हो।

    गत्वा गजाह्ययं रामो बाह्योपवनमास्थित: ।

    उद्धवं प्रेषयामास धृतराष्ट्रं बुभुत्सया ॥

    १६॥

    गत्वा--जाकर; गजाह्यम्‌ू--हस्तिनापुर; राम:-- बलराम; बाह्य --बाहर; उपवनम्‌--बगीचे में; आस्थित:--ठहर गये;उद्धवम्‌--उद्धव को; प्रेषयाम्‌ आस--भेजा; धृतराष्ट्रमू-- धृतराष्ट्र के विषय में; बुभुत्सया--जानने की इच्छा से |

    हस्तिनापुर पहुँचकर बलराम नगर के बाहर एक बगीचे में रह गए और उद्धव को धुृतराष्ट्र केइरादों का पता लगाने के लिए आगे भेज दिया।

    सोभिवन्द्याम्बिकापुत्रं भीष्म द्रोणं च बाहिकम्‌ ।

    दुर्योधनं च विधिवद्राममागतं अब्नवीत्‌ ॥

    १७॥

    सः--वह, उद्धव; अभिवन्द्य--वन्दना करके ; अम्बिका-पुत्रमू--अम्बिका-पुत्र, धृतराष्ट्र को; भीष्मम्‌ द्रोणम्‌ च-- भीष्म तथाद्रोण को; बाहिकम्‌ दुर्योधनम्‌ च--तथा बाहिक और दुर्योधन को; विधि-वत्‌--शास्त्रों के आदेशानुसार; राममू--बलराम को;आगतम्‌--आया हुआ; अब्नवीत्‌--उसने कहा

    अम्बिका-पुत्र ( धृतराष्ट्र ) तथा भीष्म, द्रोण, बाहिक तथा दुर्योधन को समुचित आदर देकरउद्धव ने उन्हें बतलाया कि भगवान्‌ बलराम आ गये हैं।

    तेअतिप्रीतास्तमाकर्ण्य प्राप्तं राम सुहृत्तमम्‌ ।

    तमर्चयित्वाभिययु: सर्वे मड्डलपाणय: ॥

    १८ ॥

    ते--वे; अति--अत्यन्त; प्रीता:--प्रसन्न; तम्‌ू--उससे; आकर्ण्य--सुनकर; प्राप्तम्‌--आया हुआ; रामम्‌--बलराम को; सुहत्‌-तमम्‌--अपने प्रियतम मित्र; तम्‌--उसको, उद्धव को; अर्चयित्वा--पूज कर; अभिययु:--गये; सर्वे--वे सभी; मकल--शुभभेंटें; पाणय:--अपने हाथों में |

    यह सुनकर कि उनके प्रियतम मित्र बलराम आ चुके हैं, वे अत्यधिक प्रसन्न हुए औरसर्वप्रथम उन्होंने उद्धव का आदर किया।

    तत्पश्चात्‌ वे अपने हाथों में शुभ भेंटें लेकर भगवान्‌ सेमिलने गये।

    त॑ सड्भम्य यथान्यायं गामर्ध्य च॒ न्‍्यवेदयन्‌ ।

    तेषां ये तत्प्रभावज्ञा: प्रणेमु: शिरसा बलम्‌ ॥

    १९॥

    तम्‌--उसके; सड्गडम्य--पास जाकर; यथा--जिस तरह; न्यायम्‌ू--उचित; गाम्‌--गौवें; अर्ध्यम्‌--अर्घध्यजल; च--तथा;न्यवेदयन्‌-- भेंट किया; तेषाम्‌--उनमें से; ये--जो; तत्‌--उसकी; प्रभाव--शक्ति; ज्ञा:--जानने वाले; प्रणेमु:--प्रणाम किया;शिरसा--अपने सिरों से; बलम्‌ू--बलराम को |

    वे भगवान्‌ बलराम के पास गये और गौबों तथा अर्ध्य की भेंटों से, यथोचित विधि से उनकीपूजा की।

    कुरुओं में से उन लोगों ने जो उनकी असली शक्ति से परिचित थे भूमि को सिर से छूकर उन्हें प्रणाम किया।

    बन्धून्कुशलिन: श्रुत्वा पृष्ठा शिवमनामयम्‌ ।

    'परस्परमथो रामो बभाषेविक्लवं बच: ॥

    २०॥

    बन्धूनू--उनके सम्बन्धियों को; कुशलिन:ः --कुशलपूर्वक; श्रुत्वा--सुनकर; पृष्ठा --पूछ कर; शिवम्‌--उनकी कुशल-मंगल;अनामयम्‌--तथा स्वास्थ्य; परस्परम्‌--एक-दूसरे में; अथ उ--तत्पश्चात; राम: --बलराम; बभाषे--बोला; अविक्लवमू--सीधे;बच: -शब्द।

    जब दोनों पक्षों ने सुन लिया कि उनके सम्बन्धीगण कुशल-मंगल से हैं और दोनों ने एक-दूसरे से कुशल-मंगल तथा स्वास्थ्य के विषय में पूछताछ कर ली तो बलराम ने कुरुओं से सीधेतौर पर इस प्रकार से कहा।

    उग्रसेन: क्षितेशेशो यद्व आज्ञापयत्प्रभु: ।

    तदव्यग्रधिय: श्रुत्वा कुरुध्वमविलम्बितम्‌ ॥

    २१॥

    उग्रसेन:--राजा उग्रसेन ने; क्षित--पृथ्वी के; ईश--शासकों का; ईश:--शासक; यत्‌--जो; वः--तुमसे; आज्ञापयत्‌--यहमाँग की है; प्रभु:--हमारे स्वामी; तत्‌ू--वह; अव्यग्र-धिय:--एकाग्र होकर; श्रुत्वा--सुनकर; कुरु ध्वम्‌--तुम लोगों को करनाचाहिए; अविलम्बितम्‌--बिना देर लगाये।

    बलरामजी ने कहा : राजा उग्रसेन हमारे स्वामी तथा राजाओं के भी शासक हैं।

    तुम लोगएकाग्र चित्त से उसे सुन लो जो उन्होंने तुम लोगों को करने के लिए कहा है और तब उसे तुरन्तकरो।

    यद्यूयं बहवस्त्वेक॑ जित्वाधमेंण धार्मिकम्‌ ।

    अबध्नीताथ तन्मृष्ये बन्धूनामैक्यकाम्यया ॥

    २२॥

    यतू्‌--जो; यूयम्‌--तुम सभी; बहव: -- अनेक; तु--लेकिन; एकम्‌--एक व्यक्ति को; जित्वा--जीत कर; अधर्मेण-- धर्म केविरुद्ध; धार्मिकम्‌-- धर्म का पालन करने वाले को; अबध्नीत--तुमने बाँध लिया है; अथ--ऐसा होते हुए भी; तत्‌--वह;मृष्ये--मैं सहन कर रहा हूँ; बन्धूनाम्‌--सम्बन्धियों के बीच; ऐक्य--एकता के लिए; काम्यया--इच्छा से |

    राजा उग्रसेन ने कहा है : यद्यपि तुम में से कई ने अधर्म का सहारा लेकर धर्म केसिद्धान्तों पर चलने वाले अकेले प्रतिद्वन्द्ी को पराजित किया है फिर भी मैं पारिवारिक सदस्योंमें एकता बनाये रखने के लिए यह सब सहन कर रहा हूँ।

    वीर्यशौर्यबलोन्नद्धमात्मशक्तिसमं वच: ।

    कुरवो बलदेवस्य निशम्योचु: प्रकोषिता: ॥

    २३॥

    वीर्य--शक्ति; शौर्य--साहस; बल--तथा बल से; उन्नद्धम्‌--पूरित; आत्म--अपनी; शक्ति--शक्ति; समम्‌--उपयुक्त; बच: --शब्द; कुरवः--कौरवजन; बलदेवस्य--बलदेव के; निशम्य--सुनकर; ऊचु:--बोले; प्रकोपिता:

    -क्रुद्ध बलराम के पराक्रम, साहस तथा बल से पूरित एवं उनकी शक्ति के समरुप इन शब्दों कोसुनकर कौरवगण क्रुद्ध हो उठे और इस प्रकार बोले।

    अहो महतच्चित्रमिदं कालगत्या दुरत्यया ।

    आरुरुक्षत्युपानद्वै शिरो मुकुटसेवितम्‌ ॥

    २४॥

    अहो--ओह; महत्‌--अतीव; चित्रमू--आश्चर्य; इदम्‌--यह; काल--समय की; गत्या--गति से; दुरत्यया--दुर्निवार, दुर्लघ्य;आरुरक्षति--चोटी पर चढ़ना चाहता है; उपानत्‌--जूता; बै--निस्सन्देह; शिर:--सिर; मुकुट--मुकुट से युक्त; सेवितमू--सुशोभित

    कुरुनायकों ने कहा : ओह, यह कितनी विचित्र बात है! काल की गति निस्सन्देह दुर्लघ्यहै--अब ( पैरों की ) एक जूती उस सिर पर चढ़ना चाहती है, जिसमें राजमुकुट सुशोभित है।

    एते यौनेन सम्बद्धा: सहशय्यासनाशना: ।

    वृष्णयस्तुल्यतां नीता अस्मद्तत्तनृपासना: ॥

    २५॥

    एते--ये; यौनेन--वैवाहिक सम्बन्ध द्वारा; सम्बद्धा:--जुड़े हुए; सह--साथ साथ; शय्या--बिस्तर; आसन--आसन;अशना:--तथा भोजन; वृष्णय:--वृष्णिगण; तुल्यताम्‌--समानता पर; नीता:--लाये गये; अस्मत्‌--हमारे द्वारा; दत्त--दियाहुआ; नृप-आसना: --राज-सिंहासन |

    चूँकि ये वृष्णिजन हमसे वैवाहिक सम्बन्धों से बँधे हैं इसलिए हमने इन्हें अपनी शय्या,आसन तथा भोजन में बराबरी का पद दे रखा है।

    असल में तो हमीं ने इन्हें राज-सिंहासन प्रदानकिया है।

    चामरव्यजने शह्डुमातपत्र च पाण्डुरम्‌ ।

    किरीटमासन शब्यां भुझ्जतेस्मदुपेक्षया ॥

    २६॥

    चामर--चमरी की पूँछ के बाल के; व्यजने--दो पंखे; शट्डम्‌--शंख; आतपत्रम्‌--छाता; च--तथा; पाण्डुरम्‌-- श्वेत;किरीटमू--मुकुट; आसनमू--आसन; शब्याम्‌--राजशय्या का; भुझ्जते-- भोग करते हैं; अस्मत्‌--हमारी; उपेक्षया--उपेक्षा से |

    चूँकि हमने परवाह नहीं की इसलिए वे चमरी के पंखे तथा शंख, श्रेत छाता, सिंहासन तथाराजशय्या का भोग कर सके।

    अलं यदूनां नरदेवलाउ्छनै-दातु: प्रतीप: फणिनामिवामृतम्‌ ।

    येअस्मत्प्रसादोपचिता हि यादवाआज्ञापयन्त्यद्य गतत्रपा बत ॥

    २७॥

    अलमू--बस; यदूनाम्‌--यदुओं के लिए; नर-देव--राजाओं के; लाउ्छनै:--प्रतीकों से; दातु:ः--देने वाले के लिए; प्रतीपैः--विपरीत; फणिनाम्‌--साँपों के लिए; इब--सहृश; अमृतम्‌-- अमृत; ये--जो; अस्मत्‌--हमारी; प्रसाद--कृपा से; उपचिता:--समृद्ध बने हुए; हि--निस्सन्देह; यादवा:ः --यदुगण; आज्ञापयन्ति-- आदेश दे रहे हैं; अद्य-- अब; गत-त्रपा:--लाज खोकर;बत--निस्सन्देह |

    अब यदुओं को इससे आगे इन राजसी प्रतीकों का उपयोग न करने दिया जाय क्योंकि अबये प्रदान करने वालों के लिए कष्टप्रद बन रहे हैं जिस तरह विषैले साँपों को पिलाया गया दूध।

    ये यादवगण हमारी कृपा से समृद्ध बनकर अब सारी लाज शर्म खो चुके हैं और हमें आदेश देनेका दुस्साहस कर रहे हैं।

    कथमिन्द्रोडपि कुरुभिर्भीष्मद्रोणार्जुनादिभि: ।

    अदत्तमवरुन्धीत सिंहग्रस्तमिवोरण: ॥

    २८॥

    कथम्‌-कैसे; इन्द्रः--इनद्र; अपि-- भी; कुरुभि: --कुरुओं के द्वारा; भीष्य-द्रोण-अर्जुन-आदिभि:-- भीष्म, द्रोण, अर्जुनइत्यादि के द्वारा; अदत्तमू--न दिया हुआ; अवरुन्धीत--हड़प कर लेंगे; सिंह--सिंह द्वारा; ग्रस्तम्‌--पकड़ी गयी; इब--सहृश;उरण:ः--भेड़, मेमना |

    भला इन्द्र भी किसी वस्तु को हड़पने का दुस्साहस कैसे कर सकता है, जिसे भीष्म, द्रोण,अर्जुन या अन्य कुरुजनों ने उसे नहीं दिया है? यह तो वैसा ही है जैसे मेमना सिंह के वध कीमाँग करे।

    श्रीबादरायणिरुवाचजन्मबन्धुश्रीयोत्रद्धमदास्ते भरतर्षभ ।

    आश्षाव्य राम॑ दुर्वाच्यमसभ्या: पुरमाविशन्‌ ॥

    २९॥

    श्री-बादरायनि: उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; जन्म--जन्म; बन्धु--तथा सम्बन्ध का; श्रीया--ऐश्वर्य से; उन्नद्ध--महान्‌बनाया गया; मदा:--नशा; ते--वे; भरत-ऋषभ--हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ; आश्राव्य--सुनवाकर; रामम्‌--बलराम को;दुर्वाच्यमू--कटु वचन; असभ्या: --गँवार व्यक्ति; पुरमू--नगर में; आविशनू-प्रविष्ट हुए

    श्रीबादरायण ने कहा, हे भारतों में श्रेष्ठ, अपने उच्च जन्म तथा सम्बन्धों के ऐश्वर्य से फूलकर कुप्पा हुए घमंडी कुरु जब ये कटु वचन बलराम से कह चुके तो वे अपने नगर को वापसचले गये।

    इष्ठा कुरूनां दौःशील्यं श्रुत्वावाच्यानि चाच्युत: ।

    अवोचत्कोपसंरब्धो दुष्प्रेक्ष्य: प्रहसन्मुहु: ॥

    ३०॥

    इृष्ठा--देखकर; कुरूणाम्‌ू--कुरूओं का; दौःशील्यम्‌--दुश्वरित्र; श्रुव्वा--सुनकर; अवाच्यानि--न कहने योग्य शब्द; च--तथा; अच्युत:--अच्युत बलराम ने; अवोचत्‌--कहा; कोप--क्रोध से; संरब्ध:--क्रुद्ध; दुष्प्रेक्ष्ः--देखना कठिन; प्रहसन्‌--हँसते हुए; मुहुः--बारम्बार।

    कुरुओं के दुराचरण को देखकर तथा उनके भद्दे शब्दों को सुनकर अच्युत भगवान्‌ बलरामक्रोध से उबल पड़े।

    उनका मुखमण्डल देखने में भयावना था और बारम्बार हँसते हुए वे इसप्रकार बोले।

    नूनं नानामदोन्नद्धा: शान्ति नेच्छन्त्यसाधव: ।

    तेषां हि प्रशमो दण्ड: पशूनां लगुडो यथा ॥

    ३१॥

    नूनमू--निश्चय ही; नाना--विविध; मद--कामवासनाओं से; उन्नद्धा:--फूलकर कुप्पा हुए; शान्तिमू--शान्ति; न इच्छन्ति--इच्छा नहीं करते; असाधव: --बदमाश; तेषाम्‌--उनके; हि--निस्सन्देह; प्रशम:ः--समझाना-बुझाना; दण्ड:--शारीरिक दण्ड;पशूनामू--पशुओं के लिए; लगुडः--लाठी; यथा--जिस तरह |

    भगवान्‌ बलराम ने कहा : 'स्पष्ट है कि इन बदमाशों की विविध वासनाओं ने इन्हें इतनादम्भी बना दिया है कि वे शान्ति चाहते ही नहीं।

    तो फिर इन्हें शारीरिक दण्ड द्वारा समझाना-बुझाना होगा जिस तरह लाठी से पशुओं को सीधा किया जाता है।

    अहो यदून्सुसंरब्धान्कृष्णं च कुपितं शनैः ।

    सान्त्वयित्वाहमेतेषां शममिच्छन्निहागत: ॥

    ३२॥

    त इमे मन्दमतय: कलहाभिरता: खला: ।

    त॑ मामवज्ञाय मुहुर्दुर्भाषान्मानिनोब्रुवन्‌ ॥

    ३३॥

    अहो--ओह; यदून्‌ू--यदुओं को; सु-संरब्धान्‌ू--क्रोध से उबल रहे; कृष्णम्‌--कृष्ण को; च-- भी; कुपितम्‌-क्रुद्ध; शनैः --धीरे धीरे; सान्त्वयित्वा--शान्त करके; अहम्‌--मैं; एतेषाम्‌--इन ( कौरवों ) के लिए; शमम्‌--शान्ति; इच्छन्‌--चाहते हुए;इह--यहाँ; आगत:--आया; ते इमे--वे ही ( कुरूुजन ); मन्द-मतयः--दुर्बुब्धि; कलह--झगड़ने के लिए; अभिरता:--इच्छुक,लिप्त; खला:--दुष्ट; तम्‌ू--उसको; माम्‌--मुझको; अवज्ञाय--अनादर करके; मुहुः--बारम्बार; दुर्भाषानू--कटु वचन;मानिन:--गर्वित होकर; अब्रुवन्‌--उन्होंने कहे हैं ।

    'ओह! मैं धीरे धीरे ही क्रुद्ध यदुजनों तथा कृष्ण को भी, जिन्हें क्रोध आ गया था शान्त करसका था।

    मैं इन कौरवों के लिए शान्ति की कामना करते हुए यहाँ आया।

    किन्तु ये इतने मूर्ख,स्वभाव से कलह-प्रिय तथा दुष्ट हैं कि इन्होंने बारम्बार मेरा अनादर किया है।

    दम्भ के कारणइन्होंने मुझसे कटु वचन कहने का दुस्साहस किया है।

    नोग्रसेन: किल विभुर्भोजवृष्णयन्धके श्वर: ।

    शक्रादयो लोकपाला यस्यादेशानुवर्तिन: ॥

    ३४॥

    न--नहीं; उग्रसेन: --राजा उग्रसेन; किल--निस्सन्देह; विभु;:--आदेश देने के योग्य; भोज-वृष्णि-अन्धक--भोजों, वृष्णियोंतथा अन्धकों के; ईश्वर: --स्वामी; शक्र-आदय:--इन्द्र तथा अन्य देवता; लोक--लोकों के; पाला:--शासक; यस्य--जिसकी; आदेश--आज्ञा के; अनुवर्तिन:--अनुयायी |

    'क्या भोजों, वृष्णियों तथा अन्धकों के स्वामी राजा उग्रसेन आदेश देने योग्य नहीं हैंजबकि इन्द्र तथा अन्य लोकपालक उनके आदेशों का पालन करते हैं ?

    सुधर्माक्रम्यते येन पारिजातोमराड्प्रिप: ।

    आनीय भुज्यते सोडइसौ न किलाध्यासनाईण: ॥

    ३५॥

    सुधर्मा--सफ्वर्ग का राज सभाभवन, सुधर्मा; आक्रम्यते--अधिकार में रखता है; येन--जिसके ( कृष्ण ) द्वारा; पारिजात:--पारिजात नामक; अमर--अमर देवताओं का; अद्धध्रिप:--वृक्ष; आनीय--लाकर; भुज्यते-- भोगा जाता है; सः असौ--वहीपुरुष; न--नहीं; किल--निस्सन्देह; अध्यासन--उच्च आसन; अर्हण: --योग्य |

    'वही कृष्ण जो सुधर्मा सभाभवन के अधिकारी हैं और जिन्होंने अपने आनन्द के लिएअमर देवताओं से पारिजात वृक्ष ले लिया--क्या वही कृष्ण राजसिंहासन पर बैठने योग्य नहींहैं?

    यस्य पादयुगं साक्षाच्छीरुपास्ते खिले श्वरी ।

    स नाईति किल श्रीशो नरदेवपरिच्छदान्‌ ॥

    ३६॥

    यस्य--जिसके; पाद-युगम्‌--दो पैर; साक्षात्‌--स्वयं; श्री:--लक्ष्मीजी; उपास्ते--पूजा करती हैं; अखिल--समस्त ब्रह्माण्डकी; ईश्वरी--स्वामिनी; सः--वह; न अर्हति--योग्य नहीं हैं; किल--निस्सन्देह; श्री-ईशः--लक्ष्मी के पति; नर-देव--मानवराजा की; परिच्छदान्‌ू--साज-सामग्री

    समस्त ब्रह्माण्ड की स्वामिनी साक्षात्‌ लक्ष्मीजी उनके पैरों की पूजा करती हैं।

    और उन्हींलक्ष्मी के पति क्‍या मर्त्य राजा की साजसामग्री के पात्र नहीं हैं ?

    यस्याड्प्रिपड्डजरजोखिललोकपालै-मौल्युत्तमै्थृतमुपासिततीर्थतीर्थम्‌ ।

    ब्रह्मा भवोहमपि यस्य कला: कलाया:श्रीक्षोद्देदेम चिरमस्य नृपासनं क्व ॥

    ३७॥

    यस्य--जिसके; अड्प्रि--पैरों की; पड्डुज--कमल सहृश; रज:-- धूल; अखिल--समस्त; लोक--लोकों के; पालैः--शासकोंद्वारा; मौलि--मुकुट; उत्तमैः--उत्तम, श्रेष्ठ; धृतम्‌ू-- धारण किया हुआ; उपासित--पूज्य; तीर्थ--तीर्थस्थानों का; तीर्थम्‌--तीर्थ,पवित्रता का उद्गम; ब्रह्मा-लोर्दू ब्रह्म; भव:--ब्रह्मा; अहम्‌--; अपि--; यस्य--; कला: ---; कलाया:--; श्री:--; च--;उद्देदम--; चिरमू--; अस्य-- ; नृप-आसनम्‌--; क्व--यस्य--जिसके; अड्घ्र--पैरों की; पड्टूज--कमल सहश; रज:--धूल; अखिल--समस्त; लोक--लोकों के; पालै--शासकोंद्वारा; मौलि--मुकुट; उत्तमै--उत्तम, श्रेष्ठ; धृतमू-- धारण किया हुआ; उपासित--पूज्य; तीर्थ--तीर्थस्थानों का; तीर्थम्‌--तीर्थ,पवित्रता का उद्गम; ब्रह्मा--ब्रह्मा; भव: --शिव; अहम्‌--मैं; अपि-- भी; यस्य--जिसके; कला: -- अंश; कलाया--अंश के;श्री:--लक्ष्मी; च-- भी; उद्देम-- धारण करते हैं; चिरम्‌--निरन्तर; अस्य--उसका; नृप-आसनमू्‌--राजसिंहासन; क्व--कहाँ।

    'कृष्ण के चरण-कमलों की धूल, जो सभी तीर्थस्थानों के लिए पवित्रता की उद्गम है बड़ेबड़े देवताओं द्वारा पूजी जाती है।

    समस्त लोकों के प्रधान देवता उनकी सेवा में लगे रहते हैं औरअपने मुकुटों पर कृष्ण के चरणकमलों की धूल धारण करके अपने को परम भाग्यशाली मानतेहैं।

    ब्रह्मा तथा शिवजी जैसे बड़े बड़े देवता, यहाँ तक कि लक्ष्मीजी और मैं भी उनके दिव्यव्यक्तित्व के अंश हैं और हम भी उस धूल को बड़ी सावधानी से अपने सिरों पर धारण करते हैं।

    क्या इतने पर भी कृष्ण राजप्रतीकों का उपयोग करने या राजसिंहासन पर बैठने के योग्य नहींहैं?

    भुज्जञते कुरुभिर्दत्तं भूखण्डं वृष्णय: किल ।

    उपानहः किल बय॑ स्वयं तु कुरवः शिर: ॥

    ३८॥

    भुझ्ते-- भोग करते हैं; कुरूभि:--कुरुओं द्वारा; दत्तमू--दिया हुआ; भू-- भूमि; खण्डम्‌--सीमित भाग; वृष्णय:--वृष्णिगण;किल--निस्सन्देह; उपानह:--जूते; किल--निस्सन्देह; वयम्‌--हम; स्वयम्‌--स्वयं; तु--लेकिन; कुरव:--कुरुगण; शिर:--सिर

    हम वृष्णिगण केवल उस छोटे से भूभाग का भोग करते हैं जिस किसी की कुरुगण हमेंअनुमति देते हैं? और हम निस्सन्देह जूते हैं जबकि कुरुगण सिर हैं?

    अहो ऐश्वर्यमत्तानां मत्तानामिव मानिनाम्‌ ।

    असम्बद्धा गिऋओ रुक्षा: कः सहेतानुशासीता ॥

    ३९॥

    अहो--ओह; ऐश्वर्य--अपनी शासनशक्ति से; मत्तानामू--उन्मत्तों के; मत्तानामू--शारीरिक रूप से उन्मत्तों के; इब--मानो;मानिनामू--अभिमानी; असम्बद्धा:--बेतुके तथा बिना सिर-पैर के; गिर:--शब्द; रुक्षा:--कर्कश; कः--कौन; सहेत--सहसकता है; अनुशासीता--आदेश देने वाला।

    'जरा देखो तो इन अभिमानी कुरुओं को जो सामान्य शराबियों की तरह अपने तथाकथितअधिकार से उन्मत्त हैं! ऐसा कौन वास्तविक शासक, जो आदेश देने के अधिकार से युक्त है,उनके मूर्खतापूर्ण एवं बेतुके शब्दों को सह सकेगा ?

    अद्य निष्कौरवां पृथ्वीं करिष्यामीत्यमर्षित: ।

    गृहीत्वा हलमुत्तस्थौ दहन्निव जगत्त्रयम्‌ ॥

    ४०॥

    अद्य--आज; निष्कौरवां--कौरवों से विहीन; पृथ्वीम्‌--पृथ्वी; करिष्यामि-- करूँगा; इति--इस प्रकार कह कर; अमर्षित:--क्ुद्ध; गृहीत्वा--लेकर; हलमू--अपना हल; उत्तस्थौ--उठ खड़े हुए; दहन्‌--जलाते हुए; इब--मानो; जगत्‌--लोकों को;अयम्‌--तीनों |

    क्रुद्ध बलराम ने घोषणा की, 'आज मैं पृथ्वी को कौरवों से विहीन कर दूँगा।

    ' यह कहकरउन्होंने अपना हलायुध ले लिया और उठ खड़े हुए मानो तीनों लोकों को स्वाहा करने जा रहे हों।

    लाडुलाग्रेण नगरमुद्विदार्य गजाह्ययम्‌ ।

    विचकर्ष स गड्जायां प्रहरिष्यन्नमर्थित: ॥

    ४१॥

    लाड्ूल--हल की; अग्रेण--नोक से; नगरम्‌--नगर को; उद्ठिदार्य--फाड़कर; गजाह्ययम्‌--हस्तिनापुर को; विचकर्ष --खींचा;सः--उसने; गड्जयाम्‌--गंगा में; प्रहरिष्यन्‌ू--फेंकने ही वाले; अमर्षित:-क्रुद्ध |

    भगवान्‌ ने क्रुद्ध होकर अपने हल की नोक से हस्तिनापुर को उखाड़ा और सम्पूर्ण नगर कोगंगा नदी में फेंकने की मंशा से उसे घसीटने लगे।

    जलयानमिवाधूर्ण गड़ायां नगरं पतत्‌ ।

    आकृष्यमाणमालोक्य कौरवा: जातसम्भ्रमा: ॥

    ४२॥

    तमेव शरणं जग्मु: सकुटुम्बा जिजीविषव: ।

    सलक्ष्मणं पुरस्कृत्य साम्बं प्रा्ललय: प्रभुम्‌ ॥

    ४३॥

    जल-यानमू--नाव, घतन्नाई; इब--मानो; आधूर्णम्‌--इधर-उधर डगमगाती; गड्जयाम्‌--गंगा में; नगरम्‌--नगर को; पतत्‌--गिरते हुए; आकृष्यमाणम्‌--खींचे जाकर; आलोक्य--देखकर; कौरवा:--सारे कौरव; जात--होकर; सम्भ्रमा:--उत्तेजित एवंमोहित; तमू--उसकी, बलराम की; एबव--निस्सन्देह; शरणम्‌--शरण के लिए; जम्मु;--गये; स--सहित; कुटुम्बः--उनकेपरिवार; जिजीविषव: -- जीवित रहने की इच्छा करते हुए; स--सहित; लक्ष्मणम्‌--लक्ष्मणा को; पुरः-कृत्य--आगे करके;साम्बम्‌--साम्ब को; प्रा्ललय:--आदरपूर्वक हाथ जोड़ कर; प्रभुमू-प्रभु को घसीटे जा रहे

    अपने नगर को समुद्र में घन्नाई की तरह डगमगाते तथा गंगा में गिरने ही वालादेखकर, सारे कौरव भयभीत हो उठे।

    वे अपने प्राण बचाने के लिए अपने साथ अपने परिवारोंको लेकर भगवान्‌ की शरण लेने गये।

    साम्ब तथा लक्ष्मणा को आगे करके उन्होंने विनयपूर्वकअपने हाथ जोड़ लिये।

    राम रामाखिलाधार प्रभाव न विदाम ते ।

    मूढानां नः कुबुद्धीनां क्षन्तुमहस्यतिक्रमम्‌ ॥

    ४४॥

    राम राम--हे राम, हे राम; अखिल--हर वस्तु के; आधार--आधार; प्रभावम्‌--शक्ति; न विदाम--हम नहीं जानते हैं; ते--तुम्हारा; मूढानाम्‌-मूर्ख बने पुरुषों के; न:--हमको; कु--बुरा; बुद्धीनाम्‌--बुद्धि वालों के; क्षन्तुम्‌ अहंसि--कृपया क्षमा करदें; अतिक्रममू--अपराध को |

    कौरवों ने कहा : हे राम, हे सर्वाधार राम, हम आपकी शक्ति के बारे में कुछ भी नहींजानते।

    कृपया हमारा अपराध क्षमा कर दें क्योंकि हम अज्ञानी हैं तथा बहकावे में आ गये थे।

    स्थित्युत्पत्त्यप्ययानां त्वमेको हेतुर्निराश्रयः ।

    लोकान्क्रीडनकानीश क्रीडतस्ते वदन्ति हि ॥

    ४५॥

    स्थिति--पालन; उत्पत्ति--सृजन; अप्ययानाम्‌--तथा संहार के; त्वम्‌ू--तुमको; एक:--एकमात्र; हेतु:--कारण; निराश्रय:ः --किसी अन्य आधार के बिना; लोकान्‌--लोकों को; क्रीडनकान्‌--गेंदों को; ईश--हे प्रभु; क्रीडतः--खेल रहे; ते--तुम्हारे;वदन्ति--वे कहते हैं; हि--निस्सन्देह।

    आप अकेले जगत का सृजन, पालन तथा संहार करते हैं और आपका कोई पूर्व हेतु( कारण ) नहीं है।

    दरअसल, हे प्रभु, विद्वानों का कहना है कि जब आप अपनी लीलाएँ करतेहैं, तो सारे संसार आपके खिलौने जैसे होते हैं।

    त्वमेव मूर्ध्नीदमनन्त लीलयाभूमण्डलं बिभर्षि सहस्त्रमूर्धन्‌ ।

    अन्ते च यः स्वात्मनिरुद्धविश्वःशेषेउद्वितीयः परिशिष्यमाण: ॥

    ४६॥

    त्वमू--तुम; एबव--ही; मूर्ध्नि--सिर पर; इृदम्‌--यह; अनन्त--हे असीम; लीलया--लीला के रूप में, आसानी से; भू--पृथ्वीके; मण्डलम्‌--गोले को; बिभर्षि--वहन करते हो; सहस्त्र-मूर्धन्‌ू--हे हजार सिरों वाले; अन्ते--अन्त में; च--तथा; यः--जो;स्व--अपना; आत्म--शरीर के भीतर; निरुद्ध--लीन करके; विश्व:--ब्रह्माण्ड; शेषे-- लेट जाते हो; अद्वितीय: --अद्वितीय;'परिशिष्यमाण:--शेष |

    हे हजार सिरों वाले अनन्त, आप अपनी लीला के रूप में इस भूमण्डल को अपने एक सिरपर धारण करते हैं।

    संहार के समय आप सारे ब्रह्माण्ड को अपने शरीर के भीतर लीन कर लेते हैंऔर अकेले बचकर विश्राम करने के लिए लेट जाते हैं।

    कोपस्तेडखिलशिक्षार्थ न द्वेषान्न च मत्सरात्‌ ।

    बिभ्रतो भगवन्सत्त्वं स्थितिपालनतत्पर: ॥

    ४७॥

    कोप:--क्रोध; ते--तुम्हारा; अखिल--हर एक को; शिक्षा--शिक्षा; अर्थम्‌--के लिए; न--नहीं; द्वेषात्‌ू--घृणा से; न च--नतो; मत्सरातू--ईर्ष्या से; बिभ्रत:-- धारण करने वाले; भगवन्‌-- भगवान्‌; सत्त्वमू--सतोगुण; स्थिति--स्थिति; पालन--तथारक्षण; तत्‌ू-पर:--आशय के रूप में

    आपका क्रोध हर एक को शिक्षा देने के निमित्त है, यह घृणा या द्वेष की अभिव्यक्ति नहींहैं।

    हे परमेश्वर, आप शुद्ध सतोगुण को धारण करते हैं और इस जगत को बनाये रखने तथाइसकी रक्षा करने के लिए ही क्रुद्ध होते हैं।

    नमस्ते सर्वभूतात्मन्सर्वशक्तिधराव्यय ।

    विश्वकर्मन्नमस्तेस्तु त्वां वयं शरणं गता: ॥

    ४८ ॥

    नमः--नमस्ते; ते--तुमको; सर्व--सभी; भूत--जीवों के; आत्मन्‌--हे आत्मा; सर्व--समस्त; शक्ति--शक्तियों के; धर--हेधारण करने वाले; अव्यय--हे अव्यय; विश्व--ब्रह्माण्ड के; कर्मन्‌--हे बनाने वाले; नमः--नमस्कार; ते--तुमको; अस्तु--हो;त्वाम्‌ू--तुमको; वयम्‌--हम; शरणम्‌--शरण लेने; गता:--आये हैं|

    है समस्त जीवों के आत्मा, हे समस्त शक्तियों को धारण करने वाले, हे ब्रह्माण्ड के अव्ययस्त्रष्टा, हम आपको नमस्कार करते हैं और नमस्कार करते हुए आपकी शरण ग्रहण करते हैं।

    श्रीशुक उबाचएवं प्रपन्नेः संविग्नैर्वेपमानायनेर्बल: ।

    प्रसादितः सुप्रसन्नो मा भष्टेत्यभयं ददौ ॥

    ४९॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; प्रपन्नैः--शरणागतों द्वारा; संविग्नै:--अत्यन्त दुखी;वेषमान--हिलते हुए; अयनैः--घरों वाले; बल:--बलराम; प्रसादित:--शान्त हुए; सु--अत्यन्त; प्रसन्न:--शान्त तथा मृदुल;मा भैष्ट--मत डरो; इति--इस प्रकार कहकर; अभयम्‌-- भय से छुटकारा; ददौ--दे दिया।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जिन कौरवों का नगर डगमगा रहा था और जो अत्यन्त कष्ट मेंहोने से उनकी शरण में आ रहे थे, ऐसे कौरवों द्वारा स्तुति किये जाने पर बलराम शान्त हो गयेऔर उनके प्रति कृपालु हो गये।

    उन्होंने कहा 'डरो मत।

    ' फिर उनके भय को हर लिया।

    दुर्योधन: पारिबरईई कुद्धरान्षष्टिहायनान्‌ ।

    ददौ च द्वादशशतान्ययुतानि तुरड्रमान्‌ ॥

    ५० ॥

    रथानां षट्सहस्त्राणि रौक्माणां सूर्यवर्चसाम्‌ ।

    दासीनां निष्ककण्ठीनां सहस्त्रं दुहितृबत्सल: ॥

    ५१॥

    दुर्योधन:--दुर्योधन ने; पारिबहम्‌--दहेज के रूप में; कुझरान्‌--हा थी; षष्टि--साठ; हायनान्‌ू--वर्ष आयु के; ददौ--दिया;च--तथा; द्वादइश--बारह; शतानि--सौ; अयुतानि--दस हजार; तुरड्रमान्‌--धघोड़े; रथानामू--रथों के; षट्‌ू-सहस्त्राणि --छःहजार; रौक्माणाम्‌--सोने के; सूर्य--सूर्य ( जैसे ); वर्चसाम्‌--तेजवान्‌; दासीनाम्‌--दासियों के ; निष्क--रत्नजटित हार;कण्ट्थीनाम्‌--जिनके गलों में; सहस्त्रमू--एक हजार; दुहितृ-- अपनी पुत्री के लिए; वत्सलः--पितृ-स्नेह से युक्त |

    अपनी पुत्री के प्रति अत्यन्त वत्सल दुर्योधन ने उसे दहेज में १,२०० साठ वर्षीय हाथी,१,२०,००० घोड़े, ६,००० सूर्य जैसे चमकते सुनहरे रथ तथा १,००० दासियाँ दीं जो गलों मेंरत्नजटित हार पहने थीं।

    प्रतिगृह्य तु तत्सर्व भगवान्सात्वतर्षभः ।

    ससुतः ससस्‍्नुष: प्रायात्सुहद्धिरभिनन्दित: ॥

    ५२॥

    प्रतिगृह्य --स्वीकार करके ; तु--तथा; तत्‌--उसको ; सर्वम्‌--समस्त; भगवान्‌-- भगवान्‌; सात्वत--यादवों के; ऋषभ: --प्रधान; स--सहित; सुतः--पुत्र; स--सहित; स्नुष:--पतोहू, पुत्रवधू; प्रायात्‌--प्रस्थान किया; सु-हर्द्धिः--शुभचिन्तकों( कौरवों ) द्वारा; अभिनन्दित:--विदा किया गया।

    यादवों के प्रमुख भगवान्‌ ने इन सारे उपहारों को स्वीकार किया और तब अपने पुत्र तथाअपनी पुत्रवधू सहित वहाँ से प्रस्थान किया और उनके शुभचिन्तकों ने उन्हें विदाई दी।

    ततः प्रविष्ट: स्वपुरं हलायुधःसमेत्य बन्धूननुरक्तचेतस: ।

    शशंस सर्व यदुपुड़वानांमध्ये सभायां कुरुषु स्वचेष्टितम्‌ ॥

    ५३ ॥

    ततः--तब; प्रविष्ट: --प्रवेश करके; स्व--अपने; पुरम्‌--नगर में; हल-आयुध:--हल ही जिनका हथियार है, बलराम;समेत्य--मिलकर; बन्धूनू-- अपने सम्बन्धियों को; अनुरक्त--उनसे अनुरक्त; चेतस:--हृदयों वाले; शशंस--बतलाया; सर्वम्‌--हर बात; यदु-पुड्रवानाम्‌ू--यदुओं के नायकों के; मध्ये--बीच में; सभायाम्‌--सभा के; कुरुषु--कुरुओं में; स्व--अपना;चेष्टितम्‌-कार्य |

    तब भगवान्‌ हलायुध अपने नगर ( द्वारका ) में प्रविष्ट हुए और अपने सम्बन्धियों से मिलेजिनके हृदय उनसे अनुराग में बँधे थे।

    सभाभवन में उन्होंने कुरुओं के साथ हुई प्रत्येक घटनायदुओं से कह सुनाई।

    अद्यापि च पुरं होतत्सूचयद्रामविक्रमम्‌ ।

    समुन्नतं दक्षिणतो गड़ायामनुदहश्यते ॥

    ५४॥

    अद्य--आज; अपि-- भी; च--तथा; पुरमू--नगर; हि--निस्सन्देह; एतत्‌--यह; सूचयत्‌--सूचना देता है; राम--बलराम के;विक्रमम्‌--पराक्रम को; समुन्नतम्‌--उठा हुआ; दक्षिणत:--दक्षिण की ओर; गड्ञयाम्‌--गंगा में; अनुदृश्यते--दिखाई देता है।

    आज भी हस्तिनापुर नगर गंगा के तट पर दक्षिणी दिशा में उठा हुआ दिखता है।

    इस तरहयह भगवान्‌ बलराम के पराक्रम का सूचक है।

    TO

    अध्याय उनहत्तर: नारद मुनि ने द्वारका में भगवान कृष्ण के महलों का दौरा किया

    10.69श्रीशुक उवाचनरक निहतं श्रुत्वा तथोद्वाहं च योषिताम्‌ ।

    कृष्णेनैकेन बद्वीनां तहिहक्षु; सम नारद: ॥

    १॥

    चित्र बतैतदेकेन वपुषा युगपत्पृथक्‌ ।

    गृहेषु दव्यष्टसाहस्त्रं स्त्रिय एक उदावहत्‌ ॥

    २॥

    इत्युत्सुको द्वारवतीं देवर्षिद्रष्ठमागमत्‌ ।

    पुष्पितोपवनारामद्विजालिकुलनादिताम्‌ ॥

    ३॥

    उत्फुल्लेन्दीवराम्भोजकह्ारकुमुदोत्पलै: ।

    छुरितेषु सरःसूच्चै: कूजितां हंससारसै: ॥

    ४॥

    प्रासादलक्षै्नवभिर्जुष्टां स्फाटिकराजतै: ।

    महामरकतप्रख्यै: स्वर्णरत्नपरिच्छदै: ॥

    ५॥

    विभक्तरथ्यापथचत्वरापणै:शालासभाभी रुचिरां सुरालयैः ।

    संसिक्तमार्गाड्डनवीथिदेहलींपतत्पताकध्वजवारितातपाम्‌ ॥

    ६॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; नरकम्‌--नरकासुर को; निहतम्‌--मारा गया; श्रुत्वा--सुनकर; तथा-- भी;उद्बाहम--विवाह; च--तथा; योषिताम्‌--स्त्रियों के साथ; कृष्णेन--कृष्ण द्वारा; एकेन--एक; बह्लीनामू--अनेकों के साथ;तत्‌--वह; दिदक्षुः--देखना चाहते हुए; स्म--निस्सन्देह; नारद:--नारद; चित्रमू-- अद्भुत; बत--हाय; एतत्‌--यह; एकेन--एकाकी; वपुषा--शरीर से; युगपत्‌--एकसाथ; पृथक्‌--भिन्न; गृहेषु--धरों में; द्वि--दो बार; अष्ट--आठ; साहस्त्रमू--हजार;स्त्रियः:--स्त्रियाँ; एक:-- अकेला; उदावहत्‌--विवाह कर लिया; इति--इस प्रकार; उत्सुक:--उत्सुक; द्वारवतीम्‌-८द्वारका में;देव--देवताओं के; ऋषि:--मुनि, नारद; द्रष्टम्‌--देखने के लिए; आगमत्‌--आये; पुष्पित--फूल खिला हुआ; उपवन--बागोंमें; आराम--तथा विहार उद्यानों; द्विज--पक्षियों; अलि--तथा भौंरों के; कुल--झुंडों के साथ; नादिताम्‌-- ध्वनित; उत्फुल्ल--खिला हुआ; इन्दीवर--नीले कमल; अम्भोज--दिन में खिलने वाले कमल; कह्ार--सफेद कमल; कुमुद--चाँदनी रात मेंखिलने वाला कमल; उत्पलै:--जल की कुमुदिनियों से; छुरितेषु--पूरित; सरःसु--झीलों में; उच्चै:--जोर जोर; कूजिताम्‌--आवाज से पूरित; हंस--हंस; सारसैः--तथा सारसों से; प्रासाद--महलों; लक्षैः:--लाखों; नवभि:--नौ; जुष्टामू-- अलंकृत;स्फाटिक--स्फटिक के; राजतैः--तथा चाँदी से बने; महा-मरकत--महान्‌ मरकत मणियों से; प्रख्यै:--जगमगाते; स्वर्ण --सोने; रत्न--तथा रत्नों के; परिच्छदैः--सजावटों से; विभक्त--क्रम से विभाजित; रथ्या--मुख्य गलियों; पथ--सड़कों;चत्वर--चौराहों; आपणैः--तथा बाजार-स्थलों से; शाला-सभाभि:--घरों के समूह सहित; रुचिरामू--मनोहर; सुर--देवताओंके; आलयै:--मन्दिरों से; संसिक्त--जल से सींची; मार्ग--सड़कें; अड्रन-- आँगन; वीधि--व्यापारिक मार्ग; देहलीम्‌--तथाउपवबन; पतत्‌--उड़ते हुए; पताक--झंडों से युक्त; ध्वज--झंडे के डंडों से ( ध्वज दण्ड ); वारित--दूर किये हुए; आतपाम्‌--सूर्य की गर्मी से

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब नारदमुनि ने सुना कि भगवान्‌ कृष्ण ने नरकासुर का वधकर दिया है और अकेले अनेक स्त्रियों के साथ विवाह कर लिया है, तो नारदमुनि के मन में भगवान्‌ को इस स्थिति में देखने की इच्छा हुईं।

    उन्होंने सोचा, 'यह अत्यन्त आश्चर्यजनक है किएक ही शरीर में भगवान्‌ ने एकसाथ सोलह हजार स्त्रियों से विवाह कर लिया और वह भीअलग अलग महलों में ।

    ' इस तरह देवर्षि उत्सुकतापूर्वक द्वारका गये।

    यह नगर बगीचों तथा उद्यानों से युक्त था जिसके आसपास पक्षियों तथा भौंरों की ध्वनिगुंजरित थी।

    इसके सरोवर खिले हुए इन्दीवर, अम्भोज, कहर, कुमुद तथा उत्पल से भरे हुए थेऔर हंसों तथा सारसों की बोलियों से गुंजायमान थे।

    द्वारका को नौ लाख राजमहलों के होने कागर्व था।

    ये सारे महल स्फटिक तथा चाँदी के बने थे और विशाल मरकत मणियों सेजाज्वल्यमान थे।

    इन महलों के भीतर साज-सामान पर सोने तथा रत्नों की सजावट थी।

    यातायात के लिए व्यवस्थित गलियाँ, सड़कें, चौराहे तथा बाजार थे और इस मनोहर नगर मेंअनेक सभाभवन तथा देवमन्दिर शोभा को बढ़ाने वाले थे।

    सड़कें, आँगन, व्यापारिक मार्ग तथाघरों के आँगन जल से सींचे हुए थे और लट्टों से लहरा रहे झंडों से सूर्य की गर्मी से छाया पा रहेथे।

    तस्यामन्तःपुरं श्रीमदर्चितं सर्वधिष्ण्यपैः ।

    हरेः स्वकौशल यत्र त्वष्टा कार्त्स्येन दशितम्‌ ॥

    ७॥

    तत्र घोडशभिः सद्यसहस्त्रै: समलड्डू तम्‌ ।

    विवेशैकतोमं शौरे: पतीनां भवन महत्‌ ॥

    ८॥

    तस्याम्‌--उस ( द्वारका ) में; अन्त:-पुरम्‌ू--रनिवास; श्री-मत्‌--ऐश्वर्यवान; अर्चितम्‌--पूजित; सर्व--सभी; धिष्ण्य--विभिन्नलोकों के; पैः--पालकों द्वारा; हरेः-- भगवान्‌ हरि का; स्व--निजी; कौशलम्‌--कौशल; यत्र--जहाँ; त्वष्टा--त्वष्टा ( स्वर्ग केशिल्पी विश्वकर्मा ); कार्त्स्येन--पूर्णतया; दर्शितम्‌--दिखलाया गया; तत्र--वहाँ; षोडशभि:--सोलह; सद्य-- घरों द्वारा;सहस्त्र:--हजार; समलड्डू तम्‌--सुंदर बनाया हुआ; विवेश--( नारद ) प्रविष्ट हुए; एकतमम्‌--उनमें से एक; शौरे:-- भगवान्‌कृष्ण की; पत्लीनाम्‌ू--पत्नियों के; भवनमू--महल; महत्‌--विशाल |

    द्वारका नगर में एक सुन्दर अन्तःपुर था, जो लोकपालों द्वारा पूजित था।

    यह प्रदेश, जहाँविश्वकर्मा ने अपनी सारी दैवी निपुणता दिखलाई थी भगवान्‌ हरि का रिहायशी क्षेत्र था अतःइसे भगवान्‌ कृष्ण की रानियों के सोलह हजार महलों से खूब सजाया गया था।

    नारदमुनि इन्हींविशाल महलों में से एक में प्रविष्ट हुए ।

    विष्टब्धं विद्रुमस्तम्भेवैंदूर्यफलकोत्तमै: ।

    इन्द्रनीलमयै: कुड्यैर्जगत्या चाहतत्विषा ॥

    ९॥

    वितानेर्निर्मितैस्त्वष्टा मुक्तादामविलम्बिभि: ।

    दान्तैरासनपर्यड्डै मण्युत्तमपरिष्कृते: ॥

    १०॥

    दासीभिर्निष्ककण्ठीभि: सुवासोभिरलड्डू तम्‌ ।

    पुम्भि: सकञ्जुकोष्णीष सुवस्त्रमणिकुण्डलैः ॥

    ११॥

    रलप्रदीपनिकरद्युतिभिर्निरस्त-ध्वान्तं विचित्रवलभीषु शिखण्डिनोड़ ।

    नृत्यन्ति यत्र विहितागुरु धूपमक्षै -निर्यान्तमीक्ष्य घनबुद्धय उन्नदन्‍्त: ॥

    १२॥

    विष्टब्धम्‌--टिका; विद्रुम--मूँगे के; स्तम्भेः --ख भों द्वारा; बैदूर्य--वैदूर्य मणियों के; फलक--सजावटी आवरणों से युक्त;उत्तमैः--उत्कृष्ट; इन्द्रनील-मयैः--नीलम से सज्जित; कुड्यैः--दीवालों से; जगत्या--फर्श से; च--तथा; अहत--निरन्तर;त्विषा--तेज से; वितानैः--चँदोवों से; निर्मितैः--निर्मित; त्वष्टा--विश्वकर्मा द्वारा; मुक्ता-दाम--मोतियों की लड़ियों से;विलम्बिभि: --लटककनों से; दान्तै:--हाथी दाँत के; आसन--आसमनों से; पर्यड्ठै :--तथा पलंँगों से; मणि--मणियों; उत्तम--अतीव सुन्दर; परिष्कृतैः--अलंकृत; दासीभि:--दासियों से; निष्क--गले का पेंडल, लॉकेट; कण्ठीभि:--जिनके कण्ठों में;सु-वासोभि: --सुन्दर वस्त्र पहने; अलड्डू तम्‌ू--अलंकृत; पुम्भि:--मनुष्यों द्वारा; स-कञ्लुक--कवच पहने; उष्णीष--साफा;सु-वस्त्र--सुन्दर कपड़े; मणि--मणिजटित; कुण्डलैः--तथा कुण्डलों से; रत्त--रत्नजटित; प्रदीप--दीपकों के; निकर--समूह; द्युतिभि:-- प्रकाश से; निरस्त-- भगाया हुआ; ध्वान्तम्‌--अँधेरा; विचित्र--विविध प्रकार के; वलभीषु--छज्जों पर;शिखण्डिन:--मोर; अड्ग--हे प्रिय ( राजा परीक्षित ); नृत्यन्ति--नाचते हैं; यत्र--जहाँ; विहित--रखे गये; अगुरु--अगुरु;धूपम्‌--धूप; अक्षै:--झरोखों से; निर्यान्तम्‌--बाहर जाती हुई; ईक्ष्य--देखकर; घन--बादल; बुद्धयः--समझते हुए;उन्नदन्‍्त:ः--जोर से चिल्लाते कूकते

    महल को साधने वाले मूँगे के ख भों में वैदूर्य मणि जड़े थे।

    दीवालों पर नीलम जड़े थे और'फर्श स्थायी-चमक से चमक रहे थे।

    उस महल में त्वष्टा ने चँदोवे बनाये थे जिनसे मोती की लड़ेंलटक रही थीं।

    आसन तथा पलंग हाथी के दाँत तथा बहुमूल्य रत्नों से बने हुए थे।

    उनकी सेवामें अनेक सुवस्त्राभूषित दासियाँ थीं जो अपने गलों में लॉकेट पहने थीं।

    साथ ही कवचधारीरक्षक थे, जो साफा, सुन्दर वर्दी तथा रत्तजटित कुण्डल पहने थे।

    अनेक रत्लतजटित दीपों काप्रकाश महल के अंधकार को दूर करने वाला था।

    हे राजनू, महल के छज्जों पर जोर जोर सेकुहक रहे मोर नाच रहे थे, जो जालीदार खिड़कियों के छेदों से निकल रहे सुगन्धित अगुरु कोदेखकर भ्रम से बादल समझ रहे थे।

    तस्मिन्समानगुणरूपवयःसुवेष-दासीसहस्त्रयुतयानुसवं गृहिण्या ।

    विप्रो ददर्श चमरव्यजनेन रुक्म-दण्डेन सात्वतपतिं परिवीजयन्त्या ॥

    १३॥

    तस्मिन्‌ू--उसमें; समान--बराबर; गुण--निजी गुण; रूप--सौन्दर्य; बयः--तारुण्य तथा सुन्दर वेश भूषा; सु-वेष--तथा सुंदरवस्त्र; दासी--दासियों द्वारा; सहस्त्र--एक हजार; युतया--युक्त; अनुसवम्‌--प्रतिक्षण; गृहिण्या-- अपनी पत्नी समेत; विप्र: --विद्वान ब्राह्मण ( नारद ) ने; ददर्श--देखा; चमर--चमरी की पूँछ के; व्यजनेन--पंखे से; रुक्म--सोने के; दण्डेन--मूठ वाली;सात्वत-पतिम्‌--सात्वतों के स्वामी, श्रीकृष्ण; परिवीजयन्त्या--पंखा झलते हुए

    उस महल में विद्वान ब्राह्मण ने सात्वत पति श्रीकृष्ण को उनकी पत्नी के साथ देखा जो सोनेकी मूठ वाली चामर से पंखा झल रही थीं।

    वे इस तरह से स्वयं उनकी सेवा कर रही थीं यद्यपिउनकी सेवा में निरन्तर एक हजार दासियाँ लगी थीं जो अपने निजी चरित्र, सौन्दर्य, तारुण्य तथासुन्दर वेशभूषा में उन्हीं के समान थीं।

    तं सन्निरीक्ष्य भगवान्सहसोत्थित श्री -पर्यड्भूत: सकलधर्मभूतां वरिष्ठ: ।

    आनम्य पादयुगलं शिरसा किरीट-जुष्टेन साज्ललिरवीविशदासने स्वे ॥

    १४॥

    तम्‌--उसको ( नारद को ); सन्निरीक्ष्य--देखकर; भगवान्‌-- भगवान्‌; सहसा--तुरन्त; उत्थित--उठ गये; श्री--लक्ष्मी, रानीरुक्मिणी के; पर्यड्डूत:--पलंग से; सकल--सारे; धर्म--धर्म के; भृताम्‌ू-- धारण करने वाले; वरिष्ठ:-- श्रेष्ठ आनम्य--झुककर; पाद-युगलम्‌--दोनों पैरों को; शिरसा--अपने सिर से; किरीट--मुकुट से; जुष्टेन--युक्त; स-अज्ञलि:--हाथजोड़कर; अवीविशत्‌--बैठाया; आसने-- आसन पर; स्वे--अपने, निजी भगवान्‌ धर्म के सबसे बड़े धारक हैं।

    अतएवं जब उन्होंने नारद को देखा तो वे तुरन्त श्रीदेवी के पलंग पर से उठ खड़े हुए, नारद के चरणों पर मुकुट युक्त सिर को नवाया और अपनेहाथ जोड़कर मुनि को अपने आसन पर बिठाया।

    तस्यावनिज्य चरणौ तदप: स्वमूर्ध्नाबिभ्रज्जगद्गुरुतमोपि सतां पतिर्हि ।

    ब्रह्मण्यदेव इति यदगुणनाम युक्ततस्यैव यच्चरणशौचमशेषतीर्थम्‌ ॥

    १५॥

    तस्य--उसके; अवनिज्य-- धोकर; चरणौ--पाँव; तत्‌--वह; अप:ः--जल; स्व--अपने; मूर्ध्न--सिर पर; बिभ्रत्‌-लेते हुए;जगत्‌--सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के; गुरु-तम:--परम गुरु; अपि--यद्यपि; सताम्‌--सनन्‍्त भक्तों के; पति:--स्वामी; हि--निस्सन्देह;ब्रह्मण्य--ब्राह्मणों का पक्ष लेने वाले; देव:--प्रभु; इति--इस प्रकार कहे गये; यत्‌--चूँकि; गुण--गुण; नाम--नाम;युक्तम--उपयुक्त; तस्थ--उसका; एव--निस्सन्देह; यत्‌ू--जिसके; चरण--चरणों का; शौचम्‌-- धोना, प्रक्षालन; अशेष--पूर्ण; तीर्थम्‌--पवित्र स्थान

    भगवान्‌ ने नारद के चरण पखारे और उस जल को अपने सिर पर धारण किया।

    यद्यपिभगवान्‌ कृष्ण ब्रह्माण्ड के परम गुरु हैं तथा अपने भक्तों के स्वामी हैं किन्तु इस तरह से आचरणकरना उनके लिए उपयुक्त था क्‍योंकि उनका नाम ब्रह्मण्यदेव है अर्थात्‌ 'ब्राह्मणों का पक्ष लेनेवाले भगवान्‌।

    इस तरह श्रीकृष्ण ने नारदमुनि के चरण पखार कर उनका सम्मान किया यद्यपिभगवान्‌ के ही चरणों को धोने वाला जल गंगा बन जाता है, जोकि परम तीर्थ हैं।

    सम्पूज्य देवऋषिवर्यमृषि: पुराणोनारायणो नरसखो विधिनोदितेन ।

    वाण्याभिभाष्य मितयामृतमिष्टया तंप्राह प्रभो भगवते करवाम हे किम्‌ ॥

    १६॥

    सम्पूज्य--अच्छी तरह पूजा करके; देव--देवताओं में; ऋषि--ऋषि; वर्यम्‌--सर्वोच्च; ऋषि: --ऋषि; पुराण: -- आदि;नारायण: -- भगवान्‌ नारायण; नर-सख: --नर के मित्र; विधिना--शाम्त्र द्वारा; उदितेन--आदिष्ट; वाण्या--वाणी से;अभिभाष्य--कह कर; मितया--नपी-तुली; अमृत--अमृत से; मिष्टया--मधुर; तम्‌--उसे, नारद को; प्राह--सम्बोधित किया;प्रभो--हे स्वामी; भगवते-- भगवान्‌ के लिए; करवाम--हम कर सकते हैं; हे--ओ; किम्‌ू--क्या।

    वैदिक आदेशों के अनुसार देवर्षि की समुचित पूजा करने के बाद, नर के मित्र आदि ऋषिनारायण, भगवान्‌ कृष्ण, ने नारद से बातें कीं और भगवान्‌ की नपी-तुली वाणी अमृत की तरहमधुर थी।

    अन्त में भगवान्‌ ने नारद से पूछा, 'हे प्रभु एवं स्वामी, हम आपके लिए क्‍या करसकते हैं ?' श्रीनारद उवाचनैवाद्भुतं त्वयि विभोडईखिललोकनाथेमैत्री जनेषु सकलेषु दम: खलानाम्‌ ।

    नि: श्रेयसाय हि जगत्स्थितिरक्षणा भ्यांस्वैरावतार उरुगाय विदाम सुप्ठ ॥

    १७॥

    श्री-नारदः उबाच-- श्री नारद ने कहा; न--नहीं; एब--तनिक भी; अद्भुतम्‌--आश्चर्यजनक; त्वयि--आपके लिए; विभो--हेसर्वशक्तिमान; अखिल--समस्त; लोक--लोकों के; नाथे--शासक के लिए; मैत्री--मित्रता; जनेषु--लोगों में; सकलेषु--समस्त; दम:--दमन; खलानामू--ईर्ष्यालुओं के; नि: श्रेयसाय--सर्वोच्च लाभ के लिए; हि--निस्सन्देह; जगत्‌--ब्रह्माण्ड के;स्थिति--पालन; रक्षणाभ्याम्‌--तथा सुरक्षा द्वारा; स्वैर--स्वेच्छा से; अवतार:--अवतार; उरू-गाय--हे विश्ववन्द्य; विदाम--हमजानते हैं; सुष्ठ-- भलीभाँति |

    श्री नारद ने कहा : हे सर्वशक्तिमान, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि समस्त जगतोंके शासक आप सारे लोगों से मित्रता प्रदर्शित करते हुए भी दुष्टों का दमन करते हैं।

    जैसा किहम सभी लोग भलीभाँति जानते हैं आप इस ब्रह्माण्ड में इसके पालन तथा रक्षण के द्वारा परमलाभ प्रदान करने के लिए स्वेच्छा से अवतरित होते हैं।

    इृष्टे तवाड्घ्रियुगलं जनतापवर्गब्रह्मादिभिईदि विचिन्त्यमगाधबोधे: ।

    संसारकूपपतितोत्तरणावलम्बं ध्यायंश्वराम्यनुगृहाण यथा स्मृति: स्थात्‌ ॥

    १८॥

    इृष्टमू--देखे हुए; तब--तुम्हारे; अड््घ्रि--पैरों की; युगलम्‌--जोड़ी; जनता--अपने भक्तों के लिए; अपवर्गम्‌--मोक्ष काउद्गम; ब्रह्म-आदिभि:--ब्रह्म जैसे व्यक्तियों के द्वारा; हदि--हृदय में; विचिन्त्यमू--सोचते हुए; अगाध---अथाह; बोध: --बुद्धि से; संसार-- भौतिक जीवन रूपी; कूप--कुएँ में; पतित--गिरे हुओं के; उत्तरण--उद्घवार के लिए; अवलम्बम्‌ू--शरण;ध्यायन्‌--निरन्तर सोचते हुए; चरामि--विचरण करता हूँ; अनुगृहाण -- आशीर्वाद दें; यथा--जिससे; स्मृति: --स्मरणशक्ति;स्थातू-हो।

    अब मैंने आपके उन चरणों के दर्शन किये हैं, जो आपके भक्तों को मोक्ष प्रदान करते हैंतथा जिन्हें ब्रह्मा तथा अन्य अथाह बुद्धि वाले महापुरुष भी केवल अपने हृदयों में ध्यान करसकते हैं किन्तु जो भवकूष में गिर चुके हैं, वे उद्धार हेतु जिनकी शरण ग्रहण करते हैं।

    आपमुझ पर कृपालु हों जिससे विचरण करते हुए मैं निरन्तर आपका स्मरण कर सकूँ।

    कृपा करकेमुझे शक्ति दें कि मैं आपका स्मरण कर सकूँ।

    ततोन्यदाविशद्गेहं कृष्णपत्या: स नारद: ।

    योगेश्वरे श्वरस्थाड़ योगमायाविवित्सया ॥

    १९॥

    ततः--तब; अन्यत्‌--दूसरे; आविशत्‌ू-- प्रवेश किया; गेहम्‌-- आवास में; कृष्ण-पत्या:--कृष्ण की पत्नी के; सः--वह;नारदः--नारदमुनि; योग-ईश्वर--योगे श्वरों के; ईश्वरस्थ--ई श्वर के; अड्भ--हे राजा; योग-माया--मोह की आध्यात्मिक शक्ति;विवित्सबा--जानने की इच्छा से।

    हे राजन, तब नारद ने भगवान्‌ कृष्ण की दूसरी पत्नी के महल में प्रवेश किया।

    वे योगेश्वरोंके ईश्वर की आध्यात्मिक शक्ति देखने के लिए उत्सुक थे।

    दीव्यन्तमश्षैस्तत्रापि प्रियया चोद्धवेन च ।

    पूजित: परया भक्त्या प्रत्युत्थानासनादिभि: ॥

    २०॥

    पृष्ठश्नाविदुषेवासौ कदायातो भवानिति ।

    क्रियते किं नु पूर्णानामपूर्णरस्मदादिभि: ॥

    २१॥

    अथापि बूहि नो ब्रह्मन्जन्मैतच्छोभनं कुरु ।

    स तु विस्मित उत्थाय तूष्णीमन्यदगादगृहम्‌ ॥

    २२॥

    दीव्यन्तम्‌-खेलते हुए; अक्षै:--चौसर से; तत्र--वहाँ; अपि--निस्सन्देह; प्रियया--अपनी प्रिया के साथ; च--तथा;उद्धवेन--उद्धव के साथ; च-- भी; पूजित:--पूजित; परया--दिव्य; भक्त्या--भक्ति द्वारा; प्रत्युत्थान-- अपने आसन से खड़े होकर; आसन--आसन प्रदान करके; आदिभि:--इत्यादि से; पृष्ठ: --पूछा; च--तथा; अविदुषा--अज्ञानी द्वारा; इब--मानो;असौ--वह, नारद; कदा--कब; आयात: --आये हुए; भवान्‌ू--आप; इति--इस प्रकार; क्रियते--करने की इच्छा से;किम्‌--क्या; नु--निस्सन्देह; पूर्णानाम्‌--जो पूर्ण हैं उनके द्वारा; अपूर्ण:--जो पूर्ण नहीं हैं उनके द्वारा; अस्मत्‌-आदिभि:--हमजैसों के द्वारा; अथ अपि--तो भी; ब्रूहि--कृपा करके कहें; नः--हमसे; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; जन्म--हमारा जन्म; एतत्‌--यह;शोभनमू--शुभ; कुरु--कीजिये; सः--वह, नारद; तु--लेकिन; विस्मित: -- चकित; उत्थाय--उठकर; तूष्णीम्‌--चुपचाप;अन्यत्‌--अन्यत्र; अगातू--चले गये; गृहम्‌--महल में

    वहाँ उन्होंने भगवान्‌ को अपनी प्रिया तथा अपने मित्र उद्धव के साथ चौसर खेलते देखा।

    भगवान्‌ कृष्ण ने खड़े होकर और उन्हें आसन देकर नारदजी की पूजा की और तब उनसे इसतरह पूछा मानो वे कुछ जानते ही न हों, 'आप कब आये? हम जैसे अपूर्ण व्यक्ति आप जैसेपूर्ण व्यक्तियों के लिए क्या कर सकते हैं? हे ब्राह्मण, जैसा भी हो, कृपा करके मेरे जीवन कोशुभ बना दें।

    ' ऐसा कहे जाने पर नारद चकित हो गए।

    वे चुपचाप खड़े रहे और अन्य महल मेंचले गये।

    तत्राप्यचष्ट गोविन्दं लालयन्तं सुतान्शिशून्‌ ।

    ततोउन्यस्मिन्गूहेउपश्यन्मज्जनाय कृतोद्यममम्‌ ॥

    २३॥

    तत्र--वहाँ; अपि-- और; अचष्ट--देखा; गोविन्दम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण को; लालयन्तम्‌ू--दुलारते हुए; सुतान्‌--बच्चों को;शिशून्‌--छोटे; तत:ः--तब; अन्यस्मिनू--दूसरे; गृहे--महल में; अपश्यत्‌--देखा ( कृष्ण को ); मजजनाय--स्नान करने केलिए; कृत-उद्यमम्‌--तैयारी करते हुए |

    इस बार नारदजी ने देखा कि भगवान्‌ कृष्ण अपने छोटे छोटे बच्चों को वत्सल पिता कीतरह दुलार रहे थे।

    वहाँ से वे अन्य महल में गये और उन्होंने देखा कि भगवान्‌ कृष्ण स्नान करनेके लिए तैयारी कर रहे हैं।

    जुहन्तं च वितानाग्नीन्यजन्तं पदञ्नभिर्मखै: ।

    भोजयमन्तं द्विजान्क्वापि भुज्जानमवशेषितम्‌ ॥

    २४॥

    जुहन्तमू-- आहुति डालते; च--तथा; वितान-अग्नीन्‌--यज्ञ अग्नि में; यजन्तम्‌-पूजा करते हुए; पञ्ञभि: -- पाँच; मखैः--अनिवार्य अनुष्ठानों ( यज्ञ ) द्वारा; भोजयन्तम्‌--खिलाते हुए; ट्विजानू-- ब्राह्मणों को; कब अपि--कहीं; भुज्ञानम्‌-खाते हुए;अवशेषितम्‌--उच्छिष्ट |

    एक स्थान पर भगवान्‌ यज्ञ-अग्नियों में आहुतियाँ डाल रहे थे, दूसरे में पाँच महायज्ञों द्वारापूजा कर रहे थे, अन्यत्र वे ब्राह्मणों को भोजन करा रहे थे तो कहीं पर ब्राह्मणों के द्वारा छोड़े गएभोजन को खा रहे थे।

    क्वापि सन्ध्यामुपासीनं जपन्तं ब्रह्म वाग्यतम्‌ ।

    एकत्र चासिचर्माभ्यां चरन्तमसिवर्त्मसु ॥

    २५॥

    व अपि--कहीं; सन्ध्याम्‌--संध्याकालीन अनुष्ठान; उपासीनम्‌--पूजा करते; जपन्तम्‌--मौन होकर जप करते; ब्रह्म--वैदिकमंत्र ( गायत्री ); वाकु-यतम्‌--अपनी वाणी को संयत करते; एकत्र--एक स्थान में; च--तथा; असि--तलवार; चर्माभ्याम्‌ू--तथा ढाल को; चरन्तम्‌--चलाते; असि-वर्त्मसु--तलवार चलाने के अभ्यास हेतु नियत दालानों में |

    कहीं पर भगवान्‌ मौन रहकर तथा मन ही मन गायत्री मंत्र का जप करते हुए संध्याकालीनपूजा के लिए अनुष्ठान कर रहे थे तो कुछ स्थानों पर जो तलवार के अभ्यास के लिए नियत थे,वे तलवार-ढाल चला रहे थे।

    अश्वेर्गजै रथे: क्वापि विचरन्तं गदाग्रजम्‌ ।

    क्वचिच्छयान पर्यड्ले स्तूयमानं च वन्दिभि: ॥

    २६॥

    अश्वे:ः--घोड़ों पर; गजैः--हाथियों पर; रथैः--रथों पर; क्व अपि--कहीं; विचरन्तम्‌--सवारी करते; गद-अग्रजमू--गद केबड़े भाई, कृष्ण को; क्वचित्‌--कहीं; शयानम्‌--लेटे हुए; पर्यद्ले-- पलंग में; स्तूयमानम्‌-- प्रशंसा किये जाते; च--तथा;वन्दिभिः--वन्दीजनों ( भाटों ) द्वारा

    एक स्थान पर भगवान्‌ गदाग्रज घोड़ों, हाथियों तथा रथों पर सवारी कर रहे थे और दूसरेस्थान पर वे अपने पलंग पर लेटे थे तथा भाट उनकी महिमा का गायन कर रहे थे।

    मन्त्रयन्तं च करिमश्चिन्मन्त्रिभिश्रोद्धवादिभि: ।

    जलक्रीडारतं क्वापि वारमुख्याबलावृतम्‌ ॥

    २७॥

    मन्त्रयन्तम्‌--विचार-विमर्श करते; च--तथा; कस्मिश्वित्‌--कहीं; मन्त्रि-भि:--मंत्रियों के साथ; च--तथा; उद्धव-आदिभि:--उद्धव तथा अन्य; जल--जल में; क्रीडा--खिलवाड़ में; रतम्‌--व्यस्त; कब अपि--कहीं; वार-मुख्या--राजसी नृत्यांगनाओंद्वारा; अबला--तथा अन्य स्त्रियों के; वृतम्‌ू--साथ में |

    कहीं वे उद्धव तथा अन्य राजमंत्रियों से सलाह-मशविरा कर रहे थे तो कहीं पर वे अनेकनृत्यांगगाओं तथा अन्य तरुणियों से घिरकर जल-क्रीड़ा कर रहे थे।

    कुत्रचिदिदवजमुख्ये भ्यो ददतं गा: स्वलड्डू ता: ।

    इतिहासपुराणानि श्रृण्वन्तं मडुलानि च ॥

    २८॥

    कुत्रचित्‌-कहीं; द्विज--ब्राह्मणों को; मुख्येभ्य: --सर्व श्रेष्ठ; ददतम्‌--देते हुए; गा:--गौवें; सु--अच्छी तरह; अलड्डू ता: --आशभूषित; इतिहास--प्राचीन इतिहास; पुराणानि--तथा पुराणों को; श्रृण्वन्तम्‌--सुनते हुए; मड्लानि--शुभ; च--तथा |

    कहीं वे उत्तम ब्राह्मणों को भलीभाँति अलंकृत गौवें दान दे रहे थे और कहीं वे महाकाव्यके इतिहासों तथा पुराणों का शुभ वृत्तान्त सुन रहे थे।

    हसन्तं हासकथया कदाचित्प्रियया गृहे ।

    क्वापि धर्म सेवमानमर्थकामौ च कुत्रचित्‌ ॥

    २९॥

    हसन्तम्‌-हँसते हुए; हास-कथया--हँसी-मजाक के वार्तालाप से; कदाचित्‌ू--किसी समय; प्रियया--अपनी पत्नी से; गृहे--महल में; क्व अपि--कहीं; धर्मम्‌--धर्म का; सेवमानम्‌-- अभ्यास करते हुए; अर्थ--आर्थिक विकास; कामौ--इन्द्रिय-तृप्ति;च--तथा; कुत्रचित्‌--कहीं |

    कहीं पर भगवान्‌ कृष्ण किसी एक पत्नी के साथ हास-परिहास करते देखे गये।

    कहीं औरवे अपनी पत्नी समेत धार्मिक-अनुष्ठान के कृत्यों में व्यस्त पाये गये।

    कहीं कृष्ण आर्थिक विकासके मामलों में तो कहीं शास्त्रों के नियमानुसार गृहस्थ जीवन का भोग करते पाये गये।

    ध्यायन्तमेकमासीन पुरुष प्रकृते: परम्‌ ।

    शुश्रूषन्तं गुरून्क्वापि कामैभोंगि: सपर्यया ॥

    ३०॥

    ध्यायन्तम्‌-ध्यान करते हुए; एकम्‌--एकाकी; आसीनम्‌--बैठे हुए; पुरुषम्‌-- भगवान्‌ को; प्रकृते:-- भौतिक प्रकृति का;परमू--दिव्य; शुश्रूषन्तम्‌--क्षुद्र सेवा करते हुए; गुरूनू--अपने से बड़ों की; कब अपि--कहीं; कामै:--इच्छित; भोगै: -- भोग्यवस्तुओं से; सपर्यया--तथा पूजा से |

    कहीं वे अकेले बैठे हुए भौतिक प्रकृति से परे भगवान्‌ का ध्यान कर रहे थे और कहीं पर वेअपने से बड़ों को इच्छित वस्तुएँ देकर तथा उनकी आदरपूर्वक पूजा करके उनकी दासोचितसेवा कर रहे थे।

    कुर्वन्तं विग्रह॑ कैश्वित्सन्धि चान्यत्र केशवम्‌ ।

    कुत्रापि सह रामेण चिन्तयन्तं सतां शिवम्‌ ॥

    ३१॥

    कुर्वन्तम्‌--करते हुए; विग्रहम्‌--युद्ध; कैश्वित्‌--किसी व्यक्ति से; सन्धिमू--मेल-जोल; च--तथा; अन्यत्र--और कहीं;केशवम्‌--भगवान्‌ कृष्ण को; कुत्र अपि--कहीं; सह--साथ; रामेण--बलराम के; चिन्तयन्तम्‌--सोचते हुए; सतामू--साधुओं के; शिवम्‌--कल्याण हेतु।

    एक स्थान पर वे अपने कुछ सलाहकारों के साथ विचार-विमर्श करके युद्धों की योजनाबना रहे थे और अन्य स्थान पर वे शान्ति स्थापित कर रहे थे।

    कहीं पर केशव तथा बलराममिलकर पवित्र लोगों के कल्याण के विषय में चिन्तन कर रहे थे।

    पुत्राणां दुहितृणां च काले विध्युपयापनम्‌ ।

    दारैवरैस्तत्सहशै: कल्पयन्तं विभूतिभि: ॥

    ३२॥

    पुत्राणाम्‌ू--पुत्रों के; दुहितृणाम्‌-पुत्रियों के; च--तथा; काले--उपयुक्त समय पर; विधि--धर्म के अनुसार; उपयापनम्‌--उन्हेंविवाहित करके; दारैः--पत्नियों के साथ; वरैः--तथा पतियों के साथ; तत्‌--उनके; सदृशैः--अनुरूप; कल्पयन्तम्‌--व्यवस्थाकरते हुए; विभूतिभि:--ऐश्वर्य की दृष्टि से |

    नारद ने देखा कि भगवान्‌ कृष्ण अपने पुत्रों तथा पुत्रियों का उच्चित समय पर उपयुक्तपत्नियों तथा पतियों के साथ विवाह करा रहे हैं और ये विवाहोत्सव बड़ी धूमधाम से सम्पन्न हो रहे हैं।

    प्रस्थापनोपनयनैरपत्यानां महोत्सवान्‌ ।

    वीक्ष्य योगेश्वरेशस्यथ येषां लोका विसिस्मिरि ॥

    ३३॥

    प्रस्थापन--विदा करके; उपनयनै:--अगवानी करके; अपत्यानाम्‌--अपनी सन्‍्तानों के; महा--महान्‌; उत्सवान्‌ू--उछाह;वीक्ष्य--देखकर; योग-ईश्वर--योग के स्वामियों के; ईशस्य--परम प्रभु को; येषामू--जिसके ; लोका:--लोग; विसिस्मिरे --विस्मित थे

    नारद ने देखा कि किस तरह समस्त योगेश्वरों के स्वामी श्रीकृष्ण ने अपनी पुत्रियों तथादामादों की विदाई की तथा पुनः महोत्सवों के अवसरों पर उनका घर में स्वागत करने कीव्यवस्था की।

    सारे नागरिक इन उत्सवों को देखकर विस्मित थे।

    यजन्तं सकलान्देवान्क्वापि क्रतुभिरूर्जितैः ।

    पूर्तयन्तं क्वचिद्धर्म कूर्पाराममठादिभि: ॥

    ३४॥

    यजन्तमू--पूजा करते; सकलानू--समस्त; देवान्‌--देवताओं की; क्व अपि--कहीं; क्रतुभि:--यज्ञों से; ऊर्जितैः --पूरी तरहविकसित; पूर्तवन्तम्‌--लोकसेवा पूरी करते हुए; क्वचित्‌--कहीं; धर्मम्‌--धार्मिक बन्धन; कूर्प--कुओं से; आराम--जनउद्यान; मठ--मठ; आदिभि:--इत्यादि से

    कहीं पर वे विस्तृत यज्ञों द्वारा देवताओं को पूज रहे थे और कहीं वे जनकल्याण कार्य यथाकुएँ, जन उद्यान तथा मठ बनवाकर अपना धार्मिक कर्तव्य पूरा कर रहे थे।

    चरन्तं मृगयां क्वापि हयमारुहय सैन्धवम्‌ ।

    घ्नन्तं तत्र पशून्मेध्यान्परीतं यदुपुड़वैः ॥

    ३५॥

    चरन्तमू--विचरण करते; मृगयाम्‌--शिकार करने के लिए; क्व अपि--कहीं; हयम्‌--घोड़े पर; आरुह्म --सवार होकर;सैन्धवम्‌--सिन्धु देश के; घ्नन्तम्‌--वध करते हुए; तत्र--वहाँ; पशून्‌ू--पशुओं को; मेध्यान्‌--यज्ञ में बलि के योग्य; परीतम्‌--घिरकर; यदु-पुड्वैः--अत्यन्त वीर यदुओं से |

    अन्य स्थान पर वे आखेट पर गये थे।

    वे अपने सिन्धी घोड़े पर सवार होकर तथा अत्यन्तवीर यदुओं के संग यज्ञ में बलि के निमित्त पशुओं का वध कर रहे थे।

    अव्यक्तलिगां प्रकृतिष्वन्त:पुरगृहादिषु ।

    क्वचिच्चरन्तं योगेशं तत्तद्भावबुभुत्सया ॥

    ३६॥

    अव्यक्त- गुप्त; लिड्रमू--उनकी पहचान; प्रकृतिषु--अपने मंत्रियों में; अन्त:ः-पुर--रनिवास के; गृह-आदिषु--आवासों आदिमें; क्वचित्‌--कहीं; चरन्तम्‌--विचरण करते; योग-ईशम्‌--योगेश्वर को; तत्‌-तत्‌--उनमें से हर एक का; भाव--मनोभाव;बुभुत्सया--जानने की इच्छा से |

    कहीं योगेश्वर कृष्ण वेश बदलकर मंत्रियों तथा अन्य नागरिकों के घरों में यह जानने केलिए कि उनमें से हर कोई क्या सोच रहा है, इधर उधर घूम रहे थे।

    अथोवाच हषीकेशं नारद: प्रहसन्निव ।

    योगमायोदयं वीक्ष्य मानुषीमीयुषो गतिम्‌ ॥

    ३७॥

    अथ--तत्पश्चात; उवाच--कहा; हषीकेशम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण से; नारदः--नारद ने; प्रहसन्‌--हँसते हुए; इब-- थोड़ा थोड़ा;योग-माया--उनकी आध्यात्मिक मोहक शक्ति का; उदयम्‌--प्राकट्य; वीक्ष्य--देखकर; मानुषीम्‌--मनुष्य की; ईयुष:-- धारणकरने वाले; गतिमू--चाल-ढाल का।

    इस प्रकार भगवान्‌ की योगमाया का यह दृश्य देखकर नारद मुसकाये और तब उन्होंनेभगवान्‌ हषीकेश को सम्बोधित किया जो मनुष्य का आचरण कर रहे थे।

    विदाम योगमायास्ते दुर्दर्शा अपि मायिनाम्‌ ।

    योगेश्वरात्मन्निर्भाता भवत्पादनिषेवया ॥

    ३८॥

    विदाम--हम जानते हैं; योग-माया:--योगशक्तियाँ; ते--तुम्हारी; दुर्दर्शाः:--देख पाना असम्भव; अपि--होते हुए भी;मायिनाम्‌-महान्‌ योगियों के लिए; योग-ई श्रर--हे योगेश्वर; आत्मन्‌--हे परमात्मा; निर्भाता:--अनुभूति हुई; भवत्‌--आपके;पाद--चरणों की; निषेवया--सेवा से |

    नारद ने कहा : हे परमात्मा, हे योगेश्वर, अब हम आपकी योगशक्तियों को समझ सकेहैं, जिन्हें बड़े बड़े योगी भी मुश्किल से समझ पाते हैं।

    एकमात्र आपके चरणों की सेवा करने सेमैं आपकी शक्तियों का अनुभव कर सका हूँ।

    अनुजानीहि मां देव लोकांस्ते यशसाप्लुतान्‌ ।

    पर्यटामि तवोद्गायनलीला भुवनपावनी: ॥

    ३९॥

    अनुजानीहि--मुझे जाने की आज्ञा दें, विदा करें; मामू--मुझको; देव--हे प्रभु; लोकान्‌ू--लोकों को; ते--तुम्हारे; यशसा--यश से; आप्लुतान्‌ू--आप्लावित परिपूर्ण; पर्यटामि--विचरण करूँगा; तव--तुम्हारी; उद्गायन्‌--जोर जोर से गाते हुए;लीला:ः--लीलाएँ; भुवन--सारे लोकों को; पावनी:--पवित्र करने वाली |

    हे प्रभु, मुझे जाने की आज्ञा दें।

    मैं उन लोकों में, जो आपके यश से आप्लावित हैं, ब्रह्माण्डको पवित्र करने वाली आपकी लीलाओं का जोर जोर से गायन करते हुए विचरण करूँगा।

    श्रीभगवानुवाचब्रह्मन्धन्नस्य वक्ताहं कर्ता तदनुमोदिता ।

    तच्छिक्षयनलोकमिममास्थित: पुत्र मा खिदः ॥

    ४०॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; धर्मस्य-- धर्म का; वक्ता--उपदेशक; अहम्‌--मैं; कर्ता--करनेवाला; तत्‌--उसका; अनुमोदिता--स्वीकृति देने वाला; तत्‌ू--वह; शिक्षयन्‌--शिक्षा देते हुए; लोकम्‌--संसार को; इमम्‌--इस; आस्थित:--स्थित; पुत्र--हे पुत्र; मा खिदः --श्लुब्ध न होना

    भगवान्‌ ने कहा : हे ब्राह्मण, मैं धर्म का उपदेशक, उसका कर्ता तथा अनुमोदनकर्ता हूँ।

    हेपुत्र, मैं जगत को शिक्षा देने के लिए धर्म का पालन करता हूँ, अतएव तुम विक्षुब्ध मत होना।

    श्रीशुक उवाचइत्याचरन्तं सद्धर्मान्पावनान्गृहमेधिनाम्‌ ।

    तमेव सर्वगेहेषु सन्‍तमेकं दरदर्श ह ॥

    ४१॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; आचरन्तम्‌-करते हुए; सत्‌--आध्यात्मिक; धर्मानू--धर्म केनियमों को; पावनान्‌--पवित्र करने वाले; गृह-मेधिनामू--गृहस्थियों के लिए; तम्‌--उसको; एब--निस्सन्देह; सर्व--सभी;गेहेषु--महलों में; सन्‍्तम्‌--उपस्थित; एकम्‌--एक रूप में; ददर्श ह--देखा।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस प्रकार नारद ने हर महल में भगवान्‌ को एक ही स्वरूप में,गृहकार्यों में व्यस्त रहने वालों को शुद्ध करने वाले दिव्य धार्मिक नियमों को सम्पन्न करते देखा।

    कृष्णस्यानन्तवीर्यस्थ योगमायामहोदयम्‌ ।

    मुहुर्दष्ठा ऋषिरभूद्विस्मितो जातकौतुकः ॥

    ४२॥

    कृष्णस्य--कृष्ण के; अनन्त--असीम; वीर्यस्थ--पराक्रम को; योग-माया--ठगने वाली शक्ति की; महा--विस्तृत; उदयम्‌--अभिव्यक्ति; मुहुः--बारम्बार; दृष्टा--देख लेने के बाद; ऋषि: --ऋषि, नारद; अभूत्‌--हो गये; विस्मित:--चकित;जातकौतुक:--आश्चर्यपूरित |

    असीम शक्ति वाले भगवान्‌ कृष्ण के विस्तृत योग प्रदर्शन को बारम्बार देख लेने के बादऋषि चकित एवं आश्चर्य से पूरित हो गये।

    इत्यर्थकामधर्मेषु कृष्णेन श्रद्धितात्मना ।

    सम्यक्सभाजित:ः प्रीतस्तमेवानुस्मरन्ययौ ॥

    ४३॥

    इति--इस प्रकार; अर्थ--आर्थिक विकास के लिए उपयोगी वस्तुओं से; काम--इन्द्रिय-तृप्ति के; धर्मेषु--तथा धर्म के;कृष्णेन--कृष्ण द्वारा; श्रद्धित-- श्रद्धावान; आत्मना--हृदय वाला; सम्यक्‌-- भलीभाँति; सभाजित:--सम्मानित; प्रीत:--प्रसन्न; तमू--उसको; एब--निस्सन्देह; अनुस्मरन्‌--सदैव स्मरण करते; ययौ--चले गए

    भगवान्‌ कृष्ण ने नारद का अत्यधिक सम्मान किया और उन्हें श्रद्धापूर्वक आर्थिक समृद्धि,इन्द्रिय-तृष्ति तथा धार्मिक कर्तव्यों से सम्बन्धित उपहार भेंट किये।

    इस तरह ऋषि पूरी तरह तुष्ट होकर अनवतर भगवान्‌ का स्मरण करते हुए वहाँ से चले गये।

    एवं मनुष्यपदवीमनुवर्तमानोनारायणोखिलभवाय गृहीतशक्ति: ।

    रेमेण्ग घोडशसहस्त्रवराड़नानांसब्रीडसौहदनिरीक्षणहासजुष्ट: ॥

    ४४॥

    एवम्‌--इस प्रकार; मनुष्य--मनुष्य के; पदवीम्‌--पथ को; अनुवर्तमान:--अनुसरण करते हुए; नारायण: -- भगवान्‌ नारायण;अखिल-हर एक के; भवाय--कल्याण हेतु; गृहीत-- प्रकट करके; शक्ति:--शक्तियाँ; रेमे--रमण किया; अड़--हे प्रिय( परीक्षित ); षोडश--सोलह; सहस्त्र--हजार; वर--अति उत्तम; अड्रनानाम्‌ू--स्त्रियों के; स-ब्रीड--लजीली; सौहद--तथास्नेहमयी; निरीक्षण--चितवनों; हास--तथा हँसी से; जुष्ट:-तुष्ट |

    इस तरह भगवान्‌ नारायण ने सभी जीवों के लाभ हेतु अपनी दैवी शक्तियों को प्रकट करकेसामान्य मनुष्यों की चाल-ढाल का अनुकरण किया।

    हे राजन, इस प्रकार उन्होंने अपनी उनसोलह हजार वरिष्ठ प्रेयसियों के साथ रमण किया जो अपनी लजीली स्नेहमयी चितवनों तथामुसकान से भगवान्‌ की सेवा करती थीं।

    यानीह विश्वविलयोद्धववृत्तिहेतु:कर्माण्यनन्यविषयाणि हरीश्वकार ।

    यस्त्वड़ गायति श्रुणोत्यनुमोदते वाभक्तिर्भवेद्धगवति हापवर्गमार्गे ॥

    ४५॥

    यानि--जो; इह--इस संसार में; विश्व--ब्रह्माण्ड के; विलय--संहार; उद्धव--सृजन; वृत्ति--तथा पालन के; हेतु:--कारण,स्वरूप; कर्माणि--कर्म; अनन्य--अन्य किसी के नहीं; विषयाणि--कार्यक्रम; हरि: -- भगवान्‌ कृष्ण ने; चकार--सम्पन्नकिया; यः--जो भी; तु--निस्सन्देह; अड्भ--मेरे प्रिय राजा; गायति--उच्चारण करता है; श्रुणोति--सुनता है; अनुमोदते--अनुमोदन करता है; वा--अथवा; भक्ति:--भक्ति; भवेत्‌--उत्पन्न होती है; भगवति--भगवान्‌ के प्रति; हि--निस्सन्देह;अपवर्ग-मोक्ष के; मार्गे--मार्ग में |

    भगवान्‌ हरि ही ब्रह्माण्ड की सृष्टि, पालन तथा संहार के चरम कारण हैं।

    हे राजनू, जो भी उनके द्वारा इस संसार में सम्पन्न अद्वितीय कार्यो के विषय में कीर्तन करता है, सुनता है या केवलप्रशंसा करता है, जिनका अनुकरण करना असम्भव है, वह अवश्य ही मोक्ष के प्रदाता भगवान्‌के प्रति भक्ति उत्पन्न कर लेगा।

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    अध्याय सत्तर: भगवान कृष्ण की दैनिक गतिविधियाँ

    10.70श्रीशुक उबाचअथोषस्युपवृत्तायां कुक्कुटान्कूजतोशपन्‌ ।

    गृहीतकण्ठ्य्य:पतिभिर्माधव्यो विरहातुरा: ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; अथ--तब; उषसि--भोर में ; उपवृत्तायामू--निकट आ रहे; कुक्कुटान्‌ू--मुर्गोको; कूजतः--बाँग देते; अशपन्‌--शाप दिया; गृहीत--पकड़ा हुआ; कण्ठद्य:--गले से; पतिभि:--अपने पतियों ( अनेक रूपोंमें कृष्ण ) द्वारा; माधव्य:-- भगवान्‌ कृष्ण की पत्नियाँ; विरह--वियोग के कारण; आतुरा:--श्षुब्ध |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जैसे जैसे प्रभात निकट आने लगा वैसे वैसे भगवान्‌ माधव कीसारी पत्नियाँ जो पति द्वारा गले में आलिंगित थीं, बाँग देते मुर्गों को कोसने लगीं।

    ये स्त्रियाँविक्षुब्ध थीं क्योंकि अब वे उनसे विलग हो जायेंगी।

    वयांस्यरोरुवन्कृष्णं बोधयन्तीव वन्दिन: ।

    गायत्स्वलिष्वनिद्राणि मन्दारवनवायुभि: ॥

    २॥

    वयांसि--पक्षियों को; अरोरुवन्‌--जोर से शब्द करती हुई; कृष्णम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण को; बोधयन्ति--जगाती हुई; इब--मानो;वन्दिन:--भाट; गायत्सु--गाने लगे; अलिषु-- भौरे; अनिद्राणि--निद्रा से जगाये गये; मन्दार--पारिजात वृक्ष के; वन--उद्यानसे; वायुभि:--मन्द वायु द्वारा।

    पारिजात उद्यान से आने वाली सुगंधित वायु से उत्पन्न भौंरों की गुनगुनाहट ने पक्षियों कोनींद से जगा दिया।

    और जब ये पक्षी जोर जोर से चहचहाने लगे, तो उन्होंने भगवान्‌ कृष्ण कोजगा दिया मानो दरबारी कवि उनके यश का गायन कर रहे हों।

    मुहूर्त तं तु वैदर्भी नामृष्यदतिशोभनम्‌ ।

    परिरम्भणविएलेषात्प्रियबाहन्तरं गता ॥

    ३॥

    मुहूर्तम्‌--दिन का समय, घड़ी को; तम्‌--उस; तु--लेकिन; वैदर्भी--महारानी रुक्मिणी ने; न अमृष्यत्‌--पसन्द नहीं किया;अति--अत्यन्त; शोभनम्‌--शुभ; परिरम्भण--उनके आलिंगन की; विश्लेषात्‌--हानि से; प्रिय--अपने प्रियतम की; बाहु--भुजाओं के; अन्तरम्‌--बीच में; गता--स्थित |

    अपने प्रियतम की बाहों में लेटी हुई महारानी वैदर्भी को यह परम शुभ बेला नहीं भाती थीक्योंकि इसका अर्थ यह था कि वे उनके आलिंगन से विहीन हो जायेंगी।

    ब्राह्मे मुहूर्त उत्थाय वार्युपस्पृश्य माधव: ।

    दध्यौ प्रसन्नकरण आत्मानं तमस: परम्‌ ॥

    ४॥

    एक॑ स्वयंज्योतिरनन्यमव्ययंस्वसंस्थया नित्यनिरस्तकल्मषम्‌ ।

    ब्रह्माख्यमस्योद्धवनाशहेतुभिःस्वशक्तिभिल॑क्षितभावनिर्वृतिम्‌ ॥

    ५॥

    ब्राह्मे मुहूर्ते--सूर्योदय से पूर्व, भोर में जो आध्यात्मिक कार्यो के लिए दिन का सर्वाधिक उत्तम समय है; उत्थाय--उठकर;वारि--जल; उपस्पृश्य--छूकर; माधव:-- भगवान्‌ कृष्ण ने; दध्यौ-- ध्यान किया; प्रसन्न--विमल; करण:--मन; आत्मानम्‌--अपने ऊपर; तमसः:--अज्ञान; परमू--परे; एकम्‌--एकमात्र; स्वयम्‌-ज्योति:-- आत्म-प्रकाशित; अनन्यम्‌ू-- अनन्य;अव्ययम्‌--अव्यय; स्व-संस्थया--अपने स्वभाव से; नित्य--नित्य; निरस्त--भगाते हुए; कल्मषम्‌--दूषण को; ब्रह्म-आख्यम्‌--ब्रह्म या परम सत्य नाम से विख्यात; अस्य--इस ( ब्रह्माण्ड ) का; उद्धव--सृष्टि; नाश--तथा संहार; हेतुभि:--कारणों से; स्व--निजी; शक्तिभि: --शक्तियों से; लक्षित--प्रकट; भाव--अस्तित्व; निर्वृतिमू--हर्ष

    भगवान्‌ माथव ब्राह्म मुहूर्त में उठा करते और जल का स्पर्श किया करते थे।

    तब स्वच्छ मनसे वे एकाकी, आत्म-प्रकाशित, अनन्य तथा अच्युत परम सत्य ब्रह्म-रूप स्वयं का ध्यान करते,जो स्वभाव से ही सारे कल्मष को दूर करने वाला है और जो अपनी उन निजी शक्तियों के द्वारा,जो इस ब्रह्माण्ड का सृजन और संहार करती हैं, अपना ही शुद्ध तथा आनन्दमय स्वरूप प्रकटकरता है।

    अथाप्लुतोम्भस्यमले यथाविधिक्रियाकलापं परिधाय वाससी ।

    चकार सन्ध्योपगमादि सत्तमोहुतानलो ब्रह्म जजाप वाग्यत:ः ॥

    ६॥

    अथ--तब; आप्लुत:--स्नान करके; अम्भसि--जल में; अमले--स्वच्छ; यथा-विधि--वैदिक नियमों के अनुसार; क्रिया--अनुष्ठान के; कलापम्‌--समस्त अनुक्रम; परिधाय--पहन कर; वाससी--अधो तथा ऊपरी वस्त्र; चकार--किया; सन्ध्या-उपगम--प्रातःकालीन पूजा; आदि--इत्यादि; सत्‌-तम:--साधु-पुरुष; हुत--आहु॒ति देकर; अनलः--पवित्र अग्नि को; ब्रह्म --वेदों का मंत्र ( गायत्री )) जजाप--मौन रहकर उच्चारण किया; वाक्‌ू--वाणी; यतः--नियंत्रित करते हुए

    तब पुरुषों में अत्यन्त साधु सदृश भगवान्‌ कृष्ण पवित्र जल में स्नान करते, अपने अधो वस्त्रतथा ऊपरी वस्त्र पहनते और प्रातःकालीन पूजा इत्यादि सारे नियमित क्रिया-कलाप सम्पन्न'करते।

    फिर पवित्र अग्नि में आहुति देकर वे मन ही मन गायत्री मंत्र का जाप करते।

    उपस्थायार्कमुद्चन्तं तर्पयित्वात्मन: कला: ।

    देवानृषीन्पितृन्वृद्धान्विप्रानभ्यर्च्य चात्मवान्‌ ॥

    ७॥

    धेनूनां रुक्मश्रुड़ीनां साध्वीनां मौक्तिकस्त्रजाम्‌ ।

    'पयस्विनीनां गृष्टीनां सवत्सानां सुवाससाम्‌ ॥

    ८ ॥

    ददौ रूप्यखुराग्राणां क्षौमाजिनतिलै: सह ।

    अलह्ड तेभ्यो विप्रेभ्यो बद्धं बद्दं दिने दिने ॥

    ९॥

    उपस्थाय--पूजा करके; अर्कम्‌--सूर्य को; उद्यन्तम्‌ू--उदय होते; तर्पयित्वा--तर्पण करके ; आत्मन: --अपने; कला: --अंशोंको; देवान्‌ू--देवताओं को; ऋषीनू--ऋषियों को; पितृन्‌--तथा पितरों को; वृद्धान्‌ू--अपने गुरुजनों को; विप्रान्‌ू--तथाब्राह्मणों को; अभ्यर्च्यच--पूज कर; च--तथा; आत्म-वान्‌--अपनी ही; धेनूनाम्‌ू--गौवों के; रुक्म--सोने ( से मढ़ी );श्रृद्दीनामू--सींगों वाली; साध्वीनाम्‌-- अच्छे स्वभाव वाली; मौक्तिक--मोतियों की; स्त्रजामू--मालाओं से; पयस्विनीनाम्‌--दूध देने वाली; गृष्टीनामू--एक बार ब्याई; स-वत्सानाम्‌--अपने बछड़ों समेत; सु-वाससाम्‌--अच्छी तरह से वस्त्र पहने; ददौ--दिया; रूप्य--चाँदी ( से मढ़ी ); खुर--खुरों वाली; अग्राणाम्‌-- अगले; क्षौम--मलमल; अजिन--मृगचर्म; तिलैः--तथा तिल;सह--े साथ साथ; अलहड्डू ते भ्य:--आभूषण दिये गये; विप्रेभ्य:--ब्राह्मणों को; बद्दम्‌ बद्ठमू--( एक सौ सात ) १३,०८४ केसमूह ( पूर्ण संख्या १४,००,००० ); दिने दिने-- प्रतिदिन

    प्रतिदिन भगवान्‌ उदय होते सूर्य की पूजा करते और अपने अंशरूप देवताओं, ऋषियों तथापितरों का तर्पण करते।

    तत्पश्चात्‌ आत्म-समृद्ध भगवान्‌ अपने गुरुजनों तथा ब्राह्मणों कीध्यानपूर्वक पूजा करते।

    वे सुवस्त्राभूषित ब्राह्मणों को, पालतू तथा शान्त गौवों का झुंड दान मेंदेते, जिनके सींग सोने से मढ़े होते और गले में मोतियों की मालाएँ रहती थीं।

    ये गौवें सुन्दरवस्त्रों से भी विभूषित रहतीं और उनके खुरों के अगले हिस्से चाँदी से मढ़े होते।

    ये प्रचुर दूध देनेवाली तथा एक बार ( ब्याँती ) वाली होतीं और इनके साथ इनके बछड़े होते।

    भगवान्‌ प्रतिदिन १३,०८४ गौवों के अनेक झुंड विद्वान ब्राह्मणों को देते और साथ में मलमल, मृगचर्म तथा तिलभी दान देते।

    गोविप्रदेवतावृद्धगुरून्भूतानि सर्वशः ।

    नमस्कृत्यात्मसम्भूतीर्मड्रलानि समस्पृश्त्‌ ॥

    १०॥

    गो--गौवों; विप्र--ब्राह्मणों; देवता--देवताओं ; वृद्ध--वरेषुजन; गुरूनू--तथा गुरुओं को; भूतानि--जीवों को; सर्वशः --समस्त; नमस्कृत्य--नमस्कार करके; आत्म--अपने; सम्भूती:--अंशों को; मड्रलानि--शुभ वस्तुएँ ( यथा भूरी गाय );समस्पृशत्‌--स्पर्श किया।

    भगवान्‌ कृष्ण गौवों, ब्राह्मणों तथा देवताओं, अपने वरेषुजनों तथा गुरुओं और समस्तजीवों को--जो उन परम पुरुष के ही अंशरूप हैं--नमस्कार करते।

    तब वे शुभ वस्तुओं कास्पर्श करते।

    आत्मानं भूषयामास नरलोकविभूषणम्‌ ।

    वासोभिर्भूषणै: स्वीयैर्दिव्यस्त्रगनुलेपनै: ॥

    ११॥

    आत्मानम्‌--स्वयं को; भूषयाम्‌ आस--सजाते; नर-लोक--मानव समाज के; विभूषणम्‌-- आभूषण; वासोभि:--वस्त्रों से;भूषणै:--तथा रलों से; स्वीयैः -- अपने ही; दिव्य--दैवी; स्रकू--फूल की मालाओं से; अनुलेपनै:--तथा लेपों से |

    वे मानव समाज के आभूषण स्वरूप अपने शरीर को अपने विशेष बस्त्रों तथा रत्नों से औरदेवी फूल-मालाओं एवं लेपों से सजाते।

    अवेश्ष्याज्यं तथादर्श गोवृषद्विजदेवता: ।

    कामांश्व सर्ववर्णानां पौरान्तःपुरचारिणाम्‌ ।

    प्रदाप्य प्रकृतीः काम: प्रतोष्य प्रत्यनन्दत ॥

    १२॥

    अवेक्ष्य--देखकर; आज्यम्‌--घी की ओर; तथा--और भी; आदर्शम्‌--शीशे की ओर; गो--गौवें; वृष--साँड़ों; द्विज--ब्राह्मणों; देवता:--देवतागण; कामान्‌--इच्छित वस्तुओं; च--तथा; सर्व--सभी; वर्णानाम्‌--जातियों के लोगों को; पौर--नगर में; अन्तः-पुर--महल के भीतर; चारिणाम्‌--रहने वाले; प्रदाप्प--देने का प्रबन्ध करके ; प्रकृती: --मंत्रीगण; कामै: --अपनी इच्छाओं के पूर्ण होने से; प्रतोष्य--पूरी तरह तुष्ट करके; प्रत्यनन्दत--सत्कार किया।

    तब वे घी, दर्पण, गौवों तथा साँड़ों, ब्राह्मणों और देवताओं की ओर देखते और आश्वस्त होते कि महल के भीतर तथा पूरे नगर में रहने वाले सभी जातियों के लोग इन उपहारों से सन्तुष्टतो हैं।

    तत्पश्चात्‌ अपने मंत्रियों की इच्छाओं को पूरा करके उनका अभिवादन और सत्कार करते।

    संविभज्याग्रतो विप्रान्स्त्रक्ताम्बूलानुलेपनै: ।

    सुहृदः प्रकृतीर्दारानुपायुड्र, ततः स्वयम्‌ ॥

    १३॥

    संविभज्य--बाँट कर; अग्रत:ः--पहले; विप्रानू--ब्राह्मणों को; सत्रकू--मालाएँ; ताम्बूल--पान; अनुलेपनै: --तथा चन्दन-लेपसे; सुहृदः --अपने मित्रों; प्रकृती:--अपने मंत्रियों; दारानू-- अपनी पत्रियों; उपायुड्र --काम में लाते; ततः--तब; स्वयम्‌--स्वयम्‌।

    सर्वप्रथम ब्राह्मणों को पुष्प-मालाएँ, पान तथा चन्दन-लेप बाँटकर इन्हीं उपहारों को अपनेमित्रों, मंत्रियों तथा पत्नियों को देते और अन्त में स्वयं इनका उपभोग करते।

    तावत्सूत उपानीय स्यन्दनं परमाद्भुतम्‌ ।

    सुग्रीवाद्यैहयैर्युक्ते प्रणम्यावस्थितोग्रतः ॥

    १४॥

    तावतू--तब तक; सूतः--सारथी; उपानीय--लाकर; स्यन्दनम्‌--रथ को; परम--अत्यन्त; अद्भुतम्‌-- अद्भुत; सुग्रीव-आह्यैः--सुग्रीव नाम के तथा अन्य; हयै:--घोड़ों से; युक्तम्‌--जुता हुआ; प्रणम्य--प्रणाम करके; अवस्थित:--खड़ा हुआ;अग्रतः--उनके सामने।

    तब तक भगवान्‌ का सारथी उनके अत्यन्त अद्भुत रथ को ले आता जिसमें सुग्रीव तथाउनके अन्य घोड़े जुते होते।

    तत्पश्चात्‌ उनका सारथी उन्हें नमस्कार करता और उनके समक्ष आखड़ा होता।

    गृहीत्वा पाणिना पाणी सारथेस्तमथारुहत्‌ ।

    सात्यक्युद्धवसंयुक्तः पूर्वाद्रिमिव भास्कर: ॥

    १५॥

    गृहीत्वा--पकड़ कर; पाणिना--अपने हाथ से; पाणी--हाथ; सारथे: --अपने सारथी के; तम्‌--उसको; अथ--तब;आरुहत्‌--चढ़ गये; सात्यकि-उद्धव--सात्यकि तथा उद्धव से; संयुक्त:--संग में; पूर्व--पूर्व की ओर का; अद्विम्‌--पर्वत;इब--मानो; भास्कर: --सूर्य |

    अपने सारथी के हाथों को पकड़ कर भगवान्‌ कृष्ण सात्यकि तथा उद्धव के साथ साथ रथपर इस तरह चढ़ते मानो सूर्य पूर्व के पर्वत ( उदयाचल ) पर उदय हो रहा हो।

    ईक्षितोन्तःपुरस्त्रीणां सब्रीडप्रेमवीक्षितैः ।

    कृच्छाद्विसृष्टो निरगाज्जातहासो हरन्मन: ॥

    १६॥

    ईक्षित:--देखे गये; अन्त:-पुर--महल की; स्त्रीणाम्‌--स्त्रियों के; स-ब्रीड-- लजीली; प्रेम--तथा प्रेमपूर्ण; वीक्षितै:--चितवनोंसे; कृच्छात्‌--कठिनाई से; विसृष्ट:--छूट कर; निरगात्‌--छुटकारा पाकर; जात-- प्रकट; हास:--हँसी; हरन्‌--चुराते; मन:--उनके मनों को।

    महल की स्त्रियाँ भगवान्‌ कृष्ण को लजीली प्रेममणमयी चितवनों से देखतीं और इस तरह वेमुश्किल से उनसे छूट पाते।

    तत्पश्चात्‌ वे अपने हँसीयुक्त मुख से उनके मन को चुराते हुए चलपड़ते।

    सुधर्माख्यां सभां सर्वैर्वृष्णिभि: परिवारित: ।

    प्राविशद्यन्निविष्टानां न सन्त्यड्र षडूर्मय: ॥

    १७॥

    सुधर्मा-आख्याम्‌--सुधर्मा नामक; सभामू--राजसभो-भवतन में; सर्वै:--सभी; वृष्णिभि: --वृष्णियों द्वारा; परिवारित: --सम्मिलित हुए; प्राविशत्‌--प्रविष्ट हुए; यत्‌--जो; निविस्तानामू--प्रविष्ट हुओं के लिए; न सन्ति--नहीं हैं; अड्र--हे राजा( परीक्षित ); षघट्‌ू--छ:; ऊर्मय: --तरंगें |

    हे राजन, भगवान्‌ समस्त वृष्णियों के साथ साथ उस सुधर्मा सभाभवन में प्रवेश करते, जोउसमें प्रवेश करने वालों को भौतिक जीवन की छह तरंगों से रक्षा करता है।

    तत्रोपविस्तः परमासने विभु-बभौ स्वभासा ककुभोवभासयन्‌ ।

    बृतो नृसिंहैर्यदुभिय्यदूत्तमोयथोडुराजो दिवि तारकागणै: ॥

    १८॥

    तत्र--वहाँ; उपविष्ट: --बैठे; परम-आसने--उच्च सिंहासन पर; विभु:--सर्वशक्तिमान प्रभु; बभौ--चमकते; स्व--अपने;भासा--तेज से; ककुभ:--आकाश के कोने; अवभासयनू-प्रकाशित करते हुए; बृतः--घिरे हुए; त्र्‌--मनुष्य के रूप;सिंहैः--सिंहों द्वारा; यदुभि:--यदुओं द्वारा; यदु-उत्तम:--यदुओं में सर्व श्रेष्ठ यथा--जिस तरह; उडु-राज:--चन्द्रमा; दिवि--आकाश में; तारका-गणैः--तारों से (घिरा हुआ )

    जब उस सभाभवतन में सर्वशक्तिमान भगवान्‌ अपने श्रेष्ठ सिंहासन पर विराजमान होते तो वेअपने अद्वितीय तेज से आकाश की दिशाओं को प्रकाशित करते हुए शोभायमान होते।

    पुरुषों मेंसिंह रूप यदुओं से घिर कर वे यदुश्रेष्ठ वैसे ही प्रतीत होते जैसे कि अनेक तारों के बीच चन्द्रमा।

    तत्रोपमन्त्रिणो राजन्नानाहास्यरसैर्विभुम्‌ ।

    उपतस्थुर्नटाचार्या नर्तक्यस्ताण्डवै: पृथक्‌ ॥

    १९॥

    तत्र--वहाँ; उपमन्त्रिण: --विदूषक; राजनू--हे राजन्‌; नाना--विविध; हास्य--हास्य; रसैः--रसों के द्वारा; विभुम्‌ू-- भगवान्‌को; उपतस्थु: --उन्होंने सेवा की; नट-आचार्या:--दक्ष मनोविनोद करने वाले; नर्तक्य:--नर्तकियाँ; ताण्दवै:--कलापूर्ण नृत्यसे; पृथक्‌ू--अलग से

    हे राजन, वहाँ पर विदूषक विविध हास्य रसों का प्रदर्शन करके भगवान्‌ का मनोरंजनकरते, दक्ष नर्तक उनके लिए अभिनय करते और नर्तकियाँ ओजपूर्ण नृत्य प्रस्तुत करतीं ।

    मृदड्रवीणामुरजवेणुतालदरस्वनै: ।

    ननृतुर्जगुस्तुष्टवुश्न सूतमागधवन्दिन: ॥

    २०॥

    मृदड्--मृदंग; वीणा--वीणा; मुरज--तथा मुरज का, एक प्रकार का अन्य ढोल; वेणु--बाँसुरी; ताल--मंजीरें; दर--तथाशंख के; स्वनैः-- ध्वनि सहित; ननृतु:--नृत्य किया; जगुः--गाया; तुष्ट॒बु:-- प्रशंसा की; च--तथा; सूत--भाट; मागध--तथाचारण; वन्दिन:--तथा वंदीजन

    ये अभिनयकर्ता मृदंग, वीणा, मुरज, वंशी, मंजीरा तथा शंख की ध्वनि के साथ नाचते औरगाते, जबकि पेशेवर कवि, मागध तथा वन्दीजन भगवान्‌ के यश का गायन करते।

    तत्राहुर्ब्राह्मणा: केचिदासीना ब्रह्मवादिन: ।

    पूर्वेषां पुण्ययशसां राज्ञां चाकथयन्कथा: ॥

    २१॥

    तत्र--वहाँ; आहु: --बोले; ब्राह्मणा:--ब्राह्मणणण; केचित्‌--कुछ; आसीना:--बैठे हुए; ब्रह्म--वेदों के; वादिन:--ज्ञाता;पूर्वषाम्‌-- भूतकाल के; पुण्य--पवित्र; यशसाम्‌--जिनका यश्ञ; राज्ञामू--राजाओं का; च--तथा; आकथयनू--सुनाते;कथा:--कथाएँ।

    कुछ ब्राह्मण उस सभाभवन में बैठ कर बैदिक मंत्रों का सस्वर पाठ करते और कुछपूर्वकालीन पवित्र कीर्ति वाले राजाओं की कथाएँ कह कर सुनाते।

    तत्रैकः पुरुषो राजन्नागतोपूर्वदर्शन: ।

    विज्ञापितो भगवते प्रतीहारैः प्रवेशित: ॥

    २२॥

    तत्र--वहाँ; एक:--एक; पुरुष: --व्यक्ति; राजनू--हे राजा ( परीक्षित ); आगत:--आया; अपूर्व--जिसके पहले कभी नहीं;दर्शन:--जिसका प्राकटय; विज्ञापित:--आने की सूचना दी; भगवते-- भगवान्‌ से; प्रतीहारैः--द्वारपालों के द्वारा; प्रवेशित:--भीतर जाने दिया गया।

    हे राजनू, एक बार एक व्यक्ति उस सभा में आया जो इसके पूर्व वहाँ कभी नहीं देखा गयाथा।

    द्वारपालों ने उसके आने की जानकारी भगवान्‌ को दी और तब वे उसे भीतर लेकर आये।

    स नमस्कृत्य कृष्णाय परेशाय कृताझलिः ।

    राज्ञामावेदयहुःखं जरासन्धनिरोधजम्‌ ॥

    २३॥

    सः--उसने; नमस्कृत्य--नमस्कार करके; कृष्णाय--भगवान्‌ कृष्ण को; पर-ईशाय--परमेश्वर; कृत-अज्जलि:--हाथ जोड़कर; राज्ञामू--राजाओं के; आवेदयत्‌--निवेदन किया; दुःखम्‌--कष्ट; जरासन्ध--जरासन्ध द्वारा; निरोध-जम्‌--बन्दी बनायेजाने के कारण।

    उस व्यक्ति ने भगवान्‌ कृष्ण को नमस्कार किया और हाथ जोड़ कर उनको बतलाया किजरासन्ध द्वारा बन्दी बनाये जाने के कारण किस तरह अनेक राजा कष्ट भोग रहे हैं।

    ये च दिग्विजये तस्य सन्नतिं न ययुर्नुपा: ।

    प्रसह्य रुद्धास्तेनासन्नयुते द्वे गिरित्रजे ॥

    २४॥

    ये--जो; च--तथा; दिक्‌ू-विजये--सभी दिशाओं में विजय के समय; तस्य--उसकी ( जरासन्ध की ); सन्नतिम्‌-पूर्णअधीनता; न ययु:--स्वीकार नहीं किया; नृपा: --राजा; प्रसह्य--बलपूर्वक; रुद्धा:--बन्दी बनाये गये; तेन--उसके द्वारा;आसनू--थे; अयुते--दस हजार; द्वे--दो; गिरि-ब्रजे--गिरित्रज नामक किले में |

    जिन बीस हजार राजाओं ने जरासन्ध की दिग्विजय के समय पूर्ण अधीनता स्वीकार नहींकी थी, वे उसके द्वारा बलपूर्वक गिरिब्रज नामक किले में बन्दी बना लिये गये थे।

    राजान ऊचु:कृष्ण कृष्णाप्रमेयात्मन्प्रपन्नभयभज्जन ।

    वबयं त्वां शरणं यामो भवभीता: पृथग्धिय: ॥

    २५॥

    राजान:--राजाओं ने; ऊचु:--कहा; कृष्ण कृष्ण--हे कृष्ण, हे कृष्ण; अप्रमेय-आत्मन्‌--हे अमाप्य आत्मा; प्रपन्न--शरणागतलोगों के; भय--डर के; भद्न--हे नष्ट करने वाले; वयम्‌--हम; त्वाम्‌--तुम्हारी; शरणम्‌--शरण में; याम:--आये हैं;भव--संसार से; भीता:--डरे हुए; पृथक्‌ू--अलग; धिय:--जिनकी मनोवृत्ति।

    दूत के द्वारा दिये गये वृत्तान्त के अनुसार राजाओं ने कहा : हे कृष्ण, हे कृष्ण, हेअप्रमेय आत्मा, हे शरणागतों के भय के विनाशक, हम पृथक्‌ पृथक्‌ मत रखने के बावजूदसंसार से भयभीत होकर आपके पास शरण लेने आये हैं।

    लोको विकर्मनिरतः कुशले प्रमत्तःकर्मण्ययं त्वदुदिते भवदर्चने स्वे ।

    यस्तावदस्य बलवानिह जीविताशांसद्यश्छिनत्त्यनिमिषाय नमोउस्तु तस्मै ॥

    २६॥

    लोकः--सारा संसार; विकर्म--पापकर्मों में; निरतः--सदैव लिप्त; कुशले--उनके लाभ के लिए; प्रमत्त:--मोह ग्रस्त;कर्मणि--कार्यो में; अयम्‌--यह ( जगत ); त्वत्‌--तुम्हारे द्वारा; उदिते--कहे गये; भवत्‌--आपका; अर्चने--पूजा में; स्वे--अपनी ( लाभप्रद कार्य ); यः--जो; तावत्‌--तब तक; अस्य--इस ( जगत का ); बल-वान्‌--शक्तिशाली; इह--इस जीवन में;जीवित--दीर्घायु के लिए; आशाम्‌--आशा; सद्य:--सहसा; छिनत्ति--काट देता है; अनिमिषाय--पलक झपकने तक केसमय को; नमः--नमस्कार; अस्तु--हो; तस्मै--उसको ।

    इस जगत में लोग सदैव पापकर्मों में लगे रहते हैं और इस तरह वे अपने असली कर्तव्य केविषय में, जो आपके आदेशानुसार आपकी पूजा करना है, विशभ्रमित रहते हैं।

    इस कार्य सेसचमुच ही उन्हें सौभाग्य प्राप्त हो सकता है।

    हम सर्वशक्तिमान भगवान्‌ को नमस्कार करते हैं,जो काल रूप में प्रकट होते हैं और इस जगत में दीर्घायु की प्रबल आशा को सहसा छिन्न करदेते हैं।

    लोके भवाझ्जगदिन: कलयावतीर्ण:सद्रक्षणाय खलनिग्रहणाय चान्य: ।

    कश्चित्त्तदीयमतियाति निदेशमीशकि वा जन: स्वकृतमृच्छति तन्न विद्या: ॥

    २७॥

    लोके--इस जगत में; भवान्‌ू--आप; जगत्‌--ब्रह्माण्ड का; इन:-- प्रधान; कलया--अपने अंश बलदेव के साथ अथवा अपनीकालशक्ति के साथ; अवतीर्ण:--अवतरित होकर; सत्‌--सन्त पुरुषों की; रक्षणाय--रक्षा करने हेतु; खल--दुष्ट का;निग्रहणाय--दमन करने के लिए; च--तथा; अन्य:--दूसरा; कश्चित्‌--कोई; त्वदीयम्‌--तुम्हारे; अतियाति-- उल्लंघन करताहै; निदेशम्‌--नियम का; ईश-हे प्रभु; किम्‌ वा--अथवा; जनः--कोई व्यक्ति; स्व--अपने से; कृतम्‌ू--बनाया गया;ऋच्छति--पा लेता है; तत्‌--उसे; न विद्यः--हम नहीं जानते ।

    आप विश्व के अधिष्ठाता प्रभु हैं और आप इस जगत में सन्‍्तों की रक्षा करने तथा दुष्टों कादमन करने के लिए अपनी निजी शक्ति के साथ अवतरित हुए हैं।

    हे प्रभु, हम यह समझ नहींपाते कि कोई आपके नियम का उल्लंघन करने पर भी अपने कर्म के फलों को कैसे भोगसकता है?

    स्वप्नायितं नृपसुखं परतन्त्रमीशशश्वद्धयेन मृतकेन धुरं वहामः ।

    हित्वा तदात्मनि सुखं त्वदनीहलभ्यंक्लिश्यामहेउतिकृपणास्तव माययेह ॥

    २८॥

    स्वप्नायितम्‌--स्वप्न की तरह; नृप--राजाओं के; सुखम्‌--सुख को; पर-तन्त्रमू--बद्ध; ईश-हे प्रभु; शश्वत्‌--नित्य;भयेन-- भय से; मृतकेन--इस शव से; धुरम्‌ू--बोझ को; वहाम:--ढो रहे हैं; हित्वा--छोड़ कर; तत्‌--उस; आत्मनि--आत्माके भीतर; सुखम्‌--सुख को; त्वत्‌ू--आपके लिए किया गया; अनीह--निःस्वार्थ कार्य से; लभ्यम्‌--प्राप्त होने वाले;क्लिश्यामहे--कष्ट भोगते हैं; अति--अत्यधिक; कृपणा:--अभागे; तब--आपकी; मायया--माया से; इह--इस संसार में |

    हे प्रभु, इस शवतुल्य शरीर से, जो कि सदैव भय से ओतप्रोत रहता है, हम राजा लोग सुखके बोझ को स्वप्न की तरह वहन करते हैं।

    इस तरह हमने असली आत्म-सुख को त्याग दिया है,जो आपकी निस्वार्थ सेवा करने से प्राप्त होता है।

    इतने अधिक अभागे होने से हम आपकी मायाके पाश के अन्तर्गत कष्ट भोग रहे हैं।

    तन्नो भवान्प्रणशशोकहराडूप्रियुग्मोबद्धान्वियुद्द्थ मगधाह्यकर्मपाशात्‌ ।

    यो भूभुजोयुतमतड़जवीर्यमेकोबिभ्रद्ररोध भवने मृगराडिवावी: ॥

    २९॥

    तत्‌--इसलिए; नः--हमको; भवान्‌--आप; प्रणत--शरणागतों के; शोक--शोक; हर--हरने वाले; अद्भपघ्रि--पाँवों की;युग्म:--जोड़ी; बद्धान्‌ू--बद्ध; वियुद्क्ष्व--कृपया छुड़ा दें; मगध-आह्य--मगध नामक ( जरासन्ध ); कर्म--सकाम कर्म की;पाशात्‌--जंजीरों से; यः--जो; भू-भुज:--राजा का; अयुत--दस हजार; मतम्‌--उन्मत्त; गज--हाथियों के; वीर्यम्‌--पराक्रम;एक: --अकेले; बिश्रत्‌ू--वश में करके; रुरोध--बन्दी बना लिया; भवने--अपने घर में; मृग-राट्‌--पशुओं का राजा, सिंह;इब--जिस तरह; अवी:--भेड़ों को

    इसलिए आप हम बन्दियों को कर्म के बन्धनों से, जो कि मगध के राजा के रूप में प्रकट हुए हैं, मुक्त कीजिये, क्योंकि आपके चरण उन लोगों के शोक को हरने वाले हैं, जो उनकीशरण में जाते हैं।

    दस हजार उन्मत्त हाथियों के पराक्रम को वश में करके अकेले उसने हम सबोंको अपने घर में उसी तरह बन्दी कर रखा है, जिस तरह कोई सिंह भेड़ों को पकड़ लेता है।

    यो बै त्वया द्विनवकृत्व उदात्तचक्रभग्नो मृथधे खलु भवन्तमनन्तवीर्यम्‌ ।

    जित्वा नुलोकनिरतं सकूदूढदर्पोयुष्मत्प्रजा रुजति नोउजित तद्विधेहि ॥

    ३०॥

    यः--जो; वै--निस्सन्देह; त्ववा--तुम्हारे द्वारा; द्वि--दो बार; नव--नौ; कृत्व:--गुणित; उदात्त--ऊपर उठा हुआ; चक्र --हेचक्रधारी; भग्न: -- कुचला हुआ; मृधे--युद्ध में; खलु--निश्चय ही; भवन्तम्‌--आप; अनन्त--असीम; वीर्यम्‌--शक्ति;जित्वा--जीतकर; त्रू-लोक--मानवीय मामलों में; निरतम्‌--लीन; सकृत्‌ू--केवल एक बार; ऊढ--बढ़ा हुआ; दर्प:--गर्व;युष्मत्‌--तुम्हारी; प्रजा:--जनता; रुजति--सताती है; नः--हमको; अजित--हे अजित; तत्‌--उसे; विधेहि--कृपा करके ठीककर दें।

    हे चक्रधारी, आपकी शक्ति अथाह है और इस तरह आपने जरासन्ध को युद्ध में सत्रह बारकुचला है।

    किन्तु मानवीय कामकाज में लीन होने से आपने उसे आप को पराजित करने काएक बार अवसर दिया है।

    अब वह गर्व से इस कदर फूला हुआ है कि आपकी जनता रूप हमसबों को, सताने का दुस्साहस कर रहा है।

    हे अजित, आप इस स्थिति को सुधारें।

    दूत उबाचइति मागधसंरुद्धा भवदर्शनकड्क्षिण: ।

    प्रपन्ना: पादमूलं ते दीनानां शं विधीयताम्‌ ॥

    ३१॥

    दूतः उबाच--सन्देशवाहक ने कहा; इति--इस प्रकार; मागध--जरासश्य द्वारा; संरुद्धा:--बन्दी बनाये गये; भवत्‌-- आपके;दर्शन--दर्शन के लिए; का्ड्क्षिण:--उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा करते हुए; प्रपन्ना:--शरणागत; पाद--चरणों के; मूलमू--तले;ते--तुम्हारे; दीनानामू--दीनों के; शम्‌--लाभ; विधीयताम्‌--कृपया प्रदान करें।

    दूत ने आगे कहा : यह जरासन्ध के द्वारा बन्दी बनाये गये राजाओं का सन्देश है।

    वे सभीआपके दर्शनों के लिए लालायित हैं, क्योंकि उन्होंने अपने को आपके चरणों में समर्पित करदिया है।

    कृपा करके इन बेचारों को सौभाग्य प्रदान करें।

    श्रीशुक उबाचराजदूते ब्रुव॒त्येवं देवर्षि: परमद्युतिः ।

    बिश्रत्पिड्रजटाभारं प्रादुरासीद्यथा रवि: ॥

    ३२॥

    श्री-शुक: उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; राज--राजाओं के; दूते--दूत के; ब्रुवति--बोल चुकने पर; एवम्‌--इस प्रकार;देव--देवताओं के; ऋषि:--ऋषि ( नारदमुनि ); परम--परम; द्युतिः--तेज; बिभ्रत्‌ू--धारण किये; पिड़--पीला सा; जटा--बालों के समूह के; भारम्‌-भार; प्रादुरासीत्‌--प्रकट हुए; यथा--जिस तरह; रवि:--सूर्य

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब राजाओं का दूत इस तरह बोल चुका, तो देवर्षि नारदसहसा प्रकट हुए।

    सिर पर सुनहरे रंग की जटा धारण किये परम तेजस्वी ऋषि प्रकाशमान सूर्यकी तरह लग रहे थे।

    त॑ दृष्ठा भगवान्कृष्ण: सर्वलोके श्ररेश्वरः ।

    वबन्द उत्थित: शीर्ष्णा ससभ्य: सानुगो मुदा ॥

    ३३॥

    तम्‌--उसको; दृष्टा--देखकर; भगवनू-- भगवान्‌; कृष्ण: -- कृष्ण ने; सर्व--समस्त; लोक--लोकों के; ईश्वर--नियन्ताओं केभी; ईश्वरः--नियन्ता; ववन्द-- नमस्कार किया; उत्थित:--उठकर; शीर्ष्णा--अपने सिर के बल; स--सहित; सभ्य:--सभा केसदस्यों; स--सहित; अनुग: --अनुयायियों; मुदा--हर्ष के साथ ।

    भगवान्‌ कृष्ण जो ब्रह्म तथा शिव जैसे लोके श्वरों के भी पूज्य स्वामी हैं फिर भी ज्योंहीउन्होंने नारदमुनि को आते देखा, तो वे अपने मंत्रियों तथा सचिवों समेत महर्षि का स्वागत करनेतथा अपना सिर झुकाकर उन्हें सादर नमस्कार करने के लिए सहर्ष खड़े हो गये।

    सभाजयित्वा विधिवत्कृतासनपरिग्रहम्‌ ।

    बभाषे सुनृतैर्वाक्यै: श्रद्धया तर्पयन्मुनिम्‌ ॥

    ३४॥

    सभाजयित्वा--पूजा करके; विधि-वत्‌--शास्त्रों के आदेशानुसार; कृत--जिसने किया था उसको ( नारद को ); आसन--आसन का; परिग्रहम्‌--स्वीकार किया जाना; बभाषे--( श्रीकृष्ण ) बोले; सु-नृतैः--सत्य तथा मधुर; वाक्यै: --शब्दों से;श्रद्धया-- श्रद्धापूर्वक; तर्पयन्‌--तुष्ट करते हुए; मुनिम्‌ू--मुनि को |

    जब नारद, उन्हें निवेदित किया गया आसन ग्रहण कर चुके, तो भगवान्‌ ने शास्त्रीय विधियोंसे मुनि का स्वागत किया और सम्मानपूर्वक तुष्ट करते हुए उनसे निम्नलिखित सत्यनिष्ठ तथामधुर शब्द कहे।

    अपि स्विदद्य लोकानां त्रयाणामकुतोभयम्‌ ।

    ननु भूयान्भगवतो लोकान्पर्यटतो गुण: ॥

    ३५॥

    अपि स्वित्‌ू--निश्चय ही; अद्य--आज; लोकानाम्‌--लोकों के; त्रयाणामू--तीनों; अकुतः-भयम्‌-- भय से पूर्ण मुक्ति; ननु--निस्सन्देह; भूयानू--महान्‌; भगवतः--शक्तिशाली पुरुष का; लोकान्‌--समस्त लोकों में; पर्यटतः--विचरण करने वाले;गुण:-गुण |

    भगवान्‌ कृष्ण ने कहा : यह निश्चित है कि आज तीनों लोकों ने समस्त भय से मुक्तिप्राप्त कर ली है, क्योंकि यह आप जैसे सारे लोकों में स्वच्छन्‍्द विचरण करने वाले महापुरुष काप्रताप है।

    न हि तेविदितं किझ्ञिल्लोकेष्वी श्वरकर्तृषु ।

    अथ पृच्छामहे युष्मान्पाण्डवानां चिकीर्षितम्‌ ॥

    ३६॥

    न--नहीं; हि--निस्सन्देह; ते--तुमको; अविदितम्‌--अज्ञात; किश्ञितू--कुछ भी; लोकेषु--लोकों में; ईश्वर --पर मे श्वर;कर्तृषु--बनाने वाले; अथ--इस तरह; पृच्छामहे --हम जिज्ञासा करें; युष्मान्‌ू--आपसे; पाण्डवानाम्‌-पाण्डु-पुत्रों के;चिकीर्षितम्‌--मनोभावों के विषय में |

    ईश्वर की सृष्टि के भीतर ऐसी कोई वस्तु नहीं, जो आपको ज्ञात न हो।

    अतएवं कृपा करकेहमें बतलायें कि पाण्डव क्या करना चाहते हैं ?

    श्रीनारद उवाचइृष्टा माया ते बहुशो दुरत्ययामाया विभो विश्वसृजश्च मायिन: ।

    भूतेषु भूम॑ श्वरत: स्वशक्तिभि-वह्विरिव च्छन्नरुचो न मेद्भधुतम्‌ ॥

    ३७॥

    श्री-नारदः उबाच-- श्री नारद ने कहा; दृष्टा--देखी गयी; मया--मेरे द्वारा; ते--तुम्हारी; बहुश:-- अनेक बार; दुरत्यया--दुल॑ध्य; माया--मोहिनी शक्ति; विभो--हे सर्वशक्तिमान; विश्व--ब्रह्मण्ड के; सृज:--स्त्रष्टा ( ब्रह्म ) का; च--तथा;मायिन:--मोहने वाले ( आप ) का; भूतेषु--जीवों में; भूमन्‌--हे सर्वव्यापक; चरत:--विचरण करने वाले ( आपका ); स्व--अपनी; शक्तिभि:--शक्तियों से; वह्नेः--अग्नि की; इब--तरह; छन्न--ढका हुआ; रुच:-- प्रकाश; न--नहीं; मे--मेरे लिए;अद्भुतमू--अद्भुत |

    श्री नारद ने कहा: हे सर्वशक्तिमान, मैं आपकी माया की दुर्लघ्य शक्ति को, जिससेब्रह्माण्ड के सत्रष्टा ब्रह्म तक को आप मोहित कर लेते हैं, कई बार देख चुका हूँ।

    हे भूमन्‌, इसमेंमुझे तनिक भी आश्चर्य नहीं लगता कि आप जीवों के बीच विचरण करते हुए अपने को अपनीही शक्तियों से छिपा लेते हैं, जिस तरह अग्नि अपने ही प्रकाश को धुएँ से ढक लेती है।

    तवेहितं कोईहति साधु वेदितुस्वमाययेदं सृजतो नियच्छत: ।

    यद्विद्यमानात्मतयावभासतेतस्मै नमस्ते स्वविलक्षणात्मने ॥

    ३८॥

    तव--तुम्हारा; ईहितम्‌-- उद्देश्य; कः--कौन; अ्हति--समर्थ है; साधु--उचित रीति से; वेदितुमू--समझ पाने के लिए; स्व--अपनी; मायया--भौतिक शक्ति से; इृदम्‌--इस ( ब्रह्माण्ड ) को; सृजत:--बनाता है; नियच्छत:--तथा विलीन कर देता है;यत्‌--जो; विद्यमान--उपस्थित होना; आत्मतया--आप परमात्मा के सम्बन्ध द्वारा; अवभासते--प्रतीत होता है; तस्मै--उसे;नमः--नमस्कार; ते--तुमको; स्व--अपनी ही प्रकृति द्वारा; विलक्षण-आत्मने--अचिन्त्य |

    भला आपके उद्देश्य को सही सही कौन समझ सकता है? अपनी भौतिक शक्ति से आप इससृष्टि का विस्तार करते हैं और फिर इसे अपने में लीन कर लेते हैं, जिससे प्रतीत होता है किइसका वास्तविक अस्तित्व है।

    आपको नमस्कार है, जिनकी दिव्य स्थिति अचिन्त्य है।

    जीवस्य यः संसरतो विमोक्षणंन जानतो<नर्थवहाच्छरीरत: ।

    लीलावतारै: स्वयशः प्रदीपकंप्राज्वालयत्त्वा तमहं प्रपद्यो ॥

    ३९॥

    जीवस्य--बद्धजीव के लिए; यः--जो ( भगवान्‌ ); संसरत:--जन्म-मृत्यु के चक्र में जकड़ा ( बद्धजीव ); विमोक्षणम्‌--मुक्ति;न जानतः--न जानते हुए; अनर्थ--अवांछित वस्तुएँ; वहात्‌--जो लाता है; शरीरतः--भौतिक शरीर से; लीला--लीलाओं केलिए; अवतारैः--इस जगत में अवतार लेकर; स्व--अपना; यशः--यश ; प्रदीपकम्‌--दीपक; प्राज्वालयत्‌--जलवाया; त्वा--तुम; तमू--उस भगवान्‌ की; अहम्‌--मैं; प्रपद्े--शरण में जाता हूँ।

    जन्म तथा मृत्यु के चक्र में फँसा जीव यह नहीं जानता कि भौतिक शरीर से, जिससे उसे इतना कष्ट मिलता है, किस प्रकार छुटकारा पाया जाये।

    किन्तु हे परमेश्वर, आप विविध स्वरूपोंमें इस जगत में अवतरित होते हैं और अपनी लीलाएँ करके अपने यश की प्रज्वलित मशाल सेजीव के मार्ग को आलोकित कर देते हैं।

    इसलिए मैं आपकी शरण में जाता हूँ।

    अथाप्याश्रावये ब्रह्न नरलोकविडम्बनम्‌ ।

    राज्ञः पैतृष्वस्त्रेयस्य भक्तस्य च चिकीर्षितम्‌ ॥

    ४०॥

    अथ अपि--फिर भी; आश्रावये--मैं बतलाऊँगा; ब्रह्म--हे परम सत्य; नर-लोक--मानव समाज के; विडम्बनम्‌--( आपसे )जो अनुकरण करते हैं; राज्अ:--राजा ( युधिष्ठिर ) का; पैतू--आपके पिता की; स्वस्त्रेयय्य--बहन के पुत्र के; भक्तस्य--आपकेभक्त; च--तथा; चिकीर्षितम्‌--मनोभाव |

    तो भी, मनुष्य का अभिनय कर रहे हे परम सत्य, मैं आपको बतलाऊँगा कि आपके बुआके पुत्र युधिष्ठिर महाराज क्या करना चाहते हैं।

    यक्ष्यति त्वां मखेन्द्रेण राजसूयेन पाण्डव: ।

    पारमेष्ठग्यकामो नृपतिस्तद्धवाननुमोदताम्‌ ॥

    ४१॥

    यक्ष्यति--यज्ञ करेगा; त्वामू--तुमको; मख--यज्ञ का; इन्द्रेण--सबसे बड़े; राजसूयेन--राजसूय के द्वारा; पाण्डवः--पाण्डु केपुत्र; पारमेछ्य--एकछत्र सत्ता; काम:--इच्छा करते हुए; नू-पति:--राजा; तत्‌--उस; भवानू--आप; अनुमोदताम्‌--कृपयाअनुमोदन कीजिये।

    राजा युधिष्ठिर एकछत्र सत्ता की इच्छा से राजसूय नामक महानतम यज्ञ द्वारा आपकी पूजाकरना चाहते हैं।

    कृपा करके उनके इस प्रयास के लिए आशीर्वाद प्रदान करें।

    तस्मिन्देव क्रतुवरे भवन्तं वै सुरादय: ।

    दिदक्षव: समेष्यन्ति राजानश्च यशस्विन: ॥

    ४२॥

    तस्मिनू--उसमें; देव--हे प्रभु; क्रतु--यज्ञों के; वरे-- श्रेष्ठ; भवन्‍्तम्‌ू-- आप; बै--निस्सन्देह; सुर--देवता; आदय:--तथा अन्यमहापुरुष; दिहृक्षव: --देखने के इच्छुक; समेष्यन्ति--सभी आयेंगे; राजान:--सारे राजा; च-- भी; यशस्विन:--यशस्वी |

    हे प्रभु, आपको देखने के इच्छुक सारे श्रेष्ठ देवता तथा यशस्वी राजा उस श्रेष्ठ यज्ञ मेंआयेंगे।

    श्रवणात्कीर्तनाद्धयानात्पूयन्तेडन्तेवसायिन: ।

    तव ब्रह्ममयस्येश किमुतेक्षाभिमशिन: ॥

    ४३॥

    श्रवणात्‌--सुनने से; कीर्तनातू--कीर्तन करने से; ध्यानातू--तथा ध्यान करने से; पूयन्ते--पवित्र हो जाते हैं; अन्ते-वसायिन:--जाति से निकाले अन्त्यज; तब--आपके विषय में; ब्रह्म-मयस्य--परम सत्य की पूर्ण अभिव्यक्ति; ईश-हे प्रभु; किम्‌ उत--तोफिर क्‍या कहा जाय; ईक्षा--देखने वाले; अभिमर्शिन:ः --तथा स्पर्श करने वाले

    हे प्रभु, आपके यश का श्रवण तथा कीर्तन करने से तथा ब्रह्मरूप आपका ध्यान करने सेजाति से निकाले गये ( अन्त्यज ) लोग भी शुद्ध हो जाते हैं।

    तो फिर उनके विषय में क्या कहाजाय जो आपको देखते हैं और आपका स्पर्श करते हैं ?

    यस्यामलं दिवि यश: प्रथितं रसायांभूमौ च ते भुवनमड़ल दिग्वितानम्‌ ।

    मन्दाकिनीति दिवि भोगवतीति चाधोगड़ेति चेह चरणाम्बु पुनाति विश्वम्‌ ॥

    ४४॥

    यस्य--जिसका; अमलम्‌--विशुद्ध; दिवि--स्वर्ग में; यश:--यश; प्रथितम्‌--विस्तीर्ण; रसायाम्‌--रसातल में; भूमौ--पृथ्वीपर; च--तथा; ते--तुम्हारा; भुवन--सारे लोकों के लिए; मड्रल--हे सौभाग्यदाता; दिक्‌ू--दिशाओं में; वितानम्‌--चँदोवा,प्रसार; मन्दाकिनी इति--मन्दाकिनी नाम से; दिवि--स्वर्ग में; भोगबती इति-- भोगवती नामक; च--तथा; अध: --नीचे; गड्ढाइति--गंगा नाम से; च--तथा; इह--यहाँ, पृथ्वी पर; चरण---आपके चरणों से; अम्बु--जल; पुनाति--पवित्र करती है;विश्वम्‌--सारे ब्रह्माण्ड को |

    हे प्रभु, आप सभी मंगलों के प्रतीक हैं।

    आपका दिव्य नाम तथा यश ब्रह्माण्ड के उच्चतर,मध्य तथा अधो लोक सहित समस्त लोकों के ऊपर छत्र के समान फैला हुआ है।

    आपकेचरणकमलों को प्रक्षालित करने वाला दिव्य जल उच्चतर लोकों में मन्दाकिनी नदी के नाम से,अधो लोक में भोगवती के नाम से और इस पृथ्वी लोक में गंगा के नाम से विख्यात है।

    यहपवित्र दिव्य जल सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में प्रवाहित होता है और जहाँ भी जाता है, उसे पवित्र कर देताहै।

    श्रीशुक उबाचतत्र तेष्वात्मपक्षेष्वगृणत्सु विजिगीषया ।

    वाच: पेशै: स्मयन्भृत्यमुद्धवं प्राह केशव: ॥

    ४५॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; तत्र--वहाँ; तेषु--उन ( यादवों ); आत्म--अपना; पक्षेषु--पक्षधरों में;अगृणत्सु--न मानने वाले; विजिगीषया--जीतने की इच्छा से ( जरासन्ध ); वाच:--वाणी के; पेशै:--मधुर प्रयोग से;स्मयन्‌--हँसते हुए; भृत्यमू--दास; उद्धवम्‌-- श्री उद्धव से; प्राह--कहा; केशव:--कृष्ण ने

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब जरासन्ध को हराने की इच्छा से भगवान्‌ के पक्षधर यादवोंने इस प्रस्ताव का विरोध किया, तो भगवान्‌ केशव अपने अनुचर उद्धव की ओर मुड़े और हँसतेहुए उत्तम शब्दों में उनसे बोले।

    श्रीभगवानुवाचत्वं हि नः परम चश्लु: सुहन्मन्त्रार्थतत्त्तवित्‌ ।

    अशात्र ब्रूह्मनुष्ठेयं श्रद्धध्प: करवाम तत्‌ ॥

    ४६॥

    श्री-भगवान्‌ उबाच-- भगवान्‌ ने कहा; त्वमू--तुम; हि--निस्सन्देह; न:ः--हमारे; परममू--परम; चक्षु;:--आँख; सुहत्‌--शुभचिन्तक मित्र; मन्त्र--सलाह का; अर्थ--मूल्य; तत्त्व-वित्‌ू--ठीक से जानने वाले; अथ--इस प्रकार; अत्र--इस सम्बन्ध में;बूहि--कहें; अनुष्ठेयम्‌ू--करणीय; अ्रददध्म:--हमें विश्वास है; करवाम--करेंगे; तत्‌--वही |

    भगवान्‌ ने कहा : निस्सन्देह तुम हमारे उत्तम नेत्र तथा घनिष्ठ मित्र हो, क्योंकि विविध प्रकारकी सलाहों के आपेक्षिक मूल्य को पूर्णतः जानते हो।

    इसलिए तुम हमसे कहो कि इस स्थिति मेंहमें क्या करना चाहिए।

    हमें तुम्हारे निर्णय पर विश्वास है और तुम जैसा कहोगे हम वैसा हीकरेंगे।

    इत्युपामन्त्रितो भर्त्रा सर्वज्ञेनापि मुग्धवत्‌ ।

    निदेशं शिरसाधाय उद्धव: प्रत्यभाषत ॥

    ४७॥

    इति--इस प्रकार; उपामन्त्रितः--अनुरो ध किये जाने पर; भर्त्रा--अपने स्वामी द्वारा; सर्व-ज्ञेन--सर्वज्ञ; अपि--यद्यपि; मुग्ध--मोहग्रस्त; बत्‌--मानो; निदेशम्‌--आज्ञा को; शिरस--सिर पर; आधाय-- धारण करके; उद्धवः--उद्धव ने; प्रत्यमभाषत--उत्तरदिया।

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : इस तरह अपने स्वामी द्वारा अनुरोध किये जाने पर, जोकि सर्वज्ञ होते हुए भी मोहित होने का अभिनय कर रहे थे, उद्धव ने उनके इस आदेश कोशिरोधार्य किया और इस प्रकार उत्तर दिया।

    TO

    अध्याय इकहत्तर: भगवान इंद्रप्रस्थ की यात्रा करते हैं

    10.71श्रीशुक उवाचइत्युदीरितमाकर्ण्य देवऋषेरुद्धवोब्रवीत्‌ ।

    सभ्यानां मतमाज्ञाय कृष्णस्य च महामति: ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; उदीरितम्‌--कहा गया; आकर्णर्य--सुन कर; देव-ऋषे: --देवर्षि नारद द्वारा; उद्धव: --उद्धव; अब्रवीत्‌ू--बोले; सभ्यानाम्‌ू--राजसभा के सदस्यों के; मतम्‌--मतको; आज्ञाय--जान कर;कृष्णस्य--कृष्ण के; च--तथा; महा-मतिः--अतीव बुद्धिमान ।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस तरह देवर्षि नारद के कथनों को सुनकर और सभाजनों तथा कृष्ण दोनों के मतों को जानकर महामति उद्धव इस प्रकार बोले।

    श्रीउद्धव उवाचयदुक्तमृषिना देव साचिव्यं यक्ष्यतस्त्वया ।

    कार्य पैतृष्वस्त्रेयस्य रक्षा च शरणैषिणाम्‌ ॥

    २॥

    श्री-उद्धवः उबाच-- श्री उद्धव ने कहा; यत्‌--जो; उक्तम्‌--कहा गया था; ऋषिना--ऋषि ( नारद ) द्वारा; देव-हे प्रभु;साचिव्यम्‌--सहायता; यक्ष्यत:ः--यज्ञ करने के इच्छुक ( युधिष्टिर ); त्वया--तुम्हारे द्वारा; कार्यमू--की जानी चाहिए; पैतृ-घ्वस्त्रेयय्य--पिता की बहन का पुत्र का; रक्षा--रक्षा; च-- भी; शरण--शरण; एषिणाम्‌-इच्छुकों का |

    श्री उद्धव ने कहा : हे प्रभु, जैसी ऋषि ने सलाह दी है, आपको चाहिए कि आप राजसूययज्ञ सम्पन्न करने की योजना में अपने फुफेरे भाई युथिष्ठिर की सहायता करें।

    आपको उनराजाओं की भी रक्षा करनी चाहिए, जो आपकी शरण के लिए याचना कर रहे हैं।

    यस्‍्टव्यम्राजसूयेन दिक्क्रजयिना विभो ।

    अतो जरासुतजय उभयार्थो मतो मम ॥

    ३॥

    यष्टव्यमू--यज्ञ सम्पन्न; राजसूयेन--राजसूय अनुष्ठान समेत; दिकू--दिशाओं के ; चक्र--पूरा गोला; जयिना--जीतने वाले केद्वारा; विभो--हे सर्वशक्तिमान; अत:--अतएव; जरा-सुत--जरा के पुत्र पर; जयः--विजय; उभय--दोनों; अर्थ: --उद्देश्यसहित; मतः--मत; मम--मेरा |

    हे सर्वशक्तिमान विभु, जिसने दिग्विजय कर ली हो, वही राजसूय यज्ञ कर सकता है।

    इसतरह मेरे विचार से जरासन्ध पर विजय पाने से दोनों उद्देश्य पूरे हो सकेंगे।

    अस्माकं च महानर्थों होतेनेव भविष्यति ।

    यशश्च तव गोविन्द राज्ञो बद्धान्विमुज्ञतः ॥

    ४॥

    अस्माकम्‌--हमारे लिए; च--तथा; महान्‌ू--महान्‌; अर्थ:--लाभ; हि--निस्सन्देह; एतेन--इससे; एव--ही; भविष्यति--होगा; यश: --यश; च--तथा; तव--तुम्हारा; गोविन्द--हे गोविन्द; राज्ञ:--राजाओं को; बद्धान्‌--बन्दी बनाये गये;विमुज्जत:ः--मुक्त कर देगा।

    इस निर्णय से हमें बहुत बड़ा लाभ होगा और आप राजाओं को बचा सकेंगे।

    इस तरह, हेगोविन्द, आपका यश बढ़ेगा।

    स वै दुर्विषहो राजा नागायुतसमो बले ।

    बलिनामपि चान्येषां भीम॑ समबल॑ विना ॥

    ५॥

    सः--वह, जरासन्ध; वै--निस्सन्देह; दुर्विषह:ः --दुर्जय; राजा--राजा; नाग--हाथी; अयुत--दस हजार; सम:ः--समान; बले--बल में; बलिनाम्‌ू--बलशालियों में; अपि--निस्सन्देह; च--तथा; अन्येषाम्‌-- अन्य; भीमम्‌-- भीम को; सम-बलम्‌--बल मेंसमान; विना--के अलावादुर्जेय

    जरासन्ध दस हजार हाथियों जितना बलवान्‌ है।

    निस्सन्देह अन्य बलशाली योद्धा उसेपराजित नहीं कर सकते।

    केवल भीम ही बल में उसके समान है।

    द्वैरथे स तु जेतव्यो मा शताक्षौहिणीयुतः ।

    ब्राह्मण्यो भ्यर्थितो विप्रैर्न प्रत्याख्याति कर्हिचित्‌ ॥

    ६॥

    द्वै-रथे--केवल दो रथों से लड़े जाने वाले युद्ध में; सः--वह; तु--लेकिन; जेतव्य:--हराया जा सकता है; मा--नहीं; शत--एक सौ; अक्षौहिणी--अक्षौहिणी सेना से; युतः--युक्त; ब्राह्मण्य: --ब्राह्मण संस्कृति के प्रति श्रद्धालु; अभ्यर्थित: --सत्कारकिया गया; विप्रै:--ब्राह्मणों द्वारा; न प्रत्याख्याति--मना नहीं करता; कर्हिचितू--कभी भी |

    उसे एकाकी रथों की प्रतियोगिता में हराया जा सकेगा किन्तु अपनी एक सौ अक्षौहिणीसेना के साथ होने पर वह नहीं हराया जा सकता।

    और, जरासन्ध ब्राह्मण संस्कृति के प्रति इतनाअनुरक्त है कि वह ब्राह्मणों की याचनाओं को कभी मना नहीं करता।

    ब्रह्मवेषधरो गत्वा तं भिक्षेत वृकोदर: ।

    हनिष्यति न सन्देहो द्वेरथे तव सन्निधौ ॥

    ७॥

    ब्रह्म--ब्राह्मण का; वेष--वेश; धर:--धारण करके; गत्वा--जाकर; तम्‌--उससे, जरासन्ध से; भिक्षेत--माँगे; वृक-उदर: --भीम; हनिष्यति--मारेगा; न--नहीं; सन्देह: --सन्देह; द्वै-रथे--रथ से रथ के युद्ध में; तब--तुम्हारी; सन्निधौ--उपस्थिति में |

    भीम ब्राह्मण का वेश बनाकर उसके पास जाये और दान माँगे।

    इस तरह उसे जरासन्ध केसाथ द्वन्द्द युद्ध की प्राप्ति होगी और आपकी उपस्थिति में भीम अवश्य ही उसको मार डालेगा।

    निमित्तं परमीशस्य विश्वसर्गनिरोधयो: ।

    हिरण्यगर्भ: शर्वश्च कालस्यारूपिणस्तव ॥

    ८॥

    निमित्तम्‌ू--कारण; परम्‌ू--केवल; ईशस्य-- भगवान्‌ को; विश्व--ब्रह्माण्ड के; सर्ग--सृजन; निरोधयो: --तथा संहार में;हिरण्यगर्भ: --ब्रह्मा; शर्व:--शिवजी; च--तथा; कालस्य--काल का; अरूपिण:--निराकार; तव--तुम्हारा |

    ब्रह्माण्ड के सृजन तथा संहार में ब्रह्म तथा शिव भी आपके उपकरण की तरह कार्य करते हैं, जिन्हें अन्ततः आप काल के अपने अदृश्य रूप में सम्पन्न करते हैं।

    गायन्ति ते विशदकर्म गृहेषु देव्योराज्ञां स्वशत्रुवधमात्मविमोक्षणं च ।

    गोप्यश्च कुझ्जरपतेर्जनकात्मजाया:पित्रोश्च लब्धशरणा मुनयो वयं च ॥

    ९॥

    गायन्ति- गाते हैं; ते--तुम्हारा; विशद--निर्मल; कर्म--कर्म; गृहेषु-- अपने अपने घरों में; देव्य;--देवताओं की पत्नियाँ;राज्ञामू-राजाओं की; स्व--अपने; शत्रु--शत्रु; वधम्‌--वध; आत्म--स्वयंके ; विमोक्षणम्‌--उद्धार; च--तथा; गोप्य: --ब्रजबालाएँ; च--तथा; कुझर--हाथियों के; पतेः--स्वामी के; जनक--राजा जनक की; आत्म-जाया: --पुत्री ( सीतादेवी,रामचन्द्र की पत्नी ) के; पित्रो;--तुम्हारे माता-पिता के; च--तथा; लब्ध--प्राप्त हुए; शरणा:--शरण; मुनयः --मुनिगण;वयम्‌--हम; च--भी

    बन्दी राजाओं की दैवी पत्नियाँ आपके नेक कार्यों का--कि आप किस तरह उनके पतियोंके शत्रुओं को मार कर उनका उद्धार करेंगे--गायन करती हैं।

    गोपियाँ भी आपका यशोगानकरती हैं कि आपने किस तरह गजेन्द्र के शत्रु को, जनक की पुत्री सीता के शत्रु को तथा अपनेमाता-पिता के शत्रु को मारा।

    इसी तरह जिन मुनियों ने आपकी शरण ले रखी है, वे हमारी हीतरह आपका यशोगान करते हैं।

    जरासन्धवध: कृष्ण भूर्यर्थायोपकल्पते ।

    प्रायः पाकविपाकेन तव चाभिमतः क्रतु: ॥

    १०॥

    जरासन्ध-वध: --जरासन्ध का वध; कृष्ण--हे कृष्ण; भूरि--बहुत अधिक; अर्थाय--महत्त्व; उपकल्पते--उत्पन्न करेगा;प्राय:--निश्चय ही; पाक--संचित कर्म का; विपाकेन--कर्मफल के रूप में; तब--तुम्हारा; च--तथा; अभिमत: --इच्छित;क्रतु:--यज्ञ

    हे कृष्ण, जरासन्ध का वध निश्चित ही उसके विगत पापों का ही फल है।

    इससे प्रभूत लाभहोगा।

    निस्सन्देह इससे आपका मनवांछित यज्ञ सम्भव हो सकेगा।

    श्रीशुक उवाचइत्युद्धववचो राजन्सर्वतोभद्रमच्युतम्‌ ।

    देवर्षिय॑दुवृद्धाश्र॒ कृष्णश्व प्रत्यपूजयन्‌ ॥

    ११॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार कहे जाने पर; उद्धव-वच:--उद्द्वव के शब्द; राजन्‌ू--हे राजन्‌( परीक्षित ); सर्वतः--सभी प्रकार से; भद्रमू--शुभ; अच्युतम्‌-- अच्युत; देव-ऋषि:--देवताओं के ऋषि, नारद; यदु-वृद्धा: --वरिष्ठ यदुगण; च--तथा; कृष्ण: --कृष्ण; च--और भी; प्रत्यपूजयन्‌--बदले में प्रशंसा की |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन्‌, देवर्षि नारद, वरिष्ठ यादवजन तथा कृष्ण--सबों नेउद्धव के प्रस्ताव का स्वागत किया, क्‍योंकि जो सर्वथा शुभ तथा अच्युत था।

    अथादिशत्प्रयाणाय भगवान्देवकीसुतः ।

    भृत्यान्दारुकजैत्रादीननुज्ञाप्य गुरून्विभु: ॥

    १२॥

    अथ--तब; आदिशत्‌--आज्ञा दी; प्रयाणाय--विदा होने के लिए; भगवान्‌-- भगवान्‌; देवकी-सुतः--देवकी-पुत्र ने;भृत्यानू--सेवकों को; दारुक-जैत्र-आदीनू--दारुक, जैत्र इत्यादि; अनुज्ञाप्प--अनुमति लेकर; गुरून्‌ू--अपने गुरुजनों से;विभु:--सर्वशक्तिमान |

    देवकी-पुत्र सर्वशक्तिमान भगवान्‌ ने अपने वरिष्ठ से विदा होने की अनुमति माँगी।

    तत्पश्चात्‌उन्होंने दारुक, जैत्र इत्यादि सेवकों को प्रस्थान की तैयारी करने का आदेश दिया।

    निर्गमय्यावरो धान्स्वान्ससुतान्सपरिच्छदान्‌ ।

    सड्डूर्षणमनुज्ञाप्य यदुराजं च शत्रुहन्‌ ।

    सूतोपनीतं स्वरथमारुहद्गरुडध्वजम्‌ ॥

    १३॥

    निर्गमय्य--भेज कर; अवरोधान्‌--पत्नियों को; स्वान्‌ू-- अपनी; स--सहित; सुतान्‌--पुत्रों; स--सहित; परिच्छदानू--उनकासामान; स्डूर्षणम्‌--बलराम से; अनुज्ञाप्प--विदा होकर; यदु-राजम्‌--यदुओं के राजा ( उग्रसेन ) से; च--तथा; शत्रु-हन्‌--हेशत्रुओं के हन्ता ( परीक्षित ); सूत--सारथी द्वारा; उपनीतम्‌ू--लाया गया; स्व--अपने; रथम्‌--रथ में; आरुहत्‌--चढ़ गये;गरुड--गरुड़; ध्वजमू--ध्वजा है, जिसकी

    हे शत्रुहन्ता, अपनी पत्ियों, पुत्रों तथा सामान को भेजे जाने की व्यवस्था कर देने के बादऔर संकर्षण तथा राजा उग्रसेन से विदा लेने के बाद भगवान्‌ कृष्ण अपने रथ पर चढ़ गये,जिसे उनका सारथी ले आया था।

    इस पर गरुड़-चिन्हित पताका फहरा रही थी।

    ततो रथद्विपभटसादिनायकै:'करालया परिवृत आत्मसेनया ।

    मृदड्डभेर्यानकशद्वुगोमुखैःप्रघोषघोषितककु भो निरक्रमत्‌ ॥

    १४॥

    ततः--तब; रथ--रथों; द्विप--हाथियों; भट--पैदल सेना; सादि--तथा घुड़सवार; नायकै:--नायकों समेत; करालया--भयानक; परिवृत:--घिरे; आत्म--निजी; सेनया--सेना से; मृदड्ग--मृदंग; भेरी-- भेरी वाद्य; आनक-दुंदुभी; शट्गडु--शंख ;गो-मुखैः--तथा गोमुख श्रृंगों द्वारा; प्रधोष--शब्द करते हुए; घोषित--ध्वनि-तरंगों से पूरित; ककु भ: --सारी दिशाएँ;निरक्रमत्‌-विदा हुए।

    ज्योंही मृदंग, भेरी, दुदुंभी, शंख तथा गोमुख की ध्वनि-तरंगों से सारी दिशाएँ गूँजने लगीं,त्योंही भगवान्‌ कृष्ण अपनी यात्रा के लिए चल पड़े।

    उनके साथ में रथों, हाथियों, पैदलों तथाघुड़सवारों के सेनादलों के मुख्य अधिकारी थे और चारों ओर से वे अपने भयानक निजी रक्षकोंद्वारा घिरे थे।

    नृवाजिकाञ्ननशिबिकाभिर च्युतंसहात्मजाः पतिमनु सुत्रता ययु: ।

    वराम्बराभरणविलेपनस्त्रज:सुसंवृता नृभिरसिचर्मपाणिभि: ॥

    १५॥

    नू--मनुष्य; वाजि--शक्तिशाली वाहकों से; काजञ्लन--सुनहली; शिविकाभि: --पालकियों से; अच्युतम्‌--कृष्ण; सह-आत्मजा:--अपनी सन्‍्तानों समेत; पतिम्‌--पति को; अनु--पीछे करती हुई; सु-ब्रताः--उनकी साध्वी पत्नियाँ; ययु: --गईं;वर--उत्तम; अम्बर--वस्त्र; आभरण--गहने; विलेपन--सुगंधित तेल तथा लेप; स्त्रज:--मालाएँ; सु--अच्छी तरह; संवृता:--घिरी हुई; नृभिः--सैनिकों द्वारा; असि--तलवार; चर्म--तथा ढाल; पाणिभि:--जिनके हाथों में |

    भगवान्‌ अच्युत की सती-साध्वी पत्तियाँ अपनी सन्‍्तानों सहित सोने की पालकियों मेंभगवान्‌ के पीछे पीछे चलीं, जिन्हें शक्तिशाली पुरुष उठाये ले जा रहे थे।

    रानियाँ सुन्दर वस्त्रों,आभूषणों, सुगन्धित तेलों तथा फूल की मालाओं से सजी थीं और चारों ओर से सैनिकों द्वाराघिरी थीं, जो अपने हाथों में तलवार-ढाल लिये थे।

    नरोष्ट्रगोमहिषखरा श्वतर्यन:-करेणुभि: परिजनवारयोषितः ।

    स्वलड्डू ता: कटकुटिकम्बलाम्बराद्यू-उपस्करा ययुरधियुज्य सर्वतः ॥

    १६॥

    नर--पुरुष वाहक; उ्ट--ऊँट; गो--बैल; महिष-- भैंसा; खर--गदहा; अश्वतरी --खच्चर; अन: --बैलगाड़ी; करेणुभि: --हथिनियों द्वारा; परिजन--घर के; वार--तथा जन साधारण के उपयोग वाली; योषित: --स्त्रियाँ; सु-अलड्डू ता:--खूब सजी;कट--घास की बनी; कुटि--झोपड़ियाँ; कम्बल--कम्बल; अम्बर--वस्त्र; आदि--इत्यादि; उपस्करा:--साज-सामान;ययु:--गये; अधियुज्य--लाद कर; सर्वतः--सभी ओर सेउनके चारों ओर खूब सजी-धजी स्त्रियाँ--जो कि राजघराने की सेविकाएँ तथा राज-दरबारियों की पत्नियाँ थीं--चल रही थीं।

    वे पालकियों तथा ऊँटों, बैलों, भेंसों, गधों, खच्चरों,बैलगाड़ियों तथा हाथियों पर सवार थीं।

    उनके वाहन घास के तम्बुओं, कम्बलों, वस्त्रों तथायात्रा की अन्य सामग्रियों से खचाखच भरे थे।

    बल॑ बृहद्ध्वजपटछत्रचामरै-वरायुधाभरणकिरीटवर्मभि: ।

    दिवांशुभिस्तुमुलरवं बभौ रवे-्॑थार्णव: क्षुभिततिमिड्निलोरमिंभि: ॥

    १७॥

    बलम्‌ू--सेना; बृहत्‌--विशाल; ध्वज--डंडों सहित; पट--झंडों; छत्र--छातों; चामरैः--तथा चामर पंखों से; वर--उत्तम;आयुध--हथियार; आभरण--गहने; किरीट--मुकुट; वर्मभि: --तथा कवच से; दिवा--दिन में; अंशुभि: --सूर्य-किरणों से;तुमुल--बेहद; रवम्‌-- ध्वनि; बभौ--तेजी से चमक रहे थे; रवेः--सूर्य के; यथा--जिस तरह; अर्णव: --समुद्र; क्षुभित--क्षुब्ध; तिमिड्रिल--तिमिंगिल मछली; ऊर्मिभि:--लहरों से |

    भगवान्‌ की सेना राजसी छाते, चामर-पंखों तथा लहराती पताकाओं के विशाल ध्वज-दंडोंसे युक्त थी।

    दिन के समय सूर्य की किरणें सैनिकों के उत्तम हथियारों, गहनों, किरीट तथाकवचों से परावर्तित होकर चमक रही थीं।

    इस तरह जयजयकार तथा कोलाहल करती कृष्णकी सेना ऐसी लग रही थी मानों क्षुब्ध लहरों तथा तिमिंगल मछलियों से आलोड़ित समुद्र हो।

    अथो मुनिर्यदुपतिना सभाजितःप्रणम्य तं हदि विदधद्विहायसा ।

    निशम्य तद्व्यवसितमाहताईणो मुकुन्दसन्दरशननिर्वृतेन्द्रिय: ॥

    १८ ॥

    अथ उ-- और तब; मुनिः--ऋषि ( नारद ); यदु-पतिना--यदुओं के स्वामी कृष्ण द्वारा; सभाजित:--सम्मानित; प्रणम्य--झुककर; तम्‌--उनको; हृदि--हृदय में; विदधत्‌--रखते हुए; विहायसा--आकाश से होकर; निशम्य--सुनकर; तत्‌--उनका;व्यवसितम्‌--हढ़संकल्प; आहत--स्वीकार की गयी; अर्हण:--पूजा; मुकुन्द-- भगवान्‌ कृष्ण की; सन्दरशन--भेंट से;निर्वृत--शान्त; इन्द्रियः--इन्द्रियों वाला।

    यदुओं के प्रमुख श्रीकृष्ण द्वारा सम्मानित होकर नारदमुनि ने भगवान्‌ को नमस्कार किया।

    भगवान्‌ कृष्ण से मिल कर नारद की सारी इन्द्रियाँ तुष्ट हो चुकी थीं।

    इस तरह भगवान्‌ के निर्णयको सुन कर तथा उनकी पूजा स्वीकार करके, उन्हें अपने हृदय में हढ़ता से धारण करके, नारदआकाश से होकर चले गये।

    राजदूतमुवाचेदं भगवान्प्रीणयन्गिरा ।

    मा भैष्ट दूत भद्वं वो घातयिष्यामि मागधम्‌ ॥

    १९॥

    राज--राजाओं के; दूतम्‌--दूत से; उबाच--कहा; इदम्‌--यह; भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; प्रीणयन्‌--उसे प्रसन्न करते हुए; गिरा --वाणी से; मा भैष्ट--मत डरो; दूत--हे दूत; भद्रमू--कल्याण हो; वः--तुम्हारा; घाटयिष्यामि--वध की व्यवस्था करूँगा;मागधम्‌--मगध के राजा ( जरासन्ध ) के |

    राजाओं द्वारा भेजे गये दूत को भगवान्‌ ने मीठे शब्दों में सम्बोधित किया, 'हे दूत, मैंतुम्हीिरे सौभाग्य की कामना करता हूँ।

    मैं मगध के राजा के वध की व्यवस्था करूँगा।

    डरनामत।

    इत्युक्त: प्रस्थितो दूतो यथावदवदत्रूपान्‌ ।

    तेडपि सन्दर्शन शौरेः प्रत्यैक्षन्यन्मुमुक्षवः ॥

    २०॥

    इति--इस प्रकार; उक्त:--कहे जाने पर; प्रस्थित:--चला गया; दूतः--दूत; यथा-वत्‌--सही-सही; अवदत्‌--कहा; नृपान्‌--राजाओं से; ते--वे; अपि--तथा; सन्दर्शनम्‌-- श्रोता; शौरे:-- भगवान्‌ कृष्ण के; प्रत्यैक्षन्‌--प्रतीक्षा करने लगे; यत्‌--क्योंकि;मुमुक्षव:ः--मुक्ति के लिए उत्सुक होने से |

    इस प्रकार कहे जाने पर दूत चला गया और जाकर राजाओं से भगवान्‌ का सन्देश सहीसही सुना दिया।

    तब स्वतंत्र होने के लिए उत्सुक वे सभी भगवान्‌ कृष्ण से भेंट करने के लिएआशान्वित होकर प्रतीक्षा करने लगे।

    आनर्तसौवीरमरूंस्तीर्त्वा विनशनं हरि: ।

    गिरीन्नदीरतीयाय पुरग्रामत्रजाकरान्‌ ॥

    २१॥

    आनर्त-सौवीर-मरून्‌--आनर्त ( द्वारका राज्य ), सौवीर ( पूर्वी गुजरात ) तथा ( राजस्थान का ) मरुस्थल; तीर्त्वा--पार करके;विनशनम्‌--विनशन, कुरुक्षेत्र जनपद; हरि:--भगवान्‌ कृष्ण; गिरीन्‌ू--पर्वतों; नदी: --तथा नदियों को; अतीयाय--पारकरके; पुर--नगर; ग्राम--गाँव; ब्रज--चरागाह; आकरान्‌ू--तथा खानों को |

    आनर्त, सौवीर, मरुदेश तथा विनशन प्रदेशों से होकर यात्रा करते हुए भगवान्‌ हरि नेनदियाँ पार कीं और वे पर्वतों, नगरों, ग्रामों, चरागाहों तथा खानों से होकर गुजरे।

    ततो हृषद्ठतीं तीर्त्वा मुकुन्दोथ सरस्वतीम्‌ ।

    पञ्ञालानथ मत्सयां श्व शक्रप्रस्थमथागमत्‌ ॥

    २२॥

    ततः--तब; हृषद्वतीम्‌--दृषद्गवती नदी को; तीर्त्वा--पार करके; मुकुन्दः--कृष्ण; अथ--तब; सरस्वतीम्‌--सरस्वती नदी को;पञ्ञालान्‌ू-पश्ञाल प्रदेश; अथ--तब; मत्स्यानू--मत्स्य प्रदेश को; च--भी; शक्र-प्रस्थम्‌--इन्द्रप्रस्थ में; अथ-- और;आगमत्‌--आये।

    इहषदूती और सरस्वती नदियों को पार करने के पश्चात्‌ वे पंचाल तथा मत्स्य प्रदेशों में सेगुजरते हुए अन्त में इन्द्रप्रस्थ पहुँचे।

    तमुपागतमाकर्णय प्रीतो दुर्दर्शन नूनाम्‌ ।

    अजातशत्रुर्निरगात्सोपध्याय: सुहद्बृत: ॥

    २३॥

    तम्‌--उसको; उपागतम्‌--आया हुआ; आकर्ण्य --सुन कर; प्रीत:--प्रसन्न; दुर्दर्शनम्‌--विरले ही दिखने वाले; नृणाम्‌--मनुष्योंद्वारा; अजात-शत्रु:--जिसका शत्रु न हो, युधिष्ठटिर; निरगात्‌ू--बाहर आया; स--सहित; उपध्याय:--पुरोहितों; सुहत्‌ --सम्बन्धियों से; वृत:--घिरा |

    राजा युधिष्ठिर यह सुनकर अतीव प्रसन्न हुए कि दुर्लभ दर्शन देने वाले भगवान्‌ आ चुके हैं।

    भगवान्‌ कृष्ण से मिलने के लिए राजा अपने पुरोहितों तथा प्रिय संगियों समेत बाहर आ गये।

    गीतवादित्रघोषेण ब्रह्मघोषेण भूयसा ।

    अभ्ययात्स हृषीकेशूंं प्राणा: प्राणमिवाहत: ॥

    २४॥

    गीत--गीत; वादित्र--तथा वाद्य-संगीत को; घोषेण--शब्द से; ब्रह्म--वेदों की; घोषेण-- ध्वनि से; भूयसा-- प्रचुर;अभ्ययात्‌--आगे गया; सः--वह; हषीकेशम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण को; प्राणा:--इन्द्रियों के; प्राणम्‌--प्राण या चेतना को; इब--सहश; आहतः--पूज्य |

    वैदिक स्तुतियों की उच्च ध्वनि के साथ साथ गीत तथा संगीत-वाद्य गूंजने लगे और राजाबड़े ही आदर के साथ भगवान्‌ हषीकेश से मिलने के लिए आगे बढ़े, जिस तरह इन्द्रियाँ प्राणोंसे मिलने आगे बढ़ती हैं।

    इृष्ठा विक्लिन्नहदयः कृष्णं स्नेहेन पाण्डव: ।

    चिराष्टृष्टे प्रियतमं सस्वजेथ पुनः पुनः ॥

    २५॥

    इृष्टा--देखकर; विक्लिन्न--द्रवित; हृदयः--उनका हृदय; कृष्णम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण को; स्नेहेन--स्नेह से; पाण्डव:ः--पाण्डु-पुत्र; चिरातू-दीर्घकाल से; दृष्टमू--देखे हुये; प्रिय-तमम्‌--अपने अत्यन्त प्रिय मित्र को; सस्वजे--आलिंगन किया; अथ--तत्पश्चात्‌; पुनः पुनः--फिर फिर |

    जब राजा युथिष्ठिर ने अपने परमप्रिय मित्र भगवान्‌ कृष्ण को इतने दीर्घ वियोग के बाददेखा, तो उनका हृदय स्नेह से द्रवित हो उठा और उन्होंने भगवान्‌ का बारम्बार आलिंगन किया।

    दोर्भ्या परिष्वज्य रमामलालयंमुकुन्दगात्र नृपतिहताशुभ: ।

    लेभे परां निर्वृतिमश्रुलोचनोइृष्यत्तनुर्विस्मृतलोकविश्रम: ॥

    २६॥

    दोर्भ्याम्‌ू--अपनी भुजाओं से; परिष्वज्य--आलिंगन करके; रमा--लक्ष्मी के; अमल--निर्मल; अलयमू्‌--घर को; मुकुन्द--भगवान्‌ कृष्ण के; गात्रमू--शरीर को; नृ-पति:--राजा; हत--विनष्ट; अशुभ:--अशुभ; लेभे--प्राप्त किया; पराम्‌--सर्वोच्च;निर्वृतिमू--हर्ष; अश्रु-- आँसू; लोचन:--जिसकी आँखों में; हृष्पत्‌-- प्रसन्न हुआ; तनु:ः--शरीर; विस्मृत-- भूल कर; लोक--संसारी जगत के; विभ्रम:--मायावी कार्यकलाप।

    भगवान्‌ कृष्ण का नित्य स्वरूप लक्ष्मीजी का सनातन निवास है।

    ज्योंही युधिष्ठिर ने उनकाआलिंगन किया, वे समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त हो गये।

    उन्हें तुरन्त दिव्य आनन्द की अनुभूतिहुई और वे सुख-सागर में निमग्न हो गये।

    उनकी आँखों में आँसू आ गये और भावादिष्ट होने सेउनका शरीर थरथराने लगा।

    वे पूरी तरह से भूल गये कि वे इस भौतिक जगत में रह रहे हैं।

    त॑ मातुलेयं परिरभ्य निर्वृतोभीम: स्मयन्प्रेमजलाकुलेन्द्रिय: ।

    यमौ किरीटी च सुहृत्तमं मुदाप्रवृद्धबाष्पा: परिरिभिरेडच्युतम्‌ ॥

    २७॥

    तम्‌--उसको; मातुलेयम्‌--मामा के पुत्र को; परिरभ्य--आलिंगन करके; निर्वृत:--हर्ष से पूरित; भीम: -- भीमसेन; स्मयन्‌--हँसते हुए; प्रेम--प्रेमवश; जल--जल ( आँसू ) से; आकुल--पूरित; इन्द्रियः--आँखें; यमौ--जुड़वाँ ( नकुल तथा सहदेव );किरीती--अर्जुन; च--तथा; सुहृत्‌-तमम्‌--उनके सबसे प्रिय मित्र; मुदा--हर्षपूर्वक; प्रवृद्ध--अत्यधिक; बाष्पा: --आँसू;परिरेभिरि--आलिंगन किया; अच्युतम्‌--अच्युत भगवान्‌ को |

    तब आँखों में आँसू भरे भीम ने अपने ममेरे भाई कृष्ण का आलिंगन किया और फिर हर्ष सेहँसने लगे।

    अर्जुन तथा जुड़वाँ भाई--नकुल तथा सहदेव ने भी अपने सर्वाधिक प्रिय मित्रअच्युत भगवान्‌ का हर्षपूर्वकत आलिंगन किया और जोर-जोर से रोने लगे।

    अर्जुनेन परिष्वक्तो यमाभ्यामभिवादित: ।

    ब्राह्मणे भ्यो नमस्कृत्य वृद्धेभ्यश्व यथाईतः ।

    मानिनो मानयामास कुरुसझ्रयकैकयान्‌ ॥

    २८॥

    अर्जुनेन--अर्जुन द्वारा; परिष्वक्त:--आलिंगित; यमाभ्याम्‌--जुड़वों द्वारा; अभिवादित:ः --नमस्कार किया गया; ब्राह्मणेभ्य: --ब्राह्मणों को; नमस्कृत्य--नमस्कार करके; वृद्धेभ्य:--वरिष्ठजनों को; च--तथा; यथा-अर्हतः--शिष्टाचार के अनुसार;मानिन:--माननीय व्यक्ति; मानयाम्‌ आस--सम्मान किया; कुरु-सूझ़्य-कैकयान्‌--कुरुओं

    सृज्ञयों तथा कैकयों कोजब अर्जुन उनका पुनः आलिंगन कर चुके और नकुल तथा सहदेव उन्हें नमस्कार कर चुके,तो श्रीकृष्ण ने ब्राह्मणों तथा उपस्थित बड़े-बूढ़ों को नमस्कार किया।

    इस तरह उन्होंने कुरु,सृजञ्ञय तथा कैकय वंशों के माननीय सदस्यों का सत्कार किया।

    सूतमागधगन्धर्वा वन्दिनश्लोपमन्त्रिण: ।

    मृदड्रशड्डपटह वीणापणवगोमुखै: ।

    ब्राह्मणाश्चारविन्दाक्षं तुष्ठवुर्ननृतुर्जगु; ॥

    २९॥

    सूत--सूत; मागध--मागध; गन्धर्वा:--देवता जो गाने के लिए प्रसिद्ध हैं; वन्दिन:--वन्दीजन; च--तथा; उपमन्त्रिण:--विदूषक; मृदड्र--मृदंग; शट्भु--शंख; पटह--दुंदु भी; वीणा--वीणा; पणब--छोटे ढोल; गोमुखै:--तथा गोमुख श्रृंगी से;ब्राह्मणा:--ब्राह्मण; च--तथा; अरविन्द-अक्षम्‌--कमल-नेत्र भगवान्‌; तुष्ठवु:--स्तुतियों से यशोगान किया; ननृतु:--नाचा;जगुः--गाया

    सूतों, मागधों, गन्धर्वो, वन्दीजनों, विदूषकों तथा ब्राह्मणों में से कुछ ने स्तुति करके, कुछ नेनाच-गाकर कमल-नेत्र भगवान्‌ का यशोगान किया।

    मृदंग, शंख, दुंदुभी, वीणा, पणव तथागोमुख गूंजने लगे।

    एवं सुहृद्धिः पर्यस्त: पुण्यशलोकशिखामणि: ।

    संस्तूयमानो भगवान्विवेशालड्डू तं पुरम्‌ ॥

    ३०॥

    एवम्‌---इस प्रकार; सु-हर्द्धिः--अपने शुभचिन्तक सम्बन्धियों द्वारा; पर्यस्त:--घिरे हुए; पुण्य-शलोक--पवित्र ख्याति केव्यक्तियों के; शिखा-मणि:--शिरोमणि; संस्तूयमान:--यशोगान किये जा रहे; भगवान्‌ू-- भगवान्‌; विवेश--प्रविष्ट हुए;अलड्डू तम्‌--अलंकृत; पुरम्‌--नगर में |

    इस तरह अपने शुभचिन्तक सम्बन्धियों से घिर कर तथा चारों ओर से प्रशंसित होकरविख्यातों के शिरोमणि भगवान्‌ कृष्ण सजे सजाये नगर में प्रविष्ट हुए ।

    संसिक्तवर्त्म करिणां मदगन्धतोयैश्‌ चित्रध्वजै: कनकतोरणपूर्णकुम्भे: ।

    मृष्टात्मभिर्नवदुकूलविभूषणस्त्रगू -गन्ध्नृभिर्युवतिभिश्चव विराजमानम्‌ ॥

    ३१॥

    उद्दीप्तदीपबलिभि: प्रतिसद्या जाल-निर्यातधूपरुचिरं विलसत्पताकम्‌ ।

    मूर्थन्यहेमकलशै रजतोरु श्रूड्ठै-जुष्टे ददर्श भवनै: कुरुराजधाम ॥

    ३२॥

    संसिक्त--जल से छिड़काव की गई; वर्त्म--सड़कें; करिणाम्‌--हाथियों के; मद--मस्तक से निकलने वाले तरल के; गन्ध--सुगन्धित; तोयैः--जल से; चित्र--रंग-बिरंगे; ध्वजैः-- ध्वजाओं से; कनक--सुनहरे; तोरण-द्वारों से; पूर्ण-कुम्भैः--तथापूर्ण जलपात्रों से; मृष्ट--सजे हुए; आत्मभि:--शरीरों से; नब--नवीन; दुकूल--उत्तम वस्त्रों से; विभूषण--गहने; सत्रकू--फूलकी मालाएँ; गन्धैः--तथा सुगन्धित चन्दन-लेप से; नृभि:--मनुष्यों से; युवतिभि:ः--तरुणियों से; च-- भी; विराजमानम्‌--'जगमगाते; उद्दीप्त--जलाये गये; दीप--दीपकों से; बलिभि:ः--तथा भेंटों से; प्रति--प्रत्येक; सद्य--घर; जाल--खिड़कियों केझरोखों से; निर्यात--बाहर निकल कर; धूप--अगुरु का धुआँ; रुचिर्मू--आकर्षक; विलसत्‌--हिलते-डुलते; पताकम्‌--झंडियों से; मूर्थन्य--छतों पर; हेम--सोने के; कलशै:ः--कलशों ( गुम्बदों ) से; रजत--चाँदी के; उरू--विशाल; श्रृद्ठ:--मंचोंसे; जुष्टम्‌-- अलंकृत; ददर्श--देखा; भवनै:ः--घरों से; कुरू-राज--कुरुओं के राजा के; धाम--राज्य |

    इन्द्रप्रस्थ की सड़कें हाथियों के मस्तक से निकले द्रव से सुगंधित किये गये जल से छिड़कीगई थीं।

    रंगबिरंगी झंडिया, सुनहरे द्वार तथा पूर्ण जलघटों से नगर की भव्यता बढ़ गई थी।

    पुरुषतथा तरुणियाँ उत्तम नए उस्त्रों से सुन्दर ढंग से सजी थीं, फूलों की मालाओं तथा गहनों सेअलंकृत थीं तथा सुगन्धित चन्दन-लेप से लेपित थीं।

    हर घर में जगमगाते दीपक दिख रहे थेऔर सादर भेंटे दी जा रही थीं।

    जालीदार खिड़कियों के छिद्रों से अगुरु का धुँआ निकल रहाथा, जिससे नगर की सुन्दरता और भी बढ़ रही थी।

    झंडियाँ हिल रही थीं और छतों को चाँदी केचौड़े आधारों पर रखे सुनहरे कलशों से सजाया गया था।

    इस प्रकार भगवान्‌ कृष्ण ने कुरुराजके राजसी नगर को देखा।

    प्राप्त निशम्य नरलोचनपानपात्र-मौत्सुक्यविश्लथितकेशदुकूलबन्धा: ।

    सद्यो विसृज्य गृहकर्म पतींश्व तल्पेद्रष्ट ययुर्युवतय: सम नरेन्‍्द्रमार्गें ॥

    ३३॥

    प्राप्तम्‌--आया हुआ; निशम्य--सुन कर; नर--मनुष्यों के; लोचन--आँखों के; पान--पीने के; पात्रमू--वस्तु या आगार;औत्सुक्य--उत्सुकतावश; विश्लधित--ढीले हुए; केश--बाल; दुकूल--वस्त्रों के; बन्धा:--तथा गाँठें; सद्यः--तुरन्त;विसृज्य--त्याग कर; गृह--गृहस्थी के; कर्म--कार्य; पतीन्‌--अपने पतियों को; च--तथा; तल्पे--पलंग में; द्रष्टमू--देखने केलिए; ययु: -- गयी; युवतय:--युवतियाँ; स्म--निस्सन्देह; नर-इन्द्र--राजा के; मार्ग---पथ पर।

    जब नगर की युवतियों ने सुना कि मनुष्यों के नेत्रों के लिए आनन्द के आगार भगवान्‌कृष्ण आए हैं, तो उन्हें देखने के लिए वे जल्दी जल्दी राजमार्ग तक पहुंच गईं।

    उन्होंने अपने घरके कार्यों (टहल ) को त्याग दिया, यहाँ तक कि अपने पतियों को भी पलंग में ही छोड़ आईं।

    उत्सुकतावश उनके बालों की गाँठें तथा वस्त्र ढीले पड़ गये।

    तस्मिन्सुसड्डु ल इभाश्वरथद्विपद्धि:कृष्णम्सभार्यमुपलभ्य गृहाधिरूढा: ।

    नार्यो विकीर्य कुसुमैर्ममसोपगुह्यसुस्वागतं विदधुरुत्स्मयवीक्षितेन ॥

    ३४॥

    तस्मिनू--उस ( मार्ग ) पर; सु--अत्यधिक; सह्ढु ले--भीड़युक्त; इभ--हाथियों; अश्व--घोड़ों; रथ--रथों ; द्वि-पद्धिः--तथापैदल सिपाहियों से युक्त; कृष्णम्‌--कृष्ण को; स-भार्यम्‌--अपनी पत्नियों सहित; उपलभ्य--देखकर; गृह--घरों के;अधिरूढा:--छतों पर चढ़ीं; नार्य:--स्त्रियाँ; विकीर्य--बिखेर कर; कुसुमैः--फूलों से; मनसा--मनों में; उपगुह्ा-- आलिंगनकरके; सु-स्वागतम्‌--हार्दिक स्वागत; विदधु:--उसे दिया; उत्स्मय--हँसती हुई; वीक्षितेन--चितवनों से ॥

    राजमार्ग पर हाथियों, घोड़ों, रथों तथा पैदल सैनिकों की खूब भीड़ थी, इसलिए स्त्रियाँअपने घरों की छतों पर चढ़ गईं, जहाँ से उन्होंने कृष्ण तथा उनकी रानियों को देखा।

    नगर कीस्त्रियों ने भगवान्‌ पर फूल बरसाये, मन ही मन उनका आलिंगन किया और हँसीयुक्त चितवनों सेअपना हार्दिक स्वागत व्यक्त किया।

    ऊचुः स्त्रियः पथ्ि निरीक्ष्य मुकुन्दपत्नी-स्तारा यथोडुपसहा: किमकार्यमूभि: ।

    यच्चक्षुषां पुरुषमौलिरूदारहास-लीलावलोककलयोत्सवमातनोति ॥

    ३५॥

    ऊचु:--कहा; स्त्रियः--स्त्रियों ने; पथि--मार्ग पर; निरीक्ष्य--देखकर; मुकुन्द-- भगवान्‌ कृष्ण की; पत्नी:--पत्नियों को;ताराः--तारे; यथा--जिस तरह; उडु-प--चन्द्रमा; सहा:--साथ साथ; किम्‌--क्या; अकारि--किया गया था; अमूभि:--उनके द्वारा; यतू-- क्योंकि; चक्षुषामू--उनकी आँखों के लिए; पुरुष--पुरुषों के; मौलि:--चोटी; उदार--विस्तृत; हास--हँसीसे; लीला--क्रीड़ायुक्त; अवलोक--चितवनोंका; कलया--लघु अंश से; उत्सवम्‌ू--उत्सव; आतनोति--प्रदान करता है।

    मार्ग पर मुकुन्द की पत्तियों को चन्द्रमा के साथ तारों की तरह गुजरते देखकर स्त्रियाँचिल्ला उठीं, 'इन स्त्रियों ने कौन-सा कर्म किया है, जिससे उत्तमोत्तम व्यक्ति अपनी उदारमुसकान तथा क्रीड़ायुक्त दीर्घ चितवनों से उनके नेत्रों को सुख प्रदान कर रहे हैं?

    'तत्र तत्रोपसड्रम्य पौरा मड्रलपाणय: ।

    चक्र: सपर्या कृष्णाय श्रेणीमुख्या हतैनस: ॥

    ३६॥

    तत्र तत्र--विविध स्थानों में; उपसड्रम्ध--पहुँच कर; पौरा:--नगरवासी; मड्गल--शुभ भेंटें; पाणय: --अपने हाथों में; चक्र: --सम्पन्न किया; सपर्यामू--पूजा; कृष्णाय--कृष्ण के लिए; श्रेणी--व्यवसायियों के; मुख्या: --प्रमुख नेता; हत--विनष्ट;एनस:-पाप।

    विभिन्न स्थानों पर नगरवासी अपने हाथों में कृष्ण के लिए शुभ भेंटें लेकर आये और प्रमुखनिष्पाप व्यापारी भगवान्‌ की पूजा करने के लिए आगे बढ़े।

    अन्तःपुरजनेः प्रीत्या मुकुन्दः फुल्ललोचनै: ।

    ससम्भ्रमैरभ्युपेत: प्राविशद्राजमन्दिरम्‌ू ॥

    ३७॥

    अन्तः-पुर--रनिवास के; जनै:--लोगों के द्वारा; प्रीत्या--प्रेमपूर्वक; मुकुन्दः-- भगवान्‌ कृष्ण; फुल्ल--प्रफुल्ल; लोचनै: --आँखों से; स-सम्भ्रमैः --जोश में; अभ्युपेत:--स्वागत करने आईं; प्राविशत्‌--प्रवेश किया; राज--राजसी; मन्दिरम्‌--महलमें

    प्रफुल्ल नेत्रों से अन्तःपुर के सदस्य भगवान्‌ मुकुन्द का प्रेमपूर्वक स्वागत करने जोश सेआगे बढ़े और इस तरह भगवान्‌ राजमहल में प्रविष्ट हुए।

    पृथा विलोक्य क्षात्रेयं कृष्णं त्रिभुवनेश्वरम्‌ ।

    प्रीतात्मोत्थाय पर्यड्डात्सस्नुषा परिषस्वजे ॥

    ३८॥

    पृथा--रानी कुन्ती; विलोक्य--देख कर; भ्रात्रेयमू--अपने भाई के पुत्र; कृष्णम्‌--कृष्ण को; त्रि-भुवन--तीनों लोकों के;ईश्वरम्‌--स्वामी; प्रीत--प्रेमपूर्ण; आत्मा--हृदय; उत्थाय--उठ कर; पर्यड्डात्‌--अपने पलंग से; स-स्नुषा--अपनी पुत्रवधू( द्रौपदी ) सहित; परिषस्वजे--आलिंगन किया।

    जब महारानी कुन्ती ने अपने भतीजे कृष्ण को, जो तीनों लोकों के स्वामी हैं, देखा तोउनका हृदय प्रेम से भर गया।

    वे अपनी पुत्रवधू सहित अपने पलंग से उठीं और उन्होंने भगवान्‌का आलिंगन किया।

    गोविन्दं गृहमानीय देवदेवेशमाहत: ।

    पूजायां नाविदत्कृत्यं प्रमोदोपहतो नृप: ॥

    ३९॥

    गोविन्दमू-- भगवान्‌ कृष्ण को; गृहम्‌-- अपने घर में; आनीय--लाकर; देव--सारे देवताओं के; देव-ईशम्‌--परमे श्रर तथानियन्ता; आहत:--पूज्य; पूजायाम्‌-पूजा में; न अविदत्‌--नहीं जान पाये; कृत्यमू--विस्तृत क्रिया; प्रमोद--उनके अधिक हर्षसे; उपहत:--अभिभूत; नृप:--राजादेवताओं के परमेश्वर

    भगवान्‌ गोविन्द को राजा युधिष्ठिर अपने निजी निवासस्थान में लेआये।

    राजा हर्ष से इतने विभोर हो गये कि उन्हें पूजा का सारा अनुष्ठान विस्मृत हो गया।

    पितृस्वसुर्गुरुस्त्रीणां कृष्ण श्रक्रे उभिवादनम्‌ ।

    स्वयं च कृष्णया राजन्भगिन्या चाभिवन्दितः ॥

    ४०॥

    पितृ--उनके पिता की; स्वसु:--बहन ( कुन्ती ) के; गुरु--गुरुजनों के; स्त्रीणाम्‌--तथा पत्नियों के; कृष्ण:-- भगवान्‌ कृष्णने; चक्रे--सम्पन्न किया; अभिवादनम्‌--नमस्कार; स्वयम्‌--स्वयं; च--तथा; कृष्णया--कृष्णा ( द्रौपदी ) द्वारा; राजन्‌ू--हेराजा ( परीक्षित ); भगिन्या--अपनी बहन ( सुभद्रा ) द्वारा; च-- भी; अभिवन्दित:--नमस्कार किये गये।

    हे राजन, भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने अपनी बुआ तथा उनके गुरुजनों की पत्नियों को नमस्कारकिया।

    तब द्रौपदी तथा भगवान्‌ की बहन ने उन्हें नमस्कार किया।

    श्रश्रुवा सझ्ञोदिता कृष्णा कृष्णपत्नीश्व सर्वशः ।

    आनर्च रुक्मिणीं सत्यां भद्रां जाम्बवर्ती तथा ॥

    ४१॥

    कालिन्दीं मित्रविन्दां च शैब्यां नाग्नजितीं सतीम्‌ ।

    अन्याश्चाभ्यागता यास्तु वासःस्त्रड्मण्डनादिभि: ॥

    ४२॥

    श्रश्वा--अपनी सास ( कुन्ती ) द्वारा; सझ्लोदिता-- प्रोत्साहित; कृष्णा--द्रौपदी; कृष्ण-पत्नी:--कृष्ण की पत्लियाँ; च--तथा;सर्वश:--सारे लोग; आनर्च--पूजा की; रुक्मिणीम्‌ू--रुक्मिणी की; सत्याम्‌--सत्यभामा की; भद्राम्‌ जाम्बवतीम्‌ू--भद्गा तथाजाम्बवती की; तथा-- भी; कालिन्दीम्‌ मित्रविन्दाम्‌ च--कालिन्दी तथा मित्रविन्दा की; शैब्यामू--राजा शिबि की वंशजा;नाग्नजितीमू--नाग्नजिती की; सतीम्‌--सती; अन्या: -- अन्य; च-- भी; अभ्यागता:--वहाँ पर आये हुए; याः--जो; तु--तथा;वास: --वस्त्र समेत; स्रकु-- फूल की माला; मण्डन--आभूषण; आदिभि: --इत्यादि से |

    अपनी सास से अभिप्रेरित होकर द्रौपदी ने भगवान्‌ कृष्ण की पत्लियों-रुक्मिणी, सत्यभामा,भद्रा, जाम्बवती, कालिन्दी, शिबरि की वंशजा मित्रविन्दा, सती नाग्नजजिती को तथा वहाँ परउपस्थित भगवान्‌ की अन्य रानियों को नमस्कार किया।

    द्रौपदी ने वस्त्र, फूल-मालाएँ तथारत्लाभूषण जैसे उपहारों से उन सबों का सत्कार किया।

    सुखं निवासयामास धर्मराजो जनार्दनम्‌ ।

    ससैन्य॑ सानुगामत्यं सभार्य च नवं नवम्‌ ॥

    ४३॥

    सुखम्‌--सुखपूर्वक; निवासयाम्‌ आस--ठहराया; धर्म-राज:--धर्म के राजा युधिष्ठिर ने; जनार्दनम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण को; स-सैन्यम्‌ू--सेना समेत; स-अनुग--सेवकों समेत; अमत्यम्‌--तथा मंत्रीगण; स-भार्यम्‌--अपनी पत्नियों सहित; च--तथा; नवम्‌नवम्‌--एक से एक नवीन।

    राजा युधिष्ठिर ने कृष्ण के विश्राम का प्रबन्ध किया और इसका ध्यान रखा कि जितने सारेलोग उनके साथ आये हैं--यथा उनकी रानियाँ, सैनिक, मंत्री तथा सचिव--वे सुखपूर्वक ठहरजाँय।

    उन्होंने ऐसी व्यवस्था की कि जब तक वे पाण्डवों के अतिथि रूप में रहें, प्रतिदिन उनकानया नया स्वागत हो।

    तर्पयित्वा खाण्डवेन वह्निं फाल्गुनसंयुत: ।

    मोचयित्वा मयं येन राज्ञे दिव्या सभा कृता ॥

    ४४॥

    उवास कतिचिन्मासान्नाज्ञ: प्रियचिकीर्षया ।

    विहरत्रथमारुहा फाल्गुनेन भटै्वृतः ॥

    ४५॥

    तर्पयित्वा--तुष्ट करके; खाण्डवेन--खाण्डब बन सहित; वहिम्‌--अग्निदेव को; फाल्गुन--अर्जुन द्वारा; संयुत:--साथ में;मोचयित्वा--छुड़ाकर; मयम्‌--मय दानव को; येन--जिसके द्वारा; राज्ञे--राजा ( युधिष्ठिर ) के लिए; दिव्या--दैवी; सभा--सभाभवन; कृता--बनाया गया; उबास--वे रहते रहे; कतिचित्‌--कई; मासान्‌--महीने; राज्ञ:--राजा को; प्रिय--खुशी;चिकीर्षया--देने की इच्छा से; विहरन्‌ू--विहार करते; रथम्‌--रथ में; आरुह्म--चढ़ कर; फाल्गुनेन--अर्जुन सहित; भटै: --रक्षकों द्वारा; वृत:--घिरे।

    राजा युधिष्ठिर को तुष्ठट करने की इच्छा से भगवान्‌ कई मास इन्द्रप्रस्थ में रहते रहे।

    अपनेआवास-काल के समय उन्होंने तथा अर्जुन ने अग्निदेव को खाण्डव बन भेंट करके तुष्ट किया।

    उन्होंने मय दानव को बचाया जिसने बाद में राजा युधिष्ठिर के लिए दैवी सभाभवन बनाया।

    अर्जुन के साथ सैनिकों से घिर कर भगवान्‌ ने अपने रथ पर सवारी करने के अवसर का भीलाभ उठाया।

    TO

    अध्याय बहत्तरवाँ: राक्षस जरासंध का वध

    10.72श्रीशुक उवाचएकदा तु सभामध्य आस्थितो मुनिभिर्वृतः ।

    ब्राह्मणै: क्षत्रियैवेश्यैर्श्रातृभिश्च युधिष्ठिर: ॥

    १॥

    आचार्य: कुलवृद्धैश्व ज्ञातिसम्बन्धिबान्धवै: ।

    श्रुण्वतामेव चैतेषामाभाष्येदमुवाच ह ॥

    २॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एकदा--एक बार; तु--तथा; सभा--राजसभा के; मध्ये--बीच में;आस्थित:--आसीन; मुनिभि:ः--मुनियों द्वारा; वृत:--घिरे हुए; ब्राह्मणै: क्षत्रिय: वैश्यै:--ब्राह्मणों, क्षत्रियों तथा वैश्यों से;भ्रातृभि:-- भाइयों से; च--तथा; युधिष्ठिर: --युधिष्ठिर; आचार्य :--अपने गुरुओं से; कुल--परिवार के; वृद्धैः--बड़े-बूढ़ों से;च--भी; ज्ञाति--सगे; सम्बन्धि--सम्बन्धियों; बान्धवैः--तथा मित्रों से; श्रृण्वताम्‌--सुनते ही; एब--निस्सन्देह; च--तथा;एतेषाम्‌--सारे के सारे; आभाष्य--( कृष्ण को ) सम्बोधित करके; इृदम्‌--यह; उबाच ह--कहा।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : एक दिन जब राजा युध्रिष्ठिर राजसभा में प्रख्यात मुनियों,ब्राह्मणों, क्षत्रियों तथा वैश्यों तथा अपने भाइयों, गुरुओं, परिवार के बड़े-बूढ़ों, सगे-सम्बन्धियोंससुराल वालों तथा मित्रों से घिर कर बैठे हुए थे, तो उन्होंने भगवान्‌ कृष्ण को सम्बोधित किया,जबकि दूसरे सभी व्यक्ति सुन रहे थे।

    श्रीयुथिष्ठिर उबाचक्रतुराजेन गोविन्द राजसूयेन पावनी: ।

    यक्ष्ये विभूतीर्भवतस्तत्सम्पादय न: प्रभो ॥

    ३॥

    श्री-युधिष्टिर: उबाच-- श्री युधिष्ठिर ने कहा; क्रतु--मुख्य अग्नि यज्ञों के; राजेन--राजा; गोविन्द--हे कृष्ण; राजसूयेन--राजसूय से; पावनी:--पवित्र करने वाला; यक्ष्ये--मैं पूजा करना चाहता हूँ; विभूतीः--ऐश्वर्यशाली अंशों द्वारा; भवत:ः--आपकी; तत्‌--उस; सम्पादय--कृपया करने की अनुमति दें; नः--हमें; प्रभो--हे स्वामी |

    श्री युथिष्ठिर ने कहा : हे गोविन्द, मैं आपके शुभ ऐश्वर्यशाली अंशों की पूजा वैदिक उत्सवोंके राजा, राजसूय यज्ञ द्वारा करना चाहता हूँ।

    हे प्रभु, हमारे इस प्रयास को सफल बनायें।

    त्वत्पादुके अविरतं परि ये चरन्तिध्यायन्त्यभद्रनशने शुच्चययो गृणन्ति ।

    विन्दन्ति ते कमलनाभ भवापवर्ग-माशासते यदि त आशिष ईश नान्‍ये ॥

    ४॥

    त्वतू--तुम्हारे; पादुके --खड़ाऊँ को; अविरतम्‌--निरन्तर; परि--पूर्णतया; ये--जो; चरन्ति--सेवा करते हैं; ध्यायन्ति-- ध्यानकरते हैं; अभद्र--अशुभ वस्तुओं के; नशने--विनाश करने वाली; शुच्ययः--पवित्र; गृणन्ति--तथा शब्दों द्वारा वर्णन करते हैं;विन्दन्ति-- प्राप्त करते हैं; ते--वे; कमल--कमल ( सहश ); नाभ--हे कमलनाभ; भव-- भौतिक जीवन का; अपवर्गम्‌--मोक्ष; आशासते--इच्छा लगाये रहते हैं; यदि--यदि; ते--वे; आशिष: --इच्छित वस्तुएँ प्राप्त करते हैं; ईश--हे प्रभु; न--नहीं;अन्ये--अन्य पुरुष |

    हे कमलनाभ, वे पवित्र व्यक्ति जो निरन्तर आपकी उन पादुकाओं की सेवा करते हैं, ध्यानकरते हैं और उनका यशोगान करते हैं, जो समस्त अशुभ वस्तुओं को विनष्ट करने वाली हैं, उन्हेंनिश्चित रूप से इस भौतिक संसार से मुक्ति प्राप्त हो जाती है।

    यदि वे इस जगत में किसी वस्तुकी आकांक्षा करते हैं, तो वे उसे प्राप्त करते हैं, किन्तु हे प्रभु, अन्य लोग, जो आपकी शरणग्रहण नहीं करते, कभी भी तुष्ट नहीं होते।

    तद्देवदेव भवतश्चरणारविन्द-सेवानुभावमिह पश्यतु लोक एष: ।

    ये त्वां भजन्ति न भजन्त्युत वोभयेषांनिष्ठां प्रदर्शय विभो कुरुसूझ्यानाम्‌ ॥

    ५॥

    तत्‌--इसलिए; देव-देव--हे स्वामियों के स्वामी; भवत:--आपके; चरण-अरविन्द--चरणकमलों की; सेवा--सेवा की;अनुभावम्‌--शक्ति; इहह--इस संसार में; पश्यतु--वे देख सकें; लोक:--जनता; एष:--यह; ये--जो; त्वाम्‌ू--तुमको;भजन्ति--पूजते हैं; न भजन्ति--पूजा नहीं करते; उत वा--अथवा अन्य कुछ; उभयेषाम्‌--दोनों की; निष्ठामू--पद को;प्रदर्शम--दिखलाइये; विभो--हे सर्वशक्तिमान; कुरू-सूझ्यानाम्‌ू--कुरुओं तथा सृज्ञयों के अतएव हे देव-देव

    इस संसार के लोग देख लें कि आपके चरणकमलों में की गई भक्तिकी शक्ति कितनी है।

    हे सर्वशक्तिमान, आप उन्हें उन कुरुओं तथा सृक्षयों की शक्ति दिखला दें,जो आपकी पूजा करते हैं और उनकी भी स्थिति दिखला दें, जो पूजा नहीं करते।

    न ब्रह्मण: स्वपरभेदमतिस्तव स्यात्‌सर्वात्मन: समहशः स्वसुखानुभूते: ।

    संसेवतां सुरतरोरिव ते प्रसाद:सेवानुरूपमुदयो न विपर्ययोउत्र ॥

    ६॥

    न--नहीं; ब्रह्मण:--ब्रह्म का; स्व-- अपना; पर--तथा पराया; भेद-- भेदभाव, भेद; मतिः--प्रवृत्ति; तब--तुम्हारी; स्थात्‌ू--शायद हो; सर्व--सारी वस्तुओं के; आत्मन:--आत्मा के; सम--समान; हृश:ः--जिसका दर्शन; स्व-- अपने भीतर; सुख--सुख का; अनुभूतेः--अनुभूति की; संसेवताम्‌--उचित रीति से पूजा करने वालों के लिए; सुर-तरोः--कल्पवृक्ष के; इब--मानो; ते--तुम्हारी; प्रसाद: --कृपा; सेवा--सेवा के साथ; अनुरूपम्‌--अनुरूप; उदय: --इच्छित फल; न--नहीं ; विपर्यय: --'उलटा; अत्र--इसमें |

    आपके मन के भीतर 'यह मेरा है और वह दूसरे का है' इस प्रकार का भेदभाव नहीं होसकता, क्योंकि आप परम सत्य हैं, समस्त जीवों के आत्मा, सदैव समभाव रखने वाले औरअपने अन्तर में दिव्य आनन्द का भोग करने वाले हैं।

    आप कल्पवृक्ष की तरह अपने उचित रूपसे हर पूजने वाले को आशीर्वाद देते हैं और उनके द्वारा की गई सेवा के अनुपात में उन्हें इच्छित'फल देते हैं।

    इसमें कोई भी दोष नहीं है।

    श्रीभगवानुवाचसम्यग्व्यवसितं राजन्भवता शत्रुकर्शन ।

    कल्याणी येन ते कीर्तिलोकाननुभविष्यति ॥

    ७॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; सम्यक्‌--पूरी तरह से; व्यवसितम्‌--संकल्प किया हुआ; राजन्‌--हे राजन्‌; भवता--आपके द्वारा; शत्रु--शत्रुओं को; कर्शन--हे सताने वाले; कल्याणी--शुभ; येन-- जिससे; ते--तुम्हारी; कीर्ति:-- ख्याति;लोकानू--सारे लोकों को; अनुभविष्यति--देखेगी ॥

    भगवान्‌ ने कहा: हे राजन्‌, तुम्हारा निर्णय सही है, अतएव हे शत्रुकर्शन, तुम्हारीकल्याणकारी ख्याति सभी लोकों में फैलेगी।

    ऋषीणां पितृदेवानां सुहृदामपि नः प्रभो ।

    सर्वेषामपि भूतानामीप्सित: क्रतुराडयम्‌ ॥

    ८॥

    ऋषीणाम्‌--ऋषियों के लिए; पितृ--मृत पूर्वज; देवानाम्‌ू--तथा देवताओं के लिए; सुहृदाम्‌--मित्रों के लिए; अपि-- भी;नः--हमारा; प्रभो:--हे प्रभु; सर्वेषामू--सबों के लिए; अपि--भी; भूतानाम्‌--जीवों के लिए; ईप्सित:--वांछनीय, अभीष्ट;क्रतु--प्रमुख वैदिक यज्ञों के; राट्‌--राजा; अयम्‌--इस

    हे प्रभु, निस्सन्देह महर्षियों, पितरों तथा देवताओं के लिए, हमारे शुभचिन्तक मित्रों के लिएऔर दरअसल सारे जीवों के लिए इस वैदिक यज्ञों के राजा का सम्पन्न होना वांछनीय है।

    विजित्य नृपतीन्सर्वान्कृत्वा च जगतीं वशे ।

    सम्भृत्य सर्वसम्भारानाहरस्व महाक्रतुम्‌ ॥

    ९॥

    विजित्य--जीत कर; नृ-पतीन्‌--राजाओं को; सर्वानू--समस्त; कृत्वा--करके; च--तथा; जगतीम्‌--पृथ्वी को; वशे--अपनेवश में; सम्भृत्य--एकत्र करके; सर्व--सारी; सम्भारान्‌ू--सामग्री; आहरस्व--सम्पन्न करो; महा--महान्‌; क्रतुम्‌--यज्ञ को ।

    सबसे पहले सारे राजाओं को जीतो, पृथ्वी को अपने अधीन करो और आवश्यक साज-सामग्री एकत्र करो, तब इस महान्‌ यज्ञ को सम्पन्न करो।

    एते ते भ्रातरो राजेल्‍लोकपालांशसम्भवा: ।

    जितोअस्म्यात्मवता तेडहं दुर्जयो योउकृतात्मभि: ॥

    १०॥

    एते--ये; ते--तुम्हारे; भ्रातरः-- भाई; राजन्‌--हे राजन्‌; लोक--लोकों पर; पाल--शासन करने वाले देवताओं से; अंश--अंशरूप; सम्भवा:--उत्पन्न; जित:--जीता हुआ; अस्मि--हूँ; आत्म-वता--आत्मसंयमी; ते--तुम्हारे द्वारा; अहम्‌--मैं;दुर्जय:--न जीता जा सकने वाला; यः--जो; अकृत-आत्मभि:--जो आत्मसंयमी नहीं है, उनके द्वारा।

    हे राजन, तुम्हारे इन भाइयों ने विभिन्न लोकपालों के अंशों के रूप में जन्म लिया है।

    औरतुम तो इतने आत्मसंयमी हो कि तुमने मुझे भी जीत लिया है, जबकि मैं उन लोगों के लिए दुर्जयहूँ, जिनकी इन्द्रियाँ उनके वश में नहीं हैं।

    न कश्,िन्मत्परं लोके तेजसा यशसा श्रिया ।

    विभूतिभिर्वाभिभवेद्देवोषपि किमु पार्थिव: ॥

    ११॥

    न--नहीं; कश्चित्‌ू--कोई व्यक्ति; मत्‌--मेरे प्रति; परमू--समर्पित; लोके--इस जगत में; तेजसा--अपनी शक्ति से; यशसा--यश से; अिया--सौन्दर्य से; विभूतिभि:--ऐश्वर्य से; वा--अथवा; अभिभवेत्‌--जीत सकता है; देव:--देवता; अपि--भी;किम्‌ उ--क्या कहा जाय; पार्थिव: --पृथ्वी का शासक |

    इस जगत में मेरे भक्त को देवता भी अपने बल, सौन्दर्य, यश या सम्पत्ति से नहीं हरा सकते,पृथ्वी के शासक की तो बात ही कया ?

    श्रीशुक उवाचनिशम्य भगवदगीतं प्रीतः फुल्लमुखाम्बुज: ।

    भ्रातृन्दिग्विजयेयुड्डः विष्णुतेजोपबृंहितान्‌ू ॥

    १२॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुक ने कहा; निशम्य--सुनकर; भगवत्‌-- भगवान्‌ के; गीतम्‌--गीत; प्रीत:--प्रसन्न; फुल्ल--खिलाहुआ; मुख--उसका मुँह; अम्बुज:--कमल जैसा; भ्रातृन्‌ू--उसके भाइयों को; दिकु--सारी दिशाओं की; विजये--विजय में;अयुद्ध --व्यस्त; विष्णु-- भगवान्‌ विष्णु के; तेज:--तेज से; उपबूंहितान्‌ू--प्रबलित, पुष्ट ।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : भगवान्‌ द्वारा इन शब्दों रूपी गायन को सुनकर युध्चिष्टिर हर्षितहो उठे और उनका मुख कमल सहद्ृश खिल गया।

    इस तरह उन्होंने अपने भाइयों को, जो भगवान्‌विष्णु की शक्ति से समन्वित थे, सभी दिशाओं पर विजय के लिए भेज दिया।

    पसहदेवं दक्षिणस्थामादिशत्सह सृझ्ञयैः ।

    दिशि प्रतीच्यां नकुलमुदीच्यां सव्यसाचिनम्‌ ।

    ्राच्यां वृकोदर मत्स्यै: केकयै: सह मद्रकै: ॥

    १३॥

    सहदेवम्‌--सहदेव को; दक्षिणस्याम्‌-दक्षिण की ओर; आदिशत्‌--आज्ञा दी; सह--साथ; सूझ्ञयै:--सूझय जाति के योद्धाओंके; दिशि--दिशा की ओर; प्रतीच्यामू--पश्चिमी; नकुलम्‌ू--नकुल को; उदीच्याम्‌--उत्तर की ओर; सव्यसाचिनम्‌--अर्जुनको; प्राच्यामू--पूर्व की ओर; वृकोदरम्‌-- भीम को; मत्स्यैः--मत्स्यों; केकयैः--केकयों के; सह--साथ; मद्रकैः--तथामद्रकों के साथ

    उन्होंने सहदेव को सूक्षयों के साथ दक्षिण, नकुल को मत्स्यों के साथ पश्चिम, अर्जुन कोकेकयों के साथ उत्तर तथा भीम को मद्रकों के साथ पूर्व दिशा में भेज दिया।

    ते विजित्य नृपान्बीरा आजहर्दिग्भ्य ओजसा ।

    अजातजत्रवे भूरि द्रविणं नृप यक्ष्यते ॥

    १४॥

    ते--वे; विजित्य--हराकर; नृपान्‌ू--राजाओं को; वीरा:--वीर; आजहु: --ले आये; दिग्भ्य:--विभिन्न दिशाओं से; ओजसा--अपनी शक्ति से; अजात-शत्रवे--युधिष्ठिर महाराज के लिए; भूरि--प्रचुर; द्रविणम्‌-- धन; नृप--हे राजा ( परीक्षित );यक्ष्यते--यज्ञ करने का इच्छुक

    हे राजनू, अपने बल से अनेक राजाओं को हराकर ये वीर भाई यज्ञ करने के इच्छुकयुथ्चिष्ठिर महाराज के लिए प्रचुर धन लेते आये।

    श्र॒ुत्वाजितं जरासन्ध॑ नृपतेर्ध्यायतो हरि: ।

    आहोपायं तमेवाद्य उद्धवो यमुवाच ह ॥

    १५॥

    श्रुत्वा--सुनकर; अजितम्‌--बिना जीता हुआ; जरासन्धम्‌--जरासन्ध को; नृपतेः--राजा के; ध्यायत:ः--मनन करते समय;हरिः-- भगवान्‌ हरि ने; आह--बतलाया; उपायम्‌--उपाय; तमू--उसको; एव--निस्सन्देह; आद्यः--आदि पुरुष; उद्धव:--उद्धव ने; यमू--जिसको; उबाच ह--कहा था।

    जब राजा युधिष्टिर ने सुना कि जरासन्ध पराजित नहीं किया जा सका तो वे सोच-विचार मेंपड़ गये और तब आदि भगवान्‌ हरि ने उन्हें वह उपाय बताया, जिसे उद्धव ने जरासन्ध को हरानेके लिए कह सुनाया था।

    भीमसेनो४र्जुनः कृष्णो ब्रह्मलिन्गधरास्त्रयः ।

    जम्मुर्गिरित्रजं तात बृहद्रथसुतो यतः ॥

    १६॥

    भीमसेन: अर्जुन: कृष्ण:--भीमसेन, अर्जुन तथा कृष्ण; ब्रह्म--ब्राह्मणों के; लिड्र---वेश; धरा:-- धारण करके; त्रयः --तीनों;जग्मु:ः--गये; गिरिब्रजम्‌--गिरित्रज के किले वाले नगर में; तात--हे प्रिय ( परीक्षित ); बृहद्रथ-सुत:--बूृहद्रथ का पुत्र( जरासन्ध ); यत:--जिधर |

    इस तरह भीमसेन, अर्जुन तथा कृष्ण ने ब्राह्मणों का वेश बनाया और हे राजा, वे गिरिब्रजगये जहाँ बृहद्रथ का पुत्र था।

    ते गत्वातिथ्यवेलायां गृहेषु गृहमेधिनम्‌ ।

    ब्रह्मण्यं समयाचेरत्राजन्या ब्रह्मलिड्रिन: ॥

    १७॥

    ते--वे; गत्वा--जाकर; आतिथ्य--अतिथियों के स्वागतार्थ; वेलायामू--निश्चित समय पर; गृहेषु--उसके आवास स्थान में;गृह-मेधिनम्‌-धार्मिक गृहस्थों से; ब्रह्मण्यम्‌--ब्राह्मणों के प्रति आदर से पूर्ण; समयाचेरन्‌ू--याचना की; राजन्या:--राजागण;ब्रह्म-लिड्रिन:--ब्राह्मणों के चिह्नों से युक्त होकर।

    ब्राह्मणों का वेश धारण करके ये राजवंशी योद्धा जरासन्ध के घर, अतिथियों का स्वागतकरने के लिए निश्चित समय पर, पहुँचे।

    उन्होंने उस कर्तव्यनिष्ठ गृहस्थ के समक्ष याचना की,क्योंकि वह ब्राह्मण वर्ग का विशेष रूप से आदर करता था।

    राजन्विद्धबतिथीन्प्राप्तानर्थिनो दूरमागतान्‌ ।

    तन्नः प्रयच्छ भद्गं ते यद्वयं कामयामहे ॥

    १८॥

    राजनू--हे राजन; विद्धि--कृपया जानो; अतिथीन्‌--अतिथियों को; प्राप्तानू--आया हुआ; अर्थिन:--पाने के इच्छुक; दूरम्‌--दूर से; आगतानू--आये हुए; तत्‌--वह; नः--हमको; प्रयच्छ--दो; भद्रमू--शुभ, मंगल; ते--तुम से; यत्‌--जो भी; वयम्‌--हम; कामयामहे--इच्छा कर रहे हैं।

    कृष्ण, अर्जुन तथा भीम ने कहा हे राजा, आप हमें दीन अतिथि जानें, जो आपके पासबहुत दूर से आये हैं।

    हम आपका कल्याण चाहते हैं।

    हम जो भी चाहें, कृपया उसे हमें दें।

    किं दुर्मर्ष तितिक्षूणां किमकार्यमसाधुभि: ।

    कि न देयं वदान्यानां कः पर: समदर्शिनाम्‌ ॥

    १९॥

    किमू--क्या; दुर्मर्षम्‌--असहा; तितिक्षूणामू--सहनशील के लिए; किम्‌ू--क्या; अकार्यम्‌--करना असम्भव; असाधुभि:--असाधु के लिए; किम्‌--क्या; न देयम्‌--दे पाना असम्भव; वदान्यानाम्‌ू--उदार के लिए; क:--कौन; पर: --पृथक्‌; सम--समान; दर्शिनाम्‌--दृष्टि वालों को

    सहनशील व्यक्ति क्‍या नहीं सह सकता? दुष्ट क्या नहीं करेगा? उदार व्यक्ति दान में क्‍यानहीं दे देगा? और समदृष्टि वाले के लिए बाहरी कौन है?

    योउनित्येन शरीरेण सतां गेय॑ यशो श्लुवम्‌ ।

    नाचिनोति स्वयं कल्प: स वाच्य: शोच्य एव सः ॥

    २०॥

    यः--जो; अनित्येन--क्षणिक; शरीरेण -- भौतिक शरीर से; सताम्‌--सन्तों द्वारा; गेयम्‌--गायन के लिए; यश: --यश;श्रुवम्‌--स्थायी; न आचिनोति--अर्जित नहीं करता; स्वयमू--स्वयं; कल्प: --सक्षम; सः--वह; वाच्य:--निन्दनीय; शोच्य: --शोचनीय; एव--निस्सन्देह; सः--वह |

    वह निस्सन्देह निन्दनीय तथा दयनीय है, जो अपने क्षणिक शरीर से महान सन्‍्तों द्वारा गाईगई चिर ख्याति को प्राप्त करने में असफल रहता है, यद्यपि वह ऐसा करने में सक्षम होता है।

    हरिश्वन्द्रो रन्तिदेव उज्छवृत्ति: शिबिर्बलि: ।

    व्याध: कपोतो बहवो ह्ाश्रुवेण श्रुवं गता: ॥

    २१॥

    हरिश्वन्द्रः रन्तिदेव:--हरिश्वन्द्र तथा रन्तिदेव; उब्छ-वृत्तिः--फसल के गिरे दानों को बीन कर जीविका चलाने वाला, मुद्गल;शिबि: बलि:--शिबि तथा बलि; व्याध:--शिकारी; कपोत:ः--कबूतर; बहव:-- अनेक; हि--निस्सन्देह; अश्वुवेण-- क्षणिकद्वारा; ध्रुवम्‌--स्थायी तक; गता:--गये हुए

    हरिश्वन्द्र, रन्तिदेव, उज्छवृत्ति मुदूगल, शिवरि, बलि, पौराणिक शिकारी तथा कबूतर एवंअन्य अनेकों ने क्षणभंगुर के द्वारा अविनाशी को प्राप्त किया है।

    श्रीशुक उवाचस्वरैराकृतिभिस्तांस्तु प्रकोष्ठैर््याहतैरपि ।

    राजन्यबन्धून्विज्ञाय दृष्टपूर्वानचिन्तयत्‌ ॥

    २२॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; स्वरः--उनके स्वरों से; आकृतिभि:--शारीरिक डीलडौल से; तान्‌--उनको;तु--फिर भी; प्रकोष्ठे:--उनकी कलाइयों को ( देख ) कर; ज्या--धनुष की डोरियों से; हतैः--चिन्हित; अपि-- भी; राजन्य--राजसी; बन्धूनू--पारिवारिक सदस्यों के रूप में; विज्ञाय--पहचान कर; दृष्ट--देखा हुआ; पूर्वान्‌--इससे पहले से;अचिन्तयत्‌--उसने विचार किया।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : उनकी आवाज, उनके शारीरिक डीलडौल तथा उनकी कलाइयोंपर धनुष की डोरियों से बने चिन्हों से जरासन्ध यह जान गया कि उसके अतिथि राजन्य हैं।

    वहसोचने लगा कि इसके पूर्व मैंने उन्हें कहीं न कहीं देखा है।

    राजन्यबन्धवो होते ब्रह्मलिड्ञानि बिभ्रति ।

    ददानि भिक्षितं तेभ्य आत्मानमपि दुस्त्यजम्‌ ॥

    २३॥

    राजन्य-बन्धव:-क्षत्रियों के सम्बन्धी; हि--निस्सन्देह; एते--ये; ब्रह्म --त्राह्मणों के; लिड्ानि--चिह्न; बिभ्रति-- धारण करनेवाले हैं; ददानि--मुझे देना चाहिए; भिक्षितम्‌--माँगा हुआ; तेभ्य:--उनको; आत्मानम्‌-- अपना शरीर; अपि-- भी;दुस्त्यजम्‌--जिसे छोड़ पाना असम्भव है।

    जरासन्ध ने सोचा : ये निश्चित रूप से क्षत्रिय कुल के सदस्य हैं, जिन्होंने ब्राह्मणों कावेश बना रखा है, फिर भी मुझे इनको दान देना चाहिए भले ही वे मुझसे छोड़ने में दुष्कर मेराशरीर ही क्‍यों न माँग लें।

    बलेनु श्रूयते कीर्तिवितता दिक््वकल्मषा ।

    ऐश्वर्याद्भ्रंशितस्यापि विप्रव्याजेन विष्णुना ॥

    २४॥

    प्रियं जिहीर्षतेन्द्रस्थ विष्णवे द्विजरूपिणे ।

    जानन्नपि महीम्प्रादाद्वार्यमाणोपि दैत्यराट्‌ ॥

    २५॥

    बले:--बलि की; नु--नहीं; श्रूयते--सुनी जाती है; कीर्ति:--कीर्ति, ख्याति; वितता--विस्तीर्ण; दिक्षु--सभी दिशाओं में;अकल्मषा--निष्कलंक; ऐश्वर्यात्‌-उसके प्रबल पद से; भ्रंशितस्थ--गिराये गये; अपि-- भी; विप्र--ब्राह्मण के; व्याजेन--वेशमें; विष्णुना--विष्णु द्वारा; श्रीयम्‌--ऐश्वर्य; जिहीर्षता--लेने की इच्छा से; इन्द्रस्य--इन्द्र का; विष्णवे--विष्णु के; द्विज-रूपिणे--ब्राह्मण के रूप में प्रकट होकर; जानन्‌--जानते हुए; अपि--यद्यपि; महीम्‌--सारी पृथ्वी; प्रादात्‌ू--दे दिया;वार्यमाण:--मना किये जाने पर; अपि-- भी; दैत्य--असुरों के; राट्‌--राजा ने |

    निस्सन्देह, बलि महाराज की निष्कलंक ख्याति विश्व-भर में सुनाई पड़ती है।

    भगवान्‌विष्णु, बलि से इन्द्र का ऐश्वर्य वापस लेने की इच्छा से, उसके समक्ष ब्राह्मण के वेश में प्रकटहुए और उसके शक्तिशाली पद से उसे नीचे गिरा दिया।

    यद्यपि दैत्यााज बलि इस छल सेपरिचित थे और अपने गुरु द्वारा मना भी किये गये थे, तो भी उन्होंने विष्णु को दान में सारीपृथ्वी दे दी।

    जीवता ब्राह्मणार्थाय को न्वर्थ: क्षत्रबन्धुना ।

    देहेन पतमानेन नेहता विपुलं यश: ॥

    २६॥

    जीवता--जीवित रहने वाला; ब्राह्मण-अर्थाय--ब्राह्मणों के लाभार्थ; क:ः--कौन; नु--तनिक भी; अर्थ:--लाभ; क्षत्र-बन्धुना--पतित क्षत्रिय से; देहेन--शरीर से; पतमानेन--पतित होने ही वाले; न ईहता--प्रयास न करते हुए; विपुलम्‌--विस्तृत;यशः--यश के लिए

    उस अयोग्य क्षत्रिय से क्या लाभ जो जीवित तो रहता है, किन्तु अपने नश्वर शरीर से ब्राह्मणोंके लाभार्थ कार्य करते हुए स्थायी यश प्राप्त करने में असफल रहता है ?

    इत्युदारमतिः प्राह कृष्णार्जुनवृकोदरान्‌ ।

    है विप्रा व्रियतां कामो द॒दाम्यात्मशिरोडपि व: ॥

    २७॥

    इति--इस प्रकार; उदार--उदार; मति:--मानसिकता वालों ने; प्राह-- कहा; कृष्ण-अर्जुन-वृकोदरान्‌--कृष्ण, अर्जुन तथाभीम; हे विप्रा:--हे विद्वान ब्राह्मणो; व्रियतामू--आप चुनाव कर लें; काम: --जो चाहें; ददामि--मैं दूँगा; आत्म-- अपना;शिरः--सिर; अपि-- भी; वः--तुम सबों को |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस प्रकार संकल्प करके उदार जरासन्ध ने कृष्ण, अर्जुनतथा भीम से कहा : 'हे विद्वान ब्राह्मणों, तुम जो भी चाहो चुन सकते हो।

    मैं तुम्हें दूँगा, चाहेवह मेरा सिर ही क्‍यों न हो।

    श्रीभगवानुवाचयुद्ध नो देहि राजेन्द्र द्वन्द्रशो यदि मन्यसे ।

    युद्धार्थिनो बयं प्राप्ता राजन्या नान्यकाड्श्षिण: ॥

    २८॥

    श्री-भगवान्‌ उबाच-- भगवान्‌ ( कृष्ण ) ने कहा; युद्धम्‌--युद्ध; नः--हमको; देहि--दीजिये; राज-इन्द्र--हे महान्‌ राजा;द्न्द्रशः--एक-एक से भिड़न्त; यदि--यदि; मन्यसे--उचित समझते हो; युद्ध--युद्ध के लिए; अर्थिन: --इच्छुक; वयम्‌--हमतीनों; प्राप्ताः--यहाँ आये हुए हैं; राजन्या:--राजसी वर्ग के सदस्य; न--नहीं; अन्य--और कुछ; काड्क्षिण: --इच्छुक |

    भगवान्‌ ने कहा : हे राजेन्द्र यदि आप उचित समझते हों, तो हमें एक द्वन्द्द के रूप में युद्धदीजिये।

    हम राजकुमार हैं और युद्ध की भिक्षा माँगने आये हैं।

    हमें आपसे कोई अन्य भिक्षा नहींचाहिए।

    असौ वृकोदरः पार्थस्तस्य भ्रातार्जुनो हायम्‌ ।

    अनयोर्मातुलेयं मां कृष्णं जानीहि ते रिपुम्‌ ॥

    २९॥

    असौ--यह; वृकोदर:ः -- भीम; पार्थ:--पृथा का पुत्र; तस्य--उसका; भ्राता--भाई; अर्जुन: --अर्जुन; हि--निस्सन्देह; अयम्‌--यह; अनयो:--दोनों में से; मातुलेयम्‌ू--मामा के लड़के; माम्‌--मुझको; कृष्णम्‌--कृष्ण; जानीहि--जानो; ते-- तुम्हारा;रिपुम्‌-शत्रु |

    वह रहा पृथा-पुत्र भीम और यह उसका भाई अर्जुन है।

    मुझे इनका ममेरा भाई और अपनाशत्रु कृष्ण जानो।

    एवमावेदितो राजा जहासोच्चै: सम मागधः ।

    आह चर्मर्षितो मन्दा युद्ध तहिं ददामि व: ॥

    ३०॥

    एवम्‌--इस प्रकार; आवेदित:--आमंत्रित; राज--राजा; जहास--हँसा; उच्चै:--जोर से; स्म--निस्सन्देह; मागध:--जरासन्धने; आह--कहा; च--तथा; अमर्षित: -- असहिष्णु; मन्दा:--ेरे मूर्खो ; युद्धम्‌--युद्ध; तहिं---तब; ददामि--मैं दूँगा; वः--तुमको ।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस प्रकार ललकारे जाने पर, मगधराज जोर से हँसा औरउपेक्षापूर्वक बोला, 'बहुत अच्छा।

    ओरे मूर्खो! मैं तुमसे द्वन्द्द युद्ध करूँगा।

    न त्वया भीरुणा योत्स्ये युधि विक्लवतेजसा ।

    मथुरां स्वपुरीं त्यक्त्वा समुद्रं शरणं गतः ॥

    ३१॥

    न--नहीं; त्वया--तुम्हारे साथ; भीरुणा--कायर; योत्स्ये--मैं लड़ूँगा; युधि--युद्ध में; विक्‍्लब--क्षीण किया गया; तेजसा--तेज से; मथुराम्‌ू--मथुरा; स्व--निजी; पुरीम्‌--नगरी को; त्यक्त्वा--छोड़कर; समुद्रम्‌--समुद्र में; शरणम्‌--शरण के लिए;गतः--गया हुआ'

    लेकिन हे कृष्ण, मैं तुमसे युद्ध नहीं करूँगा, क्योंकि तुम कायर हो।

    तुम्हारे बल ने युद्ध के बीच में ही तुम्हारा साथ छोड़ दिया था और तुम अपनी ही राजधानी मथुरा से समुद्र में शरणलेने के लिए भाग गये थे।

    अयं तु वयसातुल्यो नातिसत्त्वो न मे समः ।

    अर्जुनो न भवेद्योद्धा भीमस्तुल्यबलो मम ॥

    ३२॥

    अयम्‌--यह; तु--दूसरी ओर; वयसा--उप्र में; अतुल्य:--समान नहीं; न--नहीं; अति--अत्यधिक; सत्त्व:--बल से युक्त;न--नहीं; मे--मेरे; सम: --समान; अर्जुन:--अर्जुन; न भवेत्‌--नहीं होना चाहिए; योद्धा--स्पर्धा करने वाला, लड़ाकू;भीम:ः--भीम; तुल्य--समान; बल: --बल में; मम--मेरे'

    जहाँ तक इस अर्जुन की बात है, वह न तो आयु में मेरे समान है न ही अत्यधिक बलशालीहै।

    चूँकि वह मेरी जोड़ का नहीं है, अतः उसे योद्धा नहीं बनना चाहिए।

    किन्तु भीम मेरे हीसमान बलशाली है।

    'इत्युक्त्वा भीमसेनाय प्रादाय महतीं गदाम्‌ ।

    द्वितीयां स्वयमादाय निर्जगाम पुराद्ठहि: ॥

    ३३॥

    इति--ऐसा; उक्त्वा--कहकर; भीमसेनाय-- भीमसेन के लिए; प्रादाय--देकर; महतीम्‌--विशाल; गदाम्‌ू--गदा; द्वितीयाम्‌--दूसरी; स्वयम्‌--खुद; आदाय--लेकर; निर्जगाम--निकल गया; पुरात्‌ू--नगर से; बहि:--बाहर।

    यह कहकर जरासन्ध ने भीमसेन को एक बड़ी गदा दी, दूसरी गदा स्वयं ली और शहर केबाहर चला गया।

    ततः समेखले वबीरौ संयुक्तावितरेतरम्‌ ।

    जघ्नतुर्वज़कल्पाभ्यां गदाभ्यां रणदुर्मदौ ॥

    ३४॥

    ततः--तब; समेखले--समतल अखाड़े में; वीरौ--दोनों वीर; संयुक्तौ--लगे हुए; इतर-इतरम्‌--एक दूसरे से; जघ्नतु:--प्रहारकिया; वज्-कल्पाभ्यामू--बिजली की भाँति; गदाभ्याम्‌--अपनी गदाओं से; रण--युद्ध में; दुर्मदौ--उन्मत्त |

    इस तरह दोनों वीर नगर के बाहर समतल अखाड़े में एक दूसरे से युद्ध करने लगे।

    युद्ध केक्रोध से पगलाये हुए वे एक दूसरे पर वज़ जैसी गदाओं से प्रहार करने लगे।

    मण्डलानि विचित्राणि सव्यं दक्षिणमेव च ।

    चरतो: शुशुभे युद्धं नटयोरिव र्डिणो: ॥

    ३५॥

    मण्डलानि--घेरे; विचित्राणि--दक्ष; सव्यम्‌ू--बाईं ओर; दक्षिणम्‌--दाहिनी ओर; एवं च-- भी; चरतो: --गति करने वालों के;शुशुभे-- भव्य लग रहे थे; युद्धम्‌--युद्ध; नटयो:--अभिनेताओं के; इब--सहश; रड्डिणो:--मंच पर।

    जब वे दक्षता से दाएँ तथा बाएँ चक्कर काट रहे थे, जिस तरह कि मंच पर अभिनेता नाचतेहैं, तब यह युद्ध भव्य दृश्य उपस्थित कर रहा था।

    ततश्चवटचटाशब्दो वज्जनिष्पेससन्निभ: ।

    'गदयोः श्षिप्तयो राजन्दन्तयोरिव दन्तिनो: ॥

    ३६॥

    ततः--तब; चट-चटा-शब्द:--चटचटाने की ध्वनि; वज़--बिजली के; निष्पेष--गिरने, टूटने; सन्निभ:--के समान;गदयो:--उनकी गदाओं के; क्षिप्तयो:--घुमाने से; राजन्‌--हे राजन्‌ ( परीक्षित ); दन्‍्तयो:--दाँतों के; इब--मानो; दन्तिनो: --हाथियों के ॥

    हे राजनू, जब जरासन्ध तथा भीमसेन की गदाएँ जोर-जोर से एक दूसरे से टकरातीं, तोउनसे जो ध्वनि निकलती थी, वह दो लड़ते हुए हाथियों के दाँतों की टक्कर के समान या तूफानके समय चमकने वाली बिजली के गिरने के धमाके जैसी थी।

    ते वै गदे भुजजवेन निपात्यमानेअन्योन्यतो$ंसकटिपादकरोरुजत्रुम्‌ ।

    चूर्णीबभूवतुरुपेत्य यथार्कशाखेसंयुध्यतोद्विरदयोरिव दीप्तमन्व्यो: ॥

    ३७॥

    ते--वे; वै--निस्सन्देह; गदे--दोनों गदाएँ; भुज--उनके हाथों की; जबेन--वेग से; निपात्यमाने--बलपूर्वक घुमाई जाने से;अन्योन्यतः--एक-दूसरे के विरुद्ध; अंस--कन्धे; कटि--कमर; पाद--पाँव; कर--हाथ; ऊरू--जाँचें; जत्रुमू--तथा कन्धेकी हड्डियाँ, हँसली; चूर्णी--चूर्ण की हुईं; बभूवतु:--बन गई; उपेत्य--स्पर्श करके; यथा--जिस तरह; अर्क-शाखे--अर्क(मदार ) की दो टहनियाँ; संयुध्यतो:--तेजी से लड़ते हुए; द्विदयो:--हाथियों की जोड़ी के; इब--सहश; दीप्त--बढ़ा हुआ;मन्व्यो:--जिनका क्रोध |

    वे एक-दूसरे पर इतने बल और वेग से अपनी गदाएँ चलाने लगे कि जब ये उनके कंधों,कमर, पाँवों, हाथों, जाँघों तथा हँसलियों पर चोट करतीं, तो वे गदाएँ उसी तरह चूर्ण हो जातीं,जिस तरह कि एक दूसरे पर क्रुद्ध होकर आक्रमण कर रहे दो हाथियों से मदार की टहनियाँ पिस जाती हैं।

    इत्थं तयो: प्रहतयोर्गदयोनुवीरौक्रुद्धौ स्वमुष्टिभिरयःस्परशैरपिष्टाम्‌ ।

    शब्दस्तयो: प्रहरतोरिभयोरिवासीन्‌निर्घातवज्परुषस्तलताडनोत्थ: ॥

    ३८॥

    इत्थम्‌--इस तरह से; तयो: --उन दोनों की; प्रहतयो:--नष्ट हुई; गदयो:--गदाएँ; त्र्‌--मनुष्यों में; बीरौ--दो महान्‌ वीर;क्रुद्धी--क्रुद्ध; स्व--अपनी; मुप्टिभि:--घूँसों से; अयः--लोहे जैसे; स्परशै:ः--स्पर्श से; अपिष्टामू-- चूर-चूर किया; शब्द: --ध्वनि; तयो:--उन दोनों के; प्रहरतो:--प्रहार करते; इभयो:--दो हाथियों के; इब--सह॒श; आसीतू--बन गये; निर्घात--कड़कड़ाहट; वज्ञ--वज़ के समान; परुष:--कठोर; तल--हथेलियों के; ताडन--मारने से; उत्थ:--उठी हुई |

    जब उनकी गदाएँ विनष्ट हो गईं, तो पुरुषों में महान्‌ वे वीर क्रोधपूर्वक अपने लोहे जैसेकठोर घूँसों से एक-दूसरे पर आघात करने लगे।

    जब वे एक-दूसरे पर घूंसे मार रहे थे, तो उससेनिकलने वाली ध्वनि हाथियों के परस्पर लड़ने-भिड़ने या बिजली की कठोर कड़कड़ाहट जैसीलग रही थी।

    तयोरेवं प्रहरतो: समशिक्षाबलौजसो: ।

    निर्विशेषमभूद्युद्धमक्षीणजवयोनूप ॥

    ३९॥

    तयो:--दोनों के; एवम्‌--इस प्रकार; प्रहरतो: --प्रहार करते हुए; सम--समान; शिक्षा--प्रशिक्षण; बल--बल; ओजसो:--तथा उत्साह; निर्विशेषम्‌--अनिश्चित; अभूत्‌-- था; युद्धम्‌-युद्ध; अक्षीण--कम न होने वाला; जबयो:--जिनकी थकान;नृप--हे राजा।

    इस प्रकार उन दोनों के लड़ते हुए समान प्रशिक्षण, बल तथा उत्साह वाले प्रतिद्वन्द्रियों कीयह प्रतियोगिता समाप्त नहीं हो रही थी।

    इस तरह हे राजन, वे बिना किसी ढील के लड़े जा रहे थे।

    शत्रोर्जन्ममृती विद्वाज्जीवितं च जराकृतम्‌ ।

    पार्थमाप्याययन्स्वेन तेजसाचिन्तयद्धरि: ॥

    ४०॥

    शत्रो: --शत्रु का; जन्म--जन्म; मृती--तथा मृत्यु; विद्वानू--जानते हुए; जीवितमू--जीवनदान; च--तथा; जरा--जरा नामकराक्षसी द्वारा; कृतम्‌--किया गया; पार्थम्‌-पृथा-पुत्र भीम को; आप्याययन्‌--शक्ति प्रदान करते हुए; स्वेन--अपनी ही;तेजसा--शक्ति से; अचिन्तयत्‌--सोचा; हरिः-- भगवान्‌ कृष्ण ने।

    भगवान्‌ कृष्ण अपने शत्रु जरासन्ध के जन्म तथा मृत्यु के रहस्य के बारे में जानते थे।

    वे यहभी जानते थे कि किस प्रकार जरा नामक राक्षसी ने उसे जीवनदान दिया।

    यह सब विचार करकेकृष्ण ने भीम को अपनी विशेष शक्ति प्रदान कर दी।

    सश्धिन्त्यारीवधोपायं भीमस्यामोघदर्शन: ।

    दर्शयामास विटपं पाटयत्निव संज्ञया ॥

    ४१॥

    सजञ्ञिन्य--विचार करके; अरि--शत्रु के; वध--मारने के लिए; उपायम्‌--साधनों के विषय में; भीमस्य-- भीम के; अमोघ-दर्शन:--जिनका दर्शन अमोघ है, ऐसे भगवान्‌; दर्शयाम्‌ आस--दिखलाया; विटपम्‌--वृक्ष की एक शाखा; पाटयनू--बीच सेचीरते हुए; इब--सहश; संज्ञया--संकेत के रूप में |

    शत्रु को किस तरह मारा जाय इसका निश्चय करके उन अमोघ-दर्शन भगवान्‌ ने एक वृक्षकी टहनी को बीच से चीर कर भीम को संकेत किया।

    तद्विज्ञाय महासत्त्वो भीम: प्रहरतां वर: ।

    गृहीत्वा पादयो: शत्रुं पातयामास भूतले ॥

    ४२॥

    तत्‌--उसे; विज्ञाय--समझ कर; महा--महान्‌; सत्त्व: --शक्ति वाले; भीम: --भीम ने; प्रहरताम्‌--योद्धाओं में; वर: -- श्रेष्ठठम;गृहीत्वा--पकड़ कर; पादयो:--पाँवों से; शत्रुम्‌--शत्रु को; पातयाम्‌ अस--पटक दिया; भू-तले--भूमि पर

    इस संकेत को समझ कर, योद्धाओं में सर्वश्रेष्ठ उस बलशाली भीम ने अपने प्रतिद्वन्द्दी के पैरपकड़ कर उसे भूमि पर पटक दिया।

    एकम्पादं पदाक्रम्य दोर्भ्यामन्यं प्रगृह्मा सः ।

    गुदतः पाटयामास शाखमिव महागज: ॥

    ४३॥

    एकम्‌--एक; पादम्‌--पैर; पदा--अपने पैर से; आक्रम्य--ऊपर खड़े होकर; दोर्भ्याम्‌--अपने दोनों हाथों से; अन्यम्‌--दूसरा;प्रगृह्वा--पकड़ कर; सः--उसने; गुदत:--गुदा से लेकर; पाटयाम्‌ आस--चीर डाला; शाखाम्‌--वृक्ष की शाखा को; इब--सहश; महा--विशाल; गजः--हाथी |

    भीम ने अपने पाँव से जरासन्ध के एक पाँव को दबा लिया और दूसरे पाँव को अपने हाथोंसे पकड़ लिया।

    फिर जिस तरह कोई विशाल हाथी किसी वृक्ष से एक शाखा तोड़ ले, उसी तरहभीम ने जरासन्ध को गुदा से लेकर ऊपर तक चीर डाला।

    एकपादोरुवृषणकटिपृष्ठस्तनांसके ।

    एकबाहृश्षिभ्रूकर्ण शकले दहशुः प्रजा: ॥

    ४४॥

    एक-एक; पाद--पाँव से; ऊरु-- जाँघ; वृषण-- अण्डकोश; कति--कमर; पृष्ठ--पीठ; स्तन--छाती; अंसके--तथा कंधा;एक-एक; बाहु-- भुजा से; अक्षि-- आँख; भ्रू--भौंह; कर्णे--तथा कान; शकले--दो खंडों में; दहशु:--देखा; प्रजा: --प्रजा ने

    तब राजा की प्रजा ने उसे दो अलग-अलग खण्डों में पड़ा हुआ देखा।

    प्रत्येक खण्ड मेंएक-एक पाँव, जाँघ, अण्डकोश, कमर, कंधा, बाँह, आँख, भौंह, कान तथा आधी पीठ एवंछाती थे।

    हाहाकारो महानासीन्निहते मगधेश्वरे ।

    'पूजयामासतुर्भीमं परिरभ्य जयाच्यतौ ॥

    ४५॥

    हाहा-कारः--शोक की चीख; महान्‌--अत्यधिक; आसीतू--उठी; निहते--मारे जाने पर; मगध-ई श्वर--मगध के राजा के;पूजयाम्‌ आसतु:--दोनों ने सम्मान किया; भीमम्‌-- भीम को; परिरभ्य--आलिंगन करके; जय--अर्जुन; अच्युतौ--तथा कृष्णने

    मगधराज की मृत्यु होते ही हाहाकार होने लगा, जबकि अर्जुन तथा कृष्ण ने भीम काआलिंगन करके उसे बधाई दी।

    सहदेवं तत्तनयं भगवान्भूतभावन: ।

    अभ्यषिज्जञदमेयात्मा मगधानां पतिं प्रभु: ।

    मोचयामास राजन्यान्संरुद्धा मागधेन ये ॥

    ४६॥

    सहदेवम्‌--सहदेव नामक; तत्‌--उसके ( जरासन्ध का ); तनयम्‌--पुत्र को; भगवान्‌ू--भगवान्‌; भूत--सारे जीवों के;भावन:--पालनकर्ता; अभ्यषिज्ञत्‌-- अभिषेक कर दिया; अमेय-आत्मा--अपरिमेय; मगधानाम्‌--मगधवासियों के; पतिम्‌--स्वामी के रूप में; प्रभुः--प्रभु ने; मोचयाम्‌ आस--छोड़ दिया; राजन्यान्‌ू--राजाओं को; संरुद्धा:--बन्दी बनाये गये;मागधेन--जरासन्ध द्वारा; ये--जो |

    समस्त जीवों के पालनकर्ता तथा हितकारी अपरिमेय भगवान्‌ ने जरासन्ध के पुत्र सहदेव काअभिषेक मगधवासियों के नवीन राजा के रूप में कर दिया।

    तब भगवान्‌ ने उन समस्त राजाओंको मुक्त किया, जिन्हें जरासन्ध ने बन्दी बना रखा था।

    TO

    अध्याय तिहत्तरवाँ: भगवान कृष्ण मुक्त राजाओं को आशीर्वाद देते हैं

    10.73श्रीशुक उबाच अयुते द्वे शतान्यष्टी निरुद्धा युधि निर्जिता: ।

    ते निर्गता गिरिद्रोण्यां मलिना मलवासस: ॥

    १॥

    क्षुक्षामा: शुष्कवदना: संरोधपरिकर्शिता: ।

    दहशुस्ते घनश्यामं पीतकौशेयवाससम्‌ ॥

    २॥

    श्रीवत्साडुं चतुर्बाहुं पद्मगर्भारुणे क्षणम्‌ ।

    चारुप्रसन्नवदनं स्फुरन्मकरकुण्डलम्‌ ॥

    ३॥

    पद्दाहस्तं गदाशड्डु रथाड्रैरुपलक्षितम्‌ ।

    किरीटहारकटककटिसूत्राडुदाश्चितम्‌ ॥

    ४॥

    भ्राजद्दरमणिग्रीवं निवीतं वनमालया ।

    पिबन्त इव चन्षुर्भ्या लिहन्त इव जिह्या ॥

    ५॥

    जिप्रन्त इव नासाभ्यां रम्भन्त इव बाहुभि: ।

    प्रणेमुहतपाप्मानो मूर्थभि: पादयोहरे: ॥

    ६॥

    श्री-शुक: उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; अयुते--दस हजार; द्वे--दो; शतानि--सौ; अष्टौ--आठ; निरुद्धा:--बन्दीबनाये गये; युधि--युद्ध में; निर्जिता:--पराजित; ते--वे; निर्गता:--बाहर आये ; गिरिद्रोण्यामू--जरासन्ध की राजधानीगिरिद्रोणी के किले से; मलिना:--गन्दे; मल--मलिन; वासस: --जिनके वस्त्र; क्षुत्‌ू-- भूख से; क्षामा:--दुर्बल; शुष्क --सूखे;बदना:--मुख; संरोध--बन्धन से; परिकर्शिता: -- अत्यधिक क्षीण; ददशु:--देखा; ते--उन्होंने; घन--बादल की तरह;श्यामम्‌--गहरा नीला; पीत--पीला; कौशेय--रेशम का; वाससम्‌--वस्त्र वाले; श्रीवत्स-- श्रीवत्स नामक चिह्न द्वारा;अड्डम्‌ू--चिन्हित; चतु:--चार; बाहुमू-- भुजाओं वाले; पद्म--कमल के; गर्भ--कोश जैसा; अरुण--गुलाबी; ईक्षणम्‌--आँखें; चारु--मनोहर; प्रसन्न--तथा प्रसन्न; वदनम्‌ू--मुख; स्फुरतू--चमकते; मकर--मगर की आकृति के; कुण्डलमू--कुण्डलों को; पदा--कमल; हस्तम्‌-हाथ में; गदा--गदा; शद्भु--शंख; रथ-अच्डभैः--तथा चक्र से; उपलक्षितम्‌-पहचानेगये; किरीट--मुकुट; हार--रलजटित गले की माला; कटक--सोने के कड़े; कटि-सूत्र--करधनी; अड्भद--तथा बाजूबन्द;अज्धितम्‌--सुसज्जित; भ्राजत्‌--चमकीले; वर--सुन्दर; मणि--कौस्तुभ-मणि; ग्रीवम्‌-गर्दन में; निवीतम्‌--लटकते; वन--जंगली फूलों की; मालया--माला से; पिबन्त: --पीते हुए; इब--मानो; चश्षु्भ्याम्‌--अपनी आँखों से; लिहन्तः--चाटते हुए;इब--मानो; जिहया-- अपनी जीभों से; जिप्रन्त:ः--सूँघते हुए; इब--मानो; नासाभ्याम्‌-- अपने नथुनों से; रम्भन्त:--आलिंगनकरते हुए; इब--मानो; बाहुभि: --अपनी भुजाओं से; प्रणेमु;--झुक कर प्रणाम किया; हत--नष्ट; पाप्मान: --पाप समूह;मूर्थभि: --अपने सिरों से; पादयो:--चरणों पर; हरेः--भगवान्‌ कृष्ण के

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जरासन्ध ने २०,८०० राजाओं को युद्ध में पराजित करके उन्हेंबन्दीखाने में डाल दिया था।

    जब ये राजा गिरिद्रोणी किले से बाहर आये, तो वे मलिन लग रहेथे और मैले वस्त्र पहने हुए थे।

    वे भूख के मारे दुबले हो गए थे, उनके चेहरे सूख गये थे औरदीर्घकाल तक बन्‍्दी रहने से अत्यधिक कमजोर हो गये थे।

    तब राजाओं ने भगवान्‌ को अपने समक्ष देखा।

    उनका रंग बादल के समान गहरा नीला थाऔर वे पीले रेशम का वस्त्र पहने थे।

    वे अपने वक्षस्थल पर श्रीवत्स चिन्ह, अपने चार विशालभुजाओं, कमल के कोश जैसी गुलाबी रंग की आँखों, अपने सुन्दर हँसमुख चेहरे, अपनेचमकते मकर कुण्डलों तथा हाथों में कमल, गदा, शंख तथा चक्र धारण करने से पहचाने जातेथे।

    उनके शरीर में मुकुट, रलजटित गले की माला, सुनहरी करधनी, सुनहले कड़े तथाबाजूबन्द सुशोभित थे और वे अपने गले में चमकीली, मूल्यवान कौस्तुभ मणि तथा जंगली'फूलों की माला पहने थे।

    सारे राजा मानो अपनी आँखों से उनके सौन्दर्य का पान कर रहे थे,अपनी जीभों से उन्हें चाट रहे थे, अपने नथुनों से उनकी सुगन्धि का आस्वादन कर रहे थे औरअपनी भुजाओं से उनका आलिंगन कर रहे थे।

    अब उनके विगत पापों का उन्मूलन हो चुका था।

    राजाओं ने भगवान्‌ हरि के चरणों पर अपने अपने शीश रख कर उन्हें प्रणाम किया।

    कृष्णसन्दर्शनाह्लाद ध्वस्तसंरोधनक्लमा: ।

    प्रशशंसुईषीकेशं गीर्मि: प्राज्ललयो नृपा: ॥

    ७॥

    कृष्ण-सन्दर्शन-- भगवान्‌ कृष्ण के दर्शन से; आह्वाद-प्रसन्नता; ध्वस्त--उन्मूलित; संरोधन--बन्दी होने के; क्लमा:-- थकान;प्रशशंसु:-- प्रशंसा की; हषीका-ईशम्‌--इन्द्रियों के परम स्वामी को; गीर्भि:--अपने शब्दों में; प्राज्ललय:--हाथ जोड़े; नृपा: --राजागण

    भगवान्‌ कृष्ण को देखने के आनन्द से उनके बन्दी होने की थकावट दूर हो जाने पर सारेराजा हाथ जोड़ कर खड़े हो गये और उन्होंने हषीकेश की प्रशंसा की।

    राजान ऊचु:नमस्ते देवदेवेश प्रपन्नार्तिहराव्यय ।

    प्रपन्नान्पाहि न: कृष्ण निर्विण्णान्घोरसंसृते: ॥

    ८ ॥

    राजान: ऊचुः--राजाओं ने कहा; नमः--नमस्कार; ते--आपको; देव--देवताओं के; देव--स्वामियों के; ईश--हे परमेश्वर;प्रपन्न--शरणागतों के; आर्ति--क्लेश के; हर--हे हरने वाले; अव्यय--हे अव्यय; प्रपन्नान्‌ू--शरणागत; पाहि--बचाइये;नः--हमको; कृष्ण--हे कृष्ण; निर्विण्णानू--निराशों को; घोर-- भीषण; संसूते: --संसार से |

    राजाओं ने कहा : हे शासनकर्ता देवताओं के स्वामी, हे शरणागत भक्तों के क्लेश को नष्टकरने वाले, हम आपको नमस्कार करते हैं।

    चूँकि हमने आपकी शरण ग्रहण की है, अतः हेअव्यय कृष्ण, हमें इस विकट भौतिक जीवन से बचाइये, जिसने हमें इतना निराश बना दिया है।

    नैन॑ नाथानुसूयामो मागधं मधुसूदन ।

    अनुग्रहो यद्धवतो राज्ञां राज्यच्युतिर्विभो ॥

    ९॥

    न--नहीं; एनमू--यह; नाथ--हे स्वामी; अनुसूयाम:--दोष निकालते हैं; मागधम्‌--मगध के राजा को; मधुसूदन--हे कृष्ण;अनुग्रह:--कृपा; यत्‌-- चूँकि; भवत:-- आपका; राज्ञामू--राजाओं के; राज्य--राज्य से; च्युतिः--पतन; विभो--हेसर्वशक्तिमान।

    हे प्रभु मधुसूदन, हम इस मगधराज को दोष नहीं देते क्योंकि वास्तव में यह तो आपकीकृपा है कि हे विभु, सारे राजा अपने राज-पद से नीचे गिरते हैं।

    राज्यैश्वर्यमदोन्नद्धो न श्रेयो विन्दते नृपः ।

    त्वन्मायामोहितोनित्या मन्यते सम्पदोड्चला: ॥

    १०॥

    राज्य--राज्य; ऐश्वर्य--तथा ऐश्वर्य से; मद--नशे से; उन्नद्ध:--वश में न आकर; न--नहीं; श्रेयः:--असली लाभ; विन्दते--प्राप्त करते हैं; नृप:--राजा; त्वत्‌--आपकी; माया--मायाशक्ति से; मोहित:--मोहित; अनित्या: -- क्षणिक; मन्यते--सोचताहै; सम्पदः--सम्पत्ति; अचला: --स्थायी |

    अपने ऐश्वर्य तथा शासनशक्ति के मद से चूर राजा आत्मसंयम खो देता है और अपनाअसली कल्याण प्राप्त नहीं कर सकता।

    इस तरह आपकी मायाशक्ति से मोहग्रस्त होकर वहअपनी क्षणिक सम्पदा को स्थायी मान बैठता है।

    मृगतृष्णां यथा बाला मन्यन्त उदकाशयम्‌ ।

    एवं वैकारिकीं मायामयुक्ता वस्तु चक्षते ॥

    ११॥

    मृग-तृष्णाम्‌--मृगतृष्णा; यथा--जिस तरह; बाला: --बच्चों जैसी बुद्धि वाले व्यक्ति; मन्यन्ते--विचार करते हैं; उदक--जलके; आशयम्‌--आगार को; एवम्‌--उसी तरह; वैकारिकीम्‌--विकारों के अधीन; मायाम्‌--माया को; अयुक्ता:--विवेकहीन;वस्तु--चीज जैसा; चक्षते--दिखता है

    जिस तरह बालबुद्धि वाले लोग मरूस्थल में मृगतृष्णा को जलाशय मान लेते हैं, उसी तरहजो अविवेकी हैं, वे माया के विकारों को वास्तविक मान लेते हैं।

    वबयं पुरा श्रीमदनष्टदृष्टयोजिगीषयास्या इतरेतरस्पृध: ।

    घ्नन्तः प्रजा: सवा अतिनिर्ध॒णा: प्रभोमृत्युं पुरस्त्वाविगणय्य दुर्मदा: ॥

    १२॥

    त एव कृष्णाद्य गभीररंहसादुरन्तेवी्येण विचालिता: थ्रिय: ।

    कालेन तन्वा भवतोनुकम्पयाविनष्टदर्पा श्ररणौ स्मराम ते ॥

    १३॥

    वयमू्‌--हम; पुरा--इसके पूर्व; श्री--ऐश्वर्य के; मद--नशे से; नष्ट--विनष्ट; दृष्टय:ः--जिसकी दृष्टि; जिगीषया--जीतने कीइच्छा से; अस्या:--इस ( पृथ्वी ); इतर-इतर--एक-दूसरे से; स्पृध:--लड़ते-झगड़ते; घ्नन्त:-- आक्रमण करते; प्रजा:--नागरिक; स्वा:--अपना, निजी; अति--अत्यधिक; निर्घणा: --क्रूर; प्रभो--हे प्रभु; मृत्युम्‌ू--मृत्यु को; पुर:--समक्ष; त्वा--आपको; अविगणय्य--परवाह न करके; दुर्मदा:--उद्धत; ते--वे ( हमीं ); एब--निस्सन्देह; कृष्ण --हे कृष्ण; अद्य--अब;गभीर--रहस्यमय; रंहसा--गतिशीलता; दुरन्त--दुर्दम; वीर्येण--बल से; विचालिता:--चले जाने के लिए बाध्य हुए;भ्रियः--हमारे ऐश्वर्य से; कालेन--समय से; तन्वा--आपका साकार रूप; भवतः--आपकी; अनुकम्पया--कृपा से; विनष्ट--विनष्ट; दर्पा:--जिनके गर्व; चरणौ--दो पाँवों को; स्मराम--स्मरण करें; ते--तुम्हारे |

    इसके पूर्व धन के मद से अन्धे होकर हमने इस पृथ्वी को जीतना चाहा था और इस तरह हमअपनी ही प्रजा को क्रूरतापूर्वक यातना देते हुए विजय पाने के लिए एक-दूसरे से लड़ते रहे।

    हेप्रभु, हमने दम्भ में आकर अपने समक्ष मृत्यु रूप में उपस्थित आपका अनादर किया।

    किन्तु हेकृष्ण, अब आपका वह शक्तिशाली स्वरूप जो काल कहलाता है और रहस्यमय ढंग से तथादुर्दम रूप में गतिशील है उसने हमसे हमारे ऐश्वर्य छीन लिये हैं।

    चूँकि अब आपने दया करकेहमारे गर्व को नष्ट कर दिया है, अतएवं हमारी आपसे याचना है कि हम केवल आपकेचरणकमलों का स्मरण करते रहें।

    अथो न राज्यम्मृगतृष्णिरूपितंदेहेन शश्वत्पतता रुजां भुवा ।

    उपासितव्यं स्पृहयामहे विभोक्रियाफल प्रेत्य च कर्णरोचनम्‌ ॥

    १४॥

    अथ उ--इसके आगे; न--नहीं; राज्यम्‌--राज्य; मृग-तृष्णि--मृगतृष्णा की तरह; रूपितम्‌ू--प्रकट होने वाला; देहेन-- भौतिकशरीर से; शश्वत्‌--निरन्तर; पतता--मर्त्य; रुजाम्‌--रोगों के; भुवा--जन्मस्थान; उपासितव्यम्‌--सेवा किये जाने के लिए;स्पृहयामहे-- हम लालायित रहते हैं; विभो--हे सर्वशक्तिमान; क्रिया--पुण्यकार्य का; फलमू--फल; प्रेत्य--अगले जन्म मेंजाकर; च--तथा; कर्ण--कानों के लिए; रोचनम्‌--लोभ

    अब हम कभी भी मृगतृष्णा तुल्य ऐसे राज्य के लिए लालायित नहीं होंगे जो इस मर्त्य शरीरद्वारा सेवित हो वह शरीर जो रोग तथा कष्ट का कारण हो और प्रत्येक क्षण क्षीण होने वाला हो।

    हे विभु, न ही हम अगले जन्म में पुण्यकर्म के दिव्य फल भोगने की लालसा रखेंगे, क्योंकि ऐसे'फलों का वायदा कानों के लिए रिक्त बहलावे के समान है।

    त॑ नः समादिशोपायं येन ते चरणाब्जयो: ।

    स्मृतिर्यथा न विरमेदपि संसरतामिह ॥

    १५॥

    तम्‌--उसको; न:--हमको; समादिश--कृपया आदेश दें; उपायम्‌--उपाय; येन--जिससे; ते--तुम्हारे; चरण--चरणों के;अब्जयो:--कमल सहश; स्मृतिः--याद; यथा--जिस तरह; न विरमेत्‌--रुके नहीं; अपि-- भी; संसरताम्‌ू--जन्म-मृत्यु के चक्रमें घूम रहे हैं, जो, उनके लिए; इह--इस संसार में

    कृपया हमें बतलाएँ कि हम किस तरह आपके चरणकमलों का निरन्तर स्मरण कर सकें,यद्यपि हम इस संसार में जन्म-मृत्यु के चक्र में घूम रहे हैं।

    कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने ।

    प्रणतक्लेशनाशाय गोविन्दाय नमो नमः ॥

    १६॥

    कृष्णाय--कृष्ण के प्रति; वासुदेवाय--वसुदेव के पुत्र के प्रति; हरये-- भगवान्‌ हरि के प्रति; परम-आत्मने--परमात्मा;'प्रणत--शरणागत; क्लेश--कष्ट के; नाशाय--नष्ट करने वाले के प्रति; गोविन्दाय--गोविन्द के प्रति; नमः नमः --बारम्बारनमस्कार।

    हम वसुदेव के पुत्र भगवान्‌ कृष्ण अर्थात्‌ हरि को बारम्बार नमस्कार करते हैं।

    वह परमात्मागोविन्द उन सबों के कष्टों को दूर कर देता है, जो उनकी शरण में जाते हैं।

    श्रीशुक उबाचसंस्तूयमानो भगवात्राजभिर्मुक्तबन्धने: ।

    तानाह करुणस्तात शरण्य: एलक्ष्णया गिरा ॥

    १७॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; संस्तूयमाण:--अत्यन्त प्रशंसा किये जा रहे; भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; राजभि: --राजाओं द्वारा; मुक्त--मुक्त किये गये; बन्धनै:--बन्धन से; तानू--उनसे; आह--कहा; करुण: --दयालु; तात--हे प्रिय ( राजापरीक्षित ); शरण्य: --शरण देने वाले; शलक्ष्णया--मधुर; गिरा--वाणी से

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस तरह बन्धन से मुक्त हुए राजाओं ने भगवान्‌ की खूब प्रशंसाकी।

    तब हे परीक्षित, दयालु शरणदाता ने मधुर वाणी में उनसे कहा।

    श्रीभगवानुवाचअद्य प्रभृति वो भूषा मय्यात्मन्यखिले श्वरे ।

    सुद्दढा जायते भक्तिबाढ्माशंसितं तथा ॥

    १८॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; अद्य प्रभूति--आज से; व: --तुम्हारा; भू-पा:--हे राजाओ; मयि--मुझमें; आत्मनि--आत्मा में; अखिल--समस्त; ई श्वरे--नियन्ता में; सु--अत्यन्त; दृढा--स्थिर; जायते--उत्पन्न होगी; भक्ति: -- भक्ति; बाढम्‌--निश्चित रूप से; आशंसितम्‌--अभीष्ट; तथा--उसी तरह।

    भगवान्‌ ने कहा : हे राजाओ, आज से तुम लोगों को मुझ परमात्मा तथा ईश्वर में ढ़ भक्ति प्राप्त होगी।

    मैं विश्वास दिलाता हूँ कि तुम जैसे चाहोगे वैसे ही यह भक्ति चलती रहेगी।

    दिष्टदय्या व्यवसितं भूपा भवन्त ऋतभाषिण: ।

    श्रीयैश्वर्यमदोन्नाहं पश्य उन्मादकं नृणाम्‌ ॥

    १९॥

    दिछ्या--भाग्यवान; व्यवसितम्‌--संकल्प; भूपा: --हे राजाओ; भवन्त:--आप लोग; ऋत--सच सच; भाषिण:--बोलनेवाले; श्री--सम्पत्ति; ऐश्वर्य--तथा शक्ति के; मद--नशे में; उन्नाहमू--संयम का अभाव; पश्ये--देखता हूँ; उन्‍्मादकम्‌--मतवाला बनाते हुए; नृणाम्‌--मनुष्यों के लिए।

    हे राजाओ, सौभाग्यवश तुम लोगों ने सही निर्णय किया है और जो कुछ कहा है, वह सचहै।

    मैं देख रहा हूँ कि मनुष्यों में आत्मसंयम के अभाव से जो कि ऐश्वर्य तथा शक्ति के मद केकारण उत्पन्न होता है, मादकता ही आती है।

    हैहयो नहुषो वेणो रावणो नरकोपरे ।

    श्रीमदादभ्रंशिताः स्थानाहेवदैत्यनरेश्वरा: ॥

    २०॥

    हैहयः नहुष: वेण:--हैहय ( कार्तवीर्य ), नहुष तथा वेण; रावण: नरक:--रावण तथा नरक; अपरे--तथा अन्य; श्री--ऐश्वर्य केकारण; मदात्‌--अपने नशे के कारण; भ्रंशिता:--नीचे गिराये गये; स्थानात्‌ू--अपने पदों से; देव--देवताओं के; दैत्य--असुरों के; नर--मनुष्यों के; ईश्वराः:--शासकगण।

    हैहय, नहुष, वेण, रावण, नरक तथा देवताओं, पुरुषों और असुरों के अन्य अनेक शासकअपने अपने ऊँचे पदों से इसीलिए नीचे गिरे, क्योंकि वे भौतिक ऐश्वर्य से मदोन्मत्त हो उठे थे।

    भवन्त एतद्विज्ञाय देहाद्ुत्पाद्यमन्तवत्‌ ॥

    मां यजन्तोध्वरैर्युक्ता: प्रजा धर्मेण रक्ष्यथ ॥

    २१॥

    भवन्त:--आप लोग; एतत्‌--यह; विज्ञाय--जान कर; देह-आदि-- भौतिक शरीर तथा अन्य बातें; उत्पाद्यमू--जन्म के अधीन;अन्त-वत्‌--अन्त होने वाला; मामू--मुझको; यजन्तः -- पूजा करते हुए; अध्वरैः:--वैदिक यज्ञों के द्वारा; युक्ता:--विमल बुद्धिसे युक्त; प्रजा:--अपनी प्रजा की; धर्मेण-- धार्मिक सिद्धान्तों के अनुसार; रक्ष्यथ--रक्षा करनी चाहिए

    यह समझते हुए कि यह भौतिक शरीर तथा इससे सम्बद्ध हर वस्तु का आदि तथा अन्त है,वैदिक यज्ञों के द्वारा मेरी पूजा करो और धर्म के सिद्धान्तों के अनुसार विमल बुद्धि से अपनीप्रजा की रक्षा करो।

    सन्तन्वन्तः प्रजातन्तून्सुखं दुःखं भवाभवौ ।

    प्राप्तं प्राप्त च सेवन्तो मच्चित्ता विचरिष्यथ ॥

    २२॥

    सन्तन्वन्तः--उत्पन्न करते हुए; प्रजा--सन्तान के; तन्तूनू--रेशे ( पीढ़ियाँ ); सुखम्‌--सुख; दुःखम्‌--दुख; भव--जन्म;अभवौ--तथा मृत्यु; प्राप्तम्‌ प्राप्तम्‌--ज्यों ज्यों सामना पड़े; च--तथा; सेवन्त:--स्वीकार करते हुए; मत्‌-चित्ता: --मुझ परअपने मन को स्थिर करके; विचरिष्यथ--इधर-उधर विचरण करना चाहिए

    सन्‍तान की पीढ़ियों की पीढ़ियाँ उत्पन्न करते तथा सुख-दुख, जन्म एवं मृत्यु का सामनाकरते तुम लोग जीवन बिताते समय सदैव अपने मनों को मुझ पर स्थिर रखना।

    उदासीनाश्च देहादावात्मारामा धृतब्रता: ।

    मय्यावेश्य मनः सम्यड्मामन्ते ब्रह्म यास्यथ ॥

    २३॥

    उदासीना: --अन्यमनस्क; च--तथा; देह-आदौ--शरीर इत्यादि के प्रति; आत्म-आरामा:--आत्मतुष्ट; धृत--हढ़ता से पकड़ेहुए; ब्रता:--अपने ब्रतों को; मयि--मुझ में; आवेश्य--एकाग्र करके; मन:--मन को; सम्यक्‌--पूर्णरूपेण; मामू--मुझको;अन्ते--अन्त में; ब्रह्य-- परम सत्य; यास्यथ--प्राप्त करोगे |

    शरीर तथा उससे सम्बद्ध हर वस्तु से विरक्त हो जाओ।

    आत्मतुष्ट रह कर अपने मन कोमुझमें एकाग्र करते हुए अपने ब्रतों का हढ़ता से पालन करो।

    इस तरह तुम लोग अन्त में मुझपरम सत्य को प्राप्त कर सकोगे।

    श्रीशुक उबाचइत्यादिश्य नृपान्कृष्णो भगवान्भुवने श्वर: ।

    तेषां न्ययुड्डः पुरुषान्स्त्रियो मज्जनकर्मणि ॥

    २४॥

    श्री-शुक: उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; आदिश्य--आदेश देकर; नृपान्‌--राजाओं को; कृष्ण: --कृष्ण; भगवान्‌-- भगवान्‌; भुवन--सारे लोकों के; ईश्वर: --स्वामी; तेषाम्‌--उनके; न्ययुद्ध --लगाया; पुरुषानू--सेवकों ;स्त्रियः--तथा स्त्रियों को; मजन--धोने के; कर्मणि--काम में।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस प्रकार राजाओं को आदेश देकर समस्त लोकों के परमस्वामी भगवान्‌ कृष्ण ने समस्त सेवकों तथा सेविकाओं को उन्हें स्नान कराने तथा सँवारने केकाम में लगा दिया।

    सपर्या कारयामास सहदेवेन भारत ।

    नरदेवोचितैर्वस्त्रैभूषणै: सत्रग्विलेपनै: ॥

    २५॥

    सपर्यामू--सेवा; कारयाम्‌ आस--करवाई; सहदेवेन--जरासन्ध के पुत्र सहदेव से; भारत--हे भरतवंशी; नर-देव--राजागण;उचितैः--अनुकूल; वस्त्रैः--वस्त्रों से; भूषणैः:--गहनों से; स्रकु--फूल-मालाओं से; विलेपनै:--तथा चन्दन-लेप से ।

    हे भारत, तब भगवान्‌ ने राजा सहदेव से वस्त्र, आभूषण, मालाएँ तथा चन्दन-लेप आदिराजोचित भेंटें दिलाकर उन राजाओं का सम्मान कराया।

    भोजयित्वा वरान्नेन सुस्नातान्समलड्डू तान्‌ ।

    भोगैश्व विविधैर्युक्तांस्ताम्बूलाबनपोचितै: ॥

    २६॥

    भोजयित्वा-- भोजन कराकर; वर--उत्तम; अन्नेन-- भोजन से; सु--उचित ढंग से; स्नातानू--नहलाये; समलहड्डू तानू--सुसज्जित; भोगैः--भोग की सामग्रियों से; च--तथा; विविधै:--विविध; युक्तान्‌-- प्रदत्त; ताम्बूल--पान; आद्यि:--इत्यादि;नृप--राजाओं के लिए; उचितैः--उचित |

    जब वे सब भलीभाँति नहा चुके और सज-धज गये तो भगवान्‌ कृष्ण ने उनके लिए उत्तमभोजन की व्यवस्था कराईं।

    उन्होंने उन सबों को राजोचित वस्तुएँ यथा पान इत्यादि वस्तुएँ भीभेंट कीं।

    ते पूजिता मुकुन्देन राजानो मृष्ठकुण्डला: ।

    विरेजुर्मोचिता: क्लेशात्प्रावृडन्ते यथा ग्रहा: ॥

    २७॥

    ते--वे; पूजिता: --सम्मानित; मुकुन्देन--कृष्ण द्वारा; राजान:--राजागण; मृष्ट--चमकते; कुण्डला:--कुण्डलों वाले;विरेजु:--भव्य लगते थे; मोचिता:--छुड़ाये गये; क्लेशात्‌--कष्ट से; प्रावृट्‌ू--वर्षा ऋतु के; अन्ते--अन्त में; यथा--जिसतरह; ग्रहाः--लोक ( यथा चन्द्रमा )

    भगवान्‌ मुकुन्द द्वारा सम्मानित किये गये एवं कष्ट से मुक्त हुए राजागण अपने कानों केचमकते कुण्डलों सहित वैसे ही शोभायमान हुए जिस तरह वर्षा ऋतु की समाप्ति पर आकाश मेंचन्द्रमा तथा अन्य ग्रह खूब चमकने लगते हैं।

    रथान्सदश्चानारोप्य मणिकाञझ्जनभूषितान्‌ ।

    प्रीणय्य सुनृतैर्वाक्यै: स्वदेशान्प्रत्ययापयत्‌ ॥

    २८॥

    रथान्‌--रथों पर; सत्‌ू--उत्तम; अश्वान्‌ू--घोड़ों सहित; आरोप्य--चढ़ाकर; मणि--रतल; काझ्लन--तथा सोना; भूषितान्‌ू--सुसज्जित; प्रीणय्य--तुष्ट करके ; सुनृतैः--मधुर; वाक्यै: --शब्दों से; स्व--अपने अपने; देशान्‌--राज्यों को; प्रत्ययापयत्‌--वापस भेज दिया।

    तत्पश्चात्‌ भगवान्‌ ने उन राजाओं को सुन्दर घोड़ों से खींचे जाने वाले तथा रत्नों एवं स्वर्ण सेसुसज्जित रथों पर चढ़वाकर और मधुर शब्दों से प्रसन्न करके उन्हें उनके राज्यों में वापस भिजवादिया।

    त एवं मोचिता: कृच्छात्कृष्णेन सुमहात्मना ।

    ययुस्तमेव ध्यायन्तः कृतानि च जगत्पते: ॥

    २९॥

    ते--वे; एवम्‌--इस प्रकार; मोचिता:--मुक्त हुए; कृच्छात्‌--मुश्किल से; कृष्णेन--कृष्ण द्वारा; सु-महा-आत्मना--महापुरुष;ययु:--चले गये; तम्‌--उनको; एब--एकमात्र; ध्यायन्त:-- ध्यान करते; कृतानि--कार्यो को; च--तथा; जगत्‌-पते: --ब्रह्माण्ड के स्वामी के |

    इस तरह पुरुषों में महानतम कृष्ण द्वारा सारे कष्टों से मुक्त किये गये राजागण विदा हुए औरजब वे जा रहे थे, तो वे एकमात्र उन ब्रह्माण्ड के स्वामी तथा उनके अदभुत कृत्यों के विषय मेंही सोच रहे थे।

    जगदुः प्रकृतिभ्यस्ते महापुरुषचेष्टितम्‌ ।

    यथान्वशासद्धगवांस्तथा अक्रुरतन्द्रिताः ॥

    ३०॥

    जगदुः--बतलाया; प्रकृतिभ्य:--अपने मंत्रियों तथा अन्य संगियों से; ते--उन ( राजाओं ने ); महा-पुरुष--परम पुरुष के;चेष्टितम्‌--कार्यकलापों को; यथा--जिस तरह; अन्वशासत्‌--आदेश दिया; भगवान्‌--भगवान्‌ ने; तथा--उसी तरह; चक्र: --उन्होंने किया; अतन्द्रिता:--बिना किसी ढिलाई के

    राजाओं ने जाकर अपने मंत्रियों तथा अन्य संगियों से वे सारी बातें बतलाईं जो भगवान्‌ नेकी थीं और तब उन्होंने जो जो आदेश दिये थे, उनका कर्मठता के साथ पालन किया।

    जरासन्धं घातयित्वा भीमसेनेन केशवः ।

    पार्थाभ्यां संयुतः प्रायात्सहदेवेन पूजित: ॥

    ३१॥

    जरासन्धम्‌--जरासन्ध को; घातयित्वा--वध करवाकर; भीमसेनेन--भीमसेन द्वारा; केशव: --कृष्ण; पार्थाभ्यमू--पृथा केदोनों पुत्रों ( भीम तथा अर्जुन ) के; संयुत:--साथ साथ; प्रायात्‌ू-विदा हुए; सहदेवेन--सहदेव द्वारा; पूजित:--पूजा कियेजाकर।

    भीमसेन द्वारा जरासन्ध का वध करवाकर, भगवान्‌ कृष्ण ने राजा सहदेव की पूजा स्वीकारकी और तब पृथा के दोनों पुत्रों के साथ विदा हुए।

    गत्वा ते खाण्डवप्रस्थं शद्झान्दध्मुर्जितारयः ।

    हर्षयन्तः स्वसुहृदो दुईदां चासुखावहा: ॥

    ३२॥

    गत्वा--जाकर; ते--उन्होंने; खाण्डव-प्रस्थम्‌--इन्द्रप्रस्थ में; शट्जन्‌-- अपने अपने शंख; दशध्मु:--बजाये; जित--जीत कर;अरयः--शत्रु को; हर्षयन्त:--हर्षित करते; स्व--अपने; सुहृदः --शुभचिन्तकों; दुईदाम्‌--तथा शत्रुओं को; च--तथा;असुख--अप्रसन्नता; आवहा:--लाते हुए

    जब वे इन्द्रप्रस्थ आ गये तो विजयी वबीरों ने अपने शंख बजाये, जिससे उनके शुभचिन्तकमित्रों को तो हर्ष हुआ, किन्तु उनके शत्रुओं को संताप पहुँचा।

    तच्छत्वा प्रीतमनस इन्द्रप्रस्थनिवासिनः ।

    मेनिरे मागधं शान्तं राजा चाप्तमनोरथ: ॥

    ३३॥

    तत्‌--वह; श्रुत्वा--सुन कर; प्रीत--प्रसन्न; मनस:--मन में; इन्द्रप्रस्थ-निवासिन:--इन्द्रप्रस्थ के वासी; मेनिरि--समझ गये;मागधम्‌--जरासन्ध को; शान्तम्‌-- अन्त कर दिया; राजा--राजा ( युधिष्ठिर )।

    च--तथा; आप्त--प्राप्त किया; मन:-रथ:ः --इच्छाएँउस ध्वनि को सुन कर इन्द्रप्रस्थ के निवासी अत्यन्त प्रसन्न हुए, क्योंकि वे समझ गये किमगध के राजा का अब अन्त कर दिया गया है।

    राजा युधिष्ठिर ने अनुभव किया कि अब उनकेमनोरथ पूरे हो गये।

    अभिवन्द्याथ राजानं भीमार्जुनजनार्दना: ।

    सर्वमाश्रावयां चक्रुरात्मना यदनुष्ठितम्‌ ॥

    ३४॥

    अभिवन्द्य--नमस्कार करके; अथ--तब; राजानम्‌--राजा को; भीम-अर्जुन-जनार्दना:-- भीम, अर्जुन तथा कृष्ण; सर्वम्‌ू--सारी बातें; आश्रावयाम्‌ चक्कु:--बतलाई; आत्मना--स्वयमेव; यत्‌--जो; अनुष्ठटितम्‌--सम्पन्न हुईं |

    भीम, अर्जुन तथा जनार्दन ने राजा को प्रणाम किया और जो कुछ उन्होंने किया था, वहसब उनसे कह सुनाया।

    निशम्य धर्मराजस्तत्केशवेनानुकम्पितम्‌ ।

    आनन्दाश्रुकलां मुझन्प्रेमणा नोवाच किज्न ॥

    ३५॥

    निशम्य--सुन कर; धर्म-राज:--धर्म के राजा, युधिष्टिर ने; तत्‌ू--वह; केशवेन--कृष्ण द्वारा; अनुकम्पितम्‌-- अनुकम्पा, कृपा;आनन्द--आनन्द के; अश्रु-कलाम्‌--अश्रु; मुझ्नन्‌--गिराते हुए; प्रेम्णा--प्रेमवश; न उबाच--नहीं कहा; किज्लन--कुछ भी

    भगवान्‌ कृष्ण ने उन पर जो महती कृपा की थी उसका विवरण सुन कर धर्मराज नेभावातिरेक के अश्रु बहाये।

    उन्हें इतने प्रेम का अनुभव हुआ कि वे कुछ भी नहीं कह पाये।

    TO

    अध्याय चौहत्तर: राजसूय यज्ञ में शिशुपाल की मुक्ति

    10.74श्रीशुक उबाचएवं युथ्चिष्ठिरो राजा जरासन्धवर्धं विभो: ।

    कृष्णस्य चानुभाव॑ त॑ श्रुत्वा प्रीतस्तमब्रवीत्‌ ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; युधिष्ठिर:--युधिष्ठटिर; राजा--राजा; जरासन्ध-वधम्‌--जरासन्ध का वध; विभो: --सर्वशक्तिमान का; कृष्णस्य--कृष्ण का; च--तथा; अनुभावम्‌--बल ( का प्रदर्शन ); तमू--उसको; श्रुत्वा--सुनकर; प्रीत:--प्रसन्न; तम्‌--उनसे; अब्नवीत्‌--बोले |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस प्रकार जरासन्ध वध तथा सर्वशक्तिमान कृष्ण की अद्भुतशक्ति के विषय में भी सुनकर राजा युशथ्रिष्ठिर ने अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक भगवान्‌ से इस प्रकारकहा।

    श्रीयुधिष्ठटिर उवाचये स्युस्त्रैलोक्यगुरव: सर्वे लोका महेश्वरा: ।

    वहन्ति दुर्लभं लब्द्दा शिरसैवानुशासनम्‌ ॥

    २॥

    श्री-युथ्िष्ठिर: उबाच-- श्री युधिष्ठिर ने कहा; ये--जो; स्युः--हैं; त्रै-लोक्य--तीनों लोकों के; गुरव: --गुरु; सर्वे--सारे;लोकाः--लोकों ( के निवासी ); महा-ईश्वराः--तथा महान्‌ नियन्ता देवता; वहन्ति--ले जाते हैं; दुर्लभम्‌--विरले ही प्राप्य;लब्ध्वा--प्राप्त करके; शिरसा--सिरों के बल; एब--निस्सन्देह; अनुशासनम्‌--( आपका ) आदेश |

    श्री युधिष्ठटिर ने कहा : तीनों लोकों के प्रतिष्ठित गुरु तथा विभिन्न लोकों के निवासी एवंशासक आपके आदेश को, जो विरले ही किसी को मिलता है, सिर-आँखों पर लेते हैं।

    स भवानरविन्दाक्षो दीनानामीशमानिनाम्‌ ।

    धत्तेउनुशासनं भूमंस्तदत्यन्तविडम्बनम्‌ ॥

    ३॥

    सः--वही; भवान्‌ू--आप; अरविन्द-अक्ष:--कमल-नेत्र भगवान्‌; दीनानाम्‌ू--उनके, जो कि दुखी हैं; ईश--शासक;मानिनाम्‌ू--मानने वालों के; धत्ते--अपने ऊपर लेते हैं; अनुशासनम्‌-- आदेश; भूमन्‌--हे सर्वव्यापी; तत्‌ू--वह; अत्यन्त --बहुत बड़ा; विडम्बनम्‌--आडम्बर, धोखा

    वही कमल-नेत्र भगवान्‌ आप उन दीन मूर्खो के आदेशों को स्वीकार करते हैं, जो अपनेआपको शासक मान बैठते हैं, जबकि हे सर्वव्यापी, यह आपके पक्ष में महान्‌ आडम्बर है।

    न होकस्याद्वितीयस्य ब्रह्मण: परमात्मन: ।

    कर्मभिर्वर्धते तेजो हसते च यथा रवे: ॥

    ४॥

    न--नहीं; हि--निस्सन्देह; एकस्य--एक का; अद्वितीयस्य--अद्वितीय का; ब्रह्मण:--ब्रह्म; परम-आत्मन: -- परमात्मा;कर्मभि:--कर्मो से; वर्धते--बढ़ता है; तेज:--बल, तेज; हसते--घटता है; च--तथा; यथा--जिस तरह; रवेः--सूर्य का |

    किन्तु वस्तुतः परम सत्य, परमात्मा, अद्वितीय आदि पुरुष का तेज उनके कर्मों से न तोकिसी प्रकार बढ़ता है, न घटता है, जिस प्रकार सूर्य का तेज उसकी गति से घटता-बढ़ता नहींहै।

    न वे तेडजित भक्तानां ममाहमिति माधव ।

    त्वं तवेति च नानाधी: पशूनामिव बैकृती ॥

    ५॥

    न--नहीं; वै--निस्सन्देह; ते--तुम्हारा; अजित--हे अजेय; भक्तानाम्‌ू- भक्तों के; मम अहम्‌ इति--' मेरा तथा मैं'; माधव--हे कृष्ण; त्वम्‌ तब इति--' तुम और तुम्हारा '; च--तथा; नाना--अन्तरों की; धी:--प्रवृत्ति; पशूनाम्‌ू--पशुओं की; इब--मानो; वैकृती--विकृत

    हे अजित माधव, आपके भक्त तक 'मैं तथा मेरा ' और 'तुम तथा तुम्हारा ' में कोई अन्तरनहीं मानते, क्योंकि यह तो पशुओं की विकृत प्रवृत्ति है।

    श्रीशुक उबाचइत्युक्त्वा यज्ञिये काले वत्रे युक्तान्स ऋत्विज: ।

    कृष्णानुमोदितः पार्थो ब्राह्मणान्ब्रह्यगादिन: ॥

    ६॥

    श्री-शुक: उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; उक्त्वा--कह कर; यज्ञिये--यज्ञ के अनुकूल; काले--समयपर; वद्रे--चुना; युक्तान्‌--उपयुक्त; सः--उसने; ऋत्विज:--यज्ञ कराने वाले पुरोहित; कृष्ण--कृष्ण द्वारा; अनुमोदित: --स्वीकृत; पार्थ:--पृथा-पुत्र ( युधिष्टिर ) ने; ब्राह्मणान्‌ू--ब्राह्मणों को; ब्रह्म--वेदों के ; वादिन:--कुशल विद्वान

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : यह कह कर राजा युधिष्ठिर ने तब तक प्रतीक्षा की जब तक यज्ञका उपयुक्त समय निकट नहीं आ गया।

    तब उन्होंने भगवान्‌ कृष्ण की अनुमति से यज्ञ कराने केलिए उन उपयुक्त पुरोहितों का चुनाव किया, जो कुशल विद्वान थे।

    द्वैपायनो भरद्वाज: सुमन्तुर्गोतमोउसितः ।

    वसिष्ठश्च्यवन: कण्वो मैत्रेयः कवषस्त्रितः: ॥

    ७॥

    विश्वामित्रो वामदेव: सुमतिर्जैमिनि: क्रतुः ।

    पैल: पराशरो गर्गो वैशम्पायन एबच ॥

    ८॥

    अथर्वा कश्यपो धौम्यो रामो भार्गव आसुरिः ।

    वबीतिहोत्रो मधुच्छन्दा वीरसेनोकृतब्रण: ॥

    ९॥

    द्वैपायन: भरद्वाज:--द्वैपायन ( व्यासदेव ) तथा भरद्वाज; सुमन्तु: गोतमः असितः--सुमन्तु, गोतम तथा असित; वसिष्ठ: च्यवनःकण्वः--वशिष्ठ, च्यवन तथा कण्व; मैत्रेयः कवषः त्रित:--मैत्रेय, कवष तथा त्रित; विश्वामित्र: वामदेव:--विश्वामित्र तथावामदेव; सुमतिः जैमिनि: क्रतु:--सुमति, जैमिनि तथा क्रतु; पैल: पराशर: गर्ग: --पैल, पराशर तथा गर्ग; वैशम्पायन:--वैशम्पायन; एव च-- भी; अथर्वा कश्यप: धौम्य:ः--अथर्वा, कश्यप तथा धौम्य; राम: भार्गव:ः--भूृगुवंशी परशुराम; आसुरिः--आसुरि; बीतिहोत्र: मधुच्छन्दा:--वीतिहोत्र तथा मधुच्छन्दा; बीरसेन: अकृतब्रण: --वीरसेन तथा अकृतत्रण:।

    उन्होंने कृष्णद्वैघायन, भरद्वाज, सुमन्‍्त, गोतम तथा असित के साथ ही वसिष्ठ, च्यवन, कण्व,मैत्रेय, कवष तथा त्रित को चुना।

    उन्होंने विश्वामित्र, वामदेव, सुमति, जैमिनि, क्रतु, पैल तथापराशर एवं गर्ग, वैशम्पायन, अथर्वा, कश्यप, धौम्य, भूगुवंशी परशुराम, आसुरि, वीतिहोत्र,मधुच्छन्दा, वीरसेन तथा अकृतब्रण को भी चुना।

    उपहूतास्तथा चान्ये द्रोणभीष्मकृपादय: ।

    धृतराष्ट्र: सहसुतो विदुरश्ष महामति; ॥

    १०॥

    ब्राह्मणा: क्षत्रिया वैश्या: शूद्रा यज्ञदिहक्षवः ।

    तत्रेयु: सर्वराजानो राज्ञां प्रकृतयो नृप ॥

    ११॥

    उपहूता:--आमंत्रित; तथा-- भी; च--और; अन्ये--अन्य; द्रोण-भीष्म-कृप-आदय: --द्रोण, भीष्म, कृप इत्यादि; धृतराष्ट्र: --धृतराष्ट्र; सह-सुतः--पुत्रों सहित; विदुर: --विदुर; च--तथा; महा-मतिः--अत्यन्त बुद्धिमान; ब्राह्मणा: क्षत्रिया: वैश्या:शूद्राः--ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्रगण; यज्ञ--यज्ञ; दिहक्षव:--देखने के लिए उत्सुक; तत्र--वहाँ; ईयु:--आये; सर्व--सारे; राजान:--राजा; राज्ञामू--राजाओं के; प्रकृतयः--दल-बल सहित; नृप--हे राजन

    हे राजन्‌ू, जिन अन्य लोगों को आमंत्रित किया गया था उनमें द्रोण, भीष्म, कृप, पुत्रों सहितधृतराष्ट्र, महामति विदुर तथा यज्ञ देखने के लिए उत्सुक अन्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्रसम्मिलित थे।

    हाँ, सारे राजा दल-बल सहित वहाँ पधारे थे।

    ततस्ते देवयजनं ब्राह्मणा: स्वर्णलाडुलै: ।

    कृष्ठा तत्र यथाम्नायं दीक्षयां चक्रिरे नृपम्‌ ॥

    १२॥

    ततः--तब; ते--उन; देव-यजनम्‌--देवताओं के पूजा-स्थल को; ब्राह्मणा: --ब्राह्मणों ने; स्वर्ण--सोने के; लाडुलैः--हलों से;कृष्ठा--जोत कर; तत्र--वहाँ; यथा-आम्नायमू-- प्रामाणिक अधिकारियों के अनुसार; दीक्षयाम्‌ चक्रिरे--दीक्षा दी; नृपम्‌--राजाओं को

    तत्पश्चात्‌ ब्राह्मण पुरोहितों ने यज्ञस्थली की सोने के हल से जुताई की और प्रामाणिकदिद्वानों द्वारा नियत प्रथाओं के अनुसार यज्ञ के लिए राजा युधिष्टिर को दीक्षा दी।

    हैमा: किलोपकरणा वरुणस्य यथा पुरा ।

    इन्द्रादयो लोकपाला विरिद्धिभवसंयुता: ।

    सगणाः सिद्धगन्धर्वा विद्याधरमहोरगा: ॥

    १३॥

    मुनयो यक्षरक्षांसि खगकिन्नरचारणा: ।

    राजानश्व समाहूता राजपल्यश्च सर्वशः ॥

    १४॥

    राजसूयं समीयु: स्म राज्ञः पाण्डुसुतस्य वै ।

    मेनिरे कृष्णभक्तस्य सूपपन्नमविस्मिता: ॥

    १५॥

    हैमाः--सोने के बने; किल--निस्सन्देह; उपकरणा:--बर्तन; वरुणस्य--वरुण के; यथा--जिस तरह; पुरा--प्राचीनकाल में;इन्द्र-आदय:--इन्द्र इत्यादि; लोक-पाला:--लोकों के शासनकर्ता; विरिश्ञि-भव-संयुता:--ब्रह्म तथा शिव समेत; स-गणा: --उनके सेवकों सहित; सिद्ध-गन्धर्वा:--सिद्ध तथा गन्धर्वगण; विद्याधर--विद्याधर; महा-उरगा:--तथा महान्‌ सर्पगण; मुनय:--मुनिगण; यक्ष-रक्षांसि--यक्ष तथा राक्षसगण; खग-किन्नर-चारणा:--दैवी पक्षी, किन्नर तथा चारण; राजान:--राजा; च--तथा; समाहूता:--बुलाये गये; राज--राजाओं की; पल्य:--पत्नियाँ; च-- भी; सर्वश:--सभी स्थानों से; राजसूयम्‌--राजसूययज्ञ में; समीयु: स्म--आई; राज्:--राजा के; पाण्डु-सुतस्य--पाण्डु के पुत्रों के; वै--निस्सन्देह; मेनिरि--विचार किया; कृष्ण-भक्तस्य--कृष्णभक्त के लिए; सु-उपपन्नम्‌--नितान्त उपयुक्त; अविस्मिता:--चकित नहीं ।

    यज्ञ के निमित्त पात्र सोने के बने थे जिस तरह कि प्राचीनकाल में भगवान्‌ वरुण द्वारा सम्पन्न हुए यज्ञ में थे।

    इन्द्र, ब्रह्मा, शिव और अनेक लोकपाल, सिद्ध तथा गन्धर्व एवं उनकेपार्षद, विद्याधर, महान्‌ सर्प, मुनि, यक्ष, राक्षस, दैवी पक्षी, किन्नर, चारण तथा पार्थिव राजा--सभी को आमंत्रित किया गया था और वे पाण्डु-पुत्र राजा युथ्चिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में सभीदिशाओं से आये भी थे।

    वे यज्ञ के ऐश्वर्य को देख कर रंचमात्र भी चकित नहीं हुए, क्योंकिकृष्णभक्त के लिए यही सर्वथा उपयुक्त था।

    अयाजयन्महाराज॑ याजका देववर्चस: ।

    राजसूयेन विधिवत्प्रचेतसमिवामरा: ॥

    १६॥

    अयाजयनू--यज्ञ सम्पन्न किया; महा-राजम्‌ू--महान्‌ राजा के लिए; याजका:ः--यज्ञ-पुरोहितों ने; देव--देवताओं के; वर्चस:--बलशाली; राजसूयेन--राजसूय द्वारा; विधि-वत्‌--वेदों के आदेशानुसार; प्रचेतसम्‌--वरूुण को; इब--जिस तरह; अमरा:--देवताओं ने।

    देवताओं के सहृश शक्तिसम्पन्न पुरोहितों ने वैदिक आदेशों के अनुसार राजा युधथिष्ठिर केलिए उसी तरह राजसूय यज्ञ सम्पादित किया जिस तरह पूर्वकाल में देवताओं ने वरुण के लिएकिया था।

    सूत्येहन्यवनीपालो याजकान्सदसस्पतीन्‌ ।

    अपूजयन्महाभागान्यथावत्सुसमाहितः ॥

    १७॥

    सूत्ये--सोमरस निकालने के लिए; अहनि--दिन में; अवनी-पाल:--राजा ने; याजकान्‌--यज्ञ कराने वालों की; सदस:ः--सभाके; पतीन्‌--प्रमुखों की; अपूजयत्‌--पूजा; महा-भागान्‌ू--महान्‌; यथावत्‌--उचित रीति से; सु-समाहितः --मनोयोग से |

    सोमरस निकालने के दिन राजा युधथ्रिष्टिर ने अच्छी तरह तथा बड़े ही ध्यानपूर्वक पुरोहितोंकी एवं सभा के श्रेष्ठ पुरुषों की पूजा की।

    सदस्याछयाईणाई वै विमृशन्त: सभासद: ।

    नाध्यगच्छन्ननैकान्त्यात्सहदेवस्तदाब्रवीत्‌ ॥

    १८ ॥

    सदस्य--सभा का सदस्य; अछब--प्रथम; अर्हण--पूजा; अर्हम्‌--पात्र; वै--निस्सन्देह; विमृशन्त:ः--विचार-विर्मश करते हुए;सभा--सभा में; सदः--आसीन; न अध्यगच्छन्‌--किसी निर्णय पर नहीं पहुँच पाये; अनैक-अन्त्यात्‌ू-बड़ी संख्या होने से( योग्य पात्रों के ); सहदेव: --महाराज युथिष्ठिर का छोटा भाई सहदेव; तदा--तब; अब्रवीत्‌--बोला

    तब सभासदों ने विचार-विमर्श किया कि उनमें से किसकी सबसे पहले पूजा की जाय।

    किन्तु क्योंकि अनेक व्यक्ति इस सम्मान के योग्य थे अतः वे निश्चय कर पाने में असमर्थ थे।

    अन्त में सहदेव बोल पड़े।

    अ्हति ह्वच्युत: श्रेष्ठ भगवान्सात्वतां पति: ।

    एष वै देवता: सर्वा देशकालधनादय: ॥

    १९॥

    अर्हति--योग्य है; हि--निस्सन्देह; अच्युत:--अच्युत कृष्ण; श्रेष्ठाम्‌-- श्रेष्ठ पद; भगवान्‌-- भगवान्‌; सात्वताम्‌ू--यादवों के;'पतिः--प्रधान; एष:--वह; वै--निश्चय ही; देवता:--देवतागण; सर्वा:--सभी; देश--स्थान ( यज्ञ के लिए ); काल--समय;धन-- भौतिक साज-सामान; आदय:--इत्यादि

    सहदेव ने कहा : निश्चय ही भगवान्‌ अच्युत तथा याददवों के प्रमुख ही इस सर्वोच्च पद केयोग्य हैं।

    सच तो यह है कि वे यज्ञ में पूजे जाने वाले समस्त देवताओं से तथा साथ ही पूजा केपवित्र स्थान, समय तथा साज-सामान जैसे पक्षों से समन्वित हैं।

    यदात्मकमिदं विश्व क्रतवश्च यदात्मकाः ।

    अग्निराहुतयो मन्त्रा साड्ख्यं योगश्व यत्पर: ॥

    २०॥

    एक एवाद्वितीयोसावैतदात्म्यमिदं जगत्‌ ।

    आत्मनात्माश्रय: सभ्या: सृजत्यवति हन्त्यज: ॥

    २१॥

    यत्‌ू-आत्मकम्‌--जिस पर टिका; इृदम्‌--यह; विश्वम्‌--ब्रह्माण्ड; क्रतवः--बड़े बड़े यज्ञों का सम्पन्न किया जाना; च--तथा;यत्‌-आत्मका: --जिस पर टिका; अग्नि: --पवित्र अग्नि; आहुतय:ः--आहुतियाँ; मन्त्रा:--मंत्र; साड्ख्यम्‌--दार्शनिक खोज कासिद्धान्त; योग:-- ध्यान की कला; च--तथा; यत्‌--जिस पर; पर:--लक्षित; एक:--एक; एव--अकेला; अद्वितीय:--अद्वितीय; असौ--वह; ऐतत्‌-आत्म्यम्‌-- अपने माध्यम से ( अर्थात्‌ अपनी शक्तियों से ); इदम्‌--यह; जगत्‌--संसार;आत्मना--अपने द्वारा ( अर्थात्‌ शक्तियों से )।

    आत्म--स्वयं ही; आश्रयः--उनका आश्रय पाकर; सभ्या:--हे सभा के सदस्यो;सृजति--उत्पन्न करता है; अवति--पालता है; हन्ति--तथा संहार करता है; अज:--अजन्मा |

    यह समस्त ब्रह्माण्ड उन्हीं पर टिका है और वैसे ही महान्‌ यज्ञों का सम्पन्न किया जाना, उनकी पवित्र अग्नियाँ, आहुतियाँ तथा मंत्र भी उन्हीं पर टिकी हैं।

    सांख्य तथा योग दोनों ही उनअद्वितीय को अपना लक्ष्य बनाते हैं।

    हे सभासदो, वह अजन्मा भगवान्‌ एकमात्र अपने पर निर्भररहते हुए इस जगत को अपनी निजी शक्तियों से उत्पन्न करता है, पालता और विनष्ट करता है।

    इस तरह इस ब्रह्माण्ड का अस्तित्व एकमात्र उन्हीं पर निर्भर करता है।

    विविधानीह कर्माणि जनयन्यदवेक्षया ।

    ईहते यदयं सर्व: श्रेयो धर्मादिलक्षणम्‌ ॥

    २२॥

    विविधानि--विविध; इह--इस संसार में; कर्माणि-- भौतिक कर्म; जनयन्‌--उत्पन्न करते हुए; यत्‌--जिसके द्वारा; अवेक्षया--कृपा; ईहते--प्रयत्तन करते हैं; यत्‌ू--जो; अयम्‌ू--यह संसार; सर्व:--सारा; श्रेयः--आद्शों के लिए; धर्म-आदि--धार्मिकताइत्यादि; लक्षणमू--लक्षण ।

    वे इस जगत में विविध कर्मों को उत्पन्न करते हैं और इस तरह उनकी ही कृपा से सारा संसारधर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष के आदर्शों के लिए प्रयत्नशील रहता है।

    तस्मात्कृष्णाय महते दीयतां परमाहणम्‌ ।

    एवं चेत्सर्वभूतानामात्मनश्चाहणं भवेत्‌ ॥

    २३॥

    तस्मात्‌--इसलिए; कृष्णाय--कृष्ण को; महते--परम; दीयताम्‌--दिया जाना चाहिए; परम--सर्वोच्च; अर्हणम्‌--सम्मान;एवम्‌--इस प्रकार; चेत्‌ू--यदि; सर्व--समस्त; भूतानाम्‌--जीवों का; आत्मन:--अपने; च--तथा; अर्हणम्‌--आदर करना;भवेत्‌--होगा।

    इसलिए हमें चाहिए कि भगवान्‌ कृष्ण को सर्वोच्च सम्मान दें।

    यदि हम ऐसा करते हैं, तोहम सारे जीवों का सम्मान तो करेंगे ही, साथ ही अपने आपको भी सम्मान देंगे।

    सर्वभूतात्मभूताय कृष्णायानन्यदर्शिने ।

    देयं शान्ताय पूर्णाय दत्तस्यानन्त्यमिच्छता ॥

    २४॥

    सर्व--सारे; भूत--जीवों का; आत्म--आत्मा; भूताय--से युक्त; कृष्णाय--कृष्ण को; अनन्य--कभी भी पृथक्‌ के रूप मेंनहीं; दर्शिने--द्रष्टा; देयम्‌ू--( मान ) दिया जाय; शान्ताय--शान्त रहने वाले को; पूर्णाय--पूर्ण को; दत्तस्थ--दिये हुए का;आननन्‍्त्यमू--असीम वृद्धि; इच्छता--चाहने वाले के द्वारा।

    जो भी व्यक्ति यह चाहता हो कि दिये गये सम्मान का असीम प्रतिदान मिले उसे कृष्ण कासम्मान करना चाहिए जो पूर्णतया शान्त हैं, समस्त जीवों की पूर्ण आत्मा भगवान्‌ हैं और जोकिसी भी वस्तु को अपने से पृथक्‌ नहीं मानते।

    इत्युक्त्वा सहदेवो भूत्तृष्णीं कृष्णानुभाववित्‌ ।

    तच्छुत्वा तुष्ठवुः सर्वे साधु साध्विति सत्तमा: ॥

    २५॥

    इति--इस प्रकार; उक्त्वा--कह कर; सहदेव: --सहदेव; अभूत्‌--हो गये; तूष्णीम्‌--मौन; कृष्ण--कृष्ण का; अनुभाव--प्रभाव; वित्‌ू--अच्छी तरह जानने वाला; तत्‌--यह; श्रुत्वा--सुन कर; तुष्ठुवु:--प्रशंसा की; सर्वे--समस्त; साधु साधु इति--'बहुत अच्छा ' बहुत अच्छा '; सत्‌--सन्त-पुरुषों में; तमा: --सर्व श्रेष्ठ |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : यह कह कर, भगवान्‌ कृष्ण की शक्तियों को समझने वालेसहदेव मौन हो गये।

    और उनके शब्द सुनकर वहाँ पर उपस्थित सभी सज्जनों ने 'बहुत अच्छा,बहुत अच्छा ' कह कर उन्हें बधाई दी।

    श्र॒त्वा द्विजेरितं राजा ज्ञात्वा हार्द सभासदाम्‌ ।

    समर्हयद्धृषीकेशं प्रीत: प्रणयविह्नल: ॥

    २६॥

    श्रुत्वा--सुन कर; द्विज--ब्राह्मणों द्वारा; ईरितम्‌ू--कहा गया; राजा--राजा युधिष्ठिर; ज्ञात्वा--जान कर; हार्दम्‌ू--मनोभाव;सभा-सदाम्‌--सभा के सदस्यों के; समर्हयत्‌--अच्छी तरह पूजा की; हषीकेशम्‌--भगवान्‌ कृष्ण की; प्रीत:--प्रसन्न; प्रणय--प्रेम से; विहल:ः--विभोर।

    राजा ब्राह्मणों की इस घोषणा से अत्यन्त प्रसन्न हुए क्योंकि वे इससे सम्पूर्ण सभा कीमनोदशा को समझ गये।

    उन्होंने प्रेम से विभोर होकर इन्द्रियों के स्वामी भगवान्‌ कृष्ण की पूजा की।

    तत्पादाववनिज्याप: शिरसा लोकपावनीः ।

    सभार्य: सानुजामात्य: सकुट॒म्बो वहन्मुदा ॥

    २७॥

    वासोभिः पीतकौषेयैर्भूषणैश्व महाधनै: ।

    अर्हयित्वाश्रुपूर्णा क्षो नाशकत्समवेक्षितुम्‌ ॥

    २८॥

    तत्‌--उसको; पादौ--चरणों को; अवनिज्य--धोकर; आप:ः--जल; शिरसा--अपने सिर पर; लोक--संसार को; पावनी:--पवित्र करने वाली; स--सहित; भार्य:--अपनी पतली; स--सहित; अनुज--अपने भाइयों; अमात्य:--तथा अपने मंत्रियों; स--सहित; कुटुम्बः--अपने परिवार; वहन्‌--ले जाते हुए; मुदा--हर्षपूर्वक; वासोभि: --वस्त्रों सहित; पीत--पीले; कौषेयै: --रेशमी; भूषणैः --गहनों सहित; च--तथा; महा-धनै:ः--मूल्यवान; अर्हयित्वा--सम्मान करके; अश्रु--आँसुओं से; पूर्ण-- भरे;अक्ष:--नेत्रों से; न अशकत्‌--वह असमर्थ था; समवेक्षितुमू--उनकी ओर ताककने में ॥

    भगवान्‌ कृष्ण के चरण पखारने के बाद महाराज युधिष्ट्रर ने प्रसन्नतापूर्वक उस जल कोअपने सिर पर छिड़का और उसके बाद अपनी पत्नी, भाइयों, अन्य पारिवारिक जनों तथा मंत्रियोंके सिरों पर छिड़का।

    वह जल सारे संसार को पवित्र करने वाला है।

    जब उन्होंने पीले रेशमीबस्त्रों तथा बहुमूल्य रललजटित आशभूषणों की भेंटों से भगवान्‌ को सम्मानित किया, तो राजा केअश्रुपूरित नेत्र भगवान्‌ को सीधे देख पाने में बाधक बन रहे थे।

    इत्थं सभाजितं वीक्ष्य सर्वे प्राज्ललयो जना: ।

    नमो जयेति नेमुस्तं निपेतुः पुष्पवृष्ठय: ॥

    २९॥

    इत्थम्‌--इस प्रकार; सभाजितम्‌--सम्मानित हुआ; वीक्ष्य--देख कर; सर्वे--सभी; प्राज्ललय: --हाथ जोड़े; जना:--लोग;नमः--' आपको नमस्कार '; जय--' जय हो '; इति--इस प्रकार कहते हुए; नेमु:ः--शीश नवाया; तम्‌ू--उसको; निपेतु:--गिरने लगी; पुष्प--फूलों की; वृष्टय:--वर्षा |

    कृष्ण को इस तरह सम्मानित होते देखकर वहाँ पर उपस्थित प्रायः सभी लोग सम्मान मेंअपने हाथ जोड़कर बोल उठे, 'आपको नमस्कार, आपकी जय हो।

    ' और तब उन्हें शीशनवाया।

    ऊपर से फूलों की वर्षा होने लगी।

    इत्थं निशम्य दमघोषसुतः स्वपीठा-दुत्थाय कृष्णगुणवर्णनजातमन्यु: ।

    उत्क्षिप्प बाहुमिदमाह सदस्यमर्षीसंश्राववन्भगवते परुषाण्यभीत: ॥

    ३०॥

    इत्थम्‌--इस प्रकार; निशम्य--सुन कर; दमघोष-सुत:--दमघोष का पुत्र ( शिशुपाल ); स्व--अपने; पीठात्‌--आसन से;उत्थाय--उठ कर; कृष्ण-गुण--भगवान्‌ कृष्ण के गुणों का; वर्णन--वर्णन; जात--उत्पन्न; मन्यु:--क्रोध; उत्क्षिप्प--हिलातेहुए; बाहुमू--अपनी भुजाएँ; इदम्‌--यह; आह--कहा; सदसि--सभा के मध्य; अमर्षी--असहिष्णु; संश्रावयन्‌--सम्बोधितकरते हुए; भगवते-- भगवान्‌ पर; परुषाणि-- कटु वचन; अभीत:--बिना किसी भय के

    दमघोष का असहिष्णु पुत्र कृष्ण के दिव्यगुणों की प्रशंसा होते सुन कर क्रुद्ध हो उठा।

    वहअपने आसन से उठ कर खड़ा हो गया और क्रोध से अपने हाथ हिलाते हुए निर्भय होकर सारीसभा के समक्ष भगवान्‌ के विरुद्ध निम्नानुसार कटु शब्द कहने लगा।

    ईशो दुरत्ययः काल इति सत्यवती श्रुति: ।

    वृद्धानामपि यह्दुद्धिर्बालवाक्यैर्विभिद्यते ॥

    ३१॥

    ईशः--ई श्वर; दुरत्ययः--जिससे बचा न जा सके; काल:--समय; इति--इस प्रकार; सत्य-वती--सच; श्रुतिः--वेद-वाक्य;वृद्धानामू-गुरुजनों की; अपि-- भी; यत्‌--चूँकि; बुद्धधिः:--बुद्धि; बाल--बालक के; वाक्यै:--शब्दों से; विभिद्यत--चकराजाती है।

    शिशुपाल ने कहा : वेदों का यह कथन कि समय ही सबका अनिवार्य ईश्वर है निस्सन्देहसत्य सिद्ध हुआ है, क्योंकि बुद्धिमान गुरुजनों की बुद्धि निरे बालक के शब्दों से अब चकरागई है।

    यूयं॑ पात्रविदां श्रेष्ठा मा मन्ध्वं बालभाषीतम्‌ ।

    सदसस्पतय: सर्वे कृष्णो यत्सम्मतोर्हणे ॥

    ३२॥

    यूयम्‌ू--तुम सभी; पात्र--योग्यजनों के; विदाम्‌--जानने वालों के; श्रेष्ठा:--सर्वोत्तम; मा मन्ध्वम्‌--परवाह न करें; बाल--बालक के; भाषितम्‌--कथनों को; सदस:-पतय: --हे सभा के नायको; सर्वे--सभी; कृष्ण:--कृष्ण; यत्‌--क्योंकि;सम्मतः--चुना हुआ; अर्हणे--सम्मान किये जाने हेतु

    हे सभा-नायको, आप लोग अच्छी तरह जानते हैं कि सम्मान किये जाने के लिए उपयुक्तपात्र कौन है।

    अतः आप लोग इस बालक के वचनों की परवाह न करें कि वह यह दावा कररहा है कि कृष्ण पूजा के योग्य हैं।

    तपोविद्याव्रतधरान्ज्ञानविध्वस्तकल्मषान्‌ ।

    परमऋषीन्ब्रह्मनिष्ठॉल्लोकपालैश्व पूजितान्‌ ॥

    ३३॥

    सदस्पतीनतिक्रम्य गोपाल: कुलपांसन: ।

    यथा काकः पुरोडाशं सपर्या कथमहति ॥

    ३४॥

    तपः--तपस्या; विद्या--वैदिक ज्ञान; ब्रत--कठिन व्रत; धरानू-- धारण करने वाले; ज्ञान--आध्यात्मिक ज्ञान से; विध्वस्त--उन्मूलित; कल्मषान्‌ू--जिनके विकार; परम--सर्वोच्च; ऋषीन्‌--ऋषियों को; ब्रहय--परम सत्य के प्रति; निष्ठान्‌ू--समर्पित;लोक-पालैः--लोकों के शासकों द्वारा; च--तथा; पूजितान्‌--पूजित; सदः-पतीन्‌--सभापतियों को; अतिक्रम्य--लाँघ कर;गोपाल:-ग्वाला; कुल-- अपने कुल का; पांसन:--कलंक; यथा--जिस तरह; काक: --कौवा; पुरोडाशम्‌--पवित्र खीर( देवताओं को अर्पित की गई ); सपर्याम्‌--पूजा के; कथम्‌--कैसे; अहति--योग्य हो सकता है।

    आप लोग इस सभा के सर्वाधिक उन्नत सदस्यों को--ब्रह्म के प्रति समर्पित तपस्या कीशक्ति, दैवी अन्तर्दष्टि तथा कठोर ब्रत में लगे रहने वाले, ज्ञान से पवित्र हुए तथा ब्रह्माण्ड केशासकों द्वारा भी पूजित सर्वोच्च ऋषियों को--कैसे छोड़ सकते हैं? यह ग्वालबाल, जो किअपने कुल के लिए कलंक है, आप लोगों की पूजा के योग्य कैसे हो सकता है? क्या कौवापवित्र प्रसाद की खीर खाने का पात्र बन सकता है?

    वर्णाश्रमकुलापेत: सर्वधर्मबहिष्कृत: ।

    स्वैरवर्ती गुणैहीन: सपर्या कथमहति ॥

    ३५॥

    वर्ण--जाति; आश्रम--चार आध्यात्मिक आश्रम; कुल--तथा परिवार से; अपेत:--विहीन; सर्व--सभी; धर्म--धार्मिककर्तव्य के नियम; बहिः-कृतः--बाहर किया गया; स्वैर--स्वतंत्र रूप से; वर्ती--आचरण करता हुआ; गुणै:--गुणों से;हीनः--रहित; सपर्याम्‌--पूजा; कथम्‌--कैसे; अर्हति--योग्य है।

    जो वर्ण तथा आश्रम के या पारिवारिक शिष्टाचार के किसी भी सिद्धान्त का पालन नहींकरता, जो सारे धार्मिक कर्तव्यों से बहिष्कृत कर दिया गया है, जो मममाना आचरण करता हैतथा जिसमें कोई सदगुण नहीं है, भला ऐसा व्यक्ति किस तरह पूजा किये जाने योग्य हो सकताहै?

    ययातिनैषां हि कुलं शप्तं सद्धिर्बहिष्कृतम्‌ ।

    वृथापानरतं शश्वत्सपर्या कथमईति ॥

    ३६॥

    ययातिना--ययाति द्वारा; एघामू--उनका; हि--निस्सन्देह; कुलम्‌--कुल; शप्तम्‌--शापित; सद्धिः--शिष्ट लोगों द्वारा; बहिः-कृतम्‌--निकाला हुआ; वृथा--व्यर्थ; पान--सुरापान; रतमू--लत लगी हुई; शश्वत्‌--सदैव; सपर्याम्‌ू-पूजा के लिए;कथम्‌--कैसे; अर्हति--वह योग्य है।

    ययाति ने इन यादवों के कुल को शाप दिया था, तभी से ये लोग ईमानदार व्यक्तियों द्वाराबहिष्कृत कर दिये गये और इन्हें सुगापान की लत पड़ गई।

    तब भला कृष्ण पूजा के योग्य कैसेहै?

    ब्रह्मर्षिसेवितान्देशान्हित्वैतेडब्रह्मवर्चसम्‌ ।

    समुद्र दुर्गमाश्रित्य बाधन्ते दस्यव: प्रजा: ॥

    ३७॥

    ब्रह्म-ऋषि--महान्‌ ब्राह्मण-ऋषियों द्वारा; सेवितान्‌--सेवित; देशान्‌ू--देशों को ( यथा मथुरा ); हित्वा--त्याग कर; एते--ये( यादवजन ); अब्रह्म-वर्चसम्‌--जहाँ ब्राह्मण नियमों का पालन नहीं किया जाता; समुद्रम्‌--समुद्र में; दुर्गम--किले में;आश्रित्य--शरण लेकर; बाधन्ते--बाधा पहुँचाते हैं; दस्यवः--चोर; प्रजा:--जनता को

    इन यादवों ने ब्रह्मर्षियों द्वारा बसाई गई पवित्र भूमि को छोड़ दिया है और समुद्र में एककिले में जाकर शरण ली है, जहाँ ब्राह्मण-नियमों का पालन नहीं होता।

    वहाँ ये चोरों की तरहअपनी प्रजा को तंग करते हैं।

    एवमादीन्यभद्राणि बभाषे नष्टमड्रल: ।

    नोवाच किश्ञिद्धगवान्यथा सिंह: शिवारुतम्‌ ॥

    ३८ ॥

    एवम्‌--इस प्रकार; आदीनि--और अधिक; अभद्राणि--कटु वचन; बभाषे --बोलता रहा; नष्ट--विनष्ट; मड्ल:ः--सौभाग्य; नउबाच--नहीं कहा; किश्ञित्‌ू--कुछ भी; भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; यथा--जिस तरह; सिंह: --सिंह; शिवा--सियार के; रुतम्‌--रोदन पर।

    शुकदेव गोस्वामी कहते हैं : समस्त सौभाग्य से वंचित शिशुपाल ऐसे ही तथा अन्यअपमानसूचक शब्द बोलता रहा, किन्तु भगवान्‌ ने कुछ भी नहीं कहा, जिस तरह सिंह सियारके रोदन की परवाह नहीं करता।

    भगवत्निन्दनं श्रुत्वा दु:सहं तत्सभासदः ।

    कर्णों पिधाय निर्जग्मु: शपन्तश्रेदिपं रुषा ॥

    ३९॥

    भगवत्‌-- भगवान्‌ की; निन्दनम्‌--निनन्‍्दा, आलोचना; श्रुत्वा--सुन कर; दुःसहम्‌--असहा; तत्‌ू--वह; सभा-सदः--सभा केसदस्य; कर्णौं--अपने कानों को; पिधाय--मूँद कर; निर्जग्मु:--बाहर चले गये; शपन्त:ः--कोसते हुए; चेदि-पम्‌--चेदि केराजा ( शिशुपाल ) को; रुषा--क्रुद्ध होकर

    भगवान्‌ की ऐसी असह्य निनन्‍दा सुनकर सभा के कई सदस्यों ने अपने कान बंद लिये औरगुस्से में चेदि-नरेश को कोसते हुए बाहर चले गये।

    निन्‍्दां भगवतः श्रुण्वंस्तत्परस्थ जनस्य वा ।

    ततो नापैति यः सोपि यात्यध: सुकृताच्च्युत: ॥

    ४०॥

    निन्दाम्‌--निन्दा, आलोचना; भगवतः-- भगवान्‌ की; श्रृण्वन्‌--सुनते हुए; तत्‌--उससे; परस्य-- श्रद्धावान; जनस्थ--पुरुषकी; वा--अथवा; ततः--वहाँ से; न अपैति--नहीं चला जाता; य:ः--जो; स:ः--वह; अपि--निस्सन्देह; याति--जाता है;अधः--नीचे; सु-कृतात्‌--अपने पुण्यकर्मों के उत्तम फलों से; च्युत:--गिरा हुआ।

    जिस स्थान पर भगवान्‌ या उनके श्रद्धावान्‌ भक्त की निन्‍्दा होती हो, यदि मनुष्य उस स्थानको तुरन्त छोड़ कर चला नहीं जाता, तो निश्चय ही वह अपने पुण्यकर्मों के फल से वंचित होकरनीचे आ गिरेगा।

    ततः पाण्डुसुताः क्रुद्धा मत्स्यकैकयसूझ्जया: ।

    उदायुधा: समुत्तस्थु: शिशुपालजिघांसव: ॥

    ४१॥

    ततः--तब; पाण्डु-सुता:--पाण्डु के पुत्र; क्रुद्धा:--क्रुद्ध; मत्स्य-कैकय-सृझ्ञया:--मत्स्य, कैकय तथा सृज्भयगण; उत्‌ू-आयुधा:--अपने हथियार उठाये; समुत्तस्थु;--खड़े हो गये; शिशुपाल-जिघांसव: --शिशुपाल को मारने की इच्छा से |

    तब पाण्डु-पुत्र क्रुद्ध हो उठे और मत्स्य, कैकय तथा सृझ्ञय वंशों के योद्धाओं के साथ वेअपने अपने स्थानों पर शिशुपाल को मारने के लिए तत्पर हथियार उठाते हुए खड़े हो गये।

    ततश्रैद्यस्त्वसम्भ्रान्तो जगृहे खड्गचर्मणी ।

    भर्सयन्कृष्णपश्षीयात्राज्न: सदसि भारत ॥

    ४२॥

    ततः--तब; चैद्य:ः--शिशुपाल ने; तु--लेकिन; असम्भ्रान्त:--अडिग; जगूहे--ले लिया; खड्ग--तलवार; चर्मणी--तथाढाल; भर्त्सयन्‌--निन्दा करते हुए; कृष्ण--कृष्ण के; पक्षीयान्‌ू--पक्ष वाले; राज्ञ:--राजा; सदसि--सभा में; भारत--हेभरतवंशी |

    हे भारत, तब शिशुपाल ने किसी की परवाह न करते हुए वहाँ पर जुटे सारे राजाओं के बीचअपनी तलवार तथा ढाल ले ली और वह भगवान्‌ कृष्ण के पक्षघरों का अपमान करने लगा।

    तावदुत्थाय भगवास्स्वान्निवार्य स्वयं रुषा ।

    शिरः क्षुरान्‍्तचक्रेण जहार पततो रिपो: ॥

    ४३॥

    तावत्‌--उस समय; उत्थाय--उठ कर; भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; स्वान्‌ू--अपने ( भक्तों ) को; निवार्य--रोक कर; स्वयम्‌--खुद;रुषा--क्रोध से; शिर:--सिर; क्षुर--तेज; अन्त--धार वाले; चक्रेण --अपने चक्र से; जहार--काट लिया; पततः--आक्रमणकरते हुए; रिपोः--अपने शत्रु का।

    उस समय भगवान्‌ उठ खड़े हुए और उन्होंने अपने भक्तों को रोका।

    फिर उन्होंने क्रुद्ध होकरअपने तेज धार वाले चक्र को चलाया और आक्रमण कर रहे अपने शत्रु का सिर काट दिया।

    शब्द: कोलाहलोथासीच्छिशुपाले हते महान्‌ ।

    तस्यानुयायिनो भूपा दुद्गुवुर्जीवितिषिण: ॥

    ४४॥

    शब्द: --ध्वनि; कोलाहल:--हो-हल्ला; अथ--तत्पश्चात्‌; आसीत्‌ू-- था; शिशुपाले--शिशुपाल के; हते--मारे जाने पर;महान्‌--विशाल; तस्यथ--उसके; अनुयायिन: --अनुगामी; भूपा:--राजागण; दुद्गुवु:-- भाग गये; जीवित--अपना जीवन;एपिण:--बचाने की आशा से

    जब इस तरह शिशुपाल मार डाला गया तो भीड़ में से भारी शोर उठने लगा।

    इस उपद्रव कालाभ उठाकर शिशुपाल के समर्थक कुछ राजा तुरन्त ही अपने प्राणों के भय से सभा छोड़करभाग गये।

    चैद्यदेहोत्थितं ज्योतिर्वासुदेवमुपाविशत्‌ ।

    पश्यतां सर्वभूतानामुल्केव भुवि खाच्च्युता ॥

    ४५॥

    चैद्य--शिशुपाल; देह--शरीर से; उत्थितम्‌--उठी हुईं; ज्योति: --ज्योति, प्रकाश; वासुदेवम्‌-- भगवान्‌ श्रीकृष्ण में;उपाविशत्‌-प्रविष्ट हुई; पश्यताम्‌--देखते देखते; सर्व--सभी; भूतानाम्‌--जीवों के; उल्का--पुच्छतारा; इब--सहृश; भुवि--पृथ्वी में; खात्‌ू--आकाश से; च्युता--गिरा हुआ।

    शिशुपाल के शरीर से एक तेजोमय प्रकाशपुञ्ज उठा और सबों के देखते देखते वहभगवान्‌ कृष्ण में उसी तरह प्रविष्ट हो गया, जिस तरह आकाश से गिरता हुआ पुच्छल तारा पृथ्वीमें समा जाता है।

    जन्मत्रयानुगुणितवैरसंरब्धया धिया ।

    ध्यायंस्तन्मयतां यातो भावो हि भवकारणम्‌ ॥

    ४६॥

    जन्म--जन्मों; त्रय--तीन; अनुगुणित--तक चलने वाली; वैर--शत्रुता; संरब्धधा--अभिवृद्ध्धि होने से; धिया--मनोवृत्ति से;ध्यायन्‌--ध्यान करते हुए; तत्‌ -मयताम्‌--उनसे तादात्म्य; यात:ः--प्राप्त किया; भाव: --मनोभाव; हि--निस्सन्देह; भव--पुनर्जन्म का; कारणम्‌--कारण |

    तीन जन्मों से भगवान्‌ कृष्ण के प्रति द्वेष में अभिवृद्धि से शिशुपाल को भगवान्‌ कादिव्यरूप प्राप्त हुआ।

    दरअसल मनुष्य की चेतना से उसका भावी जन्म निश्चित होता है।

    ऋत्विग्भ्य: ससदस्ये भ्यो दक्षिनां विपुलामदात्‌ ।

    सर्वान्सम्पूज्य विधिवच्चक्रे वभूथमेकराट्‌ ॥

    ४७॥

    ऋत्विग्भ्य:--पुरोहितों को; स-सदस्येभ्य:--सभा के सदस्यों सहित; दक्षिणाम्‌--दक्षिणा; विपुलाम्‌--प्रचुर; अदात्‌--दिया;सर्वानू--सबों को; सम्पूज्य-- भलीभाँति पूज कर; विधि-वत्‌--शास्त्रीय आदेशों के अनुसार; चक्रे --सम्पन्न किया;अवभृथम्‌--यज्ञ के यजमान की

    शुद्धि के लिए स्नान तथा यज्ञ पात्रों का प्रक्षालन ( यज्ञान्त-स्नान ); एक-राट्‌--सप्राटयुधिष्टिर।

    सम्राट युथ्चिष्ठिर ने यज्ञ के पुरोहितों को तथा सभासदों को उदार भाव से उपहार दिये औरवेदों में संस्तुत विधि से उन सबका समुचित सम्मान किया।

    तत्पश्चात्‌ उन्होंने अवभ्रथ स्नानकिया।

    साथधयित्वा क्रतुः राज्ञः कृष्णो योगेश्वरेश्वर: ।

    उवास कतिचिन्मासान्सुहद्धिरभियाचित: ॥

    ४८॥

    साधयित्वा--सम्पन्न करके; क्रतु:--सोम यज्ञ; राज्ञ:--राजा का; कृष्ण:--कृष्ण ने; योग-ईश्वर--योगशक्ति के स्वामियों के;ईश्वर: --परम स्वामी; उबास--निवास किया; कतिचित्‌--कुछ; मासान्‌--महीनों; सु-हद्धि: --उनके शुभचिन्तकों द्वारा;अभियाचित:ः--याचना किये गये।

    इस प्रकार योग के समस्त ईश्वरों के स्वामी श्रीकृष्ण ने राजा युधिष्ठिर की ओर से इस महान्‌यज्ञ का सफल समापन करवाया।

    तत्पश्चात्‌ अपने घनिष्ठ मित्रों के हार्दिक अनुरोध पर वे कुछमहीनों तक वहाँ रुके रहे।

    ततोनुज्ञाप्य राजानमनिच्छन्तमपी श्वरः ।

    ययौ सभार्य: सामात्य: स्वपुरं देवकीसुतः ॥

    ४९॥

    ततः--तब; अनुज्ञाप्प--प्रस्थान के लिए अनुरोध करके; राजानम्‌--राजा के; अनिच्छन्तमू--न चाहते हुए; अपि--यद्यपि;ईश्वरः -- भगवान्‌; ययौ-- चले गये; स-भार्य:--अपनी पत्नियों सहित; स-अमात्य:--अपने मंत्रियों सहित; स्व--अपने; पुरम्‌--नगर; देवकी-सुत:ः--देवकी -पुत्र तब देवकी-पुत्र

    भगवान्‌ ने, न चाहते हुए भी, राजा से अनुमति ली और वे अपनी पत्नियोंतथा मंत्रियों सहित अपनी राजधानी लौट आये।

    वर्णितं तदुपाख्यानं मया ते बहुविस्तरम्‌ ।

    बैकुण्ठवासिनोर्जन्म विप्रशापात्पुन: पुन: ॥

    ५०॥

    वर्णितम्‌--बतलाये; तत्‌--उस; उपाख्यानम्‌--विवरण को; मया--मेरे द्वारा; ते--तुम्हें; बहु-- अधिक; विस्तरम्‌ू--विस्तार से;बैकुण्ठ-वासिनो:--ई श्वर के नित्य धाम के दो निवासियों ( जय तथा विजय नामक द्वारपालों ) के; जन्म--जन्म; विप्र--ब्राह्मणों( चारों कुमारों ) के; शापात्‌-- श्राप से; पुनः पुन:--फिर फिर।

    मैं पहले ही तुमसे वैकुण्ठ के उन दो वासियों का विस्तार से वर्णन कर चुका हूँ, जिन्हेंब्राह्मणों द्वारा शापित होने से भौतिक जगत में बारम्बार जन्म लेना पड़ा।

    राजसूयावभृशथ्येन स्नातो राजा युधिष्ठिर: ।

    ब्रह्मक्षत्रसभामध्ये शुशुभे सुरराडिव ॥

    ५१॥

    राजसूय--राजसूय यज्ञ के; अवभृथ्येन--अन्तिम अवभृध्य अनुष्ठान द्वारा; स्नात:ः--नहाया; राजा युधिष्ठिर:--राजा युधिष्टिर;ब्रह्म-क्षत्र--ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों की; सभा--सभा के; मध्ये--मध्य में; शुशुभे--तेजोमय लगा; सुर--देवताओं का; राट्‌--राजा ( इन्द्र ); इब--सहृश |

    अन्तिम अवश्वथ्य अनुष्ठान में, जो कि राजसूय यज्ञ के सफल समापन का सूचक था, पवित्रहोकर राजा युथिष्ठिर एकत्र ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों के बीच इस तरह चमक रहे थे, मानो साक्षात्‌देवराज इन्द्र हों।

    राज्ञा सभाजिता: सर्वे सुरमानवखेचरा: ।

    कृष्णं क्रतुं च शंसन्तः स्वधामानि ययुर्मुदा ॥

    ५२॥

    राज्ञा-राजा द्वारा; सभाजिता: --सम्मानित; सर्वे--सभी; सुर--देवता; मानव--मनुष्य; खे-चरा: --तथा आकाश में विचरणकरने वाले ( उपदेवता तथा असुर ); कृष्णम्‌--कृष्ण को; क्रतुम्‌--यज्ञ को; च--तथा; शंसन्त:-- प्रशंसा करते हुए; स्व--अपने अपने; धामानि--धामों को; ययु:--चले गये; मुदा--प्रसन्नतापूर्वक ।

    राजा द्वारा समुचित सम्मान दिये जाकर देवता, मनुष्य तथा मध्यलोक के निवासीप्रसन्नतापूर्वक कृष्ण तथा महान्‌ यज्ञ की प्रशंसा करते हुए अपने अपने लोकों के लिए रवाना हो गये।

    दुर्योधनमृते पापं कलिं कुरुकुलामयम्‌ ।

    यो न सेहे श्रीयं स्फीतां इृष्ठा पाण्डुसुतस्य ताम्‌ ॥

    ५३॥

    दुर्वोधनम्‌-दुर्योधन को; ऋते--छोड़ कर; पापम्‌--पापी; कलिम्‌--कलियुग का शक्त्याविष्ट अंश; कुरू-कुल--कुरुवंश का;आमयम्‌ू--रोग; य:--जो; न सेहे-- नहीं सहन कर सका; श्रीयम्‌--ऐश्वर्य को; स्फीताम्‌--पुष्पित-पललवित होते; दृष्टा--देखकर; पाण्डु-सुतस्य--पाण्डु-पुत्र का; तामू--उस।

    पापी दुर्योधन को छोड़ कर ( सारे लोग संतुष्ट थे ), क्योंकि वह तो साक्षात्‌ कलिकाल थाऔर कुरुवंश का रोग था।

    वह पाण्डु-पुत्र के वृद्धिमान ऐश्वर्य का देखना सहन नहीं कर सका।

    य इदं कीर्तयेद्विष्णो: कर्म चेद्यवधादिकम्‌ ।

    राजमोक्षं वितानं च सर्वपापै: प्रमुच्यते ॥

    ५४॥

    यः--जो; इृदम्‌--ये; कीर्तयेत्‌-- कीर्तन करता है; विष्णो:-- भगवान्‌ विष्णु के; कर्म--कार्यकलाप; चैद्य-वध--शिशुपाल कावध; आदिकम्‌---इत्यादि; राज--राजाओं का ( जो जरासन्ध द्वारा बन्दी बनाये गये थे ); मोक्षम्‌--मोक्ष; वितानमू--यज्ञ; च--तथा; सर्व--सभी; पापैः--पाप के फलों से; प्रमुच्यते--मुक्त कर दिया जाता है।

    जो व्यक्ति भगवान्‌ विष्णु के इन कार्यकलापों को, जिनमें शिशुपाल वध, राजाओं का मुक्तकिया जाना तथा राजसूय यज्ञ का निष्पादन सम्मिलित हैं, सुनाता है, वह समस्त पापों से छूटजाता है।

    TO

    अध्याय पचहत्तर: दुर्योधन अपमानित

    10.75श्रीराजोबाचअजाततशत्रोस्तम्हष्टा राजसूयमहोदयम्‌ ।

    सर्वे मुमुदिरे ब्रह्म्रंदेवा ये समागता: ॥

    १॥

    दुर्योधन वर्जयित्वा राजानः सर्षय: सुरा: ।

    इति श्रुतं नो भगवंस्तत्र कारणमुच्यताम्‌ ॥

    २॥

    श्री-राजा उवाच--राजा ( परीक्षित ) ने कहा; अजात-शत्रो:--युधिष्ठिर का, जिसके शत्रु जन्मे ही नहीं; तम्‌--उसको; दृष्ठा--देख कर; राजसूय--राजसूय यज्ञ का; महा--महान्‌; उदयम्‌--उत्सव; सर्वे--सभी; मुमुदिरि--प्रसन्न थे; ब्रहननू--हे ब्राह्मण( शुकदेव ); नू-देवा:--राजागण; ये--जो; समागता: --एकत्र हुए; दुर्योधनम्‌--दुर्योधन को; वर्जयित्वा--छोड़ कर, केअतिरिक्त; राजान:--राजा; स--सहित; ऋषय:--ऋषिगण; सुरा:--तथा देवतागण; इति--इस प्रकार; श्रुतम्‌--सुना हुआ;नः--हमारे द्वारा; भगवन्‌--हे प्रभु; तत्र--उस; कारणम्‌--कारण को; उच्यताम्‌--कृपया कहें या बतलायें |

    महाराज परीक्षित ने कहा : हे ब्राह्मण, मैंने आपसे जो कुछ सुना उसके अनुसार, एकमात्रदुर्योधन के अतिरिक्त, वहाँ एकत्रित समस्त राजा, ऋषि तथा देवतागण अजातशत्रु राजा केराजसूय यज्ञ के अद्भुत उत्सव को देख कर परम हर्षित थे।

    हे प्रभु, कृपा करके मुझसे कहें किऐसा क्‍यों हुआ ?

    श्रीबादरायणिरुवाचपितामहस्य ते यज्ञे राजसूये महात्मन: ।

    बान्धवा: परिचर्यायां तस्यासन्प्रेमबन्धना: ॥

    ३॥

    श्री-बाडरायनि: उवाच-- श्री बादरायणि ( शुकदेव गोस्वामी ) ने कहा; पितामहस्य--दादा के; ते--तुम्हारे; यज्ञे--यज्ञ में;राजसूये--राजसूय; महा-आत्मन:--महात्मा के ; बान्धवा:--पारिवारिक जन; परिचर्यायाम्‌--विनीत सेवा में; तस्य--उसकी;आसनू--स्थित थे; प्रेम--प्रेम से; बन्धना:--बँधे हुए

    श्री बादरायणि ने कहा : तुम्हारे सन्‍त सहृश दादा के राजसूय यज्ञ में उनके प्रेम से बँधे हुएउनके पारिवारिक सदस्य उनकी ओर से विनीत सेवा-कार्य में संलग्न थे।

    भीमो महानसाध्यक्षो धनाध्यक्ष: सुयोधन: ।

    सहदेवस्तु पूजायां नकुलो द्रव्यसाधने ॥

    ४॥

    गुरुशुश्रूषणे जिष्णु: कृष्ण: पादावनेजने ।

    परिवेषणे द्रुपदजा कर्णो दाने महामना: ॥

    ५॥

    युयुधानो विकर्णश्च हार्दिक्यो विदुरादयः ।

    बाह्नीकपुत्रा भूर्याद्या ये च सन्तर्दनादयः ॥

    ६॥

    निरूपिता महायज्ञे नानाकर्मसु ते तदा ।

    प्रवर्तन्ते सम राजेन्द्र राज्ञ: प्रियचिकीर्षव: ॥

    ७॥

    भीम:ः--भीम; महानस--रसोई का; अध्यक्ष:--निरीक्षक; धन--कोश का; अध्यक्ष:--निरीक्षक; सुयोधन:--सुयोधन( दुर्योधन ); सहदेव: --सहदेव; तु--और; पूजायाम्‌--( अतिथियों के आने पर ) पूजा करने में; नकुल:--नकुल; द्रव्य--आवश्यक सामग्री; साधने--प्राप्त करने में; गुरु--सम्माननीय गुरुजनों के; शुश्रूषणे --सेवा करने में; जिष्णु:--अर्जुन;कृष्ण:--कृष्ण; पाद--पाँव; अवनेजने-- धोने में; परिवेषणे--( भोजन ) परोसने में; द्रपद-जा--द्रुपद की पुत्री ( द्रौपदी );कर्ण:--कर्ण ; दाने--दान देने में; महामना: --उदार; युयुधान: विकर्ण: च--युयुधान तथा विकर्ण; हार्दिक्य: विदुर-आदय: --हार्दिक्य ( कृतवर्मा ), विदुर तथा अन्य; बाह्नीक-पुत्रा:--बाह्लीक राजा के पुत्र; भूनू-आद्या:-- भूरिश्रवा इत्यादि; ये--जो; च--तथा; सन्तर्दन-आदय:--सन्तर्दन तथा अन्य; निरूपिता:--संलग्न; महा--विस्तीर्ण; यज्ञे--यज्ञ में; नाना--विविध; कर्मसु--कामों में; ते--वे; तदा--उस समय; प्रवर्तन्ते स्म--पूरा किया; राज-इन्द्र--हे राजश्रेष्ठ ( परीक्षित ); राज्ञ:--राजा ( युथिष्ठिर )के; प्रिय--प्रिय; चिकीर्षव:--करने की इच्छा से |

    भीम रसोई की देख-रेख कर रहे थे, दुर्योधन कोष की देखभाल कर रहा था और सहदेवअतिथियों के सादर स्वागत में लगे थे।

    नकुल सारी सामग्री जुटा रहे थे, अर्जुन गुरुजनों की सेवामें रत थे जबकि कृष्ण हर एक के पाँव पखार रहे थे।

    द्रौपदी भोजन परोस रही थीं और दानीकर्ण उपहार दे रहे थे।

    अन्य अनेक लोग यथा युयुधान, विकर्ण, हार्दिक्य, विदुर, भूरिश्रवा तथाबाह्लीक के अन्य पुत्र एवं सन्तर्दन भी उस विशाल यज्ञ में विविध कार्यों में स्वेच्छा से लगे हुए थे।

    हे राजश्रेष्ठ, उन्होंने महाराज युधिष्टिर को प्रसन्न करने की अपनी उत्सुकता से ही ऐसा किया।

    ऋत्विक्सदस्यबहुवित्सु सुहृत्तमेषुस्विष्टेषु सूनूतसमरहणदक्षिणाभि: ।

    चैद्ये च सात्वतपतेश्चरणं प्रविष्टेअक्रुस्ततस्त्ववभूथस्नपनं झुनद्याम्‌ ॥

    ८॥

    ऋत्विक्‌-- पुरोहित; सदस्य--यज्ञ में सहायता करने वाले सदस्य; बहु-वित्सु--अत्यंत विद्वान; सुहृत्‌-तमेषु --तथा सर्वश्रेष्ठहितैषीजन; सु-- भलीभाँति; इष्टेषु--सम्मानित; सूनूत--मधुर शब्दों से; समहण--शुभ भेंटें; दक्षिणाभि:--तथा दक्षिणा से;चैद्ये--चेदि के राजा ( शिशुपाल ); च--तथा; सात्वत-पतेः--सात्वतों के स्वामी ( कृष्ण ); चरणम्‌--पाँवों में; प्रविष्टे--प्रविष्टहोकर; चक्करु:--पूरा किया; ततः--तब; तु--तथा; अवभूथ-स्नपनम्‌ू--अवशभृथ स्नान, जिससे यज्ञ पूर्ण हुआ; द्यु--स्वर्ग की;नद्यामू--नदी में ( यमुना में )॥

    जब सारे पुरोहित, प्रमुख प्रतिनिधि, विद्वान सन्त तथा राजा के घनिष्ठ हितैषी मधुर शब्दों, शुभ उपहारों तथा विविध भेंटों रूपी दक्षिणा से भलीभाँति सम्मानित किये जा चुके और जबचेदिराज सात्वतों के प्रभु के चरणकमलों में प्रविष्ट हो चुका, तो दैवी नदी यमुना में अवभृथस्नान सम्पन्न किया गया।

    मृदड्रशट्डभुपणवशधुन्धुर्यानकगोमुखा: ।

    वादित्राणि विचित्राणि नेदुरावभूथोत्सवे ॥

    ९॥

    मृदड़--मृदंग; शब्बु--शंख; पणव--छोटे ढोल; धुन्धुरि--बृहद्‌ सैनिक ढोल; आनक--नगाड़ा; गो-मुखा:--एक वाद्य;वादित्राणि--संगीत; विचित्राणि--विविध; नेदु:--बज उठे; आवभूथ--अवभूथ स्नान के; उत्सवे--उत्सव में |

    अवश्वथ स्नानोत्सव के समय अनेक प्रकार के बाजे बजने लगे, जिनमें मृदंग, शंख, पणव,धुन्धुरि, आनक तथा गोमुख थे।

    नार्तक्यो ननृतुईष्ठटा गायका यूथशो जगु: ।

    वीणावेणुतलोन्नादस्तेषां स दिवमस्पृशत्‌ ॥

    १०॥

    नार्तक्य:--नर्तकियाँ; ननृतुः--नाचीं; हष्टा:--प्रसन्नचित्त; गायका:--गाने वालों ने; यूथश: --टोलियों में; जगुः--गाया;वीणा--वीणा; वेणु--वंशी; तल--तथा मंजीरे की; उन्नाद: --तेज आवाज; तेषाम्‌--उनकी; सः--वह; दिवम्‌--स्वर्ग को;अस्पृशत्‌--छूने लगी।

    नर्तकियों ने अत्याधिक मुदित होकर नृत्य किया, गायकों ने सामूहिक रूप में गाया औरवीणा, वंशी तथा मंजीरे की तेज आवाज बहुत दूर स्वर्गलोक तक पहुँच गई।

    चित्रध्वजपताकाग्रैरिभेन्द्रस्यन्दनार्वभि: ।

    स्वलड्ड तैरभटै्भूपा निर्ययू रुकक्‍्ममालिन: ॥

    ११॥

    चित्र--रंगबिरंगी; ध्वज--झंडियाँ; पताक--तथा झंडे; अग्रै:--उत्तम; इभ--हाथियों से; इन्द्र--राजसी; स्यन्दन--रथ;अर्वभि:--तथा घोड़ों से; सु-अलड्डू तै:--खूब सजे; भटैः--पैदल सिपाहियों सहित; भू-पा:--राजागण; निर्ययु:--चल पड़े;रुक्‍्म--सोने के; मालिन:--हार पहने

    तब सोने के हार पहने हुए सारे राजा यमुना नदी की ओर चल पड़े।

    उनके साथ रंग-बिरंगेझंडे तथा पताकाएँ थीं और उनके साथ साथ पैदल सेना एवं शाही हाथियों, रथों तथा घोड़ों परसवार सुसज्जित सिपाही थे।

    यदुसृज्यकाम्बोजकुरुककयकोशला: ।

    कम्पयन्तो भुव॑ सैन्यैर्ययमानपुरःसरा: ॥

    १२॥

    यदु-सृज्ञय-काम्बोज--यदुगण, सृझ़्यगण तथा काम्बोजगण; कुरु-केकय-कोशला:--कुरुवासी, केकयवासी तथा'कोशलवासी; कम्पयन्त:--हिलाते हुए; भुवम्‌--पृथ्वी को; सैन्यैः--अपनी सेनाओं से; यजमान--यज्ञ करने वाला ( महाराजयुधिष्टिर ); पुरः-सरा:--आगे आगे करके ।

    जुलूस में यजमान युथ्चिष्ठिर महाराज के पीछे पीछे चल रहीं यदुओं, सूंजयों, काम्बोजों,कुरुओं, केकयों तथा कोशलवासियों की समुझ्नित सेनाओं ने धरती को हिला दिया।

    सदस्यर्तिग्द्विजश्रेष्ठा ब्रह्मघोषेण भूयसा ।

    देवर्षिपितृगन्धर्बास्तुष्ठ॒वुः पुष्पर्षिण: ॥

    १३॥

    सदस्य--सदस्य; ऋत्विक्‌-- पुरोहित; द्विज--तथा ब्राह्मण; श्रेष्ठा: -- श्रेष्ठ; ब्रह्म--वेदों के; घोषेण--धध्वनि से; भूयसा--प्रचुर;देव--देवता; ऋषि--ऋषिगण; पितृ--पुरखे; गन्धर्वा:--तथा स्वर्ग के गवैयों ने; तुष्ठवु:ः--यशोगान किया; पुष्प--फूलों की;वर्षिण:--वर्षा करते हुए।

    सभासदों, पुरोहितों तथा अन्य उत्तम ब्राह्मणों ने जोर-जोर से बैदिक मंत्रों का उच्चारणकिया, जबकि देवताओं, ऋषियों, पितरों तथा गन्धर्वों ने यशोगान किया और फूलों की वर्षाकी।

    स्वलण्कृता नरा नार्यों गन्धस््रग्भूषणाम्बरै: ।

    विलिम्पन्त्योउभिसिशञ्जन्त्यो विजह्॒र्विविधे रसै: ॥

    १४॥

    सु-अलहड्डू ताः--अच्छी तरह सजे-धजे; नरा:--पुरुष; नार्य:--तथा स्त्रियाँ; गन्ध--चन्दन-लेप; स्रकू--फूल की मालाओं;भूषण--आभूषणों; अम्बरैः--तथा वस्त्रों से; विलिम्पन्त्य:--चुपड़ कर; अभिषिज्ञन्त्य:--तथा छिड़क कर; विजह्ुः--खेलनेलगे; विविधे:--विविध; रसै:--तरल पदार्थों से |

    चन्दन-लेप, पुष्प-मालाओं, आभूषण तथा उत्तम वस्त्र से सज्जित सारे पुरुषों तथा स्त्रियों नेविविध द्रवों को एक-दूसरे पर मल कर तथा छिड़क कर खूब खिलवाड़ किया।

    तैलगोरसगन्धोदहरिद्रासान्द्रकुद्डु मै: ।

    पुम्भिलिप्ता: प्रलिम्पन्त्यो विजह्र्वारयोषित: ॥

    १५॥

    तैल--वानस्पतिक तेल; गो-रस--दही; गन्ध-उद--सुगन्धित जल; हरिद्रा--हल्‍्दी; सान्द्र- प्रचुर; कुट्डु मैः--तथा सिंदूर से;पुम्भिः--पुरुषों द्वारा; लिप्ता:--लपेटे हुए; प्रलिम्पन्त्य:;--उलट कर पोतते हुए; विजहु: --खिलवाड़ किया; वार-योषित:--बारांगनाओं ने

    पुरुषों ने वारांगनाओं के शरीरों को बहुत सारा तेल, दही, सुगन्धित जल, हल्दी तथा कुंकुमचूर्ण से पोत दिया और पलटकर उन स्त्रियों ने पुरुषों के शरीरों में वैसी ही वस्तुएँ दे पोतीं।

    गुप्ता नृभिर्निरगमन्नुपलब्धुमेतद्‌देव्यो यथा दिवि विमानवरर्न॑देव्यो ।

    ता मातुलेयसखिभि: परिषिच्यमाना:सब्रीडहासविकसद्ददना विरेजु: ॥

    १६॥

    गुप्ता:--सुरक्षित; नृभिः--सैनिकों द्वारा; निरगमन्‌--बाहर गये; उपलब्धुम्‌--स्वयं देखने के लिए; एतत्‌--यह; देव्य:--देवताओं की स्त्रियाँ; यथा--जिस तरह; दिवि--आकाश में; विमान-- अपने अपने विमानों में; वर: -- श्रेष्ठ; नृ-देव्य:--रानियाँ( युधिष्ठिर की ); ताः--वे; मातुलेय--अपने ममेरे भाइयों ( कृष्ण तथा उनके भाई यथा गद तथा सारण ) द्वारा; सखिभि:--अपने मित्रों (यथा भीम तथा अर्जुन ) द्वारा; परिषिच्यमाना:--छिड़के जाकर; स-ब्रीड--लज्जित; हास--हँसी से युक्त;विकसत्‌ू-प्रफुल्लित; बदना: --मुख वाली; विरेजु:--भव्य लग रहे थे

    इस तमाशे को देखने के लिए अपने अपने रथों में सवार होकर तथा अंगरक्षकों से घिर करराजा युधिष्ठिर की रानियाँ बाहर आ गईं, मानों आकाश में दैवी विमानों में देवताओं की पत्नियाँप्रकट हुई हों।

    जब ममेरे भाइयों तथा उनके घनिष्ठ मित्रों ने रानियों पर द्रव पदार्थ छिड़के, तोउनके मुख लजीली मुसकान से खिल उठे, जिससे उनके भव्य सौन्दर्य में वृद्धि हो गई।

    ता देवरानुत सखीन्सिषिचुर्ट तीभिःक्ललन्नाम्बरा विवृतगात्रकुचोरुमध्या: ।

    औत्सुक्यमुक्तकवराच्च्यवमानमाल्या:क्षोभं दधुर्मलधियां रुचिरैविहारै: ॥

    १७॥

    ताः--वे रानियाँ; देवरान्‌ू--अपने पति के भाइयों को; उत--तथा भी; सखीन्‌ू--उनके मित्रों को; सिषिचु:--भिगो दिया;हतीभि:--पिचकारियों से; क्लिन्न-- भीगे, सराबोर; अम्बरा:--वस्त्र; विवृत--दृश्य; गात्र--जिनकी भुजाएँ; कुच--स्तन;ऊरु--जाँचें; मध्या:--तथा कमर; औत्सुक्य--उत्सुकता के कारण; मुक्त--शिधिल; कवरात्‌--बालों की चोटी से;च्यवमान--फिसलते हुए; माल्या:--फूल की छोटी मालाएँ; क्षोभम्‌--हिलना-डुलना; दधुः--उत्पन्न किया; मल--गंदी;धियाम्‌--चेतना वालों के लिए; रुचिरैः--आकर्षक; विहारैः--अपने खेलवाड़ से |

    जब रानियों ने अपने देवरों तथा अन्य पुरुष संगियों पर पिचकारियों से पानी दे मारा, तोउनके वस्त्र भीग गये, जिससे उनकी बाँहें, स्तन, जाँघें तथा कमर झलकने लगे।

    उल्लास में उनकेजूड़े ढीले होने से उनमें बँधे फूल गिर गये।

    इन मनोहारी लीलाओं से उन्होंने उन लोगों कोउत्तेजित कर दिया, जिनकी चेतना दूषित थी।

    स सप्राड्थमारुढ: सदश्च॑ रुक्ममालिनम्‌ ।

    व्यरोचत स्वपतलीभि: क्रियाभि: क्रतुराडिव ॥

    १८॥

    सः--वह; सप्राट्‌ू--राजा युधिष्ठटिर; रथम्‌--अपने रथ पर; आरुढ:--चढ़ा हुआ; सत्‌--उत्तम; अश्वम्‌--घोड़े वाला; रुक्म--सुनहले; मालिनमू--लटकनों से; व्ययोचत--चमक रहा था; स्व-पत्नीभि: --अपनी पत्नियों के साथ; क्रियाभि: --अपने कृत्योंसे; क्रतु--यज्ञ का; राट्‌ू--राजा ( राजसूय ); इब--मानो

    गले की सुनहरी झालरों से युक्त उत्तम घोड़ों से खींचे जाने वाले अपने रथ पर आरूढ़ सप्राटअपनी पत्नियों के संग इतने भव्य लग रहे थे, मानों तेजस्वी राजसूय यज्ञ अपने विविध कृत्यों सेघिरा हुआ हो।

    'पतीसम्याजावभूृथ्यै श्वरित्वा ते तमृत्विज: ।

    आचार्तं स्नापयां चक्रुर्गड्रायां सह कृष्णया ॥

    १९॥

    पली-संयाज--यज्ञकर्ता तथा उसकी पतली द्वारा सम्पन्न अनुष्ठान, जिसमें सोम, त्वष्टा, कुछ देवियों तथा अग्नि का तर्पणसम्मिलित हैं; अवभृथ्यै:--यज्ञ-पूर्ति के लिए किये गये अनुष्ठान; चरित्वा--सम्पन्न करके; ते--वे; तम्‌--उसको; ऋत्विज: --पुरोहितगण; आचान्तम्‌-शुद्धि के लिए जल सुड़क कर आचमन करके; स्नापयाम्‌ चक्रु:--उन्हें नहलाया; गड्जायाम्‌--गंगानदी में; सह--साथ साथ; कृष्णया--द्रौपदी के |

    पुरोहितों ने राजा से पत्ती-संयाज तथा अवश्ृथ्य के अन्तिम अनुष्ठान पूर्ण कराये।

    तब उन्होंनेराजा तथा रानी द्रौपदी से शुद्धि के लिए जल आचमन करने एवं गंगा नदी में स्नान करने केलिए कहा।

    देवदुन्दुभयो नेदुर्नरदुन्दुभिभि: समम्‌ ।

    मुमुचु: पुष्पवर्षाणि देवर्षिपितृमानवा: ॥

    २०॥

    देव--देवताओं की; दुन्दुभय:--दुन्दुभियाँ, नगाड़े; नेदु:--बज उठीं; नर--मनुष्यों की; दुन्दुभिभि:--दुन्दुभियों से; समम्‌--साथ साथ; मुमुचु:--बरसाया; पुष्प--फूलों की; वर्षाणि--वर्षा; देव--देवतागण; ऋषि--ऋषिगण; पितृ--पितरगण;मानवा:--तथा मनुष्यों ने |

    देवताओं की दुन्दुभियाँ मनुष्यों की दुन्दुभियों के साथ साथ बज उठीं।

    देवताओं, ऋषियों,पितरों तथा मनुष्यों ने फूलों की वर्षा की।

    सस्नुस्तत्र ततः सर्वे वर्णा भ्रमयुता नरा: ।

    महापातक्यपि यतः सद्यो मुच्येत किल्बिषात्‌ ॥

    २१॥

    ससस्‍्नुः--स्नान किया; तत्र--वहाँ; तत:--इसके बाद; सर्वे--सभी; वर्ण-आश्रम--सारे वृत्तिपरक सामाजिक तंत्र तथाआध्यात्मिक आश्रम; युता: --के; नरा: --मनुष्य; महा--अत्यन्त; पातकी--पापी; अपि-- भी; यत:--जिससे; सद्यः --तुरन्त;मुच्येत--मुक्त किया जा सके; किल्बिषात्‌--कल्मष से |

    तत्पश्चात्‌ विभिन्न वर्णों तथा आश्रमों से सम्बद्ध नागरिकों ने उस स्थान पर स्नान किया, जहाँपर स्नान करने से बड़ा से बड़ा पापी भी पापों के फल से तुरन्त मुक्त हो जाता है।

    अथ राजाहते क्षौमे परिधाय स्वलड्डू तः ।

    ऋत्विक्सदस्यविप्रादीनानर्चाभरणाम्बरै: ॥

    २२॥

    अथ--त्पश्चात्‌; राजा--राजा; अहते--कोरा, बिना पहना; क्षौमे--रेशमी वस्त्र का जोड़ा; परिधाय--पहन कर; सु-अलछ्डू त:--सुन्दर ढंग से सज्जित; ऋत्विक्‌ू--पुरोहितगण; सदस्य--सभा के कार्यकारी सदस्य; विप्र--ब्राह्मण; आदीनू--इत्यादि; आनर्च--पूजा की; आभरण--गहनों से; अम्बरैः--तथा वत्त्नों से |

    इसके बाद राजा ने नये रेशमी वस्त्र धारण किये और अपने को सुन्दर आभूषणों से अलंकृतकिया।

    तत्पश्चात्‌ उन्होंने पुरोहितों, सभा के सदस्यों, विद्वान ब्राह्मणों तथा अन्य अतिथियों कोआभूषण तथा वस्त्र भेंट करके उनका सम्मान किया।

    बन्धूज्ज्ञातीच्पान्मित्रसुहृदो उन्‍्यां श्र सर्वशः ।

    अभीक्ष्न॑ पूजयामास नारायणपरो नृपः ॥

    २३॥

    बन्धूनू--दूर के सम्बन्धियों; ज्ञातीनू--परिवार के निकटजनों; नृपान्‌ू--राजाओं ; मित्र--मित्रों; सुहद:ः--तथा शुभचिन्तकों को;अन्यान्‌--अन्यों को; च-- भी; सर्वश:--सभी प्रकार से; अभीक्ष्णम्‌--निरन्तर; पूजयाम्‌ आस--पूजा की; नारायण-पर: --नारायण-भक्त; नृप:ः--राजा ने

    भगवान्‌ नारायण के प्रति पूर्णतया समर्पित राजा युधिष्ठिर ने अपने सम्बन्धियों, परिवारवालों, अन्य राजाओं, अपने मित्रों, अपने शुभचिन्तकों तथा वहाँ पर उपस्थित सारे लोगों कानिरन्तर सम्मान करते रहे।

    सर्वे जना: सुररुचो मणिकुण्डलस्त्र-गुष्णीषकञ्जुकदुकूलमहार्ध्यहारा: ।

    नार्यश्व॒ कुण्डलयुगालकवृन्दजुष्ट -वक्त्रश्रय: कनकमेखलया विरेजु: ॥

    २४॥

    सर्वे--सभी; जना: --पुरुष; सुर--देवताओं की तरह; रुचः--तेजस्वी रंग वाले; मणि--मणि; कुण्डल--कान के कुण्डलों से;सत्रकु--फूल-मालाओं ; उष्णीष--पगड़ी; कञ्जुक--ऊपरी वस्त्र, उत्तरीय; दुकूल--रेशमी वस्त्र; महा-अर्घ्य--अत्यन्त कीमती;हारा:--तथा मोती की मालाएँ; नार्य:--स्त्रियाँ; च--तथा; कुण्डल--कुण्डलों की; युग--जोड़ी; अलक-वृन्द--केशराशि( जूड़ा ); जुष्ट--सुसज्जित; वक्त्र--मुखड़ों की; भ्रिय:ः --सुन्दरता; कनक--सोने की; मेखलया--करधनी से; विरेजु:--चमचमा रही थीं।

    वहाँ पर उपस्थित सारे पुरुष देवताओं जैसे चमक रहे थे।

    वे रलतजटित कुण्डलों, फूल कीमालाओं, पगड़ियों, अंगरखों, रेशमी धोतियों तथा कीमती मोतियों की मालाओं से सज्जित थे।

    स्त्रियों के सुन्दर मुखड़े उनसे मेल खा रहे कुण्डलों तथा केश-गुच्छों से सुशोभित हो रहे थे औरवे सुनहरी करधनियाँ पहने थीं।

    अथर्तिवजो महाशीला: सदस्या ब्रह्मवादिन: ।

    ब्रह्मक्षत्रियविट्शुद्राराजानो ये समागता: ॥

    २५॥

    देवर्षिपितृभूतानि लोकपाला: सहानुगा: ।

    पूजितास्तमनुज्ञाप्य स्वधामानि ययुर्नुप ॥

    २६॥

    अथ--तब; ऋत्विज: --पुरोहितगण; महा-शीला: --उच्च चरित्र वाले; सदस्या:--यज्ञ के अधिकारीगण; ब्रह्म--वेदों के;वादिन:--विशेषज्ञ; ब्रह्म--ब्राह्मण; क्षत्रिय--क्षत्रिय; विट्‌ू--वैश्य; शुद्राः--तथा शूद्रगण; आजान:--राजा; ये--जो;समागता:--आये हुए; देव--देवता; ऋषि--ऋषिगण; पितृ--पितरगण; भूतानि--तथा भूत-प्रेत; लोक--लोकों के;पाला:--शासक; सह--सहित; अनुगा: -- अनुयायी; पूजिता: --पूजित; तम्‌--उससे; अनुज्ञाप्प-- अनुमति लेकर; स्व-- अपने;धामानि--घरों को; ययु:--चले गये; नूप--हे राजा ( परीक्षित ) |

    तत्पश्चात्‌, हे राजन, अत्यन्त सुसंस्कृत पुरोहितजन, महान्‌ वैदिक विशेषज्ञ, जो यज्ञ-साक्षियोंके रूप में सेवा कर चुके थे, विशेष रूप से आमंत्रित राजागण, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र,देवता, ऋषि, पितर, भूत-प्रेत एवं मुख्य लोकपाल तथा उनके अनुयायीगण--ये सारे लोग राजायुथिष्ठिर से पूजे जाने के बाद उनकी अनुमति लेकर अपने अपने घरों के लिए प्रस्थान कर गये।

    हरिदासस्य राजर्षे राजसूयमहोदयम्‌ ।

    नेवातृप्यन्प्रशंसन्तः पिबन्मर्त्योमृतं यथा ॥

    २७॥

    हरि--भगवान्‌ कृष्ण के; दासस्य--सेवक के; राज-ऋषे: --राजर्षि के; राजसूय--राजसूय यज्ञ के; महा-उदयम्‌--महान्‌उत्सव; न--नहीं; एव--निस्सन्देह; अतृप्यन्‌ू--सन्तुष्ट हो गये; प्रशंसन्तः--प्रशंसा करते हुए; पिबन्‌--पीते हुए; मर्त्य:--मरणशील मनुष्य; अमृतम्‌--अमृत; यथा--जिस तरह

    वे उस राजर्षि तथा हरि-सेवक द्वारा सम्पन्न अद्भुत राजसूय यज्ञ की प्रशंसा करते अघा नहींरहे थे, जिस तरह सामान्य व्यक्ति अमृत पीते नहीं अघाता।

    ततो युधिष्ठिरो राजा सुहत्सम्बन्धिबान्धवान्‌ ।

    प्रेमणा निवारयामास कृष्णं च त्यागकातर: ॥

    २८॥

    ततः--तत्पश्चात; युथिष्टिर: राजा--राजा युधिष्ठिर; सुहृत्‌--अपने मित्रों; सम्बन्धि--सम्बन्धी लोग; बान्धवान्‌--तथा बान्धव;प्रेमणा--प्रेम के वशीभूत; निवारयाम्‌ आस--उन्हें रोका; कृष्णम्‌--कृष्ण को; च--तथा; त्याग--वियोग से; कातरः --दुखी ।

    उस समय राजा युधिष्ठिर ने अपने अनेक मित्रों, निकट सम्बन्धियों तथा बान्धवों को जाने सेरोक लिया, जिनमें कृष्ण भी थे।

    प्रेम के वशीभूत युथिष्ठिर ने उन्हें जाने नहीं दिया, क्योंकि उन्हेंआसतन्न विरह की पीड़ा अनुभव हो रही थी।

    भगवानपि तत्राड़ न्यावात्सीत्तत्प्रियंकर: ।

    प्रस्थाप्य यदुवीरां श्व साम्बादीं श्व कुशस्थलीम्‌ ॥

    २९॥

    भगवानू-- भगवान्‌; अपि--तथा; तत्र--वहाँ; अड्ग--प्रिय ( राजा परीक्षित ); न्यावात्सीतू--रह गए; तत्‌--उसके लिए( युधिष्ठिर के लिए ); प्रियम्‌ू-- आनन्द; कर: --करते हुए; प्रस्थाप्प-- भेज कर; यदु-वीरान्‌--यदुबंश के वीरों को; च--तथा;साम्ब-आदीनू--साम्ब इत्यादि; च--तथा; कुशस्थलीम्‌--द्वारका |

    हे परीक्षित, साम्ब तथा अन्य यदु-वीरों को द्वारका वापस भेज कर भगवान्‌ राजा को प्रसन्नकरने के लिए कुछ काल तक वहाँ ठहर गए।

    इत्थं राजा धर्मसुतो मनोरथमहार्णवम्‌ ।

    सुदुस्तरं समुत्तीर्य कृष्णेनासीद्‌गतज्वर: ॥

    ३०॥

    इत्थम्‌--इस तरह से; राजा--राजा; धर्म--धर्म के ( यमराज ); सुत:--पुत्र; मनः-रथ--अपनी इच्छाओं के; महा--विशाल;अर्णवम्‌--समुद्र को; सु--अत्यन्त; दुस्तरम्‌ू--पार करना कठिन; समुत्तीर्य--भलीभाँति पार करके; कृष्णेन--कृष्ण के माध्यमसे; आसीत्‌--हो गया; गत-ज्वरः --ज्वर से मुक्त |

    इस तरह धर्म-पुत्र राजा युधिष्ठिर भगवान्‌ कृष्ण की कृपा से अपनी इच्छाओं के विशाल एवंदुर्लघ्य समुद्र को भलीभाँति पार करके अपनी उत्कट महत्त्वाकांक्षा से मुक्त हो गये।

    एकदान्तःपुरे तस्य वीक्ष्य दुर्योधन: यम ।

    अतप्यद्राजसूयस्य महित्वं चाच्युतात्मस: ॥

    ३१॥

    एकदा--एक दिन; अन्तः-पुरे--महल के भीतर; तस्य--उसके ( युधिष्ठिर के ); वीक्ष्य--देख कर; दुर्योधन: --दुर्यो धन;श्रीयम्‌-ऐश्वर्य; अतप्यत्‌--दुखी हुआ; राजसूयस्थ--राजसूय यज्ञ की; महित्वमू--महानता को; च--तथा; अच्युत-आत्मन: --उसका ( युथिष्ठिर का ) जिसकी आत्मा भगवान्‌ अच्युत थे।

    एक दिन दुर्योधन राजा युथ्रिष्ठिर के महल के ऐश्वर्य को देख कर राजसूय यज्ञ तथा यज्ञकर्ताराजा की महानता से, जिसका जीवन तथा आत्मा अच्युत भगवान्‌ थे, अत्यधिक विचलित हुआ।

    यस्मिस्नरेन्द्रदितिजेन्द्रसुरेन्द्रलक्ष्मी -नाना विभान्ति किल विश्वसृजोपक्रिप्ता: ।

    ताभिः पतीन्द्रुपदराजसुतोपतस्थेयस्यां विषक्तहदय: कुरुराडतप्यत्‌ ॥

    ३२॥

    यस्मिन्‌ू--जिसमें ( महल में ); नर-इन्द्र--मनुष्यों के राजा के; दितिज-इन्द्र-- असुरराज के; सुर-इन्द्र--तथा देवताओं के राजाके; लक्ष्मी:--ऐ श्वर्य; नाना--विविध; विभान्ति--प्रकट थे; किल--निस्सन्देह; विश्व-सूजा--विराट स्त्रष्टा ( मय दानव );उपक्रिप्ता: -- प्रदान किया; ताभि: --उनसे; पतीन्‌ू--उसके पति, पाण्डव; द्रुपद-राज--राजा द्रुपद की; सुता--पुत्री, द्रौपदी ने;उपतस्थे--सेवा की; यस्याम्‌--जिसकी; विषक्त--अनुरक्त; हृदय: --हृदय वाले; कुरू-राट्‌--कुरु-कुमार दुर्योधन; अतप्यत्‌--सनन्‍्ताप करने लगा।

    उस महल में मनुष्यों, दानवों तथा देवताओं के राजाओं के समस्त संचित ऐश्वर्य जगमगा रहेथे, जो विश्व के अन्वेषक मय दानव द्वारा ले आया गया था।

    उस ऐश्वर्य से द्रौपदी अपने पतियोंकी सेवा करती थी, किन्तु कुरू-राजकुमार दुर्योधन संतप्त था, क्योंकि वह उसके प्रतिअत्यधिक आकृष्ट था।

    यस्मिन्तदा मधुपतेर्महिषीसहस्त्श्रोणी भरेण शनकै: क्वणदड्प्रिशोभम्‌ ।

    मध्ये सुचारु कुचकुड्डू मशोणहारंश्रीमन्मुखं प्रचलकुण्डलकुन्तलाढ्यम्‌ ॥

    ३३ ॥

    यस्मिन्‌ू--जिसमें; तदा--उस समय; मधु--मथुरा के; पतेः--स्वामी की; महिषी--रानियाँ; सहस््रमू--हजारों; श्रोणी--अपनेनितम्बों के; भरेण-- भार से; शनकै: -- धीरे-धीरे; क्वणत्‌--शब्द करती हुई; अड्प्रि--पाँव; शोभमू--शोभा; मध्ये--बीच में( कमर में ); सु-चारु--अत्यन्त मनोहर; कुच--उनके स्तनों से; कुद्डू म--कुंकुम-चूर्ण से; शोण--रक्तिम; हारम्‌ू-मोती कीमाला; श्री-मत्‌--सुन्दर; मुखम्‌--मुखों वाली; प्रचल--हिलते, गतिमान्‌; कुण्डल--कुण्डलों से; कुन्तल--बालों के गुच्छे;आद्यम्‌--धनी |

    भगवान्‌ मधुपति की हजारों रानियाँ भी महल में ठहरी हुई थीं।

    उनके पाँव नितम्बों के भार से धीरे-धीरे गति करते थे और उनके पाँवों के पायजेब मनोहर शब्द करते थे।

    उनकी कटिअत्यन्त पतली थी, उनके स्तनों पर लगे कुंकुम से उनकी मोती की मालाएँ लाल-लाल हो गयीथीं।

    उनके हिलते कुण्डलों तथा लहराते बालों से उनके मुखों की भव्य शोभा बढ़ रही थी।

    सभायां मयक्रिप्तायां क्वापि धर्मसुतोधिराट्‌ ।

    वृतोनुगैर्बन्धुभिश्व कृष्णेनापि स्वचक्षुषा ॥

    ३४॥

    आसीन: काञ्जने साक्षादासने मघवानिव ।

    पारमेष्ठद्रश्रीया जुष्ट: स्तूयमानश्च वन्दिभि: ॥

    ३५॥

    सभायाम्‌--सभाभवन में; मय--मय दानव द्वारा; क्रिप्तायामू--बनाया; क्व अपि--एक अवसर पर; धर्म-सुत:--यमराज केपुत्र ( युधिष्ठिर ); अधिराट्‌--सप्राट; वृत:ः--घिरे हुए; अनुगैः--अपने सेवकों से; बन्धुभि:--पारिवारिक सदस्यों से; च--तथा;कृष्णेन-- भगवान्‌ कृष्ण द्वारा; अपि-- भी; स्व--अपनी; चक्षुषा-- आँख से; आसीन:--बैठा; काञ्जने--सोने से बने;साक्षात्‌--स्वयं; आसने--सिंहासन पर; मघवानू--इन्द्र; इब--मानो; पारमेष्ठय--ब्रह्मा का, परम सत्ता के; अ्रिया--ऐश्वर्य से;जुष्ट: -- जुड़ा; स्तूयमान:--प्रशंसित होकर; च--तथा; वन्दिभि:--राजकवियों द्वारा |

    ऐसा हुआ कि धर्म-पुत्र सम्राट युथिष्ठिर मय दानव द्वारा निर्मित सभाभवन में स्वर्ण सिंहासनपर इन्द्र के समान विराजमान थे।

    उनके साथ उनके परिचारक तथा परिवार वाले लोगों केअतिरिक्त उनके विशेष नेत्रस्वरूप भगवान्‌ कृष्ण भी थे।

    साक्षात्‌ ब्रह्मा के ऐश्वर्य को प्रदर्शित कररहे राजा युथ्चिष्ठिर राजकवियों द्वारा प्रशंसित हो रहे थे।

    तत्र दुर्योधनो मानी परीतो भ्रातृभिननूप ।

    किरीटमाली न्‍्यविशदसिहस्तः क्षिपन्रुषा ॥

    ३६॥

    तत्र--वहाँ; दुर्योधन: --दुर्योधन; मानी-- अभिमानी; परीतः --घिरा हुआ; भ्रातृभि:--अपने भाइयों से; नृप--हे राजा;किरीट--मुकुट; माली--तथा हार पहने; न्यविशत्‌--प्रविष्ट हुआ; असि--तलवार; हस्त:--हाथ में; क्षिपन्‌--( द्वारपालों को )अपमानित करते हुए; रुषा--क्रोध से भरा हुआ।

    अभिमानी दुर्योधन अपने हाथ में तलवार लिये और मुकुट तथा हार पहने क्रोध से भराअपने भाइयों के साथ महल में गया।

    हे राजन, घुसते समय उसने द्वारपालों का अपमान किया।

    स्थले भ्यगृह्नाद्वस्त्रान्तं जलं मत्वा स्थलेउपतत्‌ ।

    जले च स्थलवदभ्रान्त्या मयमायाविमोहित: ॥

    ३७॥

    स्थले--स्थल पर; अभ्यगृह्नात्‌ू--ऊपर उठा लिया; बस्त्र--अपने वस्त्र का; अन्तमू--छोर; जलमू--जल; मत्वा--मान कर;स्थले--तथा अन्य स्थान पर; अपतत्‌--गिर गया; जले--जल में; च--तथा; स्थल--स्थल; वत्‌--मानो; भ्रान्त्या-- भ्रम से;मय--मय दानव के; माया--जादू से; विमोहित:ः--मोहग्रस्त

    मय दानव के जादू से निर्मित भ्रम से मोहग्रस्त होकर दुर्योधन ठोस फर्श को जल समझबैठा, अतः उसने अपने वस्त्र का निचला सिरा ऊपर उठा लिया।

    अन्यत्र जल को ठोस फर्श समझलेने से वह जल में गिर गया।

    जहास भीमस्तं दृष्ठा स्त्रियो नृपतयो परे ।

    निवार्यमाणा अप्यड़ राज्ञा कृष्णानुमोदिता: ॥

    ३८ ॥

    जहास--हँस पड़ा; भीम:-- भीमसेन; तम्‌ू--उसको ; दृष्टा--देख कर; स्त्रियः--स्त्रियाँ; नू-पतय:--राजागण; अपरे--तथाअन्य; निवार्यमाणा: --रोके जाने पर; अपि-- भी; अड़--हे प्रिय ( परीक्षित ); राज्ञा--राजा ( युथिष्टिर ) द्वारा; कृष्ण--कृष्णद्वारा; अनुमोदिता:--समर्थित, सहमत ।

    हे परीक्षित, यह देख कर भीम हँस पड़े और उसी तरह स्त्रियाँ, राजा तथा अन्य लोग भीहँसे।

    राजा युधिष्ठिर ने उन्हें रोकना चाहा, किन्तु भगवान्‌ कृष्ण ने अपनी सहमति प्रदर्शित की ।

    स ब्रीडितोवग्वदनो रुषा ज्वलन्‌निष्क्रम्य तूष्णीं प्रययौ गजाह्यम्‌ ।

    हाहेति शब्द: सुमहानभूत्सता-मजातशन्रुर्विमना इवाभवत्‌ ।

    बभूव तृष्णीं भगवान्भुवो भरंसमुजिहीर्षुर््रमति सम यदुशा ॥

    ३९॥

    सः--वह, दुर्योधन; ब्रीडित:--उद्विग्न; अवाक्‌ू--हक्का-बक्का; वदन:--मुख; रुषा--क्रो ध से; ज्वलन्‌ू--जलता हुआ;निष्क्रम्य--बाहर निकल कर; तृष्णीम्‌--चुपके से; प्रययौ--चला गया; गज-आह्यम्‌-- हस्तिनापुर; हा-हा इति--हाय हाय;शब्द:--शब्द; सु-महान्‌-- भीषण; अभूत्‌--उठा; सताम्‌--सन्त-पुरुषों से; अजात-शत्रु:--राजा युथिष्टिर; विमना:--उदास;इब--कुछ कुछ; अभवत्‌--हो गया; बभूब-- था; तृष्णीम्‌ू--मौन; भगवान्‌-- भगवान्‌; भुवः--पृथ्वी का; भरम्‌-- भार;समुजिहीर्षु:--हटाने की इच्छा से; भ्रमति स्म--( दुर्योधन ) ठगा गया; यत्‌--जिसकी; दशा--दृष्टि से |

    लज्जित एवं क्रोध से जलाभुना दुर्योधन अपना मुँह नीचा किये, बिना कुछ कहे, वहाँ सेनिकल गया और हस्तिनापुर चला गया।

    उपस्थित सनन्‍्त-पुरुष जोर-जोर से कह उठे, 'हाय!हाय! ' और राजा युथ्रिष्ठिर कुछ दुखी हो गये।

    किन्तु भगवान्‌, जिनकी चितवन्‌ मात्र से दुर्योधनमोहित हो गया था, मौन बैठे रहे, क्योंकि उनकी मंशा पृथ्वी के भार को हटाने की थी।

    एतत्तेडभिहितं राजन्यत्पृष्टोहमिह त्वया ।

    सुयोधनस्य दौरात्म्यं राजसूये महाक्रतो ॥

    ४०॥

    एतत्‌--यह; ते--तुमसे; अभिहितम्‌ू--कहा गया; राजन्‌--हे राजन; यत्‌--जो; पृष्ट:--पूछा गया; अहम्‌--मैंने; इहह--इससम्बन्ध में; त्वया--तुम्हारे द्वारा; सुयोधनस्य--सुयोधन ( दुर्योधन ) का; दौरात्म्यम्‌ू--असंतोष; राजसूये--राजसूय यज्ञ केदौरान; महा-क्रतौ--महान्‌ यज्ञ |

    हे राजन, अब मैं तुम्हारे इस प्रश्न का उत्तर दे चुका हूँ कि दुर्योधन महान्‌ राजसूय यज्ञ केअवसर पर क्‍यों असन्तुष्ट था।

    TO

    अध्याय छिहत्तर: शाल्व और वृष्णियों के बीच युद्ध

    10.76श्रीशुक उवाचअथान्यदपि कृष्णस्य श्रुणु कर्माद्भुतं नृप ।

    क्रीडानरशरीरस्य यथा सौभपतिहतः ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; अथ--अब; अन्यत्‌--दूसरा; अपि-- भी; कृष्णस्य--कृष्ण का; श्रूणु--सुनो;कर्म--कार्य; अद्भुतम्‌-विचित्र; नृप--हे राजा; क्रीडा--खिलवाड़ करने के लिए; नर--मनुष्य जैसा; शरीरस्य--शरीर का;यथा--कैसे; सौभ-पति:--सौभ का स्वामी ( शाल्व ); हतः--मारा गया

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजनू, अब उन भगवान्‌ कृष्ण द्वारा सम्पन्न एक अन्य अद्भुत्‌कार्य सुनो, जो दिव्य लीलाओं का आनन्द लेने के लिए अपने मानव शरीर में प्रकट हुए।

    अबसुनो कि उन्होंने किस तरह सौभपति का वध किया।

    शिशुपालसख: शाल्वो रुक्मिण्युद्राह आगतः ।

    यदुभिर्निर्जितः सड्ख्ये जरासन्धादयस्तथा ॥

    २॥

    शिशुपाल-सख: --शिशुपाल का मित्र; शाल्व:--शाल्व नामक; रुक्मिणी-उद्बाहे--रूक्मिणी के विवाह में; आगत:--आयाहुआ; यदुभि:--यदुओं द्वारा; निर्जित: --परास्त; सड़्ख्ये--युद्ध में; जरासन्ध-आदय:--जरासन्ध इत्यादि; तथा--भी |

    शाल्व शिशुपाल का मित्र था।

    जब वह रुक्मिणी के विवाह में सम्मिलित हुआ था, तोयदुवीरों ने उसे जरासन्ध तथा अन्य राजाओं समेत युद्ध में परास्त कर दिया था।

    शाल्व: प्रतिज्ञामकरोच्छुण्वतां सर्वभूभुजाम्‌ ।

    अयादवां क्ष्मां करिष्ये पौरुषं मम पश्यत ॥

    ३॥

    शाल्व:--शाल्व ने; प्रतिज्ञामू--प्रतिज्ञा।

    अकरोत्‌--की; श्रृण्वताम्‌--सुनते हुए; सर्व--सभी; भू-भुजाम्‌--राजाओं के;अयादवामू्‌--यादवों से विहीन; क्ष्माम्‌ू-पृथ्वी को; करिष्ये--करूँगा; पौरुषम्‌--पराक्रम; मम--मेरा; पश्यत--जरा देखो

    शाल्व ने समस्त राजाओं के समक्ष प्रतिज्ञा की, 'मैं पृथ्वी को यादवों से विहीन कर दूँगा।

    जरा मेरे पराक्रम को देखो।

    'इति मूढः प्रतिज्ञाय देवं पशुपतिं प्रभुम्‌ ।

    आराधयामास नृपः पांशुमुष्टिं सकृदग्रसन्‌ ॥

    ४॥

    इति--इन शब्दों से; मूढ: --मूर्ख ने; प्रतिज्ञाय--प्रतिज्ञा करके ; देवम्‌--स्वामी; पशु-पतिम्‌--पशु सहश पुरुषों के रक्षक, शिवको; प्रभुम्‌ू--अपने स्वामी; आरधयाम्‌ आस--पूजा की; नृप:--राजा; पांशु-- धूल की; मुष्टिम्‌--मुट्ठी; सकृत्‌ू--एक बार( नित्य ही ); ग्रसन्‌--खाते हुए।

    यह प्रतिज्ञा कर चुकने के बाद वह मूर्ख राजा प्रतिदिन मात्र एक मुट्ठी धूल फाँक करभगवान्‌ पशुपति ( शिव ) की पूजा करने लगा।

    संवत्सरान्ते भगवानाशुतोष उमापति: ।

    वरेण च्छन्दयामास शाल्वं शरणमागतम्‌ ॥

    ५॥

    संवत्सर--एक वर्ष के; अन्ते--अन्त में; भगवान्‌-- भगवान्‌; आशु-तोष: --तुरन्त प्रसन्न होने वाले; उमा-पति:--उमा के पति;वरेण--वर से; छन्दयाम्‌ आस--चुनने के लिए; शाल्वम्‌--शाल्व को; शरणम्‌--शरण लेने के लिए; आगतम्‌--आया हुआ।

    भगवान्‌ उमापति शीघ्र प्रसन्न होने वाले अर्थात्‌ आशुतोष कहलाते हैं, फिर भी उन्होंने अपनीशरण में आये शाल्व को एक वर्ष के बाद ही यह कह कर तुष्ट किया कि तुम जो वर चाहो माँगसकते हो।

    देवासुरमनुष्याणां गन्धर्वोरगरक्षसाम्‌ ।

    अभेद्यं कामगं वत्रे स यान॑ं वृष्णिभीषणम्‌ ॥

    ६॥

    देव--देवताओं द्वारा; असुर--असुरों; मनुष्याणाम्‌--तथा मनुष्यों को; गन्धर्व--गन्धर्वों द्वारा; उरग--दैवी सर्प; रक्षसामू--तथाराक्षसगण को; अभेद्यमू--नष्ट न किया जा सकने वाला; काम--इच्छानुसार; गम्‌-- भ्रमण करते हुए; वब्रे--चुना; सः --उसने;यानमू्‌--सवारी, यान; वृष्णि--वृष्णियों को; भीषणम्‌-- भयभीत बनाने के लिए।

    शाल्व ने ऐसा यान चुना, जो न तो देवताओं, असुरों, मनुष्यों, गन्धर्वों, उरगों और न हीराक्षसों द्वारा नष्ट किया जा सके और जो उसकी इच्छानुसार कहीं भी यात्रा करा सके औरवृष्णियों को भयभीर करा सके।

    तथेति गिरिशादिष्टो मय: परपुरंजय: ।

    पुरं निर्माय शाल्वाय प्रादात्सौभमयस्मयम्‌ ॥

    ७॥

    तथा--ऐसा ही हो; इति--ऐसा कहने के बाद; गिरि-श--शिव द्वारा; आदिष्ट:--आदेश दिया; मय:--मय दानव; पर--शत्रुके; पुरम्‌ू--नगरों को; जय:--जीतने वाला; पुरमू--नगर; निर्माय--बनाने के लिए; शाल्वाय--शाल्व के लिए; प्रादात्‌--दिया; सौभम्‌--सौभ नामक; अयः--लोहे का; मयम्‌--निर्मित |

    शिवजी ने कहा, 'ऐसा ही हो।

    ' उनके आदेश पर अपने शत्रुओं के नगरों को जीत लेनेवाले मय दानव ने एक लोहे की उड़न नगरी बनाई, जिसका नाम सौभ था और लाकर शाल्वको भेंट कर दी।

    स लब्ध्वा कामगं यानं तमोधाम दुरासदम्‌ ।

    ययस्द्वारवतीं शाल्वो बैरं वृष्णिकृतं स्मरन्‌ ॥

    ८॥

    सः--वह; लब्ध्वा--प्राप्त करके; काम-गम्‌--इच्छानुसार भ्रमण करने वाला; यानमू--यान को; तम:ः ---अंधकार का; धाम--घर; दुरासदम्‌--जहाँ पहुँचा न जा सके; ययौ--गया; द्वारवतीम्‌--द्वारका; शाल्व:--शाल्व; वैरम्‌--शत्रुता; वृष्णि-कृतम्‌--वृष्णियों द्वारा की गई; स्मरन्‌ू--स्मरण करते हुए।

    यह दुर्दम्य यान अंधकार से पूर्ण था और कहीं भी जा सकता था।

    इसे प्राप्त करने पर शाल्वअपने प्रति वृष्णियों की शत्रुता स्मरण करते हुए द्वारका गया।

    निरुध्य सेनया शाल्वो महत्या भरतर्षभ ।

    पुरी बभझ्लोपवनानुद्यानानि च सर्वशः ॥

    ९॥

    सगोपुराणि द्वाराणि प्रासादाद्चालतोलिका: ।

    विहारान्स विमानाछयान्रिपेतु: शस्त्रवृष्टय: ॥

    १०॥

    शिलादुमाश्राशनय: सर्पा आसारशर्करा: ।

    प्रचण्डश्चक्रवातो भूद्रजसाच्छादिता दिश: ॥

    ११॥

    निरुध्य--घेरा डाल कर; सेनया--सेना के साथ; शाल्व:--शाल्व; महत्या--महान्‌; भरत-ऋषभ--हे भरत- श्रेष्ठ; पुरीमू--नगरको; बभञ्ञ--तोड़ डाला; उपवनान्‌--वाटिकाओं को; उद्यनानि--बगीचे; च--तथा; सर्वश:--चारों ओर; स-गोपुराणि--बुर्जियों समेत; द्वाराणि--तथा द्वार; प्रासाद--महल; अट्टाल--अटारियाँ; तोलिका:--तथा चार दीवारियाँ; विहारान्‌ू--मनोरंजनके स्थलों को; सः--वह, शाल्व; विमान--हवाईंजहाज से; अछयात्‌--सर्व श्रेष्ठ; निपेतु:--गिराया; शस्त्र--हथियारों की;वृष्टय: --वर्षा; शिला--पत्थर; द्रुमा:--तथा वृक्ष; च-- भी; अशनय:--वज्; सर्पा:--सर्प; आसार-शर्करा:--तथा ओले;प्रचण्ड:-- भयानक; चक्रवात:--बवण्डर; अभूत्‌--उठा; रजसा-- धूल से; आच्छाद्विता:--ढकी हुई; दिशः--समस्त दिशाएँ |

    हे भरतश्रेष्ठ, शाल्व ने विशाल सेना के साथ नगर को घेर लिया और बाहरी वाटिकाओं तथाउद्यानों, अद्डालिकाओं समेत महलों, गोपुरों तथा चार दीवारियों के साथ साथ सार्वजनिक मनोरंजन स्थलों को भी ध्वस्त कर दिया।

    उसने अपने इस उत्कृष्ट यान से पत्थरों, वृक्ष के तनों,वबज्नों, सर्पो, ओलों इत्यादि हथियारों की वर्षा की।

    एक भीषण बवण्डर उठ खड़ा हुआ औरउसने धूल से सारी दिशाओं को ओझल बना दिया।

    इत्यर्यमाना सौभेन कृष्णस्य नगरी भृशम्‌ ।

    नाभ्यपद्यत शूं राजंस्त्रिपुरुण यथा मही ॥

    १२॥

    इति--इस प्रकार; अर्द्यमाना--सतायी हुई; सौभेन--सौभ नामक विमान से; कृष्णस्य--कृष्ण की; नगरी--पुरी; भूशम्‌--बुरीतरह से; न अभ्यपद्यत--नहीं पा सका; शम्‌--शान्ति; राजनू--हे राजन्‌; त्रि-पुरेण--असुरों की तीन हवाई-नगरियों द्वारा;यथा--जिस तरह; मही--पृथ्वी |

    हे राजनू, इस तरह सौभ विमान द्वारा बुरी तरह सताये जाने से कृष्ण की पुरी में अमन-चैननहीं रहा, जिस तरह असुरों की तीन हवाई-नगरियों द्वारा आक्रमण किये जाने पर पृथ्वी अशान्तहो गई थी।

    प्रद्युम्नो भगवान्वीक्ष्य बाध्यमाना निजा: प्रजा: ।

    म भेष्टेत्यभ्यधाद्वीरो रथारूढो महायशा: ॥

    १३॥

    प्रद्मुम्न:--प्रद्यम्न; भगवानू-- भगवान्‌; वीक्ष्य--देख कर; बाध्यमाना:--सताया जाकर; निजा:--अपनी; प्रजा:--प्रजा; माभैष्ट--मत डरो; इति--इस प्रकार; अभ्यधात्‌--सम्बोधित किये गये; वीर:--महान्‌ वीर; रथ-- अपने रथ पर; आरूढ:ः--सवारहुआ; महा--महान्‌; यशा:--कीर्ति वाला

    अपनी प्रजा को इस प्रकार सताई जाते देखकर यशस्वी तथा वीर भगवान्‌ प्रद्युम्न ने उनसेइस प्रकार कहा, 'डरो मत' तथा वह अपने रथ पर सवार हो गया।

    सात्यकिश्चारुदेष्णश्व साम्बोक्रूरः सहानुज: ।

    हार्दिक्यो भानुविन्दश्च गदश्च शुकसारणौ ॥

    १४॥

    अपरे च महेष्वासा रथयूथपयूथपा: ।

    निर्ययुर्दशिता गुप्ता रथेभाश्रपदातिभि: ॥

    १५॥

    सात्यकिः चारुदेष्ण: च--सात्यकि तथा चारुदेष्ण; साम्ब:--साम्ब; अक्रूर: --एवं अक्रूर; सह--साथ; अनुज:--छोटे भाई;हार्दिक्य:--हार्दिक्य; भानुविन्दः-- भानुविन्द; च--तथा; गद:ः--गद; च--तथा; शुक-सारणौ--शुक एवं सारण; अपरे--अन्य; च--भी; महा-- प्रमुख; इष्व्‌-आसा: -- धनुर्धर; रथ--रथ के ( योद्धा ); यूथ-प--नेताओं के; यूथ-पा: --नेता;निर्ययु:--बाहर चले गये; दंशिता:--कवच धारण किये; गुप्ता:--सुरक्षित; रथ--रथों ( पर सवार सैनिकों ) द्वारा; इभ--हाथियों; अश्व--तथा घोड़ों; पदातिभि:--तथा पैदल सैनिकों से

    रथियों के प्रमुख सेनापति यथा सात्यकि, चारुदेष्ण, साम्ब, अक्रूर तथा उसके छोटे भाईऔर उनके साथ ही हार्दिक्य, भानुविन्द, गद, शुक तथा सारण अनेक अन्य प्रमुख धनुर्धरों केसाथ कवच धारण करके तथा रथों, हाथियों और घोड़ों पर सवार सैनिकों एवं पैदल सिपाहियोंकी टुकड़ियों से सुरक्षित होकर नगर से बाहर आ गये।

    ततः प्रववृते युद्धं शाल्वानां यदुभि: सह ।

    यथासुराणां विबुधस्तुमुलं लोमहर्षणम्‌ ॥

    १६॥

    ततः--तब; प्रववृते--शुरू कर दिया; युद्धम्‌-युद्ध; शाल्वानाम्‌ू--शाल्व के अनुयायियों का; यदुभि: सह--यदुओं के साथ;यथा--जिस तरह; असुराणाम्‌--असुरों का; विबुधे:--देवताओं के साथ; तुमुलम्‌--घनघोर; लोम-हर्षणम्‌--रोंगटे खड़ा करनेबाला।

    तब शाल्व की सेनाओं तथा यदुओं के बीच रोंगटे खड़ा कर देने वाला भीषण युद्ध प्रारम्भहुआ।

    यह असुरों तथा देवताओं के मध्य हुए महान्‌ युद्ध के तुल्य था।

    ताश्व सौभपतेर्माया दिव्यास्त्रे रुक्मिणीसुत: ।

    क्षणेन नाशयामास नैशं तम इवोष्णगु: ॥

    १७॥

    ताः--वे; च--तथा; सौभ-पते:--सौभ के स्वामी की; माया:--जादुई माया; दिव्य--दैवी; अस्त्रै:--हथियारों से; रुक्मिणी-सुतः--रुक्मिणी-पुत्र ( प्रद्युम्न ); क्षणेन-- क्षण में; नाशयाम्‌ आस--नष्ट कर दिया; नैशम्‌--रात्रि का; तमः--अंधकार; इब--सहश; उष्ण--गर्म; गु;ः--जिसकी किरणें ( सूर्य )॥

    प्रद्युम्न ने अपने दैवी हथियारों से शाल्व की सारी माया को क्षण-भर में उसी तरह नष्ट करदिया, जिस तरह सूर्य की तप्त किरणें रात्रि के अँधेरे को दूर कर देती हैं।

    विव्याध पञ्जविंशत्या स्वर्णपुद्डैरयोमुखे: ।

    शाल्वस्य ध्वजिनीपालं शरैः सन्नतपर्वभि: ॥

    १८॥

    शतेनाताडयच्छाल्वमेकैकेनास्थ सैनिकान्‌ ।

    दश्भिर्दशभिमनेतृन्वाहनानि त्रिभिस्त्रिभि: ॥

    १९॥

    विव्याध--चलाया; पञ्ञ--पाँच; विंशत्या--बीस; स्वर्ण--सोना; पुद्छैः--जिनके पुछलल्‍ले; अयः--लोहा के; मुखैः --जिनकेसिरे; शाल्वस्थ--शाल्व का; ध्वजिनी-पालम्‌--प्रधान सेनापति; शरैः--तीरों से; सन्नत--समतल; पर्वभि:--जोड़ों से; शतेन--एक सौ; अताडयत्‌-- प्रहार किया; शाल्वमू--शाल्व को; एक-एकेन-- प्रत्येक को एक-एक से; अस्य--उसका; सैनिकानू--सिपाही; दशभि: दशाभि:--दस-दस करके; नेतृनू--रथ हाँकने वाले; वाहनानि--वाहनों को; त्रिभिः त्रिभि:--प्रत्येक को तीन-तीन से।

    प्रद्युम्न के सारे तीरों के पुछलल्‍ले सोने के, सिरे लोहे के तथा जोड़ एकदम सपाट थे।

    उसनेपच्चीस तीरों से शाल्व के प्रधान सेनापति द्युमान्‌ को मार गिराया और एक सौ तीरों से शाल्व परप्रहार किया।

    फिर उसने शाल्व के हर अधिकारी को एक-एक तीर से, सारथियों में से प्रत्येकको दस-दस तीरों से तथा उसके घोड़ों एवं अन्य वाहनों को तीन-तीन बाणों से बेध डाला।

    तदद्धुतं महत्कर्म प्रद्युम्नस्थ महात्मन: ।

    इृष्ठा तं पूजयामासु: सर्वे स्वपरसैनिका: ॥

    २०॥

    तत्‌--उस; अद्भुतमू--चकित करने वाले; महत्‌--बलशाली; कर्म--कर्तब; प्रद्यम्नस्थ--प्रद्युम्त का; महा-आत्मन:--महापुरुष;इृष्ठा--देखकर; तम्‌ू--उसको; पूजयाम्‌ आसु:--आदर-सम्मान किया; सर्वे--सभी; स्व--अपने पक्ष के; पर--तथा शत्रु पक्षके; सैनिकाः--सिपाही

    जब उन्होंने यशस्वी प्रद्युम्म को वह चकित करने वाला तथा बलशाली ऐसा करतब करतेदेखा, तो दोनों पक्षों के सैनिकों ने उसकी प्रशंसा की।

    बहुरूपैकरूपं तहृश्यते न च दृश्यते ।

    मायामयं मयकृतं दुर्विभाव्यं पैरभूत्‌ ॥

    २१॥

    बहु--अनेक; रूप--रूपों के साथ; एक--एक; रूपमू--रूप के साथ; तत्‌--वह ( सौभ विमान ); दृश्यते--दिखाई पड़ता है;न--नहीं; च--तथा; दृश्यते--दिखता है; माया-मयम्‌--जादूमय; मय--मय दानव द्वारा; कृतम्‌ू--बनाया गया; दुर्विभाव्यम्‌--ढूँढ़ पाना कठिन; परैः--शत्रु ( यादवों ) द्वारा; अभूत्‌ू--बन गया ।

    मय दानव द्वारा निर्मित यह मायावी विमान एक क्षण अनेक एक जैसे रूपों में प्रकट होताऔर दूसरे क्षण पुनः: केवल एक रूप में दिखता।

    कभी यह दिखता और कभी नहीं दिखता था।

    इस तरह शाल्व के विरोधी यह निश्चित नहीं कर पाते थे कि वह कहाँ है।

    क्वचिद्धूमौ क्वचिद्व्योम्नि गिरिमूर्थिन जले क्वचित्‌ ।

    अलातचक्रवदश्चाम्यत्सौभं तहुरवस्थितम्‌ ॥

    २२॥

    क्वचित्‌--एक क्षण में; भूमौ--पृथ्वी पर; क्वचित्‌--एक क्षण में; व्योग्नि--आकाश में; गिरि--पर्वत की; मूर्ध्नि--चोटी पर;जले--जल में; क्वचित्‌--कभी; अलात-चक्र--आग का गोला; वत्‌--सहृश; भ्राम्यत्‌--घूमते हुए; सौभम्‌--सौभ को;तत्‌--उस; दुरवस्थितम्‌--कभी एक स्थान में न रहते हुए।

    एक क्षण से दूसरे क्षण में सौभ विमान पृथ्वी में, आकाश में, पर्वत की चोटी पर या जल मेंदिखता था।

    घूमते हुए अग्नि-पुंज की तरह वह कभी एक स्थान पर नहीं टिकता था।

    यत्र यत्रोपलक्ष्येत ससौभ: सहसैनिक: ।

    शाल्वस्ततस्ततोमुझ्जज्छरान्सात्वतयूथपा: ॥

    २३॥

    यत्र यत्र--जहाँ जहाँ; उपलक्ष्येत--दिखता; स-सौभ: --सौ भ के साथ; सह-सैनिक:--अपने सिपाहियों के साथ; शाल्व: --शाल्व; ततः ततः--वहाँ वहाँ; अमुझ्नन्‌ू--छोड़ा, चलाया; शरान्‌--अपने बाणों को; सात्वत--यदुओं के; यूथ-पा:--सेना केप्रधानों ने

    शाल्व जहाँ जहाँ अपने सौभ यान तथा अपनी सेना के साथ प्रकट होता, वहाँ वहाँ यदु-सेनापति अपने बाण छोड़ते।

    शरैरग्न्यर्कसंस्पर्शराशीविषदुरासदै: ।

    पीड्यमानपुरानीकः शाल्वोमुहात्परेरिते: ॥

    २४॥

    शरैः--बाणों से; अग्नि--अग्नि के समान; अर्क--तथा सूर्य के समान; संस्पशैं:--स्पर्श से; आशी--सर्प के; विष--विष कीतरह; दुरासदैः--असहा; पीड्यमान--पीड़ित; पुर--वायव-पुरी; अनीक:--तथा जिसकी सेना; शाल्व:--शाल्व; अमुहात्‌--मोहित हो गया; पर--शत्रु द्वारा; ईरितै:--चलाया या छोड़ा गया।

    अपने शत्रु के बाणों से त्रस्त हो रही अपनी सेना तथा वायव-पुरी को देखकर शाल्वमोहग्रस्त हो गया, क्योंकि शत्रु के बाण अग्नि तथा सूर्य की तरह प्रहार कर रहे थे और सर्प-विषकी तरह असह् हो रहे थे।

    शाल्वानीकपशस्त्रौधेर्वृष्णिवीरा भूशार्दिता: ।

    न तत्यजू रणं स्वं स्व॑ लोकटठ्रबजिगीषव: ॥

    २५॥

    शाल्व--शाल्व की; अनीक-प--सेना के नायकों के; शस्त्र--हथियारों की; ओघषै: --बाढ़ से; वृष्णि-वीरा:--वृष्णि-कुल केवीर; भूश--अत्यन्त; अर्दिता:--पीड़ित; न तत्यजु:--नहीं छोड़ा; रणम्‌--युद्धभूमि में नियत स्थानों को; स्वम्‌ स्वम्‌-- अपनेअपने; लोक--लोक; द्वय--दो; जिगीषवः--जीतने की इच्छा करते हुए।

    चूँकि वृष्णि-कुल के वीरगण इस जगत में तथा अगले लोक में विजय पाने के लिए उत्सुकथे, इसलिए उन्होंने रणभूमि में अपने नियत स्थानों का परित्याग नहीं किया, यद्यपि शाल्व केसेनापतियों द्वारा चलाये गये हथियारों की वर्षा से उन्हें त्रास हो रहा था।

    शाल्वामात्यो झुमान्नाम प्रद्युम्नं प्रक्प्रपीडितः ।

    आसाद्य गदया मौर्व्या व्याहत्य व्यनदद्ली ॥

    २६॥

    शाल्व-अमात्य:--शाल्व का मंत्री; द्युमान्‌ नाम--जिसका नाम झूुमान्‌ था; प्रद्यम्नम्‌--प्रद्मुम्न को; प्राकु--पहले; प्रपीडित:--आधघात किया था; आसाद्य--सामना करते हुए; गदया--अपनी गदा से; मौर्व्या--लोहे से बनी; व्याहत्य-- प्रहार करके;व्यनदत्‌ू-गर्जना की; बली--शक्तिशाली |

    शाल्व का मंत्री द्युमान्‌ू, जो इसके पूर्व श्री प्रद्मम्म द्वारा घायल कर दिया गया था, अब जोरसे गरजता हुआ उनके पास आया और उसने उन पर काले इस्पात की बनी अपनी गदा से प्रहारकिया।

    प्रद्युम्नं गदया सीर्णवक्ष:स्थलमरिंदमम्‌ ।

    अपोवाह रणात्सूतो धर्मविद्यरूकात्मज: ॥

    २७॥

    प्रद्मुम्नम्‌--प्रद्युम्म को; गदया--गदा से; शीर्ण -- क्षत-विक्षत; वक्ष:-स्थलम्‌ू--छाती; अरिम्‌ू--शत्रुओं के ; दमम्‌--दमनकर्ता ने;अपोवाह--हटा लिया; रणातू--युद्धक्षेत्र से; सूत:--अपना सारथी; धर्म--अपने धर्म के; वित्‌ू--जानकार; दारुक-आत्मज:--दारुक-पुत्र ( कृष्ण का सारथी )

    प्रद्युम्म के सारथी दारुक-पुत्र ने सोचा कि उसके वीर स्वामी की छाती गदा से क्षत-विक्षतहो चुकी है, अतः उसने अपने धार्मिक कर्तव्य को भलीभाँति जानते हुए प्रद्यम्न को युद्धभूमि सेहटा लिया।

    लब्धसम्ज्नो मुहूर्तेन कार्षिग: सारथिमब्रवीत्‌ ।

    अहो असाध्वदं सूत यद्रणान्मे उपसर्पणम्‌ ॥

    २८ ॥

    लब्ध--प्राप्त करके; संज्ञ:--होश; मुहूर्तेन--क्षण-भर में; कार्ण्णि:--कृष्ण के पुत्र ने; सारधिम्‌--सारथी से; अब्नवीत्‌--कहा;अहो--ओह; असाधु --अनुचित; इृदम्‌--यह; सूत--हे सारथी; यत्‌--जो; रणात्‌--युद्धभूमि से; मे--मेरा; अपसर्पणम्‌-लेजाया गया हुआ।

    तुरन्त ही होश आने पर भगवान्‌ कृष्ण के पुत्र प्रद्यम्म ने अपने सारथी से कहा, 'हे सारथी,यह निन्दनीय है कि तुम मुझे युद्धक्षेत्र से हटा लाये हो।

    'न यदूनां कुले जातः श्रूयते रणविच्युतः ।

    विना मत्क्लीबचित्तेन सूतेन प्राप्तकिल्बिषातू ॥

    २९॥

    न--नहीं; यदूनाम्‌--यदुओं के; कुले--परिवार में; जात:--उत्पन्न; श्रूयते--सुना जाता है; रण--युद्धक्षेत्र से; विच्युत:--परित्यक्त; विना--के अलावा; मत्‌--मुझको; क्लीब--नपुंसक की तरह; चित्तेन--जिसकी मनोवृत्ति; सूतेन--सारथी केकारण; प्राप्त--पाया हुआ; किल्बिषात्‌--दाग।

    'मेरे अतिरिक्त यदुवंश के जन्मे किसी ने कभी युद्धभूमि का परित्याग नहीं किया।

    अब तोमेरी ख्याति एक सारथी द्वारा कलंकित हो चुकी है, जो एक नपुंसक की तरह सोचता है।

    'कि नु वक्ष्येडभिसड्रम्य पितरौ रामकेशवौ ।

    युद्धात्सम्यगपक्रान्तः पृष्ठस्तत्रात्मनः क्षमम्‌ ॥

    ३०॥

    किम्‌--क्या; नु--तब; वक्ष्ये--कहूँगा; अभिसड्भम्य-- भेंट करके; पितरौ--अपने दोनों पिताओं से; राम-केशवौ--बलरामतथा कृष्ण; युद्धात्‌-युद्ध से; सम्यक्‌ --सर्वथा; अपक्रान्त:--भागा हुआ; पृष्ट:--पूछे जाने पर; तत्र--उस अवस्था में;आत्मन:--अपने; क्षमम्‌--योग्य |

    मैं अपने पिता-द्वय राम तथा केशव से क्या कहूँगा, जब युद्ध से यों ही भाग कर मैं उनकेपास वापस जाऊँगा ? मैं उनसे क्या कह पाऊँगा, जो मेरी प्रतिष्ठा के अनुरूप हो ?

    व्यक्त मे कथयिष्यन्ति हसन्त्यो भ्रातृजामयः ।

    क्लैब्यं कथं कथ्थ वीर तवान्यै: कथ्यतां मृथे ॥

    ३१॥

    व्यक्तम्‌--निश्चय ही; मे--मेरी; कथयिष्यन्ति-- कहेंगे; हसन्त्य:--हँस हँस कर; भ्रातृ-जामय:--भाभियाँ; क्लैब्यम्‌ू--क्लीवता;कथम्‌-कैसे; कथम्‌--कैसे; वीर--हे वीर; तव--तुम्हारा; अन्य: --तुम्हारे शत्रुओं द्वारा; कथ्यतामू--बतलाओ; मृधे--युद्धमें

    निश्चय ही मेरी भाभियाँ मुझ पर हँसेंगी और कहेंगी, 'हे वीर, हमें यह तो बताओ किकिस तरह इस संसार में तुम्हारे शत्रुओं ने तुम्हें युद्ध में ऐसा कायर बना दिया।

    'सारथिरुवाचधर्म विजानतायुष्मन्कृतमेतन्‍्मया विभो ।

    सूतः कृच्छुगतं रक्षेद्रधिनं सारथि रथी ॥

    ३२॥

    सारथि: उबाच--सारथी ने कहा; धर्मम्‌--धर्म द्वारा संस्तुत; विजानता--अच्छी तरह जानने वाले के द्वारा; आयु:-मन्‌--हेदीर्घजीवी; कृतम्‌--किया गया; एतत्‌--यह; मया--मेरे द्वारा; विभो--हे प्रभु; सूत:--सारथी; कृच्छु--कठिनाई में; गतम्‌--गया हुआ; रक्षेत्‌--रक्षा करनी चाहिए; रधिनमू--रथ के स्वामी की; सारथिम्‌--अपने सारथी को; रथी--रथ का स्वामी |

    साश्थी ने उत्तर दिया : हे दीर्घायु, मैंने अपने निर्दिष्ट कर्तव्य को अच्छी तरह जानते हुए हीऐसा किया है।

    हे प्रभु, सारथी को चाहिए कि जब उसका स्वामी संकट में हो, तो उसकी रक्षाकरे और स्वामी को भी चाहिए कि वह अपने सारथी की रक्षा करे।

    एतद्विदित्वा तु भवान्मयापोवाहितो रणात्‌ ।

    उपसृष्ट: परेणेति मूर्च्छितो गदया हत: ॥

    ३३॥

    एतत्‌--यह; विदित्वा--जान कर; तु--निस्सन्देह; भवान्‌--आप; मया--मेरे द्वारा; अपोवाहितः--हटाये गये; रणात्‌--युद्धभूमि से; उपसूष्ट:--चोट खाये; परेण --शत्रु द्वारा; इति--इस तरह सोचते हुए; मूर्च्छित: --बेहोश; गदया--अपनी गदा से;हत:--प्रहार किया हुआ।

    इस नियम को मन में रखते हुए मैंने आपको युद्धस्थल से हटा लिया, क्योंकि आप अपनेशत्रु की गदा से आहत होकर बेहोश हो गये थे और मैंने सोचा कि आप बुरी तरह से घायल हैं।

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    अध्याय सतहत्तर: भगवान कृष्ण ने राक्षस शाल्व का वध किया

    10.77पाश्रीशुक उवाचस उपस्पृश्य सलिलं दंशितो धृतकार्मुक: ।

    नय मां द्युमतः पार्श्व वीरस्येत्याह सारधिम्‌ ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; सः--वह ९ प्रद्युम्न ); उपस्पृश्य--छूकर; सलिलम्‌--जल; दंशित:--अपनाकवच पहन कर; धृत--धारण करके; कार्मुक:--अपना धनुष; नय--ले चलो; माम्‌--मुझको; द्युमतः--दझ्युमान्‌ के; पार्थ्म्‌--पास; वीरस्य--वीर के; इति--इस प्रकार; आह--बोला; सारधिम्‌-- अपने रथचालक से।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जल से अपने को तरोताजा करने के बाद, अपना कवच पहनकर तथा अपना धनुष लेकर भगवान्‌ प्रद्युम्म ने अपने सारथी से कहा, 'मुझे वहीं वापस लेचलो, जहाँ वीर द्युमान्‌ खड़ा है।

    'विधमन्तं स्वसैन्यानि द्युमन्‍्तं रुक्मिणीसुतः ।

    प्रतिहत्य प्रत्यविध्यान्नाराचैरष्टभि: स्मयन्‌ ॥

    २॥

    विधमन्तम्‌--तहस-नहस करके; स्व--अपने; सैन्यानि--सैनिकों को; द्युमन्‍्तम्‌--द्युमान्‌ को; रुक्मिणी-सुतः--रूक्मिणी-पुत्र( प्रद्युम्न ); प्रतिहत्य--उलट कर आक्रमण करके; प्रत्यविध्यातू--उलट कर वार किया; नाराचै: --लोह के बने विशेष बाणों से;अष्टभि: --आठ; स्मयन्‌--हँसते हुए

    प्रद्यम्म की अनुपस्थिति में द्युमान्‌ उसकी सेना को तहस-नहस किये जा रहा था, किन्तु अबप्रद्युम्न ने द्युमान्‌ पर बदले में आक्रमण कर दिया और हँसते हुए आठ नाराच बाणों से उसे बेधदिया।

    चतुर्भिश्चतुरों वाहान्सूतमेकेन चाहनत्‌ ।

    द्वाभ्यं धनुश्च केतुं च शरेणान्येन वै शिरः ॥

    ३॥

    पाचतुर्भि:--चार ( बाणों ) से; चतुर:ः--चार; वाहान्‌ू--सवारियों को; सूतम्‌--सारथी को; एकेन--एक से; च--तथा;अहनतू--मारा; द्वाभ्यामू--दो से; धनु:ः-- धनुष; च--तथा; केतुम्‌--झंडे को; च--तथा; शरेण--बाण से; अन्येन--दूसरे;वै--निस्सन्देह; शिर:ः--सिर।

    इन बाणों में से चार से उसने द्युमान्‌ के चार घोड़ों को, एक बाण से उसके सारथी को तथादो अन्य बाणों से उसके धनुष तथा रथ के झंडे को और अन्तिम बाण से झुमान्‌ के सिर पर प्रहारकिया।

    गदसात्यकिसाम्बाद्या जघ्नु: सौभपतेर्बलम्‌ ।

    पेतु: समुद्रे सौभेया: सर्वे सडिछन्नकन्धरा: ॥

    ४॥

    गद-सात्यकि-साम्ब-आद्या:--गद, सात्यकि, साम्ब तथा अन्यों ने; जघ्नु;--मार डाला; सौभ-पते:--सौभ के स्वामी ( शाल्व )की; बलम्‌--सेना को; पेतु:--वे गिर पड़े; समुद्रे--समुद्र में; सौभेया:--सौभ के भीतर खड़े हुए; सर्वे--सारे लोग; सजिछन्न--कटी हुई; कन्धरा: -गर्दनों वाले।

    गद, सात्यकि, साम्ब तथा अन्य वीर शाल्व की सेना का संहार करने लगे और इस तरहविमान के भीतर के सारे सिपाही गर्दनें कट जाने से समुद्र में गिरने लगे।

    एवं यदूनां शाल्वानां निष्नतामितरेतरम्‌ ।

    युद्ध त्रिनवरात्र तदभूत्तुमुलमुल्वणम्‌ ॥

    ५॥

    एवम्‌--इस प्रकार; यदूनाम्‌ू--यदुओं के; शाल्वानाम्‌--तथा शाल्व के अनुयायियों के; निघ्नताम्‌--प्रहार करते हुए; इतर-इतरम्‌ू--एक-दूसरे पर; युद्धम्‌ू--युद्ध; त्रि--तीन बार; नव--नौ; रात्रमू--रातों तक; तत्‌ू--वह; अभूत्‌-- था; तुमुलम्‌--घनघोर; उल्बणम्‌-- भयावना |

    इस तरह यदुगण तथा शाल्व के अनुयायी एक-दूसरे पर आक्रमण करते रहे और यहघनघोर भयानक युद्ध सत्ताईस दिनों तथा रातों तक चलता रहा।

    इन्द्रप्रस्थं गतः कृष्ण आहूतो धर्मसूनुना ।

    राजसूयेथ निवृत्ते शिशुपाले च संस्थिते ॥

    ६॥

    कुरुवृद्धाननुज्ञाप्य मुनींश्व ससुतां पृथाम्‌ ।

    निमित्तान्यतिघोराणि पश्यन्द्वारवतीं ययौ ॥

    ७॥

    इन्द्रप्रस्थमू--पाण्डवों की राजधानी इन्द्रप्रस्थ को; गत:--गये हुए; कृष्ण: -- भगवान्‌ कृष्ण; आहूतः --बुलाये गये; धर्म-सूनुना--साक्षात्‌ धर्म, यमराज, के पुत्र ( राजा युथिष्ठिर ) द्वारा; राजसूये--राजसूय यज्ञ में; अथ--तब; निवृत्ते--पूर्ण होने पर;शिशुपाले--शिशुपाल के; च--और ; संस्थिते--मारे जाने पर; कुरु-वृद्धानू--कुरुवंश के बड़े-बूढ़ों से; अनुज्ञाप्प--विदा पालेकर; मुनीन्‌--मुनियों से; च--तथा; स--सहित; सुताम्‌--पुत्रों ( पाण्डकगण ) को; पृथाम्‌--रानी कुन्ती को; निमित्तानि--अपशकुन; अति--अ त्यन्त; घोराणि-- भयानक; पश्यन्‌--देखते हुए; द्वारवतीम्‌--द्वारका; ययौ--चले गये।

    धर्म-पुत्र युधिष्ठिर द्वारा आमंत्रित किये जाने पर भगवान्‌ कृष्ण इन्द्रप्रस्थ गये हुए थे।

    अबजब राजसूय यज्ञ पूरा हो चुका था और शिशुपाल मारा जा चुका था, तो भगवान्‌ को अपशकुनदिखने लगे।

    अतः उन्होंने कुरुवंशी बड़े-बूढ़ों तथा महान्‌ ऋषियों से एवं अपनी बुआ--पृथातथा उनके पुत्रों से भी विदा ली और द्वारका लौट आये।

    आह चाहमिहायात आर्यमिश्राभिसड्त: ।

    राजन्याश्रेद्यपक्षीया नूनं हन्यु: पुरी मम ॥

    ८॥

    आह--उन्होंने कहा; च--तथा; अहम्‌--मैं; इह--इस स्थान में ( इन्द्रप्रस्थ )) आयात:--आया हुआ; आर्य--मेरे अग्रज( बलराम ); मिश्र--प्रसिद्ध पुरुष; अभिसड्डभतः--साथ में; राजन्या: --राजा; चैद्य-पक्षीया: --चैद्य ( शिशुपाल ) के पक्षधर;नूनमू--निश्चय ही; हन्यु:--आक्रमण कर रहे होंगे; पुरीम्‌--नगरी; मम--मेरी ।

    भगवान्‌ ने अपने आप ( मन ही मन ) कहा : चूँकि मैं यहाँ अपने पूज्य ज्येष्ठ भ्राता सहितआया हूँ, शिशुपाल के पक्षधर राजा निश्चित ही मेरी राजधानी पर आक्रमण कर रहे होंगे।

    वीक्ष्य तत्कदनं स्वानां निरूप्य पुरर्षणम्‌ ।

    सौभं च शाल्वराजं च दारुक॑ प्राह केशव: ॥

    ९॥

    वीक्ष्य--देखकर; तत्‌--वह; कदनम्‌--विनाश; स्वानामू-- अपने व्यक्तियों का; निरूप्य--व्यवस्था करके; पुर--पुरी का;रक्षणम्‌--रक्षा के लिए; सौभमू--सौभ-यान; च--तथा; शाल्व-राजम्‌--शाल्व प्रदेश का राजा; च--तथा; दारुकम्‌--अपनेसारथी दारुक से; प्राह--बोले; केशव: -- भगवान्‌ कृष्ण |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : द्वारका पहुँचने पर, उन्होंने देखा कि लोग किस तरह विनाशसे भयभीत हैं और शाल्व तथा उसके सौभ विमान को भी देखा, तो केशव ने नगरी की सुरक्षाके लिए आयोजना की और फिर दारुक से निम्नवत्‌ बोले।

    पारथं प्रापय मे सूत शाल्वस्यान्तिकमाशु वै ।

    सम्भ्रमस्ते न कर्तव्यो मायावी सौभराडयम्‌ ॥

    १०॥

    रथम्‌--रथ को; प्रापय--लाओ; मे--मेरे; सूत--हे सारथी; शाल्वस्थ--शाल्व के; अन्तिकमू--निकट; आशु--तेजी से; बै--निस्सन्देह; सम्भ्रम: --मोह; ते--तुम्हारे द्वारा; न कर्तव्यः--अनुभव नहीं होना चाहिए; माया-वी--महान्‌ जादूगर; सौभ-राट्‌--सौभ का स्वामी; अयमू--यह |

    भगवान्‌ कृष्ण ने कहा : हे सारथी, शीघ्र ही मेरा रथ शाल्व के निकट ले चलो।

    यहसौभ-पति शक्तिशाली जादूगर है, तुम उससे विमोहित नहीं होना।

    इत्युक्तश्नोदयामास रथमास्थाय दारुकः ।

    विशन्तं ददृशु: सर्वे स्वे परे चारुणानुजम्‌ ॥

    ११॥

    इति--इस प्रकार; उक्त:--कहा गया; चोदयाम्‌ आस--आगे बढ़ाया; रथम्‌--रथ को; आस्थाय--नियंत्रण अपने हाथ में लेकर;दारुक:--दारूक ने; विशन्तम्‌--घुसते हुए; ददृशुः:--देखा; सर्वे--सबों के; स्वे--अपने; परे--विपक्षी दल में; च-- भी;अरुण-अनुजमू्‌ू--अरुण के छोटे भाई ( गरुड़, जो कृष्ण की ध्वजा में थे ) को |

    इस तरह आदेश दिये जाने पर दारुक ने भगवान्‌ के रथ की रास सँभाली और उसे आगेहाँका।

    ज्योंही रथ युद्धभूमि में प्रविष्ट हुआ, तो वहाँ पर उपस्थित शत्रु तथा मित्र हर एक की गरुड़के प्रतीक की ओर दृष्टि पड़ी।

    शाल्वश्च कृष्णमालोक्य हतप्रायबले श्वर: ।

    प्राहरत्कृष्णसूतय शक्ति भीमरवां मृथे ॥

    १२॥

    शाल्व:--शाल्व ने; च--तथा; कृष्णम्‌--कृष्ण को; आलोक्य--देखकर; हत--नष्ट; प्राय--लगभग; बल--सेना का;ईश्वर: -- स्वामी; प्राहरत्‌--उसने चलाया; कृष्ण-सूताय--कृष्ण के सारथी पर; शक्तिम्‌--अपना भाला; भीम--डरावना;रवाम्‌-गर्जन की ध्वनि; मृधे--युद्धस्थल में |

    जब नष्ट-प्राय सेना के स्वामी शाल्व ने कृष्ण को पास आते देखा, तो उसने भगवान्‌ केसारथी पर अपना भाला फेंका।

    यह भाला युद्धभूमि में से होकर उड़ते समय भयावह गर्जना कररहा था।

    तामापतन्तीं नभसि महोल्कामिव रंहसा ।

    भासयन्तीं दिशः शौरि: सायकै: शतधाच्छिनत्‌ ॥

    १३॥

    पातामू--उसको; आपतन्तीम्‌--उड़ते हुए; नभसि--आकाश में; महा--महान्‌; उल्काम्‌ू--टूटता तारा; इब--सहश; रंहसा--तेजीसे; भासयन्तीम्‌-- प्रकाश करते हुए; दिश: --दिशाओं को; शौरि:-- भगवान्‌ कृष्ण ने; सायकैः--बाणों से; शतधा--सैकड़ोंखण्डों में; अच्छिनत्‌--काट दिया।

    शाल्व द्वारा फेंके गये भाले ने सारे आकाश को अत्यन्त तेजवान्‌ उल्का तारे की तरहप्रकाशित कर दिया, किन्तु भगवान्‌ शौरि ने अपने बाणों से इस महान्‌ अस्त्र को सैकड़ों खण्डोंमें छिन्न-भिन्न कर डाला।

    तं च षोडशभिर्विद्ध्वा बानै: सौभं च खे भ्रमत्‌ ।

    अविध्यच्छरसन्दोहै: खं सूर्य इब रश्मिभि: ॥

    १४॥

    तम्‌ू--उसको, शाल्व को; च--तथा; षोडशभि:--सोलह; विद्ध्वा--बेध कर; बाणै:--बाणों से; सौभम्‌ू--सौभ को; च--भी; खे--आकाश में; भ्रमत्‌ू-घूमते हुए; अविध्यत्‌-- प्रहार किया; शर--बाणों से; सन्दोहैः--मूसलाधार वर्षा से; खम्‌--आकाश को; सूर्य:--सूर्य; इब--सहश; रश्मिभि: --अपनी किरणों से |

    तब भगवान्‌ कृष्ण ने शाल्व को सोलह बाणों से बेध दिया तथा आकाश में इधर-उधरघूमते हुए सौभ विमान पर बाणों की वर्षा से प्रहार किया।

    बाणों की वर्षा करते हुए भगवान्‌ उससूर्य की तरह लग रहे थे, जो अपनी किरणों से आकाश को आप्लावित करता है।

    शाल्व: शौरेस्तु दो: सव्यं सशार्ड् शार्डूधन्वन: ।

    बिभेद न्यपतद्धस्ताच्छार्ड्रमासीत्तदद्भुतम्‌ ॥

    १५॥

    शाल्व:--शाल्व; शौरे:-- भगवान्‌ कृष्ण के; तु--लेकिन; दो: --बाहु; सव्यम्‌--बाईं; स--सहित; शार्ईम्‌-- भगवान्‌ का धनुष,जो शार्ड़् कहलाता है; शार्ड्-धन्वन:--शाड्र्‌गधन्वा कहलाने वाले; बिभेद-- प्रहार किया; न्यपतत्‌--गिर पड़ा; हस्तातू--हाथसे; शार्ईम्‌-शार्ड़ धनुष; असीतू-- था; तत्‌--यह; अद्भुतम्‌--विचित्र |

    तब शाल्व ने भगवान्‌ कृष्ण की बाईं बाँह पर प्रहार किया, जिसमें वे अपना शार्ड्र धनुषपकड़े थे।

    विचित्र बात यह हुईं कि यह धनुष उनके हाथ से गिर गया।

    हाहाकारो महानासीद्धूतानां तत्र पश्यताम्‌ ।

    निनद्य सौभराडुच्चैरिदमाह जनार्दनम्‌ ॥

    १६॥

    हाहा-कारः--निराशा की चिल्लाहट; महान्‌--अत्यधिक; आसीत्‌--हुईं; भूतानाम्‌--जीवों में; तत्र--वहाँ; पश्यतामू--देखरहे; निनद्य--गरजकर; सौभ-राट्‌--सौभ के स्वामी ने; उच्चै:--तेजी से; इदम्‌--यह; आह--कहा; जनार्दनम्‌--कृष्ण से |

    जो यह घटना देख रहे थे, वे सब हाहाकार करने लगे।

    तब सौभ के स्वामी ने जोर-जोर सेगरजकर जनार्दन से इस प्रकार कहा।

    पायत्त्वया मूढ नः सख्युर्भ्नातुर्भार्या हतेक्षताम्‌ ।

    प्रमत्त: स सभामध्ये त्वया व्यापादित: सखा ॥

    १७॥

    त॑ त्वाद्य निशितैर्बाणैरपराजितमानिनम्‌ ।

    नयाम्यपुनरावृत्ति यदि तिष्ठेम॑माग्रतः ॥

    १८ ॥

    यत्‌--चूँकि; त्ववा--तुम्हारे द्वारा; मूढ--हे मूर्ख; न:ः--हमारे; सख्यु:--मित्र ( शिशुपाल ) की; भ्रातु:--( अपने ) भाई की;भार्या--पली; हता--हरण की गई; ईक्षताम्‌--हमारे देखते-देखते; प्रमत्त:--लापरवाह; सः--वह, शिशुपाल; सभा--( राजसूय यज्ञ की ) सभा; मध्ये--में; त्वया--तुम्हारे द्वारा; व्यापादित:--मारा गया; सखा--मेरा मित्र; तम्‌ त्वा--वही तुम;अद्य--आज; निशितैः--ती क्षण; बाणै:--बाणों से; अपराजित--न जीता जा सकने वाला; मानिनम्‌--माने वाले; नयामि--भेज दूँगा; अपुन:ः-आवृत्तिम्‌--ऐसे लोक में जहाँ से लौटना नहीं होगा; यदि--यदि; तिष्ठे:--तुम खड़े होगे; मम--मेरे;अग्रतः--सामने।

    शाल्व ने कहा : रे मूर्ख! चूँकि हमारी उपस्थिति में तुमने हमारे मित्र और अपने ही भाईशिशुपाल की मंगेलर का अपहरण किया है और उसके बाद जब वह सतर्क नहीं था, तो पवित्रसभा में तुमने उसकी हत्या कर दी है, इसलिए आज मैं अपने तेज बाणों से तुम्हें ऐसे लोक मेंभेज दूँगा, जहाँ से लौटना नहीं होता।

    यद्यपि तुम अपने को अपराजेय मानते हो, किन्तु यदि तुममेरे समक्ष खड़े होने का साहस करो, तो मैं तुम्हें अभी मार डालूँगा।

    श्रीभगवानुवाचवृथा त्वं कत्थसे मन्द न पश्यस्यन्तिके उन्‍्तकम्‌ ।

    पौरुसं दर्शयन्ति सम शूरा न बहुभाषिण: ॥

    १९॥

    श्री-भगवान्‌ उबाच-- भगवान्‌ ने कहा; वृथा--व्यर्थ ही; त्वमू--तुम; कत्थसे--डींग मारते हो; मन्द--हे मूर्ख; न पश्यसि--नहींदेख रहे; अन्तिके--निकट; अन्तकम्‌-- मृत्यु; पौरुषम्‌-- अपना पराक्रम; दर्शबन्ति--दिखलाते हैं; स्म--निस्सन्देह; शूरा: --बहादुर जन; न--नहीं; बहु--अधिक; भाषिण:--बोलने वाले |

    भगवान्‌ ने कहा : रे मूर्ख! तुम व्यर्थ ही डींग मार रहे हो, क्योंकि तुम अपने निकट खड़ीमृत्यु को देख नहीं पा रहे हो।

    असली वीर कभी अधिक बातें नहीं करते, अपितु कार्य करकेअपना पौरुष प्रदर्शित करते हैं।

    इत्युक्त्वा भगवाउ्छाल्वं गदया भीमवेगया ।

    तताड जत्रौ संरब्ध: स चकम्पे वमन्नसूक्‌ू ॥

    २०॥

    पाइति--इस प्रकार; उकत्वा--कह कर; भगवानू्‌-- भगवान्‌ ने; शाल्वम्‌--शाल्व को; गदया--अपनी गदा से; भीम-- भयानक;वेगया--वेग से; तताड-- प्रहार किया; जत्रौ--कंधे की हड्डी पर; संरब्ध: --क्रुद्ध; सः--वह; चकम्पे--काँप उठा; वमन्‌--कैकरता; असृक्‌ू-रक्त |

    ऐसा कह कर क्रुद्ध हुए भगवान्‌ ने भयावनी शक्ति तथा अत्यन्त वेग से अपनी गदा घुमाईऔर उसे शाल्व के कंधे की हड्डी पर दे मारा, जिससे वह छटपटा उठा और रक्त वमन करनेलगा।

    गदायां सन्निवृत्तायां शाल्वस्त्वन्तरधीयत ।

    ततो मुहूर्त आगत्य पुरुष: शिरसाच्युतम्‌ ।

    देवक्या प्रहितोस्मीति नत्वा प्राह बच्चो रूदन्‌ ॥

    २१॥

    गदायाम्‌-गदा के; सन्निवृत्तायामू--वापस आ जाने पर; शाल्व:--शाल्व; तु--लेकिन; अन्तरधीयत--अहृश्य हो गया; तत:--तब; मुहूर्ते-- क्षण-भर में; आगत्य--आकर; पुरुष:--व्यक्ति; शिरसा--अपने सिर से; अच्युतम्‌--भगवान्‌ कृष्ण को;देवक्या--माता देवकी द्वारा; प्रहित:-- भेजा गया; अस्मि--हूँ; इति--ऐसा कहते हुए; नत्वा--नमन करके; प्राह--बोला;वचः--ये शब्द; रुदन्‌--रोते हुए

    लेकिन भगवान्‌ अच्युत द्वारा अपनी गदा वापस लेते ही शाल्व दृष्टि से ओझल हो गया औरउसके एक पल बाद एक व्यक्ति भगवान्‌ के पास आया।

    उनके समक्ष नतमस्तक होकर उसनेकहा, 'मुझे देवकी ने भेजा है' और रोते हुए उसने निम्नलिखित शब्द कहे।

    कृष्ण कृष्ण महाबाहो पिता ते पितृबत्सल ।

    बद्ध्वापनीतः शाल्वेन सौनिकेन यथा पशु: ॥

    २२॥

    कृष्ण कृष्ण--हे कृष्ण, हे कृष्ण; महा-बाहो--हे बलशाली भुजाओं वाले; पिता--पिता; ते--तुम्हारा; पितृ--अपने माता-पिता के; वत्सल--हे प्रिय; बद्ध्वा--बाँध करके; अपनीतः--ले जाये गये; शाल्वेन--शाल्व द्वारा; सौनिकेन--कसाई द्वारा;यथा--जिस तरह; पशु:--घरेलू पशु

    उस व्यक्ति ने कहा : हे कृष्ण, हे कृष्ण, हे महाबाहु, हे अपने माता-पिता के प्रिय, शाल्बतुम्हारे पिता को बाँध कर उसी तरह ले गया है, जिस तरह कसाई किसी पशु का वध करने केलिए ले जाता है।

    निशम्य विप्रियं कृष्णो मानुसीं प्रकृतिं गत: ।

    विमनस्को घृणी स्नेहाद्वभाषे प्राकृतो यथा ॥

    २३॥

    पानिशम्य--सुनकर; विप्रियम्‌--क्षुब्ध करने वाले शब्दों को; कृष्ण:--भगवान्‌ कृष्ण ने; मानुषीम्‌--मनुष्य की तरह; प्रकृतिम्‌ू--स्वभाव; गत: --बनाकर; विमनस्क:--दुखी; घृणी--करुणापूर्ण ; स्नेहात्‌ू-- स्नेह के वशीभूत; बभाषे--बोले; प्राकृत:ः--सामान्य व्यक्ति; यथा--जिस तरह।

    जब उन्होंने यह श्रुब्धकारी समाचार सुना, तो सामान्य मनुष्य की भूमिका निर्वाह कर रहेभगवान्‌ कृष्ण ने खेद तथा करुणा व्यक्त की और अपने माता-पिता के प्रति प्रेमवश उन्होंनेसामान्य बद्धजीव जैसे शब्द कहे।

    कथ॑ं राममसम्भ्रान्तं जित्वाजेयं सुरासुरै: ।

    शाल्वेनाल्‍पीयसा नीतः पिता मे बलवान्विधि: ॥

    २४॥

    कथम्‌--किस तरह; राममू--बलराम को; असम्भ्रान्तम्‌--विचलित न होने वाले; जित्वा--जीत कर; अजेयम्‌--अजेय; सुर--देवताओं द्वारा; असुरैः--तथा असुरों द्वारा; शाल्वेन--शाल्व द्वारा; अल्पीयसा--अत्यल्प; नीतः--ले जाया गया; पिता--पिता;मे--मेरा; बल-वान्‌--शक्तिशाली; विधि: -- भाग्य |

    भगवान्‌ कृष्ण ने कहा : 'बलराम सदैव सतर्क रहने वाले हैं और कोई देवता या असुरउन्हें पराजित नहीं कर सकता।

    तो यह श्षुद्र शाल्व किस तरह उन्हें पराजित करके मेरे पिता काअपहरण कर सकता है ? निस्सन्देह, भाग्य सर्वशक्तिमान होता है।

    'इति ब्रुवाणे गोविन्दे सौभराट्प्रत्युपस्थितः ।

    वसुदेवमिवानीय कृष्णं चेदमुवाच सः ॥

    २५॥

    इति--इस प्रकार; ब्रुवाणे--कहते हुए; गोविन्दे--कृष्ण के; सौभ-राट्‌--सौभ का स्वामी ( शाल्व ); प्रत्युपस्थित:--आगेआया; वसुदेवम्‌--कृष्ण के पिता वसुदेव; इब--सह॒श; आनीय--आगे करके; कृष्णम्‌--कृष्ण से; च--तथा; इृदम्‌--यह;उबाच--कहा; सः--उसने।

    जब गोविन्द ये शब्द कह चुके, तो भगवान्‌ के समक्ष वसुदेव जैसे दिखने वाले किसी पुरुषको लेकर सौभ-पति पुनः प्रकट हुआ।

    तब शाल्व ने इस प्रकार कहा।

    एघ ते जनिता तातो यदर्थमिह जीवसि ।

    वधिष्ये वीक्षतस्तेमुमीश श्वेत्पाहि बालिश ॥

    २६॥

    एषः--यह; ते--तुम्हारा; जनिता--जन्म देने वाला पिता; तात:--प्रिय; यत्‌-अर्थम्‌--जिसके लिए; इह--इस जगत में;जीवसि--तुम जीवित हो; वधिष्ये--मैं मार डालूँगा; वीक्षतः ते--तुम्हारे देखते-देखते; अमुम्‌ू--उसको; ईशः--समर्थ; चेत्‌--यदि; पाहि--उसकी रक्षा करो; बालिश-े मूर्ख |

    शाल्व ने कहा : यह रहा तुम्हें जन्म देने वाला तुम्हारा पिता, जिसके लिए तुम इस जगत पामें जीवित हो।

    अब मैं तुम्हारी आँखों के सामने इसका वध कर दूँगा।

    रे मूर्ख! यदि तुम इसे बचासको तो बचाओ।

    एवं निर्भ॑त्स्थ मायावी खड्गेनानकदुन्दुभे: ।

    उत्कृत्य शिर आदाय खसस्‍्थं सौभं समाविशत्‌ ॥

    २७॥

    एवम्‌--इस प्रकार; निर्भ्स्य--मजाक उड़ाते हुए; माया-वी--जादूगर; खड्गेन--अपनी तलवार से; आनकदुन्दुभे: -- श्रीबसुदेव का; उत्कृत्य--काट कर; शिर:--सिर; आदाय--लेकर; ख--आकाश में; स्थम्‌--स्थित; सौभम्‌--सौभ में;समाविशत्‌--घुस गया।

    इस प्रकार भगवान्‌ की हँसी उड़ा कर जादूगर शाल्व अपनी तलवार से वसुदेव का सिरकाटता हुआ प्रतीत हुआ।

    वह उस सिर को अपने साथ लेकर आकाश में मँडरा रहे सौभ यान मेंघुस गया।

    ततो मुहूर्त प्रकृतावुपप्लुतःस्वबोध आस्ते स्वजनानुषड्ुतः ।

    महानुभावस्तदबुध्यदासुरीमायां स शाल्वप्रसृतां मयोदिताम्‌ ॥

    २८ ॥

    ततः--तब; मुहूर्तम्‌--एक क्षण के लिए; प्रकृतो--सामान्य ( मानव ) स्वभाव में; उपप्लुत:--लीन; स्व-बोध:--( यद्यपि )पूर्णतया आत्मबोध से युक्त; आस्ते--रहा; स्व-जन--अपने प्रियजनों के लिए; अनुषड्गतः--स्नेह के कारण; महा-अनुभाव:--अनुभूति की महान्‌ शक्ति का स्वामी; ततू--वह; अबुध्यत्‌--पहचान लिया; आसुरीम्‌--असुरों से सम्बद्ध; मायामू--मोहकजादू; सः--वह; शाल्व--शाल्व द्वारा; प्रसृतामू--काम में लाई हुई; मय--मय दानवद्वारा; उदितामू--विकसित।

    भगवान्‌ कृष्ण स्वभाव से ही ज्ञान से परिपूर्ण हैं और उनमें असीम अनुभूति की शक्ति है।

    तोभी प्रियजनों के प्रति महान्‌ स्नेहवश एक क्षण के लिए बे सामान्य प्राणी की मुद्रा में लीन होगये।

    लेकिन उन्हें तुरन्त ही स्मरण हो आया कि यह तो मय दानव द्वारा सृजित आसुरी माया है,जिसे शाल्व काम में ला रहा है।

    न तत्र दूतं॑ न पितु: कलेवरंप्रबुद्ध आजौ समपश्यदच्युत: ।

    स्वाणं यथा चाम्बरचारिणं रिपुंसौभस्थमालोक्य निहन्तुमुद्यतः ॥

    २९॥

    पान--नहीं; तत्र--वहाँ; दूतम्‌ू--सन्देशवाहक; न--न तो; पितुः:--पिता का; कलेवरम्‌--शरीर; प्रबुद्ध:--सतर्क; आजौ--युद्धभूमि में; समपश्यत्‌--देखा; अच्युत:ः-- भगवान्‌ कृष्ण ने; स्वाप्मम्‌--स्वण में; यथा--जिस तरह; च--तथा; अम्बर--आकाश में; चारिणम्‌ू--विचरण करते हुए; रिपुम्‌--शत्रु ( शाल्व ) को; सौभ-स्थम्‌--सौभ यान में बैठा हुआ; आलोक्य--देखकर; निहन्तुम्‌ू-मारने के लिए; उद्यतः--तैयार।

    अब असली परिस्थिति के प्रति सतर्क भगवान्‌ अच्युत ने अपने समक्ष युद्धभूमि में न तो दूतको देखा न अपने पिता के शरीर को।

    ऐसा लग रहा था, मानो वे स्वप्न से जागे हों।

    तब अपनेशत्रु को अपने ऊपर सौभ-यान में उड़ता देखकर भगवान्‌ ने उसे मार डालने की ठानी।

    एवं वदन्ति राजर्षे ऋषय: के च नान्विता: ।

    यत्स्ववाचो विरुध्येत नूनं ते न स्मरन्त्युत ॥

    ३०॥

    एवम्‌--इस प्रकार; वदन्ति--कहते हैं; राज-ऋषे--हे राजर्षि ( परीक्षित ); ऋषय:--ऋषिगण; के च--कुछ; न--नहीं;अन्विता:--सही ढंग से तर्क करते हुए; यत्‌-- चूँकि; स्व-- अपने; वाच:--शब्द; विरुध्येत--विपरीत हो जाते हैं; नूनम्‌--निश्चय ही; ते--वे; न स्मरन्ति-- स्मरण नहीं करते; उत--निस्सन्देह |

    हे राजर्षि, यह विवरण कुछ ऋषियों द्वारा दिया हुआ है, किन्तु जो इस तरह अतार्किक ढंगसे बोलते हैं, वे अपने ही पूर्ववर्ती कथनों को भुला कर अपनी ही बात काटते हैं।

    व शोकमोहौ स्नेहो वा भयं वा येउज्ञसम्भवा: ।

    क्व चाखण्डितविज्ञानज्ञानै श्वर्यस्त्वखण्डित: ॥

    ३१॥

    क्व--कहाँ; शोक--शोक; मोहौ--तथा मोह; स्नेह:-- भौतिक स्नेह; वा--अथवा; भयम्‌-- भय; वा-- अथवा; ये--जो;अज्ञा--अज्ञानवश; सम्भवा:ः--उत्पन्न; क्‍्व च--और कहाँ, दूसरी ओर; अखण्डित-- अनन्त; विज्ञान--जिनकी अनुभूति;ज्ञान-ज्ञान; ऐश्वर्य:--तथा शक्ति; तु--लेकिन; अखण्डित: -- अनन्त भगवान्‌

    भला शोक, मोह, स्नेह या भय, जो कि अज्ञानजनित हैं, किस तरह से अनन्त भगवान्‌ कोप्रभावित कर सकते हैं, जिनकी अनुभूति, ज्ञान तथा शक्ति--सारे के सारे भगवान्‌ की तरह हीअनन्त हैं?

    पायत्पादसेवोर्जितयात्मविद्ययाहिन्वन्त्यनाद्यात्मविपर्ययग्रहम्‌ ।

    'लभन्त आत्मीयमनन्तमैश्वरंकुतो नु मोह: परमस्य सदगते: ॥

    ३२॥

    यत्‌--जिसके; पाद--पैरों की; सेवा--सेवा करने से; ऊर्जितया--सशक्त बना हुआ; आत्म-विद्यया--आत्म-साक्षात्कार द्वारा;हिन्वन्ति--दूर कर देते हैं; अनादि--जिसका आदि न हो; आत्म--आत्मा की; विपर्यय-ग्रहम्‌ू--गलत पहचान; लभन्ते--प्राप्तकरते हैं; आत्मीयम्‌--उनके साथ निजी सम्बन्ध में; अनन्तम्‌--नित्य; ऐश्वरम्‌--कीर्ति; कुतः--कैसे; नु--निस्सन्देह; मोह: --मोह; परमस्य--ब्रह्म के; सतू--सन्त-भक्तों का; गते:--गन्तव्य |

    भगवान्‌ के भक्तगण भगवान्‌ के चरणों पर की गई सेवा से प्रबलित आत्म-साक्षात्कार केकारण देहात्मबुद्धि को दूर कर देते हैं, जो अनन्त काल से आत्मा को मोहग्रस्त करती रही है।

    इस तरह वे उनकी निजी संगति में नित्य कीर्ति प्राप्त करते हैं।

    तब भला वे परम सत्य, जो किसमस्त विशुद्ध सन्‍्तों के गन्तव्य हैं, मोह के वशीभूत कैसे हो सकते हैं ?

    पातं शस्त्रपूगैः प्रहरन्‍्तमोजसाशाल्व॑ शरैः शौरिर्मोघविक्रम: ।

    विद्ध्वाच्छिनद्वर्म धनु: शिरोमणिसौभ॑ च शत्रोर्गदया रुरोज ह ॥

    ३३॥

    तम्‌--उस; शस्त्र--हथियारों की; पूगैः--झड़ी से; प्रहरन्तम्‌--आक्रमण करते हुए; ओजसा--बड़े ही बल से; शाल्वमू--शाल्वको; शरैः--बाणों से; शौरि:--कृष्ण ने; अमोघ-- अचूक; विक्रम:--जिसका पराक्रम; विद्ध्वा--बेध कर; अच्छिनत्‌--उसनेतोड़ दिया; वर्म--कवच; धनु:-- धनुष; शिर:--शिर के; मणिम्‌--मणि को; सौभमू--सौभ-यान को; च--तथा; शत्रो: --अपने शत्रु के; गदया--अपनी गदा से; रुरोज--तोड़ दिया; ह--निस्सन्देह।

    जब शाल्व बड़े वेग से उन पर अस्त्रों की झड़ी लगाये हुए था, तो अमोघ पराक्रम वालेभगवान्‌ कृष्ण ने शाल्व पर अपने बाण छोड़े, जिससे वह घायल हो गया और उसका कवच,धनुष तथा मुकुट का मणि ध्वस्त हो गये।

    तब उन्होंने अपनी गदा से अपने शत्रु के सौभ-यान कोछिन्न-भिन्न कर डाला।

    तत्कृष्णहस्तेरितया विचाूर्णितं'पपात तोये गदया सहस्त्रधा ।

    विसूज्य तद्धूतलमास्थितो गदा-मुद्यम्य शाल्वोच्युतम भ्यगादद्रूतम्‌ ॥

    ३४॥

    पातत्‌--वह ( सौभ ); कृष्ण-हस्त--कृष्ण के हाथ से; ईरितया--घुमाया; विचूर्णितम्‌--चूर-चूर किया हुआ; पपात--गिर गया;तोये--जल में; गदया--गदा से; सहस्त्रधा--हजारों खण्डों में; विसृज्य--छोड़ कर; तत्‌ू--इस; भू-तलम्‌--पृथ्वी पर;आस्थित:--खड़ा हुआ; गदाम्‌--अपनी गदा; उद्यम्य--लेकर; शाल्व:--शाल्व ने; अच्युतम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण पर; अभ्यगात्‌ --आक्रमण किया; द्रतम्‌--तेजी से ।

    भगवान्‌ कृष्ण की गदा से हजारों खण्डों में चूर-चूर हुआ सौभ विमान समुद्र में गिर गया।

    शाल्व ने इसे छोड़ दिया और पृथ्वी पर खड़ा हो गया।

    उसने अपनी गदा उठाई और भगवान्‌अच्युत की ओर लपका।

    आधावत: सगदं तस्य बाहुंभल्‍्लेन छित्त्वाथ रथाड्रमद्भुतम्‌ ।

    वधाय शाल्वस्य लयार्कसन्निभंबिभ्रद्ठभौ सार्क इवोदयाचल: ॥

    ३५॥

    आधावत: --उसकी ओर दौड़ता हुआ; स-गदम्‌--अपनी गदा लिए; तस्थ--उसके; बाहुमू--बाहु को; भल्लेन--विशेष प्रकारके बाण से; छित्त्ता--काट कर; अथ--तब; रथ-अड्डम्‌--अपने चक्र से; अद्भुतम्‌--अद्भुत; वधाय--मारने के लिए;शाल्वस्थ--शाल्व के; लय--संहार के समय; अर्क--सूर्य; सन्निभम्‌--हूबहू; बि भ्रत्‌--पकड़े हुए; बभौ--चमकने लगा; स-अर्क:--सूर्य समेत; इब--मानो; उदय--सूर्योदय का; अचल:--पर्वत |

    जब शाल्व उनकी ओर झपटा, तो भगवान्‌ ने एक भाला छोड़ा और उसकी उस बाँह कोकाट लिया, जिसमें गदा पकड़ी थी।

    अन्त में शाल्व का वध करने का निश्चय करके भगवान्‌कृष्ण ने अपना सुदर्शन चक्र उठाया, जो ब्रह्माण्ड के प्रलय के समय दिखने वाले सूर्य जैसा लगरहा था।

    तेज से चमकते हुए भगवान्‌ उदयाचल जैसे प्रतीत हो रहे थे, जो उदय होते सूर्य कोधारण करता है।

    जहार तेनैव शिर: सकुण्डलंकिरीटयुक्त पुरुमायिनो हरि: ।

    वज्जेण वृत्रस्य यथा पुरन्दरोबभूव हाहेति वचस्तदा नृणाम्‌ ॥

    ३६॥

    जहार--काट लिया; तेन--इससे; एबव--निस्सन्देह; शिर:--सिर; स--सहित; कुण्डलम्‌--कुण्डल; किरीट--मुकुट;युक्तम्‌ू-पहने हुए; पुरु--विस्तृत; मायिन:--जादू-शक्ति से युक्त; हरि:ः-- भगवान्‌ कृष्ण ने; बज्नेण --वज़ से; वृत्रस्य--वृत्रासुरका; यथा--जिस तरह; पुरन्दरः--इन्द्र ने; बभूव--उठा; हा-हा इति--हाय हाय, हाहाकार; बच:--ध्वनियाँ; तदा--तब;नृणाम्‌ू--( शाल्व के ) मनुष्यों की |

    भगवान्‌ हरि ने अपने चक्र का इस्तेमाल करते हुए उस महान्‌ जादूगर के सिर को कुण्डलों पातथा किरीट सहित विलग कर दिया, जिस तरह पुरन्दर ने वृत्रासुर के सिर काटने के लिए अपनेबज्र का इस्तेमाल किया था।

    यह देखकर शाल्व के सारे अनुयायी 'हाय हाय ' कहकर चीत्कारउठे।

    तस्मिन्निपतिते पापे सौभे च गदया हते ।

    नेदुर्दुन्दुभयो राजन्दिवि देवगणेरिता: ।

    सखीनामपतचितिं कुर्वन्दन्तवक्रो रुषाभ्यगात्‌ ॥

    ३७॥

    तस्मिन्‌--उसके; निपतिते--गिरने पर; पापे--पापी; सौभे--सौभ-यान में; च--तथा; गदया--गदा से; हते--विनष्ट किये जानेपर; नेदु:--बज उठीं; दुन्दुभय: --दुन्दुभियाँ; राजन्‌--हे राजा ( परीक्षित ); दिवि--आकाश में; देव-गण--देवताओं का समूह;ईरिता:--खेलते हुए; सखीनाम्‌--मित्रों के लिए; अपचितिम्‌ू--बदला; कुर्वन्‌ू--लेने के विचार से; दन्तवक्र:--दन्तवक्र;रूषा--क्रोध से; अभ्यगात्‌--आगे दौड़ा |

    अब पापी शाल्व के मृत हो जाने तथा उसके सौभ-यान के विनष्ट हो जाने से, देवताओं द्वाराबजाई गई दुन्दुभियों से आकाश गूँज उठा।

    तब अपने मित्र की मृत्यु का बदला लेने की इच्छा सेदन्तवक़ ने बहुत कुपित होकर भगवान्‌ पर आक्रमण कर दिया।

    TO

    अध्याय अठहत्तर: दन्तवक्र, विदुरथ और रोमहर्षण की हत्या

    10.78श्रीशुक उबाचशिशुपालस्य शाल्वस्य पौण्ड्रकस्यापि दुर्मति: ।

    'परलोकगतानां च कुर्वन्पारोक्ष्य्सौहदम्‌ ॥

    १॥

    एकः पदातिः सड्क्रुद्धो गदापाणि: प्रकम्पयन्‌ ।

    पद्भ्यामिमां महाराज महासत्त्वो व्यहश्यत ॥

    २॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; शिशुपालस्य--शिशुपाल का; शाल्वस्थ--शाल्व का; पौण्ड्रकस्य--पौण्ड्रकका; अपि-- भी; दुर्मतिः --बुरे हृदय वाला ( दन्तवक्र ); पर-लोक--अन्य लोक को; गतानां--गये हुओं का; च--तथा;कुर्वन्‌ू--करते हुए; पारोक्ष्य--दिवंगतों के लिए; सौहदम्‌--मैत्री कर्म; एक:--अकेला; पदाति:--पैदल; सडक्रुद्ध:--क्रुद्ध;गदा--गदा; पाणि: -- अपने हाथ में; प्रकम्पयन्‌--हिलाते हुए; पद्भ्याम्‌-- अपने पैरों से; इमम्‌--इस ( पृथ्वी ) को; महा-राज--हे महान्‌ राजा ( परीक्षित ); महा--महान्‌; सत्त्व: --शारीरिक शक्ति वाला; व्यहश्यत--देखा गया।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : अन्य लोकों को गये हुए शिशुपाल, शाल्व तथा पौण्ड्रक केप्रति मैत्री-भाव होने से दुष्ट दनन्‍्तवक्र बहुत ही क्रुद्ध होकर युद्धभूमि में प्रकट हुआ।

    हे राजन,एकदम अकेला, पैदल एवं हाथ में गदा लिए उस बलशाली योद्धा ने अपने पदचाप से पृथ्वी कोहिला दिया।

    तं तथायान्तमालोक्य गदामादाय सत्वरः ।

    अवलप्लुत्य रथात्कृष्ण: सिन्धुं वेलेव प्रत्यधात्‌ ॥

    ३॥

    तम्‌--उसको; तथा--इस तरह; आयान्तम्‌--पास आते हुए; आलोक्य--देखकर; गदाम्‌-- अपनी गदा; आदाय--लेकर;सत्वर:--तेजी से; अवप्लुत्य--नीचे कूद कर; रथात्‌--अपने रथ से; कृष्ण: --भगवान्‌ कृष्ण; सिन्धुम्‌--समुद्र को; वेला--किनारा; इब--सहश; प्रत्यधात्‌--रोका

    दन्तवक्र को पास आते देखकर भगवान्‌ कृष्ण ने तुरन्त अपनी गदा उठा ली।

    वे अपने रथ सेनीचे कूद पड़े और आगे बढ़ रहे अपने प्रतिद्वन्द्नी को रोका, जिस तरह तट समुद्र को रोके रहताहै।

    गदामुद्यम्य कारूषो मुकुन्दं प्राह दुर्मदः ।

    दिया दिछ्या भवानद्य मम दृष्टिप्थं गत: ॥

    ४॥

    गदाम्‌--अपनी गदा को; उद्यम्य--घुमाकर; कारूष:--करूष का राजा ( दन्तवक़ ); मुकुन्दम्‌--कृष्ण से; प्राह--बोला;दुर्मद:--मिथ्या गर्व से उन्मत्त; दिष्टया--सौभाग्य से; दिष्ठया --सौभाग्य से; भवान्‌ू--आप; अद्य--आज; मम--मेरी; दृष्टि--दृष्टिके; पथम्‌--पथ पर; गत:ः--आये हुए।

    अपनी गदा उठाते हुए करूष के दुर्मद राजा ने भगवान्‌ मुकुन्द से कहा, 'अहो भाग्य! अहोभाग्य! कि तुम आज मेरे समक्ष आये हो।

    त्वं मातुलेयो नः कृष्ण मित्रश्लुड्मां जिघांससि ।

    अतत्त्वां गदया मन्द हनिष्ये वज्जकल्पया ॥

    ५॥

    त्वमू--तुम; मातुलेय:--मामा का लड़का; न:ः--हमारे; कृष्ण --हे कृष्ण; मित्र--मेरे मित्रों के साथ; ध्रुद्ू--हिंसा करने वाले;माम्‌--मुझको; जिघांससि--मारना चाहते हो; अत:--इसलिए; त्वामू--तुमको; गदया--अपनी गदा से; मन्द-े मूर्ख;हनिष्ये--मैं मार डालूँगा; वज़-कल्पया--वज़ सरीखी |

    'हे कृष्ण तुम मेरे ममेरे भाई हो, किन्तु तुमने मेरे मित्रों के साथ हिंसा की है और अब मुझेभी मार डालना चाहते हो।

    इसलिए रे मूर्ख ! मैं तुम्हें अपनी वज्ञ सरीखी गदा से मार डालूँगा।

    तहानिण्यमुपैम्यज्ञ मित्राणां मित्रवत्सल: ।

    बन्धुरूपमरिं हत्वा व्याधि देहचरं यथा ॥

    ६॥

    तहिं--तब; आनृण्यम्‌ू--ऋण से उऋण; उपैमि--हो सकूँगा; अज्ञ-रे मूर्ख; मित्राणाम्‌--मित्रों के; मित्र-वत्सलः --अपने मित्रोंका प्रिय; बन्धु--पारिवारिक सदस्य के; रूपमू--रूप में; अरिम्‌--शत्रु को; हत्वा--मार कर; व्याधिम्‌--रोग; देह-चरम्‌--शरीर में; यथा--जिस तरह

    'हे बुद्धिहीन! अपने मित्रों का कृतज्ञ मैं तुम्हें मार कर तब उनके ऋण से उऋण हो जाऊँगा।

    सम्बन्धी के रूप में तुम मेरे शरीर के भीतर रोग की तरह प्रच्छन्न शत्रु हो।

    ' सकता है।

    एवं रूश्षेस्तुदन्वाक्यै: कृष्ण तोत्रैरिव द्विपम्‌ ।

    गदयाताडोयन्मूर्शि सिंहवद्व्यनदच्च सः ॥

    ७॥

    एवम्‌--इस प्रकार; रूक्षेः--कर्कश, कटु; तुदन्‌--कष्ट देने वाले; वाक्यैः --शब्दों से; कृष्णम्‌--कृष्ण को; तोत्रैः --अंकुशोंसे; इब--सहश; द्विपम्‌--हाथी को; गदया--अपनी गदा से; अताडयत्‌--उन पर प्रहार किया; मूर्थ्नि--सिर पर; सिंह-वत्‌--शेर की तरह; व्यनदत्‌-गर्जना की; च--तथा; सः--उसने |

    इस तरह कटु वचनों से कृष्ण को उत्पीड़ित करने का प्रयास करते हुए, जिस तरह किसीहाथी को तेज अंकुश चुभाया जा रहा हो, दन्तवक्र ने अपनी गदा से भगवान्‌ के सिर पर आघातकिया और शेर की तरह गर्जना की।

    गदयाभिहतोप्याजौ न चचाल यदूद्वह: ।

    कृष्णोपि तमहन्गुर्व्या कौमोदक्या स्तनान्तरे ॥

    ८॥

    गदया--गदा से; अभिहतः -- प्रताड़ित; अपि--यद्यपि; आजौ--युद्ध क्षेत्र में; न चचाल--हिला-डुला नहीं; यदु-उद्दह: --यदुओंके उद्धारक; कृष्ण:--कृष्ण ने; अपि-- भी; तमू--उसको ( दन्‍्तवक़ को ); अहन्‌--मारा; गुर्व्या--भारी; कौमोदक्या--अपनीकौमोदकी गदा से; स्तन-अन्तरे--छाती के बीच।

    यद्यपि दन्‍्तवक्र की गदा से उन पर आघात हुआ, किन्तु यदुओं के उद्धारक कृष्ण युद्धस्थलमें अपने स्थान से रंच-भर भी नहीं हिले।

    प्रत्युत अपनी भारी कौमोदकी गदा से उन्होंने दन्तवक्रकी छाती के बीचों-बीच प्रहार किया।

    गदानिर्भिन्नहदय उद्धमन्रुधिरं मुखात्‌ ।

    प्रसार्य केशबाह्नड्स्रीन्धरण्यां न्‍्यपतद्व्यसु: ॥

    ९॥

    गदा-गदा से; निर्भिन्न--खण्ड-खण्ड हुआ; हृदयः--हृदय; उद्धमन्‌--वमन करते हुए; रुधिरम्‌--रक्त; मुखात्‌--मुख से;प्रसार्य--बाहर फेंक कर; केश--बाल; बाहु-- भुजाएँ; अड्घ्रीन्‌--तथा पाँव; धरण्याम्‌-- धरती पर; न्यपतत्‌--गिर पड़ा;व्यसु;:--निर्जीव ।

    गदा के प्रहार से दन्‍्तवक् का हृदय छितरा गया, जिससे वह रुधिर वमन करने लगा औरनिर्जीव होकर भूमि पर गिर गया, उसके बाल बिखर गये तथा उसकी भुजाएँ और पाँव छितरागये।

    ततः सूक्ष्मतरं ज्योति: कृष्णमाविशदद्धुतम्‌ ।

    पश्यतां सर्वभूतानां यथा चैद्यवधे नृप ॥

    १०॥

    ततः--तब; सूक्ष्म-तरम्‌--अत्यन्त सूक्ष्म; ज्योतिः-- प्रकाश; कृष्णम्‌--कृष्ण में; आविशत्‌--प्रविष्ट हुआ; अद्भुतम्‌--विचित्र;'पश्यतामू--देखते-देखते; सर्व--सभी; भूतानाम्‌--जीवों के; यथा--जिस तरह; चैद्य-वधे--जब शिशुपाल मारा गया था;नृप--हे राजा ( परीक्षित )

    हे राजनू, तब ( उस असुर के शरीर से ) एक अत्यन्त सूक्ष्म एवं अद्भुत प्रकाश की चिनगारीसबों के देखते-देखते ( निकली और ) कृष्ण में प्रवेश कर गई, ठीक उसी तरह जब शिशुपालमारा गया था।

    विदूरथस्तु तद्भ्राता भ्रातशोकपरिप्लुत: ।

    आगच्छदसिचर्माभ्यामुच्छुसंस्तज्जिघांसया ॥

    ११॥

    विदूरथ:--विदूरथ; तु--लेकिन; तत्‌--उसका, दन्तवक्र का; भ्राता-- भाई; भ्रातृ-- भाई के; शोक--शोक में; परिप्लुत:--मग्न; आगच्छत्‌-- आया; असि--तलवार; चर्माभ्यामू--तथा ढाल समेत; उच्छुसन्‌--तेजी से साँस लेता, हाँफता; तत्‌ू--उसको( कृष्ण को ); जिघांसया--मारने की इच्छा से |

    लेकिन तभी दन्तवक्र का भाई विदूरथ अपने भाई की मृत्यु के शोक में डूबा हाँफता हुआआया और वह अपने हाथ में तलवार तथा ढाल लिए हुए था।

    वह भगवान्‌ को मार डालनाचाहता था।

    तस्य चापततः कृष्णश्रक्रेण क्षुरनेमिना ।

    शिरो जहार राजेन्द्र सकिरीटं सकुण्डलम्‌ ॥

    १२॥

    तस्य--उसके; च--तथा; आपततः-- आक्रमण कर रहे; कृष्ण: --कृष्ण ने; चक्रेण--अपने सुदर्शन चक्र से; क्षुर--छूरे कीतरह; नेमिना--धार वाले; शिर:--सिर; जहार--काट लिया; राज-इन्द्र--हे राजाओं में श्रेष्ठ; स--सहित; किरीटमू--मुकुट;स--सहित; कुण्डलम्‌-कुण्डल।

    हे राजेन्द्र, ज्योंही विदूरथ ने कृष्ण पर आक्रमण किया, उन्होंने अपने छुरे जैसी धार वालेसुदर्शन चक्र से उसके सिर को मुकुट तथा कुंडलों समेत काट डाला।

    एवं सौभं च शाल्वं च दन्तवक्रं सहानुजम्‌ ।

    हत्वा दुर्विषहानन्यैरीडित: सुरमानवैः ॥

    १३॥

    मुनिभि: सिद्धगन्धर्वर्वद्याधरमहोरगै: ।

    अप्सरोभि: पितृगणैर्यक्षे: किन्नरचारणै: ॥

    १४॥

    उपगीयमानविजय: कुसुमैरभिवर्षितः ।

    वृतश्च वृष्णिप्रवरर्विवेशालड्ू तां पुरीम्‌ ॥

    १५॥

    एवम्‌--इस प्रकार; सौभम्‌--सौभ-यान को; च--तथा; शाल्वम्‌--शाल्व को; च--तथा; दन्तवक्रम्‌ू--दन्तवक़ को; सह--सहित; अनुजम्‌--उसके छोटे भाई विदूरथ को; हत्वा--मार कर; दुर्विषहानू--दुर्लध्य; अन्यै:--अन्यों द्वारा; ईडित:--प्रशंसित;सुर--देवताओं; मानवै:--तथा मनुष्यों द्वारा; मुनिभि:--तथा मुनियों द्वारा; सिद्ध--सिद्धों; गन्धर्वैं:--तथा गन्धर्वों द्वारा;विद्याधर--विद्याधर लोक के निवासियों द्वारा; महा-उरगैः--तथा दैवी सर्पों द्वारा; अप्सरोभि: --स्वर्ग की नर्तकियों द्वारा; पितृ-गणैः--पिततों द्वारा; यक्षैः--यक्षों द्वारा; किन्नर-चारणै: --किन्नरों तथा चारणों द्वारा; उपगीयमान--स्तुति किये गये; विजय:--विजय; कुसुमैः--फूलों से; अभिवर्षित:--वर्षा किये गये; वृतः--घिरा हुआ; च--तथा; वृष्णि-प्रवरैः:--अग्रणी वृष्णियों द्वारा;विवेश--प्रवेश किया; अलड्डढू तामू--सजी हुईं; पुरीम्‌ू--अपनी राजधानी द्वारका में |

    शाल्व तथा उसके सौभ-यान के साथ साथ दन्तवक्र तथा उसके छोटे भाई को, जो सबकिसी अन्य प्रतिद्वन्दी के समक्ष अजेय थे, इस तरह विनष्ट करने के बाद देवताओं, मनुष्यों,ऋषियों, सिद्धों, गन्धर्वों, विद्याधरों, महोरगों के अतिरिक्त अप्सराओं, पितरों, यक्षों, किन्नरों तथाचारणों ने भगवान्‌ की प्रशंसा की।

    जब ये सब उनका यशोगान कर रहे थे और उन पर फूलबरसा रहे थे, तो भगवान्‌ गण्य-मान्य वृष्णियों के साथ साथ उत्सवपूर्वक सजाई हुई अपनीराजधानी में प्रविष्ट हुए।

    एवं योगेश्वर: कृष्णो भगवान्जगदी श्वरः ।

    ईयते पशुद्ृष्टीनां निर्जितो जयतीति सः ॥

    १६॥

    एवम्‌--इस तरह; योग--योग के; ईश्वर: --स्वामी; कृष्ण: --कृष्ण; भगवान्‌-- भगवान्‌; जगत्‌--ब्रह्माण्ड के; ईश्वर: --स्वामी;ईयते--प्रतीत होते हैं; पशु--पशुओं की तरह; दृष्टीनामू--दृष्टिवानों को; निर्जित:--पराजित; जयति--विजयी होते हैं; इति--मानो; सः--वह।

    इस तरह समस्त योगशक्ति के स्वामी तथा ब्रह्माण्ड के स्वामी, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ कृष्णसदैव विजयी होते हैं।

    एकमात्र पाशविक दृष्टि वाले ही यह सोचते हैं कि कभी कभी उनकी हारहोती है।

    श्रुत्वा युद्धोद्यमं राम: कुरूणां सह पाण्डवै: ।

    तीर्थाभिषेकव्याजेन मध्यस्थ: प्रययौ किल ॥

    १७॥

    श्रुत्वा--सुनकर; युद्ध--युद्ध के लिए; उद्यमम्‌--तैयारियाँ; राम:--बलराम ने; कुरूणाम्‌--कुरुओं के; सह--साथ;पाण्डवैः--पाण्डवों की; तीर्थ--तीर्थस्थानों में; अभिषेक--स्नान के ; व्याजेन--बहाने; मध्य-स्थ:--तटस्थ, बीच-बचाव करनेवाले; प्रययौ--कूच किया; किल--निस्सन्देह |

    तब बलराम ने सुना कि कुरुगण पाण्डवों के साथ युद्ध की तैयारी कर रहे हैं।

    तटस्थ होनेके कारण वे तीर्थस्थानों में स्नान के लिए जाने का बहाना करके वहाँ से कूच कर गये।

    स्नात्वा प्रभासे सन्तर्प्य देवर्षिपितृमानवान्‌ ।

    सरस्वतीं प्रतिस्त्रोतं ययौ ब्राह्मणसंवृतः ॥

    १८॥

    स्नात्वा--स्तान करके; प्रभासे--प्रभास में; सन्तर्प्यच--तथा सम्मान देकर; देव--देवताओं; ऋषि--ऋषियों; पितृ--पूर्वजों;मानवानू--तथा मनुष्यों को; सरस्वतीम्‌--सरस्वती नदी को; प्रति-स्त्रोतम्‌--समुद्र की ओर बहने वाली; ययौ--गये; ब्राह्मण-संवृतः--ब्राह्मणों से घिरे हुए |

    प्रभास में स्नान करके तथा देवताओं, ऋषियों, पितरों एवं वरेषु मानवों का सम्मान करने केबाद वे ब्राह्मणों को साथ लेकर सरस्वती के उस भाग में गये, जो पश्चिम में समुद्र की ओर बहतीहै।

    पृथूदक॑ बिन्दुसरस्त्रितकूपं सुदर्शनम्‌ ।

    विशाल ब्रह्मतीर्थ च चक्र प्राचीं सरस्वतीम्‌ ॥

    १९॥

    यमुनामनु यान्येव गड़्ामनु च भारत ।

    जगाम नैमिषं यत्र ऋषय: सत्रमासते ॥

    २०॥

    पृथु--चौड़ा; उदकम्‌--जल, पाट; बिन्दु-सर:--बिन्दु सरोवर; त्रित-कूपम्‌ सुदर्शनम्‌--त्रितकूप तथा सुदर्शन नामक तीर्थस्थल;विशालम्‌ ब्रह्म-तीर्थभ्‌ च--विशाल तथा ब्रह्मतीर्थ; चक्रम्‌--चक्रतीर्थ; प्राचीम्‌-पूर्व की ओर बहती; सरस्वतीम्‌--सरस्वतीनदी; यमुनाम्‌--यमुना नदी के; अनु--किनारे-किनारे; यानि--जो; एब--सभी; गड्ढडामू--गंगा नदी के; अनु--किनारे-किनारे;च--भी; भारत--हे भरतवंशी ( परीक्षित महाराज ); जगाम--देखने गये; नैमिषम्‌--नैमिषारण्य; यत्र--जहाँ; ऋषय: --बड़े -बड़े मुनि; सत्रमू--विशाल यज्ञ; आसते--सम्पन्न कर रहे थे

    भगवान्‌ बलराम ने चौड़े बिन्दु-सरस सरोवर, त्रितकूप, सुदर्शन, विशाल, ब्रह्मतीर्थ,अक्रतीर्थ तथा पूर्ववाहिनी सरस्वती को देखा।

    हे भारत, वे यमुना तथा गंगा नदियों के तटबर्तीसारे तीर्थस्थानों में गये और तब वे नैमिषारण्य आये, जहाँ ऋषिगण बृहद्‌ यज्ञ ( सत्र ) सम्पन्न कररहे थे।

    तमागतमभिप्रेत्य मुनयो दीर्घसत्रिण: ।

    अभिनन्द्य यथान्यायं प्रणम्योत्थाय चार्चयन्‌ ॥

    २१॥

    तम्‌--उसको; आगतम्‌--आया हुआ; अभिप्रेत्य--पहचान कर; मुनयः--मुनियों ने; दीर्घ--लम्बे समय तक; सत्रिण:--यज्ञसम्पन्न कर रहे; अभिनन्द्य--सत्कार करके; यथा--जिस तरह; न्यायम्‌--उचित, सही; प्रणम्य--नमस्कार करके; उत्थाय--उठकर; च--तथा; आर्चयन्‌--पूजा की।

    भगवान्‌ के आगमन पर उन्हें पहचान लेने पर दीर्घकाल से यज्ञ कर रहे मुनियों ने खड़ेहोकर, नमस्कार करके तथा उनकी पूजा करके समुचित ढंग से उनका सत्कार किया।

    सोचिंतः सपरीवार: कृतासनपरिग्रहः ।

    रोमहर्षणमासीनं महर्षे: शिष्यमैक्षत ॥

    २२॥

    सः--वह; अर्चितः --पूजित; स--सहित; परीवार:-- अपनी टोली; कृत--कर चुकने पर; आसन---आसन की; परिग्रह: --स्वीकृति; रोमहर्षणम्‌--रोमहर्षण सूत को; आसीनम्‌--बैठा हुआ; महा-ऋषे:--ऋषियों में सबसे बड़े व्यासदेव के ; शिष्यम्‌--शिष्य को; ऐश्षत--देखा |

    अपनी टोली समेत इस प्रकार पूजित होकर भगवान्‌ ने सम्मान-आसन ग्रहण किया।

    तबउन्होंने देखा कि व्यासदेव का शिष्य रोमहर्षण बैठा ही रहा था।

    अप्रत्युत्थायिनं सूतमकृतप्रह्मणाझ्ञलिम्‌ ।

    अध्यासीनं च तान्विप्रां श्वुकोपोद्दी क्षय माधव: ॥

    २३॥

    अप्रत्युत्थायिनम्‌--खड़ा न होने वाले; सूतम्‌--सूत पुत्र ( क्षत्रिय पिता तथा ब्राह्मण माता के संकर विवाह से उत्पन्न ) को;अकृत--जिसने नहीं किया; प्रह्हण--नमस्कार; अद्जलिमू--हाथ जोड़ना; अध्यासीनम्‌--ऊँचे स्थान पर आसीन; च--तथा;तान्‌ू--उन; विप्रानू--विद्वान ब्राह्मणों की अपेक्षा; चुकोप--क्रुद्ध हुआ; उद्दीक्ष्य--देखकर; माधव: --बलराम ।

    श्री बलराम यह देखकर अत्यन्त क्रुद्ध हुए कि सूत जाति का यह सदस्य किस तरह उठकरखड़े होने, नमस्कार करने या हाथ जोड़ने में विफल रहा है और किस तरह समस्त विद्वानब्राह्मणों से ऊपर बैठा हुआ है।

    यस्मादसाविमान्विप्रानध्यास्ते प्रतिलोमज: ।

    धर्मपालांस्तथैवास्मान्वधमर्हति दुर्मति: ॥

    २४॥

    यस्मात्‌ू--चूँकि; असौ--वह; इमानू--इन; विप्रान्‌ू--ब्राह्मणों की अपेक्षा; अध्यास्ते--ऊँचे स्थान पर बैठा है; प्रतिलोम-ज: --अनुचित संकर विवाह से उत्पन्न; धर्म--धर्म के सिद्धान्तों का; पालानू--रक्षक; तथा एब--भी; अस्मान्‌--मुझसे; वधम्‌-- मृत्यु;अ्ति--पात्र है; दुर्मतिः--मूर्ख

    बलराम ने कहा : चूँकि अनुचित रीति से संकर विवाह से उत्पन्न यह मूर्ख इन सारेब्राह्मणों से ऊपर बैठा है और मुझ धर्म-रक्षक से भी ऊपर, इसलिए यह मृत्यु का पात्र है।

    ऋषेर्भगवतो भूत्वा शिष्योधीत्य बहूनि च ।

    सेतिहासपुराणानि धर्मशास्त्राणि सर्वश: ॥

    २५॥

    अदान्तस्याविनीतस्य वृथा पण्डितमानिन: ।

    न गुणाय भवन्ति सम नटस्थेवाजितात्मन: ॥

    २६॥

    ऋषे: --ऋषि ( व्यासदेव ) का; भगवतः--ई श्वर के अवतार; भूत्वा--बन कर; शिष्य:--शिष्य; अधीत्य--अध्ययन करके;बहूनि--अनेक; च--तथा; स--सहित; इतिहास--पौराणिक इतिहास; पुराणानि--तथा पुराण; धर्म-शास्त्राणि--मनुष्य केधार्मिक कर्तव्यों को बताने वाले शास्त्र; सर्वशः --पूर्णरूपेण; अदान्तस्थ--उसके लिए जो आत्मसंयमी नहीं है; अविनीतस्य--अविनीत; वृथा--व्यर्थ ही; पण्डित--विद्वान; मानिन:--अपने को सोचते हुए; न गुणाय--सदगुणों वाला नहीं; भवन्ति स्म--वेहो गये हैं; नटस्थ--मंच पर नाटक करने वालों का; इब--सहृश; अजित--न जीता हुआ; आत्मन:--जिसका मन।

    यद्यपि वह दिव्य मुनि व्यास का शिष्य है और उसने उनसे अनेक शास्त्रों को भलीभाँतिसीखा है, जिसमें धार्मिक कर्तव्यों की संहिताएँ, इतिहास तथा पुराण सम्मिलित हैं, किन्तु इससारे अध्ययन से उसमें सद्गुण उत्पन्न नहीं हुए हैं।

    प्रत्युत उसका शास्त्र अध्ययन किसी नट केद्वारा अपना अंश अध्ययन करने की तरह है, क्योंकि वह न तो आत्मसंयमी है, न विनीत है।

    वहव्यर्थ ही विद्वान होने का स्वाँग रचता है, यद्यपि वह अपने मन को जीत सकने में विफल रहा है।

    एतदर्थो हि लोकेस्मिन्नवतारो मया कृत: ।

    वध्या मे धर्मध्वजिनस्ते हि पातकिनोइधिका: ॥

    २७॥

    एतत्‌--इसी; अर्थ:--प्रयोजन के लिए; हि--निस्सन्देह; लोके--संसार में; अस्मिन्‌ू--इस; अवतार:--अवतार; मया--मेरेद्वारा; कृतः--किया गया; वध्या:--मारे जाने के लिए; मे--मेरे द्वारा; धर्म-ध्वजिन:--धधार्मिक बनने का स्वाँग रचने वाले; ते--वे; हि--निस्सन्देह; पातकिन:--पापी; अधिका:--सर्वाधिक |

    इस संसार में मेरे अवतार का उद्देश्य ही यह है कि ऐसे दिखावटी लोगों का वध किया जाय,जो धार्मिक बनने का स्वाँग रचते हैं।

    निस्सन्देह, वे सबसे बड़े पापी धूर्त हैं।

    एतावदुक्त्वा भगवान्निवृत्तोउसद्बधादपि ।

    भावित्वात्तं कुशाग्रेण करस्थेनाहनत्प्रभु: ॥

    २८॥

    एतावत्‌--इतना; उक्त्वा--कह कर; भगवान्‌-- भगवान्‌; निवृत्त:--रुक गये; असत्‌--अशुभ; वधात्‌--मारने से; अपि--यद्यपि; भावित्वातू--यद्यपि हटाया नहीं जा सकता था; तम्‌--उसको, रोमहर्षण को; कुश--कुश तृण की; अग्रेण--नोक से;कर--हाथ में; स्थेन--पकड़ा हुआ; अहनत्‌--मार डाला; प्रभु:--भगवान्‌ ने।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : यद्यपि भगवान्‌ बलराम ने अपवित्र लोगों को मारना बन्दकर दिया था, किन्तु रोमहर्षण की मृत्यु तो होनी ही थी।

    इसलिए ऐसा कहकर भगवान्‌ ने कुशघास का एक तिनका उठाकर और उसकी नोक से छूकर उसे मार डाला।

    हाहेतिवादिन: सर्वे मुनयः खिन्नमानसा: ।

    ऊचुः सड्डूर्षणं देवमधर्मस्ते कृत: प्रभो ॥

    २९॥

    हा-हा--हाय, हाय; इति--इस प्रकार; वादिन:--कहते हुए; सर्वे--सभी; मुनयः--मुनिगण; खिन्न--विचलित; मानसा: --मनवाले; ऊचु:--बोले; सड्डर्षणम्‌--बलराम को; देवम्‌-- भगवान्‌; अधर्म:--अधार्मिक कृत्य; ते--तुम्हारे द्वारा; कृतः:--कियागया; प्रभो-हे प्रभु |

    सारे मुनि अत्यन्त कातरता से 'हाय हाय' कह कर चिल्ला पड़े।

    उन्होंने भगवान्‌ संकर्षण से कहा, 'हे प्रभु, आपने यह एक अधार्मिक कृत्य किया है।

    'अस्य ब्रह्मासनं दत्तमस्माभिर्यदुनन्दन ।

    आयुशभ्चात्माक्लमं तावद्यावत्सत्र॑ं समाप्यते ॥

    ३०॥

    अस्य--इसका; ब्रह्म-आसनम्‌--गुरु का आसन; दत्तमू-दिया हुआ; अस्माभि: --हमारे द्वारा; यदु-नन्दन--हे यदुओं के प्रिय;आयु:--दीर्घ जीवन; च--तथा; आत्म--शरीर से; अक्लमम्‌--कष्ट से मुक्ति; तावत्‌ू--तब तक के लिए; यावत्‌--जब तक;सत्रम्‌ू--यज्ञ; समाप्यते--समाप्त हो जाता है।

    'हे यदुओं के प्रिय, हमने उसे आध्यात्मिक गुरु का आसन प्रदान किया था और उसे दीर्घआयु के लिए एवं जब तक यह सत्र चलता है तब तक भौतिक पीड़ा से मुक्ति के लिए वचनदिया था।

    अजानतैवाचरितस्त्वया ब्रह्मवधो यथा ।

    योगेश्वरस्य भवतो नाम्नायोडईपि नियामक: ॥

    ३१॥

    यद्येतद्वह्म हत्याया: पावनं॑ लोकपावन ।

    चरिष्यति भवॉल्लोकसड्ग्रहोनन्‍्यचोदितः ॥

    ३२॥

    अजानता--न जानते हुए; एव--केवल; आचरित:--किया गया; त्वया--तुम्हारे द्वारा; ब्रहा--ब्राह्मण का; वध:--वध;यथा--वास्तव में; योग--योगशक्ति के; ई श्वरस्थ-- भगवान्‌ का; भवतः --आप; न--नहीं; आम्नाय: --शास्त्रों का आदेश;अपि--भी; नियामकः--नियंत्रित करने वाला; यदि--यदि; एतत्‌--इसके लिए; ब्रह्म--ब्राह्मण की; हत्याया:--हत्या;पावनम्‌--शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त; लोक--संसार का; पावन--हे पवित्रकर्ता; चरिष्यति--सम्पन्न करता है; भवान्‌ू-- आप;लोक-सड्ग्रह:--आम लोगों की भलाई; अनन्य--अन्य किसी के द्वारा नहीं; चोदित: --प्रेरित ।

    'आपने अनजाने में एक ब्राह्मण का वध कर दिया है।

    हे योगेश्वर, शास्त्रों के आदेश भीआपको आज्ञा नहीं दे सकते।

    किन्तु यदि आप स्वेच्छा से ब्राह्मण के इस वध के लिए संस्तुतशुद्धि कर लेंगे, तो हे सारे जगत के शुद्धिकर्ता, सामान्य लोग आपके उदाहरण से अत्यधिकलाभान्वित होंगे।

    'श्रीभगवानुवाच चरिष्ये वधनिर्वेशं लोकानुग्रहकाम्यया ।

    नियम: प्रथमे कल्पे यावान्स तु विधीयताम्‌ ॥

    ३३॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; चरिष्ये--मैं करूँगा; वध--हत्या करने के लिए; निर्वेशम्‌-प्रायश्चित्त; लोक--सामान्यलोगों के लिए; अनुग्रह--दया; काम्यया--दिखाने की इच्छा से; नियम:--आदेश; प्रथमे--प्रथम श्रेणी का; कल्पे--अनुष्ठान;यावान्‌--जितना; सः--वह; तु--निस्सन्देह; विधीयताम्‌--आप विधान करें, निर्धारित करें|

    भगवान्‌ ने कहा : मैं इस हत्या के लिए अवश्य ही प्रायश्चित करूँगा क्योंकि मैं सामान्यलोगों के प्रति दया दिखाना चाहता हूँ।

    इसलिए कृपा करके मुझे जो कुछ अनुष्ठान सर्वप्रथमकरना हो, उसका निर्धारण करें।

    दीर्घमायुर्ब॑तैतस्य सत्त्वमिन्द्रियमेव च ।

    आशासितं यत्तदूते साधये योगमायया ॥

    ३४॥

    दीर्घमू--लम्बी; आयु:--उप्र; बत--ओह; एतस्थ--इसके लिए; सत्त्वम्‌-शक्ति; इन्द्रियम्‌ू--इन्द्रिय शक्ति; एव च--तथा;आशासितमू--वचन दिया हुआ; यत्‌--जो; तत्‌--वह; ब्रूते--कहिये; साधये--मैं करवा दूँगा; योग-मायया-- अपनीयोगशक्ति से |

    हे मुनियो, कुछ कहिये तो।

    आपने उसे जो भी दीर्घायु, शक्ति तथा इन्द्रिय शक्ति के लिएवचन दिये हैं, उन्हें मैं पूरा करवा दूँगा।

    ऋषय ऊचु:अस्त्रस्य तव वीर्यस्य मृत्योरस्माकमेव च ।

    यथा भवेद्बचः सत्यं तथा राम विधीयताम्‌ ॥

    ३५॥

    ऋषय: ऊचु:--ऋषियों ने कहा; अस्त्रस्य--( कुश ) हथियार का; तब--तुम्हारे; वीर्यस्य--शक्ति का; मृत्यो:--मृत्यु का;अस्माकम्‌--हमारा; एव च-- भी; यथा--जिससे; भवेत्‌--बना रह सके; वच:--वचन; सत्यम्‌--सच; तथा--इस प्रकार;राम--हे राम; विधीयताम्‌--व्यवस्था कर दें।

    ऋषियों ने कहा : हे राम, आप ऐसा करें कि आपकी तथा आपके कुश अस्त्र की शक्ति एवंसाथ ही हमारा वचन तथा रोमहर्षण की मृत्यु--ये सभी बने रहें।

    श्रीभगवानुवाचआत्मा बै पुत्र उत्पन्न इति वेदानुशासनम्‌ ।

    तस्मादस्य भवेद्बक्ता आयुरिन्द्रियसत्त्ववान्‌ ॥

    ३६॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; आत्मा--आत्मा; बै--निस्सन्देह; पुत्र:--पुत्र; उत्पन्न:--उत्पन्न; इति--इस प्रकार; वेद-अनुशासनमू--वेदों का आदेश; तस्मात्‌ू--इसलिए; अस्य--इसका ( पुत्र ); भवेत्‌--होगा; वक्ता--व्याख्यान देने वाला,वाचक; आयु: --दीर्घायु; इन्द्रिय--प्रबल इन्द्रियाँ; सत्तत--तथा शारीरिक बल; वानू्‌--से युक्त |

    भगवान्‌ ने कहा : वेद हमें उपदेश देते हैं कि मनुष्य की आत्मा ही पुत्र रूप में पुनः जन्म लेतीहै।

    इस तरह रोमहर्षण का पुत्र पुराणों का वक्ता बने और वह दीर्घायु, प्रबल इन्द्रियों तथा बल सेयुक्त हो।

    कि वः कामो मुनिश्रेष्ठा ब्रूताहं करवाण्यथ ।

    अजानतत्त्वपचितिं यथा मे चिन्त्यतां बुधा: ॥

    ३७॥

    किम्‌--क्या; वः--तुम्हारी; काम:--इच्छा; मुनि--मुनियों में; श्रेष्ठा:--हे श्रेष्ठ; बूत--कहें; अहम्‌ू--मैं; करवाणि-- करूँगा;अथ--और तब; अजानतः --कौन नहीं जानता; तु--निस्सन्देह; अपचितिम्‌--प्रायश्चित्त; यथा--उचित रीति से; मे--मेरे लिए;चिन्त्यताम्‌--सोचें; बुधा:--हे बुद्धिमान जनो |

    हे मुनिश्रेष्ठी, आप मुझे अपनी इच्छा बतला दें।

    मैं उसे अवश्य पूरा करूँगा।

    और हे बुद्धिमानआत्माओ, मेरे लिए समुचित प्रायश्चित्त का भलीभाँति निर्धारण कर दें, क्योंकि मैं यह नहींजानता कि वह क्‍या हो सकता है।

    ऋषय ऊचु:इल्वलस्य सुतो घोरो बल्वलो नाम दानव: ।

    स दूषयति नः सत्रमेत्य पर्वणि पर्वणि ॥

    ३८॥

    ऋषय: ऊचु:--ऋषियों ने कहा; इल्बलस्थ--इल्वल का; सुतः--पुत्र; घोर: -- भयावह; बल्वल: नाम--बल्वल नामक;दानवः--असुर; सः--वह; दूषयति--दूषित कर देता है; नः--हमारा; सत्रम्‌ू--यज्ञ; एत्य--आकर; पर्वणि पर्वणि--हरप्रतिपदा को |

    ऋषियों ने कहा : एक भयावना असुर, जिसका नाम बल्वल है और जो इल्वल का पुत्र है,हर प्रतिपदा को अर्थात्‌ शुक्लपक्ष के पहले दिन यहाँ आता है और हमारे यज्ञ को दूषित कर देताहै।

    त॑ं पापं जहि दाशाह तन्नः शुश्रूषणं परम्‌ ।

    'पूयशोणितविन्‍न्मूत्रसुरामांसाभिवर्षिणम्‌ ॥

    ३९॥

    तम्‌--उस; पापम्‌--पापी व्यक्ति को; जहि--मार डालिये; दाशाई--हे दशा के वंशज; तत्‌--वह; नः--हमारी; शुश्रूषणम्‌ --सेवा; परम्‌--सर्व श्रेष्ठ; पूष--पीब; शोणित--रक्त; वित्‌ू--मल; मूत्र--मूत्र; सुरा--शराब; मांस--तथा मांस; अभिवर्षिणम्‌--नीचे गिराता है।

    हे दशाई-वंशज, कृपा करके उस पापी असुर का वध कर दें, जो हमारे ऊपर पीब, रक्त,मल, मूत्र, शराब तथा मांस डाल जाता है।

    आप हमारे लिए यही सबसे उत्तम सेवा कर सकते हैं।

    ततश्च भारतं वर्ष परीत्य सुसमाहितः ।

    चरित्वा द्वादशमासांस्तीर्थस्नायी विशुध्यसि ॥

    ४०॥

    ततः--तब; च--तथा; भारतम्‌ वर्षम्‌-- भारतवर्ष की; परीत्य--परिक्रमा करके; सु-समाहित: --गम्भीर मुद्रा में; चरित्वा--तपस्या करके; द्वादश--बारह; मासान्‌--महीनों; तीर्थ--ती र्थस्थल; स्नायी--स्नान करके; विशुध्यसि--शुद्ध हो सकोगे।

    तत्पश्चात्‌ आप बारह महीनों तक गम्भीर ध्यान के भाव में भारतवर्ष की परिक्रमा करें औरतपस्या करते हुए विविध पवित्र तीर्थस्थानों में स्नान करें।

    इस तरह आप विशुद्ध हो सकेंगे।

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    अध्याय उनासी: भगवान बलराम तीर्थयात्रा पर जाते हैं

    10.79भीमो वायुरभूद्राजन्पूयगन्धस्तु सर्वशः ॥

    १॥

    श्री-शुक:उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; ततः--तत्पश्चात्‌; पर्वणि--प्रतिपदा का दिन; उपावृत्ते--आने पर; प्रचण्ड:--भयानक; पांशु-- धूल; वर्षण: --वर्षा; भीम: -- डरावनी; वायु: -- हवा; अभूत्‌--उठी; राजन्‌--हे राजन्‌ ( परीक्षित ); पूय--पीब की; गन्ध: --गन्ध; तु--तथा; सर्वशः--सर्वत्र |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन, तब प्रतिपदा के दिन ( शुक्लपक्ष का पहला दिन )एक प्रचण्ड तथा भयावना झंझावात आया, जिससे चारों ओर धूल बिखर गई और सर्वत्र पीबकी दुर्गन्‍्ध फैल गई।

    ततोअमेध्यमयं वर्ष बल्वलेन विनिर्मितम्‌ ।

    अभवद्यज्ञशालायां सोन्वदृश्यत शूलधृक्‌ ॥

    २॥

    ततः--तब; अमेध्य--गर्हित वस्तुएँ; मयम्‌--से पूर्ण; वर्षम्‌--वर्षा; बल्वलेन--बल्वल द्वारा; विनिर्मितम्‌--उत्पन्न किया गया;अभवत््‌--हुआ; यज्ञ--यज्ञ की; शालायाम्‌--शाला में; सः--वह, बल्वल; अन्वहृश्यत--इसके बाद प्रकट हुआ; शूल--त्रिशूल; धूकू--लिए हुए।

    इसके बाद यज्ञशाला के क्षेत्र में बल्वल द्वारा भेजी गई घृणित वस्तुओं की वर्षा होने लगी।

    तत्पश्चात्‌ वह असुर हाथ में त्रिशूल लिए साक्षात्‌ प्रकट हुआ।

    त॑ विलोक्य बृहत्कायं भिन्नाज्ननचयोपमम्‌ ।

    तप्तताग्रशिखाइम श्रुं दंष्टोग्रश्रुकुटीमुखम्‌ ॥

    ३॥

    सस्मार मूषलं राम: परसैन्यविदारणम्‌ ।

    हलं च दैत्यदमनं ते तूर्णमुपतस्थतुः ॥

    ४॥

    तम्‌--उसको; विलोक्य--देखकर; बृहत्‌--विशाल; कायम्‌--शरीर वाले; भिन्न--टूटा; अज़्न--काजल का; चय--ढेर;उपमम्‌--सहृश; तप्त--जलता हुआ; ताप्र--ताँबे ( जैसे रंग वाला ); शिखा--चोटी; शमश्रुम्‌--तथा दाढ़ी; दंप्टा--दाँत सहित;उग्र--भयावह; भ्रु--भौंहों के; कुटी--खाँचों से युक्त; मुखम्‌--मुख वाला; सस्मार--स्मरण किया; मूषलम्‌--अपनी गदा( मूसल ); राम:--बलराम ने; पर--आमने-सामने; सैन्य--सेनाएँ; विदारणम्‌--फाड़ने के लिए; हलमू--अपना हल; च--तथा; दैत्य--असुर; दमनमू--दमन करने वाला; ते--वे; तूर्णम्‌--तुरन्त; उपतस्थतु: --प्रस्तुत किया, उपस्थित हुआ।

    विशालकाय असुर काले कज्जल के पिंड जैसा लग रहा था।

    उसकी चोटी तथा दाढ़ी पिघलेताँबे जैसी थी और उसके चेहरे में भयावने दाँत थे तथा भौंहें गढ़े में घुसी थीं।

    उसे देखकरबलराम ने शत्रु-सेनाओं को खण्ड-खण्ड कर देने वाली अपनी गदा और असुरों को दण्ड देनेवाले अपने हल का स्मरण किया।

    इस प्रकार बुलाये जाने पर उनके दोनों हथियार तुरन्त हीउनके समक्ष प्रकट हो गये।

    तमाकृष्य हलाग्रेण बल्वलं गगनेचरम्‌ ।

    मूषलेनाहनत्क्रुद्धो मूर्धिनि ब्रह्मद्गराहं बल: ॥

    ५॥

    तम्‌--उसको; आकृष्य--अपनी ओर खींच कर; हल--हल के; अग्रेण-- अगले भाग से; बल्वलम्‌--बल्वल को; गगने--आकाश में; चरम्‌--विचरण करने वाले; मूषघलेन-- अपनी गदा से; अहनत्‌-- प्रहार किया; क्रुद्धः--नाराज; मूर्ध्नि--सिर पर;ब्रह्म--ब्राह्मणों का; द्रहम्‌--तंग करने वाला; बल:ः--बलराम ने |

    ज्योंही बल्वल असुर आकाश से उड़ा, भगवान्‌ बलराम ने अपने हल की नोंक से उसे पकड़लिया और इस ब्राह्मण-उत्पीड़क के सिर पर अत्यन्त क्रुद्ध होकर अपनी गदा से प्रहार किया।

    सोपतद्भुवि निर्भिन्नललाटोसृक्समुत्सूजन्‌ ।

    मुझन्नार्तस्वरं शैलो यथा वज़हतोरुण: ॥

    ६॥

    सः--वह, बल्वल; अपततू--गिर पड़ा; भुवि--पृथ्वी पर; निर्भिन्न--फट गया; ललाट:--कपाल; असृक्‌--रक्त; समुत्सूजन्‌--'फव्वारे की तरह निकलता हुआ; मुझ्न्‌--छोड़ते हुए; आर्त--पीड़ा के; स्वर्मू--शब्द; शैल:--पर्वत; यथा--जिस तरह;बज्--विद्युत्पात से; हतः--प्रहार किया हुआ; अरुण:--लाल-लाल।

    बल्वल पीड़ा से चिल्‍ला उठा और पृथ्वी पर गिर पड़ा।

    उसका सिर फट गया और उसमें सेखून का फव्वारा निकलने लगा।

    वह विद्युत्पात से प्रताड़ित लाल ( गेरू ) पर्वत जैसा लग रहाथा।

    संस्तुत्य मुनयो राम॑ प्रयुज्यावितथाशिष: ।

    अभ्यषिश्ञन्महाभागा वृत्रघ्न॑ विबुधा यथा ॥

    ७॥

    संस्तुत्य--प्रशंसा करके ; मुनयः--मुनिगण; रामम्‌--बलराम की; प्रयुज्य--प्रदान करके; अवितथ--अच्युत; आशिष: --वर;अभ्यषिश्जन्‌--जैसे उत्सव में नहलाया हुआ; महा-भागा:--महापुरुष; वृत्र--वृत्रासुर का; घ्नमू--मारने वाला ( इन्द्र );विबुधा:--देवतागण; यथा--जिस प्रकार।

    पूज्य ऋषियों ने हार्दिक स्तुतियों से बलराम का सम्मान किया और उन्हें अमोघ वर दिये।

    तबउन्होंने उनका अनुष्ठानिक स्नान कराया, जिस तरह देवताओं ने इन्द्र को औपचारिक स्नान करायाथा, जब उसने वृत्र का वध किया था।

    वैजयन्तीं ददुर्मालां श्रीधामाम्लानपड्डूजां ।

    रामाय वाससी दिव्ये दिव्यान्याभरणानि च ॥

    ८॥

    वैजयन्तीम्‌ू--वैजयन्ती नामक; ददुः--दिया; मालाम्‌ू--फूलों की माला; श्री--लक्ष्मी के; धाम--घर; अम्लान--कभी नमुरझाने वाली; पड्लडजामू--कमल-फूलों से बनी; रामाय--बलराम को; वाससी--वस्त्रों की जोड़ी ( ऊपरी तथा निचले );दिव्ये--दिव्य; दिव्यानि--दिव्य; आभरणानि--आभूषण; च--तथा

    उन्होंने बलरामजी को कभी न मुरझाने वाली कमल के फूलों से बनी वैजयन्ती नामक मालादी, जिसमें लक्ष्मीजी रहती हैं।

    उन्होंने बलराम को दिव्य वस्त्रों की जोड़ी तथा आभूषण भी दिये।

    अथ तैरभ्यनुज्ञात: कौशिकीमेत्य ब्राह्मणै: ।

    स्नात्वा सरोवरमगाद्यतः सरयूरासत्रवत्‌ ॥

    ९॥

    अथ--तत्पश्चात्‌; तैः--उनके द्वारा; अभ्यनुज्ञात:--विदा किये गये; कौशिकीम्‌--कौशिकी नदी में; एत्य-- आकर; ब्राह्मणै:--ब्राह्मणों के साथ; स्नात्वा--नहाकर; सरोवरम्‌--झील के निकट; अगातू्‌--गये; यत:ः--जिसमें से; सरयू:--सरयू नदी;आस््रवतू--निकलती है

    तत्पश्चात्‌ ऋषियों से विदा होकर भगवान्‌ ब्राह्मणों की टोली के साथ कौशिकी नदी गये,जहाँ उन्होंने स्नान किया।

    वहाँ से वे उस सरोवर पर गये, जिससे सरयू नदी निकलती है।

    अनुस्त्रोतेन सरयूं प्रयागमुपगम्य सः ।

    स्नात्वा सन्तर्प्य देवादीन्‍जगाम पुलहाश्रमम्‌ ॥

    १०॥

    अनु--पीछे-पीछे; स्रोतेन-- धारा; सरयूम्‌--सरयू के किनारे-किनारे; प्रयागम्‌-- प्रयाग तक; उपगम्य--आकर; सः--वह;स्नात्वा--स्नान करके; सन्तर्प्य--तर्पण करके; देव-आदीन्‌--देवताओं आदि को; जगाम--गया; पुलह-आश्रमम्‌--पुलह ऋषिकी कुटिया में |

    भगवान्‌ सरयू नदी की धारा का अनुसरण करते हुए प्रयाग आये, जहाँ उन्होंने स्नान कियाऔर देवताओं तथा अन्य जीवों को तर्पण करने का अनुष्ठान सम्पन्न किया।

    इसके बाद वे पुलहऋषि के आश्रम गये।

    गोमतीं गण्डकीं स्नात्वा विपाशां शोण आप्लुत: ।

    गयां गत्वा पितृनिष्ठा गड़ासागरसड्रमे ॥

    ११॥

    उपस्पृश्य महेन्द्रादौ राम॑ हृष्टाभिवाद्य च ।

    सप्तगोदावरीं वेणां पम्पां भीमरथीं ततः ॥

    १२॥

    स्कन्दं दृष्ठा ययौ राम: श्रीशैलं गिरिशालयम्‌ ।

    द्रविडेषु महापुण्यं दृष्टाद्रिं वेड्डूटं प्रभु: ॥

    १३॥

    कामकोष्णीं पुरीं काञ्लीं कावेरीं च सरिद्वराम्‌ ।

    श्रीरन्गाख्यं महापुण्यं यत्र सन्निहितो हरि: ॥

    १४॥

    ऋषकभाद्रिं हरे: क्षेत्रं दक्षिणां मथुरां तथा ।

    सामुद्रं सेतुमगमत्महापातकनाशनम्‌ ॥

    १५॥

    गोमतीम्‌--गोमती नदी में; गण्डकीम्‌--गण्डकी नदी में; स्नात्वा--स्नान करके; विपाशाम्‌--विपाशा नदी में; शोणे--शोणनदी में; आप्लुत:ः--घुस करके; गयाम्‌--गया; गत्वा--जाकर; पितृन्‌--अपने पितरों को; इश्ला--पूजा करके; गड्ज--गंगा;सागर--तथा समुद्र के; सड़मे--संगम में; उपस्पृश्य--जल का स्पर्श करके ( नहाकर ); महा-इन्द्र-अद्रौ--महेन्द्र पर्वत पर;रामम्‌--परशुराम को; हृष्ठा--देखकर; अभिवाद्य--सम्मान करके; च--तथा; सप्त-गोदावरीम्‌--सात गोदावरियों के मिलनस्थल पर ( जाकर ); वेणाम्‌--वेणा नदी; पम्पाम्‌--पम्पा नदी; भीमरथीम्‌्--तथा भीमरथी नदी; तत:ः--तब; स्कन्दम्‌-- भगवान्‌स्कन्द ( कार्तिकेय ) को; दृष्टा--देखकर; ययौ--गया; राम:--बलराम; श्री-शैलम्‌-- श्रीशैल; गिरि-श--शिवजी के;आलयमू--वासस्थान; द्रविडेषु--दक्षिणी प्रान्तों में; महा--अत्यन्त; पुण्यम्‌--पतवित्र; इृध्ला--देखकर; अद्विम्‌ू--पर्वत को;वेड्डूटम्‌--वेंकट नामक ( जो बालाजी का धाम है ); प्रभुः--भगवान्‌; काम-कोष्णीमू--कामकोष्णी; पुरीम्‌ काञ्लीम्‌--काझञझ्ञीपुरम्‌ को; कावेरीम्‌--कावेरी को; च--तथा; सरित्‌--नदियों के; वराम्‌--सबसे बड़े; श्री-रड्र-आख्यम्‌-- श्रीरंग नामक;महा-पुण्यम्‌--अत्यन्त पवित्र स्थान; यत्र--जहाँ; सन्निहित:ः--प्रकट; हरिः-- भगवान्‌ कृष्ण ( रंगनाथ के रूप में ); ऋषभ-अद्विमू--ऋषभ पर्वत; हरेः-- भगवान्‌ विष्णु के; क्षेत्रमू--स्थान; दक्षिणाम्‌ मथुराम्‌ू-दक्षिणी मथुरा ( मदुराई, देवी मीनाक्षी काधाम ); तथा-- भी; सामुद्रम्‌ू--समुद्र पर; सेतुम्‌--पुल ( सेतुबन्ध ); अगमत्‌--गया; महा--सबसे बड़े; पातक--पापों का;नाशनमू--नष्ट करने वाला।

    भगवान्‌ बलराम ने गोमती, गण्डकी तथा विपाशा नदियों में स्नान किया और शोण में भीडुबकी लगाई।

    वे गया गये, जहाँ अपने पितरों की पूजा की।

    गंगामुख जाकर उन्होंने शुद्धि केलिए स्नान किया।

    महेन्द्र पर्वत पर उन्होंने परशुराम के दर्शन किये और उनकी स्तुति की।

    तत्पश्चात्‌ उन्होंने गोदावरी नदी की सातों शाखाओं में स्नान किया।

    उन्होंने वेणा, पम्पा तथाभीमरथी नदियों में भी स्नान किया।

    फिर बलराम भगवान्‌ स्कन्द से मिले और भगवान्‌ गिरिशके धाम श्रीशैल गये।

    दक्षिणी प्रान्तों में, जिन्हें द्रविड़ देश कहा जाता है, भगवान्‌ ने पवित्र वेंकटपर्वत, कामकोष्णी तथा कांची नामक शहर, पवित्र कावेरी नदी तथा अत्यन्त पवित्र श्रीरंग कोदेखा, जहाँ साक्षात्‌ भगवान्‌ कृष्ण प्रकट हुए थे।

    वहाँ से वे ऋषभ पर्वत गये, जहाँ पर कृष्ण भीरहते हैं और फिर दक्षिण मथुरा गये।

    तत्पश्चात्‌ वे सेतुबन्ध गये, जहाँ बड़े से बड़े पाप नष्ट हो जातेहैं।

    तत्रायुतमदाद्धेनूर्ब्राह्मणे भ्यो हलायुधः ।

    कृतमालां ताम्रपर्णी मलयं च कुलाचलम्‌ ।

    तत्रागस्त्यं समासीनं नमस्कृत्याभिवाद्य च ॥

    १६॥

    योजितस्तेन चाशीर्मिरनुज्ञातो गतोर्णवम्‌ ।

    दक्षिणं तत्र कन्याख्यां दुर्गा देवीं ददर्श सः ॥

    १७॥

    तत्र--वहाँ ( सेतुबन्ध या रामेश्वरम में ); अयुतम्‌--दस हजार; अदात्‌--दान में दी; धेनू: --गौवें; ब्रह्मणे भ्य:--ब्राह्मणों को;हल-आयुध:ः--जिसका हथियार हल है, बलराम ने; कृतमालाम्‌--कृतमाला नदी; ताप्रपर्णीम्‌--ताप्रपर्णी नदी; मलयम्‌--मलय; च--तथा; कुल-अचलमू--प्रमुख पर्वत श्रेणी; तत्र--वहाँ; अगस्त्यम्‌-- अगस्त्य ऋषि को; समासीनम्‌--( ध्यान में )बैठे हुए; नमस्कृत्य--नमस्कार करके; अभिवाद्य--महिमा-गायन करके; च--तथा; योजित:--प्रदत्त; तेन--उसके द्वारा; च--तथा; आशीर्मि: --आशीर्वादों से; अनुज्ञात:--जाने की अनुमति पाकर; गत:--चले गये; अर्णवम्‌--समुद्र; दक्षिणम्‌--दक्षिणी;तत्र--वहाँ; कन्या-आख्याम्‌--कन्याकुमारी नामक; दुर्गाम्‌ देवीम्‌--दुर्गादेवी को; दरदर्श--देखा; सः--उसने |

    सेतुबन्ध ( रामेश्वरम ) में भगवान्‌ हलायुध ने ब्राह्मणों को दान में दस हजार गौवें दीं।

    फिर वेकृतमाला तथा ताम्रपर्णी नदियों एवं विशाल मलय पर्वत गये।

    मलय- श्रेणी में भगवान्‌ बलरामको ध्यानमग्न अगस्त्य ऋषि मिले।

    ऋषि को नमस्कार करके भगवान्‌ ने स्तुति की और उनसेआशीर्वाद प्राप्त किया।

    अगस्त्य से विदा होकर वे दक्षिणी सागर के तट पर गये, जहाँ उन्होंनेकन्याकुमारी के रूप में दुर्गादेवी को देखा।

    ततः फाल्गुनमासाद्य पश्चाप्सरसमुत्तमम्‌ ।

    विष्णु: सन्निहितो यत्र स्नात्वास्पर्शद्‌गवायुतम्‌ ॥

    १८॥

    ततः--तब; फाल्गुनम्‌--फाल्गुन; आसाद्य--पहुँच कर; पशञ्ञ-अप्सरसम्‌--पाँच अप्सराओं की झील; उत्तमम्‌--उत्तम;विष्णु:-- भगवान्‌ विष्णु; सन्निहित:ः--प्रकट ; यत्र--जहाँ पर; स्नात्वा--स्नान करके; अस्पर्शत्‌--स्पर्श किया ( दान देते समयअनुष्ठान के रूप में ); गब--गौवों को; अयुतम्‌ू--दस हजार।

    इसके बाद वे फाल्गुन तीर्थ गये और उन्होंने पवित्र पञ्ञाप्सरा सरोवर में स्नान किया, जहाँसाक्षात्‌ भगवान्‌ विष्णु प्रकट हुए थे।

    यहाँ पर उन्होंने और दस हजार गौवें दान में दीं।

    ततोभिक्रज्य भगवान्केरलांस्तु त्रिगर्तकान्‌ ।

    गोकर्णाख्यं शिवक्षेत्रं सान्निध्यं यत्र धूर्जट: ॥

    १९॥

    आर्या ट्वैपायनीं इृष्ठा शूर्पारकमगाद्ठल: ।

    तापीं पयोष्णीं निर्विन्ध्यामुपस्पृश्याथ दण्डकम्‌ ॥

    २०॥

    प्रविश्य रेवामगमद्यत्र माहिष्मती पुरी ।

    मनुतीर्थमुपस्पृश्य प्रभासं पुनरागमत्‌ ॥

    २१॥

    ततः--तब; अभिक्रज्य--यात्रा करके; भगवान्‌-- भगवान्‌; केरलान्‌--केरल राज्य से होकर; तु--तथा; त्रिगर्तकान्‌ू-त्रिगर्त सेहोकर; गोकर्ण-आख्यम्‌--( उत्तरी कर्णाटक में अरब सागर के तट पर ) गोकर्ण नामक; शिव-दश्षेत्रमू--शिवजी के पवित्र स्थल;सान्निध्यम्‌--प्राकट्य; यत्र--जहाँ; धूर्जटे:--शिवजी की; आर्याम्‌--सम्मानित देवी ( पार्वती, शिव-पत्ली ); द्वैप--द्वीप में(गोकर्ण के निकट के तट से दूर ); अयनीम्‌--रहने वाला; इृष्ला--देखकर; शूर्पारकम्‌--शूर्पारक के पवित्र जिले में; अगात्‌--गये; बल:--बलराम; तापीम्‌ पयोष्णीम्‌ निर्विन्ध्यामू--तापी, पयोष्णी तथा निर्विन्ध्या नदियों में; उपस्पृश्य--जल छूकर; अथ--उसके बाद; दण्डकम्‌--दण्डक वन में; प्रविश्य--प्रवेश करके; रेवाम्‌ू--रेवा नदी तक; अगमत्‌--गये; यत्र--जहाँ; माहिष्मतीपुरी--माहिष्मती नगरी में; मनु-तीर्थम्‌--मनुती र्थ को; उपस्पृश्य--जल छूकर; प्रभासम्‌--प्रभास; पुन:--फिर; आगमतू--आये

    तब भगवान्‌ ने केरल तथा त्रिगर्त राज्यों से होकर यात्रा करते हुए भगवान्‌ शिव की पवित्रनगरी गोकर्ण देखी, जहाँ साक्षात्‌ भगवान्‌ धूर्जटि ( शिव ) प्रकट होते हैं।

    इसके बाद एक द्वीप मेंनिवास करने वाली देवी पार्वती का दर्शन करके बलरामजी पवित्र शूर्पारक जिले से होकर गुजरेऔर तापी, पयोष्णी तथा निर्विन्ध्या नदियों में स्नान किया।

    तत्पश्चात्‌ वे दण्डकारण्य में प्रविष्टहुए और रेवा नदी गये, जिसके किनारे माहिष्मती नगरी स्थित है।

    फिर उन्होंने मनुतीर्थ में स्नानकिया और अन्त में प्रभास लौट आये।

    श्र॒त्वा द्विजै: कथ्यमानं कुरुपाण्डवसंयुगे ।

    सर्वराजन्यनिधन भार मेने हतं भुवः ॥

    २२॥

    श्रुत्वा--सुनकर; द्विजैः--ब्राह्मणों द्वारा; कथ्यमानम्‌--सुनाये जा रहे; कुरू-पाण्डब--कुरुओं तथा पाण्डवों के बीच; संयुगे--युद्ध में; सर्व--सभी; राजन्य--राजाओं के; निधनम्‌--संहार को; भारम्‌-- भार को; मेने--सोचा; हतमू--हटाया हुआ;भुवः--पृथ्वी के |

    भगवान्‌ ने कुछ ब्राह्मणों से सुना कि किस तरह कुरूओं तथा पाण्डवों के बीच युद्ध में भागलेने वाले सारे राजा मारे जा चुके थे।

    इससे उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि अब पृथ्वी अपनेभार से मुक्त हो गई है।

    स भीमदुर्योधनयोर्गदाभ्यां युध्यतोर्मुधे ।

    वारयिष्यन्विनशनं जगाम यदुनन्दनः: ॥

    २३॥

    सः--उसने, बलरामजी ने; भीम-दुर्यो धनयो:-- भीम तथा दुर्योधन के बीच; गदाभ्याम्‌--गदाओं से; युध्यतो: -- लड़ते हुए;मृधे--युद्धक्षेत्र में; वारयिष्यन्‌ू--मना करने की इच्छा करते हुए; विनशनम्‌--युद्धक्षेत्र तक; जगाम--गये; यदु--यदुओं के;नन्दन:--प्रिय पुत्र ( बलराम )॥

    उस समय युद्धक्षेत्र में भीम तथा दुर्योधन के मध्य चल रहे गदा-युद्ध को रोकने की इच्छा सेबलरामजी कुरुक्षेत्र गये।

    युधिष्टिरस्तु तं दृष्ठा यमौ कृष्णार्जुनावषि ।

    अभिवाद्याभवंस्तुष्णीं कि विवश्षुरिहागत: ॥

    २४॥

    युधिष्ठटिरः: --राजा युधिष्टिर ने; तु--लेकिन; तम्‌ू--उसे, बलराम को; हृप्टा--देखकर; यमौ--जुड़वाँ भाई, नकुल तथा सहदेव ने;कृष्ण-अर्जुनौ--कृष्ण तथा अर्जुन ने; अपि--भी; अभिवाद्य--नमस्कार करके; अभवनू-- थे; तुष्णीम्‌ू--मौन; किम्‌--क्या;विवक्षु:--कहना चाहते हुए; इह--यहाँ; आगत:--आया है

    जब युधथ्ष्टिर, कृष्ण, अर्जुन तथा जुड़वाँ भाई नकुल तथा सहदेव ने बलराम को देखा, तोउन सबों ने उन्हें नमस्कार किया, किन्तु यह सोचते हुए कि 'ये हमें क्या बतलाने आये हैं' वेसब मौन रहे।

    गदापाणी उभौ हृष्ठा संरब्धौ विजयैषिणौ ।

    मण्डलानि विचित्राणि चरन्ताविदमब्रवीत्‌ ॥

    २५॥

    गदा-गदाएँ; पाणी--हाथ में लिए; उभौ--दोनों को, दुर्योधन तथा भीम को; हृष्टा--देखकर; संरब्धौ--क्रुद्ध;: विजयब--जीत;एपिणौ--के लिए प्रयलशील; मण्डलानि--चक्र, गोले; विचित्राणि--कलात्मक; चरन्तौ--घूमते हुए; इृदम्‌--यह;अब्रवीत्‌ू-कहा।

    बलराम ने देखा कि दुर्योधन तथा भीम अपने अपने हाथों में गदा लिए कलात्मक ढंग सेचक्कर लगाते क्रोध से भरे हुए एक-दूसरे पर विजय पाने के लिए प्रयलशील हैं।

    भगवान्‌ ने उन्हेंइस प्रकार सम्बोधित किया।

    युवां तुल्यबलौ वीरौ हे राजन्हे वृकोदर ।

    एकं प्राणाधिकं मन्ये उतैकं शिक्षयाधिकम्‌ ॥

    २६॥

    युवाम्‌--तुम दोनों; तुल्य--समान; बलौ--बल या पौरुष में; वीरौ--योद्धा; हे राजन्‌ू--हे राजन्‌ ( दुर्योधन ); हे वृकोदर--हेभीम; एकम्‌--एक; प्राण--जीवनी-शक्ति में; अधिकम्‌ू--अधिक; मन्ये--मानता हूँ; उत--दूसरी ओर; एकम्‌--एक;शिक्षया--प्रशिक्षण में; अधिकम्‌--बढ़कर।

    बलरामजी ने कहा : हे राजा दुर्योधन, हे भीम, सुनो तो, तुम दोनों योद्धा युद्ध-बल मेंसमान हो।

    मैं जानता हूँ कि तुम दोनों में से एक में शारीरिक बल अधिक है, जबकि दूसरा कलामें अधिक प्रशिक्षित है।

    तस्मादेकतरस्येह युवयो: समवीर्ययो: ।

    न लक्ष्यते जयोन्यो वा विरमत्वफलो रण: ॥

    २७॥

    तस्मात्‌ू--इसलिए; एकतरस्थ--दोनों में से किसी एक का; इह--यहाँ; युवयो: --तुम दोनों का; सम--तुल्य; वीर्ययो: --पौरुषवाले; न लक्ष्यते--दिखाई नहीं पड़ता; जय:--विजय; अन्य:--विपरीत ( हार ); वा--अथवा; विरमतु--रुक जाना चाहिए;अफलः-यर्थ; रण:--युद्ध

    चूँकि तुम दोनों युद्ध-बल में बिल्कुल एक-जैसे हो अतः मेरी समझ में नहीं आ रहा है किइस द्वन्द्व में तुम में से कोई कैसे जीतेगा या हारेगा।

    अतएवं कृपा करके इस व्यर्थ के युद्ध कोबन्द कर दो।

    न तद्वाक्यं जगृहतुर्बद्धवैरो नृपार्थवत्‌ ।

    अनुस्मरन्तावन्योन्यं दुरुक्त दुष्कृतानिच ॥

    २८॥

    न--नहीं; तत्‌--उसके ; वाक्यम्‌--शब्दों को; जगृहतु:--दोनों ने स्वीकार किया; बद्ध--स्थिर; वैरौ--शत्रुता; नृप--हे राजा( परीक्षित ); अर्थ-बत्‌--विवेकशील; अनुस्मरन्तौ--स्मरण रखते हुए; अन्योन्यम्‌--एक-दूसरे को; दुरुक्तम्‌ू--कदु वचन;दुष्कृतानि--दुष्कर्म; च--भी

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : हे राजन्‌, तर्कपूर्ण होने पर भी बलरामजी के अनुरोधको उन दोनों ने स्वीकार नहीं किया, क्योंकि उनकी पारस्परिक शत्रुता कट्टर थी।

    वे दोनों हीएक-दूसरे पर किये गये अपमानों तथा आघातों को निरन्तर स्मरण करते आ रहे थे।

    दिष्टे तदनुमन्वानो रामो द्वारवर्ती ययौ ।

    उग्रसेनादिभि: प्रीतैज्ञातिभि: समुपागतः ॥

    २९॥

    दिष्टमू-- भाग्य को; तत्‌ू--उस; अनुमन्वान: --निश्चित करते हुए; राम:--बलरामजी; द्वारवतीम्‌ू--द्वारका; ययौ-- चले गये;उग्रसेन-आदिभि: --उग्रसेन इत्यादि द्वारा; प्रीते:--प्रफुल्लित; ज्ञातिभि:--अपने पारिवारिक जनों द्वारा; समुपागतः --सत्कारकिया गया।

    इस निष्कर्ष पर पहुँचते हुए कि युद्ध विधाता द्वारा आयोजित होता है, बलरामजी द्वारकालौट गये।

    वहाँ उग्रसेन ने तथा उनके अन्य सम्बन्धियों ने उनका स्वागत किया, जो सभी उन्हेंदेखकर प्रफुल्लित थे।

    तं पुनर्नैंमिषं प्राप्तमृषयोयाजयन्मुदा ।

    क्रत्वड़ं क्रतुभि: सर्वर्निवृत्ताखिलविग्रहम्‌ ॥

    ३०॥

    तम्‌--उसको, बलराम को; पुन:ः--फिर; नैमिषम्‌--नैमिषारण्य; प्राप्तम्‌--पहुँचे हुए; ऋषय:--ऋषिगण; अयाजयन्‌--वैदिकयज्ञ में व्यस्त; मुदा--प्रसन्नतापूर्वक; क्रतु--समस्त यज्ञों के; अड्रमू--अंगस्वरूप; क्रतुभिः--अनुष्ठानों से; सर्वै:--सभी प्रकारके; निवृत्त--परित्यक्त किया गया; अखिल--समस्त; विग्रहम्‌-युद्ध

    बाद में बलरामजी नैमिषारण्य लौट आये, जहाँ ऋषियों ने समस्त यज्ञों के साक्षात्‌ रूप उन्हेंप्रसन्नतापूर्वक विविध प्रकार के वैदिक यज्ञों को सम्पन्न करने में लगा दिया।

    अब बलरामजीसमस्त युद्धों से निवृत्ति प्राप्त कर चुके थे।

    तेभ्यो विशुद्धं विज्ञानं भगवान्व्यतरद्विभु: ।

    येनैवात्मन्यदो विश्वमात्मानं विश्वगं विदु: ॥

    ३१॥

    तेभ्य:--उन्हें; विशुद्धमू--एकदम शुद्ध; विज्ञानमू--दैवी ज्ञान; भगवानू-- भगवान्‌ ने; व्यतरत्‌--प्रदान किया; विभु:--सर्वशक्तिमान; येन--जिससे; एव--निस्सन्देह; आत्मनि--अपने भीतर; अद:--यह; विश्वम्‌--ब्रह्माण्ड; आत्मानम्‌--अपने को;विश्व-गमू्‌--ब्रह्माण्ड में व्याप्त; विदु:--वे अनुभव कर सके

    सर्वशक्तिमान भगवान्‌ बलराम ने ऋषियों को शुद्ध आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान किया, जिससेवे सभी बलरामजी के भीतर सारे ब्रह्माण्ड को देख सकें और यह भी देख सकें कि वे हर वस्तुमें समाये हुए हैं।

    स्वपत्यावभूथस्नातो ज्ञातिबन्धुसुहृद्दृतः ।

    रेजे स्वज्योत्स्नयेवेन्दु: सुवासा: सुप्ठवलड्डू तः ॥

    ३२॥

    स्व--अपनी; पत्या--पत्ती सहित; अवभूथ--यज्ञ-दीक्षा के अन्त का सूचक अवभृथ अनुष्ठान; स्नात:--स्नान किये हुए;ज्ञाति--अपने निकट सम्बन्धियों द्वारा; बन्धु--अन्य सम्बन्धीजन; सुहत्‌--तथा मित्रगण; वृत:--घिरे हुए; रेजे-- भव्य लग रहेथे; स्व-ज्योत्स्नया--अपनी ही किरणों समेत; इब--सहृश; इन्दु:--चन्द्रमा; सु--सुन्दर; वासा: -- वस्त्र पहने; सुष्ठ--सुन्दर;अलड्डू त:--सजे हुए

    अपनी पत्नी के साथ अवशभ्ृथ स्नान करने के बाद सुन्दर वस्त्रों से सज्नित और अलंकारों सेविभूषित तथा अपने निकट सम्बन्धियों, अन्य परिवार वालों एवं मित्रों से घिरे बलरामजी ऐसेभव्य लग रहे थे, मानो तेजयुक्त अपनी किरणों से घिरा हुआ चन्द्रमा हो।

    ईहृग्विधान्यसड्ख्यानि बलस्य बलशालिन: ।

    अनन्तस्याप्रमेयस्य मायामर्त्यस्य सन्ति हि ॥

    ३३॥

    ईहक्‌-विधानि--इस प्रकार के; असड्ख्यानि--अनगिनत; बलस्य--बलराम के; बल-शालिन: --बलशाली; अनन्तस्य--अनन्त; अप्रमेयस्थ--अप्रमेय, असीम; माया-- अपनी माया-शक्ति द्वारा; मर्त्यस्य--मर्त्यों के; सन्ति--हैं; हि--निस्सन्देह।

    उन अनन्त तथा अप्रमेय बलशाली भगवान्‌ बलराम द्वारा असंख्य अन्य लीलाएँ सम्पन्न कीगईं, जो अपनी योगमाया से मनुष्य के रूप में दिखते हैं।

    योअनुस्मरेत रामस्य कर्माण्यद्भधुतकर्मण: ।

    सायं प्रातरनन्तस्य विष्णो: स दयितो भवेत्‌ ॥

    ३४॥

    यः--जो भी; अनुस्मरेत--नियमित रूप से; रामस्य--बलराम के; कर्माणि--कार्यकलाप; अद्भुत--आश्चर्यजनक; कर्मण:--जिनके सारे कर्म; सायम्‌ू--सायंकाल; प्रात:ः--प्रात:ः:काल; अनन्तस्थ-- अनन्त के; विष्णो: --विष्णु का; सः--वह; दबित:--प्रिय; भवेत्‌ू--बन जाता है |

    अनन्त भगवान्‌ बलराम के सारे कार्यकलाप चकित कर देने वाले हैं।

    जो कोई भी प्रातःतथा सायं उनका निरन्तर स्मरण करता है, वह भगवान्‌ श्री विष्णु का अत्यन्त प्रिय बन जाता है।

    TO

    अध्याय अस्सी: ब्राह्मण सुदामा द्वारका में भगवान कृष्ण से मिलने आते हैं

    10.80श्रीराजोबाचभगवन्यानि चान्यानि मुकुन्दस्य महात्मन: ।

    वीर्याण्यनन्तवीर्यस्य श्रोतुमिच्छामि हे प्रभो ॥

    १॥

    श्री-राजा उवाच--राजा ( परीक्षित ) ने कहा; भगवन्‌--हे प्रभु ( शुकदेव गोस्वामी ); यानि--जो; च--तथा; अन्यानि-- अन्यलोगों के; मुकुन्दस्य-- भगवान्‌ कृष्ण का; महा-आत्मन:--परमात्मा; वीर्याणि--वीरतापूर्ण कार्य; अनन्त--असंख्य; वीर्यस्य--बहादुरी के; श्रोतुमू--सुनने के लिए; इच्छामि--इच्छा करता हूँ; हे प्रभो--हे स्वामी |

    राजा परीक्षित ने कहा : हे प्रभु, हे स्वामी, मैं उन असीम शौर्य वाले भगवान्‌ मुकुन्द द्वारासम्पन्न अन्य शौर्यपूर्ण कार्यो के विषय में सुनना चाहता हूँ।

    को नु श्रुत्वासकृद्ढह्मन्ुत्तम:ःशलोकसत्कथा: ।

    विरमेत विशेषज्ञो विषण्ण: काममार्गणै: ॥

    २॥

    कः--कौन; नु--निस्सन्देह; श्रुत्वा--सुनकर; असकृत्‌--बारम्बार; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; उत्तम:-शलोक-- भगवान्‌ कृष्ण की;सत्‌--दिव्य; कथा:--कथाएँ; विर्मेत-- अपने को अलग रख सकता है; विशेष--( जीवन ) का सार; ज्ञ:--जानने वाला;विषण्ण:--खिन्न; काम-- भौतिक इच्छा की; मार्गणैः:--खोज के साथ।

    हे ब्राह्मण, जो जीवन के सार को जानता है और इन्द्रिय-तृप्ति के लिए प्रयास करने से ऊबचुका हो, वह भगवान्‌ उत्तमएलोक की दिव्य कथाओं को बारम्बार सुनने के बाद भला उनकापरित्याग कैसे कर सकता है ?

    सा वाग्यया तस्य गुणान्गृणीतेकरौ च तत्कर्मकरौ मनश्न ।

    स्मरेद्वसन्तं स्थिरजड़मेषुश्रुणोति तत्पुण्यकथा: स कर्ण: ॥

    ३॥

    सा--वही ( है ); वाक्‌ू--बोलने की शक्ति, वाणी; यया--जिससे; तस्य--उसके; गुणान्‌ू--गुणों को; गृणीते--वर्णन करतीहै; करौ--दो हाथ; च--तथा; तत्‌--उसके; कर्म--कार्य; करौ--करते हुए; मन:--मन; च--तथा; स्मरेत्‌--स्मरण करता है;वसन्तम्‌--निवास करते हुए; स्थिर--जड़; जड्डमेषु--चेतन के भीतर; श्रूणोति--सुनता है; तत्‌--उसके; पुण्य--पवित्र करनेवाली; कथाः--कथाएँ; स:--वही ( है ); कर्ण:--कान।

    असली वाणी वही है, जो भगवान्‌ के गुणों का वर्णन करती है, असली हाथ वे हैं, जोउनके लिए कार्य करते हैं, असली मन वह है, जो प्रत्येक जड़-चेतन के भीतर निवास करने वालेउन भगवान्‌ का सदैव स्मरण करता है और असली कान वे हैं, जो निरन्तर उनकी पुण्य कथाओंका श्रवण करते हैं।

    शिरस्तु तस्योभयलिड्रमान-मेत्तदेव यत्पश्यति तद््धि चक्षु: ।

    अज्जनि विष्णोरथ तज्जनानांपादोदक॑ यानि भजन्ति नित्यम्‌ ॥

    ४॥

    शिरः--सिर; तु--तथा; तस्य--उसका; उभय--दोनों; लिड्रमू--अभिव्यक्ति के लिए; आनमेत्‌--नमन करता है; तत्‌--वही;एव--एकमात्र; यत्‌--जो; पश्यति--देखती है; तत्‌--वह; हि--निस्सन्देह; चक्षु:--आँख; अड्भानि--अंग; विष्णो:-- भगवान्‌विष्णु का; अथ--अथवा; तत्‌-- उसके; जनानाम्‌-- भक्तों के ; पाद-उदकम्‌--चरणों के धोने से प्राप्त जल को; यानि--जो;भजन्ति--सम्मान करते हैं; नित्यमू--नियमित रूप से |

    वास्तविक सिर वही है, जो जड़-चेतन के बीच भगवान्‌ की अभिव्यक्तियों को नमन करताहै।

    असली आँखें वे हैं, जो एकमात्र भगवान्‌ का दर्शन करती हैं और असली अंग वे हैं, जोभगवान्‌ या उनके भक्तों के चरणों को पखारने से प्राप्त जल का नियमित रूप से आदर करतेहैं।

    सूत उबाचविष्णुरातेन सम्पृष्टो भगवान्बादरायणि: ।

    वासुदेवे भगवति निमग्नहदयोउब्रवीत्‌ू ॥

    ५॥

    सूतः उबाच--सूत गोस्वामी ने कहा; विष्णु-रातेन--विष्णुरात ( महाराज परीक्षित ) द्वारा; सम्पृष्ट:-- भलीभाँति पूछे गये;भगवान्‌--शक्तिमान ऋषि; बादरायणि: --शुकदेव; वासुदेवे --वासुदेव में; भगवति-- भगवान्‌; निमग्न--पूर्णतया मग्न;हृदयः--हृदय वाले; अब्रवीत्‌--बोले |

    सूत गोस्वामी ने कहा : विष्णुरात द्वारा इस तरह प्रश्न किये जाने पर शक्तिसम्पन्न ऋषिबादरायणि ने, जिनका हृदय भगवान्‌ वासुदेव के ध्यान में पूर्णतया लीन रहता था, यह उत्तरदिया।

    श्रीशुक उबाचकृष्णस्यासीत्सखा कश्रिद्गाह्मणो ब्रह्मवित्तम: ।

    विरक्त इन्द्रियार्थेषु प्रशान्तात्मा जितेन्द्रिय: ॥

    ६॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; कृष्णस्य--कृष्ण का; आसीत्‌-- था; सखा--मित्र ( सुदामा नामक ); कश्चित्‌--कोई; ब्राह्मण: --ब्राह्मण; ब्रह्म--वेदों का; वित्‌ू-तम:--अत्यन्त विद्वान; विरक्त:--उदासीन; इन्द्रिय-अर्थेषु --इन्द्रिय-भोग कीवस्तुओं से; प्रशान्त--शान्त; आत्मा--मन वाला; जित--जीती हुईं; इन्द्रियः:--जिसकी इन्द्रियाँ ।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : भगवान्‌ कृष्ण का एक ब्राह्मण मित्र ( सुदामा नामक ) था, जोवैदिक ज्ञान में प्रकाण्ड पंडित था और समस्त इन्द्रिय-भोग से उदासीन था।

    इससे भी बढ़कर,उसका मन शान्त था और उसकी इन्द्रियाँ संयमित थीं।

    यहच्छयोपपन्नेन वर्तमानो गृहाश्रमी ।

    तस्य भार्या कुचैलस्य क्षुत्क्षामा च तथाविधा ॥

    ७॥

    यहच्छया--स्वेच्छा से; उपपन्नेन--जो कुछ मिलता था, उससे; वर्तमान:--उस समय; गृह-आश्रमी--गृहस्थ जीवन में; तस्थ--उसकी; भार्या--पत्ली; कु-चैलस्थ--मैले-कुचैले वस्त्र पहने; क्षुत्‌ू-- भूख से; क्षामा--दुर्बल; च--तथा; तथा-विधा--उसीतरह

    गृहस्थ के भाँति रहते हुए जो कुछ उसे अपने आप मिल जाता वह उसी से भरण-पोषणकरता था।

    मैले-कुचैले वस्त्रधारी उस ब्राह्मण की पत्नी उसके साथ कष्ट भोग रही थी और भूखके कारण दुबली हो गई थी।

    पतिक्रता पतिं प्राह म्लायता वदनेन सा ।

    दरिद्रं सीदमाना वै वेपमानाभिगम्य च ॥

    ८॥

    पति-ब्रता--अपने पति के प्रति आज्ञाकारिणी; पतिम्‌--अपने पति से; प्राह--कहा; म्लायता--मुरझाये हुए; वदनेन--मुख से;सा--उसने; दरिद्रमू--गरीब; सीदमाना--पीड़ित; वै--निस्सन्देह; वेपमाना--काँपते हुए; अभिगम्य--पास आकर; च--तथा।

    एक बार उस गरीब ब्राह्मण की सती-साध्वी पत्नी उसके पास आई।

    उसका मुख त्रास केकारण सूखा था।

    भय से काँपते हुए वह इस प्रकार बोली।

    ननु ब्रह्मम्भगवत: सखा साक्षाच्छिय: पति: ।

    ब्रह्मण्यश्व शरण्यश्व भगवान्सात्वतर्षभः ॥

    ९॥

    ननु--निस्सन्देह; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; भगवत:--आपका; सखा--मित्र; साक्षात्‌- प्रत्यक्ष; भ्रिय:--लक्ष्मी का; पति: --पति;ब्रह्मण्य:--ब्राह्मणों के प्रति सदय; च--तथा; शरण्य:--शरण देने के लिए इच्छुक; च--तथा; भगवान्‌-- भगवान्‌; सात्वत--यादवों में; ऋषभः:-- श्रेष्ठ |

    सुदामा की पत्नी ने कहा : हे ब्राह्मण, क्या यह सत्य नहीं है कि लक्ष्मीजी के पति आपकेनिजी मित्र हैं? यादवों में सर्वश्रेष्ठ वे भगवान्‌ कृष्ण ब्राह्मणों पर दयालु हैं और उन्हें अपनी शरणदेने के लिए अतीव इच्छुक हैं।

    तमुपैहि महाभाग साधूनां च परायणम्‌ ।

    दास्यति द्रविणं भूरि सीदते ते कुटुम्बिने ॥

    १०॥

    तम्‌--उसके; उपैहि--पास जाओ; महा-भग--हे भाग्यवान्‌; साधूनामू--साधुओं के; च--तथा; पर-अयणम्‌--चरम शरण;दास्यति--देगा; द्रविणम्‌--सम्पत्ति; भूरि--प्रचुर; सीदते--कष्ट पा रहे; ते--तुम्हें; कुटुम्बिने--परिवार का पालन-पोषण कररहे।

    हे भाग्यवानू, आप समस्त सन्‍्तों के असली शरण, उनके पास जाइये।

    वे निश्चय ही आपजैसे कष्ट भोगने वाले गृहस्थ को प्रचुर सम्पदा प्रदान करेंगे।

    आस्तेथुना द्वारवत्यां भोजवृष्ण्यन्धके श्वरः ।

    स्मरतः पादकमलमात्मानमपि यच्छति ।

    कि न्वर्थकामान्भजतो नात्यभीष्टान्जगद्गुरु: ॥

    ११॥

    आस्ते--उपस्थित हैं; अधुना--इस समय; द्वारवत्याम्‌-द्वारका में; भोज-वृष्णि-अन्धक--भोजों, वृष्णियों तथा अन्धकों के;ईश्वर:--स्वामी; स्मरत:--स्मरण करने वाले को; पाद-कमलम्‌--उनके चरणकमलों को; आत्मनाम्‌--स्वयं को; अपि--यहाँतक कि; यच्छति--देता है; किम्‌ नु--तो फिर क्या कहा जाय; अर्थ--आर्थिक सफलता; कामान्‌--तथा इन्द्रिय-तृप्ति को;भजत:--उनकी पूजा करने वाले को; न--नहीं; अति--अत्यधिक; अभीष्टान्‌--इच्छित; जगत्‌--सारे ब्रह्माण्ड के; गुरु:--गुरु

    इस समय भगवान्‌ कृष्ण भोजों, वृष्णियों तथा अन्धकों के शासक हैं और द्वारका में रह रहेहैं।

    चूँकि वे ऐसे भी व्यक्ति को, जो उनके चरणकमलों का केवल स्मरण करता हो अपनेआपको दे देने वाले हैं, तो फिर इसमें क्‍या संशय है कि ब्रह्माण्ड के गुरु स्वरूप वे अपनेनिष्ठावान्‌ आराधक को वैभव तथा भौतिक भोग प्रदान करेंगे, जो कोई विशेष अभीष्ट वस्तुएँनहीं हैं ?

    स एवं भार्यया विप्रो बहुशः प्रार्थितो मुहुः ।

    अयं हि परमो लाभ उत्तम:शलोकदर्शनम्‌ ॥

    १२॥

    इति सदञ्धिन्त्य मनसा गमनाय मतिं दधे ।

    अप्यस्त्युपायनं किज्जिद्गूहे कल्याणि दीयताम्‌ ॥

    १३॥

    सः--वह; एवम्‌--इस प्रकार; भार्यया--अपनी पतली द्वारा; विप्र:--ब्राह्मण; बहुश: -- अनेक प्रकार से; प्रार्थित: --प्रार्थनाकिया गया; मुहुः--पुनः पुनः; अयम्‌ू--यह; हि--निस्सन्देह; परम:--परम; लाभ: --लाभ; उत्तम:-शलोक-- भगवान्‌ कृष्णका; दर्शनम्‌--दर्शन; इति--इस प्रकार; सद्धिन्त्य--सोच कर; मनसा--अपने मन में; गमनाय--जाने के लिए; मतिम्‌ दधे--निर्णय किया; अपि-- क्या; अस्ति-- है; उपायनम्‌--उपहार; किश्चित्‌-- कुछ; गृहे--घर में; कल्याणि--मेरी अच्छी स्त्री;दीयताम्‌--मुझे दो

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : जब उसकी पल्ी ने उससे नाना प्रकार से अनुरोधकिया, तो ब्राह्मण ने अपने मन में सोचा, ' भगवान्‌ कृष्ण के दर्शन करना निस्सन्देह जीवन कीसबसे बड़ी उपलब्धि है।

    अतएव उसने जाने का निश्चय कर लिया, किन्तु उसने पहले अपनीपली से यों कहा, 'हे कल्याणी, यदि घर में ऐसी कोई वस्तु हो, जिसे मैं भेंट रूप में ले जासकूँ, तो मुझे दो।

    याचित्वा चतुरो मुष्टीन्विप्रान्युधुकतण्डुलान्‌ ।

    चैलखण्डेन तान्बद्ध्वा भरत्रें प्रादादुपायनम्‌ ॥

    १४॥

    याचित्वा--माँग कर; चतुरः--चार; मुष्टीन्‌--मुट्टियाँ भर के; विप्रानू--( पड़ोसी ) ब्राह्मणों से; पृुथुक-तण्डुलानू--चिउड़ा,चावल; चैल--वस्त्र के; खण्डेन--टुकड़े से; तान्‌--उन्हें; बद्ध्वा--बाँध कर; भर्त्रे-- अपने पति को; प्रादात्‌--दे दिया;उपायनम्‌--उपहार

    सुदामा की पत्नी अपने पड़ोसी ब्राह्मणों से चार मुट्ठी चावल ( चिउड़ा ) माँग लाई, उन्हें फटेवस्त्र के एक टुकड़े में बाँधा और भगवान्‌ कृष्ण के लिए उपहार रूप में उसे अपने पति को देदिया।

    स तानादाय विप्राछय: प्रययौ द्वारकां किल ।

    कृष्णसन्दर्शनं मह्मं कथं स्थादिति चिन्तयन्‌ ॥

    १५॥

    सः--वह; तान्‌--उन्हें; आदाय--लेकर; विप्र-अछय: --ब्राह्मण- श्रेष्ठ; प्रययौ--चला गया; द्वारकाम्‌--द्वारका; किल--निस्सन्देह; कृष्ण-सन्दर्शनमू-- भगवान्‌ कृष्ण के दर्शन; मह्मम्‌-मुझे; कथम्‌--कैसे; स्थातू--हो सकेगा; इति--इस प्रकार;चिन्तयन्‌ू--सोचते हुए

    वह साधु ब्राह्मण चिउड़ा लेकर द्वारका के लिए रवाना हो गया और लगातार विस्मित होतारहा, 'मैं किस तरह कृष्ण के दर्शन कर सकूँगा ?

    'त्रीणि गुल्मान्यतीयाय तिस्त्र: कक्षाश्र सद्दिज: ।

    विप्रोगम्यान्धकवृष्णीनां गृहेष्वच्युतधर्मिणाम्‌ ॥

    १६॥

    गहं दव्यष्टसहस्त्राणां महिषीणां हरेद्विज: ।

    विवेशैकतमं श्रीमद्गह्मानन्दं गतो यथा ॥

    १७॥

    त्रीणि--तीन; गुल्मानि--रक्षकों की टोलियाँ; अतीयाय--पार करके; तिस्त्रः--तीन; कक्षा:--दरवाजे, ड्योढ़ियाँ; च--तथा;स-द्विज:--ब्राह्मण सहित; विप्र: --विद्वान ब्राह्मण; अगम्य--दुर्गम; अन्धक-वृष्णीनाम्‌--अन्धकों तथा वृष्णियों के; गृहेषु--घरों के बीच; अच्युत-- भगवान्‌ कृष्ण; धर्मिणाम्‌ू--आज्ञाकारियों के; गृहम्‌-घर; द्वि--दो; अष्ट--आठ गुना; सहस्त्राणाम्‌--हजार; महिषीणाम्‌--रानियों के; हरेः--कृष्ण के; द्विज:--ब्राह्मण ने; विवेश--प्रवेश किया; एकतमम्‌--उनमें से एक; श्री-मत्‌--ऐश्वर्यवान; ब्रह्म-आनन्दम्‌--निर्विशेष मुक्ति का आनन्द; गतः--प्राप्त; यथा--मानो |

    विद्वान ब्राह्मण ने कुछ स्थानीय ब्राह्मणों के साथ मिलकर तीन सुरक्षा चौकियाँ पार कर लींऔर तब वह तीन ड्योढ़ियों से होकर भगवान्‌ कृष्ण के आज्ञाकारी भक्तों, अन्धकों तथा वृष्णियोंके घरों के पास से गुजरा, जहाँ सामान्यतया कोई भी नहीं जा सकता था।

    तत्पश्चात्‌ वह भगवान्‌ हरि की सोलह हजार रानियों के ऐश्वर्यशाली महलों में से एक में घुसा और ऐसा करते समय उसेऐसा अनुभव हुआ, मानो वह ब्रह्मानन्द प्राप्त कर रहा हो।

    तं॑ विलोक्याच्युतो दूरात्प्रियापर्यड्रमास्थित: ।

    सहसोत्थाय चाभ्येत्य दोर्भ्या पर्यग्रहीन्मुदा ॥

    १८॥

    तम्‌--उसको; विलोक्य--देखकर; अच्युत:--भगवान्‌ कृष्ण ने; दूरातू-दूर से ही; प्रिया--अपनी प्रियतमा के; पर्यड्डम्‌--बिस्तर पर; आस्थित:-- आसीन; सहसा--तुरन्त; उत्थाय--उठ कर; च--तथा; अभ्येत्य--आगे बढ़कर; दोर्भ्याम्‌--अपनीभुजाओं में ; पर्यग्रहीत्‌ू--आलिंगन किया; मुदा--आनन्दपूर्वक |

    उस समय भगवान्‌ अच्युत अपनी प्रियतमा के पलंग पर विराजमान थे।

    उस ब्राह्मण को कुछदूरी पर देखकर भगवान्‌ तुरन्त उठ खड़े हुए और मिलने के लिए आगे गये और बड़े ही हर्ष सेउसका आलिंगन किया।

    सख्यु: प्रियस्य विप्रषेरड्रसझतिनिर्वृतः ।

    प्रीतो व्यमुझ्नदब्बिन्दृन्नेत्रा भ्यां पुष्करेक्षण: ॥

    १९॥

    सख्यु:--अपने मित्र के; प्रियस्थ--प्रिय; विप्र-ऋषे: --ब्राह्मण; अड़्र--शरीर का; सड्ड--संगति से; अति--अत्यधिक;निर्वृत:--आनन्दमय; प्रीत:--स्नेहिल; व्यमुझ्ञत्‌ू-मुक्त किया; अपू--जल की; बिन्दून्‌--बूँदें; नेत्राभ्यामू--अपनी आँखों से;पुष्कर-ईक्षण:--कमल-नेत्र भगवान्‌

    कमलनयन भगवान्‌ को अपने प्रिय मित्र विद्वान ब्राह्मण के शरीर का स्पर्श करने पर गहनआनन्द की अनुभूति हुई और उनकी आँखों से प्रेम के आँसू झरने लगे।

    अथोपवेश्य पर्यड्ले स्वयम्सख्यु: समहणम्‌ ।

    उपहत्यावनिज्यास्य पादौ पादावनेजनी: ॥

    २०॥

    \अग्रहीच्छिरसा राजन्भगवॉाललोकपावन: ।

    व्यलिम्पद्दिव्यगन्धेन चन्दनागुरुकुड्डमै: ॥

    २१॥

    धूपै: सुरभिभिर्मित्रं प्रदीपावलिभिर्मुदा ।

    अर्चित्वावेद्य ताम्बूलं गां च स्वागतमब्रवीत्‌ ॥

    २२॥

    अथ--तब; उपवेश्य--बैठाकर; पर्यड्ले--पलंग पर; स्वयम्‌--स्वयं; सख्यु:--अपने मित्र के लिए; समरहणम्‌--पूजा कीसामग्री; उपहत्य--लाकर; अवनिज्य-- धोकर; अस्य--उसके; पादौ--दोनों पाँव; पाद-अवनेजनी: --उसके पाँवों को धोनेवाला जल; अग्रहीत्‌-- धारण किया; शिरसा--सिर पर; राजनू--हे राजा ( परीक्षित्‌ ); भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; लोक--सारेलोकों के; पावन:--पवित्र करने वाले; व्यलिम्पत्‌ू--लेप किया; दिव्य--दैवी; गन्धेन--गन्ध से; चन्दन--चन्दन-लेप से;अगुरु--अगुरु; कुड्डू मै:--तथा सिन्दूर से; धूपैः-- धूप से; सुरभिभि: --सुगन्धित; मित्रम्‌--अपने मित्र को; प्रदीप--दीपकोंकी; अवलिभि:--पंक्तियों से; मुदा--प्रसन्नतापूर्वक; अर्चित्वा--पूजा करके; आवेद्य--नाश्ता कराकर; ताम्बूलम्‌ू--पान;गाम्‌ू--गाय; च--तथा; सु-आगतम्‌--स्वागत; अब्रवीत्‌--बोले |

    भगवान्‌ कृष्ण ने अपने मित्र सुदामा को बिस्तर पर बैठाया।

    फिर समस्त जगत को पतवित्रकरने वाले भगवान्‌ ने स्वयं नाना प्रकार से उसका आदर किया और हे राजन, उसके पाँव धोयेतथा उसी जल को अपने सिर के ऊपर छिड़का।

    उन्होंने उसके शरीर पर दिव्य सुगन्धित चन्दन,अगुरु तथा कुंकुम का लेप किया और सुगन्धित धूप तथा दीपों की पंक्तियों से खुशी-खुशीउसकी पूजा की।

    अन्त में पान देने के बाद उसे दान में गाय दी और मधुर शब्दों से उसका स्वागतकिया।

    कुचैलं मलिन क्षाम॑ द्विजं धमनिसन्ततम्‌ ।

    देवी पर्यचरत्साक्षाच्यामरव्यजनेन वै ॥

    २३॥

    कु-फटे-पुराने, बुरे; चैलम्‌्--वस्त्र वाले; मलिनम्‌-मैले; क्षामम्‌--दुबले; द्विजमू--ब्राह्मण को; धमनि-सन्ततमू--जिसकीनसें दिख रही हों; देवी--धन की देवी, लक्ष्मी; पर्यचरत्‌--सेवा की; साक्षात्‌--सशरीर; चामर--चमरी गाय की पूछ से बने;व्यजनेन--पंखे से; वै--निस्सन्देह।

    साक्षात्‌ लक्ष्मी देवी ने अपनी चामर से पंखा झल कर, उस गरीब ब्राह्मण की सेवा की,जिसके वस्त्र फटे हुए और मैले थे और जो इतना दुर्बल था कि उसके सारे शरीर की नसें दिखरही थीं।

    अन्तःपुरजनो दृष्टा कृष्णेनामलकीर्तिना ।

    विस्मितो भूदतिप्रीत्या अवधूतं सभाजितम्‌ ॥

    २४॥

    अन्तः-पुर--राजमहल के; जन: --लोग; हृष्टा--देखकर; कृष्णेन--कृष्ण द्वारा; अमल--निर्मल, स्वच्छ; कीर्तिना--कीर्तिवाले; विस्मित:--चकित; अभूत्‌--हो गये; अति--अत्यधिक; प्रीत्या--स्नेहपूर्वक; अवधूतम्‌-- अस्त-व्यस्त ब्राह्मण को;सभाजितमू--सम्मानित किया हुआ।

    राजमहल के निवासी निर्मल कीर्ति वाले भगवान्‌ कृष्ण को इस फटे-पुराने और मैले वस्त्रपहने ब्राह्मण का इतने प्रेम से सम्मान करते देख कर चकित हो गए।

    किमनेन कृतं पुण्यमवधूतेन भिक्षुणा ।

    श्रिया हीनेन लोकेस्मिन्ग्हितिेनाधभेन च ॥

    २५॥

    योअसौ त्रिलोकगुरुणा श्रीनिवासेन सम्भूतः ।

    पर्यड्डस्थां थ्रियं हित्वा परिष्वक्तोग्रजो यथा ॥

    २६॥

    किमू--क्या; अनेन--उसके द्वारा; कृतम्‌-किया गया; पुण्यम्‌--पुण्य-कार्य; अवधूतेन--अस्वच्छ; भिक्षुणा--भिक्षुक यासंन्यासी द्वारा; श्रिया-- धन से; हीनेन--हीन, रहित; लोके--संसार में; अस्मिन्‌ू--इस; गर्हितिन--निन्दनीय; अधमेन--नीच;च--तथा; यः--जो; असौ--वही; त्रि--तीन; लोक--लोकों के; गुरुणा-- गुरु द्वारा; श्री--लक्ष्मी के; निवासेन--घर से;सम्भूतः --सत्कारित; पर्यद््ू--सेजपर; स्थाम्‌--आसीन; श्रीयम्‌--लक्ष्मी को; हित्वा--त्याग कर; परिष्वक्त:--आलिंगन किया;अग्र-ज:--बड़ा भाई; यथा--मानो |

    राजमहल के निवासियों ने कहा : इस अस्त-व्यस्त निर्धन ब्राह्मण ने कौन-सा पुण्य-कर्मकिया है? लोग उसे नीच तथा निन्दनीय मानते हैं फिर भी तीनों लोकों के गुरु और श्रीदेवी केधाम आदरपूर्वक उसकी सेवा कर रहे हैं।

    लक्ष्मी को अपने पलंग पर बैठा हुआ छोड़ कर भगवान्‌ने इस ब्राह्मण का आलिंगन किया है, मानो वह उनका बड़ा भाई हो।

    कथयां चक्रतुर्गाथा: पूर्वा गुरुकुले सतो: ।

    आत्मनोरललिता राजन्करौ गृह्य परस्परम्‌ ॥

    २७॥

    'कथयाम्‌ चक्रतु:--परस्पर विचार-विमर्श किया; गाथा: --कथाएँ पूर्वा:--पुरानी; गुरु-कुले--अपने गुरु की पाठशाला में;सतो:--निवास कर रहे; आत्मनो:--अपनी अपनी; ललिता: --मनोहर; राजन्‌--हे राजा ( परीक्षित ); करौ--हाथों को; गृह्य--पकड़ कर; परस्परम्‌--एक-दूसरे के |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन, एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर कृष्ण तथा सुदामाअत्यन्त हर्ष के साथ बातें करते रहे कि किस तरह कभी वे दोनों अपने गुरु की पाठशाला मेंसाथ-साथ रहे थे।

    श्रीभगवानुवाचअपि ब्रहान्गुरुकुलाद्धवता लब्धदक्षिणात्‌ ।

    समावृत्तेन धर्मज्ञ भा्योढा सहशी न वा ॥

    २८॥

    श्री-भगवान्‌ उबाच-- भगवान्‌ ने कहा; अपि--क्या; ब्रह्मनू-हे ब्राह्मण; गुरु-कुलातू-गुरु की पाठशाला से; भवता--आपकेद्वारा; लब्ध--प्राप्त कर लेने पर; दक्षिणात्‌--दक्षिणा से; समावृत्तेन--लौट आया; धर्म--धर्म के; ज्ञ--हे जानने वाले;भार्या--पत्नी; ऊढा--विवाहिता; सहशी--अनुरूप; न--नहीं; वा--अथवा |

    भगवान्‌ ने कहा : हे ब्राह्मण, आप धर्म को भलीभाँति जानने वाले हैं।

    क्या गुरु-दक्षिणादेने के बाद तथा पाठशाला से घर लौटने के बाद आपने अपने अनुरूप पत्नी से विवाह किया यानहीं ?

    प्रायो गृहेषु ते चित्तमकामविहितं तथा ।

    नैवातिप्रीयसे विद्वन्धनेषु विदितं हि मे ॥

    २९॥

    प्राय:--अधिकांशत:; गृहेषु--घरेलू कार्यो में; ते--तुम्हारा; चित्तमू--मन; अकाम-विहितम्‌--भौतिक इच्छाओं से अप्रभावित;तथा--भी; न--नहीं; एव--निस्सन्देह; अति--अत्यधिक; प्रीयसे--रुचि लेते हो; विद्वनू--हे विद्वान; धनेषु--भौतिक सम्पत्तिकी खोज में; विदितम्‌--यह ज्ञात है; हि--निस्सन्देह; मे--मेंरे द्वारा |

    यद्यपि आप गृहकार्यों में प्रायः व्यस्त रहते हैं, किन्तु आपका मन भौतिक इच्छाओं सेप्रभावित नहीं होता।

    न ही, हे विद्वान, आप भौतिक सम्पत्ति के पीछे पड़ने में अधिक रुचि लेतेहैं।

    में यह भलीभाँति जानता हूँ।

    केचित्कुर्वन्ति कर्माणि कामैरहतचेतस: ।

    त्यजन्तः प्रकृतीर्देवीर्यथाहं लोकसड्ग्रहम्‌ ॥

    ३०॥

    केचित्‌--कुछ लोग; कुर्वन्ति--करते हैं; कर्माणि--सांसारिक कर्तव्य; कामैः--इच्छाओं से; अहत--अविचल; चेतस:--मनवाला; त्ययन्तः--त्यागते हुए; प्रकृती:--लालसाएँ; दैवी:-- भगवान्‌ की भौतिक शक्ति द्वारा उत्पन्न; यथा--जिस तरह; अहम्‌--मैं; लोक-सड़्ग्रहमू--सामान्य जनों को शिक्षा देने के लिए।

    कुछ लोग भगवान्‌ की मायाशक्ति से उत्पन्न समस्त भौतिक लिप्साओं का परित्याग करकेसांसारिक इच्छाओं से मन को अविचल रखते हुए सांसारिक कर्म सम्पन्न करते हैं।

    जिस तरह मैंसामान्य जनों को शिक्षा देने के लिए कर्म करता हूँ, वे उसी तरह कर्म करते हैं।

    कच्चिदगुरुकुले वासं ब्रह्मन्स्मरसि नौ यतः ।

    द्विजो विज्ञाय विज्ञेयं तमस: पारमश्नुते ॥

    ३१॥

    कच्चित्‌-क्या; गुरु-कुले--गुरु की पाठशाला में; वासमू--आवास; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; स्मरसि--स्मरण करते हो; नौ--हमदोनों के; यत:ः--जिस ( गुरु ) से; द्विज:--दो बार जन्मा पुरुष; विज्ञाय--जान कर; विज्ञेयम्‌--जानने के योग्य; तमसः--अज्ञानका; पारमू--पार करके ; अश्नुते--अनुभव करता है।

    हे ब्राह्मण, क्या आपको स्मरण है कि हम किस तरह अपने गुरु की पाठशाला में एकसाथरहते थे? जब कोई द्विज विद्यार्थी अपने गुरु से सीखने योग्य सबकुछ सीख चुकता है, तो वहआध्यात्मिक जीवन का आनन्द उठा सकता है, जो समस्त अज्ञान से परे है।

    सबै सत्कर्मणां साक्षादिद्‌वजातेरिह सम्भव: ।

    आद्योडड यत्रा श्रमिणां यथाहं ज्ञानदो गुरु: ॥

    ३२॥

    सः--वह; बै--निस्सन्देह; सत्‌ू--पवित्र, शुद्ध किया; कर्मणाम्‌ू--कर्मो का; साक्षात्‌- प्रत्यक्ष; द्वि-जाते:--दो बार जन्म लेनेवाले के; इह--इस भौतिक जगत में; सम्भव: --जन्म; आद्य:--प्रथम; अड्ग--हे प्रिय मित्र; यत्र--जिससे होकर;आश्रमिणामू--सभी आश्रमों के सदस्यों के लिए; यथा--जिस तरह; अहम्‌--मैं; ज्ञान--दैवी ज्ञान को; दः--देने वाला;गुरु:ः-गुरु

    हे मित्र, व्यक्ति को भौतिक जन्म देने वाला ही उसका प्रथम गुरु होता है और जो उसे द्विजके रूप में ब्राह्मण की दीक्षा देता है तथा धर्म-कृत्यों में लगाता है, वह निस्सन्देह उसका अधिकप्रत्यक्ष गुरु होता है।

    किन्तु जो सभी आध्यात्मिक आश्रमों के सदस्यों को दिव्य ज्ञान प्रदान करताहै, वह उसका परम गुरु होता है।

    निस्सन्देह वह मुझ जैसा होता है।

    नन्वर्थकोविदा ब्रह्मान्वर्णा भ्रमवतामिह ।

    ये मया गुरुणा वाचा तरनन्‍्त्यज्ञो भवार्णवम्‌ ॥

    ३३॥

    ननु--निश्चय ही; अर्थ--उनके असली कल्याण हेतु; कोविदा:--विशेषज्ञ; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; वर्णाश्रम-वतामू--वर्णा भ्रमप्रणाली में लगे हुओं में से; हह--इस संसार में; ये--जो; मया--मेरे द्वारा; गुरुणा--गुरु के रूप में; वाचा--वाणी से;तरन्ति--पार कर लेते हैं; अज्ञ:--सरलता से; भव-- भौतिक जीवन रूपी; अर्णवम्‌--समुद्र को

    हे ब्राह्मण, यह निश्चित है कि वर्णाश्रम प्रणाली के सारे अनुयायियों में से, जो लोग गुरु रूपमें मेरे द्वारा कहे गये शब्दों से लाभ उठाते हैं और भवसागर को सरलता से पार कर लेते हैं, वे हीअपने असली कल्याण को सबसे अच्छी तरह समझ पाते हैं।

    नाहमिज्याप्रजाति भ्यां तपसोपशमेन वा ।

    तुष्येयं सर्वभूतात्मा गुरुशु श्रूषया यथा ॥

    ३४॥

    न--नहीं; अहम्‌--मैं; इज्या--अनुष्ठानिक पूजा द्वारा; प्रजातिभ्याम्‌-ब्राह्मण दीक्षा के उच्चतर जन्म से; तपसा--तपस्या द्वारा;उपशमेन--आत्मसंयम द्वारा; वा--अथवा; तुष्येयम्‌--तुष्ट किया जा सकता हूँ; सर्व--सभी; भूत--जीवों का; आत्मा--आत्मा;गुरु--अपने गुरु की; शुश्रूषया-- श्रद्धापूर्ण सेवा द्वारा; यथा--जिस तरह

    सभी जीवों का आत्मा स्वरूप मैं अनुष्ठानिक पूजा, ब्राह्मण-दीक्षा, तपस्या अथवाआत्मानुशासन द्वारा उतना तुष्ट नहीं होता, जितना कि मनुष्य की अपने गुरु के प्रति की गईश्रद्धापूर्ण सेवा द्वारा तुष्ट होता हूँ।

    अपि नः स्मर्यते ब्रह्मन्वृत्त निवसतां गुरौ ।

    गुरुदारैश्नोदितानामिन्धनानयने क्वचित्‌ ॥

    ३५॥

    प्रविष्टानां महारण्यमपत्तों सुमहद््‌द््‌वज ।

    वातवर्षमभूत्तीत्र॑ निष्ठरा: स्‍्तनयित्ववः ॥

    ३६॥

    अपि--क्या; नः--हमारा; स्मर्यते--स्मरण है; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; वृत्तमू--हमने जो कुछ किया; निवसतामू--एकसाथ रहतेहुए; गुरौ--अपने गुरु के साथ; गुरु--गुरु की; दारैः--पती के द्वारा; चोदितानाम्‌-- भेजे गये; इन्धन--ईंधन; अनयने--लानेके लिए; कक्‍्वचित्‌--एक बार; प्रविष्टानाम्‌ू--प्रवेश कर चुके; महा-अरण्यम्‌--विशाल जंगल में; अप-ऋतौ--बिना ऋतु के,असामयिक; सु-महत्‌--अत्यन्त विशाल; द्विज--हे द्विजन्मा; वात--तेज हवा; वर्षम्‌--तथा वर्षा; अभूत्‌--होने लगी; तीव्रमू--भयानक; निष्ठुराः--कर्कश; स्तनयित्वव:--गर्जना |

    हे ब्राह्मण, क्या आपको स्मरण है कि जब हम अपने गुरु के साथ रह रहे थे, तो हमारे साथक्‍या घटना घटी थी? एक बार हमारे गुरु की पत्नी ने हमें जलाऊ लकड़ी लाने के लिए भेजाऔर हे द्विज, जब हम एक विशाल जंगल में प्रविष्ट हुए, तो तीव्र हवा और वर्षा के साथ साथकर्कश गर्जन से युक्त असामयिक तूफान आ गया था।

    सूर्यश्चास्तं गतस्तावत्तमसा चावृता दिश: ।

    निम्नं कूलं जलमयं न प्राज्ञायत किज्ञनन ॥

    ३७॥

    सूर्य:--सूर्य; च--तथा; अस्तम्‌ गत:--डूब चुका था; तावत्‌--तत्पश्चात्‌; तमसा--अँधेरे से; च--और; आवृता:--ढकी हुई;दिशः--सारी दिशाएँ; निम्ममू--निचली; कूलम्‌--ऊँची भूमि; जल-मयम्‌--जलमग्न; न प्राज्ञायत--पहचाना नहीं जा सकताथा; किज्ञन--कुछ भी |

    तब सूर्यास्त होते ही जंगल प्रत्येक दिशा में अंधकार से ढक गया और बाढ़ आ जाने से हमऊँची तथा नीची भूमि में अन्तर नहीं कर पा रहे थे।

    वबयं भूृशम्तत्र महानिलाम्बुभिर्‌निहन्यमाना महुरम्बुसम्प्लवे ।

    दिशोविदन्तोथ परस्पर बनेगृहीतहस्ता: परिबश्मिमातुरा: ॥

    ३८॥

    वयम्‌--हम; भृशम्‌--पूर्णतया; तत्र--वहाँ; महा--महान्‌; अनिल--तेज हवा; अम्बुभि:--तथा जल से; निहन्यमाना:--घिरेहुए; मुहुः--लगातार; अम्बु-सम्प्लवे--बाढ़ में; दिश:--दिशाएँ; अविदन्त:--पहचान में न आ सकना; अथ--तब ; परस्परम्‌--एक-दूसरे को; बने--जंगल में; गृहीत-- पकड़े हुए; हस्ता:--हाथ; परिबशध्रिम--हम घूमते रहे; आतुरा:--दुखी |

    जोरदार हवा और अनवरत वर्षा की चपेट में आकर हम बाढ़ के जल में अपना रास्ता भटकगये।

    हमने एक-दूसरे का हाथ पकड़ लिया और अत्यन्त संकट में पड़ कर, हम जंगल मेंनिरुद्देश्य घूमते रहे।

    एतद्ठिदित्वा उदिते रवौ सान्दीपनिर्गुरु: ।

    अन्वेषमाणो न: शिष्यानाचार्योपश्यदातुरान्‌ ॥

    ३९॥

    एतत्‌--यह; विदित्वा--जान कर; उदिते--उदय होने पर; रवौ--सूर्य के; सान्दीपनि:--सान्दीपनि; गुरु: --हमारे गुरु;अन्वेषमाण:--ढूँढ़ते हुए; नः--हम; शिष्यान्‌ू--शिष्यों को; आचार्य:--हमारे शिक्षक ने; अपश्यत्‌--देखा; आतुरान्‌--आतुर,कष्ट पा रहे।

    हमारे गुरु सान्दीपनि हमारी विषम स्थिति को समझ कर सूर्योदय होने पर हम शिष्यों कीखोज करने के लिए निकल पड़े और हमें विपत्ति में फँसा पाया।

    अहो हे पुत्रका यूयमस्मदर्थतिदुःखिता: ।

    आत्मा वै प्राणिनाम्प्रेष्ठस्तमनाहत्य मत्परा: ॥

    ४०॥

    अहो--ओह; हे पुत्रक:--मेरे बच्चो; यूयम्‌--तुम दोनों ने; अस्मत्‌--हमारे; अर्थ--लिए; अति--अत्यन्त; दुःखिता:--कष्टउठाया; आत्मा--शरीर; वै--निस्सन्देह; प्राणिनाम्‌ू--सारे जीवों के लिए; प्रेष्ठ: --अत्यन्त प्रिय; तमू--उसकी; अनाहत्य--परवाह न करके; मत्‌--मेरे प्रति; पराः--समर्पित |

    सान्दीपनि ने कहा : मेरे बच्चो, तुमने मेरे लिए इतना कष्ट सहा है, हर जीव को अपनाशरीर अत्यन्त प्रिय है, किन्तु तुम मेरे प्रति इतने समर्पित हो कि तुमने अपनी सुविधा की बिल्कुलपरवाह नहीं की।

    एतदेव हि सच्छिष्यै: कर्तव्यं गुरुनिष्कृतम्‌ ।

    यद्वै विशुद्धभावेन सर्वार्थात्मार्पणं गुरौ ॥

    ४१॥

    एतत्‌--यह; एव--अकेला; हि--निश्चय ही; सत्‌-- असली; शिष्यै:--शिष्यों द्वारा; कर्तव्यम्‌ू--करणीय; गुरु--गुरु से;निष्कृतम्‌ू--उऋण होना; यत्‌--जो; बै--निस्सन्देह; विशुद्ध--नितान्त शुद्ध; भावेन--विचार से; सर्व--समस्त; अर्थ--सम्पत्ति; आत्मा--तथा शरीर का; अर्पणम्‌--समर्पण; गुरौ--गुरु को |

    दरअसल सारे सच्चे शिष्यों का यही कर्तव्य है कि वे विशुद्ध हृदय से अपने धन तथा अपनेप्राणों तक को अर्पित करके अपने गुरु के ऋण से उऋण हों।

    तुष्टोहं भो द्विजश्रेष्ठा: सत्या: सन्‍्तु मनोरथा: ।

    छन्‍्दांस्ययातयामानि भवन्त्विह परत्र च ॥

    ४२॥

    तुष्ट:--संतुष्ट: अहम्‌-मैं; भो--हे प्रिय; द्विज--ब्राह्मणों में; श्रेष्ठा: -- श्रेष्ठ; सत्या:--पूर्ण; सन्तु--हों; मनः-रथा: --तुम्हारीइच्छाएँ; छन्दांसि--वैदिक मंत्र; अयात-यामानि--कभी वृद्ध न हों; भवन्तु--हों; इह--इस जगत में; परत्र-- अगले जगत में;च-तथा।

    हे बालको, तुम उत्तम श्रेणी के ब्राह्मण हो और मैं तुमसे संतुष्ट हूँ।

    तुम्हारी सारी इच्छाएँ पूरीहों और तुमने जो वैदिक मंत्र सीखे हैं, वे इस जगत में या अगले जगत में तुम्हारे लिए कभीअपना अर्थ न खोयें।

    इत्थंविधान्यनेकानि वसतां गुरुवेश्मनि ।

    गुरोरनुग्रहेणैव पुमान्पूर्ण: प्रशान्तये ॥

    ४३॥

    इत्थम्‌-विधानि--इस तरह की; अनेकानि--अनेक बातें; वसताम्‌--रहते समय हमें; गुरु--गुरु के; वेश्मनि--धर में; गुरो:--गुरु की; अनुग्रहेण--कृपा से; एब--केवल; पुमान्‌--पुरुष; पूर्ण:--पूर्ण ; प्रशान्तये-- पूर्ण शान्ति प्राप्त करने के लिए |

    भगवान्‌ कृष्ण ने आगे कहा : अपने गुरु के घर में रहते समय हमें इस तरह केअनेकानेक अनुभव हुए।

    कोई भी व्यक्ति अपने गुरु की कृपा मात्र से जीवन के प्रयोजन को पूराकर सकता है और शाश्वत शान्ति पा सकता है।

    श्रीत्राह्मण उवाचकिमस्माभिरनिर्वृत्तं देवदेव जगदगुरो ।

    भवता सत्यकामेन येषां वासो गुरोरभूत्‌ू ॥

    ४४॥

    श्री-ब्राह्मणप: उबाच--ब्राह्मण ने कहा; किम्‌--क्या; अस्माभि: --हमरे द्वारा; अनिर्वृत्तम्‌ू--नहीं प्राप्त किया गया; देव-देव--हेदेवों के ईश्वर; जगत्‌--ब्रह्माण्ड के; गुरो--हे गुरु; भवता--आपसे; सत्य--पूर्ण; कामेन--इच्छाओं से; येषाम्‌--जिनके;वास:ः--निवास; गुरोः--गुरु के घर पर; अभूत्‌-- था

    ब्राह्मण ने कहा : हे देवों के देव, हे जगदगुरु, चूँकि मैं पूर्णकाम अपने गुरु के घर परआपके साथ रह सका, अतः मुझे अब प्राप्त करने के लिए बचा ही क्‍या है ?

    यस्य च्छन्दोमयं ब्रह्म देह आवपनं विभो ।

    श्रेयसां तस्य गुरुषु वासोउत्यन्तविडम्बनम्‌ ॥

    ४५॥

    यस्य--जिसका; छन्दः--वेदों; मयम्‌--से युक्त; ब्रहा--परम सत्य; देहे--शरीर के भीतर; आवपनम्‌--बोया गया खेत;विभो--हे सर्वशक्तिमान; श्रेयसाम्‌--शुभ लक्ष्यों का; तस्थ--उसका; गुरुषु--गुरुओं के साथ; वास:--निवासस्थान;अत्यन्त--अत्यधिक; विडम्बनम्‌--विडम्बना |

    हे विभु, आपका शरीर वेदों के रूप में ब्रह्ममय है और इस तरह जीवन के समस्त शुभलक्ष्यों का स्रोत है।

    आपने गुरु की पाठशाला में जो निवास किया, वह तो आपकी लीलाओं मेंसे एक है, जिसमें आप मनुष्य की भूमिका का निर्वाह करते हैं।

    TO

    अध्याय इक्यासी: भगवान सुदामा ब्राह्मण को आशीर्वाद देते हैं

    10.81श्रीशुक उबाचस इत्थं द्विजमुख्येन सह सड्ढडूथयन्हरिः ।

    सर्वभूतमनोभिज्ञ: स्मयमान उवाच तम्‌ ॥

    १॥

    ब्रह्मण्यो ब्राह्मणं कृष्णो' भगवान्प्रहसन्प्रियम्‌ ।

    प्रेम्णा निरीक्षणेनैव प्रेक्षनखलु सतां गति: ॥

    २॥

    श्री-शुक: उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; सः--वह; इत्थम्‌--इस प्रकार; द्विज--ब्राह्मणों में; मुख्येन-- श्रेष्ठ के; सह--साथ; सट्डूथयन्‌--बात करते हुए; हरिः-- भगवान्‌ हरि ने; सर्ब--समस्त; भूत--जीवों के; मन:ः--मनों को; अभिज्ञ:--जाननेवाले; स्मयमान:--हँसते हुए; उवाच--कहा; तम्‌--उस; ब्रह्मण्य:--ब्राह्मण-भक्त; ब्राह्मणम्‌ू--ब्राह्मण को; कृष्ण: --कृष्ण ने;भगवान्‌--भगवान्‌; प्रहसन्‌--हँसते हुए; प्रियम्‌ू--अपने प्रिय मित्र पर; प्रेम्णा--प्रेमपूर्वक; निरीक्षणेन--तिरछी नजर से; एव--निस्सन्देह; प्रेक्षन--देखते हुए; खलु--निस्सन्देह; सताम्‌--साधु-भक्तों के; गति:--लक्ष्य

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : भगवान्‌ हरि अर्थात्‌ कृष्ण सभी जीवों के हृदयों सेभलीभाँति परिचित हैं और वे ब्राह्मणों के प्रति विशेष रूप से अनुरक्त रहते हैं।

    समस्त सन्त-पुरुषों के लक्ष्य भगवान्‌ सर्वश्रेष्ठ द्विज से इस तरह बातें करते हुए हँसने लगे और अपने प्रिय मित्रब्राह्मण सुदामा की ओर स्नेहपूर्वक देखते हुए तथा मुसकाते हुए निम्नलिखित शब्द कहे।

    अपनी निरपेक्ष भक्ति के कारण अतिरिक्त योग्यता रखते हैं, पक्ष लेते हुए आनन्दित होते हैं।

    श्रीभगवानुवाचकिमुपायनमानीतं ब्रह्मन्मे भवता गृहात्‌ ।

    अण्वप्युपाहतं भक्ति: प्रेम्णा भुर्येव मे भवेत्‌ ।

    भूर्यप्यभक्तोपहतं न मे तोषाय कल्पते ॥

    ३॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; किम्‌--क्या; उपायनम्‌-- भेंट; आनीतम्‌ू--लाई हुई; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; मे--मेंरे लिए;भवता--आपके द्वारा; गृहात्‌-- अपने घर से; अणु--अति तुच्छ; अपि-- भी; उपाहृतम्‌--दी गई वस्तु; भक्तैः--भक्तों द्वारा;प्रेम्णा--शुद्ध प्रेम से; भूरि--बहुत; एब--निस्सन्देह; मे--मेरे लिए; भवेत्‌--हो जाती है; भूरि--प्रचुर; अपि-- भी; अभक्त--अभक्तों द्वारा; उपहतम्‌-भेंट किया गया; न--नहीं; मे--मेरी; तोषाय--तुष्टि के लिए; कल्पते--कुशल ( दक्ष ) है |

    भगवान्‌ ने कहा : हे ब्राह्मण, तुम अपने घर से मेरे लिए कौन-सा उपहार लाये हो ? शुद्धप्रेमवश अपने भक्तों द्वारा प्रस्तुत की गई छोटी से छोटी भेंट को भी मैं बड़ी मानता हूँ, किन्तुअभक्तों द्वारा चढ़ाई गई बड़ी से बड़ी भेंट भी मुझे तुष्ट नहीं कर पाती ।

    पत्र॑ पुष्पं फल तोयं यो मे भकत्या प्रयच्छति ।

    तदहं भ्क्‍्तयुपहतमएनामि प्रयतात्मन: ॥

    ४॥

    पत्रम्‌ू-पत्ती; पुष्पमू--फूल; फलम्‌ू--फल; तोयमू--जल; यः--जो कोई भी; मे--मुझको; भक्त्या-- भक्तिपूर्वक;प्रयच्छति-- प्रदान करता है; तत्‌ू--वह; अहम्‌--मैं; भक्ति-उपहतम्‌-- भक्ति की भेंट; अश्नामि-- स्वीकार करता हूँ; प्रयत-आत्मन:--शुद्ध चेतना वाले से।

    यदि कोई मुझे प्रेम तथा भक्ति के साथ एक पत्ती, फूल, फल या जल अर्पित करता है, तोमैं उसे स्वीकार करता हूँ।

    इत्युक्तोउपि द्वियस्तस्मै ब्रीडित: पतये भ्रिय: ।

    पृथुकप्रसूतिं राजन्न प्रायच्छदवाड्मुख: ॥

    ५॥

    इति--इस प्रकार; उक्त:--कहा गया; अपि--यद्यपि; द्विज:--ब्राह्मण; तस्मै--उसको; ब्रीडित:--व्यग्र; पतये--पति को;भ्रिय:--लक्ष्मी के; पृुथुक--तंदुल की; प्रसृतिमू--मुट्ठी को; राजन्‌--हे राजा ( परीक्षित ); न प्रायच्छत्‌-- प्रदान नहीं किया;अवाक्‌--नमित; मुख: --सिर किये

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : हे राजन, इस प्रकार सम्बोधित किये जाने पर भी वहब्राह्मण लक्ष्मी के पति को मुट्ठी-भर तंदुल देने में अत्यधिक हिचकिचा रहा था।

    बस, वह लज्जाके मारे अपना सिर नीचे किये रहा।

    सर्वभूतात्महक्साक्षात्तस्यागमनकारणम्‌ ।

    विज्झायाचिन्तयन्नायं श्रीकामो माभजत्पुरा ॥

    ६॥

    पत्या: पतिक्रतायास्तु सखा प्रियच्चिकीर्षया ।

    प्राप्तो मामस्य दास्यामि सम्पदोशमर्त्यदुर्लभा: ॥

    ७॥

    सर्व--समस्त; भूत--जीवों के; आत्म--हृदयों के; हक्‌--साक्षी; साक्षात्‌- प्रत्यक्ष; तस्थ--उसके ( सुदामा के ); आगमन--आने का; कारणमू--कारण; विज्ञाय-- भलीभाँति समझ कर; अचिन्तयत्‌--सोचा; न--नहीं; अयम्‌--यह; श्री--ऐश्वर्य का;काम:--इच्छुक; मा--मुझको; अभजत्‌--पूजता रहा; पुरा-- भूतकाल में; पत्या: --अपनी पत्नी के; पति--अपने पति केप्रति; ब्रताया: --अनुरक्त; तु-- लेकिन; सखा--मित्र; प्रिय--संतोष; चिकीर्षया--प्राप्त करने की इच्छा से; प्राप्त: --आयाहुआ; माम्‌--मुझको; अस्य--इसको; दास्यामि--दूँगा; सम्पदः --सम्पदा; अमर्त्य--देवताओं के द्वारा; दुर्लभा:--अलभ्य |

    समस्त जीवों के हृदयों में प्रत्यक्ष साक्षी स्वरूप होने के कारण भगवान्‌ कृष्ण भलीभाँतिसमझ गये कि सुदामा उनसे मिलने क्‍यों आया है।

    अतः उन्होंने सोचा, 'इसके पूर्व मेरे मित्र नेकभी भी भौतिक ऐश्वर्य की इच्छा से मेरी पूजा नहीं की है, किन्तु अब वही अपनी सती तथापति-परायणा पतली को सन्तुष्ट करने के लिए मेरे पास आया है।

    मैं उसे वह सम्पदा प्रदानकरूँगा, जो अमर देवतागण भी कभी प्राप्त नहीं कर सकते।

    इत्थं विचिन्त्य वसनाच्चीरबद्धान्द्रिजन्मन: ।

    स्वयं जहार किमिदमिति पृथुकतण्डुलान्‌ ॥

    ८॥

    इत्थम्‌--इस तरह; विचिन्त्य--सोच कर; वसनात्‌ू--कपड़े से; चीर--कपड़े के टुकड़े में; बद्धान्‌ू--बँधा हुआ; द्वि-जन्मन:--ब्राह्मण के; स्वयमू--खुद; जहार--छीन लिया; किमू--क्या; इृदम्‌--यह; इति--ऐसा कहते हुए; पृथुक-तण्डुलान्‌--तन्दुलके दानों को

    इस प्रकार सोचते हुए भगवान्‌ ने ब्राह्मण के वस्त्र में से कपड़े के पुराने टुकड़े में बँधे तन्दुलके दानों को छीन लिया और कह उठे, 'यह क्‍या है ?

    'नन्वेतदुपनीतं मे परमप्रीणनं सखे ।

    तर्पयन्त्यड़ मां विश्वमेते पुथुकतण्डुला: ॥

    ९॥

    ननु--क्या; एतत्‌--यह; उपनीतम्‌--लाया गया; मे--मेंरे लिए; परम--परम; प्रीणनम्‌--संतोष प्रदान करते हुए; सखे--हेमित्र; तर्पयन्ति--कृपापात्र बनते हैं; अड्र--हे प्रिय; मामू--मुझको; विश्वम्‌--सारे ब्रह्माण्ड ( स्वरूप में ); एते--ये; पृठुक-तण्डुला:--तन्दुल के दाने |

    'हे मित्र, क्या इसे मेरे लिए लाये हो ? इससे मुझे बहुत खुशी हो रही है।

    निस्सन्देह तन्दुल केये थोड़े-से दाने न केवल मुझे, अपितु सारे ब्रह्माण्ड को तुष्ट करने वाले हैं।

    इति मुष्टिं सकृज्जग्ध्वा द्वितीयां जग्धुमाददे ।

    तावच्छीरज॑गृहे हस्तं तत्परा परमेष्ठिन: ॥

    १०॥

    इति--ऐसा कहकर; मुष्टिम्‌--मुट्ठी- भर; सकृतू--एक बार; जग्ध्वा--खाकर; द्वितीयम्‌--दूसरी; जग्धुमू--खाने के लिए;आददे--लिया; तावत्‌--तब तो; श्री:--लक्ष्मी ( रुक्मिणीदेवी ) ने; जगृहे--पकड़ लिया; हस्तम्‌--हाथ; तत्‌--उस; परा--अनुरक्त; परमे-स्थिन: -- भगवान्‌ ।

    यह कहकर भगवान्‌ ने एक मुट्ठी खाई और दूसरी मुट्ठी खाने ही वाले थे कि पति-परायणादेवी रुक्मिणी ने उनका हाथ पकड़ लिया।

    एतावतालं विश्वात्मन्सर्वसम्पत्समृद्धये ।

    अस्मिनलोकेथ वामुष्मिन्पुंसस्त्वत्तोषकारणम्‌ ॥

    ११॥

    एतावता--इतना; अलमू--पर्याप्त; विश्व--ब्रह्माण्ड के; आत्मन्‌--हे आत्मा; सर्व--समस्त; सम्पत्‌--सम्पदा का; समृद्धये--समृद्धि के लिए; अस्मिनू--इस; लोके--संसार में; अथ वा--या फिर; अमुष्मिन्‌--अगले में; पुंस:--मनुष्य के लिए; त्वत्‌--तुम्हारे; तोष--संतोष; कारणम्‌--कारणस्वरूप |

    महारानी रुक्मिणी ने कहा : हे ब्रह्माण्ड के आत्मा, इस जगत में तथा अगले जगत मेंसभी प्रकार की प्रभूत सम्पदा दिलाने के लिए यह पर्याप्त है।

    आखिर, किसी की समृद्धिआपकी तुष्टि पर ही तो निर्भर है।

    ब्राह्मणस्तां तु रजनीमुषित्वाच्युतमन्दिरे ।

    भुकत्वा पीत्वा सुखं मेने आत्मानं स्वर्गत॑ं यथा ॥

    १२॥

    ब्राह्मण:--ब्राह्मण; तामू--उस; तु--तथा; रजनीम्‌--रात; उषित्वा--रह कर; अच्युत-- भगवान्‌ कृष्ण के; मन्दिरि--महल में;भुक्त्वा--खाकर; पीत्वा--पीकर; सुखम्‌--सुखपूर्वक; मेने--सोचा; आत्मानम्‌--अपने से; स्व:--आध्यात्मिक जगत,वैकुण्ठ-लोक; गतम्‌-- प्राप्त करके; यथा--मानो

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : उस ब्राह्मण ने जी-भरकर खाने-पीने के बाद वह रात्रिभगवान्‌ अच्युत के महल में बिताई।

    उसे ऐसा अनुभव हुआ, मानो वह वैकुण्ठ-लोक में आ गयाहो।

    श्रोभूते विश्वभावेन स्वसुखेनाभिवन्दित: ।

    जगाम स्वालयं तात पथ्यनत्रज्य नन्दितः ॥

    १३॥

    श्र:-भूते--अगले दिन; विश्व--ब्रह्मण्ड के; भावेन--पालनकर्ता द्वारा; स्व--अपने भीतर; सुखेन--सुख का अनुभव करनेवाले; अभिवन्दित:--आदरित; जगाम--चला गया; स्व--अपने; आलयमू--घर; तात--हे प्रिय ( राजा परीक्षित ); पथि--रास्ते में; अनुब्रज्य--चलते हुए; नन्दितः--हर्षित |

    अगले दिन ब्रह्माण्ड के पालनकर्ता आत्माराम भगवान्‌ कृष्ण द्वारा सम्मानित होकर सुदामाघर के लिए चल पड़ा।

    हे राजन, वह ब्राह्मण मार्ग पर चलते हुए अत्यधिक हर्षित था।

    स चालब्ध्वा धनं कृष्णान्न तु याचितवान्स्वयम्‌ ।

    स्वगृहान्त्रीडितोगच्छन्महह्र्शननिर्वृतः ॥

    १४॥

    सः--वह; च--तथा; अलब्ध्वा--न पाकर; धनम्‌-- धन; कृष्णात्‌--कृष्ण से; न--नहीं; तु--फिर भी; याचितवानू--माँगा;स्वयम्‌ू--अपने से; स्व--अपने; गृहान्‌--घर को; ब्रीडित:--खिन्न; अगच्छत्‌--चला गया; महत्‌-- भगवान्‌ के ; दर्शन--दर्शनसे; निर्वृतः--हर्षित होकर।

    यद्यपि सुदामा को बाह्य रूप से भगवान्‌ कृष्ण से कोई धन प्राप्त नहीं हुआ था, फिर भी वहअपनी ओर से कुछ भी माँगने में अत्यधिक सकुचा रहा था।

    वह यह अनुभव करते हुए पूर्णसन्तुष्ट होकर लौटा कि उसने भगवान्‌ के दर्शन पा लिये हैं।

    अहो ब्रह्मण्यदेवस्थ इृष्ठा ब्रहाण्यता मया ।

    यहरिद्रतमो लक्ष्मीमाश्लिष्टो बिभ्रतोरसि ॥

    १५॥

    अहो--आह; ब्रह्मण्य--ब्राह्मणों के प्रति श्रद्धावान्‌; देवस्य-- भगवान्‌ का; दृष्ट--देखा हुआ; ब्रह्मण्यता--ब्राह्मण भक्ति;मया--मेरे द्वारा; यत्‌ू--जो भी; दरिद्र-तम:ः--सबसे निर्धन व्यक्ति; लक्ष्मीमू--लक्ष्मी को; आशिलष्ट:--आलिंगन किया;बिभ्रता-- धारण करने वाले के द्वारा; उरसि--अपने वक्षस्थल पर।

    सुदामा ने सोचा : भगवान्‌ कृष्ण ब्राह्मण-भक्त के रूप में विख्यात हैं और अब मैंने स्वयंइस भक्ति को देख लिया है।

    निस्सन्देह लक्ष्मीजी को अपने वक्षस्थल पर धारण करने वालेउन्होंने सबसे दरिद्र भिखारी का आलिंगन किया है।

    क्वाहं दरिद्र: पापीयानक्व कृष्ण: श्रीनिकेतन: ।

    ब्रह्मबन्धुरिति स्माहं बाहुभ्यां परिरम्भित: ॥

    १६॥

    क्व--कौन; अहम्‌--मैं हूँ; दरिद्र: --निर्धन; पापीयानू--पापी; क्व--कौन; कृष्ण: -- भगवान्‌ कृष्ण हैं; श्री-निकेतन:--समस्तऐश्वर्य के दिव्य स्वरूप; ब्रह्म-बन्धु;--ब्राह्मण का मित्र, ब्राह्मण न कहलाने योग्य; इति--इस प्रकार; स्म--निश्चय ही; अहम्‌--मैं; बाहुभ्यामू-- भुजाओं से; परिरम्भित:--आलिंगित |

    मैं कौन हूँ? एक पापी, निर्धन ब्राह्मण और कृष्ण कौन हैं? भगवान्‌, छहों ऐश्वर्यों से पूर्ण ।

    तो भी उन्होंने अपनी दोनों भुजाओं से मेरा आलिंगन किया है।

    निवासित:ः प्रियाजुष्टे पर्यड्रे भ्रातरो यथा ।

    महिष्या वीजित: श्रान्तो बालव्यजनहस्तया ॥

    १७॥

    निवासित:--बैठाया गया; प्रिया-- अपनी प्रियतमा द्वारा; जुष्टे--काम में लाये जाने वाले; पर्यड्लें--पलंग पर; भ्रातर: -- भाइयोंको; यथा--जिस तरह; महिष्या--अपनी रानी द्वारा; वीजित:--पंखा झला; श्रान्तः--थका हुआ; बाल--( चमरी के ) बालका; व्यजन--पंखा; हस्तया--हाथ से |

    उन्होंने मेरे साथ अपने भाइयों जैसा वर्ताव किया और अपनी प्रियतमा के पलंग पर बैठाया।

    और चूँकि मैं थका हुआ था, इसलिए उनकी रानी ने चामरसे स्वयं मुझ पर पंखा झला।

    शुश्रूषया परमया पादसंवाहनादिभि: ।

    पूजितो देवदेवेन विप्रदेवेन देववत्‌ ॥

    १८॥

    शुश्रूषया--सेवा से; परमया--निष्ठावान; पाद--पाँव की; संवाहन--मालिश; आदिभि: --इत्यादि से; पूजित:--पूजित; देव-देवेन--समस्त देवताओं के स्वामी द्वारा; विप्र-देवेन--ब्राह्मणों के स्वामी द्वारा; देव--देवता; वत्‌--सह॒श |

    यद्यपि वे समस्त देवताओं के स्वामी हैं और समस्त ब्राह्मणों के पूज्य हैं, फिर भी उन्होंने मेरेपाँवों की मालिश करके तथा अन्य विनीत सुश्रूषाओं द्वारा मेरी इस तरह पूजा की, मानो मैं हीदेवता हूँ।

    स्वर्गापवर्गयो: पुंसां रसायां भुवि सम्पदाम्‌ ।

    सर्वासामपि सिद्धीनां मूलं तच्चरणार्चनम्‌ ॥

    १९॥

    स्वर्ग--स्वर्ग; अपवर्गयो:--तथा चरम मोक्ष का; पुंसाम्‌--सारे मनुष्यों के लिए; रसायाम्‌--रसातल में; भुवि--तथा पृथ्वी पर;सम्पदाम्‌--सम्पदा के; सर्वासामू--समस्त; अपि--भी; सिद्धीनाम्‌--सिद्धियों के; मूलम्‌--मूल कारण; तत्‌--उनके ; चरण--चरणों की; अर्चनम्‌ू-पूजा |

    मनुष्य स्वर्ग में, मोक्ष में, रसातल में तथा इस पृथ्वी पर जितनी भी सिद्ध्रियाँ प्राप्त कर सकताहै, उसका आधारभूत कारण उनके चरणकमलों की भक्ति है।

    अधनोयं धन प्राप्य माद्यत्रुच्चैर्न मां स्मरेत्‌ ।

    इति कारुणिको नूनं धन मेभूरि नाददात्‌ ॥

    २०॥

    अधनः--निर्धन व्यक्ति; अयमू--यह; धनम्‌-- धन; प्राप्प--प्राप्त करके; माद्यन्‌--प्रसन्न होते हुए; उच्चै:--अत्यधिक; न--नहीं; माम्‌--मुझको; स्मरेत्‌--स्मरण करेगा; इति--इस प्रकार सोचते हुए; कारुणिक:--दयालु; नूनम्‌ू--निस्सन्देह; धनम्‌--धन; मे--मुझको; अभूरि--कुछ, रंच; न आददात्‌--नहीं दिया।

    यह सोचकर कि यदि यह निर्धन बेचारा सहसा धनी हो जायेगा, तो वह मदमत्त करने वालेसुख में मुझे भूल जायेगा, दयालु भगवान्‌ ने मुझे रंचमात्र भी धन नहीं दिया।

    इति तच्चिन्तयन्नन्तः प्राप्तो नियगृहान्तिकम्‌ ।

    सूर्यानलेन्दुसड्राशैर्विमानै: सर्वतो वृतम्‌ ॥

    २१॥

    विचित्रोपवनोद्यानै: कूजद्दिवजकुलाकुलै: ।

    प्रोत्फुल्लकमुदाम्भोजकह्लारोत्पलवारिभि: ॥

    २२॥

    जुष्ट स्वलड्डू तेः पुम्भि: स्त्रीभिश्व हरिणाक्षिभि: ।

    किमिदं कस्य वा स्थान कथं तदिदमित्यभूत्‌ ॥

    २३॥

    इति--इस प्रकार; तत्‌ू--यह; चिन्तयन्‌--सोचते हुए; अन्त:--अन्दर ही अन्दर; प्राप्त:--आ गया; निज--अपने; गृह--घर के;अन्तिकम्‌- पड़ोस में; सूर्य--सूर्य; अनल--अग्नि; इन्दु--तथा चन्द्रमा; सड्जाशैः --होड़ में; विमानैः--दैवी महलों से;सर्वतः--सभी दिशाओं से; वृतम्‌--घिरा हुआ; विचित्र--आश्चर्यपूर्ण; उपवन-- आँगन; उद्यानै:--तथा बगीचों से; कूजत्‌--कू-कू करते; द्विज--पक्षियों के; कुल--झुंडों समेत; आकुलै:--झुंड बनाते; प्रोत्फुल्ल--पूरी तरह खिले; कुमुद--कमलिनियों सेयुक्त; अम्भोज--दिन में खिलने वाले कमलों; कह्ार-- श्रेत कमलों; उत्पल--तथा जल कुमुदिनी; वारिभि:--जलाशयों से;जुष्टम्‌--सुशोभित; सु--सुन्दर; अलड्डू तै:--सजे; पुम्भि:--पुरुषों से; स्त्रीभि:--स्त्रियों से; च--तथा; हरिणा--हिरनी जैसी;अक्षिभिः--आँखों से; किम्‌--क्या; इृदम्‌--यह; कस्य--किसका; वा-- अथवा; स्थानम्‌--स्थान; कथम्‌--कैसे; तत्‌--वह;इदम्‌--यह; इति--इस तरह; अभूत्‌--हो गया है

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस प्रकार अपने आप सोचते-सोचते सुदामा अन्ततः उसस्थान पर आ पहुँचा, जहाँ उसका घर हुआ करता था।

    किन्तु अब वह स्थान सभी ओर से ऊँचेभव्य महलों से घनीभूत था, जो सूर्य, अग्नि तथा चन्द्रमा के सम्मिलित तेज से होड़ ले रहे थे।

    वहाँ आलीशान आँगन तथा बगीचे थे, जो कूजन करते हुए पक्षियों के झुंडों से भरे थे औरजलाशयों से सुशोभित थे, जिनमें कुमुद, अम्भोज, कह्लार तथा उत्पल नामक कमल खिले हुएथे।

    अगवानी के लिए उत्तम वस्त्र धारण किये पुरुष तथा हिरनियों जैसी आँखों वाली स्त्रियाँ खड़ी थीं।

    सुदामा चकित था कि यह सब क्‍या है? यह किसकी संपत्ति है? और यह सब कैसेहुआ?

    एवं मीमांसमान तं नरा नार्यो मरप्रभा: ।

    प्रत्यगृह्नन्महाभागं गीतवाद्येन भूयसा ॥

    २४॥

    एवम्‌--इस प्रकार; मीमांसमानम्‌--गम्भीरता से विचार करता हुआ; तमू--उसको; नरा:--पुरुष; नार्य:--तथा स्त्रियाँ; अमर--देवताओं के समान; प्रभा:--तेजमय मुखड़ों वाले; प्रत्यगृह़न्‌ू--सत्कार किया गया; महा- भागम्‌ू--अत्यन्त भाग्यशाली; गीत--गायन; वाह्येन--तथा बाजे से; भूयसा--उच्च

    जब वह इस तरह सोच-विचार में डूबा था, तो देवताओं जैसे तेजवान सुन्दर पुरुष तथादासियाँ उँचे स्वर में गीत गाती तथा बाजे के साथ अपने अत्यन्त भाग्यशाली स्वामी का सत्कारकरने आगे आईं।

    'पतिमागतमाकर्णयय पत्युद्धर्षातिसम्भ्रमा ।

    निश्चक्राम गृहात्तूर्ण रूपिणी श्रीरिवालयात्‌ ॥

    २५॥

    पतिम्‌--अपने पति को; आगतम्‌--आया हुआ; आकर्ण्य--सुन कर; पत्ती--उसकी पतली; उद्धर्षा--हर्षित; अति--अत्यधिक;सम्भ्रमा--उत्तेजित; निश्चक्राम--बाहर आ गई; गृहात्‌--घर से; तूर्णम्‌ू--तेजी से; रूपिणी --स्वरूप वाली; श्री:--लक्ष्मी के;इब--मानो; आलयातू्‌--अपने धाम से |

    जब ब्राह्मण की पतली ने सुना कि उसका पति आया है, तो वह हर्ष के मारे तुरन्त घर सेबाहर निकल आईं।

    वह दिव्य धाम से निकलने वाली साक्षात्‌ लक्ष्मी जैसी लग रही थी।

    पतिब्रता पतिं हृष्ठरा प्रेमोत्कण्ठा श्रुलोचना ।

    मीलिताक्ष्यनमद्दुद््धया मनसा परिषस्वजे ॥

    २६॥

    'पति-ब्रता--पति-परायणा; पतिम्‌--पति को; हृध्ला--देखकर; प्रेम--प्रेम की; उत्कण्ठ-- उत्सुकता से; अश्रु-- आँसू से भरे;लोचना--आँखों वाली; मीलित--बन्द किये; अक्षी--आँखें; अनमत्‌-- प्रणाम किया; बुद्धया--विचारमग्न; मनसा--हृदय से;'परिषस्वजे-- आलिंगन किया।

    जब उस पतिक्रता स्त्री ने अपने पति को देखा, तो उसकी आँखें प्रेम तथा उत्सुकता केआँसुओं से भर आईं।

    अपनी आँखें बन्द किये विचारमग्न होकर उसने पतिको प्रणाम किया औरमन ही मन उसका आलिंगन कर लिया।

    पत्नीं वीक्ष्य विस्फुरन्तीं देवीं वैमानिकीमिव ।

    दासीनां निष्ककण्ठीनां मध्ये भान्‍्तीं स विस्मित: ॥

    २७॥

    पतीम्‌--अपनी पत्नी को; वीक्ष्य--देखकर; विस्फुरन्तीमू--तेजवान लग रही; देवीम्‌--देवी को; वैमानिकीम्‌--विमान परआरूढ़; इब--सहृश; दासीनाम्‌ू--दासियों के; निष्क--लॉकेट; कण्ठीनाम्‌--जिनके गलों में; मध्ये--बीचोबीच; भान्तीम्‌--चमकती हुई; सः--वह; विस्मित:--चकित |

    सुदामा अपनी पतली को देखकर चकित था।

    रलजटित लॉकेटों से अलंकृत दासियों केबीच चमक रही वह उसी तरह तेजोमय लग रही थी, जिस तरह कोई देवी अपने दैवी-विमान मेंदीपित हो।

    प्रीतः स्वयं तया युक्त: प्रविष्टो निजमन्दिरम्‌ ।

    मणिस्तम्भशतोपेतं महेन्द्रभवनं यथा ॥

    २८ ॥

    प्रीत:--प्रसन्न; स्वयम्‌--खुद; तया--उसके; युक्त:--साथ होकर; प्रविष्ट:-- भीतर जाकर; निज--अपने; मन्दिरम्‌--घर में;मणि--मणियों वाले; स्तम्भ--ख भों; शत--सैकड़ों; उपेतम्‌--से युक्त; महा-इन्द्र--स्वर्ग के राजा महान्‌ इन्द्र का; भवनम्‌--महल; यथा--सहश |

    उसने आनन्दपूर्वक अपनी पत्नी को साथ लिए अपने घर में प्रवेश किया, जहाँ सैकड़ोंरतलजटित ख भे थे, जैसे देवराज महेन्द्र के महल में हैं।

    परयःफेननिभा: शय्या दान्ता रुक्‍्मपरिच्छदा: ।

    पर्यड्डा हेमदण्डानि चामरव्यजनानि च ॥

    २९॥

    आसनानि च हैमानि मृदूपस्तरणानि च ।

    मुक्तादामविलम्बीनि वितानानि द्युमन्ति च ॥

    ३०॥

    स्वच्छस्फटिककुड्येषु महामारकतेषु च ।

    रलदीपान्भध्राजमानान्‍ललना रलसंयुताः ॥

    ३१॥

    विलोक्य ब्राह्मणस्तत्र समृद्धीः सर्वसम्पदाम्‌ ।

    तर्कयामास निर्व्यग्र: स्वसमृद्धिमहैतुकीम्‌ ॥

    ३२॥

    'पयः--दूध के; फेन--झाग के; निभा:--सहृश; शय्या:--सेज, पलंग; दान्ताः--हाथी-दाँत से बनी; रुक्म--सुनहले;परिच्छदा: --सजावट; पर्यट्टा:--पलंग, आसन; हेम--सोने के; दण्डानि--जिसके पाए; चामर-व्यजनानि--चमरी गाय कीपूँछ के बने पंखे; च--तथा; आसनानि--कुर्सियाँ; च--तथा; हैमानि--सुनहरे; मृदु--मुलायम; उपस्तरणानि--गद्दों; च--तथा; मुक्ता-दाम--मोती की लड़ों से; विलम्बीनि--लटकती; वितानानि--चँदोवों; द्युमन्ति--चमचमाते हुए; च--तथा;स्वच्छ--साफ; स्फटिक--संगमरमर की; कुड्येषु--दीवालों पर; महा-मारकतेषु--बहुमूल्य मरकत-मणियों से; च--भी;रल--रत्नजटित; दीपान्‌--दीपकों; भ्राजमानान्‌ू--चमकते; ललना: --स्त्रियाँ; रत्न--रत्नों से; संयुताः:--सजी; विलोक्य--देखकर; ब्राह्मण: --ब्राह्मण ने; तत्र--वहाँ; समृद्धी: --वृद्द्धि की ओर उन्मुख; सर्व--समस्त; सम्पदाम्‌--ऐश्वर्य का; तर्कयाम्‌आस--अनुमान लगाया; निर्व्यग्र:--अविचलित; स्व--अपनी; समृद्धिम्‌--सम्पन्नता के विषय में; अहैतुकीम्‌--जिसकी आशानहीं की गई थी।

    सुदामा के घर में दूध के झाग सहश कोमल तथा सफेद पलंग थे, जिनके पाए हाथी-दाँतके बने थे और सोने से अलंकृत थे।

    वहाँ कुछ सोफे भी थे, जिनके पाए सोने के थे।

    साथ हीराजसी चामर पंखे, सुनहरे सिंहासन, मुलायम गद्दे तथा मोती की लड़ों से लटकते चमचमातेचँदोवे थे।

    चमकते स्फटिक की दीवालों पर बहुमूल्य मरकत-मणि (पन्ने ) जड़े थे औररत्तजटित दीपक प्रकाशमान थे।

    उस महल की सारी स्त्रियाँ बहुमूल्य रत्नों से अलंकृत थीं।

    जबउस ब्राह्मण ने सभी प्रकार का यह विलासमय ऐश्वर्य देखा, तो उसने शान्त भाव से इसआकस्मिक समृद्ध्धि के विषय में अपने मन में तर्क किया।

    नूनं बतैतन्मम दुर्भगस्यशश्वद्दरिद्रस्य समृद्ध्िहेतु: ।

    महाविभूतेरवलोकतोन्योनैवोपपद्येत यदूत्तमस्य ॥

    ३३॥

    नूनम्‌ बत--निश्चय ही; एतत्‌--इस; मम--मुझ; दुर्भगस्थ--अभागे का; शश्वत्‌--सदैव; दरिद्रस्थ--निर्धन की; समृर्द्धि--सम्पन्नता के; हेतु:--कारण; महा-विभूतेः--सर्वाधिक ऐ श्वर्यशशाली की; अवलोकत:ः--चितवन के अतिरिक्त; अन्यः--अन्य;न--नहीं; एब--निस्सन्देह; उपपच्येत--पाया जाना चाहिए; यदु-उत्तमस्य--यदुओं में श्रेष्ठ की |

    सुदामा ने सोचा : मैं सदैव से निर्धन रहा हूँ।

    निश्चय ही मुझ जैसे अभागे व्यक्ति काएकाएक धनी हो जाने का एकमात्र सम्भावित कारण यही हो सकता है कि यदुवंश के परमऐश्वर्यशाली प्रधान भगवान्‌ कृष्ण ने मुझ पर अपनी कृपा-दृष्टि की है।

    नन्वब्रुवाणो दिशते समक्षयाचिष्णवे भूर्यपि भूरिभोज: ।

    पर्जन्यवत्तत्स्वयमीक्षमाणोदाशाहकाणामृषभः सखा मे ॥

    ३४॥

    ननु--आखिर; अब्लुवान:--न बोलते हुए; दिशते--दिया है; समक्षम्‌--उपस्थिति में; याचिष्णवे--याचना करने की इच्छा करनेवाले को; भूरि--प्रचुर ( धन ); अपि-- भी; भूरि--प्रचुर ( धन ); भोज:--भोक्ता; पर्जन्य-वत्‌--बादल के समान; तत्‌--वह;स्वयम्‌--स्वयं; ईक्षमाण:-- देखते हुए; दाशाहकाणाम्‌--राजा दाशाह के वंशजों में; ऋषभ:--सर्व श्रेष्ठ; सखा--मित्र; मे--मेरा।

    आखिर, दाशाहों में सर्वश्रेष्ठ तथा असीम सम्पदा के भोक्ता, मेरे मित्र कृष्ण ने देखा कि मैंचुपके से उनसे माँगना चाहता था।

    इस तरह जब मैं उनके समक्ष खड़ा था, तो यद्यपि उन्होंनेइसके विषय में कुछ कहा नहीं, तो भी उन्होंने मुझे प्रचुर सम्पदा प्रदान की है।

    उन्होंने दयावानवर्षा वाले बादल जैसा कार्य किया है।

    किश्ित्करोत्युर्वपि यत्स्वदत्तंसुहृत्कृतं फल्गवपि भूरिकारी ।

    मयोपणीतं पृथुकैकमुष्टिंप्रत्यग्रहीत्प्रीतियुतो महात्मा ॥

    ३५॥

    किझ्ञित्‌--तुच्छ; करोति--करता है; उरू--महान्‌; अपि-- भी; यत्‌--जो; स्व--स्वयं द्वारा; दत्तम्‌ू--दिया हुआ; सुहृत्‌--शुभचिन्तक मित्र द्वारा; कृतम्‌ू--किया गया; फल्गु--न्यून; अपि-- भी; भूरि--अधिक; कारी--करने वाला; मया--मेरे द्वारा; उपनीतम्‌--लाया हुआ; पृथुक--तन्दुल; एक--एक; मुष्टिम्‌--मुट्ठी-भर; प्रत्यग्रहीत्‌-- स्वीकार किया; प्रीति-युतः--प्रसन्नतापूर्वक; महा-आत्मा--परमात्मा ने |

    भगवान्‌ अपने बड़े से बड़े वर को तुच्छ मानते हैं, किन्तु अपने शुभचिन्तक भक्त द्वारा कीगई तुच्छ सेवा को बहुत बढ़ा देते हैं।

    इस तरह परमात्मा ने मेरे द्वारा लाये गये एक मुट्ठी तंदुल कोसहर्ष स्वीकार कर लिया।

    तस्यैव मे सौहदसख्यमैत्री-दास्यं पुनर्जन्मनि जन्मनि स्यात्‌ ।

    महानुभावेन गुणालयेनविषज्जतस्तत्पुरुषप्रसड़: ॥

    ३६॥

    तस्य--उसके लिए; एव--निस्सन्देह; मे--मेरा; सौहद--प्रेम, सौहार्द; सख्य--मित्रता; मैत्री--सहानुभूति; दास्यमू--तथा दास्यभाव; पुनः--बारम्बार; जन्मनि जन्मनि--जन्म-जन्मांतर; स्थातू-होए; महा-अनुभावेन--परम दयालु भगवान्‌ से; गुण--दिव्यगुणों के; आलयेन--आगार; विषज्ञत: --अनुरक्त; तत्‌--उसके; पुरुष-- भक्तों की; प्रसड़:ः--बहुमूल्य संगति।

    भगवान्‌ समस्त दिव्य गुणों के परम दयामय आगार हैं।

    मैं जन्म-जन्मांतर प्रेम, मित्रता तथासहानुभूति के साथ उनकी सेवा करूँ और उनके भक्तों के बहुमूल्य सान्निध्य से ऐसी दृढ़ अनुरक्तिउत्पन्न करूँ।

    भक्ताय चित्रा भगवान्हि सम्पदोराज्यं विभूतीर्न समर्थयत्यज: ।

    अदीर्घबोधाय विचक्षण: स्वयंपश्यन्निपातं धनिनां मदोद्धवम्‌ ॥

    ३७॥

    भक्ताय--उनके भक्त के लिए; चित्रा:--विचित्र; भगवान्‌-- भगवान्‌; हि--निस्सन्देह; सम्पद:--ऐश्वर्य; राज्यम्‌--राज्य;विभूती:-- भौतिक सम्पत्ति; न समर्थयति--प्रदान नहीं करता; अज:--अजन्मा; अदीर्घ--छोटा; बोधाय--जिसकी समझ;विचक्षण:--चतुर; स्वयम्‌--स्वयं; पश्यन्‌ू--देखते हुए; निपातम्‌--पतन; धनिनाम्‌-- धनी का; मद--गर्व से उत्पन्न नशे का;उद्धवम्‌--उत्थान |

    जिस भक्त में आध्यात्मिक अन्तर्ईष्टि ( समझ ) नहीं होती, उसे भगवान्‌ कभी भी इस जगत का विचित्र ऐश्वर्य--राजसी शक्ति तथा भौतिक सम्पत्ति--नहीं सौंपते।

    दरअसल अपने अथाहज्ञान से अजन्मा भगवान्‌ भलीभाँति जानते हैं कि किस तरह गर्व का नशा किसी धनी का पतनकर सकता है।

    इत्थं व्यवसितो बुद्धया भक्तोतीव जनार्दने ।

    विषयान्जायया त्यक्ष्यन्बुभुजे नातिलम्पट: ॥

    ३८॥

    इत्थम्‌--इस प्रकार; व्यवसित:ः--संकल्प को स्थिर करते हुए; बुद्धया--बुद्धि से; भक्त:--अनुरक्त; अतीव--पूर्णतया;जनार्दने--समस्त जीवों के आश्रय भगवान्‌ कृष्ण के प्रति; विषयान्‌ू--इन्द्रिय-तृप्ति की वस्तुएँ; जायया--अपनी पत्नी के साथ;त्यक्ष्यन्‌--त्याग करने की इच्छा से; बुभुजे-- भोग किया; न--नहीं; अतिलम्पट:--धनलोलुप |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस तरह अपनी आध्यात्मिक बुद्धि के द्वारा अपने संकल्पको हढ़ करते हुए सुदामा समस्त जीवों के आश्रय भगवान्‌ कृष्ण के प्रति पूर्णतया अनुरक्त बनारहा।

    उसने धनलिप्ता से रहित होकर अपनी पत्नी के साथ साथ उस इन्द्रिय-सुख का भोग,अन्ततः समस्त इन्द्रिय-तृप्ति का परित्याग करने के विचार ( अनासक्त भाव ) से किया जो उसेप्रदान किया गया था।

    तस्य वे देवदेवस्य हरेयज्ञपते: प्रभो: ।

    ब्राह्मणा: प्रभवो देव न तेभ्यो विद्यते परम्‌ ॥

    ३९॥

    तस्य--उसका; बै-- भी; देव-देवस्थ--ईश्वरों के ईश्वर; हरेः--कृष्ण का; यज्ञ--वैदिक यज्ञ के; पते:--नियामक का; प्रभो:--'परम स्वामी; ब्राह्मणा:--ब्राह्मणजन; प्रभव: --स्वामी; दैवम्‌-- अर्चाविग्रह; न--नहीं; तेभ्य:--उनकी अपेक्षा; विद्यते--विद्यमान है; परम--महान।

    भगवान्‌ हरि समस्त ईश्वरों के ईश्वर, समस्त यज्ञों के स्वामी तथा सृष्टि के परम शासक हैं।

    लेकिन वे सन्त ब्राह्मणों को अपना स्वामी मानते हैं, अतः उनसे बढ़कर कोई अन्य देव नहीं रहजाता।

    एवं स विप्रो भगवत्सुहृत्तदाइृष्टा स्वभृत्यैरजितं पराजितम्‌ ।

    तद्धयानवेगोदग्रथितात्मबन्धन-स्तद्धाम लेभेडचिरतः सतां गतिम्‌ ॥

    ४०॥

    एवम्‌--इस प्रकार; सः--वह; विप्र:--ब्राह्मण; भगवत्‌-- भगवान्‌ का; सुहृत्‌--मित्र; तदा--तब; हृध्ला--देखकर; स्व--निजी;भृत्यैः --दासों द्वारा; अजितम्‌ू--अजेय; पराजितम्‌ू--पराजित, हारा हुआ; तत्‌--उस पर; ध्यान--उसके ध्यान का; वेग--जोरया प्रवाह से; उद्ग्रधित--जुड़ा; आत्म--आत्मा को; बन्धन: --बन्धन; तत्‌--उसका; धाम--निवासस्थान; लेभे--प्राप्त किया;अचिरत:--अल्प समय में; सताम्‌--साधुओं की; गतिम्‌ू--गन्तव्य, लक्ष्य |

    इस तरह यह देखते हुए कि अजेय भगवान्‌ किस प्रकार से अपने दासों द्वारा जीत लिये जातेहैं, भगवान्‌ के प्रिय ब्राह्मण मित्र को अनुभव हुआ कि उसके हृदय में भौतिक आसक्ति की जोग्रंथियाँ शेष रह गई थीं, वे भगवान्‌ के निरन्तर ध्यान के बल पर कट गई हैं।

    उसने अल्प काल मेंभगवान्‌ कृष्ण का परम धाम प्राप्त किया, जो महान्‌ सन्‍्तों का गन्तव्य है।

    एतद्डह्मण्यदेवस्य श्रुत्वा ब्रह्मण्यतां नर: ।

    लब्धभावो भगवति कर्मबन्धाद्विमुच्यते ॥

    ४१॥

    एतत्‌--यह; ब्रह्मण्य-देवस्थ--ब्राह्मणों के पक्षपाती भगवान्‌ का; श्रुत्वा--सुन कर; ब्रह्मण्यताम्‌--ब्राह्मणों के प्रति दयाभावको; नरः--मनुष्य; लब्ध--प्राप्त करते हुए; भाव: --प्रेम; भगवति-- भगवान्‌ के प्रति; कर्म--भौतिक कार्य के; बन्धात्‌ू--बन्धन से; विमुच्यते--छूट जाता है।

    भगवान्‌ सदैव ही ब्राह्मणों के प्रति विशेष कृपा दर्शाते हैं।

    जो भी ब्राह्मणों के प्रति भगवान्‌की दया के इस विवरण को सुनेगा, उसमें भगवत्प्रेम उत्पन्न होगा और इस तरह वह भौतिक कर्मके बन्धन से छूट जायेगा।

    TO

    अध्याय बयासी: कृष्ण और बलराम वृन्दावन के निवासियों से मिलते हैं

    10.82श्रीशुक उबाचअथैकदा द्वारवत्यां वसतो रामकृष्णयो: ।

    सूर्योपराग: सुमहानासीत्कल्पक्षये यथा ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; अथ--तब; एकदा--एक बार; द्वारवत्याम्‌-द्वारका में; बसतो:--रहते हुए;राम-कृष्णयो:--बलराम तथा कृष्ण के; सूर्य--सूर्य का; उपराग: --ग्रहण; सु-महान्‌-- अत्यन्त विशाल; आसीतू--था;कल्प--ब्रह्मा के एक दिन के; क्षये--अन्त होने पर; यथा--जिस तरह ।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : एक बार जब बलराम तथा कृष्ण द्वारका में रह रहे थे, तो ऐसाविराट सूर्य-ग्रहण पड़ा मानो, भगवान्‌ ब्रह्म के दिन का अन्त हो गया हो।

    त॑ ज्ञात्वा मनुजा राजन्पुरस्तादेव सर्वतः ।

    समन्तपज्ञकं क्षेत्रं ययु: श्रेयोविधित्सया ॥

    २॥

    तम्‌--उसको; ज्ञात्वा--जान कर; मनुजा:--लोग; राजन्‌--हे राजा ( परीक्षित ); पुरस्तात्‌ू--पहले से; एब--भी; सर्वतः--सभीजगहों से; समन्त-पञ्ञकम्‌--समन्तपंचक नामक ( जो कुरुक्षेत्र जनपद के अन्तर्गत है ); क्षेत्रमू--स्थान में; ययु:--गये; श्रेय:--लाभ; विधित्सया--उत्पन्न करने की इच्छा से

    हे राजन, पहले से इस ग्रहण के विषय में जानते हुए अनेक लोग पुण्य अर्जित करने कीमंशा से समन्तपञ्ञक नामक पवित्र स्थान में गये।

    निःक्षत्रियां महीं कुर्वन्‌ राम: शस्त्रभूतां वर: ।

    नृपाणां रुधिरौधेण यत्र चक्रे महाह्ददान्‌ ।

    ईजे च भगवान्‌ रामो यत्रास्पृष्टोडपि कर्मणा ॥

    ३॥

    लोकं॑ सड्ग्राहयन्नीशो यथान्योघापनुत्तये ।

    महत्यां तीर्थयात्रायां तत्रागन्‌ भारतीः प्रजा: ॥

    ४॥

    वृष्णयश्च तथाक्रूरवसुदेवाहुकादय: ।

    ययुर्भारत तक््षेत्रं स्वमघं क्षपयिष्णव: ॥

    ५॥

    गठप्रद्युम्नसाम्बाद्या: सुचन्द्रशुकसारणै: ॥

    आस्तेनिरुद्धो रक्षायां कृतवर्मा च यूथप: ॥

    ६॥

    निःक्षत्रियामू--राजाओं से विहीन; महीम्‌--पृथ्वी को; कुर्वन्‌--करके; राम:--परशुराम ने; शस्त्र--हथियारों को; भूताम्‌--धारण करने वालों के; वर:--सबसे श्रेष्ठ; नृषाणाम्‌--राजाओं के; रुधिर--खून की; ओघेण--बाढ़ से; यत्र--जहाँ; चक्रे --बनाया; महा--विशाल; हृदान्‌ू--सरोवर, झीलें; ईजे--पूजा किया; च--तथा; भगवानू-- भगवान्‌; राम: -- परशुराम ने; यत्र--जहाँ; अस्पृष्ट:--अछूता; अपि--यद्यपि; कर्मणा--कर्म तथा उसके फल से; लोकम्‌--संसार को; सड्ग्राहयन्‌--उपदेश देतेहुए; ईशः-- भगवान्‌; यथा--मानो; अन्य:--दूसरा व्यक्ति; अघध--पाप; अपनुत्तये--दूर करने के लिए; महत्याम्‌ू--विशाल;तीर्थ-यात्रायाम्‌--पतवित्र तीर्थयात्रा के अवसर पर; तत्र--वहाँ; आगन्‌-- आये; भारती: -- भारतवर्ष के; प्रजा:--लोग;वृष्णय:--वृष्णि-जाति के सदस्य; च--तथा; तथा-- भी; अक्रूर-वसुदेव-आहुक-आदय:--अक्रूर, वसुदेव, आहुक ( उग्रसेन )तथा अन्य; ययु:--गये; भारत--हे भरतवंशी ( परीक्षित ); तत्‌--उस; क्षेत्रम्‌ू--पवित्र स्थान में; स्वमू-- अपने अपने; अघम्‌--पापों को; क्षपयिष्णव:--उखाड़ फेंकने के इच्छुक; गद-प्रद्युम्न-साम्ब-आद्या: --गद, प्रद्युम्न, साम्ब इत्यादि; सुचन्द्र-शुक-सारणै:--सुचन्द्र, शुक तथा सारण के साथ; आस्ते--रहे; अनिरुद्ध:--अनिरुद्ध; रक्षायामू--रक्षा करने के लिए; कृतवर्मा--कृतवर्मा; च--तथा; यूथ-पः--सेना-नायक |

    पृथ्वी को राजाओं से विहीन करने के बाद योद्धाओं में सर्वोपरि भगवान्‌ परशुराम नेसमन्तपञ्ञक में राजाओं के रक्त से विशाल सरोवरों की उत्पत्ति की।

    यद्यपि परशुराम परकर्मफलों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा था, फिर भी सामान्य जनता को शिक्षा देने के लिए उन्होंनेवहाँ पर यज्ञ किया।

    इस तरह अपने को पापों से मुक्त करने के लिए उन्होंने सामान्य व्यक्ति जैसाआचरण किया।

    अब इस समन्तपञ्ञक में तीर्थयात्रा के लिए भारतवर्ष के सभी भागों से बहुतबड़ी संख्या में लोग आये थे।

    हे भरतवंशी, इस तीर्थस्थल में आये हुए लोगों मेंअनेकवृष्णिजन--यथा गद, प्रद्युम्म तथा साम्ब--अपने-अपने पापों से छुटकारा पाने के लिएआये थे।

    अक्ूर, वसुदेव, आहुक तथा अन्य राजा भी वहाँ गये थे।

    द्वारका की रक्षा करने केलिए सुचन्द्र शुक तथा सारण के साथ अनिरुद्ध एवं उन्हीं के साथ उनकी सशस्त्र सेनाओं केनायक कृतवर्मा भी रह गये थे।

    ते रथेर्देवधिष्ण्याभेईयै श्व तरलप्लवै: ।

    गजैर्नदद्धिरभ्राभेनृभिर्विद्याधरद्युभि: ॥

    ७॥

    व्यरोचन्त महातेजा: पथि काञ्लनमालिनः ।

    दिव्यस्त्रग्वस्त्रसन्नाहा: कलत्रे: खेचरा इव ॥

    ८॥

    ते--वे; रथैः--रथों ( पर सवार सैनिकों ) सहित; देव--देवताओं के; धिष्ण्य--विमानों; आभैः--के अनुरूप; हयै:--घोड़ों केसाथ; च--तथा; तरल--लहरों ( के समान ); प्लवै:ः--जिसकी गति; गजैः --हाथियों के साथ; नदद्धि:--चिग्घाड़ करते;अशभ्र--बादल; आभै:--के सहृश; नृभि:--तथा पैदल सिपाहियों के सहित; विद्याधर--विद्याधर देवताओं ( जैसे ); द्युभि: --तेज से; व्यरोचन्त--( यादव राजकुमार ) तेजवान प्रतीत हो रहे थे; महा--अत्यन्त; तेजा:--शक्तिशाली; पथि--मार्ग पर;काझ्नन--सोने की; मालिन:--मालाएँ पहने; दिव्य--दैवी; सत्रकू--फूलों की माला; वस्त्र--वस्त्र; सन्नाहा:--तथा कवच;कलन्रैः--अपनी पत्नियों के साथ; खे-चरा:--आकाश में विचरण करने वाले देवताओं के; इब--समान।

    बलशाली यदुगण बड़ी शान से मार्ग से होकर गुजरे।

    उनके साथ साथ उनके सैनिक थे, जोस्वर्ग के विमानों से होड़ लेने वाले रथों पर, ताल-ताल पर पग रख कर चल रहे घोड़ों पर तथाबादलों जैसे विशाल एवं चिग्घाड़ते हाथियों पर सवार थे।

    उनके साथ दैवी विद्याधरों के हीसमान तेजवान अनेक पैदल सिपाही भी थे।

    सोने के हारों तथा फूल की मालाओं से सज्जित एवंकवच धारण किये हुये यदुगण देवी वेशभूषा में इस तरह शोभा दे रहे थे कि जब वे अपनीपत्लियों के साथ मार्ग पर आगे बढ़ रहे थे, तो ऐसा लग रहा था, मानो आकाश-मार्ग से होकरदेवतागण उड़ रहे हों।

    तत्र स्नात्वा महाभागा उपोष्य सुसमाहिताः ॥

    ब्राह्मणेभ्यो ददुर्धनूर्वास:स्त्रगुक्ममालिनी: ॥

    ९॥

    तत्र--वहाँ; स्नात्वा--स्नान करके; महा-भागा:--परम पुण्यात्मा ( यादवगण ); उपोष्य--उपवास करके; सु-समाहिता:--बड़ेही ध्यानपूर्वक; ब्राह्मणेभ्य:--ब्राह्मणों को; ददुः--दान दिया; धेनू:--गौवें; वास:--वस्त्र; स्रकू--फूल-मालाओं ; रुक्म--सोनेकी; मालिनी:--तथा मालाओं से युक्त

    समन्तपशञ्जक में सन्त स्वभाव वाले उन यादवों ने स्नान किया और फिर अत्यन्त सावधानी केसाथ उपवास रखा।

    तत्पश्चात्‌ उन्होंने ब्राह्मणों को बस्त्रों, फूल-मालाओं तथा सोने के हारों सेसज्जित गौवें दान में दीं।

    रामहदेषु विधिवत्पुनराप्लुत्य वृष्णय: ।

    ददः स्वन्नं द्विजाछये भ्य: कृष्णे नो भक्तिरस्त्विति ॥

    १०॥

    राम--परशुराम के; हृदेषु--सरोवरों में; विधि-वत्‌--शास्त्रीय आदेशों के अनुसार; पुनः--फिर; आप्लुत्य--स्नान करके;वृष्णय: --वृष्णिजनों ने; ददु:--दान दिया; सु--सुन्दर; अन्नम्‌ू-- भोजन; द्विज--ब्राह्मणों को; अछये भ्य: --सर्वोत्तम; कृष्णे --कृष्ण के प्रति; नः--हमारी; भक्ति:--भक्ति; अस्तु--हो; इति--इस प्रकार |

    तत्पश्चात्‌ वृष्णिवंशियों ने शास्त्रीय आदेशों के अनुसार एक बार फिर परशुराम के सरोवरों मेंस्नान किया और उत्तम कोटि के ब्राह्मणों को अच्छा भोजन कराया।

    उन्होंने उस समय यहीप्रार्थना की, 'हमें भगवान्‌ कृष्ण की भक्ति प्राप्त हो।

    स्वयं च तदनुज्ञाता वृष्णय: कृष्णदेवता: ।

    भुक्त्वोपविविशु: काम स्निग्धच्छायाडप्रिपाड्घ्रिषु ॥

    ११॥

    स्वयम्‌--अपने से; च--तथा; तत्‌--उनके ( कृष्ण ) द्वारा; अनुज्ञाता:--अनुमति दिये गये; वृष्णय:--वृष्णियों ने; कृष्ण--भगवान्‌ कृष्ण; देवता:--एकमात्र देव; भुक्त्वा--खाकर; उपविविशु:--बैठ गये; कामम्‌--इच्छानुसार; स्निग्ध--शीतल;छाया--छाया वाले; अद्प्रिप--वृक्षों के; अड्धप्रिषु--पैरों पर, नीचे।

    फिर अपने एकमात्र आराध्यदेव भगवान्‌ कृष्ण की अनुमति से वृष्णियों ने कलेवा कियाऔर फुरसत में होने पर शीतल छाया प्रदान करने वाले वृक्षों के नीचे बैठ गये।

    तत्रागतांस्ते दहशुः सुहृत्सम्बन्धिनो नृपान्‌ ।

    मत्स्योशीनरकौशल्यविदर्भकुरुसूज्ञयान्‌ ।

    काम्बोजकैकयान्मद्रान्कुन्तीनानर्तकेरलान्‌ू ॥

    १२॥

    अन्‍्यांश्षैवात्मपक्षीयान्परांश्व शतशो नृप ।

    नन्दादीन्सुहदो गोपान्गोपी श्रोत्कण्ठिताश्चिरम्‌ ॥

    १३॥

    तत्र--वहाँ; आगतानू-- आये हुए; ते--उन्होंने ( यादवों ने ); दहशुः--देखा; सुहृत्‌--मित्रों; सम्बन्धिन:--तथा सम्बन्धीजनों;नृपान्‌ू--राजाओं को; मत्स्य-उशीनर-कौशल्य-विदर्भ-कुरु-सूझ्ञयानू--मत्स्यों, उशीनरों, कौशलों, विदर्भों, कुरूओं तथासृज्ञयों को; काम्बोज-कैकयान्‌--काम्बोजों तथा कैकयों को; मद्रान्‌--मद्रों को; कुन्तीन्‌--कुन्तियों को; आनर्त-केरलानू--आनर्तों तथा केरलों को; अन्यान्‌--अन्यों को; च एव--भी; आत्म-पक्षीयान्‌--अपनी टोली वालों; परान्‌--विपक्षियों को;च--तथा; शतशः--सैकड़ों; नृप--हे राजा ( परीक्षित ); नन्द-आदीन्‌--नन्द महाराज इत्यादि; सुहृदः--उनके प्रिय मित्र;गोपान्‌-ग्वालों को; गोपी: --गोपियों को; च--तथा; उत्कण्ठिता:--चिन्तित; चिरम्‌--दीर्घकाल से ।

    यादवों ने देखा कि वहाँ पर आये अनेक राजा उनके पुराने मित्र तथा सम्बन्धी--मत्स्य,उशीनर, कौशल्य, विदर्भ, कुरु, सूक्षय, काम्बोज, कैकय, मद्र, कुन्ती तथा आनर्त एवं केरलदेशों के राजा थे।

    उन्होंने अन्य सैकड़ों राजाओं को भी देखा, जो स्वपक्षी तथा विपक्षी दोनों हीथे।

    इसके अतिरिक्त हे राजा परीक्षित, उन्होंने अपने प्रिय मित्रों, नन्द महाराज तथा ग्वालों और गोपियों को देखा, जो दीर्घकाल से चिन्तित होने के कारण दुखी थे।

    अन्योन्यसन्दर्शनहर्षर॑हसाप्रोत्फुल्लहद्क्त्रसरोरुहअियः ।

    आए्लिष्य गाढं नयनेः सत्रवजलाहृष्यत्त्वचो रुद्धगिरो ययुर्मुदम्‌ ॥

    १४॥

    अन्योन्य--एक-दूसरे के ; सन्दर्शन--देखने से; हर्ष--हर्ष के; रंहसा--आवेग से; प्रोत्फुल्ल--विकसित, प्रफुल्लित; हत्‌--अपने हृदयों; वक्त्र--तथा मुखों के; सरोरूह--कमलों के; भ्रिय:--सौन्दर्य वाले; आश्लिष्य--आलिंगन करके; गाढम्‌--खूबतेजी से; नयनैः--आँखों से; सत्रवत्‌--गिराते हुए; जला:--जल ( अश्रु ); हृष्यत्‌--रोमांचित; त्वच:--चमड़ी; रुद्ध--रँ धी हुई;गिर:--वाणी; ययु:--अनुभव किया; मुदम्‌--हर्ष, प्रसन्नता |

    जब एक-दूसरे को देखने की अत्याधिक हर्ष से उनके हृदय तथा मुखकमल नवीन सौन्दर्यसे खिल उठे, तो पुरुषों ने एक-दूसरे का उल्लासपूर्वक आलिंगन किया।

    अपने नेत्रों से अश्रुगिराते हुए, रोमांचित शरीर वाले तथा रुँधी वाणी से उन्होंने उक्तट आनन्द का अनुभव किया।

    स्त्रियश्व॒ संवीक्ष्य मिथोउडतिसौहद-स्मितामलापाडुदशोभिरेभिरे ।

    स्तनैः स्तनान्कुड्डू मपड्डरूषितान्‌निहत्य दोभि: प्रणयाश्रुलोचना: ॥

    १५॥

    स्त्रियः--स्त्रियाँ; च--तथा; संवीक्ष्य--देखकर; मिथ:--परस्पर; अति--अत्यन्त; सौहद--मित्रवत्‌ स्नेह के साथ; स्मित--मुसकाते हुए; अमल--निर्मल; अपाड्ू--तिरछी नजर, चितवन; हशः--आँखों वाली; अभिरेभिरि--आलिंगन किया; स्तनै:--स्तनों से; स्तनान्‌--स्तनों को; कुड्डु म--केसर के; पड्ढू--लेप से; रूषितान्‌ू--लेपित; निहत्य--दबाकर; दोर्भि: --अपनीबाहुओं से; प्रणय--प्रेम के; अश्रु--आँसुओं से पूर्ण; लोचना:--आँखें |

    स्त्रियों ने प्रेममयी मैत्री की शुद्ध मुसकानों से एक-दूसरे को निहारा।

    और जब उन्होंनेआलिंगन किया, तो केसर के लेप से लेपित उनके स्तन एक-दूसरे के जोर से दब गये औरउनके नेत्रों में स्नेह के आँसू भर आये।

    ततोभिवाद्य ते वृद्धान्यविष्ठटेरभिवादिता: ।

    स्वागतं कुशल पृष्ठा चक्र: कृष्णकथा मिथ: ॥

    १६॥

    ततः--तब; अभिवाद्य--नमस्कार करके; ते--वे; वृद्धान्‌ू--अपने वरिष्ठजनों को; यविष्ठै:--अपने से छोटे सम्बन्धियों के द्वारा;अभिवादिता:--अभिवादन की गईं; सु-आगतम्‌--सुखपूर्वक आगमन; कुशलमू्‌--तथा कुशल-कश्षेम; पृष्ठा--पूछ कर;चक्रु:--किया; कृष्ण--कृष्ण के बारे में

    तब उन सबों ने अपने वरिष्ठजनों को नमस्कार किया और अपने से छोटे सम्बन्धियों से आदरप्राप्त किया।

    एक-दूसरे से यात्रा की सुख-सुविधा एवं कुशल-क्षेम पूछने के बाद, वे कृष्ण केविषय में बातें करने लगीं।

    पृथा भ्रातृन्स्वसूर्वी क्ष्य तत्पुत्रान्पितरावषि ।

    भ्रातृपलीर्मुकुन्दं च जहौ सड्डूथया शुच्: ॥

    १७॥

    पृथा--कुन्ती; भ्रातून्‌ू-- अपने भाइयों को; स्वसृ:--तथा बहनों को; वीक्ष्य--देखकर; तत्‌--उनके; पुत्रान्‌--पुत्रों को;पितरौ--अपने माता-पिता को; अपि--भी; भ्रातृ--अपने भाइयों की; पत्नी:--पत्रियों; मुकुन्दम्‌--भगवान्‌ कृष्ण को; च--भी; जहौ-्याग दिया; सद्भूथया--बातें करते हुए; शुचः--अपना शोक |

    महारानी कुन्ती अपने भाइयों तथा बहनों और उनके बच्चों से मिलीं।

    वे अपने माता-पिता,अपने भाइयों की पत्नियों ( भाभियों ) तथा भगवान्‌ मुकुन्द से भी मिलीं।

    उनसे बातें करती हुईं वेअपना शोक भूल गईं।

    कुन्त्युवाचआर्य भ्रातरहं मनन्‍्ये आत्मानमकृताशिषम्‌ ।

    यद्वा आपत्सु मद्वार्ता नानुस्मरथ सत्तमा: ॥

    १८॥

    कुन्ती उवाच--महारानी कुन्ती ने कहा; आर्य--हे आदरणीय; भ्रात:-- भाई; अहम्‌--मैं; मन्ये--सोचती हूँ; आत्मानमू--अपनेको; अकृत--प्राप्त करने में असफल; आशिषमू--इच्छाएँ; यत्‌--चूँकि; बै--निस्सन्देह; आपत्सु--संकट के समय; मत्‌--मुझको; वार्तामू--जो घटित हुआ; न अनुस्मरथ--तुम लोग स्मरण नहीं करते; सत्‌-तमा:--सर्वाधिक साधु स्वभाव वाले |

    महारानी कुन्ती ने कहा: हे मेरे सम्माननीय भाई, मैं अनुभव करती हूँ कि मेरी इच्छाएँविफल रही हैं, क्योंकि यद्यपि आप सभी अत्यन्त साधु स्वभाव वाले हो, किन्तु मेरी विपदाओं केदिनों में आपने मुझे भुला दिया।

    सुहृदो ज्ञातय: पुत्रा भ्रातरः पितरावषि ।

    नानुस्मरन्ति स्वजनं यस्य दैवमदक्षिणम्‌ ॥

    १९॥

    सुहृदः--मित्रगण; ज्ञातय:--तथा सम्बन्धी; पुत्रा:--पुत्र; भ्रातर:-- भाई; पितरौ--माता-पिता; अपि-- भी; न अनुस्मरन्ति--स्मरण नहीं करते; स्व-जनम्‌--प्रियजन; यस्य--जिसका; दैवम्‌--विधाता; अदक्षिणम्‌-- प्रतिकूल |

    जिस पर विधाता अनुकूल नहीं रहता, उसके मित्र तथा परिवार वाले, यहाँ तक कि बच्चे,भाई तथा माता-पिता भी अपने प्रियजन को भूल जाते हैं।

    श्रीवसुदेव उबाचअम्ब मास्मानसूयेथा दैवक़रीडनकान्नरान्‌ ।

    ईशस्य हि वशे लोक: कुरुते कार्यतेईथ वा ॥

    २०॥

    श्री-वसुदेव:ः उवाच-- श्री वसुदेव ने कहा; अम्ब--हे बहन; मा--मत; अस्मान्‌ू--हमसे; असूयेथा: --क्रुद्ध होओ; दैव-- भाग्यके; क्रीडनकान्‌--खिलौनों; नरान्‌--मनुष्यों को; ईशस्य-- भगवान्‌ के; हि--निस्सन्देह; वशे-- अधीन; लोक:--व्यक्ति;कुरुते--अपने मन से करता है; कार्यते--औरों के द्वारा कराया जाता है; अथ वा--या फिर।

    श्री वसुदेव ने कहा : हे बहन, तुम हम पर नाराज न होओ।

    हम सामान्य व्यक्ति भाग्य केखिलौने हैं।

    निस्सन्देह, मनुष्य चाहे अपने आप कार्य करे या अन्यों द्वारा करने को बाध्य कियाजाय, वह सदैव भगवान्‌ के नियंत्रण में रहता है।

    कंसप्रतापिता: सर्वे वयं याता दिशं दिशम्‌ ।

    एतहाँव पुनः स्थान दैवेनासादिता: स्वसः ॥

    २१॥

    कंस--कंस द्वारा; प्रतापिता:--खूब सताये गये; सर्वे--सभी; वयम्‌--हम; याता:-- भाग गये; दिशम्‌ दिशम्‌--विभिन्नदिशाओं में; एतहिं एब-- अभी अभी; पुनः--फिर; स्थानम्‌ू--अपने अपने स्थानों को; दैवेन--विधाता द्वारा; आसादिता: --लाये गये; स्वसः--हे बहन।

    हे बहन, कंस द्वारा सताये हुए हम विभिन्न दिशाओं में भाग गये थे, किन्तु विधाता की कृपासे अन्ततोगत्वा हम अब अपने अपने घरों में लौट सके हैं।

    श्रीशुक उबाचबसुदेवोग्रसेनाञैर्यदुभिस्तेडर्चिता नृपा: ।

    आसन्नच्युतसन्दर्शपरमानन्दनिर्वृता: ॥

    २२॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; बसुदेव-उग्रसेन-आह्यै:--वसुदेव, उग्रसेन इत्यादि; यदुभि:--यादवों द्वारा;ते--वे; अर्चिता: --सम्मानित; नृपा:--राजागण; आसन्‌--हो गये; अच्युत--भगवान्‌ कृष्ण के; सन्दर्श--दर्शन से; परम--परम; आनन्द--आननद में; निर्वृताः:--शान्त

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : वसुदेव, उग्रसेन तथा अन्य यदुओं ने उन विविध राजाओं कासम्मान किया, जो भगवान्‌ अच्युत को देखकर अत्यधिक आनन्द विभोर और संतुष्ट हो गये।

    भीष्मो द्रोणोम्बिकापुत्रो गान्धारी ससुता तथा ।

    सदाराः पाण्डवा: कुन्ती सञ्जयो विदुरः कृप: ॥

    २३॥

    कुन्तीभोजो विराटश्व भीष्मको नग्नजिन्महान्‌ ।

    पुरुजिद्द्रूपदः शल्यो धृष्ठकेतु: स काशिराट्‌ू ॥

    २४॥

    दमघोषो विशालाक्षो मैथिलो मद्रकेकयौ ।

    युधामन्यु: सुशर्मा च ससुता बाहिकादय: ॥

    २५॥

    राजानो ये च राजेन्द्र युथ्िष्ठिरमनुत्रता: ।

    श्रीनिकेतं वपु: शौरे: सस्त्रीकं वीक्ष्य विस्मिता: ॥

    २६॥

    भीष्म: द्रोण: अम्बिका-पुत्र:--भीष्म, द्रोण तथा अम्बिका के पुत्र ( धृतराष्ट्र ); गान्धारी--गान्धारी; स--सहित; सुता:--उसकेपुत्र; तथा-- भी; स-दारा:-- पत्नियों सहित; पाण्डवा:--पाण्डु-पुत्र; कुन्ती--कुन्ती; सञ्जयः विदुरः कृप:--संजय, विदुर तथाकृप; कुन्तीभोज: विराट: च--कुन्तीभोज तथा विराट; भीष्यक: -- भीष्मक ; नग्नजित्‌--नग्नजित; महान्‌--महान्‌; पुरुजित्‌ब्रुपदः शल्य:--पुरुजित, द्रुपद तथा शल्य; धृष्टकेतु:-- धृष्टकेतु; सः--वह; काशि-राट्‌ू--काशी का राजा; दमघोष:ःविशालाक्ष:--दमघोष तथा विशालाक्ष; मैथिल:--मिथिलाराज; मद्र-केकयौ--मद्र तथा केकय के राजा; युधामन्यु: सुशर्माच--युधामन्यु तथा सुशर्मा; स-सुता:--अपने पुत्रों समेत; बाहिक-आदय:--बाहिक तथा अन्य; राजान:--राजागण; ये--जो;च--तथा; राज-इन्द्र--हे राजाओं में श्रेष्ठ ( परीक्षित ); युथिष्ठटिरम्‌--युधिष्ठिर को; अनुब्नता:--अनुसरण करते हुए; श्री--ऐश्वर्यतथा सौन्दर्य के; निकेतम्‌-- धाम; वपु:--शरीर; शौरे:-- भगवान्‌ कृष्ण का; स-स्तृईकम्‌--पत्ियों सहित; वीक्ष्य--देखकर;विस्मिता:--चकित।

    हे राजाओं में श्रेष्ठ परिक्षित, भीष्म, द्रोण, धृतराष्ट्र, गान्धारी तथा उनके पुत्र, पाण्डव तथा उनकी पत्नियाँ, कुन्ती, सज्ञय, विदुर, कृपाचार्य, कुन्तीभोज, विराट, भीष्मक, महान्‌ नग्नजित,पुरुजित, द्वपद, शल्य, धृष्टकेतु, काशिराज, दमघोष, विशालाक्ष, मैथिल, मद्र, केकय,युधामन्यु, सुशर्मा, बाहिक तथा उसके संगी और उन सबों के पुत्र एवं महाराज युधथ्रिष्ठटिर केअधीन अन्य अनेक राजा--ये सारे के सारे अपने समक्ष समस्त ऐश्वर्य तथा सौन्दर्य के धामअपनी पत्नियों के साथ खड़े भगवान्‌ श्रीकृष्ण के दिव्य रूप को देखकर चकित हो गये।

    अथ ते रामकृष्णाभ्यां सम्यक्प्राप्ससमरईणा: ।

    प्रशशंसुर्मुदा युक्ता वृष्णीन्कृष्णपरिग्रहानू ॥

    २७॥

    अथ--तब; ते--वे, उन्होंने; राम-कृष्णाभ्याम्‌--बलराम तथा कृष्ण द्वारा; सम्यक्‌ --भलीभाँति; प्राप्त--पाकर के;समहणा:--उचित सम्मान; प्रशशंसु: --प्रशंसा की; मुदा--हर्ष से; युक्ता: --पूर्ण; वृष्णीन्‌--वृष्णियों को; कृष्ण--कृष्ण के;परिग्रहान्‌--निजी संगियों को |

    जब बलराम तथा कृष्ण उदारतापूर्वक उनका आदर कर चुके, तो ये राजा अतीव प्रसन्नताएवं उत्साह के साथ श्रीकृष्ण के निजी संगियों की प्रशंसा करने लगे, जो वृष्णि-कुल के सदस्यथे।

    अहो भोजपते यूयं जन्मभाजो नृणामिह ।

    यत्पश्यथासकृत्कृष्णं दुर्दर्शभपि योगिनाम्‌ ॥

    २८॥

    अहो--ओह; भोज-पते--हे भोजों के स्वामी, उग्रसेन; यूयम्‌--तुम; जन्म-भाज:--सफल जीवन पाकर; नृणाम्‌--मनुष्यों केबीच; इह--इस संसार में; यत्‌--क्योंकि; पश्यथ--देखते हो; असकृत्‌--बारम्बार; कृष्णम्‌--कृष्ण को; दुर्दर्शभ्‌--विरले हीदेखे जाने वाले; अपि-- भी; योगिनाम्‌--योगियों द्वारा |

    राजाओं ने कहा : हे भोजराज, आप ही एकमात्र ऐसे हैं, जिन्होंने मनुष्यों में सचमुच उच्चजन्म प्राप्त किया है, क्योंकि आप भगवान्‌ श्रीकृष्ण को निरन्तर देखते हैं, जो बड़े से बड़े योगियों को भी विरले ही दिखते हैं।

    यद्विश्रुति: श्रुतिनुतेदमलं पुनातिपादावनेजनपयश्च वचश्च शास्त्रम्‌ ।

    भू: कालभर्जितभगापि यदड्प्रिपद्य-स्पर्शोत्थशक्तिरभिवर्षति नोखिलार्थान्‌ ॥

    २९॥

    तदर्शनस्पर्शनानुपथप्रजल्प-शय्यासनाशनसयौनसपिण्डबन्ध: ।

    येषां गृहे निरयवर्त्सनि वर्ततां वःस्वर्गापवर्गविरमः स्वयमास विष्णु: ॥

    ३०॥

    यत्‌--जिसका; विश्रुति:--यश; श्रुति--वेदों द्वारा; नुता--गुँजाया; इृदम्‌--इस ( ब्रह्माण्ड ) को; अलम्‌--पूरी तरह; पुनाति--पवित्र बनाता है; पाद--जिसके चरणों का; अवनेजन--प्रक्षालन; पय:--जल; च--तथा; वच: --शब्द; च--तथा; शास्त्रम्‌ू--शास्त्रों को; भू:ः--पृथ्वी; काल--समय द्वारा; भर्जित--विनष्ट; भगा--जिसका सौभाग्य; अपि-- भी; यत्‌--जिसके ; अड््प्रि--पैरों के; पद्मय--कमल-सहश; स्पर्श--छूने से; उत्थ--जागृत; शक्ति:--जिसकी शक्ति; अभिवर्षति--प्रचुर वर्षा करती है; न:--हम पर; अखिल--समस्त; अर्थान्‌--वांछित वस्तुएँ; तत्‌ू--उसके; दर्शन--देखने; स्पर्शन--छूने; अनुपध--साथ-साथ चलने;प्रजल्प--बातचीत करने; शय्या--विश्राम करने के लिए लेट जाना; आसन--बैठना; अशन-- भोजन करना; स-यौन--वैवाहिक सम्बन्धों में; स-पिण्ड--तथा रक्त के सम्बन्ध में; बन्ध:--सम्बन्ध; येषाम्‌ू--जिनके; गृहे--गृहस्थ-जीवन में; निरय--नरक के; वर्त्मनि--मार्ग पर; वर्ततामू--चलने वाले; व:--तुम्हारे; स्वर्ग--स्वर्ग ( प्राप्त करने की इच्छा के ); अपवर्ग--तथामोक्ष; विरम:--विराम ( का कारण ); स्वयम्‌--स्वयं; आस--उपस्थित था; विष्णु:-- भगवान्‌ विष्णु।

    वेदों द्वारा प्रसारित उनका यश, उनके चरणों को प्रक्षलित करने वाला जल और शाम्त्रों केरूप में उनके द्वारा कहे गये शब्द--ये सभी इस ब्रह्माण्ड को पूरी तरह शुद्ध करने वाले हैं।

    यद्यपि काल के द्वारा पृथ्वी का सौभाग्य नष्ट-भ्रष्ट हो चुका था, किन्तु उनके चरणकमलों केस्पर्श से उसे पुन: जीवनदान मिला है, अतः पृथ्वी हमारी समस्त इच्छाओं की पूर्ति की वर्षा हमपर कर रही है।

    जो विष्णु स्वर्ग तथा मोक्ष के लक्ष्यों को भुलवा देते हैं, वे आपके साथ वैवाहिकऔर रक्त सम्बन्ध स्थापित कर चुके हैं, अन्यथा आप लोग गृहस्थ-जीवन के नारकीय पथ परविचरण करते हैं।

    निस्सन्देह ऐसे सम्बन्ध होने से आप लोग उन्हें देखते हैं, उनका स्पर्श करते हैं,उनके साथ चलते हैं, उनसे बातें करते हैं, उनके साथ लेट कर आराम करते हैं, उठते-बैठते हैंऔर भोजन करते हैं।

    श्रीशुक उबाचनन्दस्तत्र यदून्प्राप्तानज्ञात्वा कृष्णपुरोगमान्‌ ।

    तत्रागमद्गृतो गोपैरनःस्थार्थेर्दिहक्षया ॥

    ३१॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; नन्दः--ननन्‍्द महाराज; तत्र--वहाँ; यदून्‌ू--यदुओं को; प्राप्तानू--आये हुए;ज्ञात्वा--पाकर; कृष्ण--कृष्ण; पुरः-गमान्‌ू--आगे करके; तत्र--वहाँ; अगमत्‌--गये; वृत:--साथ साथ; गोपैः --ग्वालों केद्वारा; अनः:--अपनी अपनी बैलगाड़ियों पर; स्थ--रखी; अर्थे:--सामग्री से; दिहक्षया--जानने की इच्छा से।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब नन्द महाराज को ज्ञात हुआ कि कृष्ण के नेतृत्व में यदुगणआ चुके हैं, तो वे तुरन्त उनसे भेंट करने गये।

    सारे ग्वाले अपनी अपनी बैलगाड़ियों में विविधवस्तुएँ लाद कर उनके साथ हो लिए।

    त॑ दृष्ठा वृष्णयो हृष्टास्तन्व: प्राणमिवोत्थिता: ।

    'परिषस्वजिरे गाढं चिरदर्शनकातरा: ॥

    ३२॥

    तम्‌--उसको, नन्द को; इृश्ठा--देखकर; वृष्णय: --वृष्णिजन; हृष्टा:--प्रसन्न; तन्‍्व:--सजीव शरीर; प्राणम्‌--प्राण; इब--मानो; उत्थिता:--उठ कर; परिषश्चजिरि--उनका आलिंगन किया; गाढम्‌--हढ़ता से; चिर--दीर्घकाल के बाद; दर्शन--देखनेसे; कातरा:ः --क्षुब्ध

    ननन्‍्द को देखकर सारे वृष्णि प्रसन्न हो उठे और इस तरह खड़े हो गये, मानो मृत शरीरों मेंफिर से प्राण संचार हो गया हो।

    दीर्घकाल से न देखने के कारण अधिक कष्ट का अनुभव करतेहुए, उन्होंने नन्द प्रगाढ़ आलिंगन किया।

    बसुदेव: परिष्वज्य सम्प्रीतः प्रेमविहलः ।

    स्मरन्कंसकृतान्क्लेशान्पुत्रन्यासं च गोकुले ॥

    ३३॥

    वसुदेव:--वसुदेव; परिष्वज्य--( ननन्‍्द महाराज का ) आलिंगन करके; सम्प्रीत:--अत्यधिक प्रसन्न; प्रेम--प्रेम के कारण;विह॒लः--अपने आप में न रहना; स्मरन्‌--स्मरण करते हुए; कंस-कृतान्‌--कंस द्वारा उत्पन्न; क्लेशान्‌ू--कष्टों को; पुत्र--अपनेपुत्रों की; न्‍्यासम्‌-विदाईं; च--तथा; गोकुले--गोकुल में ॥

    वसुदेव ने बड़े ही हर्ष से नन्द महाराज का आलिंगन किया।

    प्रेमविहल होकर वसुदेव ने कंसद्वारा पहुँचाए गये कष्टों का स्मरण किया, जिसके कारण उन्हें अपने पुत्रों को उनकी रक्षा केलिए गोकुल में छोड़ने के लिए बाध्य होना पड़ा।

    कृष्णरामौ परिष्वज्य पितरावभिवाद्य च ।

    न किझ्जनोचतु:ः प्रेम्णा साश्रुकण्ठौ कुरूद्वह ॥

    ३४॥

    कृष्ण-रामौ--कृष्ण तथा बलराम; परिष्वज्य--आलिंगन करके; पितरौ--अपने माता-पिता को; अभिवाद्य-- अभिवादनकरके; च--तथा; न किलज्लन--कुछ नहीं; ऊचतु:--कहा; प्रेम्णा--प्रेमवश; स-अश्रु--आँसुओं से पूर्ण; कण्ठौ--जिनकेकण्ठ हैं; कुरू-उद्वह-हे कुरुओं में सर्वाधिक वीर

    हे कुरुओं के वीर, कृष्ण तथा बलराम ने अपने पोषक माता-पिता का आलिंगन किया औरउनको नमन किया, लेकिन प्रेमाश्रुओं से उनके गले इतने रुंध गये थे कि वे दोनों कुछ भी नहींकह पाये।

    तावात्मासनमारोप्य बाहुभ्यां परिरभ्य च ।

    यशोदा च महाभागा सुतौ विजहतु: शुच्द: ॥

    ३५॥

    तौ--वे दोनों; आत्म-आसनम्‌--अपनी गोदों में; आरोप्य--उठाकर; बाहुभ्याम्‌-- अपनी बाहुओं से; परिरभ्य--आलिंगनकरके; च--तथा; यशोदा--माता यशोदा; च--भी; महा-भागा--सनन्‍्त स्वभाव वाली; सुतौ--अपने पुत्रों को; विजहतु:--त्याग दिया; शुच:--अपना शोक |

    अपने दोनों पुत्रों को अपनी गोद में उठाकर और अपनी बाहुओं में भर कर, नन्द तथा सन्तस्वभाव वाली माता यशोदा अपना शोक भूल गये।

    रोहिणी देवकी चाथ परिष्वज्य ब्रजेश्वरीम्‌ ।

    स्मरन्त्यौ तत्कृतां मैत्रीं बाष्पकण्ठ्यौ समूचतु: ॥

    ३६॥

    रोहिणी--रोहिणी; देवकी--देवकी; च--और; अथ--तब; परिष्वज्य--आलिंगन करके; ब्रज-ई श्री म्‌--त्रज की रानी( यशोदा ) को; स्मरन्त्यौ--स्मरण करते हुए; तत्‌--अपने; कृतम्‌--किये हुए; मैतृईम्‌--दोस्ती; बाष्प--आँसू; कण्ठ्यौ--कण्ठों में; समूचतु: --उन्होंने उससे कहा।

    तत्पश्चात्‌ रोहिणी तथा देवकी दोनों ने व्रज की रानी का आलिंगन किया और उन्होंने उनकेप्रति, जो सच्ची मित्रता प्रदर्शित की थी, उसका स्मरण करते हुए अश्रु से रुंधे गले से इस प्रकारकहा।

    का विस्मरेत वां मैत्रीमनिवृत्तां ब्रजे श्वरि ।

    अवाप्याप्येन्द्रमैश्वर्य यस्या नेह प्रतिक्रिया ॥

    ३७॥

    का--कौन-सी स्त्री; विस्मरेत-- भूल सकती है; वाम्‌--तुम दोनों ( यशोदा तथा नन्द ) को; मैत्रीम्‌--मित्रता; अनिवृत्तामू--निरन्तर; ब्रज-ईश्वरि--हे ब्रज की रानी; अवाप्य--प्राप्त करके; अपि--भी; ऐन्द्रमू--इन्द्र का; ऐश्वर्यम्‌--ऐ श्वर्य; यस्या: --जिसके लिए; न--नहीं; इह--इस जगत में; प्रति-क्रिया--उऋण होना या बदला चुकाना।

    रोहिणी तथा देवकी ने कहा : हे ब्रज की रानी, भला ऐसी कौन स्त्री होगी, जो आप तथानन्द द्वारा हम लोगों के प्रति प्रदर्शित सतत मित्रता को भूल सके ? इस संसार में आपका बदलाचुकाने का कोई उपाय नहीं है, यहाँ तक कि इन्द्र की सम्पदा से भी नहीं।

    एतावदृष्टपितरौ युवयोः स्म पित्रो:सम्प्रीणनाभ्युद्‌यपोषणपालनानि ।

    प्राप्योषतुर्भवति पक्ष्म ह यद्वदक्ष्णो-न्यस्तावकुत्र च भयौ न सतां पर: स्व: ॥

    ३८॥

    एतौ--ये दोनों; अदृष्ट--न देखकर; पितरौ--उनके माता-पिता; युवयो:--तुम दोनों के; स्म--निस्सन्देह; पित्रो: --माता-पिताके; सम्प्रीणगन--दुलारना; अभ्युदय--पालन; पोषण---पोषण; पालनानि--तथा सुरक्षा; प्राप्प--प्राप्त करके; ऊषतु:--वे रहतेथे; भवति--हे उत्तम नारी; पक्ष्म--पलकें; ह--निस्सन्देह; यद्वत्‌ू--जिस तरह; अक्ष्णो: --आँखों की; न्यस्तौ--गिरवी रखना;अकुत्र--कही नहीं; च--तथा; भयौ--जिसका डर; न--नहीं; सताम्‌--साधु-पुरुषों के लिए; पर:--अन्य; स्व:--निजी |

    इसके पूर्व कि इन दोनों बालकों ने अपने असली माता-पिता को देखा, आप दोनों ने उनकेसंरक्षक का कार्य किया और उन्हें सभी तरह से स्नेहपूर्ण देखभाल, प्रशिक्षण, पोषण तथा सुरक्षाप्रदान की।

    हे उत्तम नारी, वे कभी भी डरे नहीं, क्योंकि आप उनकी वैसे ही रक्षा करती रहीं,जिस तरह पलकें आँखों की रक्षा करती हैं।

    निस्सन्देह, आप-जैसी सन्त स्वभाव वाली नारियाँकभी भी अपनों और परायों में कोई भेदभाव नहीं बरततीं।

    श्रीशुक उबाचगोप्यश्च कृष्णमुपलभ्य चिरादभीष्टंयप्प्रेक्षणे हशिषु पक्ष्मकृतं शपन्ति ।

    इृश्भिईदीकृतमलं परिरभ्य सर्वा-स्तद्धावमापुरपि नित्ययुजां दुरापम्‌ ॥

    ३९॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; गोप्य:--तरुण गोपियाँ; च--तथा; कृष्णम्‌ू--कृष्ण को; उपलभ्य--निहार कर;चिरातू--बहुत दिनों से; अभीष्टम्‌-- अपनी इच्छित वस्तु को; यत्‌--जिसको; प्रेक्षणे--देखते हुए; दशिषु--उनकी आँखों पर;पक्ष्म--पलकों के; कृतम्‌--बनाने वाले को; शपन्ति--कोसती हैं; हग्भि:--उनकी आँखों से; हृदी-कृतम्‌-- अपने हृदयों मेंबसाये हुए; अलमू--जी-भरकर; परिरभ्य--आलिंगन करके; सर्वा:--वे सभी; तत्‌--उसकी; भावम्‌--प्रेम-तल्लीनता;आपु:-प्राप्त की; अपि--यद्यपि; नित्य--निरन्तर; युजाम्‌--योगविद्या में लगे रहने वालों के लिए; दुरापम्‌--प्राप्त करनाकठिन, दुष्प्राप्य

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : अपने प्रिय कृष्ण पर टकटकी लगाये हुई तरुण गोपियाँ अपनीपलकों के सृजनकर्ता को कोसा करती थीं ( क्‍योंकि वे उनका दर्शन करने में कुछ पलों के लिएबाधक होती थीं )।

    अब दीर्घकालीन विछोह के बाद कृष्ण को पुनः देखकर उन्हें अपनी आँखोंके द्वारा ले जाकर, उन्होंने अपने हृदय में बिठा लिया और वहीं उनका जी-भरकर आलिंगन किया।

    इस तरह वे उनके आनन्दमय ध्यान में पूरी तरह निमग्न हो गईं, यद्यपि योगविद्या कानिरन्तर अभ्यास करने वाले को ऐसी तललीनता प्राप्त कर पाना कठिन होता है।

    भगवांस्तास्तथाभूता विविक्त उपसड्भतः ।

    आएिलिष्यानामयं पृष्ठा प्रहसन्निदमब्रवीत्‌ ॥

    ४० ॥

    भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; ता:--उनको; तथा-भूताः--ऐसी दशा में होते हुए; विविक्ते--एकान्त स्थान में; उपसड्डत:ः--जाकर;आश्िलिष्य--आलिंगन करके; अनामयम्‌--स्वास्थ्य के ( कुशलता ) विषय में; पृष्ठा--पूछ कर; प्रहसन्‌--हँसते हुए; इदम्‌--यह; अब्रवीत्‌--कहा |

    जब गोपियाँ भावमग्न खड़ी थीं, तो भगवान्‌ एकान्त स्थान में उनके पास पहुँचे।

    हर एक काआलिंगन करने तथा उनकी कुशल-क्षेम पूछने के बाद वे हँसने लगे और इस प्रकार बोले।

    अपि स्मरथ नः सख्य: स्वानामर्थचिकीर्षया ।

    गतांश्विरायिताउ्तत्रुपक्षक्षपणचेतस: ॥

    ४१॥

    अपि--क्या; स्मरथ--तुम स्मरण करती हो; नः--हमको; सख्य:--सखियाँ; स्वानाम्‌--अपने प्रियजनों के; अर्थ--हेतु;चिकीर्षया--करने की इच्छा से; गतान्‌-गये हुए; चिरायितान्‌--दीर्घकाल तक रहते हुए; शत्रु--हमारे शत्रुओं के; पक्ष--टोली; क्षपण--विनष्ट करने की; चेतस:--मनोभाव वाले

    भगवान्‌ कृष्ण ने कहा : हे सखियो, क्या अब भी तुम लोग मेरी याद करती हो? मैंअपने सम्बन्धियों के लिए ही हमारे शत्रुओं का विनाश करने के लिए इतने लम्बे समय तक दूररहता रहा।

    अप्यवध्यायथास्मान्स्विदकृतज्ञाविशड्डूया ।

    नूनं भूतानि भगवान्युनक्ति वियुनक्ति च ॥

    ४२॥

    अपि--भी; अवध्यायथ--घृणा करती हो; अस्मान्‌-हमें; स्वित्‌ू--शायद; अकृत-ज्ञ-कृतघ्न के रूप में; आविशद्जया--सन्देह से; नूनम्‌--निस्सन्देह; भूतानि--सारे जीव; भगवानू-- भगवान्‌; युनक्ति--मिलाता है; वियुनक्ति--विलग करता है; च--तथा।

    शायद तुम सोचती हो कि मैं कृतघ्न हूँ और इसलिए मुझे घृणा से देखती हो ? अन्ततोगत्वा,सारे जीवों को पास लाने वाला और फिर उन्हें विलग करने वाला, तो भगवान्‌ ही है।

    वायुर्यथा घनानीकं तृणं तूलं रजांसि च ।

    संयोज्याक्षिपते भूयस्तथा भूतानि भूतकृत्‌ ॥

    ४३॥

    वायु:--वायु; यथा--जिस तरह; घन--बादलों के; अनीकम्‌--समूहों को; तृणम्‌--तिनकों को; तूलम्‌--रुई को; रजांसि--धूल को; च--तथा; संयोज्य--पास लाकर; आक्षिपते--दूर-दूर फेंक देती है; भूय:--एक बार फिर; तथा--उसी प्रकार;भूतानि--जीवों को; भूत--जीवों के; कृत्‌ू--बनाने वाले।

    जिस तरह वायु बादलों के समूहों, घास की पत्तियों, रुई के फाहों तथा धूल के कणों कोपुन: बिखेर देने के लिए ही पास पास लाती है, उसी तरह स्त्रष्टा अपने द्वारा सृजित जीवों के साथव्यवहार करता है।

    मयि भक्तिहिं भूतानाममृतत्वाय कल्पते ।

    दिछ्या यदासीन्मत्स्नेहो भवतीनां मदापन: ॥

    ४४॥

    मयि--मुझमें; भक्ति:-- भक्ति; हि--निस्सन्देह; भूतानाम्‌ू--जीवों के लिए; अमृतत्वाय--अमरता के लिए; कल्पते--ले जाताहै; दिछ्या--सौभाग्य से; यत्‌--जो; आसीतू--बनाया; मत्‌--मेरे लिए; स्नेहः --स्नेह; भवतीनामू--आप लोगों के लिए; मत्‌--मुझको; आपन:--प्राप्त करने का कारणस्वरूप।

    कोई भी जीव मेरी भक्ति करके शाश्वत जीवन प्राप्त करने के लिए सुयोग्य बन जाता है।

    किन्तु तुम लोगों ने अपने सौभाग्य से मेरे प्रति ऐसी विशेष प्रेमम॒य प्रवृत्ति विकसित कर ली है,जिसके द्वारा तुम सबों ने मुझे पा लिया है।

    अहं हि सर्वभूतानामादिरन्तोन्तरं बहि: ।

    भौतिकानां यथा खं वार्भूववायुज्योतिरड्रना: ॥

    ४५॥

    अहमू--ैं; हि--निस्सन्देह; सर्व--समस्त; भूतानाम्‌--जीवों का; आदि: --प्रारम्भ; अन्तः--अन्त; अन्तरम्‌ू-- भीतर; बहि: --बाहर; भौतिकानाम्‌--समस्त भौतिक वस्तुओं का; यथा--जिस तरह; खम्‌--आकाश; वा:--जल; भू: --पृथ्वी; वायु: --वायु; ज्योति:--तथा अग्नि; अड्डना:-हे स्त्रियो |

    हे स्त्रियो, मैं सारे जीवों का आदि तथा अन्त हूँ और मैं उनके भीतर तथा बाहर उसी तरहविद्यमान हूँ, जिस तरह आकाश, जल, पृथ्वी, वायु तथा अग्नि समस्त भौतिक वस्तुओं के आदिएवं अन्त हैं और उनके भीतर-बाहर विद्यमान रहते हैं।

    एवं होतानि भूतानि भूतेष्वात्मात्मना ततः ।

    उभयं मय्यथ परे पश्यताभातमक्षरे ॥

    ४६॥

    एवम्‌--इस प्रकार; हि--निस्सन्देह; एतानि--ये; भूतानि--सारे जीव; भूतेषु--सृष्टि के तत्त्वों के भीतर; आत्मा--आत्मा;आत्मना--अपने असली स्वरूप में; तत:--व्याप्त; उभयम्‌--दोनों; मयि--मेरे भीतर; अथ--अर्थात्‌; परे--परम सत्य केभीतर; पश्यत--तुम्हें देखना चाहिए; आभातम्‌--प्रकट; अक्षरे-विथिन्‌ थे इम्पेरिशब्ले

    इस तरह समस्त उत्पन्न की गई वस्तुएँ सृष्टि के मूलभूत तत्त्वों के भीतर निवास करती हैं औरअपने असली स्वरूप में बनी रहती हैं, किन्तु आत्मा सारी सृष्टि में व्याप्त रहता है।

    तुम्हें इन दोनोंही को--भौतिक सृष्टि तथा आत्मा को--मुझ अक्षर ब्रह्म के भीतर प्रकट देखना चाहिए।

    श्रीशुक उबाचअध्यात्मशिक्षया गोप्य एवं कृष्णेन शिक्षिता: ।

    तदनुस्मरणध्वस्तजीवकोशास्तमध्यगन्‌ ॥

    ४७॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; अध्यात्म--आत्मा विषयक; शिक्षया--शिक्षा से; गोप्य:--गोपियाँ; एवम्‌--इसप्रकार; कृष्णेन--कृष्ण द्वारा; शिक्षिता:--पढ़ाई गई; तत्‌ू--उनका; अनुस्मरण--निरन्तर ध्यान से; ध्वस्त--विनष्ट; जीव-'कोशा:ः--आत्मा का सूक्ष्म आवरण ( मिथ्या अहंकार ); तम्‌--उसको; अध्यगन्‌--समझ सकी |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : कृष्ण द्वारा आध्यात्मिक विषयों में शिक्षा दिये जाने पर गोपियाँमिथ्या अहंकार के समस्त कलुषों से मुक्त हो गईं क्योंकि वे उनका निरन्तर ध्यान करती थीं।

    वेउनमें अपनी गहन निमग्नता के कारण उन्हें पूरी तरह समझ सकीं।

    आहुश्न ते नलिननाभ पदारविन्दंयोगेश्वरैईदि विचिन्त्यमगाधबोधे: ।

    संसारकूपपतितोत्तरणावलम्बंगेहं जुषामपि मनस्युदियात्सदा न: ॥

    ४८॥

    आहु:--गोपियों ने कहा; च--तथा; ते--तुम्हारा; नलिन-नभ--कमल के फूल जैसी नाभि वाले, हे भगवान्‌; पद-अरविन्दम्‌--चरणकमलों को; योग-ई श्ररै:-- बड़े-बड़े योगियों द्वारा; हदि--हृदय के भीतर; विचिन्त्यम्‌-- ध्यान करने योग्य; अगाध-बोधे:--जो प्रकाण्ड दार्शनिक थे; संसार-कूप--इस संसाररूपी अँधेरे कुएँ में; पतित--गिरे हुओं के; उत्तरण--उद्धारकों के;अवलम्बम्‌--एकमात्र आश्रय को; गेहम्‌--पारिवारिक मामले; जुषाम्‌--लगे हुओं के; अपि--यद्यपि; मनसि--मनों में;उदियात्‌--उदित हो; सदा--सदैव; नः--हमारे |

    गोपियाँ इस प्रकार बोलीं : हे कमलनाभ प्रभु, आपके चरणकमल उन लोगों के लिएएकमात्र शरण हैं, जो भौतिक संसाररूपी गहरे कुएँ में गिर गये हैं।

    आपके चरणों की पूजा तथाध्यान बड़े बड़े योगी तथा प्रकाण्ड दार्शनिक करते हैं।

    हमारी यही इच्छा है कि ये चरणकमलहमारे हृदयों के भीतर उदित हों, यद्यपि हम सभी गृहस्थकार्यो में व्यस्त रहने वाली सामान्य प्राणीमात्र हैं।

    TO

    अध्याय तिरासी: द्रौपदी की कृष्ण की रानियों से मुलाकात

    10.83श्रीशुक उवाचतथानुगृहा भगवान्गोपीनां स गुरुर्गतिः।

    युथिष्टिरमथापृच्छत्सर्वाश्व सुहृदोउव्ययम्‌ ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; तथा--इस तरह से; अनुगृह्य-- अनुग्रह दिखलाकर; भगवान्‌-- भगवान्‌ ने;गोपीनाम्‌--तरुण गोपियों के; सः--वह; गुरुः--उनका गुरु; गतिः:--तथा लक्ष्य; युधिष्ठिरम्‌--युधिष्ठिर से; अथ--तब;अपृच्छत्‌--पूछा; सर्वानू--सबों के; च--तथा; सु-हृदः--अपने शुभचिन्तक परिवार वालों; अव्ययम्‌--कुशल-श्षेम |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस तरह गोपियों के आध्यात्मिक गुरु तथा उनके जीवन केगन्तव्य भगवान्‌ कृष्ण ने उन पर अपनी कृपा प्रदर्शित की।

    तत्पश्चात्‌ वे युधिष्ठटिर तथा अपने अन्यसभी सम्बन्धियों से मिले और उनसे उनकी कुशलता पूछी।

    त एवं लोकनाथेन परिपृष्ठा: सुसत्कृता: ।

    प्रत्यूचुईष्टमनसस्तत्पादेक्षाहतांहस: ॥

    २॥

    ते--वे ( युधिष्ठिर तथा भगवान्‌ कृष्ण के अन्य सम्बन्धी ); एवम्‌--इस प्रकार; लोक--ब्रह्माण्ड के; नाथेन--स्वामी द्वारा;परिपृष्टा:--पूछे जाकर; सु--अत्यधिक; सत्‌-कृता:--सम्मानित; प्रत्यूचु:--उत्तर दिया; हष्ट--प्रसन्न; मनस:ः--मन वाले;तत्‌--उसका; पाद--पैर; ईक्षा--देखने से; हत--विनष्ट; अंहसः--जिसके पाप |

    ब्रह्माण्ड के स्वामी के चरणों को देखकर समस्त पापों से मुक्त राजा युथ्चिष्ठटिर तथा अन्यों नेअत्यधिक सम्मानित अनुभव करते हुए उनके प्रश्नों का खुशी खुशी उत्तर दिया।

    कुतोशिवं त्वच्चरणाम्बुजासवंमहन्मनस्तो मुखनि:सृतं क्वचित्‌ ।

    पिबन्ति ये कर्णपुटैरलं प्रभोदेहंभूतां देहकृदस्मृतिच्छिदम्‌ ॥

    ३ ॥

    कुतः--कहाँ से; अशिवम्‌--अशुभ; त्वत्‌-तुम्हारे; चरण--पाँवों के; अम्बुज--कमलवत्‌; आसवमू--मदोन्मत्तकारी अमृतको; महत्‌--महात्माओं के; मनस्तः--मनों से; मुख--उनके मुँहों से होकर; निःसृतम्‌ू--निकला हुआ; क्वचित्‌--किसी समय;पिबन्ति--पीते हैं; ये--जो; कर्ण--उनके कानों के; पुटैः--प्यालों से; अलमू--इच्छानुसार; प्रभो--हे प्रभु; देहम्‌ू-- भौतिकशरीर; भूताम्‌-- धारण करने वालों के लिए; देह--देहों के; कृत्‌--स्त्रष्टा के विषय में; अस्मृति--विस्मरण के; छिदम्‌--उच्छेदक |

    भगवान्‌ कृष्ण के सम्बन्धियों ने कहा : हे प्रभु, उन लोगों का अमंगल कैसे हो सकता है,जिन्होंने आपके चरणकमलों से निकले अमृत का छक कर पान किया हो ? यह मदोन्मत्तकारीतरल बड़े बड़े भक्तों के मनों से बहता हुआ, उनके मुखों से निकल कर, उनके कान रूपी प्यालोंमें उड़ेला जाता है।

    यह देहधारी जीवात्माओं द्वारा अपने शरीर के बनाने वाले के प्रति विस्मृतिको विनष्ट करता है।

    हि त्वात्म धामविधुतात्मकृतत्रयवस्था-मानन्द्सम्प्लवमखण्डमकुण्ठबोधम्‌ ॥

    'कालोपसूष्टनिगमावन आत्तयोग-मायाकृतिं परमहंसगतिं नता: सम ॥

    ४॥

    हि--निस्सन्देह; त्वा--तुमको; आत्म--आपके साकार रूप का; धाम--प्रकाश द्वारा; विधुत--दूर किया हुआ; आत्म--भौतिक चेतना द्वारा; कृत--उत्पन्न; त्रि--तीन; अवस्थाम्‌-- भौतिक अवस्थाएँ; आनन्द--आनन्द में; सम्प्लवम्‌--( जिसकेभीतर ) पूर्णतया निमग्न; अखण्डम्‌--अनन्त; अकुण्ठ--अनियंत्रित; बोधम्‌--जिसका ज्ञान; काल--समय द्वारा; उपसूष्ट--संकटग्रस्त; निगम--वेदों के; अवने--संरक्षण के लिए; आत्त-- धारण करते हुए; योग-माया--अपनी योगमाया द्वारा;आकृतिम्‌--इस स्वरूप को; परम-हंस--पूर्ण-सन्तों के; गतिमू--लक्ष्य को; नताः स्म--( हम ) नतमस्तक हैं।

    आपके स्वरूप का तेज भौतिक चेतना के त्रिगुण प्रभावों को दूर करता है और आपकेअनुग्रह से हम पूर्ण सुख में निमग्न हो जाते हैं।

    आपका ज्ञान अविभाज्य तथा असीम है।

    अपनीयोगमाया शक्ति से आपने उन वेदों की रक्षा करने के लिए यह मानव रूप धारण किया है, जोकालक्रम से संकटग्रस्त हो गये थे।

    हे पूर्ण-सन्तों के चरम लक्ष्य, हम आपके समक्ष नतमस्तकहैं।

    श्रीऋषिरुवाचइत्युत्तर:शलोकशिखामएणिं जने-घ्वभिष्ठृवत्स्वन्धककौरवस्त्रिय: ।

    समेत्य गोविन्दक था मिथोगृनं-स्त्रिलोकगीता: श्रृणु वर्णयामि ते ॥

    ५॥

    श्री-ऋषि: उवाच--ऋषि, शुकदेव ने कहा; इति--इस प्रकार; उत्तम:-शलोक--महापुरुषों के जिनका यशोगान उत्तम एलोकोंद्वारा किया जाता है; शिखा-मणिम्‌--शिरोमणि ( भगवान्‌ कृष्ण ); जनेषु--अपने भक्तों में; अभिष्टृवत्सु--महिमागान करते हुए;अन्धक-कौरव--अन्धक तथा कौरव वंशों की; स्त्रियः--स्त्रियाँ; समेत्य--मिल कर; गोविन्द-कथा:-- भगवान्‌ गोविन्द कीकथाएँ; मिथ:--परस्पर; अगृणन्‌ू--कहा; त्रि--तीन; लोक--लोकों में; गीता: --गाई गई; श्रूणु--सुनो; वर्णयामि--मैं वर्णनकरूँगा; ते--तुमसे ( परीक्षित महाराज से ) |

    ऋषिवर शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब युथ्िष्ठिर तथा अन्य लोग महापुरुषों में शिरोमणिभगवान्‌ कृष्ण की इस तरह प्रशंसा कर रहे थे, तो अन्धक तथा कौरव वंश की महिलाएँ एक-दूसरे से मिलीं और तीनों लोकों में गाई जाने वाली गोविन्द विषयक कथाओं की चर्चा करनेलगीं।

    कृपया सुनो, क्योंकि मैं तुमसे इनका वर्णन करने जा रहा हूँ।

    श्रीद्रौपद्युवाचहे वैदर्भ्यच्युतो भद्रे हे जाम्बवति कौशले ।

    हे सत्यभामे कालिन्दि शैब्ये रोहिणि लक्ष्मणे ॥

    ६॥

    हे कृष्णपत्नय एतन्नो ब्रूते वो भगवान्स्वयम्‌ ।

    उपयेमे यथा लोकमनुकुर्वन्स्वमायया ॥

    ७॥

    श्री-द्रौपदी उवाच-- श्री द्रौपदी ने कहा; हे वैदर्भि--हे विदर्भ-पुत्री ( रुक्मिणी ); अच्युत:-- भगवान्‌ कृष्ण; भद्वे--हे भद्रा; हेजाम्बवति--हे जाम्बवान-पुत्री; कौशले--हे नाग्नजिती; हे सत्यभामे--हे सत्यभामा; कालिन्दि--हे कालिन्दी; शैब्ये--हेमित्रविन्दा; रोहिणि--हे रोहिणी ( नरकासुर के वध के बाद सोलह हजार एक सौ रानियों में से एक, जिसके साथ कृष्ण ने ब्याहकिया था ); लक्ष्मणे--हे लक्ष्मणा; हे कृष्ण-पत्य:--हे कृष्ण की ( अन्य ) पत्नियो; एतत्‌--यह; नः--हमसे; ब्रूते--कहें;वः--तुम; भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; स्वयम्‌--साक्षात्‌; उपयेमे--ब्याहा; यथा--कैसे; लोकम्‌--सामान्य समाज; अनुकुर्वन्‌ू--अनुकरण करते हुए; स्व-मायया--अपनी योगशक्ति से |

    श्री द्रौयदी ने कहा : हे वैदर्भी, हे भद्रा, हे जाम्बबती, हे कौशला, हे सत्यभामा तथाकालिन्दी, हे शैब्या, रोहिणी, लक्ष्मणा तथा कृष्ण की अन्य पत्नियो, कृपा करके मुझे बतलाइयेकि भगवान्‌ अच्युत ने किस तरह अपनी योगशक्ति से इस संसार की रीति का अनुकरण करतेहुए आपमें से हर एक से विवाह किया।

    श्रीरुक्मिण्युवाचचैद्याय मार्पयितुमुद्यतकार्मुकेषुराजस्वजेयभटशेखरिताडूप्रिरेणु: ।

    निन्ये मृगेन्द्र इब भागमजावियूथात्‌तच्छीनिकेतचरणोस्तु ममार्चनाय ॥

    ८॥

    श्री-रुक्मिणी उवाच-- श्री रुक्मिणी ने कहा; चैद्याय--शिशुपाल को; मा--मुझको; अर्पयितुम्‌्--प्रदान करने के लिए;उद्यत--तैयार; कार्मुकेषु--जिनके धनुष; राजसु--जब राजा; अजेय--दुर्जय; भट--सैनिकों के; शेखरित--सिर पर रखे;अदडप्रि--जिसके पाँवों की; रेणु;--धूलि; निन्ये--हर ले गया; मृगेन्द्र:--सिंह; इब--मानो; भागम्‌ू--अपना हिस्सा; अज--बकरियों; अवि--तथा भेड़ों के; यूथात्‌ू-रेवड़ से; तत्‌ू--उसका; श्री--लक्ष्मीजी का; निकेत-- धाम; चरण:--पाँव; अस्तु--होयें; मम--मेरी; अर्चनाय--पूजा के लिए

    श्री रुक्मिणी ने कहा : जब सारे राजा अपने अपने धनुष लिए यह आश्वासन देने के लिएतैयार खड़े थे कि शिशुपाल को मैं अर्पित कर दी जाऊँ, तो अजेय योद्धाओं के सिरों पर अपनीचरण-धूलि रखने वाले ने उनके बीच में से उसी तरह मेरा हरण कर लिया, जिस तरह एक सिंहअपने शिकार को बकरियों तथा भेड़ों के बीच से बलपूर्वक ले जाता है।

    मैं चाहूँगी किलक्ष्मीधाम भगवान्‌ कृष्ण के उन पाँवों की पूजा मुझे करने को मिले।

    श्रीसत्यभामोवाचयो मे सनाभिवधतप्तहदा ततेनलिप्ताभिशापमपमा्टमुपाजहार ।

    जित्वर्क्ताजमथ रत्नमदात्स तेनभीतः पितादिशत मां प्रभवेपि दत्ताम्‌ू ॥

    ९॥

    श्री-सत्यभामा उबाच--सत्यभामा ने कहा; यः--जो; मे-- मेरा; सनाभि--मेरे भाई के; वध--मारने से; तप्त--दुखी; हृदा--जिसका हृदय; ततेन--मेरे पिता द्वारा; लिप्त--रँगा हुआ; अभिशापम्‌--गहएणा से; अपमा्टमू--स्वच्छ करने के लिए; उपाजहार--हटा दिया; जित्वा--जीत कर; ऋक्ष-राजम्‌--रीछों के राजा जाम्बवान को; अथ--तब; रलम्‌--( स्यमन्तक )मणि; अदात्‌--दे दिया; सः--उसने; तेन--इसके कारण; भीतः-- भयभीत; पिता--मेंरे पिता; अदिशत--अर्पित कर दिया;माम्‌--मुझको; प्रभवे--प्रभु को; अपि--यद्यपि; दत्तामू-पहले ही प्रदत्त

    श्री सत्यभामा ने कहा : मेरे पिता का हृदय अपने भाई की हत्या से दुखित था, इसलिएउन्होंने भगवान्‌ कृष्ण को इस अपराध के लिए दोषी ठहराया।

    भगवान्‌ ने अपने यश पर लगे इसधब्बे को मिटाने के लिए रीछों के राजा को हराया और स्यमन्तक मणि वापस लेकर उसे मेरेपिता को लौटा दिया।

    अपने अपराध के फल से भयभीत मेरे पिता ने मुझे भगवान्‌ को प्रदानकर दिया, यद्यपि मुझे अन्यों को दिये जाने का वायदा ( वाग्दान ) किया जा चुका था।

    श्रीजाम्बवत्युवाचप्राज्ञाय देहकूदमुं निजनाथदैवंसीतापतिं त्रिनवहान्यमुनाभ्ययुध्यत्‌ ।

    ज्ञात्वा परीक्षित उपाहरदर्हणं मांपादौ प्रगृह्य मणिनाहममुष्य दासी ॥

    १०॥

    श्री-जाम्बवती उवाच-- श्री जाम्बवती ने कहा; प्राज्ञाय--अनभिज्ञ; देह--शरीर का; कृत्‌--बनाने वाला ( मेरा पिता ); अमुम्‌--उसको; निज--अपना; नाथ--स्वामी रूप; दैवमू--तथा पूज्य देव; सीता--देवी सीता के; पतिम्‌--पति को; त्रि--तीन; नव--गुणे नौ; अहानि--दिन; अमुना--उसके साथ; अभ्ययुध्यत्‌--युद्ध किया; ज्ञात्वा--पहचान कर; परीक्षित:--ठीक से जानकर;उपाहरत्‌--भेंट कर दिया; अर्हणम्‌ू--सादर भेंट तुल्य; मामू--मुझको; पादौ--उनके चरणों को; प्रगृह्य--पकड़ कर;मणिना--मणि के साथ; अहम्‌--मैं; अमुष्य--उसकी; दासी--नौकरानी |

    श्री जाम्बबती ने कहा: यह न जानते हुए कि भगवान्‌ कृष्ण उन्हीं के स्वामी तथाआशध्यदेव, देवी सीता के पति हैं, मेरे पिता उनके साथ सत्ताईस दिनों तक युद्ध करते रहे।

    अन्त में जब मेरे पिता को ज्ञान हुआ और उन्होंने प्रभु को पहचाना, तो उन्होंने उनके चरण पकड़ लियेऔर मुझे तथा स्यमंतक मणि दोनों को आदर के प्रतीक रूप में अर्पित कर दिया।

    मैं तो प्रभु कीदासी मात्र हूँ।

    श्रीकालिन्द्युवाचतपश्चरन्तीमाज्ञाय स्वपादस्पर्शनाशया ।

    सख्योपेत्याग्रहीत्याणिं योहं तद्गृहमार्जनी ॥

    ११॥

    श्री-कालिन्दी उबाच-- श्री कालिन्दी ने कहा; तप:ः--तपस्या; चरन्तीम्‌--करते हुए; आज्ञाय--जानते हुए; स्व--उनके; पाद--पैरों के; स्पर्शन--स्पर्श की; आशया--इच्छा से; सख्या-- अपने मित्र ( अर्जुन ) सहित; उपेत्य--आकर; अग्रहीत्‌--ग्रहणकिया; पाणिम्‌--मेरा हाथ; यः--जो; अहम्‌--मैं; तत्‌ू-- उसके; गृह--घर की; मार्जनी--बुहारने वाली |

    श्री कालिन्दी ने कहा : भगवान्‌ जानते थे कि मैं इस आशा से कठिन तपस्या कर रही हूँ किएक दिन मुझे उनके चरणकमल स्पर्श करने को मिलेंगे।

    अतएव वे अपने मित्र के साथ मेरे पासआये और मेरा पाणिग्रहण किया।

    अब मैं उनके महल को बुहारने वाली दासी के रूप में लगीरहती हूँ।

    श्रीमित्रविन्दोवाचयो मां स्वयंवर उपेत्य विजित्य भूपान्‌निनये श्रयूथगं इवात्मबलि द्विपारि: ।

    भ्रातृंश्व मेडपकुरुतः स्वपुरं अ्रियौक-स्तस्यास्तु मेडनुभवमड्स्र्यवनेजनत्वम्‌ ॥

    १२॥

    श्री-मित्रविन्दा उबाच-- श्री मित्रविन्दा ने कहा; य:--जो; माम्‌--मुझको; स्वयं-वरे--मेरे स्वयंवर के समय ( उत्सव जिसमेंराजकुमारी कई योग्य वरों में से पति का वरण करती है ); उपेत्य--आकर; विजित्य--हराकर; भू-पानू--राजाओंको; निन्‍्ये--ले गया; श्व--कुत्तों के; यूथ--समूह में; गम्‌--गया हुआ; इब--मानो; आत्म--निजी; बलिम्‌-- भाग को; द्विप-अरि:--हाथियों का शत्रु, सिंह; भ्रातून्‌ू-- भाइयों को; च--तथा; मे--मेरा; अपकुरुत:--उनकी निन्दा करने वाले; स्व--अपनी;पुरम--राजधानी; श्री--लक्ष्मी के; ओक:--निवास; तस्य--उसका; अस्तु--होए; मे--मेरे लिए; अनु-भवम्‌--जन्म-जन्मांतर;अद्प्रि--पाँव; अवनेजनत्वमू--प्रक्षालल करने का पद

    श्री मित्रविन्दा ने कहा : मेरे स्वयंवर समारोह में वे आगे बढ़ आये, वहाँ पर उपस्थित सारेराजाओं को, जिनमें उनका अपमान करने का दुस्साहस करने वाले मेरे भाई भी थे, हरा दियाऔर मुझे उसी तरह उठा ले गये, जिस तरह सिंह कुत्तों के झुंड में से अपना शिकार उठा ले जाताहै।

    इस तरह लक्ष्मीनिवास भगवान्‌ कृष्ण मुझे अपनी राजधानी में ले आये।

    मैं चाहती हूँ कि मुझेजन्म-जन्मांतर उनके चरण धोने की सेवा करने का अवसर मिलता रहे।

    श्रीसत्योवाचसप्तोक्षणोतिबलवीर्यसुती कण श्रुड्रान्‌पित्रा कृतान्क्षितिपवीर्यपरीक्षणाय ।

    तान्वीरदुर्मदहनस्तरसा निगृहयक्रीडन्बबन्ध ह यथा शिशवोजतोकान्‌ ॥

    १३॥

    य इत्थं वीर्यशुल्कां मां दासीभिश्चतुरन्गिणीम्‌ ।

    पथि निर्जित्य राजन्यान्निन्ये तद्ास्यमस्तु मे ॥

    १४॥

    श्री-सत्या उवाच-- श्री सत्या ने कहा; सप्त--सात; उक्षण:--साँड़; अति--विशाल; बल--बलवान्‌; वीर्य--तथा वीर्यवान्‌;सु--अत्यधिक; तीक्षण--पैने; श्रृड्रान्‌ू--जिनके सींगों को; पित्रा--मेरे पिता द्वारा; कृतान्‌ू--बनाये गये; क्षितिप--राजाओं के;वीर्य--पराक्रम के; परीक्षणाय--परीक्षा लेने के लिए; तानू--उन ( साँड़ों ) को; वीर--वीरों के; दुर्मद--मिथ्या अहंकार को;हनः--विनष्ट करने वाले; तरसा--फुर्ती से; निगृह्द--दमन करके; क्रीडन्‌--खेल करते हुए; बबन्ध ह--बाँध लिया; यथा--जिस तरह; शिशव: --बच्चे; अज--बकरी के; तोकान्‌--बच्चों को; यः--जो; इत्थम्‌--इस तरह; वीर्य--बहादुरी; शुल्काम्‌--मूल्य वाले; माम्‌--मुझको; दासीभि:--दासियों समेत; चतुः-अड्डिणीम्‌--चार टुकड़ियों ( रथ, घोड़े, हाथी तथा पैदल ) वालीसेना से सुरक्षित; पथि--रास्ते में; निर्जित्य--हराकर; राजन्यानू--राजाओं को; निन्‍्ये--मुझे उठा ले गये; तत्‌--उनके प्रति;दास्यम्‌--दास्य भाव; अस्तु--होए; मे--मेरा |

    श्री सत्या ने कहा : मेरे पिता ने मेरे साथ पाणिग्रहण के इच्छुक राजाओं के पराक्रम कीपरीक्षा लेने के लिए घातक पैने सींगों वाले सात अत्यन्त बलशाली तथा जोशीले साँड़ों कीव्यवस्था की।

    यद्यपि ये साँड़ अनेक वीरों के मिथ्या गर्व को चूर-चूर कर चुके थे, किन्तुभगवान्‌ कृष्ण ने बिना प्रयास के ही उन्हें वश में करके बाँध लिया, जिस तरह बच्चे खेल-खेल में बकरी के बच्चों को बाँध लेते हैं।

    इस तरह उन्होंने मुझे अपने शौर्य के बल पर मोल ले लिया।

    तत्पश्चात्‌ वे मेरे मार्ग में विरोध करने वाले सारे राजाओं को हराते हुए मुझे मेरी दासियों तथाचतुरंगिणी सेना समेत ले गये।

    मेरी यही अभिलाषा है कि उन प्रभु की सेवा करने का सुअवसरमुझे प्राप्त होता रहे।

    श्रीभद्रोवाचपिता मे मातुलेयाय स्वयमाहूय दत्तवान्‌ ।

    कृष्णे कृष्णाय तच्चित्तामक्षौहिण्या सखीजनै: ॥

    १५॥

    अस्य मे पादसंस्पर्शों भवेज्जन्मनि जन्मनि ।

    कर्मभिर्भ्राम्यमाणाया येन तच्छेय आत्मन: ॥

    १६॥

    श्री-भद्रा उबाच-- श्री भद्रा ने कहा; पिता--पिता ने; मे--मेरे; मातुलेयाय--मेरे मामा के पुत्र को; स्वयम्‌--स्वेच्छा से;आहूय--बुलाकर; दत्तवान्‌--दिया; कृष्णे--हे कृष्णा ( द्रौपदी ); कृष्णाय--भगवान्‌ कृष्णको; तत्‌--जिसमें समाया;चित्तामू--जिसका हृदय; अक्षौहिण्या--एक अक्षौहिणी सैनिक रक्षक सहित; सखी-जनैः--अपनी सखियों के साथ; अस्य--उसका; मे--मेरे लिए; पाद--पाँवों का; संस्पर्श:--स्पर्श; भवेत्‌--शायद हो; जन्मनि जन्मनि--जन्म-जन्मांतर तक; कर्मभि:--भौतिक कार्यों के फलस्वरूप; भ्राम्यमाणाया:--जो घूम रहा होगा; येन--जिससे; तत्‌--वह; श्रेयः--चरम सिद्धि; आत्मन:--अपने को।

    श्री भद्रा ने कहा : हे द्रौपदी, मेरे पिता ने स्वयं ही मेरे मामा के पुत्र कृष्ण को बुलाया था,जिन्हें में पहले ही अपना हृदय सौंप चुकी थी और उन्होंने मुझे उनकी दुलहन के रूप में अर्पितकर दिया।

    मेरे पिता ने मेरे साथ उन्हें एक अक्षौहिणी सैन्य रक्षक और मेरी सखियों की एकटोली भी दी थी।

    मेरी चरम सिद्धि यही होगी कि जब मैं अपने कर्म से बँध कर एक जन्म सेदूसरे जन्म में भ्रमण करूँ, तो मुझे भगवान्‌ कृष्ण के चरणकमलों को स्पर्श करने की अनुमतिसदैव मिलती रहे।

    श्रीलक्ष्मणोवाचममापि राज्ञ्यच्युतजन्मकर्मश्र॒त्वा मुहुर्नारदगीतमास ह ।

    चित्तं मुकुन्दे किल पद्महस्तयावृतः सुसम्मृश्य विहाय लोकपान्‌ ॥

    १७॥

    श्री-लक्ष्मणा उबाच-- श्री लक्ष्मणा ने कहा; मम--मेरा; अपि-- भी; राज्ञि--हे रानी; अच्युत--भगवान्‌ कृष्ण के; जन्म--जन्मों; कर्म--तथा कर्मो के विषय में; श्रुत्वा--सुन कर; मुहुः--बारम्बार; नारद--नारदमुनि द्वारा; गीतमू--उच्चारित; आसह--बन गया; चित्तम्‌-मेरा हृदय; मुकुन्दे--मुकुन्द पर ( टिका ); किल--निस्सन्देह; पढ्य-हस्तया--हाथ में पढ्य धारण कियेलक्ष्मी द्वारा; वृत:--चुनी हुई; सु--सावधानीपूर्वक; सम्मृश्य--विचार करके; विहाय--त्याग कर; लोक--लोकों के; पान्‌--शासकगण को।

    श्री लक्ष्मणा ने कहा : हे रानी, मैंने नारद मुनि को भगवान्‌ अच्युत के अवतारों तथा कार्योंकी बारम्बार महिमा गाते सुना और इस तरह मेरा मन भी उन्हीं भगवान्‌ मुकुन्द के प्रति आसक्तहो गया।

    दरअसल, देवी पद्महस्ता ने विविध लोकों पर शासन करने वाले बड़े बड़े देवताओं कोतिरस्कृत करके काफी ध्यानपूर्वक विचार करने के बाद, उन्हें अपने पति के रूप में चुना है।

    ज्ञात्वा मम मतं साध्वि पिता दुहितृवत्सल: ।

    बृहत्सेन इति ख्यातस्तत्रोपायमचीकरत्‌ ॥

    १८॥

    ज्ञात्वा--जान कर; मम--मेरी; मतम्‌--मानसिकता; साध्वि--हे साधु स्वभाव वाली स्त्री; पिता--मेरा पिता; दुहितृ--अपनीपुत्री के प्रति; वत्सल:--स्नेही; बृहत्सेन: इति ख्यात:ः--बृहत्सेन के रूप में विख्यात; तत्र--उस दिशा में; उपायम्‌--साधन की;अचीकरत्‌--व्यवस्था कर दी।

    मेरे पिता बृहत्सेन स्वभाव से अपनी पुत्री के ऊपर अनुकम्पावान थे और हे साध्वी, यहजानते हुए कि मैं कैसा अनुभव कर रही हूँ, उन्होंने मेरी इच्छा पूरी करने की व्यवस्था कर दी।

    यथा स्वयंबरे राज्ञि मत्स्य: पार्थेप्सया कृतः ।

    अयं तु बहिराच्छन्नो हृश्यते स जले परम्‌ ॥

    १९॥

    यथा--जिस तरह; स्वयम्‌-वरे--( तुम्हारे ) स्वयंवर में; राज्ि--हे रानी; मत्स्य:--एक मछली; पार्थ--अर्जुन को; ईप्सया--प्राप्तकरने की इच्छा से; कृत:--( लक्ष्य ) बनाया; अयम्‌--यह ( मछली ); तु--किन्तु; बहि:ः--बाहर से; आच्छन्न:--ढकी;हृश्यते--देखा जा सकता था; सः--वह; जले--जल में; परम्‌--एकमात्र |

    है रानी, जिस तरह आपके स्वयंवर समारोह में एक मछली का प्रयोग लक्ष्य के तौर पर यहनिश्चित करने के लिए हुआ था कि आप अर्जुन को पति रूप में पा सकें, उसी तरह मेरे स्वयंवरमें भी एक मछली का ही प्रयोग हुआ।

    किन्तु मेरे संबंध में यह मछली चारों ओर से ढक दी गईथी और नीचे रखे जल-पात्र में इसका प्रतिबिम्ब ही देखा जा सकता था।

    श्र॒त्वैतत्सर्वती भूषा आययुर्मत्पितु: पुरम्‌ ।

    सर्वास्त्रशस्ल्रतत्त्वज्ञा: सोपाध्याया: सहसत्रशः ॥

    २०॥

    श्रुत्वा--सुनकर; एतत्‌--इसके ; सर्वतः--चारों ओर से; भू-पा:--राजागण; आययु: --आये; मत्‌--मेरे; पितु:--पिता के;पुरमू--नगर में; सर्व--समस्त; अस्त्र--तीर जैसे हथियार; शस्त्र--तथा अन्य हथियार; तत्त्व--विज्ञान के; ज्ञाः--कुशल ज्ञाता;स--सहित; उपाध्याया: --अपने अपने गुरुओं; सहस्त्रश:--हजारों में |

    यह सुन कर बाण चलाने तथा अन्य हथियारों को उपयोग में लाने में दक्ष हजारों राजा अपनेसैन्य शिक्षकों के साथ मेरे पिता के नगर में सभी दिशाओं से एकत्र हुए।

    पित्रा सम्पूजिता: सर्वे यथावीर्य यथावय: ।

    आददुः सशरं चाप॑ं वेद्धूं पर्षदि मद्धियः ॥

    २१॥

    पित्रा--मेरे पिता द्वारा; सम्पूजिता:--पूर्णतया आदरित; सर्वे--सारे जन; यथा--अनुरूप; वीर्यम्‌ू--शक्ति के; यथा--अनुरूप;वयः--आयु के; आददु:--उठा लिया; स--सहित; शरमू--बाण; चापम्‌-- धनुष; वेद्धुमू--( लक्ष्य ) बेधने के लिए; पर्षदि--सभा में; मत्‌--मुझ पर ( स्थिर ); धिय:--मनों वाले।

    मेरे पिता ने हर राजा को उसके बल तथा वरिष्ठता के अनुसार उचित सम्मान दिया।

    तब जिनलोगों के मन मुझ पर टिके थे, उन्होंने अपना धनुष-बाण उठाया और सभा के मध्य एक-एककरके, लक्ष्य को बेधने का प्रयत्न करने लगे।

    आदाय व्यसृजन्केचित्सज्यं कर्तुमनीश्वरा: ।

    आकोष्ड ज्यां समुत्कृष्य पेतुरेके उमुनाहता: ॥

    २२॥

    आदाय--उठाकर; व्यसृजन्‌--जाने दिया; केचित्‌--उनमें से कुछ ने; सज्यम्‌--डोरी; कर्तुम्‌--चढ़ाने में; अनी श्वरा: --असमर्थ ;आ-कोष्ठम्‌--( धनुष के ) सिरे तक; ज्याम्‌--धनुष की डोरी को; समुत्कृष्य--खींच कर; पेतु:--गिर पड़े; एके--कुछ;अमुना--इस ( धनुष ) से; हताः--चोट खाये

    उनमें से कुछ ने धनुष उठाया, किन्तु उसकी डोरी नहीं चढ़ा सके, अतएवं हताश होकरउन्होंने उसे एक ओर फेंक दिया।

    कुछ ने धनुष की डोरी को धनुष के एक सिरे तक खींच तोलिया, किन्तु इससे धनुष पीछे उछला और उन्हें ही जमीन पर पटक दिया।

    सज्यं कृत्वापरे वीरा मागधाम्बष्ठचेदिपा: ।

    भीमो दुर्योधन: कर्णो नाविदंस्तदवस्थितिम्‌ ॥

    २३॥

    सज्यम्‌-साज; कृत्वा--करके; अपरे--अन्य; वीरा: --वीर पुरुष; मागध--मगध का राजा ( जरासन्ध ); अम्बष्ठ--अम्बष्ठ काराजा; चेदि-पा:--चेदि का शासक ( शिशुपाल ); भीम: दुर्योधन: कर्ण:--भीम, दुर्योधन तथा कर्ण; न अविदन्‌--नहीं ढूँढ़पाये; तद्‌ू--इस ( लक्ष्य ) की; अवस्थितिम्‌--स्थिति, स्थान।

    कुछ वीर यथा जरासन्ध, शिशुपाल, भीम, दुर्योधन, कर्ण तथा अम्बष्ठराज धनुष पर डोरीचढ़ाने में सफल तो रहे, किन्तु इनमें से कोई भी लक्ष्य को ढूँढ़ नहीं सका।

    मत्स्याभासं जले वीक्ष्य ज्ञात्वा च तदवस्थितिम्‌ ।

    पार्थो यत्तोसृजद्वाणं नाच्छिनत्पस्पृशे परम्‌ ॥

    २४॥

    मत्स्य--मछली की; आभासम्‌--परछाईं; जले--जल में; वीक्ष्य--देखकर; ज्ञात्वा--जान कर; च--तथा; तत्‌--उसकी;अवस्थितिम्‌--स्थिति; पार्थ: --अर्जुन ने; यत्त:--सावधानी से निशाना लगाते हुए; असृजत्‌--छोड़ा; बाणमू--बाण; नअच्छिनत्‌--बेधा नहीं; पस्पृशे--छुआ; परम्‌--केवल |

    तब अर्जुन ने जल में मछली की परछाईं की ओर देखा और उसकी स्थिति निर्धारित की।

    किन्तु जब उसने सावधानी से उस पर अपना बाण छोड़ा, तो वह लक्ष्य को बेध नहीं पाया,अपितु मात्र उसको स्पर्श करके निकल गया।

    राजन्येषु निवृत्तेषु भग्नमानेषु मानिषु ।

    भगवान्धनुरादाय सज्यं कृत्वाथ लीलया ॥

    २५॥

    तस्मिन्सन्धाय विशिखं मत्स्यं वीक्ष्य सकृज्जले ।

    छित्त्वेषुणापातयत्तं सूर्य चाभिजिति स्थिते ॥

    २६॥

    राजन्येषु--जब राजाओं ने; निवृत्तेषु--त्याग दिया; भग्न--पराजित; मानेषु--जिनका गर्व; मानिषु--घमंडी; भगवान्‌-- भगवान्‌ने; धनु:-- धनुष; आदाय--लेकर; सज्यम्‌ कृत्वा--डोरी चढ़ाकर; अथ--तब; लीलया--खेल-खेल में; तस्मिन्‌--उसमें;सन्धाय--स्थिर करके; विशिखम्‌--बाण; मत्स्यम्‌ू--मछली को; वीक्ष्य--देखकर; सकृत्‌ू--केवल एक बार; जले--जल में;छित्त्वा-- भेद कर; इषुणा--बाण से; अपातयत्‌--गिरा दिया; तम्‌ू--उसको; सूर्ये--जब सूर्य; च--तथा; अभिजिते--अभिजित नक्षत्र में; स्थिते--स्थित |

    जब सारे दम्भी राजाओं का घमंड चूर-चूर हो गया और उन्होंने यह प्रयास त्याग दिया, तोपूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ ने धनुष उठाया, आसानी से डोरी चढ़ाई और तब उस पर बाण स्थिरकिया।

    ज्योंही सूर्य अभिजित नक्षत्र में आया, तो उन्होंने जल में मछली को केवल एक बार देखाऔर फिर उसे बाण से बेध कर जमीन पर गिरा दिया।

    दिवि दुन्दुभयो नेदुर्जयशब्दयुता भुवि ।

    देवाश्व कुसुमासारान्मुमुचुहर्षविह्लला: ॥

    २७॥

    दिवि--आकाश् में; दुन्दुभय:--दुन्दुभियाँ; नेदु:-- ध्वनि करने लगीं; जय--विजय; शब्द-- ध्वनि; युता:--के साथ; भुवि--पृथ्वी पर; देवा:--देवतागण; च--तथा; कुसुम--फूलों की; आसारान्‌--वर्षा; मुमुचु:--उन्मुक्त की; हर्ष--हर्ष से; विहला:--विहल।

    आकाश में दुन्दुभियाँ बजने लगीं और पृथ्वी पर लोग जय! जय! की ध्वनि करने लगे।

    देवताओं ने अति प्रसन्न होकर फूल बरसाये।

    तद्रड्रमाविशमहं कलनुूपुराभ्यांपदभ्यां प्रगृहा 'कनकोइज्वलरलमालाम्‌ ॥

    नूत्ने निवीय परिधाय च कौशिकाछयेसक्रीडहासवदना कवरीधृतस्त्रकू ॥

    २८॥

    तत्‌--तब; रड्डमू--रंगशाला में; आविशम्‌--प्रविष्ट हुई; अहम्‌-मैं; कल--मधुर ध्वनि करते; नूपुराभ्याम्‌--नूपुरों से;पदभ्याम्‌-पाँवों से; प्रगृह्य-- पकड़ कर; कनक--सोने के; उज्वल--चमकीले; रत्त--रलों से; मालाम्‌--हार; नूत्ले-- नवीन;निवीय--करधनी से बाँध कर; परिधाय--पहन कर; च--तथा; कौशिक --रेशमी वस्त्रों की जोड़ी; अछये --उत्तम; स-ब्रीड--लज्जालु; हास--हँसी से युक्त; वदना--मुख वाली; कवरी--बालों का गुच्छा; धृत-- धारण किये; सत्रकू--फूलों की माला।

    तभी मैं रंगशाला में गई।

    मेरे पाँवों के नूपुर मन्द ध्वनि कर रहे थे।

    मैं उत्तम कोटि के रेशमके नये वस्त्र पहने थी, जिसके ऊपर करधनी बँधी थी और मैं सोने तथा रत्नों से बना चमकीलाहार धारण किये थी।

    मेरे मुख पर लजीली मुसकान थी और मेरे बालों में फूलों की माला थी।

    उन्नीय वक्त्रमुरुकुन्तलकुण्डलत्विड्‌-गण्डस्थलं शिशिरहासकटाक्षमोक्षे: ।

    राज्ञो निरीक्ष्य परितः शनकैर्मुरारे-रंसेनुरक्तहदया निदधे स्वमालाम्‌ ॥

    २९॥

    उन्नीय--उठाकर; वक्त्रमू-मुखमंडल; उरु--प्रचुर; कुन्तल--बालों के गुच्छों से; कुण्डल--कान के आशभूषणों के; त्विट्‌--तथा तेज से; गण्ड-स्थलमू--गाल; शिशिर--शीतल; हास--हँसी से युक्त; कट-अक्ष--तिरछी चितवनों के; मोक्षैः--डालनेसे; राज्ञ:--राजाओं को; निरीक्ष्य--देख कर; परित:--चारों ओर; शनकै :--धीरे-धीरे; मुरारेः--कृष्ण के; अंसे--कंधे पर;अनुरक्त--आकृष्ट; हृदया--हृदय वाली; निदधे--मैंने पहना दिया; स्व--अपना; मालाम्‌--गले का हार

    मैंने अपना सिर उठाया, जो मेरे प्रचुर बालों के गुच्छों तथा मेरे गालों से परावर्तित मेरेकुण्डलों की चमक के तेज से घिरा था।

    मैंने शान्त भाव से मन्द-हास के साथ इधर-उधर दृष्टिफेरी।

    तब चारों ओर सारे राजाओं को देखते हुए, मैंने धीरे से हार को मुरारी के कन्धों ( गले )पर डाल दिया, जिसने मेरे मन को हर रखा था।

    तावन्मृदड्भपटहा: शब्डुभेय्यानकादय: ।

    निनेदुर्नटनर्तक्यो ननृतुर्गायका जगु; ॥

    ३०॥

    तावत्‌--तभी; मृदड़-पटहा: --मृदंग तथा पटह; शद्बु--शंख; भेरी--दुन्दुभी; आनक--बड़े बड़े सैन्य नगाड़े; आदय:--इत्यादि; निनेदु:--गूँजने लगे; नट--पुरुष नर्तक; नर्तक्य:--तथा नर्तकियाँ; ननृतु:--नाचने लगीं; गायका:--गाने वाले;जगु:--गाने लगे।

    तभी शंखों तथा मृदंग, पटह, भेरी और आनक नगाड़ों एवं अन्य वाद्य जोर-जोर से बजनेलगे।

    नट तथा नर्तकियाँ नाचने लगे और गवैये गाने लगे।

    एवं वृते भगवति मयेशे नृपयूथपा: ।

    न सेहिरे याज्ञसेनि स्पर्धन्तो हच्छयातुरा: ॥

    ३१॥

    एवमू--इस प्रकार; वृते--चुने जाने पर; भगवति-- भगवान्‌ के ; मया--मेरे द्वारा; ईशे--स्वामी; नृप--राजाओं के; यूथ-पा:--नायक; न सेहिरे--सहन नहीं कर सके; याज्ञसेनि--हे द्रौपदी; स्पर्धन्त:--लड़ते-झगड़ते; हत्‌-शय--काम द्वारा; आतुरा:--पीड़ित |

    हे द्रौपदी, मेरे द्वारा भगवान्‌ का चुना जाना प्रमुख राजाओं को सहन नहीं हो सका।

    वेकामातुर होने के कारण लड़ने-झगड़ने लगे।

    मां तावद्रथमारोप्य हयरलचतुष्टयम्‌ ।

    शाइ़मुद्यम्य सन्नद्धस्तस्थावाजौ चतुर्भुजः ॥

    ३२॥

    माम्‌--मुझको; तावत्‌--उस समय; रथम्‌--रथ पर; आरोप्य--चढ़ाकर; हय--घोड़ों में; रतत--रतल; चतुष्टयम्‌--चार;शार्डमू--शार्ड़् नामक अपना धनुष; उद्यम्य--तैयार करके; सन्नद्ध:--कवच पहन कर; तस्थौ--खड़े रहे; आजौ--युद्धभूमि में;चतु:--चार; भुज:--भुजाओं वाले।

    तत्पश्चात्‌ भगवान्‌ ने मुझे चार अतीव उत्तम घोड़ों से खींचे जाने वाले अपने रथ में बिठालिया।

    अपना कवच पहन कर तथा अपना शार्ड्र धनुष तैयार करके, वे रथ पर खड़े हो गये औरयुद्धभूमि में उन्होंने अपनी चार भुजाएँ प्रकट कीं।

    दारुकश्लोदयामास काञ्जनोपस्करं रथम्‌ ।

    मिषतां भूभुजां राज्ञि मृगाणां मृगराडिव ॥

    ३३॥

    दारुकः--दारुक ( कृष्ण के सारथी ) ने; चोदयाम्‌ आस--हाँक दिया; काझ्जनन--सोने के; उपस्करम्‌--किनारों वाला; रथम्‌--रथ; मिषताम्‌--उनके देखते-देखते; भू-भुजाम्‌--राजाओं के; राज्ञि--हे रानी; मृगाणाम्‌ू--पशुओं के; मृग-राट्‌--पशुओं काराजा, सिंह; इब--सहृश |

    हे रानी, सारथी दारुक राजाओं के देखते-देखते भगवान्‌ के सुनहरे किनारों वाले रथ कोउसी तरह हाँक ले गया, जिस तरह छोटे छोटे पशु निस्सहाय होकर सिंह को देखते रह जाते हैं।

    तेडन्वसज्जन्त राजन्या निषेद्धुं पथि केचन ।

    संयत्ता उद्धृतेष्वासा ग्रामसिंहा यथा हरिम्‌ ॥

    ३४॥

    ते--वे; अन्वसजन्त--पीछा करते हुए; राजन्या:--राजागण; निषेद्धुमू--रोकने के लिए; पथि--रास्ते में; केचन--उनमें सेकुछ; संयत्ता:--सन्नद्ध; उद्धृत--उठे हुए; इषु-आसा:--बाणों वाले; ग्राम-सिंहा--गाँव के शेर ( कुत्ते ); यथा--जिस तरह;हरिमू-सिंह को |

    राजाओं ने भगवान्‌ का पीछा किया, जिस तरह सिंह का पीछा गाँव के कुत्ते करते हैं।

    कुछराजा अपने धनुष उठाये हुए, उन्हें जाने से रोकने के लिए मार्ग में आ डटे।

    ते शार्ड्चच्युतबाणौघै: कृत्तबाह्नड्प्रिकन्धरा: ।

    निपेतु: प्रधने केचिदेके सन्त्यज्य दुद्ग॒ुवु:; ॥

    ३५॥

    ते--वे; शार्ड्र--कृष्ण के धनुष से; च्युत--छोड़े गये, निकले; बाण--बाणों की; ओघै:--बाढ़ से; कृत्त--घायल; बाहु--बाहुओं वाले; अड्घ्रि--पैर; कन्धरा:--तथा गर्दनें; निपेतु:--गिरा दिया; प्रधने--युद्धस्थल में; केचित्‌--कुछ; एके --कुछ;सन्‍्त्यज्य--त्याग कर; दुद्गुव:-- भाग गये।

    ये योद्धा भगवान्‌ के शार्ड् धनुष द्वारा छोड़े गये बाणों से अभिभूत हो गये।

    कुछ राजाओंकी भुजाएँ, टांगें तथा गर्दनें कट गईं और वे युद्धभूमि में गिर पड़े।

    शेष लड़ना छोड़ कर भागगये।

    ततः पुरी यदुपतिरत्यलड्डू तांरविच्छदध्वजपटचित्रतोरणाम्‌ ।

    कुशस्थलीं दिवि भुवि चाभिसंस्तुतांसमाविशत्तरणिरिव स्वकेतनम्‌ ॥

    ३६॥

    ततः--तब; पुरीम्‌--नगरी; यदु-पति:--यादवों के स्वामी; अति--अत्यधिक; अलछड्डू तामू--अलंकृत; रवि--सूर्य; छद--रोकते हुए; ध्वज--दंडों पर; पट--पताकाओं समेत; चित्र--विचित्र; तोरणाम्‌--तथा तोरण से युक्त; कुशस्थलीम्‌--द्वारका;दिवि--स्वर्ग में; भुवि--पृथ्वी पर; च--तथा; अभिसंस्तुताम्‌-प्रशंसित; समाविशत्‌-- प्रवेश किया; तरणि:--सूर्य; इब--सहश; स्व--अपने; केतनम्‌--धाम में |

    तब यदुपति ने अपनी राजधानी कुशस्थली (द्वारका ) में प्रवेश किया, जो स्वर्ग में तथापृथ्वी पर प्रशंसित है।

    नगर को पताकाओं से युक्त दंडों से सजाया गया था, जो सूर्य को ढक देरहे थे तथा शानदार तोरण भी लगाये गये थे।

    जब कृष्ण ने प्रवेश किया, तो वे ऐसे लग रहे थे,मानो सूर्य देव अपने धाम में प्रवेश कर रहे हों ।

    पिता मे पूजयामास सुहृत्सम्बन्धिबान्धवान्‌ ।

    महाईवासोउलड्डारैः शय्यासनपरिच्छदै: ॥

    ३७॥

    पिता--पिता ने; मे--मेरे; पूजयाम्‌ आस--पूजा की; सुहत्‌--अपने मित्रों; सम्बन्धि--सम्बन्धी लोगों; बान्धवान्‌--तथा अन्यपारिवारिक सदस्यों की; महा--अत्यन्त; अर्ह--मूल्यवान; वास: --वस्त्रों; अलड्डारै:--तथा आभूषणों से; शब्या--पलंग;आसन--सिंहासन; परिच्छदैः--तथा अन्य साज-सामान से |

    मेरे पिताजी ने अपने मित्रों, परिवार वालों तथा मेरे ससुराल वालों का सम्मान बहुमूल्यवस्त्रों, आभूषणों, राजसी पलंगों, सिंहासनों तथा अन्य साज-सामग्री से किया।

    दासीभि: सर्वसम्पद्धिर्भटेभरथवाजिभि: ।

    आयुधानि महाहाणि ददौ पूर्णस्य भक्तित: ॥

    ३८ ॥

    दासीभि:--दासियों के साथ; सर्व--समस्त; सम्पद्धि:ः--धन से; भट--पैदल सिपाहियों से; इभ--हाथी पर सवार सैनिकों से;रथ--रथ पर सवार सैनिकों से; वाजिभि: --तथा घोड़े पर सवार सैनिकों से; आयुधानि--हथियार; महा-अर्हाणि-- अत्यन्तमूल्यवान; ददौ--दिया; पूर्णस्य--परम पूर्ण भगवान्‌ को; भक्तित:--भक्तिवश |

    उन्होंने परमपूर्ण भगवान्‌ को भक्तिपूर्वक अनेक दासियाँ दीं, जो बहुमूल्य आभूषणों सेअलंकृत थीं।

    इन दासियों के साथ अंगरक्षक थे, जिनमें से कुछ पैदल थे, तो कुछ हाथियों, रथोंऔर घोड़ों पर सवार थे।

    उन्होंने भगवान्‌ को अत्यन्त मूल्यवान हथियार भी दिये।

    आत्मारामस्य तस्येमा वयं वै गृहदासिका: ।

    सर्वसड्निवृत्त्याद्धा तपसा च बभूविम ॥

    ३९॥

    आत्म-आरामस्य--आत्पमतुष्ट की; तस्य--उस; इमा:--ये; वयम्‌--हम; वै--निस्सन्देह; गृह--घर में; दासिका:--दासियाँ;सर्व--सभी; सड़-- भौतिक संगति के; निवृत्त्या--परित्याग से; अद्धा-प्रत्यक्ष; तपसा--तपस्या द्वारा; च--तथा; बभूविम--बन गई हैं।

    इस तरह समस्त भौतिक संगति का परित्याग करके तथा तपस्या करके, हम सारी रानियाँआत्माराम भगवान्‌ की दासियाँ बन चुकी हैं।

    महिष्य ऊचुःभौम॑ निहत्य सगणं युधि तेन रुद्धाज्ञात्वाथ नः क्षितिजये जितराजकन्या: ।

    निर्मुच्य संसृतिविमो क्षमनुस्मरन्ती:पादाम्बुजं परिणिनाय य आप्तकाम: ॥

    ४०॥

    महिष्य: ऊचु:--( अन्य ) रानियों ने कहा; भौमम्‌-- भौम असुर को; निहत्य--मार कर; स--सहित; गणम्‌--अपने अनुचरों के;युधि--युद्ध में; तेन--उस ( भौम ) के द्वारा; रुद्धा:--बन्दी बनाई; ज्ञात्वा--जान कर; अथ--तब; न:ः--हमको; क्षिति-जये --( भौम द्वारा ) पृथ्वी पर विजय के समय; जित--पराजित; राज--राजाओं की; कन्या:--पुत्रियों को; निर्मुच्य--छुड़ाकर;संसृति--संसार से; विमोक्षम्‌--मोक्ष ( के स्त्रोत ); अनुस्मरन्ती:--निरन्तर स्मरण करती हुई; पाद-अम्बुजम्‌--उनके चरणकमल;'परिणिनाय--विवाह किया; यः--जो; आप्त-काम:--जिनकी सारी इच्छाएँ पहले से पूर्ण हो चुकी हैं।

    अन्य रानियों की ओर से रोहिणीदेवी ने कहा : भौमासुर तथा उसके अनुयायियों का वधकरने के बाद भगवान्‌ ने हमें उस असुर के बन्दीगृह में पाया और वे यह समझ गये कि हम उन राजाओं की कनन्‍्याएँ हैं, जिन्हें भौम ने पृथ्वी पर विजय करते समय पराजित किया था।

    भगवान्‌ने हमें बन्दी-गृह से मुक्त कराया और चूँकि हम भौतिक बन्धन से मोक्ष के स्रोत उन भगवान्‌ केचरणकमलों का निरन्तर ध्यान करती रही थीं, इसलिए वे हमसे विवाह करने के लिए राजी होगये, यद्यपि उनकी हर इच्छा पहले से पूरी रहती है।

    न वयं साध्वि साम्राज्यं स्वाराज्यं भौज्यमप्युत ।

    वैराज्यं पारमेछ्यं च आनन्त्यं वा हरे: पदम्‌ ॥

    ४१॥

    कामयामह एतस्य श्रीमत्पादरजः थ्रियः ।

    कुचकुड्डू मगन्धाढय॑ मूर्ध्ना वोढुं गदाभूत:ः ॥

    ४२॥

    न--नहीं; वयम्‌--हम; साध्वि--हे सन्त स्वभाव वाली ( द्रौपदी ); साप्राज्यमू--समस्त पृथ्वी पर शासन; स्वा-राज्यम्‌ू--स्वर्ग केराजा इन्द्र का पद; भौज्यम्‌-- भोग की असीम शक्ति; अपि उत-- भी; वैराज्यम्‌--योगशक्ति; पारमेष्ठयम्‌--ब्रह्माण्ड के स्त्रष्टाब्रह्म का पद; च--तथा; आनन्‍्त्यम्‌--अमरता; वा--अथवा; हरेः-- भगवान्‌ के; पदम्‌-- धाम की; कामयामहे --कामना करतीहैं; एतस्थय--उनके; श्री-मत्‌--दैवी; पाद--पैरों की; रज:-- धूल; थ्रियः--लक्ष्मी के; कुच--स्तन से; कुड्डु म--सुगन्धित चूर्णकी; गन्ध--सुगन्ध से; आढ्यम्‌--समृद्ध, युक्त; मूर्ध्न--अपने सिरों पर; बोढुमू-- धारण करने के लिए; गदाभूत:--गदा चलानेवाले भगवान्‌ कृष्ण के |

    हे साध्वी, हमें पृथ्वी पर शासन, इन्द्र का पद, भोग की असीम सुविधा, योगशक्ति, ब्रह्मा कापद, अमरता या भगवद्धाम प्राप्त करने की भी इच्छा नहीं है।

    हम केवल इतना ही चाहती हैं किभगवान्‌ कृष्ण के उन चरणों की यशस्वी धूल को अपने सिर पर धारण करें, जो उनकी प्रियतमाके स्तन के कुंकुम की सुगन्धि से युक्त है।

    ब्रजस्त्रियो यद्वाउछन्ति पुलिन्द्स्तृणवीरुध: ।

    गावश्चारयतो गोपा: पदस्पर्श महात्मन:ः ॥

    ४३॥

    ब्रज--ब्रज की; स्त्रियः--स्त्रियाँ; यत्‌--जैसा; वाउ्छन्ति--चाहती हैं; पुलिन्द्यः--ब्रज में पुलिन्द आदिवासी स्त्रियाँ; तृण--घास;वीरुध:--तथा पौधों से; गाव:--गौवें; चारयत:ः--चराने वाले; गोपा:--ग्वालबाल; पाद--पाँवों के; स्पर्शम्‌--स्पर्श; महा-आत्मन:--परमात्मा के

    हम भगवान्‌ के चरणों का वही स्पर्श चाहती हैं, जो ब्रज की तरुणियों, ग्वालबालों तथाआदिवासिनी पुलिन्द स्त्रियाँ चाहती हैं--वह है, भगवान्‌ द्वारा अपनी गौवें चराते समय पौधोंतथा घास पर उनके द्वारा, छोड़ी गई धूल का स्पर्श ।

    TO

    अध्याय चौरासी: कुरूक्षेत्र में ऋषियों की शिक्षा

    10.84श्रीशुक उवाचश्रुत्वा पृथा सुबलपुत्रथथ याज्ञसेनीमाधव्यथ क्षितिपपत्नय उत स्वगोप्य: ।

    कृष्णेखिलात्मनि हरौ प्रणयानुबन्धंसर्वा विसिस्म्युरलमश्रुकलाकुलाक्ष्य: ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; श्रुत्वा--सुनकर; पृथा--कुन्ती; सुबल-पुत्री --सुबल की पुत्री गान्धारी; अथ--तथा; याज्ञसेनी--द्रौपदी; माधवी --सुभद्रा; अथ--तथा; क्षिति-प--राजाओं की; पत्य: --पत्नियाँ; उत-- भी; स्व--( भगवान्‌कृष्ण की ) निजी; गोप्य:--गोपियाँ; कृष्णे--कृष्ण को; अखिल--सबों के; आत्मनि--आत्मा; हरौ-- भगवान्‌ हरि को;प्रणय--प्रेममय; अनुबन्धम्‌--आसक्ति; सर्वा:--सभी; विसिस्म्यु:--विस्मित हुईं; अलम्‌ू--अत्यधिक; अश्रु-कल--आँसुओंसे; आकुल-पूर्ण ; अक्ष्य:--नेत्रों वाली |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : पृथा, गान्धारी, द्रौपदी, सुभद्रा, अन्य राजाओं की पत्नियाँ तथाभगवान्‌ की ग्वालिन सखियाँ सभी जीवों के आत्मा तथा भगवान्‌ श्रीकृष्ण के प्रति उनकीरानियों के अगाध प्रेम को सुनकर चकित थीं और उनके नेत्रों में आँसू डबडबा आये थे।

    इति सम्भाषमाणासु स्त्रीभि: स्त्रीषु नृभिर्नषु ।

    आययुर्मुनयस्तत्र कृष्णरामदिदक्षया ॥

    २॥

    द्वैषायनो नारदश्व च्यवनो देवलोडसित: ।

    विश्वामित्र: शतानन्दो भरद्वाजोथ गौतम: ॥

    ३॥

    राम: सशिष्यो भगवान्वसिष्ठो गालवो भृगु: ।

    पुलस्त्य: कश्यपोडत्रिश्व मार्कण्डेयो बृहस्पति: ॥

    ४॥

    द्वितस्त्रितश्चेकतश्च ब्रह्मपुत्रास्तथाड्रिरा: ।

    अगस्त्यो याज्ञवल्क्यश्च वामदेवादयोपरे ॥

    ५॥

    इति--इस प्रकार; सम्भाषमाणासु--बात करती हुईं; स्त्रीभि:--स्त्रियों के साथ; स्त्रीषु--स्त्रियाँ; नृभि:ः--पुरुषों के साथ; नृषु--पुरुष; आययु:--आ गये; मुनयः--मुनिगण; तत्र--वहाँ पर; कृष्ण-राम--कृष्ण तथा बलराम का; दिददक्षया--दर्शन करने कीइच्छा से; द्वैपायन:--द्वैपायन वेद॒व्यास; नारद: --नारद; च--तथा; च्यवन: देवल: असित:--च्यवन, देवल तथा असित;विश्वामित्र: शतानन्द:--विश्वामित्र तथा शतानन्द; भरद्वाज: अथ गौतम: --भरद्वाज तथा गौतम; राम:--परशुराम; स--सहित;शिष्य:--उनके शिष्यगण; भगवान्‌--भगवान्‌; वसिष्ठ: गालव: भूगुः--वसिष्ठ, गालव तथा भृगु; पुलस्त्य: कश्यप: अत्रि: च--पुलस्त्य, कश्यप तथा अत्रि; मार्कण्डेय: बृहस्पति:ः--मार्कण्डेय तथा बृहस्पति; द्वित: त्रित: च एकत:ः च-द्वित, त्रित तथा एकत;ब्रह्म-पुत्रा:--ब्रह्मा के पुत्र ( सनक, सनत, सननन्‍्द तथा सनातन ); तथा--और; अड्डिरा:--अंगिरा; अगस्त्य: याज्ञवल्क्य: च--अगस्त्य तथा याज्ञवल्क्य; वामदेव-आदय:--वामदेव इत्यादि; अपरे--अन्य मुनि |

    जब स्त्रियाँ स्त्रियों से और पुरुष पुरुषों से परस्पर बातें कर रहे थे, तो अनेक मुनिगण वहाँआ पधारे।

    वे सभी के सभी कृष्ण तथा बलराम का दर्शन पाने के लिए उत्सुक थे।

    इनमेंद्वैषायन, नारद, च्यवन, देवल तथा असित, विश्वामित्र, शतानन्द, भरद्वाज तथा गौतम, परशुरामतथा उनके शिष्य, वसिष्ठ, गालव, भृगु, पुलस्त्य तथा कश्यप, अत्रि, मार्कण्डेय तथा बृहस्पति,द्वित, त्रित, एकत तथा चारों कुमार एवं अंगिरा, अगस्त्य, याज्ञवल्क्य तथा वामदेव सम्मिलित थे।

    तान्हष्ठा सहसोत्थाय प्रागासीना नृपादय:ः ।

    पाण्डवा: कृष्णरामौ च प्रणेमुर्विश्चवन्दितानू ॥

    ६॥

    तानू--उनको; हृश्रा--देखकर; सहसा--तुरन्त; उत्थाय--उठकर; प्राकू--अभी तक; आसीना:--बैठे हुए; नृप-आदय:--राजातथा अन्य लोग; पाण्डवा:--पाँचों पाण्डव; कृष्ण-रामौ--कृष्ण तथा बलराम; च--भी; प्रणेमु:--प्रणाम किया; विश्व--विश्व-भर के द्वारा; वन्दितान्‌ू--सम्मानितों को |

    ज्योंही, उन्होंने मुनियों को आते देखा, सारे राजा तथा अन्य लोग, जो वहाँ बैठे थे, तुरन्त उठखड़े हुए, जिनमें पाँचों पाण्डव तथा कृष्ण एवं बलराम भी थे।

    तब सबों ने उन विश्ववन्द्य मुनियोंको प्रणाम किया।

    तानानर्चुर्यथा सर्वे सहरामोच्युतोर्चयत्‌ ।

    स्वागतासनपाद्यार्ष्यमाल्यधूपानुलेपने: ॥

    ७॥

    तानू--उनको; आनर्चु:--उन्होंने पूजा की; यथा--उचित रीति से; सर्वे--उन सबों की; सह-राम--बलराम सहित; अच्युतः--तथा कृष्ण ने; अर्चयत्‌--उनकी पूजा की; स्व्‌ू-आगत--स्वागत; आसन--बैठने के स्थान; पाद्य--पाँव धोने के लिए जल;अर्घ्य--पीने के लिए जल; माल्य--फूलों की मालाएँ; धूप--अगुरु; अनुलेपनै:--तथा चन्दन-लेप से |

    भगवान्‌ कृष्ण, बलराम तथा अन्य राजाओं एवं प्रमुख व्यक्तियों ने उन मुनियों का, सत्कार,आसन, पाद-प्रक्षालल का जल, पीने के लिए जल, फूल-मालाएँ, अगुरु तथा चन्दन-लेप अर्पितकरते हुए विधिपूर्वक पूजा की।

    उवबाच सुखमासीनान्भगवान्धर्मगुप्तनु: ।

    सदसस्तस्य महतो यतवाचोनुश्रुण्वतः ॥

    ८॥

    उवाच--कहा; सुखम्‌--सुखपूर्वक; आसीनान्‌--बैठे हुओं को; भगवान्‌-- भगवान्‌; धर्म--धर्म के; गुपू--रक्षा के साधन;तनु:--शरीर वाले; सदस:ः--सभा में; तस्य--उस; महतः--महात्माओं को; यत--संयमित; वाच:--वाणी वाले;अनुश्ुण्वत: --ध्यानपूर्वक सुनते हुए।

    जब सारे मुनि सुखपूर्वक बैठ गये, तो धर्म की रक्षा के निमित्त दिव्य शरीर धारण करने वालेभगवान्‌ कृष्ण ने उस विराट सभा में उन्हें सम्बोधित किया।

    हर व्यक्ति ने मौन होकर बड़े हीध्यान से सुना।

    श्रीभगवानुवाच अहो वयं जन्मभूतो लब्ध॑ कार्त्स्येन तत्फलम्‌ ।

    देवानामपि दुष्प्रापं यद्योगेश्वरदर्शनम्‌ ॥

    ९॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; अहो --ओह; वयम्‌--हम सभी; जन्म-भृतः--सफलतापूर्वक जन्म लेने वाले; लब्धम्‌--प्राप्त किये हुए; कार्त्स्येन--एकसाथ; तत्‌--उसका ( जन्म का ); फलम्‌--फल; देवानाम्‌ू--देवताओं के लिए; अपि--भी;दुष्प्रापप्‌-दुष्प्राप्प; यत्‌ू--जो; योग-ईश्वर--योगे श्वर का; दर्शनम्‌ू--दर्शन |

    भगवान्‌ ने कहा : अब हमारे जीवन निश्चित रूप से सफल हो गये, क्योंकि हमें जीवन काचरम लक्ष्य--महान्‌ योगेश्वरों के दर्शन, जो देवताओं को भी विरले ही मिल पाता है--प्राप्त होगया है।

    कि स्वल्पतपसां नृणामर्चायां देवचक्षुषाम्‌ ।

    दर्शनस्पर्शनप्रश्नप्रह्यणादार्चनादिकम्‌ ॥

    १०॥

    किम्‌--क्या; सु-अल्प--अ त्यन्त न्यून; तपसाम्‌--तपस्या वाले; नृणाम्‌--मनुष्यों के लिए; अर्चायाम्‌--मन्दिर के अर्चाविग्रह में;देव--ई श्वर; चक्षुषाम्‌ू--जिनका देखना; दर्शन--देखना; स्पर्शन--छूना; प्रश्न-- प्रश्न करना; प्रह-- नमस्कार करना; पाद-अर्चन--पाँवों की पूजा करना; आदिकम्‌--इत्यादि

    वे लोग जो अधिक तपस्वी नहीं और जो ईश्वर को मन्दिर में उनके अर्चाविग्रह के रूप में हीपहचानते हैं, भला ऐसे लोग अब आपको कैसे देख सकते हैं, छू सकते हैं, आपसे प्रश्न करसकते हैं, आपको नमस्कार कर सकते हैं, आपके चरणों की पूजा कर सकते हैं और अन्यविधियों से आपकी सेवा कर सकते हैं ?

    न हाम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामया: ।

    ते पुनन्त्युरूुकालेन दर्शनादेव साधव: ॥

    ११॥

    न--नहीं; हि--निस्सन्देह; अपू--जल से; मयानि--निर्मित; तीर्थानि--ती र्थस्थानों को; न--नहीं; देवा: --अर्चा विग्रह; मृत्‌--मिट्टी; शिला--तथा पत्थर; मया:--निर्मित; ते--वे; पुनन्ति--पवित्र बनाते हैं; उर-कालेन--दीर्घकाल के बाद; दर्शनात्‌ू--दर्शन करने से; एब--केवल; साधव:--साधुजन

    केवल जलमय स्थान ही असली पवित्र तीर्थस्थान नहीं होते, न ही मिट्टी तथा पत्थर की कोरी प्रतिमाएँ असली आराध्यदेव हैं।

    ये किसी को दीर्घकाल के बाद ही पवित्र कर पाते हैं, किन्तुसन्त स्वभाव वाले मुनिजन दर्शन मात्र से पवित्र कर देते हैं।

    किनाग्निर्न सूर्यो न च चन्द्रतारकान भूर्जलं खं श्रसनोथ वाड्मन: ।

    उपासिता भेदकृतो हरन्त्यघंविपश्चितो घ्नन्ति मुहूर्तसेवया ॥

    १२॥

    न--न तो; अग्नि: --अग्नि; न--न तो; सूर्य: --सूर्य; न--न ही; च--तथा; चन्द्र-- चन्द्रमा; तारका:--तथा तारे; न--न तो;भू:--पृथ्वी; जलमू--जल; खम्‌--आकाश; श्रसनः-- श्वास; अथ--अथवा; वाक्‌ू--वाणी; मन: --तथा मन; उपासिता:--'पूजित; भेद--अन्तर ( उसके तथा अन्य जीवों के बीच ); कृतः--उत्पन्न करने वाले के; हरन्ति--छीन लेते हैं; अधम्‌--पापोंको; विपश्चित:--ज्ञानी लोग; घ्नन्ति--नष्ट कर देते हैं; मुहूर्त--कुछ मिनटों की ही; सेवया--सेवा के द्वारा।

    न तो अग्नि के नियामक देवता सूर्य तथा चन्द्रमा, न ही पृथ्वी, तारागण, जल, आकाश,वायु, वाणी तथा मन के अधिष्ठाता देवता अपने उन पूजकों के पापों को हर पाते हैं, जो द्वैत के इृष्टिकोण से देखने के अभ्यस्त हैं।

    किन्तु ज्ञानी मुनिजन आदरपूर्वक कुछ ही क्षणों तक भी सेवाकिये जाने पर, मनुष्य के पापों को नष्ट कर देते हैं।

    यस्यात्मबुद्धि: कुणपे त्रिधातुकेस्वधी: कलत्रादिषु भौम इज्यधीः ।

    यत्तीर्थबुद्धि:ः सलिले न कर्हिचि-ज्ननेष्वभिज्ेषु स एव गोखर: ॥

    १३॥

    यस्य--जिसकी; आत्म--आत्मा के रूप में; बुद्धिः--विचार; कुणपे--शव में; त्रि-धातुके--तीन मूल तत्त्वों से बनी; स्व--निज के रूप में; धी:--विचार; कलत्र-आदिषु--पत्नी इत्यादि में; भौमे-- पृथ्वी पर; इज्य--पूज्य के रूप में; धी:--विचार;यत्‌--जिसका; तीर्थ--तीर्थस्थान के रूप में; बुद्धिः--विचार; सलिले--जल में; न कर्हिचित्‌ू--कभी नहीं; जनेषु--लोगों में;अभिज्ञेषु--ज्ञानी; सः--वह; एव--निस्सन्देह; ग:--गाय; खर:--या गधा

    जो व्यक्ति कफपित्त तथा वायु से बने निष्क्रिय काया को स्वयं मान बैठता है, जो अपनीपत्नी तथा अपने परिवार को स्थायी रूप से अपना मानता है, जो मिट्टी की प्रतिमा या अपनीजन्मभूमि को पूज्य मानता है या जो तीर्थस्थल को केवल जल मानता है, किन्तु आध्यात्मिकज्ञानियों को अपना ही रूप नहीं मानता, उनसे सम्बन्ध का अनुभव नहीं करता, उनकी पूजा नहींकरता अथवा उनके दर्शन नहीं करता--ऐसा व्यक्ति गाय या गधे के तुल्य है।

    श्रीशुक उवाचनिशम्येत्थं भगवतः कृष्णस्याकुण्थमेधस: ।

    बच्चो दुरन्वयं विप्रास्तृष्णीमासन्भ्रमद्धिय: ॥

    १४॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; निशम्य--सुनकर; इत्थम्‌--ऐसा; भगवत: -- भगवान्‌; कृष्णस्य--कृष्ण का;अकुण्ठ-- असीम; मेधस:--बुद्धि; वच:--शब्द; दुरन्‍्वयम्‌--समझ पाना कठिन; विप्रा: --विद्वान ब्राह्मण; तृष्णीम्‌--मौन;आसनू--थे; भ्रमत्‌ू--चलायमान; धिय:--मन वाले

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : असीम ज्ञानी भगवान्‌ कृष्ण से ऐसा अगाध शब्द सुनकर विद्वानब्राह्मण मौन रह गये।

    उनके मन भ्रमित थे।

    चिरं विमृश्य मुनय ई श्वरस्येशितव्यताम्‌ ।

    जनसडग्रह इत्यूचु: स्मयन्तस्तं जगद्गुरुम्‌ ॥

    १५॥

    चिरम्‌ू--कुछ काल तक; विमृश्य--सोचकर; मुनयः --मुनियों ने; ईश्वरस्थ--परम नियन्ता के; ईशितव्यताम्‌--नियंत्रित होने कीस्थिति; जन-सड्ग्रह:--सामान्य लोगों की जागृति; इति--इस तरह ( निष्कर्ष निकालते हुए ); ऊचु:--कहा; स्मयन्तः --हँसतेहुए; तमू--उन; जगत्‌--ब्रह्माण्ड के; गुरुम्‌-गुरु से

    मुनिगण कुछ समय तक भगवान्‌ के इस आचरण पर विचार करते रहे, जो एक अधीनस्थजीव के आचरण जैसा लग रहा था।

    उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि वे सामान्य जनों कोउपदेश देने के लिए ऐसा अभिनय कर रहे हैं।

    अतः वे मुस्कराये और जगदगुरु से इस प्रकारबोले।

    श्रीमुन॒य ऊचु:यन्मायया तत्त्वविदुत्तमा वयंविमोहिता विश्वसृजामधी श्वरा: ।

    यदीशितव्यायति गूढ ईहयाअहो विचित्रम्भगवद्विचेष्टितम्‌ ॥

    १६॥

    श्री-मुनयः ऊचु:--मुनियों ने कहा; यत्‌ू--जिसकी; मायया--माया-शक्ति से; तत्त्त--सत्य के; वित्‌--वेत्ता; उत्तमा:--सर्वश्रेष्ठ; बयम्‌--हम; विमोहिता:--विचलित; विश्व--ब्रह्माण्ड के; सृजाम्‌--स्त्रष्टाओं के; अधी श्वर: -- प्रमुख; यत्‌--जिससे;ईशितव्यायति--( भगवान्‌ ) अपने को उच्चतर नियंत्रण के अधीन मानता है; गूढः--छिपा; ईहया--कार्यों द्वारा; अहो--ओह;विचित्रमू--आश्चर्यजनक; भगवत्‌-- भगवान्‌ का; विचेष्टितम्‌-कार्य, चेष्टा |

    उन महान्‌ मुनियों ने कहा : आपकी माया-शक्ति ने सत्य को सर्वोत्तम ढंग से जानने वालेतथा विश्व के प्रमुख स्त्रष्टा हम सबों को मोहित कर लिया है।

    ओह! भगवान्‌ का आचरण कितनाआश्चर्यजनक है! वे अपने को मानव जैसे कार्यो से आच्छादित करके अपने को किसी श्रेष्ठ नियंत्रण के अधीन होने का स्वाँग रच रहे हैं।

    अनीह एतद्नहुघैक आत्मनासृजत्यवत्यत्ति न बध्यते यथा ।

    भौमैर्हि भूमिरबहुनामरूपिणीअहो विभूम्नश्चरितं विडम्बनम्‌ ॥

    १७॥

    अनीहः--बिना चेष्टा किये; एतत्‌--यह ( ब्रह्माण्ड ); बहुधा--नाना प्रकार; एक:--अकेला; आत्मना--अपने द्वारा; सृजति--उत्पन्न करता है; अवति--पालन करता है; अत्ति--संहार करता है; न बध्यते--बँधता नहीं है; यथा--जिस तरह; भौमै:--पृथ्वीके रूपान्तरों ( विकारों ) से; हि--निस्सन्देह; भूमि:-- पृथ्वी; बहु-- अनेक; नाम-रूपिणी--नाम तथा रूपों वाली; अहो--ओह;विभूम्न: --सर्वशक्तिमान भगवान्‌ का; चरितमू--कार्यकलाप; विडम्बनमू--बहाना |

    निस्सन्देह, सर्वशक्तिमान की मनुष्य जैसी लीलाएँ केवल बहाना हैं।

    वे बिना प्रयास के हीअपने में से इस रंगबिरंगी सृष्टि को उत्पन्न करते हैं, इसका पालन करते हैं और फिर इसे निगलजाते हैं।

    आप यह सब बिना बँधे ही करते हैं, जिस तरह पृथ्वी-तत्त्व अपने विविध रूपान्तरों(विकारों ) में अनेक नाम तथा रूप ग्रहण करती रहती है।

    अथापि काले स्वजनाभिगुप्तयेबिभर्षि सत्त्वं खलनिग्रहाय च ।

    स्वलीलया वेदपथं सनातनवर्णाश्रमात्मा पुरुष: परो भवान्‌ ॥

    १८॥

    अथ अपि--तो भी; काले--सही समय पर; स्व-जन--अपने भक्तों की; अभिगुप्तये--रक्षा के लिए; बिभर्षि-- धारण करतेहो; सत्त्वमू--सतोगुण; खल--दुष्टों को; निग्रहाय--दण्ड देने के लिए; च--तथा; स्व--अपनी; लीलया--लीलाओं से; बेद-पथम्‌--वेदों का मार्ग; सनातनम्‌--नित्य; वर्ण-आ श्रम--वर्णो तथा आश्रमों का; आत्मा--आत्मा; पुरुष: -- भगवान्‌; पर: --सर्वोच्च; भवान्‌ू--आप।

    तो भी उचित अवसरों पर आप अपने भक्तों की रक्षा करने तथा दुष्टों को दण्ड देने के लिएशुद्ध सतोगुणी रूप धारण करते हैं।

    इस तरह वर्णाश्रम के आत्मास्वरूप आप भगवान्‌ अपनीआनन्द-लीलाओं का भोग करते हुए वेदों के शाश्वत पथ को बनाये रखते हैं।

    ब्रह्म ते हृदयं शुक्लं तपःस्वाध्यायसंयमै: ।

    यत्रोपलब्धं सद्व्यक्तमव्यक्त च ततः परम्‌ ॥

    १९॥

    ब्रह्म--वेद; ते--तुम्हारे; हदयम्‌--हृदय; शुक्लम्‌--शुद्ध; तपः--तपस्या; स्वाध्याय-- अध्ययन; संयमैः--तथा आत्मसंयमद्वारा; यत्र--जिसमें; उपलब्धम्‌--अनुभव किये गये; सत्‌--शुद्ध आध्यात्मिक; व्यक्तम्‌--प्रकट ( भौतिक सृष्टि का प्रतिफल );अव्यक्तम्‌--अप्रकट ( सृष्टि के सूक्ष्म कारण ); च--तथा; तत:ः--उसको; परम्‌--दिव्य को |

    वेद आपके निर्मल हृदय हैं और उनके माध्यम से तपस्या, अध्ययन एवं आत्मसंयम द्वारामनुष्य प्रकट, अप्रकट तथा इन दोनों से परे शुद्ध अस्तित्व को देख सकता है।

    तस्माद्ृह्मकुलं ब्रह्मन्शास्त्रयोनेस्त्वमात्मन: ।

    सभाजयसि सद्धाम तद्गह्मण्याग्रणीर्भवान्‌ ॥

    २०॥

    तस्मात्‌--इसीलिए; ब्रह्म--ब्राह्मणों के; कुलम्‌--वंश को; ब्रह्मनू--हे परम सत्य; शास्त्र--शास्त्र; योने:--अनुभूति के साधनरूप; त्वमू--तुमको; आत्मन:--अपने आप; सभाजयसि--सम्मान प्रदर्शित करते हैं; सत्‌--पूर्ण; धाम--वास, स्थान; तत्‌--फलस्वरूप; ब्रह्मण्य--ब्राह्मण संस्कृति का आदर करने वालों के; अग्रणी:--नायक; भवानू--आप |

    अतएव हे परब्रह्म, आप ब्राह्मण कुल के सदस्यों का आदर करते हैं, क्योंकि वे ही पूर्णअभिकर्ता हैं, जिनके माध्यम से वेदों के साक्ष्य द्वारा कोई व्यक्ति आपका साक्षात्कार कर सकताहै।

    इसी कारण से आप ब्राह्मणों के अग्रणी पूजक हैं।

    अद्य नो जन्मसाफल्यं विद्यायास्तपसो हश: ।

    त्वया सड़म्य सदगत्या यदन्तः श्रेयसां पर: ॥

    २१॥

    अद्य--आज; न: --हमारा; जन्म--जन्म का; साफल्यम्‌--फलीभूत; विद्याया:--शिक्षा का; तपसः--तपस्या का; हशः --देखने की शक्ति का; त्वया--तुम्हारे द्वारा; सड्रम्थ--संगति दी जाकर; सत्‌--साधु-पुरुषों की; गत्या--गन्तव्य; यत्‌-क्योंकि;अन्तः--सीमा; श्रेयसामू--लाभों की; पर:--चरम।

    आज हमारा जन्म, शिक्षा, तपस्या तथा दृष्टि सभी पूर्ण हो चुके हैं, क्योंकि हम समस्त सन्त-पुरुषों के लक्ष्य, आपसे सात्निध्य प्राप्त करने में समर्थ हो सके हैं।

    निस्सन्देह आप स्वयं हीअनन्तिम, अर्थात्‌ परम आशीर्वाद हैं।

    नमस्तस्मै भगवते कृष्णायाकुण्ठमेधसे ।

    स्वयोगमाययाच्छन्नमहिम्ने परमात्मने ॥

    २२॥

    नमः--नमस्कार; तस्मै--उस; भगवते-- भगवान्‌ को; कृष्णाय--कृष्ण को; अकुण्ठ-- असीम; मेधसे--बुद्द्धिमान; स्व--निजी; योग-मायया-- अन्तरंगा माया-शक्ति द्वारा; आच्छन्न--ढका; महिम्ने--महिमा वाले; परम-आत्मने--परमात्मा को ।

    हम अनन्त बुद्धि वाले परमात्मा अर्थात्‌ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ श्रीकृष्ण को नमस्कार करतेहैं, जिन्होंने अपनी योगमाया द्वारा अपनी महानता को छिपा रखा है।

    न यं विदन्त्यमी भूपा एकारामाश्च वृष्णय: ।

    मायाजवनिकाच्छन्नमात्मानं कालमी श्वरम्‌ ॥

    २३॥

    न--नहीं; यम्‌ू--जिसको; विदन्ति--जानते हैं; अमी--ये; भू-पा:--राजागण; एक--एकसाथ; आरामा:-- भोग करने वाले;च--तथा; वृष्णय:--वृष्णिगण; माया--माया की दैवी शक्ति के; जवनिका--पर्दे द्वारा; आच्छन्नम्‌ू--आच्छादित; आत्मानम्‌ू--परमात्मा को; कालमू--काल को; ईश्वरम्‌-थे सुप्रेमे चोन्त्रोल्लेर्‌न तो

    ये राजा, न ही वृष्णिगण, जो आपकी घनिष्ठ संगति का आनन्द उठाते हैं, आपकोसमस्त सृष्टि के आत्मा, काल की शक्ति तथा परम नियन्ता के रूप में जानते हैं।

    उनके लिए तोआप माया के पर्दे से ढके रहते हैं।

    यथा शयान: पुरुष आत्मानं गुणतत्त्वहक्‌ ।

    नाममात्रेन्द्रिया भातं न वेद रहितं परम्‌ ॥

    २४॥

    एवं त्वा नाममात्रेषु विषयेष्विन्द्रियिहया ।

    मायया विश्रमच्चित्तो न वेद स्मृत्युपप्लवात्‌ ॥

    २५॥

    यथा--जिस तरह; शयान:ः --सोता हुआ; पुरुष:--व्यक्ति; आत्मानम्‌--अपने को; गुण--गौण; तत्त्व--यथार्थ के; हक्‌--जिसकी दृष्टि; नाम--नामों; मात्र--तथा स्वरूपों के साथ; इन्द्रिय--उसके मन से; आभातम्‌--प्रकट; न वेद--नहीं जानता;रहितम्‌्-पृथक्‌; परम्‌-प्रत्युत; एवम्‌ू--इसी तरह; त्वा--तुम; नाम-मात्रेषु--नामों तथा स्वरूपों से युक्त; विषयेषु-- भौतिकअनुभूति की वस्तुओं में; इन्द्रिय--इन्द्रियों की; ईहया--क्रियाशीलता से; मायया--आपकी माया के प्रभाव से; विभ्रमत्‌--मोहग्रस्त होकर; चित्त:--चेतना वाला; न वेद--नहीं जानता; स्मृति--अपनी स्मरणशक्ति के; उपप्लवात्‌-- भंग हो जाने से |

    सोया हुआ व्यक्ति अपने को एक वैकल्पिक सत्य मानता है और स्वयं यह देखते हुए किउसके विविध नाम तथा रूप हैं, वह अपनी जाग्रत पहचान को भूल जाता है, जो उसके स्वप्न सेसर्वथा पृथक्‌ होती है।

    इसी प्रकार जिसकी चेतना माया द्वारा मोहित हो जाती है, वह भौतिकवस्तुओं के ही नामों तथा स्वरूपों को देखता है।

    इस तरह ऐसा पुरुष अपनी स्मरणशक्ति खोदेता है और आपको जान नहीं सकता।

    तस्याद्य ते दहशिमाड्प्रिमघौघमर्ष -तीर्थास्पदं हृदि कृतं सुविपक्वयोगै: ।

    उत्सिक्तभक्त्युपहताशय जीवकोशाआपुर्भवद्गतिमथानुगृहान भक्तान्‌ ॥

    २६॥

    तस्य--उसका; अद्य--आज; ते--तुम्हारा; ददशिम--हम देख चुके हैं; अड्प्रिमू--पैरों को; अध--पापों की; ओघ--बाढ़ें;मर्ष--नष्ट करते हैं; तीर्थ--तीर्थस्थानों ( गंगा नदी ) के; आस्पदम्‌--स््रोत; हृदि--हृदय में; कृतम्‌--रखा; सु--अच्छी तरह;विपक्व--पका हुआ; योगै: --उनके द्वारा जिनका योगाभ्यास; उत्सिक्त--पूर्णतया विकसित; भक्ति--भक्ति द्वारा; उपहत--विनष्ट; आशय--भौतिक मनोवृत्ति; जीव--जीवात्मा का; कोशा: --बाह्य आवरण; आपुः--उन्होंने प्राप्त किया; भवत्‌--आपका; गतिमू्‌--गन्तव्य; अथ--इसलिए; अनुगृहाण--कृपा प्रदर्शित कीजिये; भक्तान्‌ू--अपने भक्तों पर।

    आज हमने आपके उन चरणों का प्रत्यक्ष दर्शन पा लिया, जो उस पवित्र गंगा नदी के उद्गमहैं, जो पापों के ढेरों को धो डालती है।

    पूर्णयोगी आपके चरणों का ध्यान उत्तम विधि से अपनेहृदयों में कर सकते हैं, किन्तु केवल वे, जो आपकी पूरे मन से भक्ति करते हैं और इस तरहआत्मा के आवरण--भौतिक मन--को दूर करते हैं, वे आपको अपने अन्तिम गन्तव्य के रूप मेंप्राप्त करते हैं।

    अतएवं आप हम अपने भक्तों पर कृपा प्रदर्शित करें।

    श्रीशुक उवाचइत्यनुज्ञाप्य दाशाहईं धृतराष्ट्र युधिष्ठटिरम्‌ ।

    राजर्षे स्वाश्रमानान्तुं मुन॒यो दधिरे मनः ॥

    २७॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार कह कर; अनुज्ञाप्प--विदा होने की अनुमति लेकर;दाशाईम्‌--महाराज दाशाह के वंशज कृष्ण से; धृतराष्ट्रम्‌-- धृतराष्ट्र से; युधिष्ठिरम्‌--युधिष्ठिर से; राज--राजाओं में से; ऋषे--हेऋषि; स्व-- अपने अपने; आश्रमान्‌--कुटियों को; गन्तुम्‌--जाने में; मुनयः --मुनिगण; दधिरे--उन्मुख किया; मनः --अपनेमनों को

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे ज्ञानवान राजा, इस तरह कहकर मुनियों ने दाशाई, धुृतराष्ट्रतथा युधिष्ठिर से विदा होने की अनुमति ली और अपने अपने आश्रमों को जाने के लिए तैयारहोने लगे।

    तद्दीक्ष्य तानुपब्रज्य वसुदेवो महायशा: ।

    प्रणम्य चोपसड्ूह्य बभाषेदं सुयन्त्रित: ॥

    २८ ॥

    तत्‌--यह; वीक्ष्य--देखकर; तान्‌ू--उनको; उपक्रज्य--पास आकर; वसुदेव: --वसुदेव ने; महा--महान्‌; यशा:--यशस्वी;प्रणम्य--प्रणाम करके; च--तथा; उपसड्ूरह्म--उनके चरण पकड़ कर; बभाष--कहा; इृदम्‌--यह; सु--अत्यन्त; यन्त्रित:--सावधानी के साथ बनाया हुआ।

    यह देखकर कि वे साधु प्रस्थान करने वाले हैं, सम्मान्य वसुदेव उनके पास पहुँचे और उन्हेंनमस्कार करने एवं उनके चरण-स्पर्श करने के बाद, उन्होंने अत्यन्त सावधानी से चुने हुए शब्दोंमें उनसे कहा।

    श्रीवसुदेव उवाचनमो वः सर्वदेवेभ्य ऋषय: श्रोतुमरहथ ।

    कर्मणा कर्मनिर्हारो यथा स्यान्नस्तदुच्यताम्‌ ॥

    २९॥

    श्री-वसुदेवः उवाच-- श्री वसुदेव ने कहा; नम:--नमस्कार; व:--आपको; सर्व--समस्त; देवेभ्य: --देवताओं के; ऋषय: --हेऋषि; श्रोतुम्‌ अ्हथ--कृपया सुनें; कर्मणा-- भौतिक कार्य द्वारा; कर्म--( पूर्व ) कार्य का; निर्हारः--निराकरण, नाश; यथा--कैसे; स्थातू--हो; नः--हमको; तत्‌--वह; उच्चताम्‌--कृपया कहें |

    श्री वसुदेव ने कहा : हे समस्त देवताओं के आश्रय, आपको नमस्कार है।

    हे ऋषियो, कृपाकरके मेरी बात सुनें ।

    कृपा करके हमें यह बतलायें कि मनुष्य का कर्मफल किस तरह आगे औरकर्म करके विनष्ट किया जा सकता है ?

    श्रीनारद उवाचनातिचित्रमिदं विप्रा वसुदेवो बुभुत्सया ।

    कृष्णम्तत्वार्भक॑ यन्नः पृच्छति श्रेय आत्मन: ॥

    ३०॥

    श्री-नारदः उबाच-- श्री नारद ने कहा; न--नहीं; अति--अ त्यन्त; चित्रमू--विचित्र; इदम्‌--यह; विप्रा:--हे ब्राह्मणो;बसुदेव:--वसुदेव; बुभुत्सया--जानने की इच्छा से; कृष्णम्‌--कृष्ण को; मत्वा--सोच कर; अर्भकम्‌--बालक; यत्‌--यहतथ्य कि; न:ः--हमसे; पृच्छति--पूछता है; श्रेयः--सर्वोच्च मंगल के विषय में; आत्मन:--अपने लिए।

    श्री नारद मुनि ने कहा : हे ब्राह्मणो, यह उतना आश्चर्यजनक नहीं है कि जानने की उत्सुकतासे वसुदेव ने अपने चरम लाभ के विषय में हमसे प्रश्न किया है, क्योंकि वे कृष्ण को मात्र एकबालक ही मानते हैं।

    सन्निकर्षोउत्र मर्त्यानामनादरणकारणम्‌ ।

    गाड़ूं हित्वा यथान्याम्भस्तत्रत्यो याति शुद्धये ॥

    ३१॥

    सन्निकर्ष:--निकटता; अत्र--यहाँ ( इस जगत में ); मर्त्यानाम्‌ू--मर्त्यों के लिए; अनादरण---अनादर का; कारणम्‌--कारण;गाड़म्‌-गंगा ( के जल ) को; हित्वा--त्याग कर; यथा--जिस तरह; अन्य--दूसरा; अम्भ: --पानी; तत्रत्यः--उसके पास रहनेवाला; याति--जाता है; शुद्धये --शुद्धि के लिए।

    इस संसार में परिचय बढ़ने से अनादर पनपता है।

    उदाहरणार्थ जो व्यक्ति गंगा के तट पररहता है, वह अपनी शुद्धि के लिए गंगा की उपेक्षा करके अन्य किसी जलाशय को जाय।

    यस्यानुभूति: कालेन लयोत्पत्त्यादिनास्य वै ।

    स्वतोन्यस्माच्च गुणतो न कुतश्चन रिष्यति ॥

    ३२॥

    तं॑ क्लेशकर्मपरिपाकगुण प्रवाहै-रव्याहतानुभवमी श्वरमद्वितीयम्‌ ।

    प्राणादिभि: स्वविभवैरुपगूढमन्योमन्येत सूर्यमिव मेघहिमोपरागै: ॥

    ३३॥

    यस्य--जिसकी; अनुभूति:--जानकारी से; कालेन--समय द्वारा उत्पन्न; लय--विनाश; उत्पत्ति--सृष्टि; आदिना--इत्यादि केद्वारा; अस्य--इस ( ब्रह्माण्ड ) का; बै--निस्सन्देह; स्वतः--अपने से; अन्यस्मात्‌--किसी अन्य कारण से; च--अथवा;गुणतः--अपने गुणों के रूप में; न--नहीं; कुतश्रन--किसी कारण से; रिष्यति--टूट जाता है; तम्‌ू--उसको; क्लेश-- भौतिककष्ट; कर्म--भौतिक कार्यकलाप; परिपाक--उनके परिणाम; गुण--प्रकृति के गुणों के; प्रवाहै:--तथा प्रवाह द्वारा;अव्याहत--अप्रभावित; अनुभवम्‌--जिसकी चेतना; ईश्वरमू--परम नियन्ता को; अद्वितीयम्‌--अद्वितीय; प्राण--प्राणवायु;आदिभि:--इत्यादि से; स्व--निजी; विभवै:--अंशों द्वारा; उपगूढम्‌--दूसरे वेश में; अन्य:--अन्य कुछ; मन्येत--मानता है;सूर्यम्‌ इब--सूर्य की तरह; मेघ--बादलों के द्वारा; हिम--बर्फ; उपरागैः--तथा ग्रहणों के द्वारा।

    भगवान्‌ की चेतना कभी भी काल द्वारा, ब्रह्माण्ड की सृष्टि तथा संहार द्वारा, अपने ही गुणोंमें परिवर्तन द्वारा, या किसी अन्य कारण से, चाहे वह स्वजनित हो या बाह्य हो, विचलित नहींहोती।

    भले ही अद्वितीय भगवान्‌ की चेतना भौतिक कष्ट द्वारा, भौतिक कर्म द्वारा या प्रकृति केगुणों के निरन्तर प्रवाह द्वारा प्रभावित न होती हो, किन्तु तो भी सामान्य व्यक्ति यही सोचते हैं किभगवान्‌ प्राण तथा अन्य भौतिक तत्त्वों की अपनी ही सृष्टियों से आच्छादित हैं, जिस तरह कोईव्यक्ति यह सोच सकता है कि सूर्य बादल, बर्फ या ग्रहण से ढक गया है।

    अथोचुर्मुनयो राजन्नाभाष्यानल्सदुन्दभिम्‌ ।

    सर्वेषां श्रण्वतां राज्ञां तथेवाच्युतरामयो: ॥

    ३४॥

    अथ--तब; ऊचु:--कहा; मुनयः--मुनियों ने; राजन्‌--हे राजा ( परीक्षित ); आभाष्य--कहकर; आनक-दुन्दुभिम्‌--वसुदेवको; सर्वेषाम्‌--समस्त; श्रृण्वताम्‌--सुनते हुए; राज्ञामू--राजाओं के; तथा एब-- भी; अच्युत-रामयो: --कृष्ण तथा बलरामके

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन्‌ू, तब मुनियों ने वसुदेव को सम्बोधित करते हुए फिरसे कहा, जबकि भगवान्‌ अच्युत तथा बलराम के साथ ही साथ सारे राजा सुन रहे थे।

    कर्मणा कर्मनिर्हार एष साधुनिरूपित: ।

    यच्छुद्धया यजेद्दिष्णुं सर्वयज्ञेश्वरं मै: ॥

    ३५॥

    कर्मणा--कर्म द्वारा; कर्म--विगत कर्मो के फलों के; निर्हार: -- प्रतिक्रिया, निष्फल करना; एष:--यह; साधु--सही -सही;निरूपित:--निश्चित किया गया; यत्‌--जो; श्रद्धया--श्रद्धा के साथ; यजेत्‌--पूजा करे; विष्णुम्‌--विष्णु की; सर्व--समस्त;यज्ञ--यज्ञों के; ईश्वरमू--ईश्वर की; मखैः --वैदिक अग्नि-अनुष्ठानों द्वारा

    मुनियों ने कहा : यह निश्चित निष्कर्ष निकाला जा चुका है कि कर्म को उसके आगे औरभी कर्म करके निष्फल किया जाता है जब मनुष्य श्रद्धापूर्वक समस्त यज्ञों के स्वामी विष्णु कीपूजा करने के साधनस्वरूप वैदिक यज्ञ सम्पन्न करता है।

    चित्तस्योपशमोयं वै कविभि: शास्त्रचक्षुसा ।

    दर्शितः सुगमो योगो धर्मश्चात्ममुदावह: ॥

    ३६॥

    चित्तस्य--मन की; उपशमः--शान्ति; अयम्‌ू--यह; बै--निस्सन्देह; कविभिः --विद्वानों द्वारा; शास्त्र--शास्त्र रूप; चक्षुषा--आँख से; दर्शितः:--दिखलाया हुआ; सु-गम:ः--सरलता से सम्पन्न; योग:--मोक्ष प्राप्त करने का साधन; धर्म:--धार्मिककर्तव्य; च--तथा; आत्म--हृदय को; मुत्‌ू--आनन्द; आवहः: --लाने वाला।

    शास्त्र की आँख से देखने वाले विद्वानों ने यह प्रदर्शित कर दिया है कि श्षुब्ध मन को दमनकरने तथा मोक्ष प्राप्त करने की यही सबसे सुगम विधि है और यही पवित्र धर्म है, जिससे मन को आनन्द प्राप्त होता है।

    अयं स्वस्त्ययनः पन्था द्विजातेगृहमेधिन: ।

    यच्छुद्धयाप्तवित्तेन शुक्लेनेज्येत पूरूष: ॥

    ३७॥

    अयम्‌--यह; स्वस्ति--मंगल, कल्याण; अयन: --लाने वाला; पन्था--पथ; द्वि-जातेः--ट्विज के लिए; गृह--घर पर;मेधिन:--यज्ञ करने वाला; यत्‌--जो; श्रद्धया--निःस्वार्थपूर्वक; आप्त--सही साधनों से प्राप्त; वित्तेन-- अपने धन से;शुक्लेन--निर्मल; ईज्येत--पूजा करे; पूरुष:-- भगवान्‌ की

    धार्मिक द्विज गृहस्थ के लिए सर्वाधिक शुभ पथ यही है कि वह ईमानदारी से प्राप्त की गईसम्पदा से भगवान्‌ की पूजा निःस्वार्थ भाव से करे।

    वित्तैषणां यज्ञदानैर्गृहेर्दारसुतैषणाम्‌ ।

    आत्मलोकैषणां देव कालेन विसूजेद्ुध: ।

    ग्रामे त्यक्तैषणा: सर्वे ययुर्धीरास्तपोवनम्‌ ॥

    ३८ ॥

    वित्त--सम्पदा की; एषणाम्‌--इच्छा को; यज्ञ--यज्ञ से; दानैः--तथा दान द्वारा; गृहैः--गृहस्थी के कार्यों में व्यस्तता द्वारा;दार--पली; सुत--तथा सन्तान की; एषणाम्‌--इच्छा को; आत्म--अपने लिए; लोक--( अगले जन्म में ) उच्च लोक के लिए;एषणाम्‌--इच्छा; देव--हे सन्त स्वभाव वाले वसुदेव; कालेन--काल के कारण; विसूजेत्‌--त्याग देना चाहिए; बुध: --बुद्धिमान को; ग्रामे--गृहस्थ जीवन के लिए; त्यक्त--छोड़ी हुईं; एषणा:--इच्छाएँ; सर्वे--समस्त; ययु:--चले गये; धीरा:--गम्भीर मुनिगण; तपः--तपस्या के; वनमू--वन को |

    बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि यज्ञ करके तथा दान-कर्मो के द्वारा धन-सम्पदा की अपनीइच्छा का परित्याग करना सीखे।

    उसे गृहस्थ जीवन के अनुभव से पत्नी तथा सन्‍्तान की अपनीइच्छा का परित्याग करना सीखना चाहिए।

    हे सन्त वसुदेव, उसे काल के प्रभाव का अध्ययनकरके अगले जीवन में उच्चतर लोक में जाने की अपनी इच्छा का परित्याग करना सीखनाचाहिए।

    जिन आत्मसंयमी मुनियों ने गृहस्थ जीवन के प्रति अपनी आसक्ति का इस तरह परित्याग कर दिया है, वे तपस्या करने के लिए वन में चले जाते हैं।

    ऋणैस्त्रिभिद्विजो जातो देवर्षिपितृणां प्रभो ।

    यज्ञाध्ययनपुत्रैस्तान्यनिस्तीर्य त्यजन्पतेत्‌ ॥

    ३९॥

    ऋणै:--ऋणों से; त्रिभि:--तीनों; द्वि-ज:--द्विज जाति का सदस्य; जात:--उत्पन्न होता है; देव--देवताओं को; ऋषि--मुनिगण; पितृणाम्‌--तथा पूर्वजों के; प्रभो--हे स्वामी ( वसुदेव ); यज्ञ--यज्ञ; अध्ययन--शास्त्र का अध्ययन; पुत्रै:--तथासन्तान ( उत्पन्न करने ) से; तानि--ये ( ऋण ); अनिस्तीर्य--न समाप्त करके, उऋण हुए बिना; त्यजन्‌--( अपना शरीर ) त्यागतेहुए; पतेत्‌ू--नीचे गिर जाता है।

    हे प्रभु, एक द्विज तीन प्रकार के ऋण--देवताओं के प्रति ऋण, मुनियों के प्रति ऋण तथाअपने पुरखों के प्रति ऋण--लेकर उत्पन्न होता है।

    यदि वह यज्ञ, शास्त्र-अध्ययन तथासन्तानोत्पत्ति द्वारा इन ऋणों को चुकता किये बिना अपना शरीर त्याग देता है, तो वह नरक मेंजा गिरेगा।

    त्वं त्वच्य मुक्तो द्वाभ्यां वे ऋषिपित्रोर्महामते ।

    य्ञैर्देवर्णमुन्मुच्य निरणोउशरणो भव ॥

    ४०॥

    त्वमू--तुम; तु--लेकिन; अद्य--आज; मुक्त:--मुक्त, स्वतंत्र; द्वाभ्यामू--दो ( ऋणों ) से; बै--निश्चय ही; ऋषि--ऋषियों ;पित्रो:--तथा पूर्वजों के प्रति; महा-मते--हे उदार; यज्जैः--वैदिक यज्ञों द्वारा; देब--देवताओं के प्रति; ऋणम्‌ू--ऋण से;उन्मुच्य--अपने को छुड़ाकर; निरण:--उऋण; अशरण: --शरणविहीन; भव--बनो |

    किन्तु हे महामते, आप तो पहले ही अपने दो ऋणों--मुनियों के तथा पुरखों के ऋणों--सेमुक्त हैं।

    अब आप वैदिक यज्ञ सम्पन्न करके देव-ऋण से भी उऋण हो लें।

    इस तरह आप अपनेको ऋण से पूरी तरह मुक्त कर लें और समस्त भौतिक आश्रय का परित्याग कर दें।

    वसुदेव भवान्नूनं भक्त्या परमया हरिम्‌ ।

    जगतामीश्ररं प्रार्च: स यद्ठां पुत्रतां गत: ॥

    ४१॥

    वसुदेव--हे वसुदेव; भवान्‌--आप; नूनम्‌--निस्सन्देह; भक्त्या-- भक्ति से; परमया--परम; हरिमू-- भगवान्‌ कृष्ण को;जगताम्‌--सारे जगतों के; ईश्वरमू--परम नियन्ता को; प्रार्च:--ढंग से पूजा की है; सः--वह; यत्‌--जितना कि; वाम्‌--तुमदोनों ( बसुदेव-देवकी ) के; पुत्रताम्‌-पुत्र के कार्य को; गत:--ग्रहण किया हुआ।

    हे वसुदेव, निस्सन्देह इसके पूर्व आपने समस्त जगतों के स्वामी भगवान्‌ हरि की पूजा कीहोगी।

    आप तथा आपकी पतली दोनों ने ही परम भक्ति के साथ उनकी पूरी तरह से पूजा कीहोगी, क्योंकि उन्होंने आपके पुत्र की भूमिका स्वीकार की है।

    श्रीशुक उवाचइति तद्गचनं श्रुत्वा वसुदेवो महामना: ।

    तानृषीनृत्विजो वतद्रे मूर्ध्ननम्य प्रसाद्य च ॥

    ४२॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--ऐसा कहे जाने पर; तत्‌--उनके; वचनम्‌--शब्दों को; श्रुत्वा--सुनकर;वसुदेव:--वसुदेव ने; महा-मना:--उदार; तानू--उन; ऋषीन्‌--ऋषियों को; ऋत्विज:--पुरोहितों के रूप में; वद्रे--चुना;मूर्श्न--अपने सिर से; आनम्य--झुक कर; प्रसाद्य--तुष्ट करके; च--तथा

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : ऋषियों के इन कथनों को सुनकर उदार वसुदेव ने भूमि तकअपना सिर झुकाया और उनकी प्रशंसा करते हुए, उनसे अनुरोध किया कि वे उनके पुरोहित बनजायाँ।

    त एनमृषयो राजन्वृता धर्मेण धार्मिकम्‌ ।

    तस्मिन्नयाजयश्क्षेत्रे मखैरुत्तमकल्पकै: ॥

    ४३॥

    ते--उन; एनम्‌ू--उसको; ऋषय: --ऋषियों ने; राजन्‌--हे राजा ( परीक्षित ); वृता:--चुने हुए; धर्मेण--धार्मिक सिद्धान्तों केअनुसार; धार्मिकम्‌-- धार्मिक; तस्मिन्‌ू--उसमें; अयाजयन्‌--यज्ञ करने लग गये; क्षेत्रे--पतित्र क्षेत्र ( कुरुक्षेत्र के ) में; मखै:--यज्ञों के द्वारा; उत्तम-श्रेष्ठ; कल्पकैः--जिसकी व्यवस्था |

    हे राजनू, इस तरह अनुरोध किये जाने पर ऋषियों ने पवित्र वसुदेव को कुरुक्षेत्र के पावनस्थान पर कठोर धार्मिक नियमों के अनुसार तथा उत्तम अनुष्ठानिक व्यवस्था के अनुसार अग्नियज्ञ करने में लगा लिया।

    तद्दीक्षायां प्रवृत्तायां वृष्णय: पुष्करस्त्रज: ।

    स्नाताः सुवाससो राजन्राजानः सुष्ठवलड्डू ता; ॥

    ४४॥

    तन्महिष्यश्च मुदिता निष्ककण्ठ्य: सुवासस: ।

    दीक्षाशालामुपाजग्मुरालिप्ता वस्तुपाणय: ॥

    ४५॥

    तत्‌--उनकी ( वसुदेव की ); दीक्षायाम्‌--यज्ञ के लिए दीक्षा; प्रवृत्तायामू--जब यह शुरू होने वाला था; वृष्णय:--वृष्णिगण;पुष्कर--कमलों की; स्त्रज:--माला पहने; स्नाता:--स्नान किये हुए; सुवासस:--अच्छे वस्त्र धारण किये; राजन्‌--हे राजा;राजान:--( अन्य ) राजा; सुष्ठ-- भव्य रीति से; अलड्डू ता:--आभूषित; तत्‌--उनकी; महिष्य:--रानियाँ; च--तथा; मुदिता: --प्रसन्नचित्त; निष्क--रत्नजटित हार; कण्ठ्य:--जिनके गलों में; सु-वासस:--सुन्दर वस्त्रों से युक्त; दीक्षा--दीक्षा के लिए;शालाम्‌--मंच, स्थल पर; उपाजग्मु:--गये; आलिप्ता:--लेप किये; वस्तु--शुभ वस्तुओं से; पाणय:--जिसके हाथों में |

    है राजनू, जब महाराज वसुदेव यज्ञ के लिए दीक्षित किये जाने वाले थे, तो वृष्णिजन स्नानकरके तथा सुन्दर वस्त्र पहने एवं कमल की मालाएँ पहने दीक्षा-स्थल पर आये।

    अन्य राजा भीखूब सज-धज कर आये।

    उनके साथ उनकी प्रसन्नचित्त रानियाँ भी थीं।

    वे अपने गलों मेंरतलजटित हार पहने थीं तथा सुन्दर वस्त्र धारण किये थीं।

    ये रानियाँ चन्दन का लेप किये थीं और हाथों में पूजा की शुभ सामग्री लिये थीं।

    नेदुर्मृदड्पटहशड्डुभेयानकादय: ।

    ननृतुर्नटनर्तक्यस्तुष्ठुवु: सूतमागधा: ।

    जगु: सुकण्ठो गन्धर्व्य: सड़ीत॑ सहभर्तुका: ॥

    ४६॥

    नेदु:--बजने लगे; मृदड़-पटह--मृदंग तथा पटह जैसे ढोल; शट्गभु--शंख; भेरी-आनक--भेरि तथा आनक जैसे ढोल;आदयः--तथा अन्य बाजे; ननृतुः--नाचने लगे; नट-नर्तक्य: --पुरुष नर्तक तथा स्त्री नर्तकियाँ; तुष्ठवु:--यशोगान किया; सूत-मागधा: --सूतों तथा मागधों ने; जगु:--गाया; सु-कण्ठ्य:--मधुर वाणी वाली; गन्धर्व्य:--गन्धर्वियों ने; सड्रीतम्‌--गीत;सह--साथ; भर्तृका:ः--अपने पतियों केमृदंग, पटह, शंख, भेरी, आनक तथा अन्य वाद्य बजने लगे।

    नर्तकों तथा नर्तकियों ने नृत्यकिया और सूतों तथा मागधों ने यशोगान किया।

    मधुर वाणी वाली गन्धर्वियों ने अपने अपनेपतियों के साथ गीत गाये।

    तमभ्यषिज्ञन्विधिवदक्तम भ्यक्तमृत्विज: ।

    पत्नीभिरष्टाइशभि: सोमराजमिवोडुभि: ॥

    ४७॥

    तम्‌--उसको; अभ्यषिश्नन्‌--पवित्र जल छिड़कते हुए; विधिवत्‌--शास्त्रीय नियमों के अनुसार; अक्तमू--आँखों में अंजनलगाये; अभ्यक्तम्‌--ताजे नवनीत से शरीर को लेप किये; ऋत्विज:--पुरोहितगण; पतल्लीभि:--अपनी अपनी पतियों के साथ;अष्टा-दशभि:--अठारह; सोम-राजम्‌--राजसी; इब--सहश; उड्ुभि:--तारों से |

    वसुदेव की आँखों में काजल लगाने तथा उनके शरीर को ताजे मक्खन से लेप करने केबाद पुरोहितों ने शास्त्रीय विधि के अनुसार उन पर तथा उनकी अठारह रानियों पर पवित्र जलछिड़क कर उन्हें दीक्षा दी।

    वे अपनी पत्नियों से घिर कर तारों से घिरे राजसी चन्द्रमा जैसे लग रहेथे।

    ताभिर्दुकूलवलयैहारनूपुरकुण्डलै: ।

    स्वलड्डू ताभिर्विबभौ दीक्षितोडजिनसंवृत: ॥

    ४८॥

    ताभि:ः--उनके साथ; दुकूल--रेशमी साड़ियों के साथ; वलयै:--तथा चूड़ियों से; हार--गले का हार; नूपुर--पायल;कुण्डलै:ः--तथा कान के कुण्डलों से; सु--सुन्दर; अलड्डू ताभि:--सजी हुई; विबभौ--खूब चमक रहा था; दीक्षित:--दीक्षितहोकर; अजिन--मृगचर्म से; संवृत:--आवृत, लपेटा हुआ।

    वसुदेव ने अपनी पत्नियों के साथ साथ दीक्षा ग्रहण की।

    उनकी पत्नियाँ रेशमी साड़ियाँपहने थीं और चूड़ियों, हारों, पायलों तथा कुण्डलों से सजी थीं।

    वसुदेव का शरीर मृगचर्म सेलपेटा हुआ था, जिससे वे खूब शोभायमान हो रहे थे।

    तस्यर्त्विजो महाराज रत्नकौशेयवाससः ।

    ससदस्या विरेजुस्ते यथा वृत्रहणो ध्वरे ॥

    ४९॥

    तस्य--उसके ; ऋत्विज: --पुरोहितगण; महा-राज--हे महान्‌ राजा ( परीक्षित ); रत्त--रत्नों से; कौशेय--रेशमी; वासस: --तथा वस्त्र; स--सहित; सदस्या:--सभा के सदस्य; विरेजु:--तेजवान प्रतीत हो रहे थे; ते--वे; यथा--मानो; बृत्र-हण: --वृत्रको मारने वाले इन्द्र के; अध्वरे--यज्ञ में |

    हे महाराज परीक्षित, रेशमी धोतियाँ पहने तथा रत्नजटित आभूषणों से अलंकृत वसुदेव केपुरोहितगण तथा सभा के कार्यकर्ता सदस्य इतने तेजवान दिख रहे थे, मानो बे वृत्र के मारने वाले इन्द्र की यज्ञशाला में खड़े हों।

    तदा रामश्च कृष्णश्र स्वैः स्वैर्बन्धुभिरन्वितौ ।

    रेजतुः स्वसुतैदारिर्जीवेशौ स्वविभूतिभि: ॥

    ५०॥

    तदा--उस समय; राम:--बलराम; च--तथा; कृष्ण:--कृष्ण; च-- भी; स्वैः स्वै:--अपने अपने; बन्धुभि:--सम्बन्धियों से;अन्वितौ--साथ में; रेजतु:--शोभायमान हो रहे थे; स्व--अपने; सुतैः--पुत्रों के साथ; दारैः--तथा पत्नियों के साथ; जीव--सारे जीवों के; ईशौ--दोनों प्रभु; स्व-विभूतिभि:--अपने ऐश्वर्य के अंशों सहित।

    उस समय समस्त जीवों के प्रभु बलराम तथा कृष्ण अपने अपने पुत्रों, पत्नियों तथा अन्यपारिवारिक सदस्यों के साथ, जो उनके ऐश्वर्य के अंशरूप थे, अत्यधिक शोभायमान हो रहे थे।

    ईजेनुयज्ञं विधिना अग्निहोत्रादिलक्षणै: ।

    प्राकृतैवेकृतैर्यस्रैर्द्रव्यज्ञानक्रियेश्वरम्‌ ॥

    ५१॥

    ईजे--पूजा की; अनु-यज्ञम्‌--हर तरह के यज्ञ से; विधिना--समुचित नियमों के द्वारा; अग्नि-होत्र--पवित्र अग्नि में आहुतियाँडाल कर; आदि--त्यादि; लक्षणै:--लक्षणों से युक्त; प्राकृत:--बिना किसी संशोधन के, श्रुति के आदेशों के सर्वथाअनुकूल; बैकृतैः--संशोधित, अन्य स्रोतों के लक्षणों के अनुसार समंजित; यज्जै:--यज्ञों से; द्रव्य--यज्ञ की साज-सामग्री के;ज्ञान--मंत्रों के ज्ञान के; क्रिया--तथा अनुष्ठानों के; ई श्वरमू-प्रभु को ।

    विविध प्रकार के वैदिक यज्ञों को समुचित विधि-विधानों के अनुसार सम्पन्न करते हुएबसुदेव ने समस्त यज्ञों की साज-सामग्री सहित, मंत्रों तथा अनुष्ठानों द्वारा ईश्वर की पूजा की।

    उन्होंने पवित्र अग्नि में आहुतियाँ डाल कर तथा यज्ञ-पूजा के अन्य पक्षों का पालन करते हुएमुख्य तथा गौण यज्ञों को सम्पन्न किया।

    अथर्लिग्भ्योददात्काले यथाम्नातं स दक्षिणा: ।

    स्वलड्ड तेभ्योउलड्डू त्य गोभूकन्या महाधना: ॥

    ५२॥

    अथ--तब; ऋत्विग्भ्य:--पुरोहितों को; अददात्‌--दिया; काले--उचित समय पर; यथा-आम्नातम्‌--शास्त्रों के अनुसार;सः--उसने; दक्षिणा:--धन्यवाद की भेंटें; सु-अलड्डू तेभ्य:--सुन्दर ढंग से सजाई; अलइड्डू त्य--खूब सजाकर; गो--गौवें;भू-- भूमि; कन्या:-- तथा विवाहयोग्य कन्याएँ; महा--अत्यधिक; धना:--मूल्यवान |

    तब उचित समय पर तथा शास्त्रों के अनुसार वसुदेव ने पुरोहितों को मूल्यवान आभूषणों सेअलंकृत किया, यद्यपि वे पहले से सुसज्जित थे और उन्हें गौवें, भूमि तथा विवाह योग्य कन्याओंके मूल्यवान उपहार दान में दिये।

    पतीसंयाजावभृथ्यैश्वरित्वा ते महर्षयः ।

    सस्नू रामह॒दे विप्रा यजमानपुरःसरा: ॥

    ५३॥

    'पत्नी-संयाज-- अपनी पत्नी के साथ मिलकर किया गया अनुष्ठान; अवभृथ्यै;:--तथा अवभृथ्य नामक अन्तिम अनुष्ठान से;चरित्वा--सम्पन्न करके; ते--उन; महाऋषय: --महर्षियों ने; सस्नु;--स्नान किया; राम--परशुराम के; हृदे--सरोवर में;विप्रा:--ब्राह्मणों ने; यजमान--यज्ञकर्ता ( बसुदेव ) को; पुर:-सरा:--आगे करके |

    पतलीसंयाज तथा अवश्ृथ्य अनुष्ठानों को सम्पन्न कराने के बाद महान ब्रह्मर्षियों ने यज्ञ केकर्ता वसुदेव को आगे करके, परशुराम सरोवर में स्नान किया।

    स्नातोलड्डारवासांसि वन्दिभ्योउदात्तथा स्त्रिय: ।

    ततः स्वलड्डू तो वर्णानाश्वभ्योउन्नेन पूजयत्‌ ॥

    ५४॥

    स्नातः--स्नान किये; अलड्जार--आभूषण; वासांसि--तथा वस्त्र; वन्दिभ्य:--वन्दीजनों को; अदातू--दिया; तथा-- भी;स्त्रियः--स्त्रियाँ; तत:--तब; सु-अलड्डू त:--सुन्दर आभूषणों से युक्त; वर्णानू--सारी जातियों के लोग; आ--तक; श्वभ्य:--कुत्तों को; अन्नेन-- भोजन से; पूजयत्‌--सम्मान किया।

    पवित्र स्नान पूरा हो जाने पर, वसुदेव ने अपनी पत्नियों के साथ साथ पेशेवर वन्दीजनों कोवे आभूषण तथा वस्त्र दान में दिये, जिन्हें वे पहने हुए थे।

    तब वसुदेव ने नवीन वस्त्र धारण कियेऔर उसके बाद सभी वर्णो के लोगों को, यहाँ तक कि कुत्तों को भी, भोजन कराकर सम्मानितकिया।

    बन्धून्सदारान्ससुतान्पारिबहेण भूयसा ।

    विदर्भकोशलकुरून्काशिकेकयसूझ्ञयान्‌ ॥

    ५५॥

    सदस्यर्त्विक्सुरगणान्रुभूतपितृचारणान्‌ ।

    श्रीनिकेतमनुज्ञाप्य शंसन्तः प्रययुः क्रतुम्‌ ॥

    ५६॥

    बन्धून्‌--अपने सम्बन्धियों; स-दारानू--पत्नियों समेत; स-सुतान्‌--अपने पुत्रों सहित; पारिबहेंण--भभेंटों सहित; भूयसा--ऐश्वर्यवान्‌; विदर्भ-कोशल-कुरून्‌ू-विदर्भ, कोशल तथा कुरुवंशियों के प्रमुखों को; काशि-केकय-सृज्ञलयान्‌ू--काशी, केकयतथा सृज्ञयवंशियों को भी; सदस्य--यज्ञसभा के सदस्यों; ऋत्विक्‌--पुरोहितों; सुर-गणान्‌--विविध श्रेणी के देवताओं को;नृ--मनुष्यों; भूत-- भूत-पिशाचों; पितृ--पूर्वजों; चारणान्‌ू--चारणों को, जो देवताओं की क्षुद्र श्रेणी के सदस्य हैं; श्री-निकेतम्‌--लक्ष्मी के निवास श्रीकृष्ण से; अनुज्ञाप्प--विदा लेकर; शंसन्त:--प्रशंसा करते हुए; प्रययु;--विदा ली; क्रतुम्‌--यज्ञ समाप्ति की

    उन्होंने अपनी पत्नियों तथा पुत्रों सहित अपने सारे सम्बन्धियों, विदर्भ, कोशल, कुरु,काशी, केकय तथा सूझ्जय राज्यों के राजाओं, सभा के कार्यकर्ता सदस्यों तथा पुरोहितों, दर्शकदेवताओं, मनुष्यों, भूत-प्रेतों, पितरों तथा चारणों को बड़ी बड़ी भेंटें दीं।

    तब लक्ष्मीनिवासभगवान्‌ कृष्ण से अनुमति लेकर विविध अतिथि वसुदेव के यज्ञ की महिमा का गुणगान करतेवहाँ से विदा हुए।

    धृतराष्ट्रोउनुजः पार्था भीष्मो द्रोण: पृथा यमौ ।

    नारदो भगवान्व्यासः सुहत्सम्बन्धिबान्धवा: ॥

    ५७॥

    बन्धून्परिष्वज्य यदून्सौहदाक्लिन्नचेतस: ।

    ययुर्विरहकृच्छेण स्वदेशां श्वापरे जना: ॥

    ५८॥

    धृतराष्ट्र: -- धृतराष्ट्र; अनुज: --( धृतराष्ट्र का ) छोटा भाई ( विदुर ); पार्था:--पृथा के पुत्र ( युधिष्ठिर, भीम तथा अर्जुन );भीष्म:-- भीष्म; द्रोण:--द्रोण; पृथा--कुन्ती; यमौ-- जुड़वाँ ( नकुल-सहदेव ); नारद:--नारद; भगवान्‌ व्यास: --व्यासदेव;सुहत्‌--मित्र; सम्बन्धि--निकट सम्बन्धीगण; बान्धवा:--तथा अन्य सम्बन्धी; बन्धूनू--सम्बन्धी तथा मित्रों को; परिष्वज्य--आलिंगन करके; यदून्‌ू--यदुओं को; सौहद--मैत्री भाववश; आक्लन्न--द्रवित; चेतस:--हृदयों वाले; ययु:--चले गये;विरह--विछोह से; कृच्छेण -- कठिनाई से; स्व--अपने अपने; देशान्‌--राज्यों को; च-- भी; अपरे--अन्य; जना:--लोग

    यदुओं के मित्रों, निकट परिवार के सदस्यों तथा अन्य सम्बन्धियों ने, जिनमें धृतराष्ट्र तथाउसके छोटे भाई विदुर, पृथा तथा उसके पुत्र, भीष्म, द्रोण, जुड़वाँ भाई नकुल एवं सहदेव, नारदतथा भगवान्‌ व्यासदेव सम्मिलित थे, यदुओं का आलिंगन किया।

    स्नेह से द्रवित हृदयों वाले येतथा अन्य अतिथिगण अपने अपने राज्यों के लिए प्रस्थान कर गये, किन्तु इनकी गति विरह कीपीड़ा के कारण मन्द पड़ गई थी।

    नन्दस्तु सह गोपालैरबहत्या पूजयार्चित: ।

    कृष्णरामोग्रसेनाञैर्न्यवात्सीद्वन्थुवत्सल: ॥

    ५९॥

    नन्दः--नन्द महाराज; तु--तथा; सह--साथ; गोपालैः --ग्वालों के; बृहत्या--विशेष रूप से ऐश्वर्यवान्‌; पूजया--पूजा सहित;अर्चितः--सम्मानित; कृष्ण-राम-उग्रसेन-आद्यै:--कृष्ण, बलराम, उग्रसेन तथा अन्यों द्वारा; न्यवात्सीत्‌ू--रूक गये; बन्धु--अपने सम्बन्धियों के प्रति; वत्सलः--स्नेहिल ।

    ग्वालों समेत नन्‍्द महाराज ने अपने यदु-सम्बन्धियों के साथ वहाँ कुछ दिन और रह करअपना स्नेह दर्शाया।

    उनके इस विश्राम-काल में कृष्ण, बलराम, उग्रसेन तथा अन्यों ने उनकीवृहद्‌ ऐश्वर्ययुक्त पूजा करके उनका सम्मान किया।

    वसुदेवोञ्सोत्तीर्य मनोरथमहार्णवम्‌ ।

    सुहृद्बुतः प्रीतमना नन्दमाह करे स्पृशन्‌ ॥

    ६०॥

    वसुदेव:--वसुदेव; अज्ञसा--आसानी से; उत्तीर्य--पार करके; मनः-रथ-- अपनी इच्छाओं ( यज्ञ करने की ) के; महा--विशाल; अर्णवम्‌--सागर को; सुहृत्‌--अपने शुभचिन्तकों द्वारा; वृत:--घिरे हुए; प्रीत--प्रसन्न; मना:--अपने मन में; नन्दम्‌--ननन्‍्द से; आह--कहा; करे--हाथ का; स्पृशन्‌--स्पर्श करते हुए

    अपनी इच्छाओं रूपी विशाल सागर को इतनी आसानी से पार कर लेने पर वसुदेव को पूर्णतुष्टि का अनुभव हुआ।

    उन्होंने अपने अनेक शुभचिन्तकों की संगति में उन्होंने नन्द महाराज काहाथ पकड़ कर, उनसे इस प्रकार कहा।

    श्रीवसुदेव उवाचभ्रातरीशकृतः पाशो नूनां यः स्नेहसंज्ञितः ।

    त॑ दुस्त्यजमहं मन्ये शूराणामपि योगिनाम्‌ ॥

    ६१॥

    श्री-वसुदेवः उवाच-- श्री वसुदेव ने कहा; भ्रात:--हे भाई; ईश-- भगवान्‌ द्वारा; कृत:--तैयार किया गया; पाश:--फन्दा,बन्धन; नृणाम्‌-मनुष्यों के; यः--जो; स्नेह--स्नेह; संज्ञितः--नामक; तम्‌--उसको; दुस्त्यजम्‌--छुड़ा पाना कठिन; अहमू--मैं; मन्ये--सोचता हूँ; शूराणाम्‌--वीरों के लिए; अपि-- भी; योगिनाम्‌--तथा योगियों के लिए।

    श्री वसुदेव ने कहा : हे भ्राता, स्वयं भगवान्‌ ने स्नेह नामक गाँठ बाँधी है, जो मनुष्यों कोहढ़तापूर्वक एक-दूसरे से बाँधे रखती है।

    मुझे लगता है कि बड़े बड़े वीरों तथा योगियों तक कोइससे छूट पाना कठिन होता है।

    अस्मास्वप्रतिकल्पेयं यत्कृताज्ञेषु सत्तमैः ।

    मैत्ररर्पिताफला चापि न निवर्तेत कहिंचित्‌ ॥

    ६२॥

    अस्मासु--हमारे लिए; अप्रतिकल्पा--अतुलनीय ; इयम्‌--यह; यत्‌--चूँकि; कृत-अज्ञेषु-- अपने ऊपर दिखाई गई दया के प्रतिजो विस्मरणशील हैं; सत्‌-तमैः--अत्यन्त साधु-पुरुषों द्वारा; मैत्री--मित्रता; अर्पिता--अर्पित की हुई; अफला--जिससेआदान-प्रदान न हुआ हो; च अपि--यद्यपि; न निवर्तेत--रूकती नहीं; कहिंचित्‌ू--कभी |

    निस्सन्देह, भगवान्‌ ने ही स्नेह के बन्धनों की रचना की होगी, क्योंकि आप जैसे महान्‌सन्‍्तों ने कभी भी हम अकृतज्ञों के प्रति अपनी अद्वितीय मैत्री प्रदर्शित करना बन्द नहीं किया,यद्यपि इसका समुचित आदान-प्रदान नहीं हुआ।

    प्रागकल्पाच्च कुशल भ्रातर्वों नाचराम हि ।

    अधुना श्रीमदान्धाक्षा न पश्याम: पुर: सतः ॥

    ६३॥

    प्राकु-पूर्वकाल में; अकल्पात्‌--अक्षमता के कारण; च--तथा; कुशलम्‌--कुशलता; भ्रात:--हे भाई; वः--तुम्हारा; नआचराम--हमने माना नहीं; हि--निस्सन्देह; अधुना--अब; श्री--ऐश्वर्य; मद--नशे के कारण; अन्ध--अन्धी बन कर;अक्षा:--जिनकी आँखें; न पश्याम:--हम देख नहीं पाते; पुरः--सामने; सत:ः--उपस्थित, वर्तमान

    हे भ्राता, इसके पूर्व हमने आपके लाभ की कोई बात नहीं की, क्योंकि हम ऐसा करने मेंअशक्त थे।

    तो भी इस समय, यद्यपि आप हमारे समक्ष उपस्थित हैं, हमारी आँखें भौतिकसौभाग्य के मद से इस तरह अन्धी हो चुकी हैं कि हम आपकी उपेक्षा करते ही जा रहे हैं।

    मा राज्यश्रीरभूत्पुंसः श्रेयस्कामस्य मानद ।

    स्वजनानुत बन्धून्वा न पश्यति ययान्धद्कू ॥

    ६४॥

    मा--मत; राज्य--राजा की; श्री:--लक्ष्मी; अभूत्‌ू--उदय होती है; पुंसः--एक व्यक्ति के लिए; श्रेय:--जीवन का असलीलाभ; कामस्य--चाहने वाले का; मान-द--हे सम्मान प्रदान करने वाले; स्व-जनान्‌--अपने निकट सम्बन्धियों को; उत--भी;बन्धूनू--अपने मित्रों के; वा--अथवा; न पश्यति--नहीं देखता; यया--जिस ( ऐश्वर्य ) से; अन्ध--अन्धी हुई; दक्‌--दृष्टि |

    है अत्यन्त आदरणीय, ईश्वर करे कि जो व्यक्ति जीवन में सर्वोच्च लाभ प्राप्त करना चाहतेहैं, वे कभी भी राजसी एऐश्वर्य प्राप्त न कर पायें, क्योंकि इससे वे अपने परिवार तथा मित्रों की आवश्यकताओं के प्रति अंधे बन जाते हैं।

    रीशुक उवाचएवं सौहदशैधिल्यचित्त आनकदुन्दुभि: ।

    रुरोद तत्कृतां मैत्रीं स्मरन्नश्रुविलोचन: ॥

    ६५॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस तरह; सौहद--घनिष्ठ संवेदना द्वारा; शैधिल्य--मृदु बनाये गये;चित्त:--हदय वाले; आनकदुन्दुभि:--वसुदेव द्वारा; रुरोद--रो पड़ा; तत्‌--उसके ( नन्द के ) द्वारा; कृतामू--किया गया;मैत्रीमू-मित्रता के कार्य; स्मरन्‌ू--स्मरण करते हुए; अश्रु--आँसू; विलोचन: --आँखों में |

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा : घनिष्ठ संवेदना के कारण हृदय द्रवित होने से वसुदेव रो पड़े।

    उनके नेत्र आँसुओं से डबडबा आये, जब उन्होंने अपने प्रति प्रदर्शित नन्द की मित्रता का स्मरणकिया।

    नन्दस्तु सख्यु: प्रियकृत्प्रेम्णा गोविन्दरामयो: ।

    अद्य श्र इति मासांस्त्रीन्यदुभिर्मानितोउबसत्‌ ॥

    ६६॥

    नन्दः--नन्द; तु--तथा; सख्यु:--अपने मित्रों को; प्रिय--स्नेह; कृतू--दिखलाने वाला; प्रेम्णा--प्रेमवश; गोविन्द-रामयो: --कृष्ण तथा बलराम के लिए; अद्य--आज ( देर से जाऊँगा ); श्र:--( मैं ) कल ( जाऊँगा ); इति--इस प्रकार; मासान्‌ू--महीने;त्रीनू--तीन; यदुभि:--यदुओं द्वारा; मानित:--सम्मानित; अवसत्‌--रहता रहा।

    नन्द भी अपने मित्र वसुदेव के प्रति स्नेह से भरपूर थे।

    अतः बात के दिनों में नन्‍द बारम्बारयही कहते, 'मैं आज ही कुछ समय के बाद जाने वाला हूँ' तथा 'मैं कल जाऊँगा।

    ' किन्तुकृष्ण तथा बलराम के स्नेह के कारण, वे समस्त यदुओं द्वारा सम्मानित होकर और तीन मासतक रहते रहे।

    ततः कामै: पूर्यमाण: सब्रजः सहबान्धव: ।

    परार्ध्या भरणक्षौमनानानर्ध्यपरिच्छदै: ॥

    ६७॥

    बसुदेवोग्रसेनाभ्यां कृष्णोद्धवबलादिभि: ।

    दत्तमादाय पारिब्ई यापितो यदुभिर्ययों ॥

    ६८ ॥

    ततः--तब; कामै:--इच्छित वस्तुओं से; पूर्यमाण:--तृप्त; स-ब्रज:--व्रजवासियों सहित; सह-बान्धव:--अपने परिवार वालोंके साथ; पर--अत्यन्त; अर्ध्य--मूल्यवान; आभरण--आशभूषणों से; क्षौम--महीन मखमल; नाना--विविध; अनर्घ्य--अमूल्य;परिच्छदैः--तथा घरेलू साज-सामान से; वसुदेव-उग्रसेना भ्याम्‌--वसुदेव तथा उग्रसेन द्वारा; कृष्ण-उद्धव-बल-आदिभि:--तथाकृष्ण, उद्धव, बलराम आदि के द्वारा; दत्तमू--दिया हुआ; आदाय--लेकर; पारिब्म्‌--उपहारों को; यापित:--विदा किया;यदुभिः--यदुओं द्वारा; ययौ--विदा हो गया।

    जब वसुदेव, उग्रसेन, कृष्ण, उद्धव, बलराम तथा अन्य लोग नन्द की इच्छाएँ पूरी कर चुकेतथा बहुमूल्य आभूषण, महीन मलमल तथा नाना प्रकार की बहुमूल्य घरेलू सामग्री भेंट करचुके, तो नन्‍्द महाराज ने ये सारी भेंटें स्वीकार कर लीं और सभी यदुओं से विदा ली तथा वेअपने पारिवारिक सदस्यों तथा व्रजवासियों के साथ रवाना हो गये।

    नन्दो गोपास्‌' च गोप्यश्च गोविन्दचरणाम्बुजे ।

    मनः क्षिप्तं पुनईर्तुमनीशा मथुरां ययु: ॥

    ६९॥

    नन्दः--नन्द; गोपा:ः--ग्वाले; च--तथा; गोप्य: --गोपियाँ; च-- भी; गोविन्द--कृष्ण के; चरण-अम्बुजे--चरणकमलों पर;मनः--उनके मन; क्षिप्तमू-फेंके हुए; पुनः--फिर; हर्तुमू--दूर करने के लिए; अनीशा:--असमर्थ; मथुराम्‌--मथुरा; ययु:--चले गये

    भगवान्‌ गोविन्द के चरणकमलों पर समर्पित अपने मन को वहाँ से विलग कर पाने मेंअसमर्थ नन्द तथा ग्वाल-ग्वालिनें मथुरा लौट गए।

    बन्धुषु प्रतियातेषु वृष्णय: कृष्णदेवता: ।

    वीक्ष्य प्रावृषमासन्नाद्ययुर्द्दारवर्ती पुन: ॥

    ७०॥

    बन्धुषु--अपने सम्बन्धियों से; प्रतियातेषु--विदा होकर; वृष्णय:--वृष्णिजन; कृष्ण-देवता:--जिनके आराध्यदेव कृष्ण थे;वीक्ष्य--देखकर; प्रावृषम्‌--वर्षाऋतु; आसन्नातू--सन्निकट; ययु:--गये; द्वारवतीम्‌--द्वारका; पुन:--फिर |

    इस तरह जब उनके सम्बन्धी विदा हो चुके और जब उन्होंने वर्षाऋतु को निकट आते देखा,तो वृष्णिजन, जिनके एकमात्र स्वामी कृष्ण थे, द्वारका वापस चले गये।

    जनेभ्य: कथयां चक्रुर्यदुदेवमहोत्सवम्‌ ।

    यदासीत्तीर्थयात्रायां सुहत्सन्दर्शनादिकम्‌ ॥

    ७१॥

    जनेभ्य:--लोगों को; कथयाम्‌ चक्करु:--कह सुनाया; यदु-देव--यदुओं के स्वामी वसुदेव का; महा-उत्सवम्‌--महान्‌ उत्सव;यत्‌--जो; आसीत्‌--घटना घटी; तीर्थ-यात्रायाम्‌--ती र्थयात्रा के दौरान; सुहृत्‌ू-मित्रों के; सन्दर्शन--दर्शन करने;आदिकम्‌ू--इत्यादि।

    उन्होंने नगर के लोगों को यदुओं के स्वामी वसुदेव द्वारा सम्पन्न यज्ञोत्सवों के बारे में तथाउनकी तीर्थयात्रा के दौरान, जो भी घटनाएँ घटी थीं, विशेष रूप से, जिस तरह वे अपनेप्रियजनों से मिले, इन सबके बारे में कह सुनाया।

    TO

    अध्याय पचासी: भगवान कृष्ण ने वासुदेव को निर्देश दिया और देवकी के पुत्रों को पुनः प्राप्त किया

    10.85श्रीबादरायणिरुवाचअथैकदात्मजौ प्राप्तौ कृतपादाभिवन्दनौ ।

    वसुदेवोभिनन्द्याह प्रीत्या सड्डर्षणाच्युतौ ॥

    १॥

    श्री-बादरायणि: उबाच-- श्री बादरायणि ( शुकदेव गोस्वामी ) ने कहा; अथ--तब; एकदा--एक दिन; आत्मजौ--दोनों पुत्र;प्राप्ती--उनके पास आये; कृत--करके; पाद--चरणों का; अभिवन्दनौ--आदर; वसुदेव: --वसुदेव ने; अभिनन्द्य--उनकासत्कार करके; आह--कहा; प्रीत्या--स्नेहपूर्वक; सड्भूर्षण-अच्युतौ--बलराम तथा कृष्ण से

    श्री बादरायण ने कहा : एक दिन वसुदेव के दोनों पुत्र संकर्षण तथा अच्युत उनके( बसुदेव के ) पास आये और उनके चरणों पर नतमस्तक होकर प्रणाम किया।

    वसुदेव ने बड़े हीस्नेह से उनका सत्कार किया और उनसे इस प्रकार बोले।

    मुनीनां स बच: श्रुत्वा पुत्रयोर्धामसूचकम्‌ ।

    तद्दीर्यर्जातविश्रम्भ: परिभाष्याभ्यभाषत ॥

    २॥

    मुनीनाम्‌-मुनियों के; सः--उसने; बच: --शब्द; श्रुत्वा--सुन कर; पुत्रयो: --अपने दोनों पुत्रों की; धाम--शक्ति; सूचकम्‌--बताने वाले; तत्‌--उनके; वीर्यैं:--वीरतापूर्ण कार्यों से; जात--उत्पन्न; विस्त्रम्भ:--संकल्प; परिभाष्य--नाम लेकर;अभ्यभाषत--उनसे कहा |

    अपने दोनों पुत्रों की शक्ति के विषय में महर्षियों के कथन सुन कर तथा उनके बीरतापूर्णकार्यो को देख कर वसुदेव को उनकी दिव्यता पर पूरा-पूरा विश्वास हो गया।

    अतः उनका नामलेकर, वे उनसे इस प्रकार बोले।

    कृष्ण कृष्ण महायोगिन्सड्डूर्षण सनातन ।

    जाने वामस्य यत्साक्षात्प्रधानपुरुषी परौ ॥

    ३॥

    कृष्ण कृष्ण--हे कृष्ण, हे कृष्ण; महा-योगिन्‌--हे महान्‌ योगी; सड्डूर्षण--हे बलराम; सनातन--नित्य; जाने--मैं जानता हूँ;वाम्‌--तुम दोनों को; अस्य--इस ( ब्रह्माण्ड ) के; यत्‌--जो; साक्षात्‌-- प्रत्यक्ष; प्रधान--प्रकृति का सृजनात्मक तत्त्व;पुरुषौ--तथा स्त्रष्टा भगवान्‌; परौ--परम

    वसुदेव ने कहा : हे कृष्ण, हे कृष्ण, हे योगी श्रेष्ठ, हे नित्य संकर्षण, मैं जानता हूँ कि तुमदोनों निजी तौर पर ब्रह्माण्ड की सृष्टि के कारणस्वरूप और साथ ही साथ सृष्टि के अवबयव भीहो।

    यत्र येन यतो यस्य यस्मै यद्यद्यथा यदा ।

    स्यादिदं भगवान्साक्षात्प्रधानपुरुषे श्वर: ॥

    ४॥

    यत्र--जिसमें; येन--जिसके द्वारा; यतः--जिससे; यस्य--जिसका; यस्मै--जिसको; यत्‌ यत्‌--जो जो; यथा--फिर भी;यदा--जब भी; स्थात्‌--हो; इृदम्‌--इस ( सृष्टि ) को; भगवान्‌-- भगवान्‌; साक्षात्‌-- अपनी उपस्थिति में; प्रधान-पुरुष--प्रकृति तथा उसके स्त्रष्टा ( महाविष्णु ) के; ईश्वरः --अधिष्ठता |

    आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ हैं, जो प्रकृति तथा प्रकृति के स्त्रष्टा ( महाविष्णु ) दोनों केस्वामी के रूप में प्रकट होते हैं।

    फिर भी प्रत्येक वस्तु जिस का अस्तित्व बनता है और जब कभीऐसा होता है, वह आपके भीतर, आपके द्वारा, आपसे, आपके लिए तथा आपसे ही सम्बन्धित होती है।

    एतन्नानाविध॑ विश्वमात्मसृष्टमधोक्षज ।

    आत्मनानुप्रविश्यात्मन्प्राणो जीवो बिभर्ष्यवज ॥

    ५॥

    एतत्‌--इस; नाना-विधम्‌--विविध; विश्वम्‌--ब्रह्मण्ड को; आत्म--अपने द्वारा; सृष्टम्‌-उत्पन्न किये गये; अधोक्षज--हे दिव्यप्रभु; आत्मना--अपने में ( परमात्मा रूप में ); अनुप्रविश्य-- भीतर प्रवेश करके; आत्मन्‌--हे परमात्मा; प्राण: --प्राण, तत्त्व;जीव:--तथा चेतना तत्त्व; बिभर्षि--पालन करते हो; अज--हे अजन्मा |

    हे दिव्य प्रभु, आपने इस विचित्र ब्रह्माण्ड की रचना अपने में से की और तब अपने परमात्मास्वरूप में आप इसके भीतर प्रविष्ट हुए।

    इस तरह हे अजन्मा परमात्मा, आप प्रत्येक व्यक्ति केप्राण तथा चेतना के रूप में सृष्टि का पालन करने वाले हैं।

    प्राणादीनां विश्वसृजां शक्तयो या: परस्य ता: ।

    पारतन्त्याद्वैसादृष्यादूदवयो श्रेष्टव चेष्टताम्‌ ॥

    ६॥

    प्राण-- प्राण; आदीनाम्‌ू--इत्यादि का; विश्व--ब्रह्माण्ड का; सृजामू--सृजनकारी तत्त्व; शक्तय:--शक्तियाँ; या:--जो;'परस्य--परमात्मा की; ताः--वे; पारतन्त्रयातू--परतंत्रता के कारण; बैसाहश्यात्‌ू--असमानता के कारण; द्वयो:--दोनों( चराचर ) की; चेष्टा--क्रियाशीलता; एब--केवल; चेष्टताम्‌ू--सक्रिय जीवों की ( प्राण इत्यादि की )॥

    प्राण तथा ब्रह्मण्ड-सृजन के अन्य तत्त्व, जो भी शक्तियाँ प्रदर्शित करते हैं, वे वास्तव मेंभगवान्‌ की निजी शक्तियाँ हैं, क्योंकि प्राण तथा पदार्थ दोनों ही उनके अधीन तथा उनकेआश्ित हैं और एक-दूसरे से भिन्न भी हैं।

    इस तरह इस भौतिक जगत की प्रत्येक सक्रिय वस्तुभगवान्‌ द्वारा ही गतिशील बनाई जाती है।

    कान्तिस्तेज: प्रभा सत्ता चन्द्राग्न्यर्क क्षविद्युताम्‌ ।

    यस्थेर्य भूभूतां भूमेर्वृत्तिर्गन्‍्धोर्थतो भवान्‌ ॥

    ७॥

    कान्तिः--आकर्षक चमक; तेज:--चटक; प्रभा-- प्रकाश; सत्ता--तथा विशिष्ट अस्तित्व; चन्द्र--चन्द्रमा; अग्नि-- आग;अर्क--सूर्य; ऋक्ष --तारे; विद्युतामू--तथा बिजली के; यत्‌--जो; स्थैर्यम्‌ू--स्थायित्व; भू-भृूताम्‌--पर्वतों के; भूमेः --पृथ्वीके; वृत्तिः--धारणशक्ति का गुण; गन्ध: --सुगन्धि; अर्थतः--सचमुच; भवान्‌ू-- आप

    चन्द्रमा की कान्ति, अग्नि का तेज, सूर्य की चमक, तारों का टिमटिमाना, बिजली कीदमक, पर्वतों का स्थायित्व तथा पृथ्वी की सुगंध एवं धारणशक्ति--ये सब वास्तव में आप हीहैं।

    तर्पणं प्राणनमपां देव त्वं ताश्न तद्रसः ।

    ओज: सहो बल चेष्टा गतिर्वायोस्तवेश्वर ॥

    ८॥

    तर्पणम्‌--संतोष उत्पन्न करने की क्षमता; प्राणनम्‌--जीवनदान; अपाम्‌--जल का; देव--हे प्रभु; त्वम्‌ू--तुम; ता:ः--वही( जल ); च--तथा; तत्‌--उस ( जल ) का; रसः--आस्वाद; ओज: --शारीरिक उष्णता तथा प्राण-वायु के कारण जीवन-शक्ति; सह:--मानसिक शक्ति; बलमू--शारीरिक शक्ति; चेष्टा-- प्रयास; गति:--तथा चाल-फेर; वायो:--वायु का; तव--तुम्हारा; ईश्वर--हे परम नियन्ता।

    हे प्रभु, आप जल हैं और इसका आस्वाद तथा प्यास बुझाने एवं जीवन धारण करने कीक्षमता भी हैं।

    आप अपनी शक्तियों का प्रदर्शन वायु के द्वारा शरीर की उष्णता, जीवन-शक्ति,मानसिक शक्ति, शारीरिक शक्ति, प्रयास तथा गति के रूप में करते हैं।

    दिशां त्वमवकाशोसि दिश: खं स्फोट आश्रय: ।

    नादो वर्णस्त्वम्‌ड४कार आकृतीनां पृथक्ृति: ॥

    ९॥

    दिशाम्‌ू--दिशाओं के; त्वमू--तुम; अवकाश:--सहनशक्ति; असि--हो; दिशः--दिशाएँ; खम्‌-- आकाश; स्फोट:--धध्वनि;आश्रयः--अपने आधार के रूप ( आकाश ); नाद:--अप्रकट गूँज के रूप में ध्वनि; वर्ण:--आदि अक्षर; त्वमू--तुम; ३४७-कार:ः--ओम्‌; आकृतीनाम्‌--विशेष रूपों के; पृथक्‌-कृतिः--अन्तर का कारण ( अर्थात्‌ प्रकट भाषा )॥

    आप ही दिशाएँ एवं उनकी अनुकूलन-क्षमता, सर्वव्यापक आकाश तथा इसके भीतर वासकरने वाली ध्वनि ( स्फोट ) हैं।

    आप आदि अप्रकट ध्वनि रूप हैं, आप ही प्रथम अक्षर ३% हैंऔर आप ही श्रव्य वाणी हैं, जिसके द्वारा शब्दों के रूप में ध्वनि विशिष्ट प्रसंग बन जाती है।

    इन्द्रियं त्विन्द्रियाणां त्वं देवाश्व॒ तदनुग्रहः ।

    अवबोधो भवानज्बुद्धेर्जीवस्यानुस्मृति:ः सती ॥

    १०॥

    इन्द्रियम्‌ू--वस्तुओं को प्रकाशित करने की शक्ति; तु--तथा; इन्द्रियाणाम्‌ू--इन्द्रियों के; त्वम्‌--तुम; देवा: --देवता ( जोविविध इन्द्रियों का नियमन करते हैं )) च--एवं; तत्‌--उनका ( देवताओं की ); अनुग्रह:--कृपा ( जिसके द्वारा इन्द्रियाँ कार्यकर सकती हैं ); अवबोध:--निर्णय लेने की शक्ति; भवान्‌--आप; बुद्धेः--बुद्धि की; जीवस्थ--जीव की; अनुस्मृति:--स्मरण रखने की शक्ति; सती--सही सही

    आप वस्तुओं को प्रकट करने की इन्द्रिय-शक्ति, इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवता तथा ऐन्द्रियकार्यों को करने के इन देवताओं द्वारा दिये गये अधिकार हैं।

    आप निर्णय लेने की बुद्धि-क्षमतातथा जीव द्वारा वस्तुओं को सही सही स्मरण रखने की क्षमता हैं।

    भूतानामसि भूतादिरिन्द्रियाणां च तैजसः ।

    वैकारिको विकल्पानां प्रधानमनुशायिनम्‌ ॥

    ११॥

    भूतानामू-- भौतिक तत्त्वों के; असि--हो; भूत-आदि: --उनका स्त्रोत, तमोगुणी मिथ्या अहंकार; इन्द्रियाणाम्‌--इन्द्रियों के;च--तथा; तैजस:--रजोगुणी मिथ्या अहंकार; वैकारिक:--सतोगुणी मिथ्या अहंकार; विकल्पानाम्‌--सृजनकारी देवताओं के;प्रधानम्‌--अप्रकट सम्पूर्ण भौतिक शक्ति; अनुशायिनम्‌-- आधारभूत |

    आप ही तमोगुणी मिथ्या अहंकार हैं, जो भौतिक तत्त्वों का स्रोत है; आप रजोगुणी मिथ्याअहंकार हैं, जो शारीरिक इन्द्रियों का स्त्रोत है; सतोगुणी मिथ्या अहंकार हैं, जो देवताओं कास्त्रोत है तथा आप ही अप्रकट सम्पूर्ण भौतिक शक्ति हैं, जो हर वस्तु की मूलाधार है।

    नश्वरेष्विह भावेषु तदसि त्वमनश्वरम्‌ ।

    यथा द्रव्यविकारेषु द्र॒व्यमात्रं निरूपितम्‌ ॥

    १२॥

    नश्वरेषु--नश्वर; इहह--इस संसार में; भावेषु--जीवों में; तत्‌--वह; असि--हो; त्वमू--तुम; अनश्वरम्‌-- अनश्वर; यथा--जिसतरह; द्रव्य--पदार्थ के; विकारेषु--रूपान्तरों में; द्रव्य-मात्रमू--स्वयंपदार्थ; निरूपितम्‌--सुनिश्चित किया हुआ।

    आप इस जगत की समस्त नश्वर वस्तुओं में से एकमात्र अनश्वर जीव हैं, जिस तरह कोईमूलभूत वस्तु अपरिवर्तित रहती दिखती है, जबकि उससे बनी वस्तुओं में रूपान्तर आ जाता है।

    सत्त्वम्रजस्तम इति गुणास्तद्वत्तयश्च या: ।

    त्वय्यद्धा ब्रह्मणि परे कल्पिता योगमायया ॥

    १३॥

    सत्त्वम्‌ रज: तमः इति--सतो, रजो तथा तमोगुण नामक; गुणा:-- प्रकृति के गुण; तत्‌--उनके; वृत्तय:--कार्य; च--तथा;या:--जो; त्वयि--तुममें; अद्धा:--प्रकट रूप से; ब्रह्मणि--परब्रह्म में; परे--परम; कल्पिता:--नियोजित; योग-मायया--योगमाया ( भगवान्‌ की अन्तरंगा शक्ति जो उनकी लीलाओं को सुगम बनाती है ) द्वाराप्रकृति के गुण--यथा सतो, रजो तथा तमो गुण--अपने सारे कार्यो समेत

    आप अर्थात्‌परम सत्य के भीतर आपकी योगमाया की व्यवस्था के द्वारा सीधे प्रकट होते हैं।

    तस्मान्न सन्त्यमी भावा यर्हिं त्वयि विकल्पिता: ।

    त्वं चामीषु विकारेषु ह्ान्यदाव्यावहारिकः ॥

    १४॥

    तस्मात्‌ू--इसलिए; न--नहीं; सन्ति--हैं; अमी --ये; भावा:--जीव; यर्हि-- जब; त्वयि--तुममें; विकल्पिता: --व्यवस्थित;त्वमू--तुम; च-- भी; अमीषु--इनके भीतर; विकारेषु--सृष्टि के फल, विकार; हि--निस्सन्देह; अन्यदा--किसी अन्य समय;अव्यावहारिक:--अ-भौतिक

    इस तरह प्रकृति के विकार स्वरूप ये सृजित जीव तभी विद्यमान रहते हैं, जब भौतिकप्रकृति उन्हें आपके भीतर प्रकट करती है।

    उस समय आप भी उनके भीतर प्रकट होते हैं।

    किन्तुसृजन के ऐसे अवसरों के अतिरिक्त आप दिव्य सत्य की भाँति अकेले रहते हैं।

    गुणप्रवाह एतस्मिन्नबुधास्त्वखिलात्मन: ।

    गतिं सूक्ष्मामबोधेन संसरन्तीह कर्मभि: ॥

    १५॥

    गुण--गुणों के; प्रवाहे--प्रवाह में; एतस्मिनू--इस; अबुधा:--अज्ञानी; तु--लेकिन; अखिल--हर वस्तु का; आत्मन:--आत्माका; गतिमू--गन्तव्य; सूक्ष्मम्‌--दिव्य; अबोधेन--ज्ञान का अभाव होने से; संसरन्ति--जन्म-पमृत्यु के चक्र में घूमते हैं; इह--इस जगत में; कर्मभि:ः -- भौतिक कार्य से बाध्य होकर।

    वे सचमुच अज्ञानी हैं, जो इस जगत में भौतिक गुणों के निरन्तर प्रवाह के भीतर बन्दी रहते हुए आपको अपने चरम सूक्ष्म गन्तव्य परमात्मा स्वरूप जान नहीं पाते।

    अपने अज्ञान के कारणभौतिक कर्म का बन्धन ऐसे जीवों को जन्म-मृत्यु के चक्र में घूमने के लिए बाध्य कर देता है।

    यहच्छया नृतां प्राप्प सुकल्पामिह दुर्लभाम्‌ ।

    स्वार्थ प्रमत्तस्य वयो गत त्वन्माययेश्वर ॥

    १६॥

    यहच्छया--जैसे तैसे; नृतामू--मानव पद; प्राप्प--प्राप्त करके; सु-कल्पाम्‌--उपयुक्त; इहह--इस जीवन में; दुर्लभाम्‌--प्राप्तकरना कठिन; स्व--अपने; अर्थ--कल्याण के विषय में; प्रमत्तस्य--प्रमत्त अर्थात्‌ मूढ़ के; वयः--आयु; गतम्‌--बीती हुई;त्वत्‌-तुम्हारी; मायया--माया द्वारा; ईश्वर--हे प्रभु |

    सौभाग्य से जीव स्वस्थ मनुष्य-जीवन प्राप्त कर सकता है, जो कि विरले ही प्राप्त होनेवाला सुअवसर होता है।

    किन्तु हे प्रभु, यदि इतने पर भी वह अपने लिए, जो सर्वोत्तम है, उसकेविषय में मोहग्रस्त रहता है, तो आपकी माया उसको अपना सारा जीवन नष्ट करने के लिए बाध्यकर सकती है।

    असावहम्ममैवैते देहे चास्यान्वयादिषु ।

    स्नेहपाशर्निबध्नाति भवान्सर्वमिदं जगत्‌ ॥

    १७॥

    असौ--यह; अहम्‌--मैं; मम--मेरा; एव--निस्सन्देह; एते--ये; देहे--शरीर में; च--तथा; अस्य--इसका; अन्वय-आदिषु--सनन्‍्तान तथा अन्य सम्बद्ध वस्तुओं में; स्नेह--स्नेह को; पाशैः--रस्सियों से; निबध्नाति--बाँधते हैं; भवान्‌--आप; सर्वम्‌--समस्त; इृदम्‌--इस; जगत्‌--संसार को

    आप स्नेह की रस्सियों से इस सारे संसार को बाँधे रहते हैं, अत: जब लोग अपने भौतिकशरीरों पर विचार करते हैं, तो वे सोचते हैं, 'यह मेरा है!' और जब वे अपनी सनन्‍्तान तथा अन्यसम्बन्धियों पर विचार करते हैं, तो वे सोचते हैं, 'ये मेरे हैं।

    युवां न नः सुतौ साक्षात्प्रधानपुरुषे श्वरौ ।

    भूभारक्षत्रक्षपण अवतीर्णों तथात्थ ह ॥

    १८॥

    युवाम्‌ू--तुम दोनों; न--नहीं; न:--हमारे; सुतौ--पुत्र; साक्षात्‌- प्रत्यक्ष; प्रधान-पुरुष-- प्रकृति तथा इसके स्त्रष्टा ( महाविष्णु )के; ईश्वरौ--परम नियन्ता; भू--पृथ्वी के; भार--बोझा; क्षत्र--राजा; क्षपणे--विनाश करने के लिए; अवतीर्णौं--अवतरितहुए; तथा--ऐसा; आत्थ--आपने कहा है; ह--निस्सन्देह

    आप दोनों हमारे पुत्र नहीं हैं, अपितु प्रकृति तथा उसके स्त्रष्टा ( महाविष्णु ) दोनों ही केस्वामी हैं।

    जैसा कि आपने स्वयं हमसे कहा है, आप पृथ्वी को उन शासकों से मुक्त करने केलिए अवतरित हुए हैं, जो उस पर अत्यधिक भार बने हुए हैं।

    तत्ते गतोस्म्थरणमद्य पदारविन्द-मापन्नसंसूतिभयापहमार्तबन्धो ।

    'एतावतालमलमिन्द्रियलालसेनमर्त्यात्महक्त्वयि परे यदपत्यबुद्धि: ॥

    १९॥

    तत्‌--इसलिए; ते--तुम्हारी; गत:--आया हुआ; अस्मि--हूँ; अरणम्‌--शरण के लिए; अद्य--आज; पाद-अरविन्दम्‌--चरणकमलों पर; आपन्न--शरणागतों के लिए; संसृति-- भौतिक बन्धन का; भय--डर; अपहम्‌--जो दूर करते हैं; आर्त--दुखियों के; बन्धो--हे मित्र; एतावता--इतना; अलम्‌ अलमू--बस, बस ( बहुत हुआ ); इन्द्रिय--इन्द्रिय-भोग के लिए;लालसेन--लालसा से; मर्त्य--मरणशील ( भौतिक देह ) के रूप में; आत्म--स्वयं; हक्‌--जिनकी दृष्टि; त्वयि--तुम्हारे प्रति;परे--परम; यत्‌--जिसके कारण ( लालसा ); अपत्य--सनन्‍्तान; बुर्दधिः--मानसिकता |

    इसलिए, हे दुखियों के मित्र, अब मैं शरण के लिए आपके चरणकमलों के पास आयाहूँ--ये वही चरणकमल हैं, जो शरणागतों के सारे संसारिक भय को दूर करने वाले हैं।

    बस,इन्द्रिय-भोग की लालसा बहुत हो चुकी, जिसके कारण मैं अपनी पहचान इस मर्त्य शरीर से करता हूँ और आपको अर्थात्‌ परम पुरुष को अपना पुत्र समझता हूँ।

    सूतीगृहे ननु जगाद भवानजो नौसजञ्ञज्ञ इत्यनुयुगं निजधर्मगुप्त्ये ।

    नानातनूर्गगनवद्विदधजहासिको वेद भूम्न उरुगाय विभूतिमायाम्‌ ॥

    २०॥

    सूती-गृहे--प्रसूति-गृह में; ननु--निस्सन्देह; जगाद--कहा; भवान्‌--आप; अज:--अजन्मा भगवान्‌; नौ--हमको; सझ्ज्ञे--आपने जन्म लिया; इति--इस प्रकार; अनु-युगम्‌--युग-युग में; निज-- अपना; धर्म--धर्म; गुप्त्य--रक्षा करने के लिए;नाना--विविध; तनू:--दैवी शरीर; गगन-वत्‌--बादल की तरह; विदधत्‌-- धारण करके; जहासि--छिपा देते हो; कः--कौन;वेद--जान सकता है; भूम्न:--सर्वव्यापी भगवान्‌ का; उर-गाय--हे अत्यधिक प्रशंसित; विभूति--ऐश्वर्यशशाली अंशों के;मायाम्‌ू--योगमयी मोहक शक्ति

    निस्सन्देह आपने हमें प्रसूति-गृह में ही बतला दिया था कि आप अजन्मा हैं और इसके पूर्वके युगों में कई बार हमारे पुत्र के रूप में जन्म ले चुके हैं।

    आपने अपने धर्म की रक्षा करने केलिए इन दिव्य शरीरों को प्रकट करने के बाद उन्हें छिपा लिया, जिस तरह बादल प्रकट होते हैंऔर लुप्त हो जाते हैं।

    हे परम महिमामय सर्वव्यापक भगवान्‌, आपके विभूति अंशों कीभ्रान्तिपूर्ण माया को कौन समझ सकता है ?

    श्रीशुक उबाचआकर्प्येत्थं पितुर्वाक्यं भगवान्सात्वतर्षभ:ः ।

    प्रत्याह प्रश्नयानप्र: प्रहसन्श्लक्ष्णया गिरा ॥

    २१॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; आकर्णर्य --सुनकर; इत्थम्‌--इस तरह से; पितु:--अपने पिता के; वाक्यम्‌--कथन; भगवान्‌--भगवान्‌ ने; सात्वत-ऋषभ: --यदुओं में श्रेष्ठ; प्रत्याह--उत्तर दिया; प्रश्रय--विनयपूर्वक; आनप्र:--झुकाकर( अपना सिर ); प्रहसन्‌--जोर से हँसते हुए; श्लक्ष्णया--धीमी; गिरा--वाणी से

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : अपने पिता के वचनों को सुनने के बाद सात्वतों के नायकभगवान्‌ ने विनयपूर्वक अपना सिर झुकाया और मन्द-मन्द हँसे और फिर मृदुल वाणी में उत्तरदिया।

    श्रीभगवानुवाचबचो व: समवेतार्थ तातैतदुपमन्महे ।

    यतन्नः पुत्रान्समुद्दिश्य तत्त्वग्राम उदाहृत: ॥

    २२॥

    श्री-भगवान्‌ उबाच-- भगवान्‌ ने कहा; वच: --शब्द; व:--आपके; समवेत--उपयुक्त; अर्थम्‌--अर्थ वाले; तात--हे पिता;एतत्‌--ये; उपमन्महे--मैं मानता हूँ; यत्‌-- क्योंकि; नः--हम; पुत्रान्‌--आपके पुत्रों को; समुद्ििशय--बतलाकर; तत्त्व--तथ्योंकी कोटियों के; ग्राम:--सम्पूर्ण रूप से; उदाहतः--सामने रखा

    भगवान्‌ ने कहा: हे पिताश्री, मैं आपके वचनों को सर्वथा उपयुक्त मानता हूँ, क्योंकिआपने हमें अर्थात्‌ अपने पुत्रों का सन्दर्भ देते हुए संसार की विविध कोटियों की व्याख्या की है।

    अहं यूयमसावार्य इमे च द्वारकाउकसः ।

    सर्वेडप्येवं यदुश्रेष्ठ विमृग्या: सचराचरम्‌ ॥

    २३॥

    अहम्‌-ैं; यूयमू-- आपको; असौ--वह; आर्य:--मेरे पूज्य भ्राता ( बलराम ); इमे--ये; च--तथा; द्वारका-ओकसः--द्वारकावासी; सर्वे--सभी; अपि--ही; एवम्‌--इसी तरह से; यदु-श्रेष्ठ--हे यदु श्रेष्ठ; विमृग्या:--माना जाना चाहिए; स--सहित;चर--चेतन; अचरम्‌--जड़

    हे यदुश्रेष्ठ न केवल मुझे, अपितु आपको, मेरे पूज्य भ्राता को तथा ये द्वारकावासी इन सबोंको भी इसी दार्शनिक आलोक में देखा जाना चाहिए।

    दरअसल हमें जड़ तथा चेतन दोनों हीप्रकार के समस्त सृष्टि को इसमें सम्मिलित करना चाहिए।

    आत्मा होकः स्वयंज्योतिर्नित्योउन्यो निर्गुणो गुणैः ।

    आत्मसूष्टैस्तत्कृतेषु भूतेषु बहुधेयते ॥

    २४॥

    आत्मा--परमात्मा; हि--निस्सन्देह; एक:--एक; स्वयम्‌-ज्योति:--आत्मज्योतित; नित्य:--नित्य; अन्य:--पृथक्‌ ( भौतिकशक्ति से ); निर्गुण:--भौतिक गुणों से मुक्त; गुणै:ः--गुणों के द्वारा; आत्म--स्वयं से; सृष्टै:--उत्पन्न; तत्‌--अपने फलों में;कृतेषु--उत्पादन; भूतेषु--भौतिक जीवों में; बहुधा--कई प्रकार का; ईयते--प्रतीत होता है

    दरअसल परमात्मा एक है।

    वह आत्मज्योतित तथा नित्य, दिव्य एवं भौतिक गुणों से रहितहै।

    किन्तु इन्हीं गुणों के माध्यम से उसने सृष्टि की है, जिससे एक ही परम सत्य उन गुणों केअंशों में अनेक रूप में प्रकट होता है।

    खं वायुर्ज्योतिरापो भूस्तत्कृतेषु यथाशयम्‌ ।

    आविस्तिरोउल्पभूर्येको नानात्वं यात्यमावषि ॥

    २५॥

    खम्‌--आकाश; वायु:--वायु; ज्योति:--अग्नि; आप:--जल; भू:--पृथ्वी; तत्‌--उनके; कृतेषु--फलों में; यथा-आशयम्‌--विशेष स्थितियों के अनुसार; आवि:--व्यक्त; तिर:--अव्यक्त; अल्प--लघु; भूरि--बृहत्‌; एक:--एक; नानात्वम्‌--अनेकरूपता; याति--धारण करता है; असौ--वह; अपि-- भी |

    आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी--ये तत्त्व विविध वस्तुओं में प्रकट होते समय दृश्य,अदृश्य, लघु या विशाल बन जाते हैं।

    इसी तरह परमात्मा एक होते हुए भी अनेक प्रतीत होता है।

    श्रीशुक उबाचएवं भगवता राजन्वसुदेव उदाहतः ।

    श्र॒ुत्वा विनष्टनानाधीस्तृष्णीं प्रीतमना अभूत्‌ ॥

    २६॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; भगवता-- भगवान्‌ द्वारा; राजन्‌ू--हे राजा ( परीक्षित );वसुदेव:--वसुदेव; उदाहत:--कहे गये; श्रुत्वा--सुनकर; विनष्ट--विनष्ट; नाना--द्वैतयुक्त; धीः --बुद्ध्ि; तृष्णीम्‌ू--मौन;प्रीत--तुष्ट; मना:--अपने मन में; अभूत्‌-- था।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन्‌ू, भगवान्‌ द्वारा कहे गये इन उपदेशों को सुनकर वसुदेवसमस्त द्वैत-भाव से मुक्त हो गये।

    हृदय में तुष्ट होकर वे मौन रहे।

    अथ तत्र कुरुश्रेष्ठ देवकी सर्वदेवता ।

    श्र॒ुत्वानीतं गुरो: पुत्रमात्मजाभ्यां सुविस्मिता ॥

    २७॥

    कृष्णरामौ समाश्राव्य पुत्रान्कंसविहिंसितान्‌ ।

    स्मरन्ती कृपणं प्राह वैक्लव्यादश्रुलोचना ॥

    २८॥

    अथ--तब; तत्र--उसी स्थान पर; कुरु-श्रेष्ठ--हे कुरु श्रेष्ठ; देवकी--माता देवकी ने; सर्व--सबों की; देवता--पूज्य देवी;श्रुत्वा--सुनकर; नीतम्‌--वापस लाये हुए; गुरो:--अपने गुरुओं के ; पुत्रमू-पुत्र को; आत्मजाभ्याम्‌-- अपने दोनों पुत्रों द्वारा;सु--अत्यधिक; विस्मिता--चकित; कृष्ण-रामौ--कृष्ण तथा बलराम; समाश्राव्य--स्पष्ट रूप से सम्बोधित करके; पुत्रान्‌ू--अपने पुत्रों को; कंस-विहिंसितान्‌--कंस द्वारा मारे गये; स्मरन्ती--स्मरण करती हुई; कृपणम्‌--दीनतापूर्वक; प्राह--कहा;बैक्लव्यात्‌ू--विकलता के कारण; अश्रु--आँसुओं ( से पूरित )) लोचना--आँखें |

    हे कुरु श्रेष्ठ, उसी समय सर्वत्र पूजनीय देवकी ने अपने दोनों पुत्रों, कृष्ण तथा बलराम कोसम्बोधित करने का अवसर पाया।

    इसके पूर्व उन्होंने अत्यन्त विस्मय के साथ यह सुन रखा थाकि उनके ये पुत्र अपने गुरु के पुत्र को मृत्यु से वापस ले आये थे।

    अब वे कंस द्वारा वध कियेगये अपने पुत्रों का चिन्तन करते हुये अत्यन्त दुखी हुईं और अश्रुपूरित नेत्रों से कृष्ण तथा बलरामसे दीनतापूर्वक बोलीं श्रीदेवक्युवाचराम रामाप्रमेयात्मन्कृष्ण योगे श्वरेश्वर ।

    वेदाहं वां विश्वसृजामी श्ररावादिपूरुषी ॥

    २९॥

    श्री-देवकी उबाच-- श्री देवकी ने कहा; राम राम--ओरे राम, ओरे राम; अप्रमेय-आत्मन्‌--हे अमाप्य परमात्मा; कृष्ण--हेकृष्ण; योग-ईश्वर--योग के स्वामियों के; ई ध्वर--हे स्वामी; वेद--जानती हूँ; अहम्‌--मैं; वाम्‌--तुम दोनों को; विश्व--ब्रह्माण्ड के; सृजामू--स्त्रष्टाओं के; ईश्वरौ--स्वामी; आदि--मूल; पूरुषौ--दो पुरुष

    श्री देवकी ने कहा : हे राम, हे राम, हे अप्रमेय परमात्मा, हे कृष्ण, हे सभी योगेश्वरों केस्वामी, मैं जानती हूँ कि तुम दोनों समस्त ब्रह्माण्ड सृष्टिकार्ताओं के परम शासक आदि भगवान्‌हो।

    कलविध्वस्तसत्त्वानां राज्ञामुच्छास्त्रवर्तिनाम्‌ ।

    भूमेर्भारायमाणानामवतीर्णों किलाद्य मे ॥

    ३०॥

    काल--समय द्वारा; विध्वस्त--विनष्ट; सत्त्वानामू--अच्छे गुणों वाले; राज्ञामू--राजाओं ( के मारने ) के लिए; उत्‌-शास्त्र--शास्त्रीय नियमों से बाहर; वर्तिनाम्‌ू--कार्य करने वाले; भूमेः --पृथ्वी के लिए; भारायमाणानाम्‌-- भार बनते हुए; अवतीर्णो--( तुम दोनों ) अवतरित हुए हो; किल--निस्सन्देह; अद्य--आज; मे--मुझसे |

    मुझसे जन्म लेकर तुम इस जगत में उन राजाओं का वध करने के लिए अवतरित हुए हो,जिनके उत्तम गुण वर्तमान युग के द्वारा विनष्ट हो चुके हैं और जो इस प्रकार से शास्त्रों की सत्ताका उल्लंघन करते हैं और पृथ्वी का भार बनते हैं।

    यस्यांशांशांशभागेन विश्वोत्पत्तिलयोदया: ।

    भवन्ति किल विश्वात्मंस्तं त्वाद्याहं गतिं गता ॥

    ३१॥

    यस्य--जिसके; अंश--अंश के; अंश--अंश के; अंश--अंश के; भागेन--एक आंश द्वारा; विश्व--ब्रह्माण्ड की; उत्पत्ति--जन्म; लय--विलय; उदया:--तथा सम्पन्नता; भवन्ति--उदय होते हैं; किल--निस्सन्देह; विश्व-आत्मन्‌--हे विश्व के आत्मा;तत्‌--उसके पास; त्वा--तुम; अद्य--आज; अहमू--मैं; गतिमू--शरण के लिए; गता--आई हुई |

    हे विश्वात्मा, ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, पालन तथा संहार--ये सभी आपके अंश के अंश केअंश के भी एक आंश द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं।

    हे भगवान्‌, मैं आज आपकी शरण में आई हूँ।

    चिरान्मृतसुतादाने गुरुणा किल चोदितौ ।

    आनिन्यथुः पितृस्थानादगुरवे गुरुदक्षिणाम्‌ ॥

    ३२॥

    तथा मे कुरुतं काम युवां योगेश्वरेश्वरौ ।

    भोजराजहता-न्पुत्रान्कामये ड्रष्टमाहतान्‌ ॥

    ३३॥

    चिरात्‌--बहुत समय से; मृत--मरे हुए; सुत--पुत्र; आदाने--वापस लाने के लिए; गुरुणा--अपने गुरु द्वारा; किल--ऐसासुना गया है; चोदितौ--आज्ञा दिये जाकर; आनिन्यथु:--तुम उसे ले आये; पितृ--पूर्वजों के; स्थानात्‌--स्थान से; गुरवे--अपने गुरु को; गुरु-दक्षिणाम्‌--गुरु-दक्षिणा के रूप में; तथा--उसी तरह; मे--मेरी; कुरुतम्‌--पूरा करो; कामम्‌--इच्छा;युवाम्‌--तुम दोनों; योग-ईश्रर--योग के स्वामियों के; ईश्वरौ --हे प्रभुओ; भोज-राज-- भोज के राजा ( कंस ) द्वारा; हतान्‌--मारे हुए; पुत्रान्‌--पुत्रों को; कामये--मैं चाहती हूँ; द्रष्टम्‌ू--देखना; आहतान्‌--वापस लाये हुए।

    ऐसा कहा जाता है कि जब आपके गुरु ने अपने बहुत पहले मर चुके पुत्र को वापस लानेके लिए आपको आदेश दिया, तो आप गुरु-दक्षिणा के प्रतीकस्वरूप उसे पूर्वजों के धाम सेवापस ले आये।

    हे योगेश्वरों के भी ईश्वर, मेरी इच्छा को भी उसी तरह पूरी कीजिये।

    कृपयाभोजराज द्वारा मारे गये मेरे पुत्रों को वापस ला दीजिये, जिससे मैं उन्हें फिर से देख सकूँ।

    ऋषिरुवाचएवं सशञ्जोदितौ मात्रा राम: कृष्णश्च भारत ।

    सुतलं संविविशतुर्योगमायामुपाअतौ ॥

    ३४॥

    ऋषि: उवाच--ऋषि ( श्रीशुकदेव ) ने कहा; एवम्‌--इस तरह; सज्ञोदितौ--याचना किये जाने पर; मात्रा--माता द्वारा; राम:--बलराम; कृष्ण: --कृष्ण; च--तथा; भारत--हे भरतवंशी ( परीक्षित ); सुतलम्‌--सुतल नामक अधोलोक, जिसमें बलिमहाराज शासन करते हैं; संविविशतु:-- प्रवेश किया; योग-मायायम्‌ू-- अपनी योगमाया को; उपाश्चितौ--काम में लाते हुए

    शुकदेव मुनि ने कहा : हे भारत, अपनी माता द्वारा इस प्रकार याचना किये जाने पर कृष्णतथा बलराम ने अपनी योगमाया शक्ति का प्रयोग करके सुतल लोक में प्रवेश किया।

    तस्मिन्प्रविष्टावुपलभ्य दैत्यराड्‌विश्वात्मदैवं सुतरां तथात्मन: ।

    तदर्शनाह्नादपरिप्लुताशय:सद्यः समुत्थाय ननाम सान्वय: ॥

    ३५॥

    तस्मिन्‌ू--वहाँ; प्रविष्टी--( दोनों ने ) प्रवेश करके; उपलभ्य--देखकर; दैत्य-राट्‌--दैत्यों के राजा ( बलि ); विश्व--सारे विश्वके; आत्म--आत्मा; दैवमू--तथा पर-देव; सुतरामू--विशेष रूप से; तथा-- भी; आत्मन:--अपना; तत्‌--उनका; दर्शन--दर्शन करने के कारण; आह्ाद--प्रसन्नता से; परिप्लुत--विभोर; आशय: --हृदय वाले; सद्यः--तुरन्‍्त; समुत्थाय--खड़े होकर;ननाम--उसने प्रणाम किया; स--सहित; अन्वय:--उनके संगियों ( कुटुम्बियों )

    जब दैत्यराज बलि ने दोनों प्रभुओं को आते देखा, तो उसका हृदय प्रसन्नता के मारे फूलउठा, क्योंकि वह उन्हें परमात्मा तथा सम्पूर्ण विश्व के पूज्य देव के रूप में, विशेष रूप से अपनेपूज्य देव के रूप में, जानता था।

    अतः वह तुरन्त उठ खड़ा हुआ और अपने सारे पार्षदों सहितउसने उन्हें झुक कर प्रणाम किया।

    तयो: समानीय वरासनं मुदानिविष्टयोस्तत्र महात्मनोस्तयो: ।

    दधार पादाववनिज्य तज्जलंसवृन्द आन्रहा पुनद्यदम्बु ह ॥

    ३६॥

    तयो:--उनके लिए; समानीय--लाकर; वर--उच्च; आसनम्‌--आसन; मुदा-प्रसन्नतापूर्वक; निविष्टयो: --आसन ग्रहण कियेहुए; तत्र--वहाँ; महा-आत्मनो: --महापुरुषों के; तयो:--उनके ; दधार--पकड़ लिया; पादौ--पाँव; अवनिज्य-- धोकर;तत्‌--उस; जलमू--जल को; स--सहित; वृन्दः--अपने अनुयायियों; आ-ब्रह्म--ब्रह्म तक को; पुनत्‌ू--पवित्र बनाने वाला;यत्‌--जो; अम्बु--जल; ह--निस्सन्देह |

    बलि ने प्रसन्नतापूर्वक उन्हें उच्च आसन प्रदान किया।

    जब वे बैठ गये, तो उसने दोनों प्रभुओंके पाँव पखारे।

    फिर उसने उस जल को, जो ब्रह्मापर्यन्त सारे जगत को पवित्र बनाने वाला है,लेकर अपने तथा अपने अनुयायियों के ऊपर छिड़का।

    समईयामास स तौ विभूतिभि-महाईवस्त्राभरणानुलेपनै: ।

    ताम्बूलदीपामृतभक्षणादिभिःस्वगोत्रवित्तात्मसमर्पणेन च ॥

    ३७॥

    समर्हयाम्‌ आस--पूजा की; सः--उसने; तौ--उनको; विभूतिभि:--अपनी सम्पत्ति से; महा-अर्ह--अत्यन्त मूल्यवान; वस्त्र--उस्त्रों; आभरण--आभूषणों; अनुलेपनै: --तथा सुगन्धित लेप से; ताम्बूल--पान; दीप--दीपक; अमृत--अमृत तुल्य;भक्षण-- भोजन; आदिभि: --इ त्यादि से; स्व-- अपने; गोत्र-- परिवार; वित्त--सम्पत्ति का; आत्म--तथा स्व; समर्पणेन--समर्पण द्वारा; च--तथा उसने अपने पास उपलब्ध सारी सम्पदा--बहुमूल्य वस्त्र, गहने, सुगन्धित चन्दन-लेप, पान,दीपक, अमृत तुल्य भोजन इत्यादि--से उन दोनों की पूजा की।

    इस तरह उसने उन्हें अपनेपरिवार की सारी धन-सम्पदा तथा स्वयं अपने को भी अर्पित कर दिया।

    स इन्द्रसेनो भगवत्पदाम्बुजंबिश्रन्मुहुः प्रेमविभिन्नया धिया ।

    उबाच हानन्दजलाकुलेक्षण:प्रहष्टरोमा नृप गद्गदाक्षरम्‌ ॥

    ३८ ॥

    सः--वह; इन्द्र-सेन:--इन्द्र की सेना को जीतने वाला, बलि; भगवत्‌--दोनों विभुओं के; पाद-अम्बुजम्‌--चरणकमलों को;बिभ्रत्‌--पकड़ते हुए; मुहुः--बारम्बार; प्रेम--प्रेमवश; विभिन्नया--द्रवित हो रहे; धिया--हृदयसे; उवाच ह--कहा; आनन्द--अपने आनन्द से उत्पन्न; जल--जल ( अश्रु ) से; आकुल--पूरित; ईक्षण:--नेत्रों वाला; प्रहष्ट--सीधे खड़े होते हुए; रोमा--शरीर के रोएँ; नृप--हे राजा ( परीक्षित ); गदगद--रुद्ध; अक्षरम्‌--जिनके शब्द

    दोनों विभुओं के चरणकमलों को बारम्बार पकड़ते हुए, इन्द्र की सेना के विजेता, गहन प्रेमसे द्रवित हृदय वाले बलि ने कहा : हे राजन, उनकी आँखों में प्रेमाश्रु भरे थे और उनके अंगों केरोएँ खड़े हुए थे।

    वह लड़खड़ाती वाणी से बोलने लगा।

    बलिरुवाचनमोनन्ताय बृहते नमः कृष्णाय वेधसे ।

    साड्ख्ययोगवितानाय ब्रह्मणे परमात्मने ॥

    ३९॥

    बलि: उवाच--बलि ने कहा; नमः--नमस्ते; अनन्ताय-- अनन्त को; बृहते--महानतम जीव; नम:--नमस्कार; कृष्णाय--कृष्ण को; वेधसे--स्त्रष्टा; साइख्य--सांख्य विश्लेषण के; योग--तथा योग के; वितानाय-- प्रसार करने वाले को; ब्रह्मणे --बहा को; परम-आत्मने-- परमात्मा राजा बलि ने कहा : समस्त जीवों में महानतम अनन्त देव को नमस्कार है।

    ब्रह्माण्ड के स्त्रष्टा

    भगवान्‌ कृष्ण को नमस्कार है, जो सांख्य तथा योग के सिद्धान्तों का प्रसार करने के लिएनिर्विशेष ब्रह्म तथा परमात्मा के रूप में प्रकट होते हैं।

    दर्शन वां हि भूतानां दुष्प्रापं चाप्यदुर्लभम्‌ ।

    रजस्तमःस्वभावानां यत्नः प्राप्तौी यहच्छया ॥

    ४०॥

    दर्शनम्‌-दर्शन; वाम्‌-तुम दोनों का; हि--निस्सन्देह; भूतानामू--सारे जीवों के लिए; दुष्प्रापम्‌-विरले ही प्राप्त होने वाला;च अपि--फिर भी; अदुर्लभम्‌--प्राप्त करना कठिन नहीं; रज:--रजो; तम:ः--तथा तमो गुण; स्वभावानाम्‌--स्वभाव वालों केलिए; यत्‌--जिसमें; न:--हमारे द्वारा; प्राप्तौ--प्राप्त; यहच्छया-- अहैतुक रूप में ।

    अनेक जीवों के लिए आप दोनों विभुओं के दर्शन दुर्लभ हैं, किन्तु तमोगुण तथा रजोगुण मेंस्थित हमारे जैसे व्यक्ति भी सुगमता से आपके दर्शन पा सकते हैं, जब आप स्वेच्छा से प्रकटहोते हैं।

    दैत्यदानवगन्धर्वा: सिद्धविद्याश्नचारणा: ।

    यक्षरक्ष:पिशाचाश्व भूतप्रमथनायका: ॥

    ४१॥

    विशुद्धसत्त्वधाम्न्यद्धा त्वयि शास्त्रशरीरिणि ।

    नित्य॑ निबद्धवैरास्ते वयं चान्ये च ताहशा: ॥

    ४२॥

    केचनोद्बद्धवैरेण भक्त्या केचन कामतः ।

    न तथा सत्त्वसंरब्धाः सन्निकृष्टा: सुरादयः: ॥

    ४३॥

    दैत्य-दानव--दैत्य तथा दानव; गन्धर्वा:--गन्धर्वगण; सिद्ध-विद्याधर-चारणा:--सिद्ध, विद्याधर तथा चारण देवतागण;यक्ष--यक्षगण; रक्ष:--राक्षसगण ( मनुष्यों को खा जाने वाले भूत-प्रेत )।

    पिशाचा: --मांसाहारी पिशाचगण; च--तथा;भूत-- भूत-प्रेत; प्रमथ-नायका:--प्रमथ तथा नायक नामक भूत-प्रेत; विशुद्ध--नितान्त शुद्ध; सत्त--सतोगुण के; धाम्नि--धाम; अद्धघा- प्रत्यक्ष; त्ववि--तुम में; शास्त्र--शास्त्रों से युक्त; शरीरिणि--ऐसे शरीर के स्वामी; नित्यम्‌--सदैव; निबद्ध--स्थिर; वैरा: --शत्रुता में; ते--वे; वयम्‌--हम; च-- भी; अन्ये-- अन्य; च--तथा; ताहशा: --उन्हीं की तरह; केचन--कुछ;उदबद्ध--विशेष दुराग्रही, जिद्दी; वैरैण--तिरस्कार से; भक्त्या--भक्ति से; केचन--कोई; कामत:--काम से उत्पन्न; न--नहीं;तथा--उसी तरह; सत्त्व--सतोगुण द्वारा; संरब्धा:--अधीन; सन्निकृष्टाः--आकृष्ट; सुर--देवतागण; आदय: --इत्यादि |

    ऐसे अनेक लोग जो आपके प्रति शत्रुता में निरन्तर लीन रहते थे, अंत में आपके प्रति आकृष्टहो गये, क्योंकि आप शुद्ध सत्त्वगुण के साकार रूप हैं और आपका दिव्य स्वरूप शास्त्रों सेयुक्त है।

    इन सुधरे हुए शत्रुओं में दैत्य, दानव, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर, चारण, यक्ष, राक्षस,पिशाच, भूत, प्रमथ तथा नायक एवं हम तथा हमारे जैसे अनेक लोग सम्मिलित हैं।

    हममें सेकुछ तो विशेष घृणा के कारण और कुछ काम-वासना पर आधारित भक्तिभाव से आपके प्रतिआकृष्ट हुए हैं।

    किन्तु देवता तथा भौतिक सतोगुण से मुग्ध अन्य लोग आपके प्रति वैसेआकर्षण का अनुभव नहीं कर पाते।

    इदमित्थमिति प्रायस्तव योगे श्वरेश्वर ।

    न विदन्त्यपि योगेशा योगमायां कुतो वयम्‌ ॥

    ४४॥

    इदम्‌--यह; इत्थम्‌--इस तरह के लक्षणों से युक्त; इति--ऐसी बातों से; प्राय:--अधिकांशत:; तब--तुम्हारा; योग-ई श्वर--योग के स्वामियों के; ईश्वर--हे परम स्वामी; न विदन्ति--नहीं जानते; अपि-- भी; योग-ईशा:--योग के स्वामी; योग-मायाम्‌ू--मोहने की अपनी आध्यात्मिक शक्ति को; कुतः--तो क्या; वयम्‌--हम हे पूर्ण

    योगियों के स्वामी, हम अपने बारे में क्या कहें, बड़े से बड़े योगी भी यह नहीं जानतेकि आपकी योगमाया क्‍या है, अथवा वह कैसे कार्य करती है?

    तन्नः प्रसीद निरपेक्षविमृग्ययुष्मत्‌-पादारविन्द्धिषणान्यगृहान्धकूपात्‌ ।

    निष्क्रम्य विश्वशरणाड्श्रूयुपलब्धवृत्ति:शान्तो यथेक उत सर्वसखैश्चरामि ॥

    ४५॥

    तत्‌--इस तरह से; नः--हम पर; प्रसीद--कृपालु होयें; निरपेक्ष--किसी भौतिक इच्छा से रहित हैं, जो; विमृग्य--खोजेजाकर; युष्मत्‌--तुम्हारे; पाद--चरण; अरविन्द--कमल; धिषण--आश्रय; अन्य-- अन्य; गृह--घर से; अन्ध--अच्धे;कूपातू-कुएँ से; निष्क्रम्यम--निकल कर; विश्व--सारे जगत के; शरण--उनके, जो कि सहायक हैं ( वृक्ष ); अड्प्रि--पाँवोंपर; उपलब्ध--प्राप्त; वृत्तिः--जिसकी जीविका; शान्तः--शान्त; यथा--जिस तरह; एक:--अकेला; उत--अथवा अन्य कुछ;सर्व--सभी का; सखै:--मित्रों के साथ; चरामि--विचरण कर सकता हूँ।

    कृपया मुझ पर दया करें, जिससे मैं गृहस्थ जीवन के अंध कूप से--अपने मिथ्या घर से--बाहर निकल सकूँ और आपके चरणकमलों की सच्ची शरण ग्रहण कर सकूँ, जिसकी खोजनिष्काम सदैव साधु करते रहते हैं।

    तब मैं या तो अकेले या सबों के मित्र स्वरूप महान्‌ सन्‍्तों केसाथ मुक्तरूप से विचरण कर सकूँ और विश्व-भर को दान देने वाले वृक्षों के नीचे जीवन कीआवश्यकताएँ पूरी कर सकूँ।

    शाध्यस्मानीशितव्येश निष्पापान्कुरु नः प्रभो ।

    पुमान्यच्छुद्धयातिष्ठे श्रेदन्नाया विमुच्यते ॥

    ४६॥

    शाधि--कृपया आदेश दें; अस्मान्‌ू--हमको; ईशितव्य--हम अधीनों के; ईश--हे नियन्ता; निष्पापानू--पापरहित; कुरु--करें;नः--हमको; प्रभो-हे प्रभु; पुमान्‌ू-व्यक्ति; यत्‌--जो; श्रद्धया-- श्रद्धापूर्वक; आतिष्ठन्‌-- सम्पन्न करते हुए; चोदनाया:--शास्त्रीय विधियों के; विमुच्यते--मुक्त हो जाता है।

    हे समस्त अधीन प्राणियों के स्वामी, कृपा करके हमें बतायें कि हम कया करें और इस तरहहमें सारे पापों से मुक्त कर दें।

    हे प्रभु, जो व्यक्ति आपके आदेश का श्रद्धापूर्वक पालन करता है,उसे सामान्य वैदिक अनुष्ठानों का पालन करना अनिवार्य नहीं है।

    श्रीभगवानुवाचआसम्मरीचे: षट्पुत्रा ऊर्णायां प्रथमेउन्तरे ।

    देवा: क॑ जहसुर्वीक्ष्य सुतं यभितुमुद्यतम्‌ ॥

    ४७॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; आसनू-- थे; मरीचे: --मरीचि के; षट्‌--छ:; पुत्रा:--पुत्र; ऊर्णायाम्‌--ऊर्णा ( मरीचिकी पत्नी ) से; प्रथमे-- प्रथम; अन्तरे--मनु के राज्य में; देवा:--देवतागण; कम्‌--ब्रह्मा पर; जहसु:--हँस दिया; वीक्ष्य--देखकर; सुताम्‌--अपनी पुत्री ( सरस्वती ) के साथ; यभितुम्‌--संभोग करने के लिए; उद्यतम्‌-उद्यत |

    भगवान्‌ ने कहा : प्रथम मनु के युग में मरीचि ऋषि की पत्नी ऊर्णा से छः पुत्र उत्पन्न हुए।

    वेसभी उच्च देवता थे, किन्तु एक बार, जब उन्होंने ब्रह्मा को अपनी ही पुत्री के साथ संभोग करनेके लिए उद्यत देखा, तो उन्हें हँसी आ गई।

    तेनासुरीमगन्योनिमधुनावद्यकर्मणा ।

    हिरण्यकशिपोर्जाता नीतास्ते योगमायया ॥

    ४८ ॥

    देवक्या उदरे जाता राजन्कंसविहिंसिता: ।

    सा तान्शोच्त्यात्मजान्स्वांस्त इमेध्यासतेउन्तिके ॥

    ४९॥

    तेन--उससे; आसुरीम्‌--असुरों की; अगनू--प्रविष्ट हुए; योनिम्‌-गर्भ में; अधुना--तुरन्त; अवद्य-- अनुचित; कर्मणा--कर्मद्वारा; हिरण्यकशिपो: --हिरण्यकशिपु के यहाँ; जाता:--उत्पन्न; नीता:--लाया गया; ते--वे; योग-मायया-- भगवान्‌ की दैवीमोहिनी शक्ति द्वारा; देवक्या:--देवकी के; उदरे--गर्भ से; जाता:--उत्पन्न; राजन्‌ू--हे राजा ( बलि ); कंस--कंस द्वारा;विहिंसिता: --हत्या की गई; सा--वह; तान्‌ू--उन; शोचति--शोक करती है; आत्म-जानू--पुत्रों के लिए; स्वानू--अपने; ते--वे; इमे--वे ही; अध्यासते--जीवित हैं; अन्तिके--पास ही |

    उस अनुचित कार्य के लिए, वे तुरन्त आसुरी योनि में प्रविष्ट हुए और इस तरह उन्होंनेहिरण्यकशिपु के पुत्रों के रूप में जन्म लिया।

    देवी योगमाया ने इन सबों को हिरण्यकशिपु सेछीन लिया और वे पुनः देवकी के गर्भ से उत्पन्न हुए।

    इसके बाद हे राजा, कंस ने उन सबकावध कर दिया।

    देवकी आज भी उन अपने पुत्रों का स्मरण कर-करके शोक करती हैं।

    मरीचिके वे ही पुत्र अब आपके साथ यहाँ रह रहे हैं।

    इत एतान्प्रणेष्यामो मातृशोकापनुत्तये ।

    ततः शापाद्विनिर्मक्ता लोक॑ यास्यन्ति विज्वरा: ॥

    ५०॥

    इतः--यहाँ से; एतान्‌ू--उन्हें; प्रणेष्याम:--हम ले जाना चाहते हैं; मातृ--उनकी माता का; शोक--शोक; अपनुत्तये--दूर करनेके लिए; तत:ः--तब; शापात्‌--अपने शाप से; विनिर्मुक्ता:--मुक्त; लोकम्‌-- अपने ( देवताओं के ) लोक; यास्यन्ति--जायेंगे;विज्वरा:--ज्वर से मुक्त

    हम उन्हें इनकी माता का शोक दूर करने के लिए इस स्थान से ले जाना चाहते हैं।

    तब अपनेशाप से विमुक्त होकर तथा समस्त कष्टों से छूट कर, वे स्वर्ग में अपने घर लौट जायेंगे।

    स्मरोदगीथ: परिष्वड्र: पतड़ु: श्षुद्रभूदधृणी ।

    षडिमे मत्प्रसादेन पुनर्यास्यन्ति सदगतिम्‌ ॥

    ५१॥

    स्मर-उद्गीथः परिष्वड्र:--स्मर, उदगीथ तथा परिष्वंग; पतड्ढः क्षुद्रभूत्‌ घृणी--पतंग, क्षुद्रभूत तथा घृणी; घट्‌ू--छ:; इमे--ये;मत्‌--मेरी; प्रसादेन--कृपा से; पुनः--फिर से; यास्यन्ति--जायेंगे; सत्‌--अच्छे पुरुषों के; गतिम्‌--गन्तव्य को |

    मेरी कृपा से समर, उदगीथ, परिष्वंग, पतंग, श्षुद्रभूत तथा घृणी--ये छहों शुद्ध सन्‍्तों केधाम वापस जायेंगे।

    इत्युक्त्वा तान्समादाय इन्द्रसेनेन पूजितौ ।

    पुनर्द्दारवतीमेत्य मातु: पुत्रानयच्छताम्‌ ॥

    ५२॥

    इति--इस प्रकार; उक्त्वा--कहकर; तान्‌--उनको; समादाय--लेकर; इन्द्रसेनेन--बलि महाराज द्वारा; पूजितौ--दोनोंसम्मानित हुए; पुनः--फिर से; द्वारवतीम्‌-द्वारका तक; एत्य--जाकर; मातु:ः--अपनी माता के; पुत्रान्‌ू--पुत्रों को;अयच्छताम्‌--सौंप दिया।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : यह कहकर भगवान्‌ कृष्ण तथा बलराम बलि महाराज द्वाराभलीभाँति पूजित होकर छहों पुत्रों को लेकर द्वारका लौट आये, जहाँ पर उन्हें उनकी माता कोसौंप दिया।

    तान्दरष्टा बालकान्देवी पुत्रस्नेहस्नुतस्तनी ।

    परिष्वज्याड्डमारोप्य मूर्ध्न्यजिप्रदभी क्ष्णश: ॥

    ५३॥

    तानू--उन; दृष्ठटा--देखकर; बालकान्‌--बालकों को; देवी--देवी ( देवकी ); पुत्र--अपने पुत्रों के लिए; स्नेह--स्नेह केकारण; स्नुत--बहते हुए; स्तनी--स्तनों वाली; परिष्वज्य--आलिंगन करके; अड्भूम्‌--अपनी गोद में; आरोप्य--रख कर;मूर्धिि--उनके सिरों को; अजिप्रत्‌--सूँघा; अभी क्षणश:--बारम्बार।

    जब देवी देवकी ने अपने खोये हुए बालकों को देखा, तो उनके प्रति उन्हें इतना स्नेह उमड़ाकि उनके स्तनों से दूध बह चला।

    उन्होंने उनका आलिंगन किया और अपनी गोद में बैठाकरबारम्बार उनका सिर सूँघा।

    अपाययत्स्तनं प्रीता सुतस्पर्शपरिस्नुतम्‌ ।

    मोहिता मायया विष्णोर्यया सृष्टि: प्रवर्तते ॥

    ५४॥

    अपाययत्‌--पीने दिया; स्तनम्‌--स्तनों को; प्रीता--प्रेमपूर्वक; सुत--अपने पुत्रों का; स्पर्श--स्पर्श करने से; परिस्नुतम्‌--सराबोर ( भीगी हुई ); मोहिता--मोहग्रस्त; मायया--माया द्वारा; विष्णो: -- भगवान्‌ विष्णु की; यया--जिसके द्वारा; सृष्टि: --सृष्टि; प्रवर्तती--उत्पन्न हुई ॥

    उन्होंने अपने पुत्रों को बड़े ही प्रेम से स्तन-पान करने दिया और उनके स्पर्श से उनके स्तनदूध से भीग गये।

    वे उसी विष्णु-माया से मोहित हो गईं, जो इस ब्रह्माण्ड का सजन करती है।

    पीत्वामृतं पयस्तस्या: पीतशेषं गदाभूतः ।

    नारायणाडूसंस्पर्शप्रतिलब्धात्मदर्शना: ॥

    ५५॥

    ते नमस्कृत्य गोविन्दं देवकीं पितरं बलम्‌ ।

    मिषतां सर्वभूतानां ययुर्धाम दिवौकसाम्‌ ॥

    ५६॥

    पीत्वा--पीकर; अमृतम्‌-- अमृत तुल्य; पथः--दूध; तस्या:--उनका; पीत--पिया हुआ; शेषम्‌ू--बचा हुआ; गदा-भूतः--गदाचलाने वाले कृष्ण का; नारायण--नारायण ( कृष्ण ) के; अड़--शरीर के; संस्पर्श--स्पर्श से; प्रतिलब्ध--फिर से पा लिया;आत्म--( देवताओं के रूप में ) अपने मूल स्वरूपों के ; दर्शना:--अनुभूति; ते--वे; नमस्कृत्य--नमस्कार करके; गोविन्दम्‌--भगवान्‌ कृष्ण को; देवकीम्‌--देवकी को; पितरमू--अपने पिता को; बलम्‌--तथा बलराम को; मिषताम्‌--देखते-देखते;सर्व--समस्त; भूतानाम्‌-लोगों के ; ययु:--चले गये; धाम--स्थान; दिव-ओकसाम्‌--देवताओं के

    कृष्ण ने इससे पूर्व पीकर जो कुछ बाकी छोड़ा था, उस अमृत तुल्य दूध को पीकर छहोंपुत्रों ने नारायण के दिव्य शरीर का स्पर्श किया और इस स्पर्श से उनकी मूल पहचान उनमें जागगईं।

    उन्होंने गोविन्द, देवकी, अपने पिता तथा बलराम को नमस्कार किया और फिर हर एक केदेखते-देखते, वे देवताओं के धाम के लिए रवाना हो गये।

    त॑ हृष्ठा देवकी देवी मृतागमननिर्गमम्‌ ।

    मेने सुविस्मिता मायां कृष्णस्य रचितां नूप ॥

    ५७॥

    तम्‌--यह; हृष्टा--देखकर; देवकी --देवकी; देवी--देवी; मृत--मरे हुए ( पुत्रों ) के; आगमन--वापस आना; निर्गममू--तथाविदाई; मेने--उसने सोचा; सु--अत्यधिक; विस्मिता--चकित; मायाम्‌--जादू को; कृष्णस्य--कृष्ण के; रचिताम्‌--उत्पन्न;नृप--हे राजा परीक्षित |

    हे राजन, अपने पुत्रों को मृत्यु से वापस आते और फिर विदा होते देखकर सन्त स्वभाववाली देवकी को आश्चर्य हुआ।

    उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि यह कृष्ण द्वारा उत्पन्न माया मात्रथी।

    एवंविधान्यद्भुतानि कृष्णस्य परमात्मन: ।

    वीर्याण्यनन्तवीर्यस्य सन्त्यनन्तानि भारत ॥

    ५८ ॥

    एवम्‌-विधानि--इस तरह; अद्भुतानि-- अद्भुत; कृष्णस्य--कृष्ण की; परम-आत्मन:--परमात्मा; वीर्याणि--लीलाएँ;अनन्त--असीम; वीर्यस्य--जिसका पराक्रम; सन्ति-- हैं; अनन्तानि-- अपार; भारत--हे भरतवंशी ।

    हे भारत, असीम पराक्रम वाले प्रभु, परमात्मा श्रीकृष्ण ने इस तरह की आश्चर्यजनकअसंख्य लीलाएँ सम्पन्न कीं।

    श्रीसूत उवाचय इदमनुश्रुणोति श्रावयेद्वा मुरारे-श्वरितममृतकीततेर्वर्णितं व्यासपुत्रै: ।

    जगदघभिदल तद्धक्तसत्कर्णपूरंभगवति कृतचित्तो याति तत्क्षेमधाम ॥

    ५९॥

    श्री-सूतः उबाच-- श्री सूत ने ( उन मुनियों से, जो नैमिषारण्य में एकत्र हुए, उनसे ) कहा; यः--जो भी; इदम्‌--इसे;अनुश्वणोति--ठीक से सुनता है; श्रावयेत्‌--अन्यों को सुनाता है; वा--अथवा; मुरारे:--मुर नामक असुर को मारने वाले, कृष्णकी; चरितम्‌ू--लीला को; अमृत--अमर; कीर्ते:--जिसकी कीर्ति; वर्णितम्‌--वर्णित; व्यास-पुत्रै:--व्यासदेव के पुत्र द्वारा;जगतू--ब्रह्माण्ड के; अध--पापों को; भित्‌--जो ( लीला ) विनष्ट करती है; अलम्‌--पूरी तरह; तत्‌--उसके; भक्त-भक्तों केलिए; सत्‌--दिव्य; कर्ण-पूरम्‌ू--कान का आभूषण; भगवति-- भगवान्‌ में; कृत--स्थित करते हुए; चित्त:--अपना मन;याति--वह जाता है; तत्‌ू--उसके; क्षेम--शुभ; धाम--निजी आवास

    श्री सूत गोस्वामी ने कहा: नित्य कीर्ति वाले भगवान्‌ मुरारी द्वारा की गई यह लीलाब्रह्माण्ड के सारे पापों को पूरी तरह नष्ट करती है और भक्तों के कानों के लिए दिव्य आभूषणजैसा काम करती है।

    जो भी व्यासदेव के पूज्य पुत्र द्वारा सुनाई गई इस कथा को ध्यानपूर्वकसुनता या सुनाता है, वह भगवान्‌ के ध्यान में अपने मन को स्थिर कर सकेगा और ईश्वर केसर्वमंगलमय धाम को प्राप्त करेगा।

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    अध्याय छियासी: अर्जुन ने सुभद्रा का अपहरण किया, और कृष्ण ने अपने भक्तों को आशीर्वाद दिया

    10.86श्रीराजोबाचब्रह्मन्वेदितुमिच्छाम: स्वसारां रामकृष्णयो: ।

    यथोपयेमेविजयो या ममासीत्पितामही ॥

    १॥

    श्री-राजा उवाच--राजा ( परीक्षित ) ने कहा; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण ( शुकदेव ); वेदितुमू--जानना; इच्छाम: --चाहते हैं;स्वसारमू--बहन को; राम-कृष्णयो:--बलराम तथा कृष्ण की; यथा--कैसे; उपयेमे--विवाह किया; विजय:--अर्जुन; या--जो; मम--मेरी; आसीत्‌-- थी; पितामही--दादी

    राजा परीक्षित ने कहा : हे ब्राह्मण, हम जानना चाहेंगे कि किस तरह अर्जुन ने बलराम तथाकृष्ण की बहन से विवाह किया, जो मेरी दादी थीं।

    श्रीशुक उबाचअर्जुनस्तीर्थयात्रायां पर्यटन्नव्नीं प्रभु: ।

    गतः प्रभासमश्रृणोन्मातुलेयीं स आत्मन: ॥

    २॥

    दुर्योधनाय रामस्तां दास्यतीति न चापरे ।

    तल्लिप्सु: स यतिर्भूत्वा त्रिदण्डी द्वारकामगात्‌ ॥

    ३॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; अर्जुन: --अर्जुन; तीर्थ--पवित्र स्थानों की; यात्रायामू--यात्रा करते समय;पर्यटन्‌ू-- भ्रमण करते हुए; अवनीम्‌-पृथ्वी; प्रभु:--स्वामी; गत:ः--गये हुए; प्रभासम्‌--प्रभास को; अश्रुणोत्‌--सुना;मातुलेयीम्‌--मामा की कन्या; सः--उसने; आत्मन:--अपने; दुर्योधनाय--दुर्योधन को; राम:--बलराम; ताम्‌--उसको;दास्यति--देना चाहता है; इति--इस प्रकार; न--नहीं; च--तथा; अपरे-- अन्य कोई; तत्‌--उसके; लिप्सु:--प्राप्त करने कीइच्छुक; सः--वह, अर्जुन; यतिः--संन्यासी; भूत्वा--बन कर; त्रि-दण्डी--दण्ड धारण किये; द्वारकाम्‌-द्वारका; अगातू--गया।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : दूर दूर तक यात्रा करते हुए और विविध तीर्थस्थानों का दर्शनकरके अर्जुन प्रभास आये।

    वहाँ उन्होंने सुना कि बलराम अपने मामा की लड़की का विवाहदुर्योधन के साथ करना चाहते हैं और कोई भी उनकी इस योजना का समर्थन नहीं करता।

    अर्जुनस्वयं उसके साथ विवाह करना चाहते थे, अतः उन्होंने त्रिदंड से सज्जित होकर सन्‍्यासी का वेशबना लिया और द्वारका गये।

    तत्र वे वार्षितान्मासानवात्सीत्स्वार्थसाधकः ।

    पौरेः सभाजितोभीक्ष्णं रामेणाजानता च सः ॥

    ४॥

    तत्र--वहाँ; बै--निस्सन्देह; वार्षिकान्‌--वर्षाऋतु के; मासान्‌ू--मासों; अवात्सीत्‌--रहता रहा; स्व--अपने; अर्थ--प्रयोजन;साधक:--प्राप्त करने का प्रयत्न करते हुए; पौरै:--नगर के लोगों के द्वारा; सभाजित:--सम्मानित; अभीक्षणम्‌--निरन्तर;रामेण--बलराम द्वारा; अजानता--अनभिज्ञ; च--तथा; सः--वह।

    अपने प्रयोजन की पूर्ति के लिए, वे वर्षाऋतु-भर वहीं रहते रहे ।

    बलराम तथा नगर के अन्यवासियों ने उन्हें न पहचानते हुए, उनका सभी तरह से सम्मान तथा सत्कार किया।

    एकदा गृहमानीय आतिथ्येन निमन्त्रय तम्‌ ।

    श्रद्धयोपहतं भैक्ष्यं बलेन बुभुजे किल ॥

    ५॥

    एकदा--एक बार; गृहम्‌--अपने ( बलराम के ) घर पर; आनीय--लाकर; आतिथ्येन--अतिथि के रूप में; निमन्र्य--निमंत्रितकरके; तमू--उस ( अर्जुन ) को; श्रद्धया-- श्रद्धापूर्वक; उपहतम्‌--भेंट किया; भैक्ष्म्‌-- भोजन; बलेन--बलराम द्वारा;बुभुजे--खाया; किल--निस्सन्देह

    एक दिन बलराम, उन्हें अपने घर आमंत्रित अतिथि के रूप में ले आये और अर्जुन ने बलरामद्वारा आदरपूर्वक अर्पित भोजन ग्रहण किया।

    सोपश्यत्तत्र महतीं कन्यां वीरमनोहराम्‌ ।

    प्रीत्युत्फुल्लेक्षणस्तस्यां भावश्षुब्धं मनो दधे ॥

    ६॥

    सः--उसने; अपश्यत्‌--देखा; तत्र--वहाँ; महतीम्‌ू-- अद्भुत; कन्याम्‌ू--लड़की को; वीर--वीरों को; मनः-हराम्‌--मुग्धकरते हुए; प्रीति--सुखपूर्वक; उत्फुल्ल--प्रफुल्लित; ईक्षन:--उसकी आँखें; तस्याम्‌--उस पर; भाव-- भाव द्वारा; क्षुब्धम्‌ --विचलित; मन:--मन; दधे--रखा, लगाया।

    वहाँ उन्होंने अद्भुत कुमारी सुभद्रा को देखा, जो वीरों को मोहने वाली थी।

    उनकी आँखेहर्ष से खुली की खुली रह गई, उनका मन विचलित हो उठा और उसी के विचारों में लीन होगया।

    सापि तं चकमे वीक्ष्य नारीणां हृदयंगमम्‌ ।

    हसन्ती ब्रीडितापड़ी तन्न्यस्तहदयेक्षणा ॥

    ७॥

    सा--वह; अपि--भी; तम्‌--उसको; चकमे--चाहने लगी; वीक्ष्य--देखकर; नारीणाम्‌--स्त्रियों के; हृदयम्‌-गमम्‌--हृदयों कोचुराने वाली; हसन्ती--हँसती हुईं; ब्रीडिता--लज्जा से युक्त; अपाड्री--तिरछी दृष्टि डालती; तत्‌--उस पर; न्यस्त--स्थिर;हृदय--हृदय; ईक्षणा--तथा आँखेंअर्जुन स्त्रियों के लिए अतीव आकर्षक थे

    अतः ज्योंही सुभद्रा ने उन्हें देखा, वे उन्हें पतिरूप में पाने की इच्छा करने लगीं।

    लजीली हँसी से तथा तिरछी चितवनों से उसने अपना हृदयतथा अपनी आँखें उन्हीं पर गड़ा दीं।

    तां परं समनुध्यायत्नन्तरं प्रेप्सुर्जुन: ।

    न लेभे शं भ्रमच्चित्त: कामेनातिबलीयसा ॥

    ८॥

    तामू--उस पर; परम्‌--एकमात्र; समनुध्यायन्‌ू-- ध्यान करती; अन्तरम्‌ू--उचित अवसर; प्रेप्सु:--प्राप्त करने की प्रतीक्षा हुए;अर्जुन:--अर्जुन; न लेभे--अनुभव नहीं कर सका; शम्‌--शान्ति; भ्रमत्‌--विचलित; चित्त:--हृदय; कामेन--काम द्वारा;अति-बलीयसा--अ त्यन्त प्रबल |

    उसी का ध्यान करते तथा उसे उठा ले जाने के अवसर की प्रतीक्षा करते हुए अर्जुन को चैननहीं मिल पा रहा था।

    उनका हृदय कामेच्छा से धकधका रहा था।

    महत्यां देवयात्रायां रथस्थां दुर्गनिर्गतां ।

    जहारानुमतः पित्रो: कृष्णस्य च महारथ: ॥

    ९॥

    महत्याम्‌-महत्त्वपूर्ण; देब--भगवान्‌ के लिए; यात्रायाम्‌--उत्सव के मध्य; रथ--रथ पर; स्थाम्‌--आरूढ़; दुर्ग--किले से;निर्गतामू--बाहर आई हुई; जहार--उसे पकड़ लिया; अनुमतः --अनुमति से; पित्रो: --अपने माता-पिता की; कृष्णस्थ--कृष्णकी; च--तथा; महा-रथ:-- अन्य बलशाली रथी योद्धा |

    एक बार भगवान्‌ के सम्मान में विशाल मन्दिर-उत्सव के अवसर पर, सुभद्रा रथ पर आरूढ़होकर दुर्ग जैसे महल से बाहर आई।

    उस समय महारथी अर्जुन को उसका हरण करने काअवसर प्राप्त हुआ।

    सुभद्रा के माता-पिता तथा कृष्ण ने इसकी स्वीकृति दे दी थी।

    रथस्थो धनुरादाय शूरांश्वारुन्थतो भटान्‌ ।

    विद्राव्य क्रोशतां स्वानां स्वभागं मृगगाडिव ॥

    १०॥

    रथ--रथ पर; स्थ:--खड़े; धनु:--अपना धनुष; आदाय--लेकर; शूरान्‌--वीरों को; च--तथा; अरुन्धतः--उसे रोकने काप्रयत्न करते हुए; भटानू--तथा रक्षकों को; विद्राव्य-- भगाकर; क्रोशताम्‌--क्रोध से चिल्लाते; स्वानाम्‌--उसके सम्बन्धियोंके; स्व--अपना; भागम्‌-- उचित अंश; मृग-राट्‌--पशुओं का राजा, सिंह; इब--सहश

    अपने रथ पर खड़े होकर अर्जुन ने अपना धनुष धारण किया और उन बहादुर योद्धाओं तथामहल के रक्षकों को मार भगाया, जो उसका रास्ता रोकना चाह रहे थे।

    जब सुभद्रा के सम्बन्धीक्रोध से शोर मचाने लगे, तो उसने सुभद्रा को उसी तरह उठा लिया, जिस तरह सिंह छोटे-छोटेपशुओं के बीच से अपना शिकार ले जाता है।

    तच्छुत्वा क्षुभितो राम: पर्वणीव महार्णव: ।

    गृहीतपादः कृष्णेन सुहद्धिश्चानुसान्त्वित: ॥

    ११॥

    तत्‌--यह; श्रुत्वा--सुनकर; क्षुभित:--विचलित; राम:--बलराम; पर्वणि--मास की सन्धि आने पर; इब--मानो; महा-अर्णव:ः--सागर; गृहीत--पकड़ने पर; पाद:--पाँव; कृष्णेन--कृष्ण द्वारा; सुहृद्धिः--अपने पारिवारिक सदस्यों द्वारा; च--तथा; अनुसान्त्वित:ः--सावधानी से सान्त्वना दिये गये।

    जब बलराम ने सुभद्रा के अपहरण के विषय में सुना, तो वे उसी तरह विचलित हो उठे,जिस तरह पूर्णिमा के अवसर पर सागर क्षुब्ध होता है।

    किन्तु भगवान्‌ कृष्ण ने अपने परिवार केअन्य सदस्यों सहित आदरपूर्वक उनके पैर पकड़ लिये और सारा मामला समझाकर उन्हें शान्तकिया।

    प्राहिणोत्पारिबर्हाणि वरवध्वोर्मुदा बल: ।

    महाधनोपस्करेभरथाश्वनरयोषित: ॥

    १२॥

    प्राहिणोत्‌-- भेजा; पारिबर्हाणि--दहेज के रूप में; बर-वध्वो: --दूल्हे तथा दुलहिन के लिए; मुदा--प्रसन्नतापूर्वक; बल: --बलराम ने; महा-धन--अ त्यन्त मूल्यवान; उपस्कर-भेंटें; इभ--हा थी; रथ--रथ; अस्व--घोड़े; नर--पुरुष; योषित:--तथास्त्रियाँ॥

    तब बलराम ने खुशी खुशी वर-वधू के पास अत्यन्त मूल्यवान दहेज की वस्तुएँ भेजीं,जिनमें हाथी, रथ, घोड़े तथा दास और दासियाँ सम्मिलित थे।

    श्रीशुक उबाचकृष्णस्यासीद्‌ द्विजश्रेष्ठ: श्रुतदेव इति श्रुतः ।

    कृष्णैकभक्त्या पूर्णार्थ: शान्तः कविरलम्पतः ॥

    १३॥

    श्री-शुक: उवाच-- श्रीशुकदेव ने कहा; कृष्णस्य-- भगवान्‌ कृष्ण का; आसीतू--था; द्विज--ब्राह्मणों में; श्रेष्ठ: --उत्तम;श्रुतदेव: -- श्रुतदेव; इति--इस प्रकार; श्रुतः:--प्रसिद्ध; कृष्ण--कृष्ण को; एक--एकमात्र; भक्त्या-- भक्ति द्वारा; पूर्ण--पूर्ण;अर्थ:--इच्छा के समस्त लक्ष्यों में; शान्त:--शान्त; कवि:--विद्वान तथा विवेकशील; अलम्पट:--इन्द्रिय-तृप्ति के लिएअनिच्छुक।

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : श्रुददेव नामक कृष्ण का एक भक्त था, जो उच्च कोटिका ब्राह्मण था।

    भगवान्‌ कृष्ण की अनन्य भक्ति करने से पूर्णतया तुष्ट होने के कारण, वह शान्तएवं विद्वान था तथा इन्द्रिय-तृप्ति से सर्वथा मुक्त था।

    स उवास विदेहेषु मिथिलायां गृहाश्रमी ।

    अनीहयागताहार्यनिर्वर्तितनिजक्रिय: ॥

    १४॥

    सः--वह; उबास--रहता था; विदेहेषु--विदेह के राज्य में; मिथिलायाम्‌--मिथिला नामक नगरी में; गृह-आश्रमी--गृहस्थ केरूप में; अनीहया--बिना प्रयास के; आगत--उसके पास आया; आहार्य-- भोजन तथा अन्य उदर-पोषण के साधनों द्वारा;निर्वर्तित--पूरा करता था; निज--अपने; क्रियः--करणीय कार्य |

    विदेह के राज्य में मिथिला नामक नगरी में धार्मिक गृहस्थ के रूप में रहते हुए, वह अपनेकर्तव्यों को पूरा करता था और जो कुछ उसे आसानी से मिल जाता था, उसी से अपना निर्वाहकरता था।

    यात्रामात्रं त्वहरहर्देवादुपनमत्युत ।

    नाधिकं तावता तुष्ट: क्रिया चक्रे यथोचिता: ॥

    १५॥

    यात्रा-मात्रमू--मात्र उदर-भरण; तु--तथा; अहः अह:--दिन प्रतिदिन; दैवात्‌-- अपने भाग्य से; उपनमति--उसको मिल जाताथा; उत--निस्सन्देह; न अधिकम्‌--अधिक नहीं; तावता--उसी से; तुष्ट:--सन्तुष्ट; क्रिया:--कर्तव्य; चक्रे --वह करता था;यथा--जैसा; उचिता: --उपयुक्त |

    विधाता की इच्छा से उसे प्रतिदिन अपने उदर-भरण के लिए उतना मिल जाता, जितने कीउसे आवश्यकता होती--उससे अधिक नहीं।

    इतने से ही तुष्ट हुआ, वह अपने धार्मिक कार्यो कोउचित रीति से सम्पन्न करता था।

    तथा तद्राष्ट्रपालोउड्र बहुलाश्व इति श्रुतः ।

    मैथिलो निरहम्मान उभावप्यच्युतप्रियां ॥

    १६॥

    तथा--भी ( कृष्ण-भक्त ); तत्‌--उस; राष्ट्र--राज्य का; पाल:--शासक; अड्ग-हे प्रिय ( परीक्षित ); बहुलाश्वः इति श्रुतः--बहुलाश्व नाम से विख्यात; मैथिल:--राजा मिथिल ( जनक ) के राजवंश के; निरहम्‌-मान:--मिथ्या अहंकार से रहित; उभौ--दोनों; अपि--निस्सन्देह; अच्युत-प्रियौ-- भगवान्‌ अच्युत को प्रिय

    हे परीक्षित, इसी तरह से उस राज्य का मिथिलवंशी शासक, जिसका नाम बहुलाश्व था,मिथ्या अहंकार से रहित था।

    ये दोनों ही भक्त भगवान्‌ अच्युत को अत्यन्त प्रिय थे।

    तयोः प्रसन्नो भगवान्दारुकेणाहतं रथम्‌ ।

    आरुह्म साकं मुनिभिर्विदेहान्प्रययौ प्रभु: ॥

    १७॥

    तयो:--उन दोनों से; प्रसन्न:--प्रसन्न; भगवान्‌ू-- भगवान्‌; दारुकेण --दारुक द्वारा; आहतम्‌--लाये गये; रथम्‌--अपने रथ पर;आरुह्म--चढ़ कर; साकम्‌--साथ; मुनिभि: --मुनियों के; विदेहान्‌--विदेह राज्य में; प्रययौ --गये; प्रभु:--स्वामी |

    इन दोनों से प्रसन्न होकर, दारुक द्वारा लाये गये अपने रथ पर चढ़ कर, भगवान्‌ ने मुनियोंकी टोली समेत विदेह की यात्रा की।

    नारदो वामदेवोत्रि: कृष्णो रामोउसितोरुणि: ।

    अहं बृहस्पति: कण्वो मैत्रेयशच्यवनादय: ॥

    १८॥

    नारद: वामदेव:ः अत्रिः--नारद, वामदेव तथा अत्रि मुनि; कृष्ण:--कृष्णद्वैपायन व्यास; राम: --परशुराम; असितः अरुणि:--असित तथा अरुणि; अहम्‌--मैं ( शुकदेव ); बृहस्पति: कण्व:--बृहस्पति तथा कण्व; मैत्रेय:--मैत्रेय ; च्यवन--च्यवन;आदयः--त्यादि।

    इन मुनियों में नारद, वामदेव, अत्रि, कृष्णद्वैधायन व्यास, परशुराम, असित, अरुणि, स्वयंमैं, बृहस्पति, कण्व, मैत्रेय तथा च्यवन सम्मिलित थे।

    तत्र तत्र तमायान्तं पौरा जानपदा नृप ।

    उपतस्थुः साध्यहस्ता ग्रहैः सूर्यमिवोदितम्‌ ॥

    १९॥

    तत्र तत्र--प्रत्येक स्थान में; तम्‌ू--उसको; आयान्तम्‌--आया हुआ; पौरा: --नगर निवासी; जानपदा: --तथा ग्रामवासी; नृप--हेराजा ( परीक्षित ); उपतस्थु;--स्वागत करने आये; स--सहित; अर्घ्य--आदरसूचक जल की भेंट; हस्ता: --अपने हाथों में;ग्रहैः--ग्रहों से; सूर्यम्‌--सूर्य; इब--सहश; उदितम्‌--उदित ।

    हे राजनू, भगवान्‌ जिस जिस नगर तथा ग्राम से होकर गुजरे, वहाँ के निवासी अपने अपनेहाथों में अर्घ्य की भेंट लेकर उनकी पूजा करने हेतु आगे आये, मानो वे ग्रहों से घिरे हुए सूर्य कीपूजा करने आये हों।

    आनर्त धन्वकुरुजाडुलकटड्डमत्स्थ-पाञ्जालकुन्तिमधुकेकयकोशलार्णा: ।

    अन्ये च तन्मुखसरोजमुदारहास-स्निग्धेक्षणं नृप पपुर्दशिभिखर्ना्य: ॥

    २०॥

    आनर्त--आनर्त ( वह प्रदेश जिसमें द्वारका स्थित है ) के लोग; धन्‍्व--मरुथल ( गुजरात या राजस्थान का ); कुरु-जाडुल--कुरु जंगलों का प्रदेश ( जिसमें थानेश्वर तथा कुरुक्षेत्र के जिले आते हैं ); कड्ढू--कंक; मत्स्य--मत्स्य ( जयपुर तथा अलवर केराज्य ); पाञ्ञाल--गंगा नदी के दोनों किनारों वाले जिले; कुन्ति--मालव; मधु--मथुरा; केकय--उत्तर पूर्व पंजाब में, शतद्भुतथा विपाशा नदियों के बीच का प्रदेश; कोशल--भगवान्‌ रामचन्द्र का प्राचीन राज्य जो काशी के उत्तरी छोर से हिमालय तकविस्तृत था; अर्गा:--तथा पूर्व में मिथिला से लगा राज्य; अन्ये--अन्य; च-- भी; तत्‌--उसके; मुख--मुँह; सरोजम्‌ू--कमलको; उदार--उदार; हास--हँसी से युक्त; स्निग्ध--तथा स्नेहिल; ईक्षणम्‌--चितवन; नृप--हे राजा; पपु:--पिया; हशिभि:--अपनी आँखों से; नृ-नार्य:--पुरुषों तथा स्त्रियों ने।

    आनर्त, धन्‍्व, कुरु-जांगल, कंक, मत्स्य, पाज्ञाल, कुन्ति, मधु, केकय, कोशल, अर्ण तथाअन्य कई राज्यों के पुरुषों तथा स्त्रियों ने भगवान्‌ कृष्ण के कमल सद्ृश मुख की अमृतमयीसुन्दरता का अपने नेत्रों से पान किया, जो उदार हँसी तथा स्नेहिल चितवन से सुशोभित था।

    तेभ्य: स्ववीक्षणविनष्टतमिस्त्रवग्भ्यःक्षेमं त्रिलोकगुरुरर्थहशं च यच्छन्‌ ।

    श्रण्वन्दिगन्तधवलं स्वयशोशुभघ्नंगीत॑ सुरै्नुभिरगाच्छनकैर्विदेहान्‌ू ॥

    २१॥

    तेभ्य:--उनको; स्व--अपनी; वीक्षण--चितवन से; विनष्ट--नष्ट किया हुआ; तमिस्त्र--अँधेरा; हृग्भ्य:--जिसकी आँखों का;क्षेममू--निर्भीकता; त्रि--तीनों; लोक--जगतों के; गुरु:--गुरु ; अर्थ-हशम्‌-- आध्यात्मिक दृष्टि; च--तथा; यच्छन्‌--प्रदानकरते हुए; श्रुण्वनू--सुनते हुए; दिकु--दिशाओं के; अन्त--छोर; धवलम्‌--शुद्ध करने वाले; स्व-- अपना; यशः--यश;अशुभ--अशुभ; घ्तम्‌--विनष्ट करने वाले; गीतम्‌--गाये हुए; सुरैः--देवताओं द्वारा; नृभि:--तथा मनुष्यों द्वारा; अगात्‌--आये; शनकै:--धीरे धीरे; विदेहान्‌ू--विदेह के राज्य में ।

    तीनों लोकों के गुरु भगवान्‌ कृष्ण ने उन सबों पर, जो उनको देखने आये थे, मात्र अपनीइष्टि डालते हुए, उन्हें भौतिकतावाद के अंधकार से उबार लिया।

    इस तरह उन्हें निर्भीकता तथादिव्य दृष्टि देते हुए भगवान्‌ ने देवताओं तथा मनुष्यों को उन्हीं का यश गाते सुना, जो सारेब्रह्माण्ड को शुद्ध करने वाला है और सारे दुर्भाग्य को विनष्ट करता है।

    धीरे धीरे वे विदेह पहुँचगये।

    तेडच्युतं प्राप्तमाकर्ण्य पौरा जानपदा नृप ।

    अभीयुर्मुदितास्तस्मै गृहीताहणपाणय: ॥

    २२॥

    ते--वे; अच्युतम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण को; प्राप्तम्‌--आया हुआ; आकर्णय्य--सुन कर; पौरा:-- नगरवासी; जानपदा:--तथाग्रामवासी; नृप--हे राजा; अभीयु:--आगे आये; मुदिता:-- प्रसन्न मुख; तस्मै--उसको; गृहीत--पकड़े हुए; अर्हण--उन्हेंअर्पित करने के लिए भेंटें; पाणय:--अपने हाथों में |

    हे राजा, यह सुनकर कि भगवान्‌ अच्युत आ चुके हैं, विदेह के नगर तथा ग्रामनिवासीहर्षपूर्वक अपने अपने हाथों में भेंटें लेकर, उनका स्वागत करने आये।

    इष्ठा त उत्तम:एलोकं प्रीत्युत्फुलाननाशया: ।

    कैर्धृताञजलिभिनेंमु: श्रुतपूर्वास्तथा मुनीन्‌ ॥

    २३॥

    इष्ठा--देख कर; ते--वे; उत्तम:-शलोकम्‌--उत्तम एलोकों से प्रशंसित भगवान्‌ कृष्ण को; प्रीति--प्रेमपूर्वक ; उत्फुल्ल --प्रफुल्लित; आनन--उनके मुखड़े; आशया:--तथा उनके हृदय; कैः--अपने सिरों पर; धृत-- धारण किये; अज्ञलिभि:--अंजुलियों से; नेमु:--प्रणाम किया; श्रुत--सुना गया; पूर्वानू--पहले; तथा-- भी; मुनीन्‌--मुनियों को

    ज्योंही लोगों ने उत्तमशएलोक भगवान्‌ को देखा, उनके मुखड़े तथा हृदय स्नेह से प्रफुल्लित होउठे।

    अपने सिरों के ऊपर अंजुली बाँध कर, उन्होंने भगवान्‌ को तथा उनके साथ आये मुनियोंको प्रणाम किया, जिनके विषय में उन्होंने पहले केवल सुन रखा था।

    स्वानुग्रहाय सम्प्राप्तं मन्‍्वानौ त॑ं जगद्गुरुम्‌ ।

    मैथिल: श्रुतदेवश्च पादयो: पेततु: प्रभोः ॥

    २४॥

    स्त--अपने को; अनुग्रहाय--अनुग्रह करने के लिए; सम्प्राप्तम्‌--अब; मन्वानौ--दोनों सोचते हुए; तम्‌--उस; जगतू--ब्रह्माण्ड के; गुरुम्‌-गुरु को; मैथिल:--मिथिला का राजा; श्रुतदेव:-- श्रुतदेव; च--तथा; पादयो:--चरणों पर; पेततु:--गिरपड़े; प्रभोः--प्रभु के

    मिथिला का राजा तथा श्रुतदेव दोनों ही प्रभु के चरणों पर गिर पड़े और उनमें से हर एकयही सोच रहा था कि ब्रह्माण्ड के गुरु उन पर अनुग्रह करने आये हैं।

    न्यमन्त्रयेतां दाशाहमातिथ्येन सह द्विजै: ।

    मैथिल: श्रुतदेवश्च युगपत्संहताझ्लली ॥

    २५॥

    न्यमन्त्रयेताम्‌ू-दोनों ने निमंत्रित किया; दाशाहम्‌--दशाई वंशज कृष्ण को; आतिथ्येन--अपना अतिथि बनने के लिए; सह--साथ; द्विजैः--ब्राह्मणों के; मैधिल:--बहुलाश्व; श्रुतदेव:-- श्रुददेव; च--तथा; युगपत्‌--एकसाथ; संहत--हढ़ता से पकड़ेहुए; अज्लली--दोनों हथेलियाँ |

    एक ही समय पर मैथिलराज तथा श्रुतदेव हाथ जोड़े हुए आगे आये और दशाहों के स्वामीको ब्राह्मण मुनियों समेत अपने अतिथि बनने के लिए आमंत्रित किया।

    भगवांस्तदभिप्रेत्य द्वययो: प्रियचिकीर्षया ।

    उभयोराविशद्गेहमुभाभ्यां तदलक्षित: ॥

    २६॥

    भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; तत्‌--इसे; अभिप्रेत्य--स्वीकार करके; द्ययो:--उन दोनों के; प्रिय-- अच्छा लगने वाला; चिकीर्षया--करने की इच्छा से; उभयो:--दोनों के; आविशत्‌--प्रवेश किया; गेहम्‌--घरों में; उभाभ्याम्‌--दोनों; तत्‌--उस ( दूसरे के घरमें प्रवेश करने ) में; अलक्षित:--अनदेखा |

    दोनों ही को प्रसन्न करने की इच्छा से भगवान्‌ ने दोनों का निमंत्रण स्वीकार कर लिया।

    इसतरह एक ही समय वे दोनों के घरों में गये और उनमें से कोई भी उन्हें दूसरे के घर में प्रवेश करतेनहीं देख सका।

    श्रान्तानप्यथ तान्दूराजनक: स्वगृहागतान्‌ ।

    आनीतेष्वासनाछयेषु सुखासीनान्महामना: ॥

    २७॥

    प्रवृद्धभक्‍त्या उद्धर्षहदयास्त्राविलेक्षण: ।

    नत्वा तदद्घ्नीन्प्रक्षाल्य तदपो लोकपावनी: ॥

    २८॥

    सकुटुम्बो वहन्मूर्ध्ना पूजयां चक्र ईश्वरान्‌ ।

    गन्धमाल्याम्बराकल्पधूपदीपार्ध्यगोवृषै: ॥

    २९॥

    श्रान्तानू-- थके हुए; अपि--निस्सन्देह; अथ--तब; तान्‌--उन्‍्हें; दूरात्‌ू--दूर से; जनक:--जनक का वंशज, राजा बहुला श्व;स्व--अपने; गृह--घर; आगतान्‌--आये हुए; आनीतेषु--जो लाये गये; आसन--आसनों पर; अछयेषु---उत्तम; सुख--सुखपूर्वक; आसीनान्‌--बैठे हुए; महा-मना: --अत्यन्त बुद्धिमान; प्रवृद्ध--गहन; भक्त्या--भक्ति के साथ; उत्‌-धर्ष--आह्लादित; हृदय--हृदय वाले; अस्त्र--आँसुओं से; आविल--धूमिल; ईक्षण:--आँखों वाले; नत्वा--नमन करके; तत्‌--उनके; अद्श्नीन्‌--पाँवों को; प्रक्षाल्य-- धोकर; तत्‌ू--उस; अप:--जल से; लोक--सारे जगत को; पावनी:--शुद्ध करने मेंसमर्थ; स--सहित; कुटुम्ब:--अपने परिवार; वहन्‌--लेकर; मूर्धा--अपने सिर पर; पूजयाम्‌ चक्रे --पूजा की; ईंश्वरान्‌ू--ई श्वरोंकी; गन्ध--सुगन्धित ( चन्दन के ) लेप से; माल्य--फूल की मालाओं; अम्बर--वस्त्र; आकल्प--आभूषण; धूप--अगुरू;दीप--दीपक; अर्ध्य--अर्ध्य जल; गो--गौवों; वृषैः--तथा साँडड़ों से |

    जब जनकवंशी बहुलाश्व ने दूर से भगवान्‌ कृष्ण को मुनियों समेत, जो यात्रा से कुछ कुछथके थे, अपने घर की ओर आते देखा, तो उसने तुरन्त उनके लिए सम्मानित आसन लाये जानेकी व्यवस्था की।

    जब वे सब सुखपूर्वक बैठ गये, तो बुद्धिमान राजा ने, जिसका हृदय प्रसन्नतासे आप्लावित हो रहा था और जिसके नेत्र अश्रुओं से धूमिल हो रहे थे, उन सबों को नमन कियाऔर गहन भक्ति के साथ उनके चरण पखारे।

    फिर इस प्रक्षालन-जल को, जो सारे संसार कोशुद्ध कर सकता था, उन्होंने अपने सिर पर तथा अपने परिवार के सदस्यों के सिरों पर छिड़का।

    तत्पश्चात्‌ उसने सुगंधित चन्दन-लेप, फूल की मालाओं, सुन्दर वस्त्र तथा आभूषणों, अगुरु,दीपक, अर्ध्य तथा गौवों और साँड़ों की भेंट देते हुए, उन महानुभावों की पूजा की।

    वबाचा मधुरया प्रीणन्निदमाहान्नतर्पितान्‌ ।

    पादावड्जूगतौ विष्णो: संस्पृशज्छनकैर्मुदा ॥

    ३०॥

    वाचा--वाणी से; मधुरया--मधुर, धीमी; प्रीणन्‌--प्रसन्न करने का प्रयास करते हुए; इदम्‌--यह; आह--कहा; अन्न--भोजनसे; तर्पितानू--कृतकृत्य किये गये; पादौ--पाँवों को; अड्भू--अपनी गोद में; गतौ--स्थित; विष्णो:-- भगवान्‌ कृष्ण के;संस्पृशन्‌--दबाते हुए; शनकैः -- धीरे धीरे; मुदा--सुखपूर्वक ।

    जब वे जी-भरकर भोजन कर चुके, तो उनको और प्रसन्न करने के लिए भगवान्‌ विष्णु केचरणों को अपनी गोद में रखकर और उन्हें सुखपूर्वक दबाते हुए राजा धीरे धीरे तथा मृदुल वाणीमें बोला।

    श्रीबहुलाश्व उबाचभवान्हि सर्वभूतानामात्मा साक्षी स्वहग्विभो ।

    अथ नस्त्वत्पदाम्भोजं स्मरतां दर्शनं गत: ॥

    ३१॥

    श्री-बहुला श्र: उवाच--श्री बहुलाश्व ने कहा; भवान्‌ू--आप; हि--निस्सन्देह; सर्व--समस्त; भूतानामू--जीवों के; आत्मा--परमात्मा; साक्षी--गवाह; स्व-हक्‌ --आत्म-प्रकाशित; विभो--हे सर्वशक्तिमान; अथ--इस प्रकार; न:--हमको; त्वत्‌--तुम्हारे; पद-अम्भोजम्‌--चरणकमलों को; स्मरताम्‌--स्मरण करने वालों को; दर्शनम्‌ गत:--दिख रहे हैं।

    श्री बहुलाश्व ने कहा : हे सर्वशक्तिमान प्रभु, आप समस्त जीवों के आत्मा एवं उनके स्व-प्रकाशित साक्षी हैं और अब आप हम सबों को, जो निरन्तर आपके चरणकमलों का ध्यान करतेहैं, अपना दर्शन दे रहे हैं।

    स्ववचस्तहतं कर्तुमस्महृग्गोचरो भवान्‌ ।

    यदात्थेकान्तभक्तान्मे नानन्‍्तः श्रीरज: प्रिय: ॥

    ३२॥

    स्व--अपना; वच:--कथन; तत्‌-- उस; ऋतम्‌-- सत्य; कर्तुमू--बनाने के लिए; अस्मत्‌--हमारी; हक्‌-- आँखों को;गोचर: --दिखने वाला; भवान्‌ू--आप; यत्‌--जो; आत्थ--कहा; एक-अन्त--एक ही उद्देश्य से; भक्तात्‌ू-भक्त की अपेक्षा;मे--मेरा; न--नहीं; अनन्तः-- भगवान्‌ अनन्त; श्री:-- श्री देवी; अजः --अजन्मा ब्रह्मा; प्रिय: --प्रिय ॥

    आपने कहा है, 'मुझे अपने अनन्य भक्त की तुलना में न तो अनन्त, देवी श्री या न हीअजन्मा ब्रह्मा अधिक प्रिय हैं।

    अपने ही शब्दों को सत्य सिद्ध करने के लिए, अब आपने हमारेनेत्रों के समक्ष अपने को प्रकट किया है।

    को नु त्वच्चरणाम्भोजमेवंविद्विसूजेत्पुमान्‌ ।

    निष्किद्ननानां शान्तानां मुनीनां यस्त्वमात्मद: ॥

    ३३॥

    कः--कौन; नु--तनिक भी; त्वत्‌-तुम्हारे; चरण-अम्भोजम्‌--चरणकमलों को; एवम्‌--इस तरह; वित्‌ू--जानते हुए;विसृजेत्‌-त्याग देंगे; पुमान्‌--व्यक्ति को; निष्किज्ञनानामू--निष्काम व्यक्तियों के लिए; शान्तानाम्‌--शान्त; मुनीनाम्‌--मुनियोंके लिए; य:--जो; त्वम्‌--तुम; आत्म--स्वयं को; दः--देने वाले।

    ऐसा कौन पुरुष है, जो इस सत्य को जानते हुए कभी आपके चरणकमलों का परित्यागकरेगा, जब आप उन शान्त मुनियों को अपने आप तक को दे डालने के लिए उद्यत रहते हैं, जोकिसी भी वस्तु को अपनी नहीं कहते ?

    योउवतीर्य यदोर्वशे नृणां संसरतामिह ।

    यशो वितेने तच्छान्त्यै त्रैलोक्यवृजिनापहम्‌ ॥

    ३४॥

    यः--जो; अवतीर्य--अवतरित होकर; यदो:--यदु के; वंशे--वंश में; नृणाम्‌--मनुष्यों के लिए; संसरताम्‌--जन्म-मृत्यु केअक्र में फँसे हुए; इह--इस संसार में; यशः--आपका यश; वितेने-- प्रसार कर चुका है; तत्‌ू--उस ( जगत ) के; शान्त्यै--शमन के लिए; त्रै-लोक्य--तीनों लोकों के; वृजिन--पाप; अपहम्‌--दूर करने वाला।

    आपने यदुवंश में प्रकट होकर तीनों लोकों के समस्त पापों को दूर कर सकने में समर्थअपने यश का विस्तार, जन्म-मृत्यु के चक्कर में फँसे हुओं का उद्धार करने के लिए ही किया है।

    नमस्तुभ्यं भगवते कृष्णायाकुण्ठमेधसे ।

    नारायणाय ऋषये सुशान्तं तप ईयुषे ॥

    ३५॥

    नमः--नमस्कार; तुभ्यमू--तुमको; भगवते-- भगवान्‌; कृष्णाय--कृष्ण को; अकुण्ठ--विस्तृत; मेधसे--बुद्धि वाले;नारायणाय ऋषये--ऋषि नर-नारायण को; सु-शान्तम्‌-पूर्णतया शान्त; तपः--तपस्या में; ईयुषे--संलग्न |

    हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ कृष्ण, आपको नमस्कार है, जिनकी बुद्धि सदैव ही असीम है।

    ऋषि नर-नारायण को नमस्कार है, जो पूर्ण शान्ति में रह कर सदैव तपस्या करते रहते हैं।

    दिनानि कतिचिद्धूमन्गृहान्नो निवस द्विजैः ।

    समेत: पादरजसा पुनीहीदं निमे: कुलम्‌ ॥

    ३६॥

    दिनानि--दिन; कतिचित्‌--कुछ; भूमन्‌--हे सर्वव्यापी; गृहान्‌ू--घर में; नः--हमारे; निवस--कृपया निवास करें; द्विजैः--ब्राह्मणों द्वारा; समेत:--सम्मिलित; पाद--अपने चरणों की; रजसा--धूल से; पुनीहि--पवित्र करें; इदम्‌--इस; निमेः--राजानिमि के; कुलमू--वंश को

    हे सर्वव्यापी, कृपया इन ब्राह्मणों समेत मेरे घर में कुछ दिन ठहरें और अपने चरणों कीधूलि से इस निमिवंश को पवित्र बनायें।

    इत्युपामन्त्रितो राज्ञा भगवॉल्लोकभावन: ।

    उवास कुर्वन्कल्याणं मिथिलानरयोषिताम्‌ ॥

    ३७॥

    इति--इस प्रकार; उपामन्त्रित:--आमंत्रित; रज्ञा--राजा द्वारा; भगवानू-- भगवान्‌ ने; लोक--पूरे संसार के; भावन:--पालनकर्ता; उबास--निवास किया; कुर्वन्‌--उत्पन्न करते हुए; कल्याणम्‌--सौभाग्य; मिथिला--मिथिला नगरी के; नर--मनुष्यों; योषिताम्‌--तथा स्त्रियों के |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : राजा द्वारा इस तरह आमंत्रित किये जाने पर जगत केपालनकर्ता भगवान्‌ ने मिथिला के नर-नारियों को सौभाग्य प्रदान करने हेतु कुछ समय तकठहरने की सहमति दे दी।

    श्रुतदेवोच्युतं प्राप्त स्‍्वगृहाज्लनको यथा ।

    नत्वा मुनीन्सुसंहष्टो धुन्वन्वासो ननर्त ह ॥

    ३८॥

    श्रुतदेव:-- श्रुतदेव; अच्युतम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण को; प्राप्तम्‌--पाया हुआ; स्व-गृहान्‌--अपने घर में; जनक: --बहुला श्व ने;यथा--जिस तरह; नत्वा--नमस्कार करके; मुनीन्‌--मुनियों को; सु--अत्यधिक; संदृष्ट:--प्रसन्न; धुन्बन्‌--हिलाते हुए;वास:--अपना वस्त्र; ननर्त ह--नाचने लगा।

    श्रुतदेव ने अपने घर में भगवान्‌ अच्युत का उतने ही उत्साह के साथ स्वागत किया, जैसा किराजा बहुलाश्व ने प्रदर्शित किया था।

    भगवान्‌ तथा मुनियों को नमस्कार करके श्रुतदेव अपनादुशाला हिला-हिला कर परम हर्ष से नाचने लगा।

    तृणपीठबृषीष्वेतानानीतेषूपवेश्य सः ।

    स्वागतेनाभिनन्द्याड्स्रीन्सभार्यो उवनिजे मुदा ॥

    ३९॥

    तृण--घास के; पीठ--आसनों पर; बृषीषु--तथा दर्भ की बनी चटाइयों पर; एतान्‌--उन्हें; आनीतेषु--लाये गये; उपवेश्य--बैठाकर; सः--वह; स्व-आगतेन--स्वागत के शब्दों से; अभिनन्द्य--अभिनन्दन करके; अद्घ्रीन्‌ू--चरणों को; स-भार्य:--अपनी पत्नी सहित; अवनिजे-- धोया; मुदा--प्रसन्नतापूर्वक ।

    घास तथा दर्भ तृण से बनी चटाइयाँ लाकर तथा अपने अतिथियों को उन पर बैठाकर, उसनेस्वागत के शब्दों द्वारा उनका सत्कार किया।

    तब उसने तथा उसकी पली ने बड़ी ही प्रसन्नता केसाथ उनके चरण पखारे।

    तदम्भसा महाभाग आत्मानं सगृहान्वयम्‌ ।

    स्नापयां चक्र उद्धर्षो लब्धसर्वमनोरथ: ॥

    ४०॥

    तत्‌--उस; अम्भसा--जल से; महा-भाग: --अत्यन्त पवित्र; आत्मानम्‌ू--स्वयं को; स--सहित; गृह-- अपने घर; अन्वयम्‌--तथा अपने परिवार; स्नापयाम्‌ चक्रे--स्नान किया; उद्धर्ष: --अत्यधिक हर्षित; लब्ध--प्राप्त की हुई; सर्व--समस्त; मनः-रथः--इच्छाएँ।

    उस चरणोदक को महाभाग श्रुतदेव ने अपने, अपने घर तथा अपने परिवार वालों पर जी भरकर छिड़का।

    अति हर्षित होकर उसने अनुभव किया कि अब उसकी सारी इच्छाएँ पूरी हो गईहैं।

    'फलाईणोशीरशिवामृताम्बुभि-मृदा सुरभ्या तुलसीकुशाम्बुयै: ।

    आराधयामास यथोपपन्नयासपर्यया सत्त्वविवर्धनान्थसा ॥

    ४१॥

    'फल--फलों की; अर्हण-- भेंट से; उशीर--खस से; शिव--शुद्ध; अमृत--अमृत जैसे मीठे; अम्बुभि:--तथा जल से; मृदा--मिट्टी; सुरभ्या--सुगंधित; तुलसी--तुलसी दलों; कुश--कुश घास; अम्बुजै:ः--तथा कमल के फूलों से; आराधयाम्‌ आस--उसने उनकी पूजा की; यथा--जिस तरह; उपपन्नया--प्राप्त किया जा सके; सपर्यया--पूजा सामग्री सहित; सत्त्व--सतोगुण;विवर्धन--वृद्धि; अन्धसा-- भोजन से |

    उसने सहज उपलब्ध होने वाली शुभ सामग्री यथा फल, उशीर, शुद्ध अमृत तुल्य जल,सुगंधित मिट्टी, तुलसी दल, कुश तृण तथा कमल के फूल अर्पित करते हुए उनकी पूजा की।

    तबउसने उन्हें वह भोजन परोसा, जो सतोगुण को बढ़ाता है।

    स तर्कयामास कुतो ममान्वभूत्‌गृहान्धकूपे पतितस्य सड्रम: ।

    यः सर्वतीर्थास्पदपादरेणुभि:कृष्णेन चास्यात्मनिकेतभूसुरै: ॥

    ४२॥

    सः--उसने; तर्कयाम्‌ आस--समझने की कोशिश की; कुतः--किस कारण से; मम--मेरे; अनु--निस्सन्देह; अभूत्‌ू--हुआ है;गृह--घर रूपी; अन्ध--अंधे; कूपे--कुएँ में; पतितस्थ--गिरे हुए; सड्भम: --संगति; यः--जो; सर्व--सभी; तीर्थ--तीर्थस्थानोंके; आस्पद--शरण स्वरूप; पाद--जिसके पाँवों की; रेणुभि:--धूलि से; कृष्णेन--कृष्ण से; च-- भी; अस्य--इसके;आत्म--स्वयं का; निकेत--घर स्वरूप; भू-सुरैः--ब्राह्मणों से |

    वह आश्चर्य करने लगा कि गृहस्थ जीवन के अंध कूप में गिरा हुआ, मैं भगवान्‌ कृष्ण सेभेंट करने में कैसे समर्थ हो सका? और मुझे कैसे इन महान्‌ ब्राह्मणों से मिलने दिया गया, जोअपने हृदयों में सदैव भगवान्‌ को धारण किये रहते हैं ? निस्सन्देह उनके चरणों की धूलि समस्ततीर्थस्थानों के आश्रय रूप है।

    सूपविष्टान्कृतातिथ्यान्श्रुददेव उपस्थित: ।

    सभार्यस्वजनापत्य उवाचाड्ठ्यभिमर्शन: ॥

    ४३॥

    सु-उपविष्टानू--सुखपूर्वक बैठे हुए; कृत--की गईं; आतिथ्यान्‌ू--मेहमानगिरी, सत्कार; श्रुतदेव:-- श्रुतदेव; उपस्थित: --उनकेपास बैठा हुआ; स-भार्य--अपनी पत्नी के साथ; स्व-जन--सम्बन्धीजन; अपत्य:--तथा सन्तानें; उवाच--बोला; अड्धूप्रि--( भगवान्‌ कृष्ण के ) पाँव; अभिमर्शन:--दबाते हुए।

    जब उसके अतिथि समुचित सम्मान प्राप्त करके सुखपूर्वक बैठ गये, तो श्रुतदेव उनकेनिकट गया और अपनी पली, बच्चों तथा अन्य आश्ञितों समेत उनके समीप बैठ गया।

    तत्पश्चात्‌भगवान्‌ के चरणों को दबाते हुए, उसने कृष्ण तथा मुनियों को सम्बोधित किया।

    श्रुददेव उबाचनाद्य नो दर्शन प्राप्त: पर परमपूरुष: ।

    यहांदं शक्तिभि: सृष्ठ्रा प्रविष्टो ह्मात्मसत्तया ॥

    ४४॥

    श्रुतदेव: उवाच-- श्रुतदेव ने कहा; न--नहीं; अद्य--आज; न: --हमरे द्वारा; दर्शनम्‌--दर्शन; प्राप्त: --प्राप्त किया हुआ;परम्‌--एकमात्र; परम--सर्वोच्च; पूरूष:--पुरुष; यहिं--- जब; इृदम्‌--यह ( ब्रह्माण्ड ); शक्तिभि:--अपनी शक्तियों सहित;सृष्ठा--उत्पन्न करके; प्रविष्ट:--प्रविष्ट; हि--निस्सन्देह; आत्म--अपनी; सत्तया--सत्ता से

    श्रुददेव ने कहा : ऐसा नहीं है कि हमने केवल आज ही परम पुरुष का दर्शन किया है,क्योंकि जब से उन्होंने अपनी शक्तियों से इस ब्रह्माण्ड की रचना की है और अपने दिव्य रूप सेउसमें प्रविष्ट हुए हैं, तब से हम उनका सात्निध्य प्राप्त करते रहे हैं।

    यथा शयानः पुरुषो मनसैवात्ममायया ।

    सृष्टा लोक॑ परं स्वाप्ममनुविश्यावभासते ॥

    ४५॥

    यथा--जिस तरह; शयान:--सोते हुए; पुरुष:--व्यक्ति; मनसा--मस्तिष्क से; एबव--केवल; आत्म--अपना; मायया--कल्पना से; सृधप्ठा--सृजन करके; लोकम्‌--जगत; परम्‌ू--पृथक्‌; स्वाणम्‌--स्वण; अनुविश्य-- प्रवेश करके; अवभासते--प्रकट होता है

    भगवान्‌ उस सोये हुए व्यक्ति की तरह हैं, जो अपनी कल्पना में पृथक्‌ जगत का निर्माणकरता है और तब अपने ही स्वणन में प्रवेश करता है तथा उसके भीतर अपने को देखता है।

    श्रण्वतां गदतां शश्वदर्चतां त्वाभिवन्दताम्‌ ।

    णृणां संवदतामन्तईदि भास्यमलात्मनाम्‌ ॥

    ४६॥

    श्रुण्वताम्‌ू--सुनने वालों के लिए; गदताम्‌--बोलते हुए; शश्वत्‌--निरन्तर; अर्चताम्‌-पूजा करते हुए; त्वा--तुम;अभिवन्दताम्‌- प्रशंसा करते हुए; नृणाम्‌ू-मनुष्यों के लिए; संवदताम्‌--बातें करते हुए; अन्तः-- भीतर; हृदि--हृदय में;भासि--तुम प्रकट होते हो; अमल--निर्मल; आत्मनाम्‌--मन वालों के लिए।

    आप उन शुद्ध चेतना वाले मनुष्यों के हृदयों के भीतर अपने को प्रकट करते हैं, जो निरन्तरआपके विषय में सुनते हैं, आपका कीर्तन करते हैं, आपकी पूजा करते हैं, आपका गुणगानकरते हैं और आपके ही विषय में एक-दूसरे से चर्चायें करते हैं।

    हृदिस्थोप्यतिदूरस्थः कर्मविक्षिप्तचेतसाम्‌ ।

    आत्मशक्तिभिरग्राह्मोप्यन्त्युपेतगुणात्मनाम्‌ ॥

    ४७॥

    हृदि--हृदय में; स्थ:--स्थित; अपि--यद्यपि; अति--अत्यन्त; दूर-स्थः--बहुत दूर; कर्म-- भौतिक कार्यो द्वारा; विक्षिप्त--विचलित; चेतसामू--मन वालों के लिए; आत्म--अपनी; शक्तिभि:--शक्तियों से; अग्राह्म:--ग्रहण न किया जा सकने वाला;अपि--यद्यपि; अन्ति--निकट; उपेत-- अनुभूति किया हुआ; गुण-- आपके गुण; आत्मनाम्‌ू--हृदय वालों द्वारा |

    किन्तु हृदय के भीतर वास करते हुए भी आप उनसे बहुत दूर रहते हैं, जिनके मन भौतिककार्यों में उलझने से विचलित रहते हैं।

    दरअसल कोई भी आपको भौतिक शक्तियों द्वारा पकड़नहीं सकता, क्योंकि आप केवल उन लोगों के हृदयों में प्रकट होते हैं, जिन्होंने आपके दिव्यगुणों की प्रशंसा करनी सीख ली है।

    नमोउस्तु तेडध्यात्मविदां परात्मनेअनात्मने स्वात्मविभक्तमृत्यवे ।

    सकारणाकारणलिड्मीयुषेस्वमाययासंवृतरुद्धहृष्टये ॥

    ४८ ॥

    नमः--नमस्कार; अस्तु--हो; ते--तुमको; अध्यात्म--परम सत्य; विदाम्‌--जानने वालों के लिए; पर-आत्मने--परमात्मा को;अनात्मने--बद्ध जीवात्मा को; स्व-आत्म--( काल रूप में ) आपसे; विभक्त--देने वाला; मृत्यवे--मृत्यु को; स-कारण--कारणयुक्त; अकारण--कारणरहित; लिड्रम्‌-स्वरूप ( ब्रह्माण्ड तथा आपके आदि स्वरूप ); ईयुषे-- धारण करने वाले; स्व-मायया--अपनी योगशक्ति से; असंवृत--खुला; रुद्ध--तथा रुकी; दृष्टये--दृष्टि |

    मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

    परम सत्य को जानने वालों द्वारा आप परमात्मा के रूप मेंअनुभव किये जाते हैं, जबकि काल रूप में आप विस्मरणशील जीवों के लिए मृत्यु स्वरूप हैं।

    आप अपने अहैतुक आध्यात्मिक रूप में तथा इस ब्रह्माण्ड के सृजित रूप में प्रकट होते हैं।

    इसतरह आप एक ही समय अपने भक्तों की आँखें खोलते हैं और अभक्तों की दृष्टि को बाधितकरते हैं।

    स त्वं शाधि स्वभृत्यान्न: कि देव करवाम हे ।

    एतदन्तो नृणां क्लेशो यद्धवानक्षिगोचर: ॥

    ४९॥

    सः--वह; त्वम्‌ू--तुम; शाधि--आज्ञा दें; स्व--अपने; भृत्यान्‌ू--दासों को; न:--हम; किम्‌--क्या; देव--हे प्रभु; करवाम--हमें करना चाहिए; हे--ओह; एतत्‌--यह; अन्त:--इसके अन्त के रूप में; नृणाम्‌--मनुष्यों के; क्लेश:--क्लेश; यत्‌--जो;भवान्‌--आपकी; अक्षि--आँखों को; गो-चर:--हृश्य |

    हे प्रभु, आप ही वह परमात्मा हैं और हम आपके दास हैं।

    हम आपकी किस तरह सेवा करें ?हे प्रभु, आपके दर्शन मात्र से मनुष्य-जीवन के सारे क्लेशों का अन्त हो जाता है।

    श्रीशुक उबाचतदुक्तमित्युपाकर्ण्य भगवान्प्रणतार्तिहा ।

    गृहीत्वा पाणिना पाएिं प्रहसंस्तमुवाच ह ॥

    ५०॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; तत्‌--उस ( श्रुतदेव ) के द्वारा; उक्तमू--कहा गया; इति--इस प्रकार;उपाकर्ण्य--सुन कर; भगवान्‌-- भगवान्‌; प्रणत--शरणागत के; आर्ति--कष्ट का; हा--विनाश करने वाला; गृहीत्वा--पकड़कर; पाणिना--अपने हाथ से; पाणिम्‌--उसका हाथ; प्रहसन्‌ू--खिलखिलाकर हँसते हुए; तमू-- उससे; उवाच ह--कहा |

    श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : श्रुतदेव को ये शब्द कहते सुन कर, शरणागतों के कष्ट कोदूर करने वाले भगवान्‌ ने श्रुददेव के हाथ को अपने हाथ में ले लिया और हँसते हुए, उससे इसप्रकार बोले।

    श्रीभगवानुवाचब्रह्म॑स्तेउनुग्रहार्थाय सम्प्राप्तान्विद्धयमून्मुनीन्‌ ।

    सद्जरन्ति मया लोकान्पुनन्तः पादरेणुभि: ॥

    ५१॥

    श्री-भगवान्‌ उबाच-- भगवान्‌ ने कहा; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; ते--तुम्हारा; अनुग्रह-- आशीर्वाद देने के; अर्थाय-नहेतु;सम्प्राप्तान्‌ू--आये हुए; विद्धि--जानो; अमून्‌--इन; मुनीन्‌--मुनियों को; सझ्ञरन्ति-- भ्रमण करते हैं; मया--मेरे साथ साथ;लोकानू--सारे जगतों को; पुनन्त:ः--शुद्ध करते हुए; पाद--अपने पैरों की; रेणुभि:-- धूल से |

    भगवान्‌ ने कहा : हे ब्राह्मण, तुम यह जान लो कि ये महान्‌ ऋषिगण यहाँ तुम्हें आशीर्वाद देने ही आये हैं।

    ये मेरे साथ साथ सारे जगतों में भ्रमण करते हैं और अपने चरणों की धूल से,उन्हें पवित्र करते हैं।

    देवा: क्षेत्राणि तीर्थानि दर्शनस्पर्शनार्चन: ।

    शनेः पुनन्ति कालेन तदप्यहत्तमेक्षया ॥

    ५२॥

    देवा:ः--मन्दिर के अर्चाविग्रह; क्षेत्राणि--तीरर्थस्थल; तीर्थानि--तथा पवित्र नदियाँ; दर्शन--दर्शन करने से; स्पर्शन--स्पर्श से;अर्चनै:--तथा पूजा करने से; शनै:--धीरे धीरे; पुनन्ति--पवित्र करते हैं; कालेन--समय से; तत्‌ अपि--वे ही; अहैत्‌-तम--सर्वाधिक पूज्यों ( ब्राह्मणों ) की; ईक्षया--चितवन से।

    मनुष्य मन्दिर के अर्चाविग्रहों, तीर्थस्थलों तथा पवित्र नदियों के दर्शन, स्पर्श तथा पूजन सेधीरे धीरे शुद्ध बन सकता है।

    किन्तु महान्‌ मुनियों की कृपादृष्टि प्राप्त करने मात्र से, उसे तत्कालवही फल प्राप्त हो सकता है।

    ब्राह्मणो जन्मना श्रेयान्सर्वेषाम्प्राणिनामिह ।

    तपसा विद्यया तुष्टठया किमु मत्कलया युतः ॥

    ५३॥

    ब्राह्मण: --ब्राह्मण; जन्मना--जन्म से; श्रेयान्‌--सर्वोत्तम; सर्वेषामू--सभी; प्राणिनाम्‌--जीवों में; इह--इस जगत में; तपसा--अपनी तपस्या से; विद्यया--अपनी विद्या से; तुष्ठाया--तथा अपने संतोष से; किम्‌ उ--तब और क्या; मत्‌--मुझ पर; कलया--प्रेमपूर्ण ध्यान से; युत:--युक्त |

    ब्राह्मण अपने जन्म से ही इस जगत में समस्त जीवों में श्रेष्ठ है, किन्तु वह तब और भीउच्चस्थ बन जाता है, जब वह तपस्या, विद्या तथा आत्म-संतोष से युक्त होता है।

    यदि मेरे प्रतिउसकी भक्ति हो, तो फिर कहना ही क्‍या है।

    न ब्राह्मणान्मे दयितं रूपमेतच्चतुर्भुजम्‌ ।

    सर्ववेदमयो विप्र: सर्वदेवमयो हाहम्‌ ॥

    ५४॥

    न--नहीं; ब्राह्मणातू--ब्राह्मण की अपेक्षा; मे--मुझको; दयितम्‌--अधिक प्रिय; रूपम्‌--स्वरूप; एतत्‌--यह; चतु:-भुजम्‌--चार भुजाओं वाला; सर्व--समस्त; वेद--वेदों से; मय:ः--युक्त; विप्र:--विद्वान ब्राह्मण; सर्व--समस्त; देव--देवताओं से;मयः--युक्त; हि--निस्सन्देह; अहम्‌-मैं |

    यहाँ तक कि मुझे ब्राह्मणों की तुलना में अपना चतुर्भुजी रूप अधिक प्रिय नहीं है।

    एकविद्वान ब्राह्मण में सारे वेद उसी तरह रहते हैं, जिस तरह मेरे भीतर सारे देवता रहते हैं।

    दुष्प्रज्ञा अविदित्वैवमवजानन्त्यसूयव: ।

    गुरुं मां विप्रमात्मानमर्चादाविज्यदृष्टय: ॥

    ५५॥

    दुष्प्रज्ध:ः--विकृत बुद्धि वाले; अविदित्वा--न समझ कर; एवम्‌--इस प्रकार; अवजानन्ति--उपेक्षा करते हैं; असूबवः--तथाईर्ष्यापूर्ण व्यवहार करते हैं; गुरुम्‌--अपने गुरु के प्रति; मामू--तथा मुझको; विप्रम्‌ू--विद्वान ब्राह्मण को; आत्मानम्‌--अपनेआपको; अर्चा-आदऊ-- भगवान्‌ के अर्चाविग्रह में; इज्य--पूज्य के रूप में; दृष्टय:--जिनकी दृष्टि |

    इस सत्य से अनजान मूर्ख लोग उस दिद्वान ब्राह्मण की उपेक्षा करते हैं और ईर्ष्यावशअपमान करते हैं, जो मुझसे अभिन्न होने के कारण, उनका आत्मा तथा गुरु होता है।

    वे मेरेअर्चाविग्रह स्वरूप जैसे स्पष्ट दैवी प्राकटयों को ही, एकमात्र पूज्य स्वरूप मानते हैं।

    चराचरमिदं विश्व भावा ये चास्य हेतवः ।

    मद्रूपाणीति चेतस्याधत्ते विप्रो मदीक्षया ॥

    ५६॥

    चर--चेतन; अचरम्‌--तथा जड़; इृदम्‌--इस; विश्वम्‌--जगत को; भावा:--तात्विक कोटियाँ; ये--जो; च--तथा; अस्य--इसका; हेतव: --स््रोत; मत्‌--मेरे; रूपाणि--स्वरूप; इति--ऐसा विचार; चेतसि--मन के भीतर; आधत्ते--रखता है; विप्र:--ब्राह्मण; मत्‌ू--मेरा; ईक्षया--अपनी अनुभूति द्वारा

    मेरा साक्षात्कार प्राप्त किये होने से, ब्राह्मण इस ज्ञान में सुस्थिर रहता है कि इस ब्रह्माण्ड कीसारी जड़ तथा चेतन वस्तुएँ एवं इसकी सृष्टि के मूल तत्त्व भी, मुझसे ही विस्तारित हुए प्रकट-रूप हैं।

    तस्माद्गह्मऋषीनेतान्ब्रह्मन्मच्छुद्धयार्चय ।

    एवं चेदर्चितोउस्म्यद्धा नान्यथा भूरिभूतिभि: ॥

    ५७॥

    तस्मात्‌ू--इसलिए; ब्रह्म-ऋषीनू--ब्रह्मर्षियों को; एतान्‌--इन; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण ( श्रुतदेव ); मत्‌--( जैसाकि तुम रखते हो )मेरे लिए; श्रद्धया-- श्रद्धापूर्वक; अर्चय--पूजा करो; एवम्‌--इस प्रकार; चेत्‌--यदि ( तुम करोगे ); अर्चित:--पूजित;अस्मि--होऊँगा; अद्धघा- प्रत्यक्ष; न--नहीं; अन्यथा-- अन्यथा; भूरि--विस्तृत; भूतिभि: --धन से

    अतः हे ब्राह्मण, तुम्हें चाहिए कि इन ब्रह्मर्षियों की पूजा उसी श्रद्धा से करो, जो तुम्हें मुझमेंहै।

    यदि तुम ऐसा करते हो, तो तुम मेरी प्रत्यक्ष पूजा करोगे, जिसे तुम प्रचुर धन अर्पित करकेकरके भी नहीं कर सकते।

    श्रीशुक उबाचस इत्थं प्रभुनादिष्ट: सहकृष्णान्‌ द्विजोत्तमान्‌ ।

    आरशरध्यैकात्मभावेन मैथिलश्चाप सदगतिम्‌ ॥

    ५८॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; सः--वह ( श्रुतदेव ); इत्थम्‌--इस प्रकार से; प्रभुना--अपने स्वामी द्वारा;आदिष्ट:--आदेश दिया जाकर; सह--साथ में; कृष्णान्‌ू--भगवान्‌ कृष्ण को; द्विज--ब्राह्मणों को; उत्तमान्‌-- श्रेष्ठ; आराध्य--पूजा द्वारा; एक-आत्म--एकान्त मन से; भावेन--भक्ति से; मैथिल:--मिथिला का राजा; च-- भी; आप--प्राप्त किया;सत्‌-दिव्य; गतिम्‌--चरम गन्तव्य |

    श्रीशुकदेव ने कहा : अपने प्रभु से इस तरह आदेश पाकर श्रुतदेव ने एकात्म भाव सेश्रीकृष्ण की तथा उनके साथ आये सर्वश्रेष्ठ ब्राह्यणों की पूजा की।

    राजा बहुलाश्व ने भी ऐसा हीकिया।

    इस तरह श्रुतदेव तथा राजा दोनों ही को चरम दिव्य गन्तव्य प्राप्त हुआ।

    एवं स्वभक्तयो राजन्भगवान्भक्तभक्तिमान्‌ ।

    उषित्वादिश्य सन्मार्ग पुनर्द्वावतीमगात्‌ ॥

    ५९॥

    एवम्‌--इस प्रकार; स्व--अपने; भक्तयो:--दो भक्तों से; राजन्‌ू--हे राजा ( परीक्षित ); भगवान्‌-- भगवान्‌; भक्त--अपने भक्तोंके प्रति; भक्ति-मन्‌-- भक्ति में लगा; उषित्वा--ठहर कर; आदिश्य--शिक्षा देकर; सत्‌--शुद्ध सन्‍्तों के; मार्गमू--पथ पर;पुन:ः--फिर; द्वारवतीम्‌-द्वारका; अगात्‌--चले गए

    हे राजनू, इस तरह अपने भक्तों के प्रति अनुरक्त भगवान्‌ अपने दो महान्‌ भक्तों, श्रुतदेव तथाबहुलाश्व के साथ कुछ समय तक उन्हें पूर्ण सन्‍्तों के आचरण की शिक्षा देते हुए वही रहते रहे।

    तब भगवान्‌ द्वारका लौट गये।

    TO

    अध्याय सत्तासी: साक्षात वेदों की प्रार्थनाएँ

    10.87श्रीपरीक्षिदुवाचब्रह्मन्ब्रह्मण्यनिर्देश्ये निर्गुणे गुणवृत्तय: ।

    कथ॑ चरन्ति श्रुतयः साक्षात्सदसत:ः परे ॥

    १॥

    श्री-परीक्षित्‌ उबाच-- श्री परीक्षित ने कहा; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण ( शुकदेव ); ब्रह्मणि--परब्रह्म में; अनिर्देश्ये--जिसका शब्दों मेंवर्णन करना कठिन हो; निर्गुणे--गुणरहित; गुण-- प्रकृति के गुण; वृत्तय:--जिसका कार्यक्षेत्र; कथम्‌--कैसे; चरन्ति--कार्यकरते हैं; श्रुतपः--वेद; साक्षात्‌-- प्रत्यक्षत:; सत्‌-- भौतिक वस्तु को; असतः--तथा इसके सूक्ष्म कारण; परे--उसमें, जो दिव्यहै

    श्री परीक्षित ने कहा : हे ब्राह्मण, भला वेद उस परम सत्य का प्रत्यक्ष वर्णन कैसे कर सकतेहैं, जिसे शब्दों द्वारा बतलाया नहीं जा सकता? वेद भौतिक प्रकृति के गुणों के वर्णन तक हीसीमित हैं, किन्तु ब्रह्म समस्त भौतिक स्वरूपों तथा उनके कारणों को लाँघ जाने के कारण इनगुणों से रहित है।

    श्रीशुक उबाचबुद्धीन्द्रियमन:प्राणान्‍जनानामसूजत्प्रभु: ।

    मात्रार्थ च भवार्थ च आत्मनेडकल्पनाय च ॥

    २॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; बुर्द्धि--बुद्धि; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; मन: --मन; प्राणान्‌ू--तथा प्राण; जनाणाम्‌--जीवों के; असृजत्‌--उत्पन्न किया; प्रभु:ः-- भगवान्‌ ने; मात्र--इन्द्रिय-तृप्ति के; अर्थम्‌-हेतु; च--तथा; भव--जन्म ( तथाउसके बाद के कार्यों ) के; अर्थम्‌-हेतु; च--तथा; आत्मने--आत्मा ( तथा अगले जीवन में उसके सुख की प्राप्ति ) के लिए;अकल्पनाय-- भौतिक उद्देश्यों के परित्याग के लिए; च--तथा।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : भगवान्‌ ने जीवों की भौतिक बुद्धि, इन्द्रियाँ, मन तथा प्राण कोप्रकट किया, जिससे वे अपनी इच्छाओं को इन्द्रिय-तृप्ति में लगा सकें, सकाम कर्म में संलग्नहोने के लिए बारम्बार जन्म ले सकें, अगले जन्म में ऊपर उठ सकें तथा अन्ततः मोक्ष प्राप्त करसकें।

    सैषा ह्युपनिषद्गाह्ी पूर्वेशां पूर्वजैर्थूता ।

    रद्धया धारयेहास्तां क्षेमं गच्छेदकिज्लनः ॥

    ३॥

    सा एषा--वही; हि--निस्सन्देह; उपनिषत्‌--उपनिषद्‌; ब्राह्मी --ब्रह्म से सम्बन्धित; पूर्वेषाम--हमारे पूर्वजों ( यथा नारद ) के;पूर्व-जैः --पूर्वजों द्वारा ( यथा सनक ); धृत--ध्यान किया गया; श्रद्धवा-- श्रद्धा के साथ; धारयेत्‌-- ध्यान करता है; यः--जोभी; तामू--उस पर; क्षेममू--चरम सफलता; गच्छेत्‌ू--प्राप्त करेगा; अकिज्ञन: -- भौतिक सम्बन्ध से रहित।

    हमारे प्राचीन पूर्वजों से भी पूर्व, जो लोग हो चुके हैं, उन्होंने भी परम सत्य के इसी गुह्य ज्ञानका ही ध्यान किया है।

    निस्सन्देह, जो भी श्रद्धापूर्वक इस ज्ञान में एकाग्र होता है, वह भौतिकआसक्ति से छूट जायेगा और जीवन के अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त कर सकेगा।

    अत्र ते वर्णयिष्यामि गाथां नारायणान्विताम्‌ ।

    नारदस्य च संवादमृषे्नारायणस्य च ॥

    ४॥

    अत्र--इस सम्बन्ध में; ते--तुमसे; वर्णयिष्यामि--वर्णन करूँगा; गाथाम्‌--विवरण; नारायण-अन्वितामू-- भगवान्‌ नारायण सेसम्बन्धित; नारदस्य--नारद की; च--तथा; संवादम्‌--वार्ता; ऋषे: नारायणस्य-- श्री नारायण ऋषि की; च--तथा |

    इस सम्बन्ध में मैं तुम से भगवान्‌ नारायण विषयक एक गाथा कहूँगा।

    यह उस वार्ता केविषय में है, जो श्री नारायण ऋषि तथा नारद मुनि के मध्य हुई थी।

    एकदा नारदो लोकान्पर्यटन्भगवत्प्रिय: ।

    सनातनमृषिं द्रष्ठ्रं ययौ नारायणा भ्रमम्‌ ॥

    ५॥

    एकदा--एक बार; नारद:--नारद मुनि; लोकान्‌--लोकों में; पर्यटन्‌-- भ्रमण करते हुए; भगवत्‌-- भगवान्‌ के ; प्रियः--प्रिय;सनातनम्‌--आदि; ऋषिम्‌--ऋषि को; द्रष्टू--देखने के लिए; ययौ--गये; नारायण-आश्रमम्‌ू--नारायण ऋषि की कुटियामें

    एक बार ब्रह्माण्ड के विविध लोकों का भ्रमण करते हुए, भगवान्‌ के प्रिय भक्त नारद आदिऋषि नारायण से मिलने, उनके आश्रम में गये।

    यो वै भारतवर्षेउस्मिन्क्षेमाय स्वस्तये नृणाम्‌ ।

    धर्मज्ञाशशमोपेतमाकल्पादास्थितस्तप: ॥

    ६॥

    यः--जो; बै--निस्सन्देह; भारत-वर्षे-- भारत की पवित्र भूमि पर; अस्मिनू--इस; क्षेमाय--इस जीवन में कल्याण के लिए;स्वस्तये--तथा अगले जीवन में कल्याण के लिए; नृणाम्‌--मनुष्यों के; धर्म--धर्म; ज्ञान--आध्यात्मिक ज्ञान; शम--तथाआत्म-संयम से; उपेतम्‌--समृद्ध; आ-कल्पात्‌--कल्प ( ब्रह्मा के दिन ) के प्रारम्भ से; आस्थित:--करते हुए; तप:ः--तपस्या |

    तत्रोपविष्टमृषिभि: कलापग्रामवासिभि: ।

    परीतं प्रणतोपृच्छदिदमेव कुरूद्वह ॥

    ७॥

    तत्र--वहाँ; उपविष्टम्‌--बैठे हुए; ऋषिभि:--ऋषियों द्वारा; कलाप-ग्राम--कलाप नामक ग्राम में ( जो बदरिकाश्रम के निकटहै ); वासिभि: --वास कर रहे; परीतम्‌--घिरे हुए; प्रणतः--झुक कर; अपृच्छत्‌--पूछा; इृदम्‌ एव--यही ( प्रश्न ); कुरू-उद्दद-हे कुरु श्रेष्ठ |

    वहाँ नारद भगवान्‌ नारायण ऋषि के पास पहुँचे, जो कलाप ग्राम के मुनियों के बीच में बैठेहुए थे।

    हे कुरुवीर, भगवान्‌ को नमस्कार करने के बाद नारद ने उनसे यही प्रश्न पूछा, जो तुमनेमुझसे पूछा है।

    तस्मै हवोचद्धगवानृषीणां श्रुण्वतामिदम्‌ ।

    यो ब्रह्मवाद: पूर्वेषां जनलोकनिवासिनाम्‌ ॥

    ८॥

    तस्मै--उससे; हि--निस्सन्देह; अवोचत्‌--बोले; भगवान्‌-- भगवान्‌; ऋषीणाम्‌--मुनियों के; श्रृण्वताम्‌ू--सुन रहे; इदम्‌--यह;यः--जो; ब्रह्म--ब्रह्म के विषय में; वाद:--चर्चा ; पूर्वेषाम्‌--प्राचीन; जन-लोक-निवासिनामू--जनलोक के निवासियों केबीच

    ऋषियों के सुनते-सुनते नारायण ऋषि ने नारद को परम ब्रह्म विषयक, वह प्राचीन चर्चासुनाई, जो जनलोक के वासियों के बीच हुई थी।

    श्रीभगवानुवाचस्वायम्भुव ब्रह्मसत्रं जनलोकेभवत्पुरा ।

    तत्रस्थानां मानसानां मुनीनामूरध्वरितसाम्‌ ॥

    ९॥

    श्री-भगवान्‌ उबाच-- भगवान्‌ ने कहा; स्वायम्भुव--हे स्व-जन्मा ब्रह्मा के पुत्र; ब्रह्म--दिव्य ध्वनि के उच्चारण से सम्पन्न;सत्रमू--यज्ञ; जन-लोके--जनलोक में; अभवत्‌--हुआ; पुरा--भूतकाल में; तत्र--वहाँ; स्थानामू--वहाँ रहने वालों के;मानसानाम्‌--मन से उत्पन्न ( ब्रह्म ) के; मुनीनामू--मुनियों के मध्य; ऊर्ध्व--ऊपर की ओर ( गति करने वाले ); रेतसाम्‌--वीर्यबाले।

    भगवान्‌ ने कहा : हे स्वजन्मा ब्रह्मा के पुत्र, एक बार बहुत समय पहले, जनलोक में रहनेवाले दिद्वान मुनियों ने दिव्य ध्वनि का उच्चारण करते हुए एक महान्‌ ब्रह्म यज्ञ सम्पन्न किया।

    ये सारे मुनि, जो ब्रह्मा के मानस पुत्र थे, पूर्ण ब्रह्मचारी थे।

    श्वेतद्वीपं गतवति त्वयि द्रष्ट तदी ध्वरम्‌ ।

    ब्रह्मवाद: सुसंवृत्त: श्रुत॒यो यत्र शेरते ।

    तत्र हायमभूत्प्रश्नस्त्वं मां यमनुपृच्छसि ॥

    १०॥

    श्वेतद्वीपम्‌-- श्वेतद्वीप में; गतवति--जाकर; त्वयि--तुम ( नारद ); द्रष्टमू--देखने के लिए; तत्‌ू--इसका; ईश्वरम्‌--स्वामी( अनिरुद्ध ); ब्रहा--ब्रह्न विषयक; वाद: --गोष्ठी; सु--उत्साहपूर्वक; संवृत्त:--प्रारम्भ हुई; श्रुत॒थः --वेद; यत्र--जिसमें( अनिरुद्ध जोकि क्षीरोदकशायी विष्णु भी कहलाते हैं ); शेरते--शयन करने लगे; तत्र--उसके विषय में; ह--निस्सन्देह;अयम्‌--यह; अभूत्‌--उठा; प्रश्न: --प्रश्न; त्वम्‌--तुम; मामू--मुझसे; यम्‌--जो; अनुपृच्छसि--फिर से पूछ रहे हो |

    उस समय तुम श्रवेतद्वीप में भगवान्‌ का दर्शन करने गये हुए थे--जिनके भीतर ब्रह्माण्ड केसंहार काल के समय सारे वेद विश्राम करते हैं।

    जनलोक में परब्रह्म के स्वभाव के विषय मेंऋषियों के मध्य जीवन्त वाद-विवाद उठ खड़ा हुआ।

    निस्सन्देह, तब यही प्रश्न उठा था, जिसेतुम अब मुझ से पूछ रहे हो।

    तुल्यश्रुततपःशीलास्तुल्यस्वीयारिमध्यमा: ।

    अपि चक्र: प्रवचनमेक॑ शुश्रूषवोपरे ॥

    ११॥

    तुल्य--समान; श्रुत--वेदों से सुनने में; तपः--तथा तपस्या; शीला:--जिनके चरित्र; तुल्य--समान; स्वीय--मित्रों का;अरि--शत्रु; मध्यमा:--तथा उदासीन या निष्पक्ष; अपि--यद्यपि; चक्कु:--बनाया; प्रवचचनम्‌--वक्ता को; एकम्‌--उनमें से एक;शुश्रूषव:--उत्सुक श्रोतागण; अपरे--अन्य |

    यद्यपि वेदाध्ययन तथा तपस्या के मामले में ये ऋषि समान रूप से योग्य थे और मित्रों,शत्रुओं तथा निष्पक्षों को समान दृष्टि से देखते थे, फिर भी उन्होंने अपने में से एक को वक्ताबनाया और शेष जन उत्सुक श्रोता बन गये।

    श्रीसनन्दन उवाचस्वसृष्टमिदमापीय शयानं सह शक्तिभि: ।

    तदन्ते बोधयां चक्रुस्तल्लिड्लैः श्रुत॒पः परम्‌ ॥

    १२॥

    यथा शयानं संराजं वन्दिनस्तत्पराक्रमैः ।

    प्रत्यूषेभेत्य सुश्लोकैर्बोधयन्त्यनुजीविन: ॥

    १३॥

    श्री-सनन्दनः-- श्री सनन्दन ( ब्रह्मा का मानस पुत्र, जिसे ऋषियों के प्रश्न का उत्तर देने के लिए चुना गया ) ने; उबाच--कहा;स्व--अपने से; सृष्टम्‌--उत्पन्न; इदम्‌--यह ( ब्रह्माण्ड ); आपीय--समेट कर के; शयानम्‌ू--सोया हुआ; सह--साथ;शक्तिभि:--अपनी शक्तियों के; ततू--उस ( प्रलयकाल ) के; अन्ते--अन्त में; बोधयाम्‌ चक्र: --उसे जगाया; तत्‌--उसके;लिड्वैः--गुणों ( के वर्णन ) से; श्रुतपः --वेद; परम्‌--ब्रह्म; यथा--जिस तरह; शयानम्‌--सोया हुआ; संराजम्‌--राजा को;वन्दिन:--उसके दरबारी कवि; तत्‌--उसके; पराक्रमैः--वीरतापूर्ण कार्यों ( के वर्णन ) से; प्रत्यूषे --प्रातःकाल; अभेत्य--पासपहुँच कर; सुश्लोकै:ः--कवित्वमय; बोधयन्ति--जगाते हैं; अनुजीविन:--उसके सेवक |

    श्री सनन्दन ने उत्तर दिया : जब भगवान्‌ ने अपने द्वारा पूर्व-निर्मित ब्रह्माण्ड को समेटलिया, तो वे कुछ काल तक ऐसे लेटे रहे, मानो सोये हुए हैं और उनकी सारी शक्तियाँ उनमें सुप्तपड़ी रहीं।

    जब अगली सृष्टि करने का समय आया, तो साक्षात्‌ वेदों ने उनकी महिमाओं कागायन करते हुए उन्हें जगाया, जिस तरह राजा की सेवा में लगे कविगण प्रातःकाल उसके पासजाकर उसके वीरतापूर्ण कार्यों को सुनाकर, उसे जगाते हैं।

    श्रीश्रुतथ ऊचु:जय जय जह्मजामजित दोषगृभीतगुणांत्वमसि यदात्मना समवरुबद्धसमस्तभग: ।

    अगजगदोकसामखिलशक्त्यवबोधक तेक्वचिदजयात्मना च चरतोउनुचरेन्निगम: ॥

    १४॥

    श्री-श्रुतथः ऊचु:--वेदों ने कहा; जयजय---आपकी जय हो, जय हो; जहि--परास्त करें; अजाम्‌--माया को; अजित--हेअजित; दोष--दोष उत्पन्न करने के लिए; गृभीत-- धारण किये हुए; गुणाम्‌--पदार्थ के गुण; त्वमू--तुम; असि--हो; यत्‌--क्योंकि; आत्मना--अपनी मूल स्थिति मे; समवरुद्ध--पूर्ण; समस्त--समस्त; भग:--ऐ श्वर्य में; अग--अचर; जगत्‌--तथाचर; ओकसामू-- भौतिक शरीर वालों के; अखिल--समस्त; शक्ति--शक्तियाँ; अवबोधक--हे जागृत करने वाले; ते--तुम; क्वचित्‌ू--कभी कभी; अजया--अपनी भौतिक शक्ति से; आत्मना--तथा अपनी अन्तरंगा आध्यात्मिक शक्ति से; च--भी;चरतः--व्यस्त रखते हुए; अनुचरेत्‌ू--समझ सकता है; निगम:--वेद

    श्रुतियों ने कहा : हे अजित, आपकी जय हो, जय हो, अपने स्वभाव से आप समस्त ऐश्वर्यसे परिपूर्ण हैं, अतएवं आप माया की शाश्वत शक्ति को परास्त करें, जो बद्धजीवों के लिएकठिनाइयाँ उत्पन्न करने के लिए तीनों गुणों को अपने वश में कर लेती है।

    चर तथा अचरदेहधारियों की समस्त शक्ति को जागृत करने वाले, कभी कभी जब आप अपनी भौतिक तथाआध्यात्मिक शक्तियों के साथ क्रीड़ा करते हैं, तो वेद आपको पहचान लेते हैं।

    जाबृहदुपलब्धमेतदवयन्त्यवशेषतयायत उदयास्तमयौ विकृतेमृदि वाविकृतात्‌ ।

    अत ऋषयो दधुस्त्वयि मनोवचनाचरितंकथमयथा भवन्ति भुवि दत्तपदानि नृणाम्‌ ॥

    १५॥

    बृहत्‌--ब्रह्म के रूप में; उपलब्धम्‌-- अनुभूत; एतत्‌--यह ( जगत ); अवयन्ति--बे मानते हैं; अवशेषतया--जगत कीसर्वव्यापी नींव के रूप में; यत:--चूँकि; उदय--उत्पत्ति; अस्तमू-अयौ--तथा विलय; विकृतेः--विकार का; मृदि--मिट्टी का;वबा--मानो; अविकृतात्‌--विकार रहित ( ब्रह्म ); अतः--इसलिए; ऋषय:--ऋषियों ने ( जिन्होंने वैदिक मंत्रों का संगलनकिया ); दधुः--स्थापित किया, रखा; त्वयि--तुम में; मनः--अपने मन; वचन--शब्द; आचरितम्‌ू--तथा कर्म; कथम्‌--कैसे;अयथा--जिस रूप में हैं, उस रूप में नहीं; भवन्ति--हो जाते हैं; भुवि-- भूमि पर; दत्त--रखे हुए; पदानि--पग; नृणाम्‌ू--मनुष्यों के

    इस दृश्य जगत की पहचान ब्रह्म से की जाती है, क्योंकि परब्रह्म समस्त जगत की अनन्तिम नींव है।

    यद्यपि समस्त उत्पन्न वस्तुएँ उनसे उदभूत होती हैं और अन्त में उसी में लीन होती हैं, तोभी ब्रह्म अपरिवर्तित रहता है, जिस तरह कि मिट्टी जिससे अनेक वस्तुएँ बनाई जाती हैं और वेवस्तुएँ फिर उसी में लीन हो जाती हैं, वह अपरिवर्तित रहती है।

    इसीलिए सारे वैदिक ऋषि अपनेविचारों, अपने शब्दों तथा अपने कर्मों को आपको ही अर्पित करते हैं।

    भला ऐसा कैसे होसकता है कि जिस पृथ्वी पर मनुष्य रहते हैं, उसे उनके पैर स्पर्श न कर सकें ?

    इति तब सूरयस्त्यधिपतेडखखिललोकमल-क्षपणकथामृताब्धिमवगाह्य तपांसि जहु: ।

    किमुत पुनः स्वधामविधुताशयकालगुणाःपरम भजन्ति ये पदमजस्त्रसुखानुभवम्‌ ॥

    १६॥

    इति--इस प्रकार; तव--तुम्हारा; सूरय:--ज्ञानी सन्त; त्रि--तीन ( लोकों के ); अधिपते--हे स्वामी; अखिल--समस्त;लोक--लोकों का; मल--दूषण; क्षपण--उन्मूल करने वाले; कथा--चर्चा के; अमृत--अमृत; अब्धिम्‌--समुद्र में;अवगाह्य--डुबकी लगाकर; तपांसि--अपने कष्टों को; जहुः--त्याग दिया है; किम्‌ उत--क्या कहा जा सकता है; पुन:--औरभी; स्व-- अपनी; धाम--शक्ति से; विधुत--दूर किया हुआ; आशय--मनों के; काल--तथा समय के; गुणा:--( अवांछित )गुण; परम-हे सर्वश्रेष्ठ; भजन्ति--पूजा करते हैं; ये--जो; पदम्‌--आपके असली स्वभाव को; अजस्त्र--निर्बाध; सुख--सुखका; अनुभवम्‌-- अनुभव |

    अतएवब हे त्रिलोकपति, बुद्धिमान लोग आपकी कथाओं के अमृतमय सागर में गहरी डुबकीलगाकर समस्त क्लेशों से छुटकारा पा लेते हैं, क्योंकि आपकी कथाएँ ब्रह्माण्ड के सारे दूषणको धो डालती हैं।

    तो फिर उन लोगों के बारे में क्या कहा जाय, जिन्होंने आध्यात्मिक शक्ति केद्वारा अपने मनों को बुरी आदतों से और स्वयं को काल से मुक्त कर लिया है और, हे परमपुरुष, आपके असली स्वभाव की, जिसके भीतर निर्बाध आनन्द भरा है, पूजा करने में समर्थहैं?

    हतय इव श्रसन्त्यसुभूतो यदि तेडनुविधामहदहमादयोण्डमसूजन्यदनुग्रहत: ।

    पुरुषविधोउन्वयोउत्र चरमोउन्नमयादिषु यःसदसत: परं त्वमथ यदेष्ववशेषपृतम्‌ ॥

    १७॥

    हतय:--धौंकनी; इब--सहृश; श्वसन्ति-- श्वास लेते हैं; असु-भृत:--जीवित; यदि--यदि; ते--तुम्हारे; अनुविधा:--स्वामि-भक्त अनुयायी; महत्‌--सम्पूर्ण भौतिक शक्ति; अहम्‌--मिथ्या अहंकार; आदय:--तथा सृष्टि के अन्य तत्त्व; अण्डम्‌--ब्रह्माण्डको; असृजन्‌--उत्पन्न किया; यत्‌--जिसकी; अनुग्रहतः--कृपा से; पुरुष--जीविका; विध:--विशिष्ट स्वरूपों के अनुसार;अन्वय:--जिनका प्रवेश; अत्र--इनमें से; चरम:--चरम; अन्न-मय-आदिषु--अन्नमय नामक अभिव्यक्तियों में; यः--जो; सत्‌ू-असतः--स्थूल तथा सूक्ष्म पदार्थ से; परमू--पृथक्‌; त्वम्‌ू--तुम; अथ--और भी आगे; यत्‌--जो; एषु--इनमें से; अवशेषम्‌ --निहित; ऋतम्‌--वास्तविकता।

    यदि वे आपके श्रद्धालु अनुयायी बन जाते हैं, तभी वे साँस लेते हुए वास्तव में जीवित हैं,अन्यथा उनका साँस लेना धौंकनी जैसा है।

    यह तो आपकी एकमात्र कृपा ही है कि महत्‌ तत्त्वतथा मिथ्या अहंकार से प्रारम्भ होने वाले तत्त्वों ने इस ब्रह्माण्ड रूपी अंडे को जन्म दिया।

    अन्नमय इत्यादि स्वरूपों में आप ही चरम हैं, जो जीव के साथ भौतिक आवरणों में प्रवेश करकेउसके ही जैसे स्वरूप ग्रहण करते हैं।

    स्थूल तथा सूक्ष्म भौतिक स्वरूपों से भिन्न, आप उन सबोंमें निहित वास्तविकता हैं।

    उदरमुपासते य ऋषिवर्त्मसु कूर्पहशः'परिसरपद्धतिं हृदयमारुणयो दहरम्‌ ।

    तत उदगादनन्त तव धाम शिरः परमंपुनरिह यत्समेत्य न पतन्ति कृतान्तमुखे ॥

    १८॥

    उदरम्‌--पेट; उपासते--पूजते हैं; ये--जो; ऋषि--ऋषियों की; वर्त्मसु--मानक विधियों के अनुसार; कूर्प--स्थूल; दहृश:--उनकी दृष्टि; परिसर--जिससे सारी प्राणिक शाखाएँ ( नाड़ियाँ ) फूटती हैं; पद्धतिम्‌--शिरोविन्दु; हृदयम्‌--हृदय; आरुणय:--आरुणि ऋषिगण; दहरम्‌--सूक्ष्म; ततः--तब से; उदगात्‌--( आत्मा ) ऊपर उठता है; अनन्त--हे अनन्त; तब--तुम्हारा;धाम--प्रकट होने का स्थान; शिर:--सिर; परमम्‌--सर्वोच्च गन्तव्य; पुन:--फिर; इह--इस जगत में; यत्‌--जो; समेत्य--पहुँच कर; न पतन्ति--नीचे नहीं गिरते हैं; कृत-अन्त--मृत्यु के; मुखे--मुख में |

    बड़े बड़े ऋषियों द्वारा निर्दिष्ट विधियों के अनुयायियों में से, जिनकी दृष्टि कुछ कम परिष्कृतहोती है, वे ब्रह्म को उदर क्षेत्र में उपस्थित मानकर पूजा करते हैं, किन्तु आरुणिगण उसे हृदय मेंउपस्थित मानकर पूजा करते हैं, जो सूक्ष्म केन्द्र है जहाँ से सारी प्राणिक शाखाएँ ( नाड़ियाँ )निकलती हैं।

    हे अनन्त, ये पूजक अपनी चेतना को वहाँ से ऊपर उठाकर सिर की चोटी तक लेजाते हैं, जहाँ वे आपको प्रत्यक्ष देख सकते हैं।

    तत्पश्चात्‌ सिर की चोटी से चरम गन्तव्य की ओरबढ़ते हुए वे उस स्थान पर पहुँच जाते हैं, जहाँ से वे पुनः इस जगत में, जो मृत्यु के मुख स्वरूपहैं, नहीं गिरेंगे।

    स्वकृतविचित्रयोनिषु विशन्निव हेतुतयातरतमतश्चकास्स्यथनलवत्स्वकृतानुकृति: ।

    अथ वितथास्वमूष्ववितथां तव धाम सम॑विरजधियोनुयन्त्यभिविपण्यव एकरसम्‌ ॥

    १९॥

    स्व--अपने द्वारा; कृत--बनाया हुआ; विचित्र --विविध; योनिषु--योनियों में; विशन्‌--प्रवेश करते हुए; इब--सहृश;हेतुतवा--कारणस्वरूप; तरतमत:--कोटियों के अनुसार; चकास्सि--हृश्य बनते हो; अनल-वत्‌--आग की तरह; स्व--अपनी; कृत--सृष्टि; अनुकृति:--अनुकरण करते हुए; अथ--इसलिए; वितथासु--नकली; अमूषु--इन ( योनियों ) में से;अवितथम्‌--नकली नहीं; तब--तुम्हारा; धाम--प्राकट्य; समम्‌-- अभिन्न; विरज--निर्मल; धिय:--जिनके मन; अनुयन्ति--समझते हैं; अभिविपण्यव:--सारे भौतिक बन्धों ( पण ) से मुक्त हैं, जो; एक-रसम्‌--अपरिवर्तित |

    आपने जीवों की जो विविध योनियाँ उत्पन्न की हैं, उनमें प्रवेश करके, उनकी उच्च तथानिम्न अवस्थाओं के अनुसार आप अपने को प्रकट करते हैं और उन्हें कर्म करने के लिए प्रेरितकरते हैं, जिस प्रकार अग्नि अपने द्वारा जलाई जाने वाली वस्तु के अनुसार अपने को विविधरूपों में प्रकट करती है।

    अतएव जो लोग भौतिक आसक्तियों से सर्वथा मुक्त हैं, ऐसे निर्मलबुद्धि वाले लोग आपके अभिन्न तथा अपरिवर्तनशील आत्मा को इन तमाम अस्थायी योनियों मेंस्थायी सत्य के रूप में साक्षात्कार करते हैं।

    स्वकृतपुरेष्वमीष्वबहिरन्तरसंवरणंतव पुरुषं वदन्त्यखिलशक्तिधृतोशकृतम्‌ ।

    इति नृगतिं विविच्य कवयो निगमावपनंभवत उपासतेड्प्रिमभवम्भुवि विश्वसिता: ॥

    २०॥

    स्व--अपने द्वारा; कृत--उत्पन्न; पुरेषु--शरीरों में; अमीषु--इन; अबहि:--बाहरी रूप से नहीं; अन्तर--अथवा आन्तरिक रूपसे; संवरणम्‌--जिसका वास्तविक विकास; तव--तुम्हारा; पुरुषम्‌-- जीव; वदन्ति--वेद कहते हैं; अखिल--समस्त; शक्ति--शक्तियों के; धृतः--स्वामी के; अंश--अंशरूप; कृतम्‌-- प्रकट; इति--इस प्रकार; नृ--जीव का; गतिम्‌ू--पद; विविच्य--निश्चित करके; कवयः --विद्वान मुनिजन; निगम--वेदों के; आवपनम्‌--खेत, जिसमें सारी भेंटें बोई जाती हैं; भवतः--आपके;उपासते--पूजा करते हैं; अड्प्रिमू--पैरों की; अभवम्‌--जो संसार का संहार करने वाले हैं; भुवि--पृथ्वी पर; विश्वसिता: --विश्वास रखने वाले।

    प्रत्येक जीव अपने कर्म द्वारा सृूजित भौतिक शरीरों में निवास करते हुए, वास्तव में, स्थूलया सूक्ष्म पदार्थ से आच्छादित हुए बिना रहता है।

    जैसा कि वेदों में वर्णन हुआ है, ऐसा इसलिएहै, क्योंकि वह समस्त शक्तियों के स्वामी, आपका ही भिन्नांश है।

    जीव की ऐसी स्थिति कोनिश्चित करके ही, विद्वान मुनिजन श्रद्धा से पूरित होकर, आपके उन चरणकमलों की पूजा करतेहैं, जो मुक्ति के स्रोत हैं और जिन पर इस संसार की सारी बैदिक भेंटें अर्पित की जाती हैं।

    दुरवगमात्मतत्त्वनिगमाय तवात्ततनोश्‌चरितमहामृताब्धिपरिवर्तपरिश्रमणा: ।

    न परिलषन्ति केचिदपवर्गमपी श्वर तेचरणसरोजहंसकुलसड्डभविसूष्टगृहा: ॥

    २१॥

    दुरवगम--समझ पाना कठिन; आत्म--आत्मा का; तत्त्व--सत्य; निगमाय--प्रसार करने हेतु; तब--तुम्हारा; आत्त-- धारणकरने वाले; तनोः:--आपके स्वरूप; चरित--लीलाओं के; महा--विस्तीर्ण; अमृत--अमृत के; अब्धि--सागर में; परिवर्त--गोता लगाकर; परिश्रमणा: -- थकान से उबारे हुए; न परिलषन्ति--इच्छा नहीं करते; केचित्‌--कुछ ही व्यक्ति; अपवर्गम्‌-मोक्षकी; अपि-- भी; ई श्वर--हे प्रभु; ते--तुम्हारे; चरण --चरणों पर; सरोज--कमल रूपी; हंस--हंसों के; कुल--समुदाय;सड़--साथ; विसूष्ट--परित्यक्त; गृहा:--जिनके घर

    हे प्रभु, कुछ भाग्यशाली आत्माओं ने आपकी उन लीलाओं के विस्तृत अमृत सागर में गोतालगाकर भौतिक जीवन की थकान से मुक्ति पा ली है, जिन लीलाओं को आप अगाध आत्म-तत्त्व का प्रचार करने के लिए साकार रूप धारण करके सम्पन्न करते हैं।

    ये विरली आत्माएँ,मुक्ति की भी परवाह न करके घर-बार के सुख का परित्याग कर देती हैं, क्योंकि उन्हें आपकेचरणकमलों का आनन्द लूटने वाले हंसों के समूह सहृश भक्तों की संगति प्राप्त हो जाती है।

    त्वदनुपथं कुलायमिदमात्मसुहत्प्रियवच्‌चरति तथोन्मुखे त्वयि हिते प्रिय आत्मनि च ।

    न बत रमन्त्यहो असदुपासनयात्महनोयदनुशया भ्रमन्त्युरुभये कुशरीरभूतः ॥

    २२॥

    त्वत्‌ू-तुम; अनुपथम्‌--सेवा के लिए उपयोगी; कुलायम्‌--शरीर; इदम्‌ू--यह; आत्म--स्वयं; सुहृत्‌-मित्र; प्रिय--तथा प्रिय;वत्‌--सहृश; चरति--कार्य करता है; तथा--तो भी; उन्मुखे--उन्मुख; त्ववि--तुममें; हिते--सहायक; प्रिये--प्रिय;आत्मनि--आत्मा; च--तथा; न--नहीं; बत--हाय; रमन्ति-- आनन्द लूटते हैं; अहो--ओह; असत्‌--असत्य की;उपासनया--पूजा द्वारा; आत्म--स्वयं को; हनः--मारना; यत्‌--जिस ( असत्य की पूजा ) में; अनुशया:--जिनकी निरन्तरइच्छा है; भ्रमन्ति--घूमते रहते हैं; उरू--अत्यधिक; भये-- भयावह ( जगत ) में; कु--निम्न; शरीर--शरीर; भूतः--धारणकिये।

    जब यह मानवीय शरीर आपकी पूजा के निमित्त काम में लाया जाता है, तो यह आत्मा,मित्र तथा प्रेमी की तरह कार्य करता है।

    किन्तु दुर्भाग्यवश, यद्यपि आप बद्धजीवों के प्रति सदैवकृपा प्रदर्शित करते हैं और हर तरह से स्नेहपूर्वक सहायता करते हैं और यद्यपि आप उनकेअसली आत्मा हैं, किन्तु सामान्य लोग आप में आनन्द नहीं लेते।

    उल्टे वे माया की पूजा करकेआध्यात्मिक आत्महत्या करते हैं।

    हाय! असत्य के प्रति भक्ति करके, वे निरन्तर सफलता कीआशा करते हैं, किन्तु वे विविध निम्न शरीर धारण करके इस अत्यन्त भयावह जगत में निरन्तरइधर-उधर भटकते रहते हैं।

    निभृतमरुन्मनो क्षदढयोगयुजो हृदि यन्‌मुनय उपासते तदरयोपि ययु: स्मरणात्‌ ।

    स्त्रिय उरगेन्द्रभोगभुजदण्डविषक्तधियोवयमपि ते समा: समहशो ड्प्रिसरोजसुधा: ॥

    २३॥

    निभृत--वशी भूत; मरुत्‌ू-- श्वास लेते हुए; मन:--मन; अक्ष--तथा इन्द्रियों समेत; हढ-योग--स्थिर योग में; युज:--लगा हुआ;हृदि--हृदय में; यत्‌ू--जो; मुनयः--मुनिगण; उपासते--पूजा करते हैं; तत्‌ू--वह; अरयः--शत्रुगण; अपि-- भी; ययु:--प्राप्तकिया; स्मरणात्‌--स्मरण करने से; स्त्रियः--स्त्रियाँ; उरग-इन्द्र--राजसी सर्प के; भोग--शरीर ( सहश ); भुज--बाहें; दण्ड--डंडे जैसी; विषक्त--आसक्त; धिय:--जिनके मन; वयम्‌ू--हम; अपि-- भी; ते-- तुमको; समा: --समान; सम--समान;इहशः--जिनकी दृष्टि; अद्धप्रि--चरणों के; सरोज--कमलवत्‌; सुधा:--अमृत ( का पान करते हुए ) |

    भगवान्‌ के शत्रुओं ने भी, निरन्तर मात्र उनका चिन्तन करते रहने से, उसी परम सत्य कोप्राप्त किया, जिसे योगीजन अपने श्वास, अपने मन तथा इन्द्रियों को वश में करके योग-पूजा मेंस्थिर कर लेते हैं।

    इसी तरह हम श्रुतियाँ, जो सामान्यतः आपको सर्वव्यापी देखती हैं, आपकेचरणकमलों से वही अमृत प्राप्त कर सकेंगी, जिसका आनन्द आपकी प्रियतमाएँ, आपकीविशाल सर्प सदृश बाहुओं के प्रति अपने प्रेमाकर्षण के कारण लूटती हैं, क्योंकि आप हमें तथाअपनी प्रियतमाओं को एक ही तरह से देखते हैं।

    क इह नु वेद बतावरजन्मलयोग्रसरंयत उदगाइहषिर्यमनु देवगणा उभये ।

    तहिं न सन्न चासदुभयं न च कालजवःकिमपि न तत्र शास्त्रमवकृष्य शयीत यदा ॥

    २४॥

    कः--कौन; इह--इस संसार में; नु--निस्सन्देह; वेद--जानता है; बत--ओह; अवर--अर्वाचीन; जन्म--जिसका जन्म;लयः--तथा संहार; अग्र-सरम्‌--पहले आया हुआ; यत:--जिससे; उदगात्‌--उत्पन्न हुआ; ऋषि:--ऋषि, ब्रह्मा; यम्‌ अनु--जिसके ( ब्रह्मा के ) पीछे पीछे; देव-गणा:--देवताओं का समूह; उभये--दोनों ( जो इन्द्रियों को वश में रखते हैं और जोस्वर्गलोक के भी ऊपर वाले क्षेत्रों में रहते हैं ); तहिं--उस समय; न--नहीं; सत्‌--स्थूल पदार्थ; न--नहीं; च-- भी; असत्‌--सूक्ष्म पदार्थ; उभयम्‌--जो दोनों से युक्त है ( अर्थात्‌ भौतिक शरीर ); न च--न तो; काल--समय का; जवः--प्रवाह; किम्‌अपि न--किसी भी तरह से नहीं; तत्र--वहाँ; शास्त्रमू--शास्त्र को; अवकृष्य--निकाल कर के; शयीत--( भगवान्‌ ) सो जाताहै; यदा--जब ।

    इस जगत का हर व्यक्ति हाल ही में उत्पन्न हुआ है और शीघ्र ही मर जायेगा।

    अतएव यहाँका कोई भी व्यक्ति, उसे कैसे जान सकता है, जो हर वस्तु के पूर्व से विद्यमान है और जिसनेप्रथम विद्वान ऋषि ब्रह्मा को और उसके बाद के छोटे तथा बड़े देवताओं को जन्म दिया है ? जबवह लेट जाता है और हर वस्तु को अपने भीतर समेट लेता है, तो कुछ भी नहीं बचता--न तोस्थूल या सूक्ष्म पदार्थ, न ही इनसे बने शरीर, न ही काल की शक्ति और न शास्त्र।

    जनिमसतः सतो मृतिमुतात्मनि ये च भिदांविपणमृतं स्मरन्त्युपदिशन्ति त आरुपितै: ।

    त्रिगुणमय: पुमानिति भिदा यदबोधकृतात्वयि न ततः परत्र स भवेदवबोधरसे ॥

    २५॥

    जनिम्‌--सृष्टि; असत:--( अणुओं से बने ) दृश्य जगत के; सतः--शा श्वत; मृतिम्‌ू--संहार; उत-- भी; आत्मनि--आत्मा में;ये--जो; च--तथा; भिदाम्‌ू--द्वैत; विषणम्‌--सांसारिक व्यापार; ऋतम्‌-- असली; स्मरन्ति--घोषित करते हैं; उपदिशन्ति--शिक्षा देते हैं; ते--वे; आरुपितैः--सत्य पर चढ़ाया गया मोह; त्रि--तीन; गुण--गुणों से; मयः--निर्मित; पुमान्‌--जीव;इति--इस प्रकार; भिदा--द्वैत की धारणा; यत्‌--जो; अबोध--अज्ञान से; कृता--उत्पन्न; त्वयि--तुममें; न--नहीं; ततः--उससे; परत्र--परे; सः--वह ( अज्ञान ); भवेत्‌--रह सकता है; अवबोध--पूर्ण चेतना; रसे--संरचना में ॥

    माने हुए विद्वान जो यह घोषित करते हैं कि पदार्थ ही जगत का उद्गम है, कि आत्मा केस्थायी गुणों को नष्ट किया जा सकता है, कि आत्मा तथा पदार्थ के पृथक्‌ पक्षों से मिलकरआत्मा बना है या कि भौतिक व्यापारों से सच्चाई बनी हुईं है--ऐसे विद्वान उन भ्रान्त विचारों परअपनी शिक्षाओं को आधारित करते हैं, जो सत्य को छिपाते हैं।

    यह द्वेत धारणा कि जीव प्रकृतिके तीन गुणों से उत्पन्न है, अज्ञानजन्य मात्र है।

    ऐसी धारणा का आपमें कोई आधार नहीं है,क्योंकि आप समस्त भ्रम ( मोह ) से परे हैं और पूर्ण चेतना का भोग करने वाले हैं।

    सदिव मनस्त्रिवृत्तयि विभात्यसदामनुजात्‌सदभिमृशन्त्यशेषमिदमात्मतयात्मविदः ।

    न हि विकृतिं त्यजन्ति कनकस्य तदात्मतयास्वकृतमनुप्रविष्टमिदमात्मतयावसितम्‌ ॥

    २६॥

    सत्‌--सत्य; इब--मानो; मन:--मन ( तथा इसके प्राकट्य ); त्रि-वृतू-तीन ( प्रकृति के गुण ); त्वयि--तुममें; विभाति--प्रकट होता है; असत्‌--असत्य; आ-मनुजात्‌--मनुष्यों तक; सत्‌--सत्य स्वरूप; अभिमृशन्ति--वे मानते हैं; अशेषम्‌--सम्पूर्ण ;इदम्‌--इस ( जगत ) को; आत्मतया--आत्मा से अभिन्न रूप में; आत्म-विद:--आत्मा को जानने वाले; न--नहीं; हि--निस्सन्देह; विकृतिम्‌ू--विकारों को; त्यजन्ति--परित्याग कर देते हैं; कनकस्य--स्वर्ण का; तत्‌ू-आत्मतया--जितना कि वेइससे अभिन्न हैं; स्व--अपने द्वारा; कृतम्‌-उत्पन्न; अनुप्रविष्टमू--तथा प्रविष्ट हुए; इदम्‌--इस; आत्मतया--अपने से अभिन्न;अवसितमू--सुनिश्चित |

    इस जगत में सारी वस्तुएँ--सरलतम घटना से लेकर जटिल मानव-शरीर तक--प्रकृति केतीन गुणों से बनी हैं।

    यद्यपि ये घटनाएँ सत्य प्रतीत होती हैं, किन्तु वे आध्यात्मिक सत्य कीमिथ्या प्रतिबिम्ब होती हैं, वे आप पर मन के अध्यारोपण हैं।

    फिर भी जो लोग परमात्मा कोजानते हैं, वे सम्पूर्ण भौतिक सृष्टि को सत्य तथा साथ ही साथ आपसे अभिन्न मानते हैं।

    जिसतरह स्वर्ण की बनी वस्तुओं को, इसलिए अस्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि वे असलीसोने की बनी हैं, उसी तरह यह जगत उन भगवान्‌ से अभिन्न है, जिसने इसे बनाया और फिर वेउसमें प्रविष्ट हो गये।

    तब परि ये चरन्त्यखिलसत्त्वनिकेततयात उत पदाक्रमन्त्यविगणय्य शिरो निर्‌तेः ।

    'परिवयसे पशूनिव गिरा विबुधानपि तांस्‌त्वयि कृतसौहदा: खलु पुनन्ति न ये विमुखा: ॥

    २७॥

    तव--तुम्हारी; परि ये चरन्ति--जो पूजा करते हैं; अखिल--सबों के; सत्त्व--उत्पन्न जीव; निकेततया--आश्रय के रूप में;ते--वे; उत-- केवल; पदा--अपने पैरों से; आक्रमन्ति--रखते हैं; अविगणय्य-- अवहेलना करके ; शिर:--सिर पर; निर्‌तेः--मृत्यु के; परिवयसे--तुम बाँध देते हो; पशून्‌ इब--पशुओं की तरह; गिरा--आपके ( वेद के ) शब्दों से; विबुधान्‌ू--चतुर;अपि--भी; तान्‌ू-- उनके; त्ववि--जिसको; कृत--बनाने वाले; सौहदा: --मैत्री; खलु--निस्सन्देह; पुनन्ति--पवित्र करते हैं;न--नहीं; ये--जो; विमुखा:--शत्रुतापूर्ण

    जो भक्त आपको समस्त जीवों के आश्रय रूप में पूजते हैं, वे मृत्यु की परवाह नहीं करतेऔर उनके सिर पर आप अपना चरण रखते हैं, लेकिन आप वेदों के शब्दों से अभक्तों कोपशुओं की तरह बाँध लेते हैं, भले ही वे प्रकाण्ड विद्वान क्यों न हों।

    आपके स्नेहिल भक्तगण हीअपने को तथा अन्यों को शुद्ध कर सकते हैं, आपके प्रति शत्रु-भाव रखने वाले नहीं।

    त्वमकरण: स्वराडखिलकारकशक्तिधरस्‌तव बलिमुद्दहन्ति समदन्त्यजयानिमिषा: ।

    वर्षभुजोखिलक्षितिपतेरिव विश्वसृजोविदधति यत्र ये त्वधिकृता भवतश्चकिता: ॥

    २८ ॥

    त्वमू--तुम; अकरण:--भौतिक इन्द्रियों से विहीन; स्व-राट्‌--आत्म तेजोमय; अखिल--समस्त; कारक--एन्द्रिय कार्यो की;शक्ति--शक्तियों के; धर:ः--धारण करने वाले; तब--तुम्हारी; बलिम्‌-- भेंट; उद्दहन्ति--ले जाते हैं; समदन्ति--हिस्सा बँटातेहैं; अजया-- प्रकृति के साथ; अनिमिषा:--देवतागण; वर्ष--राज्य के जनपदों के; भुज:--शासक; अखिल--समस्त;क्षिति--पृथ्वी के; पतेः--स्वामी के; इब--सहृश; विश्व--ब्रह्माण्ड के; सृज:--स्त्रष्टा; विदधति--सम्पन्न करते हैं; यत्र--जिसमें; ये--वे; तु--निस्सन्देह; अधिकृता--नियत; भवत:--आपका; चकिता:-- भयभीत

    यद्यपि आपकी भौतिक इन्द्रियाँ नहीं हैं, किन्तु आप हर एक की इन्द्रिय-शक्ति के आत्म-तेजवान धारणकर्ता हैं।

    देवता तथा प्रकृति स्वयं आपकी पूजा करते हैं, जबकि अपने पूजा करनेवालों द्वारा अर्पित भेंट का भोग भी करते हैं, जिस तरह किसी राज्य के विविध जनपदों केअधीन शासक अपने स्वामी को, जो कि पृथ्वी का चरम स्वामी होता है, भेंटें प्रदान करते हैं औरसाथ ही स्वयं अपनी प्रजा द्वारा प्रदत्त भेंट का भोग भी करते हैं।

    इस तरह आपके भय सेब्रह्माण्ड के स्त्रष्टा अपने अपने नियत कार्यों को श्रद्धापूर्वक सम्पन्न करते हैं।

    स्थिरचरजातयः स्युरजयोत्थनिमित्तयुजोविहर उदीक्षया यदि परस्य विमुक्त ततः ।

    न हि परमस्य कश्चिदपरो न परश्न भवेद्‌वियत इवापदस्य तव शून्यतुलां दधत: ॥

    २९॥

    स्थिर--जड़; चर--तथा चेतन; जातय:--योनियाँ; स्यु:--प्रकट हुईं; अजया--भौतिक शक्ति से; उत्थ--जागृत की गई;निमित्त--कारण ( तथा ऐसे कारण से क्रियाशील बनाये गये सूक्ष्म शरीर ); युज:--धारण करके; विहर:--खेल; उदीक्षया--आपकी टुक चितवन से; यदि--यदि; परस्य--उसका, जो पृथक्‌ रहता है; विमुक्त--हे नित्य मुक्त; तत:ः--उससे; न--नहीं;हि--निस्सन्देह; परमस्थ--परम का; कश्चित्‌ू--कोई; अपर: --पराया नहीं; न--न तो; पर: --पराया; च-- भी; भवेत्‌--होसकता है; वियत:--आकाश के लिए; इब--सहश; अपदस्य--अनुभवगम्य गुणों से विहीन; तब--तुम्हारा; शून्य--शून्य;तुलामू--तुलना; दधतः--जो धारण करते हैं।

    हे नित्यमुक्त दिव्य भगवान्‌, आपकी भौतिक शक्ति विविध जड़ तथा चेतन जीव योनियों कोउनकी भौतिक इच्छाएँ जगाकर प्रकट कराती है, लेकिन ऐसा तभी होता है, जब आप उस परअल्प दृष्टि डालकर उसके साथ क्रीड़ा करते हैं।

    हे भगवान्‌, आप किसी को न तो अपना घनिष्ठ मित्र मानते हैं, न ही पराया, ठीक उसी तरहजिस तरह आकाश का अनुभवगम्य गुणों से कोई सम्बन्ध नहीं होता।

    इस मामले में आप शून्यके समान हैं।

    अपरिमिता श्रुवास्तनुभूतो यदि सर्वगतास्‌तहिं न शास्यतेति नियमो श्लुव नेतरथा ।

    अजनि च यन्मयं तदविमुच्य नियन्तृ भवेत्‌सममनुजानतां यदमतं मतदुष्टतया ॥

    ३०॥

    अपरिमिता:--असंख्य; ध्रुवा:--स्थायी; तनु-भूत:--देहधारी जीव; यदि--यदि; सर्व-गता: --सर्वव्यापी; तहि--तब; न--नहीं;शास्यता--प्रभुसत्ता; इति--इस प्रकार; नियम: --नियम; ध्रुव--हे अपरिवर्तित; न--नहीं; इतरथा--अन्यथा; अजनि--उत्पन्नकिया गया था; च--तथा; यत्‌-मयम्‌--जिसके सार से; तत्‌--उससे; अविमुच्य--अपने को विलग न करते हुए; नियन्तृ--नियन्ता; भवेत्‌--होना चाहिए; समम्‌--सम रूप से उपस्थित; अनुजानताम्‌--जानने वालों का; यत्‌ू--जो; अमतम्‌--गलतसमझा हुआ; मत-रज्ञान; दुष्टतया--अपूर्णता के कारण

    यदि ये असंख्य जीव सर्वव्यापी होते और अपरिवर्तनशील शरीरों से युक्त होते, तो हेनिर्विकल्प, आप संभवत: उनके परम शासक न हुए होते।

    लेकिन चूँकि वे आपके स्थानिक अंशहैं और उनके स्वरूप परिवर्तनशील हैं, अतएव आप उनका नियंत्रण करते हैं।

    निस्सन्देह, जोकिसी वस्तु की उत्पत्ति के लिए अवयव की आपूर्ति करता है, वह अवश्यमेव उसका नियन्ता है,क्योंकि कोई भी उत्पाद अपने अवयव कारण से पृथक्‌ विद्यमान नहीं रहता।

    यदि कोई यह सोचेकि उसने भगवान्‌ को, जो अपने प्रत्येक अंश में समरूप से रहते हैं जान लिया है, तो यह मात्रउसका क्रम है, क्योंकि मनुष्य जो भी ज्ञान भौतिक साधनों से अर्जित करता है, वह अपूर्ण होगा।

    न घटत उद्धव: प्रकृतिपूरुषयोरजयोर्‌उभययुजा भवनन्‍्त्यसुभूतो जलबुद्द॒दवत्‌ ।

    त्वयि त इमे ततो विविधनामगुणै: परमेसरित इवार्णवे मधुनि लिल्युरशेषरसा: ॥

    ३१॥

    न घटते--घटित नहीं होता; उद्धव:--सृजन; प्रकृति--प्रकृति का; पूरुषयो: --तथा उसके भोक्ता आत्मा का; अजयो:--अजन्मा; उभय--दोनों के; युजा--संयोग से; भवन्ति--उत्पन्न होते हैं; असु-भृतः--जीव; जल--जल पर; बुह्दुद--बुलबुला;वत्‌--सहृश; त्वयि--तुममें; ते इमे--ये ( जीव ); ततः--इसलिए; विविध--तरह-तरह के ; नाम--नामों; गुणैः--तथा गुणों से;'परमे--परम में; सरित:ः--नदियाँ; इब--सहश; अर्णवे--समुद्र में; मधुनि--शहद में; लिल्यु:--लीन हो जाती हैं; अशेष--पूरा;रसाः--स्वाद |

    न तो प्रकृति, न ही उसका भोग करने के लिए प्रयलशील आत्मा कभी जन्म लेते हैं, फिरभी जब ये दोनों संयोग करते हैं, तो जीवों का जन्म होता है, जिस तरह जहाँ जहाँ जल से वायुमिलती है, वहाँ वहाँ बुलबुले बनते हैं।

    जिस तरह नदियाँ समुद्र में मिलती हैं या विभिन्न फूलों कारस शहद में मिल जाता है, उसी तरह ये सारे बद्धजीव अन्ततोगत्वा अपने विविध नामों तथा गुणोंसमेत आप ब्रह्म में पुन: लीन हो जाते हैं।

    नृषु तव मयया भ्रमममीष्ववगत्य भूशंत्वयि सुधियोभवे दधति भावमनुप्रभवम्‌ ।

    कथमनुवर्ततां भवभयं तव यदश्रुकुटिःसृजति मुहुस्त्रिनेमिरभवच्छरणेषु भयम्‌ ॥

    ३२॥

    नृषु--मनुष्यों के बीच; तब--तुम्हारी; मायया--माया से; भ्रमम्‌--मोह; अमीषु--इनमें; अवगत्य--समझकर; भूशम्‌--अत्यधिक; त्वयि--तुममें; सु-धियः--विद्वान; अभवे--मोक्ष के स्त्रोत में; दधति--करता है; भावम्‌--प्रेमा भक्ति; अनुप्रभवम्‌ --शक्तिमान, उत्कट; कथम्‌--कैसे; अनुवर्तताम्‌-- अनुयायियों के लिए; भव-- भौतिक जीवन का; भयम्‌--डर; तव--तुम्हारा;यत्‌--चूँकि; भ्रु-- भौंहों का; कुटि:--टेढ़ा होना; सृजति--उत्पन्न करती है; मुहुः--बारम्बार; त्रि-नेमि:--तीन आरों वाली( भूत, वर्तमान तथा भविष्यये काल की तीन अवस्थाएँ ); अ--नहीं; भवत्‌--आप से; शरणेषु--शरणागतों के लिए; भयम्‌--डरा

    विद्वान आत्माएँजो यह समझते हैं कि आपकी माया, किस तरह सारे मनुष्यों को मोहती है,वे आपकी उत्कट प्रेमाभक्ति करते हैं, क्योंकि आप जन्म तथा मृत्यु से मुक्ति के स्त्रोत हैं।

    भलाआपके श्रद्धावान सेवकों को भौतिक जीवन का भय कैसे सता सकता है? दूसरी ओर, आपकीकुटिल भौहें, जो कालचक्र की विहरी-नेमि हैं बारम्बार उन्हें भयभीत बनाती हैं, जो आपकीशरण ग्रहण करने से इनकार करते हैं।

    विजितहृषीकवायुभिरदान्तमनस्तुरगंय इह यतन्ति यन्तुमतिलोलमुपायखिद: ।

    व्यसनशतान्विता: समवहाय गुरोश्चरणंवणिज इवाज सन्त्यकृतकर्णधरा जलधौ ॥

    ३३॥

    विजित--जीता हुआ; हषीक--इन्द्रियों से; वायुभि:--तथा प्राण से; अदान्त--अवश; मन:ः--मन रूपी; तुर-गम्‌--घोड़े को;ये--जो; इह--इस जगत में; यतन्ति-- प्रयास करते हैं; यन्तुम्‌--नियमित बनाने के लिए; अति--अत्यन्त; लोलमू--चलायमान;उपाय--उपायों से; खिदः--सताया हुआ; व्यसन--उत्पात; शत--सैकड़ों; अन्विता:--से युक्त; समवहाय--त्याग कर;गुरो:--गुरु के; चरणम्‌--चरणों को; वणिज:--व्यापारीगण; इब--सहृश; अज--हे अजन्मा; सन्ति--हैं; अकृत-ग्रहण नकरके; कर्ण-धरा:--नाविक; जल-धौ --समुद्र में |

    मन ऐसे उच्छुंखल घोड़े की तरह है, जिसको अपनी इन्द्रियों एवं श्वास को संयमित कर चुकेव्यक्ति भी वश में नहीं कर सकते।

    इस संसार में वे लोग, जो अवश मन को वश में करना चाहतेहैं, किन्तु अपने गुरु के चरणों का परित्याग कर देते हैं, उन्हें विविध दुखदायी विधियों केअनुशीलन में सैकड़ों बाधाओं का सामना करना पड़ता है।

    हे अजन्मा भगवान्‌, वे समुद्र में नावपर बैठे उन व्यापारियों के समान हैं, जो किसी नाविक को भाड़े पर नहीं लेते।

    स्वजनसुतात्मदारधनधामधरासुरधे -स्त्वयि सति कि नृणाम्श्रयत आत्मनि सर्वरसे ।

    इति सदजानतां मिथुनतो रतये चरतां सुखयति को न्विह स्वविहते स्वनिरस्तभगे ॥

    ३४॥

    स्वजन--सेवकों; सुत--बच्चों; आत्म--शरीर; दार--पत्नी; धन-- धन; धाम--घर; धरा--पृथ्वी; असु--प्राण; रथैः--तथावाहनों से; त्वयि--जब तुम; सति--बन गये हो; किमू--क्या ( लाभ ); नृणाम्‌--मनुष्यों के लिए; श्रयत:--शरण में आये हुए;आत्मनि--उनकी आत्मा; सर्व-रसे--समस्त आनन्द के स्वरूप; इति--इस प्रकार; सत्‌ू--सत्य; अजानताम्‌--न जानने वालों केलिए; मिथुनतः--संभोग से; रतये--रति के लिए; चरताम्‌--करते हुए; सुखयति--सुख देता है; क:ः--क्या; नु--तनिक भी;इह--इस ( जगत ) में; स्व-- अपने आप; विहते--विनाशशील; स्व-- अपने आप; निरस्त--रहित; भगे--किसी सार से।

    जो व्यक्ति आपकी शरण ग्रहण करते हैं, उन्हें आप परमात्मा स्वरूप दिखते हैं, जो समस्तदिव्य-आनन्द स्वरूप है।

    ऐसे भक्तों के लिए अपने सेवकों, बच्चों या शरीरों, अपनी पत्नियों,धन या घरों, अपनी भूमि, स्वास्थ्य या वाहनों का क्या उपयोग रह जाता है? और जो आपकेविषय में सच्चाई को समझने में असफल होते हैं तथा यौन-आनन्द के पीछे भागते रहते हैं, उनकेलिए इस सम्पूर्ण जगत में, जो सदैव विनाशशील है और महत्त्व से विहीन है, ऐसा कया है, जोउन्हें असली सुख प्रदान कर सके ?

    भुवि पुरुपुण्यतीर्थसदनान्यूषयो विमदा-स्त उत भवत्पदाम्बुजहृदो उघभिदड्ध्रिजला: ।

    दधति सकृन्मनस्त्वयि य आत्मनि नित्यसुखे न पुनरुपासते पुरुषसारहरावसथान्‌ ॥

    ३५ ॥

    भुवि--पृथ्वी पर; पुरु--अत्यधिक; पुण्य--पतवित्र; तीर्थ--ती थस्थान; सदनानि--तथा भगवान्‌ के निजी धाम; ऋषय: --ऋषिगण; विमदः--मिथ्या गर्व से रहित; ते--वे; उत--निस्सन्देह; भवत्‌--आपके ; पद--पाँव; अम्बुज--कमलवत्‌; हृदः--जिनके हृदयों में; अथ--पाप; भित्‌--विनाश करने वाले; अड्पघ्रि--जिनके चरणों ( को धोने से ); जला:--जल; दधति--बदल जाता है; सकृत्‌--एक बार भी; मनः--जिनके मन; त्वयि--तुममें; ये--जो; आत्मनि--परमात्मा के प्रति; नित्य--सदैव;सुखे--सुख में; न पुन:--फिर कभी नहीं; उपासते--पूजा करते हैं; पुरुष--मनुष्य के; सार--आवश्यक गुण; हर--हर लेते हैं;आवसथानू--उनके संसारी घर।

    ऋषिगण मिथ्या गर्व से रहित होकर पवित्र तीर्थस्थानों तथा जहाँ जहाँ भगवान्‌ ने अपनीलीलाएँ प्रदर्शित की हैं, उनका भ्रमण करते हुए इस पृथ्वी पर निवास करते हैं।

    चूँकि ऐसे भक्तआपके चरणकमलों को अपने हृदयों में रखते हैं, अतः उनके पाँवों को धोने वाला जल सारेपापों को नष्ट कर देता है।

    जो कोई अपने मन को एक बार भी समस्त जगत के नित्य आनन्दमयआत्मा आपकी ओर मोड़ता है, वह घर पर ऐसे पारिवारिक जीवन के अधीन नहीं रहता, जिससेमनुष्य के अच्छे गुण छीन लिये जाते हैं।

    सत इदं उत्थितं सदिति चेन्ननु तर्कहतंव्यभिचरति क्‍्व च क्व च मृषा न तथोभययुक्‌ ।

    व्यवहृतये विकल्प इषितो न्धपरम्परयाभ्रमयति भारती त उसरुवृत्तिभिरुक्थजडान्‌ ॥

    ३६॥

    सतः--स्थायी से; इृदम्‌--इस ( ब्रह्माण्ड ); उत्थितम्‌ू--निकले हुए; सत्‌--स्थायी; इति--इस प्रकार; चेत्‌--यदि ( कोई प्रस्तावकरे ); ननु--निश्चय ही; तर्क--तार्किक विरोध से; हतम्‌--निषिद्ध; व्यभिचरति--सामान्य नहीं रहता; क्व च--कुछ बातों में;क्‍्व च--अन्य बातों में; मृषा-- भ्रम; न--नहीं; तथा--उस तरह; उभय--दोनों ( सत्य तथा भ्रम ); युकु--संयोग; व्यवहतये--सामान्य मामलों में; विकल्प:--काल्पनिक स्थिति; इषित:--वांछित; अन्ध--अन्धे व्यक्तियों की; परम्परया--परम्परा से; भ्रमयति--मोहित करती है; भारती--ज्ञान के शब्द; ते--तुम्हारे; उरू--अनेक; वृत्तिभि:--अपने पेशों से; उक्थ--कहे गये;

    * यह प्रतिपादित किया जा सकता है कि यह जगत स्थायी रूप से सत्य है, क्योंकि इसकीउत्पत्ति स्थायी सत्य से हुई है, किन्तु इसका तार्किक खण्डन हो सकता है।

    निस्सन्देह, कभीकभी कार्य-कारण का ऊपरी अभेद सत्य नहीं सिद्ध हो पाता और कभी तो सत्य वस्तु का फलभ्रामक होता है।

    यही नहीं, यह जगत स्थायी रूप से सत्य नहीं हो सकता, क्योंकि यह केवलपरमसत्य के ही स्वभावों में भाग नहीं लेता, अपितु उस सत्य को छिपाने वाले भ्रम में भी लेता है।

    वस्तुतः इस दृश्य जगत के दृश्य-रूप उन अज्ञानी पुरुषों की परम्परा द्वारा अपनाई गई काल्पनिकव्यवस्था है, जो अपने भौतिक मामलों को सुगम बनाना चाहते थे।

    आपके वेदों के बुद्ध्िमत्तापूर्णशब्द अपने विविध अर्थों तथा अन्तर्निहित व्यवहारों से उन सारे पुरुषों को मोहित कर लेते हैं,जिनके मन यत्ञों के मंत्रोच्चारों को सुनते-सुनते जड़ हो चुके हैं।

    न यदिदमग्र आस न भविष्यदतो निधना-दनु मितमन्तरा त्वयि विभाति मृषैकरसे ।

    अत उपमीयते द्रविणजातिविकल्पपथे-विंतथमनोविलासमृतमित्यवयन्त्यबुधा: ॥

    ३७॥

    न--नहीं; यत्‌-- क्योंकि; इदम्‌--यह ( ब्रह्माण्ड ); अग्रे--प्रारम्भ में; आस--था; न भविष्यत्‌--न होगा; अतः --अतः;निधनात्‌ अनु--इसके संहार के बाद; मितम्‌--प्राप्त; अन्तरा--इस बीच; त्वयि--तुममें; विभाति-- प्रकट होता है; मृषा--झूठा;एकरसे--जिसका आनन्द का अनुभव अपरिवर्तित रहता है; अत:ः--इस प्रकार; उपमीयते--तुलना से जाना जाता है; द्रविण--भौतिक वस्तु का; जाति--कोटियों में; विकल्प--विकारों के; पथै:--किस्मों से; वितथ--तथ्य से विपरीत; मन:--मन;विलासम्‌--विलास; ऋतम्‌-- असली, सत्य; इति--ऐसा; अवयन्ति--सोचते हैं; अबुध: --बुद्द्धिहीन अज्ञानी

    चूँकि यह ब्रह्माण्ड अपनी सृष्टि के पूर्व विद्यमान नहीं था और अपने संहार के बाद विद्यमाननहीं रहेगा, अतः हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि मध्यावधि में यह आपके भीतर दृश्य रूप मेंकल्पित होता है, जिनका आध्यात्मिक आनन्द कभी नहीं बदलता।

    हम इस ब्रह्माण्ड की तुलनाविविध भौतिक वस्तुओं के विकारों से करते हैं।

    निश्चय ही, जो यह विश्वास करते हैं कि यहछोटी-सी कल्पना सत्य है, वे अल्पज्ञ हैं।

    स यदजया त्वजामनुशयीत गुणां श्र जुषन्‌भजति सरूपतां तदनु मृत्युमपेतभग: ।

    त्वमुत जहासि तामहिरिव त्वचमात्तभगोमहसि महीयसेष्टगुणितेडपरिमेयभग: ॥

    ३८ ॥

    सः--वह ( जीव ); यत्‌--क्योंकि; अजया-- भौतिक शक्ति के प्रभाव से; तु--लेकिन; अजाम्‌ू--वह भौतिक शक्ति;अनुशयीत--लेट जाती है; गुणान्‌--अपने गुणों को; च--तथा; जुषन्‌-- धारण करके; भजति--ग्रहण करता है; स-रूपताम्‌--( प्रकृति के गुणों के ) सहश रूप; तत्‌-अनु--उसके पीछे; मृत्युम्‌--मृत्यु; अपेत--रहित; भग:--सम्पत्ति का;त्वमू--तुम; उत--दूसरी ओर; जहासि--छोड़ देते हो; तामू--उस ( भौतिक शक्ति ) को; अहिः--सर्प; इब--सहृश; त्वचम्‌--अपनी ( पुरानी ) खाल, केंचुल; आत्त-भग: --समस्त सम्पत्ति से युक्त; महसि--आपकी आध्यात्मिक शक्तियों में; महीयसे--आपकी महिमा गाई जाती है; अष्ट-गुणिते--आठगुनी; अपरिमेय-- असीम; भग: --महानता ।

    मोहिनी प्रकृति सूक्ष्म जीव को, उसका आलिंगन करने के लिए आकृष्ट करती है और'फलस्वरूप जीव उसके गुणों से बने रूप धारण करता है।

    बाद में वह अपने सारे आध्यात्मिकगुण खो देता है और उसे बारम्बार मृत्यु भोगनी पड़ती है।

    किन्तु आप भौतिक शक्ति से अपने कोउसी तरह बचाते रहते हैं, जिस तरह सर्प पुरानी केंचुल त्यागता है।

    आप आठ योगसिद्ध्ियों सेमहिमायुक्त स्वामी हैं और असीम ऐश्वर्य का भोग करते हैं।

    यदि न समुद्धरन्ति यतयो हदि कामजटादुरधिगमोसतां हृदि गतोस्मृतकण्ठमणि: ।

    असुतृपयोगिनामुभयतोप्यसुखं भगव-न्ननपगतान्तकादनधिरूढपदाद्धवत:ः ॥

    ३९॥

    यदि--यदि; न समुद्धरन्ति--उखाड़ नहीं फेंकते; यतय:--संन्यासी लोग; हृदि--अपने हृदयों में; काम--कामेच्छा के; जटा:--चिह्न; दुरधिगम: --साक्षात्कार करना असम्भव; असताम्‌--अशुद्ध के लिए; हृदि--हृदय में; गत:ः--प्रवेश करके; अस्मृत--विस्मृत; कण्ठ--गर्दन पर; मणि:--मणि; असु-- प्राण; तृप--तृप्ति करने वाला; योगिनाम्‌--योगियों के लिए; उभयतः--दोनों ( संसारों ) में; अपि-- भी; असुखम्‌--दुख; भगवन्‌--हे भगवान्‌; अनपगत--नहीं गया हुआ; अन्तकातू--मृत्यु से;अनधिरूढ--अ प्राप्त; पदात्‌--जिसका राज्य; भवत:--आपसे |

    सन्यास-आश्रम के जो सदस्य अपने हृदय से भौतिक इच्छा को समूल उखाड़ कर फेंक नहींदेते, वे अशुद्ध बने रहते हैं और इस तरह आप उन्हें अपने को समझने नहीं देते।

    यद्यपि आपउनके हृदयों में वर्तमान रहते हैं, किन्तु उनके लिए आप उस मणि की तरह हैं, जिसे मनुष्य गले मेंपहने हुए भी भूल जाता है कि वह गले में है।

    हे प्रभु, जो लोग केवल इन्द्रिय-तृप्ति के लिएयोगाभ्यास करते हैं, उन्हें इस जीवन में तथा अगले जीवन में भी उस मृत्यु से, जो उन्हें नहीं छोड़ेगी, दण्ड मिलना चाहिए और आपसे भी, जिनके धाम तक, वे नहीं पहुँच सकते।

    त्वदवगमी न वेत्ति भवदुत्थशु भाशुभयो-गुणविगुणान्वयांस्तहिं देहभूतां च गिर: ।

    अनुयुगमन्वहं सगुण गीतपरम्परयाश्रवणभूतो यतस्त्वमपवर्गगतिर्मनुजै: ॥

    ४०॥

    त्वत्‌-तुम्हें; अवगमी--जानने वाला; न वेत्ति--परवाह नहीं करता; भवत्‌--आप से; उत्थ--उठ कर; शुभ-अशुभयो: --शुभतथा अशुभ का; गुण-विगुण--अच्छे-बुरे का; अन्वयान्‌ू--लक्षणों को; तह्ि--फलस्वरूप; देह- भूताम्‌--देहधारी जीवों का;च--भी; गिर: --शब्द; अनु-युगम्‌--हर युग में; अनु-अहम्‌-- प्रतिदिन; स-गुण--हे गुणों से युक्त; गीत--गीत की;परम्परया--परम्परा से; श्रवण--सुन कर के; भृतः--ले जाया गया; यत:--इसके कारण; त्वम्‌ू--तुम; अपवर्ग--मोक्ष का;गतिः--चरम लक्ष्य; मनुजैः--मनुष्यों द्वारा, मनु के बंशजों द्वारा |

    जब मनुष्य आपका साक्षात्कार कर लेता है, तो वह अपने विगत पवित्र तथा पापमय कर्मोंसे उदित होने वाले अच्छे तथा बुरे भाग्य की परवाह नहीं करता, क्योंकि इस अच्छे तथा बुरे भाग्य को नियंत्रित करने वाले एकमात्र आप हैं।

    ऐसा स्वरूपसिद्ध भक्त इसकी भी परवाह नहींकरता कि सामान्य जन उसके विषय में क्या कह रहे हैं।

    वह प्रतिदिन अपने कानों को आपकेयशों से भरता रहता है, जो हर युग में मनु के वंशजों की अविच्छिन्न परम्परा से गाये जाते हैं।

    इसतरह आप उसका चरम मोक्ष बन जाते हैं।

    त्वमपि यदन्तराण्डनिचया ननु सावरणा: ।

    ख इव रजांसि वान्ति वयसा सह यच्छुतय-स्त्वयि हि फलन्त्यतन्निससनेन भवन्निधना: ॥

    ४१॥

    झु--स्वर्ग के; पतयः--स्वामी; एव-- भी; ते--तुम्हारा; न ययु:--नहीं पहुँच सकते; अन्तम्‌--अन्त; अनन्ततया--अनन्त होनेसे; त्वमू--तुम; अपि-- भी; यत्‌--जिसको; अन्तर-- भीतर; अण्ड--ब्रह्माण्डों के; निचया: --समूह; ननु--निस्सन्देह; स--सहित; आवरना:--अपने बाहरी खोल; खे--आकाश में; इब--सहृश; रजांसि-- धूल के कण; वान्ति--इधर-उधर उड़ते हैं;वयसा सह--कालचक्र के साथ; यत्‌--क्योंकि; श्रुत॒वः--वेद; त्ववि--तुममें; हि--निस्सन्देह; फलन्ति--फलते हैं; अतत्‌--ब्रह्म से भिन्न है, जो, उसका; निरसनेन--निरस्त करने से; भवत्‌--आप में; निधना: --जिनका अन्तिम निष्कर्ष

    चूँकि आप असीम हैं, अतः न तो स्वर्ग के अधिपति, न ही स्वयं आप अपनी महिमा के छोरतक पहुँच सकते हैं।

    असंख्य ब्रह्माण्ड अपने अपने खोलों में लिपटे हुए कालचक्र के द्वाराआपके भीतर घूमने के लिए उसी तरह बाध्य हैं, जिस तरह कि आकाश में धूल के कण इधर-उधर उड़ते रहते हैं।

    श्रुतियाँ आपको अपने अन्तिम निष्कर्ष के रूप में प्रकट करके सफल बनतीहैं, क्योंकि वे आपसे पृथक्‌ हर वस्तु को अपनी निरसन विधि से विलुप्त कर देती हैं।

    श्रीभगवानुवाचइत्येतद्रह्मणः पुत्रा आश्रुत्यात्मानुशासनम्‌ ।

    सनन्दनमथानर्चु: सिद्धा ज्ञात्वात्मनो गतिम्‌ ॥

    ४२॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- श्री भगवान्‌ ( नारायण ऋषि ) ने कहा; इति--इस तरह; एतत्‌--यह; ब्रह्मण:--ब्रह्मा के; पुत्रा:--पुत्रगण; आश्रुत्य--सुन कर; आत्म--आत्मा के विषय में; अनुशासनम्‌--उपदेश; सनन्दनम्‌--सनन्दन ऋषि की; अथ--तब;आनर्चु:--उन्होंने पूजा की; सिद्धा:--पूर्णतया तुष्ट; ज्ञात्वा--जान कर; आत्मन:--अपना; गतिमू--चरम गन्तव्य |

    भगवान्‌ श्री नारायण ऋषि ने कहा : परमात्मा के विषय में ये आदेश सुन कर ब्रह्मा के पुत्रोंको अपना चरम गन्तव्य समझ में आ गया।

    वे पूरी तरह सन्तुष्ट हो गये और उन्होंने सनन्दन कीपूजा करके उनका सम्मान किया।

    इत्यशेषसमाम्नायपुराणोपनिषद्रसः ।

    समुदधृतः पूर्वजातैव्योमियानैर्महात्मभि: ॥

    ४३॥

    इति--इस प्रकार; अशेष--समस्त; समाम्नाय--वेदों; पुराण--तथा पुराणों का; उपनिषत्‌--गुहा रहस्य; रसः--रस;समुद्धृत:--निचोड़ा हुआ; पूर्व--विगत भूत में; जातैः--उत्पन्न हुओं से; व्योम--ब्रह्माण्ड के उच्चतर भागों में; यानै: --यात्राकरने वाले; महा-आत्मभि: --सन्त-पुरुषों द्वारा

    इस तरह उच्चतर स्वर्गलोकों में विचरण करने वाले प्राचीन सन्‍्तों ने सारे वेदों तथा पुराणोंके इस अमृतमय तथा गुह्ा रस को निचोड़ लिया।

    त्वं चैतद्रह्मदायाद श्रद्धयात्मानुशासनम्‌ ।

    धारयंश्वर गां काम कामानां भर्जनं नृणाम्‌ ॥

    ४४॥

    त्वमू--तुम; च--तथा; एतत्‌--यह; ब्रह्म--ब्रह्मा के; दायाद--हे उत्तराधिकारी ( नारद ); श्रद्धया-- श्रद्धापूर्वक; आत्म-आनुशासनमू--आत्मा के विषय में उपदेशों पर; धारयन्‌--धध्यान करते हुए; चर--विचरण करते हैं; गाम्‌ू--पृथ्वी पर; कामम्‌--अपनी इच्छानुसार; कामानाम्‌-- भौतिक इच्छाओं को; भर्जनम्‌--जो जलाने वाले हैं; नृणाम्‌--मनुष्यों की।

    और चूँकि तुम पृथ्वी पर इच्छानुसार विचरण करते हो, अतः, हे ब्रह्मा-पुत्र, तुम्हेंआत्मविज्ञान विषयक इन उपदेशों पर श्रद्धापूर्वक ध्यान करना चाहिए, क्योंकि ये सारे मनुष्योंकी भौतिक इच्छाओं को भस्म कर देते हैं।

    श्रीशुक उबाचएवं स ऋषिणादिदष्टं गृहीत्वा श्रद्धयात्मवान्‌ ।

    पूर्ण: श्रुतधरो राजन्नाह वीरब्रतो मुनि: ॥

    ४५॥

    श्री-शुक: उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार से; सः--वह ( नारद ); ऋषिणा--ऋषि ( नारायण ऋषि )द्वारा; आदिष्टम्‌--आदेश दिया गया; गृहीत्वा--स्वीकार करके; श्रद्धया-- श्रद्धापूर्वक; आत्म-वान्‌ू--आत्मवान; पूर्ण: --अपनेकार्यों में सफल; श्रुत--उसने जो कुछ सुना था, उस पर; धर:--ध्यान करते हुए; राजनू--हे राजा ( परीक्षित ); आह--कहा;बीर--वीर क्षत्रिय की तरह; ब्रतः--जिसका ब्रत; मुनिः--मुनि ने

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब श्री नारायण ऋषि ने उन्हें इस तरह आदेश दिया, तोआत्मवान नारद मुनि ने उस आदेश को हृढ़ निष्ठा के साथ स्वीकार कर लिया, क्योंकि उनका ब्रतएक योद्धा जैसा वीत्वपूर्ण होता है।

    हे राजनू, अब अपने सारे कार्यो में सफल होकर, उन्होंने जोकुछ सुना था, उस पर विचार किया और भगवान्‌ को इस प्रकार उत्तर दिया।

    श्रीनारद उवाचनमस्तस्मै भगवते कृष्णायामलकीरतये ।

    यो धत्ते सर्वभूतानामभवायोशती: कला: ॥

    ४६॥

    श्री-नारदः उवाच-- श्री नारद ने कहा; नमः--नमस्कार; तस्मै--उस; भगवते-- भगवान्‌; कृष्णाय--कृष्ण को; अमल--निष्कलुष; कीर्तये--जिसकी कीर्ति; यः--जो; धत्ते--प्रकट करता है; सर्व--सारे; भूतानाम्‌ू--जीवों के; अभवाय--मुक्ति हेतु;उशतीः--सर्व-आकर्षक; कला: -- अंश |

    श्री नारद ने कहा : मैं उन निर्मल कीर्ति वाले भगवान्‌ कृष्ण को नमस्कार करता हूँ, जोअपने सर्व-आकर्षक साकार अंशों को इसलिए प्रकट करते हैं, जिससे सारे जीव मुक्ति प्राप्तकर सकें।

    इत्याद्यमृषिमानम्य तच्छिष्यांश्व महात्मनः ।

    ततोगादाशभ्रमं साक्षात्पितुद्दैघायनस्य मे ॥

    ४७॥

    इति--इस प्रकार बोलते हुए; आद्यमू--आदि; ऋषिम्‌--ऋषि ( नारायण ऋषि ) को; आनम्य--शीश झुकाकर; तत्‌--उसके;शिष्यान्‌--शिष्यों को; च--तथा; महा-आत्मन:--महान्‌ सन्त; ततः--वहाँ ( नैमिषारण्य ) से; अगात्‌ू--चला गया; आश्रमम्‌--कुटिया में; साक्षात्‌- प्रत्यक्ष; पितु:--पिता; द्वैघायनस्य--द्वैषायन वेद॒व्यास की; मे--मेरे |

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : यह कहने के बाद नारद ने ऋषियों में अग्रणी श्रीनारायण ऋषि को तथा उनके सन्त सदृश शिष्यों को भी शीश झुकाया।

    तब वे मेरे पिता द्वैपायनव्यास की कुटिया में लौट आये।

    सभाजितो भगवता कृतासनपरिग्रह: ।

    तस्मै तद्वर्णयामास नारायणमुखाच्छुतम्‌ ॥

    ४८ ॥

    सभाजित:--सम्मानित; भगवता-- भगवान्‌ के स्वांश ( व्यासदेव ) द्वारा; कृत--कर चुकने पर; आसन--आसन की;परिग्रह:--स्वीकृति; तस्मै--उसको; तत्‌--वह; वर्णयाम्‌ आस--कह सुनाया; नारायण-मुखात्‌-- श्री नारायण ऋषि के मुखसे; श्रुतम्‌ू--जो उसने सुना था।

    भगवान्‌ के अवतार व्यासदेव ने नारद मुनि का सत्कार किया और उन्हें बैठने के लिएआसन दिया, जिसे उन्होंने स्वीकार किया।

    तब नारद ने व्यास से वह कह सुनाया, जो उन्होंने श्रीनारायण ऋषि के मुख से सुना था।

    इत्येतद्वर्णितं राजन्यन्न: प्रश्न: कृतस्त्वया ।

    यथा ब्रह्मण्यनिर्देश्ये नीऋगुणेपि मनश्वरेत्‌ ॥

    ४९॥

    इति--इस प्रकार; एतत्‌--यह; वर्णितम्‌--सुनाया गया; राजन्‌--हे राजा ( परीक्षित ); यत्‌ू--जो; न:--हम से; प्रश्न:--प्रश्न;कृतः--किया गया; त्वया--तुम्हारे द्वारा; यथा--कैसे; ब्रह्मणि--ब्रह्म में; अनिर्देश्ये--शब्दों में जिसका वर्णन नहीं किया जासकता; निर्गुणे--निर्गुण; अपि-- भी; मन: --मन; चरेत्‌--जाता है

    हे राजन, इस प्रकार मैंने तुम्हारे उस प्रश्न का उत्तर दे दिया है, जो इस विषय में तुमने मुझसेपूछा था कि मन उस ब्रह्म तक कैसे पहुँचता है, जो भौतिक शब्दों द्वारा वर्णनीय नहीं है औरभौतिक गुणों से रहित है।

    योअस्योत्प्रे'्षक आदिमध्यनिधने योउव्यक्तजीवे श्वरोयः सूृष्टेदमनुप्रविश्य ऋषिणा चक्रे पुरः शास्ति ता: ।

    यं सम्पद्य जहात्यजामनुशयी सुप्त:ः कुलायं यथात॑ कैवल्यनिरस्तयोनिमभयं ध्यायेदजस्त्रं हरिमू ॥

    ५०॥

    यः--जो; अस्य--इस ( ब्रह्माण्ड ) का; उत्प्रेश्षक:--निगरानी रखने वाला; आदि--इसके प्रारम्भ में; मध्य--बीच में; निधने--तथा अन्त में; यः:--जो; अव्यक्त--अप्रकट ( प्रकृति ) का; जीव--तथा जीवों का; ई श्वरः-- स्वामी; यः--जो ; सृष्टा--उत्पन्नकरके; इृदम्‌--इस ( ब्रह्माण्ड ) में; अनुप्रविश्य-- प्रवेश करके; ऋषिणा--जीवात्मा के साथ; चक्रे --उत्पन्न किया; पुर:--शरीर; शास्ति--नियमन करता है; ताः--उन्हें; यम्‌--जिसको; सम्पद्य--शरणागत होकर; जहाति--त्याग देता है; अजामू--अजन्मा ( प्रकृति ) का; अनुशयी--आलिंगन करते हुए; सुप्त:--सोया पुरुष; कुलायम्‌--उसका शरीर; यथा--जिस तरह;तम्‌--उस पर; कैवल्य--अपनी शुद्ध आध्यात्मिक स्थिति से; निरस्त--दूर रखा हुआ; योनिमू--जन्म; अभयम्‌--निर्भयता केलिए; ध्यायेत्‌ू-- ध्यान करना चाहिए; अजस्त्रमू--सतत; हरिम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण को |

    वह ही स्वामी है, जो इस ब्रह्माण्ड की निरन्तर निगरानी करता है, जो इसके प्रकट होने केपूर्व, उसके बीच में तथा उसके बाद विद्यमान रहता है।

    वह अव्यक्त भौतिक प्रकृति तथा आत्मादोनों का स्वामी है।

    इस सृष्टि को उत्पन्न करके, वह इसके भीतर प्रवेश कर जाता है और प्रत्येकजीव के साथ रहता है।

    वहाँ पर वह भौतिक देहों की सृष्टि करता है और फिर उनके नियामक केरूप में रहने लगता है।

    उनकी शरण में जाकर मनुष्य माया के आलिंगन से बच सकता है, जिसतरह स्वप्न देख रहा व्यक्ति अपने शरीर को भूल जाता है।

    जो व्यक्ति भय से मुक्ति चाहता है, उसेचाहिए कि उस भगवान्‌ हरि का निरन्तर ध्यान धरे, जो सदैव सिद्धावस्था में रहता है और कभीभी भौतिक जन्म नहीं लेता।

    TO

    अध्याय अट्ठासी: भगवान शिव की वृकासुर से रक्षा

    10.88श्रीराजोबवाचदेवासुरमनुष्येसु ये भजन्त्यशिवं शिवम्‌ ।

    प्रायस्ते धनिनो भोजा न तु लक्ष्म्या: पतिं हरिमू ॥

    १॥

    श्री-राजा उवाच--राजा ( परीक्षित ) ने कहा; देव--देवताओं; असुर--असुरों; मनुष्येषु--तथा मनुष्यों में से; ये--जो;भजन्ति--पूजा करते हैं; अशिवम्‌--विरागी; शिवम्‌ू--शिव को; प्रायः--सामान्यतया; ते--वे; धनिन:ः-- धनी; भोजा:--इन्द्रिय-तृप्ति के भोक्ता; न--नहीं; तु--फिर भी; लक्ष्म्या:--लक्ष्मी के; पतिमू--पति; हरिम्‌-- भगवान्‌ हरि को |

    राजा परीक्षित ने कहा : जो देवता, असुर तथा मनुष्य परम वैरागी शिव की पूजा करते हैं, वेसामान्यतया धन सम्पदा तथा इन्द्रिय-तृप्ति का आनन्द लूटते हैं, जबकि लक्ष्मीपति भगवान्‌ हरिकी पूजा करने वाले, ऐसा नहीं कर पाते।

    एतद्ठेदितुमिच्छाम: सन्देहो त्र महान्हि नः ।

    विरुद्धशीलयो: प्रभ्वोर्विरुद्धा भजतां गति; ॥

    २॥

    एतत्‌--यह; वेदितुम्‌--जानने के लिए; इच्छाम:--इच्छुक हैं; सन्देह:--सन्देह; अन्र--इस मामले में; महान्‌ू--महान्‌; हि--निस्सन्देह; नः--हम पर से; विरुद्ध--उल्टा; शीलयो:--जिनके चरित्र; प्रभ्वो:--दोनों प्रभुओं के; विरुद्धा--विपरीत;भजताम्‌--पूजा करने वालों का; गति:--गन्तव्य

    हम इस विषय को ठीक से समझना चाहते हैं, क्योंकि यह हमें अत्यधिक परेशान किये हुएहै।

    दरअसल इन विपरीत चरित्रों वाले दोनों प्रभुओं की पूजा करने वालों को, जो फल मिलतेहैं, वे अपेक्षा के विपरीत होते हैं।

    श्रीशुक उबाचशिव: शक्तियुत: शश्वत्तरिलिड्रो गुणसंवृतः ।

    वैकारिकस्तैजसश्न तामसश्ैत्यहं त्रिधा ॥

    ३॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुक ने कहा; शिव: --शिव; शक्ति--अपनी भौतिक शक्ति, प्रकृति से; यत:ः--युक्त; शश्वत्‌--सदैव;त्रि--तीन; लिड्ढ:--प्रकट स्वरूप वाले; गुण--गुणों से; संवृत:--अनुरोध किये गये; वैकारिक:--सतोगुणी अहंकार;तैजसः--रजोगुणी अहंकार; च--तथा; तामसः--तमोगुणी अहंकार; च--तथा; इति--इस प्रकार; अहम्‌--अहंकार का तत्त्व;त्रिधा--तीन गुना

    श्रीशुकदेव ने कहा : शिवजी सदैव अपनी निजी शक्ति, प्रकृति के साथ, संयुक्त रहते हैं।

    प्रकृति के तीन गुणों के अनुरोध पर अपने को तीन रूपों में प्रकट करते हुए वे सतो, रजो तथातमोगुणी अहंकार के त्रितत्त्व को धारण करने वाले हैं।

    ततो विकारा अभवन्धोडशामीषु कञ्जन ।

    उपधावन्विभूतीनां सर्वासामश्नुते गतिम्‌ ॥

    ४॥

    ततः--उस ( अहंकार ) से; विकारा:--रूपान्तरेण; अभवनू्‌-- प्रकट हुए; षोडश--सोलह; अमीषु--इनमें से; कञ्नन--कोई ;उपधावन्‌--पूजा करते हुए; विभूतीनाम्‌-- भौतिक सम्पत्ति का; सर्वासामू--समस्त; अश्नुते-- भोग करता है; गतिम्‌--उपलब्धि।

    उसी मिथ्या अहंकार से सोलह तत्त्व विकार-रूप में निकले हैं।

    जब शिव-भक्त इन तत्त्वों मेंसे किसी भी विकार की पूजा करता है, तो उसे सभी प्रकार का उसी तत्त्व के संगत भोग्य ऐश्वर्यप्राप्त होता है।

    हरि निर्गुणः साक्षात्पुरुष: प्रकृते: पर: ।

    स सर्वहगुपद्रष्टा तं भजन्निर्गुणो भवेत्‌ ॥

    ५॥

    हरिः-- भगवान्‌ हरि; हि--निस्सन्देह; निर्गुण:--गुणों से अछूता; साक्षात्‌--परम रूप से; पुरुष: --ई श्वर; प्रकृतेः-- प्रकृति के ;'परः--दिव्य; सः--वह; सर्व--हर वस्तु; हक्‌--देखते हुए; उपद्रष्टा--साक्षी; तमू--उसकी; भजन्‌--पूजा करके; निर्गुण: --भौतिक गुणों से मुक्त; भवेत्‌ू--बन जाता है।

    किन्तु भगवान्‌ हरि का भौतिक गुणों से कोई सरोकार नहीं रहता।

    वे सर्वद्रष्टा नित्य साक्षीभगवान्‌ हैं, जो भौतिक प्रकृति के परे हैं।

    जो उनकी पूजा करता है, वह भी उन्हीं की तरहभौतिक गुणों से मुक्त हो जाता है।

    निवृत्तेष्वश्चमेथेषु राजा युष्मत्पितामह: ।

    श्रण्वन्भगवतो धर्मानपृच्छदिदमच्युतम्‌ ॥

    ६॥

    निवृत्तेषु--पूर्ण हुए; अश्व-मेधेषु--अश्वमेध यज्ञ के; राजा--राजा ( युधिष्टिर ); युष्मत्‌-- तुम्हारे ( परीक्षित के ); पितामहा: --बाबा; श्रृण्वन्‌--सुनते हुए; भगवतः-- भगवान्‌ ( श्रीकृष्ण ) से; धर्मानू-धार्मिक सिद्धान्तों को; अपूच्छत्‌--पूछा; इदम्‌--यह;अच्युतम्‌-भगवान्‌ कृष्ण से

    तुम्हारे बाबा राजा युधिष्ठिर ने अपना अश्वमेध यज्ञ पूरा कर लेने के बाद भगवान्‌ अच्युत सेयही प्रश्न पूछा था, जब वे भगवान्‌ से धर्म की व्याख्या सुन रहे थे।

    स आह भगवांस्तस्मै प्रीतः शुश्रूषवे प्रभु: ।

    नृणां नि: श्रेयसार्थाय योवतीर्णो यदो: कुले ॥

    ७॥

    सः--उसने; आह--कहा; भगवानू-- भगवान्‌; तस्मै--उसको; प्रीत:--प्रसन्न; शुश्रूषबे-- सुनने का इच्छुक; प्रभु:--स्वामी;नृणाम्‌--सारे मनुष्यों के; नि:श्रेयस--चरम लाभ के; अर्थाय--हेतु; यः--जो; अवतीर्ण:--अवतरित; यदो:--राजा यदु के;कुले--वंश में

    राजा के स्वामी तथा प्रभु श्रीकृष्ण, जो सारे लोगों को परम लाभ प्रदान करने के उद्देश्य सेयदुकुल में अवतीर्ण हुए थे, इस प्रश्न से प्रसन्न हुए।

    भगवान्‌ ने निम्नवत्‌ उत्तर दिया, जिसे राजाने उत्सुकतापूर्वक सुना।

    श्रीभगवानुवाचअस्याहमनुगृह्मामि हरिष्ये तद्धनं शनैः ।

    ततो<धनं त्यजन्त्यस्य स्वजना दुःखदु:खितम्‌ ॥

    ८॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; यस्य--जिस पर; अहम्‌--मैं; अनुगृह्ामि-- अनुग्रह करता हूँ; हरिष्ये--हरण कर लेताहूँ; तत्‌ू--उसका; धनम्‌-- धन; शनै:--धीरे धीरे; ततः--तब; अधनम्‌--निर्धन; त्यजन्ति--छोड़ देते हैं; अस्थ--उसके; स्व-जना:--सम्बन्धी तथा मित्र; दुःख-दुःखितम्‌--एक के बाद, एक दुख से दुखी |

    भगवान्‌ ने कहा : यदि मैं किसी पर विशेष रूप से कृपा करता हूँ, तो मैं धीरे धीरे उसे उसकेधन से वंचित करता जाता हूँ।

    तब ऐसे निर्धन व्यक्ति के स्वजन तथा मित्र उसका परित्याग करदेते हैं।

    इस प्रकार वह कष्ट पर कष्ट सहता है।

    स यदा वितथोद्योगो निर्विण्ण: स्याद्धनेहया ।

    मत्परैः कृतमैत्रस्य करिष्ये मदनुग्रहम्‌ ॥

    ९॥

    सः--वह; यदा--जब; वितथ--व्यर्थ; उद्योग: -- प्रयास; निर्विण्ण:--विफल; स्यात्‌ू--हो जाता है; धन--धन के लिए;ईहया--अपने प्रयास से; मत्‌--मेरे; पैरः-- भक्तों के साथ; कृत--बनाने वाले के लिए; मैत्रस्थ--मित्रता; करिष्ये--दिखलाऊँगा; मत्‌--मेरी; अनुग्रहम्‌--कृपा जब

    वह धन कमाने के अपने प्रयासों में विफल होकर मेरे भक्तों को अपना मित्र बनाता है,तो मैं उस पर विशेष अनुग्रह प्रदर्शित करता हूँ।

    तद्गह्म परम सूक्ष्मं चिन्मात्रं सदनन्तकम्‌ ।

    विज्ञायात्मतया धीरः संसारात्परिमुच्यते ॥

    १०॥

    ततू--वह; ब्रह्म --निर्विशेष ब्रह्म; परमम्‌--परम; सूक्ष्मम्‌--सूक्ष्; चित्‌--आत्मा; मात्रमू-शुद्ध; सत्‌--नित्य जगत;अनन्तकम्‌--अन्तहीन; विज्ञाय-- भलीभाँति जान कर; आत्मतया--अपने ही आत्मा के रूप में; धीर:--धीर; संसारात्‌--भौतिक जीवन से; परिमुच्यते--छूट जाता है।

    इस तरह धीर बना हुआ व्यक्ति ब्रह्म को, जो आत्मा की सर्वाधिक सूक्ष्म तथा पूर्णअभिव्यक्ति से एवं अन्तहीन जगत से परे है, सर्वोच्च सत्य के रूप में पूरी तरह से अनुभव करता है।

    इस तरह यह अनुभव करते हुए कि परम सत्य उसके अपने अस्तित्व का आधार है, वहभौतिक जीवन के चक्र से मुक्त हो जाता है।

    अतो मां सुदुराराध्यं हित्वान्यान्भजते जन: ।

    ततस्त आशुतोषे भ्यो लब्धराज्यश्रियोद्धता: ।

    मत्ताः प्रमत्ता वरदान्विस्मयन्त्यवजानते ॥

    ११॥

    अतः--इसलिए; माम्‌--मुझको; सु--अत्यन्त; दुराराध्यम्‌-पूजा करने में कठिन; हित्वा--छोड़ कर; अन्यान्‌--अन्यों को;भजते--पूजता है; जन:ः--सामान्य व्यक्ति; ततः--फलस्वरूप; ते--वे; आशु--शीघ्र ही; तोषेभ्य: --संतुष्ट लोगों से; लब्ध--प्राप्त; राज्य--राजसी; भ्रिया--ऐश्वर्य से; उद्धता:--उद्धत बनाये गये; मत्ता:--मद से चूर; प्रमत्ता:--परवाह न करने वाले;वर--वरों के; दानू--दाता; विस्मयन्ति--अत्यन्त निडर बन कर; अवजानते--अपमान ( तिरस्कार ) करते हैं।

    चूँकि मुझे पूजना कठिन है, इसलिए सामान्यतया लोग मुझसे कतराते हैं और बजाय इसकेमें उन अन्य देवों की पूजा करते हैं, जो शीघ्र ही तुष्ट हो जाते हैं।

    जब लोग इन देवों से राजसीऐश्वर्य प्राप्त करते हैं, तो वे उद्धत, गर्वोन्मत्त तथा अपने कर्तव्यों की उपेक्षा करने वाले बन जातेहैं।

    वे उन देवताओं को भी अपमानित करने का दुस्साहस करते हैं, जिन्होंने उन्हें वर दिये हैं।

    श्रीशुक उबाचशापप्रसादयोरीशा ब्रह्मविष्णुशिवादय:ः ।

    सद्यः शापप्रसादोड़ शिवो ब्रह्मा न चाच्युत: ॥

    १२॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; शाप--शाप देने; प्रसादयो: --दया दिखाने में; ईशा: --समर्थ; ब्रह्म-विष्णु-शिव-आदय: --ब्रह्मा, विष्णु, शिव इत्यादि; सद्यः--शीघ्र; शाप-प्रसाद: --जिनके शाप तथा वरदान; अड्ज--हे प्रिय ( राजापरीक्षित ); शिव: --शिव; ब्रह्मा--ब्रह्मा; न--नहीं; च--तथा; अच्युत:-- भगवान्‌ विष्णु॥

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा अन्य देवता किसी को शाप याआशीर्वाद देने में समर्थ हैं।

    शिव तथा ब्रह्मा शाप देने या वर देने में बहुत शीघ्रता करते हैं, किन्तुहे राजन, भगवान्‌ अच्युत ऐसे नहीं हैं।

    अन्न चोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्‌ ।

    वृकासुराय गिरिशो वर दत्त्वाप सड्डूटम्‌ ॥

    १३॥

    अत्र--इस सम्बन्ध में; च--तथा; उदाहरन्ति--उदाहरण के रूप में बतलाते हैं; इमम्‌--यह ( आगे दिया ); इतिहासम्‌--ऐतिहासिक विवरण; पुरातनम्‌--प्राचीन; वृक-असुराय--वृक असुर के लिए; गिरि-शः--कैलाश पर्वत के स्वामी शिवजी ने;वरम्‌--वर; दत्त्वा--देकर; आप--प्राप्त किया; सड्डूटम्‌-- भयावह स्थिति

    इस सम्बन्ध में एक प्राचीन ऐतिहासिक विवरण बतलाया जाता है कि किस तरह वृक असुरको वर माँगने के लिए कहने से कैलाश पर्वत के स्वामी संकट में पड़ गये।

    बृको नामासुरः पुत्र: शकुने: पथि नारदम्‌ ।

    इृष्टाशुतोषं पप्रच्छ देवेषु त्रिषु दुर्मति: ॥

    १४॥

    बृकः--वृक; नाम--नामक; असुरः--असुर; पुत्र:--पुत्र; शकुने:--शकुनि का; पथ्चि--मार्ग में; नारदम्‌--नारद मुनि को;इष्ठा--देख कर; आशु--शीघ्र; तोषम्‌-प्रसन्न होने वाला; पप्रच्छ--पूछा; देवेषु--देवताओं में से; त्रिषु--तीन; दुर्मति: --दुष्टने

    एक बार मार्ग में शकुनि-पुत्र वृक नामक असुर की नारद से भेंट हो गयी।

    इस दुष्ट ने उनसेपूछा कि तीन प्रमुख देवों में से, किसे सबसे जल्दी प्रसन्न किया जा सकता है।

    स आह देवं गिरिशमुपाधावाशु सिद्धयसि ।

    योउल्पाभ्यां गुणदोषाभ्यामाशु तुष्यति कुप्पति ॥

    १५॥

    सः--उसने ( नारद ने ); आह--कहा; देवमू--देव; गिरिशमू--शिव को; उपाधाव--पूजो; आशु--शीघ्र; सिद्धयसि--सफलहोगे; यः--जो; अल्पाभ्याम्‌--कुछ; गुण--उत्तम गुणों से; दोषाभ्यामू--तथा दोषों से; आशु--जल्दी; तुष्यति--तुष्ट होता है;कुप्यति-क्रुद्ध होता है

    नारद ने उससे कहा : तुम शिव की पूजा करो, तो तुम्हें शीघ्र ही सफलता प्राप्त हो सकेगी।

    वे अपनी पूजा करने वालों के रंचमात्र भी उत्तम गुणों को देख कर तुरन्त प्रसन्न हो जाते हैं औरउनकी रंचमात्र भी त्रुटि देख कर तुरन्त कुपित होते हैं।

    दशास्यबाणपयोस्तुष्ट: स्तुवतोर्वन्दिनोरिव ।

    ऐश्वर्यमतुलं दत्त्ता तत आप सुसड्डूटम्‌ ॥

    १६॥

    दश-आस्य--दस सिरों वाले रावण से; बाणयो: --तथा बाण से; तुष्ट:ः--संतुष्ट; स्तुबतो: --उनकी स्तुति का गान करने वाले;बन्दिनो: इब--गायकों की तरह; ऐश्वर्यम्‌-शक्ति; अतुलम्‌--अद्वितीय; दत्त्वा--देकर; तत:--तब; आप--प्राप्त किया; सु--महान्‌; सड्डूटम्‌--विपत्ति।

    वे दस-सिर वाले रावण से तथा बाण से तब प्रसन्न हो उठे, जब उनमें से प्रत्येक ने राज्यदरबार के वन्दीजनों की तरह उनके यश का गायन किया।

    तब शिवजी ने उन दोनों कोअभूतपूर्व शक्ति प्रदान की, किन्तु इसके फलस्वरूप, उन्हें दोनों के कारण महान्‌ संकट उठानापड़ा।

    इत्यादिष्टस्तमसुर उपाधावत्स्वगात्रतः ॥

    केदार आत्मक्रव्येण जुह्नानो ग्निमुखं हरम्‌ ॥

    १७॥

    इति--इस प्रकार; आदिष्ट: --आदेश दिया गया; तमू--उस ( शिव ) की; असुरः --असुर ने; उपाधावत्‌--पूजा की; स्व--अपने; गात्रत:--शरीर के अंगों से; केदारे--केदारनाथ नामक पवित्र स्थान पर; आत्म--अपने; क्रव्येण--मांस से; जुह्मान:--आहुतियाँ देते हुए; अग्नि--अग्नि रूपी; मुखम्‌--मुख में; हरम--शिव के ।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस प्रकार उपदेश पाकर, वह असुर केदारनाथ में शिवजीकी पूजा करने गया, जहाँ वह अपने शरीर से मांस के टुकड़े काट-काट कर पवित्र अग्नि में,जो कि शिवमुख है, आहुतियाँ देने लगा।

    देवोपलब्धिमप्राप्य निर्वेदात्सप्तमे उहनि ।

    शिरोवृश्चत्सुधितिना तत्तीर्थक्लिन्नमूर्धजम्‌ ॥

    १८ ॥

    तदा महाकारुणिको स धूर्जटि-यथा वयं चाग्निरिवोत्थितोडनलातू ।

    निगृह्य दोर्भ्या भुजयोरन्यवारयत्‌तत्स्पर्शनाद्धूय उपस्कृताकृति: ॥

    १९॥

    देव--देवता का; उपलब्धिम्‌--दर्शन; अप्राप्य--न पाकर; निर्वेदात्‌--हताशा से; सप्तमे--सातवें; अहनि--दिन; शिर:--सिर;अवृश्चवत्‌--काटने वाला था; सुधितिना--कुल्हाड़े से; तत्‌--उस ( केदारनाथ ) का; तीर्थ--तीर्थस्थान ( के जल ) में; क्लिन्न--सिक्त; मूर्थ-जम्‌--सिर के बाल; तदा--तब; महा--परम; कारुणिक:--दयालु; सः--वह; धूर्जटि:--शिवजी; यथा--जिसतरह; वयम्‌--हम; च-- भी; अग्नि:--अग्नि देव; इब--की तरह प्रकट होकर; उत्थित:--उठा हुआ; अनलातू--अग्नि से;निगृहय--पकड़ कर; दोर्भ्याम्‌ू--अपनी बाँहों से; भुजयो:--उसकी ( वृक की ) बाँहें; न्‍्यवारयत्‌--रोका; तत्‌--उसका ( शिवका ); स्पर्शनात्‌--स्पर्श से; भूयः --पुनः ; उपस्कृत--सुनिर्मित; आकृति: --शरीर |

    देवता का दर्शन न पाकर वृकासुर हताश हो गया।

    अन्त में सातवें दिन केदारनाथ की पवित्रनदी में अपने बाल भिगोकर तथा उन्हें गीला ही रहने देकर, उसने एक कुल्हाड़ा उठाया औरअपना सिर काटने लगा।

    लेकिन उसी क्षण परम दयालु शिवजी यज्ञ-अग्नि से प्रकट हुए, जोसाक्षात्‌ अग्नि देव जैसे लग रहे थे।

    उन्होंने असुर को आत्महत्या करने से रोकने के लिए उसकी दोनों बाँहें पकड़ लीं, जिस तरह ऐसी परिस्थिति में हम करेंगे।

    शिवजी का स्पर्श करने सेवृकासुर, एक बार फिर पूर्ण हो गया।

    तमाह चाड्रालमलं वृणीष्व मेयथाभिकामं वितरामि ते वरम्‌ ।

    प्रीयेय तोयेन नृणां प्रपद्यता-महो त्वयात्मा भूशमर्चते वृथा ॥

    २०॥

    तम्‌ू--उससे; आह--( शिव ने ) कहा; च--तथा; अड्ग--हे प्रिय; अलम्‌ अलमू--बस बस; वृणीष्व--वर माँगो; मे--मुझसे;यथा--जैसा; अभिकामम्‌-- चाहते हो; वितरामि-- प्रदान करूँगा; ते--तुम्हें; वरम्‌--तुम्हारा चुना वर; प्रीयेय--प्रसन्न होता हूँ;तोयेन--जल से; नृणाम्‌--मनुष्यों के; प्रपद्यताम्‌ू--शरणागत; अहो--ओह; त्वया--तुम्हारे द्वारा; आत्मा--तुम्हारा शरीर;भूशम्‌--अत्यधिक; अर्द्ते--पीड़ा पहुँचाया गया; वृथा--व्यर्थ |

    शिवजी ने उससे कहा : हे मित्र, बस करो, बस करो, तुम जो भी चाहो, मुझसे माँगो।

    मैंतुम्हें वही वर दूँगा।

    हाय! तुमने वृथा ही अपने शरीर को इतनी पीड़ा पहुँचाई, क्योंकि जो लोगशरण के लिए मेरे पास पहुँचते हैं, उनके द्वारा मात्र जल की भेंट से मैं प्रसन्न हो जाता हूँ।

    देवं स बत्रे पापीयान्वरं भूतभयावहम्‌ ।

    यस्य यस्य कर शीर्णिण धास्ये स प्रियतामिति ॥

    २१॥

    देवम्‌--देव से; सः--उसने; वब्रे--माँगा; पापीयानू--पापी असुर; वरमू--वर; भूत--सारे जीवों को; भय--डर; आवहम्‌--लाने वाला; यस्य यस्य--जिस जिसके; करम्‌--हाथ; शीर्ण्णगि--सिर पर; धास्ये--मैं रखूँ; सः--वह; प्रियताम्‌--मर जाये;इति--इस प्रकार।

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : उस पापी वृक ने भगवान्‌ से जो वर माँगा, वह सारेजीवों को भयाकान्त करने वाला था।

    वृक ने कहा, 'मैं जिसके भी सिर पर अपना हाथ रखूँ,उसकी मृत्यु हो जाये।

    'तच्छुत्वा भगवाज़ुद्रो दुर्मना इव भारत ।

    इति प्रहसंस्तस्मै ददेडहेरमृतं यथा ॥

    २२॥

    ततू--यह; श्रुत्वा--सुनकर; भगवान्‌ रुद्र:--भगवान्‌ रुद्र ने; दुर्मना:--अप्रसन्न; इब--मानो; भारत--हे भरतवंशी; ३७ इति--स्वीकृति के रूप में ३४ शब्द का उच्चारण करते हुए; प्रहसन्‌--हँसते हुए; तस्मै--उसे; ददे--दे दिया; अहेः--साँप को;अमृतम्‌--अमृत; यथा--जिस तरह

    यह सुनकर भगवान्‌ रुद्र कुछ विचलित से लगे।

    फिर भी हे भारत, उन्होंने अपनी सहमति दिखाने के लिए का उच्चारण किया और व्यंग्य-हँसी के साथ वृक को वर दे दिया कि,मानो विषैले सर्प को दूध दे दिया हो।

    स तद्वरपरीक्षार्थ शम्भोमूर्थधिन किलासुर: ।

    स्वहस्तं धातुमारेभे सोबिभ्यत्स्वकृताच्छिव: ॥

    २३॥

    सः--वह; तत्‌--उसके ( शिव के ); वर--वरदान की; परीक्षा-अर्थम्‌-परीक्षा लेने के लिए; शम्भो:--शिवजी के; मूर्धि--सिर पर; किल--निस्सन्देह; असुरः --असुर ने; स्व--अपना; हस्तम्‌--हाथ; धातुम्‌--रखने के लिए; आरेभे--प्रयत्त किया;सः--उसने; अबिभ्यत्‌--डर गया; स्व--अपने द्वारा; कृतातू-किये हुए से; शिव:--शिव |

    भगवान्‌ शम्भु के वर की परीक्षा करने के लिए असुर ने उन्हीं के सिर पर हाथ रखने काप्रयास किया।

    तब शिवजी को अपने किये हुए पर भय लगने लगा।

    तेनोपसूष्ट: सन्त्रस्तः पराधावन्सवेषथु: ।

    यावद-न्तं दिवो भूमे: कष्ठानामुदगादुदक्‌ ॥

    २४॥

    तेन--उसके द्वारा; उपसृष्ट:--पीछा किया जाते; सन्त्रस्त:--भयभीत; पराधावन्‌--दौड़ते हुए; स--सहित; वेपथु:--काँपते हुए;यावत्‌--जहाँ तक; अन्तमू--छोर; दिवः--आकाश का; भूमेः--पृथ्वी का; काष्ठानामू--तथा दिशाओं का; उदगात्‌--तेजी सेगया; उदक्‌--उत्तर दिशा से

    जब असुर उनका पीछा करने लगा, तो शिवजी भय से काँपते हुए उत्तर में स्थित अपनेनिवास से तेजी से भागने लगे।

    जहाँ तक पृथ्वी, आकाश तथा ब्रह्माण्ड के छोर हैं, वहाँ तक वेदौते रहे।

    अजानन्तः प्रतिविधि तूष्णीमासन्सुरेश्वरा: ।

    ततो वैकुण्ठमगमद्धास्वरं तमस: परम्‌ ॥

    २५॥

    यत्र नारायण: साक्षान््यासिनां परमो गति: ।

    शान्तानां न्यस्तदण्डानां यतो नावर्तते गत: ॥

    २६॥

    अजानन्तः--न जानते हुए; प्रति-विधिम्‌--निराकरण; तृष्णीम्‌ू--मौन; आसनू--हो गये; सुर--देवताओं के; ई श्वरा:-- स्वामी;ततः--तब; बैकुण्ठम्‌-ईश्वर के धाम, वैकुण्ठ; अगमत्‌--गया; भास्वरम्‌--तेजवान; तमस:--अंधकार; परम्‌--परे; यत्र--जहाँ; नारायण: --नारायण; साक्षात्‌-- प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर; न्‍्यासिनाम्‌--सन्यासियों के; परम:--परमेश्वर; गति:-- लक्ष्य;शान्तानामू--शान्त रहने वालों का; न्यस्त--विरक्त; दण्डानाम्‌--हिंसा के; यत:--जिससे; न आवर्तते--नहीं लौटता; गत:--जाकर।

    बड़े बड़े देवता, यह न जानने से कि वर का निराकरण कैसे किया जाये, केवल मौन रह सकते हैं।

    शिवजी समस्त अंधकार के परे वैकुण्ठ के तेजस्वी धाम पहुँचे, जहाँ साक्षात्‌ भगवान्‌नारायण प्रकट होते हैं।

    यह धाम उन विरक्तों का गन्तव्य है, जिन्हें शान्ति प्राप्त हो चुकी है औरजो अन्य प्राणियों के प्रति हिंसा छोड़ चुके हैं।

    वहाँ जाकर कोई फिर से नहीं लौटता।

    त॑ तथा व्यसन हृष्ठा भगवान्वृजिनार्दन: ।

    दूराव्प्रत्युदियाद्धृत्वा बदुको योगमायया ॥

    २७॥

    मेखलाजिनदण्डाक्षैस्तेजसाग्निरिव ज्वलन्‌ ।

    अभिवादयामास च तं कुशपाणिर्विनीतवत्‌ ॥

    २८॥

    तम्‌--उस; तथा--इस प्रकार; व्यसनम्‌--संकट को; हृष्टा--देखकर; भगवान्‌-- भगवान्‌; वृजिन--कष्ट को; अर्दन:--नष्टकरने वाले; दूरात्‌ू--दूर से; प्रत्युदियात्‌ू--( वृकासुर के ) सामने आ गये; भूत्वा--बन कर; बटुकः--ब्रह्मचारी छात्र; योग-मायया--अपनी अन्‍्तरंगा योगशक्ति से; मेखल--छात्र की पेटी; अजिन--मृगचर्म ; दण्ड--डण्डा; अक्षैः--तथा जप-माला सेयुक्त; तेजसा--अपने तेज से; अग्नि: इब--अग्नि की तरह; ज्वलन्‌--प्रकाश करते; अभिवादयाम्‌ आस--आदरपूर्वक सत्कारकिया; च--तथा; तम्‌--उसको; कुश-पाणि:--हाथ में कुशा लिए; विनीत-वत्‌--विनीत होकरअपने भक्तों के कष्टों को हरने वाले

    भगवान्‌ ने दूर से ही देख लिया कि शिवजी संकट मेंहैं।

    अतएव अपनी योग-माया शक्ति से उन्होंने ब्रह्मचारी छात्र का रूप धारण कर लिया, जोउपयुक्त मेखला, मृगचर्म, दण्ड तथा जप-माला से युक्त था और वृकासुर के समक्ष आये।

    भगवान्‌ की आभा अग्नि के समान चमचमा रही थी।

    अपने हाथ में कुशा घास पकड़े हुए,उन्होंने असुर का विनीत भाव से स्वागत किया।

    श्रीभगवानुवाचशाकुनेय भवान्व्यक्त श्रान्तः कि दूरमागतः ।

    क्षणं विश्रम्यतां पुंस आत्मायं सर्वकामधुक्‌ ॥

    २९॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; शाकुनेय--हे शकुनि-पुत्र; भवान्‌ू--आप; व्यक्तम्‌--स्पष्टत:; श्रान्त:--थके हुए;किमू--किस कारण; दूरमू--दूर से; आगत:--आये हैं; क्षणम्‌--क्षण-भर के लिए; विश्रम्यताम्‌--कृपया आराम करें;पुंसः--पुरुष का; आत्मा--शरीर; अयम्‌--यह; सर्व--समस्त; काम--इच्छाएँ; धुक्‌--गाय के दूध के समान देते हुए।

    भगवान्‌ ने कहा : हे शकुनि-पुत्र, तुम थके लग रहे हो।

    तुम इतनी दूर क्‍यों आये हो ? कुछक्षण के लिए विश्राम कर लो।

    आखिर मनुष्य का शरीर ही सारी इच्छाओं को पूरा करने वालाहै।

    यदि न: श्रवणायाल युष्मद्व्यवसितं विभो ।

    भण्यतां प्रायशः पुम्भिर्धुतिः स्वार्थान्समीहते ॥

    ३०॥

    यदि--यदि; नः--हमारा; श्रवणाय--सुनने के लिए; अलमू--उपयुक्त; युष्मत्‌--तुम्हारा; व्यवसितम्‌--विचार; विभो--हेशक्तिशाली; भण्यतामू--कृपया बतलायें; प्रायश:--सामान्यतया; पुम्भि:--व्यक्तियों से; धृतेः-- धारण किया हुआ; स्व--अपने; अर्थान्‌ू-- प्रयोजन के लिए; समीहते--सम्पन्न करता है।

    है विभो, यदि आप हमें इस योग्य समझते हैं, तो हमें बतलाइये कि आप क्या करना चाहतेहैं।

    सामान्यतया मनुष्य अन्यों से सहायता लेकर अपने कार्यो को सिद्ध करता है।

    श्रीशुक उबाचएवं भगवता पृष्टो वचसामृतवर्षिणा ।

    गतक्लमोउब्रवीत्तस्मै यथापूर्वमनुष्ठितम्‌ ॥

    ३१॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; भगवता-- भगवान्‌ द्वारा; पृष्ठ: --पूछे जाने पर; बचसा--वाणी से; अमृत--अमृत; वर्षिणा--वर्षा करने वाली; गत--समाप्त; क्लम:-- थकान; अब्रवीत्‌--कहा; तस्मै-- उनसे; यथा--जिस तरह; पूर्वमू--पहले; अनुष्ठितम्‌--सम्पन्न किया हुआ।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस तरह मधुर अमृत की वर्षा करने वाली वाणी में भगवान्‌द्वारा प्रश्न किये जाने पर वृक को लगा कि उसकी थकावट मिट गई है।

    उसने भगवान्‌ से अपनेद्वारा की गई हर बात बतला दी।

    श्रीभगवानुवाचएवं चेत्तहि तद्बाक्यं न वयं श्रदधीमहि ।

    यो दक्षशापात्पैशाच्यं प्राप्त: प्रेतपिशाचराट्‌ ॥

    ३२॥

    श्री-भगवान्‌ उबाच-- भगवान्‌ ने कहा; एवम्‌--ऐसा; चेत्‌--यदि; तहि--तो; तत्‌--उसके; वाक्यम्‌--कथनों में; न--नहीं;वयम्‌--हम; श्रद्धीमहि--विश्वास कर सकते हैं; यः--जो; दक्ष-शापात्‌--दक्ष प्रजापति के शाप से; पैशाच्यम्‌--पिशाचों केगुण; प्राप्त:--प्राप्त; प्रेत-पिशाच--प्रेतों तथा पिशाचों का; राट्‌ू--राजा |

    भगवान्‌ ने कहा : यदि ऐसा ही है, तो हम शिव के कहने पर विश्वास नहीं कर सकते।

    शिवतो प्रेतों तथा पिशाचों के वही स्वामी हैं, जिन्हें दक्ष ने एक मानव-भक्षी पिशाच बनने का शापदिया था।

    यदि वस्तत्र विश्रम्भो दानवेन्द्र जगद्गुरौ ।

    तहाड्राशु स्वशिरसि हस्तं न्यस्य प्रतीयताम्‌ ॥

    ३३ ॥

    यदि--यदि; व: --तुम्हारा; तत्र--उसमें; विश्रम्भ:--विश्वास; दानव-इन्द्र--हे असुरों में श्रेष्ठ; जगत्‌--ब्रह्माण्ड के; गुरौ--गुरुकी तरह; तहिं--तो; अड़--हे मित्र; आशु--अभी यहीं पर; स्व--अपने; शिरसि--सिर पर; हस्तम्‌--अपना हाथ; न्यस्य--रखकर; प्रतीयताम्‌--देख लो

    हे असुर- श्रेष्ठ, यदि उन पर तुम्हें विश्वास है, क्योंकि वे ब्रह्माण्ड के गुरु हैं, तो अविलम्ब तुमअपना हाथ अपने सिर पर रखो और देख लो कि क्या होता है।

    यद्यसत्यं वचः शम्भो: कथझ्ञिद्दानवर्षभ ।

    तदैनं जह्सद्वाचं न यद्वक्तानृतं पुन: ॥

    ३४॥

    यदि--यदि; असत्यम्‌--झूठ; वच:ः--शब्द; शम्भो: --शिव के; कथज्ित्‌--किसी भी तरह; दानव-ऋषभ--हे दानव-श्रेष्ठ;तदा--तो; एनम्‌--उसको; जहि--मार डालो; असत्‌--असत्य; वाचम्‌--जिसके शब्द; न--नहीं; यत्‌--जिससे; वक्ता--बोलसके; अनृतम्‌--झूठ; पुनः--फिर।

    हे दानव-श्रेष्ठ, यदि किसी तरह भगवान्‌ शम्भु के शब्द असत्य सिद्ध होते हैं, तो उस झूठेका वध कर दो, जिससे वह दुबारा झूठ न बोल सके।

    इत्थं भगवतश्ित्रैंचोभि: स सुपेशलै: ।

    भिन्नधीर्विस्मृत: शीर्णिण स्वहस्तं कुमतिर्यधात्‌ ॥

    ३५॥

    इत्थम्‌--इस प्रकार से; भगवतः-- भगवान्‌ के; चित्रै:--अद्भुत; वचोभि:--शब्दों से; सः--उसने ( वृक ); सु--अत्यन्त;पेशलै:--चतुर; भिन्न--मोहग्रस्त; धीः--उसका मन; विस्मृत: -- भूल कर; शीर्ष्णि--सिर पर; स्व--अपना; हस्तम्‌ू-हाथ; कु-मतिः--मूर्ख ने; न्‍्यधात्‌--रख दिया।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस प्रकार भगवान्‌ के मोहक चतुर शब्दों से मोहित होकरमूर्ख वृक ने बिना समझे कि वह क्या कर रहा है, अपने सिर पर अपना हाथ रख दिया।

    अथापतद्‌ भिन्नशिरा: वज्जाहत इव क्षणात्‌ ।

    जयशब्दो नमःशब्दः साधुशब्दो भवद्दिवि ॥

    ३६॥

    अथ--तब; अपततू--गिर पड़ा; भिन्न--छिन्न-भिन्न हुआ; शिरा:--उसका सिर; वज़--वज़ से; आहत:--चोट खाया; इब--मानो; क्षणात्‌-- क्षण-भर में; जय--' जय हो '; शब्द: -- ध्वनि; नम:--' नमस्कार है '; शब्दः--ध्वनि; साधु--' साधु साधु ';शब्द:--ध्वनि; अभवत्‌-हुई; दिवि--आकाश में |

    उसका सिर तत्क्षण विदीर्ण हो गया, मानो वसज् द्वारा प्रहार हुआ हो और वह असुर भूमि परगिर कर मर गया।

    आकाश से 'जय हो, 'नमस्कार है' तथा 'साधु साधु' जैसी ध्वनियाँसुनाई पड़ीं।

    मुमुचु: पुष्पवर्षाणि हते पापे वृकासुरे ।

    देवर्षिपितृगन्धर्वा मोचित: सड्डूटाच्छिव: ॥

    ३७॥

    मुमुचु:--कराई; पुष्प--फूलों की; वर्षाणि--वर्षा; हते--मारे जाने पर; पापे--पापी; वृक-असुरे--वृकासुर के; देव-ऋषि--दैवी ऋषियों; पितृ--पुरखों; गन्धर्वा:--तथा स्वर्ग के गवैयों ने; मोचित:ः--छुटकारा पाये हुए; सड्डूटातू--संकट से; शिव:--शिव

    पापी वृकासुर के मारे जाने पर उत्सव मनाने के लिए दैवी ऋषियों, पितरों तथा गन्धर्वों नेफूलों की वर्षा की।

    अब शिवजी खतरे से बाहर थे।

    ुक्त गिरिशमभ्याह भगवान्पुरुषोत्तम: ।

    अहो देव महादेव पापोयं स्वेन पाप्मना ॥

    ३८ ॥

    हतः को नु महत्स्वीश जन्तुर्वे कृतकिल्बिष: ।

    क्षेमी स्थात्किमु विश्वेशे कृतागस्को जगदगुरो ॥

    ३९॥

    मुक्तम्‌-मुक्त हुए; गिरिशम्‌--शिव को; अभ्याह--सम्बोधित किया; भगवान्‌ पुरुष-उत्तम:-- भगवान्‌ ( नारायण ) ने; अहो--ओह; देव--हे स्वामी; महा-देव--शिव; पाप:--पापी; अयम्‌--यह व्यक्ति; स्वेन--अपने; पाप्मना--पापों से; हतः--मारागया; कः--क्या; नु--निस्सन्देह; महत्सु--बड़े सन्‍्तों के प्रति; ईश--हे स्वामी; जन्तु:--जीव; बै--निस्सन्देह; कृत--कियागया; किल्बिष: --अपराध; क्षेमी-- भाग्यवान्‌; स्थात्‌--हो सकता है; किम्‌ उ--क्या कहा जा सकता है, और भी; विश्व--ब्रह्माण्ड के; ईशे--ईश्वर ( आप ) के विरुद्ध; कृत-आगस्क: ---अपराध करके ; जगत्‌--ब्रह्माण्ड के; गुरौ--गुरु के |

    तब पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ ने खतरे से बाहर हुए गिरिश को सम्बोधित किया, 'हे महादेव,मेरे प्रभु, देखें न, यह दुष्ट व्यक्ति अपने ही पाप के फलों से किस तरह मारा गया है।

    निस्सन्देह,यदि कोई जीव महान्‌ सन्‍्तों का अपमान करता है, तो वह सौभाग्य की आशा कैसे कर सकताहै? ब्रह्माण्ड के स्वामी तथा गुरु के प्रति अपराध करने के विषय में, तो कहा ही क्‍या जासकता।

    य एवमव्याकृतशक्त्युदन्ब॒तःपरस्य साक्षात्परमात्मनो हरे: ।

    गिरित्रमोक्ष॑ कथयेच्छुणोति वाविमुच्यते संसूतिभिस्तथारिभि: ॥

    ४०॥

    यः--जो भी; एवम्‌--इस प्रकार; अव्याकृत--अचिन्त्य; शक्ति--शक्तियों के; उदन्‍्वत:--सागर; परस्य--परम की; साक्षात्‌--स्वयं प्रकट; परम-आत्मन:--परमात्मा; हरेः-- भगवान्‌ हरि के; गिरित्र--शिव के; मोक्षम्‌--बचाव को; कथयेत्‌--सुनाता है;श्रुणोति--सुनता है; वा--अथवा; विमुच्यते--छूट जाता है; संसृतिभि: --बारम्बार जन्म तथा मृत्यु से; तथा-- भी; अरिभि:--शत्रुओं से

    भगवान्‌ हरि साक्षात्‌ प्रकट परम सत्य, परमात्मा तथा अचिन्त्य शक्तियों के असीम सागर हैं।

    जो कोई भी, उनके द्वारा शिव को बचाने की इस लीला को कहेगा या सुनेगा, वह सारे शत्रुओं तथा जन्म-मृत्यु के आवागमन से मुक्त हो जायेगा।

    TO

    अध्याय नवासी: कृष्ण और अर्जुन ने एक ब्राह्मण के पुत्रों को पुनः प्राप्त किया

    10.89श्रीशुक उबाचसरस्वत्यास्तटे राजन्नषयः सत्रमासत ।

    वितर्कः समभूत्तेषां त्रिष्वधीशेषु को महान्‌ ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; सरस्वत्या:--सरस्वती नदी के; तटे--किनारे; राजन्‌--हे राजा ( परीक्षित );ऋषय: --ऋषिगण; सत्रम्‌--वैदिक यज्ञ; आसत--कर रहे थे; वितर्क:--वाद-विवाद; समभूत्‌--उठ खड़ा हुआ; तेषाम्‌--उनमेंसे; त्रिषु--तीन; अधीशेषु--मुख्य स्वामियों में से; क:ः--कौन; महान्‌--सबसे बड़ा |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन, एक बार जब सरस्वती नदी के तट पर ऋषियों कासमूह वैदिक यज्ञ कर रहा था, तो उनके बीच यह वाद-विवाद उठ खड़ा हुआ कि तीन मुख्यदेवों में से सर्वश्रेष्ठ कौन है।

    तस्य जिज्ञासया ते वै भृगुं ब्रह्सुतं नूप ।

    तज्न्प्त्यै प्रेषयामासु: सोभ्जगाद्गह्मण: सभाम्‌ ॥

    २॥

    तस्य--इसके विषय में; जिज्ञासया--जानने की इच्छा से; ते--वे; बै--निस्सन्देह; भगुम्‌-- भूगु मुनि को; ब्रह्म-सुतम्‌--ब्रह्मा केपुत्र; नृप--हे राजा; तत्‌--यह; ज्ञप्त्यै--ढूँढ़ निकालने के लिए; प्रेषयाम्‌ आसु:--उन्होंने भेजा; सः--वह; अभ्यगात्‌--गया;ब्रह्मण:--ब्रह्मा के; सभामू--दरबार में

    हे राजन, इस प्रश्न का हल ढूँढ़ निकालने के इच्छुक ऋषियों ने ब्रह्मा के पुत्र भूगु को उत्तरखोजने के लिए भेजा।

    वे सर्वप्रथम, अपने पिता ब्रह्मा के दरबार में गये।

    न तस्मै प्रह्नणं स्तोत्र चक्रे सत्त्वपरीक्षया ।

    तस्मै चुक्रोध भगवान्प्रज्वलन्स्वेन तेजसा ॥

    ३॥

    न--नहीं; तस्मै--उस ( ब्रह्मा ) को; प्रहणम्‌--नमस्कार करना; स्तोत्रमू--स्तुति; चक्रे --की; सत्त्व--सतोगुण में स्थिति;परीक्षया--परीक्षण करने के उद्देश्य से; तस्मै--उसको; चुक्रोध--क्रुद्ध हो गया; भगवान्‌-प्रभु; प्रज्बलन्‌-- जल उठे; स्वेन--अपने ही; तेजसा-- भावावेश से |

    यह परीक्षा लेने के लिए कि ब्रह्माजी कहाँ तक सतोगुण को प्राप्त हैं, भूगु ने न तो उन्हेंप्रणाम किया न ही स्तुतियों द्वारा उनका महिमा-गान किया।

    अतः वे अपने ही भावावेश से जल-भुन कर भृगु पर क्रुद्ध हो उठे।

    स आत्मन्युत्थितम्मन्युमात्मजायात्मना प्रभु: ।

    अशीशमस्यथा वह्ि स्वयोन्या वारिणात्मभू: ॥

    ४॥

    सः--उस; आत्मनि--अपने भीतर; उत्थितम्‌--उठे हुए; मन्युमू--क्रोध; आत्म-जाय--अपने पुत्र के प्रति; आत्मना--अपनीबुद्धि से; प्रभु:--प्रभु ने; अशीशमत्‌--दमन कर लिया; यथा--जिस तरह; वहिम्‌-- आग; स्व--अपने; योन्या--उद्‌गम से;वारिणा--जल से; आत्म- भू: --अपने से उत्पन्न ब्रह्मा |

    यद्यपि उनके हृदय के भीतर अपने पुत्र के प्रति क्रोध उठ रहा था, किन्तु ब्रह्माजी ने अपनीबुद्धि के प्रयोग से, उसे वैसे ही दबा लिया, जिस तरह अग्नि अपने ही उत्पाद जल से बुझ जातीहै।

    ततः कैलासमगमत्स तं॑ देवो महेश्वरः ।

    परिरब्धुं समारेभ उत्थाय भ्रातरं मुदा ॥

    ५॥

    ततः--तब; कैलासम्‌--कैलास पर्वत पर; अगमत्‌--गया; सः--वह ( भृगु ); तम्‌ू-- उसको; देव: महा-ई श्वरः --शिव ने;परिरब्धुमू--आलिंगन करने के लिए; समारेभे--प्रयास किया; उत्थाय--उठ कर; भ्रातरम्‌--अपने भाई को; मुदा--हर्षपूर्वक |

    तब भृगु कैलास पर्वत गये।

    वहाँ पर शिवजी उठ खड़े हुए और अपने भाई का आलिंगनकरने प्रसन्नतापूर्वक आगे बढ़े।

    नैच्छत्त्वमस्युत्पथग इति देवश्वलुकोप ह ।

    शूलमुद्यम्य तं हन्तुमारेभे तिग्मलोचन: ॥

    ६॥

    पतित्वा पादयोर्देवी सान्त्ववामास तं गिरा ।

    अथो जगाम बैकुण्ठं यत्र देवो जनार्दन: ॥

    ७॥

    न ऐच्छत्‌--उसने इसे ( आलिंगन को ) नहीं स्वीकारा; त्वमू--तुम; असि--हो; उत्पथ-ग: --( धर्म ) पथ का उल्लंघन करनेवाले; इति--इस तरह कहते हुए; देव:--देवता ( शिव ); चुकोप ह--क्रुद्ध हो गये; शूलम्‌-- अपना त्रिशूल; उद्यम्य--उठाकर;तम्‌--उस ( भृगु ) को; हन्तुमू--मार डालने के लिए; आरेभे--उद्यत; तिग्म-- भयानक; लोचन:--जिसकी आँखें; पतित्वा--गिरते हुए; पादयो: --( शिव के ) पैरों पर; देवी --देवी ने; सान्वयाम्‌ आस--शान्‍्त किया; तम्‌--उसको; गिरा--शब्दों से; अथउ--तब; जगाम--( भूगु ) चला गया; वैकुण्ठम्‌--वैकुण्ठ नामक आध्यात्मिक लोक को; यत्र--जहाँ; देव: जनार्दन:--भगवान्‌ जनार्दन ( विष्णु )।

    किन्तु भूगु ने यह कहते हुए उनके आलिंगन का त्याग कर दिया कि आप तो विपथगामी हैं।

    इस पर शिवजी क्रुद्ध हो उठे और उनकी आँखें भयावने रूप से जलने लगीं।

    उन्होंने अपनात्रिशूल उठा लिया और भृगु को जान से मारने ही वाले थे कि देवी उनके चरणों पर गिर पड़ीं और उन्होंने उन्हें शान्त करने के लिए कुछ शब्द कहे।

    तब भूगु उस स्थान से चल पड़े औरवैकुण्ठ गये, जहाँ भगवान्‌ जनार्दन निवास करते हैं।

    शयानं भ्रिय उत्सड़े पदा वक्षस्यताडयत्‌ ।

    तत उत्थाय भगवान्सह लक्ष्म्या सतां गति: ।

    स्वतल्पादवरुह्माथ ननाम शिरसा मुनिम्‌ ॥

    ८॥

    आह ते स्वागत ब्रह्मन्निषीदात्रासने क्षणम्‌ ।

    अजानतामागतान्व: क्षन्तुमरहथ न: प्रभो ॥

    ९॥

    शयानमू--लेटे हुए; थ्रिय:--लक्ष्मी की; उत्सड्रे--गोद में; पदा--अपने पाँव से; वक्षसि---उनकी छाती पर; अताडयत्‌-- प्रहारकिया; ततः--तब; उत्थाय--उठ कर; भगवान्‌-- भगवान्‌; सह लक्ष्म्या--लक्ष्मीजी समेत; सताम्‌--शुद्ध भक्तों के; गति:--गन्तव्य; स्व--अपने; तल्पात्‌--बिस्तर से; अवरुह्म--उतर कर; अथ--तब; ननाम--नमस्कार किया; शिरसा--सिर द्वारा;मुनिमू--मुनि को; आह--उन्होंने कहा; ते--तुम्हारा; सु-आगतम्‌--स्वागत है; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; निषीद--बैठिये; अत्र--इस;आसने--आसन पर; क्षणम्‌--क्षण-भर के लिए; अजानताम्‌--अनजानों को; आगतानू्‌--आये हुए; वः--तुम्हारे; क्षन्तुम--क्षमा; अर्हध--करना चाहिए; न: --हमको; प्रभो--हे प्रभु

    वे भगवान्‌ के पास तक गये, जो अपना सिर अपनी प्रियतमा श्री की गोद में रख कर लेटे थेऔर वहाँ भूगुने उनकी छाती पर पाँव से प्रहार किया।

    तब भगवान्‌ आदर सूचित करने के लिएदेवी लक्ष्मी सहित उठ कर खड़े हो गये।

    अपने बिस्तर से उतर कर शुद्ध भक्तों के चरम लक्ष्यभगवान्‌ ने मुनि के समक्ष अपना सिर झुकाया और उनसे कहा, 'हे ब्राह्मण, आपका स्वागत है।

    आप इस आसन पर बेठें और कुछ क्षण विश्राम करें।

    हे प्रभु, आपके आगमन पर ध्यान न देपाने के लिए हमें क्षमा कर दें।

    'पुनीहि सहलोकं मां लोकपालां श्व मद्गतान्‌ ।

    पादोदकेन भवतस्तीर्थानां तीर्थकारिणा ॥

    १०॥

    अद्याहं भगवँललक्ष्म्या आसमेकान्तभाजनम्‌ ।

    वल्सयत्युरसि मे भूतिर्भवत्पादहतांहस: ॥

    ११॥

    पुनीहि--कृपया पवित्र करें; सह--सहित; लोकम्‌--मेरे लोक; माम्‌--मुझको; लोक--विभिन्न लोकों के; पालानू--शासकोंको; च--तथा; मतू-गतान्‌--मेरे भक्तों को; पाद--पाँवों ( को धो दिया है ); उदकेन--जल से; भवत:--आप ही के;तीर्थानामू--तीर्थस्थलों के; तीर्थ--उनकी पवित्रता; कारिणा--उत्पन्न करने वाला; अद्य--आज; अहमू--मैं; भगवन्‌-हहे प्रभु;लक्ष्म्या:--लक्ष्मी का; आसम्‌--बन गये हो; एक-अन्त--एकमात्र; भाजनम्‌--आश्रय; वत्स्यति--निवास करेगी; उरसि--छाती पर; मे--मेरी; भूतिः--लक्ष्मी; भवत्‌--आपके; पाद--पाँव से; हत--समूल नष्ट किये गये; अंहसः--जिसके पापों के'फल।

    कृपा करके, अपने पाँवों के प्रक्षालित जल को मुझे देकर मुझे, मेरे धाम तथा मेरेलोकपालक भक्तों के राज्यों को पवित्र कीजिये।

    निस्सन्देह यही पवित्र जल तीर्थस्थानों कोपवित्र बनाता है।

    हे प्रभु, आज मैं लक्ष्मी का एकमात्र आश्रय बन गया हूँ।

    वह मेरी छाती परनिवास करने के लिए सहमत होंगी, क्योंकि आपके पाँव ने इसके सारे पापों को दूर कर दियाहै।

    श्रीशुक उबाचएवं ब्रुवाणे वैकुण्ठे भृगुस्तन्मन्द्रया गिरा ।

    निर्व॒तस्तर्पितस्तृष्णीं भक्त्युत्कण्ठो श्रुलोचन: ॥

    १२॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस तरह; ब्रुवाणे--कहने पर; बैकुण्ठे-- भगवान्‌ विष्णु के; भृगु:--भृगु; तत्‌--उस; मन्द्रया--गम्भीर; गिरा--वाणी से; निर्वृत:--प्रसन्न हुए; तर्पित:--तुष्ट; तृष्णीम्‌--चुप था; भक्ति--भक्ति से;उत्कण्ठ:--भावविहल; अश्रु-- आँसू; लोचन:--जिसकी आँखों में |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : भगवान्‌ वैकुण्ठ द्वारा कहे गये गम्भीर शब्दों को सुन कर भृगुसंतुष्ट तथा प्रसन्न हो उठे।

    वे भक्तिमय आनन्द से विहल होकर निःशब्द हो गए और उनकी आँखेंअश्रुओं से भर आईं।

    पुनश्च सत्रमात्रज्य मुनीनां ब्रह्मगादिनाम्‌ ।

    स्वानुभूतमशेषेण राजन्भूगुरवर्णयत्‌ ॥

    १३॥

    पुन:ः--फिर; च--तथा; सत्रमू--यज्ञ तक; आतब्रज्य--जाकर; मुनीनाम्‌--मुनियों के; ब्रह्म-वादिनाम्‌--वेदों के ज्ञान में दक्ष;स्व--अपने द्वारा; अनुभूतम्‌-- अनुभव किया गया; अशेषेण--पूर्णतया; राजन्‌--हे राजा ( परीक्षित ); भृगुः--भूगु ने;अवर्णयत्‌--वर्णन किया।

    हे राजन, तब भूगु वैदिक विद्वानों की यज्ञशाला में लौट आये और उनसे अपना साराअनुभव कह सुनाया।

    तन्निशम्याथ मुनयो विस्मिता मुक्तसंशया: ।

    भूयांसं श्रद्धधुर्विष्णुं यतः शान्तिर्यतो भयम्‌ ॥

    १४॥

    धर्म: साक्षाद्यतो ज्ञानं वैराग्यं च तदन्वितम्‌ ।

    ऐश्वर्य चाष्टधा यस्माद्यशश्चात्ममलापहम्‌ ॥

    १५॥

    मुनीनां न्यस्तदण्डानां शान्तानां समचेतसाम्‌ ।

    अकिझ्ञनानां साधूनां यमाहु: परमां गतिम्‌ ॥

    १६॥

    सत्त्वं यस्य प्रिया मूर्तिब्राहिणास्त्विष्टदेवता: ।

    भजन्त्यनाशिष: शान्ता यं वा निपुणबुद्धयः ॥

    १७॥

    तत्‌--यह; निशम्य--सुन कर; अथ--तब; मुनय:--मुनिगण; विस्मिता:--चकित; मुक्त--रहित; संशया:--अपने संदेहों से;भूयांसम्‌ू--सबसे महान्‌ के रूप में; श्रद्दधु:--उन्होंने श्रद्धा व्यक्त की; विष्णुम्‌ू--विष्णु में; यत:--जिससे; शान्ति:--शान्ति;यतः--जिससे; अभयम्‌--निर्भयता; धर्म:--धर्म; साक्षात्‌--साक्षात्‌ रूप में; यतः--जिससे; ज्ञानम्‌--ज्ञान; वैराग्यम्‌--विरक्ति;च--तथा; तत्‌--यह ( ज्ञान ); अन्वितम्‌--समेत; ऐश्वर्यमू--योगशक्ति ( योगाभ्यास द्वारा प्राप्त); च--तथा; अष्टधा--आठप्रकार की; यस्मात्‌--जिससे; यश:ः--उनका यश; च--भी; आत्म--मन का; मल--दूषण; अपहम्‌--दूर करने वाला;मुनीनाम्‌--मुनियों के; न्यस्त--जिन्होंने त्याग दिया है, त्यक्त; दण्डानाम्‌--हिंसा; शान्तानामू--शान्त; सम--समभाव;चेतसाम्‌--मनों वाले; अकिद्ञनानाम्‌--स्वार्थरहित; साधूनाम्‌--सन्त स्वभाव के; यमू--जिसको; आहु:--वे कहते हैं;परमाम्‌--परम; गतिम्‌--लक्ष्य; सत्त्वम्‌--सतोगुण; यस्य--जिसका; प्रिया--प्रिय; मूर्ति:--स्वरूप; ब्राह्मणा:--ब्राह्मणजन;तु--तथा; इष्ट--पूजित; देवता:--अर्चा विग्रह; भजन्ति--वे पूजा करते हैं; अनाशिष:--बिना किसी कामना के; शान्ता:--आध्यात्मिक शान्ति प्राप्त कर चुके; यम्‌--जिसको; वा--निस्सन्देह; निपुण--चतुर; बुद्धयः--जिसकी बुद्धि की क्षमताएँ।

    भूगु के विवरण को सुन कर चकित हुए मुनियों के सारे सन्देह दूर हो गये और वे आश्वस्तहो गये कि विष्णु सबसे बड़े देव हैं।

    उन्हीं से शान्ति, निर्भयता, धर्म के अनिवार्य सिद्धान्त, ज्ञानसहित वैराग्य, आठों योगशक्तियाँ तथा मन के सारे कल्मषों को धो डालने वाली उनकी महिमाप्राप्त होती है।

    वे शान्त तथा समभाव वाले स्वार्थरहित निपुण उन मुनियों के परम गन्तव्य जानेजाते हैं, जिन्होंने सारी हिंसा का परित्याग कर दिया है।

    उनका सबसे प्रिय स्वरूप शुद्ध सत्त्वमयहै और ब्राह्मण उनके पूज्य देव हैं।

    तीब्र बुद्धि वाले व्यक्ति, जिन्होंने आध्यात्मिक शान्ति प्राप्त करली है, निःस्वार्थ भाव से उनकी पूजा करते हैं।

    त्रिविधाकृतयस्तस्य राक्षसा असुरा: सुरा: ।

    गुणिन्या मायया सूष्टा: सत्त्वं तत्तीर्थसाधनम्‌ ॥

    १८॥

    त्रि-विध--तीन प्रकार के; आकृतय:--स्वरूप; तस्य--उसके; राक्षसा: --अज्ञानी प्रेत; असुरा: --असुर; सुरा:--तथादेवतागण; गुणिन्या: --गुणों से युक्त; मायया--उनकी भौतिक शक्ति से; सृष्टा:--उत्पन्न; सत्त्वम्‌ू--सतोगुण; तत्‌--उनमें से;तीर्थ--जीवन में सफलता के; साधनम्‌--प्राप्ति के साधन |

    भगवान्‌ तीन प्रकार के व्यक्त प्राणियों में विस्तार करते हैं--ये हैं राक्षस, असुर तथा देवता।

    ये तीनों ही भगवान्‌ की भौतिक शक्ति से उत्पन्न हैं और उसके गुणों से बद्ध हैं।

    किन्तु इन तीनगुणों में से सतोगुण ही जीवन की अन्तिम सफलता प्राप्त करने का साधन है।

    श्रीशुक उबाचइत्थं सारस्वता विप्रा नृणाम्संशयनुत्तये ।

    पुरुषस्य पदाम्भोजसेवया तदगतिं गता: ॥

    १९॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इत्थम्‌--इस प्रकार से; सारस्वता:--सरस्वती नदी के तट पर रहने वाले;विप्रा:--विद्वान ब्राह्मणों ने; नृणाम्‌--लोगों के; संशय--सन्देह; नुत्तये--दूर करने के लिए; पुरुषस्य--परम पुरुष के; पद-अम्भोज--चरणकमलों की; सेवया--सेवा से; तत्‌-- उसके; गतिम्‌--गन्तव्य, धाम को; गतः--प्राप्त किया।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : सरस्वती नदी के तट पर रहने वाले विद्वान ब्राह्मणों ने समस्तलोगों के संशयों को दूर करने के लिए यह निष्कर्ष निकाला।

    तत्पश्चात्‌ उन्होंने भगवान्‌ केचरणकमलों की भक्ति की और वे सभी उनके धाम को प्राप्त हुए।

    श्रीसूत उबाच इत्येतन्मुनितनयास्यपद्ागन्ध-पीयूषं भवभयभित्परस्य पुंस: ।

    सुश्लोक॑ श्रवणपुटै: पिबत्यभीक्ष्णम्‌पान्थोध्वभ्रमणपरिश्रम॑ जहाति ॥

    २०॥

    श्री-सूतः उवाच-- श्री सूत गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार कहने के बाद; एतत्‌--यह; मुनि--मुनि ( वेदव्यास ) के;तनय--पुत्र ( शुकदेव ) के; आस्य--मुख से; पद्य--कमल ( सहश ); गन्ध--सुगन्धि से; पीयूषम्‌--अमृत; भव--भौतिकजीवन के; भय--डर को; भित्‌--छिन्न छिन्न करने वाला; परस्थ--परम के; पुंसः-- भगवान्‌; सु-शलोकम्‌--महिमावान्‌ ;श्रवण--कानों के; पुटैः--रन्श्रों से; पिबति--पीता है; अभीक्षणम्‌--निरन्तर; पान्थ:--यात्री; अध्व--मार्ग पर; भ्रमण-- भ्रमणकरने से; परिश्रमम्‌-- थकान; जहाति--त्याग देता है।

    श्री सूत गोस्वामी ने कहा : व्यासदेव मुनि के पुत्र शुकदेव गोस्वामी के मुख कमल से इसप्रकार सुगन्धित अमृत बहा।

    परम पुरुष का यह अद्भुत महिमा-गायन भौतिक संसार के सारेभय को नष्ट करने वाला है।

    जो यात्री इस अमृत को अपने कान के छेदों से निरन्तर पीता रहताहै, वह सांसारिक जीवन के मार्गों पर भ्रमण करने से उत्पन्न थकान को भूल जायेगा।

    श्रीशुक उबाचएकदा द्वारवत्यां तु विप्रपत्या: कुमारकः ।

    जातमात्रो भुव॑ स्पृष्ठा ममार किल भारत ॥

    २१॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एकदा--एक बार; द्वारवत्याम्-द्वारका में; तु--और; विप्र--एक ब्राह्मण की;पल्या: --पत्नी के; कुमारक:--शिशु पुत्र; जात--उत्पन्न; मात्र:--एकमात्र; भुवम्‌--पृथ्वी को; स्पृष्ठा--छूते ही; ममार--मरगया; किल--निस्सन्देह; भारत--हे भरतवंशी ( परीक्षित महाराज )।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : एक बार द्वारका में एक ब्राह्मण की पत्नी ने पुत्र को जन्म दियाकिन्तु, हे भारत, यह नवजात शिशु पृथ्वी का स्पर्श करते ही मर गया।

    विप्रो गृहीत्वा मृतक॑ राजद्वार्युपधाय सः ।

    इदं प्रोवाच विलपन्नातुरो दीनमानस: ॥

    २२॥

    विप्र:--ब्राह्मण ने; गृहीत्वा--लेकर; मृतकम्‌--शव को; राज--राजा ( उग्रसेन ) के ; द्वारि--दरवाजे पर; उपधाय-- प्रस्तुतकरके; सः--उसने; इृदम्‌--यह; प्रोवाच--कहा; विलपन्‌--शोक करते हुए; आतुरः--विश्लुब्ध; दीन--दुखियारा; मानस:--मन वाला

    ब्राह्मण ने उस मृत शरीर को ले जाकर राजा उग्रसेन के दरबार के द्वार पर रख दिया।

    फिरक्षुब्ध तथा दीन-हीन भाव से शोक-विलाप करता, वह इस प्रकार बोला।

    ब्रह्मद्विष: शठधियो लुब्धस्य विषयात्मन: ।

    क्षत्रबन्धो: कर्मदोषात्पञ्ञत्वं मे गतोर्भकः ॥

    २३॥

    ब्रह्म-ब्राह्मणों के विरुद्ध; द्विष:--द्वेषपूर्ण; शठ--शैतान; धियः--बुद्धि वाला; लुब्धस्य--लोभी; विषय-आत्मन: --इन्द्रिय-तृप्ति में लिप्त रहने वाला; क्षत्र-बन्धो: --अयोग्य क्षत्रिय का; कर्म--कर्त व्य पूरा करने में; दोषात्‌-त्रुटि से; पञ्जञत्वम्‌--मृत्युको; मे--मेरा; गत:--प्राप्त हुआ; अर्भक:-पुत्र |

    ब्राह्मण ने कहा : ब्राह्मणों के इस शठ, लालची शत्रु तथा इन्द्रिय-सुख में लिप्त रहनेवाले अयोग्य शासक द्वारा, अपने कर्तव्यों को सम्पन्न करने में हुई, किसी त्रुटि के कारण मेरे पुत्रकी मृत्यु हुई है।

    हिंसाविहारं नृपतिं दुःशीलमजितेन्द्रियम्‌ ।

    प्रजा भजन्त्य: सीदन्ति दरिद्रा नित्यदु:खिता: ॥

    २४॥

    हिंसा--हिंसा; विहारमू--जिसका खिलवाड़; नृ-पतिम्‌--इस राजा को; दुःशीलम्‌--दुष्ट; अजित--अजेय; इन्द्रियम्‌--जिसकीइन्द्रियाँ; प्रजा:--नागरिक जन; भजन्त्य:--सेवा करते हुए; सीदन्ति--कष्ट उठाते हैं; दरिद्रा:--निर्धन; नित्य--सदैव;दुःखिता:--दुखी

    हिंसा में सुख पाने वाले तथा अपनी इन्द्रियों को वश में न कर सकने वाले दुष्ट राजा कीसेवा करने वाले नागरिकों को निरन्तर निर्धनता तथा दुख का सामना करना पड़ता है।

    एवं द्वितीयं विप्रषिस्तृतीयं त्वेबमेव च ।

    विसृज्य स नृपद्वारि तां गाथां समगायत ॥

    २५॥

    एवम्‌--इसी प्रकार से; द्वितीयम्‌ू--दुबारा; विप्र-ऋषि: --बुद्धिमान ब्राह्मण; तृतीयम्‌--तिबारा; तु--तथा; एवम्‌ एव च--इसीप्रकार से; विसृज्य--छोड़ कर ( अपने पुत्र को ); सः--वह; नृप-द्वारि--राजा के दरवाजे पर; ताम्‌--उसी; गाथाम्‌ू--गीत को;समगायत--गाता रहा।

    उस बुद्धिमान ब्राह्मण को अपने दूसरे तथा तीसरे पुत्र के साथ भी यही दुख भोगना पड़ाप्रत्येक बार वह अपने मृत पुत्र का शरीर राजा के दरवाजे पर छोड़ जाता और वही शोक-गीतगाता।

    तामर्जुन उपश्रुत्य कहिचित्केशवान्तिके ।

    परेते नवमे बाले ब्राह्मणं समभाषत ॥

    २६॥

    कि स्विद्नह्मंंस्त्वन्निवासे इह नास्ति धनुर्धर: ।

    राजन्यबन्धुरेते वै ब्राह्मणा: सत्रमासते ॥

    २७॥

    तामू--उस ( विलाप ) को; अर्जुन:--अर्जुन ने; उपश्रुत्य--सुन कर; कर्हिचित्‌ू--एक बार; केशव--भगवान्‌ कृष्ण के;अन्तिके--निकट; परेते--मृत; नवमे--नौवें; बाले--शिशु; ब्राह्मणम्‌--ब्राह्मण से; समभाषत--कहा; किम्‌ स्वित्‌ू--क्या;ब्रह्मनू-हे ब्राह्मण; त्वत्‌-तुम्हारे; निवासे--घर पर; इह--यहाँ; न अस्ति--नहीं है; धनुः-धर:--हाथ में धनुष लिए; राजन्य-बन्धु:--राज-परिवार का पतित सदस्य; एते--ये ( क्षत्रिय ); व:--निस्सन्देह; ब्राह्मणा: --ब्राह्मणों ( की तरह ); सत्रे-- प्रमुखयज्ञ में; आसते--उपस्थित हैं।

    जब उस ब्राह्मण का नौवाँ पुत्र मरा, तो भगवान्‌ केशव के निकट खड़े अर्जुन ने उस ब्राह्मणके विलाप को सुना अतः अर्जुन ने ब्राह्मण से कहा, 'हे ब्राह्मण, क्या बात है? कया यहाँ परकोई राजसी दरबार का निम्न सदस्य अर्थात्‌ क्षत्रिय-बन्धु नहीं है, जो कम-से-कम अपने हाथ मेंधनुष लेकर आपके घर के सामने खड़ा रहे ? ये क्षत्रिय ऐसा आचरण कर रहे हैं, मानो यज्ञ मेंव्यर्थ ही लगे हुए ब्राह्मण हों।

    धनदारात्मजापृक्ता यत्र शोचन्ति ब्राह्मणा: ।

    ते वै राजन्यवेषेण नटा जीवन्त्यसुम्भरा: ॥

    २८॥

    धन--सम्पत्ति; दार--पत्नी; आत्मज--तथा पुत्रों से; अपृक्ता:--पृथक्‌; यत्र--जिस ( स्थिति ) में; शोचन्ति--शोक करते हैं;ब्राह्मणा:--ब्राह्मणजन; ते--वे; बै--निस्सन्देह; राजन्य-वेषेण--राजाओं के वेश में; नटा:-- अभिनेता; जीवन्ति-- जीते हैं;असुम्‌-भरा:--अपना पेट पालते हुए।

    'जिस राज्य में ब्राह्मण अपनी नष्ट हुई सम्पत्ति, पत्नियों तथा सन्‍्तानों के लिए शोक करतेहैं, उसके शासक निरे वज्ञक हैं, जो अपना उदर-पोषण करने के लिए राजाओं का अभिनयकरते हैं।

    'अहं प्रजा: वां भगवन्नक्षिष्ये दीनयोरिह ।

    अनिस्तीर्णप्रतिज्ञोउगिन प्रवेक्ष्य हतकल्मष: ॥

    २९॥

    अहम्‌-ैं; प्रजा:--सन्तान; वामू--तुम दोनों की ( पति-पत्नी की ); भगवनू--हे प्रभु; रक्षिष्ये--रक्षा करूँगा; दीनयो:--दीन;इह--इस मामले में; अनिस्तीर्ण--पूरा न कर पाने पर; प्रतिज्ञ:--वायदा ( प्रतिज्ञा ); अग्निमू--अग्नि में; प्रवेक्ष्ये--प्रविष्टकरूँगा; हत--विनष्ट; कल्मष: --जिसके कल्मष।

    हे प्रभु, मैं ऐसे अत्यन्त दुखियारे आप तथा आपकी पत्ली की सन्‍्तान की रक्षा करूँगा यदिमैं यह वचन पूरा न कर सका, तो मैं अपने पाप का प्रायश्चित करने के लिए अग्नि में प्रवेशकरूँगा।

    रीत्राह्मण उबाचसट्डूर्षणो वासुदेव: प्रद्युम्नो धन्विनां वर: ।

    अनिरुद्धोप्रतिरथो न त्रातुं शकनुवन्ति यत्‌ ॥

    ३०॥

    तत्कथं नु भवान्कर्म दुष्करं जगदी श्वरै: ।

    त्वं चिकीर्षसि बालिश्यात्तन्न श्रददध्महे वयम्‌ ॥

    ३१॥

    श्री-ब्राह्मण: उबाच--ब्राह्मण ने कहा; सड्डर्षण:--संकर्षण ( बलराम ); वासुदेव:--वासुदेव ( कृष्ण ); प्रद्युम्न: --प्रद्युम्न;धन्विनाम्‌-- धनुर्धारियों के; वर:--सबसे बड़े; अनिरुद्ध:--अनिरुद्ध; अप्रति-रथ:--अद्वितीय रथी; न--नहीं; त्रातुमू--बचानेके लिए; शकक्‍्नुवन्ति--समर्थ थे; यत्‌--इतना कि; तत्‌--इस प्रकार; कथम्‌--क्यों; नु--निस्सन्देह; भवान्‌ू--आप; कर्म--कौशल; दुष्करम्‌--कर पाना असम्भव; जगत्‌--ब्रह्माण्ड के; ईश्वर: --ई ध्वरों द्वारा; त्वम्‌--तुम; चिकीर्षसि--करना चाहते;बालिश्यात्‌ू--बदमाशी से; तत्‌--इसलिए; न श्रद्दध्महे --विश्वास नहीं करते; वयम्‌--हम |

    ब्राह्मण ने कहा: न तो संकर्षण, वासुदेव, सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर प्रद्यम्म, न अद्वितीय योद्धाअनिरुद्ध ही, मेरे पुत्रों को बचा सके तो फिर तुम क्‍यों ऐसा कौशल करने का मूर्खतापूर्ण प्रयासकरने जा रहे हो, जिसे ब्रह्माण्ड के स्वामी भी नहीं कर सके ? हमें तुम पर विश्वास नहीं हो रहा।

    श्रीअर्जुन उवाचनाहं सड्डूर्षणो ब्रह्मन्न कृष्ण: कार्ण्णरिव च ।

    अहं वा अर्जुनो नाम गाण्डीवं यस्य वै धनु: ॥

    ३२॥

    श्री-अर्जुन: उवाच-- श्री अर्जुन ने कहा; न--नहीं; अहम्‌--मैं; सड्डूर्षण:--बलराम; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; न--न तो; कृष्ण:--कृष्ण; कार्ष्णि:--कृष्ण का वंशज; एवं च--ही; अहम्‌--मैं; वै--निस्सन्देह; अर्जुन: नाम--अर्जुन नाम वाला; गाण्डीवम्‌--गांडीव; यस्य--जिसका; वै--निस्सन्देह; धनु:-- धनुष |

    श्री अर्जुन ने कहा: हे ब्राह्मण, मैं न तो संकर्षण हूँ, न कृष्ण और न ही कृष्ण का पुत्र,प्रत्युत मैं गाण्डीव धनुष धारण करने वाला अर्जुन हूँ।

    मावमंस्था मम ब्रह्ान्वीर्य त्यम्बकतोषणम्‌ ।

    मृत्युं विजित्य प्रधने आनेष्ये ते प्रजा: प्रभो ॥

    ३३॥

    मा अवमंस्था: --मत छोटा मानो; मम--मेरा; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; वीर्यम्‌--पराक्रम; त्रि-अम्बक--शिवजी; तोषणम्‌--संतुष्टकरने के लिए; मृत्युम्‌--मृत्यु को; विजित्य--हराकर; प्रधने--युद्ध में; आनेष्ये--वापस लाऊँगा; ते--तुम्हारी; प्रजा:--सन्तानें;प्रभो--हे स्वामी |

    हे ब्राह्मण, मेरी उस क्षमता को कम न करें, जो शिवजी को भी तुष्ट करने में सफल हुई थी।

    हे स्वामी, मैं आपके पुत्रों को वापस ले आऊँगा, चाहे मुझे युद्ध में साक्षात्‌ काल को ही क्‍यों नपराजित करना पड़े।

    एवं विश्रम्भितो विप्र: फाल्गुनेन परन्तप ।

    जगाम स्वगृहं प्रीतः पार्थवीर्य निशामयन्‌ ॥

    ३४॥

    एवम्‌--इस प्रकार; विश्रम्भित:--विश्वास दिलाया गया; विप्र:--ब्राह्मण; फाल्गुनेन--अर्जुन द्वारा; परम्‌--शत्रुओं का; तप-हेसताने वाले ( परीक्षित महाराज ); जगाम--गया; स्व--अपने; गृहम्‌--घर; प्रीतः--तुष्ट होकर; पार्थ--पृथा के पुत्र का;वीर्यमू--पराक्रम को; निशामयन्‌--सुनता हुआ।

    हे शत्रुओं को सताने वाले, इस तरह अर्जुन द्वारा आश्वस्त किये जाने पर अर्जुन के पराक्रम की घोषणा सुन कर तुष्ट हुआ ब्राह्मण अपने घर चला गया।

    प्रसूतिकाल आसत्ने भार्याया द्विजसत्तम: ।

    पाहि पाहि प्रजां मृत्योरित्याहार्जुनमातुर: ॥

    ३५॥

    प्रसूति--प्रसव; काले--के समय; आसन्ने--निकट होने पर; भार्याया: --उसकी पत्नी के; द्विज--ब्राह्मण; सत्‌-तम:--अत्यन्तपूज्य; पाहि--रक्षा कीजिये; पाहि--रक्षा कीजिये; प्रजाम्‌--मेरे बच्चे की; मृत्यो: --मृत्यु से; इति--इस प्रकार; आह--उसनेकहा; अर्जुनम्‌--अर्जुन से; आतुरः--किंकर्त व्यविमूढ़ |

    जब पुनः उस पूज्य ब्राह्मण की पत्नी के बच्चा जनने वाली थी, तो वह अत्यन्त चिन्तितहोकर अर्जुन के पास गया और उनसे याचना की, 'कृपा करके मेरे बच्चे को मृत्यु से बचा लें,बचा लें।

    'स उपस्पृश्य शुच्यम्भो नमस्कृत्य महे धरम्‌ ।

    दिव्यान्यस्त्राणि संस्मृत्य सज्यं गाण्डीवमाददे ॥

    ३६॥

    सः--वह ( अर्जुन ); उपस्पृश्य--स्पर्श करके; शुचि--शुद्ध; अम्भ:--जल; नमः -कृत्य--नमस्कार करके; महा-ई श्वरम्‌--शिवजी को; दिव्यानि--दैवी; अस्त्राणि-- अपने प्रक्षेपास्त्रों को; संस्मृत्य--स्मरण करके; सज्यम्‌-- धनुष की डोरी को;गाण्डीवम्‌--अपने धनुष गाण्डीव पर; आददे--स्थिर किया।

    शुद्ध जल का स्पर्श करके, भगवान्‌ महेश्वर को नमस्कार करके तथा अपने दैवी अस्त्रों केलिए मंत्रों का स्मरण करके अर्जुन ने अपने धनुष गाण्डीव की डोरी चढ़ाई।

    न्यरुणत्सूतिकागारं शरैर्नानास्त्रयोजितै: ।

    तिर्यगूर्ध्वमध: पार्थ श्रकार शरपञ्धरम्‌ ॥

    ३७॥

    न्यरुणतू--घेर दिया; सूतिका-आगारम्‌--सौरी ( प्रसूति ) गृह को; शरैः--बाणों से; नाना--विविध; अस्त्र-प्रक्षेपास्त्रों से;योजितै:--जुड़े; तिर्यक्‌--समतल रीति से; ऊर्ध्वमू--ऊपर; अध: --नीचे; पार्थ:--अर्जुन ने; चकार--बना दिया; शर--बाणोंका; पञ्चलरम्‌--पिंजरा |

    अर्जुन ने विविध प्रक्षेपास्त्रों से लगे बाणों द्वारा उस सौरी-गृह को घेर दिया इस तरह पृथा-पुत्र ने बाणों का एक सुरक्षात्मक पिंजरा बना कर उस गृह को ऊपर से, नीचे से तथा अगल-बगल से आच्छादित कर दिया।

    ततः कुमार: सज्जातो विप्रपत्या रुदन्मुहुः ।

    सद्योडदर्शनमापेदे सशरीरो विहायसा ॥

    ३८॥

    ततः--तब; कुमार:--बालक; सज्ञात: --उत्पन्न हुआ; विप्र--ब्राह्मण की; पत्या:--पली के; रुदन्‌ू--रोता हुआ; मुहुः--कुछकाल तक; सद्यः--सहसा; अदर्शनम्‌ आपेदे--विलुप्त हो गया; स--सहित; शरीर:--अपने शरीर; विहायसा--आकाश सेहोकर।

    तब ब्राह्मण की पत्नी ने बालक को जन्म दिया वह नवजात शिशु कुछ समय तक तो रोतारहा, किन्तु सहसा वह सशरीर आकाश में अदृश्य हो गया।

    तदाह विप्रो विजयं विनिन्दन्कृष्णसन्निधौ ।

    मौढ्यं पश्यत मे योहं श्रदध्े क्लीबकत्थनम्‌ ॥

    ३९॥

    तदा--तब; आह--कहा; विप्र:--ब्राह्मण ने; विजयम्‌--अर्जुन से; विनिन्दन्‌-- आलोचना करते हुए; कृष्ण-सन्निधौ -- भगवान्‌कृष्ण की उपस्थिति में; मौढ्यम्‌--मूर्खता; पश्यत--देखो तो; मे--मेरी; यः--जो; अहम्‌--मैंने; श्रद्दे--विश्वास किया;क्लीब--नपुंसक की; कत्थनम्‌--डींग पर।

    तब उस ब्राह्मण ने भगवान्‌ कृष्ण की उपस्थिति में अर्जुन का उपहास किया, 'जरा देखो तोमैं कितना मूर्ख हूँ कि मैंने इस डींग मारने वाले नपुंसक पर विश्वास किया।

    'न प्रद्युम्नो नानिरुद्धो न रामो न च केशव: ।

    यस्य शेकुः परित्रातुं कोउन्यस्तदविते श्वर: ॥

    ४०॥

    न--न तो; प्रद्युम्त: --प्रद्मम्त/ न--न ही; अनिरुद्ध:--अनिरुद्ध; न--न; राम:--बलराम; न--नहीं; च-- भी; केशव: --कृष्ण;यस्य--जिनके ( बालक ); शेकु:--समर्थ थे; परित्रातुमू--रक्षा करने में; क:--कौन; अन्य:--अन्य; तत्‌--इस परिस्थिति में;अविता--रक्षक के रूप में; ईश्वर: --समर्थ |

    जब न ही प्रद्युम्म, अनिरुद्ध, राम और न ही केशव किसी व्यक्ति को बचा सकते हैं, तोभला अन्य कौन उसकी रक्षा कर सकता है ?

    धिगर्जुनं मृषावादं धिगात्मशलाधिनो धनु: ।

    दैवोपसूष्टे यो मौढ्यादानिनीषति दुर्मति: ॥

    ४१॥

    धिक्‌-थिक्कार है; अर्जुनमू--अर्जुन को; मृषा--झूठी; वादमू--जिसकी वाणी; धिक्‌--धिक्कार है; आत्म-- अपनी;इएलाधिन:ः--प्रशंसा करने वाले की; धनु:--धनुष पर; दैव-- भाग्यवश; उपसृष्टम्‌--लिये हुए; यः--जो; मौढ्यात्‌ू--मोहवश;आनिनीषति--वापस लाना चाहता है; दुर्मति: --मूर्ख |

    'उस झूठे अर्जुन को धिक्कार है उस आत्म-प्रशंसक के धनुष को धिक्कार है, वह इतना मूर्खहै कि वह यह सोचते हुए कि ऐसे व्यक्ति को वापस ला सकता है, जिसे विधाता ने उठा लिया है,मोहग्रस्त हो चुका है।

    'एवं शपति विप्रषां विद्यामास्थाय फाल्गुन: ।

    ययौ संयमनीमाशु यत्रास्ते भगवान्यम: ॥

    ४२॥

    एवम्‌--इस प्रकार; शपति--शाप देते हुए; विप्र-ऋषौ--ज्ञानी ब्राह्मण; विद्यामू--योगविद्या; आस्थाय--करके; फाल्गुन: --अर्जुन; ययौ--गया; संयमनीम्‌--संयमनी नामक स्वर्गपुरी में; असु--तुरन्‍्त; यत्र--जहाँ; आस्ते--रहता है; भगवान्‌ यमः-लोर्दूयमराज

    जब वह बुद्धिमान ब्राह्मण अर्जुन को भला-बुरा कह कर अपमानित कर रहा था, तो अर्जुनने तुरन्त ही संयमनी पुरी जाने के लिए, जहाँ यमराज का वास है, योगविद्या का प्रयोग किया।

    विप्रापत्यमचक्षाणस्तत ऐस्‍न्द्रीमगात्पुरीम्‌ ।

    आग्नेयीं नेरृतीं सौम्यां वायव्यां वार॒ुणीमथ ।

    रसातलं नाकपृष्ठं धिष्ण्यान्यन्यान्युदायुध: ॥

    ४३॥

    ततो<लब्धद्विजसुतो ह्ानिस्तीर्णप्रतिश्रुतः ।

    अग्नि विविक्षु: कृष्णेन प्रत्युक्त: प्रतिषिधता ॥

    ४४॥

    विप्र--ब्राह्मण के; अपत्यम्‌ू--बालक को; अचक्षाण:--न देखकर; ततः--वहाँ से; ऐन्द्रीम--इन्द्र की; अगात्‌--गया;पुरीम्‌--नगरी में; आग्नेयीम--अग्नि देव की पुरी; नैर्तीम्‌--मृत्यु के कनिष्ठ देवता ( जो यमराज से भिन्न है ) की नगरी;सौम्यम्‌--चन्द्र देव की नगरी; वायव्याम्‌--वायु देव की नगरी; वारुणीम्‌--वरुण देव की नगरी; अथ--तब; रसातलमू--अधोलोक; नाक-पृष्ठम्‌--स्वर्ग के ऊपर; धिष्ण्यानि--प्रदेश; अन्यानि--अन्य; उदायुध: --हथियार उठाये हुए; ततः--वहाँ से;अलब्ध--न पाकर; द्विज--ब्राह्मण के; सुत:--पुत्र को; हि--निस्सन्देह; अनिस्तीर्ण--पूरा न कर सकने से; प्रति श्रुतः:--वायदाकिया हुआ; अग्निम्‌ू--अग्नि में; विविश्षु;--प्रवेश करने ही वाला था; कृष्णेन--कृष्ण द्वारा; प्रत्युक्त:--विरोध किया गया;प्रतिषेधता--विरत करने का प्रयास कर रहे |

    वहाँ ब्राह्मण-पुत्र को न देखकर अर्जुन अग्नि, निरऋति, सोम, वायु तथा वरुण की पुरियोंमें गया।

    हाथ में हथियार तैयार रखे हुए उसने अधोलोक से लेकर स्वर्ग के ऊपर तक ब्रह्माण्ड केसारे प्रदेशों को खोज मारा।

    अन्त में ब्राह्मण के पुत्र को कहीं भी न पाकर, अर्जुन ने अपनावायदा पूरा न करने के कारण पवित्र अग्नि में प्रवेश करने का निश्चय किया किन्तु जब वह ऐसा करने जा ही रहा था, तो भगवान्‌ कृष्ण ने उसे रोक लिया और उससे निम्नलिखित शब्द कहे।

    दर्शये द्विजसूनूंस्ते मावज्ञात्मानमात्मना ।

    ये ते नः कीर्ति विमलां मनुष्या: स्थापयिष्यन्ति ॥

    ४५॥

    दर्शये--मैं दिखला दूँगा; द्विज--ब्राह्मण के; सूनून्‌--पुत्रों को; ते--तुमको; मा--मत; अवज्ञ--छोटा करो; आत्मानम्‌-- अपनेआपको; आत्मना--अपने मन से; ये--जो; ते--वे ( आलोचक ); नः--हम दोनों के; कीर्तिमू--यश; विमलाम्‌ू--निर्मल;मनुष्या:--मनुष्यगण; स्थापयिष्यन्ति--स्थापना करने जा रहे हैं

    भगवान्‌ कृष्ण ने कहा : मैं तुम्हें ब्राह्मण के पुत्र दिखलाऊँगा, अतः तुम अपने आपकोइस प्रकार छोटा मत बनाओ।

    यही मनुष्य, जो अभी हमारी आलोचना करते हैं, शीघ्र ही हमारीनिष्कलुष कीर्ति को स्थापित करेंगे।

    इति सम्भाष्य भगवानर्जुनेन सहे श्र: ।

    दिव्यं स्वर्थमास्थाय प्रतीचीं दिशमाविशत्‌ ॥

    ४६॥

    इति--इस प्रकार; सम्भाष्य--वार्तालाप करके; भगवान्‌-- भगवान्‌; अर्जुनेन सह--अर्जुन के साथ; ईश्वर: --ईश्वर; दिव्यम्‌--दिव्य; स्व-- अपने; रथम्‌--रथ पर; आस्थाय--चढ़ कर; प्रतीचीम्‌--पश्चिम की; दिशम्‌--दिशा में; आविशत्‌--प्रविष्ट हुआ |

    अर्जुन को इस प्रकार सलाह देकर भगवान्‌ ने अर्जुन को अपने दैवीरथ में बैठाया और वेदोनों एकसाथ पश्चिम दिशा की ओर रवाना हो गये।

    सप्त द्वीपान्ससिन्धूंश्व सप्त सप्त गिरीनथ ।

    लोकालोकं तथातीत्य विवेश सुमहत्तम: ॥

    ४७॥

    सप्त--सात; द्वीपान्‌ू-द्वीपों; स--सहित; सिन्धून्‌ू--समुद्रों; च--तथा; सप्त सप्त--सात सात; गिरीन्‌ू--पर्वतों को; अथ--तब; लोक-अलोकम्‌--अंधकार से प्रकाश को पृथक्‌ करने वाली पर्वत माला को; तथा-- भी; अतीत्य--लाँघ कर; विवेश--प्रविष्ट हुआ; सु-महत्‌--विशाल; तम:--अंधकार।

    भगवान्‌ का रथ मध्यवर्ती ब्रह्माण्ड के सात द्वीपों के ऊपर से गुजरा, जिनके अपने अपनेसमुद्र तथा सात सात मुख्य पर्वत थे।

    तब उस रथ ने लोकालोक सीमा पार की और पूर्ण अंधकारके विशाल क्षेत्र में प्रवेश किया।

    तत्राश्वा: शैब्यसुग्रीवमेघपुष्पललाहका: ।

    तमसि भ्रष्टगतयो बभूवुर्भरतर्षभ ॥

    ४८ ॥

    तान्दष्ठा भगवान्कृष्णो महायोगेश्वरे श्वरः ।

    सहस्त्रादित्यसड्भाशं स्वचक्रं प्राहिणोत्पुर: ॥

    ४९॥

    तत्र--उस स्थान पर; अश्वा:--घोड़े; शैब्य-सुग्रीव-मेघपुष्प-बलाहका: --शैब्य, सुग्रीव, मेघपुष्प तथा बलाहक नाम वाले;तमसि--अंधकार में; भ्रष्ट-- भ्रष्टट गतयः--अपना मार्ग; बभूवु:--हो गये; भरत-ऋषभ--हे भारतों में श्रेष्ठ; तानू-- उनको;इृष्ठा--देखकर; भगवान्‌--भगवान्‌; कृष्ण: --कृष्ण; महा--परम; योग-ईश्वर--योग के स्वामियों के; ईश्वर: --स्वामी;सहस्त्र--एक हजार; आदित्य--सूर्य; सल्जाशम्‌--के सहृश; स्व--अपने; चक्रम्‌--चक्र को; प्राहिणोत्‌-- भेजा; पुर:--आगे |

    उस अंधकार में रथ के शैब्य, सुग्रीव, मेघपुष्प तथा बलाहक नामक घोड़े अपना मार्ग भटकगये।

    हे भारत- श्रेष्ठ, उन्हें इस अवस्था में देखकर, योगेश्वरों के भी परम स्वामी भगवान्‌ कृष्ण नेअपने रथ के आगे, अपने सुदर्शन चक्र को भेज दिया।

    वह चक्र सैकड़ों सूर्यों की तरह चमकरहा था।

    तमः सुधोरं गहनं कृतं महद्‌विदारयद्धूरितरेण रोचिषा ।

    मनोजवं निर्विविशे सुदर्शनगुणच्युतो रामशरो यथा चमू: ॥

    ५०॥

    तमः--अंधकार; सु--अत्यन्त; घोरम्‌ू-- भयावह; गहनम्‌--घना; कृतम्‌-- भौतिक सृष्टि की अभिव्यक्ति; महत्‌--महान्‌;विदारयत्‌--चीरते हुए; भूरि-तरेण--अत्यन्त विस्तृत; रोचिषा--तेज से; मनः--मन की; जवम्‌--गति वाले; निर्विविशे--प्रविष्टहुए; सुदर्शनम्‌--सुदर्शन चक्र; गुण--डोरी से; च्युतः:--छोड़ा गया; राम--भगवान्‌ रामचन्द्र का; शर:ः--बाण; यथा--जिसतरह; चमू:--सेना पर।

    भगवान्‌ का सुदर्शन चक्र अपने प्रज्वलित तेज के साथ अंधकार में प्रविष्ट हुआ।

    मन कीगति से आगे बढ़ते हुए उसने आदि पदार्थ से विस्तीर्ण भयावह घने अंधकार को उसी तरह काटदिया, जिस तरह भगवान्‌ राम के धनुष से छूटा तीर उनके शत्रु की सेना को काटता हुआ निकलजाता है।

    द्वारेण चक्रानुपथेन तत्तमःपरं परं ज्योतिरनन्तपारम्‌ ।

    समएनुवानं प्रसमीक्ष्य फाल्गुनःप्रताडिताक्षो पिद्धेडक्षिणी उभे ॥

    ५१॥

    द्वारेण--मार्ग से; चक्र--सुदर्शन चक्र; अनुपथेन--पीछा करता; तत्‌--वह; तम:--अंधकार; परम्‌--परे; परम्‌--दिव्य;ज्योति:--प्रकाश; अनन्त--असीम; पारम्‌--जिसका विस्तार; समश्नुवानम्‌--सर्वव्यापी; प्रसमीक्ष्य--देखकर; फाल्गुन: --अर्जुन; प्रताडित--पीड़ित; अक्ष:--आँखों वाला; अपिदधे --बन्द कर लीं; अक्षिणी--अपनी आँखें; उभे--दोनों |

    सुदर्शन चक्र के पीछे-पीछे जाता हुआ, रथ अंधकार को पार करके सर्वव्यापी ब्रह्मज्योतिके अनन्त आध्यात्मिक प्रकाश में जा पहुँचा।

    ज्योंही अर्जुन ने इस चमचमाते तेज को देखा,उसकी आँखें दुखने लगीं, अतः उसने उन्हें बन्द कर लिया।

    ततः प्रविष्ट: सलिलं नभस्वताबलीयसैजह्ृहदूर्मिभूषणम्‌ ।

    तत्राद्धुतं वे भवन द्युमत्तमंभ्राजन्मणिस्तम्भसहस्त्रशोभितम्‌ ॥

    ५२॥

    ततः--वहाँ से; प्रविष्ट:--प्रवेश किया; सलिलम्‌--जल में; नभस्वता--वायु द्वारा; बलीयसा--शक्तिशाली; एजत्‌--हिलाया;बृहत्‌--विशाल; ऊर्मि-- लहरें; भूषणम्‌--जिसके आभूषण; तत्र--वहाँ पर; अद्भुतम्‌ू--विचित्र; बै--निस्सन्देह; भवनम्‌ू--घर;झुमत्‌-तमम्‌--अत्यधिक तेजयुक्त; भ्राजत्‌ू--चमकते हुए; मणि--मणियों से युक्त; स्तम्भ--ख भों के; सहस्त्र-हजारों;शोभितम्‌--सुन्दर लग रहे |

    उस क्षेत्र से वे जलराशि में प्रविष्ट हुए, जो शक्तिशाली वायु द्वारा मथी जा रही विशाल लहरोंसे तेजयुक्त थी।

    उस समुद्र के भीतर अर्जुन ने एक अद्भुत महल देखा, जो उसके द्वारा अभी तकदेखी गई हर वस्तु से अधिक चमकीला था।

    इसका सौन्दर्य चमकीले मणियों से जड़े हुए हजारोंअलंकृत ख भों के कारण बढ़ गया था।

    तस्मिन्महाभोगमनन्तमद्भुतंसहस्त्रमूर्धन्नफणामणिदयुभि: ।

    विध्राजमान द्विगुणेक्षणोल्बणंसिताचलाभं शितिकण्ठजिहम्‌ ॥

    ५३॥

    तस्मिनू--वहाँ; महा--विशाल; भोगम्‌--सर्प; अनन्तमू-- भगवान्‌ अनन्त को; अद्भधुतम्‌ू--आश्चर्यजनक; सहस्त्र--हजार;मूर्धन्य--उनके सिरों पर; फणा--फनों पर; मणि--मणियों की; द्युभि:ः--तेज की किरणों से; विभ्राजमानम्‌--चमकते हुए;वि--दो; गुण--गुना; ईक्षण--जिसकी आँखें; उल्बणम्‌-- भयावनी; सित--श्रेत; अचल--पर्वत ( कैलास ); आभम्‌--जिसकी तुलना; शिति--गहरा नीला; कण्ठ--जिसकी गर्दनें; जिहमू--तथा जीभें।

    उस स्थान पर विशाल विस्मयकारी अनन्त शेष सर्प था।

    वह अपने हजारों फनों पर स्थितमणियों से निकलने वाले प्रकाश से चमचमा रहा था, जो कि फनों से दुगुनी भयावनी आँखों सेपरावर्तित हो रहा था।

    वह श्रेत कैलास पर्वत की तरह लग रहा था और उसकी गर्दनें तथा जीभेंगहरे नीले रंग की थीं।

    ददर्श तद्भोगसुखासनं विभुंमहानुभावं पुरुषोत्तमोत्तमम्‌ ।

    सान्द्राम्बुदाभं सुपिशड्रवाससंप्रसन्नवकत्रं रुचिरायतेक्षणम्‌ ॥

    ५४॥

    महामणिब्रातकिरीटकुण्डल-प्रभापरिक्षिप्तसहस्त्रकुन्तलम्‌ ।

    प्रलम्बचार्वष्टभुजं सकौस्तुभंश्रीवत्सलक्ष्मं बनमालयावृतम्‌ ॥

    ५५॥

    सुनन्दनन्दप्रमुखैः स्वपार्षदै-श्रक्रादिभिमूर्तिधरैनिजायुथे: ।

    पुष्टठया श्रीया कीर्त्यजयाखिलधिभि-निरषिव्यमानं परमेष्ठटिनां पतिम्‌ू ॥

    ५६॥

    ददर्श--( अर्जुन ने ) देखा; तत्‌ू--वह; भोग--सर्प; सुख--आरामदेह; आसनम्‌-- आसन; विभुम्‌--सर्वव्यापी; महा-अनुभावमू--सर्वशक्तिमान; पुरुष-उत्तम-- भगवान्‌ के; उत्तमम्‌--परम; सान्द्र--सघन; अम्बुद--बादल; आभम्‌--के ही समान(उनके नीले वर्ण से ); सु--सुन्दर; पिशड्र--पीला; वाससम्‌--जिसका वस्त्र; प्रसन्न--सुहावना; वक्त्रमू--जिसका मुखमण्डल;रुचिर--आकर्षक; आयत--चौड़ी; ईक्षणम्‌--जिसकी आँखें; महा--विशाल; मणि--मणियों के; ब्रात--गुच्छों से;किरीट--मुकुट; कुण्डल--तथा कुण्डलों की; प्रभा--परावर्तित चमक से; परिक्षिप्त--इधर-उधर बिखरी हुईं; सहस्त्र--हजारों;कुन्तलम्‌--जिसके बालों के गुच्छे; प्रलम्ब--लम्बा; चारु--मनोहर; अष्ट--आठ; भुजम्‌-- भुजाएँ; स--सहित; कौस्तुभम्‌--कौस्तुभ मणि; श्रीवत्स-लक्ष्मम्‌ू--तथा श्रीवत्स का विशिष्ट चिह्न प्रदर्शित करते; बन--जंगली फूलों की; मालया--माला से;आवृतम्‌--चुम्बित; सुनन्द-नन्द-प्रमुखैः --सुनन्द तथा नन्द इत्यादि; स्व-पार्षदैः--अपने निजी संगियों सहित; चक्र-आदिभि:--चक्र इत्यादि; मूर्ति--स्वरूपों को; धरैः--प्रकट करते हुए; निज--अपने; आयुधै:--हथियारों से; पुष्ठया भ्रिया कीर्ति-अजया--पुष्टि, श्री, कीर्ति तथा अजा नामक अपनी शक्तियों से; अखिल--समस्त; ऋधिभि:--योगशक्तियों से; निषेव्यमानमू--सेवित;परमेष्ठटिनम्‌-ब्रह्माण्ड के शासकों के; पतिम्‌-प्रधान को |

    तत्पश्चात्‌ अर्जुन ने सर्वव्यापक तथा सर्वशक्तिमान भगवान्‌ महाविष्णु को सर्पशय्या परसुखपूर्वक बैठे देखा।

    उनका नील वर्ण घने बादल के रंग का था, वे सुन्दर पीताम्बर पहने थेऔर उनका मुखमण्डल मनोहर लग रहा था।

    उनकी चौड़ी आँखें अत्यन्त आकर्षक थीं औरउनके आठ लम्बे सुन्दर बाजू थे।

    उनके बालों के घने गुच्छे उनके मुकुट तथा कुण्डलों को विभूषित करने वाले बहुमूल्य मणियों के गुच्छों से परावर्तित प्रकाश से सभी ओर से नहाये हुएथे।

    वे कौस्तुभ मणि, श्रीवत्स चिन्ह तथा जंगली फूलों की माला धारण किये हुए थे।

    सर्वोच्चईश्वर की सेवा में सुनन्द तथा नन्द जैसे निजी संगी, उनका चक्र तथा अन्य हथियार साकार होकरउनकी संगिनी शक्तियाँ पुष्टि, श्री, कीर्ति तथा अजा एवं उनकी विविध योगशक्तियाँ थीं।

    बववन्द आत्मानमनन्तमच्युतोजिष्णुश्न तदर्शनजातसाध्वस: ।

    तावाह भूमा परमेष्ठिनां प्रभु-बेंद्धाज्लली सस्मितमूर्जया गिरा ॥

    ५७॥

    ववन्द--सत्कार किया; आत्मानम्‌-- अपना; अनन्तमू--अपने असंख्य रूप में; अच्युत:--अच्युत भगवान्‌ कृष्ण; जिष्णु: --अर्जुन; च--भी; तत्‌--उसके ; दर्शन--दर्शन से; जात--उत्पन्न; साध्वस:--जिसका आश्चर्य; तौ--उन दोनों से; आह--कहा;भूमा--सर्वशक्तिमान ई श्वर ( महाविष्णु ) ने; परमे-स्थिनाम्‌--ब्रह्माण्ड के शासकों में से; प्रभु:--स्वामी; बद्ध-अद्धली--आदरहेतु हाथ जोड़े हुए; स--सहित; स्मितम्‌--हँसी; ऊर्जया--शक्तिमान; गिरा--वाणी में |

    भगवान्‌ कृष्ण ने इस अनन्त रूप में अपनी ही वन्दना की और अर्जुन ने भी महाविष्णु केदर्शन से चकित होकर उन्हें नमस्कार किया।

    तत्पश्चात्‌, जब ये दोनों हाथ जोड़ कर उनके समक्षखड़े थे, तो ब्रह्माण्ड के समस्त पालकों के परम स्वामी महाविष्णु मुसकाये और अत्यन्त गम्भीरवाणी में उनसे बोले।

    द्विजात्मजा मे युवयोर्दिहक्षुणामयोपनीता भुवि धर्मगुप्तये ।

    कलावतीर्णाववनेर्भरासुरान्‌हत्वेह भूयस्त्वरयेतमन्ति मे ॥

    ५८ ॥

    द्विज--ब्राह्मण के; आत्म-जा: --पुत्र; मे--मेरा; युवयो: --तुम दोनों; दिदक्षुणा--जो देखना चाहता था; मया--मेरे द्वारा;उपनीता:--लाया गया; भुवि--पृथ्वी पर; धर्म--धर्म के नियमों की; गुप्तये--रक्षा के लिए; कला--( मेरे ) अंशरूप;अवतीर्णो--अवतरित; अबने:--पृथ्वी के; भर-- भारस्वरूप; असुरान्‌-- असुरों को; हत्वा--मार कर; इह--यहाँ; भूय:--फिर;त्वरया--जल्दी से; इतम्‌--चले आना; अन्ति--निकट; मे--मेरे |

    महाविष्णु ने कहा : मैं ब्राह्मणों के पुत्रों को यहाँ ले आया था, क्योंकि मैं आप दोनों केदर्शन करना चाह रहा था।

    आप मेरे अंश हैं, जो धर्म की रक्षा हेतु पृथ्वी पर अवतरित हुए हैं।

    ज्योंही आप पृथ्वी के भारस्वरूप असुरों का वध कर चुकें आप तुरन्त ही मेरे पास यहाँ वापस आजायाँ।

    पूर्णकामावपि युवां नरनारायणावृषी ।

    धर्ममाचरतां स्थित्य ऋषभौ लोकसड्ग्रहम्‌ ॥

    ५९॥

    पूर्ण--पूर्ण; कामौ--सारी इच्छाओं में; अपि--यद्यपि; युवामू--तुम दोनों; नर-नारायणौ ऋषी--नर तथा नारायण मुनियों केरूप में; धर्मम्‌-- धर्म को; आचरताम्‌--पूरा करना चाहिए; स्थित्यै--पालन करने के लिए; ऋषभौ--समस्त पुरुषों में श्रेष्ठ;लोक-सड्ग्रहमू--सामान्य जनों के लाभ हेतु

    हे महापुरुषों में श्रेष्ठ, यद्यपि आपकी सारी इच्छाएँ पूर्ण हो चुकी हैं, किन्तु सामान्य जनों केलाभ हेतु आप नर तथा नारायण मुनियों के रूप में अपने धार्मिक आचरण का आदर्श प्रस्तुतकरते रहें।

    इत्यादिष्टी भगवता तौ कृष्णौ परमेष्ठिना ।

    इत्यानम्य भूमानमादाय द्विजदारकान्‌ ॥

    ६०॥

    न्यवर्तेतां स्वकं धाम सम्प्रहष्टी यथागतम्‌ ।

    विप्राय ददतुः पुत्रान्यथारूपं यथावय: ॥

    ६१॥

    इति--इन शब्दों से; आदिष्टौ-- आदेश दिये गये; भगवता-- भगवान्‌ द्वारा; तौ--वे दोनों; कृष्णौ--दो कृष्ण ( कृष्ण तथाअर्जुन ); परमे-प्ठिना--परम धाम के स्वामी द्वारा; ३७ इति--सहमति जताने के लिए ३» का उच्चारण करते हुए; आनम्य--झुककर; भूमानम्‌--परम शक्तिशाली भगवान्‌ को; आदाय--तथा लेकर; द्विज--ब्राह्मण के; दारकान्‌--पुत्रों को; न्यवर्तेताम्‌--लौट गये; स्वकम्‌--अपने; धाम--घर ( द्वारका ) को; सम्प्रहष्टी -- प्रसन्न; यथा--जिस तरह; गतम्‌--वे आये थे; विप्राय--ब्राह्मण को; ददतु:--दे दिया; पुत्रान्‌--उसके पुत्र; यथा--उसी; रूपम्‌--स्वरूप में; यथा--उसी; वय:--आयु में

    सर्वोच्च लोक के परमेश्वर द्वारा इस तरह आदेश दिये जाकर कृष्ण तथा अर्जुन ने ॐ काउच्चारण करके अपनी सहमति व्यक्त की और तब सर्वशक्तिमान महाविष्णु को नमन किया।

    अपने साथ ब्राह्मण के पुत्रों को लेकर वे परम प्रसन्नतापूर्वक उसी मार्ग से द्वारका लौट गये,जिससे होकर वे आये थे।

    वहाँ उन्होंने ब्राह्मण को उसके पुत्र सौंप दिये, जो वैसे ही शौशव शरीरमें थे, जिसमें वे खो गये थे।

    निशाम्य वैष्णवं धाम पार्थ: परमविस्मितः ।

    यत्किझ्ञित्पौरुषं पुंसां मेने कृष्णानुकम्पितम्‌ ॥

    ६२॥

    निशाम्य--देखकर; वैष्णवम्‌-- भगवान्‌ विष्णु के; धाम--धाम; पार्थ:-- अर्जुन ने; परम--परम; विस्मित:-- चकित; यत्‌किश्ञित्‌ू--जो भी; पौरुषम्‌--विशेष शक्ति; पुंसामू--जीवों से सम्बद्ध; मेने--निष्कर्ष निकाला; कृष्ण--कृष्ण की;अनुकम्पितम्‌--प्रदर्शित अनुग्रह |

    भगवान्‌ विष्णु के धाम को देखने के बाद अर्जुन पूर्णतया विस्मित थे।

    उन्होंने यह निष्कर्षनिकाला कि मनुष्य, जो भी अद्वितीय शक्ति प्रदर्शित करता है, वह कृष्ण की कृपा कीअभिव्यक्ति मात्र हो सकती है।

    इतीहशान्यनेकानि वीर्याणीह प्रदर्शयन्‌ ।

    बुभुजे विषयान्ग्राम्यानीजे चात्युर्जितैर्मखै: ॥

    ६३॥

    इति--इस प्रकार; ईहशानि--इस जैसे; अनेकानि-- अनेक ; वीर्याणि--बहादुरी के कार्य; इह--इस जगत में; प्रदर्शयन्‌ --प्रदर्शित करते हुए; बुभुजे--( भगवान्‌ कृष्ण ने ) भोग किया; विषयान्‌--इन्द्रिय-सुख की वस्तुएँ; ग्राम्यान्‌ू--सामान्य; ईजे--पूजा की; च--तथा; अति--अत्यन्त; उर्जितैः --सशक्त; मखैः --वैदिक यज्ञों से |

    भगवान्‌ कृष्ण ने इस जगत में ऐसी ही अन्य अनेक लीलाएँ कीं।

    उन्होंने ऊपर से सामान्यमानव-जीवन के आनन्दों का भोग किया और अत्यन्त सशक्त यज्ञ सम्पन्न किये।

    प्रववर्षाखिलान्कामान्प्रजासु ब्राह्मणादिषु ।

    यथाकाल यथेवेन्धों भगवान्श्रेष्ठ्ामास्थित: ॥

    ६४॥

    प्रववर्ष--वर्षा की; अखिलान्‌--समस्त; कामान्‌--इच्छित वस्तुओं की; प्रजासु--अपनी प्रजा पर; ब्राह्मण-आदिषु--ब्राह्मणइत्यादि पर; यथा-कालम्‌--उपयुक्त अवसरों पर; यथा एब--उसी तरह से; इन्द्रः--( जिस तरह ) इन्द्र; भगवान्‌-- भगवान्‌;श्रष्मामू-- अपनी सर्वश्रेष्ठता में; आस्थित:--स्थित |

    अपनी सर्वश्रेष्ठता का प्रदर्शन कर चुकने के बाद भगवान्‌ ने उपयुक्त अवसरों पर ब्राह्मणोंतथा अपनी प्रजा पर उसी तरह इच्छित वस्तुओं की वर्षा की, जिस तरह इन्द्र जल की वर्षा करताहै।

    हत्वा नृपानधर्मिष्ठान्धाटयित्वार्जुनादिभि: ।

    अज्जसा वर्तयामास धर्म धर्मसुतादिभि: ॥

    ६५॥

    हत्वा--मार कर के; नृपानू--राजाओं को; अधधर्मिष्ठान्‌-- अत्यन्त अधार्मिक; घातयित्वा--उनको मरवाकर; अर्जुन-आदिभि:--अर्जुन तथा अन्यों द्वारा; अज्लसा--सरलतापूर्वक; वर्तवाम्‌ आस--पालन करवाया; धर्मम्‌--धर्म के सिद्धान्तों को; धर्म-सुत-आदिभि:--( धर्म के पुत्र ) युधिष्ठिर तथा अन्यों द्वारा

    अब, जब कि उन्होंने अनेक दुष्ट राजाओं का वध कर दिया था और अन्यों को मारने केलिए अर्जुन जैसे भक्तों को लगा दिया था, तो वे युधिष्ठिर जैसे पवित्र शासकों के माध्यम सेधार्मिक सिद्धान्तों के सम्पन्न होने के लिए सरलता से आश्वासन दे सके।

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    अध्याय नब्बे: भगवान कृष्ण की महिमा का सारांश

    10.90श्रीशुक उबाच सुख स्वपुर्या निवसन्द्वारकायां थ्रिय: पति: ।

    सर्वसम्पत्समृद्धायां जुष्टायां वृष्णिपुड्रबै: ॥

    १॥

    स्त्रीभिश्लोत्तमवेषाभि्नवयौवनकान्तिभि: ।

    कन्दुकादिभिर््म्येषु क्रीडन्तीभिस्तडिद्द्युभि: ॥

    २॥

    नित्यं सद्जु लमार्गायां मदच्युद्धिर्मतड्जजैः ।

    स्वलड्ड तैर्भटैरश्वे रथेश्न कनकोज्चलै: ॥

    ३॥

    उद्यानोपवनाढ्यायां पुष्पितद्रुमराजिषु ।

    निर्विशद्धृड़विहगै्नादितायां समन्‍्ततः ॥

    ४॥

    रेमे घोडशसाहस्त्रपलीनां एकवल्लभ: ।

    तावद्विचित्ररूपोसौ तद्गेहेषु महर्द्धिषु ॥

    ५॥

    प्रोत्फुल्लोत्पलकह्ारकुमुदाम्भोजरेणुभि: ।

    वासितामलतोयेषु कूजद्दिवजकुलेषु च ॥

    ६॥

    विजहार विगाह्माम्भो हृदिनीषु महोदय: ।

    कुचकुड्डू मलिप्ताडुः परिरब्धश्च योषिताम्‌ ॥

    ७॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; सुखम्‌--सुखपूर्वक; स्व--अपनी; पुर्यामू--नगरी में; निवसन्‌--निवास करतेहुए; द्वारकायाम्‌-द्वारका में; श्रियः--लक्ष्मी के; पति:--पति; सर्व--समस्त; सम्पत्‌--ऐश्वर्यमय गुणों में; समृद्धायाम्‌--सम्पन्नथा; जुष्टायामू--आबाद; वृष्णि-पुड़वैः --सर्वप्रमुख वृष्णियों द्वारा; स्त्रीभि: --स्त्रियों द्वारा; च--तथा; उत्तम--उत्तम;वेषाभि:--वेश वाली; नव--नवीन; यौवन--यौवन की; कान्तिभि:--सुन्दरता द्वारा; कन्दुक-आदिभि:--गेंदों तथा अन्यखिलौनों से; हम्येंषु--छतों पर; क्रीडन्तीभि:--खेलती हुईं; तडित्‌--बिजली जैसे; द्युभिः--तेज से; नित्यम्‌--सदैव; सद्डभु ल--भीड़-भाड़ से भरी हुई; मार्गायामू--जिसकी सड़कें; मद-च्युद्धि:--मद चुआते; मतम्‌--उन्मत्त; गजै:ः--हाथियों से; सु--अच्छीतरह; अलड्डू तैः--सुसज्जित; भटैः--पैदल सैनिकों से; अश्वैः--घोड़ों से; रथेः--रथों से; च--तथा; कनक--सोने से;उज्वलै:--चमकीले; उद्यान--बगीचों; उपवन--तथा पार्को से; आढ्यायाम्‌--युक्त; पुष्पित--फूले हुए; द्रुम--वृक्षों की;राजिषु--पंक्तियों से; निर्विशत्‌--प्रवेश करते; भूड़--भौंरों; विहगैः--तथा पक्षियों से; नादितायाम्‌--गुझ्जलरित; समन्ततः--चारोंओर; रेमे--रमण किया; षघोडश--सोलह; साहस्त्र--हजार; पलीनाम्‌--पत्नियों के; एक--एकमात्र; बल्‍लभ:--प्रियतम;तावत्‌--उतने ही; विचित्र--विविध; रूप: --रूपों वाला; असौ--वह; तत्‌--उनके; गेहेषु--घरों में; महा-ऋद्धिषु-- अत्यधिकसजे-धजे; प्रोत्फुल्ल--खिले हुए; उत्पल--कमलिनियों; कहार-- श्रेत कमल; कुमुद--रात में खिलने वाले कमल; अम्भोज--तथा दिन में खिलने वाले कमलों के; रेणुभि: --पराग से; वासिता--सुगन्धित; अमल--निर्मल; तोयेषु--जल में; कूजत्‌ --कूकते हुए; द्विज--पक्षियों के; कुलेषु--झुंडों में; च--तथा; विजहार--क्रीड़ा की; विगाह्म --डुबकी लगाकर; अम्भ:--जलमें; हृदिनीषु--नदियों में; महा-उदय: --सर्वशक्तिमान भगवान्‌; कुच--उनके स्तनों से; कुट्डुम--लाल रंग के अंगराग, गेरू;लिप्त--लेप किया हुआ; अड्डभड--उनका शरीर; परिरब्ध:--आलिंगित; च--तथा; योषिताम्‌--स्त्रियों द्वारा |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : लक्ष्मीपति भगवान्‌ सुखपूर्वक अपनी राजधानी द्वारका पुरी मेंरहने लगे, जो समस्त ऐश्वर्यों से युक्त थी और गण्य-मान्य वृष्णियों तथा आलंकारिक वेशभूषा सेसजी उनकी पतियों द्वारा आबाद थी।

    जब ये यौवन-भरी सुन्दर स्त्रियाँ शहर की छतों पर गेंदतथा अन्य खिलौने खेलतीं, तो वे बिजली की चमक जैसी चमचमातीं।

    नगर के प्रमुख मार्गों मेंमद चुवाते उन्मत्त हाथियों और खूब सजे घुड़सवारों, खूब सजे-धजे पैदल सैनिकों तथा सोने सेसुसज्जित चमचमाते रथों पर सवार सिपाहियों की भीड़ लगी रहती।

    शहर में पुष्पित वृक्षों कीपंक्तियों वाले अनेक उद्यान तथा वाटिकाएँ थी, जहाँ भौरे तथा पक्षी एकत्र होते और अपने गीतोंसे सारी दिशाओं को व्याप्त कर देते।

    भगवान्‌ कृष्ण अपनी सोलह हजार पत्नियों के एकमात्र प्रियतम थे।

    इतने ही रूपों में अपनाविस्तार करके, उन्होंने प्रत्येक रानी के साथ उनके भरपूर सुसज्जित आवासों में रमण किया।

    इन महलों के प्रांगण में निर्मल तालाब थे, जो खिले हुए उत्पल, कह्लार, कुमुद तथा अम्भोज कमलोंके पराग-कणों से सुगन्धित थे और कूजते हुए पक्षियों के झुडों से भरे थे।

    सर्वशक्तिमान प्रभु इनतालाबों में तथा विविध नदियों में प्रवेश कर जल-क्रीड़ा का आनन्द लूटते और उनकी पत्नियाँउनका आलिंगन करतीं, जिससे उनके स्तनों पर लेपित लाल कुंकम उनके शरीर पर लग जाता।

    उपगीयमानो गन्धर्वैर्मुदृड़गणवानकान्‌ ।

    वादयद्ध्र्मुदा वीणां सूतमागधवन्दिभि: ॥

    ८ ॥

    सिच्यमानोच्युतस्ताभिईसन्तीभि: सम रेचकै: ।

    प्रतिषिश्जन्विचिक्रीडे यक्षीभिर्यक्षराडिव ॥

    ९॥

    उपगीयमान:--गीतों द्वारा प्रशंसित; गन्धर्वै: --गन्धर्वों द्वारा; मृदड्ू-पणव-आनकानू--मृदंग, पणव तथा आनक नामक ढोलों;वादयद्धि:--बजा रहे; मुदा--हर्षपूर्वक; वीणामू--वीणाओं को; सूत-मागध-वन्दिभि: --सूतों, मागधों तथा वन्दियों द्वारा;सिच्यमान:--भिगोई जा रही; अच्युत:-- भगवान्‌ कृष्ण; ताभि:--अपनी पतियों द्वारा; हसन्तीभि: --हँस रही; स्म--निस्सन्देह;रेचकै:--पिचकारियों से; प्रतिषिल्ञनन्‌ू--उलट कर भिगोये जाते; विचिक्रीडे--उन्होंने क्रीड़ा की; यक्षीभि:--यक्षियों से; यक्ष-रादटू--यक्षों के स्वामी ( कुबेर ); इब--सदश |

    जब गन्धर्वो ने हर्षपूर्वक मृदढ़, पणव तथा आनक नामक ढोलों के साथ उनकी प्रशंसा मेंगीत गाये एवं सूतों, मागधों तथा वन्दियों ने वीणा बजाकर उनकी प्रशंसा में कविताएँ सुनाई, तोभगवान्‌ कृष्ण अपनी पत्नियों के साथ जल-क्रीड़ा करने लगे।

    रानियाँ ठिठोली करती हुईं, उनपर पिचकारियों से पानी के फुहारे छोड़ती और वे भी प्रत्युत्तर में उन पर पानी छिड़क देते।

    इसप्रकार से कृष्ण ने अपनी रानियों के साथ उसी तरह क्रीड़ा की, जिस तरह यक्षराज 'यक्षीअप्सराओं ' के साथ क्रीड़ा करता है।

    ताः क्लिन्नवस्त्रविवृतोरुकुचप्रदेशा:सिज्जन्त्य उद्धृतबृहत्कवरप्रसूना: ।

    कान्तं सम रेचकजिहीर्षययोपगुहाजातस्मरोत्स्मयलसद्वदना विरेजु: ॥

    १०॥

    ताः--वे ( भगवान्‌ कृष्ण की रानियाँ ); क्लिन्न--भीगे; वस्त्र--वस्त्रों वाली; विवृत--खुली हुई; ऊरुू--जाँघों; कुच--स्तन के;प्रदेशा:--भाग; सिद्जन्त्यः --छिड़कते हुए; उद्धृत--बिखरे; बृहत्‌--विशाल; कवर--बालों की चोटी से; प्रसूना:--फूल;कान्तम्‌--उनके प्रियतम को; स्म--निस्सन्देह; रेचक--उनकी पिचकारी; जिहीर्षयया--छीन लेने के विचार; उपगुहा --आलिंगन करके; जात--उत्पन्न; स्मर--काम की इच्छा के; उत्स्मय--अट्टहास से; लसदू--चमकते; वदना:--जिनकेमुखमण्डल; विरेजु:--देदीप्यमान लग रहे थे।

    रानियों के भीगे वस्त्रों के नीचे उनकी जाँघें तथा उनके स्तन दिख रहे थे।

    अपने प्रियतम परजल छिड़कने से उनके विशाल जूड़ों से बँधे फूल बिखर गये।

    वे उनकी पिचकारी छीनने केबहाने, उनका आलिंगन कर लेती थीं।

    उनका स्पर्श करने से उनमें काम-भावना बढ़ जाती,जिससे उनके मुखमंडल हँसी से चमचमाने लगते।

    इस तरह कृष्ण की रानियाँ देदीप्यमान सौन्दर्यसे चमचमा रही थीं।

    कृष्णस्तु तत्स्तनविषज्नितकुड्डू मस्रक्‌-क्रीडाभिषड्डधुतकुन्तलवृन्दबन्ध: ।

    सिद्भन्मुहुर्युवतिभि: प्रतिषिच्यमानोरैमे करेणुभिरिवेभपति: परीत: ॥

    ११॥

    कृष्ण:--भगवान्‌ कृष्ण ने; तु--तथा; तत्‌--उनके; स्तन--स्तनों से; विषज्जित--लिपटे हुए; कुद्डू म-कुंकुम-चूर्ण; स्रक्‌--जिनकी फूल-माला; क्रीडा--क्री ड़ा में; अभिषड़--लीन होने से; धुत--हिलाये गये; कुन्तल--बालों के गुच्छों के; वृन्द--समूह की; बन्ध:--व्यवस्था, सज्जा; सिज्धन्‌ू--छिड़कते हुए; मुहुः--बारम्बार; युवतिभि: --युवती स्त्रियों द्वारा;प्रतिषिच्यमान: --उलट कर छिड़के जाते हुए; रेमे-- आनन्द लूटा; करेणुभि:--हथिनियों द्वारा; इब--सहृश; इभ-पति:--हाथियों का राजा; परीत:--घिरा हुआ

    भगवान्‌ कृष्ण की फूल-माला उनके स्तनों के कुंकुम से पुत गई और क्रीड़ा में लीन रहनेके फलस्वरूप उनके बालों के बहुत-से गुच्छे अस्त-व्यस्त हो गये।

    जब भगवान्‌ ने अपनी युवाप्रेमिकाओं पर बारम्बार जल छिड़का और उन्होंने भी उलटकर उन पर जल छिड़का, तो उन्होंनेवैसा ही आनन्द लूटा, जिस तरह हाथियों का राजा हथिनियों के संग में आनंद लूटता है।

    नटानां नर्तकीनां च गीतवाद्योपजीविनाम्‌ ।

    क्रीडालड्डारवासांसि कृष्णोउदात्तस्य च स्त्रियः ॥

    १२॥

    नटानामू--पुरुष नर्तकों को; नर्तकीनाम्‌--तथा स्त्री नर्तकियों को; च--तथा; गीत--गाने; वाद्य--तथा बाजे से;उपजीविनाम्‌--जीविका चलाने वाले; क्रीडा--अपने खिलवाड़ से; अलड्जार--गहने; वासांसि--तथा वस्त्र; कृष्ण:-- भगवान्‌कृष्ण ने; अदात्‌ू--दे दिया; तस्य--उसका ( अपना ); च--तथा; स्त्रियः --पत्नियाँ

    तत्पश्चात्‌भगवान्‌ कृष्ण तथा उनकी पत्नियों ने जल-क्रीड़ा के दौरान अपने पहने हुए गहनेतथा वस्त्र, उन नटों तथा नर्तकियों को दे दिये जो गाना गाकर तथा वाद्य बजाकर, अपनीजीविका कमाते थे।

    कृष्णस्यैवं विहरतो गत्यालापेक्षितस्मितै: ।

    नर्मक्ष्वेलिपरिष्वड्रैः सत्रीणां किल हृता धिय: ॥

    १३॥

    कृष्णस्य--कृष्ण के; एवम्‌--इस प्रकार; विहरत:--क्रीड़ा करते; गति--हिलने-डुलने; आलाप--बातचीत; ईक्षित--निहारने;स्मितैः--तथा हँसने से; नर्म--परिहास से; क्ष्वेलि--छेड़छाड़ से; परिष्वड्भै:--तथा आलिंगन से; स्त्रीणाम्‌--स्त्रियों के; किल--निस्सन्देह; हता:--चुराये गये; धियः--हृदय

    इस तरह भगवान्‌ कृष्ण अपनी रानियों से क्रीड़ा करके और अपने हाव-भावों, बातों,चितवनों तथा हँसी से तथा अपने परिहास, छेड़छाड़ तथा आलिंगन द्वारा भी, उनके हृदयों कोपूरी तरह मुग्ध कर लेते।

    ऊ्चुर्मुकुन्दैकधियो गिर उन्मत्तवज्जडम्‌ ।

    चिन्तयन्त्यो रविन्दाक्ष॑ं तानि मे गदत: श्रुणु ॥

    १४॥

    ऊचु:--वे बोलीं; मुकुन्द-- भगवान्‌ कृष्ण; एक--एकमात्र; धिय: --मन; गिर:--शब्द; उन्मत्त--उन्मादी व्यक्ति; वत्‌--सहृश;जडमू--जड़; चिन्तयन्त्यः--सोचते हुए; अरविन्द-अक्षम्‌--कमल जैसे नेत्र वाले प्रभु के विषय में; तानि--वे ( शब्द ); मे--मुझसे; गदत:--कह रहे; श्रुणु--सुनो |

    रानियाँ भावमय आत्मविस्मृति में जड़ बन जातीं और उनके मन एकमात्र कृष्ण में लीन होजाते।

    तब, वे अपने कमल नेत्र प्रभु के विषय में सोचती हुई इस तरह बोलतीं मानों पागल( उन्मादग्रस्त ) हों।

    कृपया ये शब्द मुझसे सुनें, जैसे जैसे मैं उन्हें बतला रहा हूँ।

    महिष्य ऊचु:कुररि विलपसि त्वं वीतनिद्रा न शेषेस्वपिति जगति रात्र्यामी श्वरो गुप्तबोध: ।

    वयमिव सखि कच्चिद््‌गाढनिर्विद्धचेतानलिननयनहासोदारलीलेक्षितेन ॥

    १५॥

    महिष्य: ऊचु:--रानियों ने कहा; कुररि--हे कुररी पक्षी; विलपसि--विलाप करती हो; त्वमू--तुम; बीत--विहीन; निद्रा --नींदसे; न शेषे--तुम विश्राम नहीं कर सकते; स्वपिति--सोती है; जगति--( कहीं ) संसार में; राज्याम्‌--रात में; ईश्वर: -- भगवान्‌;गुप्त--छिपे; बोध: --अता-पता; वयम्‌--हम; इब--जिस तरह; सखि--हे सखी; कच्चित्‌--क्या; गाढ--गहराई से;निर्विद्ध-बिंधा हुआ; चेता:--जिसका हृदय; नलिन--कमल ( की तरह ); नयन--जिसकी आँखें; हास--हँसती हुई; उदार--उदार; लीला--कौतुकपूर्ण ; ईक्षितेन--चितवन से |

    रानियों ने कहा : हे कुररी पक्षी, तुम विलाप कर रही हो।

    अब तो रात्रि है और भगवान्‌ इसजगत में कहीं गुप्त स्थान में सोये हुए हैं।

    किन्तु हे सखी, तुम जगी हुई हो और सोने में असमर्थहो।

    कहीं ऐसा तो नहीं है कि हमारी ही तरह कमलनेत्र भगवान्‌ की उदार कौतुक-भरी हँसीलीचितवन से तुम्हारा हृदय अन्दर तक बिंध गया हो ?

    नेत्रे निमीलयसि नक्तमदृष्टबन्धु-स्त्वं रोरवीषि करुणं बत चक्रवाकि ।

    दासस्‍्यं गत वयमिवाच्युतपादजुष्टांकिं वा स्त्रजं स्पृहयसे कवरेण बोढुम्‌ ॥

    १६॥

    नेत्रे--आँखें; निमीलयसि--बन्द रखती हो; नक्तम्‌--रात्रि में; अदृष्ट--न देखा हुआ; बन्धु:--जिसका प्रेमी; त्वम्‌--तुम;रोरवीषि--क्रन्दन करती हो; करुणम्‌--करुणापूर्वक; बत--हाय; चक्रवाकि--हे चक्रवाकी; दास्यम्‌--दासता; गता--प्राप्त;वयम्‌ इव--हमारी ही तरह; अच्युत--कृष्ण के; पाद--पैरों से; जुष्टामू--आदरित; किम्‌--शायद; वा--अथवा; स्त्रजमू--फूलकी माला को; स्पृहयसे--चाहती हो; कवरेण--अपने जूड़े में; बोढुमू--लगाने के लिए

    हे बेचारी चक्रवाकी, तुम अपनी आँखें मूँद कर भी अपने अद्ृष्ट जोड़े ( साथी ) के लिएरात-भर करुणापूर्वक बहकती रहती हो।

    अथवा कहीं ऐसा तो नहीं है कि हमारी ही तरह तुम भीअच्युत की दासी बन चुकी हो और अपने जूड़े में उस माला को लगाना चाहती हो, जिसे वेअपने पाद-स्पर्श से धन्य कर चुके हैं ?

    भो भो: सदा निष्टनसे उदन्व-आ्लब्धनिद्रो इधिगतप्रजागरः किम्बा मुकुन्दापहतात्मलाउ्छनःप्राप्तां दशां त्वं च गतो दुरत्ययाम्‌ ॥

    १७॥

    भो:--प्रिय; भो:--प्रिय; सदा--सदैव; निष्टनसे-- तुम निरन्तर उच्च ध्वनि करते हो; उदन्वन्‌--हे समुद्र; अलब्ध--न पाकर;निद्र:--नींद; अधिगत--अनुभव करते हुए; प्रजागर: --उन्निद्र रोग; किम्‌ वा--अथवा शायद; मुकुन्द--कृष्ण द्वारा; अपहत--चुराये गये; आत्म--निजी; लाउ्छन: --चिह्; प्राप्ताम्‌ू--( हमारे द्वारा ) प्राप्त; दशाम्‌--अवस्था को; त्वमू--तुम; च-- भी;गतः-प्राप्त हुए हो; दुरत्ययाम्‌-मुक्त हो पाना असम्भव।

    हे प्रिय समुद्र, तुम सदैव गर्जते रहते हो, रात में सोते नहीं।

    क्या तुम्हें उन्नेद्र रोग हो गया है?या कहीं ऐसा तो नहीं है कि मुकुन्द ने हमारी ही तरह, तुमसे तुम्हारे चिन्ह छीन लिए हैं और तुमउन्हें फिर पाने में निराश हो ?

    त्वं यक्ष्मणा बलवतासि गृहीत इन्दोक्षीणस्तमो न निजदीधितिभि: क्षिणोषि ।

    कच्चिन्मुकुन्दगदितानि यथा वयं त्वंविस्पृत्य भो; स्थगितगीरुपलक्ष्यसे न: ॥

    १८॥

    त्वमू--तुम; यक्ष्मणा--यक्ष्मा रोग से; बल-वता--शक्तिशाली; असि--हो; गृहीत:--पकड़े हुए; इन्दो--हे चन्द्रमा; क्षीण:--दुर्बल; तम:--अंधकार; न--नहीं; निज--अपनी; दीधितिभि:--किरणों से; क्षिणोषि--नष्ट करते हो; कच्चित्‌--क्या; मुकुन्द-गदितानि--मुकुन्द द्वारा कहे गये; यथा--जिस तरह; वयम्‌--हमको; त्वमू--तुम; विस्मृत्य-- भुला कर; भो:--प्यारे;स्थगित--जड़ीभूत; गी:--जिसकी वाणी; उपलक्ष्यसे-- प्रतीत होते हो; न:--हमको |

    हे प्रिय चन्द्रमा, घोर यक्ष्मा रोग ( क्षयरोग ) से ग्रसित होने से तुम इतने क्षीण हो गये हो कितुम अपनी किरणों से अंधकार को भगाने में असफल हो।

    या फिर कहीं ऐसा तो नहीं है कि तुमइसलिए अवाक्‌ प्रतीत हो रहे हो, क्योंकि हमारी ही तरह तुम भी मुकुन्द द्वारा दिये गये,उत्साहप्रद वादों को स्मरण नहीं कर सकते हो ?

    कि न्‍्वाचरितमस्माभिर्मलयानिल तेप्रियम्‌ ।

    गोविन्दापाड़ुनिर्भिन्ने हदीरयसि नः स्मरम्‌ ॥

    १९॥

    किम्‌--क्या; नु--निस्सन्देह; आचरितम्‌--किया कार्य; अस्माभि: --हमारे द्वारा; मलय--मलय पर्वत के; अनिल--हे वायु;ते--तुमको; अप्रियम्‌--अच्छी न लगने वाली; गोविन्द--कृष्ण की; अपाड्ु--चितवनों द्वारा; निर्भिन्ने--विदीर्ण; हदि--हृदयोंमें; ईरयसि--प्रेरणा दे रहे हो; नः--हमारी; स्मरमू--काम-वासना को

    हे मलय समीर, ऐसा हमने कया किया है कि तुम हमसे अप्रसन्न हो और हमारे उन हृदयों मेंकाम-भावना जागृत कर रहे हो, जो पहले ही गोविन्द की चितवनों से विदीर्ण हो चुके हैं ?

    मेघ श्रीमंस्त्वमसि दयितो याददेन्द्रस्य नूनंश्रीवत्साड्डं वयमिव भवान्ध्यायति प्रेमबद्ध: ।

    अत्युत्कण्ठ: शवलहृदयोस्मद्विधो बाष्पधारा:स्मृत्वा स्मृत्वा विसृजसि मुहुर्द:खदस्तत्प्रसड़ू ॥

    २०॥

    मेघ--हे बादल; श्री-मन्‌--हे सम्मानित; त्वमू--तुम; असि--हो; दयित:--प्रिय मित्र; यादव-इन्द्रस्य--यादवों के प्रधान के;नूनमू--निश्चय ही; श्रीवत्स-अड्डम्‌-- श्रीवत्स नामक विशेष चिह्न धारण करने वाले ( उनके वक्षस्थल पर ); वयम्‌--हम; इब--जिस तरह; भवान्‌ू--आप; ध्यायति--ध्यान करते हैं; प्रेम--शुद्ध प्रेम द्वारा; बद्ध:--बद्ध; अति--अत्यधिक; उत्कण्ठ:--उत्सुक; शवल--किंकर्त व्यविमूढ़; हृदयः--जिसका हृदय; अस्मत्‌--जिस तरह हमारे ( हृदय ); विध:--उसी तरह से; बाष्प--आँसुओं की; धाराः--धाराएँ; स्मृत्वा स्मृत्वा--बारम्बार स्मरण करके; विसृजसि--आप मुक्त करते हैं; मुहुः--बारम्बार;दुःख--दुख; दः--देने वाले; ततू--उसके साथ; प्रसड़ः--संगति

    हे पूज्य बादल, निसन्देह तुम यादवों के उन प्रधान के अत्यन्त प्रिय हो, जो श्रीवत्स का चिन्हधारण किए हुए हैं।

    तुम भी हमारी ही तरह उनसे प्रेम द्वारा बद्ध हो और उनका ही चिन्तन करतेहो।

    तुम्हारा हृदय हमारे हृदयों की ही तरह अत्यन्त उत्सुकता से किंकर्तव्यविमूढ़ है और जब तुमउनका बारम्बार स्मरण करते हो, तो आँसुओं की धारा बहाते हो।

    कृष्ण की संगति ऐसा ही दुखलाती है।

    प्रियरावपदानि भाषसे मृत-सञ्जीविकयानया गिरा ।

    'करवाणि किमझ्य ते प्रियंबद मे वल्गितकण्ठ कोकिल ॥

    २१॥

    प्रिय--प्रिय; राब--उसका जिसकी ध्वनियाँ; पदानि--झंकारें; भाषसे--तुम कह रहे हो; मृत--मरे हुए; सञ्जीविकया--पुनःजीवित करने वाला; अनया--इसमें; गिरा--वाणी; करवाणि--मुझे करना चाहिए; किम्‌ू--क्या; अद्य--आज; ते--तुम्हारेलिए; प्रियमू--अच्छा लगने वाला; बद--कहो; मे-- मुझसे; वल्गित--इन ध्वनियों से मधुरित; कण्ठ--कण्ठ वाले;कोकिल--हे कोयल।

    रे मधुर कंठ वाली कोयल, तुम मृत को भी जीवित करनेवाली वह बोली बोल रही हो, जिसे हमने एक बार अत्यन्त मधुरभाषी अपने प्रेमी से सुनी थी।

    कृपा करके मुझे बताओ कि मैं तुम्हेंप्रसन्न करने के लिए आज क्या कर सकती हूँ?

    न चलसि न वदस्युदारबुद्धेपक्षितिधर चिन्तयसे महान्तमर्थम्‌ ।

    अपि बत वसुदेवनन्दनाडिंध्रवयमिव कामयसे स्तनैर्विधर्तुम्‌ू ॥

    २२॥

    न चलसि--तुम हिलते-डुलते नहीं हो; न बदसि--न बोलते हो; उदार--उदार; बुद्धे--जिसकी बुद्द्धि; क्षिति-धर--हे पर्वत;चिन्तयसे--तुम सोचते हो; महान्तम्‌--महान्‌; अर्थम्‌--बात के विषय में; अपि बत--शायद; वसुदेव-नन्दन--वसुदेव केलाड़ले पुत्र को; अड्प्रिमू--पाँवों को; वयम्‌--हम; इब--जिस तरह; कामयसे--तुम चाहते हो; स्तनै: --तुम्हारे स्तनों( चोटियों ) पर; विधर्तुमू--धारण करने के लिए।

    हे उदार पर्वत, तुम न तो हिलते-डुलते हो, न बोलते-चालते हो।

    तुम अवश्य ही किसीअत्यन्त महत्त्व वाली बात पर विचार कर रहे होगे।

    अथवा क्‍या तुम हमारी ही तरह अपने स्तनों( शिखिरों ) पर वसुदेव के लाड़ले के पाँवों को धारण करना चाहते हो ?

    शुष्यद्ध्रदा: करशिता बत सिन्धुपत्यःसम्प्रत्यपास्तकमलश्रिय इृष्टभर्तु: ।

    यद्वद्वयं मधुपते: प्रणयावलोक-मप्राप्य मुप्टहदयाः पुरुकर्शिताः सम ॥

    २३॥

    शुष्यत्‌--सूखती हुई; हृदाः--जिसकी झीलें; करशिता:--दुबली-पतली; बत--हाय; सिन्धु--समुद्र की; पत्य:--हे पत्नियों;सम्प्रति--अब; अपास्त--खोया हुआ; कमल--कमलों का; श्रीय:--तेज; इष्ट--प्रिय; भर्तु:--पति का; यद्वत्‌--जिस तरह;वयम्‌--हम; मधु-पते: --मथधु के स्वामी; प्रणय--प्रेम; अवलोकम्‌--झलक; अप्राप्य--न पाते हुए; मुष्ट--ठगी हुई; हृदया: --हृदयों वाली; पुरु--पूरी तरह; कर्शिता:--विदीर्ण ; स्म--हो गई हैंहे समुद्र-पत्नी नदियो, अब तुम्हारे कुण्ड सूख गये हैं।

    हाय! तुम एकदम दुबली हो गई होऔर तुम्हारी कमलों की सम्पत्ति लुप्त हो गई है।

    तो क्या तुम हमारी तरह हो, जो इसलिए म्लानहो रही हैं, क्योंकि उन्हें हृदयों को ठगने वाले अपने प्रिय पति मधुपति की स्नेहिल चितवन नहीं मिल रही ?

    हंस स्वागतमास्यतां पिब पयो ब्रूह्मड़ शौरे: कथांदूतं त्वां नु विदाम कच्चिदजित:ः स्वस्त्यास्त उक्त पुरा ।

    किं वा नश्चवलसौहदः स्मरति तं॑ कस्माद्धजामो वयंक्षौद्रालापय कामदं थ्रियमृते सैवेकनिष्ठा स्त्रियाम्‌ू ॥

    २४॥

    हंस--हे हंस; सु-आगतम्‌--स्वागत है; आस्यताम्‌--आओ और बैठो; पिब--पियो; पय:--दूध; ब्रूहि--हमें बतलाओ; अड्ग--हे प्रिय; शौरे:--शौरि के; कथाम्‌--समाचार; दूतम्‌--संदेशवाहक को; त्वामू--तुम; नु--निस्सन्देह; विदाम--हम पहचानतीहैं; कच्चित्‌--क्या; अजित:--अजेय; स्वस्ति--कुशलपूर्वक; आस्ते--है; उक्तम्‌--कहा हुआ; पुरा--बहुत पहले; किम्‌--क्या; वा--अथवा; न:ः--हमको; चल--चलायमान; सौहृद:--जिसकी मित्रता; स्मरति--स्मरण करता है; तम्‌--उसको;कस्मात्‌--किस कारण से; भजाम: --पूजा करें; वयम्‌--हम; क्षौद्र--हे क्षुद्र के सेवक; आलापय--उसे आने के लिए कहो;काम--इच्छा; दम्‌ू-देनेवाला; थ्रियम्‌--लक्ष्मी के; ऋते--बिना; सा--वह; एव--अकेले; एक-निष्ठा--एकान्त भाव केअनुसार; स्त्रियाम्‌-स्त्रियों में से

    हे हंस, स्वागत है।

    कृपया यहाँ बैठो और थोड़ा दूध पियो।

    हमें अपने प्रिय शूरवंशी के कुछसमाचार बतलाओ।

    हम जानती हैं कि तुम उनके दूत हो।

    वे अजेय प्रभु कुशल से तो हैं? क्‍याहमारा वह अविश्वसनीय मित्र अब भी उन शब्दों का स्मरण करता है, जिन्हें उसने बहुत काल पूर्वकहा था? हम उसके पास क्‍यों जाँय और उसकी पूजा क्‍यों करें? हे क्षुद्र स्वामी के सेवक,जाकर उससे कहो कि वह लक्ष्मी के बिना यहाँ आकर हमारी इच्छाएँ पूरी करे।

    कया वहीएकमात्र स्त्री है, जो उसके प्रति विशेषरूप से अनुरक्त हो गया है ?

    श्रीशुक उवाचइतीहशेन भावेन कृष्णे योगेश्वरेश्वरे ।

    क्रियमाणेन माधव्यो लेभिरे परमां गतिम्‌ ॥

    २५॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस तरह कहते हुए; ईदहशेन--ऐसे; भावेन-- भावपूर्ण प्रेम से; कृष्णे--कृष्ण के लिए; योग-ईश्वर--योग के स्वामियों के; ई श्वर-- स्वामी; क्रियमाणेन-- आचरण करते हुए; माधव्य:--माधव कीपत्नियों ने; लेभिरे--प्राप्त किया; परमाम्‌ू--चरम; गतिम्‌--गन्तव्य, लक्ष्य

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : योग के समस्त ईश्वरों के ईश्वर भगवान्‌ कृष्ण के ऐसे भावमयप्रेम में बोलती तथा कार्य करती हुईं, उनकी प्रिय पत्नियों ने जीवन का चरम लक्ष्य प्राप्त किया।

    श्रुतमात्रोपि यः स्त्रीणां प्रसहयाकर्षते मनः ।

    उरुगायोरुगीतो वा पश्यन्तीनां च कि पुनः ॥

    २६॥

    श्रुत--सुना हुआ; मात्र:--केवल; अपि-- भी; य:ः--जो ( भगवान्‌ कृष्ण ); स्त्रीणाम्‌--स्त्रियों के; प्रसह्या--बल से;आकर्षते--आकर्षित करता है; मन:--मनों को; उरुू--अनेक; गाय--गीतों द्वारा; उरु--असंख्य प्रकारों से; गीत:--गायाहुआ; वा--दूसरी ओर; पश्यन्तीनाम्‌--उसे देखने वाली स्त्रियों के; च--तथा; किम्‌--क्या; पुनः --अधिक ।

    भगवान्‌ जिनका महिमागान असंख्य गीतों द्वारा असंख्य प्रकार से होता हैं, वे उन समस्तस्त्रियों के मन को बलपूर्वक आकर्षित करते हैं, जो उनके विषय में श्रवण मात्र करती हैं।

    तोफिर उन स्त्रियों के विषय में क्‍या कहा जाय, जो प्रत्यक्ष रुप से उनका दर्शन करती हैं ?

    याः सम्पर्यचरन्प्रेम्णा पादसंवाहनादिभि: ।

    जगदणुरु भर्तृबुद्धया तासां किम्वर्ण्यते तप: ॥

    २७॥

    या:--जो; सम्पर्यचरन्‌ू-- पूरी तरह सेवित; प्रेम्णा--शुद्ध प्रेम से; पाद--उनके पैर; संवाहन--मालिश; आदिभि:--इत्यादि केद्वारा; जगत्‌ू--ब्रह्माण्ड के; गुरुम्‌-गुरु को; भर्तु--अपने पति रूप में; बुद्धया--प्रवृत्ति से; तासामू--उनकी; किम्‌--कैसे;वर्ण्यते--वर्णन किया जा सकता है; तपः--तपस्या का।

    और उन र्त्रियों द्वारा, जिन्होंने शुद्ध प्रेमभाव से ब्रह्माण्ड के गुरु की सेवा की उनके द्वारासम्पन्न महान्‌ तपस्या का भला कोई कैसे वर्णन कर सकता है ? उन्हें अपना पति मानकर, उन्होंनेउनके पाँव दबाने जैसी घनिष्ठ सेवाएँ कीं।

    एवं वेदोदितं धर्ममनुतिष्ठन्सतां गति: ।

    गहं धर्मार्थकामानां मुहुश्चादर्शयत्पदम्‌ ॥

    २८ ॥

    एवम्‌--इस तरह; वेद--वेदों द्वारा; उदितम्‌--कहा गया; धर्मम्‌--धर्म; अनुतिष्ठन्‌--सम्पन्न करते हुए; सताम्‌--सन्त-भक्तों के;गतिः--लक्ष्य; गृहम्‌ू--घर; धर्म--धार्मिकता; अर्थ--आर्थिक विकास; कामानाम्‌--तथा इन्द्रिय-तृप्ति के; मुहुः--बारम्बार;च--तथा; आदर्शयत्‌-- उन्होंने प्रदर्शित किया; पदम्‌--स्थान के रूप में

    इस तरह वेदों द्वारा आदेशित कर्तव्यों का पालन करते हुए सन्त-भक्तों के लक्ष्य भगवान्‌कृष्ण ने बारम्बार प्रदर्शित किया कि कोई व्यक्ति घर पर किस तरह धर्म, आर्थिक विकास तथानियमित इन्द्रिय-तृप्ति के लक्ष्यों को प्राप्त कर सकता है।

    आस्थितस्य परं धर्म कृष्णस्य गृहमेधिनाम्‌ ।

    आसन्षोडशसाहस्त्रं महिष्यश्च शताधिकम्‌ ॥

    २९॥

    आस्थितस्य--स्थित; परम्‌--सर्वोच्च; धर्मम्‌-- धार्मिक सिद्धान्तों को; कृष्णस्य--कृष्ण के; गृह-मेधिनाम्‌--गृहस्था श्रम वालोंके; आसनू--थे; घोडश--सोलह; साहस्त्रमू--हजार; महिष्य:--रानियाँ; च--तथा; शत--एक सौ से; अधिकम्‌-प्लुस्‌धार्मिक गृहस्थ-जीवन के सर्वोच्च आदर्शों को पूरा करते हुए, भगवान्‌ कृष्ण के १६,१००से अधिक पत्ियाँ थीं।

    तासां स्त्रीरत्नभूतानामष्टौ या: प्रागुदाहता: ।

    रुक्मिणीप्रमुखा राजंस्तत्पुत्राश्चानुपूर्वश: ॥

    ३०॥

    तासाम्‌--उनमें से; स्त्री--स्त्रियों की; रत्त--रत्न या मणियों जैसी; भूतानाम्‌ू-- थीं; अष्टौ-- आठ; या:--जो; प्राक्‌ --इसके पूर्व;उदाहता: --वर्णित; रुक्मिणी -प्रमुखा: --रुक्मिणी इत्यादि; राजन्‌--हे राजा ( परीक्षित ); तत्‌ू--उनके; पुत्रा: --पुत्र; च-- भी;अनुपूर्वश: --उसी क्रम में |

    इन रल जैसी स्त्रियों में से रूक्मिणी इत्यादि आठ प्रमुख रानियाँ थीं।

    हे राजन, मैं पहले हीइनके पुत्रों के साथ-साथ इनका क्रमिक वर्णन कर चुका हूँ।

    एकैकस्यां दश दश कृष्णोजीजनदात्मजानू ।

    यावत्य आत्मनो भार्या अमोघगतिरी श्वर: ॥

    ३१॥

    एक-एकस्याम्‌--उनमें से प्रत्येक के; दश दश--दस-दस; कृष्ण:--कृष्ण ने; अजीजनतू--उत्पन्न किया; आत्म-जानू--पुत्रोंको; यावत्य:--जितनी; आत्मन: --उनकी; भार्या:--पत्नियाँ; अमोघ--कभी विफल न होने वाला; गति:--जिसका प्रयास;ईश्वर: -- भगवान्‌ऐसे

    भगवान्‌ कृष्ण ने, जिनका प्रयास कभी विफल नहीं होता, अपनी हर एक पतली से दस-दस पुत्र उत्पन्न किये।

    तेषामुद्दामवीर्याणामष्टादश महारथा: ।

    आसन्नुदारयशसस्तेषां नामानि मे श्रुणु ॥

    ३२॥

    तेषाम्‌--इन ( पुत्रों ) के; उद्यम--असीम; वीर्याणाम्‌--जिनका पराक्रम; अष्टा-दश--अठारह; महा-रथा:--महारथों, सर्वोच्चश्रेणी के रथ-योद्धा; आसन्‌-- थे; उदार--विस्तृत; यशसः--जिनकी ख्याति; तेषामू--उनके ; नामानि--नाम; मे--मुझसे;श्रुणु--सुनो |

    इन असीम पराक्रम वाले पुत्रों में से अठारह महान्‌ ख्याति वाले महारथ थे।

    अब मुझसे उनकेनाम सुनो।

    प्रद्युम्नश्चानिरुद्धश्चव दीप्तिमान्भानुरेव च ।

    साम्बो मधुर्बृहद्धानुश्ित्रभानुर्व॑को रुण: ॥

    ३३॥

    पुष्करो वेदबाहुश्न श्रुतदेव: सुनन्दन: ।

    चित्रबाहुर्विरूपश्च कविर्न्यग्रोध एव च ॥

    ३४॥

    प्रद्युम्न: --प्रद्युम्म; च--तथा; अनिरुद्ध:--अनिरुद्ध; च--तथा; दीप्तिमान्‌ भानु:--दीप्तिमान तथा भानु; एवं च-- भी; साम्बःमधु: बृहत्‌-भानु:--साम्ब, मधु तथा बहद्भानु; चित्र-भानु: वृक:ः अरुण: --चित्रभानु, वृक तथा अरुण; पुष्करः वेद-बाहुः च--पुष्कर तथा वेदबाहु; श्रुतदेवः सुनन्दन: --श्रुतदेव तथा सुनन्दन; चित्र-बाहुः विरूप: च--चित्रबाहु तथा विरूप; कवि:न्यग्रोध:--कवि तथा न्यग्रोध; एवं च-- भी |

    इनके नाम थे प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, दीप्तिमानू, भानु, साम्ब, मधु, बृहदभानु, चित्रभानु, वृक,अरुण, पुष्कर, वेदबाहु, श्रुतदेव, सुनन्दन, चित्रबाहु, विरूप, कवि तथा न्यग्रोध।

    एतेषामपि राजेन्द्र तनुजानां मधुद्विष: ।

    प्रद्यम्म आसीत्प्रथम: पितृवद्‌ रुक्मिणीसुत: ॥

    ३५॥

    एतेषाम्‌--इनमें से; अपि--तथा; राज-इन्द्र--हे राजाओं में प्रधान; तनु-जानाम्‌--पुत्रों में से; मधु-द्विष:--मधु असुर के शत्रुकृष्ण के; प्रद्यम्न:--प्रद्यम्म; आसीत्‌--था; प्रथम:--पहला; पितृबत्‌--अपने पिता के ही समान; रुक्मिणी-सुतः--रुक्मिणीका पुत्र

    हे राजाओं में श्रेष्ठ, मधु के शत्रु भगवान्‌ कृष्ण द्वारा उत्पन्न किये गये इन पुत्रों में सेरुक्मिणी-पुत्र प्रद्युम्न सर्वप्रमुख था।

    वह अपने पिता के ही समान था।

    स रुक्मिणो दुहितरमुपयेमे महारथ: ।

    तस्यां ततोनिरुद्धो भूलतागायतबलान्वितः ॥

    ३६॥

    सः--उसने ( प्रद्यम्न ने ); रुक्मिण:--रुक्‍्मी ( रुक्मिणी के बड़े भाई ) की; दुहितरम्‌--पुत्री, रुक्मवती से; उपयेमे--विवाहकिया; महा-रथ: --महारथी; तस्याम्‌--उससे; तत:ः--तब; अनिरुद्ध:--अनिरुद्ध; अभूत्‌--उत्पन्न हुआ; नाग--हाथी के;अयुत--दस हजार; बल--बल से; अन्वित:--युक्त |

    महारथी प्रद्युम्न ने रुक्मी की पुत्री ( रुक्मवती ) से विवाह किया, जिसने अनिरुद्ध को जन्मदिया।

    वह दस हजार हाथियों जितना बलवान्‌ था।

    स चापि रुक्मिण: पौत्रीं दौहित्रो जगृहे ततः ।

    वज़स्तस्यथाभवद्यस्तु मौषलादवशेषित: ॥

    ३७॥

    सः--उसने ( अनिरुद्ध ने ); च--तथा; अपि--आगे; रुक्मिण: --रुक्मी की; पौत्रीम्‌--पोती, ( रोचना से ); दौहित्र:--( रुक्‍्मी ) पुत्री का पुत्र; जगृहे--ग्रहण किया; ततः--तत्पश्चात्‌; वज्ञ:--वज़ ने; तस्य--उसके पुत्र रुप में; अभवत्‌--जन्मलिया; यः--जो; तु--लेकिन; मौषलात्‌--लोहे के बने मूसल से यदुओं की विनाश-लीला के बाद; अवशेषित:--बचा रहा |

    रुक्‍्मी की पुत्री के पुत्र ( अनिरुद्ध ) ने रुक्मी के पुत्र की कन्या ( रोचना ) से विवाह किया।

    उससे वज् उत्पन्न हुआ, जो यदुओं के मूसल-युद्ध के बाद कुछ बचने वालों में से एक था।

    प्रतिबाहुरभूत्तस्मात्सुबाहुस्तस्य चात्मज: ।

    सुबाहो: शान्तसेनो भूच्छतसेनस्तु तत्सुत: ॥

    ३८ ॥

    प्रति-बाहु:--प्रतिबाहु; अभूत्‌--हुआ; तस्मात्‌--उस ( वज़ ) से; सुबाहु:--सुबाहु; तस्य--उसका; च--तथा; आत्म-जः --पुत्र;सु-बाहो: --सुबाहु से; शान्त-सेन: --शान्तसेन; अभूत्‌--हुआ; शत-सेन:--शतसेन; तु--तथा; तत्‌--उसका ( शान्तसेन का );सुतः--पुत्र |

    वजन से प्रतिबाहु उत्पन्न हुआ, जिसका पुत्र सुबाहु था।

    सुबाहु का पुत्र शान्तसेन था औरशान्तसेन से शतसेन उत्पन्न हुआ।

    न होतस्मिन्कुले जाता अधना अबहुप्रजा: ।

    अल्पायुषोल्पवीर्याश्व अब्रह्मण्याश्व जज्ञिरि ॥

    ३९॥

    न--नहीं; हि--निस्सन्देह; एतस्मिनू--इस; कुले--परिवार में; जाता: --उत्पन्न; अधन:--निर्धन; अ-बहु--अनेक नहीं;प्रजा:--पुत्र; अल्प-आयुष:--कम उप्र वाले; अल्प--कम; वीर्या:--पराक्रम वाले; च--तथा; अब्रह्मण्या:--ब्राह्मण के प्रतिनिष्ठावान्‌ नहीं; च--तथा; जज्ञिरि--उत्पन्न हुए |

    इस परिवार के ऐसा कोई भी व्यक्ति उत्पन्न नहीं हुआ, जो निर्धन हो या सन्तानहीन, अल्पायु,निर्बल या ब्राह्मण संस्कृति के प्रति उपेक्षावान्‌ हो।

    यदुवंशप्रसूतानां पुंसां विख्यातकर्मणाम्‌ ।

    सड्ख्या न शक्यते कर्तुमपि वर्षायुतैनृप ॥

    ४०॥

    यदु-वंश--यदुवंश में; प्रसूतानाम्‌--जन्म लेने वाले; पुंसाम्‌ू--मनुष्यों को; विख्यात--प्रसिद्ध; कर्मणाम्‌-कर्मो वाले;सड्ख्या--गिनती; न शक्यते--सम्भव नहीं; कर्तुमू--कर पाना; अपि-- भी; वर्ष--वर्षो में; अयुतैः --दस हजार; नृप--हे राजा( परीक्षित )॥

    यदुवंश ने विख्यात कृत्यों वाले असंख्य महापुरुषों को जन्म दिया।

    हे राजन, उन सबों कीगिनती दस हजार से अधिक वर्षों में भी नहीं की जा सकती।

    तिस्त्र: कोट्य: सहस्त्राणामष्टाशीतिशतानि च ।

    आसन्यदुकुलाचार्या: कुमाराणामिति श्रुतम्‌ ॥

    ४१॥

    तिस्त्र:--तीन; कोट्य:--करोड़; सहस्त्राणामू--हजार; अष्टा-अशीति--अट्टठासी; शतानि---सौ; च--तथा; आसन्‌-- थे; यदु-कुल--यदुवंश के; आचार्या:--शिक्षक; कुमाराणामू--बालकों के लिए; इति--इस प्रकार; श्रुतम्‌--सुना गया है।

    मैंने प्रामाणिक स्त्रोतों से सुना है कि यदुवंश ने अपने बालकों को शिक्षा देने के लिए ही ३,८८,००,००० शिक्षक नियुक्त किये थे।

    सड्ख्यानं यादवानां कः करिष्यति महात्मनाम्‌ ।

    यत्रायुतानामयुतलक्षेणास्ते स आहुक: ॥

    ४२॥

    सड्ख्यानम्‌--गिनती; यादवानाम्‌--यादवों की; कः--कौन; करिष्यति--कर सकता है; महा-आत्मनाम्‌--महापुरुषों की;यत्र--जिनमें से; अयुतानाम्‌ू--दस हजारों के; अयुत--दस हजार ( गुना ); लक्षेण--( तीन ) सौ हजार ( व्यक्तियों ) समेत;आस्ते--उपस्थित थे; सः--वह; आहुक:--उग्रसेन |

    भला महान्‌ यादवों की गणना कौन कर सकता है, जबकि उनमें से राजा उग्रसेन के साथतीन नील ( ३,००, ००, ००,००, ००,००० ) परिचारक रहते थे।

    देवासुराहवहता दैतेया ये सुदारुणा: ।

    ते चोत्पन्ना मनुष्येषु प्रजा हप्ता बबाधिरे ॥

    ४३॥

    देव-असुर--देवताओं तथा असुरों के मध्य; आहव--युद्धों में; हता:--मारे गये; दैतेया:--असुरगण; ये-- जो; सु-- अत्यन्त;दारुणा:-- भयानक; ते--वे; च--तथा; उत्पन्ना:--उत्पन्न हुए; मनुष्येषु--मनुष्यों के बीच में; प्रजा:--जनता को; हप्ता:--उद्धत; बबाधिरे--सताने लगे |

    दिति की जंगली सनन्‍्तानों ने जो भूतकाल में देवताओं तथा असुरों के मध्य हुए युद्धों में मारीगईं थीं, मनुष्यों के बीच जन्म लिया और वे उद्धत होकर सामान्य जनता को सताने लगे थे।

    तन्निग्रहाय हरिणा प्रोक्ता देवा यदो: कुले ।

    अवतीर्णा: कुलशतं तेषामेकाधिकं नृूप ॥

    ४४॥

    तत्‌--उनके ; निग्रहाय--दमन के लिए; हरिणा--भगवान्‌ कृष्ण द्वारा; प्रोक्ताः--कहा गया; देवा:--देवतागण; यदो: --यदु के;कुले--कुल में; अवतीर्णा:--अवतरित; कुल--कुलों के; शतम्‌--एक सौ; तेषाम्‌--उनके; एक-अधिकमू्‌--एक और;नृप--हे राजा ( परीक्षित )

    इन असुरों का दमन करने के लिए भगवान्‌ हरि ने देवताओं से यदुकुल में अवतार लेने केलिए कहा।

    हे राजन्‌ ऐसे १०१ कुल थे।

    तेषां प्रमाणं भगवान्प्रभुत्वेनाभवद्धरिः ।

    ये चानुवर्तिनस्तस्य ववृधु: सर्वयादवा: ॥

    ४५॥

    तेषाम्‌--उनमें से; प्रमाणम्‌-प्रमाण; भगवान्‌--भगवान; प्रभुत्वेन-- भगवान्‌ होने के कारण; अभवत्‌-- था; हरिः--भगवान्‌हरि; ये--जो; च--तथा; अनुवर्तिन:--निजी संगी; तस्य--उसके; ववृधु:--उन्नति की; सर्व--सारे; यादवा:--यादवों ने।

    चूँकि श्रीकृष्ण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ हैं, अतएत यादवों ने उन्हें अपना परम प्रमाण( सत्ता ) मान लिया।

    और इन सबों में से, जो उनके घनिष्ठ संगी थे उन्होंने विशेष रूप से उन्नतिकी।

    शय्यासनाटनालापक्रीडास्नानादिकर्मसु ।

    न विदुः सन्तमात्मानं वृष्णय: कृष्णचेतसः ॥

    ४६॥

    शब्या--सोते; आसन--बैठते; अटन--घूमते; आलाप--बात करते; क्रीड--खेलते; स्नान--नहाते; आदि--इत्यादि;कर्मसु-कार्यो में; न विदु:--वे अवगत न थे; सन्तम्‌--उपस्थित; आत्मानम्‌--वे स्वयं; वृष्णय:--वृष्णिजन; कृष्ण --कृष्ण में( लीन ); चेतसः--जिनके मन

    वृष्णिजन कृष्णभावनामृत में इतने लीन थे कि वे सोते, बैठते, घूमते, बातें करते, खेलते,नहाते इत्यादि कार्य करते समय अपने ही शरीर की सुधि-बुधि भूल गये।

    तीर्थ चक्रे नृपोनं यदजनि यदुषु स्वःसरित्पादशौचंविद्विद्स्नग्धा: स्वरूपं ययुरजितपर श्रीर्यदर्थेडन्ययल: ।

    यन्नामामड्रलघ्नं श्रुतमथ गदितं यत्कृतो गोत्रधर्म:कृष्णस्यैतन्न चित्र क्षितिभरहरणं कालचक्रायुधस्य ॥

    ४७॥

    तीर्थम्‌--तीर्थस्थान; चक्रे --बनाया; नृप--हे राजा ( परीक्षित ); ऊनम्‌--घट कर; यत्‌--जो ( कृष्ण की महिमा ); अजनि--उसने जन्म लिया; यदुषु--यदुओं के मध्य; स्व:--स्वर्ग की; सरित्‌ू--नदी; पाद--जिसके पैर; शौचम्‌--जो ( जल ) धोता है;विद्विदू--शत्रु; स्निग्धा:--तथा प्रियजन; स्वरूपम्‌--जिनके स्वरूप; ययु:--प्राप्त किया; अजित--अजेय; परा--तथा पूर्ण;श्री:--लक्ष्मी; यत्‌--जिसके; अर्थे-हेतु; अन्य--अन्य; यल:--प्रयास; यत्‌--जिसका; नाम--नाम; अमड्रल--अशुभ को;घ्नमू--नष्ट करने वाला; श्रुतम्‌--सुना हुआ; अथ--अथवा; गदितम्‌--कहा गया; यत्‌--जिसके द्वारा; कृत:--उत्पन्न; गोत्र--( विभिन्न मुनियों के ) गोत्रों में; धर्म: --धर्म; कृष्णस्य--कृष्ण के लिए; एतत्‌--यह; न--नहीं; चित्रमू--आश्चर्यजनक;क्षिति--पृथ्वी के; भर-- भार के; हरणम्‌--उतारने के लिए; काल--समय का; चक्र--पहिया; आयुधस्य--जिसका हथियार ।

    स्वर्ग की गंगा पवित्र तीर्थ है, क्योंकि उसका जल भगवान्‌ के चरणों को पखारता है।

    किन्तुजब भगवान्‌ ने यदुओं के बीच अवतार लिया, तो उनके यश के कारण पवित्र स्थान के रूप मेंगंगा नदी का महत्त्व कम हो गया।

    किन्तु कृष्ण से घृणा करने वालों तथा उनसे प्रेम करने वालोंने आध्यात्मिक लोक में उन्हीं के समान नित्य स्वरूप प्राप्त किया।

    अप्राप्य तथा परम आत्मतुष्टलक्ष्मी जिनकी कृपा के लिए हर कोई संघर्ष करता है एकमात्र उन्हीं की हैं।

    उनके नाम काश्रवण या कीर्तन करने से समस्त अमंगल नष्ट हो जाता है।

    एकमात्र उन्हीं ने ऋषियों की विविधशिष्य-परम्पराओं के सिद्धान्त निश्चित किये हैं।

    इसमें कौन-सा आश्चर्य है कि कालचक्र,जिसका हथियार हो, उसने पृथ्वी के भार को उतारा ?

    जयति जननिवासो देवकीजन्मवादोयदुवरपरिषत्स्वैर्दोर्भिरस्यन्नधर्मम्‌ ।

    स्थिरचरवृजिनघ्न: सुस्मितश्रीमुखेनब्रजपुरवनितानां वर्धयन्कामदेवम्‌ ॥

    ४८ ॥

    जयति--शा श्वत यशस्वी बनकर जीवित रहता है; जन-निवास:--जो यदुवंश के सदस्यों जैसे मनुष्यों के बीच रहता है और जोसमस्त जीवों का चरम आश्रय है; देवकी-जन्म-वाद:--देवकी के पुत्र रूप में जाने जाते हैं (

    भगवान्‌ का कोई माता-पिता नहींहोता इसलिए वे देवकी के पुत्र जाने जाते हैं।

    इसी तरह वे यशोदा, वसुदेव तथा नन्द महाराज के पुत्र जाने जाते हैं ); यदु-बर-परिषत्‌--यदुवंश के सदस्यों अथवा वृन्दावन के गोपों द्वारा सेवित ( जो सभी भगवान्‌ के नित्य संगी तथा नित्य दास हैं ); स्वैःदोर्भि:--अपनी बाहुओं से या अर्जुन जैसे भक्तों से, जो उनकी भुजाओं जैसे हैं; अस्यन्‌ू--मारते हुए; अधर्मम्‌--असुरों को याअमंगलकारियों को; स्थिर-चर-वृजिन-घ्न:--समस्त चर तथा अचर जीवों के दुर्भाग्य के विनाशक; सु-स्मित--सदैव हँसतेहुए; श्री-मुखेन-- अपने सुन्दर मुखड़े से; ब्रज-पुर-वनितानाम्‌--वृन्दावन की युवतियों की; वर्धयन्‌--बढ़ाते हुए; काम-देवम्‌--कामेच्छाओं कोभगवान्‌ श्रीकृष्ण जन-निवास के नाम से विख्यात हैं अर्थात्‌ वे समस्त जीवों के परमआश्रय हैं।

    वे देवकीनन्दन या यशोदानन्दन भी कहलाते हैं।

    वे यदुकुल के पथ-प्रदर्शक हैं औरवे अपनी बलशाली भुजाओं से समस्त अमंगल को तथा समस्त अपवित्र व्यक्तियों का वध करतेहैं।

    वे अपनी उपस्थिति से समस्त चर तथा अचर प्राणियों के अमंगल को नष्ट करते हैं।

    उनकाआनन्दपूर्ण मन्द हासयुक्त मुख वृन्दावन की गोपियों की कामेच्छाओं को बढ़ाने वाला है।

    उनकीजय हो और वे प्रसन्न हों।

    इत्थं परस्य निजवर्त्मरिरक्षयात्त-लीलातनोस्तदनुरूपविडम्बनानि ।

    कर्माणि कर्मकषणानि यदूत्तमस्यश्रूयादमुष्य पदयोरनुवृत्तिमिच्छन्‌ ॥

    ४९ ॥

    इत्थम्‌--इस प्रकार से ( वर्णित ); परस्य--ब्रह्म का; निज--अपना; वर्त्म--मार्ग ( भक्ति का ); रिरक्षया--रक्षा करने की इच्छासे; आत्त--धारण किये हुए; लीला--लीलाओं के लिए; तनोः:--विविध रूप; तत्‌--इनमें से प्रत्येक को; अनुरूप--उपयुक्त;विडम्बनानि-- अनुकरण करते हुए; कर्माणि--कर्मों को; कर्म--भौतिक कर्म के फल; कषणानि--जो नष्ट करते हैं; यदु-उत्तमस्य--यदुओं में श्रेष्ठ के; श्रूयात्‌--मनुष्य सुने; अमुष्य--उसके; पदयो:--पैरों के; अनुवृत्तिमू--पालन करने का अधिकार;इच्छन्‌--इच्छा करते हुए

    अपने प्रति भक्ति के सिद्धान्तों की रक्षा करने के लिए यदुश्रेष्ठ भगवान्‌ कृष्ण उन लीला-रूपों को स्वीकार करते हैं, जिनका यहाँ पर श्रीमद्भागवत में महिमा-गान हुआ है।

    जो व्यक्तिश्रद्धापूर्वकक उनके चरणकमलों की सेवा करने का इच्छुक हो, उसे उन कार्यकलापों को सुननाचाहिए, जिन्हें वे प्रत्येक अवतार में सम्पन्न करते हैं--वे कार्यकलाप, जो उनके द्वारा धारण किएजाने वाले रूपों के अनुरूप हैं।

    इन लीलाओं के वर्णनों को सुनने से सकाम कर्मों के फल विनष्टहोते हैं।

    मर्त्यस्तयानुसवमेधितया मुकुन्द-श्रीमत्कथाश्रवणकीर्तनचिन्तयैति ।

    तद्धघाम दुस्तरकृतान्तजवापवर्गग्रामाद्वनं क्षितिभुजोपि ययुर्यदर्था: ॥

    ५०॥

    मर्त्य:--मर्त्य; तया--ऐसे; अनुसवम्‌--निरन्तर; एधितया--वर्धमान; मुकुन्द-- कृष्ण विषयक; श्रीमत्‌--सुन्दर; कथा--कथाओं के; श्रवण--सुनने; कीर्तन--कीर्तन करने; चिन्तया--तथा चिन्तन करने से; एति--जाता है; तत्‌--उसके; धाम--घरको; दुस्तर--जिससे बचा न जा सके; कृत-अन्त--मृत्यु के; जब--बल के; अपवर्गम्‌--मोक्ष को; ग्रामात्‌--संसारी घर से;वनम्‌--जंगल को; क्षिति-भुज:--राजा ( यथा प्रियत्रत ); अपि-- भी; ययु:--गये; यत्‌--जिसको; अर्था:--प्राप्त करने केलिए

    नित्यप्रति अधिकाधिक निष्ठापूर्वक भगवान्‌ मुकुन्द की सुन्दर कथाओं के नियमित श्रवण,कीर्तन तथा ध्यान से मर्त्य प्राणी को भगवान्‌ का दैवीधाम प्राप्त होगा, जहाँ मृत्यु की दुस्तरशक्ति का शासन नहीं है।

    इसी उद्देश्य से अनेक व्यक्तियों ने, जिनमें बड़े-बड़े राजा सम्मिलित हैंअपने-अपने संसारी घरों को त्याग कर जंगल की राह ली।

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