श्रीमद्भागवतम् - स्कन्ध 1
अध्याय एक: ऋषियों के प्रश्न
1.1जन्माद्यस्य यतोन्वयादितरतश्चार्थष्वभिज्ञ: स्वराट्तेने ब्रह्म हदा य आदिकवयेमुह्न्ति यत्सूरय: ।तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोमृषाधाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहक॑ सत्यं परं धीमहि
१
ॐ-हे प्रभु; नमः--नमस्कार है; भगवते-- भगवान् को; वासुदेवाय--वासुदेव ( वसुदेव-पुत्र ) या आदि भगवान्श्रीकृष्ण को; जन्म-आदि--उत्पत्ति, पालन तथा संहार; अस्य-- प्रकट ब्रह्माण्डों का; यत:--जिनसे; अन्वयात्- प्रत्यक्षरूप से; इतरत:--अ प्रत्यक्ष रूप से; च--तथा; अर्थैषु--उद्देश्यों में; अभिज्ञ:--पूर्ण रूप से अवगत; स्व-राट्--पूर्णरूप सेस्वतन्त्र; तेने-- प्रदान किया; ब्रह्म-- वैदिक ज्ञान; हृदा--हृदय की चेतना; यः--जो; आदि-कवये--प्रथम सर्जित जीव केलिए; मुहान्ति--मोहित होते हैं; यत्--जिनके विषय में; सूरय:--बड़े-बड़े मुनि तथा देवता; तेज:--अग्नि; वारि--जल;मृदाम्--पृथ्वी; यथा--जिस प्रकार; विनिमय:--क्रिया-प्रतिक्रिया; यत्र--जहाँ पर; त्रि-सर्ग: --सृष्टि के तीन गुण,सृष्टिकारी शक्तियाँ; अमृषा--सत्यवत्; धाम्ना--समस्त दिव्य सामग्री के साथ; स्वेन--अपने से; सदा--सदैव; निरस्त--अनुपस्थिति के कारण त्यक्त; कुहकम्--मोह को; सत्यम्--सत्य को; परम्--परम; धीमहि--मैं ध्यान करता हूँ।
हे प्रभु, हे वसुदेव-पुत्र श्रीकृष्ण, हे सर्वव्यापी भगवान्, मैं आपको सादर नमस्कारकरता हूँ।
मैं भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूँ, क्योंकि वे परम सत्य हैं और व्यक्तब्रह्माण्डों की उत्पत्ति, पालन तथा संहार के समस्त कारणों के आदि कारण हैं।
वे प्रत्यक्षतथा अप्रत्यक्ष रूप से सारे जगत से अवगत रहते हैं और वे परम स्वतंत्र हैं, क्योंकि उनसे परेअन्य कोई कारण है ही नहीं।
उन्होंने ही सर्वप्रथम आदि जीव ब्रह्माजी के हृदय में वैदिकज्ञान प्रदान किया।
उन्हीं के कारण बड़े-बड़े मुनि तथा देवता उसी तरह मोह में पड़ जाते हैं,जिस प्रकार अग्नि में जल या जल में स्थल देखकर कोई माया के द्वारा मोहग्रस्त हो जाताहै।
उन्हीं के कारण ये सारे भौतिक ब्रह्माण्ड, जो प्रकृति के तीन गुणों की प्रतिक्रिया केकारण अस्थायी रूप से प्रकट होते हैं, वास्तविक लगते हैं जबकि ये अवास्तविक होते हैं।
अतः मैं उन भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूँ, जो भौतिक जगत के भ्रामक रूपों से सर्वथा मुक्त अपने दिव्य धाम में निरन्तर वास करते हैं।
मैं उनका ध्यान करता हूँ, क्योंकि वेही परम सत्य हैं।
" धर्म: प्रोज्मितकैतवोत्र परमो निर्मत्सराणां सतांवेद्यं वास्तवमत्र वस्तु शिवदं तापत्रयोन्मूलनम् ।
श्रीमद्धागवते महामुनिकृते कि वा परैरी श्र:सद्यो हृद्यवरुध्यतेउत्र कृतिभि: शुश्रूषुभिस्तत्क्षणात्
२
धर्म:--धार्मिकता; प्रोज्झित--पूर्ण रूप से अस्वीकृत; कैतव:--सकाम विचार से प्रच्छन्न; अत्र--यहाँ; परम:--सर्वोच्च;निर्मत्सराणाम्--शतप्रतिशत शुद्ध हृदय वालों के; सताम्-भक्तों को; वेद्यम्--जानने योग्य; वास्तवम्--वास्तविक;अतन्र--यहाँ; वस्तु--वस्तु, चीज; शिवदम्--कल्याण; ताप-त्रय--तीन प्रकार के कष्ट; उन्मूलनम्--समूल नष्ट करना;श्रीमतू--सुन्दर; भागवते-- भागवत पुराण में; महा-मुनि--महामुनि ( व्यासदेव ) द्वारा; कृते--संग्रह किया गया, रचनाकी गई; किम्--क्या है; वा--आवश्यकता; परैः--अन्य; ईश्वर: --परमे श्वर; सद्य: -- तुरन्त; हृदि--हृदय में;अवरूुध्यते--हृढ़ हो गया; अत्र--यहाँ; कृतिभि:--पवित्र व्यक्तियों द्वारा; शुश्रूषुभि:--संस्कार द्वारा; ततू-क्षणात्--अविलम्ब।
यह भागवत पुराण, भौतिक कारणों से प्रेरित होने वाले समस्त धार्मिक कृत्यों को पूर्णरूप से बहिष्कृत करते हुए, सर्वोच्च सत्य का प्रतिपादन करता है, जो पूर्ण रूप से शुद्धहृदय वाले भक्तों के लिए बोधगम्य है।
यह सर्वोच्च सत्य वास्तविकता है जो माया से पृथक्होते हुए सबों के कल्याण के लिए है।
ऐसा सत्य तीनों प्रकार के संतापों को समूल नष्टकरने वाला है।
महामुनि व्यासदेव द्वारा ( अपनी परिपक्वावस्था में ) संकलित यहसौंदर्यपूर्ण भागवत ईश्वर-साक्षात्कार के लिए अपने आप में पर्याप्त है।
तो फिर अन्य किसीशास्त्र की क्या आवश्यकता है? जैसे जैसे कोई ध्यानपूर्वक तथा विनीत भाव से भागवत केसन्देश को सुनता है, वैसे वैसे ज्ञान के इस संस्कार ( अनुशीलन ) से उसके हृदय में परमेश्वरस्थापित हो जाते हैं।
" निगमकल्पतरोगलितं फलं शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् ।
पिबत भागवतं रसमालयं मुहुरहो रसिका भुवि भावुका:
३
निगम--वैदिक साहित्य; कल्प-तरो:--कल्पतरु का; गलितम्--पूर्णत रूप से परिपक्व; फलमू--फल; शुक--श्रीमद्भागवत के मूल वक्ता श्रील शुकदेव गोस्वामी के; मुखात्--होठों से; अमृत--अमृत; द्रब--तरल अतएवं सरलतासे निगलने योग्य; संयुतम्--सभी प्रकार से पूर्ण; पिबत--पान करो; भागवतम्-- भगवान् के साथ चिर सम्बन्ध केविज्ञान से युक्त ग्रन्थ को; रसमू--रस ( जो आस्वाद्य है वह ); आलयम्--मुक्ति प्राप्त होने तक या मुक्त अवस्था में भी;मुहुः--सदैव; अहो--हे; रसिका:--रस का पूर्ण ज्ञान रखने वाले रसिक जन; भुवि--पृथ्वी पर; भावुका:--पदु तथाविचारवान ।
हे विज्ञ एवं भावुक जनों, वैदिक साहित्य रूपी कल्पवृक्ष के इस पक्व फलश्रीमद्भागवत को जरा चखो तो।
यह श्री शुकदेव गोस्वामी के मुख से निस्सृत हुआ है,अतएव यह और भी अधिक रुचिकर हो गया है, यद्यपि इसका अमृत-रस मुक्त जीवों समेतसमस्त जनों के लिए पहले से आस्वाद्य था।
" नैमिषेडनिमिषक्षेत्रे ऋषय: शौनकादय: ।
सत्र स्वर्गाय लोकाय सहख्लसममासत
४
नैमिषे--नैमिषारण्य नामक जंगल में; अनिमिष-क्षेत्रे--विष्णु को ( जो पलक नहीं मारते ) विशेष रूप से प्रिय स्थल में;ऋषय: --ऋषिगण; शौनक-आदय: --शौनक आदि; सत्रम्-यज्ञ; स्वर्गाय--स्वर्ग में जिनकी महिमा का गायन होता हैऐसे भगवान् के लिए; लोकाय--तथा भक्तों के लिए जो सदैव भगवान् के सम्पर्क में रहते हैं; सहस्त्र--एक हजार;समम्-वर्ष; आसत--सम्पन्न किया।
एक बार नैमिषारण्य के वन में एक पवित्र स्थल पर शौनक आदि महान ऋषिगण भगवान् तथा उनके भक्तों को प्रसन्न करने के लिए एक हजार वर्षों तक चलने वाले यज्ञ को सम्पन्न करने के उद्देश्य से एकत्र हुए।
" त एकदा तु मुनय: प्रारतहुताग्नय: ।
सत्कृतं सूतमासीनं पप्रच्छुरिदमादरात्ू
५
ते--वे ( मुनिगण ) ; एकदा--एक दिन; तु--लेकिन; मुनय:--मुनिगण; प्रात: --प्रातःकाल; हुत-- जलाकर; हुत-अग्नय:--यज्ञ की अग्नि; सत्-कृतम्-- आदर समेत; सूतम्-- श्री सूत गोस्वामी को; आसीनम्--बैठा कर; पप्रच्छु:--पूछा; इृदम्--इस पर ( निम्नलिखित ); आदरात्--आदरपूर्वक ।
एक दिन यज्ञाग्नि जलाकर अपने प्रातःकालीन कृत्यों से निवृत्त होकर तथा श्रील सूत गोस्वामी को आदरपूर्वक आसन अर्पण करके ऋषियों ने सम्मानपूर्वक निम्नलिखित विषयों पर प्रश्न पूछे।
" ऋषय ऊचु:त्वया खलु पुराणानि सेतिहासानि चानघ ।
आख्यातान्यप्यधीतानि धर्मशास्त्राणि यान्युत
६
ऋषय:--ऋषियों ने; ऊचु:--कहा; त्वया--आपके द्वारा; खलु--निश्चय ही; पुराणानि--परिपूरक वेदों को जिनमेंरोचक कथाएँ हैं; स-इतिहासानि--इतिहासों समेत; च--तथा; अनघ--समस्त पापों से मुक्त; आख्यातानि--कहा गया;अपि--यद्यपि; अधीतानि--सुपठित; धर्म-शास्त्राणि -- प्रगतिशील जीवन के लिए सही निर्देश देने वाले शास्त्र ग्रन्थ;यानि--ये सब; उत--व्याख्या की गई।
मुनियों ने कहा : हे पूज्य सूत गोस्वामी, आप समस्त प्रकार के पापों से पूर्ण रूप सेमुक्त हैं।
आप धार्मिक जीवन के लिए विख्यात समस्त शास्त्रों एवं पुराणों के साथ-साथ इतिहासों में निपुण हैं, क्योंकि आपने समुचित निर्देशन में उन्हें पढ़ा है और उनकी व्याख्या भी की है।
" यानि वेदविदां श्रेष्ठो भगवान् बादरायण: ।
अन्ये च मुनयः सूत परावरविदो विदु:
७
यानि--वह सब; वेद-विदाम्--वेदों के पंडित; श्रेष्ठ: --ज्येष्ठतम, वयोवृद्ध; भगवान्--ईश्वर के अवतार; बादरायण:--व्यासदेव; अन्ये-- अन्य; च--तथा; मुनयः--मुनिगण; सूत--हे सूत गोस्वामी; परावर-विदः--विद्वानों में जो भौतिकतथा आध्यात्मिक ज्ञान से परिचित होता है; विदुः--ज्ञाता
है सूत गोस्वामी, आप ज्येष्ठतम विद्वान एवं वेदान्ती होने के कारण ईश्वर के अवतारव्यासदेव के ज्ञान से अवगत हैं और आप उन अन्य मुनियों को भी जानते हैं जो सभी प्रकारके भौतिक तथा आध्यात्मिक ज्ञान में निष्णात हैं।
हे सूत गोस्वामी, आप ज्येष्ठतम विद्वान एवं वेदान्ती होने के कारण ईश्वर के अवतारव्यासदेव के ज्ञान से अवगत हैं और आप उन अन्य मुनियों को भी जानते हैं जो सभी प्रकारके भौतिक तथा आध्यात्मिक ज्ञान में निष्णात हैं।
" वेत्थ त्वं सौम्य तत्सर्व॑ तत्त्वतस्तदनुग्रहात् ।
ब्रूयु: स्निग्धस्य शिष्यस्य गुरवो गुह्ममप्युत
८
वेत्थ--पूर्ण रूप से निष्णात्; त्वमू--आप; सौम्य--शुद्ध तथा सरल व्यक्ति; तत्--वह; सर्वम्--समस्त; तत्त्वतः--वास्तव में; तत्--उनका; अनुग्रहात्--अनुग्रह से; ब्रूयु:--कहेंगे; स्निग्धस्य--विनीत; शिष्यस्य--शिष्य का; गुरव:--गुरुजन; गुहाम्-गुप्त, रहस्य; अपि उत--से युक्त ।
इससे भी अधिक, चूँकि आप विनीत हैं, आपके गुरुओं ने एक सौम्य शिष्य जानकरआप पर सभी तरह से अनुग्रह किया है अतः आप हमें वह सब बतायें जिसे आपने उनसेवैज्ञानिक ढंग से सीखा है।
" तत्र तत्राझ्लसायुष्मन् भवता यद्विनिश्चितम् ।
पुंसामेकान्तत: श्रेयस्तन्न: शंसितुमहसि
९
तत्र--वहाँ; तत्र--वहाँ; अज्ञसा--सहज; आयुष्मन्--दीर्घ जीवन का आशीर्वाद पाये; भवता--आपके द्वारा; यत्--जोकुछ; विनिश्चितम्--निश्चित किया; पुंसामू--जनसामान्य के लिए; एकान्ततः--नितान्त; श्रेयः --परम कल्याण; तत्--उस; नः--हमको; शंसितुमू--समझाने के लिए; अहसि--योग्य हो
अतएव, दीर्घायु की कृपा प्राप्त आप सरलता से समझ में आने वाली विधि से हमेंसमझाइये कि आपने जन साधारण के समग्र एवं परम कल्याण के लिए क्या निश्चय किया है?"
प्रायेणाल्पायुष: सभ्य कलावस्मिन् युगे जना: ।
मन्दा: सुमन्दमतयो मन्दभाग्या ह्युपद्रुता:
१०
प्रायेण-- प्रायः; अल्प--न्यून; आयुष:--आयु, जीवन अवधि; सभ्य--विद्वत्समाज का सदस्य; कलौ--कलियुग में;अस्मिन्--यहाँ पर; युगे--युग में; जना:--लोग, जनता; मन्दा:--आलसी; सुमन्द-मतय:--पथ भ्रष्ट; मन्द- भाग्या: --अभागे; हि--और तो और; उपद्गुता:--विचलितहे विद्वान, कलि के इस लौह-युग में लोगों की आयु न्यून है।
वे झगड़ालू, आलसी,पथशभ्रष्ट, अभागे होते हैं तथा साथ ही साथ सदैव विचलित रहते हैं।
शास्त्रों के अनेक विभाग हैं और उन सबमें अनेक नियमित कर्मों का उल्लेख है,जिनके विभिन्न प्रभागों को वर्षों तक अध्ययन करके ही सीखा जा सकता है।
अतः हे साधु,कृपया आप इन समस्त शास्त्रों का सार चुनकर समस्त जीवों के कल्याण हेतु समझायें,जिससे उस उपदेश से उनके हृदय पूरी तरह तुष्ट हो जायँ।
" भूरीणि भूरिकर्माणि श्रोतव्यानि विभागश: ।
अतः साधोअत्र यत्सारं समुद्धृत्य मनीषया ।
ब्रूहि भद्राय भूतानां येनात्मा सुप्रसीदति
११
भूरीणि--बहुमुखी; भूरि--अनेक; कर्माणि--कर्म, कर्तव्य; श्रोतव्यानि--सीखने योग्य; विभागश:--विषयानुसार;अतः--अतएव; साधो--हे साधु; अत्र--यहाँ पर; यत्-- जो कुछ; सारम्--निष्कर्ष; समुद्धृत्य--चुनाव करके;मनीषया--अपने ज्ञान के अनुसार सर्वश्रेष्ठ; बरृहि--कृपा करके बताएँ; भद्राय--कल्याण के लिए; भूतानाम्ू--जीवों के;येन--जिससे; आत्मा--आत्मा; सुप्रसीदति--पूर्ण रूप से प्रसन्न हो जाती है।
शास्त्रों के अनेक विभाग हैं और उन सबमें अनेक नियमित कर्मों का उल्लेख है, जिनके विभिन्न प्रभागों को वर्षो तक अध्ययन करके ही सीखा जा सकता है।
अतः हे साधु,कृपया आप इन समस्त शास्त्रों का सार चुनकर समस्त जीवों के कल्याण हेतु समझायें,जिससे उस उपदेश से उनके हृदय पूरी तरह तुष्ट हो जायँ।
" सूत जानासि भद्रं ते भगवान् सात्वतां पति: ।
देवक्यां वसुदेवस्य जातो यस्य चिकीर्षया
१२
सूत--हे सूत गोस्वामी; जानासि--आप जानते हो; भद्गम् ते--आपका कल्याण हो; भगवान्-- भगवान्; सात्वताम्--शुद्ध भक्तों का; पति:--रक्षक; देवक्याम्--देवकी के गर्भ में; बसुदेवस्य--वसुदेव से; जात:--उत्पन्न; यस्य--जिसकेउद्देश्य से; चिकीर्षया--सम्पन्न करने हेतु।
हे सूत गोस्वामी, आपका कल्याण हो।
आप जानते हैं कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्देवकी के गर्भ से वसुदेव के पुत्र के रूप में किस प्रयोजन से प्रकट हुए।
" तन्न: शुश्रूषमाणानामर्हस्यड्भानुवर्णितुम् ।
यस्यावतारो भूतानां क्षेमाय च भवाय च
१३
तत्--वे; नः--हमको; शुश्रूषमाणानाम्--जो प्रयलशील हैं; अहंसि--करना चाहिए; अड्भ--हे सूत गोस्वामी;अनुवर्णितुम्--पूर्ववर्ती आचार्यों का अनुगमन करते हुए व्याख्या करने के लिए; यस्य--जिसका; अवतार:--अवतार;भूतानाम्--जीवों के; क्षेमाय--कल्याण के लिए; च--तथा; भवाय--उन्नति के लिए; च--तथा।
हे सूत गोस्वामी, हम भगवान् तथा उनके अवतारों के विषय में जानने के लिए उत्सुकहैं।
कृपया हमें पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा दिये गये उपदेशों को बताइये, क्योंकि उनके वाचनश्रवण तथा कहने सुनने दोनों से ही मनुष्य का उत्कर्ष होता है।
" आपन्न: संसृति घोरां यन्नाम विवशो गृणन् ।
ततः सद्यो विमुच्येत यद्विभेति स्वयं भयम्
१४
आपतन्न:--फँसे हुए; संसृतिम्--जन्म-मृत्यु के चक्कर में; घोराम्--अत्यन्त उलझे; यत्--जो; नाम--परम नाम; विवश: --अनजाने में; गृणन्--उच्चारण करते हुए; ततः--उससे; सद्य:--तुरन्त; विमुच्येत--मुक्त हो जाता है; यत्--जो;बिभेति--डरता है; स्वयम्--स्वयं; भयम्--साक्षात् भय ।
जन्म तथा मृत्यु के जाल में उलझे हुए जीव, यदि अनजाने में भी कृष्ण के पवित्र नामका उच्चारण करते हैं, तो तुरन्त मुक्त हो जाते हैं, क्योंकि साक्षात् भय भी इससे ( नाम से )भयभीत रहता है।
" यत्पादसंश्रया: सूत मुनय: प्रशमायना: ।
सद्यः पुनन्त्युपस्पृष्टा: स्वर्धुन्यापोडनुसेवया
१५
यत्--जिसके; पाद--चरणकमल; संश्रया:--शरणागत; सूत--हे सूत गोस्वामी; मुन॒यः--बड़े-बड़े मुनिगण;प्रशमायना:--परमे श्वर की भक्ति में लीन; सद्यः--तुरन््त; पुनन्ति--पवित्र हो जाते हैं; उपस्पृष्टा:--केवल संगति से;स्वर्धुनी--पवित्र गंगा का; आप:--जल; अनुसेवया--उपयोग में लाने से ।
हे सूत गोस्वामी, जिन महान ऋषियों ने पूर्ण रूप से भगवान् के चरणकमलों की शरणग्रहण कर ली है, वे अपने सम्पर्क में आने वालों को तुरन्त पवित्र कर देते हैं, जबकि गंगाजल दीर्घकाल तक उपयोग करने के बाद ही पवित्र कर पाता है।
" को वा भगवतस्तस्य पुण्यश्लोकेड्यकर्मण: ।
शुद्धिकामो न श्रुणुयाद्यत: कलिमलापहम्
१६
कः--कौन; वा--बल्कि; भगवत:-- भगवान् का; तस्य--उनका; पुण्य--पुण्यात्मा; इलोक-ईड्य--स्तुतियों द्वारापूजनीय; कर्मण:--कर्म; शुद्धि-काम:--समस्त पापों से उद्धार की इच्छा करने वाला; न--नहीं; श्रुणुयात्--सुनता है;यशः--यश; कलि--कलह के युग का; मल-अपहम्--शुद्धि करने वालाइस कलहप्रधान युग के पापों से उद्धार पाने का इच्छुक ऐसा कौन है, जो भगवान् केपुण्य यशों को सुनना नहीं चाहेगा ?"
तस्य कर्माण्युदाराणि परिगीतानि सूरिभि: ।
ब्रूहि न: श्रद्धानानां लीलया दधत: कला:
१७
तस्य--उनके ; कर्माणि--दिव्य कर्म; उदाराणि--उदार; परिगीतानि-- प्रसारित; सूरिभि: --महात्माओं द्वारा; ब्रूहि--कृपया कहें; नः--हमसे; श्रद्धानानामू--आदरपूर्वक ग्रहण करने के लिए उद्यत; लीलया--लीलाओं से; दधत: -- धारणकिये हुए; कला;:--अवतार।
उनके दिव्य कर्म अत्यन्त उदार तथा अनुग्रहपूर्ण हैं और नारद जैसे महान् विद्वान मुनिउनका गायन करते हैं।
अतः कृपया हमें उनके अपने विविध अवतारों में सम्पन्न साहसिकलीलाओं के विषय में बतायें, क्योंकि हम सुनने के लिए उत्सुक हैं।
" अथाख्याहि हरेर्धीमन्नवतारकथा: शुभा: ।
लीला विदधत: स्वैरमीश्वरस्यात्ममायया
१८
अथ--अतः; आख्याहि--वर्णन करें; हरेः-- भगवान् के; धीमन्--हे बुद्धिमान; अवतार--अवतार; कथा: --कथाएँ;शुभाः--शुभ, कल्याणप्रद; लीला--साहसिक कार्य; विदधत:--सम्पन्न; स्वैरमू--लीलाएँ; ईश्वरस्थ--परम नियन्ता की;आत्म--निजी, अपनी; मायया--शक्तियों से।
हे बुद्धिमान सूतजी, कृपा करके हमसे भगवान् के विविध अवतारों की दिव्य लीलाओंका वर्णन करें।
परम नियन्ता भगवान् के ऐसे कल्याणप्रद साहसिक कार्य तथा उनकीलीलाएँ उनकी अन्तरंगा शक्तियों द्वारा सम्पन्न होते हैं।
" वयं तु न वितृष्याम उत्तमश्लोकविक्रमे ।
यच्छुण्वतां रसज्ञानां स्वादु स्वादु पदे पदे
१९
वयम्--हम; तु--लेकिन; न--नहीं; वितृप्याम: --तृप्त हो जाएँगे; उत्तम-शलोक--भगवान्, जिनका यशोगान दिव्यइलोकों से किया जाता है; विक्रमे--साहसिक कार्य; यत्--जो; श्रृण्वताम्--निरन्तर सुनने से; रस--रस के; ज्ञानामू--भिज्ञों को; स्वादु--स्वाद लेते हुए; स्वादु--सुस्वादु, स्वादिष्ट; पदे पदे--पग पग परहम उन भगवान् की दिव्य लीलाओं को सुनते थकते नहीं, जिनका यशोगान स्तोत्रोंतथा स्तुतियों से किया जाता है।
उनके साथ दिव्य सम्बन्ध के लिए जिन्होंने अभिरुचिविकसित कर ली है, वे प्रतिक्षण उनकी लीलाओं के श्रवण का आस्वादन करते हैं।
" कृतवान् किल कर्माणि सह रामेण केशव: ।
अतिमर्त्यानि भगवान् गूढ: कपटमानुष:
२०
कृतवान्--किये गये; किल--कौन-कौन से; कर्माणि--कार्य; सह--सहित; रामेण--बलराम; केशव: -- श्रीकृष्ण ने;अतिमर्त्यानि--अलौकिक; भगवान्-- भगवान्; गूढ:--प्रच्छन्न; कपट--ऊपर से; मानुष: --मनुष्य ।
भगवान् श्रीकृष्ण ने बलराम सहित मनुष्य की भाँति क्रीड़ाएँ कीं और इस प्रकार सेप्रच्छन्न रह कर उन्होंने अनेक अलौकिक कृत्य किये।
" कलिमागतमाज्ञाय क्षेत्रेडस्मिन् वैष्णवे वयम् ।
आसीना दीर्घसत्रेण कथायां सक्षणा हरे:
२१
'कलिम्--कलियुग ( कलहप्रिय लौह युग ) ; आगतम्--आया हुआ; आज्ञाय--जानकर; क्षेत्रे-- भूभाग में; अस्मिन्--इस; वैष्णवे--विशेष रूप से भगवान् के भक्तों के लिए; वयम्--हम; आसीना: --बैठे हुए; दीर्घ--दीर्घकालीन;सत्रेण--यज्ञ द्वारा; कथायाम्--शब्दों में; स-क्षणा: --अपने अवकाश के समय; हरेः--भगवान् के |.
यह भलीभाँति जानकर कि कलियुग का प्रारम्भ हो चुका है, हम इस पवित्र स्थल मेंभगवान् का दिव्य सन्देश सुनने के लिए तथा इस प्रकार यज्ञ सम्पन्न करने के लिए दीर्घ॑सत्रमें एकत्र हुए हैं।
" वं न: सन्दर्शितो धात्रा दुस्तरं निस्तितीर्षताम् ।
कलिं सत्त्वहरं पुंसां कर्णधार इवार्णवम्
२२
त्वमू--आपने; न: --हम सबों को; सन्दर्शित:--मिलाया है; धात्रा-- भाग्य से; दुस्तरम्--दुल॑ध्य; निस्तितीर्षताम्-- पारकरने की इच्छा करने वालों के लिए; कलिम्ू--कलियुग को; सत्त्व-हरम्--अच्छे गुणों को हरण करने वाला; पुंसामू--मनुष्य का; कर्ण-धार: --कप्तान; इब--सहश; अर्णवम्-- समुद्र |.
हम मानते हैं कि दैवी इच्छा ने हमें आपसे मिलाया है, जिससे मनुष्यों के सत्त्त का नाश करने वाले उस कलि रूप दुर्लध्य सागर को तरने की इच्छा रखने वाले हम सब आपको नौका के कप्तान के रूप में ग्रहण कर सकें।
" ब्रृहि योगेश्वरे कृष्णे ब्रह्मण्ये धर्मवर्मणि ।
स्वां काष्टामधुनोपेते धर्म: क॑ शरणं गत:
२३
ब्रूहि--कृपया कहें; योग-ईश्वर--समस्त योग शक्तियों के स्वामी; कृष्णे--भगवान् कृष्ण; ब्रह्मण्ये--परम सत्य; धर्म--धर्म; वर्मणि--रक्षक; स्वाम्--अपना; काष्टाम्-- धाम; अधुना--इस समय; उपेते--चले गये; धर्म:--धर्म; कम्--किसकी; शरणम्--शरण में; गतः--गया हुआ।
चूँकि परम सत्य, योगेश्वर, श्रीकृष्ण अपने निज धाम के लिए प्रयाण कर चुके हैं,अतएव कृपा करके हमें बताएँ कि अब धर्म ने किसका आश्रय लिया है?"
अध्याय दो: दिव्यता और दिव्य सेवा
1.2 व्यास उवाचइति सम्प्रश्नसंहष्टो विप्राणां रौमहर्षणि:।प्रतिपूज्यवच्स्तेषां प्रवक्तुमुपचक्रमे ॥१॥
व्यास: उबाच--व्यास ने कहा; इति--इस प्रकार; सम्प्रश्न--पूर्ण जिज्ञासा; संहृष्ट:--पूर्ण रूप से सन्तुष्ट; विप्राणाम्--वहाँके मुनियों का; रौमहर्षणि: --रोमहर्षण के पुत्र, उग्रश्रवा; प्रतिपूज्य--उनको धन्यवाद देकर; वच:--शब्द; तेषाम्--उनके; प्रवक्तुमू--उन्हें उत्तर देने के लिए; उपचक्रमे--प्रयत्त किया।
रोमहर्षण के पुत्र उग्रश्रवा ( सूत गोस्वामी ) ने ब्राह्मणों के सम्यक् प्रश्नों से पूर्णतः प्रसन्नहोकर उन्हें धन्यवाद दिया और वे उत्तर देने का प्रयास करने लगे।
"
सूत उवाचयं प्रत्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यंट्वैपायनों विरहकातर आजुहाव ।
पुत्रेति तन्मयतया तरवोभिनेदु-स्तं सर्वभूतहदयं मुनिमानतोस्मि ॥
२॥
सूतः उबाच--सूत गोस्वामी ने कहा; यम्--जिसको; प्रत्नजन्तम्--संन्यास लेते समय; अनुपेतम्--जनेऊ ( यज्ञोपवीत )संस्कार किये बिना; अपेत--संस्कार न करके; कृत्यम्--करणीय कर्तव्य; द्वैपायन:--व्यासदेव ने; विरह--वियोग से;कातरः--भयभीत होकर; आजुहाव--पुकारा; पुत्र इति--हे पुत्र; तत्-मयतया--इस प्रकार लीन होकर; तरव:--सारेवृक्षों ने; अभिनेदु:--उत्तर दिया; तमू--उसको; सर्व--समस्त; भूत--जीवों के; हृदयम्--हदय; मुनिम्--मुनि को;आनतः अस्मि--नमस्कार करता हूँ।
श्रील सूत गोस्वामी ने कहा : मैं उन महामुनि ( शुकदेव गोस्वामी ) को सादर नमस्कारकरता हूँ जो सबों के हृदय में प्रवेश करने में समर्थ हैं।
जब वे यज्ञोपवीत संस्कार अथवा उच्च जातियों द्वारा किए जाने वाले अनुष्ठानों को सम्पन्न किये बिना संन्यास ग्रहण करनेचले गये तो उनके पिता व्यासदेव उनके वियोग के भय से आतुर होकर चिल्ला उठे, 'हेपुत्र, ' उस समय जो वैसी ही वियोग की भावना में लीन थे, केवल ऐसे वृशज्षों ने शोकग्रस्तपिता के शब्दों का प्रतिध्वनि के रूप में उत्तर दिया।
"
यः स्वानुभावमखिलश्रुतिसारमेक-मध्यात्मदीपमतितितीर्षतां तमोन्धम् ।
संसारिणां करुणयाह पुराणगुट्मंतंव्याससूनुमुपयामि गुरुं मुनीनामू ॥
३॥
यः--जो; स्व-अनुभावम्--आत्म-अनु भवी; अखिल--समस्त; श्रुति--वेदों का; सारम्--सार, निष्कर्ष; एकम्--एकमात्र; अध्यात्म--दिव्य; दीपम्--दीपक; अतितितीर्षताम्--पार जाने की इच्छा से; तमः अन्धम्--गहन अन्धकारमयभौतिक अस्तित्व; संसारिणाम्--भौतिकतावादी मनुष्यों का; करूणया--अहैतुकी कृपा से; आह--कहा; पुराण--पुराण, वेदों के पूरक ग्रंथ; गुह्मम्--अत्यन्त गोपनीय; तम्--उन; व्यास-सूनुम्--व्यासदेव के पुत्र को; उपयामि--नमस्कार करता हूँ; गुरुम्--गुरु को; मुनीनामू--मुनियों के ।
मैं समस्त मुनियों के गुरु, व्यासदेव के पुत्र ( शुकदेव ) को सादर नमस्कार करता हूँजिन्होंने संसार के गहन अंधकारमय भागों को पार करने के लिए संघर्षशील उन निपटभौतिकतावादियों के प्रति अनुकम्पा करके बैदिक ज्ञान के सार रूप इस परम गुह्ा पुराणको स्वयं आत्मसात् करने के बाद अनुभव द्वारा कह सुनाया।
"
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥
४॥
नारायणम्-- भगवान् को; नम:-कृत्य-- नमस्कार करके; नरम् च एब--तथा नारायण ऋषि को; नर-उत्तमम्--सर्वश्रेष्ठमनुष्य; देवीम्-देवी; सरस्वतीम्--विद्या की अधिष्ठात्री को; व्यासम्-व्यासदेव को; तत:ः--तत्पश्चात्; जयम्--विजयप्राप्त करने के लिए; उदीरयेत्--घोषित करे।
विजय के साधनस्वरूप इस श्रीमद्धागवत का पाठ करने ( सुनने ) के पूर्व मनुष्य को चाहिए कि वह श्रीभगवान् नारायण को, नरोत्तम नरनारायण ऋषि को, विद्या की देवी माता सरस्वती को तथा ग्रंथकार श्रील व्यासदेव को नमस्कार करे।
"
मुनय: साधु पृष्टोड5हं भवद्धिलोकमज्गनलम् ।
यत्कृत: कृष्णसम्प्रश्नो येनात्मा सुप्रसीदति ॥
५॥
मुनयः--हे मुनियों; साधु--यह प्रासंगिक है; पृष्ट:ः--पूछा गया; अहम्--मैं; भवद्धि:ः--आप लोगों के द्वारा; लोक--संसार; मड्डलम्--मंगल, कल्याण; यत्--क्योंकि; कृत: --बनाया गया; कृष्ण -- भगवान्; सम्प्रश्न: --संगत प्रश्न;येन--जिससे; आत्मा--स्व; सुप्रसीदति--पूर्ण रूप से प्रसन्न होता है।
हे मुनियों, आपने मुझसे ठीक ही प्रश्न किया है।
आपके प्रश्न शलाघनीय हैं, क्योंकि उनका सम्बन्ध भगवान् कृष्ण से है और इस प्रकार वे विश्व-कल्याण के लिए हैं।
ऐसे प्रश्नों से ही पूर्ण आत्मतुष्टि हो सकती है।
"
स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे ।
अहैतुक्यप्रतिहता ययात्मा सुप्रसीदति ॥
६॥
सः--वह; बै--निश्चय ही; पुंसामू--मनुष्यों के लिए; पर:--दिव्य; धर्म:--वृत्ति; यतः--जिससे; भक्ति:--भक्ति;अधोक्षजे--अध्यात्म के प्रति; अहैुतुकी--अकारण; अप्रतिहता--अखण्ड; यया--जिससे; आत्मा--आत्मा;सुप्रसीदति--पूर्ण रूप से प्रसन्न होता है।
सम्पूर्ण मानवता के लिए परम वृत्ति ( धर्म ) वही है, जिसके द्वारा सारे मनुष्य दिव्यभगवान् की प्रेमा-भक्ति प्राप्त कर सकें।
ऐसी भक्ति अकारण तथा अखण्ड होनी चाहिएजिससे आत्मा पूर्ण रूप से तुष्ट हो सके ।
"
वासुदेवे भगवति भक्तियोग: प्रयोजित: ।
जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं च यदहैतुकम् ॥
७॥
वासुदेवे--कृष्ण के प्रति; भगवति--भगवान् के प्रति; भक्ति-योग: --भक्ति सम्बन्ध; प्रयोजित:--व्यवहतत; जनयति--उत्पन्न करता है; आशु--तुरन्त ही; वैराग्यमू--वैराग्य, विरक्ति; ज्ञाममू--ज्ञान; च--तथा; यत्-- जो; अहैतुकम्--अकारण।
भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति करने से मनुष्य तुरन्त ही अहैतुक ज्ञान तथा संसार सेवैराग्य प्राप्त कर लेता है।
"
धर्म: स्वनुष्ठित: पुंसां विष्वक्सेनकथासु यः ।
नोत्पादयेद्यदि रतिं श्रम एव हि केवलम् ॥
८॥
धर्म: --वृत्ति; स्वनुष्ठितः--अपने पद के अनुसार सम्पन्न; पुंसामू--मनुष्यों का; विष्वक्सेन-- भगवान् ( पूर्ण अंश ) की;कथासु--कथा में; यः--जो है; न--नहीं; उत्पादयेत्--उत्पन्न करता है; यदि--यदि; रतिम्--आसक्ति; श्रम:--व्यर्थश्रम; एव--निरा; हि--निश्चय ही; केवलम्--पूर्ण रूप से ।
मनुष्य द्वारा अपने पद के अनुसार सम्पन्न की गई वृत्तियाँ यदि भगवान् के सन्देश केप्रति आकर्षण उत्पन्न न कर सकें, तो वे निरी व्यर्थ का श्रम होती हैं।
"
धर्मस्य ह्यापवर्ग्यस्य नार्थोर्थायोपकल्पते ।
नार्थस्य धर्मैकान्तस्य कामो लाभाय हि स्मृत: ॥
९॥
धर्मस्य--वृत्ति का; हि--निश्चय ही; आपवर्ग्यस्य--अन्तिम मोक्ष का; न--नहीं; अर्थ:--अन्त, लक्ष्य; अर्थाय-- भौतिकलाभ के लिए; उपकल्पते--साधन के हेतु; न--न तो; अर्थस्य-- भौतिक लाभ का; धर्म-एक-अन्तस्य--धर्म में लगे हुएके लिए; काम:--इन्द्रियतृष्ति के; लाभाय--लाभ हेतु; हि--सही सही; स्मृतः:--ऋषियों द्वारा बताया गया है।
समस्त वृत्तिपरक कार्य निश्चय ही परम मोक्ष के निमित्त होते हैं।
उन्हें कभी भौतिकलाभ के लिए सम्पन्न नहीं किया जाना चाहिए।
इससे भी आगे, ऋषियों के अनुसार, जोलोग परम वृत्ति ( धर्म ) में लगे हैं, उन्हें चाहिए कि इन्द्रियतृष्ति के संवर्धन हेतु भौतिक लाभका उपयोग कदापि नहीं करना चाहिए।
"
कामस्य नेन्द्रियप्रीतिर्लाभो जीवेत यावता ।
जीवस्य तत्त्वजिज्ञासा नार्थों यश्वेह कर्मभि: ॥
१०॥
'कामस्य--इच्छाओं का; न--नहीं; इन्द्रिय--इन्द्रियों की; प्रीतिः:--तुष्टि; लाभ:--लाभ; जीवेत--आत्मसंरक्षण;यावता--जितना; जीवस्य--जीव का; तत्त्व--परम सत्य की; जिज्ञासा--पूछताछ, उत्कंठा; न--नहीं; अर्थ:--अन्त,लक्ष्य; यः च इह--अन्य जो भी; कर्मभि:--वृत्तियों के द्वारा।
जीवन की इच्छाएँ इन्द्रियतृप्ति की ओर लक्षित नहीं होनी चाहिए।
मनुष्य को केवलस्वस्थ जीवन की या आत्म-संरक्षण की कामना करनी चाहिए, क्योंकि मानव तो परम सत्यके विषय में जिज्ञासा करने के निमित्त बना है।
मनुष्य की वृत्तियों का इसके अतिरिक्त,अन्य कोई लक्ष्य नहीं होना चाहिए।
"
वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्दयम् ।
ब्रहति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ॥
११॥
वदन्ति--वे कहते हैं; तत्--वह; तत्त्व-विदः--विद्वान लोग; तत्त्वमू--परम सत्य को; यत्--जो; ज्ञानम्--ज्ञान;अद्वयम्--अद्ठैत; ब्रह्म इति--ब्रह्म नाम से जाना जाने वाला; परमात्मा इति--परमात्मा नाम से जाना जाने वाला; भगवान्इति--भगवान् नाम से जाना जाने वाला; शब्द्यते--कहलाने वाले हैं।
परम सत्य को जानने वाले विद्वान अध्यात्मवादी ( तत्त्वविद ) इस अद्बय तत्त्व को ब्रह्म,परमात्मा या भगवान् के नाम से पुकारते हैं।
"
तच्छुद्धाना मुनयो ज्ञानवैराग्ययुक्तया ।
पश्यन्त्यात्मनि चात्मानं भकत्या श्रुतगृहीतया ॥
१२॥
तत्--वह; श्रदधधाना:--गम्भीर जिज्ञासु; मुन॒यः --मुनिगण; ज्ञान--ज्ञान; वैराग्य--वैराग्य; युक्तया--से समन्वित;'पश्यन्ति--देखते हैं; आत्मनि-- अपने में; च--तथा; आत्मानम्--परमात्मा को; भक्त्या--भक्ति से; श्रुत--वेद से;गृहीतया--भली भाँति ग्रहण किया गया।
ज्ञान तथा वैराग्य से समन्वित गम्भीर जिज्ञासु या मुनि, वेदान्त-श्रुति के श्रवण से ग्रहणकी हुई भक्ति द्वारा परम सत्य की अनुभूति करता है।
"
अत: पुम्भिद्विजश्रेष्ठा वर्णाश्रमविभागश: ।
स्वनुष्ठितस्य धर्मस्य संसिद्धि्हरितोषणम् ॥
१३॥
अतः--अतएव; पुम्भि:--मनुष्य द्वारा; द्विज- श्रेष्ठा:-हे द्विजों में श्रेष्ठ; वर्ण-आश्रम--चार वर्णो तथा जीवन के चारआश्रमों के; विभागश:--विभाजन से; स्वनुष्ठितस्थ-- अपने कर्तव्यों का; धर्मस्य--वृत्तिपरक; संसिद्द्धिः--सर्वोच्चसिद्धि; हरि--भगवान् को; तोषणम्--तुष्ट या प्रसन्न करना ।
अतः हे द्विजश्रेष्ठ, निष्कर्ष यह निकलता है कि वर्णाश्रम धर्म के अनुसार अपने कर्तव्योंको पूरा करने से जो परम सिद्धि प्राप्त हो सकती है, वह है भगवान् को प्रसन्न करना।
"
तस्मादेकेन मनसा भगवान् सात्वतां पति: ।
श्रोतव्य: कीर्तितव्यश्व ध्येय: पूज्यश्च नित्यदा ॥
१४॥
तस्मात्--अतः; एकेन--एक, एकाग्र; मनसा--मन के ध्यान द्वारा; भगवान्-- भगवान्; सात्वताम्-भक्तों के; पति:--रक्षक; श्रोतव्य: --सुनने योग्य; कीर्तितव्य:--गुणगान के योग्य; च--तथा; ध्येय:--स्मरण करने योग्य; पूज्य: --पूजनेके योग्य, पूजनीय; च--तथा; नित्यदा--निरन्तरअतएव मनुष्य को एकाग्रचित से उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के विषय में निरन्तरश्रवण, कीर्तन, स्मरण तथा पूजन करना चाहिए, जो भक्तों के रक्षक हैं।
"
यदनुध्यासिना युक्ता: कर्मग्रन्थिनिबन्धनम् ।
छिन्दन्ति कोविदास्तस्य को न कुर्यात्कथारतिम् ॥
१५॥
यतू--जो; अनुध्या-- स्मृति रूपी; असिना--तलवार से; युक्ता:--युक्त, समन्वित; कर्म--कर्म की; ग्रन्थि--गाँठ;निबन्धनम्--बँधी हुई; छिन्दन्ति--काटते हैं; कोविदाः --बुद्धिमान; तस्थ--उसका; कः--कौन; न--नहीं; कुर्यात्--करेंगे; कथा--सन्देश, कथाएँ; रतिम्--ध्यान।
हाथ में तलवार लिए बुद्धिमान मनुष्य भगवान् का स्मरण करते हुए कर्म की बंँधी हुईंग्रंथि को काट देते हैं।
अतएव ऐसा कौन होगा जो उनके सन्देश की ओर ध्यान नहीं देगा ?"
शुश्रूषो: श्रद्धानस्य वासुदेवकथारुचि: ।
स्यान्महत्सेवया विप्रा: पुण्यतीर्थनिषेवणात् ॥
१६॥
शुश्रूषो:-- श्रवण में व्यस्त; श्रद्दधानस्य-- श्रद्धापूर्वक; वासुदेव--वासुदेव की; कथा--संदेश, कथा में; रुचि:--लगाव;स्थातू--सम्भव बन जाता है; महत्-सेवया--शुद्ध भक्तों की सेवा करके; विप्रा:--हे द्विजगण; पुण्य-तीर्थ--समस्त पापोंसे शुद्ध हुओं की; निषेवणात्--सेवा से ।
हे द्विजो, जो भक्त समस्त पापों से पूर्ण रूप से मुक्त हैं, उनकी सेवा करने से महान सेवाहो जाती है।
ऐसी सेवा से वासुदेव की कथा सुनने के प्रति लगाव उत्पन्न होता है।
"
श्रण्वतां स्वकथा: कृष्ण: पुण्यश्रवणकीर्तन: ।
हद्यन्त:स्थो ह्यभद्राणि विधुनोति सुहृत्सताम् ॥
१७॥
श्रण्वताम्--जिन्होंने कथा सुनने की रुचि उत्पन्न कर ली है; स्व-कथा:--अपनी वाणी; कृष्ण: -- भगवान्; पुण्य--पावन; श्रवण--सुनना; कीर्तन:--कीर्तन करना; हृदि अन्त: स्थ:--अपने हादय के भीतर; हि--निश्चय ही; अभद्राणि--पदार्थ को भोगने की इच्छा; विधुनोति--स्वच्छ करता है, विमल बनाता है; सुहत्--उपकारी; सताम्--सत्यनिष्ठ के प्रत्येक हृदय में परमात्मास्वरूप स्थित तथा सत्यनिष्ठ भक्तों के हितकारी भगवान् श्रीकृष्ण, उस भक्त के हृदय से भौतिक भोग की इच्छा को हटाते हैं जिसने उनकी कथाओंको सुनने में रुचि उत्पन्न कर ली है, क्योंकि ये कथाएँ ठीक से सुनने तथा कहने पर अत्यन्तपुण्यप्रद हैं।
"
नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्य भागवतसेवया ।
भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैप्ठिकी ॥
१८॥
नष्ट--समाप्त; प्रायेषु--प्रायः शून्य; अभद्रेषु--समस्त अमंगलों से; नित्यम्--नियमित रूप से; भागवत--श्रीमद्भागवतया शुद्ध भक्त की; सेवया--सेवा द्वारा; भगवति-- भगवान् में; उत्तम--दिव्य; एलोके--स्तुतियाँ; भक्ति:--प्रेमाभक्ति,सेवा; भवति--( उत्पन्न ) होती है; नैप्ठिकी--अटल, अविचल ।
भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से हृदयके सारे दुख लगभग पूर्णतः विनष्ट हो जाते हैं और उन पुण्यश्लोक भगवान् में अटलप्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है, जिनकी प्रशंसा दिव्य गीतों से की जाती है।
"
तदा रजस्तमोभावा: कामलोभादयश्च ये ।
चेत एतैरनाविद्धं स्थितं सत्त्वे प्रसीदति ॥
१९॥
तदा--उस समय; रज:--रजोगुण में; तम:--तमो गुण; भावा:--परिस्थिति; काम--काम तथा इच्छा; लोभ--लालसा;आदयः--आदि आदि; च--तथा; ये--जो भी हैं; चेत:--मन; एतैः--इनसे; अनाविद्धम्--प्रभावित हुए बिना;स्थितम्--स्थित होकर; सत्त्वे--सतोगुण में; प्रसीदति--परम प्रसन्न होता हैज्योंही हृदय में अटल प्रेमा भक्ति स्थापित हो जाती है, प्रकृति के रजोगुण तथा तमोगुणके प्रभाव जैसे काम, इच्छा तथा लोभ हृदय से लुप्त हो जाते हैं।
तब भक्त सत्त्वगुण मेंस्थित होकर परम सुखी हो जाता है।
"
एवं प्रसन्नमनसो भगवद्धक्तियोगत: ।
भगवत्तत्त्वविज्ञानं मुक्तसड्गस्यथ जायते ॥
२०॥
एवम्--इस प्रकार; प्रसन्न--स्फूर्त; मनस:--मन से; भगवत्-भक्ति-- भगवान् की भक्ति के; योगतः--सम्पर्क से;भगवत्--भगवान् का; तत्त्व--ज्ञान; विज्ञानम्-वैज्ञानिक; मुक्त--मुक्त हुआ; सड्ल्स्थ--संगति का; जायते--हो जाताहै।
इस प्रकार शुद्ध सत्त्व में स्थित होकर, जिस मनुष्य का मन भगवान् की भक्ति के संसर्गसे प्रसन्न हो चुका होता है उसे समस्त भौतिक संगति से मुक्त होने पर भगवान् का सहीवैज्ञानिक ज्ञान ( विज्ञान तत्त्व ) प्राप्त होता है।
"
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशया: ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि दृष्ट एवात्मनीश्वरे ॥
२१॥
भिद्यते--भिद जाती है; हदय--हृदय की; ग्रन्थि:--गाँठें; छिद्यन्ते--खण्ड-खण्ड हो जाते हैं; सर्व--सभी; संशया: --भ्रम, संदेह; क्षीयन्ते--समाप्त हो जाते हैं; च--तथा; अस्य--उसकी; कर्माणि--सकाम कर्मों की श्रृंखला; दृष्टे--देखनेके पश्चात्; एब--निश्चय ही; आत्मनि--स्वयं आत्मा को; ई श्वरे-- प्रधान या स्वामी में ।
इस प्रकार हृदय की गाँठ भिद जाती है और सारे सशंय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं।
जबमनुष्य आत्मा को स्वामी के रूप में देखता है, तो सकाम कर्मो की श्रृंखला समाप्त हो जातीहै।
"
अतो वै कवयो नित्यं भक्ति परमया मुदा ।
वासुदेवे भगवति कुर्वन्त्यात्मप्रसादनीम् ॥
२२॥
अतः--अतएव; बै--निश्चय ही; कवय:--सारे अध्यात्मवादी; नित्यमू--अनादि काल से; भक्तिमू-- भगवान् की सेवा;'परमया--परम; मुदा--अत्यन्त प्रसन्नता के साथ; वासुदेवे-- श्रीकृष्ण में; भगवति-- भगवान्; कुर्वन्ति--करते हैं;आत्म--आत्मा को; प्रसादनीम्--जो प्रमुदित करने वाली है।
अतएव, निश्चय ही सारे अध्यात्मवादी अनन्त काल से अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति करते आ रहे हैं, क्योंकि ऐसी भक्ति आत्मा को प्रमुदित करने वाली है।
सत्त्वं रजस्तम इति प्रकृतेर्गुणास्तै-युक्त: पर: पुरुष एक इहास्य धत्ते ।
"
स्थित्यादये हरिविरिजश्विहरेति संज्ञा:श्रेयांसि तत्र खलु सत्त्वतनोर्नणां स्यु: ॥
२३॥
सत्त्वम्--सत्त्वगुण; रज:--रजोगुण; तम:--तमोगुण; इति--इस प्रकार; प्रकृते:--प्रकृति के; गुणा:--गुण; तैः--उनकेद्वारा; युक्त:--समन्वित; पर: --दिव्य; पुरुष: --पुरुष; एक:--एक; इह अस्य--इस भौतिक जगत का; धत्ते--स्वीकारकरता है; स्थिति-आदये--उत्पत्ति, पालन तथा संहार आदि को; हरि--विष्णु भगवान्; विरिश्धि--ब्रह्मा; हर--शिवजी;इति--इस प्रकार; संज्ञाः--विभिन्न स्वरूप; श्रेयाँंसि--चरम लाभ; तत्र--वहाँ; खलु--निस्सन्देह; सत्त्व--सात्त्विक;तनो:--रूप; नृणाम्--मनुष्यों का; स्यु:--प्राप्त किया।
दिव्य भगवान् प्रकृति के तीन गुणों--सत्त्व, रज तथा तम--से अप्रत्यक्ष रूप सेसम्बद्ध हैं और वे भौतिक जगत की उत्पत्ति, पालन तथा संहार के लिए ब्रह्मा, विष्णु तथाशिव, इन तीन गुणात्मक रूपों को ग्रहण करते हैं।
इन तीनों रूपों में से सत्त्व गुण वालेविष्णु से सारे मनुष्य परम लाभ प्राप्त कर सकते हैं।
"
पार्थिवाद्दरुणो धूमस्तस्मादग्निस्रयीमय: ।
तमसस्तु रजस्तस्मात्सत्त्व॑ं यद्रह्मदर्शनम् ॥
२४॥
पार्थिवात्--पृथ्वी से; दारूण:--ईंधन; धूम:--धुँआ; तस्मात्--उससे; अग्नि:-- अग्नि; त्रयी--वैदिक यज्ञ; मयः--सेबना; तमसः--तमोगुण में; तु--लेकिन; रज:--रजोगुण; तस्मात्--उससे; सत्त्वम्--सतोगुण; यत्--जो; ब्रह्म --परमसत्य; दर्शनमू--साक्षात्कार।
अग्निकाष्ट मृदा का रूपान्तर है, लेकिन काष्ट से बेहतर धुँआ है।
अग्नि उससे भी उत्तमहै, क्योंकि अग्नि से ( वैदिक यज्ञों से ) हमें श्रेष्ठ ज्ञान के लाभ प्राप्त हो सकते हैं।
इसीप्रकार रजोगुण तमोगुण से बेहतर है, लेकिन सत्त्वगुण सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि सत्त्वगुण सेमनुष्य परम सत्य का साक्षात्कार कर सकता है।
"
भेजिरे मुनयो5थाग्रे भगवन्तमधोक्षजम् ।
सत्त्वं विशुद्धं क्षेमाय कल्पन्ते येडनु तानिह ॥
२५॥
भेजिरे--की सेवा; मुनयः--मुनियों ने; अथ--इस प्रकार; अग्रे--पूर्वकाल में; भगवन्तम्-- भगवान् के प्रति;अधोक्षजम्--अध्यात्म, गुणातीत; सत्त्वम्-अस्तित्व; विशुद्धम्-प्रकृति के तीनों गुणों से परे; क्षेमाय--परम लाभ प्राप्तकरने के लिए; कल्पन्ते--योग्य हैं; ये--जो; अनु--अनुसरण करते हैं; तानू--वे; इह--इस संसार में ॥
पूर्वकाल में समस्त महामुनियों ने भगवान् की सेवा की, क्योंकि वे प्रकृति के तीनोंगुणों से परे हैं।
उन्होंने भौतिक परिस्थितियों से मुक्त होने के लिए और फलस्वरूप परमलाभ प्राप्त करने के लिए पूजा की।
अतएव जो कोई इन महामुनियों का अनुसरण करता हैवह भी इस भौतिक संसार में मोक्ष का अधिकारी बन जाता है।
"
मुमुक्षवों घोररूपान् हित्वा भूतपतीनथ ।
नारायणकला: शान्ता भजन्ति ह्मनसूयव: ॥
२६॥
मुमुक्षयः --मो क्षकामी व्यक्ति; घोर-- भयानक; रूपान्--रूपों को; हित्वा--त्याग कर; भूत-पतीन्--देवतागण; अथ--इस कारण से; नारायण-- भगवान् के; कला: --स्वांशों; शान्ता:--परम आनन्दमय; भजन्ति--पूजा करते हैं; हि--निश्चय ही; अनसूयव:--द्वेषरहित ।
जो लोग मोक्ष के प्रति गम्भीर हैं, वे निश्चय ही द्वेषरहित होते हैं और सबका सम्मानकरते हैं।
किन्तु, फिर भी वे देवताओं के घोर रूपों का अस्वीकार करके, केवल भगवान्विष्णु तथा उनके स्वांशों के कल्याणकारी रूपों की ही पूजा करते हैं।
"
रजस्तमः:प्रकृतय: समशीला भजन्ति वै ।
पितृभूतप्रजेशादीन्धश्रियै श्वर्यप्रजेप्सतव: ॥
२७॥
रज:--रजोगुण; तम:--तमोगुण; प्रकृतबः--उस स्वभाव का; सम-शीला:--एक ही कोटि के; भजन्ति--पूजा करते हैं;वै--निश्चय ही; पितृ--पितरगण; भूत-- अन्य जीव; प्रजेश-आदीनू-- प्रजापति इत्यादि; अ्रिया--सम्पन्नता; ऐश्वर्य--सम्पत्ति तथा शक्ति; प्रजा--सन्तति, सनन््तान; ईप्सवः--ऐसी इच्छा करते हुए।
जो लोग रजोगुणी तथा तमोगुणी हैं वे पितरों, अन्य जीवों तथा उन देवताओं की पूजाकरते हैं, जो सृष्टि सम्बन्धी कार्यकलापों के प्रभारी हैं, क्योंकि वे स्त्री, धन, शक्ति तथासन््तान का लाभ उठाने की इच्छा से प्रेरित होते हैं।
"
वासुदेवपरा वेदा वासुदेवपरा मखा: ।
वासुदेवपरा योगा वासुदेवपरा: क्रिया: ॥
२८॥
वासुदेवपरं ज्ञानं वासुदेवपरं तप: ।
वासुदेवपरो धर्मों वासुदेवपरा गति: ॥
२९॥
वासुदेव-- भगवान्; परा:--परम लक्ष्य; वेदा:--प्रामाणिक शास्त्र; वासुदेव-- भगवान्; परा:--पूजा करने के लिए;मखा:--यज्ञ; वासुदेव-- भगवान्; परा: -- प्राप्त करने के साधन; योगा:--यौगिक साज-सामग्री; वासुदेव-- भगवान् के;परा:--उनके अधीन; क्रिया:--सकाम कर्म; वासुदेव-- भगवान्; परम्--परम; ज्ञानमू--ज्ञान; वासुदेव-- भगवान्;परम्--सर्व श्रेष्ठ; तप:--तपस्या; वासुदेव-- भगवान्; पर:--सर्वोच्च गुण; धर्म:--धर्म; वासुदेव--भगवान्; परा:--चरम; गति:--जीवन का लक्ष्य ।
,प्रामाणिक शास्त्रों में ज्ञान का परम उद्देश्य पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्वर श्रीकृष्ण हैं।
यज्ञकरने का उद्देश्य उन्हें ही प्रसन्न करना है।
योग उन्हीं के साक्षात्कार के लिए है।
सारे सकामकर्म अन्ततः उन्हीं के द्वारा पुरस्कृत होते हैं।
वे परम ज्ञान हैं और सारी कठिन तपस्याएँ उन्हींको जानने के लिए की जाती हैं।
उनकी प्रेमपूर्ण सेवा करना ही धर्म है।
वे ही जीवन केचरम लक्ष्य हैं।
"
स एवेदं ससर्जाग्रे भगवानात्ममायया ।
सदसद्गरूपया चासौ गुणमयागुणो विभु: ॥
३०॥
सः--वह; एव--ही; इृदम्--इस; ससर्ज--उत्पन्न किये गये; अग्रे--पहले; भगवान्-- भगवान्; आत्म-मायया--अपनीनिजी शक्ति से; सत्--कारण; असत्--प्रभाव, फल; रूपया--रूपों के द्वारा; च--तथा; असौ--वही भगवान्; गुण-मय--भौतिक प्रकृति के गुणों में; अगुण: --दिव्य; विभुः--परम ।
इस भौतिक सृष्टि के प्रारम्भ में, उन भगवान् ( वासुदेव ) ने अपने दिव्य पद पर रहकरअपनी ही अन्तरंगा शक्ति से कारण तथा कार्य की शक्तियाँ उत्पन्न कीं।
"
तया विलसितेष्वेषु गुणेषु गुणवानिव ।
अन्त:प्रविष्ट आभाति विज्ञानेन विजृुम्भित: ॥
३१॥
तया--उनके द्वारा; विलसितेषु--यद्यपि कार्य में; एघु--इन; गुणेषु-- भौतिक प्रकृति के गुणों में; गुणवान्--गुणों सेप्रभावित होने वाला; इब--मानो; अन्तः-- भीतर; प्रविष्ट: --घुसा हुआ; आभाति--प्रतीत होता है; विज्ञानेन--दिव्यचेतना से; विजुृम्भित:--पूर्ण रूप से प्रकाशित ।
भौतिक पदार्थ की उत्पत्ति करने के बाद, भगवान् ( वासुदेव ) अपना विस्तार करकेउसमें प्रवेश करते हैं।
यद्यपि वे प्रकृति के गुणों में रहते हुए उत्पन्न जीवों में से एक जैसेलगते हैं, किन्तु वे सदैव अपने दिव्य पद पर पूर्ण रूप से आलोकित रहते हैं।
"
यथा ह्यवहितो वह्िि्दारुष्वेक: स्वयोनिषु ।
नानेव भाति विश्वात्मा भूतेषु च तथा पुमान् ॥
३२॥
यथा--जिस तरह; हि--उसी तरह; अवहितः--से युक्त; वह्िः--अग्नि; दारुषु--काष्ठ में; एक:--एक; स्व-योनिषु--अपनी योनियों में; नाना इब--अनेक जीवों की तरह; भाति--प्रकाशित होता है; विश्व-आत्मा--परमात्मा रूप भगवान्;भूतेषु--जीवों में; च--तथा; तथा--उसी तरह; पुमान्--परम पुरुष।
परमात्मा रूप में भगवान् सभी वस्तुओं में उसी तरह व्याप्त रहते हैं जिस तरह काष्ट केभीतर अग्नि व्याप्त रहती है और इस प्रकार यद्यपि वे एक एवं अद्वितीय हैं, वे अनेक प्रकारसे दिखते हैं।
"
असौ गुणमयैभविर्भूतसूक्ष्मेन्द्रियात्मभि: ।
स्वनिर्मितेषु निर्विष्टो भुड़े भूतेषु तदुगुणान् ॥
३३॥
असौ--वे परमात्मा; गुण-मयै:--प्रकृति के गुणों से प्रभावित; भावैः--स्वाभाविक रूप से; भूत--उत्पन्न; सूक्ष्म--सूक्ष्म;इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; आत्मभि:--जीवों द्वारा; स्व-निर्मितेषु--अपनी ही सृष्टि में; निर्विष्ट:--प्रवेश करके; भुड्ढे -- भोग केलिए प्रेरित करते हैं; भूतेषु--जीवों में; तत्-गुणान्--प्रकृति के वे गुण।
भौतिक जगत के तीन गुणों से प्रभावित हुए जीवों के देह में परमात्मा प्रविष्ट होते हैंऔर सूक्ष्म मन के द्वारा तीन गुणों के फल भोगने के लिए जीवों को प्रेरित करते हैं।
"
भावयत्येष सत्त्वेन लोकान् वै लोकभावन: ।
लीलावतारानुरतो देवतिर्यड्नरादिषु ॥
३४॥
भावयति--पालन करते हैं; एघ:--इन सबका; सत्त्वेन--सतोगुण से; लोकान्--ब्रह्माण्ड भर में; वै--सामान्य रूप से;लोक-भावन: --समस्त ब्रह्माण्डों के स्वामी; लीला--कार्यकलाप; अवतार--अवतार; अनुरतः -- भूमिका ग्रहण करतेहुए; देव--देवता; तिर्यक्--निम्न पशु; नर-आदिषु--मनुष्यों में ।
इस प्रकार सारे ब्राह्माण्डों के स्वामी देवताओं, मनुष्यों तथा निम्न पशुओं से आवासितसारे ग्रहों का पालन-पोषण करने वाले हैं।
वे अवतरित होकर शुद्ध सत्त्वगुण में रहने वालोंके उद्धार हेतु लीलाएँ करते हैं।
"
अध्याय तीन: कृष्ण सभी अवतारों के स्रोत हैं
1.3सूत उवाचजगृहे पौरुषं रूपं भगवान्महदादिभि: ।
सम्भूतं षोडशकलमादौलोकसिसृक्षया ॥
१॥
सूतः उबाच--सूत ने कहा; जगृहे--स्वीकार किया; पौरुषम्--पुरुष अवतार रूप में पूर्णाश; रूपमू--रूप; भगवान्--भगवान्; महत्-आदिभि:-- भौतिक जगत के अवयवों सहित; सम्भूतम्--इस तरह उत्पन्न; षोडश-कलम्--सोलह मुख्यसिद्धान्त; आदौ-प्रारम्भ में; लोक--ब्रह्माण्ड; सिसृक्षया--उत्पन्न करने के विचार से।
सूतजी ने कहा : सृष्टि के प्रारम्भ में, भगवान् ने सर्वप्रथम विराट पुरुष अवतार के रूपमें अपना विस्तार किया और भौतिक सृजन के लिए सारी सामग्री प्रकट की।
इस प्रकारसर्वप्रथम भौतिक क्रिया के सोलह तत्त्व उत्पन्न हुए।
यह सब भौतिक ब्रह्माण्ड को उत्पन्नकरने के लिए किया गया।
"
यस्याम्भसि शयानस्य योगनिद्रां वितन्वत: ।
नाभिहदाम्बुजादासीद्रह्मा विश्वसृ॒जां पति: ॥
२॥
यस्य--जिसके; अम्भसि--जल में; शयानस्य--लेटे हुए; योग-निद्राम्-ध्यान में सोये हुए; वितन्व॒तः--विस्तार करतेहुए; नाभि--नाभि रूपी; हृद--सरोवर के; अम्बुजातू--कमल से; आसीत्--प्रकट हुआ; ब्रह्मा--जीवों के पितामह;विश्व--ब्रह्माण्ड का; सृजाम्--शिल्पी; पति:--स्वामी ।
पुरुष के एक अंश ब्रह्माण्ड के जल के भीतर लेटते हैं, उनके शरीर के नाभि-सरोवरसे एक कमलनाल अंकुरित होता है और इस नाल के ऊपर खिले कमल-पुष्प से ब्रह्माण्डके समस्त शिल्पियों के स्वामी ब्रह्मा प्रकट होते हैं।
"
यस्यावयवसंस्थानै: कल्पितो लोकविस्तर: ।
तद्दै भगवतो रूप॑ विशुद्धं सत्त्ममूर्जितम् ॥
३॥
यस्य--जिसका; अवयव--शारीरिक विस्तार; संस्थानैः --में स्थित; कल्पित:--कल्पित किया गया; लोक--निवासियोंके ग्रह; विस्तर:--विभिन्न; तत् बै--लेकिन वह है; भगवतः-- भगवान् का; रूपम्--रूप; विशुद्धम्-शुद्ध; सत्त्वम्--अस्तित्व; ऊर्जितम्--सर्वश्रेष्ठ |
ऐसा विश्वास किया जाता है कि समस्त ब्रह्माण्ड के ग्रहमंडल पुरुष के विराट शरीर मेंस्थित हैं, किन्तु उन्हें सर्जित भौतिक अवयवों से कोई सरोकार नहीं होता।
उनका शरीरनित्य आध्यात्मिक अस्तित्वमय है जिसकी कोई तुलना नहीं है।
"
पश्यन्त्यदो रूपमदभ्नरचक्षुषासहस्रपादोरुभुजाननाद्भधुतम् ।
सहसतमूर्धश्रवणाक्षिनासिकं सहस्रमौल्यम्बरकुण्डलोल्लसत् ॥
४॥
'पश्यन्ति--देखते हैं; अदः--पुरुष का; रूपमू--रूप; अदभ्ब--पूर्ण; चक्षुषा-- आँखों से; सहस्त्र-पाद--हजारों पाँव;ऊरू--जंघाएँ; भुज-आनन--हाथ तथा मुख; अद्भुतम्-- आश्चर्यजनक; सहस्त्र--हजारों; मूर्ध--शिर; श्रवण--कान;अक्षि--आँखें; नासिकम्--नाक; सहस््र--हजारों; मौलि--मालाएँ; अम्बर--वस्त्र; कुण्डल--कर्णाभूषण; उललसत्--चमकते हुए।
भक्तगण अपने विमल (पूर्ण ) नेत्रों से उस पुरुष के दिव्य रूप का दर्शन करते हैंजिसके हजारों-हजार पाँव, जंघाएँ, भुजाएँ तथा मुख हैं और सबके सब अद्वितीय हैं।
उसशरीर में हजारों सिर, आँखें, कान तथा नाक होते हैं।
वे हजारों मुकुटों तथा चमकतेकुण्डलों से अलंकृत हैं और मालाओं से सजाये गये हैं।
"
एतन्नानावताराणां निधानं बीजमव्ययम् ।
यस्यांशांशेन सृज्यन्ते देवतिर्यड्नरादय: ॥
५॥
एतत्--यह ( रूप ) ; नाना--अनेक; अवताराणाम्-- अवतारों का; निधानम्--स्त्रोत; बीजमू--बीज; अव्ययम्--अविनाशी; यस्य--जिसका; अंश--पूर्ण अंश; अंशेन--भिन्नांश से; सृज्यन्ते--उत्पन्न होते हैं; देव--देवता; तिर्यक्--पशु; नर-आदय: --मनुष्य इत्यादि।
यह रूप ( पुरुष का द्वितीय प्राकट्य ) ब्रह्माण्ड के भीतर नाना अवतारों का स्त्रोत तथाअविनाशी बीज है।
इसी रूप के कणों तथा अंशों से देवता, मनुष्य इत्यादि विभिन्न जीवउत्पन्न होते हैं।
"
स एव प्रथमं देव: कौमारं सर्गमाश्रित: ।
चचार दुश्वरं ब्रह्मा ब्रह्मचर्यमखण्डितम् ॥
६॥
सः--उसने; एव--ही; प्रथमम्--पहला; देव: --परमे श्वर; कौमारम्--कुमारगण ( अविवाहित ); सर्गम्--सृष्टि;आश्रितः--अधीन; चचार--सम्पन्न किया; दुश्वरम्--करना अत्यन्त कठिन, दुष्कर; ब्रह्मा--ब्रह्मा की कोटि में;ब्रह्मचर्यम्-ब्रह्म की अनुभूति प्राप्त करने की तपस्या में; अखण्डितम्--अविच्छिन्न |
सृष्टि के प्रारम्भ में सर्वप्रथम ब्रह्मा के चार अविवाहित पुत्र ( कुमारगण ) थे, जिन्होंनेब्रह्मचर्य त्रत का पालन करते हुए परम सत्य के साक्षात्कार हेतु कठोर तपस्या की।
"
द्वितीयं तु भवायास्य रसातलगतां महीम् ।
उद्धरिष्यन्रुपादत्त यज्ञेश: सौकरं वपु: ॥
७॥
द्वितीयम्--दूसरा; तु--लेकिन; भवाय--कल्याण के लिए; अस्य--इस पृथ्वी के; रसातल--निम्नतम भागमें; गताम्--गयी हुई; महीम्--पृथ्वी को; उद्धरिष्यन्--उठा कर; उपादत्त--स्थापित किया; यज्ञेश: --स्वामी या परम भोक्ता;सौकरम्--सूकर का; वपु:--अवतार ।
समस्त यज्ञों के परम भोक्ता ने सूकर का अवतार ( द्वितीय अवतार ) स्वीकार कियाऔर पृथ्वी के कल्याण हेतु उसे ब्रह्माण्ड के रसातल क्षेत्र से ऊपर उठाया।
"
तृतीयमृषिसर्ग बै देवर्षित्वमुपेत्य सः ।
तन्त्रं सात्वतमाचष्ट नैष्कर्म्य कर्मणां यत: ॥
८॥
तृतीयम्--तीसरा; ऋषि-सर्गमू--ऋषिसर्ग; वै--निश्चय ही; देवर्षित्वम्--देवताओं में ऋषि का अवतार; उपेत्य--स्वीकारकरके; सः--उन््होंने; तन्त्रमू--वेदों का भाष्य; सात्वतम्--विशेष रूप से भक्ति के लिए; आचष्ट--संग्रह किया;नैष्कर्म्यम्--निष्काम्; कर्मणाम्--कर्म का; यत:--जिससे ।
ऋषियों के सर्ग में, भगवान् ने देवर्षि नारद के रूप में, जो देवताओं में महर्षि हैं, तीसराशक्त्यावेश अवतार ग्रहण किया।
उन्होंने उन वेदों का भाष्य संकलित किया जिनमें भक्तिमिलती है और जो निष्काम कर्म की प्रेरणा प्रदान करते हैं।
"
तुर्ये धर्मकलासगें नरनारायणावृषी ।
भूत्वात्मोपशमोपेतमकरोदुश्वरं तप: ॥
९॥
तुर्ये--चौथी बार; धर्म-कला--धर्मराज की पत्नी से; सर्गे--उत्पन्न; नर-नारायणौ--नर तथा नारायण; ऋषी--ऋषि;भूत्वा--होकर; आत्म-उपशम--इन्द्रिय निग्रह द्वारा; उपेतम्--प्राप्ति के लिए; अकरोत्--किया; दुश्चरम्--अत्यन्तकठिन; तपः--तपस्या ।
चौथे अवतार में भगवान् राजा धर्म की पत्नी के जुड़वाँ पुत्र नर तथा नारायण बने।
फिरउन्होंने इन्द्रियों को वश में करने के लिए कठिन तथा अनुकरणीय तपस्या की।
"
पञ्चम: कपिलो नाम सिद्धेश: कालविप्लुतम् ।
प्रोवाचासुरये साड्ख्यं तत्त्वग्रामविनिर्णयम् ॥
१०॥
पश्ञममः--पाँचवाँ; कपिल:--कपिल; नाम--नामक ; सिद्धेश:--सिद्धों में श्रेष्ठ काल--समय द्वारा; विप्लुतम्--नष्ट;प्रोवाच--कहा; आसुरये--आसुरि नामक ब्राह्मण से; साइड्ख्यम्--सांख्यशास्त्र, तत्त्वज्ञान; तत्त्व-ग्राम--सृष्टिकारी तत्त्वोंका समूह; विनिर्णयम्-- भाष्य ।
भगवान् कपिल नामक पाँचवाँ अवतार सिद्धों में सर्वोपरि है।
उन्होंने आसुरि ब्राह्मणको सृष्टिकारी तत्त्वों तथा सांख्य शास्त्र का भाष्य बताया, क्योंकि कालक्रम से यह ज्ञानवि-नष्ट हो चुका था।
"
पष्ठमत्रेरपत्यत्वं वृत: प्राप्तोडनसूयया ।
आन्वीक्षिकीमलर्काय प्रह्नादादिभ्य ऊचिवान् ॥
११॥
षष्ठटम्--छठवाँ; अत्रेः--अत्रि का; अपत्यत्वमू--पुत्रत्व; वृत:--माँगने पर; प्राप्त:--प्राप्त किया गया; अनसूयया--अनसूया द्वारा; आन्वीक्षिकीम्--अध्यात्म के विषय पर; अलर्काय--अलर्क को; प्रह्मद-आदिभ्य:--प्रह्नाद तथा अन्योंको; ऊचिवान्--बताया।
पुरुष के छठे अवतार अत्रि मुनि के पुत्र थे।
वे अनसूया की प्रार्थना पर उनके गर्भ सेउत्पन्न हुए थे।
उन्होंने अलर्क, प्रह्द तथा अन्यों ( यदु, हैहय आदि ) को अध्यात्म के विषयमें उपदेश दिया।
"
ततः सप्तम आकृत्यां रुचेर्यज्ञोी भ्यजायत ।
स यामाद्यै: सुरगणैरपात्स्वायम्भुवान्तरम् ॥
१२॥
ततः--तत्पश्चात्; सप्तमे--सातवाँ; आकूत्याम्--आकूति के गर्भ से; रुचे:--प्रजापति रुचि के द्वारा; यज्ञ:--यज्ञ रूप मेंभगवान् का अवतार; अभ्यजायत--अवतरित हुए; सः--वे; याम-आद्यै:--यम इत्यादि से; सुर-गणै:--देवताओं केद्वारा; अपातू-शासन किया; स्वायम्भुव-अन्तरम्--स्वाम्भुव मनु का काल परिर्वतन ( मन्वन्तर )सातवें अवतार प्रजापति रुचि तथा उनकी पत्नी आकूति के पुत्र यज्ञ थे।
उन्होंनेस्वायम्भुव मनु के बदलने पर शासन सँभाला और अपने पुत्र यम जैसे देवताओं कीसहायता प्राप्त की।
अष्टमे मेरुदेव्यां तु नाभेरजात उरुक्रम: ।
"
अष्टमे मेरुदेव्यां तु नाभेर्जात उरुक्रम: ।
दर्शयन् वर्त्म धीराणां सर्वाश्रमनमस्कृतम् ॥
१३॥
अष्टमे--आठवाँ अवतार; मेरुदेव्याम् तु--की पत्नी मेरुदेवी के गर्भ से; नाभेः--राजा नाभि; जात:--जन्म लिया;उरुक्रम:--सर्वथा शक्तिमान भगवान्; दर्शयन्--दिखाया; बर्त्म--रास्ता; धीराणाम्--पूर्ण लोगों का; सर्व--सभी;आश्रम--जीवन के चारों आश्रमों द्वारा; नमस्कृतम्--समादरित, वंदनीय |
आठवाँ अवतार राजा ऋषभ के रूप में हुआ।
वे राजा नाभि तथा उनकी पली मेरुदेवीके पुत्र थे।
इस अवतार में भगवान् ने पूर्णता का मार्ग दिखलाया जिसका अनुगमन उनलोगों द्वारा किया जाता है, जिन्होंने अपनी इन्द्रियों को पूर्ण रूप से संयमित कर लिया हैऔर जो सभी वर्णाश्रमों के लोगों द्वारा वन्दनीय हैं।
"
ऋषिभिर्याचितो भेजे नवम॑ पार्थिवं वपु: ।
दुग्धेमामोषधीर्विप्रास्तेनायं स उशत्तम: ॥
१४॥
ऋषिभि: --मुनियों द्वारा; याचित:--माँगे जाने पर; भेजे--स्वीकार किया; नवमम्--नवाँ; पार्थिवम्--पृथ्वी के शासक;वपु:--शरीर; दुग्ध--दुहते हुए; इमाम्--ये सब; ओषधी:--पृथ्वी की उपजें; विप्रा: --हे ब्राह्मणों; तेन--के द्वारा;अयमू--यह; सः--वह; उशत्तम:--अत्यन्त आकर्षक ।
हे ब्राहणों, मुनियों द्वारा प्रार्थना किये जाने पर, भगवान् ने नवें अवतार में राजा ( पृथु )का शरीर स्वीकार किया जिन्होंने विविध उपजें प्राप्त करने के लिए पृथ्वी को जोता।
'फलस्वरूप पृथ्वी अत्यन्त सुन्दर तथा आकर्षक बन गईं।
"
रूपं स जगहे मात्स्यं चाक्षुषोदधिसम्प्लवे ।
नाव्यारोप्य महीमय्यामपाह्दैवस्वतं मनुम् ॥
१५॥
रूपम्--रूप; सः--उसने; जगृहे--स्वीकार किया; मात्स्यमू--मछली का; चाक्षुष--चाक्षुष; उदधि--जल; सम्प्लवे--बाढ़, प्रलय; नावि--नाव में; आरोप्य--रख कर; मही--पृथ्वी; मय्याम्--डूबा हुआ; अपात्--रक्षा की; वैवस्वतम्--वैवस्वत; मनुम्--मनुष्य के पिता, मनु को |
जब चाक्षुष मनु के युग के बाद पूर्ण जलप्रलय हुआ और सारा जगत जल में डूब गयाथा, तब भगवान् मछली ( मत्स्य ) के रूप में प्रकट हुए और वैवस्वत मनु को नाव मेंरखकर उनकी रक्षा की।
"
सुरासुराणामुदधि मथ्नतां मन्दराचलम् ।
दश्ने कमठरूपेण पृष्ठ एकादशे विभु: ॥
१६॥
सुर--आस्तिकों; असुराणाम्--तथा नास्तिकों का; उदधिम्--समुद्र में; मथ्नताम्--मंथन करते हुए; मन्दराचलम्--मन्दराचल पर्वत को; दश्ले-- धारण किया; कमठ--कच्छप; रूपेण--के रूप में; पृष्ठे--पीठ पर; एकादशे--ग्यारहवाँ;विभु:--महान।
भगवान् का ग्यारहवाँ अवतार कच्छप के रूप में हुआ, जिनकी पीठ ब्रह्माण्ड केआस्तिकों तथा नास्तिकों के द्वारा मथानी के रूप में प्रयुक्त किये जा रहे मन्दराचल पर्वत केलिए आधार बनी।
"
धान्वन्तरं द्वादशमं त्रयोदशममेव च ।
अपाययत्सुरानन्यान्मोहिन्या मोहयन् ख्रिया ॥
१७॥
धान्वन्तरम्-- धन्वन्तरि नामक भगवान् का अवतार; द्वादशमम्--बारहवाँ; त्रयोदशमम्--तेरहवाँ; एब--निश्चय ही; च--तथा; अपाययत्--पीने के लिए दिया; सुरानू--देवताओं को; अन्यान्--अन्यों को; मोहिन्या--सुन्दरी द्वारा; मोहयन्--मोहते हुए; स्त्रिया--स्त्री के रूप में।
बारहवें अवतार में भगवान् धन्वन्तरि के रूप में प्रकट हुए और तेरहवें अवतार में उन्होंनेस्त्री के मनोहर सौंदर्य द्वारा नास्तिकों को मोहित किया और देवताओं को पीने के लिएअमृत प्रदान किया।
"
चतुर्दश नारसिंहं बिश्रद्ैत्येन्द्रमूजितम् ।
ददार करजैरूरावेरकां कटकृद्यथा ॥
१८॥
चतुर्दशम्--चौदहवें; नार-सिंहम्--आधा मनुष्य तथा आधा सिंह शरीर वाले भगवान् का अवतार; बिभ्रतू--अवतरितहुए; दैत्य-इन्द्रमू--नास्तिकों का राजा; ऊर्जितम्--अत्यन्त बलिष्ठ; ददार--चीर डाला; करजै:--नाखूनों से; ऊरौ--गोदमें; एरकाम्--बेंत को; कट-कृत्--बढ़ई; यथा--जिस तरह ।
चौदहवें अवतार में भगवान् नृसिंह के रूप में प्रकट हुए और अपने नाखूनों से नास्तिकहिरण्यकशिपु के बलिष्ठ शरीर को उसी प्रकार चीर डाला, जिस प्रकार बढ़ई लट्ठे को चीरदेता है।
"
पञ्चद्शं वामनकं कृत्वागादध्वरं बले: ।
पदत्रयं याचमान: प्रत्यादित्सुस्त्रिपिष्टपम् ॥
१९॥
पञ्मदशम्--पन्दहवाँ; वामनकम्--बौना ब्राह्मण; कृत्वा-- धारण करके; अगात्--गये; अध्वरम्--यज्ञ स्थल में;बले:--राजा बलि के; पद-त्रयम्--केवल तीन पद; याचमान:--माँगते हुए; प्रत्यादित्सु:--मन में लौटाने की इच्छा करतेहुए; त्रि-पिष्टपम्--तीनों लोकों का राज्य ।
पन्द्रहवें अवतार में भगवान् ने बौने ब्राह्मण ( वामन ) का रूप धारण किया और वेमहाराज बलि द्वारा आयोजित यज्ञ में पधारे।
यद्यपि वे हृदय से तीनों लोकों का राज्य प्राप्तकरना चाह रहे थे, किन्तु उन्होंने केवल तीन पग भूमि दान में माँगी।
"
अवतारे षोडशमे पश्यन् ब्रह्मद्गरहो नृपान् ।
त्रिःसप्तकृत्व: कुपितो नि:क्षत्रामकरोन्महीम् ॥
२० ॥
अवतारे-- भगवान् के अवतार में; षोडशमे--सोलहवदें; पश्यन्--देखते हुए; ब्रह्म-द्रुह:--ब्राह्मणों के आदेशों की अवज्ञाकरने वाले; नृपान्--राजाओं को; त्रि:-सप्त--सात का तीन गुना, इक्कीस बार; कृत्व:--किया था; कुपित:--क्रुद्ध;निः--रहित; क्षत्रामू-प्रशासक वर्ग से; अकरोत्--किया; महीम्--पृथ्वी को |
सोलहवें अवतार में भगवान् ने ( भूगुपति के रूप में ) क्षत्रियों का इक्कीस बार संहारकिया, क्योंकि वे ब्राह्मणों ( बुद्धिमान वर्ग ) के विरुद्ध किये गये विद्रोह के कारण उनसेक्रुद्ध थे।
"
ततः सप्तदशे जात: सत्यवत्यां पराशरातू ।
चक्रे वेदतरो: शाखा दृष्टा पुंसोडइल्पमेधस: ॥
२१॥
ततः--तत्पश्चात्; सप्तदशे--सत्रहवें अवतार में; जात:--उत्पन्न हुआ; सत्यवत्याम्--सत्यवती के गर्भ से; पराशरात्--पराशर मुनि द्वारा; चक्रे --तैयार किया; वेद-तरो:--वेदों के कल्पवृक्ष की; शाखा:--शाखाएँ; दृष्ठा--देखकर; पुंस:--सामान्य जन; अल्प-मेधस:--अल्पज्ञतत्पश्चात् सत्रहवें अवतार में भगवान्, पराशर मुनि के माध्यम से सत्यवती के गर्भ से श्रीव्यासदेव के रूप में प्रकट हुए।
उन्होंने यह देखकर कि जन-सामान्य अल्पज्ञ हैं, एकमेव वेदको अनेक शाखाओं-प्रशाखाओं में विभक्त कर दिया।
"
नरदेवत्वमापन्न: सुरकार्यचिकीर्षया ।
समुद्रनिग्रहादीनि चक्रे वीर्याण्यत: परम् ॥
२२॥
नर--मनुष्य; देवत्वमू-देवत्व; आपन्न:--का स्वरूप ग्रहण करके; सुर--देवता; कार्य--कर्म; चिकीर्षया--सम्पन्नकरने के लिए; समुद्र--हिन्द महासागर; निग्रह-आदीनि--निग्रह इत्यादि; चक्रे --किया; वीर्याणि---अतिमानवीयपराक्रम; अतः परम्-तत्पश्चात् |
अठारहवें अवतार में भगवान् राजा राम के रूप में प्रकट हुए।
उन्होंने देवताओं के लिएमनभावन कार्य करने के उद्देश्य से हिन्द महासागर को वश में करते हुए समुद्र पार केनिवासी नास्तिक राजा रावण का वध करके अपनी अतिमानवीय शक्ति का प्रदर्शन किया।
"
एकोनविंशे विंशतिमे वृष्णिषु प्राप्य जन्मनी ।
रामकृष्णाविति भुवो भगवानहरद्धरम् ॥
२३॥
एकोनविंशे--उन्नीसवें में; विंशतिमे--बीसवें में भी; वृष्णिषु--वृष्णि वंश में; प्राप्प--पाकर; जन्मनी -- जन्म; राम--बलराम; कृष्णौ--तथा श्रीकृष्ण; इति--इस प्रकार; भुवः--जगत का; भगवान्-- भगवान् ने; अहरत्--दूर किया;भरम्--बोझ को ।
उन्नीसवें तथा बीसवें अवतारों में भगवान् वृष्णि वंश में ( यदु कुल में ) भगवान् बलरामतथा भगवान् कृष्ण के रूप में अवतरित हुए और इस तरह उन्होंने संसार के भार को दूरकिया।
"
ततः कलौ सम्प्रवृत्ते सम्मोहाय सुरद्विषाम् ।
बुद्धो नाम्नाज्ससुत: कीकटेषु भविष्यति ॥
२४॥
ततः--तत्पश्चात्; कलौ--कलियुग में; सम्प्रवृत्ते--अनुघटित होगा; सम्मोहाय--मोहने के लिए; सुर--आस्तिक;द्विषाम्--ईर्ष्यालुओं को; बुद्धः-- भगवान् बुद्ध; नाम्ता--नामक; अज्जन-सुत: --अंजना के पुत्र; कीकटेषु--गया( बिहार ) प्रान्त में; भविष्यति--होगा।
तब भगवान् कलियुग के प्रारम्भ में गया प्रान्त में अंजना के पुत्र, बुद्ध के रूप में उनलोगों को मोहित करने के लिए प्रकट होंगे, जो श्रद्धालु आस्तिकों से ईर्ष्या करते हैं।
"
अथासौ युगसम्ध्यायां दस्युप्रायेषु राजसु ।
जनिता विष्णुयशसो नाम्ना कल्किर्जगत्पति: ॥
२५॥
अथ--त्पश्चात्; असौ--वही भगवान्; युग-सन्ध्यायाम्--युगों के बीच में; दस्यु--लुटेरे; प्रायेषु--प्राय:; राजसु--शासक; जनिता--जन्म लेगा; विष्णु --विष्णु नामक; यशसः:--' यशा ' कुलनामयुक्त; नाम्ना--नाम से; कल्कि: --भगवान् का अवतार; जगतू-पति:--जगत के स्वामी ।
तत्पश्चात् सृष्टि के सर्वोसर्वा भगवान् दो युगों के सन्धिकाल में कल्कि अवतार के रूपमें जन्म लेंगे और विष्णु यशा के पुत्र होंगे।
उस समय पृथ्वी के शासक लुटेरे बन चुके होंगे।
"
अवतारा हासड्ख्येया हरे: सत्त्वनिधेद्िजा: ।
यथाविदासिन: कुल्या: सरसः स्यु: सहस्रश: ॥
२६॥
अवतारा:--अवतार; हि--निश्चय ही; असड्ख्येया:--असंख्य; हरे: --हरि के, भगवान् के; सत्त्व-निधे:--अच्छाई( सतोगुण ) के सागर के; द्विजा:--ब्राह्मण; यथा--जिस तरह; अविदासिन:--अक्षय; कुल्या: --नाले; सरस:--विशालझीलों के; स्यु:--है; सहस्नरश:--हजारोंहे ब्राह्मणों, भगवान् के अवतार उसी तरह असंख्य हैं, जिस प्रकार अक्षय जल के स्त्रोतसे निकलने वाले ( असंख्य ) झरने।
॥
" ऋषयो मनवो देवा मनुपुत्रा महौजस: ।
कला: सर्वे हरेरेव सप्रजापतय: स्मृता: ॥
२७॥
ऋषय:--ऋषिगण; मनव: --समस्त मनु; देवा: --सारे देवता; मनु-पुत्रा:--मनु की सारी सन््तानें; महा-ओजस: --अत्यन्तशक्तिमान; कलाः--पूर्णाश के अंश; सर्वे--सामूहिक रूप से; हरेः-- भगवान् का; एव--निश्चय ही; स-प्रजापतय: --प्रजापतियों सहित; स्मृता:--जाने जाते हैं ।
सारे ऋषि, मनु, देवता तथा विशेष रूप से शक्तिशाली मनु की सन््तानें भगवान् के अंशया उन अंशों की कलाएँ हैं।
इसमें प्रजापतिगण भी सम्मिलित हैं।
"
एते चांशकला: पुंस: कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् ।
इन्द्रारिव्याकुलं लोक॑ मृडयन्ति युगे युगे ॥
२८॥
एते--ये सब; च--तथा; अंश--पूर्णाश; कला:--पूर्णाश के भी अंश; पुंसः--परम पुरुष के ; कृष्ण:-- भगवान् कृष्ण;तु--लेकिन; भगवानू-- भगवान्; स्वयम्--साक्षात्; इन्द्र-अरि--इन्द्र के शत्रु से; व्याकुलमू--विचलित; लोकम्--सारेलोक को; मृडयन्ति--सुरक्षा प्रदान करते हैं; युगे युगे--विभिन्न युगों मेंउपर्युक्त सारे अवतार या तो भगवान् के पूर्ण अंश या पूर्णाश के अंश ( कलाएं ) हैं,लेकिन श्रीकृष्ण तो आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं।
वे सब विभिन्न लोकों में नास्तिकोंद्वारा उपद्रव किये जाने पर प्रकट होते हैं।
भगवान् आस्तिकों की रक्षा करने के लिएअवतरित होते हैं।
"
जन्म गुह्म॑ं भगवतो य एतत्प्रयतो नर: ।
सायं प्रातर्गूणन् भक्त्या दुःखग्रामाद्विमुच्यते ॥
२९॥
जन्म--जन्म; गुह्मम्-गुप्त; भगवत:-- भगवान् का; य:--जो; एतत्--वे सब; प्रयतः--सावधानी से; नर: --मनुष्य;सायम्--शाम को; प्रातः--प्रातःकाल; गृणन्--पाठ करता, बाँचता है; भक्त्या--भक्तिपूर्वक; दुःख-ग्रामात्--समस्तकष्टों से; विमुच्यते--छूट जाता हैजो कोई भी भगवान् के गुह्य अवतारों का सावधानीपूर्वक प्रतिदिन सुबह तथा शामको पाठ करता है, वह जीवन के समस्त दुखों से छूट जाता है।
"
एतद्रूपं भगवतो हारूपस्य चिदात्मन: ।
मायागुणैविरचितं महदादिभिरात्मनि ॥
३०॥
एतत्--ये सब; रूपमू--रूप; भगवतः-- भगवान् के; हि--निश्चय ही; अरूपस्थ--जिनका कोई भौतिक रूप नहीं हैउनका; चित्-आत्मन:--ब्रह्म के; माया-- भौतिक शक्ति, माया; गुणैः --गुणों से; विरचितम्--निर्मित; महत्-आदिभिः--पदार्थ के अवयवों से; आत्मनि--आत्मा मेंभगवान् के विराट रूप की धारणा, जिसमें वे इस भौतिक जगत में प्रकट होते हैं,काल्पनिक है।
यह तो अल्पज्ञों (तथा नवदीक्षितों ) को भगवान् के रूप की धारणा मेंप्रवेश कराने के लिए है।
लेकिन वस्तुत: भगवान् का कोई भौतिक रूप नहीं होता।
यथा नभसि मेघौधो रेणुर्वा पार्थिवोनिले ।
"
यथा नभसि मेघौधो रेणुर्वा पार्थिवोनिले ।
एवं द्रष्टरे दृश्यत्वमारोपितमबुद्धिभि: ॥
३१॥
यथा--जिस प्रकार; नभसि--आकाश में; मेघ-ओघ:--बादलों का समूह; रेणु;--धूल; बवा--तथा; पार्थिव: --मलिनता, धुंधलका; अनिले--वायु में; एवम्--इस प्रकार; द्रष्टरे--देखने वाले को; दृश्यत्वम्--देखने के लिए;आरोपितम्--आरोपित होता है; अबुदर्द्धेभिः--अल्पज्ञों द्वाराबादल तथा धूल वायु द्वारा ले जाए जाते हैं, लेकिन अल्पज्ञ लोग कहते हैं कि आकाशमेघाच्छादित है और वायु धूलिमय ( मलिन ) है।
इसी प्रकार वे लोग आत्मा के विषय में भीभौतिक शरीर की धारणाओं का आरोपण करते हैं।
"
अतः परं यदव्यक्तमव्यूढगुणबृंहितम् ।
अदृष्ठश्रुतवस्तुत्वात्स जीवो यत्पुनर्भव: ॥
३२॥
अतः--यह; परम्--परे; यत्--जो; अव्यक्तम्--अप्रकट; अव्यूढ--बिना किसी प्रकार के रूप के; गुण-बूंहितम्-गुणोंसे प्रभावित; अदृष्ट-- अदृश्य, अनदेखा; अश्रुत--अनसुना; वस्तुत्वात्-वैसा होने से; सः--वह; जीव:--जीव; यत्--जो; पुनः-भव: --बारम्बार जन्म ग्रहण करता है।
रूप की इस स्थूल अवधारणा से परे रूप की एक अन्य सूक्ष्म धारणा है, जिसका कोईआकार नहीं होता और जो अनदेखा, अनसुना तथा अव्यक्त होता है।
जीव का रूप इससूक्ष्मता से परे है, अन्यथा उसे बारम्बार जन्म न लेना पड़ता।
"
यत्रेमे सदसद्गुपे प्रतिषिद्धे स्वसंविदा ।
अविद्ययात्मनि कृते इति तद्ढह्मदर्शनम् ॥
३३॥
यत्र--जब भी; इमे--इन सबमें; सत्-असत्--स्थूल तथा सूक्ष्म; रूपे--के रूपों में; प्रतिषिद्धे--दूर हो जाने पर; स्व-संविदा--आत्म-साक्षात्कार द्वारा; अविद्यया--अज्ञान से; आत्मनि--आत्मा में; कृते--आरोपित; इति--इस प्रकार;तत्--वह है; ब्रह्म-दर्शनम्-परमे श्वर के दर्शन की विधि।
जब कभी मनुष्य आत्म-साक्षात्कार द्वारा यह अनुभव करता है कि स्थूल तथा सूक्ष्मदोनों शरीरों का शुद्ध आत्मा से कोई सरोकार नहीं, उस समय वह अपना तथा साथ ही साथभगवान् का दर्शन करता है।
"
यद्येषोपरता देवी माया वैशारदी मति: ।
सम्पन्न एवेति विदुर्महिम्नि स्वे महीयते ॥
३४॥
यदि--यदि, फिर भी; एषा--वे; उपरता--दमित; देवी माया--माया; वैशारदी--ज्ञान से पूर्ण; मतिः-- प्रकाश;सम्पन्न: --सेवा परिपूर्ण; एब--निश्चय ही; इति--इस प्रकार; विदु:--जानते हुए; महिम्नि--महिमा में; स्वे-- अपनी;महीयते--प्रतिष्ठितयदि माया का शमन हो जाता है और यदि भगवत्कृपा से जीव ज्ञान से सम्पन्न हो जाताहै, तो उसे तुरन्त आत्म-साक्षात्कार का प्रकाश प्राप्त होता है और वह अपनी महिमा मेंप्रतिष्ठित ( महिमामण्डित ) हो जाता है।
"
एवं जन्मानि कर्माणि ह्ाकर्तुरजनस्य च ।
वर्णयन्ति सम कवयो वेदगुद्यानि हत्पते: ॥
३५॥
एवम्--इस प्रकार; जन्मानि--जन्म; कर्माणि--कर्म; हि--निश्चय ही; अकर्तु:--अकर्ता के; अजनस्थ--अजन्मा के;च--तथा; वर्णयन्ति--वर्णन करते हैं; स्म-- भूत काल में; कवय: --विद्वान; वेद-गुह्मानि--वेदों के द्वारा न जाने जासकने योग्य, गोपनीय; हत्-पते: --हृदय के स्वामी के ।
इस प्रकार विद्वान पुरुष उस अजन्मा तथा अकर्ता के जन्मों तथा कर्मों का वर्णन करतेहैं, जो वैदिक साहित्य के लिए भी ज्ञेय नहीं हैं।
वे हृदयेश हैं।
"
स वा इदं विश्वममोघलील:सृजत्यवत्यत्ति न सज्जतेस्मिन् ।
भूतेषु चान्तर्हित आत्मतन्त्र:षाड्वर्गिक॑ जिप्रति षड्गुणेश: ॥
३६॥
सः--परमेश्वर; वा-- अथवा; इृदम्--इस; विश्वम्--प्रकट ब्रह्माण्ड को; अमोघ-लील:--जिनके कर्म निष्कलंक हैं वे;सृजति--उत्पन्न करते हैं; अवति अत्ति--पालन तथा संहार करते हैं; न--नहीं; सज्जते--से प्रभावित होते हैं; अस्मिनू--उनमें; भूतेषु--समस्त जीवों में; च--तथा; अन्तर्हित: -- भीतर रहकर; आत्म-तन््त्र:--स्वतन्त्र; षाटू-वर्गिकम्-- भगवान्के षड् ऐश्वयों से युक्त; जिप्नति--सुंगधि की तरह ऊपर-ऊपर आसक्त; षट्-गुण-ईश:--छहों इन्द्रियों के स्वामी ॥
जिनके कर्म सदैव निष्कलुष होते हैं वे भगवान् छह इन्द्रियों के स्वामी हैं और छहोंऐश्वर्यों के साथ सर्वशक्तिमान हैं।
वे दृश्य ब्रह्माण्डों की सृष्टि करते हैं, उनका पालन करते हैंऔर रंचमात्र भी प्रभावित हुए बिना उनका संहार करते हैं।
वे समस्त जीवों के भीतरविद्यमान रहते हैं और सदैव स्वतन्त्र होते हैं।
"
न चास्य कश्चिन्निपुणेन धातु-रवैति जन्तु: कुमनीष ऊतीः ।
नामानि रूपाणि मनोवचोभि:सन््तन्वतो नटचर्यामिवाज्ञ: ॥
३७॥
न--नहीं; च--तथा; अस्य-- भगवान् का; कश्चित्--कोई; निपुणेन--निपुणता से; धातु:--स्त्रष्टा का; अवैति--जानसकता है; जन्तु:--जीव; कुमनीष:--अज्ञानी; ऊती:-- भगवान् के कार्य; नामानि--उनके नाम; रूपाणि--उनके रूप;मनः-वचोभि:--मानसिक तर्क या वाणी के द्वारा; सन्तन््वतः--व्यक्त करते हुए; नट-चर्याम्--नाटकीय कर्म, करामात;इब--सहश; अज्ञ:-मूर्ख ।
मूर्ख मनुष्य अपने अल्प ज्ञान के कारण भगवान् के रूपों, नामों तथा कर्मो की दिव्यप्रकृति को नहीं जान सकते, क्योंकि वे तो किसी नाटक में एक पात्र की तरह कार्य कर रहे होते हैं।
न ही ऐसे मनुष्य अपने तर्क या अपनी वाणी द्वारा भी ऐसी बातों को व्यक्त कर सकते हैं।
"
स वेद धातु: पदवीं परस्यदुरन्तवीर्यस्य रथाक्रपाणे: ।
योमायया सन्ततयानुवृत्त्याभजेत तत्पादसरोजगन्धम् ॥
३८॥
सः--वे ही; वेद--जान सकते हैं; धातु:--स्त्रष्टा की; पदवीम्--महिमा को; परस्य-- अध्यात्म का; दुरन्त-वीर्यस्य--अत्यन्त शक्तिशाली का; रथ-अड्ड-पाणे:-- भगवान् कृष्ण का, जो हाथ में रथ का चक्र धारण करते हैं; यः--जो;अमायया--किसी हिचक के बिना; सन्ततया--निरन्तर; अनुवृत्त्या--अनुकूल होकर; भजेत--सेवा करता है; ततू-पाद--उनके चरणों की; सरोज-गन्धमू--कमल की महक।
जो बिना हिचक के अबाध रूप से अपने हाथों में रथ का चक्र धारण करने वालेभगवान् के चरणकमलों की अनुकूल सेवा करता है, वही इस जगत के स्त्रष्टा की पूर्णमहिमा, शक्ति तथा दिव्यता को समझ सकता है।
"
अथेह धन्या भगवन्त इत्थंयद्वासुदेवेईखिललोकनाथे ।
कुर्वन्ति सर्वात्मकमात्मभावं॑न यत्र भूय: परिवर्त उग्र: ॥
३९॥
अथ--इस प्रकार; इह--इस संसार में; धन्या:--सफल; भगवन्त:--पूर्ण रूप से ज्ञात; इत्थम्--ऐसा; यत्--जो;वबासुदेवे-- भगवान् के प्रति; अखिल--सम्पूर्ण; लोक-नाथे--समस्त ब्रह्माण्डों के स्वामी के प्रति; कुर्वन्ति-- प्रेरित करतेहैं; सर्व-आत्मकम्--शत प्रतिशत; आत्म--आत्मा; भावम्--आह्ाद; न--कभी नहीं; यत्र--जहाँ; भूय:--फिर;परिवर्त:--पुनरावृत्ति; उग्र:-- भयानक ।
इस संसार में केवल ऐसी जिज्ञासाओं द्वारा ही मनुष्य सफल तथा पूर्णतः ज्ञात हो सकताहै, क्योंकि ऐसी जिज्ञासाओं से अखिल ब्रह्माण्डों के स्वामी भगवान् के प्रति दिव्यआह्ादकारी प्रेम उत्पन्न होता है और जन्म-मृत्यु की घोर पुनरावृत्ति से शत प्रतिशत प्रतिरक्षाकी गारंटी प्राप्त होती है।
"
इदं भागवतं नाम पुराणं ब्रह्मसम्मितम् ।
उत्तमश्लोकचरितं चकार भगवानृषि: ।
नि:श्रेयसाय लोकस्य धन्यं स्वस्त्ययनं महत् ॥
४०॥
इदम्--इस; भागवतम्-- भगवान् तथा उनके शुद्ध भक्तों की कथा वाले ग्रन्थ को; नाम--नामक; पुराणम्--वेदों केअनुपूरक; ब्रह्म-सम्मितम्-- भगवान् श्रीकृष्ण का अवतार; उत्तम-शलोक--भगवान् का; चरितम्--कार्यकलाप;चकार--संकलित किया; भगवान्-- भगवान् के अवतार; ऋषि: -- श्री व्यासदेव ने; नि: श्रेयसाय--परम कल्याण केलिए; लोकस्य--सब लोगों के; धन्यम्--पूर्ण रूप से सफल, धन्य; स्वस्ति-अयनम्--सर्व आनन्दमय; महत्--परिपूर्ण ।
यह श्रीमद्धागवत भगवान् का साहित्यावतार है, जिसे भगवान् के अवतार वेदव्यास नेसंकलित किया है।
यह सभी लोगों के परम कल्याण के निमित्त है और यह सभी तरह सेसफल, आनन्दमय तथा परिपूर्ण है।
"
तदिदं ग्राहयामास सुतमात्मवतां वरम् ।
सर्ववेदेतिहासानां सारं सारं समुद्धृतम् ॥
४१॥
तत्--उस; इृदम्--यह; ग्राहयाम् आस--स्वीकार कराया; सुतम्--उनके पुत्र को; आत्मवताम्--स्वरूपसिद्ध को;वरम्--अत्यन्त आदरणीय; सर्व--समस्त; वेद--वैदिक साहित्य ( ज्ञान ग्रन्थ ); इतिहासानाम्--समस्त इतिहासों का;सारम्--सार, निष्कर्ष; सारम्--सार; समुद्धृतम्--निकाला हुआ।
स्वरूपसिद्धों में अत्यन्त सम्माननीय श्री व्यासदेव ने समस्त वैदिक वाड्मय तथाब्रह्माण्ड के इतिहासों का सार निकाल कर इसे अपने पुत्र को प्रदान किया।
"
सतु संश्रावयामास महाराजं परीक्षितम् ।
प्रायोपविष्टे गड़ायां परीतं परमर्षिभि: ॥
४२॥
सः--व्यासदेव के पुत्र ने; तु--पुनः; संश्राववाम् आस--सुनाया; महा-राजम्--राजा; परीक्षितम्--परीक्षित को; प्राय-उपविष्टम्--अन्न-जल रहित मृत्यु के लिए बैठे; गड्डायाम्--गंगा नदी के तट पर; परीतम्-घिरे हुए; परम-ऋषिभि: --बड़े-बड़े ऋषियों द्वारा।
व्यासदेव के पुत्र शुकदेव गोस्वामी ने, अपनी पारी में महाराज परीक्षित को भागवतसुनाई जो तब निर्जल तथा निराहार रहकर मृत्यू की प्रतीक्षा करते हुए गंगा नदी के तट परऋषियों से घिरे बैठे हुए थे।
"
कृष्णे स्वधामोपगते धर्मज्ञानादिभि: सह ।
कलौ नष्टदृशामेष पुराणार्को धुनोदित: ॥
४३॥
कृष्णे--कृष्ण के; स्व-धाम--अपने धाम; उपगते--वापस जाने पर; धर्म--धर्म; ज्ञान--ज्ञान; आदिभि:--इत्यादि;सह--साथ; कलौ--कलियुग में; नष्ट-हशाम्--जिन लोगों के दृष्टि नष्ट हो चुकी है उनके; एष:--ये सब; पुराण-अर्कः--सूर्य के समान प्रकाशमान पुराण; अधुना--इस समय; उदितः--उदय हुआ है।
यह भागवत पुराण सूर्य के समान तेजस्वी है और धर्म, ज्ञान आदि के साथ कृष्ण द्वाराअपने धाम चले जाने के बाद ही इसका उदय हुआ।
जिन लोगों ने कलियुग में अज्ञान केगहन अन्धकार के कारण अपनी दृष्टि खो दी है, उन्हें इस पुराण से प्रकाश प्राप्त होगा।
"
तत्र कीर्तयतो विप्रा विप्रषेंर्भूरितेजस: ।
अहं चाध्यगमं तत्र निविष्टस्तदनुग्रहातू ।
सोऊहं व: श्रावयिष्यामि यथाधीतं यथामति ॥
४४॥
तत्र--वहाँ; कीर्तवतः--कीर्तन करते हुए; विप्रा:--हे ब्राह्मणों; विप्र-ऋषेः--ब्रह्मर्षि से; भूरि--अत्यधिक; तेजस:--शक्तिशाली; अहम्--मैं; च-- भी; अध्यगमम्--समझ सकता हूँ; तत्र--उस सभा में; निविष्ट:--पूर्ण रूप से एकाग्रचितहोकर; ततू-अनुग्रहात्--उसकी कृपा से; सः--वही वस्तु; अहम्--मैं; बः--तुमको; श्रावयिष्यामि--सुनाऊँगा; यथा-अधीतम् यथा-मति--अपने अनुभव के आधार परहे विद्वान ब्राह्मणों, जब शुकदेव गोस्वामी ने वहाँ पर ( महाराज परीक्षित की उपस्थितिमें ) भागवत सुनाया, तो मैंने अत्यन्त धयानपूर्वक सुना और इस तरह उनकी कृपा से मैंने उनमहान शक्ति-सम्पन्न ऋषि से भागवत सीखा।
अब मैं तुम लोगों को वही सब सुनाने काप्रयत्न करूँगा, जो मैंने उनसे सीखा तथा जैसा मैंने आत्मसात् किया।
"
अध्याय चार: श्री नारद का प्राकट्य
1.4व्यास उवाचइति ब्रुवाणं संस्तूय मुनीनां दीर्घसत्रिणाम् ।
वृद्ध: कुलपति: सूतं बहवृच: शौनकोउब्रवीत् ॥
१॥
व्यास: उबाच--व्यासदेव ने कहा; इति--इस प्रकार; ब्रुवाणम्--बोलते हुए; संस्तूय--बधाई देकर; मुनीनाम्--बड़े-बड़ेसाधुओं में; दीर्घ--दीर्घकालीन; सत्रिणाम्--यज्ञ सम्पन्न करने में लगे रहने वाले; वृद्धः--वयोवृद्ध; कुल-पति:--सभाके अध्यक्ष; सूतम्--सूत गोस्वामी को; बहु-ऋच:--विद्वान; शौनक:--शौनक ने; अब्रवीतू--सम्बोधित किया ।
सूत गोस्वामी को इस प्रकार बोलते देखकर, दीर्घकालीन यज्ञोत्सव में लगे हुए समस्तऋषियों में विद्वान तथा वयोवृद्ध अग्रणी शौनक मुनि ने सूत गोस्वामी को निम्न प्रकारसम्बोधित करते हुए बधाई दी।
"
शौनक उवाचसूत सूत महाभाग वद नो वदतां वर ।
कथां भागवतीं पुण्यां यदाह भगवाड्छुक: ॥
२॥
शौनक: उवाच--शौनक ने कहा; सूत सूत--हे सूत गोस्वामी; महा-भाग--परम भाग्यशाली; वद--कृपया कहें; नः--हमसे; बदताम्--बोलने वालों में से; वर--आदरणीय; कथाम्--कथा के सन्देश को; भागवतीम्-- भागवत की;पुण्याम्-पवित्र; यत्--जो; आह--कहा; भगवान्--परम शक्तिमान; शुक:-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने |
शौनक ने कहा : हे सूत गोस्वामी, जो बोल सकते हैं तथा सुना सकते हैं, उन सबों मेंआप सर्वाधिक भाग्यशाली तथा सम्माननीय हैं।
कृपा करके श्रीमद्धागवत की पुण्य कथाकहें, जिसे महान् तथा शक्तिसम्पन्न ऋषि शुकदेव गोस्वामी ने सुनाइ थी।
"
कस्मिन् युगे प्रवृत्तेयं स्थाने वा केन हेतुना ।
कुतः सझ्जोदित: कृष्ण: कृतवान् संहितां मुनि: ॥
३॥
कस्मिनू--किस; युगे--युग में ; प्रवृत्ता-- प्रारम्भ हुआ; इयम्--इस; स्थाने--स्थान पर; वा--अथवा; केन--किस;हेतुना--कारण से; कुत:--कहाँ से; सज्जोदित:--प्रेरणा पाई; कृष्ण:--द्वैधायन व्यास ने; कृतवान्--संकलित किया;संहिताम्--वैदिक साहित्य को; मुनिः--विद्वान।
यह ( कथा ) सर्वप्रथम किस युग में तथा किस स्थान में प्रारम्भ हुई और किस कारणइसे प्रारम्भ किया गया? महामुनि कृष्ण द्वैपायन व्यास ने इस साहित्य ( ग्रंथ ) को संकलित करने की प्रेरणा कहाँ से प्राप्त की ?"
तस्य पुत्रों महायोगी समहर्डनिर्विकल्पक: ।
एकान्तमतिसुन्निद्रो गूढो मूढ इवेयते ॥
४॥
तस्य--उसका; पुत्र:--पुत्र; महा-योगी--परम भक्त; सम-हक्--समदर्शी ; निर्विकल्पक: --नितान्त ब्रह्मवादी; एकान्त-मतिः--मन की निष्ठा, ब्रह्मवाद में स्थिर; उन्निद्र:--अज्ञान से परे; गूढ:--प्रच्छन्न; मूढ:--जड़; इब--सहृश; इयते--प्रतीतहोता हैउनका (व्यासदेव का ) पुत्र परम भक्त, समदर्शी ब्रह्मवगादी था जिसका मन सदैवब्रह्मवाद में केन्द्रित रहता था।
वह संसारी कर्मों से परे था, लेकिन प्रकट न होने के कारणअज्ञानी-जैसा लगता था।
"
हृष्ठानुयान्तमृषिमात्मजमप्यनग्नंदेव्यो हिया परिदधुर्न सुतस्य चित्रम् ।
तद्ीक्ष्य पृष्छति मुनौ जगदुस्तवास्तिस्त्रीपुम्भिदा न तु सुतस्य विविक्तद्ष्टे: ॥
५॥
इृष्टा--देखकर; अनुयान्तम्--पीछा करते हुए; ऋषिम्--ऋषि; आत्मजम्--अपने पुत्र को; अपि--यद्यपि; अनग्नम्--नग्न नहीं; देव्य: --सुन्दरियों ने; हिया--लज्जा से; परिदधु;--शरीर ढक लिया; न--नहीं; सुतस्य--पुत्र का; चित्रम्--आश्चर्यजनक; तत् वीक्ष्य--यह देखकर; पृच्छति--पूछता है; मुनौ--मुनि ( व्यास ) को; जगदुः--उत्तर दिया; तब--तुम्हारा; अस्ति-- है; स्त्री-पुमू--नर तथा नारी; भिदा--अन्तर; न--नहीं; तु--लेकिन; सुतस्य--पुत्र का; विविक्त--शुद्ध, पवित्र; दृष्टे--देखने वाले का |
जब श्रील व्यासदेव अपने पुत्र के पीछे-पीछे जा रहे थे, तो नग्न स्नान करती सुन्दरतरुणियों ने बस्त्रों से अपने शरीर ढक लिए, यद्यपि व्यासदेव स्वयं नग्न न थे।
लेकिन जबउनका पुत्र वहीं से गुजरा था, तब उन्होंने वैसा नहीं किया था।
मुनि ने इसके बारे में पूछा तो तरुणियों ने उत्तर दिया कि उनका पुत्र पवित्र है और जब वह उनकी ओर देख रहा था, तोउसने स्त्री तथा पुरुष में कोई भेद नहीं माना।
लेकिन मुनि तो भेद मान रहे थे।
"
कथमालक्षित: पौरै: सम्प्राप्त: कुरुजाड्लान् ।
उन्मत्तमूकजडवद्विचरन् गजसाह्ये ॥
६॥
कथम्-कैसे; आलक्षित:--मान्य; पौरैः:--नागरिकों द्वारा; सम्प्राप्त:--पहुँचे हुए; कुरू-जाड्रलानू--कुरू-जांगल प्रदेशमें; उन्मत्त--पागल; मूक --गूँगा; जडवत्--मूढ़ के समान; विचरन्--घूमते हुए; गज-साह्ये--हस्तिनापुर में ।
कुरु तथा जांगल प्रदेशों में पागल, गूँगे तथा मूढ़ की भाँति घूमने के बाद, जब वे( व्यासपुत्र श्रील शुकदेव ) हस्तिनापुर ( अब दिल्ली ) नगर में प्रविष्ट हुए, तो वहाँ केनागरिकों ने उन्हें कैसे पहचाना ?"
कथं वा पाण्डवेयस्य राजर्षेरमुनिना सह ।
संवाद: समभूत्तात यत्रैषा सात्वती श्रुति: ॥
७॥
कथम्--किस तरह; वा--भी;; पाण्डवेयस्थ--पाण्डु के वंशज ( परीक्षित ) के; राजर्षे:--राजर्षि; मुनिना--मुनिके;सह--साथ; संवाद:--संवाद, वार्ता; समभूत्--हुआ; तात--हे प्रिय; यत्र--जहाँ; एघा--इस तरह; सात्वती--दिव्य;श्रुतिः--वेदों का सार।
राजा परीक्षित की इस महामुनि से कैसे भेंट हुई जिसके फलस्वरूप वेदों के इस महान्दिव्य सार ( भागवत ) का वाचन सम्भव हो सका ?"
स गोदोहनमात्र हि गृहेषु गृहमेधिनाम् ।
अवेक्षते महाभागस्तीर्थीकुर्व॑स्तदाश्रमम् ॥
८॥
सः--वे ( शुकदेव गोस्वामी ) ; गो-दोहन-मात्रमू--केवल गाय दुहते समय तक; हि--निश्चय ही; गृहेषु--घर में; गृह-मेधिनाम्--गृहस्थों के; अवेक्षते--प्रतीक्षा करते हैं; महा-भाग:--परम भाग्यशाली; तीर्थी--तीर्थ यात्रा; कुर्वन्--करतेहुए; तत् आश्रममू--उस घर को |
वे ( शुकदेव गोस्वामी ) किसी गृहस्थ के द्वार पर उतनी ही देर रुकते, जितने समय मेंगाय दुही जा सकती है।
वे उस घर को पवित्र करने के लिए ही ऐसा करते थे।
"
अभिमन्युसुतं सूत प्राहुर्भागवतोत्तमम् ।
तस्य जन्म महाश्चर्य कर्माणि च गृणीहि न: ॥
९॥
अभिमन्यु-सुतम्--अभिमन्यु के पुत्र को; सूत--हे सूत; प्राहु:--कहा जाता है; भागवत-उत्तमम्--प्रथम श्रेणी का भगवद्भक्त; तस्य--उसका; जन्म--जन्म; महा-आश्चर्यम्--अत्यन्त आश्चर्यजनक; कर्माणि--कर्म; च--तथा; गृणीहि--कृपया कहें; नः--हमसे ४कहा जाता है कि महाराज परीक्षित उच्च कोटि के भगवद्धक्त थे और उनके जन्म तथाकर्म अत्यन्त आश्चर्यजनक थे।
कृपया उनके विषय में हमें बताएँ।
"
स सम्राट् कस्य वा हेतो: पाण्डूनां मानवर्धन: ।
प्रायोपविष्टो गड़ायामनाहत्याधिराट्श्रियम् ॥
१०॥
सः--वे ; सप्राट्--महाराजा; कस्य--किस; वा--अथवा; हेतो: --कारण से; पाण्डूनामू--पाण्डु के पुत्रों का; मान-वर्धन:--कुल को सम्पन्न करने वाला; प्राय-उपविष्ट:--बैठे तथा उपवास करते; गड्डायामू--गंगा के तट पर; अनाहत्य--उपेक्षा करके; अधिराट्--प्राप्त किया राज्य; अ्रियम्--ऐ श्वर्य ।
वे एक महान् सम्राट थे और उनके पास उपार्जित राज्य के सारे ऐश्वर्य थे।
वे इतनेवरेण्य थे कि उनसे पाण्डु वंश की प्रतिष्ठा बढ़ रही थी।
तो फिर वे सब कुछ त्याग कर गंगानदी के तट पर बैठकर क्यों आमरण उपवास करने लगे?"
नमन्ति यत्पादनिकेतमात्मन:शिवाय हानीय धनानि शत्रव: ।
कथं स वीर: श्रियमज् दुस्त्यजांयुवैषतोत्स्नष्टमहो सहासुभि: ॥
११॥
नमन्ति--झुकते हैं; यत्-पाद--जिनके पाँव के; निकेतम्--नीचे; आत्मन:-- अपने; शिवाय--कल्याण के लिए;हानीय--लाकर; धनानि--सम्पत्ति; शत्रवः--शत्रुगण; कथम्--किस कारण से; सः--वह; वीर:--वीर; ख्रियम्--ऐश्वर्य; अड़्--हे; दुस्त्यजाम्--जिसका छोड़ पाना दुष्कर है उसे; युवा--युवावस्था में; ऐषत--इच्छा की; उत्स्रष्टम्--त्याग देने के लिए; अहो--ओअरे; सह--साथ; असुभि:--जीवन केवे इतने बड़े सम्राट थे कि उनके सारे शत्रु आकर अपनी भलाई के लिए उनके चरणोंपर अपना शीश झुकाते थे और अपनी सारी सम्पत्ति अर्पित करते थे।
वे तरुण औरशक्तिशाली थे और उनके पास अलभ्य राजसी ऐश्वर्य था।
तो फिर वे अपना सर्वस्व, यहाँ तक कि अपना जीवन भी, क्यों त्यागना चाह रहे थे?"
शिवाय लोकस्य भवाय भूतयेय उत्तमश्लोकपरायणा जना: ।
जीवन्ति नात्मार्थमसौ पराश्रयंमुमोच निर्विद्य कुत: कलेवरम् ॥
१२॥
शिवाय--कल्याण हेतु; लोकस्य--समस्त जीवों के; भवाय--समुन्नति के लिए; भूतये--आर्थिक विकास के लिए;ये--जो है; उत्तम-शलोक-परायणा:-- भगवान् के कार्य के प्रति अनुरक्त; जना:--लोग; जीवन्ति--जीते हैं; न--लेकिननहीं; आत्म-अर्थम्--स्वार्थ; असौ--वह; पर-आश्रयम्-- अन्यों के लिए शरण; मुमोच--त्याग दिया; निर्विद्य--समस्तप्रकार की आसक्ति से मुक्त होकर; कुतः--किस लिए; कलेवरम्--मर्त्य शरीर को ।
जो लोग भगवत्कार्य में अनुरक्त रहते हैं, वे दूसरों के कल्याण, उन्नति तथा सुख केलिए ही जीवित रहते हैं।
वे किसी स्वार्थवश जीवित नहीं रहते।
अतएव राजा (९ परीक्षित ) नेसमस्त सांसारिक वैभव की आसक्ति से मुक्त होते हुए भी, अपने उस मर्त्य शरीर को क्योंत्यागा जो दूसरों के लिए आश्रयतुल्य था ?"
तत्सर्व न: समाचक्ष्व पृष्टो यदिह किल्लन ।
मन्ये त्वां विषये वाचां स्नातमन्यत्र छान्दसात् ॥
१३॥
'तत्--वह; सर्वम्--सारा; नः--हमसे; समाचक्ष्व--स्पष्ट कहें; पृष्ट:--प्रश्न पूछा; यत् हह--यहाँ पर; किज्लनन--वह सब;मन्ये--हम सोचते हैं; त्वामू--आपको; विषये--सारे विषयों में; वाचाम्--; स्नातमू-पूर्ण रूप से ज्ञात;अन्यत्र--छोड़कर; छान्दसात्-वेदों का अंश।
हम जानते हैं कि आप वेदों के कतिपय अंश को छोड़कर अन्य समस्त विषयों के अर्थमें पटु हैं, अतएव आप उन सरे प्रश्नों की स्पष्ट व्याख्या कर सकते हैं, जिन्हें हमने आपसे अभी पूछा है।
"
सूत उवाचद्वापरे समनुप्राप्ते तृतीये युगपर्यये ।
जात: पराशराद्योगी वासव्यां कलया हरे: ॥
१४॥
सूतः उबाच--सूत गोस्वामी ने कहा; द्वापरे--द्वापर युग में; समनुप्राप्ते--आविर्भाव होने पर; तृतीये--तृतीय; युग--युग;पर्यये--के स्थान पर; जात:--प्रकट हुआ; पराशरात्--पराशर से; योगी--महान ऋषि; वासव्याम्--वसु की पुत्री केगर्भ में; कलया--पूर्ण अंश में; हरेः-- भगवान् के ॥
सूत गोस्वामी ने कहा : जिस समय द्वापर युग का त्रेता युग से अतिव्यापन हो रहा था,तो वसु की पुत्री सत्यवती के गर्भ से पराशर द्वारा महान ऋषि ( व्यासदेव ) ने जन्म लिया।
"
स कदाचित्सरस्वत्या उपस्पृश्य जलं शुचि: ।
विविक्त एक आसीन उदिते रविमण्डले ॥
१५॥
सः--वे; कदाचित्--एक बार; सरस्वत्या:--सरस्वती नदी के तट पर; उपस्पृश्य--प्रातः:कालीन आचमन से निवृत्तहोकर; जलम्--जल से; शुचि:--पवित्र होकर; विविक्ते--एकाग्रता; एक:--अकेले; आसीन:--इस प्रकार बैठे हुए;उदिते--उदय होने वाले; रवि-मण्डले--सूर्य के गोले का |
एक बार सूर्योदय होते ही उन्होंने ( व्यासदेव ने ) सरस्वती के जल से प्रातःकालीनआचमन किया और मन एकाग्र करने के लिए वे एकान्त में बैठ गये।
"
परावरज्ञ: स ऋषि: कालेनाव्यक्तरंहसा ।
युगधर्मव्यतिकरं प्राप्त भुवि युगे युगे ॥
१६॥
पर-अवर--भूत तथा भविष्य का; ज्ञ:--जानने वाला; सः--वह; ऋषि: --व्यासदेव; कालेन--समय पाकर; अव्यक्त--अप्रकट; रंहसा--महान शक्ति से; युग-धर्म--युग के अनुरूप कार्य; व्यतिकरम्--विसंगतियाँ, दोष; प्राप्तम्-प्राप्त होनेपर; भुवि--पृथ्वी पर; युगे युगे--विभिन्न युगों में ।
महर्षि व्यासदेव ने युग के कर्तव्यों में विरोधाभास देखा।
कालक्रम में पृथ्वी पर अदृश्यशक्तियों के कारण विभिन्न युगों में ऐसा होता रहता है।
"
भौतिकानां च भावानां शक्तिहासं च तत्कृतम् ।
अश्रद्धधानान्नि:सत्त्वान्दुर्मेधानू हसितायुष; ॥
१७॥
दुर्भगांश्व जनान् वीक्ष्य मुनिर्दिव्येन चक्षुषा ।
सर्ववर्णाश्रमाणां यद्ृध्यौ हितममोघहक् ॥
१८॥
भौतिकानाम् च--पदार्थ से निर्मित प्रत्येक वस्तु का भी; भावानाम्-कर्म; शक्ति-हासम् च--तथा प्राकृतिक शक्ति काक्षय; तत्-कृतम्--उसके द्वारा किया गया; अश्रद्दधानानू-- श्रद्धाविहीन का; निःसत्त्वानू--सतोगुण के अभाव के कारणअधीर; दुर्मेधान्--दुर्बुद्धि वाला; हसित--घटा हुआ; आयुष:--जीवन अवधि का; दुर्भगान् च--तथा अभागे; जनान्--जन सामान्य को; वीक्ष्य--देखकर; मुनि:--मुनि; दिव्येन--दिव्य; चक्षुषा--दृष्टि से; सर्व--समस्त; वर्ण-आश्रमाणाम्--जीवन के समस्त स्तरों तथा आश्रमों का; यत्--जो; दध्यौ--विचार किया; हितम्--कल्याण; अमोघ-हक्-पूर्ण ज्ञान से युक्त।
परम ज्ञानी ऋषि, अपनी दिव्य दृष्टि से, युग के प्रभाव से प्रत्येक भौतिक वस्तु कीअवनति को देख सकते थे।
वे यह भी देख सकते थे कि श्रद्धाविहीन व्यक्तियों की आयुक्षीण होगी और वे सच्चगुण के अभाव के कारण अधीर रहेंगे।
इस प्रकार उन्होंने समस्तवर्णों तथा आश्रमों के लोगों के कल्याण पर विचार किया।
"
चातुर्होत्रं कर्म शुद्ध प्रजानां वीक्ष्य वैदिकम् ।
व्यदधाद्यज्ञसन्तत्यै वेदमेक॑ चतुर्विधम् ॥
१९॥
चातु:--चार; होत्रमू--यज्ञ की अग्नियाँ; कर्म शुद्धम्-कर्म की शुदर्द्धि; प्रजानामू--प्रजा का; वीक्ष्य--देखकर;वैदिकम्--वैदिक अनुष्ठानों के अनुसार; व्यदधात्--बनाया; यज्ञ--यज्ञ; सन्तत्यै--विस्तार के लिए; वेदम् एकम्--केवल एक वेद को; चतुः-विधम्--चार विभागों में ।
उन्होंने देखा कि वेदों में वर्णित यज्ञ वे साधन हैं, जिनसे लोगों की वृत्तियों को शुद्धबनाया जा सकता है।
अतः इस विधि को सरल बनाने के लिए ही उन्होंने एक ही वेद केचार भाग कर दिये, जिससे वे लोगों के बीच फैल सकें।
"
ऋग्यजु:सामाथर्वाख्या वेदाश्वत्वार उद्धृता: ।
इतिहासपुराणं च पञ्ञमो वेद उच्यते ॥
२०॥
ऋग्-यजु:-साम-अथर्व-आख्या: --चार वेदों के नाम; वेदा:--वेद; चत्वार: --चार; उद्धृता:--पृथक्-पृथक् अंगों मेंबँटा; इतिहास--ऐतिहासिक प्रलेख ( महाभारत ); पुराणम् च--तथा सारे पुराण; पञ्ञम: --पाँचवा; वेद: --ज्ञान का मूलस्त्रोत; उच्यते--कहा जाता हैमूल ज्ञान के स्त्रोतों ( वेदों ) के चार पृथक् विभाग किये गये।
लेकिन पुराणों में वर्णितऐतिहासिक तथ्य तथा प्रामाणिक कथाएँ पंचम वेद कहलाती हैं।
"
तत्रग्वेद्धर: पैल: सामगो जैमिनि: कवि: ।
वैशम्पायन एवैको निष्णातो यजुषामुत ॥
२१॥
तत्र--वहाँ; ऋगू-वेद-धर:--ऋग्वेद के आचार्य; पैल:--पैल नामक ऋषि; साम-ग:--सामवेद का; जैमिनि:--जैमिनिनामक ऋषि; कवि:--अत्यन्त योग्य; वैशम्पायन:--वैशम्पायन नामक ऋषि; एव--ही; एक: --अकेले; निष्णात:--पटु; यजुषाम्--यजुर्वेद के; उत--यशस्वी ।
वेदों के चार खण्डों में विभाजित हो जाने के बाद, पैल ऋषि ऋग्वेद के आचार्य बनेऔर जैमिनि साम वेद के |
यजुर्वेद के कारण एकमात्र वैशम्पायन यशस्वी हुए।
"
अर्थर्वाज्विर्सामासीत्सुमन्तुर्दारुणो मुनि: ।
इतिहासपुराणानां पिता मे रोमहर्षण: ॥
२२॥
अथर्व--अथर्ववेद; अड्डिर्साम्--अंगिरा ऋषि को; आसीतू--सौंपा गया; सुमन्तु:--सुमन्तुमुनि नाम से ज्ञात; दारुण: --अथर्ववेद में गम्भीरता से संलग्न; मुनि:--मुनि; इतिहास-पुराणानामू--ऐतिहासिक प्रलेखों तथा पुराणों; पिता--पिता;मे--मेरा; रोमहर्षण: --ऋषि रोमहर्षण ।
अत्यन्त अनुरक्त रहने वाले सुमन्तु मुनि अंगिरा को अथर्ववेद सौंपा गया और मेरे पितारोमहर्षण को प्राण तथा इतिहास सौंपे गये।
"
त एत ऋषयो वेदं स्व स्व॑ं व्यस्यन्ननेकधा ।
शिष्यै: प्रशिष्यैस्तच्छिष्यैर्वेदास्ते शाखिनो भवन् ॥
२३॥
ते--वे; एते--ये सब; ऋषय: --विद्वान; वेदम्--विभिन्न वेदों को; स्वम् स्वम्--अपने अपने विषयों के; व्यस्यनू--प्रस्तुतकिया; अनेकधा--अनेक; शिष्यै:--शिष्य; प्रशिष्यै:--शिष्यों के शिष्य; तत्-शिष्यै:--उनके भी शिष्यों द्वारा; वेदाःते--उन वेदों के अनुयायी; शाखिन:--विभिन्न शाखाएँ; अभवनू--इस प्रकार बनीं |
इन सब विद्वानों ने अपनी पारी में, उन्हें सौंपे गये वेदों को अपने अनेक शिणष्यों, प्रशिष्योंतथा उनके भी शिष्यों को प्रदान किया और इस प्रकार वेदों के अनुयायियों की अपनी-अपनी शाखाएँ बनीं।
"
त एव वेदा दुर्मेधेर्धार्यन्ते पुरुषर्यथा ।
एवं चकार भगवान् व्यास: कृपणवत्सल: ॥
२४॥
ते--वे; एव--निश्चय ही; वेदा:--ज्ञान के ग्रंथ; दुर्मेधेः --अल्पज्ञों द्वारा; धार्यन्ते--धारण किये जाते हैं; पुरुषैः--मनुष्यद्वारा; यथा--जिस तरह; एवम्--इस प्रकार; चकार--संकलित किया; भगवान्--शक्तिशाली; व्यास: --व्यास मुनि ने;कृपण-वत्सल:--अज्ञानी जनता के प्रति दयालु।
इस प्रकार, अज्ञानी जनसमूह पर अत्यन्त कृपालु ऋषि व्यासदेव ने वेदों का संकलनकिया, जिससे कम ज्ञानी पुरुष भी उनको आत्मसात् कर सकें।
"
स्त्रीशूद्रद्विजबन्धूनां त्रयी न श्रुतिगोचरा ।
कर्मश्रेयसि मूढानां श्रेय एवं भवेदिह ।
इति भारतमाख्यानं कृपया मुनिना कृतम् ॥
२५॥
स्त्री--स्त्री वर्ग; शूद्र-- श्रमिक वर्ग; द्विज-बन्धूनाम्--द्विजों के मित्रों का; त्रयी--तीन; न--नहीं; श्रुति-गोचरा--समझनेके लिए; कर्म--कर्म में; श्रेयसि--कल्याण में; मूढानाम्--मूर्खो का; श्रेय:--परम लाभ; एवम्--इस प्रकार; भवेत्--प्राप्त किया; इह--इससे; इति--इस प्रकार सोचकर; भारतम्--महाभारत; आख्यानम्--ऐतिहासिक तथ्य; कृपया--महत अनुकम्पावश; मुनिना--मुनि द्वारा; कृतम्-पूरा हुआ है।
महर्षि ने अनुकम्पावश हितकर समझा कि यह मनुष्यों को जीवन का चरम लक्ष्य प्राप्तकरने में यह सहायक होगा।
इस प्रकार उन्होंने स्त्रियों, शूद्रों तथा द्विज-बन्धुओं के लिएमहाभारत नामक महान ऐतिहासिक कथा का संकलन किया।
"
एवं प्रवृत्तस्य सदा भूतानां श्रेयसि द्विजा: ।
सर्वात्मकेनापि यदा नातुष्यद्धूदयं ततः ॥
२६॥
एवम्--इस प्रकार; प्रवृत्तस्य--संलग्न रहने वाले का; सदा--सदैव; भूतानाम्--जीवों का; श्रेयसि--कल्याण में;द्विजा:--हे द्विजो; सर्वात्मकेन अपि--सभी प्रकार से; यदा--जब; न--नहीं; अतुष्यत्--तुष्ट हो गया; हृदयम्--मन;ततः--उस समय ।
हे द्विज ब्राह्मणो, यद्यपि वे समस्त लोगों के समग्र कल्याण कार्य में लगे रहे, तो भीउनका मन भरा नहीं।
"
नातिप्रसीदद्धृदय: सरस्वत्यास्तटे शुचौ ।
वितर्कयन् विविक्तस्थ इदं चोवाच धर्मवित् ॥
२७॥
न--नहीं; अतिप्रसीदत्-- अत्यधिक तुष्ट; हृदयः--हृदय में; सरस्वत्या:--सरस्वती नदी के; तटे--किनारे; शुचचौ --पवित्र;वितर्कयन्--विचार करके; विविक्त-स्थ:--एकान्त में स्थित; इृदम् च--यह भी; उबाच--कहा; धर्म-वित्-- धर्म काज्ञाता)इस प्रकार मन में असंतुष्ट रहते हुए ऋषि ने तुरन्त विचार करना प्रारम्भ कर दिया,क्योंकि वे धर्म के सार के ज्ञाता और मन ही मन कहा :" धृतब्रतेन हि मया छन्दांसि गुरवोग्नय: ।
मानिता निर्व्यलीकेन गृहीतं चानुशासनम् ॥
२८ ॥
भारतव्यपदेशेन ह्ाम्नायार्थश्न प्रदर्शित: ।
हृश्यते यत्र धर्मादि सत्रीशूद्रादिभिरप्युत ॥
२९॥
धृत-ब्रतेन--कठिन ब्रत करते हुए; हि--निश्चय ही; मया--मेरे द्वारा; छन्दांसि--वैदिक मन्त्र; गुरव:--गुरुजन;अग्नय:--यज्ञ की अग्नि; मानिता:--भलीभाँति पूजित; निर्व्यलीकेन--किसी छटद्म से रहित; गृहीतम् च--तथा स्वीकृत;अनुशासनम्--पारम्परिक अनुशासन; भारत--महा भारत के; व्यपदेशेन--संकलन से; हि--निश्चय ही; आम्नाय-अर्थ:--शिष्य-परम्परा की अभिव्यक्ति; च--तथा; प्रदर्शित:--ठीक प्रकार से कहा गया; दहृश्यते--जो आवश्यक है, उससे; यत्र--जहाँ; धर्म-आदिः--धर्म का मार्ग; स्त्री-शूद्र-आदिभि: अपि--यहाँ तक कि स्त्रियों, शूद्रों आदि के द्वारा; उत--कहा गया।
मैंने कठिन ब्रतों का पालन करते हुए वेदों की, गुरु की तथा यज्ञ वेदी की मिथ्याडम्बरके बिना पूजा की है।
मैंने अनुशासन का भी पालन किया है और महाभारत की व्याख्या केमाध्यम से शिष्य-परम्परा को अभिव्यक्ति दी है, जिससे स्त्रियाँ, शूद्र तथा अन्य ( द्विजबन्धु )लोग भी धर्म के मार्ग का अवलोकन कर सकते हैं।
"
तथापि बत मे दैद्यो द्यात्मा चैवात्मना विभु: ।
असम्पन्न इवाभाति ब्रह्मवर्चस्य सत्तम: ॥
३०॥
तथापि--यद्यपि; बत--दोष; मे--मेरा; दैह्य:--शरीर में स्थित; हि--निश्चय ही; आत्मा--जीव; च--तथा; एव-- भी;आत्मना--अपने से; विभु:--पर्याप्त; असम्पन्न:--विहीन; इब आभाति--प्रतीत होता है; ब्रह्म-वर्चस्थ--वेदान्तियों का;सत्तम:--परम |
वेदों के लिए जितनी बातों की आवश्यकता है, यद्यपि मैं उनसे पूर्णरूप से सज्जित हूँ,तथापि मैं अपूर्णता का अनुभव कर रहा हूँ।
"
कि वा भागवता धर्मा न प्रायेण निरूपिता: ।
प्रिया: परमहंसानां त एव ह्यच्युतप्रिया: ॥
३१॥
किम् वा--अथवा; भागवता: धर्मा:--जीवों के भक्ति-कार्य; न--नहीं; प्रायेण--प्राय:; निरूपिता: --संकेत किया;प्रिया:--प्रिय; परमहंसानामू--सिद्ध पुरुषों का; ते एब--वे भी; हि--निश्चय ही; अच्युत-- अचूक; प्रिया:--आकर्षक |
हो सकता है कि मैंने भगवान् की भक्ति का विशेष रूप से कोई संकेत न किया हो,जो सिद्ध जीवों तथा अच्युत भगवान् दोनों को प्रिय है।
"
तस्यैवं खिलमात्मानं मन्यमानस्य खिद्यत: ।
कृष्णस्य नारदोभ्यागादाश्रमं प्रागुदाह॒तम् ॥
३२ ॥
तस्य--उसका; एवम्--इस प्रकार; खिलम्--अपरा; आत्मानम्--आत्मा; मन्यमानस्य--मन के भीतर सोचते हुए;खिद्यत:--पश्चात्ताप करते; कृष्णस्य--कृष्ण द्वैपायन व्यास का; नारद: अभ्यागात्--नारद का आगमन हुआ;आश्रमम्--कुटिया में; प्राकु--पहले; उदाहतम्--कहा गया।
जैसा कि पहले कहा जा चुका है, जब व्यासदेव अपने दोषों के विषय में पश्चात्ताप कररहे थे, उसी समय सरस्वती नदी के तट पर स्थित कृष्णद्वैपायन व्यास की कुटिया में नारदजी पधारे।
"
तमभिज्ञाय सहसा प्रत्युत्थायागतं मुनि: ।
पूजयामास विधिवज्नारदं सुरपूजितम् ॥
३३॥
तम् अभिज्ञाय--उनके ( नारद के ) शुभ आगमन को देखकर; सहसा--एकाएक; प्रत्युत्थाय--उठकर; आगतम्--आयेहुए; मुनिः--व्यासदेव ने; पूजयाम् आस--पूजा; विधि-वत्--विधि ( ब्रह्मा ) को प्रदान किये जाने वाले सम्मान के साथ;नारदम्--नारद को; सुर-पूजितम्--देवताओं द्वारा पूजित |
श्री नारद के शुभागमन पर श्री व्यासदेव सम्मानपूर्वक उठकर खड़े हो गये और उन्होंनेसृष्ठा ब्रह्म जी के समान उनकी पूजा की।
"
अध्याय पाँच: व्यासदेव के लिए श्रीमद्भागवत पर नारद के निर्देश
1.5सूत उवाचअथ तं सुखमासीन उपासीनं बृहच्छुवा: ।
देवर्षि: प्राह विप्रर्षिवीणापाणि: स्मयज्निव ॥
१॥
सूतः उबाच--सूतजी ने कहा; अथ--अतएव; तम्--उसको; सुखम् आसीन:--सुखपूर्वक बैठे हुए; उपासीनम्--पासबैठे हुए को; बृहत्-श्रवा:--अत्यन्त सम्मानित; देवर्षि:--देवताओं के परम ऋषि ने; प्राह--कहा; विप्रर्षिम्--ब्राह्मणों केऋषि ( ब्रह्मर्षि ) से; वीणा-पाणि:--हाथ में वीणा लिए; स्मयन् इब--मानो हँसते हुए।
सूत गोस्वामी ने कहा: इस तरह देवर्षि ( नारद ) सुखपूर्वक बैठ गये और मानोमुस्कराते हुए ब्रह्मर्षि ( व्यासदेव ) को सम्बोधित किया।
"
नारद उवाचपाराशर्य महाभाग भवत: कच्चिदात्मना ।
परितुष्यति शारीर आत्मा मानस एव वा ॥
२॥
नारदः उवाच--नारद ने कहा; पाराशर्य --हे पराशर-पुत्र; महा-भाग--परम भाग्यशाली; भवत:--आपका; कच्चित्--यदि यह है; आत्मना--आत्म-साक्षात्कार से; परितुष्यति--तुष्टि होती है; शारीर:--शरीर की पहचान; आत्मा--स्व;मानस:--मन की पहचान; एव--निश्चय ही; वा--तथा।
व्यासदेव को पराशर पुत्र, सम्बोधित करते हुए नारद ने पूछा : क्या तुम मन या शरीरको आत्म-साक्षात्कार का लक्ष्य मान कर सन्तुष्ट हो ?"
जिज्ञासितं सुसम्पन्नमपि ते महदद्धुतम् ।
कृतवान् भारत॑ यस्त्वं सर्वार्थपरिबृंहितम् ॥
३॥
जिज्ञासितम्-पूर्ण रूप से पूछा गया; सुसम्पन्नम्--पदटु, दक्ष; अपि--होने पर भी; ते--तुम्हारा; महत्-अद्भुतम्--महानतथा अद्भुत; कृतवान्--तैयार किया; भारतम्--महाभारत; यः त्वम्--जो तुमने किया है; सर्व-अर्थ--सम्पूर्ण फलोंसहित; परिबृंहितम्--विस्तार से व्याख्या की गईतुम्हारी जिज्ञासाएँ पूर्ण हैं और तुम्हारा अध्ययन भी भलीभाँति पूरा हो चुका है।
इसमें संदेह नहीं कि तुमने एक महान् एवं अद्भुत ग्रंथ महाभारत तैयार किया है, जो सभी प्रकारके वैदिक फलों ( पुरुषार्थों ) की विशद व्याख्या से युक्त है।
"
जिज्ञासितमधीतं च ब्रह्म यत्तत्सनातनम् ।
तथापि शोचस्यात्मानमकृतार्थ इव प्रभो ॥
४॥
जिज्ञासितम्--पूर्ण रूप से विचारा हुआ; अधीतमू-प्राप्त ज्ञान; च--तथा; ब्रह्म--परम, ब्रह्म; यत्--जो; तत्--उस;सनातनमू्--शाश्वत को; तथापि--फिर भी; शोचसि--पश्चात्ताप करते हो; आत्मानम्--अपने आपको; अकृत-अर्थ:--व्यर्थ; इब--सहश; प्रभो--हे महाशय।
तुमने निराकार ब्रह्म विषयक एवं उससे प्राप्त होने वाले ज्ञान को भलीभाँति लिपिबद्धकिया है।
तो इतना सब होते हुए, हे मेरे प्रभु,अपने को व्यर्थ समझ कर हताश होने की क्याबात है?व्यास उवाचअस्त्येव मे सर्वमिदं त्वयोक्तंतथापि नात्मा परितुष्यते मे ।
"
व्यास उवाचअस्त्येव मे सर्वमिदं त्वयोक्तं तथापि नात्मा परितुष्यते मे ।
तन्मूलमव्यक्तमगाधबोधं पृच्छामहे त्वात्मभवात्मभूतम् ॥
५॥
व्यास:--व्यास ने; उवाच--कहा; अस्ति-- है; एव--निश्चय ही; मे--मेरा; सर्वम्--समस्त; इृदम्--यह; त्ववा-- आपकेद्वारा; उक्तमू--कहा गया; तथापि--फिर भी; न--नहीं; आत्मा--आत्मा; परितुष्यते--संतुष्ट करता है; मे--मुझको;तत्--जिसका; मूलमू--जड़; अव्यक्तम्--अहृश्य; अगाध-बोधम्-- अगाध ज्ञान वाला मनुष्य; पृच्छामहे--पूछता हूँ;त्वा--आपसे; आत्म-भव--स्वतः उत्पन्न; आत्म-भूतम्--सन्तानश्री व्यासदेव ने कहा : आपने मेरे विषय में जो कुछ कहा, वह सब सही है।
इन सब केबावजूद मैं संतुष्ट नहीं हूँ।
अतएव मैं आपसे अपने असंतोष के मूल कारण के विषय में पूछरहा हूँ, क्योंकि आप स्वयंभू ( बिना भौतिक माता पिता के उत्पन्न ब्रह्मा ) की सन्तान होनेके कारण अगाध ज्ञान से युक्त व्यक्ति हैं।
"
स वै भवान् वेद समस्तगुह्य-मुपासितो यत्पुरुष: पुराण: ।
परावरेशो मनसैव विश्वसृजत्यवत्यत्ति गुणैरसड़र: ॥
६॥
सः--इस तरह; बै--निश्चय ही; भवानू--आप; वेद--जानते हैं; समस्त--समग्र; गुह्ममू--गोपनीय; उपासितः --पूजित;यत्--क्योंकि; पुरुष:-- भगवान्; पुराण: -- प्राचीन तम्, पुरातन; परावरेश: -- भौतिक तथा आध्यात्मिक जगतों केनियन्ता; मनसा--मन से; एव--केवल; विश्वम्--ब्रह्मण्ड को; सृजति--उत्पन्न करते हैं; अवति अत्ति--संहार करते हैं;गुणैः--गुणात्मक पदार्थ से; असड्भरः--निर्लिप्तहे प्रभो, जो कुछ भी गोपनीय है वह आपको ज्ञात है, क्योंकि आप भौतिक जगत केसृष्ठा तथा संहारक एवं आध्यात्मिक जगत के पालक आदि भगवान् की पूजा करते हैं जोभौतिक प्रकृति के तीनों गुणों से परे हैं।
"
मन्तश्वरो वायुरिवात्मसाक्षी ।
परावरे ब्रह्मणि धर्मतो ब्रतैःस्नातस्य मे न्यूनमलं विचक्ष्व ॥
७॥
त्वमू--आप; पर्यटन्--विचरण करते हुए; अर्क:--सूर्य; इब--सहृश; त्रि-लोकीम्--तीनों लोकों में; अन्त:-चरः --प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में प्रवेश करने वाले; वायु: इब--सर्वव्यापी वायु की भाँति; आत्म--स्वरूपसिद्ध; साक्षी--गवाह;परावरे--कार्य तथा कारण के मामले में; ब्रह्मणि--ब्रह्म में; धर्मतः--अनुशासन सम्बन्धी नियमों के अन्तर्गत; ब्रतैः--ब्रतमें; स्नातस्थ--लीन रहने वाले; मे--मेरा; न्यूनमू--कमी, दोष; अलमू्--स्पष्ट रूप से; विचक्ष्व--खोज निकालेंआप सूर्य के समान तीनों लोकों में विचरण कर सकते हैं और वायु के समान प्रत्येकव्यक्ति के अन्दर प्रवेश कर सकते हैं।
इसलिए आप सर्वव्यापी परमात्मा के तुल्य हैं।
अतःआपसे प्रार्थना है कि नियमों तथा ब्रतों का पालन करते हुए दिव्यता में लीन रहने पर भीमुझमें जो कमी हो, उसे खोज निकालें।
"
श्रीनारद उवाचभवतानुदितप्रायं यशो भगवतोमलम् ।
येनैवासौ न तुष्येत मन्ये तदर्शनें खिलम् ॥
८॥
श्री-नारद: उबाच-- श्री नारद ने कहा; भवता--तुम्हारे द्वारा; अनुदित-प्रायम्--प्रायः अप्रशंसित; यश: --महिमा;भगवतः--भगवान् की; अमलमू--निष्कलंक, निर्मल; येन--जिससे; एव--निश्चय ही; असौ--वे ( भगवान् ); न--नहीं; तुष्पेत--प्रसन्न होता; मन्ये--मैं सोचता हूँ; तत्--उस; दर्शनमू--दर्शन को; खिलमू--निम्न ।
श्री नारद ने कहा : वास्तव में तुमने भगवान् की अलौकिक तथा निर्मल महिमा का प्रसार नहीं किया।
जो दर्शन ( शास्त्र ) परमेश्वर की दिव्य इन्द्रियों को तुष्ट नहीं कर पाता, वह व्यर्थ समझा जाता है।
"
यथा धर्मादयश्चार्था मुनिवर्यानुकीर्तिता: ।
न तथा वासुदेवस्य महिमा ह्ानुवर्णित: ॥
९॥
यथा--जिस प्रकार; धर्म-आदय:--धार्मिक आचरण के चारों नियम; च--तथा; अर्था:--प्रयोजन; मुनि-वर्य--मुनियोंमें श्रेष्ठ, तुम्हारे द्वारा; अनुकीर्तिता:--बारम्बार वर्णित; न--नहीं; तथा--उसी प्रकार; वासुदेवस्थ-- भगवान् श्रीकृष्ण का;महिमा--यश; हि--निश्चय ही; अनुवर्णित:--इस प्रकार से निरन्तर वर्णित ।
हे महामुनि, यद्यपि आपने धार्मिक कृत्य इत्यादि चार पुरुषार्थों का विस्तार से वर्णनकिया है, किन्तु आपने भगवान् वासुदेव की महिमा का वर्णन नहीं किया है।
"
न यद्वचश्चित्रपदं हरेर्यशोजगत्पवित्र प्रगूणीत कहिंचित् ।
तद्बायसं तीर्थमुशन्ति मानसान यत्र हंसा निरमन्त्युशिकक्षया: ॥
१०॥
न--नहीं; यत्--वह; बच: --वाणी; चित्र-पदम्-- अलंकारिक; हरेः-- भगवान् का; यश: --महिमा; जगत्--ब्रह्माण्ड;पवित्रम्--पवित्र; प्रगूणीत--वर्णित; कहिंचित्--मुश्किल से; तत्--उस; वायसम्--कौवे को; तीर्थम्-तीर्थ-स्थान;उशन्ति--सोचते हैं; मानसा:--साधु पुरुष; न--नहीं; यत्र--जहाँ; हंसा:--परमहंस पुरुष; निरमन्ति-- आनन्द लेते हैं;उशिक्-क्षया:--दिव्य धाम के वासी।
जो वाणी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के वायुमण्डल को परिशुद्ध करने वाले भगवान् की महिमाका वर्णन नहीं करती, उसे साधु पुरुष कौवों के स्थान के समान मानते हैं।
चूँकि परमहंसपुरुष दिव्य लोक के वासी होते हैं, अतः उन्हें ऐसे स्थान में कोई आनन्द नहीं मिलता।
"
तद्बाग्विसों जनताघविप्लवोयस्मिन् प्रतिश्लोकमबद्धवत्यपि ।
नामान्यनन्तस्य यशोड्डलितानि यत्श्रण्वन्ति गायन्ति गृणन्ति साधव: ॥
११॥
तत्--उस; वाक्--वाणी; विसर्ग:--सृष्टि; जनता--जनसामान्य; अघध--पाप; विप्लव:--क्रान्तिकारी; यस्मिन्--जिसमें;प्रति-शलोकम्--प्रत्येक श्लोक; अबद्धवति-- अनियमित रूप से रचा गया; अपि--होते हुए भी; नामानि--दिव्य नामआदि; अनन्तस्थ--असीम भगवान् के; यशः--महिमा; अड्डितानि--चित्रित; यत्--जो; श्रृण्वन्ति--सुनते हैं; गायन्ति--गाते हैं; गृणन्ति--स्वीकार करते हैं; साधव:--शुद्ध मनुष्य जो निष्ठावान हैं।
दूसरी ओर, जो साहित्य असीम परमेश्वर के नाम, यश, रूपों तथा लीलाओं की दिव्यमहिमा के वर्णन से पूर्ण है, वह कुछ भिन्न ही रचना है जो इस जगत की गुमराह सभ्यता केअपवित्र जीवन में क्रान्ति लाने वाले दिव्य शब्दों से ओतप्रोत है।
ऐसा दिव्य साहित्य, चाहेवह ठीक से न भी रचा हुआ हो, ऐसे पवित्र मनुष्यों द्वारा सुना, गाया तथा स्वीकार कियाजाता है, जो नितान्त निष्कपट होते हैं।
"
नैष्कर्म्यमप्यच्युतभाववर्जितंन शोभते ज्ञानमलं निरझ्ञनम् ।
कुतः पुनः शश्वदभद्रमी श्वरेन चार्पितं कर्म यदप्यकारणम् ॥
१२॥
नैष्कर्म्यममू--आत्म-साक्षात्कार ( सकाम कर्मो के बन्धन से मुक्त होकर ); अपि--के बावजूद; अच्युत--अमोघ भगवान्हभाव--विचार; वर्जितम्--विहीन, से रहित; न--नहीं; शोभते-- अच्छा लगता है; ज्ञानम्--दिव्य ज्ञान; अलमू्-- धीरेधीरे; निरज्ननम्--उपाधियों से रहित; कुतः--कहाँ है; पुन:--फिर; शश्वत्--निरन्तर; अभद्रमू-- अहितकर, अशुभ;ईश्वेर--ईश्वर के प्रति; न--नहीं; च--तथा; अर्पितमू--अर्पित किया हुआ; कर्म--कर्म; यत् अपि--जो है; अकारणम्--निष्काम ।
आत्म-साक्षात्कार का ज्ञान समस्त भौतिक आसक्ति से रहित होने पर भी शोभा नहींदेता यदि वह अच्युत (ईश्वर ) के भाव से शून्य हो।
तो फिर उन सकाम कर्मों से क्या लाभहै, यदि वे भगवान् की भक्ति के लिए काम न आ सकें और जो स्वभावतः प्रारम्भ से हीदुखप्रद तथा क्षणिक होते है ?"
अथो महाभाग भवानमोघहक्शुचिश्रवा: सत्यरतो धृतब्रत: ।
उरुक्रमस्याखिलबन्धमुक्तयेसमाधिनानुस्मर तद्ठिचेष्टितम् ॥
१३॥
अथो--अतः; महा-भाग--परम भाग्यशाली; भवान्--आप; अमोघ-हक्--सिद्ध दृष्टा; शुचि-- पवित्र, निर्मल; श्रवा:--प्रसिद्ध; सत्य-रत:--सत्य ब्रत को पालने वाला; धृत-ब्रत:--आध्यात्मिक गुणों में स्थित; उरुक्रमस्थ--अलौकिक कार्यकरनेवाले ( ईश्वर ) का; अखिल--सम्पूर्ण जगत का; बन्ध--बन्धन; मुक्तये--मुक्ति के लिए; समाधिना--समाधि केद्वारा; अनुस्मर--बारम्बार सोच कर वर्णन करो; ततू-विचेष्टितम्--भगवान् की विविध लीलाओं को |
हे व्यासदेव, तुम्हारी दृष्टि सभी तरह से पूर्ण है।
तुम्हारी उत्तम ख्याति निष्कलुष है।
तुमअपने ब्रत में हढ़ हो और सत्य में स्थित हो।
अतएवं तुम समस्त लोगों को भौतिक बन्धन सेमुक्ति दिलाने के लिए भगवान् की लीलाओं के विषय में समाधि के द्वारा चिन्तन कर सकतेहो।
"
ततो&न्यथा किद्ञन यद्ठिवक्षत: पृथग्दृशस्तत्कृतरूपनामभि: ।
न कर्चिचित्क्रापि च दुःस्थिता मति-लभेत वाताहतनौरिवास्पदम् ॥
१४॥
ततः--उससे; अन्यथा--पृथक्; किल्नन--कुछ; यत्--जो भी; विवक्षत:--वर्णन करने के लिए इच्छुक; पृथक्--अलगसे; दृश:--दृष्टि; तत्-कृत--उसकी प्रतिक्रिया; रूप--रूप; नामभि:--नामों से; न कर्हिंचित्ू-- कभी नहीं; क्रापि--कोई; च--तथा; दुःस्थिता मति:--दोलायमान मन; लभेत--प्राप्त करता है; वात-आहत--वायु से प्रताड़ित; नौ: --नाव; इब--सहश; आस्पदम्-स्थान।
तुम भगवान् के अतिरिक्त विभिन्न रूपों, नामों तथा परिणामों के रूप में जो कुछ भीवर्णन करना चाहते हो, वह प्रतिक्रिया द्वारा मन को उसी प्रकार आंदोलित करने वाला है,जिस प्रकार आश्रय विहीन नाव को चक्रवात आंदोलित करता है।
"
जुगुप्सितं धर्मकृतेडनुशासतःस्वभावरक्तस्य महान् व्यतिक्रम: ।
यद्वाक्यतो धर्म इतीतर: स्थितोन मन्यते तस्य निवारणं जन: ॥
१५॥
जुगुप्सितम्--अत्यन्त घृणित; धर्म-कृते--धर्म हेतु; अनुशासतः--आदेश के अनुसार; स्वभाव-रक्तस्थ--स्वभाव सेअनुरक्त; महानू--महान; व्यतिक्रम:--अनुचित; यत्-वाक्यत:--जिसके उपदेश से; धर्म:--धर्म; इति--इस प्रकार है;इतरः--जन-सामान्य; स्थित:--स्थिर; न--नहीं; मन्यते--सोचते हैं; तस्य--उसका; निवारणम्--निषेध; जन:--वेलोगसामान्य लोगों में भोग करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है और तुमने धर्म के नाम परउन्हें वैसा करते रहने के लिए प्रोत्साहित किया है।
यह अत्यन्त घृणित तथा अत्यन्त अनुचितहै।
चूँकि वे लोग तुम्हारे उपदेशों के अनुसार मार्गदर्शन प्राप्त करते हैं, अतः वे ऐसे कार्योंको धर्म के नाम पर ग्रहण करेंगे और निषेधों की भी परवाह नहीं करेंगे।
"
विचक्षणो स्याहति वेदितुं विभो-रनन्तपारस्य निवृत्तित: सुखम् ।
प्रवर्तमानस्य गुणैरनात्मन-स्ततो भवान्दर्शय चेष्टितं विभो: ॥
१६॥
विचक्षण:--अत्यन्त पटु; अस्य--उसका; अहति--के योग्य है; वेदितुमू--जानने के लिए; विभो:-- भगवान् का;अनन्त-पारस्थ--असीम का; निवृत्तित:--से निवृत्त; सुखम्-- भौतिक सुख; प्रवर्तमानस्य--अनुरक्तों का; गुणै:--भौतिक गुणों से; अनात्मन:--आध्यात्मिक ज्ञान से शून्य; ततः--अतः; भवान्--आप; दर्शय--मार्गदर्शन करें;चेष्टितम्--कार्यकलाप; विभो: -- भगवान् के ॥
भगवान् असीम हैं।
केवल वही निपुण व्यक्ति इस आध्यात्मिक ज्ञान को समझने केलिए योग्य है, जो भौतिक सुख के कार्यकलापों से विरक्त हो चुका हो।
अतः जो लोगभौतिक आसक्ति के कारण सुस्थापित नहीं हैं, उन्हीं को तुम परमेश्वर के दिव्य कार्यों केवर्णनों के माध्यम से दिव्य अनुभूति की विधियाँ दिखलाओ।
"
त्यक्त्वा स्वधर्म चरणाम्बुजं हरे-भजन्नपक्को थ पतेत्ततो यदि ।
यत्र क्व वाभद्रमभूदमुष्य किको वार्थ आप्तो भजतां स्वधर्मत: ॥
१७॥
त्यक्त्वा--त्याग कर; स्व-धर्मम्--अपने वृत्तिपरक कार्य को; चरण-अम्बुजमू--चरणकमल; हरे: --हरि ( भगवान् ) के;भजनू--भक्ति के दौरान; अपक्र:--कच्ची, अप्रौड; अथ--के लिए; पतेत्--गिरता है; ततः--उस स्थान से; यदि--यदि; यत्र--जहाँ; क्क--किस तरह का; वा--या ( व्यंग्य से ); अभद्रमू--प्रतिकूल; अभूत्--होगा; अमुष्य--उसका;किमू--कुछ नहीं; कः वा अर्थ:--क्या लाभ है; आप्त: --प्राप्त किया हुआ; अभजताम्--अभक्तों का; स्व-धर्मत:--अपनी वृत्ति में लगे रह कर।
जिसने भगवान् की भक्तिमय सेवा में प्रवृत्त होने के लिए अपनी भौतिक वृत्तियों कोत्याग दिया है, वह कभी-कभी कच्ची अवस्था में नीचे गिर सकता है, तो भी उसकेअसफल होने का कोई खतरा नहीं रहता।
इसके विपरीत, अभक्त, चाहे अपनी वृत्तियों( कर्तव्यों ) में पूर्ण रूप से रत क्यों न हो, उसे कुछ भी लाभ नहीं होता।
"
तस्यैव हेतो: प्रयतेत कोविदोन लभ्यते यद्भ्रमतामुपर्यध: ।
तललभ्यते दु:खवदन्यत: सुखकालेन सर्वत्र गभीररंहसा ॥
१८॥
तस्य--उसी; एव--केवल; हेतो: --कारण का; प्रयतेत--प्रयत्त करना चाहिए; कोविद:--आध्यात्मिक रूप से प्रवृत्त;न--नहीं; लभ्यते--मिलता है; यत्--जो; भ्रमताम्--विचरण करते हुए; उपरि अध:--ऊपर से नीचे तक; तत्--वह;लभ्यते--प्राप्त किया जा सकता है; दुःखवत्--दुखों के समान; अन्यतः--पूर्व कर्म के कारण; सुखम्--इन्द्रिय-भोग;कालेन--समय के साथ; सर्वत्र--सभी जगह; गभीर--सूक्ष्म; रंहसा--उन्नति प्रगतिजो व्यक्ति वास्तव में बुद्धिमान तथा तत्वज्ञान में रूचि रखने वाले हैं, उन्हें चाहिए कि वेउस सार्थक अन्त के लिए ही प्रयत्त करें, जो उच्चतम लोक ( ब्रह्मलोक ) से लेकर निम्नतमलोक ( पाताल ) तक विचरण करने से भी प्राप्य नहीं है।
जहाँ तक इन्द्रिय-भोग से प्राप्तहोने वाले सुख की बात है, यह तो कालक्रम से स्वत: प्राप्त होता है, जिस प्रकार हमारे नचाहने पर भी हमें दुख मिलते रहते हैं।
"
न वै जनो जातु कथबझ्ञनात्रजे-न्मुकुन्दसेव्यन्यवदड़ संसृतिम् ।
स्मरन्मुकुन्दाड्घ्य्रुपगूहनं पुन-विंहातुमिच्छेन्न रसग्रहो जन: ॥
१९॥
न--कभी नहीं; वै--निश्चय ही; जनः--व्यक्ति; जातु--किसी समय; कथज्लन--किसी तरह; आब्रजेत्--नहीं आता;मुकुन्द-सेवी-- भगवान् का भक्त; अन्यवत्--अन्यों की तरह; अड्ड--हे प्रिय; संसतिमू-- भौतिक जगत; स्मरन्--स्मरणकरते हुए; मुकुन्द-अड्धप्रि-- भगवान् के चरणकमल; उपगूहनम्--घूमते हुए; पुन:--फिर; विहातुम्--त्यागने की इच्छासे; इच्छेत्--इच्छा; न--कभी नहीं; रस-ग्रह:--जिसने रसास्वादन किया है; जनः--व्यक्ति
हे प्रिय व्यासयद्यपि भगवान् कृष्ण का भक्त भी कभी-कभी, किसी न किसी कारणसे नीचे गिर जाता है, लेकिन उसे दूसरों ( सकाम कर्मियों आदि ) की तरह भव-चक्र मेंनहीं आना पड़ता, क्योंकि जिस व्यक्ति ने भगवान् के चरणकमलों का आस्वादन एक बारकिया है, वह उस आनन्द को पुनः पुनः स्मरण करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सकता।
"
इदं हि विश्व भगवानिवेतरोयतो जगत्स्थाननिरोधसम्भवा: ।
तद्धि स्वयं वेद भवांस्तथापि तेप्रादेशमात्रं भवत: प्रदर्शितम् ॥
२०॥
इदम्--यह; हि--सम्पूर्ण; विश्वम्-विश्व; भगवान्-- भगवान्; इब-- प्रायः वैसा ही; इतर:--ऊपर से भिन्न; यतः--जिससे; जगत्--संसार; स्थान--अवस्थित हैं; निरोध--संहार; सम्भवा:--उत्पत्ति; तत् हि--विषयक; स्वयम्-- अपनेआप; वेद--जानो; भवान्--आप; तथा अपि--फिर भी; ते--तुमको; प्रादेश-मात्रमू--मात्र सारांश; भवत:--तुमको;प्रदर्शितम्--बताया गया।
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् स्वयं विश्व स्वरूप हैं तथापि उससे निर्लिप्त भी हैं।
उन्हीं से यहहृश्य जगत उत्पन्न हुआ है, उन्हीं पर टिका है और संहार के बाद उन्हीं में प्रवेश करता है।
तुम इस सबके विषय में जानते हो।
मैंने तो केवल सारांश भर प्रस्तुत किया है।
"
त्वमात्मनात्मानमवेह्ममोघहक्परस्य पुंस: परमात्मन: कलाम ।
अजं प्रजातं जगत: शिवाय त-न्महानुभावाभ्युदयोधिगण्यताम् ॥
२१॥
त्वमू--तुम; आत्मना--अपने आप से; आत्मानम्-- भगवान् को; अवेहि--ढूँढो; अमोघ-हक्--पूर्ण दृष्टि वाला; परस्थ--अध्यात्म का; पुंसः-- भगवान्; परमात्मन: --परमात्मा का; कलाम्--अंश; अजम्--अजन्मा; प्रजातम्--जन्म लियागया; जगत:--संसार के; शिवाय--कल्याण के लिए; तत्--उस; महा-अनुभाव-पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण की;अभ्युदयः--लीलाएँ; अधिगण्य-ताम्--विस्तार से बताओ।
तुममें पूर्ण दृष्टि है।
तुम पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को जान सकते हो, क्योंकि तुमभगवान् के अंश के रूप में विद्यमान हो।
यद्यपि तुम अजन्मा हो, लेकिन समस्त लोगों केकल्याण हेतु इस पृथ्वी पर प्रकट हुए हो।
अतः भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाओं का अधिकविस्तार से वर्णन करो।
"
इदं हि पुंसस्तपस: श्रुतस्य वास्विष्टस्य सूक्तस्य च बुद्धिदत्तयो: ।
अविच्युतो<र्थ: कविभिर्निरूपितोयदुत्तमश्लोकगुणानुवर्णनम् ॥
२२॥
इदम्--यह; हि--निश्चय ही; पुंसः --प्रत्येक व्यक्ति का; तपस:--तपस्या के द्वारा; श्रुतस्थ--वेदों के अध्ययन से; वा--अथवा; स्विष्टस्थ--यज्ञ का; सूक्तस्य--आध्यात्मिक शिक्षा का; च--तथा; बुद्धि--ज्ञान का अनुशीलन; दत्तयो:--दान;अविच्युत:--अचूक; अर्थ:--प्रयोजन; कविभि:--मान्य दिद्वान द्वारा; निरूपित:--निष्कर्ष रूप में प्राप्त किया गया,वर्णित; यत्--जो; उत्तमश्लोक-- भगवान् जिनका वर्णन चुने हुए श्लोकों ( पद्य ) से किया जाता है; गुण-अनुवर्णनम्--दिव्य गुणों का वर्णन
विद्वन्मण्डली ने यह स्पष्ट निष्कर्ष निकाला है कि तपस्या, वेदाध्ययन, यज्ञ, दान तथास्तुति-जप का अचूक प्रयोजन ( उद्देश्य ) उत्तमश्लोक भगवान् की दिव्य लीलाओं के वर्णनमें जाकर समाप्त होता है।
"
अहं पुरातीतभवे भवं मुनेदास्यास्तु कस्याश्वन वेदवादिनाम् ।
निरूपितो बालक एव योगिनांशुश्रूषणे प्रावृषि निर्विविक्षताम् ॥
२३॥
अहमू--ैं; पुरा--प्राचीन काल में, पहले; अतीत-भवे--पूर्व कल्प में; अभवम्--हो गया; मुने--हे मुनि; दास्याः--दासी का; तु--लेकिन; कस्याश्चवन--किसी; वेद-वादिनाम्--वेदान्त के अनुयायियों का; निरूपित:--लगा हुआ;बालक:--छोटा नौकर; एव--केवल; योगिनाम्--भक्तों की; शुश्रूषणे--सेवा में; प्रावृषि--वर्षा ऋतु के चार मासों में;निर्विविक्षतामू--साथ रहते हुए।
हे मुनि, पिछले कल्प में मैं किसी दासी के पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ, जो वेदान्त सिद्धान्तोंके अनुयायी ब्राह्मणों की सेवा करती थी।
जब वे लोग वर्षा ऋतु के चातुर्मास में साथ-साथरहते थे, तो मैं उनकी सेवा टहल ( व्यक्तिगत सेवा ) किया करता था।
"
ते मय्यपेताखिलचापले भ॑केदान्तेडधृतक्रीडनके३नुवर्तिनि ।
चक्कर: कृपां यद्यपि तुल्यदर्शना:शुश्रूषमाणे मुनयोल्पभाषिणि ॥
२४॥
ते--वे; मयि--मुझ में; अपेत--न भोगकर; अखिल--सभी प्रकार की; चापले--रुचियाँ; अर्भके--बालक में;दान्ते--इन्द्रियों को वश में करके; अध्ृत-क्रीडनके -- खेल-कूद की आदतों में अभ्यस्त न होकर; अनुवर्तिनि--आज्ञाकारी; चक्कु:--प्रदान किया; कृपाम्--अहैतुकी कृपा; यद्यपि--यद्यपि; तुल्य-दर्शना:--स्वभाव से निष्पक्ष;शुश्रूषमाणे-- श्रद्धावान के प्रति; मुन॒यः--वेदान्त के अनुयायी मुनिगण; अल्प-भाषिणि--मितभाषी, कम बोलने वाले
यद्यपि वे स्वभाव से निष्पक्ष थे, किन्तु उन वेदान्त के अनुयायिओं ने मुझ पर अहैतुकीकृपा की।
जहाँ तक मेरी बात थी, मैं इन्द्रियजित था और बालक होने पर भी खेलकूद सेअनासक्त था।
साथ ही, मैं चपल न था और कभी भी जरूरत से ज्यादा बोलता नहीं था( मितभाषी था )।
"
उच्छिष्टलेपाननुमोदितो द्विजैःसकृत्स्म भुझे तदपास्तकिल्बिष: ।
एवं प्रवृत्तस्य विशुद्धचेतस-स्तद्धर्म एवात्मरुचि: प्रजायते ॥
२५॥
उच्छिष्ट-लेपान्--जूठन; अनुमोदित: --अनुमति से; द्विजै:--वेदान्ती ब्राह्मणों द्वारा; सकृतू--एक बार; स्म--था; भुझ्ञे--ग्रहण किया; तत्--उस कार्य से; अपास्त--नष्ट हो गये; किल्बिष:--सारे पाप; एवम्--इस प्रकार; प्रवृत्तस्य--लगे हुए;विशुद्ध-चेतस: --शुद्ध चित्त वाले का; तत्--वह विशेष; धर्म:--स्वभाव; एव--निश्चय ही; आत्म-रुचि:--दिव्यआकर्षण; प्रजायते--प्रकट हुआ।
।
उनकी अनुमति से मैं केवल एक बार उनकी जूठन खाता था और ऐसा करने से मेरेसारे पाप तुरन्त ही नष्ट हो गये।
इस प्रकार सेवा में लगे रहने से मेरा हृदय शुद्ध हो गया औरतब वेदान्तियों का स्वभाव मेरे लिए अत्यन्त आकर्षक बन गया।
"
तत्रान्वहं कृष्णकथा: प्रगायता-मनुग्रहेणाश्रणवं मनोहरा: ।
ता: श्रद्धया मेडनुपदं विश्वण्वतःप्रियश्रवस्यज्र ममाभवद्गुचि: ॥
२६॥
तत्र--वहाँ; अनु-- प्रतिदिन; अहम्--मैं; कृष्ण-कथा:--कृष्ण के कार्यकलापों का वर्णन; प्रगायताम्--गायन करतेहुए; अनुग्रहेण-- अहैतुकी कृपावश; अश्रृणवम्--सुनते हुए; मन:-हराः:--आकर्षक; ता:--वे; श्रद्धया--आदरपूर्वक;मे--मेरा; अनुपदम्-प्रत्येक पग पर; विश्रुण्वत:--ध्यान से सुनते हुए; प्रियअ्रवसि-- भगवान् का; अड्र--हे व्यासदेव;मम--मेरा; अभवत्--ऐसी बन गईं; रुचि: -- प्रवृत्ति ।
हे व्यासदेव, उस संगति में तथा उन महान् वेदान्तियों की कृपा से, मैं उनके द्वाराभगवान् कृष्ण की मनोहर लीलाओं का वर्णन सुन सका और इस प्रकार ध्यानपूर्वक सुनतेरहने से भगवान् के विषय में प्रतिक्षण अधिकाधिक सुनने के प्रति मेरी रुचि बढ़तीही गई।
"
तस्मिस्तदा लब्धरुचेर्महामतेप्रियश्रवस्यस्खलिता मतिर्मम ।
ययाहमेतत्सदसत्स्वमाययापश्ये मयि ब्रह्मणि कल्पितं परे ॥
२७॥
तस्मिन्--ऐसा होने पर; तदा--उस समय; लब्ध--प्राप्त; रुचे:--रुचि; महा-मते--हे महामुनि; प्रियश्रवसि-- भगवान्पर; अस्खलिता मतिः--अनवरत ध्यान; मम--मेरा; यया--जिससे; अहम्--मैं; एतत्--ये सब; सत्-असत्--स्थूल तथासूक्ष्म; स्व-मायया--अपने ही अज्ञान से; पश्ये--देखता हूँ; मयि--मुझमें; ब्रह्म णि---सर्वोपरि; कल्पितम्--स्वीकारकिया जाता है; परे-- अध्यात्म में ।
हे महामुनि, ज्योंही मुझे भगवान् का आस्वाद प्राप्त हुआ, त्योंही मेरा ध्यान भगवान् काश्रवण करने के प्रति अटल हो गया।
और ज्योंही मेरी रुचि विकसित हो गई, त्योंही मुझेअनुभव हुआ कि मैंने अज्ञानतावश ही स्थूल तथा सूक्ष्म आवरणों को स्वीकार किया है,क्योंकि भगवान् तथा मैं दोनों ही दिव्य हैं।
"
इत्थं शरत्प्रावृषिकावृतू हरे-विश्वण्वतो मेउनुसवं यशोमलम् ।
सड्जीत्त्यमानं मुनिभिर्महात्मभि-भक्ति: प्रवृत्तात्मरजस्तमोपहा ॥
२८॥
इत्थमू--इस प्रकार; शरत्--शरद् ऋतु; प्रावषिकौ--वर्षा ऋतु; ऋतू--दो ऋतुएँ; हरेः-- भगवान् का; विश्रृण्वत:--निरन्तर श्रवण करते हुए; मे--मैं स्वयं; अनुसवम्--निरन्तर; यशः अमलम्--धवल कीर्ति; सड्डीत्यमानम्--जपी जाकर;मुनिभि:--मुनियों द्वारा; महा-आत्मभि:--महात्माओं द्वारा; भक्ति: --भक्तिमय सेवा; प्रवृत्ता--प्रवाहित होने लगी;आत्म--जीव; रज:--रजोगुण; तम--तमोगुण; उपहा--नाश करने वाली
इस प्रकार वर्षा तथा शरद् दोनों ऋतुओं में, मुझे इन महामुनियों से भगवान् हरि कीधवल कीर्ति का निरन्तर कीर्तन सुनते रहने का सुअवसर प्राप्त हुआ।
ज्योंही मेरी भक्ति काप्रवाह होने लगा कि रजोगुण तथा तमोगुण के सारे आवरण विलुप्त हो गये।
तस्यैवं मेउनुरक्तस्य प्रश्नितस्य हतैनसः ।
श्रदधानस्य बालस्य दान्तस्यानुचरस्य च ॥
२९॥
तस्य--उसका; एवम्--इस प्रकार; मे--मेरा; अनुरक्तस्थय--उनसे आसक्त; प्रश्नितस्थ--आज्ञाकारी का; हत--मुक्त;एनस:--पापों से; श्रदध्धानस्य-- श्रद्धावान; बालस्य--बालक का; दान्तस्य--संयमी का; अनुचरस्य--उपदेशों का हढ़तासे पालन करने वाले का; च--तथा ।
मैं उन मुनियों के प्रति अत्यधिक आसक्त था।
मेरा आचरण विनम्र था और उनकी सेवाके कारण मेरे सारे पाप विनष्ट हो चुके थे।
मेरे हृदय में उनके प्रति प्रबल श्रद्धा थी।
मैंनेइन्द्रियों को वश में कर लिया था और मैं तन तथा मन से उनका हढ़ता से अनुगमन करतारहा था।
"
ज्ञानं गुह्मतमं यत्तत्साक्षाद्धशवतोदितम् ।
अन्ववोचनू गमिष्यन्त: कृपया दीनवत्सला: ॥
३०॥
ज्ञानमू--ज्ञान; गुह्तमम्--गोपनीय; यत्--जो है; तत्--उस; साक्षात्-प्रत्यक्ष; भगवता उदितमू--स्वयं भगवान् द्वाराप्रतिपादित; अन्ववोचन्--उपदेश दिया; गमिष्यन्त:--जाते समय; कृपया--अहैतुकी कृपा से; दीन-वत्सला:--जो दीनोंके प्रति अत्यन्त दयालु हैं।
दीन जनों पर अत्यन्त दयालु, उन भक्तिवेदान्तों ने जाते समय मुझे उस गुह्मतम विषयका उपदेश, जिसका उपदेश स्वयं भगवान् देते हैं।
"
येनैवाहं भगवतो वासुदेवस्य वेधस: ।
मायानुभावमविदं येन गच्छन्ति तत्पदम् ॥
३१॥
येन--जिससे; एब--निश्चय ही; अहम्-मैं; भगवत: -- भगवान् का; वासुदेवस्थ-- भगवान् श्रीकृष्ण का; वेधस: --परम स्त्रष्टा का; माया--शक्ति; अनुभावम्- प्रभाव; अविदम्--सरलता से समझा गया; येन-- जिससे; गच्छन्ति--जाते हैं; तत्-पदम्-- भगवान् के चरणकमलों में |
उस गुह्य ज्ञान से, मैं सम्पूर्ण पदार्थों के सृष्ठा, पालक तथा संहार-कर्ता भगवान् श्रीकृष्ण की शक्ति के प्रभाव को ठीक-ठीक समझ सका।
उसे जान लेने पर कोई भी मनुष्य उनके पास लौटकर उनसे साक्षात् भेंट कर सकता है।
"
एतत्संसूचितं ब्रह्म॑स्तापत्रयचिकित्सितम् ।
यदी श्वरे भगवति कर्म ब्रह्मणि भावितम् ॥
३२॥
एतत्--इतना; संसूचितम्--दिद्वानों द्वारा निर्धारित; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण व्यास; ताप-त्रय--तीन प्रकार के ताप ( कष्ट ) ;चिकित्सितम्--उपचार, औषधि; यत्--जो; ईश्वर--परम नियामक; भगवति-- भगवान् में; कर्म--नियत कार्य;ब्रह्मणि--ब्रह्म में; भावितमू--समर्पित ।
हे ब्राह्मण व्यासदेव, विद्वानों द्वारा यह निश्चित हुआ है कि समस्त कष्टों तथा दुखों केउपचार का सर्वोत्तम उपाय यह है कि अपने सारे कर्मो को भगवान् ( श्रीकृष्ण ) की सेवा मेंसमर्पित कर दिया जाय।
"
आमयो यश्व भूतानां जायते येन सुव्रत ।
तदेव ह्यामयं द्र॒व्यं न पुनाति चिकित्सितम् ॥
३३॥
आमयः-व्याधियाँ; यः च--जो भी; भूतानाम्--जीवों की; जायते--सम्भव होती है; येन--जिसके द्वारा; सुब्रत--हेमहात्मा; तत्--वह; एव--ही; हि--निश्चय ही; आमयम्--व्याधि; द्रव्यम्--वस्तु; न--नहीं; पुनाति-- अच्छा करती है;चिकित्सितम्--उपचार की गईं।
हे श्रेष्ठ पुरुष, क्या भेषज विज्ञान की विधि से प्रयुक्त की गई कोई वस्तु उस रोग कोठीक नहीं कर देती, जिससे ही वह रोग उत्पन्न हुआ हो ?"
एवं नृणां क्रियायोगा: सर्वे संसृतिहेतव: ।
त एवात्मविनाशाय कल्पन्ते कल्पिता: परे ॥
३४॥
एवम्--इस प्रकार; नृणाम्--मनुष्यों के; क्रिया-योगा:--सारे कार्यकलाप; सर्वे--सब कुछ; संसृति-- भौतिक अस्तित्व;हेतव:--कारण; ते--वे; एब--निश्चय ही; आत्म--कार्य रूपी वृक्ष; विनाशाय--नष्ट करने के लिए; कल्पन्ते--सक्षमहोते हैं; कल्पिता:--समर्पित; परे--पर मे श्वर में ।
इस प्रकार जब मनुष्य के सारे कार्यकलाप भगवान् की सेवा में समर्पित होते हैं, तोवही सारे कर्म जो उसके शाश्वत बन्धन के कारण होते हैं, कर्म रूपी वृक्ष के विनाशकर्ताबन जाते हैं।
"
यदत्र क्रियते कर्म भगवत्परितोषणम् ।
ज्ञानं यत्तदधीनं हि भक्तियोगसमन्वितम् ॥
३५॥
यतू--जो भी; अत्र--इस जीवन या जगत में; क्रियते--करता है; कर्म--कार्य; भगवत्-- भगवान् की; परितोषणम्--तुष्टि हेतु; ज्ञानमू--ज्ञान; यत् तत्--जो इस तरह कहलाता है; अधीनम्-- आश्रित; हि--निश्चय ही; भक्ति-योग-- भक्तिसम्बन्धी; समन्वितम्-भक्तियोग से युक्त ।
इस जीवन में भगवान् की तुष्टि के लिए जो भी कार्य किया जाता है, उसे भक्तियोगअथवा भगवान् के प्रति दिव्य प्रेमा भक्ति कहते हैं और जिसे ज्ञान कहते हैं, वह तो सहगामीकारक बन जाता है।
"
कुर्वाणा यत्र कर्माणि भगवच्छिक्षयासकृतू ।
गृणन्ति गुणनामानि कृष्णस्यानुस्मरन्ति च ॥
३६॥
कुर्वाणा:--करते हुए; यत्र--जहाँ; कर्माणि--कर्तव्य; भगवत्-- भगवान् की; शिक्षया--इच्छा से; असकृत्--निरन्तर;गृणन्ति--ग्रहण करता है; गुण--गुण; नामानि--नाम; कृष्णस्य--कृष्ण के; अनुस्मरन्ति--निरन्तर स्मरण करता है;च--तथा।
पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के आदेशानुसार कर्म करते हुए मनुष्य निरन्तर उनकाउनके नामों का तथा उनके गुणों का स्मरण करता है।
"
ॐ नमो भगवते तुभ्यं वासुदेवाय धीमहि ।
प्रद्युम्नायानिरुद्धाय नम: सड्डूर्षणाय च ॥
३७॥
ॐ-भगवान् की दिव्य महिमा के कीर्तन का प्रतीक; नम: -- भगवान् को नमस्कार करना; भगवते-- भगवान् को;तुभ्यम्--तुमको; वासुदेवाय--वसुदेव के पुत्र भगवान् को; धीमहि--उच्चारण या कीर्तन करें; प्रद्यम्माय अनिरुद्धायसड्डूर्षणाय--ये तीनों वासुदेव के पूर्ण अंश हैं; नम:--सादर नमस्कार है; च--तथा।
आइये, हम सब वासुदेव तथा उनके पूर्ण अंश प्रद्युम्म, अनिरुद्ध तथा संकर्षण सहितउनकी महिमा का कीर्तन करें।
"
इति मूर्त्यभिधानेन मन्त्रमूर्तिममूर्तिकम् ।
यजते यज्ञपुरुषं स सम्यग्दर्शन: पुमान् ॥
३८॥
इति--इस प्रकार; मूर्ति--प्रतिरूप; अभिधानेन--शब्द या ध्वनि में; मन्त्र-मूर्तिमू--दिव्य उच्चारण का स्वरूप;अमूर्तिकम्-- भगवान् जिनका कोई भौतिक रूप नहीं है; यजते--पूजा करते हैं; यज्ञ--विष्णु; पुरुषम्-- भगवान् को;सः--वह ही; सम्यक् --पूर्णरूप से; दर्शन:--जिसने देखा है; पुमान्--व्यक्ति |
इस प्रकार वास्तविक दृष्टा वही है, जो दिव्य मन्त्रमूर्ति, श्रीभगवान् विष्णु की पूजाकरता है, जिनका कोई भौतिक रूप नहीं होता।
"
इमं स्वनिगमं ब्रह्मन्नवेत्य मदनुष्ठितम् ।
अदाम्मे ज्ञानमैश्वर्य स्वस्मिनू भावं च केशव: ॥
३९॥
इममू्--इस प्रकार; स्व-निगमम्-- भगवान् विषयक वेदों का गुह्य ज्ञान; ब्रह्मन्--हे ब्राह्मण ( व्यासदेव ); अवेत्य--यहजानकर; मत्-ेरे द्वारा; अनुष्ठितम्--सम्पन्न; अदात्--वर दिया; मे--मुझे; ज्ञानमू-दिव्य ज्ञान; ऐश्वर्यम्-ऐश्वर्य ;स्वस्मिनू--निजी; भावम्-प्रगाढ़ प्यार तथा स्नेह; च--तथा; केशव: -- भगवान् कृष्ण नेहे ब्राह्मण, इस प्रकार सर्वप्रथम भगवान् कृष्ण ने मुझे वेदों के गुह्मतम अंशों में निहितभगवान् के दिव्य ज्ञान का, फिर आध्यात्मिक ऐश्वर्य का और तब अपनी घनिष्ठ प्रेममय सेवाका वर दिया।
"
त्वमप्यदश्रश्रुत विश्रुतं विभो:समाप्यते येन विदां बुभुत्सितम् ।
प्राख्याहि दुःखेर्मुहुरर्दितात्मनांसड्क्लेशनिर्वाणमुशन्ति नान्न्यथा ॥
४०॥
त्वमू--तुम; अपि-- भी; अदभ्र--विशाल; श्रुत--वैदिक साहित्य; विश्रुतम्--सुना हुआ; विभो:--सर्वशक्तिमान का;समाप्यते--सन्तुष्ट; येन--जिससे; विदाम्--विद्वान का; बुभुत्सितम्-दिव्य ज्ञान सीखने के इच्छुक को; प्राख्याहि--वर्णन करो; दुःखैः--दुखों से; मुहुः--सदैव; अर्दित-आत्मनाम्--पीड़ित जनसमूह को; सड्क्लेश--कष्ट को;निर्वाणम्--शमन; उशन्ति न--नहीं निकल पाते; अन्यथा--अन्य साधनों से ।
अतः कृपा करके सर्वशक्तिमान के उन कार्यकलापों का वर्णन करो, जिसे तुमने वेदोंके अपार ज्ञान से जाना है, क्योंकि उससे महान् विद्वज्जनों की ज्ञान-पिपासा की तृप्ति होगीऔर साथ ही सामान्य लोगों के कष्टों का भी शमन होगा, जो भौतिक दुखों से सदैव पीड़ितरहते हैं।
निस्सन्देह, इन कष्टों से उबरने का कोई अन्य साधन नहीं है।
"
अध्याय छह: नारद और व्यासदेव के बीच बातचीत
1.6सूत उवाचएवं निशम्य भगवान्देवर्षेजन्म कर्म च ।
भूय: पप्रच्छ त॑ब्रह्मन् व्यास: सत्यवतीसुत: ॥
१॥
सूतः उबाच--सूत ने कहा; एवम्--इस प्रकार; निशम्य--सुनकर; भगवान्--ई श्वर का शक्त्यावेश अवतार; देवर्षे : --देवर्षि का; जन्म--जन्म; कर्म--कर्म; च--तथा; भूय:--पुनः ; पप्रच्छ--पूछा; तम्--उनसे; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मणो;व्यास:--व्यासदेव ने; सत्यवती-सुतः --सत्यवती का पुत्र ।
सूत ने कहा : हे ब्राह्मणो, इस तरह श्री नारद के जन्म तथा कार्यकलापों के विषय मेंसब कुछ सुन लेने के बाद ईश्वर के अवतार तथा सत्यवती के पुत्र, श्री व्यासदेव ने इसप्रकार पूछा।
"
व्यास उवाचभिक्षुभिर्विप्रवसिते विज्ञानादेष्टभिस्तव ।
वर्तमानो वयस्याद्ये तत: किमकरोद्धवान् ॥
२॥
व्यास: उवाच-- श्री व्यासदेव ने कहा; भिश्षुभि:--महान साधुओं द्वारा; विप्रवसिते-- अन्य स्थानों को चले जाने पर;विज्ञान--अध्यात्म का वैज्ञानिक ज्ञान; आदेष्टभि:--जिन्होंने उपदेश दिया था; तब--आपका; वर्तमान: --वर्तमान;वयसि--आयु के; आद्ये-प्रारम्भ में; ततः--तत्पश्चात्; किम्-क्या; अकरोत्--किया; भवान्--आपने |
श्री व्यासदेव ने ( नारद जी से ) कहा : आपने उन महामुनियों के चले जाने पर क्याकिया जिन्होंने आपके इस जन्म के प्रारम्भ होने से पूर्व आपको दिव्य वैज्ञानिक ज्ञान प्रदानकिया था?"
स्वायम्भुव कया वृत्त्या वर्तितं ते परं वयः ।
कथं चेदमुदस््राक्षी: काले प्राप्त कलेवरम् ॥
३॥
स्वायम्भुव--हे ब्रह्मा के पुत्र; कया--किस परिस्थिति में; वृत्त्या--वृत्ति; वर्तितम्--बिताया; ते--आपने; परम्--दीक्षाके बाद; वयः--आयु; कथम्--कैसे; च--तथा; इदम्--यह; उदस्त्राक्षी:--छोड़ा; काले--समय आने पर, यथासमय;प्राप्ते--प्राप्त होने पर; कलेवरम्--शरीर को |
हे ब्रह्मा के पुत्र, आपने दीक्षा लेने के बाद किस प्रकार जीवन बिताया ? और यथा समय अपने पुराने शरीर को त्याग कर आपने यह शरीर कैसे प्राप्त किया ?प्राक्लल्पविषयामेतां स्मृति ते मुनिसत्तम ।
"
प्राक्नल्पविषयामेतां स्मृति ते मुनिसत्तम ।
न होष व्यवधात्काल एष सर्वनिराकृति: ॥
४॥
प्राकु-पूर्ववर्ती; कल्प--ब्रह्मा के एक दिन का समय; विषयाम्--विषय वस्तु; एताम्--ये सब; स्मृतिमू--सुधि, याद;ते--तुम्हारी; मुनि-सत्तम--हे महामुनि; न--नहीं; हि--निश्चय ही; एष:--ये सब; व्यवधात्-- अन्तर किया; काल:--समय आने पर; एष:--ये; सर्व--सभी; निराकृति: --संहार ।
हे महामुनि, समय आने पर काल हर वस्तु का संहार कर देता है, अतएव यह कैसेसम्भव हुआ है कि यह विषय, जो ब्रह्मा के इस दिन के पूर्व घटित हो चुका है, अब भीआपकी स्मृति में काल द्वारा अप्रभावित जैसे का तैसा बना हुआ है ?"
नारद उवाचभिक्षुभिर्विप्रवसिते विज्ञानादेष्टभिर्मम ।
वर्तमानो वयस्याद्ये तत एतदकारषम् ॥
५॥
नारद: उवाच-- श्री नारद ने कहा; भिक्षुभि: --मुनियों के द्वारा; विप्रवसिते--अन्य स्थान को चले जाने पर; विज्ञान--व्यावहारिक आध्यात्मिक ज्ञान; आदेष्टभि:--जिन्होंने मुझे प्रदान किया था; मम--मेरा; वर्तमान: --वर्तमान; वयसिआद्ये--इस जीवन के पूर्व; तत:--तत्पश्चात्; एतत्--इतना; अकारषम्--सम्पन्न किया।
श्री नारद ने कहा : जिन महर्षियों ने मुझे अध्यात्म का व्यावहारिक ज्ञान प्रदान कियाथा, वे अन्य स्थानों को चले गये और मुझे इस प्रकार से अपना जीवन बिताना पड़ा।
"
एकात्मजा मे जननी योषिन्मूढा च किड्छूरी ।
मय्यात्मजेडनन्यगतौ चक्रे स्नेहानुबन्धनम् ॥
६॥
एक-आत्मजा--केवल एक सनन््तान वाली; मे--मेरी; जननी--माता ने; योषित्--स्त्री जाति; मूढा--मूर्ख ; च--तथा;किड्जरी --दासी; मयि--मुझ; आत्मजे--सन्तान में; अनन्य-गतौ--जिसकी रक्षा का कोई अन्य साधन न हो; चक्रे --किया; स्नेह-अनुबन्धनम्-प्रेम के बन्धन में बँधा ।
मैं अपनी माता का इकलौता पुत्र था।
वह न केवल भोलीभाली स्त्री थी, अपितु दासीभी थी।
चूँकि मैं उसकी एकमात्र सनन््तान था, अतः उसकी रक्षा का कोई अन्य साधन न था,अतएव उसने मुझे अपने स्नेह-पाश में बाँध रखा था।
"
सास्वतन्त्रा न कल्पासीद्योगक्षेमं ममेच्छती ।
ईशस्य हि वशे लोको योषा दारुमयी यथा ॥
७॥
सा--वह; अस्वतन्त्रा--आश्रित थी; न--नहीं; कल्पा--समर्थ; आसीत्-- थी; योग-क्षेमम्--लालन-पालन; मम--मेरा;इच्छती--यद्यपि उत्सुक; ईशस्य--ई श्वर का; हि-- क्योंकि; वशे--वश में; लोक: --प्रत्येक व्यक्ति; योषा--गुड़िया;दारु-मयी--काठ की बनी; यथा--जिस तरह।
वह मेरा लालन-पालन अच्छी तरह करना चाहती थी, लेकिन पराश्रित होने के कारणवह मेरे लिए कुछ भी नहीं कर पाती थी।
यह संसार परमेश्वर के पूर्ण नियन्त्रण में है, अतएवप्रत्येक व्यक्ति कठपुतली नचाने वाले के हाथ में किसी काठ की गुड़िया के समान है।
"
अहं च तद्ढह्मकुले ऊषिवांस्तदुपेक्षया ।
दिग्देशकालाव्युत्पन्नो बालक: पञ्चहायन: ॥
८॥
अहम्-मैं; च-- भी; तत्--उस; ब्रह्म-कुले--ब्राह्मणों की पाठशाला में; ऊषिवान्--रहता था; तत्--उसका;उपेक्षया--आश्रित; दिकू-देश--दिशा तथा देश; काल--समय; अत्युत्पन्न: --अनुभवविहीन; बालक:--मात्र बालक;पञ्चञ--पाँच; हायन:--वर्ष का।
जब मैं केवल पाँच वर्ष का बालक था, तो एक ब्राह्मण की पाठशाला में रहता था।
मैं अपनी माता के स्नेह पर आश्नित था और मुझे विभिन्न क्षेत्रों का कोई अनुभव न था।
"
एकदा निर्गतां गेहाहुहन्तीं निशि गां पथि ।
सर्पोदशत्पदा स्पृष्ट: कृपणां कालचोदित: ॥
९॥
एकदा--एक बार; निर्गतामू--चले जाने पर; गेहात्--घर से; दुहन्तीम्-दुहने के लिए; निशि--रात्रि में; गामू--गायको; पथि--रास्ते में; सर्प: --सर्प ने; अदशत्--डस लिया; पदा--पाँव में; स्पृष्ट:--इस प्रकार काटी गईं; कृपणाम्--बेचारी स्त्री; काल-चोदित:--परम काल के वशीभूत हो कर।
एक बार जब मेरी माँ बेचारी रात्रि के समय गाय दुहने जा रही थी, तो परम काल सेप्रेरित एक सर्प ने मेरी माता के पाँव में डस लिया।
"
तदा तदहमीशस्य भक्तानां शमभीष्सत: ।
अनुग्रह॑ मन्यमान: प्रातिष्ठं दिशमुत्तराम् ॥
१०॥
तदा--उस समय; तत्--उस; अहम्--मैंने; ईशस्य--ई श्रर के; भक्तानामू--भक्तों की; शम्--दया; अभीप्सत:--चाहतेहुए; अनुग्रहमू--विशेष आशीष; मन्यमान:--इस प्रकार सोचता हुआ; प्रातिष्ठम्-प्रस्थान किया; दिशम् उत्तराम्--उत्तरदिशा में
मैंने इसे भगवान् की विशेष कृपा माना, क्योंकि वे अपने भक्तों का भला चाहने वालेहैं और इस प्रकार सोचता हुआ मैं उत्तर की ओर चल पड़ा।
"
स्फीताझनपदांस्तत्र पुरग्रामत्रजाकरान् ।
खेटखर्वटवार्टीश्व वनान्युपवनानि च ॥
११॥
स्फीतान्--अत्यन्त समृद्ध; जन-पदान्--जनपद; तत्र--वहाँ; पुर--नगर; ग्राम--गाँव; ब्रज--बड़े-बड़े खेत;आकरानू-खानें; खेट--कृषि योग्य खेत; खर्बट--घाटियाँ; वाटी:--पुष्प वाटिकाएँ; च--तथा; वनानि--जंगल;उपवनानि--पौधघर; च--तथा |
प्रस्थान करने के बाद मैं अनेक समृद्ध जनपदों, नगरों, गाँवों, पशु-क्षेत्रों, खानों, खेतों,घाटियों, पुष्पवाटिकाओं, पौधशालाओं तथा प्राकृतिक जंगलों से होकर गुजरा।
"
चित्रधातुविचित्राद्रीनिभभग्नभुजद्रुमान् ।
जलाशयाज्छिवजलान्नलिनी: सुरसेविता: ।
चित्रस्वनै: पत्ररथैर्विभ्रमद्भ्रमरश्रिय: ॥
१२॥
चित्र-धातु--मूल्यवान खनिज यथा सोना चाँदी तथा ताँबा; विचित्र--विविधतापूर्ण; अद्रीन्--पहाड़ियाँ; इभ-भग्न--विशालकाय हाथियों द्वारा तोड़ी गई; भुज--शाखाएँ; द्रमान्--वृक्ष; जलाशयान् शिव--स्वास्थ्यवर्धक ; जलानू--जलाशय; नलिनी:--कमल के फूल; सुर-सेविता:--स्वर्ग के निवासियों द्वारा जिसकी कामना की जाय; चित्र-स्वनै:--हृदयग्राही; पत्र-रथै:--पक्षियों द्वारा; विभ्रमत्--मदान्ध; भ्रमर-अरियः--भौंरों से अलंकृत |
मैं सोने, चाँदी तथा ताँबे जैसे विविध खनिजों के आगारों से परिपूर्ण पर्वतों तथा सुन्दरकमलों से पूर्ण जलाशयों से युक्त भूभागों को पार करता रहा जो स्वर्ग के वासियों केउपयुक्त थे और मदान्ध भौरों तथा चहचहाते पक्षियों से सुशोभित थे।
"
नलवेणुशरस्तन्बकुशकीचकगहरम् ।
एक एवातियातोहमद्राक्षं विपिन॑ महत् ।
घोर प्रतिभयाकारं व्यालोलूकशिवाजिरम् ॥
१३॥
नल--नरकट; वेणु--बाँस; शर:--सरपत; तन्ब--से परिपूर्ण; कुश--नुकीली घास, कुश; कीचक--अपतृण;गहरम्-गुफाएँ; एक:--अकेले; एबव--केवल; अतियात:--दुर्गम; अहम्--मैंने; अद्राक्षम्--देखा; विपिनम्--गहनजंगल; महत्--विशाल; घोरम्-- भयावना; प्रतिभय-आकारम्-- भयानक; व्याल--सर्प; उलूक -- उल्लू; शिव--सियार;अजिरम्-मैदान
तब मैं अनेक जंगलों में से होकर अकेला गया जो नरकटों, बाँसों, सरपतों, कुशों,अपतृणों तथा गहरों से परिपूर्ण थे और जिनसे अकेले निकल पाना कठिन था।
मैंने अत्यन्तसघन, अंधकारपूर्ण तथा अत्यधिक भयावने जंगल देखे जो सर्पों, उललुओं तथा सियारों कीक्रीड़ास्थली बने हुए थे।
"
परिश्रान्तेन्द्रियात्माहं तृट्परीतो बुभुक्षित: ।
स्नात्वा पीत्वा हृदे नद्या उपस्पृष्टो गतश्रम: ॥
१४॥
परिश्रान्त-- थका हुआ; इन्द्रिय--शरीर से; आत्मा--मन से; अहम्--मैं; तृटू-परीत:--प्यासा होकर; बुभुक्षित:--तथाभूखा; स्नात्वा--नहा कर; पीत्वा--तथा जल पीकर; हृदे--सरोवर में; नद्या:--नदी के; उपस्पृष्ट:--सम्पर्क में रह कर;गत--छुटकारा प्राप्त किया; श्रम:--थकान से
इस प्रकार विचरण करते हुए, मैं तन तथा मन से थक गया और प्यासा तथा भूखा भी था।
अतएव मैंने एक सरोवर में स्नान किया और जल भी पिया।
जल-स्पर्श से मेरी थकानजाती रही।
"
तस्मिन्निर्मनुजेरण्ये पिप्पलोपस्थ आश्रित: ।
आत्मनात्मानमात्मस्थ॑ यथाश्रुतमचिन्तयम् ॥
१५॥
तस्मिनू--उस; निर्मनुजे--वीरान; अरण्ये--वन में; पिप्पल--पीपल के वृक्ष के; उपस्थे--नीचे बैठ कर; आश्रित:--सहारा लेकर; आत्मना--बुद्धि से; आत्मानम्--परमात्मा को; आत्म-स्थम्--अपने में ही लीन; यथा-श्रुतम्--जैसा मैंनेमुक्त पुरुषों से सुन रखा था; अचिन्तयम्--विचार करने लगा
उसके पश्चात् उस वीरान जंगल में एक पीपल वृक्ष की छाया में बैठकर मैं अपनी बुद्धिसे अपने अन्तःकरण में स्थित परमात्मा का वैसे ही ध्यान करने लगा, जिस प्रकार कि मैंनेमुक्तात्माओं से सीखा था।
"
ध्यायतश्चरणाम्भोजं भावनिर्जितचेतसा ।
औत्कण्ट्याश्रुकलाक्षस्य हद्यासीन्मे शनैरहरि: ॥
१६॥
ध्यायतः--इस तरह ध्यान करते हुए; चरण-अम्भोजम्--अन्तर्यामी भगवान् के चरणकमलों का; भाव-निर्जित-- भगवान्के दिव्य प्रेम में परिणत मन; चेतसा--सारी मानसिक गतिविधियाँ ( सोचना, अनुभव करना तथा इच्छा करना );औत्कण्ठ्य--उत्सुकता; अश्रु-कल-- आँसू निकल आये; अक्षस्य--आँखो के; हृदि--हृदय में; आसीत्--प्रकट हुए;मे--मेरे; शनैः--तुरन्त; हरिः-- भगवान्
ज्योंही मैं अपने मन को दिव्य प्रेम में लगाकर भगवान् के चरणकमलों का ध्यान करनेलगा कि मेरे नेत्रों से आँसू बहने लगे और भगवान् श्रीकृष्ण बिना विलम्ब किए मेरे हृदय-कमल में प्रकट हो गये।
"
प्रेमातिभरनिर्भिन्नपुलकाज्ली तिनिर्वृत: ।
आनन्दसम्प्लवे लीनो नापश्यमुभयं मुने ॥
१७॥
प्रेमा--प्रेम; अतिभर--अत्यधिक; निर्भिन्न--विशेष रूप से विभेदित; पुलक--प्रसन्नता की अनुभूति; अड्भः:--शरीर केविभिन्न अंग; अति-निर्वृतः--पूर्ण रूप से अभिभूत होकर; आनन्द--आह्वाद के; सम्प्लवे--समुद्र में; लीन: --मग्न; न--नहीं; अपश्यम्--देख सका; उभयम्--दोनों को; मुने--हे व्यासदेव
हे व्यासदेव, उस समय प्रसन्नता की अनुभूति होने के कारण, मेरे शरीर का अंग-प्रत्यंगपुलकित हो उठा।
आनन्द के सागर में निमग्न होने के कारण मैं अपने आपको और भगवान्को भी न देख सका।
"
रूपं भगवतो यत्तन्मन:कान्तं शुचापहम् ।
अपश्यन् सहसोत्तस्थे वैक्लव्याहुर्मना इब ॥
१८॥
रूपम्--रूप; भगवतः-- भगवान् का; यत्-- जैसा है; तत्--वह; मन:--मन की; कान्तम्--इच्छानुसार; शुच्-अपहम्--समस्त विषमता को दूर करते हुए; अपश्यन्--बिना देखे; सहसा--अचानक; उत्तस्थे--खड़ा हो गया;वैक्लव्यात्--विकल होकर; दुर्मना:--इष्ट को खोकर; इब--मानो ।
भगवान् का दिव्य रूप, जैसा कि वह है, मन की इच्छा को पूरा करता है और समस्तमानसिक सन्तापों को तुरन्त दूर करने वाला है।
अत: उस रूप के खो जाने पर मैं व्याकुलहोकर उठ खड़ा हुआ, जैसा कि प्रायः अपने अभीष्ठ के खो जाने पर होता है।
"
दिदृक्षुस्तदहं भूय: प्रणिधाय मनो हृदि ।
वीक्षमाणोपि नापश्यमवितृप्त इवातुर: ॥
१९॥
दिदक्षु:--देखने को इच्छुक; तत्--वह; अहम्--मैं; भूय:--फिर; प्रणिधाय--मन को एकाग्र करके; मन:--मन;हृदि--हृदय में; वीक्षमाण: --देखने के लिए प्रतीक्षारत; अपि--होते हुए; न--कभी नहीं; अपश्यम्---उन्हें देखा;अवितृप्त:--बिना संतुष्ट हुए; इब--सहृश; आतुरः--संतप्त ।
मैंने भगवान् के उस दिव्य रूप को पुनः देखना चाहा, लेकिन अपने हृदय में एकाग्रहोकर उस रूप का दर्शन करने के सारे प्रयासों के बावजूद, मैं उन्हें फिर से न देख सका।
इस प्रकार असंतुष्ट होने पर मैं अत्यधिक संतप्त हो उठा।
"
एवं यतन्तं विजने मामाहागोचरो गिराम् ।
गम्भीरश्लक्ष्णया वाचा शुचः प्रशमयज्निव ॥
२०॥
एवम्--इस प्रकार; यतन्तम्--यत्न करते हुए; विजने--वह एकान्त स्थान में; मामू--मुझसे; आह--कहा; अगोचर: --भौतिक शब्द ( ध्वनि ) की सीमा से बाहर; गिराम्--वाणी; गम्भीर--गम्भीर; एलक्ष्णया--सुनने में सुखद; वाचा--शब्द; शुचः--शोक; प्रशमयन्--दूर करते हुए; इब--सहृश ।
वह एकान्त स्थान में मेरे प्रयासों को देखकर समस्त लौकिक वर्णन से परे भगवान् नेमेरे शोक को दूर करने के लिए अत्यन्त गम्भीर तथा सुखद वाणी में मुझसे कहा।
"
हन्तास्मिञ्न्मनि भवान्मा मां द्रष्टमिहाहति ।
अविपक्रकषायाणां दुर्दशोहं कुयोगिनाम् ॥
२१॥
हन्त--हे नारद; अस्मिन्--इस; जन्मनि--जन्म में; भवान्--तुम; मा--नहीं; माम्--मुझको ; द्रष्टभू--देखने के लिए;इह--यहाँ; अर्हति--योग्य हो; अविपक्व--अप्रौढ़; कषायाणाम्-- भौतिक, कल्मष; दुर्दर्श:--देख पाना कठिन;अहमू--ैं; कुयोगिनाम्--सेवा में अपूर्ण ।
( भगवान् ने कहा ) हे नारद, मुझे खेद है कि तुम इस जीवन काल में अब मुझे नहींदेख सकोगे।
जिनकी सेवा अपूर्ण है और जो समस्त भौतिक कल्मष से पूर्ण रूप से मुक्तनहीं हैं, वे मुश्किल से ही मुझे देख पाते हैं।
"
सकूद् यद्द्शितं रूपमेतत्कामाय तेनघ ।
मत्काम: शनकै: साधु सर्वान्मुञ्ञति हच्छयान् ॥
२२॥
सकृत्--केवल एक बार; यत्--जो; दर्शितम्--दिखाया हुआ; रूपमू--रूप; एतत्--यह है; कामाय--लालसा केलिए; ते--तुम्हारा; अनघ--हे निष्पाप; मत्--मेरी; काम:--इच्छा; शनकै: --बढ़ाने से; साधु;--भक्त; सर्वानू--समस्त;मुझ्नति--त्यागता है; हत्-शयान्-- भौतिक इच्छाओंको ।
हे निष्पाप पुरुष, तुमने मुझे केवल एक बार देखा है और यह मेरे प्रति तुम्हारी इच्छा कोउत्कट बनाने के लिए है, क्योंकि तुम जितना ही अधिक मेंरे लिए लालायित होगे, उतना हीतुम समस्त भौतिक इच्छाओं से मुक्त हो सकोगे।
"
सत्सेवयादीर्घयापि जाता मयि हृढा मतिः ।
हित्वावद्यमिमं लोक॑ गनन््ता मजजनतामसि ॥
२३॥
सतू-सेवया--परम सत्य की सेवा द्वारा; अदीर्घया--कुछ दिनों तक; अपि-- भी; जाता--प्राप्त हुआ; मयि--मुझको;हढा--हढ़; मतिः --बुद्द्धि; हित्वा--त्याग कर; अवद्यमू--शोचनीय; इमम्--इस; लोकम्-- भौतिक जगत को; गन्ता--जाते हुए; मत्-जनताम्--मेरे पार्षद; असि--हो ते हैं।
कुछ काल तक ही सही, परम सत्य की सेवा करने से भक्त मुझमें हृढ़ एवं अटल बुद्धिप्राप्त करता है।
फलस्वरूप, वह इस शोचनीय भौतिक जगत को त्यागने के बाद दिव्यजगत में मेरा पार्षद बनता है।
"
मतिर्मयि निबद्धेयं न विपद्येत कहिचित् ।
प्रजासर्गनिरोधेपि स्मृतिश्व मदनुग्रहात् ॥
२४॥
मतिः--बुद्धि; मयि--मुझमें अनुरक्त; निबद्धा--लगा हुआ; इयम्--यह; न--कभी नहीं; विपद्येत--विलग;कह्िचित्--किसी समय; प्रजा--जीव; सर्ग--सृष्टि के समय; निरोधे--संहार के समय; अपि-- भी; स्मृति: --स्मृति,स्मरण-शक्ति; च--तथा; मत्--मेरी; अनुग्रहात्-कृपा से मेरी भक्ति में लगी हुई बुद्धि कभी भी विच्छिन्न नहीं होती।
यहाँ तक कि सृष्टि काल केसाथ ही साथ संहार के समय भी मेरे अनुग्रह से तुम्हारी स्मृति बनी रहेगी।
"
एतावदुक्त्वोपरराम तन्महद्भूतं नभोलिड्रमलिज्भमी ध्वरम् ।
अहं च तस्मै महतां महीयसेशीर्ष्णवनामं विदधेनुकम्पित: ॥
२५॥
एतावत्--इस प्रकार; उक्त्वा--कह कर; उपरराम--रूक गया; तत्--वह; महत्--महान्; भूतम्-- आश्चर्यजनक; नभः-लिड्रमू-शब्द द्वारा व्यक्त; अलिड्डमू--नेत्रों से न दिखने वाला, अदृश्य; ईश्वरम्--परम पुरुष को; अहम्--मैं; च-- भी;तस्मै--उनको; महताम्--महान्; महीयसे--महिमा मंडित; शीर्ष्णा--शिर से; अवनामम्--नमस्कार; विदधे--किया;अनुकम्पित:--उनके द्वारा कृपा दिखाये जाने पर
तब शब्द से व्यक्त तथा नेत्रों से अहश्य उन नितान्त आश्चर्यमय परम पुरुष ने बोलनाबन्द कर दिया।
मैंने कृतज्ञता का अनुभव करते हुए शीश झुकाकर उन्हें प्रणाम किया।
"
नामान्यनन्तस्य हतत्रप: पठन्गुह्यानि भद्राणि कृतानि च स्मरन् ।
गां पर्यटंस्तुष्टमना गतस्पृह:कालं प्रतीक्षन् विमदो विमत्सर: ॥
२६॥
नामानि--पवित्र नाम, यश आदि; अनन्तस्य--असीम के; हत-त्रप:--भौतिक जगत की सारी औपचारिकताओं से मुक्तहोकर; पठन्--जप से, पाठ से; गुह्मानि--रहस्यमय; भद्राणि--कल्याणकर; कृतानि--कार्य; च--तथा; स्मरन्--निरन्तर स्मरण करते हुए; गाम्--पृथ्वी पर; पर्यटन्--सर्वत्र विचरण करते हुए; तुष्ट-मना: --पूर्ण रूप से सन्तुष्ट; गत-स्पृहः--समस्त भौतिक कामनाओं से पूर्ण रूप से मुक्त; कालम्--काल, समय की; प्रतीक्षन्--प्रती क्षा करते हुए;विमदः--र्व किये बिना; विमत्सर:--ईर्ष्यारहित ।
इस प्रकार भौतिक जगत की समस्त औपचारिकताओं की उपेक्षा करते हुए, मैंबारम्बार भगवान् के पवित्र नाम तथा यश का कीर्तन करने लगा।
भगवान् की दिव्यलीलाओं का ऐसा कीर्तन एवं स्मरण कल्याणकारी होता है।
इस तरह मैं पूर्ण रूप सेसन्तुष्ट, विनम्र तथा ईर्ष्या-द्वेषरहित होकर सारी पृथ्वी पर विचरण करने लगा।
"
एवं कृष्णमतेर्त्रह्मन्नासक्तस्यामलात्मन: ।
काल: प्रादुरभूत्काले तडित्सौदामनी यथा ॥
२७॥
एवम्--इस प्रकार; कृष्ण-मतेः --जो कृष्ण के चिन्तन में लीन हो; ब्रह्मनू--हे व्यासदेव; न--नहीं; आसक्तस्थ--आसक्तहोने वाले का; अमल-आत्मन:--समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त का; काल: --मृत्यु; प्रादुरभूतू--दृष्टिगोचर हुआ;काले--समय आने पर; तडित्--बिजली; सौदामनी -- प्रकाश करती हुई; यथा--जिस प्रकार है।
और हे ब्राह्मण व्यासदेव, इस तरह मैंने कृष्ण के चिन्तन में पूर्णतया निमग्न रहते हुएतथा किसी प्रकार की आसक्ति न रहने से समस्त भौतिक कलुष से पूर्ण रूप से मुक्त होजाने पर यथा समय मृत्यु पाई, जिस प्रकार बिजली गिरना तथा प्रकाश कौंधना एकसाथहोते हैं।
"
प्रयुज्यमाने मयि तां शुद्धां भागवर्ती तनुम् ।
आरब्धकर्मनिर्वाणो न््यपतत् पाञ्चभौतिक: ॥
२८॥
प्रयुज्यमाने--पुरस्कृत होकर; मयि--मुझ पर; तामू--उस; शुद्धाम्--दिव्य; भागवतीम्-- भगवान् की संगति करने योग्य;तनुम्--शरीर; आरब्ध--प्राप्त किया; कर्म--सकाम कर्म; निर्वाण:--समाप्त होना; न््यपतत्--त्याग दिया; पाञ्ञ-भौतिक: --पाँच तत्त्वों से बना शरीर
भगवान् के पार्षद के लिए उपयुक्त दिव्य शरीर पाकर मैंने पाँच भौतिक तत्त्वों से बनेशरीर को त्याग दिया और इस तरह कर्म के सारे अर्जित फल समाप्त हो गये।
"
कल्पान्त इदमादाय शयानेम्भस्युदन्वत: ।
शिशयिषोरनुप्राणं विविशेषन्तरहं विभो: ॥
२९॥
कल्प-अन्ते--ब्रह्म के दिन के अन्त में; इदम्--यह; आदाय--लेकर, समेट कर; शयाने--शयन करते हुए; अम्भसि--'कारण-जल में; उदन्वत:--विनाश, संहार; शिशयिषो:-- भगवान् ( नारायण ) का लेटना; अनुप्राणम्-- श्वास लेना;विविशे-- प्रवेश किया; अन्तः-- भीतर; अहम्--मैंने; विभोः--ब्रह्माजी के ।
कल्प के अन्त में जब भगवान् नारायण प्रलय के जल में लेट गये, तब ब्रह्माजी समस्तसृष्टिकारी तत्त्वों सहित उनके भीतर प्रवेश करने लगे और उनके श्वास से मैं भी भीतर चलागया।
"
सहस्रयुगपर्यन्ते उत्थायेदं सिसृक्षतः ।
मरीचिमिश्रा ऋषय: प्राणेभ्योहं च जज्ञिरि ॥
३०॥
सहस्त्र--एक हजार; युग--४३,००,००० वर्ष; पर्यन्ते--अवधि के अन्त में; उत्थाय--बीतने पर; इृदम्--इस;सिसृक्षतः--पुनः सृजन करने की इच्छा प्रकट की; मरीचि-मिश्रा:--मरीचि जैसे ऋषि; ऋषय:--सारे ऋषिगण;प्राणेभ्य:--उनकी इन्द्रियों से; अहम्--मैं; च-- भी; जज्ञिरि--प्रकट हुआ।
४,३२,००,००,००० सौर वर्षों के बाद, जब भगवान् की इच्छा से ब्रह्मा पुनः सृष्टिकरने के लिए जागे, तो मरीचि, अंगिरा, अत्रि इत्यादि सारे ऋषि भगवान् के दिव्य शरीर सेउत्पन्न हुए और उन्हीं के साथ-साथ मैं भी प्रकट हुआ।
"
अन्तर्बहिश्व लोकांस्त्रीन् पर्येम्यस्कन्दितब्रत: ।
अनुग्रहान्महाविष्णोरविघातगति: क्नचित् ॥
३१॥
अन्त:--दिव्य जगत में; बहि:-- भौतिक जगत में; च--तथा; लोकानू--लोक; त्रीन्--तीन ( विभाग ); पर्येमि--विचरण करता हूँ; अस्कन्दित--अविच्छिन्न; ब्रत:--ब्रत, प्रण; अनुग्रहात्--अहैतुकी कृपा से; महा-विष्णो:--महाविष्णु( कारणोदकशायी विष्णु ) की; अविघात--बिना रोक टोक के; गति:--प्रवेश; क्रचित्--किसी समय ।
तब से सर्वशक्तिमान विष्णु की कृपा से मैं दिव्य जगत में तथा भौतिक जगत के तीनोंप्रखण्डों में बिना रोक-टोक के सर्वत्र विचरण करता हूँ।
ऐसा इसलिए है क्योंकि मैंभगवान् की अविच्छिन्न भक्तिमय सेवा में स्थिर हूँ।
"
देवदत्तामिमां वीणां स्वरब्रह्मविभूषिताम् ।
मूर्च्छयित्वा हरिकथां गायमानश्चराम्यहम् ॥
३२॥
देव--पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान् ( श्रीकृष्ण ) द्वारा; दत्ताम्-प्रदत्त; इमामू--इस; वीणाम्--वीणा को; स्वर--स्वर, बोल;ब्रह्म-दिव्य; विभूषिताम्--अलंकृत; मूर्चछ्छयित्वा--स्पन्दन करती; हरि-कथाम्--दिव्य सन्देश को; गायमान:--निरन्तरगाते हुए; चरामि--विचरण करता हूँ; अहम्--मैं।
और इस तरह मैं भगवान् की महिमा के दिव्य सन्देश का निरन्तर गायन करते हुए औरइस वीणा को झंकृत करते हुए विचरण करता रहता हूँ, जो दिव्य ध्वनि से पूरित है औरजिसे भगवान् कृष्ण ने मुझे दिया था।
"
प्रगायत: स्ववीर्याणि तीर्थपाद: प्रियश्रवा: ।
आहूत इव मे शीघ्र दर्शनं याति चेतसि ॥
३३॥
प्रगायत:--इस प्रकार गाते हुए; स्व-वीर्याणि--अपनी लीलाएँ; तीर्थ-पाद:-- भगवान्, जिनके चरणकमल समस्त पुण्योंया पवित्रता के स्त्रोत हैं; प्रिय-श्रवा:--सुनने में सुखद; आहूत:--बुलाया गया; इब--मानो; मे--मुझको; शीघ्रम्--जल्दी ही; दर्शनम्--दर्शन; याति--प्रकट होता है; चेतसि--हृदय स्थल में ।
ज्योंही मैं भगवान् श्रीकृष्ण की सुमधुर महिमा की पवित्र लीलाओं का कीर्तन करनाप्रारम्भ करता हूँ, त्योंही वे मेरे हदयस्थल में प्रकट हो जाते हैं मानो उनको बुलाया गया हो।
"
एतद्धद्यातुरचित्तानां मात्रास्पर्शेच्छया मुहु: ।
भवसिन्धुप्लवो दृष्टो हरिचर्यानुवर्णमम् ॥
३४॥
एतत्--यह; हि--निश्चय ही; आतुर-चित्तानामू--उन लोगों का जिनके चित्त सदैव चिन्ताओं से भरे रहते हैं; मात्रा--विषय व्स्तुएँ; स्पर्श--इन्द्रियाँ; इच्छबया--इच्छाओं के द्वारा; मुहः:--सदैव; भव-सिन्धु--अज्ञान रूपी सागर; प्लव:--नाव; दृष्ट:--अनुभव की गई; हरि-चर्य--भगवान् हरि के कार्यकलापों का; अनुवर्णनम्--निरन्तर गायन ।
यह मेरा निजी अनुभव है कि जो लोग विषय-वस्तुओं से सम्पर्क की इच्छा रखने केकारण सदैव चिन्ताग्रस्त रहते हैं, वे भगवान् की दिव्य लीलाओं के निरन्तर कीर्तन रूपीसर्वाधिक उपयुक्त नौका पर चढ़कर अज्ञान रूपी सागर को पार कर सकते हैं।
"
यमादिभियोंगपथै: कामलोभहतो मुहुः ।
मुकुन्दसेवया यद्वत्तथात्माद्धा न शाम्यति ॥
३५॥
यम-आदिभि:--आत्मसंयम का अभ्यास करने की विधि के द्वारा; योग-पथैः --योग ( दैवी अवस्था प्राप्त करने के लिएयौगिक शारीरिक शक्ति ) पद्धति के द्वारा; काम--इन्द्रियतुष्टि की इच्छा; लोभ--इन्द्रियों की तुष्टि के लिए लालच;हतः--समाप्त; मुहुः--सदैव; मुकुन्द-- भगवान्; सेवया--की सेवा द्वारा; यद्वत्--जिस रूप में; तथा--उसी प्रकार;आत्मा--आत्मा; अद्धघा--समस्त व्यावहारिक कार्यों के लिए; न--नहीं; शाम्यति--तुष्ट हो ।
यह सत्य है कि योगपद्धति के द्वारा इन्द्रियों को वश में करने के अभ्यास से मनुष्य कोकाम तथा लोभ की चिन्ताओं से राहत मिल जाएगी, किन्तु इससे आत्मा को सनन््तोष प्राप्तनहीं होगा, क्योंकि यह सनन््तोष भगवान् की भक्तिमय सेवा से ही प्राप्त किया जा सकता है।
हे व्यासदेव, तुम समस्त पापों से मुक्त हो।
इस तरह, जैसा तुमने पूछा, उसी के अनुसारमैंने अपने जन्म तथा आत्म-साक्षात्कार के लिए किये गये कर्मो की व्याख्या की है।
यहतुम्हारे आत्म-संतोष के लिए भी लाभप्रद होगा।
"
सर्व तदिदमाख्यातं यत्पृष्टो हं त्वयानघ ।
जन्मकर्मरहस्यं मे भवतश्वात्मतोषणम् ॥
३६॥
सर्वम्--समस्त; तत्--वह; इृदम्--यह; आख्यातम्--वर्णित; यत्--जो भी; पृष्ट:--पूछा गया; अहम्--मैंने; त्वया-- तुम्हारे द्वारा; अनघ--निष्पाप; जन्म--जन्म; कर्म--कार्य; रहस्यम्--रहस्य; मे--मेरे; भवत:--तुम्हारा; च--तथा; आत्म--निजी, स्वयं; तोषणम्--तुष्टि |
शा हे व्यासदेव, तुम समस्त पापों से मुक्त हो।
इस तरह, जैसा तुमने पूछा, उसी के अनुसार मैंने अपने जन्म तथा आत्म-साक्षात्कार के लिए किये गये कर्मों की व्याख्या की है।
यह तुम्हारे आत्म-संतोष के लिए भी लाभप्रद होगा।
"
सूत उवाचएवं सम्भाष्य भगवान्नारदो वासवीसुतम् ।
आमन्त्रय वीणां रणयन् ययौ याहच्छिको मुनि: ॥
३७॥
सूतः उबाच--सूत गोस्वामी ने कहा; एवम्--इस प्रकार; सम्भाष्य--सम्बोधित करके; भगवान्--सर्वशक्तिमान;नारदः--नारद मुनि; वासवी--वासवी ( सत्यवती ) के; सुतम्-पुत्र को; आमन्य--बुलाकर; वीणाम्--वीणा,वाद्ययन्त्र; रणयन्--झंकृत करते हुए; ययौ--चला गया; याहच्छिक:--जहाँ इच्छा हो वहाँ; मुनि:--मुनि |
सूत गोस्वामी ने कहा : इस प्रकार व्यासदेव को सम्बोधित करके नारद मुनि ने उनसेविदा ली और अपनी वीणा को झंकृत करते हुए वे अपनी उन्मुक्त इच्छा के अनुसारविचरण करने के लिए चले गये।
"
अहो देवर्षिर्धन्योयं यत्कीर्ति शार्ड्रधन्वन: ।
गायन्माद्न्निदं तन्त्रया रमयत्यातुरं जगत् ॥
३८॥
अहो--धन्य हो; देवर्षि:--देवताओं के ऋषि; धन्य:--सफल हो; अयम् यत्--जो कोई; कीर्तिमू--यश; शाई-धन्वन:--भगवान् का; गायन्--गान करते हुए; माद्यन्-- आनन्द लूटते हुए; इृदम्--इस; तन्त्रया--वाद्ययंत्र के सहारे;रमयति--जीवन दान देता है; आतुरम्-विपन्न; जगत्--संसार
देवर्षि नारद धन्य हैं, क्योंकि वे भगवान् की लीलाओं का यशोगान करते हैं और ऐसाकरके वे स्वयं तो आनन्द लूटते ही हैं और ब्रह्माण्ड के समस्त संतप्त जीवों को भीअभिप्रेरणा प्रदान करते हैं।
"
अध्याय सात: द्रोण के पुत्र को दंडित किया गया
1.7सातद्रोण-पुत्र को दण्डशौनक उवाचनिर्गते नारदे सूत भगवान् बादरायण:।
श्रुतवांस्तदभिप्रेतं ततः किमकरोद्विभु: ॥
१॥
शौनकः उबाच-- श्री शौनक ने कहा; निर्गते--चले जाने पर; नारदे--नारद मुनि के; सूत--हे सूत; भगवान्--दिव्य रूपसे सर्वशक्तिमान; बादरायण: --वेदव्यास ने; श्रुतवान्--सुना; तत्--उसका; अभिप्रेतम्--मन की इच्छा, मनोवांछा;ततः--तत्पश्चात्; किम्--क्या; अकरोत्--किया; विभुः--महान् ने
ऋषि शौनक ने पूछा : हे सूत, जब महान् तथा दिव्य रूप से शक्तिमान व्यासदेव ने श्रीनारद मुनि से सब कुछ सुन लिया, तो फिर नारद के चले जाने पर व्यासदेव ने क्या किया ?"
सूत उवाचब्रह्मनद्यां सरस्वत्यामाश्रम: पश्चिमे तटे ।
शम्याप्रास इति प्रोक्त ऋषीणां सत्रवर्धन: ॥
२॥
सूतः उवाच-- श्री सूत ने कहा; ब्रह्म-नद्याम्-वेदों, ब्राह्मणों, सन््तों तथा भगवान् से घनिष्ठ रूप से: सम्बन्धित नदी के तटपर; सरस्वत्यामू--सरस्वती के; आश्रम: --ध्यान के लिए कुटी; पश्चिमे--पश्चिमी; तटे--तट पर; शम्याप्रास: --शम्याप्रास नामक स्थान; इति--इस प्रकार; प्रोक्त:--कहलाने वाला; ऋषीणाम्--ऋषियों का; सत्र-वर्धन:--कार्यो कोप्रोत्साहित करने वाला।
श्री सूत ने कहा : वेदों से घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध सरस्वती नदी के पश्चिमी तट परशम्याप्रास नामक स्थान पर एक आश्रम है, जो ऋषियों के दिव्य कार्यकलापों को संवर्धितकरने वाला है।
"
तस्मिन् स्व आश्रमे व्यासो बदरीषण्डमण्डिते ।
आसीनोप उपस्पृश्य प्रणिदध्यौ मन: स्वयम् ॥
३॥
तस्मिनू--उस; स्वे--अपनी; आश्रमे--कुटिया में; व्यास:--व्यासदेव; बदरी--बेर; षण्ड--वृक्ष; मण्डिते--से घिरा;आसीनः--बैठे हुए; अप: उपस्पृश्य--जल का स्पर्श करके ; प्रणिद्ध्यौ--एकाग्र किया; मन: --मन को; स्वयम्-- अपनेआप में।
उस स्थान पर बेरी के वृक्षों से घिरे हुए अपने आश्रम में, श्रील वेदव्यास शुद्धि के लिएजल का स्पर्श करने के बाद ध्यान लगाने के लिए बैठ गये।
"
भक्तियोगेन मनसि सम्यक् प्रणिहितेमले ।
अपश्यत्पुरुषं पूर्ण मायां च तदपाश्रयम् ॥
४॥
भक्ति--भक्तिमय सेवा; योगेन--संयुक्त होने की विधि द्वारा; मनसि--मन में; सम्यक्--पूर्ण रूप से; प्रणिहिते--संलग्नतथा स्थिर; अमले--निर्मल; अपश्यत्--देखा; पुरुषम्-- भगवान् को; पूर्णम्--परम; मायाम्--शक्ति को; च--भी;तत्--उसके; अपाश्रयम्-पूर्ण वश मेंइस प्रकार उन्होंने भौतिकता में किसी लिप्तता के बिना, भक्तिमय सेवा ( भक्तियोग )से बँधकर अपने मन को पूरी तरह एकाग्र किया।
इस तरह उन्होंने परमेश्वर के पूर्णतः अधीनउनकी बहिरंगा शक्ति के समेत उनका दर्शन किया।
"
यया सम्मोहितो जीव आत्मानं त्रिगुणात्मकम् ।
परोपि मनुतेनर्थ तत्कृतं चाभिपद्यते ॥
५॥
यया--जिससे; सम्मोहित:--मोहग्रस्त; जीव:--जीवात्माएँ; आत्मानम्--स्व; त्रि-गुण-आत्मकम्--प्रकृति के तीनों गुणोंसे बद्ध अथवा पदार्थ का फल; परः--दिव्य; अपि--के होते हुए भी; मनुते--मान लेता है; अनर्थम्--अनचाही वस्तुएँ;तत्--उससे; कृतम् च-- प्रतिक्रिया; अभिपद्यते-- भोगता है।
जीवात्मा तीनों गुणों से अतीत होते हुए भी इस बहिरंगा शक्ति के कारण अपने आपको भौतिक पदार्थ की उपज मानता है और इस प्रकार भौतिक कष्टों के फलों को भोगताहै।
"
अनर्थोपशमं साक्षाद्धक्तियोगमधोक्षजे ।
लोकस्याजानतो विद्वांश्रक्रे सात्वतसंहिताम् ॥
६॥
अनर्थ--फालतू चीजें; उपशमम्--बहिष्कार, निवारण; साक्षात्- प्रत्यक्ष; भक्ति-योगम्-- भक्ति को जोड़ने की विधि;अधोक्षजे--दिव्य को; लोकस्य--सामान्य लोगों का; अजानत:--न जानने वाले; विद्वानू--प्रकाण्ड पंडित; चक्रे --संकलन किया; सात्वत--परम सत्य के प्रसंग में; संहितामू--वैदिक साहित्य |
.\fजीव के भौतिक कष्ट, जिन्हें वह अनर्थ समझता है, भक्तियोग द्वारा प्रत्यक्ष रूप से कम किये जा सकते हैं।
किन्तु अधिकांश जन इसे नहीं जानते; इसलिए विद्वान व्यासदेव ने इस वैदिक साहित्य का संकलन किया है, जिसका सम्बन्ध परम सत्य से है।
जीव के भौतिक कष्ट, जिन्हें वह अनर्थ समझता है, भक्तियोग द्वारा प्रत्यक्ष रूप से कमकिये जा सकते हैं।
किन्तु अधिकांश जन इसे नहीं जानते; इसलिए विद्वान व्यासदेव ने इसवैदिक साहित्य का संकलन किया है, जिसका सम्बन्ध परम सत्य से है।
"
यस्यां वै श्रूयमाणायां कृष्णे परमपूरुषे ।
भक्तिरुत्यद्यते पुंसः शोकमोहभयापहा ॥
७॥
यस्याम्--यह वैदिक साहित्य; बै--निश्चय ही; श्रूयमाणायाम्--मात्र श्रवण करने से; कृष्णे--भगवान् कृष्ण में; परम--परम; पूरुषे-- भगवान् में; भक्तिः:-- भक्ति की भावनाएँ; उत्पद्यते--अंकुरित होते हैं; पुंसः--जीव का; शोक--संताप;मोह--मोह; भय--डर; अपहा-- भगाने वाला, नष्ट करने वाला।
इस वैदिक साहित्य के श्रवण मात्र से पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेमा भक्तिकी भावना तुरन्त अंकुरित होती है, जो शोक, मोह तथा भय की अग्नि को तुरन्त बुझा देतीहै।
"
स संहितां भागवतीं कृत्वानुक्रम्य चात्मजम् ।
शुकमध्यापयामास निवृत्तिनिरतं मुनि: ॥
८॥
सः--वह; संहिताम्--वैदिक साहित्य; भागवतीम्-- भगवान् से सम्बन्धित; कृत्वा--करके; अनुक्रम्य--शुद्द्धि तथाआवृत्ति द्वारा; च--तथा; आत्म-जम्--अपने पुत्र; शुकम्--शुकेदव गोस्वामी को; अध्यापयाम् आस--पढ़ाया;निवृत्ति--आत्म-साक्षात्कार का मार्ग; निरतमू--संलग्न; मुनि:--मुनि ने।
श्रीमद्धभागवत का संकलन कर लेने तथा उसे संशोधित करने के बाद महर्षि व्यासदेव नेइसे अपने पुत्र श्री शुकदेव गोस्वामी को पढ़ाया, जो पहले से ही आत्म-साक्षात्कार में निरतथे।
"
शौनक उवाचस वै निवृत्तिनिरत: सर्वत्रोपेक्षको मुनि: ।
कस्य वा बृहतीमेतामात्माराम: समभ्यसत् ॥
९॥
शौनकः उवाच-- श्री शौनक ने पूछा; सः--वह; बै--निश्चय ही; निवृत्ति--आत्म-साक्षात्कार के पथ पर; निरत:--सदैवलगा हुआ; सर्वत्र--सभी प्रकार से; उपेक्षक: --उदासीन; मुनि:--मुनि; कस्य--किस कारण से; वा--अथवा;बृहतीम्--विशाल; एताम्--इस; आत्म-आराम:--अपने आप में प्रसन्न रहने वाला; समभ्यसत्--अध्ययन किया।
श्री शौनक ने सूत गोस्वामी से पूछा : शुकदेव गोस्वामी तो पहले से ही निवृत्ति मार्ग परचले रहे थे और इस तरह बे अपने आप में प्रसन्न थे।
तो फिर उन्होंने ऐसे बृहत् साहित्य काअध्ययन करने का कष्ट क्यों उठाया ?"
सूत उवाचआत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे ।
कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरि: ॥
१०॥
सूतः उबाच--सूत गोस्वामी ने कहा; आत्मारामा:--जिन्हें आत्मा में सुख मिलता है वे; च--भी; मुनय:--मुनिगण;निर्ग्रन्था: --समस्त बन्धनों से मुक्त; अपि--होने पर भी; उरुक्रमे--महान् साहसिक में; कुर्वन्ति--करते हैं; अहैतुकीम्--अनन्य, अमिश्मित; भक्तिमू-- भक्ति; इत्थम्-भूत--ऐसे आश्चर्यमय; गुण:--गुण; हरिः--हरि के
जो आत्मा में आनन्द लेते हैं, ऐसे विभिन्न प्रकार के आत्माराम और विशेष रूप से जोआत्म-साक्षात्कार के पथ पर स्थापित हो चुके हैं, ऐसे आत्माराम यद्यपि समस्त प्रकार केभौतिक बन््धनों से मुक्त हो चुके हैं, फिर भी भगवान् की अनन्य भक्तिमय सेवा में संलग्नहोने के इच्छुक रहते हैं।
इसका अर्थ यह हुआ कि भगवान् में दिव्य गुण हैं, अतएवं वेमुक्तात्माओं सहित प्रत्येक व्यक्ति को आकृष्ट कर सकते हैं।
"
हरेर्गुणाक्षिप्तमतिर्भगवान् बादरायणि: ।
अध्यगान्महदाख्यानं नित्यं विष्णुजनप्रियः ॥
११॥
हरेः--भगवान् हरि के; गुण--दिव्य गुण में; आक्षिप्त--लीन होकर; मति:--मन; भगवानू--शक्तिमान; बादरायणि: --व्यासदेव के पुत्र ने; अध्यगात्--अध्ययन किया; महत्--महान्; आख्यानम्--कथा का; नित्यम्--नियमित रूप से;विष्णु-जन-- भगवद्भक्त; प्रिय: --प्रिय ।
श्रील व्यासदेव के पुत्र, श्रील शुकदेव गोस्वामी न केवल दिव्य शक्ति से युक्त थे,अपितु वे भगवान् के भक्तों के भी अत्यन्त प्रिय थे।
इस प्रकार उन्होंने इस महान् कथा( श्रीमद्धागवत ) का अध्ययन किया।
"
परीक्षितोथ राजर्षेर्जन्मकर्मविलापनम् ।
संस्थां च पाण्डुपुत्राणां वक्ष्ये कृष्णफथोदयम् ॥
१२॥
परीक्षित:--राजा परीक्षित का; अथ--इस प्रकार; राजर्षे:--राजा का, जो राजाओं में ऋषि था; जन्म--जन्म; कर्म--कर्म; विलापनम्--उद्धार, मोक्ष; संस्थाम्--संसार का परित्याग; च--तथा; पाण्डु-पुत्राणाम्--पाण्डु के पुत्रों का;वक्ष्ये--में कहूँगा; कृष्ण-कथा-उदयम्--
जो भगवान् श्रीकृष्ण की दिव्य कथा को जन्म देने वाला हैसूत गोस्वामी ने शौनक आदि ऋषियों को सम्बोधित किया : अब मैं भगवान् श्रीकृष्णकी दिव्य कथा तथा राजर्षि परीक्षित महाराज के जन्म, कार्यकलाप तथा मोक्ष विषयकवार्ताएँ एवं पाण्डुपुत्रों द्वारा गृहस्था श्रम के त्याग की कथाएँ कहने जा रहा हूँ।
"
यदा मृधे कौरवसञ्जयानांवीरेष्वथो वीरगति गतेषु ।
वृकोदराविद्धगदाभिमर्श-भग्नोरुदण्डे धृतराष्ट्रपुत्रे ॥
१३॥
भर्तु: प्रियं द्रोणिरिति सम पश्यन्कृष्णासुतानां स्वपतां शिरांसि ।
उपाहरद्विप्रियमेव तस्यजुगुप्सितं कर्म विगर्हयन्ति ॥
१४॥
यदा--जब; मृधे--युद्धभूमि में; कौरव--धूृतराष्ट्र के पक्ष वाले; सृज्ञयानाम्--पाण्डवों के पक्ष के; वीरेषु--योद्धाओं में;अथो--इस तरह; वीर-गतिम्--योद्धाओं के योग्य स्थान; गतेषु--प्राप्त करने पर; वृकोदर-- भीम; आविद्ध-प्रताड़ित;गदा-गदा से; अभिमर्श--विलाप करते; भग्न--टूटा; उरू-दण्डे--मेरु दण्ड; धृतराष्ट्र-पुत्रे--राजा धृतराष्ट्र का पुत्र;भर्तु:--स्वामी का; प्रियम्-प्यारा; द्रौि:--द्रोणाचार्य का पुत्र; इति--इस प्रकार; स्म--होगा; पश्यन्--देखते हुए;कृष्णा--द्रौपदी के; सुतानाम्--पुत्रों का; स्वपताम्--सोते हुए; शिरांसि--शिर; उपाहरत्--पुरस्कार के रूप में प्रदानकिया; विप्रियम्--सुखद; एब--सहृश; तस्य--उसका; जुगुप्सितम्--अत्यन्त नृशंस; कर्म--कार्य; विगरहईयन्ति-- भर्त्सनाकरते हैं।
जब दोनों दलों अर्थात् कौरवों तथा पाण्डवों के अपने-अपने योद्धागण कुरुक्षेत्र केयुद्धस्थल में मारे जा चुके और मृत योद्धाओं को उनकी इच्छित गति प्राप्त हो गई और जबभीमसेन की गदा के प्रहार से मेरुदण्ड टूट जाने से धृतराष्ट्र का पुत्र विलाप करता गिर पड़ा,तो द्रोणाचार्य के पुत्र ( अश्वत्थामा ) ने द्रौपदी के सोते हुए पाँचों पुत्रों के सिरों को काटकरमूर्खतावश उन्हें उपहारस्वरूप यह सोचते हुए उसे अर्पित किया कि इससे उसका स्वामी प्रसन्न होगा।
लेकिन दुर्योधन ने इस जघन्य कृत्य की निन्दा की और वह तनिक भी प्रसन्न नहुआ।
"
माता शिशूनां निधन सुतानांनिशम्य घोरं परितप्यमाना ।
तदारुदद्वाष्पकलाकुलाक्षीतां सान्त्वयन्नाह किरीटमाली ॥
१५॥
माता--माता; शिशूनाम्--अबोध; निधनम्--ह त्या; सुतानाम्--पुत्रों की; निशम्य--सुनकर; घोरम्--नृंशसतापूर्वक;परितप्यमाना--शोक करती; तदा--उस समय; अरुदतू--रोने लगी; वाष्प-कल-आकुल-अक्षी--आँखों में आँसू केसाथ; ताम्--उसको; सान्त्वयन्-- धीरज बँधाते हुए; आह--कहा; किरीटमाली--अर्जुन ने ।
पाण्डवों के पाँचों पुत्रों की माता, द्रौपदी, अपने पुत्रों का वध सुनकर, आँसुओं से भरीआँखों के साथ, शोक से विलाप करने लगी।
इस घोर क्षति में उसे ढाढस बँधाते हुए अर्जुनउससे इस प्रकार बोले।
"
तदा शुचस्ते प्रमृजामि भद्रेयद्गह्मयबन्धो: शिर आततायिन: ।
गाण्डीवमुक्तैर्विशिखैरुपाहरेत्वाक्रम्य यत्स्नास्यसि दग्धपुत्रा ॥
१६॥
तदा--उस समय; शुचः --शोक के आँसू; ते--तुम्हारे; प्रमूजामि--पोंछ दूँगा; भद्वे--हे भद्ग स्त्री; यत्--जब; ब्रह्म-बन्धो:--पतित ब्राह्मण का; शिर:--सिर; आततायिन:--आततायी का; गाण्डीव-मुक्तै:--गांडीव नामक धनुष से छोड़ेगये; विशिखैः--बाणों से; उपाहरे--तुम्हें भेंट करूँगा; त्वा--तुम स्वयं; आक्रम्य--उस पर चढ़ कर; यत्--जो;स्नास्यसि--स्नान करोगी; दग्ध-पुत्रा--पुत्रों को दाह देने के बाद
हे देवी, जब मैं अपने गाण्डीव धनुष से छोड़े गये तीरों से उस ब्राह्मण का सिर काट केतुम्हें भेंट करूंगा, तभी मैं तुम्हारी आँखों से आँसू पोछूँगा और तुम्हें सान्त्वना प्रदान करूँगा।
तब तुम अपने पुत्रों के शरीरों का दाह करने के बाद उसके सिर पर खड़ी होकर स्नानकरना।
"
इति प्रियां वल्गुविचित्रजल्पै:स सान्त्वयित्वाच्युतमित्रसूत: ।
अन्वाद्रवद्वंशित उग्रधन्वाकपिध्वजो गुरुपुत्र रथेन ॥
१७॥
इति--इस तरह; प्रियाम्-प्रियतमा को; वल्गु--मीठे; विचित्र--तरह-तरह के; जल्पै:--कथनों द्वारा; सः--वह;सान्त्वयित्वा--सान्त्वना देकर, प्रसन्न करके; अच्युत-मित्र-सूतः--अर्जुन ने, जिसका मार्गदर्शन अच्युत भगवान् मित्र तथासारथी के रूप में करते हैं; अन्वाद्रवत्--पीछा किया; दंशित:--कवच द्वारा सुरक्षित; उग्र-धन्वा-- भयानक अस्त्रों सेसज्जित; कपि-ध्वज:--अर्जुन; गुरु-पुत्रमू--अपने गुरु के पुत्र को; रथेन--रथ पर आरूढ़ होकर।
इस प्रकार, मित्र तथा सारथी के रूप में अच्युत भगवान् द्वारा मार्गदर्शित किए जानेवाले अर्जुन ने अपनी प्रियतमा को ऐसे कथमनों से तुष्ट किया।
तब उसने अपना कवच धारणकिया और भयानक अस्त्र-शस्त्रों से लैस होकर, वह अपने रथ पर चढ़ कर अपने गुरुपुत्रअश्वत्थामा का पीछा करने के लिए निकल पड़ा।
"
तमापतन्तं स विलक्ष्य दूरात्कुमारहो द्विग्ममना रथेन ।
पराद्रवत्प्राणपरीप्सुरु्व्यायावद्गमं रुद्रभयाद्यथा क: ॥
१८॥
तम्--उसको; आपतन्तम्-क्रोध से आते हुए; सः--उसने; विलक्ष्य--देखकर; दूरात्-दूर से ही; कुमार-हा --राजकुमारों का हत्यारा; उद्विग्न-मना:--मन में विचलित; रथेन--रथ पर; पराद्रवत्-- भाग चला; प्राण--प्राण की;परीप्सु:--रक्षा करने के लिए; उर्व्यामू--तेज गति से; यावत्-गमम्--ज्योंही वह भागा; रुद्र-भयात्--शिव के भय से;यथा--जिस प्रकार; कः--ब्रह्मा या अर्कः।
राजकुमारों का हत्यारा, अश्वत्थामा, अर्जुन को दूर से ही अपनी ओर तेजी से आते हुएदेखकर अपने रथ पर सवार होकर डर के मारे अपनी जान बचाने के लिए उसी तरह भागनिकला, जिस प्रकार शिवजी के भय से ब्रह्माजी भागे थे।
"
यदाशरणमात्मानमैक्षत श्रान्तवाजिनम् ।
अख्ं ब्रह्मशिरो मेने आत्मत्राणं द्विजात्मज: ॥
१९॥
यदा--जब; अशरणम्--जिसके कोई आश्रय न हो; आत्मानमू--अपने को; ऐक्षत--देखा; श्रान्त-वाजिनम्--थके हुएघोड़े; अस्त्रमू--हथियार; ब्रह्म-शिर:--सर्वोच्च या परम ( आणविक ) ; मेने--प्रयुक्त किया; आत्म-त्राणम्-- अपनीरक्षा के लिए; द्विज-आत्म-ज:--ब्राह्ाण के पुत्र ने ।
जब ब्राह्मण के पुत्र ( अश्वत्थामा ) ने देखा कि उसके घोड़े थक गये हैं तो उसने सोचाकि अब उसके पास अनन्तिम अम्त्र ब्रह्मासत्र ८ आणविक हथियार ) का प्रयोग करने केअतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं रह गया।
"
अथोपस्पृश्य सलिलं सन्दधे तत्समाहित: ।
अजानन्नपि संहारं प्राणकृच्छु उपस्थिते ॥
२०॥
अथ--इस प्रकार; उपस्पृश्य--पवित्रता के लिए स्पर्श: सलिलम्--जल; सन्दधे--मंत्र पढ़ा; तत्--वह; समाहित:--ध्यान में मगन; अजानन्--बिना जाने; अपि--यद्यपि; संहारम्--वापसी; प्राण-कृच्छे--प्राण संकट; उपस्थिते--होनेपर
चूँकि उसके प्राण संकट में थे, अतएवं उसने अपने को पवित्र करने के लिए जल कास्पर्श किया और ब्रह्मासत्र चलाने के लिए मन्त्रोच्चार में अपना ध्यान एकाग्र किया, यद्यपिउसे इस अस्त्र को वापस लाने की विधि ज्ञात न थी।
ततः प्रादुष्कृतं तेज: प्रचण्डं सर्वतोदिशम् ।
प्राणापदमभिप्रेक्ष्य विष्णुं जिष्णुछुवाच ह ॥
२१॥
ततः--तत्पश्चात्; प्रादुष्कृतम्-प्रसारित किया गया; तेज:--चमक; प्रचण्डम्-- भयानक; सर्वतः--चारों ओर; दिशम्--दिशाएँ; प्राण-आपदम्--जीवन को प्रभावित करते हुए; अभिप्रेक्ष्य--देखकर; विष्णुम्--भगवान् से; जिष्णु:--अर्जुनने; उबाच ह--कहा
तत्पश्चात् समस्त दिशाओं में प्रचण्ड प्रकाश फैल गया।
यह इतना उग्र था कि अर्जुनको अपने प्राण संकट में जान पड़े, अतएवं उसने भगवान् श्रीकृष्ण को सम्बोधित करनाप्रारम्भ किया।
"
अर्जुन उवाचकृष्ण कृष्ण महाबाहों भक्तानामभयड्डूर ।
त्वमेको दह्यमानानामपवर्गोडसि संसृते: ॥
२२॥
अर्जुन: उबाच--अर्जुन ने कहा; कृष्ण--हे भगवान् कृष्ण; कृष्ण--हे भगवान् कृष्ण; महा-बाहो--सर्वशक्तिमान;भक्तानाम्-भक्तों के; अभयड्भूर-- भय को भगाने वाले; त्वमू--आप; एक:--एकमात्र; दह्ममानानाम्--कष्ट उठानेबालों के; अपवर्ग:--मोक्ष पथ; असि--हो; संसृतेः--भौतिक कष्टों के बीच में |
अर्जुन ने कहा : हे भगवान् श्रीकृष्ण, आप सर्वशक्तिमान परमेश्वर हैं।
आपकी विविधशक्तियों की कोई सीमा नहीं है।
अतएव एकमात्र आप ही अपने भक्तों के हृदयों में अभय उत्पन्न करने में समर्थ हैं।
भौतिक कष्टों की ज्वालाओं में फँसे सारे लोग केवल आपमें हीमोक्ष का मार्ग पा सकते हैं।
"
त्वमाद्य: पुरुष: साक्षादी श्वर: प्रकृते: पर: ।
मायां व्युदस्य चिच्छक्त्या कैवल्ये स्थित आत्मनि ॥
२३॥
त्वम् आद्यः--आप आदि; पुरुष:--भोक्ता पुरुष हैं; साक्षात्- प्रत्यक्ष; ई श्वर:--नियन्ता; प्रकृतेः-- भौतिक प्रकृति के;परः--दिव्य; मायाम्-- भौतिक शक्ति को; व्युदस्य--दूर भगा कर; चित्-शकक््त्या--अन्तरंगा शक्ति के बल से;कैवल्ये--शुद्ध शाश्वत ज्ञान तथा आनन्द में; स्थित:--स्थित; आत्मनि--अपने।
आप आदि भगवान् हैं जिनका समस्त सृष्टियों में विस्तार है और आप भौतिक शक्ति सेपरे हैं।
आपने अपनी आध्यात्मिक शक्ति से भौतिक शक्ति के सारे प्रभावों को दूर भगादिया है।
आप निरन्तर शाश्रत आनन्द तथा दिव्य ज्ञान में स्थित रहते हैं।
और, यद्यपि आप भौतिक शक्ति (माया) के कार्यक्षेत्र से परे हैं, फिर भी आपबद्धजीवों के परम कल्याण के लिए धर्म इत्यादि से के चारों सिद्धान्तों का पालन करते हैं।
"
स एवं जीवलोकस्य मायामोहितचेतस: ।
विधत्से स्वेन वीर्येण श्रेयो धर्मादिलक्षणम् ॥
२४॥
सः--वह दिव्यता; एब--निश्चय ही; जीव-लोकस्य--बद्धजीवों का; माया-मोहित--माया द्वारा मोहित; चेतस:--हृदय से; विधत्से --सम्पन्न करते हैं; स्वेन-- अपने; वीर्येण-- प्रभाव से; श्रेय:--परम कल्याण; धर्म-आदि--मोक्ष के चार सिद्धान्त; लक्षणम्--लक्षण |
और, यद्यपि आप भौतिक शक्ति (माया ) के कार्यक्षेत्र से परे हैं, फिर भी आप बद्धजीवों के परम कल्याण के लिए धर्म इत्यादि से के चारों सिद्धान्तों का पालन करते हैं।
"
तथायं चावतारस्ते भुवो भारजिहीर्षया ।
स्वानां चानन्यभावानामनुध्यानाय चासकृत् ॥
२५॥
तथा--इस प्रकार; अयम्--यह; च--तथा; अवतार: --अवतार; ते--आपका; भुवः--भौतिक जगत का; भार--बोझ;जिहीर्षया--दूर करने के लिए; स्वानाम्-मित्रों का; च अनन्य-भावानाम्--तथा अनन्य भक्तों का; अनुध्यानाय--बारम्बार स्मरण करने के लिए; च--तथा; असकृत्-पूर्ण रूप से प्रसन्न ।
इस प्रकार आप संसार का भार हटाने तथा अपने मित्रों तथा विशेषकर आपके ध्यान मेंलीन रहने वाले आपके अनन्य भक्तों को लाभ पहुँचाने के लिए अवतरित होते हैं।
"
किमिदं स्वित्कुतो वेति देवदेव न वेद्म्यहम् ।
सर्वतोमुखमायाति तेज: परमदारुणम् ॥
२६॥
किमू--क्या है; इदम्--यह; स्वित्--आता है; कुत:--कहाँ से; वा इति--चाहे जो हो; देव-देव--हे देवों के देव; न--नहीं; वेद्ि--जानता हूँ; अहम्--मैं; सर्वतः--चारों ओर; मुखम्--दिशाएँ; आयाति--आता है; तेज:--तेज; परम--अत्यधिक; दारुणम्--घातक ।
हे देवाधिदेव, चारों ओर फैलने वाला यह घातक तेज कैसा है? यह कहाँ से आ रहाहै? मैं इसे समझ नहीं पा रहा हूँ।
"
श्रीभगवानुवाचवेत्थेदं द्रोणपुत्रस्य ब्राह्ममसत्र प्रदर्शितम् ।
नैवासौ वेद संहारं प्राणबाध उपस्थिते ॥
२७॥
श्री-भगवान्--पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ने; उबाच--कहा; वेत्थ--मुझसे जानो; इृदम्--यह; द्रोण-पुत्रस्थ--द्रोण पुत्रका; ब्राह्मम् अस्त्रमू-ब्राह्म ( आणवबिक ) अस्त्र का मंत्र; प्रदर्शितम्-प्रदर्शित; न--नहीं; एब--भी; असौ--वह; वेद --यह जानो; संहारम्--लौटाना; प्राण-बाधे--जीवन का विलोप; उपस्थिते--उपस्थित होने पर।
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ने कहा : तुम मुझ से यह जान लो कि यह द्रोण के पुत्र काकार्य है।
उसने आणविक शक्ति के मंत्र ( ब्रह्मास्त्र ) का प्रहार किया है और वह यह नहींजानता कि उसकी चौंधको कैसे लौटाया जाय।
उसने निरुपाय होकर आसन्न मृत्यु के भयसे ऐसा किया है।
"
न हास्यान्यतमं किद्चिदसत्र॑ प्रत्यवकर्शनम् ।
जह्मसत्रतेज उन्नद्धमसत्रज्ञो दस्नतेजसा ॥
२८॥
न--नहीं; हि--निश्चय ही; अस्य--इसका; अन्यतमम्--अन्य; किश्ञित्--कुछ भी; अस्त्रमू--हथियार; प्रति--विपरीत;अवकर्शनमू्-- प्रतिक्रिया करने वाला; जहि--शमन करो; अस्त्र-तेज:--इस हथियार का तेज; उन्नद्धम्--अत्यन्तशक्तिशाली; अस्त्र-ज्ः--सैन्य विज्ञान में पठु; हि--निश्चय रूप से; अस्त्र-तेजसा--तुम्हारे हथियार के प्रभाव से
हे अर्जुन, केवल दूसरा ब्रह्मास्त्र ही इस अस्त्र को निरस्त कर सकता है।
चूँकि तुम सैन्यविज्ञान में अत्यन्त पटु हो, अतएवं अपने अस्त्र की शक्ति से इस अस्त्र के तेज का शमनकरो।
"
सूत उवाचश्रुत्वा भगवता प्रोक्ते फाल्गुन: परवीरहा ।
स्पष्टापस्तं परिक्रम्य ब्राह्मं ब्राह्मार्नं सन््दधे ॥
२९॥
सूतः--सूत गोस्वामी ने; उबाच--कहा; श्रुत्वा--सुनकर; भगवता-- भगवान् द्वारा; प्रोक्तम्--जो कहा गया; फाल्गुन:--अर्जुन का अन्य नाम; पर-वीर-हा--विपक्षी योद्धा का वध करने वाला; स्पृष्ठा--स्पर्श करके; आप: --जल; तम्--उसको; परिक्रम्य--परिक्रमा लगा कर; ब्राह्मम्--परम ब्रह्म को; ब्राह्म-अस्त्रमू--परम अस्त्र को; सन्दधे--छोड़ा
श्री सूत गोस्वामी ने कहा : भगवान् से यह सुनकर अर्जुन ने शुद्धि के लिए जल कास्पर्श किया और भगवान् श्रीकृष्ण की परिक्रमा करके, उस अस्त्र को प्रशमित करने केलिए उसने अपना ब्रह्मास्त्र छोड़ा।
"
संहत्यान्योन्यमुभयोस्तेजसी शरसंवृते ।
आवृत्य रोदसी खं च ववृधातेडर्कवहिवत् ॥
३०॥
संहत्य--संयोग से; अन्योन्यम्--परस्पर; उभयो:--दोनों के; तेजसी--तेज; शर--हथियार; संवृते--घेरते हुए;आवृत्य--आच्छादित करके; रोदसी--पूरा आकाश; खम् च--बाह्म अन्तरिक्ष भी; बवृधाते--बढ़ते हुए; अर्क--सूर्य कागोला; वह्ि-वत्--अग्नि के समान
जब दोनों ब्रह्मासत्रों की किरणें मिल गईं, तो सूर्य के गोले के समान अग्नि के एकबृहत तक ने समस्त बाह्य अन्तरिक्ष तथा लोकों के सम्पूर्ण गगनमण्डल को आवृत्त करलिया।
"
इष्टासत्रतेजस्तु तयोस्त्रील्लोकान् प्रदहन्महत् ।
दह्ममाना: प्रजा: सर्वा: सांवर्तकममंसत ॥
३१॥
इष्ठा--इस प्रकार देख कर; अस्त्र--हथियार; तेज: --उष्मा; तु--लेकिन; तयो:--दोनों की; त्रीन्--तीनों; लोकान्--लोकों को; प्रदहत्--ज्वलंत; महत्--बुरी तरह; दह्ममाना:--जलाते हुए; प्रजा:--जनता; सर्वा: --सर्वत्र; सांवर्तकम्--वह अग्नि जो ब्रह्माण्ड के प्रलय के समय विध्वंस करती है; अमंसत--सोचने लगा।
उन अस्त्रों की सम्मिलित अग्नि से तीनों लोकों के सारे लोग जल-भुन गये।
सभी लोगोंको उस सांवर्तक अग्नि का स्मरण हो आया, जो प्रलय के समय लगती है।
"
प्रजोपद्रवमालक्ष्य लोकव्यतिकरं च तम् ।
मतं च वासुदेवस्य सञ्हारार्जुनो द्वयम् ॥
३२॥
प्रजा--सामान्य जन; उपद्रवम्--अव्यवस्था; आलक्ष्य--देखकर; लोक-- ग्रहों का; व्यतिकरम्--विनाश; च-- भी;तम्--उसको; मतम् च--तथा मत को; वासुदेवस्थ--वासुदेव या श्रीकृष्ण का; सझ्लहार--शमन किया, निवारण किया;अर्जुन:--अर्जुन ने; द्यम्--दोनों अस्त्रों का।
इस प्रकार जन सामान्य में फैली हड़बड़ी एवं ग्रहों के आसन्न विनाश को देखकर,अर्जुन ने भगवान् श्रीकृष्ण की इच्छानुसार तुरन्त ही दोनों अस्त्रों का निवारण कर दिया।
"
तत आसाद्य तरसा दारुणं गौतमीसुतम् ।
बबन्धामर्षताम्राक्ष: पशुं रशनया यथा ॥
३३॥
ततः--तत्पश्चात्; आसाद्य--बन्दी बनाकर; तरसा--कौशल से; दारुणम्--खतरनाक; गौतमी-सुतम्--गौतमी पुत्र को;बबन्ध--बाँध लिया; अमर्ष--क्रुद्ध; ताम्र-अक्ष:--लाल-लाल आँखें; पशुम्--पशु को; रशनया--रस्सियों से; यथा--जिस प्रकार
ताँबे के दो लाल तप्त गोलों के समान क्रोध से प्रज्वलित आँखें किये, अर्जुन ने अत्यन्तदक्षतापूर्वक से गौतमी के पुत्र को बन्दी बना लिया और उसे रस्सियों से पशु की तरह बाँधलिया।
"
शिबिराय निनीषणन्तं रज्या बद्ध्वा रिपुं बलातू ।
प्राहार्जुन॑ प्रकृपितो भगवानम्बुजेक्षण: ॥
३४॥
शिबिराय--सेना के पड़ाव में; निनीषन्तम्--लाते हुए; रज्वा--रस्सियों से; बद्ध्वा--बँधा हुआ; रिपुम्-शत्रु को;बलातू--बलपूर्वक; प्राह--कहा; अर्जुनम्--अर्जुन से; प्रकुपित:--क्रुद्ध; भगवान्-- भगवान् ने; अम्बुज-ईक्षण: --अपने कमल सहश नेत्रों से देखने वाले ।
अश्वत्थामा को बाँध लेने के बाद, अर्जुन उसे सेना के पड़ाव की ओर ले जाना चाह रहाथा कि अपने कमलनेत्रों से देखते हुए भगवान् श्रीकृष्ण ने क्रुद्ध अर्जुन से इस प्रकार कहा।
"
मैन पार्थर्हिसि त्रातुं ब्रह्मबन्धुमिमं जहि ।
योसावनागस: सुप्तानवधीज्रिशि बालकान् ॥
३५॥
मा एनम्--उसके प्रति कभी नहीं; पार्थ--हे अर्जुन; अरहसि--तुम्हें चाहिए; त्रातुमू--मुक्त करना; ब्रह्म-बन्धुम्--ब्राह्मणके सम्बन्धी को; इमम्--इस; जहि--मार डालो; यः--जो; असौ--उन; अनागस:--दोषरहित; सुप्तान्--सोये हुए;अवधीतू--हत्या की; निशि--रात्रि में; बालकान्--बालकों की ।
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा: हे अर्जुन, इस ब्रह्म-बन्धु को छोड़कर तुम दया मतदिखलाओ, क्योंकि इसने सोते हुए निर्दोष बालकों का वध किया है।
"
मत्तं प्रमत्तमुन्मत्तं सुप्तं बाल॑ स्त्रियं जडम् ।
प्रपन्न॑ विरथं भीतं न रिपुं हन्ति धर्मवित् ॥
३६॥
मत्तम्--लापरवाह को; प्रमत्तमू-नशे में रहने वाले को; उन्मत्तमू--पागल को; सुप्तम्--सोए हुए को; बालमू--बालकको; स्त्रियमू--स्त्री को; जडम्--मूर्ख को; प्रपन्नम्--शरणागत को; विरथम्--रथविहीन को; भीतम्--भयभीत को;न--नहीं; रिपुम्--शत्रु को; हन्ति--मारते हैं; धर्म-वित्-- धार्मिक नियमों का ज्ञाता
जो मनुष्य धर्म के सिद्धन्तों को जानता है, वह ऐसे शत्रु का वध नहीं करता जोअसावधान, नहे में उन्मत्त, पागल, सोया हुआ, डरा हुआ या रथविहीन हो।
न ही वह किसीबालक, स्त्री, मूर्ख प्राणी अथवा शरणागत जीव का वध करता है।
"
स्वप्राणान् यः परप्राणै: प्रपुष्णात्यघूण: खल: ।
तद्ठधस्तस्य हि श्रेयो यद्दोषाद्यात्यध: पुमान् ॥
३७॥
स्व-प्राणान्--अपना जीवन; य:--जो; पर-प्राणैः --दूसरों के जीवन के मूल्य पर; प्रपुष्णाति--ठीक से पलता है;अघृण:--निर्लज; खलः--दुष्ट; तत्-वध:--उसको मारना; तस्य--उसका; हि--निश्चय ही; श्रेय: -- श्रेयस्कर; यत्--जिस; दोषात्--दोष से; याति--जाता है; अध:--नीच की ओर; पुमान्--मनुष्य |
ऐसा क्रूर तथा दुष्ट व्यक्ति जो दूसरों के प्राणों की बलि पर पलता है, उसका वध कियाजाना उसके लिए ही हितकर है, अन्यथा अपने ही कर्मों से उसकी अधोगति होती है।
"
प्रतिश्रुते च भवता पाञ्ञाल्यै श्रुण्वतो मम ।
आहरिष्ये शिरस्तस्य यस्ते मानिनि पुत्रहा ॥
३८॥
प्रतिश्रुतम्--वचन दिया गया; च--तथा; भवता--तुम्हारे द्वारा; पाज्जाल्यै--राजा पांचाल की पुत्री ( द्रौपदी ) को;श्रुण्वत:--सुना गया; मम--मेरे द्वारा; आहरिष्ये--मैं अवश्य लाऊँगा; शिर:--सिर; तस्थ--उसका; यः--जिसने; ते--तुम्हारे; मानिनि--मानते हो; पुत्र-हा--पुत्रों का वधकर्ता ।
इसके अतिरिक्त, मैंने स्वयं तुम्हें द्रौपदी से यह प्रतिज्ञा करते सुना है कि तुम उसके पुत्रोंके वधकर्ता का सिर लाकर उपस्थित करोगे।
"
तदसौ वध्यतां पाप आतताय्यात्मबन्धुहा ।
भर्तुश्च विप्रियं वीर कृतवान् कुलपांसन: ॥
३९॥
तत्--अत:; असौ--यह आदमी; वध्यताम्--मारा जाएगा; पाप: --पापी; आततायी--हमला करने वाला; आत्म--अपने; बन्धु-हा--पुत्रों को मारने वाला; भर्तु:--स्वामी का; च--भी; विप्रियम्--संतुष्ट न करके; वीर--हे योद्धा;कृतवान्--करने वाला; कुल-पांसन:--कुल की राख |
यह आदमी तुम्हारे ही कुल के सदस्यों का हत्यारा तथा वधकर्ता ( आततायी ) है।
यहीनहीं, उसने अपने स्वामी को भी असंतुष्ट किया है।
वह अपने कुल की राख ( कुलांगार ) है।
तुम तत्काल इसका वध कर दो।
"
सूत उवाचएवं परीक्षता धर्म पार्थ: कृष्णेन चोदित: ।
नैच्छद्धन्तुं गुरुसुतं यद्यप्यात्महनं महान् ॥
४०॥
सूतः--सूत गोस्वामी ने; उवाच--कहा; एवम्--यह; परीक्षता--परीक्षा लेते हुए; धर्मम्--कर्तव्य के मामले में; पार्थ: --श्री अर्जुन; कृष्णेन-- भगवान् कृष्ण द्वारा; चोदित:--प्रोत्साहित किये जाने पर; न ऐच्छत्--नहीं चाहा; हन्तुम्--मारना;गुरु-सुतम्--अपने गुरु के पुत्र को; यद्यपि--यद्यपि; आत्म-हनम्--पुत्रों का वधकर्ता; महान्--बहुत बड़ा।
सूत गोस्वामी ने कहा : यद्यपि धर्म में अर्जुन की परीक्षा लेते हुए कृष्ण ने उसेद्रोणाचार्य के पुत्र का वध करने के लिए प्रोत्साहित किया, लेकिन महात्मा अर्जुन को यहविचार नहीं भाया, यद्यपि अश्वत्थामा अर्जुन के ही कुटुम्बियों का नृशंस हत्यारा था।
"
अथोपेत्य स्वशिबिरं गोविन्दप्रियसारथि: ।
न्यवेदयत्तं प्रियायै शोचन्त्या आत्मजान् हतान् ॥
४१॥
अथ--त्पश्चात्; उपेत्य--पहुँचकर; स्व-- अपने; शिबिरम्--शिविर में; गोविन्द--इन्द्रियों को गतिशील करने वाले( भगवान् श्रीकृष्ण ); प्रिय--प्यारा; सारथि:--रथ चालक; न्यवेदयत्-- प्रदान किया; तम्--उसको ;; प्रियायै--प्रियतमाको; शोचन्त्यै--विलाप करती; आत्म-जानू--अपने पुत्रों के लिए; हतान्--वध किये गये।
अपने प्रिय मित्र तथा सारथी ( श्रीकृष्ण ) सहित अपने शिविर में पहुँचकर अर्जुन ने उसहत्यारे को अपनी प्रिय पत्ती को सौंप दिया, जो मारे गये अपने पुत्रों के लिए विलाप कररही थी।
"
तथाहतं पशुवत् पाशबद्ध-मवाड्मुखं कर्मजुगुप्सितेन ।
निरीक्ष्य कृष्णापकृत॑ गुरो: सुतंवामस्वभावा कृपया ननाम च ॥
४२॥
तथा--इस प्रकार; आहतम्--लाया गया; पशु-वत्--पशु के समान; पाश-बद्धम्--रस्सियों से बँधा; अवाक्-मुखम्--मुँह से एक भी शब्द निकले बिना; कर्म--कार्य; जुगुप्सितेन--घृणित होने के कारण; निरीक्ष्य--देखकर; कृष्णा--द्रौपदी; अपकृतम्--अधर्म कार्य करने वाला; गुरोः--गुरु के; सुतम्-पुत्र को; वाम--सुन्दर; स्वभावा--स्वभाव वाली;कृपया--दयावश; ननाम--प्रणाम किया; च--तथा
श्री सूत गोस्वामी ने कहा : तब द्रौपदी ने अश्वत्थामा को देखा, जो पशु की भाँतिरस्सियों से बँधा था और अत्यन्त घृणित हत्या का कृत्य करने के कारण चुप था।
अपने स्त्री स्वभाववश तथा स्वभाव से उत्तम एवं भद्र होने के कारण, उसने ब्राह्मण रूप में उसके प्रतिसम्मान व्यक्त किया।
"
उवाच चासहतन्त्यस्य बन्धनानयनं सती ।
मुच्यतां मुच्यतामेष ब्राह्मणो नितरां गुरु: ॥
४३॥
उवाच--कहा; च--तथा; असहन्ती--उसके लिए असह्य होने के कारण; अस्य--उसका; बन्धन--बाँधा जाना;आनयनमू्--उसका लाया जाना; सती--परायणा, भक्त; मुच्यताम् मुच्यताम्--इसे छोड़ दो; एष:--यह; ब्राह्मण: --ब्राह्मण; नितराम्--हमारा; गुरु:--गुरु
वह अश्वत्थामा का इस प्रकार रस्सियों से बाँधा जाना सह न सकी और भगवद्परायणस्त्री होने के कारण उसने कहा 'इसे छोड़ दो, क्योंकि यह ब्राह्मण है, हमारा गुरु है।
'" सरहस्यो धनुर्वेद: सविसर्गोपसंयम: ।
अख्रामश्च भवता शिक्षितो यदनुग्रहात् ॥
४४॥
स-रहस्यः--गोपनीय; धनु:-वेद:--धनुष-बाण चलाने की विद्या; स-विसर्ग--छोड़ते हुए; उपसंयम: --वश में करतेहुए; अस्त्र--हथियार; ग्राम:--सभी प्रकार के; च--तथा; भवता--अपने से; शिक्षित:--विद्वान; यत्--जिसकी;अनुग्रहात्-कृपा से।
यह द्रोणाचार्य की कृपा थी कि आपने धनुष बाण चलाने की विद्या तथा अस्त्रों कोवश में करने की गुप्त कला सीखी।
"
स एष भगवान्द्रोण: प्रजारूपेण वर्तते ।
तस्यात्मनो<र्ध पत्न्यास्ते नान्वगाद्वीरसू: कृपी ॥
४५॥
सः--वह; एष:--निश्चय ही; भगवानू--स्वामी; द्रोण:--द्रोणाचार्य ; प्रजा-रूपेण-- अपने पुत्र अश्वत्थामा के रूप में;वर्तते--उपस्थित हैं; तस्थ--उनके ; आत्मन: --शरीर का; अर्धम्--आधा; पत्ती--पत्नी; आस्ते--जीवित है; न--नहीं;अन्वगात्--अनुगमन किया; वीरसू:--पुत्र वाली, पुत्रवती; कृपी--कृपाचार्य की बहन।
अपने पुत्र द्वारा प्रतिनिधित्व किये जाने के कारण वे ( द्रोणाचार्य ) अब भी निश्चित रूपसे विद्यमान हैं।
उनकी पत्नी कृपी सती नहीं हुईं, क्योंकि बे पुत्रवती थीं।
"
तद् धर्मज्ञ महाभाग भवद्धिगौंरवं कुलम् ।
वृजिन नाहति प्राप्तु पूज्यं वन्द्यमभीक्ष्णश: ॥
४६॥
तत्--अतएव; धर्म-ज्ञ--धर्म का ज्ञाता; महा-भाग--अत्यन्त भाग्यशाली; भवद्ध्धिः--आपके द्वारा; गौरवम्--गौरवान्वित; कुलम्--कुल; वृजिनमू--पीड़ादायक; न--नहीं; अ्हति--योग्य है; प्राप्तुमु--पाने के लिए; पूज्यम्--पूज्य;वन्द्यम्--वन्दनीय; अभीक्ष्णश: --निरन्तर ।
हे धर्म के ज्ञाता परम भाग्यशाली, यह आपको शोभा नहीं देता कि आप सदा से पूज्यतथा वन्दनीय, गौरवशाली परिवार के सदस्यों के शोक का कारण बनें।
"
मा रोदीदस्य जननी गौतमी पतिदेवता ।
यथाहं मृतवत्सार्ता रोदिम्यश्रुमुखी मुहु: ॥
४७॥
मा--नहीं; रोदीत्--रोए; अस्य--इसकी; जननी --माता; गौतमी--द्रोण-पत्नी; पति-देवता--पतिकव्रता; यथा--जैसाकि; अहम्--ैं; मृत-वत्सा--जिसका पुत्र मर चुका है; आर्ता--दुखी; रोदिमि--रोती हुई; अश्रु-मुखी--आँखों में अश्रुभरे; मुहुः--निरन्तर ।
हे स्वामी, द्रोणाचार्य की पत्नी को मेरे समान मत रुलाओ।
मैं अपने पुत्रों की मृत्यु केलिए संतप्त हूँ।
कहीं उसे भी मेरे समान निरन्तर रोना न पड़े।
"
ये: कोपितं ब्रह्मकुलं राजन्यैरजितात्मभि: ।
तत् कुल प्रदहत्याशु सानुबन्धं शुचार्पितम् ॥
४८ ॥
यैः--जिनके द्वारा; कोपितम्-क्रुद्ध; ब्रह्म-कुलम्--ब्राह्मणों का कुल; राजन्यै:--राजा कुल से; अजित--निरंकुश;आत्मभि:--अपने से; तत्--उस; कुलम्--कुल को; प्रदहति--जला देती है; आशु--तुरन्त; स-अनुबन्धम्--कुटुम्बियोंसमेत; शुचा-अर्पितम्-कष्ट पाने पर ।
यदि इन्द्रियतृष्ति में निरकुंश बनकर राजकुल ब्राह्मण कुल को अपमानित और कुपितकरता है, तो वह क्रोध की अग्नि समस्त राजकुल को जला देती है और सबों को दुख देतीहै।
"
सूत उवाचधर्म्य न्याय्यं सकरुणं निर्व्यलीक॑ सम॑ महत् ।
राजा धर्मसुतो राश्या: प्रत्यनन्दद्गचो द्विजा: ॥
४९॥
सूतः उबाच--सूत गोस्वामी ने कहा; धर्म्यम्-धर्म के नियमों के अनुसार; न्याय्यम्-न्याय; स-करुणम्-करुणा सेपूर्ण; निर्व्यलीकम्-- धर्म में द्वैत के बिना; समम्--समता; महत्--गौरवशाली; राजा--राजा; धर्म-सुत:--पुत्र; राज््या:--महारानी द्वारा; प्रत्यनन्दत्--अनुमोदित; वच:--कथन; द्विजा:--हे ब्राह्मणो ।
सूत गोस्वामी ने कहा : हे ब्राह्मणो, राजा युथ्चिष्ठिर ने रानी के बचनों का पूर्ण अनुमोदनकिया, क्योंकि वे धर्म के नियमों के अनुसार न््यायोचित, गौरवशाली, दया तथा समता सेपूर्ण एवं निष्कपट थे।
"
नकुल: सहदेवश्व युयुधानो धनञ्जय: ।
भगवान् देवकीपुत्रो ये चानये याश्र योषित: ॥
५० ॥
नकुलः--नकुल; सहदेव: --सहदेव; च--तथा; युयुधान:--सात्यकि; धनझ्जय: -- अर्जुन; भगवान्-- भगवान्; देवकी-पुत्रः--देवकी पुत्र, भगवान् श्रीकृष्ण; ये--जो; च--तथा; अन्ये-- अन्य; या:--वे; च--तथा; योषित: -स्त्रियाँ ।
नकुल तथा सहदेव ( राजा के छोटे भाई ) तथा सात्यकि, अर्जुन, देवकीपुत्र भगवान्श्रीकृष्ण तथा स्त्रियों एवं अन्यों ने एक स्वर से राजा से सहमति व्यक्त की।
"
तत्राहामर्षितो भीमस्तस्य श्रेयान् वध: स्मृतः ।
न भर्तुर्नत्मनश्चार्थ योहन् सुप्तान् शिशून् वृथा ॥
५१॥
तत्र--तत्पश्चात्; आह--कहा; अमर्षित: --क्रुद्ध स्वर में; भीम:-- भीम ने; तस्य--उसका; श्रेयान्--परम कल्याण;वध:--वध; स्मृत:-- अंकित; न--नहीं; भर्तु:--स्वामी का; न--न तो; आत्मन:--अपने आपका; च--तथा; अर्थे--केलिए; यः--जो; अहनू--मारा; सुप्तान्--सोते हुए; शिशून्--बालकों को; वृथा--व्यर्थ ही ।
लेकिन भीम जो क्रुद्ध मनोदशा में था, उनसे सहमत नहीं हुआ और उसने उस दोषी केवध किये जाने की संस्तुति की, जिसने व्यर्थ ही सोते हुए बालकों की हत्या कर दी थीजिसमें न तो उसका अपना, न ही उसके स्वामी का हित था।
"
निशम्य भीमगदित॑ द्रौपद्याश्व चतुर्भुजः ।
आलोक्य वदनं सख्युरिदमाह हसन्निव ॥
५२॥
निशम्य--सुनते ही; भीम--भीम द्वारा; गदितम्--कहा गया; द्रौपद्या:--द्रौपदी का; च--तथा; चतु:-भुजः --चारभुजाओं वाले ( भगवान् ) ने; आलोक्य--देखकर; वदनम्--मुख; सख्यु:--अपने मित्र का; इदम्--यह; आह--कहा;हसनू--हँसते हुए; इब--मानो |
भीम, द्रौपदी तथा अन्यों के वचन सुनकर, चतुर्भुज भगवान् ने अपने प्रिय सखा अर्जुनके मुँह की ओर देखा और मानो मुस्कुरा रहे हों, बोलना प्रारम्भ किया।
"
श्रीभगवानुवाचब्रह्मबन्धुर्न हन्तव्य आततायी वधाहण: ।
मयैवोभयमाम्नातं परिपाह्ननुशासनम् ॥
५३॥
कुरु प्रतिश्रुतं सत्यं यत्तत्सान्त्वयता प्रियाम् ।
प्रियं च भीमसेनस्य पाञ्जाल्या मह्ममेव च ॥
५४॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; ब्रह्म-बन्धु;--ब्राह्मण का सम्बन्धी; न--नहीं; हन्तव्य:--वध करने योग्य;आततायी--आततायी, आक्रामक; वध-अरईण:--वध करने योग्य है; मया--मेरे द्वारा; एब--निश्चय ही; उभयम्--दोनों; आम्नातमू--शास्त्र के आदेशानुसार; परिपाहि--पालन करो; अनुशासनम्-- आदेश; कुरु--पालन करो;प्रतिश्रुतम्--जैसाकि प्रतिज्ञा की गई है; सत्यम्--सत्य; यत् तत्--वह जो; सान्त्ववता--सान्त्वना देते हुए; प्रियाम्--प्रिय पत्नी को; प्रियम्--तुष्टि; च--तथा; भीमसेनस्थ-- श्रीभीमसेन की; पाञ्ञाल्या:--द्रौपदी की; महाम्--मेरी भी; एव--निश्चय ही; च--तथा।
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा : किसी ब्रह्मअन्धु का वध नहीं करना चाहिए, किन्तु यदि वहआततायी हो, तो उसे अवश्य मारना चाहिए।
ये सारे आदेश शाम्त्रों में हैं और तुम्हें इन्हीं केअनुसार कार्य करना चाहिए।
तुम्हें अपनी पत्नी को दिये गये वचन भी पूरे करने हैं और तुम्हेंभीमसेन तथा मेरी तुष्टि के लिए भी कार्य करना है।
"
सूत उवाचअर्जुन: सहसाज्ञाय हरेहर्दमथासिना ।
मर्णि जहार मूर्धन्यं ट्विजस्य सहमूर्धजम् ॥
५५ ॥
सूतः उबाच--सूत गोस्वामी ने कहा; अर्जुन:--अर्जुन ने; सहसा--ठीक उसी समय; आज्ञाय--जानते हुए; हरेः -- भगवान्के; हार्दमू--अभीष्ट; अथ--इस प्रकार; असिना--तलवार से; मणिम्--मणि को; जहार--विलग कर दिया; मूर्धन्यम्--सिर पर; द्विजस्य--द्विज के; सह--सहित; मूर्धजम्--बालों के ।
उसी समय अर्जुन भगवान् की अनेकाधिक आज्ञा का प्रयोजन समझ गया और इसतरह उसने अपनी तलवार से अश्वत्थामा के सिर से केश तथा मणि दोनों पृथक् कर दिये।
"
विमुच्य रशनाबद्धं बालहत्याहतप्रभम् ।
तेजसा मणिना हीन॑ शिबिरात्निरयापयत् ॥
५६॥
विमुच्य--उसे छोड़ देने पर; रशना-बद्धम्--रस्सियों के बन्धन से; बाल-हत्या--बालकों के वध से; हत-प्रभम्--शारीरिक कान्ति का क्षय; तेजसा--शक्ति से; मणिना--मणि से; हीनम्--रहित; शिवबिरात्--शिविर से; निरयापयत् --निकाल भगाया।
बालहत्या के कारण वह ( अश्वत्थामा ) पहले ही अपनी शारीरिक कान्ति खो चुका थाऔर अब, अपनी शीर्ष मणि खोकर, वह शक्ति से भी हीन हो गया।
इस प्रकार उसकीरस्सियाँ खोल कर उसे शिविर से बाहर भगा दिया गया।
"
वपन॑ द्रविणादान स्थानान्निर्यापणं तथा ।
एष हि ब्रह्मबन्धूनां वधो नान्योस्ति दैहिक: ॥
५७॥
वपनम्--सिर से बालों को मुँड़ा कर; द्रविण--धन; अदानम्--छीना गया; स्थानात्--घर से; निर्यापणम्-- भगाया गया;तथा-- भी; एष:--ये सब; हि--निश्चय ही; ब्रह्म-बन्धूनामू--ब्राह्मण के सम्बन्धियों का; वध:--वध, हत्या; न--नहीं;अन्य:--अन्य कोई विधि; अस्ति--है; दैहिक:--शरीर के विषय में ।
उसके सिर के बाल मूँड़ना, उसे संपदाहीन करना तथा उसे घर से भगा देना--ये हैं ब्रह्मबन्धु के लिए निश्चित दंड।
शारीरिक वध करने का कोई विधान नहीं है।
"
पुत्रशोकातुरा: सर्वे पाण्डवा: सह कृष्णया ।
स्वानां मृतानां यत्कृत्यं चक्कु्निर्हरणादिकम् ॥
५८॥
पुत्र-पुत्रों के; शोक--शोक से; आतुरा:--अभिभूत; सर्वे--वे सभी; पाण्डवा:--पाणएडु के पुत्र; सह--सहित;कृष्णया--द्रौपदी; स्वानामू--परिजनों के; मृतानामू--मृत; यत्--जो; कृत्यम्--करणीय; चक्कु:--सम्पन्न किया;निहरण-आदिकम्--जो कुछ किया जा सकता था।
तत्पश्चात् शोकाभिभूत पाण्डु-पुत्रों तथा द्रौपदी ने अपने स्वजनों के मृत शरीरों ( शवों )का समुचित दाह-संस्कार किया।
"
अध्याय आठ: रानी कुंती और परीक्षित की प्रार्थना से उद्धार हुआ
1.8सूत उवाचअथ ते सम्परेतानां स्वानामुदकमिच्छताम् ।
दातुं सकृष्णागज्जायां पुरस्कृत्य ययु: स्त्रिय: ॥
१॥
सूतः उबाच--सूत ने कहा; अथ--इस प्रकार; ते--पाण्डवजन; सम्परेतानाम्--मृतकों का; स्वानाम्--स्वजनों का;उदकम्--जल; इच्छताम्-पाने की इच्छा से; दातुमू-देने के लिए; स-कृष्णा:--द्रौपदी के सहित; गड्भायाम्-गंगा केतट पर; पुरस्कृत्य--आगे करके; ययुः--गईं; स्त्रियः--स्त्रियाँ ।
सूत गोस्वामी ने कहा : तत्पश्चात्, पाण्डवगण अपने मृत परिजनों की इच्छानुसार उन्हेंजल-दान देने हेतु द्रौपदी सहित गंगा के तट पर गये।
स्त्रियाँ आगे-आगे चल रही थीं।
"
ते निनीयोदक॑ सर्वे विलप्य च भृशं पुन: ।
आप्लुता हरिपादाब्जरज:पूतसरिज्जले ॥
२॥
ते--वे सब; निनीय--अर्पित करके; उदकम्--जल; सर्वे--सभी; विलप्य--विलाप करके; च--तथा; भूशम्--पर्याप्त;पुन:--फिर; आप्लुता: --स्नान किया; हरि-पादाब्जन-- भगवान् के चरणकमल की; रज: --धूलि से; पूत--पवित्र;सरित्--गंगा नदी के; जले--जल में ।
उनके लिए शोक कर चुकने तथा पर्याप्त गंगाजल अर्पित कर चुकने के बाद उन सबोंने गंगा में स्नान किया, जिसका जल भगवान् के चरणकमलों की धूलि मिल जाने केकारण पवित्र हो गया है।
"
तत्रासीनं कुरुपतिं धृतराष्ट्रं सहानुजम् ।
गान्धारीं पुत्रशोकार्ता पृथां कृष्णां च माधव: ॥
३॥
तत्र--वहाँ; आसीनम्--बैठे हुए; कुरु-पतिम्--कुरुओं के राजा; धृतराष्ट्रमू-- धृतराष्ट्र को; सह-अनुजम्--अपने भाइयोंसहित; गान्धारीम्--गांधारी को; पुत्र--बेटे के; शोक-अर्तामू--शोक से पीड़ित; पृथाम्--कुन्ती को; कृष्णाम्--द्रौपदीको; च--भी; माधव:--भगवान् श्रीकृष्ण ने ।
वहीं कुरुवंशियों के राजा महाराज युधिष्टिर अपने छोटे भाइयों, धृतराष्ट्र, गांधारी, कुन्तीतथा द्रौपदी सहित बैठ गये।
वे सभी शोक से अत्यधिक पीड़ित थे।
भगवान् कृष्ण भी वहाँ थे।
"
सान्त्वयामास मुनिभिर्वतबन्धूज्शुचार्पितान् ।
भूतेषु कालस्य गति दर्शयन्ञ प्रतिक्रियाम् ॥
४॥
सान्त्वयाम् आस--ढाढस बँधाया; मुनिभि:--वहाँ पर उपस्थित मुनियों समेत; हत-बन्धून्--जिनके मित्र तथा सम्बन्धीमारे गये थे; शुचार्पितान्--सभी को धक्का पहुँचा हुआ; भूतेषु--जीवों पर; कालस्थ--सर्वशक्तिमान के परम नियम की;गतिम्--प्रतिक्रिया; दर्शयन्--दिखलाया; न--नहीं; प्रतिक्रियामू--उपचार।
सर्वशक्तिमान के कठोर नियमों तथा जीवों पर उनकी प्रतिक्रियाओं का दृष्टान्त देते हुए,भगवान् श्रीकृष्ण तथा सारे मुनियों ने समस्त स्तब्ध एवं शोकार्त-जनों को ढाढ़स बँधाया।
"
साधयित्वाजातशत्रो: स्व॑ राज्यं कितवै्तम् ।
घातयित्वासतो राज्ञ: कचस्पर्शक्षतायुष: ॥
५॥
साधबित्वा--सम्पन्न करके; अजात-शत्रो:--जिसके कोई शत्रु न हो, उसका; स्वम् राज्यमू-- अपना राज्य; कितवै:--धूर्तों के द्वारा ( दुर्योधन तथा उसका दल ); हतम्--छीना गया; घातयित्वा--वध कराकर; असतः--दुष्ट; राज्ञ:--रानी के;कच--केशों का गुच्छा; स्पर्श--छूने से; क्षत--घटी हुईं; आयुष:--आयु द्वारा।
धूर्त दुर्योधन तथा उसके दल ने छल करके अजातशत्रु युधिष्ठिर का राज्य छीन लियाथा।
भगवत्कृपा से वह फिर प्राप्त हो गया और जिन दुष्ट राजाओं ने दुर्योधन का साथ दियाथा, वे सब भगवान् के द्वारा मार डाले गये।
अन्य लोग भी मारे गये, क्योंकि महारानीद्रौपदी के केशों को पकड़कर खींचने से उनकी आयु क्षीण हो चुकी थी।
"
याजयित्वाश्वमेथैस्तं त्रिभिरुत्तमकल्पकै: ।
तद्यश: पावन दिक्षु शतमन्योरिवातनोत् ॥
६॥
याजयित्वा--सम्पन्न करके; अश्वमेधैः --अश्वमेध यज्ञों के द्वारा, जिनमें घोड़े की बलि दी जाती है; तम्--उनको ( राजायुधिष्ठिर को ); त्रिभिः--तीन; उत्तम--सर्व श्रेष्ठ; कल्पकैः--समुचित सामग्रियों के द्वारा तथा योग्य पुरोहितों द्वारा सम्पन्न;तत्--वह; यश: --ख्याति; पावनम्--यशस्वी; दिक्षु--समस्त दिशाएँ; शत-मन्यो:--इन्द्र, जिसने ऐसे एक सौ यज्ञ कियेथे; इब--सहृश; अतनोत्--फैल गयी ।
भगवान् श्रीकृष्ण ने महाराज युधिष्ठिर से तीन श्रेष्ठ अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न कराये और इसतरह उनकी पवित्र ख्याति सौ यज्ञ करनेवाले इन्द्र की तरह ही सर्व दिशाओं में फैल गई।
"
आमन्त्र्य पाण्डुपुत्रांश्व शैनेयोद्धवरसंयुतः ।
द्वैपायनादिभिर्विप्रै: पूजितै: प्रतिपूजित: ॥
७॥
आमन्त्रय--विदाई लेकर; पाण्डु-पुत्रानू--पाण्डु के समस्त पुत्रों से; च-- भी; शैनेय--सात्यफि; उद्धव--उद्द्धव;संयुतः--समेत; द्वैवायन-आदिभि:--व्यासदेव जैसे ऋषियों के द्वारा; विप्रैः--ब्राह्मणों के द्वारा; पूजितैः--पूजित होकर;प्रतिपूजित:--भगवान् ने भी समान रूप से आदानप्रदान किया |
फिर भगवान् श्रीकृष्ण ने सात्यकि तथा उद्धव के साथ प्रस्थान के लिए तैयारी की।
उन्होंने श्रील व्यासदेव आदि ब्राह्मणों से पूजित होने के बाद पाण्डु-पुत्रों को आमन्त्रितकिया।
भगवान् ने सभी का समुचित अभिवादन किया।
"
गन्तुं कृतमतिर्त्रह्मन् द्वारकां रथमास्थित: ।
उपलेभेभिधावन्तीमुत्तरां भवविह्लाम् ॥
८॥
गन्तुमू--जाने के लिये इच्छुक; कृतमति:--संकल्प करके; ब्रह्मनू-हे ब्राह्मण; द्वारकाम्--द्वारका की ओर; रथम्-रथपर; आस्थित:--आरूढ़; उपलेभे--देखा; अभिधावन्तीम्--तेजी से आती हुई; उत्तराम्--उत्तरा को; भय-विहलाम्--भयभीत ।
ज्योंही वे द्वारका प्रस्थान् के लिये रथ पर सवार हुए, त्योंही उन्होंने भयभीत उत्तरा कोतेजी से उनकी ओर आते हुए देखा।
"
उत्तरोवाचपाहि पाहि महायोगिन् देवदेव जगत्पते ।
नान्यं त्वदभयं पश्ये यत्र मृत्यु: परस्परम् ॥
९॥
उत्तरा उबाच--उत्तरा ने कहा; पाहि पाहि--रक्षा करें, रक्षा करें; महा-योगिन्--सर्वोच्च योगी; देव-देव--पूज्यों के भीपूज्य; जगत्-पते--हे ब्रह्माण्ड के स्वामी; न--नहीं; अन्यम्-दूसरा; त्वत्--आपके अतिरिक्त; अभयम्-- भय से रहितहोने का भाव; पश्ये--देखती हूँ; यत्र--जहाँ; मृत्यु: --मृत्यु; परस्परम्--द्वैत जगत में ।
उत्तरा ने कहा : हे देवाधिदेव, हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, आप सबसे महान् योगी हैं।
कृपयामेरी रक्षा करें, क्योंकि इस द्वैतपूर्ण जगत में मुझे मृत्यु के पाश से बचानेवाला आपकेअतिरिक्त अन्य कोई नहीं है।
"
अभिद्रवति मामीश शरस्तप्तायसो विभो ।
काम दहतु मां नाथ मा मे गर्भो निपात्यतामू ॥
१०॥
अभिद्रवति--ओर आता हुआ; माम्--मेरी; ईश--हे प्रभु; शर:--बाण; तप्त--अग्नितुल्य; अयस:--लोह; विभो--हेमहान्; कामम्--इच्छा; दहतु--जला दे; माम्--मुझको; नाथ--हे रक्षक; मा--मत; मे--मेरा; गर्भ: --गर्भ;निपात्यताम्-गर्भपात हो |
हे प्रभु, आप सर्वशक्तिमान हैं।
एक दहकता हुआ लोहे का बाण मेरी ओर तेजी से आरहा है।
मेरे प्रभु, यदि आपकी इच्छा हो तो यह मुझे भले ही जला दे, लेकिन यह मेरे गर्भको जलाकर गर्भपात न करे।
हे प्रभु, कृपया मेरे पर इतना अनुग्रह करें।
"
सूत उवाचउपधार्य वचस्तस्या भगवान् भक्तवत्सल: ।
अपाण्डवमिदं कर्त द्रौणेरख्रमबुध्यत ॥
११॥
सूतः उवाच--सूत गोस्वामी ने कहा; उपधार्य--धैर्यपूर्वक सुनकर; वच:--शब्द; तस्या:--उसके; भगवानू-- भगवान् ने;भक्त-वत्सलः--अपने भक्तों के प्रति अत्यन्त प्रेम से युक्त; अपाण्डवम्--पाण्डवों के वंशज के बिना; इृदम्--यह;कर्तुमू--इसे करने के लिये; द्रौणेः:--द्रोणाचार्य के पुत्र का; अस्त्रमू-हथियार; अबुध्यत--समझा।
सूत गोस्वामी ने कहा : उसके बचनों को धीरज के साथ सुनकर, अपने भक्तों के प्रतिसदैव अत्यन्त वत्सल रहनेवाले, भगवान् श्रीकृष्ण तुरन्त समझ गये कि द्रोणाचार्य के पुत्रअश्वत्थामा ने पाण्डव-वंश के अन्तिम वंशज को समाप्त करने ( निर्बीज करने ) के लिये हीब्रह्मास्त्र छोड़ा है।
"
तहीोँवाथ मुनिश्रेष्ठ पाण्डवा: पञ्ञ सायकान् ।
आत्मनोभिमुखान्दीप्तानालक्ष्यास्त्राण्युपाददु: ॥
१२॥
तहिं--तब; एव-- भी; अथ--अतएव; मुनि-श्रेष्ठ--हे मुनियों में प्रमुख; पाण्डवा:--पाण्डु के पुत्र; पञ्च--पाँच;सायकान्--हथियार; आत्मन:--स्वयं; अभिमुखान्--की ओर; दीप्तानू--लपलपाते; आलक्ष्य--देखकर; अस्त्राणि--हथियार; उपाददुः--ग्रहण किया।
हे महान् विचारकों ( मुनियों ) में अग्रणी ( शौनक जी ), उस दहकते हुए ब्रह्मास्त्र कोअपनी ओर आते देखकर पाँचों पाण्डवों ने अपने-अपने पाँचों हथियार सँभाले।
"
व्यसन वीक्ष्य तत्तेषामनन्यविषयात्मनाम् ।
सुदर्शनेन स्वास्त्रेण स्वानां रक्षां व्यधाद्विभु: ॥
१३ ॥
व्यसनम्--महान संकट को; वीक्ष्य--देखकर; तत्--उस; तेषाम्--उनका; अनन्य--दूसरा नहीं; विषय--साधन;आत्मनाम्--इस प्रकार प्रवृत्त; सुदर्शनेन--कृष्ण के चक्र द्वारा; स्व-अस्त्रेण --हथियार से; स्वानाम्--अपने भक्तों की;रक्षाम्--सुरक्षा; व्यधात्--की; विभु:--सर्वशक्तिमान ने।
सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्ण ने यह देखकर कि उनके अनन्य भक्तों पर, जो पूर्णरूप से उनके शरणागत थे, महान् संकट आनेवाला है, उनकी रक्षा के लिए तुरन्त ही अपनासुदर्शन चक्र उठा लिया।
"
अन्तःस्थः सर्वभूतानामात्मा योगेश्वरो हरि: ।
स्वमाययावृणोद्गर्भ वैराट्या: कुरुतन्तवे ॥
१४॥
अन्तःस्थ:--अन्तर में रहते हुए; सर्ब--समस्त; भूतानाम्--जीवों के; आत्मा--आत्मा; योग-ईश्वर: --समस्त योग केस्वामी; हरि: --पर मे श्वर; स्व-मायया-- अपनी निजी शक्ति से; आवृणोत्--आच्छादित कर लिया; गर्भम्-- भ्रूण को;बैराट्या:--उत्तरा के; कुरु-तन्तवे--महाराज कुरु की वंशवृद्धि के लिए।
परम योगेश्वर श्रीकृष्ण प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में परमात्मा के रूप में निवास करते हैं।
अतएव, कुरु-वंश की संतति की रक्षा करने के लिए उन्होंने उत्तरा के गर्भ को अपनी निजीशक्ति से आवृत कर लिया।
"
यच्प्यस्र॑ ब्रह्मशिरस्त्वमोघं चाप्रतिक्रियम् ।
वैष्णवं तेज आसाद्य समशाम्यद् भृगूद्ह ॥
१५॥
यद्यपि--यद्यपि; अस्त्रमू--अस्त्र; ब्रहा-शिर:--परम्, सर्वश्रेष्ठ; तु--लेकिन; अमोघम्--बिना रोक-टोक के; च--तथा;अप्रतिक्रियमू--जिसका निवारण न किया जा सके ; वैष्णवम्--विष्णु से सम्बन्धित; तेज:--बल; आसाद्य--सामने आनेपर; समशाम्यत्--शान्त पड़ गया; भृगु-उद्वह-हे भूगु-वंशकी शान।
है शौनक, यद्यपि अश्वत्थामा द्वारा छोड़ा गया परम ब्रह्मासत्र अमोघ था और उसकानिवारण नहीं हो सकता था, लेकिन विष्णु ( श्रीकृष्ण ) के तेज के समक्ष वह निष्क्रिय होगया और व्यर्थ हो गया।
"
मा मंस्था ह्ोेतदाश्चर्य सर्वाश्चर्यमयेच्युते ।
य इदं मायया देव्या सृजत्यवति हन्त्यज: ॥
१६॥
मा--मत; मंस्था:--सोचो; हि--निश्चय ही; एतत्--ये सब; आश्चर्यम्--आश्चर्यजनक; सर्व--समस्त; आश्चर्य-मये --परम आश्चर्ययुक्त; अच्युते--अच्युत में; यः--जो; इृदम्--यह ( सृष्टि ); मायया--उनकी शक्ति द्वारा; देव्या--दिव्य;सृजति--उत्पन्न करता है; अवति--पालन करता है; हन्ति--संहार करता है; अजः--अजन्मा
हे ब्राह्मणों, इसे गुह्य तथा अच्युत भगवान् के कार्य-कलापों में विशेष आश्चर्यजनकमत सोचो।
वे अपनी दिव्य शक्ति से समस्त भौतिक वस्तुओं का सृजन, पालन तथा संहारकरते हैं यद्यपि वे स्वयं अजन्मा हैं।
"
ब्रह्मतेजोविनिर्मुक्तरात्मजै: सह कृष्णया ।
प्रयाणाभिमुखं कृष्णमिदमाह पृथा सती ॥
१७॥
ब्रह्म-तेज:--ब्रह्मासत्र का विकिरण ; विनिर्मुक्त:--से बचकर; आत्म-जै:--अपने पुत्रों; सह--समेत; कृष्णया--द्रौपदीके; प्रयाण--जाते हुए; अभिमुखम्-- ओर; कृष्णम्--भगवान् कृष्ण को; इदम्--यह; आह--कहा; पृथा--कुन्ती ने;सती--भगवान् की भक्त, सती ।
इस प्रकार ब्रह्मासत्र के विकिरण से बचकर भगवान् की भक्त सती कुन्ती ने अपने पाँचपुत्रों तथा द्रोपदी-सहित, घर के लिए प्रस्थान करने को उद्यत श्रीकृष्ण को इस तरहसम्बोधित किया।
"
कुन्त्युवाचनमस्ये पुरुष त्वाद्यमीश्वरं प्रकृतेः परम् ।
अलक्ष्यं सर्वभूतानामन्तर्बहिरवस्थितम् ॥
१८॥
कुन्ती उवाच-- श्रीमती कुन्ती ने कहा; नमस्ये--मेरा नमस्कार है; पुरुषम्--परम पुरुष को; त्वा--आप; आद्यम्--मूल;ईश्वरम्--नियन्ता; प्रकृते:--भौतिक ब्रह्माण्डों के; परमू--परे; अलक्ष्यम्--अहृश्य; सर्व--समस्त; भूतानाम्--जीवों के;अन्त:-- भीतर; बहि:--बाहर; अवस्थितम्--स्थित ।
श्रीमती कुन्ती ने कहा : हे कृष्ण, मैं आपको नमस्कार करती हूँ, क्योंकि आप ही आदिपुरुष हैं और इस भौतिक जगत के गुणों से निर्लिप्त रहते हैं।
आप समस्त वस्तुओं के भीतरतथा बाहर स्थित रहते हुए भी सबों के लिए अदृश्य हैं।
"
मायाजवनिकाच्छन्नमज्ञाधोक्षजमव्ययम् ।
न लक्ष्यसे मूढहशा नटो नाट्यधरो यथा ॥
१९॥
माया--ठगने वाली; जबनिका--पर्दा; आच्छन्नम्--ढका; अज्ञा--अज्ञानी; अधोक्षजम्-- भौतिक बोध की सीमा से परे( दिव्य ); अव्ययम्-- अविनाशी; न--नहीं; लक्ष्यसे--दिखता है; मूढ-हशा--मूर्ख देखनेवाले के द्वारा; नटः--कलाकार; नाट्य-धर:-- अभिनेता का भेष धारण किये; यथा--जिस प्रकार।
सीमित इन्द्रिय-ज्ञान से परे होने के कारण, आप ठगिनी शक्ति ( माया ) के पर्दे से ढकेरहनेवाले शाश्रत अव्यय तत्त्व हैं।
आप मूर्ख दर्शक के लिए ठीक उसी प्रकार अदृश्य रहतेहैं, जिस प्रकार अभिनेता के वस्त्र पहना हुआ कलाकार पहचान में नहीं आता।
"
तथा परमहंसानां मुनीनाममलात्मनाम् ।
भक्तियोगविधानार्थ कथं पश्येम हि स्त्रिय: ॥
२०॥
तथा--इसके अतिरिक्त; परमहंसानाम्--उन्नत अध्यात्मवादियों का; मुनीनाम्--महान चिन्तकों या विचारकों का; अमल-आत्मनाम्--आत्मा तथा पदार्थ में अन्तर करने में सक्षम; भक्ति-योग--भक्ति का विज्ञान; विधान-अर्थम्--सम्पन्न करनेके लिए; कथम्-कैसे; पश्येम--देख सकती हैं; हि--निश्चित ही; स्त्रियः--स्त्रियाँ ॥
।
आप उन्नत अध्यात्मवादियों तथा आत्मा एवं पदार्थ में अन्तर करने में सक्षम होने सेशुद्ध बने विचारकों के हृदयों में भक्ति के दिव्य विज्ञान का प्रसार करने के लिए स्वयंअवतरित होते हैं।
तो फिर हम स्त्रियाँ आपको किस तरह पूर्ण रूप से जान सकती हैं? ---+ - ४ " कृष्णाय वासुदेवाय देवकीनन्दनाय च ।
नन्दगोपकुमाराय गोविन्दाय नमो नम: ॥
२१॥
कृष्णाय--भगवान् को; वासुदेवाय--वसुदेव के पुत्र को; देवकी-नन्दनाय--देवकी के पुत्र को; च--तथा; नन्द-गोप--नन्द तथा ग्वालों के; कुमाराय-- पुत्र को; गोविन्दाय-- भगवान् को, जो इन्द्रियों तथा गौवों के प्राण हैं; नमः--सादर नमस्कार; नमः --नमस्कार।
अतः मैं उन भगवान् को सादर नमस्कार करती हूँ, जो वसुदेव के पुत्र, देवकी केलाडले, नन्द के लाल तथा वृन्दावन के अन्य ग्वालों एवं गौवों तथा इन्द्रियों के प्राण बनकरआये हैं।
"
नमः--नमस्कार है; पड्डुज-नाभाय-- भगवान् को, जिनके उदर के मध्यभाग में कमल-पुष्प के समान विशेष गट्ढा है;नमः--नमस्कार; पड्डूज-मालिने--कमल-पुष्प की माला से निरन्तर सज्जित रहनेवाले को; नम:--नमस्कार; पड्लज-नेत्राय--जिनकी दृष्टि कमल-पुष्प के समान शीतल है; नमः ते--आपको नमस्कार है; पड्डूज-अड्ख्रये--कमल-पुष्पों सेअंकित चरण के तलवों वाले को |
जिनके उदर के मध्य में कमलपुष्प के सहृश गर्त है, जो सदैव कमल-पुष्प की मालाधारण करते हैं, जिनकी चितवन कमल-पुष्प के समान शीतल है और जिनके चरणों ( केतलवों ) में कमल अंकित हैं, उन भगवान् को मैं सादर नमस्कार करती हूँ।
"
यथा हृषीकेश खलेन देवकीकंसेन रुद्धातिचिरं शुचार्पिता ।
विमोचिताहं च सहात्मजा विभोत्वयैव नाथेन मुहुर्विपदूगणात् ॥
२३॥
यथा--मानो; हषीकेश--इन्द्रियों के स्वामी; खलेन--ईष्यालु के द्वारा; देवकी--देवकी ( श्रीकृष्ण की माता ); कंसेन--राजा कंस द्वारा; रुद्धा--बन्दी बनाया गया; अति-चिरम्--दीर्घ काल तक; शुच-अर्पिता--दुखी; विमोचिता--मुक्तकिया; अहम् च--मैं भी; सह-आत्म-जा--अपने बच्चों सहित; विभो--हे महान्; त्ववा एब--आप ही के द्वारा;नाथेन--रक्षक के रूप में; मुहुः--निरन्तर; विपत्-गणात्--विपत्तियों के समूह से ।
हे हृषीकेश, हे इन्द्रियों के स्वामी तथा देवों के देव, आपने दीर्घ काल तक बनन्दीगृह मेंबन्दिनी बनाई गई और दुष्ट राजा कंस द्वारा सताई जा रही अपनी माता देवकी को तथाअनवरत विपत्तियों से घिरे हुए मेरे पुत्रों समेत मुझको मुक्त किया है।
"
दसत्सभाया वनवासकृच्छुत: ।
मृधे मृधेडनेकमहारथाखत्रतोद्रौण्यखनतश्वास्म हरेभिरक्षिता: ॥
२४॥
विषात्--विष से; महा-अग्ने:--प्रबल अग्निकाण्ड से; पुरुष-अद--मनुष्य के भक्षक से; दर्शनात्--मल्लयुद्ध करके;असतू--दुष्ट; सभाया:--सभा से; वन-बास--जंगल में प्रवासित; कृच्छुतः--कष्ट से; मृधे मृथे--युद्ध में बारम्बार;अनेक--अनेक; महा-रथ--बड़े-बड़े सेनानायक; अस्त्रतः--हथियार से; द्रौणि--द्रोणाचार्य के पुत्र के; अस्त्रतः--अस्त्रसे; च--तथा; आस्म-- था; हरे--हे भगवान्; अभिरक्षिता:--पूर्ण रूप से सुरक्षित ।
है कृष्ण, आपने हमें विषाक्त भोजन से, भीषण अग्नि-काण्ड से, मानव-भक्षीओं से,दुष्ट सभा से, वनवास-काल के कष्टों से तथा महारथियों द्वारा लड़े गये युद्ध से बचाया है।
और अब आपने हमें अश्वत्थामा के अस्त्र से बचा लिया है।
"
विपद: सन्तु ता: शश्त्तत्र तत्र जगदगुरो ।
भवतो दर्शन यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम् ॥
२५॥
विपदः--विपत्तियाँ; सनन््तु--आने दो; ताः--सारी; शश्वत्--पुनः पुनः; तत्र--वहाँ; तत्र--तथा वहाँ; जगत्-गुरो--हेजगत के स्वामी; भवत:--आपकी; दर्शनम्--भेंट; यत्--जो; स्थात्--हो; अपुन:--फिर नहीं; भव-दर्शनम्--जन्म-मृत्यु को बारम्बार देखना |
मैं चाहती हूँ कि ये सारी विपत्तियाँ बारम्बार आयें, जिससे हम आपका दर्शन पुनः पुनःकर सकें, क्योंकि आपके दर्शन का अर्थ यह है कि हमें बारम्बार होने वाले जन्म तथा मृत्युको नहीं देखना पड़ेगा।
"
जन्मैश्वर्यश्रुतश्रीभिरिधमानमद: पुमान् ।
नैवार्हत्यभिधातुं वै त्वामकिद्लनगोचरम् ॥
२६॥
जन्म--जन्म; ऐश्वर्य--ऐश्वर्य; श्रुत--शिक्षा; श्रीभि: --सुन्दरता के स्वामित्व द्वारा; एधमान--लगातार वृद्धि करता हुआ;मदः--प्रमत्तता; पुमान्--मनुष्य; न--कभी नहीं; एब--ही; अर्हति--पात्र होता है; अभिधातुम्--सम्बोधित करने केलिये; बै--निश्चय ही; त्वामू--आपको; अकिज्ञन-गोचरम्--जो भौतिक दृष्टि से दरिद्र मनुष्य के द्वारा सरलता से प्राप्त होसके।
हे प्रभु, आप सरलता से प्राप्त होने वाले हैं, लेकिन केवल उन्हीं के द्वारा, जो भौतिकइृष्टि से अकिंचन हैं।
जो सम्मानित कुल, ऐश्वर्य, उच्च शिक्षा तथा शारीरिक सौंदर्य के द्वाराभौतिक प्रगति के पथ पर आगे बढ़ने के प्रयास में लगा रहता है, वह आप तक एकनिष्ठभाव से नहीं पहुँच पाता।
"
नमोकिड्जनवित्ताय निवृत्तगुणवृत्तये ।
आत्मारामाय शान्ताय कैवल्यपतये नम: ॥
२७॥
नमः--नमस्कार है; अकिज्ञन-वित्ताय--निर्धनों के धन-स्वरूप को; निवृत्त--भौतिक गुणों की क्रियाओं से सदा परे;गुण--भौतिक गुण; वृत्तये--स्नेह; आत्म-आरामाय--आत्मतुष्ट को; शान्ताय--परम शान्त को; कैवल्य-पतये--अद्ठैतवादियों के स्वामी को; नम:--प्रणाम है |
मैं निर्धनों के धन आपको नमस्कार करती हूँ।
आपको प्रकृति के भौतिक गुणों कीक्रियाओं-प्रतिक्रियाओं से कोई सरोकार नहीं है।
आप आत्म-तुष्ट हैं, अतएब आप परमशान्त तथा अद्ठैतवादियों के स्वामी कैवल्य-पति हैं।
"
मन्ये त्वां कालमीशानमनादिनिधनं विभुम् ।
सम॑ चरन्तं सर्वत्र भूतानां यन्मिथ: कलि: ॥
२८॥
मन्ये--मानती हूँ; त्वामू--आपको; कालमू्--शा श्रत समय; ईशानम्--परमे श्वर; अनादि-निधनम्-- आदि-अन्त रहित;विभुम्--सर्वव्यापी; समम्--समान रूप से दयालु; चरन्तम्--वितरित करते हुए; सर्वत्र--सभी जगह; भूतानामू--जीवोंका; यत् मिथ: --मतभेद; कलि:--कलह।
हे भगवान्, मैं आपको शाश्वत समय, परम नियन्ता, आदि-अन्त से रहित तथासर्वव्यापी मानती हूँ।
आप सबों पर समान रूप से दया दिखलाते हैं।
जीवों में जो पारस्परिककलह है, वह सामाजिक मतभेद के कारण है।
तात्पर्य : कुन्ती देवी जानती थीं कि कृष्ण न तो उनके भतीजे हैं और न उनके पितृकुल केसामान्य पारिवारिक सदस्य हैं।
वे अच्छी तरह जानती थीं कि कृष्ण आदि-भगवान् हैं, जो" न वेद कश्चिद्धगवंश्विकी र्पितंतवेहमानस्य नृणां विडम्बनम् ।
न यस्य कश्चिदयितोस्ति कर्हिचिद्द्वेष्यश्च यस्मिन् विषमा मतिनणाम् ॥
२९॥
न--नहीं; वेद--जानता; कश्चित्--कोई; भगवन्--हे भगवान्; चिकीर्षितम्--लीलाएँ; तब--आपकी; ईहमानस्थ--सांसारिक व्यक्तियों की भाँति; नृणाम्--सामान्य लोगों का; विडम्बनम्-- भ्रामक; न--कभी नहीं; यस्य--जिसका;कश्चित्--कोई; दयितः--विशेष कृपा-पात्र; अस्ति-- है; कर्हिचित्-- कहीं; द्वेष्य: --ईर्ष्या की वस्तु; च--तथा;यस्मिन्--जिसमें; विषमा--पक्षपात; मति:--विचार; नृणाम्--मनुष्यों का ।
है भगवान्, आपकी दिव्य लीलाओं को कोई समझ नहीं सकता, क्योंकि वे मानवीयप्रतीत होती हैं और इस कारण भ्रामक हैं।
न तो आपका कोई विशेष कृपा-पात्र है, न हीकोई आपका अप्रिय है।
यह केवल लोगों की कल्पना ही है कि आप पक्षपात करते हैं।
स्वयं पशुओं, मनुष्यों, ऋषियों तथा जलचरों के मध्य अवतरित होते हैं।
सचमुच ही यहअकरानेवाली बात है।
"
जन्म कर्म च विश्वात्मन्नजस्याकर्तुरात्मन: ।
तिर्यड्नृषिषु याद:सु तदत्यन्तविडम्बनम् ॥
३०॥
जन्म--जन्म; कर्म--कर्म; च--तथा; विश्व-आत्मन्--हे विश्व के आत्मा; अजस्य--अजन्मा की; अकर्तु:--निष्क्रिय की; आत्मन:--प्राण-शक्ति की; तिर्यक्-पशु; नू-- मनुष्य; ऋषिषु--ऋषियों में; याद:सु--जल में; तत्--वह; अत्यन्त-- वास्तविक, अत्यन्त; विडम्बनमू-- भ्रामक, चकराने वाली।
हे विश्वात्मा, यह सचमुच ही चकरा देनेवाली बात ( विडम्बना ) है कि आप निष्क्रिय रहते हुए भी कर्म करते हैं और प्राणशक्ति रूप तथा अजन्मा होकर भी जन्म लेते हैं।
आप स्वयं पशुओं, मनुष्यों, ऋषियों तथा जलचरों के मध्य अवतरित होते हैं।
सचमुच ही यह चकरानेवाली बात है।
"
गोप्याददे त्वयि कृतागसि दाम तावद्या ते दशाश्रुकलिलाझनसम्भ्रमाक्षम् ।
वक्त्रं निनीय भयभावनया स्थितस्यसा मां विमोहयति भीरपि यद्विभेति ॥
३१॥
गोपी--ग्वालिन ( यशोदा ) ने; आददे--लिया; त्वयि--आप पर; कृतागसि--अड़चन डालने पर ( मक्खन की मटकीफोड़ने पर ); दाम--रस्सी; तावत्--उस समय; या--जो; ते--तुम्हारी; दशा--स्थिति; अश्रु-कलिल--अश्रुपूरित;अज्न--काजल; सम्भ्रम--विचलित; अक्षम्--नेत्र; वक््रम्--चेहरा, मुँह; निनीय--नीचे की ओर; भय-भावनया--भय की भावना से; स्थितस्य--स्थिति का; सा--वह; माम्--मुझको; विमोहयति--मोहग्रस्त करती है; भी: अपि--साक्षात् भय भी; यत्--जिससे; बिभेति-- भयभीत है
हे कृष्ण जब आपने कोई अपराध किया था, तब यशोदा ने जैसे ही आपको बाँधने केलिए रस्सी उठाई, तो आपकी व्याकुल आँखें अश्रुओं से डबडबा आईं, जिससे आपकीआँखों का काजल धुल गया।
यद्यपि आपसे साक्षात् काल भी भयभीत रहता है, फिर भीआप भयभीत हुए।
यह दृश्य मुझे मोहग्रस्त करनेवाला है।
"
केचिदाहुरजं जात॑ पुण्यश्लोकस्य कीर्तये ।
यदो: प्रियस्यान्ववाये मलयस्येव चन्दनम् ॥
३२॥
केचित्--कोई; आहुः--कहता है; अजम्--अजन्मा; जातम्--उत्पन्न; पुण्य-शलोकस्य--महान पुण्यात्मा राजा की;कीर्तये--कीर्ति-विस्तार करने के लिए; यदो:--राजा यदु का; प्रियस्थ--प्रिय; अन्ववाये--कुल में; मलयस्य--मलयपर्वत का; इब--सहृश; चन्दनम्--चन्दन
कुछ कहते हैं कि अजन्मा का जन्म पुण्यात्मा राजाओं की कीर्तिका विस्तार करने केलिए हुआ है और कुछ कहते हैं कि आप अपने परम भक्त राजा यदु को प्रसन्न करने केलिए जन्मे हैं।
आप उसके कुल में उसी प्रकार प्रकट हुए हैं, जिस प्रकार मलय पर्वत मेंअन्दन होता है।
"
अपरे वसुदेवस्य देवक्यां याचितोभ्यगात् ।
अजत्त्वमस्य क्षेमाय वधाय च सुरद्विषाम् ॥
३३॥
अपरे--अन्य लोग; वसुदेवस्थ--वसुदेव का; देवक्याम्--देवकी का; याचित: --प्रार्थना किये जाने पर; अभ्यगात् --जन्म लिया; अज:--अजन्मा; त्वम्--आप; अस्य--इसके; क्षेमाय--कल्याण के लिए; वधाय--वध करने के लिए;च--तथा; सुर-द्विषामू-देवताओं से ईर्ष्या करनेवालों का
अन्य लोग कहते हैं कि चूँकि वसुदेव तथा देवकी दोनों ने आपके लिए प्रार्थना की थी,अतएव आप उनके पुत्र-रूप में जन्मे हैं।
निस्सन्देह, आप अजन्मा हैं, फिर भी आप देवताओंका कल्याण करने तथा उनसे ईर्ष्या करनेवाले असुरों को मारने के लिए जन्म स्वीकार करतेहैं।
"
भारावतारणायान्ये भुवो नाव इवोदधौ ।
सीदन्त्या भूरिभारेण जातो ह्यात्मभुवार्थित: ॥
३४॥
भार-अवतारणाय--संसार का भार कम करने के लिए; अन्ये--अन्य लोग; भुव:--संसार का; नाव: --नाव; इब--सहश; उदधौ--समुद्र में; सीदन्त्या:--आर्त, दुखी; भूरि--अत्यधिक; भारेण-- भार से; जात: --उत्पन्न; हि--निश्चय ही;आत्म-भुवा--ब्रह्मा द्वारा; अर्थित: --प्रार्थना किये जाने पर
कुछ कहते हैं कि जब यह संसार, भार से बोझिल समुद्री नाव की भाँति, अत्यधिकपीड़ित हो उठा तथा आपके पुत्र ब्रह्मा ने प्रार्थना की, तो आप कष्ट का शमन करने के लिएअवतरित हुए हैं।
"
भवेस्मिन् क्लिश्यमानानामविद्याकामकर्मभि: ।
श्रवणस्मरणाहाणि करिष्यन्निति केचन ॥
३५॥
भवे--भौतिक संसार में; अस्मिन्--इस; क्लिश्यमानानाम्--कष्ट भोगने-वालों का; अविद्या--अज्ञान; काम--इच्छा;कर्मभि:--सकाम कर्म करने के कारण; श्रवण--सुनने; स्मरण--याद करने; अर्हाणि--पूजन; करिष्यन्--कर सकताहै; इति--इस प्रकार; केचन-- अन्य लोग।
तथा कुछ कहते हैं कि आप श्रवण, स्मरण, पूजन आदि की भक्ति को जागृत करने केलिए प्रकट हुए हैं, जिससे भौतिक कष्टों को भोगनेवाले बद्धजीव इसका लाभ उठाकरमुक्ति प्राप्त कर सकें ।
"
श्रुण्वन्ति गायन्ति गृणन्त्यभीक्ष्णश:स्मरन्ति नन्दन्ति तवेहितं जना: ।
त एव पश्यन्त्यचिरेण तावक॑भवप्रवाहोपरमं पदाम्बुजम् ॥
३६॥
श्रुण्वन्ति--सुनते हैं; गायन्ति--कीर्तन करते हैं; गृणन्ति--ग्रहण करते हैं; अभी क्ष्णश: --निरन्तर; स्मरन्ति--स्मरण करतेहैं; नन्दन्ति--हर्षित होते हैं; तब--आपके ; ईहितम्--कार्य-कलापों को; जना:--लोग; ते--वे; एव--निश्चय ही;'पश्यन्ति--देख सकते हैं; अचिरिण--शीघ्र ही; तावकम्--आपका; भव-प्रवाह--पुनर्जन्म की धारा; उपरमम्--बन्दहोना, रोकना; पद-अम्बुजमू--चरणकमल।
हे कृष्ण, जो आपके दिव्य कार्यकलापों का निरन्तर श्रवण, कीर्तन तथा स्मरण करतेहैं या दूसरों को ऐसा करते देखकर हर्षित होते हैं, वे निश्चय ही आपके उन चरणकमलों कादर्शन करते हैं, जो जन्म-मृत्यु के पुनगागमन को रोकनेवाले हैं।
"
अप्यद्य नस्त्वं स्वकृतेहित प्रभो जिहाससि स्वित्सुहदो5नुजीविन: ।
येषां न चान्यद्धवतः पदाम्बुजातू'परायणं राजसु योजितांहसाम् ॥
३७॥
अपि--यदि; अद्य--आज; न:-- हमको; त्वमू--आप; स्व-कृत-- अपने आप सम्पन्न; ईहित--सारे कर्म; प्रभो--हे मेरेप्रभु; जिहाससि--त्यागते हो; स्वित्--सम्भवत: ; सुहृदः--घनिष्ठ मित्र; अनुजीविन: --दया पर निर्भर; येषामू--जिनका;न--न तो; च--तथा; अन्यत्--कोई अन्य; भवत:--आपके ; पद-अम्बुजात्--चरणकमलों से; परायणम्-- आश्रित;राजसु--राजाओं के प्रति; योजित--लगे हुए; अंहसाम्-शत्रुताहे मेरे प्रभु, अपने सारे कर्तव्य स्वयं पूरे कर दिये हैं।
आज जब हम आपकी कृपा परपूरी तरह आश्रित हैं और जब हमारा और कोई रक्षक नहीं है और जब सारे राजा हमसेशत्रुता किये हुए हैं, तो क्या आप हमें छोड़कर चले जायेंगे ?जिस तरह आत्मा के अदृश्य होते ही शरीर का नाम तथा यश समाप्त हो जाता है, उसीतरह यदि आप हमारे ऊपर कृपा-दृष्टि नहीं करेंगे, तो पाण्डवों तथा यदुओं समेत हमारा यशतथा गतिविधियाँ तुरन्त ही नष्ट हो जाएँगी।
"
के वयं नामरूपाभ्यां यदुभि: सह पाण्डवा: ।
भवतोडदर्शन॑ यहिं हृषीकाणामिवेशितु: ॥
३८॥
के--कौन हैं; वयम्--हम; नाम-रूपाभ्याम्-ख्याति तथा सामर्थ्यरहित; यदुभि: --यदुओं के; सह--साथ; पाण्डवा:-- तथा पाण्डबगण; भवत:--आपकी; अदर्शनम्--अनुपस्थिति; यहिं--मानो; हषीकाणाम्--इन्द्रियों का; इब--सहश; ईशितु:--जीव का।
जिस तरह आत्मा के अदृश्य होते ही शरीर का नाम तथा यश समाप्त हो जाता है, उसी तरह यदि आप हमारे ऊपर कृपा-दृष्टि नहीं करेंगे, तो पाण्डबों तथा यदुओं समेत हमारा यश तथा गतिविधियाँ तुरन्त ही नष्ट हो जाएँगी।
"
नेयं शोभिष्यते तत्र यथेदानीं गदाधर ।
त्वत्पदैरद्धिता भाति स्वलक्षणविलक्षितै: ॥
३९॥
न--नहीं; इयम्--यह हमारा राज्य; शोभिष्यते--सुन्दर लगेगा; तत्र--तब; यथा--जैसा अब है, इस रूप में; इदानीम्--कैसे; गदाधर--हे कृष्ण; त्वत्--आपके; पदैः--चरणों के द्वारा; अद्धिता--अंकित; भाति--शोभायमान हो रही है; स्व-लक्षण--आपके चि्ढों से; विलक्षितैः:--चिह्लों से ।
हे गदाधर ( कृष्ण ), इस समय हमारे राज्य में आपके चरण-चिह्नों की छाप पड़ी हुई है,और इसके कारण यह सुन्दर लगता है, लेकिन आपके चले जाने पर यह ऐसा नहीं रहजायेगा।
"
इमे जनपदाः स्वृद्धा: सुपक्रौषधिवीरुध: ।
वनाद्रिनद्युदन्वन्तो होधन्ते तव वीक्षितै: ॥
४०॥
इमे--ये सब; जन-पदा:--नगर तथा शहर; स्वृद्धा:--समृद्ध; सुपक्त--पूर्ण रूप से पकक््व; औषधि--जड़ी -बूटी;वीरुध:--वनस्पतियाँ; वन--जंगल; अद्वि--पहाड़ियाँ; नदी--नदियाँ; उदन्वन्त:--समुद्र; हि--निश्चय ही; एधन्ते--वृद्ध्धिकरते हुए; तब--आपके ; वीक्षितै:--देखने से ।
ये सारे नगर तथा ग्राम सब प्रकार से समृद्ध हो रहे हैं, क्योंकि जड़ी-बूटियों तथा अन्नोंकी प्रचुरता है, वृक्ष फलों से लदे हैं, नदियाँ बह रही हैं, पर्वत खनिजों से तथा समुद्र सम्पदासे भरे पड़े हैं।
और यह सब उन पर आपकी कृपा-दृष्टि पड़ने से ही हुआ है।
"
अथ विश्वेश विश्वात्मन् विश्वमूर्ते स्वकेषु मे ।
स्नेहपाशमिमं छिन्धि हढं पाण्डुषु वृष्णिषु ॥
४१॥
अथ--अतः; विश्व-ईश--हे ब्रह्माण्ड के स्वामी; विश्व-आत्मनू--हे ब्रह्माण्ड के आत्मा; विश्व-मूर्ते--हे विश्व-रूप;स्वकेषु मेरे स्वजनों में; मे--मेरे; स्नेह-पाशम्--स्नेह बन्धन को; इमम्--इस; छिन्धि--काट डालो; हढम्--कड़े;पाण्डुषु--पाण्डवों के लिए; वृष्णिषु--वृष्णियों के लिए भी ।
अतः हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, हे ब्रह्माण्ड के आत्मा, हे विश्व-रूप, कृपा करके मेरेस्वजनों, पाण्डवों तथा वृष्णियों के प्रति मेरे स्नेह-बन्धन को काट डालें।
"
त्वयि मेनन्यविषया मतिर्मधुपतेसकृत् ।
रतिमुद्दहतादड्स् गड़ेवौघमुदन्वति ॥
४२॥
त्वयि--आप में; मे--मेरा; अनन्य-विषया---अनन्य; मतिः-- ध्यान; मधु-पते--हे मधु के स्वामी; असकृत्--निरन्तर;रतिमू--आकर्षण; उद्गहतात्--आप्लावित हो सकता है; अद्धा--प्रत्यक्ष रीति से; गड्भा--गंगानदी; इव--सहृश;ओघम्--बहती है; उदन्वति--समुद्र को ।
हे मधुपति, जिस प्रकार गंगा नदी बिना किसी व्यवधान के सदैव समुद्र की ओर बहतीहै, उसी प्रकार मेरा आकर्षण अन्य किसी ओर न बँट कर आपकी ओर निरन्तर बना रहे।
"
श्रीकृष्ण कृष्णसख वृष्ण्यृषभावनिष्रुग्राजन्यवंशदहनानपवर्गवीर्य ।
गोविन्द गोद्विजसुरातिहरावतारयोगेश्वराखिलगुरों भगवन्नमस्ते ॥
४३॥
श्री-कृष्ण--हे कृष्ण; कृष्ण-सख--हे अर्जुन के मित्र; वृष्णि--वृष्णि कुल के; ऋषभ-हे प्रमुख; अवनि--पृथ्वी;ध्रुदू--विप्लवी; राजन्य-वंश--राजाओं का वंश; दहन--हे विनाशकर्ता; अनपवर्ग--बिना अवनति के ; वीर्य--पराक्रम;गोविन्द--हे गोलोक के स्वामी; गो--गौवों के ; द्विज--ब्राह्मणों के; सुर--देवताओं के; अर्ति-हर--दुख दूर करने केलिए; अवतार--हे अवतार लेनेवाले; योग-ई श्रर--हे योग के स्वामी; अखिल--सम्पूर्ण जगत के; गुरो--हे गुरु;भगवनू--हे समस्त ऐश्वर्यों के स्वामी; नमः ते--आपको नमस्कार है।
हे कृष्ण, हे अर्जुन के मित्र, हे वृष्णिकुल के प्रमुख, आप उन समस्त राजनीतिक पक्षोंके विध्वंसक हैं, जो इस धरा पर उपद्रव फैलानेवाले हैं।
आपका शौर्य कभी क्षीण नहींहोता।
आप दिव्य धाम के स्वामी हैं और आप गायों, ब्राह्मणों तथा भक्तों के कष्टों को दूरकरने के लिए अवतरित होते हैं।
आपमें सारी योग-शक्तियाँ हैं और आप समस्त विश्व केउपदेशक ( गुरु ) हैं।
आप सर्वशक्तिमान ईश्वर हैं।
मैं आपको सादर प्रणाम करती हूँ।
"
सूत उवाचपृथयेत्थं कलपदै: परिणूताखिलोदय: ।
मन्दं जहास वैकुण्ठो मोहयज्निव मायया ॥
४४॥
सूतः उवाच--सूत ने कहा; पृथया--पृथा ( कुन्ती ) द्वारा; इत्थमू--यह; कल-पदैः--चुने हुए शब्दों द्वारा; परिणूत--'पूजित होकर; अखिल--सम्पूर्ण; उदबः--यश; मन्दम्--मन्द-मन्द; जहास--मुस्कराये; वैकुण्ठ:-- भगवान्; मोहयन्--मोहित करते हुए; इब--सहृशञ; मायया--अपनी योगशक्ति के द्वारा।
सूत गोस्वामी ने कहा : इस प्रकार भगवान् अपने महिमागान के लिए चुने हुए शब्दों मेंकुन्तीदेवी के द्वारा की गई प्रार्थना सुनकर मन्द-मन्द मुसकाए।
यह मुस्कान उनकीयोगशक्ति के समान ही मोहक थी।
"
तां बाढमित्युपामन्त्रय प्रविश्य गजसाह्ययम् ।
स्त्रियश्व स्वपुरं यास्यन् प्रेम्णा राज्ञा निवारित: ॥
४५॥
ताम्--उन सबों को; बाढम्--स्वीकृत; इति--इस प्रकार; उपामन्त्रय--बाद में सूचित करके; प्रविश्य--प्रवेश करके;गजसाहयम्--हस्तिनापुर के महल में; स्त्रियः च--अन्य स्त्रियाँ; स्व-पुरम्--अपने निवास; यास्यन्--बिदा होते समय;प्रेम्णा--प्रेमपूर्वक; राज्ञा--राजा द्वारा; निवारित:--रोके गये
इस तरह श्रीमती कुन्तीदेवी की प्रार्थनाएं स्वीकार करने के बाद भगवान् ने हस्तिनापुरके राजमहल में प्रवेश करके अन्य स्त्रियों को अपने प्रस्थान की सूचना दी।
लेकिन उन्हें प्रस्थान करते देख, राजा युधिष्ठिर ने उन्हें रोक लिया और अत्यन्त प्रेमपूर्वक उनसे याचनाकी।
"
व्यासादैरीश्वरेहाजैः कृष्णेनाद्धुतकर्मणा ।
प्रबोधितो पीतिहासैर्नाबुध्यत शुचार्पित: ॥
४६॥
व्यास-आइद्यै:--व्यास इत्यादि मुनियों द्वारा; ईश्वर--सर्वशक्तिमान ई श्वर; ईहा-- की इच्छा से; ज्ैः--विद्वान; कृष्णेन--स्वयं कृष्ण द्वारा; अद्भुत-कर्मणा--अद्भुत कार्य करनेवाले के द्वारा; प्रबोधित:--ढाढस बँधाने पर; अपि--यद्यपि;इतिहासै: --इतिहास के साक्ष्यों द्वारा; न--नहीं; अबुध्यत--संतुष्ट हुए; शुचा अर्पित: --दुखी अत्यधिक शोक में डूबे हुए
राजा युथ्िष्ठिर, व्यास आदि मुनियों तथा अद्भुत कर्मकरनेवाले साक्षात् भगवान् कृष्ण के उपदेशों से तथा समस्त ऐतिहासिक साक्ष्य से सान्त्वनानहीं पा सके।
"
आह राजा धर्मसुतश्चिन्तयन् सुहृदां वधम् ।
प्राकृतेनात्मना विप्रा: स्नेहमोहवर्श गत: ॥
४७॥
आह--कहा; राजा--राजा युधिष्टिर ने; धर्म-सुत:--धर्म ( यमराज ) के पुत्र; चिन्तयन्--सोचते हुए; सुहृदाम्-मित्रों के;वधम्--वध को; प्राकृतत--भौतिक विचार से; आत्मना--अपने द्वारा; विप्रा:--हे ब्राह्मणो; स्नेह--स्नेह; मोह--मोह;वशम्-के वशी भूत; गतः--गया हुआ।
धर्मपुत्र, राजा युधिष्ठिर, अपने मित्रों की मृत्यु से अभिभूत थे और सामान्यभौतिकतावादी मनुष्य की भाँति शोक-सन्तप्त थे।
हे मुनियो, इस प्रकार स्नेह से मोहग्रस्तहोकर वे बोले।
"
अहो मे पश्यताज्ञानं हृदि रूढं दुरात्मनः ।
पारक्यस्यैव देहस्य बह्व्यो मेउक्षौहिणीहता: ॥
४८ ॥
अहो--हाय; मे--मेरा; पश्यत--जरा देखो तो; अज्ञानम्--अज्ञान; हृदि--हृदय में; रूढम्--स्थित; दुरात्मन:--पापी का;पारक्यस्य--अन्यों के लिए; एव--निश्चय ही; देहस्य--शरीर का; बह्व्यः--अनेकानेक ; मे--मेरे द्वारा; अक्षौहिणी:--अक्षौहिणी सेनाए; हताः--मारी गई
राजा युधिष्ठिर ने कहा : हाय, मैं सबसे पापी मनुष्य हूँए! जरा मेरे हृदय को तो देखो,जो अज्ञान से पूर्ण है! यह शरीर, जो अन्ततः परोपकार के लिए होता है, उसने अनेकाने कअक्षौहिणी सेनाओं का वध करा दिया है।
"
बालट्विजसुहन्मित्रपितृभ्रातृगुरुद्रुह: ।
न मे स्यान्निरयान्मोक्षो हपि वर्षायुतायुतै: ॥
४९॥
बाल--लड़के; द्वि-ज--दो बार जन्म लेनेवाले; सुहृत्--शुभचिन्तक; मित्र--मित्र; पितृ--चाचा-ताऊ; भ्रातृ-भाई;गुरु--शिक्षक का; द्रुहः--मारनेवाला; न--कभी नहीं; मे--मेरा; स्थात्--होगा; निरयात्--नरक से; मोक्ष: --मुक्ति;हि--निश्चय ही; अपि--यद्यपि; वर्ष--साल; अयुत--लाखों; आयुतैः--जोड़े जाने पर।
मैंने अनेक बालकों, ब्राह्मणों, शुभ-चिन्तकों, मित्रों, चाचा-ताउओं, गुरुओं तथाभाइयों का वध किया है।
भले ही मैं लाखों वर्षों तक जीवित रहूँ, लेकिन मैं इन सारे पापोंके कारण मिलनेवाले नरक से कभी भी छुटकारा नहीं पा सकूँगा।
"
नैनो राज्न: प्रजाभर्तुर्थर्मयुद्धे वधो द्विषाम् ।
इति मे न तु बोधाय कल्पते शासनं वच: ॥
५०॥
न--कभी नहीं; एन:--पाप; राज्ञ:--राजा का; प्रजा-भर्तुः--प्रजा के पालन में व्यस्त रहनेवाले; धर्म--सही निमित्त केलिए; युद्धे--युद्ध में; वध: --संहार; द्विषामू--शत्रुओं का; इति--ये सब; मे--मेरे लिए; न--कभी नहीं; तु--लेकिन;बोधाय--संतोष के लिए; कल्पते--वे शासन चलाने के लिए हैं; शासनम्--आदेश; वच:--शब्दों का |
जो राजा अपनी प्रजा के पालन में लगा रह कर सही निमित्त के लिए वध करता है, उसेकोई पाप नहीं लगता।
लेकिन यह आदेश मेरे ऊपर लागू नहीं होता।
"
स््रीणां मद्धतबन्धूनां द्रोहो योसाविहोत्थित: ।
कर्मभिर्गृहमेधीयैर्नाह कल्पो व्यपोहितुम् ॥
५१॥
स्त्रीणाम्--स्त्रियों के; मत्--मेरे द्वारा; हत-बन्धूनाम्--मारे गये मित्रों का; द्रोह:--शत्रुता; यः--जो; असौ--ये सब;इह--यहाँ; उत्थित:--संचित हुई है; कर्मभि: --कार्य करने से; गृहमेधीयै:-- भौतिक कल्याण में लगे मनुष्यों द्वारा; न--कभी नहीं; अहम्--मैं; कल्प:--आशा कर सकता हूँ; व्यपोहितुम्--उसे मिटा पाने की ।
मैनें अनेक स्त्रियों के बंधुओं का वध किया है और इस तरह मैंने इस हद तक शत्रुतामोल ली है कि भौतिक कल्याण-कार्य के द्वारा इसे मिटा पाना सम्भव नहीं है।
"
यथा पड्लेन पड्ढाम्भ: सुरया वा सुराकृतम् ।
भूतहत्यां तथैवैकां न यज्ञेर्मार्ट्रमहति ॥
५२॥
यथा--जिस तरह; पट्लेन--कीचड़ से; पद्ल-अम्भ:--कीचड़-मिश्रित जल; सुरया--मदिरा से; वा--अथवा;सुराकृतम्-मदिरा के स्पर्श से उत्पन्न अशुद्धि; भूत-हत्याम्--पशुओं की हत्या; तथा--उसी प्रकार; एब--निश्चय ही;एकाम्--एक; न--कभी नहीं; यज्जै:--यज्ञों के द्वारा; माईटम्--प्रायश्चित्त करना; अहति--सम्भव है।
जिस प्रकार गंदे पानी को कीचड़ में डालकर छाना नहीं जा सकता, अथवा जैसे मद्रासे मलिन हुए पात्र को मदिरा से स्वच्छ नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार नर-संहार काप्रायश्चित पशुओं की बलि देकर नहीं किया जा सकता।
"
अध्याय नौ: भगवान कृष्ण की उपस्थिति में भीष्मदेव का निधन
1.9भगवान् कृष्ण की उपस्थिति में भीष्मदेव का देह-त्यागसूत उवाचइति भीत: प्रजाद्रोहात्सर्वधर्मविवित्सया ।
ततो विनशन प्रागाद् यत्र देवव्रतोपतत् ॥
१॥
सूतः उबाच-- श्री सूत गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; भीत:--डरे हुए; प्रजा-द्रोहात्- प्रजा के मारे जाने से; सर्व--समस्त; धर्म--धर्म के कार्य; विवित्सया--जानने के लिए; ततः--तत्पश्चात्; विनशनम्--युद्ध-स्थल; प्रागात्--वे गए;यत्र--जहाँ; देव-ब्रतः--भीष्मदेव; अपतत्--मरने के लिये लेटे थे।
सूत गोस्वामी ने कहा : कुरुक्षेत्र के युद्ध स्थल में इतने सारे लोगों का वध करने केकारण घबराये हुए महाराज युधिष्ठिर उस स्थल पर गये, जहाँ नर-संहार हुआ था।
वहाँ परभीष्मदेव मरणासन्न होकर शरशय्या पर लेटे थे।
"
तदा ते भ्रातर: सर्वे सदश्वै: स्वर्णभूषितै: ।
अन्वगच्छन् रथैरविंप्रा व्यासधौम्यादयस्तथा ॥
२॥
तदा--तब; ते--वे सब; भ्रातर:--भाई; सर्वे--एकत्र; सत्-अश्वैः-- श्रेष्ठ घोड़ों द्वारा खींचे जानेवाले; स्वर्ण--सोने से;भूषितै:--विभूषित; अन्वगच्छनू-- अनुगमन किया; रथे:--रथों पर; विप्रा:--हे ब्राह्मणों; व्यास--व्यासदेव; धौम्य--धौम्य मुनि; आदय:--इत्यादि; तथा--उसी प्रकार।
उस समय उनके सारे भाई स्वर्णाभूषणों से सजे हुए उच्च कोटि के घोड़ों द्वारा खींचेजानेवाले सुन्दर रथों पर उनके पीछे-पीछे चल रहे थे।
उनके साथ व्यासदेव तथा धौम्य जैसेऋषि ( पाण्डवों के विद्वान पुरोहित ) तथा अन्य लोग थे।
"
भगवानपि विप्रर्षे रथेन सधनझय: ।
स तैर्व्यरोचत नृप: कुबेर इव गुह्कैः ॥
३॥
भगवान्--भगवान् ( श्रीकृष्ण ); अपि--भी; विप्र-ऋषे--हे ब्रह्मर्षियों; रथेन--रथ पर; स-धनझ्ञय: -- धनञ्जय ( अर्जुन )सहित; सः--वे; तैः--उनके द्वारा; व्ययोचत--अत्यन्त राजसी प्रतीत हो रहे थे; नृप:--राजा ( युधिष्ठिर ); कुवेर--देवताओं का भंडारी, कुबेर; इब--सहश; गुह्मकैः--गुह्मक नामक साथियों से
हे ब्रह्मर्षी, भगवान् श्रीकृष्ण भी, अर्जुन के साथ रथ पर सवार होकर पीछे-पीछे चलेआ रहे थे।
इस प्रकार राजा युधिष्टिर अत्यन्त राजसी प्रतीत हो रहे थे, मानो कुबेर अपनेसाथियों ( गुह्यकों ) से घिरा हो।
इृष्ठा निपतितं भूमौ दिवश्च्युतमिवामरम् ।
प्रणेमु: पाण्डवा भीष्मं सानुगा: सह चक्रिणा ॥
४॥
इष्टा--देखकर; निपतितम्--लेटे; भूमौ-- भूमि पर; दिवः--आकाश से; च्युतम्--गिरे हुए; इब--सहृश; अमरम्--देवता; प्रणेमु;--प्रणाम किया; पाण्डबवा:--पाण्डु-पुत्रों ने; भीष्मम्-- भीष्म को; स-अनुगा: --अपने छोटे भाइयों सहित;सह--सहित; चक्रिणा --चक्रधारी भगवान्।
आकाश से आ गिरे देवता के समान उन्हें ( भीष्मदेव को ) भूमि पर लेटे देखकरपाण्डव-सम्राट युधिष्ठटिर ने अपने छोटे भाइयों तथा भगवान् कृष्ण समेत उन्हें प्रणाम किया।
"
इृष्ठा निपतितं भूमौ दिवश्च्युतमिवामरम् ।
प्रणेमु: पाण्डवा भीष्म सानुगा: सह चक्रिणा ॥
४॥
इृष्ठा--देखकर; निपतितम्--लेटे; भूमौ-- भूमि पर; दिव:ः--आकाश से; च्युतम्--गिरे हुए; इब--सहृश; अमरम्ू-- देवता; प्रणेमु:--प्रणाम किया; पाण्डवा: --पाण्डु-पुत्रों ने; भीष्मम्-- भीष्म को; स-अनुगा:--अपने छोटे भाइयों सहित; सह--सहित; चक्रिणा--चक्रधारी भगवान्.
आकाश से आ गिरे देवता के समान उन्हें ( भीष्यदेव को ) भूमि पर लेटे देखकर पाण्डव-सम्राट युधिष्ठटिर ने अपने छोटे भाइयों तथा भगवान् कृष्ण समेत उन्हें प्रणाम किया।
"
तत्र ब्रह्मर्षय: सर्वे देवर्षयश्चव सत्तम ।
राजर्षयश्व तत्रासन् द्रष्टू भरतपुड़वम् ॥
५॥
तत्र--वहाँ; ब्रह्म-ऋषय: --ब्राह्मणों में ऋषि; सर्वे--समस्त; देव-ऋषय:--देवताओं में ऋषि; च--तथा; सत्तम--सतोगुण को प्राप्त; राज-ऋषय: --राजाओं में ऋषि; च--तथा; तत्र--उस स्थान पर; आसन्--उपस्थित थे; द्रष्टम्--देखने के लिए; भरत--राजा भरत के वंशजों में; पुड्रवम्--प्रधान को ।
राजा भरत के वंशजों में प्रधान ( भीष्म ) को देखने के लिए ब्रह्माण्ड के सारे सतोगुणीमहापुरुष, यथा देवर्षि, ब्रह्मर्षि तथा राजर्षि वहाँ पर एकत्र हुए थे।
"
पर्वतो नारदो धौम्यो भगवान् बादरायण: ।
बृहदश्वो भरद्वाज: सशिष्यो रेणुकासुत: ॥
६॥
वस्िष्ठ इन्द्रप्रमदर्त्रितो गृत्समदोसितः ।
कक्षीवान् गौतमोअत्रिश्व कौशिको थ सुदर्शन: ॥
७॥
पर्वतः--पर्वत मुनि; नारद: --नारद मुनि; धौम्य:--धौम्य; भगवान्--ईश्वर के अवतार; बादरायण:--व्यासदेव;बृहदश्च:--बृहदश्च; भरद्वाज:-- भरद्वाज; स-शिष्य:--अपने शिष्यों सहित; रेणुका-सुत:--परशुराम; वसिष्ठ:--वशिष्ठ;इन्द्रप्रमद:--इन्द्रप्रमद; त्रित:--त्रित; गृत्समद: --गृत्समद; असित:--असित; कक्षीवान्--कक्षीवान; गौतम: --गौतम;अत्रिः--अत्रि; च--तथा; कौशिक: --कौशिक; अथ--तथा; सुदर्शन: --सुदर्शन ।
पर्वत मुनि, नारद, धौम्य, ईश्वर के अवतार व्यास, बृहदश्च, भरद्वाज, परशुराम तथाउनके शिष्य, वसिष्ठ, इन्द्रप्रमद, त्रित, गृत्समद, असित, कक्षीवान्, गौतम, अत्रि, कौशिकतथा सुदर्शन जैसे सारे ऋषि वहाँ उपस्थित थे।
"
अन्ये च मुनयो ब्रह्मन् ब्रह्मगतादयोमला: ।
शिष्यैरुपेता आजग्मु: कश्यपाज्धिरसादय: ॥
८॥
अन्ये--अन्य कई; च-- भी; मुनय:--मुनिगण; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मणों; ब्रह्मगत--शुकदेव गोस्वामी; आदय: --इत्यादि;अमला:--पूर्ण रूप से शुद्ध; शिष्यैः--शिष्यों के द्वारा; उपेता:--साथ-साथ; आजम्मु:--आये; कश्यप--कश्यप;आ्विस--आंगिरस; आदयः--आदि।
तथा शुकदेव गोस्वामी एवं अन्य पवित्रात्माएं, कश्यप, आंगिरस इत्यादि अपने-अपनेशिष्यों के साथ वहाँ पर आये।
"
तानू समेतान् महाभागानुपलभ्य वसूत्तम: ।
पूजयामास धर्मज्ञो देशकालविभागवित् ॥
९॥
तान्--उन सभी; समेतान्--समवेत; महा-भागान्--अत्यन्त शक्तिशाली पुरुषों को; उपलभ्य--पाकर; वसु-उत्तम:--बसुओं में श्रेष्ठ ( भीष्मदेव ने ); पूजयाम् आस--स्वागत किया; धर्म-ज्ञ:--धर्म का ज्ञाता; देश--स्थान; काल--समय;विभाग-वित्--जो देश-काल के अनुसार अपने को समंजित कर लेता है।
आठ वसुओं में सर्वश्रेष्ठ भीष्मदेव ने वहाँ पर एकत्र हुए समस्त महान् तथा शक्तिसम्पन्नऋषियों का स्वागत किया, क्योंकि भीष्मदेव को देश तथा काल के अनुसार समस्त धार्मिकनियमों की भलीभाँति जानकारी थी।
"
कृष्णं च तत्प्रभावज्ञ आसीन॑ जगदीश्वरम् ।
हृदिस्थं पूजयामास माययोपात्तविग्रहम् ॥
१०॥
कृष्णम्-भगवान् श्रीकृष्ण को; च--भी; तत्--उनका; प्रभाव-ज्ञ:--महिमा को जाननेवाले ( भीष्म ); आसीनम्--बैठेहुए; जगतू-ईश्वरम्-ब्रह्माण्ड के स्वामी को; हृदि-स्थम्--हृदय में आसीन; पूजयाम् आस--पूजा; मायया--अन्तरंगाशक्ति के द्वारा; उपात्त--प्रकट; विग्रहम्-स्वरूप को |
भगवान् श्रीकृष्ण प्रत्येक के हृदय में आसीन हैं, तो भी वे अपनी अन्तरंगा शक्ति सेअपना दिव्य रूप प्रकट करते हैं।
ऐसे भगवान् साक्षात भीष्मदेव के समक्ष बैठे हुए थे।
औरचूँकि भीष्मदेव उनकी महिमा से परिचित थे, अतएव उन्होंने उनकी विधिवत् पूजा की।
"
पाण्डुपुत्रानुपासीनान् प्रश्नयप्रेमसज्भतान् ।
अभ्याचष्टानुरागाश्रैरन्धी भूतेन चक्षुषा ॥
११॥
पाण्डु--महाराज युध्िष्ठिर तथा उनके भाइयों के दिवंगत पिता के; पुत्रान्--पुत्रों को; उपासीनान्--पास ही शान्त बैठे हुए;प्रश्रय--अभिभूत; प्रेम--प्रेमभाव में; सड्गतान्--एकत्र हुए; अभ्याचष्ट--बधाई दी; अनुराग -प्रेमपूर्वक; अश्रै:--आनन्दाश्रुओं द्वारा; अन्धी भूतेन--आप्लावित; चक्षुषा--नेत्रों से |
पास ही महाराज पाण्डु के सारे पुत्र शान्त बैठे थे और अपने मरणासन्न पितामह के प्रेमसे अभिभूत थे।
यह देखकर भीष्मदेव ने उन्हें भावपूर्ण बधाई दी।
उनके नेत्रों में आनन्दा श्रुथे, क्योंकि वे प्रेम तथा स्नेह से आप्लावित हो गये थे।
"
अहो कष्टमहो न्याय्यं यद्यूयं धर्मनन्दना: ।
जीवितु नार्हथ क्लष्टं विप्रधर्माच्युताश्रया: ॥
१२॥
अहो--अहो; कष्टम्--कितना कष्ट; अहो --ओह; अन्याय्यम्--कितना अन्याय; यत्-- क्योंकि; यूयम्--तुम सभी; धर्म-नन्दना:--साक्षात् धर्म के पुत्र; जीवितुमू--जीवित रहने के लिए; न--कभी नहीं; अर्हथ--योग्य हो; क्लिप्टम्--कष्ट;विप्र--ब्राह्मण; धर्म--धर्म; अच्युत--ई श्वर द्वारा; आश्रया: --सुरक्षित होकर
भीष्मदेव ने कहा : ओह, तुम लोगों ने, साक्षात् धर्म के पुत्र होते हुए भी, कितनीयातनाएँ तथा कितना अन्याय सहा है।
उन कष्टों के अन्तर्गत तुम सबको जीवित रहने कीआशा न थी, फिर भी ब्राह्मणों, ईश्वर तथा धर्म ने तुम्हारी रक्षा की है।
"
संस्थितेडतिरथे पाण्डौ पृथा बालप्रजा वधू: ।
युष्पत्कृते बहून् क्लेशान् प्राप्ता तोकवती मुहु: ॥
१३॥
संस्थिते--मृत्यु के बाद; अति-रथे--महान सेनानायक; पाण्डौ--पाण्डु की; पृथा--कुन्ती; बाल-प्रजा--छोटे-छोटेबच्चों वाले; वधू:--मेरी पुत्रवधू; युष्मत्-कृते--तुम्हारे कारण; बहूनू-- अनेक; क्लेशान्--कष्टों को; प्राप्ता--भोगकर;तोक-वती--बड़े-बड़े बालकों के होने पर भी; मुहुः--निरन्तर ।
जहाँ तक मेरी पुत्रवधू कुन्ती का सम्बन्ध है, वह महान् सेनापति पाण्डु की मृत्यु होने परअनेक सारे बच्चों के साथ विधवा हो गई और इस के कारण उसने घोर कष्ट सहे।
और अबजब तुम लोग बड़े हो गये हो, तो भी वह तुम्हारे कर्मों के कारण काफी कष्ट उठा रही है।
"
सर्व कालकृतं मन्ये भवतां च यदप्रियम् ।
सपालो यद्वशे लोको वायोरिव घनावलि: ॥
१४॥
सर्वम्--यह सब; काल-कृतम्--काल द्वारा किया गया; मन्ये--मैं सोचता हूँ; भवताम् च--तुम्हारे लिए भी; यत्--जोभी; अप्रियम्--अप्रिय; स-पाल:--शासकों समेत; यत्-वशे--उस काल के वशीभूत; लोक:--प्रत्येक लोक में सभीलोग; वायो: --वायु ले जाती है; इब--सहृश; घन-आवलि:--बादलों का समूह |
मेरे विचार से यह सब प्रबल काल के कारण हुआ है, जिसके वशीभूत होकर हर कोईव्यक्ति प्रत्येक लोक में मारा मारा फिरता है, जिस प्रकार वायु द्वारा बादल इधर से उधर लेजाये जाते हैं।
"
यत्र धर्मसुतो राजा गदापाणिर्वृकोदर: ।
कृष्णोस््री गाण्डिवं चाप॑ सुहत्कृष्णस्ततो विपत् ॥
१५॥
यत्र--जहाँ; धर्म-सुतः--धर्मराज का पुत्र; राजा--राजा; गदा-पाणि:--हाथ में शक्तिशाली गदा धारण करनेवाला;वृकोदरः--भीम; कृष्ण: --अर्जुन; अस्त्री--अस्त्र धारण करनेवाला; गाण्डिवम्--गाण्डीव को; चापम्-- धनुष; सुहत्--शुभेच्छु; कृष्ण: -- भगवान् कृष्ण; ततः--उससे; विपत्--विपत्ति ।
ओह, अपरिहार्य काल का प्रभाव कितना आश्चर्यजनक होता है, यह अपरिवर्तनीय हैअन्यथा धर्मराज के पुत्र युधिष्ठिर, गदाधारी भीम तथा गाण्डीव अस्त्र धारण करनेवालेबलशाली महानू धनुर्धर अर्जुन एवं सबके ऊपर पाण्डवों के प्रत्यक्ष हितैषी कृष्ण के होतेहुए यह विपत्ति क्यों आती ?"
न हास्य कर्हिचिद्राजन् पुमान् वेद विधित्सितम् ।
यद्विजिज्ञासया युक्ता मुह्यन्ति कबयोपि हि ॥
१६॥
न--कभी नहीं; हि--निश्चय ही; अस्य--उसका; कर्हिचित्--कोई भी; राजन्--हे राजा; पुमान्--कोई; वेद--जानताहै; विधित्सितम्--योजना; यत्--जो; विजिज्ञासबा--जिज्ञासा; युक्ता:--लगा हुआ; मुहान्ति--मोहग्रस्त; कवय:--बड़े -बड़े विचारक; अपि-- भी; हि--निश्चय ही।
हे राजन् भगवान् ( श्रीकृष्ण ) की योजना को कोई नहीं जान सकता।
यद्यपि बड़े-बड़ेचिन्तक उनके विषय में जिज्ञासा करते हैं, लेकिन वे मोहित हो जाते हैं।
"
तस्मादिदं दैवतन्त्रं व्यवस्य भरतर्षभ ।
तस्यानुविहितोनाथा नाथ पाहि प्रजा: प्रभो ॥
१७॥
तस्मात्--अतएव; इृदम्--यह; दैव-तन्त्रमू-- भाग्य का वशीकरण; व्यवस्य--निश्चित करके; भरत-ऋषभ--हे भरतवंशमें श्रेष्ठ; तस्थ--उसके द्वारा; अनुविहित:--इच्छित; अनाथा: -- असहाय; नाथ--हे स्वामी; पाहि--रक्षा करो; प्रजा: --जनता की; प्रभो-हे प्रभु।
अतएव हे भरतवंश में श्रेष्ठ ( युधिष्ठिर ), मैं मानता हूँ कि यह सब भगवान् की योजनाके अन्तर्गत है।
तुम भगवान् की अचिन्त्य योजना को स्वीकार करो और उसका पालनकरो।
अब तुम नियुक्त किए गये शासनाध्यक्ष हो, अतएव हे महाराज, आपको अब उनलोगों की देखभाल करनी चाहिए जो असहाय हो चुके हैं।
"
एष वे भगवान्साक्षादाद्यो नारायण: पुमान् ।
मोहयन्मायया लोकं गूढश्चरति वृष्णिषु ॥
१८॥
एष:--यह; वै--निश्चय ही; भगवान्-- भगवान्; साक्षात्--मूल; आद्य:--प्रथम; नारायण:--परमे श्वर ( जल में शयनकरनेवाले ); पुमान्--परम भोक्ता; मोहयन्--मोहित करनेवाला; मायया--स्वसर्जित शक्ति द्वारा; लोकम्- ग्रहों को;गूढः--अकल्पनीय; चरति--विचरण करता है; वृष्णिषु--वृष्णिकुल में ।
ये श्रीकृष्ण अकल्पनीय आदि भगवान् ही हैं।
ये प्रथम नारायण अर्थात् परम भोक्ता हैं।
लेकिन ये राजा वृष्णि के वंशजों में हमारी ही तरह विचरण कर रहे हैं और हमें स्व-सृजितशक्ति के द्वारा मोहग्रस्त कर रहे हैं।
"
अस्यानुभावं भगवान् वेद गुह्मतमं शिव: ।
देवर्षिनारद: साक्षाद्धभवान् कपिलो नृप ॥
१९॥
अस्य--उनकी; अनुभावम्--महिमा; भगवान्--सर्वशक्तिमान; वेद--जानते हैं; गुह्य-तमम्--अत्यन्त गोपनीय; शिव:--शिवजी; देव-ऋषि: --देवताओं में महान ऋषि; नारद:--नारद; साक्षात्-प्रत्यक्ष; भगवान्-- भगवान्; कपिल: --कपिल; नृप--हे राजा
हे राजन, शिवजी, देवर्षि नारद तथा भगवान् के अवतार कपिल--ये सभी प्रत्यक्षसम्पर्क द्वारा भगवान् की महिमा के विषय में अत्यन्त गोपनीय जानकारी रखते हैं।
"
यं मन्यसे मातुलेयं प्रियं मित्र सुहृत्तमम् ।
अकरो: सचिवं दूतं सौहदादथ सारधिम् ॥
२०॥
यमू--व्यक्ति; मन्यसे--सोचते हो; मातुलेयम्--ममेरे भाई को; प्रियम्--अत्यन्त प्रिय; मित्रम्--मित्र; सुहत्-तमम्--अत्यधिक हितैषी; अकरोः--किया गया; सचिवम्--मन्त्री; दूतम्--दूत; सौहदात्--शुभ कामना से; अथ--तत्पश्चात्;सारथिम्--सारथी ।
हे राजन, तुमने अज्ञानवश ही जिस व्यक्ति को अपना ममेरा भाई, अपना अत्यन्त प्रियमित्र, शुभेषी, मन्त्री, दूत, उपकारी इत्यादि माना है, वे स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण हैं।
"
सर्वात्मन: समहशो ह्ाद्दवस्यानहड्कृते: ।
तत्कृतं मतिवैषम्यं निरवद्यस्थ न क्नचित् ॥
२१॥
सर्व-आत्मन:--प्रत्येक जीव के हृदय में वास करनेवाले का; सम-हृशः--सबों पर समान रूप से दयालु होनेवाले का;हि--निश्चय ही; अद्बयस्थ--परम का; अनहड्कृतेः--मिथ्या अहंकार की सारी पहचान से मुक्त; ततू-कृतम्--उनके द्वारासब कुछ किया गया; मति-- चेतना; वैषम्यम्--विषमता, अन्तर; निरवद्यस्थ--समस्त आसक्ति से मुक्त हुआ; न--कभीनहीं; क्चितू--किसी अवस्था मेंपूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् होने के कारण वे प्रत्येक के हृदय में विद्यमान हैं।
वे सबों परसमान रूप से दयालु हैं और भेदाभेद के मिथ्या अहंकार से सर्वथा मुक्त हैं।
अतएवं वे जोकुछ करते हैं, वह भौतिक उन्माद से मुक्त होता है।
वे समदर्शा हैं।
"
तथाप्येकान्तभक्तेषु पश्य भूपानुकम्पितम् ।
यन्मेअसूंस्त्यजत: साक्षात्कृष्णो दर्शममागत: ॥
२२॥
तथापि--फिर भी; एकान्त--एकनिष्ठ; भक्तेषु --भक्तों में; पश्य--देखो; भू-प--हे राजा; अनुकम्पितम्--कितनादयावान; यत्--जिसके लिए; मे--मेरा; असूनू--जीवन; त्यजत:--समाप्त करते हुए; साक्षात्-- प्रत्यक्ष; कृष्ण:--भगवान्; दर्शनमू--सामने; आगत:--कृपा करके आये हैं।
सबों पर समान रूप से दयालु होते हुए भी वे अब कृपापूर्वक मेरे समक्ष आये हैं, जबमें मेरे जीवन का अंत कर रहा हूँ, क्योंकि मैं उनका अनन्य सेवक हूँ।
"
भकत्यावेश्य मनो यस्मिन् वाचा यन्नाम कीर्तयन् ।
त्यजन् कलेवरं योगी मुच्यते कामकर्मभि: ॥
२३॥
भक्त्या--भक्तिपूर्वक; आवेश्य--चिन्तन करके; मन: --मन; यस्मिन्--जिसमें; वाचा--शब्दों से; यत्--कृष्ण का;नाम--पवित्र नाम; कीर्तबन्--कीर्तन करते हुए; त्यजन्--परित्याग करते हुए; कलेवरम्--इस भौतिक शरीर को;योगी--भक्त; मुच्यते--मोक्ष पाता है; काम-कर्मभि:--सकाम कर्मों से ।
वे पुरुषोत्तम भगवान् जो एकाग्र भक्ति तथा चिन्तन से एवं पवित्र नाम के कीर्तन सेभक्तों के मन में प्रकट होते हैं, वे उन भक्तों को उनके द्वारा भौतिक शरीर को छोड़ते समयसकाम कर्मो के बन्धन से मुक्त कर देते हैं।
"
स देवदेवो भगवान् प्रतीक्षतांकलेवरं यावदिदं हिनोम्यहम् ।
प्रसन्नहासारुणलोचनोल््लस-न्मुखाम्बुजो ध्यानपथश्चतुर्भुज: ॥
२४॥
सः--वे; देव-देव:--देवताओं के भी देवता, प्रभुओं में श्रेष्ठ भगवान्-- भगवान्; प्रतीक्षताम्--कृपया प्रतीक्षा करें;'कलेवरम्--शरीर को; यावत्--जब तक; इृदम्--इस; हिनोमि--त्याग दूँ; अहम्--मैं; प्रसन्न--प्रसन्न; हास--हँसते हुए;अरुण-लोचन--प्रातःकालीन सूर्य के समान लाल नेत्र; उल्लसत्--सुन्दर ढंग से सजाये; मुख-अम्बुज:--कमल केसमान उनका मुख; ध्यान-पथ:--मेरे ध्यान के मार्ग में; चतुर-भुज:--चार भुजाओंबाले नारायण ( भीष्मदेव द्वारा आराध्यदेव )चतुर्भुज-रूप
उगते सूर्य की भाँति अरुणनेत्रों तथा सुन्दर रीति से सजाये, मुस्करातेकमलमुख वाले मेरे भगवान्, आप उस क्षण तक यहीं मेरी प्रतीक्षा करें, जब तक मैं अपनायह भौतिक शरीर छोड़ न दूँ।
"
सूत उवाचयुधिष्टिरस्तदाकर्ण्य शयानं शरपञ्जरे ।
अपृच्छद्विविधान्धर्मानृषीणां चानुश्रण्वताम् ॥
२५॥
सूतः उबाच-- श्री सूत गोस्वामी ने कहा; युथिष्टिर:--राजा युथिष्ठिर; तत्--वह; आकर्ण्य--सुनकर; शयानमू्--लेटे हुए;शर-पञ्ञरे--बाणों की शय्या पर; अपृच्छत्--पूछा; विविधान्--विविध; धर्मानू--कर्तव्यों को; ऋषीणाम्--ऋषियों का;च--तथा; अनुशभ्रुण्वताम्--सुनने के बाद।
सूत गोस्वामी ने कहा : भीष्मदेव को इस प्रकार आग्रहपूर्ण स्वर में बोलते देखकर,महाराज युधिष्ठिर ने समस्त महर्षियों की उपस्थिति में उनसे विभिन्न धार्मिक कृत्यों केअनिवार्य सिद्धान्त पूछे।
"
पुरुषस्वभावविहितान् यथावर्ण यथाश्रमम् ।
वैराग्यरागोपाधिभ्यामाम्नातोभयलक्षणान् ॥
२६॥
पुरुष--मनुष्य; स्व-भाव--अपने गुणों से; विहितान्--विहित, अनुमत; यथा--के अनुसार; वर्णम्--जातियों कावर्गीकरण; यथा--के अनुसार; आश्रमम्--जीवन के आश्रम; बैराग्य--विरक्ति; राग--आसक्ति; उपाधिभ्याम्--ऐसीउपाधियों से; आम्नात--क्रमबद्ध रूप से; उभय--दोनों; लक्षणान्--लक्षणों को ।
महाराज युथ्रिष्ठिर के पूछे जाने पर भीष्मदेव ने सर्वप्रथम व्यक्ति की योग्यताओं केअनुसार जातियों के वर्गीकरण (वर्ण ) तथा जीवन के आश्रमों का वर्णन किया।
फिर उन्होंने क्रमबद्ध रूप से निवृत्ति तथा प्रवृत्ति नामक दो उपखण्डों का वर्णन किया।
"
दानधर्मान् राजधर्मान् मोक्षधर्मान् विभागश: ।
स्त्रीधर्मान् भगवद्धर्मानू समासव्यासयोगत: ॥
२७॥
दान-धर्मान्--दान के कृत्यों को; राज-धर्मान्--राजाओं के राज्य विषयक कार्य-कलापों को; मोक्ष-धर्मानू--मोक्ष केकार्यों को; विभागश: --विभागानुसार; स्त्री-धर्मानू--स्त्रियों के कर्तव्य को; भगवत्-धर्मानू--भक्तों के कार्यों को;समास--सामान्यता; व्यास--स्पष्ट रूप से; योगत:--योग के द्वारा।
तब उन्होंने दान-कर्मों, राजा के राज्य-विषयक कार्यकलापों तथा मोक्ष-कर्मों कीखणड-वार व्याख्या की।
फिर उन्होंने स्त्रियों तथा भक्तों के कर्तव्यों का संक्षेप में विशदरूप से वर्णन किया।
"
धर्मार्थकाममोक्षांश्व सहोपायान् यथा मुने ।
नानाख्यानेतिहासेषु वर्णयामास तत्त्ववित् ॥
२८॥
धर्म--वृत्तिपरक कार्य; अर्थ--आर्थिक विकास; काम--च्छा पूर्ति; मोक्षानू--चरम-मुक्ति; च--तथा; सह--साथ;उपायान्--उपायों के; यथा--जिस तरह; मुने--हे मुनि; नाना--अनेक; आख्यान--ऐतिहासिक कथाओं के पाठ द्वारा;इतिहासेषु--इतिहासों में; वर्णयाम् आस--वर्णन किया; तत्त्व-वित्-सत्य के ज्ञाता।
तत्पश्चात्, उन्होंने इतिहास से उद्धरण देते हुए, विभिन्न आश्रमों तथा जीवन कीअवस्थाओं के वृत्तिपरक कार्यों का वर्णन किया, क्योंकि वे उस सत्य से भलीभाँतिपरिचित थे।
"
धर्म प्रवदतस्तस्य स काल: प्रत्युपस्थित: ।
यो योगिनश्डन्दमृत्योर्वाज्छितस्तूत्तरायण: ॥
२९॥
धर्मम्--वृत्तिपरक कार्यो को; प्रवदतः--वर्णन करते हुए; तस्य--उसका; सः--वह; काल:--समय; प्रत्युपस्थित: --प्रकट हुआ; यः--जो है; योगिन:--योगियों के लिए; छन्द-मृत्यो: --इच्छित समय में मृत्यु करनेवाले का; वाउ्छित:--केद्वारा इच्छित; तु--लेकिन; उत्तरायण:--वह अवधि, जब सूर्य उत्तरी क्षितिज पर रहता है।
जब भीष्मदेव वृत्तिपरक कर्तव्यों का वर्णन कर रहे थे, तभी सूर्य उत्तरी गोलार्द्द कीओर चला गया।
इच्छानुसार मरनेवाले योगी इसी अवधि की कामना करते हैं।
"
तदोपसंहत्य गिर: सहस्रणी-विमुक्तसड़ं मन आदिपूरुषे ।
कृष्णे लसत्पीतपटे चतुर्भुजेपुरःस्थितेड्मीलितहग्व्यधारयत् ॥
३०॥
तदा--उस समय; उपसंहत्य--हटाकर; गिर: --वाणी; सहस्त्रणी:-- भीष्मदेव ( जो हजारों विद्याओं तथा कलाओं मेंनिष्णात थे ); विमुक्त-सड्रम्--अन्य सारी बातों से पूर्ण रूप से मुक्त; मनः--मन; आदि-पूरुषे-- आदि भगवान्; कृष्णे--कृष्ण में; लसतू-पीत-पटे--पीताम्बर से सुशोभित; चतुर्-भुजे--चार भुजाओं वाले आदि नारायण में; पुर: --समक्ष;स्थिते--खड़े; अमीलित--खुले हुए; हक्--दृष्टि; व्यधारयत्--स्थिर कर लिया।
तत्पश्चात् वह व्यक्ति, जो हजारों अर्थों से युक्त विभिन्न विषयों पर बोलता था तथाहजारों युद्धों में लड़ चुका था और हजारों व्यक्तियों की रक्षा कर चुका था, उसने बोलनाबन्द कर दिया।
उसने समस्त बन्धन से पूर्ण रूप से मुक्त होकर, अन्य सभी वस्तुओं सेअपना मन हटाकर, अपने खुले नेत्रों को उन आदि भगवान् श्रीकृष्ण पर टिका दिया, जोउनके समक्ष खड़े थे, जो चार भुजाओं वाले थे और जगमग करते एवं चमचमाते हुए पीतवस्त्र धारण किये थे।
"
विशुद्धया धारणया हताशुभ-स्तदीक्षयैवाशु गतायुधश्रम: ।
निवृत्तसर्वेन्द्रियवृत्तिविभ्रम-स्तुष्टाव जन्यं विसृजझनार्दनम् ॥
३१॥
विशुद्धबा--विशुद्ध; धारणया-- ध्यान से; हत-अशुभ:-- भौतिक अस्तित्व के अशुभ गुणों को जिसने कम कर दिया है;तत्--उसको; ईक्षया--देखने से; एब--केवल; आशु--तुरन््त; गता--गये हुए; युध--तीरों से; श्रम:-- थकान;निवृत्त--रोका जाकर; सर्व--समस्त; इन्द्रिय--इन्द्रियों के; वृत्ति--कार्यकलाप; विशभ्रम:--लिप्त होकर; तुष्टाब--उसनेप्रार्थना की; जन्यम्-- भौतिक आश्रय; विसृजन्-्यागते हुए; जनार्दनम्--जीवों के नियन्ता को
शुद्ध ध्यान द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण को देखते हुए, वे तुरन्त समस्त भौतिक अशुभअवस्थाओं से और तीरों के घाव से होनेवाली शारीरिक पीड़ा से मुक्त हो गये।
इस प्रकारउनकी सारी इन्द्रियों के कार्यकलाप रूक गये और उन्होंने शरीर को त्यागते हुए समस्तजीवों के नियन्ता की दिव्य भाव से स्तुति की।
"
श्रीभीष्पम उवाच: इति मतिरुपकल्पिता वितृष्णा भगवति सात्वतपुड्रवे विभूम्नि ।
स्वसुखमुपगते क्लचिद्विहर्तुप्रकृतिमुपेयुषि यद्धवप्रवाह: ॥
३२॥
श्री-भीष्य: उबाच--श्री भीष्मदेव ने कहा; इति--इस प्रकार; मतिः--सोचना, अनुभव करना तथा चाहना;उपकल्पिता--नियुक्त करना; वितृष्णा--समस्त इन्द्रिय इच्छाओं से मुक्त; भगवति-- भगवान् में; सात्वत-पुड्रवे-- भक्तोंके नेता में; विभूम्नि--परम; स्व-सुखम्--आत्म-तोष; उपगते--प्राप्त हुए; क्रचितू--कभी-कभी; विहर्तुम्--दिव्यआनन्द से; प्रकृतिमू--भौतिक जगत में; उपेयुषि--स्वीकार करें; यत्-भव--जिनसे सृष्टि; प्रवाह:--बनी है तथा विनष्टहोती है
भीष्मदेव ने कहा : अभी तक मैं जो सोचता, जो अनुभव करता तथा जो चाहता था,वह विभिन्न विषयों तथा वृत्तियों के अधीन था, किन्तु अब मुझे उसे परम शक्तिमान भगवान्श्रीकृष्ण में लगाने दो।
वे सदैव आत्मतुष्ट रहनेवाले हैं, किन्तु कभी-कभी भक्तों के नायकहोने के कारण, इस भौतिक जगत में अवतरित होकर दिव्य आनन्द-लाभ करते हैं, यद्यपियह सारा भौतिक जगत उन्हीं के द्वारा सृजित है।
"
त्रिभुवनकमनं तमालवर्णरविकरगौरवराम्बरं दधाने ।
वपुरलककुलावृताननाब्जंविजयसखे रतिरस्तु मेडउनवद्या ॥
३३॥
त्रि-भुवन--तीनों लोक; कमनम्--अभीष्ट; तमाल-वर्णम्--तमालवृक्ष जैसे नीले रंगवाले; रवि-कर--सूर्य की किरणोंवाला; गौर--सुनहरा रंग; वराम्बरम्--चमचमाता वस्त्र; दधाने--पहने हुए; वपु:--शरीर; अलक-कुल-आवृत--चन्दनकी रचना से आवृत; अनन-अब्जम्--कमल के समान मुख; विजय-सखे--अर्जुन के मित्र में; रति: अस्तु--आसक्ति हो;मे--मेरी; अनवद्या-- फल की इच्छा से रहित, निष्काम ।
श्रीकृष्ण अर्जुन के घनिष्ठ मित्र हैं।
वे इस धरा पर अपने दिव्य शरीर सहित प्रकट हुएहैं, जो तमाल वृक्ष सहश नीले रंग का है।
उनका शरीर तीनों लोकों ( उच्च, मध्य तथाअघोलोक ) में हर एक को आकृष्ट करनेवाला है।
उनका चमचमाता पीताम्बर तथाचन्दनचर्चित मुखकमल मेरे आकर्षण का विषय बने और मैं किसी प्रकार के फल कीइच्छा न करूँ।
"
युधि तुरगरजोविधूम्रविष्वक् -कचलुलितश्रमवार्यलड्कृतास्ये ।
मम निशितशरैर्विभिद्यमान-त्वचि विलसत्कवचेस्तु कृष्ण आत्मा ॥
३४॥
युधि--युद्ध- भूमि में; तुरग--घोड़े; रज:-- धूल; विधूम्र--धुएँ के रंग में परिणत; विष्वक्--लहराते; कच--बाल;लुलित--बिखरे हुए; श्रमवारि--पसीना; अलड्कृत--सुशोभित; आस्ये --मुख पर; मम--मेंरे; निशित--नुकीले;शरैः--वाणों से; विभिद्यमान--बिंधा हुआ; त्वचि--खाल में; विलसत्--आनन्द लेते हुए; कवचे--कवच में; अस्तु--हो; कृष्णे-- श्रीकृष्ण में; आत्मा--मन
युद्धक्षेत्र में ( जहाँ मित्रतावश श्रीकृष्ण अर्जुन के साथ रहे थे) भगवान् कृष्ण केलहराते केश घोड़ों की टापों से उठी धूल से धूसरित हो गये थे तथा श्रम के कारण उनकामुख-मण्डल पसीने की बूँदों से भीग गया था।
मेरे तीक्ष्ण बाणों से बने घावों से इनअलंकरणों की शोभा उन्हें अच्छी लग रही थी।
मेरा मन उन्हीं श्रीकृष्ण के पास चले।
"
सपदि सखिवचो निशम्य मध्येनिजपरयोर्बलयो रथं निवेश्य ।
स्थितवति परसैनिकायुरक्ष्णाहतवति पार्थसखे रतिर्ममास्तु ॥
३५॥
सपदि--युद्ध-भूमि में; सखखि-वच:--मित्र का आदेश; निशम्य--सुनकर; मध्ये--बीच में; निज--अपना; परयो:--तथाविपक्षीदल; बलयो:--शक्ति; रथम्--रथ में; निवेश्य--प्रविष्ट होकर; स्थितवति--वहाँ रुक कर; पर-सैनिक--विपक्षीदल के सैनिकों की; आयुः--आयु, उप्र; अक्ष्णा--देखने से; हतवति--कम करने का कार्य, छीन लेना; पार्थ--पृथा-पुत्र अर्जुन का; सखे--मित्र में; रतिः--घनिष्ठ सम्बन्ध, प्रीति; मम--मेरा; अस्तु--हो अपने मित्र के आदेश का पालन करते हुए
भगवान् श्रीकृष्ण कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल मेंअर्जुन तथा दुर्योधन के सैनिकों के बीच में प्रविष्ट हो गये और वहाँ स्थित होकर उन्होंनेअपनी कृपापूर्ण चितवन से विरोधी पक्ष की आयु क्षीण कर दी।
यह सब शत्रु पर उनकेइृष्टिपात करने मात्र से ही हो गया।
मेरा मन उन कृष्ण में स्थिर हो।
"
व्यवहितपृतनामुखं निरीक्ष्यस्वजनवधाद्विमुखस्य दोषबुद्धया ।
कुमतिमहरदात्मविद्यया य-श्वरणरति: परमस्य तस्य मेउस्तु ॥
३६॥
व्यवहित--दूर खड़े; पृतना--सैनिकों के; मुखम्--मुँह को; निरीक्ष्य--देखकर; स्व-जन--सम्बन्धीगण; वधात्--मारनेसे; विमुखस्थ--हिचकनेवाले का; दोष-बुद्धया--दूषित बुद्धि से; कुमतिम्--अल्पज्ञान; अहरत्--समूल नष्ट किया;आत्म-विद्यया--दिव्य ज्ञान से; यः--जो; चरण--चरणों का; रतिः--आकर्षण; परमस्य--परम का; तस्य--उस; मे--मेरा; अस्तु--हो
जब युद्धक्षेत्र में अर्जुन अपने समक्ष सैनिकों तथा सेनापतियों को देखकर अज्ञान सेकलुषित हो रहा लग रहा था, तो भगवान् ने उसके अज्ञान को दिव्य ज्ञान प्रदान करकेसमूल नष्ट कर दिया।
उनके चरणकमल सदैव मेरे आकर्षण के लक्ष्य बने रहें।
"
स्वनिगममपहाय मत्प्रतिज्ञा-मृतमधिकर्तुमवप्लुतो रथस्थ: ।
धृतरथचरणो भ्ययाच्चलद्गु-हरिरिव हन्तुमिभं गतोत्तरीय: ॥
३७॥
स्व-निगमम्-- अपनी सत्यनिष्ठा; अपहाय--निरस्त करने के लिए; मत्-प्रतिज्ञामू--मेरी प्रतिज्ञा; ऋतम्--वास्तविक;अधि--अधिक; कर्तुमू--करने के लिए; अवप्लुतः--नीचे उतरते हुए; रथ-स्थ:--रथ से; धृत--ग्रहण करके; रथ--रथ; चरण:--पहिया, चक्र; अभ्ययात्--तेजी से चले; चलदगु:--पृथ्वी को पद-दलित करते; हरिः--सिंह; इब--सहश; हन्तुमू--मारने के लिए; इभम्--हाथी को; गत--एक ओर छोड़कर; उत्तरीय:--उत्तरीय, ओढ़ने का वस्त्र,दुपट्टा |
मेरी इच्छा को पूरी करते हुए तथा अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर, वे रथ से नीचे उतर आये,उसका पहिया उठा लिया और तेजी से मेरी ओर दौड़े, जिस तरह कोई सिंह किसी हाथी कोमारने के लिए दौड़ पड़ता है।
इसमें उनका उत्तरीय वस्त्र भी रास्ते में गिर गया।
"
शितविशिखहतो विशीर्णदंश:क्षतजपरिप्लुत आततायिनो मे ।
प्रसभमभिससार मद्गधार्थस भवतु मे भगवान् गतिर्मुकुन्द: ॥
३८॥
शित--पैना; विशिख--बाण; हत:--से घायल; विशीर्ण-दंशः--छिन्न हुआ कवच; क्षतज--घावों से; परिप्लुतः--रक्तसे सने; आततायिन: --महान आक्रामक; मे--मेरा; प्रसभम्--क्रुद्ध मुद्रा में; अभिससार--चलने लगे; मत्-वध-अर्थम्--मुझे मारने के लिए; सः--वे; भवतु--हो; मे--मेरे; भगवान्--भगवान्; गति:--लक्ष्य; मुकुन्दः--मो क्षदाताभगवान् श्रीकृष्ण जो मोक्ष के दाता हैं, वे मेरे अनन्तिम गंतव्य हों।
युद्ध-क्षेत्र में उन्होंनेमेरे ऊपर आक्रमण किया, मानो वे मेरे पैने बाणों से बने घावों के कारण क्रुद्ध हो गये हों।
उनका कवच छितरा गया था और उनका शरीर खून से सन गया था।
"
विजयरथकुट॒म्ब आत्ततोत्रेधृतहयरश्मिनि तच्छियेक्षणीये ।
भगवति रतिरस्तु मे मुमूर्षों-यंमिह निरीक्ष्य हता गता: स्वरूपम् ॥
३९॥
विजय--अर्जुन; रथ--रथ; कुटुम्बे--जान की बाजी लगाकर जिस वस्तु की रक्षा की जाय; आत्त-तोत्रे--दाहिने हाथ मेंचाबुक लिए; धृत-हय--घोड़ों की लगाम थामे; रश्मिनि--रस्सियाँ; तत्-भ्रिया--सुन्दरतापूर्वक खड़े हुए; ईक्षणीये--देखे जाने के लिए; भगवति--भगवान् में; रति: अस्तु--मेरा आकर्षण हो; मे--मेरा; मुमूर्षो:--मरणासन्न; यम्--जिसको; इह--इस संसार में; निरीक्ष्य--देखने से; हता:--मारे गये; गता: --प्राप्त; स्व-रूपम्--मूल रूप को ।
मृत्यु के अवसर पर मेरा चरम आकर्षण भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति हो।
मैं अपना ध्यानअर्जुन के उस सारथी पर एकाग्र करता हूँ, जो अपने दाहिने हाथ में चाबुक लिए थे औरबाएँ हाथ से लगाम की रस्सी थामे और सभी प्रकार से अर्जुन के रथ की रक्षा करने के प्रतिअत्यंत सावधान थे।
जिन लोगों ने कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में उनका दर्शन किया, उन सबों नेमृत्यु के बाद अपना मूल स्वरूप प्राप्त कर लिया।
"
ललितगतिविलासवल्गुहास-प्रणयनिरीक्षणकल्पितोरुमाना: ।
कृतमनुकृतवत्य उन्मदान्धा:प्रकृतिमगन् किल यस्य गोपवध्व: ॥
४०॥
ललित--आकर्षक; गति--हिलना-डुलना; विलास--मुग्ध करनेवाले कृत्य; बल्गुहास--मधुर मुस्कान; प्रणय--प्रेमपूर्ण; निरीक्षण--चितवन; कल्पित--मानसिकता; उरुमाना: --अत्यन्त महिमावान; कृत-मनु-कृत-वत्य:--चाल काअनुकरण करने में; उन्मद-अन्धा:--आनन्द में पागल हुए; प्रकृतिमू--लक्षण; अगनू--प्राप्त किया; किल--निश्चय ही;यस्य--जिसका; गोप-वध्वः--गोपियाँ ।
मेरा मन उन भगवान् श्रीकृष्ण में एकाग्र हो, जिनकी चाल तथा प्रेम भरी मुस्कान नेब्रजधाम की रमणियों ( गोपियों ) को आकृष्ठट कर लिया।
[रास लीला से भगवान् केअन्तर्धान हो जाने पर गोपिकाओं ने भगवान् की लाक्षणिक गतियों का अनुकरण किया।
"
मुनिगणनृपवर्यसह्लुलेउन्त:सदसि युधिष्टिरराजसूय एषाम् ।
अर्हणमुपपेद ईक्षणीयोमम हृशिगोचर एप आविरात्मा ॥
४१॥
मुनि-गण--परम विद्वान साधुजन; नूप-वर्य--महान शासक राजा; सब्जुले--समूह में से; अन्तः-सदसि--सभा, सम्मेलनमें; युधिष्ठिर--महाराज युधिष्ठटिर का; राज-सूये--राजा द्वारा सम्पन्न यज्ञ; एघाम्--समस्त महापुरुषों का; अ्हणम्--सादरपूजा; उपपेद--प्राप्त किया; ईक्षणीय:-- आकर्षण की वस्तु; मम--मेरी; दृशि--दृष्टि; गोचर:--जितना दिखे उसी केभीतर, समक्ष; एब: आवि:--उपस्थिति; आत्मा--आत्मा।
महाराज युथ्िष्ठिर द्वारा सम्पन्न राजसूय यज्ञ में विश्व के सारे महापुरुषों, राजाओं तथाविद्वानों की एक महान् सभा हुई थी और उस सभा में सबों ने श्रीकृष्ण की पूजा परम पूज्यभगवान् के रूप में की थी।
यह सब मेरी आँखों के सामने हुआ और मैंने इस घटना कोयाद रखा, जिससे मेरा मन भगवान् में लगा रहे।
"
तमिममहमजं शरीरभाजांहृदि हृदि धिष्ठितमात्मकल्पितानाम् ।
प्रतिह्शमिव नैकधार्कमेक॑समधिगतोउस्मि विधूतभेदमोह: ॥
४२॥
तमू्--उस भगवान् को; इमम्--इस समय जो मेरे समक्ष है; अहम्--मैं; अजम्--अजन्मा; शरीर-भाजाम्--बद्धजीव के;हृदि--हृदय में; हदि--हृदय में; धिष्ठितम्--स्थित; आत्म--परमात्मा; कल्पितानाम्-शुष्क चिन्तकों का; प्रतिहशम्--प्रत्येक दिशा में; इब--सद्ृश; न एकधा--एक नहीं; अर्कम्--सूर्य को; एकम्--केवल एक; समधि-गतः अस्मि--मैंध्यान में समाधिस्थ हूँ; विधूत--मुक्त होकर; भेद-मोह:--द्वैत की भ्रांत धारणा से ।
अब मैं पूर्ण एकाग्रता से एक ईश्वर श्रीकृष्ण का ध्यान कर सकता हूँ, जो इस समय मेरेसामने उपस्थित हैं, क्योंकि अब मैं प्रत्येक के हृदय में, यहाँ तक कि मनोधर्मियों के हृदय मेंभी रहनेवाले उनके प्रति द्वैत भाव की स्थिति को पार कर चुका हूँ।
वे सबों के हृदय में रहतेहैं।
भले ही सूर्य को भिन्न-भिन्न प्रकार से अनुभव किया जाय, किन्तु सूर्य तो एक ही है।
"
सूत उवाचकृष्ण एवं भगवति मनोवाग्दृष्टिवृत्तिभि: ।
आत्मन्यात्मानमावेश्य सोन्त: श्वास उपारमत् ॥
४३॥
सूतः उबाच--सूत गोस्वामी ने कहा; कृष्णे--पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण में; एबम्--एकमात्र; भगवति-- भगवान् में;मनः--मन से; वाक्--वाणी से; दृष्टि--दृष्टि से; वृत्तिभि: --कार्यो से; आत्मनि--परमात्मा में; आत्मानम्--जीव को;आवेश्य--लीन करके; सः--वे ; अन्त:- ध्रास:-- ध्वास खींचकर; उपारमत्--शान्त हो गए
सूत गोस्वामी ने कहा : इस प्रकार भीष्मदेव ने मन, वाणी, दृष्टि तथा कार्यों से अपनेआपको परमात्मा अर्थात् पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण में लीन कर दिया और शान्त होगये और उनकी श्वास रुक गई।
"
सम्पद्यमानमाज्ञाय भीष्मं ब्रह्मणि निष्कले ।
सर्वे बभूवुस्ते तृष्णीं वयांसीव दिनात्यये ॥
४४॥
सम्पद्यमानम्-में लीन होकर; आज्ञाय--इसे जानकर; भीष्मम्-- श्री भीष्मदेव के विषय में; ब्रह्मणि--पर ब्रह्म में; निष्कले--असीम; सर्वे--उपस्थित सभी लोग; बभूवु: ते--वे सब हो गये; तृष्णीमू--मौन; वयांसि इब-पक्षियों की तरह; दिन-अत्यये--दिन के समाप्त होने पर।
यह जानकर कि भीष्मदेव अनन्त परम पूर्ण में लीन हो गये, वहाँ पर उपस्थित सारे लोग उसी तरह मौन हो गये, जिस प्रकार दिन समाप्त होने पर पक्षी मौन हो जाते हैं।
"
तत्र दुन्दुभयो नेदुर्देवमानववादिता: ।
शशंसु: साधवो राज्ञां खात्पेतु: पुष्पवृष्टय: ॥
४५॥
तत्र--तत्पश्चात्; दुन्दुभय:--नगाड़े; नेदु:--बजने लगे; देव--अन्य ग्रहों के देवता; मानब--सारे देशों के मनुष्य;वादिता:--के द्वारा बजाये जाकर; शशंसु: -- प्रशंसा की; साधव:--ईमानदार; राज्ञाम्--राजाओं के द्वारा; खात्--आकाश से; पेतु:--गिरने लगी; पुष्प-वृष्टय:--पुष्पों की वर्षा |
तत्पश्चात् मनुष्यों तथा देवताओं ने सम्मान में नगाड़े बजाये और निष्ठावान राजाओं नेसम्मान तथा आदर प्रदर्शित किया और आकाश्न से पुष्पों की वर्षा होने लगी।
"
तस्य निर्हरणादीनि सम्परेतस्य भार्गव ।
युधिष्टिर: कारयित्वा मुहूर्त दु:खितो भवत् ॥
४६॥
तस्य--उसका; निरहरण-आदीनि--दाह संस्कार; सम्परेतस्थ--मृत देह का; भार्गव--हे भृगुवंशी; युधिष्ठिर: --महाराजयुथिष्ठटिर; कारयित्वा--सम्पन्न करके; मुहूर्तम्-- क्षण भर के लिए; दु:खितः--दुखी; अभवत्-हुए।
हे भूगुवंशी ( शौनक ), भीष्मदेव के मृत देह का दाह संस्कार सम्पन्न करने के बाद,महाराज युधिष्ठिर क्षण भर के लिए शोकाभिभूत हो गये।
"
तुष्टवुर्मुन॒यों दृष्टा: कृष्णं तद्गुह्मगामभि: ।
ततस्ते कृष्णहदया: स्वाश्रमान् प्रययु: पुन: ॥
४७॥
तुष्ठवु:--सन्तुष्ट हुए; मुन॒यः--व्यासदेव आदि मुनिगण; हृष्टा:--प्रसन्न मुद्रा में; कृष्णम्-- भगवान् कृष्ण को; तत्--उसका; गुहा--गोपनीय; नामभि:--उनके नाम से; ततः--तत्पश्चात्; ते--वे; कृष्ण-हदया:--कृष्ण को हृदय में धारणकरनेवाले; स्व-आ श्रमान्-- अपने-अपने आश्रमों को; प्रययु:--लौट गये; पुन:--फिर ।
तब समस्त मुनियों ने वहाँ पर उपस्थित भगवान् श्रीकृष्ण का यशोगान गुह्ा वैदिकमन्त्रों से किया।
वे भगवान् कृष्ण को सदा के लिए अपने हृदय में धारण करके अपने-अपने आश्रमों को लौट गए।
"
ततो युधिष्ठिरो गत्वा सहकृष्णो गजाह्ययम् ।
पितरं सान्त्वयामास गान्धारीं च तपस्विनीम् ॥
४८ ॥
ततः--तत्पश्चात्; युधिष्ठटिर:--महाराज युधिष्टिर ने; गत्वा--वहाँ जाकर; सह--साथ; कृष्ण:-- भगवान् के; गजाह्ययम्--गजाह्नय, हस्तिनापुर नाम की राजधानी में; पितरम्--अपने ताऊ ( धृतराष्ट्र ) को; सान्वयाम् आस--ढाढस बँधाया;गान्धारीम्--धधृतराष्ट्र की पत्ती को; च--तथा; तपस्विनीम्--तपस्विनी ।
तत्पश्चात् महाराज युधिष्ठिर भगवान् श्रीकृष्ण के साथ तुरन्त ही अपनी राजधानी,हस्तिनापुर गये और वहाँ पर अपने ताऊ धृतराष्ट्र तथा अपनी ताई तपस्विनी गान्धारी कोढाढस बँधाया।
"
पित्रा चानुमतो राजा वासुदेवानुमोदित: ।
चकार राज्य धर्मेण पितृपैतामहं विभु; ॥
४९॥
पित्रा--ताऊ धृतराष्ट्र द्वारा; च--तथा; अनुमत:--उनकी अनुमति से; राजा--राजा युधिष्टिर ने; वासुदेव-अनुमोदित:--भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा पुष्ट किये जाने पर; चकार--चलाया; राज्यम्--राज्य; धर्मेण--राज-नियमों के सिद्धान्त अनुसार;पितृ-पिता; पैतामहम्--पूर्वज जैसा; विभु:--महान्
तत्पश्चात् परम धर्मात्मा राजा महाराज युधिष्ठिर ने अपने ताऊ द्वारा प्रतिपादित तथा श्रीकृष्ण द्वारा अनुमोदित राजनियमों के सिद्धान्त अनुसार साम्राज्य का संचालन किया।
"
अध्याय दस: भगवान कृष्ण का द्वारका के लिए प्रस्थान
1.10शौनक उवाचहत्वा स्वरिक्थस्पृध आततायिनो युधिष्टिरो धर्मभृतां वरिष्ठ: ।
सहानुजै: प्रत्यवरुद्धभोजन: कथ प्रवृत्त: किमकारषीत्ततः ॥
१॥
शौनकः उवाच--शौनक ने पूछा; हत्वा--वध करने के बाद; स्वरिक्थ--वैध पैतृक सम्पत्ति; स्पृध:--छीनने की इच्छासे; आततायिन:--आततायी; युधिष्टिर: --राजा युधिष्टिर; धर्म-भूताम्--धर्म का पालन करने वालों का; वरिष्ठ:--सबसेबड़ा; सह-अनुजैः-- अपने छोटे भाइयों सहित; प्रत्यवरुद्ध--रोक दिया; भोजन:--आवश्यकताओं को स्वीकार करना;कथम्-कैसे; प्रवृत्त:--लगा हुआ; किम्--क्या; अकारषीतू--सम्पन्न किया; तत:--तत्पश्चात्
शौनक मुनि ने पूछा : जो महाराज युथ्रिष्ठिर की वैध पैतृक सम्पत्ति को छीनना चाहतेथे,उन शत्रुओं का वध करने के बाद महानतम धर्मात्मा युथिष्ठिर ने अपने भाइयों कीसहायता से अपनी प्रजा पर किस प्रकार शासन चलाया ? निश्चित ही वे अपने साम्राज्य काउपभोग मुक्त होकर अनियन्त्रित चेतना से नहीं कर सके ।
"
सूत उवाचवंशं कुरोवशदवाग्निनिईतं संरोहयित्वा भवभावनो हरि: ।
निवेशयित्वा निजराज्य ईश्वरो युधिष्ठिरं प्रीतमना बभूव ह ॥
२॥
सूतः उवाच--सूत गोस्वामी ने उत्तर दिया; वंशम्--वंश; कुरोः--राजा कुरु का; वंश-दब-अग्नि--बाँसों से लगनेवालीजंगल की आग; निईतम्--निःशेष, दग्ध; संरोहयित्वा--वंश की पौध; भव-भावन:--सृष्टि के पालक; हरिः--भगवान्श्रीकृष्ण; निवेशयित्वा--पुनः स्थापित करके; निज-राज्ये--अपने ( उनके ) राज्य में; ई श्वरः--पर मे श्वर; युधिष्टिरम् --महाराज युथ्चिष्टिर को; प्रीत-मना:--अपने मन में प्रसन्न; बभूव ह--हुए।
सूत गोस्वामी ने कहा : विश्व के पालनकर्ता भगवान् श्रीकृष्ण महाराज युथ्ििष्ठिर कोउनके साम्राज्य में पुनः प्रस्थापित करके एवं क्रोध की दावाग्नि से विनष्ट हुए कुरुवंश कोपुनरुज्जीवित करके अत्यन्त प्रसन्न हुए।
"
निशम्य भीष्मोक्तमथाच्युतोक्तंप्रवृत्तविज्ञानविधूतविभ्रम: ।
शशास गामिन्द्र इवाजिताश्रय:परिध्युपान्तामनुजानुवर्तित: ॥
३॥
निशम्य--सुनकर; भीष्म-उक्तम्-- भीष्म द्वारा कहा हुआ; अथ--तथा; अच्युत-उक्तम्--अच्युत भगवान् कृष्ण ने जोकुछ कहा था; प्रवृत्त--लगे रह कर; विज्ञान--पूर्ण ज्ञान; विधूत--पूर्ण रूप से धुल गये; विभ्रम:--सारे सन्देह;शशास--शासन किया; गाम्--पृथ्वी पर; इन्द्र--स्वर्ग का राजा; इब--सहृश; अजित-आश्रय:--दुर्जय भगवान् द्वारारक्षित; परिधि-उपान्ताम्--समुद्रों सहित; अनुज--छोटे भाई; अनुवर्तितः--उनके द्वारा पालन किया जाक
भीष्मदेव तथा अच्युत भगवान् श्रीकृष्ण ने जो कुछ कहा था, उससे प्रबुद्ध होकरमहाराज युधिष्टिर परिपूर्ण ज्ञान विषयक मामलों में व्यस्त हो गये, क्योंकि उनके सारे सन्देहदूर हो चुके थे।
इस प्रकार उन्होंने पृथ्वी तथा सागरों पर राज्य किया और उनके छोटे भाईउनका साथ देते रहे।
"
काम ववर्ष पर्जन्य: सर्वकामदुघा मही ।
सिषिचु: सम ब्रजान् गाव: पयसोधस्वतीर्मुदा ॥
४॥
कामम्--सारी आवश्यक वस्तु; ववर्ष--उपलब्ध हुई; पर्जन्य:--वर्षा; सर्व--प्रत्येक वस्तु; काम--आवश्यकताएँ;दुघा--उत्पन्न करनेवाली; मही--पृथ्वी; सिषिचु: स्म--सिक्त करती थीं; ब्रजानू--चरागाहों को; गाव:--गाएँ; पयसाउधस्वती: -- भरे हुए थनों के कारण; मुदा--प्रसन्नता के कारण।
महाराज युधिष्ठिर के राज्य में मनुष्यों को जितना भी पानी चाहिए था, बादल उतनापानी बरसाते थे और पृथ्वी मनुष्यों की सारी आवश्यकताओं की पूर्ति पर्याप्त मात्रा में करतीथी।
दूध से भरे थनों वाली तथा प्रसन्न-चित्त गौवें अपने दूध से चरागाही को सिक्त करतीरहती थीं।
"
नद्यः समुद्रा गिरय: सवनस्पतिवीरुध: ।
'फलन्त्योषधय: सर्वा: काममन्वृतु तस्य वै ॥
५॥
नद्यः--नदियाँ; समुद्रा:--समुद्र; गिरय:--पहाड़; सवनस्पति--वनस्पतियाँ; वीरु ध: --लताएँ; फलन्ति--सक्रिय,कारगर; ओषधय:--दवाएँ; सर्वा:--समस्त; कामम्--आवश्यकताएँ; अन्वृतु--मौसमी; तस्य--राजा के लिए; बै--निश्चय ही।
प्रत्येक ऋतु में नदियाँ, समुद्र, पर्वत, जंगल, लताएँ तथा कारगर औषधियाँ प्रचुर मात्रामें राजा को अपना-अपना कर चुकता करती थीं।
"
नाधयो व्याधय: क्लेशा दैवभूतात्महेतव: ।
अजातशत्रावभवन् जन्तूनां राज्षि कर्हिचित् ॥
६॥
न--कभी नहीं; आधय: --चिन्ताएँ; व्याधय: --रोग; क्लेशा:--अधिक गर्मी तथा सर्दी से होनेवाला कष्ट; दैव-भूत-आत्म--शरीर, अलौकिक शक्ति तथा अन्य जीवों के कारण होनेवाले; हेतवः--के कारण से; अजात-शत्रौ--जिसकेकोई शत्रु न हो, उनमें; अभवन्--घटित हुआ; जन्तूनाम्--समस्त जीवों का; राज्ञि--राजा में; कहिंचित्--किसी भीसमय।
चूँकि राजा का कोई शत्रु न था, अतएवं सारे जीव, किसी भी समय मानसिक क्लेशों,रोगों या अत्यधिक ताप या शीत से विचलित नहीं थे।
"
उपषित्वा हास्तिनपुरे मासान् कतिपयान् हरि: ।
सुहृदां च विशोकाय स्वसुश्च प्रियकाम्यया ॥
७॥
उषित्वा--ठहर कर; हास्तिनपुरे--हस्तिनापुर नगर में; मासानू--महीने; कतिपयान्-- कुछ; हरि: -- भगवान् श्रीकृष्ण;सुहृदाम्--सम्बन्धियों को; च-- भी; विशोकाय--सान्त्वना देने के लिए; स्वसु:--बहन को; च--तथा; प्रिय-'काम्यया--प्रसन्न करने के लिए।
श्री हरि अपने सम्बन्धियों को सान्त्वना देने तथा अपनी बहन ( सुभद्रा ) को प्रसन्न करने के लिए कुछ महीने हस्तिनापुर में रहे।
"
आमन्त्रय चाभ्यनुज्ञात: परिष्वज्याभिवाद्य तम् ।
आरुरोह रथं कैश्वित्परिष्वक्तोईभिवादित: ॥
८॥
आमन्त्रय--अनुमति लेकर; च--तथा; अभ्यनुज्ञात:--आज्ञा पाकर; परिष्वज्य--आलिंगन करके; अभिवाद्य--चरणों परझुककर; तम्--महाराज युधिष्ठिर को; आरुरोह--आरूढ़ हुए; रथम्--रथ में; कैश्वित्--किन्हीं के द्वारा; परिष्वक्त:--आलिंगित होकर; अभिवादित:--अभिवादन किया जाकर।
तत्पश्चात् जब भगवान् ने प्रस्थान करने की अनुमति माँगी और राजा ने अनुमति दे दीतो भगवान् ने महाराज युधिष्ठटिर के चरणों में नतमस्तक होकर प्रणाम किया और राजा नेउनको गले लगा लिया।
इसके बाद अन्यों द्वारा गले मिलने एवं नमस्कृत होकर, वे अपनेरथ में आरूढ़ हुए।
"
सुभद्रा द्रौपदी कुन्ती विराटतनया तथा ।
गान्धारी धृतराष्ट्रश्न युयुत्सुगौतमो यमौ ॥
९॥
वृकोदरश्व धौम्यश्व स्त्रियो मत्स्यसुतादय: ।
न सेहिरे विमुहान्तो विरहं शार्ड्रधन्वनः ॥
१०॥
सुभद्रा--कृष्ण की बहन; द्रौपदी--पाण्डवों की पत्नी; कुन्ती--पाण्डवों की माता; विराट-तनया--विराट की पुत्री( उत्तरा )) तथा-- भी; गान्धारी--दुर्योधन की माता; धृतराष्ट्र:--दुर्योधन का पिता; च--तथा; युयुत्सु:--धृतराष्ट्र कीवैश्य-पत्ली का पुत्र; गौतम:--कृपाचार्य ; यमौ--जुड़वाँ भाई नकुल तथा सहदेव; वृकोदर:-- भीम; च--तथा; धौम्य:--धौम्य; च--तथा; स्त्रियः--राजमहल की अन्य स्त्रीयाँ भी; मत्स्य-सुता-आदय: --मछुवारे की पुत्री ( सत्यवती, भीष्म कीसौतेली माता ); न--नहीं; सेहिरि--सह सकी ; विमुह्ान्त:--मूर्छित सी; विरहम्--वियोग; शार्क-धन्वन: -- श्रीकृष्ण काजो अपने हाथ में शंख धारण किये रहते हैं।
उस समय सुभद्रा, द्रौपदी, कुन्ती, उत्तरा, गान्धारी, धृतराष्ट्र, युयुत्सु, कृपाचार्य, नकुल,सहदेव, भीमसेन, धौम्य तथा सत्यवती, सभी मूरछित से हो गये, क्योंकि भगवान् कृष्ण कावियोग सह पाना उन सबों के लिए असम्भव था।
"
सत्सज्ञान्मुक्तदुःसड़ो हातुं नोत्सहते बुध: ।
कीर्त्यमानं यशो यस्य सकृदाकर्ण्य रोचनम् ॥
११॥
तस्मिन्न्यस्तधिय: पार्था: सहेरन् विरहं कथम् ।
दर्शनस्पर्शसंलापशयनासनभोजनै: ॥
१२॥
सतू-सझ़झत्-शुद्ध भक्तों की संगति से; मुक्त-दुःसड्र:--बुरी भौतिक संगति से मुक्त; हातुम्-परित्याग करने के लिए; नउत्सहते--कभी प्रयास नहीं करता है; बुध: -- भगवान् को समझनेवाला; कीर्त्यमानम्--यशोगान करता; यशः--ख्याति;यस्य--जिसका; सकृत्--मात्र एक बार; आकर्णर्य --केवल सुनकर; रोचनम्-- प्रसन्न करके; तस्मिन्--उसमें; न््यस्त-धिय:--जिसने अपना मन उनको अर्पित कर रखा है; पार्था:--पृथा के पुत्र; सहेरनू--सह सकते हैं; विरहम्--वियोग;कथम्-कैसे; दर्शन--आमने-सामने देखते हुए; स्पर्श--स्पर्श करते हुए; संलाप--परस्पर बातें करते; शयन--सोते;आसन--बैठते; भोजनै:--एक साथ भोजन करते।
वह बुद्धिमान जिस ने शुद्ध भक्तों की संगति से परमेश्वर को समझ लिया है औरभौतिक कुसंगति से अपने को छुड़ा लिया है, वह भगवान् के यश को सुनने से चूकेगानहीं; उसने चाहे उनके विषय में एक ही बार क्यों न सुना हो।
तो भला, पाण्डव उनकेवियोग को कैसे सह पाते? क्योंकि वे उनसे घनिष्ठतापूर्वक सम्बन्धित थे, वे उन्हें साक्षात्अपने समक्ष देखते थे, उनका स्पर्श करते थे, उनसे बातें करते थे और उन्हीं के पास सोते,उठते-बैठते तथा भोजन करते थे।
"
सर्वे तेडनिमिषैरक्षैस्तमनुद्रुतचेतस: ।
वीक्षन्त: स्नेहसम्बद्धा विचेलुस्तत्र तत्र ह ॥
१३॥
सर्वे--सभी; ते--वे; अनिमिषै: --बिना पलक झपके; अक्षैः:--आँखों से; तम् अनु--उनके पीछे-पीछे; द्रुत-चेतस: --ड्रवित हृदय; वीक्षन्तः:--उनको देखते हुए; स्नेह-सम्बद्धा:--शुद्ध प्रेम से बँधे; विचेलु:--हिलने-डुलने लगे; तत्र तत्र--इधर-उधर; ह--उन्होंने ऐसा किया |
उन सबके हृदय उनके आकर्षण-रूपी पात्र में द्रवित हो रहे थे।
वे उन्हें अपलक नेत्रों सेदेख रहे थे और ( स्नेह-बन्धन में बँधकर ) व्यग्रता से इधर-उधर मचल रहे थे।
"
न्यरन्धन्द्गलद्ाष्पमौत्कण्ठ्याद्ेवकीसुते ।
निर्यात्यगारान्नो भद्गमिति स्याद्वान्धवस्त्रिय: ॥
१४॥
न्यरुन्धन्--बड़ी मुश्किल से रोकते हुए; उद्गलत्--उमड़ते हुए; बाष्पम्-- आँसुओं को; औत्कण्ठ्यात्-- अत्यधिकउत्सुकता से; देवकी-सुते--देवकी के पुत्र में; निर्याति--बाहर निकल कर; अगारातू--महल से; नः:--नहीं; अभद्रम्--अशुभ; इति--इस प्रकार; स्थात्--होए; बान्धव--सम्बन्धियों की; स्त्रियः-स्त्रियाँ ।
सगी-सम्बन्धी ( नातेदार ) स्त्रियाँ, जिनके नेत्रों से कृष्ण के लिए व्याकुलतावशअश्रुधारा निकल रही थी, महल से बाहर आ गईं।
वे बड़ी मुश्किल से अपने आँसू रोकपाईं।
उन्हें भय था कि प्रस्थान के अवसर पर आँसुओं से अपशकुन हो सकता है।
"
मृदद्भशट्डुभेर्यश्व वीणापणवगोमुखा: ।
धुन्धुर्यानकघण्टाद्या नेदुर्दुन्दुभयस्तथा ॥
१५॥
मृदड्ग--मीठी ध्वनि उत्पन्न करनेवाला ढोल; शद्भडु--शंख; भेर्य:--भेरी; च--तथा; वीणा--तंतुयुक्त वाद्ययन्त्र, वीणा;'पणव--एक प्रकार की वंशी; गोमुखा:--अन्य प्रकार की बाँसुरी; धुन्धुरी--एक प्रकार का ढोल; आनक--नगाड़ा;घण्टा--बजाया जानेवाला घंटा; आद्या:--इत्यादि; नेदु:--बजे; दुन्दुभय:--विभिन्न प्रकार के ढोल; तथा--उस समय
हस्तिनापुर के राजमहल से भगवान् के प्रस्थान समउनके सम्मान में विभिन्न प्रकारके ढोल--यथा मृदंग, ढोल, नगाड़े, धुंधुरी तथा दुन्दुभी--एवं तरह-तरह की वंशियाँ,वीणा, गोमुख और भेरियाँ एकसाथ बज उठे।
"
प्रासादशिखरारूढा: कुरुनार्यों दिहक्षया ।
ववृषु: कुसुमै: कृष्णं प्रेमत्रीडास्मितेक्षणा: ॥
१६॥
प्रासाद--राजमहल की; शिखर--छत पर; आरूढा:--चढ़ी हुईं; कुरू-नार्य:--कुरुराजवंश की नारियाँ; दिहृक्षया--देखने की इच्छा से; बवृषु:--वर्षा की; कुसुमैः--फूलों से; कृष्णम्-- भगवान् कृष्ण पर; प्रेम--प्रेम तथा स्नेहवश;ब्रीडा-स्मित-ईक्षणा:--लजीली हँसी से देखते हुए
भगवान् को देखने की प्रेममयी इच्छा से कुरूओं की राजवंशी स्त्रियाँ राजमहल की छतपर चढ़ गईं और स्नेह तथा लज्जा से युक्त हँसती हुई भगवान् पर पुष्पों की वर्षा करने लगीं।
"
सितातपत्र॑ जग्राह मुक्तादामविभूषितम् ।
रलदण्डं गुडाकेश: प्रिय: प्रियतमस्य ह ॥
१७॥
सित-आततपत्रम्--सुखद छाता; जग्राह--ले लिया; मुक्ता-दाम--मोतियों तथा झालर से सजा; विभूषितम्--किनारीलगा; रत्न-दण्डम्--रत्नों के हत्थे वाला; गुडाकेश:--अर्जुन, पटु योद्धा के रूप में अथवा जिसने नींद जीत ली है;प्रियः--अत्यन्त प्यारा; प्रियतमस्य--अत्यन्त प्रिय का; ह--ऐसा ही किया
उस समय महान् योद्धा तथा निद्रा को जीतनेवाले अर्जुन ने, जो परम प्रिय भगवान् काघनिष्ठ मित्र था, एक छाता ले लिया जिसका हत्था रत्नों का था और जिसमें मोतियों कीझालर लगी थी।
"
उद्धव: सात्यकिश्चैव व्यजने परमाद्धुते ।
विकीर्यमाण: कुसुम रेजे मधुपति: पथि ॥
१८॥
उद्धवः--कृष्ण का चचेरा भाई; सात्यकि: --उनका सारथी; च--तथा; एबव--निश्चय ही; व्यजने--पंखा झलने में व्यस्त;'परम-अद्भुते--सजावटी; विकीर्यमाण:--बिखरे हुए ( फूलों ) पर आसीन; कुसुमैः--फूलों से; रेजे--आदेश दिया; मधु-पति:--मथु के स्वामी ( कृष्ण ) ने; पथि--मार्ग पर
उद्धव तथा सात्यकि अलंकृत पंखों से भगवान् पर पंखा झलने लगे और मधु के स्वामीकृष्ण ने बिखरे हुए पुष्पों पर आसीन होकर उन्हें मार्ग पर चलने के लिए आदेश दिया।
"
अश्रूयन्ताशिष: सत्यास्तत्र तत्र ट्विजेरिता: ।
नानुरूपानुरूपाश्च निर्गुणस्य गुणात्मन: ॥
१९॥
अश्रूयन्त--सुना जाकर; आशिष:--आशीर्वाद; सत्या:--सभी सच हैं; तत्र--यहाँ; तत्र--वहाँ; द्विज-ईरिता: --विद्वानब्राह्मणों द्वारा उच्चरित; न--नहीं; अनुरूप--अनुरूप; अनुरूपा: --योग्य; च-- भी; निर्गुणस्य--परम का; गुण-आत्मन:--मनुष्य की भूमिका निभाते हुए।
जहाँ-तहाँ यह सुनाई पड़ रहा था कि कृष्ण को दिये गये आशीर्वाद, न तो उनकेउपयुक्त हैं, न अनुपयुक्त, क्योंकि वे सब उन परम पुरुष के लिए थे जो इस समय मनुष्य कीभूमिका निभा रहे थे।
"
अन्योन्यमासीत्सझल्प उत्तमश्लोकचेतसाम् ।
कौरवेन्द्रपुरख्रीणां सर्वश्रुतिमनोहर: ॥
२०॥
अन्योन्यम्--एक दूसरे में; आसीत्-- था; सझ्जल्प: --बात; उत्तम-शलोक-पर मे श्वर, जिनकी प्रशंसा चुने हुए श्लोकों सेकी जाती है; चेतसामू--जिनके हृदय इस प्रकार लीन हैं उनका; कौरव-इन्द्र--कुरुओं का राजा; पुर--राजधानी;स्त्रीणाम्--स्त्रियों का; सर्व--समस्त; श्रुति--वेद; मन:-हरः--मन को मोहित करनेवाला |
चुने हुए छन्दों से जिनकी स्तुति की जाती है, ऐसे भगवान् के दिव्य गुणों के विचार मेंडूबीं, हस्तिनापुर के सभी घरों की छतों पर चढ़ी हुई स्त्रियाँ, उनके विषय में बातें करनेलगीं।
ये बातें बैदिक स्तोत्रों से कहीं अधिक आकर्षक थीं।
"
स वै किलायं पुरुष: पुरातनोय एक आसीदविशेष आत्मनि ।
अग्रे गुणेभ्यो जगदात्मनी श्वरेनिमीलितात्मन्निशि सुप्तशक्तिषु ॥
२१॥
सः--वे ( कृष्ण ); बै--जैसा मुझे स्मरण है; किल--निश्चित रूप से; अयमू--यह; पुरुष:-- भगवान्; पुरातन:-- आदि;यः--जो; एक:--एकमात्र; आसीत्--विद्यमान थे; अविशेष:--भौतिक रूप से अव्यक्त; आत्मनि--स्वयं; अग्रे--सूृष्टिके पूर्व; गुणेभ्य:--प्रकृति के गुणों का; जगत्-आत्मनि--परमात्मा में; ईश्वेरे-- भगवान् में; निमीलित--लीन; आत्मन्--जीव; निशि सुप्त--रात्रि में सोया हुआ; शक्तिषु--शक्तियों का।
वे कहने लगीं : जैसा हमें निश्चित रूप से स्मरण है, यही हैं वे, जो आदि परमेश्वर हैं।
प्रकृति के गुणों की व्यक्त सृष्टि के पूर्व, वे ही अकेले विद्यमान थे।
चूँकि वे परमेश्वर हैं,अतएबव सारे जीव उन्हीं में लीन होते हैं, मानो रात्रि में सोये हुए हों और उनकी शक्ति रुकगई हो।
"
स एव भूयो निजवीर्यचोदितांस्वजीवमायां प्रकृति सिसृक्षतीम् ।
अनामरूपात्मनि रूपनामनीविधित्समानोनुससार शासत्रकृत् ॥
२२॥
सः--वे; एव--इस प्रकार; भूय:--फिर से; निज--अपना; वीर्य--पराक्रम; चोदिताम्--सम्पन्नता का; स्व--अपना;जीव--जीव; मायाम्--बाह्यम शक्ति; प्रकृतिमू-- भौतिक प्रकृति को; सिसृक्षतीम्--पुनः सृष्टि करते समय; अनाम--बिनाउपाधि के; रूप-आत्मनि--आत्मा के स्वरूप; रूप-नामनी--रूप तथा नाम; विधित्समान:--प्रदान करने की इच्छाकरते; अनुससार--हस्तान्तरित कर दिया; शास्त्र-कृत्-शाम्त्रों के संग्राहक ।
तब भगवान् ने अपने अंशस्वरूप जीवों को, नाम तथा रूप प्रदान करने की इच्छा से,उन्हें भौतिक प्रकृति के मार्गदर्शन के अन्तर्गत कर दिया।
उनकी ही अपनी शक्ति से भौतिकप्रकृति को पुनः सृष्टि करने के लिए अधिकृत कर दिया गया है।
"
स वा अयं यत्पदमत्र सूरयोजितेन्द्रिया निर्जितमातरिश्वन: ।
पश्यन्ति भक्त्युत्कलितामलात्मनानन्वेष सत्त्वं परिमा्टमर्हति ॥
२३॥
सः--वह; बै-- भगवत्कृपा द्वारा; अयम्--यह; यत्--जो; पदम् अत्र--यहाँ वही भगवान् श्रीकृष्ण हैं; सूरय:--बड़े-बड़ेभक्त-गण; जित-इन्द्रिया:--जिन्होंने इन्द्रियों के प्रभाव को जीत लिया है; निर्णित--पूर्ण रूप से संयमित; मातरिश्वन: --जीवन; पश्यन्ति--देख सकते हैं; भक्ति-- भक्तिमय सेवा से; उत्तलित--विकसित; अमल-आत्मना--जिनके मन पूरीतरह विमल हैं उनका; ननु एष:--निश्चित रूप से इसी के द्वारा; सत्त्वमू--जगत, अस्तित्व; परिमा्टम-मन को पूरी तरहस्वच्छ करने के लिए; अर्हति--के योग्य है।
ये वे ही पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं, जिनके दिव्य रूप का अनुभव बड़े-बड़े भक्तों द्वाराकिया जाता है, जिन्होंने सुहृढ़ भक्ति द्वारा तथा जीवन एवं इन्द्रियों पर पूर्ण संयम द्वारा,भौतिक चेतना से पूर्ण रूप से विशुद्ध हो चुके हैं।
तथा अस्तित्व को विमल बनाने का यहीएकमात्र मार्ग है।
"
स वा अयं सख्यनुगीतसत्कथोवेदेषु गुहोषु च गुह्यवादिभि: ।
य एक ईशो जगदात्मलीलयासृजत्यवत्यत्ति न तत्र सज्जते ॥
२४॥
सः--वे; वै-- भी; अयम्--यह; सखि--हे सखी; अनुगीत--वर्णित; सत्-कथः-- श्रेष्ठ लीलाएँ; वेदेषु--वेदों में;गुहोषु--गोपनीय रीति से; च--भी; गुहा-वादिभि:--गुहा भक्तों द्वारा; य:--जो; एक:--केवल एक; ईशः--परमनियन्ता; जगत्--सारी सृष्टि के; आत्म--परमात्मा; लीलया--लीलाओं के प्राकट्य द्वारा; सृजति--सृजन करते हैं; अवतिअत्ति--पालन करते हैं तथा संहार करते हैं; न--कभी नहीं; तत्र--वहाँ; सज्जते--उसमें आसक्त होते हैं।
हे सखियो, यहाँ पर वही भगवान् हैं, जिनकी आकर्षक तथा गोपनीय लीलाओं कावर्णन बड़े-बड़े भक्तों द्वारा वैदिक साहित्य के गुह्मतम अंशों में हुआ है।
वे ही भौतिक जगतकी सृष्टि करने वाले, पालने वाले तथा संहार करनेवाले हैं, फिर भी वे उससे अप्रभावितरहते हैं।
"
यदा ह्यधर्मेण तमोधियो नृपाजीवन्ति तत्रैष हि सत्त्वतः किल ।
धत्ते भगं सत्यमृतं दयां यशोभवाय रूपाणि दधघद्युगे युगे ॥
२५॥
यदा--जब-जब; हि--निश्चय ही; अधर्मेण --ई श्वर की इच्छा के विरुद्ध; तमः-धिय:--तमोगुणी पुरुष; नृपा:--राजातथा प्रशासक; जीवन्ति--पशुओं के समान रहते हैं; तत्र--तत्पश्चात्; एप: --वह; हि--केवल; सत्त्वतः--दिव्य;किल--निश्चय ही; धत्ते--प्रकट होता है; भगम्--परम शक्ति; सत्यमू--सत्य; ऋतम्--सरलता; दयाम्--दया; यशः--अद्भुत कार्यकलाप; भवाय--पालन हेतु; रूपाणि--विभिन्न रूपों में ; दधत्--प्रकट; युगे--विभिन्न कालों में; युगे--तथा युगों में |
जब भी राजा तथा प्रशासक, तमोगुण में स्थित पशुओं की तरह रहते हैं, तो भगवान्अपने दिव्य रूप में अपनी परम शक्ति, सत्य ऋत, को प्रकट करते हैं, श्रद्धालुओं पर विशेषदया दिखाते हैं, अद्भुत कार्य करते हैं तथा विभिन्न कालों तथा युगों में आवश्यकतानुसारविभिन्न दिव्य रूप प्रकट करते हैं।
"
अहो अलं श्लाघ्यतमं यदो: कुल-महो अलं पुण्यतमं मधोर्वनम् ।
यदेष पुंसामृषभ: श्रिय: पति:स्वजन्मना चड्क्रमणेन चाञ्ञति ॥
२६॥
अहो--ओह; अलम्--सचमुच; श्लाध्य-तमम्--सर्वाधिक यशस्वी; यदो:--यदु राजा के; कुलम्--वंश; अहो--ओह;अलम्--सचमुच; पुण्य-तमम्--अत्यन्त पुण्यात्मा; मधो: वनम्--मथुरा की भूमि; यत्--क्योंकि; एष:--यह; पुंसाम्--समस्त जीवों का; ऋषभ:--परम नायक; थ्रिय:--लक्ष्मी के; पति:--पति; स्व-जन्मना-- अपने आविर्भाव से;चड्क्रमणेन--विचरण द्वारा; च अज्ञति--महिमा।
ओह, यदुवंश कितना यशस्वी है और मथुरा की भूमि कितनी पुण्यमयी है, जहाँ समस्त जीवों के परम नायक, लक्ष्मीपति ने जन्म लिया और अपने बचपन में विचरण किया है।
"
अहो बत स्वर्यशसस्तिरस्करीकुशस्थली पुण्ययशस्करी भुवः ।
पश्यन्ति नित्य॑ यदनुग्रहेषितंस्मितावलोकं स्वपति सम यत्प्रजा: ॥
२७॥
अहो बत--यह कितना आश्चर्यजनक है; स्व:-यशसः--स्वर्ग की महिमा; तिरस्करी--पराजित करनेवाली; कुशस्थली--द्वारका; पुण्य--शुभकर्म; यशस्करी-- प्रसिद्ध; भुव:--पृथ्वीलोक ; पश्यन्ति--देखते हैं; नित्यमू--निरन्तर; यत्--जो;अनुग्रह-इषितम्--वर देने के लिए; स्मित-अवलोकम्--मृदु मुसकान भरी चितवन; स्व-पतिम्--जीवों के आत्मा( कृष्ण ) को; स्म--करते थे; यत्-प्रजा:--उस स्थान के निवासी
निस्सन्देह, यह कितना आश्चर्यजनक है कि द्वारका ने स्वर्ग के यश को पिछाड़ करपृथ्वी की प्रसिद्धि को बढ़ाया है।
द्वारका के निवासी उनके प्रिय स्वरूप में समस्त जीवों केआत्मा ( कृष्ण ) का सदैव दर्शन करते हैं।
भगवान् उन पर दृष्टिपात करते हैं और अपनीमुसकान भरी चितवन से उन्हें कृतार्थ करते हैं।
"
नूनं ब्रतस्नानहुतादिने श्वर:समर्चितो हास्य गृहीतपाणिभि: ।
पिबन्ति या: सख्यधरामृत॑ मुहु-ब्रजस्त्रिय: सम्मुमुहुर्यदाशया: ॥
२८॥
नूनम्--निश्चय ही पूर्व जन्म में; ब्रत-- अनुष्ठान, ब्रत; स्नान--स्नान; हुत--अग्नि में आहुति; आदिना--आदि द्वारा;ईश्वरः-- भगवान्; समर्चितः--पूरी तरह से पूजित; हि--निश्चय ही; अस्य--उनका; गृहीत-पाणिभि: --विवाहिता स्त्रियोंद्वारा; पिबन्ति--स्वाद लेते हैं; या:--जो; सखि--हे सखी; अधर-अमृतम्--उनके होंठों का अमृत; मुहुः--पुनः पुनः;ब्रज-स्त्रियः--व्रजभूमि की बालाएँ; सम्मुमुहु:--बहुधा मूर्छित हो जाती थीं; यत्-आशया:--इस प्रकार से अनुग्रह कीआशा करते हुए।
है सखियो, तनिक उनकी पत्नियों के विषय में सोचो, जिनके साथ उनका पाणिग्रहणहुआ था।
उन्होंने कैसा व्रत, स्नान, यज्ञ तथा ब्रह्माण्ड के स्वामी की सम्यक् पूजा की होगी,जिससे वे सब उनके अधरामृत का निरन्तर आस्वादन ( चुम्बन द्वारा ) कर रही हैं ? ब्रजभूमिकी बालाएँ ऐसी कृपा की कल्पना से ही प्राय: मूछित हो जाती होंगी।
"
या वीर्यशुल्केन हृता: स्वयंवरेप्रमथ्य चैद्प्रमुखान् हि शुष्मिण: ।
प्रद्युम्नसाम्बाम्बसुतादयो परायाश्वाहता भौमवधे सहस्रश: ॥
२९॥
या--स्त्री; वीर्य--पराक्रम; शुल्केन--मूल्य चुकता करने से; हता:--बलपूर्वक ले जाई गई; स्वयंबरे--स्वयंवर में;प्रमथ्य--मान-मर्दन करके; चैद्य--राजा शिशुपाल; प्रमुखान्--इत्यादि; हि--निश्चय ही; शुष्पिण:--सभी अत्यन्तशक्तिशाली; प्रद्युम्न--प्रद्युम्न ( कृष्ण का पुत्र ); साम्ब--साम्ब; अम्ब--अम्ब; सुत-आदय: --सन््तानें; अपरा:-- अन्यस्त्रियाँ; या:--जो; च-- भी; आहता: --इसी प्रकार ले जाईं गई; भौम-वधे--राजाओं का वध करने के बाद;सहस्त्रश:--हजारों |
इन पत्नियों से सन््तानें हैं--प्रद्युम्न, साम्ब, अम्ब इत्यादि।
उन्होंने शिशुपाल के नायकत्वमें आए हुए अनेक शक्तिशाली राजाओं को हरा कर रुक्मिणी, सत्यभामा तथा जाम्बवतीजैसी स्त्रियों का उनके स्वयंवर-समारोहों से बलपूर्वक अपहरण किया था।
उन्होंने भौमासुरतथा उसके हजारों सहायकों का वध करके अन्य स्त्रियों का भी अपहरण किया था।
ये सारी स्त्रियाँ धन्य हैं।
"
एता: परं सत्रीत्वमपास्तपेशलंनिरस्तशौचं बत साधु कुर्वते ।
यासां गृहात्पुष्करलोचन: पति-न जात्वपैत्याहतिभिहदि स्पृशन् ॥
३०॥
एताः--ये सब स्त्रियाँ; परमू--सर्वोच्च; स्त्रीत्वम्--स्त्रीत्व; अपास्तपेशलम्--बिना व्यक्तित्व के; निरस्त--विहीन;शौचम्--शुद्धि; बत साधु-- धन्य हैं; कुर्वते--करते हैं; यासाम्--जिनके ; गृहात्--घर से; पुष्कर-लोचन:--कमलनेत्रोंवाले; पतिः--पति; न जातु--कभी भी नहीं; अपैति--जाता है; आहतिभि:--भेंट द्वारा; हदि--हृदय में; स्पृशन्--प्रिय ।
इन सारी स्त्रियों ने व्यक्तित्व तथा शुद्धि से विहीन होते हुए भी, अपने जीवन को धन्यकिया।
उनके पति कमलनयन भगवान् ने उन्हें घर में कभी अकेले नहीं छोड़ा।
वे उन्हेंबहुमूल्य भेंट प्रदान करके उनके हृदयों को प्रसन्न बनाते रहे।
"
एवंविधा गदन्तीनां स गिर: पुरयोषिताम् ।
निरीक्षणेनाभिनन्दन् सस्मितेन ययौ हरि: ॥
३१॥
एवंविधा: --इस प्रकार; गदन्तीनामू--उनके विषय में बातें करती तथा प्रार्थना करती; सः--वे ( भगवान ); गिर:--वाणीका; पुर-योषिताम्--राजधानी की स्त्रियों के; निरीक्षणेन--उन्हें देखने से; अभिनन्दन्--तथा उनका स्वागत करने; स-स्मितेन--हँसमुख चेहरे से; ययौ--प्रस्थान किया; हरिः-- भगवान् ने।
राजधानी हस्तिनापुर की स्त्रियाँ अभी उनका अभिनन्दन कर ही रही थीं और इस प्रकारसे बातें चला रही थीं कि भगवान् ने मुस्कराते हुए उनकी बधाइयाँ स्वीकार कीं और उन परअपनी कृपादृष्टि डालते हुए नगर से प्रस्थान किया।
"
अजातशत्रु: पृतनां गोपीथाय मधुद्रिष: ।
परेभ्य: शद्धितः स्नेहात्प्रायुड्र चतुरद्धिणीम् ॥
३२॥
अजात-शत्रु:--जिसका कोई शत्रु न था, महाराज युधिष्ठिर; पृतनाम्--सुरक्षा सेनाएँ; गोपीथाय--रक्षा प्रदान करने केलिए; मधु-द्विष: --मधु के शत्रु ( श्रीकृष्ण ) का; परेभ्य:--अन्यों ( शत्रुओं ) से; श्धितः-- भयभीत; स्नेहात्-स्नेह-वश; प्रायुड्र --संलग्न; चतु:-अड्जिणीम्--चतुरंगिनी सेना।
यद्यपि महाराज युधिष्ठिर का कोई शत्रु न था, तो भी उन्होंने असुरों के शत्रु, भगवान्श्रीकृष्ण के साथ जाने के लिए चतुरंगिणी सेना ( घोड़ा, हाथी, रथ तथा पैदल सेना ) लगादी।
शत्रु से बचाव और भगवान् से स्नेह के कारण महाराज ने ऐसा किया।
"
अथ दूरागतान् शौरि: कौरवानू विरहातुरान् ।
सन्निवर्त्य दढं स्निग्धान् प्रायात्स्वनगरीं प्रिय: ॥
३३॥
अथ--इस तरह; दूरागतान्--दूर तक उनके साथ-साथ जाकर; शौरि:-- भगवान् कृष्ण; कौरवानू--पाण्डवों को;विरहातुरान्--विछोह भाव से अभिभूत; सतन्निवर्त्य--विनम्रतापूर्वक आग्रह किया; हृढम्--कृतसंकल्प; स्निग्धान्--स्नेहसे पूरित; प्रायात्-- आगे बढ़े; स्व-नगरीम्--अपने नगर ( द्वारका ) की ओर; प्रियैः--प्रिय संगियों के साथ।
भगवान् कृष्ण के प्रति प्रगाढ़ स्नेहवश कुरुवंशी पाण्डव उन्हें विदा करने के लिए उनकेसाथ काफी दूर तक गये।
वे भावी विछोह के विचार से अभिभुत थे।
किन्तु भगवान् नेउनसे घर लौट जाने का आग्रह किया और स्वयं अपने प्रिय संगियों के साथ द्वारका कीओर रवाना हुए।
"
कुरुजाड्नलपाञ्नालान् शूरसेनान् सयामुनान् ।
ब्रह्मावर्त कुरुक्षेत्र मत्स्यान् सारस्वतानथ ॥
३४॥
मरुधन्वमततिक्रम्य सौवीराभीरयो: परान् ।
आनर्तान् भार्गवोपागाच्छान्तवाहो मनाग्विभु: ॥
३५॥
कुरुू-जाड्ुल--दिल्ली प्रान्त; पाञ्ञालानू--पंजाब प्रान्त का भाग; शूरसेनान्--उत्तर प्रदेश का भाग; स--सहित;यामुनान्--यमुना के तटवर्ती जिलों को; ब्रह्मावर्तम्--उत्तरी उत्तर प्रदेश का भाग; कुरुक्षेत्रमू-वह स्थान जहाँ युद्ध लड़ागया; मत्स्यान्--मत्स्या प्रान्त; सारस्वतान्--पंजाब का एक हिस्सा; अथ--इत्यादि; मरू--मरुस्थल, राजस्थान;धन्वम्--मध्य प्रदेश, जहाँ जल का अभाव है; अति-क्रम्य--निकल कर; सौवीर--सौराष्ट्; आभीरयो:--गुजरात काहिस्सा; परान्--पश्चिमी दिशा; आनर्तान्-द्वारका प्रान्त; भार्गव--हे शौनक; उपागात्--थक गये; श्रान्त-- थकान;वाहः--घोड़े; मनाक् विभु:--लम्बी यात्रा के कारण थोड़ा-सा।
हे शौनक, तब भगवान् कुरुजांगल, पाञ्जाल, शूरसेन, यमुना के तटवर्ती प्रदेश,ब्रह्मावर्त, कुरुक्षेत्र, मत्स्या, सारस्वता, मरुप्रान्त तथा जल के अभाव वाले भाग से होते हुएआगे बढ़े।
इन प्रान्तों को पार करने के बाद वे सौवीर तथा आभीर प्रान्त पहुँचे और अन्त मेंइन सबके पश्चिम की ओर स्थित द्वारका पहुँचे।
"
तत्र तत्र ह तत्रत्यैर्हरि: प्रत्युद्यतार्हण: ।
सायं भेजे दिशं पश्चाद्गविष्ठो गां गतस्तदा ॥
३६॥
तत्र तत्र--विभिन्न स्थानों में; ह--ऐसी घटना घटी; तत्रत्यै:--स्थानीय निवासियों द्वारा; हरिः-- भगवान; प्रत्युद्यत-अर्हण:-ैभेंटें तथा पूजा-सम्मान अर्पित किया जाकर; सायम्--शाम; भेजे--आने पर; दिशम्--दिशा; पश्चात्--पश्चिमी; गविष्ठ:--आकाश में सूर्य; गामू--समुद्र को; गतः--चला गया; तदा--उस समय ।
इन प्रान्तों से होकर यात्रा करते समय उनका स्वागत किया गया, पूजा की गई और उन्हेंविविध भेंटें प्रदान की गईं।
संध्या समय सारे स्थानों में संध्या-कालीन अनुष्ठान ( कृत्य )करने के लिए भगवान् अपनी यात्रा स्थगित करते।
सूर्यास्त के बाद नियमित रूप से ऐसाकिया जाता।
"
अध्याय ग्यारह: भगवान कृष्ण का द्वारका में प्रवेश
1..11सूत उवाचआनर्तान् स उप्रज्य स्वृद्धाज्नपदान्स्वकान् ।
दध्मौ दरवरं तेषां विषादं शमयतन्निव ॥
१॥
सूतः उबाच--सूत गोस्वामी ने कहा; आनर्तान्--आनर्तान ( द्वारका ) नामक देश में; सः--वे ; उपब्रज्य--निकट पहुँचकर;स्वृद्धानू--अत्यन्त समृद्ध; जन-पदानू--नगर; स्वकानू--अपना; दध्मौ--बजाया; दरवरम्-शुभ शंख ( पाज्जञजन्य ) को;तेषाम्--उनकी; विषादम्--निराशा को; शमयन्--शान्त करते हुए; इब--मानो |
सूत गोस्वामी ने कहा : आनर्तो के देश के नाम से विख्यात अपनी अत्यन्त समृद्ध राजनगरी( द्वारका ) के निकट पहुँच कर, भगवान् ने अपना आगमन उद्घोषित करने तथा निवासियों कीनिराशा को शांत करने के लिए अपना शुभ शंख बजाया।
"
स उच्चकाशे धवलोदरो दरो-प्युरुक्रमस्याधशशोणशोणिमा ।
दाध्मायमान: करकञझ्जसम्पुटेयथाब्जखण्डे कलहंस उत्स्वन: ॥
२॥
सः--वह; उच्चकाशे-- स्वच्छ हो गया; धवल-उदर:--सफेद तथा बड़े पेटवाला; दरः--शंख; अपि--यद्यपि वह ऐसा है;उरुक्रमस्य--महान् साहसी का; अधरशोण--उनके होठों के दिव्य गुण से; शोणिमा--लाल हुआ; दाध्मायमान: --बजायाजाकर; कर-कजञ्ज-सम्पुटे--कर-कमलों की हथेली द्वारा पकड़ा जाकर; यथा--जिस तरह; अब्ज-खण्डे--कमल-दण्डों से;कल-हंसः--सुन्दर हंस; उत्स्बन:--जोर से शब्द करता
श्वेत तथा मोटे पेंदेवाला शंख, भगवान् के हाथों द्वारा पकड़ा जाकर तथा उनके द्वारा बजायाजाकर, ऐसा लग रहा था मानो उनके दिव्य होठों का स्पर्श करके लाल हो गया हो।
ऐसा प्रतीतहो रहा था मानो कोई श्रेत हंस लाल रंग के कमलदण्डों के बीच खेल रहा हो।
"
तमुपश्रुत्य निनदं जगद्धयभयावहम् ।
प्रत्युद्ययु: प्रजा: सर्वा भर्तृदर्शलालसा: ॥
३॥
तम्--उस; उपश्रुत्य--सुनकर; निनदम्--शब्द को; जगत्-भय--भौतिक संसार का भय; भय-आवहम्-- भयभीत बनानेवालातत्त्व; प्रति--की ओर; उद्ययु:--तेजी से आगे बढ़े; प्रजा:--नागरिक; सर्वा:--सभी; भर्तु--रक्षक; दर्शन--दर्शन की;लालसाः--इच्छा वाले |
भौतिक जगत में साक्षात् भय को भी भयभीत बनानेवाले, उस शब्द को सुनकर द्वारका केनागरिक उनकी ओर तेजी से दौड़ने लगे, जिससे वे भक्तों के रक्षक भगवान् का चिर अभिलषितदर्शन कर सकें।
"
तत्रोपनीतबलयो रवेर्दीपमिवाहता: ।
आत्माराम॑ पूर्णकाम॑ं निजलाभेन नित्यदा ॥
४॥
प्रीत्युत्फूल्लमुखा: प्रोचुह्र्षगद्गदया गिरा ।
पितरं सर्वसुहृदमवितारमिवार्भका: ॥
५॥
तत्र--तत्पश्चात्; उपनीत--अर्पित करके; बलय: --भेंटें; रवे:--सूर्य तक; दीपम्--दीपक; इब--सहश; आहता: --आदरपूर्वक; आत्म-आरामम्--आत्म-निर्भर को; पूर्ण-कामम्--पूर्णतया संतुष्ट; निज-लाभेन--अपनी निजी शक्ति से; नित्य-दा--निरन्तर पूर्ति करनेवाले; प्रीति--स्नेह; उत्फुल्ल-मुखा:--प्रसन्नमुख; प्रोचु:--कहा; हर्ष--प्रसन्न हुए; गदगदया--आह्ादयुक्त; गिरा--वाणी; पितरम्--पिता को; सर्व--सारे; सुहृदम्--मित्रों को; अवितारम्--संरक्षक को; इब--सहश;अर्भकाः--बालक |
सारे नागरिक अपनी-अपनी भेंटें लिये हुए भगवान् के सम्मुख आये और उन्हें उन परम संतुष्टतथा आत्म-निर्भर भगवान् को अर्पित किया, जो अपनी निजी शक्ति से अन्यों कीआवश्यकताओं की निरन्तर पूर्ति करते रहते हैं।
ये भेंटें सूर्य को दिये गये दीप-दान जैसी थीं।
फिर भी सारे नागरिक भगवान् के स्वागत में ऐसी आह्वादमयी भाषा में बोलने लगे, मानो बच्चेअपने अभिभावक तथा पिता का स्वागत कर रहे हों।
"
नता: सम ते नाथ सदाड्घ्रिपड्डुजंविरिद्ववैरिज्च्यसुरेन्द्रवन्दितम् ।
परायणं क्षेममिहेच्छतां परंन यत्र काल: प्रभवेत् पर: प्रभु: ॥
६॥
नता: स्म--हम नतमस्तक हुए थे; ते--आपके समक्ष; नाथ--हे भगवान्; सदा--सदैव; अद्प्नि-पड्डजम्--चरणकमल;विरिज्ञ--ब्रह्मा, प्रथम जीव; वैरिज्च्य--ब्रह्मा के पुत्र, यथा सनक तथा सनातन; सुर-इन्द्र--स्वर्ग का राजा; वन्दितम्--पूजित;'परायणम्--सर्वोपरि; क्षेमम्--कुशल, कल्याण; इह--इस जीवन में; इच्छताम्--इच्छा करनेवाला; परम्--सर्वोच्च; न--कभीनहीं; यत्र--जहाँ; काल:-- प्रबल काल; प्रभवेत्--अपना प्रभाव डाल सकता है; परः--दिव्य; प्रभु:--परमे श्वर
नागरिकों ने कहा : हे भगवन्, आप ब्रह्मा, चारों कुमार तथा स्वर्ग के राजा जैसे समस्तदेवताओं द्वारा भी पूजित हैं।
आप उन लोगों के परम आश्रय हैं, जो जीवन का सर्वोच्च लाभउठाने के लिए इच्छुक हैं।
आप परम दिव्य भगवान् हैं और प्रबल काल भी आप पर अपनाप्रभाव नहीं दिखा सकता।
"
भवाय नस्त्वं भव विश्वभावनत्वमेव माताथ सुहत्पति: पिता ।
त्वं सदगुरुर्न: परमं च दैवतंयस्यानुवृत्त्या कृतिनो बभूविम ॥
७॥
भवाय--कल्याण के लिए; न:--हम सबों के; त्वमू--आप; भव--बलनें; विश्व-भावन--ब्रह्माण्ड के स्त्रष्टा; त्वमू--आप;एव--निश्चय ही; माता--माता; अथ--तथा; सुहृत्--शुभचिन्तक; पति: --पति; पिता--पिता; त्वमू--आप; सत्-गुरु: --गुरु;नः--हमारे; परमम्--परम; च--तथा; दैवतम्--पूज्य देव; यस्य--जिसके ; अनुवृत्त्या--चरणचिद्नों पर चलकर; कृतिन:--सफल; बभूविम--हम हुए हैं।
हे ब्रह्माण्ड के स्त्रष्टा, आप हमारे माता, शुभचिन्तक, प्रभु, पिता, आध्यात्मिक गुरु तथाआरशाध्य देव हैं।
हम आपके चरण-चिह्नों पर चलते हुए सभी प्रकार से सफल हुए हैं।
अतएवहमारी प्रार्थना है कि आप हमें अपनी कृपा का आशीर्वाद देते रहें।
"
अहो सनाथा भवता सम यद्ठयंत्रैविष्टपानामपि दूरदर्शनम् ।
प्रेमस्मितस्निग्धनिरी क्षणाननंपश्येम रूपं तव सर्वसौभगम् ॥
८॥
अहो--ओह, यह तो हमारा सौभाग्य है; स-नाथाः--स्वामी के संरक्षण में होना; भवता--आपके द्वारा; स्म--जैसे हम बन चुकेहैं; यत् वयम्--जैसे कि हम हैं; त्रैविष्टटपानामू--देवताओं को; अपि-- भी; दूर-दर्शनम्--बहुत कम दिखाई पड़ते हैं; प्रेम-स्मित--प्रेम से हँसता हुआ; स्निग्ध--स्नेहपूर्ण; निरीक्षण-आननम्--उस प्रकार से दिखनेवाला मुख; पश्येम--देखें; रूपम्--सौन्दर्य; तब--आपका; सर्व--सम्पूर्ण; सौभगम्--सौभाग्य ।
अहो! यह तो हमारा सौभाग्य है कि आज पुनः आपकी उपस्थिति से हम आपके संरक्षण मेंआ गये, क्योंकि आप स्वर्ग के निवासियों के यहाँ भी कभी-कभी जाते हैं।
आपके स्मितमुखको देख पाना हमारे लिए अब सम्भव हो सका है, जो स्निग्ध चितवन से पूर्ण है।
अब हमआपके सर्व-सौभाग्यशाली दिव्य रूप का दर्शन कर सकते हैं।
"
यहम्बुजाक्षापससार भो भवान्कुरून् मधून् वाथ सुहृद्दिहक्षया ।
तत्राब्दकोटिप्रतिम: क्षणो भवेद्रवि विनाक्ष्णोरिव नस्तवाच्युत ॥
९॥
यहि--जब भी; अम्बुज-अक्ष--हे कमलनेत्र; अपससार--आप चले जाते हैं; भो--अरे; भवान्--आप; कुरून्--राजा कुरु केवंशजों को; मधून्--मथुरा ( ब्रजभूमि ) के निवासियों को; वा--अथवा; अथ--अतएव; सुहत्-दिदृक्षया--भेंट करने के लिए;तत्र--उस समय; अब्द-कोटि--करोड़ों वर्ष; प्रतिम:--सहृश; क्षण:--क्षण; भवेत्--हो जाता है; रविम्--सूर्य; विना--रहित;अक्ष्णो:--आँखों के; इब--समान; न:--हमारी; तब-- आपकी; अच्युत--हे अमोघ
हे कमलनयन भगवान्, आप जब भी अपने मित्रों तथा सम्बन्धियों से भेंट करने मथुरा,वृन्दावन या हस्तिनापुर चले जाते हैं, तो आपकी अनुपस्थिति में प्रत्येक क्षण हमें करोड़ों वर्षो केसमान प्रतीत होता है।
हे अच्युत, उस समय हमारी आँखें इस तरह व्यर्थ हो जाती हैं मानो सूर्य सेबिछुड़ गई हों।
"
कथं वयं नाथ चिरोषिते त्वयिप्रसन्नदष्याखिलतापशोषणम् ।
जीवेम ते सुन्दरहासशोभित-मपश्यमाना वदनं मनोहरम्।
इति चोदीरिता वाच: प्रजानां भक्तवत्सल: ।
श्रृण्वानोअ्नुग्रहं दृष्टया वितन्वन् प्राविशत् पुरम् ॥
१०॥
कथम्-कैसे; वयम्--हम; नाथ--हे प्रभु; चिरोषिते--सदैव बाहर रहने के कारण; त्वयि--आपके द्वारा; प्रसन्न--प्रसन्नता;इृष्य्या--झलक से; अखिल--संसार भर का; ताप--दुख; शोषणम्--नष्ट करने के लिए; जीवेम--जीवित रह सकें; ते--आपका; सुन्दर--सुन्दर; हास--हँसता हुआ; शोभितम्--अलंकृत; अपश्यमाना:--बिना देखे; वदनम्--मुख; मनोहरम्--आकर्षक; इति--इस प्रकार; च--तथा; उदीरिता:--बोलते हुए; वाच:--शब्द; प्रजानामू--नागरिकों का; भक्त-वत्सल:--भक्तों के प्रति दयालु; श्रेण्वान:--ऐसा जानकर; अनुग्रहम्--दया; दृष्टया--चितवन से; वितन्वन्--वितरित करते हुए;प्राविशत्--प्रवेश किया; पुरम्--द्वारका में ।
हे स्वामी, यदि आप सारे समय बाहर रहते हैं, तो हम आपके उस मनोहर मुखमण्डल कोनहीं देख पाते, जिसकी मुसकान हमारे सारे कष्टों को दूर कर देती है।
भला हम आपके बिनाकैसे रह सकते हैं ?उनकी वाणी सुनकर, प्रजा तथा भक्तों पर अत्यन्त दयालु भगवान् ने द्वारकापुरी में प्रवेशकिया और उन सबों पर अपनी दिव्य दृष्टि डालते हुए उनका अभिनन्दन स्वीकार किया।
"
मधुभोजदशाहर्हिकुकुरान्धकवृष्णिभि: ।
आत्मतुल्यबलैर्गुप्तां नागै्भोगवतीमिव ॥
११॥
मधु--मधु; भोज-- भोज; दशाई--दशाई; अर्ह--अर्हई; कुकुर--कुकुर; अन्धक -- अन्धक; वृष्णिभि: --वृष्णि-कुलवालों केद्वारा; आत्म-तुल्य--अपने सहृश; बलैः--शक्ति से; गुप्तामू--रक्षित; नागैः--नागों द्वारा; भोगवतीम्--नागलोक की राजधानी;इब--सहशजिस प्रकार नागलोक की राजधानी भोगवती नागों के द्वारा रक्षित है, उसी तरह द्वारका कीरक्षा कृष्ण के समान बलवान वृष्णि के वंशजों--भोज, मधु, दशाई, अर, कुकुर, अन्धकइत्यादि--द्वारा की जाती थी।
"
सर्वतुसर्वविभवपुण्यवृक्षलताश्रमै; ।
उद्यानोपवनारामैर्वृतपद्माकरश्रियमू ॥
१२॥
सर्व--सभी; ऋतु--ऋतुएँ; सर्व--समस्त; विभव--ऐश्वर्य; पुण्य--पवित्र; वृक्ष--पेड़; लता--बेलें; आ श्रमैः--आ श्रमों केसाथ; उद्यान--बगीचे; उपवन--पुष्पोद्यान; आरामै:--क्रीडावन ( आरामदायक बगीचे ) तथा सुन्दर पार्क से; वृत--घिरे हुए;पद्य-आकर--कमलों के जन्म-स्थल या जल के सुन्दर आगार; श्रियम्--सुन्दरता को बढ़ानेवाले।
द्वारकापुरी समस्त ऋतुओं के ऐश्वर्य से पूर्ण थी।
उसमें सर्वत्र आश्रम, उद्यान, पुष्पोद्यान, पार्कतथा कमलों से परिपूर्ण जलाशय थे।
"
गोपुरद्वारमार्गेषु कृतकौतुकतोरणाम् ।
चित्रध्वजपताकाग्रैरन्त: प्रतिहतातपाम् ॥
१३॥
गोपुर--नगरी का सिंहद्वार; द्वार--दरवाजा; मार्गेषु--विभिन्न सड़कों पर; कृत--किये गये; कौतुक--उत्सव के कारण;तोरणाम्--सज्जित बन्दन-वार; चित्र--चित्रित; ध्वज--झंडियाँ; पताका-अग्रै:--अग्रणी चिद्नों द्वारा; अन्त:--भीतर;प्रतिहत--अवरुद्ध; आतपाम्-- धूप को ।
भगवान् के स्वागतार्थ नगर का द्वार, घरों के दरवाजे तथा सड़कों के किनारे झंडियों से सजेबन्दनवार बहुत ही सुन्दर ढंग से केले के वृक्षों तथा आम की पत्तियों जैसे मांगलिक प्रतीकों सेसजाये गये थे।
झंडियाँ, फूल-मालाएँ तथा चित्रित संकेत एवं लिखे गये सुवाक्य धूप कोअवरुद्ध कर रहे थे।
"
सम्मार्जितमहामार्गरथ्यापणकचत्वराम् ।
सिक्तां गन्धजलैरुप्तां फलपुष्पाक्षताडुरै: ॥
१४॥
सम्मार्जित-- पूर्णतया स्वच्छ किया; महा-मार्ग--राजपथ; रथ्य--मार्ग तथा गलियाँ; आपणक--बाजार; चत्वराम्--चौक;सिक्तामू--सिक्त; गन्ध-जलै:--सुगन्धित जल से; उप्ताम्--बिखेरे हुए; फल--फल; पुष्प--फूल; अक्षत--बिना टूटे, पूरे-पूरे;अद्जुरै: --बीजों से |
पथ, मार्गों, बाजारों तथा चौकों को भलीभाँति झाड़-बुहारकर उन पर सुगन्धित जलछिड़का गया था और भगवान् का स्वागत करने के लिए सर्वत्र फल-फूल तथा अक्षत-अंकुरबिखेरे गये थे।
"
द्वारि द्वारि गृहाणां च दध्यक्षतफलेक्षुभि: ।
अलड़कृतां पूर्णकुम्भैर्बलिभिर्धूपदीपकै: ॥
१५॥
द्वारि द्वारि--प्रत्येक घर के द्वार पर; गृहाणाम्--सभी घरों के; च--तथा; दधि--दही; अक्षत--सम्पूर्ण; फल--फल;इक्षुभि:--गन्ने से; अलड्कृताम्--सजाया गया; पूर्ण-कुम्भैः--जल से पूर्ण घटों से; बलिभि:--पूजन सामग्री सहित; धूप--सुगन्ध बत्ती; दीपकै:--दीपों तथा बत्तियों से |
प्रत्येक घर के द्वार पर दही, अक्षत फल, गन्ना तथा पूरे भरे हुए जलपात्रों के साथ ही पूजनकी सामग्री, धूप तथा बत्तियाँ सजा दी गयी थीं।
"
निशम्य प्रेष्ठमायान्तं वसुदेवो महामना: ।
अक्रूरश्वोग्रसेनश्व रामश्वाद्धुतविक्रम: ॥
१६॥
प्रद्युम्नश्वारुदेष्णश्व साम्बो जाम्बवतीसुत: ।
प्रहर्षषेगोच्छशितशयनासनभोजना: ॥
१७॥
निशम्य--सुनकर; प्रेष्ठम्--प्रियतम को; आयान्तम्-घर आते हुए; वसुदेव:--वसुदेव ( कृष्ण के पिता ); महा-मना:--महामना, उदारचेता; अक्रूरः --अक्रूर; च--तथा; उग्रसेन:--उग्रसेन; च--तथा; राम:--बलराम ( कृष्ण के बड़े भाई ); च--तथा; अद्भुत--अलौकिक; विक्रम:--शौर्य, पराक्रम; प्रद्युम्न: --प्रद्युम्न; चारुदेष्ण: --चारुदेष्ण; च--तथा; साम्ब:--साम्ब;जाम्बवती-सुतः--जाम्बवती का पुत्र; प्रहर्ष--अत्यन्त प्रसन्नता; वेग--त्वरा; उच्छशित--से प्रभावित; शयन--लेटना; आसन--बैठना; भोजना:--भोजन करना |
यह सुनकर कि परम प्रिय कृष्ण द्वारकाधाम पहुँच रहे हैं, महामना वसुदेव, अक्रूर, उग्रसेन,बलराम ( अलौकिक शक्तिसम्पन्न ), प्रद्युम्न, चारुदेष्ण तथा जाम्बवती-पुत्र साम्ब सभी इतनेप्रसन्न हुए कि उन्होंने लेटना, बैठना तथा भोजन करना छोड़ दिया।
"
वारणेद्धं पुरस्कृत्य ब्राह्मण: ससुमड्नलै: ।
श्लुतूर्यनिनादेन ब्रह्मघोषेण चाहता: ।
प्रत्युज्जग्मू रथेईप्टा: प्रणयागतसाध्वसा: ॥
१८॥
वारण-इन्द्रमू--मांगलिक कार्यवाले हाथी को; पुरस्कृत्य--सामने करके; ब्राह्मणै:--ब्राह्मणों द्वारा; स-सुमड्लैः --समस्त शुभलक्षणों सहित; शट्डु--शंख; तूर्य--तुरही की; निनादेन--ध्वनि से; ब्रह्मटघोषेण--वेदों के स्तोत्रों के उच्चारण से; च--तथा;आहता:--महिमा-मण्डित; प्रति--की ओर; उज्म्मुः--तेजी में बढ़े; रथे:--रथ पर; हष्टा:--आनन्द में; प्रणयागत--स्नेह सेसिक्त; साध्वसा:--सादर।
वे फूल थामे हुए ब्राह्मणों समेत रथों पर भगवान् की ओर तेजी से बढ़े।
उनके आगे-आगेसौभाग्य-के प्रतीक हाथी थे।
शंख तथा तुरही बज रहे थे और बैदिक स्तोत्र उच्चरित हो रहे थे।
इस प्रकार उन्होंने स्नेहसिक्त अभिवादन किया।
"
वारमुख्याश्व शतशो यानैस्तदर्शनोत्सुका: ।
लसत्कुण्डलनिर्भातकपोलवदनश्रिय: ॥
१९॥
वारमुख्या:--विख्यात वेश्याएँ; च--तथा; शतशः--सैकड़ों; यानैः:--सवारियों द्वारा; तत्-दर्शन--उनसे ( भगवान् श्रीकृष्णसे ) भेंट करने के लिए; उत्सुकाः--अत्यन्त उत्सुक; लसत्--लटकते हुए; कुण्डल--कान के आभूषण; निर्भात--चमकते हुए;कपोल--ललाट; वदन-- मुख; थ्रिय:--सौन्दर्य ।
उसी समय सैकड़ों विख्यात वेश्याएँ विविध सवारियों पर आरूढ़ होकर आगे बढ़ चलीं।
वे सभी भगवान् से मिलने के लिए अत्यन्त उत्सुक थीं और उनके सुन्दर मुख-मण्डल चमचमातेकुण्डलों से सुशोभित थे, जिनके कारण उनके ललाट की शोभा बढ़ रही थी।
"
नटनर्तकगन्धर्वा: सूतमागधवन्दिन: ।
गायन्ति चोत्तमश्लोकचरितान्यद्धुतानि च ॥
२०॥
नट--नाटककार; नर्तक--नाचनेवाले; गन्धर्वा:--स्वर्ग के गवैये; सूत--पेशेवर पौराणिक; मागध--पेशेवर वंशावली-विशारद, भाट; वन्दिन: --पेशेवर विद्वान वक्ता; गायन्ति--कीर्तन करते हैं; च--क्रमशः; उत्तमश्लोक--परमे श्वर के;चरितानि--कार्यकलापों को; अद्भुतानि-- अलौकिक; च--तथा |
कुशल नाटककार, कलाकार, नर्तक, गायक, पौराणिक, वंशावली-विशारद ( भाट ) तथाविद्वान वक्ता ( वाचक ) सबों ने भगवान् के अलौकिक कार्यकलापों से प्रेरित होकर अपना-अपना योगदान दिया।
इस प्रकार वे आगे बढ़ते गये।
"
भगवांस्तत्र बन्धूनां पौराणामनुवर्तिनाम् ।
यथाविध्युपसड्भम्य सर्वेषां मानमादधे ॥
२१॥
भगवान्--भगवान् श्रीकृष्ण; तत्र--उस स्थान पर; बन्धूनाम्-मित्रों के; पौराणाम्--नागरिकों के; अनुवर्तिनाम्--स्वागतार्थआये लोगों का; यथा-विधि--यथायोग्य; उपसड्रम्य--पास जाकर; सर्वेषाम्--हर एक के लिए; मानम्--सम्मान तथा आदर;आदथधे--प्रदान किया।
भगवान् श्रीकृष्ण उनके निकट गये और उन्होंने अपने समस्त मित्रों, सम्बन्धियों, नागरिकोंतथा उन समस्त लोगों को, जो उन्हें लेने तथा स्वागत करने के लिए आये थे, यथायोग्य सम्मानतथा आदर प्रदान किया।
"
प्रह्मभिवादनाश्लेषकरस्पर्शस्मितेक्षणै: ।
आश्वास्य चाश्वपाकेभ्यो वरैश्वाभिमतैर्विभु: ॥
२२॥
प्रह्-अपना सिर झुकाकर; अभिवादन--शब्दों से अभिवादन; आश्लेष--आलिंगन; कर-स्पर्श--हाथ मिलाना; स्मित-ईक्षणैः--बाँकी हँसी से; आश्वास्य--प्रोत्साहन द्वारा; च--तथा; आश्चवपाकेभ्य: --कुत्ता खानेवाली अधम जाति तक; वरै:--आशीर्वादों से; च--तथा; अभिमतैः--जिसकी जैसी इच्छा हो; विभुः--सर्वशक्तिमान ने।
सर्वशक्तिमान भगवान् ने वहाँ पर समुपस्थित लोगों को, यहाँ तक कि नीच से नीच जातिवाले को, अपना मस्तक झुकाकर, बधाई देकर, आलिंगन करके, हाथ मिलाकर, देखकर तथाहँसकर, आश्वासन देकर तथा वरदान देकर उनका अभिवादन किया।
"
स्वयं च गुरुभिर्विप्रै: सदारै: स्थविरैरपि ।
आशीर्भियुज्यमानोच्यैर्वन्दिभिश्वाविशत्पुरम् ॥
२३॥
स्वयम्--अपने आप; च--भी; गुरुभि: --वयस्क स्वजनों द्वारा; विप्रै:--ब्राह्मणों के द्वारा; सदारैः--अपनी-अपनी पत्नियोंसहित; स्थविरिः--अशक्तों ( वृद्धों ) के द्वारा; अपि--भी; आशीर्भि:-- आशीर्वाद से; युज्यमान: --प्रशंसित होकर; अन्यै:--अन्यों द्वारा; वन्दिभि:--प्रशंसकों द्वारा; च--तथा; अविशत्--प्रवेश किया; पुरम्--नगर में |
तब भगवान् ने ज्येष्ठ-वरेष्ठ सम्बन्धियों तथा अपनी-अपनी पतियों के साथ आए अशक्तब्राह्मणों के साथ नगर में प्रवेश किया।
वे सब आशीर्वाद दे रहे थे और भगवान् के यशों का गानकर रहे थे।
दूसरे लोगों ने भी भगवान् की महिमा की प्रशंसा की।
"
राजमार्ग गते कृष्णे द्वारकाया: कुलख्रिय: ।
हर्म्याण्यारुरुहुविप्र तदीक्षणमहोत्सवा: ॥
२४॥
राज-मार्गभमू--आम सड़कों से; गते--जाते हुए; कृष्णे-- भगवान् कृष्ण द्वारा; द्वारकाया:--द्वारका नगरी की; कुल-स्त्रिय:--प्रतिष्ठित कुलों की स्त्रियाँ; हर्म्याणि--राजमहलों में; आरुरुहुः--चढ़ गईं ; विप्र--हे ब्राह्मणों; तत्-ईक्षण--उनका ( कृष्ण का )दर्शन करने के लिए; महा-उत्सवा:--महान् उत्सव मानकर।
जब भगवान् राजमार्ग से होकर जा रहे थे, तो द्वारका के प्रतिष्ठित परिवारों की सभी स्त्रियाँभगवान् का दर्शन करने के लिए अपने-अपने महलों की अटारियों पर चढ़ गईं।
इसे वे एकमहान् उत्सव समझ रही थीं।
"
नित्य॑ निरीक्षमाणानां यदपि द्वारकौकसाम् ।
न वितृप्यन्ति हि दृश: श्रियो धामाड्रमच्युतम् ॥
२५॥
नित्यमू--नियमित रूप से, सदैव; निरीक्षमाणानाम्--उनको देखनेवालों का; यत्--यद्यपि; अपि--के होते हुए; द्वारका-ओकसामू--द्वारका के निवासी; न--कभी नहीं; वितृप्यन्ति--तुष्ट होते हैं; हि--ठीक से; हृश:--हृश्य; थ्रिय: --सौन्दर्य; धाम-अड्भम्--शरीर रूपी आगार; अच्युतम्--अमोघद्वारकावासी समस्त सौन्दर्य के आगार अच्युत भगवान् को नित्य निहारने के अभ्यस्त थे,फिर भी वे कभी तृप्त नहीं होते थे।
"
श्रियो निवासो यस्योर: पानपात्र मुखं दशाम् ।
बाहवो लोकपालानां सारज्ञाणां पदाम्बुजम् ॥
२६॥
भ्रिय:--लक्ष्मी का; निवास:--निवासस्थान; यस्थ--जिसका; उरः--वक्षस्थल; पान-पात्रमू--जल का घड़ा; मुखम्--मुँह;हशाम्--आँखों का; बाहव:--बांहें; लोक-पालानाम्-- प्रशासक देवताओं की; सारड्राणाम्-भक्तों का, जो किसी वस्तु केविषय में कुछ कहते या गाते हैं; पद-अम्बुजम्--चरणकमल।
भगवान् का वक्षस्थल लक्ष्मी देवी का निवासस्थल है।
उनका चाँद जैसा मुखड़ा उन नेत्रों केलिए जलपात्र के समान है, जो सुन्दर वस्तुओं के लिए सदैव लालायित रहते हैं।
उनकी भुजाएँप्रशासक देवताओं के लिए आश्रयस्थल हैं और उनके चरणकमल उन शुद्ध भक्तों कीशरणस्थली हैं, जो भगवान् के अतिरिक्त न तो कुछ कहते हैं, न गाते हैं।
"
सितातपत्रव्यजनैरुपस्कृत:प्रसूनवर्षैरभिवर्षित: पथि ।
पिशज्भवासा वनमालया बभौघनो यथार्कोडुपचापवैद्युतै: ॥
२७॥
सित-आततपत्र-- श्रेत छाता; व्यजनैः--चामर से; उपस्कृत:--झला जाकर; प्रसून--फूलों की; वर्षै:--वर्षा से; अभिवर्षित:--आच्छादित होकर; पथ्चि--मार्ग पर; पिशड्र-वासा:--पीताम्बर से; बन-मालया--फूलों के हारों से; बभौ--हो गया; घन: --बादल; यथा--जिस प्रकार; अर्क--सूर्य; उडुप--चन्द्रमा; चाप--इन्द्रधनुष; वैद्युतै:--बिजली से ।
जब भगवान् द्वारका के राजमार्ग से होकर गुजर रहे थे, तब एक श्वेत छत्र तानकर उनके सिरको धूप से बचाया जा रहा था।
श्वेत पंखों वाले पंख ( चंवर ) अर्धवृत्ताकार में झल रहे थे औरमार्ग पर फूलों की वर्षा हो रही थी।
पीताम्बर तथा फूलों के हार से वे इस प्रकार प्रतीत हो रहे थे,मानो श्याम बादल एक ही साथ सूर्य, चन्द्रमा, बिजली तथा इन्द्रधनुष से घिर गया हो।
"
प्रविष्टस्तु गृहं पित्रो: परिष्वक्त: स्वमातृभि: ।
ववन्दे शिरसा सप्त देवकीप्रमुखा मुदा ॥
२८॥
प्रविष्ट:--प्रवेश करने पर; तु--लेकिन; गृहम्--घर में; पित्रो:--पिता के; परिष्वक्त:--आलिंगित होकर; स्व-मातृभि: -- अपनीमाताओं द्वारा; ववन्दे--नमस्कार किया; शिरसा--सिर से; सप्त--सात; देवकी--देवकी; प्रमुखा--इत्यादि; मुदा--प्रसन्नतापूर्वक
अपने पिता के घर में प्रवेश करने पर उन्हें उनकी माताओं ने गले लगाया और भगवान् नेउनके चरणों पर अपना शिर रखकर उन्हें नमस्कार किया।
माताओं में देवकी ( उनकी असलीमाता ) प्रमुख थीं।
"
ता: पुत्रमड्ढमारोप्य स्नेहस्नुतपयोधरा: ।
हर्षविह्नललितात्मान: सिषिचुर्नेत्रजैर्जलै: ॥
२९॥
ताः--वे सभी; पुत्रम्-पुत्र को; अड्भूम्--गोद में; आरोप्य--बिठाकर; स्नेह-स्नुत--स्नेह से सिक्त; पयोधरा: --वक्षस्थल;हर्ष--प्रसन्नता; विहलित-आत्मान:--से विभोर; सिषिचु:--नम; नेत्रजैः--आँखों के; जलैः--जल सेमाताओं ने अपने पुत्र को गले लगाने के बाद, उसे अपनी-अपनी गोद में बिठाया।
विशुद्धस्नेह के कारण उनके स्तनों से दूध निकल आया।
वे हर्ष से विभोर हो गई और उनके नेत्रों केअश्रुओं से भगवान् भीग गये।
"
अथाविशतू स्वभवनं सर्वकाममनुत्तमम् ।
प्रासादा यत्र पत्नीनां सहस्नाणि च घोडश ॥
३०॥
अथ--त्पश्चात्; अविशत्--प्रविष्ट हुए; स्व-भवनम्--अपने महलों में; सर्व--समस्त; कामम्--इच्छाएँ; अनुत्तमम्--सब तरहसे पूर्ण; प्रासादाः:--महल; यत्र--जहाँ; पत्नीनामू-- पत्नियों को; सहस्त्राणि--हजारों; च--इसके ऊपर; षोडश--सोलह।
तत्पश्चात् भगवान् अपने महलों में प्रविष्ट हुए, जो सभी तरह से परिपूर्ण थे।
उनमें उनकीपत्नियाँ रहती थीं और वे सोलह हजार से अधिक थीं।
"
पत्न्य: पति प्रोष्य गृहानुपागतंविलोक्य सझ्जञातमनोमहोत्सवा: ।
उत्तस्थुरारात् सहसासनाशयात्साक॑ ब्रतैत्रीडितलोचनानना: ॥
३१॥
पल्य:--पत्नियाँ ( भगवान् कृष्ण की ); पतिमू--पति को; प्रोष्य--घर से दूर गया हुआ; गृह-अनुपागतम्--अब घर लौटा हुआ;विलोक्य--देखकर; सञ्भात--उत्पन्न करके; मन:-महा-उत्सवा:--मन के भीतर प्रसन्नतापूर्ण उत्सव का भाव; उत्तस्थु:--उठीं;आरातू--दूर से; सहसा--एकाएक; आसना--आसनों से; आशयात्--ध्यान अवस्था से; साकम्--के साथ; ब्रतै:--ब्रत के;ब्रीडित--लज्जा से देखते; लोचन--नेत्र; आनना:--मुख ।
दीर्घकाल तक बाहर रहने के बाद अपने पति को घर आया देखकर श्रीकृष्ण की रानियाँमन ही मन अत्यन्त हर्षित हुईं।
वे अपने-अपने आसनों तथा ध्यानों से तुरन्त उठकर खड़ी हो गई।
सामाजिक प्रथा के अनुकूल, उन्होंने लज्जा से अपने मुख ढक लिये और दृष्टि नीची किये देखनेलगीं।
"
तमात्मजैर्दष्टिभिरन्तरात्मना दुरन्तभावा: परिरेभिरे पतिम् ।
निरुद्धमप्यास्रवदम्बु नेत्रयो-विलज्जतीनां भृगुवर्य वैक््लवात् ॥
३२॥
तम्--उस ( भगवान् ) को; आत्म-जै: --पुत्रों द्वारा; दृष्टिभ:--दृष्टि द्वारा; अन्तर-आत्मना-- अन्तरात्मा से; दुरन््त-भावा:--दुर्लध्यउत्कंठा; परिरिभिरि--आलिंगन किया; पतिम्--पति को; निरुद्धमू--अवरुद्ध; अपि--होते हुए; आस्रवत्-आँसू; अम्बु--जल की बूँदों के समान; नेत्रयो:--आँखों से; विलजतीनाम्--लज्जा अनुभव करनेवाली; भृगु-वर्य--हे भृगुओं में श्रेष्ठ; बैक््लवात्--अनजाने।
रानियों की दुर्लघ्य उत्कण्ठा इतनी तीत्र थी कि लजाई होने के कारण उन्होंने सर्वप्रथम अपनेअन्तरतम से भगवान् का आलिंगन किया, फिर उन्होंने दृष्टि से उनका आलिंगन किया और तबअपने पुत्रों को उनका आलिंगन करने के लिए भेजा ( जो खुद ही आलिंगन करने जैसा है )।
लेकिन हे भृगुश्रेष्ठ, यद्यपि वे भावनाओं को रोकने का प्रयास कर रही थीं, किन्तु अनजाने उनकेनेत्रों से अश्रुछलक आये।
"
यद्यप्यसौ पार्थगतो रहोगत-स्तथापि तस्याडुप्रियुगं नव॑ नवम् ।
पदे पदे का विरमेत तत्पदा-च्वलापि यच्छीर्न जहाति कहिंचित् ॥
३३॥
यदि--यद्यपि; अपि--निश्चय ही; असौ--वे ( भगवान् श्रीकृष्ण ); पार्श्च-गतः--बगल में; रह:-गत:--अकेले; तथापि--फिरभी; तस्य--उसका; अड्प्रि-युगम्-- भगवान् के चरण; नवम् नवम्--नये-नये; पदे--पग; पदे--पग पर; का--कौन;विरमेत--विलग किया जा सकता है; तत्-पदात्--उनके चरणों से; चलापि--गतिशील; यत्--जिसको; श्री:--लक्ष्मी जी;न--कभी नहीं; जहाति--छोड़ती है; कर्हिचितू--कभी भी
यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण निरन्तर उनके पास थे और बिल्कुल अकेले भी थे, तो भी उनकेचरण उन्हें नवीनतर लग रहे थे।
यद्यपि लक्ष्मी जी स्वभाव से चंचल हैं, लेकिन वे भी भगवान् के चरणों को नहीं छोड़ती थीं।
तो भला जो स्त्री एक बार उन चरणों की शरण में जा चुकी हो, वहउनसे किस प्रकार विलग की जा सकती है ?"
एवं नृपाणां क्षितिभारजन्मना-मक्षौहिणीभि: परिवृत्ततेजसाम् ।
विधाय वैरं श्वसनो यथानलंमिथो वधेनोपरतो निरायुध: ॥
३४॥
एवम्--इस प्रकार; नृपाणाम्--राजाओं या प्रशासकों के; क्षिति-भार--पृथ्वी का बोझ; जन्मनाम्--इस प्रकार से उत्पन्न;अक्षौहिणीभिः--घोड़ों, हाथियों, रथों तथा पैदल सेना शक्ति के द्वारा शक्ति-सम्पन्न; परिवृत्त--ऐसे परिवेश से गर्वित;तेजसाम्--पराक्रम; विधाय--उत्पन्न करके ; वैरम्--श॒त्रुता; श्रसन:--बाँसों के पौधों तथा वायु के घर्षण से; यथा--जिसप्रकार; अनलम्--अग्नि; मिथ: --एक दूसरे के साथ; वधेन--मारने से; उपरत:--छूटकर; निरायुध: --युद्ध में किसी का पक्ष नकरने से।
पृथ्वी पर भार-स्वरूप राजाओं को मारने के बाद, भगवान् को राहत हुई।
वे अपनी सैन्य-शक्ति, अपने घोड़ों, हाथियों, रथों, पैदल सेना के बल पर गर्वित थे।
युद्ध में भगवान् किसी दलमें सम्मिलित नहीं हुए।
उन्होंने बलशाली प्रशासकों में शत्रुता उत्पन्न की और वे आपस में लड़गये।
वे उस वायु के समान थे, जो बाँसों में घर्षण उत्पन्न करके आग लगा देती है।
"
स एष नरलोकेस्मिन्नवतीर्ण: स्वमायया ।
रेमे सत्रीरत्नकूटस्थो भगवान् प्राकृतो यथा ॥
३५॥
सः--वे ( पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ); एष:--ये सब; नर-लोके--इस मनुष्य-लोक में; अस्मिन्--इस; अवतीर्ण:--अवतारलेकर; स्व--निजी, अन्तः; मायया--अहैतुकी कृपा से; रेमे-- भोग किया; स्त्री-रत्त--वह स्त्री, जो भगवान् की पत्नी बनने केलिए उपुयक्त है; कूटस्थ:--मध्य में; भगवान्-- भगवान्; प्राकृतः--संसारी; यथा--जिस प्रकार।
पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण अपनी अहैतुकी कृपा से अपनी अन्तरंगा शक्ति द्वारा इसलोक में प्रकट हुए और सुयोग्य स्त्रियों के साथ इस तरह भोग किया, मानो वे संसारी कार्यों मेंलगे हुए हों।
"
उद्दामभावपिशुनामलवल्गुहास-त्रीडावलोकनिहतो मदनोपि यासाम् ।
सम्मुह्य चापमजहात्प्रमदोत्तमास्तायस्येन्द्रियं विमथितुं कुहकैर्न शेकु: ॥
३६॥
उद्दाम--अत्यन्त गम्भीर; भाव-- भाव; पिशुन--उत्तेजक; अमल--निष्कलंक; वल्गु-हास--सुन्दर मुसकान; ब्रीड-- आँख कीकोर; अवलोक--देखना, चितवन; निहत:--जीता गया; मदन:--कामदेव ( या अमदन; अपि--; यासाम्--; सम्मुह्य--;चापम्--; अजहातू--; प्रमद--; उत्तमा:--; ता--; यस्य--; इन्द्रियम्-- विमधितुम्-- कुहकै ४- ने-- शेकु भ्जज<उद्दाम--अत्यन्त गम्भीर; भाव-- भाव; पिशुन--उत्तेजक; अमल--निष्कलंक; वल्गु-हास--सुन्दर मुसकान; ब्रीडा--आँख कीकोर; अवलोक--देखना, चितवन; निहत:--जीता गया; मदन:--कामदेव ( या अमदन--सहिष्णु शिव ); अपि-- भी;यासाम्--जिसका; सम्मुहा--से विजित होकर; चापम्-- धनुष; अजहात्--त्याग दिया; प्रमद-- मादक बनानेवाली स्त्री;उत्तमा:--उच्च कोटि की; ता--वे सब; यस्य--जिसकी; इन्द्रियम्--इन्द्रियों को; विमधितुम्--विचलित करने के लिए;कुहकै:--हावभाव द्वारा; न--कभी नहीं; शेकु:--समर्थ ।
यद्यपि रानियों की मृदु मुस्कानें तथा बाँकी चितवनें अत्यन्त विमल तथा उत्तेजक थीं, जिससेसाक्षात् कामदेव भी मोहित होकर अपना धनुष त्यागने के लिए बाध्य हो सकते थे, यहाँ तक किअत्यन्त सहिष्णु शिवजी भी उनके शिकार हो सकते थे, तो भी, वे अपने समस्त हाव-भाव तथाआकर्षण से भगवान् की इन्द्रियों को विचलित नहीं कर सकीं।
"
तमयं मन्यते लोको ह्यसद्भमपि सद्धिनम् ।
आत्मौपम्येन मनुजं व्यापृण्वानं यतोडबुध: ॥
३७॥
तम्--भगवान् कृष्ण को; अयम्--ये सब ( सामान्य लोग ); मन्यते--मन में सोचते हैं; लोक:--बद्धजीव; हि--निश्चय ही;असड्रम्--अनासक्त; अपि-के होते हुए; सड्डिनमू-- प्रभावित; आत्म--स्वयं; औपम्येन--अपने साथ तुलना करके; मनुजम्--सामान्य मनुष्य; व्यापृण्वानमू--लगे रहकर; यत:--क्योंकि; अबुध: --अज्ञान के कारण मूर्ख ।
सामान्य भौतिकतावादी बद्धजीव सोचते रहते हैं कि भगवान् उन्हीं में से एक हैं।
अपनेअज्ञान के कारण वे सोचते हैं कि पदार्थ का भगवान् पर प्रभाव पड़ता है, भले ही वे अनासक्तरहते हैं।
"
एतदीशनमीशस्य प्रकृतिस्थोपि तद्गुणै: ।
न युज्यते सदात्मस्थैर्यथा बुद्धिस्तदाश्रया ॥
३८॥
एतत्--यह; ईशनम्--दिव्यता, भगवत्ता; ईशस्य--भगवान् की; प्रकृति-स्थ:--प्रकृति के सम्पर्क में रहकर; अपि-- भी; ततू-गुणैः--गुणों के द्वारा; न--कभी नहीं; युज्यते-- प्रभावित होता है; सदा आत्म-स्थै:--शाश्वतता में स्थित रहनेवालों के द्वारा;यथा--जैसा है; बुद्धधि:--बुद्धि; तत्-- भगवान्; आश्रया--शरणागत
यह तो भगवान् की अलौकिकता है कि वे भौतिक प्रकृति के गुणों के संसर्ग में रहते हुए भीउनसे प्रभावित नहीं होते।
इसी प्रकार जिन भक्तों ने भगवान् की शरण ग्रहण कर ली है, वे भीभौतिक गुणों से प्रभावित नहीं होते।
"
त॑ मेनिरेडबला मूढा: स्त्रैणं चानुत्रतं रह: ।
अप्रमाणविदो भर्तुरीश्वरं मतयो यथा ॥
३९॥
तम्--श्रीकृष्ण को; मेनिरे--मान बैठते हैं; अबला:--सुकुमार; मूढा: --सरलता के कारण; स्त्रैणम्--स्त्री के अधीन; च--भी;अनुव्रतम्--पालनकर्ता; रह:--एकान्त स्थान; अप्रमाण-विदः --महिमा से अनजान; भर्तु:--अपने पति की; ईश्वरम्--परमनियन्ता को; मतयः--मत; यथा--जैसे ।
वे सरल तथा सुकोमल स्त्रियाँ सचमुच ही सोच बैठीं कि उनके प्रिय पति, भगवान् श्रीकृष्ण,उनसे आकर्षिथ हैं और उनके वशीभूत हैं।
वे अपने पति की महिमाओं से उसी तरह अनजान थीं,जिस प्रकार नास्तिक लोग परम नियन्ता के रूप में भगवान् से अनजान रहते हैं।
"
अध्याय बारह: सम्राट परीक्षित का जन्म
1.12शौनक उवाचअश्वत्थाम्नोपसूष्टिन ब्रह्मशीष्णोरुतेजसा ।
उत्तराया हतो गर्भ ईशेनाजीवित: पुनः: ॥
१॥
शौनक: उवाच--शौनक मुनि ने कहा; अश्वत्थाम्न--अश्रत्थामा ( द्रोणपुत्र ) के; उपसृष्टन --छोड़े जाने से; ब्रह्म-शीर्ष्णा--अजेयअस्त्र, ब्रह्मास्त्र; उर-तेजसा--उच्च ताप से; उत्तराया: --उत्तरा ( परीक्षित की माता ) का; हतः--नष्ट; गर्भ:--गर्भ; ईशेन--परमेश्वर द्वारा; आजीवित:--जीवित कर दिया गया; पुनः--फिर से |
शौनक मुनि ने कहा : महाराज परीक्षित की माता उत्तरा का गर्भ अश्वत्थामा द्वारा छोड़े गयेअत्यन्त भयंकर तथा अजेय ब्रह्मास्त्र द्वारा विनष्ठ कर दिया गया, लेकिन परमेश्वर ने महाराजपरीक्षित को बचा लिया।
"
तस्य जन्म महाबुद्धे: कर्माणि च महात्मन: ।
निधनं च यथैवासीत्स प्रेत्य गतवान् यथा ॥
२॥
तस्य--उसका ( महाराज परीक्षित का ); जन्म--जन्म; महा-बुद्धे:--अत्यन्त बुद्धिमान का; कर्माणि--कार्यकलाप; च--भी;महा-आत्मन:--महान्; निधनमू--मृत्यु; च--तथा; यथा--जिस प्रकार; एव--निस्सन्देह; आसीत्--हुआ; सः--वह; प्रेत्य--मृत्यु के पश्चात् गन्तव्य; गतवानू--प्राप्त किया; यथा--जिस तरह।
अत्यन्त बुद्धिमान तथा महान् भक्त महाराज परीक्षित उस गर्भ से कैसे उत्पन्न हुए? उनकीमृत्यु किस तरह हुईं ? और मृत्यु के बाद उन्होंने कौन सी गति प्राप्त की ?"
तदिदं श्रोतुमिच्छामो गदितुं यदि मन्यसे ।
ब्रूहि नः श्रद्धानानां यस्य ज्ञानमदाच्छुक: ॥
३॥
तत्--सारा; इदम्--यह; श्रोतुमू--सुनने को; इच्छाम:--सभी इच्छा कर रहे हैं; गदितुम्--वर्णन करने को; यदि--यदि;मन्यसे--आप सोचते हों; ब्रूहि--कृपा करके कहें; न:--हमसे; श्रद्दधानानाम्-- श्रद्धालुओं को; यस्य--जिसका; ज्ञानम्--दिव्य ज्ञान; अदातू-- प्रदान किया; शुक:-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने
हम सभी अत्यन्त आदरपूर्वक उनके ( महाराज परीक्षित के ) विषय में सुनना चाहते हैं, जिन्हेंशुकदेव गोस्वामी ने दिव्य ज्ञान प्रदान किया।
कृपया हमें इस विषय में बताएँ।
"
सूत उवाचअपीपलड्डर्मराज: पितृवद् रञ्नयन् प्रजा: ।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्य: कृष्णपादानुसेवया ॥
४॥
सूतः उबाच-- श्री सूत गोस्वामी ने कहा; अपीपलतू--शासित सम्पन्नता; धर्म-राज:--राजा युथिष्ठिर ने; पितृ-बत्--अपने पिताके समान; रञ्जयन्-- प्रसन्न करते हुए; प्रजा: --जन्म ग्रहण करने वालों को; निःस्पृहः --बिना किसी व्यक्तिगत आकांक्षा के;सर्व--समस्त; कामेभ्य:--इन्द्रियतृप्ति से; कृष्ण-पाद-- भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमल की; अनुसेवया--निरन्तर सेवा करतेरहने से |
श्री सूत गोस्वामी ने कहा: सप्राट युधिष्टिर ने अपने राज्य-काल में सबों के ऊपरउदारतापूर्वक शासन चलाया।
वे उनके पिता तुल्य ही थे।
उन्हें कोई व्यक्तिगत आकांक्षा न थीऔर भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों की निरन्तर सेवा करते रहने के कारण, वे सभी प्रकारकी इन्द्रियतृष्ति से विरक्त थे।
"
सम्पद: क्रतवों लोका महिषी भ्रातरों मही ।
जम्बूद्वीपाधिपत्यं च यशश्च त्रिदिवं गतम् ॥
५॥
सम्पदः--ऐश्वर्य; क्रववः--यज्ञ; लोका:-- भावी गन्तव्य; महिषी--रानियाँ; भ्रातर:-- भाई; मही-- पृथ्वी; जम्बू-द्वीप-- वहमंडल या ग्रह जिसमें हम रह रहे हैं; आधिपत्यम्--सार्वभौम अधिपत्य; च-- भी; यश:--ख्याति; च--तथा; त्रि-दिवम्--स्वर्गलोक तक; गतमू--व्याप्त ।
महाराज युथ्चिष्ठिर की सांसारिक उपलब्धियों, सद्गति प्राप्त करने के लिए किये जानेवालेयज्ञों, उनकी महारानी, उनके पराक्रमी भाइयों, उनके विस्तृत भूभाग, पृथ्वी ग्रह पर उनकासार्वभौम अधिपत्य तथा उनकी ख्याति आदि के समाचार स्वर्ग-लोक तक पहुँच गये।
"
कि ते कामा: सुरस्पा्हा मुकुन्दमनसो द्विजा: ।
अधिजहुर्मुदं राज्ञ: क्षुधितस्य यथेतरे ॥
६॥
किम्--किसलिए; ते--वे सब; कामा:--इन्द्रिय भोग के विषय; सुर--स्वर्ग के निवासियों की; स्पार्हा:--आकाक्षाएँ; मुकुन्द-मनसः--पहले से ईश्वर भावना-भावित का; द्विजा:--हे ब्राह्मणो; अधिजहु:--सन्तुष्ट कर सके; मुदम्--प्रसन्नता; राज्ञ:--राजाका; क्षुधितस्थ-- भूखे का; यथा--जिस तरह; इतरे--अन्य वस्तुओं में |
हे ब्राह्मणो, राजा का ऐश्वर्य इतना मोहक था कि स्वर्ग के निवासी भी उसकी आकांक्षाकरने लगे थे।
लेकिन चूँकि वे भगवान् की सेवा में तल्लीन रहते थे, अतएव उन्हें भगवान् कीसेवा के अतिरिक्त कुछ भी तुष्ट नहीं कर सकता था।
"
मातुर्गर्भगतो वीर: स तदा भृगुनन्दन ।
ददर्श पुरुषं कश्जिहृह्ममानोख्रतेजसा ॥
७॥
मातुः--माता के; गर्भ--गर्भ में; गत:--स्थित होकर; बीर:--महान् योद्धा; सः--शिशु परीक्षित; तदा--उस समय; भृगु-नन्दन-हे भृगुपुत्र; ददर्श--देख सका; पुरुषम्--परमेश्वर को; कश्ञित्--मानो कोई दूसरा; दह्ममान: --जलते हुए; अस्त्र--ब्रह्मासत्र के; तेजसा--ताप से ।
हे भृगुपुत्र (शौनक ), जब महान् योद्धा बालक परीक्षित अपनी माता उत्तरा के गर्भ में थेऔर ( अश्वत्थामा द्वारा छोड़े गये ) ब्रह्मासत्र के ज्वलंत ताप से पीड़ित थे, तो उन्होंने परमेश्वर कोअपनी ओर आते देखा।
"
अड्'ुष्ठमात्रममलं स्फुरत्पुरटमौलिनम् ।
अपीव्यदर्शन श्यामं तडिद्वाससमच्युतम् ॥
८॥
अड्डष्ठ--अँगूठे की माप का; मात्रमू--केवल; अमलम्--दिव्य; स्फुरत्--देदीप्यमान; पुरट--सोना; मौलिनम्--मुकुट;अपीव्य--अत्यन्त सुन्दर; दर्शनम्-देखने के लिए; श्यामम्-श्याम रंग; तडित्--बिजली; वाससम्-- वस्त्र; अच्युतम्--अच्युत( भगवान् ) को
वे ( भगवान् ) केवल अँगूठा भर ऊँचे थे, किन्तु वे थे पूर्णतः दिव्य।
उनका शरीर अत्यन्तसुन्दर, श्याम वर्ण का तथा अच्युत था और उनका वस्त्र बिजली के समान चमचमाता पीतवर्णका तथा उनका मुकुट देदीप्यमान सोने का था।
बालक ने उन्हें इस रूप में देखा।
"
श्रीमद्दीर्घचतुर्बाहुं तप्तकाञ्ननकुण्डलम् ।
क्षतजाक्षं गदापाणिमात्मन: सर्वतोदिशम् ।
परिभ्रमन्तमुल्काभां भ्रामयन्तं गदां मुहु: ॥
९॥
श्रीमत्--समृद्ध; दीर्घ--लम्बे; चतु:-बाहुमू--चार भुजाओं वाले; तप्त-काञ्नन--पिघला सोना; कुण्डलम्--कान कीबालियाँ; क्षतज-अक्षम्--रक्त की लालिमा से युक्त आँखें; गदा-पाणिमू--गदा से युक्त हाथ; आत्मन:--अपना; सर्वत:--सभी;दिशम्--चारों ओर; परिभ्रमन्तम्-घूमते हुए; उल्काभामू--गिरते हुए तारे ( उल्का ) की भाँति; भ्रामयन्तम्-घुमाते हुए;गदाम्-गदा को; मुहुः--निरन्तर |
भगवान् चार भुजाओं से युक्त थे, उनके कुण्डल सोने के थे तथा आँखें क्रोध से रक्त जैसीलाल थीं।
जब वे चारों ओर घूमने लगे, तो उनकी गदा उनके चारों ओर गिरते तारे ( उल्का ) कीभाँति निरन्तर चक्कर लगाने लगी।
"
अखतेज: स्वगदया नीहारमिव गोपति: ।
विधमन्तं सन्निकर्षे पर्यक्षत क इत्यसौ ॥
१०॥
अस्त्र-तेज:--ब्रह्मासत्र का प्रकाश; स्व-गदया--अपनी गदा से; नीहारम्--ओस के बिन्दु; इब--समान; गोपति:--सूर्य;विधमन्तम्--विनष्ट करने की क्रिया; सन्निकर्षे --निकट; पर्यक्षत--देखते हुए; क:--कौन; इति असौ--यह शरीर।
भगवान् उस ब्रह्मास्त्र के तेज को विनष्ट करने में इस प्रकार संलग्न थे, जिस तरह सूर्य ओसकी बूँदों को उड़ा देता है।
वे बालक को दिखाई पड़े, तो वह सोचने लगा कि वे कौन थे ?"
विधूय तदमेयात्मा भगवान्धर्मगुब् विभु: ।
मिषतो दशमासस्य तत्रैवान्तर्दधे हरि: ॥
११॥
विधूय--पूरी तरह विनष्ट करके; तत्--वह; अमेयात्मा--सर्वव्यापी परमात्मा; भगवान्-- भगवान्; धर्म-गुप्--सदाचार केरक्षक; विभु:--परम; मिषत:--निरी क्षण करते हुए; दशमासस्य--जो समस्त दिशाओं के द्वारा वस्त्रावृत हैं, उनका; तत्र एबव--तत्क्षण; अन्तः--अदृश्य; दधे--हो गये; हरि:-- भगवान् |
इस प्रकार बालक के देखते-देखते, प्रत्येक जीव के परमात्मा तथा धर्म के पालक पूर्णपुरूषोत्तम भगवान्, जो सारी दिशाओं में व्याप्त हैं और काल तथा देश की सीमाओं से परे हैं,तुरन्त अन्तर्धान हो गये।
"
ततः सर्वगुणोदर्के सानुकूलग्रहोदये ।
जज्ञे वंशधर: पाण्डोर्भूय: पाण्डुरिवौजसा ॥
१२॥
ततः--तत्पश्चात्; सर्व--सभी; गुण--शुभ लक्षण; उदर्क --क्रमशः विकसित होने पर; स-अनुकूल--सभी अनुकूल;ग्रहोदये--नक्षत्रों का समूह; जज्ञे--जन्म लिया; वंश-धर:--उत्तराधिकारी; पाण्डो:--पाण्डु के; भूय:--होते हुए; पाण्डुःइब--पाण्डु के समान; ओजसा--पराक्रम से |
तत्पश्चात्, जब क्रमशः सारी राशि तथा नक्षत्रों से शुभ लक्षण प्रकट हो आये, तब पाण्डु केउत्तराधिकारी ने जन्म लिया, जो पराक्रम में उन्हीं के समान होगा।
"
तस्य प्रीतमना राजा विप्रैधौम्यकृपादिभि: ।
जातक॑ कारयामास वाचयित्वा च मज्गलम् ॥
१३॥
तस्य--उसका; प्रीत-मना:--सन्तुष्ट; राजा--राजा युधिष्टिर; विप्रै:--विद्वान ब्राह्मणों द्वारा; धौम्य--धौम्य; कृप--कृप;आदिभि:--इत्यादि; जातकम्--शिशु-जन्म के तुरन्त बाद सम्पन्न होनेवाला संस्कार; कारयाम् आस--सम्पन्न किया;वाचयित्वा--बाँच कर; च--भी; मड्रलम्-शुभमहाराज परीक्षित के जन्म से अत्यन्त सन्तुष्ट हुए राजा युथ्रिष्ठिर ने जात-संस्कार करवाया।
धौम्य, कृप इत्यादि विद्वान ब्राह्मणों ने शुभ स्तोत्रों का पाठ किया।
"
हिरण्यं गां महीं ग्रामान् हस्त्यश्वान्नपतिर्वरान् ।
प्रादात्स्वन्नं च विप्रेभ्य: प्रजातीर्थे स तीर्थवित् ॥
१४॥
हिरण्यम्--सोना; गाम्--गौवें; महीम्-- भूमि; ग्रामान्-- गाँव; हस्ति--हाथी; अश्वान्--घोड़े; नृपतिः--राजा ने; वरानू--पुरस्कार; प्रादात्--दान में दिया; सु-अन्नम्--उत्तम अन्न; च--तथा; विप्रेभ्य:--ब्राह्मणों को; प्रजा-तीर्थे--पुत्र के जन्म-दिवसपर दान देते समय; सः--वह; तीर्थ-वित्--जो जानता है कि कब, कैसे और किसे दान दिया जाय ।
पुत्र के जन्म लेने पर राजा ने ब्राह्मणों को सोना, भूमि, ग्राम, हाथी, घोड़े तथा उत्तम अन्नदान में दिया, क्योंकि वे जानते थे कि कैसे, कहाँ और कब दान देना चाहिए।
"
तमूचुब्राह्मणास्तुष्टा राजान॑ प्रश्नयान्वितम् ।
एष हास्मिन् प्रजातन्तौ पुरूणां पौरवर्षभ ॥
१५॥
तम्--उसको; ऊचु:--सम्बोधित किया; ब्राह्मणा:--विद्वान ब्राह्मणों ने; तुष्टाः--अत्यधिक सम्तुष्ट; राजानमू--राजा को; प्रश्रय-अन्वितम्--अत्यधिक कृतज्ञता ज्ञापित करके; एष:--यह; हि--निश्चय ही; अस्मिन्--की श्रृंखला में; प्रजा-तन्तौ--परम्परा में;पुरूणाम्--पुरुओं की; पौरव-ऋषभ--पुरुओं में प्रमुख
राजा के दान से अत्यधिक समन्तुष्ट विद्वान ब्राह्मणों ने राजा को पुरुओं में प्रधान कहकरसम्बोधित किया और बताया कि उनका पुत्र निश्चय ही पुरुओं की परम्परा में है।
"
दैवेनाप्रतिघातेन शुक्ले संस्थामुपेयुषि ।
रातो वोशनुग्रहार्थाय विष्णुना प्रभविष्णुना ॥
१६॥
दैवेन--अतिदैवी शक्ति द्वारा; अप्रतिघातेन--दुर्निवार; शुक्ले--शुद्ध; संस्थामू--विनाश को; उपेयुषि--विवश किये जाने पर;रातः--फिर रक्षित; व:--तुम्हारे लिए; अनुग्रह-अर्थाय--अनुग्रह करने के लिए; विष्णुना--सर्वव्यापी भगवान् द्वारा;प्रभविष्णुना--सर्वशक्तिमान द्वारा।
ब्राह्मणों ने कहा : यह निष्कलंक पुत्र, आप पर अनुग्रह करने के लिए सर्वशक्तिमान तथासर्वव्यापी भगवान् विष्णु द्वारा बचाया गया है।
उसे तब बचाया गया, जब वह दुर्निवार अतिदैवीअन्त्र द्वारा नष्ट होने ही वाला था।
"
तस्मान्नाम्ना विष्णुरात इति लोके भविष्यति ।
न सन्देहो महाभाग महाभागवतो महान् ॥
१७॥
तस्मात्--इसलिए; नाम्ना--नामवाले; विष्णु-रात:--भगवान् विष्णु द्वारा रक्षित; इति--इस प्रकार; लोके --समस्त लोकों में;भविष्यति-- विख्यात होगा; न--नहीं; सन्देह:--सन्देह; महा-भाग--हे परम भाग्यशाली; महा-भागवत:--प्रथम कोटि काभगवद्भक्त; महान्--समस्त उत्तम गुणों से समन्वित।
इस कारण यह बालक संसार में विष्णुरात ( भगवान् द्वारा रक्षित ) नाम से विख्यात होगा।
हेमहा भाग्यशाली, इसमें कोई सन्देह नहीं है कि यह बालक महाभागवत ( उत्तम कोटि का भक्त )होगा और समस्त गुणों से सम्पन्न होगा।
"
श्रीराजोवाचअप्येष वंश्यान् राजर्षीन् पुण्यश्लोकान् महात्मन: ।
अनुवर्तिता स्विद्यशसा साधुवादेन सत्तमा: ॥
१८॥
श्री-राजा--सर्वमंगलकारी राजा ( महाराज युधिष्ठिर ) ने; उबाच--कहा; अपि--क्या; एष: --इस; वंश्यान्--परिवार में; राज-ऋषीन्--साधु राजाओं का; पुण्य-श्लोकान्--नाम से ही पवित्र; महा-आत्मन:--सभी महान् पुरुष; अनुवर्तिता--अनुयायी;स्वितू--ऐसा होगा; यशसा--उपलब्धियों से; साधु-वादेन--महिमान्वित होने से; सत्-तमाः--हे महान् आत्माओ!।
उत्तम राजा ( युधिष्ठटिर ) ने पूछा: हे महात्माओं, क्या यह बालक इस महान् राजवंश में प्रकटहुए अन्य राजाओं की ही तरह राजर्षि, पवित्र नामवाला, उतना ही विख्यात तथा अपनीउपलब्धियों से महिमामंडित होगा ?"
ब्राह्मणा ऊचु:पार्थ प्रजाविता साक्षादिक्ष्वाकुरिव मानव: ।
ब्रह्मण्य: सत्यसन्धश्व रामो दाशरथिर्यथा ॥
१९॥
ब्राह्मणा:--उत्तम ब्राह्मणों ने; ऊचु:--कहा; पार्थ--हे पृथा ( कुन्ती ) पुत्र; प्रजा--जन्म धारण करनेवाले; अविता--पालक;साक्षात्- प्रत्यक्ष; इक््वाकु: इब--राजा इक्ष्वाकु की तरह; मानव:--मनुपुत्र; ब्रह्मण्य:--ब्राह्मणों का अनुयायी तथा आदर'करनेवाला; सत्य-सन्ध: --वचन का पक्का; च--भी; राम:-- भगवान् राम; दाशरथि:--महाराज दशरथ के पुत्र; यथा--जिसतरह।
दिद्वान ब्राह्मणों ने कहा : हे पृथापुत्र, यह बालक मनु-पुत्र, राजा इक्ष्वाकु की ही तरह समस्तजीवों का पालन करनेवाला होगा।
और जहाँ तक ब्राह्मणीय सिद्धान्तों के पालन की बात है,विशेष रूप से अपने वचन का पालन करने में, यह महाराज दशरथ के पुत्र भगवान् राम जैसा( दृढ़ प्रतिज्ञ ) होगा।
"
एष दाता शरण्यश्र यथा ह्यौशीनर: शिबि: ।
यशो वितनिता स्वानां दौष्यन्तिरिव यज्वनाम् ॥
२०॥
एषः--यह बालक; दाता--दानी; शरण्य:--शरणागतों का रक्षक; च--तथा; यथा--जिस तरह; हि--निश्चय ही;औशीनरः--उशीनर नामक देश का; शिवबि:--शिबि; यश: --यश; वितनिता--फैलानेवाला; स्वानामू--स्वजनों का; दौष्यन्तिःइब--दुष्यन्त के पुत्र भरत की तरह; यज्वनाम्--अनेक यज्ञ सम्पन्न करनेवालों का।
यह बालक सुप्रसिद्ध उशीनर नरेश, शिवि, की भाँति उदार दानवीर तथा शरणागतों कारक्षक होगा।
यह अपने कुल के नाम तथा यश को उसी तरह फैला देगा, जिस तरह महाराजदुष्यन्त के पुत्र भरत ने किया था।
"
धन्विनामग्रणीरेष तुल्यश्चार्जुनयो््दयो: ।
हुताश इव दुर्धर्ष: समुद्र इव दुस्तर: ॥
२१॥
धन्विनाम्-महान् धनुर्धरों में; अग्रणी:--सर्व श्रेष्ठ; एच:--यह बालक; तुल्य:--समान रूप से उत्तम; च--तथा; अर्जुनयो: --अर्जुनों का; द्यो:--दो; हुताश:--अग्नि; इब--सहश ; दुर्धर्ष:--दुर्निवार, बेरोक; समुद्र:--समुद्र; इब--सहश; दुस्तर:--दुर्लध्य, पार न करने योग्य।
महान् धनुर्धरों में यह बालक अर्जुन के समान होगा।
यह अग्निदेव के समान दुर्निवार तथासमुद्र की भाँति दुर्लघ्य होगा।
"
मृगेन्द्र इव विक्रान्तो निषेव्यो हिमवानिव ।
तितिश्षुर्वसुधेवासौ सहिष्णु: पितराविव ॥
२२॥
मृगेन्द्रः--सिंह; इब--सहश; विक्रान्त:--शक्तिशाली; निषेव्य:--शरण ग्रहण करने योग्य; हिमवान्--हिमालय पर्वत; इब--सहश; तितिश्षु:-- क्षमावान; वसुधा इब--पृथ्वी के समान; असौ--यह बालक; सहिष्णु: --सहिष्णु; पितरौ--माता-पिता;इब--सहश।
यह बालक सिंह के समान बलशाली तथा हिमालय की भाँति आश्रय प्रदान करने वाला होगा।
यह पृथ्वी के समान क्षमावान तथा अपने माता-पिता के समान सहिष्णु होगा।
"
पितामहसम: साम्ये प्रसादे गिरिशोपम: ।
आश्रय: सर्वभूतानां यथा देवो रमाश्रय: ॥
२३॥
पितामह--पितामह या ब्रह्मा; सम:--तुल्य; साम्ये--समता में; प्रसादे--दान या कृपालुता में; गिरिश--शिवजी; उपमः --उपमा, तुलना; आश्रय:--आ श्रय, विश्राम-स्थल; सर्व--सभी; भूतानाम्--जीवों का; यथा--जिस तरह; देव:--परमे श्वर; रमा-आश्रयः--भगवान् |
यह बालक मन की समता में अपने पितामह युधिष्ठिर या फिर ब्रह्मा के समान होगा।
दानशीलता में यह कैलाशपति शिव के समान होगा।
यह देवी लक्ष्मी के भी आश्रय, भगवान्नारायण के समान सबों को आश्रय देनेवाला होगा।
"
रन्तिदेव इवोदारों ययातिरिव धार्मिक: ॥
२४॥
सर्व-सत्-गुण-माहात्म्ये--समस्त दैवी गुणों से महिमान्वित; एघ:--यह बालक; कृष्णम्-- भगवान् कृष्ण की तरह; अनुव्रत: --उनके पदचिह्वों पर चलनेवाला; रन्तिदेव: --रन्तिदेव; इब--सहश; उदार: -- उदार; ययाति:--ययाति; इव--सहश; धार्मिक: --धर्म के मामले में |
यह बालक भगवान् श्रीकृष्ण के चरणचिन्हों का पालन करते हुए, उन्हीं के समान होगा।
उदारता में यह राजा रन्तिदेव के समान तथा धर्म में यह महाराज ययाति की भाँति होगा।
"
धृत्या बलिसम: कृष्णे प्रह्द इव सद्ग्रह: ।
आहर्तैषो श्रमेधानां वृद्धानां पर्यपासक: ॥
२५ ॥
धृत्या--थैर्य से; बलि-सम:--बलि महाराज के समान; कृष्णे-- भगवान् कृष्ण के प्रति; प्रह्द-- प्रह्दाद महाराज; इब--सहृश;सत्-ग्रहः--भक्त; आहर्ता--सम्पन्न करनेवाला; एष:--यह बालक; अश्वमेधानाम्--अश्वमेध यज्ञों का; वृद्धानामू-वृद्ध तथाअनुभवी व्यक्तियों का; पर्युपासक:--अनुयायी
यह बालक धैर्य में बलि महाराज के समान होगा और प्रह्नाद महाराज के समान कृष्ण काअनन्य भक्त, यह अनेक अश्रमेध यज्ञों को सम्पन्न करनेवाला तथा वृद्ध एवं अनुभवी व्यक्तियोंका अनुयायी होगा।
"
राजर्षणां जनयिता शास्ता चोत्पथगामिनाम् ।
निग्रहीता कलेरेष भुवो धर्मस्य कारणात् ॥
२६॥
राज-ऋषीणाम्--ऋषि तुल्य राजाओं का; जनयिता--उत्पन्न करनेवाला; शास्ता--दण्ड देनेवाला; च--तथा; उत्पथ-गामिनाम्--मर्यादा उल्लंघन करनेवालों का; निग्रहीता--दमनकर्ता; कले: --उपद्रव करनेवालों का; एष:--यह; भुव: --संसारको; धर्मस्य-- धर्म के; कारणात्--कारण से
यह बालक ऋषि तुल्य राजाओं का पिता होगा।
विश्व-शान्ति तथा धर्म के निमित्त यहमर्यादा तोड़नेवालों तथा उपद्रवकारियों को दण्ड देनेवाला होगा।
"
तक्षकादात्मनो मृत्यु द्विजपुत्रोपसर्जितातू ।
प्रपत्स्यत उपश्रुत्य मुक्तसक्र: पदं हरे: ॥
२७॥
तक्षकात्--तक्षक नागराज द्वारा; आत्मन:--अपनी; मृत्युम्--मृत्यु को; द्विज-पुत्र--ब्राह्मण पुत्र द्वारा; उपसर्जितातू-- भेजा गया;प्रपत्स्यते--शरण ग्रहण करने पर; उपश्रुत्य--सुनकर; मुक्त-सड्भ:--समस्त आसक्ति से मुक्त; पदम्--पद; हरे:--भगवान् का।
वह ब्राह्मण पुत्र के द्वारा भेजे गये तक्षक नाग के डसने से अपनी मृत्यु होने की बात सुनकरसमस्त भौतिक आसक्ति से अपने आपको मुक्त करके, भगवान् को आत्म-समर्पण करके उन्हींकी शरण ग्रहण करेगा।
"
जिज्ञासितात्मयाथार्थ्यों मुनेर्व्याससुतादसौ ।
हित्वेदं नृप गज़जायां यास्यत्यद्धाकुतोभयम् ॥
२८॥
जिज्ञासित--जिज्ञासा करते हुए; आत्म-याथार्थ्य: --आत्मा का सही ज्ञान; मुने:--विद्वान, दार्शनिक; व्यास-सुतात्-व्यास केपुत्र से; असौ--वह; हित्वा--त्यागकर; इृदम्--इस भौतिक आसक्ति को; नृप--हे राजा; गड्भायामू--गंगा के तट पर;यास्यति--जाएगा; अद्धघा--सीधे; अकुतः-भयम्--निर्भय जीवन ।
व्यासेदव के महान् दार्शनिक पुत्र से समुचित आत्म-ज्ञान के विषय में जिज्ञासा करने पर वहसारी भौतिक आसक्ति का परित्याग करेगा और निर्भय जीवन प्राप्त करेगा।
"
इति राज्ञ उपादिश्य विप्रा जातककोविदा: ।
लब्धापचितय: सर्वे प्रतिजग्मु: स्वकान् गृहान् ॥
२९॥
इति--इस प्रकार; राज्ञे--राजा को; उपादिश्य--उपदेश देकर; विप्रा:--वेदों में पारगंत व्यक्ति; जातक-कोविदा:--फलितज्योतिष में तथा जन्मोत्सव सम्पन्न कराने में पटु व्यक्ति; लब्ध-अपचितय:--जिन््हें पारिश्रमिक के रूप में प्रचुर राशि प्राप्त होचुकी थी; सर्वे--वे सब; प्रतिजग्मु;--वापस चले गये; स्वकान्ू--अपने-अपने; गृहान्ू-घरों को |
.इस प्रकार जो लोग ज्योतिष ज्ञान में तथा जन्मोत्सव सम्पन्न कराने में पटु थे, उन्होंने इसबालक के भविष्य के विषय में राजा युधिष्ठटिर को उपदेश दिया।
फिर प्रचुर दक्षिणा प्राप्त करके, वे अपने घरों को लौट गये।
"
स एष लोके विख्यात: परीक्षिदिति यत्प्रभु: ।
पूर्व दृष्टमनुध्यायन् परीक्षेत नरेष्विह ॥
३०॥
सः--वह; एष:--इस; लोके--संसार में; विख्यात:--प्रसिद्ध; परीक्षित्--परीक्षा लेने वाला; इति--इस प्रकार; यत्--जो;प्रभु:--हे राजा; पूर्वम्--पहले; दृष्टम्--देखा जा चुका; अनुध्यायन्--निरन्तर विचारा जाकर; परीक्षेत--परीक्षा लेगा; नरेषु--प्रत्येक व्यक्ति की; इह--यहाँ ।
इस तरह यह पुत्र संसार में परीक्षित ( परीक्षक ) नाम से विख्यात होगा, क्योंकि यह उनव्यक्ति की खोज करने के लिए सारे मनुष्यों का परीक्षण करेगा, जिन्हें इसने अपने जन्म के पूर्वदेखा है।
इस तरह यह निरन्तर उनका ( भगवान् का ) चिन्तन करता रहेगा।
"
स राजपुत्रो ववृधे आशु शुक्ल इवोडुप: ।
आपूर्यमाण: पितृभि: काष्ठाभिरिव सोडन्वहम् ॥
३१॥
सः--वह; राज-पुत्र:--राजकुमार; ववृधे--बड़ा हो गया; आशु--जल्दी ही; शुक्ले--शुक्लपक्ष; इब--सहश; उडुप: --चन्द्रमा; आपूर्यमाण: --विलासपूर्ण; पितृभिः--पिता जैसे संरक्षकों द्वारा; काष्ठाभि:--पूर्ण विकास; इब--सहश; सः--वह;अन्वहम्-दिन-प्रतिदिन
जिस तरह शुक्लपक्ष में चन्द्रमा दिन-प्रतेदिन बढ़ता जाता है, उसी तरह यह राजकुमार( परीक्षित ) शीघ्र ही अपने संरक्षक पितामहों की देख-रेख तथा सुख-सुविधाओं के बीच तेजीसे विकास करने लगा।
"
यक्ष्यमाणो श्रमेधेन ज्ञातिद्रोहजिहासया ।
राजा लब्धधनो दध्यौ नान्यत्र करदण्डयो: ॥
३२॥
यक्ष्यमाण: --सम्पन्न करने की इच्छा करते हुए; अश्वमेधेन--अश्वमेध उत्सव द्वारा; ज्ञाति-द्रोह--स्वजनों से युद्ध; जिहासया--मुक्त होने के लिए; राजा--राजा युधिष्ठटिर; लब्ध-धन:--कुछ धन प्राप्त करने के लिए; दध्यौ--विचार किया; न अन्यत्र--अन्यथा नहीं; कर-दण्डयो: --लगान तथा जुर्माना ।
इसी समय राजा युध्रिष्टिर स्वजनों से युद्ध करने के कारण किए गए पापों से मुक्ति पाने केलिए अश्रवमेध यज्ञ करने पर विचार कर रहे थे।
लेकिन उन्हें कुछ धन प्राप्त करने की चिन्तासवार थी, क्योंकि लगान तथा जुर्माने से एकत्र कोष के अतिरिक्त और कोई धन-संग्रह न था।
"
तदभिप्रेतमालक्ष्य भ्रातरोच्युतचोदिता: ।
धनं प्रहीणमाजहुरुदीच्यां दिशि भूरिश: ॥
३३॥
तत्--उसका; अभिप्रेतम्--मन की इच्छा, अभिप्राय; आलक्ष्य--देखकर; भ्रातर:--अपने भाई; अच्युत--अच्युत, ( भगवान्श्रीकृष्ण ); चोदिता:--प्रेरणा पाकर; धनम्--धन; प्रहीणम्--एकत्र करके; आजह्ु: --ले आया; उदीच्याम्--उत्तरी; दिशि--दिशा; भूरिश:--प्रचुर ।
राजा की हार्दिक इच्छाओं को जानकर, उसके भाइयों ने अच्युत भगवान् कृष्ण कीप्रेरणानुसार, उत्तर दिशा से ( राजा मरुत्त द्वारा छोड़ा गया ) प्रचुर धन एकत्र किया।
"
तेन सम्भृतसम्भारो धर्मपुत्रो युधिष्ठिर: ।
वाजिमेथेस्त्रिभिर्भीतो यज्नै: समयजद्धरिमू ॥
३४॥
तेन--उस धन से; सम्भृत--एकत्रित; सम्भार:--सामग्री, घटक; धर्म-पुत्र:--पवित्र राजा; युधिष्टिर:--युधिष्टिर; वाजिमेथे:--अश्वमेध यज्ञ द्वारा; त्रिभि:--तीन बार; भीतः --कुरुक्षेत्र युद्ध से अत्यधिक भयभीत; यज्ञैः--यज्ञों के द्वारा; समयजत्--ठीक सेपूजा की; हरिमू-- भगवान् की
उस धन से राजा तीन अश्वमेध यज्ञों के लिए सामग्री उपलब्ध कर सके।
कुरुक्षेत्र के युद्ध केबाद अत्यन्त भयभीत पुण्यात्मा राजा युधिष्टिर ने इस प्रकार भगवान् हरि को प्रसन्न किया।
"
आहूतो भगवान् राज्ञा याजयित्वा द्विजर्नृपम् ।
उवास कतिचिन्मासान् सुहृदां प्रियकाम्यया ॥
३५॥
आहूत:--बुलाये जाने पर; भगवान्--भगवान् श्रीकृष्ण; राज्ञा--राजा द्वारा; याजयित्वा--सम्पन्न कराकर; द्विजैः--विद्वानब्राह्मणों द्वारा; नृपमू--राजा की ओर से; उबास--निवास किया; कतिचित्-- थोड़े; मासान्--महीने; सुहृदाम्--सम्बन्धियों केलिए; प्रिय-काम्यया--प्रसन्नता के लिए
महाराज युधिष्ट्रिर द्वारा यज्ञ में आमंत्रित होकर, भगवान् श्रीकृष्ण ने इस बात का ध्यान रखाकि ये सारे यज्ञ योग्य (द्विज) ब्राह्मणों द्वारा सम्पन्न कराये जाएँ।
तत्पश्चात् सम्बन्धियों की प्रसन्नता के लिए, भगवान् वहाँ कुछेक मास रहते रहे।
"
ततो राज्ञाभ्यनुज्ञात: कृष्णया सह बन्धुभि: ।
ययौ द्वारवतीं ब्रह्मन् सार्जुनो यदुभिर्वृत: ॥
३६॥
ततः--तत्पश्चात्; राज्ञा--राजा द्वारा; अभ्यनुज्ञात: --अनुमति दिये जाने पर; कृष्णया--द्रौपदी से भी; सह--सहित; बन्धुभि:--अन्य सम्बन्धियों के साथ; ययौ--गये; द्वारवतीम्--द्वारका धाम; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मणों; स-अर्जुन:--अर्जुन के सहित; यदुभि:--यदुवंश के सदस्यों से; वृतः--घिरे हुए।
हे शौनक, तत्पश्चात् भगवान् ने राजा युधिष्टिर, द्रौपदी तथा अन्य सम्बन्धियों से विदा लेकर,अर्जुन तथा यदुवंश के अन्य सदस्यों के साथ, द्वारका नगरी के लिए प्रस्थान किया।
"
अध्याय तेरह: धृतराष्ट्र ने घर छोड़ दिया
1.13सूत उवाचविदुरस्तीर्थयात्रायां मैत्रेयादात्मनो गतिम् ।
ज्ञात्वागाद्धास्तिनपुरं तयावाप्तविवित्सित: ॥
१॥
सूतः उबाच-- श्री सूत गोस्वामी ने कहा; विदुरः:--विदुर; तीर्थ-यात्रायाम्-विभिन्न तीर्थ स्थानों की यात्रा करते हुए; मैत्रेयात्--महर्षि मैत्रेय से; आत्मन:--अपनी, स्व की; गतिम्--गति, गन्तव्य; ज्ञात्वा--जानकर; अगातू--लौट आया; हास्तिनपुरम्--हस्तिनापुर नगरी में; तया--उस ज्ञान से; अवाप्त--प्रचुर लाभ उठाने वाला; विवित्सित: --प्रत्येक ज्ञेय विषय में निष्णात
श्री सूत गोस्वामी ने कहा : तीर्थयात्रा करते हुए विदुर ने महर्षि मैत्रेय से आत्मा की गति काज्ञान प्राप्त किया और फिर वे हस्तिनापुर लौट आये।
वे अपेक्षानुसार इस विषय में पारंगत हो गये।
"
यावत: कृतवान् प्रश्नान् क्षत्ता कौषारवाग्रत: ।
जातैकभक्तिग विन्दे तेभ्यश्रोपररम ह ॥
२॥
यावत:--वह सब; कृतवान्-- उन्होंने किये; प्रश्नान्-- प्रश्न; क्षत्ता--विदुर का नाम; कौषारब--मैत्रेय का नाम; अग्रत:--कीउपस्थिति में; जात-- बड़े होकर; एक--एक; भक्ति:--दिव्य प्रेममयी सेव; गोविन्दे-- भगवान् कृष्ण की; तेभ्य:--अगले प्रश्नोंके सम्बन्ध में; च--तथा; उपरराम--विराम ले लिया; ह-- भूतकाल में |
विविध प्रश्न पूछने के बाद तथा भगवान् कृष्ण की दिव्य प्रेमामयी सेवा में स्थिर हो चुकनेपर, विदुर ने मैत्रेय मुनि से प्रश्न पूछना बन्द किया।
"
त॑ बन्धुमागतं दृष्टा धर्मपुत्र: सहानुज: ।
धृतराष्ट्रो युयुत्सुश्व सूत: शारद्वत: पृथा ॥
३॥
गान्धारी द्रौपदी ब्रह्मन् सुभद्रा चोत्तरा कृपी ।
अन्याश्व जामय: पाण्डोज्ञातिय: ससुता: स्त्रिय: ॥
४॥
तम्--उस; बन्धुम्--सम्बन्धी को; आगतम्--वहाँ आया हुआ; हृष्ठा--देखकर; धर्म-पुत्र:--युधिष्ठटिर ने; सह-अनुज:--अपनेछोटे भाइयों के साथ; धृतराष्ट्र: --धधृतराष्ट्र; युयुत्सु:--सात्यकि; च--तथा; सूत:--संजय; शारद्वतः--कृपाचार्य; पृथा--कुन्ती;गान्धारी --गान्धारी; द्रौपदी--द्रौपदी; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मणों; सुभद्रा--सुभद्रा; च--तथा; उत्तरा--उत्तरा; कृपी --कृपी; अन्या: --अन्य लोग; च--तथा; जामय: --अन्य परिवारवालों की पत्लियाँ; पाण्डो:--पाण्डुओं की; ज्ञातयः--पारिवारिक सदस्य; स-सुता:--अपने-अपने पुत्रों सहित; स्त्रिय:--स्त्रियाँ ।
जब उन्होंने देखा कि विदुर राजमहल लौट आये हैं, तो--महाराज युधिष्टिर, उनके छोटेभाई, धृतराष्ट्र, सात्यकि, संजय, कृपाचार्य, कुन्ती, गान्धारी, द्रौपदी, सुभद्रा, उत्तरा, कृपी,कौरवों की अन्य पत्नियाँ तथा अपने-अपने बच्चों के साथ स्त्रियों समेत सारे निवासी--सभी अत्यन्त हर्षित होकर तेजी से उनकी ओर बढ़े।
ऐसा प्रतीत हुआ मानो उन्होंने दीर्घकाल के बादअपनी चेतना फिर से प्राप्त की हो।
"
प्रत्युज्जग्मु: प्रहर्षेण प्राणं तन््व इवागतम् ।
अभिसड्रम्य विधिवत् परिष्वज्ञभिवादनै: ॥
५॥
प्रति--की ओर; उज्जग्मु;--गया; प्रहर्षण--अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक; प्राणम्--जीवन, प्राण; तन््वः--शरीर का; इब--सहृश;आगतम्--वापस आया; अभिसड्डम्य--निकट जाकर; विधि-वत्--अच्छी तरह से; परिष्वड्र--आलिंगन; अभिवादनै: --अभिवादन ( प्रणाम ) द्वारा,वे सब परम प्रसन्नतापूर्वक उनके निकट गये, मानो उनके शरीरों में फिर से प्राण का संचारहुआ हो।
उन्होंने एक दूसरे को प्रणाम किया और गले मिलते हुए एक दूसरे का स्वागत किया।
"
मुमुचु: प्रेमबाष्पौधं विरहौत्कण्ठ्यकातरा: ।
राजा तमर्हयाझ्क्रे कृतासनपरिग्रहम् ॥
६॥
मुमुचु:--छोड़ा; प्रेम--प्रेम के; बाष्प-ओघम्-- भावुकता के अश्रु; विरह--वियोग; औत्कण्ठ्य--उत्कण्ठा, उत्सुकता;कातराः--दुखी; राजा--राजा युधिष्टिर; तम्--उसको ( विदुर को ); अईयाम् चक्रे -- प्रदान किया; कृत--किया गया;आसन--बैठने का स्थान; परिग्रहम्--व्यवस्था |
चिन्ता तथा लम्बे वियोग के कारण, वे सब प्रेम-विवश होकर रूदन करने लगे।
तब राजा युधिष्ठटिर ने उनके बैठने के लिए आसन की व्यवस्था की और उनका सत्कार किया।
"
त॑ भुक्तवन्तं विश्रान्तमासीनं सुखमासने ।
प्रश्रयावनतो राजा प्राह तेषां च श्रुण्वताम् ॥
७॥
तम्--उसको ( विदुर को ); भुक्तवन्तम्--ठीक से भोजन कराकर; विश्रान्तम्-तथा विश्राम कराके; आसीनम्--बैठाकर;सुखम् आसने--सुखद आसन पर; प्रश्रय-अवनत:--स्वाभाविक रूप से अत्यन्त भद्र तथा विनीत; राजा--राजा युधिष्ठिर ने;प्राह--बोलना प्रारम्भ किया; तेषाम् च--तथा उनके द्वारा; श्रृण्वतामू--सुना जाकर।
जब विदुर ठीक से भोजन कर चुके और पर्याप्त विश्राम कर लेने पर उन्हें सुखदायक आसनपर बिठाया गया।
तब राजा ने उनसे बोलना शुरू किया और वहाँ पर उपस्थित सारे लोग सुननेलगे।
"
युधिष्टिर उवाचअपि स्मरथ नो युष्मत्पक्षच्छायासमेधितान् ।
विपद्गणाद्विषाग्न्यादेमोचिता यत्समातृका: ॥
८॥
युधिष्ठिर: उवाच--महाराज युधिष्ठिर ने कहा; अपि-- क्या; स्मरथ-- आपको स्मरण है; न:--हमको; युष्पत्-- आपसे; पक्ष--पक्षियों के पंखों सहश हमारे प्रति पक्षपात; छाया--संरक्षण; समेधितान्-- आपके द्वारा पाले गये हम सबों द्वारा; विपतू-गणात्--विभिन्न प्रकार की विपत्तियों से; विष--विष-रूप शासन द्वारा; अग्नि-आदे:--अग्नि-काण्ड आदि से; मोचिता: --छुटकारा दिलाया; यत्--आपने जो किया; स--सहित; मातृका: --हमारी माता ।
महाराज युधिष्ठटिर ने कहा : हे चाचा, क्या आपको याद है कि आपने किस तरह सदा हमारीमाता तथा हम सबकी समस्त प्रकार की विपत्तियों से रक्षा की है? आपके पक्षपात ने, पक्षियोंके पंखों के समान, हमें विष-पान तथा अग्निदाह से बचाया है।
"
कया वृत्त्या वर्तितं वश्चरद्धि: क्षितिमण्डलम् ।
तीर्थानि क्षेत्रमुख्यानि सेवितानीह भूतले ॥
९॥
कया--किन; वृत्त्या--साधनों से; वर्तितम्--जीविका चलाते रहे; वः--आप; चरद्धिः--विचरण करते हुए; क्षिति-मण्डलम्--पृथ्वी पर; तीर्थानि--तीर्थ-स्थानों; क्षेत्र-सुख्यानि-- प्रमुख पवित्र स्थानों; सेवितानि--आपके द्वारा सेवित; इह--इससंसार में; भूतले--इस ग्रह में
पृथ्वी पर विचरण करते हुए, आपने अपनी जीविका कैसे चलाई ? आपने किन-किन पवित्रस्थलों तथा तीर्थस्थानों पर सेवा की ?"
भवद्विधा भागवतास्तीर्थभूता: स्वयं विभो ।
तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्तःस्थेन गदाभृता ॥
१०॥
भवत्--आप; विधा:--जैसे; भागवता: -- भक्त; तीर्थ--तीर्थयात्रा के पवित्र स्थल; भूता:--बने हुए; स्वयम्--अपने आप;विभो-हे शक्तिमान; तीर्थी-कुर्वन्ति--तीर्थस्थान बनाते हैं; तीर्थानि--तीर्थस्थल; स्व-अन्त:-स्थेन--हृदय में स्थित होकर;गदा-भूता-- भगवान् के
हे प्रभु, आप जैसे भक्त, निश्चय ही, साक्षात् पवित्र स्थान होते हैं।
चूँकि आप भगवान् कोअपने हृदय में धारण किए रहते हैं, अतएव आप समस्त स्थानों को तीर्थस्थानों में परिणत करदेते हैं।
"
अपि नः सुहृदस्तात बान्धवा: कृष्णदेवता: ।
इृष्टा: श्रुत॒ वा यदव: स्वपुर्या सुखमासते ॥
११॥
अपि--क्या; न:--हमारे; सुहृदः--शुभचिन्तक; तात--हे चाचा; बान्धवा:--मित्र; कृष्ण-देवता:--भगवान् कृष्ण की सेवा मेंसदैव तत्पर रहनेवाले; दृष्टा:--उन्हें देखकर; श्रुताः:--या उनके विषय में सुनकर; वा--अथवा; यदव: --यदुवंशी लोग; स्व-पुर्यामू--अपने-अपने निवास-स्थानों में; सुखम् आसते--सुखी तो हैं ।
हे चाचा, आप द्वारका भी गये होंगे? उस पवित्र स्थान में यदुवंशी हमारे मित्र तथाशुभचिन्तक हैं, जो नित्य ही भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा में तत्पर रहते हैं।
आप उनसे मिले होंगेअथवा उनके विषय में सुना होगा ? वे अपने-अपने घरों में सुखपूर्वक रह रहे हैं न?"
इत्युक्तो धर्मराजेन सर्व तत् समवर्णयत् ।
यथानुभूतं क्रमशो विना यदुकुलक्षयम् ॥
१२॥
इति--इस प्रकार; उक्त: --पूछे जाने पर; धर्म-राजेन--राजा युधिष्टिर द्वारा; सर्वम्--सब कुछ; तत्--यह; समवर्णयत्--ठीक सेवर्णन किया; यथा-अनुभूतम्--जैसा उसने अनुभव किया था; क्रमशः --एक के बाद एक; विना--रहित; यदु-कुल-क्षयम्--यदुवंश का विनाश ।
महाराज युध्िषटिर द्वारा इस तरह पूछे जाने पर महात्मा विदुर ने क्रमश: सब कुछ कह सुनाया,जिसका उन्होंने स्वयं अनुभव किया था।
केवल यदुवंश के विनाश की बात उन्होंने नहीं कही।
"
नन्वप्रियं दुर्विषहं नृणां स्वयमुपस्थितम् ।
नावेदयत् सकरुणो दुः:खितानू द्रष्टरमक्षम: ॥
१३॥
ननु--निश्चय ही; अप्रियम्--अप्रिय; दुर्विषहम्-- असहा; नृणाम्--मानव जाति का; स्वयम्--अपने ढंग से; उपस्थितम्--प्राकट्य; न--नहीं; आवेदयत्--व्यक्त किया; सकरुण: --दयामय; दुःखितान्--दुखी जनों को; द्रष्टम[--देखने के लिए;अक्षम:--असमर्थ
दयावान महात्मा विदुर पाण्डवों को कभी भी दुखी नहीं देख सकते थे।
अतएव उन्होंने इसअप्रिय तथा असहा घटना को प्रकट नहीं होने दिया, क्योंकि आपदाएँ तो अपने आप आती हैं।
"
कदञ्जित्कालमथावात्सीत्सत्कृतो देववत्सुखम् ।
भ्रातुर्ज्येष्ठस्य श्रेयस्कृत्सवेंषां सुखमावहन् ॥
१४॥
कझञ्लित्--कुछ दिनों तक; कालमू--समय; अथ--इस प्रकार; अवात्सीत्--रहते रहे; सत्-कृत:--सम्मानित होने पर; देव-बत्--दैवी व्यक्ति के समान; सुखम्--सुविधाएँ; भ्रातु:-- भाई का; ज्येष्टस्थ--बड़े भाई का; श्रेयः-कृत्--उनके प्रति अच्छाईकरने के कारण; सर्वेषामू--आप सबों का; सुखम्--सुख; आवहनू--सम्भव बनाया।
इस प्रकार अपने कुदटुम्बियों द्वारा देवतुल्य सम्मानित होकर, महात्मा विदुर कुछ काल तकअपने बड़े भाई की मनोदशा को ठीक करने के लिए तथा इस प्रकार अन्य सबों को सुख देने केलिए वहाँ पर रहते रहे।
"
अबिबश्रदर्यमा दण्डं यथावदघकारिषु ।
यावद्दधार शुद्र॒त्वं शापाद्वर्षशतं यम: ॥
१५॥
अबिश्रतू-दिया गया; अर्यमा--अर्यमा; दण्डम्--दण्ड; यथावत्--समुचित; अघ-कारिषु--पाप करनेवालों को; यावत्--जबतक; दधार--स्वीकार किया; शूद्र॒त्वम्--शूद्र का शरीर; शापात्--शाप के फलस्वरूप; वर्ष-शतम्--सौ वर्षों तक; यम: --यमराज ।
मण्डूक मुनि के द्वारा शापित होकर, जब तक विदुर शूद्र का शरीर धारण किये रहे, तबतक पाप कर्म करने वालों को दण्डित करने के लिए यमराज के पद पर अर्यमा कार्य करते रहे।
"
युधिष्ठिरो लब्धराज्यो दृष्ठा पौत्रं कुलन्धरम् ।
भ्रातृभिलेंकपालाभेर्मुमुदे परया श्रिया ॥
१६॥
युधिष्ठिर: --युधिष्ठिर ने; लब्ध-राज्य: --अपने पैतृक राज्य का अधिकारी होकर; दृष्टा--देखकर; पौत्रमू--नाती को; कुलम्-धरम्--वंश के अनुकूल; भ्रातृभि:--भाइयों से; लोक-पालाभे: --जो सभी पटु प्रशासक थे; मुमुदे--जीवन का भोग किया;'परया--असामान्य; थिया--ऐश्वर्य से ।
अपना राज्य वापस पाकर तथा एक ऐसे पौत्र का जन्म देखकर, जो उनके परिवार कीप्रशस्त परम्परा को आगे चलाने में सक्षम था, महाराज युधिष्ठिर ने शान्तिपूर्वक शासन चलायाऔर उन छोटे भाइयों के सहयोग से, जो सारे के सारे कुशल प्रशासक थे, असामान्य ऐश्वर्य काभोग किया।
"
एवं गृहेषु सक्तानां प्रमत्तानां तदीहया ।
अत्यक्रामदविज्ञात: काल: परमदुस्तर: ॥
१७॥
एवम्--इस तरह; गृहेषु--घरेलू मामलों में; सक्तानाम्--अत्यन्त आसक्त पुरुषों के; प्रमत्तानामू--बेवकूफी से आसक्त; ततू-ईहया--ऐसे विचारों में निमग्न; अत्यक्रामत्--पार कर गया; अविज्ञात:--अनजाने; काल:--सनातन काल; परम--परम;दुस्तर:--दुर्लघ्य ।
जो लोग घरेलू मामलों में अत्यधिक लिप्त रहते हैं और उन्हीं के विचारों में मग्न रहते जाते हैं,उन्हें दुस्तर सनातन काल अनजाने ही धर दबोचता है।
"
विदुरस्तदभिप्रेत्य धृतराष्ट्रमभाषत ।
राजन्निर्गम्यतां शीघ्र पश्येद भयमागतम् ॥
१८॥
विदुरः--महात्मा विदुर ने; तत्--वह; अभिप्रेत्य--ठीक से जानकर; धृतराष्ट्रमू-- धृतराष्ट्र से; अभाषत--कहा; राजन्--हे राजा;निर्गम्यतामू--कृपा करके बाहर निकलें; शीघ्रम्--शीघ्र ही; पश्य--देखो; इृदम्--इस; भयम्-- भय को; आगतम्--पहले सेआया हुआ।
महात्मा विदुर यह सब जानते थे, अतएव उन्होंने धृतराष्ट्र को सम्बोधित करते हुए कहा : हेराजन, कृपा करके यहाँ से शीघ्र ही बाहर निकल चलिये।
विलम्ब न कीजिये।
जरा देखें तो,भय ने किस प्रकार आपको वशीभूत कर रखा है।
"
प्रतिक्रिया न यस्येह कुतश्चित्कर्हिचित्प्रभो ।
स एष भगवान् काल: सर्वेषां न: समागत: ॥
१९॥
प्रतिक्रिया--उपचार; न--नहीं है; यस्थ--जिसका; इह--इस भौतिक संसार में; कुतश्चित्--किसी प्रकार से भी; कर्हिचित्--या किसी के द्वारा; प्रभो--हे स्वामी; सः--वह; एष:--निश्चित रूप से; भगवान्-- भगवान्; काल:--शा श्वत काल; सर्वेषाम्--सबों का; नः--हम सबका; समागत:--आया हुआ।
इस भौतिक संसार में कोई भी व्यक्ति इस भयावह स्थिति का निराकरण नहीं कर सकता।
हेस्वामी, शाश्वत काल के रूप में, पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान् हम सबों के पास आ पहुँचे हैं।
"
येन चैवाभिपन्नोयं प्राणै: प्रियतमैरपि ।
जनः सद्यो वियुज्येत किमुतान्यैर्धनादिभि: ॥
२०॥
येन--ऐसे काल द्वारा खींचा गया; च--तथा; एव--निश्चय ही; अभिपतन्न:--पकड़ में या प्रभाव में; अयम्--यह; प्राणैः --जीवन से; प्रिय-तमैः--जो सबों को अत्यन्त प्रिय है; अपि--यद्यपि; जन: --व्यक्ति; सद्यः--शीघ्र; वियुज्येत--त्याग दे; किम्उत अन्यैः--अन्य वस्तु के विषय में क्या कहा जाय; धन-आदिभि:--यथा धन, सम्मान, सन््तान, भूमि तथा घर।
जो भी सर्वोपरि काल ( शाश्रत समय ) के प्रभाव में है, उसे अपना सबसे प्रिय जीवन कालको अर्पित करना पड़ता है, अन्य वस्तुओं यथा धन, सम्मान, सन्तान, भूमि तथा घर का तो कुछकहना ही नहीं।
"
पितृश्रातृसुहत्पुत्रा हतास्ते विगतं वयम् ।
आत्मा च जरया ग्रस्त: परगेहमुपाससे ॥
२१॥
पितृ-पिता; भ्रातृ- भाई; सुहृत्--शुभचिन्तक ; पुत्रा:--पुत्र; हता:--सारे के सारे मृत; ते--आपके ; विगतम्--निःशेष;वयम्--आयु; आत्मा--शरीर; च-- भी; जरया--वृद्धावस्था से; ग्रस्त:--अभिभूत, परास्त; पर-गेहम्--दूसरे के घर;उपाससे--जमे रहते हो ।
आपके पिता, भाई, शुभचिन्तक तथा पुत्र सभी मर चुके हैं और दूर चले गये हैं।
आपनेस्वयं भी अपने जीवन का अधिकांश समय व्यतीत कर लिया है, अब आपके शरीर को बुढ़ापे नेआ दबोचा है और आप पराए घर में पड़े हुए हैं।
"
अन्ध: पुरैव वधिरो मन्दप्रज्ञाश्व साम्प्रतम् ।
विशीर्णदन्तो मन्दाग्नि: सराग: कफमुद्दहन् ॥
२२॥
अन्ध:--अंधा; पुरा--प्रारम्भ से; एब--निश्चय ही; वधिर:--बहरा; मन्द-प्रज्ञा:--कुन्द स्मृति; च--तथा; साम्प्रतम्--हाल हीमें; विशीर्ण--हिलते हुए; दन््त:--दाँत; मन्द-अग्नि:--यकृत की क्रिया का कम होना; स-राग:-- ध्वनि सहित; कफम्--कफ;उद्ददनू--निकलता हुआ।
आप जन्म से ही अश्धे रहे हैं और हाल ही में आप कुछ बहरे हो चुके हैं।
आपकी स्मृति कमहो गई है और आपकी बुद्धि विचलित हो गई है।
आपके दाँत हिल चुके हैं, आपका यकृतखराब हो चुका है और आपके कफ निकल रहा है।
"
अहो महीयसी जन्तोजीविताशा यथा भवान् ।
भीमापवर्जितं पिण्डमादत्ते गृहपालवत् ॥
२३॥
अहो--ओह; महीयसी --शक्तिमान; जन्तो: -- जीवों की; जीवित-आशा--जीवन की उम्मीद; यथा--जिस तरह; भवान्--आपहैं; भीम--भीमसेन ( युधिष्ठटिर के भाई ) के; अपवर्जितम्--जूठा; पिण्डम्-- भोजन; आदत्ते--खाया गया; गृह-पाल-वत्--घेरलू कुत्ते के समान
ओह! प्राणी में जीवित रहने की कितनी प्रबल इच्छा होती है! निश्चय ही आप एक घेरलूकुत्ते की भाँति रह रहे हैं और भीम द्वारा दिये गये जूठन को खा रहे हैं।
"
अग्निर्निसृष्टो दत्तश्च गरो दाराश्च दूषिता: ।
हत॑ क्षेत्र धनं येषां तदत्तैरसुभि: कियत् ॥
२४॥
अग्निः--अग्नि; निसूष्ट: --लगाया हुआ; दत्त:--दिया हुआ; च--तथा; गर: --विष; दारा: --विवाहिता स्त्री; च--तथा;दूषिता:--अपमानित; हतम्--बलपूर्वक छीना गया; क्षेत्रमू--राज्य; धनम्--सम्पत्ति; येषामू--जिनका; तत्--उनका; दत्तै: --दिया गया; असुभिः--जीने में; कियत्-- अनावश्यक है।
आपने अग्नि लगाकर तथा विष देकर जिन लोगों को मारना चाहा, उन्हीं के दान परआपको जीवित रहने तथा गिरा हुआ जीवन बिताने की आवश्यकता नहीं है।
उनकी एक पतलीको भी आपने अपमानित किया है और उनका राज्य तथा धन छीन लिया है।
"
तस्यापि तव देहोयं कृपणस्य जिजीविषो: ।
परैत्यनिच्छतो जीर्णो जरया वाससी इव ॥
२५॥
तस्यथ--उसका; अपि--के बावजूद; तब--तुम्हारा; देह:--शरीर; अयम्--यह; कृपणस्य--कंजूस का; जिजीविषो:--जीवनकी इच्छा करनेवाले का; परैति-- क्षीण हो जाएगा; अनिच्छत:--न चाहते हुए भी; जीर्ण:--टूटा-फूटा; जरया--पुराने;वाससी--वस्त्रों; इब--सहश।
मरने के लिए आपकी अनिच्छा होने तथा आत्म-सम्मान की बलि देकर जीवित रहने कीआपकी इच्छा होने पर भी, आपका यह कृपण शरीर निश्चय ही क्षीण होगा तथा पुराने वस्त्र कीभाँति नष्ट हो जाएगा।
"
गतस्वार्थमिमं देहं विरक्तो मुक्तबन्धन: ।
अविज्ञातगतिर्जह्यात् स वै धीर उदाहत: ॥
२६॥
गत-स्व-अर्थम्--ठीक से उपयोग किये बिना; इमम्--इस; देहम्-- भौतिक शरीर को; विरक्त:--अन्यमनस्क; मुक्त--मुक्तहोकर; बन्धन:--सारे बन्धनों से; अविज्ञात-गति: --अज्ञात लक्ष्य; जह्यात्--इस शरीर को त्याग देना चाहिए; सः--ऐसा व्यक्ति;वै--निश्चय ही; धीर:--अविचल; उदाहत:--कहलाता है।
वह धीर कहलाता है, जो किसी अज्ञात सुदूर स्थान को चला जाए और जब यह भौतिकशरीर व्यर्थ हो जाए, तब सारे बन्धनों से मुक्त होकर अपने शरीर को त्यागता है।
"
यः स्वकात्परतो वेह जातनिर्वेद आत्मवान् ।
हृदि कृत्वा हरिं गेहात्प्रत्रजेत्स नरोत्तम: ॥
२७॥
यः--जो कोई; स्वकात्--अपने जागरण से; परतः वा--अथवा अन्यों से सुनकर; इह--इस संसार में; जात--बनता है;निर्वेद:--भौतिक आसक्ति के प्रति अन्यमनस्क; आत्मवान्--चेतना; हृदि--हृदय के भीतर; कृत्वा--ग्रहण किया जाकर;हरिम्-भगवान् को; गेहात्--घर से; प्रत्रजेत्--बाहर चला जाता है; सः--वह; नर-उत्तम:--प्रथम कोटि का मनुष्य है।
अपने आप से या दूसरे के समझाने से जो व्यक्ति जाग जाता है और इस भौतिक जगत कीअसत्यता तथा दुखों को समझ लेता है तथा अपने हृदय के भीतर निवास करनेवाले भगवान् परपूर्णतया आश्रित होकर घर त्याग देता है, वह निश्चय ही उत्तम कोटि का मनुष्य है।
"
अथोदीची दिशं यातु स्वैरज्ञातगतिर्भवान् ।
इतोअर्वाक्प्रायश: काल: पुंसां गुणविकर्षण: ॥
२८ ॥
अथ--अतएव; उदीचीम्--उत्तरी; दिशम्--दिशा को; यातु--चले जाइये; स्वैः-- अपने सम्बन्धियों द्वारा; अज्ञात--जाने बिना;गतिः--गतिविधियाँ; भवानू-- आपकी; इतः--इसके बाद; अर्वाक्--सूत्रपात होगा; प्रायशः--सामान्यतया; काल:--काल,समय; पुंसाम्-मनुष्यों के; गुण--गुण; विकर्षण:--हास
अतएव कृपया आप अपने कुट॒ुम्बियों को बताये बिना, तुरन्त उत्तर दिशा की ओर प्रस्थानकर दीजिए, क्योंकि शीघ्र ही ऐसा समय आनेवाला है, जिसमें मनुष्य के सदगुणों का हासहोगा।
"
एवं राजा विदुरेणानुजेन प्रज्ञाचक्षुबोधित आजमीढ: ।
छित्त्वा स्वेषु स्नेहपाशान्द्रढिम्नो निश्चक्राम भ्रातृसन्दर्शिताध्वा ॥
२९॥
एवम्--इस प्रकार; राजा--राजा धृतराष्ट्र; विदुरेण अनुजेन--अपने छोटे भाई विदुर द्वारा; प्रज्ञा--आत्मनिरीक्षण का ज्ञान;चक्षु;--आँखें; बोधित:--समझी जाकर; आजमीढ:--धृतराष्ट्र, जो आजमीढ़ वंश की संतान थे; छित्त्वा--तोड़कर; स्वेषु--सम्बन्धियों के विषय में; स्नेह-पाशान्--स्नेह के बन्धनों को; द्रढिम्न:--हढ़ता के कारण; निश्चक्राम--बाहर चले गये; भ्रातृ--अपने भाई द्वारा; सन्दर्शित--दिखलाये हुए; अध्वा--मुक्तिपथ
इस प्रकार आजमीढ़ के वंशज महाराज ध्ृतराष्ट्र ने आत्मनिरीक्षणयुक्त ज्ञान ( प्रज्ञा ) द्वारापूर्णतः आश्वस्त होकर तुरन्त ही अपने दृढ़ संकल्प से पारिवारिक स्नेह के सारे हढ़ पाश तोडदिये।
तत्पश्चात् वे तत्काल घर छोड़कर, अपने छोटे भाई विदुर द्वारा दिखलाये गये मुक्ति-पथ परनिकल पड़े।
"
पति प्रयान्तं सुबलस्य पुत्रीपतिब्रता चानुजगाम साध्वी ।
हिमालयं न्यस्तदण्डप्रहर्षमनस्विनामिव सत्सम्प्रहार: ॥
३०॥
पतिम्--अपने पति को; प्रयान्तम्-घर त्यागते समय; सुबलस्य--राजा सुबल की; पुत्री--योग्य पुत्री; पति-ब्रता--अपने पतिको समर्पित; च-- भी; अनुजगाम--पीछे-पीछे गई; साध्वी--सती; हिमालयम्--हिमालय पर्वत की ओर; न्यस्त-दण्ड--संन्यास आश्रम के दण्ड को स्वीकार करनेवाला; प्रहर्षम्-हर्ष का विषय; मनस्विनाम्--महान् योद्धाओं का; इब--सहश;सत्--वैध; सम्प्रहारः--अच्छी पिटाई ॥
कन्दहार ( गान्धार ) के राजा सुबल की पुत्री, परम साध्वी गान्धारी ने जब यह देखा किउसके पति हिमालय पर्वत की ओर जा रहे हैं, जो कि संन्यासियों को वैसा ही आनन्द देता हैजैसा कि युद्ध के मैदान में योद्धा को शत्रुओं के प्रहार से प्राप्त होता है, तो वह भी अपने पति केपीछे-पीछे चल पड़ीं।
"
अजातशत्रु: कृतमैत्रो हुताग्नि-विप्रान्नत्वा तिलगोभूमिरुक्मै: ।
गृहं प्रविष्टो गुरुवन्दनायन चापश्यत्पितरौ सौबलीं च ॥
३१॥
अजात--जो कभी जन्मा नहीं; शत्रुः--शत्रु; कृत--किया गया; मैत्र:--देवताओं की पूजा करना; हुत-अग्नि:--अग्नि में;विप्रानू--ब्राह्मणों को; नत्वा--नमस्कार करके; तिल-गो-भूमि-रुक्मैः --अन्न, गौवों, भूमि तथा स्वर्ण के साथ; गृहम्--महलके भीतर; प्रविष्ट:--प्रवेश करके; गुरु-वन्दनाय--गुरुजनों को नमस्कार करने के लिये; न--नहीं; च-- भी; अपश्यत् -- देखा;पितरौ--अपने चाचाओं को; सौबलीम्--गांधारी को; च--भी |
अजातशत्रु महाराज युथ्चिष्ठिर ने बन्दना करके, सूर्यदेव को अग्नि-यज्ञ अर्पित करके तथाब्राह्मणों को नमस्कार करके एवं उन्हें अन्न, गाय, भूमि तथा स्वर्ण अर्पित करके, अपने नैत्यिकप्रातःकालीन कर्म किये।
तत्पश्चात् वे गुरुजनों का अभिवादन करने के लिए राजमहल में प्रविष्टहुए।
किन्तु उन्हें न तो उनके ताऊ मिले, न ही राजा सुबल की पुत्री ( गांधारी ) अर्थात् ताई मिलीं ।
"
तत्र सझ्यमासीनं पप्रच्छोद्धिग्नमानस: ।
गावल्गणे क्व नस्तातो वृद्धों हीनश्व नेत्रयो: ॥
३२॥
तत्र--वहाँ; सञ्ञयम्--संजय को; आसीनम्--बैठा; पप्रच्छ--पूछा; उद्विग्न-मानस:--चिन्ता से पूरित; गावल्गणे--गवल्गणपुत्र, सञ्लय; क्क--कहाँ हैं; न:--हमारा; तातः--ताऊ; वृद्धः--बूढ़ा; हीन: च--तथा विहीन; नेत्रयो:--आँखों से |
चिन्ता से पूरित महाराज युधिष्ठिर संजय की ओर मुड़े, जो वहाँ बैठे थे और उनसे पूछा : हेसंजय, हमारे वृद्ध तथा अंधे ताऊ कहाँ हैं ?"
अम्बा च हतपुत्रार्ता पितृव्य: क्न गत: सुहृत् ।
अपि मय्यकृतप्रज्ञे हतबन्धु: स भार्यया ।
आशंसमान: शमलं गज्जयां दु:खितोपतत् ॥
३३॥
अम्बा--माता, ताई; च--तथा; हत-पुत्रा--जिनके सररे पुत्र मारे जा चुके थे; आर्ता--अत्यन्त दुखी; पितृव्य;--चाचा विदुर;क्क--कहाँ; गत:--गये हुए; सुहत्--शुभ-चिन्तक; अपि--क्या; मयि--मुझको; अकृत-प्रज्ञे--कृतघ्न; हत-बन्धु:--जिसकेसारे पुत्र नहीं रहे हों; सः--धृतराष्ट्र; भार्यया-- अपनी पत्नी सहित; आशंसमान: --संशय-युक्त मन में; शमलम्--अपराध;गड्ायाम्--गंगा-जल में; दु:खित:--मन में दुखी; अपतत्--गिर पड़े |
मेरे शुभचिन्तक चाचा विदुर तथा अपने सभी पुत्रों के निधन से अत्यन्त शोकाकुल मातागांधारी कहाँ हैं? मेरे ताऊ धृतराष्ट्र भी अपने समस्त पुत्रों तथा पौत्रों की मृत्यु के कारण शोकार्तथे।
निस्सन्देह, मैं अत्यन्त कृतघ्न हूँ।
अतएव, क्या वे मेरे अपराधों को अत्यन्त गम्भीर मानकरअपनी पत्नी-सहित गंगा में कूद पड़े ?"
पितर्युपरते पाण्डौ सर्वान्न: सुहृद: शिशून् ।
अरक्षतां व्यसनतः पितृव्यौ क्न गतावित: ॥
३४॥
पितरि--मेरे पिता के; उपरते--मरने पर; पाण्डौ--महाराज पाण्डु के; सर्वान्--समस्त; नः--हम सबों का; सुहृदः--शुभचिन्तक; शिशून्--छोटे छोटे बालकों को; अरक्षताम्--रक्षा की; व्यसनत:--सभी प्रकार के संकटों से; पितृव्यौ--दोनोंचाचाओं ने; क्र--कहाँ; गतौ--चले गये; इतः--इस स्थान से ।
जब मेरे पिता पाण्डु की मृत्यु हो गई और हम सभी छोटे-छोटे बालक थे, तो इन दोनोंचाचा-ताऊ ने हमें समस्त प्रकार की विपत्तियों से बचाया था।
वे सदैव हमारे शुभचिन्तक रहे।
हाय! वे यहाँ से कहाँ चले गये ?"
सूत उवाचकृपया स्नेहवैक्लव्यात्सूतो विरहकर्शित: ।
आत्मेश्वरमचकश्षाणो न प्रत्याहातिपीडित: ॥
३५॥
सूतः उबाच--सूत गोस्वामी ने कहा; कृपया--करुणा से; स्नेह-वैक्लव्यात्-- अत्यधिक स्नेह के कारण मानसिक असंतुलन से;सूत:--सञ्ञय; विरह-कर्शित:--वियोग से दुखी; आत्म-ई श्वरम्-- अपने स्वामी को; अचक्षाण: --न देखने से; न--नहीं;प्रत्याह--उत्तर दिया; अति-पीडित:--अत्यधिक दुखी होकर |
सूत गोस्वामी ने कहा : करुणा तथा मानसिक क्षोभ के कारण, संजय अपने स्वामी धृतराष्ट्रको न देखने से अत्यन्त दुखी थे, अतएव वे महाराज युथ्रिष्ठिर को ठीक से उत्तर नहीं दे सके ।
"
विमृज्याश्रूणि पाणिभ्यां विष्टभ्यात्मानमात्मना ।
अजातशम्रु प्रत्यूचे प्रभो: पादावनुस्मरन् ॥
३६॥
विमृज्य--पोंछ कर; अश्रूणि--- आँखों के आँसुओं को; पाणिभ्याम्--अपने हाथों से; विष्टभ्य--स्थित; आत्मानमू--मन को;आत्मना--बुद्धि से; अजात-शत्रुम्--महाराज युधिष्टिर को; प्रत्यूचे--उत्तर देने लगा; प्रभो:--अपने स्वामी के; पादौ--पाँवोंका; अनुस्मरन्--चिन्तन करते हुए |
पहले उन्होंने बुद्धि द्वारा अपने मन को शान्त किया, फिर अश्रु पोंछते हुए तथा अपने स्वामीधृतराष्ट्र के चरणों का स्मरण करते हुए, वे महाराज युधिष्ठिर को उत्तर देने लगे।
"
सञ्जञय उवाचनाहं वेद व्यवसितं पित्रोर्व: कुलनन्दन ।
गान्धार्या वा महाबाहो मुषितोस्मि महात्मभि: ॥
३७॥
सञ्जयः उवाच--संजय ने कहा; न--नहीं; अहम्--मैं; वेद--जानता हूँ; व्यवसितम्--संकल्प; पित्रो:--चाचाओं का; व:--आपके; कुल-नन्दन--हे कुरुवंश की सन्तान; गान्धार्या:--गान्धारी का; वा--अथवा; महा-बाहो--हे महान् राजा; मुषित:--धोखा दिया गया, ठगा गया; अस्मि--हूँ; महा-आत्मभि: --उन महात्माओं द्वारा ।
संजय ने कहा : हे कुरुवंशी, मुझे आपके दोनों ताउओं तथा गान्धारी के संकल्प का कुछभी पता नहीं है।
हे राजनू, उन महात्माओं द्वारा मैं तो ठगा गया।
"
अथाजगाम भगवान् नारद: सहतुम्बुरु: ।
प्रत्युत्थायाभिवाद्याह सानुजोभ्यर्चयन्मुनिम् ॥
३८ ॥
अथ--तत्पश्चात्; आजगाम--आ पहुँचे; भगवान्--दैवी पुरुष; नारद:--नारद; सह-तुम्बुरु:--अपने तंबूरे के साथ;प्रत्युत्धाय-- अपने-अपने आसनों से उठकर; अभिवाद्य--प्रणाम करके; आह--कहा; स-अनुज:--अपने छोटे भाइयों समेत;अभ्यर्चयन्--अच्छे मन से स्वागत करते हुए; मुनिम्--मुनि से।
जब संजय इस प्रकार बोल रहे थे, तो शक्तिसम्पन्न दैवी पुरुष श्रीनारद अपना तंबूरा लिए हुएवहाँ प्रकट हुए।
महाराज युधिष्ठिर ने अपने भाइयों समेत, अपने-अपने आसन से उठकर प्रणामकरते हुए उनका विधिवत् स्वागत किया।
"
युधिष्टिर उवाचनाहं वेद गति पित्रोर्भगवन् क्व गतावित: ।
अम्बा वा हतपुत्रार्ता क्क गता च तपस्विनी ॥
३९॥
युधिष्ठिरः उवाच--महाराज युधिष्ठिर ने कहा; न--नहीं; अहम्--मैं; वेद--जानता हूँ; गतिम्--प्रयाण; पित्रो:--चाचाओं का;भगवनू-हे दैवी पुरुष; क्च--कहाँ; गतौ--चले गये; इत:--इस स्थान से; अम्बा--ताई; वा--अथवा; हत-पुत्रा-- अपने पुत्रोंके मारे जाने से; आर्ता--दुखी; क्कष--कहाँ; गता--गई हुई; च--भी; तपस्विनी--साध्वी ।
महाराज युधिष्ठिर ने कहा : हे देव पुरुष, मैं नहीं जानता कि मेरे दोनों चाचा कहाँ चले गये।
न ही मैं अपनी उन तपस्विनी ताई को देख रहा हूँ, जो अपने समस्त पुत्रों की क्षति के कारणशोक से व्याकुल थीं।
"
कर्णधार इवापारे भगवान् पारदर्शक: ।
अथाबभाषे भगवान् नारदो मुनिसत्तम: ॥
४०॥
कर्ण-धार: --जहाज के कप्तान; इब--सहृश; अपारे--विस्तृत सागर में; भगवान्-- भगवान् के प्रतिनिधि; पार-दर्शक: --दूसरीओर ले जानेवाले; अथ--इस प्रकार; आबभाषे--कहने लगे; भगवानू--देव पुरुष; नारद: --ऋषि नारद; मुनि-सत्-तमः--भक्त-चिन्तकों में सर्वश्रेष्ठ |
आप इस अपार समुद्र में जहाज के कप्तान सदृश हैं और आप ही हमें अपने गन्तव्य का मार्गदिखा सकते हैं।
इस प्रकार से सम्बोधित किये जाने पर, देव-पुरुष, भक्तों में सर्वश्रेष्ठ चिन्तकदेवर्षि नारद कहने लगे।
"
नारद उवाचमा कदझ्जन शुचो राजन् यदीश्वरवशं जगत् ।
लोका: सपाला यस्येमे वहन्ति बलिमीशितु: ।
स संयुनक्ति भूतानि स एव वियुनक्ति च ॥
४१॥
नारद: उबाच--नारद ने कहा; मा--कभी नहीं; कज्लन--सभी प्रकार से; शुच:--मत शोक करो; राजन्--हे राजा; यत्--क्योंकि; ईश्वर-वशम्-- भगवान् के वश में; जगत्--संसार; लोका: --सारे जीव; स-पाला:--अपने नेताओं समेत; यस्य--जिसका; इमे--ये सब; वहन्ति--ले जाते हैं; बलिम्--पूजा का साधन; ईशितु:--रक्षित होने के लिए; सः--वह; संयुनक्ति--पास लाता है; भूतानि--सारे जीवों को; सः--वह; एव-- भी; वियुनक्ति--विलग करता है; च--तथा |
श्रीनारद ने कहा : हे धर्ममाज, आप किसी के लिए शोक मत करो, क्योंकि सारे लोगपरमेश्वर के अधीन हैं।
अतएव सारे जीव तथा उनके नेता ( लोकपाल ) अपनी रक्षा के लिए पूजाकरते हैं।
वे ही सबों को पास-पास लाते हैं तथा उन्हें विलग करते हैं।
"
यथा गावो नसि प्रोतास्तन्त्यां बद्धाश्व दामभि: ।
वाक्तन्त्यां नामभिर्बद्धा वहन्ति बलिमीशितु: ॥
४२॥
यथा--जिस तरह; गाव: --बैल; नसि--नाक से; प्रोताः:--नाथी हुई; तन्त्याम्--डोरी से; बद्धा:--बँधी हुई; च-- भी;दामभि:--रस्सियों से; वाक्-तन्त्याम्--वैदिक स्तोत्रों के जाल में; नामभि:--नाम पद्धति से; बद्धा:--बद्ध; वहन्ति--पालनकरते हैं; बलिम्--आदेशों को; ईशितुः--परमेश्वर द्वारा नियंत्रित होने के लिए |
जिस प्रकार बैल एक लम्बी रस्सी से नाक से नत्थी होकर बंधन में रहता है, उसी तरह मनुष्यजाति विभिन्न वैदिक आदेशों से बँध कर परमेश्वर के आदेशों का पालन करने के लिए बद्ध है।
"
यथा क्रीडोपस्कराणां संयोगविगमाविह ।
इच्छया क्रीडितु: स्यातां तथेवेशेच्छया नृणाम् ॥
४३॥
यथा--जिस तरह; क्रीड-उपस्कराणाम्--खेल की वस्तुएँ; संयोग--मिलना; विगमौ--बिछुड़ना; इह--इस संसार में;इच्छया--इच्छा से; क्रीडितु:--खेल करने के लिए; स्थाताम्--घटित होता है; तथा--उसी तरह; एव--निश्चय ही; ईश--परमेश्वर की; इच्छया--इच्छा से; नृणाम्-मनुष्यों कीयथा जिस प्रकार खिलाड़ी अपनी इच्छानुसार खिलौनों को सजाता तथा बिगाड़ता है, उसी तरहभगवान् की परम इच्छा मनुष्यों को पास-पास लाती है और उन्हें विलग भी करती है।
"
यन्मन्यसे ध्रुव॑ लोकमश्रुवं वा न चोभयम् ।
सर्वथा न हि शोच्यास्ते स्नेहादन्यत्र मोहजातू ॥
४४॥
यत्--भले ही; मन्यसे--सोचते हो; ध्रुवम्--परम सत्य; लोकम्--लोगों की; अश्वुवम्--अवास्तविकता; वा--अथवा; न--नहीं; च-- भी; उभयम्--अथवा दोनों; सर्वथा--सभी परिस्थितियों में; न--कभी नहीं; हि--निश्चय ही; शोच्या:--शोक काविषय; ते--वे; स्नेहातू--स्नेह के कारण; अन्यत्र--अथवा दूसरी तरह; मोह-जात्--मोह-जनित ।
हे राजन, सभी परिस्थितियों में, चाहे आप आत्मा को नित्य मानो अथवा भौतिक देह कोनश्वर, अथवा प्रत्येक वस्तु को निराकार परम सत्य में स्थित मानो या प्रत्येक वस्तु को पदार्थ तथाआत्मा का अकथनीय संयोग मानो, वियोग की भावनाएँ केवल मोहजनित स्नेह के कारण हैं,इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।
"
तस्माजह्यज् वैक्लव्यमज्ञानकृतमात्मन: ।
कथं त्वनाथा: कृपणा वर्तेरंस्ते च मां विना ॥
४५॥
तस्मात्--अतएव; जहि--छोड़ दो; अड्ड--हे राजा; वैक्लव्यम्--मानसिक विकलता; अज्ञान--अज्ञान; कृतम्--के कारण;आत्मन:--अपना; कथम्--कैसे; तु--लेकिन; अनाथा:-- असहाय; कृपणा:--निरीह प्राणी; वर्तेरनू--जीवित रहने में समर्थ;ते--वे; च-- भी; माम्--मेरे; विना--रहित |
अतएव तुम आत्मा को न जानने के कारण उत्पन्न अपनी चिन्ता छोड़ दो।
अब आप यहसोच रहे है कि वे असहाय जीव तुम्हारे बिना किस तरह रहेंगे।
"
कालकर्मगुणाधीनो देहोयं पाद्ठभौतिक: ।
कथमन्यांस्तु गोपायेत्सर्पग्रस्तो यथा परम् ॥
४६॥
काल--शाश्वत समय; कर्म--कर्म; गुण-- प्रकृति के गुण; अधीन: --के अधीन; देह:--भौतिक शरीर तथा मन; अयम्--यह;पाञ्ञ-भौतिक:--पाँच तत्त्वों से बना; कथम्--कैसे; अन्यान्--दूसरे; तु--लेकिन; गोपायेत्--सुरक्षा प्रदान करते हैं; सर्प-ग्रस्त:--साँप द्वारा दंशित; यथा--जिस तरह; परम्--दूसरे ।
पाँच तत्त्वों से निर्मित यह स्थूल भौतिक शरीर पहले से ही सनातन काल, कर्म तथा भौतिकप्रकृति के गुणों के अधीन है।
तो किस तरह से यह अन्यों की रक्षा कर सकता है, जबकि यहस्वयं सर्प के मुँह में फँसा हुआ है ?"
अहस्तानि सहस्तानामपदानि चतुष्पदाम् ।
'फल्गूनि तत्र महतां जीवो जीवस्य जीवनम् ॥
४७॥
अहस्तानि--हाथविहीनों के; स-हस्तानाम्--हाथ वालों के; अपदानि--पैर-विहीनों का; चतुः-पदाम्--चार पैर वालों का;'फल्गूनि--निर्बल; तत्र--वहाँ; महताम्-शक्तिमानों को; जीव:--जीव; जीवस्य--जीव का; जीवनम्--जीवन निर्वाह,गुजारा।
जो बिना हाथ वाले हैं, वे हाथ वालों के शिकार हैं।
जो पाँवों से विहीन हैं, वे चौपायों केशिकार हैं।
निर्बल सबल के भोज्य हैं और सामान्य नियम यह है कि एक जीव दूसरे जीव काभोजन बना हुआ है।
"
तदिदं भगवान् राजन्नेक आत्मात्मनां स्वहक् ।
अन्तरोनन्तरो भाति पश्य तंमाययोरुधा ॥
४८॥
तत्--अतः; इृदमू--यह अभिव्यक्ति; भगवान्-- भगवान्; राजनू--हे राजन्; एक:--एक अद्वितीय; आत्मा--परमात्मा;आत्मनाम्--अपनी शक्तियों से; स्व-हक्--गुणों में अपने ही जैसा; अन्तर: --बाहर; अनन्तर:--भीतर तथा अपने द्वारा;भाति--प्रकट करता है; पश्य--देखो; तम्--उन्हें ही; मायया--विभिन्न शक्तियों के प्राकट्य से; उरुधा--अनेक प्रतीत होताहै।
अतएव हे राजन, तुम्हें एकमात्र परमेश्वर को देखना चाहिए, जो अद्वितीय हैं और जो विभिन्नशक्तियों से साक्षात् प्रकट होते हैं और भीतर तथा बाहर दोनों में हैं।
"
सोयमद्य महाराज भगवान् भूतभावन: ।
कालरूपोवतीर्णोस्यामभावाय सुरद्रिषाम् ॥
४९॥
सः--वे परमेश्वर; अयम्-- भगवान् श्रीकृष्ण; अद्यू--इस समय; महाराज--हे राजा; भगवान् -- भगवान्; भूत-भावन: -- प्रत्येकसृजित वस्तु के स्त्रष्टा या पिता; काल-रूप:--सर्वभक्षी काल के वेश में; अवतीर्ण: --अवतरित; अस्याम्--विश्व पर;अभावाय--निकाल फेंकने के लिए; सुर-द्विषामू--जो लोग भगवान् की इच्छा के विरुद्ध हैं, उन्हें।
वे ही पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण, सर्वभक्षी काल के वेश ( कालरूप) में, अब संसारसे द्वेषी लोगों का सर्वनाश करने के लिए पृथ्वी पर अवतरित हुए हैं।
"
निष्पादितं देवकृत्यमवशेषं प्रतीक्षते ।
तावदू यूयमवेक्षध्वं भवेद् यावदिहेश्वर: ॥
५०॥
निष्पादितम्--सम्पन्न; देव-कृत्यमू--देवताओं की ओर से जो कुछ होना था; अवशेषम्--शेष; प्रतीक्षते--प्रतीक्षित होकर;तावतू--उस समय तक; यूयम्--आप सारे पाण्डव; अवेक्षध्वम्-देखो तथा प्रतीक्षा करो; भवेत्--हो; यावत्--जब तक;इह--इस संसार में; ईश्वरः -- परमे श्वरभगवान् ने देवताओं की सहायता करने का अपना कर्तव्य पहले ही पूरा कर दिया है औरजो शेष है, उसके लिए वे प्रतीक्षारत हैं।
आप सभी पाण्डव तब तक प्रतीक्षा कर सकते हो, जबतक भगवान् इस धरा पर उपस्थित हैं।
"
धृतराष्ट्र: सह क्षात्रा गान्धार्या च स्वभार्यया ।
दक्षिणेन हिमवत ऋषीणामाश्रमं गत: ॥
५१॥
धृतराष्ट्र:-- धृतराष्ट्र; सह--साथ; क्रात्रा--अपने भाई विदुर के; गान्धार्या--गांधारी भी; च--तथा; स्व-भार्यया--अपनी पत्नी;दक्षिणेन--दक्षिण दिशा में; हिमवत:--हिमालय पर्वत के; ऋषीणाम्--ऋषियों का; आश्रमम्-- आश्रम में; गतः--गये हे राजनू, आपके चाचा धृतराष्ट्र, उनके भाई विदुर तथा उनकी पत्नी गांधारी, हिमालय केदक्षिण की ओर गये हैं, जिधर बड़े-बड़े ऋषियों के आश्रम हैं।
"
स्रोतोभि: सप्तभिर्या वै स्वर्धुनी सप्तधा व्यधात् ।
सप्तानां प्रीतये नाना सप्तस्रोत: प्रचक्षते ॥
५२॥
स्रोतोभि:-- धाराओं से; सप्तभि:--सात ( भाग ); या--नदी; वै--निश्चय ही; स्वर्धुनी--पवित्र गंगा; सप्तधा--सात शाखाएँ;व्यधात्--उत्पन्न किया; सप्तानाम्--सातों की; प्रीतये--तुष्टि के लिए; नाना--विविध; सप्त-स्त्रोत:--सात स्त्रोत; प्रचक्षते --नाम से ज्ञात।
यह स्थान सप्तस्त्रोत ( सात द्वारा विभाजित ) कहलाता है, क्योंकि यहाँ पर पवित्र गंगा नदीका जल सात शाखाओं में विभाजित किया गया था।
ऐसा महान् सप्तर्षियों की तुष्टि के लिएकिया गया था।
"
स्नात्वानुसवनं तस्मिन्हुत्वा चाग्नीन्यथाविधि ।
अब्भक्ष उपशान्तात्मा स आस्ते विगतैषण: ॥
५३॥
स्नात्वा--स्नान करके; अनुसवनम्--नियमित रूप से तीन बार ( प्रातः, दोपहर तथा संध्या समय ); तस्मिन्--सप्तधा गंगा में;हुत्वा--अग्निहोत्र यज्ञ करके; च--भी; अग्नीन्-- अग्नि में; यथा-विधि--शास्त्र के नियमों के अनुसार; अपू-भक्ष:--केवलजल पीकर उपवास करके; उपशान्त--पूर्ण रूप से संयमित; आत्मा--स्थूल इन्द्रियों तथा सूक्ष्म मन; सः--धृतराष्ट्र; आस्ते--स्थित होंगे; विगत--रहित; एषण:--पारिवारिक कुशलता-सम्बन्धी विचार |
इस समय सप्तस्त्रोत के तट पर धृतराष्ट्र नित्य तीन बार प्रातः, दोपहर तथा संध्या समय, स्नानकरके, अग्निहोत्र यज्ञ सम्पन्न करके तथा केवल जल पीकर अष्टांग योग का अभ्यास करने मेंलगे हैं।
इससे मनुष्य को मन तथा इन्द्रियों पर संयम रखने में सहायता मिलती है और वहपारिवारिक स्नेह-सम्बन्धी विचारों से सर्वथा मुक्त हो जाता है।
"
जितासनो जितश्वास: प्रत्याहृतषडिन्द्रिय: ।
हरिभावनया ध्वस्तरज:सत्त्वतमोमल: ॥
५४॥
जित-आसनः--जिसने आसनों पर विजय प्राप्त कर ली है; जित- श्रास:--जिसने श्वास-प्रक्रम को वश में कर लिया है;प्रत्याहत--पीछे मुड़कर; घट्--छ:; इन्द्रियः--इन्द्रियाँ; हरि-- भगवान् में; भावनया--तन्मय; ध्वस्त--विजित; रज:--रजोगुण;सत्त्व--सत्त्वगुण; तम:--तमोगुण; मलः--कल्मष ।
जिसने यौगिक आसनों तथा श्वास लेने की विधि को वश में कर लिया है, वह अपनीइन्द्रियों को पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान् के प्रति मोड़कर भौतिक प्रकृति के गुणों अर्थात् सत्त्वगुण,रजोगुण तथा तमोगुण के कल्मष के प्रति निर्लिप्त बन जाता है।
"
विज्ञानात्मनि संयोज्य क्षेत्रज्ञे प्रविलाप्य तम् ।
ब्रह्मण्यात्मानमाधारे घटाम्बरमिवाम्बरे ॥
५५॥
विज्ञान--शुद्ध पहचान; आत्मनि--बुद्धि में; संयोज्य--ठीक से स्थिर करके; क्षेत्र-ज्ञे--जीव में; प्रविलाप्प--तादात्म्य करके;तम्--उसको; ब्रह्मणि--सर्वोपरि में; आत्मानम्--शुद्ध जीव; आधारे-- आधार में; घट-अम्बरम्--घट के भीतर आकाश;इब--सहश; अम्बरे--परम व्योम में |
धृतराष्ट्र को अपनी शुद्ध सत्ता को बुद्धि में संयोजित करके, तब परम पुरुष के साथ, जीवके रूप में, गुणों के एकात्मकता के बोध सहित, परम ब्रह्म के साथ तदाकार होना होगा।
घटाकाश से मुक्त होकर उन्हें आध्यात्मिक आकाश ऊपर तक उठना होगा।
"
ध्वस्तमायागुणोदर्को निरुद्धकरणाशय: ।
निवर्तिताखिलाहार आस्ते स्थाणुरिवाचल: ।
तस्यान्तरायो मैवाभू: सन्न्यस्ताखिलकर्मण: ॥
५६॥
ध्वस्त--विनष्ट होकर; माया-गुण--भौतिक प्रकृति के गुण; उदर्क:--परवर्ती प्रभाव; निरुद्ध--रुक कर; करण-आशयः:--इन्द्रियाँ तथा मन; निवर्तित--रुका हुआ; अखिल--समस्त; आहार:--इन्द्रियों का भोजन; आस्ते--आसीन है; स्थाणु:--अचर्; इब--सहृश; अचलः--स्थिर; तस्य--उसके ; अन्तराय:--विघ्न, बाधाएँ; मा एब--कभी इस तरह; अभू:--हो;सन्न्यस्त--विरक्त; अखिल--सभी तरह के; कर्मण:-- भौतिक कर्तव्य।
उन्हें इन्द्रियों के सारे कार्य बाहर से भी रोक देने होंगे और भौतिक प्रकृति के गुणों सेप्रभावित होनेवाली इन्द्रियों की अन्तःक्रियाओं के प्रति भी अभेद्य रहना होगा।
इन सारे भौतिककार्यों का परित्याग करने पर वे अचल हो जायेंगे और मार्ग के सारे अवरोधों को पार करजायेंगे।
"
स वा अद्यतनाद् राजन परत: पश्ञमेडहनि ।
कलेवरं हास्यति स्वं तच्च भस्मीभविष्यति ॥
५७॥
सः--वह; वा--सम्भवतया; अद्य--आज; तनातू--से; राजन्--हे राजन्; परत:--आगे; पञ्ञमे--पाँचवें; अहनि--दिन;कलेवरम्--शरीर; हास्यति--छोड़ देंगे; स्वम्-- अपनी इच्छा से; तत्--वह; च-- भी; भस्मी--राख; भविष्यति--हो जायेगा।
हे राजनू, सम्भव यह है कि वे आज से पाँचवें दिन अपना शरीर छोड़ देंगे और उनका शरीरराख हो जायेगा।
"
दह्ममानेग्निभिद्देहे पत्यु: पत्नी सहोटजे ।
बहि: स्थिता पति साध्वी तमग्निमनु वेक्ष्यति ॥
५८॥
दह्ममाने--जलते हुए; अग्निभि: -- अग्नि द्वारा; देहे--शरीर में; पत्यु:--पति के; पत्ती--पत्नी; सह-उटजे--कुटिया समेत;बहि:--बाहर; स्थिता--स्थित; पतिमू--पति को; साध्वी --सती नारी; तम्--उस; अग्निमू--अग्नि को; अनु वेक्ष्यति--ध्यानपूर्वक देखते हुए अग्नि में प्रवेश करेगी |
बाहर से अपने पति को अपनी योग शक्ति की अग्मि में अपनी कुटिया समेत जलता हुआदेखकर उसकी साध्वी पत्नी एकाग्रता पूर्वक ध्यानमग्न होकर अग्नि में प्रवेश करेगी।
"
विदुरस्तु तदाश्चर्य निशाम्य कुरुनन्दन ।
हर्षशोकयुतस्तस्माद् गन्ता तीर्थनिषेवक: ॥
५९॥
विदुर:--विदुर भी; तु--लेकिन; तत्--वह घटना; आश्चर्यम्--आश्चर्यमय; निशाम्य--देखकर; कुरु-नन्दन--हे कुरुवंश केपुत्र; हर्ष--प्रसन्नता; शोक--दुख; युत:--से प्रभावित; तस्मात्--उस स्थान से; गन्ता--चले जाएँगे; तीर्थ--तीर्थ-स्थान;निषेवक:--शक्ति प्राप्त करने के लिए
तब हर्ष तथा शोक से अभिभूत होकर, विदुर उस पवित्र तीर्थ-स्थान से चले जाएँगे।
"
इत्युक्त्वाथारुहत् स्वर्ग नारद: सहतुम्बुरु: ।
युधिष्ठटिरो वचस्तस्य हृदि कृत्वाजहाच्छुच: ॥
६०॥
इति--इस प्रकार; उक्त्वा--सम्बोधित करके; अथ--तत्पश्चात्; आरुहत्--चढ़ गये; स्वर्गम्--बाह्य आकाश में; नारद: --महर्षिनारद; सह--के साथ; तुम्बुरु:--तम्बूरा; युधिष्ठिर:--महाराज युधिष्ठिर ने; वचः--उपदेश; तस्य--उनका; हृदि कृत्वा--हृदय मेंरखकर; अजहातू्--त्याग दिया; शुचः--सारा शोक ।
ऐसा कहकर महर्षि नारद, अपनी वीणा-समेत बाह्य आकाश में चले गये।
युधिष्ठिर ने उनकेउपदेश को अपने हृदय में धारण किया, जिससे वे सारे शोकों से मुक्त हो गये।
"
अध्याय चौदह: भगवान कृष्ण का अदृश्य होना
1.14सूत उवाचसम्प्रस्थिते द्वारकायां जिष्णौ बन्धुदिहृक्षया ।
ज्ञातुं च पुण्यश्लोकस्य कृष्णस्य च विचेष्टितम् ॥
१॥
सूतः उबाच--सूत गोस्वामी ने कहा; सम्प्रस्थिते--जाकर; द्वारकायाम्--द्वारका नगरी में; जिष्णौ--अर्जुन; बन्धु--मित्रों तथासम्बन्धियों से; दिहक्षया--मिलने के लिए; ज्ञातुमू--जानने के लिए; च--भी; पुण्य-शलोकस्य--जिनका यश वैदिक स्तोत्रोंद्वारा गाया जाता है; कृष्णस्य--भगवान् कृष्ण का; च--तथा; विचेष्टितम्--अगला कार्यक्रम ।
श्री सूत गोस्वामी ने कहा : भगवान् श्रीकृष्ण तथा अन्य मित्रों को मिलने तथा भगवान् सेउनके अगले कार्यकलापों के विषय में जानने के लिए अर्जुन द्वारका गये।
"
व्यतीता: कतिचिन्मासास्तदा नायात्ततोर्जुन: ।
ददर्श घोररूपाणि निमित्तानि कुरूद्वह: ॥
२॥
व्यतीताः--व्यतीत करके; कतिचित्--कुछ; मासाः --महीने; तदा--उस समय; न आयात्--नहीं लौटा; ततः--वहाँ से;अर्जुन:--अर्जुन; ददर्श--देखा; घोर-- भयानक; रूपाणि-- दृश्य ; निमित्तानि--विभिन्न कारण; कुरु-उद्बह:--महाराज युधिष्ठिरनेकुछ मास बीत गये, किन्तु अर्जुन वापस नहीं लौटे।
तब महाराज युथ्िष्ठिर को कुछअपशकुन दिखने लगे, जो अपने आप में अत्यन्त भयानक थे।
"
कालस्य च गति रौद्रां विपर्यस्तर्तुधर्मिण: ।
पापीयसी नृणां वार्ता क्रोधलोभानृतात्मनाम् ॥
३॥
कालस्य--शाश्वत समय की; च--भी; गतिम्--दिशा; रौद्रामू-- भयानक; विपर्यस्त--विपरीत; ऋतु--मौसम की; धर्मिण:--नियमितताएँ; पापीयसीम्--पापी; नृणाम्--मनुष्य की; वार्तामू--जीविका का साधन; क्रोध--क्रोध; लोभ--लोभ; अनृत--झूठ; आत्मनामू--लोगों का।
उन्होंने देखा कि सनातन काल की गति बदल गई है और यह अत्यन्त भयावह था।
ऋतु-सम्बन्धी नियमितताओं में व्यतिक्रम हो रहे थे।
सामान्य लोग अत्यन्त लालची, क्रोधी तथाधोखेबाज हो गये थे।
वे देख रहे थे कि वे सभी जीविका के अनुचित साधन अपना रहे थे।
"
जिह्मप्रायं व्यवहतं शाठद्यमिश्र॑ च सौहदम् ।
पितृमातृसुहृदभ्रातृदम्पतीनां च कल्कनम् ॥
४॥
जिहा-प्रायम्-- धोखा देना; व्यवहतम्--समस्त सामान्य लेन-देन के कार्यों में; शाउद्य--कपट; मिश्रम्-- अपमिश्रित; च--तथा;सौहदम्-मैत्रीपूर्ण शुभचिन्तकों से सम्बन्धित; पितृ-पिता; मातृ--माता-सम्बन्धी; सुहत्--शुभचिन्तक; भ्रातृ--निजी भाई;दम्-पतीनाम्--पति-पत्ती-विषयक; च--भी; कल्कनम्--पारस्परिक कलहसारे सामान्य लेन-देन, यहाँ तक कि मित्रों के बीच के व्यवहार तक, कपट के कारणदूषित हो गये थे।
पारिवारिक मामलों में पिता, माता तथा पुत्रों के बीच, शुभचिन्तकों के बीचतथा भाई-भाई के बीच सदैव गलतफहमी होती थी।
यहाँ तक कि पति तथा पत्नी के बीच भीसदैव तनाव तथा झगड़ा होता रहता था।
"
निमित्तान्यत्यरिष्टानि काले त्वनुगते नृणाम् ।
लोभाद्यधर्मप्रकृति दृष्ठोवाचानुजं नृप: ॥
५॥
निमित्तानि--कारण; अति--गम्भीर; अरिष्टानि--अशुभ लक्षण, अपशकुन; काले--कालक्रम में; तु--लेकिन; अनुगते--चला जाना; नृणाम्--मानव जाति का; लोभ-आदि--यथा लालच; अधर्म--अधर्म; प्रकृतिमू--आदतें; दृष्टा--देख कर;उवाच--कहा; अनुजम्--छोटे भाई से; नृप:--राजा ने।
कालक्रम में ऐसा हुआ कि लोग लोभ, क्रोध, गर्व इत्यादि के अभ्यस्त हो गये।
महाराजयुधिष्टिर ने इन सब अपशकुनों को देखकर अपने छोटे भाई से कहा।
"
युधिष्टिर उवाचसम्प्रेषितो द्वारकायां जिष्णुर्बन्धुदिहक्षया ।
ज्ञातुं च पुण्यश्लोकस्य कृष्णस्य च विचेष्टितम् ॥
६॥
युथिष्ठिर: उबाच--महाराज युधिष्ठिर ने कहा; सम्प्रेषित:--गया हुआ है; द्वारकायाम्--द्वारका; जिष्णु:--अर्जुन; बन्धु--मित्रोंसे; दिहक्षया--मिलने के लिए; ज्ञातुमू--जानने के लिए; च--भी; पुण्य-शइलोकस्य-- भगवान् का; कृष्णस्य-- श्रीकृष्ण का;च--तथा; विचेष्टितम्-कार्यक्रम
महाराज युधिष्ठिर ने अपने छोटे भाई भीमसेन से कहा : मैंने अर्जुन को द्वारका भेजा था किवह अपने मित्रों से भेंट कर आये और भगवान् श्रीकृष्ण से उनका कार्यक्रम जानता आये।
"
गताः सप्ताधुना मासा भीमसेन तवानुज: ।
नायाति कस्य वा हेतोरनहिं वेदेदमझसा ॥
७॥
गता:--बीत चुके; सप्त--सात; अधुना--इस समय तक; मासा:--महीने; भीमसेन--हे भीमसेन; तब--तुम्हारा; अनुज: --छोटा भाई; न--नहीं; आयाति--आता है; कस्य--किसलिए; वा--अथवा; हेतो: --कारण; न--नहीं; अहम्-मैं; वेद--जानता हूँ; इदम्--यह; अज्जसा--वास्तव में ।
जब से वह गया है, तब से सात मास बीत चुके हैं, फिर भी वह लौटा नहीं।
मुझे ठीक सेपता नहीं है कि वहाँ क्या हो रहा है।
"
अपि देवर्षिणादिष्ट: स कालोउयमुपस्थित: ।
यदात्मनोज्भमाक्रीडं भगवानुत्सिसृक्षति ॥
८॥
अपि--क्या; देव-ऋषिणा--देवर्षि ( नारद ) द्वारा; आदिष्ट:--आदेश दिया गया; सः--वह; काल:--शाश्वत समय; अयम्--यह; उपस्थित:--आ चुका है; यदा--जब; आत्मन:--अपने आप; अड्डम्-- अंश; आक्रीडम्--प्राकट्य; भगवान्-- भगवान्हउत्सिसृक्षति--छोड़ने जा रहे हैं।
क्या वे अपनी मर्त्यलोक की लीलाओं को छोड़ने जा रहे हैं, जैसा देवर्षि नारद ने इंगितकिया था? कया वह समय आ भी चुका है?"
यस्मान्न: सम्पदो राज्यं दारा: प्राणा: कुलं प्रजा: ।
आसन्सपतलविजयो लोकाश्व यदनुग्रहात् ॥
९॥
यस्मात्--जिससे; नः--हमारा; सम्पदः--ऐश्वर्य; राज्यमू--राज्य; दारा:--पत्नियाँ; प्राणा:--जीवनाधार; कुलम्--वंश;प्रजा:--प्रजागण; आसन्--सम्भव हुए; सपतल--प्रतियोगी; विजय:--जीतकर; लोका:--उच्च लोकों में भावी निवास; च--तथा; यत्--जिसके; अनुग्रहात्--अनुग्रह से
केवल उन्हीं से हमारा सारा राजसी ऐश्वर्य, अच्छी पत्नियाँ, जीवन, सन्तान, प्रजा के ऊपरनियंत्रण, शत्रुओं पर विजय तथा उच्चलोकों में भावी निवास, सभी कुछ सम्भव हो सका।
यहसब हम पर उनकी अहैतुकी कृपा के कारण है।
"
पश्योत्पातान्नरव्याप्न दिव्यान् भौमान् सदैहिकान् ।
दारुणान् शंसतोदूराद्धयं नो बुद्धिमोहनम् ॥
१०॥
पश्य--जरा देखो तो; उत्पातान्--उत्पातों को; नर-व्याप्र--हे बाघ-सहश बलवाले मनुष्य; दिव्यानू--आकाश की या ग्रहों केप्रभाव से घटनेवाली; भौमान्--पृथ्वी पर की घटनाएँ; स-दैहिकान्--शरीर तथा मन की घटनाएँ; दारुणान्--अत्यन्तखतरनाक; शंसतः--सूचित करनेवाली; अदूरात्--निकट के भविष्य में; भयम्-- भय, खतरा; नः--हमारी; बुद्धि--बुद्धि को;मोहनम्--मोहग्रस्त करनेवाला।
हे पुरुषव्याप्र, जरा देखो तो कि दैवी प्रभावों, पृथ्वी की प्रतिक्रियाओं तथा शारीरिकवेदनाओं के कारण उत्पन्न होने वाली कितनी खतरनाक आपदाएँ हमारी बुद्धि को मोहित करकेनिकट के भविष्य में आने वाले खतरे की सूचना दे रही हैं।
"
ऊर्वक्षिबाहवो मद्मं स्फुरन्त्यड्ग पुन: पुनः ।
वेपथुश्रापि हृदये आराद्यास्यन्ति विप्रियम् ॥
११॥
ऊरु--जाँचें; अक्षि--आँखें; बाहव:-- भुजाएँ; महाम्-- मेरे; स्फुरन्ति--फड़कते हैं; अड्र--शरीर का बाँया भाग; पुनः पुन:--बारम्बार; वेपथु;:-- धड़कनें; च-- भी; अपि--निश्चय ही; हृदये--हृदय में; आरात्--डर के मारे; दास्यन्ति--सूचित कर रहे हैं;विप्रियम्-- अशुभ, अनिष्ट ।
मेरे शरीर का बाँयाँ भाग, मेरी जाँघें, भुजाएँ तथा आँखें बारम्बार फड़क रही हैं।
भय से मेराहृदय धड़क रहा है।
ये सब अनिष्ट घटना को सूचित करने वाले हैं।
"
शिवैषोद्यन्तमादित्यमभिरौत्यनलानना ।
मामड़ सारमेयोयमभिरेभत्यभीरुवत् ॥
१२॥
शिवा--सियारिन; एषा--यह; उद्यन्तम्--उगता; आदित्यम्--सूर्य को; अभि--की ओर; रौति--रोती हुई; अनल--अग्नि;आनना- मुँह; माम्-मुझको; अड्ग--हे भीम; सारमेय: --कुत्ता; अयमू--यह; अभिरेभति-- भूकता है; अभीरु -वत्--भयरहित |
हे भीम, जरा देखो तो यह सियारिन किस तरह उगते हुए सूर्य को देखकर रो रही है औरअग्नि उगल रही है और यह कुत्ता किस तरह निर्भय होकर, मुझ पर भूक रहा है।
"
शस्ता: कुर्वन्ति मां सव्यं दक्षिणं पशवोपरे ।
वाहांश्व पुरुषव्याप्र लक्षये रूतो मम ॥
१३॥
शस्ता:--गाय जैसे उपयोगी पशु; कुर्वन्ति--रखते हैं; माम्--मुझको ; सव्यम्--बाईं ओर; दक्षिणम्--प्रदक्षिणा करते हुए;'पशव: अपरे--अन्य पशु, यथा गधे; वाहान्-घोड़े ( वाहक ); च--भी; पुरुष-व्याप्र--हे पुरुषों में बाघ; लक्षये--मैं देख रहाहूँ; रूदतः--रोते हुए; मम--मेरे हे भीमसेन, हे पुरुष-व्याप्र
अब गाय जैसे उपयोगी पशु मेरी बाई ओर से निकले जा रहे हैंऔर गधे जैसे निम्न पशु, मेरी प्रदक्षिणा कर रहे हैं।
मेरे घोड़े मुझे देखकर रोते प्रतीत होते हैं।
"
मृत्युदूत: कपोतोयमुलूक: कम्पयन् मन: ।
प्रत्युलुकश्च कुह्ानैर्विश्व॑ वै शून्यमिच्छत: ॥
१४॥
मृत्यु-- मृत्यु का; दूतः--दूत; कपोतः-- कबूतर; अयम्--यह; उलूक: --उल्लू; कम्पयन्--कँपाती हुई; मनः--मन;प्रत्युलूक:--उल्लुओं के प्रतियोगी, कौवे; च--तथा; कुह्मानैः--चीख; विश्वम्--ब्रह्माण्ड; बै-- अथवा; शून्यम्-शून्य;इच्छत:--चाहते हैं।
जरा देखो तो! यह कबूतर मानो मृत्यु का दूत हो।
उलल्लुओं तथा उनके प्रतिद्वन्द्दी कौवों कीचीख मेरे हृदय को दहला रही है।
ऐसा प्रतीत होता है मानो वे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को शून्य बनादेना चाहते हैं।
"
धूत्रा दिश: परिधय: कम्पते भू: सहाद्विभि: ।
निर्घातश्च महांस्तात साक॑ च स्तनयित्नुभि: ॥
१५॥
धूप्रा:-- धुँधली; दिश:--सभी दिशाएँ; परिधय: --मंडल; कम्पते--काँपती हुईं; भूः--पृथ्वी; सह अद्विभि:--पर्वतों समेत;निर्घा:--आकाश से वज़्पात; च-- भी; महान्--विशाल; तात--हे भीम; साकम्--सहित; च-- भी; स्तनयित्नुभि: --बिनाबादल के गर्जन।
जरा देखो तो, किस तरह धुँआ आकाश को घेरे हुए है।
ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो पृथ्वीतथा पर्वत काँप रहे हों।
बिना बादलों की यह गर्जन तो जरा सुनो और आकाश से गिरते ब्रजपातको तो देखो!" वायुर्वाति खरस्पर्शों रजसा विसृज॑स्तम: ।
असूग वर्षन्ति जलदा बीभत्समिव सर्वत: ॥
१६॥
वायु:--वायु; वाति--बह रही है; खर-स्पर्श:--तेजी से; रजसा--धूल से; विसृजन्--उत्पन्न करते; तम: --अँधेरा; असृक् --रक्त; वर्षन्ति--बरसा रहे हैं; जलदाः--बादल; बीभत्सम्-- भयानक; इब--सहश; सर्वतः--सर्वत्र
वायु तेजी से बह रही है और वह सर्वत्र धूल बिखरा कर अँधेरा उत्पन्न कर रही है।
बादलसर्वत्र रक्तिम आपदाओं की वर्षा कर रहे हैं।
"
सूर्य हतप्रभं पश्य ग्रहमर्द मिथो दिवि ।
ससह्डुलैर्भूतगणैज्वलिते इव रोदसी ॥
१७॥
सूर्यमू--सूर्य को; हत-प्रभम्--क्षीण पड़ती किरणों वाले; पश्य--जरा देखो; ग्रह-मर्दम्--तारों की भिड़न्त; मिथ:--परस्पर;दिवि--आकाश् में; स-सह्ढुलैः --एक दूसरे से मिलकर; भूत-गणै:--जीवों द्वारा; ज्वलिते--जलाया जाकर; इब--मानो;रोदसी--रो रहा होसूर्य की किरणें मन्द पड़ रही हैं और तारे परस्पर भिड़ रहे प्रतीत हो रहे हैं।
भ्रमित जीवजलते हुए तथा रोते प्रतीत हो रहे हैं।
"
नद्यो नदाश्व क्षुभिता: सरांसि च मनांसि च ।
न ज्वलत्यग्निराज्येन कालोयं कि विधास्यति ॥
१८॥
नद्यः--नदियाँ; नदा: च--तथा सहायक नदियाँ; क्षुभिता:--सभी विश्लुब्ध; सरांसि--जलाशय; च--तथा; मनांसि--मन;च--भी; न--नहीं; ज्वलति-- जलती है; अग्नि:--अग्नि; आज्येन--घी की सहायता से; काल:--काल, समय; अयम्--यहकितना असामान्य है; किम्--क्या; विधास्यति--होनेवाला है।
नदियाँ, नाले, तालाब, जलाशय तथा मन सभी विश्षुब्ध हैं।
घी से अग्नि नहीं जल रही हैं,यह कैसा असामान्य समय है ? आखिर क्या होने वाला है?"
न पिबन्ति स्तनं वत्सा न दुह्मन्ति च मातरः: ।
रुदन्त्यश्रुमुखा गावो न हृष्यन्त्यृषभा ब्रजे ॥
१९॥
न--नहीं; पिबन्ति--पीते हैं; स्तनम्-- थन को; वत्सा:--बछड़े; न--नहीं; दुह्मन्ति--दुहने देती हैं; च-- भी; मातर:--गाएँ;रुदन्ति--रोती हैं; अश्रु-मुखा:--आँसुओं से युक्त मुँह; गाव:--गाएँ; न--नहीं; हृष्यन्ति-- प्रसन्न होते हैं; ऋषभा: --बैल;ब्रजे--चरागाह में
बछड़े न तो गौवों के थनों में मुँह लगा रहे हैं, न गौवें दूध देती हैं।
वे आँखों में आँसू भरेखड़ी-खड़ी रम्भा रही हैं और बैलों को चरागाहों में कोई प्रसन्नता नहीं हो रही है।
"
दैवतानि रुदन्तीव स्विद्यन्ति ह्युच्वलन्ति च ।
इमे जनपदा ग्रामा: पुरोद्यानाकराश्रमा: ।
भ्रष्टश्रियो निरानन्दा: किमघं दर्शयन्ति न: ॥
२०॥
दैवतानि--मन्दिरों के अर्चाविग्रह; रुदन्ति--रोते प्रतीत हो रहे हैं; इब--सहश; स्विद्यन्ति--पसीज रहे हैं; हि--निश्चय ही;उच्चलन्ति--मानो बाहर जा रहे हों; च--भी; इमे--ये; जन-पदा: --शहर, नगर; ग्रामा:--गाँव; पुर--कस्बे; उद्यान--बगीचे;आकर--खानें; आश्रमा:--कुटिया; भ्रष्ट--रहित; थ्रिय: --सौन्दर्य से; निरानन्दा:--समस्त आनन्द से विहीन; किमू--किसतरह की; अघम्--आपत्तियाँ; दर्शबन्ति-- प्रकट होने वाली हैं; नः--हम पर।
मन्दिर में अर्चाविग्रह रोते, शोक करते तथा पसीजते प्रतीत हो रहे हैं।
ऐसा लगता है कि वेप्रयाण करनेवाले हैं।
सारे नगर, ग्राम, कस्बे, बगीचे, खानें तथा आश्रम अब सौन्दर्यविहीन तथासमस्त आनन्द से रहित हैं।
मैं नहीं जानता कि हम पर किस तरह की विपत्तियाँ आनेवाली हैं।
"
मन्य एवैर्महोत्पातैर्नून भगवत: पदै: ।
अनन्यपुरुषश्रीभिहीना भूहतसौभगा ॥
२१॥
मन्ये--मैं मान लेता हूँ; एतैः--इन सबसे; महा--महान्; उत्पातैः--उत्पातों से; नूनमू--के अभाव में; भगवतः--भगवान् का;पदैः--पाँव के तलवे में चिह्न; अनन्य--असामान्य; पुरुष--परम पुरुष का; श्रीभिः--शुभ चिह्नों से; हीना--विहीन; भू:--पृथ्वी; हत-सौभगा--सौभाग्य से रहित।
मैं सोचता हूँ कि पृथ्वी पर की ये सारी उथल-पुथल विश्व के सौभाग्य की किसी बहुत बड़ीहानि को सूचित करनेवाले हैं।
संसार भाग्यशाली था कि उस पर भगवान् के चरणकमलों केपदचिन्ह अंकित हुए।
किन्तु ये लक्षण यह सूचित कर रहे हैं कि अब आगे ऐसा नहीं रह पाएगा।
"
इति चिन्तयतस्तस्य दृष्टारिप्टेन चेतसा ।
राज्ञ: प्रत्यागमद् ब्रह्मन् यदुपुर्या: कपिध्वज: ॥
२२॥
इति--इस तरह; चिन्तयत:--अपने आप सोचते हुए; तस्थ--उनका; दृष्टा--देखकर; अर्ष्टिन--अपशकुन से; चेतसा--मन से;राज्ः--राजा को; प्रति--वापस; आगमत्-- आया; ब्रह्मनू-हे ब्रह्माण; यदु-पुर्या:--यदुओं के राज्य से; कपि-ध्वज:--अर्जुन
हे ब्राह्मण शौनक, जब महाराज युधिष्ठिर उस समय पृथ्वी पर इन अशुभ लक्षणों को देख रहेथे और अपने मन में इस प्रकार सोच रहे थे, तभी अर्जुन यदुओं की पुरी ( द्वारका ) से वापस आगये।
"
तं पादयोर्निपतितमयथापूर्वमातुरम् ।
अधोवदनमब्बिन्दून् सृजन्तं नयनाब्जयो: ॥
२३॥
तम्--उसको ( अर्जुन को ); पादयो:--पाँवों पर; निपतितम्--गिर कर; अयथा-पूर्वम्--अपूर्व रीति से; आतुरम्--खिन्न; अधः-वदनम्--मुख नीचा किये; अप्-बिन्दून्--जल के बिन्दु; सृजन्तम्--उत्पन्न करते हुए; नयन-अब्जयो:--कमल-जैसे नेत्रों से।
जब उसने राजा के चरणों पर नमन किया, तो राजा ने देखा कि उनकी निराशा अभूतपूर्वथी।
उनका सिर नीचे झुका था और उनके कमल-नेत्रों से आँसू झर रहे थे।
"
विलोक्योद्विग्नहदयो विच्छायमनुजं नृप: ।
पृच्छति सम सुहन्मध्ये संस्मरज्नारदेरितम् ॥
२४॥
विलोक्य--देखकर; उद्विग्न--चिन्तित; हृदय: --हृदय; विच्छायमू--पीला चेहरा; अनुजम्--अर्जुन को; नृप:--राजा ने; पृच्छतिस्म--पूछा; सुहत्-मित्रों के; मध्ये--मध्य में; संस्मरन्--स्मरण करते हुए; नारद--नारदमुनि द्वारा; ईरितम्--सूचित
हृदय की उद्धिग्नताओं के कारण अर्जुन को पीला हुआ देखकर, राजा ने नारदमुनि द्वाराबताये गये संकेतों का स्मरण करते हुए, मित्रों के मध्य में ही उनसे पूछा।
"
युधिष्टिर उवाचकच्दानर्तपुर्या न: स्वजना: सुखमासते ।
मधुभोजदशाहर्हिसात्वतान्धकवृष्णय: ॥
२५॥
युथिष्ठटिर: उवाच--युधिष्ठिर ने कहा; कच्चित्--क्या; आनर्त-पुर्याम्-द्वारका में; न:--हमारे; स्व-जना:--सम्बन्धी; सुखम्--सुखपूर्वक; आसते--दिन बिता रहे हैं; मधु--मधु; भोज-- भोज; दशाई--दशाई; आई--आई; सात्वत--सात्वत; अन्धक--अन्धक; वृष्णय:--वृष्णि परिवार के ।
महाराज युधिष्ठिर ने कहा : मेरे भाई, मुझे बताओ कि हमारे मित्र तथा सम्बन्धी, यथा मधु,भोज, दशाई, आह, सात्वत, अन्धक तथा यदुवंश के सारे सदस्य, अपने दिन सुख से बिता रहे हैंन?"
शूरो मातामह: कच्वित्स्वस्त्यास्ते वाथ मारिष: ।
मातुल: सानुज: कच्चित्कुशल्यानकदुन्दुभि: ॥
२६॥
शूरः--शूरसेन; मातामह:--नाना; कच्चित्--क्या; स्वस्ति--सभी शुभ; आस्ते--अपने दिन बिता रहे हैं; वा--अथवा; अथ--अतएव; मारिष: --आदरणीय; मातुल:--मामा; स-अनुज:--अपने छोटे भाइयों सहित; कच्चित्--क्या; कुशली--सभीकुशल; आनक-दुन्दुभि:--वसुदेव ।
मेरे आदरणीय नाना शूरसेन प्रसन्न तो हैं? तथा मेरे मामा वसुदेव तथा उनके छोटे भाई ठीक से तो हैं?"
सप्त स्वसारस्तत्पत्न्यो मातुलान्य: सहात्मजा: ।
आसते सस्नुषा: क्षेमं देवकीप्रमुखा: स्वयम् ॥
२७॥
सप्त--सात; स्व-सार:--परस्पर बहनें; तत्-पत्य:--उनकी पत्ियाँ; मातुलान्य:--मौसियाँ; सह--के साथ; आत्म-जा:--पुत्रतथा पौत्र; आसते--सभी हैं; सस्नुषा:--अपनी बहुओं सहित; क्षेमम्--सुख; देवकी--देवकी ; प्रमुखा:--अग्रणी; स्वयम्--स्वयं।
देवकी इत्यादि उनकी सातों पत्नियाँ परस्पर बहिनें हैं।
वे तथा उनके पुत्र एवं बहुएँ सब सुखीतो हैं?"
कच्चिद्राजाहुको जीवत्यसत्पुत्रोस्य चानुज: ।
हृदीकः ससुतोक्रूरो जयन्तगदसारणा: ॥
२८॥
आसते कुशलं कच्चिद्ये च शत्रुजिदादय: ।
कच्चिदास्ते सुखं रामो भगवान् सात्वतां प्रभु: ॥
२९॥
कच्चित्--क्या; राजा--राजा; आहुक: --उग्रसेन का अन्य नाम; जीवति--अब भी जीवित है; असत्--शैतान, दुष्ट; पुत्र: --पुत्र; अस्य--उनका; च--भी; अनुज: --छोटा भाई; हृदीक: --हृदीक; स-सुतः --अपने पुत्र कृतवर्मा समेत; अक्वूर:--अक्रूर;जयन्त--जयन्त; गद--गद; सारणा:--सारण; आसते--सब हैं; कुशलम्-- आनन्द से; कच्चित्--क्या; ये--वे; च-- भी;शत्रुजितू--शत्रुजित; आदय:--आदि; कच्चित्--क्या; आस्ते--वे हैं; सुखम्-- अच्छी तरह; राम:--बलराम; भगवान् --भगवान्; सात्वताम्-भक्तों के; प्रभु:--रक्षक ।
क्या उग्रसेन जिसका पुत्र दुष्ट कंस था तथा उनका छोटा भाई अब भी जीवित हैं? क्याहृदीक तथा उसका पुत्र कृतवर्मा कुशल से हैं? क्या अक्रूर, जयन्त, गद, सारण तथा शत्रुजितप्रसन्न हैं ? भक्तों के रक्षक भगवान् बलराम कैसे हैं ?"
प्रद्युम्न: सर्ववृष्णीनां सुखमास्ते महारथ: ।
गम्भीररयोनिरुद्धो वर्धती भगवानुत ॥
३०॥
प्रद्युम्न:--प्रद्युम्न ( भगवान् कृष्ण के पुत्र ); सर्व--सभी; वृष्णीनाम्--वृष्णि-परिवार के सदस्यों का; सुखम्--सुख; आस्ते--हैं; महा-रथ:--महान् सेनापति; गम्भीर--गहराई से; रयः--दक्षता; अनिरुद्ध:--अनिरुद्ध ( कृष्ण का पौत्र ); वर्धते--बढ़ता है;भगवान्-- भगवान्; उत--अवश्य चाहिए।
वृष्णि-कुल के महान् सेनापति प्रद्युम्न कैसे हैं? वे प्रसन्न तो हैं? और भगवान् के पूर्ण अंशअनिरुद्ध ठीक से तो हैं?"
सुषेणश्चारुदेष्णश्व साम्बो जाम्बवतीसुत: ।
अन्ये च कार्णिणप्रवरा: सपुत्रा ऋषभादय: ॥
३१॥
सुषेण: --सुषेण; चारुदेष्ण: --चारुदेष्ण; च--तथा; साम्ब:--साम्ब; जाम्बवती-सुतः--जाम्बवती का पुत्र; अन्ये-- अन्य;च--भी; कार्णिणग-- भगवान् कृष्ण के पुत्र; प्रवरा:--सेना-नायक; स-पुत्रा:--अपने-अपने पुत्रों सहित; ऋषभ--ऋष भ;आदय:--त्यादि ।
कृष्ण के सभी सेना-नायक पुत्र यथा सुषेण, चारुदेष्ण, जाम्बवती-पुत्र साम्ब तथा ऋषभअपने-अपने पुत्रों समेत ठीक से तो रह रहे हैं ?"
तथैवानुचरा: शौरे: श्रुतदेवोद्धवादय: ।
सुनन्दनन्दशीर्षण्या ये चान्ये सात्वतर्षभा: ॥
३२॥
अपि स्वस्त्यासते सर्वे रामकृष्णभुजाश्रया: ।
अपि स्मरन्ति कुशलमस्माकं बद्धसौहदा: ॥
३३॥
तथा एव--इसी प्रकार; अनुचरा:--नित्य-संगी; शौरे:-- भगवान् श्रीकृष्ण के, यथा; श्रुतदेव-- श्रुतदेव; उद्धव-आदय:--उद्धवतथा अन्य; सुनन्द--सुनन्द; नन्द--नन्द; शीर्षण्या:-- अन्य नायक; ये--वे सब; च--तथा; अन्ये--अन्य; सात्वत--मुक्त जीव;ऋषभा:-- श्रेष्ठ पुरुष; अपि--यदि; स्वस्ति--कुशल से; आसते-हैं; सर्वे--वे सब; राम--बलराम; कृष्ण-- भगवान् कृष्ण;भुज-आश्रया:--के संरक्षण में; अपि--यदि भी; स्मरन्ति--स्मरण करते हैं; कुशलम्--कुशलता; अस्माकम्--हमारे; बद्ध-सौहदा:--शाश्वत मैत्री से बँधे हुए |
इसके अतिरिक्त, श्रुतदेव, उद्धव तथा अन्य, नन्द, सुनन्द तथा अन्य मुक्तात्माओं के नायक,जो भगवान् के नित्यसंगी हैं, भगवान् बलराम तथा कृष्ण द्वारा सुरक्षित तो हैं? वे सब अपना-अपना कार्य ठीक से चला रहें हैं न? वे जो हमसे नित्य मैत्री-पाश में बँधे हैं, हमारी कुशलता केबारे में पूछते तो हैं ?"
भगवानपि गोविन्दो ब्रह्मण्यो भक्तवत्सल: ।
कच्चित्पुरे सुधर्मायां सुखमास्ते सुहृदवृत: ॥
३४॥
भगवान्-- भगवान् कृष्ण; अपि--भी; गोविन्द: --जो गायों तथा इन्द्रियों को अनुप्राणित करते हैं; ब्रह्मण्य:--भक्तों या ब्राह्मणोंको समर्पित; भक्त-वत्सलः --भक्तों के प्रति स्नेहपूर्ण; कच्चित्--क्या; पुरे--द्वारकापुरी में; सुधर्मायाम्--पतवित्र सभा में;सुखम्--सुख; आस्ते--भोग करते हैं; सुहृत्-वृतः--मित्रों से घिरे हुए।
पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण, जो गायों, इन्द्रियों तथा ब्राह्मणों को आनन्द प्रदान करनेवाले हैं और अपने भक्तों के प्रति अत्यन्त वत्सल हैं, अपने मित्रों से घिर कर, द्वारकापुरी में पवित्रसभा का भोग तो कर रहे हैं ?"
मज्लाय च लोकानां क्षेमाय च भवाय च ।
आस्ते यदुकुलाम्भोधावाद्योनन्तसख: पुमान् ॥
३५॥
यद्वाहुदण्डगुप्तायां स्वपुर्या यदवोचिता: ।
क्रीडन्ति परमानन्दं महापौरुषिका इव ॥
३६॥
मड्ुलाय--कल्याण के लिए; च--भी; लोकानाम्--समस्त लोकों के; क्षेमाय--सुरक्षा के लिए; च--तथा; भवाय--उन्नति केलिए; च--भी; आस्ते--हैं; यदु-कुल-अम्भोधौ--यदुवंश रूपी सागर में; आद्यः--आदि; अनन्त-सख:--अनन्त ( बलराम ) केसाथ; पुमान्--परम भोक्ता; यत्--जिसको; बाहु-दण्ड-गुप्तायाम्--उनके बाहुओं से सुरक्षित होकर; स्व-पुर्यामू--अपनी नगरीमें; यदव:--यदुवंश के सदस्य; अर्चिता:--योग्यता के अनुसार; क्रीडन्ति-- आनन्द ले रहे हैं; परम-आनन्दम्--दिव्य आनन्द;महा-पौरुषिका:--वैकुण्ठ के वासी; इब--सहृशपरम भोक्ता आदि
भगवान् तथा जो मूल भगवान् अनन्त हैं, बलराम यदुवंश रूपी सागर मेंसमस्त ब्रह्माण्ड के कल्याण, सुरक्षा तथा उन्नति के लिए निवास कर रहे हैं।
और सारे यदुवंशीभगवान् की भुजाओं द्वारा सुरक्षित रहकर, वैकुण्ठवासियों की भाँति जीवन का आनन्द उठा रहेहैं।
"
यत्पादशुश्रूषणमुख्यकर्मणासत्यादयो द्वय्ष्रसहस्रयोषित: ।
निर्जित्य सड़्ख्ये त्रिदशांस्तदाशिषोहरन्ति वज्जायुधवल्लभोचिता: ॥
३७॥
यत्--जिसका; पाद--पैर; शुश्रूषण-- भोग; मुख्य--सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण; कर्मणा--कर्म के; सत्य-आदय:--सत्यभामाइत्यादि रानियाँ; द्वि-अष्ट-- आठ का दो गुना ( सोलह ); सहस्त्र--हजार; योषित:--स्त्रियाँ; निर्जित्य--दमन करके; सड्ख्ये--युद्ध में; त्रि-दशानू-- स्वर्ग के निवासियों को; तत्-आशिष:--देवताओं द्वारा भोग्य; हरन्ति--हर लेते हैं; वज़ञ-आयुध-वललभा--वज् के स्वामी की पत्नियाँ; उचिता:--योग्य ।
समस्त सेवाओं में सर्वाधिक महत्वपूर्ण, भगवान् के चरणकमलों की शुश्रूषा करने मात्र से,द्वारका-स्थित सत्यभामा के अधीक्षण में रानियों ने भगवान् को प्रेरित किया कि वे देवताओं कोजीत लें।
इस प्रकार रानियाँ उन वस्तुओं का भोग कर रही हैं, जो वज्ज के नियंत्रक की पत्नियोंद्वारा भोग्य हैं।
"
यद्वाहुदण्डाभ्युदयानुजीविनोयदुप्रवीरा ह्मकुतोभया मुहु: ।
अधिक्रमन्त्यडूप्रिभिराहतां बलात्सभां सुधर्मा सुरसत्तमोचिताम् ॥
३८॥
यत्--जिसके; बाहु-दण्ड--बाँहों के द्वारा; अभ्युदय--प्रभावित; अनुजीविन:--सदैव जीवित रहकर; यदु--यदुबंशी लोग;प्रवीरा:--महान् वीर; हि अकुतोभया:--सभी प्रकार से निर्भय; मुहुः--निरन्तर; अधिक्रमन्ति--पार करते हैं; अद्धप्रिभि:--पैरसे; आहताम्--लाये गये; बलात्--बलपूर्वक; सभाम्--सभाभवन को; सुधर्माम्--सुधर्मा नामक; सुर-सत्-तम--देवताओं मेंश्रेष्ठ; उचिताम्--योग्य ।
बड़े-बड़े यदुवंशी वीर भगवान् श्रीकृष्ण की बाहुओं द्वारा सुरक्षित रहकर सभी प्रकार सेनिर्भय बने रहते हैं।
अतएव उनके चरण उस सुधर्मा के सभा-भवन में पड़ते रहते हैं, जो सर्वश्रेष्ठदेवताओं के लिए है, किन्तु जो उनसे छीन लिया गया था।
"
कचिवत्तेडनामयं तात भ्रष्टतेजा विभासि मे ।
अलब्धमानोवज्ञात: कि वा तात चिरोषित: ॥
३९॥
कच्चित्--कहीं; ते--तुम्हारा; अनामयम्--स्वास्थ्य ठीक तो है; तात--मेरे भ्राता; भ्रष्ट--विहीन; तेजा:--कान्ति; विभासि--प्रतीत होते हो; मे--मुझको; अलब्ध-मान:--सम्मान न पाया हुआ; अवज्ञात:--उपेक्षित; किम्--क्या; वा--अथवा; तात--मेरेभ्राता; चिरोषित:--दीर्घकाल तक रहने के कारण
मेरे भाई अर्जुन, मुझे बताओ कि तुम्हारा स्वास्थ्य ठीक तो है? ऐसा लगता है कि तुम्हारेशरीर की कान्ति खो गई है।
क्या द्वारका में दीर्घकाल तक रहने से, अन्यों द्वारा असम्मान तथाउपेक्षा दिखलाने से ऐसा हुआ है ?"
कच्चिन्नाभिहतो भावै: शब्दादिभिरमड़लै: ।
न दत्तमुक्तमर्थिभ्य आशया यत्प्रतिश्रुतम् ॥
४०॥
कच्चितू--कहीं; न--नहीं; अभिहतः--सम्बोधित, कहा गया; अभावै: --अमित्रतापूर्ण; शब्द-आदिभि:--शब्दों आदि से;अमडूलै:--अशुभ; न--नहीं; दत्तम्--दान में दिया गया; उक्तम्--कहा गया; अर्थिभ्य:--याचक को; आशया--आशा से;यतू--जो; प्रतिश्रुतम्--दिये जाने के लिए वचन-बद्ध
कहीं किसी ने तुम्हें अपमानजनक शब्द तो नहीं कहे ? या तुम्हें धमकाया तो नहीं ? कया तुमयाचक को दान नहीं दे सके ? या किसी से अपना वचन नहीं निभा पाये ?"
कच्चित्त्वं ब्राह्मणं बाल॑ गां वृद्ध रोगिणं स्त्रियम् ।
शरणोपसृतं सत्त्वं नात्याक्षी: शरणप्रद: ॥
४१॥
कच्चित्-कहीं; त्वम्-तुम; ब्राह्मणम्--ब्राह्मणों को; बालम्--बालक को; गाम्--गाय को; वृद्धम्--बूढ़े व्यक्ति को;रोगिणम्--रोगी को; स्त्रियम्--स्त्री को; शरण-उपसूतम्--रक्षा के लिए आये हुए को; सत्त्वम्--किसी जीव को; न--क्या;अत्याक्षी:--शरण नहीं दी हो; शरण-प्रद:--जो शरण का पात्र रहा है।
तुम तो सदा से सुपात्र जीवों के यथा ब्राह्मणों, बालकों, गायों, स्त्रियों तथा रोगियों के रक्षकरहे हो।
क्या तुम उनके शरण माँगे जाने पर उन्हें शरण नहीं दे सके ?"
कचिवत्त्वं नागमोगम्यां गम्यां वासत्कृतां ख्रियम् ।
पराजितो वाथ भवान्नोत्तमैर्नासमै: पथि ॥
४२॥
कच्चित्--कहीं; त्वम्--तुमने; न--नहीं; अगम: --सम्पर्क किया है; अगम्याम्--दुश्नरित्र; गम्याम्--स्वीकार्य; वा-- अथवा;असतू-कृताम्--अनुचित व्यवहार; स्त्रियम्--स्त्री से; पपजित:--हराया हुआ; वा--अथवा; अथ--अन्तत:; भवानू--तुम;न--न तो; उत्तमैः --उच्चतर शक्ति द्वारा; न--नहीं; असमै:--समान धर्म वाले द्वारा; पथि--मार्ग में |
क्या तुमने दुश्चरित्र स्त्री से समागम किया है अथवा सुपात्र स्त्री के साथ तुमने भद्र व्यवहार नहीं किया? अथवा तुम मार्ग में किसी ऐसे व्यक्ति के द्वारा पराजित किये गये हो, जो तुमसेनिकृष्ट है या तुम्हारे समकक्ष हो ?"
अपि स्वित्पर्यभुड्क्थास्त्वं सम्भोज्यान् वृद्धबालकान् ।
जुगुप्सितं कर्म किद्चित्कृतवान्न यदक्षमम् ॥
४३॥
अपि स्वितू--यदि ऐसा हो तो; पर्य--एक ओर छोड़कर; भुड्क्था:--खाया है; त्वमू--तुमने; सम्भोज्यान्--साथ-साथ खाने केयोग्य; वृद्ध-वृद्ध पुरुषों को; बालकान्--बच्चों को; जुगुप्सितम्-गर्हित; कर्म--काम; किश्जित्--कुछ; कृतवान्--तूमनेकिया होगा; न--नहीं; यत्--जो; अक्षमम्--जिसे क्षमा न किया जा सके ।
क्या तुमने उन वृद्धों तथा बालकों की परवाह नहीं की, जो तुम्हारे साथ भोजन करने केयोग्य थे? क्या उन्हें छोड़कर तुमने अकेले भोजन किया है? कया तुमने कोई अक्षम्य गलती कीहै, जो निन्दनीय मानी जाती है ?"
कच्िवत् प्रेष्ठटममेनाथ हृदयेनात्मबन्धुना ।
शून्योस्मि रहितो नित्यं मन्यसे तेन्यथा न रुक् ॥
४४॥
कच्चित्--कहीं; प्रेष्ट-तमेन--सर्वाधिक प्रिय को; अथ--मेरा भाई अर्जुन; हृदयेन--अत्यन्त घनिष्ठ; आत्म-बन्धुना--अपने मित्रकृष्ण से; शून्य: --शून्य; अस्मि--हूँ; रहित:--खोकर; नित्यम्--सदा के लिए; मन्यसे--तुम सोचते हो; ते--तुम्हारा;अन्यथा--अन्यथा; न--कभी नहीं; रुकू--मानसिक ताप।
अथवा कहीं ऐसा तो नहीं है कि तुम इसलिए रिक्त अनुभव कर रहे हो, क्योंकि तुमने अपनेघनिष्ठ मित्र भगवान् कृष्ण को खो दिया हो ? हे मेरे भ्राता अर्जुन, तुम्हारे इतने हताश होने कामुझे कोई अन्य कारण नहीं दिखता।
"
अध्याय पंद्रह: पांडव समय पर सेवानिवृत्त हो गए
1.15एवं कृष्णसखः कृष्णो क्षात्रा राजा विकल्पितः।
नानाशैकास्पदम रूप॑कृष्णविश्लेषक्शितः ॥
१॥
सूत उवाचएवं कृष्णसखः कृष्णो क्षात्रा राजा विकल्पितःनानाशैकास्पदम रूप॑ं कृष्णविश्लेषकशितः सूतः उबाच--सूत गोस्वामी ने कहा; एवम्--इस प्रकार; कृष्ण-सखः:--कृष्ण का विख्यात मित्र; कृष्ण: --अर्जुन; भ्रात्रा--अपने बड़े भाई; राज्ञा--राजा युधिष्टिर द्वारा; विकल्पित:--सोचा गया; नाना--विविध; शट्जा-आस्पदम्--अनेक संशयों परआधारित; रूपम्--रूप; कृष्ण--भगवान् श्रीकृष्ण की; विश्लेष--वियोग की भावना से; कर्शित:--अत्यन्त दुखी |
सूत गोस्वामी ने कहा : भगवान् कृष्ण का विख्यात मित्र अर्जुन, महाराज युथ्चिष्टिर की सशंकितजिज्ञासाओं के अतिरिक्त भी, कृष्ण के वियोग की प्रबल अनुभूति के कारण शोक-संतप्त था।
"
शोकेन शुष्यद्वदनहृत्सरोजो हतप्रभ: ।
विभुं तमेवानुस्मरन्नाशक्नोत्प्रतिभाषितुम् ॥
२॥
शोकेन--विरह से; शुष्यत्-वदन--सूखता मुँह; हत्-सरोज:--कमल-सहश हृदय; हत--विहीन; प्रभ:--शारीरिक कान्ति;विभुम्--परम; तम्-- भगवान् कृष्ण को; एब--निश्चय ही; अनुस्मरन्-- भीतर ही भीतर सोचते हुए; न--नहीं; अशक्नोत्--समर्थ हो सका; प्रतिभाषितुम्--ठीक से उत्तर देने के लिए
शोक से अर्जुन का मुँह तथा कमल-सहश हृदय सूख चुके थे, अतएव उसकी शारीरिक कान्तिचली गई थी।
अब भगवान् का स्मरण करने पर, वह उत्तर में एक शब्द भी न बोल पाया।
"
कृच्छेण संस्तभ्य शुच: पाणिनामृज्य नेत्रयो: ।
परोक्षेण समुन्नद्धप्रणयौत्कण्ठ्यकातर: ॥
३॥
कृच्छेण--बड़ी कठिनाई से; संस्तभ्य--वेग को रोककर; शुच्ः--विरह के; पाणिना--अपने हाथों से; आमृज्य--पोंछते हुए;नेत्रयो:--आँखों को; परोक्षेण--दृष्टि से दूर होने के कारण; समुन्नद्ध--अत्यधिक; प्रणय-औत्कण्ठ्य--स्नेह का उत्सुकतापूर्वकस्मरण करते हुए; कातर:--व्याकुल
उसने बड़ी कठिनाई से आँखों में भरे हुए शोकाश्रुओं को रोका।
वह अत्यन्त दुखी था,क्योंकि भगवान् कृष्ण उसकी दृष्टि से ओझल थे और वह उनके लिए अधिकाधिक स्नेह काअनुभव कर रहा था।
"
सख्यं मैत्रीं सौहदं च सारथ्यादिषु संस्मरन् ।
नृपमग्रजमित्याह बाष्पगद्गदया गिरा ॥
४॥
सख्यम्--शुभचिन्तन; मैत्रीम्-- आशीर्वाद; सौहदम्--घनिष्ठतापूर्वक सम्बन्धित; च-- भी; सारथ्य-आदिषु--सारथी बनने आदिमें; संस्मरन्--इन सबों को स्मरण करते हुए; नृपम्--राजा से; अग्रजम्--बड़ा भाई; इति--इस प्रकार; आह--कहा; बाष्प--उसासें भरते; गदगदया--अभिभूत होकर; गिरा--वाणी से |
भगवान् कृष्ण को तथा उनकी शुभकामनाओं, आशीषों, घनिष्ठ पारिवारिक सम्बन्ध एवंउनके रथ हाँकने का स्मरण करके, अर्जुन का गला रुँध आया और वह भारी साँस लेता हुआबोलने लगा।
"
अर्जुन उवाचवद्चितोहं महाराज हरिणा बन्धुरूपिणा ।
येन मेपहतं तेजो देवविस्मापनं महत् ॥
५॥
अर्जुन: उवाच-- अर्जुन ने कहा; वश्चितः--त्यक्त; अहम्--मैं; महा-राज--हे राजा; हरिणा-- भगवान् द्वारा; बन्धु-रूपिणा--घनिष्ठ मित्र रूपी; येन--जिससे; मे--मेरा; अपहतम्--छीना गया है; तेज:--पराक्रम; देव--देवता; विस्मापनम्--आश्चर्यजनक; महत्--अत्यधिक प्रबल।
अर्जुन ने कहा : हे राजन, मुझे अपना घनिष्ठ मित्र माननेवाले भगवान् हरि ने मुझे अकेलाछोड़ दिया है।
इस तरह मेरा प्रबल पराक्रम, जो देवताओं तक को चकित करनेवाला था, अबमुझमें नहीं रह गया है।
"
यस्य क्षणवियोगेन लोको ह्वप्रियदर्शन: ।
उक्थेन रहितो होष मृतक: प्रोच्यते यथा ॥
६॥
यस्य--जिसके; क्षण--एक क्षण; वियोगेन--वियोग से; लोकः--सारे ब्रह्माण्ड; हि--निश्चय ही; अप्रिय-दर्शन:--प्रत्येकवस्तु प्रतिकूल लगती है; उक्थेन--जीवन से; रहित:--विहीन; हि--निश्चय ही; एष:--ये सारे शरीर; मृतक:--शव; प्रोच्यते--कहे जाते हैं; यथा--जिस तरह
मैंने अभी-अभी उन्हें खोया है, जिनके क्षणमात्र वियोग से सारे ब्रह्माण्ड प्रतिकूल तथा शून्यहो जायेंगे, जिस तरह प्राण के बिना शरीर।
"
यत्संश्रयाद् द्रुपदगेहमुपागतानांराज्ञां स्वयंवरमुखे स्मरदुर्मदानाम् ।
तेजो हतं खलु मयाभिहतश्च मत्स्य:सज्जीकृतेन धनुषाधिगता च कृष्णा ॥
७॥
यत्--जिसके कृपामय; संश्रयात्--बल से; द्रपद-गेहम्--राजा द्रुपद के महल में; उपागतानाम्--सभी एकत्र; राज्ञामू--राजाओंका; स्वयंवर-मुखे--स्वयंवर के अवसर पर; स्मर-दुर्मदानाम्--समस्त कामुक विचारवालों का; तेज:--बल; हतम्--हरा गया;खलु--मानो; मया--मेरे द्वारा; अभिहतः--छेदा गया; च--भी; मत्स्य:--मछली का निशाना; सज्जी-कृतेन--धनुष तैयारकरके; धनुषा--उस धनुष से; अधिगता--प्राप्त किया; च-- भी; कृष्णा--द्रौपदी |
उनकी कृपामयी शक्ति से ही मैं उन समस्त कामोन्मत्त राजकुमारों को परास्त कर सका, जोराजा द्रुपद के महल में स्वयंवर के अवसर पर एकत्र हुए थे।
अपने धनुषबाण से मैं मत्स्य लक्ष्यका भेदन कर सका और इस प्रकार द्रौपदी का पाणिग्रहण कर सका।
"
यत्सन्रिधावहमु खाण्डवमग्नयेदा-मिन्रं च सामरगणं तरसा विजित्य ।
लब्धा सभा मयकृताद्धुतशिल्पमायादिग्भ्योहरत्नुपतयो बलिमध्वरे ते ॥
८॥
यत्--जिसके; सन्निधौ--पास में होने से; अहम्--मैंने; उ--आश्चर्यवाचक शब्द; खाण्डवम्--स्वर्ग के राजा इन्द्र का सुरक्षितबन; अग्नये--अग्निदेव को; अदाम्-- प्रदान किया; इन्द्रम्--इन्द्र को; च-- भी; स--सहित; अमर-गणम्--देवताओं को;तरसा--कौशल के साथ; विजित्य--जीतकर; लब्धा--प्राप्त करके; सभा--सभा भवन; मय-कृता--मय द्वारा निर्मित;अद्भुत--अत्यन्त अद्भुत; शिल्प--कला तथा कारीगरी; माया--शक्ति; दिग्भ्य:--सभी दिशाओं से; अहरन्--एकत्र;नृपतय:--सारे राजकुमार; बलिम्--भेंटें; अध्वरे--ले आये; ते--आप।
चूँकि वे मेरे निकट थे, अतएव मेरे लिए अत्यन्त कौशलपूर्वक स्वर्ग के शक्तिशाली राजाइन्द्रदेव को उनके देव-पार्षदों सहित जीत पाना सम्भव हो सका और इस तरह अग्निदेव खाण्डववन को विनष्ट कर सके।
उन्हीं की कृपा से, मय नामक असुर को जलते हुए खाण्डव बन सेबचाया जा सका।
इस तरह हम अत्यन्त आश्चर्यमयी शिल्प-कला वाले सभाभवन का निर्माणकर सके, जहाँ राजसूय-यज्ञ के समय सारे राजकुमार एकत्र हो सके और आपको आदर प्रदानकर सके।
"
यत्तेजसा नृपशिरोझ्ुप्रिमहन्मखार्थम्आर्योअ्नुजस्तव गजायुतसत्त्ववीर्य: ।
तेनाहता: प्रमथनाथमखाय भूपायन्मोचितास्तदनयन्बलिमध्वरे ते ॥
९॥
यत्--जिसके; तेजसा-- प्रभाव से; नृप-शिर:-अड्प्रिमू--जिसके पाँव राजाओं के सिरों से अलंकृत हों; अहनू--मारा हुआ;मख-अर्थम्--यज्ञ हेतु; आर्य:--सम्माननीय, श्रेष्ठ; अनुज:--छोटा भाई; तब--आपका; गज-अयुत--दस हजार हाथी; सत्त्व-वीर्य:--शक्तिशाली जीवन; तेन--उसके द्वारा; आहता:--एकत्रित; प्रमथ-नाथ-- भूतों के देवता ( महाभेरव ); मखाय--यज्ञके लिए; भूषपा:--राजा; यत्-मोचिता:--जिसके द्वारा वे छोड़े गये; तत्-अनयनू--वे सब लाये; बलिमू--कर; अध्वरे--भेंटकिया; ते--आपको ।
दस हजार हाथियों की शक्ति रखनेवाले आपके छोटे भाई ने भगवान् की ही कृपा सेजरासंध का वध किया, जिसकी पादपूजा अनेक राजाओं द्वारा की जाती थी।
ये सारे राजाजरासंध के महाभेरव यज्ञ में बलि चढ़ाये जाने के लिए लाए गये थे, किन्तु उनको छुड़ा दियागया।
बाद में उन्होंने आपका आधिपत्य स्विकार किया।
"
पत्नयास्तवाधिमखक्लृप्तमहाभिषेक-श्लाधिष्ठचारुकबरं कितवै: सभायाम् ।
स्पृष्ट विकीर्य पदयो: पतिताश्रुमुख्यायस्तत्स्त्रियोकृतहतेशविमुक्तकेशा: ॥
१०॥
पल्या: --पत्नी का; तब--आपकी; अधिमख--विशाल यज्ञोत्सव के समय; क्ल॒प्त--वस्त्राभूषित; महा-अभिषेक-- अच्छी तरहपवित्र की गई; एलाधिष्ट--इस प्रकार महिमावान; चारु--सुन्दर; कबरम्--बालों की चोटी; कितवै:--दुष्टों के द्वारा;सभायाम्--सभा में; स्पृष्टभू--पकड़ी जाने पर; विकीर्य--खोलकर; पदयो: --पैरों पर; पतित-अश्रु-मुख्या:--आँखों में अश्रुभरकर चरणों में गिरी हुई का; यः--वह; तत्--उनकी; स्त्रिय:--पत्नियाँ; अकृत--हो गई; हत-ईश--पतिविहीन; विमुक्त-केशा:--खुले हुए बाल।
उन्होंने ही उन दुष्टों की पत्नियों के बाल खोल दिये, जिन्होंने आपकी महारानी ( द्रौपदी ) कीउस चोटी को खोलने का दुस्साहस किया था, जो महान् राजसूय-यज्ञ अनुष्ठान के अवसर परसुन्दर ढंग से सजाई तथा पवित्र की गई थी।
उस समय वह अपनी आँखों में आँसू भर करभगवान् कृष्ण के चरणों पर गिर पड़ी थी।
"
यो नो जुगोप वन एत्य दुरन्तकृच्छाद्दुर्वाससोरिरचितादयुताग्रभुग् यः ।
शाकान्नशिष्टमुपयुज्य यतख्रिलोकींतृप्ताममंस्त सलिले विनिमग्नसड्ड: ॥
११॥
यः--जिसने; न:--हमको; जुगोप--सुरक्षा प्रदान की; वने--वन में; एत्य--प्रवेश करके; दुरन््त-- भयानक ; कृच्छात्--संकटसे; दुर्वाससः --दुर्वासा मुनि के; अरि--शत्रु द्वारा; रचितात्--बनाया गया; अयुत--दस हजार; अग्र-भुक्--पहले खानेवाला;यः--वह व्यक्ति; शाक-अन्न-शिष्टमू--बचा हुआ भोजन, जूठन; उपयुज्य--स्वीकार करके; यतः--क्योंकि; त्रि-लोकीम्--तीनों संसारों को; तृप्ताम्--संतुष्ट; अमंस्त--मन में सोचा; सलिले--जल के भीतर; विनिमग्न-सद्गभः--सभी जल में विलीनहुए।
हमारे वनवास के समय, दस हजार शिष्यों के साथ भोजन करनेवाले दुर्वासा मुनि ने हमेंभयावह संकट में डालने के लिए, हमारे शत्रुओं के साथ मिलकर चाल चली।
उस समय उन्होंने(कृष्ण ने ) केवल जूठन ग्रहण करके हमें बचाया था।
इस तरह उनके भोजन ग्रहण करने सेनदी में स्नान करती मुनि-मण्डली ने अनुभव किया कि वह भोजन से पूर्ण रूप से सन्तुष्ट हो गईऔर तीनों लोक भी सम्तुष्ट हो गये।
"
यत्तेजसाथ भगवान् युधि शूलपाणि-विस्मापित: सगिरिजोस्त्रमदान्निजं मे ।
अन्येडपि चाहममुनैव कलेवरेणप्राप्तो महेन्द्रभवने महदासनार्धम् ॥
१२॥
यत्--जिसके; तेजसा--प्रभाव से; अथ--एक समय; भगवान्--ई श्वर ( शिवजी ); युधि--युद्ध में; शूल-पाणि: --त्रिशूलधारी;विस्मापित:--आश्चर्यचकित; स-गिरिज:--हिमालय की पुत्री समेत; अस्त्रम्--अस्त्र; अदातू--दिया; निजम्-- अपना; मे--मुझको; अन्ये अपि-- और दूसरे भी; च--तथा; अहम्--मैं; अमुना--उनके ; एव--निश्चय ही; कलेवरेण--शरीर से; प्राप्त:--प्राप्त; महा-इन्द्र-भवने--इन्द्रदेव के घर में; महत्--महान्; आसन-अर्धम्--आधा ऊँचा आसन।
यह उन्हीं का प्रताप था कि मैं एक युद्ध में शिवजी तथा उनकी पत्नी पर्वतराज हिमालय कीकन्या को आश्चर्यचकित करने में समर्थ हुआ।
इस तरह वे ( शिवजी ) मुझ पर प्रसन्न हुए औरउन्होंने मुझे अपना निजी अस्त्र प्रदान किया।
अन्य देवताओं ने भी मुझे अपने-अपने अस्त्र भेंटकिये और इसके अतिरिक्त, मैं इसी वर्तमान शरीर से स्वर्गलोक पहुँच सका, जहाँ मुझे आधे ऊँचेआसन पर बैठने दिया गया।
"
तत्रैव मे विहरतो भुजदण्डयुग्मं गाण्डीवलक्षणमरातिवधाय देवा: ।
सेन्द्रा: श्रिता यदनुभावितमाजमीढ तेनाहमद्य मुषित: पुरुषेण भूम्ना ॥
१३॥
तत्र--उस स्वर्गलोक में; एब--निश्चय ही; मे--मैं स्वयं; विहरत:--अतिथि के रूप में रहते हुए; भुज-दण्ड-युग्मम्--अपनीदोनों भुजाओं को; गाण्डीव--गांडीव धनुष; लक्षणम्--चिह्ृ; अराति--निवातकवच नामक असुर; वधाय--मारने के लिए;देवा:--सारे देवता; स--सहित; इन्द्रा:--स्वर्ग का राजा, इन्द्र; अ्ता:--शरण लेकर; यत्--जिसके; अनुभावितम्--शक्तिमानहोने के लिए सम्भव; आजमीढ--हे राजा आजमीढ के वंशज; तेन--उसके द्वारा; अहम्--मैं; अद्य--इस समय; मुधित:--रहित; पुरुषेण--व्यक्ति से; भूम्ना--परम।
जब मैं स्वर्गलोक में अतिथि के रूप में कुछ दिन रुका रहा, तो इन्द्रदेव समेत स्वर्ग केसमस्त देवताओं ने निवातकवच नामक असुर को मारने के लिए गाण्डीव धनुष धारणकरनेवाली मेरी भुजाओं का आश्रय लिया था।
हे आजमीढ के वंशज राजा, इस समय मैं पूर्णपुरुषोत्तम भगवान् से विहीन हो गया हूँ, जिनके प्रभाव से मैं इतना शक्तिशाली था।
"
यद्वान्धव: कुरुबलाब्धिमनन्तपार-मेको रथेन ततरेहमतीर्यसत्त्वम् ।
प्रत्याहतं बहु धनं च मया परेषांतेजास्पदं मणिमयं च हतं शिरोभ्य: ॥
१४॥
यत्-बान्धव:--जिनकी मैत्री मात्र से; कुरू-बल-अब्धिम्--कुरुओं की सैन्य-शक्ति-रूपी सागर को; अनन्त-पारम्--दु्लघ्य;एकः--एकाकी; रथेन--रथ पर आरूढ़ होकर; ततरे--पार करने में समर्थ था; अहम्--मैं; अतीर्य--अजेय; सत्त्वम्--अस्तित्व; प्रत्याहतम्--वापस ले लिया; बहु--अत्यधिक; धनमू--धन; च-- भी; मया--मेरे द्वारा; परेषामू-शत्रु का; तेज-आस्पदम्--तेज ( प्रकाश ) का स्त्रोत; मणि-मयम्--मणियों से अलंकृत; च-- भी; हतम्--बलपूर्वक लाया गया; शिरोभ्य: --उनके सिरों से।
कौरवों की सैन्यशक्ति उस समुद्र की तरह थी, जिसमें अनेक अजेय प्राणी रहते थे।
फलतःवह दु्लघ्य थी।
किन्तु उनकी मित्रता के कारण, मैं रथ पर आरूढ़ होकर, उसे पार कर सका।
यह उन्हीं की कृपा थी कि मैं गौवों को वापस ला सका और बलपूर्वक राजाओं के तमाम मुकुटएकत्र कर सका, जो समस्त तेज के स्त्रोत रत्नों से जटित थे।
"
यो भीष्मकर्णगुरुशल्यचमूष्वदभ्र-राजन्यवर्यरथमण्डलमण्डितासु ।
अग्रेचरो मम विभो रथयूथपाना-मायुर्मनांसि च हशा सह ओज आर्च्छत् ॥
१५॥
यः--केवल वे ही; भीष्य-- भीष्म; कर्ण--कर्ण ; गुरु--द्रोणाचार्य; शल्य--शल्य; चमूषु--व्यूह के मध्य; अदभ्र--विशाल;राजन्य-वर्य--बड़े-बड़े राजकुमार; रथ-मण्डल--रथों की श्रृंखला; मण्डितासु--अलंकृत; अग्रे चर:--आगे-आगे जाते हुए;मम--मेरा; विभो--हे राजा; रथ-यूथ-पानाम्--सारे रथी; आयु:--उप्र अथवा सकाम कर्म; मनांसि--मानसिक उधल-पुथल;च--भी; दशा--चितवन से; सह:--शक्ति; ओज: --पराक्रम; आर्च्छत्--वापस ले लिया।
एकमात्र वे ही थे जिन्होंने सबों की आयु छीन ली थी और जिन्होंने युद्धभूमि में भीष्म, कर्ण,द्रोण, शल्य, इत्यादि कौरवों द्वारा निर्मित सैन्य-व्यूह की कल्पना तथा उत्साह को हर लिया था।
उन सबकी योजना अत्यन्त पटु थी और आवश्यकता से अधिक थी, लेकिन उन्होंने ( भगवान् श्रीकृष्ण ने ) आगे बढ़कर यह सब कर दिखाया।
"
यद्दोःषु मा प्रणिहितं गुरुभीष्मकर्ण-नप्तृत्रिगर्तशल्यसैन्धवबाहिकाद: ।
अख्राण्यमोघमहिमानि निरूपितानिनोपस्पृशु्न्हरिदासमिवासुराणि ॥
१६॥
यत्--जिसके अन्तर्गत; दोःषु--हथियारों की सुरक्षा; मा प्रणिहितम्--स्वयं मेरे स्थित होने पर; गुरु--द्रोणाचार्य; भीष्म --भीष्म; कर्ण--कर्ण; नप्तृ-- भूरिश्रवा; त्रिगर्त--राजा सुशर्मा; शल्य--शल्य; सैन्धव--राजा जयद्रथ; बाहिक--महाराज शान्तनु( भीष्म के पिता ) का भाई; आद्यि:--इत्यादि; अस्त्राणि--अस्त्रों को; अमोघ--- अचूक; महिमानि--अत्यन्त शक्तिशाली;निरूपितानि--व्यवहत; न--नहीं; उपस्पृशु: --स्पर्श किया; नृहरि-दासम्--नृसिंह देव का सेवक ( प्रहाद ); इब--सहृश;असुराणि--असुरों द्वारा प्रयुक्त हथियार |
भीष्म, द्रोण, कर्ण, भूरिश्रवा, सुशर्मा, शल्य, जयद्रथ तथा बाहिक जैसे बड़े-बड़ेसेनापतियों ने अपने-अपने अचूक हथियार मुझ पर चलाये, लेकिन उनकी ( भगवान् कृष्ण की )कृपा से सब वे मेरा बाल बाँका भी न कर पाये।
इसी प्रकार भगवान् नृसिंह देव के परम भक्तप्रह्माद महाराज असुरों द्वारा प्रयुक्त समस्त शस्त्रास्त्रों से अप्रभावित रहे ।
"
सौत्ये वृतः कुमतिनात्मद ईश्वरो मे यत्पादपद्ममभवाय भजन्ति भव्या: ।
मां श्रान्तवाहमरयो रथिनो भुविष्ठंन प्राहरन् यदनुभावनिरस्तचित्ता: ॥
१७॥
सौत्ये--सारथी के विषय में; वृतः--लगा हुआ; कुमतिना--बुरी चेतना के कारण; आत्म-दः --उद्धार करनेवाला; ईश्वर: --परमेश्वर; मे--मेरा; यत्--जिसको; पाद-पद्ममू--चरणकमल को; अभवाय--मोक्ष के मामले में; भजन्ति--सेवा करते हैं;भव्या:--बुद्धिमान पुरुष; माम्--मुझको; श्रान्त-प्यासा; वाहम्-मेरे घोड़े; अरय:--शत्रु; रधिन:--महान् सेनापति; भुवि-प्रम-- भूमि पर खड़े हुए; न--नहीं; प्राहरन्-- आक्रमण किया; यत्--जिसकी; अनुभाव--कृपा; निरस्त--अनुपस्थित होने से;चित्ता:--मन ।
यह उन्हीं की कृपा थी कि जब मैं अपने प्यासे घोड़ों के लिए जल लेने रथ से नीचे उतरा था,तो मेरे शत्रुओं ने मुझे मारने की परवाह न की।
यह तो अपने प्रभु के प्रति मेरा असम्मान ही थाकि मैंने उन्हें अपना सारथी बनाने का दुस्साहस किया, क्योंकि मोक्ष प्राप्त करने के लिए श्रेष्ठपुरुष उनकी पूजा तथा सेवा करते हैं।
"
नर्माण्युदाररुचिरस्मितशोभितानिहे पार्थ हेर्जुन सखे कुरुनन्दनेति ।
सझल्पितानि नरदेव हृदिस्पृशानिस्मर्तुर्लुठन्ति हृदयं मम माधवस्य ॥
१८॥
नर्माणि--परिहास में बातचीत; उदार--खुलकर बातें करनेवाले; रुचिर--अच्छी लगनेवाली; स्मित-शोभितानि--हँसीले चेहरेसे अलंकृत; हे--हे, अरे ( सम्बोधन का चिह्न ); पार्थ--हे पृथा-पुत्र; हे--हे; अर्जुन--अर्जुन; सखे--मित्र; कुरू-नन्दन--कुरुवंश के पुत्र; इति--इस प्रकार; सञ्लल्पितानि--ऐसी बातचीत; नर-देव--हे राजा; हृदि--हृदय में; स्पृशानि--स्पर्श करती;स्मर्तु:--उन्हें स्मरण करके; लुठन्ति--अभिभूत करती हैं; हृदयम्--हृदय तथा आत्मा को; मम--मेरे; माधवस्य--माधव(कृष्ण ) काहे राजनू, उनके परिहास तथा उनकी मुक्त बातें अत्यन्त सुहावनी तथा सौंदर्य से अलंकृतहोती थीं।
'हे पार्थ, हे सखा, हे कुरुनन्दन' कहकर उनका पुकारना तथा उनकी समस्तसहदयता की अब मुझे याद आ रही है और मैं अभिभूत हूँ।
"
शय्यासनाटनविकत्थनभोजनादि-प्वैक्याद्ययस्य ऋतवानिति विप्रलब्ध: ।
सख्यु: सखेव पितृवत्तनयस्य सर्वसेहे महान्महितया कुमतेरघं मे ॥
१९॥
शय्या--एक ही बिस्तर पर सोना; आसन--एक ही आसन पर बैठना; अटन--साथ-साथ घूमना; विकत्थन--आत्मश्लाघा;भोजन--साथ-साथ खाना; आदिषु--इत्यादि में; ऐक्यात्--एकत्व होने से; वयस्य--हे मित्र; ऋतवान्--सत्यवादी; इति--इसप्रकार; विप्रलब्ध:--बुरा आचरण किया गया; सख्यु:--मित्र से; सखा इब--मित्र की भाँति; पितृवत्-पिता की भाँति;तनयस्य--बालक का; सर्वम्--सारे; सेहे--सह लेते; महान्--महान्; महितया--यश से; कुमते: --दुर्बुद्धि का; अधम्--अपराध; मे--मेरे
सामान्यतः हम दोनों साथ-साथ रहते और सोते, साथ-साथ बैठते और घूमने जाते।
और बहादुरी के कार्यों के लिए आत्म-प्रशंसा करते हुए कभी-कभी यदि कोई भूल होती, तो मैं उन्हेंयह कहकर चिढ़ाया करता था 'हे मित्र, तुम तो बड़े सत्यवादी हो।
उस समय भी जब उनकामहत्व घटता होता, वे परमात्मा होने के कारण, मेरी उटपटांग बातों को सह लेते थे और मुझेउसी प्रकार क्षमा कर देते थे जिस तरह एक सच्चा मित्र अपने सच्चे मित्र को या पिता अपने पुत्रको क्षमा कर देता है।
"
सोऊहं नृपेन्द्र रहित: पुरुषोत्तमेनसख्या प्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य: ।
अध्वन्युरुक्रमपरिग्रहमड़ रक्षन्गोपैरसद्धिरबलेव विनिर्जितोडस्मि ॥
२०॥
सः--वह; अहम्-मैं; नृप-इन्द्र--हे सम्राट; रहित:--विहीन; पुरुष-उत्तमेन--पर मे श्वर द्वारा; सख्या-- अपने मित्र द्वारा;प्रियेण--अपने सर्वाधिक प्रिय द्वारा; सुहदा--शुभचिन्तक द्वारा; हदयेन--हृदय तथा आत्मा से; शून्य:--शून्य, रहित;अध्वनि--हाल ही में; उरुक्रम-परिग्रहम्--सर्वशक्तिमान की पत्नियाँ; अड्भ--शरीर; रक्षन्--रक्षा करते हुए; गोपैः--ग्वालोंद्वारा; असद्धिः--नास्तिक, असभ्य, दुष्ट; अबला इब--निर्बल स्त्री की तरह; विनिर्जित: अस्मि--पराजित हो चुका हूँ।
हे राजनू, अब मैं अपने मित्र तथा सर्वाधिक प्रिय शुभचिन्तक पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् सेविलग हो गया हूँ, अतएवं मेरा हृदय हर तरह से शून्य-सा प्रतीत हो रहा है।
उनकी अनुपस्थिति में, जब मैं कृष्ण की तमाम पत्नियों की रखवाली कर रहा था, तो अनेक अविश्वस्त ग्वालों नेमुझे हरा दिया।
"
तट्ठै धनुस्त इषव: स रथो हयास्तेसोऊहं रथी नृपतयो यत आनमन्ति ।
सर्व क्षणेन तदभूदसदीशरिक्तंभस्मन्हुतं कुहकराद्धमिवोप्तमूष्याम् ॥
२१॥
तत्--वही; बै--निश्चय ही; धनुः--धनुष; ते इषवः--वही तीर; सः--वही; रथ:--रथ; हया: ते--वे ही घोड़े; सः अहम्-मैंवही अर्जुन हूँ; रथी--रथारूढ़ वीर; नृपतय: --सारे राजा; यतः--जिनको; आनमन्ति--नमस्कार किया करते थे; सर्वम्--सब;क्षणेन--एक क्षण भर में; तत्--वे सब; अभूत्--हो गये; असत्--व्यर्थ; ईश--ई श्वर के कारण; रिक्तम्--रिक्त होने से;भस्मन्--राख; हुतम्--घी की आहुति; कुहक-राद्धम्--जादूगरी से उत्पन्न धन; इब--सहश; उप्तम्--बोया हुआ; ऊष्याम्--बंजर भूमि में
मेरे पास वही गाण्डीव धनुष है, वे ही तीर हैं, उन्हीं घोड़ों के द्वारा खींचा जानेवाला वही रथहै और उन्हें इस्तेमाल करनेवाला मैं वही अर्जुन हूँ, जिसके सामने सारे राजा सिर झुकाया करतेथे।
किन्तु भगवान् कृष्ण की अनुपस्थिति में वे सब एक ही क्षण में शून्य हो गये हैं।
यह वैसा हीहै जैसे राख में घी की आहूति डालना, जादू की छड़ी से धन एकत्र करना या बंजर भूमि में बीजबोना।
"
राज॑स्त्वयानुपृष्टानां सुहृदां नः सुहृत्पुरे ।
विप्रशापविमूढानां निघ्नतां मुष्टिभिमिथ: ॥
२२॥
वारुणीं मदिरां पीत्वा मदोन्मथितचेतसाम् ।
अजानतामिवान्योन्यं चतु:पदञ्चावशेषिता: ॥
२३॥
राजनू--हे राजन; त्ववा--आपके द्वारा; अनुपृष्टानाम्--पूछे गये; सुहृदाम्-मित्रों तथा सम्बन्धियों का; नः--हमारे; सुहत्-पुरे--द्वारका नगरी में; विप्र--ब्राह्मण के; शाप--शाप से; विमूढानाम्--मूर्खो का; निध्नताम्--मारे हुओं का; मुष्टिभि: --लाठियों द्वारा; मिथ: --परस्पर; वारुणीम्--खमीर उठे चावल को; मदिराम्--शराब को; पीत्वा--पीकर; मद-उन्मधित--नशेमें आकर; चेतसाम्--मानसिक स्थिति का; अजानताम्--न जानते हुए; इब--सहृश; अन्योन्यम्--एक दूसरे को; चतु:--चार;पशञ्च--पाँच; अवशेषिता:--अब बचे हुए।
हे राजन, चूँकि आपने द्वारका नगरी के हमारे मित्रों तथा सम्बन्धियों के विषय में पूछा है,अतएव मैं आपको सूचित कर रहा हूँ कि वे सब ब्राह्मणों द्वारा शापित होकर, सड़े हुए चावलों सेबनी शराब पीकर उन्मत्त हो उठे और एक-दूसरे को न पहचानने के कारण लाठियाँ लेकरपरस्पर लड़ने लगे।
अब केवल चार-पाँच को छोड़कर शेष सभी मर चुके हैं।
"
प्रायेणेतद् भगवत ईश्वरस्य विचेष्टितम् ।
मिथो निघ्नन्ति भूतानि भावयन्ति च यन्मिथ: ॥
२४॥
प्रायेण एतत्--प्राय: यह; भगवत:-- भगवान् की; ई श्वरस्थ--ईश्वर की; विचेष्टितम्--इच्छा से; मिथ:--परस्पर; निध्नन्ति--मारते हैं; भूतानि--जीवों को; भावयन्ति--तथा पालते हैं; च-- भी; यत्--जिसका; मिथ:--परस्पर।
वास्तव में यह सब भगवान् की इच्छा के फलस्वरूप है कि कभी-कभी लोग एक दूसरे कोमार डालते हैं और कभी एक दूसरे की रक्षा करते हैं।
"
जलौकसां जले यद्वन्महान्तोदन्त्यणीयस: ।
दुर्बलान्बलिनो राजन्महान्तो बलिनो मिथ: ॥
२५॥
एवं बलिएऐटर्यदुभिर्महद्धिरितरान् विभु: ।
यदून्यदुभिरन्योन्यं भूभारान् सझहार ह ॥
२६॥
जलौकसाम्--जलचरों का; जले--जल में; यद्वत्--जिस तरह; महान्त:--बड़ा प्राणी; अदन्ति--निगल जाते हैं; अणीयस:--छोटा प्राणी; दुर्बलानू--दुर्बल को; बलिन:--बलवान; राजनू--हे राजन; महान्त:--सबसे बलवान; बलिन:--कम बली;मिथः--द्न्द्ध में; एवम्--इस तरह; बलिप्ठै:--सर्वाधिक बलवान द्वारा; यदुभि:--यदुवंशियों द्वारा; महद्धधिः--सर्वाधिकशक्तिशाली; इतरान्--सामान्य लोग; विभु:--पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्; यदून्--सारे यदुवंशियों; यदुभि: --यदुओं द्वारा;अन्योन्यम्--परस्पर; भू-भारानू--धरती का भार; सझ्हार--उतार दिया; ह--भूतकाल में ।
हे राजनू, जिस तरह समुद्र में बड़े तथा बलशाली जलचर, छोटे-मोटे तथा निर्बल जलचरोंको निगल जाते हैं, उसी तरह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ने भी धरती का भार हलका करने केलिए, निर्बल यदु को मारने के लिए बलशाली यदु को और छोटे यदु को मारने के लिए बड़े यदुको भिड़ा दिया है।
"
देशकालार्थयुक्तानि हत्तापोपशमानि च ।
हरन्ति स्मरतश्चित्तं गोविन्दाभिहितानि मे ॥
२७॥
देश--अवकाश; काल--समय; अर्थ--महत्ता; युक्तानि--से युक्त; हत्--हृदय; ताप-- जलन; उपशमानि--बुझाना; च--तथा; हरन्ति--आकर्षित कर रहे हैं; स्मरत:--स्मरण करने से; चित्तमू--मन को; गोविन्द--हर्ष के परम पुरुष; अभिहितानि--के द्वारा कहा गया; मे--मुझको
अब मैं भगवान् ( गोविन्द ) द्वारा मुझे दिये गये उपदेशों की ओर आकृष्ट हूँ, क्योंकि वे देश-काल की समस्त परिस्थितियों में हृदय की जलन को शान्त करनेवाले आदेशों से परिपूर्ण बनाएगये हैं।
"
सूत उवाचएवं चिन्तयतो जिष्णो: कृष्णपादसरोरुहम् ।
सौहार्देनातिगाढेन शान्तासीद्विमला मति: ॥
२८॥
सूतः उबाच--सूत गोस्वामी ने कहा; एबम्--इस प्रकार; चिन्तयतः--उपदेशों का चिन्तन करते हुए; जिष्णो:-- भगवान् के;कृष्ण-पाद--कृष्ण के चरण; सरोरुहम्--कमलों की तरह के; सौहार्देन--घनिष्ठ मित्रता से; अति-गाढेन--अत्यधिक घनिष्ठतामें; शान्ता--शान्त; आसीत्--हो गया; विमला--किसी भौतिक कल्मष का रंच भी नहीं; मतिः--मन
सूत गोस्वामी ने कहा : इस प्रकार भगवान् के उपदेश, जो अत्यधिक घनिष्ठ मित्रता में प्रदानकिये गये थे उसके विषय में सोचने में तथा उनके चरणकमलों का चिन्तन करने में तल्लीनअर्जुन का मन शान्त और समस्त भौतिक कल्मष से रहित हो गया।
"
वासुदेवाड्श्यनुध्यानपरिबृंहितरंहसा ।
भक्त्या निर्मथिताशेषकषायधिषणोऊर्जुन: ॥
२९॥
वबासुदेव-अद्झपध्नि-- भगवान् के चरणकमल; अनुध्यान--निरन्तर स्मरण करने से; परिबृंहित--विस्तीर्ण; रंहसा--अत्यन्त वेग से;भक्त्या--भक्ति से; निर्मधित--शान्त हुआ; अशेष---असीम; कषाय-- प्रहार; धिषण: -- धारणा; अर्जुन: --अर्जुन ।
अर्जुन द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों का निरन्तर स्मरण किये जाने से उसकी भक्तितेजी से बढ़ गई, जिसके फलस्वरूप उसके विचारों का सारा मैल दूर हो गया।
"
गीत॑ भगवता ज्ञानं यत् तत् सड्ग्राममूर्धनि ।
कालकर्मतमोरुद्धं पुनरध्यगमत् प्रभु; ॥
३०॥
गीतम्--उपदिष्ट; भगवता-- भगवान् द्वारा; ज्ञानमू-दिव्य ज्ञान; यत्--जो; तत्--वह; सड्ग्राम-मूर्थनि--युद्ध के बीच में;काल-कर्म--समय तथा कर्म; तम:-रुद्धम्--ऐसे अंधकार से घिरा; पुनः अध्यगमत्--पुनः स्मरण हो आया; प्रभुः--अपनीइन्द्रियों का स्वामी ।
भगवान् की लीलाओं तथा कार्यकलापों के कारण तथा उनकी अनुपस्थिति से ऐसा लगाकि अर्जुन भगवान् द्वारा दिये गये उपदेशों को भूल गया हो।
लेकिन, वास्तव में बात ऐसी न थीऔर वह पुनः अपनी इन्द्रियों का स्वामी बन गया।
"
विशोको ब्रह्मसम्पत्त्या सज्छिन्नद्वैतसंशय: ।
लीनप्रकृतिनैर्गुण्यादलिड्भत्वादसम्भव: ॥
३१॥
विशोक:--शोक से रहित; ब्रह्म-सम्पत्त्या--आध्यात्मिक सम्पत्ति के अधिकारी होने से; सउिछलन्न--पूर्ण रूप से कटकर; द्वैत-संशय:--द्वैत के संशय से; लीन--संलग्न; प्रकृति--भौतिक प्रकृति; नैर्गुण्यात्--अध्यात्म में रहने से; अलिड्डत्वात्-- भौतिकशरीर से विहीन होने के कारण; असम्भव:--जन्म तथा मृत्यु से मुक्त
आध्यात्मिक सम्पत्ति से युक्त होने के कारण उसके द्वैत के संशय पूर्ण रूप से छिन्न हो गये।
इस तरह वह भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों से मुक्त होकर अध्यात्म में स्थित हो गया।
अब जन्मतथा मृत्यु के पाश में उसके फँसने की कोई आशंका न थी, क्योंकि वह भौतिक रूप से मुक्त होचुका था।
"
निशम्य भगवन्मार्ग संस्थां यदुकुलस्य च ।
स्वःपथाय मतिं चक्रे निभृतात्मा युधिष्टिर: ॥
३२॥
निशम्य--कहकर; भगवत्-- भगवान् के विषय में; मार्गमू-- भगवान् के प्रकट तथा अप्रकट होने के रास्ते; संस्थाम्--अन्त;यदु-कुलस्य--राजा यदु के वंश का; च--भी; स्व:-- भगवान् का धाम; पथाय--रास्ते में; मतिम्--इच्छा; चक्रे--ध्यान दिया;निभृत-आत्मा--अकेले, एकान्त; युधिष्ठिर:--राजा युधिष्ठिर ने
भगवान् कृष्ण के स्वधाम गमन को सुनकर तथा यदुवंश के पृथ्वी के अस्तित्व का अन्तसमझकर, महाराज युध्िष्ठिर ने भगवद्धाम जाने का निश्चय किया।
"
पृथाप्यनुश्रुत्य धनञझ्जयोदित॑नाशं यदूनां भगवद्गतिं च ताम् ।
एकान्तभकक्त्या भगवत्यधोक्षजेनिवेशितात्मोपरराम संसृते: ॥
३३॥
पृथा--कुन्ती ने; अपि-- भी; अनुश्रुत्य--सुनकर; धनझ्जय--अर्जुन द्वारा; उदितम्--कथित; नाशम्-- अन्त; यदूनाम्--यदुवबंशका; भगवत्-- भगवान् का; गतिमू--तिरो धान; च-- भी; तामू--उन सबको; एक-अन्त--अनन्य; भक्त्या--भक्ति से;भगवति--भगवानू् श्रीकृष्ण में; अधोक्षजे-- अध्यात्म में; निवेशित-आत्मा--पूर्ण मनोयोग से; उपरराम--मुक्त हो गयी;संसृतेः-- भौतिक अस्तित्व से ।
अर्जुन द्वारा यदुबंश के नाश तथा भगवान् कृष्ण के अन्तर्धान होने की बात सुनकर, कुन्तीने पूर्ण मनोयोग से दिव्य भगवान् की भक्ति में अपने को लगा दिया और इस तरह संसार केआवागमन से मोक्ष प्राप्त किया।
"
ययाहरद् भुवो भारं तां तनुं विजहावज: ।
कण्टक॑ कण्टकेनेव ट्वयं चापीशितु: समम् ॥
३४॥
यया--जिससे; अहरत्--छीन लिया; भुवः--संसार का; भारम्-- भार, बोझा; ताम्--उस; तनुम्--शरीर को; विजहौ--त्यागदिया; अजः--अजन्मा ने; कण्टकमू--काँटे को; कण्टकेन--काँटे से; इब--सहश; द्वयम्--दोनों; च-- भी; अपि--यद्यपि;ईशितु:--नियंत्रण करते हुए; समम्--समान ।
सर्वोपरि अजन्मा भगवान् श्रीकृष्ण ने यदुवंश के सदस्यों से अपना-अपना शरीर त्यागकरवा दिया और इस तरह उन्होंने पृथ्वी के भार को उतारा।
यह कार्य काँटे को काँटे सेनिकालने जैसा था, यद्यपि नियन्ता के लिए दोनों एक से हैं।
"
यथा मत्स्यादिरूपाणि धत्ते जह्याद् यथा नट: ।
भूभार: क्षपितो येन जहौ तच्च कलेवरम् ॥
३५॥
यथा--जिस तरह; मत्स्य-आदि--मत्स्य अवतार इत्यादि; रूपाणि--स्वरूप; धत्ते--स्वीकार करते हैं; जह्यात्--ऊपर से छोड़देते हैं; यथा--जिस तरह; नटः--नट, जादूगर; भू-भार:--संसार का भार; क्षपित:--उद्धार; येन--जिससे; जहौ--जाने दिया;तत््--उस; च-- भी; कलेवरम्--शरीर को ।
परमेश्वर ने जिस शरीर को पृथ्वी का भार कम करने के लिए प्रकट किया था, उसे उन्होंनेछोड़ दिया।
वे एक जादूगर के समान विभिन्न शरीरों को, यथा मत्स्य अवतार तथा अन्य अवतारोंमें धारण करने के लिए एक शरीर को छोड़ते हैं।
"
यदा मुकुन्दो भगवानिमां महींजहौ स्वतन्वा श्रवणीयसत्कथ: ।
तदाहरेवाप्रतिबुद्धचेतसा-मभद्रहेतु: कलिरन्ववर्तत ॥
३६॥
यदा--जब; मुकुन्दः--कृष्ण ने; भगवान्-- भगवान्; इमाम्--इस; महीम्--पृथ्वी को; जहौ--छोड़ा; स्व-तन्वा--अपने उसीशरीर के साथ; श्रवणीय-सत्-कथः--उनके विषय में अ्रवण करने योग्य है; तदा--उस समय; अहः एव--उसी दिन से;अप्रति-बुद्ध-चेतसाम्--जिनके मन पर्याप्त विकसित नहीं हैं उनके; अभद्र-हेतुः--सारे दुर्भाग्य का कारण; कलि: अन्ववर्तत--कलि पूर्ण रूप से प्रकट हुआ
जब भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने उसी रूप के साथ इस पृथ्वीलोक को छोड़ दिया, उसी दिनसे कलि, जो पहले ही अंशतः प्रकट हो चुका था, अल्पज्ञों के लिए अशुभ परिस्थितियाँ उत्पन्नकरने के लिए पूरी तरह प्रकट हो गया।
"
युधिष्टिरस्तत्परिसर्पणं बुध:पुरे च राष्ट्र च गृहे तथात्मनि ।
विभाव्य लोभानृतजिद्महिंसना-दधर्मचक्रं गमनाय पर्यधात् ॥
३७॥
युधिष्ठिर: --महाराज युधिष्ठिर; तत्--उस; परिसर्पणम्--विस्तार को; बुध:--पूर्ण अनुभवी; पुरे--राजधानी में; च--भी;राष्ट्रे--राज्य में; च--तथा; गृहे--घर में; तथा-- और; आत्मनि--अपने में; विभाव्य--देखकर; लोभ--लालच; अनृत--झूठ;जिहा--कुटिल नीति; हिंसन-आदि--हिंसा, ईर्ष्या; अधर्म--अधर्म; चक्रमू--छल; गमनाय-- प्रस्थान के लिए; पर्यधात्--तदनुसार वस्त्र धारण किये।
महाराज युधिष्टिर पर्याप्त बुद्धिमान थे कि वे कलियुग के प्रभाव को समझ गये, जिसकेविशेष लक्षण होते हैं--बढ़ता लालच, असत्य भाषण, धोखा देना तथा सारी राजधानी, राज्य,घर तथा समस्त व्यक्तियों में हिंसा का आधिक्य इत्यादि ।
अतएव उन्होंने घर छोड़ने की तैयारी कीऔर तदनुकूल वस्त्र धारण कर लिये।
"
स्वराट् पौत्रं विनयिनमात्मन: सुसम॑ गुणै: ।
तोयनीव्या: पति भूमेरभ्यषिज्ञद्गजाहये ॥
३८॥
स्व-राट्--सम्राट; पौत्रमू--पौत्र को; विनयिनमू-- भली-भाँति प्रशिक्षित; आत्मन:--अपना; सु-समम्--सभी प्रकार से समान;गुणैः--गुणों से; तोय-नीव्या:--समुद्रों से घिरा; पतिम्--स्वामी को; भूमे:--भूमि के; अभ्यषिज्ञत्--सिंहासन पर बिठाया;गजाह्यये--हस्तिनापुर की राजधानी में ।
तत्पश्चात् उन्होंने हस्तिनापुर की राजधानी में, उन्होंने अपने पौत्र को सिंहासनारूढ़ किया, जोसमुद्र से घिरी सारी भूमि के स्वामी तथा सम्राट के रूप में प्रशिक्षित था और उन्हीं के समानसुयोग्य था।
"
मथुरायां तथा वज्र॑ शूरसेनपतिं तत: ।
प्राजापत्यां निरूप्येष्टिमग्नीनपिबदी श्वर: ॥
३९॥
मथुरायाम्-मथुरा में; तथा-- भी; वज़्म्--वज़ को; शूरसेन-पतिम्--शूरसेन का राजा; ततः--तत्पश्चात्; प्राजापत्याम्--प्रजापति यज्ञ; निरूप्प--सम्पन्न करके ; इष्टिमू--लक्ष्य; अग्नीन्--अग्नि को; अपिबत्--अपने में स्थापित किया; ई श्वर: --समर्थ।
तब उन्होंने अनिरुद्ध ( भगवान् कृष्ण के पौत्र ) के पुत्र बज्ञ को मथुरा में शूरसेन का राजाबना दिया।
तत्पश्चात् महाराज युधिष्ठिर ने प्राजापत्य यज्ञ किया और गृहस्थ जीवन त्यागने के लिएअपने भीतर अग्नि प्रतिष्ठित की।
"
विसृज्य तत्र तत् सर्व दुकूलवलयादिकम् ।
निर्ममो निरहड्भार: सज्छिन्नाशेषबन्धन: ॥
४० ॥
विसृज्य--त्याग कर; तत्र--वे सब; तत्--यह; सर्वम्--सब कुछ; दुकूल--पेटी; वबलय-आदिकम्--कंगन आदि; निर्मम: --उदास; निरहड्लारः:--अनासक्त; सऊिछलन्न--पूर्ण रूप से कटा हुआ; अशेष-बन्धन:--असीम लगाव ।
महाराज युध्चिष्टिर ने अपने सारे वस्त्र, कमर-पेटी तथा राजसी आभूषण तुरन्त त्याग दिये औरवे पूर्ण रूप से उदासीन तथा प्रत्येक वस्तु से विरक्त हो गये।
"
वाचं जुहाव मनसि तत्प्राण इतरे च तम् ।
मृत्यावपानं सोत्सर्ग तं पद्मत्वे ह्मजोहवीतू ॥
४१॥
वाचम्--वाणी को; जुहाव--त्याग दिया; मनसि--मन में; तत् प्राणे--मन को श्वास लेने में; इतरे च--अन्य इन्द्रियों को भी;तम्--उसमें; मृत्यौ--मृत्यु में; अपानम्-- श्वास; स-उत्सर्गम्-पूर्ण समर्पण को; तम्--उस; पञ्ञत्वे--पाँच तत्त्वों से बने शरीरमें; हि--निश्चय ही; अजोहवीत्--समाहित कर दिया।
तब उन्होंने अपनी सारी इन्द्रियों को मन में, मन को जीवन में, जीवन को प्राण में, अपने पूर्णअस्तित्व को पाँच तत्त्वों के शरीर में तथा अपने शरीर को मृत्यु में समाहित कर दिया।
तत्पश्चात्शुद्ध आत्मा के रूप में वे देहात्म-बुद्धि से मुक्त हो गये।
"
त्रित्वे हुत्वा च पञ्ञत्वं तच्चैकत्वेडजुहोन्मुनि: ।
सर्वमात्मन्यजुहवीद्ब्रह्मण्यात्मानमव्यये ॥
४२॥
त्रित्वे--तीनों गुणों में; हुत्वा--आहुति करके; च-- भी; पश्ञत्वम्-पाँच तत्त्व; तत्--वह; च-- भी; एकत्वे--एक अविद्या में;अजुहोत्--लीन हो गया; मुनि:--विचारवान; सर्वम्--कुल मिलाकर; आत्मनि--आत्मा में; अजुहवीत्--स्थिर; ब्रह्मणि--आत्मा में; आत्मानम्--आत्मा को; अव्यये--कभी न समाप्त होने वाले
इस प्रकार उन्होंने पंचत्त्वमय स्थूल शरीर को विनष्ट करके, प्रकृति के तीन गुणों में मिलाकरउसे अज्ञानता में मिला दिया और तब उस अज्ञानता को आत्मा या ब्रह्म में विलीन कर दिया, जोसर्वदा अक्षय है।
"
चीरवासा निराहारो बद्धवाड्मुक्तमूर्धज: ।
दर्शयन्नात्मनो रूपं जडोन्मत्तपिशाचवत् ।
अनवेक्षमाणो निरगादश्रुण्वन्बधिरो यथा ॥
४३॥
चीर-वासा:--चिथड़े ग्रहण किये; निराहार:--ठोस भोजन करना त्याग दिया; बद्ध-वाक्--बोलना बन्द कर दिया; मुक्त-मूर्धज:--बाल खोल दिए; दर्शयन्--दिखाने लगे; आत्मन:--अपने; रूपम्--शारीरिक स्वरूप को; जड--निष्क्रिय; उन्मत्त--पागल; पिशाच-वत्--उजड्डु की तरह; अनवेक्षमाण:--प्रतीक्षा किये बिना; निरगात्--स्थित था; अश्रृण्वन्--बिना सुने;बधिरः--बहरा व्यक्ति; यथा--जिस तरह।
तत्पश्चात् महाराज युथिष्ठिर ने फटे हुए वस्त्र पहन लिये, ठोस आहार लेना बन्द कर दिया, वेजान कर गूँगे बन गये और बालों को खोल दिया।
इन सबके मिल-जुले रुप में, वे एक उजड्ड यावृत्तिविहीन पागल की तरह दिखने लगे।
वे किसी वस्तु के लिए अपने भाइयों पर आश्रित नहींरहे।
वे बहरे मनुष्य की तरह कुछ भी न सुनने लगे।
"
उदीचीं प्रविवेशाशां गतपूर्वा महात्मभि: ।
हृदि ब्रह्म परं ध्यायन्नावर्तेत यतो गत: ॥
४४॥
उदीचीम्--उत्तरी दिशा; प्रविवेश-आशाम्--वहाँ प्रवेश करने की इच्छा करनेवाले; गत-पूर्वाम्--अपने पूर्वजों द्वारा स्वीकृतपथ; महा-आत्मभि:--विशाल हृदय के कारण; हृदि--हृदय के भीतर; ब्रह्म--परमे श्वर; परम्--परम; ध्यायन्--निरन्तर ध्यानकरते हुए; न आवर्तेत--अपने दिन बिताये; यतः--जहाँ कहीं भी; गतः--गये ।
तब उन्होंने उत्तर दिशा की ओर अपने पूर्वजों तथा महापुरुषों द्वारा स्वीकृत पथ पर चलते हुएप्रस्थान किया, जिससे वे परमेश्वर के विचार में पूर्ण रूप से लग सकें।
वे जहाँ कहीं भी गये,इसी तरह रहे।
"
सर्वे तमनुनिर्जग्मुर्श्रातर: कृतनिश्चया: ।
कलिनाधर्ममित्रेण दृष्ठा स्पृष्टा: प्रजा भुवि ॥
४५॥
सर्वे--सारे; तम्--उनको; अनुनिर्जग्मु:--पीछा करते हुए घर छोड़ दिया; भ्रातर:-- भाइयों ने; कृत-निश्चया:--निश्चित रूप से;कलिना--कलियुग द्वारा; अधर्म--अधर्म; मित्रेण--मित्र के द्वारा; दृष्टा--देखकर; स्पूष्टा:--प्रभावित, वशी भूत; प्रजा: --सारेनागरिक; भुवि--पृथ्वी पर।
महाराज युथ्रिष्ठिर के छोटे भाईयों ने देखा कि कलियुग का पहले से ही संसार भर मेंपदार्पण हो चुका है और राज्य के नागरिक पहले से ही अधर्म द्वारा प्रभावित हैं।
अतएव उन्होंने अपने बड़े भाई के चरण-चिन्हों का अनुगमन करने का निश्चय किया।
"
ते साधुकृतसर्वार्था ज्ञात्वात्यन्तिकमात्मन: ।
मनसा धारयामासुर्वेकुण्ठचरणाम्बुजम् ॥
४६ ॥
ते--वे सब; साधु-कृत--साधु के अनुरूप किया गया; सर्ब-अर्था:--प्रत्येक योग्य वस्तु से युक्त; ज्ञात्वा--जानकर;आत्यन्तिकम्--चरम; आत्मन: --जीव का; मनसा--मन के भीतर; धारयाम् आसु:--पालन किया; बैकुण्ठ--वैकुण्ठ केस्वामी; चरण-अम्बुजम्--चरणकमल का।
उन्होंने धर्म के सारे नियम सम्पन्न कर लिये थे।
अतएवं उनका यह निश्चय ठीक ही था किभगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमल ही सबों के चरम लक्ष्य हैं।
अतएव उन्होंने बिना व्यवधान केउनके चरणों का ध्यान किया।
"
तद्धदयानोद्रिक्तया भकत्या विशुद्धधिषणा: परे ।
तस्मिन् नारायणपदे एकान्तमतयो गतिम् ॥
४७॥
अवापुर्दुरवापां ते असद्धिर्विषयात्मभि: ।
विधूतकल्मषा स्थानं विरजेनात्मनैव हि ॥
४८॥
तत्--वह; ध्यान--ध्यान; उत्रिक्तया--मुक्त होकर; भक्त्या--भक्ति से; विशुद्ध--विशुद्ध; धिषणा: --बुद्धि द्वारा; परे--अध्यात्म में; तस्मिन्--उसमें; नारायण-- भगवान् श्रीकृष्ण के; पदे--चरणकमल में; एकान्त-मतय:--जो एक और अनन्य ऐसेभगवान् में स्थित हैं, उनके; गतिम्--गन्तव्य; अवापु:--प्राप्त किया; दुरवापाम्--प्राप्त करना अत्यन्त कठिन; ते--उनके द्वारा;असद्धिः:--भौतिकतावादियों द्वारा; विषय-आत्मभि: -- भौतिक आवश्यकताओं में लीन; विधूत-- धोया हुआ; कल्मषा: --भौतिक मल; स्थानम्--धाम; विरजेन--रजोगुण से रहित; आत्मना एब--ठीक उसी शरीर से; हि--निश्चय ही ।
इस प्रकार भक्तिभाव से निरन्तर स्मरण करने से उत्पन्न भक्तिमयी शुद्ध चेतना के द्वारा उन्होंनेआदि नारायण भगवान् कृष्ण द्वारा अधिशासित बैकुण्ठलोक प्राप्त किया।
यह बैकुण्ठलोककेवल उन्हें प्राप्त होता है, जो अविचल भाव से एक परमेश्वर का ध्यान धरते हैं।
भगवान्श्रीकृष्ण का यह धाम गोलोक वृन्दावन कहलाता है और यह उन व्यक्तियों को प्राप्त नहीं होता,जो जीवन की भौतिक अवधारणा में लीन रहते हैं।
लेकिन समस्त भौतिक कल्मष से पूर्ण रूप सेशुद्ध होने के कारण पाण्डवों ने अपने इसी शरीर में उस धाम को प्राप्त किया।
"
विदुरोपि परित्यज्य प्रभासे देहमात्मन: ।
कृष्णावेशेन तचिचत्त: पितृभि: स्वक्षयं ययौ ॥
४९॥
विदुरः--विदुर ( महाराज युधिष्टिर के चाचा ); अपि-- भी; परित्यज्य--त्याग कर; प्रभासे--प्रभास नामक तीर्थस्थल में; देहम्आत्मन:--अपना शरीर; कृष्ण--परमे श्वर; आवेशेन--उसी विचार में लीन होकर; तत्--उनका; चित्त:--विचार तथा कार्य;पितृभि:--पितृलोक के वासियों सहित; स्व-क्षयम्--अपने निजी धाम को; ययौ--चला गये।
तीर्थाटन के लिए गये हुए विदुर ने प्रभास में अपना शरीर त्याग किया।
चूँकि वे भगवान्कृष्ण के विचार में मग्न रहते थे, अतएवं उनका स्वागत पितृलोक के निवासियों ने किया, जहाँवे अपने मूल पद पर लौट गये।
"
द्रौपदी च तदाज्ञाय पतीनामनपेक्षताम् ।
वासुदेवे भगवति होकान्तमतिराप तम् ॥
५०॥
द्रौपदी--द्रौपदी ( पाण्डव पत्ती )) च--तथा; तदा--उस समय; आज्ञाय--भगवान् कृष्ण को भलीभाँति जानते हुए; पतीनाम्--पतियों के; अनपेक्षताम्--उसकी परवाह न करनेवाले; वासुदेवे-- भगवान् वासुदेव ( कृष्ण ) में; भगवति-- भगवान्; हि--ठीकउसी तरह; एक-अन्त--पूर्णतया; मतिः -- ध्यान; आप--प्राप्त किया; तम्--उसको ( भगवान् को )।
द्रौपदी ने भी देखा कि उसके पतिगण, उसकी परवाह किये बिना घर छोड़ रहे हैं।
वेभगवान् वासुदेव कृष्ण को भलीभाँति जानती थीं।
अतएव वे तथा सुभद्रा दोनों भगवान् कृष्णके ध्यान में लीन हो गई और अपने-अपने पतियों की सी गति प्राप्त की।
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यः श्रद्धयैतद् भगवत्त्रियाणांपाण्डो: सुतानामिति सम्प्रयाणम् ।
श्रुणोत्यलं स्वस्त्ययनं पवित्रलब्ध्वा हरौ भक्तिमुपैति सिद्धिम् ॥
५१॥
यः--जो कोई; श्रद्धया--श्रद्धापूर्वक ; एतत्--यह; भगवत्-प्रियाणाम्-- भगवान् के अत्यन्त प्रियजनों का; पाण्डो: --पाण्डुके; सुतानाम्--पुत्रों का; इति--इस प्रकार; सम्प्रयाणम्ू--चरम लक्ष्य के लिए प्रस्थान; श्रणोति--सुनता है; अलम्ू--केवल;स्वस्त्ययनम्-सौभाग्य; पवित्रम्--पूरी तरह शुद्ध; लब्ध्वा--प्राप्त करके; हरौ -- भगवान् की; भक्तिम्--भक्ति को; उपैति--प्राप्त करता है; सिद्धिम्--सिद्धि को |
पाण्डु-पुत्रों द्वार जीवन के परम लक्ष्य भगवद्धाम के लिए प्रस्थान का यह विषय अत्यन्त शुभ तथा परम पवित्र है।
अतएव जो भी इस कथा को भक्तिभावपूर्वक सुनता है, वह जीवन की परम सिद्धि भगवद्भक्ति को निश्चय ही प्राप्त करता है।
"
अध्याय सोलह: परीक्षित को कलियुग कैसे प्राप्त हुआ
1.16सूत उवाचततः परीक्षिद् द्विजवर्यशिक्षयामहीं महाभागवत: शशास ह ।
यथा हिसूत्यामभिजातकोविदा:समादिशन् विप्र महद्गुणस्तथा ॥
१॥
सूतः उबाच--सूत गोस्वामी ने कहा; ततः--तत्पश्चात्; परीक्षित्--महाराज परीक्षित ने; द्विज-वर्य--श्रेष्ठ ब्राह्मण; शिक्षया--अपने उपदेशों से; महीम्-- पृथ्वी को; महा-भागवतः--परम भक्त; शशास--शासन किया; ह-- भूतकाल में; यथा--जैसाउन्होंने कहा था; हि--निश्चय ही; सूत्यामू--उनके जन्म के समय; अभिजात-कोविदा:--जन्म के समय पटु ज्योतिषी;समादिशन्--अभिमत व्यक्त किया; विप्र--हे ब्राह्मण; महत्-गुण:--महान् गुण; तथा--उसी के अनुसार सत्यसूत गोस्वामी ने कहा : हे विद्वान ब्राह्मणों, तब महाराज परीक्षित श्रेष्ठ द्विज ब्राह्मणों केआदेशों के अनुसार महान् भगवद्भक्त के रूप में संसार पर राज्य करने लगे।
उन्होंने उन महान्गुणों के द्वारा शासन चलाया, जिनकी भविष्यवाणी उनके जन्म के समय पटु ज्योतिषियों ने कीथी।
"
स उत्तरस्य तनयामुपयेम इरावतीम् ।
जनमेजयादी श्रतुरस्तस्यामुत्पादयत् सुतान् ॥
२॥
सः--उसने; उत्तरस्थ--राजा उत्तर की; तनयाम्--पुत्री को; उपयेमे--विवाह किया; इरावतीम्--इरावती को; जनमेजय-आदीन्--महाराज जनमेजय तथा अन्य; चतुरः--चार; तस्याम्--उसमें; उत्पादयत्--जन्म दिया; सुतान्--पुत्रों कोराजा परीक्षित ने राजा उत्तर की पुत्री इरावती से विवाह किया और उससे उन्हें ज्येष्ठ पुत्रमहाराज जनमेजय सहित चार पुत्र प्राप्त हुए।
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आजहाराश्रमेधांख्रीन् गज़ायां भूरिदक्षिणान् ।
शारद्वतं गुरु कृत्वा देवा यत्राक्षिगोचरा: ॥
३॥
आजहार--सम्पन्न किया; अश्व-मेधान्--अश्वमेध यज्ञ; त्रीन्--तीन; गड्ढडायाम्--गंगा तट पर; भूरि--पर्याप्त; दक्षिणान्--दक्षिणाएँ, पुरस्कार; शारद्वतम्--कृपाचार्य को; गुरुम्--गुरु; कृत्वा--चुनकर; देवा:--देवतागण; यत्र--जहाँ पर; अक्षि--आँखें; गोचरा:--दृष्टिगत ।
महाराज परीक्षित ने कृपाचार्य को अपना गुरु चुनने के बाद गंगा के तट पर तीन अश्वमेथयज्ञ किये।
इन्हें आगन्तुकों एवं निमंत्रितों को पर्याप्त दक्षिणा देकर संपन्न किया गया।
इन यज्ञों मेंसामान्य लोग भी देवताओं का दर्शन पा सके।
"
निजग्राहौजसा वीर: कलिं दिग्विजये क्नचित् ।
नृपलिज्भधरं शूद्रं घ्नन्तं गोमिथुनं पदा ॥
४॥
निजग्राह--पर्याप्त दण्डित; ओजसा--पराक्रम से; वीर:--वीर पुरुष; कलिम्--इस युग के स्वामी, कलि को; दिग्विजये--विश्वको विजित करने के मार्ग पर; क्चितू--एक बार; नृप-लिड्डर-धरम्--राजा का वेश धारण करके विचरण करने वाला;शूद्रमू--नीच जाति का; घ्नन्तमू--चोट पहुँचाते हुए; गो-मिथुनम्--गाय तथा बैल की जोड़ी को; पदा--पाँव में ।
एक बार, जब महाराज परीक्षित विश्व-दिग्विजय करने निकले, तो उन्होंने देखा किकलियुग का स्वामी, जो शूद्र से भी निम्न था, राजा का वेश धारण करके गाय तथा बैल कीजोड़ी के पाँवों पर प्रहार कर रहा था।
राजा ने उसे पर्याप्त दण्ड देने के लिए तुरन्त पकड़ लिया।
"
शौनक उवाच कस्य हेतोर्निजग्राह कलि दिग्विजये नृप: ।
नृदेवचिहृधृक्शूद्रको सौ गां य: पदाहनत् ।
तत्कथ्यतां महाभाग यदि कृष्णकथाश्रयम् ॥
५॥
शौनकः उवाच--शौनक ऋषि ने कहा; कस्य--किस; हेतो:--कारण से; निजग्राह--पर्याप्त दण्ड दिया; कलिम्--कलियुगके स्वामी को; दिग्विजये--अपनी विश्व यात्रा के समय; नृप:--राजा; नृ-देव--राजसी व्यक्ति; चिह्र-धूक्--के समान सजाहुआ; शूद्रक:--शूढ्रों में भी अधम; असौ--वह; गाम्--गाय को; यः--जो; पदा अहनतू्--लात से मारा; तत्--वह सब;कथ्यताम्--कृपा करके कहो; महा-भाग--हे परम भाग्यशाली; यदि--यदि, फिर भी; कृष्ण--कृष्ण विषयक; कथा-आश्रयम्--उनकी कथाओं से सम्बन्धित ।
शौनक ऋषि ने पूछा : महाराज परीक्षित ने उसे केवल दण्ड क्यों दिया, जबकि वह शूद्रों मेंअधम था, उसने राजा का वेश बना रखा था तथा गाय पर पाद प्रहार किया था? ये सब घटनाएंयदि भगवान् कृष्ण की कथा से सम्बन्धित हों, तो कृपया इनका वर्णन करें।
"
अथवास्य पदाम्भोजमकरन्दलिहां सताम् ।
किमन्यैरसदालापैरायुषो यदसद्व्यय: ॥
६॥
अथवा--अन्यथा; अस्य--उनका ( भगवान् कृष्ण का ); पद-अम्भोज--चरणकमल; मकरन्द-लिहाम्--कमल पुष्प के मधुको चाटनेवाले; सताम्--निरन्तर जीवित रहनेवालों के; किम् अन्यैः:--अन्य किसी वस्तु से क्या लाभ; असतू-- भ्रामक;आलापै:--विषय, प्रसंग; आयुष:--आयु में; यत्--जो है; असत्-व्ययः--जीवन का अपव्यय ।
भगवान् के भक्त भगवान् के चरणकमलों से प्राप्त मधु के चाटने के आदी हैं।
उन कथाप्रसंगों से क्या लाभ जो मनुष्य के बहुमूल्य जीवन को व्यर्थ नष्ट करें ?"
क्षुद्रायुषां नृणामड़ मर्त्यानामृतमिच्छताम् ।
इहोपहूतो भगवान्मृत्यु: शामित्रकर्मणि ॥
७॥
क्षुद्र-- अत्यन्त छोटी; आयुषाम्--आयु वाले; नृणाम्-मनुष्यों का; अड़--हे सूत गोस्वामी; मर्त्यानामू-मरनेवालों का;ऋतम्-शाश्वत् जीवन; इच्छताम्--चाहनेवालों का; इह--यहाँ; उपहूतः--उपस्थित होने के लिए