श्रीकृष्णचैतन्य-चरितामृत

  • आदि लीला:अध्याय एक: आध्यात्मिक गुरु

  • अध्याय दो: श्री चैतन्य महाप्रभु, भगवान के सर्वोच्च व्यक्तित्व

  • अध्याय तीन: श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रकट होने के बाहरी कारण

  • अध्याय चार: श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रकट होने के गोपनीय कारण

  • अध्याय पांच: भगवान नित्यानंद बलराम की महिमा

  • अध्याय छह: श्री अद्वैत आचार्य की महिमा

  • अध्याय सात: भगवान चैतन्य पाँच विशेषताओं में

  • अध्याय आठ: लेखक को कृष्ण और गुरु का आदेश प्राप्त होता है

  • अध्याय नौ: भक्ति सेवा का इच्छा वृक्ष

  • अध्याय दस: चैतन्य वृक्ष का तना, शाखाएँ और उप शाखाएँ

  • अध्याय ग्यारह: भगवान नित्यानंद का विस्तार

  • अध्याय बारह: अद्वैत आचार्य और गदाधर पंडित का विस्तार

  • अध्याय तेरह: भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु का आगमन

  • अध्याय चौदह: भगवान चैतन्य की बचपन की लीलाएँ

  • अध्याय पंद्रह: भगवान की पौगंड-लीला

  • अध्याय सोलह: बचपन और युवावस्था में भगवान की लीलाएँ

  • अध्याय सत्रह: युवावस्था में भगवान चैतन्य महाप्रभु की लीलाएँ

  • मध्य लीला:अध्याय एक: भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु की बाद की लीलाएँ

  • अध्याय दो: भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु की परमानंद अभिव्यक्तियाँ

  • अध्याय तीन: भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु का अद्वैत आचार्य के घर पर रहना

  • अध्याय चार: श्री माधवेंद्र पुरी की भक्ति सेवा

  • अध्याय पाँच: साक्षी-गोपाल की गतिविधियाँ

  • अध्याय छह: सार्वभौम भट्टाचार्य की मुक्ति

  • अध्याय सात: भगवान ने दक्षिण भारत का दौरा शुरू किया

  • अध्याय आठ: श्री चैतन्य महाप्रभु और रामानंद राय के बीच बातचीत

  • अध्याय नौ: भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु की पवित्र स्थानों की यात्राएँ

  • अध्याय दस: भगवान की जगन्नाथ पुरी में वापसी

  • अध्याय ग्यारह: श्री चैतन्य महाप्रभु की बेदा-कीर्तन लीलाएँ

  • अध्याय बारह: गुंडिका मंदिर की सफाई

  • अध्याय तेरह: रथयात्रा में भगवान का परमानंद नृत्य

  • अध्याय चौदह: वृन्दावन लीलाओं का प्रदर्शन

  • अध्याय पंद्रह: भगवान सर्वभौम भट्टाचार्य के घर पर प्रसाद स्वीकार करते हैं

  • अध्याय सोलह: भगवान का वृन्दावन जाने का प्रयास

  • अध्याय सत्रह: भगवान वृन्दावन की यात्रा करते हैं

  • अध्याय अठारह: भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु की श्री वृन्दावन यात्रा

  • अध्याय उन्नीस: भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु श्रील रूप गोस्वामी को निर्देश देते हैं

  • अध्याय बीस: भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी को परम सत्य के विज्ञान का निर्देश दिया

  • अध्याय इक्कीसवाँ: भगवान श्रीकृष्ण की ऐश्वर्य और मधुरता

  • अध्याय बाईसवां: भक्ति सेवा की प्रक्रिया

  • अध्याय तेईसवाँ: जीवन का अंतिम लक्ष्य - ईश्वर का प्रेम

  • अध्याय चौबीस: आत्माराम श्लोक की इकसठवीं व्याख्याएँ

  • अध्याय पच्चीसवाँ: वाराणसी के सभी निवासी वैष्णव कैसे बने?

  • अन्त्य लीला:अध्याय एक: श्रील रूप गोस्वामी की भगवान से दूसरी मुलाकात

  • अध्याय दो: कनिष्ठ हरिदास की ताड़ना

  • अध्याय तीन: श्रील हरिदास ठाकुर की महिमा

  • अध्याय चार: सनातन गोस्वामी ने जगन्नाथ पुरी में भगवान के दर्शन किये

  • अध्याय पांच: प्रद्युम्न मिश्र को रामानंद राय से निर्देश कैसे प्राप्त हुए

  • अध्याय छह: श्री चैतन्य महाप्रभु और रघुनाथ दास गोस्वामी की मुलाकात

  • अध्याय सात: श्री चैतन्य महाप्रभु और वल्लभ भट्ट की मुलाकात

  • अध्याय आठ: रामचन्द्र पुरी भगवान की आलोचना करते हैं

  • अध्याय नौ: गोपीनाथ पतननायक का उद्धार

  • अध्याय दस: श्री चैतन्य महाप्रभु अपने भक्तों से प्रसाद स्वीकार करते हैं

  • अध्याय ग्यारह: हरिदास ठाकुर का निधन

  • अध्याय बारह: भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु और जगदानंद पंडित के बीच प्रेमपूर्ण व्यवहार

  • अध्याय तेरह: जगदानंद पंडित और रघुनाथ भट्ट गोस्वामी के साथ लीलाएँ

  • अध्याय चौदह: भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु की कृष्ण से अलगाव की भावनाएँ

  • अध्याय पंद्रह: भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु का पारलौकिक पागलपन

  • अध्याय सोलह: भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु ने भगवान श्री कृष्ण के होठों से अमृत का स्वाद चखा

  • अध्याय सत्रह: भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु के शारीरिक परिवर्तन

  • अध्याय अठारह: प्रभु को समुद्र से बचाना

  • अध्याय उन्नीस: भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु का अकल्पनीय व्यवहार

  • अध्याय बीस: शिक्षाष्टक प्रार्थनाएँ

  • अष्ट श्लोक श्रीशिक्षाष्टकम् (चैतन्य महाप्रभु)

    आदि लीला:अध्याय एक: आध्यात्मिक गुरु

    वन्दे गुरूनीश-भक्तानीशमीशावतारकान् ।।तत्प्रकाशांश्च तच्छक्तीः कृष्ण-चैतन्य-संज्ञकम् ॥

    १॥

    मैं समस्त गुरुओं, भगवद्भक्तों, भगवान् के अवतारों, उनके पूर्ण अंशों, उनकी शक्तियों तथा स्वयं आदि भगवान् श्रीकृष्ण चैतन्य को सादर नमस्कार करता हूँ।

    वन्दे श्री-कृष्ण-चैतन्य-नित्यानन्दौ सहोदितौ ।।गौड़ोदये पुष्पवन्तौ चित्रौ शन्दौ तमो-नुदौ ॥

    २॥

    । मैं सूर्य तथा चन्द्रमा के समान श्रीकृष्ण चैतन्य तथा भगवान् नित्यानन्द दोनों को सादर नमस्कार करता हूँ। वे गौड़ के क्षितिज पर अज्ञान के अन्धकार को दूर करने तथा आश्चर्यजनक रूप से सबको आशीर्वाद प्रदान करने के लिए एकसाथ उदय हुए हैं।

    ग्रदद्वैतं ब्रह्मोपनिषदि तदप्यस्य तनु-भा ।ग्र आत्मान्तर्यामी पुरुष इति सोऽस्यांश-विभवः ।। षडू-ऐश्वर्यैः पूर्णो ये इह भगवान्स स्वयमयंन चैतन्याकृष्णाजगति पर-तत्त्वं परमिह ॥

    ३॥

    जिसे उपनिषदों में निर्विशेष ब्रह्म कहा गया है, वह उनके शरीर का तेजमात्र है और जो भगवान् अन्तर्यामी परमात्मा के रूप में जाने जाते हैं, वे उनके अंशमात्र हैं। भगवान् चैतन्य छहों ऐश्वर्यों से युक्त स्वयं भगवान् कृष्ण हैं। वे परम सत्य हैं और कोई भी अन्य सत्य न तो उनसे बड़ा है, न उनके तुल्य है।

    अनर्पित-चरी चिरात्करुणयावतीर्णः कलौसमर्पयितुमुन्नतोज्वल-रसां स्व-भक्ति-श्रियम् । हरिः पुरट-सुन्दर-द्युति-कदम्ब-सन्दीपितःसदा हृदय-कन्दरे स्फुरतु वः शची-नन्दनः ॥

    ४॥

    । श्रीमती शचीदेवी के पुत्र के नाम से विख्यात वे महाप्रभु आपके हृदय की गहराई में दिव्य रूप से विराजमान हों। पिघले सोने की आभा से दीप्त, वे कलियुग में अपनी अहैतुकी कृपा से अपनी सेवा के अत्यन्त उत्कृष्ट तथा दीप्त आध्यात्मिक रस के ज्ञान को, जिसे इसके पूर्व अन्य किसी अवतार ने प्रदान नहीं किया था, प्रदान करने के लिए अवतीर्ण हुए। हैं।

    राधा कृष्ण-प्रणय-विकृतिह्णदिनी शक्तिरस्माद् एकात्मानावपि भुवि पुरा देह-भेदं गतौ तौ ।। चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्द्वयं चैक्यमाप्तं राधा-भाव-द्युति-सुवलितं नौमि कृष्ण-स्वरूपम् ॥

    ५॥

    श्री राधा तथा कृष्ण की माधुर्य लीलाएँ भगवान् की अन्तरंगा ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं। यद्यपि राधा तथा कृष्ण अभिन्न हैं, किन्तु उन्होंने अपने आपको अनादि काल से पृथक् कर रखा है। अब ये दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में मिलकर एक हो गये हैं। मैं उनको नमस्कार करता हूँ, जो साक्षात् कृष्ण होते हुए भी श्रीमती राधारानी के भाव तथा अंगकान्ति के साथ प्रकट हुए हैं।

    श्री-राधायाः प्रणय-महिमा कीदृशो वानयैवास्वाद्यो ग्रेनाद्भुत-मधुरिमा कीदृशो वा मदीयः । सौख्यं चास्या मदनुभवतः कीदृशं वेति लोभात्।तद्भावाढूयः समजनि शची-गर्भ-सिन्धौ हरीन्दुः ॥

    ६॥

    श्रीमती राधारानी के प्रेम की महिमा; अपने ( भगवान् के ) उन गुणों, जिनका आस्वादन केवल श्रीमती राधारानी प्रेम के माध्यम से करती हैं; एवं उनके प्रेम की मधुरता का आस्वादन करने पर राधारानी जिस सुख का अनुभव करती हैं, उसे समझने के लिए भगवान् श्री हरि राधा के भावों में विभोर होकर श्रीमती शचीदेवी की कोख से उसी प्रकार प्रकट हुए, जिस तरह समुद्र से चन्द्रमा प्रकट होता है।

    सङ्कर्षणः कारण-तोय-शायीगर्भोद-शायी च पयोब्धि-शायी ।शेषश्च यस्यांश-कलाः स नित्यानन्दाख्य-रामः शरणं ममास्तु ॥

    ७॥

    श्री नित्यानन्द राम मेरे सतत स्मरण के विषय बनें। संकर्षण, शेषनाग तथा विभिन्न विष्णु भगवान्, जो कारण समुद्र, गर्भ समुद्र तथा क्षीर समुद्र में शयन करते हैं, वे उनके अंश तथा अंशों के भी अंश (कला) हैं।

    मायातीते व्यापि-वैकुण्ठ-लोके पूर्णेश्व→ श्री-चतुर्व्यह-मध्ये । रूपं ग्रस्योद्धाति सङ्कर्षणाख्यंतं श्री-नित्यानन्द-रामं प्रपद्ये ॥

    ८॥

    मैं उन श्री नित्यानन्द राम के चरणकमलों की शरण ग्रहण करता हूँ, जो चतुयूंह ( वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध) के मध्य संकर्षण के नाम से विख्यात हैं। वे भौतिक सृष्टि से परे वैकुण्ठ लोक में निवास करते हैं और समस्त ऐश्वर्यों से युक्त हैं।

    माया-भर्तीजाण्डे-सङ्गाश्रयाङ्गःशेते साक्षात्कारणाम्भोधि-मध्ये । यस्यैकांशः श्री-पुमानादि-देवस्तं श्री-नित्यानन्द-रामं प्रपद्ये ॥

    ९॥

    मैं श्री नित्यानन्द राम के चरणों में पूर्ण नमस्कार करता हूँ, जिनके अंशरूप कारणोदकशायी विष्णु कारण समुद्र में शयन करने वाले आदि पुरुष हैं, माया के पति हैं और समस्त ब्रह्माण्डों के आश्रय हैं।

    यस्यांशांशः श्रील-गर्भोद-शायीग्रन्नाभ्यब्जं लोक-सात-नालम् । लोक-स्रष्टुः सूतिका-धाम धातुस्तं श्री-नित्यानन्द-रामं प्रपद्ये ॥

    १०॥

    । मैं उन श्री नित्यानन्द राम के चरणों में पूर्ण नमस्कार करता हूँ, जिनके अंश गर्भोदकशायी विष्णु हैं। इन्हीं गर्भोदकशायी विष्णु की नाभि से कमल प्रस्फुटित होता है, जो ब्रह्माण्ड के शिल्पी ब्रह्मा का जन्मस्थान है। इस कमल की नाल असंख्य लोकों का विश्राम-स्थल है।

    यस्यांशांशांशः परात्माखिलानांपोष्टा विष्णुर्भाति दुग्धाब्धि-शायी । क्षौणी-भर्ता यत्कला सोऽप्यनन्तस् ।तं श्री-नित्यानन्द-रामं प्रपद्ये ॥

    ११॥

    हरि अर्थात् परमेश्वर से अभिन्न होने के कारण वे अद्वैत कहलाते हैं। और भक्ति सम्प्रदाय का प्रचार करने के कारण वे आचार्य कहलाते हैं। वे भगवान् के भक्तों के स्वामी तथा भक्तावतार हैं। अतएव मैं उनकी शरण ग्रहण करता हूँ।

    महा-विष्णुर्जगत्कर्ता मायया ग्रः सृजत्यदः । तस्यावतार एवायमद्वैताचार्य ईश्वरः ॥

    १२ ॥

    अद्वैत आचार्य महाविष्णु के अवतार हैं, जिनका मुख्य कार्य माया की क्रियाओं द्वारा भौतिक जगत् की सृष्टि करना है।

    अद्वैतं हरिणाद्वैतादाचार्यं भक्ति-शंसनात् ।। भक्तावतारमीशं तमद्वैताचार्यमाश्रये ॥

    १३॥

    मैं उन श्री नित्यानन्द राम के चरणकमलों में सादर नमस्कार करता हूँ, जिनके गौण अंश क्षीरसागर में शयन करने वाले विष्णु हैं। वे क्षीरोदकशायी विष्णु ही समस्त जीवों के परमात्मा और समस्त ब्रह्माण्डों के पालक हैं। शेषनाग उनके अंशांश हैं।

    पञ्च-तत्त्वात्मकं कृष्णं भक्त-रूप-स्वरूपकम् । भक्तावतारं भक्ताख्यं नमामि भक्त-शक्तिकम् ॥

    १४॥

    मैं उन परमेश्वर कृष्ण को सादर नमस्कार करता हूँ, जो अपने भक्तरूप, भक्तस्वरूप, भक्तावतार, शुद्ध भक्त और भक्तशक्ति रूपी लक्षण से अभिन्न हैं।

    जयतां सुरतौ पङ्गोर्मम मन्द-मतेर्गती । मत्सर्वस्व-पदाम्भोजौ राधा-मदन-मोहनौ ॥

    १५॥

    सर्वथा दयालु राधा तथा मदनमोहन की जय हो! मैं पंगु तथा कुबुद्धि हूँ, फिर भी वे मेरे मार्गदर्शक हैं और उनके चरणकमल मेरे लिए सर्वस्व हैं।

    दीव्यद्वन्दारण्य-कल्प-द्रुमाधःश्रीमद्रनागार-सिंहासनस्थौ । श्रीमद्राधा-श्रील-गोविन्द-देवौ प्रेष्ठालीभिः सेव्यमानौ स्मरामि ॥

    १६॥

    श्री श्री राधा-गोविन्द वृन्दावन में कल्पवृक्ष के नीचे रत्नों के मन्दिर में तेजोमय सिंहासन के ऊपर विराजमान होकर अपने सर्वाधिक अन्तरंग पार्षदों द्वारा सेवित होते हैं। मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ।

    श्रीमानास-रसारम्भी वंशीवट-तट-स्थितः ।। कर्षन्वेणु-स्वनैर्गोपीर्गोपी-नाथः श्रियेऽस्तु नः ॥

    १७॥

    रासनृत्य के दिव्य रस के प्रवर्तक श्री श्रील गोपीनाथ वंशीवट के तट पर खड़े हैं और अपनी प्रसिद्ध बाँसुरी की ध्वनि से गोपियों के ध्यान को आकृष्ट कर रहे हैं। वे हम सबको अपना आशीर्वाद प्रदान करें।

    जय जय श्री-चैतन्य जय नित्यानन्द । जयाद्वैत-चन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ॥

    १८॥

    श्री चैतन्य तथा नित्यानन्द की जय हो, अद्वैतचन्द्र की जय हो और श्री गौर (चैतन्य महाप्रभु) के समस्त भक्तों की जय हो! एइ तिन ठाकुर गौड़ीयाके करियाछेन आत्मसात् । ए तिनेर चरण वन्दों, तिने मोर नाथ ॥

    १९॥

    वृन्दावन के इन तीन विग्रहों ( मदनमोहन, गोविन्द तथा गोपीनाथ) ने गौड़ीय वैष्णवों (चैतन्य महाप्रभु के अनुयायियों) के हृदय एवं आत्मा को निमग्न कर दिया है। मैं उनके चरणकमलों की पूजा करता हूँ, क्योंकि वे मेरे हृदय के स्वामी हैं।

    ग्रन्थेर आरम्भे करि' मङ्गलाचरण' ।। गुरु, वैष्णव, भगवान्, तिनेर स्मरण ॥

    २०॥

    इस कथा के आरम्भ में मैंने गुरु, भगवद्भक्तों तथा भगवान् का स्मरण करने मात्र से उनके आशीर्वाद की कामना की है।

    तिनेर स्मरणे हय विघ्न-विनाशन । अनायासे हय निज वाञ्छित-पूरण ॥

    २१॥

    ऐसा स्मरण समस्त कठिनाइयों का विनाश करता है और मनुष्य की अपनी इच्छाओं को अत्यन्त सरलतापूर्वक पूरा करने में सहायक सिद्ध होता है।

    से मङ्गलाचरण हय त्रि-विध प्रकार ।वस्तु-निर्देश, आशीर्वाद, नमस्कार ॥

    २२॥

    मंगलाचरण ( आवाहन) में तीन विधियाँ निहित हैं-लक्ष्य-वस्तु को परिभाषित करना, आशीर्वाद देना तथा नमस्कार करना।

    प्रथम दुइ श्लोके इष्ट-देव-नमस्कार ।सामान्य-विशेष-रूपे दुइ त' प्रकार ॥

    २३॥

    प्रथम दो श्लोक सामान्य तथा विशेष रूप से उन भगवान् को सादर नमस्कार करते हैं, जो पूजा के लक्ष्य ( आराध्य ) हैं।

    तृतीय श्लोकेते करि वस्तुर निर्देश ।।ग्राहा हइते जानि पर-तत्त्वेर उद्देश ॥

    २४॥

    । तीसरे श्लोक में मैं उन परम सत्य का संकेत कर रहा हूँ, जो परम तत्त्व हैं। ऐसे वर्णन से मनुष्य परम सत्य का दर्शन कर सकता है।

    चतुर्थ श्लोकेते करि जगते आशीर्वाद ।।सर्वत्र मागिये कृष्ण-चैतन्य-प्रसाद ॥

    २५ ॥

    चतुर्थ श्लोक में मैंने चैतन्य महाप्रभु से सब पर कृपा करने के लिए प्रार्थना करते हुए भगवान् से सम्पूर्ण जगत् को आशीर्वाद देने का आवाहन किया है।

    सेइ श्लोके कहि बाह्यावतार-कारण ।पञ्च षष्ठ श्लोके कहि मूल-प्रयोजन ॥

    २६॥

    उस श्लोक में मैंने चैतन्य महाप्रभु के अवतार के बाह्य कारण की व्याख्या की है, किन्तु पाँचवे तथा छठे श्लोकों में मैंने उनके अवतार के मुख्य कारण की व्याख्या की है।

    एइ छय श्लोके कहि चैतन्येर तत्त्व ।। आर पञ्च श्लोके नित्यानन्देर महत्त्व ॥

    २७॥

    । इन छः श्लोकों में मैंने चैतन्य महाप्रभु के तत्त्व के सम्बन्ध में वर्णन किया है, जबकि अगले पाँच श्लोकों में मैंने नित्यानन्द प्रभु की महिमा का वर्णन किया है।

    आर दुइ श्लोके अद्वैत-तत्त्वाख्यान । आर एक श्लोके पञ्च-तत्त्वेर व्याख्यान ॥

    २८॥

    इससे अगले दो श्लोकों में अद्वैत प्रभु के तत्त्व का वर्णन है और उसके बाद के श्लोक में पंचतत्त्व ( भगवान्, उनके स्वांश, उनके अवतार, उनकी शक्तियाँ तथा उनके भक्तों) का वर्णन हुआ है।

    एइ चौद्द श्लोके करि मङ्गलाचरण ।।हँहि मध्ये कहि सब वस्तु-निरूपण ॥

    २९ ॥

    इस तरह ये चौदह श्लोक मंगलाचरण के रूप में हैं और ये परम सत्य का वर्णन करते हैं।

    सब श्रोता-वैष्णवेरे करि' नमस्कार ।एइ सब श्लोकेर करि अर्थ-विचार ॥

    ३० ॥

    इन सारे श्लोकों की जटिलताओं की व्याख्या आरम्भ करने के पूर्व मैं अपने समस्त वैष्णव पाठकों को नमस्कार करता हूँ।

    सकल वैष्णव, शुन करि' एक-मन ।। चैतन्य-कृष्णेर शास्त्र-मत-निरूपण ॥

    ३१॥

    मैं अपने समस्त वैष्णव पाठकों से प्रार्थना करता हूँ कि वे प्रामाणिक शास्त्रों में निरूपित श्रीकृष्ण चैतन्य की इस कथा को ध्यान से पढ़ें और सुनें।

    कृष्ण, गुरु, भक्त, शक्ति, अवतार, प्रकाश ।।कृष्ण एइ छय-रूपे करेन विलास ॥

    ३२॥

    भगवान् कृष्ण अपने आपको गुरु, भक्त, विभिन्न शक्तियों, अवतारों तथा परिपूर्ण प्रकाशों में प्रकट करके विलास करते हैं। ये छहों रूप एक ही में समाहित हैं।

    एइ छय तत्त्वेर करि चरण वन्दन ।प्रथमे सामान्ये करि मङ्गलाचरण ॥

    ३३॥

    इसीलिए मैंने एक सत्य के इन छ: विविध रूपों के चरणकमलों की वन्दना मंगलाचरण द्वारा की है।

    वन्दे गुरूनीश-भक्तानीशमीशावतारकान् ।।तत्प्रकाशांश्च तच्छक्तीः कृष्ण-चैतन्य-संज्ञकम् ॥

    ३४॥

    मैं गुरुओं, भगवद्भक्तों, ईश्वर के अवतारों, उनके पूर्ण अंशों (प्रकाशों), उनकी शक्तियों तथा स्वयं आदि भगवान् श्रीकृष्ण चैतन्य को सादर नमस्कार करता हूँ।

    मन्त्र-गुरु आर व्रत शिक्षा-गुरु-गण ।। ताँहार चरण आगे करिये वन्दन ॥

    ३५ ॥

    मैं सर्वप्रथम अपने दीक्षा गुरु तथा अपने समस्त शिक्षा गुरुओं के चरणकमलों में सादर नमस्कार करता हूँ।

    श्री-रूप, सनातन, भट्ट-रघुनाथ ।श्री-जीव, गोपाल-भट्ट, दास-रघुनाथ ॥

    ३६॥

    श्रील रूप गोस्वामी, श्री सनातन गोस्वामी, श्री भट्ट रघुनाथ, श्री जीव गोस्वामी, श्री गोपाल भट्ट गोस्वामी तथा श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी मेरे शिक्षा-गुरु हैं।

    एइ छय गुरु–शिक्षा-गुरु ग्ने आमार ।।ताँ'-सबार पाद-पद्ये कोटि नमस्कार ॥

    ३७॥

    ये छहों मेरे शिक्षा-गुरु हैं, अतएव उनके चरणकमलों में मेरा कोटिकोटि नमस्कार है।

    भगवानेर भक्त व्रत श्रीवास प्रधान । ताँ'-सभार पाद-पद्ये सहस्र प्रणाम ॥

    ३८॥

    भगवान् के असंख्य भक्तों में श्रीवास ठाकुर अग्रणी हैं। मैं उनके चरणकमलों में हजारों बार सादर नमस्कार करता हूँ।

    अद्वैत आचार्य प्रभुर अंश-अवतार । ताँर पाद-पझे कोटि प्रणति आमार ॥

    ३९।। अद्वैत आचार्य भगवान् के अंशावतार हैं, अतएव मैं उनके चरणकमलों में करोड़ों बार नमस्कार करता हूँ।

    नित्यानन्द-राय—प्रभुर स्वरूप-प्रकाश । ताँर पाद-पद्म वन्दो याँर मुञि दास ॥

    ४०॥

    श्रील नित्यानन्द राम भगवान् के पूर्ण विस्तार हैं और मैंने उनसे दीक्षा प्राप्त की है। अतएव मैं उनके चरणकमलों में सादर नमस्कार करता हूँ।

    गदाधर-पण्डितादि प्रभुर निज-शक्ति ।।ताँ'-सबार चरणे मोर सहस्र प्रणति ॥

    ४१॥

    मैं भगवान् की अन्तरंगा शक्तियों को सादर नमस्कार करता हैं, जिनमें भी गदाधर प्रभु प्रमुख हैं।

    श्री-कृष्ण-चैतन्य प्रभु स्वयं-भगवान् ।ताँहार पदारविन्दै अनन्त प्रणाम ॥

    ४२॥

    श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु साक्षात् भगवान् हैं, अतएव मैं उनके चरणकमलों में असंख्य बार दण्डवत् प्रणाम करता हूँ।

    सावरणे प्रभुरे करिया नमस्कार ।।एइ छय तेंहो त्रैछे-करिये विचार ॥

    ४३॥

    भगवान् ( चैतन्य महाप्रभु) तथा उनके समस्त पार्षदों को नमस्कार करने के बाद अब मैं उन छह विविधताओं की एकता की व्याख्या करने का प्रयत्न करूंगा।"

    यद्यपि आमार गुरु-चैतन्येर दास ।तथापि जानिये आमि ताँहार प्रकाश ॥

    ४४॥

    यद्यपि मैं जानता हूँ कि मेरे गुरु श्री चैतन्य के दास हैं, तथापि मैं उन्हें भगवान् के स्वयं प्रकाश के रूप में जानता हूँ।

    गुरु कृष्ण-रूप हन शास्त्रेर प्रमाणे ।। गुरु-रूपे कृष्ण कृपा करेन भक्त-गणे ॥

    ४५ ॥

    । समस्त प्रामाणिक शास्त्रों के सुविचारित मत के अनुसार गुरु कृष्ण से अभिन्न होता है। भगवान् कृष्ण गुरु के रूप में भक्तों का उद्धार करते है।

    आचार्यं मां विजानीयान्नावमन्येत कहिंचित् ।। न मर्त्य-बुद्ध्यासूयेत सर्व-देव-मयो गुरुः ॥

    ४६ ।। आचार्य को मेरा ही स्वरूप समझना चाहिए और किसी भी तरह से उसका अपमान नहीं करना चाहिए। उसे सामान्य व्यक्ति मानकर उससे ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वे समस्त देवताओं के प्रतिनिधि होते हैं।

    शिक्षा-गुरुके त' जानि कृष्णेर स्वरूप । अन्तर्यामी, भक्त-श्रेष्ठ,—एई दुइ रूप ।। ४७॥

    मनुष्य को शिक्षा-गुरु को कृष्ण का स्वरूप समझना चाहिए। भगवान् कृष्ण स्वयं को परमात्मा रूप में तथा भगवान् के सर्वश्रेष्ठ भक्त के रूप में प्रकट करते हैं।

    नैवोपयन्त्यपचितिं कवयस्तवेश । ब्रह्मायुषापि कृतमृद्ध-मुदः स्मरन्तः । ग्रोऽन्तर्बहिस्तनु-भृतामशुभं विधुन्वन् ।आचार्य-चैत्य वपुषा स्व-गतिं व्यक्ति ॥

    ४८ ॥

    हे प्रभु! दिव्य कविगण एवं आध्यात्मिक विज्ञान में दक्ष व्यक्ति, ब्रह्मा के समान दीर्घायु प्राप्त करके भी आपके प्रति अपनी कृतज्ञता को पूरी तरह व्यक्त नहीं कर सके, क्योंकि आप दो रूपों में, बाहर से आचार्य के रूप में और भीतर से परमात्मा के रूप में, देहधारी जीव को अपने पास आने का निर्देश देकर मुक्ति प्रदान करने के लिए प्रकट होते हैं।

    तेषां सतत-युक्तानां भजतां प्रीति–पूर्वकम् ।।ददामि बुद्धि-योगं तं ग्रेन मामुपयान्ति ते ॥

    ४९॥

    जो लोग निरन्तर मेरी भक्ति में संलग्न रहते हुए प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करते हैं, उन्हें मैं ऐसा ज्ञान प्रदान करता हूँ जिससे वे मेरे पास आ सकें।

    प्रथा ब्रह्मणे भगवान्स्वयमुपदिश्यानुभावितवान् ॥

    ५०॥

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ने ब्रह्मा को शिक्षा दी और उन्हें स्वरूपसिद्ध बनाया।

    ज्ञानं परम-गुह्यं मे ग्रद्विज्ञान-समन्वितम् ।।स-रहस्यं तदङ्गं च गृहाण गदितं मया ॥

    ५१॥

    । मैं जो तुमसे कहूँगा उसे ध्यानपूर्वक सुनो, क्योंकि मेरे विषय में जो दिव्य ज्ञान है, वह न केवल वैज्ञानिक है, अपितु रहस्यों से पूर्ण भी है।

    ग्रावानहं यथा-भावो ग्रदूप-गुण-कर्मकः ।। तथैव तत्त्व-विज्ञानमस्तु ते मदनुग्रहात् ।। ५२ ।। मेरी अहैतुकी कृपा से तुम्हें मेरे व्यक्तित्व, स्वरूप, गुण तथा लीला सम्बन्धी सत्य के बारे में सारा ज्ञान प्राप्त हो जाये।।

    अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् ग्रसदसत्परम् ।। पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम् ॥

    ५३॥

    सृष्टि के पूर्व केवल मैं ही विद्यमान रहता हूँ और किसी भी स्थूल, सूक्ष्म या प्रारम्भिक घटना का अस्तित्व नहीं होता। सृष्टि के बाद मैं ही हर वस्तु में विद्यमान रहता हूँ और प्रलय के बाद मैं ही शाश्वत रूप से विद्यमान रहता हूँ।

    ऋतेऽर्थं ग्रत्प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि ।।तद्विद्यादात्मनो मायां ग्रथाभासो ग्रथा तमः ॥

    ५४॥

    जो कुछ मेरे बिना सत्य प्रतीत होता है, वह निश्चित रूप से मेरी मक शक्ति माया है, क्योंकि मेरे बिना किसी वस्तु का अस्तित्व नहीं हो सकता है। यह छाया में असली प्रकाश के प्रतिबिम्ब जैसा है, क्योंकि प्रकाश में न तो छाया होती है, न प्रतिबिम्ब।

    यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु ।।प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम् ॥

    ५५॥

    जिस प्रकार भौतिक तत्त्व सारे जीवों के शरीरों में प्रवेश करते हैं, फिर भी उनके बाहर रहते हैं, उसी तरह मैं सारी भौतिक सृष्टियों के भीतर विद्यमान रहता हूँ, फिर भी मैं उनके भीतर नहीं रहता।

    एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्व-जिज्ञासुनात्मनः ।अन्वय-व्यतिरेकाभ्यां यत्स्यात्सर्वत्र सर्वदा ॥

    ५६॥

    अतएव दिव्य ज्ञान में रुचि रखने वाले व्यक्ति को सर्वव्यापी सत्य को जानने के लिए इसके विषय में सदैव प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रीति से जिज्ञासा करनी चाहिए।

    चिन्तामणिर्जयति सोमगिरिगुरुर्ने ।शिक्षा-गुरुश्च भगवान्शिखि-पिञ्छ-मौलिः । यत्पाद-कल्पतरु-पल्लव-शेखरेषुलीला-स्वयंवर-रसं लभते जयश्रीः ॥

    ५७।। । चिन्तामणि तथा मेरे दीक्षा-गुरु सोमगिरि की जय हो। मेरे शिक्षागुरु पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की जय हो, जो अपने मुकुट में मोरपंख धारण करते हैं। कल्पवृक्ष तुल्य उनके चरणकमलों की छाया में जयश्री ( राधारानी ) नित्य संगिनी के रूप में दिव्य रस का आस्वादन करती हैं।

    जीवे साक्षात्नाहि ताते गुरु चैत्य-रूपे ।। शिक्षा-गुरु हय कृष्ण-महान्त-स्वरूपे ।। ५८ ॥

    परमात्मा की उपस्थिति को प्रत्यक्ष अनुभव नहीं किया जा सकता, अतएव वे हमारे समक्ष मुक्त भक्त के रूप में प्रकट होते हैं। ऐसा गुरु साक्षात् कृष्ण के अतिरिक्त कोई अन्य नहीं होता।

    ततो दुःसङ्गमुत्सृज्य सत्सु सज्जेत बुद्धिमान् ।।सन्त एवास्य छिन्दन्ति मनो-व्यासङ्गमुक्तिभिः ॥

    ५९॥

    अतएव बुरी संगति से दूर रहकर केवल भक्तों का संग करना चाहिए। अपने अनुभूत उपदेशों से ऐसे सन्तजन उस ग्रंथि को काट सकते हैं, जो व्यक्ति को भक्ति के प्रतिकूल कार्यों से जोड़ती है।

    सतां प्रसङ्गान्मम वीर्य-संविदोभवन्ति हृत्कर्ण-रसायनाः कथाः । तज्जोषणादाश्वपवर्ग-वर्मनि ।श्रद्धा रतिर्भक्तिरनुक्रमिष्यति ॥

    ६० ॥

    केवल भक्तों की संगति में ही भगवान् के आध्यात्मिक शक्तिशाली सन्देश की ठीक से चर्चा की जा सकती है और इस संगति में उसका श्रवण अत्यन्त आनन्ददायक होता है। भक्तों से श्रवण करने पर दिव्य अनुभव का यह मार्ग तुरन्त खुल जाता है और धीरे-धीरे उस ज्ञान में मनुष्य की दृढ़ श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है, जो क्रमशः आकर्षण एवं भक्ति में परिणत हो जाती है।

    ईश्वर-स्वरूप भक्त ताँर अधिष्ठान ।।भक्तेर हृदये कृष्णेर सतत विश्राम ॥

    ६१ ॥

    भगवान् की प्रेमाभक्ति में निरन्तर संलग्न रहने वाला शुद्ध भक्त भगवान् के समान ही होता है, जो सदैव उसके हृदय में आसीन रहते हैं।

    साधवो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं त्वहम् ।। मदन्यत्ते न जानन्ति नाही तेभ्यो मनागपि ।। ६२ ।। सन्त तो मेरे हृदय हैं और एकमात्र मैं ही उनका हृदय हूँ। वे मेरे अतिरिक्त अन्य किसी को नहीं जानते, इसलिए मैं उनके अतिरिक्त अन्य किसी को अपना नहीं मानता।

    भवद्विधा भागवतास्तीर्थ-भूताः स्वयं विभो ।तीर्थी-कुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्तः-स्थेन गदा-भृता ॥

    ६३॥

    आपके समान सन्त स्वयं तीर्थस्थान होते हैं। अपनी पवित्रता के कारण, वे भगवान् के नित्य संगी होते हैं; अतः वे तीर्थस्थानों को भी पावन बना सकते हैं।

    सेइ भक्त-गण हय द्वि-विध प्रकार । पारिषद्गण एक, साधक-गेण आर ॥

    ६४॥

    ऐसे शुद्ध भक्त दो प्रकार के होते हैं–निजी संगी ( पारिषत् ) तथा नवदीक्षित भक्त ( साधकगण)।"

    ईश्वरेर अवतार ए-तिन प्रकार ।। अंश-अवतार, आरे गुण-अवतार ॥

    ६५॥

    शक्त्यावेश-अवतार तृतीय ए-मत ।अश-अवतार–पुरुष-मत्स्यादिक व्रत ॥

    ६६॥

    ईश्वर के अवतारों के तीन वर्ग हैं-अंशावतार, गुणावतार तथा शक्त्यावेश अवतार पुरुष तथा मत्स्य अवतार अंशावतारों के उदाहरण हैं ।

    ब्रह्मा विष्णु शिव–तिन गुणावतारे गणि।शक्त्यावेश—सनकादि, पृथु, व्यास-मुनि ।। ६७॥

    ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव गुणावतार हैं। शक्त्यावेश अवतार हैंकुमारगण, राजा पृथु तथा महामुनि व्यास (जिन्होंने वेदों का संकलन किया )। दुइ-रूपे हय भगवानेर प्रकाश ।एके त' प्रकाश हय, आरे त' विलास ॥

    ६८॥

    । भगवान् अपने आपको दो रूपों में प्रकट करते हैं-प्रकाश तथा विलास।

    एकइ विग्रह यदि हय बहु-रूप ।। आकारे त' भेद नाहि, एक स्वरूप ॥

    ६९॥

    महिषी-विवाहे, ग्रैछे ग्रैछे कैल रास ।। इहाके कहिये कृष्णेर मुख्य 'प्रकाश' ॥

    ७० ॥

    जब भगवान् स्वयं को अनेक रूपों में विस्तारित करते हैं, जो अपने अपने स्वरूपों में अभिन्न होते हैं, जैसाकि भगवान् कृष्ण ने सोलह हजार रानियों के साथ विवाह करते समय तथा रासनृत्य करते समय किया था, तब भगवान् के ऐसे रूप मुख्य प्रकाश ( प्रकाश-विग्रह) कहलाते हैं।

    चित्रं बतैतदेकेन वपुषा झुगपत्पृथक् ।। गृहेषु यष्ट-साहस्रं स्त्रिय एक उदावहत् ॥

    ७१॥

    यह अद्भुत लगता है कि अद्वय श्रीकृष्ण ने सोलह हजार रानियों से उनके अपने अपने घरों में विवाह करने के लिए अपने आपको सोलह जार एकसमान रूपों में विस्तारित कर लिया।

    रासोत्सवः सम्प्रवृत्तो गोपी-मण्डल-मण्डितः ।योगेश्वरेण कृष्णेन तासां मध्ये द्वयोर्द्वयोः ॥

    ७२॥

    । जब गोपियों के समूहों से घिरकर भगवान् कृष्ण ने रासनृत्य का उत्सव प्रारम्भ किया, तो समस्त योग शक्तियों के स्वामी ने अपने आपको प्रत्येक दो-दो गोपियों के बीच में स्थापित किया।

    प्रविष्टेन गृहीतानां कण्ठे स्व-निकटं स्त्रियः ।। ग्यं मन्येरन्नभस्तावद्विमान-शत-सङ्कलम् ॥

    ७३॥

    दिवौकसां स-दाराणामत्यौत्सुक्य-भृतात्मनाम् ।ततो दुन्दुभयो नेदुर्निपेतुः पुष्प-वृष्टयः ॥

    ७४॥

    इस प्रकार जब गोपियाँ तथा कृष्ण परस्पर मिल गये, तो हर गोपी ने यही सोचा कि कृष्ण केवल उसका ही प्रगाढ़ आलिंगन कर रहे हैं। भगवान् की इस अद्भुत लीला को देखने के लिए स्वर्ग के देवता तथा उनकी पत्नियाँ, जो कि रासनृत्य देखने के लिए अत्यन्त उत्सुक थे, अपने सैंकड़ों विमानों में आकाश में उड़ने लगे। उन्होंने फूलों की वर्षा की और वे मधुर ताल से दुन्दुभियाँ बजाने लगे।

    अनेकत्र प्रकटता रूपस्यैकस्य शैकदा ।।सर्वथा तत्स्वरूपैव स प्रकाश इतीर्यते ॥

    ७५॥

    यदि समान लक्षण वाले अनेक रूप एकसाथ प्रदर्शित हों, तो ऐसे रूप भगवान् के प्रकाश-विग्रह कहलाते हैं।

    एकइ विग्रह किन्तु आकारे हय आन ।अनेक प्रकाश हय, ‘विलास' तार नाम ॥

    ७६ ॥

    किन्तु जब अनेक रूप एक-दूसरे से कुछ-कुछ भिन्न होते हैं, तो वे विलास-विग्रह कहलाते हैं।

    स्वरूपमन्याकारं यत्तस्य भाति विलासतः । प्रायेणात्म-समं शक्त्या स विलासो निगद्यते ॥

    ७७॥

    जब भगवान् अपनी अचिन्त्य शक्ति से विभिन्न आकारों में अपने अनेक रूप दिखलाते हैं, तो ऐसे रूपों को विलास-विग्रह कहते हैं।

    ग्रैछे बलदेव, परव्योमे नारायण ।।ग्रैछे वासुदेव प्रद्युम्नादि सङ्कर्षण ॥

    ७८ ॥

    ऐसे विलास-विग्रहों के उदाहरण हैं बलदेव, वैकुण्ठधाम में नारायण तथा चतुयूंह अर्थात् वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध।

    ईश्वरेर शक्ति हय ए-तिन प्रकार ।। एक लक्ष्मी-गण, पुरे महिषी-गण आर ॥

    ७९॥

    व्रजे गोपी-गण आर सभाते प्रधान । व्रजेन्द्र-नन्दन ग्रा'ते स्वयं भगवान् ॥

    ८० ॥

    भगवान् की शक्तियाँ ( लीला संगिनियाँ) तीन प्रकार की हैंवैकुण्ठ में लक्ष्मियाँ, द्वारका में रानियाँ तथा वृन्दावन में गोपियाँ। इन सबमें गोपियाँ सर्वश्रेष्ठ हैं, क्योंकि उन सबको व्रजराज के पुत्र, आदि भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त है।

    स्वयं-रूप कृष्णेर काय-व्यूह–ताँर सम ।। भक्त सहिते हय ताँहार आवरण ॥

    ८१॥

    आदि भगवान् श्रीकृष्ण के निजी संगी उनके भक्तगण हैं, जो उनसे एकरूप हैं। वे अपने भक्तों के समूह (परिकर) के साथ पूर्ण हैं।

    भक्त आदि क्रमे कैले सबार वन्दन । ए-सबार वन्दन सर्व-शुभेर कारण ॥

    ८२॥

    अब मैंने विविध स्तरों के सभी भक्तों की पूजा कर ली है। इनकी पूजा समस्त सौभाग्य का स्रोत है।

    प्रथम श्लोके कहि सामान्य मङ्गलाचरण । द्वितीय श्लोकेते करि विशेष वन्दन ॥

    ८३॥

    पहले श्लोक में मैंने सामान्य आशीर्वाद का आवाहन किया है, किन्तु दूसरे श्लोक में मैंने भगवान् से एक विशेष रूप में प्रार्थना की है।

    वन्दे श्री-कृष्ण-चैतन्य-नित्यानन्दौ सहोदितौ ।। गौड़ोदये पुष्पवन्तौ चित्रौ शन्दौ तमो-नुदौ ॥

    ८४॥

    मैं श्रीकृष्ण चैतन्य तथा नित्यानन्द प्रभु को सादर नमस्कार करता हूँ, जो सूर्य तथा चन्द्रमा के समान हैं। वे एक ही साथ गौड़ के क्षितिज पर अज्ञान का अन्धकार दूर करने तथा सबको अद्भुत आशीर्वाद प्रदान करने के लिए उदित हुए हैं।

    व्रजे ये विहरे पूर्वे कृष्ण-बलराम । कोटी-सूर्य-चन्द्र जिनि दोंहार निज-धाम ।। ८५ ॥

    सेइ दुइ जगतेरे हइया सदय ।। गौड़देशे पूर्व-शैले करिला उदय ॥

    ८६॥

    श्रीकृष्ण तथा बलराम, जो भगवान् हैं और पहले वृन्दावन में प्रकट हुए थे तथा सूर्य और चन्द्रमा से करोड़ों गुना अधिक तेजवान थे, अब विश्व की पतित अवस्था देखकर अनुकम्पावश गौड़देश (पश्चिमी बंगाल) के पूर्वी क्षितिज पर उदित हुए हैं।

    श्री कृष्ण-चैतन्य आर प्रभु नित्यानन्द ।याँहार प्रकाशे सर्व जगतानन्द ॥

    ८७॥

    श्रीकृष्ण चैतन्य तथा प्रभु नित्यानन्द के आविर्भाव ने विश्व को आनन्द से परिपूरित कर दिया है।

    सूर्य-चन्द्र हरे ग्रैछे सब अन्धकार । वस्तु प्रकाशिया करे धर्मेर प्रचार ।। ८८ ॥

    एइ मत दुइ भाइ जीवेर अज्ञान- ।। तमो-नाश करि' कैल तत्त्व-वस्तु-दान ॥

    ८९॥

    जिस प्रकार सूर्य तथा चन्द्रमा उदय होकर अंधकार को दूर कर देते हैं और हर वस्तु की प्रकृति को प्रकट कर देते हैं, उसी तरह ये दोनों भाई जीवों के अज्ञान के अन्धकार को दूर करते हैं और उन्हें परम सत्य के ज्ञान से प्रकाशित करते हैं।

    अज्ञान-तमेर नाम कहिये 'कैतव' ।।धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष-वाञ्छा आदि सब ॥

    ९०॥

    अज्ञान का अंधकार कैतव अर्थात् छल कहलाता है, जो धार्मिकता, आर्थिक विकास, इन्द्रियतृप्ति तथा मुक्ति के साथ प्रारम्भ होता है।

    धर्मः प्रोज्झित-कैतवोऽत्र परमो निर्मत्सराणां सतांवेद्यं वास्तवमत्र वस्तु शिव-दं ताप-त्रयोन्मूलनम् । श्रीमद्भागवते महा-मुनि-कृते किं वा परैरीश्वरःसद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः शुश्रूषुभिस्तत्क्षणात् ॥

    ९१॥

    महामुनि व्यासदेव द्वारा चार मूल श्लोकों से संकलित महान् शास्त्र श्रीमद्भागवत अत्यन्त उन्नत एवं दयालु भक्तों का वर्णन करता है और भौतिकता से प्रेरित धार्मिकता की प्रवंचना की विधियों को पूरी तरह बहिष्कृत करता है। यह शाश्वत धर्म के सर्वोच्च सिद्धान्त को प्रतिपादित करता है, जो जीव के तीन प्रकार के तापों को वास्तव में कम करने वाला और पूर्ण सम्पन्नता तथा ज्ञान का सर्वोच्च आशीष प्रदान करने वाला है। जो लोग विनीत सेवाभाव से इस शास्त्र के सन्देश को सुनने के इच्छुक हैं, वे तुरन्त ही भगवान् को अपने हृदयों में बन्दी बना सकते हैं। अतएव भीमद्भागवत के अतिरिक्त अन्य किसी शास्त्र की आवश्यकता नहीं रह जाती।

    तार मध्ये मोक्ष-वाञ्छा कैतव-प्रधान ।ग्राहा हैते कृष्ण-भक्ति हय अन्तर्धान ॥

    ९२ ।। सर्वोपरि में तदाकार होकर मुक्ति प्राप्त करने की इच्छा करना प्रधान कैतव धर्म है, क्योंकि इससे कृष्ण की प्रेममयी सेवा का स्थायी तौर पर लोप हो जाता है।

    प्र-शब्देन मोक्षाभिसन्धिरपि निरस्तः इति ॥

    ९३॥

    उपसर्ग ‘प्र' ( श्रीमद्भागवत के श्लोक में) सूचित करता है कि मुक्ति की इच्छा को पूरी तरह से बहिष्कार कर दिया जाता है।

    कृष्ण-भक्तिर बाधक-व्रत शुभाशुभ कर्म । सेह एक जीवेर अज्ञान-तमो-धर्म ॥

    ९४॥

    सभी प्रकार के शुभ तथा अशुभ कार्यकलाप, जो भगवान् श्रीकृष्ण की दिव्य प्रेममयी सेवा में बाधक होते हैं, वे तमोगुण से उत्पन्न कर्म हैं।

    याँहार प्रसादे एइ तमो हय नाश । तमो नाश करि' करे तत्त्वेर प्रकाश ॥

    ९५ ॥

    भगवान् श्री चैतन्य तथा भगवान् नित्यानन्द की कृपा से अज्ञान का यह अन्धकार दूर होता है और सत्य प्रकाशित होता है।

    तत्त्व-वस्तु—कृष्ण, कृष्ण-भक्ति, प्रेम-रूप । नाम-सङ्कीर्तन सब आनन्द-स्वरूप ॥

    १६॥

    परम सत्य तो श्रीकृष्ण हैं और शुद्ध प्रेम में प्रकट होने वाली कृष्ण के प्रति प्रेममयी भक्ति पवित्र नाम के सामूहिक कीर्तन द्वारा प्राप्त की जाती है, जो सारे आनन्द की सार है।

    सूर्य चन्द्र बाहिरेर तमः से विनाशे ।। बहिर्वस्तु घट-पट-आदि से प्रकाशे ॥

    ९७॥

    सूर्य तथा चन्द्रमा बाह्य जगत् के अन्धकार को विनष्ट करते हैं और इस तरह घड़ों तथा भोजन पात्रों जैसी बाह्य भौतिक वस्तुओं को प्रकाशित करते हैं।

    दुइ भाइ हृदयेर क्षालि' अन्धकार ।दुइ भागवत-सङ्गे कराने साक्षात्कार ॥

    ९८॥

    किन्तु ये दोनों भाई ( भगवान् चैतन्य तथा भगवान् नित्यानन्द) हृदय के भीतर के अन्धकार को विनष्ट करते हैं और इस तरह ये दो प्रकार के भागवतों ( भगवान् से सम्बन्धित व्यक्तियों या वस्तुओं) से मिलाने में मनुष्य की सहायता करते हैं।

    एक भागवत बड़-भागवत-शास्त्र ।आर भागवत-भक्त भक्ति-रस-पात्र ॥

    ९९॥

    एक भागवत है महान् शास्त्र श्रीमद्भागवत और दूसरा है भक्ति-रस में निमग्न शुद्ध भक्त।

    दुइ भागवत द्वारा दिया भक्ति-रस । ताँहार हृदये ताँर प्रेमे हय वश ॥

    १०० ॥

    इन दो भागवतों के कार्यों के माध्यम से भगवान् जीव के हृदय में दिव्य प्रेममयी सेवा के रस का संचार करते हैं और इस तरह भक्त के हृदय में स्थित भगवान् भक्त के प्रेम से वशीभूत हो जाते हैं।

    एक अद्भुत—सम-काले दोंहार प्रकाश ।। आर अद्भुत चित्त-गुहार तमः करे नाश ॥

    १०१॥

    । पहला आश्चर्य यह है कि दोनों भाई एकसाथ प्रकट होते हैं और दूसरा यह कि वे हृदय की गहराई (अन्तर्मन) को प्रकाशित करते हैं।

    एइ चन्द्र सूर्य दुइ परम सदय । जगतेर भाग्ये गौड़े करिला उदय ॥

    १०२॥

    । ये दोनों, सूर्य तथा चन्द्रमा, संसार के लोगों के प्रति अत्यन्त दयालु हैं। इस तरह समस्त लोगों के सौभाग्य हेतु वे बंगाल के क्षितिज पर उदित हुए हैं।

    सेइ दुइ प्रभुर करि चरण वन्दन ।।याँहा हइते विघ्न-नाश अभीष्ट-पूरण ॥

    १०३॥

    । अतएव आइये हम इन दोनों प्रभुओं के पवित्र चरणों की पूजा करें। इस प्रकार आत्म-साक्षात्कार के मार्ग की सारी कठिनाइयों से छुटकारा मिल सकता है।

    एइ दुइ श्लोके कैल मङ्गल-वन्दन ।।तृतीय श्लोकेर अर्थ शुन सर्व-जन ॥

    १०४॥

    मैंने इन दोनों श्लोकों के माध्यम से भगवान् से आशीष प्राप्त करने की कामना की है (इस अध्याय के श्लोक १ और २)। अब कृपा करके तृतीय श्लोक के तात्पर्य को ध्यानपूर्वक सुनें।

    वक्तव्य-बाहुल्य, ग्रन्थ-विस्तारेर डरे ।विस्तारे ना वणि, सारार्थ कहि अल्पाक्षरे ॥

    १०५॥

    इस ग्रंथ के विस्तार-भय से मैं जान-बूझकर विस्तृत वर्णन से बच रहा हूँ। मैं यथासम्भव संक्षेप में सार-वर्णन करूंगा।"

    मितं च सारं च वचो हि वाग्मिता इति ॥

    १०६॥

    संक्षेप में कहा गया साररूपी सत्य ही सच्ची वाक्पटुता है।

    शुनिले खण्डिबे चित्तेर अज्ञानादि दोष ।।कृष्णे गाढ़ प्रेम हबे, पाइबे सन्तोष ॥

    १०७॥

    विनीत भाव से इसका श्रवण करने मात्र से ही मनुष्य को हृदय अज्ञान के सारे दोषों से मुक्त हो जायेगा और उसे कृष्ण का प्रगाढ़ प्रेम प्राप्त होगा। यही शान्ति का मार्ग है।

    श्री-चैतन्य-नित्यानन्द-अद्वैत-महत्त्व। ताँर भक्त-भक्ति-नाम-प्रेम-रस-तत्त्व ॥

    १०८॥

    भिन्न भिन्न लिखियाछि करिया विचार ।शुनिले जानिबे सब वस्तु-तत्त्व-सार ॥

    १०९॥

    यदि कोई धैर्यपूर्वक श्री चैतन्य महाप्रभु, श्री नित्यानन्द प्रभु तथा श्री अद्वैत प्रभु एवं उनके भक्तों, भक्ति-कार्यो, नाम, यश तथा उनके दिव्य प्रेममय आदान-प्रदानों के रसों की महिमा का श्रवण करेगा, तो वह परम सत्य के सार को जान सकेगा। इसलिए मैंने इनका वर्णन ( चैतन्यचरितामृत में ) तर्क तथा विवेक के साथ किया है।

    श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश ।।चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥

    ११०॥

    श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों की स्तुति करते हुए, सदैव उनकी कृपा की कामना करते हुए और उनके चरणों का अनुसरण करते हुए मैं, कृष्णदास, श्री चैतन्य-चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।

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    अध्याय दो: श्री चैतन्य महाप्रभु, भगवान के सर्वोच्च व्यक्तित्व

    श्री-चैतन्य-प्रभुं वन्दे बालोऽपि यदनुग्रहात् ।तरेन्नाना-मत-ग्राह-व्याप्तं सिद्धान्त-सागरम् ॥

    १॥

    मैं उन श्री चैतन्य महाप्रभु को नमस्कार करता हूँ, जिनकी कृपा से एक अबोध बालक भी निर्णायक सत्य रूपी सागर को पार कर सकता है, जो विभिन्न सिद्धान्त रूपी मगरों से भरा हुआ है।

    कृष्णोत्कीर्तन-गान-नर्तन-कला-पाथोजनि-भ्राजिता सद्भक्तावलि-हंस-चक्र-मधुप-श्रेणी-विहारास्पदम् । कर्णानन्द-कल-ध्वनिर्वहतु मे जिह्वा-मरु-प्राङ्गणे श्री-चैतन्य दयानिधे तव लसल्लीला-सुधा-स्वर्धनी ॥

    २॥

    हे मेरे दयालु भगवान् श्री चैतन्य! आपकी दिव्य लीलाओं का अमृततुल्य गंगाजल मेरी मरुस्थल जैसी जीभ पर बहता रहे। कृष्ण के पवित्र नाम का उच्च स्वर से कीर्तन, गान, नर्तन रूपी वे कमल के फूल जो अनन्य भक्तों के आनन्द-धाम हैं, इस जल को सुशोभित करने वाले है। ये भक्त हंसों, चक्रवाकों तथा भ्रमरों के तुल्य हैं। नदी के प्रवाह से मधुर पनि उत्पन्न होती है, जो उनके कानों को आनन्दित करती है।

    जय जय श्री-चैतन्य जय नित्यानन्द ।जयाद्वैत-चन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ॥

    ३॥

    भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु तथा श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! भताचार्य की जय हो तथा भगवान् गौरांग के भक्तों की जय हो।

    तृतीय श्लोकेर अर्थ करि विवरण ।वस्तु-निर्देश-रूप मङ्गलाचरण ॥

    ४॥

    । सर्वप्रथम मैं (प्रथम चौदह श्लोकों में से ) तीसरे श्लोक के अर्थ का र्णन करूंगा। यह एक शुभ ध्वनि है, जो परम सत्य का वर्णन करती है।

    ग्रदद्वैतं ब्रह्मोपनिषदि तदप्यस्य तनु-भा। → आत्मान्तर्यामी पुरुष इति सोऽस्यांश-विभवः ।। षडू-ऐश्वर्यैः पूर्णो ग्न इह भगवान्स स्वयमयंन चैतन्याकृष्णाजगति पर-तत्त्वं परमिह ॥

    ५॥

    जिसका वर्णन उपनिषदों में निर्विशेष ब्रह्म के रूप में हुआ है, वह उनके शरीर का तेज मात्र है और परमात्मा के रूप में जाने जाने वाले भगवान् उनके स्थानीय पूर्ण अंश हैं। भगवान् चैतन्य छः ऐश्वर्यों से पूर्ण स्वयं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण हैं। वे परम सत्य हैं और अन्य कोई सत्य न उनसे बड़ा है, न उनके समान है।

    ब्रह्म, आत्मा, भगवान्– तिने । अङ्ग-प्रभा, अंश, स्वरूप-तिन विधेय-चिह्न ॥

    ६ ॥

    निर्विशेष ब्रह्म, स्थानीय परमात्मा तथा भगवान्-ये तीन उद्देश्य हैं। और चमकदार ज्योति, आंशिक प्राकट्य तथा मूल स्वरूप ये इन तीनों को दष्ट करने वाले क्रमिक लक्षण हैं।

    आगे, पाछे विधेय स्थापन । सेइ अर्थ कहि, शुन शास्त्र-विवरण ॥

    ७॥

    विधेय सदैव उद्देश्य के बाद आता है। अब मैं इस श्लोक का अर्थ भात्रों के अनुसार बतलाऊँगा।

    स्वयं भगवान्कृष्ण, विष्णु-परतत्त्व । पूर्ण-ज्ञान पूर्णानन्द परम महत्त्व ॥

    ८॥

    भगवान् के आदि स्वरूप कृष्ण सर्वव्यापी विष्णुतत्त्व हैं। वे पूर्ण ज्ञान तथा पूर्ण आनन्द हैं। वे परम दिव्य हैं।

    ‘नन्द-सुत' बलि' याँरै भागवते गाइ ।।सेइ कृष्ण अवतीर्ण चैतन्य-गोसाजि ॥

    ९॥

    जिन्हें श्रीमद्भागवत नन्द महाराज के पुत्र के रूप में बतलाता है, वही भगवान् चैतन्य के रूप में इस पृथ्वी पर अवतरित हुए हैं।

    प्रकाश-विशेषे तेह धरे तिन नाम । ब्रह्म, परमात्मा आर स्वयं-भगवान् ॥

    १०॥

    अपने विभिन्न प्राकट्यों की दृष्टि से वे तीन पहलूओं में विख्यात हैं, मा भिर्विशेष ब्रह्म, स्थानीय परमात्मा तथा आदि भगवान् कहलाते हैं।

    वदन्ति तत्तत्त्व-विदस्तत्त्वं ग्नज्ज्ञानमद्वयम् ।। ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ॥

    ११॥

    परम सत्य को जानने वाले विद्वान-अध्यात्मवादी कहते हैं कि यह अद्वय ज्ञान तत्त्व है, जो निर्विशेष ब्रह्म, स्थानीय परमात्मा तथा भगवान् कहलाता है।

    ताँहार अङ्गेर शुद्ध किरण-मण्डल ।। उपनिषत्कहे ताँरे ब्रह्म सुनिर्मल ॥

    १२॥

    जिसे उपनिषदें दिव्य निर्विशेष ब्रह्म कहती हैं, वह उन्हीं परम पुरुष के प्रकाशमान तेज का मण्डल है।

    चर्म-चक्षे देखे ग्रैछे सूर्य निर्विशेष ।।ज्ञान-मार्गे लैते नारे कृष्णेर विशेष ॥

    १३॥

    जिस प्रकार कोई व्यक्ति अपने नग्न नेत्रों से सूर्य को केवल एक चमकीली वस्तु के अतिरिक्त और किसी रूप में नहीं जान सकता, उसी तह केवल दार्शनिक चिन्तन से वह कृष्ण की दिव्य विविधताओं को नहीं समझ सकता।

    ग्रस्य प्रभा प्रभवतो जगदण्ड-कोटि कोटीष्वशेष-वसुधादि-विभूति-भिन्नम् । तद्ब्रह्म निष्कलमनन्तमशेष-भूतंगोविन्दमादि-पुरुषं तमहं भजामि ॥

    १४॥

    मैं उन आदि भगवान् गोविंद की पूजा करता हूँ, जो महान् शक्ति से अन्यत्र हैं। उनके दिव्य स्वरूप का दीप्तिमान तेज निर्विशेष ब्रह्म है, जो म, पूर्ण तथा असीम है और जो करोड़ों ब्रह्माण्डों में असंख्य प्रकार के को उनके विभिन्न ऐश्वर्यों के साथ प्रदर्शित करता है।

    कोटी कोटी ब्रह्माण्डे ये ब्रह्मेर विभूति ।।सेइ ब्रह्म गोविन्देर हय अङ्ग-कान्ति ॥

    १५॥

    ( ब्रह्माजी ने कहा :) निर्विशेष ब्रह्म के ऐश्वर्य करोड़ों ब्रह्माण्डों में परिव्याप्त होते हैं। यह ब्रह्म भगवान् गोविन्द का शारीरिक तेज मात्र होता है।

    सेइ गोविन्द भजि आमि, तेहों मोर पति ।ताँहार प्रसादे मोर हय सृष्टि-शक्ति ॥

    १६॥

    मैं भगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ। वे ही मेरे स्वामी हैं। केवल उन्हीं की कृपा से मुझमें ब्रह्माण्ड का सृजन करने की शक्ति है।

    मुनयो वात-वासनाः श्रमणा ऊर्ध्व-मन्थिनः । ब्रह्माख्यं धाम ते ग्रान्ति शान्ताः सन्यासिनोऽमलाः ॥

    १७॥

    वे नग्न साधु तथा संन्यासी, जो कठोर शारीरिक तपस्या करते हैं, जो अपने वीर्य को मस्तिष्क तक ऊपर उठा सकते हैं (ऊर्ध्व-रेता हैं) तथा जो ब्रह्म में पूर्णतया स्थित हैं, वे ब्रह्मलोक नामक मण्डल में निवास कर सकते हैं।

    आत्मान्तर्यामी याँरै योग-शास्त्रे कय । सेह गोविन्देर अंश विभूति ये हय ॥

    १८॥

    जिन्हें योगशास्त्रों में अन्तर्यामी परमात्मा कहकर वर्णित किया जाता है, वे भी गोविन्द के निजी विस्तार के अंश हैं।

    अनन्त स्फटिके ग्रैछे एक सूर्य भासे ।। तैछे जीवे गोविन्देर अंश प्रकाशे ॥

    १९॥

    जिस प्रकार एक ही सूर्य असंख्य रत्नों में प्रतिबिम्बित होता दिखता है, उसी प्रकार गोविन्द (परमात्मा रूप में) समस्त जीवों के हृदयों में प्रकट होते हैं।

    अथ वा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।।विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ॥

    २०॥

    [ भगवान् कृष्ण ने कहा :अब मैं तुमसे और अधिक क्या कहूँ? मैं केवल अपने एक अंश के द्वारा इस विराट् जगत् में व्याप्त रहता हूँ।

    तमिममहमजं शरीर-भाजांहृदि हृदि धिष्ठितमात्म-कल्पितीनाम् । प्रति-दृशमिव नैकधार्कमेकंसमधिगतोऽस्मि विधूत-भेद-मोहः ॥

    २१॥

    [ भीष्म पितामह ने कहा :जिस प्रकार एक ही सूर्य विभिन्न दर्शकों को भिन्न भिन्न रूप से अवस्थित प्रतीत होता है, उसी तरह हे अजन्मा, आप हर जीव में परमात्मा के रूप में भिन्न भिन्न प्रकार से प्रतिनिधित्व करते प्रतीत होते हैं। किन्तु जब दर्शक अपने आपको आपके सेवक-रूप में जाने लेता है, तो उसमें ऐसा द्वैत नहीं रह पाता। इस प्रकार अब मैं आपके शाश्वत रूपों को समझने में समर्थ हूँ और भलीभाँति जानता हूँ कि परमात्मा आपके अंश मात्र हैं।

    सेइत गोविन्द साक्षाच्चैतन्य गोसाजि ।जीव निस्तारिते ऐछे दयालु आर नाइ ॥

    २२॥

    वही गोविन्द स्वयं चैतन्य गोसांई के रूप में प्रकट होते हैं। अन्य कोई प्रभु पतित आत्माओं का उद्धार करने में इतने दयालु नहीं हैं।

    पर-व्योमेते वैसे नारायण नाम । घडू-ऐश्वर्य-पूर्ण लक्ष्मी-कान्त भगवान् ॥

    २३॥

    दिव्य जगत् के सर्वेसर्वा भगवान् नारायण छः ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं। वे लक्ष्मीपति भगवान् हैं।

    वेद, भागवत, उपनिषत्, आगम ।। ‘पूर्ण-तत्त्व' याँरे कहे, नाहि यॉर सम ॥

    २४॥

    परमेश्वर वे हैं, जिन्हें वेदों, उपनिषदों तथा अन्य दिव्य साहित्य में परम पूर्ण के रूप में वर्णित किये गये हैं। उनके तुल्य कोई नहीं है।

    भक्ति-योगे भक्त पाय याँहार दर्शन ।। सूर्य ग्रेन सविग्रह देखे देव-गण ॥

    २५॥

    भक्तगण अपनी सेवा के माध्यम से भगवान् को उसी तरह देखते हैं, जिस प्रकार स्वर्ग के निवासी सूर्यदेव को देखते हैं।

    ज्ञान-योग-मार्गे तौरे भजे येइ सब ।। ब्रह्म-आत्म-रूपे तौरे करे अनुभव ॥

    २६॥

    । जो लोग ज्ञान तथा योग के मार्गों पर चलते हैं, वे भगवान् ही की पूजा रहे हैं, क्योंकि वे निर्विशेष ब्रह्म तथा अन्तर्यामी परमात्मा के रूप में उन्हीं अनुभव करते हैं।

    उपासना-भेदे जानि ईश्वर-महिमा ।।अतएव सूर्य ताँर दियेत उपमा ॥

    २७॥

    इसलिए पूजा के विविध प्रकारों से भगवान् की महिमा को उसी प्रकार समझा जा सकता है, जिस प्रकार सूर्य की उपमा से पता लगता है।

    सेइ नारायण कृष्णेर स्वरूप-अभेद ।।एकइ विग्रह, किन्तु आकार-विभेद ॥

    २८॥

    नारायण तथा श्रीकृष्ण एक ही ईश्वर हैं, किन्तु एक होकर भी उनके शारीरिक लक्षण भिन्न हैं।

    इँहोत द्वि-भुज, तिंहो धरे चारि हाथ ।इँहो वेणु धरे, तिंहो चक्रादिक साथ ॥

    २९॥

    इन ईश्वर ( श्रीकृष्ण) के दो हाथ हैं और वे मुरली धारण करते हैं, जबकि दूसरे ( नारायण) के चार हाथ हैं, जिनमें वे शंख, चक्र, गदा या पद्म धारण करते हैं।

    नारायणस्त्वं न हि सर्व-देहिनाम्आत्मास्यधीशाखिल-लोक-साक्षी। नारायणोऽङ्गं नर-भू-जलायनात् ।तच्चापि सत्यं न तवैव माया ॥

    ३०॥

    हे प्रभुओं के प्रभु! आप सारी सृष्टि के द्रष्टा हैं। आप निस्सन्देह हर एक के प्रियतम प्राण हैं। तो क्या आप मेरे पिता श्री नारायण नहीं हैं? भारायण का अर्थ है, वे जिसका घर जल में है, जो 'नर' (गर्भोदकशायी विष्णु) से उत्पन्न हुए हैं और वे नारायण तो आपके अंश हैं। आपके सारे पूर्ण अंश दिव्य हैं। वे परम पूर्ण हैं और वे माया द्वारा सृजित नहीं हैं।

    शिशु वत्स हरि' ब्रह्मा करि अपराध । अपराध क्षमाइते मागेन प्रसाद ॥

    ३१॥

    कृष्ण के साथियों तथा बछड़ों को चुराने का अपराध करने के बाद ब्रह्मा'ने अपने अपराध के लिए भगवान् से क्षमा याचना की और दया करने की याचना की।

    तोमार नाभि-पद्य हैते आमार जन्मोदय ।।तुमि पिता-माता, आमि तोमार तनय ॥

    ३२॥

    । मैंने उस कमल से जन्म लिया, जो आपकी नाभि से निकला था। स तरह आप मेरे पिता-माता दोनो हैं और मैं आपका पुत्र हूँ।

    पिता माता बालकेर ना लय अपराध ।अपराध क्षम, मोरे करह प्रसाद ॥

    ३३॥

    । माता-पिता अपनी सन्तान के अपराधों को कभी गम्भीरतापूर्वक नहीं लेते। अतएव मैं आपसे क्षमा-याचना करता हूँ और आपका आशीर्वाद चाहता हूँ।

    कृष्ण कहेन--ब्रह्मा, तोमार पिता नारायण । आमि गोप, तुमि कैछे आमार नन्दन ॥

    ३४॥

    श्रीकृष्ण ने कहा, हे ब्रह्मा! आपके पिता तो नारायण हैं। मैं तो एक गोप-बालक हूँ। आप मेरे पुत्र किस तरह हो सकते हैं? ब्रह्मा बलेन, तुमि कि ना हओ नारायण ।।तुमि नारायण शुन ताहार कारण ॥

    ३५॥

    ब्रह्मा ने उत्तर दिया, क्या आप नारायण नहीं हैं? आप अवश्य नारायण हैं। कृपया सुनें, मैं इसके प्रमाण देता हूँ।

    प्राकृताप्राकृत-सृष्ट्ये व्रत जीव-रूप ।। ताहार ये आत्मा तुमि मूल-स्वरूप ॥

    ३६॥

    भौतिक तथा आध्यात्मिक जगतों के सारे जीव आखिर आप से ही उत्पन्न होते हैं, क्योंकि आप उन सबके परमात्मा हैं।

    पृथ्वी ग्रैछे घट-कुलेर कारण आश्रय ।। जीवेर निदान तुमि, तुमि सर्वाश्रय ॥

    ३७॥

    जिस प्रकार पृथ्वी मिट्टी के बने समस्त पात्रों (घड़ों) को मूल कारण एवं आश्रय है, उसी प्रकार आप समस्त जीवों के परम कारण एवं आश्रय है।

    ‘नार'-शब्दे कहे सर्व जीवेर निचय ।। ‘अयन'-शब्देते कहे ताहार आश्रय ॥

    ३८ ॥

    नार' शब्द समस्त जीवों के समुच्चय को बताता है और 'अयन' शब्द उन सबके आश्रय को बतलाने वाला है।

    अतएव तुमि हओ मूल नारायण ।एइ एक हेतु, शुन द्वितीय कारण ॥

    ३९ ॥

    अतएव आप आदि नारायण हैं। यह हुआ पहला कारण। अब मैं दूसरा कारण बताता हूँ, कृपया उसे सुनें।

    जीवेर ईश्वर–पुरुषादि अवतार । ताँहा सबा हैते तोमार ऐश्वर्य अपार ॥

    ४० ॥

    जीवों के प्रत्यक्ष ईश्वर पुरुष अवतार हैं। किन्तु आपका ऐश्वर्य एवं शक्ति उनसे कहीं अधिक उन्नत हैं।

    अतएव अधीश्वर तुमि सर्व पिता। तोमार शक्तिते ताँरा जगत्रक्षिता ॥

    ४१॥

    अतएव आप हर एक के आदि पिता, आदि स्वामी हैं। वे (पुरुषावतार) आपकी शक्ति से ही ब्रह्माण्डों के रक्षक हैं।

    नारेर अयन ग्राते करह पालन । अतएव हओ तुमि मूल नारायण ॥

    ४२॥

    चूँकि आप समस्त जीवों के आश्रयों की रक्षा करते हैं, अतएव आप मूल नारायण हैं।

    तृतीय कारण शुन श्री-भगवान् । अनन्त ब्रह्माण्ड बहु वैकुण्ठादि धाम ॥

    ४३॥

    हे प्रभु! हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्! कृपया मेरे तीसरे कारण को सुनें। ग्राण्ड असंख्य हैं और दिव्य वैकुण्ठ लोक अनेक हैं।

    इथे व्रत जीव, तार त्रै-कालिक कर्म ।। ताहा देख, साक्षी तुमि, जान सब मर्म ॥

    ४४।। आप इस भौतिक जगत् में तथा दिव्य जगत् दोनों में समस्त जीवों के भूत, वर्तमान तथा भविष्य के समस्त कर्मों को देखते हैं। चूँकि आप न सब कर्मों के साक्षी हैं, अतः आप सब का सार जानते हैं।

    तोमार दर्शने सर्व जगतेर स्थिति । तुमि ना देखिले कारो नाहि स्थिति गति ॥

    ४५ ॥

    सारे जगत् इसलिए विद्यमान हैं, क्योंकि उन पर आपका निरीक्षण है। आपके निरीक्षण के बिना कोई न तो जीवित रह सकता है, न हिल सकता है और न अस्तित्व बनाये रख सकता है।

    नारेर अयन य़ाते कर दरशन । ताहातेओ हओ तुमि मूल नारायण ॥

    ४६॥

    आप सारे जीवों की गतियों का निरीक्षण करते हैं। इसलिए भी आप आदि भगवान् नारायण हैं।

    कृष्ण कहेन–ब्रह्मा, तोमार ना बुझि वचन । जीव-हृदि, जले वैसे सेइ नारायण ॥

    ४७॥

    कृष्ण ने कहा, हे ब्रह्मा! जो आप कह रहे हैं, उसे मैं नहीं समझ पा हा हूँ। भगवान् नारायण तो वे हैं, जो समस्त जीवों के हृदयों में आसीन हते हैं और कारण सागर के जल में शयन करते हैं।

    ब्रह्मा कहे—जले जीवे येइ नारायण । से सब तोमार अंश-ए सत्य वचन ॥

    ४८॥

    ब्रह्मा ने उत्तर दिया, मैंने जो कहा है, वह सत्य है। वही भगवान् नारायण जो जल में तथा सारे जीवों के हृदयों में रहते हैं, आपके अंश मात्र है।

    कारणाब्धि-गर्भोदक-क्षीरोदक-शायी ।। माया-द्वारे सृष्टि करे, ताते सब मायी ॥

    ४९॥

    । नारायण के कारणोदकशायी, गर्भोदकशायी तथा क्षीरोदकशायी रूप भौतिक शक्ति के सहयोग से सृजन कार्य करते हैं। इस प्रकार वे माया से जुड़े हुए हैं।

    सेइ तिन जल-शायी सर्व-अन्तर्यामी । ब्रह्माण्ड-वृन्देर आत्मा ने पुरुष-नामी ॥

    ५०॥

    जल में शयन करने वाले ये तीनों विष्णु सबके परमात्मा हैं। समस्त ब्रह्माण्डों के परमात्मा प्रथम पुरुष के नाम से विख्यात हैं।

    हिरण्य-गर्भेर आत्मा गर्भोदक-शायी ।। व्यष्टि-जीव-अन्तर्यामी क्षीरोदक-शायी ॥

    ५१॥

    गर्भोदकशायी विष्णु सारे जीव-समुदाय के परमात्मा हैं और गरोदकशायी विष्णु हर व्यक्तिगत जीव के परमात्मा हैं।

    ए सभार दर्शनेते आछे माया-गन्ध ।तुरीय कृष्णेर नाहि मायार सम्बन्ध ॥

    ५२॥

    ऊपर से हमें दिखता है कि इन पुरुषों का सम्बन्ध माया से है, किन्तु अमके ऊपर, चतुर्थ आयाम में भगवान् कृष्ण हैं, जिनका भौतिक शक्ति (माया) से कोई सम्पर्क नहीं होता।

    विराडू हिरण्य-गर्भश्च कारणं चेत्युपाधयः ।।ईशस्य ग्रन्त्रिभिनं तुरीयं तत्प्रचक्षते ॥

    ५३॥

    भौतिक जगत् में भगवान् की उपाधियाँ विराट्, हिरण्यगर्भ तथा कारण हैं। किन्तु वे इन तीन उपाधियों से परे अन्ततोगत्वा चतुर्थ आयाम (तुरीय) में रहते हैं।

    यद्यपि तिनेर माया लइया व्यवहार ।।तथापि तत्स्पर्श नाहि, सभे माया-पार ॥

    ५४॥

    यद्यपि भगवान् के ये तीनों स्वरूप भौतिक शक्ति से सीधे सम्बन्धित हैं, लेकिन यह शक्ति इनमें से किसी का भी स्पर्श नहीं करती। ये सब माया से परे हैं।

    एतदीशनमीशस्य प्रकृति-स्थोऽपि तद्गुणैः ।न ग्रुज्यते सदात्म-स्थैर्यथा बुद्धिस्तदाश्रया ॥

    ५५॥

    । यह भगवान् का ऐश्वर्य है । यद्यपि वे भौतिक प्रकृति में स्थित रहते ।, फिर भी वे प्रकृति के गुणों से कभी भी प्रभावित नहीं होते। उसी प्रकार जो लोग उनकी शरण में जा चुके हैं और जिन्होंने अपनी बुद्धि उन पर स्थिर कर ली है, वे प्रकृति के गुणों से प्रभावित नहीं होते।

    सेइ तिन जनेर तुमि परम आश्रय ।। तुमि मूल नारायण इथे कि संशय ॥

    ५६॥

    आप इन तीनों पुरुषावतारों के परम आश्रय हैं। इस तरह इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि आप आदि नारायण हैं।

    सेइ तिनेर अंशी परव्योम-नारायण । तेह तोमार विलास, तुमि मूल-नारायण ॥

    ५७॥

    इन तीनों स्वरूपों के स्रोत आध्यात्मिक आकाश ( परव्योम) में स्थित नारायण हैं। वे आपके विलास-विस्तार हैं। अतएव आप परम नारायण हैं।

    तएव ब्रह्म-वाक्ये--परव्योम-नारायण ।। तेंहो कृष्णेर विलास–एई तत्त्व-विवरण ॥

    ५८॥

    । अतएव ब्रह्मा के वचनों के अनुसार दिव्य जगत् के अधिष्ठाता-विग्रह नारायण कृष्ण के विलास-विस्तार हैं। अब यह पूरी तरह सिद्ध हो चुका एइ श्लोक तत्त्व-लक्षण भागवत-सार । परिभाषा-रूपे इहार सर्वत्राधिकार ॥

    ५९॥

    इस श्लोक (श्लोक ३० ) में सूचित सत्य श्रीमद्भागवत का सार है। यह निर्णय पर्यायों के माध्यम से सर्वत्र लागू होता है।

    ब्रह्म, आत्मा, भगवान् कृष्णेर विहार । ए अर्थ ना जानि' मूर्ख अर्थ करे आर ॥

    ६० ॥

    मूर्ख विद्वान नहीं जानते कि ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान् सभी श्रीकृष्ण के पहलू हैं, अतएव वे तरह-तरह से तर्कवितर्क करते हैं।

    अवतारी नारायण, कृष्ण अवतार ।तेह चतुर्भुज, इँह मनुष्य-आकार ॥

    ६१॥

    चूँकि नारायण के चार हाथ हैं, जबकि कृष्ण मनुष्य की तरह दिखते हैं, अतएव उनका कहना है कि नारायण तो मूल ईश्वर हैं, जबकि कृष्ण अवतार मात्र हैं।

    एइ-मते नाना-रूप करे पूर्व-पक्ष ।।ताहारे निजिते भागवत-पद्य दक्ष ॥

    ६२॥

    इस प्रकार उनके तर्क नाना रूपों में प्रकट होते हैं, किन्तु भागवत भाव्य इन सबका बड़ी ही दक्षता से खंडन करता है।

    वदन्ति तत्तत्त्व-विदस्तत्त्वं यज्ञानमद्वयम् ।ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ॥

    ६३ ॥

    । परम सत्य को जानने वाले विद्वान अध्यात्मवादी कहते हैं कि यह अभय ज्ञान है और यही निर्विशेष ब्रह्म, अन्तर्यामी परमात्मा तथा भगवान् लाता है।"

    भाइ एइ श्लोक करह विचार ।एक मुख्य-तत्त्व, तिन ताहार प्रचार ॥

    ६४॥

    मेरे भाइयों, कृपा करके इस श्लोक की व्याख्या को सुनो और इसके अर्थ पर विचार करो : एक मूल तत्त्व अपने तीन विभिन्न पहलूओं में जाना जाता है।

    अद्वय-ज्ञान तत्त्व-वस्तु कृष्णेर स्वरूप ।। ब्रह्म, आत्मा, भगवान् तिन ताँर रूप ॥

    ६५॥

    भगवान् कृष्ण स्वयं परम अद्वय सत्य हैं, आखरी वास्तविकता हैं। वे अपने आपको ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान्-इन तीन पहलूओं में प्रकट करते हैं।

    एई श्लोकेर अर्थे तुमि हैला निर्वचन ।आर एक शुन भागवतेर वचन ॥

    ६६॥

    इस श्लोक के तात्पर्य ने तुम्हें तर्क करने से रोक दिया है। अब तुम श्रीमद्भागवत का अन्य श्लोक सुनो।

    एते चांश-कलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान्स्वयम् । इन्द्रारि-व्याकुलं लोकं मृड़यन्ति युगे युगे ॥

    ६७॥

    परमेश्वर के ये सारे अवतार या तो पुरुष अवतारों के अंश हैं या अंशों के अंश (कला) हैं। लेकिन कृष्ण स्वयं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं। प्रत्येक युग में, जब जब इन्द्र के शत्रु संसार को विचलित करते हैं, तब तब वे अपने विभिन्न स्वरूपों के माध्यम से जगत् की रक्षा करते हैं।

    सब अवतारेर करि सामान्य-लक्षण । तार मध्ये कृष्ण-चन्द्रेर करिल गणन ॥

    ६८ ॥

    भागवत सामान्य रीति से अवतारों के लक्षणों तथा कार्यों का वर्णन करता है और इन्हीं में श्रीकृष्ण की गणना करता है।

    तबे सूत गोसाञि मने पाजी बड़े भय ।।यार ये लक्षण ताहा करिल निश्चय ॥

    ६९॥

    इससे सूत गोस्वामी अत्यधिक आशंकित हो उठे और उन्होंने प्रत्येक अवतार को उनके विशिष्ट लक्षणों से विभेदित किया।

    अवतार सब–पुरुषेर कला, अंश ।।स्वयं-भगवान्कृष्ण सर्व-अवतंस ॥

    ७० ॥

    ईश्वर के सारे अवतार या तो पुरुष अवतारों के पूर्ण अंश या पूर्ण अंश के अंश (कला) हैं, किन्तु आदि भगवान् तो श्रीकृष्ण ही हैं। वे समस्त अवतारों के स्रोत पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं।

    पूर्व-पक्ष कहे तोमार भाल त' व्याख्यान । परव्योम-नारायण स्वयं-भगवान् ॥

    ७१ ॥

    एक विपक्षी कह सकता है, यह तो तुम्हारी व्याख्या है, किन्तु वास्तव परम भगवान् तो नारायण हैं, जो दिव्य लोक में स्थित हैं।

    तेह आसि' कृष्ण-रूपे करेन अवतार ।। एइ अर्थ श्लोके देखि कि आर विचार ॥

    ७२॥

    वे ( नारायण) भगवान् कृष्ण के रूप में अवतार लेते हैं। मेरी दृष्टि । यही इस श्लोक का अर्थ है। अब और आगे विचार करने की आवश्यकता नहीं है।

    तारे कहे–केने कर कुतर्कानुमान । शास्त्र-विरुद्धार्थ कभु ना हय प्रमाण ॥

    ७३॥

    हम ऐसे भ्रान्त व्याख्याकार को इस प्रकार उत्तर दे सकते हैं, तुम ऐसा कुतर्क क्यों प्रस्तुत करते हो? जो व्याख्या शास्त्र के सिद्धान्तों के विरुद्ध होती है, वह कभी भी साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं की जाती।

    मनुक्त्वा तु न विधेयमुदीरयेत् ।। न ह्यलब्धास्पदं किञ्चित्कुत्रचित्प्रतितिष्ठति ॥

    ७४॥

    कर्ता के पूर्व उसकी निर्दिष्ट बात ( विधेय) का प्रयोग नहीं करना चाहिए, क्योंकि समुचित आधार के बिना वह खड़ा नहीं रह सकता।

    ना कहिया ना कहि विधेय ।। आगे कहि, पश्चाद्विधेय ॥

    ७५ ॥

    यदि मैं उद्देश्य ( कर्ता ) को उल्लेख न करूं, तो मैं विधेय का उल्लेख नहीं करता हूँ। अतएव पहले मैं उद्देश्य का उल्लेख करूंगा और तब विधेय का।

    ‘विधेय' कहिये तारे, ग्रे वस्तु अज्ञात ।।‘' कहि तारे, येइ हय ज्ञात ॥

    ७६ ॥

    किसी वाक्य का विधेय वह है, जो पाठक को अज्ञात होता है, जबकि उद्देश्य (कर्ता) वह है, जो उसे ज्ञात रहता है।

    ग्रैछे कहि,—एइ विप्र परम पण्डित ।।विप्र-, इहार विधेय–पाण्डित्य ॥

    ७७॥

    उदाहरणार्थ, हम कह सकते हैं, 'यह विप्र महान् पण्डित है। इस वाक्य में विप्र उद्देश्य है और उसका पाण्डित्य विधेय है।

    विप्रत्व विख्यात तार पाण्डित्य अज्ञात ।अतएव विप्न आगे, पाण्डित्य पश्चात ॥

    ७८॥

    मनुष्य का विप्र होना ज्ञात है, किन्तु उसका पाण्डित्य अज्ञात है।। अतएव व्यक्ति की पहचान पहले की जाती है और उसके पाण्डित्य की । बाद में।"

    तैछे ईंह अवतार सब हैल ज्ञात ।।कार अवतार—एइ वस्तु अविज्ञात ॥

    ७९॥

    इसी प्रकार, ये सारे अवतार ज्ञात थे, किन्तु ये किनके अवतार थे, यह ज्ञात न था।

    ‘एते'-शब्दे अवतारेर आगे ।।‘पुरुषेर अंश' पाछे विधेय-संवाद ॥

    ८०॥

    पहले 'एते' ( ये) शब्द से उद्देश्य (अवतार) की स्थापना होती है। तत्पश्चात् 'पुरुषावतारों के पूर्ण अंश' विधेय के रूप में आये हैं।

    तैछे कृष्ण अवतार-भितरे हैल ज्ञात ।ताँहार विशेष-ज्ञान सेइ अविज्ञात ॥

    ८१॥

    इसी प्रकार से, जब पहले कृष्ण की गणना अवतारों में हो चुकी, तो भी उनके विषय में विशिष्ट ज्ञान अज्ञात था।

    अतएव 'कृष्ण'-शब्द आगे ।‘स्वयं-भगवत्ता' पिछे विधेय-संवाद ॥

    ८२॥

    अतएव सबसे पहले 'कृष्ण' शब्द उद्देश्य के रूप में आता है, जिसके बाद विधेय आता है, जो उनके आदि भगवान् रूप को बतलाने घाला है।

    कृष्णेर स्वयं-भगवत्ता–इहा हैल साध्य ।स्वयं-भगवानेर कृष्णत्व हैल बाध्य ॥

    ८३॥

    इससे यह प्रमाणित होता है कि श्रीकृष्ण आदि भगवान् हैं। इसलिए आदि भगवान् अनिवार्य रूप से कृष्ण ही हैं।

    कृष्ण यदि अंश हैत, अंशी नारायण । तबे विपरीत हैत सूतेर वचन ॥

    ८४॥

    यदि कृष्ण पूर्ण अंश होते और नारायण आदि भगवान् अंशी ), तो सूत गोस्वामी का कथन विपरीत हो जाता।

    नारायण अंशी ग्रेइ स्वयं-भगवान् ।। तेह श्री-कृष्ण—ऐछे करित व्याख्यान ॥

    ८५॥

    तब वे यह कहते, ‘समस्त अवतारों के उद्गम नारायण मूल भगवान् हैं और वे श्रीकृष्ण के रूप में प्रकट हुए।

    भ्रम, प्रमाद, विप्रलिप्सा, करणापाटव । आर्ष-विज्ञ-वाक्ये नाहि दोष एइ सबै ॥

    ८६॥

    प्रामाणिक ऋषियों के वचनों में त्रुटियाँ, मोह, ठगने की प्रवृत्ति तथा भ्रान्त अनुभूति (इन्द्रियों की अपूर्णता) नहीं होतीं।

    विरुद्धार्थ कह तुमि, कहिते कर रोष । तोमार अर्थे अविमृष्ट-विधेयांश-दोष ॥

    ८७॥

    तुम विरुद्ध बात कहते हो और जब इसकी ओर इंगित किया जाता है, तो तुम क्रोधित होते हो। तुम्हारी व्याख्या में स्थानभ्रष्ट विधेय का दोष है। यह अविचारणीय तालमेल है।

    ग्राँर भगवत्ता हैते अन्येर भगवत्ता । ‘स्वयं-भगवान्'-शब्देर ताहातेइ सत्ता ॥

    ८८ ॥

    केवल वे भगवान्, जो अन्य समस्त भगवत्ताओं के उद्गम हैं, स्वयं भगवान् या आदि भगवान् कहलाने के पात्र हैं।

    दीप हैते ग्रैछे बहु दीपेर ज्वलन ।मूल एक दीप ताहा करिये गणन ॥

    ८९॥

    जब एक दीपक से अन्य अनेक दीपक जलाये जाते हैं, तो मैं उसे ॥

    आदि (मूल) दीपक मानता हूँ।

    तैछे सब अवतारेर कृष्ण से कारण । आर एक श्लोक शुन, कुव्याख्या-खण्डन ॥

    ९० ॥

    इसी प्रकार से कृष्ण समस्त कारणों एवं समस्त अवतारों के कारण हैं। सारी भ्रान्त व्याख्याओं के खंडन हेतु अब दूसरा श्लोक सुनो।

    अत्र सर्गो विसर्गश्च स्थानं पोषणमूतयः ।। मन्वन्तरेशानुकथा निरोधो मुक्तिराश्रयः ॥

    ९१॥

    दशमस्य विशुद्ध्यर्थं नवानामिह लक्षणम् ।।वर्णयन्ति महात्मानः श्रुतेनार्थेन चाञ्जसा ॥

    ९२॥

    इसमें ( श्रीमद्भागवत में) दस विषयों का वर्णन किया गया है । (१) ब्रह्माण्ड के अवयवों की सृष्टि, (२) ब्रह्मा की सृष्टि, (३) सृष्टि का पालन, (४) श्रद्धावानों के प्रति विशिष्ट अनुग्रह, (५) कर्म के लिए प्रेरणाएँ, (६) नियमों का पालन करने वाले मनुष्यों के कर्तव्य, (७) भगवान् के अवतारों का वर्णन, (८) सृष्टि का संहार, (९) स्थूल तथा सूक्ष्म जगत् से मुक्ति तथा (१०) परम आश्रय पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्। दसवाँ विषय अन्य सबके आश्रय हैं। परम आश्रय और अन्य विषयों में अन्तर दिखाने के लिए महाजनों ने प्रार्थनाओं या प्रत्यक्ष याओं के द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इन नवों का वर्णन किया हैं।

    आश्रय जानिते कहि ए नव पदार्थ ।।ए नवेर उत्पत्ति-हेतु सेइ आश्रयार्थ ॥

    ९३॥

    मैंने हर वस्तु के चरम आश्रय को स्पष्ट रूप से जानने के लिए अन्य भी श्रेणियों का वर्णन किया है। इन नवों की उत्पत्ति का कारण उनका अभय कहा गया है, जो ठीक ही है।

    कृष्ण एक सर्वाश्रय, कृष्ण सर्व-धाम । कृष्णेर शरीरे सर्व-विश्वेर विश्राम ॥

    ९४॥

    भगवान् श्रीकृष्ण सबके आश्रय एवं धाम हैं। सारे ब्रह्माण्ड कृष्ण के शरीर पर आश्रित हैं।

    दशमे दशमं लक्ष्यमाश्रिताश्रय-विग्रहम् ।श्री कृष्णाख्यं परं धाम जगद्धाम नमामि तत् ॥

    ९५ ॥

    श्रीमद्भागवत का दसवाँ स्कन्ध दसवें लक्ष्य, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को प्रकट करता है, जो समस्त शरणागत जीवों के आश्रय हैं। वे श्रीकृष्ण कहलाते हैं और वे सारे ब्रह्माण्डों के परम स्रोत (उद्गम ) हैं। मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ।

    कृष्णेर स्वरूप, आर शक्ति-त्रय-ज्ञान ।।याँर हय, ताँर नाहि कृष्णेते अज्ञान ॥

    १६ ॥

    जो श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूप को तथा उनकी तीन विभिन्न शक्तियों को जानता है, वह उनके विषय में अनजान नहीं रह सकता।

    कृष्णेर स्वरूपेर हय षडू-विध विलास ।। प्राभव-वैभव-रूपे द्वि-विध प्रकाश ॥

    ९७॥

    भगवान् श्रीकृष्ण अपने छः मूल विस्तारों में विलास करते हैं। प्राभव तथा वैभव-ये उनके दो प्राकट्य हैं।

    अंश-शक्त्यावेश-रूपे द्वि-विधावतार । बाल्य पौगण्ड धर्म दुइ त' प्रकार ॥

    ९८ ॥

    उनके अवतार दो प्रकार के हैं-आंशिक तथा शक्त्यावेश। वे दो अवस्थाओं में प्रकट होते हैं-बाल्य तथा पौगण्ड (कुमारावस्था)।

    किशोर-स्वरूप कृष्ण स्वयं अवतारी ।। क्रीड़ा करे एइ छय-रूपे विश्व भरि' ॥

    ९९॥

    नित्य किशोर रहने वाले भगवान् श्रीकृष्ण समस्त अवतारों के उद्गम, मूल भगवान् हैं। वे ब्रह्माण्ड-भर में अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए इन छह रूपों में अपना विस्तार करते हैं।

    एइ छय-रूपे हय अनन्त विभेद ।।अनन्त-रूपे एक-रूप, नाहि किछु भेद ॥

    १०० ॥

    इन छः रूपों के असंख्य भेद हैं। यद्यपि वे अनेक हैं, किन्तु सभी एक हैं। उनके बीच कोई अन्तर नहीं है।

    चिच्छक्ति, स्वरूप-शक्ति, अन्तरङ्गा नाम ।।ताहार वैभव अनन्त वैकुण्ठादि धाम ॥

    १०१॥

    चित्-शक्ति, जिसे स्वरूप-शक्ति अथवा अन्तरंगा शक्ति भी कहा जाता है, अनेक रूपों में अपना प्रदर्शन करती है। यह भगवान् के धाम तथा उसके वैभव को धारण करती है।

    माया-शक्ति, बहिरङ्गा, जगत्कारण । ताहार वैभव अनन्त ब्रह्माण्डेर गण ॥

    १०२ ॥

    माया शक्ति कहलाने वाली बहिरंगा शक्ति विविध भौतिक शक्तियों से सम्पन्न असंख्य ब्रह्माण्डों की कारण है।

    जीव-शक्ति तटस्थाख्य, नाहि ग्रार अन्त ।मुख्य तिन शक्ति, तार विभेद अनन्त ॥

    १०३ ॥

    इन दोनों के बीच की तटस्था शक्ति असंख्य जीवों की बनी है। ये ही तीन प्रधान शक्तियाँ हैं, जिनके असंख्य भेद और उपभेद हैं।

    ए-मत स्वरूप-गण, आर तिन शक्ति । संभार आश्रय कृष्ण, कृष्णे सभार स्थिति ॥

    १०४॥

    भगवान् के मुख्य स्वरूप, विस्तार और उनकी तीन शक्तियाँ हैं। परम पूर्ण श्रीकृष्ण से प्रकट हैं। ये सब उन्हीं में स्थित हैं।

    यद्यपि ब्रह्माण्ड-गणेर पुरुष आश्रय ।सेइ पुरुषादि संभार कृष्ण मूलाश्रय ॥

    १०५॥

    पि तीनों पुरुष सारे ब्रह्माण्डों के आश्रय हैं, किन्तु भगवान् कृष्ण के मूल स्रोत हैं।

    स्वयं भगवान्कृष्ण, कृष्ण सर्वाश्रय । परम ईश्वर कृष्ण सर्व-शास्त्रे कय ॥

    १०६ ॥

    तरह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण मूल आदि भगवान् एवं के विस्तारों के उद्गम हैं। सारे प्रामाणिक शास्त्र श्रीकृष्ण को रूप में स्वीकार करते हैं।

    ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्द-विग्रहः ।अनादिरादिर्गोविन्दः सर्व-कारण-कारणम् ॥

    १०७॥

    गोविन्द नाम से विख्यात कृष्ण परम नियन्ता हैं। उनका शरीर शाश्वत, आनन्दमय तथा आध्यात्मिक है। वे सबके उद्गम हैं। उनका कोई उद्गम नहीं है, क्योंकि वे समस्त कारणों के मूल कारण हैं।'

    ए सब सिद्धान्त तुमि जान भाल-मते ।।तबु पूर्व-पक्ष कर आमा चालाइते ॥

    १०८॥

    तुम शास्त्रों के इन सारे सिद्धान्तों को भलीभाँति जानते हो। किन्तु मुझे क्षुब्ध करने के लिए ही सारे तर्क-वितर्क उत्पन्न करते हो।

    सेइ कृष्ण अवतारी व्रजेन्द्र-कुमार । आपने चैतन्य-रूपे कैल अवतार ॥

    १०९॥

    वे भगवान् श्रीकृष्ण ही व्रजराज के पुत्र कहलाते हैं, जो समस्त तारों के स्रोत हैं। वे स्वयं भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में। तरित हुए हैं।

    अतएव चैतन्य गोसाजि परतत्त्व-सीमा ।।ताँरे क्षीरोद-शायी कहि, कि ताँर महिमा ॥

    ११०॥

    अतएव भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु परम सत्य हैं। उन्हें क्षीरोदकशायी णु कहकर पुकारने से उनकी महिमा नहीं बढ़ती।

    सेइ त' भक्तेर वाक्य नहे व्यभिचारी ।। सकल सम्भवे ताँते, याते अवतारी ।। १११॥

    किन्तु निष्ठावान भक्त के मुख से निकले ऐसे शब्द कभी मिथ्या नहीं । हो सकते। उनमें सारी सम्भावनाएँ निहित हैं, क्योंकि वे आदि भगवान् हैं।

    अवतारीर देहे सब अवतारेर स्थिति ।।केहो कोन-मते कहे, ग्रेमन ग्रार मति ॥

    ११२॥

    अन्य सारे अवतार मूल भगवान् के आदि शरीर में शक्तिमान के रूप में स्थित हैं। अतएव अपने मत के अनुसार कोई उन्हें किसी भी एक अवतार के रूप में सम्बोधित कर सकता है।

    कृष्णके कहये केह-नर-नारायण । केहो कहे, कृष्ण हये साक्षावामन ॥

    ११३॥

    कुछ लोग कहते हैं कि श्रीकृष्ण साक्षात् नर-नारायण हैं। अन्य लोग कहते हैं कि वे साक्षात् वामन हैं।

    केहो कहे, कृष्ण क्षीरोद-शायी अवतार ।। असम्भव नहे, सत्य वचन सबार ॥

    ११४॥

    कुछ लोग कहते हैं कि कृष्ण क्षीरोदकशायी विष्णु के अवतार हैं। इनमें से कोई भी कथन असम्भव नहीं है। प्रत्येक कथन अन्यों की ही तरह सत्य है।

    केहो कहे, पर-व्योमे नारायण हरि ।सकले सम्भवे कृष्णे, ग्राते अवतारी ॥

    ११५ ॥

    कुछ उन्हें हरि या दिव्य लोक का नारायण कहते हैं। कृष्ण के लिए सब कुछ सम्भव है, क्योंकि वे आदि भगवान् हैं।

    सब श्रोता-गणेर करि चरण वन्दन ।ए सब सिद्धान्त शुन, करि' एक मन ॥

    ११६॥

    मैं इस कथा को सुनने या पढ़ने वाले समस्त लोगों के चरणों में नमस्कार करता हूँ। कृपा करके इन सारे कथनों के सार को ध्यान से सुनें।

    सिद्धान्त बलिया चित्ते ना कर अलस ।। इहा हइते कृष्णे लागे सुदृढ़ मानस ॥

    ११७॥

    निष्ठापूर्ण जिज्ञासु को चाहिए कि ऐसे सिद्धान्तों की व्याख्या को विवादास्पद मानकर उनकी उपेक्षा न करे, क्योंकि ऐसी व्याख्याओं से मन छ होता है। इस तरह मनुष्य का मन श्रीकृष्ण के प्रति अनुरक्त होता है।

    चैतन्य-महिमा जानि ए सब सिद्धान्ते ।। चित्त दृढ़ हा लागे महिमा-ज्ञान हैते ॥

    ११८॥

    ऐसे निर्णायक अध्ययन द्वारा मैं चैतन्य महाप्रभु की महिमा को जानता हूँ। इन महिमाओं को जान लेने से ही मनुष्य बलवान बन सकता है और उनके प्रति अनुराग में सुस्थिर हो सकता है।

    चैतन्य-प्रभुर महिमा कहिबार तरे । कृष्णेर महिमा कहि करिया विस्तारे ॥

    ११९॥

    मैंने श्री चैतन्य महाप्रभु का महिमा-वर्णन करने के लिए ही श्रीकृष्ण की महिमाओं का विस्तार से वर्णन करने का प्रयास किया है।

    चैतन्य-गोसाजिर एइ तत्त्व-निरूपण । स्वयं-भगवान्कृष्ण व्रजेन्द्र-नन्दन ॥

    १२०॥

    निष्कर्ष यह है कि श्री चैतन्य महाप्रभु स्वयं व्रजराज के पुत्र पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण हैं।

    श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश ।।चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥

    १२१॥

    श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों में प्रार्थना करते हुए एवं उनकी दया की सदा आकांक्षा करते हुए मैं कृष्णदास उनके चरणचिह्नों का अनुसरण करते हुए श्री चैतन्य-चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।

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    अध्याय तीन: श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रकट होने के बाहरी कारण

    श्री-चैतन्य-प्रभुं वन्दे मृत्पादाश्रय-वीर्यतः ।।सङ्गह्वात्याकर-व्रातादज्ञः सिद्धान्त-सन्मणीन् ॥

    १॥

    मैं श्री चैतन्य महाप्रभु को सादर नमस्कार करता हूँ। उनके अरणकमलों की शरण के प्रभाव से मूर्ख से मूर्ख व्यक्ति भी प्रामाणिक शास्त्रों की खानों में से सैद्धान्तिक सत्य के मूल्यवान रत्नों को एकत्र कर सकता है।

    जय जय श्री-चैतन्य जय नित्यानन्द । जयाद्वैत-चन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ॥

    २॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! अद्वैतचन्द्र प्रभु की जय हो और श्री चैतन्य महाप्रभु के समस्त भक्तों की जय हो! तृतीय श्लोकेर अर्थ कैल विवरण ।।चतुर्थ श्लोकेर अर्थ शुन भक्त-गण ॥

    ३॥

    मैं तीसरे श्लोक का तात्पर्य बता चुका हूँ। हे भक्तजन, अब कृपा करके ध्यानपूर्वक चौथे श्लोक का अर्थ सुनें।

    अनर्पित-चरी चिरात्करुणयावतीर्णः कलौ समर्पयितुमुन्नतोज्वल-रसां स्व-भक्ति-श्रियम् । हरिः पुरट-सुन्दर-द्युति-कदम्ब-सन्दीपितः । सदा हृदय-कन्दरे स्फुरतु वः शची-नन्दनः ॥

    ४॥

    वे भगवान्, जो श्रीमती शचीदेवी के पुत्र के रूप में विख्यात हैं, आपके हृदय की गहराई में दिव्य स्थान ग्रहण करें। वे पिघले सोने की देदीप्यमान द्युति से युक्त होकर इस कलियुग में अपनी अहैतुकी कृपा से भक्ति का सर्वोच्च रस-माधुर्य रस-प्रदान करने के लिए अवतरित हुए हैं, जिसे इसके पूर्व अन्य किसी अवतार ने प्रदान नहीं किया है।

    पूर्ण भगवान्कृष्ण व्रजेन्द्र कुमार।गोलोके व्रजेर सह नित्य विहार ॥

    ५॥

    वजराज के पुत्र श्रीकृष्ण परम भगवान् हैं। वे अपने सनातन धाम गोलोक में, जिसमें व्रजधाम भी सम्मिलित है, अपनी दिव्य लीलाओं का आनन्द लेते हैं।

    ब्रह्मार एक दिने तिंहो एक-बार । अवतीर्ण हल्ला करेन प्रकट विहार ॥

    ६ ॥

    वे ब्रह्मा के एक दिन में एक ही बार इस जगत् में अपनी दिव्य लीलाएँ प्रकट करने के लिए अवतरित होते हैं।

    सत्य, त्रेता, द्वापर, कलि, चारि-युग जानि । सेइ चारि-युगे दिव्य एक-झुग मानि ॥

    ७॥

    हम जानते हैं कि युग चार हैं, यथा सत्य, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग। ये चारों मिलकर एक दिव्य युग की रचना करते हैं।

    एकात्तर चतुर्युगे एक मन्वन्तर ।।चौद्द मन्वन्तर ब्रह्मार दिवस भितर ॥

    ८॥

    एकहत्तर दिव्य युग मिलकर एक मन्वन्तर बनाते हैं। ब्रह्मा के एक दिन में चौदह मन्वन्तर होते हैं।

    ‘वैवस्वत'-नाम एइ सप्तम मन्वन्तर ।साताइश चतुर्युग ताहार अन्तर ॥

    ९॥

    । वर्तमान मनु सातवें मनु हैं और ये वैवस्वत (विवस्वान के पुत्र ) हलाते हैं। अब तक उनकी आयु के सत्ताइस दिव्य युग ( २७ x ,२०,००० सौर वर्ष) बीत चुके हैं।

    अष्टाविंश चतुर्युगे द्वापरेर शेषे ।व्रजेर सहिते हय कृष्णेर प्रकाशे ॥

    १०॥

    । । अट्ठाइसवें दिव्य युग के द्वापर युग के अन्त में भगवान् कृष्ण अपने पत व्रजधाम के सम्पूर्ण साज-सामान के साथ पृथ्वी पर प्रकट होते हैं।

    दास्य, सख्य, वात्सल्य, शृङ्गार-चारि रस । चारि भावेर भक्त व्रत कृष्ण तार वश ॥

    ११॥

    ऐसे दिव्य प्रेम में निमग्न होकर भगवान् श्रीकृष्ण अपने समर्पित सेवकों, मित्रों, माता-पिता तथा प्रेमिकाओं के साथ व्रज में आनन्द का आस्वादन करते हैं। भगवन कृष्ण उनके वश में रहते है।

    दास-सखा-पिता-माता-कान्ता-गण लजा । व्रजे क्रीड़ा करे कृष्ण प्रेमाविष्ट हबा ॥

    १२॥

    दास्य (सेवक भाव), सख्य मैत्री), वात्सल्य ( माता-पिता का स्नेह) तथा श्रृंगार ( दाम्पत्य प्रेम)-ये चार दिव्य रस हैं। जो भक्त इन चारों रसों का आस्वादन करते हैं।

    यथेष्ट विहरि कृष्ण करे अन्तर्धान । अन्तर्धान करि' मने करे अनुमान ॥

    १३॥

    जब तक इच्छा होती है, भगवान् कृष्ण अपनी दिव्य लीलाओं का आस्वादन करते हैं और पुनः अन्तर्धान हो जाते हैं। किन्तु अन्तर्धान होने के बाद वे इस प्रकार सोचते हैं : चिर-काल नाहि करि प्रेम-भक्ति दान ।। भक्ति विना जगतेर नाहि अवस्थान ॥

    १४॥

    “दीर्घ काल से मैंने अपनी अनन्य प्रेमाभक्ति का दान विश्व के निवासियों को नहीं दिया। ऐसी प्रेममयी अनुरक्ति के बिना भौतिक जगत् का अस्तित्व व्यर्थ है।

    सकल जगते मोरे करे विधि-भक्ति । विधि-भक्त्ये व्रज-भाव पाइते नाहि शक्ति ॥

    १५॥

    । संसार में शास्त्रों के निर्देशानुसार सर्वत्र मेरी पूजा की जाती है। किन्तु विधि-विधानों का पालन करने मात्र से व्रजभूमि के भक्तों के भावों को प्राप्त नहीं किया जा सकता।

    ऐश्वर्य-ज्ञानेते सब जगत्मिश्रित ।। ऐश्वर्य-शिथिल-प्रेमे नाहि मोर प्रीत ॥

    १६॥

    मेरे ऐश्वर्य को जानते हुए सारा संसार मुझे भय एवं सम्मान की दृष्टि देखता है। किन्तु ऐसे सम्मान से शिथिल हुई भक्ति मुझे आकृष्ट नहीं करती।

    ऐश्वर्य-ज्ञाने विधि-भजन करिया ।वैकुण्ठके ग्राय चतुर्विध मुक्ति पाजा ॥

    १७॥

    भय तथा सम्मान में ऐसी वैधी भक्ति करके मनुष्य वैकुंठ जा सकता है और चार प्रकार की मुक्ति प्राप्त कर सकता है।

    सार्टि, सारूप्य, आर सामीप्य, सालोक्य ।सायुज्य ना लय भक्त ग्राते ब्रह्म-ऐक्य ॥

    १८॥

    ये मुक्तियाँ हैं-सार्टि ( भगवान् तुल्य ऐश्वर्य की प्राप्ति), सारूप्य गवान् जैसा ही रूप प्राप्त करना), सामीप्य ( भगवान् का निजी पार्षद ना) तथा सालोक्य (वैकुण्ठ ग्रह पर निवास करना)। किन्तु भक्तगण राज्य मुक्ति को कभी स्वीकार नहीं करते, क्योंकि यह ब्रह्म से तादात्म्य हैं।

    युग-धर्म प्रवर्तामु नाम-सङ्कीर्तन ।चारि भाव-भक्ति दिया नाचामु भुवन ॥

    १९॥

    मैं युगधर्म नाम-संकीर्तन का अर्थात् पवित्र नाम के सामूहिक कीर्तन का प्रवर्तन स्वयं करूंगा। मैं संसार को प्रेमाभक्ति के चार रसों की अनुभूति कराकर प्रेम-विभोर होकर नृत्य करने के लिए प्रवृत्त करूंगा।"

    आपनि करिमु भक्त-भाव अङ्गीकारे । आपनि आचरि' भक्ति शिखाइमु सबारे ॥

    २०॥

    मैं भक्त की भूमिका स्वीकार करूँगा और स्वयं भक्ति का अभ्यास करके उसकी शिक्षा दूंगा।

    आपने ना कैले धर्म शिखान ना ग्राय ।एइ त' सिद्धान्त गीता-भागवते गाय ॥

    २१॥

    जब तक कोई स्वयं भक्ति का अभ्यास नहीं करता, तब तक वह दूसरोंको इसकी शिक्षा नहीं दे सकता। इस निष्कर्ष की पुष्टि वस्तुतः पूरी तथा भागवत में हुई है।

    ग्रदा ग्रदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥

    २२॥

    हे भरतवंशी, जब जब और जहाँ जहाँ धर्म का ह्रास होता है और अर्म में वृद्धि होती है, तब तब मैं स्वयं अवतरित होता हूँ।'

    परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।।धर्म-संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥

    २३॥

    । पवित्रात्माओं का उद्धार करने तथा दुष्टों का विनाश करने के साथ साथ धर्म की पुनःस्थापना करने के लिए मैं प्रत्येक युग में प्रकट होता हूँ।

    उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्घा कर्म चेदहम् ।।सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥

    २४॥

    यदि मैं धर्म के सही सिद्धान्तों का प्रदर्शन न करता, तो ये सारे जगत् विनष्ट हो जाते और मैं अवांछित जनसंख्या का कारण बनता तथा इन सारे जीवों को विनष्ट कर देता।'

    यद् ग्रदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।। स ग्रत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥

    २५ ॥

    महान् पुरुष जो भी आचरण करता है, सामान्य जन उसका नुगमन करते हैं। वह आदर्श कार्यों से जो भी मानदण्ड स्थापित करता उसका ही अनुसरण सारा जगत् करता है।'

    मुग-धर्म-प्रवर्तन हय अंश हैते ।। आमा विना अन्ये नारे व्रज-प्रेम दिते ॥

    २६ ॥

    मेरे पूर्ण अंश प्रत्येक युग के लिए धर्म के सिद्धान्तों की स्थापना कर कते हैं। किन्तु मेरे अतिरिक्त अन्य कोई वह प्रेमाभक्ति प्रदान नहीं कर कता, जो व्रज के निवासियों द्वारा सम्पन्न की गई थी।

    सन्त्ववतारा बहवःपङ्कज-नाभस्य सर्वतो-भद्राः । कृष्णादन्यः को वालतास्वपि प्रेम-दो भवति ॥

    २७॥

    हो सकता है कि भगवान् के सर्व-कल्याणकारी अनेक अवतार हों, किन्तु श्रीकृष्ण के अतिरिक्त ऐसा कौन है, जो शरणागतों को भगवत्प्रेम प्रदान कर सके?' ताहाते आपन भक्त-गण करि' सङ्गे।।पृथिवीते अवतरि' करिमु नाना रङ्गे ॥

    २८॥

    अतएव मैं अपने भक्तों के संग पृथ्वी पर प्रकट होकर विविध रंगमयी लीलाएँ संपादन करूंगा।

    एत भावि' कलि-काले प्रथम सन्ध्याय ।।अवतीर्ण हैला कृष्ण आपनि नदीयाय ॥

    २९॥

    । इस प्रकार से सोचते हुए स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण कलियुग के प्रारम्भ ( प्रथम संध्या में ) नदिया में अवतरित हुए।

    चैतन्य-सिंहेर नवद्वीपे अवतार । सिंह-ग्रीव, सिंह-वीर्य, सिंहेर हुङ्कार ॥

    ३०॥

    इस प्रकार सिंहरूप भगवान् चैतन्य नवद्वीप में प्रकट हुए हैं। उनके कंधे सिंह जैसे हैं, उनकी शक्ति सिंह जैसी है और उनका उच्च स्वर सिंह जैसा है।

    सेड़ सिंह वसुजीवेर हृदय-कन्दरे । कल्मष-द्विरद नाशे याँहार हुङ्कारे ॥

    ३१॥

    वह सिंह प्रत्येक जीव के हृदय के भीतर आसीन हो। इस प्रकार वे अपनी गर्जना से मनुष्य के हाथी जैसे पापों को दूर करें।

    प्रथम लीलाय ताँर 'विश्वम्भर' नाम । भक्ति-रसे भरिल, धरिल भूत-ग्राम ॥

    ३२॥

    अपनी प्रारम्भिक लीलाओं में वे विश्वम्भर नाम से जाने जाते हैं, क्योंकि वे संसार को भक्तिरूपी अमृत से आप्लावित कर देते हैं और इस तरह जीवों का उद्धार करते हैं।

    डुभृधातुर अर्थ-पोषण, धारण । पुषिल, धरिल प्रेम दिया त्रिभुवन ॥

    ३३॥

    डुभृञ्” क्रिया-धातु ( जो विश्वम्भर शब्द की मूल है) पोषण तथा पालन की सूचक है। वे ( चैतन्य महाप्रभु) भगवत्प्रेम का वितरण करके लोकों का पालन-पोषण करते हैं।

    शेष-लीलाये धरे नाम' श्री-कृष्ण-चैतन्य' ।श्रीकृष्ण जानाये सब विश्व कैल धन्य ॥

    ३४॥

    अपनी अन्तिम लीलाओं में वे भगवान् श्रीकृष्ण चैतन्य के नाम से यात हैं। वे भगवान् श्रीकृष्ण के नाम तथा महिमा के बारे में शिक्षा ' जर सारे संसार को आशीर्वाद प्रदान करते हैं।

    ताँर झुगावतार जानि' गर्ग महाशय । कृष्णेर नाम-करणे करियाछे निर्णय ॥

    ३५॥

    उनको ( चैतन्य को) कलियुग के लिए अवतार जानकर ही गर्गमुनि ने कृष्ण के नामकरण संस्कार के समय उनके आविर्भाव की । भविष्यवाणी की थी।

    आसन्वर्णास्त्रयो ह्यस्य गृहृतोऽनु-युगं तनूः । शुक्लो रक्तस्तथा पीत इदानीं कृष्णतां गतः ॥

    ३६॥

    जब यह बालक (कृष्ण) विभिन्न युगों में प्रकट होता है, तो उसके अन्य तीन रंग होते हैं-श्वेत, लाल तथा पीत। इस समय यह दिव्य श्याम (कृष्ण) रंग में प्रकट हुआ है।

    शुक्ल, रक्त, पीत-वर्ण-एइ तिन द्युति ।। सत्य-त्रेता-कलि-काले धरेन श्री-पति ॥

    ३७॥

    श्वेत, लाल तथा पीत-ये तीन शारीरिक कान्तियाँ हैं, जिन्हें लक्ष्मीदेवी के पति भगवान् क्रमशः सत्य, त्रेता तथा कलियुग में धारण करते हैं।

    इदानीं द्वापरे तिंहो हैला कृष्ण-वर्ण ।एइ सब शास्त्रागम-पुराणेर मर्म ॥

    ३८॥

    अब द्वापर युग में भगवान् श्याम रंग लेकर अवतरित हुए थे। इस दर्भ में पुराणों तथा अन्य वैदिक ग्रंथों के कथनों का यही सार है।

    द्वापरे भगवान्श्यामः पीत-वासा निजायुधः ।।श्री-वत्सादिभिरकैश्च लक्षणैरुपलक्षितः ॥

    ३९॥

    द्वापर युग में भगवान् कृष्ण वर्ण में प्रकट होते हैं। वे पीत वस्त्र पारण करते हैं, वे अपने आयुध ( हथियार) लिए रहते हैं तथा कौस्तुभ मणि एवं श्रीवत्स चिह्न से अलंकृत रहते हैं। उनके लक्षणों का ऐसा वर्णन किया गया है।

    कलि-युगे युग-धर्म-नामेर प्रचार ।। तथि लागि' पीत-वर्ण चैतन्यावतार ॥

    ४० ॥

    कलियुग की धार्मिक विधि यह है कि भगवान् के पवित्र नाम की । महिमाओं का प्रसार किया जाये। केवल इसी उद्देश्य से भगवान् पीत रंग लेकर श्री चैतन्य रूप में अवतरित हुए हैं।

    तप्त-हेम-सम-कान्ति, प्रकाण्ड शरीर ।। नव-मेघ जिनि कण्ठ-ध्वनि ग्रे गम्भीर ॥

    ४१॥

    उनके विस्तृत शरीर की कान्ति पिघले सोने के समान है। उनकी गम्भीर वाणी नये उमड़े बादलों की गर्जना को परास्त करने वाली है।

    दैर्ध्व-विस्तारे येइ आपनार हात ।। चारि हस्त हय ‘महा-पुरुष' विख्यात ।। ४२।। जो व्यक्ति अपने हाथ से चार हाथ ऊँचा और इतना ही चौड़ा होता यह महापुरुष कहलाता है।

    'न्यग्रोध-परिमण्डल' हय ताँर नाम ।न्यग्रोध-परिमण्डल-तनु चैतन्य गुण-धाम ॥

    ४३॥

    ऐसा व्यक्ति न्यग्रोध परिमण्डल कहलाता है। समस्त सद्गुणों के मूर्तिमन्त स्वरूप श्री चैतन्य महाप्रभु का शरीर न्यग्रोध परिमण्डल है।

    आजानुलम्बित-भुज कमल-लोचन ।।तिलफुल-जिनि-नासा, सुधांशु-वदन ॥

    ४४॥

    उनकी भुजाएँ इतनी लम्बी हैं कि वे उनके घुटनों तक पहुँचती हैं, उनकी आँखें कमल के फूलों के सदृश हैं, उनकी नासिका तिल के फूल और उनका मुखमंडल चन्द्रमा के समान सुन्दर है।

    शान्त, दान्त, कृष्ण-भक्ति-निष्ठा-परायण ।भक्त-वत्सल, सुशील, सर्व-भूते सम ॥

    ४५ ॥

    है शान्त, संयमित तथा भगवान् श्रीकृष्ण की दिव्य सेवा में निष्ठा गई। वे अपने भक्तों के प्रति स्नेहिल हैं, सुशील हैं और सारे जीवों समभाव रखने वाले हैं।

    चन्दनेर अङ्गद-बाला, चन्दन-भूषण ।।नृत्य-काले परि' करेन कृष्ण-सङ्कीर्तन ॥

    ४६॥

    वे चन्दन के बने कंगनों और बाजूबन्दों से विभूषित हैं और वे चन्दन नेप से मंडित हैं। वे श्रीकृष्ण-संकीर्तन में नृत्य करने के उद्देश्य से ही भाभूषण धारण करते हैं।

    एई सब गुण ला मुनि वैशम्पायन ।सहस्र-नामे कैल ताँर नाम-गणन ॥

    ४७॥

    श्री चैतन्य के इन सारे गुणों को लिपिबद्ध करते हुए मुनि वैशम्पायन । पह श्लोक महाभारत (दानधर्म, विष्णुसहस्रनाम स्तोत्र) से लिया गया है। ने विष्णुसहस्रनाम में उनका नाम सम्मिलित कर लिया है।

    दुई लीला चैतन्येर–आदि आर शेष ।।दुइ लीलाय चारि चारि नाम विशेष ॥

    ४८॥

    श्री चैतन्य की लीला के दो विभाग हैं-आदि लीला तथा शेष लीला। इन दोनों लीलाओं में उनके चार-चार नाम हैं।

    सुवर्ण-वर्णो हेमाङ्गो वराङ्गश्चन्दनाङ्गदी ।।सन्यास-कृच्छमः शान्तो निष्ठा-शान्ति-परायणः ॥

    ४९॥

    अपनी आदि लीला में वे सुनहरे अंग वाले गृहस्थ के रूप में प्रकट होते हैं। उनके अंग-प्रत्यंग सुन्दर तथा उनका चन्दन-लेपित शरीर पिघले सोने जैसा लगता है। शेष लीला में वे संन्यास ग्रहण करते हैं और वे समभाव वाले तथा शान्त रहते हैं। वे शान्ति तथा भक्ति के सर्वोच्च धामहैं, क्योंकि वे निर्विशेषवादी अभक्तों को चुप करा देते हैं।

    व्यक्त करि' भागवते कहे बार बार ।। कलि-युगे धर्म-नाम-सङ्कीर्तन सार ॥

    ५०॥

    श्रीमद्भागवत में यह बारम्बार स्पष्ट रूप से कहा गया है कि कलियुग में धर्म का सार कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करना है।

    इति द्वापर उर्वीश स्तुवन्ति जगदीश्वरम् ।। नाना-तन्त्र-विधानेन कलावपि यथा शृणु ॥

    ५१॥

    हे राजन्, इस प्रकार द्वापर युग में लोगों ने ब्रह्माण्ड के स्वामी की । पूजा की। वे कलियुग में भी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की पूजा शास्त्रोक्त विधियों से करते हैं। कृपा करके इसे मुझसे सुनें।

    कृष्ण-वर्णं त्विषाकृष्णं साङ्गोपाङ्गास्त्र-पार्षदम् । यज्ञैः सङ्कीर्तन-प्रायैर्यजन्ति हि सु-मेधसः ॥

    ५२॥

    कलियुग में बुद्धिमान व्यक्ति ईश्वर के उन अवतार की पूजा करने लिए सामूहिक कीर्तन करते हैं, जो कृष्ण-नाम का निरन्तर गान करते पयपि उनका शरीर श्यामवर्ण का नहीं है, किन्तु वे स्वयं कृष्ण हैं। के साथ उनके पार्षद, सेवक, आयुध तथा विश्वस्त संगी रहते हैं।

    शुन, भाइ, एइ सब चैतन्य-महिमा । एइ श्लोके कहे ताँर महिमार सीमा ॥

    ५३॥

    प्रिय भाइयों, कृपया चैतन्य महाप्रभु की इन सारी महिमाओं को सुनो। यह श्लोक स्पष्टतया उनके कार्यकलापों तथा लक्षणों का सार प्रस्तुत करता है।

    'कृष्ण' एइ दुइ वर्ण सदा ग्राँर मुखे । अथवा, कृष्णके तिंहो वर्णे निज सुखे ॥

    ५४॥

    ‘कृष्' तथा 'ण' ये दो अक्षर सदैव उनके मुख में रहते हैं; अथवा, वे अत्यन्त हर्ष के साथ कृष्ण को निरन्तर वर्णन करते हैं।

    कृष्ण-वर्ण-शब्देर अर्थ दुइ त प्रमाण ।।कृष्ण विनु ताँर मुखे नाहि आइसे आन ॥

    ५५॥

    कृष्णवर्ण शब्द के ये ही दो अर्थ हैं। वस्तुतः कृष्ण के अतिरिक्त अन्य कुछ भी उनके मुख से नहीं निकलता।

    केह ताँरै बले ग्रदि कृष्ण-वरण ।आर विशेषणे तार करे निवारण ॥

    ५६॥

    यदि कोई उन्हें श्याम रंग (वर्ण) वाला कहने का प्रयास करता है, तो अगला विशेषण ( त्विषा अकृष्णम्) तुरन्त ही उसका निवारण करता है।

    देह-कान्त्ये हय तेंहो अकृष्ण-वरण ।अकृष्ण-वरणे कहे पीत-वरेण ॥

    ५७॥

    उनके शरीर की कान्ति निश्चित रूप से श्याम (कृष्ण) नहीं है। वे वाम नहीं हैं, इससे यह सूचित होता है कि उनका रंग पीला है।

    कलौ ग्रं विद्वांसः स्फुटमभियजन्ते द्युति-भराद् ।अकृष्णाङ्गं कृष्णं मख-विधिभिरुत्कीर्तन-मयैः । उपास्यं च प्राहुर्घमखिल-चतुर्थाश्रम-जुषां।स देवश्चैतन्याकृतिरतितरां नः कृपयतु ॥

    ५८॥

    कलियुग में पवित्र नाम के संकीर्तन-यज्ञ द्वारा विद्वान लोग उन भगवान् कृष्ण की पूजा करते हैं, जो श्रीमती राधारानी की भावनाओं के तीव्र वेग के कारण अब अकृष्ण हैं। वे उन परमहंसों के एकमात्र आराध्य देव हैं, जिन्होंने चतुर्थ आश्रम ( संन्यास) की सर्वोच्च अवस्था प्राप्त का ली है। ऐसे पूर्ण पुरुषोत्तम चैतन्य महाप्रभु हम पर अपनी अहैतुकी कृष्ण प्रदर्शित करें।

    प्रत्यक्ष ताँहार तप्त-काञ्चनेर द्युति ।। याँहार छटाय नाशे अज्ञान-तमस्तति ॥

    ५९॥

    उनके पिघले सोने जैसे चमकीले रंग को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है, जो अज्ञान के अंधकार को दूर करता है।

    जीवेर कल्मष-तमो नाश करिबारे ।। अङ्ग-उपाङ्ग-नाम नाना अस्त्र धरे ॥

    ६०॥

    जीवों का पापमय जीवन अज्ञान से उत्पन्न होता है। उस अज्ञान को नष्ट करने के लिए वे अनेक अस्त्र अपने साथ लाये हैं यथा उनके 'शरूपी पार्षद, उनके भक्त तथा उनका पवित्र नाम।

    भक्तिर विरोधी कर्म-धर्म वा अधर्म । ताहारऽकल्मष' नाम, सेइ महा-तमः ॥

    ६१॥

    । सबसे बड़े अज्ञानरूप वे धार्मिक या अधार्मिक कार्यकलाप हैं, जो भक्ति के विरोधी होते हैं। वे कल्मष अर्थात् पाप कहलाते हैं।

    बाहु तुलि' हरि बलि' प्रेम-दृष्ट्ये चाय ।करिया कल्मष नाश प्रेमेते भासाय ॥

    ६२॥

    अपनी भुजाएँ उठाकर, पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए और सबको न प्रेम से देखते हुए वे समस्त पापों को दूर कर देते हैं और भगवान् प्रेम से सबको आप्लावित कर देते हैं।

    स्मितालोकः शोकं हरति जगतां यस्य परितोगिरां तु प्रारम्भः कुशल-पटली पल्लवयति । पदालम्भः कं वा प्रणयति न हि प्रेम-निवहं।स देवश्चैतन्याकृतिरतितरां नः कृपयतु ॥

    ६३॥

    श्री चैतन्य के रूप में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हम पर अपनी अहैतुकी कृपा की वृष्टि करें। उनकी स्मितहास्य युक्त दृष्टि तुरन्त ही संसार के सारे शोकों को दूर कर देती है और उनकी वाणी शुभ भक्ति-लताओं को पल्लवित कर जीवन प्रदान करती है। उनके चरणकमलों की शरण लेने से तुरन्त ही दिव्य भगवत्प्रेम का उदय होता है।

    श्री-अङ्ग, श्री-मुख ग्रेड करे दरशन ।। तार पाप-क्षय हेय, पाय प्रेम-धन ॥

    ६४॥

    जो कोई भी उनके सुन्दर शरीर या सुन्दर मुख का दर्शन करता है, वह सारे पापों से मुक्त हो जाता है और भगवत्प्रेम रूपी सम्पत्ति को प्राप्त करता है।

    अन्य अवतारे सब सैन्य-शस्त्र सङ्गे।। चैतन्य-कृष्णेर सैन्य अङ्ग-उपाङ्गे ॥

    ६५ ।। अन्य अवतारों में भगवान् सेना तथा अस्त्रों समेत अवतरित हुए, किन्तु इस अवतार में उनकी सेना उनके पूर्ण अंश तथा पार्षद हैं।

    सदोपास्यः श्रीमान्धृत-मनुज-कायैः प्रणयितांवहद्भिर्गीर्वाणैर्गिरिश-परमेष्ठि-प्रभृतिभिः । स्व-भक्तेभ्यः शुद्धां निज-भजन-मुद्रामुपदिशन्स चैतन्यः किं मे पुनरपि दृशोर्यास्यति पदम् ॥

    ६६॥

    भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु शिवजी तथा ब्रह्माजी समेत समस्त देवताओं के परम आराध्य देव हैं। ये देवता सामान्य मनुष्यों के वेश में उनके प्रति प्रेम प्रदर्शन करते हुए आये। वे अपने भक्तों को अपनी शुद्ध भक्ति का उपदेश देते हैं। क्या वे पुनः मेरे दृष्टिपथ पर विराजमान होंगे? आङ्गोपाङ्ग अस्त्र करे स्व-कार्य-साधन । ‘अङ्ग'-शब्देर अर्थ आर शुन दियो मन ॥

    ६७॥

    उनके पूर्ण अंश तथा पार्षद अपना निजी विशेष कर्तव्य मानकर उनके अस्त्रों का कार्य करते हैं। कृपया मुझसे अङ्ग शब्द का दूसरा अर्थ सुनो।

    ‘अङ्ग'-शब्दे अंश कहे शास्त्र-परमाण। अङ्गेर अवयव उपाङ्ग'-व्याख्यान ॥

    ६८ ॥

    प्रामाणिक शास्त्रों के प्रमाण के अनुसार शारीरिक अंग' भी अंश लाता है और अंग के अंश को उपांग कहते हैं।

    नारायणस्त्वं न हि सर्व-देहिनाम्आत्मास्यधीशाखिल-लोक-साक्षी । नारायणोऽङ्गं नर-भू-जलायनात् ।तच्चापि सत्यं न तवैव माया ॥

    ६९ ॥

    हे प्रभुओं के प्रभु! आप सारी सृष्टि के दृष्टा हैं। आप हर एक के परम प्रिय प्राण हैं। तो इसलिए क्या आप मेरे पिता नारायण नहीं हैं?'नारायण' मका सूचक है, जिसका निवास नर (गर्भोदकशायी विष्णु) से उत्पन्न जल में है और वे नारायण आपके पूर्ण अंश हैं। आपके सारे पूर्ण अंश दिव्य हैं। वे परम पूर्ण हैं और माया द्वारा सृजित नहीं हैं।

    जल-शायी अन्तर्यामी ग्रेइ नारायण ।सेहो तोमार अंश, तुमि मूल नारायण ॥

    ७० ॥

    हर एक के हृदय में विद्यमान रहने वाले नारायण तथा जल ( कारण, गर्भ तथा क्षीर) में रहने वाले नारायण आपके ही पूर्ण अंश हैं। अतएव आप मूल नारायण हैं।

    ‘अङ्ग'-शब्दे अंश कहे, सेहो सत्य हय ।।माया-कार्ड्स नहे---सब चिदानन्द-मय ॥

    ७१॥

    ‘अंग' शब्द निश्चय ही पूर्ण अंश का सूचक है। ऐसे प्राकट्यों को कभी भी भौतिक प्रकृति की उपज नहीं मानना चाहिए, क्योंकि वे सभी दिव्य, ज्ञान एवं आनन्द से पूर्ण हैं।

    अद्वैत, नित्यानन्द–चैतन्येर दुइ अङ्ग ।।अङ्गेर अवयव-गण कहिये उपाङ्ग ॥

    ७२॥

    श्री अद्वैत प्रभु और श्री नित्यानन्द प्रभु दोनों ही चैतन्य महाप्रभु के पूर्ण अंश हैं। इस प्रकार वे उनके शरीर के अंग हैं। इन दोनों अंगों के अंश उपांग कहलाते हैं।

    अङ्गोपाङ्ग तीक्ष्ण अस्त्र प्रभुर सहिते ।।सेइ सब अस्त्र हय पाषण्ड दलिते ॥

    ७३॥

    इस तरह भगवान् अपने अंगों तथा उपांगों रूपी तीक्ष्ण अस्त्रों से सुसज्जित हैं। ये सारे अस्त्र श्रद्धाविहीन नास्तिकों का दलन करने में सक्षम हैं।

    नित्यानन्द गोसाञि साक्षात् हलधर । अद्वैत आचार्य गोसाञि साक्षातीश्वर ॥

    ७४॥

    श्री नित्यानन्द गोसांई साक्षात् हलधर ( भगवान् बलराम) हैं और अति आचार्य साक्षात् ईश्वर हैं।

    श्रीवासादि पारिषद सैन्य सङ्गे ला । दुइ सेनापति बुले कीर्तन करिया ॥

    ७५॥

    ये दोनों सेनापति, श्रीवास ठाकुर जैसे अपने सैनिकों के साथ, पवित्र भगवन्नाम का कीर्तन करते हुए सर्वत्र विचरण करते हैं।

    पाषण्ड-दलन-वाना नित्यानन्द राय ।। आचार्य-हुङ्कारे पाप-पाषण्डी पलाय ॥

    ७६ ॥

    नित्यानन्द प्रभु के स्वरूप से ही सूचित होता है कि वे पाषण्डियों के दलनकर्ता हैं। अद्वैत आचार्य की ऊंची गर्जना से सारे पाप तथा सारे पाषण्डी भाग खड़े होते हैं।

    सङ्कीर्तन-प्रवर्तक श्रीकृष्ण-चैतन्य । सङ्कीर्तन-यज्ञे ताँरै भजे, सेइ धन्य । ७७॥

    भगवान् श्रीकृष्ण चैतन्य संकीर्तन ( भगवन्नाम के सामूहिक कीर्तन)के प्रवर्तक हैं। जो संकीर्तन के माध्यम से उनकी पूजा करता है, वह । भाग्यवान है।

    सेइ त' सुमेधा, आर कुबुद्धि संसार ।सर्व-व्रज्ञ हैते कृष्ण-नाम-व्रज्ञ सार ॥

    ७८॥

    ऐसा व्यक्ति सचमुच बुद्धिमान है, जबकि अन्य अल्पज्ञानी व्यक्तियों जन्म-मृत्यु के चक्र को भोगना पड़ता है। समस्त यज्ञों में भगवान् के नाम का कीर्तन सर्वश्रेष्ठ यज्ञ है।

    कोटि अश्वमेध एक कृष्ण नाम सम ।येइ कहे, से पाषण्डी, दण्डे तारे ग्रम ॥

    ७९ ॥

    जो व्यक्ति यह कहता है कि एक करोड़ अश्वमेध यज्ञ भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम के कीर्तन के तुल्य है, वह निश्चित रूप से नास्तिक है। उसे यमराज अवश्य दण्डित करते हैं।

    भागवत-सन्दर्भ-ग्रन्थेर मङ्गलाचरणे ।। ए-श्लोक जीव-गोसाञि करियाछेन व्याख्याने ॥

    ८० ॥

    भागवत-सन्दर्भ के मंगलाचरण में श्रील जीव गोस्वामी ने इसकी पाख्या में निम्नलिखित श्लोक दिया है।

    अन्तः कृष्णं बहिर्गीरं दर्शिताङ्गादि-वैभवम् ।।कलौ सङ्कीर्तनाद्यैः स्म कृष्ण-चैतन्यमाश्रिताः ॥

    ८१॥

    मैं भगवान् श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का आश्रय ग्रहण करता हूँ, जो बाहर से गौर वर्ण के हैं, किन्तु भीतर से स्वयं कृष्ण हैं। इस कलियुग में घे भगवान् के पवित्र नाम का संकीर्तन करके अपने विस्तारों अर्थात् अपने अंगों तथा उपांगों का प्रदर्शन करते हैं।

    उप-पुराणेह शुनि श्री कृष्ण-वचन ।कृपा करि व्यास प्रति करियाछेन कथन ॥

    ८२॥

    उपपुराणों में हम श्रीकृष्ण को व्यासदेव पर यह कहकर अपनी कृपा प्रदर्शित करते सुनते हैं।

    अहमेव क्वचिद्बह्मन्सन्यासाश्रममाश्रितः । हरि-भक्तिं ग्राहयामि कलौ पाप-हतान्नरान् ॥

    ८३॥

    हे विद्वान ब्राह्मण, कभी-कभी मैं कलियुग के पतित लोगों को भगवद्भक्ति के लिए प्रेरित करने हेतु संन्यास आश्रम ग्रहण करता हूँ।

    भागवत, भारत-शास्त्र, आगम, पुराण । चैतन्य-कृष्ण-अवतारे प्रकट प्रमाण ॥

    ८४॥

    श्रीमद्भागवत, महाभारत, पुराण तथा अन्य वैदिक साहित्य यह सिद्ध भरने के लिए प्रमाण देते हैं कि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कृष्ण के अवतार है।

    प्रत्यक्षं देखह नाना प्रकट प्रभाव । अलौकिक कर्म, अलौकिक अनुभाव ॥

    ८५॥

    कोई भी व्यक्ति भगवान् चैतन्य के प्रकट प्रभाव को उनके असाधारण कार्यों तथा असामान्य कृष्ण-भावानुभूति से भी प्रत्यक्ष देख सकता है।

    त्वां शील-रूप-चरितैः परम-प्रकृष्टैः ।सत्त्वेन सात्त्विकतया प्रबलैश्च शास्त्रैः ।। प्रख्यात-दैव-परमार्थ-विदां मतैश्च । नैवासुर-प्रकृतयः प्रभवन्ति बोद्भुम् ॥

    ८७॥

    प्रभु, जो लोग आसुरी वृत्तियों से प्रभावित हैं, वे आपकी अनुभूति कर सकते। यद्यपि आप अपने महान् कार्यो, रूपों, चरित्र तथा मान्य शक्ति के कारण स्पष्ट रूप से सर्वश्रेष्ठ हैं, जिनकी पुष्टि सभी क शास्त्रों और दिव्य प्रकृति वाले विख्यात अध्यात्मवादियों द्वारा होती है।

    देखिया ना देखे व्रत अभक्तेर गण । उलूके ना देखे ग्रेन सूर्येर किरण ॥

    ८६॥

    किन्तु श्रद्धाविहीन अभक्त लोग स्पष्ट दिखाई देने वाली वस्तु को भी । नहीं देखते, जिस तरह उल्लू सूर्य की किरणों को नहीं देखते।

    आपना लुकाइते कृष्ण नाना ग्रन करे । तथापि ताँहार भक्त जानये ताँहारे ॥

    ८८॥

    के भगवान् श्रीकृष्ण अपने आपको छिपाने का प्रयत्न अनेक प्रकार से रते हैं, फिर भी उनके भक्त उन्हें यथार्थ रूप में जान ही लेते हैं।

    उल्लङ्घित-त्रिविध-सीम-समातिशायिसम्भावनं तव परिव्रढ़िम-स्वभावम् । माया-बलेन भवतापि निगुह्यमानंपश्यन्ति केचिदनिशं त्वदनन्य-भावाः ॥

    ८९॥

    हे प्रभु, भौतिक प्रकृति के भीतर हर वस्तु काल, देश तथा विचार में सीमित है। फिर भी आपके गुण अद्वितीय तथा असीम होने से ऐसी सीमाओं से सदैव परे होते हैं। कभी-कभी आप इन गुणों को अपनी ही शक्ति से ढक लेते हैं, फिर भी आपके अनन्य भक्त हर परिस्थिति में आपका दर्शन पाने में समर्थ हैं।

    असुर-स्वभावे कृष्णे कभु नाहि जाने ।लुकाइते नारे कृष्ण भक्त-जन-स्थाने ॥

    ९० ॥

    । जो आसुरी स्वभाव के हैं, वे कभी भी कृष्ण को नहीं जान सकते, किन्तु कृष्ण अपने शुद्ध भक्तों से अपने आपको छिपा नहीं पाते।

    द्वौ भूत-सर्गी लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च ।विष्णु-भक्तः स्मृतो दैव आसुरस्तद्विपर्ययः ॥

    ९१ ॥

    इस भौतिक संसार में दो प्रकार के लोग होते हैं। एक तो वे जो आसुरी हैं और दूसरे वे जो दैवी हैं। भगवान् विष्णु के भक्त दैवी हैं, किन्तु जो इनके सर्वथा विपरीत हैं, वे असुर कहलाते हैं।

    आचार्य गोसाजि प्रभुर भक्त-अवतार ।कृष्ण-अवतार-हेतु याँहार हुङ्कार ॥

    ९२॥

    अद्वैत आचार्य गोस्वामी भक्त के रूप में भगवान् के अवतार हैं। मकी ऊँची गर्जना से ही कृष्ण अवतरित हुए थे।

    कृष्ण यदि पृथिवीते करेन अवतार ।प्रथमे करेन गुरु-वर्गेर सञ्चार ॥

    ९३॥

    जब भी श्रीकृष्ण इस धरा पर अवतरित होना चाहते हैं, तब सर्वप्रथम में अपने पूज्य गुरुवर्गों को अवतरित कराते हैं।

    पिता माता गुरु आदि ग्रत मान्य-गण ।प्रथमे करेन सबार पृथिवीते जनम ॥

    ९४॥

    इस प्रकार सर्वप्रथम पृथ्वी पर आदरणीय लोगों यथा उनके पिता, माता तथा गुरु का जन्म होता है।

    माधव-ईश्वर-पुरी, शची, जगन्नाथ ।। अद्वैत आचार्य प्रकट हैली सेइ साथ ॥

    ९५ ।। माधवेन्द्र पुरी, ईश्वर पुरी, श्रीमती शचीमाता तथा श्रील जगन्नाथ मिश्र-ये सभी श्री अद्वैत आचार्य के साथ साथ प्रकट हुए।

    प्रकटिया देखे आचार्य सकल संसार । कृष्ण-भक्ति गन्ध-हीन विषय-व्यवहार ॥

    ९६॥

    अद्वैत आचार्य ने प्रकट होने के बाद देखा कि संसार श्रीकृष्ण की। भक्ति से विहीन है, क्योंकि लोग भौतिक व्यापारों में व्यस्त थे।

    केह पापे, केह पुण्ये करे विषय-भोग ।।भक्ति-गन्ध नाहि, ग्राते ग्राय भव-रोग ॥

    ९७॥

    । प्रत्येक व्यक्ति, चाहे पापवश हो या पुण्यवश, भौतिक भोग में लगा आ था। कोई भी भगवान् की दिव्य सेवा में रुचि नहीं रखता था, जिससे जन्म-मरण के चक्र से छुटकारा प्राप्त हो सकता है।

    लोक-गति देखि' आचार्य करुण-हृदय ।। विचार करेन, लोकेर कैछे हित हय ॥

    ९८॥

    संसार के कार्यकलापों को देखकर आचार्य को दया आई और वे विचार करने लगे कि वे जनता का हित किस तरह करें।

    आपनि श्री कृष्ण यदि करेन अवतार ।।आपने आचरि' भक्ति करेन प्रचार ॥

    ९९॥

    नुवाद (अद्वैत आचार्य ने सोचा :) यदि श्रीकृष्ण अवतार के रूप में प्रकट हों, तो वे स्वयं अपने व्यक्तिगत उदाहरण द्वारा भक्ति का प्रचार कर सकते है ।

    नाम विनु कलि-काले धर्म नाहि आर।।कलि-काले कैछे हबे कृष्ण अवतार ॥

    १०० ॥

    इस कलियुग में भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन के अतिरिक्त अन्य कोई धर्म नहीं है, लेकिन इस युग में भगवान् किस तरह अवतार लेंगे? शुद्ध-भावे करिब कृष्णेर आराधन ।। निरन्तर सदैन्ये करिब निवेदन ॥

    १०१॥

    मैं शुद्ध मन से कृष्ण की पूजा करूंगा। मैं उनसे निरन्तर विनीत भाव से निवेदन करूंगा।

    आनिया कृष्णेरे करों कीर्तन सञ्चार ।तबे से 'अद्वैत' नाम सफल आमार ॥

    १०२॥

    मेरा 'अद्वैत' नाम तभी सार्थक होगा, जब मैं कृष्ण को पवित्र नामकीर्तन आन्दोलन का प्रवर्तन करने के लिए प्रेरित कर सकेंगा।

    कृष्ण वश करिबेन कोनाराधने ।विचारिते एक श्लोक आइल ताँर मने ॥

    १०३ ॥

    जब वे पूजा द्वारा कृष्ण को वश में करने के विषय में सोच रहे थे, तब उनके मन में निम्नलिखित श्लोक आया।

    तुलसी-दल-मात्रेण जलस्य चुलुकेन वा ।।विक्रीणीते स्वमात्मानं भक्तेभ्यो भक्त-वत्सलः ॥

    १०४॥

    अपने भक्तों के प्रति अत्यन्त वत्सल श्रीकृष्ण अपने आपको उस भक्त के हाथ बेच देते हैं, जो उन्हें केवल तुलसीदल तथा एक अंजलिभर जल अर्पित करता है।

    एई श्लोकार्थ आचार्य करेन विचारण । कृष्णके तुलसी-जल देय येइ जन ॥

    १०५॥

    तार ऋण शोधिते कृष्ण करेन चिन्तन-। ‘जल-तुलसीर सम किछु घरे नाहि धन' ॥

    १०६॥

    । अद्वैत आचार्य ने इस श्लोक के अर्थ पर इस प्रकार विचार किया : को कृष्ण को तुलसीदल तथा जल अर्पित करता है, उसके ऋण को काने की कोई विधि ने पाकर भगवान् कृष्ण सोचते हैं, ‘मेरे पास ऐसी कोई सम्पत्ति नहीं जो तुलसीदल तथा जल की समता कर सके।'

    तबे आत्मा वेचि' करे ऋणेर शोधन ।एत भावि' आचार्य करेन आराधन ॥

    १०७॥

    इस प्रकार भगवान् अपने आपको भक्त के हाथ अर्पित करके अपना vण चुकाते हैं। इस तरह विचार करके आचार्य ने भगवान् की आराधना प्रारम्भ कर दी।

    गङ्गा-जल, तुलसी-मञ्जरी अनुक्षण ।। कृष्ण-पाद-पद्म भावि' करे समर्पण ॥

    १०८॥

    श्रीकृष्ण के चरणकमलों का चिन्तन करते हुए उन्होंने गंगाजल में तुलसी मंजरियाँ मिलाकर निरन्तर अर्पित कीं।

    कृष्णेर आह्वान करे करिया हुङ्कार ।। ए-मते कृष्णेरे कराइल अवतार ॥

    १०९॥

    उन्होंने जोर-जोर से श्रीकृष्ण से विनती की और इस तरह कृष्ण का तरित होना सम्भव हुआ।

    चैतन्येर अवतारे एइ मुख्य हेतु ।।भक्तेर इच्छाय अवतरे धर्म-सेतु ॥

    ११०॥

    अतएव श्री चैतन्य के अवतार का मुख्य कारण अद्वैत आचार्य की ड विनती है। धर्म के संरक्षक भगवान् अपने भक्त की इच्छा से प्रकट होते है । त्वं भक्ति-स्रोग-परिभावित-हृत्सरोजआस्से श्रुतेक्षित-पथो ननु नाथ पुंसाम् । ग्रद् ग्रद्धिया त उरुगाय विभावयन्तितत्तद्वपुः प्रणयसे सदनुग्रहाये ॥

    १११॥

    हे प्रभु, आप अपने शुद्ध भक्तों की दृष्टि तथा श्रुति में सदैव वास आप उनके कमल सदृश हृदयों में भी निवास करते हैं, जो भक्ति द्वारा निर्मल हो चुके होते हैं। हे भगवान्, आप उत्कृष्ट स्तुतियों से महिमान्वित होते हैं। आपके भक्त आपके जिन सनातन रूपों में आपका स्वागत करते हैं, उन रूपों में प्रकट होकर आप उन पर विशेष अनुग्रह करते हैं।

    एइ श्लोकेर अर्थ कहि सक्षेपेर सार। भक्तेर इच्छाय कृष्णेर सर्व अवतार ॥

    ११२॥

    इस श्लोक का भावार्थ यह है कि भगवान् अपने शुद्ध भक्तों की इच्छा से अपने असंख्य शाश्वत रूपों में प्रकट होते हैं। चतुर्थ श्लोकेर अर्थ हैल सुनिश्चिते । अवतीर्ण हैला गौर प्रेम प्रकाशिते ॥

    ११३॥

    इस प्रकार मैंने चौथे श्लोक का अर्थ निश्चित कर दिया है। गौरांग महाप्रभु ईश्वर के अनन्य प्रेम का प्रचार करने के लिए अवतार के रूप में । प्रकट हुए।

    श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश ।चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥

    ११४॥

    श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों में प्रार्थना करते हुए, सदैव उनकी कृपा की आकांक्षा से, मैं कृष्णदास उनके चरणचिह्नों का अनुसरण करते हुए श्री चैतन्य-चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।

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    अध्याय चार: श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रकट होने के गोपनीय कारण

    श्री-चैतन्य-प्रसादेन तद्रूपस्य विनिर्णयम् । बालोऽपि कुरुते शास्त्रं दृष्ट्वा व्रज-विलासिनः ॥

    १॥

    भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा से एक मूर्ख बालक भी शास्त्रों की दृष्टि के अनुसार व्रज-लीलाओं के भोक्ता भगवान् कृष्ण के वास्तविक आप का पूर्ण वर्णन कर सकता है।

    जय जय श्री-चैतन्य जय नित्यानन्द ।जयाद्वैत-चन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ॥

    २॥

    भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय भी अद्वैत आचार्य की जय हो! श्री चैतन्य महाप्रभु के समस्त भक्तों जो जय हो! चतुर्थ श्लोकेर अर्थ कैल विवरण ।।पञ्चम श्लोकेर अर्थ शुने भक्त-गण ॥

    ३॥

    मैंने चतुर्थ श्लोक के अर्थ का वर्णन किया है। अब, हे भक्तों! कृपा । करके पाँचवे श्लोक की व्याख्या सुनो।

    मूल-श्लोकेर अर्थ करिते प्रकाश ।अर्थ लागाइते आगे कहिये आभास ॥

    ४॥

    मूल श्लोक की व्याख्या करने के लिए मैं पहले इसका अर्थ बताऊँगा।

    चतुर्थ श्लोकेर अर्थ एइ कैल सार ।।प्रेम-नाम प्रचारिते एइ अवतार ॥

    ५॥

    मैंने चतुर्थ श्लोक का सार रूपी अर्थ दे दिया है-यह अवतार ( श्री चैतन्य महाप्रभु) पवित्र नाम के कीर्तन का प्रचार करने तथा भगवत्प्रेम के प्रसार के लिए होता है।

    सत्य एइ हेतु, किन्तु एहो बहिरङ्ग ।। आर एक हेतु, शुन, आछे अन्तरङ्ग ॥

    ६॥

    । यद्यपि यह सच है, किन्तु यह तो भगवान् के अवतार का बाह्य कारण है । कृपा करके भगवान् के आविर्भाव का एक अन्य कारण-गुह्य - ज-भी सुनें।

    पूर्वे ग्रेन पृथिवीर भार हरिबारे ।।कृष्ण अवतीर्ण हैला शास्त्रेते प्रचारे ॥

    ७॥

    शास्त्र यही घोषणा करते हैं कि इसके पूर्व भगवान् कृष्ण पृथ्वी का पर उतारने के लिए अवतरित हुए थे।

    स्वयं-भगवानेर कर्म नहे भार-हरण । स्थिति-कर्ता विष्णु करेन जगत्पालन ॥

    ८॥

    किन्तु यह भार उतारना पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का कार्य नहीं है। पालनकर्ता भगवान् विष्णु ही ब्रह्माण्ड की रक्षा करते हैं।

    किन्तु कृष्णेर येइ हय अवतार-काल ।भार-हरण-काल ताते हइल मिशाल ॥

    ९॥

    किन्तु संसार का भार उतारने का काल कृष्ण के अवतार-काल के साथ मिश्रित हो गया।

    पूर्ण भगवानवतरे ग्रेइ काले ।आर सब अवतार ताँते आसि' मिले ॥

    १०॥

    व पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् अवतरित होते हैं, तब भगवान् के अन्य अवतार उनमें आकर मिल जाते हैं।

    नारायण, चतुयूंह, मत्स्याद्यवतार । ग्रुग-मन्वन्तरावतार, यत आछे आर ॥

    ११॥

    सबे आसि' कृष्ण-अङ्गे हय अवतीर्ण । ऐछे अवतरे कृष्ण भगवान्पूर्ण ॥

    १२॥

    भगवान् नारायण, चार मूल विस्तार (वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध), मत्स्य तथा अन्य लीला अवतार, युगावतार तथा मन्वन्तर अवतार-तथा अन्य जितने सारे अवतार हैं-वे सभी कृष्ण के शरीर में अवतरित होते हैं। इस प्रकार पूर्ण भगवान्, साक्षात् श्रीकृष्ण प्रकट होते हैं।

    अतएव विष्णु तखन कृष्णेर शरीरे ।विष्णु-द्वारे करे कृष्ण असुर-संहारे ॥

    १३॥

    अतएव उस समय भगवान् विष्णु भगवान् कृष्ण के शरीर में उपस्थित रहते हैं और भगवान् कृष्ण उनके माध्यम से असुरों का संहार करते हैं।

    आनुषङ्ग-कर्म एइ असुर-मारण । ।लागि' अवतार, कहि से मूल कारण ॥

    १४॥

    इस प्रकार असुरों का संहार तो गौण कार्य होता है। अब मैं कृष्ण के अवतार का मुख्य कारण बतलाऊँगा।

    प्रेम-रस-निर्वास करिते आस्वादन । राग-मार्ग भक्ति लोके करिते प्रचारण ॥

    १५॥

    रसिक-शेखर कृष्ण परम-करुण ।एइ दुइ हेतु हैते इच्छार उद्गम ॥

    १६॥

    अवतार लेने की भगवान् की इच्छा दो कारणों से उत्पन्न हुई थीगवत्प्रेम रस के माधुर्य का आस्वादन करना चाह रहे थे और वे संसार भक्ति का प्रसार रागानुगा ( स्वयंस्फूर्त ) अनुरक्ति के स्तर पर करना चाहते थे। इस तरह वे परम प्रफुल्लित ( रसिकशेखर) एवं परम तणामय नाम से विख्यात हैं।

    ऐश्वर्य-ज्ञानेते सब जगत्मिश्रित ।।ऐश्वर्य-शिथिल-प्रेमे नाहि मोर प्रीत ॥

    १७॥

    ( भगवान् कृष्ण ने सोचा :) सारा ब्रह्माण्ड मेरे ऐश्वर्य भाव से पूरित है, किन्तु उस ऐश्वर्य के भाव से दुर्बल हुआ प्रेम मुझे सन्तुष्ट नहीं करता।

    आमारे ईश्वर माने, आपनाके हीन ।।तार प्रेमे वश आमि ना होइ अधीन ॥

    १८॥

    यदि कोई मुझे परमेश्वर समझता है और अपने आपको मेरे अधीन मानता है, तो मैं न तो उसके प्रेम के अधीन होता हूँ, न ही उसका प्रेम मुझे वश में कर सकता है।

    आमाके त' ने ये भक्त भजे येइ भावे ।। तारे से से भावे भजि,-ए मोर स्वभावे ॥

    १९॥

    । मेरा भक्त जिस भी दिव्य रस में मेरी पूजा करता है, उसी भाव में मैं । के साथ आदान-प्रदान करता हूँ। यह मेरा सहज स्वभाव है।

    ने ग्रथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।।मम वर्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥

    २० ॥

    मेरे भक्तजन जिस किसी रूप में मेरी शरण में आते हैं, मैं उन्हें उसी के अनुसार पुरस्कृत करता हूँ। हे पृथापुत्र, सारे लोग सभी प्रकार से मेरे पथ का अनुसरण करते हैं।'

    मोर पुत्र, मोर सखा, मोर प्राण-पति ।। एइ-भावे ग्रेइ मोरे करे शुद्ध-भक्ति ॥

    २१॥

    आपनाके बड़ माने, आमारे सम-हीन ।सेई भावे हई आमि ताहार अधीन ॥

    २२ ॥

    यदि कोई मुझे अपना पुत्र, अपना मित्र या अपना प्रेमी मानकर और अपने आपको महान् एवं मुझको अपने समान या अपने से निम्न मानकर मेरी शुद्ध प्रेमाभक्ति करता है, तो मैं उसके अधीन हो जाता हूँ।

    मयि भक्तिर्हि भूतानाममृतत्वाय कल्पते । दिया ग़दासीन्मत्स्नेहो भवतीनां मदापनः ॥

    २३॥

    । जीवों द्वारा मेरे प्रति की गई भक्ति उनके सनातन जीवन को पुनरुज्जीवित करती है। हे व्रजबालाओं, मेरे प्रति तुम्हारा स्नेह तुम्हारा सौभाग्य है, क्योंकि इसी एकमात्र साधन से तुम लोगों ने मेरा अनुग्रह प्राप्त किया है।'

    माता मोरे पुत्र-भावे करेन बन्धन ।। अतिहीन-ज्ञाने करे लालन पालन ॥

    २४॥

    मेरी माता कभी-कभी अपने पुत्र के रूप में मुझे बाँध देती है। वह -- अत्यन्त असहाय समझकर मेरा लालन-पालन करती है।

    सखा शुद्ध-सख्ये करे, स्कन्धे आरोहण ।। तुमि कोन्बड़ लोक,—तुमि आमि सम ॥

    २५ ॥

    मेरे मित्र शुद्ध मैत्री के कारण मेरे कन्धों पर यह कहते हुए चढ़ जाते कि, 'तुम किस तरह के बड़े व्यक्ति हो? तुम और हम समान हैं।'

    प्रिया ग्रदि मान करि' करये भर्सन । वेद-स्तुति हैते हरे सेइ मोर मन ॥

    २६॥

    यदि मेरी प्रियतमा रूठकर मेरी भत्र्सना करती है, तो वह वेदों की पावन स्तुतियों से बढ़कर मेरे मन का हरण कर लेती है।

    एइ शुद्ध-भक्त लञा करिमु अवतार ।करिब विविध-विध अद्भुत विहार ॥

    २७॥

    वैकुण्ठाद्ये नाहि ग्रे ये लीलार प्रचार ।। से से लीला करिब, ग्राते मोर चमत्कार ॥

    २८॥

    मैं इन शुद्ध भक्तों को अपने साथ लेकर अवतरित हूँगा और अनेक प्रकार की ऐसी अद्भुत क्रीड़ाएँ करूंगा, जो वैकुण्ठ में भी अज्ञात हैं। मैं ऐसी ऐसी लीलाओं का प्रसार करूँगा, जो स्वयं मुझे भी आश्चर्यचकित करने वाली होंगी।

    मो-विषये गोपी-गणेर उपपति-भावे ।ग्रोग-माया करिबेक आपन-प्रभावे ॥

    २९॥

    योगमाया के प्रभाव से गोपियों में यह भाव प्रेरित होगा कि मैं उनका उपपति हूँ।

    आमिह ना जानि ताहा, ना जाने गोपी-गण ।। मुँहार रूप-गुणे मुँहार नित्य हरे मन ॥

    ३०॥

    इसे न तो गोपियाँ जान सकेंगी, न मैं, क्योंकि हमारे मन सदैव एकसरे के सौन्दर्य तथा गुणों पर मोहित रहेंगे।

    धर्म छाड़ि' रागे मुँहे करये मिलन ।।कभु मिले, कभु ना मिले, दैवेर घटन ॥

    ३१॥

    । शुद्ध अनुरक्ति हमें नैतिक तथा धार्मिक कर्तव्यों की कीमत पर भी मिलाएगी। भाग्य कभी हमें पास ला देगा, तो कभी हमें विलग कर देगा।

    एंड सब रस-निर्यास करिब आस्वाद ।एई द्वारे करिब सब भक्तेरे प्रसाद ॥

    ३२॥

    मैं इन सारे रसों के सार का आस्वादन करूँगा और इस तरह सारे भक्तों पर अनुग्रह करूंगा।

    व्रजेर निर्मल राग शुनि' भक्त-गण ।राग-मार्गे भजे ग्रेन छाड़ि' धर्म-कर्म ॥

    ३३॥

    तब व्रजवासियों के शुद्ध प्रेम के विषय में सुनकर भक्तगण समस्त । भार्मिक अनुष्ठानों एवं सकाम कर्मों को त्याग कर रागानुग प्रेम के मार्ग में मेरी पूजा करेंगे।

    अनुग्रहाय भक्तानां मानुषं देहमाश्रितः । भजते तादृशीः क्रीड़ा ग्राः श्रुत्वा तत्परो भवेत् ॥

    ३४॥

    । कृष्ण अपने भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए अपना सनातन नर रूप प्रकट करते हैं तथा अपनी लीलाएँ करते हैं। ऐसी लीलाएँ सुन लेने के बाद मनुष्य को उनकी सेवा में लग जाना चाहिए।

    ‘भवेत्' क्रिया विधिलिं, सेइ इहा कय । कर्तव्य अवश्य एई, अन्यथा प्रत्यवाय ॥

    ३५॥

    यहाँ पर 'भवेत्' क्रिया अनिवार्यता के भाव में प्रयुक्त हुई है और यह हमें बतलाती है कि इसे अवश्य किया जाना चाहिए। इसकी अवहेलना का अर्थ होगा कर्तव्य का परित्याग।

    एइ वाञ्छा ग्रैछे कृष्ण-प्राकट्य-कारण । असुर-संहार आनुषङ्ग प्रयोजन ॥

    ३६॥

    एइ मत चैतन्य-कृष्ण पूर्ण भगवान् । ग्रुग-धर्म-प्रवर्तन नहे ताँर काम ॥

    ३७॥

    जिस प्रकार ये इच्छाएँ श्रीकृष्ण के प्राकट्य की मूल कारण हैं और असुरों का वध मात्र प्रासंगिक आवश्यकता होती है, उसी प्रकार पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण चैतन्य द्वारा युगधर्म का प्रवर्तन प्रासंगिक है।

    कोन कारणे ग्रबे हैल अवतारे मन ।।ग्रुग-धर्म-काल हैल से काले मिलन ॥

    ३८॥

    जब भगवान् ने अन्य कारण से अवतरित होना चाहा, तो युगधर्म के बर्तन का भी समय आकर उपस्थित हुआ।

    दुइ हेतु अवतरि' ला भक्त-गण । आपने आस्वादे प्रेम-नाम-सङ्कीर्तन ॥

    ३९॥

    इस प्रकार भगवान् दो कारणों से अपने भक्तों के साथ अवतरित हुए और उन्होंने नाम संकीर्तन द्वारा प्रेमरूपी अमृत का आस्वादन किया।

    सेइ द्वारे आचण्डाले कीर्तन सञ्चारे ।नाम-प्रेम-माला गाँथि' पराइल संसारे ॥

    ४०॥

    । इस तरह उन्होंने अछूतों में भी कीर्तन का विस्तार किया। उन्होंने पवित्र नाम तथा प्रेम की माला गूंथकर सारे भौतिक संसार को पहना दी।

    एइ-मते भक्त-भाव करि' अङ्गीकार ।।आपनि आचरि' भक्ति करिल प्रचार ॥

    ४१॥

    इस प्रकार, भक्त का भाव धारण करके उन्होंने भक्ति का प्रचार किया और साथ में स्वयं उसका अभ्यास भी किया।

    दास्य, सख्य, वात्सल्य, आर ये शृङ्गार ।।चारि प्रेम, चतुर्विध भक्त-इ आधार ॥

    ४२ ॥

    बार प्रकार के भक्त भगवत्प्रेम के चार प्रकार के रसों के पात्र हैं। ये -दास्य, संख्य, वात्सल्य तथा श्रृंगार।

    निज निज भाव सबे श्रेष्ठ करि' माने ।निज-भावे करे कृष्ण-सुख आस्वादने ॥

    ४३॥

    । हर प्रकार का भक्त यह मानता है कि उसका भाव सर्वश्रेष्ठ है और इस प्रकार उस भाव में वह भगवान् कृष्ण के साथ परम सुख का आस्वादन परता है।

    तटस्थ हइया मने विचार यदि करि । सब रस हैते शृङ्गारे अधिक माधुरी ॥

    ४४॥

    । किन्तु यदि हम तटस्थ होकर इन भावों की तुलना करें, तो हम पायेंगे कि इनमें श्रृंगार रस ही अन्य सब मधुरताओं में सर्वश्रेष्ठ है।

    ग्रथोत्तरमसौ स्वाद-विशेषोल्लासमय्यपि ।रतिर्वासनया स्वाद्वी भासते कापि कस्यचित् ॥

    ४५ ।। उल्लासमयी रति (प्रेम) विभिन्न स्वादों में, एक-दूसरे से बढ़कर, अनुभव की जाती है। किन्तु जिस रति का स्वाद क्रमशः उच्चतम होता है, वह माधुर्य-रस के रूप में प्रकट होती है।

    अतएव मधुर रस कहि तार नाम । स्वकीया-परकीया-भावे द्वि-विध संस्थान ॥

    ४६॥

    इसीलिए मैं इसे मधुर रस कहता हूँ। इसके भी दो विभाग हैं - कीया अर्थात् विवाहित तथा परकीया अर्थात् अविवाहित प्रेम।

    परकीया-भावे अति रसेर उल्लास ।। व्रज विना इहार अन्यत्र नाहि वास ॥

    ४७॥

    परकीया मधुर भाव में रस की अत्यधिक वृद्धि होती है। ऐसा प्रेम व्रज अतिरिक्त अन्यत्र कहीं नहीं मिलता।।

    व्रज-वधू-गणेर एइ भाव निरवधि । तार मध्ये श्री-राधाय भावेर अवधि ॥

    ४८॥

    यह भाव व्रजबालाओं में असीम है, किन्तु उनमें भी यह श्री राधा में अपनी पूर्णता को प्राप्त है।

    प्रौढ़ निर्मल-भाव प्रेम सर्वोत्तम ।कृष्णेर माधुर्घ-रस-आस्वाद-कारण ॥

    ४९॥

    उनका शुद्ध परिपक्व प्रेम अन्य सभी के प्रेम को पार कर जाता है। उनका प्रेम कृष्ण द्वारा माधुर्य रस की मधुरता का आस्वादन किये जाने का कारण है।

    अतएव सेइ भाव अङ्गीकार करि' ।।साधिलेन निज वाञ्छा गौराङ्ग-श्री-हरि ॥

    ५०॥

    इसलिए गौरांग महाप्रभु ने, जो साक्षात् श्री हरि हैं, राधा के भावों को स्वीकार किया और इस तरह अपनी निजी इच्छाओं की पूर्ति की।

    सुरेशानां दुर्गं गतिरतिशयेनोपनिषदां मुनीनां सर्व-स्वं प्रणत-पटलीनां मधुरिमा ।। विनिर्यासः प्रेम्णो निखिल-पशु-पालाम्बुज-दृशांस चैतन्यः किं मे पुनरपि दृशोर्यास्यति पदम् ॥

    ५१॥

    भगवान् चैतन्य देवताओं के आश्रय, उपनिषदों के लक्ष्य, समस्त मुनियों के सर्वस्व, अपने भक्तों के सुन्दर आश्रय एवं कमल-नयनी गोपियों के प्रेम के सार हैं। क्या वे फिर से मुझे दिख सकेंगे? अपारं कस्यापि प्रणयि-जन-वृन्दस्य कुतुकीरस-स्तोमं हृत्वा मधुरमुपभोक्तुं कमपि यः ।। रुचं स्वामावत्रे द्युतिमिह तदीयां प्रकटयन् ।स देवश्चैतन्याकृतिरतितरां नः कृपयतु ॥

    ५२॥

    भगवान् कृष्ण ने अपनी असंख्य प्रेमिकाओं में से एक ( श्री राधा) ५ असीम अमृतमय प्रेम-रस का आस्वादन करना चाहा, अतएव उन्होंने तन्य महाप्रभु का स्वरूप धारण किया है। उन्होंने अपने कृष्ण-वर्ण को पाकर उनका ( श्री राधा का) तेजमय पीत ( गौर) वर्ण धारण कर उस म का आस्वादन किया है। वे भगवान् चैतन्य हमें अपना अनुग्रह प्रदान करे । भाव-ग्रहणेर हेतु कैल धर्म-स्थापन । तार मुख्य हेतु कहि, शुन सर्व-जन ॥

    ५३॥

    उल्लासमय प्रेम स्वीकार करना मुख्य कारण है, जिसके लिए। प्रकट हुए और उन्होंने इस युग के लिए धर्म की पुनः स्थापना की। । मैं उस कारण की व्याख्या करूंगा। कृपया हर कोई सुने।।

    मूल हेतु आगे श्लोकेर कैल आभास । एबे कहि सेइ श्लोकेर अर्थ प्रकाश ॥

    ५४॥

    उस श्लोक के विषय में संकेत करने के बाद, जिसमें भगवान् के अवतार लेने के प्रमुख कारण का वर्णन हुआ है, अब मैं उसका पूर्ण अर्थ प्रकट करूंगा।

    राधा कृष्ण-प्रणय-विकृतिह्णदिनी शक्तिरस्माद् ।एकात्मानावपि भुवि पुरा देह-भेदं गतौ तौ । चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्वयं चैक्यमाप्तं ।राधा-भाव-द्युति-सुवलितं नौमि कृष्ण-स्वरूपम् ॥

    ५५॥

    । श्री राधा और कृष्ण के प्रेम-व्यापार भगवान् की अन्तरंगा ह्लादिनी की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं। यद्यपि राधा तथा कृष्ण अपने स्वरूपों है, किन्तु उन्होंने अपने आपको शाश्वत रूप से पृथक् कर लिया ये दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में संयुक्त हुए नको नमस्कार करता हूँ, क्योंकि वे स्वयं कृष्ण होकर भी श्रीमती रानी के भाव तथा अंगकान्ति को लेकर प्रकट हुए हैं।

    राधा-कृष्ण एक आत्मा, दुइ देह धरि' ।। अन्योन्ये विलसे रस आस्वादन करि' ॥

    ५६॥

    राधा तथा कृष्ण एक ही हैं, किन्तु उन्होंने दो शरीर धारण कर रखे स प्रकार वे प्रेम-रस का आस्वादन करते हुए एक-दूसरे का उपभोग करते हैं।

    सेइ दुइ एक एबे चैतन्य गोसाजि ।।रस आस्वादिते दोंहे हैला एक-ठाङि॥

    ५७॥

    अब वे रसास्वादन हेतु श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में एक शरीर में कट हुए हैं।

    इथि लागि' आगे करि तार विवरण ।ग्राहा हैते हय गौरेर महिमा-कथन ॥

    ५८॥

    अतएव मैं सर्वप्रथम राधा तथा कृष्ण की स्थिति स्पष्ट करूंगा। उसी र्णन के द्वारा भगवान् चैतन्य की महिमा जानी जा सकेगी।

    राधिका हयेन कृष्णेर प्रणय-विकार ।।स्वरूप-शक्ति--‘ह्लादिनी' नाम याँहार ॥

    ५९॥

    श्रीमती राधिका कृष्णप्रेम की रूपान्तर हैं। वे ह्लादिनी नामक उनकी अन्तरंगा शक्ति हैं।

    ह्लादिनी कराय कृष्णे आनन्दास्वादन ।ह्लादिनीर द्वारा करे भक्तेर पोषण ॥

    ६०॥

    यह ह्लादिनी शक्ति कृष्ण को आनन्द देती है और उनके भक्तों का पोषण करती है।

    सच्चिदानन्द, पूर्ण, कृष्णेर स्वरूप । एक-इ चिच्छक्ति ताँर धरे तिन रूप ॥

    ६१॥

    भगवान् कृष्ण का शरीर शाश्वत ( सत्), ज्ञानमय ( चित्) तथा आनन्द से पूर्ण ( आनन्द) है। उनकी एक ही आध्यात्मिक शक्ति तीन रूपों में प्रकट होती है।

    आनन्दांशे ह्लादिनी, सदंशे सन्धिनी ।।चिदंशे सम्वित्यारे ज्ञान करि' मानि ॥

    ६२॥

    ह्लादिनी उनके आनन्द का पक्ष है, सन्धिनी उनके नित्य अस्तित्व का और सम्वित चित् अंश का पक्ष है, जिसे ज्ञान के रूप में भी स्वीकार किया जाता है।

    ह्लादिनी सन्धिनी सम्वित्त्वय्येका सर्व-संस्थितौ ।।ह्लाद-ताप-करी मिश्रा त्वयि नो गुण-वर्जिते ॥

    ६३ ॥

    हे प्रभु, आप सबके आश्रय हैं। ह्लादिनी, सन्धिनी तथा सम्वित्ये तीनों आप में एक ही आध्यात्मिक शक्ति के रूप में रहती हैं। किन्तु सुख, दुःख तथा इन दोनों के मिश्रण को उत्पन्न करने वाले भौतिक गुण आप में नहीं पाये जाते, क्योंकि आप में भौतिक गुण नहीं होते।

    सन्धिनीर सार अंश—'शुद्ध-सत्त्व' नाम ।भगवानेर सत्ता हय ग्राहाते विश्राम ॥

    ६४॥

    सन्धिनी शक्ति का सार अंश शुद्ध सत्त्व है। भगवान् कृष्ण का अस्तित्व इसी पर निर्भर है।

    माता, पिता, स्थान, गृह, शय्यासन और ।।ए-सब कृष्णेर शुद्ध-सत्त्वेर विकार ॥

    ६५॥

    कृष्ण के माता, पिता, धाम, गृह, शय्या, आसन इत्यादि सभी शुद्ध सत्त्व के रूपान्तर हैं।

    सत्त्वं विशुद्धं वसुदेव-शब्दितं ग्रदीयते तत्र पुमानपावृतः । सत्त्वे च तस्मिन्भगवान्वासुदेवोह्यधोक्षजो मे मनसा विधीयते ॥

    ६६ ॥

    शुद्ध सत्त्व की दशा, जिसमें पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् किसी भी आवरण के बिना प्रकट होते हैं, वसुदेव कहलाती है। उस शुद्ध अवस्था में, भौतिक इन्द्रियों से परे और वासुदेव कहलाने वाले भगवान् मेरे मन । में अनुभूत होते हैं।

    कृष्णे भगवत्ता-ज्ञान संवितेर सार । ब्रह्म-ज्ञानादिक सब तार परिवार ॥

    ६७॥

    सम्वित् शक्ति का सार यह ज्ञान है कि श्रीकृष्ण पूर्ण पुरुषोत्तम । भगवान् हैं। अन्य सारे ज्ञान, यथा ब्रह्मज्ञान, इसके अवयव हैं।

    ह्लादिनीर सार 'प्रेम', प्रेम-सार 'भाव' ।भावेर परम-काष्ठा, नाम-महा-भाव' ॥

    ६८ ॥

    ह्रादिनी शक्ति का सार भगवत्प्रेम है, भगवत्प्रेम का सार भाव है और भाष का चरम विकास महाभाव है।

    महाभाव-स्वरूपा श्री-राधा-ठाकुराणी ।।सर्व-गुण-खनि कृष्ण-कान्ता-शिरोमणि ॥

    ६९॥

    श्री राधा ठाकुराणी महाभाव की मूर्त रूप हैं। वे समस्त सद्गुणों की खान हैं और भगवान् कृष्ण की सारी प्रियतमाओं में शिरोमणि हैं।

    तयोरप्युभयोर्मध्ये राधिका सर्वथाधिका ।।महाभाव-स्वरूपेयं गुणैरतिवरीयसी ॥

    ७० ॥

    इन दो गोपियों ( राधारानी तथा चन्द्रावली) में श्रीमती राधारानी भी प्रकार से श्रेष्ठ हैं। वे महाभाव की मूर्तिमन्त स्वरूप हैं और सद्गुणों सर्वोपरि हैं।

    कृष्ण-प्रेम-भावित याँर चित्तेन्द्रिय-काय ।कृष्ण-निज-शक्ति राधा क्रीड़ार सहाय ॥

    ७१॥

    । उनका मन, इन्द्रियाँ तथा शरीर कृष्ण-प्रेम में रँगे हुए हैं। वे कृष्ण की 'निजी शक्ति हैं और वे उनकी लीलाओं में उनकी सहायता करती हैं।

    आनन्द-चिन्मय-रस-प्रतिभाविताभिस्ताभिर्य एव निज-रूपतया कलाभिः । गोलोक एव निवसत्यखिलात्म-भूतोगोविन्दमादि-पुरुषं तमहं भजामि ॥

    ७२॥

    । मैं उन आदि भगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ, जो अपने निजी धाम गोलोक में अपने ही आध्यात्मिक स्वरूप के सदृश एवं ह्लादिनी शक्ति के मूर्तिमन्त स्वरूप राधा के साथ निवास करते हैं। उनकी संगिनियाँ उनकी वे विश्वस्त सखियाँ हैं, जो उनके शारीरिक स्वरूप की विस्तार हैं। और नित्य आनन्दमय आध्यात्मिक रस से ओतप्रोत हैं।

    कृष्णेरे कराय ग्रैछे रस आस्वादन ।क्रीड़ार सहाय ग्रैछे, शुन विवरण ॥

    ७३॥

    अब कृपा करके सुनिये कि किस तरह कृष्ण की प्रियतमाएँ उन्हें रस फा आस्वादन कराने में तथा उनकी लीलाओं में सहायक बनती हैं।

    कृष्ण-कान्ता-गण देखि त्रि-विध प्रकार । एक लक्ष्मी-गण, पुरे महिषी-गण आर ॥

    ७४॥

    व्रजाङ्गना-रूप, आर कान्ता-गण-सार ।।श्री-राधिका हैते कान्ता-गणेर विस्तार ॥

    ७५ ॥

    भगवान् कृष्ण की प्रिय प्रेमिकाएँ तीन प्रकार की हैं-लक्ष्मियाँ, रानियाँ तथा व्रज की गोपिकाएँ। गोपिकाएँ इन तीनों में सर्वोपरि है। सारी प्रेमिकाएँ राधिका की विस्तार हैं।

    अवतारी कृष्ण त्रैछे करे अवतार ।अंशिनी राधा हैते तिन गणेर विस्तार ॥

    ७६ ॥

    जिस प्रकार स्रोत-रूप भगवान् कृष्ण सारे अवतारों के कारण उसी प्रकार श्री राधा इन समस्त प्रेमिकाओं की कारण हैं।

    वैभव-गण ग्रेन ताँर अङ्ग-विभूति ।।बिम्ब-प्रतिबिम्ब-रूप महिषीर तति ॥

    ७७॥

    लक्ष्मियाँ श्रीमती राधिका की आंशिक अभिव्यक्तियाँ हैं और रानि उनके रूप की प्रतिबिम्ब हैं।

    लक्ष्मी-गण ताँर वैभव-विलासांश-रूप । महिषी-गण वैभव-प्रकाश-स्वरूप ॥

    ७८ ॥

    लक्ष्मियाँ उनकी पूर्ण अंश हैं और वे वैभवविलास रूपों को प्रदर्शित रानियाँ उनके वैभव प्रकाश की रूप हैं।

    आकार स्वभाव-भेदे व्रज-देवी-गण ।काय-व्यूह-रूप ताँर रसेर कारण ॥

    ७९ ॥

    व्रजदेवियों के विविध शारीरिक स्वरूप होते हैं। वे उनकी ( श्रीमती नी की) विस्तार हैं और रस का पोषण करने में सहायक हैं।

    बहु कान्ता विना नहे रसेर उल्लास ।।लीलार सहाय लागि' बहुत प्रकाश ॥

    ८०॥

    । अनेक प्रेमिकाओं के बिना रस में ऐसा उल्लास नहीं रहता। अतएव न की लीलाओं में सहायता करने के लिए श्रीमती राधारानी के विस्तार हैं।

    तार मध्ये व्रजे नाना भाव-रस-भेदे ।। कृष्णके कराय रासादिक-लीलास्वादे ॥

    ८१॥

    इन में व्रज की प्रेमिकाओं के कई समूह हैं, जिनके नाना प्रकार के भाव तथा रस हैं। वे कृष्ण को रासनृत्य तथा अन्य लीलाओं की सारी माधुरी का आस्वादन कराने में सहायक होती हैं।

    गोविन्दानन्दिनी राधा, गोविन्द-मोहिनी ।।गोविन्द सर्वस्व, सर्व-कान्ता-शिरोमणि ॥

    ८२ ॥

    । श्री राधा गोविन्द को आनन्द देने वाली हैं और वे गोविन्द को मोहने बाली भी हैं। वे गोविन्द की सर्वस्व हैं और उनकी समस्त प्रेयसियों में शिरोमणि हैं।

    देवी कृष्ण-मयी प्रोक्ता राधिका पर-देवता ।सर्व-लक्ष्मी-मयी सर्व-कान्तिः सम्मोहिनी परा ॥

    ८३ ॥

    दिव्य देवी श्रीमती राधारानी भगवान् श्रीकृष्ण की प्रत्यक्ष प्रतिस्प हैं। वे समस्त लक्ष्मियों में केन्द्रीय व्यक्तित्व हैं। वे सर्व-आकर्षक भगवान को आकर्षित करने के सारे आकर्षणों से युक्त हैं। वे भगवान् की आदि अन्तरंगा शक्ति हैं।

    ‘देवी' कहि द्योतमाना, परमा सुन्दरी ।।किम्वा, कृष्ण-पूजा-क्रीड़ार वसति नगरी ॥

    ८४॥

    देवी का अर्थ है ज्योतिर्मयी तथा परम सुन्दरी। अथवा इसका अर्थ हो सकता है-“भगवान् कृष्ण की पूजा एवं उनकी प्रेम-क्रीड़ाओं की सुन्दर धाम।

    कृष्ण-मयी—कृष्ण ग्रार भितरे बाहिरे । याँहा याँहा नेत्र पड़े ताँहा कृष्ण स्फुरे ॥

    ८५॥

    कृष्णमयी का अर्थ है, जिसके भीतर तथा बाहर भगवान् कृष्ण वे जहाँ भी दृष्टिपात करती हैं, वहाँ कृष्ण को देखती हैं।

    किम्वा, प्रेम-रस-मय कृष्णेर स्वरूप ।ताँर शक्ति ताँर सह हय एक-रूप ॥

    ८६॥

    अथवा, कृष्णमयी' का अर्थ यह है कि वे भगवान् कृष्ण से अभिन्न हैं, क्योंकि वे प्रेम-रस की प्रतिमूर्ति हैं। भगवान् कृष्ण और उनकी शक्ति एक ही हैं।

    कृष्ण-वाञ्छा-पूर्ति-रूप करे आराधने ।।अतएव 'राधिका' नाम पुराणे वाखाने ॥

    ८७॥

    उनकी पूजा ( आराधना ) भगवान् कृष्ण की इच्छाएँ पूर्ण करना है। इसीलिए पुराणों में उन्हें राधिका कहा गया है।

    अनयाराधितो नूनं भगवान्हरिरीश्वरः ।।ग्रन्नो विहाय गोविन्दः प्रीतो ग्रामनयद्रहः ॥

    ८८ ॥

    उनके द्वारा भगवान् की सचमुच अच्छी पूजा की गई है, अतएव भगवान् गोविन्द ने प्रसन्न होकर हम सबको पीछे छोड़ दिया है और उन्हें एकान्त स्थान में ले गये हैं।

    अतएव सर्व-पूज्या, परम-देवता ।।सर्व-पालिका, सर्व जगतेर माता ।। ८९॥

    अतएव राधा परम देवता अर्थात् परम देवी, हैं और वे सबके लिए सनीय हैं। वे सबकी रक्षा करने वाली हैं और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की माता हैं। ‘सर्व-लक्ष्मी'-शब्द पूर्वे करियाछि व्याख्यान ।सर्व-लक्ष्मी-गणेर तिंहो हन अधिष्ठान ।। ९० ॥

    मैं सर्वलक्ष्मी का अर्थ पहले ही बतला चुका हूँ। राधा समस्त लक्ष्मियों की आदि स्रोत हैं।

    किम्वा, ‘सर्व-लक्ष्मी' कृष्णेर षडू-विध ऐश्वर्य ।ताँर अधिष्ठात्री शक्ति–सर्व-शक्ति-वर्य ॥

    ९१॥

    अथवा सर्वलक्ष्मी' शब्द यह बतलाता है कि वे श्रीकृष्ण के छह ऐश्वर्यों का पूर्णतया प्रतिनिधित्व करती हैं। अतएव वे भगवान् कृष्ण की सर्वोपरि शक्ति हैं।

    सर्व-सौन्दर्य-कान्ति वैसये ग्राँहाते ।सर्व-लक्ष्मी-गणेर शोभा हेय याँहा हैते ॥

    ९२ ॥

    सर्वकान्ति शब्द सूचित करता है कि उनके शरीर में समस्त सौन्दर्य तथा कान्ति का आश्रय है। सारी लक्ष्मियाँ उन्हीं से अपना सौन्दर्य प्राप्त करती हैं।

    किम्वा ‘कान्ति'-शब्दे कृष्णेर सब इच्छा कहे ।कृष्णेर सकल वाञ्छा राधातेइ रहे ॥

    ९३॥

    । कान्ति शब्द का यह भी अर्थ हो सकता है-भगवान् कृष्ण की सारी इच्छाएँ। भगवान् कृष्ण की सारी इच्छाएँ श्रीमती राधारानी में निहित हैं।

    राधिका करेन कृष्णेर वाञ्छित पूरण ।।‘सर्व-कान्ति'-शब्देर एइ अर्थ विवरण ॥

    ९४॥

    । श्रीमती राधिका भगवान् कृष्ण की सारी इच्छाएँ पूर्ण करती हैं। यही सर्वकान्ति शब्द का अर्थ है।

    जगत्मोहन कृष्ण, ताँहार मोहिनी ।। अतएव समस्तेर परा ठाकुराणी ॥

    ९५ ॥

    भगवान् कृष्ण जगत् को मोहित करते हैं, किन्तु श्री राधा उन्हें भी । मोहित करती हैं। अतएव वे सारी देवियों में सर्वश्रेष्ठ हैं।

    राधा पूर्ण-शक्ति, कृष्ण–पूर्ण-शक्तिमान् । दुइ वस्तु भेद नाइ, शास्त्र-परमाण ॥

    ९६॥

    श्री राधा पूर्ण शक्ति हैं और भगवान् कृष्ण पूर्ण शक्ति के स्वामी हैं। जैसाकि प्रामाणिक शास्त्रों का प्रमाण है, ये दोनों भिन्न नहीं हैं।

    मृगमद, तार गन्ध-—भैछे अविच्छेद ।।अग्नि, ज्वालाते—प्रैछे कभु नाहि भेद ॥

    ९७॥

    जिस तरह कस्तूरी तथा उसकी सुगन्ध एक-दूसरे से पृथक् नहीं होते। अथवा अग्नि और उसकी ऊष्मा अभिन्न हैं, उसी तरह वे ( राधा तथा कृष्ण) अभिन्न हैं।

    राधा-कृष्ण ऐछे सदा एक-इ स्वरूप ।।लीला-रस आस्वादिते धरे दुइ-रूप ॥

    ९८॥

    इस प्रकार राधा तथा कृष्ण एक हैं, फिर भी उन्होंने लीला-रस का आस्वादन करने के लिए दो रूप धारण कर रखे हैं।

    प्रेम-भक्ति शिखाइते आपने अवतरि ।। राधा-भाव-कान्ति दुइ अङ्गीकार करि' ॥

    ९९॥

    श्री-कृष्ण-चैतन्य-रूपे कैल अवतार ।एइ त' पञ्चम श्लोकेर अर्थ परचार ॥

    १०० ॥

    । प्रेमाभक्ति का प्रचार करने के लिए कृष्ण श्री राधा के भाव तथा घर्ण (कान्ति) को लेकर श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में प्रकट हुए। इस प्रकार मैंने पाँचवे श्लोक के अर्थ की व्याख्या की है।

    षष्ठ श्लोकेर अर्थ करिते प्रकाश ।प्रथमे कहिये सेइ श्लोकेर आभास ॥

    १०१॥

    छठे श्लोक की व्याख्या करने के लिए सर्वप्रथम मैं इसके अर्थ का संकेत दूंगा।

    अवतरि' प्रभु प्रचारिल सङ्कीर्तन ।एहो बाह्य हेतु, पूर्वे करियाछि सूचन ॥

    १०२॥

    । भगवान् संकीर्तन का प्रचार करने के लिए अवतरित हुए। यह बाह्य प्रयोजन है, जैसाकि मैं पहले ही इंगित कर चुका हूँ।

    अवतारेर आर एक आछे मुख्य-बीज ।।रसिक-शेखर कृष्णेर सेइ कार्य निज ॥

    १०३॥

    भगवान् कृष्ण के अवतार का एक प्रमुख कारण है। यह प्रेमविनिमय के सर्वश्रेष्ठ भोक्ता के रूप में उनके अपने कार्यकलापों से उत्पन्न होता है।

    अति गूढ़ हेतु सेइ त्रि-विध प्रकार।दामोदर-स्वरूप हैते ग्राहार प्रचार ॥

    १०४॥

    यह अत्यन्त गुह्य कारण तीन प्रकार का है। इसको स्वरूप दामोदर ने प्रकट किया है।

    स्वरूप-गोसाजि—प्रभुर अति अन्तरङ्ग ।ताहाते जानेन प्रभुर ए-सब प्रसङ्ग ॥

    १०५॥

    स्वरूप गोसांई महाप्रभु के अत्यन्त अन्तरंग पार्षद हैं। अतएव वे इन प्रसंगों को भलीभाँति जानते हैं।

    राधिकार भाव-मूर्ति प्रभुर अन्तर ।सेइ भावे सुख-दुःख उठे निरन्तर ॥

    १०६॥

    चैतन्य महाप्रभु का हृदय श्रीमती राधिका के भावों की मूर्ति है। इस प्रकार उसमें हर्ष तथा पीड़ा की भावनाएँ निरन्तर उठती रहती हैं।

    शेष-लीलाय प्रभुर कृष्ण-विरह-उन्माद ।।भ्रम-मय चेष्टा, आर प्रलाप-मय वाद ॥

    १०७॥

    । अपनी लीलाओं के अन्तिम भाग में श्री चैतन्य महाप्रभु भगवान् कृष्ण के वियोग के उन्मादे से अभिभूत थे। वे भ्रान्तिपूर्ण कार्य बैठते थे और आन्तचित्त होकर प्रलाप करते थे।

    राधिकार भाव ग्रैछे उद्धव-दर्शने ।।सेइ भावे मत्त प्रभु रहे रात्रि-दिने ॥

    १०८ ॥

    जिस प्रकार उद्धव को देखकर राधिका पागल सी हो गई थीं, उसी । तरह श्री चैतन्य महाप्रभु विरह के उन्माद से रात-दिन अभिभूत रहते थे।

    रात्रे प्रलाप करे स्वरूपेर कण्ठ धरि'।आवेशे आपन भाव कहये उघाड़ि' ॥

    १०९॥

    रात में वे स्वरूप दामोदर के गले में अपनी बाँहें डालकर शोक में प्रलाप करते थे। वे आवेश में आकर अपने हृदय की बात कह देते थे।

    ग्रबे ग्रेइ भाव उठे प्रभुर अन्तर ।। सेइ गीति-श्लोके सुख देन दामोदर ॥

    ११०॥

    जब उनके हृदय में कोई विशेष भाव उठता था, तब स्वरूप दामोदर सी तरह का गीत गाकर या श्लोक सुनाकर उन्हें सन्तुष्ट करते थे।

    एबे कार्य नाहि किछु ए-सब विचारे । आगे इहा विवरिब करिया विस्तारे ॥

    १११॥

    अभी इन लीलाओं का विश्लेषण करना आवश्यक नहीं है। मैं इन सबको आगे चलकर विस्तार से बतलाऊँगा।

    पूर्वे व्रजे कृष्णेर त्रि-विध वयो-धर्म । कौमार, पौगण्ड, आर कैशोर अतिमर्म ॥

    ११२॥

    । पूर्व में भगवान् कृष्ण ने व्रज में तीन अवस्थाओं-कौमार, पौगण तथा कैशोर-का प्रदर्शन किया। इनमें से उनकी किशोर अवस्था विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है।

    वात्सल्य-आवेशे कैल कौमार सफल ।पौगण्ड सफल कैल ला सखावल ॥

    ११३॥

    माता-पिता के स्नेह ने उनकी कौमार अवस्था ( बचपन ) को सफल बनाया। उनकी पौगण्ड अवस्था अपने मित्रों के साथ सफल बनी।

    राधिकादि लञा कैल रासादि-विलास ।वाञ्छा भरि' आस्वादिल रसेर निर्यास ॥

    ११४॥

    । युवावस्था ( किशोरावस्था ) में उन्होंने श्रीमती राधिका तथा अन्य गोपियों के साथ रासनृत्य आदि लीलाओं में अपनी इच्छापूर्ति करते हुए रस के सार का आस्वादन किया।

    कैशोर-वयसे काम, जगत्सकल ।।रासादि-लीलाय तिन केरिल सफल ॥

    ११५॥

    । अपनी किशोरावस्था में भगवान् कृष्ण ने अपनी तीनों अवस्थाओं वे सारे ब्रह्माण्ड को रासनृत्य जैसी माधुर्य-प्रेम की लीलाओं से सफल बनाया।

    सोऽपि कैशोरक-वयो मानयन्मधुसूदनः ।रेमे स्त्री-रत्न-कूट-स्थः क्षपासु क्षपिताहितः ॥

    ११६॥

    भगवान् मधुसूदन ने शरदकालीन रातों में रत्नसदृश गोपियों के मध्य लीलाओं में अपनी किशोरावस्था का आनन्द लिया। इस तरह उन्होंने जगत् के समस्त दुर्भाग्य को दूर किया।

    वाचा सूचित-शर्वरी-रति-कला-प्रागल्भ्यया राधिकाव्रीड़ा-कुञ्चित-लोचनां विरचयन्नग्रे सखीनामसौ । तद्वक्षो-रुह-चित्र-केलि-मकरी-पाण्डित्य-पारं गतः कैशोरं सफली-करोति कलयन्कुञ्ज विहारं हरिः ॥

    ११७।। जब भगवान् कृष्ण ने श्रीमती राधारानी से विगत रात में उनके साथ रति-क्रीड़ा से सम्बन्धित शब्द उनकी सखियों के समक्ष कहे, तो लज्जा से उनकी आँखें बन्द हो गईं। उस समय उन्होंने उनके वक्षस्थल पर खिलवाड़ करते हुए मत्स्य के चित्र खींचने में चातुर्य की पराकाष्ठा का प्रदर्शन किया। इस तरह भगवान् हरि ने लताकुंज में राधा तथा उनकी सखियों के साथ लीलाएँ करके अपनी किशोरावस्था को सफल बनाया।

    हरिरेष न चेदवातरिष्यन् मथुरायां मधुराक्षि राधिका च । अभविष्यदियं वृथा विसृष्टिर्मकराङ्कस्तु विशेषतस्तदात्र ॥

    ११८॥

    । हे पौर्णमासी, यदि भगवान् हरि श्रीमती राधारानी सहित मथुरा में अवतरित न हुए होते, तो यह सारी सृष्टि और विशेषतया कामदेव, विफल हो गये होते।

    एइ मत पूर्वे कृष्ण रसेर सदने । ग्रद्यपि करिल रस-निर्यास-चर्वण ॥

    ११९॥

    तथापि नहिल तिन वाञ्छित पूरण ।।ताहा आस्वादिते ग्रदि करिल व्रतन ॥

    १२०॥

    यद्यपि समस्त रसों के आगार भगवान् कृष्ण ने इस तरह से पहले ही प्रेम-रस के सार का चर्वण किया था, तो भी वे तीन इच्छाओं को पूरी करने में असमर्थ थे, यद्यपि उन्होंने उनका आस्वादन करने का प्रयास किया था।

    ताँहार प्रथम वाञ्छा करिये व्याख्यान । कृष्ण कहे,-'आमि हइ रसेर निदान ॥

    १२१॥

    सर्वप्रथम मैं उनकी पहली इच्छा की व्याख्या करूंगा। कृष्ण कहते हैं, “मैं सारे रसों का मूल कारण हूँ।

    पूर्णानन्द-मय आमि चिन्मय पूर्ण-तत्त्व ।। राधिकार प्रेमे आमा कराय उन्मत्त ।। १२२ ।। मैं पूर्ण आध्यात्मिक सत्य हूँ और मैं पूर्ण आनन्द से युक्त हूँ, किन्तु श्रीमती राधारानी का प्रेम मुझे उन्मत्त कर देता है।

    ना जानि राधार प्रेमे आछे कत बल ।ये बले आमारे करे सर्वदा विह्वल ॥

    १२३॥

    मैं राधा के प्रेम की उस शक्ति को नहीं जानता, जिससे वह मुझे बंदा विह्वल बनाती है।

    राधिकार प्रेम–गुरु, आमि-शिष्य नट ।सदा आमा नाना नृत्ये नाचाय उद्भट ॥

    १२४॥

    राधिका का प्रेम मेरा गुरु है और मैं उसका नर्तक शिष्य हूँ। उसका प्रेम मुझे विविध प्रकार के अभिनवे नृत्य के लिए प्रेरित करता है।

    कस्माद्वान्दे प्रिय-सखि हरेः पाद-मूलात्कुतोऽसौ ।कुण्डारण्ये किमिह कुरुते नृत्य-शिक्षा गुरुः कः ।। तं त्वन्मूर्तिः प्रति-तरु-लतं दिग्विदिक्षु स्फुरन्ती ।शैलूषीव भ्रमति परितो नर्तयन्ती स्व-पश्चात् ॥

    १२५॥

    हे प्यारी सखी वृन्दा, तुम कहाँ से आ रही हो? मैं श्री हरि के चरणों से आ रही हूँ। वे कहाँ हैं? वे राधाकुण्ड के तट पर स्थित वनप्रदेश में हैं। वे वहाँ क्या कर रहे हैं?वे नृत्य सीख रहे हैं। उनका गुरु कौन है?राधा, तुम्हारी मूर्ति उन्हें पीछे पीछे नचा रही है और स्वयं एक च। नर्तकी की तरह हर वृक्ष तथा हर लता में सभी दिशाओं में अपने आपको प्रकट कर रही है।

    निज-प्रेमास्वादे मोर हय ये आह्लाद ।।ताहा ह'ते कोटि-गुण राधा-प्रेमास्वाद ॥

    १२६॥

    श्रीमती राधारानी के प्रति मेरे प्रेम के आस्वादन से मुझे जो भी मिलता है, उससे वह मेरी अपेक्षा करोड़ गुना अधिक प्रेम का न करती है।

    आमि त्रैछे परस्पर विरुद्ध-धर्माश्रय ।राधा-प्रेम तैछे सदा विरुद्ध-धर्म-मय ॥

    १२७॥

    जिस प्रकार मैं समस्त परस्पर-विरोधी गुणों का आगार हूँ, उसी र राधा का प्रेम भी वैसे ही विरोधाभासों से सदैव पूर्ण रहता है।

    राधा-प्रेमा विभु–ग्रार बाड़िते नाहि ठाजि ।तथापि से क्षणे क्षणे बाड़ये सदाइ ॥

    १२८॥

    राधा का प्रेम सर्वव्यापी है, उसमें विस्तार की कोई गुंजाईश नहीं है। भी वह निरन्तर बढ़ता रहता है।

    ग्राहा वइ गुरु वस्तु नाहि सुनिश्चित ।तथापि गुरुर धर्म गौरव-वर्जित ॥

    १२९॥

    निश्चित रूप से उसके प्रेम से बढ़कर कुछ भी नहीं है। लेकिन उसका प्रेम गर्व से रहित है। यह उसकी महानता का सूचक है।

    ग्राहा हैते सुनिर्मल द्वितीय नाहि आर।।तथापि सर्वदा वाम्य-वक्र-व्यवहार ॥

    १३०॥

    । उसके प्रेम से बढ़कर शुद्ध कुछ भी नहीं है। किन्तु उसका आचरण सदैव प्रतिकूल एवं वक्र रहता है।

    विभुरपि कलयन्सदाभिवृद्धिगुरुरपि गौरव-चर्घया विहीनः । मुहुरुपचित-वक्रिमापि शुद्धोजयति मुर-द्विषि राधिकानुरागः ॥

    १३१॥

    मुर असुर के शत्रु कृष्ण के लिए राधा के प्रेम की जय हो! यद्यपि वह सर्वव्यापी है, किन्तु वह प्रतिक्षण बढ़ता जाता है। यद्यपि वह महत्त्वपूर्ण है, किन्तु वह गर्व से विहीन है। यद्यपि वह शुद्ध है, किन्तु सदैव कपट से भरा रहता है।

    सेइ प्रेमार श्री-राधिका परम 'आश्रय' ।सेइ प्रेमार आमि हई केवल 'विषय' ॥

    १३२॥

    श्री राधिका उसी प्रेम की परम आश्रय हैं और मैं उसका एकमात्र विषय हूँ।

    विषय-जातीय सुख आमार आस्वाद ।।आमा हैते कोटि-गुण आश्रयेर आह्लाद ॥

    १३३॥

    मैं उस आनन्द का आस्वादन करता हूँ, जो प्रेम के विषय के लिए सर्वथा उपयुक्त है। किन्तु उस प्रेम की आश्रय राधा का आनन्द करोड़ गुना अधिक है।

    आश्रय-जातिय सुख पाइते मन धाय ।प्रत्ने आस्वादिते नारि, कि करि उपाय ॥

    १३४॥

    मेरा मन आश्रय द्वारा अनुभव किये जाने वाले आनन्द का आस्वादन करने के लिए दौड़ रहा है, किन्तु मैं सारे प्रयत्नों के बावजूद भी उसका आस्वादन नहीं कर सकता। मैं उसका आस्वादन कैसे करूँ? कभु यदि एइ प्रेमार हइये आश्रये ।तबे एइ प्रेमानन्देर अनुभव हय ॥

    १३५॥

    । यदि कभी मैं उस प्रेम का आश्रय बन पाऊँ, तभी मैं उस आनन्द का आस्वादन कर सकता हूँ।

    एत चिन्ति' रहे कृष्ण परम-कौतुकी । हृदये बाड़ये प्रेम-लोभ धक्धकि ॥

    १३६॥

    इस प्रकार से सोचते हुए भगवान् कृष्ण उस प्रेम का आस्वादन करने के लिए उत्सुक थे। उस प्रेम का आस्वादन करने की उत्कट इच्छा उनके हृदय में अग्नि के समान प्रज्वलित होने लगी।

    एइ एक, शुन आर लोभेर प्रकार । स्व-माधुर्घ देखि' कृष्ण करेन विचार ॥

    १३७॥

    यह एक इच्छा है। अब कृपया दूसरी इच्छा के बारे में सुनें। अपना खुद का सौन्दर्य देखकर भगवान् कृष्ण विचार करने लगे।

    अद्भुत, अनन्त, पूर्ण मोर मधुरिमा । त्रि-जगते इहार केह नाहि पाय सीमा ॥

    १३८॥

    मेरी माधुरी अद्भुत, अनन्त एवं पूर्ण है। तीनों लोकों में कोई इसकी सीमा नहीं पा सकता।

    एइ प्रेम-द्वारे नित्य राधिका एकलि ।।आमार माधुर्यामृत आस्वादे सकलि ॥

    १३९॥

    केवल राधिका अपने प्रेम-बल से मेरी माधुरी के सारे अमृत का आस्वादन करती है।

    यद्यपि निर्मल राधार सत्प्रेम-दर्पण ।तथापि स्वच्छता तार बाढ़े क्षणे क्षण ॥

    १४० ॥

    यद्यपि राधा का प्रेम दर्पण की तरह स्वच्छ है, किन्तु इसकी स्वच्छता । प्रतिक्षण बढ़ती जाती है।

    आमार माधुर्य नाहि बाढ़िते अवकाशे ।।ए-दर्पणेर आगे नव नवे रूपे भासे ॥

    १४१॥

    मेरे माधुर्य में विस्तार की सम्भावना नहीं है, किन्तु उस दर्पण के समक्ष यह नित्य-नवीन सौन्दर्य के साथ चमकता है।

    मन्माधुर्य राधार प्रेम–दोंहे होड़ करि' ।।क्षणे क्षणे बाड़े दोहे, केह नाहि हारि ॥

    १४२॥

    मेरे माधुर्य एवं राधा के प्रेम-रूपी दर्पण के बीच निरन्तर स्पर्धा चलती रहती है। वे दोनों बढ़ते जाते हैं, किन्तु उनमें से कोई हारना नहीं जानता।

    आमार माधुर्य नित्य नव नव हय ।स्व-स्व-प्रेम-अनुरूप भक्ते आस्वादय ॥

    १४३॥

    मेरा माधुर्य दिन-प्रतिदिन नवीन होता रहता है। भक्तगण अपने अपने प्रेम के अनुसार उसका आस्वादन करते हैं।

    दर्पणाद्ये देखि' यदि आपने माधुरी ।।आस्वादिते हय लोभ, आस्वादिते नारि ॥

    १४४॥

    यदि मैं अपने माधुर्य को दर्पण में देखता हूँ, तो उसका आस्वादन करने को मन करता है, किन्तु फिर भी मैं ऐसा नहीं कर सकता।

    विचार करिये प्रदि आस्वाद-उपाय ।राधिका-स्वरूप हइते तबे मन धाय ॥

    १४५॥

    यदि मैं उसका आस्वादन करने का उपाय सोचता हूँ, तो मैं राधिका के पद के लिए लालायित जान पड़ता हूँ।

    अपरिकलित-पूर्वः कश्चमत्कार-कारी स्फुरति मम गरीयानेष माधुर्य-पूरः ।। अयमहमपि हन्त प्रेक्ष्य यं लुब्ध-चेताः।सरभसमुपभोक्तुं कामये राधिकेव ॥

    १४६॥

    वह कौन है, जो मुझसे भी अधिक माधुर्य की प्रचुरता को प्रकट कर रहा है, जिसका इसके पूर्व कभी अनुभव नहीं किया गया और जो सबको आश्चर्य में डाल रहा है? हाय! मेरा मन इस सौन्दर्य को देखकर मोहग्रस्त हो गया है और मैं स्वयं तीव्रता से श्रीमती राधारानी की भाँति इसका उपभोग करना चाहता हूँ।

    कृष्ण-माधुर्मेर एक स्वाभाविक बल ।।कृष्ण-आदि नर-नारी करये चञ्चल ॥

    १४७॥

    कृष्ण के सौन्दर्य में एक स्वाभाविक शक्ति है-यह स्वयं कृष्ण समेत सारे नर-नारियों के हृदयों को पुलकित कर देता है।

    श्रवणे, दर्शने आकर्षये सर्व-मन ।। आपना आस्वादिते कृष्ण करेन व्रतन ॥

    १४८॥

    उनकी मधुर वाणी तथा बाँसुरी को सुनकर या उनके सौन्दर्य को देखकर सबके मन आकृष्ट हो जाते हैं। यहाँ तक कि स्वयं भगवान् कृष्ण भी उस माधुर्य का आस्वादन करने के लिए प्रयत्नशील होते हैं।

    ए माधुर्यामृत पान सदा ग्रेड करे । तृष्णा-शान्ति नहे, तृष्णा बाढ़े निरन्तरे ॥

    १४९॥

    जो व्यक्ति उस माधुरी के अमृत का निरन्तर पान करता है, उसकी तृष्णा ( प्यास) कभी नहीं बुझती। बल्कि वह निरन्तर बढ़ती जाती है।

    अतृप्त हइया करे विधिर निन्दन । अविदग्ध विधि भाल ना जाने सृजन ॥

    १५०॥

    ऐसा व्यक्ति अतृप्त होने के कारण ब्रह्माजी की निन्दा यह कहकर करने लगता है कि उन्हें ठीक से सृजन कला नहीं आती, अपितु वे निपट अनुभवहीन हैं।

    कोटि नेत्र नाहि दिल, सबे दिल दुई ।।ताहाते निमेष, कृष्ण कि देखिबे मुजि ॥

    १५१॥

    । (गोपियों ने कहा :) हे कृष्ण! जब आप दिन में वन में चले जाते हैं, और हम आपके सुन्दर धुंघराले बालों से घिरे मधुर मुखमंडल को नहीं खतीं, तो हमारे लिए आधा क्षण भी एक युग के समान बन जाता है। ब हम उस स्रष्टा को निरा मूर्ख मानती हैं, जिसने हमारी उन आँखों के पर पलकें बना दी हैं, जिनसे हम आपको देखती हैं।

    अटति यद्भवानह्नि काननं । त्रुटिगायते त्वामपश्यताम् । कुटिल-कुन्तलं श्री-मुखं च ते ।जड़ उदीक्षतां पक्ष्म-कृशाम् ॥

    १५२॥

    उन्होंने कृष्ण का सौन्दर्य देखने के लिए करोड़ों आँखें क्यों नहीं दीं। उन्होंने केवल दो आँखें दी हैं और वे भी पलक झपकती रहती हैं। तो भला मैं कृष्ण के सुन्दर मुख को कैसे देख सकेंगी? गोप्यश्च कृष्णमुपलभ्य चिरादभीष्टंयत्प्रेक्षणे दृशिषु पक्ष्म-कृतं शपन्ति । दृग्भिहंदी-कृतमलं परिरभ्य सर्वास्तद्भावमापुरपि नित्य-ग्रुजां दुरापम् ॥

    १५३ ॥

    गोपियों ने दीर्घकालीन विछोह के बाद अपने प्रिय कृष्ण को कुरुक्षेत्र में देखा। उन्होंने अपने नेत्रों के माध्यम से अपने हृदयों में उन्हें प्राप्त किया और उनको आलिंगन किया। उन्हें इतना उत्कट हर्ष हुआ कि सिद्ध योगियों को भी ऐसा हर्ष प्राप्त नहीं हो सकता। गोपियाँ स्रष्टा को यह कहकर कोसने लगीं कि उसने पलकें क्यों बनाईं, जो उनके देखने में। बाधक बन रही हैं।

    कृष्णावलोकन विना नेत्र फल नाहि आन ।ग्रेइ जन कृष्ण देखे, सेइ भाग्यवान् ॥

    १५४॥

    कृष्ण के दर्शन के अतिरिक्त नेत्रों के लिए कोई दूसरी पूर्णता नहीं है। जो भी उनका दर्शन पाता है, वह सचमुच परम भाग्यशाली है।

    अक्षण्वतां फलमिदं न परं विदामः सख्यः पशूननुविवेशयतोर्वयस्यैः । वक्त्रं व्रजेश-सुतयोरनुवेणु-जुष्टं ग्रैर्वा निपीतमनुरक्त-कटाक्ष-मोक्षम् ॥

    १५५॥

    ( गोपियों ने कहा :) हे सखियों, वे आँखें, जो महाराज नन्द के पुत्रों के सुन्दर मुखों का दर्शन करती हैं, निश्चय ही भाग्यशाली हैं। जैसे ही ये धोनों पुत्र ( श्रीकृष्ण और बलराम) अपने सखाओं के साथ गायों को अपने आगे रखकर वन में प्रवेश करते हैं, वे अपने होंठों पर अपनी सिरियाँ रख लेते हैं और वृन्दावन के निवासियों की ओर प्रेम-पूर्ण ष्टिपात करते हैं। जिनके पास आँखें हैं, हमारे विचार में उनके लिए इससे मकर कोई अन्य दर्शनीय वस्तु नहीं है।

    गोप्यस्तपः किमचरन् ऋदमुष्य रूपंलावण्य-सारमसमोर्ध्वमनन्य-सिद्धम् । दृग्भिः पिबन्त्यनुसवाभिनवं दुरापम् ।एकान्त-धाम ग्रशसः श्रिय ऐश्वरस्य ॥

    १५६ ॥

    [ मथुरा की स्त्रियों ने कहा :न जाने गोपियों ने कौन सा तप किया है? वे अपनी आँखों से भगवान् कृष्ण के स्वरूप के अमृत का निरन्तर पान करती हैं, जो लावण्य का सार है तथा जिसके बराबर या जिससे बढ़कर और कुछ नहीं है। यह लावण्य सौन्दर्य, यश तथा ऐश्वर्य का एकमात्र आश्रय है। यह स्वयं में सम्पूर्ण, चिर नवीन तथा अतीव विरल है।

    कृष्णेर माधुर्ये कृष्णे उपजय लोभ ।। सम्यकास्वादिते नारे, मने रहे क्षोभ ॥

    १५८ ॥

    भगवान् कृष्ण का सौन्दर्य स्वयं उन्हें ही आकृष्ट करता है। किन्तु इसका पूर्णतया आनन्द न ले सकने के कारण उनका मन खिन्न बना रहता है।

    अपूर्व माधुरी कृष्णेर, अपूर्व तार बल । ग्राहार श्रवणे मन हय टलमल ॥

    १५७॥

    भगवान् कृष्ण की माधुरी अद्वितीय है और उनका बल भी अद्वितीय है। ऐसी सुन्दरता के श्रवण मात्र से मन चंचल हो उठता है।

    एइ त' द्वितीय हेतुर कहिले विवरण ।। तृतीय हेतुर एबे शुनह लक्षण ॥

    १५९॥

    यह उनकी द्वितीय इच्छा का विवरण है। अब मैं तीसरी इच्छा का वर्णन करता हूँ। कृपया ध्यान से सुनें।

    अत्यन्त-निगूढ़ एइ रसेर सिद्धान्त ।। स्वरूप-गोसाजि मात्र जानेन एकान्त ॥

    १६० ॥

    रस का यह निष्कर्ष अत्यन्त गूढ़ है। एकमात्र स्वरूप दामोदर ही इसके विषय में ठीक से जानते हैं।

    ग्रेबा केह अन्य जाने, सेहो ताँहा हैते ।।चैतन्य-गोसाजिर तेह अत्यन्त मर्म ग्राते ॥

    १६१॥

    यदि कोई अन्य व्यक्ति इसे जानने का दावा करता है, तो उसने उनसे । ही सुना होगा, क्योंकि वे श्री चैतन्य महाप्रभु के अत्यन्त अन्तरंग पार्षद थे।

    गोपी-गणेर प्रेमेर ‘रूढ़-भाव' नाम ।विशुद्ध निर्मल प्रेम, कभु नहे काम ॥

    १६२॥

    गोपियों का प्रेम 'रूढ़ भाव' कहलाता है। यह विशुद्ध एवं निष्कलंक है। यह कभी भी कामवासना नहीं होता।

    प्रेमैव गोप-रामानां काम इत्यर्गमत्प्रथाम् । इत्युद्धवादयोऽप्येतं वाञ्छन्ति भगवत्प्रियाः ॥

    १६३॥

    गोपियों को शुद्ध प्रेम 'काम' के नाम से विख्यात हो गया है। श्री व जैसे भगवान् के भक्त उस प्रेम का आस्वादन करने की इच्छा करते है।

    काम, प्रेम, दोंहाकार विभिन्न लक्षण । लौह आर हेम त्रैछे स्वरूपे विलक्षण ॥

    १६४॥

    काम तथा प्रेम के लक्षण अलग अलग होते हैं, जिस प्रकारे लोहे और सोने के स्वभाव भिन्न भिन्न होते हैं।

    आत्मेन्द्रिय-प्रीति-वाञ्छा—तारे बलि'काम' ।।कृष्णेन्द्रिय-प्रीति-इच्छा धरे ‘प्रेम' नाम ॥

    १६५॥

    अपनी खुद की इन्द्रियों की तृप्ति करने की इच्छा 'काम' है, किन्तु कृष्ण की इन्द्रियों को तुष्ट करने की इच्छा 'प्रेम' है।

    कामेर तात्पर्य—निज-सम्भोग केवल ।।कृष्ण-सुख-तात्पर्य-मात्र प्रेम त' प्रबल ॥

    १६६॥

    काम का लक्ष्य अपनी खुद की इन्द्रियों का भोग करना मात्र है। किन्तु प्रेम भगवान् कृष्ण के सुख ( भोग) का ध्यान रखता है और इसलिए यह अत्यन्त शक्तिशाली होता है।

    लोक-धर्म, वेद-धर्म, देह-धर्म, कर्म ।। लज्जा, धैर्य, देह-सुख, आत्म-सुख-भर्म ॥

    १६७॥

    दुस्त्यज आर्य-पथ, निज परिजन ।। स्व-जने करये व्रत ताड़न-भर्सन ॥

    १६८॥

    सर्व-त्याग करि' करे कृष्णेर भजन ।कृष्ण-सुख-हेतु करे प्रेम-सेवन ॥

    १६९॥

    सामाजिक रीतियाँ, शास्त्रीय आदेश, शारीरिक आवश्यकताएँ, सकाम कर्म, लज्जा, धैर्य, शारीरिक सुख, इन्द्रियतृप्ति तथा वर्णाश्रम-धर्म का वह मार्ग, जिसे छोड़ पाना कठिन है-गोपियों ने अपने परिवार के साथ साथ इन सबको त्याग दिया है और अपने परिजनों के दण्ड तथा फटकार को सहा है। यह सब उन्होंने भगवान् कृष्ण की सेवा के लिये किया। वे उनके (कृष्ण के) आनन्द के लिए उनकी प्रेममयी सेवा करती हैं।

    इहाके कहिये कृष्णे दृढ़ अनुराग ।स्वच्छ धौत-वस्त्रे ग्रैछे नाहि कोन दाग ॥

    १७०॥

    यह भगवान् कृष्ण के प्रति दृढ़ अनुराग कहलाता है। यह उसी तरह द्ध निष्कलंक है, जिस तरह दागरहित स्वच्छ वस्त्र।

    अतएव काम-प्रेमे बहुत अन्तर ।। काम–अन्ध-तमः, प्रेम-निर्मल भास्कर ॥

    १७१।।अतएव गोपी-गणेर नाहि काम-गन्ध ।।कृष्ण-सुख लागि मात्र, कृष्ण से सम्बन्ध ॥

    १७२॥

    इस प्रकार गोपियों के प्रेम में काम की रंचमात्र भी गन्ध नहीं है। कृष्ण के साथ उनका सम्बन्ध एकमात्र उनके ( कृष्ण के ) सुख के लिए है।

    ग्रत्ते सुजात-चरणाम्बुरुहं स्तनेषुभीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु । तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किं स्वित्कूर्पादिभिर्भमति धीर्भवदायुषां नः ॥

    १७३॥

    । हे प्रिय! आपके चरणकमल इतने कोमल हैं कि हम उन्हें अपने वक्षस्थलों पर डरती हुईं धीरे से रखती हैं कि कहीं आपके चरणों में चोट लग जाये। हमारे प्राण एकमात्र आप पर आश्रित हैं। इसलिए हमारे मन स आशंका से भरे रहते हैं कि आपके कोमल चरण जंगल के मार्ग पर लते हुए कहीं कंकड़ों से क्षत-विक्षत न हो जाएँ।

    आत्म-सुख-दु:खे गोपीर नाहिक विचार ।।कृष्ण-सुख-हेतु चेष्टा मनो-व्यवहार ॥

    १७४॥

    गोपियाँ अपने खुद के सुख या दुःख की तनिक भी परवाह नहीं करतीं। उनकी सारी शारीरिक तथा मानसिक चेष्टाएँ भगवान् कृष्ण को आनन्द पहुँचाने की दिशा में लगी रहती हैं।

    कृष्णा लागि' आर सब करे परित्याग ।कृष्ण-सुख-हेतु करे शुद्ध अनुराग ॥

    १७५ ॥

    उन्होंने कृष्ण के लिए अपना सब कुछ त्याग दिया। कृष्ण को सुख देने के लिए उनमें शुद्ध अनुराग है।

    एवं मदर्थोज्झित-लोक-वेदस्वानां हि वो मय्यनुवृत्तयेऽबलाः । मया परोक्षं भजता तिरोहितंमासूयितुं मार्हथ तत्प्रियं प्रियाः ॥

    १७६॥

    मेरी प्रिय गोपियों, तुम सबने मेरे लिए सामाजिक रीतियों, शास्त्रीय आदेशों और अपने परिजनों का परित्याग किया है। मैं तुम्हारी एकाग्रता बढ़ाने के उद्देश्य से ही तुम लोगों के पीछे छिप गया था। चूँकि मैं तुम्हारे ही लाभ के लिए छिप गया था, अतएव तुम लोगों को मुझ पर अप्रसन्न नहीं होना चाहिए।

    कृष्णेर प्रतिज्ञा एक आछे पूर्व हैते ।। ये ग्रैछे भजे, कृष्ण तारे भजे तैछे ॥

    १७७।। भगवान् कृष्ण ने पहले से वचन दे रखा है कि वे अपने भक्तों से इसी प्रकार से आदान-प्रदान करेंगे, जिस प्रकार से वे उनकी पूजा करेंगे।

    ने ग्रथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् । मम वत्र्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥

    १७८ ॥

    हे पृथा-पुत्र, मेरे भक्त जिस किसी प्रकार से मेरी शरण में आते हैं, मैं उसी के अनुसार उन्हें पुरस्कार प्रदान करता हूँ। सारे व्यक्ति सभी तरह से मेरे मार्ग का अनुसरण करते हैं।

    से प्रतिज्ञा भङ्ग हैल गोपीर भजने ।ताहाते प्रमाण कृष्ण-श्री-मुख-वचने ॥

    १७९॥

    गोपियों की पूजा से वह प्रतिज्ञा भंग हो चुकी है, जैसाकि स्वयं भगवान् कृष्ण स्वीकार करते हैं।

    न पारयेऽहं निरवद्य-संयुजां स्व-साधु-कृत्यं विबुधायुषापि वः ।। ग्रा माभजन्दुर्जय-गेह-शृङ्खलाःसंवृश्च्ये तद्वः प्रतियातु साधुना ॥

    १८० ।। । हे गोपियों, मैं तुम्हारी निष्कलंक सेवा का ऋण ब्रह्मा के जीवनकाल भी नहीं चुका सकता। मुझसे तुम लोगों का सम्बन्ध भत्र्सना से परे है। में लोगों ने उन सारे पारिवारिक बन्धनों को तोड़कर मेरी पूजा की है, नको तोड़ पाना कठिन होता है। अतएव तुम लोगों के यशस्वी कार्य तुम्हारे प्रेम का प्रतिदान है।

    तबे ये देखिये गोपीर निज-देहे प्रीत । सेहो त' कृष्णेर लागि, जानिह निश्चित ॥

    १८१॥

    अब गोपियाँ जो भी स्नेह अपने शरीरों के प्रति दिखाती हैं, उसे एकमात्र भगवान् कृष्ण के निमित्त ही जानना चाहिए।

    एई देह कैलँ आमि कृष्ण समर्पण । ताँर धन ताँर इहा सम्भोग-साधन ॥

    १८२॥

    ( गोपियाँ सोचती हैं :) मैंने यह शरीर भगवान् कृष्ण को समर्पित कर दिया है। वे ही इसके स्वामी हैं और यह उन्हें आनन्द देता है।

    ए-देह-दर्शन-स्पर्शे कृष्ण-सन्तोषण' । एइ लागि' करे देहेर मार्जन-भूषण ॥

    १८३॥

    इस शरीर को देखकर तथा इसका स्पर्श करके कृष्ण को आनन्द प्राप्त होता है। इसी कारण से वे अपने शरीर को स्वच्छ करती एवं सजती हैं। निजामपि य़ा गोप्यो ममेति समुपासते ।ताभ्यः परं न मे पार्थ निगूढ़-प्रेम-भाजनम् ॥

    १८४॥

    । हे अर्जुन, गोपियों से बढ़कर मेरे लिए प्रगाढ़ प्रेम का पात्र कोई सरा नहीं है। वे अपने शरीरों को स्वच्छ करती तथा सजाती हैं, क्योंकि में उन्हें मेरी समझती हैं।

    आर एक अद्भुत गोपी-भावेर स्वभाव ।।बुद्धिर गोचर नहे ग्राहार प्रभाव ॥

    १८५ ॥

    गोपियों के भाव का एक दूसरा अद्भुत स्वभाव है। इसका प्रभाव बुद्धि की समझ से परे है।

    गोपी-गण करे ग्रबे कृष्ण-दरशन ।।सुख-वाञ्छा नाहि, सुख हय कोटि-गुण ॥

    १८६॥

    जब गोपियाँ भगवान् कृष्ण का दर्शन करती हैं, तब उन्हें असीम आनन्द प्राप्त होता है, यद्यपि उन्हें ऐसे आनन्द की थोड़ी सी भी इच्छा नहीं होती।

    गोपीका-दर्शने कृष्णेर ग्रे आनन्द हय ।। ताहा हैते कोटि-गुण गोपी आस्वादय ॥

    १८७॥

    गोपियों को देखकर कृष्ण को जितना आनन्द मिलता है, उससे करोड़ों गुना आनन्द गोपियों को मिलता है।

    ताँ सबार नाहि निज-सुख-अनुरोध । तथापि बाढ़ये सुख, पड़िल विरोध ॥

    १८८॥

    । गोपियों को निजी सुख की कोई इच्छा नहीं है, फिर भी उनका आनन्द बढ़ता जाता है। यह निश्चित रूप से विरोधाभास है।

    ए विरोधेर एक मात्र देखि समाधान ।। गोपिकार सुख कृष्ण-सुखे पर्युवसान ॥

    १८९॥

    इस विरोधाभास का मुझे केवल एक ही समाधान दृष्टिगत होता है कि गोपियों का सुख उनके प्रिय कृष्ण के सुख में निहित है।

    गोपिका-दर्शने कृष्णेर बाढ़ प्रफुल्लता ।से माधुर्य बाढ़े ग्रार नाहिक समता ॥

    १९०॥

    जब भगवान् कृष्ण गोपियों को देखते हैं, तो उनकी प्रसन्नता बढ़ जाती है और उनकी अद्वितीय माधुरी भी बढ़ जाती है।

    आमार दर्शने कृष्ण पाइल एत सुख ।एई सुखे गोपीर प्रफुल्ल अङ्ग-मुख ॥

    १९१॥

    ( गोपियाँ सोचती हैं :) हमें देखकर कृष्ण को इतना सुख मिला है। इस विचार से उनके मुखों तथा शरीरों की पूर्णता तथा सुन्दरता बढ़ जाती है।

    गोपी-शोभा देखि' कृष्णेर शोभा बाढ़े व्रत ।कृष्ण-शोभा देखि' गोपीर शोभा बाढ़े तत ॥

    १९२॥

    गोपियों की सुन्दरता देखकर भगवान् कृष्ण की सुन्दरता बढ़ जाती है। और गोपियाँ भगवान् कृष्ण की सुन्दरता को जितना अधिक देखती हैं, उतना ही अधिक उनका सौन्दर्य बढ़ जाता है।

    एई-मत परस्पर पड़े हुड़ाहुड़ि ।।परस्पर बाढ़े, केह मुखे नाहि मुड़ि ॥

    १९३॥

    इस प्रकार उनके बीच होड़ लग जाती है, जिसमें कोई भी अपनी हार स्वीकार नहीं करता।

    किन्तु कृष्णेर सुख हेय गोपी-रूप-गुणे ।ताँर सुखे सुख-वृद्धि हये गोपी-गणे ॥

    १९४॥

    किन्तु कृष्ण गोपियों के सौन्दर्य तथा उनके सद्गुणों से आनन्द प्राप्त करते हैं। और जब गोपियाँ उनके आनन्द को देखती हैं, तो उनकी प्रसन्नता बढ़ जाती है।

    अतएव सेइ सुख कृष्ण-सुख पोखे ।एइ हेतु गोपी-प्रेमे नाहि काम-दोषे ॥

    १९५॥

    इस प्रकार हम देखते हैं कि गोपियों की प्रसन्नता से भगवान् कृष्ण की प्रसन्नता का पोषण होता है। इस कारण से गोपियों के प्रेम में कामदोष । नहीं पाया जाता।

    उपेत्य पथि सुन्दरी-ततिभिरभिरभ्यर्चितं ।स्मिताङ्कर-करम्बितैर्नटदपाङ्ग-भङ्गी-शतैः ।। स्तन-स्तवक-सञ्चरन्नयन-चञ्चरीकाञ्चलंव्रजे विजयिनं भजे विपिन-देशतः केशवम् ॥

    १९६॥

    । मैं भगवान् केशव की पूजा करता हूँ। कृष्ण के व्रज के वन से औटते समय गोपियाँ अपने महलों की छतों पर चढ़ जाती हैं और सैकड़ों प्रकार की तिरछी चितवनों तथा मन्द मुस्कानों द्वारा मार्ग में उनसे मिलकर उनकी पूजा करती हैं। उनके दोनों नेत्र विशाल काले भौरे के समान गोपियों के स्तनों पर विचरण करते हैं। आर एक गोपी-प्रेमेर स्वाभाविक चिह्न ।।ग्रे प्रकारे हय प्रेम काम-गन्ध-हीन ॥

    १९७॥

    गोपियों के प्रेम का एक अन्य स्वाभाविक लक्षण भी है, जो यह दिखलाता है कि इसमें लेशमात्र भी कामवासना नहीं है।

    गोपी-प्रेमे करे कृष्ण-माधुर्मेर पुष्टि ।माधुयें बाढ़ाय प्रेम हा महा-तुष्टि ॥

    १९८॥

    गोपियों का प्रेम भगवान् कृष्ण के माधुर्य का पोषण करता है। बदले में यह माधुर्य उनके प्रेम को वर्धित करता है, क्योंकि वे अत्यधिक तुष्ट हो जाती हैं।

    प्रीति-विषयानन्दे तदाश्रयानन्द । ताँहा नाहि निज-सुख-वाञ्छार सम्बन्ध ॥

    १९९॥

    प्रेम के आश्रय का सुख उस प्रेम के विषय के सुख में है। यह खुद की तृप्ति की इच्छा का सम्बन्ध नहीं है।

    निरुपाधि प्रेम याँहा, ताँहा एइ रीति ।। प्रीति-विषय-सुखे आश्रयेर प्रीति ॥

    २०० ॥

    निज-प्रेमानन्दे कृष्ण-सेवानन्द बाधे। से आनन्देर प्रति भक्तेर हय महा-क्रोधे ॥

    २०१॥

    । जहाँ भी स्वार्थरहित प्रेम होता है, वहाँ उसकी यही रीति है। जब प्रीति का विषय प्रसन्न होता है, तो प्रीति के आश्रय को आनन्द प्राप्त होता है। जब प्रेम का आनन्द भगवान् कृष्ण की सेवा में बाधक बनता है, तो भक्त ऐसे आनन्द पर क्रुद्ध हो उठता है।

    अङ्ग-स्तम्भारम्भमुत्तुङ्गयन्तंप्रेमानन्दं दारुको नाभ्यनन्दत् । कंसारातेर्वीजने ग्रेन साक्षाद्अक्षोदीयानन्तरायो व्यधायि ॥

    २०२॥

    श्री दारुक ने अपने प्रेम के भाव का आस्वादन नहीं किया, क्योंकि इससे उसके अंग स्तंभित हो गये, जिसके कारण भगवान् कृष्ण पर उसका पंखा झलना बाधित हो गया।

    गोविन्द-प्रेक्षणाक्षेपि-बाष्प-पूराभिवर्षणम् ।।उच्चैरनिन्ददानन्दमरविन्द-विलोचना ॥

    २०३॥

    । कमलनयनी राधारानी ने उस प्रेमानन्द की भर्त्सना की, जिसके कारण अश्रु बहने लगे और जिससे उन्हें गोविन्द का दर्शन पाने में बाधा पहुँची।

    आर शुद्ध-भक्त कृष्ण-प्रेम-सेवा विने । स्व-सुखार्थ सालोक्यादि ना करे ग्रहणे ॥

    २०४॥

    यही नहीं, शुद्ध भक्त पाँच प्रकार की मुक्ति के माध्यम से अपने निजी सुख की कामना के लिए कृष्ण की प्रेममयी सेवा कभी नहीं छोड़ते।

    मद्गुण-श्रुति-मात्रेण मयि सर्व-गुहाशये ।। मनो-गतिरविच्छिन्ना ग्रथा गङ्गाम्भसोऽम्बुधौ ॥

    २०५॥

    जिस प्रकार गंगा नदी का दैवी जल अबाध गति से बहकर समुद्र में मिलता है, उसी प्रकार मेरे भक्तों के मन मेरा गुणगान सुनते ही सबके हृदयों में वास करने वाले मुझ तक चले आते हैं।

    लक्षणं भक्ति-योगस्य निर्गुणस्य ह्युदाहृतम् ।। अहैतुक्यव्यवहिता ग्रा भक्तिः पुरुषोत्तमे ॥

    २०६॥

    । पुरुषोत्तम भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति के ये लक्षण हैं-यह निस्वार्थ होती है और यह किसी भी तरह रोकी नहीं जा सकती।

    सालोक्य-सार्टि-सारूप्य-सामीप्यैकत्वमप्युत ।दीयमानं न गृह्णन्ति विना मत्सेवनं जनाः ॥

    २०७॥

    “मेरे भक्त मेरी सेवा के बदले में सालोक्य, सार्टि, सारूप्य, सामीप्य अथवा मेरे साथ तादात्म्यता की मुक्तियों को मेरे देने पर भी स्वीकार नहीं करते ।

    मत्सेवया प्रतीतं ते सालोक्यादि-चतुष्टयम् ।।नेच्छन्ति सेवया पूर्णाः कुतोऽन्यत्काल-विप्लुतम् ॥

    २०८ ॥

    मेरे भक्त मेरी सेवा द्वारा अपनी इच्छाएँ पूरी करने के बाद, ऐसी ' से सहज प्राप्य चार प्रकार की मुक्तियों को स्वीकार नहीं करते। तो फिर वे काल के प्रवाह के साथ नष्ट होने वाले किसी आनन्द को स्वीकार यो करने लगे? काम-गन्ध-हीन स्वाभाविक गोपी-प्रेम ।।निर्मल, उज्वल, शुद्ध ग्रेन दग्ध हेम ॥

    २०९॥

    गोपियों के सहज प्रेम में काम की गंध नहीं आती। यह निर्दोष, उज्वल एवं पिघले सोने की भाँति शुद्ध है।

    कृष्णेर सहाय, गुरु, बान्धव, प्रेयसी ।। गोपिका हयेन प्रिया शिष्या, सखी दासी ॥

    २१०॥

    गोपियाँ भगवान् कृष्ण की सहायिकाएँ, गुरु, मित्र, पलियाँ, प्रिय शिष्या, विश्वासपात्राएँ तथा दासियाँ हैं।

    सहाया गुरवः शिष्या भुजिष्या बान्धवाः स्त्रियः । सत्यं वदामि ते पार्थ गोप्यः किं मे भवन्ति न ॥

    २११॥

    हे पार्थ, मैं तुमसे सत्य कहता हूँ। गोपियाँ मेरी सहायिकाएँ, गुरु, शिष्या, सेविकाएँ, मित्र तथा प्रेयसियाँ हैं। मैं नहीं जानता कि वे मेरे लिए क्या नहीं हैं? गोपिका जानेन कृष्णेर मनेर वाञ्छित ।। प्रेम-सेवा-परिपाटी, इष्ट-समीहित ॥

    २१२॥

    गोपियाँ कृष्ण की इच्छाओं को जानती हैं और वे यह भी जानती हैं। उनके आनन्द के लिए किस प्रकार प्रेममयी सेवा पूर्ण रूप से करनी दए। वे अपने प्रियतम की तुष्टि के लिए उनकी सेवा दक्षतापूर्वक करती हैं।

    मन्माहात्म्यं मत्सपर्या मच्छुद्धां मन्मनो-गतम् ।जानन्ति गोपिकाः पार्थ नान्ये जानन्ति तत्त्वतः ॥

    २१३॥

    हे पार्थ, गोपियाँ मेरी महानता, मेरी प्रेममयी सेवा, मेरे सम्मान तथा । मेरी मनोभावना को जानती हैं। वस्तुतः अन्य कोई इन्हें जान नहीं सकता।

    सेइ गोपी-गण-मध्ये उत्तमा राधिका ।।रूपे, गुणे, सौभाग्ये, प्रेमे सर्वाधिका ॥

    २१४॥

    गोपियों में श्रीमती राधिका सर्वोपरि हैं। वे सौन्दर्य, सद्गुण, सौभाग्य तथा प्रेम में सबसे बढ़कर हैं।

    ग्रथा राधा प्रिया विष्णोस्तस्याः कुण्डं प्रियं तथा ।सर्व-गोपीषु सैवैका विष्णोरत्यन्त-वल्लभा ॥

    २१५॥

    जिस प्रकार राधा भगवान् कृष्ण को प्रिय हैं, उसी तरह उनका स्नान स्थल (राधाकुंड) भी उन्हें प्रिय है। अकेले वे ही समस्त गोपियों में से उनकी सबसे अधिक प्रिय हैं।

    त्रैलोक्ये पृथिवी धन्या ग्रत्र वृन्दावनं पुरी ।।तत्रापि गोपिकाः पार्थ ग्नत्र राधाभिधा मम ॥

    २१६॥

    हे पार्थ, तीनों लोकों में यह पृथ्वी विशेष रूप से भाग्यशालिनी है,क्योंकि इसी पर वृन्दावन नगरी स्थित है। और वृन्दावन में भी गोपियाँ शेष रूप से महिमामण्डित हैं, क्योंकि मेरी आमती राधाराना ।

    राधा-सह क्रीड़ा रस-वृद्धिर कारण ।आर सब गोपी-गण रसोपकरण ॥

    २१७॥

    अन्य सारी गोपियाँ राधारानी के साथ कृष्ण की लीलाओं के आनन्द को बढ़ाने वाली हैं। गोपियाँ उनके पारस्परिक सुख में उपकरण का कार्य करती हैं।

    कृष्णेर वल्लभा राधा कृष्ण-प्राण-धन ।।ताँहा विनु सुख-हेतु नहे गोपी-गण ॥

    २१८॥

    राधा कृष्ण की प्राणप्रिया हैं और वे उनके जीवन की सम्पत्ति हैं। उनके बिना गोपियाँ कृष्ण को आनन्द नहीं दे सकतीं।

    कंसारिरपि संसार-वासना-बद्ध-शृङ्खलाम् ।राधामाधाय हृदये तत्याज व्रज-सुन्दरीः ॥

    २१९॥

    कंस के शत्रु भगवान् कृष्ण ने रासनृत्य के समय अन्य सारी गोपियों को एक ओर छोड़ दिया और श्रीमती राधारानी को अपने हृदय में स्थापित किया, क्योंकि वे भगवान् की इच्छाएँ पूरी करने में उनकी सहायिका हैं।

    सेइ राधार भाव लञा चैतन्यावतार । झुग-धर्म नाम-प्रेम कैल परचार ॥

    २२०॥

    भी चैतन्य महाप्रभु वही राधा-भाव लेकर प्रकट हुए। उन्होंने इस युग । अर्म-भगवन्नाम संकीर्तन तथा भगवान् के शुद्ध प्रेम-का प्रचार किया।

    सेई भावे निज-वाञ्छा करिल पूरण ।अवतारेर एइ वाञ्छा मूल कारण ॥

    २२१॥

    श्रीमती राधारानी के भाव में उन्होंने अपनी इच्छाएँ भी पूरी कीं। यही उनके अवतार का मुख्य कारण है।

    श्री-कृष्ण-चैतन्य गोसाजि व्रजेन्द्र-कुमार। रस-मय-मूर्ति कृष्ण साक्षात्शृङ्गार ॥

    २२२॥

    भगवान् श्रीकृष्ण चैतन्य साक्षात् रस-विग्रह कृष्ण ( व्रजेन्द्रकुमार ) हैं। वे साक्षात् श्रृंगार मूर्ति हैं।

    सेइ रस आस्वादिते कैल अवतार ।आनुसङ्गे कैल सब रसेर प्रचार ॥

    २२३॥

    वे उस माधुर्य रस का आस्वादन करने और संयोगवश समस्त रसों का प्रचार करने के लिए अवतरित हुए।

    विश्वेषामनुरञ्जनेन जनयन्नानन्दमिन्दीवरश्रेणी-श्यामल-कोमलैरुपनयन्नङ्गैरनङ्गोत्सवम् । स्वच्छन्दं व्रज-सुन्दरीभिरभितः प्रत्यङ्गमालिङ्गितःशृङ्गारः सखि मूर्तिमानिव मधौ मुग्धो हरिः क्रीड़ति ॥

    २२४॥

    । हे सखियों, जरा देखो न, किस तरह श्रीकृष्ण वसन्त ऋतु का आनन्द ले रहे हैं। उनके प्रत्येक अंग का आलिंगन गोपियों द्वारा हो रहा हैं, जिससे वे साक्षात् श्रृंगार मूर्ति प्रतीत हो रहे हैं। वे अपनी दिव्य लीलाओं समस्त गोपियों एवं सारी सृष्टि को सुख प्रदान करते हैं। उन्होंने अपने कोमल श्यामवर्ण नीलकमल सदृश भुजाओं एवं चरणों से कामदेव के लिए एक उत्सव की सृष्टि कर दी है।

    श्री-कृष्ण-चैतन्य गोसाजि रसेर सदन ।।अशेष-विशेषे कैल रस आस्वादन ॥

    २२५॥

    भगवान् श्रीकृष्ण चैतन्य रस के धाम हैं। उन्होंने स्वयं रस की मधुरता का आस्वादन अनन्त विधियों से किया।

    सेइ द्वारे प्रवर्ताइल कलि-युग-धर्म ।चैतन्येर दासे जाने एइ सब मर्म ॥

    २२६॥

    इस तरह उन्होंने कलियुग के लिए धर्म का प्रवर्तन किया। श्री चैत महाप्रभु के भक्त इन सारे सत्यों को जानते हैं।

    षष्ठ-श्लोकेर एइ कहिल आभास ।।मूल श्लोकेर अर्थ शुन करिये प्रकाश ॥

    २२९॥

    । । मैंने छठे श्लोक का संकेत कर दिया है। अब मैं उस मूल श्लोक का अर्थ उद्घाटित कर रहा हूँ, कृपा करके सुनें।

    अद्वैत आचार्य, नित्यानन्द, श्रीनिवास ।। गदाधर, दामोदर, मुरारि, हरिदास ॥

    २२७॥

    आर व्रत चैतन्य-कृष्णेर भक्त-गण ।। भक्ति-भावे शिरे धरि सबारे चरण ॥

    २२८॥

    मैं अद्वैत आचार्य, भगवान् नित्यानन्द, श्रीवास पंडित, गदाधर पंडित, स्वरूप दामोदर, मुरारि गुप्त, हरिदास ठाकुर तथा श्रीकृष्ण चैतन्य के अन्य सभी भक्तों को भक्तिपूर्वक नमस्कार करके उनके चरणकमलों को सिर पर धारण करता हूँ।

    श्री-राधायाः प्रणय-महिमा कीदृशो वानयैवा स्वाद्यो ग्रेनाद्भुत-मधुरिमा कीदृशो वा मदीयः । सौख्यं चास्या मदनुभवतः कीदृशं वेति लोभात् ।तद्भावाढ्यः समजनि शची-गर्भ-सिन्धौ हरीन्दुः ॥

    २३०॥

    श्रीमती राधारानी के प्रेम की महिमा को, उनके अद्भुत गुण जिनका आस्वादन केवल राधारानी ही अपने प्रेम के माध्यम से करती है, उसको तथा उनके प्रेम की मधुरता का अनुभव करने पर वे जिस सुख का अनुभव करती हैं, उसको समझने की इच्छा से परम भगवान् श्रीहरि राधा के भावों में विभोर होकर श्रीमती शचीदेवी की कोख से उसी प्रकार प्रकट हुए, जिस प्रकार समुद्र से चन्द्रमा प्रकट होता है।

    ए सब सिद्धान्त गूढ़,—कहिते ना ग्रुयाय ।।ना कहिले, केह इहार अन्त नाहि पाय ॥

    २३१॥

    इन सारे सिद्धान्तों को जनसामान्य के समक्ष प्रकट करना अनुचित है। किन्तु यदि इन्हें प्रकट नहीं किया जाता, तो इन्हें कोई भी नहीं समझ सकेगा।

    अतएव कहि किछु करिआ निगूढ़ । बुझिबे रसिक भक्त, ना बुझिबे मूढ़ ॥

    २३२॥

    इसलिए मैं केवल उनका सार ही प्रकट करूँगा, जिससे रसिक भक्त तो उन्हें समझ लें, किन्तु जो मूर्ख हैं, वे समझ न सकें।

    हृदये धरये ये चैतन्य-नित्यानन्द ।।ए-सब सिद्धान्ते सेई पाइबे आनन्द ॥

    २३३॥

    जिस किसी ने श्री चैतन्य महाप्रभु तथा श्री नित्यानन्द प्रभु को अपने उदय में धारण कर लिया है, वह इन सारे दिव्य सिद्धान्तों को सुनकर परम आनन्दित होगा।

    ए सब सिद्धान्त हय आमेर पल्लव ।भक्त-गण-कोकिलेर सर्वदा वल्लभ ॥

    २३४॥

    ये सारे सिद्धान्त आम के वृक्ष की नवांकुरित शाखाओं के समान हैं। ये कोयल रूपी भक्तों के लिए सदैव प्रिय हैं।

    अभक्त-उष्ट्रेर इथे ना हय प्रवेश ।। तबे चित्ते हय मोर आनन्द-विशेष ॥

    २३५॥

    ऊँट समान अभक्त इन विषयों में प्रवेश नहीं कर सकते। इसलिए मेरे मन में विशेष प्रसन्नता है।

    ये लागि कहिते भय, से ग्रदि ना जाने ।।इहा वइ किबा सुख आछे त्रिभुवने ॥

    २३६॥

    मैं उनके डर से कहना नहीं चाहता, किन्तु यदि वे नहीं समझते तो तीनों लोकों में इससे बढ़कर प्रसन्नता की बात और क्या हो सकती है? अतएव भक्त-गणे करि नमस्कार ।। निःशङ्के कहिये, तार हौमत्कार ॥

    २३७॥

    अतएव भक्तों को नमस्कार करके मैं उनके संतोष के लिए बिना भी संकोच के कहूँगा।

    कृष्णेर विचार एक आछये अन्तरे ।।पूर्णानन्द-पूर्ण-रस-रूप कहे मोरे ॥

    २३८ ॥

    एक बार भगवान् कृष्ण ने अपने मन में विचार किया, “सारे लोग हते हैं कि मैं आनन्द तथा समस्त रसों से पूर्ण हूँ।

    आमा हइते आनन्दित हय त्रिभुवन ।।आमाके आनन्द दिबे-ऐछे कोन्जन ॥

    २३९॥

    सारा संसार मुझ से ही आनन्द प्राप्त करता है। क्या ऐसा भी कोई है, जो मुझे आनन्द दे सके? आमा हैते यार हय शत शत गुण ।। सेइ-जन आह्लादिते पारे मोर मन ॥

    २४०॥

    जिस व्यक्ति में मुझसे सैकड़ों गुना अधिक गुण हों, वही मेरे मन को आनन्दित कर सकता है।

    आमा हैते गुणी बड़ जगते असम्भवे ।।एकलि राधाते ताहा करि अनुभव ॥

    २४१॥

    मुझसे अधिक गुणवान व्यक्ति को इस जगत् में खोज पाना असम्भव है। किन्तु एकमात्र राधा में मुझे उस व्यक्ति की उपस्थिति जान पड़ती है, जो मुझे आनन्द दे सके।

    कोटि-काम जिनि' रूप यद्यपि आमार ।। असमोर्ध्व-माधुर्य—साम्य नाहि ग्रार ॥

    २४२॥

    मोर रूपे आप्यायित हय त्रिभुवन ।राधार दर्शने मोर जुड़ाय नयन ॥

    २४३॥

    । यद्यपि मेरा सौन्दर्य एक करोड़ कामदेवों को पराजित करने वाला । यद्यपि यह अतुलनीय और अद्वितीय है तथा तीनों जगतों को आनन्दित करने वाला है, किन्तु राधारानी के दर्शन से मेरे नेत्रों को आनन्द प्राप्त होता हैं।

    मोर वंशी-गीते आकर्षये त्रिभुवन ।राधार वचने हरे आमार श्रवण ॥

    २४४॥

    मेरी दिव्य बाँसुरी की ध्वनि तीनों लोकों को आकर्षित करती है, किन्तु मेरे कान श्रीमती राधारानी के मधुर शब्दों से मुग्ध हो जाते हैं।

    यद्यपि आमार गन्धे जगत्सुगन्ध ।मोर चित्त-प्राण हरे राधा-अङ्ग-गन्ध ॥

    २४५ ॥

    यद्यपि मेरा शरीर सम्पूर्ण सृष्टि को सुगन्ध प्रदान करता है, किन्तु राधारानी के अंगों की सुगन्धि मेरे मन तथा हृदय को मोहित कर देती है।

    यद्यपि आमार रसे जगत्सरस ।राधार अधर-रस आमा करे वश ॥

    २४६॥

    यद्यपि सम्पूर्ण सृष्टि मेरे कारण विभिन्न रसों से पूरित है, किन्तु मैं । श्रीमती राधारानी के अधरों के अमृत-रस पर मुग्ध हूँ।

    यद्यपि आमार स्पर्श कोटीन्दु-शीतल ।।राधिकार स्पर्शे आमा करे सुशीतल ॥

    २४७॥

    यद्यपि मेरा स्पर्श एक करोड़ चन्द्रमाओं से भी शीतल है, किन्तु मैं श्रीमती राधिका के स्पर्श से शीतल हो उठता हूँ।

    एइ मत जगतेर सुखे आमि हेतु ।।राधिकार रूप-गुण आमार जीवातु ॥

    २४८॥

    । इस तरह यद्यपि मैं सम्पूर्ण जगत् के सुख का उद्गम हूँ, किन्तु श्री राधाका के सौन्दर्य एवं गुण मेरे जीवन और आत्मा हैं।

    एइ मत अनुभव आमार प्रतीत ।।विचारि' देखिये यदि, सब विपरीत ॥

    २४९॥

    श्रीमती राधारानी के प्रति मेरी स्नेहिल भावनाओं को इस रूप में समझा जा सकता है, किन्तु जब मैं विचार करके देखता हूँ, तो मैं उन्हें विपरीत पाता हूँ।

    राधार दर्शने मोर जुड़ाय नयने ।।आमार दर्शने राधा सुखे अगेयान ॥

    २५०॥

    । जब मैं श्रीमती राधारानी पर दृष्टि डालता हूँ, तो मेरी आँखें पूर्णतया तृप्त हो जाती हैं, किन्तु मुझे देखकर वह और भी अधिक तुष्ट होती है।

    परस्पर वेणु-गीते हरये चेतन ।।मोर भ्रमे तमालेरे करे आलिङ्गन ॥

    २५१॥

    बाँसों की परस्पर रगड़ से वंशी के समान जो मर्मर स्वर निकलता है, वह राधारानी की चेतना को हर लेता है, क्योंकि वह इसे मेरी वंशी की ध्वनि समझती है। वह मेरे भ्रम में तमाल वृक्ष का आलिंगन करती है।

    कृष्ण-आलिङ्गन पाइनु, जनम सफले ।कृष्ण-सुखे मग्न रहे वृक्ष करि' कोले ॥

    २५२ ॥

    वह सोचती है, 'मुझे कृष्ण का आलिंगन मिल रहा है, अतएव मेरा जीवन सार्थक हो गया है। इस प्रकार वह वृक्ष को अपनी भुजाओं में भरकर कृष्ण को प्रसन्न करने में मग्न रहती है।

    अनुकूल-वाते यदि पाय मोर गन्ध ।उड़िया पड़िते चाहे, प्रेमे हय अन्ध ॥

    २५३॥

    । जब अनुकूल वायु मेरे शरीर की सुगन्ध को उस तक ले जाती है, प्रेमान्ध हो उठती है और उस वायु में उड़ना चाहती है।

    ताम्बूल-चर्वित ग्रबे करे आस्वादने । आनन्द-समुद्रे डुबे, किछुइ ना जाने ॥

    २५४॥

    जब वह मेरे द्वारा चर्वित पान का आस्वादन करती है, तो वह आनन्द के समुद्र में डूब जाती है और सब कुछ भूल जाती है।

    आमार सङ्गमे राधा पाय ग्रे आनन्द । शत-मुखे बलि, तबु ना पाई तार अन्त ॥

    २५५॥

    मैं सैकड़ों मुखों से उस दिव्य आनन्द को व्यक्त नहीं कर सकता, जिसे वह मेरी संगति से प्राप्त करती है।

    लीला-अन्ते सुखे इँहार अङ्गेर माधुरी ।। ताहा देखि' सुखे आमि आपना पाशरि ॥

    २५६॥

    अपनी परस्पर-लीलाओं के अन्त में उसके वर्ण की कान्ति को देखकर मैं सुख में मग्न होकर अपनी खुद की पहचान भूल जाता हूँ।

    दोंहार ने सम-रस, भरत-मुनि माने ।। आमार व्रजेर रस सेह नाहि जाने ॥

    २५७॥

    । भरत मुनि ने कहा है कि प्रेमी तथा प्रेमिका के रस समान होते हैं। किन्तु मेरे वृन्दावन के रस को वे भी नहीं जानते।

    अन्येर सङ्गमे आमि व्रत सुख पाई। ताहा हैते राधा-सुख शत अधिकाइ ॥

    २५८॥

    मुझे राधारानी से मिलने पर जो सुख प्राप्त होता है, वह अन्यों से ने पर प्राप्त होने वाले सुख से सैकड़ों गुना अधिक होता है।

    निर्भूतामृत-माधुरी-परिमल: कल्याणि बिम्बाधरो ।वक्त्रं पङ्कज-सौरभं कुहरित-श्लाघा-भिदस्ते गिरः । अङ्गं चन्दन-शीतलं तनुरियं सौन्दर्य-सर्वस्व-भाक्त्वामासाद्य ममेदमिन्द्रिय-कुलं राधे मुहुर्मोदते ॥

    २५९ ॥

    । हे कल्याणी राधारानी, तुम्हारा शरीर समस्त सौन्दर्य का स्रोत है। तुम्हारे लाल लाल अधर अमृत-माधुरी की अनुभूति से भी कोमल हैं, तुम्हारा मुख कमल के फूले की सुगन्धि से ओतप्रोत है, तुम्हारी मधुर वाणी कोयल की ध्वनि को परास्त करने वाली है और तुम्हारे अंग-प्रत्यंग चन्दन-लेप से भी शीतल हैं। मेरी सभी दिव्य इन्द्रियाँ सद्गुणों से अलंकृत तुम्हारा आस्वादन करके परम आह्लादित होती हैं।'

    रूपे कंस-हरस्य लुब्ध-नयनां स्पर्शेऽतिहृष्यत्त्वचंवाण्यामुत्कलित-श्रुतिं परिमले संहृष्ट-नासा-पुटाम् ।। आरज्यद्रसनां किलाधर-पुटे न्यञ्चन्मुखाम्भोरुहां दम्भोगीर्ण-महा-धृतिं बहिरपि प्रोद्यद्विकाराकुलाम् ॥

    २६०॥

    उनकी आँखें कंस के शत्रु भगवान् कृष्ण के सौन्दर्य पर मुग्ध हैं। उनका शरीर कृष्ण के स्पर्श से आनन्द-पुलकित होता है। उनके कान सदैव उनकी मधुर ध्वनि की ओर आकृष्ट होते हैं। उनकी नाक उनकी सुगन्ध से मुग्ध होती है और उनकी जीभ उनके कोमल अधरों का अमृतपान करने के लिए लालायित रहती है। वे आत्मसंयम का बहाना करके अपने कमल सदृश मुख को लटकाये रहती हैं, किन्तु वे कृष्ण के प्रति उनके स्वयंस्फूर्त रागानुग प्रेम के बाह्य लक्षण को प्रकट होने से रोक नहीं सकतीं।'

    ताते जानि, मोते आछे कोन एक रस ।। आमार मोहिनी राधा, तारे करे वश ॥

    २६१॥

    यह विचार करने पर मैं समझ सकता हूँ कि मुझमें कोई अज्ञात रस है, जो मुझे मोहित करने वाली श्रीमती राधारानी को सम्पूर्ण रूप से वश में करता है।

    आमा हैते राधा पाय ग्रे जातीय सुख ।। ताहा आस्वादिते आमि सदाई उन्मुख ॥

    २६२॥

    मैं सदैव उस सुख का आस्वादन करने के लिए उत्सुक रहता हूँ, जो राधारानी मुझसे प्राप्त करती है।

    नाना ग्रन करि आमि, नारि आस्वादिते । सेइ सुख-माधु-घ्राणे लोभ बाढ़ चित्ते ॥

    २६३॥

    - अनेक प्रयत्नों के बाद भी मैं उसका आस्वादन करने के लिए समर्थ नहीं हो सका। किन्तु जब मैं इसकी मधुरता को सँघता हूँ, तो उस सुख का आस्वादन करने की मेरी इच्छा बढ़ जाती है।

    रस आस्वादिते आमि कैल अवतार । प्रेम-रस आस्वादिल विविध प्रकार ॥

    २६४॥

    पहले मैं रसों का आस्वादन करने के लिए संसार में प्रकट हुआ था और मैंने शुद्ध प्रेम के रसों का अनेक प्रकार से आस्वादन किया।

    राग-मार्गे भक्त भक्ति करे ने प्रकारे । ताहा शिखाइल लीला-आचरण-द्वारे ॥

    २६५॥

    मैंने भक्तों को रागानुग प्रेम से प्रकट होने वाली भक्ति की शिक्षा । अपनी लीलाओं का प्रदर्शन करके प्रदान की।

    एइ तिन तृष्णा मोर नहिल पूरण ।। विजातीय-भावे नहे ताहा आस्वादन ॥

    २६६॥

    किन्तु मेरी ये तीन इच्छाएँ पूरी नहीं हुईं, क्योंकि विपरीत पद में इनका आस्वादन नहीं किया जा सकता।

    राधिकार भाव-कान्ति अङ्गीकार विने । सेइ तिन सुख कभु नहे आस्वादने ॥

    २६७॥

    यदि मैं श्री राधिका के प्रेम-भाव तथा कान्ति को स्वीकार नहीं करूँगा, तो ये तीन इच्छाएँ पूरी नहीं हो सकेगी।

    राधा-भाव अङ्गीकरि' धरि' तार वर्ण ।।तिने-सुख आस्वादिते हब अवतीर्ण ॥

    २६८॥

    अतएव राधारानी के भावों को तथा उनके शारीरिक वर्ण को धारण करके इन तीनों इच्छाओं को पूरा करने के लिए मैं अवतरित हूँगा।

    सर्व-भावे कैल कृष्ण एइ त निश्चय ।।हेन-काले आइल युगावतार-समय ॥

    २६९॥

    इस तरह भगवान् कृष्ण इस निर्णय पर पहुँचे। उसी समय युगावतार का समय भी आ गया।

    सेइ-काले श्री-अद्वैत करेन आराधन ।ताँहार हुङ्कारे कैल कृष्णे आकर्षण ॥

    २७० ॥

    उस समय श्री अद्वैत निष्ठा से उनकी पूजा कर रहे थे। उन्होंने अपनी तेज पुकार से भगवान् को आकृष्ट किया।

    पिता-माता, गुरु-गण, आगे अवतारि' । राधिकार भाव-वर्ण अङ्गीकार करि' ॥

    २७१॥

    नव-द्वीपे शची-गर्भ-शुद्ध-दुग्ध-सिन्धु । ताहाते प्रकट हैला कृष्ण पूर्ण इन्दु ॥

    २७२॥

    सर्वप्रथम भगवान् कृष्ण ने अपने माता-पिता एवं गुरुजनों को प्रकट होने दिया। स्वयं कृष्ण, राधिका का भाव एवं उनका वर्ण लेकर, नवद्वीप में क्षीर सागर के समान माता शची की कोख से पूर्ण चन्द्रमा के समान प्रकट हुए।

    एइ त' करिहुँ षष्ठ श्लोकेर व्याख्यान ।श्री-रूप-गोसाजिर पाद-पद्म करि' ध्यान ॥

    २७३ ॥

    मैंने श्री रूप गोस्वामी के चरणकमलों का ध्यान करके छठे श्लोक की इस तरह व्याख्या की है।

    एइ दुइ श्लोकेर आमि ग्रे करिल अर्थ । श्री-रूप-गोसाजिर श्लोक प्रमाण समर्थ ॥

    २७४॥

    मैं इन दो श्लोकों (प्रथम अध्याय के श्लोक ५ तथा ६) की व्याख्या की पुष्टि श्रील रूप गोस्वामी के श्लोक से कर सकता हूँ।

    अपारं कस्यापि प्रणयि-जन-वृन्दस्य कुतुकीरस-स्तोमं हृत्वा मधुरमुपभोक्तुं कमपि यः । रुचं स्वामाव→ द्युतिमिह तदीयां प्रकटयन् । स देवश्चैतन्याकृतिरतितरां नः कृपयतु ॥

    २७५ ॥

    भगवान् कृष्ण प्रेमिकाओं के समूह में से एक ( श्री राधा ) के असीम प्रेम के अमृत रस का आस्वादन करना चाहते थे; अतएव उन्होंने चैतन्य महाप्रभु का स्वरूप धारण किया है। उन्होंने राधा के तेजोमय गौरवर्ण से ने श्यामवर्ण को छिपाते हुए उस प्रेम का आस्वादन किया है। वे चैतन्य भु हम सबको अपनी कृपा प्रदान करें।"

    मङ्गलाचरणं कृष्ण-चैतन्य-तत्त्व-लक्षणम् । प्रयोजनं चावतारे श्लोक-षट्कैर्निरूपितम् ॥

    २७६॥

    इस प्रकार प्रथम छह श्लोकों में मंगलाचरण, श्री चैतन्य के तत्त्व का अनिवार्य लक्षण एवं उनके प्राकट्य के कारण को प्रस्तुत किया गया है।"

    श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश । चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥

    २७७॥

    मैं कृष्णदास श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों में प्रार्थना करते हुए और उनकी कृपा की आकांक्षा करते हुए तथा उनके पदया। पर चलकर श्री चैतन्य-चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।"

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    अध्याय पांच: भगवान नित्यानंद बलराम की महिमा

    वन्देऽनन्ताद्भुतैश्वर्यं श्री-नित्यानन्दमीश्वरम् ।। ग्रस्येच्छया तत्स्वरूपमज्ञेनापि निरूप्यते ॥

    १॥

    मैं उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्री नित्यानन्द प्रभु को नमस्कार करता हैं, जिनका ऐश्वर्य अद्भुत तथा असीम है। उनकी इच्छा होने पर एक मूर्ख भी उनके स्वरूप को समझ सकता है।

    जय जय श्री-चैतन्य जय नित्यानन्द ।। जयाद्वैत-चन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ॥

    २ ॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! श्री अद्वैत आचार्य की जय हो! और श्री चैतन्य महाप्रभु के सारे भक्तों की जय हो! एइ षट्श्लोके कहिल कृष्ण-चैतन्य-महिमा ।। पञ्च-श्लोके कहि नित्यानन्द-तत्त्व-सीमा ॥

    ३ ॥

    मैंने श्रीकृष्ण चैतन्य की महिमा का वर्णन छह श्लोकों में किया है। अब मैं पाँच श्लोकों में भगवान् श्री नित्यानन्द की महिमा का वर्णन करूंगा।

    सर्व-अवतारी कृष्ण स्वयं भगवान् । ताँहार द्वितीय देह श्री-बलराम ॥

    ४॥

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण समस्त अवतारों के स्रोत हैं। भगवान् बलराम उनके द्वितीय शरीर हैं।

    एक स्वरूप दोहे, भिन्न-मात्र काय । आद्य काय-व्यूह, कृष्ण-लीलार सहाय ॥

    ५॥

    वे दोनों एक ही रूप हैं। केवल उनके शरीर में अन्तर है। भगवान् बलराम कृष्ण के प्रथम शारीरिक विस्तार (कायव्यूह ) हैं और कृष्ण की दिव्य लीलाओं में सहायक होते हैं।

    सेइ कृष्ण नवद्वीप श्री-चैतन्य-चन्द्र ।सेइ बलराम–सङ्गे श्री-नित्यानन्द ॥

    ६॥

    वे मूल भगवान् कृष्ण नवद्वीप में श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए और श्री बलराम उनके साथ श्री नित्यानन्द प्रभु के रूप में प्रकट हुए।

    सङ्कर्षणः कारण-तोय-शायीगर्भोद-शायी च पयोब्धि-शायी । शेषश्च यस्यांश-कलाः स नित्यानन्दाख्य-रामः शरणं ममास्तु ॥

    ७॥

    वे श्री नित्यानन्द राम मेरे निरन्तर स्मरण के लक्ष्य बनें, जिनके पूर्णाश तथा पूर्णांश के अंश संकर्षण, शेषनाग तथा वे विष्णु हैं, जो क्रमशः कारण-सागर, गर्भ-सागर तथा क्षीर-सागर में शयन करते हैं।

    श्री-बलराम गोसाजि मूल-सङ्कर्षण ।।पञ्च-रूप धरि' करेन कृष्णेर सेवन ॥

    ८॥

    । भगवान् बलराम मूल संकर्षण हैं। वे भगवान् कृष्ण की सेवा करने के लिए पाँच अन्य रूप धारण करते हैं।

    आपने करेन कृष्ण-लीलार सहाय ।सृष्टि-लीला-कार्य करे धरि' चारि काय ॥

    ९॥

    वे स्वयं भगवान् कृष्ण की लीलाओं में सहायता करते हैं और चार अन्य रूपों में सृजन-कार्य भी करते हैं।

    सृष्ट्यादिक सेवा, ताँर आज्ञार पालन ।।‘शेष'-रूपे करे कृष्णोर विविध सेवन ॥

    १० ॥

    वे सृष्टि-कार्य में भगवान् कृष्ण के आदेशों का पालन करते हैं और भगवान् शेष के रूप में वे कृष्ण की अनेक प्रकार से सेवा करते हैं।

    सर्व-रूपे आस्वादये कृष्ण-सेवानन्द ।।सेइ बलराम–गौर-सङ्गे नित्यानन्द ॥

    ११॥

    वे अपने समस्त रूपों में कृष्ण की सेवा करने के दिव्य आनन्द का स्वादन करते हैं। वे बलराम ही भगवान् गौरसुन्दर के सहचर नित्यानन्द प्रभु हैं।

    सप्तम श्लोकेर अर्थ करि चारि-श्लोके ।।ग्राते नित्यानन्द-तत्त्व जाने सर्व-लोके ॥

    १२॥

    मैंने इस सातवें श्लोक की व्याख्या लगातार चार श्लोकों में की है। न श्लोकों से सारा संसार नित्यानन्द प्रभु के विषय में सत्य को जान सकता है।

    मायातीते व्यापि-वैकुण्ठ-लोके पूर्णेश्वर्ये श्री-चतुयूंह-मध्ये ।। रूपं ग्रस्योद्भाति सङ्कर्षणाख्यंतं श्री-नित्यानन्द-रामं प्रपद्ये ॥

    १३॥

    मैं उन श्री नित्यानन्द राम के चरणकमलों की शरण ग्रहण करता है. जो चतुयूंह के मध्य संकर्षण नाम से विख्यात हैं ( चतुयूंह में वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध सम्मिलित हैं)। वे समस्त ऐश्वर्यों से युक्त हैं और इस भौतिक जगत् से बहुत दूर वैकुण्ठ-लोक में निवास करते हैं।

    प्रकृतिर पार ‘परव्योम'-नामे धाम ।। कृष्ण-विग्रह ग्रैछे विभूत्यादि-गुणवान् ॥

    १४॥

    भौतिक प्रकृति से परे परव्योम अर्थात् आध्यात्मिक आकाश है। यह साक्षात् कृष्ण की ही तरह समस्त दिव्य गुणों-यथा छह ऐश्वर्यो-से युक्त है।

    सर्वग, अनन्त, विभु–वैकुण्ठादि धाम ।।कृष्ण, कृष्ण-अवतारेर ताहात्रि विश्राम ॥

    १५ ॥

    वह वैकुण्ठ धाम सर्वव्यापी, अनन्त एवं परम पूर्ण है। वह भगवान् कृष्ण तथा उनके अवतारों का आवास है।

    ताहार उपरि-भागे 'कृष्ण-लोक'-ख्याति ।द्वारका-मथुरा-गोकुल–त्रि-विधत्वे स्थिति ॥

    १६॥

    उस आध्यात्मिक आकाश के सर्वोच्च भाग में कृष्यालोक नामक आध्यात्मिक लोक है। इसके तीन विभाग हैं-द्वारका, मथुरा तथा गोकुल।

    सर्वोपरि श्री-गोकुल-व्रजलोक-धाम ।। श्री-गोलोक, श्वेतद्वीप, वृन्दावन नाम ॥

    १७॥

    इनमें से सर्वोच्च श्री गोकुल है, जो व्रज, गोलोक, श्वेतद्वीप तथा वृन्दावन भी कहलाता है।

    सर्वग, अनन्त, विभु, कृष्ण-तनु-सम ।। उपर्युधो व्यापियाछे, नाहिक नियम ॥

    १८ ॥

    भगवान् कृष्ण के दिव्य शरीर के ही समान गोकुल सर्वव्यापी, अनन्त तथा सर्वोपरि है। यह किसी प्रतिबन्ध के बिना ऊपर तथा नीचे तक विस्तृत है।

    ब्रह्माण्डे प्रकाश तार कृष्णेर इच्छाय । एक स्वरूप तार, नाहि दुई काय ॥

    १९॥

    वह धाम भगवान् कृr की इच्छा से भौतिक जगत् के भीतर प्रकट होता है। यह मूल गोकुल से भिन्न है। ये दो भिन्न-भिन्न स्थान नहीं हैं।

    चिन्तामणि-भूमि, कल्प-वृक्ष-मय वन । चर्म-चक्षे देखे तारे प्रपञ्चेर सम ॥

    २०॥

    वहाँ की भूमि चिन्तामणि की बनी हुई है और वन कल्पवृक्षों से पूर्ण हैं। भौतिक आँखें इसे सामान्य स्थान के रूप में देखती हैं।

    प्रेम-नेत्रे देखे तार स्वरूप-प्रकाश ।। गोप-गोपी-सङ्गे याँहा कृष्णेर विलास ॥

    २१॥

    किन्तु भगवत्प्रेम से पूरित नेत्रों से मनुष्य इस स्थान के वास्तविक वरूप को देख सकता है, जहाँ भगवान् कृष्ण ग्वालबालों और गोपियों के साथ अपनी लीलाएँ करते हैं।

    चिन्तामणि-प्रकर-सद्मसु कल्प-वृक्ष लक्षावृतेषु सुरभीरभिपालयन्तम् । लक्ष्मी-सहस्र-शत-सम्भ्रम-सेव्यमानंगोविन्दमादि-पुरुषं तमहं भजामि ॥

    २२॥

    मैं उन आदि पुरुष भगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ, जो समस्त इच्छाओं को पूर्ण करने वाली गौओं का चिन्तामणियों से निर्मित और करोड़ों कल्पवृक्षों से घिरे अपने धाम में पालन करते हैं। उनकी सेवा में सदैव सैकड़ों-हजारों लक्ष्मियाँ अत्यन्त आदर एवं स्नेह के साथ तत्पर रहती हैं।

    मथुरा-द्वारकाय निज-रूप प्रकाशिया ।। नाना-रूपे विलसये चतुयूंह हैजा ॥

    २३॥

    भगवान् कृष्ण अपने निजी रूप को मथुरा तथा द्वारका में प्रकाशित करते हैं। वे चतुयूंह रूपों में अपना विस्तार करके नाना प्रकार से लीलाओं का आनन्द लेते हैं।

    वासुदेव-सङ्कर्षण-प्रद्युम्नानिरुद्ध ।।सर्व-चतुयूंह-अंशी, तुरीय, विशुद्ध ॥

    २४॥

    वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध-ये चार मूल चतुयूंह रूप हैं, जिनसे अन्य सारे चतुयूंह रूप प्रकट होते हैं। वे सभी शुद्ध रूप से दिव्य हैं।

    एइ तिन लोके कृष्ण केवल-लीला-मय । निज-गण लञा खेले अनन्त समय ॥

    २५॥

    केवल इन्हीं तीन स्थानों में (द्वारका, मथुरा तथा गोकुल में ) लीलामय भगवान् कृष्ण अपने निजी संगियों के साथ अनन्त लीलाएँ करते हैं।

    पर-व्योम-मध्ये करि' स्वरूप प्रकाश ।नारायण-रूपे करेन विविध विलास ॥

    २६॥

    परव्योम के वैकुण्ठ-लोकों में भगवान् नारायण रूप में प्रकट होते हैं और नाना प्रकार से लीलाएँ करते हैं।

    स्वरूप-विग्रह कृष्णेर केवल द्वि-भुज । नारायण-रूपे सेइ तनु चतुर्भुज ॥

    २७॥

    शङ्ख-चक्र-गदा-पद्म, महैश्वर्य-मय ।।श्री-भू-नीला-शक्ति याँर चरण सेवय ॥

    २८॥

    । कृष्ण के निजी रूप में केवल दो भुजाएँ होती हैं, किन्तु उनके नारायण रूप में चार भुजाएँ रहती हैं। भगवान् नारायण शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण करते हैं और वे परम ऐश्वर्यमय हैं। श्री, भू तथा नीला नामक शक्तियाँ उनके चरणकमलों की सेवा करती हैं।

    यद्यपि केवल ताँर क्रीड़ा-मात्र धर्म ।।तथापि जीवेरे कृपाय करे एक कर्म ॥

    २९॥

    '। यद्यपि उनकी लीलाएँ उनके एकमात्र विशेष कार्य हैं, किन्तु वे अपनी अहेतुकी कृपा से पतितात्माओं के लिए एक कार्य करते हैं।

    सालोक्य-सामीप्य-सार्टि-सारूप्य-प्रकार ।चारि मुक्ति दिया करे जीवेर निस्तार ॥

    ३० ॥

    वे पतितात्माओं को चार प्रकार की मुक्ति-सालोक्य, सामीप्य, सार्टि तथा सारूप्य-प्रदान करके उनका उद्धार करते हैं।

    ब्रह्म-सायुज्य-मुक्तेर ताहा नाहि गति ।वैकुण्ठ-बाहिरे हय ता'-सबार स्थिति ॥

    ३१॥

    जिन्हें ब्रह्म-सायुज्य मुक्ति प्राप्त होती है, वे वैकुण्ठ-लोक में प्रविष्ट नहीं हो सकते। उनका निवास वैकुण्ठ-लोक के बाहर होता है।

    वैकुण्ठ-बाहिरे एक ज्योतिर्मय मण्डल ।।कृष्णेर अङ्गेर प्रभा, परम उज्वल ॥

    ३२॥

    वैकुण्ठ-लोक के बाहर दीप्तियुक्त तेज का वायुमण्डल है, जो भगवान् कृष्ण के शरीर की परम उज्वल किरणों से बना होता है।

    ‘सिद्ध-लोक' नाम तार प्रकृतिर पार ।चित्स्वरूप, ताँहा नाहि चिच्छक्ति विकार ॥

    ३३॥

    यह भाग सिद्धलोक कहलाता है और भौतिक प्रकृति के परे होता है। पद आध्यात्मिक होता है, किन्तु इसमें आध्यात्मिक विविधता नहीं रहती।

    सूर्य-मण्डल नेने बाहिरे निर्विशेष ।।भितरे सूर्येर रथ-आदि सविशेष ॥

    ३४॥

    यह सूर्य के चारों ओर पाये जाने वाले समरूप तेज के समान है। किन्तु सूर्य के भीतर रथ, घोड़े तथा सूर्यदेव के अन्य ऐश्वर्य रहते हैं।

    कामाद्वेषाद्भयात्स्नेहा ग्रथा भक्त्येश्वरे मनः ।। आवेश्य तदघं हित्वा बहवस्तद्गतिं गताः ॥

    ३५॥

    जिस तरह भगवान् की भक्ति से भगवद्धाम प्राप्त किया जा सकता है, उसी तरह कइयों ने अपने पापमय कर्मों को त्यागकर तथा काम, क्रोध, भय या स्नेह के द्वारा अपने मन को भगवान् में लगाकर उसी गति को प्राप्त किया है।

    ग्रदरीणां प्रियाणां च प्राप्यमेकमिवोदितम् ।तद्ब्रह्म-कृष्णयौरैक्यात्किरणार्कोपमा-जुषोः ॥

    ३६॥

    जहाँ यह कहा गया है कि भगवान् के शत्रु तथा भक्त एक ही गति प्राप्त करते हैं, वहाँ इसका आशय यह है कि ब्रह्म तथा भगवान् कृष्ण अन्ततः एक ही हैं। इसे सूर्य तथा सूर्य-प्रकाश के दृष्टान्त से समझा जा सकता है, जिसमें ब्रह्म सूर्य-प्रकाश के समान है और स्वयं कृष्ण सूर्य के समान हैं।

    तैछे पर-व्योमे नाना चिच्छक्ति-विलास ।निर्विशेष ज्योतिर्बिम्ब बाहिरे प्रकाश ॥

    ३७॥

    । इस तरह परव्योम में आध्यात्मिक शक्ति के अन्तर्गत अनेक प्रकार की । लीलाएँ होती हैं। वैकुण्ठ-लोकों के बाहर प्रकाश का निर्विशेष प्रतिबिम्ब प्रकट होता है।

    निर्विशेष-ब्रह्म सेइ केवल ज्योतिर्मय ।सायुज्येर अधिकारी ताँहा पाय लय ॥

    ३८॥

    उस निर्विशेष ब्रह्मतेज में केवल भगवान् की तेजोमय किरणें होती हैं। जो लोग सायुज्य मुक्ति के लिए उपयुक्त होते हैं, वे उस तेज में समा जाते हैं।

    सिद्ध-लोकस्तु तमसः पारे यत्र वसन्ति हि।सिद्धा ब्रह्म-सुखे मग्ना दैत्याश्च हरिणा हताः ॥

    ३९॥

    तमो क्षेत्र ( भौतिक ब्रह्माण्ड) के परे सिद्धलोक का क्षेत्र स्थित है। वहाँ पर सिद्धगण ब्रह्मानन्द में मग्न होकर निवास करते हैं। भगवान् के रा मारे गये असुर भी उसी क्षेत्र को प्राप्त करते हैं।

    सेइ पर-व्योमे नारायणेर चारि पाशे ।द्वारका-चतुयूँहेर द्वितीय प्रकाशे ॥

    ४०॥

    उस परव्योम में नारायण के चारों ओर द्वारका के चतुयूंह के द्वितीय विस्तार रहते हैं।

    वासुदेव-सङ्कर्षण-प्रद्युम्नानिरुद्ध ।‘द्वितीय चतुर्व्यह' एई—तुरीय, विशुद्ध ॥

    ४१॥

    । इस द्वितीय चतुयूंह में वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध आते है। वे नितान्त दिव्य हैं।

    ताँहा ने रामेर रूप-महा-सङ्कर्षण ।चिच्छक्ति-आश्रय तिंहो, कारणेर कारण ॥

    ४२॥

    वहाँ पर (परव्योम में) बलराम के साकार स्वरूप, जो महासंकर्षण कहलाते हैं, आध्यात्मिक शक्ति के आश्रय हैं। वे मूल कारण हैं, अर्थात् समस्त कारणों के कारण हैं।

    चिच्छक्ति-विलास एक–‘शुद्ध-सत्त्व' नाम ।शुद्ध-सत्त्व-मय व्रत वैकुण्ठादि-धाम ॥

    ४३॥

    । आध्यात्मिक शक्ति की एक लीला विशुद्ध सत्त्व के रूप में वर्णित है। इसमें सारे वैकुण्ठ-धाम सम्मिलित हैं।

    षडू-विधैश्वर्य ताँहा सकल चिन्मय ।। सङ्कर्षणेर विभूति सब, जानिह निश्चय ॥

    ४४॥

    सारे छहों ऐश्वर्य आध्यात्मिक हैं। इसे निश्चित रूप से जानिए कि ये सब संकर्षण के ऐश्वर्य की ही अभिव्यक्तियाँ हैं।

    ‘जीव'-नाम तटस्थाख्य एक शक्ति हय । महा-सङ्कर्षण—सब जीवेर आश्रय ॥

    ४५ ॥

    एक तटस्था शक्ति है, जो जीव कहलाती है। महासंकर्षण समस्त जीवों के आश्रय हैं।

    ग्राँहा हैते विश्वोत्पत्ति, ग्राँहाते प्रलय । सेइ पुरुषेर सङ्कर्षण समाश्रय ॥

    ४६॥

    संकर्षण पुरुष के मूल आश्रय हैं, जिनसे यह जगत् उत्पन्न होता है और जनमें यह विलीन हो जाता है।

    सर्वाश्रय, सर्वाद्भुत, ऐश्वर्य अपार ।'अनन्त' कहते नारे महिमा याँहार ॥

    ४७॥

    वे (संकर्षण) सबके आश्रय हैं। वे हर प्रकार से अद्भुत हैं और उनको ऐश्वर्य अपार है, यहाँ तक कि अनन्त भी उनकी महिमा का वर्णन नहीं कर सकते।

    तुरीय, विशुद्ध-सत्त्व, ‘सङ्कर्षण' नाम ।।तिंहो याँर अंश, सेइ नित्यानन्द-राम ॥

    ४८॥

    वे दिव्य शुद्ध सत्त्व संकर्षण नित्यानन्द बलराम के अंश विस्तार हैं।

    अष्टम श्लोकेर कैल सङ्क्षेपे विवरण ।नवम श्लोकेर अर्थ शुन दिया मन ॥

    ४९॥

    मैंने आठवें श्लोक का संक्षिप्त विवेचन किया है। अब कृपा करके ध्यानपूर्वक नवें श्लोक की व्याख्या सुनें।

    माया-भर्ताजाण्ड-सङ्घाश्रयाङ्गः शेते साक्षात्कारणाम्भोधि-मध्ये । ग्रस्यैकांशः श्री-पुमानादि-देवस् ।तं श्री-नित्यानन्द-रामं प्रपद्ये ॥

    ५०॥

    मैं श्री नित्यानन्द राम के चरणों में पूर्ण दण्डवत् प्रणाम अर्पित करता हैं, जिनके अंशरूप कारण-सागर में लेटे हुए कारणोदकशायी विष्णु आदि पुरुष हैं, माया के पति हैं और समस्त ब्रह्माण्डों के आश्रय हैं।

    वैकुण्ठ-बाहिरे येइ ज्योतिर्मय धाम ।ताहार बाहिरे 'कारणार्णव' नाम ॥

    ५१॥

    वैकुण्ठ ग्रहों के बाहर निर्विशेष ब्रह्मतेज है और इस तेज से परे करणार्णव या कारण सागर है।

    वैकुण्ठ बेड़िया एक आछे जल-निधि ।।अनन्त, अपार—तार नाहिक अवधि ॥

    ५२॥

    वैकुण्ठ के चारों ओर अपार जलराशि है, जो अनन्त, अगाध और। असीम है।

    वैकुण्ठेर पृथिव्यादि सकल चिन्मय ।मायिक भूतेर तथि जन्म नाहि हय ॥

    ५३॥

    वैकुण्ठ में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश-सभी आध्यात्मिक हैं। वहाँ भौतिक तत्त्व नहीं पाये जाते।

    चिन्मय-जल सेइ परम कारण ।ग्रार एक कणा गङ्गा पतित-पावन ॥

    ५४॥

    अतएव परम कारण स्वरूप कारण सागर का जल आध्यात्मिक है। पत्र गंगा नदी, जो उसकी एक बूंद मात्र है, पतितात्माओं को शुद्ध नाती है।

    सेइ त' कारणार्णवे सेइ सङ्कर्षण ।।आपनार एक अंशे करेन शयन ॥

    ५५॥

    उस सागर में भगवान् संकर्षण के एक पूर्ण अंश शयन करते हैं।

    महत्स्रष्टा पुरुष, तिंहो जगत्कारण ।।आद्य-अवतार करे मायाय ईक्षण ॥

    ५६॥

    वे समग्र भौतिक शक्ति के सृजनकर्ता प्रथम पुरुष के नाम से जाने जाते हैं। वे समस्त ब्रह्माण्डों के कारण एवं प्रथम पुरुष अवतार माया के ऊपर दृष्टिपात करते हैं।

    माया-शक्ति रहे कारणाब्धिर बाहिरे । कारण-समुद्र माया परशिते नारे ॥

    ५७॥

    मायाशक्ति कारण सागर के बाहर निवास करती है। माया इसके जन को स्पर्श नहीं कर सकती।

    सेइ त' मायार दुइ-विध अवस्थिति ।। जगतेर उपादान ‘प्रधान', प्रकृति ॥

    ५८ ॥

    माया का अस्तित्व दो प्रकार का होता है। एक प्रधान या प्रकृति कहलाता है। यह भौतिक जगत् के अवयवों ( उपादानों ) की पूर्ति करता है।

    जगत्कारण नहे प्रकृति जड़-रूपा ।शक्ति सञ्चारिया तारे कृष्ण करे कृपा ॥

    ५९॥

    चूंकि प्रकृति जड़ तथा निष्क्रिय है, अतएव यह वास्तव में भौतिक जगत् की कारण नहीं हो सकती। लेकिन भगवान् कृष्ण जड़ निष्क्रिय भौतिक प्रकृति में अपनी शक्ति संचारित करके अपनी कृपा प्रदर्शित करते हैं।

    कृष्ण-शक्त्ये प्रकृति हय गौण कारण ।। अग्नि-शक्त्ये लौह प्रैछे करये जारण ॥

    ६०॥

    इस तरह भगवान् कृष्ण की शक्ति के द्वारा प्रकृति गौण कारण बन जाती है, जिस तरह लोहा अग्नि की शक्ति से लाल हो जाता है।

    अतएव कृष्ण मूल-जगत्कारण । प्रकृति कारण ग्रैछे अजा-गल-स्तन ॥

    ६१॥

    अतएव भगवान् कृष्ण इस जगत् के प्राकट्य के मूल कारण हैं।प्रकृति तो बकरी के गले से लटकने वाले उन स्तनों की भाँति है, जिनसे नहीं निकलता।

    माया-अंशे कहि तारे निमित्त-कारण ।सेह नहे, ग्राते कर्ता-हेतु–नारायण ॥

    ६२॥

    भौतिक प्रकृति का माया अंश विश्व के प्राकट्य का तात्कालिक कारण है। किन्तु यह वास्तविक कारण नहीं हो सकता, क्योंकि मूल कारण तो भगवान् नारायण हैं।

    घटेर निमित्त-हेतु ग्रैछे कुम्भकार । तैछे जगतेर कर्ता–पुरुषावतार ॥

    ६३॥

    जिस प्रकार मिट्टी के पात्र का मूल कारण कुम्हार है, उसी तरह तिक जगत् के स्रष्टा प्रथम पुरुषावतार (कारणार्णवशायी विष्णु) हैं।

    कृष्ण-—कर्ता, माया ताँर करेन सहाय ।घटेर कारण—चक्र-दण्डादि उपाय ॥

    ६४॥

    भगवान् कृष्ण स्रष्टा हैं और माया उपकरण के रूप में उनकी सहायता के लिए है, ठीक वैसे ही जैसे कुम्हार का चाक तथा अन्य उपकरण पात्र के साधन-रूप कारण होते हैं।

    दूर हैते पुरुष करे मायाते अवधान ।जीव-रूप वीर्य ताते करेन आधान ॥

    ६५ ॥

    प्रथम पुरुष दूर से माया पर दृष्टिपात करते हैं और इस प्रकार वे जीव रूपी वीर्य से गर्भाधान कराते हैं।

    एक अङ्गाभासे करे मायाते मिलन ।। माया हैते जन्मे तबे ब्रह्माण्डेर गण ॥

    ६६॥

    उसके शरीर की प्रतिफलित किरणें माया से मिलती हैं, जिसके फलस्वरूप माया अनेक ब्रह्माण्डों को जन्म देती है।

    अगण्य, अनन्त व्रत अण्ड-सन्निवेश । तत-रूपे पुरुष करे सबाते प्रकाश ॥

    ६७ ॥

    पुरुष असंख्य ब्रह्माण्डों में से प्रत्येक में प्रवेश करते हैं। वे अपने आपको उतने ही पृथक् रूपों में प्रकट करते हैं, जितने कि ब्रह्माण्ड हैं।

    पुरुष-नासाते यबे बाहिराय श्वास ।निश्वास सहिते हय ब्रह्माण्ड-प्रकाश ॥

    ६८ ॥

    जब पुरुष श्वास छोड़ते हैं, तो प्रत्येक उच्छ्वास के साथ ब्रह्माण्ड प्रकट होते हैं।

    पुनरपि श्वास ग्रबे प्रवेशे अन्तरे ।श्वास-सह ब्रह्माण्ड पैशे पुरुष-शरीरे ॥

    ६९॥

    तत्पश्चात् जब वे श्वास लेते हैं, तब सारे ब्रह्माण्ड पुनः उसके शरीर में प्रवेश कर जाते हैं।

    गवाक्षेर रन्ध्र ग्रेन त्रसरेणु चले ।।पुरुषेर लोम-कूपे ब्रह्माण्डेर जाले ॥

    ७० ॥

    जिस प्रकार धूल के छोटे-छोटे कण खिड़की के छेदों से निकल जाते हैं, उसी तरह ब्रह्माण्डों के समूह पुरुष के रोम-छिद्रों से होकर निकल जाते हैं।

    यस्यैक-निश्वसित-कालमथावलम्ब्यजीवन्ति लोम-विलजी जगदण्ड-नाथाः । विष्णुर्महान्स इह ग्रस्य कला-विशेषोगोविन्दमादि-पुरुषं तमहं भजामि ॥

    ७१॥

    ब्रह्मागण तथा भौतिक लोकों के अन्य स्वामी महाविष्णु के रोमछिद्रों से उत्पन्न होते हैं और उनके एक उच्छवास-काल तक जीवित रहते हैं। मैं उन आदि भगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ, महाविष्ण। जिनके पूर्ण अंश के अंश हैं।

    क्वाहं तमो-महदहं-ख-चराग्नि-वार्मूसंवेष्टिताण्ड-घट-सप्त-वितस्ति-कायः । क्वेद्दग्विधाविगणिताण्ड-पराणु-चर्यावाताध्व-रोम-विवरस्य च ते महित्वम् ॥

    ७२॥

    मैं अपने हाथ के सात बित्ताओं के माप वाला क्षुद्र प्राणी कहाँ हूँ? में भौतिक प्रकृति, समग्र भौतिक शक्ति, मिथ्या अहंकार, आकाश, वायु, जल तथा पृथ्वी से निर्मित इस ब्रह्माण्ड से घिरा हुआ हूँ। और आपकी महिमा क्या है? आपके शरीर के रोमकूपों से असंख्य ब्रह्माण्ड उसी तरह निकल रहे हैं, जिस प्रकार खिड़की के छेद से धूल के कण निकलते हैं।

    अंशेर अंश ग्रेइ, 'कला' तार नाम । गोविन्देर प्रतिमूर्ति श्री-बलराम ॥

    ७३॥

    सम्पूर्ण के अंश का अंश 'कला' कहलाता है। श्री बलराम तो भगवान् गोविन्द के प्रतिरूप हैं।

    ताँर एक स्वरूप—श्री-महा-सङ्कर्षण । ताँर अंश 'पुरुष' हय कलाते गणन ॥

    ७४॥

    बलराम के निजी विस्तार महासंकर्षण कहलाते हैं और उनके अंश 'पुरुष' कला ( अर्थात् पूर्ण अंश के अंश) कहलाते हैं।

    याँहाके त' कला कहि, तिंहो महा-विष्णु । महा-पुरुषावतारी तेंहो सर्व-जिष्णु ॥

    ७५ ॥

    मैं कहता हूँ कि यह कला महाविष्णु हैं। वे महापुरुष हैं, जो अन्य पुरुषों के स्रोत हैं और जो सर्वव्यापी हैं।

    गर्भोद-क्षीरोद-शायी दोंहे 'पुरुष' नाम ।।सेइ दुइ, याँर अंश, विष्णु, विश्व-धाम ॥

    ७६॥

    गर्भोदकशायी तथा क्षीरोदकशायी दोनों पुरुष कहलाते हैं। वे प्रथम पुरुष और समस्त ब्रह्माण्डों के धाम कारणोदकशायी विष्णु के पूर्ण अंश हैं।

    विष्णोस्तु त्रीणि रूपाणि पुरुषाख्यान्यथो विदुः ।। एकं तु महतः स्रष्ट द्वितीयं त्वण्ड-संस्थितम् ।। तृतीयं सर्व-भूत-स्थं तानि ज्ञात्वा विमुच्यते ॥

    ७७ ॥

    विष्णु के तीन रूप हैं, जो पुरुष कहलाते हैं। पहला रूप महाविष्णु है, जो सम्पूर्ण भौतिक शक्ति ( महत्) के स्रष्टा हैं, दूसरा रूप । गर्भोदकशायी है, जो प्रत्येक ब्रह्माण्ड में स्थित रहते हैं और तीसरा रूप क्षीरोदकशायी है, जो हर जीव के हृदय में निवास करते हैं। जो व्यक्ति इन। तीनों को जानता है, वह माया के चंगुल से मुक्त हो जाता है।

    यद्यपि कहिये ताँरे कृष्णेर 'कला' करि । मत्स्य-कूर्माद्यवतारेर तिंहो अवतारी ॥

    ७८॥

    यद्यपि कारणोदकशायी विष्णु को भगवान् कृष्ण की 'कला' कहा जाता है, किन्तु वे मत्स्य, कूर्म तथा अन्य अवतारों के उद्गम हैं।

    एते चांश-कलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान्स्वयम् ।। इन्द्रारि-व्याकुलं लोकं मृड़यन्ति मुगे युगे ॥

    ७९॥

    भगवान् के ये सारे अवतार या तो पुरुषावतारों के पूर्ण अंश हैं या पूर्णाशों अंश हैं। किन्तु कृष्ण तो स्वयं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं। जब संसार इन्द्र के शत्रुओं से व्याकुल हो जाता है, तब वे प्रत्येक युग में अपने विभिन्न स्वरूपों के द्वारा संसार की रक्षा करते हैं।

    सेइ पुरुष सृष्टि-स्थिति-प्रलयेर कर्ता । नाना अवतार करे, जगतेर भर्ता ॥

    ८०॥

    वे पुरुष ( कारणोदकशायी विष्णु) सृजन, पालन और संहार करने वाले हैं। वे नाना अवतारों में अपने आपको प्रकट करते हैं, क्योंकि वे जगत् के पालनहार हैं।

    सृष्ट्यादि-निमित्ते येइ अंशेर अवधान ।सेइ त' अंशेरे कहि 'अवतार' नाम ॥

    ८१॥

    सृजन, पालन तथा संहार के निमित्त प्रकट होने वाले भगवान् के अंश, जो महापुरुष के नाम से जाने जाते हैं, अवतार कहलाते हैं।

    आद्यावतार, महा-पुरुष, भगवान् । सर्व-अवतार-बीज, सर्वाश्रय-धाम ॥

    ८२।। वे महापुरुष भगवान् से अभिन्न हैं। वे मूल अवतार, अन्य सबके बीज तथा हर वस्तु के आश्रय हैं।

    आद्योऽवतारः पुरुषः परस्यकालः स्वभावः सदसन्मनश्च । द्रव्यं विकारो गुण इन्द्रियाणिविराट्स्वराट्स्थास्नु चरिष्णु भूम्नः ॥

    ८३॥

    पुरुष ( महाविष्णु) पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के प्रमुख अवतार हैं। फाल, स्वभाव, प्रकृति ( कार्य-कारण के रूप में), मन, भौतिक तत्त्व, मिथ्या अहंकार, प्रकृति के गुण, इन्द्रियाँ, विराट् रूप, पूर्ण स्वतन्त्रता तथा चर और अचर प्राणी अन्ततः उनके ऐश्वर्य रूप में प्रकट होते हैं।

    जगृहे पौरुषं रूपं भगवान्महदादिभिः ।।सम्भूतं षोड़श-कलमादौ लोक-सिसृक्षया ॥

    ८४॥

    सृष्टि के प्रारम्भ में भगवान् ने भौतिक सृष्टि के समस्त अवयवों (उपादानों ) के साथ पुरुष अवतार के रूप में अपना विस्तार किया। सर्वप्रथम उन्होंने सृष्टि के लिए उपयुक्त सोलह प्रधान शक्तियों का सृजन किया। ऐसा उन्होंने भौतिक ब्रह्माण्डों को प्रकट करने के उद्देश्य से किया।

    यद्यपि सर्वाश्रय तिंहो, ताँहाते संसार । अन्तरात्मा-रूपे तिंहो जगताधार ॥

    ८५॥

    यद्यपि भगवान् हर वस्तु के आश्रय हैं और सारे ब्रह्माण्ड उन्हीं पर आश्रित हैं, किन्तु वे परमात्मा रूप में प्रत्येक वस्तु के आधार भी हैं।

    प्रकृति-सहिते ताँर उभय सम्बन्ध । तथापि प्रकृति-सह नाहि स्पर्श-गन्ध ॥

    ८६॥

    इस तरह यद्यपि वे भौतिक शक्ति से दो प्रकार से जुड़े हुए हैं, तो भी उसके साथ उनका रंचमात्र भी सम्बन्ध नहीं है।

    एतदीशनमीशस्य प्रकृति-स्थोऽपि तद्गुणैः ।।न ग्रुज्यते सदात्म-स्थैर्यथा बुद्धिस्तदाश्रया ॥

    ८७॥

    यह भगवान् का ऐश्वर्य है कि वे भौतिक प्रकृति के भीतर रहते हुए भी प्रकृति के गुणों से कभी प्रभावित नहीं होते। इसी प्रकार जिन लोगों उनकी शरण ग्रहण की है तथा जिन्होंने अपनी बुद्धि को उनमें स्थिर कर रखा है, वे प्रकृति के गुणों से प्रभावित नहीं होते।

    एइ मत गीतातेह पुनः पुनः कय ।। सर्वदा ईश्वर-तत्त्व अचिन्त्य-शक्ति हय ॥

    ८८॥

    इस प्रकार भगवद्गीता भी बारम्बार कहती है कि परम सत्य में सदैव अचिन्त्य शक्ति होती है।

    आमि त' जगते वसि, जगतामाते । ना आमि जगते वसि, ना आमा जगते ॥

    ८९॥

    । ( भगवान् कृष्ण ने कहा :) मैं भौतिक जगत् में स्थित हूँ और यह जगत् मुझ पर आश्रित है। तथापि इसके साथ ही मैं न तो भौतिक जगत में स्थित हूँ, न वह सचमुच ही मुझ पर आश्रित है।

    अचिन्त्य ऐश्वर्य एइ जानिह आमार ।। एइ त’ गीतार अर्थ कैल परचार ॥

    ९०॥

    हे अर्जुन, तुम इसे मेरा अचिन्त्य ऐश्वर्य समझो। भगवद्गीता में भगवान् कृष्ण ने इसी अर्थ का प्रचार किया है।

    सेइ त' पुरुष याँर 'अंश' धरे नाम । चैतन्येर सङ्गे सेइ नित्यानन्द-राम ॥

    ९१॥

    वे महापुरुष (कारणोदकशायी विष्णु) चैतन्य महाप्रभु के प्रिय संगी भगवान् नित्यानन्द बलराम के पूर्ण अंश हैं।

    एइ त' नवम श्लोकेर अर्थ-विवरण ।।दशम श्लोकेर अर्थ शुन दिया मन ॥

    १२॥

    इस तरह मैंने नवें श्लोक की व्याख्या कर दी है और अब मैं दसवें श्लोक की व्याख्या करूंगा। कृपया ध्यानपूर्वक सुनें।

    ग्रस्यांशांशः श्रील-गर्भोद-शायी ग्रन्नाभ्यब्जं लोक-सङ्घात-नालम् । लोक-स्रष्टुः सूतिका-धाम धातुस्तं श्री-नित्यानन्द-रामं प्रपद्ये ॥

    ९३॥

    मैं उन श्री नित्यानन्द राम के चरणों में नमस्कार करता हूँ, जिनके पूर्णाश के अंश गर्भोदकशायी विष्णु हैं। इन गर्भोदकशायी विष्णु की नाभि से कमल उत्पन्न होता है, जो ब्रह्माण्ड के शिल्पी ब्रह्मा का जन्मस्थान है। इस कमल की नाल असंख्य लोकों का विश्राम-स्थल है।

    सेइ त' पुरुष अनन्त-ब्रह्माण्ड सृजिया । सब अण्डे प्रवेशिला बहु-मूर्ति हा ॥

    ९४॥

    करोड़ों ब्रह्माण्डों की रचना करने के बाद प्रथम पुरुष श्री गर्भोदकशायी के रूप में हर एक ब्रह्माण्ड में भिन्न रूप से प्रविष्ट हो गये।

    भितरे प्रवेशि' देखे सब अन्धकार ।। रहिते नाहिक स्थान करिल विचार ॥

    ९५॥

    ब्रह्माण्ड में प्रवेश करने पर उन्होंने केवल अंधकार देखा, जहाँ रहने योग्य कोई स्थान न था। तब वे इस प्रकार विचार करने लगे।

    निजाङ्ग-स्वेद-जल करिल सृजन ।।सेइ जले कैल अर्ध-ब्रह्माण्ड भरण ॥

    ९६॥

    तब उन्होंने अपने शरीर के पसीने से जल उत्पन्न किया और उस जल से आधा ब्रह्माण्ड भर दिया।

    ब्रह्माण्ड-प्रमाण पञ्चाशत्कोटि-योजन ।।आयाम, विस्तार, दुइ हय एक सम ॥

    ९७॥

    ब्रह्माण्ड की माप पचास करोड़ योजन है। इसकी लम्बाई तथा चौड़ाई एकसमान है।

    जले भरि' अर्ध ताँहा कैल निज-वास ।।आर अर्धे कैल चौद्द-भुवन प्रकाश ॥

    ९८॥

    जब आधा ब्रह्माण्ड जल से भर गया, तो उन्होंने उसी में अपना निवासस्थान बनाया और शेष आधे में चौदह भुवन प्रकट किये।

    ताँहाइ प्रकट कैल वैकुण्ठ निज-धाम ।शेष-शयन-जले करिल विश्राम ॥

    ९९ ॥

    वहाँ उन्होंने अपने धाम के रूप में वैकुण्ठ को प्रकट किया और भगवान् शेष की शय्या पर वे जल में विश्राम करने लगे।

    अनन्त-शय्याते ताँहा करिल शयन ।। सहस्र मस्तक ताँर सहस्र वदन ।। १००॥

    सहस्र-चरण-हस्त, सहस्र-नयन ।।सर्व-अवतार-बीज, जगत्कारण ॥

    १०१॥

    वे वहाँ अनन्त को अपनी शय्या बनाकर लेट गये। भगवान् अनन्त हजारों सिर, हजारों मुख, हजारों नेत्र और हजारों हाथ-पाँव वाले दिव्य सर्प हैं। वे सभी अवतारों के बीज हैं और भौतिक जगत् के कारण हैं।

    ताँर नाभि-पद्म हैते उठिल एक पद्म ।।सेइ पद्मे हैल ब्रह्मार जन्म-सद्म ॥

    १०२॥

    उनकी नाभि से एक कमल-पुष्प उत्पन्न हुआ, जो ब्रह्माजी का जन्मस्थान बन गया।

    सेइ पद्म-नाले हैल चौद-भुवन ।। तेहो ब्रह्मा हा सृष्टि करिल सृजन ॥

    १०३॥

    । उसे कमल की नाल के भीतर चौदह भुवन थे। इस प्रकार भगवान् ने ब्रह्मा के रूप में सारी सृष्टि का सृजन किया।

    विष्णु-रूप हा करे जगत्पालने । गुणातीत-विष्णु स्पर्श नाहि माया-गुणे ।। १०४॥

    और भगवान् विष्णु के रूप में वे सारे जगत् का पालन करते हैं। समस्त भौतिक गुणों से परे होने के कारण भगवान् विष्णु का भौतिक गुणों से किसी तरह को स्पर्श नहीं होता।

    रुद्र-रूप धरि' करे जगत्संहार ।सृष्टि-स्थिति-प्रलय इच्छाय याँहार ॥

    १०५ ॥

    वे रुद्र का रूप धारण करके सृष्टि का संहार करते हैं। इस तरह सृजन, पालन तथा संहार उनकी इच्छा से होता है।

    हिरण्य-गर्भ, अन्तर्यामी, जगत्कारण ।सॉर अंश करि' करे विराट-कल्पन ॥

    १०६॥

    वे परमात्मा, हिरण्यगर्भ अर्थात् भौतिक जगत् के कारण हैं। विराट् रूप उनका अंश माना जाता है।

    हेन नारायण,—याँर अंशेर अंश ।सेइ प्रभु नित्यानन्द सर्व-अवतंस ॥

    १०७॥

    वे भगवान् नारायण, भगवान् नित्यानन्द बलराम के पूर्णाश के अंश मात्र हैं। भगवान् नित्यानन्द समस्त अवतारों के स्रोत हैं।

    दशम श्लोकेर अर्थ कैल विवरण ।।एकादश श्लोकेर अर्थ शुन दिया मन ॥

    १०८ ॥

    इस तरह मैंने दसवें श्लोक का अर्थ बतला दिया है। अब कृपया पूरे । मनोयोग से ग्यारहवें श्लोक का अर्थ सुनें।

    ग्रस्यांशांशांशः परात्माखिलानांपोष्टा विष्णुर्भाति दुग्धाब्धि-शायी । क्षौणी-भर्ता ग्रत्कला सोऽप्यनन्तस्।। तं श्री-नित्यानन्द-रामं प्रपद्ये ॥

    १०९॥

    मैं उन श्री नित्यानन्द राम के चरणकमलों में सादर नमस्कार करता हूँ, जिनके गौण अंश क्षीरोदकशायी विष्णु हैं। वे क्षीरोदकशायी विष्णु ही समस्त जीवों के परमात्मा और समस्त ब्रह्माण्डों के पालक हैं। शेषनाग उनके अंशांश हैं।

    नारायणेर नाभि-नाल-मध्येते धरणी ।धरणीर मध्ये सप्त समुद्र ग्रे गणि ॥

    ११०॥

    सारे भौतिक लोक उस कमलनाल के भीतर स्थित हैं, जो भगवान् नारायण की नाभि कमल से निकला है। इन लोकों के मध्य सात समुद्र है।

    ताँहा क्षीरोदधि-मध्ये 'श्वेतद्वीप' नाम । पालयिता विष्णु, ताँर सेइ निज धाम ॥

    १११॥

    वहाँ क्षीर सागर के मध्य में श्वेतद्वीप है, जो पालनकर्ता विष्णु का धाम है।

    सकल जीवेर तिंहो हये अन्तर्यामी ।। जगत्पालक तिंहो जगतेर स्वामी ॥

    ११२॥

    वे सारे जीवों के परमात्मा हैं। वे इस भौतिक जगत् का पालन करते हैं और वे इसके स्वामी हैं।

    युग-मन्वन्तरे धरि' नाना अवतार ।धर्म संस्थापन करे, अधर्म संहार ॥

    ११३॥

    वास्तविक धर्म के सिद्धान्तों को स्थापित करने और अधर्म के सिद्धान्तों का विनाश करने के लिए भगवान् विभिन्न युगों और मन्वन्तरों में विविध अवतारों में प्रकट होते हैं।

    देव-गणे ना पाय ग्राँहार दरशन । क्षीरोदक-तीरे ग्राइ' करेन स्तवन ।।११४॥

    उनका दर्शन न पाकर देवतागण क्षीर सागर के तट पर जाते हैं और उनकी स्तुति करते हैं।

    तबे अवतरि' करे जगत्पालन ।।अनन्त वैभव ताँर नाहिक गणन ॥

    ११५॥

    तब वे भौतिक संसार का पालन करने के लिए अवतरित होते हैं। उनके अनन्त ऐश्वर्य की गणना नहीं की जा सकती।

    सेइ विष्णु हय याँर अंशांशेर अंश ।सेइ प्रभु नित्यानन्द सर्व-अवतंस ॥

    ११६॥

    ये भगवान् विष्णु नित्यानन्द प्रभु के पूर्णाश के अंश के भी अंश हैं, योंकि भगवान् नित्यानन्द समस्त अवतारों के उद्गम हैं।

    सेइ विष्णु ‘शेष'-रूपे धरेन धरणी ।। काँहा आछे मही, शिरे, हेन नाहि जानि ॥

    ११७॥

    वही भगवान् विष्णु भगवान् शेष के रूप में सारे लोकों को अपने शिरों पर धारण करते हैं, यद्यपि वे यह नहीं जानते कि वे कहाँ हैं, क्योंकि अपने सिरों पर उन्हें उनके अस्तित्व का आभास नहीं हो पाता।।

    सहस्र विस्तीर्ण झाँर फणार मण्डल । सूर्य जिनि' मणि-गण करे झल-मल ॥

    ११८॥

    उनके हजारों फैले हुए फन सूर्य को भी मात देने वाली चमचमाती मणियों से सज्जित रहते हैं।

    पञ्चाशत्कोटि-योजन पृथिवी-विस्तार ।याँर एक-फणे रहे सर्षप-आकार ॥

    ११९॥

    यह ब्रह्माण्ड जिसका व्यास पचास करोड़ योजन है, उनके एक फन पर इस तरह टिका है, मानो सरसों का बीज हो।

    सेइ त' 'अनन्त' ‘शेष'–भक्त-अवतार । ईश्वरेर सेवा विना नाहि जाने आर ॥

    १२०॥

    वे अनन्त शेष ईश्वर के भक्त अवतार हैं। वे भगवान् कृष्ण की सेवा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं जानते।

    सहस्र-वदने करे कृष्ण-गुण गान ।निरवधि गुण गा'न, अन्त नाहि पा'न ॥

    १२१॥

    अपने एक हजारों मुखों से वे भगवान् कृष्ण का महिमा-गान करते हैं, किन्तु इस प्रकार सदैव गुणगान करते रहने पर भी वे भगवान् के गुणों का कभी पार नहीं पाते।

    सनकादि भागवत शुने ग्राँर मुखे ।। भगवानेर गुण कहे, भासे प्रेम-सुखे ॥

    १२२॥

    चारों कुमार उनके मुख से श्रीमद्भागवत सुनते हैं और भगवत्प्रेम के दिव्य आनन्द में मग्न होकर उसे दुहरात चलत है।

    छत्र, पादुका, शय्या, उपाधान, वसन । आराम, आवास, यज्ञ-सूत्र, सिंहासन ॥

    १२३ ॥

    वे निम्नलिखित सभी रूपों को धारण करके भगवान् कृष्ण की सेवा करते हैं-छाता, पादुका, शय्या, तकिया, वस्त्र, आरामकुर्सी, निवासस्थान, यज्ञोपवीत तथा सिंहासन।

    एत मूर्ति-भेद करि' कृष्ण-सेवा करे ।कृष्णेर शेषता पाजा ‘शेष' नाम धरे ॥

    १२४॥

    उन्होंने कृष्ण की दासता की चरम सीमा प्राप्त कर ली है, अतएव वे भगवान् शेष कहलाते हैं। वे कृष्ण की सेवा के लिए नाना रूप धारण करते हैं और इस तरह उनकी सेवा करते हैं।

    सेइ त' अनन्त, याँर कहि एक कला ।हेन प्रभु नित्यानन्द, के जाने ताँर खेला ॥

    १२५ ।। भगवान् अनन्त जिस पुरुष की कला हैं अर्थात् पूर्णाश के अंश हैं, वे नित्यानन्द प्रभु हैं। अतएव नित्यानन्द प्रभु की लीलाओं को भला कौन जान सकता है? ए-सब प्रमाणे जानि नित्यानन्द-तत्त्व-सीमा ।।ताँहाके 'अनन्त' कहि, कि ताँर महिमा ॥

    १२६॥

    इन सब प्रमाणों से हम नित्यानन्द प्रभु के तत्त्व की सीमा को जान सकते हैं। किन्तु उन्हें अनन्त कहने में कौन-सी महिमा है? अथवा भक्तेर वाक्य मानि सत्य करि' ।सकल सम्भवे ताँते, स्नाते अवतारी ॥

    १२७॥

    । किन्तु मैं इसे सत्य स्वीकार करता हूँ, क्योंकि यह भक्तों का वचन है। वे (नित्यानन्द प्रभु) समस्त अवतारों के उद्गम हैं, अतएव उनके लिए सब कुछ सम्भव है।

    अवतार-अवतारी-अभेद, ये जाने ।पूर्वे ट्रैछे कृष्णके केहो काहो करि' माने ॥

    १२८॥

    वे जानते हैं कि अवतार तथा समस्त अवतारों के उद्गम में कोई भेद नहीं होता। पहले भगवान् कृष्ण विभिन्न लोगों द्वारा विभिन्न सिद्धांतों के सन्दर्भ में समझे जाते थे।

    केहो कहे, कृष्ण साक्षात्नर-नारायण ।। केहो कहे, कृष्ण हय साक्षात्वामन ॥

    १२९॥

    कुछ लोग कहते थे कि कृष्ण साक्षात् भगवान् नर-नारायण थे और कुछ उन्हें वामनदेव का अवतार कहते थे।

    केहो कहे, कृष्ण क्षीरोद-शायी अवतार ।असम्भव नहे, सत्य वचन सबार ॥

    १३०॥

    कुछ लोग भगवान् कृष्ण को भगवान् क्षीरोदकशायी का अवतार कहते थे। ये सारे नाम सत्य हैं; कुछ भी असम्भव नहीं है।

    कृष्ण ग्रबे अवतरे सर्वांश-आश्रय ।सर्वांश आसि' तबे कृष्णेते मिलय ॥

    १३१॥

    जब पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण अवतरित होते हैं, तब वे समस्त पूर्ण अंशों के आश्रय होते हैं। इस तरह उस समय उनके सारे पूर्ण अंश उनके साथ मिल जाते हैं।

    ग्रेइ ग्रेइ रूपे जाने, सेइ ताहा कहे ।।सकल सम्भवे कृष्णे, किछु मिथ्या नहे ॥

    १३२॥

    जो जिस रूप में भगवान् को जानता है, वह उसी रूप में उनका वर्णन करता है। इसमें कुछ गलत नहीं है, क्योंकि कृष्ण के लिए सब कुछ सम्भव है।

    अतएव श्री-कृष्णा-चैतन्य गोसाजि ।। सर्व अवतार-लीला करि' सबारे देखाई ॥

    १३३॥

    इसलिए भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु ने सबके सामने सभी विभिन्न तारों की सभी लीलाएँ प्रदर्शित की हैं।

    एइ-रूपे नित्यानन्द 'अनन्त'-प्रकाश ।। सेइ-भावे कहे मुजि चैतन्येर दास ॥

    १३४॥

    इस तरह भगवान् नित्यानन्द के अनन्त अवतार हैं। दिव्य भाव में वे । अपने आपको चैतन्य महाप्रभु का दास कहते हैं।

    कभु गुरु, कभु सखा, कभु भृत्य-लीला ।।पूर्वे ग्रेन तिन-भावे व्रजे कैल खेला ॥

    १३५॥

    वे भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु की सेवा कभी उनके गुरु के रूप में तो कभी मित्र के रूप में और कभी दास के रूप में करते हैं, जिस प्रकार भगवान् बलराम ने व्रज में इन तीन विभिन्न भावों में भगवान् कृष्ण के साथ क्रीड़ाएँ कीं।

    वृष हा कृष्ण-सने माथा-माथि रण । कभु कृष्ण करे ताँर पाद-संवाहन ॥

    १३६ ॥

    भगवान् बलराम कृष्ण के सिर से अपना सिर भिड़ाकर वृष की तरह लड़ते हैं। और कभी-कभी भगवान् कृष्ण बलरामजी के चरण दबाते हैं।

    आपनाके भृत्य करि' कृष्णे प्रभु जाने ।कृष्णेर कलार कला आपनाके माने ॥

    १३७॥

    वे अपने आपको दास मानते हैं और कृष्ण को अपना स्वामी मानते हैं। इस प्रकार वे अपने आपको कृष्ण के अंश का भी अंश मानते हैं।

    वृषायमाणौ नर्दन्तौ ग्रुयुधाते परस्परम् ।अनुकृत्य रुतैर्जन्तूंश्चेरतुः प्राकृतौ ग्रथा ॥

    १३८॥

    । सामान्य बालकों की तरह एक-दूसरे से लड़ते समय वे वृषों की तरह गर्जन कर रहे थे और तरह-तरह के पशुओं की आवाजे निकालते थे।

    क्वचित्क्रीड़ा-परिश्रान्तं गोपोत्सङ्गोपबर्हणम् ।।स्वयं विश्रामयत्यानँ पाद-संवाहनादिभिः ॥

    १३९॥

    कभी-कभी जब कृष्ण के ज्येष्ठ भ्राता भगवान् बलराम खेलने के बाद थक जाते और अपना सिर किसी ग्वालबाल की गोद में रख देते, तो स्वयं भगवान् कृष्ण उनके पाँव दबाकर उनकी सेवा करते।

    केयं वा कुत आयाता दैवी वा नातासुरी ।प्रायो मायास्तु मे भर्तुर्नान्या मेऽपि विमोहिनी ॥

    १४० ॥

    । । यह योगशक्ति कौन है और यह कहाँ से आई है? वह दैवी है या आसुरी ? यह मेरे प्रभु भगवान् कृष्ण की मायाशक्ति होगी, क्योंकि उसके अतिरिक्त मुझे और कौन मोहित कर सकता है? यस्याङ्घि-पङ्कज-रजोऽखिल-लोक-पालैर्मौलि-उत्तमैधृतम्उपासित तीर्थ-तीर्थम् । ब्रह्मा भवोऽहमपि ग्रस्य कलाः कलायाःश्रीशोद्वहेम चिरमस्य नृपासनं क्व ॥

    १४१॥

    भगवान् कृष्ण के लिए सिंहासन का क्या महत्त्व है? विभिन्न लोकों के स्वामी उनके चरणकमलों की धूल को अपने मुकुटधारी शिरों पर धारण करते हैं। यह धूल तीर्थस्थलों को पवित्र बनाती है। यहाँ तक कि ब्रह्माजी, शिवजी, लक्ष्मी और मैं, जो कि उनके पूर्णाश के अंश हैं, अपने अपने सिरों पर उस धूल को सदैव धारण करते हैं।

    एकले ईश्वर कृष्ण, आर सब भृत्य । ग्रारे ग्रैछे नाचाय, से तैछे करे नृत्य ॥

    १४२॥

    एकमात्र भगवान् कृष्ण ही परम नियन्ता हैं और अन्य सभी उनके। सेवक हैं। वे जैसा चाहते हैं, वैसे उन्हें नचाते हैं।

    एइ मत चैतन्य-गोसाञि एकले ईश्वर ।आर सब पारिषद, केह वा किङ्कर ॥

    १४३॥

    इसी प्रकार भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु ही एकमात्र नियन्ता हैं। अन्य सभी उनके पार्षद या सेवक हैं।

    गुरु-वर्ग,—नित्यानन्द, अद्वैत आचार्य । श्रीवासादि, आर व्रत लघु, सम, आर्य ॥

    १४४॥

    सबे पारिषद, सबे लीलार सहाय ।। सबा ला निज-कार्य साधे गौर-राय ॥

    १४५॥

    उनके गुरुजन यथा भगवान् नित्यानन्द, अद्वैत आचार्य तथा श्रीवास ठाकुर एवं उनके अन्य भक्त-चाहे वे छोटे हों, समवयस्क हों या वरिष्ठ हों-सभी उनके पार्षद हैं, जो उनकी लीलाओं में सहायक होते हैं। गौरांग महाप्रभु उनकी सहायता से अपने लक्ष्यों की पूर्ति करते हैं।

    अद्वैत आचार्य, नित्यानन्द, दुइ अङ्ग । दुइ-जन लञा प्रभुर व्रत किछु रङ्ग ॥

    १४६॥

    श्री अद्वैत आचार्य तथा श्रील नित्यानन्द प्रभु, जो भगवान् के पूर्ण अंश हैं, उनके प्रधान पार्षद हैं। इन दोनों के साथ महाप्रभु विभिन्न प्रकार से अपनी लीलाएँ करते हैं।

    अद्वैत-आचार्य-गोसाञि साक्षातीश्वर ।प्रभु गुरु करि' माने, तिंहो त' किङ्कर ॥

    १४७॥

    अद्वैत आचार्य साक्षात् भगवान् हैं। यद्यपि श्री चैतन्य महाप्रभु उन्हें अपने गुरु के रूप में स्वीकार करते हैं, किन्तु अद्वैत आचार्य भगवान् के दास हैं।

    आचार्य-गोसाजिर तत्त्व ना ग्राय कथन ।।कृष्ण अवतार में हो तारिल भुवन ॥

    १४८॥

    मैं अद्वैत आचार्य के तत्त्व का वर्णन नहीं कर सकता। उन्होंने कृष्ण का अवतरण कराकर सारे विश्व का उद्धार किया है।

    नित्यानन्द-स्वरूप पूर्वे हइया लक्ष्मण ।लघु-भ्राता हैया करे रामेर सेवन ॥

    १४९॥

    । भगवान् नित्यानन्द स्वरूप पूर्वजन्म में लक्ष्मण के रूप में प्रकट हुए थे और उन्होंने भगवान् रामचन्द्र की सेवा उनके छोटे भाई के रूप में की थी।

    रामेर चरित्र सबे, दुःखेर कारण । स्वतन्त्र लीलाय दुःख सहेन लक्ष्मण ॥

    १५० ॥

    भगवान् राम के कार्यकलाप दुःखों से भरे थे, किन्तु लक्ष्मण ने स्वेच्छा से उस दुःख को सहन किया।

    निषेध करिते नारे, झाते छोट भाइ ।मौन धरि' रहे लक्ष्मण मने दुःख पाइ' ॥

    १५१॥

    छोटे भाई के रूप में वे भगवान् राम को उनके संकल्प से रोक नहीं। सके, अतएव वे मौन रहे, भले ही मन ही मन वे दुःखी थे।

    कृष्ण-अवतारे ज्येष्ठ हैला सेवार कारण ।।कृष्णके कराइल नाना सुख आस्वादन ॥

    १५२॥

    जब भगवान् कृष्ण प्रकट हुए, तो वे ( बलराम) उनकी मन भर के सेवा करने एवं सभी प्रकार के सुखों का भोग कराने के लिए उनके बड़े भाई बने।"

    राम-लक्ष्मण-कृष्ण-रामेर अंश-विशेष ।अवतार-काले दोहे दोंहाते प्रवेश ॥

    १५३ ॥

    । श्री राम तथा श्री लक्ष्मण, जो क्रमशः भगवान् कृष्ण तथा बलराम के पूर्ण अंश हैं, कृष्ण तथा बलराम के आविर्भाव के समय उनमें प्रविष्ट हो गये।

    सेइ अंश लञा ज्येष्ठ-कनिष्ठाभिमान ।।अंशांशि-रूपे शास्त्रे करये व्याख्यान ॥

    १५४॥

    | कृष्ण तथा बलराम छोटे और बड़े भाई के रूप में प्रकट होते हैं, किन्तु शास्त्रों में उन्हें आदि भगवान् तथा उनके अंश बतलाया गया है।

    रामादि-मूर्तिषु कला-नियमेन तिष्ठन्नानावतारमकरोद्भुवनेषु किन्तु । कृष्णः स्वयं समभवत्परमः पुमान् ग्रोगोविन्दमादि-पुरुषं तमहं भजामि ॥

    १५५॥

    मैं उन आदि भगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ, जो अपने विविध पूर्ण अंशों से विविध रूपों तथा भगवान् राम आदि अवतारों के रूप में प्रकट होते हैं, किन्तु जो भगवान् कृष्ण के अपने परम मूल रूप में स्वयं प्रकट होते हैं।

    श्री-चैतन्य—सेइ कृष्ण, नित्यानन्द–राम । नित्यानन्द पूर्ण करे चैतन्येर काम ॥

    १५६॥

    भगवान् चैतन्य ही भगवान् कृष्ण हैं और श्री नित्यानन्द भगवान् बलराम हैं। भगवान् नित्यानन्द श्री चैतन्य महाप्रभु की सारी इच्छाओं को पूर्ण करते हैं।

    नित्यानन्द-महिमा-सिन्धु अनन्त, अपार ।एक कणा स्पर्श मात्र,—से कृपा ताँहार ॥

    १५७॥

    भगवान् नित्यानन्द की महिमाओं का सागर अनन्त और अगाध है। केवल उनकी कृपा से ही मैं इसकी एक बूंद का स्पर्श कर सकता हूँ।

    आर एक शुन ताँर कृपार महिमा ।अधम जीवेरे चढ़ाइल ऊर्ध्व-सीमा ॥

    १५८॥

    कृपया उनकी कृपा की दूसरी महिमा सुनें। उन्होंने एक पतित जीव को सर्वोच्च सीमा तक ऊपर उठाया है।

    वेद-गुह्य कथा एई अयोग्य कहिते ।। तथापि कहिये ताँर कृपा प्रकाशिते ॥

    १५९॥

    इसे प्रकट करना उचित नहीं होगा, क्योंकि इसे वेदों के समान ही गुप्त रखना चाहिए; फिर भी मैं इसे कह रहा हूँ, जिससे उनकी कृपा सबको ज्ञात हो जाये।

    उल्लास-उपरि लेखों तोमार प्रसाद । नित्यानन्द प्रभु, मोर क्षम अपराध ॥

    १६० ॥

    हे नित्यानन्द प्रभु! मैं अत्यन्त उल्लास के साथ आपकी कृपा के बारे में लिख रहा हूँ। कृपया मेरे इस अपराध के लिए आप मुझे क्षमा कर दें।

    अवधूत गोसाजिर एक भृत्य प्रेम-धाम ।। मीनकेतन रामदास हय ताँर नाम ॥

    १६१॥

    नित्यानन्द प्रभु के एक सेवक थे, जिनका नाम श्री मीनकेतन रामदास 7, जो प्रेम के आगार थे।

    आमार आलये अहो-रात्र-सङ्कीर्तन ।ताहाते आइला तेंहो पा निमन्त्रण ॥

    १६२॥

    मेरे घर में अखण्ड संकीर्तन था, अतएव आमन्त्रित किये जाने पर वे L पर आये।

    महा-प्रेम-मय तिंहो वसिला अङ्गने ।सकल वैष्णव ताँर वन्दिला चरणे ॥

    १६३॥

    भावजन्य प्रेम में निमग्न होकर वे मेरे आँगन में बैठ गये और सारे वैष्णव उनके चरणों में सिर झुकाकर प्रणाम करने लगे।

    नमस्कार करिते, कार उपरेते चड़े । प्रेमे का रे वंशी मारे, काहाके चापड़े ॥

    १६४॥

    भगवत्प्रेम के आनन्द में वे कभी नमस्कार करने वाले के कंधे पर चढ़ जाते, कभी अन्यों को अपनी बाँसुरी से मारते या उन्हें मुख पर धीरे से चपत लगा देते।

    ये नयन देखिते अश्रु हय मने ग्रार।सेइ नेत्रे अविच्छिन्न वहे अश्रु-धार ॥

    १६५॥

    जब कोई मीनकेतन रामदास की आँखें देखता, तो उसके नेत्रों से भी स्वतः अश्रु बहने लगते, क्योंकि मीनकेतन रामदास के नेत्रों से अश्रु की धारा निरन्तर बहती रहती थी।

    कभु कोन अङ्गे देखि पुलक-कदम्ब ।।एक अङ्गे जाडूय ताँर, आर अङ्गे कम्प ॥

    १६६॥

    । कभी उनके शरीर के कुछ भागों में कदम्ब फूलों के समान आनन्द का उभार दृष्टिगत होता और कभी शरीर का एक अंग जड़ हो जाता, कि दूसरा अंग काँपने लगता था।

    नित्यानन्द बलि' ग्रबे करेन हुङ्कार ।।ताहा देखि' लोकेर हय महा-चमत्कार ॥

    १६७।। जब भी वे नित्यानन्द का नाम लेकर जोर से चीत्कार करते, तो उनके आसपास के लोग अत्यधिक विस्मित हो जाते थे।"

    गुणार्णव मिश्र नामे एक विप्र आर्य ।श्री-मूर्ति-निकटे तेंहो करे सेवा-कार्य ॥

    १६८ ॥

    श्री गुणार्णव मिश्र नामक एक सम्माननीय ब्राह्मण अर्चाविग्रह की सेवा करता था।

    अङ्गने आसिया तेंहो ना कैल सम्भाष । ताहा देखि' क्रुद्ध हा बले रामदास ॥

    १६९॥

    जब मीनकेतन आँगन में बैठे थे, तो इस ब्राह्मण ने उनका सम्मान नहीं किया। यह देखकर, श्री रामदास क्रुद्ध हुए और बोले।

    ‘एइ त' द्वितीय सूत रोमहरषण ।।बलदेव देखि' ग्रे ना कैल प्रत्युद्गम' ॥

    १७० ॥

    यहाँ मैं दूसरा रोमहर्षण सूत देख रहा हूँ, जो भगवान् बलराम को देखकर सम्मान प्रदर्शित करने के लिए उठ खड़ा नहीं हुआ।

    एत बलि' नाचे गाय, करये सन्तोष ।।कृष्ण-कार्य करे विप्र–ना करिल रोष ॥

    १७१॥

    यह कहकर वे जी-भरकर नाचने-गाने लगे, किन्तु वह ब्राह्मण क्रुद्ध नहीं हुआ, क्योंकि तब वह भगवान् कृष्ण की सेवा में लगा था।

    उत्सवान्ते गेला तिंहो करिया प्रसाद ।।मोर भ्राता-सने ताँर किछु हैल वाद ॥

    १७२॥

    उत्सव समाप्त होने पर मीनकेतन रामदास हर एक को आशीर्वाद देकर चले गये। उस समय मेरे भाई के साथ उनका कुछ विवाद उठ खड़ा हुआ।

    चैतन्य-प्रभुते ताँर सुदृढ़ विश्वास ।।नित्यानन्द-प्रति ताँर विश्वास-आभास ॥

    १७३॥

    मेरे भाई की भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु में अटूट श्रद्धा थी, किन्तु भगवान् नित्यानन्द में थोड़ी सी ही श्रद्धा थी।

    इहा जानि' रामदासेर दुःख हइल मने ।तबे त' भ्रातारे आमि करिनु भत्र्सने ॥

    १७४॥

    यह जानकर रामदास मन ही मन खिन्न हुए। तब मैंने अपने भाई की भर्त्सना की।

    दुइ भाइ एक-तनु- समान-प्रकाश ।नित्यानन्द ना मान, तोमार हबे सर्व-नाश ॥

    १७५॥

    मैंने उससे कहा, ये दोनों भाई एक शरीर जैसे हैं; वे दोनों एकरूप हैं। यदि तुम भगवान् नित्यानन्द में श्रद्धा नहीं रखते, तो तुम्हारा पतन होगा।

    एकेते विश्वास, अन्ये ना कर सम्मान ।अर्ध-कुकुटी-न्याय तोमार प्रमाण ॥

    १७६ ॥

    यदि एक में तुम्हारा विश्वास है, किन्तु दूसरे के प्रति अनादर है, तो तुम्हारा तर्क अर्ध कुक्कुटी न्याय के समान है, जिसमें आधी मुर्गी का तर्क स्वीकार किया जाता है।

    किंवा, दोंहा ना मानिन्ना हओ त' पाषण्ड ।एके मानि' आरे ना मानि,—एई-मत भण्ड ॥

    १७७॥

    एक भाई को मानना और दूसरे का अनादर करना और इस तरह दम्भी बनना, उससे तो यह बेहतर होगा कि दोनो भाईयों को न मानकर नास्तिक बनना। क्रुद्ध हैया वंशी भाङ्गि' चले रामदास ।।तत्काले आमार भ्रातार हैल सर्व-नाश ॥

    १७८॥

    अतः श्री रामदास ने क्रोध में अपनी वंशी तोड़ डाली और वहाँ से चले गये और उसी समय मेरे भाई का सर्वनाश हो गया।

    एइ त कहिल ताँर सेवक-प्रभाव ।।आर एक कहि ताँर दयार स्वभाव ॥

    १७९॥

    इस तरह मैंने भगवान् नित्यानन्द के सेवकों की शक्ति का वर्णन किया है। अब मैं उनकी कृपा की दूसरी विशेषता का वर्णन करूंगा।

    भाइके भर्तिसनु मुञि, ला एइ गुण ।।सेइ रात्रे प्रभु मोरे दिला दरशन ॥

    १८०॥

    उस रात भगवान् नित्यानन्द ने मुझे स्वप्न में दर्शन दिये, क्योंकि अपने भाई की भर्त्सना करके मैंने अच्छा कार्य किया था।

    नैहाटि-निकटे 'झामटपुर' नामे ग्राम ।। ताँहा स्वप्ने देखा दिला नित्यानन्द-राम ॥

    १८१।। नैहाटी के निकटवर्ती झामटपुर गाँव में नित्यानन्द प्रभु ने मुझे स्वप्न में दर्शन दिया।

    दण्डवत् हैया आमि पड़िनु पायेते ।। निज-पाद-पद्म प्रभु दिला मोर माथे ॥

    १८२॥

    उन्हें नमस्कार करके मैं उनके चरणों पर गिर पड़ा, तब उन्होंने मेरे सिर पर अपने चरणकमल रख दिये।

    ‘उठ', 'उठ' बलि' मोरे बले बार बार । उठि' ताँर रूप देखि' हैनु चमत्कार ॥

    १८३॥

    उन्होंने मुझसे बारम्बार कहा-उठो, उठो! उठने पर मैं उनका सौन्दर्य देखकर अत्यधिक विस्मित हुआ।

    श्याम-चिक्कण कान्ति, प्रकाण्ड शरीर । साक्षात्कन्दर्प, ग्रैछे महा-मल्ल-वीर ॥

    १८४॥

    उनका रंग चिकना श्यामल वर्ण का था। वे अपने लम्बे, बलिष्ठ, वीर-जैसे शारीरिक आकार के कारण साक्षात् कामदेव जैसे लग रहे थे।

    सुवलित हस्त, पद, कमल-नयान । पट्ट-वस्त्र शिरे, पट्ट-वस्त्र परिधान ॥

    १८५॥

    । उनके हाथ, बाँहें तथा पाँव अत्यन्त सुन्दर थे और उनकी आँखें कमल के फूलों जैसी थीं। वे रेशमी वस्त्र पहने थे और उनके सिर पर रेशमी पगड़ी थी।

    सुवर्ण-कुण्डल कर्णे, स्वर्णाङ्गद-वाला ।। पायेते नृपुर बाजे, कण्ठे पुष्पमाला ॥

    १८६॥

    वे कानों में सोने के कुण्डल पहने हुए थे और उनके बाजूबन्द तथा कंगन सोने के थे। वे अपने पाँवों में रुनझुन करती पायल तथा अपने गले में फूलों की माला धारण किये हुए थे।

    चन्दन-लेपित-अङ्ग, तिलक सुठाम । मत्त-गज जिनि' मद-मन्थर पयान ॥

    १८७॥

    उनका शरीर चन्दन से लेपित था और वे तिलक से सुशोभित हो रहे थे। उनकी चाल मदमत्त हाथी को लजाने वाली थी।

    कोटि-चन्द्र जिनि' मुख उज्वल-वरण । दाड़िम्ब-बीज-सम दन्त ताम्बूल-चर्वण ॥

    १८८॥

    उनका मुखमण्डल करोड़ों चन्द्रमाओं से भी अधिक सुन्दर था और पान खाने के कारण उनके दाँत अनार के दानों जैसे लग रहे थे।

    प्रेमे मत्त अङ्ग डाहिने-वामे दोले ।। ‘कृष्ण' ‘कृष्ण' बलिया गम्भीर बोल बले ॥

    १८९॥

    उनका शरीर इधर-उधर, दाएँ-बाएँ हिल रहा था, क्योंकि वे प्रेम में मग्न थे। वे गम्भीर वाणी से कृष्ण, कृष्ण उच्चारण कर रहे थे।

    राङ्गा-ग्रष्टि हस्ते दोले ग्रेन मत्त सिंह ।। चारि-पाशे वेड़ि आछे चरणेते भृङ्ग ॥

    १९०॥

    उनके हाथ में उनकी लाल छड़ी हिल रही थी, जिससे वे मदमत्त सिंह की तरह लग रहे थे। उनके चरणों के चारों ओर भौंरे मँडरा रहे थे।

    पारिषद-गणे देखि' सब गोप-वेशे ।'कृष्ण' 'कृष्ण' कहे सबे सप्रेम आवेशे ॥

    १९१॥

    उनके भक्त ग्वालबालों की तरह वस्त्र धारण किये हुए थे और उनके घरणों को अनेक भौरों की तरह घेरे हुए थे। वे प्रेमावेश में मग्न होकर कृष्ण, कृष्ण उच्चारण कर रहे थे।

    शिङ्गा वांशी बाजाय केह, केह नाचे गाय ।।सेवक ग्रोगाये ताम्बूल, चामर ढुलाय ॥

    १९२॥

    उनमें से कुछ सिंगा तथा वंशी बजा रहे थे और शेष नृत्य-गान कर रहे थे। कुछ पान अर्पित कर रहे थे और कुछ उन्हें चामर डुला रहे थे।

    नित्यानन्द-स्वरूपेर देखिया वैभव । किबा रूप, गुण, लीला—अलौकिक सब ॥

    १९३॥

    इस प्रकार मैंने श्री नित्यानन्द स्वरूप में ऐसा ऐश्वर्य देखा। उनके अद्भुत रूप, गुण और लीलाएँ, सब अलौकिक हैं।

    आनन्दे विह्वल आमि, किछु नाहि जानि । तबे हासि' प्रभु मोरे कहिलेन वाणी ॥

    १९४॥

    मैं दिव्य आनन्द से विभोर था और कुछ भी नहीं जान पा रहा था। तभी प्रभु नित्यानन्द हँसे और मुझसे इस प्रकार बोले।

    आरे आरे कृष्णदास, ना करह भय । वृन्दावने ग्राह, ताँहा सर्व लभ्य हय ॥

    १९५॥

    अरे कृष्णदास! तुम डरो नहीं। वृन्दावन जाओ, क्योंकि वहाँ तुम्हें सब कुछ प्राप्त होगा।

    एत बलि' प्रेरिला मोरे हातसानि दिया। अन्तर्धान कैल प्रभु निज-गण लञा ॥

    १९६॥

    यह कहकर उन्होंने अपना हाथ हिलाकर मुझे वृन्दावन की ओर निर्देशित किया। फिर वे अपने संगियों समेत अन्तर्धान हो गये।

    मूच्छित हइया मुञि पड़िनु भूमिते ।स्वप्न भङ्ग हैल, देखि, हाछे प्रभाते ॥

    १९७॥

    मैं मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा, मेरा स्वप्न टूट गया और जब मुझे होश आया, तो मैंने देखा कि प्रात:काल हो चुका था।

    कि देखिनु कि शुनिनु, करिये विचार ।।प्रभु-आज्ञा हैल वृन्दावन ग्राइबार ॥

    १९८॥

    मैंने जो कुछ देखा और सुना था उस पर विचार किया और इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि भगवान् ने मुझे तुरन्त ही वृन्दावन जाने का आदेश दिया है।

    सेइ क्षणे वृन्दावने करिनु गमन ।।प्रभुर कृपाते सुखे आइनु वृन्दावन ॥

    १९९॥

    मैं उसी क्षण वृन्दावन के लिए चल पड़ा और उनकी कृपा से मैं बड़ी प्रसन्नतापूर्वक वृन्दावन पहुँच गया।

    जय जय नित्यानन्द, नित्यानन्द-राम ।। याँहार कृपाते पाइनु वृन्दावन-धाम ॥

    २००॥

    भगवान् नित्यानन्द बलराम की जय हो, जिनकी कृपा से मुझे वृन्दावन के दिव्य धाम में शरण प्राप्त हुई।

    जय जय नित्यानन्द, जय कृपा-मय ।।ग्राँहा हैते पाइनु रूप-सनातनाश्रय ॥

    २०१॥

    । कृपालु प्रभु नित्यानन्द की जय हो, जय हो, जिनकी कृपा से मैंने श्री रूप तथा श्री सनातन के चरणकमलों में शरण प्राप्त की! याँहा हैते पाइनु रघुनाथ-महाशय ।।याँहा हैते पाइनु श्री-स्वरूप-आश्रय ॥

    २०२॥

    उनकी कृपा से मुझे श्री रघुनाथदास गोस्वामी जैसे महापुरुष की शरण प्राप्त हुई है और उन्हीं की कृपा से मैंने श्री स्वरूप दामोदर का आश्रय प्राप्त किया है।

    सनातन-कृपाय पाइनु भक्तिर सिद्धान्त ।।श्री-रूप-कृपाय पाइनु भक्ति-रस-प्रान्त ॥

    २०३॥

    सनातन गोस्वामी की कृपा से मैंने भक्ति के अन्तिम निष्कर्ष प्राप्त किये हैं और श्री रूप गोस्वामी की कृपा से मैंने भक्ति के सर्वोच्च अमृत का आस्वादन किया है।

    जय जय नित्यानन्द-चरणारविन्द ।।याँहा हैते पाइनु श्री-राधा-गोविन्द ॥

    २०४॥

    भगवान् नित्यानन्द प्रभु के चरणारविन्दों की जय हो, क्योंकि मैंने उनकी कृपा से श्री राधा-गोविन्द को प्राप्त किया है।

    जगाई माधाइ हैते मुञि से पापिष्ठ ।पुरीषेर कीट हैते मुञि से लघिष्ठ ॥

    २०५॥

    मैं जगाइ तथा माधाइ से भी अधिक पापी हूँ और मल के कीट से भी तुच्छ हूँ।

    मोर नाम शुने ग्रेइ तार पुण्य क्षय ।।मोर नाम लय येइ तार पाप हय । २०६॥

    जो भी मेरा नाम सुनता है, उसके पुण्यकर्मों के फल नष्ट हो जाते हैं और जो मेरा नाम लेता है, वह पापी बन जाता है।

    एमन निघृण मोरे केबा कृपा करे।एक नित्यानन्द विनु जगत्भितरे ॥

    २०७॥

    इस जगत् में नित्यानन्द के बिना मुझ जैसे घृणास्पद मनुष्य पर कौन अपनी दया प्रदर्शित कर सकता था? प्रेमे मत्त नित्यानन्द कृपा-अवतार । उत्तम, अधम, किछु ना करे विचार ॥

    २०८ ॥

    चूँकि वे प्रेमावेश में मत्त रहते हैं और कृपा के अवतार हैं, अतएव वे अच्छे-बुरे में भेदभाव नहीं करते।

    ये आगे पड़ये, तारे करये निस्तार।अतएव निस्तारिला मो-हेन दुराचार ॥

    २०९॥

    जो उनके समक्ष भूमि पर गिरते हैं, वे उनका उद्धार कर देते हैं। अतएव उन्होंने मुझ जैसे पापी तथा पतित व्यक्ति का उद्धार कर दिया है।

    मो-पापिष्ठे आनिलेन श्री-वृन्दावन ।मो-हेन अधमे दिला श्री-रूप-चरण ॥

    २१०॥

    यद्यपि मैं पापी हूँ और अत्यन्त अधम हूँ, फिर भी उन्होंने मुझे श्री रूप गोस्वामी के चरणकमलों का आश्रय प्रदान किया है।

    श्री-मदन-गोपाल-श्री-गोविन्द-दरशन ।।कहिबार स्रोग्य नहे ए-सब कथन ॥

    २११॥

    मैं भगवान् मदनगोपाल तथा भगवान् गोविन्द के दर्शन के विषय में । ये सारे गोपनीय शब्द कहने के योग्य नहीं हूँ।

    वृन्दावन-पुरन्दर श्री-मदन-गोपाल ।रास-विलासी साक्षात्व्रजेन्द्रकुमार ॥

    २१२॥

    वृन्दावन के प्रमुख अर्चाविग्रह भगवान् मदन गोपाल रासनृत्य के भोक्ता हैं और व्रजराज के साक्षात् पुत्र हैं।

    श्री-राधा-ललिता-सङ्गे रास-विलास ।मन्मथ-मन्मथ-रूपे याँहार प्रकाश ॥

    २१३॥

    वे श्रीमती राधारानी, श्री ललिता तथा अन्यों के साथ रासनृत्य का आनन्द लेते हैं। वे कामदेवों के भी कामदेव के रूप में अपने आपको प्रकट करते हैं।

    तासामाविरभूच्छौरिः स्मयमान-मुखाम्बुजः ।। पीताम्बर-धरः स्रग्वी साक्षान्मन्मथ-मन्मथः ॥

    २१४॥

    । पीताम्बर धारण किये तथा फूलों की माला से अलंकृत, गोपियों के मध्य स्मितहास्य से युक्त कमलमुख वाले भगवान् कृष्ण कामदेव के हृदय को भी मोहने वाले लग रहे थे।

    स्व-माधुर्ये लोकेर मन करे आकर्षण ।। दुइ पाशे राधा ललिता करेन सेवन ॥

    २१५॥

    । उनके दोनों ओर राधा तथा ललिता सेवा करती हैं। इस तरह वे अपनी माधुरी से सबके हृदयों को आकृष्ट करते हैं।

    नित्यानन्द-दया मोरे ताँरै देखाइले ।।श्री-राधा-मदन-मोहने प्रभु करि' दिल ॥

    २१६॥

    प्रभु नित्यानन्द की कृपा ने मुझे श्री मदनमोहन का दर्शन कराया और श्री मदनमोहन को मेरे प्रभु तथा स्वामी के रूप में मुझे प्रदान किया।

    मो-अधमे दिल श्री-गोविन्द दरशन ।कहिबार कथा नहे अकथ्य-कथन ॥

    २१७॥

    उन्होंने मुझ जैसे अधम को भगवान् गोविन्द का दर्शन कराया। न तो शब्द इसका वर्णन कर सकते हैं, न ही इसे प्रकट करना उपयुक्त होगा।

    वृन्दावने स्रोग-पीठे कल्प-तरु-वने । रत्न-मण्डप, ताहे रत्न-सिंहासने ॥

    २१८॥

    श्री गोविन्द वसियाछेन व्रजेन्द्र-नन्दन ।।माधुर्य प्रकाशि' करेन जगत्मोहन ॥

    २१९॥

    कल्पतरुओं के वन के मध्य वृन्दावन के प्रमुख मन्दिर में रत्नों से बनी वेदी पर व्रजराज के पुत्र भगवान् गोविन्द रत्नों के सिंहासन पर बैठे हुए हैं और अपनी पूर्ण महिमा तथा माधुरी को प्रकाशित करते हुए सम्पूर्ण जगत् को मोहित कर रहे हैं।

    वाम-पार्थे श्री-राधिका सखी-गण-सङ्गे ।रासादिक-लीला प्रभु करे कत रङ्गे ॥

    २२०॥

    उनकी बाँई ओर श्रीमती राधारानी तथा उनकी निजी सखियाँ हैं। भगवान् गोविन्द उनके साथ रासलीला तथा अन्य अनेक लीलाओं का आनन्द लेते हैं।

    याँर ध्यान निज-लोके करे पद्मासन ।अष्टादशाक्षर-मन्त्रे करे उपासन ॥

    २२१॥

    चौदह लोकों के सारे लोग उनका ध्यान करते हैं और वैकुण्ठ-लोक के सारे निवासी उनके गुणों एवं लीलाओं का गायन करते हैं।

    चौद्द-भुवने ग्राँर सबे करे ध्यान । वैकुण्ठादि-पुरे ग्राँर लीला-गुण गान ॥

    २२२ ॥

    अपने लोक में कमल आसन पर बैठे हुए ब्रह्माजी सदैव उनका ध्यान करते हैं और अष्टदशाक्षर (अठारह अक्षरों वाले ) मन्त्र से उनकी पूजा करते हैं।

    याँर माधुरीते करे लक्ष्मी आकर्षण ।। रूप-गोसाजि करियाछेन से-रूप वर्णन ॥

    २२३॥

    उनकी माधुरी से लक्ष्मीजी आकर्षित हो जाती हैं, जिसका वर्णन श्रील रूप गोस्वामी ने इस प्रकार किया है ।

    स्मेरां भङ्गी-त्रय-परिचितां साचि-विस्तीर्ण-दृष्टिं वंशी-न्यस्ताधर-किशलयामुज्वलां चन्द्रकेण । गोविन्दाख्यां हरि-तनुमितः केशि-तीर्थोपकण्ठे। मा प्रेक्षिष्ठास्तव यदि सखे बन्धु-सङ्गेऽस्ति रङ्गः ॥

    २२४॥

    हे मित्र, यदि तुम अपने संसारी मित्रों के प्रति वास्तव में आसक्त हो, तो यमुना-तट पर केशीघाट में खड़े भगवान् गोविन्द के स्मितहास्य युक्त मुखमण्डल की ओर मत देखना। वे नेत्रों से कटाक्षपात करते हुए अपने होठों पर बाँसुरी धारण करते हैं, जो नव पल्लव के समान प्रतीत होती है। उनका त्रिभंगिमायुक्त दिव्य शरीर चाँदनी में अत्यन्त उज्वल प्रतीत होता है।

    साक्षात्व्रजेन्द्र-सुत इथे नाहि आन ।ग्रेबा अज्ञे करे ताँरै प्रतिमा-हेन ज्ञान ।। २२५॥

    निस्सन्देह, वे साक्षात् ब्रजराज के पुत्र हैं। जो मूर्ख है, वही उन्हें मूर्ति मानता है।

    सेइ अपराधे तार नाहिक निस्तार ।। घोर नरकेते पड़े, कि बलिब आर ॥

    २२६ ।। उस अपराध के कारण वह कभी मुक्त नहीं हो सकता। वस्तुतः वह घोर नरक में जा पड़ेगा। इससे अधिक मैं क्या कहूँ? हेन ग्रे गोविन्द प्रभु, पाइनु याँहा हैते ।। ताँहार चरण-कृपा के पारे वर्णिते ॥

    २२७॥

    अतएव ऐसा कौन है, जो उनके (नित्यानन्द के) उन चरणकमलों को कृपा का वर्णन कर सके, जिनसे मैंने इन भगवान् गोविन्द की शरण प्त की है? वृन्दावने वैसे व्रत वैष्णव-मण्डल ।। कृष्ण-नाम-परायण, परम-मङ्गल ॥

    २२८॥

    वृन्दावन में रहने वाले सारे वैष्णवजन कृष्ण के परम मंगलमय नाम के कीर्तन में मग्न रहते हैं।

    याँर प्राण-धन—नित्यानन्द-श्री-चैतन्य । राधा-कृष्ण-भक्ति विने नाहि जाने अन्य ॥

    २२९॥

    भगवान् चैतन्य तथा नित्यानन्द उन वैष्णवों के प्राणधन हैं, जो श्री श्री राधा-कृष्ण की भक्ति के अतिरिक्त कुछ भी नहीं जानते।

    से वैष्णवेर पद-रेणु, तार पद-छाया । अधमेरे दिल प्रभु-नित्यानन्द-दया ॥

    २३०॥

    इस पतितात्मा को भगवान् नित्यानन्द की कृपा से ही वैष्णवों के चरणकमलों की धूल और छाया प्राप्त हो सकी है।

    ‘ताँहा सर्व लभ्य हय'- प्रभुर वचन । सेइ सूत्र-एइ तार कैल विवरण ॥

    २३१॥

    भगवान् नित्यानन्द ने कहा, 'वृन्दावन में सभी वस्तुएँ सुलभ हैं।' मैंने उनके संक्षिप्त कथन की यहाँ विस्तृत व्याख्या की है।

    से सब पाइनु आमि वृन्दावने आय ।। सेइ सब लभ्य एइ प्रभुर कृपाय ॥

    २३२॥

    मैंने वृन्दावन आकर यह सब प्राप्त किया है और यह नित्यानन्द प्रभु की कृपा से सम्भव हो सका है।

    आपनार कथा लिखि निर्लज्ज हइया । नित्यानन्द-गुणे लेखाय उन्मत्त करिया ॥

    २३३॥

    मैंने बिना किसी संकोच के अपनी निजी कहानी लिख दी है। भगवान् नित्यानन्द के गुण मुझे उन्मत्त बनाकर ये सब बातें लिखने के लिए बाध्य कर देते हैं।

    नित्यानन्द-प्रभुर गुण-महिमा अपार ।।‘सहस्र-वदने' शेष नाहि पाय ग्राँर ।। २३४॥

    भगवान् नित्यानन्द के दिव्य गुणों की महिमाएँ अगाध हैं; यहाँ तक कि भगवान् शेष भी अपने हजारों मुखों से उनकी सीमा को नहीं पा सकते।

    श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश ।चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥

    २३५ ॥

    । श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों में प्रार्थना करते हुए, सदैव उनकी दया की कामना करते हुए मैं, कृष्णदास, उनके पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए श्री चैतन्य-चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।

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    अध्याय छह: श्री अद्वैत आचार्य की महिमा

    वन्दे तं श्रीमदद्वैता-चार्यमद्भुत-चेष्टितम् । ग्रस्य प्रसादादज्ञोऽपि तत्स्वरूपं निरूपयेत् ॥

    १॥

    मैं श्री अद्वैत आचार्य को सादर नमस्कार करता हूँ, जिनके सारे कार्यकलाप अद्भुत हैं। उनकी कृपा से मूर्ख से मूर्ख व्यक्ति भी उनके गुणों का वर्णन कर सकता है।

    जय जय श्री-चैतन्य जय नित्यानन्द ।जयाद्वैत-चन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ॥

    २॥

    भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! नित्यानन्द प्रभु की जय हो! । अद्वैत आचार्य की जय हो! और श्री चैतन्य महाप्रभु के सारे भक्तों की जय हो! पञ्च श्लोके कहिल श्री-नित्यानन्द-तत्त्व ।।श्लोक-द्वये कहि अद्वैताचार्येर महत्त्व ।। ३ ॥

    मैंने पाँच श्लोकों में श्री नित्यानन्द प्रभु के तत्त्व का वर्णन किया है। अब अगले दो श्लोकों में मैं श्री अद्वैत आचार्य की महिमा का वर्णन करूंगा।

    महा-विष्णुर्जगत्कर्ता मायया ग्नः सृजत्यदः । तस्यावतार एवायमद्वैताचार्य ईश्वरः ॥

    ४॥

    भगवान् अद्वैत आचार्य महाविष्णु के अवतार हैं, जिनका मुख्य कार्य है माया द्वारा जगत् की सृष्टि करना।

    अद्वैतं हरिणाद्वैतादाचा भक्ति-शंसनात् । भक्तावतारमीशं तमद्वैताचार्यमाश्रये ॥

    ५॥

    वे भगवान् हरि से अभिन्न हैं, अतएव वे अद्वैत कहलाते हैं और वे भक्ति सम्प्रदाय का प्रसार करते हैं, अतः वे आचार्य कहलाते हैं। वे भगवान् हैं और भगवान् के भक्त-अवतार हैं, इसलिए मैं उनकी शरण ग्रहण करता हूँ।

    अद्वैत-आचार्य गोसाञि साक्षातीश्वर । याँहार महिमा नहे जीवेर गोचर ॥

    ६ ॥

    महा-विष्णु सृष्टि करेन जगदादि कार्य ।ताँर अवतार साक्षातद्वैत आचार्य ॥

    ७॥

    ब्रह्माण्डों की सृष्टि का सारा कार्य महाविष्णु करते हैं। श्री अद्वैत आचार्य उनके प्रत्यक्ष अवतार हैं।

    ये पुरुष सृष्टि-स्थिति करेन मायाय ।अनन्त ब्रह्माण्ड सृष्टि कोन लीलाय ॥

    ८॥

    वे ही पुरुष अपनी बहिरंगा शक्ति से सृजन और पालन करते हैं। वे अपनी लीलाओं के रूप में असंख्य ब्रह्माण्डों की सृष्टि करते हैं।

    इच्छाय अनन्त मूर्ति करेन प्रकाश । एक एक मूर्ते करेन ब्रह्माण्डे प्रवेश ॥

    ९॥

    वे अपनी इच्छा से अपने आपको असंख्य रूपों में प्रकट करते हैं और इन रूपों के द्वारा वे प्रत्येक ब्रह्माण्ड में प्रवेश करते हैं।

    से पुरुषेर अंश—अद्वैत, नाहि किछु भेद ।। शरीर-विशेष ताँर--नाहिक विच्छेद ॥

    १०॥

    श्री अद्वैत आचार्य उन पुरुष के अंश हैं, अतएव वे उनसे भिन्न नहीं हैं। निस्सन्देह, श्री अद्वैत आचार्य पृथक् नहीं, अपितु उन पुरुष के अन्य रूप हैं।

    सहाय करेन ताँर लइया ‘प्रधान' ।। कोटि ब्रह्माण्ड करेन इच्छाय निर्माण ॥

    ११ ॥

    ( अद्वैत आचार्य) पुरुष की लीलाओं में सहायक बनते हैं, जिनकी भौतिक शक्ति तथा जिनकी इच्छा से वे असंख्य ब्रह्माण्डों का निर्माण करते हैं।

    जगत्मङ्गल अद्वैत, मङ्गल-गुण-धाम ।।मङ्गल-चरित्र सदा, 'मङ्गल' याँर नाम ॥

    १२॥

    श्री अद्वैत आचार्य सारे जगत् के लिए मंगलकारी हैं, क्योंकि वे समस्त मंगल गुणों के आगार हैं। उनके लक्षण, कार्य तथा नाम सदैव मंगलकारी है। कोटि अंश, कोटि शक्ति, कोटि अवतार ।एत ला सृजे पुरुष सकल संसार ॥

    १३॥

    महाविष्णु अपने कोटि-कोटि अंशों, शक्तियों तथा अवतारों से सम्पूर्ण जगत् की सृष्टि करते हैं।

    माया यैछे दुइ अंश--‘निमित्त', ‘उपादान' । माया–‘निमित्त'-हेतु, उपादान–प्रधान' ॥

    १४॥

    पुरुष ईश्वर ऐछे द्वि-मूर्ति हइया ।। विश्व-सृष्टि करे ‘निमित्त' 'उपादान' लञा ॥

    १५ ॥

    । जिस प्रकार बहिरंगा शक्ति के दो भाग होते हैं-निमित्त तथा उपादान; माया निमित्त कारण और प्रधान उपादान कारण है। उसी तरह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु भी निमित्त तथा उपादान कारणों के आधार पर भौतिक जगत् की सृष्टि करने के लिए दो स्वरूप धारण करते हैं।

    आपने पुरुष-विश्वेर 'निमित्त'-कारण । अद्वैत-रूपे उपादान' हन नारायण ॥

    १६॥

    स्वयं भगवान् विष्णु भौतिक जगत् के निमित्त कारण हैं और श्री अद्वैत के रूप में नारायण उपादान या भौतिक कारण हैं।

    ‘निमित्तांशे' करे तेंहो मायाते ईक्षण ।। ‘उपादान' अद्वैत करेन ब्रह्माण्ड-सृजन ॥

    १७॥

    भगवान् विष्णु अपने निमित्त अंश के रूप में भौतिक शक्ति के ऊपर दृष्टिपात करते हैं और श्री अद्वैत उपादान कारण के रूप में भौतिक जगत् की सृष्टि करते हैं।

    यद्यपि साङ्ख्य माने, ‘प्रधान'–कारण ।जड़ हइते कभु नहे जगत्सृजन ॥

    १८॥

    । यद्यपि सांख्य दर्शन मानता है कि भौतिक अवयव ही कारण हैं, किन्तु जगत् की सृष्टि कभी भी मृत पदार्थ से नहीं होती।

    निज सृष्टि-शक्ति प्रभु सञ्चारे प्रधाने ।।ईश्वरेर शक्त्ये तबे हये त' निर्माणे ॥

    १९॥

    भगवान् अपनी सृजन शक्ति द्वारा भौतिक अवयवों को संचारित करते हैं। इसके बाद भगवान् की शक्ति से सृष्टि-कार्य सम्पन्न होता है।

    अद्वैत-रूपे करे शक्ति-सञ्चारण ।।अतएव अद्वैत हयेन मुख्य कारण ॥

    २०॥

    । अद्वैत के रूप में वे भौतिक अवयवों ( उपादानों) में सृजन शक्ति का संचार करते हैं। अतएव अद्वैत ही सृष्टि के मूल कारण हैं।

    अद्वैत-आचार्य कोटि-ब्रह्माण्डेर कर्ता ।आर एक एक मूर्ये ब्रह्माण्डेर भर्ता ॥

    २१॥

    श्री अद्वैत आचार्य कोटि-कोटि ब्रह्माण्डों के स्रष्टा हैं और अपने विस्तार ( गर्भोदकशायी विष्णु) द्वारा वे प्रत्येक ब्रह्माण्ड का पालन करते है।

    सेइ नारायणेर मुख्य अङ्ग–अद्वैत ।।‘अङ्ग'-शब्दे अंश करि' कहे भागवत ॥

    २२॥

    श्री अद्वैत नारायण के मुख्य अंग हैं। श्रीमद्भागवत' में “अंग” को ही भगवान् का “पूर्ण अंश' कहा गया है।

    नारायणस्त्वं न हि सर्व-देहिनाम्आत्मास्यधीशाखिल-लोक-साक्षी । नारायणोऽङ्गं नर-भू-जलायनात्तच्चापि सत्यं न तवैव माया ॥

    २३॥

    हे समस्त प्रभुओं के प्रभु, आप समस्त सृष्टि को देखने वाले हैं। आप हर एक को प्राणों से प्रिय हैं। इसलिए क्या आप मेरे पिता नारायण नहीं हैं?'नारायण' वे हैं, जिनका आवास नर ( गर्भोदकशायी विष्णु ) से उत्पन्न जल में है और वही नारायण आपके पूर्ण अंश हैं। आपके सारे पूर्ण अंश दिव्य हैं। वे परम पूर्ण हैं और माया द्वारा रचित नहीं हैं।

    ईश्वरेर 'अङ्ग' अंश चिदानन्द-मय ।मायार सम्बन्ध नाहि' एइ श्लोके कय ॥

    २४॥

    यह श्लोक बतलाता है कि भगवान् के सारे अंग तथा पूर्ण अंश आध्यात्मिक हैं। उनका भौतिक शक्ति (माया) से कोई सम्बन्ध नहीं है।

    ‘अंश' ना कहिया, केने कह ताँरे ‘अङ्ग' ।। 'अंश' हैते ‘अङ्ग' झाते हय अन्तरङ्ग ॥

    २५॥

    तब श्री अद्वैत को अंश न कहकर अंग क्यों कहा गया? इसका कारण है कि 'अंग' अधिक घनिष्ठता का सूचक है।

    महा-विष्णुर अंश—अद्वैत गुण-धाम ।ईश्वरे अभेद, तेञि 'अद्वैत' पूर्ण नाम ॥

    २६॥

    समस्त सद्गु णों के आगार श्री अद्वैत महाविष्णु के प्रमुख अंग हैं। उनका पूरा नाम अद्वैत है, क्योंकि वे सभी प्रकार से उन भगवान् से अभिन्न हैं।

    पूर्वे ग्रैछे कैल सर्व-विश्वेर सृजन ।।अवतरि' कैल एबे भक्ति-प्रवर्तन ॥

    २७॥

    जिस तरह पूर्वकाल में उन्होंने ब्रह्माण्डों की रचना की थी, उसी तरह अब वे भक्ति-पथ का सूत्रपात करने के लिए अवतरित हुए हैं।

    जीव निस्तारिल कृष्ण-भक्ति करि' दान ।। गीता-भागवते कैल भक्तिर व्याख्यान ॥

    २८॥

    उन्होंने सारे जीवों को कृष्ण-भक्ति का उपहार देकर उनका उद्धार किया। उन्होंने भक्ति के प्रकाश में 'भगवद्गीता' तथा 'श्रीमद्भागवत की व्याख्या की।

    भक्ति-उपदेश विनु ताँर नाहि कार्य ।। अतएव नाम है 'अद्वैत आचार्य' ॥

    २९॥

    उनके पास भक्ति की शिक्षा देने के अतिरिक्त अन्य कोई कार्य नहीं है, अतएव उनका नाम अद्वैत आचार्य है।

    वैष्णवेर गुरु तेंहो जगतेर आग्ने । दुइ-नाम-मिलने हैल 'अद्वैत-आचार्य' ॥

    ३०॥

    । उनके पार्षदों के शारीरिक रूप भी भगवान् जैसे होते हैं। उन सबके चार हाथ होते हैं और वे नारायण की तरह पीताम्बर धारण करते हैं।

    कमल-नयनेर तेंहो, य़ाते 'अङ्ग' 'अंश' । ‘कमलाक्ष' करि धरे नाम अवतंस ॥

    ३१ ॥

    । चूँकि वे कमलनयन परमेश्वर के अंग या अंश हैं, इसलिए उनका नाम कमलाक्ष भी है।

    ईश्वर-सारूप्ये पाय पारिषद-गण । चतुर्भुज, पीत-वास, ग्रैछे नारायण ॥

    ३२॥

    वे समस्त भक्तों के गुरु हैं और संसार के सबसे आदरणीय व्यक्ति हैं। इन दोनों नामों के योग से उनका नाम अद्वैत आचार्य है।

    अद्वैत-आचार्य—ईश्वरेर अंश-वर्य । ताँर तत्त्व-नाम-गुण, सकलि आश्चर्य ॥

    ३३॥

    श्री अद्वैत आचार्य परमेश्वर के प्रमुख अंग हैं। उनके तत्त्व, नाम तथा गुण-सभी अद्भुत हैं।

    ग्राँहार तुलसी-जले, झाँहार हुङ्कारे ।।स्व-गण सहिते चैतन्येर अवतारे ॥

    ३४॥

    उन्होंने कृष्ण की पूजा तुलसीदल तथा गंगाजल से की और उच्च स्वर से उन्हें पुकारा। इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु अपने निजी पार्षदों सहित पृथ्वी पर अवतरित हुए।

    ग्राँर द्वारा कैल प्रभु कीर्तन प्रचार ।झाँर द्वारा कैल प्रभु जगनिस्तार ॥

    ३५ ॥

    उन्हीं (अद्वैत आचार्य ) के द्वारा श्री चैतन्य महाप्रभु ने संकीर्तन आन्दोलन का प्रसार किया और उन्हीं के द्वारा उन्होंने संसार का उद्धार किया।

    आचार्य गोसाजिर गुण-महिमा अपार ।जीव-कीट कोथाय पाइबेक तार पार ॥

    ३६॥

    अद्वैत आचार्य की महिमा तथा उनके गुण असीम हैं। तो फिर क्षुद्र जीव उनको पार कैसे पा सकते हैं? आचार्य गोसाजि चैतन्येर मुख्य अङ्ग ।आर एक अङ्ग ताँर प्रभु नित्यानन्द ॥

    ३७॥

    श्री अद्वैत आचार्य श्री चैतन्य महाप्रभु के मुख्य अंग हैं। उनके दूसरे अंग नित्यानन्द प्रभु हैं।

    प्रभुर उपाङ्ग–श्रीवासादि भक्त-गण ।।हस्त-मुख-नेत्र-अङ्ग चक्राद्यत्र-सम ॥

    ३८॥

    श्रीवास आदि भक्तगण उनके लघु अंग हैं। वे उनके हाथ, मुँह, आँखें तथा चक्र एवं अन्य अस्त्रों की तरह हैं।

    ए-सब लइया चैतन्य-प्रभुर विहार ।।ए-सब लइया करेन वाञ्छित प्रचार ॥

    ३९॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु ने इन सबके साथ अपनी लीलाएँ कीं और उनको साथ लेकर उन्होंने अपने वांछित उद्देश्य का प्रचार किया।

    माधवेन्द्र-पुरीर इँहो शिष्य, एइ ज्ञाने ।।आचार्य-गोसाजिरे प्रभु गुरु करि' माने ॥

    ४०॥

    चैतन्य महाप्रभु यह सोचकर कि वे ( श्री अद्वैत आचार्य ) श्री माधवेन्द्र पुरी के शिष्य हैं, उन्हें अपने गुरु के समान आदर देते हुए उनकी आज्ञा का पालन करते हैं।

    लौकिक-लीलाते धर्म-मर्यादा-रक्षण ।स्तुति-भक्त्ये करेन ताँर चरण वन्दन ॥

    ४१॥

    धर्म के सिद्धान्तों की मर्यादा बनाये रखने के लिए श्री चैतन्य महाप्रभु स्तुति तथा भक्ति के साथ श्री अद्वैत आचार्य के चरणकमलों की वन्दना करते हैं।

    चैतन्य-गोसाजिके आचार्य करे 'प्रभु'-ज्ञान ।। आपनाके करेन ताँर 'दास'-अभिमान ॥

    ४२॥

    । किन्तु श्री अद्वैत आचार्य श्री चैतन्य महाप्रभु को अपना स्वामी मानते हैं और अपने आपको चैतन्य महाप्रभु का दास मानते हैं।

    सेइ अभिमान-सुखे आपना पासरे ।।‘कृष्ण-दास' हओ-जीवे उपदेश करे ॥

    ४३॥

    वे उसी भाव के हर्ष में अपने आपको भूल जाते हैं और सभी जीवों को शिक्षा देते हैं कि, “तुम सभी लोग श्री चैतन्य महाप्रभु के दास हो।

    कृष्ण-दास-अभिमाने ग्रे आनन्द-सिन्धु ।।कोटी-ब्रह्म-सुख नहे तार एक बिन्दु ॥

    ४४॥

    श्रीकृष्ण के प्रति दास्य भाव आत्मा में ऐसा आनन्द-सागर उत्पन्न कर देता है कि यदि ब्रह्म से एकाकार होने के सुख को एक करोड़ गुना कर दिया जाये, तो भी वह इसकी एक बूंद की समानता नहीं कर सकता।

    मुजि ग्रे चैतन्य-दास आर नित्यानन्द ।।दास-भाव-सम नहे अन्यत्र आनन्द ।। ४५ ॥

    वे कहते हैं, श्री नित्यानन्द और मैं श्री चैतन्य महाप्रभु के सेवक हैं। अन्यत्र कहीं भी ऐसा सुख नहीं है, जैसा इस सेवा-भाव में मिलता है।

    परम-प्रेयसी लक्ष्मी हृदये वसति । तेहो दास्य-सुख मागे करिया मिनति ॥

    ४६ ।। यद्यपि भगवान् के वक्षस्थल पर उनकी परम प्रेयसी लक्ष्मीदेवी निवास करती हैं, किन्तु फिर भी उनकी यही याचना रहती है कि उन्हें उनके चरणों की सेवा का आनन्द प्राप्त होता रहे।

    दास्य-भावे आनन्दित पारिषद-गण । विधि, भव, नारद आर शुक, सनातन ॥

    ४७॥

    भगवान् कृष्ण के सारे पार्षद (संगी ), यथा ब्रह्मा, शिव, नारद, शुक तथा सनातन कुमार दास्यभाव में अत्यधिक प्रसन्न रहते हैं।

    नित्यानन्द अवधूत सबाते आगल ।।चैतन्येर दास्य-प्रेमे हइला पागल ।। ४८ ॥

    विचरण करने वाले अवधूत साधु श्री नित्यानन्द भगवान् चैतन्य के समस्त पार्षदों में अग्रणी हैं। वे भगवान् चैतन्य की सेवा के आनन्द में पागल हो गये।

    श्रीवास, हरिदास, रामदास, गदाधर । मुरारि, मुकुन्द, चन्द्रशेखर, वक्रेश्वर ॥

    ४९॥

    ए-सब पण्डित-लोक परम-महत्त्व ।। चैतन्येर दास्ये सबाय करये उन्मत्त ॥

    ५०॥

    श्रीवास, हरिदास, रामदास, गदाधर, मुरारि, मुकुन्द, चन्द्रशेखर तथा वक्रेश्वर सभी अत्यन्त यशस्वी हैं और महान् पण्डित हैं, किन्तु भगवान् चैतन्य के प्रति दास्यभाव उन्हें उन्मत्त बनाये रखता है।

    एइ मत गाय, नाचे, करे अट्टहास ।के उपदेशे,---‘हओ चैतन्येर दास' ।। ५१ ।। इस तरह वे सभी पागलों की तरह नाचते, गाते और हँसते हैं तथा सभी को यही उपदेश देते हैं, श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रेमी दास बनो।

    चैतन्य-गोसाजि मोरे करे गुरु ज्ञान ।।तथापिह मोर हय दास-अभिमान ॥

    ५२॥

    श्री अद्वैत आचार्य सोचते हैं, चैतन्य महाप्रभु मुझे अपना गुरु मानते हैं, तो भी मैं अपने आपको उनका दास मात्र अनुभव करता हूँ।

    कृष्ण-प्रेमेर एइ एक अपूर्व प्रभाव ।।गुरु-सम-लघुके कराय दास्य-भाव ॥

    ५३॥

    कृष्ण-प्रेम का यही एक अपूर्व प्रभाव है कि यह गुरुजनों, समवयस्कों तथा कनिष्ठजनों को भगवान् कृष्ण के प्रति सेवा भाव से प्रेरित करता है।

    इहार प्रमाण शुन–शास्त्रेर व्याख्यान ।महदनुभव य़ाते सुदृढ़ प्रमाण ॥

    ५४॥

    इसके प्रमाण के लिए प्रामाणिक शास्त्रों में वर्णित उदाहरणों का श्रवण करें, जिनकी पुष्टि महात्माओं की अनुभूति द्वारा भी होती है।

    अन्येर का कथा, व्रजे नन्द महाशय ।। तार सम 'गुरु' कृष्णेर आर केह नय ॥

    ५५॥

    शुद्ध-वात्सल्ये ईश्वर-ज्ञान नाहि तार ।।ताहाकेइ प्रेमे कराय दास्य-अनुकार ॥

    ५६॥

    व्रज में कृष्ण के लिए नन्द महाराज से बढ़कर कोई अधिक पूज्य गुरुजन नहीं है, क्योंकि अपने दिव्य पितृप्रेम के कारण उन्हें इसका ज्ञान ही नहीं है कि उनके पुत्र पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं। फिर भी यह प्रेम उन्हें अपने आपको कृष्ण का दास होने का अनुभव कराता है; औरों का तो क्या कहना? तेंहो रति-मति मागे कृष्णेर चरणे ।।ताहार श्री-मुख-वाणी ताहाते प्रमाणे ॥

    ५७॥

    वे भी भगवान् कृष्ण के चरणकमलों में अनुरक्ति और भक्ति के लिए प्रार्थना करते हैं, जैसाकि स्वयं उनके मुख से निकले शब्द इसके साक्षी हैं।

    शुन उद्धव, सत्य, कृष्ण-आमार तनय । तेहो ईश्वर–हेन यदि तोमार मने लय ॥

    ५८ ॥

    तथापि ताँहाते रहु मोर मनो-वृत्ति । तोमार ईश्वर-कृष्णे हौक मोर मति ॥

    ५९॥

    हे उद्धव, कृपया सुनो। यह सच है कि कृष्ण मेरा पुत्र है, किन्तु फिर भी यदि तुम सोचते हो कि वह ईश्वर है, तो भी उसके लिए मैं अपने पुत्र का भाव ही रखेंगा। अतएव मेरी प्रार्थना है कि मेरा मन तुम्हारे भगवान् कृष्ण के प्रति अनुरक्त हो।

    मनसो वृत्तयो नः स्युः कृष्ण-पादाम्बुजाश्रयाः ।। वाचोऽभिधायिनीर्नाम्नां कायस्तत्प्रह्वणादिषु ॥

    ६०॥

    हमारे मन तुम्हारे भगवान् कृष्ण के चरणों में अनुरक्त हों, हमारी जिह्वाएँ उनके पवित्र नामों का कीर्तन करें और हमारे शरीर उनके समक्ष दण्डवत् प्रणाम करें।

    कर्मभिर्भाग्यमाणानां यत्र क्वापीश्वरेच्छया ।।मङ्गलाचरितैर्दानै रतिर्नः कृष्ण ईश्वरे ॥

    ६१॥

    हम ईश्वर की इच्छा से अपने कर्मवश भौतिक ब्रह्माण्ड में जहाँ भी भ्रमण करें, हमारे पुण्यकर्म भगवान् कृष्ण के प्रति हमारी अनुरक्ति को बढ़ाते रहें।

    श्रीदामादि व्रजे व्रत सखार निचय ।ऐश्वर्य-ज्ञान-हीन, केवल-सख्य-मय ।। ६२ ॥

    भगवान् कृष्ण के वृन्दावन के मित्र, जिनमें श्रीदामा मुख्य हैं, उनके प्रति शुद्ध सख्य प्रेम रखते हैं। उन्हें भगवान् के ऐश्वर्यों का कोई ज्ञान नहीं हैं।

    कृष्ण-सङ्गे युद्ध करे, स्कन्धे आरोहण ।।तारा दास्य-भावे करे चरण-सेवन ॥

    ६३ ॥

    यद्यपि वे भगवान् से लड़ते हैं और उनके कन्धों पर चढ़ जाते हैं, किन्तु दास्यभाव में वे उनके चरणकमलों की पूजा करते हैं।

    पाद-संवाहनं चक्रुः केचित्तस्य महात्मनः ।।अपरे हत-पाप्मानो व्यजनैः समवीजयन् ॥

    ६४॥

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण के कुछ मित्र उनके पाँव दबाते थे और अन्य मित्र, जिनके पाप-कर्मफल नष्ट हो चुके थे, अपने हाथ में पंखा लेकर उन पर पंखा झलते थे।

    कृष्णेर प्रेयसी व्रजे व्रत गोपी-गण ।। ग्राँर पद-धूलि करे उद्धव प्रार्थन ॥

    ६५॥

    याँ-सबार उपरे कृष्णेर प्रिय नाहि आन ।ताँहार आपनाके करे दासी-अभिमान ।। ६६॥

    यहाँ तक कि वृन्दावन में भगवान् कृष्ण की प्रेयसी गोपियाँ भी, जिनके चरणों की धूल की कामना श्री उद्धव ने की थी और जिनसे बढ़कर कृष्ण को अन्य कोई भी प्रिय नहीं है, अपने आपको कृष्ण की दासियाँ मानती हैं।

    व्रज-जनार्ति-हन्वीर योषितांनिज-जन-स्मय-ध्वंसन-स्मित ।। भज सखे भवत्किङ्करीः स्म नो । जल-रुहाननं चारु दर्शय ॥

    ६७॥

    हे प्रभु, हे वृन्दावन के निवासियों के कष्टों के हर्ता! हे समस्त स्त्रियों के नायक! अपनी मृदु मधुर मुस्कान से अपने भक्तों के गर्व को नष्ट करने वाले हे भगवान्! हे सखे! हम आपकी दासियाँ हैं। कृपया हमारी इच्छापूर्ति करें और हमें अपने आकर्षक कमलमुख का दर्शन प्रदान करें।

    अपि बत मधु-पुर्यामाग्र-पुत्रोऽधुनास्तेस्मरति स पितृ-गेहान्सौम्य बन्धूंश्च गोपान् । क्वचिदपि स कथां नः किङ्करिणां गृणीतेभुजमगुरु-सुगन्धं मूर्त्यधास्यत्कदा नु ॥

    ६८॥

    । । हे उद्धव यह सचमुच दुःख की बात है कि कृष्ण मथुरा में वास कर रहे हैं। क्या उन्हें अपने पिता के घरेलु कार्यों, अपने मित्रों तथा ग्वालबालों की याद आती है? हे महात्मा! क्या वे कभी हम दासियों के विषय में बात करते हैं? वे कब हमारे मस्तकों को अपने अगुरु-सुगन्धित हाथ से स्पर्श करेंगे? ताँ-सबार कथा रहु,-–श्रीमती राधिका । सबा हैते सकलांशे परम-अधिका॥

    ६९॥

    तेहो याँर दासी हैञा सेवेन चरण ।।झाँर प्रेम-गुणे कृष्ण बद्ध अनुक्षण ॥

    ७० ॥

    अन्य गोपियों का तो कहना ही क्यो, यहाँ तक कि श्रीमती राधिका, जो उन सबमें हर प्रकार से श्रेष्ठ हैं और जिन्होंने अपने प्रेम-गुणों द्वारा श्रीकृष्ण को सदा के लिए बाँध लिया है, उनकी दासी के रूप में उनकी चरण-सेवा करती हैं।

    हा नाथ रमण प्रेष्ठ क्वासि क्वासि महा-भुज । दास्यास्ते कृपणाया मे सखे दर्शय सन्निधिम् ॥

    ७१ ॥

    हे नाथ! हे मेरे पति! हे परम प्रिय! हे बलिष्ठ भुजाओं वाले! आप कहाँ हैं? आप कहाँ हैं? हे सखे, अपनी दासी के समक्ष आप प्रकट क्यों नहीं होते, जो आपकी अनुपस्थिति के कारण अत्यन्त दुःखी है? द्वारकाते रुक्मिण्यादि व्रतेक महिषी । ताँहाराओ आपनाके माने कृष्ण-दासी ॥

    ७२॥

    । द्वारकाधाम में रुक्मिणी इत्यादि सारी रानियाँ भी अपने आपको भगवान् कृष्ण की दासियाँ मानती हैं।

    चैद्याय मार्पयितुमुद्यत-कार्मुकेषु राजस्वजेय-भट-शेखरिताघ्रि-रेणुः । निन्ये मृगेन्द्र इव भागमजावि-यूथात्तच्छ्री-निकेत-चरणोऽस्तु ममार्चनाय ॥

    ७३॥

    जब जरासन्ध तथा अन्य राजा अपने अपने धनुष-बाण उठाये मुझे शिशुपाल को दान रूप देने को उद्यत थे, तो उन्होंने मुझे उनके बीच से बलपूर्वक उसी प्रकार खींच लिया, जिस प्रकार सिंह अपना भाग भेड़ों और बकरियों के बीच में से ले जाता है। अतः उनके चरणकमलों की धूलि अजेय सैनिकों का ताज है। वे चरणकमल जो लक्ष्मीजी के आश्रय हैं, मेरी पूजा के अभीष्ट बनें।

    तपश्चरन्तीमाज्ञाय स्व-पाद-स्पर्शनाशया । सख्योपेत्याग्रहीत्पाणिं साहं तद्गृह-मार्जनी ॥

    ७४॥

    यह जानते हुए कि मैं उनके चरणकमलों का स्पर्श पाने के लिए तपस्या कर रही हूँ, वे अपने मित्र अर्जुन के साथ आये और उन्होंने मेरा पाणिग्रहण किया। फिर भी मैं श्रीकृष्ण के घर का फर्श बुहारने में लगी हुई मात्र एक दासी हूँ। आत्मारामस्य तस्येमा वयं वै गृह-दासिकाः ।।सर्व-सङ्ग-निवृत्त्याव्द्धा तपसा च बभूविमे ॥

    ७५ ॥

    हम अपनी तपस्या तथा सारी आसक्तियों के त्याग से, अपने में ही सन्तुष्ट रहने वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण के घर की दासियाँ बन पाई हैं।

    आनेर कि कथा, बलदेव महाशय ।। याँर भाव—शुद्ध-सख्य-वात्सल्यादि-मयं ॥

    ७६॥

    औरों की बात छोड़िये, यहाँ तक कि भगवान् बलदेव भी शुद्ध सख्य तथा वात्सल्य-प्रेम जैसी भावनाओं से पूर्ण हैं।

    तेहो आपनाके करेन दास-भावना ।।कृष्ण-दास-भाव विनु आछे कोन जना ॥

    ७७ ॥

    वे भी अपने आपको भगवान् कृष्ण का दास समझते हैं। निस्सन्देह, ऐसा कौन होगा जो भगवान् कृष्ण का दास होने का यह भाव न रखती हो? सहस्र-वदने →हो शेष-सङ्कर्षण ।दश देह धरि' करे कृष्णेर सेवन ॥

    ७८ ॥

    वे जो शेष रूपी संकर्षण हैं, वे अपने हजारों मुखों से, दस रूपों को प्रकट करके श्रीकृष्ण की सेवा करते हैं।

    अनन्त ब्रह्माण्डे रुद्र-सदाशिवेर अंश । गुणावतार तेंहो, सर्व-देव-अवतंस ॥

    ७९ ॥

    सदाशिव के विस्ताररूप रुद्र, जो असंख्य ब्रह्माण्डों में प्रकट होते हैं। और अनन्त ब्रह्माण्डों में देवताओं के अलंकार हैं, वे एक गुणावतार भी हैं।

    तेंहो करेन कृष्णेर दास्य-प्रत्याश ।निरन्तर कहे शिव, 'मुञि कृष्ण-दास' ॥

    ८०॥

    वे भी भगवान् कृष्ण के दास ही बनने की कामना करते हैं। श्री सदाशिव हमेशा यही कहते हैं, मैं भगवान् कृष्ण का दास हूँ।

    कृष्ण-प्रेमे उन्मत्त, विह्वल दिगम्बर ।कृष्ण-गुण-लीला गाय, नाचे निरन्तर ॥

    ८१॥

    कृष्ण के प्रेम में उन्मत्त होकर वे विह्वल बन जाते हैं और बिना वस्त्र के निरन्तर नृत्य करते रहते हैं तथा भगवान् कृष्ण के गुणों एवं उनकी लीलाओं के विषय में गाते रहते हैं।

    पिता-माता-गुरु-सखा-भाव केने नय ।। कृष्ण-प्रेमेर स्वभावे दास्य-भाव से करय ॥

    ८२ ॥

    सारे भाव, चाहे वे पिता के, माता के, गुरु के या मित्र के हों, दास्यभाव से पूरित हैं। कृष्ण-प्रेम का यही स्वभाव है।

    एक कृष्ण-सर्व-सेव्य, जगतीश्वर ।। आर व्रत सब, ताँर सेवकानुचर ॥

    ८३॥

    ब्रह्माण्ड के एकमात्र स्वामी भगवान् कृष्ण सबके द्वारा सेव्य होने के योग्य हैं। निस्सन्देह, प्रत्येक व्यक्ति उनके दासों का दास होने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

    सेइ कृष्ण अवतीर्ण–चैतन्य-ईश्वर । अतएव आर सब, ताँहार किङ्कर ॥

    ८४॥

    । वे भगवान् कृष्ण ही चैतन्य महाप्रभु के रूप में अवतरित हुए हैं। अतएव सारे लोग उनके दास हैं।

    केह माने, केह ना माने, सब ताँर दास । ये ना माने, तार हय सेइ पापे नाश ॥

    ८५॥

    कुछ लोग उन्हें स्वीकार करते हैं और कुछ नहीं करते, तो भी सारे लोग उनके दास हैं। जो उन्हें स्वीकार नहीं करता, वह अपने पापकर्मों से विनष्ट हो जायेगा।

    चैतन्येर दास मुञि, चैतन्येर दास ।।चैतन्येर दास मुञि, ताँर दासेर दास ॥

    ८६॥

    मैं चैतन्य महाप्रभु का दास हूँ, मैं चैतन्य महाप्रभु का दास हूँ। मैं चैतन्य महाप्रभु का दास हूँ और उनके दासों का दास हूँ।

    एत बलि' नाचे, गाय, हुङ्कार गम्भीर ।।क्षणेके वसिला आचार्य है सुस्थिर ॥

    ८७॥

    यह कहकर अद्वैत प्रभु नाचते हैं तथा जोर-जोर से गाते हैं। फिर अगले क्षण वे चुप होकर बैठ जाते हैं।

    भक्त-अभिमान मूल श्री-बलरामे ।। सेइ भावे अनुगत ताँर अंश-गणे ।।८८॥

    निस्सन्देह, दास्य भाव के उद्गम भगवान् बलराम हैं। उनके बाद के सारे अंश इसी परमानन्द भाव से प्रभावित होते हैं।

    ताँर अवतार एक श्री-सङ्कर्षण । भक्त बलि' अभिमान करे सर्व-क्षण ॥

    ८९॥

    उनके एक अवतार स्वरूप भगवान् संकर्षण अपने आपको उनका नित्ये दास मानते हैं।

    ताँर अवतार आन श्री-ग्रुत लक्ष्मण । श्री-रामेर दास्य तिंहो कैल अनुक्षण ॥

    ९०॥

    उनके दूसरे अवतार लक्ष्मण जो अतीव सुन्दर एवं ऐश्वर्ययुक्त हैं, सदैव भगवान् राम की सेवा करते हैं।

    सङ्कर्षण-अवतार कारणाब्धि-शायी ।।ताँहार हृदये भक्त-भाव अनुयायी ॥

    ९१॥

    कारण सागर में शयन करने वाले भगवान् विष्णु, भगवान् संकर्षण के अवतार हैं, फलतः उनके हृदय में भक्त होने का भाव सदैव विद्यमान रहता है।

    ताँहार प्रकाश-भेद, अद्वैत-आचार्य ।काय-मनो-वाक्ये ताँर भक्ति सदा कार्य ॥

    ९२ ॥

    अद्वैत आचार्य उनके पृथक् विस्तार हैं। वे सदैव मन, वचन तथा कर्म से उनकी भक्ति में मग्न रहते हैं।

    वाक्ये कहे, ‘मुजि चैतन्येर अनुचर' ।मुजि ताँर भक्त–मने भावे निरन्तर ॥

    ९३॥

    वे अपनी वाणी से घोषित करते हैं, मैं भगवान् चैतन्य का दास हूँ।” इस तरह अपने मन में वे सदैव सोचते हैं, मैं उनका भक्त हूँ।

    जले-तुलसी दिया करे कायाते सेवन ।।भक्ति प्रचारिया सब तारिला भुवन ॥

    ९४॥

    उन्होंने गंगाजल तथा तुलसीदल अर्पित करके अपने शरीर से भगवान् की पूजा की और भक्ति के प्रचार द्वारा सारे ब्रह्माण्ड का उद्धार किया।

    पृथिवी धरेन येइ शेष-सङ्कर्षण ।काय-व्यूह करि' करेन कृष्णेर सेवन ॥

    ९५ ॥

    अपने फनों पर सारे ब्रह्माण्डों को धारण करने वाले शेष संकर्षण भगवान् कृष्ण की सेवा करने के लिए अपना विस्तार विविध शरीरों में करते हैं।

    एइ सब हय श्री कृष्णेर अवतार ।निरन्तर देखि सबार भक्तिर आचार ॥

    ९६॥

    ये सभी भगवान् कृष्ण के अवतार हैं, फिर भी हम उन्हें सदैव भक्तों की तरह कार्य करते हुए पाते हैं।

    ए-सबाके शास्त्रे कहे 'भक्त-अवतार' । ‘भक्त-अवतार'-पद उपरि सबार ॥

    ९७॥

    शास्त्र उन्हें भक्त-अवतार कहते हैं। ऐसे अवतार का पद अन्य सबके ऊपर है।

    एक-मात्र 'अंशी'–कृष्ण, 'अंश'–अवतार ।अंशी अंशे देखि ज्येष्ठ-कनिष्ठ-आचार ॥

    ९८॥

    । भगवान् कृष्ण समस्त अवतारों के उद्गम हैं और अन्य सभी उनके अंश या अंशावतार हैं। हम देखते हैं कि पूर्ण तथा अंश क्रमशः ज्येष्ठ तथा कनिष्ठ की तरह व्यवहार करते हैं।

    ज्येष्ठ-भावे अंशीते हय प्रभु-ज्ञान ।कनिष्ठ-भावे आपनाते भक्त-अभिमान ॥

    ९९ ॥

    जब वे अपने आपको स्वामी मानते हैं, तब समस्त अवतारों के उद्गम में ज्येष्ठ भाव होता है और जब वे अपने आपको भक्त मानते हैं, तब उनमें कनिष्ठ भाव होता है।

    कृष्णेर समता हैते बड़ भक्त-पद ।।आत्मा हैते कृष्णेर भक्त हय प्रेमास्पद ॥

    १००॥

    भक्त होना भगवान् कृष्ण की समता से बढ़कर है, क्योंकि भक्तगण भगवान् कृष्ण को अपने से भी अधिक प्रिय हैं।

    आत्मा हैते कृष्ण भक्ते बड़ करि' माने । इहाते बहुत शास्त्र-वचन प्रमाणे ॥

    १०१॥

    भगवान् कृष्ण अपने भक्तों को अपने से भी बढ़कर मानते हैं। इस सन्दर्भ में शास्त्रों में प्रचुर प्रमाण प्राप्त होते हैं।

    न तथा मे प्रिय-तम आत्म-योनिर्न शङ्करः ।। न च सङ्कर्षणो न श्रीवात्मा च ग्रथा भवान् ॥

    १०२॥

    हे उद्धव! तुम्हारे समान मुझे न ब्रह्मा, न शंकर, न संकर्षण, न लक्ष्मी, न स्वयं मैं ही प्रिय हूँ।

    कृष्ण-साम्ये नहे ताँर माधुर्यास्वादन ।।भक्त-भावे करे ताँर माधुर्घ चर्वण ॥

    १०३ ॥

    जो अपने आपको कृष्ण के समकक्ष मानते हैं, वे भगवान् कृष्ण की मधुरता का आस्वादन नहीं कर सकते। इसका आस्वादन तो केवल दास्य भाव के माध्यम से किया जा सकता है।

    शास्त्रेर सिद्धान्त एई,—विज्ञेर अनुभव।मूढ़-लोक नाहि जाने भावेर वैभव ॥

    १०४॥

    प्रामाणिक शास्त्रों का यह निष्कर्ष अनुभवी भक्तों की अनुभूति भी है। किन्तु मूर्ख तथा धूर्त लोग भक्तिमय भावों के इस ऐश्वर्य को नहीं समझ सकते।

    भक्त-भाव अङ्गीकरि' बलराम, लक्ष्मण । अद्वैत, नित्यानन्द, शेष, सङ्कर्षण ॥

    १०५ ।। कृष्णेर माधुर्य-रसामृत करे पान ।सेइ सुखे मत्त, किछु नाहि जाने आन ॥

    १०६॥

    । बलदेव, लक्ष्मण, अद्वैत आचार्य, भगवान् नित्यानन्द, भगवान् शेष तथा संकर्षण अपने आपको भगवान् के भक्त तथा दास मानकर भगवान् कृष्ण के दिव्य आनन्द के अमृत-रस का आस्वादन करते हैं। वे सभी इसी सुख से उन्मत्त रहते हैं और इसके अतिरिक्त दूसरा कुछ भी नहीं जानते।

    अन्येर आछुक्काग्रे, आपने श्रीकृष्ण ।आपन-माधुर्घ-पाने हइला सतृष्ण ॥

    १०७॥

    औरों की तो बात ही क्या, स्वयं भगवान् कृष्ण भी अपने माधुर्य का आस्वादन करने के इच्छुक रहते हैं।

    स्वा-माधुर्य आस्वादिते करेन व्रतन ।भक्त-भाव विनु नहे ताहा आस्वादन ॥

    १०८॥

    वे अपने माधुर्य का आस्वादन खुद करना चाहते हैं, किन्तु भक्त के भाव को स्वीकार किये बिना वे ऐसा नहीं कर सकते।

    भक्त-भाव अङ्गीकरि' हैला अवतीर्ण ।।श्री कृष्णा-चैतन्य-रूपे सर्व-भावे पूर्ण ॥

    १०९॥

    अतएव भगवान् कृष्ण ने भक्त के भाव को स्वीकार किया और सभी प्रकार से पूर्ण भगवान् चैतन्य के रूप में अवतरित हुए।

    नाना-भक्त-भावे करेन स्व-माधुर्य पान ।पूर्वे करियाछि एइ सिद्धान्त व्याख्यान ॥

    ११०॥

    वे भक्त के विविध भावों के माध्यम से अपनी माधुरी का आस्वादन करते हैं। मैंने पहले ही इस सिद्धान्त की व्याख्या कर दी है।

    अवतार-गणेर भक्त-भावे अधिकार ।भक्त-भाव हैते अधिक सुख नाहि आर ।। १११॥

    सारे अवतारों को भक्तों का भाव पाने का अधिकार है। इससे बढ़कर अन्य कोई आनन्द नहीं है।

    मूल भक्त-अवतार श्री-सङ्कर्षण । भक्त-अवतार हँहि अद्वैते गणन ॥

    ११२॥

    मूल भक्त-अवतार संकर्षण हैं। श्री अद्वैत की गिनती ऐसे ही अवतारों में की जाती है।

    अद्वैत-आचार्य गोसाजिर महिमा अपार ।झाँहार हुङ्कारे कैल चैतन्यावतार ॥

    ११३॥

    श्री अद्वैत आचार्य की महिमाएँ अपार हैं, क्योंकि उनकी निष्ठावान हुंकार से ही इस पृथ्वी पर भगवान् श्री चैतन्य का अवतरण हो सका।

    सङ्कीर्तन प्रचारिया सब जगत्तारिल ।अद्वैत-प्रसादे लोक प्रेम-धन पाइल ॥

    ११४॥

    उन्होंने संकीर्तन के प्रचार द्वारा ब्रह्माण्ड का उद्धार किया। इस तरह श्री अद्वैत की कृपा से ही संसार के लोगों को भगवत्प्रेम रूपी खजाना प्राप्त हुआ।

    अद्वैत-महिमा अनन्त के पारे कहिते ।।सेइ लिखि, येइ शुनि महाजन हैते ॥

    ११५॥

    भला अद्वैत आचार्य की असीम महिमाओं का वर्णन कौन कर सकता है? यहाँ मैं वही लिख रहा हूँ, जैसा मैंने महापुरुषों से जाना है।

    आचार्य-चरणे मोर कोटि नमस्कार ।।इथे किछु अपराध ना लबे आमार ॥

    ११६॥

    मैं श्री अद्वैत आचार्य के चरणकमलों पर करोड़ों बार नमस्कार करता हूँ। कृपया इसमें अपराध न मानें।

    तोमार महिमा-कोटि-समुद्र अगाध ।।ताहार इयत्ता कहि,——ए बड़ अपराध ॥

    ११७॥

    आपकी महिमाएँ करोड़ों समुद्रों के समान अगाध हैं। इसकी माप की बात करना अवश्य ही महा-अपराध है।

    जय जय जय श्री-अद्वैत आचार्य ।जय जय श्री-चैतन्य, नित्यानन्द आर्म्य ॥

    ११८॥

    श्री अद्वैत आचार्य की जय हो, जय हो! श्री चैतन्य महाप्रभु तथा श्रेष्ठ श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो, जय हो! दुइ श्लोके कहिल अद्वैत-तत्त्व-निरूपण ।पञ्च-तत्त्वेर विचार किछु शुन, भक्त-गण ॥

    ११९॥

    इस तरह मैंने दो श्लोकों में अद्वैत आचार्य के तत्त्व का वर्णन किया है। हे भक्तों! अब पंचतत्त्वों के विषय में सुनिये।

    श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश ।।चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥

    १२०॥

    श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों पर प्रार्थना करते हुए, सदैव उनकी कृपा की कामना करते हुए मैं, कृष्णदास, उनके चरणचिह्नों पर चलते हुए श्री चैतन्य-चरितामृत कह रहा हूँ।

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    अध्याय सात: भगवान चैतन्य पाँच विशेषताओं में

    अगत्येक-गतिं नत्वा हीनार्थाधिक-साधकम् ।। श्री-चैतन्यं लिख्यतेऽस्य प्रेम-भक्ति-वदान्यता ॥

    १॥

    मैं सर्वप्रथम उन श्री चैतन्य महाप्रभु को सादर नमस्कार करता हूँ, जो इस भौतिक जगत् में समस्त प्रकार की सम्पत्ति से विहीन व्यक्ति के लिए जीवन के चरम लक्ष्य हैं और आध्यात्मिक जीवन में प्रगति करने वाले के लिए एकमात्र अर्थ हैं। इस तरह मैं उन भगवान् की प्रेममयी भक्ति के उदार योगदान के विषय में लिखने जा रहा हूँ।

    जय जय महाप्रभु श्री-कृष्ण-चैतन्य ।ताँहार चरणाश्रित, सेइ बड़े धन्य ॥

    २॥

    मैं भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु की जय-जयकार करता हूँ। जिसने उनके चरणकमलों की शरण ले रखी है, वह सर्वाधिक धन्य व्यक्ति है।

    पूर्वे गुर्वादि छय तत्त्वे कैल नमस्कार ।।गुरु-तत्त्व कहियाछि, एबे पाँचेर विचार ॥

    ३॥

    । मैं प्रारम्भ में गुरु-तत्त्व की व्याख्या कर चुका हूँ। अब मैं पंचतत्त्व की । विवेचना करने की चेष्टा करूंगा।

    पञ्च-तत्त्व अवतीर्ण चैतन्येर सङ्गे।।पञ्च-तत्त्व ला करेन सङ्कीर्तन रङ्गे ॥

    ४॥

    ये पाँचों तत्त्व श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ अवतरित होते हैं और इस तरह महाप्रभु अत्यन्त हर्षपूर्वक अपना संकीर्तन आन्दोलन सम्पन्न करते हैं।

    पञ्च-तत्त्व—एक-वस्तु, नाहि किछु भेद ।रस आस्वादिते तबु विविध विभेद ॥

    ५॥

    आध्यात्मिक दृष्टि से इन पाँच तत्त्वों में कोई अन्तर नहीं है, क्योंकि दिव्य धरातल पर सभी वस्तुएँ परम पूर्ण होती हैं। तथापि आध्यात्मिक जगत् में भी विविधता होती हैं और इन आध्यात्मिक विविधताओं का आस्वादन करने के लिए उनमें अन्तर करना आवश्यक होता है।

    पञ्च-तत्त्वात्मकं कृष्णं भक्त-रूप-स्वरूपकम् । भक्तावतारं भक्ताख्यं नमामि भक्त-शक्तिकम् ॥

    ६॥

    मैं उन भगवान् श्रीकृष्ण को नमस्कार करता हूँ जो भक्त, भक्त के विस्तार, भक्त के अवतार, शुद्ध भक्त और भक्त-शक्ति-इन पाँच रूपों में प्रकट हुए हैं।

    स्वयं भगवान्कृष्ण एकले ईश्वर । अद्वितीय, नन्दात्मज, रसिक-शेखर ॥

    ७॥

    समस्त आनन्द के आगार कृष्ण परम नियन्ता, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं। कोई न तो कृष्ण से बड़ा है न उनके तुल्य है, फिर भी वे महाराज नन्द के पुत्र के रूप में प्रकट होते हैं।

    रासादि-विलासी, व्रजललना-नागर । आर ग्रत सब देख, ताँर परिकर ॥

    ८ ॥

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण रासनृत्य के परम भोक्ता हैं। वे व्रज की बालाओं के नायक हैं और अन्य सारे मात्र उनके संगी हैं।

    सेइ कृष्ण अवतीर्ण श्री-कृष्ण-चैतन्य ।सेइ परिकर-गण सङ्गे सब धन्य ॥

    ९॥

    वे ही भगवान् कृष्ण अपने ही समान यशस्वी शाश्वत संगियों के साथ श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में अवतरित हुए।

    एकले ईश्वर-तत्त्व चैतन्य-ईश्वर । भक्त-भावमय ताँर शुद्ध कलेवर ॥

    १०॥

    परम नियन्ती श्री चैतन्य महाप्रभु एकमात्र भगवान् हैं, जो भावविभोर होकर भक्त बन गये हैं, फिर भी उनका शरीर दिव्य है और भौतिक रूप से कलुषित नहीं है।

    कृष्ण-माधुर्येर एक अद्भुत स्वभाव ।।आपना आस्वादिते कृष्ण करे भक्त-भाव ॥

    ११॥

    कृष्ण का दिव्य माधुर्य रस इतना अद्भुत है कि स्वयं कृष्ण इसका पूर्णतया आस्वादन करने के लिए भक्त का रूप धारण करते हैं।

    इथे भक्त-भाव धरे चैतन्य गोसाजि ।। 'भक्त-स्वरूप' ताँर नित्यानन्द-भाई ॥

    १२॥

    इसी कारण से परम शिक्षक श्री चैतन्य महाप्रभु भक्त का रूप स्वीकार करते हैं और भगवान् नित्यानन्द को अपने ज्येष्ठ भाई के रूप में स्वीकार करते हैं।

    'भक्त-अवतार' ताँर आचार्य-गोसाजि ।।एइ तिन तत्त्व सबे प्रभु करि' गाइ ॥

    १३॥

    । श्री अद्वैत आचार्य भगवान् चैतन्य के भक्त-अवतार हैं। इसलिए ये । तीनों तत्त्व ( चैतन्य महाप्रभु, नित्यानन्द प्रभु तथा अद्वैत गोसांई) आश्रय देने वाले या प्रभु हैं।

    एक महाप्रभु, आर प्रभु दुइजन ।।दुइ प्रभु सेवे महाप्रभुर चरण ॥

    १४॥

    उनमें से एक महाप्रभु हैं और अन्य दो प्रभु हैं। ये दोनों प्रभु महाप्रभु के चरणकमलों की सेवा करते हैं।

    एइ तिन तत्त्व, ‘सर्वाराध्य' करि मानि ।।चतुर्थ ये भक्त-तत्त्व,–'आराधक' जानि ॥

    १५ ॥

    ये तीन तत्त्व (चैतन्य महाप्रभु, नित्यानन्द प्रभु तथा अद्वैत प्रभु) सभी जीवों द्वारा पूजनीय हैं और चौथे तत्त्व ( श्री गदाधर प्रभु) उनके आराधक अर्थात् पूजक माने जाते हैं।

    श्रीवासादि ग्रत कोटि कोटि भक्त-गण ।।‘शुद्ध-भक्त'-तत्त्व-मध्ये ताँ-सबार गणन ॥

    १६॥

    भगवान् के शुद्ध भक्त असंख्य हैं, जिनमें श्रीवास ठाकुर प्रमुख हैं। । ये सभी शुद्ध भक्त कहलाते हैं।

    गदाधर-पण्डितादि प्रभुर 'शक्ति'-अवतार । ‘अन्तरङ्ग-भक्त' करि' गणन याँहार ॥

    १७॥

    गदाधर पंडित इत्यादि भक्तों को भगवान् की अंतरंगा शक्ति का अवतार मानना चाहिए। वे भगवान् की सेवा में लगे हुए अन्तरंग भक्त हैं।

    याँ-सबा ला प्रभुर नित्य विहार ।। याँ-सबा लञा प्रभुर कीर्तन-प्रचार ॥

    १८॥

    याँ-सबा लञा करेन प्रेम आस्वादन ।। याँ-सबा ला दान करे प्रेम-धन ॥

    १९॥

    अन्तरंग भक्त या शक्ति-समूह भगवान् की लीलाओं में नित्य संगी होते हैं। भगवान् केवल उन्हीं के साथ संकीर्तन आन्दोलन के प्रसार हेतु अवतरित होते हैं, उन्हीं के साथ वे माधुर्य रस का आस्वादन करते हैं और केवल उन्हीं के साथ वे जनसामान्य को इस भगवत्प्रेम का वितरण करते है।

    सेइ पञ्च-तत्त्व मिलि' पृथिवी आसिया । पूर्व-प्रेमभाण्डारेर मुद्रा उघाड़िया ॥

    २० ॥

    पाँचे मिलि लुटे प्रेम, करे आस्वादन ।ग्रत व्रत पिये, तृष्णा बाढ़े अनुक्षण ॥

    २१॥

    कृष्ण के गुण दिव्य प्रेम के आगार माने जाते हैं। जब कृष्ण विद्यमान थे, तब यह प्रेम का आगार निश्चय ही उनके साथ आया था, किन्तु वह पूरी तरह से सीलबन्द था। किन्तु जब श्री चैतन्य महाप्रभु अपने पंचतत्त्व के संगियों के साथ आये, तो उन्होंने दिव्य कृष्ण-प्रेम का आस्वादन करने के लिए कृष्ण के दिव्य प्रेमागार की सील तोड़कर उसे लूट लिया। वे ज्यों-ज्यों उसका आस्वादन करते गये, त्यों-त्यों और अधिक आस्वादन करने की उनकी तृष्णा बढ़ती ही गई।

    पुनः पुनः पियाइया हय महामत्त । नाचे, कान्दे, हासे, गाय, भैछे मद-मत्त ॥

    २२ ॥

    स्वयं श्री पंचतत्त्वों ने पुनः पुनः नाचकर इस तरह भगवत्प्रेम रूपी अमृत को पीना सुगम बनाया। वे नाचते, रोते, हँसते और गाते थे, मानो उन्मत्त हों और इस तरह उन्होंने भगवत्प्रेम का वितरण किया।

    पात्रापात्र-विचार नाहि, नाहि स्थानास्थान ।येइ याँहा पाय, ताँहा करे प्रेम-दान ॥

    २३ ॥

    भगवत्प्रेम का वितरण करते समय श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनके संगियों ने कभी यह विचार नहीं किया कि कौन सुपात्र है और कौन नहीं है, इसका वितरण कहाँ किया जाये और कहाँ नहीं। उन्होंने कोई शर्त नहीं रखी। जहाँ कहीं भी अवसर मिला, पंचतत्त्व के सदस्यों ने भगवत्प्रेम का वितरण किया।

    लुटिया, खाइया, दिया, भाण्डार उजाड़े। आश्चर्य भाण्डार, प्रेम शत-गुण बाड़े ॥

    २४॥

    यद्यपि पंचतत्त्व के सदस्यों ने भगवत्प्रेम के भण्डार को लूटा और इसकी सामग्री का आस्वादन किया तथा उसे बाँट दिया, फिर भी उसमें कोई कमी नहीं हुई, क्योंकि यह अद्भुत भण्डार इतना भरा-पूरा है कि ज्यों-ज्यों प्रेम का वितरण किया जाता है, त्यों-त्यों इसकी आपूर्ति सैकड़ों गुना बढ़ जाती है।

    उछलिल प्रेम-वन्या चौदिके वेड़ाय ।। स्त्री, वृद्ध, बालक, ब्रुवा, सबारे डुबाय ॥

    २५॥

    भगवत्प्रेम की बाढ़ से सारी दिशाएँ आप्लावित होने लगीं और इस तरह से युवक, वृद्ध, स्त्रियाँ तथा बच्चे उस बाढ़ में डूबने लगे।

    सज्जन, दुर्जन, पङ्गु, जड़, अन्ध-गण । प्रेम-वन्याय डुबाइल जगतेर जन ॥

    २६॥

    कृष्णभावनामृत आन्दोलन सारे विश्व को आप्लावित कर देगा और हर एक को डुबा देगा, चाहे वह भद्र व्यक्ति हो, या धूर्त, लँगड़ा या अशक्त अथवा अंधा।

    जगत्डुबिल, जीवेर हैल बीज नाश । ताहा देखि पाँच जनेर परम उल्लास ॥

    २७॥

    । जब पंचतत्त्व के पाँच सदस्यों ने देखा कि सारा संसार भगवत्प्रेम में डूब चुका है और जीवों में भौतिक भोग का बीज पूरी तरह नष्ट हो चुका है, तो वे सभी अत्यधिक प्रसन्न हुए।

    यते यत प्रेम-वृष्टि करे पञ्च-जने ।। तत तत बाढ़े जल, व्यापे त्रि-भुवने ॥

    २८॥

    पंचतत्त्व के पाँचों सदस्य भगवत्प्रेम की जितनी अधिक वृष्टि कराते हैं, उतनी ही अधिक बाढ़ बढ़ती जाती है और वह सारे विश्व में परिव्याप्त हो जाती है।

    मायावादी, कर्म-निष्ठ कुतार्किक-गण । निन्दक, पाषण्डी ग्रत पडूया अधम ॥

    २९॥

    सेइ सब महादक्ष धाआ पलाइल । सेइ वन्या ता-सबारे छुड़िते नारिल ॥

    ३०॥

    मायावादी, सकाम कर्मी, छद्म तार्किक, निन्दा करने वाले, अभक्त तथा निम्न श्रेणी के विद्यार्थी कृष्णभावनामृत आन्दोलन से दूर रहने में बड़े दक्ष होते हैं, अतएव कृष्णभावनामृत की बाढ़ उनका स्पर्श नहीं कर पाती।

    ताहा देखि' महाप्रभु करेन चिन्तन ।। जगत्डुबाइते आमि करिलँ व्रतन ॥

    ३१॥

    केह केह एड़ाइल, प्रतिज्ञा हइल भङ्ग ।। ता-सबी डुबैते पातिब किछु रङ्ग ॥

    ३२॥

    यह देखकर कि मायावादी तथा अन्य लोग पलायन कर रहे हैं, चैतन्य महाप्रभु ने सोचा, “मेरी इच्छा थी कि प्रत्येक व्यक्ति भगवत्प्रेम की इस बाढ़ में डूब जाए, किन्तु उनमें से कुछ लोग भाग निकले हैं। अतएव मैं उन्हें भी डुबाने का कोई उपाय निकालूंगा।

    एत बलि' मने किछु करिया विचार ।।सन्यास-आश्रम प्रभु कैला अङ्गीकार ॥

    ३३॥

    इस प्रकार महाप्रभु ने पूरी तरह विचार करने के बाद संन्यास आश्रम ग्रहण किया।

    चब्बिश वत्सर छिला गृहस्थ-आश्रमे । पञ्च-विंशति वर्षे कैल ग्रति-धर्मे ॥

    ३४॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु चौबीस वर्षों तक गृहस्थ जीवन में रहे और पच्चीसवें वर्ष के आरम्भ में उन्होंने संन्यास आश्रम स्वीकार कर लिया।

    सन्यास करिया प्रभु कैला आकर्षण ।।ग्रतेक पालााछिल तार्किकादिगण ।। ३५ ।। संन्यास आश्रम स्वीकार कर लेने पर श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन सबका ध्यान आकृष्ट किया, जो उनसे बचते फिरते थे, जिनमें से तार्किक लोग प्रमुख थे।

    पडुया, पाषण्डी, कर्मी, निन्दकादि व्रत ।।तारा आसि' प्रभु-पाय हय अवनत ॥

    ३६॥

    इस प्रकार विद्यार्थी, पाखण्डी, सकाम कर्मी तथा आलोचक-ये सभी भगवान् के चरणकमलों में आ-आकर आत्मसमर्पण करने लगे।

    अपराध क्षमाइल, डुबिल प्रेम-जले ।।केबा एड़ाइबे प्रभुर प्रेम-महाजाले ॥

    ३७॥

    । श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन सबको क्षमा प्रदान की और वे सभी भक्ति के सागर में निमग्न हो गये, क्योंकि ऐसा कोई भी नहीं था, जो श्री चैतन्य महाप्रभु के अद्वितीय प्रेम रूपी जाल से बच सके।

    सबा निस्तारिते प्रभु कृपा-अवतार । सबा निस्तारिते करे चातुरी अपार ॥

    ३८॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु समस्त पतितात्माओं का उद्धार करने के लिए प्रकट हुए। अतएव उन्होंने उन्हें माया के प्रभाव से मुक्त कराने के लिए अनेक उपाय ढूंढ निकाले।।

    तबे निज भक्त कैल व्रत म्लेच्छ आदि ।। सबे एड़ाइल मात्र काशीर मायावादी ॥

    ३९॥

    सभी लोग, यहाँ तक कि म्लेच्छ तथा यवन भी श्री चैतन्य महाप्रभु के भक्त बना लिए गये। केवल शंकराचार्य के निर्विशेषवादी अनुयायी (मायावादी ) ही उनसे बचते रहे।

    वृन्दावन ग्राइते प्रभु रहिला काशीते ।। मायावादि-गण तारे लागिल निन्दिते ॥

    ४०॥

    जब श्री चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन जाते समय वाराणसी से होकर गुजर रहे थे, तो मायावादी संन्यासी दार्शनिकों ने अनेक प्रकार से उनकी निन्दा की।

    सन्यासी हइया करे गायन, नाचन ।।ना करे वेदान्त-पाठ, करे सङ्कीर्तन ॥

    ४१॥

    (निंदकों ने कहा :) संन्यासी होकर भी वह वेदान्त के अध्ययन में रुचि नहीं लेता, किन्तु इसके बदले नाचने और संकीर्तन करने में सदैव लगा रहता है।

    मूर्ख सन्यासी निज-धर्म नाहि जने । भावुक हइया फेरे भावुकेर सने ॥

    ४२॥

    यह चैतन्य महाप्रभु तो अनपढ़ संन्यासी है, अतएव वह अपने वास्तविक कर्म को नहीं जानता। वह मात्र भावों में बहकर अन्य भावुकों के साथ इधर-उधर घूमता रहता है।

    ए सब शुनिया प्रभु हासे मने मने ।।उपेक्षा करिया कारो ना कैल सम्भाषणे ॥

    ४३॥

    ये सारी निन्दा सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु मन में हँसने लगे। इन सारे दोषारोपणों को अस्वीकार करते हुए उन्होंने मायावादियों से बात नहीं की।

    उपेक्षा करिया कैल मथुरा गमन । मथुरा देखिया पुनः कैल आगमन ॥

    ४४॥

    । इस प्रकार वाराणसी-मायावादियों की निन्दा की उपेक्षा करते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु मथुरा की ओर आगे बढ़े और मथुरा जाने के बाद वे पुनः उस स्थिति का सामना करने के लिए लौट आये।

    काशीते लेखक शूद्र-श्रीचन्द्रशेखर ।। ताँर घरे रहिला प्रभु स्वतन्त्र ईश्वर ॥

    ४५॥

    इस बार श्री चैतन्य महाप्रभु चन्द्रशेखर नामक शूद्र या कायस्थ के घर पर रुके, क्योंकि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के रूप में वे पूर्णतया स्वतन्त्र हैं।

    तपन-मिश्रेर घरे भिक्षा-निर्वाहण ।। सन्यासीर सङ्गे नाहि माने निमन्त्रण ॥

    ४६॥

    । सैद्धान्तिक तौर पर श्री चैतन्य महाप्रभु तपन मिश्र के घर पर भोजन करते थे। वे न तो अन्य संन्यासियों से मिलते-जुलते थे, न ही उनका निमंत्रण स्वीकार करते थे।

    सनातन गोसाञि आसि' ताँहाइ मिलिला ।।ताँर शिक्षा लागि' प्रभु दु-मास रहिला ॥

    ४७॥

    जब सनातन गोस्वामी बंगाल से आये, तो वे श्री चैतन्य महाप्रभु से तपन मिश्र के ही घर पर मिले थे, जहाँ श्री चैतन्य महाप्रभु उन्हें भक्ति की शिक्षा देने के लिए लगातार दो मास तक रहे थे।

    ताँरै शिखाइला सब वैष्णवेर धर्म ।।भागवत-आदि शास्त्रेर व्रत गूढ़ मर्म ॥

    ४८॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु ने गूढ़ निर्देशों को प्रकट करने वाले श्रीमद्भागवत जैसे शास्त्रों के आधार पर सनातन गोस्वामी को भक्त के सभी नियमित कार्यों के विषय में शिक्षा दी।

    इतिमध्ये चन्द्रशेखर, मिश्र-तपन ।दुःखी हा प्रभु-पाय कैल निवेदन ॥

    ४९॥

    जब श्री चैतन्य महाप्रभु सनातन गोस्वामी को उपदेश दे रहे थे, तो चन्द्रशेखर तथा तपन मिश्र दोनों ही अत्यन्त दुःखी हुए। अतएव उन्होंने भगवान् के चरणों में एक निवेदन किया।

    कतेक शुनिब प्रभु तोमार निन्दन ।नो पारि सहिते, एबे छाड़िब जीवन ॥

    ५० ॥

    हम लोग कब तक आपके आचरण का विरोध करने वाले इन आलोचकों द्वारा की जा रही निन्दा को सहन करें? ऐसी निन्दा सुनने से तो यही अच्छा होगा कि हम अपने प्राण त्याग दें।

    तोमारे निन्दये व्रत सन्यासीर गण ।।शुनिते ना पारि, फाटे हृदय-श्रवण ॥

    ५१॥

    सारे मायावादी संन्यासी आपकी आलोचना कर रहे हैं। हम ऐसी आलोचना सहन नहीं कर सकते, क्योंकि यह निन्दा हमारे हृदयों को विदीर्ण कर रही है।

    इहा शुनि रहे प्रभु ईषत् हासिया।। सेइ काले एक विप्र मिलिल आसिया ॥

    ५२॥

    जब तपन मिश्र तथा चन्द्रशेखर इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु से बातें कर रहे थे, तो वे थोड़ा मुसकाये और मौन रहे। उसी समय एक ब्राह्मण उनसे मिलने आया।

    आसि' निवेदन करे चरणे धरिया ।। एक वस्तु मागों, देह प्रसन्न हइया ॥

    ५३॥

    वह ब्राह्मण तुरन्त ही श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों पर गिर पड़ा और प्रार्थना करने लगा कि वे प्रसन्न होकर उसके प्रस्ताव को स्वीकार करें।

    सकल सन्यासी मुञि कैनु निमन्त्रण ।तुमि यदि आइस, पूर्ण हय मोर मन ॥

    ५४॥

    हे प्रभु, मैंने बनारस के सारे संन्यासियों को अपने घर पर आमन्त्रित किया है। यदि आप मेरा निमन्त्रण स्वीकार कर लें, तो मेरी इच्छा पूर्ण हो जायेगी।

    ना ग्राह सन्यासि-गोष्ठी, इहा आमि जानि ।मोरे अनुग्रह कर निमन्त्रण मानि' ॥

    ५५॥

    “हे प्रभु, मैं जानता हूँ कि आप अन्य संन्यासियों से कभी मिलतेजुलते नहीं हैं, किन्तु आप कृपया मुझ पर दयालु हों और मेरा निमन्त्रण स्वीकार करें।

    प्रभु हासि' निमन्त्रण कैल अङ्गीकार ।सन्यासीरे कृपा लागि' ए भङ्गी ताँहार ॥

    ५६॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु ने हँसते हुए उस ब्राह्मण का निमन्त्रण स्वीकार कर लिया। उन्होंने मायावादी संन्यासियों पर कृपा प्रदर्शित करने के लिए ही ऐसी चेष्टा की।

    से विप्र जानेन प्रभु ना ग्रान कार घरे ।।ताँहार प्रेरणाय ताँरे अत्याग्रह करे ॥

    ५७॥

    वह ब्राह्मण जानता था कि भगवान् चैतन्य महाप्रभु कभी किसी अन्य के घर नहीं गये, फिर भी भगवान् से प्रेरित होकर उसने उनसे सच्चे हृदय से प्रार्थना की कि वे उसके इस निमन्त्रण को स्वीकार कर लें।

    आर दिने गेला प्रभु से विप्र-भवने ।।देखिलेन, वसियाछेन सन्यासीर गणे ॥

    ५८॥

    अगले दिन जब भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु उस ब्राह्मण के घर गये, तो उन्होंने वहाँ पर बनारस के सारे संन्यासियों को बैठे देखा।

    सबा नमस्करि' गेला पाद-प्रक्षालने ।पाद प्रक्षालन करि वसिला सेइ स्थाने ॥

    ५९॥

    ज्योंही श्री चैतन्य महाप्रभु ने सारे संन्यासियों को देखा, त्योंही उन्होंने सबको नमस्कार किया और तब वे अपने पाँव धोने चले गये। पाँव धोने के बाद वे उसी स्थान पर बैठ गये।

    वसिया करिला किछु ऐश्वर्य प्रकाश ।। महातेजोमय वपु कोटि-सूर्याभास ॥

    ६० ॥

    भूमि पर बैठने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान तेज प्रकट करके अपनी योग-शक्ति का प्रदर्शन किया।

    प्रभावे आकर्षिल सब सन्यासीर मन ।। उठिल सन्यासी सब छाड़िया आसन ॥

    ६१॥

    जब सारे संन्यासियों ने श्री चैतन्य महाप्रभु के शरीर का तेजोमय प्रकाश देखा, तो उनके चित्त आकृष्ट हो गये। वे सभी तुरन्त अपना आसन छोड़कर सम्मान में खड़े हो गये।

    प्रकाशानन्द-नामे सर्व सन्यासि-प्रधान ।प्रभुके कहिल किछु करिया सम्मान ॥

    ६२॥

    उन सारे मायावादी संन्यासियों के मुखिया (अग्रणी) का नाम प्रकाशानन्द सरस्वती था। उसने खड़े होकर बड़े ही सम्मान के साथ श्री चैतन्य महाप्रभु को इस प्रकार सम्बोधित किया।

    इहाँ आइस, इहाँ आइस, शुनह श्रीपाद ।।अपवित्र स्थाने वैस, किबा अवसाद ॥

    ६३॥

    हे श्रीपाद, कृपया यहाँ आइये। कृपया यहाँ आइये। आप उसे अपवित्र स्थान में क्यों बैठे हैं? आप के शोक का कारण क्या है? प्रभु कहे,—आमि हइ हीन-सम्प्रदाय ।। तोमा-सबार सभाय वसिते ना युयाय ॥

    ६४॥

    । श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, मैं निम्न कोटि का संन्यासी हूँ। अतएव मैं आप लोगों के साथ बैठने के योग्य नहीं हूँ।

    आपने प्रकाशानन्द हातेते धरियो । वसाइला सभा-मध्ये सम्मान करिया ॥

    ६५॥

    किन्तु प्रकाशानन्द सरस्वती ने स्वयं श्री चैतन्य महाप्रभु का हाथ पकड़कर बड़े ही सम्मान के साथ उन्हें सभा के मध्य में बैठाया।

    पुछिल, तोमार नाम 'श्री-कृष्ण-चैतन्य' ।।केशव-भारतीर शिष्य, ताते तुमि धन्य ॥

    ६६॥

    तब प्रकाशानन्द सरस्वती ने कहा, मेरी समझ में आपका नाम श्रीकृष्ण चैतन्य है। आप तो श्री केशव भारती के शिष्य हैं और इसीलिए आप धन्य हैं।

    साम्प्रदायिक सन्यासी तुमि, रह एइ ग्रामे ।। कि कारणे आमा-सबार ना कर दर्शने ॥

    ६७॥

    आप तो हमारे शंकर सम्प्रदाय के हैं और हमारे गाँव वाराणसी में रहते हैं। तो फिर आप हम लोगों का संग क्यों नहीं करते? आप हमसे मिलने से भी क्यों कतराते हैं? सन्यासी हइया कर नर्तन-गायन ।भावुक सब सङ्गे ला कर सङ्कीर्तन ॥

    ६८॥

    आप तो संन्यासी हैं, तो फिर भावुकों के साथ अपने संकीर्तन आन्दोलन में कीर्तन करने और नाचने में क्यों लगे रहते हैं? वेदान्त-पठन, ध्यान, सन्यासीर धर्म ।। ताहा छाड़ि' कर केने भावुकेर कर्म ॥

    ६९॥

    ध्यान तथा वेदान्त-अध्ययन-ये ही संन्यासी के एकमात्र कर्तव्य हैं। आप इन भावुकों के साथ नाचने के लिए इन कर्तव्यों का त्याग क्यों कर देते हैं? प्रभावे देखिये तोमा साक्षात्लारायण ।। हीनाचार कर केने, इथे कि कारण ॥

    ७० ॥

    आप स्वयं नारायण के समान तेजवान लगते हैं। क्या आप इसका कारण बता सकते हैं कि आपने निम्न वर्ग के लोगों जैसा आचरण क्यों अपना रखा है? प्रभु कहे—शुन, श्रीपाद, इहार कारण ।। गुरु मोरे मूर्ख देखि' करिल शासन ॥

    ७१॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु ने श्री प्रकाशानन्द सरस्वती को उत्तर दिया, मान्यवर, कृपया इसका कारण सुनिये। मेरे गुरुदेव ने मुझे एक मूर्ख समझकर मेरी भत्र्सना की।

    मूर्ख तुमि, तोमार नाहिक वेदान्ताधिकार ।। ‘कृष्ण-मन्त्र जप सदा,——एई मन्त्र-सार ॥

    ७२॥

    उन्होंने कहा, 'तुम मूर्ख हो। तुम वेदान्त-दर्शन का अध्ययन करने के योग्य नहीं हो; अतएव तुम्हें चाहिए कि तुम सदैव कृष्ण नाम का जप करो। यह समस्त मन्त्रों या वैदिक स्तोत्रों का सार है।

    कृष्ण-मन्त्र हैते हबे संसार-मोचन ।। कृष्ण-नाम हैते पाबे कृष्णेर चरण ॥

    ७३॥

    । कृष्ण के पवित्र नाम के कीर्तन मात्र से मनुष्य को भौतिक संसार से छुटकारा मिल सकता है। निस्सन्देह, केवल हरे-कृष्ण मन्त्र का कीर्तन करने से उसे भगवान् के चरणकमलों के दर्शन हो सकते हैं।

    नाम विनु कलि-काले नाहि आर धर्म ।सर्व-मन्त्र-सार नाम, एइ शास्त्र-मर्म ॥

    ७४॥

    इस कलियुग में भगवन्नाम के कीर्तन से बढ़कर अन्य कोई धर्म नहीं। है, क्योंकि यह समस्त वैदिक स्तोत्रों का सार है। यही सारे शास्त्रों का तात्पर्य है।'

    एत बलि' एक श्लोक शिखाइल मोरे ।। कण्ठे करि' एई श्लोक करिह विचारे ॥

    ७५ ॥

    हरे कृष्ण महामन्त्र की शक्ति का वर्णन करने के बाद मेरे गुरु ने मुझे दूसरा श्लोक सिखाया और मुझे यह उपदेश दिया कि मैं इसे सदैव अपने कण्ठ के भीतर रखें।

    हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् । कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ॥

    ७६॥

    इस कलियुग में आध्यात्मिक उन्नति के लिए हरिनाम, हरिनाम, हरिनाम के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है, अन्य कोई विकल्प नहीं है, अन्य कोई विकल्प नहीं है।'

    एइ आज्ञा पाञा नाम लई अनुक्षण ।। नाम लेते लैते मोर भ्रान्त हैल मन ॥

    ७७ ।। चूंकि मुझे अपने गुरु से यह आदेश मिला है, अतएव मैं पवित्र नाम का सदैव जप करता हूँ। किन्तु मैं सोचता हूँ कि पवित्र नाम का बार बार जप-कीर्तन करते करते मैं मोहग्रस्त हो गया हूँ।

    धैर्य धरिते नारि, हैलाम उन्मत्त ।हासि, कान्दि, नाचि, गाइ, ग्रैछे मदमत्त ॥

    ७८ ॥

    शुद्ध भावावेश में भगवन्नाम का कीर्तन करते हुए मैं अपने आपको भूल जाता हूँ। इस प्रकार मैं पागल की तरह हँसता, रोता, नाचता और गाता हूँ।

    तबे धैर्य धरि' मने करिहुँ विचार ।कृष्ण-नामे ज्ञानाच्छन्न हद्दल आमार ॥

    ७९॥

    इसलिए धैर्य धारण करके मैं सोचने लगा कि कृष्ण के पवित्र नाम के कीर्तन ने मेरे समस्त आध्यात्मिक ज्ञान को आच्छादित कर लिया है।

    पागल हइलाँ आमि, धैर्य नाहि मने ।। एत चिन्ति' निवेदिलु गुरुर चरणे ॥

    ८० ॥

    मैंने देखा कि पवित्र नाम का कीर्तन करने से मैं पागल हो गया हूँ, तो मैंने तुरन्त ही अपने गुरु के चरणकमलों में निवेदन किया।

    किबा मन्त्र दिला, गोसाजि, किबा तार बल । जपिते जपिते मन्त्र करिल पागले ॥

    ८१॥

    हे प्रभु, आपने मुझे कैसा मन्त्र दिया है? मैं तो इस महामन्त्र का कीर्तन करने मात्र से पागल हो गया हूँ।

    हासाय, नाचाय, मोरे कराय क्रन्दन ।।एत शुनि' गुरु हासि बलिला वचन ॥

    ८२॥

    भाववश पवित्र भगवन्नाम का कीर्तन करने से मैं नाचने, हँसने और रोने लगता हूँ।' जब मेरे गुरु ने यह सब सुना, तो वे हँसने लगे और मुझसे बोले।

    कृष्ण-नाम-महा-मन्त्रेर एइ त' स्वभाव । येइ जपे, तार कृष्णे उपजये भाव ॥

    ८३॥

    यह हरे कृष्ण महामन्त्र का स्वभाव है कि जो भी इसका कीर्तन करता है, उसमें तुरन्त ही कृष्ण के लिए प्रेमपूर्ण भाव उत्पन्न हो जाता है।

    कृष्ण-विषयक प्रेमा-परम पुरुषार्थ ।।ग्रार आगे तृण-तुल्य चारि पुरुषार्थ ॥

    ८४॥

    धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष ये जीवन के चार पुरुषार्थ के रूप में जाने जाते हैं, किन्तु भगवत्प्रेम के समक्ष, जो कि पाँचवाँ तथा सर्वोच्च पुरुषार्थ है, ये चारों पुरुषार्थ मार्ग में पड़े तृण के समान तुच्छ प्रतीत होते हैं।

    पञ्चम पुरुषार्थ—प्रेमानन्दामृत-सिन्धु ।मोक्षादि आनन्द ग्रार नहे एक बिन्दु ॥

    ८५॥

    जिस भक्त में भाव का सचमुच विकास हो चुका होता है, उसे धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष से प्राप्त होने वाला आनन्द समुद्र की तुलना में एक बूंद जैसा लगता है।

    कृष्ण-नामेर फल-‘प्रेमा', सर्व-शास्त्रे कय ।भाग्ये सेइ प्रेमा तोमार्य करिल उदय ॥

    ८६॥

    । सभी प्रामाणिक शास्त्रों का यह निर्णय है कि मनुष्य को अपना सुप्त भगवत्प्रेम जागृत करना चाहिए। तुमने पहले से ऐसा कर लिया है, इसलिए तुम अतीव भाग्यशाली हो।

    प्रेमार स्वभावे करे चित्त-तनु क्षोभ ।कृष्णेर चरण-प्राप्त्ये उपजाय लोभ ॥

    ८७॥

    भगवत्प्रेम की यह विशेषता है कि स्वभाववश यह मनुष्य के शरीर में दिव्य लक्षण उत्पन्न करता है और उसे भगवान् के चरणकमलों की शरण प्राप्त करने के लिए अधिकाधिक लोभी बना देता है।

    प्रेमार स्वभावे भक्त हासे, कान्दे, गाय ।उन्मत्त हइया नाचे, इति-उति धाय ॥

    ८८॥

    जब मनुष्य में सचमुच भगवत्प्रेम उत्पन्न हो जाता है, तो वह स्वभावत: कभी रोता है, कभी हँसता है, कभी गाता है और कभी पागल की तरह इधर-उधर दौड़ता फिरता है।

    स्वेद, कम्प, रोमाञ्चाश्रु, गद्गद, वैवर्य । उन्माद, विषाद, धैर्य, गर्व, हर्ष, दैन्य ॥

    ८९॥

    एत भावे प्रेमा भक्तगणेरे नाचाय ।कृष्णेर आनन्दामृत-सागरे भासाय ॥

    ९० ॥

    पसीना, कँपकँपी, रोओं का खड़ा होना, आँसू, वाणी का अवरोध, पीला पड़ना, पागलपन, विषाद, धैर्य, गर्व, हर्ष तथा दीनता-ये भगवत्प्रेम के विविध प्राकृतिक लक्षण हैं, जो भक्त को हरे कृष्ण मन्त्र के कीर्तन करते समय दिव्य आनन्द के सागर में नचाते और तैराते हैं।

    भाल हैल, पाइले तुमि परम-पुरुषार्थ ।।तोमार प्रेमेते आमि हैलाँ कृतार्थ ॥

    ९१॥

    हे पुत्र, यह तो अच्छा हुआ कि तुमने भगवत्प्रेम विकसित करके जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त कर लिया है। इस तरह तुमने मुझे अत्यधिक प्रसन्न कर लिया है और मैं तुम्हारा अत्यन्त कृतज्ञ हूँ।

    नाच, गाओ, भक्त-सङ्गे कर सङ्कीर्तन ।।कृष्ण-नाम उपदेशि' तार' सर्व-जन ॥

    ९२ ॥

    हे पुत्र, भक्तों के साथ तुम नृत्य और कीर्तन करना चालू रखो। बाहर जाकर कृष्ण नाम-कीर्तन के महत्व का प्रचार करो, क्योंकि इस विधि से तुम सारे पतितात्माओं का उद्धार कर सकोगे।'

    एत बलि' एक श्लोक शिखाइल मोरे ।।भागवतेर सार एई—बले वारे वारे ॥

    ९३॥

    यह कहकर मेरे गुरु ने मुझे श्रीमद्भागवत का एक श्लोक सिखलाया। यह सम्पूर्ण भागवत की शिक्षाओं का सार है; अतएव उन्होंने मुझे इस श्लोक को बारम्बार सुनाया।

    एवं-व्रतः स्व-प्रिय-नाम-कीर्त्या जातानुरागो द्रुत-चित्त उच्चैः । हसत्यथो रोदिति रौति गायत्य् उन्माद-वन्नृत्यति लोक-बाह्यः ॥

    ९४॥

    जब कोई व्यक्ति वास्तव में उन्नत होता है और अपने प्रिय भगवान् के नाम का कीर्तन करने में रुचि लेता है, तो वह विक्षुब्ध हो उठता है और ऊँचे स्वर से पवित्र नाम का कीर्तन करने लगता है। वह हँसता भी है और रोता भी है और पागल की तरह दूसरों की परवाह न करते हुए कीर्तन भी करता है।'

    एइ ताँर वाक्ये आमि दृढ़ विश्वास धरि' । निरन्तर कृष्ण-नाम सङ्कीर्तन करि ॥

    ९५ ॥

    सेइ कृष्ण-नाम कभु गाओयाय, नाचाय ।। गाहि, नाचि नाहि आमि आपन-इच्छाय ॥

    ९६ ॥

    मुझे अपने गुरु के इन वचनों पर दृढ़ विश्वास है, अतएव मैं एकान्त में तथा भक्तों के संग में सदैव भगवन्नाम का कीर्तन करता हूँ। भगवान् कृष्ण का वही पवित्र नाम कभी-कभी मुझे नचाता है और गायन कराता है। इसीलिए मैं नाचता और गाता हूँ। कृपया ऐसा न सोचें कि मैं जानबूझकर ऐसा करता हूँ। यह अपने आप होता है।

    कृष्ण-नामे ये आनन्द-सिन्धु-आस्वादन ।।ब्रह्मानन्द तारे आगे खातोदक-सम ॥

    ९७॥

    । । हरे कृष्ण मन्त्र के कीर्तन से जिस दिव्य आनन्द सिन्धु का आस्वादन होता है, उसकी तुलना में निर्विशेष ब्रह्म के साक्षात्कार से प्राप्त होने वाला आनन्द (ब्रह्मानन्द) नहर के अल्प छीछले जल के समान है।

    त्वत्साक्षात्करणाह्लाद-विशुद्धाब्धि-स्थितस्य मे ।।सुखानि गोष्पदायन्ते ब्राह्माण्यपि जगद्गुरो ॥

    १८॥

    हे प्रभु! हे ब्रह्माण्ड के स्वामी! चूंकि मैंने आपका साक्षात् दर्शन किया है, इसलिए मेरा दिव्य आनन्द सागर के समान हो गया है। अब उस सागर में स्थित मैं अन्य तथाकथित आनन्द को बछड़े के खुर की छाप में समाये जल की भाँति अनुभव करता हूँ।

    प्रभुर मिष्ट-वाक्य शुनि' सन्यासीर गण।चित्त फिरि' गेल, कहे मधुर वचन ॥

    ९९॥

    । श्री चैतन्य महाप्रभु की मधुर वाणी सुनकर सारे मायावादी संन्यासी प्रभावित हो उठे। उनके चित्त बदल गये और उन्होंने मीठी वाणी में कहा।

    ये किछु कहिले तुमि, सब सत्य हय ।।कृष्ण-प्रेमा सेइ पाय, यार भाग्योदय ॥

    १०० ॥

    प्रिय चैतन्य महाप्रभु, आपने जो भी कहा है, वह सब सच है। जिसके ऊपर भाग्य की कृपा होती है, उसे ही भगवत्प्रेम प्राप्त होता है।

    कृष्ण भक्ति कर—इहाय सबार सन्तोष ।वेदान्त ना शुन केने, तार किबा दोष ॥

    १०१॥

    हे महोदय, आपके कृष्ण के भक्त होने में हमें कोई आपत्ति नहीं है। हममें से हर कोई इससे सन्तुष्ट है। किन्तु आप वेदान्त-सूत्र पर विचारविमर्श करने से क्यों कतराते हैं? इसमें क्या दोष है? एत शुनि' हासि' प्रभु बलिला वचन । दुःख ना मानह ग्रदि, करि निवेदन ॥

    १०२॥

    । मायावादी संन्यासियों को इस प्रकार बोलते हुए सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु थोड़ा मुस्काये और बोले, हे महाशयों, यदि आप बुरा न मानें तो मैं वेदान्त दर्शन के सम्बन्ध में कुछ कहूँ। गम्भीर जिज्ञासु या मुनि जो ज्ञान तथा वैराग्य से युक्त होता है, वह वेदान्त-श्रुति से सुनने के आधार पर सम्पन्न की जाने वाली भक्तिमय सेवा से ही परम सत्य की अनुभूति करता है।

    इहा शुनि' बले सर्व सन्यासीर गण ।तोमाके देखिये ट्रैछे साक्षालारायण ॥

    १०३॥

    यह सुनकर मायावादी संन्यासी कुछ नम्र हुए और उन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु को साक्षात् नारायण के रूप में सम्बोधित किया और स्वीकार किया कि वे सचमुच नारायण हैं।

    तोमार वचन शुनि' जुड़ाय श्रवण ।।तोमार माधुरी देखि' जुड़ाय नयन ॥

    १०४॥

    उन्होंने कहा, हे चैतन्य महाप्रभु, सच बात तो यह है कि हम आपके वचन सुनकर अत्यधिक प्रसन्न हैं और इसके अतिरिक्त आपका शारीरिक स्वरूप इतना मोहक है कि आपको देखकर हम अत्यन्त संतोष का अनुभव कर रहे हैं।

    तोमार प्रभावे सबार आनन्दित मन ।।कभु असङ्गत नहे तोमार वचन ॥

    १०५॥

    । हे महोदय, आपके प्रभाव से हमारे मन अत्यधिक सन्तुष्ट हैं और हमें विश्वास है कि आपके वचन कभी अनुपयुक्त नहीं होंगे। अतएव आप वेदान्त-सूत्र के विषय में कहें।

    प्रभु कहे, वेदान्त-सूत्र ईश्वर-वचन ।।व्यास-रूपे कैल ग्राहा श्री-नारायण ॥

    १०६॥

    महाप्रभु ने कहा, वेदान्त दर्शन व्यासदेव के रूप में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् नारायण द्वारा कहे गये वचन हैं।

    भ्रम, प्रमाद, विप्रलिप्सा, करणापाटव ।। ईश्वरेर वाक्ये नाहि दोष एइ सब ॥

    १०७॥

    भगवान् के शब्दों में त्रुटि, मोह, प्रवंचना ( ठगी) तथा इन्द्रियअपूर्णता जैसे भौतिक दोष नहीं पाये जाते।

    उपनिषत्सहित सूत्र कहे येइ तत्त्व ।। मुख्य-वृत्त्ये सेइ अर्थ परम महत्त्व ॥

    १०८॥

    परम सत्य का वर्णन तो उपनिषदों तथा ब्रह्मसूत्र में किया गया है, किन्तु इनके श्लोकों को उनके यथार्थ रूप में समझना आवश्यक है। समझने की यही परम महिमा है।

    गौण-वृत्त्ये येबा भाष्य करिल आचार्य ।ताहार श्रवणे नाश हय सर्व कार्य ॥

    १०९॥

    श्रीपाद शंकराचार्य ने समस्त वैदिक साहित्य की व्याख्या अप्रत्यक्ष अर्थों में की है। जो ऐसी व्याख्या सुन लेता है, वह विनष्ट हो जाता है।

    ताँहार नाहिक दोष, ईश्वर-आज्ञा पाळा ।गौणार्थ करिल मुख्य अर्थ आच्छादिया ॥

    ११०॥

    इसमें शंकराचार्य का कोई दोष नहीं है, क्योंकि उन्होंने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के आदेशानुसार ही वेदों के वास्तविक उद्देश्य को आच्छादित किया।

    ‘ब्रह्म'-शब्दे मुख्य अर्थे कहे-'भगवान्' ।।चिदैश्वर्य-परिपूर्ण, अनूर्ध्व-समान ॥

    १११॥

    प्रत्यक्ष ज्ञान के अनुसार, परम सत्य ही पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं, जिनमें सारे आध्यात्मिक ऐश्वर्य रहते हैं। कोई न तो उनके तुल्य है, न उनसे बड़ा है।

    ताँहार विभूति, देह, सब चिदाकार। चिद्विभूति आच्छादि' ताँरे कहे 'निराकार' ॥

    ११२॥

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् सम्बन्धी हर वस्तु आध्यात्मिक होती है, जिसमें उनका शरीर, ऐश्वर्य तथा साज-सामग्री सम्मिलित हैं। किन्तु मायावाद दर्शन उनके आध्यात्मिक ऐश्वर्य को छिपाकर निर्विशेषवाद का समर्थन करता है।

    चिदानन्द–तेहो, ताँर स्थान, परिवार ।तौरे कहे—प्राकृत-सत्त्वेर विकार ॥

    ११३॥

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् आध्यात्मिक शक्तियों से युक्त हैं। अतएव उनका शरीर, नाम, यश तथा परिकर-सभी आध्यात्मिक हैं। मायावादी दार्शनिक अज्ञानतावश कहते हैं कि ये सब केवल भौतिक सत्त्वगुण के रूपान्तर मात्र हैं।

    ताँर दोष नाहि, तेहो आज्ञा-कारी दास ।आर ग्रेइ शुने तार हय सर्व-नाश ॥

    ११४॥

    शिवजी के अवतार श्री शंकराचार्य निर्दोष हैं, क्योंकि वे भगवान् के आज्ञाकारी दास होने के कारण उनके आदेश का पालन मात्र कर रहे हैं। लेकिन जो लोग उनके मायावादी दर्शन का पालन करते हैं, उनका विनाश अवश्यम्भावी है। उनकी सारी आध्यात्मिक प्रगति विनष्ट हो जायेगी।

    प्राकृत करिया माने विष्णु-कलेवर ।।विष्णु-निन्दा आर नाहि इहार उपर ॥

    ११५॥

    जो व्यक्ति भगवान् विष्णु के दिव्य शरीर को भौतिक प्रकृति से बना मानता है, वह भगवान् के चरणकमलों में सबसे बड़ा अपराधी है। इससे बढ़कर पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की अन्य कोई निन्दा नहीं है।

    ईश्वरेर तत्त्व येन ज्वलित ज्वलन ।।जीवेर स्वरूप—प्रैछे स्फुलिङ्गेर कण ॥

    ११६॥

    भगवान् प्रज्वलित महान् अग्नि के समान हैं और सारे जीव उस अग्नि की छोटी-छोटी चिंगारियों के समान हैं।

    जीव-तत्त्व-शक्ति, कृष्ण-तत्त्वशक्तिमान् ।गीता-विष्णुपुराणादि ताहाते प्रमाण ॥

    ११७॥

    सारे जीव शक्तियाँ हैं, शक्तिमान नहीं। शक्तिमान तो कृष्ण हैं। इसका बहुत ही स्पष्ट वर्णन भगवद्गीता, विष्णु पुराण तथा अन्य वैदिक साहित्य में किया गया है।

    अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि में पराम् ।। जीव-भूतां महा-बाहो ग्रयेदं धार्यते जगत् ॥

    ११८॥

    हे महाबाहु अर्जुन, इन अपरा (निकृष्ट) शक्तियों के अतिरिक्त मेरी एक परा ( उत्कृष्ट ) शक्ति भी है, जो उन सारे जीवों के रूप में है, जो इस भौतिक, निकृष्ट प्रकृति के संसाधनों का दोहन कर रहे हैं।

    विष्णु-शक्तिः परा प्रोक्तो क्षेत्र-ज्ञाख्या तथा परा ।। अविद्या-कर्म-संज्ञान्या तृतीया शक्तिरिष्यते ॥

    ११९॥

    भगवान् विष्णु की शक्तियाँ तीन तरह की हैं-आध्यात्मिक शक्ति, जीव तथा अज्ञान। आध्यात्मिक शक्ति ज्ञान से परिपूर्ण है; जीव यद्यपि आध्यात्मिक शक्ति से सम्बन्धित है, किन्तु वे मोहग्रस्त होने के पात्र हैं। और तीसरी शक्ति जो अज्ञान से भरी है, सदैव सकाम कर्मों में दृष्टिगोचर होती है।

    हेन जीव-तत्त्व लञा लिखि' पर-तत्त्व । आच्छन्न करिल श्रेष्ठ ईश्वर-महत्त्व ॥

    १२० ॥

    मायावादी दर्शन इतना गिरा हुआ है कि वह नगण्य जीवों को परम सत्य, भगवान् मानता है और इस तरह वह परम सत्य के महिमा तथा श्रेष्ठत्व को अद्वैतवाद से ढक देता है।

    व्यासेर सूत्रेते कहे ‘परिणाम'-वाद ।‘व्यास भ्रान्त' बलि' तार उठाइल विवाद ॥

    १२१॥

    श्रील व्यासदेव ने अपने वेदान्त-सूत्र में वर्णन किया है कि प्रत्येक वस्तु भगवान् की शक्ति के रूपान्तर के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। किन्तु शंकराचार्य ने यह टीका करके कि व्यासदेव गलत थे, सारे जगत् को पथभ्रष्ट किया। इस तरह उन्होंने पूरे विश्व में आस्तिकता का घोर विरोध किया है।

    परिणाम-वादे ईश्वर हयेन विकारी ।। एत कहि' ‘विवर्त'-वाद स्थापना ग्रे करि ॥

    १२२॥

    शंकराचार्य के अनुसार भगवान् की शक्ति के रूपान्तर (विकार) के सिद्धान्त को स्वीकार कर लेने से अप्रत्यक्ष रीति से परम सत्य के रूपान्तरित होने का भ्रम उत्पन्न होता है।

    वस्तुतः परिणाम-वाद—सेइ से प्रमाण ।देहे आत्म-बुद्धि–एइ विवर्तेर स्थान ॥

    १२३॥

    शक्ति का रूपान्तर एक जाँचा हुआ तथ्य है। यह आत्मा के देहात्मभाव की गलत धारणा है, जो भ्रम या विवर्त है।

    अविचिन्त्य-शक्ति-मुक्त श्री-भगवान् ।इच्छाय जगद्रूपे पाय परिणाम ॥

    १२४॥

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् सभी तरह से ऐश्वर्यवान हैं। अतएव उन्होंने अपनी अचिन्त्य शक्तियों से भौतिक जगत् को रूपान्तरित कर दिया है।

    तथापि अचिन्त्य-शक्त्ये हय अविकारी ।। प्राकृत चिन्तामणि ताहे दृष्टान्त ये धरि ॥

    १२५॥

    पारस पत्थर अपनी शक्ति से लोहे को सोने में बदल देता है, फिर भी स्वयं वैसा ही रहता है। इस दृष्टान्त द्वारा हम यह समझ सकते हैं कि यद्यपि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् अपनी असंख्य शक्तियों का रूपान्तर करते हैं, किन्तु वे स्वयं अपरिवर्तित रहते हैं।

    नाना रत्न-राशि हय चिन्तामणि हैते । तथापिह मणि रहे स्वरूपे अविकृते ॥

    १२६॥

    । यद्यपि पारस पत्थर (चिन्तामणि ) अनेक प्रकार के मूल्यवान रत्नों को उत्पन्न करता है, किन्तु वह वैसा ही रहता है। वह अपने मूल रूप को नहीं बदलता।

    प्राकृत-वस्तुते यदि अचिन्त्य-शक्ति हय ।। ईश्वरेर अचिन्त्य-शक्ति,—इथे कि विस्मय ॥

    १२७॥

    यदि भौतिक वस्तुओं में ऐसी अचिन्त्य शक्ति हो सकती है, तो फिर हमें पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की अचिन्त्य शक्ति में क्यों विश्वास नहीं करना चाहिए? ‘प्रणव' से महावाक्य—वेदेर निदान । ईश्वर-स्वरूप प्रणव सर्व-विश्व-धाम ॥

    १२८॥

    वैदिक साहित्य के प्रमुख शब्द अर्थात् वैदिक ॐकार की ध्वनि, समस्त वैदिक ध्वनियों का आधार है। इसलिए ॐकार को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का ध्वनि रूप तथा जगत् के आगार के रूप में स्वीकार करना चाहिए।

    सर्वाश्रय ईश्वरेर प्रणव उद्देश ।।'तत्त्वमसि' वाक्य हय वेदेर एकदेश ॥

    १२९॥

    प्रणव (ॐकार) को समस्त वैदिक ज्ञान के आगार के रूप में प्रस्तुत करना ही भगवान् का उद्देश्य है। तत्त्वमसि शब्द वैदिक ज्ञान की केवल आंशिक व्याख्या है।

    ‘प्रणव, महा-वाक्य ताहा करि' आच्छादन । महावाक्ये करितत्त्वमसि'र स्थापन ॥

    १३०॥

    प्रणव ( ॐकार) वेदों में महावाक्य ( महामन्त्र) है। शंकराचार्य के अनुयायी इसे आच्छादित करके तत्त्वमसि मन्त्र पर बिना किसी प्रमाण के बल देते हैं।

    सर्व-वेद-सूत्रे करे कृष्णेर अभिधान । मुख्य-वृत्ति छाड़ि' कैल लक्षणा-व्याख्यान ॥

    १३१॥

    सारे वैदिक सूत्रों तथा साहित्य का लक्ष्य भगवान् कृष्ण को ही समझना है, किन्तु शंकराचार्य के अनुयायियों ने वेदों के वास्तविक अर्थ को अपनी अप्रत्यक्ष व्याख्याओं से आच्छादित कर दिया है।

    स्वतः-प्रमाण वेद-प्रमाण-शिरोमणि । लक्षणा करिले स्वतः-प्रमाणता-हानि ॥

    १३२॥

    स्वत:प्रमाणित वैदिक साहित्य सभी प्रमाणों में सर्वोपरि है, किन्तु यदि इस साहित्य की व्याख्या की जाती है, तो इसकी स्वत:प्रमाणितता नष्ट हो जाती है।

    एइ मत प्रतिसूत्रे सहजार्थ छाड़िया ।। गौणार्थ व्याख्या करे कल्पना करिया ॥

    १३३॥

    । मायावाद सम्प्रदाय के सदस्यों ने वैदिक साहित्य के वास्तविक एवं सरलता से समझे जाने वाले अर्थ को छोड़कर अपने दर्शन को सिद्ध करने के लिए अपनी कल्पना शक्ति के अनुसार अप्रत्यक्ष ( गौण) अर्थ प्रचलित किये हैं।

    एइ मते प्रतिसूत्रे करेन दूषण ।। शुनि' चमत्कार हैल सन्यासीर गण ॥

    १३४॥

    जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने इस प्रकार शंकराचार्य द्वारा की गई प्रत्येक सूत्र की व्याख्या की और त्रुटियाँ दिखला दीं, तो वहाँ पर उपस्थित सारे मायावादी संन्यासी आश्चर्यचकित रह गये।

    सकल सन्यासी कहे,–'शुनह श्रीपाद ।। तुमि ग्रे खण्डिले अर्थ, ए नहे विवाद ॥

    १३५॥

    सारे मायावादी संन्यासियों ने कहा, हे श्रीपाद, आप कृपया यह जान लें कि हमें वास्तव में आपके द्वारा इन अर्थों के खण्डन के बारे में कोई विवाद नहीं है, क्योंकि आपने तो इन सूत्रों की स्पष्ट समझ प्रदान की हैं।

    आचार्य-कल्पित अर्थ,-इहा सभे जानि ।।सम्प्रदाय-अनुरोधे तबु ताहा मानि ॥

    १३६ ॥

    हम जानते हैं कि यह सारा वाग्जाल शंकराचार्य की कल्पना से उद्भूत है, किन्तु हम उसी सम्प्रदाय के होने के कारण इसे स्वीकार करते हैं, यद्यपि हम इससे सन्तुष्ट नहीं हैं।

    मुख्यार्थ व्याख्या कर, देखि तोमार बल' । मुख्यार्थ लागाल प्रभु सूत्र-सकल ॥

    १३७॥

    मायामायावादी संन्यासियों ने आगे कहा, अब हम देखना चाहते हैं कि आप इन सूत्रों की उनके प्रत्यक्ष अर्थ में कितनी अच्छी तरह व्याख्या कर सकते हैं। यह सुनकर चैतन्य महाप्रभु ने वेदान्त-सूत्र की प्रत्यक्ष व्याख्या करना प्रारम्भ किया।

    बृहद्वस्तु ‘ब्रह्म' कहि- श्री-भगवान्' । षडू-विधैश्वर्य-पूर्ण, पर-तत्त्व-धाम ।। १३८ । ब्रह्म जो कि बड़े से भी बड़ा है, पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान् है। वे छः ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं; अतएव वे परम सत्य तथा परम ज्ञान के आगार हैं।

    स्वरूप-ऐश्वर्ये ताँर नाहि माया-गन्ध । सकल वेदेर हय भगवान्से 'सम्बन्ध' ॥

    १३९॥

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् अपने मूल रूप में भौतिक जगत् के कल्मष से रहित छह दिव्य ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं। यह समझना होगा कि समस्त वैदिक साहित्य में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ही परम लक्ष्य हैं।

    ताँरै निर्विशेष' कहि, चिच्छक्ति ना मानि ।।अर्ध-स्वरूप ना मानिले पूर्णता हय हानि ॥

    १४०॥

    । जब हम परमेश्वर को निविर्शेष कहते हैं, तब हम उनकी आध्यात्मिक शक्तियों को नकारते हैं। तार्किक दृष्टि से जब तुम आधा सत्य स्वीकार करते हैं, तब आप पूरे सत्य को नहीं समझ सकते।

    भगवान्प्राप्ति-हेतु ये करि उपाय।श्रवणादि भक्ति कृष्ण-प्राप्तिर सहाय ॥

    १४१ ।। श्रवण से प्रारम्भ करके भक्ति द्वारा ही मनुष्य पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् तक पहुँच सकता है। उनके पास पहुँचने का यही एकमात्र साधन है।

    सेइ सर्व-वेदेर 'अभिधेय' नाम ।साधन-भक्ति हैते हय प्रेमेर उद्गम ॥

    १४२॥

    गुरु के निर्देशानुसार इस संयमित साधन भक्ति का अभ्यास करने पर मनुष्य का सुप्त भगवत् प्रेम निश्चित रूप से जागृत हो उठता है। यह विधि अभिधेय कहलाती है।

    कृष्णेर चरणे हय यदि अनुराग । कृष्ण विनु अन्यत्र तार नाहि रहे राग ॥

    १४३॥

    यदि कोई भगवत्प्रेम उत्पन्न कर लेता है और कृष्ण के चरणकमलों में अनुरक्त हो जाता है, तो धीरे-धीरे अन्य सारी वस्तुओं से उसकी आसक्ति लुप्त हो जाती है।

    पञ्चम पुरुषार्थ सेइ प्रेम-महाधन ।। कृष्णेर माधुर्घ-रस कराय आस्वादन ॥

    १४४॥

    भगवत्प्रेम इतना उन्नत होता है कि इसे मानव जीवन का पाँचवा लक्ष्य माना जाता है। भगवत्प्रेम जागृत करके कोई भी व्यक्ति माधुर्य प्रेम के पद को प्राप्त कर सकता है और इसी जीवन काल में ही उसका आस्वादन कर सकता है।

    प्रेमा हैते कृष्ण हय निज भक्त-वश ।।प्रेमा हैते पाय कृष्णेर सेवा-सुख-रस ॥

    १४५॥

    । महानतमे से भी महान् परम भगवान् भक्तिमय सेवा के कारण अत्यन्त तुच्छ भक्त के भी वश में हो जाते हैं। भक्ति की ऐसी सुन्दर तथा उन्नत प्रकृति है कि अनन्त भगवान् सूक्ष्म जीव की भक्ति के कारण उसके अधीन हो जाते हैं। भगवान् के साथ भक्ति-कार्यों के आदान-प्रदान में भक्त को भक्ति के दिव्य रस का वास्तविक आनन्द प्राप्त होता है।

    सम्बन्ध, अभिधेय, प्रयोजन नाम । एइ तिन अर्थ सर्व-सूत्रे पर्छवसान ॥

    १४६॥

    वेदान्त-सूत्र के प्रत्येक सूत्र में जिन तीन विषयों की व्याख्या की गई है, वे हैं-पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् से अपना सम्बन्ध, उस सम्बन्ध के अनुसार कार्यकलाप तथा जीवन का चरम लक्ष्य ( भगवत्प्रेम विकसित करना ), क्योंकि इन तीनों में ही सम्पूर्ण वेदान्त दर्शन की चरम परिणति है।

    एइ-मत सर्व-सूत्रेर व्याख्यान शुनिया ।सकल सन्यासी कहे विनय करिया ॥

    १४७॥

    जब सारे मायावादी संन्यासियों ने सम्बन्ध, अभिधेय तथा प्रयोजन के आधार पर श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा प्रस्तुत की गई व्याख्या सुनी, तो वे अत्यन्त विनीत होकर बोले।

    वेदमय-मूर्ति तुमि,—साक्षात्नारायण ।।क्षम अपराध,—पूर्वे ने कैलँ निन्दन ॥

    १४८॥

    हे महोदय, आप साक्षात् वैदिक ज्ञान और साक्षात् नारायण हैं। कृपा करके हमें उन सारे अपराधों के लिए क्षमा कर दें, जिन्हें हमने आपकी आलोचना करके पहले किये हैं।

    सेइ हैते सन्यासीर फिरि गेल मन ।।'कृष्ण' 'कृष्ण' नाम सदा करये ग्रहण ॥

    १४९॥

    जब मायावादी संन्यासियों ने महाप्रभु से वेदान्त-सूत्र की व्याख्या सुनी, उसी क्षण से उनके मन बदल गये और चैतन्य महाप्रभु के आदेश से वे भी सदा 'कृष्ण! कृष्ण!' उच्चारण करने लगे।

    एइ-मते ताँ-सबार क्षमि' अपराध । सबाकारे कृष्ण-नाम करिला प्रसाद ॥

    १५० ॥

    इस प्रकार श्री चैतन्य महाप्रभु ने मायावादी संन्यासियों के सारे अपराध क्षमा कर दिये और उन पर बड़ी कृपा करके उन्हें कृष्णनाम का आशीर्वाद प्रदान किया।

    तबे सब सन्यासी महाप्रभुके लैया ।।भिक्षा करिलेन सभे, मध्ये वसाइया ॥

    १५१॥

    इसके बाद सारे संन्यासियों ने महाप्रभु को अपने मध्य में ले लिया और सबने मिलकर भोजन किया।

    भिक्षा करि' महाप्रभु आइला वासाघर ।।हेन चित्र-लीला करे गौराङ्ग-सुन्दर ॥

    १५२॥

    मायावादी संन्यासियों के साथ भोजन करने के बाद गौरसुन्दर कहलाने वाले श्री चैतन्य महाप्रभु अपने निवास स्थान को लौट आये। इस प्रकार महाप्रभु अपनी विचित्र लीलाएँ करते हैं।

    चन्द्रशेखर, तपन मिश्र, आर सनातन । शुनि' देखि आनन्दित सबाकार मन ॥

    १५३॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु के तर्को को सुनकर तथा उनकी विजय देखकर चन्द्रशेखर, तपन मिश्र तथा सनातन गोस्वामी सभी अत्यधिक प्रसन्न हुए।

    प्रभुके देखिते आइसे सकल सन्यासी ।। प्रभुर प्रशंसा करे सब वाराणसी ॥

    १५४॥

    इस घटना के बाद वाराणसी के अनेक मायावादी संन्यासी महाप्रभु को मिलने के लिए आये और सारे नगर ने उनकी प्रशंसा की।

    वाराणसी-पुरी आइला श्री-कृष्ण-चैतन्य ।पुरी-सह सर्व-लोक हैल महा-धन्य ॥

    १५५ ॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु के वाराणसी आने के कारण नगर के साथ उसके सारे लोग महाधन्य हुए।

    लक्ष लक्ष लोक आइसे प्रभुके देखिते ।। महा-भिड़ हैल द्वारे, नारे प्रवेशिते ॥

    १५६ ॥

    उनके निवासस्थान के द्वार पर इतनी अधिक भीड़ हो गई कि उसकी संख्या लाखों तक पहुँच गई।

    प्रभु ग्रबे ग्रा'न विश्वेश्वर-दरशने । लक्ष लक्ष लोक आसि' मिले सेइ स्थाने ।। १५७॥

    जब महाप्रभु विश्वेश्वर मन्दिर में दर्शन करने गये, तो उनका दर्शन पाने के लिए लाखों लोग वहाँ एकत्रित हो गये।

    स्नान करिते ग्रबे ग्रा'न गङ्गा-तीरे । ताहाञि सकल लोक हय महा-भिड़े ॥

    १५८॥

    जब भी श्री चैतन्य महाप्रभु स्नान करने के लिए गंगा के किनारे जाते, तभी सैकड़ों-हजारों लोगों की भारी भीड़ वहाँ एकत्र हो जाती।

    बाहु तुलि' प्रभु बले,—बल हरि हरि ।।हरि-ध्वनि करे लोक स्वर्ग-मर्त्य भरि' ॥

    १५९॥

    जब भी भीड़ बढ़ जाती, श्री चैतन्य महाप्रभु खड़े हो जाते और अपने दोनों हाथ उठाकर 'हरि! हरि!' का उच्चारण करते, जिसके प्रत्युत्तर में लोग फिर 'हरि! हरि!' उच्चारण करते और इस ध्वनि से धरती और आकाश दोनों भर जाते।

    लोक निस्तारिया प्रभुर चलिते हैल मन । वृन्दावने पाठाइला श्री-सनातन ॥

    १६० ॥

    इस प्रकार सामान्य लोगों का उद्धार करके महाप्रभु ने वाराणसी से प्रस्थान करने की इच्छा की। उन्होंने श्री सनातन गोस्वामी को शिक्षा देकर वृन्दावन भेजा।

    रात्रि-दिवसे लोकेर शुनि' कोलाहल ।। वाराणसी छाड़ि' प्रभु आइला नीलाचल ॥

    १६१॥

    चूँकि वाराणसी नगरी सदैव लोगों की भीड़ एवं कोलाहल से भरी रहती थी, अतएव सनातन को वृन्दावन भेजकर श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी लौट आये।

    एइ लीला कहिब आगे विस्तार करिया । सङ्क्षेपे कहिलाँ इहाँ प्रसङ्ग पाइया ॥

    १६२॥

    मैंने यहाँ पर महाप्रभु की इन लीलाओं का संक्षेप में वर्णन किया है, किन्तु बाद में मैं इनका विस्तारपूर्वक वर्णन करूंगा।

    एइ पञ्च-तत्त्व-रूपे श्री-कृष्ण-चैतन्य ।कृष्ण-नाम-प्रेम दिया विश्व कैली धन्य ॥

    १६३॥

    श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु तथा उनके पंचतत्त्व पार्षदों ने भगवान् के पवित्र नाम का वितरण भगवत्प्रेम जगाने के लिए सारे ब्रह्माण्ड में किया। इस तरह सारा ब्रह्माण्ड धन्य हो गया।

    मथुराते पाठाइल रूप-सनातन । दुई सेनापति कैल भक्ति प्रचारण ॥

    १६४॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु ने भक्ति सम्प्रदाय का प्रचार करने के लिए रूप गोस्वामी तथा सनातन गोस्वामी इन दो सेनापतियों को वृन्दावन भेज दिया।

    नित्यानन्द-गोसाळे पाठाइला गौड़-देशे ।। तेहो भक्ति प्रचारिला अशेष-विशेषे ॥

    १६५ ॥

    जिस तरह रूप गोस्वामी तथा सनातन गोस्वामी मथुरा की ओर भेजे गये थे, उसी तरह नित्यानन्द प्रभु को चैतन्य महाप्रभु ने सम्प्रदाय का व्यापक प्रचार करने के लिए बंगाल भेजा था।

    आपने दक्षिण देश करिला गमन । ग्रामे ग्रामे कैला कृष्ण-नाम प्रचारण ॥

    १६६॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु स्वयं दक्षिण भारत गये, जहाँ उन्होंने गाँव-गाँव तथा नगर-नगर में भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम का प्रचार किया।

    सेतुबन्ध पर्यन्त कैला भक्तिर प्रचार ।।कृष्ण-प्रेम दिया कैला सबार निस्तार ॥

    १६७॥

    इस प्रकार महाप्रभु भारत प्रायद्वीप के दक्षिण धुर तक गये, जिसे सेतुबन्ध ( कुमारी अन्तरीप) कहते हैं। उन्होंने सर्वत्र भक्ति सम्प्रदाय तथा कृष्ण-प्रेम का वितरण किया और इस तरह सबका उद्धार किया।

    एइ त कहिल पञ्च-तत्त्वेर व्याख्यान । इहार श्रवणे हय चैतन्य-तत्त्व ज्ञान ॥

    १६८।। इस तरह मैंने पंचतत्त्व के सत्य की व्याख्या की है। जो इस व्याख्या को सुनता है, उसका श्री चैतन्य महाप्रभु विषयक ज्ञान बढ़ता है।

    श्री-चैतन्य, नित्यानन्द, अद्वैत,—तिन जन । श्रीवास-गदाधर-आदि नंत भक्त-गण ॥

    १६९॥

    पंचतत्त्व महामन्त्र का कीर्तन करते समय श्री चैतन्य, नित्यानन्द, अद्वैत, गदाधर तथा श्रीवास के नामों का, उनके अनेक भक्तों समेत उच्चारण करना चाहिए। यही विधि है।

    सबाकार पादपद्म कोटि नमस्कार ।ग्रैछे तैछे कहि किछु चैतन्य-विहार ॥

    १७० ॥

    मैं पंचतत्त्व को पुनः-पुनः नमस्कार करता हूँ। इस प्रकार मेरे विचार से मैं श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं के विषय में कुछ वर्णन कर सर्केगा।

    श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश ।चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥

    १७१ ॥

    श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों में प्रार्थना करते हुए और सदैव उनकी कृपा की कामना करते हुए मैं कृष्णदास उनके चरणचिह्नों का अनुसरण करते हुए श्रीचैतन्य-चरितामृत कह रहा हूँ।

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    अध्याय आठ: लेखक को कृष्ण और गुरु का आदेश प्राप्त होता है

    वन्दे चैतन्य-देवं तं भगवन्तं यदिच्छया ।।प्रसभं नय॑ते चित्रं लेख-रङ्गे जड़ोऽप्ययम् ॥

    १॥

    मैं उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु को नमस्कार करता हूँ, जिनकी इच्छा से मैं नाचते हुए कुत्ते के समान बन गया हूँ और मूर्ख होते हुए भी मैंने सहसा श्रीचैतन्य-चरितामृत लिखने का कार्य अपने हाथों में लिया है।

    जय जय श्री कृष्ण-चैतन्य गौरचन्द्र ।। जय जय परमानन्द जय नित्यानन्द ॥

    २॥

    मैं गौरसुन्दर नाम से विख्यात श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को सादर नमस्कार करता हूँ। मैं सदैव प्रसन्न रहने वाले नित्यानन्द प्रभु को भी सादर नमस्कार करता हूँ।

    जय जयाद्वैत आचार्य कृपामय ।जय जय गदाधर पण्डित महाशय ॥

    ३ ॥

    मैं अद्वैत आचार्य को सादर नमस्कार करता हूँ, जो अत्यन्त कृपालु हैं। साथ ही मैं महान् विद्वान महापुरुष गदाधर पण्डित को भी नमस्कार करता हूँ।

    जय जय श्रीवासादि यत भक्त-गण । प्रणत हइया वन्दों सबार चरण ॥

    ४॥

    मैं श्रीवास ठाकुर तथा महाप्रभु के अन्य सारे भक्तों को सादर नमस्कार करता हूँ। मैं उनके सामने गिरकर प्रणाम करता हूँ और उनके चरणकमलों की पूजा करता हूँ।

    मूक कवित्व करे ग्राँसबार स्मरणे ।पङ् गिरि लङ्घ, अन्ध देखे तारा-गणे ॥

    ५॥

    पंचतत्त्व के चरणकमलों का स्मरण करने से गूंगी व्यक्ति कवि बन सकता है, लंगड़ा पर्वतों को पार कर सकता है और अंधा व्यक्ति आकाश के तारों को देख सकता है।

    ए-सब ना माने ग्रेइ पण्डित सकल ।ता-सबार विद्या-पाठ भेक-कोलाहल ॥

    ६॥

    ऐसे तथाकथित पण्डित, जो श्रीचैतन्य-चरितामृत के इन कथनों पर विश्वास नहीं करते, उनके द्वारा शिक्षा का अनुशीलन मेढ़कों की जोरदार टर्र-टर्र के समान है।

    एइ सब ना माने येबा करे कृष्ण-भक्ति ।।कृष्ण-कृपा नाहि तारे, नाहि तार गति ॥

    ७॥

    जो पंचतत्त्व की महिमा को स्वीकार नहीं करता और फिर भी कृष्णभक्ति का दिखावा करता है, उसे न तो कृष्ण की कृपा प्राप्त हो सकती है, न ही वह अपने चरम लक्ष्य की ओर आगे बढ़ सकता है।

    पूर्वे ट्रैछे जरासन्ध-आदि राज-गण ।।वेद-धर्म करि' करे विष्णुर पूजन ॥

    ८॥

    प्राचीनकाल में जरासंध ( कंस का ससुर ) जैसे राजाओं ने वैदिक अनुष्ठानों का कड़ाई से पालन किया और इस तरह विष्णु की पूजा की।

    कृष्ण नाहि माने, ताते दैत्य करि' मानि । चैतन्य ना मानिले तैछे दैत्य तारे जानि ॥

    ९॥

    जो कृष्ण को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् नहीं स्वीकार करता, वह निश्चय ही असुर है। इसी तरह जो श्री चैतन्य महाप्रभु को उन्हीं भगवान् कृष्ण के रूप में नहीं स्वीकार करता, उसे भी असुर ही समझना चाहिए।

    मोरे ना मानिले सब लोक हबे नाश ।।इथि लागि' कृपाई प्रभु करिल सन्यास ॥

    १०॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु ने विचार किया, जब तक लोग मुझे स्वीकार नहीं करेंगे, वे विनष्ट हो जायेंगे। इसलिए कृपालु महाप्रभु ने संन्यास ग्रहण किया।

    सन्यासि-बुद्ध्ये मोरे करिबे नमस्कार ।तथापि खण्डिबे दुःख, पाइबे निस्तार ॥

    ११॥

    यदि कोई व्यक्ति मुझे एक सामान्य संन्यासी मानकर भी नमस्कार करता है, तो उसके सांसारिक दुःख घट जायेंगे और अन्ततः उसे मुक्ति प्राप्त होगी।

    हेन कृपामय चैतन्य ना भजे ग्रेइ जन ।सर्वोत्तम हइलेओ तारे असुरे गणन ॥

    १२॥

    जो व्यक्ति दयालु भगवान्, चैतन्य महाप्रभु का सम्मान नहीं करता या उनकी पूजा नहीं करता, उसे असुर समझना चाहिए, भले ही उसे मानव समाज में कितना ही प्रतिष्ठित क्यों न माना जाता हो।

    अतएव पुनः कहों ऊर्ध्व-बाहु हो ।चैतन्य-नित्यानन्द भज कुतर्क छाड़िया ॥

    १३ ॥

    इसलिए मैं अपनी भुजाएँ उठाकर फिर कहता हूँ कि हे मित्रों, झूठे तर्को को छोड़कर श्री चैतन्य तथा नित्यानन्द की पूजा करो! यदि वा तार्किक कहे,—तर्क से प्रमाण ।।तर्क-शास्त्रे सिद्ध ग्रेइ, सेइ सेव्यमान ॥

    १४॥

    तर्कशास्त्री कहते हैं, जब तक तर्क द्वारा ज्ञान प्राप्त न कर लिया जाए, तब तक भला कोई आराध्य देव के बारे में निश्चय कैसे कर सकता है? श्री-कृष्ण-चैतन्य-दया करह विचार ।विचार करिते चित्ते पाबे चमत्कार ॥

    १५ ॥

    यदि आप सचमुच तर्क में रुचि रखते हैं, तो इसका प्रयोग श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा पर कीजिये। यदि आप ऐसा करेंगे, तो पायेंगे कि यह अत्यन्त अद्भुत है।

    बहु जन्म करे यदि श्रवण, कीर्तन ।तबु त' ना पाय कृष्ण-पदे प्रेम-धन ॥

    १६॥

    यदि कोई हरे कृष्ण महामन्त्र के जप में दस अपराध करता रहता है, तो वह चाहे अनेक जन्मों तक पवित्र नाम का जप करने का प्रयास क्यों न करे, उसे भगवत्प्रेम प्राप्त नहीं हो सकेगा, जो इस जप का चरम लक्ष्य है।

    ज्ञानतः सु-लभा मुक्तिभुक्तिर्यज्ञादि-पुण्यतः ।।सेयं साधन-साहस्त्रैर्हरि-भक्तिः सु-दुर्लभा ॥

    १७॥

    दार्शनिक ज्ञान के अनुशीलन से मनुष्य अपनी आध्यात्मिक स्थिति को समझ सकता है और इस तरह मुक्ति पा सकता है; यज्ञ तथा पुण्यकर्मों को सम्पन्न करके मनुष्य उच्चतर ग्रहमण्डल में इन्द्रियतृप्ति प्राप्त कर सकता है, किन्तु भगवान् की भक्तिमयी सेवा इतनी दुर्लभ है कि ऐसे हजारों यज्ञ करके भी यह प्राप्त नहीं की जा सकती।

    कृष्ण ग्रदि छुटे भक्ते भुक्ति मुक्ति दिया । कभु प्रेम-भक्ति ना देन राखेन लुकाइया ॥

    १८॥

    यदि भक्त भगवान् से भौतिक इन्द्रियतृप्ति या मुक्ति चाहता है, तो कृष्ण उसे तुरन्त दे देते हैं, किन्तु शुद्ध भक्ति को वे छिपाकर रखते हैं।

    राजन्पतिर्गुरुरलं भवतां ग्रदूनांदैवं प्रियः कुल-पतिः क्व च किङ्करो वः ।। अस्त्वेवमङ्ग भगवान्भजतां मुकुन्दोमुक्तिं ददाति कर्हिचित्स्म न भक्ति-ग्रोगम् ॥

    १९॥

    [ महर्षि नारद ने कहा हे महाराज युधिष्ठिर, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण आपकी सहायता के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। वे आपके स्वामी,गुरु, ईश्वर, प्रिय मित्र तथा आपके परिवार के मुखिया हैं। फिर भी वे कभी-कभी आपके दास या आज्ञापालक का कार्य करना स्वीकार कर लेते हैं। आप अत्यन्त भाग्यशाली हैं, क्योंकि यह सम्बन्ध केवल भक्तियोग द्वारा ही सम्भव हो पाता है। भगवान् मुक्ति तो सरलता से दे सकते हैं, किन्तु वे किसी को भक्तियोग आसानी से नहीं प्रदान करते, क्योंकि वे उस प्रक्रिया से भक्त के साथ बँध जाते हैं।

    हेन प्रेम श्री-चैतन्य दिला ग्रथा तथा ।।जगाइ माधाइ पर्यन्त–अन्येर का कथा ॥

    २०॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु ने इस कृष्ण-प्रेम को यत्र-तत्र, सर्वत्र, यहाँ तक कि जगाइ तथा माधाइ जैसे सर्वाधिक पतितों को भी मुक्तहस्त होकर प्रदान किया है। तो भला उन सबके विषय में क्या कहा जाए, जो पहले से पवित्र तथा उन्नत हैं? स्वतन्त्र ईश्वर प्रेम-निगूढ़-भाण्डार।।बिलाइल ग्रारे तारे, ना कैल विचार ॥

    २१॥

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के रूप में श्री चैतन्य महाप्रभु पूर्णतया स्वतन्त्र हैं। अतएव वे अत्यन्त गुह्य रूप से संचित वरदान भगवत्प्रेम को बिना भेद-भाव के हर एक को वितरित कर सकते हैं।

    अद्यापिह देख चैतन्य-नाम येइ लय ।कृष्ण-प्रेमे पुलकाश्रु-विह्वल से हये ॥

    २२॥

    चाहे कोई अपराधी हो या निर्दोष, यदि श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानन्द का कीर्तन कोई अभी भी करता है, तो वह भावविभोर हो उठता है और उसकी आँखों में आँसू आ जाते हैं।

    ‘नित्यानन्द' बलिते हुये कृष्ण-प्रेमोदय ।। आउलाय सकल अङ्ग, अश्रु-गङ्गा वय ॥

    २३ ॥

    नित्यानन्द प्रभु का नाम लेने से ही मनुष्य में कृष्ण-प्रेम जागृत हो जाता है। इस प्रकार उसके सारे अंगप्रत्यंग भावातिरेक से व्याकुल हो उठते हैं और उसकी आँखों से गंगा की धारा के समान अश्रु बहने लगते हैं। कृष्ण-नाम' करे अपराधेर विचार । कृष्ण बलिले अपराधीर ना हय विकार ॥

    २४॥

    हरे कृष्ण मन्त्र का कीर्तन करते समय अपराधों पर विचार किया जाता है। इसलिए केवल हरे कृष्ण का कीर्तन करने से कोई भावदशा को प्राप्त नहीं होता।

    तदश्म-सारं हृदयं बतेदं । । यद्गृह्यमाणैर्हरि-नामधेयैः । न विक्रियेताथ ग्रदा विकारो ।नेत्रे जलं गात्र-रुहेषु हर्षः ॥

    २५॥

    यदि हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करते हुए किसी का हृदय परिवर्तित नहीं होता, उसके नेत्रों से अश्रु नहीं बहते, उसका शरीर कंपित नहीं होता, न ही उसे रोमांच होता है, तो यह समझना चाहिए कि उसका पय लोहे के समान कठोर है। ऐसा भगवन्नाम के चरणकमलों पर अपराधों के कारण होता है।

    'एक' कृष्ण-नामे करे सर्व-पाप नाश ।। प्रेमेर कारण भक्ति करेन प्रकाश ॥

    २६॥

    निरपराध होकर हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करने मात्र से सारे पाप-कर्म दूर हो जाते हैं और भगवत्प्रेम की कारणस्वरूपा शुद्ध भक्ति प्रकट होती है।

    प्रेमेर उदये हय प्रेमेर विकार ।स्वेद-कम्प-पुलकादि गद्गदाश्रुधार ॥

    २७॥

    जब किसी में सचमुच भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति जागृत होती है, तो इससे शरीर में स्वेद, कम्पन, हृदय का स्पन्दन, वाणी का अवरोध तथा आँखों में अश्रु जैसे रूपान्तरण उत्पन्न होते हैं।

    अनायासे भव-क्षय, कृष्णेर सेवन ।। एक कृष्ण-नामेर फले पाई एत धन ॥

    २८॥

    हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करने के फलस्वरूप मनुष्य के आध्यात्मिक जीवन में इतनी अधिक उन्नति होती है कि उसके भौतिक जीवन का अन्त तथा भगवत्प्रेम की प्राप्ति एक साथ होते हैं। कृष्ण का पवित्र नाम इतना शक्तिशाली है कि केवल एक नाम के उच्चारण से उसे ये दिव्य सम्पत्ति सहज ही उपलब्ध हो जाती है।

    हेन कृष्ण-नाम यदि लय बहु-बार । तबु यदि प्रेम नहे, नहे अश्रुधार ॥

    २९॥

    तबे जानि, अपराध ताहाते प्रचुर ।।कृष्ण-नाम-बीज ताहे ना करे अङ्कुर ॥

    ३०॥

    । यदि भगवान् के पवित्र नाम का बारम्बार जप करते रहने पर भी मनुष्य में भगवान् के प्रति प्रेम विकसित नहीं होता और उसकी आँखों में अश्रु प्रकट नहीं होते, तो इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जप में उसके अपराधों के फलस्वरूप कृष्ण-नाम का बीज अंकुरित नहीं हो रहा है।

    चैतन्य-नित्यानन्दे नाहि एसब विचार ।नाम लेते प्रेम देन, वहे अश्रुधार ॥

    ३१॥

    किन्तु यदि कोई थोड़ी भी श्रद्धा के साथ भगवान् चैतन्य तथा नित्यानन्द के पवित्र नामों का कीर्तन करता है, तो वह सारे अपराधों से तुरन्त ही मुक्त हो जाता है। इस तरह वह ज्योंही हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करता है, त्योंही उसे भगवत्प्रेम की भावविभोरता का अनुभव होता है।

    स्वतन्त्र ईश्वर प्रभु अत्यन्त उदार ।ताँरै ना भजिले कभु ना हय निस्तार ॥

    ३२॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु स्वतन्त्र पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं और वे अत्यन्त दयालु हैं। उनकी पूजा किये बिना किसी को मुक्ति नहीं मिल सकती।

    ओरे मूढ़ लोक, शुन चैतन्य-मङ्गल ।चैतन्य-महिमा ग्राते जानिबे सकल ॥

    ३३ ॥

    अरे मूर्खा, जरा श्री चैतन्य-मंगल तो पढ़ो! इस ग्रंथ को पढ़कर तुम श्री चैतन्य महाप्रभु की सारी महिमाओं को समझ सकते हो।

    कृष्ण-लीला भागवते कहे वेद-व्यास ।।चैतन्य-लीलार व्यास वृन्दावन-दास ॥

    ३४॥

    । जिस तरह व्यासदेव ने श्रीमद्भागवत में कृष्ण की सारी लीलाओं का संकलन किया है, उसी तरह ठाकुर वृन्दावन दास ने चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं का वर्णन किया है।

    वृन्दावन-दास कैल'चैतन्य-मङ्गल' ।।याँहार श्रवणे नाशे सर्व अमङ्गल ॥

    ३५॥

    ठाकुर वृन्दावन दास ने श्री चैतन्य-मंगल की रचना की, जिसके सुनने से सारे अमंगल नष्ट हो जाते हैं।

    चैतन्य-निताइर ग्राते जानिये महिमा ।ग्राते जानि कृष्ण-भक्ति-सिद्धान्तेर सीमा ॥

    ३६॥

    । श्री चैतन्य मंगल पढ़कर मनुष्य श्री चैतन्य महाप्रभु तथा नित्यानन्द प्रभु की सारी महिमाओं या सत्य को समझ सकता है और भगवान् कृष्ण की भक्ति के चरम निष्कर्ष तक पहुँच सकता है।

    भागवते व्रत भक्ति-सिद्धान्तेर सार।लिखियाछेन इँहा जानि' करिया उद्धार ॥

    ३७॥

    श्रील वृन्दावन दास ठाकुर ने श्री-चैतन्य-मंगल (जो बाद में श्रीचैतन्य-भागवत कहलाया) में श्रीमद्भागवत से प्रामाणिक उद्धरण देते हुए भक्ति के निष्कर्ष और सार प्रस्तुत किये हैं।

    ‘चैतन्य-मङ्गल' शुने ग्रदि पाषण्डी, ग्रवन ।सेह महा-वैष्णव हय ततक्षण ॥

    ३८॥

    । यदि बड़ी से बड़ा नास्तिक भी चैतन्य मंगल को सुने, तो वह तुरन्त महान् भक्त बन जाता है।

    मनुष्ये रचिते नारे ऐछे ग्रन्थ धन्य ।वृन्दावन-दास-मुखे वक्ता श्री-चैतन्य ॥

    ३९॥

    इस पुस्तक का विषय इतना भव्य है कि लगता है मानो श्री वृन्दावन दास ठाकुर की रचना के माध्यम से साक्षात् श्री चैतन्य महाप्रभु स्वयं बोल रहे हों।

    वृन्दावन-दास-पदे कोटि नमस्कार ।ऐछे ग्रन्थ करि' तेंहो तारिला संसार ॥

    ४०॥

    मैं वृन्दावन दास ठाकुर के चरणकमलों पर कोटि-कोटि प्रणाम करता हूँ। उनके अतिरिक्त अन्य कोई व्यक्ति सभी पतितात्माओं के उद्धार के लिए ऐसा अद्भुत ग्रंथ नहीं लिख सकता था।

    नारायणी–चैतन्येर उच्छिष्ट-भाजने ।ताँर गर्भे जन्मिला श्री-दास-वृन्दावन ॥

    ४१॥

    नारायणी सदा चैतन्य महाप्रभु का जूठन खाया करती थी। श्रील वृन्दावन दास ठाकुर उसी की कोख से जन्मे थे।

    ताँर कि अद्भुत चैतन्य-चरित-वर्णन ।ग्राहार श्रवणे शुद्ध कैल त्रिभुवन ॥

    ४२॥

    अहा! चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं का कैसा ही अद्भुत वर्णन उन्होंने दिया है। तीनों लोकों में जो भी उसे सुनता है, वह शुद्ध (पवित्र) हो जाता है।

    अतएव भज, लोक, चैतन्य-नित्यानन्द ।। खण्डिबे संसार-दुःख, पाबे प्रेमानन्द ॥

    ४३॥

    हर एक से मेरा आग्रह है कि चैतन्य महाप्रभु तथा नित्यानन्द प्रभु द्वारा दी गई भक्ति-विधि को अपनायें और इस तरह भौतिक संसार के दुःखों से मुक्त होकर भगवान् की प्रेमाभक्ति प्राप्त करें।

    वृन्दावन-दास कैल'चैतन्य-मङ्गल' ।।ताहाते चैतन्य-लीला वर्णिल सकल ॥

    ४४॥

    श्रील वृन्दावन दास ठाकुर ने चैतन्य-मंगल लिखा है और उसमें चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं का पूरी तरह विस्तार से वर्णन किया है।

    सूत्र करि' सब लीला करिल ग्रन्थन ।पाछे विस्तारिया ताहार कैल विवरण ॥

    ४५ ॥

    उन्होंने सर्वप्रथम संक्षेप में महाप्रभु की लीलाएँ दी हैं और बाद में उनका विस्तार से वर्णन किया है।

    चैतन्य-चन्द्रेर लीला अनन्त अपार ।वर्णिते वर्णिते ग्रन्थ हइल विस्तार ॥

    ४६॥

    चैतन्य महाप्रभु की लीलाएँ अनन्त तथा अगाध हैं, अतएव इन सबका वर्णन करने से यह ग्रंथ विशालकाय बन गया है।

    विस्तार देखिया किछु सङ्कोच हैल मन ।।सूत्र-धृत कोन लीला ना कैल वर्णन ॥

    ४७॥

    उन्हें इसे इतमा विस्तृत देखकर बाद में उन्हें लगा कि उनमें से कुछ का वर्णन ठीक-ठीक नहीं हो पाया है।

    नित्यानन्द-लीला-वर्णने हइल आवेश ।चैतन्येर शेष-लीला रहिल अवशेष ॥

    ४८॥

    उन्होंने नित्यानन्द प्रभु की लीलाओं का भावमय वर्णन किया है, किन्तु चैतन्य महाप्रभु की अन्त्य-लीलाएँ अनकही रह गईं।

    सेइ सब लीलार शुनिते विवरण ।।वृन्दावन-वासी भक्तेर उत्कण्ठित मन ॥

    ४९॥

    वृन्दावन के सारे भक्त इन लीलाओं को सुनने के लिए अत्यन्त उत्सुक रहते थे।

    वृन्दावने कल्प-द्रुमे सुवर्ण-सदन ।महा-योगपीठ ताहाँ, रत्न-सिंहासन ॥

    ५०॥

    । वृन्दावन नामक महान् तीर्थस्थल में कल्पवृक्ष के नीचे रत्नों से जड़ित एक सुनहला सिंहासन है।

    ताते वसि' आछे सदा व्रजेन्द्र-नन्दन ।'श्री-गोविन्द-देव' नाम साक्षात्मदन ॥

    ५१॥

    उस सिंहासन पर नन्द महाराज के पुत्र श्री गोविन्ददेव विराजमान हैं, जो दिव्य कामदेव हैं।

    राज-सेवा हय ताँहा विचित्र प्रकार ।दिव्य सामग्री, दिव्य वस्त्र, अलङ्कार ॥

    ५२॥

    वहाँ पर गोविन्द देव की नाना प्रकार से राजसी सेवा की जाती है। उनके वस्त्र, आभूषण तथा साज-सामग्री सभी दिव्य हैं।

    सहस्र सेवक सेवा करे अनुक्षण ।सहस्र-वदने सेवा ना ग्राय वर्णन ॥

    ५३॥

    गोविन्दजी के उस मन्दिर में हजारों सेवक भक्ति-भाव से सदैव भगवान् की सेवा में लगे रहते हैं। हजारों मुखों से भी इस सेवा का वर्णन कर पाना सम्भव नहीं है।

    सेवार अध्यक्ष---श्री-पण्डित हरिदास ।।ताँर ग्रशः-गुण सर्व-जगते प्रकाश ॥

    ५४॥

    उस मन्दिर के मुख्य सेवक श्री हरिदास पण्डित हैं। उनके गुण तथा उनका यश सारे जगत् में प्रसिद्ध है।

    सुशील, सहिष्णु, शान्त, वदान्य, गम्भीर ।मधुर-वचन, मधुर-चेष्टा, महा-धीर ॥

    ५५॥

    वे सुशील, सहनशील, शान्त, वदान्य, गम्भीर, मृदुभाषी तथा अत्यन्त धीर थे।

    सबार सम्मान-कर्ता, करेन सबार हित ।। कौटिल्य-मात्सर्य-हिंसा ना जाने ताँर चित ॥

    ५६॥

    वे सबको सम्मान देते थे और सबकी भलाई के लिए कार्य करते थे। उनके मन में कूटनीति, ईष्र्या तथा द्वेष लेशमात्र भी नहीं थे।

    कृष्णेर ये साधारण सद्गुण पञ्चाश। से सब गुणेर ताँर शरीरे निवास ॥

    ५७॥

    उनके शरीर में भगवान् कृष्ण के पचास गुण विद्यमान थे।

    ग्रस्यास्ति भक्तिर्भगवत्यकिञ्चना सर्वैर्गुणैस्तत्र समासते सुराः । हरावभक्तस्य कुतो महद्गुणामनो-रथेनासति धावतो बहिः ॥

    ५८॥

    यदि किसी में कृष्ण के प्रति अविचल भक्तिमयी श्रद्धा है, तो उसमें कृष्ण तथा सारे देवताओं के सद्गुण धीरे-धीरे प्रकट होते रहते हैं। किन्तु जिसमें पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के प्रति भक्ति नहीं होती, उसमें सुयोग्यता नहीं होती, क्योंकि वह मनोकल्पना द्वारा भगवान् के बाह्य रूप भौतिक जगत् में लगा रहता है।

    पण्डित-गोसाजिर शिष्य--अनन्त आचार्य ।कृष्ण-प्रेममय-तनु, उदार, सर्व-आर्य ॥

    ५९ ॥

    अनन्त आचार्य गदाधर पण्डित के शिष्य थे। उनका शरीर सदैव भगवत्प्रेम में निमग्न रहता था। वे उदार थे और सभी प्रकार से उन्नत थे।

    ताँहार अनन्त गुण के करु प्रकाश ।। ताँर प्रिय शिष्य इँह–पण्डित हरिदास ॥

    ६०॥

    अनन्त आचार्य समस्त सद्गुणों के आगार थे। उनके बड़प्पन का अनुमान कोई नहीं लगा सकता। पण्डित हरिदास उन्हीं के प्रिय शिष्य थे।

    चैतन्य-नित्यानन्दे ताँर परम विश्वास ।चैतन्य-चरिते ताँर परम उल्लास ॥

    ६१॥

    पण्डित हरिदास को चैतन्य महाप्रभु तथा नित्यानन्द प्रभु में प्रगाढ़ श्रद्धा थी। अतएव उनकी लीलाओं तथा गुणों को जानने से उन्हें परम तुष्टि होती थी।

    वैष्णवेर गुण-ग्राही, ना देखये दोष ।काय-मनो-वाक्ये करे वैष्णव-सन्तोष ॥

    ६२॥

    वे वैष्णवों के सद्गुणों को सदैव स्वीकार करते थे और उनमें वे कोई दोष नहीं पाते थे। वे वैष्णवों को तुष्ट करने में ही अपना तन-मन लगाते थे।

    निरन्तर शुने तेंहो 'चैतन्य-मङ्गल' ।ताँहार प्रसादे शुनेन वैष्णव-सकल ॥

    ६३ ॥

    वे सदैव चैतन्य मंगल का पाठ सुनते थे और उनकी कृपा से अन्य सारे वैष्णव भी इसे सुना करते थे।

    कथाय सभा उज्वल करे ग्रेन पूर्ण-चन्द्र ।निज-गुणामृते बाड़ाय वैष्णव-आनन्द ॥

    ६४॥

    वे चैतन्य मंगल पढ़कर सारी वैष्णव सभा को पूर्ण चन्द्रमा की भाँति आलोकित करते थे और अपने गुणों के अमृत से उनके दिव्य आनन्द को वर्धित करते थे।

    तेहो अति कृपा करि' आज्ञा कैला मोरे ।।गौराङ्गेर शेष-लीला वणिबार तरे ॥

    ६५॥

    उन्होंने अपनी अहैतुकी कृपा से मुझे श्री चैतन्य महाप्रभु की अन्तिम लीलाओं को लिखने का आदेश दिया।

    काशीश्वर गोसाजिर शिष्य–गोविन्द गोसाजि ।गोविन्देर प्रिय-सेवक ताँर सम नात्रि ॥

    ६६॥

    वृन्दावन में भगवान् गोविन्द की सेवा में लगे पुरोहित गोविन्द गोसांई काशीश्वर गोसांई के शिष्य थे। गोविन्द अर्चाविग्रह को उनसे बढ़कर कोई अन्य सेवक प्रिय न था।

    ग्रादवाचार्य गोसाजि श्री-रूपेर सङ्गी ।।चैतन्य-चरिते तेंहो अति बड़ रङ्गी ॥

    ६७॥

    श्रील रूप गोस्वामी के नित्य पार्षद श्री यादवाचार्य गोसांई भी चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं को सुनने तथा उनका कीर्तन करने में अत्यन्त उत्साह दिखलाते थे।

    पण्डित-गोसाजिर शिष्य---भुगर्भ गोसात्रि ।गौर-कथा विना आर मुखे अन्य नाइ ॥

    ६८॥

    पण्डित गोसांई के शिष्य भूगर्भ गोसांई चैतन्य महाप्रभु सम्बन्धी कथाओं में सदैव लगे रहते थे। उसके अतिरिक्त वे और कुछ भी नहीं जानते थे।

    ताँर शिष्य-गोविन्द पूजक चैतन्य-दास ।मुकुन्दानन्द चक्रवर्ती, प्रेमी कृष्णदास ॥

    ६९॥

    इनके शिष्यों में से थे, गोविन्द अर्चाविग्रह के पुजारी चैतन्यदास, मुकुन्दानन्द चक्रवर्ती तथा महाभागवत कृष्णदास।

    आचार्य-गोसाजिर शिष्य चक्रवर्ती शिवानन्द । निरवधि ताँर चित्ते चैतन्य-नित्यानन्द ॥

    ७० ॥

    अनन्त आचार्य के शिष्यों में से शिवानन्द चक्रवर्ती हुए, जिनके हृदय में चैतन्य महाप्रभु तथा नित्यानन्द प्रभु निरन्तर वास करते थे।

    आर व्रत वृन्दावने बैसे भक्त-गण ।शेष-लीला शुनिते सबार हैल मन ॥

    ७१॥

    इनके अतिरिक्त वृन्दावन में अन्य अनेक महान् भक्त थे। वे सभी चैतन्य महाप्रभु की अन्तिम लीलाओं को सुनने के इच्छुक थे।

    मोरे आज्ञा करिला सबे करुणा करिया ।ताँ-सबार बोले लिखि निर्लज्ज हइया ॥

    ७२।। इन सभी भक्तों ने कृपा करके मुझे श्री चैतन्य महाप्रभु की अन्तिम लीलाओं के सम्बन्ध में लिखने का आदेश दिया। यद्यपि मैं निर्लज्ज हूँ, किन्तु उन्हीं के आदेश से मैंने यह चैतन्य-चरितामृत लिखने का प्रयास किया है।

    वैष्णवेर आज्ञा पाळा चिन्तित-अन्तरे । मदन-गोपाले गेलाँ आज्ञा मागिबारे ॥

    ७३॥

    वैष्णवों की आज्ञा प्राप्त करने के बाद, लेकिन अपने मन में चिन्तित होने के कारण मैं वृन्दावन के मदनमोहन मन्दिर में उनकी भी आज्ञा लेने के लिए गया।

    दरशन करि कैलें चरण वन्दन ।गोसाजि-दास पूजारी करे चरण-सेवन ॥

    ७४॥

    । जब मैं मदनमोहन के मन्दिर में दर्शन करने गया, तो पुजारी गोसांई दास भगवान् के चरणों की सेवा कर रहे थे। मैंने भी भगवान् के चरणकमलों पर प्रार्थना की।

    प्रभुर चरणे यदि आज्ञा मागिल ।। प्रभु-कण्ठ हैते माला खसिया पड़िल ॥

    ७५ ॥

    जब मैंने भगवान् से आज्ञा माँगी, तो तुरन्त ही उनके गले से एक माला खिसककर नीचे आ गई।

    सब वैष्णव-गण हरि-ध्वनि दिल । गोसाञि-दास आनि' माला मोर गले दिल ॥

    ७६ ॥

    ज्योंही यह घटना घटी तो वहाँ पर खड़े सारे वैष्णवजनों ने जोर से ‘हरिबोल!' की हर्षध्वनि की और पुजारी गोसांई दास ने वह माला लाकर मेरे गले में डाल दी।

    आज्ञा-माला पाञा आमार हइल आनन्द ।ताहाङिकरिनु एइ ग्रन्थेर आरम्भ ॥

    ७७॥

    इस माला को भगवान् के आदेश के रूप में पाकर मैं अत्यधिक प्रसन्न हुआ और तुरन्त ही मैंने वहीं पर यह ग्रंथ लिखना प्रारम्भ कर दिया।

    एइ ग्रन्थ लेखाय मोरे ‘मदन-मोहन' ।। आमार लिखन ग्रेन शुकेर पठन ॥

    ७८ ॥

    वास्तव में श्रीचैतन्य चरितामृत मेरा लिखा हुआ नहीं है, अपितु श्री मदनमोहन द्वारा लिखाया गया है। मेरा लिखना तो तोते जैसा दोहराना (पुनरावृत्ति) है।

    सेइ लिखि, मदन-गोपाल ये लिखाय ।।काष्ठेर पुत्तली येन कुहके नाचाये ॥

    ७९॥

    जिस प्रकार जादूगर कठपुतली को नचाता है, उसी प्रकार मदनगोपाल मुझे जो-जो आदेश देते हैं, मैं वही लिखता हूँ।

    कुलाधिदेवता मोर--मदन-मोहन । झॉर सेवक-रघुनाथ, रूप, सनातन ॥

    ८०॥

    मैं मदनमोहन को अपने कुलदेवता के रूप में स्वीकार करता हूँ, जिनकी उपासना करने वालों में रघुनाथ दास गोस्वामी, श्री रूप गोस्वामी तथा सनातन गोस्वामी शामिल हैं।

    वृन्दावन-दासेर पाद-पद्म करि' ध्यान । ताँर आज्ञा लञा लिखि ग्राहाते कल्याण ॥

    ८१॥

    तब मैंने श्रील वृन्दावन दास ठाकुर के चरणकमलों पर प्रार्थना करके उनकी अनुमति माँगी और उनकी अनुमति पा लेने के बाद मैंने यह मंगलमय ग्रंथ लिखने का प्रयास किया है।

    चैतन्य-लीलाते 'व्यास' वृन्दावन-दास ।तर कृपा विना अन्ये ना हय प्रकाश ॥

    ८२॥

    श्रील वृन्दावन दास ठाकुर चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं के प्रामाणिक लेखक हैं। अतएव उनकी कृपा के बिना इन लीलाओं का वर्णन नहीं किया जा सकता।

    मूर्ख, नीच, क्षुद्र मुजि विषय-लालस ।।वैष्णवाज्ञा-बले करि एतेक साहस ॥

    ८३॥

    मैं मूर्ख, निम्न कुल में उत्पन्न तथा क्षुद्र हूँ और सदा ही भौतिक भोग की इच्छा करता हूँ। फिर भी वैष्णवों की आज्ञा के कारण मैं इस दिव्य ग्रंथ को लिखने के लिए अत्यन्त उत्साहित हूँ।

    श्री-रूप-रघुनाथ-चरणेर एइ बल ।याँर स्मृते सिद्ध हय वाञ्छित-सकल ॥

    ८४॥

    श्री रूप गोस्वामी तथा रघुनाथदास गोस्वामी के चरणकमल ही मेरे बल के स्रोत हैं। उनके चरणकमलों के स्मरण से मनुष्य की सारी इच्छाएँ पूरी हो सकती हैं।

    श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश ।चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥

    ८५ ॥

    श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों पर प्रार्थना करते हुए तथा सदैव उनकी कृपा की आकांक्षा करते हुए मैं, कृष्णदास उनके चरणचिह्नों का अनुगमन करते हुए श्रीचैतन्य-चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।

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    अध्याय नौ: भक्ति सेवा का इच्छा वृक्ष

    तं श्रीमत्कृष्ण-चैतन्य-देवं वन्दे जगद्गुरुम् ।।ग्रस्यानुकम्पया श्वापि महाब्धि सन्तरेत्सुखम् ॥

    १॥

    मैं अखिल जगत् के गुरु श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को सादर नमस्कार करता हूँ, जिनकी कृपा से एक कुत्ता भी महासागर को पार कर सकता है।

    जय जय श्री-कृष्ण-चैतन्य गौरचन्द्र ।।जय जयाद्वैत जय जय नित्यानन्द ॥

    २॥

    उन श्रीकृष्ण चैतन्य की जय हो, जो गौरहरि कहलाते हैं। अद्वैताचार्य तथा नित्यानन्द प्रभु की जय हो! जय जय श्रीवासादि गौर-भक्त-गण ।।सर्वाभीष्ट-पूर्ति-हेतु याँहार स्मरण ॥

    ३॥

    श्रीवास ठाकुर इत्यादि चैतन्य महाप्रभु के भक्तों की जय हो! मैं अपनी सारी इच्छाओं की पूर्ति के लिए उनके चरणकमलों का स्मरण करता हूँ।

    श्री-रूप, सनातन, भट्ट रघुनाथ ।श्री-जीव, गोपाल-भट्ट, दास-रघुनाथ ॥

    ४॥

    मैं छहों गोस्वामियों-रूप, सनातन, भट्ट रघुनाथ, श्री जीव, गोपाल भट्ट तथा दास रघुनाथ-का भी स्मरण करता हूँ।

    एसब-प्रसादे लिखि चैतन्य-लीला-गुण ।।जानि वा ना जानि, करि आपन-शोधन ॥

    ५॥

    । इन सारे वैष्णवों तथा गुरुओं की कृपा से ही मैं श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं और गुणों के बारे में लिखने का प्रयास कर रहा हूँ। चाहे जानकर हो अथवा अनजाने में, मैं आत्मशुद्धि के लिए ही यह पुस्तक लिख रहा हूँ।

    माला-कारः स्वयं कृष्ण-प्रेमामर-तरुः स्वयम् ।। दाता भोक्ता तत्फलानां ग्रस्तं चैतन्यमाश्रये ॥

    ६॥

    मैं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु की शरण लेता हूँ, जो स्वयं कृष्ण-प्रेम रूपी वृक्ष हैं, इसके माली हैं और इसके फलों के प्रदाता तथा भोक्ता दोनों हैं।

    प्रभु कहे, आमि ‘विश्वम्भर' नाम धरि ।। नाम सार्थक हय, यदि प्रेमे विश्व भरि ॥

    ७॥

    चैतन्य महाप्रभु ने सोचा, मेरा नाम विश्वम्भर अर्थात् 'अखिल ब्रह्माण्ड का पालन करने वाला है। यह नाम तभी सार्थक बनेगा, यदि मैं अखिल ब्रह्माण्ड को भगवत्प्रेम से भर दूँ।

    एत चिन्ति' लैला प्रभु मालाकार-धर्म ।।नवद्वीपे आरम्भिला फलोद्यान-कर्म ॥

    ८॥

    इस प्रकार सोचते हुए उन्होंने माली का कार्य स्वीकार किया और नवद्वीप में एक उद्यान ( बगीचा ) लगाना प्रारम्भ कर दिया।

    श्री-चैतन्य मालाकार पृथिवीते आनि' ।।भक्ति-कल्पतरु रोपिला सिञ्चि' इच्छा-पानि ॥

    ९॥

    इस प्रकार महाप्रभु भक्ति-रूपी कल्पवृक्ष को इस पृथ्वी पर ले आये और स्वयं इसके माली बने। उन्होंने बीज बोया और उसे अपनी इच्छारूपी जल से सींचा।

    जय श्री माधवपुरी कृष्ण-प्रेम-पूर ।भक्ति-कल्पतरुर तेहो प्रथम अङ्कर ॥

    १०॥

    कृष्ण-भक्ति के आगार श्री माधवेन्द्र पुरी की जय हो! वे भक्ति के कल्पवृक्ष हैं और उन्हीं में भक्ति का प्रथम बीज अंकुरित हुआ।

    श्री-ईश्वरपुरी-रूपे अङ्कर पुष्ट हैल ।। आपने चैतन्य-माली स्कन्ध उपजिल ॥

    ११॥

    इसके बाद भक्ति का बीज श्री ईश्वरपुरी के रूप में अंकुरित हुआ और फिर श्री चैतन्य महाप्रभु जो स्वयं माली थे, उस भक्ति रूपी वृक्ष को मुख्य तना बने।

    निजाचिन्त्य-शक्त्ये माली हा स्कन्ध हय । सकल शाखार सेई स्कन्ध मूलाश्रय ॥

    १२॥

    । अपनी अचिन्त्य शक्तियों के कारण महाप्रभु एकसाथ माली, तना तथा शाखाएँ बने।

    परमानन्द पुरी, आर केशव भारती ।। ब्रह्मानन्द पुरी, आर ब्रह्मानन्द भारती ॥

    १३ ॥

    विष्णु-पुरी, केशव-पुरी, पुरी कृष्णानन्द ।। श्री-नृसिंहतीर्थ, आर पुरी सुखानन्द ॥

    १४॥

    एइ नव मूल निकसिल वृक्ष-मूले । एइ नव मूले वृक्ष करिल निश्चले ॥

    १५॥

    श्री परमानन्द पुरी, केशव भारती, ब्रह्मानन्द पुरी, ब्रह्मानन्द भारती, श्री विष्णु पुरी, केशव पुरी, कृष्णानन्द पुरी, श्री नृसिंह तीर्थ तथा सुखानन्द पुरी-ये नौ संन्यासी वे जड़े हैं, जो उस वृक्ष के तने से फूटीं। इस तरह इन नौ जड़ों के बल पर वह वृक्ष दृढ़ता से खड़ा रहा।

    मध्य-मूल परमानन्द पुरी महा-धीर।।अष्ट दिके अष्ट मूल वृक्ष कैल स्थिर ॥

    १६॥

    धीर गम्भीर परमानन्द पुरी मुख्य ( केन्द्रीय) जड़ बने और आठों दिशाओं में अन्य आठ जड़ों समेत श्री चैतन्य महाप्रभु रूपी वृक्ष सुस्थिर हो गया।

    स्कन्धेर उपरे बहु शाखा उपजिल । उपरि उपरि शाखा असङ्ख्य हइल ॥

    १७॥

    । तने से अनेक शाखाएँ फूटीं और उनके भी ऊपर अनेक उपशाखाएँ निकलीं।

    विश विश शाखा करि' एक एक मण्डल । महा-महा-शाखा छाइल ब्रह्माण्ड सकल ॥

    १८॥

    इस तरह चैतन्य रूपी वृक्ष की शाखाओं से एक गुच्छा या समाज बना और बड़ी-बड़ी शाखाएँ सारे ब्रह्माण्ड में छा गईं।

    एकैक शाखाते उपशाखा शत शत ।।ग्रत उपजिल शाखा के गणिबे कत ॥

    १९॥

    हर शाखा से सैकड़ों उपशाखाएँ फूटीं। इस तरह कितनी शाखाएँ निकलीं, इसकी गिनती कोई नहीं कर सकता।

    मुख्य मुख्य शाखा-गणेर नाम अगणन ।।आगे त' करिब, शुन वृक्षेर वर्णन ॥

    २०॥

    मैं इन असंख्य शाखाओं में से सर्वप्रमुख शाखाओं का नाम गिनाने का प्रयत्न करूंगा। कृपया चैतन्य-वृक्ष का वर्णन सुनें।

    वृक्षेर उपरे शाखा हैल दुइ स्कन्ध ।।एक 'अद्वैत' नाम, आर 'नित्यानन्द' ॥

    २१॥

    वृक्ष के ऊपरी तने के दो भाग हो गये। एक तने का नाम श्री अद्वैत प्रभु था और दूसरे का श्री नित्यानन्द प्रभु।

    सेइ दुइ-स्कन्धे बहु शाखा उपजिल ।तार उपशाखा-गणे जगत्छाइल ॥

    २२॥

    इन दोनों तनों से अनेक शाखाएँ एवं उपशाखाएँ उत्पन्न हुईं, जो सारे जगत् पर छा गईं।

    बड़ शाखा, उपशाखा, तारे उपशाखा । ग्रत उपजिल तार के करिबे लेखा ॥

    २३॥

    ये शाखाएँ तथा उपशाखाएँ और उनकी भी उपशाखाएँ इतनी अधिक हो गईं कि उन सबके विषय में लिख पाना असम्भव है।

    शिष्य, प्रशिष्य, आर उपशिष्य-गण ।। जगत्व्यापिल तार नाहिक गणन ॥

    २४॥

    इस तरह शिष्य, उनके शिष्य और उन सबके प्रशंसक सारे जगत् में फैल गये। इन सबको गिना पाना सम्भव नहीं है।

    उडुम्बर-वृक्ष ग्रेन फले सर्व अङ्गे।।एइ मत भक्ति-वृक्षे सर्वत्र फल लागे ॥

    २५ ॥

    जिस प्रकार विशाल अंजीर वृक्ष में सर्वत्र फल लगते हैं, उसी तरह भक्ति-वृक्ष के प्रत्येक अंग में फल लगे।

    मूल-स्कन्धेर शाखा आर उपशाखा-गणे ।लागिला ये प्रेम-फल,—अमृतके जिने ॥

    २६॥

    चूँकि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु मूल तना थे, अतएव शाखाओं तथा उपशाखाओं में जो फल लगे, उनका स्वाद अमृत से भी बढ़कर था।

    पाकिल ये प्रेम-फल अमृत-मधुर ।विलाय चैतन्य-माली, नाहि लय मूल ॥

    २७॥

    फल पकते गये और मीठे तथा अमृतमय हो गये। माली श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें कोई मूल्य माँगे बिना ही वितरित कर दिया।

    त्रि-जगते व्रत आछे धन-रत्नमणि ।।एक-फलेर मूल्य करि' ताहा नाहि गणि ॥

    २८ ॥

    भक्ति के ऐसे एक अमृतमय फल के मूल्य की बराबरी तीनों लोक की सारी सम्पदा भी नहीं कर सकती।।

    मागे वा ना मागे केह, पात्र वा अपात्र ।।इहार विचार नाहि जाने, देय मात्र ॥

    २९ ॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु ने इसका विचार किये बिना ही भक्तिरूपी फल का वितरण किया कि कौन इसे माँगता है, कौन नहीं अथवा कौन उसको पाने का पात्र है और कौन कुपात्र।।

    अञ्जलि अञ्जलि भरि' फेले चतुर्दिशे ।। दरिद्र कुड़ाञा खाय, मालाकार हासे ॥

    ३०॥

    दिव्य माली श्री चैतन्य महाप्रभु ने अंजुली में भर-भरकर सभी दिशाओं में फल बाँट दिये और जब गरीब, भूखे लोगों ने यह फल खाया, तो माली परम आनन्दित होकर मुस्कुराते रहे।

    मालाकार कहे,—शुन, वृक्ष-परिवार ।मूलशाखा-उपशाखा व्रतेक प्रकार ॥

    ३१॥

    इस प्रकार श्री चैतन्य महाप्रभु ने भक्ति-वृक्ष की विभिन्न प्रकार की शाखाओं तथा उपशाखाओं को संबोधित किया है।

    अलौकिक वृक्ष करे सर्वेन्द्रिय-कर्म ।स्थावर हइया धरे जङ्गमेर धर्म ॥

    ३२॥

    चूँकि भक्ति-वृक्ष दिव्य होता है, अतएव इसका प्रत्येक अंग अन्य सारे अंगों का कार्य सम्पन्न कर सकता है। यद्यपि वृक्ष अचर माना जाता है, किन्तु ऐसा होते हुए भी यह वृक्ष जंगम ( चलने वाला) है।

    ए वृक्षेर अङ्ग हय सब सचेतन ।बाड़िया व्यापिल सबे सकल भुवन ॥

    ३३॥

    इस वृक्ष के सारे अंग आध्यात्मिक रूप से सचेतन हैं और वे ज्योंज्यों बढ़ते हैं त्यों-त्यों सारे जगत् में फैल जाते हैं।

    एकला मालाकार आमि काहाँ काहाँ ग्राब ।।एकला वा कत फल पाड़िया विलाब ॥

    ३४॥

    मैं ही अकेला माली हूँ। मैं कितने स्थानों में जा सकता हूँ? मैं कितने फल तोड़ और बाँट सकता हूँ? एकला उठा दिते हय परिश्रम ।केह पाय, केह ना पाय, रहे मने भ्रम ॥

    ३५॥

    अकेले फलों को तोड़कर उन्हें वितरित करना निश्चित ही अत्यधिक परिश्रम का कार्य है, परन्तु इतने पर भी मुझे सन्देह है कि कुछ लोग उन्हें प्राप्त कर पाएँगे और कुछ नहीं।

    अतएव आमि आज्ञा दिलँ सबकारे ।ग्राहाँ ताहाँ प्रेम-फल देह' झारे तारे ॥

    ३६॥

    अतएव मैं इस ब्रह्माण्ड के हर व्यक्ति को आज्ञा देता हूँ कि वह इस कृष्णभावनामृत आन्दोलन को स्वीकार करे और इसे सर्वत्र वितरित करे।

    एकला मालाकार आमि कत फल खाब ।। ना दिया वा एइ फल आर कि करिब ॥

    ३७॥

    मैं अकेला माली हूँ। यदि मैं इन्हें वितरित न करूं तो मैं इनका क्या करूँगा? अकेले मैं कितने फल खा सकता हूँ? आत्म-इच्छामृते वृक्ष सिञ्चि निरन्तर ।ताहाते असङ्ख्य फल वृक्षेर उपर ॥

    ३८॥

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की दिव्य इच्छा से सारे वृक्ष पर पानी छिड़का गया है और इस तरह भगवत्प्रेम के असंख्य फल लगे हैं।

    अतएव सबै फल देह' ग्रारे तारे ।खाइयो हउक् लोक अजर अमरे ॥

    ३९॥

    इस कृष्णभावनामृत आन्दोलन का वितरण सारे विश्व में करो, जिससे सारे लोग इन फलों को खाकर अन्ततः वृद्धावस्था तथा मृत्यु से मुक्त हो सकें।

    जगत्व्यापिया मोर हबे पुण्य ख्याति ।सुखी हइया लोक मोर गाहिबेक कीर्ति ॥

    ४०॥

    यदि फलों को सारे विश्व में वितरित किया जाए, तो पुण्यात्मा के रूप में मेरी ख्याति सर्वत्र फैलेगी और सारे लोग अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक मेरे नाम की महिमा का गान करेंगे।

    भारत-भूमिते हैल मनुष्य जन्म यार ।जन्म सार्थक करि' कर पर-उपकार ॥

    ४१॥

    जिसने भारतभूमि ( भारतवर्ष ) में मनुष्य जन्म लिया है, उसे अपना जीवन सफल बनाना चाहिए और अन्य सारे लोगों के लाभ के लिए कार्य करना चाहिए।

    एतावजन्म-साफल्यं देहिनामिह देहिषु ।। प्राणैरथैधिया वाचा श्रेय-आचरणं सदा ॥

    ४२ ॥

    यह हर जीव का कर्तव्य है कि वह अपने जीवन, धन, बुद्धि, तथा वाणी से दूसरों के लाभ के लिए कल्याण-कार्य करे।'

    प्राणिनामुपकाराय ग्रदेवेह परत्र च । कर्मणा मनसा वाचा तदेव मति-मान्भजेत् ॥

    ४३॥

    बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह अपने कार्यों, विचारों तथा शब्दों से ऐसे कर्म करे, जो सारे प्राणियों के लिए इस जन्म में तथा अगले जन्म में मंगलकारी हो सकें।'

    माली मनुष्य आमार नाहि राज्य-धन ।।फल-फुल दिया करि' पुण्य उपार्जन ॥

    ४४॥

    । मैं तो केवल माली हूँ। मेरे पास न तो साम्राज्य है, न बहुत सारा धन है। मेरे पास तो केवल कुछ फल और फूल हैं, जिनका उपयोग मैं अपने जीवन में पुण्य प्राप्त करने के लिए करना चाहता हूँ।

    माली हा वृक्ष हइलाँ एइ त' इच्छाते ।सर्व-प्राणीर उपकार हय वृक्ष हैते ॥

    ४५॥

    यद्यपि मैं माली का कार्य कर रहा हूँ, किन्तु मैं वृक्ष भी बनना चाहता हूँ, क्योंकि इस तरह मैं सबको लाभ पहुँचा सकता हूँ।

    अहो एषां वरं जन्म सर्व-प्राण्युपजीविनाम् ।सु-जनस्येव येषां वै विमुखा ग्रान्ति नार्थिनः ॥

    ४६॥

    जरा देखो तो! ये वृक्ष किस तरह हर जीव का पालन कर रहे हैं। इनका जन्म सफल है। इनका आचरण महापुरुषों जैसा है, क्योंकि जो कोई भी वृक्ष से कुछ माँगता है, वह कभी निराश होकर नहीं जाता।

    एइ आज्ञा कैल ग्रदि चैतन्य-मालाकार।परम आनन्द पाइल वृक्ष-परिवार ॥

    ४७॥

    वृक्ष के वंशज ( श्री चैतन्य महाप्रभु के भक्त ) महाप्रभु से यह प्रत्यक्ष आदेश पाकर अत्यन्त प्रसन्न थे।

    ग्रेड ग्राहाँ ताहाँ दान करे प्रेम-फल ।। फलास्वादे मत्त लोक हइल सकल ॥

    ४८॥

    भगवत्प्रेम का फल इतना स्वादिष्ट होता है कि भक्त इसको जहाँ कहीं भी बाँटता है, विश्वभर में कहीं भी, जो इस फल का आस्वादन करता है, वह तुरन्त मदमस्त हो उठता है।

    महा-मादक प्रेम-फल पेट भरि' खाय ।मातिल सकल लोक-हासे, नाचे, गाय ॥

    ४९॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा वितरित भगवत्प्रेम रूपी फल इतना मादक है कि जो भी पेट भर खाता है, वह तुरन्त ही उससे उन्मत्त हो उठता है और स्वतः ही कीर्तन करता, नाचता, हँसता और आनन्द लेता है।

    केह गड़ागड़ि ग़ाय, केह त' हुङ्कार ।देखि' आनन्दित हुआ हासे मालाकार ॥

    ५०॥

    जब महान् माली श्री चैतन्य महाप्रभु देखते हैं कि लोग कीर्तन करते हैं, नाचते और हँसते हैं और कुछ लोग भूमि पर लोटपोट होते हैं तथा कुछ हुंकार भरते हैं, तो वे परम आनन्दित होकर मुस्कुराते हैं।

    एइ मालाकार खाय एइ प्रेम-फल ।।निरवधि मते रहे, विवश-विह्वल ॥

    ५१॥

    यह महान् माली, श्री चैतन्य महाप्रभु, स्वयं इस फल को खाते हैं; फलस्वरूप वे निरन्तर उन्मत्त रहते हैं, मानों असहाय एवं मोहग्रस्त हों।

    सर्व-लोके मत्त कैला आपन-समान । प्रेमे मत्त लोक विना नाहि देखि आन ॥

    ५२॥

    महाप्रभु ने अपने संकीर्तन आन्दोलन से हर एक को अपनी तरह मत्त बना दिया। हमें ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं मिलता, जो उनके संकीर्तन आन्दोलन द्वारा मदमस्त न हो उठा हो।"

    ने ग्रे पूर्वे निन्दा कैल, बलि' मातोयाल ।सेहो फल खाय, नाचे, बले-भाल भाल ॥

    ५३॥

    । जिन लोगों ने पहले श्री चैतन्य महाप्रभु को शराबी कहकर उनकी आलोचना की थी, उन्होंने भी फल खाया और वे, बहुत अच्छा! बहुत अच्छा! कहकर नाचने लगे।

    एइ त कहिलॆ प्रेम-फल-वितरण ।।कल-दाता ने ने शाखा-गण ॥

    ५४॥

    महाप्रभु द्वारा भगवत्प्रेम रूपी फल के वितरण का वर्णन करने के बाद अब मैं चैतन्य महाप्रभु रूपी वृक्ष की विभिन्न शाखाओं का वर्णन करना चाहूँगा।

    श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश ।।चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥

    ५५॥

    श्री रूप और श्री रघुनाथ के चरणकमलों में प्रार्थना करते हुए और उनकी कृपा की सदैव आकांक्षा करते हुए, मैं कृष्णदास उनके चरणचिह्नों पर चलते हुए श्री चैतन्य-चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।

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    अध्याय दस: चैतन्य वृक्ष का तना, शाखाएँ और उप शाखाएँ

    श्री-चैतन्य-पदाम्भोज-मधुपेभ्यो नमो नमः ।।कथञ्चिदाश्रयाद् येषां श्वापि तद्गन्ध-भाग्भवेत् ॥

    १॥

    मैं भ्रमरों के समान उन भक्तों के चरणकमलों में बारम्बार नमस्कार करता हूँ, जो चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों के मधु का निरन्तर आस्वादन करते हैं। यदि कुत्ते जैसा अभक्त भी किसी प्रकार ऐसे भक्तों की शरण में पहुँच जाता है, तो उसे भी कमल के फूल की सुगन्धि का आनन्द प्राप्त होता है।

    जय जय श्री कृष्ण-चैतन्य-नित्यानन्द ।जयाद्वैतचन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ॥

    २॥

    । श्री चैतन्य महाप्रभु तथा नित्यानन्द प्रभु की जय हो! श्री अद्वैत प्रभु की जय हो और श्रीवास समेत चैतन्य महाप्रभु के भक्तों की जय हो! एइ मालीर---एइ वृक्षेर अकथ्य कथन । एबे शुन मुख्य-शाखार नाम-विवरण ॥

    ३॥

    माली तथा वृक्ष के रूप में श्री चैतन्य महाप्रभु का वर्णन अकल्पनीय है। अब इस वृक्ष की शाखाओं के विषय में ध्यान से सुनिये।

    चैतन्य-गोसाजिर व्रत पारिषद-चय ।।गुरु-लघु-भाव ताँर ना हय निश्चय ॥

    ४॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु के अनेक पार्षद थे, किन्तु इनमें से किसी को भी ऊँचा या नीचा नहीं समझना चाहिए। इसका निर्धारण नहीं किया जा सकता।

    ग्रत व्रत महान्त कैला ताँ-सबार गणन ।।केह करिबारे नारे ज्येष्ठ-लघु-क्रम ॥

    ५॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु के सम्प्रदाय के सारे महापुरुषों की गणना इन भक्तों में होती है, किन्तु इनमें कौन छोटा है और कौन बड़ा-इसका अन्तर नहीं हो सकता।

    अतएव ताँ-सबारे करि' नमस्कार ।नाम-मात्र करि, दोष ना लबे आमार ॥

    ६॥

    मैं उन सबको आदर स्वरूप नमस्कार करता हूँ। मेरी उनसे विनती है। कि वे मेरे अपराधों पर ध्यान न दें।

    वन्दे श्री-कृष्ण-चैतन्य-प्रेमामर-तरोः प्रियान् ।।शाखा-रूपान्भक्त-गणान्कृष्ण-प्रेम-फल-प्रदान् ॥

    ७॥

    मैं भगवत्प्रेम के शाश्वत् वृक्ष-रूपी श्री चैतन्य महाप्रभु के समस्त प्रिय भक्तों को नमस्कार करता हूँ। मैं इस वृक्ष की समस्त शाखाओं-रूपी महाप्रभु के उन भक्तों को नमस्कार करता हूँ, जो कृष्ण-प्रेम रूपी फल का वितरण करते हैं।

    श्रीवास पण्डित, आर श्री-राम पण्डित ।।दुइ भाई-दुई शाखा, जगते विदित ॥

    ८॥

    श्रीवास पण्डित तथा श्रीराम पण्डित-इन दोनों भाइयों से दो शाखाएँ प्रारम्भ हुईं, जो संसार में सर्वविदित हैं।

    श्रीपति, श्रीनिधि ताँर दुइ सहोदर ।।चारि भाइर दास-दासी, गृह-परिकर ॥

    ९॥

    उनके अन्य दो भाइयों के नाम श्रीपति तथा श्रीनिधि थे। उन चारों भाइयों, उनके नौकरों तथा नौकरानियों को एक बृहद् शाखा माना जाता है।

    दुइ शाखार उपशाखाय ताँ-सबार गणन ।ग्राँर गृहे महाप्रभुर सदा सङ्कीर्तन ॥

    १० ॥

    इन दोनों शाखाओं से निकलने वाली उपशाखाओं की कोई गिनती नहीं है। श्री चैतन्य महाप्रभु नित्य ही श्रीवास पण्डित के घर में संकीर्तन किया करते थे।

    चारि भाइ सवंशे करे चैतन्येर सेवा ।।गौरचन्द्र विना नाहि जाने देवी-देवा ॥

    ११॥

    ये चारों भाई तथा उनके पारिवारिक सदस्य श्री चैतन्य महाप्रभु की सेवा में पूरी तरह लगे रहते थे। वे अन्य किसी देवता या देवी को नहीं जानते थे।

    'आचार्यरत्न' नाम धरे बड़ एक शाखा ।ताँर परिकर, ताँर शाखा-उपशाखा ॥

    १२॥

    ‘आचार्यरत्न' एक अन्य बड़ी शाखा थे और उनके पार्षद उपशाखाएँ थे।

    आचार्यरत्नेर नाम 'श्री-चन्द्रशेखर'—।याँर घरे देवी-भावे नाचिला ईश्वर ॥

    १३॥

    आचार्यरत्न को श्री चन्द्रशेखर आचार्य भी कहते थे। उनके घर में एक नाटक में चैतन्य महाप्रभु ने लक्ष्मी का अभिनय किया था।

    पुण्डरीक विद्यानिधि—बड़-शाखा जानि ।।याँर नाम लञा प्रभु कान्दिला आपनि ॥

    १४॥

    तृतीय बड़ी शाखा पुण्डरीक विद्यानिधि थे, जो श्री चैतन्य महाप्रभु को इतने प्रिय थे कि कभी-कभी उनकी अनुपस्थिति में महाप्रभु स्वयं रो पड़ते थे।

    बड़ शाखा,—गदाधर पण्डित-गोसाजि । तेहो लक्ष्मी-रूपा, ताँर सम केह नाइ ॥

    १५॥

    चौथी शाखा गदाधर पण्डित को श्रीकृष्ण की हादिनी शक्ति के अवतार के रूप में वर्णित किया जाता है। अतएव उनकी बराबरी कोई नहीं कर सकता।

    ताँर शिष्य-उपशिष्य, ताँर उपशाखा । एइमत सब शाखा-उपशाखार लेखा ॥

    १६॥

    उनके शिष्य तथा प्रशिष्य उनकी उपशाखाएँ हैं। उन सबका वर्णन कर पाना कठिन होगा।

    वक्रेश्वर पण्डित–प्रभुर बड़ प्रिय भृत्य ।।एक-भावे चब्बिश प्रहर झाँर नृत्य ॥

    १७॥

    वृक्ष की पाँचवीं शाखा वक्रेश्वर पण्डित श्री चैतन्य महाप्रभु के अत्यन्त प्रिय सेवक थे। वे बहत्तर घंटे तक लगातार भावविभोर होकर नृत्य कर सकते थे।

    आपने महाप्रभु गाय याँर नृत्य-काले ।प्रभुर चरण धरि' वक्रेश्वर बले ॥

    १८॥

    जब वक्रेश्वर पण्डित नाच रहे थे, तब स्वयं श्री चैतन्य महाप्रभु ने गाना गाया। फलतः वक्रेश्वर पण्डित महाप्रभु के चरणकमलों पर गिर पड़े और इस प्रकार बोले।

    दश-सहस्र गन्धर्व मोरे देह' चन्द्रमुख ।तारा गाय, मुजि नाचों—तबे मोर सुख ॥

    १९॥

    हे चन्द्रमुख! कृपया मुझे आप दस हजार गन्धर्व दें। जब मैं नाचूं और वे गाएँ, तब मैं परम प्रसन्न होऊँगा।

    प्रभु बले-तुमि मोर पक्ष एक शाखा ।।आकाशे उड़िताम यदि पाँ आर पाखा ॥

    २०॥

    महाप्रभु ने उत्तर दिया, मेरे पास तुम्हारे समान केवल एक ही पंख है, किन्तु यदि मेरे पास दूसरा पंख होता तो मैं निश्चय ही आकाश में उड़ता! पण्डित जगदानन्द प्रभुर प्राण-रूप ।लोके ख्यात हो सत्यभामार स्वरूपे ॥

    २१॥

    चैतन्य महाप्रभु की छठी शाखा पण्डित जगदानन्द थे, जो महाप्रभु के प्राणस्वरूप माने जाते थे। वे सत्यभामा ( भगवान् कृष्ण की पटरानियों में से एक ) के अवतार माने जाते हैं।

    प्रीत्ये करिते चाहे प्रभुर लालन-पालन ।वैराग्य-लोक-भये प्रभु ना माने कखन ॥

    २२॥

    । जगदानन्द पण्डित ( सत्यभामा के अवतार रूप में) सदैव चैतन्य महाप्रभु की सुविधाओं का ध्यान रखते थे, किन्तु संन्यासी होने के कारण महाप्रभु उनके द्वारा प्रदत्त सुविधाओं को स्वीकार नहीं करते थे।

    दुइ-जने खमटि लागाय कोन्दल ।ताँर प्रीत्येर कथा आगे कहिब सकल ॥

    २३॥

    कभी-कभी वे दोनों छोटी-छोटी बातों पर झगड़ते हुए प्रतीत होते थे, किन्तु ये झगड़े उनके प्रेम पर आधारित होते थे, जिनके बारे में मैं आगे बतलाऊँगा।

    राघव-पण्डित–प्रभुर आद्य-अनुचर ।ताँर एक शाखा मुख्य–मकरध्वज कर ॥

    २४॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु के मूल अनुयायी राघव पण्डित सातवीं शाखा कहे जाते हैं। उनसे एक अन्य उपशाखा निकली, जिसमें मकरध्वज कर मुख्य थे।

    ताँहार भगिनी दमयन्ती प्रभुर प्रिय दासी । प्रभुर भोग-सामग्री ग्रे करे बार-मासि ॥

    २५॥

    राघव पण्डित की बहिन दमयन्ती महाप्रभु की प्रिय सेविका थी। वह सदैव विभिन्न भोग-सामग्री एकत्र करके महाप्रभु के लिए भोजन बनाती थी।

    से सब सामग्री व्रत झालिते भरिया । राघव लइया ग्रा'न गुपत करिया ॥

    २६॥

    जब चैतन्य महाप्रभु पुरी में थे, तो उनके लिए दमयन्ती जो भोजन तैयार करती, उसे उसका भाई राघव दूसरों की नजर से बचाकर एक थैली में ले जाया करता था।

    बार-मास ताहा प्रभु करेन अङ्गीकार ।। ‘राघवेर झालि' बलि' प्रसिद्धि ग्राहार ॥

    २७॥

    महाप्रभु बारहों महीने यह भोजन स्वीकार करते। ये थैलियाँ अब भी 'राघवेर झालि' अर्थात् 'राघव पण्डित की थैलियाँ' के नाम से विख्यात है।

    से-सब सामग्री आगे करिब विस्तार ।ग्राहार श्रवणे भक्तेर बहे अश्रुधार ॥

    २८॥

    मैं श्री राघव पण्डित की थैली की सामग्री के बारे में इस ग्रंथ में आगे वर्णन करूंगा। इस वृत्तान्त को सुनकर भक्तगण प्रायः रो उठते हैं और उनकी आँखों से अश्रु झरने लगते हैं।

    प्रभुर अत्यन्त प्रिय–पण्डित गङ्गादास ।याँहार स्मरणे हय सर्व-बन्ध-नाश ॥

    २९ ॥

    पण्डित गंगादास श्री चैतन्य वृक्ष की आठवीं प्रिय शाखा थे। जो व्यक्ति उनके कार्यों का स्मरण करता है, वह सारे बन्धनों से मुक्त हो जाता। है।

    चैतन्य-पार्षद--श्री-आचार्य पुरन्दर ।।पिता करि' याँरै बले गौराङ्ग-सुन्दर ॥

    ३०॥

    श्री आचार्य पुरन्दर नवीं शाखा थे, जो श्री चैतन्य महाप्रभु के नित्य पार्षद थे। महाप्रभु उन्हें अपने पिता के रूप में मानते थे।

    दामोदर-पण्डित शाखा प्रेमेते प्रचण्ड ।प्रभुर उपरे स्नेहो कैल वाक्य-दण्ड ॥

    ३१॥

    चैतन्य वृक्ष की दसवीं शाखा, दामोदर पण्डित, भगवान् चैतन्य के प्रेम में इतना आगे बढ़े हुए थे कि एक बार उन्होंने महाप्रभु को बिना किसी झिझक के कड़े शब्द कहकर प्रताड़ित किया।

    दण्ड-कथा कहिब आगे विस्तार करिया ।।दण्डे तुष्ट प्रभु तौरै पाठाइला नदीया ॥

    ३२॥

    इस दण्ड-वृत्तान्त का वर्णन मैं चैतन्य-चरितामृत में आगे करूंगा। महाप्रभु इस दण्ड से इतने तुष्ट हुए कि उन्होंने दामोदर पण्डित को नवद्वीप भेज दिया।

    ताँहार अनुज शाखा–शङ्कर-पण्डित ।‘प्रभु-पादोपाधान' याँर नाम विदित ॥

    ३३॥

    दामोदर पण्डित के छोटे भाई ग्यारहवीं शाखा थे, जिनका नाम शंकर पण्डित था। उन्हें महाप्रभु की पादुकाओं के रूप में माना जाता था।

    सदाशिव-पण्डित याँर प्रभु-पदे आश ।प्रथमेइ नित्यानन्देर याँर घरे वास ॥

    ३४॥

    बारहवीं शाखा, सदाशिव पण्डित, सदैव महाप्रभु के चरणकमलों की सेवा करने के लिए उत्सुक रहते थे। यह उनका अच्छा सौभाग्य था कि जब नित्यानन्द प्रभु नवद्वीप आये, तो वे उन्हीं के घर रूके।

    श्री-नृसिंह-उपासक—प्रद्युम्न ब्रह्मचारी ।।प्रभु ताँर नाम कैला 'नृसिंहानन्द' करि' ॥

    ३५॥

    तेरहवीं शाखा प्रद्युम्न ब्रह्मचारी थे। चूँकि वे भगवान् नृसिंहदेव के उपासक थे, इसलिए श्री चैतन्य महाप्रभु ने उनका नाम बदलकर नृसिंहानन्द ब्रह्मचारी कर दिया था।

    नारायण-पण्डित एक बड़इ उदार ।चैतन्य-चरण विनु नाहि जाने आर ॥

    ३६॥

    चौदहवीं शाखा नारायण पण्डित थे, जो एक महान् एवं उदार भक्त थे और चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों के अतिरिक्त अन्य कोई आश्रय नहीं जानते थे।

    श्रीमान्पण्डित शाखा-प्रभुर निज भृत्य ।देउटि धरेन, ग्रबे प्रभु करेन नृत्य ॥

    ३७॥

    पन्द्रहवीं शाखा श्रीमान् पण्डित थे, जो श्री चैतन्य महाप्रभु के नित्य सेवक थे। जब महाप्रभु नृत्य करते थे, तब वे मशाल लिए रहते थे।

    शुक्लाम्बर-ब्रह्मचारी बड़ भाग्यवान् ।ग्राँर अन्न मागि' काड़ि' खाइला भगवान् ॥

    ३८॥

    सोलहवीं शाखा, शुक्लाम्बर ब्रह्मचारी अत्यन्त भाग्यशाली थे, क्योंकि चैतन्य महाप्रभु परिहास करते हुए या गम्भीर होकर उनसे भोजन माँगते थे और कभी-कभी उनसे बलपूर्वक छीनकर खा लेते थे।

    नन्दन-आचार्य-शाखा जगते विदित ।। लुकाइया दुइ प्रभुर ग्राँर घरे स्थित ॥

    ३९॥

    चैतन्य वृक्ष की सत्रहवीं शाखा, नन्दन आचार्य जगतविदित हैं, क्योंकि दोनों प्रभु (चैतन्य महाप्रभु तथा नित्यानन्द प्रभु) कभी-कभी उनके घर में छिप जाया करते थे।

    श्री-मुकुन्द-दत्त शाखा–प्रभुर समाध्यायी ।याँहार कीर्तने नाचे चैतन्य गोसाजि ॥

    ४०॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु के सहपाठी श्री मुकुन्द दत्त चैतन्य वृक्ष की एक अन्य शाखा थे। जब वे गाते थे, तब श्री चैतन्य महाप्रभु नाचा करते थे।

    वासुदेव दत्त-प्रभुर भृत्य महाशय ।।सहस्र-मुखे याँर गुण कहिले ना हय ॥

    ४१ ॥

    श्री चैतन्य वृक्ष की उन्नीसवीं शाखा, वासुदेव दत्त, एक महापुरुष एवं महाप्रभु के सर्वाधिक अन्तरंग भक्त थे। उनके गुणों का वर्णन हजारों मुखों से भी नहीं किया जा सकता।

    जगते व्रतेक जीव, तार पाप ला ।नरक भुञ्जिते चाहे जीव छाड़ाइया ॥

    ४२॥

    श्रील वासुदेव दत्त ठाकुर चाहते थे कि सारे संसार के लोगों के पापकर्मों का भोग वे ही करें, जिससे चैतन्य महाप्रभु उन लोगों का उद्धार कर सकें।

    हरिदास-ठाकुर शाखार अद्भुत चरित ।। तिन लक्ष नाम तेहो लयेन अपतित ॥

    ४३॥

    चैतन्य वृक्ष की बीसवीं शाखा हरिदास ठाकुर थे। उनका चरित्र अद्भुत था। वे निर्बाध रूप से प्रतिदिन ३ लाख बार कृष्ण-नाम का जप करते थे।

    ताँहार अनन्त गुणकहि दिमात्र ।आचार्य गोसाञि ग्राँरै भुञ्जाय श्राद्ध-पात्र ॥

    ४४॥

    । हरिदास ठाकुर के दिव्य गुणों का कोई अन्त न था। यहाँ मैं उनके गुणों के मात्र एक अंश का ही उल्लेख कर रहा हूँ। वे इतने महान् थे कि अद्वैत गोस्वामी ने जब अपने पिता का श्राद्ध-संस्कार किया, तो उन्हें ही पहली थाली भेंट की।

    प्रह्लादे-समान ताँर गुणेर तरङ्ग ।।ग्रवन-ताड़नेओ ग्राँर नाहिक भू-भङ्ग ॥

    ४५ ॥

    उनके उत्तम गुणों की तरंगें प्रह्लाद महाराज की जैसी थीं। जब मुसलमान शासक ने उन्हें दण्ड दिया, तो उन्होंने अपनी भौंह तक नहीं उठाई।

    तेहो सिद्धि पाइले ताँर देह ला कोले ।।नाचिल चैतन्य-प्रभु महा-कुतूहले ॥

    ४६॥

    हरिदास ठाकुर के दिवंगत होने पर स्वयं महाप्रभु उनके शरीर को अपनी गोद में लेकर बड़े ही भावावेश में नाचने लगे थे।

    ताँर लीला वर्णियाछेन वृन्दावन-दास ।।ग्रेवा अवशिष्ट, आगे करिब प्रकाश ॥

    ४७॥

    श्रील वृन्दावन दास ठाकुर ने चैतन्य भागवत में हरिदास ठाकुर की लीलाओं का विशद वर्णन किया है। जो कुछ शेष रह गया है, उसे मैं इसी पुस्तक में आगे बतलाने का प्रयास करूंगा।

    ताँर उपशाखा--प्रेत कुलीन-ग्रामी जन ।।सत्यराज-आदि ताँर कृपार भाजन ॥

    ४८ ॥

    श्री हरिदास ठाकुर की एक उपशाखा में कुलीन ग्राम के निवासी थे। इनमें से सत्यराज खान या सत्यराज वसु सर्वाधिक प्रसिद्ध थे, जिन्हें हरिदास ठाकुर की पूरी पूरी कृपा प्राप्त थी।

    श्री-मुरारि गुप्त शाखा प्रेमेर भाण्डार ।प्रभुर हृदय द्रवे शुनि' दैन्य ग्राँर ॥

    ४९॥

    श्री चैतन्य वृक्ष की इक्कीसवीं शाखा, मुरारि गुप्त, भगवत्प्रेम के भंडार थे। उनकी अत्यधिक दीनता तथा विनयशीलता से महाप्रभु का हृदय द्रवित हो उठता था।

    प्रतिग्रह नाहि करे, ना लय कार धन ।।आत्म-वृत्ति करि' करे कुटुम्ब भरण ॥

    ५०॥

    श्रील मुरारि गुप्त ने न तो कभी अपने मित्रों से कोई दान लिया, न ही किसी से कोई धन लिया। वे वैद्य का कार्य करके अपने परिवार का भरण-पोषण करते थे।

    चिकित्सा करेन ग्नारे हेइया सदय ।। देह-रोग भाव-रोग, दुइ तार क्षये ॥

    ५१॥

    जब मुरारि गुप्त अपने रोगियों का उपचार करते, तो उनकी कृपा से रोगियों के शारीरिक तथा आध्यात्मिक दोनों तरह के रोग कम हो जाते थे।

    श्रीमान्सेन प्रभुर सेवक प्रधान । चैतन्य-चरण विनु नाहि जाने आन ॥

    ५२॥

    श्री चैतन्य वृक्ष की बाईसवीं शाखा, श्रीमान सेन, श्री चैतन्य महाप्रभु के अत्यन्त आज्ञाकारी सेवक थे। वे श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों के अतिरिक्त और कुछ नहीं जानते थे।

    श्री-गदाधर दास शाखा सर्वोपरि ।। काजी-गणेर मुखे येह बोलाइल हरि ॥

    ५३॥

    तेईसवीं शाखा, श्री गदाधर दास, सर्वोपरि समझे जाते थे, क्योंकि उन्होंने सारे मुसलमान काजियों को हरिनाम कीर्तन करने के लिए प्रेरित किया था।

    शिवानन्द सेन----प्रभुर भृत्य अन्तरङ्ग । प्रभु-स्थाने याइते सबे लयेन यॉर सङ्ग ॥

    ५४॥

    वृक्ष की चौबीसवीं शाखा, चैतन्य महाप्रभु के अत्यन्त विश्वासपात्र सेवक शिवानन्द सेन थे। जो कोई महाप्रभु का दर्शन करने जगन्नाथ पुरी जाता, वह श्री शिवानन्द सेन के यहाँ आश्रय और मार्गदर्शन पाता।

    प्रतिवर्षे प्रभु-गण सङ्क्ते लाइया ।नीलाचले चलेन पथे पालन करिया ॥

    ५५॥

    । वे प्रतिवर्ष भगवान् चैतन्य का दर्शन करने के लिए भक्तों की टोली को बंगाल से जगन्नाथ पुरी ले जाया करते थे। यात्रा पर जाते समय वे सारी टोली का खर्च वहन किया करते थे।

    भक्ते कृपा करेन प्रभु ए-तिन स्वरूपे ।‘साक्षात्,' 'आवेश' आर 'आविर्भाव'-रूपे ॥

    ५६॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु अपने भक्तों पर तीन रूपों में अहैतुकी कृपा प्रदान करते हैं-अपने प्रत्यक्ष प्राकट्य ( साक्षात् ) द्वारा, किसी शक्ति प्रदत्त व्यक्ति के भीतर अपने पराक्रम (आवेश) द्वारा तथा अपने आविर्भाव द्वारा।

    ‘साक्षाते' सकल भक्त देखे निर्विशेष । नकुल ब्रह्मचारि-देहे प्रभुर' आवेश' ॥

    ५७॥

    प्रत्येक भक्त की उपस्थिति में श्री चैतन्य महाप्रभु का प्रकट होना साक्षात् कहलाता है। नकुल ब्रह्मचारी में विशेष शक्ति के लक्षण रूप में उनका प्राकट्य, आवेश का उदाहरण है।

    ‘प्रद्युम्न ब्रह्मचारी' ताँर आगे नाम छिल ।। ‘नृसिंहानन्द' नाम प्रभु पाछे त' राखिल ॥

    ५८॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु ने प्रद्युम्न ब्रह्मचारी का नाम बदलकर नृसिंहानन्द बह्मचारी रख दिया।

    ताँहाते हइल चैतन्येर आविर्भाव' ।।अलौकिक ऐछे प्रभुर अनेक स्वभाव ॥

    ५९॥

    उसके शरीर में आविर्भाव के लक्षण थे। ऐसा प्राकट्य अलौकिक होता है, किन्तु श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने विभिन्न स्वरूपों से ऐसी अनेक लीलाएँ प्रदर्शित कीं।

    आस्वादिल ए सब रस सेन शिवानन्द । विस्तारि' कहिब आगे एसब आनन्द ॥

    ६० ॥

    श्रील शिवानन्द सेन को साक्षात्, आवेश तथा आविर्भाव तीनों लक्षणों का अनुभव था। इस दिव्य आनन्दपूर्ण विषय का विस्तृत वर्णन मैं बाद में स्पष्ट रूप से करूंगा।

    शिवानन्देर उपशाखा, ताँर परिकर ।पुत्र-भृत्यादि करि' चैतन्य-किङ्कर ॥

    ६१॥

    शिवानन्द सेन के पुत्र, नौकर तथा परिवार के सदस्य एक उपशाखा हैं। ये सभी श्री चैतन्य महाप्रभु के निष्ठावान सेवक थे।

    चैतन्य-दास, रामदास, आर कर्णपूर ।।तिन पुत्र शिवानन्देर प्रभुर भक्त-शूर ॥

    ६२ । शिवानन्द सेन के तीनों पुत्र-चैतन्य दास, राम दास तथा कर्णपूरश्री चैतन्य महाप्रभु के शूरवीर भक्त थे।

    श्री-वल्लभसेन, आर सेन श्रीकान्त ।शिवानन्द-सम्बन्धे प्रभुर भक्त एकान्त ॥

    ६३॥

    श्रीवल्लभ सेन तथा श्रीकान्त सेन भी शिवानन्द सेन की उपशाखाएँ थे, क्योंकि ये न केवल उनके भांजे थे, अपितु श्री चैतन्य महाप्रभु के अनन्य भक्त भी थे।

    प्रभु-प्रिय गोविन्दानन्द महाभागवत ।।प्रभुर कीर्तनीया आदि श्री गोविन्द दत्त ॥

    ६४॥

    वृक्ष की पच्चीसवीं और छब्बीसवीं शाखाएँ, गोविन्दानन्द तथा गोविन्द दत्त, श्री चैतन्य महाप्रभु के संग कीर्तन किया करते थे। गोविन्द दत्त चैतन्य महाप्रभु की टोली के प्रधान गायक थे।

    श्री-विजय-दास-नाम प्रभुर आखरिया ।।प्रभुरे अनेक पुँथि दियाछे लिखिया ॥

    ६५॥

    सत्ताइसवीं शाखा, श्री विजय दास, महाप्रभु के अन्य प्रमुख गायक थे, जिन्होंने महाप्रभु को अनेक हस्तलिखित पुस्तकें भेंट कीं।

    ‘रत्नबाहु' बलि' प्रभु थुइल ताँर नाम ।अकिञ्चन प्रभुर प्रिय कृष्णदास-नाम ॥

    ६६॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु ने विजयदास का नाम रत्नबाहु रख दिया, क्योंकि उन्होंने महाप्रभु के लिए अनेक पाण्डुलिपियों की हस्तलिपियाँ उतारी थीं। अठ्ठाइसवीं शाखा कृष्णदास थे, जो महाप्रभु को अत्यन्त प्रिय थे। उनका नाम अकिंचन कृष्णदास था।

    खोला-वेचा श्रीधर प्रभुर प्रिय-दास ।याँहा-सने प्रभु करे नित्य परिहास ॥

    ६७॥

    उन्तीसवीं शाखा श्रीधर थे, जो केले की छाल के व्यापारी थे। वे महाप्रभु के अत्यन्त प्रिय सेवक थे। कई बार महाप्रभु ने उनके साथ परिहास किया था।

    प्रभु याँर नित्य लय थोड़-मोचा-फल । याँर फुटा-लौहपात्रे प्रभु पिला जल ॥

    ६८ ॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु रोज मजाक में श्रीधर से फल, फूल तथा गूदा छीन लिया करते थे और उनके टूटे हुए लोहे के पात्र से जल पीते थे।

    प्रभुर अतिप्रिय दास भगवान्पण्डित ।। याँर देहे कृष्ण पूर्वे हैला अधिष्ठित ॥

    ६९॥

    तीसवीं शाखा भगवान् पण्डित थे। वे महाप्रभु के अत्यन्त प्रिय सेवक थे, किन्तु पूर्वजन्म में भी वे भगवान् कृष्ण के महान् भक्त थे और भगवान् को सदैव अपने हृदय में रखते थे।

    जगदीश पण्डित, आर हिरण्य महाशय ।।यारे कृपा कैल बाल्ये प्रभु दयामय ॥

    ७० ॥

    इकतीसवीं शाखा जगदीश पण्डित थे और बत्तीसवीं शाखा हिरण्य महाशय थे, जिन पर महाप्रभु ने अपने बाल्यकाल में अहैतुकी कृपा प्रदर्शित की थी।

    एइ दुइ-घरे प्रभु एकादशी दिने ।विष्णुर नैवेद्य मागि' खाइल आपने ॥

    ७१॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु ने एकादशी के दिन इन दोनों के घरों से भोजन की भिक्षा माँगी और स्वयं इसे खाया।

    प्रभुर पडूया दुइ, पुरुषोत्तम, सञ्जय ।। व्याकरणे दुइ शिष्य दुइ महाशय ॥

    ७२॥

    तैतीसवीं तथा चौतीसवीं शाखाएँ पुरुषोत्तम तथा संजय नामक चैतन्य महाप्रभु के दो शिष्य थे, जो व्याकरण में सिद्धहस्त थे। वे महापुरुष थे।

    वनमाली पण्डित शाखा विख्यात जगते । सोणार मुषल हल देखिल प्रभुर हाते ॥

    ७३॥

    वृक्ष की पैंतीसवीं शाखा वनमाली पण्डित थे, जो इस जगत् में अत्यन्त विख्यात थे। उन्होंने महाप्रभु के हाथ में सोने की गदा (मूसल ) तथा हल देखा।

    श्री-चैतन्येर अति प्रिय बुद्धिमन्त खान् ।। आजन्म आज्ञाकारी तेहो सेवक-प्रधान ॥

    ७४॥

    छत्तीसवीं शाखा बुद्धिमन्त खान थे, जो श्री चैतन्य महाप्रभु को अत्यन्त प्रिय थे। वे महाप्रभु की आज्ञा का पालन करने के लिए सदैव प्रस्तुत रहते थे, अतएव वे महाप्रभु के प्रधान सेवक माने जाते थे।

    गरुड़ पण्डित लय श्रीनाम-मङ्गल ।।नाम-बले विष याँरै ना करिल बल ॥

    ७५ ॥

    वृक्ष की सैंतीसवीं शाखा, गरुड़ पण्डित, सदैव भगवान् का नामकीर्तन करने में व्यस्त रहते थे। इस कीर्तन के बल पर उन्हें विष का प्रभाव छु तक नहीं पाता था।

    गोपीनाथ सिंह–एक चैतन्येर दास ।।अक्रूर बलि' प्रभु याँरै कैला परिहास ॥

    ७६ ॥

    वृक्ष की अड़तीसवीं शाखा, गोपीनाथ सिंह, श्री चैतन्य महाप्रभु के निष्ठावान दास थे। महाप्रभु मजाक में उन्हें अक्रूर कहकर पुकारते थे।

    भागवती देवानन्द वक्रेश्वर-कृपाते ।। भागवतेर भक्ति-अर्थ पाइल प्रभु हैते ॥

    ७७॥

    देवानन्द पण्डित श्रीमद्भागवत के पेशेवर वाचक थे, किन्तु वक्रेश्वर पण्डित तथा महाप्रभु की कृपा से वे भागवत की भक्तिमयी व्याख्या समझ पाये।

    खण्डवासी मुकुन्द-दास, श्री-रघुनन्दन ।। नरहरि-दास, चिरञ्जीव, सुलोचन ॥

    ७८ ॥

    एइ सब महाशाखा चैतन्य-कृपाधाम ।प्रेम-फल-फुल करे ग्राहाँ ताहाँ दान ॥

    ७९ ॥

    श्रीखण्डवासी मुकुन्द तथा उनके पुत्र श्री रघुनन्दन उस वृक्ष की उन्तालीसवीं शाखा थे, नरहरि चालीसवीं, चिरंजीव एकतालीसवीं और सुलोचन बयालीसवीं शाखा थे। ये सभी श्री चैतन्य महाप्रभु-रूपी कृपाधाम-वृक्ष की बड़ी-बड़ी शाखाएँ थे। इन्होंने भगवत्प्रेम रूपी फलों, फूलों को सर्वत्र वितरित किया।

    कुलीनग्राम-वासी सत्यराज, रामानन्द ।।यदुनाथ, पुरुषोत्तम, शङ्कर, विद्यानन्द ॥

    ८० ॥

    सत्यराज, रामानन्द, यदुनाथ, पुरुषोत्तम, शंकर, तथा विद्यानन्द ये सभी बीसवीं शाखा से सम्बन्धित थे। वे कुलीन ग्राम के निवासी थे।

    वाणीनाथ वसु आदि व्रत ग्रामी जन ।।सबेइ चैतन्य-भृत्य,—चैतन्य-प्राणधन ॥

    ८१॥

    वाणीनाथ वसु की अगुवाई में कुलीन ग्राम के सारे निवासी चैतन्य महाप्रभु के सेवक थे और चैतन्य महाप्रभु ही उनके एकमात्र प्राण तथा धन थे।

    प्रभु कहे, कुलीनग्रामेर ग्रे हय कुकुर ।।सेइ मोर प्रिय, अन्य जन रहु दूर ॥

    ८२॥

    महाप्रभु ने कहा, औरों की बात जाने दें, कुलीन ग्राम का कुत्ता भी मेरा प्रिय मित्र है।

    कुलीनग्रामीर भाग्य कहने ना ग्राय ।।शूकर चराय डोम, सेह कृष्ण गाय ॥

    ८३॥

    कुलीन ग्राम के सौभाग्य के विषय में कोई कुछ वर्णन नहीं कर सकता। वह इतना दिव्य है कि झाडू देने वाले भी सुअर चराते समय हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करते हैं।

    अनुपम-वल्लभ, श्री-रूप, सनातन ।एइ तिन शाखा वृक्षेर पश्चिमे सर्वोत्तम ॥

    ८४॥

    वृक्ष के पश्चिम की ओर की तैंतालीसवीं, चवालीसवीं तथा पैंतालीसवीं शाखाएँ श्री सनातन, श्री रूप तथा अनुपम थे। ये सबमें श्रेष्ठ थे।

    ताँर मध्ये रूप-सनातने बड़ शाखा । अनुपम, जीव, राजेन्द्रादि उपशाखा ॥

    ८५ ॥

    इन शाखाओं में रूप तथा सनातन प्रमुख थे। अनुपम, जीव गोस्वामी तथा राजेन्द्र आदि उनकी उपशाखाएँ थे।

    मालीर इच्छाय शाखा बहुत बाड़िल ।बाड़िया पश्चिम देश सब आच्छादिल ॥

    ८६॥

    महान् माली की इच्छा से, श्रील रूप गोस्वामी तथा सनातन गोस्वामी की शाखाएँ कई गुना बढ़कर समूचे पश्चिमी देशों में फैल गईं और उन्होंने सारे प्रदेश को आच्छादित कर दिया।

    आ-सिन्धुनदी-तीर आर हिमालय ।।वृन्दावन-मथुरादि व्रत तीर्थ हय ॥

    ८७॥

    ये दो शाखाएँ सिन्धु नदी तथा हिमालय पर्वत की घाटियों की सीमाओं तक बढ़कर सारे भारत में फैल गईं, जिसमें वृन्दावन, मथुरा तथा हरिद्वार जैसे सारे तीर्थस्थल सम्मिलित हैं।

    दुइ शाखार प्रेम-फले सकल भासिल ।प्रेम-फलास्वादे लोक उन्मत्त हइल ।। ८८॥

    । इन दोनों शाखाओं में जो भगवत्प्रेम रूपी फल लगे, वे बड़ी संख्या में वितरित किये गये। इन फलों को चखकर हर व्यक्ति उनके लिए उन्मत्त हो उठा।

    पश्चिमेर लोक सब मूढ़ अनाचार ।ताहाँ प्रचारिल दोहे भक्ति-सदाचार ॥

    ८९॥

    भारत की पश्चिमी भाग के लोग न तो बुद्धिमान थे न शिष्ट, किन्तु श्रील रूप गोस्वामी तथा सनातन गोस्वामी के प्रभाव से वे भक्ति तथा सदाचार में प्रशिक्षित हो सके।

    शास्त्र-दृष्ट्ये कैल लुप्त-तीर्थेर उद्धार । वृन्दावने कैल श्रीमूर्ति-सेवार प्रचार ॥

    ९०॥

    प्रामाणिक शास्त्रों के निर्देशों के अनुसार दोनों गोस्वामियों ने लुप्त । तीर्थस्थलों का पुनरुद्धार किया और वृन्दावन में अर्चाविग्रहों की पूजा का सूत्रपात किया।

    महाप्रभुर प्रिय भृत्य रघुनाथ-दास ।।सर्व त्यजि' कैल प्रभुर पद-तले वास ॥

    ९१॥

    छियालिसवीं शाखा श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी थे, जो श्री चैतन्य महाप्रभु के अत्यन्त प्रिय सेवक थे। उन्होंने महाप्रभु के पूर्ण शरणागत होने और उनके चरणों में निवास करने के लिए अपनी सारी भौतिक संपत्ति का परित्याग कर दिया।

    प्रभु समर्पिल ताँरे स्वरूपेर हाते ।प्रभुर गुप्त-सेवा कैल स्वरूपेर साथे ॥

    ९२ ॥

    जब रघुनाथ दास गोस्वामी जगन्नाथ पुरी में श्री चैतन्य महाप्रभु के पास पहुँचे, तो महाप्रभु ने उन्हें अपने सचिव स्वरूप दामोदर के हाथों सौंप दिया। इस तरह वे दोनों मिलकर महाप्रभु की गुह्य सेवा करने लगे।

    षोड़श वत्सर कैल अन्तरङ्ग-सेवन । स्वरूपेर अन्तर्धाने आइला वृन्दावन ॥

    ९३॥

    उन्होंने जगन्नाथ पुरी में रहकर सोलह वर्षों तक महाप्रभु की गुह्य सेवा की और महाप्रभु तथा स्वरूप दामोदर दोनों के तिरोधान के बाद वे जगन्नाथ पुरी छोड़कर वृन्दावन चले गये।

    वृन्दावने दुइ भाइर चरण देखियो ।गोवर्धने त्यजिब देह भृगुपात करिया ॥

    १४॥

    श्री रघुनाथ दास गोस्वामी की इच्छा हुई कि वे वृन्दावन जाकर रूप तथा सनातन के चरणकमलों का दर्शन करें और फिर गोवर्धन पर्वत से कूदकर अपना प्राण त्याग दें।

    एइ त निश्चय करि' आइल वृन्दावने ।आसि' रूप-सनातनेर वन्दिल चरणे ॥

    ९५॥

    इस प्रकार श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी वृन्दावन आये और श्रील रूप गोस्वामी तथा सनातन गोस्वामी से मिले तथा उन्हें प्रणाम किया।

    तबे दुइ भाइ ताँरै मरिते ना दिल ।निज तृतीय भाइ करि' निकटे राखिल ॥

    ९६ ॥

    किन्तु इन दोनों भाइयों ने उन्हें मरने की अनुमति नहीं दी। इन्होंने उन्हें अपने तीसरे भाई के रूप में स्वीकार करके अपने साथ रख लिया।

    महाप्रभुर लीला ग्रत बाहिर-अन्तर ।।दुइ भाइ ताँर मुखे शुने निरन्तर ॥

    ९७॥

    चूंकि रघुनाथ दास गोस्वामी स्वरूप दामोदर के सहायक थे, अतएव वे महाप्रभु की लीलाओं के बाहरी तथा भीतरी तथ्यों से बहुत कुछ परिचित थे। इस तरह रूप तथा सनातन दोनों भाई उनसे इनके विषय में सुना करते थे।

    अन्न-जल त्याग कैल अन्य-कथन ।पल दुइ-तिन माठा करेन भक्षण ॥

    ९८॥

    । रघुनाथ दास गोस्वामी ने धीरे-धीरे अन्न खाना त्याग दिया और वे मड़े की कुछ बूंदे पीने लगे।

    सहस्र दण्डवत्करे, लय लक्ष नाम ।दुइ सहस्र वैष्णवेरे नित्य परणाम ॥

    १९॥

    वे नित्यप्रति भगवान् को हजार बार नमस्कार करते, भगवान् के एक लाख नाम जपते और दो हजार वैष्णवों को प्रणाम करते।

    रात्रि-दिने राधा-कृष्णेर मानस सेवन । प्रहरेक महाप्रभुर चरित्र-कथने ॥

    १०० ॥

    वे अपने मन में दिन-रात राधा-कृष्ण की सेवा करते और तीन घण्टे प्रतिदिन श्री चैतन्य महाप्रभु के चरित्र के विषय में चर्चा करते।

    तिन सन्ध्या राधा-कुण्डे अपतित स्नान ।। व्रज-वासी वैष्णवे करे आलिङ्गन मान ॥

    १०१॥

    श्री रघुनाथ दास गोस्वामी नित्य राधाकुण्ड में तीन बार स्नान करते थे। ज्योंही उन्हें वृन्दावन में रहने वाला कोई वैष्णव मिलता, वे उसका आलिंगन करते और उसका आदर करते थे।

    सार्ध सप्त-प्रहर करे भक्तिर साधने ।चारि दण्ड निद्रा, सेह नहे कोन-दिने ॥

    १०२॥

    वे दिन के साढ़े बाइस घण्टे से अधिक भक्ति में बिताते और मुश्किल से दो घंटे से कम सोते। किसी-किसी दिन तो यह भी सम्भव नहीं हो पाता था।

    ताँहार साधन-रीति शुनिते चमत्कार ।।सेइ रूप-रघुनाथ प्रभु ने आमार ॥

    १०३॥

    जब मैं उनके द्वारा सम्पन्न भक्ति के विषय में सुनता हूँ, तो आश्चर्यचकित रह जाता हूँ। मैं श्रील रूप गोस्वामी तथा रघुनाथ दास गोस्वामी को अपने मार्गदर्शक स्वीकार करता हूँ।

    इँहा-सबार भैछे हैल प्रभुर मिलन ।आगे विस्तारिया ताहा करिब वर्णन ॥

    १०४॥

    मैं इसका आगे विस्तृत वर्णन करूँगा कि ये सारे भक्त श्री चैतन्य महाप्रभु से किस तरह मिले।

    श्री-गोपाल भट्ट एक शाखा सर्वोत्तम ।।रूप-सनातन-सङ्गे ग्राँर प्रेम-आलापन ॥

    १०५॥

    श्री गोपाल भट्ट गोस्वामी उस वृक्ष की सैंतालीसवीं महान् एवं श्रेष्ठ शाखा थे। वे रूप गोस्वामी तथा सनातन गोस्वामी के साथ सदैव भगवत्प्रेम विषयक वार्ता में व्यस्त रहते थे।

    शङ्करारण्य आचार्य-वृक्षेर एक शाखा । मुकुन्द, काशीनाथ, रुद्र–उपशाखा लेखा ॥

    १०६॥

    आचार्य शंकरारण्य मूल वृक्ष की अड़तालीसवीं शाखा माने गये हैं। उनसे मुकुन्द, काशीनाथ तथा रुद्र नामक उपशाखाएँ फूटीं।

    श्रीनाथ पण्डित–प्रभुर कृपार भाजन । ग्राँर कृष्ण-सेवा देखि' वश त्रि-भुवने ॥

    १०७॥

    उञ्चासवीं शाखा, श्रीनाथ पण्डित श्री चैतन्य महाप्रभु के अत्यन्त कृपापात्र थे। तीनों लोक के सारे निवासी यह देखकर चकित थे कि वे भगवान् कृष्ण की किस तरह सेवा करते हैं।

    जगन्नाथ आचार्य प्रभुर प्रिय दास ।।प्रभुर आज्ञाते तेंहो कैल गङ्गा-वास ॥

    १०८॥

    चैतन्य-वृक्ष की पचासवीं शाखा, जगन्नाथ आचार्य, महाप्रभु के अत्यन्त प्रिय दास थे और महाप्रभु की आज्ञा से उन्होंने गंगा नदी के तट पर रहने का निश्चय किया।

    कृष्णदास वैद्य, आर पण्डित-शेखर ।कविचन्द्र, आर कीर्तनीया षष्ठीवर ॥

    १०९॥

    चैतन्य-वृक्ष की इक्कावनवीं शाखा कृष्णदास वैद्य, बावनवीं शाखा पण्डित शेखर, तिरपनवीं शाखा कविचन्द्र थे, और चौवनवीं शाखा षष्ठीवर हुए, जो बहुत बड़े संकीर्तनिया थे।

    श्रीनाथ मिश्र, शुभानन्द, श्रीराम, ईशान ।।श्रीनिधि, श्रीगोपीकान्त, मिश्र भगवान् ॥

    ११०॥

    श्रीनाथ मिश्र पचपनवीं शाखा थे, शुभानन्द छप्पनवीं, श्रीराम सत्तावनवीं, ईशान अठ्ठावनवीं, श्रीनिधि उनसठवीं, श्री गोपीकान्त साठवीं तथा मिश्र भगवान इकसठवीं शाखा थे।

    पुरुषोत्तम, श्री-गालीम, जगन्नाथ-दास ।। श्री चन्द्रशेखर वैद्य, द्विज हरिदास ॥

    ११२॥

    । मूल वृक्ष की अड़सठवीं शाखा श्री पुरुषोत्तम थे, श्रीगालीम उनहत्तरवीं, जगन्नाथ दास सत्तरवीं, श्री चन्दरशेखर वैद्य इकहत्तरवीं और जि हरिदास बहत्तरवीं शाखा थे।

    सुबुद्धि मिश्र, हृदयानन्द, कमल-नयन । महेश पण्डित, श्रीकर, श्री-मधुसूदन ॥

    १११॥

    सुबुद्धि मिश्र बासठवीं शाखा थे, हृदयानन्द तिरसठवीं, कमलनयन चौसठवीं, महेश पण्डित पैंसठवीं, श्रीकर छियासठवीं तथा श्री मधुसूदन सतसठवीं शाखा थे।

    रामदास, कविचन्द्र, श्री-गोपालदास ।।भागवताचार्य, ठाकुर सारङ्गदास ॥

    ११३॥

    । मृल वृक्ष की तिहत्तरवीं शाखा राम दास थे, चौहत्तरवीं शाखा विधन्द्र, पचहत्तरवीं शाखा श्री गोपाल दास, छिहत्तरवीं शाखा भागवताचार्य और सतहत्तरवीं शाखा ठाकुर सारंग दास थे।

    जगन्नाथ तीर्थ, विप्र श्री-जानकीनाथ । गोपाल आचार्य, आर विप्र वाणीनाथ ।। ११४॥

    मूल वृक्ष की अठहत्तरवीं शाखा जगन्नाथ तीर्थ थे, उन्यासीवीं शाखा जानकीनाथ ब्राह्मण, अस्सीवीं शाखा गोपाल आचार्य तथा इक्यासीवीं शाखा वाणीनाथ ब्राह्मण थे।

    गोविन्द, माधव, वासुदेव तिन भाई ।।याँ-सबार कीर्तने नाचे चैतन्य-निताई ॥

    ११५ ॥

    गोविन्द, माधव तथा वासुदेव नामक तीनों भाई वृक्ष की बयासीवीं, तिरासीवी और चौरासीवीं शाखाएँ थे। श्री चैतन्य महाप्रभु तथा नित्यानन्द प्रभु इनके कीर्तन में नृत्य करते थे।

    रामदास अभिराम सख्य-प्रेमराशि ।। षोलसाङ्गेर काष्ठ तुलि' ये करिल वाँशी ॥

    ११६॥

    रामदास अभिराम सदैव सख्य भाव में मग्न रहते थे। उन्होंने १६ गाँठ वाले बाँस की बाँसुरी बनाई थी।

    प्रभुर आज्ञाय नित्यानन्द गौड़े चलिला ।ताँर सङ्गे तिन-जन प्रभु-आज्ञाय आइली ॥

    ११७॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु की आज्ञा से जब नित्यानन्द प्रभु प्रचार हेतु बंगाल वापस गये, तब उनके साथ-साथ तीन भक्त भी गये।

    रामदास, माधव, आर वासुदेव घोष ।।प्रभु-सङ्गे रहे गोविन्द पाइया सन्तोष ॥

    ११८॥

    ये तीनों भक्त थे रामदास, माधव घोष तथा वासुदेव घोष। किन्तु गोविन्द घोष श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ जगन्नाथ पुरी में रह गये। इस तरह उन्हें परम सन्तोष हुआ।

    भागवताचार्य, चिरञ्जीव श्री-रघुनन्दन ।माधवाचार्य, कमलाकान्त, श्री-यदुनन्दन ॥

    ११९॥

    भागवताचार्य, चिरंजीव, श्री रघुनन्दन, माधवाचार्य, कमलाकान्त तथा श्री यदुनन्दन-ये सभी चैतन्य-वृक्ष की शाखाओं में से थे।

    महा-कृपा-पात्र प्रभुर जगाइ, माधाइ ।‘पतित-पावन' नामेर साक्षी दुई भाइ ।। १२० ॥

    वृक्ष की नवासीवीं तथा नब्बेवीं शाखाएँ, जगाइ तथा माधाइ, श्री चैतन्य महाप्रभु के सर्वाधिक कृपापात्र थे। ये दोनों भाई इसके साक्षी थे, जिन्होंने यह प्रमाणित किया कि महाप्रभु का पतितपावन, पतितों के उद्धारकर्ता नाम सार्थक है।

    गौड़-देश-भक्तेर कैल संक्षेप कथन । अनन्त चैतन्य-भक्त ना याय गणन ॥

    १२१॥

    मैंने महाप्रभु के बंगाल के भक्तों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया है। वास्तव में उनके भक्तों की संख्या अनगिनत है।

    नीलाचले एइ सब भक्त प्रभु-सङ्गे।।दुइ स्थाने प्रभु-सेवा कैल नाना-रङ्गे ॥

    १२२॥

    मैंने इन सारे भक्तों का विशेष रूप से वर्णन इसीलिए किया है, क्योंकि वे महाप्रभु के साथ-साथ बंगाल तथा उड़ीसा में रहे और उन्होंने अनेक प्रकार से उनकी सेवाएँ कीं।।

    केवल नीलाचले प्रभुर ग्रे ये भक्त-गण ।सङ्क्षेपे करिये किछु से सब कथन ॥

    १२३॥

    अब मैं श्री चैतन्य महाप्रभु के जगन्नाथ पुरी के कुछ भक्तों का संक्षेप में वर्णन करूंगा।

    नीलाचले प्रभु-सङ्गे ग्रत भक्त-गण ।। सबार अध्यक्ष प्रभुर मर्म दुइ-जने ॥

    १२४॥

    परमानन्द-पुरी, आर स्वरूप-दामोदर ।। गदाधर, जगदानन्द, शङ्कर, वक्रेश्वर ॥

    १२५॥

    दामोदर पण्डित, ठाकुर हरिदास ।।रघुनाथ वैद्य, आर रघुनाथ-दास ॥

    १२६॥

    । महाप्रभु के साथ-साथ जो भक्तगण जगन्नाथ पुरी में रहे, उनमें से दो-परमानन्द पुरी तथा स्वरूप दामोदर-महाप्रभु के हृदय और प्राण समान थे। अन्य भक्तों में गदाधर, जगदानन्द, शंकर, वक्रेश्वर, दामोदर पण्डित, ठाकुर हरिदास, रघुनाथ वैद्य तथा रघुनाथ दास उल्लेखनीय हैं।

    इत्यादिक पूर्व-सङ्गी बड़ भक्तगण ।नीलाचले रहि' करे प्रभुर सेवन ॥

    १२७॥

    ये सारे भक्त प्रारम्भ से ही महाप्रभु के पार्षद थे और जब चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी में रहने लगे, तो वे निष्ठापूर्वक उनकी सेवा करने के लिए वहीं रह गये।

    आर व्रत भक्त-गण गौड़-देश-वासी ।प्रत्यब्दे प्रभुरे देखे नीलाचले आसि' ॥

    १२८॥

    बंगाल में रहने वाले सारे भक्त महाप्रभु का दर्शन करने प्रति वर्ष जगन्नाथ पुरी आया करते थे।

    नीलाचले प्रभु-सह प्रथम मिलन । सेई भक्त-गणेर एबे करिये गणन ॥

    १२९॥

    अब मैं बंगाल के उन भक्तों के नाम गिनाऊँगा, जो सबसे पहले महाप्रभु से मिलने जगन्नाथ पुरी आये।

    बड़-शाखा एक, सार्वभौम भट्टाचार्य ।। ताँर भग्नी–पति श्री-गोपीनाथाचा ॥

    १३०॥

    । महाप्रभु-रूपी वृक्ष की सबसे बड़ी शाखाओं में से एक थे सार्वभौम चार्य और उनके बहनोई श्री गोपीनाथाचार्य।

    काशी-मिश्र, प्रद्युम्न-मिश्र, राय भवानन्द ।याँहार मिलने प्रभु पाइला आनन्द ॥

    १३१॥

    जगन्नाथ पुरी के भक्तों की सूची में (जो परमानन्द पुरी, स्वरूप दामोदर, सार्वभौम भट्टाचार्य तथा गोपीनाथ आचार्य से प्रारम्भ होती है) काशी मिश्र, प्रद्युम्न मिश्र, तथा भवानन्द राय के नाम पाँचवें, छठे तथा सातवें स्थान पर थे। भगवान् चैतन्य को इनसे मिलकर अति आनन्द होता था।

    आलिङ्गन करि' ताँरै बलिल वचन ।।तुमि पाण्डु, पञ्च-पाण्डव- तोमार नन्दन ॥

    १३२॥

    । महाप्रभु ने भवानन्द राय का आलिंगन करते हुए बतलाया, तुम पहले पाण्डु रूप में और तुम्हारे पाँचों पुत्र पाँचों पाण्डवों के रूप में प्रकट हुए थे।

    रामानन्द राय, पट्टनायक गोपीनाथ ।कलानिधि, सुधानिधि, नायक वाणीनाथ ॥

    १३३॥

    भवानन्द राय के पाँच पुत्र थे-रामानन्द राय, पट्टनायक गोपीनाथ, कलानिधि, सुधानिधि और नायक वाणीनाथ।

    एइ पञ्च पुत्र तोमार मोर प्रियपात्र ।। रामानन्द सह मोर देह-भेद मात्र ॥

    १३४॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु ने भवानन्द राय से कहा, तुम्हारे पाँचों पुत्र मेरे प्रिय भक्त हैं। रामानन्द राय और हम दोनों एक हैं, भले ही हमारे शरीर - अलग हैं।

    प्रतापरुद्र राजा, आर ओढू कृष्णानन्द । परमानन्द महापात्र, ओढू शिवानन्द ॥

    १३५ ।। भगवानाचार्य, ब्रह्मानन्दाख्य भारती ।। श्री-शिखि माहिति, आर मुरारि माहिति ॥

    १३६।। जब चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी में रह रहे थे, तब उड़ीसा के राजा प्रतापरुद्र, उड़िया-भक्त कृष्णानन्द तथा शिवानन्द, परमानन्द महापात्र, भगवान् आचार्य, ब्रह्मानन्द भारती, श्री शिखि माहिति तथा मुरारि माहिति निरन्तर उनका साथ देते थे।

    माधवी-देवी–शिखि-माहितिर भगिनी ।।श्री-राधार दासी-मध्ये ग्राँर नाम गणि ॥

    १३७॥

    माधवीदेवी प्रमुख भक्तों में सत्रहवीं थीं और शिखि माहिति की छोटी बहन थीं। उन्हें पूर्व जन्म में श्रीमती राधारानी की दासी के रूप में माना जाता है।

    ईश्वर-पुरीर शिष्य–ब्रह्मचारी कोशीश्वर ।।श्री गोविन्द नाम ताँर प्रिय अनुचर ॥

    १३८॥

    ब्रह्मचारी काशीश्वर ईश्वर पुरी के शिष्य थे और उनके ही प्रिय शिष्यों में से दूसरे श्री गोविन्द थे।

    ताँर सिद्धि-काले दोहे ताँर आज्ञा पाळा ।। नीलाचले प्रभु-स्थाने मिलिल आसिया ॥

    १३९ ॥

    । नीलाचल (जगन्नाथ पुरी) के प्रमुख भक्तों की सूची में काशीश्वर अठारहवें तथा गोविन्द उन्नीसवें थे। ईश्वर पुरी के तिरोधान के समय दी गई आज्ञा के अनुसार वे दोनों श्री चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करने जगन्नाथ पुरी आये थे।

    गुरुर सम्बन्धे मान्य कैल मुँहाकारे ।ताँर आज्ञा मानि' सेवा दिलेन दोंहारे ॥

    १४० ॥

    काशीश्वर तथा गोविन्द दोनों श्री चैतन्य महाप्रभु के गुरुभाई थे। अतएव ज्योंही वे दोनों वहाँ पहुँचे, तो महाप्रभु ने उनका यथोचित सत्कार किया। चूंकि ईश्वर पुरी ने उन्हें आदेश दिया था कि वे चैतन्य महाप्रभु की निजी सेवा करें, अतएव महाप्रभु ने उनकी सेवा स्वीकार कर ली।

    अङ्ग-सेवा गोविन्देरे दिलेन ईश्वर ।।जगन्नाथ देखिते चलेन आगे काशीश्वर ॥

    १४१॥

    गोविन्द श्री चैतन्य महाप्रभु के शरीर की देखभाल करते और जब महाप्रभु मन्दिर में जगन्नाथजी का दर्शन करने जाते, तो काशीश्वर महाप्रभु के आगे-आगे चलते थे।

    अपरश ग्राय गोसाजि मनुष्य-गहने ।मनुष्य ठेलि' पथ करे काशी बलवाने ॥

    १४२॥

    जब श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ मन्दिर जाते, तो काशीश्वर अत्यन्त बलिष्ठ होने के कारण अपने हाथों से भीड़ को एक ओर करते, जिससे महाप्रभु किसी को स्पर्श किये बिना जा सकें।

    रामाइ-नन्दाई–दोंहे प्रभुर किङ्कर ।।गोविन्देर सङ्गे सेवा करे निरन्तर ॥

    १४३॥

    रामाइ तथा नन्दाइ जगन्नाथ पुरी के महत्त्वपूर्ण भक्तों में बीसवें तथा इक्कीसवें थे। महाप्रभु की सेवा करने में गोविन्द की वे चौबीसों घण्टे सहायता करते थे।

    बाइश घड़ा जल दिने भरेन रामाइ ।गोविन्द-आज्ञाय सेवा करेन नन्दाइ ॥

    १४४॥

    रामाइ प्रतिदिन बाईस बड़े जल पात्रों में पानी भरते थे और नन्दाई स्वयं गोविन्द की सहायता करते थे।

    कृष्णदास नाम शुद्ध कुलीन ब्राह्मण ।।ग्रारे सङ्गे लैया कैला दक्षिण गमन ॥

    १४५ ॥

    बाईसवें भक्त कृष्णदास एक विशुद्ध तथा प्रतिष्ठित ब्राह्मण-कुल में उत्पन्न हुए थे। जब महाप्रभु दक्षिण भारत की यात्रा कर रहे थे, तो उन्होंने कृष्णदास को अपने साथ ले लिया था।

    बलभद्र भट्टाचार्य–भक्ति अधिकारी ।। मथुरा-गमने प्रभुर ग्रॅहो ब्रह्मचारी ॥

    १४६॥

    बलभद्र भट्टाचार्य तेईसवें प्रमुख पार्षद थे, जो प्रामाणिक भक्त थे। और जिन्होंने महाप्रभु की मथुरा की यात्रा के समय उनके ब्रह्मचारी का कार्य किया था।

    बड़ हरिदास, आर छोट हरिदास । दुइ कीर्तनीया रहे महाप्रभुर पाश ॥

    १४७॥

    नीलाचल में चौबीसवें और पचीसवें भक्त, बड़ हरिदास तथा छोट हरिदास, अच्छे गायक थे, जो सदैव महाप्रभु के साथ रहते थे।

    रामभद्राचार्य, आर ओढू सिंहेश्वर ।। तपन आचार्य, आर रघु, नीलाम्बर ॥

    १४८॥

    जगन्नाथ पुरी में चैतन्य महाप्रभु के साथ रहने वाले भक्तों में रामभद्राचार्य छब्बीसवें, उड़िया सिंहेश्वर सत्ताइसवें, तपन आचार्य अठ्ठाइसवें, रघुनाथ भट्टाचार्य उन्तीसवें तथा नीलाम्बर तीसवें भक्त थे।

    सिङ्गाभट्ट, कामाभट्ट, दन्तुर शिवानन्द ।। गौड़े पूर्व भृत्य प्रभुर प्रिय कमलानन्द ॥

    १४९॥

    सिंगाभट्ट, कामाभट्ट, शिवानन्द तथा कमलानन्द क्रमशः इकतीसवें बत्तीसवें, तैंतीसवें और चौंतीसवें भक्त थे। ये सभी पहले बंगाल में महाप्रभु की सेवा करते थे, किन्तु बाद में बंगाल छोड़कर महाप्रभु के साथ रहने जगन्नाथ पुरी चले गये।

    अच्युतानन्द–अद्वैत-आचार्य-तनय । नीलाचले रहे प्रभुर चरण आश्रय ॥

    १५० ॥

    पैंतीसवें भक्त अच्युतानन्द थे, जो अद्वैत आचार्य के पुत्र थे। वे भी। जगन्नाथ पुरी में महाप्रभु के चरणकमलों की शरण में रहे।

    निर्लोम गङ्गादास, आर विष्णुदास । एइ सबेर प्रभु-सङ्गे नीलाचले वास ॥

    १५१॥

    जगन्नाथ पुरी में श्री चैतन्य महाप्रभु के सेवकों के रूप में रहने वाले भक्तों में निर्लोम गंगादास तथा विष्णुदास छत्तीसवें तथा सैंतीसवें भक्त थे।

    वाराणसी-मध्ये प्रभुर भक्त तिन जन ।। चन्द्रशेखर वैद्य, आर मिश्र तपन ॥

    १५२॥

    रघुनाथ भट्टाचार्य–मिश्रेर नन्दन ।। प्रभु ग्रबे काशी आइला देखि' वृन्दावन ॥

    १५३॥

    चन्द्रशेखर-गृहे कैल दुइ मास वास ।तपन-मिश्रेर घरे भिक्षा दुइ मास ॥

    १५४॥

    वाराणसी के प्रमुख भक्तों में वैद्य चन्द्रशेखर, तपन मिश्र तथा तपन मिश्र के पुत्र रघुनाथ भट्टाचार्य थे। जब भगवान् चैतन्य वृन्दावन से होकर वाराणसी आये, तब वे दो मास तक चन्द्रशेखर वैद्य के घर रहे और तपन मिश्र के घर प्रसाद ग्रहण करते रहे।

    रघुनाथ बाल्ये कैल प्रभुर सेवन । उच्छिष्ट-मार्जन और पाद-संवाहन ॥

    १५५॥

    जब श्री चैतन्य महाप्रभु तपन मिश्र के घर ठहरे हुए थे, तब रघुनाथ भट्ट, जो उस समय बालक थे, झूठे बर्तन माँजते थे और उनके पाँव दबाते थे।

    बड़ हैले नीलाचले गेला प्रभुर स्थाने । अष्ट-मास रहिल भिक्षा देन कोन दिने ॥

    १५६ ॥

    जब रघुनाथ बड़े हो गये, तब वे श्री चैतन्य महाप्रभु के दर्शन करने जगन्नाथ पुरी गये और वहाँ आठ मास तक रहे। कभी-कभी वे महाप्रभु को प्रसाद अर्पण करते थे।

    प्रभुर आज्ञा पात्रा वृन्दावनेरे आइला । आसिया श्री-रूप-गोसाजिर निकटे रहिला ॥

    १५७॥

    । बाद में महाप्रभु की आज्ञा से रघुनाथ वृन्दावन चले गये और वहाँ श्रील रूप गोस्वामी की शरण में रहे।

    ताँर स्थाने रूप-गोसाजि शुनेन भागवत । प्रभुरे कृपाय तेंहो कृष्ण-प्रेमे मत्त ॥

    १५८॥

    जब वे श्रील रूप गोस्वामी के साथ ठहरे थे, तो उनका एक ही काम था-श्रीमद्भागवत बाँचकर उन्हें सुनाना। इसके फलस्वरूप उन्हें कृष्णप्रेम की पूर्णता प्राप्त हुई, जिसके कारण वे सदैव उन्मत्त रहा करते थे।

    ऐइ-मत सङ्ख्यातीत चैतन्य-भक्त-गण । दिंमात्र लिखि, सम्यक्ना ग्राय कथन ॥

    १५९॥

    इस तरह मैं महाप्रभु के असंख्य भक्तों के एक अंश की ही सूची दे रहा हूँ। सबका वर्णन कर पाना सम्भव नहीं है।

    एकैक-शाखाते लागे कोटि कोटि डाल ।। तार शिष्य-उपशिष्य, तार उपड़ाल ॥

    १६०॥

    वृक्ष की प्रत्येक शाखा से शिष्यों तथा प्रशिष्यों की करोड़ों उपशाखाएँ निकली हैं।

    सकल भरिया आछे प्रेम-फुल-फले ।। भासाइल त्रि-जगत्कृष्ण-प्रेम-जले ॥

    १६१॥

    वृक्ष की प्रत्येक शाखा तथा उपशाखा अनेक फलों और फूलों से परिपूर्ण है। वे कृष्ण-प्रेम के जल से विश्व को आप्लावित करती हैं।

    एक एक शाखार शक्ति अनन्त महिमा । ‘सहस्र वदने' ग्रार दिते नारे सीमा ॥

    १६२॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु के भक्तों की प्रत्येक शाखा की अनन्त आध्यात्मिक शक्ति और अनन्त महिमा है। यदि किसी के हजार मुख भी हों, तो भी उनके कार्यकलापों की सीमाओं का वर्णन कर पाना सम्भव नहीं होगा।

    सङ्क्षेपे कहिल महाप्रभुर भक्त-गण । समग्र बलिते नारे 'सहस्र-वदन' ॥

    १६३॥

    मैंने श्री चैतन्य महाप्रभु के विभिन्न स्थानों के भक्तों का संक्षिप्त वर्णन किया है। हजार मुखों वाले शेष भगवान् भी उन सबकी सूची नहीं बना सकते।

    श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश । चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥

    १६४॥

    । श्री रूप और श्री रघुनाथ के चरणकमलों में प्रार्थना करते हुए और सदैव उनकी कृपा की आकांक्षा रखते हुए मैं, कृष्णदास उनके चरणचिह्नों पर चलते हुए श्री चैतन्य-चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।

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    अध्याय ग्यारह: भगवान नित्यानंद का विस्तार

    नित्यानन्द-पदाम्भोज-भृङ्गान्प्रेम-मधून्मदान् । नत्वाखिलान्तेषु मुख्या लिख्यन्ते कतिचिन्मया ॥

    १ ॥

    मैं श्री नित्यानन्द प्रभु के उन समस्त भक्तों को नमस्कार करता हूँ, जो उनके चरणकमलों के मधु को संचय करने वाले भौरों के समान हैं। नमस्कार करने के बाद उनमें से जो जो अत्यधिक प्रमुख हैं, उनका वर्णन करने का प्रयास करूंगा।

    जय जय महाप्रभु श्री-कृष्ण-चैतन्य ।ताँहार चरणाश्रित येइ, सेइ धन्य ॥

    २॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! जिस किसी ने उनके चरणों की शरण ले ली है, वह धन्य है।

    जय जय श्री-अद्वैत, जय नित्यानन्द ।।जय जय महाप्रभुर सर्व-भक्त-वृन्द ॥

    ३॥

    श्री अद्वैत प्रभु, नित्यानन्द प्रभु तथा श्री चैतन्य महाप्रभु के समस्त भक्तों की जय हो! तस्य श्री-कृष्ण-चैतन्य-सत्प्रेमामर-शाखिनः ।ऊर्ध्व-स्कन्धावधूतेन्दोः शाखा-रूपान्गणान्नुमः ॥

    ४॥

    श्री नित्यानन्द प्रभु श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के भगवत्प्रेम रूपी अमरवृक्ष की सबसे ऊपरी शाखा हैं। मैं उस सबसे ऊपरी शाखा की समस्त उपशाखाओं को सादर नमस्कार करता हूँ।

    श्री-नित्यानन्द-वृक्षेर स्कन्ध गुरुतर ।। ताहाते जन्मिल शाखा-प्रशाखा विस्तर ॥

    ५॥

    श्री नित्यानन्द प्रभु श्री चैतन्य-वृक्ष की सर्वाधिक भारी शाखा हैं। उस शाखा से अनेक शाखाएँ तथा उपशाखाएँ निकलती हैं।

    मालाकारेर इच्छा जले बाड़े शाखा-गण ।प्रेम-फुल-फले भरि' छाइल भुवन ॥

    ६॥

    । श्री चैतन्य महाप्रभु के इच्छा-जल से सिंचित होकर ये सारी शाखाएँ तथा उपशाखाएँ असीम रूप से बढ़ गई हैं, और अपने फलों और फूलों से उन्होंने समस्त विश्व को आच्छादित कर लिया है।

    असङ्ख्य अनन्त गण के करु गणने । आपना शोधिते कहि मुख्य मुख्य जन ॥

    ७॥

    भक्तों की ये शाखाएँ तथा उपशाखाएँ अगणनीय तथा असीम हैं। इनकी गिनती कौन कर सकता है? मैं अपनी निजी शुद्धि के लिए उनमें से जो सर्वाधिक प्रमुख हैं, उन्हीं की गिनती करने का प्रयास करूंगा।

    श्री वीरभद्र गोसाजि-स्कन्ध-महाशाखा ।। ताँर उपशाखो यत, असङ्ख्य तार लेखा ॥

    ८॥

    नित्यानन्द प्रभु के बाद सबसे बड़ी शाखा वीरभद्र गोसांई हैं, जिनकी भी अनेक शाखाएँ तथा उपशाखाएँ हैं। उन सबका वर्णन कर पाना सम्भव नहीं है।

    ईश्वर हइयो कहाय महा-भागवत ।। वेद-धर्मातीत हा वेद-धर्मे रत ॥

    ९॥

    यद्यपि वीरभद्र गोसांई पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् थे, किन्तु उन्होंने अपने आपको महान् भक्त के रूप में प्रस्तुत किया। यद्यपि भगवान् सारे वैदिक आदेशों से परे होते हैं, किन्तु वे वैदिक अनुष्ठानों का दृढ़तापूर्वक पालन करते थे।

    अन्तरे ईश्वर-चेष्टा, बाहिरे निर्दम्भ ।चैतन्य-भक्ति-मण्डपे तेंहो मूल-स्तम्भ ॥

    १०॥

    वे श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा निर्मित भक्ति रूपी भवन के मुख्य स्तम्भ हैं। वे अपने अंत:करण से जानते थे कि वे भगवान् विष्णु के रूप में कार्य करते थे, किन्तु बाहर से वे गर्वरहित थे।

    अद्यापि याँहार कृपा-महिमा हइते ।।चैतन्य-नित्यानन्द गाय सकल जगते ॥

    ११॥

    श्री वीरभद्र गोसांई की महिमामयी कृपा से अब सारे विश्व के लोगों को चैतन्य तथा नित्यानन्द के नामों का कीर्तन करने का अवसर प्राप्त हुआ। सेई वीरभद्र-गोसाजिर लइनु शरण ।।याँहार प्रसादे हय अभीष्ट-पूरण ॥

    १२॥

    । अतएव मैं वीरभद्र गोसांई के चरणकमलों की शरण ग्रहण करता हूँ, जिससे श्रीचैतन्य-चरितामृत लिखने की मेरी बड़ी अभिलाषा का सही ढंग से मार्गदर्शन हो सके।

    श्री रामदास आर, गदाधर दास ।चैतन्य गोसाजिर भक्त रहे ताँर पाश ॥

    १३॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु के दो भक्त श्री रामदास तथा गदाधर दास सदैव श्री वीरभद्र गोसांई के साथ रहते थे।

    नित्यानन्दे आज्ञा दिल ग्रबे गौड़े माइते । महाप्रभु एइ दुइ दिला ताँर साथे ॥

    १४॥

    अतएव दुइ-गणे मुँहार गणन।।माधव-वासुदेव घोषेरओ एइ विवरण ॥

    १५ ॥

    जब नित्यानन्द प्रभु को बंगाल जाकर प्रचार करने का आदेश दिया गया, तब इन दोनों भक्तों ( श्री रामदास तथा गदाधर दास ) को उनके साथ जाने का आदेश मिला था। इसलिए कभी इन्हें श्री चैतन्य महाप्रभु के और कभी नित्यानन्द प्रभु के भक्तों के रूप में गिना जाता है। इसी प्रकार माधव घोष तथा वासुदेव घोष भी भक्तों के दोनों समूहों से साथसाथ सम्बन्धित थे।

    रामदास मुख्य-शाखा, सख्य-प्रेम-राशि ।।घोलसाङ्गेर काष्ठ ग्रेई तुलि' कैल वंशी ॥

    १६॥

    शाखाओं में एक मुख्य शाखा, राम दास भगवान् के सख्य प्रेम से । परिपूर्ण थे। उन्होंने सोलह गाँठों वाली लकड़ी की एक बाँसुरी बनाई थी।

    गदाधर दास गोपीभावे पूर्णानन्द ।।ग्राँर घरे दानकेलि कैल नित्यानन्द ॥

    १७॥

    श्रील गदाधर दास सदैव गोपी-भाव में मग्न रहते थे। इनके घर में भगवान् नित्यानन्द ने दानकेलि नाटक का अभिनय किया था।

    श्री-माधव घोष-मुख्य कीर्तनीया-गणे ।।नित्यानन्द-प्रभु नृत्य करे याँर गाने ॥

    १८॥

    श्री माधव घोष मुख्य कीर्तनिया थे। जब वे गाते थे, तब नित्यानन्द प्रभु नृत्य करते थे।

    वासुदेव गीते करे प्रभुर वर्णने ।काष्ठ-पाषाण द्रवे ग्राहार श्रवणे ॥

    १९॥

    जब वासुदेव घोष कीर्तन करते हुए चैतन्य महाप्रभु तथा नित्यानन्द प्रभु का वर्णन करते, तो उसे सुनकर तो लकड़ी तथा पत्थर भी पिघल जाते।

    मुरारि-चैतन्य-दासेर अलौकिक लीला ।।व्याघ्र-गाले चड़ मारे, सर्प-सने खेला ॥

    २०॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु के महान् भक्त मुरारि अनेक अलौकिक कार्य करते रहते थे। कभी वे भावातिरेक में बाघ के मुंह पर चपत लगाते थे और कभी विषैले सर्प से खेलते थे।

    नित्यानन्देर गण व्रत- सब व्रज-सखा ।।शृङ्ग-वेत्र-गोपवेश, शिरे शिखि-पाखा ॥

    २१॥

    । नित्यानन्द प्रभु के सारे पार्षद पहले व्रजभूमि के ग्वालबाल थे। उनके हाथों में श्रृंग तथा छड़ी, उनकी ग्वालों की वेशभूषा तथा उनके सिरों पर र पंख उनके प्रतीक थे।

    रघुनाथ वैद्य उपाध्याय महाशय ।याँहार दर्शने कृष्ण-प्रेम-भक्ति हय ॥

    २२॥

    रघुनाथ वैद्य का एक अन्य नाम उपाध्याय भी था। वे इतने बड़े भक्त थे कि उनके दर्शन-मात्र से मनुष्य का सुप्त भगवत्प्रेम जाग्रत हो उठता था।

    सुन्दरानन्द–नित्यानन्देर शाखा, भृत्य मर्म ।याँर सङ्गे नित्यानन्द करे व्रज-नर्म ॥

    २३॥

    श्री नित्यानन्द प्रभु की अन्य शाखा, सुन्दरानन्द उनके घनिष्ठ दास थे। उनके संग में नित्यानन्द प्रभु को व्रजभूमि के जीवन की अनुभूति होती थी।

    कमलाकर पिप्पलाइ–अलौकिक रीत ।। अलौकिक प्रेम ताँर भुवने विदित ॥

    २४॥

    कहा जाता है कि कमलाकर पिप्पलाइ तीसरे गोपाल थे। उनका व्यवहार तथा उनका भगवत्प्रेम अलौकिक था। अतः वे विश्वविदित हैं।

    सूर्यदास सरखेल, ताँर भाइ कृष्णदास । नित्यानन्दे दृढ़ विश्वास, प्रेमेर निवास ॥

    २५॥

    सूर्यदास सरखेल तथा उनके छोटे भाई कृष्णदास सरखेल को नित्यानन्द प्रभु में दृढ़ विश्वास था। वे दोनों भगवत्प्रेम के आगार थे।

    गौरीदास पण्डित ग्राँर प्रेमोद्दण्ड-भक्ति ।कृष्ण-प्रेमा दिते, निते, धरे महाशक्ति ॥

    २६॥

    भगवत्प्रेम में सर्वोच्च भक्ति के प्रतीक गौरीदास पण्डित में ऐसा प्रेम प्राप्त करने और उसे प्रदान करने की महान् शक्ति थी।

    नित्यानन्दे समर्पिल जाति-कुल-पाँति ।। श्री-चैतन्य-नित्यानन्दे करि प्राणपति ॥

    २७॥

    भगवान् श्री चैतन्य तथा भगवान् नित्यानन्द को अपने जीवन के स्वामी बनाकर गौरीदास पण्डित ने भगवान् नित्यानन्द की सेवा के लिए सब कुछ अर्पित कर दिया, यहाँ तक कि अपने परिवार की सदस्यता भी।

    नित्यानन्द प्रभुर प्रिय–पण्डित पुरन्दर ।प्रेमार्णव-मध्ये फिरे ग्रैछन मन्दर ॥

    २८॥

    । श्री नित्यानन्द प्रभु के तेरहवें मुख्य भक्त पण्डित पुरन्दर थे। वे भगवत्प्रेम के सागर में इस तरह चलते थे मानो मन्दर पर्वत हों।

    परमेश्वर-दास–नित्यानन्दैक-शरण ।कृष्ण-भक्ति पाय, ताँरे ये करे स्मरण ॥

    २९॥

    परमेश्वर दास, जो कृष्णलीला के पाँचवे गोपाल कहे जाते हैं, वे नित्यानन्द प्रभु के चरणकमलों में पूरी तरह से समर्पित थे। जो कोई उनके इस नाम परमेश्वर दास को स्मरण करेगा, उसे सरलता से कृष्ण-प्रेम प्राप्त हो जायेगा।

    जगदीश पण्डित हय जगत्पावन । कृष्ण-प्रेमामृत वर्षे, ग्रेन वर्षा घन ॥

    ३०॥

    । नित्यानन्द के अनुयायियों की पन्द्रहवीं शाखा, जगदीश पण्डित म्पूर्ण जगत् के उद्धारक थे। उनसे कृष्ण-प्रेम भक्ति की बौछार ऐसी ती थी, मानों बरसात की झड़ी लगी हो।

    नित्यानन्द-प्रियभृत्य पण्डित धनञ्जय ।अत्यन्त विरक्त, सदा कृष्ण-प्रेममय ॥

    ३१॥

    नित्यानन्द प्रभु के सोलहवें प्रिय सेवक धनंजय पण्डित थे। वे अत्यधिक विरक्त थे और सदैव कृष्ण-प्रेम में निमग्न रहते थे।

    महेश पण्डित-व्रजेर उदार गोपाल ।ढक्का-वाद्ये नृत्य करे प्रेमे मातोयाल ॥

    ३२॥

    महेश पण्डित बारह गोपालों में सातवें गोपाल थे। ये अत्यन्त उदार थे। ये ढक्का (नगाड़ा) बजने पर कृष्ण-प्रेम में उन्मत्त होकर नाचा करते थे।

    नवद्वीपे पुरुषोत्तम पण्डित महाशय ।। नित्यानन्द-नामे ग्राँर महोन्माद हय ॥

    ३३॥

    नवद्वीप निवासी पुरुषोत्तम पण्डित आठवें गोपाल थे। वे नित्यानन्द महाप्रभु का पवित्र नाम सुनते ही उन्मत्त से हो उठते थे।

    बलराम दास—कृष्ण-प्रेम-रसास्वादी । नित्यानन्द-नामे हय परम उन्मादी ॥

    ३४॥

    बलराम दास कृष्ण-प्रेम रूपी अमृत का सदैव आस्वादन करते थे। भी नित्यानन्द प्रभु का नाम सुनते ही अत्यधिक उन्मत्त हो जाते थे।

    महा-भागवत यदुनाथ कविचन्द्र ।झाँहार हृदये नृत्य करे नित्यानन्द ॥

    ३५ ।। । । यदुनाथ कविचन्द्र महान् भक्त थे। उनके हृदय में श्री नित्यानन्द प्रभु तत नृत्य करते थे।

    राढ़े याँर जन्म कृष्णदास द्विजवर ।श्री-नित्यानन्देर तेहो परम किङ्कर ॥

    ३६॥

    बंगाल में श्री नित्यानन्द के इक्कीसवें भक्त कृष्णदास ब्राह्मण थे, जो नित्यानन्द प्रभु के उच्च श्रेणी के सेवक थे।

    काला-कृष्णदास बड़ वैष्णव-प्रधान । नित्यानन्द-चन्द्र विनु नहि जाने आन ॥

    ३७॥

    नित्यानन्द प्रभु के बाइसवें भक्त काला कृष्णदास थे, जो नवें गोपाल थे। वे प्रथम श्रेणी के वैष्णव थे और नित्यानन्द प्रभु के अतिरिक्त अन्य किसी को नहीं जानते थे।

    श्री-सदाशिव कविराज–बड़ महाशय । श्री-पुरुषोत्तम-दास–ताँहार तनय ॥

    ३८॥

    श्री नित्यानन्द प्रभु के तेइसवें और चौबीसवें भक्त सदाशिव कविराज तथा उनके पुत्र पुरुषोत्तमदास थे, जो दसवें गोपाल थे।

    आजन्म निमग्न नित्यानन्देर चरणे ।निरन्तर बाल्य-लीला करे कृष्ण-सने ॥

    ३९॥

    जन्म से ही पुरुषोत्तम दास नित्यानन्द प्रभु के चरणकमलों की सेवा में निमग्न रहते थे और सदैव कृष्ण के साथ बच्चों जैसे खेल में लगे रहते थे।

    ताँर पुत्र—महाशय श्री-कानु ठाकुर । याँर देहे रहे कृष्ण-प्रेमामृत-पूर ॥

    ४०॥

    अत्यन्त सम्माननीय व्यक्ति श्री कानु ठाकुर पुरुषोत्तम दास ठाकुर के पुत्र थे। वे इतने बड़े भक्त थे कि भगवान् कृष्ण सदैव उनके शरीर में वास करते थे।

    महा-भागवत-श्रेष्ठ दत्त उद्धारण । सर्व-भावे सेवे नित्यानन्देर चरण ॥

    ४१॥

    बारह गोपालों में से ग्यारहवें गोपाल उद्धारण दत्त ठाकुर श्री नित्यानन्द प्रभु के उन्नत भक्त थे। वे नित्यानन्द प्रभु के चरणकमलों की सभी प्रकार से सेवा करते थे।

    आचार्य वैष्णवानन्द भक्ति-अधिकारी ।पूर्वे नाम छिल ग्राँर रघुनाथ पुरी' ॥

    ४२॥

    नित्यानन्द प्रभु के सत्ताइसवें प्रमुख भक्त आचार्य वैष्णवानन्द थे, जो भक्तिमयी सेवा में एक महान् अधिकारी थे। वे पहले रघुनाथ पुरी नाम से प्रसिद्ध थे।

    विष्णुदास, नन्दन, गङ्गादास–तिन भाइ ।पूर्वे याँर घरे छिला ठाकुर निताई ॥

    ४३॥

    नित्यानन्द प्रभु के एक अन्य महत्त्वपूर्ण भक्त विष्णुदास थे, जिनके दो भाई थे-नन्दन तथा गंगादास। कभी-कभी नित्यानन्द प्रभु इनके घर में ठहरते थे।

    नित्यानन्द-भृत्य--परमानन्द उपाध्याय ।।श्री-जीव पण्डित नित्यानन्द-गुण गाय ॥

    ४४॥

    परमानन्द उपाध्याय नित्यानन्द प्रभु के महान् सेवक थे और श्री जीव पण्डित नित्यानन्द प्रभु के गुणों का बखान करते थे।

    परमानन्द गुप्त—कृष्ण-भक्त महामती ।पूर्वे याँर घरे नित्यानन्देर वसति ॥

    ४५ ॥

    नित्यानन्द प्रभु के इकतीसवें भक्त श्री परमानन्द गुप्त थे, जो कृष्णभक्त थे और आध्यात्मिक चेतना में अग्रणी थे। नित्यानन्द प्रभु पहले उनके घर कुछ काल तक रह चुके थे।

    नारायण, कृष्णदास आर मनोहर ।देवानन्द–चारि भाइ निताइ-किङ्कर ॥

    ४६॥

    नारायण, कृष्णदास, मनोहर तथा देवानन्द-ये चारों भाई सदैव नित्यानन्द प्रभु की सेवा में लगे रहने वाले बत्तीसवें, तैंतीसवें, चौंतीसवें और पैंतीसवें प्रभुख भक्त थे।

    होड़ कृष्णदास–नित्यानन्द-प्रभु-प्राण ।नित्यानन्द-पद विनु नाहि जाने आन ॥

    ४७॥

    भगवान् नित्यानन्द के छत्तीसवें भक्त होड़ कृष्णदास थे, जिनके लिए नित्यानन्द प्रभु जीवन और प्राण थे। वे सदैव श्री नित्यानन्द के चरणकमलों पर समर्पित रहते थे और उनके अतिरिक्त वे अन्य किसी को नहीं जानते थे।

    नकड़ि, मुकुन्द, सूर्य, माधव, श्रीधर । रामानन्द वसु, जगन्नाथ, महीधर ॥

    ४८॥

    । नित्यानन्द प्रभु के भक्तों में नकड़ि सैंतीसवें, मुकुन्द अड़तीसवें, सूर्य उन्तालीसवें, माधव चालीसवें, श्रीधर इकतालीसवें, रामानन्द बयालीसवें, जगन्नाथ तैंतालीसवें तथा महीधर चवालीसवें क्रम पर थे।

    श्रीमन्त, गोकुल-दास हरिहरानन्द ।।शिवाइ, नन्दाइ, अवधूत परमानन्द ॥

    ४९॥

    श्रीमन्त पैंतालीसवें, गोकुलदास छियालीसवें, हरिहरानन्द सैंतालीसवें, शिवाई अड़तालीसवें, नन्दाइ उनचासवें तथा परमानन्द पचासवें भक्त थे।

    वसन्त, नवनी होड़, गोपाल, सनातन ।।विष्णाइ हाजरा, कृष्णानन्द, सुलोचन ॥

    ५०॥

    । वसन्त इक्यावनवे, नवनी होड़ बावनवें, गोपाल तिरपनवें, सनातन चौवनवे, विष्णाइ पचपनवे, कृष्णानन्द छप्पनवें एवं सुलोचन सत्तावनवें भक्त थे।

    कंसारि सेन, रामसेन, रामचन्द्र कविराज ।गोविन्द, श्रीरङ्ग, मुकुन्द, तिन कविराज ॥

    ५१॥

    श्री नित्यानन्द के अठ्ठावनवे महान् भक्त कंसारि सेन, उनसठवें रामसेन, साठवें रामचन्द्र कविराज तथा इकसठवें, बासठवें एवं तिरसठवें भक्त गोविन्द, श्रीरंग तथा मुकुन्द सभी वैद्य थे।

    पीताम्बर, माधवाचार्य, दास दामोदर ।शङ्कर, मुकुन्द, ज्ञान-दास, मनोहर ॥

    ५२॥

    नित्यानन्द प्रभु के भक्तों में पीताम्बर चौसठवें, माधवाचार्य पैंसठवें, दामोदर दास छियासठवें, शंकर सतसठवें, मुकुन्द अड़सठवें, ज्ञानदास उनहत्तरवें तथा मनोहर सत्तरवें भक्त थे।

    नर्तक गोपाल, रामभद्र, गौराङ्ग-दास ।नृसिंह-चैतन्य, मीनकेतन रामदास ॥

    ५३॥

    नर्तक गोपाल इकहत्तरवें, रामभद्र बहत्तरवें, गौरांग दास तिहत्तरवें, नृसिंह चैतन्य चौहत्तरखें तथा मीनकेतन रामदास पचहत्तरवें भक्त थे।

    वृन्दावन-दास नारायणीर नन्दन ।‘चैतन्य-मङ्गल' ग्रेहो करिल रचन ॥

    ५४॥

    श्रीमती नारायणी के पुत्र वृन्दावन दास ठाकुर ने श्री चैतन्य मंगल (जो बाद में श्री चैतन्य भागवत नाम से प्रसिद्ध हुआ) की रचना की।

    भागवते कृष्ण-लीला वर्णिला वेदव्यास ।चैतन्य-लीलाते व्यास वृन्दावन दास ॥

    ५५॥

    श्रील वेदव्यास ने श्रीमद्भागवत में कृष्ण-लीलाओं का वर्णन किया और श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं के व्यास हुए वृन्दावन दास।

    सर्वशाखा-श्रेष्ठ वीरभद्र गोसाजि।।ताँर उपशाखा व्रत, तार अन्त नाइ ॥

    ५६॥

    नित्यानन्द प्रभु की समस्त शाखाओं में वीरभद्र गोसांई सर्वोपरि थे। उनकी उपशाखाएँ अनन्त थीं।

    अनन्त नित्यानन्द-गण–के करु गणन ।।आत्म-पवित्रता-हेतु लिखिलाँ कत जन ॥

    ५७॥

    श्री नित्यानन्द प्रभु के असंख्य अनुयायियों की कोई गिनती नहीं कर सकता। मैंने तो केवल आत्म शुद्धि के लिए उनमें से कुछ का ही उल्लेख किया है।

    एई सर्व-शाखा पूर्ण–पक्व प्रेम-फले ।।ग्रारे देखे, तारे दिया भासाइल सकले ॥

    ५८॥

    श्री नित्यानन्द प्रभु के भक्तों की ये सारी शाखाएँ कृष्ण-प्रेम के पके फलों से परिपूर्ण थीं और उनसे जो भी मिला, उन सबको ये फल बाँट दिये और उन्हें कृष्ण-प्रेम से आप्लावित कर दिया।

    अनर्गल प्रेम सबार, चेष्टा अनर्गल ।प्रेम दिते, कृष्ण दिते धरे महाबल ॥

    ५९॥

    इन सारे भक्तों में अबाध, अनन्त कृष्ण-प्रेम प्रदान करने की असीम शक्ति थी। वे अपनी शक्ति से किसी को भी कृष्ण तथा कृष्ण-प्रेम प्रदान कर सकते थे।

    सङ्क्षेपे कहिलाँ एइ नित्यानन्द-गण ।। झाँहार अवधि ना पाय ‘सहस्र-वदन' ॥

    ६०॥

    । मैंने श्री नित्यानन्द प्रभु के अनुयायियों और भक्तों में से कुछ का ही संक्षेप में वर्णन किया है। एक हजार मुखों वाले शेषनाग भी इन सभी असंख्य भक्तों का वर्णन नहीं कर सकते।

    श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश । चैतन्य चरितामृत कहे कृष्णदास ॥

    ६१॥

    श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के उद्देश्य की पूर्ति की प्रबल इच्छा से मैं कृष्णदास उनके चरणचिह्नों पर चलते हुए श्री चैतन्य-चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।

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    अध्याय बारह: अद्वैत आचार्य और गदाधर पंडित का विस्तार

    अद्वैताद्ध्यब्ज-भृङ्गस्तान्सारासार-भृतोऽखिलान् ।हित्वासारान्सार-भृतो नौमि चैतन्य-जीवनान् ॥

    १॥

    श्री अद्वैत प्रभु के अनुयायी दो प्रकार के थे। कुछ तो असली थे और कुछ नकली। मैं नकली अनुयायियों का बहिष्कार करते हुए श्री अद्वैत आचार्य के असली अनुयायियों को सादर नमस्कार करता हूँ, जिनके जीवन और प्राण श्री चैतन्य महाप्रभु थे।

    जय जय महाप्रभु श्री-कृष्ण-चैतन्य ।। जय जय नित्यानन्द जयाद्वैत धन्य ॥

    २॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! नित्यानन्द प्रभु की जय हो और जय हो श्री अद्वैत प्रभु की! ये सभी धन्य हैं।

    श्री-चैतन्यामर-तरोद्वितीय-स्कन्ध-रूपिणः ।। श्रीमदद्वैत-चन्द्रस्य शाखा-रूपान्गणान्नुमः ॥

    ३॥

    मैं श्री चैतन्य रूपी नित्य वृक्ष की द्वितीय शाखा सर्वयशस्वी अद्वैत प्रभु हो तथा उनकी उपशाखा रूपी उनके अनुयायियों को सादर नमस्कार रता हूँ।

    वृक्षेर द्वितीय स्कन्ध–आचार्य-गोसाजि ।।ताँर व्रत शाखा हइल, तार लेखा नाजि ॥

    ४॥

    श्री अद्वैत प्रभु उस वृक्ष की द्वितीय बड़ी शाखा थे। उस वृक्ष की अनेक उपशाखाएँ हैं, किन्तु उन सभी का उल्लेख कर सकना असम्भव है।

    चैतन्य-मालीर कृपा-जलेर सेचने ।सेइ जले पुष्ट स्कन्ध बाड़े दिने दिने ॥

    ५॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु माली भी थे और ज्यों-ज्यों वे अपने कृपा-रूपी जल से इस वृक्ष को सींचते, त्यों-त्यों नित्यप्रति उसकी सारी शाखाएँ तथा उपशाखाएँ बढ़ती जातीं।

    सेइ स्कन्धे व्रत प्रेम-फल उपजिल ।। सेइ कृष्ण-प्रेम-फले जगभरिल ॥

    ६ ॥

    इस चैतन्य-रूपी वृक्ष की शाखाओं में जो भगवत्प्रेम रूपी फल लगे, वे इतने अधिक थे कि सारा संसार ही कृष्ण-प्रेम से आप्लावित हो उठा।

    सेइ जल स्कन्धे करे शाखाते सञ्चार ।।फले-फुले बाड़े, शाखा हइल विस्तार ॥

    ७॥

    ज्यों-ज्यों तना तथा शाखाएँ सींची गईं, त्यों-त्यों शाखाएँ तथा उपशाखाएँ बहुतायत से बढ़ती गईं और यह वृक्ष फलों तथा फूलों से लद गया।

    प्रथमे त' एक-मत आचार गण ।पाछे दुइ-मत हैल दैवेर कारण ॥

    ८॥

    प्रारम्भ में अद्वैत आचार्य के सारे अनुयायी एक ही मत को मानते थे, किन्तु बाद में वे संयोग से दो भिन्न-भिन्न मतों का अनुसरण करने लगे।

    केह त' आचार्य आज्ञाय, केह त' स्वतन्त्र । स्व-मत कल्पना करे दैव-परतन्त्र ॥

    ९॥

    कुछ शिष्यों ने आचार्य के आदेशों का दृढ़तापूर्वक पालन किया और कुछ अन्य दैवीमाया के वशीभूत होकर अपना स्वतंत्र मत गढ़ने के कारण डक गये।

    आचार्गेर मत येइ, सेइ मत सार ।ताँर आज्ञा लङ्घि' चले, सेइ त' असार ॥

    १० ॥

    आध्यात्मिक जीवन में गुरु का आदेश ही जीवन्त सिद्धान्त है। जो कोई गुरु की आज्ञा का उल्लंघन करता है, वह तुरन्त व्यर्थ (असार) हो जाता है।

    असारेर नामे इहाँ नाहि प्रयोजन । भेद जानिबारे करि एकत्र गणन ॥

    ११॥

    जो असार हैं, उनका नाम लेना व्यर्थ है। मैंने उनको उल्लेख केवल उपयोगी भक्तों से अन्तर दिखलाने के लिए किया है।

    धान्य-राशि मापे ग्रैछे पात्ना सहिते ।। पश्चाते पाला उड़ाञा संस्कार करते ॥

    १२ ॥

    पहले धान पुआल के साथ मिला रहता है और धान को पुआल से अलग करने के लिए उसे हवा देनी पड़ती है।

    अच्युतानन्द-बड़ शाखा, आचार्य-नन्दन । आजन्म सेविला तेंहो चैतन्य-चरण ॥

    १३॥

    अद्वैत आचार्य की एक विशाल शाखा थे उनके पुत्र अच्युतानन्द। वे अपने जीवन के प्रारम्भ से ही चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों की सेवा में संलग्न रहे।

    चैतन्य-गोसाजिर गुरु—केशव भारती ।एइ पितार वाक्य शुनि' दुःख पाइल अति ॥

    १४॥

    जब अच्युतानन्द ने अपने पिता से यह सुना कि केशव भारती चैतन्य महाप्रभु के गुरु थे, तो वे अत्यधिक अप्रसन्न हुए।

    जगद्गुरुते तुमि कर ऐछे उपदेश ।तोमार एइ उपदेशे नष्ट हइल देश ॥

    १५ ॥

    उन्होंने अपने पिता से कहा, आपको यह उपदेश कि केशव भारती श्री चैतन्य महाप्रभु के गुरु हैं, सारे देश को बर्बाद कर देगा।

    चौद्द भुवनेर गुरु-चैतन्य गोसाजि । तॉर गुरु—अन्य, एइ कोन शास्त्रे नाइ ॥

    १६॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु तो चौदहों लोकों के गुरु हैं, किन्तु आप बतलाते कि उनका गुरु कोई अन्य है। इसकी पुष्टि किसी मान्य शास्त्र द्वारा नहीं ती।

    पञ्चम वर्षेर बालक कहे सिद्धान्तेर सार । शुनिया पाइला आचार्य सन्तोष अपार ॥

    १७॥

    जब अद्वैत आचार्य ने अपने पाँच वर्ष के पुत्र अच्युतानन्द से यह वाक्य सुना, तो उन्हें परम सन्तोष हुआ, क्योंकि यह सिद्धान्त का सार था।

    कृष्ण-मिश्र-नाम आर आचार्य-तनय । चैतन्य गोसाजि बैसे याँहार हृदय ॥

    १८॥

    कृष्ण मिश्र अद्वैत आचार्य के पुत्र थे। उनके हृदय में श्री चैतन्य प्रभु सदैव विराजमान रहते थे।

    श्री-गोपाल-नामे आर आचार्गेर सुत ।।ताँहार चरित्र, शुन, अत्यन्त अद्भुत ॥

    १९॥

    श्री अद्वैत आचार्य प्रभु के अन्य पुत्र थे श्री गोपाल। अब उनकी विशेषताओं के बारे में सुनिये, क्योंकि वे सभी अत्यन्त अद्भुत हैं।

    गुण्डिचा-मन्दिरे महाप्रभुर सम्मुखे ।।कीर्तने नर्तन करे बड़ प्रेम-सुखे ॥

    २० ॥

    जब भगवान् चैतन्य अपने हाथ से जगन्नाथ पुरी में गुण्डिचा मन्दिर की सफाई करते थे, तब गोपाल बड़े प्रेम और मुदित भाव से महाप्रभु के समक्ष नाचता था।

    नाना-भावोद्गम देहे अद्भुत नर्तन ।दुइ गोसाजि‘हरि' बले, आनन्दित मन ॥

    २१॥

    जिस समय चैतन्य महाप्रभु तथा अद्वैत प्रभु हरे कृष्ण मन्त्र का कीर्तन करते तथा नाचते थे, तब उनके शरीरों में विविध भावातिरेक के लक्षण प्रकट होने लगते और उनके मन अत्यन्त प्रमुदित होते थे।

    नाचिते नाचिते गोपाल हइल मूर्च्छित ।भूमेते पड़िल, देहे नाहिक संवित ॥

    २२॥

    जब वे सबै नाच रहे थे, तब गोपाल नाचते-नाचते मूर्च्छित हो गया और भूमि पर गिरकर अचेत हो गया।

    दुःखित हइला आचार्य पुत्र कोले लञा ।रक्षा करे नृसिंहेर मन्त्र पड़िया ॥

    २३॥

    अद्वैत आचार्य प्रभु अत्यन्त दुःखी हुए। वे अपने पुत्र को अपनी गोद में उठाकर उसकी रक्षा के लिए नृसिंह-मन्त्र का उच्चारण करने लगे।

    नाना मन्त्र पड़ेन आचार्य, ना हय चेतन ।।आचार्गेर दुःखे वैष्णव करेन क्रन्दन ॥

    २४॥

    अद्वैत आचार्य ने विविध मन्त्रों का उच्चारण किया, किन्तु गोपाल को होश नहीं आया। अतएव वहाँ पर उपस्थित सारे वैष्णव उनकी व्यथा से शोकातुर होकर रोने लगे।

    तबे महाप्रभु, ताँर हृदे हस्त धरि' ।।‘उठह, गोपाल, कैल बल ‘हरि' ‘हरि' ॥

    २५॥

    तब चैतन्य महाप्रभु ने गोपाल की छाती पर अपना हाथ रखा और उससे कहा, “प्रिय गोपाल! उठो और भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन करो ! उठिल गोपाल प्रभुर स्पर्श-ध्वनि शुनि' ।।आनन्दित हा सबे करे हरि-ध्वनि ॥

    २६॥

    जब गोपाल ने महाप्रभु की आवाज सुनी और उनके स्पर्श का अनुभव किया, तो वह तुरन्त उठ पड़ा और सारे वैष्णव खुशी में हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करने लगे।

    आचार्मेर आर पुत्र-श्री-बलराम । आर पुत्र-----‘स्वरूप-शाखा, जगदीश' नाम ॥

    २७॥

    अद्वैत आचार्य के अन्य पुत्र श्री बलराम, स्वरूप तथा जगदीश थे।

    नीलाचले तेहो एक पत्रिका लिखिया । प्रतापरुद्रेर पाश दिल पाठाइया ॥

    २९॥

    जब कमलाकान्त विश्वास जगन्नाथ पुरी में था, तो उसने किसी के थों एक चिट्ठी महाराज प्रतापरुद्र के पास भेजी।

    ‘कमलाकान्त विश्वास'-नाम आचार्घ-किङ्कर। आचार्य-व्यवहार सब-ताँहार गोचर ॥

    २८॥

    आचार्य अद्वैत का अत्यन्त विश्वासपात्र नौकर कमलाकान्त विश्वास अद्वैत आचार्य के सारे आचारों-व्यवहारों को जानता था।

    सेइ पत्रीर कथा आचार्य नाहि जाने ।। कोन पाके सेइ पत्री आइल प्रभु-स्थाने ॥

    ३०॥

    किसी को इस चिट्ठी के विषय में पता नहीं था, किन्तु यह चिट्ठी । किसी तरह श्री चैतन्य महाप्रभु के हाथ लग गई।

    से पत्रीते लेखा आछे-एइ त' लिखन। ईश्वरत्वे आचार्येरे करियाछे स्थापन ॥

    ३१॥

    इस चिट्ठी में यह प्रमाणित किया गया था कि अद्वैत आचार्य भगवान् के अवतार हैं।

    किन्तु ताँर दैवे किछु हइयाछे ऋण ।। ऋण शोधिबारे चाहि तङ्का शत-तिन ॥

    ३२॥

    किन्तु साथ ही यह भी उल्लेख था कि अद्वैत आचार्य के ऊपर हाल ही में तीन सौ रुपये का ऋण चढ़ गया है, कमलाकान्त विश्वास जिसको चुकाना चाहता है।

    पत्र पड़िया प्रभुर मने हैल दुःख ।बाहिरे हासिया किछु बले चन्द्र-मुख ॥

    ३३॥

    चैतन्य महाप्रभु यह चिट्ठी पढ़कर अत्यन्त दुःखी हुए, यद्यपि ऊपर से उनका मुख अब भी चन्द्रमा के समान चमक रहा था। इस प्रकार हँसते हुए महाप्रभु ने यह कहा।

    आचाग्रेर स्थापियाछ करिया ईश्वर ।इथे दोष नाहि, आचार्य दैवत ईश्वर ॥

    ३४॥

    । उसने अद्वैत आचार्य को भगवान् के अवतार के रूप में स्थापित कर दिया है। इसमें कोई दोष नहीं है, क्योंकि वे सचमुच साक्षात् भगवान् हैं।

    ईश्वरेर दैन्य करि' करियाछे भिक्षा ।।अतएव दण्ड करि' कराइब शिक्षा ॥

    ३५॥

    । किन्तु उसने भगवान् के अवतार को निर्धनता-ग्रस्त भिक्षुक बना दिया है, अतएव मैं उसकी इस भूल को सुधारने के लिए उसे पाठ पढ़ाऊँगा।

    गोविन्देरे आज्ञा दिल,–इँहा आजि हैते ।। बाउलिया विश्वासे एथा ना दिबे आसिते ॥

    ३६॥

    महाप्रभु ने गोविन्द को आज्ञा दी, आज से उस बाउलिया मलाकान्त विश्वास को यहाँ मत आने देना।

    दण्ड शुनि' 'विश्वास' हइल परम दुःखित ।शुनिया प्रभुर दण्ड आचार्य हर्षित ॥

    ३७॥

    जब कमलाकान्त विश्वास ने श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा दिये गये इस दण्ड के बारे में सुना, तो वह बहुत दुःखी हुआ, किन्तु जब अद्वैत प्रभु ने इसके बारे में सुना, तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुए।

    विश्वासेरे कहे,—तुमि बड़ भाग्यवान् ।तोमारे करिल दण्ड प्रभु भगवान् ॥

    ३८॥

    कमलाकान्त विश्वास को अप्रसन्न देखकर अद्वैत आचार्य प्रभु ने उससे कहा, “तुम परम भाग्यशाली हो कि भगवान् चैतन्य महाप्रभु द्वारा दण्डित हुए हो।

    पूर्व महाप्रभु मोरे करेन सम्मान ।। दुःख पाइ' मने आमि कैलँ अनुमान ॥

    ३९॥

    । पहले तो चैतन्य महाप्रभु अपने वरिष्ठ की तरह मेरा आदर करते थे, । किन्तु मुझे ऐसा आदर पसन्द न था। अतएव मेरा मन दुखित होने के कारण मैंने एक योजना बनाई थी।

    मुक्ति-श्रेष्ठ करि' कैनु वाशिष्ठ व्याख्यान ।क्रुद्ध हा प्रभु मोरे कैल अपमान ॥

    ४० ॥

    मैंने मुक्ति को जीवन को चरम लक्ष्य मानने वाले ग्रंथ योगवाशिष्ठ की व्याख्या की, इसीलिए महाप्रभु मुझ पर क्रुद्ध हुए और उन्होंने मेरे प्रति दिखावटी असम्मान प्रदर्शित किया।

    दण्ड पाला हैल मोर परम आनन्द ।।ये दण्ड पाइल भाग्यवान्श्री-मुकुन्द ॥

    ४१॥

    चैतन्य महाप्रभु से प्रताड़ित होकर मैं परम प्रसन्न हुआ कि मुझे भी श्री मुकुन्द जैसा दण्ड प्राप्त हुआ है।

    ये दण्ड पाइल श्री-शची भाग्यवती ।। से दण्ड प्रसाद अन्य लोक पाबे कति ॥

    ४२॥

    । ऐसा ही दण्ड माता शचीदेवी को मिला था। भला ऐसा दण्ड पाने उनसे अधिक और कौन भाग्यवान हो सकेगा? एत कहि' आचार्य तौरै करिया आश्वास । आनन्दित हइया आइल महाप्रभु-पाश ॥

    ४३॥

    इस प्रकार से कमलाकान्त को आश्वासन देने के बाद श्री अद्वैत आचार्य प्रभु श्री चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करने गये।

    प्रभुके कहेन तोमार ना बुझि ए लीला ।।आमा हैते प्रसाद-पात्र करिला कमला ॥

    ४४॥

    । श्री अद्वैत आचार्य ने भगवान् चैतन्य से कहा, आपकी दिव्य लीलाएँ मेरी समझ में नहीं आ सकतीं। आप मुझ पर जितनी कृपा करते हैं, उससे अधिक कृपा आपने कमलाकान्त पर की है।

    आमारेह कभु येइ ना हय प्रसाद ।तोमार चरणे आमि कि कैनु अपराध ॥

    ४५ ॥

    । आपने कमलाकान्त पर जो कृपा की है, वह इतनी महान् है कि आपने मुझ पर कभी भी ऐसी कृपा नहीं की। भला मैंने आपके चरणकमलों पर कौन-सा ऐसा अपराध किया है कि आपने ऐसी कृपा मुझ पर नहीं दिखलाई? एत शुनि' महाप्रभु हासिते लागिला ।।बोलाइया कमलाकान्ते प्रसन्न हइला ॥

    ४६॥

    यह सुनकर चैतन्य महाप्रभु हर्षित होकर हँसने लगे और तुरन्त ही उन्होंने कमलाकान्त विश्वास को बुलाया।

    आचार्य कहे, इहाके केने दिले दरशन ।दुइ प्रकारेते करे मोरे विडम्बन ॥

    ४७॥

    तब अद्वैत आचार्य ने चैतन्य महाप्रभु से कहा, आपने इस व्यक्ति को फिर से क्यों बुलाया और इसे अपने दर्शन की क्यों अनुमति दी है? इसने तो मुझे दो प्रकार से धोखा दिया है।

    शुनिया प्रभुर मन प्रसन्न हइल ।।मुँहार अन्तर-कथा मुँहे से जानिल ॥

    ४८ ॥

    जब चैतन्य महाप्रभु ने यह सुना, तो उनका मन प्रसन्न हो गया। केवल वे ही एक दूसरे के मन की बातें समझ सकते थे।

    प्रभु कहे—बाउलिया, ऐछे काहे कर ।। आचार लज्जा-धर्म-हानि से आचर ॥

    ४९॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु ने कमलाकान्त को समझाया, “तुम तो बाउलिया हो, जिसको वस्तुओं की सही स्थिति के बारे में ज्ञान नहीं होता है। तुम इस तरह क्यों करते हो? तुम अद्वैत आचार्य की गोपनीयता को क्यों भंग करते हो तथा उनके धार्मिक सिद्धान्तों को क्षति पहुँचाते हो? प्रतिग्रह कभु ना करिबे राज-धन ।।विषयीर अन्न खाइले दुष्ट हय मन ॥

    ५०॥

    मेरे गुरु अद्वैत आचार्य को धनी पुरुषों या राजाओं से दान कभी भी कार नहीं करना चाहिए, क्योंकि यदि कोई गुरु ऐसे भौतिकतावादियों जा धन या अन्न स्वीकार करता है, तो उसका मन दूषित हो जाता है।

    मन दुष्ट हइले नहे कृष्णेर स्मरण ।। कृष्ण-स्मृति विनु हय निष्फल जीवन ॥

    ५१॥

    जब मनुष्य का मन दूषित हो जाता है, तो कृष्ण का स्मरण करना अत्यन्त कठिन हो जाता है और जब कृष्ण के स्मरण में बाधा आती है, तो जीवन निष्फल हो जाता है।

    लोक-लज्जा हय, धर्म-कीर्ति हय हानि ।।ऐछे कर्म ना करिह कभु इहा जानि' ॥

    ५२॥

    इस तरह मनुष्य जनसाधारण की दृष्टि में अलोकप्रिय हो जाता है,क्योंकि इससे उसकी धार्मिकता तथा यश को हानि पहुँचती है। एक tणव को, विशेषकर जो गुरु का कार्य करता हो, कोई ऐसा कर्म नहीं करना चाहिए। उसे इस तथ्य के प्रति सदैव जागरूक रहना चाहिए।

    एइ शिक्षा सबाकारे, सबे मने कैल। आचार्य-गोसान्नि मने आनन्द पाइल ॥

    ५३॥

    जब चैतन्य महाप्रभु ने कमलाकान्त को यह शिक्षा दी, तो वहाँ पर उपस्थित सारे लोगों ने यही माना कि यह हर एक के लिए है। इस प्रकार अद्वैत आचार्य अत्यधिक प्रसन्न हुए।

    आचार अभिप्राय प्रभु-मात्र बुझे । प्रभुर गम्भीर वाक्य आचार्य समुझे ॥

    ५४॥

    केवल चैतन्य महाप्रभु ही अद्वैत आचार्य के मनोभाव समझ सके और अद्वैत आचार्य महाप्रभु के गम्भीर उपदेश को समझ सके।

    एइ त' प्रस्तावे आछे बहुत विचार । ग्रन्थ-बाहुल्य-भये नारि लिखिबार ॥

    ५५ ॥

    इस कथन में अनेक गुह्य विचार हैं। मैं उन सबको नहीं लिख रहा, क्योंकि इससे पुस्तक के व्यर्थ ही बढ़ जाने का भय है।

    श्री-यदुनन्दनाचार्य–अद्वैतेर शाखा । ताँर शाखा-उपशाखार नाहि हय लेखा ॥

    ५६॥

    । अद्वैत आचार्य की पाँचवीं शाखा श्री यदुनन्दन आचार्य थे, जिनसे इतनी शाखाएँ तथा उपशाखाएँ निकलीं कि उन सबको लिपिबद्ध करना सम्भव है।

    वासुदेव दत्तेर तेंहो कृपार भाजन ।।सर्व-भावे आश्रियाछे चैतन्य-चरण ॥

    ५७॥

    श्री यदुनन्दन आचार्य वासुदेव दत्त के शिष्य थे और उन्हें गुरु की पूरी कपा प्राप्त थी। अतएव उन्होंने सभी प्रकार से श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणों को परम आश्रय के रूप में स्वीकार किया।

    भागवताचार्य, आर विष्णुदासाचार्य ।।चक्रपाणि आचार्य, आर अनन्त आचार्य ॥

    ५८॥

    भागवत आचार्य, विष्णुदास आचार्य, चक्रपाणि आचार्य तथा अनन्त । अद्वैत आचार्य की क्रमशः छठी, सातवीं, आठवीं तथा नवीं शाखाएँ थे।

    नन्दिनी, आर कामदेव, चैतन्य-दास ।दुर्लभ विश्वास, आर वनमालि-दास ॥

    ५९॥

    । : नन्दिनी, कामदेव, चैतन्य दास, दुर्लभ विश्वास तथा वनमाली दास श्री अद्वैत आचार्य की क्रमशः दसवीं, ग्यारहवीं, बारहवीं, तेरहवीं तथा चौदवी शाखाएँ थे।

    जगन्नाथ कर, आर कर भवनाथ । हृदयानन्द सेन, आर दास भोलानाथ ॥

    ६० ॥

    इसी तरह जगन्नाथ कर, भवनाथ कर, हृदयानन्द सेन तथा भोलानाथ पास अद्वैत आचार्य की क्रमशः पंद्रहवीं, सोलहवीं, सत्रहवीं तथा अठारहवीं शाखाएँ थे।

    यादव-दास, विजय-दास, दास जनार्दन । अनन्त-दास, कानु-पण्डित, दास नारायण ॥

    ६१॥

    यादव दास, विजय दास, जनार्दन दास, अनन्त दास, कानु पण्डित तथा नारायण दास क्रमशः उन्नीसवीं, बीसवीं, इक्कीसवीं, बाइसवीं, तेइसवीं और चौबीसवीं शाखाएँ थे।

    श्रीवत्स पण्डित, ब्रह्मचारी हरिदास ।पुरुषोत्तम ब्रह्मचारी, आर कृष्णदास ॥

    ६२॥

    श्रीवत्स पण्डित, हरिदास ब्रह्मचारी, पुरुषोत्तम ब्रह्मचारी तथा कृष्णदास अद्वैत आचार्य की क्रमशः पच्चीसवीं, छब्बीसवीं, सत्ताइसवीं तथा अठ्ठाइसवीं शाखाएँ थे।

    पुरुषोत्तम पण्डित, आर रघुनाथ ।वनमाली कविचन्द्र, आर वैद्यनाथ ॥

    ६३ ॥

    उसके आगे क्रमशः पुरुषोत्तम पण्डित, रघुनाथ, वनमाली कविचन्द्र तथा वैद्यनाथ अद्वैत आचार्य की उन्तीसवीं, तीसवीं, इकतीसवीं और बत्तीसवीं शाखाएँ थे।

    लोकनाथ पण्डित, आर मुरारि पण्डित । श्री-हरिचरण, आर माधव पण्डित ॥

    ६४॥

    लोकनाथ पण्डित, मुरारी पण्डित, श्री हरिचरण तथा माधव पण्डित अद्वैत आचार्य की क्रमशः तैंतीसवीं चौंतीसवीं, पैंतीसवीं और छत्तीसवीं पाएँ थे।

    विजय पण्डित, आर पण्डित श्रीराम ।असङ्ख्य अद्वैत-शाखा कत लइब नाम ॥

    ६५॥

    विजय पण्डित तथा श्रीराम पण्डित अद्वैत आचार्य की दो महत्त्वपूर्ण खाएँ थे। शाखाएँ तो असंख्य हैं, लेकिन मैं उन सबका नाम गिना पाने असमर्थ हूँ।

    मालि-दत्त जल अद्वैत-स्कन्ध स्रोगाय ।सेइ जले जीये शाखा, फुल-फल पाय ॥

    ६६॥

    अद्वैत आचार्य की शाखा को मूल माली श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा प्रदत्त जल प्राप्त हुआ। इस तरह उपशाखाओं का प्रतिपालन हुआ और उनमें प्रचुर फल-फूल लगे।

    इहार मध्ये माली पाछे कोन शाखा-गण ।।ना माने चैतन्य-माली दुर्दैव कारण ॥

    ६७॥

    चैतन्य महाप्रभु के तिरोधान के बाद दुर्भाग्यवश कुछ शाखाएँ महाप्रभु द्वारा दिखाए गये मार्ग से भटक गईं।

    सृजाइल, जीयाइल, ताँरे ना मानिल। कृतघ्न होइला, ताँरे स्कन्ध क्रुद्ध हइल ॥

    ६८॥

    । कुछ शाखाओं ने उस मूल तने को स्वीकार नहीं किया, जो सम्पूर्ण क्ष का जीवनदाता तथा पालनकर्ता था। इस प्रकार जब वे कृतघ्न बन गई, तो मूल तना उन पर क्रुद्ध हो गया।

    क्रुद्ध हा स्कन्ध तारे जल ना सञ्चारे । जलाभावे कृश शाखा शुकाइया मरे ॥

    ६९॥

    इस प्रकार चैतन्य महाप्रभु ने उन पर अपनी कृपा-रूपी जल नहीं छिड़का और धीरे-धीरे वे मुरझाकर मर गईं।

    चैतन्य-रहित देह—शुष्ककाठे-सम । जीवितेइ मृत सेइ, मैले दण्डे ग्रम ॥

    ७०॥

    कृष्णभावनाविहीन पुरुष शुष्क काठ या मृत शरीर से बढ़कर कुछ। नहीं है। वह जीवित होकर भी मृत माना जाता है और मरने के बाद उसे यमराज दण्डित करते हैं।

    केवल ए गण-प्रति नहे एइ दण्ड ।चैतन्य-विमुख येइ सेइ त' पाषण्ड ॥

    ७१॥

    । । न केवल अद्वैत आचार्य के दिग्भ्रमित वंशज, अपितु जो कोई भी श्री चैतन्य महाप्रभु सम्प्रदाय के विरुद्ध है, उसे नास्तिक मानना चाहिए और ह यमराज के दण्ड का पात्र है।

    कि पण्डित, कि तपस्वी, किबा गृही, ग्रति ।चैतन्य-विमुख ग्रेइ, तार एइ गति ॥

    ७२॥

    । चाहे कोई पण्डित हो, महान् तपस्वी हो अथवा सफल गृहस्थ हो या प्रसिद्ध संन्यासी ही क्यों न हो, किन्तु यदि वह चैतन्य महाप्रभु के सम्प्रदाय के विरुद्ध है, तो उसे यमराज द्वारा दिये जाने वाला कष्ट भोगना ही होगा।

    ये ये लैल श्री-अच्युतानन्देर मत ।सेइ आचार्येर गण-महा-भागवत ॥

    ७३॥

    अद्वैत आचार्य के जिन वंशजों ने श्री अच्युतानन्द के मार्ग को अपनाया, वे सबके सब महान् भक्त हुए।

    सेइ सेइ,--आचार्गेर कृपार भाजन ।अनायासे पाइल सेइ चैतन्य-चरण ॥

    ७४॥

    अद्वैत आचार्य की कृपा से जिन भक्तों ने चैतन्य महाप्रभु के मार्ग का दृढ़ता से पालन किया, उन्हें चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों का आश्रय सहज ही प्राप्त हो गया।

    अच्युतेर ग्रेइ मत, सेइ मत सार ।।और व्रत मत सब हैल छारखार ॥

    ७५ ॥

    अतएव यह निष्कर्ष यह निकलता है कि अच्युतानन्द का मार्ग ही यात्मिक जीवन का सार है। जिन लोगों ने इस मार्ग का पालन नहीं किया, वे मात्र तितर-बितर होकर रह गये।

    सेइ आचार्य-गणे मोर कोटि नमस्कार ।अच्युतानन्द-प्राय, चैतन्य जीवन याँहार ॥

    ७६ ॥

    अतः मैं अच्युतानन्द के उन असली अनुगामियों को कोटि-कोटि नमस्कार करता हूँ, जिनके जीवनाधार श्री चैतन्य महाप्रभु थे।

    एइ त कहिलाँ आचार्य-गोसाजिर गण ।।तिन स्कन्ध-शाखार कैल संक्षेप गणन ॥

    ७७॥

    इस तरह मैंने संक्षेप में श्री अद्वैत आचार्य के वंशजों की तीन शाखाओं (अच्युतानन्द, कृष्ण मिश्र तथा गोपाल) का वर्णन किया है।

    शाखा-उपशाखा, तार नाहिक गणन।किछु-मात्र कहि' करि दिग्दरशन ॥

    ७८॥

    अद्वैत आचार्य की असंख्य शाखाएँ तथा उपशाखाएँ हैं। उन सबकी पूर्णरूपेण गणना कर पाना अत्यन्त कठिन है। मैंने तो पूरे तने तथा इसकी शाखाओं-उपशाखाओं की झाँकी मात्र प्रस्तुत की है।

    श्री-गदाधर पण्डित शाखाते महोत्तम ।।ताँर उपशाखा किछु करि ग्रे गणन ॥

    ७९॥

    अद्वैत आचार्य की शाखाओं तथा उपशाखाओं का वर्णन करने के बाद मैं अब श्री गदाधर पण्डित के कुछ वंशजों का वर्णन करने का प्रयास करूंगा, क्योंकि यह प्रधान शाखाओं में से एक है।

    शाखा-श्रेष्ठ धुवानन्द, श्रीधर ब्रह्मचारी ।। भागवताचार्य, हरिदास ब्रह्मचारी ॥

    ८०॥

    वा श्री गदाधर पण्डित की मुख्य शाखाएँ थीं (१) श्री धुवानन्द, १) श्रीधर ब्रह्मचारी, (३) हरिदास ब्रह्मचारी तथा (४) रघुनाथ गवताचार्य।

    अनन्त आचार्य, कविदत्त, मिश्र-नयन ।गङ्गामन्त्री मामु ठाकुर, कण्ठाभरण ॥

    ८१॥

    । पाँचवीं शाखा थे अनन्त आचार्य, छठी कविदत्त, सातवीं नयन मिश्र, आठवीं गंगामन्त्री, नवीं मामु ठाकुर तथा दसवीं शाखा कण्ठाभरण थे।

    भूगर्भ गोसाजि, आर भागवत-दास ।।ग्रेइ दुइ आसि' कैल वृन्दावने वास ॥

    ८२ ॥

    गदाधर गोस्वामी की ग्यारहवीं शाखा में भूगर्भ गोसांइ हुए और बारहवीं में भागवतदास। ये दोनों वृन्दावन चले गये और जीवनभर वहीं रहे।

    वाणीनाथ ब्रह्मचारी—बड़ महाशय । वल्लभ-चैतन्य-दास—कृष्ण-प्रेममय ॥

    ८३॥

    । तेरहवीं शाखा थे वाणीनाथ ब्रह्मचारी और चौदहवीं वल्लभ चैतन्य स। ये दोनों महापुरुष सदैव कष्ण-प्रेम से परित रहते थे।

    श्रीनाथ चक्रवर्ती, आर उद्धव दास ।।जितामित्र, काष्ठकाटा-जगन्नाथ-दास ॥

    ८४॥

    श्रीनाथ चक्रवर्ती पंद्रहवीं, उद्धव सोलहवीं, जितामित्र सत्रहवीं तथा जगन्नाथ दास अठारहवीं शाखाएँ थे।

    श्री-हरि आचार्य, सादि-पुरिया गोपाल ।कृष्णदास ब्रह्मचारी, पुष्प-गोपाल ॥

    ८५ ॥

    श्री हरि आचार्य उन्नीसवीं, सादिपुरिया गोपाल बीसवीं, कृष्णदास ब्रह्मचारी इक्कीसवीं तथा पुष्पगोपाल बाइसवीं शाखाएँ थे।

    श्रीहर्ष, रघु-मिश्र, पण्डित लक्ष्मीनाथ ।बङ्गवाटी-चैतन्य-दास, श्री-रघुनाथ ॥

    ८६॥

    श्रीहर्ष तेईसवीं शाखा थे, रघु मिश्र चौबीसवीं, लक्ष्मीनाथ पण्डित पीसवीं, बंगवाटी चैतन्य दास छब्बीसवीं तथा रघुनाथ सत्ताइसवीं खाएँ थे।

    अमोघ पण्डित, हस्ति-गोपाल, चैतन्य-वल्लभ ।यदु गाङ्गुलि आर मङ्गल वैष्णव ॥

    ८७॥

    अट्ठाइसवीं शाखा अमोघ पण्डित थे, उन्तीसवीं हस्तिगोपाल, तीसवीं चैतन्य वल्लभ, इकतीसवीं यदु गांगुली तथा मंगल वैष्णव बत्तीसवीं शाखा थे।

    चक्रवर्ती शिवानन्द सदा व्रजवासी । महाशाखा-मध्ये तेहो सुदृढ़ विश्वासी ॥

    ८८॥

    शिवानन्द चक्रवर्ती लैंतीसवीं शाखा थे। वे दृढ़ विश्वास के साथ सदा दावन में रहे और गदाधर पण्डित की एक महत्त्वपूर्ण शाखा माने जाते है।

    एई त' सङ्क्षेपे कहिलाँ पण्डितेर गण ।ऐछे आर शाखा-उपशाखार गणन ॥

    ८९॥

    इस तरह मैंने गदाधर पण्डित की शाखाओं तथा उपशाखाओं का संक्षेप में वर्णन किया है। तब भी ऐसी अनेक शाखाएँ हैं, जिनका उल्लेख मैंने यहाँ नहीं किया।

    पण्डितेर गण सब,-भागवत धन्य। प्राण-वल्लभ-सबार श्रीकृष्ण-चैतन्य ॥

    ९०॥

    गदाधर पण्डित के सारे अनुयायी महान् भक्त माने जाते हैं, क्योंकि श्री चैतन्य महाप्रभु इन सबके प्राणप्रिय थे।

    एइ तिन स्कन्धेर कैलँ शाखारे गणन ।याँ-सबा-स्मरणे भव-बन्ध-विमोचन ॥

    ९१॥

    । मैंने जिन तीन तनों (नित्यानन्द, अद्वैत तथा गदाधर) की शाखाओं तथा उपशाखाओं का वर्णन किया है, उनके नामों का स्मरण करने मात्र ही मनुष्य भवबन्धन से छूट जाता है।

    याँ-सबा-स्मरणे पाइ चैतन्य-चरण ।याँ-सबा-स्मरणे हये वाञ्छित पूरण ॥

    ९२॥

    इन सारे वैष्णवों के नामों का स्मरण करने मात्र से ही मनुष्य श्री पैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों तक पहुँच सकता है। निस्सन्देह, उनके पवित्र नामों के स्मरण मात्र से सारी इच्छाएँ पूरी हो जाती हैं।

    अतएव ताँ-सबार वन्दिये चरण ।चैतन्य-मालीर कहि लीला-अनुक्रम ॥

    ९३ ॥

    अतएव उन सबके चरणकमलों को सादर नमस्कार करते हुए अब मैं माली-रूप श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं का क्रमवार वर्णन करूंगा।

    गौर-लीलामृत-सिन्धु–अपार अगाध ।। के करिते पारे ताहाँ अवगाह-साध ॥

    ९४॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं का समुद्र अपार तथा अगाध है। भला ऐसे विशाल समुद्र को मापने का साहस कौन कर सकता है? ताहार माधुर्य-गन्धे लुब्ध हय मन ।। अतएव तटे रहि' चाकि एक कण ॥

    ९५॥

    उस विशाल समुद्र में डुबकी लगाना सम्भव नहीं है, किन्तु उसकी माधुर्य गन्ध मेरे मन को आकृष्ट करती है। अतएव मैं उस समुद्र के तट पर केवल एक बूंद चखने के लिए खड़ा हूँ।

    श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश ।। चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥

    ९६॥

    भी रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों की वन्दना करते हुए तथा देव उनकी कृपा की आकांक्षा करते हुए मैं कृष्णदास उनके चरणचिह्नों का अनुसरण करते हुए श्रीचैतन्य-चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।

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    अध्याय तेरह: भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु का आगमन

    स प्रसीदतु चैतन्य-देवो ग्रस्य प्रसादतः ।।तल्लीला-वर्णने योग्यः सद्यः स्यादधमोऽप्ययम् ॥

    १॥

    मैं श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा की कामना करता हूँ, जिनकी कृपा से एक अधम भी उनकी लीलाओं का वर्णन कर सकता है।

    जय जय श्री कृष्ण-चैतन्य गौरचन्द्र । जयाद्वैतचन्द्र जय जय नित्यानन्द ॥

    २॥

    कृष्णचैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री अद्वैतचन्द्र की जय हो! श्री द प्रभु की जय हो! जय जय गदाधर जय श्रीनिवास ।जय मुकुन्द वासुदेव जय हरिदास ॥

    ३॥

    । गदाधर प्रभु की जय हो! श्रीवास ठाकुर की जय हो! मुकुन्द प्रभु ॥

    वासुदेव प्रभु की जय हो! हरिदास ठाकुर की जय हो! जय दामोदर-स्वरूप जय मुरारि गुप्त ।।एइ सब चन्द्रोदये तमः कैल लुप्त ॥

    ४॥

    स्वरूप दामोदर तथा मुरारि गुप्त की जय हो! इन सारे दैदीप्यमान चन्द्रमाओं ने मिलकर इस भौतिक जगत् के अंधकार को दूर भगाया है।

    जय श्री-चैतन्यचन्द्रेर भक्त चन्द्र-गण ।। सबार प्रेम ज्योत्स्नाय उज्वल त्रिभुवन ॥

    ५॥

    उन सारे चन्द्रमाओं की जय हो, जो चैतन्य महाप्रभु नामक प्रधान चन्द्रमा के भक्त हैं। उनका उज्वल चन्द्रप्रकाश समूचे ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है।

    एइ त कहिल ग्रन्थारम्भे मुख-बन्ध । एबे कहि चैतन्य-लीला-क्रम-अनुबन्ध ॥

    ६॥

    इस प्रकार मैंने चैतन्य-चरितामृत की भूमिका कही है। अब मैं चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं का काल-क्रम से वर्णन करूंगा।

    प्रथमे त' सूत्र-रूपे करिये गणन। पाछे ताहा विस्तारि करिब विवरण ॥

    ७॥

    । सर्वप्रथम मैं महाप्रभु की लीलाओं को सूत्र-रूप में कहता हूँ। तब मैं उनका वर्णन विस्तार से करूंगा।

    श्री-कृष्ण-चैतन्य नवद्वीपे अवतरि । आट-चल्लिश वत्सर प्रकट विहरि ॥

    ८॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु नवद्वीप में अवतरित होकर अड़तालीस वर्षों तक प्रकट रहे और उन्होंने अपनी लीलाओं का आनन्द लिया।

    चौद्द-शत सात शके जन्मेर प्रमाण । चौद्द-शत पश्चान्ने हइल अन्तर्धान ॥

    ९॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु शक सम्वत १४०७ (१४८६ ई.) में प्रकट हुए और १४५५ (१५३४ ई.) में इस जगत् से अन्तर्धान हो गये।

    चब्बिश वत्सर प्रभु कैल गृह-वासे ।।निरन्तर कैल कृष्ण-कीर्तन-विलास ॥

    १०॥

    भी चैतन्य महाप्रभु चौबीस वर्षों तक गृहस्थाश्रम में रहे और सदा हरे ग आन्दोलन की लीलाओं में व्यस्त रहे।

    चब्बिश वत्सर-शेषे करिया सन्यास । आर चब्बिश वत्सर कैल नीलाचले वास ॥

    ११॥

    चौबीस वर्ष बाद उन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया और अगले चौबीस घर्षों तक वे जगन्नाथ पुरी में रहे।

    तार मध्ये छय वत्सर-गमनागमन ।।कभु दक्षिण, कभु गौड़, कभु वृन्दावन ॥

    १२॥

    इन अन्तिम चौबीस वर्षों में से छः वर्षों तक वे लगातार भारत का भ्रमण करते रहे-कभी दक्षिण भारत में, कभी बंगाल में तो कभी वृन्दावन में।

    अष्टादश वत्सर रहिला नीलाचले ।।कृष्ण-प्रेम-नामामृते भासा'ल सकले ॥

    १३॥

    शेष अठारह वर्षों तक वे निरन्तर जगन्नाथ पुरी में ही रहे। वहाँ उन्होंने अमृततुल्य हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करते हुए हर एक को कृष्णप्रेम की बाढ़ से सराबोर कर दिया।

    गार्हस्थ्ये प्रभुर लीला ‘आदि'-लीलाख्यान ।‘मध्य'-'अन्त्य'-लीला–शेष-लीलार दुई नाम ॥

    १४॥

    उनके गृहस्थ-जीवन की लीलाएँ आदिलीला अर्थात् मूल लीलाएँ कहलाती हैं और उनकी बाद की लीलाएँ मध्यलीला तथा अन्त्यलीला कहलाती हैं।

    आदि-लीला-मध्ये प्रभुर ग्रतेक चरित ।।सूत्र-रूपे मुरारि गुप्त करिला ग्रथित ॥

    १५॥

    आदिलीला के अन्तर्गत श्री चैतन्य महाप्रभु ने जितनी लीलाएँ कीं, मुरारि गुप्त ने संक्षेप में अंकित किया है।

    प्रभुर ग्रे शेष-लीला स्वरूप-दामोदर ।।सूत्र करि' ग्रन्थिलेन ग्रन्थेर भितर ॥

    १६॥

    उनकी बाद की (शेष) लीलाएँ (मध्यलीला तथा अन्त्यलीला ) के सचिव स्वरूप दामोदर गोस्वामी ने संक्षेप में लिपिबद्ध कीं और इस प्रकार वे पुस्तक के रूप में रखी हुई हैं।

    एइ दुइ जनेर सूत्र देखियो शुनिया ।वर्णना करेन वैष्णव क्रम → करिया ॥

    १७ ॥

    इन दो महापुरुषों द्वारा अंकित टिप्पणियों को देखकर तथा सुनकर कोई भी वैष्णव अर्थात् भगवद्भक्त इन लीलाओं को क्रमवार जान सकता हैं।

    बाल्य, पौगण्ड, कैशोर, यौवन,—-चारि भेद ।अतएव आदि-खण्डे लीला चारि भेद ॥

    १८॥

    उनकी आदिलीला में चार विभाग हैं-बाल्य, पौगण्ड, कैशोर तथा यौवन।

    सर्व-सद्गुण-पूर्णाम् तां वन्दे फाल्गुन-पूर्णिमाम् ।।यस्यां श्री-कृष्ण-चैतन्योऽवतीर्णः कृष्ण-नामभिः ॥

    १९॥

    मैं फाल्गुन महीने की पूर्णिमा की संध्या को सादर नमस्कार करता हूँ, जो शुभ-लक्षणों से पूर्ण शुभ घड़ी है, जब श्री चैतन्य महाप्रभु हरे कृष्ण नाम के संकीर्तन के साथ अवतीर्ण हुए।

    फाल्गुन-पूर्णिमा-सन्ध्याय प्रभुर जन्मोदय ।।सेइ-काले दैव-योगे चन्द्र-ग्रहण हय ॥

    २०॥

    फाल्गुन पूर्णिमा की संध्या के समय जब महाप्रभु ने जन्म लिया, योगवश उस समय चन्द्रग्रहण भी लगा था।

    ‘हरि' ‘हरि' बले लोक हरषित हा ।जन्मिला चैतन्य-प्रभु' नाम' जन्माइया ॥

    २१॥

    हर्ष से हर व्यक्ति भगवान् के पवित्र नाम हरि! हरि! का उच्चारण कर रहा था और अपने प्रकट होने के पूर्व महाप्रभु पवित्र नाम को प्रकट कर चुके थे।

    जन्म-बाल्य-पौगण्ड-कैशोर-युवा-काले ।हरि-नाम लओयाइला प्रभु नाना छले ॥

    २२॥

    श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने जन्म के समय, बाल्य, पौगण्ड, कैशोर तथा युवावस्था में भिन्न-भिन्न बहानों से लोगों को हरि-नाम ( हरे कृष्ण महामन्त्र) का कीर्तन करने के लिए प्रेरित किया।

    बाल्य-भाव छले प्रभु करेन क्रन्दन ।'कृष्ण' 'हरि' नाम शुनि' रहये रोदन ॥

    २३ ॥

    अपने बाल्यकाल में जब महाप्रभु रो रहे होते थे, तब कृष्ण तथा हरि के पवित्र नामों को सुनकर वे तुरन्त रोना बन्द कर देते थे।

    अतएव 'हरि' ‘हरि' बले नारीगण ।देखिते आइसे ज़ेबा सर्व बन्धु जन ॥

    २४॥

    जितनी सारी स्नेहशीला स्त्रियाँ बालक को देखने आती थीं, वे बालक के रोते ही हरि! हरि! नाम का उच्चारण करती थीं।

    ‘गौरहरि' बलि' तारे हासे सर्व नारी ।अतएव हैल ताँर नाम 'गौरहरि' ॥

    २५॥

    जब स्त्रियाँ यह कौतुक देखती थीं, तो वे आनन्दित होकर हँसने लगती थीं और वे महाप्रभु को 'गौरहरि' कहकर पुकारने लगीं। तभी से उनका अन्य नाम 'गौरहरि' पड़ गया।

    बाल्य वयस–यावत् हाते खड़ि दिल ।। पौगण्ड वयस-—यावविवाह ना कैल ॥

    २६॥

    उनका बाल्यकाल उनकी शिक्षा का शुभारम्भ होने ( हाते खड़ि) के समय तक रहा, और बाल्यकाल समाप्ति से लेकर उनके विवाहित होने तक की उम्र पौगण्ड कहलाती है।

    विवाह करिले हैल नवीन यौवन ।सर्वत्र लओयाइल प्रभु नाम-सङ्कीर्तन ॥

    २७॥

    उनके विवाह के बाद उनका यौवन प्रारम्भ हुआ, और अपनी युवावस्था में उन्होंने हर एक को सर्वत्र हरे कृष्ण महामन्त्र कीर्तन करने के लिए प्रेरित किया।

    पौगण्ड-वयसे पड़ेन, पड़ान शिष्यगणे ।। सर्वत्र करेन कृष्ण-नामेर व्याख्याने ॥

    २८॥

    पौगण्डे अवस्था में वे गम्भीर विद्यार्थी बन गये और शिष्यों को पढ़ाते भी थे। इस तरह वे सर्वत्र कृष्णनाम की व्याख्या करते थे।

    सूत्र-वृत्ति-पाँजि-टीका कृष्ोते तात्पर्य ।।शिष्येर प्रतीत हय,—प्रभाव आश्चर्य ॥

    २९॥

    व्याकरण का पाठ पढ़ाते समय तथा व्याख्या करके बताते समय श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने शिष्यों को भगवान् कृष्ण की महिमा के विषय में शिक्षा दी। चूंकि उनकी सारी व्याख्याएँ कृष्ण में समाप्त होती थीं, अतएव शिष्यगण उन्हें आसानी से समझ सकते थे। इस तरह उनका प्रभाव आश्चर्यजनक था।

    यारे देखे, तारे कहे,—कह कृष्ण-नाम । कृष्ण-नामे भासाइल नवद्वीप-ग्राम ॥

    ३०॥

    जब चैतन्य महाप्रभु विद्यार्थी थे, तब उन्हें जो कोई मिलता था उसको वे हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करने के लिए कहते थे। इस तरह उन्होंने । पूरे नवद्वीप ग्राम को हरे कृष्ण कीर्तन से आप्लावित कर दिया।

    किशोर वयसे आरम्भिला सङ्कीर्तन ।रात्र-दिने प्रेमे नृत्य, सङ्गे भक्त-गण ॥

    ३१॥

    युवावस्था के कुछ पहले उन्होंने संकीर्तन आन्दोलन प्रारम्भ किया। वे अपने भक्तों के साथ भावविभोर होकर दिन-रात नृत्य किया करते थे।

    नगरे नगरे भ्रमे कीर्तन करिया । भासाइल त्रिभुवन प्रेम-भक्ति दिया ॥

    ३२॥

    । ज्यों-ज्यों महाप्रभु कीर्तन करते हुए सर्वत्र भ्रमण करने लगे, त्यों संकीर्तन आन्दोलन नगर के एक छोर से दूसरे छोर तक बढ़ता गया। स तरह उन्होंने सारे विश्व को भगवत्प्रेम वितरण करके आप्लावित कर या।

    चब्बिश वत्सर ऐछे नवद्वीप-ग्रामे ।। लओयाइला सर्व-लोके कृष्ण-प्रेम-नामे ।। ३३॥

    चैतन्य महाप्रभु नवद्वीप क्षेत्र मे