श्रीकृष्णचैतन्य-चरितामृत
आदि लीला:अध्याय एक: आध्यात्मिक गुरु
वन्दे गुरूनीश-भक्तानीशमीशावतारकान् ।।तत्प्रकाशांश्च तच्छक्तीः कृष्ण-चैतन्य-संज्ञकम् ॥
१॥
मैं समस्त गुरुओं, भगवद्भक्तों, भगवान् के अवतारों, उनके पूर्ण अंशों, उनकी शक्तियों तथा स्वयं आदि भगवान् श्रीकृष्ण चैतन्य को सादर नमस्कार करता हूँ।
वन्दे श्री-कृष्ण-चैतन्य-नित्यानन्दौ सहोदितौ ।।गौड़ोदये पुष्पवन्तौ चित्रौ शन्दौ तमो-नुदौ ॥
२॥
। मैं सूर्य तथा चन्द्रमा के समान श्रीकृष्ण चैतन्य तथा भगवान् नित्यानन्द दोनों को सादर नमस्कार करता हूँ। वे गौड़ के क्षितिज पर अज्ञान के अन्धकार को दूर करने तथा आश्चर्यजनक रूप से सबको आशीर्वाद प्रदान करने के लिए एकसाथ उदय हुए हैं।
ग्रदद्वैतं ब्रह्मोपनिषदि तदप्यस्य तनु-भा ।ग्र आत्मान्तर्यामी पुरुष इति सोऽस्यांश-विभवः ।। षडू-ऐश्वर्यैः पूर्णो ये इह भगवान्स स्वयमयंन चैतन्याकृष्णाजगति पर-तत्त्वं परमिह ॥
३॥
जिसे उपनिषदों में निर्विशेष ब्रह्म कहा गया है, वह उनके शरीर का तेजमात्र है और जो भगवान् अन्तर्यामी परमात्मा के रूप में जाने जाते हैं, वे उनके अंशमात्र हैं। भगवान् चैतन्य छहों ऐश्वर्यों से युक्त स्वयं भगवान् कृष्ण हैं। वे परम सत्य हैं और कोई भी अन्य सत्य न तो उनसे बड़ा है, न उनके तुल्य है।
अनर्पित-चरी चिरात्करुणयावतीर्णः कलौसमर्पयितुमुन्नतोज्वल-रसां स्व-भक्ति-श्रियम् । हरिः पुरट-सुन्दर-द्युति-कदम्ब-सन्दीपितःसदा हृदय-कन्दरे स्फुरतु वः शची-नन्दनः ॥
४॥
। श्रीमती शचीदेवी के पुत्र के नाम से विख्यात वे महाप्रभु आपके हृदय की गहराई में दिव्य रूप से विराजमान हों। पिघले सोने की आभा से दीप्त, वे कलियुग में अपनी अहैतुकी कृपा से अपनी सेवा के अत्यन्त उत्कृष्ट तथा दीप्त आध्यात्मिक रस के ज्ञान को, जिसे इसके पूर्व अन्य किसी अवतार ने प्रदान नहीं किया था, प्रदान करने के लिए अवतीर्ण हुए। हैं।
राधा कृष्ण-प्रणय-विकृतिह्णदिनी शक्तिरस्माद् एकात्मानावपि भुवि पुरा देह-भेदं गतौ तौ ।। चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्द्वयं चैक्यमाप्तं राधा-भाव-द्युति-सुवलितं नौमि कृष्ण-स्वरूपम् ॥
५॥
श्री राधा तथा कृष्ण की माधुर्य लीलाएँ भगवान् की अन्तरंगा ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं। यद्यपि राधा तथा कृष्ण अभिन्न हैं, किन्तु उन्होंने अपने आपको अनादि काल से पृथक् कर रखा है। अब ये दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में मिलकर एक हो गये हैं। मैं उनको नमस्कार करता हूँ, जो साक्षात् कृष्ण होते हुए भी श्रीमती राधारानी के भाव तथा अंगकान्ति के साथ प्रकट हुए हैं।
श्री-राधायाः प्रणय-महिमा कीदृशो वानयैवास्वाद्यो ग्रेनाद्भुत-मधुरिमा कीदृशो वा मदीयः । सौख्यं चास्या मदनुभवतः कीदृशं वेति लोभात्।तद्भावाढूयः समजनि शची-गर्भ-सिन्धौ हरीन्दुः ॥
६॥
श्रीमती राधारानी के प्रेम की महिमा; अपने ( भगवान् के ) उन गुणों, जिनका आस्वादन केवल श्रीमती राधारानी प्रेम के माध्यम से करती हैं; एवं उनके प्रेम की मधुरता का आस्वादन करने पर राधारानी जिस सुख का अनुभव करती हैं, उसे समझने के लिए भगवान् श्री हरि राधा के भावों में विभोर होकर श्रीमती शचीदेवी की कोख से उसी प्रकार प्रकट हुए, जिस तरह समुद्र से चन्द्रमा प्रकट होता है।
सङ्कर्षणः कारण-तोय-शायीगर्भोद-शायी च पयोब्धि-शायी ।शेषश्च यस्यांश-कलाः स नित्यानन्दाख्य-रामः शरणं ममास्तु ॥
७॥
श्री नित्यानन्द राम मेरे सतत स्मरण के विषय बनें। संकर्षण, शेषनाग तथा विभिन्न विष्णु भगवान्, जो कारण समुद्र, गर्भ समुद्र तथा क्षीर समुद्र में शयन करते हैं, वे उनके अंश तथा अंशों के भी अंश (कला) हैं।
मायातीते व्यापि-वैकुण्ठ-लोके पूर्णेश्व→ श्री-चतुर्व्यह-मध्ये । रूपं ग्रस्योद्धाति सङ्कर्षणाख्यंतं श्री-नित्यानन्द-रामं प्रपद्ये ॥
८॥
मैं उन श्री नित्यानन्द राम के चरणकमलों की शरण ग्रहण करता हूँ, जो चतुयूंह ( वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध) के मध्य संकर्षण के नाम से विख्यात हैं। वे भौतिक सृष्टि से परे वैकुण्ठ लोक में निवास करते हैं और समस्त ऐश्वर्यों से युक्त हैं।
माया-भर्तीजाण्डे-सङ्गाश्रयाङ्गःशेते साक्षात्कारणाम्भोधि-मध्ये । यस्यैकांशः श्री-पुमानादि-देवस्तं श्री-नित्यानन्द-रामं प्रपद्ये ॥
९॥
मैं श्री नित्यानन्द राम के चरणों में पूर्ण नमस्कार करता हूँ, जिनके अंशरूप कारणोदकशायी विष्णु कारण समुद्र में शयन करने वाले आदि पुरुष हैं, माया के पति हैं और समस्त ब्रह्माण्डों के आश्रय हैं।
यस्यांशांशः श्रील-गर्भोद-शायीग्रन्नाभ्यब्जं लोक-सात-नालम् । लोक-स्रष्टुः सूतिका-धाम धातुस्तं श्री-नित्यानन्द-रामं प्रपद्ये ॥
१०॥
। मैं उन श्री नित्यानन्द राम के चरणों में पूर्ण नमस्कार करता हूँ, जिनके अंश गर्भोदकशायी विष्णु हैं। इन्हीं गर्भोदकशायी विष्णु की नाभि से कमल प्रस्फुटित होता है, जो ब्रह्माण्ड के शिल्पी ब्रह्मा का जन्मस्थान है। इस कमल की नाल असंख्य लोकों का विश्राम-स्थल है।
यस्यांशांशांशः परात्माखिलानांपोष्टा विष्णुर्भाति दुग्धाब्धि-शायी । क्षौणी-भर्ता यत्कला सोऽप्यनन्तस् ।तं श्री-नित्यानन्द-रामं प्रपद्ये ॥
११॥
हरि अर्थात् परमेश्वर से अभिन्न होने के कारण वे अद्वैत कहलाते हैं। और भक्ति सम्प्रदाय का प्रचार करने के कारण वे आचार्य कहलाते हैं। वे भगवान् के भक्तों के स्वामी तथा भक्तावतार हैं। अतएव मैं उनकी शरण ग्रहण करता हूँ।
महा-विष्णुर्जगत्कर्ता मायया ग्रः सृजत्यदः । तस्यावतार एवायमद्वैताचार्य ईश्वरः ॥
१२ ॥
अद्वैत आचार्य महाविष्णु के अवतार हैं, जिनका मुख्य कार्य माया की क्रियाओं द्वारा भौतिक जगत् की सृष्टि करना है।
अद्वैतं हरिणाद्वैतादाचार्यं भक्ति-शंसनात् ।। भक्तावतारमीशं तमद्वैताचार्यमाश्रये ॥
१३॥
मैं उन श्री नित्यानन्द राम के चरणकमलों में सादर नमस्कार करता हूँ, जिनके गौण अंश क्षीरसागर में शयन करने वाले विष्णु हैं। वे क्षीरोदकशायी विष्णु ही समस्त जीवों के परमात्मा और समस्त ब्रह्माण्डों के पालक हैं। शेषनाग उनके अंशांश हैं।
पञ्च-तत्त्वात्मकं कृष्णं भक्त-रूप-स्वरूपकम् । भक्तावतारं भक्ताख्यं नमामि भक्त-शक्तिकम् ॥
१४॥
मैं उन परमेश्वर कृष्ण को सादर नमस्कार करता हूँ, जो अपने भक्तरूप, भक्तस्वरूप, भक्तावतार, शुद्ध भक्त और भक्तशक्ति रूपी लक्षण से अभिन्न हैं।
जयतां सुरतौ पङ्गोर्मम मन्द-मतेर्गती । मत्सर्वस्व-पदाम्भोजौ राधा-मदन-मोहनौ ॥
१५॥
सर्वथा दयालु राधा तथा मदनमोहन की जय हो! मैं पंगु तथा कुबुद्धि हूँ, फिर भी वे मेरे मार्गदर्शक हैं और उनके चरणकमल मेरे लिए सर्वस्व हैं।
दीव्यद्वन्दारण्य-कल्प-द्रुमाधःश्रीमद्रनागार-सिंहासनस्थौ । श्रीमद्राधा-श्रील-गोविन्द-देवौ प्रेष्ठालीभिः सेव्यमानौ स्मरामि ॥
१६॥
श्री श्री राधा-गोविन्द वृन्दावन में कल्पवृक्ष के नीचे रत्नों के मन्दिर में तेजोमय सिंहासन के ऊपर विराजमान होकर अपने सर्वाधिक अन्तरंग पार्षदों द्वारा सेवित होते हैं। मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ।
श्रीमानास-रसारम्भी वंशीवट-तट-स्थितः ।। कर्षन्वेणु-स्वनैर्गोपीर्गोपी-नाथः श्रियेऽस्तु नः ॥
१७॥
रासनृत्य के दिव्य रस के प्रवर्तक श्री श्रील गोपीनाथ वंशीवट के तट पर खड़े हैं और अपनी प्रसिद्ध बाँसुरी की ध्वनि से गोपियों के ध्यान को आकृष्ट कर रहे हैं। वे हम सबको अपना आशीर्वाद प्रदान करें।
जय जय श्री-चैतन्य जय नित्यानन्द । जयाद्वैत-चन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ॥
१८॥
श्री चैतन्य तथा नित्यानन्द की जय हो, अद्वैतचन्द्र की जय हो और श्री गौर (चैतन्य महाप्रभु) के समस्त भक्तों की जय हो! एइ तिन ठाकुर गौड़ीयाके करियाछेन आत्मसात् । ए तिनेर चरण वन्दों, तिने मोर नाथ ॥
१९॥
वृन्दावन के इन तीन विग्रहों ( मदनमोहन, गोविन्द तथा गोपीनाथ) ने गौड़ीय वैष्णवों (चैतन्य महाप्रभु के अनुयायियों) के हृदय एवं आत्मा को निमग्न कर दिया है। मैं उनके चरणकमलों की पूजा करता हूँ, क्योंकि वे मेरे हृदय के स्वामी हैं।
ग्रन्थेर आरम्भे करि' मङ्गलाचरण' ।। गुरु, वैष्णव, भगवान्, तिनेर स्मरण ॥
२०॥
इस कथा के आरम्भ में मैंने गुरु, भगवद्भक्तों तथा भगवान् का स्मरण करने मात्र से उनके आशीर्वाद की कामना की है।
तिनेर स्मरणे हय विघ्न-विनाशन । अनायासे हय निज वाञ्छित-पूरण ॥
२१॥
ऐसा स्मरण समस्त कठिनाइयों का विनाश करता है और मनुष्य की अपनी इच्छाओं को अत्यन्त सरलतापूर्वक पूरा करने में सहायक सिद्ध होता है।
से मङ्गलाचरण हय त्रि-विध प्रकार ।वस्तु-निर्देश, आशीर्वाद, नमस्कार ॥
२२॥
मंगलाचरण ( आवाहन) में तीन विधियाँ निहित हैं-लक्ष्य-वस्तु को परिभाषित करना, आशीर्वाद देना तथा नमस्कार करना।
प्रथम दुइ श्लोके इष्ट-देव-नमस्कार ।सामान्य-विशेष-रूपे दुइ त' प्रकार ॥
२३॥
प्रथम दो श्लोक सामान्य तथा विशेष रूप से उन भगवान् को सादर नमस्कार करते हैं, जो पूजा के लक्ष्य ( आराध्य ) हैं।
तृतीय श्लोकेते करि वस्तुर निर्देश ।।ग्राहा हइते जानि पर-तत्त्वेर उद्देश ॥
२४॥
। तीसरे श्लोक में मैं उन परम सत्य का संकेत कर रहा हूँ, जो परम तत्त्व हैं। ऐसे वर्णन से मनुष्य परम सत्य का दर्शन कर सकता है।
चतुर्थ श्लोकेते करि जगते आशीर्वाद ।।सर्वत्र मागिये कृष्ण-चैतन्य-प्रसाद ॥
२५ ॥
चतुर्थ श्लोक में मैंने चैतन्य महाप्रभु से सब पर कृपा करने के लिए प्रार्थना करते हुए भगवान् से सम्पूर्ण जगत् को आशीर्वाद देने का आवाहन किया है।
सेइ श्लोके कहि बाह्यावतार-कारण ।पञ्च षष्ठ श्लोके कहि मूल-प्रयोजन ॥
२६॥
उस श्लोक में मैंने चैतन्य महाप्रभु के अवतार के बाह्य कारण की व्याख्या की है, किन्तु पाँचवे तथा छठे श्लोकों में मैंने उनके अवतार के मुख्य कारण की व्याख्या की है।
एइ छय श्लोके कहि चैतन्येर तत्त्व ।। आर पञ्च श्लोके नित्यानन्देर महत्त्व ॥
२७॥
। इन छः श्लोकों में मैंने चैतन्य महाप्रभु के तत्त्व के सम्बन्ध में वर्णन किया है, जबकि अगले पाँच श्लोकों में मैंने नित्यानन्द प्रभु की महिमा का वर्णन किया है।
आर दुइ श्लोके अद्वैत-तत्त्वाख्यान । आर एक श्लोके पञ्च-तत्त्वेर व्याख्यान ॥
२८॥
इससे अगले दो श्लोकों में अद्वैत प्रभु के तत्त्व का वर्णन है और उसके बाद के श्लोक में पंचतत्त्व ( भगवान्, उनके स्वांश, उनके अवतार, उनकी शक्तियाँ तथा उनके भक्तों) का वर्णन हुआ है।
एइ चौद्द श्लोके करि मङ्गलाचरण ।।हँहि मध्ये कहि सब वस्तु-निरूपण ॥
२९ ॥
इस तरह ये चौदह श्लोक मंगलाचरण के रूप में हैं और ये परम सत्य का वर्णन करते हैं।
सब श्रोता-वैष्णवेरे करि' नमस्कार ।एइ सब श्लोकेर करि अर्थ-विचार ॥
३० ॥
इन सारे श्लोकों की जटिलताओं की व्याख्या आरम्भ करने के पूर्व मैं अपने समस्त वैष्णव पाठकों को नमस्कार करता हूँ।
सकल वैष्णव, शुन करि' एक-मन ।। चैतन्य-कृष्णेर शास्त्र-मत-निरूपण ॥
३१॥
मैं अपने समस्त वैष्णव पाठकों से प्रार्थना करता हूँ कि वे प्रामाणिक शास्त्रों में निरूपित श्रीकृष्ण चैतन्य की इस कथा को ध्यान से पढ़ें और सुनें।
कृष्ण, गुरु, भक्त, शक्ति, अवतार, प्रकाश ।।कृष्ण एइ छय-रूपे करेन विलास ॥
३२॥
भगवान् कृष्ण अपने आपको गुरु, भक्त, विभिन्न शक्तियों, अवतारों तथा परिपूर्ण प्रकाशों में प्रकट करके विलास करते हैं। ये छहों रूप एक ही में समाहित हैं।
एइ छय तत्त्वेर करि चरण वन्दन ।प्रथमे सामान्ये करि मङ्गलाचरण ॥
३३॥
इसीलिए मैंने एक सत्य के इन छ: विविध रूपों के चरणकमलों की वन्दना मंगलाचरण द्वारा की है।
वन्दे गुरूनीश-भक्तानीशमीशावतारकान् ।।तत्प्रकाशांश्च तच्छक्तीः कृष्ण-चैतन्य-संज्ञकम् ॥
३४॥
मैं गुरुओं, भगवद्भक्तों, ईश्वर के अवतारों, उनके पूर्ण अंशों (प्रकाशों), उनकी शक्तियों तथा स्वयं आदि भगवान् श्रीकृष्ण चैतन्य को सादर नमस्कार करता हूँ।
मन्त्र-गुरु आर व्रत शिक्षा-गुरु-गण ।। ताँहार चरण आगे करिये वन्दन ॥
३५ ॥
मैं सर्वप्रथम अपने दीक्षा गुरु तथा अपने समस्त शिक्षा गुरुओं के चरणकमलों में सादर नमस्कार करता हूँ।
श्री-रूप, सनातन, भट्ट-रघुनाथ ।श्री-जीव, गोपाल-भट्ट, दास-रघुनाथ ॥
३६॥
श्रील रूप गोस्वामी, श्री सनातन गोस्वामी, श्री भट्ट रघुनाथ, श्री जीव गोस्वामी, श्री गोपाल भट्ट गोस्वामी तथा श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी मेरे शिक्षा-गुरु हैं।
एइ छय गुरु–शिक्षा-गुरु ग्ने आमार ।।ताँ'-सबार पाद-पद्ये कोटि नमस्कार ॥
३७॥
ये छहों मेरे शिक्षा-गुरु हैं, अतएव उनके चरणकमलों में मेरा कोटिकोटि नमस्कार है।
भगवानेर भक्त व्रत श्रीवास प्रधान । ताँ'-सभार पाद-पद्ये सहस्र प्रणाम ॥
३८॥
भगवान् के असंख्य भक्तों में श्रीवास ठाकुर अग्रणी हैं। मैं उनके चरणकमलों में हजारों बार सादर नमस्कार करता हूँ।
अद्वैत आचार्य प्रभुर अंश-अवतार । ताँर पाद-पझे कोटि प्रणति आमार ॥
३९।। अद्वैत आचार्य भगवान् के अंशावतार हैं, अतएव मैं उनके चरणकमलों में करोड़ों बार नमस्कार करता हूँ।
नित्यानन्द-राय—प्रभुर स्वरूप-प्रकाश । ताँर पाद-पद्म वन्दो याँर मुञि दास ॥
४०॥
श्रील नित्यानन्द राम भगवान् के पूर्ण विस्तार हैं और मैंने उनसे दीक्षा प्राप्त की है। अतएव मैं उनके चरणकमलों में सादर नमस्कार करता हूँ।
गदाधर-पण्डितादि प्रभुर निज-शक्ति ।।ताँ'-सबार चरणे मोर सहस्र प्रणति ॥
४१॥
मैं भगवान् की अन्तरंगा शक्तियों को सादर नमस्कार करता हैं, जिनमें भी गदाधर प्रभु प्रमुख हैं।
श्री-कृष्ण-चैतन्य प्रभु स्वयं-भगवान् ।ताँहार पदारविन्दै अनन्त प्रणाम ॥
४२॥
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु साक्षात् भगवान् हैं, अतएव मैं उनके चरणकमलों में असंख्य बार दण्डवत् प्रणाम करता हूँ।
सावरणे प्रभुरे करिया नमस्कार ।।एइ छय तेंहो त्रैछे-करिये विचार ॥
४३॥
भगवान् ( चैतन्य महाप्रभु) तथा उनके समस्त पार्षदों को नमस्कार करने के बाद अब मैं उन छह विविधताओं की एकता की व्याख्या करने का प्रयत्न करूंगा।"
यद्यपि आमार गुरु-चैतन्येर दास ।तथापि जानिये आमि ताँहार प्रकाश ॥
४४॥
यद्यपि मैं जानता हूँ कि मेरे गुरु श्री चैतन्य के दास हैं, तथापि मैं उन्हें भगवान् के स्वयं प्रकाश के रूप में जानता हूँ।
गुरु कृष्ण-रूप हन शास्त्रेर प्रमाणे ।। गुरु-रूपे कृष्ण कृपा करेन भक्त-गणे ॥
४५ ॥
। समस्त प्रामाणिक शास्त्रों के सुविचारित मत के अनुसार गुरु कृष्ण से अभिन्न होता है। भगवान् कृष्ण गुरु के रूप में भक्तों का उद्धार करते है।
आचार्यं मां विजानीयान्नावमन्येत कहिंचित् ।। न मर्त्य-बुद्ध्यासूयेत सर्व-देव-मयो गुरुः ॥
४६ ।। आचार्य को मेरा ही स्वरूप समझना चाहिए और किसी भी तरह से उसका अपमान नहीं करना चाहिए। उसे सामान्य व्यक्ति मानकर उससे ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वे समस्त देवताओं के प्रतिनिधि होते हैं।
शिक्षा-गुरुके त' जानि कृष्णेर स्वरूप । अन्तर्यामी, भक्त-श्रेष्ठ,—एई दुइ रूप ।। ४७॥
मनुष्य को शिक्षा-गुरु को कृष्ण का स्वरूप समझना चाहिए। भगवान् कृष्ण स्वयं को परमात्मा रूप में तथा भगवान् के सर्वश्रेष्ठ भक्त के रूप में प्रकट करते हैं।
नैवोपयन्त्यपचितिं कवयस्तवेश । ब्रह्मायुषापि कृतमृद्ध-मुदः स्मरन्तः । ग्रोऽन्तर्बहिस्तनु-भृतामशुभं विधुन्वन् ।आचार्य-चैत्य वपुषा स्व-गतिं व्यक्ति ॥
४८ ॥
हे प्रभु! दिव्य कविगण एवं आध्यात्मिक विज्ञान में दक्ष व्यक्ति, ब्रह्मा के समान दीर्घायु प्राप्त करके भी आपके प्रति अपनी कृतज्ञता को पूरी तरह व्यक्त नहीं कर सके, क्योंकि आप दो रूपों में, बाहर से आचार्य के रूप में और भीतर से परमात्मा के रूप में, देहधारी जीव को अपने पास आने का निर्देश देकर मुक्ति प्रदान करने के लिए प्रकट होते हैं।
तेषां सतत-युक्तानां भजतां प्रीति–पूर्वकम् ।।ददामि बुद्धि-योगं तं ग्रेन मामुपयान्ति ते ॥
४९॥
जो लोग निरन्तर मेरी भक्ति में संलग्न रहते हुए प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करते हैं, उन्हें मैं ऐसा ज्ञान प्रदान करता हूँ जिससे वे मेरे पास आ सकें।
प्रथा ब्रह्मणे भगवान्स्वयमुपदिश्यानुभावितवान् ॥
५०॥
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ने ब्रह्मा को शिक्षा दी और उन्हें स्वरूपसिद्ध बनाया।
ज्ञानं परम-गुह्यं मे ग्रद्विज्ञान-समन्वितम् ।।स-रहस्यं तदङ्गं च गृहाण गदितं मया ॥
५१॥
। मैं जो तुमसे कहूँगा उसे ध्यानपूर्वक सुनो, क्योंकि मेरे विषय में जो दिव्य ज्ञान है, वह न केवल वैज्ञानिक है, अपितु रहस्यों से पूर्ण भी है।
ग्रावानहं यथा-भावो ग्रदूप-गुण-कर्मकः ।। तथैव तत्त्व-विज्ञानमस्तु ते मदनुग्रहात् ।। ५२ ।। मेरी अहैतुकी कृपा से तुम्हें मेरे व्यक्तित्व, स्वरूप, गुण तथा लीला सम्बन्धी सत्य के बारे में सारा ज्ञान प्राप्त हो जाये।।
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् ग्रसदसत्परम् ।। पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम् ॥
५३॥
सृष्टि के पूर्व केवल मैं ही विद्यमान रहता हूँ और किसी भी स्थूल, सूक्ष्म या प्रारम्भिक घटना का अस्तित्व नहीं होता। सृष्टि के बाद मैं ही हर वस्तु में विद्यमान रहता हूँ और प्रलय के बाद मैं ही शाश्वत रूप से विद्यमान रहता हूँ।
ऋतेऽर्थं ग्रत्प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि ।।तद्विद्यादात्मनो मायां ग्रथाभासो ग्रथा तमः ॥
५४॥
जो कुछ मेरे बिना सत्य प्रतीत होता है, वह निश्चित रूप से मेरी मक शक्ति माया है, क्योंकि मेरे बिना किसी वस्तु का अस्तित्व नहीं हो सकता है। यह छाया में असली प्रकाश के प्रतिबिम्ब जैसा है, क्योंकि प्रकाश में न तो छाया होती है, न प्रतिबिम्ब।
यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु ।।प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम् ॥
५५॥
जिस प्रकार भौतिक तत्त्व सारे जीवों के शरीरों में प्रवेश करते हैं, फिर भी उनके बाहर रहते हैं, उसी तरह मैं सारी भौतिक सृष्टियों के भीतर विद्यमान रहता हूँ, फिर भी मैं उनके भीतर नहीं रहता।
एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्व-जिज्ञासुनात्मनः ।अन्वय-व्यतिरेकाभ्यां यत्स्यात्सर्वत्र सर्वदा ॥
५६॥
अतएव दिव्य ज्ञान में रुचि रखने वाले व्यक्ति को सर्वव्यापी सत्य को जानने के लिए इसके विषय में सदैव प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रीति से जिज्ञासा करनी चाहिए।
चिन्तामणिर्जयति सोमगिरिगुरुर्ने ।शिक्षा-गुरुश्च भगवान्शिखि-पिञ्छ-मौलिः । यत्पाद-कल्पतरु-पल्लव-शेखरेषुलीला-स्वयंवर-रसं लभते जयश्रीः ॥
५७।। । चिन्तामणि तथा मेरे दीक्षा-गुरु सोमगिरि की जय हो। मेरे शिक्षागुरु पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की जय हो, जो अपने मुकुट में मोरपंख धारण करते हैं। कल्पवृक्ष तुल्य उनके चरणकमलों की छाया में जयश्री ( राधारानी ) नित्य संगिनी के रूप में दिव्य रस का आस्वादन करती हैं।
जीवे साक्षात्नाहि ताते गुरु चैत्य-रूपे ।। शिक्षा-गुरु हय कृष्ण-महान्त-स्वरूपे ।। ५८ ॥
परमात्मा की उपस्थिति को प्रत्यक्ष अनुभव नहीं किया जा सकता, अतएव वे हमारे समक्ष मुक्त भक्त के रूप में प्रकट होते हैं। ऐसा गुरु साक्षात् कृष्ण के अतिरिक्त कोई अन्य नहीं होता।
ततो दुःसङ्गमुत्सृज्य सत्सु सज्जेत बुद्धिमान् ।।सन्त एवास्य छिन्दन्ति मनो-व्यासङ्गमुक्तिभिः ॥
५९॥
अतएव बुरी संगति से दूर रहकर केवल भक्तों का संग करना चाहिए। अपने अनुभूत उपदेशों से ऐसे सन्तजन उस ग्रंथि को काट सकते हैं, जो व्यक्ति को भक्ति के प्रतिकूल कार्यों से जोड़ती है।
सतां प्रसङ्गान्मम वीर्य-संविदोभवन्ति हृत्कर्ण-रसायनाः कथाः । तज्जोषणादाश्वपवर्ग-वर्मनि ।श्रद्धा रतिर्भक्तिरनुक्रमिष्यति ॥
६० ॥
केवल भक्तों की संगति में ही भगवान् के आध्यात्मिक शक्तिशाली सन्देश की ठीक से चर्चा की जा सकती है और इस संगति में उसका श्रवण अत्यन्त आनन्ददायक होता है। भक्तों से श्रवण करने पर दिव्य अनुभव का यह मार्ग तुरन्त खुल जाता है और धीरे-धीरे उस ज्ञान में मनुष्य की दृढ़ श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है, जो क्रमशः आकर्षण एवं भक्ति में परिणत हो जाती है।
ईश्वर-स्वरूप भक्त ताँर अधिष्ठान ।।भक्तेर हृदये कृष्णेर सतत विश्राम ॥
६१ ॥
भगवान् की प्रेमाभक्ति में निरन्तर संलग्न रहने वाला शुद्ध भक्त भगवान् के समान ही होता है, जो सदैव उसके हृदय में आसीन रहते हैं।
साधवो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं त्वहम् ।। मदन्यत्ते न जानन्ति नाही तेभ्यो मनागपि ।। ६२ ।। सन्त तो मेरे हृदय हैं और एकमात्र मैं ही उनका हृदय हूँ। वे मेरे अतिरिक्त अन्य किसी को नहीं जानते, इसलिए मैं उनके अतिरिक्त अन्य किसी को अपना नहीं मानता।
भवद्विधा भागवतास्तीर्थ-भूताः स्वयं विभो ।तीर्थी-कुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्तः-स्थेन गदा-भृता ॥
६३॥
आपके समान सन्त स्वयं तीर्थस्थान होते हैं। अपनी पवित्रता के कारण, वे भगवान् के नित्य संगी होते हैं; अतः वे तीर्थस्थानों को भी पावन बना सकते हैं।
सेइ भक्त-गण हय द्वि-विध प्रकार । पारिषद्गण एक, साधक-गेण आर ॥
६४॥
ऐसे शुद्ध भक्त दो प्रकार के होते हैं–निजी संगी ( पारिषत् ) तथा नवदीक्षित भक्त ( साधकगण)।"
ईश्वरेर अवतार ए-तिन प्रकार ।। अंश-अवतार, आरे गुण-अवतार ॥
६५॥
शक्त्यावेश-अवतार तृतीय ए-मत ।अश-अवतार–पुरुष-मत्स्यादिक व्रत ॥
६६॥
ईश्वर के अवतारों के तीन वर्ग हैं-अंशावतार, गुणावतार तथा शक्त्यावेश अवतार पुरुष तथा मत्स्य अवतार अंशावतारों के उदाहरण हैं ।
ब्रह्मा विष्णु शिव–तिन गुणावतारे गणि।शक्त्यावेश—सनकादि, पृथु, व्यास-मुनि ।। ६७॥
ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव गुणावतार हैं। शक्त्यावेश अवतार हैंकुमारगण, राजा पृथु तथा महामुनि व्यास (जिन्होंने वेदों का संकलन किया )। दुइ-रूपे हय भगवानेर प्रकाश ।एके त' प्रकाश हय, आरे त' विलास ॥
६८॥
। भगवान् अपने आपको दो रूपों में प्रकट करते हैं-प्रकाश तथा विलास।
एकइ विग्रह यदि हय बहु-रूप ।। आकारे त' भेद नाहि, एक स्वरूप ॥
६९॥
महिषी-विवाहे, ग्रैछे ग्रैछे कैल रास ।। इहाके कहिये कृष्णेर मुख्य 'प्रकाश' ॥
७० ॥
जब भगवान् स्वयं को अनेक रूपों में विस्तारित करते हैं, जो अपने अपने स्वरूपों में अभिन्न होते हैं, जैसाकि भगवान् कृष्ण ने सोलह हजार रानियों के साथ विवाह करते समय तथा रासनृत्य करते समय किया था, तब भगवान् के ऐसे रूप मुख्य प्रकाश ( प्रकाश-विग्रह) कहलाते हैं।
चित्रं बतैतदेकेन वपुषा झुगपत्पृथक् ।। गृहेषु यष्ट-साहस्रं स्त्रिय एक उदावहत् ॥
७१॥
यह अद्भुत लगता है कि अद्वय श्रीकृष्ण ने सोलह हजार रानियों से उनके अपने अपने घरों में विवाह करने के लिए अपने आपको सोलह जार एकसमान रूपों में विस्तारित कर लिया।
रासोत्सवः सम्प्रवृत्तो गोपी-मण्डल-मण्डितः ।योगेश्वरेण कृष्णेन तासां मध्ये द्वयोर्द्वयोः ॥
७२॥
। जब गोपियों के समूहों से घिरकर भगवान् कृष्ण ने रासनृत्य का उत्सव प्रारम्भ किया, तो समस्त योग शक्तियों के स्वामी ने अपने आपको प्रत्येक दो-दो गोपियों के बीच में स्थापित किया।
प्रविष्टेन गृहीतानां कण्ठे स्व-निकटं स्त्रियः ।। ग्यं मन्येरन्नभस्तावद्विमान-शत-सङ्कलम् ॥
७३॥
दिवौकसां स-दाराणामत्यौत्सुक्य-भृतात्मनाम् ।ततो दुन्दुभयो नेदुर्निपेतुः पुष्प-वृष्टयः ॥
७४॥
इस प्रकार जब गोपियाँ तथा कृष्ण परस्पर मिल गये, तो हर गोपी ने यही सोचा कि कृष्ण केवल उसका ही प्रगाढ़ आलिंगन कर रहे हैं। भगवान् की इस अद्भुत लीला को देखने के लिए स्वर्ग के देवता तथा उनकी पत्नियाँ, जो कि रासनृत्य देखने के लिए अत्यन्त उत्सुक थे, अपने सैंकड़ों विमानों में आकाश में उड़ने लगे। उन्होंने फूलों की वर्षा की और वे मधुर ताल से दुन्दुभियाँ बजाने लगे।
अनेकत्र प्रकटता रूपस्यैकस्य शैकदा ।।सर्वथा तत्स्वरूपैव स प्रकाश इतीर्यते ॥
७५॥
यदि समान लक्षण वाले अनेक रूप एकसाथ प्रदर्शित हों, तो ऐसे रूप भगवान् के प्रकाश-विग्रह कहलाते हैं।
एकइ विग्रह किन्तु आकारे हय आन ।अनेक प्रकाश हय, ‘विलास' तार नाम ॥
७६ ॥
किन्तु जब अनेक रूप एक-दूसरे से कुछ-कुछ भिन्न होते हैं, तो वे विलास-विग्रह कहलाते हैं।
स्वरूपमन्याकारं यत्तस्य भाति विलासतः । प्रायेणात्म-समं शक्त्या स विलासो निगद्यते ॥
७७॥
जब भगवान् अपनी अचिन्त्य शक्ति से विभिन्न आकारों में अपने अनेक रूप दिखलाते हैं, तो ऐसे रूपों को विलास-विग्रह कहते हैं।
ग्रैछे बलदेव, परव्योमे नारायण ।।ग्रैछे वासुदेव प्रद्युम्नादि सङ्कर्षण ॥
७८ ॥
ऐसे विलास-विग्रहों के उदाहरण हैं बलदेव, वैकुण्ठधाम में नारायण तथा चतुयूंह अर्थात् वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध।
ईश्वरेर शक्ति हय ए-तिन प्रकार ।। एक लक्ष्मी-गण, पुरे महिषी-गण आर ॥
७९॥
व्रजे गोपी-गण आर सभाते प्रधान । व्रजेन्द्र-नन्दन ग्रा'ते स्वयं भगवान् ॥
८० ॥
भगवान् की शक्तियाँ ( लीला संगिनियाँ) तीन प्रकार की हैंवैकुण्ठ में लक्ष्मियाँ, द्वारका में रानियाँ तथा वृन्दावन में गोपियाँ। इन सबमें गोपियाँ सर्वश्रेष्ठ हैं, क्योंकि उन सबको व्रजराज के पुत्र, आदि भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त है।
स्वयं-रूप कृष्णेर काय-व्यूह–ताँर सम ।। भक्त सहिते हय ताँहार आवरण ॥
८१॥
आदि भगवान् श्रीकृष्ण के निजी संगी उनके भक्तगण हैं, जो उनसे एकरूप हैं। वे अपने भक्तों के समूह (परिकर) के साथ पूर्ण हैं।
भक्त आदि क्रमे कैले सबार वन्दन । ए-सबार वन्दन सर्व-शुभेर कारण ॥
८२॥
अब मैंने विविध स्तरों के सभी भक्तों की पूजा कर ली है। इनकी पूजा समस्त सौभाग्य का स्रोत है।
प्रथम श्लोके कहि सामान्य मङ्गलाचरण । द्वितीय श्लोकेते करि विशेष वन्दन ॥
८३॥
पहले श्लोक में मैंने सामान्य आशीर्वाद का आवाहन किया है, किन्तु दूसरे श्लोक में मैंने भगवान् से एक विशेष रूप में प्रार्थना की है।
वन्दे श्री-कृष्ण-चैतन्य-नित्यानन्दौ सहोदितौ ।। गौड़ोदये पुष्पवन्तौ चित्रौ शन्दौ तमो-नुदौ ॥
८४॥
मैं श्रीकृष्ण चैतन्य तथा नित्यानन्द प्रभु को सादर नमस्कार करता हूँ, जो सूर्य तथा चन्द्रमा के समान हैं। वे एक ही साथ गौड़ के क्षितिज पर अज्ञान का अन्धकार दूर करने तथा सबको अद्भुत आशीर्वाद प्रदान करने के लिए उदित हुए हैं।
व्रजे ये विहरे पूर्वे कृष्ण-बलराम । कोटी-सूर्य-चन्द्र जिनि दोंहार निज-धाम ।। ८५ ॥
सेइ दुइ जगतेरे हइया सदय ।। गौड़देशे पूर्व-शैले करिला उदय ॥
८६॥
श्रीकृष्ण तथा बलराम, जो भगवान् हैं और पहले वृन्दावन में प्रकट हुए थे तथा सूर्य और चन्द्रमा से करोड़ों गुना अधिक तेजवान थे, अब विश्व की पतित अवस्था देखकर अनुकम्पावश गौड़देश (पश्चिमी बंगाल) के पूर्वी क्षितिज पर उदित हुए हैं।
श्री कृष्ण-चैतन्य आर प्रभु नित्यानन्द ।याँहार प्रकाशे सर्व जगतानन्द ॥
८७॥
श्रीकृष्ण चैतन्य तथा प्रभु नित्यानन्द के आविर्भाव ने विश्व को आनन्द से परिपूरित कर दिया है।
सूर्य-चन्द्र हरे ग्रैछे सब अन्धकार । वस्तु प्रकाशिया करे धर्मेर प्रचार ।। ८८ ॥
एइ मत दुइ भाइ जीवेर अज्ञान- ।। तमो-नाश करि' कैल तत्त्व-वस्तु-दान ॥
८९॥
जिस प्रकार सूर्य तथा चन्द्रमा उदय होकर अंधकार को दूर कर देते हैं और हर वस्तु की प्रकृति को प्रकट कर देते हैं, उसी तरह ये दोनों भाई जीवों के अज्ञान के अन्धकार को दूर करते हैं और उन्हें परम सत्य के ज्ञान से प्रकाशित करते हैं।
अज्ञान-तमेर नाम कहिये 'कैतव' ।।धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष-वाञ्छा आदि सब ॥
९०॥
अज्ञान का अंधकार कैतव अर्थात् छल कहलाता है, जो धार्मिकता, आर्थिक विकास, इन्द्रियतृप्ति तथा मुक्ति के साथ प्रारम्भ होता है।
धर्मः प्रोज्झित-कैतवोऽत्र परमो निर्मत्सराणां सतांवेद्यं वास्तवमत्र वस्तु शिव-दं ताप-त्रयोन्मूलनम् । श्रीमद्भागवते महा-मुनि-कृते किं वा परैरीश्वरःसद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः शुश्रूषुभिस्तत्क्षणात् ॥
९१॥
महामुनि व्यासदेव द्वारा चार मूल श्लोकों से संकलित महान् शास्त्र श्रीमद्भागवत अत्यन्त उन्नत एवं दयालु भक्तों का वर्णन करता है और भौतिकता से प्रेरित धार्मिकता की प्रवंचना की विधियों को पूरी तरह बहिष्कृत करता है। यह शाश्वत धर्म के सर्वोच्च सिद्धान्त को प्रतिपादित करता है, जो जीव के तीन प्रकार के तापों को वास्तव में कम करने वाला और पूर्ण सम्पन्नता तथा ज्ञान का सर्वोच्च आशीष प्रदान करने वाला है। जो लोग विनीत सेवाभाव से इस शास्त्र के सन्देश को सुनने के इच्छुक हैं, वे तुरन्त ही भगवान् को अपने हृदयों में बन्दी बना सकते हैं। अतएव भीमद्भागवत के अतिरिक्त अन्य किसी शास्त्र की आवश्यकता नहीं रह जाती।
तार मध्ये मोक्ष-वाञ्छा कैतव-प्रधान ।ग्राहा हैते कृष्ण-भक्ति हय अन्तर्धान ॥
९२ ।। सर्वोपरि में तदाकार होकर मुक्ति प्राप्त करने की इच्छा करना प्रधान कैतव धर्म है, क्योंकि इससे कृष्ण की प्रेममयी सेवा का स्थायी तौर पर लोप हो जाता है।
प्र-शब्देन मोक्षाभिसन्धिरपि निरस्तः इति ॥
९३॥
उपसर्ग ‘प्र' ( श्रीमद्भागवत के श्लोक में) सूचित करता है कि मुक्ति की इच्छा को पूरी तरह से बहिष्कार कर दिया जाता है।
कृष्ण-भक्तिर बाधक-व्रत शुभाशुभ कर्म । सेह एक जीवेर अज्ञान-तमो-धर्म ॥
९४॥
सभी प्रकार के शुभ तथा अशुभ कार्यकलाप, जो भगवान् श्रीकृष्ण की दिव्य प्रेममयी सेवा में बाधक होते हैं, वे तमोगुण से उत्पन्न कर्म हैं।
याँहार प्रसादे एइ तमो हय नाश । तमो नाश करि' करे तत्त्वेर प्रकाश ॥
९५ ॥
भगवान् श्री चैतन्य तथा भगवान् नित्यानन्द की कृपा से अज्ञान का यह अन्धकार दूर होता है और सत्य प्रकाशित होता है।
तत्त्व-वस्तु—कृष्ण, कृष्ण-भक्ति, प्रेम-रूप । नाम-सङ्कीर्तन सब आनन्द-स्वरूप ॥
१६॥
परम सत्य तो श्रीकृष्ण हैं और शुद्ध प्रेम में प्रकट होने वाली कृष्ण के प्रति प्रेममयी भक्ति पवित्र नाम के सामूहिक कीर्तन द्वारा प्राप्त की जाती है, जो सारे आनन्द की सार है।
सूर्य चन्द्र बाहिरेर तमः से विनाशे ।। बहिर्वस्तु घट-पट-आदि से प्रकाशे ॥
९७॥
सूर्य तथा चन्द्रमा बाह्य जगत् के अन्धकार को विनष्ट करते हैं और इस तरह घड़ों तथा भोजन पात्रों जैसी बाह्य भौतिक वस्तुओं को प्रकाशित करते हैं।
दुइ भाइ हृदयेर क्षालि' अन्धकार ।दुइ भागवत-सङ्गे कराने साक्षात्कार ॥
९८॥
किन्तु ये दोनों भाई ( भगवान् चैतन्य तथा भगवान् नित्यानन्द) हृदय के भीतर के अन्धकार को विनष्ट करते हैं और इस तरह ये दो प्रकार के भागवतों ( भगवान् से सम्बन्धित व्यक्तियों या वस्तुओं) से मिलाने में मनुष्य की सहायता करते हैं।
एक भागवत बड़-भागवत-शास्त्र ।आर भागवत-भक्त भक्ति-रस-पात्र ॥
९९॥
एक भागवत है महान् शास्त्र श्रीमद्भागवत और दूसरा है भक्ति-रस में निमग्न शुद्ध भक्त।
दुइ भागवत द्वारा दिया भक्ति-रस । ताँहार हृदये ताँर प्रेमे हय वश ॥
१०० ॥
इन दो भागवतों के कार्यों के माध्यम से भगवान् जीव के हृदय में दिव्य प्रेममयी सेवा के रस का संचार करते हैं और इस तरह भक्त के हृदय में स्थित भगवान् भक्त के प्रेम से वशीभूत हो जाते हैं।
एक अद्भुत—सम-काले दोंहार प्रकाश ।। आर अद्भुत चित्त-गुहार तमः करे नाश ॥
१०१॥
। पहला आश्चर्य यह है कि दोनों भाई एकसाथ प्रकट होते हैं और दूसरा यह कि वे हृदय की गहराई (अन्तर्मन) को प्रकाशित करते हैं।
एइ चन्द्र सूर्य दुइ परम सदय । जगतेर भाग्ये गौड़े करिला उदय ॥
१०२॥
। ये दोनों, सूर्य तथा चन्द्रमा, संसार के लोगों के प्रति अत्यन्त दयालु हैं। इस तरह समस्त लोगों के सौभाग्य हेतु वे बंगाल के क्षितिज पर उदित हुए हैं।
सेइ दुइ प्रभुर करि चरण वन्दन ।।याँहा हइते विघ्न-नाश अभीष्ट-पूरण ॥
१०३॥
। अतएव आइये हम इन दोनों प्रभुओं के पवित्र चरणों की पूजा करें। इस प्रकार आत्म-साक्षात्कार के मार्ग की सारी कठिनाइयों से छुटकारा मिल सकता है।
एइ दुइ श्लोके कैल मङ्गल-वन्दन ।।तृतीय श्लोकेर अर्थ शुन सर्व-जन ॥
१०४॥
मैंने इन दोनों श्लोकों के माध्यम से भगवान् से आशीष प्राप्त करने की कामना की है (इस अध्याय के श्लोक १ और २)। अब कृपा करके तृतीय श्लोक के तात्पर्य को ध्यानपूर्वक सुनें।
वक्तव्य-बाहुल्य, ग्रन्थ-विस्तारेर डरे ।विस्तारे ना वणि, सारार्थ कहि अल्पाक्षरे ॥
१०५॥
इस ग्रंथ के विस्तार-भय से मैं जान-बूझकर विस्तृत वर्णन से बच रहा हूँ। मैं यथासम्भव संक्षेप में सार-वर्णन करूंगा।"
मितं च सारं च वचो हि वाग्मिता इति ॥
१०६॥
संक्षेप में कहा गया साररूपी सत्य ही सच्ची वाक्पटुता है।
शुनिले खण्डिबे चित्तेर अज्ञानादि दोष ।।कृष्णे गाढ़ प्रेम हबे, पाइबे सन्तोष ॥
१०७॥
विनीत भाव से इसका श्रवण करने मात्र से ही मनुष्य को हृदय अज्ञान के सारे दोषों से मुक्त हो जायेगा और उसे कृष्ण का प्रगाढ़ प्रेम प्राप्त होगा। यही शान्ति का मार्ग है।
श्री-चैतन्य-नित्यानन्द-अद्वैत-महत्त्व। ताँर भक्त-भक्ति-नाम-प्रेम-रस-तत्त्व ॥
१०८॥
भिन्न भिन्न लिखियाछि करिया विचार ।शुनिले जानिबे सब वस्तु-तत्त्व-सार ॥
१०९॥
यदि कोई धैर्यपूर्वक श्री चैतन्य महाप्रभु, श्री नित्यानन्द प्रभु तथा श्री अद्वैत प्रभु एवं उनके भक्तों, भक्ति-कार्यो, नाम, यश तथा उनके दिव्य प्रेममय आदान-प्रदानों के रसों की महिमा का श्रवण करेगा, तो वह परम सत्य के सार को जान सकेगा। इसलिए मैंने इनका वर्णन ( चैतन्यचरितामृत में ) तर्क तथा विवेक के साथ किया है।
श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश ।।चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
११०॥
श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों की स्तुति करते हुए, सदैव उनकी कृपा की कामना करते हुए और उनके चरणों का अनुसरण करते हुए मैं, कृष्णदास, श्री चैतन्य-चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।
अध्याय दो: श्री चैतन्य महाप्रभु, भगवान के सर्वोच्च व्यक्तित्व
श्री-चैतन्य-प्रभुं वन्दे बालोऽपि यदनुग्रहात् ।तरेन्नाना-मत-ग्राह-व्याप्तं सिद्धान्त-सागरम् ॥
१॥
मैं उन श्री चैतन्य महाप्रभु को नमस्कार करता हूँ, जिनकी कृपा से एक अबोध बालक भी निर्णायक सत्य रूपी सागर को पार कर सकता है, जो विभिन्न सिद्धान्त रूपी मगरों से भरा हुआ है।
कृष्णोत्कीर्तन-गान-नर्तन-कला-पाथोजनि-भ्राजिता सद्भक्तावलि-हंस-चक्र-मधुप-श्रेणी-विहारास्पदम् । कर्णानन्द-कल-ध्वनिर्वहतु मे जिह्वा-मरु-प्राङ्गणे श्री-चैतन्य दयानिधे तव लसल्लीला-सुधा-स्वर्धनी ॥
२॥
हे मेरे दयालु भगवान् श्री चैतन्य! आपकी दिव्य लीलाओं का अमृततुल्य गंगाजल मेरी मरुस्थल जैसी जीभ पर बहता रहे। कृष्ण के पवित्र नाम का उच्च स्वर से कीर्तन, गान, नर्तन रूपी वे कमल के फूल जो अनन्य भक्तों के आनन्द-धाम हैं, इस जल को सुशोभित करने वाले है। ये भक्त हंसों, चक्रवाकों तथा भ्रमरों के तुल्य हैं। नदी के प्रवाह से मधुर पनि उत्पन्न होती है, जो उनके कानों को आनन्दित करती है।
जय जय श्री-चैतन्य जय नित्यानन्द ।जयाद्वैत-चन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ॥
३॥
भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु तथा श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! भताचार्य की जय हो तथा भगवान् गौरांग के भक्तों की जय हो।
तृतीय श्लोकेर अर्थ करि विवरण ।वस्तु-निर्देश-रूप मङ्गलाचरण ॥
४॥
। सर्वप्रथम मैं (प्रथम चौदह श्लोकों में से ) तीसरे श्लोक के अर्थ का र्णन करूंगा। यह एक शुभ ध्वनि है, जो परम सत्य का वर्णन करती है।
ग्रदद्वैतं ब्रह्मोपनिषदि तदप्यस्य तनु-भा। → आत्मान्तर्यामी पुरुष इति सोऽस्यांश-विभवः ।। षडू-ऐश्वर्यैः पूर्णो ग्न इह भगवान्स स्वयमयंन चैतन्याकृष्णाजगति पर-तत्त्वं परमिह ॥
५॥
जिसका वर्णन उपनिषदों में निर्विशेष ब्रह्म के रूप में हुआ है, वह उनके शरीर का तेज मात्र है और परमात्मा के रूप में जाने जाने वाले भगवान् उनके स्थानीय पूर्ण अंश हैं। भगवान् चैतन्य छः ऐश्वर्यों से पूर्ण स्वयं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण हैं। वे परम सत्य हैं और अन्य कोई सत्य न उनसे बड़ा है, न उनके समान है।
ब्रह्म, आत्मा, भगवान्– तिने । अङ्ग-प्रभा, अंश, स्वरूप-तिन विधेय-चिह्न ॥
६ ॥
निर्विशेष ब्रह्म, स्थानीय परमात्मा तथा भगवान्-ये तीन उद्देश्य हैं। और चमकदार ज्योति, आंशिक प्राकट्य तथा मूल स्वरूप ये इन तीनों को दष्ट करने वाले क्रमिक लक्षण हैं।
आगे, पाछे विधेय स्थापन । सेइ अर्थ कहि, शुन शास्त्र-विवरण ॥
७॥
विधेय सदैव उद्देश्य के बाद आता है। अब मैं इस श्लोक का अर्थ भात्रों के अनुसार बतलाऊँगा।
स्वयं भगवान्कृष्ण, विष्णु-परतत्त्व । पूर्ण-ज्ञान पूर्णानन्द परम महत्त्व ॥
८॥
भगवान् के आदि स्वरूप कृष्ण सर्वव्यापी विष्णुतत्त्व हैं। वे पूर्ण ज्ञान तथा पूर्ण आनन्द हैं। वे परम दिव्य हैं।
‘नन्द-सुत' बलि' याँरै भागवते गाइ ।।सेइ कृष्ण अवतीर्ण चैतन्य-गोसाजि ॥
९॥
जिन्हें श्रीमद्भागवत नन्द महाराज के पुत्र के रूप में बतलाता है, वही भगवान् चैतन्य के रूप में इस पृथ्वी पर अवतरित हुए हैं।
प्रकाश-विशेषे तेह धरे तिन नाम । ब्रह्म, परमात्मा आर स्वयं-भगवान् ॥
१०॥
अपने विभिन्न प्राकट्यों की दृष्टि से वे तीन पहलूओं में विख्यात हैं, मा भिर्विशेष ब्रह्म, स्थानीय परमात्मा तथा आदि भगवान् कहलाते हैं।
वदन्ति तत्तत्त्व-विदस्तत्त्वं ग्नज्ज्ञानमद्वयम् ।। ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ॥
११॥
परम सत्य को जानने वाले विद्वान-अध्यात्मवादी कहते हैं कि यह अद्वय ज्ञान तत्त्व है, जो निर्विशेष ब्रह्म, स्थानीय परमात्मा तथा भगवान् कहलाता है।
ताँहार अङ्गेर शुद्ध किरण-मण्डल ।। उपनिषत्कहे ताँरे ब्रह्म सुनिर्मल ॥
१२॥
जिसे उपनिषदें दिव्य निर्विशेष ब्रह्म कहती हैं, वह उन्हीं परम पुरुष के प्रकाशमान तेज का मण्डल है।
चर्म-चक्षे देखे ग्रैछे सूर्य निर्विशेष ।।ज्ञान-मार्गे लैते नारे कृष्णेर विशेष ॥
१३॥
जिस प्रकार कोई व्यक्ति अपने नग्न नेत्रों से सूर्य को केवल एक चमकीली वस्तु के अतिरिक्त और किसी रूप में नहीं जान सकता, उसी तह केवल दार्शनिक चिन्तन से वह कृष्ण की दिव्य विविधताओं को नहीं समझ सकता।
ग्रस्य प्रभा प्रभवतो जगदण्ड-कोटि कोटीष्वशेष-वसुधादि-विभूति-भिन्नम् । तद्ब्रह्म निष्कलमनन्तमशेष-भूतंगोविन्दमादि-पुरुषं तमहं भजामि ॥
१४॥
मैं उन आदि भगवान् गोविंद की पूजा करता हूँ, जो महान् शक्ति से अन्यत्र हैं। उनके दिव्य स्वरूप का दीप्तिमान तेज निर्विशेष ब्रह्म है, जो म, पूर्ण तथा असीम है और जो करोड़ों ब्रह्माण्डों में असंख्य प्रकार के को उनके विभिन्न ऐश्वर्यों के साथ प्रदर्शित करता है।
कोटी कोटी ब्रह्माण्डे ये ब्रह्मेर विभूति ।।सेइ ब्रह्म गोविन्देर हय अङ्ग-कान्ति ॥
१५॥
( ब्रह्माजी ने कहा :) निर्विशेष ब्रह्म के ऐश्वर्य करोड़ों ब्रह्माण्डों में परिव्याप्त होते हैं। यह ब्रह्म भगवान् गोविन्द का शारीरिक तेज मात्र होता है।
सेइ गोविन्द भजि आमि, तेहों मोर पति ।ताँहार प्रसादे मोर हय सृष्टि-शक्ति ॥
१६॥
मैं भगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ। वे ही मेरे स्वामी हैं। केवल उन्हीं की कृपा से मुझमें ब्रह्माण्ड का सृजन करने की शक्ति है।
मुनयो वात-वासनाः श्रमणा ऊर्ध्व-मन्थिनः । ब्रह्माख्यं धाम ते ग्रान्ति शान्ताः सन्यासिनोऽमलाः ॥
१७॥
वे नग्न साधु तथा संन्यासी, जो कठोर शारीरिक तपस्या करते हैं, जो अपने वीर्य को मस्तिष्क तक ऊपर उठा सकते हैं (ऊर्ध्व-रेता हैं) तथा जो ब्रह्म में पूर्णतया स्थित हैं, वे ब्रह्मलोक नामक मण्डल में निवास कर सकते हैं।
आत्मान्तर्यामी याँरै योग-शास्त्रे कय । सेह गोविन्देर अंश विभूति ये हय ॥
१८॥
जिन्हें योगशास्त्रों में अन्तर्यामी परमात्मा कहकर वर्णित किया जाता है, वे भी गोविन्द के निजी विस्तार के अंश हैं।
अनन्त स्फटिके ग्रैछे एक सूर्य भासे ।। तैछे जीवे गोविन्देर अंश प्रकाशे ॥
१९॥
जिस प्रकार एक ही सूर्य असंख्य रत्नों में प्रतिबिम्बित होता दिखता है, उसी प्रकार गोविन्द (परमात्मा रूप में) समस्त जीवों के हृदयों में प्रकट होते हैं।
अथ वा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।।विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ॥
२०॥
[ भगवान् कृष्ण ने कहा :अब मैं तुमसे और अधिक क्या कहूँ? मैं केवल अपने एक अंश के द्वारा इस विराट् जगत् में व्याप्त रहता हूँ।
तमिममहमजं शरीर-भाजांहृदि हृदि धिष्ठितमात्म-कल्पितीनाम् । प्रति-दृशमिव नैकधार्कमेकंसमधिगतोऽस्मि विधूत-भेद-मोहः ॥
२१॥
[ भीष्म पितामह ने कहा :जिस प्रकार एक ही सूर्य विभिन्न दर्शकों को भिन्न भिन्न रूप से अवस्थित प्रतीत होता है, उसी तरह हे अजन्मा, आप हर जीव में परमात्मा के रूप में भिन्न भिन्न प्रकार से प्रतिनिधित्व करते प्रतीत होते हैं। किन्तु जब दर्शक अपने आपको आपके सेवक-रूप में जाने लेता है, तो उसमें ऐसा द्वैत नहीं रह पाता। इस प्रकार अब मैं आपके शाश्वत रूपों को समझने में समर्थ हूँ और भलीभाँति जानता हूँ कि परमात्मा आपके अंश मात्र हैं।
सेइत गोविन्द साक्षाच्चैतन्य गोसाजि ।जीव निस्तारिते ऐछे दयालु आर नाइ ॥
२२॥
वही गोविन्द स्वयं चैतन्य गोसांई के रूप में प्रकट होते हैं। अन्य कोई प्रभु पतित आत्माओं का उद्धार करने में इतने दयालु नहीं हैं।
पर-व्योमेते वैसे नारायण नाम । घडू-ऐश्वर्य-पूर्ण लक्ष्मी-कान्त भगवान् ॥
२३॥
दिव्य जगत् के सर्वेसर्वा भगवान् नारायण छः ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं। वे लक्ष्मीपति भगवान् हैं।
वेद, भागवत, उपनिषत्, आगम ।। ‘पूर्ण-तत्त्व' याँरे कहे, नाहि यॉर सम ॥
२४॥
परमेश्वर वे हैं, जिन्हें वेदों, उपनिषदों तथा अन्य दिव्य साहित्य में परम पूर्ण के रूप में वर्णित किये गये हैं। उनके तुल्य कोई नहीं है।
भक्ति-योगे भक्त पाय याँहार दर्शन ।। सूर्य ग्रेन सविग्रह देखे देव-गण ॥
२५॥
भक्तगण अपनी सेवा के माध्यम से भगवान् को उसी तरह देखते हैं, जिस प्रकार स्वर्ग के निवासी सूर्यदेव को देखते हैं।
ज्ञान-योग-मार्गे तौरे भजे येइ सब ।। ब्रह्म-आत्म-रूपे तौरे करे अनुभव ॥
२६॥
। जो लोग ज्ञान तथा योग के मार्गों पर चलते हैं, वे भगवान् ही की पूजा रहे हैं, क्योंकि वे निर्विशेष ब्रह्म तथा अन्तर्यामी परमात्मा के रूप में उन्हीं अनुभव करते हैं।
उपासना-भेदे जानि ईश्वर-महिमा ।।अतएव सूर्य ताँर दियेत उपमा ॥
२७॥
इसलिए पूजा के विविध प्रकारों से भगवान् की महिमा को उसी प्रकार समझा जा सकता है, जिस प्रकार सूर्य की उपमा से पता लगता है।
सेइ नारायण कृष्णेर स्वरूप-अभेद ।।एकइ विग्रह, किन्तु आकार-विभेद ॥
२८॥
नारायण तथा श्रीकृष्ण एक ही ईश्वर हैं, किन्तु एक होकर भी उनके शारीरिक लक्षण भिन्न हैं।
इँहोत द्वि-भुज, तिंहो धरे चारि हाथ ।इँहो वेणु धरे, तिंहो चक्रादिक साथ ॥
२९॥
इन ईश्वर ( श्रीकृष्ण) के दो हाथ हैं और वे मुरली धारण करते हैं, जबकि दूसरे ( नारायण) के चार हाथ हैं, जिनमें वे शंख, चक्र, गदा या पद्म धारण करते हैं।
नारायणस्त्वं न हि सर्व-देहिनाम्आत्मास्यधीशाखिल-लोक-साक्षी। नारायणोऽङ्गं नर-भू-जलायनात् ।तच्चापि सत्यं न तवैव माया ॥
३०॥
हे प्रभुओं के प्रभु! आप सारी सृष्टि के द्रष्टा हैं। आप निस्सन्देह हर एक के प्रियतम प्राण हैं। तो क्या आप मेरे पिता श्री नारायण नहीं हैं? भारायण का अर्थ है, वे जिसका घर जल में है, जो 'नर' (गर्भोदकशायी विष्णु) से उत्पन्न हुए हैं और वे नारायण तो आपके अंश हैं। आपके सारे पूर्ण अंश दिव्य हैं। वे परम पूर्ण हैं और वे माया द्वारा सृजित नहीं हैं।
शिशु वत्स हरि' ब्रह्मा करि अपराध । अपराध क्षमाइते मागेन प्रसाद ॥
३१॥
कृष्ण के साथियों तथा बछड़ों को चुराने का अपराध करने के बाद ब्रह्मा'ने अपने अपराध के लिए भगवान् से क्षमा याचना की और दया करने की याचना की।
तोमार नाभि-पद्य हैते आमार जन्मोदय ।।तुमि पिता-माता, आमि तोमार तनय ॥
३२॥
। मैंने उस कमल से जन्म लिया, जो आपकी नाभि से निकला था। स तरह आप मेरे पिता-माता दोनो हैं और मैं आपका पुत्र हूँ।
पिता माता बालकेर ना लय अपराध ।अपराध क्षम, मोरे करह प्रसाद ॥
३३॥
। माता-पिता अपनी सन्तान के अपराधों को कभी गम्भीरतापूर्वक नहीं लेते। अतएव मैं आपसे क्षमा-याचना करता हूँ और आपका आशीर्वाद चाहता हूँ।
कृष्ण कहेन--ब्रह्मा, तोमार पिता नारायण । आमि गोप, तुमि कैछे आमार नन्दन ॥
३४॥
श्रीकृष्ण ने कहा, हे ब्रह्मा! आपके पिता तो नारायण हैं। मैं तो एक गोप-बालक हूँ। आप मेरे पुत्र किस तरह हो सकते हैं? ब्रह्मा बलेन, तुमि कि ना हओ नारायण ।।तुमि नारायण शुन ताहार कारण ॥
३५॥
ब्रह्मा ने उत्तर दिया, क्या आप नारायण नहीं हैं? आप अवश्य नारायण हैं। कृपया सुनें, मैं इसके प्रमाण देता हूँ।
प्राकृताप्राकृत-सृष्ट्ये व्रत जीव-रूप ।। ताहार ये आत्मा तुमि मूल-स्वरूप ॥
३६॥
भौतिक तथा आध्यात्मिक जगतों के सारे जीव आखिर आप से ही उत्पन्न होते हैं, क्योंकि आप उन सबके परमात्मा हैं।
पृथ्वी ग्रैछे घट-कुलेर कारण आश्रय ।। जीवेर निदान तुमि, तुमि सर्वाश्रय ॥
३७॥
जिस प्रकार पृथ्वी मिट्टी के बने समस्त पात्रों (घड़ों) को मूल कारण एवं आश्रय है, उसी प्रकार आप समस्त जीवों के परम कारण एवं आश्रय है।
‘नार'-शब्दे कहे सर्व जीवेर निचय ।। ‘अयन'-शब्देते कहे ताहार आश्रय ॥
३८ ॥
नार' शब्द समस्त जीवों के समुच्चय को बताता है और 'अयन' शब्द उन सबके आश्रय को बतलाने वाला है।
अतएव तुमि हओ मूल नारायण ।एइ एक हेतु, शुन द्वितीय कारण ॥
३९ ॥
अतएव आप आदि नारायण हैं। यह हुआ पहला कारण। अब मैं दूसरा कारण बताता हूँ, कृपया उसे सुनें।
जीवेर ईश्वर–पुरुषादि अवतार । ताँहा सबा हैते तोमार ऐश्वर्य अपार ॥
४० ॥
जीवों के प्रत्यक्ष ईश्वर पुरुष अवतार हैं। किन्तु आपका ऐश्वर्य एवं शक्ति उनसे कहीं अधिक उन्नत हैं।
अतएव अधीश्वर तुमि सर्व पिता। तोमार शक्तिते ताँरा जगत्रक्षिता ॥
४१॥
अतएव आप हर एक के आदि पिता, आदि स्वामी हैं। वे (पुरुषावतार) आपकी शक्ति से ही ब्रह्माण्डों के रक्षक हैं।
नारेर अयन ग्राते करह पालन । अतएव हओ तुमि मूल नारायण ॥
४२॥
चूँकि आप समस्त जीवों के आश्रयों की रक्षा करते हैं, अतएव आप मूल नारायण हैं।
तृतीय कारण शुन श्री-भगवान् । अनन्त ब्रह्माण्ड बहु वैकुण्ठादि धाम ॥
४३॥
हे प्रभु! हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्! कृपया मेरे तीसरे कारण को सुनें। ग्राण्ड असंख्य हैं और दिव्य वैकुण्ठ लोक अनेक हैं।
इथे व्रत जीव, तार त्रै-कालिक कर्म ।। ताहा देख, साक्षी तुमि, जान सब मर्म ॥
४४।। आप इस भौतिक जगत् में तथा दिव्य जगत् दोनों में समस्त जीवों के भूत, वर्तमान तथा भविष्य के समस्त कर्मों को देखते हैं। चूँकि आप न सब कर्मों के साक्षी हैं, अतः आप सब का सार जानते हैं।
तोमार दर्शने सर्व जगतेर स्थिति । तुमि ना देखिले कारो नाहि स्थिति गति ॥
४५ ॥
सारे जगत् इसलिए विद्यमान हैं, क्योंकि उन पर आपका निरीक्षण है। आपके निरीक्षण के बिना कोई न तो जीवित रह सकता है, न हिल सकता है और न अस्तित्व बनाये रख सकता है।
नारेर अयन य़ाते कर दरशन । ताहातेओ हओ तुमि मूल नारायण ॥
४६॥
आप सारे जीवों की गतियों का निरीक्षण करते हैं। इसलिए भी आप आदि भगवान् नारायण हैं।
कृष्ण कहेन–ब्रह्मा, तोमार ना बुझि वचन । जीव-हृदि, जले वैसे सेइ नारायण ॥
४७॥
कृष्ण ने कहा, हे ब्रह्मा! जो आप कह रहे हैं, उसे मैं नहीं समझ पा हा हूँ। भगवान् नारायण तो वे हैं, जो समस्त जीवों के हृदयों में आसीन हते हैं और कारण सागर के जल में शयन करते हैं।
ब्रह्मा कहे—जले जीवे येइ नारायण । से सब तोमार अंश-ए सत्य वचन ॥
४८॥
ब्रह्मा ने उत्तर दिया, मैंने जो कहा है, वह सत्य है। वही भगवान् नारायण जो जल में तथा सारे जीवों के हृदयों में रहते हैं, आपके अंश मात्र है।
कारणाब्धि-गर्भोदक-क्षीरोदक-शायी ।। माया-द्वारे सृष्टि करे, ताते सब मायी ॥
४९॥
। नारायण के कारणोदकशायी, गर्भोदकशायी तथा क्षीरोदकशायी रूप भौतिक शक्ति के सहयोग से सृजन कार्य करते हैं। इस प्रकार वे माया से जुड़े हुए हैं।
सेइ तिन जल-शायी सर्व-अन्तर्यामी । ब्रह्माण्ड-वृन्देर आत्मा ने पुरुष-नामी ॥
५०॥
जल में शयन करने वाले ये तीनों विष्णु सबके परमात्मा हैं। समस्त ब्रह्माण्डों के परमात्मा प्रथम पुरुष के नाम से विख्यात हैं।
हिरण्य-गर्भेर आत्मा गर्भोदक-शायी ।। व्यष्टि-जीव-अन्तर्यामी क्षीरोदक-शायी ॥
५१॥
गर्भोदकशायी विष्णु सारे जीव-समुदाय के परमात्मा हैं और गरोदकशायी विष्णु हर व्यक्तिगत जीव के परमात्मा हैं।
ए सभार दर्शनेते आछे माया-गन्ध ।तुरीय कृष्णेर नाहि मायार सम्बन्ध ॥
५२॥
ऊपर से हमें दिखता है कि इन पुरुषों का सम्बन्ध माया से है, किन्तु अमके ऊपर, चतुर्थ आयाम में भगवान् कृष्ण हैं, जिनका भौतिक शक्ति (माया) से कोई सम्पर्क नहीं होता।
विराडू हिरण्य-गर्भश्च कारणं चेत्युपाधयः ।।ईशस्य ग्रन्त्रिभिनं तुरीयं तत्प्रचक्षते ॥
५३॥
भौतिक जगत् में भगवान् की उपाधियाँ विराट्, हिरण्यगर्भ तथा कारण हैं। किन्तु वे इन तीन उपाधियों से परे अन्ततोगत्वा चतुर्थ आयाम (तुरीय) में रहते हैं।
यद्यपि तिनेर माया लइया व्यवहार ।।तथापि तत्स्पर्श नाहि, सभे माया-पार ॥
५४॥
यद्यपि भगवान् के ये तीनों स्वरूप भौतिक शक्ति से सीधे सम्बन्धित हैं, लेकिन यह शक्ति इनमें से किसी का भी स्पर्श नहीं करती। ये सब माया से परे हैं।
एतदीशनमीशस्य प्रकृति-स्थोऽपि तद्गुणैः ।न ग्रुज्यते सदात्म-स्थैर्यथा बुद्धिस्तदाश्रया ॥
५५॥
। यह भगवान् का ऐश्वर्य है । यद्यपि वे भौतिक प्रकृति में स्थित रहते ।, फिर भी वे प्रकृति के गुणों से कभी भी प्रभावित नहीं होते। उसी प्रकार जो लोग उनकी शरण में जा चुके हैं और जिन्होंने अपनी बुद्धि उन पर स्थिर कर ली है, वे प्रकृति के गुणों से प्रभावित नहीं होते।
सेइ तिन जनेर तुमि परम आश्रय ।। तुमि मूल नारायण इथे कि संशय ॥
५६॥
आप इन तीनों पुरुषावतारों के परम आश्रय हैं। इस तरह इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि आप आदि नारायण हैं।
सेइ तिनेर अंशी परव्योम-नारायण । तेह तोमार विलास, तुमि मूल-नारायण ॥
५७॥
इन तीनों स्वरूपों के स्रोत आध्यात्मिक आकाश ( परव्योम) में स्थित नारायण हैं। वे आपके विलास-विस्तार हैं। अतएव आप परम नारायण हैं।
तएव ब्रह्म-वाक्ये--परव्योम-नारायण ।। तेंहो कृष्णेर विलास–एई तत्त्व-विवरण ॥
५८॥
। अतएव ब्रह्मा के वचनों के अनुसार दिव्य जगत् के अधिष्ठाता-विग्रह नारायण कृष्ण के विलास-विस्तार हैं। अब यह पूरी तरह सिद्ध हो चुका एइ श्लोक तत्त्व-लक्षण भागवत-सार । परिभाषा-रूपे इहार सर्वत्राधिकार ॥
५९॥
इस श्लोक (श्लोक ३० ) में सूचित सत्य श्रीमद्भागवत का सार है। यह निर्णय पर्यायों के माध्यम से सर्वत्र लागू होता है।
ब्रह्म, आत्मा, भगवान् कृष्णेर विहार । ए अर्थ ना जानि' मूर्ख अर्थ करे आर ॥
६० ॥
मूर्ख विद्वान नहीं जानते कि ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान् सभी श्रीकृष्ण के पहलू हैं, अतएव वे तरह-तरह से तर्कवितर्क करते हैं।
अवतारी नारायण, कृष्ण अवतार ।तेह चतुर्भुज, इँह मनुष्य-आकार ॥
६१॥
चूँकि नारायण के चार हाथ हैं, जबकि कृष्ण मनुष्य की तरह दिखते हैं, अतएव उनका कहना है कि नारायण तो मूल ईश्वर हैं, जबकि कृष्ण अवतार मात्र हैं।
एइ-मते नाना-रूप करे पूर्व-पक्ष ।।ताहारे निजिते भागवत-पद्य दक्ष ॥
६२॥
इस प्रकार उनके तर्क नाना रूपों में प्रकट होते हैं, किन्तु भागवत भाव्य इन सबका बड़ी ही दक्षता से खंडन करता है।
वदन्ति तत्तत्त्व-विदस्तत्त्वं यज्ञानमद्वयम् ।ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ॥
६३ ॥
। परम सत्य को जानने वाले विद्वान अध्यात्मवादी कहते हैं कि यह अभय ज्ञान है और यही निर्विशेष ब्रह्म, अन्तर्यामी परमात्मा तथा भगवान् लाता है।"
भाइ एइ श्लोक करह विचार ।एक मुख्य-तत्त्व, तिन ताहार प्रचार ॥
६४॥
मेरे भाइयों, कृपा करके इस श्लोक की व्याख्या को सुनो और इसके अर्थ पर विचार करो : एक मूल तत्त्व अपने तीन विभिन्न पहलूओं में जाना जाता है।
अद्वय-ज्ञान तत्त्व-वस्तु कृष्णेर स्वरूप ।। ब्रह्म, आत्मा, भगवान् तिन ताँर रूप ॥
६५॥
भगवान् कृष्ण स्वयं परम अद्वय सत्य हैं, आखरी वास्तविकता हैं। वे अपने आपको ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान्-इन तीन पहलूओं में प्रकट करते हैं।
एई श्लोकेर अर्थे तुमि हैला निर्वचन ।आर एक शुन भागवतेर वचन ॥
६६॥
इस श्लोक के तात्पर्य ने तुम्हें तर्क करने से रोक दिया है। अब तुम श्रीमद्भागवत का अन्य श्लोक सुनो।
एते चांश-कलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान्स्वयम् । इन्द्रारि-व्याकुलं लोकं मृड़यन्ति युगे युगे ॥
६७॥
परमेश्वर के ये सारे अवतार या तो पुरुष अवतारों के अंश हैं या अंशों के अंश (कला) हैं। लेकिन कृष्ण स्वयं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं। प्रत्येक युग में, जब जब इन्द्र के शत्रु संसार को विचलित करते हैं, तब तब वे अपने विभिन्न स्वरूपों के माध्यम से जगत् की रक्षा करते हैं।
सब अवतारेर करि सामान्य-लक्षण । तार मध्ये कृष्ण-चन्द्रेर करिल गणन ॥
६८ ॥
भागवत सामान्य रीति से अवतारों के लक्षणों तथा कार्यों का वर्णन करता है और इन्हीं में श्रीकृष्ण की गणना करता है।
तबे सूत गोसाञि मने पाजी बड़े भय ।।यार ये लक्षण ताहा करिल निश्चय ॥
६९॥
इससे सूत गोस्वामी अत्यधिक आशंकित हो उठे और उन्होंने प्रत्येक अवतार को उनके विशिष्ट लक्षणों से विभेदित किया।
अवतार सब–पुरुषेर कला, अंश ।।स्वयं-भगवान्कृष्ण सर्व-अवतंस ॥
७० ॥
ईश्वर के सारे अवतार या तो पुरुष अवतारों के पूर्ण अंश या पूर्ण अंश के अंश (कला) हैं, किन्तु आदि भगवान् तो श्रीकृष्ण ही हैं। वे समस्त अवतारों के स्रोत पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं।
पूर्व-पक्ष कहे तोमार भाल त' व्याख्यान । परव्योम-नारायण स्वयं-भगवान् ॥
७१ ॥
एक विपक्षी कह सकता है, यह तो तुम्हारी व्याख्या है, किन्तु वास्तव परम भगवान् तो नारायण हैं, जो दिव्य लोक में स्थित हैं।
तेह आसि' कृष्ण-रूपे करेन अवतार ।। एइ अर्थ श्लोके देखि कि आर विचार ॥
७२॥
वे ( नारायण) भगवान् कृष्ण के रूप में अवतार लेते हैं। मेरी दृष्टि । यही इस श्लोक का अर्थ है। अब और आगे विचार करने की आवश्यकता नहीं है।
तारे कहे–केने कर कुतर्कानुमान । शास्त्र-विरुद्धार्थ कभु ना हय प्रमाण ॥
७३॥
हम ऐसे भ्रान्त व्याख्याकार को इस प्रकार उत्तर दे सकते हैं, तुम ऐसा कुतर्क क्यों प्रस्तुत करते हो? जो व्याख्या शास्त्र के सिद्धान्तों के विरुद्ध होती है, वह कभी भी साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं की जाती।
मनुक्त्वा तु न विधेयमुदीरयेत् ।। न ह्यलब्धास्पदं किञ्चित्कुत्रचित्प्रतितिष्ठति ॥
७४॥
कर्ता के पूर्व उसकी निर्दिष्ट बात ( विधेय) का प्रयोग नहीं करना चाहिए, क्योंकि समुचित आधार के बिना वह खड़ा नहीं रह सकता।
ना कहिया ना कहि विधेय ।। आगे कहि, पश्चाद्विधेय ॥
७५ ॥
यदि मैं उद्देश्य ( कर्ता ) को उल्लेख न करूं, तो मैं विधेय का उल्लेख नहीं करता हूँ। अतएव पहले मैं उद्देश्य का उल्लेख करूंगा और तब विधेय का।
‘विधेय' कहिये तारे, ग्रे वस्तु अज्ञात ।।‘' कहि तारे, येइ हय ज्ञात ॥
७६ ॥
किसी वाक्य का विधेय वह है, जो पाठक को अज्ञात होता है, जबकि उद्देश्य (कर्ता) वह है, जो उसे ज्ञात रहता है।
ग्रैछे कहि,—एइ विप्र परम पण्डित ।।विप्र-, इहार विधेय–पाण्डित्य ॥
७७॥
उदाहरणार्थ, हम कह सकते हैं, 'यह विप्र महान् पण्डित है। इस वाक्य में विप्र उद्देश्य है और उसका पाण्डित्य विधेय है।
विप्रत्व विख्यात तार पाण्डित्य अज्ञात ।अतएव विप्न आगे, पाण्डित्य पश्चात ॥
७८॥
मनुष्य का विप्र होना ज्ञात है, किन्तु उसका पाण्डित्य अज्ञात है।। अतएव व्यक्ति की पहचान पहले की जाती है और उसके पाण्डित्य की । बाद में।"
तैछे ईंह अवतार सब हैल ज्ञात ।।कार अवतार—एइ वस्तु अविज्ञात ॥
७९॥
इसी प्रकार, ये सारे अवतार ज्ञात थे, किन्तु ये किनके अवतार थे, यह ज्ञात न था।
‘एते'-शब्दे अवतारेर आगे ।।‘पुरुषेर अंश' पाछे विधेय-संवाद ॥
८०॥
पहले 'एते' ( ये) शब्द से उद्देश्य (अवतार) की स्थापना होती है। तत्पश्चात् 'पुरुषावतारों के पूर्ण अंश' विधेय के रूप में आये हैं।
तैछे कृष्ण अवतार-भितरे हैल ज्ञात ।ताँहार विशेष-ज्ञान सेइ अविज्ञात ॥
८१॥
इसी प्रकार से, जब पहले कृष्ण की गणना अवतारों में हो चुकी, तो भी उनके विषय में विशिष्ट ज्ञान अज्ञात था।
अतएव 'कृष्ण'-शब्द आगे ।‘स्वयं-भगवत्ता' पिछे विधेय-संवाद ॥
८२॥
अतएव सबसे पहले 'कृष्ण' शब्द उद्देश्य के रूप में आता है, जिसके बाद विधेय आता है, जो उनके आदि भगवान् रूप को बतलाने घाला है।
कृष्णेर स्वयं-भगवत्ता–इहा हैल साध्य ।स्वयं-भगवानेर कृष्णत्व हैल बाध्य ॥
८३॥
इससे यह प्रमाणित होता है कि श्रीकृष्ण आदि भगवान् हैं। इसलिए आदि भगवान् अनिवार्य रूप से कृष्ण ही हैं।
कृष्ण यदि अंश हैत, अंशी नारायण । तबे विपरीत हैत सूतेर वचन ॥
८४॥
यदि कृष्ण पूर्ण अंश होते और नारायण आदि भगवान् अंशी ), तो सूत गोस्वामी का कथन विपरीत हो जाता।
नारायण अंशी ग्रेइ स्वयं-भगवान् ।। तेह श्री-कृष्ण—ऐछे करित व्याख्यान ॥
८५॥
तब वे यह कहते, ‘समस्त अवतारों के उद्गम नारायण मूल भगवान् हैं और वे श्रीकृष्ण के रूप में प्रकट हुए।
भ्रम, प्रमाद, विप्रलिप्सा, करणापाटव । आर्ष-विज्ञ-वाक्ये नाहि दोष एइ सबै ॥
८६॥
प्रामाणिक ऋषियों के वचनों में त्रुटियाँ, मोह, ठगने की प्रवृत्ति तथा भ्रान्त अनुभूति (इन्द्रियों की अपूर्णता) नहीं होतीं।
विरुद्धार्थ कह तुमि, कहिते कर रोष । तोमार अर्थे अविमृष्ट-विधेयांश-दोष ॥
८७॥
तुम विरुद्ध बात कहते हो और जब इसकी ओर इंगित किया जाता है, तो तुम क्रोधित होते हो। तुम्हारी व्याख्या में स्थानभ्रष्ट विधेय का दोष है। यह अविचारणीय तालमेल है।
ग्राँर भगवत्ता हैते अन्येर भगवत्ता । ‘स्वयं-भगवान्'-शब्देर ताहातेइ सत्ता ॥
८८ ॥
केवल वे भगवान्, जो अन्य समस्त भगवत्ताओं के उद्गम हैं, स्वयं भगवान् या आदि भगवान् कहलाने के पात्र हैं।
दीप हैते ग्रैछे बहु दीपेर ज्वलन ।मूल एक दीप ताहा करिये गणन ॥
८९॥
जब एक दीपक से अन्य अनेक दीपक जलाये जाते हैं, तो मैं उसे ॥
आदि (मूल) दीपक मानता हूँ।
तैछे सब अवतारेर कृष्ण से कारण । आर एक श्लोक शुन, कुव्याख्या-खण्डन ॥
९० ॥
इसी प्रकार से कृष्ण समस्त कारणों एवं समस्त अवतारों के कारण हैं। सारी भ्रान्त व्याख्याओं के खंडन हेतु अब दूसरा श्लोक सुनो।
अत्र सर्गो विसर्गश्च स्थानं पोषणमूतयः ।। मन्वन्तरेशानुकथा निरोधो मुक्तिराश्रयः ॥
९१॥
दशमस्य विशुद्ध्यर्थं नवानामिह लक्षणम् ।।वर्णयन्ति महात्मानः श्रुतेनार्थेन चाञ्जसा ॥
९२॥
इसमें ( श्रीमद्भागवत में) दस विषयों का वर्णन किया गया है । (१) ब्रह्माण्ड के अवयवों की सृष्टि, (२) ब्रह्मा की सृष्टि, (३) सृष्टि का पालन, (४) श्रद्धावानों के प्रति विशिष्ट अनुग्रह, (५) कर्म के लिए प्रेरणाएँ, (६) नियमों का पालन करने वाले मनुष्यों के कर्तव्य, (७) भगवान् के अवतारों का वर्णन, (८) सृष्टि का संहार, (९) स्थूल तथा सूक्ष्म जगत् से मुक्ति तथा (१०) परम आश्रय पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्। दसवाँ विषय अन्य सबके आश्रय हैं। परम आश्रय और अन्य विषयों में अन्तर दिखाने के लिए महाजनों ने प्रार्थनाओं या प्रत्यक्ष याओं के द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इन नवों का वर्णन किया हैं।
आश्रय जानिते कहि ए नव पदार्थ ।।ए नवेर उत्पत्ति-हेतु सेइ आश्रयार्थ ॥
९३॥
मैंने हर वस्तु के चरम आश्रय को स्पष्ट रूप से जानने के लिए अन्य भी श्रेणियों का वर्णन किया है। इन नवों की उत्पत्ति का कारण उनका अभय कहा गया है, जो ठीक ही है।
कृष्ण एक सर्वाश्रय, कृष्ण सर्व-धाम । कृष्णेर शरीरे सर्व-विश्वेर विश्राम ॥
९४॥
भगवान् श्रीकृष्ण सबके आश्रय एवं धाम हैं। सारे ब्रह्माण्ड कृष्ण के शरीर पर आश्रित हैं।
दशमे दशमं लक्ष्यमाश्रिताश्रय-विग्रहम् ।श्री कृष्णाख्यं परं धाम जगद्धाम नमामि तत् ॥
९५ ॥
श्रीमद्भागवत का दसवाँ स्कन्ध दसवें लक्ष्य, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को प्रकट करता है, जो समस्त शरणागत जीवों के आश्रय हैं। वे श्रीकृष्ण कहलाते हैं और वे सारे ब्रह्माण्डों के परम स्रोत (उद्गम ) हैं। मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ।
कृष्णेर स्वरूप, आर शक्ति-त्रय-ज्ञान ।।याँर हय, ताँर नाहि कृष्णेते अज्ञान ॥
१६ ॥
जो श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूप को तथा उनकी तीन विभिन्न शक्तियों को जानता है, वह उनके विषय में अनजान नहीं रह सकता।
कृष्णेर स्वरूपेर हय षडू-विध विलास ।। प्राभव-वैभव-रूपे द्वि-विध प्रकाश ॥
९७॥
भगवान् श्रीकृष्ण अपने छः मूल विस्तारों में विलास करते हैं। प्राभव तथा वैभव-ये उनके दो प्राकट्य हैं।
अंश-शक्त्यावेश-रूपे द्वि-विधावतार । बाल्य पौगण्ड धर्म दुइ त' प्रकार ॥
९८ ॥
उनके अवतार दो प्रकार के हैं-आंशिक तथा शक्त्यावेश। वे दो अवस्थाओं में प्रकट होते हैं-बाल्य तथा पौगण्ड (कुमारावस्था)।
किशोर-स्वरूप कृष्ण स्वयं अवतारी ।। क्रीड़ा करे एइ छय-रूपे विश्व भरि' ॥
९९॥
नित्य किशोर रहने वाले भगवान् श्रीकृष्ण समस्त अवतारों के उद्गम, मूल भगवान् हैं। वे ब्रह्माण्ड-भर में अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए इन छह रूपों में अपना विस्तार करते हैं।
एइ छय-रूपे हय अनन्त विभेद ।।अनन्त-रूपे एक-रूप, नाहि किछु भेद ॥
१०० ॥
इन छः रूपों के असंख्य भेद हैं। यद्यपि वे अनेक हैं, किन्तु सभी एक हैं। उनके बीच कोई अन्तर नहीं है।
चिच्छक्ति, स्वरूप-शक्ति, अन्तरङ्गा नाम ।।ताहार वैभव अनन्त वैकुण्ठादि धाम ॥
१०१॥
चित्-शक्ति, जिसे स्वरूप-शक्ति अथवा अन्तरंगा शक्ति भी कहा जाता है, अनेक रूपों में अपना प्रदर्शन करती है। यह भगवान् के धाम तथा उसके वैभव को धारण करती है।
माया-शक्ति, बहिरङ्गा, जगत्कारण । ताहार वैभव अनन्त ब्रह्माण्डेर गण ॥
१०२ ॥
माया शक्ति कहलाने वाली बहिरंगा शक्ति विविध भौतिक शक्तियों से सम्पन्न असंख्य ब्रह्माण्डों की कारण है।
जीव-शक्ति तटस्थाख्य, नाहि ग्रार अन्त ।मुख्य तिन शक्ति, तार विभेद अनन्त ॥
१०३ ॥
इन दोनों के बीच की तटस्था शक्ति असंख्य जीवों की बनी है। ये ही तीन प्रधान शक्तियाँ हैं, जिनके असंख्य भेद और उपभेद हैं।
ए-मत स्वरूप-गण, आर तिन शक्ति । संभार आश्रय कृष्ण, कृष्णे सभार स्थिति ॥
१०४॥
भगवान् के मुख्य स्वरूप, विस्तार और उनकी तीन शक्तियाँ हैं। परम पूर्ण श्रीकृष्ण से प्रकट हैं। ये सब उन्हीं में स्थित हैं।
यद्यपि ब्रह्माण्ड-गणेर पुरुष आश्रय ।सेइ पुरुषादि संभार कृष्ण मूलाश्रय ॥
१०५॥
पि तीनों पुरुष सारे ब्रह्माण्डों के आश्रय हैं, किन्तु भगवान् कृष्ण के मूल स्रोत हैं।
स्वयं भगवान्कृष्ण, कृष्ण सर्वाश्रय । परम ईश्वर कृष्ण सर्व-शास्त्रे कय ॥
१०६ ॥
तरह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण मूल आदि भगवान् एवं के विस्तारों के उद्गम हैं। सारे प्रामाणिक शास्त्र श्रीकृष्ण को रूप में स्वीकार करते हैं।
ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्द-विग्रहः ।अनादिरादिर्गोविन्दः सर्व-कारण-कारणम् ॥
१०७॥
गोविन्द नाम से विख्यात कृष्ण परम नियन्ता हैं। उनका शरीर शाश्वत, आनन्दमय तथा आध्यात्मिक है। वे सबके उद्गम हैं। उनका कोई उद्गम नहीं है, क्योंकि वे समस्त कारणों के मूल कारण हैं।'
ए सब सिद्धान्त तुमि जान भाल-मते ।।तबु पूर्व-पक्ष कर आमा चालाइते ॥
१०८॥
तुम शास्त्रों के इन सारे सिद्धान्तों को भलीभाँति जानते हो। किन्तु मुझे क्षुब्ध करने के लिए ही सारे तर्क-वितर्क उत्पन्न करते हो।
सेइ कृष्ण अवतारी व्रजेन्द्र-कुमार । आपने चैतन्य-रूपे कैल अवतार ॥
१०९॥
वे भगवान् श्रीकृष्ण ही व्रजराज के पुत्र कहलाते हैं, जो समस्त तारों के स्रोत हैं। वे स्वयं भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में। तरित हुए हैं।
अतएव चैतन्य गोसाजि परतत्त्व-सीमा ।।ताँरे क्षीरोद-शायी कहि, कि ताँर महिमा ॥
११०॥
अतएव भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु परम सत्य हैं। उन्हें क्षीरोदकशायी णु कहकर पुकारने से उनकी महिमा नहीं बढ़ती।
सेइ त' भक्तेर वाक्य नहे व्यभिचारी ।। सकल सम्भवे ताँते, याते अवतारी ।। १११॥
किन्तु निष्ठावान भक्त के मुख से निकले ऐसे शब्द कभी मिथ्या नहीं । हो सकते। उनमें सारी सम्भावनाएँ निहित हैं, क्योंकि वे आदि भगवान् हैं।
अवतारीर देहे सब अवतारेर स्थिति ।।केहो कोन-मते कहे, ग्रेमन ग्रार मति ॥
११२॥
अन्य सारे अवतार मूल भगवान् के आदि शरीर में शक्तिमान के रूप में स्थित हैं। अतएव अपने मत के अनुसार कोई उन्हें किसी भी एक अवतार के रूप में सम्बोधित कर सकता है।
कृष्णके कहये केह-नर-नारायण । केहो कहे, कृष्ण हये साक्षावामन ॥
११३॥
कुछ लोग कहते हैं कि श्रीकृष्ण साक्षात् नर-नारायण हैं। अन्य लोग कहते हैं कि वे साक्षात् वामन हैं।
केहो कहे, कृष्ण क्षीरोद-शायी अवतार ।। असम्भव नहे, सत्य वचन सबार ॥
११४॥
कुछ लोग कहते हैं कि कृष्ण क्षीरोदकशायी विष्णु के अवतार हैं। इनमें से कोई भी कथन असम्भव नहीं है। प्रत्येक कथन अन्यों की ही तरह सत्य है।
केहो कहे, पर-व्योमे नारायण हरि ।सकले सम्भवे कृष्णे, ग्राते अवतारी ॥
११५ ॥
कुछ उन्हें हरि या दिव्य लोक का नारायण कहते हैं। कृष्ण के लिए सब कुछ सम्भव है, क्योंकि वे आदि भगवान् हैं।
सब श्रोता-गणेर करि चरण वन्दन ।ए सब सिद्धान्त शुन, करि' एक मन ॥
११६॥
मैं इस कथा को सुनने या पढ़ने वाले समस्त लोगों के चरणों में नमस्कार करता हूँ। कृपा करके इन सारे कथनों के सार को ध्यान से सुनें।
सिद्धान्त बलिया चित्ते ना कर अलस ।। इहा हइते कृष्णे लागे सुदृढ़ मानस ॥
११७॥
निष्ठापूर्ण जिज्ञासु को चाहिए कि ऐसे सिद्धान्तों की व्याख्या को विवादास्पद मानकर उनकी उपेक्षा न करे, क्योंकि ऐसी व्याख्याओं से मन छ होता है। इस तरह मनुष्य का मन श्रीकृष्ण के प्रति अनुरक्त होता है।
चैतन्य-महिमा जानि ए सब सिद्धान्ते ।। चित्त दृढ़ हा लागे महिमा-ज्ञान हैते ॥
११८॥
ऐसे निर्णायक अध्ययन द्वारा मैं चैतन्य महाप्रभु की महिमा को जानता हूँ। इन महिमाओं को जान लेने से ही मनुष्य बलवान बन सकता है और उनके प्रति अनुराग में सुस्थिर हो सकता है।
चैतन्य-प्रभुर महिमा कहिबार तरे । कृष्णेर महिमा कहि करिया विस्तारे ॥
११९॥
मैंने श्री चैतन्य महाप्रभु का महिमा-वर्णन करने के लिए ही श्रीकृष्ण की महिमाओं का विस्तार से वर्णन करने का प्रयास किया है।
चैतन्य-गोसाजिर एइ तत्त्व-निरूपण । स्वयं-भगवान्कृष्ण व्रजेन्द्र-नन्दन ॥
१२०॥
निष्कर्ष यह है कि श्री चैतन्य महाप्रभु स्वयं व्रजराज के पुत्र पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण हैं।
श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश ।।चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
१२१॥
श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों में प्रार्थना करते हुए एवं उनकी दया की सदा आकांक्षा करते हुए मैं कृष्णदास उनके चरणचिह्नों का अनुसरण करते हुए श्री चैतन्य-चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।
अध्याय तीन: श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रकट होने के बाहरी कारण
श्री-चैतन्य-प्रभुं वन्दे मृत्पादाश्रय-वीर्यतः ।।सङ्गह्वात्याकर-व्रातादज्ञः सिद्धान्त-सन्मणीन् ॥
१॥
मैं श्री चैतन्य महाप्रभु को सादर नमस्कार करता हूँ। उनके अरणकमलों की शरण के प्रभाव से मूर्ख से मूर्ख व्यक्ति भी प्रामाणिक शास्त्रों की खानों में से सैद्धान्तिक सत्य के मूल्यवान रत्नों को एकत्र कर सकता है।
जय जय श्री-चैतन्य जय नित्यानन्द । जयाद्वैत-चन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ॥
२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! अद्वैतचन्द्र प्रभु की जय हो और श्री चैतन्य महाप्रभु के समस्त भक्तों की जय हो! तृतीय श्लोकेर अर्थ कैल विवरण ।।चतुर्थ श्लोकेर अर्थ शुन भक्त-गण ॥
३॥
मैं तीसरे श्लोक का तात्पर्य बता चुका हूँ। हे भक्तजन, अब कृपा करके ध्यानपूर्वक चौथे श्लोक का अर्थ सुनें।
अनर्पित-चरी चिरात्करुणयावतीर्णः कलौ समर्पयितुमुन्नतोज्वल-रसां स्व-भक्ति-श्रियम् । हरिः पुरट-सुन्दर-द्युति-कदम्ब-सन्दीपितः । सदा हृदय-कन्दरे स्फुरतु वः शची-नन्दनः ॥
४॥
वे भगवान्, जो श्रीमती शचीदेवी के पुत्र के रूप में विख्यात हैं, आपके हृदय की गहराई में दिव्य स्थान ग्रहण करें। वे पिघले सोने की देदीप्यमान द्युति से युक्त होकर इस कलियुग में अपनी अहैतुकी कृपा से भक्ति का सर्वोच्च रस-माधुर्य रस-प्रदान करने के लिए अवतरित हुए हैं, जिसे इसके पूर्व अन्य किसी अवतार ने प्रदान नहीं किया है।
पूर्ण भगवान्कृष्ण व्रजेन्द्र कुमार।गोलोके व्रजेर सह नित्य विहार ॥
५॥
वजराज के पुत्र श्रीकृष्ण परम भगवान् हैं। वे अपने सनातन धाम गोलोक में, जिसमें व्रजधाम भी सम्मिलित है, अपनी दिव्य लीलाओं का आनन्द लेते हैं।
ब्रह्मार एक दिने तिंहो एक-बार । अवतीर्ण हल्ला करेन प्रकट विहार ॥
६ ॥
वे ब्रह्मा के एक दिन में एक ही बार इस जगत् में अपनी दिव्य लीलाएँ प्रकट करने के लिए अवतरित होते हैं।
सत्य, त्रेता, द्वापर, कलि, चारि-युग जानि । सेइ चारि-युगे दिव्य एक-झुग मानि ॥
७॥
हम जानते हैं कि युग चार हैं, यथा सत्य, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग। ये चारों मिलकर एक दिव्य युग की रचना करते हैं।
एकात्तर चतुर्युगे एक मन्वन्तर ।।चौद्द मन्वन्तर ब्रह्मार दिवस भितर ॥
८॥
एकहत्तर दिव्य युग मिलकर एक मन्वन्तर बनाते हैं। ब्रह्मा के एक दिन में चौदह मन्वन्तर होते हैं।
‘वैवस्वत'-नाम एइ सप्तम मन्वन्तर ।साताइश चतुर्युग ताहार अन्तर ॥
९॥
। वर्तमान मनु सातवें मनु हैं और ये वैवस्वत (विवस्वान के पुत्र ) हलाते हैं। अब तक उनकी आयु के सत्ताइस दिव्य युग ( २७ x ,२०,००० सौर वर्ष) बीत चुके हैं।
अष्टाविंश चतुर्युगे द्वापरेर शेषे ।व्रजेर सहिते हय कृष्णेर प्रकाशे ॥
१०॥
। । अट्ठाइसवें दिव्य युग के द्वापर युग के अन्त में भगवान् कृष्ण अपने पत व्रजधाम के सम्पूर्ण साज-सामान के साथ पृथ्वी पर प्रकट होते हैं।
दास्य, सख्य, वात्सल्य, शृङ्गार-चारि रस । चारि भावेर भक्त व्रत कृष्ण तार वश ॥
११॥
ऐसे दिव्य प्रेम में निमग्न होकर भगवान् श्रीकृष्ण अपने समर्पित सेवकों, मित्रों, माता-पिता तथा प्रेमिकाओं के साथ व्रज में आनन्द का आस्वादन करते हैं। भगवन कृष्ण उनके वश में रहते है।
दास-सखा-पिता-माता-कान्ता-गण लजा । व्रजे क्रीड़ा करे कृष्ण प्रेमाविष्ट हबा ॥
१२॥
दास्य (सेवक भाव), सख्य मैत्री), वात्सल्य ( माता-पिता का स्नेह) तथा श्रृंगार ( दाम्पत्य प्रेम)-ये चार दिव्य रस हैं। जो भक्त इन चारों रसों का आस्वादन करते हैं।
यथेष्ट विहरि कृष्ण करे अन्तर्धान । अन्तर्धान करि' मने करे अनुमान ॥
१३॥
जब तक इच्छा होती है, भगवान् कृष्ण अपनी दिव्य लीलाओं का आस्वादन करते हैं और पुनः अन्तर्धान हो जाते हैं। किन्तु अन्तर्धान होने के बाद वे इस प्रकार सोचते हैं : चिर-काल नाहि करि प्रेम-भक्ति दान ।। भक्ति विना जगतेर नाहि अवस्थान ॥
१४॥
“दीर्घ काल से मैंने अपनी अनन्य प्रेमाभक्ति का दान विश्व के निवासियों को नहीं दिया। ऐसी प्रेममयी अनुरक्ति के बिना भौतिक जगत् का अस्तित्व व्यर्थ है।
सकल जगते मोरे करे विधि-भक्ति । विधि-भक्त्ये व्रज-भाव पाइते नाहि शक्ति ॥
१५॥
। संसार में शास्त्रों के निर्देशानुसार सर्वत्र मेरी पूजा की जाती है। किन्तु विधि-विधानों का पालन करने मात्र से व्रजभूमि के भक्तों के भावों को प्राप्त नहीं किया जा सकता।
ऐश्वर्य-ज्ञानेते सब जगत्मिश्रित ।। ऐश्वर्य-शिथिल-प्रेमे नाहि मोर प्रीत ॥
१६॥
मेरे ऐश्वर्य को जानते हुए सारा संसार मुझे भय एवं सम्मान की दृष्टि देखता है। किन्तु ऐसे सम्मान से शिथिल हुई भक्ति मुझे आकृष्ट नहीं करती।
ऐश्वर्य-ज्ञाने विधि-भजन करिया ।वैकुण्ठके ग्राय चतुर्विध मुक्ति पाजा ॥
१७॥
भय तथा सम्मान में ऐसी वैधी भक्ति करके मनुष्य वैकुंठ जा सकता है और चार प्रकार की मुक्ति प्राप्त कर सकता है।
सार्टि, सारूप्य, आर सामीप्य, सालोक्य ।सायुज्य ना लय भक्त ग्राते ब्रह्म-ऐक्य ॥
१८॥
ये मुक्तियाँ हैं-सार्टि ( भगवान् तुल्य ऐश्वर्य की प्राप्ति), सारूप्य गवान् जैसा ही रूप प्राप्त करना), सामीप्य ( भगवान् का निजी पार्षद ना) तथा सालोक्य (वैकुण्ठ ग्रह पर निवास करना)। किन्तु भक्तगण राज्य मुक्ति को कभी स्वीकार नहीं करते, क्योंकि यह ब्रह्म से तादात्म्य हैं।
युग-धर्म प्रवर्तामु नाम-सङ्कीर्तन ।चारि भाव-भक्ति दिया नाचामु भुवन ॥
१९॥
मैं युगधर्म नाम-संकीर्तन का अर्थात् पवित्र नाम के सामूहिक कीर्तन का प्रवर्तन स्वयं करूंगा। मैं संसार को प्रेमाभक्ति के चार रसों की अनुभूति कराकर प्रेम-विभोर होकर नृत्य करने के लिए प्रवृत्त करूंगा।"
आपनि करिमु भक्त-भाव अङ्गीकारे । आपनि आचरि' भक्ति शिखाइमु सबारे ॥
२०॥
मैं भक्त की भूमिका स्वीकार करूँगा और स्वयं भक्ति का अभ्यास करके उसकी शिक्षा दूंगा।
आपने ना कैले धर्म शिखान ना ग्राय ।एइ त' सिद्धान्त गीता-भागवते गाय ॥
२१॥
जब तक कोई स्वयं भक्ति का अभ्यास नहीं करता, तब तक वह दूसरोंको इसकी शिक्षा नहीं दे सकता। इस निष्कर्ष की पुष्टि वस्तुतः पूरी तथा भागवत में हुई है।
ग्रदा ग्रदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
२२॥
हे भरतवंशी, जब जब और जहाँ जहाँ धर्म का ह्रास होता है और अर्म में वृद्धि होती है, तब तब मैं स्वयं अवतरित होता हूँ।'
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।।धर्म-संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
२३॥
। पवित्रात्माओं का उद्धार करने तथा दुष्टों का विनाश करने के साथ साथ धर्म की पुनःस्थापना करने के लिए मैं प्रत्येक युग में प्रकट होता हूँ।
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्घा कर्म चेदहम् ।।सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥
२४॥
यदि मैं धर्म के सही सिद्धान्तों का प्रदर्शन न करता, तो ये सारे जगत् विनष्ट हो जाते और मैं अवांछित जनसंख्या का कारण बनता तथा इन सारे जीवों को विनष्ट कर देता।'
यद् ग्रदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।। स ग्रत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥
२५ ॥
महान् पुरुष जो भी आचरण करता है, सामान्य जन उसका नुगमन करते हैं। वह आदर्श कार्यों से जो भी मानदण्ड स्थापित करता उसका ही अनुसरण सारा जगत् करता है।'
मुग-धर्म-प्रवर्तन हय अंश हैते ।। आमा विना अन्ये नारे व्रज-प्रेम दिते ॥
२६ ॥
मेरे पूर्ण अंश प्रत्येक युग के लिए धर्म के सिद्धान्तों की स्थापना कर कते हैं। किन्तु मेरे अतिरिक्त अन्य कोई वह प्रेमाभक्ति प्रदान नहीं कर कता, जो व्रज के निवासियों द्वारा सम्पन्न की गई थी।
सन्त्ववतारा बहवःपङ्कज-नाभस्य सर्वतो-भद्राः । कृष्णादन्यः को वालतास्वपि प्रेम-दो भवति ॥
२७॥
हो सकता है कि भगवान् के सर्व-कल्याणकारी अनेक अवतार हों, किन्तु श्रीकृष्ण के अतिरिक्त ऐसा कौन है, जो शरणागतों को भगवत्प्रेम प्रदान कर सके?' ताहाते आपन भक्त-गण करि' सङ्गे।।पृथिवीते अवतरि' करिमु नाना रङ्गे ॥
२८॥
अतएव मैं अपने भक्तों के संग पृथ्वी पर प्रकट होकर विविध रंगमयी लीलाएँ संपादन करूंगा।
एत भावि' कलि-काले प्रथम सन्ध्याय ।।अवतीर्ण हैला कृष्ण आपनि नदीयाय ॥
२९॥
। इस प्रकार से सोचते हुए स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण कलियुग के प्रारम्भ ( प्रथम संध्या में ) नदिया में अवतरित हुए।
चैतन्य-सिंहेर नवद्वीपे अवतार । सिंह-ग्रीव, सिंह-वीर्य, सिंहेर हुङ्कार ॥
३०॥
इस प्रकार सिंहरूप भगवान् चैतन्य नवद्वीप में प्रकट हुए हैं। उनके कंधे सिंह जैसे हैं, उनकी शक्ति सिंह जैसी है और उनका उच्च स्वर सिंह जैसा है।
सेड़ सिंह वसुजीवेर हृदय-कन्दरे । कल्मष-द्विरद नाशे याँहार हुङ्कारे ॥
३१॥
वह सिंह प्रत्येक जीव के हृदय के भीतर आसीन हो। इस प्रकार वे अपनी गर्जना से मनुष्य के हाथी जैसे पापों को दूर करें।
प्रथम लीलाय ताँर 'विश्वम्भर' नाम । भक्ति-रसे भरिल, धरिल भूत-ग्राम ॥
३२॥
अपनी प्रारम्भिक लीलाओं में वे विश्वम्भर नाम से जाने जाते हैं, क्योंकि वे संसार को भक्तिरूपी अमृत से आप्लावित कर देते हैं और इस तरह जीवों का उद्धार करते हैं।
डुभृधातुर अर्थ-पोषण, धारण । पुषिल, धरिल प्रेम दिया त्रिभुवन ॥
३३॥
डुभृञ्” क्रिया-धातु ( जो विश्वम्भर शब्द की मूल है) पोषण तथा पालन की सूचक है। वे ( चैतन्य महाप्रभु) भगवत्प्रेम का वितरण करके लोकों का पालन-पोषण करते हैं।
शेष-लीलाये धरे नाम' श्री-कृष्ण-चैतन्य' ।श्रीकृष्ण जानाये सब विश्व कैल धन्य ॥
३४॥
अपनी अन्तिम लीलाओं में वे भगवान् श्रीकृष्ण चैतन्य के नाम से यात हैं। वे भगवान् श्रीकृष्ण के नाम तथा महिमा के बारे में शिक्षा ' जर सारे संसार को आशीर्वाद प्रदान करते हैं।
ताँर झुगावतार जानि' गर्ग महाशय । कृष्णेर नाम-करणे करियाछे निर्णय ॥
३५॥
उनको ( चैतन्य को) कलियुग के लिए अवतार जानकर ही गर्गमुनि ने कृष्ण के नामकरण संस्कार के समय उनके आविर्भाव की । भविष्यवाणी की थी।
आसन्वर्णास्त्रयो ह्यस्य गृहृतोऽनु-युगं तनूः । शुक्लो रक्तस्तथा पीत इदानीं कृष्णतां गतः ॥
३६॥
जब यह बालक (कृष्ण) विभिन्न युगों में प्रकट होता है, तो उसके अन्य तीन रंग होते हैं-श्वेत, लाल तथा पीत। इस समय यह दिव्य श्याम (कृष्ण) रंग में प्रकट हुआ है।
शुक्ल, रक्त, पीत-वर्ण-एइ तिन द्युति ।। सत्य-त्रेता-कलि-काले धरेन श्री-पति ॥
३७॥
श्वेत, लाल तथा पीत-ये तीन शारीरिक कान्तियाँ हैं, जिन्हें लक्ष्मीदेवी के पति भगवान् क्रमशः सत्य, त्रेता तथा कलियुग में धारण करते हैं।
इदानीं द्वापरे तिंहो हैला कृष्ण-वर्ण ।एइ सब शास्त्रागम-पुराणेर मर्म ॥
३८॥
अब द्वापर युग में भगवान् श्याम रंग लेकर अवतरित हुए थे। इस दर्भ में पुराणों तथा अन्य वैदिक ग्रंथों के कथनों का यही सार है।
द्वापरे भगवान्श्यामः पीत-वासा निजायुधः ।।श्री-वत्सादिभिरकैश्च लक्षणैरुपलक्षितः ॥
३९॥
द्वापर युग में भगवान् कृष्ण वर्ण में प्रकट होते हैं। वे पीत वस्त्र पारण करते हैं, वे अपने आयुध ( हथियार) लिए रहते हैं तथा कौस्तुभ मणि एवं श्रीवत्स चिह्न से अलंकृत रहते हैं। उनके लक्षणों का ऐसा वर्णन किया गया है।
कलि-युगे युग-धर्म-नामेर प्रचार ।। तथि लागि' पीत-वर्ण चैतन्यावतार ॥
४० ॥
कलियुग की धार्मिक विधि यह है कि भगवान् के पवित्र नाम की । महिमाओं का प्रसार किया जाये। केवल इसी उद्देश्य से भगवान् पीत रंग लेकर श्री चैतन्य रूप में अवतरित हुए हैं।
तप्त-हेम-सम-कान्ति, प्रकाण्ड शरीर ।। नव-मेघ जिनि कण्ठ-ध्वनि ग्रे गम्भीर ॥
४१॥
उनके विस्तृत शरीर की कान्ति पिघले सोने के समान है। उनकी गम्भीर वाणी नये उमड़े बादलों की गर्जना को परास्त करने वाली है।
दैर्ध्व-विस्तारे येइ आपनार हात ।। चारि हस्त हय ‘महा-पुरुष' विख्यात ।। ४२।। जो व्यक्ति अपने हाथ से चार हाथ ऊँचा और इतना ही चौड़ा होता यह महापुरुष कहलाता है।
'न्यग्रोध-परिमण्डल' हय ताँर नाम ।न्यग्रोध-परिमण्डल-तनु चैतन्य गुण-धाम ॥
४३॥
ऐसा व्यक्ति न्यग्रोध परिमण्डल कहलाता है। समस्त सद्गुणों के मूर्तिमन्त स्वरूप श्री चैतन्य महाप्रभु का शरीर न्यग्रोध परिमण्डल है।
आजानुलम्बित-भुज कमल-लोचन ।।तिलफुल-जिनि-नासा, सुधांशु-वदन ॥
४४॥
उनकी भुजाएँ इतनी लम्बी हैं कि वे उनके घुटनों तक पहुँचती हैं, उनकी आँखें कमल के फूलों के सदृश हैं, उनकी नासिका तिल के फूल और उनका मुखमंडल चन्द्रमा के समान सुन्दर है।
शान्त, दान्त, कृष्ण-भक्ति-निष्ठा-परायण ।भक्त-वत्सल, सुशील, सर्व-भूते सम ॥
४५ ॥
है शान्त, संयमित तथा भगवान् श्रीकृष्ण की दिव्य सेवा में निष्ठा गई। वे अपने भक्तों के प्रति स्नेहिल हैं, सुशील हैं और सारे जीवों समभाव रखने वाले हैं।
चन्दनेर अङ्गद-बाला, चन्दन-भूषण ।।नृत्य-काले परि' करेन कृष्ण-सङ्कीर्तन ॥
४६॥
वे चन्दन के बने कंगनों और बाजूबन्दों से विभूषित हैं और वे चन्दन नेप से मंडित हैं। वे श्रीकृष्ण-संकीर्तन में नृत्य करने के उद्देश्य से ही भाभूषण धारण करते हैं।
एई सब गुण ला मुनि वैशम्पायन ।सहस्र-नामे कैल ताँर नाम-गणन ॥
४७॥
श्री चैतन्य के इन सारे गुणों को लिपिबद्ध करते हुए मुनि वैशम्पायन । पह श्लोक महाभारत (दानधर्म, विष्णुसहस्रनाम स्तोत्र) से लिया गया है। ने विष्णुसहस्रनाम में उनका नाम सम्मिलित कर लिया है।
दुई लीला चैतन्येर–आदि आर शेष ।।दुइ लीलाय चारि चारि नाम विशेष ॥
४८॥
श्री चैतन्य की लीला के दो विभाग हैं-आदि लीला तथा शेष लीला। इन दोनों लीलाओं में उनके चार-चार नाम हैं।
सुवर्ण-वर्णो हेमाङ्गो वराङ्गश्चन्दनाङ्गदी ।।सन्यास-कृच्छमः शान्तो निष्ठा-शान्ति-परायणः ॥
४९॥
अपनी आदि लीला में वे सुनहरे अंग वाले गृहस्थ के रूप में प्रकट होते हैं। उनके अंग-प्रत्यंग सुन्दर तथा उनका चन्दन-लेपित शरीर पिघले सोने जैसा लगता है। शेष लीला में वे संन्यास ग्रहण करते हैं और वे समभाव वाले तथा शान्त रहते हैं। वे शान्ति तथा भक्ति के सर्वोच्च धामहैं, क्योंकि वे निर्विशेषवादी अभक्तों को चुप करा देते हैं।
व्यक्त करि' भागवते कहे बार बार ।। कलि-युगे धर्म-नाम-सङ्कीर्तन सार ॥
५०॥
श्रीमद्भागवत में यह बारम्बार स्पष्ट रूप से कहा गया है कि कलियुग में धर्म का सार कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करना है।
इति द्वापर उर्वीश स्तुवन्ति जगदीश्वरम् ।। नाना-तन्त्र-विधानेन कलावपि यथा शृणु ॥
५१॥
हे राजन्, इस प्रकार द्वापर युग में लोगों ने ब्रह्माण्ड के स्वामी की । पूजा की। वे कलियुग में भी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की पूजा शास्त्रोक्त विधियों से करते हैं। कृपा करके इसे मुझसे सुनें।
कृष्ण-वर्णं त्विषाकृष्णं साङ्गोपाङ्गास्त्र-पार्षदम् । यज्ञैः सङ्कीर्तन-प्रायैर्यजन्ति हि सु-मेधसः ॥
५२॥
कलियुग में बुद्धिमान व्यक्ति ईश्वर के उन अवतार की पूजा करने लिए सामूहिक कीर्तन करते हैं, जो कृष्ण-नाम का निरन्तर गान करते पयपि उनका शरीर श्यामवर्ण का नहीं है, किन्तु वे स्वयं कृष्ण हैं। के साथ उनके पार्षद, सेवक, आयुध तथा विश्वस्त संगी रहते हैं।
शुन, भाइ, एइ सब चैतन्य-महिमा । एइ श्लोके कहे ताँर महिमार सीमा ॥
५३॥
प्रिय भाइयों, कृपया चैतन्य महाप्रभु की इन सारी महिमाओं को सुनो। यह श्लोक स्पष्टतया उनके कार्यकलापों तथा लक्षणों का सार प्रस्तुत करता है।
'कृष्ण' एइ दुइ वर्ण सदा ग्राँर मुखे । अथवा, कृष्णके तिंहो वर्णे निज सुखे ॥
५४॥
‘कृष्' तथा 'ण' ये दो अक्षर सदैव उनके मुख में रहते हैं; अथवा, वे अत्यन्त हर्ष के साथ कृष्ण को निरन्तर वर्णन करते हैं।
कृष्ण-वर्ण-शब्देर अर्थ दुइ त प्रमाण ।।कृष्ण विनु ताँर मुखे नाहि आइसे आन ॥
५५॥
कृष्णवर्ण शब्द के ये ही दो अर्थ हैं। वस्तुतः कृष्ण के अतिरिक्त अन्य कुछ भी उनके मुख से नहीं निकलता।
केह ताँरै बले ग्रदि कृष्ण-वरण ।आर विशेषणे तार करे निवारण ॥
५६॥
यदि कोई उन्हें श्याम रंग (वर्ण) वाला कहने का प्रयास करता है, तो अगला विशेषण ( त्विषा अकृष्णम्) तुरन्त ही उसका निवारण करता है।
देह-कान्त्ये हय तेंहो अकृष्ण-वरण ।अकृष्ण-वरणे कहे पीत-वरेण ॥
५७॥
उनके शरीर की कान्ति निश्चित रूप से श्याम (कृष्ण) नहीं है। वे वाम नहीं हैं, इससे यह सूचित होता है कि उनका रंग पीला है।
कलौ ग्रं विद्वांसः स्फुटमभियजन्ते द्युति-भराद् ।अकृष्णाङ्गं कृष्णं मख-विधिभिरुत्कीर्तन-मयैः । उपास्यं च प्राहुर्घमखिल-चतुर्थाश्रम-जुषां।स देवश्चैतन्याकृतिरतितरां नः कृपयतु ॥
५८॥
कलियुग में पवित्र नाम के संकीर्तन-यज्ञ द्वारा विद्वान लोग उन भगवान् कृष्ण की पूजा करते हैं, जो श्रीमती राधारानी की भावनाओं के तीव्र वेग के कारण अब अकृष्ण हैं। वे उन परमहंसों के एकमात्र आराध्य देव हैं, जिन्होंने चतुर्थ आश्रम ( संन्यास) की सर्वोच्च अवस्था प्राप्त का ली है। ऐसे पूर्ण पुरुषोत्तम चैतन्य महाप्रभु हम पर अपनी अहैतुकी कृष्ण प्रदर्शित करें।
प्रत्यक्ष ताँहार तप्त-काञ्चनेर द्युति ।। याँहार छटाय नाशे अज्ञान-तमस्तति ॥
५९॥
उनके पिघले सोने जैसे चमकीले रंग को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है, जो अज्ञान के अंधकार को दूर करता है।
जीवेर कल्मष-तमो नाश करिबारे ।। अङ्ग-उपाङ्ग-नाम नाना अस्त्र धरे ॥
६०॥
जीवों का पापमय जीवन अज्ञान से उत्पन्न होता है। उस अज्ञान को नष्ट करने के लिए वे अनेक अस्त्र अपने साथ लाये हैं यथा उनके 'शरूपी पार्षद, उनके भक्त तथा उनका पवित्र नाम।
भक्तिर विरोधी कर्म-धर्म वा अधर्म । ताहारऽकल्मष' नाम, सेइ महा-तमः ॥
६१॥
। सबसे बड़े अज्ञानरूप वे धार्मिक या अधार्मिक कार्यकलाप हैं, जो भक्ति के विरोधी होते हैं। वे कल्मष अर्थात् पाप कहलाते हैं।
बाहु तुलि' हरि बलि' प्रेम-दृष्ट्ये चाय ।करिया कल्मष नाश प्रेमेते भासाय ॥
६२॥
अपनी भुजाएँ उठाकर, पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए और सबको न प्रेम से देखते हुए वे समस्त पापों को दूर कर देते हैं और भगवान् प्रेम से सबको आप्लावित कर देते हैं।
स्मितालोकः शोकं हरति जगतां यस्य परितोगिरां तु प्रारम्भः कुशल-पटली पल्लवयति । पदालम्भः कं वा प्रणयति न हि प्रेम-निवहं।स देवश्चैतन्याकृतिरतितरां नः कृपयतु ॥
६३॥
श्री चैतन्य के रूप में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हम पर अपनी अहैतुकी कृपा की वृष्टि करें। उनकी स्मितहास्य युक्त दृष्टि तुरन्त ही संसार के सारे शोकों को दूर कर देती है और उनकी वाणी शुभ भक्ति-लताओं को पल्लवित कर जीवन प्रदान करती है। उनके चरणकमलों की शरण लेने से तुरन्त ही दिव्य भगवत्प्रेम का उदय होता है।
श्री-अङ्ग, श्री-मुख ग्रेड करे दरशन ।। तार पाप-क्षय हेय, पाय प्रेम-धन ॥
६४॥
जो कोई भी उनके सुन्दर शरीर या सुन्दर मुख का दर्शन करता है, वह सारे पापों से मुक्त हो जाता है और भगवत्प्रेम रूपी सम्पत्ति को प्राप्त करता है।
अन्य अवतारे सब सैन्य-शस्त्र सङ्गे।। चैतन्य-कृष्णेर सैन्य अङ्ग-उपाङ्गे ॥
६५ ।। अन्य अवतारों में भगवान् सेना तथा अस्त्रों समेत अवतरित हुए, किन्तु इस अवतार में उनकी सेना उनके पूर्ण अंश तथा पार्षद हैं।
सदोपास्यः श्रीमान्धृत-मनुज-कायैः प्रणयितांवहद्भिर्गीर्वाणैर्गिरिश-परमेष्ठि-प्रभृतिभिः । स्व-भक्तेभ्यः शुद्धां निज-भजन-मुद्रामुपदिशन्स चैतन्यः किं मे पुनरपि दृशोर्यास्यति पदम् ॥
६६॥
भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु शिवजी तथा ब्रह्माजी समेत समस्त देवताओं के परम आराध्य देव हैं। ये देवता सामान्य मनुष्यों के वेश में उनके प्रति प्रेम प्रदर्शन करते हुए आये। वे अपने भक्तों को अपनी शुद्ध भक्ति का उपदेश देते हैं। क्या वे पुनः मेरे दृष्टिपथ पर विराजमान होंगे? आङ्गोपाङ्ग अस्त्र करे स्व-कार्य-साधन । ‘अङ्ग'-शब्देर अर्थ आर शुन दियो मन ॥
६७॥
उनके पूर्ण अंश तथा पार्षद अपना निजी विशेष कर्तव्य मानकर उनके अस्त्रों का कार्य करते हैं। कृपया मुझसे अङ्ग शब्द का दूसरा अर्थ सुनो।
‘अङ्ग'-शब्दे अंश कहे शास्त्र-परमाण। अङ्गेर अवयव उपाङ्ग'-व्याख्यान ॥
६८ ॥
प्रामाणिक शास्त्रों के प्रमाण के अनुसार शारीरिक अंग' भी अंश लाता है और अंग के अंश को उपांग कहते हैं।
नारायणस्त्वं न हि सर्व-देहिनाम्आत्मास्यधीशाखिल-लोक-साक्षी । नारायणोऽङ्गं नर-भू-जलायनात् ।तच्चापि सत्यं न तवैव माया ॥
६९ ॥
हे प्रभुओं के प्रभु! आप सारी सृष्टि के दृष्टा हैं। आप हर एक के परम प्रिय प्राण हैं। तो इसलिए क्या आप मेरे पिता नारायण नहीं हैं?'नारायण' मका सूचक है, जिसका निवास नर (गर्भोदकशायी विष्णु) से उत्पन्न जल में है और वे नारायण आपके पूर्ण अंश हैं। आपके सारे पूर्ण अंश दिव्य हैं। वे परम पूर्ण हैं और माया द्वारा सृजित नहीं हैं।
जल-शायी अन्तर्यामी ग्रेइ नारायण ।सेहो तोमार अंश, तुमि मूल नारायण ॥
७० ॥
हर एक के हृदय में विद्यमान रहने वाले नारायण तथा जल ( कारण, गर्भ तथा क्षीर) में रहने वाले नारायण आपके ही पूर्ण अंश हैं। अतएव आप मूल नारायण हैं।
‘अङ्ग'-शब्दे अंश कहे, सेहो सत्य हय ।।माया-कार्ड्स नहे---सब चिदानन्द-मय ॥
७१॥
‘अंग' शब्द निश्चय ही पूर्ण अंश का सूचक है। ऐसे प्राकट्यों को कभी भी भौतिक प्रकृति की उपज नहीं मानना चाहिए, क्योंकि वे सभी दिव्य, ज्ञान एवं आनन्द से पूर्ण हैं।
अद्वैत, नित्यानन्द–चैतन्येर दुइ अङ्ग ।।अङ्गेर अवयव-गण कहिये उपाङ्ग ॥
७२॥
श्री अद्वैत प्रभु और श्री नित्यानन्द प्रभु दोनों ही चैतन्य महाप्रभु के पूर्ण अंश हैं। इस प्रकार वे उनके शरीर के अंग हैं। इन दोनों अंगों के अंश उपांग कहलाते हैं।
अङ्गोपाङ्ग तीक्ष्ण अस्त्र प्रभुर सहिते ।।सेइ सब अस्त्र हय पाषण्ड दलिते ॥
७३॥
इस तरह भगवान् अपने अंगों तथा उपांगों रूपी तीक्ष्ण अस्त्रों से सुसज्जित हैं। ये सारे अस्त्र श्रद्धाविहीन नास्तिकों का दलन करने में सक्षम हैं।
नित्यानन्द गोसाञि साक्षात् हलधर । अद्वैत आचार्य गोसाञि साक्षातीश्वर ॥
७४॥
श्री नित्यानन्द गोसांई साक्षात् हलधर ( भगवान् बलराम) हैं और अति आचार्य साक्षात् ईश्वर हैं।
श्रीवासादि पारिषद सैन्य सङ्गे ला । दुइ सेनापति बुले कीर्तन करिया ॥
७५॥
ये दोनों सेनापति, श्रीवास ठाकुर जैसे अपने सैनिकों के साथ, पवित्र भगवन्नाम का कीर्तन करते हुए सर्वत्र विचरण करते हैं।
पाषण्ड-दलन-वाना नित्यानन्द राय ।। आचार्य-हुङ्कारे पाप-पाषण्डी पलाय ॥
७६ ॥
नित्यानन्द प्रभु के स्वरूप से ही सूचित होता है कि वे पाषण्डियों के दलनकर्ता हैं। अद्वैत आचार्य की ऊंची गर्जना से सारे पाप तथा सारे पाषण्डी भाग खड़े होते हैं।
सङ्कीर्तन-प्रवर्तक श्रीकृष्ण-चैतन्य । सङ्कीर्तन-यज्ञे ताँरै भजे, सेइ धन्य । ७७॥
भगवान् श्रीकृष्ण चैतन्य संकीर्तन ( भगवन्नाम के सामूहिक कीर्तन)के प्रवर्तक हैं। जो संकीर्तन के माध्यम से उनकी पूजा करता है, वह । भाग्यवान है।
सेइ त' सुमेधा, आर कुबुद्धि संसार ।सर्व-व्रज्ञ हैते कृष्ण-नाम-व्रज्ञ सार ॥
७८॥
ऐसा व्यक्ति सचमुच बुद्धिमान है, जबकि अन्य अल्पज्ञानी व्यक्तियों जन्म-मृत्यु के चक्र को भोगना पड़ता है। समस्त यज्ञों में भगवान् के नाम का कीर्तन सर्वश्रेष्ठ यज्ञ है।
कोटि अश्वमेध एक कृष्ण नाम सम ।येइ कहे, से पाषण्डी, दण्डे तारे ग्रम ॥
७९ ॥
जो व्यक्ति यह कहता है कि एक करोड़ अश्वमेध यज्ञ भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम के कीर्तन के तुल्य है, वह निश्चित रूप से नास्तिक है। उसे यमराज अवश्य दण्डित करते हैं।
भागवत-सन्दर्भ-ग्रन्थेर मङ्गलाचरणे ।। ए-श्लोक जीव-गोसाञि करियाछेन व्याख्याने ॥
८० ॥
भागवत-सन्दर्भ के मंगलाचरण में श्रील जीव गोस्वामी ने इसकी पाख्या में निम्नलिखित श्लोक दिया है।
अन्तः कृष्णं बहिर्गीरं दर्शिताङ्गादि-वैभवम् ।।कलौ सङ्कीर्तनाद्यैः स्म कृष्ण-चैतन्यमाश्रिताः ॥
८१॥
मैं भगवान् श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का आश्रय ग्रहण करता हूँ, जो बाहर से गौर वर्ण के हैं, किन्तु भीतर से स्वयं कृष्ण हैं। इस कलियुग में घे भगवान् के पवित्र नाम का संकीर्तन करके अपने विस्तारों अर्थात् अपने अंगों तथा उपांगों का प्रदर्शन करते हैं।
उप-पुराणेह शुनि श्री कृष्ण-वचन ।कृपा करि व्यास प्रति करियाछेन कथन ॥
८२॥
उपपुराणों में हम श्रीकृष्ण को व्यासदेव पर यह कहकर अपनी कृपा प्रदर्शित करते सुनते हैं।
अहमेव क्वचिद्बह्मन्सन्यासाश्रममाश्रितः । हरि-भक्तिं ग्राहयामि कलौ पाप-हतान्नरान् ॥
८३॥
हे विद्वान ब्राह्मण, कभी-कभी मैं कलियुग के पतित लोगों को भगवद्भक्ति के लिए प्रेरित करने हेतु संन्यास आश्रम ग्रहण करता हूँ।
भागवत, भारत-शास्त्र, आगम, पुराण । चैतन्य-कृष्ण-अवतारे प्रकट प्रमाण ॥
८४॥
श्रीमद्भागवत, महाभारत, पुराण तथा अन्य वैदिक साहित्य यह सिद्ध भरने के लिए प्रमाण देते हैं कि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कृष्ण के अवतार है।
प्रत्यक्षं देखह नाना प्रकट प्रभाव । अलौकिक कर्म, अलौकिक अनुभाव ॥
८५॥
कोई भी व्यक्ति भगवान् चैतन्य के प्रकट प्रभाव को उनके असाधारण कार्यों तथा असामान्य कृष्ण-भावानुभूति से भी प्रत्यक्ष देख सकता है।
त्वां शील-रूप-चरितैः परम-प्रकृष्टैः ।सत्त्वेन सात्त्विकतया प्रबलैश्च शास्त्रैः ।। प्रख्यात-दैव-परमार्थ-विदां मतैश्च । नैवासुर-प्रकृतयः प्रभवन्ति बोद्भुम् ॥
८७॥
प्रभु, जो लोग आसुरी वृत्तियों से प्रभावित हैं, वे आपकी अनुभूति कर सकते। यद्यपि आप अपने महान् कार्यो, रूपों, चरित्र तथा मान्य शक्ति के कारण स्पष्ट रूप से सर्वश्रेष्ठ हैं, जिनकी पुष्टि सभी क शास्त्रों और दिव्य प्रकृति वाले विख्यात अध्यात्मवादियों द्वारा होती है।
देखिया ना देखे व्रत अभक्तेर गण । उलूके ना देखे ग्रेन सूर्येर किरण ॥
८६॥
किन्तु श्रद्धाविहीन अभक्त लोग स्पष्ट दिखाई देने वाली वस्तु को भी । नहीं देखते, जिस तरह उल्लू सूर्य की किरणों को नहीं देखते।
आपना लुकाइते कृष्ण नाना ग्रन करे । तथापि ताँहार भक्त जानये ताँहारे ॥
८८॥
के भगवान् श्रीकृष्ण अपने आपको छिपाने का प्रयत्न अनेक प्रकार से रते हैं, फिर भी उनके भक्त उन्हें यथार्थ रूप में जान ही लेते हैं।
उल्लङ्घित-त्रिविध-सीम-समातिशायिसम्भावनं तव परिव्रढ़िम-स्वभावम् । माया-बलेन भवतापि निगुह्यमानंपश्यन्ति केचिदनिशं त्वदनन्य-भावाः ॥
८९॥
हे प्रभु, भौतिक प्रकृति के भीतर हर वस्तु काल, देश तथा विचार में सीमित है। फिर भी आपके गुण अद्वितीय तथा असीम होने से ऐसी सीमाओं से सदैव परे होते हैं। कभी-कभी आप इन गुणों को अपनी ही शक्ति से ढक लेते हैं, फिर भी आपके अनन्य भक्त हर परिस्थिति में आपका दर्शन पाने में समर्थ हैं।
असुर-स्वभावे कृष्णे कभु नाहि जाने ।लुकाइते नारे कृष्ण भक्त-जन-स्थाने ॥
९० ॥
। जो आसुरी स्वभाव के हैं, वे कभी भी कृष्ण को नहीं जान सकते, किन्तु कृष्ण अपने शुद्ध भक्तों से अपने आपको छिपा नहीं पाते।
द्वौ भूत-सर्गी लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च ।विष्णु-भक्तः स्मृतो दैव आसुरस्तद्विपर्ययः ॥
९१ ॥
इस भौतिक संसार में दो प्रकार के लोग होते हैं। एक तो वे जो आसुरी हैं और दूसरे वे जो दैवी हैं। भगवान् विष्णु के भक्त दैवी हैं, किन्तु जो इनके सर्वथा विपरीत हैं, वे असुर कहलाते हैं।
आचार्य गोसाजि प्रभुर भक्त-अवतार ।कृष्ण-अवतार-हेतु याँहार हुङ्कार ॥
९२॥
अद्वैत आचार्य गोस्वामी भक्त के रूप में भगवान् के अवतार हैं। मकी ऊँची गर्जना से ही कृष्ण अवतरित हुए थे।
कृष्ण यदि पृथिवीते करेन अवतार ।प्रथमे करेन गुरु-वर्गेर सञ्चार ॥
९३॥
जब भी श्रीकृष्ण इस धरा पर अवतरित होना चाहते हैं, तब सर्वप्रथम में अपने पूज्य गुरुवर्गों को अवतरित कराते हैं।
पिता माता गुरु आदि ग्रत मान्य-गण ।प्रथमे करेन सबार पृथिवीते जनम ॥
९४॥
इस प्रकार सर्वप्रथम पृथ्वी पर आदरणीय लोगों यथा उनके पिता, माता तथा गुरु का जन्म होता है।
माधव-ईश्वर-पुरी, शची, जगन्नाथ ।। अद्वैत आचार्य प्रकट हैली सेइ साथ ॥
९५ ।। माधवेन्द्र पुरी, ईश्वर पुरी, श्रीमती शचीमाता तथा श्रील जगन्नाथ मिश्र-ये सभी श्री अद्वैत आचार्य के साथ साथ प्रकट हुए।
प्रकटिया देखे आचार्य सकल संसार । कृष्ण-भक्ति गन्ध-हीन विषय-व्यवहार ॥
९६॥
अद्वैत आचार्य ने प्रकट होने के बाद देखा कि संसार श्रीकृष्ण की। भक्ति से विहीन है, क्योंकि लोग भौतिक व्यापारों में व्यस्त थे।
केह पापे, केह पुण्ये करे विषय-भोग ।।भक्ति-गन्ध नाहि, ग्राते ग्राय भव-रोग ॥
९७॥
। प्रत्येक व्यक्ति, चाहे पापवश हो या पुण्यवश, भौतिक भोग में लगा आ था। कोई भी भगवान् की दिव्य सेवा में रुचि नहीं रखता था, जिससे जन्म-मरण के चक्र से छुटकारा प्राप्त हो सकता है।
लोक-गति देखि' आचार्य करुण-हृदय ।। विचार करेन, लोकेर कैछे हित हय ॥
९८॥
संसार के कार्यकलापों को देखकर आचार्य को दया आई और वे विचार करने लगे कि वे जनता का हित किस तरह करें।
आपनि श्री कृष्ण यदि करेन अवतार ।।आपने आचरि' भक्ति करेन प्रचार ॥
९९॥
नुवाद (अद्वैत आचार्य ने सोचा :) यदि श्रीकृष्ण अवतार के रूप में प्रकट हों, तो वे स्वयं अपने व्यक्तिगत उदाहरण द्वारा भक्ति का प्रचार कर सकते है ।
नाम विनु कलि-काले धर्म नाहि आर।।कलि-काले कैछे हबे कृष्ण अवतार ॥
१०० ॥
इस कलियुग में भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन के अतिरिक्त अन्य कोई धर्म नहीं है, लेकिन इस युग में भगवान् किस तरह अवतार लेंगे? शुद्ध-भावे करिब कृष्णेर आराधन ।। निरन्तर सदैन्ये करिब निवेदन ॥
१०१॥
मैं शुद्ध मन से कृष्ण की पूजा करूंगा। मैं उनसे निरन्तर विनीत भाव से निवेदन करूंगा।
आनिया कृष्णेरे करों कीर्तन सञ्चार ।तबे से 'अद्वैत' नाम सफल आमार ॥
१०२॥
मेरा 'अद्वैत' नाम तभी सार्थक होगा, जब मैं कृष्ण को पवित्र नामकीर्तन आन्दोलन का प्रवर्तन करने के लिए प्रेरित कर सकेंगा।
कृष्ण वश करिबेन कोनाराधने ।विचारिते एक श्लोक आइल ताँर मने ॥
१०३ ॥
जब वे पूजा द्वारा कृष्ण को वश में करने के विषय में सोच रहे थे, तब उनके मन में निम्नलिखित श्लोक आया।
तुलसी-दल-मात्रेण जलस्य चुलुकेन वा ।।विक्रीणीते स्वमात्मानं भक्तेभ्यो भक्त-वत्सलः ॥
१०४॥
अपने भक्तों के प्रति अत्यन्त वत्सल श्रीकृष्ण अपने आपको उस भक्त के हाथ बेच देते हैं, जो उन्हें केवल तुलसीदल तथा एक अंजलिभर जल अर्पित करता है।
एई श्लोकार्थ आचार्य करेन विचारण । कृष्णके तुलसी-जल देय येइ जन ॥
१०५॥
तार ऋण शोधिते कृष्ण करेन चिन्तन-। ‘जल-तुलसीर सम किछु घरे नाहि धन' ॥
१०६॥
। अद्वैत आचार्य ने इस श्लोक के अर्थ पर इस प्रकार विचार किया : को कृष्ण को तुलसीदल तथा जल अर्पित करता है, उसके ऋण को काने की कोई विधि ने पाकर भगवान् कृष्ण सोचते हैं, ‘मेरे पास ऐसी कोई सम्पत्ति नहीं जो तुलसीदल तथा जल की समता कर सके।'
तबे आत्मा वेचि' करे ऋणेर शोधन ।एत भावि' आचार्य करेन आराधन ॥
१०७॥
इस प्रकार भगवान् अपने आपको भक्त के हाथ अर्पित करके अपना vण चुकाते हैं। इस तरह विचार करके आचार्य ने भगवान् की आराधना प्रारम्भ कर दी।
गङ्गा-जल, तुलसी-मञ्जरी अनुक्षण ।। कृष्ण-पाद-पद्म भावि' करे समर्पण ॥
१०८॥
श्रीकृष्ण के चरणकमलों का चिन्तन करते हुए उन्होंने गंगाजल में तुलसी मंजरियाँ मिलाकर निरन्तर अर्पित कीं।
कृष्णेर आह्वान करे करिया हुङ्कार ।। ए-मते कृष्णेरे कराइल अवतार ॥
१०९॥
उन्होंने जोर-जोर से श्रीकृष्ण से विनती की और इस तरह कृष्ण का तरित होना सम्भव हुआ।
चैतन्येर अवतारे एइ मुख्य हेतु ।।भक्तेर इच्छाय अवतरे धर्म-सेतु ॥
११०॥
अतएव श्री चैतन्य के अवतार का मुख्य कारण अद्वैत आचार्य की ड विनती है। धर्म के संरक्षक भगवान् अपने भक्त की इच्छा से प्रकट होते है । त्वं भक्ति-स्रोग-परिभावित-हृत्सरोजआस्से श्रुतेक्षित-पथो ननु नाथ पुंसाम् । ग्रद् ग्रद्धिया त उरुगाय विभावयन्तितत्तद्वपुः प्रणयसे सदनुग्रहाये ॥
१११॥
हे प्रभु, आप अपने शुद्ध भक्तों की दृष्टि तथा श्रुति में सदैव वास आप उनके कमल सदृश हृदयों में भी निवास करते हैं, जो भक्ति द्वारा निर्मल हो चुके होते हैं। हे भगवान्, आप उत्कृष्ट स्तुतियों से महिमान्वित होते हैं। आपके भक्त आपके जिन सनातन रूपों में आपका स्वागत करते हैं, उन रूपों में प्रकट होकर आप उन पर विशेष अनुग्रह करते हैं।
एइ श्लोकेर अर्थ कहि सक्षेपेर सार। भक्तेर इच्छाय कृष्णेर सर्व अवतार ॥
११२॥
इस श्लोक का भावार्थ यह है कि भगवान् अपने शुद्ध भक्तों की इच्छा से अपने असंख्य शाश्वत रूपों में प्रकट होते हैं। चतुर्थ श्लोकेर अर्थ हैल सुनिश्चिते । अवतीर्ण हैला गौर प्रेम प्रकाशिते ॥
११३॥
इस प्रकार मैंने चौथे श्लोक का अर्थ निश्चित कर दिया है। गौरांग महाप्रभु ईश्वर के अनन्य प्रेम का प्रचार करने के लिए अवतार के रूप में । प्रकट हुए।
श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश ।चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
११४॥
श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों में प्रार्थना करते हुए, सदैव उनकी कृपा की आकांक्षा से, मैं कृष्णदास उनके चरणचिह्नों का अनुसरण करते हुए श्री चैतन्य-चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।
अध्याय चार: श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रकट होने के गोपनीय कारण
श्री-चैतन्य-प्रसादेन तद्रूपस्य विनिर्णयम् । बालोऽपि कुरुते शास्त्रं दृष्ट्वा व्रज-विलासिनः ॥
१॥
भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा से एक मूर्ख बालक भी शास्त्रों की दृष्टि के अनुसार व्रज-लीलाओं के भोक्ता भगवान् कृष्ण के वास्तविक आप का पूर्ण वर्णन कर सकता है।
जय जय श्री-चैतन्य जय नित्यानन्द ।जयाद्वैत-चन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ॥
२॥
भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय भी अद्वैत आचार्य की जय हो! श्री चैतन्य महाप्रभु के समस्त भक्तों जो जय हो! चतुर्थ श्लोकेर अर्थ कैल विवरण ।।पञ्चम श्लोकेर अर्थ शुने भक्त-गण ॥
३॥
मैंने चतुर्थ श्लोक के अर्थ का वर्णन किया है। अब, हे भक्तों! कृपा । करके पाँचवे श्लोक की व्याख्या सुनो।
मूल-श्लोकेर अर्थ करिते प्रकाश ।अर्थ लागाइते आगे कहिये आभास ॥
४॥
मूल श्लोक की व्याख्या करने के लिए मैं पहले इसका अर्थ बताऊँगा।
चतुर्थ श्लोकेर अर्थ एइ कैल सार ।।प्रेम-नाम प्रचारिते एइ अवतार ॥
५॥
मैंने चतुर्थ श्लोक का सार रूपी अर्थ दे दिया है-यह अवतार ( श्री चैतन्य महाप्रभु) पवित्र नाम के कीर्तन का प्रचार करने तथा भगवत्प्रेम के प्रसार के लिए होता है।
सत्य एइ हेतु, किन्तु एहो बहिरङ्ग ।। आर एक हेतु, शुन, आछे अन्तरङ्ग ॥
६॥
। यद्यपि यह सच है, किन्तु यह तो भगवान् के अवतार का बाह्य कारण है । कृपा करके भगवान् के आविर्भाव का एक अन्य कारण-गुह्य - ज-भी सुनें।
पूर्वे ग्रेन पृथिवीर भार हरिबारे ।।कृष्ण अवतीर्ण हैला शास्त्रेते प्रचारे ॥
७॥
शास्त्र यही घोषणा करते हैं कि इसके पूर्व भगवान् कृष्ण पृथ्वी का पर उतारने के लिए अवतरित हुए थे।
स्वयं-भगवानेर कर्म नहे भार-हरण । स्थिति-कर्ता विष्णु करेन जगत्पालन ॥
८॥
किन्तु यह भार उतारना पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का कार्य नहीं है। पालनकर्ता भगवान् विष्णु ही ब्रह्माण्ड की रक्षा करते हैं।
किन्तु कृष्णेर येइ हय अवतार-काल ।भार-हरण-काल ताते हइल मिशाल ॥
९॥
किन्तु संसार का भार उतारने का काल कृष्ण के अवतार-काल के साथ मिश्रित हो गया।
पूर्ण भगवानवतरे ग्रेइ काले ।आर सब अवतार ताँते आसि' मिले ॥
१०॥
व पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् अवतरित होते हैं, तब भगवान् के अन्य अवतार उनमें आकर मिल जाते हैं।
नारायण, चतुयूंह, मत्स्याद्यवतार । ग्रुग-मन्वन्तरावतार, यत आछे आर ॥
११॥
सबे आसि' कृष्ण-अङ्गे हय अवतीर्ण । ऐछे अवतरे कृष्ण भगवान्पूर्ण ॥
१२॥
भगवान् नारायण, चार मूल विस्तार (वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध), मत्स्य तथा अन्य लीला अवतार, युगावतार तथा मन्वन्तर अवतार-तथा अन्य जितने सारे अवतार हैं-वे सभी कृष्ण के शरीर में अवतरित होते हैं। इस प्रकार पूर्ण भगवान्, साक्षात् श्रीकृष्ण प्रकट होते हैं।
अतएव विष्णु तखन कृष्णेर शरीरे ।विष्णु-द्वारे करे कृष्ण असुर-संहारे ॥
१३॥
अतएव उस समय भगवान् विष्णु भगवान् कृष्ण के शरीर में उपस्थित रहते हैं और भगवान् कृष्ण उनके माध्यम से असुरों का संहार करते हैं।
आनुषङ्ग-कर्म एइ असुर-मारण । ।लागि' अवतार, कहि से मूल कारण ॥
१४॥
इस प्रकार असुरों का संहार तो गौण कार्य होता है। अब मैं कृष्ण के अवतार का मुख्य कारण बतलाऊँगा।
प्रेम-रस-निर्वास करिते आस्वादन । राग-मार्ग भक्ति लोके करिते प्रचारण ॥
१५॥
रसिक-शेखर कृष्ण परम-करुण ।एइ दुइ हेतु हैते इच्छार उद्गम ॥
१६॥
अवतार लेने की भगवान् की इच्छा दो कारणों से उत्पन्न हुई थीगवत्प्रेम रस के माधुर्य का आस्वादन करना चाह रहे थे और वे संसार भक्ति का प्रसार रागानुगा ( स्वयंस्फूर्त ) अनुरक्ति के स्तर पर करना चाहते थे। इस तरह वे परम प्रफुल्लित ( रसिकशेखर) एवं परम तणामय नाम से विख्यात हैं।
ऐश्वर्य-ज्ञानेते सब जगत्मिश्रित ।।ऐश्वर्य-शिथिल-प्रेमे नाहि मोर प्रीत ॥
१७॥
( भगवान् कृष्ण ने सोचा :) सारा ब्रह्माण्ड मेरे ऐश्वर्य भाव से पूरित है, किन्तु उस ऐश्वर्य के भाव से दुर्बल हुआ प्रेम मुझे सन्तुष्ट नहीं करता।
आमारे ईश्वर माने, आपनाके हीन ।।तार प्रेमे वश आमि ना होइ अधीन ॥
१८॥
यदि कोई मुझे परमेश्वर समझता है और अपने आपको मेरे अधीन मानता है, तो मैं न तो उसके प्रेम के अधीन होता हूँ, न ही उसका प्रेम मुझे वश में कर सकता है।
आमाके त' ने ये भक्त भजे येइ भावे ।। तारे से से भावे भजि,-ए मोर स्वभावे ॥
१९॥
। मेरा भक्त जिस भी दिव्य रस में मेरी पूजा करता है, उसी भाव में मैं । के साथ आदान-प्रदान करता हूँ। यह मेरा सहज स्वभाव है।
ने ग्रथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।।मम वर्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥
२० ॥
मेरे भक्तजन जिस किसी रूप में मेरी शरण में आते हैं, मैं उन्हें उसी के अनुसार पुरस्कृत करता हूँ। हे पृथापुत्र, सारे लोग सभी प्रकार से मेरे पथ का अनुसरण करते हैं।'
मोर पुत्र, मोर सखा, मोर प्राण-पति ।। एइ-भावे ग्रेइ मोरे करे शुद्ध-भक्ति ॥
२१॥
आपनाके बड़ माने, आमारे सम-हीन ।सेई भावे हई आमि ताहार अधीन ॥
२२ ॥
यदि कोई मुझे अपना पुत्र, अपना मित्र या अपना प्रेमी मानकर और अपने आपको महान् एवं मुझको अपने समान या अपने से निम्न मानकर मेरी शुद्ध प्रेमाभक्ति करता है, तो मैं उसके अधीन हो जाता हूँ।
मयि भक्तिर्हि भूतानाममृतत्वाय कल्पते । दिया ग़दासीन्मत्स्नेहो भवतीनां मदापनः ॥
२३॥
। जीवों द्वारा मेरे प्रति की गई भक्ति उनके सनातन जीवन को पुनरुज्जीवित करती है। हे व्रजबालाओं, मेरे प्रति तुम्हारा स्नेह तुम्हारा सौभाग्य है, क्योंकि इसी एकमात्र साधन से तुम लोगों ने मेरा अनुग्रह प्राप्त किया है।'
माता मोरे पुत्र-भावे करेन बन्धन ।। अतिहीन-ज्ञाने करे लालन पालन ॥
२४॥
मेरी माता कभी-कभी अपने पुत्र के रूप में मुझे बाँध देती है। वह -- अत्यन्त असहाय समझकर मेरा लालन-पालन करती है।
सखा शुद्ध-सख्ये करे, स्कन्धे आरोहण ।। तुमि कोन्बड़ लोक,—तुमि आमि सम ॥
२५ ॥
मेरे मित्र शुद्ध मैत्री के कारण मेरे कन्धों पर यह कहते हुए चढ़ जाते कि, 'तुम किस तरह के बड़े व्यक्ति हो? तुम और हम समान हैं।'
प्रिया ग्रदि मान करि' करये भर्सन । वेद-स्तुति हैते हरे सेइ मोर मन ॥
२६॥
यदि मेरी प्रियतमा रूठकर मेरी भत्र्सना करती है, तो वह वेदों की पावन स्तुतियों से बढ़कर मेरे मन का हरण कर लेती है।
एइ शुद्ध-भक्त लञा करिमु अवतार ।करिब विविध-विध अद्भुत विहार ॥
२७॥
वैकुण्ठाद्ये नाहि ग्रे ये लीलार प्रचार ।। से से लीला करिब, ग्राते मोर चमत्कार ॥
२८॥
मैं इन शुद्ध भक्तों को अपने साथ लेकर अवतरित हूँगा और अनेक प्रकार की ऐसी अद्भुत क्रीड़ाएँ करूंगा, जो वैकुण्ठ में भी अज्ञात हैं। मैं ऐसी ऐसी लीलाओं का प्रसार करूँगा, जो स्वयं मुझे भी आश्चर्यचकित करने वाली होंगी।
मो-विषये गोपी-गणेर उपपति-भावे ।ग्रोग-माया करिबेक आपन-प्रभावे ॥
२९॥
योगमाया के प्रभाव से गोपियों में यह भाव प्रेरित होगा कि मैं उनका उपपति हूँ।
आमिह ना जानि ताहा, ना जाने गोपी-गण ।। मुँहार रूप-गुणे मुँहार नित्य हरे मन ॥
३०॥
इसे न तो गोपियाँ जान सकेंगी, न मैं, क्योंकि हमारे मन सदैव एकसरे के सौन्दर्य तथा गुणों पर मोहित रहेंगे।
धर्म छाड़ि' रागे मुँहे करये मिलन ।।कभु मिले, कभु ना मिले, दैवेर घटन ॥
३१॥
। शुद्ध अनुरक्ति हमें नैतिक तथा धार्मिक कर्तव्यों की कीमत पर भी मिलाएगी। भाग्य कभी हमें पास ला देगा, तो कभी हमें विलग कर देगा।
एंड सब रस-निर्यास करिब आस्वाद ।एई द्वारे करिब सब भक्तेरे प्रसाद ॥
३२॥
मैं इन सारे रसों के सार का आस्वादन करूँगा और इस तरह सारे भक्तों पर अनुग्रह करूंगा।
व्रजेर निर्मल राग शुनि' भक्त-गण ।राग-मार्गे भजे ग्रेन छाड़ि' धर्म-कर्म ॥
३३॥
तब व्रजवासियों के शुद्ध प्रेम के विषय में सुनकर भक्तगण समस्त । भार्मिक अनुष्ठानों एवं सकाम कर्मों को त्याग कर रागानुग प्रेम के मार्ग में मेरी पूजा करेंगे।
अनुग्रहाय भक्तानां मानुषं देहमाश्रितः । भजते तादृशीः क्रीड़ा ग्राः श्रुत्वा तत्परो भवेत् ॥
३४॥
। कृष्ण अपने भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए अपना सनातन नर रूप प्रकट करते हैं तथा अपनी लीलाएँ करते हैं। ऐसी लीलाएँ सुन लेने के बाद मनुष्य को उनकी सेवा में लग जाना चाहिए।
‘भवेत्' क्रिया विधिलिं, सेइ इहा कय । कर्तव्य अवश्य एई, अन्यथा प्रत्यवाय ॥
३५॥
यहाँ पर 'भवेत्' क्रिया अनिवार्यता के भाव में प्रयुक्त हुई है और यह हमें बतलाती है कि इसे अवश्य किया जाना चाहिए। इसकी अवहेलना का अर्थ होगा कर्तव्य का परित्याग।
एइ वाञ्छा ग्रैछे कृष्ण-प्राकट्य-कारण । असुर-संहार आनुषङ्ग प्रयोजन ॥
३६॥
एइ मत चैतन्य-कृष्ण पूर्ण भगवान् । ग्रुग-धर्म-प्रवर्तन नहे ताँर काम ॥
३७॥
जिस प्रकार ये इच्छाएँ श्रीकृष्ण के प्राकट्य की मूल कारण हैं और असुरों का वध मात्र प्रासंगिक आवश्यकता होती है, उसी प्रकार पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण चैतन्य द्वारा युगधर्म का प्रवर्तन प्रासंगिक है।
कोन कारणे ग्रबे हैल अवतारे मन ।।ग्रुग-धर्म-काल हैल से काले मिलन ॥
३८॥
जब भगवान् ने अन्य कारण से अवतरित होना चाहा, तो युगधर्म के बर्तन का भी समय आकर उपस्थित हुआ।
दुइ हेतु अवतरि' ला भक्त-गण । आपने आस्वादे प्रेम-नाम-सङ्कीर्तन ॥
३९॥
इस प्रकार भगवान् दो कारणों से अपने भक्तों के साथ अवतरित हुए और उन्होंने नाम संकीर्तन द्वारा प्रेमरूपी अमृत का आस्वादन किया।
सेइ द्वारे आचण्डाले कीर्तन सञ्चारे ।नाम-प्रेम-माला गाँथि' पराइल संसारे ॥
४०॥
। इस तरह उन्होंने अछूतों में भी कीर्तन का विस्तार किया। उन्होंने पवित्र नाम तथा प्रेम की माला गूंथकर सारे भौतिक संसार को पहना दी।
एइ-मते भक्त-भाव करि' अङ्गीकार ।।आपनि आचरि' भक्ति करिल प्रचार ॥
४१॥
इस प्रकार, भक्त का भाव धारण करके उन्होंने भक्ति का प्रचार किया और साथ में स्वयं उसका अभ्यास भी किया।
दास्य, सख्य, वात्सल्य, आर ये शृङ्गार ।।चारि प्रेम, चतुर्विध भक्त-इ आधार ॥
४२ ॥
बार प्रकार के भक्त भगवत्प्रेम के चार प्रकार के रसों के पात्र हैं। ये -दास्य, संख्य, वात्सल्य तथा श्रृंगार।
निज निज भाव सबे श्रेष्ठ करि' माने ।निज-भावे करे कृष्ण-सुख आस्वादने ॥
४३॥
। हर प्रकार का भक्त यह मानता है कि उसका भाव सर्वश्रेष्ठ है और इस प्रकार उस भाव में वह भगवान् कृष्ण के साथ परम सुख का आस्वादन परता है।
तटस्थ हइया मने विचार यदि करि । सब रस हैते शृङ्गारे अधिक माधुरी ॥
४४॥
। किन्तु यदि हम तटस्थ होकर इन भावों की तुलना करें, तो हम पायेंगे कि इनमें श्रृंगार रस ही अन्य सब मधुरताओं में सर्वश्रेष्ठ है।
ग्रथोत्तरमसौ स्वाद-विशेषोल्लासमय्यपि ।रतिर्वासनया स्वाद्वी भासते कापि कस्यचित् ॥
४५ ।। उल्लासमयी रति (प्रेम) विभिन्न स्वादों में, एक-दूसरे से बढ़कर, अनुभव की जाती है। किन्तु जिस रति का स्वाद क्रमशः उच्चतम होता है, वह माधुर्य-रस के रूप में प्रकट होती है।
अतएव मधुर रस कहि तार नाम । स्वकीया-परकीया-भावे द्वि-विध संस्थान ॥
४६॥
इसीलिए मैं इसे मधुर रस कहता हूँ। इसके भी दो विभाग हैं - कीया अर्थात् विवाहित तथा परकीया अर्थात् अविवाहित प्रेम।
परकीया-भावे अति रसेर उल्लास ।। व्रज विना इहार अन्यत्र नाहि वास ॥
४७॥
परकीया मधुर भाव में रस की अत्यधिक वृद्धि होती है। ऐसा प्रेम व्रज अतिरिक्त अन्यत्र कहीं नहीं मिलता।।
व्रज-वधू-गणेर एइ भाव निरवधि । तार मध्ये श्री-राधाय भावेर अवधि ॥
४८॥
यह भाव व्रजबालाओं में असीम है, किन्तु उनमें भी यह श्री राधा में अपनी पूर्णता को प्राप्त है।
प्रौढ़ निर्मल-भाव प्रेम सर्वोत्तम ।कृष्णेर माधुर्घ-रस-आस्वाद-कारण ॥
४९॥
उनका शुद्ध परिपक्व प्रेम अन्य सभी के प्रेम को पार कर जाता है। उनका प्रेम कृष्ण द्वारा माधुर्य रस की मधुरता का आस्वादन किये जाने का कारण है।
अतएव सेइ भाव अङ्गीकार करि' ।।साधिलेन निज वाञ्छा गौराङ्ग-श्री-हरि ॥
५०॥
इसलिए गौरांग महाप्रभु ने, जो साक्षात् श्री हरि हैं, राधा के भावों को स्वीकार किया और इस तरह अपनी निजी इच्छाओं की पूर्ति की।
सुरेशानां दुर्गं गतिरतिशयेनोपनिषदां मुनीनां सर्व-स्वं प्रणत-पटलीनां मधुरिमा ।। विनिर्यासः प्रेम्णो निखिल-पशु-पालाम्बुज-दृशांस चैतन्यः किं मे पुनरपि दृशोर्यास्यति पदम् ॥
५१॥
भगवान् चैतन्य देवताओं के आश्रय, उपनिषदों के लक्ष्य, समस्त मुनियों के सर्वस्व, अपने भक्तों के सुन्दर आश्रय एवं कमल-नयनी गोपियों के प्रेम के सार हैं। क्या वे फिर से मुझे दिख सकेंगे? अपारं कस्यापि प्रणयि-जन-वृन्दस्य कुतुकीरस-स्तोमं हृत्वा मधुरमुपभोक्तुं कमपि यः ।। रुचं स्वामावत्रे द्युतिमिह तदीयां प्रकटयन् ।स देवश्चैतन्याकृतिरतितरां नः कृपयतु ॥
५२॥
भगवान् कृष्ण ने अपनी असंख्य प्रेमिकाओं में से एक ( श्री राधा) ५ असीम अमृतमय प्रेम-रस का आस्वादन करना चाहा, अतएव उन्होंने तन्य महाप्रभु का स्वरूप धारण किया है। उन्होंने अपने कृष्ण-वर्ण को पाकर उनका ( श्री राधा का) तेजमय पीत ( गौर) वर्ण धारण कर उस म का आस्वादन किया है। वे भगवान् चैतन्य हमें अपना अनुग्रह प्रदान करे । भाव-ग्रहणेर हेतु कैल धर्म-स्थापन । तार मुख्य हेतु कहि, शुन सर्व-जन ॥
५३॥
उल्लासमय प्रेम स्वीकार करना मुख्य कारण है, जिसके लिए। प्रकट हुए और उन्होंने इस युग के लिए धर्म की पुनः स्थापना की। । मैं उस कारण की व्याख्या करूंगा। कृपया हर कोई सुने।।
मूल हेतु आगे श्लोकेर कैल आभास । एबे कहि सेइ श्लोकेर अर्थ प्रकाश ॥
५४॥
उस श्लोक के विषय में संकेत करने के बाद, जिसमें भगवान् के अवतार लेने के प्रमुख कारण का वर्णन हुआ है, अब मैं उसका पूर्ण अर्थ प्रकट करूंगा।
राधा कृष्ण-प्रणय-विकृतिह्णदिनी शक्तिरस्माद् ।एकात्मानावपि भुवि पुरा देह-भेदं गतौ तौ । चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्वयं चैक्यमाप्तं ।राधा-भाव-द्युति-सुवलितं नौमि कृष्ण-स्वरूपम् ॥
५५॥
। श्री राधा और कृष्ण के प्रेम-व्यापार भगवान् की अन्तरंगा ह्लादिनी की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं। यद्यपि राधा तथा कृष्ण अपने स्वरूपों है, किन्तु उन्होंने अपने आपको शाश्वत रूप से पृथक् कर लिया ये दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में संयुक्त हुए नको नमस्कार करता हूँ, क्योंकि वे स्वयं कृष्ण होकर भी श्रीमती रानी के भाव तथा अंगकान्ति को लेकर प्रकट हुए हैं।
राधा-कृष्ण एक आत्मा, दुइ देह धरि' ।। अन्योन्ये विलसे रस आस्वादन करि' ॥
५६॥
राधा तथा कृष्ण एक ही हैं, किन्तु उन्होंने दो शरीर धारण कर रखे स प्रकार वे प्रेम-रस का आस्वादन करते हुए एक-दूसरे का उपभोग करते हैं।
सेइ दुइ एक एबे चैतन्य गोसाजि ।।रस आस्वादिते दोंहे हैला एक-ठाङि॥
५७॥
अब वे रसास्वादन हेतु श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में एक शरीर में कट हुए हैं।
इथि लागि' आगे करि तार विवरण ।ग्राहा हैते हय गौरेर महिमा-कथन ॥
५८॥
अतएव मैं सर्वप्रथम राधा तथा कृष्ण की स्थिति स्पष्ट करूंगा। उसी र्णन के द्वारा भगवान् चैतन्य की महिमा जानी जा सकेगी।
राधिका हयेन कृष्णेर प्रणय-विकार ।।स्वरूप-शक्ति--‘ह्लादिनी' नाम याँहार ॥
५९॥
श्रीमती राधिका कृष्णप्रेम की रूपान्तर हैं। वे ह्लादिनी नामक उनकी अन्तरंगा शक्ति हैं।
ह्लादिनी कराय कृष्णे आनन्दास्वादन ।ह्लादिनीर द्वारा करे भक्तेर पोषण ॥
६०॥
यह ह्लादिनी शक्ति कृष्ण को आनन्द देती है और उनके भक्तों का पोषण करती है।
सच्चिदानन्द, पूर्ण, कृष्णेर स्वरूप । एक-इ चिच्छक्ति ताँर धरे तिन रूप ॥
६१॥
भगवान् कृष्ण का शरीर शाश्वत ( सत्), ज्ञानमय ( चित्) तथा आनन्द से पूर्ण ( आनन्द) है। उनकी एक ही आध्यात्मिक शक्ति तीन रूपों में प्रकट होती है।
आनन्दांशे ह्लादिनी, सदंशे सन्धिनी ।।चिदंशे सम्वित्यारे ज्ञान करि' मानि ॥
६२॥
ह्लादिनी उनके आनन्द का पक्ष है, सन्धिनी उनके नित्य अस्तित्व का और सम्वित चित् अंश का पक्ष है, जिसे ज्ञान के रूप में भी स्वीकार किया जाता है।
ह्लादिनी सन्धिनी सम्वित्त्वय्येका सर्व-संस्थितौ ।।ह्लाद-ताप-करी मिश्रा त्वयि नो गुण-वर्जिते ॥
६३ ॥
हे प्रभु, आप सबके आश्रय हैं। ह्लादिनी, सन्धिनी तथा सम्वित्ये तीनों आप में एक ही आध्यात्मिक शक्ति के रूप में रहती हैं। किन्तु सुख, दुःख तथा इन दोनों के मिश्रण को उत्पन्न करने वाले भौतिक गुण आप में नहीं पाये जाते, क्योंकि आप में भौतिक गुण नहीं होते।
सन्धिनीर सार अंश—'शुद्ध-सत्त्व' नाम ।भगवानेर सत्ता हय ग्राहाते विश्राम ॥
६४॥
सन्धिनी शक्ति का सार अंश शुद्ध सत्त्व है। भगवान् कृष्ण का अस्तित्व इसी पर निर्भर है।
माता, पिता, स्थान, गृह, शय्यासन और ।।ए-सब कृष्णेर शुद्ध-सत्त्वेर विकार ॥
६५॥
कृष्ण के माता, पिता, धाम, गृह, शय्या, आसन इत्यादि सभी शुद्ध सत्त्व के रूपान्तर हैं।
सत्त्वं विशुद्धं वसुदेव-शब्दितं ग्रदीयते तत्र पुमानपावृतः । सत्त्वे च तस्मिन्भगवान्वासुदेवोह्यधोक्षजो मे मनसा विधीयते ॥
६६ ॥
शुद्ध सत्त्व की दशा, जिसमें पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् किसी भी आवरण के बिना प्रकट होते हैं, वसुदेव कहलाती है। उस शुद्ध अवस्था में, भौतिक इन्द्रियों से परे और वासुदेव कहलाने वाले भगवान् मेरे मन । में अनुभूत होते हैं।
कृष्णे भगवत्ता-ज्ञान संवितेर सार । ब्रह्म-ज्ञानादिक सब तार परिवार ॥
६७॥
सम्वित् शक्ति का सार यह ज्ञान है कि श्रीकृष्ण पूर्ण पुरुषोत्तम । भगवान् हैं। अन्य सारे ज्ञान, यथा ब्रह्मज्ञान, इसके अवयव हैं।
ह्लादिनीर सार 'प्रेम', प्रेम-सार 'भाव' ।भावेर परम-काष्ठा, नाम-महा-भाव' ॥
६८ ॥
ह्रादिनी शक्ति का सार भगवत्प्रेम है, भगवत्प्रेम का सार भाव है और भाष का चरम विकास महाभाव है।
महाभाव-स्वरूपा श्री-राधा-ठाकुराणी ।।सर्व-गुण-खनि कृष्ण-कान्ता-शिरोमणि ॥
६९॥
श्री राधा ठाकुराणी महाभाव की मूर्त रूप हैं। वे समस्त सद्गुणों की खान हैं और भगवान् कृष्ण की सारी प्रियतमाओं में शिरोमणि हैं।
तयोरप्युभयोर्मध्ये राधिका सर्वथाधिका ।।महाभाव-स्वरूपेयं गुणैरतिवरीयसी ॥
७० ॥
इन दो गोपियों ( राधारानी तथा चन्द्रावली) में श्रीमती राधारानी भी प्रकार से श्रेष्ठ हैं। वे महाभाव की मूर्तिमन्त स्वरूप हैं और सद्गुणों सर्वोपरि हैं।
कृष्ण-प्रेम-भावित याँर चित्तेन्द्रिय-काय ।कृष्ण-निज-शक्ति राधा क्रीड़ार सहाय ॥
७१॥
। उनका मन, इन्द्रियाँ तथा शरीर कृष्ण-प्रेम में रँगे हुए हैं। वे कृष्ण की 'निजी शक्ति हैं और वे उनकी लीलाओं में उनकी सहायता करती हैं।
आनन्द-चिन्मय-रस-प्रतिभाविताभिस्ताभिर्य एव निज-रूपतया कलाभिः । गोलोक एव निवसत्यखिलात्म-भूतोगोविन्दमादि-पुरुषं तमहं भजामि ॥
७२॥
। मैं उन आदि भगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ, जो अपने निजी धाम गोलोक में अपने ही आध्यात्मिक स्वरूप के सदृश एवं ह्लादिनी शक्ति के मूर्तिमन्त स्वरूप राधा के साथ निवास करते हैं। उनकी संगिनियाँ उनकी वे विश्वस्त सखियाँ हैं, जो उनके शारीरिक स्वरूप की विस्तार हैं। और नित्य आनन्दमय आध्यात्मिक रस से ओतप्रोत हैं।
कृष्णेरे कराय ग्रैछे रस आस्वादन ।क्रीड़ार सहाय ग्रैछे, शुन विवरण ॥
७३॥
अब कृपा करके सुनिये कि किस तरह कृष्ण की प्रियतमाएँ उन्हें रस फा आस्वादन कराने में तथा उनकी लीलाओं में सहायक बनती हैं।
कृष्ण-कान्ता-गण देखि त्रि-विध प्रकार । एक लक्ष्मी-गण, पुरे महिषी-गण आर ॥
७४॥
व्रजाङ्गना-रूप, आर कान्ता-गण-सार ।।श्री-राधिका हैते कान्ता-गणेर विस्तार ॥
७५ ॥
भगवान् कृष्ण की प्रिय प्रेमिकाएँ तीन प्रकार की हैं-लक्ष्मियाँ, रानियाँ तथा व्रज की गोपिकाएँ। गोपिकाएँ इन तीनों में सर्वोपरि है। सारी प्रेमिकाएँ राधिका की विस्तार हैं।
अवतारी कृष्ण त्रैछे करे अवतार ।अंशिनी राधा हैते तिन गणेर विस्तार ॥
७६ ॥
जिस प्रकार स्रोत-रूप भगवान् कृष्ण सारे अवतारों के कारण उसी प्रकार श्री राधा इन समस्त प्रेमिकाओं की कारण हैं।
वैभव-गण ग्रेन ताँर अङ्ग-विभूति ।।बिम्ब-प्रतिबिम्ब-रूप महिषीर तति ॥
७७॥
लक्ष्मियाँ श्रीमती राधिका की आंशिक अभिव्यक्तियाँ हैं और रानि उनके रूप की प्रतिबिम्ब हैं।
लक्ष्मी-गण ताँर वैभव-विलासांश-रूप । महिषी-गण वैभव-प्रकाश-स्वरूप ॥
७८ ॥
लक्ष्मियाँ उनकी पूर्ण अंश हैं और वे वैभवविलास रूपों को प्रदर्शित रानियाँ उनके वैभव प्रकाश की रूप हैं।
आकार स्वभाव-भेदे व्रज-देवी-गण ।काय-व्यूह-रूप ताँर रसेर कारण ॥
७९ ॥
व्रजदेवियों के विविध शारीरिक स्वरूप होते हैं। वे उनकी ( श्रीमती नी की) विस्तार हैं और रस का पोषण करने में सहायक हैं।
बहु कान्ता विना नहे रसेर उल्लास ।।लीलार सहाय लागि' बहुत प्रकाश ॥
८०॥
। अनेक प्रेमिकाओं के बिना रस में ऐसा उल्लास नहीं रहता। अतएव न की लीलाओं में सहायता करने के लिए श्रीमती राधारानी के विस्तार हैं।
तार मध्ये व्रजे नाना भाव-रस-भेदे ।। कृष्णके कराय रासादिक-लीलास्वादे ॥
८१॥
इन में व्रज की प्रेमिकाओं के कई समूह हैं, जिनके नाना प्रकार के भाव तथा रस हैं। वे कृष्ण को रासनृत्य तथा अन्य लीलाओं की सारी माधुरी का आस्वादन कराने में सहायक होती हैं।
गोविन्दानन्दिनी राधा, गोविन्द-मोहिनी ।।गोविन्द सर्वस्व, सर्व-कान्ता-शिरोमणि ॥
८२ ॥
। श्री राधा गोविन्द को आनन्द देने वाली हैं और वे गोविन्द को मोहने बाली भी हैं। वे गोविन्द की सर्वस्व हैं और उनकी समस्त प्रेयसियों में शिरोमणि हैं।
देवी कृष्ण-मयी प्रोक्ता राधिका पर-देवता ।सर्व-लक्ष्मी-मयी सर्व-कान्तिः सम्मोहिनी परा ॥
८३ ॥
दिव्य देवी श्रीमती राधारानी भगवान् श्रीकृष्ण की प्रत्यक्ष प्रतिस्प हैं। वे समस्त लक्ष्मियों में केन्द्रीय व्यक्तित्व हैं। वे सर्व-आकर्षक भगवान को आकर्षित करने के सारे आकर्षणों से युक्त हैं। वे भगवान् की आदि अन्तरंगा शक्ति हैं।
‘देवी' कहि द्योतमाना, परमा सुन्दरी ।।किम्वा, कृष्ण-पूजा-क्रीड़ार वसति नगरी ॥
८४॥
देवी का अर्थ है ज्योतिर्मयी तथा परम सुन्दरी। अथवा इसका अर्थ हो सकता है-“भगवान् कृष्ण की पूजा एवं उनकी प्रेम-क्रीड़ाओं की सुन्दर धाम।
कृष्ण-मयी—कृष्ण ग्रार भितरे बाहिरे । याँहा याँहा नेत्र पड़े ताँहा कृष्ण स्फुरे ॥
८५॥
कृष्णमयी का अर्थ है, जिसके भीतर तथा बाहर भगवान् कृष्ण वे जहाँ भी दृष्टिपात करती हैं, वहाँ कृष्ण को देखती हैं।
किम्वा, प्रेम-रस-मय कृष्णेर स्वरूप ।ताँर शक्ति ताँर सह हय एक-रूप ॥
८६॥
अथवा, कृष्णमयी' का अर्थ यह है कि वे भगवान् कृष्ण से अभिन्न हैं, क्योंकि वे प्रेम-रस की प्रतिमूर्ति हैं। भगवान् कृष्ण और उनकी शक्ति एक ही हैं।
कृष्ण-वाञ्छा-पूर्ति-रूप करे आराधने ।।अतएव 'राधिका' नाम पुराणे वाखाने ॥
८७॥
उनकी पूजा ( आराधना ) भगवान् कृष्ण की इच्छाएँ पूर्ण करना है। इसीलिए पुराणों में उन्हें राधिका कहा गया है।
अनयाराधितो नूनं भगवान्हरिरीश्वरः ।।ग्रन्नो विहाय गोविन्दः प्रीतो ग्रामनयद्रहः ॥
८८ ॥
उनके द्वारा भगवान् की सचमुच अच्छी पूजा की गई है, अतएव भगवान् गोविन्द ने प्रसन्न होकर हम सबको पीछे छोड़ दिया है और उन्हें एकान्त स्थान में ले गये हैं।
अतएव सर्व-पूज्या, परम-देवता ।।सर्व-पालिका, सर्व जगतेर माता ।। ८९॥
अतएव राधा परम देवता अर्थात् परम देवी, हैं और वे सबके लिए सनीय हैं। वे सबकी रक्षा करने वाली हैं और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की माता हैं। ‘सर्व-लक्ष्मी'-शब्द पूर्वे करियाछि व्याख्यान ।सर्व-लक्ष्मी-गणेर तिंहो हन अधिष्ठान ।। ९० ॥
मैं सर्वलक्ष्मी का अर्थ पहले ही बतला चुका हूँ। राधा समस्त लक्ष्मियों की आदि स्रोत हैं।
किम्वा, ‘सर्व-लक्ष्मी' कृष्णेर षडू-विध ऐश्वर्य ।ताँर अधिष्ठात्री शक्ति–सर्व-शक्ति-वर्य ॥
९१॥
अथवा सर्वलक्ष्मी' शब्द यह बतलाता है कि वे श्रीकृष्ण के छह ऐश्वर्यों का पूर्णतया प्रतिनिधित्व करती हैं। अतएव वे भगवान् कृष्ण की सर्वोपरि शक्ति हैं।
सर्व-सौन्दर्य-कान्ति वैसये ग्राँहाते ।सर्व-लक्ष्मी-गणेर शोभा हेय याँहा हैते ॥
९२ ॥
सर्वकान्ति शब्द सूचित करता है कि उनके शरीर में समस्त सौन्दर्य तथा कान्ति का आश्रय है। सारी लक्ष्मियाँ उन्हीं से अपना सौन्दर्य प्राप्त करती हैं।
किम्वा ‘कान्ति'-शब्दे कृष्णेर सब इच्छा कहे ।कृष्णेर सकल वाञ्छा राधातेइ रहे ॥
९३॥
। कान्ति शब्द का यह भी अर्थ हो सकता है-भगवान् कृष्ण की सारी इच्छाएँ। भगवान् कृष्ण की सारी इच्छाएँ श्रीमती राधारानी में निहित हैं।
राधिका करेन कृष्णेर वाञ्छित पूरण ।।‘सर्व-कान्ति'-शब्देर एइ अर्थ विवरण ॥
९४॥
। श्रीमती राधिका भगवान् कृष्ण की सारी इच्छाएँ पूर्ण करती हैं। यही सर्वकान्ति शब्द का अर्थ है।
जगत्मोहन कृष्ण, ताँहार मोहिनी ।। अतएव समस्तेर परा ठाकुराणी ॥
९५ ॥
भगवान् कृष्ण जगत् को मोहित करते हैं, किन्तु श्री राधा उन्हें भी । मोहित करती हैं। अतएव वे सारी देवियों में सर्वश्रेष्ठ हैं।
राधा पूर्ण-शक्ति, कृष्ण–पूर्ण-शक्तिमान् । दुइ वस्तु भेद नाइ, शास्त्र-परमाण ॥
९६॥
श्री राधा पूर्ण शक्ति हैं और भगवान् कृष्ण पूर्ण शक्ति के स्वामी हैं। जैसाकि प्रामाणिक शास्त्रों का प्रमाण है, ये दोनों भिन्न नहीं हैं।
मृगमद, तार गन्ध-—भैछे अविच्छेद ।।अग्नि, ज्वालाते—प्रैछे कभु नाहि भेद ॥
९७॥
जिस तरह कस्तूरी तथा उसकी सुगन्ध एक-दूसरे से पृथक् नहीं होते। अथवा अग्नि और उसकी ऊष्मा अभिन्न हैं, उसी तरह वे ( राधा तथा कृष्ण) अभिन्न हैं।
राधा-कृष्ण ऐछे सदा एक-इ स्वरूप ।।लीला-रस आस्वादिते धरे दुइ-रूप ॥
९८॥
इस प्रकार राधा तथा कृष्ण एक हैं, फिर भी उन्होंने लीला-रस का आस्वादन करने के लिए दो रूप धारण कर रखे हैं।
प्रेम-भक्ति शिखाइते आपने अवतरि ।। राधा-भाव-कान्ति दुइ अङ्गीकार करि' ॥
९९॥
श्री-कृष्ण-चैतन्य-रूपे कैल अवतार ।एइ त' पञ्चम श्लोकेर अर्थ परचार ॥
१०० ॥
। प्रेमाभक्ति का प्रचार करने के लिए कृष्ण श्री राधा के भाव तथा घर्ण (कान्ति) को लेकर श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में प्रकट हुए। इस प्रकार मैंने पाँचवे श्लोक के अर्थ की व्याख्या की है।
षष्ठ श्लोकेर अर्थ करिते प्रकाश ।प्रथमे कहिये सेइ श्लोकेर आभास ॥
१०१॥
छठे श्लोक की व्याख्या करने के लिए सर्वप्रथम मैं इसके अर्थ का संकेत दूंगा।
अवतरि' प्रभु प्रचारिल सङ्कीर्तन ।एहो बाह्य हेतु, पूर्वे करियाछि सूचन ॥
१०२॥
। भगवान् संकीर्तन का प्रचार करने के लिए अवतरित हुए। यह बाह्य प्रयोजन है, जैसाकि मैं पहले ही इंगित कर चुका हूँ।
अवतारेर आर एक आछे मुख्य-बीज ।।रसिक-शेखर कृष्णेर सेइ कार्य निज ॥
१०३॥
भगवान् कृष्ण के अवतार का एक प्रमुख कारण है। यह प्रेमविनिमय के सर्वश्रेष्ठ भोक्ता के रूप में उनके अपने कार्यकलापों से उत्पन्न होता है।
अति गूढ़ हेतु सेइ त्रि-विध प्रकार।दामोदर-स्वरूप हैते ग्राहार प्रचार ॥
१०४॥
यह अत्यन्त गुह्य कारण तीन प्रकार का है। इसको स्वरूप दामोदर ने प्रकट किया है।
स्वरूप-गोसाजि—प्रभुर अति अन्तरङ्ग ।ताहाते जानेन प्रभुर ए-सब प्रसङ्ग ॥
१०५॥
स्वरूप गोसांई महाप्रभु के अत्यन्त अन्तरंग पार्षद हैं। अतएव वे इन प्रसंगों को भलीभाँति जानते हैं।
राधिकार भाव-मूर्ति प्रभुर अन्तर ।सेइ भावे सुख-दुःख उठे निरन्तर ॥
१०६॥
चैतन्य महाप्रभु का हृदय श्रीमती राधिका के भावों की मूर्ति है। इस प्रकार उसमें हर्ष तथा पीड़ा की भावनाएँ निरन्तर उठती रहती हैं।
शेष-लीलाय प्रभुर कृष्ण-विरह-उन्माद ।।भ्रम-मय चेष्टा, आर प्रलाप-मय वाद ॥
१०७॥
। अपनी लीलाओं के अन्तिम भाग में श्री चैतन्य महाप्रभु भगवान् कृष्ण के वियोग के उन्मादे से अभिभूत थे। वे भ्रान्तिपूर्ण कार्य बैठते थे और आन्तचित्त होकर प्रलाप करते थे।
राधिकार भाव ग्रैछे उद्धव-दर्शने ।।सेइ भावे मत्त प्रभु रहे रात्रि-दिने ॥
१०८ ॥
जिस प्रकार उद्धव को देखकर राधिका पागल सी हो गई थीं, उसी । तरह श्री चैतन्य महाप्रभु विरह के उन्माद से रात-दिन अभिभूत रहते थे।
रात्रे प्रलाप करे स्वरूपेर कण्ठ धरि'।आवेशे आपन भाव कहये उघाड़ि' ॥
१०९॥
रात में वे स्वरूप दामोदर के गले में अपनी बाँहें डालकर शोक में प्रलाप करते थे। वे आवेश में आकर अपने हृदय की बात कह देते थे।
ग्रबे ग्रेइ भाव उठे प्रभुर अन्तर ।। सेइ गीति-श्लोके सुख देन दामोदर ॥
११०॥
जब उनके हृदय में कोई विशेष भाव उठता था, तब स्वरूप दामोदर सी तरह का गीत गाकर या श्लोक सुनाकर उन्हें सन्तुष्ट करते थे।
एबे कार्य नाहि किछु ए-सब विचारे । आगे इहा विवरिब करिया विस्तारे ॥
१११॥
अभी इन लीलाओं का विश्लेषण करना आवश्यक नहीं है। मैं इन सबको आगे चलकर विस्तार से बतलाऊँगा।
पूर्वे व्रजे कृष्णेर त्रि-विध वयो-धर्म । कौमार, पौगण्ड, आर कैशोर अतिमर्म ॥
११२॥
। पूर्व में भगवान् कृष्ण ने व्रज में तीन अवस्थाओं-कौमार, पौगण तथा कैशोर-का प्रदर्शन किया। इनमें से उनकी किशोर अवस्था विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है।
वात्सल्य-आवेशे कैल कौमार सफल ।पौगण्ड सफल कैल ला सखावल ॥
११३॥
माता-पिता के स्नेह ने उनकी कौमार अवस्था ( बचपन ) को सफल बनाया। उनकी पौगण्ड अवस्था अपने मित्रों के साथ सफल बनी।
राधिकादि लञा कैल रासादि-विलास ।वाञ्छा भरि' आस्वादिल रसेर निर्यास ॥
११४॥
। युवावस्था ( किशोरावस्था ) में उन्होंने श्रीमती राधिका तथा अन्य गोपियों के साथ रासनृत्य आदि लीलाओं में अपनी इच्छापूर्ति करते हुए रस के सार का आस्वादन किया।
कैशोर-वयसे काम, जगत्सकल ।।रासादि-लीलाय तिन केरिल सफल ॥
११५॥
। अपनी किशोरावस्था में भगवान् कृष्ण ने अपनी तीनों अवस्थाओं वे सारे ब्रह्माण्ड को रासनृत्य जैसी माधुर्य-प्रेम की लीलाओं से सफल बनाया।
सोऽपि कैशोरक-वयो मानयन्मधुसूदनः ।रेमे स्त्री-रत्न-कूट-स्थः क्षपासु क्षपिताहितः ॥
११६॥
भगवान् मधुसूदन ने शरदकालीन रातों में रत्नसदृश गोपियों के मध्य लीलाओं में अपनी किशोरावस्था का आनन्द लिया। इस तरह उन्होंने जगत् के समस्त दुर्भाग्य को दूर किया।
वाचा सूचित-शर्वरी-रति-कला-प्रागल्भ्यया राधिकाव्रीड़ा-कुञ्चित-लोचनां विरचयन्नग्रे सखीनामसौ । तद्वक्षो-रुह-चित्र-केलि-मकरी-पाण्डित्य-पारं गतः कैशोरं सफली-करोति कलयन्कुञ्ज विहारं हरिः ॥
११७।। जब भगवान् कृष्ण ने श्रीमती राधारानी से विगत रात में उनके साथ रति-क्रीड़ा से सम्बन्धित शब्द उनकी सखियों के समक्ष कहे, तो लज्जा से उनकी आँखें बन्द हो गईं। उस समय उन्होंने उनके वक्षस्थल पर खिलवाड़ करते हुए मत्स्य के चित्र खींचने में चातुर्य की पराकाष्ठा का प्रदर्शन किया। इस तरह भगवान् हरि ने लताकुंज में राधा तथा उनकी सखियों के साथ लीलाएँ करके अपनी किशोरावस्था को सफल बनाया।
हरिरेष न चेदवातरिष्यन् मथुरायां मधुराक्षि राधिका च । अभविष्यदियं वृथा विसृष्टिर्मकराङ्कस्तु विशेषतस्तदात्र ॥
११८॥
। हे पौर्णमासी, यदि भगवान् हरि श्रीमती राधारानी सहित मथुरा में अवतरित न हुए होते, तो यह सारी सृष्टि और विशेषतया कामदेव, विफल हो गये होते।
एइ मत पूर्वे कृष्ण रसेर सदने । ग्रद्यपि करिल रस-निर्यास-चर्वण ॥
११९॥
तथापि नहिल तिन वाञ्छित पूरण ।।ताहा आस्वादिते ग्रदि करिल व्रतन ॥
१२०॥
यद्यपि समस्त रसों के आगार भगवान् कृष्ण ने इस तरह से पहले ही प्रेम-रस के सार का चर्वण किया था, तो भी वे तीन इच्छाओं को पूरी करने में असमर्थ थे, यद्यपि उन्होंने उनका आस्वादन करने का प्रयास किया था।
ताँहार प्रथम वाञ्छा करिये व्याख्यान । कृष्ण कहे,-'आमि हइ रसेर निदान ॥
१२१॥
सर्वप्रथम मैं उनकी पहली इच्छा की व्याख्या करूंगा। कृष्ण कहते हैं, “मैं सारे रसों का मूल कारण हूँ।
पूर्णानन्द-मय आमि चिन्मय पूर्ण-तत्त्व ।। राधिकार प्रेमे आमा कराय उन्मत्त ।। १२२ ।। मैं पूर्ण आध्यात्मिक सत्य हूँ और मैं पूर्ण आनन्द से युक्त हूँ, किन्तु श्रीमती राधारानी का प्रेम मुझे उन्मत्त कर देता है।
ना जानि राधार प्रेमे आछे कत बल ।ये बले आमारे करे सर्वदा विह्वल ॥
१२३॥
मैं राधा के प्रेम की उस शक्ति को नहीं जानता, जिससे वह मुझे बंदा विह्वल बनाती है।
राधिकार प्रेम–गुरु, आमि-शिष्य नट ।सदा आमा नाना नृत्ये नाचाय उद्भट ॥
१२४॥
राधिका का प्रेम मेरा गुरु है और मैं उसका नर्तक शिष्य हूँ। उसका प्रेम मुझे विविध प्रकार के अभिनवे नृत्य के लिए प्रेरित करता है।
कस्माद्वान्दे प्रिय-सखि हरेः पाद-मूलात्कुतोऽसौ ।कुण्डारण्ये किमिह कुरुते नृत्य-शिक्षा गुरुः कः ।। तं त्वन्मूर्तिः प्रति-तरु-लतं दिग्विदिक्षु स्फुरन्ती ।शैलूषीव भ्रमति परितो नर्तयन्ती स्व-पश्चात् ॥
१२५॥
हे प्यारी सखी वृन्दा, तुम कहाँ से आ रही हो? मैं श्री हरि के चरणों से आ रही हूँ। वे कहाँ हैं? वे राधाकुण्ड के तट पर स्थित वनप्रदेश में हैं। वे वहाँ क्या कर रहे हैं?वे नृत्य सीख रहे हैं। उनका गुरु कौन है?राधा, तुम्हारी मूर्ति उन्हें पीछे पीछे नचा रही है और स्वयं एक च। नर्तकी की तरह हर वृक्ष तथा हर लता में सभी दिशाओं में अपने आपको प्रकट कर रही है।
निज-प्रेमास्वादे मोर हय ये आह्लाद ।।ताहा ह'ते कोटि-गुण राधा-प्रेमास्वाद ॥
१२६॥
श्रीमती राधारानी के प्रति मेरे प्रेम के आस्वादन से मुझे जो भी मिलता है, उससे वह मेरी अपेक्षा करोड़ गुना अधिक प्रेम का न करती है।
आमि त्रैछे परस्पर विरुद्ध-धर्माश्रय ।राधा-प्रेम तैछे सदा विरुद्ध-धर्म-मय ॥
१२७॥
जिस प्रकार मैं समस्त परस्पर-विरोधी गुणों का आगार हूँ, उसी र राधा का प्रेम भी वैसे ही विरोधाभासों से सदैव पूर्ण रहता है।
राधा-प्रेमा विभु–ग्रार बाड़िते नाहि ठाजि ।तथापि से क्षणे क्षणे बाड़ये सदाइ ॥
१२८॥
राधा का प्रेम सर्वव्यापी है, उसमें विस्तार की कोई गुंजाईश नहीं है। भी वह निरन्तर बढ़ता रहता है।
ग्राहा वइ गुरु वस्तु नाहि सुनिश्चित ।तथापि गुरुर धर्म गौरव-वर्जित ॥
१२९॥
निश्चित रूप से उसके प्रेम से बढ़कर कुछ भी नहीं है। लेकिन उसका प्रेम गर्व से रहित है। यह उसकी महानता का सूचक है।
ग्राहा हैते सुनिर्मल द्वितीय नाहि आर।।तथापि सर्वदा वाम्य-वक्र-व्यवहार ॥
१३०॥
। उसके प्रेम से बढ़कर शुद्ध कुछ भी नहीं है। किन्तु उसका आचरण सदैव प्रतिकूल एवं वक्र रहता है।
विभुरपि कलयन्सदाभिवृद्धिगुरुरपि गौरव-चर्घया विहीनः । मुहुरुपचित-वक्रिमापि शुद्धोजयति मुर-द्विषि राधिकानुरागः ॥
१३१॥
मुर असुर के शत्रु कृष्ण के लिए राधा के प्रेम की जय हो! यद्यपि वह सर्वव्यापी है, किन्तु वह प्रतिक्षण बढ़ता जाता है। यद्यपि वह महत्त्वपूर्ण है, किन्तु वह गर्व से विहीन है। यद्यपि वह शुद्ध है, किन्तु सदैव कपट से भरा रहता है।
सेइ प्रेमार श्री-राधिका परम 'आश्रय' ।सेइ प्रेमार आमि हई केवल 'विषय' ॥
१३२॥
श्री राधिका उसी प्रेम की परम आश्रय हैं और मैं उसका एकमात्र विषय हूँ।
विषय-जातीय सुख आमार आस्वाद ।।आमा हैते कोटि-गुण आश्रयेर आह्लाद ॥
१३३॥
मैं उस आनन्द का आस्वादन करता हूँ, जो प्रेम के विषय के लिए सर्वथा उपयुक्त है। किन्तु उस प्रेम की आश्रय राधा का आनन्द करोड़ गुना अधिक है।
आश्रय-जातिय सुख पाइते मन धाय ।प्रत्ने आस्वादिते नारि, कि करि उपाय ॥
१३४॥
मेरा मन आश्रय द्वारा अनुभव किये जाने वाले आनन्द का आस्वादन करने के लिए दौड़ रहा है, किन्तु मैं सारे प्रयत्नों के बावजूद भी उसका आस्वादन नहीं कर सकता। मैं उसका आस्वादन कैसे करूँ? कभु यदि एइ प्रेमार हइये आश्रये ।तबे एइ प्रेमानन्देर अनुभव हय ॥
१३५॥
। यदि कभी मैं उस प्रेम का आश्रय बन पाऊँ, तभी मैं उस आनन्द का आस्वादन कर सकता हूँ।
एत चिन्ति' रहे कृष्ण परम-कौतुकी । हृदये बाड़ये प्रेम-लोभ धक्धकि ॥
१३६॥
इस प्रकार से सोचते हुए भगवान् कृष्ण उस प्रेम का आस्वादन करने के लिए उत्सुक थे। उस प्रेम का आस्वादन करने की उत्कट इच्छा उनके हृदय में अग्नि के समान प्रज्वलित होने लगी।
एइ एक, शुन आर लोभेर प्रकार । स्व-माधुर्घ देखि' कृष्ण करेन विचार ॥
१३७॥
यह एक इच्छा है। अब कृपया दूसरी इच्छा के बारे में सुनें। अपना खुद का सौन्दर्य देखकर भगवान् कृष्ण विचार करने लगे।
अद्भुत, अनन्त, पूर्ण मोर मधुरिमा । त्रि-जगते इहार केह नाहि पाय सीमा ॥
१३८॥
मेरी माधुरी अद्भुत, अनन्त एवं पूर्ण है। तीनों लोकों में कोई इसकी सीमा नहीं पा सकता।
एइ प्रेम-द्वारे नित्य राधिका एकलि ।।आमार माधुर्यामृत आस्वादे सकलि ॥
१३९॥
केवल राधिका अपने प्रेम-बल से मेरी माधुरी के सारे अमृत का आस्वादन करती है।
यद्यपि निर्मल राधार सत्प्रेम-दर्पण ।तथापि स्वच्छता तार बाढ़े क्षणे क्षण ॥
१४० ॥
यद्यपि राधा का प्रेम दर्पण की तरह स्वच्छ है, किन्तु इसकी स्वच्छता । प्रतिक्षण बढ़ती जाती है।
आमार माधुर्य नाहि बाढ़िते अवकाशे ।।ए-दर्पणेर आगे नव नवे रूपे भासे ॥
१४१॥
मेरे माधुर्य में विस्तार की सम्भावना नहीं है, किन्तु उस दर्पण के समक्ष यह नित्य-नवीन सौन्दर्य के साथ चमकता है।
मन्माधुर्य राधार प्रेम–दोंहे होड़ करि' ।।क्षणे क्षणे बाड़े दोहे, केह नाहि हारि ॥
१४२॥
मेरे माधुर्य एवं राधा के प्रेम-रूपी दर्पण के बीच निरन्तर स्पर्धा चलती रहती है। वे दोनों बढ़ते जाते हैं, किन्तु उनमें से कोई हारना नहीं जानता।
आमार माधुर्य नित्य नव नव हय ।स्व-स्व-प्रेम-अनुरूप भक्ते आस्वादय ॥
१४३॥
मेरा माधुर्य दिन-प्रतिदिन नवीन होता रहता है। भक्तगण अपने अपने प्रेम के अनुसार उसका आस्वादन करते हैं।
दर्पणाद्ये देखि' यदि आपने माधुरी ।।आस्वादिते हय लोभ, आस्वादिते नारि ॥
१४४॥
यदि मैं अपने माधुर्य को दर्पण में देखता हूँ, तो उसका आस्वादन करने को मन करता है, किन्तु फिर भी मैं ऐसा नहीं कर सकता।
विचार करिये प्रदि आस्वाद-उपाय ।राधिका-स्वरूप हइते तबे मन धाय ॥
१४५॥
यदि मैं उसका आस्वादन करने का उपाय सोचता हूँ, तो मैं राधिका के पद के लिए लालायित जान पड़ता हूँ।
अपरिकलित-पूर्वः कश्चमत्कार-कारी स्फुरति मम गरीयानेष माधुर्य-पूरः ।। अयमहमपि हन्त प्रेक्ष्य यं लुब्ध-चेताः।सरभसमुपभोक्तुं कामये राधिकेव ॥
१४६॥
वह कौन है, जो मुझसे भी अधिक माधुर्य की प्रचुरता को प्रकट कर रहा है, जिसका इसके पूर्व कभी अनुभव नहीं किया गया और जो सबको आश्चर्य में डाल रहा है? हाय! मेरा मन इस सौन्दर्य को देखकर मोहग्रस्त हो गया है और मैं स्वयं तीव्रता से श्रीमती राधारानी की भाँति इसका उपभोग करना चाहता हूँ।
कृष्ण-माधुर्मेर एक स्वाभाविक बल ।।कृष्ण-आदि नर-नारी करये चञ्चल ॥
१४७॥
कृष्ण के सौन्दर्य में एक स्वाभाविक शक्ति है-यह स्वयं कृष्ण समेत सारे नर-नारियों के हृदयों को पुलकित कर देता है।
श्रवणे, दर्शने आकर्षये सर्व-मन ।। आपना आस्वादिते कृष्ण करेन व्रतन ॥
१४८॥
उनकी मधुर वाणी तथा बाँसुरी को सुनकर या उनके सौन्दर्य को देखकर सबके मन आकृष्ट हो जाते हैं। यहाँ तक कि स्वयं भगवान् कृष्ण भी उस माधुर्य का आस्वादन करने के लिए प्रयत्नशील होते हैं।
ए माधुर्यामृत पान सदा ग्रेड करे । तृष्णा-शान्ति नहे, तृष्णा बाढ़े निरन्तरे ॥
१४९॥
जो व्यक्ति उस माधुरी के अमृत का निरन्तर पान करता है, उसकी तृष्णा ( प्यास) कभी नहीं बुझती। बल्कि वह निरन्तर बढ़ती जाती है।
अतृप्त हइया करे विधिर निन्दन । अविदग्ध विधि भाल ना जाने सृजन ॥
१५०॥
ऐसा व्यक्ति अतृप्त होने के कारण ब्रह्माजी की निन्दा यह कहकर करने लगता है कि उन्हें ठीक से सृजन कला नहीं आती, अपितु वे निपट अनुभवहीन हैं।
कोटि नेत्र नाहि दिल, सबे दिल दुई ।।ताहाते निमेष, कृष्ण कि देखिबे मुजि ॥
१५१॥
। (गोपियों ने कहा :) हे कृष्ण! जब आप दिन में वन में चले जाते हैं, और हम आपके सुन्दर धुंघराले बालों से घिरे मधुर मुखमंडल को नहीं खतीं, तो हमारे लिए आधा क्षण भी एक युग के समान बन जाता है। ब हम उस स्रष्टा को निरा मूर्ख मानती हैं, जिसने हमारी उन आँखों के पर पलकें बना दी हैं, जिनसे हम आपको देखती हैं।
अटति यद्भवानह्नि काननं । त्रुटिगायते त्वामपश्यताम् । कुटिल-कुन्तलं श्री-मुखं च ते ।जड़ उदीक्षतां पक्ष्म-कृशाम् ॥
१५२॥
उन्होंने कृष्ण का सौन्दर्य देखने के लिए करोड़ों आँखें क्यों नहीं दीं। उन्होंने केवल दो आँखें दी हैं और वे भी पलक झपकती रहती हैं। तो भला मैं कृष्ण के सुन्दर मुख को कैसे देख सकेंगी? गोप्यश्च कृष्णमुपलभ्य चिरादभीष्टंयत्प्रेक्षणे दृशिषु पक्ष्म-कृतं शपन्ति । दृग्भिहंदी-कृतमलं परिरभ्य सर्वास्तद्भावमापुरपि नित्य-ग्रुजां दुरापम् ॥
१५३ ॥
गोपियों ने दीर्घकालीन विछोह के बाद अपने प्रिय कृष्ण को कुरुक्षेत्र में देखा। उन्होंने अपने नेत्रों के माध्यम से अपने हृदयों में उन्हें प्राप्त किया और उनको आलिंगन किया। उन्हें इतना उत्कट हर्ष हुआ कि सिद्ध योगियों को भी ऐसा हर्ष प्राप्त नहीं हो सकता। गोपियाँ स्रष्टा को यह कहकर कोसने लगीं कि उसने पलकें क्यों बनाईं, जो उनके देखने में। बाधक बन रही हैं।
कृष्णावलोकन विना नेत्र फल नाहि आन ।ग्रेइ जन कृष्ण देखे, सेइ भाग्यवान् ॥
१५४॥
कृष्ण के दर्शन के अतिरिक्त नेत्रों के लिए कोई दूसरी पूर्णता नहीं है। जो भी उनका दर्शन पाता है, वह सचमुच परम भाग्यशाली है।
अक्षण्वतां फलमिदं न परं विदामः सख्यः पशूननुविवेशयतोर्वयस्यैः । वक्त्रं व्रजेश-सुतयोरनुवेणु-जुष्टं ग्रैर्वा निपीतमनुरक्त-कटाक्ष-मोक्षम् ॥
१५५॥
( गोपियों ने कहा :) हे सखियों, वे आँखें, जो महाराज नन्द के पुत्रों के सुन्दर मुखों का दर्शन करती हैं, निश्चय ही भाग्यशाली हैं। जैसे ही ये धोनों पुत्र ( श्रीकृष्ण और बलराम) अपने सखाओं के साथ गायों को अपने आगे रखकर वन में प्रवेश करते हैं, वे अपने होंठों पर अपनी सिरियाँ रख लेते हैं और वृन्दावन के निवासियों की ओर प्रेम-पूर्ण ष्टिपात करते हैं। जिनके पास आँखें हैं, हमारे विचार में उनके लिए इससे मकर कोई अन्य दर्शनीय वस्तु नहीं है।
गोप्यस्तपः किमचरन् ऋदमुष्य रूपंलावण्य-सारमसमोर्ध्वमनन्य-सिद्धम् । दृग्भिः पिबन्त्यनुसवाभिनवं दुरापम् ।एकान्त-धाम ग्रशसः श्रिय ऐश्वरस्य ॥
१५६ ॥
[ मथुरा की स्त्रियों ने कहा :न जाने गोपियों ने कौन सा तप किया है? वे अपनी आँखों से भगवान् कृष्ण के स्वरूप के अमृत का निरन्तर पान करती हैं, जो लावण्य का सार है तथा जिसके बराबर या जिससे बढ़कर और कुछ नहीं है। यह लावण्य सौन्दर्य, यश तथा ऐश्वर्य का एकमात्र आश्रय है। यह स्वयं में सम्पूर्ण, चिर नवीन तथा अतीव विरल है।
कृष्णेर माधुर्ये कृष्णे उपजय लोभ ।। सम्यकास्वादिते नारे, मने रहे क्षोभ ॥
१५८ ॥
भगवान् कृष्ण का सौन्दर्य स्वयं उन्हें ही आकृष्ट करता है। किन्तु इसका पूर्णतया आनन्द न ले सकने के कारण उनका मन खिन्न बना रहता है।
अपूर्व माधुरी कृष्णेर, अपूर्व तार बल । ग्राहार श्रवणे मन हय टलमल ॥
१५७॥
भगवान् कृष्ण की माधुरी अद्वितीय है और उनका बल भी अद्वितीय है। ऐसी सुन्दरता के श्रवण मात्र से मन चंचल हो उठता है।
एइ त' द्वितीय हेतुर कहिले विवरण ।। तृतीय हेतुर एबे शुनह लक्षण ॥
१५९॥
यह उनकी द्वितीय इच्छा का विवरण है। अब मैं तीसरी इच्छा का वर्णन करता हूँ। कृपया ध्यान से सुनें।
अत्यन्त-निगूढ़ एइ रसेर सिद्धान्त ।। स्वरूप-गोसाजि मात्र जानेन एकान्त ॥
१६० ॥
रस का यह निष्कर्ष अत्यन्त गूढ़ है। एकमात्र स्वरूप दामोदर ही इसके विषय में ठीक से जानते हैं।
ग्रेबा केह अन्य जाने, सेहो ताँहा हैते ।।चैतन्य-गोसाजिर तेह अत्यन्त मर्म ग्राते ॥
१६१॥
यदि कोई अन्य व्यक्ति इसे जानने का दावा करता है, तो उसने उनसे । ही सुना होगा, क्योंकि वे श्री चैतन्य महाप्रभु के अत्यन्त अन्तरंग पार्षद थे।
गोपी-गणेर प्रेमेर ‘रूढ़-भाव' नाम ।विशुद्ध निर्मल प्रेम, कभु नहे काम ॥
१६२॥
गोपियों का प्रेम 'रूढ़ भाव' कहलाता है। यह विशुद्ध एवं निष्कलंक है। यह कभी भी कामवासना नहीं होता।
प्रेमैव गोप-रामानां काम इत्यर्गमत्प्रथाम् । इत्युद्धवादयोऽप्येतं वाञ्छन्ति भगवत्प्रियाः ॥
१६३॥
गोपियों को शुद्ध प्रेम 'काम' के नाम से विख्यात हो गया है। श्री व जैसे भगवान् के भक्त उस प्रेम का आस्वादन करने की इच्छा करते है।
काम, प्रेम, दोंहाकार विभिन्न लक्षण । लौह आर हेम त्रैछे स्वरूपे विलक्षण ॥
१६४॥
काम तथा प्रेम के लक्षण अलग अलग होते हैं, जिस प्रकारे लोहे और सोने के स्वभाव भिन्न भिन्न होते हैं।
आत्मेन्द्रिय-प्रीति-वाञ्छा—तारे बलि'काम' ।।कृष्णेन्द्रिय-प्रीति-इच्छा धरे ‘प्रेम' नाम ॥
१६५॥
अपनी खुद की इन्द्रियों की तृप्ति करने की इच्छा 'काम' है, किन्तु कृष्ण की इन्द्रियों को तुष्ट करने की इच्छा 'प्रेम' है।
कामेर तात्पर्य—निज-सम्भोग केवल ।।कृष्ण-सुख-तात्पर्य-मात्र प्रेम त' प्रबल ॥
१६६॥
काम का लक्ष्य अपनी खुद की इन्द्रियों का भोग करना मात्र है। किन्तु प्रेम भगवान् कृष्ण के सुख ( भोग) का ध्यान रखता है और इसलिए यह अत्यन्त शक्तिशाली होता है।
लोक-धर्म, वेद-धर्म, देह-धर्म, कर्म ।। लज्जा, धैर्य, देह-सुख, आत्म-सुख-भर्म ॥
१६७॥
दुस्त्यज आर्य-पथ, निज परिजन ।। स्व-जने करये व्रत ताड़न-भर्सन ॥
१६८॥
सर्व-त्याग करि' करे कृष्णेर भजन ।कृष्ण-सुख-हेतु करे प्रेम-सेवन ॥
१६९॥
सामाजिक रीतियाँ, शास्त्रीय आदेश, शारीरिक आवश्यकताएँ, सकाम कर्म, लज्जा, धैर्य, शारीरिक सुख, इन्द्रियतृप्ति तथा वर्णाश्रम-धर्म का वह मार्ग, जिसे छोड़ पाना कठिन है-गोपियों ने अपने परिवार के साथ साथ इन सबको त्याग दिया है और अपने परिजनों के दण्ड तथा फटकार को सहा है। यह सब उन्होंने भगवान् कृष्ण की सेवा के लिये किया। वे उनके (कृष्ण के) आनन्द के लिए उनकी प्रेममयी सेवा करती हैं।
इहाके कहिये कृष्णे दृढ़ अनुराग ।स्वच्छ धौत-वस्त्रे ग्रैछे नाहि कोन दाग ॥
१७०॥
यह भगवान् कृष्ण के प्रति दृढ़ अनुराग कहलाता है। यह उसी तरह द्ध निष्कलंक है, जिस तरह दागरहित स्वच्छ वस्त्र।
अतएव काम-प्रेमे बहुत अन्तर ।। काम–अन्ध-तमः, प्रेम-निर्मल भास्कर ॥
१७१।।अतएव गोपी-गणेर नाहि काम-गन्ध ।।कृष्ण-सुख लागि मात्र, कृष्ण से सम्बन्ध ॥
१७२॥
इस प्रकार गोपियों के प्रेम में काम की रंचमात्र भी गन्ध नहीं है। कृष्ण के साथ उनका सम्बन्ध एकमात्र उनके ( कृष्ण के ) सुख के लिए है।
ग्रत्ते सुजात-चरणाम्बुरुहं स्तनेषुभीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु । तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किं स्वित्कूर्पादिभिर्भमति धीर्भवदायुषां नः ॥
१७३॥
। हे प्रिय! आपके चरणकमल इतने कोमल हैं कि हम उन्हें अपने वक्षस्थलों पर डरती हुईं धीरे से रखती हैं कि कहीं आपके चरणों में चोट लग जाये। हमारे प्राण एकमात्र आप पर आश्रित हैं। इसलिए हमारे मन स आशंका से भरे रहते हैं कि आपके कोमल चरण जंगल के मार्ग पर लते हुए कहीं कंकड़ों से क्षत-विक्षत न हो जाएँ।
आत्म-सुख-दु:खे गोपीर नाहिक विचार ।।कृष्ण-सुख-हेतु चेष्टा मनो-व्यवहार ॥
१७४॥
गोपियाँ अपने खुद के सुख या दुःख की तनिक भी परवाह नहीं करतीं। उनकी सारी शारीरिक तथा मानसिक चेष्टाएँ भगवान् कृष्ण को आनन्द पहुँचाने की दिशा में लगी रहती हैं।
कृष्णा लागि' आर सब करे परित्याग ।कृष्ण-सुख-हेतु करे शुद्ध अनुराग ॥
१७५ ॥
उन्होंने कृष्ण के लिए अपना सब कुछ त्याग दिया। कृष्ण को सुख देने के लिए उनमें शुद्ध अनुराग है।
एवं मदर्थोज्झित-लोक-वेदस्वानां हि वो मय्यनुवृत्तयेऽबलाः । मया परोक्षं भजता तिरोहितंमासूयितुं मार्हथ तत्प्रियं प्रियाः ॥
१७६॥
मेरी प्रिय गोपियों, तुम सबने मेरे लिए सामाजिक रीतियों, शास्त्रीय आदेशों और अपने परिजनों का परित्याग किया है। मैं तुम्हारी एकाग्रता बढ़ाने के उद्देश्य से ही तुम लोगों के पीछे छिप गया था। चूँकि मैं तुम्हारे ही लाभ के लिए छिप गया था, अतएव तुम लोगों को मुझ पर अप्रसन्न नहीं होना चाहिए।
कृष्णेर प्रतिज्ञा एक आछे पूर्व हैते ।। ये ग्रैछे भजे, कृष्ण तारे भजे तैछे ॥
१७७।। भगवान् कृष्ण ने पहले से वचन दे रखा है कि वे अपने भक्तों से इसी प्रकार से आदान-प्रदान करेंगे, जिस प्रकार से वे उनकी पूजा करेंगे।
ने ग्रथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् । मम वत्र्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥
१७८ ॥
हे पृथा-पुत्र, मेरे भक्त जिस किसी प्रकार से मेरी शरण में आते हैं, मैं उसी के अनुसार उन्हें पुरस्कार प्रदान करता हूँ। सारे व्यक्ति सभी तरह से मेरे मार्ग का अनुसरण करते हैं।
से प्रतिज्ञा भङ्ग हैल गोपीर भजने ।ताहाते प्रमाण कृष्ण-श्री-मुख-वचने ॥
१७९॥
गोपियों की पूजा से वह प्रतिज्ञा भंग हो चुकी है, जैसाकि स्वयं भगवान् कृष्ण स्वीकार करते हैं।
न पारयेऽहं निरवद्य-संयुजां स्व-साधु-कृत्यं विबुधायुषापि वः ।। ग्रा माभजन्दुर्जय-गेह-शृङ्खलाःसंवृश्च्ये तद्वः प्रतियातु साधुना ॥
१८० ।। । हे गोपियों, मैं तुम्हारी निष्कलंक सेवा का ऋण ब्रह्मा के जीवनकाल भी नहीं चुका सकता। मुझसे तुम लोगों का सम्बन्ध भत्र्सना से परे है। में लोगों ने उन सारे पारिवारिक बन्धनों को तोड़कर मेरी पूजा की है, नको तोड़ पाना कठिन होता है। अतएव तुम लोगों के यशस्वी कार्य तुम्हारे प्रेम का प्रतिदान है।
तबे ये देखिये गोपीर निज-देहे प्रीत । सेहो त' कृष्णेर लागि, जानिह निश्चित ॥
१८१॥
अब गोपियाँ जो भी स्नेह अपने शरीरों के प्रति दिखाती हैं, उसे एकमात्र भगवान् कृष्ण के निमित्त ही जानना चाहिए।
एई देह कैलँ आमि कृष्ण समर्पण । ताँर धन ताँर इहा सम्भोग-साधन ॥
१८२॥
( गोपियाँ सोचती हैं :) मैंने यह शरीर भगवान् कृष्ण को समर्पित कर दिया है। वे ही इसके स्वामी हैं और यह उन्हें आनन्द देता है।
ए-देह-दर्शन-स्पर्शे कृष्ण-सन्तोषण' । एइ लागि' करे देहेर मार्जन-भूषण ॥
१८३॥
इस शरीर को देखकर तथा इसका स्पर्श करके कृष्ण को आनन्द प्राप्त होता है। इसी कारण से वे अपने शरीर को स्वच्छ करती एवं सजती हैं। निजामपि य़ा गोप्यो ममेति समुपासते ।ताभ्यः परं न मे पार्थ निगूढ़-प्रेम-भाजनम् ॥
१८४॥
। हे अर्जुन, गोपियों से बढ़कर मेरे लिए प्रगाढ़ प्रेम का पात्र कोई सरा नहीं है। वे अपने शरीरों को स्वच्छ करती तथा सजाती हैं, क्योंकि में उन्हें मेरी समझती हैं।
आर एक अद्भुत गोपी-भावेर स्वभाव ।।बुद्धिर गोचर नहे ग्राहार प्रभाव ॥
१८५ ॥
गोपियों के भाव का एक दूसरा अद्भुत स्वभाव है। इसका प्रभाव बुद्धि की समझ से परे है।
गोपी-गण करे ग्रबे कृष्ण-दरशन ।।सुख-वाञ्छा नाहि, सुख हय कोटि-गुण ॥
१८६॥
जब गोपियाँ भगवान् कृष्ण का दर्शन करती हैं, तब उन्हें असीम आनन्द प्राप्त होता है, यद्यपि उन्हें ऐसे आनन्द की थोड़ी सी भी इच्छा नहीं होती।
गोपीका-दर्शने कृष्णेर ग्रे आनन्द हय ।। ताहा हैते कोटि-गुण गोपी आस्वादय ॥
१८७॥
गोपियों को देखकर कृष्ण को जितना आनन्द मिलता है, उससे करोड़ों गुना आनन्द गोपियों को मिलता है।
ताँ सबार नाहि निज-सुख-अनुरोध । तथापि बाढ़ये सुख, पड़िल विरोध ॥
१८८॥
। गोपियों को निजी सुख की कोई इच्छा नहीं है, फिर भी उनका आनन्द बढ़ता जाता है। यह निश्चित रूप से विरोधाभास है।
ए विरोधेर एक मात्र देखि समाधान ।। गोपिकार सुख कृष्ण-सुखे पर्युवसान ॥
१८९॥
इस विरोधाभास का मुझे केवल एक ही समाधान दृष्टिगत होता है कि गोपियों का सुख उनके प्रिय कृष्ण के सुख में निहित है।
गोपिका-दर्शने कृष्णेर बाढ़ प्रफुल्लता ।से माधुर्य बाढ़े ग्रार नाहिक समता ॥
१९०॥
जब भगवान् कृष्ण गोपियों को देखते हैं, तो उनकी प्रसन्नता बढ़ जाती है और उनकी अद्वितीय माधुरी भी बढ़ जाती है।
आमार दर्शने कृष्ण पाइल एत सुख ।एई सुखे गोपीर प्रफुल्ल अङ्ग-मुख ॥
१९१॥
( गोपियाँ सोचती हैं :) हमें देखकर कृष्ण को इतना सुख मिला है। इस विचार से उनके मुखों तथा शरीरों की पूर्णता तथा सुन्दरता बढ़ जाती है।
गोपी-शोभा देखि' कृष्णेर शोभा बाढ़े व्रत ।कृष्ण-शोभा देखि' गोपीर शोभा बाढ़े तत ॥
१९२॥
गोपियों की सुन्दरता देखकर भगवान् कृष्ण की सुन्दरता बढ़ जाती है। और गोपियाँ भगवान् कृष्ण की सुन्दरता को जितना अधिक देखती हैं, उतना ही अधिक उनका सौन्दर्य बढ़ जाता है।
एई-मत परस्पर पड़े हुड़ाहुड़ि ।।परस्पर बाढ़े, केह मुखे नाहि मुड़ि ॥
१९३॥
इस प्रकार उनके बीच होड़ लग जाती है, जिसमें कोई भी अपनी हार स्वीकार नहीं करता।
किन्तु कृष्णेर सुख हेय गोपी-रूप-गुणे ।ताँर सुखे सुख-वृद्धि हये गोपी-गणे ॥
१९४॥
किन्तु कृष्ण गोपियों के सौन्दर्य तथा उनके सद्गुणों से आनन्द प्राप्त करते हैं। और जब गोपियाँ उनके आनन्द को देखती हैं, तो उनकी प्रसन्नता बढ़ जाती है।
अतएव सेइ सुख कृष्ण-सुख पोखे ।एइ हेतु गोपी-प्रेमे नाहि काम-दोषे ॥
१९५॥
इस प्रकार हम देखते हैं कि गोपियों की प्रसन्नता से भगवान् कृष्ण की प्रसन्नता का पोषण होता है। इस कारण से गोपियों के प्रेम में कामदोष । नहीं पाया जाता।
उपेत्य पथि सुन्दरी-ततिभिरभिरभ्यर्चितं ।स्मिताङ्कर-करम्बितैर्नटदपाङ्ग-भङ्गी-शतैः ।। स्तन-स्तवक-सञ्चरन्नयन-चञ्चरीकाञ्चलंव्रजे विजयिनं भजे विपिन-देशतः केशवम् ॥
१९६॥
। मैं भगवान् केशव की पूजा करता हूँ। कृष्ण के व्रज के वन से औटते समय गोपियाँ अपने महलों की छतों पर चढ़ जाती हैं और सैकड़ों प्रकार की तिरछी चितवनों तथा मन्द मुस्कानों द्वारा मार्ग में उनसे मिलकर उनकी पूजा करती हैं। उनके दोनों नेत्र विशाल काले भौरे के समान गोपियों के स्तनों पर विचरण करते हैं। आर एक गोपी-प्रेमेर स्वाभाविक चिह्न ।।ग्रे प्रकारे हय प्रेम काम-गन्ध-हीन ॥
१९७॥
गोपियों के प्रेम का एक अन्य स्वाभाविक लक्षण भी है, जो यह दिखलाता है कि इसमें लेशमात्र भी कामवासना नहीं है।
गोपी-प्रेमे करे कृष्ण-माधुर्मेर पुष्टि ।माधुयें बाढ़ाय प्रेम हा महा-तुष्टि ॥
१९८॥
गोपियों का प्रेम भगवान् कृष्ण के माधुर्य का पोषण करता है। बदले में यह माधुर्य उनके प्रेम को वर्धित करता है, क्योंकि वे अत्यधिक तुष्ट हो जाती हैं।
प्रीति-विषयानन्दे तदाश्रयानन्द । ताँहा नाहि निज-सुख-वाञ्छार सम्बन्ध ॥
१९९॥
प्रेम के आश्रय का सुख उस प्रेम के विषय के सुख में है। यह खुद की तृप्ति की इच्छा का सम्बन्ध नहीं है।
निरुपाधि प्रेम याँहा, ताँहा एइ रीति ।। प्रीति-विषय-सुखे आश्रयेर प्रीति ॥
२०० ॥
निज-प्रेमानन्दे कृष्ण-सेवानन्द बाधे। से आनन्देर प्रति भक्तेर हय महा-क्रोधे ॥
२०१॥
। जहाँ भी स्वार्थरहित प्रेम होता है, वहाँ उसकी यही रीति है। जब प्रीति का विषय प्रसन्न होता है, तो प्रीति के आश्रय को आनन्द प्राप्त होता है। जब प्रेम का आनन्द भगवान् कृष्ण की सेवा में बाधक बनता है, तो भक्त ऐसे आनन्द पर क्रुद्ध हो उठता है।
अङ्ग-स्तम्भारम्भमुत्तुङ्गयन्तंप्रेमानन्दं दारुको नाभ्यनन्दत् । कंसारातेर्वीजने ग्रेन साक्षाद्अक्षोदीयानन्तरायो व्यधायि ॥
२०२॥
श्री दारुक ने अपने प्रेम के भाव का आस्वादन नहीं किया, क्योंकि इससे उसके अंग स्तंभित हो गये, जिसके कारण भगवान् कृष्ण पर उसका पंखा झलना बाधित हो गया।
गोविन्द-प्रेक्षणाक्षेपि-बाष्प-पूराभिवर्षणम् ।।उच्चैरनिन्ददानन्दमरविन्द-विलोचना ॥
२०३॥
। कमलनयनी राधारानी ने उस प्रेमानन्द की भर्त्सना की, जिसके कारण अश्रु बहने लगे और जिससे उन्हें गोविन्द का दर्शन पाने में बाधा पहुँची।
आर शुद्ध-भक्त कृष्ण-प्रेम-सेवा विने । स्व-सुखार्थ सालोक्यादि ना करे ग्रहणे ॥
२०४॥
यही नहीं, शुद्ध भक्त पाँच प्रकार की मुक्ति के माध्यम से अपने निजी सुख की कामना के लिए कृष्ण की प्रेममयी सेवा कभी नहीं छोड़ते।
मद्गुण-श्रुति-मात्रेण मयि सर्व-गुहाशये ।। मनो-गतिरविच्छिन्ना ग्रथा गङ्गाम्भसोऽम्बुधौ ॥
२०५॥
जिस प्रकार गंगा नदी का दैवी जल अबाध गति से बहकर समुद्र में मिलता है, उसी प्रकार मेरे भक्तों के मन मेरा गुणगान सुनते ही सबके हृदयों में वास करने वाले मुझ तक चले आते हैं।
लक्षणं भक्ति-योगस्य निर्गुणस्य ह्युदाहृतम् ।। अहैतुक्यव्यवहिता ग्रा भक्तिः पुरुषोत्तमे ॥
२०६॥
। पुरुषोत्तम भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति के ये लक्षण हैं-यह निस्वार्थ होती है और यह किसी भी तरह रोकी नहीं जा सकती।
सालोक्य-सार्टि-सारूप्य-सामीप्यैकत्वमप्युत ।दीयमानं न गृह्णन्ति विना मत्सेवनं जनाः ॥
२०७॥
“मेरे भक्त मेरी सेवा के बदले में सालोक्य, सार्टि, सारूप्य, सामीप्य अथवा मेरे साथ तादात्म्यता की मुक्तियों को मेरे देने पर भी स्वीकार नहीं करते ।
मत्सेवया प्रतीतं ते सालोक्यादि-चतुष्टयम् ।।नेच्छन्ति सेवया पूर्णाः कुतोऽन्यत्काल-विप्लुतम् ॥
२०८ ॥
मेरे भक्त मेरी सेवा द्वारा अपनी इच्छाएँ पूरी करने के बाद, ऐसी ' से सहज प्राप्य चार प्रकार की मुक्तियों को स्वीकार नहीं करते। तो फिर वे काल के प्रवाह के साथ नष्ट होने वाले किसी आनन्द को स्वीकार यो करने लगे? काम-गन्ध-हीन स्वाभाविक गोपी-प्रेम ।।निर्मल, उज्वल, शुद्ध ग्रेन दग्ध हेम ॥
२०९॥
गोपियों के सहज प्रेम में काम की गंध नहीं आती। यह निर्दोष, उज्वल एवं पिघले सोने की भाँति शुद्ध है।
कृष्णेर सहाय, गुरु, बान्धव, प्रेयसी ।। गोपिका हयेन प्रिया शिष्या, सखी दासी ॥
२१०॥
गोपियाँ भगवान् कृष्ण की सहायिकाएँ, गुरु, मित्र, पलियाँ, प्रिय शिष्या, विश्वासपात्राएँ तथा दासियाँ हैं।
सहाया गुरवः शिष्या भुजिष्या बान्धवाः स्त्रियः । सत्यं वदामि ते पार्थ गोप्यः किं मे भवन्ति न ॥
२११॥
हे पार्थ, मैं तुमसे सत्य कहता हूँ। गोपियाँ मेरी सहायिकाएँ, गुरु, शिष्या, सेविकाएँ, मित्र तथा प्रेयसियाँ हैं। मैं नहीं जानता कि वे मेरे लिए क्या नहीं हैं? गोपिका जानेन कृष्णेर मनेर वाञ्छित ।। प्रेम-सेवा-परिपाटी, इष्ट-समीहित ॥
२१२॥
गोपियाँ कृष्ण की इच्छाओं को जानती हैं और वे यह भी जानती हैं। उनके आनन्द के लिए किस प्रकार प्रेममयी सेवा पूर्ण रूप से करनी दए। वे अपने प्रियतम की तुष्टि के लिए उनकी सेवा दक्षतापूर्वक करती हैं।
मन्माहात्म्यं मत्सपर्या मच्छुद्धां मन्मनो-गतम् ।जानन्ति गोपिकाः पार्थ नान्ये जानन्ति तत्त्वतः ॥
२१३॥
हे पार्थ, गोपियाँ मेरी महानता, मेरी प्रेममयी सेवा, मेरे सम्मान तथा । मेरी मनोभावना को जानती हैं। वस्तुतः अन्य कोई इन्हें जान नहीं सकता।
सेइ गोपी-गण-मध्ये उत्तमा राधिका ।।रूपे, गुणे, सौभाग्ये, प्रेमे सर्वाधिका ॥
२१४॥
गोपियों में श्रीमती राधिका सर्वोपरि हैं। वे सौन्दर्य, सद्गुण, सौभाग्य तथा प्रेम में सबसे बढ़कर हैं।
ग्रथा राधा प्रिया विष्णोस्तस्याः कुण्डं प्रियं तथा ।सर्व-गोपीषु सैवैका विष्णोरत्यन्त-वल्लभा ॥
२१५॥
जिस प्रकार राधा भगवान् कृष्ण को प्रिय हैं, उसी तरह उनका स्नान स्थल (राधाकुंड) भी उन्हें प्रिय है। अकेले वे ही समस्त गोपियों में से उनकी सबसे अधिक प्रिय हैं।
त्रैलोक्ये पृथिवी धन्या ग्रत्र वृन्दावनं पुरी ।।तत्रापि गोपिकाः पार्थ ग्नत्र राधाभिधा मम ॥
२१६॥
हे पार्थ, तीनों लोकों में यह पृथ्वी विशेष रूप से भाग्यशालिनी है,क्योंकि इसी पर वृन्दावन नगरी स्थित है। और वृन्दावन में भी गोपियाँ शेष रूप से महिमामण्डित हैं, क्योंकि मेरी आमती राधाराना ।
राधा-सह क्रीड़ा रस-वृद्धिर कारण ।आर सब गोपी-गण रसोपकरण ॥
२१७॥
अन्य सारी गोपियाँ राधारानी के साथ कृष्ण की लीलाओं के आनन्द को बढ़ाने वाली हैं। गोपियाँ उनके पारस्परिक सुख में उपकरण का कार्य करती हैं।
कृष्णेर वल्लभा राधा कृष्ण-प्राण-धन ।।ताँहा विनु सुख-हेतु नहे गोपी-गण ॥
२१८॥
राधा कृष्ण की प्राणप्रिया हैं और वे उनके जीवन की सम्पत्ति हैं। उनके बिना गोपियाँ कृष्ण को आनन्द नहीं दे सकतीं।
कंसारिरपि संसार-वासना-बद्ध-शृङ्खलाम् ।राधामाधाय हृदये तत्याज व्रज-सुन्दरीः ॥
२१९॥
कंस के शत्रु भगवान् कृष्ण ने रासनृत्य के समय अन्य सारी गोपियों को एक ओर छोड़ दिया और श्रीमती राधारानी को अपने हृदय में स्थापित किया, क्योंकि वे भगवान् की इच्छाएँ पूरी करने में उनकी सहायिका हैं।
सेइ राधार भाव लञा चैतन्यावतार । झुग-धर्म नाम-प्रेम कैल परचार ॥
२२०॥
भी चैतन्य महाप्रभु वही राधा-भाव लेकर प्रकट हुए। उन्होंने इस युग । अर्म-भगवन्नाम संकीर्तन तथा भगवान् के शुद्ध प्रेम-का प्रचार किया।
सेई भावे निज-वाञ्छा करिल पूरण ।अवतारेर एइ वाञ्छा मूल कारण ॥
२२१॥
श्रीमती राधारानी के भाव में उन्होंने अपनी इच्छाएँ भी पूरी कीं। यही उनके अवतार का मुख्य कारण है।
श्री-कृष्ण-चैतन्य गोसाजि व्रजेन्द्र-कुमार। रस-मय-मूर्ति कृष्ण साक्षात्शृङ्गार ॥
२२२॥
भगवान् श्रीकृष्ण चैतन्य साक्षात् रस-विग्रह कृष्ण ( व्रजेन्द्रकुमार ) हैं। वे साक्षात् श्रृंगार मूर्ति हैं।
सेइ रस आस्वादिते कैल अवतार ।आनुसङ्गे कैल सब रसेर प्रचार ॥
२२३॥
वे उस माधुर्य रस का आस्वादन करने और संयोगवश समस्त रसों का प्रचार करने के लिए अवतरित हुए।
विश्वेषामनुरञ्जनेन जनयन्नानन्दमिन्दीवरश्रेणी-श्यामल-कोमलैरुपनयन्नङ्गैरनङ्गोत्सवम् । स्वच्छन्दं व्रज-सुन्दरीभिरभितः प्रत्यङ्गमालिङ्गितःशृङ्गारः सखि मूर्तिमानिव मधौ मुग्धो हरिः क्रीड़ति ॥
२२४॥
। हे सखियों, जरा देखो न, किस तरह श्रीकृष्ण वसन्त ऋतु का आनन्द ले रहे हैं। उनके प्रत्येक अंग का आलिंगन गोपियों द्वारा हो रहा हैं, जिससे वे साक्षात् श्रृंगार मूर्ति प्रतीत हो रहे हैं। वे अपनी दिव्य लीलाओं समस्त गोपियों एवं सारी सृष्टि को सुख प्रदान करते हैं। उन्होंने अपने कोमल श्यामवर्ण नीलकमल सदृश भुजाओं एवं चरणों से कामदेव के लिए एक उत्सव की सृष्टि कर दी है।
श्री-कृष्ण-चैतन्य गोसाजि रसेर सदन ।।अशेष-विशेषे कैल रस आस्वादन ॥
२२५॥
भगवान् श्रीकृष्ण चैतन्य रस के धाम हैं। उन्होंने स्वयं रस की मधुरता का आस्वादन अनन्त विधियों से किया।
सेइ द्वारे प्रवर्ताइल कलि-युग-धर्म ।चैतन्येर दासे जाने एइ सब मर्म ॥
२२६॥
इस तरह उन्होंने कलियुग के लिए धर्म का प्रवर्तन किया। श्री चैत महाप्रभु के भक्त इन सारे सत्यों को जानते हैं।
षष्ठ-श्लोकेर एइ कहिल आभास ।।मूल श्लोकेर अर्थ शुन करिये प्रकाश ॥
२२९॥
। । मैंने छठे श्लोक का संकेत कर दिया है। अब मैं उस मूल श्लोक का अर्थ उद्घाटित कर रहा हूँ, कृपा करके सुनें।
अद्वैत आचार्य, नित्यानन्द, श्रीनिवास ।। गदाधर, दामोदर, मुरारि, हरिदास ॥
२२७॥
आर व्रत चैतन्य-कृष्णेर भक्त-गण ।। भक्ति-भावे शिरे धरि सबारे चरण ॥
२२८॥
मैं अद्वैत आचार्य, भगवान् नित्यानन्द, श्रीवास पंडित, गदाधर पंडित, स्वरूप दामोदर, मुरारि गुप्त, हरिदास ठाकुर तथा श्रीकृष्ण चैतन्य के अन्य सभी भक्तों को भक्तिपूर्वक नमस्कार करके उनके चरणकमलों को सिर पर धारण करता हूँ।
श्री-राधायाः प्रणय-महिमा कीदृशो वानयैवा स्वाद्यो ग्रेनाद्भुत-मधुरिमा कीदृशो वा मदीयः । सौख्यं चास्या मदनुभवतः कीदृशं वेति लोभात् ।तद्भावाढ्यः समजनि शची-गर्भ-सिन्धौ हरीन्दुः ॥
२३०॥
श्रीमती राधारानी के प्रेम की महिमा को, उनके अद्भुत गुण जिनका आस्वादन केवल राधारानी ही अपने प्रेम के माध्यम से करती है, उसको तथा उनके प्रेम की मधुरता का अनुभव करने पर वे जिस सुख का अनुभव करती हैं, उसको समझने की इच्छा से परम भगवान् श्रीहरि राधा के भावों में विभोर होकर श्रीमती शचीदेवी की कोख से उसी प्रकार प्रकट हुए, जिस प्रकार समुद्र से चन्द्रमा प्रकट होता है।
ए सब सिद्धान्त गूढ़,—कहिते ना ग्रुयाय ।।ना कहिले, केह इहार अन्त नाहि पाय ॥
२३१॥
इन सारे सिद्धान्तों को जनसामान्य के समक्ष प्रकट करना अनुचित है। किन्तु यदि इन्हें प्रकट नहीं किया जाता, तो इन्हें कोई भी नहीं समझ सकेगा।
अतएव कहि किछु करिआ निगूढ़ । बुझिबे रसिक भक्त, ना बुझिबे मूढ़ ॥
२३२॥
इसलिए मैं केवल उनका सार ही प्रकट करूँगा, जिससे रसिक भक्त तो उन्हें समझ लें, किन्तु जो मूर्ख हैं, वे समझ न सकें।
हृदये धरये ये चैतन्य-नित्यानन्द ।।ए-सब सिद्धान्ते सेई पाइबे आनन्द ॥
२३३॥
जिस किसी ने श्री चैतन्य महाप्रभु तथा श्री नित्यानन्द प्रभु को अपने उदय में धारण कर लिया है, वह इन सारे दिव्य सिद्धान्तों को सुनकर परम आनन्दित होगा।
ए सब सिद्धान्त हय आमेर पल्लव ।भक्त-गण-कोकिलेर सर्वदा वल्लभ ॥
२३४॥
ये सारे सिद्धान्त आम के वृक्ष की नवांकुरित शाखाओं के समान हैं। ये कोयल रूपी भक्तों के लिए सदैव प्रिय हैं।
अभक्त-उष्ट्रेर इथे ना हय प्रवेश ।। तबे चित्ते हय मोर आनन्द-विशेष ॥
२३५॥
ऊँट समान अभक्त इन विषयों में प्रवेश नहीं कर सकते। इसलिए मेरे मन में विशेष प्रसन्नता है।
ये लागि कहिते भय, से ग्रदि ना जाने ।।इहा वइ किबा सुख आछे त्रिभुवने ॥
२३६॥
मैं उनके डर से कहना नहीं चाहता, किन्तु यदि वे नहीं समझते तो तीनों लोकों में इससे बढ़कर प्रसन्नता की बात और क्या हो सकती है? अतएव भक्त-गणे करि नमस्कार ।। निःशङ्के कहिये, तार हौमत्कार ॥
२३७॥
अतएव भक्तों को नमस्कार करके मैं उनके संतोष के लिए बिना भी संकोच के कहूँगा।
कृष्णेर विचार एक आछये अन्तरे ।।पूर्णानन्द-पूर्ण-रस-रूप कहे मोरे ॥
२३८ ॥
एक बार भगवान् कृष्ण ने अपने मन में विचार किया, “सारे लोग हते हैं कि मैं आनन्द तथा समस्त रसों से पूर्ण हूँ।
आमा हइते आनन्दित हय त्रिभुवन ।।आमाके आनन्द दिबे-ऐछे कोन्जन ॥
२३९॥
सारा संसार मुझ से ही आनन्द प्राप्त करता है। क्या ऐसा भी कोई है, जो मुझे आनन्द दे सके? आमा हैते यार हय शत शत गुण ।। सेइ-जन आह्लादिते पारे मोर मन ॥
२४०॥
जिस व्यक्ति में मुझसे सैकड़ों गुना अधिक गुण हों, वही मेरे मन को आनन्दित कर सकता है।
आमा हैते गुणी बड़ जगते असम्भवे ।।एकलि राधाते ताहा करि अनुभव ॥
२४१॥
मुझसे अधिक गुणवान व्यक्ति को इस जगत् में खोज पाना असम्भव है। किन्तु एकमात्र राधा में मुझे उस व्यक्ति की उपस्थिति जान पड़ती है, जो मुझे आनन्द दे सके।
कोटि-काम जिनि' रूप यद्यपि आमार ।। असमोर्ध्व-माधुर्य—साम्य नाहि ग्रार ॥
२४२॥
मोर रूपे आप्यायित हय त्रिभुवन ।राधार दर्शने मोर जुड़ाय नयन ॥
२४३॥
। यद्यपि मेरा सौन्दर्य एक करोड़ कामदेवों को पराजित करने वाला । यद्यपि यह अतुलनीय और अद्वितीय है तथा तीनों जगतों को आनन्दित करने वाला है, किन्तु राधारानी के दर्शन से मेरे नेत्रों को आनन्द प्राप्त होता हैं।
मोर वंशी-गीते आकर्षये त्रिभुवन ।राधार वचने हरे आमार श्रवण ॥
२४४॥
मेरी दिव्य बाँसुरी की ध्वनि तीनों लोकों को आकर्षित करती है, किन्तु मेरे कान श्रीमती राधारानी के मधुर शब्दों से मुग्ध हो जाते हैं।
यद्यपि आमार गन्धे जगत्सुगन्ध ।मोर चित्त-प्राण हरे राधा-अङ्ग-गन्ध ॥
२४५ ॥
यद्यपि मेरा शरीर सम्पूर्ण सृष्टि को सुगन्ध प्रदान करता है, किन्तु राधारानी के अंगों की सुगन्धि मेरे मन तथा हृदय को मोहित कर देती है।
यद्यपि आमार रसे जगत्सरस ।राधार अधर-रस आमा करे वश ॥
२४६॥
यद्यपि सम्पूर्ण सृष्टि मेरे कारण विभिन्न रसों से पूरित है, किन्तु मैं । श्रीमती राधारानी के अधरों के अमृत-रस पर मुग्ध हूँ।
यद्यपि आमार स्पर्श कोटीन्दु-शीतल ।।राधिकार स्पर्शे आमा करे सुशीतल ॥
२४७॥
यद्यपि मेरा स्पर्श एक करोड़ चन्द्रमाओं से भी शीतल है, किन्तु मैं श्रीमती राधिका के स्पर्श से शीतल हो उठता हूँ।
एइ मत जगतेर सुखे आमि हेतु ।।राधिकार रूप-गुण आमार जीवातु ॥
२४८॥
। इस तरह यद्यपि मैं सम्पूर्ण जगत् के सुख का उद्गम हूँ, किन्तु श्री राधाका के सौन्दर्य एवं गुण मेरे जीवन और आत्मा हैं।
एइ मत अनुभव आमार प्रतीत ।।विचारि' देखिये यदि, सब विपरीत ॥
२४९॥
श्रीमती राधारानी के प्रति मेरी स्नेहिल भावनाओं को इस रूप में समझा जा सकता है, किन्तु जब मैं विचार करके देखता हूँ, तो मैं उन्हें विपरीत पाता हूँ।
राधार दर्शने मोर जुड़ाय नयने ।।आमार दर्शने राधा सुखे अगेयान ॥
२५०॥
। जब मैं श्रीमती राधारानी पर दृष्टि डालता हूँ, तो मेरी आँखें पूर्णतया तृप्त हो जाती हैं, किन्तु मुझे देखकर वह और भी अधिक तुष्ट होती है।
परस्पर वेणु-गीते हरये चेतन ।।मोर भ्रमे तमालेरे करे आलिङ्गन ॥
२५१॥
बाँसों की परस्पर रगड़ से वंशी के समान जो मर्मर स्वर निकलता है, वह राधारानी की चेतना को हर लेता है, क्योंकि वह इसे मेरी वंशी की ध्वनि समझती है। वह मेरे भ्रम में तमाल वृक्ष का आलिंगन करती है।
कृष्ण-आलिङ्गन पाइनु, जनम सफले ।कृष्ण-सुखे मग्न रहे वृक्ष करि' कोले ॥
२५२ ॥
वह सोचती है, 'मुझे कृष्ण का आलिंगन मिल रहा है, अतएव मेरा जीवन सार्थक हो गया है। इस प्रकार वह वृक्ष को अपनी भुजाओं में भरकर कृष्ण को प्रसन्न करने में मग्न रहती है।
अनुकूल-वाते यदि पाय मोर गन्ध ।उड़िया पड़िते चाहे, प्रेमे हय अन्ध ॥
२५३॥
। जब अनुकूल वायु मेरे शरीर की सुगन्ध को उस तक ले जाती है, प्रेमान्ध हो उठती है और उस वायु में उड़ना चाहती है।
ताम्बूल-चर्वित ग्रबे करे आस्वादने । आनन्द-समुद्रे डुबे, किछुइ ना जाने ॥
२५४॥
जब वह मेरे द्वारा चर्वित पान का आस्वादन करती है, तो वह आनन्द के समुद्र में डूब जाती है और सब कुछ भूल जाती है।
आमार सङ्गमे राधा पाय ग्रे आनन्द । शत-मुखे बलि, तबु ना पाई तार अन्त ॥
२५५॥
मैं सैकड़ों मुखों से उस दिव्य आनन्द को व्यक्त नहीं कर सकता, जिसे वह मेरी संगति से प्राप्त करती है।
लीला-अन्ते सुखे इँहार अङ्गेर माधुरी ।। ताहा देखि' सुखे आमि आपना पाशरि ॥
२५६॥
अपनी परस्पर-लीलाओं के अन्त में उसके वर्ण की कान्ति को देखकर मैं सुख में मग्न होकर अपनी खुद की पहचान भूल जाता हूँ।
दोंहार ने सम-रस, भरत-मुनि माने ।। आमार व्रजेर रस सेह नाहि जाने ॥
२५७॥
। भरत मुनि ने कहा है कि प्रेमी तथा प्रेमिका के रस समान होते हैं। किन्तु मेरे वृन्दावन के रस को वे भी नहीं जानते।
अन्येर सङ्गमे आमि व्रत सुख पाई। ताहा हैते राधा-सुख शत अधिकाइ ॥
२५८॥
मुझे राधारानी से मिलने पर जो सुख प्राप्त होता है, वह अन्यों से ने पर प्राप्त होने वाले सुख से सैकड़ों गुना अधिक होता है।
निर्भूतामृत-माधुरी-परिमल: कल्याणि बिम्बाधरो ।वक्त्रं पङ्कज-सौरभं कुहरित-श्लाघा-भिदस्ते गिरः । अङ्गं चन्दन-शीतलं तनुरियं सौन्दर्य-सर्वस्व-भाक्त्वामासाद्य ममेदमिन्द्रिय-कुलं राधे मुहुर्मोदते ॥
२५९ ॥
। हे कल्याणी राधारानी, तुम्हारा शरीर समस्त सौन्दर्य का स्रोत है। तुम्हारे लाल लाल अधर अमृत-माधुरी की अनुभूति से भी कोमल हैं, तुम्हारा मुख कमल के फूले की सुगन्धि से ओतप्रोत है, तुम्हारी मधुर वाणी कोयल की ध्वनि को परास्त करने वाली है और तुम्हारे अंग-प्रत्यंग चन्दन-लेप से भी शीतल हैं। मेरी सभी दिव्य इन्द्रियाँ सद्गुणों से अलंकृत तुम्हारा आस्वादन करके परम आह्लादित होती हैं।'
रूपे कंस-हरस्य लुब्ध-नयनां स्पर्शेऽतिहृष्यत्त्वचंवाण्यामुत्कलित-श्रुतिं परिमले संहृष्ट-नासा-पुटाम् ।। आरज्यद्रसनां किलाधर-पुटे न्यञ्चन्मुखाम्भोरुहां दम्भोगीर्ण-महा-धृतिं बहिरपि प्रोद्यद्विकाराकुलाम् ॥
२६०॥
उनकी आँखें कंस के शत्रु भगवान् कृष्ण के सौन्दर्य पर मुग्ध हैं। उनका शरीर कृष्ण के स्पर्श से आनन्द-पुलकित होता है। उनके कान सदैव उनकी मधुर ध्वनि की ओर आकृष्ट होते हैं। उनकी नाक उनकी सुगन्ध से मुग्ध होती है और उनकी जीभ उनके कोमल अधरों का अमृतपान करने के लिए लालायित रहती है। वे आत्मसंयम का बहाना करके अपने कमल सदृश मुख को लटकाये रहती हैं, किन्तु वे कृष्ण के प्रति उनके स्वयंस्फूर्त रागानुग प्रेम के बाह्य लक्षण को प्रकट होने से रोक नहीं सकतीं।'
ताते जानि, मोते आछे कोन एक रस ।। आमार मोहिनी राधा, तारे करे वश ॥
२६१॥
यह विचार करने पर मैं समझ सकता हूँ कि मुझमें कोई अज्ञात रस है, जो मुझे मोहित करने वाली श्रीमती राधारानी को सम्पूर्ण रूप से वश में करता है।
आमा हैते राधा पाय ग्रे जातीय सुख ।। ताहा आस्वादिते आमि सदाई उन्मुख ॥
२६२॥
मैं सदैव उस सुख का आस्वादन करने के लिए उत्सुक रहता हूँ, जो राधारानी मुझसे प्राप्त करती है।
नाना ग्रन करि आमि, नारि आस्वादिते । सेइ सुख-माधु-घ्राणे लोभ बाढ़ चित्ते ॥
२६३॥
- अनेक प्रयत्नों के बाद भी मैं उसका आस्वादन करने के लिए समर्थ नहीं हो सका। किन्तु जब मैं इसकी मधुरता को सँघता हूँ, तो उस सुख का आस्वादन करने की मेरी इच्छा बढ़ जाती है।
रस आस्वादिते आमि कैल अवतार । प्रेम-रस आस्वादिल विविध प्रकार ॥
२६४॥
पहले मैं रसों का आस्वादन करने के लिए संसार में प्रकट हुआ था और मैंने शुद्ध प्रेम के रसों का अनेक प्रकार से आस्वादन किया।
राग-मार्गे भक्त भक्ति करे ने प्रकारे । ताहा शिखाइल लीला-आचरण-द्वारे ॥
२६५॥
मैंने भक्तों को रागानुग प्रेम से प्रकट होने वाली भक्ति की शिक्षा । अपनी लीलाओं का प्रदर्शन करके प्रदान की।
एइ तिन तृष्णा मोर नहिल पूरण ।। विजातीय-भावे नहे ताहा आस्वादन ॥
२६६॥
किन्तु मेरी ये तीन इच्छाएँ पूरी नहीं हुईं, क्योंकि विपरीत पद में इनका आस्वादन नहीं किया जा सकता।
राधिकार भाव-कान्ति अङ्गीकार विने । सेइ तिन सुख कभु नहे आस्वादने ॥
२६७॥
यदि मैं श्री राधिका के प्रेम-भाव तथा कान्ति को स्वीकार नहीं करूँगा, तो ये तीन इच्छाएँ पूरी नहीं हो सकेगी।
राधा-भाव अङ्गीकरि' धरि' तार वर्ण ।।तिने-सुख आस्वादिते हब अवतीर्ण ॥
२६८॥
अतएव राधारानी के भावों को तथा उनके शारीरिक वर्ण को धारण करके इन तीनों इच्छाओं को पूरा करने के लिए मैं अवतरित हूँगा।
सर्व-भावे कैल कृष्ण एइ त निश्चय ।।हेन-काले आइल युगावतार-समय ॥
२६९॥
इस तरह भगवान् कृष्ण इस निर्णय पर पहुँचे। उसी समय युगावतार का समय भी आ गया।
सेइ-काले श्री-अद्वैत करेन आराधन ।ताँहार हुङ्कारे कैल कृष्णे आकर्षण ॥
२७० ॥
उस समय श्री अद्वैत निष्ठा से उनकी पूजा कर रहे थे। उन्होंने अपनी तेज पुकार से भगवान् को आकृष्ट किया।
पिता-माता, गुरु-गण, आगे अवतारि' । राधिकार भाव-वर्ण अङ्गीकार करि' ॥
२७१॥
नव-द्वीपे शची-गर्भ-शुद्ध-दुग्ध-सिन्धु । ताहाते प्रकट हैला कृष्ण पूर्ण इन्दु ॥
२७२॥
सर्वप्रथम भगवान् कृष्ण ने अपने माता-पिता एवं गुरुजनों को प्रकट होने दिया। स्वयं कृष्ण, राधिका का भाव एवं उनका वर्ण लेकर, नवद्वीप में क्षीर सागर के समान माता शची की कोख से पूर्ण चन्द्रमा के समान प्रकट हुए।
एइ त' करिहुँ षष्ठ श्लोकेर व्याख्यान ।श्री-रूप-गोसाजिर पाद-पद्म करि' ध्यान ॥
२७३ ॥
मैंने श्री रूप गोस्वामी के चरणकमलों का ध्यान करके छठे श्लोक की इस तरह व्याख्या की है।
एइ दुइ श्लोकेर आमि ग्रे करिल अर्थ । श्री-रूप-गोसाजिर श्लोक प्रमाण समर्थ ॥
२७४॥
मैं इन दो श्लोकों (प्रथम अध्याय के श्लोक ५ तथा ६) की व्याख्या की पुष्टि श्रील रूप गोस्वामी के श्लोक से कर सकता हूँ।
अपारं कस्यापि प्रणयि-जन-वृन्दस्य कुतुकीरस-स्तोमं हृत्वा मधुरमुपभोक्तुं कमपि यः । रुचं स्वामाव→ द्युतिमिह तदीयां प्रकटयन् । स देवश्चैतन्याकृतिरतितरां नः कृपयतु ॥
२७५ ॥
भगवान् कृष्ण प्रेमिकाओं के समूह में से एक ( श्री राधा ) के असीम प्रेम के अमृत रस का आस्वादन करना चाहते थे; अतएव उन्होंने चैतन्य महाप्रभु का स्वरूप धारण किया है। उन्होंने राधा के तेजोमय गौरवर्ण से ने श्यामवर्ण को छिपाते हुए उस प्रेम का आस्वादन किया है। वे चैतन्य भु हम सबको अपनी कृपा प्रदान करें।"
मङ्गलाचरणं कृष्ण-चैतन्य-तत्त्व-लक्षणम् । प्रयोजनं चावतारे श्लोक-षट्कैर्निरूपितम् ॥
२७६॥
इस प्रकार प्रथम छह श्लोकों में मंगलाचरण, श्री चैतन्य के तत्त्व का अनिवार्य लक्षण एवं उनके प्राकट्य के कारण को प्रस्तुत किया गया है।"
श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश । चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
२७७॥
मैं कृष्णदास श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों में प्रार्थना करते हुए और उनकी कृपा की आकांक्षा करते हुए तथा उनके पदया। पर चलकर श्री चैतन्य-चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।"
अध्याय पांच: भगवान नित्यानंद बलराम की महिमा
वन्देऽनन्ताद्भुतैश्वर्यं श्री-नित्यानन्दमीश्वरम् ।। ग्रस्येच्छया तत्स्वरूपमज्ञेनापि निरूप्यते ॥
१॥
मैं उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्री नित्यानन्द प्रभु को नमस्कार करता हैं, जिनका ऐश्वर्य अद्भुत तथा असीम है। उनकी इच्छा होने पर एक मूर्ख भी उनके स्वरूप को समझ सकता है।
जय जय श्री-चैतन्य जय नित्यानन्द ।। जयाद्वैत-चन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ॥
२ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! श्री अद्वैत आचार्य की जय हो! और श्री चैतन्य महाप्रभु के सारे भक्तों की जय हो! एइ षट्श्लोके कहिल कृष्ण-चैतन्य-महिमा ।। पञ्च-श्लोके कहि नित्यानन्द-तत्त्व-सीमा ॥
३ ॥
मैंने श्रीकृष्ण चैतन्य की महिमा का वर्णन छह श्लोकों में किया है। अब मैं पाँच श्लोकों में भगवान् श्री नित्यानन्द की महिमा का वर्णन करूंगा।
सर्व-अवतारी कृष्ण स्वयं भगवान् । ताँहार द्वितीय देह श्री-बलराम ॥
४॥
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण समस्त अवतारों के स्रोत हैं। भगवान् बलराम उनके द्वितीय शरीर हैं।
एक स्वरूप दोहे, भिन्न-मात्र काय । आद्य काय-व्यूह, कृष्ण-लीलार सहाय ॥
५॥
वे दोनों एक ही रूप हैं। केवल उनके शरीर में अन्तर है। भगवान् बलराम कृष्ण के प्रथम शारीरिक विस्तार (कायव्यूह ) हैं और कृष्ण की दिव्य लीलाओं में सहायक होते हैं।
सेइ कृष्ण नवद्वीप श्री-चैतन्य-चन्द्र ।सेइ बलराम–सङ्गे श्री-नित्यानन्द ॥
६॥
वे मूल भगवान् कृष्ण नवद्वीप में श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए और श्री बलराम उनके साथ श्री नित्यानन्द प्रभु के रूप में प्रकट हुए।
सङ्कर्षणः कारण-तोय-शायीगर्भोद-शायी च पयोब्धि-शायी । शेषश्च यस्यांश-कलाः स नित्यानन्दाख्य-रामः शरणं ममास्तु ॥
७॥
वे श्री नित्यानन्द राम मेरे निरन्तर स्मरण के लक्ष्य बनें, जिनके पूर्णाश तथा पूर्णांश के अंश संकर्षण, शेषनाग तथा वे विष्णु हैं, जो क्रमशः कारण-सागर, गर्भ-सागर तथा क्षीर-सागर में शयन करते हैं।
श्री-बलराम गोसाजि मूल-सङ्कर्षण ।।पञ्च-रूप धरि' करेन कृष्णेर सेवन ॥
८॥
। भगवान् बलराम मूल संकर्षण हैं। वे भगवान् कृष्ण की सेवा करने के लिए पाँच अन्य रूप धारण करते हैं।
आपने करेन कृष्ण-लीलार सहाय ।सृष्टि-लीला-कार्य करे धरि' चारि काय ॥
९॥
वे स्वयं भगवान् कृष्ण की लीलाओं में सहायता करते हैं और चार अन्य रूपों में सृजन-कार्य भी करते हैं।
सृष्ट्यादिक सेवा, ताँर आज्ञार पालन ।।‘शेष'-रूपे करे कृष्णोर विविध सेवन ॥
१० ॥
वे सृष्टि-कार्य में भगवान् कृष्ण के आदेशों का पालन करते हैं और भगवान् शेष के रूप में वे कृष्ण की अनेक प्रकार से सेवा करते हैं।
सर्व-रूपे आस्वादये कृष्ण-सेवानन्द ।।सेइ बलराम–गौर-सङ्गे नित्यानन्द ॥
११॥
वे अपने समस्त रूपों में कृष्ण की सेवा करने के दिव्य आनन्द का स्वादन करते हैं। वे बलराम ही भगवान् गौरसुन्दर के सहचर नित्यानन्द प्रभु हैं।
सप्तम श्लोकेर अर्थ करि चारि-श्लोके ।।ग्राते नित्यानन्द-तत्त्व जाने सर्व-लोके ॥
१२॥
मैंने इस सातवें श्लोक की व्याख्या लगातार चार श्लोकों में की है। न श्लोकों से सारा संसार नित्यानन्द प्रभु के विषय में सत्य को जान सकता है।
मायातीते व्यापि-वैकुण्ठ-लोके पूर्णेश्वर्ये श्री-चतुयूंह-मध्ये ।। रूपं ग्रस्योद्भाति सङ्कर्षणाख्यंतं श्री-नित्यानन्द-रामं प्रपद्ये ॥
१३॥
मैं उन श्री नित्यानन्द राम के चरणकमलों की शरण ग्रहण करता है. जो चतुयूंह के मध्य संकर्षण नाम से विख्यात हैं ( चतुयूंह में वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध सम्मिलित हैं)। वे समस्त ऐश्वर्यों से युक्त हैं और इस भौतिक जगत् से बहुत दूर वैकुण्ठ-लोक में निवास करते हैं।
प्रकृतिर पार ‘परव्योम'-नामे धाम ।। कृष्ण-विग्रह ग्रैछे विभूत्यादि-गुणवान् ॥
१४॥
भौतिक प्रकृति से परे परव्योम अर्थात् आध्यात्मिक आकाश है। यह साक्षात् कृष्ण की ही तरह समस्त दिव्य गुणों-यथा छह ऐश्वर्यो-से युक्त है।
सर्वग, अनन्त, विभु–वैकुण्ठादि धाम ।।कृष्ण, कृष्ण-अवतारेर ताहात्रि विश्राम ॥
१५ ॥
वह वैकुण्ठ धाम सर्वव्यापी, अनन्त एवं परम पूर्ण है। वह भगवान् कृष्ण तथा उनके अवतारों का आवास है।
ताहार उपरि-भागे 'कृष्ण-लोक'-ख्याति ।द्वारका-मथुरा-गोकुल–त्रि-विधत्वे स्थिति ॥
१६॥
उस आध्यात्मिक आकाश के सर्वोच्च भाग में कृष्यालोक नामक आध्यात्मिक लोक है। इसके तीन विभाग हैं-द्वारका, मथुरा तथा गोकुल।
सर्वोपरि श्री-गोकुल-व्रजलोक-धाम ।। श्री-गोलोक, श्वेतद्वीप, वृन्दावन नाम ॥
१७॥
इनमें से सर्वोच्च श्री गोकुल है, जो व्रज, गोलोक, श्वेतद्वीप तथा वृन्दावन भी कहलाता है।
सर्वग, अनन्त, विभु, कृष्ण-तनु-सम ।। उपर्युधो व्यापियाछे, नाहिक नियम ॥
१८ ॥
भगवान् कृष्ण के दिव्य शरीर के ही समान गोकुल सर्वव्यापी, अनन्त तथा सर्वोपरि है। यह किसी प्रतिबन्ध के बिना ऊपर तथा नीचे तक विस्तृत है।
ब्रह्माण्डे प्रकाश तार कृष्णेर इच्छाय । एक स्वरूप तार, नाहि दुई काय ॥
१९॥
वह धाम भगवान् कृr की इच्छा से भौतिक जगत् के भीतर प्रकट होता है। यह मूल गोकुल से भिन्न है। ये दो भिन्न-भिन्न स्थान नहीं हैं।
चिन्तामणि-भूमि, कल्प-वृक्ष-मय वन । चर्म-चक्षे देखे तारे प्रपञ्चेर सम ॥
२०॥
वहाँ की भूमि चिन्तामणि की बनी हुई है और वन कल्पवृक्षों से पूर्ण हैं। भौतिक आँखें इसे सामान्य स्थान के रूप में देखती हैं।
प्रेम-नेत्रे देखे तार स्वरूप-प्रकाश ।। गोप-गोपी-सङ्गे याँहा कृष्णेर विलास ॥
२१॥
किन्तु भगवत्प्रेम से पूरित नेत्रों से मनुष्य इस स्थान के वास्तविक वरूप को देख सकता है, जहाँ भगवान् कृष्ण ग्वालबालों और गोपियों के साथ अपनी लीलाएँ करते हैं।
चिन्तामणि-प्रकर-सद्मसु कल्प-वृक्ष लक्षावृतेषु सुरभीरभिपालयन्तम् । लक्ष्मी-सहस्र-शत-सम्भ्रम-सेव्यमानंगोविन्दमादि-पुरुषं तमहं भजामि ॥
२२॥
मैं उन आदि पुरुष भगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ, जो समस्त इच्छाओं को पूर्ण करने वाली गौओं का चिन्तामणियों से निर्मित और करोड़ों कल्पवृक्षों से घिरे अपने धाम में पालन करते हैं। उनकी सेवा में सदैव सैकड़ों-हजारों लक्ष्मियाँ अत्यन्त आदर एवं स्नेह के साथ तत्पर रहती हैं।
मथुरा-द्वारकाय निज-रूप प्रकाशिया ।। नाना-रूपे विलसये चतुयूंह हैजा ॥
२३॥
भगवान् कृष्ण अपने निजी रूप को मथुरा तथा द्वारका में प्रकाशित करते हैं। वे चतुयूंह रूपों में अपना विस्तार करके नाना प्रकार से लीलाओं का आनन्द लेते हैं।
वासुदेव-सङ्कर्षण-प्रद्युम्नानिरुद्ध ।।सर्व-चतुयूंह-अंशी, तुरीय, विशुद्ध ॥
२४॥
वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध-ये चार मूल चतुयूंह रूप हैं, जिनसे अन्य सारे चतुयूंह रूप प्रकट होते हैं। वे सभी शुद्ध रूप से दिव्य हैं।
एइ तिन लोके कृष्ण केवल-लीला-मय । निज-गण लञा खेले अनन्त समय ॥
२५॥
केवल इन्हीं तीन स्थानों में (द्वारका, मथुरा तथा गोकुल में ) लीलामय भगवान् कृष्ण अपने निजी संगियों के साथ अनन्त लीलाएँ करते हैं।
पर-व्योम-मध्ये करि' स्वरूप प्रकाश ।नारायण-रूपे करेन विविध विलास ॥
२६॥
परव्योम के वैकुण्ठ-लोकों में भगवान् नारायण रूप में प्रकट होते हैं और नाना प्रकार से लीलाएँ करते हैं।
स्वरूप-विग्रह कृष्णेर केवल द्वि-भुज । नारायण-रूपे सेइ तनु चतुर्भुज ॥
२७॥
शङ्ख-चक्र-गदा-पद्म, महैश्वर्य-मय ।।श्री-भू-नीला-शक्ति याँर चरण सेवय ॥
२८॥
। कृष्ण के निजी रूप में केवल दो भुजाएँ होती हैं, किन्तु उनके नारायण रूप में चार भुजाएँ रहती हैं। भगवान् नारायण शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण करते हैं और वे परम ऐश्वर्यमय हैं। श्री, भू तथा नीला नामक शक्तियाँ उनके चरणकमलों की सेवा करती हैं।
यद्यपि केवल ताँर क्रीड़ा-मात्र धर्म ।।तथापि जीवेरे कृपाय करे एक कर्म ॥
२९॥
'। यद्यपि उनकी लीलाएँ उनके एकमात्र विशेष कार्य हैं, किन्तु वे अपनी अहेतुकी कृपा से पतितात्माओं के लिए एक कार्य करते हैं।
सालोक्य-सामीप्य-सार्टि-सारूप्य-प्रकार ।चारि मुक्ति दिया करे जीवेर निस्तार ॥
३० ॥
वे पतितात्माओं को चार प्रकार की मुक्ति-सालोक्य, सामीप्य, सार्टि तथा सारूप्य-प्रदान करके उनका उद्धार करते हैं।
ब्रह्म-सायुज्य-मुक्तेर ताहा नाहि गति ।वैकुण्ठ-बाहिरे हय ता'-सबार स्थिति ॥
३१॥
जिन्हें ब्रह्म-सायुज्य मुक्ति प्राप्त होती है, वे वैकुण्ठ-लोक में प्रविष्ट नहीं हो सकते। उनका निवास वैकुण्ठ-लोक के बाहर होता है।
वैकुण्ठ-बाहिरे एक ज्योतिर्मय मण्डल ।।कृष्णेर अङ्गेर प्रभा, परम उज्वल ॥
३२॥
वैकुण्ठ-लोक के बाहर दीप्तियुक्त तेज का वायुमण्डल है, जो भगवान् कृष्ण के शरीर की परम उज्वल किरणों से बना होता है।
‘सिद्ध-लोक' नाम तार प्रकृतिर पार ।चित्स्वरूप, ताँहा नाहि चिच्छक्ति विकार ॥
३३॥
यह भाग सिद्धलोक कहलाता है और भौतिक प्रकृति के परे होता है। पद आध्यात्मिक होता है, किन्तु इसमें आध्यात्मिक विविधता नहीं रहती।
सूर्य-मण्डल नेने बाहिरे निर्विशेष ।।भितरे सूर्येर रथ-आदि सविशेष ॥
३४॥
यह सूर्य के चारों ओर पाये जाने वाले समरूप तेज के समान है। किन्तु सूर्य के भीतर रथ, घोड़े तथा सूर्यदेव के अन्य ऐश्वर्य रहते हैं।
कामाद्वेषाद्भयात्स्नेहा ग्रथा भक्त्येश्वरे मनः ।। आवेश्य तदघं हित्वा बहवस्तद्गतिं गताः ॥
३५॥
जिस तरह भगवान् की भक्ति से भगवद्धाम प्राप्त किया जा सकता है, उसी तरह कइयों ने अपने पापमय कर्मों को त्यागकर तथा काम, क्रोध, भय या स्नेह के द्वारा अपने मन को भगवान् में लगाकर उसी गति को प्राप्त किया है।
ग्रदरीणां प्रियाणां च प्राप्यमेकमिवोदितम् ।तद्ब्रह्म-कृष्णयौरैक्यात्किरणार्कोपमा-जुषोः ॥
३६॥
जहाँ यह कहा गया है कि भगवान् के शत्रु तथा भक्त एक ही गति प्राप्त करते हैं, वहाँ इसका आशय यह है कि ब्रह्म तथा भगवान् कृष्ण अन्ततः एक ही हैं। इसे सूर्य तथा सूर्य-प्रकाश के दृष्टान्त से समझा जा सकता है, जिसमें ब्रह्म सूर्य-प्रकाश के समान है और स्वयं कृष्ण सूर्य के समान हैं।
तैछे पर-व्योमे नाना चिच्छक्ति-विलास ।निर्विशेष ज्योतिर्बिम्ब बाहिरे प्रकाश ॥
३७॥
। इस तरह परव्योम में आध्यात्मिक शक्ति के अन्तर्गत अनेक प्रकार की । लीलाएँ होती हैं। वैकुण्ठ-लोकों के बाहर प्रकाश का निर्विशेष प्रतिबिम्ब प्रकट होता है।
निर्विशेष-ब्रह्म सेइ केवल ज्योतिर्मय ।सायुज्येर अधिकारी ताँहा पाय लय ॥
३८॥
उस निर्विशेष ब्रह्मतेज में केवल भगवान् की तेजोमय किरणें होती हैं। जो लोग सायुज्य मुक्ति के लिए उपयुक्त होते हैं, वे उस तेज में समा जाते हैं।
सिद्ध-लोकस्तु तमसः पारे यत्र वसन्ति हि।सिद्धा ब्रह्म-सुखे मग्ना दैत्याश्च हरिणा हताः ॥
३९॥
तमो क्षेत्र ( भौतिक ब्रह्माण्ड) के परे सिद्धलोक का क्षेत्र स्थित है। वहाँ पर सिद्धगण ब्रह्मानन्द में मग्न होकर निवास करते हैं। भगवान् के रा मारे गये असुर भी उसी क्षेत्र को प्राप्त करते हैं।
सेइ पर-व्योमे नारायणेर चारि पाशे ।द्वारका-चतुयूँहेर द्वितीय प्रकाशे ॥
४०॥
उस परव्योम में नारायण के चारों ओर द्वारका के चतुयूंह के द्वितीय विस्तार रहते हैं।
वासुदेव-सङ्कर्षण-प्रद्युम्नानिरुद्ध ।‘द्वितीय चतुर्व्यह' एई—तुरीय, विशुद्ध ॥
४१॥
। इस द्वितीय चतुयूंह में वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध आते है। वे नितान्त दिव्य हैं।
ताँहा ने रामेर रूप-महा-सङ्कर्षण ।चिच्छक्ति-आश्रय तिंहो, कारणेर कारण ॥
४२॥
वहाँ पर (परव्योम में) बलराम के साकार स्वरूप, जो महासंकर्षण कहलाते हैं, आध्यात्मिक शक्ति के आश्रय हैं। वे मूल कारण हैं, अर्थात् समस्त कारणों के कारण हैं।
चिच्छक्ति-विलास एक–‘शुद्ध-सत्त्व' नाम ।शुद्ध-सत्त्व-मय व्रत वैकुण्ठादि-धाम ॥
४३॥
। आध्यात्मिक शक्ति की एक लीला विशुद्ध सत्त्व के रूप में वर्णित है। इसमें सारे वैकुण्ठ-धाम सम्मिलित हैं।
षडू-विधैश्वर्य ताँहा सकल चिन्मय ।। सङ्कर्षणेर विभूति सब, जानिह निश्चय ॥
४४॥
सारे छहों ऐश्वर्य आध्यात्मिक हैं। इसे निश्चित रूप से जानिए कि ये सब संकर्षण के ऐश्वर्य की ही अभिव्यक्तियाँ हैं।
‘जीव'-नाम तटस्थाख्य एक शक्ति हय । महा-सङ्कर्षण—सब जीवेर आश्रय ॥
४५ ॥
एक तटस्था शक्ति है, जो जीव कहलाती है। महासंकर्षण समस्त जीवों के आश्रय हैं।
ग्राँहा हैते विश्वोत्पत्ति, ग्राँहाते प्रलय । सेइ पुरुषेर सङ्कर्षण समाश्रय ॥
४६॥
संकर्षण पुरुष के मूल आश्रय हैं, जिनसे यह जगत् उत्पन्न होता है और जनमें यह विलीन हो जाता है।
सर्वाश्रय, सर्वाद्भुत, ऐश्वर्य अपार ।'अनन्त' कहते नारे महिमा याँहार ॥
४७॥
वे (संकर्षण) सबके आश्रय हैं। वे हर प्रकार से अद्भुत हैं और उनको ऐश्वर्य अपार है, यहाँ तक कि अनन्त भी उनकी महिमा का वर्णन नहीं कर सकते।
तुरीय, विशुद्ध-सत्त्व, ‘सङ्कर्षण' नाम ।।तिंहो याँर अंश, सेइ नित्यानन्द-राम ॥
४८॥
वे दिव्य शुद्ध सत्त्व संकर्षण नित्यानन्द बलराम के अंश विस्तार हैं।
अष्टम श्लोकेर कैल सङ्क्षेपे विवरण ।नवम श्लोकेर अर्थ शुन दिया मन ॥
४९॥
मैंने आठवें श्लोक का संक्षिप्त विवेचन किया है। अब कृपा करके ध्यानपूर्वक नवें श्लोक की व्याख्या सुनें।
माया-भर्ताजाण्ड-सङ्घाश्रयाङ्गः शेते साक्षात्कारणाम्भोधि-मध्ये । ग्रस्यैकांशः श्री-पुमानादि-देवस् ।तं श्री-नित्यानन्द-रामं प्रपद्ये ॥
५०॥
मैं श्री नित्यानन्द राम के चरणों में पूर्ण दण्डवत् प्रणाम अर्पित करता हैं, जिनके अंशरूप कारण-सागर में लेटे हुए कारणोदकशायी विष्णु आदि पुरुष हैं, माया के पति हैं और समस्त ब्रह्माण्डों के आश्रय हैं।
वैकुण्ठ-बाहिरे येइ ज्योतिर्मय धाम ।ताहार बाहिरे 'कारणार्णव' नाम ॥
५१॥
वैकुण्ठ ग्रहों के बाहर निर्विशेष ब्रह्मतेज है और इस तेज से परे करणार्णव या कारण सागर है।
वैकुण्ठ बेड़िया एक आछे जल-निधि ।।अनन्त, अपार—तार नाहिक अवधि ॥
५२॥
वैकुण्ठ के चारों ओर अपार जलराशि है, जो अनन्त, अगाध और। असीम है।
वैकुण्ठेर पृथिव्यादि सकल चिन्मय ।मायिक भूतेर तथि जन्म नाहि हय ॥
५३॥
वैकुण्ठ में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश-सभी आध्यात्मिक हैं। वहाँ भौतिक तत्त्व नहीं पाये जाते।
चिन्मय-जल सेइ परम कारण ।ग्रार एक कणा गङ्गा पतित-पावन ॥
५४॥
अतएव परम कारण स्वरूप कारण सागर का जल आध्यात्मिक है। पत्र गंगा नदी, जो उसकी एक बूंद मात्र है, पतितात्माओं को शुद्ध नाती है।
सेइ त' कारणार्णवे सेइ सङ्कर्षण ।।आपनार एक अंशे करेन शयन ॥
५५॥
उस सागर में भगवान् संकर्षण के एक पूर्ण अंश शयन करते हैं।
महत्स्रष्टा पुरुष, तिंहो जगत्कारण ।।आद्य-अवतार करे मायाय ईक्षण ॥
५६॥
वे समग्र भौतिक शक्ति के सृजनकर्ता प्रथम पुरुष के नाम से जाने जाते हैं। वे समस्त ब्रह्माण्डों के कारण एवं प्रथम पुरुष अवतार माया के ऊपर दृष्टिपात करते हैं।
माया-शक्ति रहे कारणाब्धिर बाहिरे । कारण-समुद्र माया परशिते नारे ॥
५७॥
मायाशक्ति कारण सागर के बाहर निवास करती है। माया इसके जन को स्पर्श नहीं कर सकती।
सेइ त' मायार दुइ-विध अवस्थिति ।। जगतेर उपादान ‘प्रधान', प्रकृति ॥
५८ ॥
माया का अस्तित्व दो प्रकार का होता है। एक प्रधान या प्रकृति कहलाता है। यह भौतिक जगत् के अवयवों ( उपादानों ) की पूर्ति करता है।
जगत्कारण नहे प्रकृति जड़-रूपा ।शक्ति सञ्चारिया तारे कृष्ण करे कृपा ॥
५९॥
चूंकि प्रकृति जड़ तथा निष्क्रिय है, अतएव यह वास्तव में भौतिक जगत् की कारण नहीं हो सकती। लेकिन भगवान् कृष्ण जड़ निष्क्रिय भौतिक प्रकृति में अपनी शक्ति संचारित करके अपनी कृपा प्रदर्शित करते हैं।
कृष्ण-शक्त्ये प्रकृति हय गौण कारण ।। अग्नि-शक्त्ये लौह प्रैछे करये जारण ॥
६०॥
इस तरह भगवान् कृष्ण की शक्ति के द्वारा प्रकृति गौण कारण बन जाती है, जिस तरह लोहा अग्नि की शक्ति से लाल हो जाता है।
अतएव कृष्ण मूल-जगत्कारण । प्रकृति कारण ग्रैछे अजा-गल-स्तन ॥
६१॥
अतएव भगवान् कृष्ण इस जगत् के प्राकट्य के मूल कारण हैं।प्रकृति तो बकरी के गले से लटकने वाले उन स्तनों की भाँति है, जिनसे नहीं निकलता।
माया-अंशे कहि तारे निमित्त-कारण ।सेह नहे, ग्राते कर्ता-हेतु–नारायण ॥
६२॥
भौतिक प्रकृति का माया अंश विश्व के प्राकट्य का तात्कालिक कारण है। किन्तु यह वास्तविक कारण नहीं हो सकता, क्योंकि मूल कारण तो भगवान् नारायण हैं।
घटेर निमित्त-हेतु ग्रैछे कुम्भकार । तैछे जगतेर कर्ता–पुरुषावतार ॥
६३॥
जिस प्रकार मिट्टी के पात्र का मूल कारण कुम्हार है, उसी तरह तिक जगत् के स्रष्टा प्रथम पुरुषावतार (कारणार्णवशायी विष्णु) हैं।
कृष्ण-—कर्ता, माया ताँर करेन सहाय ।घटेर कारण—चक्र-दण्डादि उपाय ॥
६४॥
भगवान् कृष्ण स्रष्टा हैं और माया उपकरण के रूप में उनकी सहायता के लिए है, ठीक वैसे ही जैसे कुम्हार का चाक तथा अन्य उपकरण पात्र के साधन-रूप कारण होते हैं।
दूर हैते पुरुष करे मायाते अवधान ।जीव-रूप वीर्य ताते करेन आधान ॥
६५ ॥
प्रथम पुरुष दूर से माया पर दृष्टिपात करते हैं और इस प्रकार वे जीव रूपी वीर्य से गर्भाधान कराते हैं।
एक अङ्गाभासे करे मायाते मिलन ।। माया हैते जन्मे तबे ब्रह्माण्डेर गण ॥
६६॥
उसके शरीर की प्रतिफलित किरणें माया से मिलती हैं, जिसके फलस्वरूप माया अनेक ब्रह्माण्डों को जन्म देती है।
अगण्य, अनन्त व्रत अण्ड-सन्निवेश । तत-रूपे पुरुष करे सबाते प्रकाश ॥
६७ ॥
पुरुष असंख्य ब्रह्माण्डों में से प्रत्येक में प्रवेश करते हैं। वे अपने आपको उतने ही पृथक् रूपों में प्रकट करते हैं, जितने कि ब्रह्माण्ड हैं।
पुरुष-नासाते यबे बाहिराय श्वास ।निश्वास सहिते हय ब्रह्माण्ड-प्रकाश ॥
६८ ॥
जब पुरुष श्वास छोड़ते हैं, तो प्रत्येक उच्छ्वास के साथ ब्रह्माण्ड प्रकट होते हैं।
पुनरपि श्वास ग्रबे प्रवेशे अन्तरे ।श्वास-सह ब्रह्माण्ड पैशे पुरुष-शरीरे ॥
६९॥
तत्पश्चात् जब वे श्वास लेते हैं, तब सारे ब्रह्माण्ड पुनः उसके शरीर में प्रवेश कर जाते हैं।
गवाक्षेर रन्ध्र ग्रेन त्रसरेणु चले ।।पुरुषेर लोम-कूपे ब्रह्माण्डेर जाले ॥
७० ॥
जिस प्रकार धूल के छोटे-छोटे कण खिड़की के छेदों से निकल जाते हैं, उसी तरह ब्रह्माण्डों के समूह पुरुष के रोम-छिद्रों से होकर निकल जाते हैं।
यस्यैक-निश्वसित-कालमथावलम्ब्यजीवन्ति लोम-विलजी जगदण्ड-नाथाः । विष्णुर्महान्स इह ग्रस्य कला-विशेषोगोविन्दमादि-पुरुषं तमहं भजामि ॥
७१॥
ब्रह्मागण तथा भौतिक लोकों के अन्य स्वामी महाविष्णु के रोमछिद्रों से उत्पन्न होते हैं और उनके एक उच्छवास-काल तक जीवित रहते हैं। मैं उन आदि भगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ, महाविष्ण। जिनके पूर्ण अंश के अंश हैं।
क्वाहं तमो-महदहं-ख-चराग्नि-वार्मूसंवेष्टिताण्ड-घट-सप्त-वितस्ति-कायः । क्वेद्दग्विधाविगणिताण्ड-पराणु-चर्यावाताध्व-रोम-विवरस्य च ते महित्वम् ॥
७२॥
मैं अपने हाथ के सात बित्ताओं के माप वाला क्षुद्र प्राणी कहाँ हूँ? में भौतिक प्रकृति, समग्र भौतिक शक्ति, मिथ्या अहंकार, आकाश, वायु, जल तथा पृथ्वी से निर्मित इस ब्रह्माण्ड से घिरा हुआ हूँ। और आपकी महिमा क्या है? आपके शरीर के रोमकूपों से असंख्य ब्रह्माण्ड उसी तरह निकल रहे हैं, जिस प्रकार खिड़की के छेद से धूल के कण निकलते हैं।
अंशेर अंश ग्रेइ, 'कला' तार नाम । गोविन्देर प्रतिमूर्ति श्री-बलराम ॥
७३॥
सम्पूर्ण के अंश का अंश 'कला' कहलाता है। श्री बलराम तो भगवान् गोविन्द के प्रतिरूप हैं।
ताँर एक स्वरूप—श्री-महा-सङ्कर्षण । ताँर अंश 'पुरुष' हय कलाते गणन ॥
७४॥
बलराम के निजी विस्तार महासंकर्षण कहलाते हैं और उनके अंश 'पुरुष' कला ( अर्थात् पूर्ण अंश के अंश) कहलाते हैं।
याँहाके त' कला कहि, तिंहो महा-विष्णु । महा-पुरुषावतारी तेंहो सर्व-जिष्णु ॥
७५ ॥
मैं कहता हूँ कि यह कला महाविष्णु हैं। वे महापुरुष हैं, जो अन्य पुरुषों के स्रोत हैं और जो सर्वव्यापी हैं।
गर्भोद-क्षीरोद-शायी दोंहे 'पुरुष' नाम ।।सेइ दुइ, याँर अंश, विष्णु, विश्व-धाम ॥
७६॥
गर्भोदकशायी तथा क्षीरोदकशायी दोनों पुरुष कहलाते हैं। वे प्रथम पुरुष और समस्त ब्रह्माण्डों के धाम कारणोदकशायी विष्णु के पूर्ण अंश हैं।
विष्णोस्तु त्रीणि रूपाणि पुरुषाख्यान्यथो विदुः ।। एकं तु महतः स्रष्ट द्वितीयं त्वण्ड-संस्थितम् ।। तृतीयं सर्व-भूत-स्थं तानि ज्ञात्वा विमुच्यते ॥
७७ ॥
विष्णु के तीन रूप हैं, जो पुरुष कहलाते हैं। पहला रूप महाविष्णु है, जो सम्पूर्ण भौतिक शक्ति ( महत्) के स्रष्टा हैं, दूसरा रूप । गर्भोदकशायी है, जो प्रत्येक ब्रह्माण्ड में स्थित रहते हैं और तीसरा रूप क्षीरोदकशायी है, जो हर जीव के हृदय में निवास करते हैं। जो व्यक्ति इन। तीनों को जानता है, वह माया के चंगुल से मुक्त हो जाता है।
यद्यपि कहिये ताँरे कृष्णेर 'कला' करि । मत्स्य-कूर्माद्यवतारेर तिंहो अवतारी ॥
७८॥
यद्यपि कारणोदकशायी विष्णु को भगवान् कृष्ण की 'कला' कहा जाता है, किन्तु वे मत्स्य, कूर्म तथा अन्य अवतारों के उद्गम हैं।
एते चांश-कलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान्स्वयम् ।। इन्द्रारि-व्याकुलं लोकं मृड़यन्ति मुगे युगे ॥
७९॥
भगवान् के ये सारे अवतार या तो पुरुषावतारों के पूर्ण अंश हैं या पूर्णाशों अंश हैं। किन्तु कृष्ण तो स्वयं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं। जब संसार इन्द्र के शत्रुओं से व्याकुल हो जाता है, तब वे प्रत्येक युग में अपने विभिन्न स्वरूपों के द्वारा संसार की रक्षा करते हैं।
सेइ पुरुष सृष्टि-स्थिति-प्रलयेर कर्ता । नाना अवतार करे, जगतेर भर्ता ॥
८०॥
वे पुरुष ( कारणोदकशायी विष्णु) सृजन, पालन और संहार करने वाले हैं। वे नाना अवतारों में अपने आपको प्रकट करते हैं, क्योंकि वे जगत् के पालनहार हैं।
सृष्ट्यादि-निमित्ते येइ अंशेर अवधान ।सेइ त' अंशेरे कहि 'अवतार' नाम ॥
८१॥
सृजन, पालन तथा संहार के निमित्त प्रकट होने वाले भगवान् के अंश, जो महापुरुष के नाम से जाने जाते हैं, अवतार कहलाते हैं।
आद्यावतार, महा-पुरुष, भगवान् । सर्व-अवतार-बीज, सर्वाश्रय-धाम ॥
८२।। वे महापुरुष भगवान् से अभिन्न हैं। वे मूल अवतार, अन्य सबके बीज तथा हर वस्तु के आश्रय हैं।
आद्योऽवतारः पुरुषः परस्यकालः स्वभावः सदसन्मनश्च । द्रव्यं विकारो गुण इन्द्रियाणिविराट्स्वराट्स्थास्नु चरिष्णु भूम्नः ॥
८३॥
पुरुष ( महाविष्णु) पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के प्रमुख अवतार हैं। फाल, स्वभाव, प्रकृति ( कार्य-कारण के रूप में), मन, भौतिक तत्त्व, मिथ्या अहंकार, प्रकृति के गुण, इन्द्रियाँ, विराट् रूप, पूर्ण स्वतन्त्रता तथा चर और अचर प्राणी अन्ततः उनके ऐश्वर्य रूप में प्रकट होते हैं।
जगृहे पौरुषं रूपं भगवान्महदादिभिः ।।सम्भूतं षोड़श-कलमादौ लोक-सिसृक्षया ॥
८४॥
सृष्टि के प्रारम्भ में भगवान् ने भौतिक सृष्टि के समस्त अवयवों (उपादानों ) के साथ पुरुष अवतार के रूप में अपना विस्तार किया। सर्वप्रथम उन्होंने सृष्टि के लिए उपयुक्त सोलह प्रधान शक्तियों का सृजन किया। ऐसा उन्होंने भौतिक ब्रह्माण्डों को प्रकट करने के उद्देश्य से किया।
यद्यपि सर्वाश्रय तिंहो, ताँहाते संसार । अन्तरात्मा-रूपे तिंहो जगताधार ॥
८५॥
यद्यपि भगवान् हर वस्तु के आश्रय हैं और सारे ब्रह्माण्ड उन्हीं पर आश्रित हैं, किन्तु वे परमात्मा रूप में प्रत्येक वस्तु के आधार भी हैं।
प्रकृति-सहिते ताँर उभय सम्बन्ध । तथापि प्रकृति-सह नाहि स्पर्श-गन्ध ॥
८६॥
इस तरह यद्यपि वे भौतिक शक्ति से दो प्रकार से जुड़े हुए हैं, तो भी उसके साथ उनका रंचमात्र भी सम्बन्ध नहीं है।
एतदीशनमीशस्य प्रकृति-स्थोऽपि तद्गुणैः ।।न ग्रुज्यते सदात्म-स्थैर्यथा बुद्धिस्तदाश्रया ॥
८७॥
यह भगवान् का ऐश्वर्य है कि वे भौतिक प्रकृति के भीतर रहते हुए भी प्रकृति के गुणों से कभी प्रभावित नहीं होते। इसी प्रकार जिन लोगों उनकी शरण ग्रहण की है तथा जिन्होंने अपनी बुद्धि को उनमें स्थिर कर रखा है, वे प्रकृति के गुणों से प्रभावित नहीं होते।
एइ मत गीतातेह पुनः पुनः कय ।। सर्वदा ईश्वर-तत्त्व अचिन्त्य-शक्ति हय ॥
८८॥
इस प्रकार भगवद्गीता भी बारम्बार कहती है कि परम सत्य में सदैव अचिन्त्य शक्ति होती है।
आमि त' जगते वसि, जगतामाते । ना आमि जगते वसि, ना आमा जगते ॥
८९॥
। ( भगवान् कृष्ण ने कहा :) मैं भौतिक जगत् में स्थित हूँ और यह जगत् मुझ पर आश्रित है। तथापि इसके साथ ही मैं न तो भौतिक जगत में स्थित हूँ, न वह सचमुच ही मुझ पर आश्रित है।
अचिन्त्य ऐश्वर्य एइ जानिह आमार ।। एइ त’ गीतार अर्थ कैल परचार ॥
९०॥
हे अर्जुन, तुम इसे मेरा अचिन्त्य ऐश्वर्य समझो। भगवद्गीता में भगवान् कृष्ण ने इसी अर्थ का प्रचार किया है।
सेइ त' पुरुष याँर 'अंश' धरे नाम । चैतन्येर सङ्गे सेइ नित्यानन्द-राम ॥
९१॥
वे महापुरुष (कारणोदकशायी विष्णु) चैतन्य महाप्रभु के प्रिय संगी भगवान् नित्यानन्द बलराम के पूर्ण अंश हैं।
एइ त' नवम श्लोकेर अर्थ-विवरण ।।दशम श्लोकेर अर्थ शुन दिया मन ॥
१२॥
इस तरह मैंने नवें श्लोक की व्याख्या कर दी है और अब मैं दसवें श्लोक की व्याख्या करूंगा। कृपया ध्यानपूर्वक सुनें।
ग्रस्यांशांशः श्रील-गर्भोद-शायी ग्रन्नाभ्यब्जं लोक-सङ्घात-नालम् । लोक-स्रष्टुः सूतिका-धाम धातुस्तं श्री-नित्यानन्द-रामं प्रपद्ये ॥
९३॥
मैं उन श्री नित्यानन्द राम के चरणों में नमस्कार करता हूँ, जिनके पूर्णाश के अंश गर्भोदकशायी विष्णु हैं। इन गर्भोदकशायी विष्णु की नाभि से कमल उत्पन्न होता है, जो ब्रह्माण्ड के शिल्पी ब्रह्मा का जन्मस्थान है। इस कमल की नाल असंख्य लोकों का विश्राम-स्थल है।
सेइ त' पुरुष अनन्त-ब्रह्माण्ड सृजिया । सब अण्डे प्रवेशिला बहु-मूर्ति हा ॥
९४॥
करोड़ों ब्रह्माण्डों की रचना करने के बाद प्रथम पुरुष श्री गर्भोदकशायी के रूप में हर एक ब्रह्माण्ड में भिन्न रूप से प्रविष्ट हो गये।
भितरे प्रवेशि' देखे सब अन्धकार ।। रहिते नाहिक स्थान करिल विचार ॥
९५॥
ब्रह्माण्ड में प्रवेश करने पर उन्होंने केवल अंधकार देखा, जहाँ रहने योग्य कोई स्थान न था। तब वे इस प्रकार विचार करने लगे।
निजाङ्ग-स्वेद-जल करिल सृजन ।।सेइ जले कैल अर्ध-ब्रह्माण्ड भरण ॥
९६॥
तब उन्होंने अपने शरीर के पसीने से जल उत्पन्न किया और उस जल से आधा ब्रह्माण्ड भर दिया।
ब्रह्माण्ड-प्रमाण पञ्चाशत्कोटि-योजन ।।आयाम, विस्तार, दुइ हय एक सम ॥
९७॥
ब्रह्माण्ड की माप पचास करोड़ योजन है। इसकी लम्बाई तथा चौड़ाई एकसमान है।
जले भरि' अर्ध ताँहा कैल निज-वास ।।आर अर्धे कैल चौद्द-भुवन प्रकाश ॥
९८॥
जब आधा ब्रह्माण्ड जल से भर गया, तो उन्होंने उसी में अपना निवासस्थान बनाया और शेष आधे में चौदह भुवन प्रकट किये।
ताँहाइ प्रकट कैल वैकुण्ठ निज-धाम ।शेष-शयन-जले करिल विश्राम ॥
९९ ॥
वहाँ उन्होंने अपने धाम के रूप में वैकुण्ठ को प्रकट किया और भगवान् शेष की शय्या पर वे जल में विश्राम करने लगे।
अनन्त-शय्याते ताँहा करिल शयन ।। सहस्र मस्तक ताँर सहस्र वदन ।। १००॥
सहस्र-चरण-हस्त, सहस्र-नयन ।।सर्व-अवतार-बीज, जगत्कारण ॥
१०१॥
वे वहाँ अनन्त को अपनी शय्या बनाकर लेट गये। भगवान् अनन्त हजारों सिर, हजारों मुख, हजारों नेत्र और हजारों हाथ-पाँव वाले दिव्य सर्प हैं। वे सभी अवतारों के बीज हैं और भौतिक जगत् के कारण हैं।
ताँर नाभि-पद्म हैते उठिल एक पद्म ।।सेइ पद्मे हैल ब्रह्मार जन्म-सद्म ॥
१०२॥
उनकी नाभि से एक कमल-पुष्प उत्पन्न हुआ, जो ब्रह्माजी का जन्मस्थान बन गया।
सेइ पद्म-नाले हैल चौद-भुवन ।। तेहो ब्रह्मा हा सृष्टि करिल सृजन ॥
१०३॥
। उसे कमल की नाल के भीतर चौदह भुवन थे। इस प्रकार भगवान् ने ब्रह्मा के रूप में सारी सृष्टि का सृजन किया।
विष्णु-रूप हा करे जगत्पालने । गुणातीत-विष्णु स्पर्श नाहि माया-गुणे ।। १०४॥
और भगवान् विष्णु के रूप में वे सारे जगत् का पालन करते हैं। समस्त भौतिक गुणों से परे होने के कारण भगवान् विष्णु का भौतिक गुणों से किसी तरह को स्पर्श नहीं होता।
रुद्र-रूप धरि' करे जगत्संहार ।सृष्टि-स्थिति-प्रलय इच्छाय याँहार ॥
१०५ ॥
वे रुद्र का रूप धारण करके सृष्टि का संहार करते हैं। इस तरह सृजन, पालन तथा संहार उनकी इच्छा से होता है।
हिरण्य-गर्भ, अन्तर्यामी, जगत्कारण ।सॉर अंश करि' करे विराट-कल्पन ॥
१०६॥
वे परमात्मा, हिरण्यगर्भ अर्थात् भौतिक जगत् के कारण हैं। विराट् रूप उनका अंश माना जाता है।
हेन नारायण,—याँर अंशेर अंश ।सेइ प्रभु नित्यानन्द सर्व-अवतंस ॥
१०७॥
वे भगवान् नारायण, भगवान् नित्यानन्द बलराम के पूर्णाश के अंश मात्र हैं। भगवान् नित्यानन्द समस्त अवतारों के स्रोत हैं।
दशम श्लोकेर अर्थ कैल विवरण ।।एकादश श्लोकेर अर्थ शुन दिया मन ॥
१०८ ॥
इस तरह मैंने दसवें श्लोक का अर्थ बतला दिया है। अब कृपया पूरे । मनोयोग से ग्यारहवें श्लोक का अर्थ सुनें।
ग्रस्यांशांशांशः परात्माखिलानांपोष्टा विष्णुर्भाति दुग्धाब्धि-शायी । क्षौणी-भर्ता ग्रत्कला सोऽप्यनन्तस्।। तं श्री-नित्यानन्द-रामं प्रपद्ये ॥
१०९॥
मैं उन श्री नित्यानन्द राम के चरणकमलों में सादर नमस्कार करता हूँ, जिनके गौण अंश क्षीरोदकशायी विष्णु हैं। वे क्षीरोदकशायी विष्णु ही समस्त जीवों के परमात्मा और समस्त ब्रह्माण्डों के पालक हैं। शेषनाग उनके अंशांश हैं।
नारायणेर नाभि-नाल-मध्येते धरणी ।धरणीर मध्ये सप्त समुद्र ग्रे गणि ॥
११०॥
सारे भौतिक लोक उस कमलनाल के भीतर स्थित हैं, जो भगवान् नारायण की नाभि कमल से निकला है। इन लोकों के मध्य सात समुद्र है।
ताँहा क्षीरोदधि-मध्ये 'श्वेतद्वीप' नाम । पालयिता विष्णु, ताँर सेइ निज धाम ॥
१११॥
वहाँ क्षीर सागर के मध्य में श्वेतद्वीप है, जो पालनकर्ता विष्णु का धाम है।
सकल जीवेर तिंहो हये अन्तर्यामी ।। जगत्पालक तिंहो जगतेर स्वामी ॥
११२॥
वे सारे जीवों के परमात्मा हैं। वे इस भौतिक जगत् का पालन करते हैं और वे इसके स्वामी हैं।
युग-मन्वन्तरे धरि' नाना अवतार ।धर्म संस्थापन करे, अधर्म संहार ॥
११३॥
वास्तविक धर्म के सिद्धान्तों को स्थापित करने और अधर्म के सिद्धान्तों का विनाश करने के लिए भगवान् विभिन्न युगों और मन्वन्तरों में विविध अवतारों में प्रकट होते हैं।
देव-गणे ना पाय ग्राँहार दरशन । क्षीरोदक-तीरे ग्राइ' करेन स्तवन ।।११४॥
उनका दर्शन न पाकर देवतागण क्षीर सागर के तट पर जाते हैं और उनकी स्तुति करते हैं।
तबे अवतरि' करे जगत्पालन ।।अनन्त वैभव ताँर नाहिक गणन ॥
११५॥
तब वे भौतिक संसार का पालन करने के लिए अवतरित होते हैं। उनके अनन्त ऐश्वर्य की गणना नहीं की जा सकती।
सेइ विष्णु हय याँर अंशांशेर अंश ।सेइ प्रभु नित्यानन्द सर्व-अवतंस ॥
११६॥
ये भगवान् विष्णु नित्यानन्द प्रभु के पूर्णाश के अंश के भी अंश हैं, योंकि भगवान् नित्यानन्द समस्त अवतारों के उद्गम हैं।
सेइ विष्णु ‘शेष'-रूपे धरेन धरणी ।। काँहा आछे मही, शिरे, हेन नाहि जानि ॥
११७॥
वही भगवान् विष्णु भगवान् शेष के रूप में सारे लोकों को अपने शिरों पर धारण करते हैं, यद्यपि वे यह नहीं जानते कि वे कहाँ हैं, क्योंकि अपने सिरों पर उन्हें उनके अस्तित्व का आभास नहीं हो पाता।।
सहस्र विस्तीर्ण झाँर फणार मण्डल । सूर्य जिनि' मणि-गण करे झल-मल ॥
११८॥
उनके हजारों फैले हुए फन सूर्य को भी मात देने वाली चमचमाती मणियों से सज्जित रहते हैं।
पञ्चाशत्कोटि-योजन पृथिवी-विस्तार ।याँर एक-फणे रहे सर्षप-आकार ॥
११९॥
यह ब्रह्माण्ड जिसका व्यास पचास करोड़ योजन है, उनके एक फन पर इस तरह टिका है, मानो सरसों का बीज हो।
सेइ त' 'अनन्त' ‘शेष'–भक्त-अवतार । ईश्वरेर सेवा विना नाहि जाने आर ॥
१२०॥
वे अनन्त शेष ईश्वर के भक्त अवतार हैं। वे भगवान् कृष्ण की सेवा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं जानते।
सहस्र-वदने करे कृष्ण-गुण गान ।निरवधि गुण गा'न, अन्त नाहि पा'न ॥
१२१॥
अपने एक हजारों मुखों से वे भगवान् कृष्ण का महिमा-गान करते हैं, किन्तु इस प्रकार सदैव गुणगान करते रहने पर भी वे भगवान् के गुणों का कभी पार नहीं पाते।
सनकादि भागवत शुने ग्राँर मुखे ।। भगवानेर गुण कहे, भासे प्रेम-सुखे ॥
१२२॥
चारों कुमार उनके मुख से श्रीमद्भागवत सुनते हैं और भगवत्प्रेम के दिव्य आनन्द में मग्न होकर उसे दुहरात चलत है।
छत्र, पादुका, शय्या, उपाधान, वसन । आराम, आवास, यज्ञ-सूत्र, सिंहासन ॥
१२३ ॥
वे निम्नलिखित सभी रूपों को धारण करके भगवान् कृष्ण की सेवा करते हैं-छाता, पादुका, शय्या, तकिया, वस्त्र, आरामकुर्सी, निवासस्थान, यज्ञोपवीत तथा सिंहासन।
एत मूर्ति-भेद करि' कृष्ण-सेवा करे ।कृष्णेर शेषता पाजा ‘शेष' नाम धरे ॥
१२४॥
उन्होंने कृष्ण की दासता की चरम सीमा प्राप्त कर ली है, अतएव वे भगवान् शेष कहलाते हैं। वे कृष्ण की सेवा के लिए नाना रूप धारण करते हैं और इस तरह उनकी सेवा करते हैं।
सेइ त' अनन्त, याँर कहि एक कला ।हेन प्रभु नित्यानन्द, के जाने ताँर खेला ॥
१२५ ।। भगवान् अनन्त जिस पुरुष की कला हैं अर्थात् पूर्णाश के अंश हैं, वे नित्यानन्द प्रभु हैं। अतएव नित्यानन्द प्रभु की लीलाओं को भला कौन जान सकता है? ए-सब प्रमाणे जानि नित्यानन्द-तत्त्व-सीमा ।।ताँहाके 'अनन्त' कहि, कि ताँर महिमा ॥
१२६॥
इन सब प्रमाणों से हम नित्यानन्द प्रभु के तत्त्व की सीमा को जान सकते हैं। किन्तु उन्हें अनन्त कहने में कौन-सी महिमा है? अथवा भक्तेर वाक्य मानि सत्य करि' ।सकल सम्भवे ताँते, स्नाते अवतारी ॥
१२७॥
। किन्तु मैं इसे सत्य स्वीकार करता हूँ, क्योंकि यह भक्तों का वचन है। वे (नित्यानन्द प्रभु) समस्त अवतारों के उद्गम हैं, अतएव उनके लिए सब कुछ सम्भव है।
अवतार-अवतारी-अभेद, ये जाने ।पूर्वे ट्रैछे कृष्णके केहो काहो करि' माने ॥
१२८॥
वे जानते हैं कि अवतार तथा समस्त अवतारों के उद्गम में कोई भेद नहीं होता। पहले भगवान् कृष्ण विभिन्न लोगों द्वारा विभिन्न सिद्धांतों के सन्दर्भ में समझे जाते थे।
केहो कहे, कृष्ण साक्षात्नर-नारायण ।। केहो कहे, कृष्ण हय साक्षात्वामन ॥
१२९॥
कुछ लोग कहते थे कि कृष्ण साक्षात् भगवान् नर-नारायण थे और कुछ उन्हें वामनदेव का अवतार कहते थे।
केहो कहे, कृष्ण क्षीरोद-शायी अवतार ।असम्भव नहे, सत्य वचन सबार ॥
१३०॥
कुछ लोग भगवान् कृष्ण को भगवान् क्षीरोदकशायी का अवतार कहते थे। ये सारे नाम सत्य हैं; कुछ भी असम्भव नहीं है।
कृष्ण ग्रबे अवतरे सर्वांश-आश्रय ।सर्वांश आसि' तबे कृष्णेते मिलय ॥
१३१॥
जब पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण अवतरित होते हैं, तब वे समस्त पूर्ण अंशों के आश्रय होते हैं। इस तरह उस समय उनके सारे पूर्ण अंश उनके साथ मिल जाते हैं।
ग्रेइ ग्रेइ रूपे जाने, सेइ ताहा कहे ।।सकल सम्भवे कृष्णे, किछु मिथ्या नहे ॥
१३२॥
जो जिस रूप में भगवान् को जानता है, वह उसी रूप में उनका वर्णन करता है। इसमें कुछ गलत नहीं है, क्योंकि कृष्ण के लिए सब कुछ सम्भव है।
अतएव श्री-कृष्णा-चैतन्य गोसाजि ।। सर्व अवतार-लीला करि' सबारे देखाई ॥
१३३॥
इसलिए भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु ने सबके सामने सभी विभिन्न तारों की सभी लीलाएँ प्रदर्शित की हैं।
एइ-रूपे नित्यानन्द 'अनन्त'-प्रकाश ।। सेइ-भावे कहे मुजि चैतन्येर दास ॥
१३४॥
इस तरह भगवान् नित्यानन्द के अनन्त अवतार हैं। दिव्य भाव में वे । अपने आपको चैतन्य महाप्रभु का दास कहते हैं।
कभु गुरु, कभु सखा, कभु भृत्य-लीला ।।पूर्वे ग्रेन तिन-भावे व्रजे कैल खेला ॥
१३५॥
वे भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु की सेवा कभी उनके गुरु के रूप में तो कभी मित्र के रूप में और कभी दास के रूप में करते हैं, जिस प्रकार भगवान् बलराम ने व्रज में इन तीन विभिन्न भावों में भगवान् कृष्ण के साथ क्रीड़ाएँ कीं।
वृष हा कृष्ण-सने माथा-माथि रण । कभु कृष्ण करे ताँर पाद-संवाहन ॥
१३६ ॥
भगवान् बलराम कृष्ण के सिर से अपना सिर भिड़ाकर वृष की तरह लड़ते हैं। और कभी-कभी भगवान् कृष्ण बलरामजी के चरण दबाते हैं।
आपनाके भृत्य करि' कृष्णे प्रभु जाने ।कृष्णेर कलार कला आपनाके माने ॥
१३७॥
वे अपने आपको दास मानते हैं और कृष्ण को अपना स्वामी मानते हैं। इस प्रकार वे अपने आपको कृष्ण के अंश का भी अंश मानते हैं।
वृषायमाणौ नर्दन्तौ ग्रुयुधाते परस्परम् ।अनुकृत्य रुतैर्जन्तूंश्चेरतुः प्राकृतौ ग्रथा ॥
१३८॥
। सामान्य बालकों की तरह एक-दूसरे से लड़ते समय वे वृषों की तरह गर्जन कर रहे थे और तरह-तरह के पशुओं की आवाजे निकालते थे।
क्वचित्क्रीड़ा-परिश्रान्तं गोपोत्सङ्गोपबर्हणम् ।।स्वयं विश्रामयत्यानँ पाद-संवाहनादिभिः ॥
१३९॥
कभी-कभी जब कृष्ण के ज्येष्ठ भ्राता भगवान् बलराम खेलने के बाद थक जाते और अपना सिर किसी ग्वालबाल की गोद में रख देते, तो स्वयं भगवान् कृष्ण उनके पाँव दबाकर उनकी सेवा करते।
केयं वा कुत आयाता दैवी वा नातासुरी ।प्रायो मायास्तु मे भर्तुर्नान्या मेऽपि विमोहिनी ॥
१४० ॥
। । यह योगशक्ति कौन है और यह कहाँ से आई है? वह दैवी है या आसुरी ? यह मेरे प्रभु भगवान् कृष्ण की मायाशक्ति होगी, क्योंकि उसके अतिरिक्त मुझे और कौन मोहित कर सकता है? यस्याङ्घि-पङ्कज-रजोऽखिल-लोक-पालैर्मौलि-उत्तमैधृतम्उपासित तीर्थ-तीर्थम् । ब्रह्मा भवोऽहमपि ग्रस्य कलाः कलायाःश्रीशोद्वहेम चिरमस्य नृपासनं क्व ॥
१४१॥
भगवान् कृष्ण के लिए सिंहासन का क्या महत्त्व है? विभिन्न लोकों के स्वामी उनके चरणकमलों की धूल को अपने मुकुटधारी शिरों पर धारण करते हैं। यह धूल तीर्थस्थलों को पवित्र बनाती है। यहाँ तक कि ब्रह्माजी, शिवजी, लक्ष्मी और मैं, जो कि उनके पूर्णाश के अंश हैं, अपने अपने सिरों पर उस धूल को सदैव धारण करते हैं।
एकले ईश्वर कृष्ण, आर सब भृत्य । ग्रारे ग्रैछे नाचाय, से तैछे करे नृत्य ॥
१४२॥
एकमात्र भगवान् कृष्ण ही परम नियन्ता हैं और अन्य सभी उनके। सेवक हैं। वे जैसा चाहते हैं, वैसे उन्हें नचाते हैं।
एइ मत चैतन्य-गोसाञि एकले ईश्वर ।आर सब पारिषद, केह वा किङ्कर ॥
१४३॥
इसी प्रकार भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु ही एकमात्र नियन्ता हैं। अन्य सभी उनके पार्षद या सेवक हैं।
गुरु-वर्ग,—नित्यानन्द, अद्वैत आचार्य । श्रीवासादि, आर व्रत लघु, सम, आर्य ॥
१४४॥
सबे पारिषद, सबे लीलार सहाय ।। सबा ला निज-कार्य साधे गौर-राय ॥
१४५॥
उनके गुरुजन यथा भगवान् नित्यानन्द, अद्वैत आचार्य तथा श्रीवास ठाकुर एवं उनके अन्य भक्त-चाहे वे छोटे हों, समवयस्क हों या वरिष्ठ हों-सभी उनके पार्षद हैं, जो उनकी लीलाओं में सहायक होते हैं। गौरांग महाप्रभु उनकी सहायता से अपने लक्ष्यों की पूर्ति करते हैं।
अद्वैत आचार्य, नित्यानन्द, दुइ अङ्ग । दुइ-जन लञा प्रभुर व्रत किछु रङ्ग ॥
१४६॥
श्री अद्वैत आचार्य तथा श्रील नित्यानन्द प्रभु, जो भगवान् के पूर्ण अंश हैं, उनके प्रधान पार्षद हैं। इन दोनों के साथ महाप्रभु विभिन्न प्रकार से अपनी लीलाएँ करते हैं।
अद्वैत-आचार्य-गोसाञि साक्षातीश्वर ।प्रभु गुरु करि' माने, तिंहो त' किङ्कर ॥
१४७॥
अद्वैत आचार्य साक्षात् भगवान् हैं। यद्यपि श्री चैतन्य महाप्रभु उन्हें अपने गुरु के रूप में स्वीकार करते हैं, किन्तु अद्वैत आचार्य भगवान् के दास हैं।
आचार्य-गोसाजिर तत्त्व ना ग्राय कथन ।।कृष्ण अवतार में हो तारिल भुवन ॥
१४८॥
मैं अद्वैत आचार्य के तत्त्व का वर्णन नहीं कर सकता। उन्होंने कृष्ण का अवतरण कराकर सारे विश्व का उद्धार किया है।
नित्यानन्द-स्वरूप पूर्वे हइया लक्ष्मण ।लघु-भ्राता हैया करे रामेर सेवन ॥
१४९॥
। भगवान् नित्यानन्द स्वरूप पूर्वजन्म में लक्ष्मण के रूप में प्रकट हुए थे और उन्होंने भगवान् रामचन्द्र की सेवा उनके छोटे भाई के रूप में की थी।
रामेर चरित्र सबे, दुःखेर कारण । स्वतन्त्र लीलाय दुःख सहेन लक्ष्मण ॥
१५० ॥
भगवान् राम के कार्यकलाप दुःखों से भरे थे, किन्तु लक्ष्मण ने स्वेच्छा से उस दुःख को सहन किया।
निषेध करिते नारे, झाते छोट भाइ ।मौन धरि' रहे लक्ष्मण मने दुःख पाइ' ॥
१५१॥
छोटे भाई के रूप में वे भगवान् राम को उनके संकल्प से रोक नहीं। सके, अतएव वे मौन रहे, भले ही मन ही मन वे दुःखी थे।
कृष्ण-अवतारे ज्येष्ठ हैला सेवार कारण ।।कृष्णके कराइल नाना सुख आस्वादन ॥
१५२॥
जब भगवान् कृष्ण प्रकट हुए, तो वे ( बलराम) उनकी मन भर के सेवा करने एवं सभी प्रकार के सुखों का भोग कराने के लिए उनके बड़े भाई बने।"
राम-लक्ष्मण-कृष्ण-रामेर अंश-विशेष ।अवतार-काले दोहे दोंहाते प्रवेश ॥
१५३ ॥
। श्री राम तथा श्री लक्ष्मण, जो क्रमशः भगवान् कृष्ण तथा बलराम के पूर्ण अंश हैं, कृष्ण तथा बलराम के आविर्भाव के समय उनमें प्रविष्ट हो गये।
सेइ अंश लञा ज्येष्ठ-कनिष्ठाभिमान ।।अंशांशि-रूपे शास्त्रे करये व्याख्यान ॥
१५४॥
| कृष्ण तथा बलराम छोटे और बड़े भाई के रूप में प्रकट होते हैं, किन्तु शास्त्रों में उन्हें आदि भगवान् तथा उनके अंश बतलाया गया है।
रामादि-मूर्तिषु कला-नियमेन तिष्ठन्नानावतारमकरोद्भुवनेषु किन्तु । कृष्णः स्वयं समभवत्परमः पुमान् ग्रोगोविन्दमादि-पुरुषं तमहं भजामि ॥
१५५॥
मैं उन आदि भगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ, जो अपने विविध पूर्ण अंशों से विविध रूपों तथा भगवान् राम आदि अवतारों के रूप में प्रकट होते हैं, किन्तु जो भगवान् कृष्ण के अपने परम मूल रूप में स्वयं प्रकट होते हैं।
श्री-चैतन्य—सेइ कृष्ण, नित्यानन्द–राम । नित्यानन्द पूर्ण करे चैतन्येर काम ॥
१५६॥
भगवान् चैतन्य ही भगवान् कृष्ण हैं और श्री नित्यानन्द भगवान् बलराम हैं। भगवान् नित्यानन्द श्री चैतन्य महाप्रभु की सारी इच्छाओं को पूर्ण करते हैं।
नित्यानन्द-महिमा-सिन्धु अनन्त, अपार ।एक कणा स्पर्श मात्र,—से कृपा ताँहार ॥
१५७॥
भगवान् नित्यानन्द की महिमाओं का सागर अनन्त और अगाध है। केवल उनकी कृपा से ही मैं इसकी एक बूंद का स्पर्श कर सकता हूँ।
आर एक शुन ताँर कृपार महिमा ।अधम जीवेरे चढ़ाइल ऊर्ध्व-सीमा ॥
१५८॥
कृपया उनकी कृपा की दूसरी महिमा सुनें। उन्होंने एक पतित जीव को सर्वोच्च सीमा तक ऊपर उठाया है।
वेद-गुह्य कथा एई अयोग्य कहिते ।। तथापि कहिये ताँर कृपा प्रकाशिते ॥
१५९॥
इसे प्रकट करना उचित नहीं होगा, क्योंकि इसे वेदों के समान ही गुप्त रखना चाहिए; फिर भी मैं इसे कह रहा हूँ, जिससे उनकी कृपा सबको ज्ञात हो जाये।
उल्लास-उपरि लेखों तोमार प्रसाद । नित्यानन्द प्रभु, मोर क्षम अपराध ॥
१६० ॥
हे नित्यानन्द प्रभु! मैं अत्यन्त उल्लास के साथ आपकी कृपा के बारे में लिख रहा हूँ। कृपया मेरे इस अपराध के लिए आप मुझे क्षमा कर दें।
अवधूत गोसाजिर एक भृत्य प्रेम-धाम ।। मीनकेतन रामदास हय ताँर नाम ॥
१६१॥
नित्यानन्द प्रभु के एक सेवक थे, जिनका नाम श्री मीनकेतन रामदास 7, जो प्रेम के आगार थे।
आमार आलये अहो-रात्र-सङ्कीर्तन ।ताहाते आइला तेंहो पा निमन्त्रण ॥
१६२॥
मेरे घर में अखण्ड संकीर्तन था, अतएव आमन्त्रित किये जाने पर वे L पर आये।
महा-प्रेम-मय तिंहो वसिला अङ्गने ।सकल वैष्णव ताँर वन्दिला चरणे ॥
१६३॥
भावजन्य प्रेम में निमग्न होकर वे मेरे आँगन में बैठ गये और सारे वैष्णव उनके चरणों में सिर झुकाकर प्रणाम करने लगे।
नमस्कार करिते, कार उपरेते चड़े । प्रेमे का रे वंशी मारे, काहाके चापड़े ॥
१६४॥
भगवत्प्रेम के आनन्द में वे कभी नमस्कार करने वाले के कंधे पर चढ़ जाते, कभी अन्यों को अपनी बाँसुरी से मारते या उन्हें मुख पर धीरे से चपत लगा देते।
ये नयन देखिते अश्रु हय मने ग्रार।सेइ नेत्रे अविच्छिन्न वहे अश्रु-धार ॥
१६५॥
जब कोई मीनकेतन रामदास की आँखें देखता, तो उसके नेत्रों से भी स्वतः अश्रु बहने लगते, क्योंकि मीनकेतन रामदास के नेत्रों से अश्रु की धारा निरन्तर बहती रहती थी।
कभु कोन अङ्गे देखि पुलक-कदम्ब ।।एक अङ्गे जाडूय ताँर, आर अङ्गे कम्प ॥
१६६॥
। कभी उनके शरीर के कुछ भागों में कदम्ब फूलों के समान आनन्द का उभार दृष्टिगत होता और कभी शरीर का एक अंग जड़ हो जाता, कि दूसरा अंग काँपने लगता था।
नित्यानन्द बलि' ग्रबे करेन हुङ्कार ।।ताहा देखि' लोकेर हय महा-चमत्कार ॥
१६७।। जब भी वे नित्यानन्द का नाम लेकर जोर से चीत्कार करते, तो उनके आसपास के लोग अत्यधिक विस्मित हो जाते थे।"
गुणार्णव मिश्र नामे एक विप्र आर्य ।श्री-मूर्ति-निकटे तेंहो करे सेवा-कार्य ॥
१६८ ॥
श्री गुणार्णव मिश्र नामक एक सम्माननीय ब्राह्मण अर्चाविग्रह की सेवा करता था।
अङ्गने आसिया तेंहो ना कैल सम्भाष । ताहा देखि' क्रुद्ध हा बले रामदास ॥
१६९॥
जब मीनकेतन आँगन में बैठे थे, तो इस ब्राह्मण ने उनका सम्मान नहीं किया। यह देखकर, श्री रामदास क्रुद्ध हुए और बोले।
‘एइ त' द्वितीय सूत रोमहरषण ।।बलदेव देखि' ग्रे ना कैल प्रत्युद्गम' ॥
१७० ॥
यहाँ मैं दूसरा रोमहर्षण सूत देख रहा हूँ, जो भगवान् बलराम को देखकर सम्मान प्रदर्शित करने के लिए उठ खड़ा नहीं हुआ।
एत बलि' नाचे गाय, करये सन्तोष ।।कृष्ण-कार्य करे विप्र–ना करिल रोष ॥
१७१॥
यह कहकर वे जी-भरकर नाचने-गाने लगे, किन्तु वह ब्राह्मण क्रुद्ध नहीं हुआ, क्योंकि तब वह भगवान् कृष्ण की सेवा में लगा था।
उत्सवान्ते गेला तिंहो करिया प्रसाद ।।मोर भ्राता-सने ताँर किछु हैल वाद ॥
१७२॥
उत्सव समाप्त होने पर मीनकेतन रामदास हर एक को आशीर्वाद देकर चले गये। उस समय मेरे भाई के साथ उनका कुछ विवाद उठ खड़ा हुआ।
चैतन्य-प्रभुते ताँर सुदृढ़ विश्वास ।।नित्यानन्द-प्रति ताँर विश्वास-आभास ॥
१७३॥
मेरे भाई की भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु में अटूट श्रद्धा थी, किन्तु भगवान् नित्यानन्द में थोड़ी सी ही श्रद्धा थी।
इहा जानि' रामदासेर दुःख हइल मने ।तबे त' भ्रातारे आमि करिनु भत्र्सने ॥
१७४॥
यह जानकर रामदास मन ही मन खिन्न हुए। तब मैंने अपने भाई की भर्त्सना की।
दुइ भाइ एक-तनु- समान-प्रकाश ।नित्यानन्द ना मान, तोमार हबे सर्व-नाश ॥
१७५॥
मैंने उससे कहा, ये दोनों भाई एक शरीर जैसे हैं; वे दोनों एकरूप हैं। यदि तुम भगवान् नित्यानन्द में श्रद्धा नहीं रखते, तो तुम्हारा पतन होगा।
एकेते विश्वास, अन्ये ना कर सम्मान ।अर्ध-कुकुटी-न्याय तोमार प्रमाण ॥
१७६ ॥
यदि एक में तुम्हारा विश्वास है, किन्तु दूसरे के प्रति अनादर है, तो तुम्हारा तर्क अर्ध कुक्कुटी न्याय के समान है, जिसमें आधी मुर्गी का तर्क स्वीकार किया जाता है।
किंवा, दोंहा ना मानिन्ना हओ त' पाषण्ड ।एके मानि' आरे ना मानि,—एई-मत भण्ड ॥
१७७॥
एक भाई को मानना और दूसरे का अनादर करना और इस तरह दम्भी बनना, उससे तो यह बेहतर होगा कि दोनो भाईयों को न मानकर नास्तिक बनना। क्रुद्ध हैया वंशी भाङ्गि' चले रामदास ।।तत्काले आमार भ्रातार हैल सर्व-नाश ॥
१७८॥
अतः श्री रामदास ने क्रोध में अपनी वंशी तोड़ डाली और वहाँ से चले गये और उसी समय मेरे भाई का सर्वनाश हो गया।
एइ त कहिल ताँर सेवक-प्रभाव ।।आर एक कहि ताँर दयार स्वभाव ॥
१७९॥
इस तरह मैंने भगवान् नित्यानन्द के सेवकों की शक्ति का वर्णन किया है। अब मैं उनकी कृपा की दूसरी विशेषता का वर्णन करूंगा।
भाइके भर्तिसनु मुञि, ला एइ गुण ।।सेइ रात्रे प्रभु मोरे दिला दरशन ॥
१८०॥
उस रात भगवान् नित्यानन्द ने मुझे स्वप्न में दर्शन दिये, क्योंकि अपने भाई की भर्त्सना करके मैंने अच्छा कार्य किया था।
नैहाटि-निकटे 'झामटपुर' नामे ग्राम ।। ताँहा स्वप्ने देखा दिला नित्यानन्द-राम ॥
१८१।। नैहाटी के निकटवर्ती झामटपुर गाँव में नित्यानन्द प्रभु ने मुझे स्वप्न में दर्शन दिया।
दण्डवत् हैया आमि पड़िनु पायेते ।। निज-पाद-पद्म प्रभु दिला मोर माथे ॥
१८२॥
उन्हें नमस्कार करके मैं उनके चरणों पर गिर पड़ा, तब उन्होंने मेरे सिर पर अपने चरणकमल रख दिये।
‘उठ', 'उठ' बलि' मोरे बले बार बार । उठि' ताँर रूप देखि' हैनु चमत्कार ॥
१८३॥
उन्होंने मुझसे बारम्बार कहा-उठो, उठो! उठने पर मैं उनका सौन्दर्य देखकर अत्यधिक विस्मित हुआ।
श्याम-चिक्कण कान्ति, प्रकाण्ड शरीर । साक्षात्कन्दर्प, ग्रैछे महा-मल्ल-वीर ॥
१८४॥
उनका रंग चिकना श्यामल वर्ण का था। वे अपने लम्बे, बलिष्ठ, वीर-जैसे शारीरिक आकार के कारण साक्षात् कामदेव जैसे लग रहे थे।
सुवलित हस्त, पद, कमल-नयान । पट्ट-वस्त्र शिरे, पट्ट-वस्त्र परिधान ॥
१८५॥
। उनके हाथ, बाँहें तथा पाँव अत्यन्त सुन्दर थे और उनकी आँखें कमल के फूलों जैसी थीं। वे रेशमी वस्त्र पहने थे और उनके सिर पर रेशमी पगड़ी थी।
सुवर्ण-कुण्डल कर्णे, स्वर्णाङ्गद-वाला ।। पायेते नृपुर बाजे, कण्ठे पुष्पमाला ॥
१८६॥
वे कानों में सोने के कुण्डल पहने हुए थे और उनके बाजूबन्द तथा कंगन सोने के थे। वे अपने पाँवों में रुनझुन करती पायल तथा अपने गले में फूलों की माला धारण किये हुए थे।
चन्दन-लेपित-अङ्ग, तिलक सुठाम । मत्त-गज जिनि' मद-मन्थर पयान ॥
१८७॥
उनका शरीर चन्दन से लेपित था और वे तिलक से सुशोभित हो रहे थे। उनकी चाल मदमत्त हाथी को लजाने वाली थी।
कोटि-चन्द्र जिनि' मुख उज्वल-वरण । दाड़िम्ब-बीज-सम दन्त ताम्बूल-चर्वण ॥
१८८॥
उनका मुखमण्डल करोड़ों चन्द्रमाओं से भी अधिक सुन्दर था और पान खाने के कारण उनके दाँत अनार के दानों जैसे लग रहे थे।
प्रेमे मत्त अङ्ग डाहिने-वामे दोले ।। ‘कृष्ण' ‘कृष्ण' बलिया गम्भीर बोल बले ॥
१८९॥
उनका शरीर इधर-उधर, दाएँ-बाएँ हिल रहा था, क्योंकि वे प्रेम में मग्न थे। वे गम्भीर वाणी से कृष्ण, कृष्ण उच्चारण कर रहे थे।
राङ्गा-ग्रष्टि हस्ते दोले ग्रेन मत्त सिंह ।। चारि-पाशे वेड़ि आछे चरणेते भृङ्ग ॥
१९०॥
उनके हाथ में उनकी लाल छड़ी हिल रही थी, जिससे वे मदमत्त सिंह की तरह लग रहे थे। उनके चरणों के चारों ओर भौंरे मँडरा रहे थे।
पारिषद-गणे देखि' सब गोप-वेशे ।'कृष्ण' 'कृष्ण' कहे सबे सप्रेम आवेशे ॥
१९१॥
उनके भक्त ग्वालबालों की तरह वस्त्र धारण किये हुए थे और उनके घरणों को अनेक भौरों की तरह घेरे हुए थे। वे प्रेमावेश में मग्न होकर कृष्ण, कृष्ण उच्चारण कर रहे थे।
शिङ्गा वांशी बाजाय केह, केह नाचे गाय ।।सेवक ग्रोगाये ताम्बूल, चामर ढुलाय ॥
१९२॥
उनमें से कुछ सिंगा तथा वंशी बजा रहे थे और शेष नृत्य-गान कर रहे थे। कुछ पान अर्पित कर रहे थे और कुछ उन्हें चामर डुला रहे थे।
नित्यानन्द-स्वरूपेर देखिया वैभव । किबा रूप, गुण, लीला—अलौकिक सब ॥
१९३॥
इस प्रकार मैंने श्री नित्यानन्द स्वरूप में ऐसा ऐश्वर्य देखा। उनके अद्भुत रूप, गुण और लीलाएँ, सब अलौकिक हैं।
आनन्दे विह्वल आमि, किछु नाहि जानि । तबे हासि' प्रभु मोरे कहिलेन वाणी ॥
१९४॥
मैं दिव्य आनन्द से विभोर था और कुछ भी नहीं जान पा रहा था। तभी प्रभु नित्यानन्द हँसे और मुझसे इस प्रकार बोले।
आरे आरे कृष्णदास, ना करह भय । वृन्दावने ग्राह, ताँहा सर्व लभ्य हय ॥
१९५॥
अरे कृष्णदास! तुम डरो नहीं। वृन्दावन जाओ, क्योंकि वहाँ तुम्हें सब कुछ प्राप्त होगा।
एत बलि' प्रेरिला मोरे हातसानि दिया। अन्तर्धान कैल प्रभु निज-गण लञा ॥
१९६॥
यह कहकर उन्होंने अपना हाथ हिलाकर मुझे वृन्दावन की ओर निर्देशित किया। फिर वे अपने संगियों समेत अन्तर्धान हो गये।
मूच्छित हइया मुञि पड़िनु भूमिते ।स्वप्न भङ्ग हैल, देखि, हाछे प्रभाते ॥
१९७॥
मैं मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा, मेरा स्वप्न टूट गया और जब मुझे होश आया, तो मैंने देखा कि प्रात:काल हो चुका था।
कि देखिनु कि शुनिनु, करिये विचार ।।प्रभु-आज्ञा हैल वृन्दावन ग्राइबार ॥
१९८॥
मैंने जो कुछ देखा और सुना था उस पर विचार किया और इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि भगवान् ने मुझे तुरन्त ही वृन्दावन जाने का आदेश दिया है।
सेइ क्षणे वृन्दावने करिनु गमन ।।प्रभुर कृपाते सुखे आइनु वृन्दावन ॥
१९९॥
मैं उसी क्षण वृन्दावन के लिए चल पड़ा और उनकी कृपा से मैं बड़ी प्रसन्नतापूर्वक वृन्दावन पहुँच गया।
जय जय नित्यानन्द, नित्यानन्द-राम ।। याँहार कृपाते पाइनु वृन्दावन-धाम ॥
२००॥
भगवान् नित्यानन्द बलराम की जय हो, जिनकी कृपा से मुझे वृन्दावन के दिव्य धाम में शरण प्राप्त हुई।
जय जय नित्यानन्द, जय कृपा-मय ।।ग्राँहा हैते पाइनु रूप-सनातनाश्रय ॥
२०१॥
। कृपालु प्रभु नित्यानन्द की जय हो, जय हो, जिनकी कृपा से मैंने श्री रूप तथा श्री सनातन के चरणकमलों में शरण प्राप्त की! याँहा हैते पाइनु रघुनाथ-महाशय ।।याँहा हैते पाइनु श्री-स्वरूप-आश्रय ॥
२०२॥
उनकी कृपा से मुझे श्री रघुनाथदास गोस्वामी जैसे महापुरुष की शरण प्राप्त हुई है और उन्हीं की कृपा से मैंने श्री स्वरूप दामोदर का आश्रय प्राप्त किया है।
सनातन-कृपाय पाइनु भक्तिर सिद्धान्त ।।श्री-रूप-कृपाय पाइनु भक्ति-रस-प्रान्त ॥
२०३॥
सनातन गोस्वामी की कृपा से मैंने भक्ति के अन्तिम निष्कर्ष प्राप्त किये हैं और श्री रूप गोस्वामी की कृपा से मैंने भक्ति के सर्वोच्च अमृत का आस्वादन किया है।
जय जय नित्यानन्द-चरणारविन्द ।।याँहा हैते पाइनु श्री-राधा-गोविन्द ॥
२०४॥
भगवान् नित्यानन्द प्रभु के चरणारविन्दों की जय हो, क्योंकि मैंने उनकी कृपा से श्री राधा-गोविन्द को प्राप्त किया है।
जगाई माधाइ हैते मुञि से पापिष्ठ ।पुरीषेर कीट हैते मुञि से लघिष्ठ ॥
२०५॥
मैं जगाइ तथा माधाइ से भी अधिक पापी हूँ और मल के कीट से भी तुच्छ हूँ।
मोर नाम शुने ग्रेइ तार पुण्य क्षय ।।मोर नाम लय येइ तार पाप हय । २०६॥
जो भी मेरा नाम सुनता है, उसके पुण्यकर्मों के फल नष्ट हो जाते हैं और जो मेरा नाम लेता है, वह पापी बन जाता है।
एमन निघृण मोरे केबा कृपा करे।एक नित्यानन्द विनु जगत्भितरे ॥
२०७॥
इस जगत् में नित्यानन्द के बिना मुझ जैसे घृणास्पद मनुष्य पर कौन अपनी दया प्रदर्शित कर सकता था? प्रेमे मत्त नित्यानन्द कृपा-अवतार । उत्तम, अधम, किछु ना करे विचार ॥
२०८ ॥
चूँकि वे प्रेमावेश में मत्त रहते हैं और कृपा के अवतार हैं, अतएव वे अच्छे-बुरे में भेदभाव नहीं करते।
ये आगे पड़ये, तारे करये निस्तार।अतएव निस्तारिला मो-हेन दुराचार ॥
२०९॥
जो उनके समक्ष भूमि पर गिरते हैं, वे उनका उद्धार कर देते हैं। अतएव उन्होंने मुझ जैसे पापी तथा पतित व्यक्ति का उद्धार कर दिया है।
मो-पापिष्ठे आनिलेन श्री-वृन्दावन ।मो-हेन अधमे दिला श्री-रूप-चरण ॥
२१०॥
यद्यपि मैं पापी हूँ और अत्यन्त अधम हूँ, फिर भी उन्होंने मुझे श्री रूप गोस्वामी के चरणकमलों का आश्रय प्रदान किया है।
श्री-मदन-गोपाल-श्री-गोविन्द-दरशन ।।कहिबार स्रोग्य नहे ए-सब कथन ॥
२११॥
मैं भगवान् मदनगोपाल तथा भगवान् गोविन्द के दर्शन के विषय में । ये सारे गोपनीय शब्द कहने के योग्य नहीं हूँ।
वृन्दावन-पुरन्दर श्री-मदन-गोपाल ।रास-विलासी साक्षात्व्रजेन्द्रकुमार ॥
२१२॥
वृन्दावन के प्रमुख अर्चाविग्रह भगवान् मदन गोपाल रासनृत्य के भोक्ता हैं और व्रजराज के साक्षात् पुत्र हैं।
श्री-राधा-ललिता-सङ्गे रास-विलास ।मन्मथ-मन्मथ-रूपे याँहार प्रकाश ॥
२१३॥
वे श्रीमती राधारानी, श्री ललिता तथा अन्यों के साथ रासनृत्य का आनन्द लेते हैं। वे कामदेवों के भी कामदेव के रूप में अपने आपको प्रकट करते हैं।
तासामाविरभूच्छौरिः स्मयमान-मुखाम्बुजः ।। पीताम्बर-धरः स्रग्वी साक्षान्मन्मथ-मन्मथः ॥
२१४॥
। पीताम्बर धारण किये तथा फूलों की माला से अलंकृत, गोपियों के मध्य स्मितहास्य से युक्त कमलमुख वाले भगवान् कृष्ण कामदेव के हृदय को भी मोहने वाले लग रहे थे।
स्व-माधुर्ये लोकेर मन करे आकर्षण ।। दुइ पाशे राधा ललिता करेन सेवन ॥
२१५॥
। उनके दोनों ओर राधा तथा ललिता सेवा करती हैं। इस तरह वे अपनी माधुरी से सबके हृदयों को आकृष्ट करते हैं।
नित्यानन्द-दया मोरे ताँरै देखाइले ।।श्री-राधा-मदन-मोहने प्रभु करि' दिल ॥
२१६॥
प्रभु नित्यानन्द की कृपा ने मुझे श्री मदनमोहन का दर्शन कराया और श्री मदनमोहन को मेरे प्रभु तथा स्वामी के रूप में मुझे प्रदान किया।
मो-अधमे दिल श्री-गोविन्द दरशन ।कहिबार कथा नहे अकथ्य-कथन ॥
२१७॥
उन्होंने मुझ जैसे अधम को भगवान् गोविन्द का दर्शन कराया। न तो शब्द इसका वर्णन कर सकते हैं, न ही इसे प्रकट करना उपयुक्त होगा।
वृन्दावने स्रोग-पीठे कल्प-तरु-वने । रत्न-मण्डप, ताहे रत्न-सिंहासने ॥
२१८॥
श्री गोविन्द वसियाछेन व्रजेन्द्र-नन्दन ।।माधुर्य प्रकाशि' करेन जगत्मोहन ॥
२१९॥
कल्पतरुओं के वन के मध्य वृन्दावन के प्रमुख मन्दिर में रत्नों से बनी वेदी पर व्रजराज के पुत्र भगवान् गोविन्द रत्नों के सिंहासन पर बैठे हुए हैं और अपनी पूर्ण महिमा तथा माधुरी को प्रकाशित करते हुए सम्पूर्ण जगत् को मोहित कर रहे हैं।
वाम-पार्थे श्री-राधिका सखी-गण-सङ्गे ।रासादिक-लीला प्रभु करे कत रङ्गे ॥
२२०॥
उनकी बाँई ओर श्रीमती राधारानी तथा उनकी निजी सखियाँ हैं। भगवान् गोविन्द उनके साथ रासलीला तथा अन्य अनेक लीलाओं का आनन्द लेते हैं।
याँर ध्यान निज-लोके करे पद्मासन ।अष्टादशाक्षर-मन्त्रे करे उपासन ॥
२२१॥
चौदह लोकों के सारे लोग उनका ध्यान करते हैं और वैकुण्ठ-लोक के सारे निवासी उनके गुणों एवं लीलाओं का गायन करते हैं।
चौद्द-भुवने ग्राँर सबे करे ध्यान । वैकुण्ठादि-पुरे ग्राँर लीला-गुण गान ॥
२२२ ॥
अपने लोक में कमल आसन पर बैठे हुए ब्रह्माजी सदैव उनका ध्यान करते हैं और अष्टदशाक्षर (अठारह अक्षरों वाले ) मन्त्र से उनकी पूजा करते हैं।
याँर माधुरीते करे लक्ष्मी आकर्षण ।। रूप-गोसाजि करियाछेन से-रूप वर्णन ॥
२२३॥
उनकी माधुरी से लक्ष्मीजी आकर्षित हो जाती हैं, जिसका वर्णन श्रील रूप गोस्वामी ने इस प्रकार किया है ।
स्मेरां भङ्गी-त्रय-परिचितां साचि-विस्तीर्ण-दृष्टिं वंशी-न्यस्ताधर-किशलयामुज्वलां चन्द्रकेण । गोविन्दाख्यां हरि-तनुमितः केशि-तीर्थोपकण्ठे। मा प्रेक्षिष्ठास्तव यदि सखे बन्धु-सङ्गेऽस्ति रङ्गः ॥
२२४॥
हे मित्र, यदि तुम अपने संसारी मित्रों के प्रति वास्तव में आसक्त हो, तो यमुना-तट पर केशीघाट में खड़े भगवान् गोविन्द के स्मितहास्य युक्त मुखमण्डल की ओर मत देखना। वे नेत्रों से कटाक्षपात करते हुए अपने होठों पर बाँसुरी धारण करते हैं, जो नव पल्लव के समान प्रतीत होती है। उनका त्रिभंगिमायुक्त दिव्य शरीर चाँदनी में अत्यन्त उज्वल प्रतीत होता है।
साक्षात्व्रजेन्द्र-सुत इथे नाहि आन ।ग्रेबा अज्ञे करे ताँरै प्रतिमा-हेन ज्ञान ।। २२५॥
निस्सन्देह, वे साक्षात् ब्रजराज के पुत्र हैं। जो मूर्ख है, वही उन्हें मूर्ति मानता है।
सेइ अपराधे तार नाहिक निस्तार ।। घोर नरकेते पड़े, कि बलिब आर ॥
२२६ ।। उस अपराध के कारण वह कभी मुक्त नहीं हो सकता। वस्तुतः वह घोर नरक में जा पड़ेगा। इससे अधिक मैं क्या कहूँ? हेन ग्रे गोविन्द प्रभु, पाइनु याँहा हैते ।। ताँहार चरण-कृपा के पारे वर्णिते ॥
२२७॥
अतएव ऐसा कौन है, जो उनके (नित्यानन्द के) उन चरणकमलों को कृपा का वर्णन कर सके, जिनसे मैंने इन भगवान् गोविन्द की शरण प्त की है? वृन्दावने वैसे व्रत वैष्णव-मण्डल ।। कृष्ण-नाम-परायण, परम-मङ्गल ॥
२२८॥
वृन्दावन में रहने वाले सारे वैष्णवजन कृष्ण के परम मंगलमय नाम के कीर्तन में मग्न रहते हैं।
याँर प्राण-धन—नित्यानन्द-श्री-चैतन्य । राधा-कृष्ण-भक्ति विने नाहि जाने अन्य ॥
२२९॥
भगवान् चैतन्य तथा नित्यानन्द उन वैष्णवों के प्राणधन हैं, जो श्री श्री राधा-कृष्ण की भक्ति के अतिरिक्त कुछ भी नहीं जानते।
से वैष्णवेर पद-रेणु, तार पद-छाया । अधमेरे दिल प्रभु-नित्यानन्द-दया ॥
२३०॥
इस पतितात्मा को भगवान् नित्यानन्द की कृपा से ही वैष्णवों के चरणकमलों की धूल और छाया प्राप्त हो सकी है।
‘ताँहा सर्व लभ्य हय'- प्रभुर वचन । सेइ सूत्र-एइ तार कैल विवरण ॥
२३१॥
भगवान् नित्यानन्द ने कहा, 'वृन्दावन में सभी वस्तुएँ सुलभ हैं।' मैंने उनके संक्षिप्त कथन की यहाँ विस्तृत व्याख्या की है।
से सब पाइनु आमि वृन्दावने आय ।। सेइ सब लभ्य एइ प्रभुर कृपाय ॥
२३२॥
मैंने वृन्दावन आकर यह सब प्राप्त किया है और यह नित्यानन्द प्रभु की कृपा से सम्भव हो सका है।
आपनार कथा लिखि निर्लज्ज हइया । नित्यानन्द-गुणे लेखाय उन्मत्त करिया ॥
२३३॥
मैंने बिना किसी संकोच के अपनी निजी कहानी लिख दी है। भगवान् नित्यानन्द के गुण मुझे उन्मत्त बनाकर ये सब बातें लिखने के लिए बाध्य कर देते हैं।
नित्यानन्द-प्रभुर गुण-महिमा अपार ।।‘सहस्र-वदने' शेष नाहि पाय ग्राँर ।। २३४॥
भगवान् नित्यानन्द के दिव्य गुणों की महिमाएँ अगाध हैं; यहाँ तक कि भगवान् शेष भी अपने हजारों मुखों से उनकी सीमा को नहीं पा सकते।
श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश ।चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
२३५ ॥
। श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों में प्रार्थना करते हुए, सदैव उनकी दया की कामना करते हुए मैं, कृष्णदास, उनके पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए श्री चैतन्य-चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।
अध्याय छह: श्री अद्वैत आचार्य की महिमा
वन्दे तं श्रीमदद्वैता-चार्यमद्भुत-चेष्टितम् । ग्रस्य प्रसादादज्ञोऽपि तत्स्वरूपं निरूपयेत् ॥
१॥
मैं श्री अद्वैत आचार्य को सादर नमस्कार करता हूँ, जिनके सारे कार्यकलाप अद्भुत हैं। उनकी कृपा से मूर्ख से मूर्ख व्यक्ति भी उनके गुणों का वर्णन कर सकता है।
जय जय श्री-चैतन्य जय नित्यानन्द ।जयाद्वैत-चन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ॥
२॥
भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! नित्यानन्द प्रभु की जय हो! । अद्वैत आचार्य की जय हो! और श्री चैतन्य महाप्रभु के सारे भक्तों की जय हो! पञ्च श्लोके कहिल श्री-नित्यानन्द-तत्त्व ।।श्लोक-द्वये कहि अद्वैताचार्येर महत्त्व ।। ३ ॥
मैंने पाँच श्लोकों में श्री नित्यानन्द प्रभु के तत्त्व का वर्णन किया है। अब अगले दो श्लोकों में मैं श्री अद्वैत आचार्य की महिमा का वर्णन करूंगा।
महा-विष्णुर्जगत्कर्ता मायया ग्नः सृजत्यदः । तस्यावतार एवायमद्वैताचार्य ईश्वरः ॥
४॥
भगवान् अद्वैत आचार्य महाविष्णु के अवतार हैं, जिनका मुख्य कार्य है माया द्वारा जगत् की सृष्टि करना।
अद्वैतं हरिणाद्वैतादाचा भक्ति-शंसनात् । भक्तावतारमीशं तमद्वैताचार्यमाश्रये ॥
५॥
वे भगवान् हरि से अभिन्न हैं, अतएव वे अद्वैत कहलाते हैं और वे भक्ति सम्प्रदाय का प्रसार करते हैं, अतः वे आचार्य कहलाते हैं। वे भगवान् हैं और भगवान् के भक्त-अवतार हैं, इसलिए मैं उनकी शरण ग्रहण करता हूँ।
अद्वैत-आचार्य गोसाञि साक्षातीश्वर । याँहार महिमा नहे जीवेर गोचर ॥
६ ॥
महा-विष्णु सृष्टि करेन जगदादि कार्य ।ताँर अवतार साक्षातद्वैत आचार्य ॥
७॥
ब्रह्माण्डों की सृष्टि का सारा कार्य महाविष्णु करते हैं। श्री अद्वैत आचार्य उनके प्रत्यक्ष अवतार हैं।
ये पुरुष सृष्टि-स्थिति करेन मायाय ।अनन्त ब्रह्माण्ड सृष्टि कोन लीलाय ॥
८॥
वे ही पुरुष अपनी बहिरंगा शक्ति से सृजन और पालन करते हैं। वे अपनी लीलाओं के रूप में असंख्य ब्रह्माण्डों की सृष्टि करते हैं।
इच्छाय अनन्त मूर्ति करेन प्रकाश । एक एक मूर्ते करेन ब्रह्माण्डे प्रवेश ॥
९॥
वे अपनी इच्छा से अपने आपको असंख्य रूपों में प्रकट करते हैं और इन रूपों के द्वारा वे प्रत्येक ब्रह्माण्ड में प्रवेश करते हैं।
से पुरुषेर अंश—अद्वैत, नाहि किछु भेद ।। शरीर-विशेष ताँर--नाहिक विच्छेद ॥
१०॥
श्री अद्वैत आचार्य उन पुरुष के अंश हैं, अतएव वे उनसे भिन्न नहीं हैं। निस्सन्देह, श्री अद्वैत आचार्य पृथक् नहीं, अपितु उन पुरुष के अन्य रूप हैं।
सहाय करेन ताँर लइया ‘प्रधान' ।। कोटि ब्रह्माण्ड करेन इच्छाय निर्माण ॥
११ ॥
( अद्वैत आचार्य) पुरुष की लीलाओं में सहायक बनते हैं, जिनकी भौतिक शक्ति तथा जिनकी इच्छा से वे असंख्य ब्रह्माण्डों का निर्माण करते हैं।
जगत्मङ्गल अद्वैत, मङ्गल-गुण-धाम ।।मङ्गल-चरित्र सदा, 'मङ्गल' याँर नाम ॥
१२॥
श्री अद्वैत आचार्य सारे जगत् के लिए मंगलकारी हैं, क्योंकि वे समस्त मंगल गुणों के आगार हैं। उनके लक्षण, कार्य तथा नाम सदैव मंगलकारी है। कोटि अंश, कोटि शक्ति, कोटि अवतार ।एत ला सृजे पुरुष सकल संसार ॥
१३॥
महाविष्णु अपने कोटि-कोटि अंशों, शक्तियों तथा अवतारों से सम्पूर्ण जगत् की सृष्टि करते हैं।
माया यैछे दुइ अंश--‘निमित्त', ‘उपादान' । माया–‘निमित्त'-हेतु, उपादान–प्रधान' ॥
१४॥
पुरुष ईश्वर ऐछे द्वि-मूर्ति हइया ।। विश्व-सृष्टि करे ‘निमित्त' 'उपादान' लञा ॥
१५ ॥
। जिस प्रकार बहिरंगा शक्ति के दो भाग होते हैं-निमित्त तथा उपादान; माया निमित्त कारण और प्रधान उपादान कारण है। उसी तरह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु भी निमित्त तथा उपादान कारणों के आधार पर भौतिक जगत् की सृष्टि करने के लिए दो स्वरूप धारण करते हैं।
आपने पुरुष-विश्वेर 'निमित्त'-कारण । अद्वैत-रूपे उपादान' हन नारायण ॥
१६॥
स्वयं भगवान् विष्णु भौतिक जगत् के निमित्त कारण हैं और श्री अद्वैत के रूप में नारायण उपादान या भौतिक कारण हैं।
‘निमित्तांशे' करे तेंहो मायाते ईक्षण ।। ‘उपादान' अद्वैत करेन ब्रह्माण्ड-सृजन ॥
१७॥
भगवान् विष्णु अपने निमित्त अंश के रूप में भौतिक शक्ति के ऊपर दृष्टिपात करते हैं और श्री अद्वैत उपादान कारण के रूप में भौतिक जगत् की सृष्टि करते हैं।
यद्यपि साङ्ख्य माने, ‘प्रधान'–कारण ।जड़ हइते कभु नहे जगत्सृजन ॥
१८॥
। यद्यपि सांख्य दर्शन मानता है कि भौतिक अवयव ही कारण हैं, किन्तु जगत् की सृष्टि कभी भी मृत पदार्थ से नहीं होती।
निज सृष्टि-शक्ति प्रभु सञ्चारे प्रधाने ।।ईश्वरेर शक्त्ये तबे हये त' निर्माणे ॥
१९॥
भगवान् अपनी सृजन शक्ति द्वारा भौतिक अवयवों को संचारित करते हैं। इसके बाद भगवान् की शक्ति से सृष्टि-कार्य सम्पन्न होता है।
अद्वैत-रूपे करे शक्ति-सञ्चारण ।।अतएव अद्वैत हयेन मुख्य कारण ॥
२०॥
। अद्वैत के रूप में वे भौतिक अवयवों ( उपादानों) में सृजन शक्ति का संचार करते हैं। अतएव अद्वैत ही सृष्टि के मूल कारण हैं।
अद्वैत-आचार्य कोटि-ब्रह्माण्डेर कर्ता ।आर एक एक मूर्ये ब्रह्माण्डेर भर्ता ॥
२१॥
श्री अद्वैत आचार्य कोटि-कोटि ब्रह्माण्डों के स्रष्टा हैं और अपने विस्तार ( गर्भोदकशायी विष्णु) द्वारा वे प्रत्येक ब्रह्माण्ड का पालन करते है।
सेइ नारायणेर मुख्य अङ्ग–अद्वैत ।।‘अङ्ग'-शब्दे अंश करि' कहे भागवत ॥
२२॥
श्री अद्वैत नारायण के मुख्य अंग हैं। श्रीमद्भागवत' में “अंग” को ही भगवान् का “पूर्ण अंश' कहा गया है।
नारायणस्त्वं न हि सर्व-देहिनाम्आत्मास्यधीशाखिल-लोक-साक्षी । नारायणोऽङ्गं नर-भू-जलायनात्तच्चापि सत्यं न तवैव माया ॥
२३॥
हे समस्त प्रभुओं के प्रभु, आप समस्त सृष्टि को देखने वाले हैं। आप हर एक को प्राणों से प्रिय हैं। इसलिए क्या आप मेरे पिता नारायण नहीं हैं?'नारायण' वे हैं, जिनका आवास नर ( गर्भोदकशायी विष्णु ) से उत्पन्न जल में है और वही नारायण आपके पूर्ण अंश हैं। आपके सारे पूर्ण अंश दिव्य हैं। वे परम पूर्ण हैं और माया द्वारा रचित नहीं हैं।
ईश्वरेर 'अङ्ग' अंश चिदानन्द-मय ।मायार सम्बन्ध नाहि' एइ श्लोके कय ॥
२४॥
यह श्लोक बतलाता है कि भगवान् के सारे अंग तथा पूर्ण अंश आध्यात्मिक हैं। उनका भौतिक शक्ति (माया) से कोई सम्बन्ध नहीं है।
‘अंश' ना कहिया, केने कह ताँरे ‘अङ्ग' ।। 'अंश' हैते ‘अङ्ग' झाते हय अन्तरङ्ग ॥
२५॥
तब श्री अद्वैत को अंश न कहकर अंग क्यों कहा गया? इसका कारण है कि 'अंग' अधिक घनिष्ठता का सूचक है।
महा-विष्णुर अंश—अद्वैत गुण-धाम ।ईश्वरे अभेद, तेञि 'अद्वैत' पूर्ण नाम ॥
२६॥
समस्त सद्गु णों के आगार श्री अद्वैत महाविष्णु के प्रमुख अंग हैं। उनका पूरा नाम अद्वैत है, क्योंकि वे सभी प्रकार से उन भगवान् से अभिन्न हैं।
पूर्वे ग्रैछे कैल सर्व-विश्वेर सृजन ।।अवतरि' कैल एबे भक्ति-प्रवर्तन ॥
२७॥
जिस तरह पूर्वकाल में उन्होंने ब्रह्माण्डों की रचना की थी, उसी तरह अब वे भक्ति-पथ का सूत्रपात करने के लिए अवतरित हुए हैं।
जीव निस्तारिल कृष्ण-भक्ति करि' दान ।। गीता-भागवते कैल भक्तिर व्याख्यान ॥
२८॥
उन्होंने सारे जीवों को कृष्ण-भक्ति का उपहार देकर उनका उद्धार किया। उन्होंने भक्ति के प्रकाश में 'भगवद्गीता' तथा 'श्रीमद्भागवत की व्याख्या की।
भक्ति-उपदेश विनु ताँर नाहि कार्य ।। अतएव नाम है 'अद्वैत आचार्य' ॥
२९॥
उनके पास भक्ति की शिक्षा देने के अतिरिक्त अन्य कोई कार्य नहीं है, अतएव उनका नाम अद्वैत आचार्य है।
वैष्णवेर गुरु तेंहो जगतेर आग्ने । दुइ-नाम-मिलने हैल 'अद्वैत-आचार्य' ॥
३०॥
। उनके पार्षदों के शारीरिक रूप भी भगवान् जैसे होते हैं। उन सबके चार हाथ होते हैं और वे नारायण की तरह पीताम्बर धारण करते हैं।
कमल-नयनेर तेंहो, य़ाते 'अङ्ग' 'अंश' । ‘कमलाक्ष' करि धरे नाम अवतंस ॥
३१ ॥
। चूँकि वे कमलनयन परमेश्वर के अंग या अंश हैं, इसलिए उनका नाम कमलाक्ष भी है।
ईश्वर-सारूप्ये पाय पारिषद-गण । चतुर्भुज, पीत-वास, ग्रैछे नारायण ॥
३२॥
वे समस्त भक्तों के गुरु हैं और संसार के सबसे आदरणीय व्यक्ति हैं। इन दोनों नामों के योग से उनका नाम अद्वैत आचार्य है।
अद्वैत-आचार्य—ईश्वरेर अंश-वर्य । ताँर तत्त्व-नाम-गुण, सकलि आश्चर्य ॥
३३॥
श्री अद्वैत आचार्य परमेश्वर के प्रमुख अंग हैं। उनके तत्त्व, नाम तथा गुण-सभी अद्भुत हैं।
ग्राँहार तुलसी-जले, झाँहार हुङ्कारे ।।स्व-गण सहिते चैतन्येर अवतारे ॥
३४॥
उन्होंने कृष्ण की पूजा तुलसीदल तथा गंगाजल से की और उच्च स्वर से उन्हें पुकारा। इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु अपने निजी पार्षदों सहित पृथ्वी पर अवतरित हुए।
ग्राँर द्वारा कैल प्रभु कीर्तन प्रचार ।झाँर द्वारा कैल प्रभु जगनिस्तार ॥
३५ ॥
उन्हीं (अद्वैत आचार्य ) के द्वारा श्री चैतन्य महाप्रभु ने संकीर्तन आन्दोलन का प्रसार किया और उन्हीं के द्वारा उन्होंने संसार का उद्धार किया।
आचार्य गोसाजिर गुण-महिमा अपार ।जीव-कीट कोथाय पाइबेक तार पार ॥
३६॥
अद्वैत आचार्य की महिमा तथा उनके गुण असीम हैं। तो फिर क्षुद्र जीव उनको पार कैसे पा सकते हैं? आचार्य गोसाजि चैतन्येर मुख्य अङ्ग ।आर एक अङ्ग ताँर प्रभु नित्यानन्द ॥
३७॥
श्री अद्वैत आचार्य श्री चैतन्य महाप्रभु के मुख्य अंग हैं। उनके दूसरे अंग नित्यानन्द प्रभु हैं।
प्रभुर उपाङ्ग–श्रीवासादि भक्त-गण ।।हस्त-मुख-नेत्र-अङ्ग चक्राद्यत्र-सम ॥
३८॥
श्रीवास आदि भक्तगण उनके लघु अंग हैं। वे उनके हाथ, मुँह, आँखें तथा चक्र एवं अन्य अस्त्रों की तरह हैं।
ए-सब लइया चैतन्य-प्रभुर विहार ।।ए-सब लइया करेन वाञ्छित प्रचार ॥
३९॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने इन सबके साथ अपनी लीलाएँ कीं और उनको साथ लेकर उन्होंने अपने वांछित उद्देश्य का प्रचार किया।
माधवेन्द्र-पुरीर इँहो शिष्य, एइ ज्ञाने ।।आचार्य-गोसाजिरे प्रभु गुरु करि' माने ॥
४०॥
चैतन्य महाप्रभु यह सोचकर कि वे ( श्री अद्वैत आचार्य ) श्री माधवेन्द्र पुरी के शिष्य हैं, उन्हें अपने गुरु के समान आदर देते हुए उनकी आज्ञा का पालन करते हैं।
लौकिक-लीलाते धर्म-मर्यादा-रक्षण ।स्तुति-भक्त्ये करेन ताँर चरण वन्दन ॥
४१॥
धर्म के सिद्धान्तों की मर्यादा बनाये रखने के लिए श्री चैतन्य महाप्रभु स्तुति तथा भक्ति के साथ श्री अद्वैत आचार्य के चरणकमलों की वन्दना करते हैं।
चैतन्य-गोसाजिके आचार्य करे 'प्रभु'-ज्ञान ।। आपनाके करेन ताँर 'दास'-अभिमान ॥
४२॥
। किन्तु श्री अद्वैत आचार्य श्री चैतन्य महाप्रभु को अपना स्वामी मानते हैं और अपने आपको चैतन्य महाप्रभु का दास मानते हैं।
सेइ अभिमान-सुखे आपना पासरे ।।‘कृष्ण-दास' हओ-जीवे उपदेश करे ॥
४३॥
वे उसी भाव के हर्ष में अपने आपको भूल जाते हैं और सभी जीवों को शिक्षा देते हैं कि, “तुम सभी लोग श्री चैतन्य महाप्रभु के दास हो।
कृष्ण-दास-अभिमाने ग्रे आनन्द-सिन्धु ।।कोटी-ब्रह्म-सुख नहे तार एक बिन्दु ॥
४४॥
श्रीकृष्ण के प्रति दास्य भाव आत्मा में ऐसा आनन्द-सागर उत्पन्न कर देता है कि यदि ब्रह्म से एकाकार होने के सुख को एक करोड़ गुना कर दिया जाये, तो भी वह इसकी एक बूंद की समानता नहीं कर सकता।
मुजि ग्रे चैतन्य-दास आर नित्यानन्द ।।दास-भाव-सम नहे अन्यत्र आनन्द ।। ४५ ॥
वे कहते हैं, श्री नित्यानन्द और मैं श्री चैतन्य महाप्रभु के सेवक हैं। अन्यत्र कहीं भी ऐसा सुख नहीं है, जैसा इस सेवा-भाव में मिलता है।
परम-प्रेयसी लक्ष्मी हृदये वसति । तेहो दास्य-सुख मागे करिया मिनति ॥
४६ ।। यद्यपि भगवान् के वक्षस्थल पर उनकी परम प्रेयसी लक्ष्मीदेवी निवास करती हैं, किन्तु फिर भी उनकी यही याचना रहती है कि उन्हें उनके चरणों की सेवा का आनन्द प्राप्त होता रहे।
दास्य-भावे आनन्दित पारिषद-गण । विधि, भव, नारद आर शुक, सनातन ॥
४७॥
भगवान् कृष्ण के सारे पार्षद (संगी ), यथा ब्रह्मा, शिव, नारद, शुक तथा सनातन कुमार दास्यभाव में अत्यधिक प्रसन्न रहते हैं।
नित्यानन्द अवधूत सबाते आगल ।।चैतन्येर दास्य-प्रेमे हइला पागल ।। ४८ ॥
विचरण करने वाले अवधूत साधु श्री नित्यानन्द भगवान् चैतन्य के समस्त पार्षदों में अग्रणी हैं। वे भगवान् चैतन्य की सेवा के आनन्द में पागल हो गये।
श्रीवास, हरिदास, रामदास, गदाधर । मुरारि, मुकुन्द, चन्द्रशेखर, वक्रेश्वर ॥
४९॥
ए-सब पण्डित-लोक परम-महत्त्व ।। चैतन्येर दास्ये सबाय करये उन्मत्त ॥
५०॥
श्रीवास, हरिदास, रामदास, गदाधर, मुरारि, मुकुन्द, चन्द्रशेखर तथा वक्रेश्वर सभी अत्यन्त यशस्वी हैं और महान् पण्डित हैं, किन्तु भगवान् चैतन्य के प्रति दास्यभाव उन्हें उन्मत्त बनाये रखता है।
एइ मत गाय, नाचे, करे अट्टहास ।के उपदेशे,---‘हओ चैतन्येर दास' ।। ५१ ।। इस तरह वे सभी पागलों की तरह नाचते, गाते और हँसते हैं तथा सभी को यही उपदेश देते हैं, श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रेमी दास बनो।
चैतन्य-गोसाजि मोरे करे गुरु ज्ञान ।।तथापिह मोर हय दास-अभिमान ॥
५२॥
श्री अद्वैत आचार्य सोचते हैं, चैतन्य महाप्रभु मुझे अपना गुरु मानते हैं, तो भी मैं अपने आपको उनका दास मात्र अनुभव करता हूँ।
कृष्ण-प्रेमेर एइ एक अपूर्व प्रभाव ।।गुरु-सम-लघुके कराय दास्य-भाव ॥
५३॥
कृष्ण-प्रेम का यही एक अपूर्व प्रभाव है कि यह गुरुजनों, समवयस्कों तथा कनिष्ठजनों को भगवान् कृष्ण के प्रति सेवा भाव से प्रेरित करता है।
इहार प्रमाण शुन–शास्त्रेर व्याख्यान ।महदनुभव य़ाते सुदृढ़ प्रमाण ॥
५४॥
इसके प्रमाण के लिए प्रामाणिक शास्त्रों में वर्णित उदाहरणों का श्रवण करें, जिनकी पुष्टि महात्माओं की अनुभूति द्वारा भी होती है।
अन्येर का कथा, व्रजे नन्द महाशय ।। तार सम 'गुरु' कृष्णेर आर केह नय ॥
५५॥
शुद्ध-वात्सल्ये ईश्वर-ज्ञान नाहि तार ।।ताहाकेइ प्रेमे कराय दास्य-अनुकार ॥
५६॥
व्रज में कृष्ण के लिए नन्द महाराज से बढ़कर कोई अधिक पूज्य गुरुजन नहीं है, क्योंकि अपने दिव्य पितृप्रेम के कारण उन्हें इसका ज्ञान ही नहीं है कि उनके पुत्र पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं। फिर भी यह प्रेम उन्हें अपने आपको कृष्ण का दास होने का अनुभव कराता है; औरों का तो क्या कहना? तेंहो रति-मति मागे कृष्णेर चरणे ।।ताहार श्री-मुख-वाणी ताहाते प्रमाणे ॥
५७॥
वे भी भगवान् कृष्ण के चरणकमलों में अनुरक्ति और भक्ति के लिए प्रार्थना करते हैं, जैसाकि स्वयं उनके मुख से निकले शब्द इसके साक्षी हैं।
शुन उद्धव, सत्य, कृष्ण-आमार तनय । तेहो ईश्वर–हेन यदि तोमार मने लय ॥
५८ ॥
तथापि ताँहाते रहु मोर मनो-वृत्ति । तोमार ईश्वर-कृष्णे हौक मोर मति ॥
५९॥
हे उद्धव, कृपया सुनो। यह सच है कि कृष्ण मेरा पुत्र है, किन्तु फिर भी यदि तुम सोचते हो कि वह ईश्वर है, तो भी उसके लिए मैं अपने पुत्र का भाव ही रखेंगा। अतएव मेरी प्रार्थना है कि मेरा मन तुम्हारे भगवान् कृष्ण के प्रति अनुरक्त हो।
मनसो वृत्तयो नः स्युः कृष्ण-पादाम्बुजाश्रयाः ।। वाचोऽभिधायिनीर्नाम्नां कायस्तत्प्रह्वणादिषु ॥
६०॥
हमारे मन तुम्हारे भगवान् कृष्ण के चरणों में अनुरक्त हों, हमारी जिह्वाएँ उनके पवित्र नामों का कीर्तन करें और हमारे शरीर उनके समक्ष दण्डवत् प्रणाम करें।
कर्मभिर्भाग्यमाणानां यत्र क्वापीश्वरेच्छया ।।मङ्गलाचरितैर्दानै रतिर्नः कृष्ण ईश्वरे ॥
६१॥
हम ईश्वर की इच्छा से अपने कर्मवश भौतिक ब्रह्माण्ड में जहाँ भी भ्रमण करें, हमारे पुण्यकर्म भगवान् कृष्ण के प्रति हमारी अनुरक्ति को बढ़ाते रहें।
श्रीदामादि व्रजे व्रत सखार निचय ।ऐश्वर्य-ज्ञान-हीन, केवल-सख्य-मय ।। ६२ ॥
भगवान् कृष्ण के वृन्दावन के मित्र, जिनमें श्रीदामा मुख्य हैं, उनके प्रति शुद्ध सख्य प्रेम रखते हैं। उन्हें भगवान् के ऐश्वर्यों का कोई ज्ञान नहीं हैं।
कृष्ण-सङ्गे युद्ध करे, स्कन्धे आरोहण ।।तारा दास्य-भावे करे चरण-सेवन ॥
६३ ॥
यद्यपि वे भगवान् से लड़ते हैं और उनके कन्धों पर चढ़ जाते हैं, किन्तु दास्यभाव में वे उनके चरणकमलों की पूजा करते हैं।
पाद-संवाहनं चक्रुः केचित्तस्य महात्मनः ।।अपरे हत-पाप्मानो व्यजनैः समवीजयन् ॥
६४॥
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण के कुछ मित्र उनके पाँव दबाते थे और अन्य मित्र, जिनके पाप-कर्मफल नष्ट हो चुके थे, अपने हाथ में पंखा लेकर उन पर पंखा झलते थे।
कृष्णेर प्रेयसी व्रजे व्रत गोपी-गण ।। ग्राँर पद-धूलि करे उद्धव प्रार्थन ॥
६५॥
याँ-सबार उपरे कृष्णेर प्रिय नाहि आन ।ताँहार आपनाके करे दासी-अभिमान ।। ६६॥
यहाँ तक कि वृन्दावन में भगवान् कृष्ण की प्रेयसी गोपियाँ भी, जिनके चरणों की धूल की कामना श्री उद्धव ने की थी और जिनसे बढ़कर कृष्ण को अन्य कोई भी प्रिय नहीं है, अपने आपको कृष्ण की दासियाँ मानती हैं।
व्रज-जनार्ति-हन्वीर योषितांनिज-जन-स्मय-ध्वंसन-स्मित ।। भज सखे भवत्किङ्करीः स्म नो । जल-रुहाननं चारु दर्शय ॥
६७॥
हे प्रभु, हे वृन्दावन के निवासियों के कष्टों के हर्ता! हे समस्त स्त्रियों के नायक! अपनी मृदु मधुर मुस्कान से अपने भक्तों के गर्व को नष्ट करने वाले हे भगवान्! हे सखे! हम आपकी दासियाँ हैं। कृपया हमारी इच्छापूर्ति करें और हमें अपने आकर्षक कमलमुख का दर्शन प्रदान करें।
अपि बत मधु-पुर्यामाग्र-पुत्रोऽधुनास्तेस्मरति स पितृ-गेहान्सौम्य बन्धूंश्च गोपान् । क्वचिदपि स कथां नः किङ्करिणां गृणीतेभुजमगुरु-सुगन्धं मूर्त्यधास्यत्कदा नु ॥
६८॥
। । हे उद्धव यह सचमुच दुःख की बात है कि कृष्ण मथुरा में वास कर रहे हैं। क्या उन्हें अपने पिता के घरेलु कार्यों, अपने मित्रों तथा ग्वालबालों की याद आती है? हे महात्मा! क्या वे कभी हम दासियों के विषय में बात करते हैं? वे कब हमारे मस्तकों को अपने अगुरु-सुगन्धित हाथ से स्पर्श करेंगे? ताँ-सबार कथा रहु,-–श्रीमती राधिका । सबा हैते सकलांशे परम-अधिका॥
६९॥
तेहो याँर दासी हैञा सेवेन चरण ।।झाँर प्रेम-गुणे कृष्ण बद्ध अनुक्षण ॥
७० ॥
अन्य गोपियों का तो कहना ही क्यो, यहाँ तक कि श्रीमती राधिका, जो उन सबमें हर प्रकार से श्रेष्ठ हैं और जिन्होंने अपने प्रेम-गुणों द्वारा श्रीकृष्ण को सदा के लिए बाँध लिया है, उनकी दासी के रूप में उनकी चरण-सेवा करती हैं।
हा नाथ रमण प्रेष्ठ क्वासि क्वासि महा-भुज । दास्यास्ते कृपणाया मे सखे दर्शय सन्निधिम् ॥
७१ ॥
हे नाथ! हे मेरे पति! हे परम प्रिय! हे बलिष्ठ भुजाओं वाले! आप कहाँ हैं? आप कहाँ हैं? हे सखे, अपनी दासी के समक्ष आप प्रकट क्यों नहीं होते, जो आपकी अनुपस्थिति के कारण अत्यन्त दुःखी है? द्वारकाते रुक्मिण्यादि व्रतेक महिषी । ताँहाराओ आपनाके माने कृष्ण-दासी ॥
७२॥
। द्वारकाधाम में रुक्मिणी इत्यादि सारी रानियाँ भी अपने आपको भगवान् कृष्ण की दासियाँ मानती हैं।
चैद्याय मार्पयितुमुद्यत-कार्मुकेषु राजस्वजेय-भट-शेखरिताघ्रि-रेणुः । निन्ये मृगेन्द्र इव भागमजावि-यूथात्तच्छ्री-निकेत-चरणोऽस्तु ममार्चनाय ॥
७३॥
जब जरासन्ध तथा अन्य राजा अपने अपने धनुष-बाण उठाये मुझे शिशुपाल को दान रूप देने को उद्यत थे, तो उन्होंने मुझे उनके बीच से बलपूर्वक उसी प्रकार खींच लिया, जिस प्रकार सिंह अपना भाग भेड़ों और बकरियों के बीच में से ले जाता है। अतः उनके चरणकमलों की धूलि अजेय सैनिकों का ताज है। वे चरणकमल जो लक्ष्मीजी के आश्रय हैं, मेरी पूजा के अभीष्ट बनें।
तपश्चरन्तीमाज्ञाय स्व-पाद-स्पर्शनाशया । सख्योपेत्याग्रहीत्पाणिं साहं तद्गृह-मार्जनी ॥
७४॥
यह जानते हुए कि मैं उनके चरणकमलों का स्पर्श पाने के लिए तपस्या कर रही हूँ, वे अपने मित्र अर्जुन के साथ आये और उन्होंने मेरा पाणिग्रहण किया। फिर भी मैं श्रीकृष्ण के घर का फर्श बुहारने में लगी हुई मात्र एक दासी हूँ। आत्मारामस्य तस्येमा वयं वै गृह-दासिकाः ।।सर्व-सङ्ग-निवृत्त्याव्द्धा तपसा च बभूविमे ॥
७५ ॥
हम अपनी तपस्या तथा सारी आसक्तियों के त्याग से, अपने में ही सन्तुष्ट रहने वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण के घर की दासियाँ बन पाई हैं।
आनेर कि कथा, बलदेव महाशय ।। याँर भाव—शुद्ध-सख्य-वात्सल्यादि-मयं ॥
७६॥
औरों की बात छोड़िये, यहाँ तक कि भगवान् बलदेव भी शुद्ध सख्य तथा वात्सल्य-प्रेम जैसी भावनाओं से पूर्ण हैं।
तेहो आपनाके करेन दास-भावना ।।कृष्ण-दास-भाव विनु आछे कोन जना ॥
७७ ॥
वे भी अपने आपको भगवान् कृष्ण का दास समझते हैं। निस्सन्देह, ऐसा कौन होगा जो भगवान् कृष्ण का दास होने का यह भाव न रखती हो? सहस्र-वदने →हो शेष-सङ्कर्षण ।दश देह धरि' करे कृष्णेर सेवन ॥
७८ ॥
वे जो शेष रूपी संकर्षण हैं, वे अपने हजारों मुखों से, दस रूपों को प्रकट करके श्रीकृष्ण की सेवा करते हैं।
अनन्त ब्रह्माण्डे रुद्र-सदाशिवेर अंश । गुणावतार तेंहो, सर्व-देव-अवतंस ॥
७९ ॥
सदाशिव के विस्ताररूप रुद्र, जो असंख्य ब्रह्माण्डों में प्रकट होते हैं। और अनन्त ब्रह्माण्डों में देवताओं के अलंकार हैं, वे एक गुणावतार भी हैं।
तेंहो करेन कृष्णेर दास्य-प्रत्याश ।निरन्तर कहे शिव, 'मुञि कृष्ण-दास' ॥
८०॥
वे भी भगवान् कृष्ण के दास ही बनने की कामना करते हैं। श्री सदाशिव हमेशा यही कहते हैं, मैं भगवान् कृष्ण का दास हूँ।
कृष्ण-प्रेमे उन्मत्त, विह्वल दिगम्बर ।कृष्ण-गुण-लीला गाय, नाचे निरन्तर ॥
८१॥
कृष्ण के प्रेम में उन्मत्त होकर वे विह्वल बन जाते हैं और बिना वस्त्र के निरन्तर नृत्य करते रहते हैं तथा भगवान् कृष्ण के गुणों एवं उनकी लीलाओं के विषय में गाते रहते हैं।
पिता-माता-गुरु-सखा-भाव केने नय ।। कृष्ण-प्रेमेर स्वभावे दास्य-भाव से करय ॥
८२ ॥
सारे भाव, चाहे वे पिता के, माता के, गुरु के या मित्र के हों, दास्यभाव से पूरित हैं। कृष्ण-प्रेम का यही स्वभाव है।
एक कृष्ण-सर्व-सेव्य, जगतीश्वर ।। आर व्रत सब, ताँर सेवकानुचर ॥
८३॥
ब्रह्माण्ड के एकमात्र स्वामी भगवान् कृष्ण सबके द्वारा सेव्य होने के योग्य हैं। निस्सन्देह, प्रत्येक व्यक्ति उनके दासों का दास होने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
सेइ कृष्ण अवतीर्ण–चैतन्य-ईश्वर । अतएव आर सब, ताँहार किङ्कर ॥
८४॥
। वे भगवान् कृष्ण ही चैतन्य महाप्रभु के रूप में अवतरित हुए हैं। अतएव सारे लोग उनके दास हैं।
केह माने, केह ना माने, सब ताँर दास । ये ना माने, तार हय सेइ पापे नाश ॥
८५॥
कुछ लोग उन्हें स्वीकार करते हैं और कुछ नहीं करते, तो भी सारे लोग उनके दास हैं। जो उन्हें स्वीकार नहीं करता, वह अपने पापकर्मों से विनष्ट हो जायेगा।
चैतन्येर दास मुञि, चैतन्येर दास ।।चैतन्येर दास मुञि, ताँर दासेर दास ॥
८६॥
मैं चैतन्य महाप्रभु का दास हूँ, मैं चैतन्य महाप्रभु का दास हूँ। मैं चैतन्य महाप्रभु का दास हूँ और उनके दासों का दास हूँ।
एत बलि' नाचे, गाय, हुङ्कार गम्भीर ।।क्षणेके वसिला आचार्य है सुस्थिर ॥
८७॥
यह कहकर अद्वैत प्रभु नाचते हैं तथा जोर-जोर से गाते हैं। फिर अगले क्षण वे चुप होकर बैठ जाते हैं।
भक्त-अभिमान मूल श्री-बलरामे ।। सेइ भावे अनुगत ताँर अंश-गणे ।।८८॥
निस्सन्देह, दास्य भाव के उद्गम भगवान् बलराम हैं। उनके बाद के सारे अंश इसी परमानन्द भाव से प्रभावित होते हैं।
ताँर अवतार एक श्री-सङ्कर्षण । भक्त बलि' अभिमान करे सर्व-क्षण ॥
८९॥
उनके एक अवतार स्वरूप भगवान् संकर्षण अपने आपको उनका नित्ये दास मानते हैं।
ताँर अवतार आन श्री-ग्रुत लक्ष्मण । श्री-रामेर दास्य तिंहो कैल अनुक्षण ॥
९०॥
उनके दूसरे अवतार लक्ष्मण जो अतीव सुन्दर एवं ऐश्वर्ययुक्त हैं, सदैव भगवान् राम की सेवा करते हैं।
सङ्कर्षण-अवतार कारणाब्धि-शायी ।।ताँहार हृदये भक्त-भाव अनुयायी ॥
९१॥
कारण सागर में शयन करने वाले भगवान् विष्णु, भगवान् संकर्षण के अवतार हैं, फलतः उनके हृदय में भक्त होने का भाव सदैव विद्यमान रहता है।
ताँहार प्रकाश-भेद, अद्वैत-आचार्य ।काय-मनो-वाक्ये ताँर भक्ति सदा कार्य ॥
९२ ॥
अद्वैत आचार्य उनके पृथक् विस्तार हैं। वे सदैव मन, वचन तथा कर्म से उनकी भक्ति में मग्न रहते हैं।
वाक्ये कहे, ‘मुजि चैतन्येर अनुचर' ।मुजि ताँर भक्त–मने भावे निरन्तर ॥
९३॥
वे अपनी वाणी से घोषित करते हैं, मैं भगवान् चैतन्य का दास हूँ।” इस तरह अपने मन में वे सदैव सोचते हैं, मैं उनका भक्त हूँ।
जले-तुलसी दिया करे कायाते सेवन ।।भक्ति प्रचारिया सब तारिला भुवन ॥
९४॥
उन्होंने गंगाजल तथा तुलसीदल अर्पित करके अपने शरीर से भगवान् की पूजा की और भक्ति के प्रचार द्वारा सारे ब्रह्माण्ड का उद्धार किया।
पृथिवी धरेन येइ शेष-सङ्कर्षण ।काय-व्यूह करि' करेन कृष्णेर सेवन ॥
९५ ॥
अपने फनों पर सारे ब्रह्माण्डों को धारण करने वाले शेष संकर्षण भगवान् कृष्ण की सेवा करने के लिए अपना विस्तार विविध शरीरों में करते हैं।
एइ सब हय श्री कृष्णेर अवतार ।निरन्तर देखि सबार भक्तिर आचार ॥
९६॥
ये सभी भगवान् कृष्ण के अवतार हैं, फिर भी हम उन्हें सदैव भक्तों की तरह कार्य करते हुए पाते हैं।
ए-सबाके शास्त्रे कहे 'भक्त-अवतार' । ‘भक्त-अवतार'-पद उपरि सबार ॥
९७॥
शास्त्र उन्हें भक्त-अवतार कहते हैं। ऐसे अवतार का पद अन्य सबके ऊपर है।
एक-मात्र 'अंशी'–कृष्ण, 'अंश'–अवतार ।अंशी अंशे देखि ज्येष्ठ-कनिष्ठ-आचार ॥
९८॥
। भगवान् कृष्ण समस्त अवतारों के उद्गम हैं और अन्य सभी उनके अंश या अंशावतार हैं। हम देखते हैं कि पूर्ण तथा अंश क्रमशः ज्येष्ठ तथा कनिष्ठ की तरह व्यवहार करते हैं।
ज्येष्ठ-भावे अंशीते हय प्रभु-ज्ञान ।कनिष्ठ-भावे आपनाते भक्त-अभिमान ॥
९९ ॥
जब वे अपने आपको स्वामी मानते हैं, तब समस्त अवतारों के उद्गम में ज्येष्ठ भाव होता है और जब वे अपने आपको भक्त मानते हैं, तब उनमें कनिष्ठ भाव होता है।
कृष्णेर समता हैते बड़ भक्त-पद ।।आत्मा हैते कृष्णेर भक्त हय प्रेमास्पद ॥
१००॥
भक्त होना भगवान् कृष्ण की समता से बढ़कर है, क्योंकि भक्तगण भगवान् कृष्ण को अपने से भी अधिक प्रिय हैं।
आत्मा हैते कृष्ण भक्ते बड़ करि' माने । इहाते बहुत शास्त्र-वचन प्रमाणे ॥
१०१॥
भगवान् कृष्ण अपने भक्तों को अपने से भी बढ़कर मानते हैं। इस सन्दर्भ में शास्त्रों में प्रचुर प्रमाण प्राप्त होते हैं।
न तथा मे प्रिय-तम आत्म-योनिर्न शङ्करः ।। न च सङ्कर्षणो न श्रीवात्मा च ग्रथा भवान् ॥
१०२॥
हे उद्धव! तुम्हारे समान मुझे न ब्रह्मा, न शंकर, न संकर्षण, न लक्ष्मी, न स्वयं मैं ही प्रिय हूँ।
कृष्ण-साम्ये नहे ताँर माधुर्यास्वादन ।।भक्त-भावे करे ताँर माधुर्घ चर्वण ॥
१०३ ॥
जो अपने आपको कृष्ण के समकक्ष मानते हैं, वे भगवान् कृष्ण की मधुरता का आस्वादन नहीं कर सकते। इसका आस्वादन तो केवल दास्य भाव के माध्यम से किया जा सकता है।
शास्त्रेर सिद्धान्त एई,—विज्ञेर अनुभव।मूढ़-लोक नाहि जाने भावेर वैभव ॥
१०४॥
प्रामाणिक शास्त्रों का यह निष्कर्ष अनुभवी भक्तों की अनुभूति भी है। किन्तु मूर्ख तथा धूर्त लोग भक्तिमय भावों के इस ऐश्वर्य को नहीं समझ सकते।
भक्त-भाव अङ्गीकरि' बलराम, लक्ष्मण । अद्वैत, नित्यानन्द, शेष, सङ्कर्षण ॥
१०५ ।। कृष्णेर माधुर्य-रसामृत करे पान ।सेइ सुखे मत्त, किछु नाहि जाने आन ॥
१०६॥
। बलदेव, लक्ष्मण, अद्वैत आचार्य, भगवान् नित्यानन्द, भगवान् शेष तथा संकर्षण अपने आपको भगवान् के भक्त तथा दास मानकर भगवान् कृष्ण के दिव्य आनन्द के अमृत-रस का आस्वादन करते हैं। वे सभी इसी सुख से उन्मत्त रहते हैं और इसके अतिरिक्त दूसरा कुछ भी नहीं जानते।
अन्येर आछुक्काग्रे, आपने श्रीकृष्ण ।आपन-माधुर्घ-पाने हइला सतृष्ण ॥
१०७॥
औरों की तो बात ही क्या, स्वयं भगवान् कृष्ण भी अपने माधुर्य का आस्वादन करने के इच्छुक रहते हैं।
स्वा-माधुर्य आस्वादिते करेन व्रतन ।भक्त-भाव विनु नहे ताहा आस्वादन ॥
१०८॥
वे अपने माधुर्य का आस्वादन खुद करना चाहते हैं, किन्तु भक्त के भाव को स्वीकार किये बिना वे ऐसा नहीं कर सकते।
भक्त-भाव अङ्गीकरि' हैला अवतीर्ण ।।श्री कृष्णा-चैतन्य-रूपे सर्व-भावे पूर्ण ॥
१०९॥
अतएव भगवान् कृष्ण ने भक्त के भाव को स्वीकार किया और सभी प्रकार से पूर्ण भगवान् चैतन्य के रूप में अवतरित हुए।
नाना-भक्त-भावे करेन स्व-माधुर्य पान ।पूर्वे करियाछि एइ सिद्धान्त व्याख्यान ॥
११०॥
वे भक्त के विविध भावों के माध्यम से अपनी माधुरी का आस्वादन करते हैं। मैंने पहले ही इस सिद्धान्त की व्याख्या कर दी है।
अवतार-गणेर भक्त-भावे अधिकार ।भक्त-भाव हैते अधिक सुख नाहि आर ।। १११॥
सारे अवतारों को भक्तों का भाव पाने का अधिकार है। इससे बढ़कर अन्य कोई आनन्द नहीं है।
मूल भक्त-अवतार श्री-सङ्कर्षण । भक्त-अवतार हँहि अद्वैते गणन ॥
११२॥
मूल भक्त-अवतार संकर्षण हैं। श्री अद्वैत की गिनती ऐसे ही अवतारों में की जाती है।
अद्वैत-आचार्य गोसाजिर महिमा अपार ।झाँहार हुङ्कारे कैल चैतन्यावतार ॥
११३॥
श्री अद्वैत आचार्य की महिमाएँ अपार हैं, क्योंकि उनकी निष्ठावान हुंकार से ही इस पृथ्वी पर भगवान् श्री चैतन्य का अवतरण हो सका।
सङ्कीर्तन प्रचारिया सब जगत्तारिल ।अद्वैत-प्रसादे लोक प्रेम-धन पाइल ॥
११४॥
उन्होंने संकीर्तन के प्रचार द्वारा ब्रह्माण्ड का उद्धार किया। इस तरह श्री अद्वैत की कृपा से ही संसार के लोगों को भगवत्प्रेम रूपी खजाना प्राप्त हुआ।
अद्वैत-महिमा अनन्त के पारे कहिते ।।सेइ लिखि, येइ शुनि महाजन हैते ॥
११५॥
भला अद्वैत आचार्य की असीम महिमाओं का वर्णन कौन कर सकता है? यहाँ मैं वही लिख रहा हूँ, जैसा मैंने महापुरुषों से जाना है।
आचार्य-चरणे मोर कोटि नमस्कार ।।इथे किछु अपराध ना लबे आमार ॥
११६॥
मैं श्री अद्वैत आचार्य के चरणकमलों पर करोड़ों बार नमस्कार करता हूँ। कृपया इसमें अपराध न मानें।
तोमार महिमा-कोटि-समुद्र अगाध ।।ताहार इयत्ता कहि,——ए बड़ अपराध ॥
११७॥
आपकी महिमाएँ करोड़ों समुद्रों के समान अगाध हैं। इसकी माप की बात करना अवश्य ही महा-अपराध है।
जय जय जय श्री-अद्वैत आचार्य ।जय जय श्री-चैतन्य, नित्यानन्द आर्म्य ॥
११८॥
श्री अद्वैत आचार्य की जय हो, जय हो! श्री चैतन्य महाप्रभु तथा श्रेष्ठ श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो, जय हो! दुइ श्लोके कहिल अद्वैत-तत्त्व-निरूपण ।पञ्च-तत्त्वेर विचार किछु शुन, भक्त-गण ॥
११९॥
इस तरह मैंने दो श्लोकों में अद्वैत आचार्य के तत्त्व का वर्णन किया है। हे भक्तों! अब पंचतत्त्वों के विषय में सुनिये।
श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश ।।चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
१२०॥
श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों पर प्रार्थना करते हुए, सदैव उनकी कृपा की कामना करते हुए मैं, कृष्णदास, उनके चरणचिह्नों पर चलते हुए श्री चैतन्य-चरितामृत कह रहा हूँ।
अध्याय सात: भगवान चैतन्य पाँच विशेषताओं में
अगत्येक-गतिं नत्वा हीनार्थाधिक-साधकम् ।। श्री-चैतन्यं लिख्यतेऽस्य प्रेम-भक्ति-वदान्यता ॥
१॥
मैं सर्वप्रथम उन श्री चैतन्य महाप्रभु को सादर नमस्कार करता हूँ, जो इस भौतिक जगत् में समस्त प्रकार की सम्पत्ति से विहीन व्यक्ति के लिए जीवन के चरम लक्ष्य हैं और आध्यात्मिक जीवन में प्रगति करने वाले के लिए एकमात्र अर्थ हैं। इस तरह मैं उन भगवान् की प्रेममयी भक्ति के उदार योगदान के विषय में लिखने जा रहा हूँ।
जय जय महाप्रभु श्री-कृष्ण-चैतन्य ।ताँहार चरणाश्रित, सेइ बड़े धन्य ॥
२॥
मैं भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु की जय-जयकार करता हूँ। जिसने उनके चरणकमलों की शरण ले रखी है, वह सर्वाधिक धन्य व्यक्ति है।
पूर्वे गुर्वादि छय तत्त्वे कैल नमस्कार ।।गुरु-तत्त्व कहियाछि, एबे पाँचेर विचार ॥
३॥
। मैं प्रारम्भ में गुरु-तत्त्व की व्याख्या कर चुका हूँ। अब मैं पंचतत्त्व की । विवेचना करने की चेष्टा करूंगा।
पञ्च-तत्त्व अवतीर्ण चैतन्येर सङ्गे।।पञ्च-तत्त्व ला करेन सङ्कीर्तन रङ्गे ॥
४॥
ये पाँचों तत्त्व श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ अवतरित होते हैं और इस तरह महाप्रभु अत्यन्त हर्षपूर्वक अपना संकीर्तन आन्दोलन सम्पन्न करते हैं।
पञ्च-तत्त्व—एक-वस्तु, नाहि किछु भेद ।रस आस्वादिते तबु विविध विभेद ॥
५॥
आध्यात्मिक दृष्टि से इन पाँच तत्त्वों में कोई अन्तर नहीं है, क्योंकि दिव्य धरातल पर सभी वस्तुएँ परम पूर्ण होती हैं। तथापि आध्यात्मिक जगत् में भी विविधता होती हैं और इन आध्यात्मिक विविधताओं का आस्वादन करने के लिए उनमें अन्तर करना आवश्यक होता है।
पञ्च-तत्त्वात्मकं कृष्णं भक्त-रूप-स्वरूपकम् । भक्तावतारं भक्ताख्यं नमामि भक्त-शक्तिकम् ॥
६॥
मैं उन भगवान् श्रीकृष्ण को नमस्कार करता हूँ जो भक्त, भक्त के विस्तार, भक्त के अवतार, शुद्ध भक्त और भक्त-शक्ति-इन पाँच रूपों में प्रकट हुए हैं।
स्वयं भगवान्कृष्ण एकले ईश्वर । अद्वितीय, नन्दात्मज, रसिक-शेखर ॥
७॥
समस्त आनन्द के आगार कृष्ण परम नियन्ता, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं। कोई न तो कृष्ण से बड़ा है न उनके तुल्य है, फिर भी वे महाराज नन्द के पुत्र के रूप में प्रकट होते हैं।
रासादि-विलासी, व्रजललना-नागर । आर ग्रत सब देख, ताँर परिकर ॥
८ ॥
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण रासनृत्य के परम भोक्ता हैं। वे व्रज की बालाओं के नायक हैं और अन्य सारे मात्र उनके संगी हैं।
सेइ कृष्ण अवतीर्ण श्री-कृष्ण-चैतन्य ।सेइ परिकर-गण सङ्गे सब धन्य ॥
९॥
वे ही भगवान् कृष्ण अपने ही समान यशस्वी शाश्वत संगियों के साथ श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में अवतरित हुए।
एकले ईश्वर-तत्त्व चैतन्य-ईश्वर । भक्त-भावमय ताँर शुद्ध कलेवर ॥
१०॥
परम नियन्ती श्री चैतन्य महाप्रभु एकमात्र भगवान् हैं, जो भावविभोर होकर भक्त बन गये हैं, फिर भी उनका शरीर दिव्य है और भौतिक रूप से कलुषित नहीं है।
कृष्ण-माधुर्येर एक अद्भुत स्वभाव ।।आपना आस्वादिते कृष्ण करे भक्त-भाव ॥
११॥
कृष्ण का दिव्य माधुर्य रस इतना अद्भुत है कि स्वयं कृष्ण इसका पूर्णतया आस्वादन करने के लिए भक्त का रूप धारण करते हैं।
इथे भक्त-भाव धरे चैतन्य गोसाजि ।। 'भक्त-स्वरूप' ताँर नित्यानन्द-भाई ॥
१२॥
इसी कारण से परम शिक्षक श्री चैतन्य महाप्रभु भक्त का रूप स्वीकार करते हैं और भगवान् नित्यानन्द को अपने ज्येष्ठ भाई के रूप में स्वीकार करते हैं।
'भक्त-अवतार' ताँर आचार्य-गोसाजि ।।एइ तिन तत्त्व सबे प्रभु करि' गाइ ॥
१३॥
। श्री अद्वैत आचार्य भगवान् चैतन्य के भक्त-अवतार हैं। इसलिए ये । तीनों तत्त्व ( चैतन्य महाप्रभु, नित्यानन्द प्रभु तथा अद्वैत गोसांई) आश्रय देने वाले या प्रभु हैं।
एक महाप्रभु, आर प्रभु दुइजन ।।दुइ प्रभु सेवे महाप्रभुर चरण ॥
१४॥
उनमें से एक महाप्रभु हैं और अन्य दो प्रभु हैं। ये दोनों प्रभु महाप्रभु के चरणकमलों की सेवा करते हैं।
एइ तिन तत्त्व, ‘सर्वाराध्य' करि मानि ।।चतुर्थ ये भक्त-तत्त्व,–'आराधक' जानि ॥
१५ ॥
ये तीन तत्त्व (चैतन्य महाप्रभु, नित्यानन्द प्रभु तथा अद्वैत प्रभु) सभी जीवों द्वारा पूजनीय हैं और चौथे तत्त्व ( श्री गदाधर प्रभु) उनके आराधक अर्थात् पूजक माने जाते हैं।
श्रीवासादि ग्रत कोटि कोटि भक्त-गण ।।‘शुद्ध-भक्त'-तत्त्व-मध्ये ताँ-सबार गणन ॥
१६॥
भगवान् के शुद्ध भक्त असंख्य हैं, जिनमें श्रीवास ठाकुर प्रमुख हैं। । ये सभी शुद्ध भक्त कहलाते हैं।
गदाधर-पण्डितादि प्रभुर 'शक्ति'-अवतार । ‘अन्तरङ्ग-भक्त' करि' गणन याँहार ॥
१७॥
गदाधर पंडित इत्यादि भक्तों को भगवान् की अंतरंगा शक्ति का अवतार मानना चाहिए। वे भगवान् की सेवा में लगे हुए अन्तरंग भक्त हैं।
याँ-सबा ला प्रभुर नित्य विहार ।। याँ-सबा लञा प्रभुर कीर्तन-प्रचार ॥
१८॥
याँ-सबा लञा करेन प्रेम आस्वादन ।। याँ-सबा ला दान करे प्रेम-धन ॥
१९॥
अन्तरंग भक्त या शक्ति-समूह भगवान् की लीलाओं में नित्य संगी होते हैं। भगवान् केवल उन्हीं के साथ संकीर्तन आन्दोलन के प्रसार हेतु अवतरित होते हैं, उन्हीं के साथ वे माधुर्य रस का आस्वादन करते हैं और केवल उन्हीं के साथ वे जनसामान्य को इस भगवत्प्रेम का वितरण करते है।
सेइ पञ्च-तत्त्व मिलि' पृथिवी आसिया । पूर्व-प्रेमभाण्डारेर मुद्रा उघाड़िया ॥
२० ॥
पाँचे मिलि लुटे प्रेम, करे आस्वादन ।ग्रत व्रत पिये, तृष्णा बाढ़े अनुक्षण ॥
२१॥
कृष्ण के गुण दिव्य प्रेम के आगार माने जाते हैं। जब कृष्ण विद्यमान थे, तब यह प्रेम का आगार निश्चय ही उनके साथ आया था, किन्तु वह पूरी तरह से सीलबन्द था। किन्तु जब श्री चैतन्य महाप्रभु अपने पंचतत्त्व के संगियों के साथ आये, तो उन्होंने दिव्य कृष्ण-प्रेम का आस्वादन करने के लिए कृष्ण के दिव्य प्रेमागार की सील तोड़कर उसे लूट लिया। वे ज्यों-ज्यों उसका आस्वादन करते गये, त्यों-त्यों और अधिक आस्वादन करने की उनकी तृष्णा बढ़ती ही गई।
पुनः पुनः पियाइया हय महामत्त । नाचे, कान्दे, हासे, गाय, भैछे मद-मत्त ॥
२२ ॥
स्वयं श्री पंचतत्त्वों ने पुनः पुनः नाचकर इस तरह भगवत्प्रेम रूपी अमृत को पीना सुगम बनाया। वे नाचते, रोते, हँसते और गाते थे, मानो उन्मत्त हों और इस तरह उन्होंने भगवत्प्रेम का वितरण किया।
पात्रापात्र-विचार नाहि, नाहि स्थानास्थान ।येइ याँहा पाय, ताँहा करे प्रेम-दान ॥
२३ ॥
भगवत्प्रेम का वितरण करते समय श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनके संगियों ने कभी यह विचार नहीं किया कि कौन सुपात्र है और कौन नहीं है, इसका वितरण कहाँ किया जाये और कहाँ नहीं। उन्होंने कोई शर्त नहीं रखी। जहाँ कहीं भी अवसर मिला, पंचतत्त्व के सदस्यों ने भगवत्प्रेम का वितरण किया।
लुटिया, खाइया, दिया, भाण्डार उजाड़े। आश्चर्य भाण्डार, प्रेम शत-गुण बाड़े ॥
२४॥
यद्यपि पंचतत्त्व के सदस्यों ने भगवत्प्रेम के भण्डार को लूटा और इसकी सामग्री का आस्वादन किया तथा उसे बाँट दिया, फिर भी उसमें कोई कमी नहीं हुई, क्योंकि यह अद्भुत भण्डार इतना भरा-पूरा है कि ज्यों-ज्यों प्रेम का वितरण किया जाता है, त्यों-त्यों इसकी आपूर्ति सैकड़ों गुना बढ़ जाती है।
उछलिल प्रेम-वन्या चौदिके वेड़ाय ।। स्त्री, वृद्ध, बालक, ब्रुवा, सबारे डुबाय ॥
२५॥
भगवत्प्रेम की बाढ़ से सारी दिशाएँ आप्लावित होने लगीं और इस तरह से युवक, वृद्ध, स्त्रियाँ तथा बच्चे उस बाढ़ में डूबने लगे।
सज्जन, दुर्जन, पङ्गु, जड़, अन्ध-गण । प्रेम-वन्याय डुबाइल जगतेर जन ॥
२६॥
कृष्णभावनामृत आन्दोलन सारे विश्व को आप्लावित कर देगा और हर एक को डुबा देगा, चाहे वह भद्र व्यक्ति हो, या धूर्त, लँगड़ा या अशक्त अथवा अंधा।
जगत्डुबिल, जीवेर हैल बीज नाश । ताहा देखि पाँच जनेर परम उल्लास ॥
२७॥
। जब पंचतत्त्व के पाँच सदस्यों ने देखा कि सारा संसार भगवत्प्रेम में डूब चुका है और जीवों में भौतिक भोग का बीज पूरी तरह नष्ट हो चुका है, तो वे सभी अत्यधिक प्रसन्न हुए।
यते यत प्रेम-वृष्टि करे पञ्च-जने ।। तत तत बाढ़े जल, व्यापे त्रि-भुवने ॥
२८॥
पंचतत्त्व के पाँचों सदस्य भगवत्प्रेम की जितनी अधिक वृष्टि कराते हैं, उतनी ही अधिक बाढ़ बढ़ती जाती है और वह सारे विश्व में परिव्याप्त हो जाती है।
मायावादी, कर्म-निष्ठ कुतार्किक-गण । निन्दक, पाषण्डी ग्रत पडूया अधम ॥
२९॥
सेइ सब महादक्ष धाआ पलाइल । सेइ वन्या ता-सबारे छुड़िते नारिल ॥
३०॥
मायावादी, सकाम कर्मी, छद्म तार्किक, निन्दा करने वाले, अभक्त तथा निम्न श्रेणी के विद्यार्थी कृष्णभावनामृत आन्दोलन से दूर रहने में बड़े दक्ष होते हैं, अतएव कृष्णभावनामृत की बाढ़ उनका स्पर्श नहीं कर पाती।
ताहा देखि' महाप्रभु करेन चिन्तन ।। जगत्डुबाइते आमि करिलँ व्रतन ॥
३१॥
केह केह एड़ाइल, प्रतिज्ञा हइल भङ्ग ।। ता-सबी डुबैते पातिब किछु रङ्ग ॥
३२॥
यह देखकर कि मायावादी तथा अन्य लोग पलायन कर रहे हैं, चैतन्य महाप्रभु ने सोचा, “मेरी इच्छा थी कि प्रत्येक व्यक्ति भगवत्प्रेम की इस बाढ़ में डूब जाए, किन्तु उनमें से कुछ लोग भाग निकले हैं। अतएव मैं उन्हें भी डुबाने का कोई उपाय निकालूंगा।
एत बलि' मने किछु करिया विचार ।।सन्यास-आश्रम प्रभु कैला अङ्गीकार ॥
३३॥
इस प्रकार महाप्रभु ने पूरी तरह विचार करने के बाद संन्यास आश्रम ग्रहण किया।
चब्बिश वत्सर छिला गृहस्थ-आश्रमे । पञ्च-विंशति वर्षे कैल ग्रति-धर्मे ॥
३४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु चौबीस वर्षों तक गृहस्थ जीवन में रहे और पच्चीसवें वर्ष के आरम्भ में उन्होंने संन्यास आश्रम स्वीकार कर लिया।
सन्यास करिया प्रभु कैला आकर्षण ।।ग्रतेक पालााछिल तार्किकादिगण ।। ३५ ।। संन्यास आश्रम स्वीकार कर लेने पर श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन सबका ध्यान आकृष्ट किया, जो उनसे बचते फिरते थे, जिनमें से तार्किक लोग प्रमुख थे।
पडुया, पाषण्डी, कर्मी, निन्दकादि व्रत ।।तारा आसि' प्रभु-पाय हय अवनत ॥
३६॥
इस प्रकार विद्यार्थी, पाखण्डी, सकाम कर्मी तथा आलोचक-ये सभी भगवान् के चरणकमलों में आ-आकर आत्मसमर्पण करने लगे।
अपराध क्षमाइल, डुबिल प्रेम-जले ।।केबा एड़ाइबे प्रभुर प्रेम-महाजाले ॥
३७॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन सबको क्षमा प्रदान की और वे सभी भक्ति के सागर में निमग्न हो गये, क्योंकि ऐसा कोई भी नहीं था, जो श्री चैतन्य महाप्रभु के अद्वितीय प्रेम रूपी जाल से बच सके।
सबा निस्तारिते प्रभु कृपा-अवतार । सबा निस्तारिते करे चातुरी अपार ॥
३८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु समस्त पतितात्माओं का उद्धार करने के लिए प्रकट हुए। अतएव उन्होंने उन्हें माया के प्रभाव से मुक्त कराने के लिए अनेक उपाय ढूंढ निकाले।।
तबे निज भक्त कैल व्रत म्लेच्छ आदि ।। सबे एड़ाइल मात्र काशीर मायावादी ॥
३९॥
सभी लोग, यहाँ तक कि म्लेच्छ तथा यवन भी श्री चैतन्य महाप्रभु के भक्त बना लिए गये। केवल शंकराचार्य के निर्विशेषवादी अनुयायी (मायावादी ) ही उनसे बचते रहे।
वृन्दावन ग्राइते प्रभु रहिला काशीते ।। मायावादि-गण तारे लागिल निन्दिते ॥
४०॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन जाते समय वाराणसी से होकर गुजर रहे थे, तो मायावादी संन्यासी दार्शनिकों ने अनेक प्रकार से उनकी निन्दा की।
सन्यासी हइया करे गायन, नाचन ।।ना करे वेदान्त-पाठ, करे सङ्कीर्तन ॥
४१॥
(निंदकों ने कहा :) संन्यासी होकर भी वह वेदान्त के अध्ययन में रुचि नहीं लेता, किन्तु इसके बदले नाचने और संकीर्तन करने में सदैव लगा रहता है।
मूर्ख सन्यासी निज-धर्म नाहि जने । भावुक हइया फेरे भावुकेर सने ॥
४२॥
यह चैतन्य महाप्रभु तो अनपढ़ संन्यासी है, अतएव वह अपने वास्तविक कर्म को नहीं जानता। वह मात्र भावों में बहकर अन्य भावुकों के साथ इधर-उधर घूमता रहता है।
ए सब शुनिया प्रभु हासे मने मने ।।उपेक्षा करिया कारो ना कैल सम्भाषणे ॥
४३॥
ये सारी निन्दा सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु मन में हँसने लगे। इन सारे दोषारोपणों को अस्वीकार करते हुए उन्होंने मायावादियों से बात नहीं की।
उपेक्षा करिया कैल मथुरा गमन । मथुरा देखिया पुनः कैल आगमन ॥
४४॥
। इस प्रकार वाराणसी-मायावादियों की निन्दा की उपेक्षा करते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु मथुरा की ओर आगे बढ़े और मथुरा जाने के बाद वे पुनः उस स्थिति का सामना करने के लिए लौट आये।
काशीते लेखक शूद्र-श्रीचन्द्रशेखर ।। ताँर घरे रहिला प्रभु स्वतन्त्र ईश्वर ॥
४५॥
इस बार श्री चैतन्य महाप्रभु चन्द्रशेखर नामक शूद्र या कायस्थ के घर पर रुके, क्योंकि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के रूप में वे पूर्णतया स्वतन्त्र हैं।
तपन-मिश्रेर घरे भिक्षा-निर्वाहण ।। सन्यासीर सङ्गे नाहि माने निमन्त्रण ॥
४६॥
। सैद्धान्तिक तौर पर श्री चैतन्य महाप्रभु तपन मिश्र के घर पर भोजन करते थे। वे न तो अन्य संन्यासियों से मिलते-जुलते थे, न ही उनका निमंत्रण स्वीकार करते थे।
सनातन गोसाञि आसि' ताँहाइ मिलिला ।।ताँर शिक्षा लागि' प्रभु दु-मास रहिला ॥
४७॥
जब सनातन गोस्वामी बंगाल से आये, तो वे श्री चैतन्य महाप्रभु से तपन मिश्र के ही घर पर मिले थे, जहाँ श्री चैतन्य महाप्रभु उन्हें भक्ति की शिक्षा देने के लिए लगातार दो मास तक रहे थे।
ताँरै शिखाइला सब वैष्णवेर धर्म ।।भागवत-आदि शास्त्रेर व्रत गूढ़ मर्म ॥
४८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने गूढ़ निर्देशों को प्रकट करने वाले श्रीमद्भागवत जैसे शास्त्रों के आधार पर सनातन गोस्वामी को भक्त के सभी नियमित कार्यों के विषय में शिक्षा दी।
इतिमध्ये चन्द्रशेखर, मिश्र-तपन ।दुःखी हा प्रभु-पाय कैल निवेदन ॥
४९॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु सनातन गोस्वामी को उपदेश दे रहे थे, तो चन्द्रशेखर तथा तपन मिश्र दोनों ही अत्यन्त दुःखी हुए। अतएव उन्होंने भगवान् के चरणों में एक निवेदन किया।
कतेक शुनिब प्रभु तोमार निन्दन ।नो पारि सहिते, एबे छाड़िब जीवन ॥
५० ॥
हम लोग कब तक आपके आचरण का विरोध करने वाले इन आलोचकों द्वारा की जा रही निन्दा को सहन करें? ऐसी निन्दा सुनने से तो यही अच्छा होगा कि हम अपने प्राण त्याग दें।
तोमारे निन्दये व्रत सन्यासीर गण ।।शुनिते ना पारि, फाटे हृदय-श्रवण ॥
५१॥
सारे मायावादी संन्यासी आपकी आलोचना कर रहे हैं। हम ऐसी आलोचना सहन नहीं कर सकते, क्योंकि यह निन्दा हमारे हृदयों को विदीर्ण कर रही है।
इहा शुनि रहे प्रभु ईषत् हासिया।। सेइ काले एक विप्र मिलिल आसिया ॥
५२॥
जब तपन मिश्र तथा चन्द्रशेखर इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु से बातें कर रहे थे, तो वे थोड़ा मुसकाये और मौन रहे। उसी समय एक ब्राह्मण उनसे मिलने आया।
आसि' निवेदन करे चरणे धरिया ।। एक वस्तु मागों, देह प्रसन्न हइया ॥
५३॥
वह ब्राह्मण तुरन्त ही श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों पर गिर पड़ा और प्रार्थना करने लगा कि वे प्रसन्न होकर उसके प्रस्ताव को स्वीकार करें।
सकल सन्यासी मुञि कैनु निमन्त्रण ।तुमि यदि आइस, पूर्ण हय मोर मन ॥
५४॥
हे प्रभु, मैंने बनारस के सारे संन्यासियों को अपने घर पर आमन्त्रित किया है। यदि आप मेरा निमन्त्रण स्वीकार कर लें, तो मेरी इच्छा पूर्ण हो जायेगी।
ना ग्राह सन्यासि-गोष्ठी, इहा आमि जानि ।मोरे अनुग्रह कर निमन्त्रण मानि' ॥
५५॥
“हे प्रभु, मैं जानता हूँ कि आप अन्य संन्यासियों से कभी मिलतेजुलते नहीं हैं, किन्तु आप कृपया मुझ पर दयालु हों और मेरा निमन्त्रण स्वीकार करें।
प्रभु हासि' निमन्त्रण कैल अङ्गीकार ।सन्यासीरे कृपा लागि' ए भङ्गी ताँहार ॥
५६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने हँसते हुए उस ब्राह्मण का निमन्त्रण स्वीकार कर लिया। उन्होंने मायावादी संन्यासियों पर कृपा प्रदर्शित करने के लिए ही ऐसी चेष्टा की।
से विप्र जानेन प्रभु ना ग्रान कार घरे ।।ताँहार प्रेरणाय ताँरे अत्याग्रह करे ॥
५७॥
वह ब्राह्मण जानता था कि भगवान् चैतन्य महाप्रभु कभी किसी अन्य के घर नहीं गये, फिर भी भगवान् से प्रेरित होकर उसने उनसे सच्चे हृदय से प्रार्थना की कि वे उसके इस निमन्त्रण को स्वीकार कर लें।
आर दिने गेला प्रभु से विप्र-भवने ।।देखिलेन, वसियाछेन सन्यासीर गणे ॥
५८॥
अगले दिन जब भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु उस ब्राह्मण के घर गये, तो उन्होंने वहाँ पर बनारस के सारे संन्यासियों को बैठे देखा।
सबा नमस्करि' गेला पाद-प्रक्षालने ।पाद प्रक्षालन करि वसिला सेइ स्थाने ॥
५९॥
ज्योंही श्री चैतन्य महाप्रभु ने सारे संन्यासियों को देखा, त्योंही उन्होंने सबको नमस्कार किया और तब वे अपने पाँव धोने चले गये। पाँव धोने के बाद वे उसी स्थान पर बैठ गये।
वसिया करिला किछु ऐश्वर्य प्रकाश ।। महातेजोमय वपु कोटि-सूर्याभास ॥
६० ॥
भूमि पर बैठने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान तेज प्रकट करके अपनी योग-शक्ति का प्रदर्शन किया।
प्रभावे आकर्षिल सब सन्यासीर मन ।। उठिल सन्यासी सब छाड़िया आसन ॥
६१॥
जब सारे संन्यासियों ने श्री चैतन्य महाप्रभु के शरीर का तेजोमय प्रकाश देखा, तो उनके चित्त आकृष्ट हो गये। वे सभी तुरन्त अपना आसन छोड़कर सम्मान में खड़े हो गये।
प्रकाशानन्द-नामे सर्व सन्यासि-प्रधान ।प्रभुके कहिल किछु करिया सम्मान ॥
६२॥
उन सारे मायावादी संन्यासियों के मुखिया (अग्रणी) का नाम प्रकाशानन्द सरस्वती था। उसने खड़े होकर बड़े ही सम्मान के साथ श्री चैतन्य महाप्रभु को इस प्रकार सम्बोधित किया।
इहाँ आइस, इहाँ आइस, शुनह श्रीपाद ।।अपवित्र स्थाने वैस, किबा अवसाद ॥
६३॥
हे श्रीपाद, कृपया यहाँ आइये। कृपया यहाँ आइये। आप उसे अपवित्र स्थान में क्यों बैठे हैं? आप के शोक का कारण क्या है? प्रभु कहे,—आमि हइ हीन-सम्प्रदाय ।। तोमा-सबार सभाय वसिते ना युयाय ॥
६४॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, मैं निम्न कोटि का संन्यासी हूँ। अतएव मैं आप लोगों के साथ बैठने के योग्य नहीं हूँ।
आपने प्रकाशानन्द हातेते धरियो । वसाइला सभा-मध्ये सम्मान करिया ॥
६५॥
किन्तु प्रकाशानन्द सरस्वती ने स्वयं श्री चैतन्य महाप्रभु का हाथ पकड़कर बड़े ही सम्मान के साथ उन्हें सभा के मध्य में बैठाया।
पुछिल, तोमार नाम 'श्री-कृष्ण-चैतन्य' ।।केशव-भारतीर शिष्य, ताते तुमि धन्य ॥
६६॥
तब प्रकाशानन्द सरस्वती ने कहा, मेरी समझ में आपका नाम श्रीकृष्ण चैतन्य है। आप तो श्री केशव भारती के शिष्य हैं और इसीलिए आप धन्य हैं।
साम्प्रदायिक सन्यासी तुमि, रह एइ ग्रामे ।। कि कारणे आमा-सबार ना कर दर्शने ॥
६७॥
आप तो हमारे शंकर सम्प्रदाय के हैं और हमारे गाँव वाराणसी में रहते हैं। तो फिर आप हम लोगों का संग क्यों नहीं करते? आप हमसे मिलने से भी क्यों कतराते हैं? सन्यासी हइया कर नर्तन-गायन ।भावुक सब सङ्गे ला कर सङ्कीर्तन ॥
६८॥
आप तो संन्यासी हैं, तो फिर भावुकों के साथ अपने संकीर्तन आन्दोलन में कीर्तन करने और नाचने में क्यों लगे रहते हैं? वेदान्त-पठन, ध्यान, सन्यासीर धर्म ।। ताहा छाड़ि' कर केने भावुकेर कर्म ॥
६९॥
ध्यान तथा वेदान्त-अध्ययन-ये ही संन्यासी के एकमात्र कर्तव्य हैं। आप इन भावुकों के साथ नाचने के लिए इन कर्तव्यों का त्याग क्यों कर देते हैं? प्रभावे देखिये तोमा साक्षात्लारायण ।। हीनाचार कर केने, इथे कि कारण ॥
७० ॥
आप स्वयं नारायण के समान तेजवान लगते हैं। क्या आप इसका कारण बता सकते हैं कि आपने निम्न वर्ग के लोगों जैसा आचरण क्यों अपना रखा है? प्रभु कहे—शुन, श्रीपाद, इहार कारण ।। गुरु मोरे मूर्ख देखि' करिल शासन ॥
७१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने श्री प्रकाशानन्द सरस्वती को उत्तर दिया, मान्यवर, कृपया इसका कारण सुनिये। मेरे गुरुदेव ने मुझे एक मूर्ख समझकर मेरी भत्र्सना की।
मूर्ख तुमि, तोमार नाहिक वेदान्ताधिकार ।। ‘कृष्ण-मन्त्र जप सदा,——एई मन्त्र-सार ॥
७२॥
उन्होंने कहा, 'तुम मूर्ख हो। तुम वेदान्त-दर्शन का अध्ययन करने के योग्य नहीं हो; अतएव तुम्हें चाहिए कि तुम सदैव कृष्ण नाम का जप करो। यह समस्त मन्त्रों या वैदिक स्तोत्रों का सार है।
कृष्ण-मन्त्र हैते हबे संसार-मोचन ।। कृष्ण-नाम हैते पाबे कृष्णेर चरण ॥
७३॥
। कृष्ण के पवित्र नाम के कीर्तन मात्र से मनुष्य को भौतिक संसार से छुटकारा मिल सकता है। निस्सन्देह, केवल हरे-कृष्ण मन्त्र का कीर्तन करने से उसे भगवान् के चरणकमलों के दर्शन हो सकते हैं।
नाम विनु कलि-काले नाहि आर धर्म ।सर्व-मन्त्र-सार नाम, एइ शास्त्र-मर्म ॥
७४॥
इस कलियुग में भगवन्नाम के कीर्तन से बढ़कर अन्य कोई धर्म नहीं। है, क्योंकि यह समस्त वैदिक स्तोत्रों का सार है। यही सारे शास्त्रों का तात्पर्य है।'
एत बलि' एक श्लोक शिखाइल मोरे ।। कण्ठे करि' एई श्लोक करिह विचारे ॥
७५ ॥
हरे कृष्ण महामन्त्र की शक्ति का वर्णन करने के बाद मेरे गुरु ने मुझे दूसरा श्लोक सिखाया और मुझे यह उपदेश दिया कि मैं इसे सदैव अपने कण्ठ के भीतर रखें।
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् । कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ॥
७६॥
इस कलियुग में आध्यात्मिक उन्नति के लिए हरिनाम, हरिनाम, हरिनाम के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है, अन्य कोई विकल्प नहीं है, अन्य कोई विकल्प नहीं है।'
एइ आज्ञा पाञा नाम लई अनुक्षण ।। नाम लेते लैते मोर भ्रान्त हैल मन ॥
७७ ।। चूंकि मुझे अपने गुरु से यह आदेश मिला है, अतएव मैं पवित्र नाम का सदैव जप करता हूँ। किन्तु मैं सोचता हूँ कि पवित्र नाम का बार बार जप-कीर्तन करते करते मैं मोहग्रस्त हो गया हूँ।
धैर्य धरिते नारि, हैलाम उन्मत्त ।हासि, कान्दि, नाचि, गाइ, ग्रैछे मदमत्त ॥
७८ ॥
शुद्ध भावावेश में भगवन्नाम का कीर्तन करते हुए मैं अपने आपको भूल जाता हूँ। इस प्रकार मैं पागल की तरह हँसता, रोता, नाचता और गाता हूँ।
तबे धैर्य धरि' मने करिहुँ विचार ।कृष्ण-नामे ज्ञानाच्छन्न हद्दल आमार ॥
७९॥
इसलिए धैर्य धारण करके मैं सोचने लगा कि कृष्ण के पवित्र नाम के कीर्तन ने मेरे समस्त आध्यात्मिक ज्ञान को आच्छादित कर लिया है।
पागल हइलाँ आमि, धैर्य नाहि मने ।। एत चिन्ति' निवेदिलु गुरुर चरणे ॥
८० ॥
मैंने देखा कि पवित्र नाम का कीर्तन करने से मैं पागल हो गया हूँ, तो मैंने तुरन्त ही अपने गुरु के चरणकमलों में निवेदन किया।
किबा मन्त्र दिला, गोसाजि, किबा तार बल । जपिते जपिते मन्त्र करिल पागले ॥
८१॥
हे प्रभु, आपने मुझे कैसा मन्त्र दिया है? मैं तो इस महामन्त्र का कीर्तन करने मात्र से पागल हो गया हूँ।
हासाय, नाचाय, मोरे कराय क्रन्दन ।।एत शुनि' गुरु हासि बलिला वचन ॥
८२॥
भाववश पवित्र भगवन्नाम का कीर्तन करने से मैं नाचने, हँसने और रोने लगता हूँ।' जब मेरे गुरु ने यह सब सुना, तो वे हँसने लगे और मुझसे बोले।
कृष्ण-नाम-महा-मन्त्रेर एइ त' स्वभाव । येइ जपे, तार कृष्णे उपजये भाव ॥
८३॥
यह हरे कृष्ण महामन्त्र का स्वभाव है कि जो भी इसका कीर्तन करता है, उसमें तुरन्त ही कृष्ण के लिए प्रेमपूर्ण भाव उत्पन्न हो जाता है।
कृष्ण-विषयक प्रेमा-परम पुरुषार्थ ।।ग्रार आगे तृण-तुल्य चारि पुरुषार्थ ॥
८४॥
धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष ये जीवन के चार पुरुषार्थ के रूप में जाने जाते हैं, किन्तु भगवत्प्रेम के समक्ष, जो कि पाँचवाँ तथा सर्वोच्च पुरुषार्थ है, ये चारों पुरुषार्थ मार्ग में पड़े तृण के समान तुच्छ प्रतीत होते हैं।
पञ्चम पुरुषार्थ—प्रेमानन्दामृत-सिन्धु ।मोक्षादि आनन्द ग्रार नहे एक बिन्दु ॥
८५॥
जिस भक्त में भाव का सचमुच विकास हो चुका होता है, उसे धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष से प्राप्त होने वाला आनन्द समुद्र की तुलना में एक बूंद जैसा लगता है।
कृष्ण-नामेर फल-‘प्रेमा', सर्व-शास्त्रे कय ।भाग्ये सेइ प्रेमा तोमार्य करिल उदय ॥
८६॥
। सभी प्रामाणिक शास्त्रों का यह निर्णय है कि मनुष्य को अपना सुप्त भगवत्प्रेम जागृत करना चाहिए। तुमने पहले से ऐसा कर लिया है, इसलिए तुम अतीव भाग्यशाली हो।
प्रेमार स्वभावे करे चित्त-तनु क्षोभ ।कृष्णेर चरण-प्राप्त्ये उपजाय लोभ ॥
८७॥
भगवत्प्रेम की यह विशेषता है कि स्वभाववश यह मनुष्य के शरीर में दिव्य लक्षण उत्पन्न करता है और उसे भगवान् के चरणकमलों की शरण प्राप्त करने के लिए अधिकाधिक लोभी बना देता है।
प्रेमार स्वभावे भक्त हासे, कान्दे, गाय ।उन्मत्त हइया नाचे, इति-उति धाय ॥
८८॥
जब मनुष्य में सचमुच भगवत्प्रेम उत्पन्न हो जाता है, तो वह स्वभावत: कभी रोता है, कभी हँसता है, कभी गाता है और कभी पागल की तरह इधर-उधर दौड़ता फिरता है।
स्वेद, कम्प, रोमाञ्चाश्रु, गद्गद, वैवर्य । उन्माद, विषाद, धैर्य, गर्व, हर्ष, दैन्य ॥
८९॥
एत भावे प्रेमा भक्तगणेरे नाचाय ।कृष्णेर आनन्दामृत-सागरे भासाय ॥
९० ॥
पसीना, कँपकँपी, रोओं का खड़ा होना, आँसू, वाणी का अवरोध, पीला पड़ना, पागलपन, विषाद, धैर्य, गर्व, हर्ष तथा दीनता-ये भगवत्प्रेम के विविध प्राकृतिक लक्षण हैं, जो भक्त को हरे कृष्ण मन्त्र के कीर्तन करते समय दिव्य आनन्द के सागर में नचाते और तैराते हैं।
भाल हैल, पाइले तुमि परम-पुरुषार्थ ।।तोमार प्रेमेते आमि हैलाँ कृतार्थ ॥
९१॥
हे पुत्र, यह तो अच्छा हुआ कि तुमने भगवत्प्रेम विकसित करके जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त कर लिया है। इस तरह तुमने मुझे अत्यधिक प्रसन्न कर लिया है और मैं तुम्हारा अत्यन्त कृतज्ञ हूँ।
नाच, गाओ, भक्त-सङ्गे कर सङ्कीर्तन ।।कृष्ण-नाम उपदेशि' तार' सर्व-जन ॥
९२ ॥
हे पुत्र, भक्तों के साथ तुम नृत्य और कीर्तन करना चालू रखो। बाहर जाकर कृष्ण नाम-कीर्तन के महत्व का प्रचार करो, क्योंकि इस विधि से तुम सारे पतितात्माओं का उद्धार कर सकोगे।'
एत बलि' एक श्लोक शिखाइल मोरे ।।भागवतेर सार एई—बले वारे वारे ॥
९३॥
यह कहकर मेरे गुरु ने मुझे श्रीमद्भागवत का एक श्लोक सिखलाया। यह सम्पूर्ण भागवत की शिक्षाओं का सार है; अतएव उन्होंने मुझे इस श्लोक को बारम्बार सुनाया।
एवं-व्रतः स्व-प्रिय-नाम-कीर्त्या जातानुरागो द्रुत-चित्त उच्चैः । हसत्यथो रोदिति रौति गायत्य् उन्माद-वन्नृत्यति लोक-बाह्यः ॥
९४॥
जब कोई व्यक्ति वास्तव में उन्नत होता है और अपने प्रिय भगवान् के नाम का कीर्तन करने में रुचि लेता है, तो वह विक्षुब्ध हो उठता है और ऊँचे स्वर से पवित्र नाम का कीर्तन करने लगता है। वह हँसता भी है और रोता भी है और पागल की तरह दूसरों की परवाह न करते हुए कीर्तन भी करता है।'
एइ ताँर वाक्ये आमि दृढ़ विश्वास धरि' । निरन्तर कृष्ण-नाम सङ्कीर्तन करि ॥
९५ ॥
सेइ कृष्ण-नाम कभु गाओयाय, नाचाय ।। गाहि, नाचि नाहि आमि आपन-इच्छाय ॥
९६ ॥
मुझे अपने गुरु के इन वचनों पर दृढ़ विश्वास है, अतएव मैं एकान्त में तथा भक्तों के संग में सदैव भगवन्नाम का कीर्तन करता हूँ। भगवान् कृष्ण का वही पवित्र नाम कभी-कभी मुझे नचाता है और गायन कराता है। इसीलिए मैं नाचता और गाता हूँ। कृपया ऐसा न सोचें कि मैं जानबूझकर ऐसा करता हूँ। यह अपने आप होता है।
कृष्ण-नामे ये आनन्द-सिन्धु-आस्वादन ।।ब्रह्मानन्द तारे आगे खातोदक-सम ॥
९७॥
। । हरे कृष्ण मन्त्र के कीर्तन से जिस दिव्य आनन्द सिन्धु का आस्वादन होता है, उसकी तुलना में निर्विशेष ब्रह्म के साक्षात्कार से प्राप्त होने वाला आनन्द (ब्रह्मानन्द) नहर के अल्प छीछले जल के समान है।
त्वत्साक्षात्करणाह्लाद-विशुद्धाब्धि-स्थितस्य मे ।।सुखानि गोष्पदायन्ते ब्राह्माण्यपि जगद्गुरो ॥
१८॥
हे प्रभु! हे ब्रह्माण्ड के स्वामी! चूंकि मैंने आपका साक्षात् दर्शन किया है, इसलिए मेरा दिव्य आनन्द सागर के समान हो गया है। अब उस सागर में स्थित मैं अन्य तथाकथित आनन्द को बछड़े के खुर की छाप में समाये जल की भाँति अनुभव करता हूँ।
प्रभुर मिष्ट-वाक्य शुनि' सन्यासीर गण।चित्त फिरि' गेल, कहे मधुर वचन ॥
९९॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु की मधुर वाणी सुनकर सारे मायावादी संन्यासी प्रभावित हो उठे। उनके चित्त बदल गये और उन्होंने मीठी वाणी में कहा।
ये किछु कहिले तुमि, सब सत्य हय ।।कृष्ण-प्रेमा सेइ पाय, यार भाग्योदय ॥
१०० ॥
प्रिय चैतन्य महाप्रभु, आपने जो भी कहा है, वह सब सच है। जिसके ऊपर भाग्य की कृपा होती है, उसे ही भगवत्प्रेम प्राप्त होता है।
कृष्ण भक्ति कर—इहाय सबार सन्तोष ।वेदान्त ना शुन केने, तार किबा दोष ॥
१०१॥
हे महोदय, आपके कृष्ण के भक्त होने में हमें कोई आपत्ति नहीं है। हममें से हर कोई इससे सन्तुष्ट है। किन्तु आप वेदान्त-सूत्र पर विचारविमर्श करने से क्यों कतराते हैं? इसमें क्या दोष है? एत शुनि' हासि' प्रभु बलिला वचन । दुःख ना मानह ग्रदि, करि निवेदन ॥
१०२॥
। मायावादी संन्यासियों को इस प्रकार बोलते हुए सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु थोड़ा मुस्काये और बोले, हे महाशयों, यदि आप बुरा न मानें तो मैं वेदान्त दर्शन के सम्बन्ध में कुछ कहूँ। गम्भीर जिज्ञासु या मुनि जो ज्ञान तथा वैराग्य से युक्त होता है, वह वेदान्त-श्रुति से सुनने के आधार पर सम्पन्न की जाने वाली भक्तिमय सेवा से ही परम सत्य की अनुभूति करता है।
इहा शुनि' बले सर्व सन्यासीर गण ।तोमाके देखिये ट्रैछे साक्षालारायण ॥
१०३॥
यह सुनकर मायावादी संन्यासी कुछ नम्र हुए और उन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु को साक्षात् नारायण के रूप में सम्बोधित किया और स्वीकार किया कि वे सचमुच नारायण हैं।
तोमार वचन शुनि' जुड़ाय श्रवण ।।तोमार माधुरी देखि' जुड़ाय नयन ॥
१०४॥
उन्होंने कहा, हे चैतन्य महाप्रभु, सच बात तो यह है कि हम आपके वचन सुनकर अत्यधिक प्रसन्न हैं और इसके अतिरिक्त आपका शारीरिक स्वरूप इतना मोहक है कि आपको देखकर हम अत्यन्त संतोष का अनुभव कर रहे हैं।
तोमार प्रभावे सबार आनन्दित मन ।।कभु असङ्गत नहे तोमार वचन ॥
१०५॥
। हे महोदय, आपके प्रभाव से हमारे मन अत्यधिक सन्तुष्ट हैं और हमें विश्वास है कि आपके वचन कभी अनुपयुक्त नहीं होंगे। अतएव आप वेदान्त-सूत्र के विषय में कहें।
प्रभु कहे, वेदान्त-सूत्र ईश्वर-वचन ।।व्यास-रूपे कैल ग्राहा श्री-नारायण ॥
१०६॥
महाप्रभु ने कहा, वेदान्त दर्शन व्यासदेव के रूप में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् नारायण द्वारा कहे गये वचन हैं।
भ्रम, प्रमाद, विप्रलिप्सा, करणापाटव ।। ईश्वरेर वाक्ये नाहि दोष एइ सब ॥
१०७॥
भगवान् के शब्दों में त्रुटि, मोह, प्रवंचना ( ठगी) तथा इन्द्रियअपूर्णता जैसे भौतिक दोष नहीं पाये जाते।
उपनिषत्सहित सूत्र कहे येइ तत्त्व ।। मुख्य-वृत्त्ये सेइ अर्थ परम महत्त्व ॥
१०८॥
परम सत्य का वर्णन तो उपनिषदों तथा ब्रह्मसूत्र में किया गया है, किन्तु इनके श्लोकों को उनके यथार्थ रूप में समझना आवश्यक है। समझने की यही परम महिमा है।
गौण-वृत्त्ये येबा भाष्य करिल आचार्य ।ताहार श्रवणे नाश हय सर्व कार्य ॥
१०९॥
श्रीपाद शंकराचार्य ने समस्त वैदिक साहित्य की व्याख्या अप्रत्यक्ष अर्थों में की है। जो ऐसी व्याख्या सुन लेता है, वह विनष्ट हो जाता है।
ताँहार नाहिक दोष, ईश्वर-आज्ञा पाळा ।गौणार्थ करिल मुख्य अर्थ आच्छादिया ॥
११०॥
इसमें शंकराचार्य का कोई दोष नहीं है, क्योंकि उन्होंने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के आदेशानुसार ही वेदों के वास्तविक उद्देश्य को आच्छादित किया।
‘ब्रह्म'-शब्दे मुख्य अर्थे कहे-'भगवान्' ।।चिदैश्वर्य-परिपूर्ण, अनूर्ध्व-समान ॥
१११॥
प्रत्यक्ष ज्ञान के अनुसार, परम सत्य ही पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं, जिनमें सारे आध्यात्मिक ऐश्वर्य रहते हैं। कोई न तो उनके तुल्य है, न उनसे बड़ा है।
ताँहार विभूति, देह, सब चिदाकार। चिद्विभूति आच्छादि' ताँरे कहे 'निराकार' ॥
११२॥
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् सम्बन्धी हर वस्तु आध्यात्मिक होती है, जिसमें उनका शरीर, ऐश्वर्य तथा साज-सामग्री सम्मिलित हैं। किन्तु मायावाद दर्शन उनके आध्यात्मिक ऐश्वर्य को छिपाकर निर्विशेषवाद का समर्थन करता है।
चिदानन्द–तेहो, ताँर स्थान, परिवार ।तौरे कहे—प्राकृत-सत्त्वेर विकार ॥
११३॥
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् आध्यात्मिक शक्तियों से युक्त हैं। अतएव उनका शरीर, नाम, यश तथा परिकर-सभी आध्यात्मिक हैं। मायावादी दार्शनिक अज्ञानतावश कहते हैं कि ये सब केवल भौतिक सत्त्वगुण के रूपान्तर मात्र हैं।
ताँर दोष नाहि, तेहो आज्ञा-कारी दास ।आर ग्रेइ शुने तार हय सर्व-नाश ॥
११४॥
शिवजी के अवतार श्री शंकराचार्य निर्दोष हैं, क्योंकि वे भगवान् के आज्ञाकारी दास होने के कारण उनके आदेश का पालन मात्र कर रहे हैं। लेकिन जो लोग उनके मायावादी दर्शन का पालन करते हैं, उनका विनाश अवश्यम्भावी है। उनकी सारी आध्यात्मिक प्रगति विनष्ट हो जायेगी।
प्राकृत करिया माने विष्णु-कलेवर ।।विष्णु-निन्दा आर नाहि इहार उपर ॥
११५॥
जो व्यक्ति भगवान् विष्णु के दिव्य शरीर को भौतिक प्रकृति से बना मानता है, वह भगवान् के चरणकमलों में सबसे बड़ा अपराधी है। इससे बढ़कर पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की अन्य कोई निन्दा नहीं है।
ईश्वरेर तत्त्व येन ज्वलित ज्वलन ।।जीवेर स्वरूप—प्रैछे स्फुलिङ्गेर कण ॥
११६॥
भगवान् प्रज्वलित महान् अग्नि के समान हैं और सारे जीव उस अग्नि की छोटी-छोटी चिंगारियों के समान हैं।
जीव-तत्त्व-शक्ति, कृष्ण-तत्त्वशक्तिमान् ।गीता-विष्णुपुराणादि ताहाते प्रमाण ॥
११७॥
सारे जीव शक्तियाँ हैं, शक्तिमान नहीं। शक्तिमान तो कृष्ण हैं। इसका बहुत ही स्पष्ट वर्णन भगवद्गीता, विष्णु पुराण तथा अन्य वैदिक साहित्य में किया गया है।
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि में पराम् ।। जीव-भूतां महा-बाहो ग्रयेदं धार्यते जगत् ॥
११८॥
हे महाबाहु अर्जुन, इन अपरा (निकृष्ट) शक्तियों के अतिरिक्त मेरी एक परा ( उत्कृष्ट ) शक्ति भी है, जो उन सारे जीवों के रूप में है, जो इस भौतिक, निकृष्ट प्रकृति के संसाधनों का दोहन कर रहे हैं।
विष्णु-शक्तिः परा प्रोक्तो क्षेत्र-ज्ञाख्या तथा परा ।। अविद्या-कर्म-संज्ञान्या तृतीया शक्तिरिष्यते ॥
११९॥
भगवान् विष्णु की शक्तियाँ तीन तरह की हैं-आध्यात्मिक शक्ति, जीव तथा अज्ञान। आध्यात्मिक शक्ति ज्ञान से परिपूर्ण है; जीव यद्यपि आध्यात्मिक शक्ति से सम्बन्धित है, किन्तु वे मोहग्रस्त होने के पात्र हैं। और तीसरी शक्ति जो अज्ञान से भरी है, सदैव सकाम कर्मों में दृष्टिगोचर होती है।
हेन जीव-तत्त्व लञा लिखि' पर-तत्त्व । आच्छन्न करिल श्रेष्ठ ईश्वर-महत्त्व ॥
१२० ॥
मायावादी दर्शन इतना गिरा हुआ है कि वह नगण्य जीवों को परम सत्य, भगवान् मानता है और इस तरह वह परम सत्य के महिमा तथा श्रेष्ठत्व को अद्वैतवाद से ढक देता है।
व्यासेर सूत्रेते कहे ‘परिणाम'-वाद ।‘व्यास भ्रान्त' बलि' तार उठाइल विवाद ॥
१२१॥
श्रील व्यासदेव ने अपने वेदान्त-सूत्र में वर्णन किया है कि प्रत्येक वस्तु भगवान् की शक्ति के रूपान्तर के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। किन्तु शंकराचार्य ने यह टीका करके कि व्यासदेव गलत थे, सारे जगत् को पथभ्रष्ट किया। इस तरह उन्होंने पूरे विश्व में आस्तिकता का घोर विरोध किया है।
परिणाम-वादे ईश्वर हयेन विकारी ।। एत कहि' ‘विवर्त'-वाद स्थापना ग्रे करि ॥
१२२॥
शंकराचार्य के अनुसार भगवान् की शक्ति के रूपान्तर (विकार) के सिद्धान्त को स्वीकार कर लेने से अप्रत्यक्ष रीति से परम सत्य के रूपान्तरित होने का भ्रम उत्पन्न होता है।
वस्तुतः परिणाम-वाद—सेइ से प्रमाण ।देहे आत्म-बुद्धि–एइ विवर्तेर स्थान ॥
१२३॥
शक्ति का रूपान्तर एक जाँचा हुआ तथ्य है। यह आत्मा के देहात्मभाव की गलत धारणा है, जो भ्रम या विवर्त है।
अविचिन्त्य-शक्ति-मुक्त श्री-भगवान् ।इच्छाय जगद्रूपे पाय परिणाम ॥
१२४॥
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् सभी तरह से ऐश्वर्यवान हैं। अतएव उन्होंने अपनी अचिन्त्य शक्तियों से भौतिक जगत् को रूपान्तरित कर दिया है।
तथापि अचिन्त्य-शक्त्ये हय अविकारी ।। प्राकृत चिन्तामणि ताहे दृष्टान्त ये धरि ॥
१२५॥
पारस पत्थर अपनी शक्ति से लोहे को सोने में बदल देता है, फिर भी स्वयं वैसा ही रहता है। इस दृष्टान्त द्वारा हम यह समझ सकते हैं कि यद्यपि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् अपनी असंख्य शक्तियों का रूपान्तर करते हैं, किन्तु वे स्वयं अपरिवर्तित रहते हैं।
नाना रत्न-राशि हय चिन्तामणि हैते । तथापिह मणि रहे स्वरूपे अविकृते ॥
१२६॥
। यद्यपि पारस पत्थर (चिन्तामणि ) अनेक प्रकार के मूल्यवान रत्नों को उत्पन्न करता है, किन्तु वह वैसा ही रहता है। वह अपने मूल रूप को नहीं बदलता।
प्राकृत-वस्तुते यदि अचिन्त्य-शक्ति हय ।। ईश्वरेर अचिन्त्य-शक्ति,—इथे कि विस्मय ॥
१२७॥
यदि भौतिक वस्तुओं में ऐसी अचिन्त्य शक्ति हो सकती है, तो फिर हमें पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की अचिन्त्य शक्ति में क्यों विश्वास नहीं करना चाहिए? ‘प्रणव' से महावाक्य—वेदेर निदान । ईश्वर-स्वरूप प्रणव सर्व-विश्व-धाम ॥
१२८॥
वैदिक साहित्य के प्रमुख शब्द अर्थात् वैदिक ॐकार की ध्वनि, समस्त वैदिक ध्वनियों का आधार है। इसलिए ॐकार को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का ध्वनि रूप तथा जगत् के आगार के रूप में स्वीकार करना चाहिए।
सर्वाश्रय ईश्वरेर प्रणव उद्देश ।।'तत्त्वमसि' वाक्य हय वेदेर एकदेश ॥
१२९॥
प्रणव (ॐकार) को समस्त वैदिक ज्ञान के आगार के रूप में प्रस्तुत करना ही भगवान् का उद्देश्य है। तत्त्वमसि शब्द वैदिक ज्ञान की केवल आंशिक व्याख्या है।
‘प्रणव, महा-वाक्य ताहा करि' आच्छादन । महावाक्ये करितत्त्वमसि'र स्थापन ॥
१३०॥
प्रणव ( ॐकार) वेदों में महावाक्य ( महामन्त्र) है। शंकराचार्य के अनुयायी इसे आच्छादित करके तत्त्वमसि मन्त्र पर बिना किसी प्रमाण के बल देते हैं।
सर्व-वेद-सूत्रे करे कृष्णेर अभिधान । मुख्य-वृत्ति छाड़ि' कैल लक्षणा-व्याख्यान ॥
१३१॥
सारे वैदिक सूत्रों तथा साहित्य का लक्ष्य भगवान् कृष्ण को ही समझना है, किन्तु शंकराचार्य के अनुयायियों ने वेदों के वास्तविक अर्थ को अपनी अप्रत्यक्ष व्याख्याओं से आच्छादित कर दिया है।
स्वतः-प्रमाण वेद-प्रमाण-शिरोमणि । लक्षणा करिले स्वतः-प्रमाणता-हानि ॥
१३२॥
स्वत:प्रमाणित वैदिक साहित्य सभी प्रमाणों में सर्वोपरि है, किन्तु यदि इस साहित्य की व्याख्या की जाती है, तो इसकी स्वत:प्रमाणितता नष्ट हो जाती है।
एइ मत प्रतिसूत्रे सहजार्थ छाड़िया ।। गौणार्थ व्याख्या करे कल्पना करिया ॥
१३३॥
। मायावाद सम्प्रदाय के सदस्यों ने वैदिक साहित्य के वास्तविक एवं सरलता से समझे जाने वाले अर्थ को छोड़कर अपने दर्शन को सिद्ध करने के लिए अपनी कल्पना शक्ति के अनुसार अप्रत्यक्ष ( गौण) अर्थ प्रचलित किये हैं।
एइ मते प्रतिसूत्रे करेन दूषण ।। शुनि' चमत्कार हैल सन्यासीर गण ॥
१३४॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने इस प्रकार शंकराचार्य द्वारा की गई प्रत्येक सूत्र की व्याख्या की और त्रुटियाँ दिखला दीं, तो वहाँ पर उपस्थित सारे मायावादी संन्यासी आश्चर्यचकित रह गये।
सकल सन्यासी कहे,–'शुनह श्रीपाद ।। तुमि ग्रे खण्डिले अर्थ, ए नहे विवाद ॥
१३५॥
सारे मायावादी संन्यासियों ने कहा, हे श्रीपाद, आप कृपया यह जान लें कि हमें वास्तव में आपके द्वारा इन अर्थों के खण्डन के बारे में कोई विवाद नहीं है, क्योंकि आपने तो इन सूत्रों की स्पष्ट समझ प्रदान की हैं।
आचार्य-कल्पित अर्थ,-इहा सभे जानि ।।सम्प्रदाय-अनुरोधे तबु ताहा मानि ॥
१३६ ॥
हम जानते हैं कि यह सारा वाग्जाल शंकराचार्य की कल्पना से उद्भूत है, किन्तु हम उसी सम्प्रदाय के होने के कारण इसे स्वीकार करते हैं, यद्यपि हम इससे सन्तुष्ट नहीं हैं।
मुख्यार्थ व्याख्या कर, देखि तोमार बल' । मुख्यार्थ लागाल प्रभु सूत्र-सकल ॥
१३७॥
मायामायावादी संन्यासियों ने आगे कहा, अब हम देखना चाहते हैं कि आप इन सूत्रों की उनके प्रत्यक्ष अर्थ में कितनी अच्छी तरह व्याख्या कर सकते हैं। यह सुनकर चैतन्य महाप्रभु ने वेदान्त-सूत्र की प्रत्यक्ष व्याख्या करना प्रारम्भ किया।
बृहद्वस्तु ‘ब्रह्म' कहि- श्री-भगवान्' । षडू-विधैश्वर्य-पूर्ण, पर-तत्त्व-धाम ।। १३८ । ब्रह्म जो कि बड़े से भी बड़ा है, पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान् है। वे छः ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं; अतएव वे परम सत्य तथा परम ज्ञान के आगार हैं।
स्वरूप-ऐश्वर्ये ताँर नाहि माया-गन्ध । सकल वेदेर हय भगवान्से 'सम्बन्ध' ॥
१३९॥
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् अपने मूल रूप में भौतिक जगत् के कल्मष से रहित छह दिव्य ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं। यह समझना होगा कि समस्त वैदिक साहित्य में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ही परम लक्ष्य हैं।
ताँरै निर्विशेष' कहि, चिच्छक्ति ना मानि ।।अर्ध-स्वरूप ना मानिले पूर्णता हय हानि ॥
१४०॥
। जब हम परमेश्वर को निविर्शेष कहते हैं, तब हम उनकी आध्यात्मिक शक्तियों को नकारते हैं। तार्किक दृष्टि से जब तुम आधा सत्य स्वीकार करते हैं, तब आप पूरे सत्य को नहीं समझ सकते।
भगवान्प्राप्ति-हेतु ये करि उपाय।श्रवणादि भक्ति कृष्ण-प्राप्तिर सहाय ॥
१४१ ।। श्रवण से प्रारम्भ करके भक्ति द्वारा ही मनुष्य पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् तक पहुँच सकता है। उनके पास पहुँचने का यही एकमात्र साधन है।
सेइ सर्व-वेदेर 'अभिधेय' नाम ।साधन-भक्ति हैते हय प्रेमेर उद्गम ॥
१४२॥
गुरु के निर्देशानुसार इस संयमित साधन भक्ति का अभ्यास करने पर मनुष्य का सुप्त भगवत् प्रेम निश्चित रूप से जागृत हो उठता है। यह विधि अभिधेय कहलाती है।
कृष्णेर चरणे हय यदि अनुराग । कृष्ण विनु अन्यत्र तार नाहि रहे राग ॥
१४३॥
यदि कोई भगवत्प्रेम उत्पन्न कर लेता है और कृष्ण के चरणकमलों में अनुरक्त हो जाता है, तो धीरे-धीरे अन्य सारी वस्तुओं से उसकी आसक्ति लुप्त हो जाती है।
पञ्चम पुरुषार्थ सेइ प्रेम-महाधन ।। कृष्णेर माधुर्घ-रस कराय आस्वादन ॥
१४४॥
भगवत्प्रेम इतना उन्नत होता है कि इसे मानव जीवन का पाँचवा लक्ष्य माना जाता है। भगवत्प्रेम जागृत करके कोई भी व्यक्ति माधुर्य प्रेम के पद को प्राप्त कर सकता है और इसी जीवन काल में ही उसका आस्वादन कर सकता है।
प्रेमा हैते कृष्ण हय निज भक्त-वश ।।प्रेमा हैते पाय कृष्णेर सेवा-सुख-रस ॥
१४५॥
। महानतमे से भी महान् परम भगवान् भक्तिमय सेवा के कारण अत्यन्त तुच्छ भक्त के भी वश में हो जाते हैं। भक्ति की ऐसी सुन्दर तथा उन्नत प्रकृति है कि अनन्त भगवान् सूक्ष्म जीव की भक्ति के कारण उसके अधीन हो जाते हैं। भगवान् के साथ भक्ति-कार्यों के आदान-प्रदान में भक्त को भक्ति के दिव्य रस का वास्तविक आनन्द प्राप्त होता है।
सम्बन्ध, अभिधेय, प्रयोजन नाम । एइ तिन अर्थ सर्व-सूत्रे पर्छवसान ॥
१४६॥
वेदान्त-सूत्र के प्रत्येक सूत्र में जिन तीन विषयों की व्याख्या की गई है, वे हैं-पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् से अपना सम्बन्ध, उस सम्बन्ध के अनुसार कार्यकलाप तथा जीवन का चरम लक्ष्य ( भगवत्प्रेम विकसित करना ), क्योंकि इन तीनों में ही सम्पूर्ण वेदान्त दर्शन की चरम परिणति है।
एइ-मत सर्व-सूत्रेर व्याख्यान शुनिया ।सकल सन्यासी कहे विनय करिया ॥
१४७॥
जब सारे मायावादी संन्यासियों ने सम्बन्ध, अभिधेय तथा प्रयोजन के आधार पर श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा प्रस्तुत की गई व्याख्या सुनी, तो वे अत्यन्त विनीत होकर बोले।
वेदमय-मूर्ति तुमि,—साक्षात्नारायण ।।क्षम अपराध,—पूर्वे ने कैलँ निन्दन ॥
१४८॥
हे महोदय, आप साक्षात् वैदिक ज्ञान और साक्षात् नारायण हैं। कृपा करके हमें उन सारे अपराधों के लिए क्षमा कर दें, जिन्हें हमने आपकी आलोचना करके पहले किये हैं।
सेइ हैते सन्यासीर फिरि गेल मन ।।'कृष्ण' 'कृष्ण' नाम सदा करये ग्रहण ॥
१४९॥
जब मायावादी संन्यासियों ने महाप्रभु से वेदान्त-सूत्र की व्याख्या सुनी, उसी क्षण से उनके मन बदल गये और चैतन्य महाप्रभु के आदेश से वे भी सदा 'कृष्ण! कृष्ण!' उच्चारण करने लगे।
एइ-मते ताँ-सबार क्षमि' अपराध । सबाकारे कृष्ण-नाम करिला प्रसाद ॥
१५० ॥
इस प्रकार श्री चैतन्य महाप्रभु ने मायावादी संन्यासियों के सारे अपराध क्षमा कर दिये और उन पर बड़ी कृपा करके उन्हें कृष्णनाम का आशीर्वाद प्रदान किया।
तबे सब सन्यासी महाप्रभुके लैया ।।भिक्षा करिलेन सभे, मध्ये वसाइया ॥
१५१॥
इसके बाद सारे संन्यासियों ने महाप्रभु को अपने मध्य में ले लिया और सबने मिलकर भोजन किया।
भिक्षा करि' महाप्रभु आइला वासाघर ।।हेन चित्र-लीला करे गौराङ्ग-सुन्दर ॥
१५२॥
मायावादी संन्यासियों के साथ भोजन करने के बाद गौरसुन्दर कहलाने वाले श्री चैतन्य महाप्रभु अपने निवास स्थान को लौट आये। इस प्रकार महाप्रभु अपनी विचित्र लीलाएँ करते हैं।
चन्द्रशेखर, तपन मिश्र, आर सनातन । शुनि' देखि आनन्दित सबाकार मन ॥
१५३॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के तर्को को सुनकर तथा उनकी विजय देखकर चन्द्रशेखर, तपन मिश्र तथा सनातन गोस्वामी सभी अत्यधिक प्रसन्न हुए।
प्रभुके देखिते आइसे सकल सन्यासी ।। प्रभुर प्रशंसा करे सब वाराणसी ॥
१५४॥
इस घटना के बाद वाराणसी के अनेक मायावादी संन्यासी महाप्रभु को मिलने के लिए आये और सारे नगर ने उनकी प्रशंसा की।
वाराणसी-पुरी आइला श्री-कृष्ण-चैतन्य ।पुरी-सह सर्व-लोक हैल महा-धन्य ॥
१५५ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के वाराणसी आने के कारण नगर के साथ उसके सारे लोग महाधन्य हुए।
लक्ष लक्ष लोक आइसे प्रभुके देखिते ।। महा-भिड़ हैल द्वारे, नारे प्रवेशिते ॥
१५६ ॥
उनके निवासस्थान के द्वार पर इतनी अधिक भीड़ हो गई कि उसकी संख्या लाखों तक पहुँच गई।
प्रभु ग्रबे ग्रा'न विश्वेश्वर-दरशने । लक्ष लक्ष लोक आसि' मिले सेइ स्थाने ।। १५७॥
जब महाप्रभु विश्वेश्वर मन्दिर में दर्शन करने गये, तो उनका दर्शन पाने के लिए लाखों लोग वहाँ एकत्रित हो गये।
स्नान करिते ग्रबे ग्रा'न गङ्गा-तीरे । ताहाञि सकल लोक हय महा-भिड़े ॥
१५८॥
जब भी श्री चैतन्य महाप्रभु स्नान करने के लिए गंगा के किनारे जाते, तभी सैकड़ों-हजारों लोगों की भारी भीड़ वहाँ एकत्र हो जाती।
बाहु तुलि' प्रभु बले,—बल हरि हरि ।।हरि-ध्वनि करे लोक स्वर्ग-मर्त्य भरि' ॥
१५९॥
जब भी भीड़ बढ़ जाती, श्री चैतन्य महाप्रभु खड़े हो जाते और अपने दोनों हाथ उठाकर 'हरि! हरि!' का उच्चारण करते, जिसके प्रत्युत्तर में लोग फिर 'हरि! हरि!' उच्चारण करते और इस ध्वनि से धरती और आकाश दोनों भर जाते।
लोक निस्तारिया प्रभुर चलिते हैल मन । वृन्दावने पाठाइला श्री-सनातन ॥
१६० ॥
इस प्रकार सामान्य लोगों का उद्धार करके महाप्रभु ने वाराणसी से प्रस्थान करने की इच्छा की। उन्होंने श्री सनातन गोस्वामी को शिक्षा देकर वृन्दावन भेजा।
रात्रि-दिवसे लोकेर शुनि' कोलाहल ।। वाराणसी छाड़ि' प्रभु आइला नीलाचल ॥
१६१॥
चूँकि वाराणसी नगरी सदैव लोगों की भीड़ एवं कोलाहल से भरी रहती थी, अतएव सनातन को वृन्दावन भेजकर श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी लौट आये।
एइ लीला कहिब आगे विस्तार करिया । सङ्क्षेपे कहिलाँ इहाँ प्रसङ्ग पाइया ॥
१६२॥
मैंने यहाँ पर महाप्रभु की इन लीलाओं का संक्षेप में वर्णन किया है, किन्तु बाद में मैं इनका विस्तारपूर्वक वर्णन करूंगा।
एइ पञ्च-तत्त्व-रूपे श्री-कृष्ण-चैतन्य ।कृष्ण-नाम-प्रेम दिया विश्व कैली धन्य ॥
१६३॥
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु तथा उनके पंचतत्त्व पार्षदों ने भगवान् के पवित्र नाम का वितरण भगवत्प्रेम जगाने के लिए सारे ब्रह्माण्ड में किया। इस तरह सारा ब्रह्माण्ड धन्य हो गया।
मथुराते पाठाइल रूप-सनातन । दुई सेनापति कैल भक्ति प्रचारण ॥
१६४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने भक्ति सम्प्रदाय का प्रचार करने के लिए रूप गोस्वामी तथा सनातन गोस्वामी इन दो सेनापतियों को वृन्दावन भेज दिया।
नित्यानन्द-गोसाळे पाठाइला गौड़-देशे ।। तेहो भक्ति प्रचारिला अशेष-विशेषे ॥
१६५ ॥
जिस तरह रूप गोस्वामी तथा सनातन गोस्वामी मथुरा की ओर भेजे गये थे, उसी तरह नित्यानन्द प्रभु को चैतन्य महाप्रभु ने सम्प्रदाय का व्यापक प्रचार करने के लिए बंगाल भेजा था।
आपने दक्षिण देश करिला गमन । ग्रामे ग्रामे कैला कृष्ण-नाम प्रचारण ॥
१६६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु स्वयं दक्षिण भारत गये, जहाँ उन्होंने गाँव-गाँव तथा नगर-नगर में भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम का प्रचार किया।
सेतुबन्ध पर्यन्त कैला भक्तिर प्रचार ।।कृष्ण-प्रेम दिया कैला सबार निस्तार ॥
१६७॥
इस प्रकार महाप्रभु भारत प्रायद्वीप के दक्षिण धुर तक गये, जिसे सेतुबन्ध ( कुमारी अन्तरीप) कहते हैं। उन्होंने सर्वत्र भक्ति सम्प्रदाय तथा कृष्ण-प्रेम का वितरण किया और इस तरह सबका उद्धार किया।
एइ त कहिल पञ्च-तत्त्वेर व्याख्यान । इहार श्रवणे हय चैतन्य-तत्त्व ज्ञान ॥
१६८।। इस तरह मैंने पंचतत्त्व के सत्य की व्याख्या की है। जो इस व्याख्या को सुनता है, उसका श्री चैतन्य महाप्रभु विषयक ज्ञान बढ़ता है।
श्री-चैतन्य, नित्यानन्द, अद्वैत,—तिन जन । श्रीवास-गदाधर-आदि नंत भक्त-गण ॥
१६९॥
पंचतत्त्व महामन्त्र का कीर्तन करते समय श्री चैतन्य, नित्यानन्द, अद्वैत, गदाधर तथा श्रीवास के नामों का, उनके अनेक भक्तों समेत उच्चारण करना चाहिए। यही विधि है।
सबाकार पादपद्म कोटि नमस्कार ।ग्रैछे तैछे कहि किछु चैतन्य-विहार ॥
१७० ॥
मैं पंचतत्त्व को पुनः-पुनः नमस्कार करता हूँ। इस प्रकार मेरे विचार से मैं श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं के विषय में कुछ वर्णन कर सर्केगा।
श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश ।चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
१७१ ॥
श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों में प्रार्थना करते हुए और सदैव उनकी कृपा की कामना करते हुए मैं कृष्णदास उनके चरणचिह्नों का अनुसरण करते हुए श्रीचैतन्य-चरितामृत कह रहा हूँ।
अध्याय आठ: लेखक को कृष्ण और गुरु का आदेश प्राप्त होता है
वन्दे चैतन्य-देवं तं भगवन्तं यदिच्छया ।।प्रसभं नय॑ते चित्रं लेख-रङ्गे जड़ोऽप्ययम् ॥
१॥
मैं उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु को नमस्कार करता हूँ, जिनकी इच्छा से मैं नाचते हुए कुत्ते के समान बन गया हूँ और मूर्ख होते हुए भी मैंने सहसा श्रीचैतन्य-चरितामृत लिखने का कार्य अपने हाथों में लिया है।
जय जय श्री कृष्ण-चैतन्य गौरचन्द्र ।। जय जय परमानन्द जय नित्यानन्द ॥
२॥
मैं गौरसुन्दर नाम से विख्यात श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को सादर नमस्कार करता हूँ। मैं सदैव प्रसन्न रहने वाले नित्यानन्द प्रभु को भी सादर नमस्कार करता हूँ।
जय जयाद्वैत आचार्य कृपामय ।जय जय गदाधर पण्डित महाशय ॥
३ ॥
मैं अद्वैत आचार्य को सादर नमस्कार करता हूँ, जो अत्यन्त कृपालु हैं। साथ ही मैं महान् विद्वान महापुरुष गदाधर पण्डित को भी नमस्कार करता हूँ।
जय जय श्रीवासादि यत भक्त-गण । प्रणत हइया वन्दों सबार चरण ॥
४॥
मैं श्रीवास ठाकुर तथा महाप्रभु के अन्य सारे भक्तों को सादर नमस्कार करता हूँ। मैं उनके सामने गिरकर प्रणाम करता हूँ और उनके चरणकमलों की पूजा करता हूँ।
मूक कवित्व करे ग्राँसबार स्मरणे ।पङ् गिरि लङ्घ, अन्ध देखे तारा-गणे ॥
५॥
पंचतत्त्व के चरणकमलों का स्मरण करने से गूंगी व्यक्ति कवि बन सकता है, लंगड़ा पर्वतों को पार कर सकता है और अंधा व्यक्ति आकाश के तारों को देख सकता है।
ए-सब ना माने ग्रेइ पण्डित सकल ।ता-सबार विद्या-पाठ भेक-कोलाहल ॥
६॥
ऐसे तथाकथित पण्डित, जो श्रीचैतन्य-चरितामृत के इन कथनों पर विश्वास नहीं करते, उनके द्वारा शिक्षा का अनुशीलन मेढ़कों की जोरदार टर्र-टर्र के समान है।
एइ सब ना माने येबा करे कृष्ण-भक्ति ।।कृष्ण-कृपा नाहि तारे, नाहि तार गति ॥
७॥
जो पंचतत्त्व की महिमा को स्वीकार नहीं करता और फिर भी कृष्णभक्ति का दिखावा करता है, उसे न तो कृष्ण की कृपा प्राप्त हो सकती है, न ही वह अपने चरम लक्ष्य की ओर आगे बढ़ सकता है।
पूर्वे ट्रैछे जरासन्ध-आदि राज-गण ।।वेद-धर्म करि' करे विष्णुर पूजन ॥
८॥
प्राचीनकाल में जरासंध ( कंस का ससुर ) जैसे राजाओं ने वैदिक अनुष्ठानों का कड़ाई से पालन किया और इस तरह विष्णु की पूजा की।
कृष्ण नाहि माने, ताते दैत्य करि' मानि । चैतन्य ना मानिले तैछे दैत्य तारे जानि ॥
९॥
जो कृष्ण को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् नहीं स्वीकार करता, वह निश्चय ही असुर है। इसी तरह जो श्री चैतन्य महाप्रभु को उन्हीं भगवान् कृष्ण के रूप में नहीं स्वीकार करता, उसे भी असुर ही समझना चाहिए।
मोरे ना मानिले सब लोक हबे नाश ।।इथि लागि' कृपाई प्रभु करिल सन्यास ॥
१०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने विचार किया, जब तक लोग मुझे स्वीकार नहीं करेंगे, वे विनष्ट हो जायेंगे। इसलिए कृपालु महाप्रभु ने संन्यास ग्रहण किया।
सन्यासि-बुद्ध्ये मोरे करिबे नमस्कार ।तथापि खण्डिबे दुःख, पाइबे निस्तार ॥
११॥
यदि कोई व्यक्ति मुझे एक सामान्य संन्यासी मानकर भी नमस्कार करता है, तो उसके सांसारिक दुःख घट जायेंगे और अन्ततः उसे मुक्ति प्राप्त होगी।
हेन कृपामय चैतन्य ना भजे ग्रेइ जन ।सर्वोत्तम हइलेओ तारे असुरे गणन ॥
१२॥
जो व्यक्ति दयालु भगवान्, चैतन्य महाप्रभु का सम्मान नहीं करता या उनकी पूजा नहीं करता, उसे असुर समझना चाहिए, भले ही उसे मानव समाज में कितना ही प्रतिष्ठित क्यों न माना जाता हो।
अतएव पुनः कहों ऊर्ध्व-बाहु हो ।चैतन्य-नित्यानन्द भज कुतर्क छाड़िया ॥
१३ ॥
इसलिए मैं अपनी भुजाएँ उठाकर फिर कहता हूँ कि हे मित्रों, झूठे तर्को को छोड़कर श्री चैतन्य तथा नित्यानन्द की पूजा करो! यदि वा तार्किक कहे,—तर्क से प्रमाण ।।तर्क-शास्त्रे सिद्ध ग्रेइ, सेइ सेव्यमान ॥
१४॥
तर्कशास्त्री कहते हैं, जब तक तर्क द्वारा ज्ञान प्राप्त न कर लिया जाए, तब तक भला कोई आराध्य देव के बारे में निश्चय कैसे कर सकता है? श्री-कृष्ण-चैतन्य-दया करह विचार ।विचार करिते चित्ते पाबे चमत्कार ॥
१५ ॥
यदि आप सचमुच तर्क में रुचि रखते हैं, तो इसका प्रयोग श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा पर कीजिये। यदि आप ऐसा करेंगे, तो पायेंगे कि यह अत्यन्त अद्भुत है।
बहु जन्म करे यदि श्रवण, कीर्तन ।तबु त' ना पाय कृष्ण-पदे प्रेम-धन ॥
१६॥
यदि कोई हरे कृष्ण महामन्त्र के जप में दस अपराध करता रहता है, तो वह चाहे अनेक जन्मों तक पवित्र नाम का जप करने का प्रयास क्यों न करे, उसे भगवत्प्रेम प्राप्त नहीं हो सकेगा, जो इस जप का चरम लक्ष्य है।
ज्ञानतः सु-लभा मुक्तिभुक्तिर्यज्ञादि-पुण्यतः ।।सेयं साधन-साहस्त्रैर्हरि-भक्तिः सु-दुर्लभा ॥
१७॥
दार्शनिक ज्ञान के अनुशीलन से मनुष्य अपनी आध्यात्मिक स्थिति को समझ सकता है और इस तरह मुक्ति पा सकता है; यज्ञ तथा पुण्यकर्मों को सम्पन्न करके मनुष्य उच्चतर ग्रहमण्डल में इन्द्रियतृप्ति प्राप्त कर सकता है, किन्तु भगवान् की भक्तिमयी सेवा इतनी दुर्लभ है कि ऐसे हजारों यज्ञ करके भी यह प्राप्त नहीं की जा सकती।
कृष्ण ग्रदि छुटे भक्ते भुक्ति मुक्ति दिया । कभु प्रेम-भक्ति ना देन राखेन लुकाइया ॥
१८॥
यदि भक्त भगवान् से भौतिक इन्द्रियतृप्ति या मुक्ति चाहता है, तो कृष्ण उसे तुरन्त दे देते हैं, किन्तु शुद्ध भक्ति को वे छिपाकर रखते हैं।
राजन्पतिर्गुरुरलं भवतां ग्रदूनांदैवं प्रियः कुल-पतिः क्व च किङ्करो वः ।। अस्त्वेवमङ्ग भगवान्भजतां मुकुन्दोमुक्तिं ददाति कर्हिचित्स्म न भक्ति-ग्रोगम् ॥
१९॥
[ महर्षि नारद ने कहा हे महाराज युधिष्ठिर, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण आपकी सहायता के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। वे आपके स्वामी,गुरु, ईश्वर, प्रिय मित्र तथा आपके परिवार के मुखिया हैं। फिर भी वे कभी-कभी आपके दास या आज्ञापालक का कार्य करना स्वीकार कर लेते हैं। आप अत्यन्त भाग्यशाली हैं, क्योंकि यह सम्बन्ध केवल भक्तियोग द्वारा ही सम्भव हो पाता है। भगवान् मुक्ति तो सरलता से दे सकते हैं, किन्तु वे किसी को भक्तियोग आसानी से नहीं प्रदान करते, क्योंकि वे उस प्रक्रिया से भक्त के साथ बँध जाते हैं।
हेन प्रेम श्री-चैतन्य दिला ग्रथा तथा ।।जगाइ माधाइ पर्यन्त–अन्येर का कथा ॥
२०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने इस कृष्ण-प्रेम को यत्र-तत्र, सर्वत्र, यहाँ तक कि जगाइ तथा माधाइ जैसे सर्वाधिक पतितों को भी मुक्तहस्त होकर प्रदान किया है। तो भला उन सबके विषय में क्या कहा जाए, जो पहले से पवित्र तथा उन्नत हैं? स्वतन्त्र ईश्वर प्रेम-निगूढ़-भाण्डार।।बिलाइल ग्रारे तारे, ना कैल विचार ॥
२१॥
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के रूप में श्री चैतन्य महाप्रभु पूर्णतया स्वतन्त्र हैं। अतएव वे अत्यन्त गुह्य रूप से संचित वरदान भगवत्प्रेम को बिना भेद-भाव के हर एक को वितरित कर सकते हैं।
अद्यापिह देख चैतन्य-नाम येइ लय ।कृष्ण-प्रेमे पुलकाश्रु-विह्वल से हये ॥
२२॥
चाहे कोई अपराधी हो या निर्दोष, यदि श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानन्द का कीर्तन कोई अभी भी करता है, तो वह भावविभोर हो उठता है और उसकी आँखों में आँसू आ जाते हैं।
‘नित्यानन्द' बलिते हुये कृष्ण-प्रेमोदय ।। आउलाय सकल अङ्ग, अश्रु-गङ्गा वय ॥
२३ ॥
नित्यानन्द प्रभु का नाम लेने से ही मनुष्य में कृष्ण-प्रेम जागृत हो जाता है। इस प्रकार उसके सारे अंगप्रत्यंग भावातिरेक से व्याकुल हो उठते हैं और उसकी आँखों से गंगा की धारा के समान अश्रु बहने लगते हैं। कृष्ण-नाम' करे अपराधेर विचार । कृष्ण बलिले अपराधीर ना हय विकार ॥
२४॥
हरे कृष्ण मन्त्र का कीर्तन करते समय अपराधों पर विचार किया जाता है। इसलिए केवल हरे कृष्ण का कीर्तन करने से कोई भावदशा को प्राप्त नहीं होता।
तदश्म-सारं हृदयं बतेदं । । यद्गृह्यमाणैर्हरि-नामधेयैः । न विक्रियेताथ ग्रदा विकारो ।नेत्रे जलं गात्र-रुहेषु हर्षः ॥
२५॥
यदि हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करते हुए किसी का हृदय परिवर्तित नहीं होता, उसके नेत्रों से अश्रु नहीं बहते, उसका शरीर कंपित नहीं होता, न ही उसे रोमांच होता है, तो यह समझना चाहिए कि उसका पय लोहे के समान कठोर है। ऐसा भगवन्नाम के चरणकमलों पर अपराधों के कारण होता है।
'एक' कृष्ण-नामे करे सर्व-पाप नाश ।। प्रेमेर कारण भक्ति करेन प्रकाश ॥
२६॥
निरपराध होकर हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करने मात्र से सारे पाप-कर्म दूर हो जाते हैं और भगवत्प्रेम की कारणस्वरूपा शुद्ध भक्ति प्रकट होती है।
प्रेमेर उदये हय प्रेमेर विकार ।स्वेद-कम्प-पुलकादि गद्गदाश्रुधार ॥
२७॥
जब किसी में सचमुच भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति जागृत होती है, तो इससे शरीर में स्वेद, कम्पन, हृदय का स्पन्दन, वाणी का अवरोध तथा आँखों में अश्रु जैसे रूपान्तरण उत्पन्न होते हैं।
अनायासे भव-क्षय, कृष्णेर सेवन ।। एक कृष्ण-नामेर फले पाई एत धन ॥
२८॥
हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करने के फलस्वरूप मनुष्य के आध्यात्मिक जीवन में इतनी अधिक उन्नति होती है कि उसके भौतिक जीवन का अन्त तथा भगवत्प्रेम की प्राप्ति एक साथ होते हैं। कृष्ण का पवित्र नाम इतना शक्तिशाली है कि केवल एक नाम के उच्चारण से उसे ये दिव्य सम्पत्ति सहज ही उपलब्ध हो जाती है।
हेन कृष्ण-नाम यदि लय बहु-बार । तबु यदि प्रेम नहे, नहे अश्रुधार ॥
२९॥
तबे जानि, अपराध ताहाते प्रचुर ।।कृष्ण-नाम-बीज ताहे ना करे अङ्कुर ॥
३०॥
। यदि भगवान् के पवित्र नाम का बारम्बार जप करते रहने पर भी मनुष्य में भगवान् के प्रति प्रेम विकसित नहीं होता और उसकी आँखों में अश्रु प्रकट नहीं होते, तो इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जप में उसके अपराधों के फलस्वरूप कृष्ण-नाम का बीज अंकुरित नहीं हो रहा है।
चैतन्य-नित्यानन्दे नाहि एसब विचार ।नाम लेते प्रेम देन, वहे अश्रुधार ॥
३१॥
किन्तु यदि कोई थोड़ी भी श्रद्धा के साथ भगवान् चैतन्य तथा नित्यानन्द के पवित्र नामों का कीर्तन करता है, तो वह सारे अपराधों से तुरन्त ही मुक्त हो जाता है। इस तरह वह ज्योंही हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करता है, त्योंही उसे भगवत्प्रेम की भावविभोरता का अनुभव होता है।
स्वतन्त्र ईश्वर प्रभु अत्यन्त उदार ।ताँरै ना भजिले कभु ना हय निस्तार ॥
३२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु स्वतन्त्र पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं और वे अत्यन्त दयालु हैं। उनकी पूजा किये बिना किसी को मुक्ति नहीं मिल सकती।
ओरे मूढ़ लोक, शुन चैतन्य-मङ्गल ।चैतन्य-महिमा ग्राते जानिबे सकल ॥
३३ ॥
अरे मूर्खा, जरा श्री चैतन्य-मंगल तो पढ़ो! इस ग्रंथ को पढ़कर तुम श्री चैतन्य महाप्रभु की सारी महिमाओं को समझ सकते हो।
कृष्ण-लीला भागवते कहे वेद-व्यास ।।चैतन्य-लीलार व्यास वृन्दावन-दास ॥
३४॥
। जिस तरह व्यासदेव ने श्रीमद्भागवत में कृष्ण की सारी लीलाओं का संकलन किया है, उसी तरह ठाकुर वृन्दावन दास ने चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं का वर्णन किया है।
वृन्दावन-दास कैल'चैतन्य-मङ्गल' ।।याँहार श्रवणे नाशे सर्व अमङ्गल ॥
३५॥
ठाकुर वृन्दावन दास ने श्री चैतन्य-मंगल की रचना की, जिसके सुनने से सारे अमंगल नष्ट हो जाते हैं।
चैतन्य-निताइर ग्राते जानिये महिमा ।ग्राते जानि कृष्ण-भक्ति-सिद्धान्तेर सीमा ॥
३६॥
। श्री चैतन्य मंगल पढ़कर मनुष्य श्री चैतन्य महाप्रभु तथा नित्यानन्द प्रभु की सारी महिमाओं या सत्य को समझ सकता है और भगवान् कृष्ण की भक्ति के चरम निष्कर्ष तक पहुँच सकता है।
भागवते व्रत भक्ति-सिद्धान्तेर सार।लिखियाछेन इँहा जानि' करिया उद्धार ॥
३७॥
श्रील वृन्दावन दास ठाकुर ने श्री-चैतन्य-मंगल (जो बाद में श्रीचैतन्य-भागवत कहलाया) में श्रीमद्भागवत से प्रामाणिक उद्धरण देते हुए भक्ति के निष्कर्ष और सार प्रस्तुत किये हैं।
‘चैतन्य-मङ्गल' शुने ग्रदि पाषण्डी, ग्रवन ।सेह महा-वैष्णव हय ततक्षण ॥
३८॥
। यदि बड़ी से बड़ा नास्तिक भी चैतन्य मंगल को सुने, तो वह तुरन्त महान् भक्त बन जाता है।
मनुष्ये रचिते नारे ऐछे ग्रन्थ धन्य ।वृन्दावन-दास-मुखे वक्ता श्री-चैतन्य ॥
३९॥
इस पुस्तक का विषय इतना भव्य है कि लगता है मानो श्री वृन्दावन दास ठाकुर की रचना के माध्यम से साक्षात् श्री चैतन्य महाप्रभु स्वयं बोल रहे हों।
वृन्दावन-दास-पदे कोटि नमस्कार ।ऐछे ग्रन्थ करि' तेंहो तारिला संसार ॥
४०॥
मैं वृन्दावन दास ठाकुर के चरणकमलों पर कोटि-कोटि प्रणाम करता हूँ। उनके अतिरिक्त अन्य कोई व्यक्ति सभी पतितात्माओं के उद्धार के लिए ऐसा अद्भुत ग्रंथ नहीं लिख सकता था।
नारायणी–चैतन्येर उच्छिष्ट-भाजने ।ताँर गर्भे जन्मिला श्री-दास-वृन्दावन ॥
४१॥
नारायणी सदा चैतन्य महाप्रभु का जूठन खाया करती थी। श्रील वृन्दावन दास ठाकुर उसी की कोख से जन्मे थे।
ताँर कि अद्भुत चैतन्य-चरित-वर्णन ।ग्राहार श्रवणे शुद्ध कैल त्रिभुवन ॥
४२॥
अहा! चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं का कैसा ही अद्भुत वर्णन उन्होंने दिया है। तीनों लोकों में जो भी उसे सुनता है, वह शुद्ध (पवित्र) हो जाता है।
अतएव भज, लोक, चैतन्य-नित्यानन्द ।। खण्डिबे संसार-दुःख, पाबे प्रेमानन्द ॥
४३॥
हर एक से मेरा आग्रह है कि चैतन्य महाप्रभु तथा नित्यानन्द प्रभु द्वारा दी गई भक्ति-विधि को अपनायें और इस तरह भौतिक संसार के दुःखों से मुक्त होकर भगवान् की प्रेमाभक्ति प्राप्त करें।
वृन्दावन-दास कैल'चैतन्य-मङ्गल' ।।ताहाते चैतन्य-लीला वर्णिल सकल ॥
४४॥
श्रील वृन्दावन दास ठाकुर ने चैतन्य-मंगल लिखा है और उसमें चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं का पूरी तरह विस्तार से वर्णन किया है।
सूत्र करि' सब लीला करिल ग्रन्थन ।पाछे विस्तारिया ताहार कैल विवरण ॥
४५ ॥
उन्होंने सर्वप्रथम संक्षेप में महाप्रभु की लीलाएँ दी हैं और बाद में उनका विस्तार से वर्णन किया है।
चैतन्य-चन्द्रेर लीला अनन्त अपार ।वर्णिते वर्णिते ग्रन्थ हइल विस्तार ॥
४६॥
चैतन्य महाप्रभु की लीलाएँ अनन्त तथा अगाध हैं, अतएव इन सबका वर्णन करने से यह ग्रंथ विशालकाय बन गया है।
विस्तार देखिया किछु सङ्कोच हैल मन ।।सूत्र-धृत कोन लीला ना कैल वर्णन ॥
४७॥
उन्हें इसे इतमा विस्तृत देखकर बाद में उन्हें लगा कि उनमें से कुछ का वर्णन ठीक-ठीक नहीं हो पाया है।
नित्यानन्द-लीला-वर्णने हइल आवेश ।चैतन्येर शेष-लीला रहिल अवशेष ॥
४८॥
उन्होंने नित्यानन्द प्रभु की लीलाओं का भावमय वर्णन किया है, किन्तु चैतन्य महाप्रभु की अन्त्य-लीलाएँ अनकही रह गईं।
सेइ सब लीलार शुनिते विवरण ।।वृन्दावन-वासी भक्तेर उत्कण्ठित मन ॥
४९॥
वृन्दावन के सारे भक्त इन लीलाओं को सुनने के लिए अत्यन्त उत्सुक रहते थे।
वृन्दावने कल्प-द्रुमे सुवर्ण-सदन ।महा-योगपीठ ताहाँ, रत्न-सिंहासन ॥
५०॥
। वृन्दावन नामक महान् तीर्थस्थल में कल्पवृक्ष के नीचे रत्नों से जड़ित एक सुनहला सिंहासन है।
ताते वसि' आछे सदा व्रजेन्द्र-नन्दन ।'श्री-गोविन्द-देव' नाम साक्षात्मदन ॥
५१॥
उस सिंहासन पर नन्द महाराज के पुत्र श्री गोविन्ददेव विराजमान हैं, जो दिव्य कामदेव हैं।
राज-सेवा हय ताँहा विचित्र प्रकार ।दिव्य सामग्री, दिव्य वस्त्र, अलङ्कार ॥
५२॥
वहाँ पर गोविन्द देव की नाना प्रकार से राजसी सेवा की जाती है। उनके वस्त्र, आभूषण तथा साज-सामग्री सभी दिव्य हैं।
सहस्र सेवक सेवा करे अनुक्षण ।सहस्र-वदने सेवा ना ग्राय वर्णन ॥
५३॥
गोविन्दजी के उस मन्दिर में हजारों सेवक भक्ति-भाव से सदैव भगवान् की सेवा में लगे रहते हैं। हजारों मुखों से भी इस सेवा का वर्णन कर पाना सम्भव नहीं है।
सेवार अध्यक्ष---श्री-पण्डित हरिदास ।।ताँर ग्रशः-गुण सर्व-जगते प्रकाश ॥
५४॥
उस मन्दिर के मुख्य सेवक श्री हरिदास पण्डित हैं। उनके गुण तथा उनका यश सारे जगत् में प्रसिद्ध है।
सुशील, सहिष्णु, शान्त, वदान्य, गम्भीर ।मधुर-वचन, मधुर-चेष्टा, महा-धीर ॥
५५॥
वे सुशील, सहनशील, शान्त, वदान्य, गम्भीर, मृदुभाषी तथा अत्यन्त धीर थे।
सबार सम्मान-कर्ता, करेन सबार हित ।। कौटिल्य-मात्सर्य-हिंसा ना जाने ताँर चित ॥
५६॥
वे सबको सम्मान देते थे और सबकी भलाई के लिए कार्य करते थे। उनके मन में कूटनीति, ईष्र्या तथा द्वेष लेशमात्र भी नहीं थे।
कृष्णेर ये साधारण सद्गुण पञ्चाश। से सब गुणेर ताँर शरीरे निवास ॥
५७॥
उनके शरीर में भगवान् कृष्ण के पचास गुण विद्यमान थे।
ग्रस्यास्ति भक्तिर्भगवत्यकिञ्चना सर्वैर्गुणैस्तत्र समासते सुराः । हरावभक्तस्य कुतो महद्गुणामनो-रथेनासति धावतो बहिः ॥
५८॥
यदि किसी में कृष्ण के प्रति अविचल भक्तिमयी श्रद्धा है, तो उसमें कृष्ण तथा सारे देवताओं के सद्गुण धीरे-धीरे प्रकट होते रहते हैं। किन्तु जिसमें पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के प्रति भक्ति नहीं होती, उसमें सुयोग्यता नहीं होती, क्योंकि वह मनोकल्पना द्वारा भगवान् के बाह्य रूप भौतिक जगत् में लगा रहता है।
पण्डित-गोसाजिर शिष्य--अनन्त आचार्य ।कृष्ण-प्रेममय-तनु, उदार, सर्व-आर्य ॥
५९ ॥
अनन्त आचार्य गदाधर पण्डित के शिष्य थे। उनका शरीर सदैव भगवत्प्रेम में निमग्न रहता था। वे उदार थे और सभी प्रकार से उन्नत थे।
ताँहार अनन्त गुण के करु प्रकाश ।। ताँर प्रिय शिष्य इँह–पण्डित हरिदास ॥
६०॥
अनन्त आचार्य समस्त सद्गुणों के आगार थे। उनके बड़प्पन का अनुमान कोई नहीं लगा सकता। पण्डित हरिदास उन्हीं के प्रिय शिष्य थे।
चैतन्य-नित्यानन्दे ताँर परम विश्वास ।चैतन्य-चरिते ताँर परम उल्लास ॥
६१॥
पण्डित हरिदास को चैतन्य महाप्रभु तथा नित्यानन्द प्रभु में प्रगाढ़ श्रद्धा थी। अतएव उनकी लीलाओं तथा गुणों को जानने से उन्हें परम तुष्टि होती थी।
वैष्णवेर गुण-ग्राही, ना देखये दोष ।काय-मनो-वाक्ये करे वैष्णव-सन्तोष ॥
६२॥
वे वैष्णवों के सद्गुणों को सदैव स्वीकार करते थे और उनमें वे कोई दोष नहीं पाते थे। वे वैष्णवों को तुष्ट करने में ही अपना तन-मन लगाते थे।
निरन्तर शुने तेंहो 'चैतन्य-मङ्गल' ।ताँहार प्रसादे शुनेन वैष्णव-सकल ॥
६३ ॥
वे सदैव चैतन्य मंगल का पाठ सुनते थे और उनकी कृपा से अन्य सारे वैष्णव भी इसे सुना करते थे।
कथाय सभा उज्वल करे ग्रेन पूर्ण-चन्द्र ।निज-गुणामृते बाड़ाय वैष्णव-आनन्द ॥
६४॥
वे चैतन्य मंगल पढ़कर सारी वैष्णव सभा को पूर्ण चन्द्रमा की भाँति आलोकित करते थे और अपने गुणों के अमृत से उनके दिव्य आनन्द को वर्धित करते थे।
तेहो अति कृपा करि' आज्ञा कैला मोरे ।।गौराङ्गेर शेष-लीला वणिबार तरे ॥
६५॥
उन्होंने अपनी अहैतुकी कृपा से मुझे श्री चैतन्य महाप्रभु की अन्तिम लीलाओं को लिखने का आदेश दिया।
काशीश्वर गोसाजिर शिष्य–गोविन्द गोसाजि ।गोविन्देर प्रिय-सेवक ताँर सम नात्रि ॥
६६॥
वृन्दावन में भगवान् गोविन्द की सेवा में लगे पुरोहित गोविन्द गोसांई काशीश्वर गोसांई के शिष्य थे। गोविन्द अर्चाविग्रह को उनसे बढ़कर कोई अन्य सेवक प्रिय न था।
ग्रादवाचार्य गोसाजि श्री-रूपेर सङ्गी ।।चैतन्य-चरिते तेंहो अति बड़ रङ्गी ॥
६७॥
श्रील रूप गोस्वामी के नित्य पार्षद श्री यादवाचार्य गोसांई भी चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं को सुनने तथा उनका कीर्तन करने में अत्यन्त उत्साह दिखलाते थे।
पण्डित-गोसाजिर शिष्य---भुगर्भ गोसात्रि ।गौर-कथा विना आर मुखे अन्य नाइ ॥
६८॥
पण्डित गोसांई के शिष्य भूगर्भ गोसांई चैतन्य महाप्रभु सम्बन्धी कथाओं में सदैव लगे रहते थे। उसके अतिरिक्त वे और कुछ भी नहीं जानते थे।
ताँर शिष्य-गोविन्द पूजक चैतन्य-दास ।मुकुन्दानन्द चक्रवर्ती, प्रेमी कृष्णदास ॥
६९॥
इनके शिष्यों में से थे, गोविन्द अर्चाविग्रह के पुजारी चैतन्यदास, मुकुन्दानन्द चक्रवर्ती तथा महाभागवत कृष्णदास।
आचार्य-गोसाजिर शिष्य चक्रवर्ती शिवानन्द । निरवधि ताँर चित्ते चैतन्य-नित्यानन्द ॥
७० ॥
अनन्त आचार्य के शिष्यों में से शिवानन्द चक्रवर्ती हुए, जिनके हृदय में चैतन्य महाप्रभु तथा नित्यानन्द प्रभु निरन्तर वास करते थे।
आर व्रत वृन्दावने बैसे भक्त-गण ।शेष-लीला शुनिते सबार हैल मन ॥
७१॥
इनके अतिरिक्त वृन्दावन में अन्य अनेक महान् भक्त थे। वे सभी चैतन्य महाप्रभु की अन्तिम लीलाओं को सुनने के इच्छुक थे।
मोरे आज्ञा करिला सबे करुणा करिया ।ताँ-सबार बोले लिखि निर्लज्ज हइया ॥
७२।। इन सभी भक्तों ने कृपा करके मुझे श्री चैतन्य महाप्रभु की अन्तिम लीलाओं के सम्बन्ध में लिखने का आदेश दिया। यद्यपि मैं निर्लज्ज हूँ, किन्तु उन्हीं के आदेश से मैंने यह चैतन्य-चरितामृत लिखने का प्रयास किया है।
वैष्णवेर आज्ञा पाळा चिन्तित-अन्तरे । मदन-गोपाले गेलाँ आज्ञा मागिबारे ॥
७३॥
वैष्णवों की आज्ञा प्राप्त करने के बाद, लेकिन अपने मन में चिन्तित होने के कारण मैं वृन्दावन के मदनमोहन मन्दिर में उनकी भी आज्ञा लेने के लिए गया।
दरशन करि कैलें चरण वन्दन ।गोसाजि-दास पूजारी करे चरण-सेवन ॥
७४॥
। जब मैं मदनमोहन के मन्दिर में दर्शन करने गया, तो पुजारी गोसांई दास भगवान् के चरणों की सेवा कर रहे थे। मैंने भी भगवान् के चरणकमलों पर प्रार्थना की।
प्रभुर चरणे यदि आज्ञा मागिल ।। प्रभु-कण्ठ हैते माला खसिया पड़िल ॥
७५ ॥
जब मैंने भगवान् से आज्ञा माँगी, तो तुरन्त ही उनके गले से एक माला खिसककर नीचे आ गई।
सब वैष्णव-गण हरि-ध्वनि दिल । गोसाञि-दास आनि' माला मोर गले दिल ॥
७६ ॥
ज्योंही यह घटना घटी तो वहाँ पर खड़े सारे वैष्णवजनों ने जोर से ‘हरिबोल!' की हर्षध्वनि की और पुजारी गोसांई दास ने वह माला लाकर मेरे गले में डाल दी।
आज्ञा-माला पाञा आमार हइल आनन्द ।ताहाङिकरिनु एइ ग्रन्थेर आरम्भ ॥
७७॥
इस माला को भगवान् के आदेश के रूप में पाकर मैं अत्यधिक प्रसन्न हुआ और तुरन्त ही मैंने वहीं पर यह ग्रंथ लिखना प्रारम्भ कर दिया।
एइ ग्रन्थ लेखाय मोरे ‘मदन-मोहन' ।। आमार लिखन ग्रेन शुकेर पठन ॥
७८ ॥
वास्तव में श्रीचैतन्य चरितामृत मेरा लिखा हुआ नहीं है, अपितु श्री मदनमोहन द्वारा लिखाया गया है। मेरा लिखना तो तोते जैसा दोहराना (पुनरावृत्ति) है।
सेइ लिखि, मदन-गोपाल ये लिखाय ।।काष्ठेर पुत्तली येन कुहके नाचाये ॥
७९॥
जिस प्रकार जादूगर कठपुतली को नचाता है, उसी प्रकार मदनगोपाल मुझे जो-जो आदेश देते हैं, मैं वही लिखता हूँ।
कुलाधिदेवता मोर--मदन-मोहन । झॉर सेवक-रघुनाथ, रूप, सनातन ॥
८०॥
मैं मदनमोहन को अपने कुलदेवता के रूप में स्वीकार करता हूँ, जिनकी उपासना करने वालों में रघुनाथ दास गोस्वामी, श्री रूप गोस्वामी तथा सनातन गोस्वामी शामिल हैं।
वृन्दावन-दासेर पाद-पद्म करि' ध्यान । ताँर आज्ञा लञा लिखि ग्राहाते कल्याण ॥
८१॥
तब मैंने श्रील वृन्दावन दास ठाकुर के चरणकमलों पर प्रार्थना करके उनकी अनुमति माँगी और उनकी अनुमति पा लेने के बाद मैंने यह मंगलमय ग्रंथ लिखने का प्रयास किया है।
चैतन्य-लीलाते 'व्यास' वृन्दावन-दास ।तर कृपा विना अन्ये ना हय प्रकाश ॥
८२॥
श्रील वृन्दावन दास ठाकुर चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं के प्रामाणिक लेखक हैं। अतएव उनकी कृपा के बिना इन लीलाओं का वर्णन नहीं किया जा सकता।
मूर्ख, नीच, क्षुद्र मुजि विषय-लालस ।।वैष्णवाज्ञा-बले करि एतेक साहस ॥
८३॥
मैं मूर्ख, निम्न कुल में उत्पन्न तथा क्षुद्र हूँ और सदा ही भौतिक भोग की इच्छा करता हूँ। फिर भी वैष्णवों की आज्ञा के कारण मैं इस दिव्य ग्रंथ को लिखने के लिए अत्यन्त उत्साहित हूँ।
श्री-रूप-रघुनाथ-चरणेर एइ बल ।याँर स्मृते सिद्ध हय वाञ्छित-सकल ॥
८४॥
श्री रूप गोस्वामी तथा रघुनाथदास गोस्वामी के चरणकमल ही मेरे बल के स्रोत हैं। उनके चरणकमलों के स्मरण से मनुष्य की सारी इच्छाएँ पूरी हो सकती हैं।
श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश ।चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
८५ ॥
श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों पर प्रार्थना करते हुए तथा सदैव उनकी कृपा की आकांक्षा करते हुए मैं, कृष्णदास उनके चरणचिह्नों का अनुगमन करते हुए श्रीचैतन्य-चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।
अध्याय नौ: भक्ति सेवा का इच्छा वृक्ष
तं श्रीमत्कृष्ण-चैतन्य-देवं वन्दे जगद्गुरुम् ।।ग्रस्यानुकम्पया श्वापि महाब्धि सन्तरेत्सुखम् ॥
१॥
मैं अखिल जगत् के गुरु श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को सादर नमस्कार करता हूँ, जिनकी कृपा से एक कुत्ता भी महासागर को पार कर सकता है।
जय जय श्री-कृष्ण-चैतन्य गौरचन्द्र ।।जय जयाद्वैत जय जय नित्यानन्द ॥
२॥
उन श्रीकृष्ण चैतन्य की जय हो, जो गौरहरि कहलाते हैं। अद्वैताचार्य तथा नित्यानन्द प्रभु की जय हो! जय जय श्रीवासादि गौर-भक्त-गण ।।सर्वाभीष्ट-पूर्ति-हेतु याँहार स्मरण ॥
३॥
श्रीवास ठाकुर इत्यादि चैतन्य महाप्रभु के भक्तों की जय हो! मैं अपनी सारी इच्छाओं की पूर्ति के लिए उनके चरणकमलों का स्मरण करता हूँ।
श्री-रूप, सनातन, भट्ट रघुनाथ ।श्री-जीव, गोपाल-भट्ट, दास-रघुनाथ ॥
४॥
मैं छहों गोस्वामियों-रूप, सनातन, भट्ट रघुनाथ, श्री जीव, गोपाल भट्ट तथा दास रघुनाथ-का भी स्मरण करता हूँ।
एसब-प्रसादे लिखि चैतन्य-लीला-गुण ।।जानि वा ना जानि, करि आपन-शोधन ॥
५॥
। इन सारे वैष्णवों तथा गुरुओं की कृपा से ही मैं श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं और गुणों के बारे में लिखने का प्रयास कर रहा हूँ। चाहे जानकर हो अथवा अनजाने में, मैं आत्मशुद्धि के लिए ही यह पुस्तक लिख रहा हूँ।
माला-कारः स्वयं कृष्ण-प्रेमामर-तरुः स्वयम् ।। दाता भोक्ता तत्फलानां ग्रस्तं चैतन्यमाश्रये ॥
६॥
मैं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु की शरण लेता हूँ, जो स्वयं कृष्ण-प्रेम रूपी वृक्ष हैं, इसके माली हैं और इसके फलों के प्रदाता तथा भोक्ता दोनों हैं।
प्रभु कहे, आमि ‘विश्वम्भर' नाम धरि ।। नाम सार्थक हय, यदि प्रेमे विश्व भरि ॥
७॥
चैतन्य महाप्रभु ने सोचा, मेरा नाम विश्वम्भर अर्थात् 'अखिल ब्रह्माण्ड का पालन करने वाला है। यह नाम तभी सार्थक बनेगा, यदि मैं अखिल ब्रह्माण्ड को भगवत्प्रेम से भर दूँ।
एत चिन्ति' लैला प्रभु मालाकार-धर्म ।।नवद्वीपे आरम्भिला फलोद्यान-कर्म ॥
८॥
इस प्रकार सोचते हुए उन्होंने माली का कार्य स्वीकार किया और नवद्वीप में एक उद्यान ( बगीचा ) लगाना प्रारम्भ कर दिया।
श्री-चैतन्य मालाकार पृथिवीते आनि' ।।भक्ति-कल्पतरु रोपिला सिञ्चि' इच्छा-पानि ॥
९॥
इस प्रकार महाप्रभु भक्ति-रूपी कल्पवृक्ष को इस पृथ्वी पर ले आये और स्वयं इसके माली बने। उन्होंने बीज बोया और उसे अपनी इच्छारूपी जल से सींचा।
जय श्री माधवपुरी कृष्ण-प्रेम-पूर ।भक्ति-कल्पतरुर तेहो प्रथम अङ्कर ॥
१०॥
कृष्ण-भक्ति के आगार श्री माधवेन्द्र पुरी की जय हो! वे भक्ति के कल्पवृक्ष हैं और उन्हीं में भक्ति का प्रथम बीज अंकुरित हुआ।
श्री-ईश्वरपुरी-रूपे अङ्कर पुष्ट हैल ।। आपने चैतन्य-माली स्कन्ध उपजिल ॥
११॥
इसके बाद भक्ति का बीज श्री ईश्वरपुरी के रूप में अंकुरित हुआ और फिर श्री चैतन्य महाप्रभु जो स्वयं माली थे, उस भक्ति रूपी वृक्ष को मुख्य तना बने।
निजाचिन्त्य-शक्त्ये माली हा स्कन्ध हय । सकल शाखार सेई स्कन्ध मूलाश्रय ॥
१२॥
। अपनी अचिन्त्य शक्तियों के कारण महाप्रभु एकसाथ माली, तना तथा शाखाएँ बने।
परमानन्द पुरी, आर केशव भारती ।। ब्रह्मानन्द पुरी, आर ब्रह्मानन्द भारती ॥
१३ ॥
विष्णु-पुरी, केशव-पुरी, पुरी कृष्णानन्द ।। श्री-नृसिंहतीर्थ, आर पुरी सुखानन्द ॥
१४॥
एइ नव मूल निकसिल वृक्ष-मूले । एइ नव मूले वृक्ष करिल निश्चले ॥
१५॥
श्री परमानन्द पुरी, केशव भारती, ब्रह्मानन्द पुरी, ब्रह्मानन्द भारती, श्री विष्णु पुरी, केशव पुरी, कृष्णानन्द पुरी, श्री नृसिंह तीर्थ तथा सुखानन्द पुरी-ये नौ संन्यासी वे जड़े हैं, जो उस वृक्ष के तने से फूटीं। इस तरह इन नौ जड़ों के बल पर वह वृक्ष दृढ़ता से खड़ा रहा।
मध्य-मूल परमानन्द पुरी महा-धीर।।अष्ट दिके अष्ट मूल वृक्ष कैल स्थिर ॥
१६॥
धीर गम्भीर परमानन्द पुरी मुख्य ( केन्द्रीय) जड़ बने और आठों दिशाओं में अन्य आठ जड़ों समेत श्री चैतन्य महाप्रभु रूपी वृक्ष सुस्थिर हो गया।
स्कन्धेर उपरे बहु शाखा उपजिल । उपरि उपरि शाखा असङ्ख्य हइल ॥
१७॥
। तने से अनेक शाखाएँ फूटीं और उनके भी ऊपर अनेक उपशाखाएँ निकलीं।
विश विश शाखा करि' एक एक मण्डल । महा-महा-शाखा छाइल ब्रह्माण्ड सकल ॥
१८॥
इस तरह चैतन्य रूपी वृक्ष की शाखाओं से एक गुच्छा या समाज बना और बड़ी-बड़ी शाखाएँ सारे ब्रह्माण्ड में छा गईं।
एकैक शाखाते उपशाखा शत शत ।।ग्रत उपजिल शाखा के गणिबे कत ॥
१९॥
हर शाखा से सैकड़ों उपशाखाएँ फूटीं। इस तरह कितनी शाखाएँ निकलीं, इसकी गिनती कोई नहीं कर सकता।
मुख्य मुख्य शाखा-गणेर नाम अगणन ।।आगे त' करिब, शुन वृक्षेर वर्णन ॥
२०॥
मैं इन असंख्य शाखाओं में से सर्वप्रमुख शाखाओं का नाम गिनाने का प्रयत्न करूंगा। कृपया चैतन्य-वृक्ष का वर्णन सुनें।
वृक्षेर उपरे शाखा हैल दुइ स्कन्ध ।।एक 'अद्वैत' नाम, आर 'नित्यानन्द' ॥
२१॥
वृक्ष के ऊपरी तने के दो भाग हो गये। एक तने का नाम श्री अद्वैत प्रभु था और दूसरे का श्री नित्यानन्द प्रभु।
सेइ दुइ-स्कन्धे बहु शाखा उपजिल ।तार उपशाखा-गणे जगत्छाइल ॥
२२॥
इन दोनों तनों से अनेक शाखाएँ एवं उपशाखाएँ उत्पन्न हुईं, जो सारे जगत् पर छा गईं।
बड़ शाखा, उपशाखा, तारे उपशाखा । ग्रत उपजिल तार के करिबे लेखा ॥
२३॥
ये शाखाएँ तथा उपशाखाएँ और उनकी भी उपशाखाएँ इतनी अधिक हो गईं कि उन सबके विषय में लिख पाना असम्भव है।
शिष्य, प्रशिष्य, आर उपशिष्य-गण ।। जगत्व्यापिल तार नाहिक गणन ॥
२४॥
इस तरह शिष्य, उनके शिष्य और उन सबके प्रशंसक सारे जगत् में फैल गये। इन सबको गिना पाना सम्भव नहीं है।
उडुम्बर-वृक्ष ग्रेन फले सर्व अङ्गे।।एइ मत भक्ति-वृक्षे सर्वत्र फल लागे ॥
२५ ॥
जिस प्रकार विशाल अंजीर वृक्ष में सर्वत्र फल लगते हैं, उसी तरह भक्ति-वृक्ष के प्रत्येक अंग में फल लगे।
मूल-स्कन्धेर शाखा आर उपशाखा-गणे ।लागिला ये प्रेम-फल,—अमृतके जिने ॥
२६॥
चूँकि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु मूल तना थे, अतएव शाखाओं तथा उपशाखाओं में जो फल लगे, उनका स्वाद अमृत से भी बढ़कर था।
पाकिल ये प्रेम-फल अमृत-मधुर ।विलाय चैतन्य-माली, नाहि लय मूल ॥
२७॥
फल पकते गये और मीठे तथा अमृतमय हो गये। माली श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें कोई मूल्य माँगे बिना ही वितरित कर दिया।
त्रि-जगते व्रत आछे धन-रत्नमणि ।।एक-फलेर मूल्य करि' ताहा नाहि गणि ॥
२८ ॥
भक्ति के ऐसे एक अमृतमय फल के मूल्य की बराबरी तीनों लोक की सारी सम्पदा भी नहीं कर सकती।।
मागे वा ना मागे केह, पात्र वा अपात्र ।।इहार विचार नाहि जाने, देय मात्र ॥
२९ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने इसका विचार किये बिना ही भक्तिरूपी फल का वितरण किया कि कौन इसे माँगता है, कौन नहीं अथवा कौन उसको पाने का पात्र है और कौन कुपात्र।।
अञ्जलि अञ्जलि भरि' फेले चतुर्दिशे ।। दरिद्र कुड़ाञा खाय, मालाकार हासे ॥
३०॥
दिव्य माली श्री चैतन्य महाप्रभु ने अंजुली में भर-भरकर सभी दिशाओं में फल बाँट दिये और जब गरीब, भूखे लोगों ने यह फल खाया, तो माली परम आनन्दित होकर मुस्कुराते रहे।
मालाकार कहे,—शुन, वृक्ष-परिवार ।मूलशाखा-उपशाखा व्रतेक प्रकार ॥
३१॥
इस प्रकार श्री चैतन्य महाप्रभु ने भक्ति-वृक्ष की विभिन्न प्रकार की शाखाओं तथा उपशाखाओं को संबोधित किया है।
अलौकिक वृक्ष करे सर्वेन्द्रिय-कर्म ।स्थावर हइया धरे जङ्गमेर धर्म ॥
३२॥
चूँकि भक्ति-वृक्ष दिव्य होता है, अतएव इसका प्रत्येक अंग अन्य सारे अंगों का कार्य सम्पन्न कर सकता है। यद्यपि वृक्ष अचर माना जाता है, किन्तु ऐसा होते हुए भी यह वृक्ष जंगम ( चलने वाला) है।
ए वृक्षेर अङ्ग हय सब सचेतन ।बाड़िया व्यापिल सबे सकल भुवन ॥
३३॥
इस वृक्ष के सारे अंग आध्यात्मिक रूप से सचेतन हैं और वे ज्योंज्यों बढ़ते हैं त्यों-त्यों सारे जगत् में फैल जाते हैं।
एकला मालाकार आमि काहाँ काहाँ ग्राब ।।एकला वा कत फल पाड़िया विलाब ॥
३४॥
मैं ही अकेला माली हूँ। मैं कितने स्थानों में जा सकता हूँ? मैं कितने फल तोड़ और बाँट सकता हूँ? एकला उठा दिते हय परिश्रम ।केह पाय, केह ना पाय, रहे मने भ्रम ॥
३५॥
अकेले फलों को तोड़कर उन्हें वितरित करना निश्चित ही अत्यधिक परिश्रम का कार्य है, परन्तु इतने पर भी मुझे सन्देह है कि कुछ लोग उन्हें प्राप्त कर पाएँगे और कुछ नहीं।
अतएव आमि आज्ञा दिलँ सबकारे ।ग्राहाँ ताहाँ प्रेम-फल देह' झारे तारे ॥
३६॥
अतएव मैं इस ब्रह्माण्ड के हर व्यक्ति को आज्ञा देता हूँ कि वह इस कृष्णभावनामृत आन्दोलन को स्वीकार करे और इसे सर्वत्र वितरित करे।
एकला मालाकार आमि कत फल खाब ।। ना दिया वा एइ फल आर कि करिब ॥
३७॥
मैं अकेला माली हूँ। यदि मैं इन्हें वितरित न करूं तो मैं इनका क्या करूँगा? अकेले मैं कितने फल खा सकता हूँ? आत्म-इच्छामृते वृक्ष सिञ्चि निरन्तर ।ताहाते असङ्ख्य फल वृक्षेर उपर ॥
३८॥
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की दिव्य इच्छा से सारे वृक्ष पर पानी छिड़का गया है और इस तरह भगवत्प्रेम के असंख्य फल लगे हैं।
अतएव सबै फल देह' ग्रारे तारे ।खाइयो हउक् लोक अजर अमरे ॥
३९॥
इस कृष्णभावनामृत आन्दोलन का वितरण सारे विश्व में करो, जिससे सारे लोग इन फलों को खाकर अन्ततः वृद्धावस्था तथा मृत्यु से मुक्त हो सकें।
जगत्व्यापिया मोर हबे पुण्य ख्याति ।सुखी हइया लोक मोर गाहिबेक कीर्ति ॥
४०॥
यदि फलों को सारे विश्व में वितरित किया जाए, तो पुण्यात्मा के रूप में मेरी ख्याति सर्वत्र फैलेगी और सारे लोग अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक मेरे नाम की महिमा का गान करेंगे।
भारत-भूमिते हैल मनुष्य जन्म यार ।जन्म सार्थक करि' कर पर-उपकार ॥
४१॥
जिसने भारतभूमि ( भारतवर्ष ) में मनुष्य जन्म लिया है, उसे अपना जीवन सफल बनाना चाहिए और अन्य सारे लोगों के लाभ के लिए कार्य करना चाहिए।
एतावजन्म-साफल्यं देहिनामिह देहिषु ।। प्राणैरथैधिया वाचा श्रेय-आचरणं सदा ॥
४२ ॥
यह हर जीव का कर्तव्य है कि वह अपने जीवन, धन, बुद्धि, तथा वाणी से दूसरों के लाभ के लिए कल्याण-कार्य करे।'
प्राणिनामुपकाराय ग्रदेवेह परत्र च । कर्मणा मनसा वाचा तदेव मति-मान्भजेत् ॥
४३॥
बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह अपने कार्यों, विचारों तथा शब्दों से ऐसे कर्म करे, जो सारे प्राणियों के लिए इस जन्म में तथा अगले जन्म में मंगलकारी हो सकें।'
माली मनुष्य आमार नाहि राज्य-धन ।।फल-फुल दिया करि' पुण्य उपार्जन ॥
४४॥
। मैं तो केवल माली हूँ। मेरे पास न तो साम्राज्य है, न बहुत सारा धन है। मेरे पास तो केवल कुछ फल और फूल हैं, जिनका उपयोग मैं अपने जीवन में पुण्य प्राप्त करने के लिए करना चाहता हूँ।
माली हा वृक्ष हइलाँ एइ त' इच्छाते ।सर्व-प्राणीर उपकार हय वृक्ष हैते ॥
४५॥
यद्यपि मैं माली का कार्य कर रहा हूँ, किन्तु मैं वृक्ष भी बनना चाहता हूँ, क्योंकि इस तरह मैं सबको लाभ पहुँचा सकता हूँ।
अहो एषां वरं जन्म सर्व-प्राण्युपजीविनाम् ।सु-जनस्येव येषां वै विमुखा ग्रान्ति नार्थिनः ॥
४६॥
जरा देखो तो! ये वृक्ष किस तरह हर जीव का पालन कर रहे हैं। इनका जन्म सफल है। इनका आचरण महापुरुषों जैसा है, क्योंकि जो कोई भी वृक्ष से कुछ माँगता है, वह कभी निराश होकर नहीं जाता।
एइ आज्ञा कैल ग्रदि चैतन्य-मालाकार।परम आनन्द पाइल वृक्ष-परिवार ॥
४७॥
वृक्ष के वंशज ( श्री चैतन्य महाप्रभु के भक्त ) महाप्रभु से यह प्रत्यक्ष आदेश पाकर अत्यन्त प्रसन्न थे।
ग्रेड ग्राहाँ ताहाँ दान करे प्रेम-फल ।। फलास्वादे मत्त लोक हइल सकल ॥
४८॥
भगवत्प्रेम का फल इतना स्वादिष्ट होता है कि भक्त इसको जहाँ कहीं भी बाँटता है, विश्वभर में कहीं भी, जो इस फल का आस्वादन करता है, वह तुरन्त मदमस्त हो उठता है।
महा-मादक प्रेम-फल पेट भरि' खाय ।मातिल सकल लोक-हासे, नाचे, गाय ॥
४९॥
श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा वितरित भगवत्प्रेम रूपी फल इतना मादक है कि जो भी पेट भर खाता है, वह तुरन्त ही उससे उन्मत्त हो उठता है और स्वतः ही कीर्तन करता, नाचता, हँसता और आनन्द लेता है।
केह गड़ागड़ि ग़ाय, केह त' हुङ्कार ।देखि' आनन्दित हुआ हासे मालाकार ॥
५०॥
जब महान् माली श्री चैतन्य महाप्रभु देखते हैं कि लोग कीर्तन करते हैं, नाचते और हँसते हैं और कुछ लोग भूमि पर लोटपोट होते हैं तथा कुछ हुंकार भरते हैं, तो वे परम आनन्दित होकर मुस्कुराते हैं।
एइ मालाकार खाय एइ प्रेम-फल ।।निरवधि मते रहे, विवश-विह्वल ॥
५१॥
यह महान् माली, श्री चैतन्य महाप्रभु, स्वयं इस फल को खाते हैं; फलस्वरूप वे निरन्तर उन्मत्त रहते हैं, मानों असहाय एवं मोहग्रस्त हों।
सर्व-लोके मत्त कैला आपन-समान । प्रेमे मत्त लोक विना नाहि देखि आन ॥
५२॥
महाप्रभु ने अपने संकीर्तन आन्दोलन से हर एक को अपनी तरह मत्त बना दिया। हमें ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं मिलता, जो उनके संकीर्तन आन्दोलन द्वारा मदमस्त न हो उठा हो।"
ने ग्रे पूर्वे निन्दा कैल, बलि' मातोयाल ।सेहो फल खाय, नाचे, बले-भाल भाल ॥
५३॥
। जिन लोगों ने पहले श्री चैतन्य महाप्रभु को शराबी कहकर उनकी आलोचना की थी, उन्होंने भी फल खाया और वे, बहुत अच्छा! बहुत अच्छा! कहकर नाचने लगे।
एइ त कहिलॆ प्रेम-फल-वितरण ।।कल-दाता ने ने शाखा-गण ॥
५४॥
महाप्रभु द्वारा भगवत्प्रेम रूपी फल के वितरण का वर्णन करने के बाद अब मैं चैतन्य महाप्रभु रूपी वृक्ष की विभिन्न शाखाओं का वर्णन करना चाहूँगा।
श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश ।।चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
५५॥
श्री रूप और श्री रघुनाथ के चरणकमलों में प्रार्थना करते हुए और उनकी कृपा की सदैव आकांक्षा करते हुए, मैं कृष्णदास उनके चरणचिह्नों पर चलते हुए श्री चैतन्य-चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।
अध्याय दस: चैतन्य वृक्ष का तना, शाखाएँ और उप शाखाएँ
श्री-चैतन्य-पदाम्भोज-मधुपेभ्यो नमो नमः ।।कथञ्चिदाश्रयाद् येषां श्वापि तद्गन्ध-भाग्भवेत् ॥
१॥
मैं भ्रमरों के समान उन भक्तों के चरणकमलों में बारम्बार नमस्कार करता हूँ, जो चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों के मधु का निरन्तर आस्वादन करते हैं। यदि कुत्ते जैसा अभक्त भी किसी प्रकार ऐसे भक्तों की शरण में पहुँच जाता है, तो उसे भी कमल के फूल की सुगन्धि का आनन्द प्राप्त होता है।
जय जय श्री कृष्ण-चैतन्य-नित्यानन्द ।जयाद्वैतचन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ॥
२॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु तथा नित्यानन्द प्रभु की जय हो! श्री अद्वैत प्रभु की जय हो और श्रीवास समेत चैतन्य महाप्रभु के भक्तों की जय हो! एइ मालीर---एइ वृक्षेर अकथ्य कथन । एबे शुन मुख्य-शाखार नाम-विवरण ॥
३॥
माली तथा वृक्ष के रूप में श्री चैतन्य महाप्रभु का वर्णन अकल्पनीय है। अब इस वृक्ष की शाखाओं के विषय में ध्यान से सुनिये।
चैतन्य-गोसाजिर व्रत पारिषद-चय ।।गुरु-लघु-भाव ताँर ना हय निश्चय ॥
४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के अनेक पार्षद थे, किन्तु इनमें से किसी को भी ऊँचा या नीचा नहीं समझना चाहिए। इसका निर्धारण नहीं किया जा सकता।
ग्रत व्रत महान्त कैला ताँ-सबार गणन ।।केह करिबारे नारे ज्येष्ठ-लघु-क्रम ॥
५॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के सम्प्रदाय के सारे महापुरुषों की गणना इन भक्तों में होती है, किन्तु इनमें कौन छोटा है और कौन बड़ा-इसका अन्तर नहीं हो सकता।
अतएव ताँ-सबारे करि' नमस्कार ।नाम-मात्र करि, दोष ना लबे आमार ॥
६॥
मैं उन सबको आदर स्वरूप नमस्कार करता हूँ। मेरी उनसे विनती है। कि वे मेरे अपराधों पर ध्यान न दें।
वन्दे श्री-कृष्ण-चैतन्य-प्रेमामर-तरोः प्रियान् ।।शाखा-रूपान्भक्त-गणान्कृष्ण-प्रेम-फल-प्रदान् ॥
७॥
मैं भगवत्प्रेम के शाश्वत् वृक्ष-रूपी श्री चैतन्य महाप्रभु के समस्त प्रिय भक्तों को नमस्कार करता हूँ। मैं इस वृक्ष की समस्त शाखाओं-रूपी महाप्रभु के उन भक्तों को नमस्कार करता हूँ, जो कृष्ण-प्रेम रूपी फल का वितरण करते हैं।
श्रीवास पण्डित, आर श्री-राम पण्डित ।।दुइ भाई-दुई शाखा, जगते विदित ॥
८॥
श्रीवास पण्डित तथा श्रीराम पण्डित-इन दोनों भाइयों से दो शाखाएँ प्रारम्भ हुईं, जो संसार में सर्वविदित हैं।
श्रीपति, श्रीनिधि ताँर दुइ सहोदर ।।चारि भाइर दास-दासी, गृह-परिकर ॥
९॥
उनके अन्य दो भाइयों के नाम श्रीपति तथा श्रीनिधि थे। उन चारों भाइयों, उनके नौकरों तथा नौकरानियों को एक बृहद् शाखा माना जाता है।
दुइ शाखार उपशाखाय ताँ-सबार गणन ।ग्राँर गृहे महाप्रभुर सदा सङ्कीर्तन ॥
१० ॥
इन दोनों शाखाओं से निकलने वाली उपशाखाओं की कोई गिनती नहीं है। श्री चैतन्य महाप्रभु नित्य ही श्रीवास पण्डित के घर में संकीर्तन किया करते थे।
चारि भाइ सवंशे करे चैतन्येर सेवा ।।गौरचन्द्र विना नाहि जाने देवी-देवा ॥
११॥
ये चारों भाई तथा उनके पारिवारिक सदस्य श्री चैतन्य महाप्रभु की सेवा में पूरी तरह लगे रहते थे। वे अन्य किसी देवता या देवी को नहीं जानते थे।
'आचार्यरत्न' नाम धरे बड़ एक शाखा ।ताँर परिकर, ताँर शाखा-उपशाखा ॥
१२॥
‘आचार्यरत्न' एक अन्य बड़ी शाखा थे और उनके पार्षद उपशाखाएँ थे।
आचार्यरत्नेर नाम 'श्री-चन्द्रशेखर'—।याँर घरे देवी-भावे नाचिला ईश्वर ॥
१३॥
आचार्यरत्न को श्री चन्द्रशेखर आचार्य भी कहते थे। उनके घर में एक नाटक में चैतन्य महाप्रभु ने लक्ष्मी का अभिनय किया था।
पुण्डरीक विद्यानिधि—बड़-शाखा जानि ।।याँर नाम लञा प्रभु कान्दिला आपनि ॥
१४॥
तृतीय बड़ी शाखा पुण्डरीक विद्यानिधि थे, जो श्री चैतन्य महाप्रभु को इतने प्रिय थे कि कभी-कभी उनकी अनुपस्थिति में महाप्रभु स्वयं रो पड़ते थे।
बड़ शाखा,—गदाधर पण्डित-गोसाजि । तेहो लक्ष्मी-रूपा, ताँर सम केह नाइ ॥
१५॥
चौथी शाखा गदाधर पण्डित को श्रीकृष्ण की हादिनी शक्ति के अवतार के रूप में वर्णित किया जाता है। अतएव उनकी बराबरी कोई नहीं कर सकता।
ताँर शिष्य-उपशिष्य, ताँर उपशाखा । एइमत सब शाखा-उपशाखार लेखा ॥
१६॥
उनके शिष्य तथा प्रशिष्य उनकी उपशाखाएँ हैं। उन सबका वर्णन कर पाना कठिन होगा।
वक्रेश्वर पण्डित–प्रभुर बड़ प्रिय भृत्य ।।एक-भावे चब्बिश प्रहर झाँर नृत्य ॥
१७॥
वृक्ष की पाँचवीं शाखा वक्रेश्वर पण्डित श्री चैतन्य महाप्रभु के अत्यन्त प्रिय सेवक थे। वे बहत्तर घंटे तक लगातार भावविभोर होकर नृत्य कर सकते थे।
आपने महाप्रभु गाय याँर नृत्य-काले ।प्रभुर चरण धरि' वक्रेश्वर बले ॥
१८॥
जब वक्रेश्वर पण्डित नाच रहे थे, तब स्वयं श्री चैतन्य महाप्रभु ने गाना गाया। फलतः वक्रेश्वर पण्डित महाप्रभु के चरणकमलों पर गिर पड़े और इस प्रकार बोले।
दश-सहस्र गन्धर्व मोरे देह' चन्द्रमुख ।तारा गाय, मुजि नाचों—तबे मोर सुख ॥
१९॥
हे चन्द्रमुख! कृपया मुझे आप दस हजार गन्धर्व दें। जब मैं नाचूं और वे गाएँ, तब मैं परम प्रसन्न होऊँगा।
प्रभु बले-तुमि मोर पक्ष एक शाखा ।।आकाशे उड़िताम यदि पाँ आर पाखा ॥
२०॥
महाप्रभु ने उत्तर दिया, मेरे पास तुम्हारे समान केवल एक ही पंख है, किन्तु यदि मेरे पास दूसरा पंख होता तो मैं निश्चय ही आकाश में उड़ता! पण्डित जगदानन्द प्रभुर प्राण-रूप ।लोके ख्यात हो सत्यभामार स्वरूपे ॥
२१॥
चैतन्य महाप्रभु की छठी शाखा पण्डित जगदानन्द थे, जो महाप्रभु के प्राणस्वरूप माने जाते थे। वे सत्यभामा ( भगवान् कृष्ण की पटरानियों में से एक ) के अवतार माने जाते हैं।
प्रीत्ये करिते चाहे प्रभुर लालन-पालन ।वैराग्य-लोक-भये प्रभु ना माने कखन ॥
२२॥
। जगदानन्द पण्डित ( सत्यभामा के अवतार रूप में) सदैव चैतन्य महाप्रभु की सुविधाओं का ध्यान रखते थे, किन्तु संन्यासी होने के कारण महाप्रभु उनके द्वारा प्रदत्त सुविधाओं को स्वीकार नहीं करते थे।
दुइ-जने खमटि लागाय कोन्दल ।ताँर प्रीत्येर कथा आगे कहिब सकल ॥
२३॥
कभी-कभी वे दोनों छोटी-छोटी बातों पर झगड़ते हुए प्रतीत होते थे, किन्तु ये झगड़े उनके प्रेम पर आधारित होते थे, जिनके बारे में मैं आगे बतलाऊँगा।
राघव-पण्डित–प्रभुर आद्य-अनुचर ।ताँर एक शाखा मुख्य–मकरध्वज कर ॥
२४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के मूल अनुयायी राघव पण्डित सातवीं शाखा कहे जाते हैं। उनसे एक अन्य उपशाखा निकली, जिसमें मकरध्वज कर मुख्य थे।
ताँहार भगिनी दमयन्ती प्रभुर प्रिय दासी । प्रभुर भोग-सामग्री ग्रे करे बार-मासि ॥
२५॥
राघव पण्डित की बहिन दमयन्ती महाप्रभु की प्रिय सेविका थी। वह सदैव विभिन्न भोग-सामग्री एकत्र करके महाप्रभु के लिए भोजन बनाती थी।
से सब सामग्री व्रत झालिते भरिया । राघव लइया ग्रा'न गुपत करिया ॥
२६॥
जब चैतन्य महाप्रभु पुरी में थे, तो उनके लिए दमयन्ती जो भोजन तैयार करती, उसे उसका भाई राघव दूसरों की नजर से बचाकर एक थैली में ले जाया करता था।
बार-मास ताहा प्रभु करेन अङ्गीकार ।। ‘राघवेर झालि' बलि' प्रसिद्धि ग्राहार ॥
२७॥
महाप्रभु बारहों महीने यह भोजन स्वीकार करते। ये थैलियाँ अब भी 'राघवेर झालि' अर्थात् 'राघव पण्डित की थैलियाँ' के नाम से विख्यात है।
से-सब सामग्री आगे करिब विस्तार ।ग्राहार श्रवणे भक्तेर बहे अश्रुधार ॥
२८॥
मैं श्री राघव पण्डित की थैली की सामग्री के बारे में इस ग्रंथ में आगे वर्णन करूंगा। इस वृत्तान्त को सुनकर भक्तगण प्रायः रो उठते हैं और उनकी आँखों से अश्रु झरने लगते हैं।
प्रभुर अत्यन्त प्रिय–पण्डित गङ्गादास ।याँहार स्मरणे हय सर्व-बन्ध-नाश ॥
२९ ॥
पण्डित गंगादास श्री चैतन्य वृक्ष की आठवीं प्रिय शाखा थे। जो व्यक्ति उनके कार्यों का स्मरण करता है, वह सारे बन्धनों से मुक्त हो जाता। है।
चैतन्य-पार्षद--श्री-आचार्य पुरन्दर ।।पिता करि' याँरै बले गौराङ्ग-सुन्दर ॥
३०॥
श्री आचार्य पुरन्दर नवीं शाखा थे, जो श्री चैतन्य महाप्रभु के नित्य पार्षद थे। महाप्रभु उन्हें अपने पिता के रूप में मानते थे।
दामोदर-पण्डित शाखा प्रेमेते प्रचण्ड ।प्रभुर उपरे स्नेहो कैल वाक्य-दण्ड ॥
३१॥
चैतन्य वृक्ष की दसवीं शाखा, दामोदर पण्डित, भगवान् चैतन्य के प्रेम में इतना आगे बढ़े हुए थे कि एक बार उन्होंने महाप्रभु को बिना किसी झिझक के कड़े शब्द कहकर प्रताड़ित किया।
दण्ड-कथा कहिब आगे विस्तार करिया ।।दण्डे तुष्ट प्रभु तौरै पाठाइला नदीया ॥
३२॥
इस दण्ड-वृत्तान्त का वर्णन मैं चैतन्य-चरितामृत में आगे करूंगा। महाप्रभु इस दण्ड से इतने तुष्ट हुए कि उन्होंने दामोदर पण्डित को नवद्वीप भेज दिया।
ताँहार अनुज शाखा–शङ्कर-पण्डित ।‘प्रभु-पादोपाधान' याँर नाम विदित ॥
३३॥
दामोदर पण्डित के छोटे भाई ग्यारहवीं शाखा थे, जिनका नाम शंकर पण्डित था। उन्हें महाप्रभु की पादुकाओं के रूप में माना जाता था।
सदाशिव-पण्डित याँर प्रभु-पदे आश ।प्रथमेइ नित्यानन्देर याँर घरे वास ॥
३४॥
बारहवीं शाखा, सदाशिव पण्डित, सदैव महाप्रभु के चरणकमलों की सेवा करने के लिए उत्सुक रहते थे। यह उनका अच्छा सौभाग्य था कि जब नित्यानन्द प्रभु नवद्वीप आये, तो वे उन्हीं के घर रूके।
श्री-नृसिंह-उपासक—प्रद्युम्न ब्रह्मचारी ।।प्रभु ताँर नाम कैला 'नृसिंहानन्द' करि' ॥
३५॥
तेरहवीं शाखा प्रद्युम्न ब्रह्मचारी थे। चूँकि वे भगवान् नृसिंहदेव के उपासक थे, इसलिए श्री चैतन्य महाप्रभु ने उनका नाम बदलकर नृसिंहानन्द ब्रह्मचारी कर दिया था।
नारायण-पण्डित एक बड़इ उदार ।चैतन्य-चरण विनु नाहि जाने आर ॥
३६॥
चौदहवीं शाखा नारायण पण्डित थे, जो एक महान् एवं उदार भक्त थे और चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों के अतिरिक्त अन्य कोई आश्रय नहीं जानते थे।
श्रीमान्पण्डित शाखा-प्रभुर निज भृत्य ।देउटि धरेन, ग्रबे प्रभु करेन नृत्य ॥
३७॥
पन्द्रहवीं शाखा श्रीमान् पण्डित थे, जो श्री चैतन्य महाप्रभु के नित्य सेवक थे। जब महाप्रभु नृत्य करते थे, तब वे मशाल लिए रहते थे।
शुक्लाम्बर-ब्रह्मचारी बड़ भाग्यवान् ।ग्राँर अन्न मागि' काड़ि' खाइला भगवान् ॥
३८॥
सोलहवीं शाखा, शुक्लाम्बर ब्रह्मचारी अत्यन्त भाग्यशाली थे, क्योंकि चैतन्य महाप्रभु परिहास करते हुए या गम्भीर होकर उनसे भोजन माँगते थे और कभी-कभी उनसे बलपूर्वक छीनकर खा लेते थे।
नन्दन-आचार्य-शाखा जगते विदित ।। लुकाइया दुइ प्रभुर ग्राँर घरे स्थित ॥
३९॥
चैतन्य वृक्ष की सत्रहवीं शाखा, नन्दन आचार्य जगतविदित हैं, क्योंकि दोनों प्रभु (चैतन्य महाप्रभु तथा नित्यानन्द प्रभु) कभी-कभी उनके घर में छिप जाया करते थे।
श्री-मुकुन्द-दत्त शाखा–प्रभुर समाध्यायी ।याँहार कीर्तने नाचे चैतन्य गोसाजि ॥
४०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के सहपाठी श्री मुकुन्द दत्त चैतन्य वृक्ष की एक अन्य शाखा थे। जब वे गाते थे, तब श्री चैतन्य महाप्रभु नाचा करते थे।
वासुदेव दत्त-प्रभुर भृत्य महाशय ।।सहस्र-मुखे याँर गुण कहिले ना हय ॥
४१ ॥
श्री चैतन्य वृक्ष की उन्नीसवीं शाखा, वासुदेव दत्त, एक महापुरुष एवं महाप्रभु के सर्वाधिक अन्तरंग भक्त थे। उनके गुणों का वर्णन हजारों मुखों से भी नहीं किया जा सकता।
जगते व्रतेक जीव, तार पाप ला ।नरक भुञ्जिते चाहे जीव छाड़ाइया ॥
४२॥
श्रील वासुदेव दत्त ठाकुर चाहते थे कि सारे संसार के लोगों के पापकर्मों का भोग वे ही करें, जिससे चैतन्य महाप्रभु उन लोगों का उद्धार कर सकें।
हरिदास-ठाकुर शाखार अद्भुत चरित ।। तिन लक्ष नाम तेहो लयेन अपतित ॥
४३॥
चैतन्य वृक्ष की बीसवीं शाखा हरिदास ठाकुर थे। उनका चरित्र अद्भुत था। वे निर्बाध रूप से प्रतिदिन ३ लाख बार कृष्ण-नाम का जप करते थे।
ताँहार अनन्त गुणकहि दिमात्र ।आचार्य गोसाञि ग्राँरै भुञ्जाय श्राद्ध-पात्र ॥
४४॥
। हरिदास ठाकुर के दिव्य गुणों का कोई अन्त न था। यहाँ मैं उनके गुणों के मात्र एक अंश का ही उल्लेख कर रहा हूँ। वे इतने महान् थे कि अद्वैत गोस्वामी ने जब अपने पिता का श्राद्ध-संस्कार किया, तो उन्हें ही पहली थाली भेंट की।
प्रह्लादे-समान ताँर गुणेर तरङ्ग ।।ग्रवन-ताड़नेओ ग्राँर नाहिक भू-भङ्ग ॥
४५ ॥
उनके उत्तम गुणों की तरंगें प्रह्लाद महाराज की जैसी थीं। जब मुसलमान शासक ने उन्हें दण्ड दिया, तो उन्होंने अपनी भौंह तक नहीं उठाई।
तेहो सिद्धि पाइले ताँर देह ला कोले ।।नाचिल चैतन्य-प्रभु महा-कुतूहले ॥
४६॥
हरिदास ठाकुर के दिवंगत होने पर स्वयं महाप्रभु उनके शरीर को अपनी गोद में लेकर बड़े ही भावावेश में नाचने लगे थे।
ताँर लीला वर्णियाछेन वृन्दावन-दास ।।ग्रेवा अवशिष्ट, आगे करिब प्रकाश ॥
४७॥
श्रील वृन्दावन दास ठाकुर ने चैतन्य भागवत में हरिदास ठाकुर की लीलाओं का विशद वर्णन किया है। जो कुछ शेष रह गया है, उसे मैं इसी पुस्तक में आगे बतलाने का प्रयास करूंगा।
ताँर उपशाखा--प्रेत कुलीन-ग्रामी जन ।।सत्यराज-आदि ताँर कृपार भाजन ॥
४८ ॥
श्री हरिदास ठाकुर की एक उपशाखा में कुलीन ग्राम के निवासी थे। इनमें से सत्यराज खान या सत्यराज वसु सर्वाधिक प्रसिद्ध थे, जिन्हें हरिदास ठाकुर की पूरी पूरी कृपा प्राप्त थी।
श्री-मुरारि गुप्त शाखा प्रेमेर भाण्डार ।प्रभुर हृदय द्रवे शुनि' दैन्य ग्राँर ॥
४९॥
श्री चैतन्य वृक्ष की इक्कीसवीं शाखा, मुरारि गुप्त, भगवत्प्रेम के भंडार थे। उनकी अत्यधिक दीनता तथा विनयशीलता से महाप्रभु का हृदय द्रवित हो उठता था।
प्रतिग्रह नाहि करे, ना लय कार धन ।।आत्म-वृत्ति करि' करे कुटुम्ब भरण ॥
५०॥
श्रील मुरारि गुप्त ने न तो कभी अपने मित्रों से कोई दान लिया, न ही किसी से कोई धन लिया। वे वैद्य का कार्य करके अपने परिवार का भरण-पोषण करते थे।
चिकित्सा करेन ग्नारे हेइया सदय ।। देह-रोग भाव-रोग, दुइ तार क्षये ॥
५१॥
जब मुरारि गुप्त अपने रोगियों का उपचार करते, तो उनकी कृपा से रोगियों के शारीरिक तथा आध्यात्मिक दोनों तरह के रोग कम हो जाते थे।
श्रीमान्सेन प्रभुर सेवक प्रधान । चैतन्य-चरण विनु नाहि जाने आन ॥
५२॥
श्री चैतन्य वृक्ष की बाईसवीं शाखा, श्रीमान सेन, श्री चैतन्य महाप्रभु के अत्यन्त आज्ञाकारी सेवक थे। वे श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों के अतिरिक्त और कुछ नहीं जानते थे।
श्री-गदाधर दास शाखा सर्वोपरि ।। काजी-गणेर मुखे येह बोलाइल हरि ॥
५३॥
तेईसवीं शाखा, श्री गदाधर दास, सर्वोपरि समझे जाते थे, क्योंकि उन्होंने सारे मुसलमान काजियों को हरिनाम कीर्तन करने के लिए प्रेरित किया था।
शिवानन्द सेन----प्रभुर भृत्य अन्तरङ्ग । प्रभु-स्थाने याइते सबे लयेन यॉर सङ्ग ॥
५४॥
वृक्ष की चौबीसवीं शाखा, चैतन्य महाप्रभु के अत्यन्त विश्वासपात्र सेवक शिवानन्द सेन थे। जो कोई महाप्रभु का दर्शन करने जगन्नाथ पुरी जाता, वह श्री शिवानन्द सेन के यहाँ आश्रय और मार्गदर्शन पाता।
प्रतिवर्षे प्रभु-गण सङ्क्ते लाइया ।नीलाचले चलेन पथे पालन करिया ॥
५५॥
। वे प्रतिवर्ष भगवान् चैतन्य का दर्शन करने के लिए भक्तों की टोली को बंगाल से जगन्नाथ पुरी ले जाया करते थे। यात्रा पर जाते समय वे सारी टोली का खर्च वहन किया करते थे।
भक्ते कृपा करेन प्रभु ए-तिन स्वरूपे ।‘साक्षात्,' 'आवेश' आर 'आविर्भाव'-रूपे ॥
५६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु अपने भक्तों पर तीन रूपों में अहैतुकी कृपा प्रदान करते हैं-अपने प्रत्यक्ष प्राकट्य ( साक्षात् ) द्वारा, किसी शक्ति प्रदत्त व्यक्ति के भीतर अपने पराक्रम (आवेश) द्वारा तथा अपने आविर्भाव द्वारा।
‘साक्षाते' सकल भक्त देखे निर्विशेष । नकुल ब्रह्मचारि-देहे प्रभुर' आवेश' ॥
५७॥
प्रत्येक भक्त की उपस्थिति में श्री चैतन्य महाप्रभु का प्रकट होना साक्षात् कहलाता है। नकुल ब्रह्मचारी में विशेष शक्ति के लक्षण रूप में उनका प्राकट्य, आवेश का उदाहरण है।
‘प्रद्युम्न ब्रह्मचारी' ताँर आगे नाम छिल ।। ‘नृसिंहानन्द' नाम प्रभु पाछे त' राखिल ॥
५८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने प्रद्युम्न ब्रह्मचारी का नाम बदलकर नृसिंहानन्द बह्मचारी रख दिया।
ताँहाते हइल चैतन्येर आविर्भाव' ।।अलौकिक ऐछे प्रभुर अनेक स्वभाव ॥
५९॥
उसके शरीर में आविर्भाव के लक्षण थे। ऐसा प्राकट्य अलौकिक होता है, किन्तु श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने विभिन्न स्वरूपों से ऐसी अनेक लीलाएँ प्रदर्शित कीं।
आस्वादिल ए सब रस सेन शिवानन्द । विस्तारि' कहिब आगे एसब आनन्द ॥
६० ॥
श्रील शिवानन्द सेन को साक्षात्, आवेश तथा आविर्भाव तीनों लक्षणों का अनुभव था। इस दिव्य आनन्दपूर्ण विषय का विस्तृत वर्णन मैं बाद में स्पष्ट रूप से करूंगा।
शिवानन्देर उपशाखा, ताँर परिकर ।पुत्र-भृत्यादि करि' चैतन्य-किङ्कर ॥
६१॥
शिवानन्द सेन के पुत्र, नौकर तथा परिवार के सदस्य एक उपशाखा हैं। ये सभी श्री चैतन्य महाप्रभु के निष्ठावान सेवक थे।
चैतन्य-दास, रामदास, आर कर्णपूर ।।तिन पुत्र शिवानन्देर प्रभुर भक्त-शूर ॥
६२ । शिवानन्द सेन के तीनों पुत्र-चैतन्य दास, राम दास तथा कर्णपूरश्री चैतन्य महाप्रभु के शूरवीर भक्त थे।
श्री-वल्लभसेन, आर सेन श्रीकान्त ।शिवानन्द-सम्बन्धे प्रभुर भक्त एकान्त ॥
६३॥
श्रीवल्लभ सेन तथा श्रीकान्त सेन भी शिवानन्द सेन की उपशाखाएँ थे, क्योंकि ये न केवल उनके भांजे थे, अपितु श्री चैतन्य महाप्रभु के अनन्य भक्त भी थे।
प्रभु-प्रिय गोविन्दानन्द महाभागवत ।।प्रभुर कीर्तनीया आदि श्री गोविन्द दत्त ॥
६४॥
वृक्ष की पच्चीसवीं और छब्बीसवीं शाखाएँ, गोविन्दानन्द तथा गोविन्द दत्त, श्री चैतन्य महाप्रभु के संग कीर्तन किया करते थे। गोविन्द दत्त चैतन्य महाप्रभु की टोली के प्रधान गायक थे।
श्री-विजय-दास-नाम प्रभुर आखरिया ।।प्रभुरे अनेक पुँथि दियाछे लिखिया ॥
६५॥
सत्ताइसवीं शाखा, श्री विजय दास, महाप्रभु के अन्य प्रमुख गायक थे, जिन्होंने महाप्रभु को अनेक हस्तलिखित पुस्तकें भेंट कीं।
‘रत्नबाहु' बलि' प्रभु थुइल ताँर नाम ।अकिञ्चन प्रभुर प्रिय कृष्णदास-नाम ॥
६६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने विजयदास का नाम रत्नबाहु रख दिया, क्योंकि उन्होंने महाप्रभु के लिए अनेक पाण्डुलिपियों की हस्तलिपियाँ उतारी थीं। अठ्ठाइसवीं शाखा कृष्णदास थे, जो महाप्रभु को अत्यन्त प्रिय थे। उनका नाम अकिंचन कृष्णदास था।
खोला-वेचा श्रीधर प्रभुर प्रिय-दास ।याँहा-सने प्रभु करे नित्य परिहास ॥
६७॥
उन्तीसवीं शाखा श्रीधर थे, जो केले की छाल के व्यापारी थे। वे महाप्रभु के अत्यन्त प्रिय सेवक थे। कई बार महाप्रभु ने उनके साथ परिहास किया था।
प्रभु याँर नित्य लय थोड़-मोचा-फल । याँर फुटा-लौहपात्रे प्रभु पिला जल ॥
६८ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु रोज मजाक में श्रीधर से फल, फूल तथा गूदा छीन लिया करते थे और उनके टूटे हुए लोहे के पात्र से जल पीते थे।
प्रभुर अतिप्रिय दास भगवान्पण्डित ।। याँर देहे कृष्ण पूर्वे हैला अधिष्ठित ॥
६९॥
तीसवीं शाखा भगवान् पण्डित थे। वे महाप्रभु के अत्यन्त प्रिय सेवक थे, किन्तु पूर्वजन्म में भी वे भगवान् कृष्ण के महान् भक्त थे और भगवान् को सदैव अपने हृदय में रखते थे।
जगदीश पण्डित, आर हिरण्य महाशय ।।यारे कृपा कैल बाल्ये प्रभु दयामय ॥
७० ॥
इकतीसवीं शाखा जगदीश पण्डित थे और बत्तीसवीं शाखा हिरण्य महाशय थे, जिन पर महाप्रभु ने अपने बाल्यकाल में अहैतुकी कृपा प्रदर्शित की थी।
एइ दुइ-घरे प्रभु एकादशी दिने ।विष्णुर नैवेद्य मागि' खाइल आपने ॥
७१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने एकादशी के दिन इन दोनों के घरों से भोजन की भिक्षा माँगी और स्वयं इसे खाया।
प्रभुर पडूया दुइ, पुरुषोत्तम, सञ्जय ।। व्याकरणे दुइ शिष्य दुइ महाशय ॥
७२॥
तैतीसवीं तथा चौतीसवीं शाखाएँ पुरुषोत्तम तथा संजय नामक चैतन्य महाप्रभु के दो शिष्य थे, जो व्याकरण में सिद्धहस्त थे। वे महापुरुष थे।
वनमाली पण्डित शाखा विख्यात जगते । सोणार मुषल हल देखिल प्रभुर हाते ॥
७३॥
वृक्ष की पैंतीसवीं शाखा वनमाली पण्डित थे, जो इस जगत् में अत्यन्त विख्यात थे। उन्होंने महाप्रभु के हाथ में सोने की गदा (मूसल ) तथा हल देखा।
श्री-चैतन्येर अति प्रिय बुद्धिमन्त खान् ।। आजन्म आज्ञाकारी तेहो सेवक-प्रधान ॥
७४॥
छत्तीसवीं शाखा बुद्धिमन्त खान थे, जो श्री चैतन्य महाप्रभु को अत्यन्त प्रिय थे। वे महाप्रभु की आज्ञा का पालन करने के लिए सदैव प्रस्तुत रहते थे, अतएव वे महाप्रभु के प्रधान सेवक माने जाते थे।
गरुड़ पण्डित लय श्रीनाम-मङ्गल ।।नाम-बले विष याँरै ना करिल बल ॥
७५ ॥
वृक्ष की सैंतीसवीं शाखा, गरुड़ पण्डित, सदैव भगवान् का नामकीर्तन करने में व्यस्त रहते थे। इस कीर्तन के बल पर उन्हें विष का प्रभाव छु तक नहीं पाता था।
गोपीनाथ सिंह–एक चैतन्येर दास ।।अक्रूर बलि' प्रभु याँरै कैला परिहास ॥
७६ ॥
वृक्ष की अड़तीसवीं शाखा, गोपीनाथ सिंह, श्री चैतन्य महाप्रभु के निष्ठावान दास थे। महाप्रभु मजाक में उन्हें अक्रूर कहकर पुकारते थे।
भागवती देवानन्द वक्रेश्वर-कृपाते ।। भागवतेर भक्ति-अर्थ पाइल प्रभु हैते ॥
७७॥
देवानन्द पण्डित श्रीमद्भागवत के पेशेवर वाचक थे, किन्तु वक्रेश्वर पण्डित तथा महाप्रभु की कृपा से वे भागवत की भक्तिमयी व्याख्या समझ पाये।
खण्डवासी मुकुन्द-दास, श्री-रघुनन्दन ।। नरहरि-दास, चिरञ्जीव, सुलोचन ॥
७८ ॥
एइ सब महाशाखा चैतन्य-कृपाधाम ।प्रेम-फल-फुल करे ग्राहाँ ताहाँ दान ॥
७९ ॥
श्रीखण्डवासी मुकुन्द तथा उनके पुत्र श्री रघुनन्दन उस वृक्ष की उन्तालीसवीं शाखा थे, नरहरि चालीसवीं, चिरंजीव एकतालीसवीं और सुलोचन बयालीसवीं शाखा थे। ये सभी श्री चैतन्य महाप्रभु-रूपी कृपाधाम-वृक्ष की बड़ी-बड़ी शाखाएँ थे। इन्होंने भगवत्प्रेम रूपी फलों, फूलों को सर्वत्र वितरित किया।
कुलीनग्राम-वासी सत्यराज, रामानन्द ।।यदुनाथ, पुरुषोत्तम, शङ्कर, विद्यानन्द ॥
८० ॥
सत्यराज, रामानन्द, यदुनाथ, पुरुषोत्तम, शंकर, तथा विद्यानन्द ये सभी बीसवीं शाखा से सम्बन्धित थे। वे कुलीन ग्राम के निवासी थे।
वाणीनाथ वसु आदि व्रत ग्रामी जन ।।सबेइ चैतन्य-भृत्य,—चैतन्य-प्राणधन ॥
८१॥
वाणीनाथ वसु की अगुवाई में कुलीन ग्राम के सारे निवासी चैतन्य महाप्रभु के सेवक थे और चैतन्य महाप्रभु ही उनके एकमात्र प्राण तथा धन थे।
प्रभु कहे, कुलीनग्रामेर ग्रे हय कुकुर ।।सेइ मोर प्रिय, अन्य जन रहु दूर ॥
८२॥
महाप्रभु ने कहा, औरों की बात जाने दें, कुलीन ग्राम का कुत्ता भी मेरा प्रिय मित्र है।
कुलीनग्रामीर भाग्य कहने ना ग्राय ।।शूकर चराय डोम, सेह कृष्ण गाय ॥
८३॥
कुलीन ग्राम के सौभाग्य के विषय में कोई कुछ वर्णन नहीं कर सकता। वह इतना दिव्य है कि झाडू देने वाले भी सुअर चराते समय हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करते हैं।
अनुपम-वल्लभ, श्री-रूप, सनातन ।एइ तिन शाखा वृक्षेर पश्चिमे सर्वोत्तम ॥
८४॥
वृक्ष के पश्चिम की ओर की तैंतालीसवीं, चवालीसवीं तथा पैंतालीसवीं शाखाएँ श्री सनातन, श्री रूप तथा अनुपम थे। ये सबमें श्रेष्ठ थे।
ताँर मध्ये रूप-सनातने बड़ शाखा । अनुपम, जीव, राजेन्द्रादि उपशाखा ॥
८५ ॥
इन शाखाओं में रूप तथा सनातन प्रमुख थे। अनुपम, जीव गोस्वामी तथा राजेन्द्र आदि उनकी उपशाखाएँ थे।
मालीर इच्छाय शाखा बहुत बाड़िल ।बाड़िया पश्चिम देश सब आच्छादिल ॥
८६॥
महान् माली की इच्छा से, श्रील रूप गोस्वामी तथा सनातन गोस्वामी की शाखाएँ कई गुना बढ़कर समूचे पश्चिमी देशों में फैल गईं और उन्होंने सारे प्रदेश को आच्छादित कर दिया।
आ-सिन्धुनदी-तीर आर हिमालय ।।वृन्दावन-मथुरादि व्रत तीर्थ हय ॥
८७॥
ये दो शाखाएँ सिन्धु नदी तथा हिमालय पर्वत की घाटियों की सीमाओं तक बढ़कर सारे भारत में फैल गईं, जिसमें वृन्दावन, मथुरा तथा हरिद्वार जैसे सारे तीर्थस्थल सम्मिलित हैं।
दुइ शाखार प्रेम-फले सकल भासिल ।प्रेम-फलास्वादे लोक उन्मत्त हइल ।। ८८॥
। इन दोनों शाखाओं में जो भगवत्प्रेम रूपी फल लगे, वे बड़ी संख्या में वितरित किये गये। इन फलों को चखकर हर व्यक्ति उनके लिए उन्मत्त हो उठा।
पश्चिमेर लोक सब मूढ़ अनाचार ।ताहाँ प्रचारिल दोहे भक्ति-सदाचार ॥
८९॥
भारत की पश्चिमी भाग के लोग न तो बुद्धिमान थे न शिष्ट, किन्तु श्रील रूप गोस्वामी तथा सनातन गोस्वामी के प्रभाव से वे भक्ति तथा सदाचार में प्रशिक्षित हो सके।
शास्त्र-दृष्ट्ये कैल लुप्त-तीर्थेर उद्धार । वृन्दावने कैल श्रीमूर्ति-सेवार प्रचार ॥
९०॥
प्रामाणिक शास्त्रों के निर्देशों के अनुसार दोनों गोस्वामियों ने लुप्त । तीर्थस्थलों का पुनरुद्धार किया और वृन्दावन में अर्चाविग्रहों की पूजा का सूत्रपात किया।
महाप्रभुर प्रिय भृत्य रघुनाथ-दास ।।सर्व त्यजि' कैल प्रभुर पद-तले वास ॥
९१॥
छियालिसवीं शाखा श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी थे, जो श्री चैतन्य महाप्रभु के अत्यन्त प्रिय सेवक थे। उन्होंने महाप्रभु के पूर्ण शरणागत होने और उनके चरणों में निवास करने के लिए अपनी सारी भौतिक संपत्ति का परित्याग कर दिया।
प्रभु समर्पिल ताँरे स्वरूपेर हाते ।प्रभुर गुप्त-सेवा कैल स्वरूपेर साथे ॥
९२ ॥
जब रघुनाथ दास गोस्वामी जगन्नाथ पुरी में श्री चैतन्य महाप्रभु के पास पहुँचे, तो महाप्रभु ने उन्हें अपने सचिव स्वरूप दामोदर के हाथों सौंप दिया। इस तरह वे दोनों मिलकर महाप्रभु की गुह्य सेवा करने लगे।
षोड़श वत्सर कैल अन्तरङ्ग-सेवन । स्वरूपेर अन्तर्धाने आइला वृन्दावन ॥
९३॥
उन्होंने जगन्नाथ पुरी में रहकर सोलह वर्षों तक महाप्रभु की गुह्य सेवा की और महाप्रभु तथा स्वरूप दामोदर दोनों के तिरोधान के बाद वे जगन्नाथ पुरी छोड़कर वृन्दावन चले गये।
वृन्दावने दुइ भाइर चरण देखियो ।गोवर्धने त्यजिब देह भृगुपात करिया ॥
१४॥
श्री रघुनाथ दास गोस्वामी की इच्छा हुई कि वे वृन्दावन जाकर रूप तथा सनातन के चरणकमलों का दर्शन करें और फिर गोवर्धन पर्वत से कूदकर अपना प्राण त्याग दें।
एइ त निश्चय करि' आइल वृन्दावने ।आसि' रूप-सनातनेर वन्दिल चरणे ॥
९५॥
इस प्रकार श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी वृन्दावन आये और श्रील रूप गोस्वामी तथा सनातन गोस्वामी से मिले तथा उन्हें प्रणाम किया।
तबे दुइ भाइ ताँरै मरिते ना दिल ।निज तृतीय भाइ करि' निकटे राखिल ॥
९६ ॥
किन्तु इन दोनों भाइयों ने उन्हें मरने की अनुमति नहीं दी। इन्होंने उन्हें अपने तीसरे भाई के रूप में स्वीकार करके अपने साथ रख लिया।
महाप्रभुर लीला ग्रत बाहिर-अन्तर ।।दुइ भाइ ताँर मुखे शुने निरन्तर ॥
९७॥
चूंकि रघुनाथ दास गोस्वामी स्वरूप दामोदर के सहायक थे, अतएव वे महाप्रभु की लीलाओं के बाहरी तथा भीतरी तथ्यों से बहुत कुछ परिचित थे। इस तरह रूप तथा सनातन दोनों भाई उनसे इनके विषय में सुना करते थे।
अन्न-जल त्याग कैल अन्य-कथन ।पल दुइ-तिन माठा करेन भक्षण ॥
९८॥
। रघुनाथ दास गोस्वामी ने धीरे-धीरे अन्न खाना त्याग दिया और वे मड़े की कुछ बूंदे पीने लगे।
सहस्र दण्डवत्करे, लय लक्ष नाम ।दुइ सहस्र वैष्णवेरे नित्य परणाम ॥
१९॥
वे नित्यप्रति भगवान् को हजार बार नमस्कार करते, भगवान् के एक लाख नाम जपते और दो हजार वैष्णवों को प्रणाम करते।
रात्रि-दिने राधा-कृष्णेर मानस सेवन । प्रहरेक महाप्रभुर चरित्र-कथने ॥
१०० ॥
वे अपने मन में दिन-रात राधा-कृष्ण की सेवा करते और तीन घण्टे प्रतिदिन श्री चैतन्य महाप्रभु के चरित्र के विषय में चर्चा करते।
तिन सन्ध्या राधा-कुण्डे अपतित स्नान ।। व्रज-वासी वैष्णवे करे आलिङ्गन मान ॥
१०१॥
श्री रघुनाथ दास गोस्वामी नित्य राधाकुण्ड में तीन बार स्नान करते थे। ज्योंही उन्हें वृन्दावन में रहने वाला कोई वैष्णव मिलता, वे उसका आलिंगन करते और उसका आदर करते थे।
सार्ध सप्त-प्रहर करे भक्तिर साधने ।चारि दण्ड निद्रा, सेह नहे कोन-दिने ॥
१०२॥
वे दिन के साढ़े बाइस घण्टे से अधिक भक्ति में बिताते और मुश्किल से दो घंटे से कम सोते। किसी-किसी दिन तो यह भी सम्भव नहीं हो पाता था।
ताँहार साधन-रीति शुनिते चमत्कार ।।सेइ रूप-रघुनाथ प्रभु ने आमार ॥
१०३॥
जब मैं उनके द्वारा सम्पन्न भक्ति के विषय में सुनता हूँ, तो आश्चर्यचकित रह जाता हूँ। मैं श्रील रूप गोस्वामी तथा रघुनाथ दास गोस्वामी को अपने मार्गदर्शक स्वीकार करता हूँ।
इँहा-सबार भैछे हैल प्रभुर मिलन ।आगे विस्तारिया ताहा करिब वर्णन ॥
१०४॥
मैं इसका आगे विस्तृत वर्णन करूँगा कि ये सारे भक्त श्री चैतन्य महाप्रभु से किस तरह मिले।
श्री-गोपाल भट्ट एक शाखा सर्वोत्तम ।।रूप-सनातन-सङ्गे ग्राँर प्रेम-आलापन ॥
१०५॥
श्री गोपाल भट्ट गोस्वामी उस वृक्ष की सैंतालीसवीं महान् एवं श्रेष्ठ शाखा थे। वे रूप गोस्वामी तथा सनातन गोस्वामी के साथ सदैव भगवत्प्रेम विषयक वार्ता में व्यस्त रहते थे।
शङ्करारण्य आचार्य-वृक्षेर एक शाखा । मुकुन्द, काशीनाथ, रुद्र–उपशाखा लेखा ॥
१०६॥
आचार्य शंकरारण्य मूल वृक्ष की अड़तालीसवीं शाखा माने गये हैं। उनसे मुकुन्द, काशीनाथ तथा रुद्र नामक उपशाखाएँ फूटीं।
श्रीनाथ पण्डित–प्रभुर कृपार भाजन । ग्राँर कृष्ण-सेवा देखि' वश त्रि-भुवने ॥
१०७॥
उञ्चासवीं शाखा, श्रीनाथ पण्डित श्री चैतन्य महाप्रभु के अत्यन्त कृपापात्र थे। तीनों लोक के सारे निवासी यह देखकर चकित थे कि वे भगवान् कृष्ण की किस तरह सेवा करते हैं।
जगन्नाथ आचार्य प्रभुर प्रिय दास ।।प्रभुर आज्ञाते तेंहो कैल गङ्गा-वास ॥
१०८॥
चैतन्य-वृक्ष की पचासवीं शाखा, जगन्नाथ आचार्य, महाप्रभु के अत्यन्त प्रिय दास थे और महाप्रभु की आज्ञा से उन्होंने गंगा नदी के तट पर रहने का निश्चय किया।
कृष्णदास वैद्य, आर पण्डित-शेखर ।कविचन्द्र, आर कीर्तनीया षष्ठीवर ॥
१०९॥
चैतन्य-वृक्ष की इक्कावनवीं शाखा कृष्णदास वैद्य, बावनवीं शाखा पण्डित शेखर, तिरपनवीं शाखा कविचन्द्र थे, और चौवनवीं शाखा षष्ठीवर हुए, जो बहुत बड़े संकीर्तनिया थे।
श्रीनाथ मिश्र, शुभानन्द, श्रीराम, ईशान ।।श्रीनिधि, श्रीगोपीकान्त, मिश्र भगवान् ॥
११०॥
श्रीनाथ मिश्र पचपनवीं शाखा थे, शुभानन्द छप्पनवीं, श्रीराम सत्तावनवीं, ईशान अठ्ठावनवीं, श्रीनिधि उनसठवीं, श्री गोपीकान्त साठवीं तथा मिश्र भगवान इकसठवीं शाखा थे।
पुरुषोत्तम, श्री-गालीम, जगन्नाथ-दास ।। श्री चन्द्रशेखर वैद्य, द्विज हरिदास ॥
११२॥
। मूल वृक्ष की अड़सठवीं शाखा श्री पुरुषोत्तम थे, श्रीगालीम उनहत्तरवीं, जगन्नाथ दास सत्तरवीं, श्री चन्दरशेखर वैद्य इकहत्तरवीं और जि हरिदास बहत्तरवीं शाखा थे।
सुबुद्धि मिश्र, हृदयानन्द, कमल-नयन । महेश पण्डित, श्रीकर, श्री-मधुसूदन ॥
१११॥
सुबुद्धि मिश्र बासठवीं शाखा थे, हृदयानन्द तिरसठवीं, कमलनयन चौसठवीं, महेश पण्डित पैंसठवीं, श्रीकर छियासठवीं तथा श्री मधुसूदन सतसठवीं शाखा थे।
रामदास, कविचन्द्र, श्री-गोपालदास ।।भागवताचार्य, ठाकुर सारङ्गदास ॥
११३॥
। मृल वृक्ष की तिहत्तरवीं शाखा राम दास थे, चौहत्तरवीं शाखा विधन्द्र, पचहत्तरवीं शाखा श्री गोपाल दास, छिहत्तरवीं शाखा भागवताचार्य और सतहत्तरवीं शाखा ठाकुर सारंग दास थे।
जगन्नाथ तीर्थ, विप्र श्री-जानकीनाथ । गोपाल आचार्य, आर विप्र वाणीनाथ ।। ११४॥
मूल वृक्ष की अठहत्तरवीं शाखा जगन्नाथ तीर्थ थे, उन्यासीवीं शाखा जानकीनाथ ब्राह्मण, अस्सीवीं शाखा गोपाल आचार्य तथा इक्यासीवीं शाखा वाणीनाथ ब्राह्मण थे।
गोविन्द, माधव, वासुदेव तिन भाई ।।याँ-सबार कीर्तने नाचे चैतन्य-निताई ॥
११५ ॥
गोविन्द, माधव तथा वासुदेव नामक तीनों भाई वृक्ष की बयासीवीं, तिरासीवी और चौरासीवीं शाखाएँ थे। श्री चैतन्य महाप्रभु तथा नित्यानन्द प्रभु इनके कीर्तन में नृत्य करते थे।
रामदास अभिराम सख्य-प्रेमराशि ।। षोलसाङ्गेर काष्ठ तुलि' ये करिल वाँशी ॥
११६॥
रामदास अभिराम सदैव सख्य भाव में मग्न रहते थे। उन्होंने १६ गाँठ वाले बाँस की बाँसुरी बनाई थी।
प्रभुर आज्ञाय नित्यानन्द गौड़े चलिला ।ताँर सङ्गे तिन-जन प्रभु-आज्ञाय आइली ॥
११७॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की आज्ञा से जब नित्यानन्द प्रभु प्रचार हेतु बंगाल वापस गये, तब उनके साथ-साथ तीन भक्त भी गये।
रामदास, माधव, आर वासुदेव घोष ।।प्रभु-सङ्गे रहे गोविन्द पाइया सन्तोष ॥
११८॥
ये तीनों भक्त थे रामदास, माधव घोष तथा वासुदेव घोष। किन्तु गोविन्द घोष श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ जगन्नाथ पुरी में रह गये। इस तरह उन्हें परम सन्तोष हुआ।
भागवताचार्य, चिरञ्जीव श्री-रघुनन्दन ।माधवाचार्य, कमलाकान्त, श्री-यदुनन्दन ॥
११९॥
भागवताचार्य, चिरंजीव, श्री रघुनन्दन, माधवाचार्य, कमलाकान्त तथा श्री यदुनन्दन-ये सभी चैतन्य-वृक्ष की शाखाओं में से थे।
महा-कृपा-पात्र प्रभुर जगाइ, माधाइ ।‘पतित-पावन' नामेर साक्षी दुई भाइ ।। १२० ॥
वृक्ष की नवासीवीं तथा नब्बेवीं शाखाएँ, जगाइ तथा माधाइ, श्री चैतन्य महाप्रभु के सर्वाधिक कृपापात्र थे। ये दोनों भाई इसके साक्षी थे, जिन्होंने यह प्रमाणित किया कि महाप्रभु का पतितपावन, पतितों के उद्धारकर्ता नाम सार्थक है।
गौड़-देश-भक्तेर कैल संक्षेप कथन । अनन्त चैतन्य-भक्त ना याय गणन ॥
१२१॥
मैंने महाप्रभु के बंगाल के भक्तों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया है। वास्तव में उनके भक्तों की संख्या अनगिनत है।
नीलाचले एइ सब भक्त प्रभु-सङ्गे।।दुइ स्थाने प्रभु-सेवा कैल नाना-रङ्गे ॥
१२२॥
मैंने इन सारे भक्तों का विशेष रूप से वर्णन इसीलिए किया है, क्योंकि वे महाप्रभु के साथ-साथ बंगाल तथा उड़ीसा में रहे और उन्होंने अनेक प्रकार से उनकी सेवाएँ कीं।।
केवल नीलाचले प्रभुर ग्रे ये भक्त-गण ।सङ्क्षेपे करिये किछु से सब कथन ॥
१२३॥
अब मैं श्री चैतन्य महाप्रभु के जगन्नाथ पुरी के कुछ भक्तों का संक्षेप में वर्णन करूंगा।
नीलाचले प्रभु-सङ्गे ग्रत भक्त-गण ।। सबार अध्यक्ष प्रभुर मर्म दुइ-जने ॥
१२४॥
परमानन्द-पुरी, आर स्वरूप-दामोदर ।। गदाधर, जगदानन्द, शङ्कर, वक्रेश्वर ॥
१२५॥
दामोदर पण्डित, ठाकुर हरिदास ।।रघुनाथ वैद्य, आर रघुनाथ-दास ॥
१२६॥
। महाप्रभु के साथ-साथ जो भक्तगण जगन्नाथ पुरी में रहे, उनमें से दो-परमानन्द पुरी तथा स्वरूप दामोदर-महाप्रभु के हृदय और प्राण समान थे। अन्य भक्तों में गदाधर, जगदानन्द, शंकर, वक्रेश्वर, दामोदर पण्डित, ठाकुर हरिदास, रघुनाथ वैद्य तथा रघुनाथ दास उल्लेखनीय हैं।
इत्यादिक पूर्व-सङ्गी बड़ भक्तगण ।नीलाचले रहि' करे प्रभुर सेवन ॥
१२७॥
ये सारे भक्त प्रारम्भ से ही महाप्रभु के पार्षद थे और जब चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी में रहने लगे, तो वे निष्ठापूर्वक उनकी सेवा करने के लिए वहीं रह गये।
आर व्रत भक्त-गण गौड़-देश-वासी ।प्रत्यब्दे प्रभुरे देखे नीलाचले आसि' ॥
१२८॥
बंगाल में रहने वाले सारे भक्त महाप्रभु का दर्शन करने प्रति वर्ष जगन्नाथ पुरी आया करते थे।
नीलाचले प्रभु-सह प्रथम मिलन । सेई भक्त-गणेर एबे करिये गणन ॥
१२९॥
अब मैं बंगाल के उन भक्तों के नाम गिनाऊँगा, जो सबसे पहले महाप्रभु से मिलने जगन्नाथ पुरी आये।
बड़-शाखा एक, सार्वभौम भट्टाचार्य ।। ताँर भग्नी–पति श्री-गोपीनाथाचा ॥
१३०॥
। महाप्रभु-रूपी वृक्ष की सबसे बड़ी शाखाओं में से एक थे सार्वभौम चार्य और उनके बहनोई श्री गोपीनाथाचार्य।
काशी-मिश्र, प्रद्युम्न-मिश्र, राय भवानन्द ।याँहार मिलने प्रभु पाइला आनन्द ॥
१३१॥
जगन्नाथ पुरी के भक्तों की सूची में (जो परमानन्द पुरी, स्वरूप दामोदर, सार्वभौम भट्टाचार्य तथा गोपीनाथ आचार्य से प्रारम्भ होती है) काशी मिश्र, प्रद्युम्न मिश्र, तथा भवानन्द राय के नाम पाँचवें, छठे तथा सातवें स्थान पर थे। भगवान् चैतन्य को इनसे मिलकर अति आनन्द होता था।
आलिङ्गन करि' ताँरै बलिल वचन ।।तुमि पाण्डु, पञ्च-पाण्डव- तोमार नन्दन ॥
१३२॥
। महाप्रभु ने भवानन्द राय का आलिंगन करते हुए बतलाया, तुम पहले पाण्डु रूप में और तुम्हारे पाँचों पुत्र पाँचों पाण्डवों के रूप में प्रकट हुए थे।
रामानन्द राय, पट्टनायक गोपीनाथ ।कलानिधि, सुधानिधि, नायक वाणीनाथ ॥
१३३॥
भवानन्द राय के पाँच पुत्र थे-रामानन्द राय, पट्टनायक गोपीनाथ, कलानिधि, सुधानिधि और नायक वाणीनाथ।
एइ पञ्च पुत्र तोमार मोर प्रियपात्र ।। रामानन्द सह मोर देह-भेद मात्र ॥
१३४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने भवानन्द राय से कहा, तुम्हारे पाँचों पुत्र मेरे प्रिय भक्त हैं। रामानन्द राय और हम दोनों एक हैं, भले ही हमारे शरीर - अलग हैं।
प्रतापरुद्र राजा, आर ओढू कृष्णानन्द । परमानन्द महापात्र, ओढू शिवानन्द ॥
१३५ ।। भगवानाचार्य, ब्रह्मानन्दाख्य भारती ।। श्री-शिखि माहिति, आर मुरारि माहिति ॥
१३६।। जब चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी में रह रहे थे, तब उड़ीसा के राजा प्रतापरुद्र, उड़िया-भक्त कृष्णानन्द तथा शिवानन्द, परमानन्द महापात्र, भगवान् आचार्य, ब्रह्मानन्द भारती, श्री शिखि माहिति तथा मुरारि माहिति निरन्तर उनका साथ देते थे।
माधवी-देवी–शिखि-माहितिर भगिनी ।।श्री-राधार दासी-मध्ये ग्राँर नाम गणि ॥
१३७॥
माधवीदेवी प्रमुख भक्तों में सत्रहवीं थीं और शिखि माहिति की छोटी बहन थीं। उन्हें पूर्व जन्म में श्रीमती राधारानी की दासी के रूप में माना जाता है।
ईश्वर-पुरीर शिष्य–ब्रह्मचारी कोशीश्वर ।।श्री गोविन्द नाम ताँर प्रिय अनुचर ॥
१३८॥
ब्रह्मचारी काशीश्वर ईश्वर पुरी के शिष्य थे और उनके ही प्रिय शिष्यों में से दूसरे श्री गोविन्द थे।
ताँर सिद्धि-काले दोहे ताँर आज्ञा पाळा ।। नीलाचले प्रभु-स्थाने मिलिल आसिया ॥
१३९ ॥
। नीलाचल (जगन्नाथ पुरी) के प्रमुख भक्तों की सूची में काशीश्वर अठारहवें तथा गोविन्द उन्नीसवें थे। ईश्वर पुरी के तिरोधान के समय दी गई आज्ञा के अनुसार वे दोनों श्री चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करने जगन्नाथ पुरी आये थे।
गुरुर सम्बन्धे मान्य कैल मुँहाकारे ।ताँर आज्ञा मानि' सेवा दिलेन दोंहारे ॥
१४० ॥
काशीश्वर तथा गोविन्द दोनों श्री चैतन्य महाप्रभु के गुरुभाई थे। अतएव ज्योंही वे दोनों वहाँ पहुँचे, तो महाप्रभु ने उनका यथोचित सत्कार किया। चूंकि ईश्वर पुरी ने उन्हें आदेश दिया था कि वे चैतन्य महाप्रभु की निजी सेवा करें, अतएव महाप्रभु ने उनकी सेवा स्वीकार कर ली।
अङ्ग-सेवा गोविन्देरे दिलेन ईश्वर ।।जगन्नाथ देखिते चलेन आगे काशीश्वर ॥
१४१॥
गोविन्द श्री चैतन्य महाप्रभु के शरीर की देखभाल करते और जब महाप्रभु मन्दिर में जगन्नाथजी का दर्शन करने जाते, तो काशीश्वर महाप्रभु के आगे-आगे चलते थे।
अपरश ग्राय गोसाजि मनुष्य-गहने ।मनुष्य ठेलि' पथ करे काशी बलवाने ॥
१४२॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ मन्दिर जाते, तो काशीश्वर अत्यन्त बलिष्ठ होने के कारण अपने हाथों से भीड़ को एक ओर करते, जिससे महाप्रभु किसी को स्पर्श किये बिना जा सकें।
रामाइ-नन्दाई–दोंहे प्रभुर किङ्कर ।।गोविन्देर सङ्गे सेवा करे निरन्तर ॥
१४३॥
रामाइ तथा नन्दाइ जगन्नाथ पुरी के महत्त्वपूर्ण भक्तों में बीसवें तथा इक्कीसवें थे। महाप्रभु की सेवा करने में गोविन्द की वे चौबीसों घण्टे सहायता करते थे।
बाइश घड़ा जल दिने भरेन रामाइ ।गोविन्द-आज्ञाय सेवा करेन नन्दाइ ॥
१४४॥
रामाइ प्रतिदिन बाईस बड़े जल पात्रों में पानी भरते थे और नन्दाई स्वयं गोविन्द की सहायता करते थे।
कृष्णदास नाम शुद्ध कुलीन ब्राह्मण ।।ग्रारे सङ्गे लैया कैला दक्षिण गमन ॥
१४५ ॥
बाईसवें भक्त कृष्णदास एक विशुद्ध तथा प्रतिष्ठित ब्राह्मण-कुल में उत्पन्न हुए थे। जब महाप्रभु दक्षिण भारत की यात्रा कर रहे थे, तो उन्होंने कृष्णदास को अपने साथ ले लिया था।
बलभद्र भट्टाचार्य–भक्ति अधिकारी ।। मथुरा-गमने प्रभुर ग्रॅहो ब्रह्मचारी ॥
१४६॥
बलभद्र भट्टाचार्य तेईसवें प्रमुख पार्षद थे, जो प्रामाणिक भक्त थे। और जिन्होंने महाप्रभु की मथुरा की यात्रा के समय उनके ब्रह्मचारी का कार्य किया था।
बड़ हरिदास, आर छोट हरिदास । दुइ कीर्तनीया रहे महाप्रभुर पाश ॥
१४७॥
नीलाचल में चौबीसवें और पचीसवें भक्त, बड़ हरिदास तथा छोट हरिदास, अच्छे गायक थे, जो सदैव महाप्रभु के साथ रहते थे।
रामभद्राचार्य, आर ओढू सिंहेश्वर ।। तपन आचार्य, आर रघु, नीलाम्बर ॥
१४८॥
जगन्नाथ पुरी में चैतन्य महाप्रभु के साथ रहने वाले भक्तों में रामभद्राचार्य छब्बीसवें, उड़िया सिंहेश्वर सत्ताइसवें, तपन आचार्य अठ्ठाइसवें, रघुनाथ भट्टाचार्य उन्तीसवें तथा नीलाम्बर तीसवें भक्त थे।
सिङ्गाभट्ट, कामाभट्ट, दन्तुर शिवानन्द ।। गौड़े पूर्व भृत्य प्रभुर प्रिय कमलानन्द ॥
१४९॥
सिंगाभट्ट, कामाभट्ट, शिवानन्द तथा कमलानन्द क्रमशः इकतीसवें बत्तीसवें, तैंतीसवें और चौंतीसवें भक्त थे। ये सभी पहले बंगाल में महाप्रभु की सेवा करते थे, किन्तु बाद में बंगाल छोड़कर महाप्रभु के साथ रहने जगन्नाथ पुरी चले गये।
अच्युतानन्द–अद्वैत-आचार्य-तनय । नीलाचले रहे प्रभुर चरण आश्रय ॥
१५० ॥
पैंतीसवें भक्त अच्युतानन्द थे, जो अद्वैत आचार्य के पुत्र थे। वे भी। जगन्नाथ पुरी में महाप्रभु के चरणकमलों की शरण में रहे।
निर्लोम गङ्गादास, आर विष्णुदास । एइ सबेर प्रभु-सङ्गे नीलाचले वास ॥
१५१॥
जगन्नाथ पुरी में श्री चैतन्य महाप्रभु के सेवकों के रूप में रहने वाले भक्तों में निर्लोम गंगादास तथा विष्णुदास छत्तीसवें तथा सैंतीसवें भक्त थे।
वाराणसी-मध्ये प्रभुर भक्त तिन जन ।। चन्द्रशेखर वैद्य, आर मिश्र तपन ॥
१५२॥
रघुनाथ भट्टाचार्य–मिश्रेर नन्दन ।। प्रभु ग्रबे काशी आइला देखि' वृन्दावन ॥
१५३॥
चन्द्रशेखर-गृहे कैल दुइ मास वास ।तपन-मिश्रेर घरे भिक्षा दुइ मास ॥
१५४॥
वाराणसी के प्रमुख भक्तों में वैद्य चन्द्रशेखर, तपन मिश्र तथा तपन मिश्र के पुत्र रघुनाथ भट्टाचार्य थे। जब भगवान् चैतन्य वृन्दावन से होकर वाराणसी आये, तब वे दो मास तक चन्द्रशेखर वैद्य के घर रहे और तपन मिश्र के घर प्रसाद ग्रहण करते रहे।
रघुनाथ बाल्ये कैल प्रभुर सेवन । उच्छिष्ट-मार्जन और पाद-संवाहन ॥
१५५॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु तपन मिश्र के घर ठहरे हुए थे, तब रघुनाथ भट्ट, जो उस समय बालक थे, झूठे बर्तन माँजते थे और उनके पाँव दबाते थे।
बड़ हैले नीलाचले गेला प्रभुर स्थाने । अष्ट-मास रहिल भिक्षा देन कोन दिने ॥
१५६ ॥
जब रघुनाथ बड़े हो गये, तब वे श्री चैतन्य महाप्रभु के दर्शन करने जगन्नाथ पुरी गये और वहाँ आठ मास तक रहे। कभी-कभी वे महाप्रभु को प्रसाद अर्पण करते थे।
प्रभुर आज्ञा पात्रा वृन्दावनेरे आइला । आसिया श्री-रूप-गोसाजिर निकटे रहिला ॥
१५७॥
। बाद में महाप्रभु की आज्ञा से रघुनाथ वृन्दावन चले गये और वहाँ श्रील रूप गोस्वामी की शरण में रहे।
ताँर स्थाने रूप-गोसाजि शुनेन भागवत । प्रभुरे कृपाय तेंहो कृष्ण-प्रेमे मत्त ॥
१५८॥
जब वे श्रील रूप गोस्वामी के साथ ठहरे थे, तो उनका एक ही काम था-श्रीमद्भागवत बाँचकर उन्हें सुनाना। इसके फलस्वरूप उन्हें कृष्णप्रेम की पूर्णता प्राप्त हुई, जिसके कारण वे सदैव उन्मत्त रहा करते थे।
ऐइ-मत सङ्ख्यातीत चैतन्य-भक्त-गण । दिंमात्र लिखि, सम्यक्ना ग्राय कथन ॥
१५९॥
इस तरह मैं महाप्रभु के असंख्य भक्तों के एक अंश की ही सूची दे रहा हूँ। सबका वर्णन कर पाना सम्भव नहीं है।
एकैक-शाखाते लागे कोटि कोटि डाल ।। तार शिष्य-उपशिष्य, तार उपड़ाल ॥
१६०॥
वृक्ष की प्रत्येक शाखा से शिष्यों तथा प्रशिष्यों की करोड़ों उपशाखाएँ निकली हैं।
सकल भरिया आछे प्रेम-फुल-फले ।। भासाइल त्रि-जगत्कृष्ण-प्रेम-जले ॥
१६१॥
वृक्ष की प्रत्येक शाखा तथा उपशाखा अनेक फलों और फूलों से परिपूर्ण है। वे कृष्ण-प्रेम के जल से विश्व को आप्लावित करती हैं।
एक एक शाखार शक्ति अनन्त महिमा । ‘सहस्र वदने' ग्रार दिते नारे सीमा ॥
१६२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के भक्तों की प्रत्येक शाखा की अनन्त आध्यात्मिक शक्ति और अनन्त महिमा है। यदि किसी के हजार मुख भी हों, तो भी उनके कार्यकलापों की सीमाओं का वर्णन कर पाना सम्भव नहीं होगा।
सङ्क्षेपे कहिल महाप्रभुर भक्त-गण । समग्र बलिते नारे 'सहस्र-वदन' ॥
१६३॥
मैंने श्री चैतन्य महाप्रभु के विभिन्न स्थानों के भक्तों का संक्षिप्त वर्णन किया है। हजार मुखों वाले शेष भगवान् भी उन सबकी सूची नहीं बना सकते।
श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश । चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
१६४॥
। श्री रूप और श्री रघुनाथ के चरणकमलों में प्रार्थना करते हुए और सदैव उनकी कृपा की आकांक्षा रखते हुए मैं, कृष्णदास उनके चरणचिह्नों पर चलते हुए श्री चैतन्य-चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।
अध्याय ग्यारह: भगवान नित्यानंद का विस्तार
नित्यानन्द-पदाम्भोज-भृङ्गान्प्रेम-मधून्मदान् । नत्वाखिलान्तेषु मुख्या लिख्यन्ते कतिचिन्मया ॥
१ ॥
मैं श्री नित्यानन्द प्रभु के उन समस्त भक्तों को नमस्कार करता हूँ, जो उनके चरणकमलों के मधु को संचय करने वाले भौरों के समान हैं। नमस्कार करने के बाद उनमें से जो जो अत्यधिक प्रमुख हैं, उनका वर्णन करने का प्रयास करूंगा।
जय जय महाप्रभु श्री-कृष्ण-चैतन्य ।ताँहार चरणाश्रित येइ, सेइ धन्य ॥
२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! जिस किसी ने उनके चरणों की शरण ले ली है, वह धन्य है।
जय जय श्री-अद्वैत, जय नित्यानन्द ।।जय जय महाप्रभुर सर्व-भक्त-वृन्द ॥
३॥
श्री अद्वैत प्रभु, नित्यानन्द प्रभु तथा श्री चैतन्य महाप्रभु के समस्त भक्तों की जय हो! तस्य श्री-कृष्ण-चैतन्य-सत्प्रेमामर-शाखिनः ।ऊर्ध्व-स्कन्धावधूतेन्दोः शाखा-रूपान्गणान्नुमः ॥
४॥
श्री नित्यानन्द प्रभु श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के भगवत्प्रेम रूपी अमरवृक्ष की सबसे ऊपरी शाखा हैं। मैं उस सबसे ऊपरी शाखा की समस्त उपशाखाओं को सादर नमस्कार करता हूँ।
श्री-नित्यानन्द-वृक्षेर स्कन्ध गुरुतर ।। ताहाते जन्मिल शाखा-प्रशाखा विस्तर ॥
५॥
श्री नित्यानन्द प्रभु श्री चैतन्य-वृक्ष की सर्वाधिक भारी शाखा हैं। उस शाखा से अनेक शाखाएँ तथा उपशाखाएँ निकलती हैं।
मालाकारेर इच्छा जले बाड़े शाखा-गण ।प्रेम-फुल-फले भरि' छाइल भुवन ॥
६॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु के इच्छा-जल से सिंचित होकर ये सारी शाखाएँ तथा उपशाखाएँ असीम रूप से बढ़ गई हैं, और अपने फलों और फूलों से उन्होंने समस्त विश्व को आच्छादित कर लिया है।
असङ्ख्य अनन्त गण के करु गणने । आपना शोधिते कहि मुख्य मुख्य जन ॥
७॥
भक्तों की ये शाखाएँ तथा उपशाखाएँ अगणनीय तथा असीम हैं। इनकी गिनती कौन कर सकता है? मैं अपनी निजी शुद्धि के लिए उनमें से जो सर्वाधिक प्रमुख हैं, उन्हीं की गिनती करने का प्रयास करूंगा।
श्री वीरभद्र गोसाजि-स्कन्ध-महाशाखा ।। ताँर उपशाखो यत, असङ्ख्य तार लेखा ॥
८॥
नित्यानन्द प्रभु के बाद सबसे बड़ी शाखा वीरभद्र गोसांई हैं, जिनकी भी अनेक शाखाएँ तथा उपशाखाएँ हैं। उन सबका वर्णन कर पाना सम्भव नहीं है।
ईश्वर हइयो कहाय महा-भागवत ।। वेद-धर्मातीत हा वेद-धर्मे रत ॥
९॥
यद्यपि वीरभद्र गोसांई पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् थे, किन्तु उन्होंने अपने आपको महान् भक्त के रूप में प्रस्तुत किया। यद्यपि भगवान् सारे वैदिक आदेशों से परे होते हैं, किन्तु वे वैदिक अनुष्ठानों का दृढ़तापूर्वक पालन करते थे।
अन्तरे ईश्वर-चेष्टा, बाहिरे निर्दम्भ ।चैतन्य-भक्ति-मण्डपे तेंहो मूल-स्तम्भ ॥
१०॥
वे श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा निर्मित भक्ति रूपी भवन के मुख्य स्तम्भ हैं। वे अपने अंत:करण से जानते थे कि वे भगवान् विष्णु के रूप में कार्य करते थे, किन्तु बाहर से वे गर्वरहित थे।
अद्यापि याँहार कृपा-महिमा हइते ।।चैतन्य-नित्यानन्द गाय सकल जगते ॥
११॥
श्री वीरभद्र गोसांई की महिमामयी कृपा से अब सारे विश्व के लोगों को चैतन्य तथा नित्यानन्द के नामों का कीर्तन करने का अवसर प्राप्त हुआ। सेई वीरभद्र-गोसाजिर लइनु शरण ।।याँहार प्रसादे हय अभीष्ट-पूरण ॥
१२॥
। अतएव मैं वीरभद्र गोसांई के चरणकमलों की शरण ग्रहण करता हूँ, जिससे श्रीचैतन्य-चरितामृत लिखने की मेरी बड़ी अभिलाषा का सही ढंग से मार्गदर्शन हो सके।
श्री रामदास आर, गदाधर दास ।चैतन्य गोसाजिर भक्त रहे ताँर पाश ॥
१३॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के दो भक्त श्री रामदास तथा गदाधर दास सदैव श्री वीरभद्र गोसांई के साथ रहते थे।
नित्यानन्दे आज्ञा दिल ग्रबे गौड़े माइते । महाप्रभु एइ दुइ दिला ताँर साथे ॥
१४॥
अतएव दुइ-गणे मुँहार गणन।।माधव-वासुदेव घोषेरओ एइ विवरण ॥
१५ ॥
जब नित्यानन्द प्रभु को बंगाल जाकर प्रचार करने का आदेश दिया गया, तब इन दोनों भक्तों ( श्री रामदास तथा गदाधर दास ) को उनके साथ जाने का आदेश मिला था। इसलिए कभी इन्हें श्री चैतन्य महाप्रभु के और कभी नित्यानन्द प्रभु के भक्तों के रूप में गिना जाता है। इसी प्रकार माधव घोष तथा वासुदेव घोष भी भक्तों के दोनों समूहों से साथसाथ सम्बन्धित थे।
रामदास मुख्य-शाखा, सख्य-प्रेम-राशि ।।घोलसाङ्गेर काष्ठ ग्रेई तुलि' कैल वंशी ॥
१६॥
शाखाओं में एक मुख्य शाखा, राम दास भगवान् के सख्य प्रेम से । परिपूर्ण थे। उन्होंने सोलह गाँठों वाली लकड़ी की एक बाँसुरी बनाई थी।
गदाधर दास गोपीभावे पूर्णानन्द ।।ग्राँर घरे दानकेलि कैल नित्यानन्द ॥
१७॥
श्रील गदाधर दास सदैव गोपी-भाव में मग्न रहते थे। इनके घर में भगवान् नित्यानन्द ने दानकेलि नाटक का अभिनय किया था।
श्री-माधव घोष-मुख्य कीर्तनीया-गणे ।।नित्यानन्द-प्रभु नृत्य करे याँर गाने ॥
१८॥
श्री माधव घोष मुख्य कीर्तनिया थे। जब वे गाते थे, तब नित्यानन्द प्रभु नृत्य करते थे।
वासुदेव गीते करे प्रभुर वर्णने ।काष्ठ-पाषाण द्रवे ग्राहार श्रवणे ॥
१९॥
जब वासुदेव घोष कीर्तन करते हुए चैतन्य महाप्रभु तथा नित्यानन्द प्रभु का वर्णन करते, तो उसे सुनकर तो लकड़ी तथा पत्थर भी पिघल जाते।
मुरारि-चैतन्य-दासेर अलौकिक लीला ।।व्याघ्र-गाले चड़ मारे, सर्प-सने खेला ॥
२०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के महान् भक्त मुरारि अनेक अलौकिक कार्य करते रहते थे। कभी वे भावातिरेक में बाघ के मुंह पर चपत लगाते थे और कभी विषैले सर्प से खेलते थे।
नित्यानन्देर गण व्रत- सब व्रज-सखा ।।शृङ्ग-वेत्र-गोपवेश, शिरे शिखि-पाखा ॥
२१॥
। नित्यानन्द प्रभु के सारे पार्षद पहले व्रजभूमि के ग्वालबाल थे। उनके हाथों में श्रृंग तथा छड़ी, उनकी ग्वालों की वेशभूषा तथा उनके सिरों पर र पंख उनके प्रतीक थे।
रघुनाथ वैद्य उपाध्याय महाशय ।याँहार दर्शने कृष्ण-प्रेम-भक्ति हय ॥
२२॥
रघुनाथ वैद्य का एक अन्य नाम उपाध्याय भी था। वे इतने बड़े भक्त थे कि उनके दर्शन-मात्र से मनुष्य का सुप्त भगवत्प्रेम जाग्रत हो उठता था।
सुन्दरानन्द–नित्यानन्देर शाखा, भृत्य मर्म ।याँर सङ्गे नित्यानन्द करे व्रज-नर्म ॥
२३॥
श्री नित्यानन्द प्रभु की अन्य शाखा, सुन्दरानन्द उनके घनिष्ठ दास थे। उनके संग में नित्यानन्द प्रभु को व्रजभूमि के जीवन की अनुभूति होती थी।
कमलाकर पिप्पलाइ–अलौकिक रीत ।। अलौकिक प्रेम ताँर भुवने विदित ॥
२४॥
कहा जाता है कि कमलाकर पिप्पलाइ तीसरे गोपाल थे। उनका व्यवहार तथा उनका भगवत्प्रेम अलौकिक था। अतः वे विश्वविदित हैं।
सूर्यदास सरखेल, ताँर भाइ कृष्णदास । नित्यानन्दे दृढ़ विश्वास, प्रेमेर निवास ॥
२५॥
सूर्यदास सरखेल तथा उनके छोटे भाई कृष्णदास सरखेल को नित्यानन्द प्रभु में दृढ़ विश्वास था। वे दोनों भगवत्प्रेम के आगार थे।
गौरीदास पण्डित ग्राँर प्रेमोद्दण्ड-भक्ति ।कृष्ण-प्रेमा दिते, निते, धरे महाशक्ति ॥
२६॥
भगवत्प्रेम में सर्वोच्च भक्ति के प्रतीक गौरीदास पण्डित में ऐसा प्रेम प्राप्त करने और उसे प्रदान करने की महान् शक्ति थी।
नित्यानन्दे समर्पिल जाति-कुल-पाँति ।। श्री-चैतन्य-नित्यानन्दे करि प्राणपति ॥
२७॥
भगवान् श्री चैतन्य तथा भगवान् नित्यानन्द को अपने जीवन के स्वामी बनाकर गौरीदास पण्डित ने भगवान् नित्यानन्द की सेवा के लिए सब कुछ अर्पित कर दिया, यहाँ तक कि अपने परिवार की सदस्यता भी।
नित्यानन्द प्रभुर प्रिय–पण्डित पुरन्दर ।प्रेमार्णव-मध्ये फिरे ग्रैछन मन्दर ॥
२८॥
। श्री नित्यानन्द प्रभु के तेरहवें मुख्य भक्त पण्डित पुरन्दर थे। वे भगवत्प्रेम के सागर में इस तरह चलते थे मानो मन्दर पर्वत हों।
परमेश्वर-दास–नित्यानन्दैक-शरण ।कृष्ण-भक्ति पाय, ताँरे ये करे स्मरण ॥
२९॥
परमेश्वर दास, जो कृष्णलीला के पाँचवे गोपाल कहे जाते हैं, वे नित्यानन्द प्रभु के चरणकमलों में पूरी तरह से समर्पित थे। जो कोई उनके इस नाम परमेश्वर दास को स्मरण करेगा, उसे सरलता से कृष्ण-प्रेम प्राप्त हो जायेगा।
जगदीश पण्डित हय जगत्पावन । कृष्ण-प्रेमामृत वर्षे, ग्रेन वर्षा घन ॥
३०॥
। नित्यानन्द के अनुयायियों की पन्द्रहवीं शाखा, जगदीश पण्डित म्पूर्ण जगत् के उद्धारक थे। उनसे कृष्ण-प्रेम भक्ति की बौछार ऐसी ती थी, मानों बरसात की झड़ी लगी हो।
नित्यानन्द-प्रियभृत्य पण्डित धनञ्जय ।अत्यन्त विरक्त, सदा कृष्ण-प्रेममय ॥
३१॥
नित्यानन्द प्रभु के सोलहवें प्रिय सेवक धनंजय पण्डित थे। वे अत्यधिक विरक्त थे और सदैव कृष्ण-प्रेम में निमग्न रहते थे।
महेश पण्डित-व्रजेर उदार गोपाल ।ढक्का-वाद्ये नृत्य करे प्रेमे मातोयाल ॥
३२॥
महेश पण्डित बारह गोपालों में सातवें गोपाल थे। ये अत्यन्त उदार थे। ये ढक्का (नगाड़ा) बजने पर कृष्ण-प्रेम में उन्मत्त होकर नाचा करते थे।
नवद्वीपे पुरुषोत्तम पण्डित महाशय ।। नित्यानन्द-नामे ग्राँर महोन्माद हय ॥
३३॥
नवद्वीप निवासी पुरुषोत्तम पण्डित आठवें गोपाल थे। वे नित्यानन्द महाप्रभु का पवित्र नाम सुनते ही उन्मत्त से हो उठते थे।
बलराम दास—कृष्ण-प्रेम-रसास्वादी । नित्यानन्द-नामे हय परम उन्मादी ॥
३४॥
बलराम दास कृष्ण-प्रेम रूपी अमृत का सदैव आस्वादन करते थे। भी नित्यानन्द प्रभु का नाम सुनते ही अत्यधिक उन्मत्त हो जाते थे।
महा-भागवत यदुनाथ कविचन्द्र ।झाँहार हृदये नृत्य करे नित्यानन्द ॥
३५ ।। । । यदुनाथ कविचन्द्र महान् भक्त थे। उनके हृदय में श्री नित्यानन्द प्रभु तत नृत्य करते थे।
राढ़े याँर जन्म कृष्णदास द्विजवर ।श्री-नित्यानन्देर तेहो परम किङ्कर ॥
३६॥
बंगाल में श्री नित्यानन्द के इक्कीसवें भक्त कृष्णदास ब्राह्मण थे, जो नित्यानन्द प्रभु के उच्च श्रेणी के सेवक थे।
काला-कृष्णदास बड़ वैष्णव-प्रधान । नित्यानन्द-चन्द्र विनु नहि जाने आन ॥
३७॥
नित्यानन्द प्रभु के बाइसवें भक्त काला कृष्णदास थे, जो नवें गोपाल थे। वे प्रथम श्रेणी के वैष्णव थे और नित्यानन्द प्रभु के अतिरिक्त अन्य किसी को नहीं जानते थे।
श्री-सदाशिव कविराज–बड़ महाशय । श्री-पुरुषोत्तम-दास–ताँहार तनय ॥
३८॥
श्री नित्यानन्द प्रभु के तेइसवें और चौबीसवें भक्त सदाशिव कविराज तथा उनके पुत्र पुरुषोत्तमदास थे, जो दसवें गोपाल थे।
आजन्म निमग्न नित्यानन्देर चरणे ।निरन्तर बाल्य-लीला करे कृष्ण-सने ॥
३९॥
जन्म से ही पुरुषोत्तम दास नित्यानन्द प्रभु के चरणकमलों की सेवा में निमग्न रहते थे और सदैव कृष्ण के साथ बच्चों जैसे खेल में लगे रहते थे।
ताँर पुत्र—महाशय श्री-कानु ठाकुर । याँर देहे रहे कृष्ण-प्रेमामृत-पूर ॥
४०॥
अत्यन्त सम्माननीय व्यक्ति श्री कानु ठाकुर पुरुषोत्तम दास ठाकुर के पुत्र थे। वे इतने बड़े भक्त थे कि भगवान् कृष्ण सदैव उनके शरीर में वास करते थे।
महा-भागवत-श्रेष्ठ दत्त उद्धारण । सर्व-भावे सेवे नित्यानन्देर चरण ॥
४१॥
बारह गोपालों में से ग्यारहवें गोपाल उद्धारण दत्त ठाकुर श्री नित्यानन्द प्रभु के उन्नत भक्त थे। वे नित्यानन्द प्रभु के चरणकमलों की सभी प्रकार से सेवा करते थे।
आचार्य वैष्णवानन्द भक्ति-अधिकारी ।पूर्वे नाम छिल ग्राँर रघुनाथ पुरी' ॥
४२॥
नित्यानन्द प्रभु के सत्ताइसवें प्रमुख भक्त आचार्य वैष्णवानन्द थे, जो भक्तिमयी सेवा में एक महान् अधिकारी थे। वे पहले रघुनाथ पुरी नाम से प्रसिद्ध थे।
विष्णुदास, नन्दन, गङ्गादास–तिन भाइ ।पूर्वे याँर घरे छिला ठाकुर निताई ॥
४३॥
नित्यानन्द प्रभु के एक अन्य महत्त्वपूर्ण भक्त विष्णुदास थे, जिनके दो भाई थे-नन्दन तथा गंगादास। कभी-कभी नित्यानन्द प्रभु इनके घर में ठहरते थे।
नित्यानन्द-भृत्य--परमानन्द उपाध्याय ।।श्री-जीव पण्डित नित्यानन्द-गुण गाय ॥
४४॥
परमानन्द उपाध्याय नित्यानन्द प्रभु के महान् सेवक थे और श्री जीव पण्डित नित्यानन्द प्रभु के गुणों का बखान करते थे।
परमानन्द गुप्त—कृष्ण-भक्त महामती ।पूर्वे याँर घरे नित्यानन्देर वसति ॥
४५ ॥
नित्यानन्द प्रभु के इकतीसवें भक्त श्री परमानन्द गुप्त थे, जो कृष्णभक्त थे और आध्यात्मिक चेतना में अग्रणी थे। नित्यानन्द प्रभु पहले उनके घर कुछ काल तक रह चुके थे।
नारायण, कृष्णदास आर मनोहर ।देवानन्द–चारि भाइ निताइ-किङ्कर ॥
४६॥
नारायण, कृष्णदास, मनोहर तथा देवानन्द-ये चारों भाई सदैव नित्यानन्द प्रभु की सेवा में लगे रहने वाले बत्तीसवें, तैंतीसवें, चौंतीसवें और पैंतीसवें प्रभुख भक्त थे।
होड़ कृष्णदास–नित्यानन्द-प्रभु-प्राण ।नित्यानन्द-पद विनु नाहि जाने आन ॥
४७॥
भगवान् नित्यानन्द के छत्तीसवें भक्त होड़ कृष्णदास थे, जिनके लिए नित्यानन्द प्रभु जीवन और प्राण थे। वे सदैव श्री नित्यानन्द के चरणकमलों पर समर्पित रहते थे और उनके अतिरिक्त वे अन्य किसी को नहीं जानते थे।
नकड़ि, मुकुन्द, सूर्य, माधव, श्रीधर । रामानन्द वसु, जगन्नाथ, महीधर ॥
४८॥
। नित्यानन्द प्रभु के भक्तों में नकड़ि सैंतीसवें, मुकुन्द अड़तीसवें, सूर्य उन्तालीसवें, माधव चालीसवें, श्रीधर इकतालीसवें, रामानन्द बयालीसवें, जगन्नाथ तैंतालीसवें तथा महीधर चवालीसवें क्रम पर थे।
श्रीमन्त, गोकुल-दास हरिहरानन्द ।।शिवाइ, नन्दाइ, अवधूत परमानन्द ॥
४९॥
श्रीमन्त पैंतालीसवें, गोकुलदास छियालीसवें, हरिहरानन्द सैंतालीसवें, शिवाई अड़तालीसवें, नन्दाइ उनचासवें तथा परमानन्द पचासवें भक्त थे।
वसन्त, नवनी होड़, गोपाल, सनातन ।।विष्णाइ हाजरा, कृष्णानन्द, सुलोचन ॥
५०॥
। वसन्त इक्यावनवे, नवनी होड़ बावनवें, गोपाल तिरपनवें, सनातन चौवनवे, विष्णाइ पचपनवे, कृष्णानन्द छप्पनवें एवं सुलोचन सत्तावनवें भक्त थे।
कंसारि सेन, रामसेन, रामचन्द्र कविराज ।गोविन्द, श्रीरङ्ग, मुकुन्द, तिन कविराज ॥
५१॥
श्री नित्यानन्द के अठ्ठावनवे महान् भक्त कंसारि सेन, उनसठवें रामसेन, साठवें रामचन्द्र कविराज तथा इकसठवें, बासठवें एवं तिरसठवें भक्त गोविन्द, श्रीरंग तथा मुकुन्द सभी वैद्य थे।
पीताम्बर, माधवाचार्य, दास दामोदर ।शङ्कर, मुकुन्द, ज्ञान-दास, मनोहर ॥
५२॥
नित्यानन्द प्रभु के भक्तों में पीताम्बर चौसठवें, माधवाचार्य पैंसठवें, दामोदर दास छियासठवें, शंकर सतसठवें, मुकुन्द अड़सठवें, ज्ञानदास उनहत्तरवें तथा मनोहर सत्तरवें भक्त थे।
नर्तक गोपाल, रामभद्र, गौराङ्ग-दास ।नृसिंह-चैतन्य, मीनकेतन रामदास ॥
५३॥
नर्तक गोपाल इकहत्तरवें, रामभद्र बहत्तरवें, गौरांग दास तिहत्तरवें, नृसिंह चैतन्य चौहत्तरखें तथा मीनकेतन रामदास पचहत्तरवें भक्त थे।
वृन्दावन-दास नारायणीर नन्दन ।‘चैतन्य-मङ्गल' ग्रेहो करिल रचन ॥
५४॥
श्रीमती नारायणी के पुत्र वृन्दावन दास ठाकुर ने श्री चैतन्य मंगल (जो बाद में श्री चैतन्य भागवत नाम से प्रसिद्ध हुआ) की रचना की।
भागवते कृष्ण-लीला वर्णिला वेदव्यास ।चैतन्य-लीलाते व्यास वृन्दावन दास ॥
५५॥
श्रील वेदव्यास ने श्रीमद्भागवत में कृष्ण-लीलाओं का वर्णन किया और श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं के व्यास हुए वृन्दावन दास।
सर्वशाखा-श्रेष्ठ वीरभद्र गोसाजि।।ताँर उपशाखा व्रत, तार अन्त नाइ ॥
५६॥
नित्यानन्द प्रभु की समस्त शाखाओं में वीरभद्र गोसांई सर्वोपरि थे। उनकी उपशाखाएँ अनन्त थीं।
अनन्त नित्यानन्द-गण–के करु गणन ।।आत्म-पवित्रता-हेतु लिखिलाँ कत जन ॥
५७॥
श्री नित्यानन्द प्रभु के असंख्य अनुयायियों की कोई गिनती नहीं कर सकता। मैंने तो केवल आत्म शुद्धि के लिए उनमें से कुछ का ही उल्लेख किया है।
एई सर्व-शाखा पूर्ण–पक्व प्रेम-फले ।।ग्रारे देखे, तारे दिया भासाइल सकले ॥
५८॥
श्री नित्यानन्द प्रभु के भक्तों की ये सारी शाखाएँ कृष्ण-प्रेम के पके फलों से परिपूर्ण थीं और उनसे जो भी मिला, उन सबको ये फल बाँट दिये और उन्हें कृष्ण-प्रेम से आप्लावित कर दिया।
अनर्गल प्रेम सबार, चेष्टा अनर्गल ।प्रेम दिते, कृष्ण दिते धरे महाबल ॥
५९॥
इन सारे भक्तों में अबाध, अनन्त कृष्ण-प्रेम प्रदान करने की असीम शक्ति थी। वे अपनी शक्ति से किसी को भी कृष्ण तथा कृष्ण-प्रेम प्रदान कर सकते थे।
सङ्क्षेपे कहिलाँ एइ नित्यानन्द-गण ।। झाँहार अवधि ना पाय ‘सहस्र-वदन' ॥
६०॥
। मैंने श्री नित्यानन्द प्रभु के अनुयायियों और भक्तों में से कुछ का ही संक्षेप में वर्णन किया है। एक हजार मुखों वाले शेषनाग भी इन सभी असंख्य भक्तों का वर्णन नहीं कर सकते।
श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश । चैतन्य चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
६१॥
श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के उद्देश्य की पूर्ति की प्रबल इच्छा से मैं कृष्णदास उनके चरणचिह्नों पर चलते हुए श्री चैतन्य-चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।
अध्याय बारह: अद्वैत आचार्य और गदाधर पंडित का विस्तार
अद्वैताद्ध्यब्ज-भृङ्गस्तान्सारासार-भृतोऽखिलान् ।हित्वासारान्सार-भृतो नौमि चैतन्य-जीवनान् ॥
१॥
श्री अद्वैत प्रभु के अनुयायी दो प्रकार के थे। कुछ तो असली थे और कुछ नकली। मैं नकली अनुयायियों का बहिष्कार करते हुए श्री अद्वैत आचार्य के असली अनुयायियों को सादर नमस्कार करता हूँ, जिनके जीवन और प्राण श्री चैतन्य महाप्रभु थे।
जय जय महाप्रभु श्री-कृष्ण-चैतन्य ।। जय जय नित्यानन्द जयाद्वैत धन्य ॥
२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! नित्यानन्द प्रभु की जय हो और जय हो श्री अद्वैत प्रभु की! ये सभी धन्य हैं।
श्री-चैतन्यामर-तरोद्वितीय-स्कन्ध-रूपिणः ।। श्रीमदद्वैत-चन्द्रस्य शाखा-रूपान्गणान्नुमः ॥
३॥
मैं श्री चैतन्य रूपी नित्य वृक्ष की द्वितीय शाखा सर्वयशस्वी अद्वैत प्रभु हो तथा उनकी उपशाखा रूपी उनके अनुयायियों को सादर नमस्कार रता हूँ।
वृक्षेर द्वितीय स्कन्ध–आचार्य-गोसाजि ।।ताँर व्रत शाखा हइल, तार लेखा नाजि ॥
४॥
श्री अद्वैत प्रभु उस वृक्ष की द्वितीय बड़ी शाखा थे। उस वृक्ष की अनेक उपशाखाएँ हैं, किन्तु उन सभी का उल्लेख कर सकना असम्भव है।
चैतन्य-मालीर कृपा-जलेर सेचने ।सेइ जले पुष्ट स्कन्ध बाड़े दिने दिने ॥
५॥
श्री चैतन्य महाप्रभु माली भी थे और ज्यों-ज्यों वे अपने कृपा-रूपी जल से इस वृक्ष को सींचते, त्यों-त्यों नित्यप्रति उसकी सारी शाखाएँ तथा उपशाखाएँ बढ़ती जातीं।
सेइ स्कन्धे व्रत प्रेम-फल उपजिल ।। सेइ कृष्ण-प्रेम-फले जगभरिल ॥
६ ॥
इस चैतन्य-रूपी वृक्ष की शाखाओं में जो भगवत्प्रेम रूपी फल लगे, वे इतने अधिक थे कि सारा संसार ही कृष्ण-प्रेम से आप्लावित हो उठा।
सेइ जल स्कन्धे करे शाखाते सञ्चार ।।फले-फुले बाड़े, शाखा हइल विस्तार ॥
७॥
ज्यों-ज्यों तना तथा शाखाएँ सींची गईं, त्यों-त्यों शाखाएँ तथा उपशाखाएँ बहुतायत से बढ़ती गईं और यह वृक्ष फलों तथा फूलों से लद गया।
प्रथमे त' एक-मत आचार गण ।पाछे दुइ-मत हैल दैवेर कारण ॥
८॥
प्रारम्भ में अद्वैत आचार्य के सारे अनुयायी एक ही मत को मानते थे, किन्तु बाद में वे संयोग से दो भिन्न-भिन्न मतों का अनुसरण करने लगे।
केह त' आचार्य आज्ञाय, केह त' स्वतन्त्र । स्व-मत कल्पना करे दैव-परतन्त्र ॥
९॥
कुछ शिष्यों ने आचार्य के आदेशों का दृढ़तापूर्वक पालन किया और कुछ अन्य दैवीमाया के वशीभूत होकर अपना स्वतंत्र मत गढ़ने के कारण डक गये।
आचार्गेर मत येइ, सेइ मत सार ।ताँर आज्ञा लङ्घि' चले, सेइ त' असार ॥
१० ॥
आध्यात्मिक जीवन में गुरु का आदेश ही जीवन्त सिद्धान्त है। जो कोई गुरु की आज्ञा का उल्लंघन करता है, वह तुरन्त व्यर्थ (असार) हो जाता है।
असारेर नामे इहाँ नाहि प्रयोजन । भेद जानिबारे करि एकत्र गणन ॥
११॥
जो असार हैं, उनका नाम लेना व्यर्थ है। मैंने उनको उल्लेख केवल उपयोगी भक्तों से अन्तर दिखलाने के लिए किया है।
धान्य-राशि मापे ग्रैछे पात्ना सहिते ।। पश्चाते पाला उड़ाञा संस्कार करते ॥
१२ ॥
पहले धान पुआल के साथ मिला रहता है और धान को पुआल से अलग करने के लिए उसे हवा देनी पड़ती है।
अच्युतानन्द-बड़ शाखा, आचार्य-नन्दन । आजन्म सेविला तेंहो चैतन्य-चरण ॥
१३॥
अद्वैत आचार्य की एक विशाल शाखा थे उनके पुत्र अच्युतानन्द। वे अपने जीवन के प्रारम्भ से ही चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों की सेवा में संलग्न रहे।
चैतन्य-गोसाजिर गुरु—केशव भारती ।एइ पितार वाक्य शुनि' दुःख पाइल अति ॥
१४॥
जब अच्युतानन्द ने अपने पिता से यह सुना कि केशव भारती चैतन्य महाप्रभु के गुरु थे, तो वे अत्यधिक अप्रसन्न हुए।
जगद्गुरुते तुमि कर ऐछे उपदेश ।तोमार एइ उपदेशे नष्ट हइल देश ॥
१५ ॥
उन्होंने अपने पिता से कहा, आपको यह उपदेश कि केशव भारती श्री चैतन्य महाप्रभु के गुरु हैं, सारे देश को बर्बाद कर देगा।
चौद्द भुवनेर गुरु-चैतन्य गोसाजि । तॉर गुरु—अन्य, एइ कोन शास्त्रे नाइ ॥
१६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु तो चौदहों लोकों के गुरु हैं, किन्तु आप बतलाते कि उनका गुरु कोई अन्य है। इसकी पुष्टि किसी मान्य शास्त्र द्वारा नहीं ती।
पञ्चम वर्षेर बालक कहे सिद्धान्तेर सार । शुनिया पाइला आचार्य सन्तोष अपार ॥
१७॥
जब अद्वैत आचार्य ने अपने पाँच वर्ष के पुत्र अच्युतानन्द से यह वाक्य सुना, तो उन्हें परम सन्तोष हुआ, क्योंकि यह सिद्धान्त का सार था।
कृष्ण-मिश्र-नाम आर आचार्य-तनय । चैतन्य गोसाजि बैसे याँहार हृदय ॥
१८॥
कृष्ण मिश्र अद्वैत आचार्य के पुत्र थे। उनके हृदय में श्री चैतन्य प्रभु सदैव विराजमान रहते थे।
श्री-गोपाल-नामे आर आचार्गेर सुत ।।ताँहार चरित्र, शुन, अत्यन्त अद्भुत ॥
१९॥
श्री अद्वैत आचार्य प्रभु के अन्य पुत्र थे श्री गोपाल। अब उनकी विशेषताओं के बारे में सुनिये, क्योंकि वे सभी अत्यन्त अद्भुत हैं।
गुण्डिचा-मन्दिरे महाप्रभुर सम्मुखे ।।कीर्तने नर्तन करे बड़ प्रेम-सुखे ॥
२० ॥
जब भगवान् चैतन्य अपने हाथ से जगन्नाथ पुरी में गुण्डिचा मन्दिर की सफाई करते थे, तब गोपाल बड़े प्रेम और मुदित भाव से महाप्रभु के समक्ष नाचता था।
नाना-भावोद्गम देहे अद्भुत नर्तन ।दुइ गोसाजि‘हरि' बले, आनन्दित मन ॥
२१॥
जिस समय चैतन्य महाप्रभु तथा अद्वैत प्रभु हरे कृष्ण मन्त्र का कीर्तन करते तथा नाचते थे, तब उनके शरीरों में विविध भावातिरेक के लक्षण प्रकट होने लगते और उनके मन अत्यन्त प्रमुदित होते थे।
नाचिते नाचिते गोपाल हइल मूर्च्छित ।भूमेते पड़िल, देहे नाहिक संवित ॥
२२॥
जब वे सबै नाच रहे थे, तब गोपाल नाचते-नाचते मूर्च्छित हो गया और भूमि पर गिरकर अचेत हो गया।
दुःखित हइला आचार्य पुत्र कोले लञा ।रक्षा करे नृसिंहेर मन्त्र पड़िया ॥
२३॥
अद्वैत आचार्य प्रभु अत्यन्त दुःखी हुए। वे अपने पुत्र को अपनी गोद में उठाकर उसकी रक्षा के लिए नृसिंह-मन्त्र का उच्चारण करने लगे।
नाना मन्त्र पड़ेन आचार्य, ना हय चेतन ।।आचार्गेर दुःखे वैष्णव करेन क्रन्दन ॥
२४॥
अद्वैत आचार्य ने विविध मन्त्रों का उच्चारण किया, किन्तु गोपाल को होश नहीं आया। अतएव वहाँ पर उपस्थित सारे वैष्णव उनकी व्यथा से शोकातुर होकर रोने लगे।
तबे महाप्रभु, ताँर हृदे हस्त धरि' ।।‘उठह, गोपाल, कैल बल ‘हरि' ‘हरि' ॥
२५॥
तब चैतन्य महाप्रभु ने गोपाल की छाती पर अपना हाथ रखा और उससे कहा, “प्रिय गोपाल! उठो और भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन करो ! उठिल गोपाल प्रभुर स्पर्श-ध्वनि शुनि' ।।आनन्दित हा सबे करे हरि-ध्वनि ॥
२६॥
जब गोपाल ने महाप्रभु की आवाज सुनी और उनके स्पर्श का अनुभव किया, तो वह तुरन्त उठ पड़ा और सारे वैष्णव खुशी में हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करने लगे।
आचार्मेर आर पुत्र-श्री-बलराम । आर पुत्र-----‘स्वरूप-शाखा, जगदीश' नाम ॥
२७॥
अद्वैत आचार्य के अन्य पुत्र श्री बलराम, स्वरूप तथा जगदीश थे।
नीलाचले तेहो एक पत्रिका लिखिया । प्रतापरुद्रेर पाश दिल पाठाइया ॥
२९॥
जब कमलाकान्त विश्वास जगन्नाथ पुरी में था, तो उसने किसी के थों एक चिट्ठी महाराज प्रतापरुद्र के पास भेजी।
‘कमलाकान्त विश्वास'-नाम आचार्घ-किङ्कर। आचार्य-व्यवहार सब-ताँहार गोचर ॥
२८॥
आचार्य अद्वैत का अत्यन्त विश्वासपात्र नौकर कमलाकान्त विश्वास अद्वैत आचार्य के सारे आचारों-व्यवहारों को जानता था।
सेइ पत्रीर कथा आचार्य नाहि जाने ।। कोन पाके सेइ पत्री आइल प्रभु-स्थाने ॥
३०॥
किसी को इस चिट्ठी के विषय में पता नहीं था, किन्तु यह चिट्ठी । किसी तरह श्री चैतन्य महाप्रभु के हाथ लग गई।
से पत्रीते लेखा आछे-एइ त' लिखन। ईश्वरत्वे आचार्येरे करियाछे स्थापन ॥
३१॥
इस चिट्ठी में यह प्रमाणित किया गया था कि अद्वैत आचार्य भगवान् के अवतार हैं।
किन्तु ताँर दैवे किछु हइयाछे ऋण ।। ऋण शोधिबारे चाहि तङ्का शत-तिन ॥
३२॥
किन्तु साथ ही यह भी उल्लेख था कि अद्वैत आचार्य के ऊपर हाल ही में तीन सौ रुपये का ऋण चढ़ गया है, कमलाकान्त विश्वास जिसको चुकाना चाहता है।
पत्र पड़िया प्रभुर मने हैल दुःख ।बाहिरे हासिया किछु बले चन्द्र-मुख ॥
३३॥
चैतन्य महाप्रभु यह चिट्ठी पढ़कर अत्यन्त दुःखी हुए, यद्यपि ऊपर से उनका मुख अब भी चन्द्रमा के समान चमक रहा था। इस प्रकार हँसते हुए महाप्रभु ने यह कहा।
आचाग्रेर स्थापियाछ करिया ईश्वर ।इथे दोष नाहि, आचार्य दैवत ईश्वर ॥
३४॥
। उसने अद्वैत आचार्य को भगवान् के अवतार के रूप में स्थापित कर दिया है। इसमें कोई दोष नहीं है, क्योंकि वे सचमुच साक्षात् भगवान् हैं।
ईश्वरेर दैन्य करि' करियाछे भिक्षा ।।अतएव दण्ड करि' कराइब शिक्षा ॥
३५॥
। किन्तु उसने भगवान् के अवतार को निर्धनता-ग्रस्त भिक्षुक बना दिया है, अतएव मैं उसकी इस भूल को सुधारने के लिए उसे पाठ पढ़ाऊँगा।
गोविन्देरे आज्ञा दिल,–इँहा आजि हैते ।। बाउलिया विश्वासे एथा ना दिबे आसिते ॥
३६॥
महाप्रभु ने गोविन्द को आज्ञा दी, आज से उस बाउलिया मलाकान्त विश्वास को यहाँ मत आने देना।
दण्ड शुनि' 'विश्वास' हइल परम दुःखित ।शुनिया प्रभुर दण्ड आचार्य हर्षित ॥
३७॥
जब कमलाकान्त विश्वास ने श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा दिये गये इस दण्ड के बारे में सुना, तो वह बहुत दुःखी हुआ, किन्तु जब अद्वैत प्रभु ने इसके बारे में सुना, तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुए।
विश्वासेरे कहे,—तुमि बड़ भाग्यवान् ।तोमारे करिल दण्ड प्रभु भगवान् ॥
३८॥
कमलाकान्त विश्वास को अप्रसन्न देखकर अद्वैत आचार्य प्रभु ने उससे कहा, “तुम परम भाग्यशाली हो कि भगवान् चैतन्य महाप्रभु द्वारा दण्डित हुए हो।
पूर्व महाप्रभु मोरे करेन सम्मान ।। दुःख पाइ' मने आमि कैलँ अनुमान ॥
३९॥
। पहले तो चैतन्य महाप्रभु अपने वरिष्ठ की तरह मेरा आदर करते थे, । किन्तु मुझे ऐसा आदर पसन्द न था। अतएव मेरा मन दुखित होने के कारण मैंने एक योजना बनाई थी।
मुक्ति-श्रेष्ठ करि' कैनु वाशिष्ठ व्याख्यान ।क्रुद्ध हा प्रभु मोरे कैल अपमान ॥
४० ॥
मैंने मुक्ति को जीवन को चरम लक्ष्य मानने वाले ग्रंथ योगवाशिष्ठ की व्याख्या की, इसीलिए महाप्रभु मुझ पर क्रुद्ध हुए और उन्होंने मेरे प्रति दिखावटी असम्मान प्रदर्शित किया।
दण्ड पाला हैल मोर परम आनन्द ।।ये दण्ड पाइल भाग्यवान्श्री-मुकुन्द ॥
४१॥
चैतन्य महाप्रभु से प्रताड़ित होकर मैं परम प्रसन्न हुआ कि मुझे भी श्री मुकुन्द जैसा दण्ड प्राप्त हुआ है।
ये दण्ड पाइल श्री-शची भाग्यवती ।। से दण्ड प्रसाद अन्य लोक पाबे कति ॥
४२॥
। ऐसा ही दण्ड माता शचीदेवी को मिला था। भला ऐसा दण्ड पाने उनसे अधिक और कौन भाग्यवान हो सकेगा? एत कहि' आचार्य तौरै करिया आश्वास । आनन्दित हइया आइल महाप्रभु-पाश ॥
४३॥
इस प्रकार से कमलाकान्त को आश्वासन देने के बाद श्री अद्वैत आचार्य प्रभु श्री चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करने गये।
प्रभुके कहेन तोमार ना बुझि ए लीला ।।आमा हैते प्रसाद-पात्र करिला कमला ॥
४४॥
। श्री अद्वैत आचार्य ने भगवान् चैतन्य से कहा, आपकी दिव्य लीलाएँ मेरी समझ में नहीं आ सकतीं। आप मुझ पर जितनी कृपा करते हैं, उससे अधिक कृपा आपने कमलाकान्त पर की है।
आमारेह कभु येइ ना हय प्रसाद ।तोमार चरणे आमि कि कैनु अपराध ॥
४५ ॥
। आपने कमलाकान्त पर जो कृपा की है, वह इतनी महान् है कि आपने मुझ पर कभी भी ऐसी कृपा नहीं की। भला मैंने आपके चरणकमलों पर कौन-सा ऐसा अपराध किया है कि आपने ऐसी कृपा मुझ पर नहीं दिखलाई? एत शुनि' महाप्रभु हासिते लागिला ।।बोलाइया कमलाकान्ते प्रसन्न हइला ॥
४६॥
यह सुनकर चैतन्य महाप्रभु हर्षित होकर हँसने लगे और तुरन्त ही उन्होंने कमलाकान्त विश्वास को बुलाया।
आचार्य कहे, इहाके केने दिले दरशन ।दुइ प्रकारेते करे मोरे विडम्बन ॥
४७॥
तब अद्वैत आचार्य ने चैतन्य महाप्रभु से कहा, आपने इस व्यक्ति को फिर से क्यों बुलाया और इसे अपने दर्शन की क्यों अनुमति दी है? इसने तो मुझे दो प्रकार से धोखा दिया है।
शुनिया प्रभुर मन प्रसन्न हइल ।।मुँहार अन्तर-कथा मुँहे से जानिल ॥
४८ ॥
जब चैतन्य महाप्रभु ने यह सुना, तो उनका मन प्रसन्न हो गया। केवल वे ही एक दूसरे के मन की बातें समझ सकते थे।
प्रभु कहे—बाउलिया, ऐछे काहे कर ।। आचार लज्जा-धर्म-हानि से आचर ॥
४९॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कमलाकान्त को समझाया, “तुम तो बाउलिया हो, जिसको वस्तुओं की सही स्थिति के बारे में ज्ञान नहीं होता है। तुम इस तरह क्यों करते हो? तुम अद्वैत आचार्य की गोपनीयता को क्यों भंग करते हो तथा उनके धार्मिक सिद्धान्तों को क्षति पहुँचाते हो? प्रतिग्रह कभु ना करिबे राज-धन ।।विषयीर अन्न खाइले दुष्ट हय मन ॥
५०॥
मेरे गुरु अद्वैत आचार्य को धनी पुरुषों या राजाओं से दान कभी भी कार नहीं करना चाहिए, क्योंकि यदि कोई गुरु ऐसे भौतिकतावादियों जा धन या अन्न स्वीकार करता है, तो उसका मन दूषित हो जाता है।
मन दुष्ट हइले नहे कृष्णेर स्मरण ।। कृष्ण-स्मृति विनु हय निष्फल जीवन ॥
५१॥
जब मनुष्य का मन दूषित हो जाता है, तो कृष्ण का स्मरण करना अत्यन्त कठिन हो जाता है और जब कृष्ण के स्मरण में बाधा आती है, तो जीवन निष्फल हो जाता है।
लोक-लज्जा हय, धर्म-कीर्ति हय हानि ।।ऐछे कर्म ना करिह कभु इहा जानि' ॥
५२॥
इस तरह मनुष्य जनसाधारण की दृष्टि में अलोकप्रिय हो जाता है,क्योंकि इससे उसकी धार्मिकता तथा यश को हानि पहुँचती है। एक tणव को, विशेषकर जो गुरु का कार्य करता हो, कोई ऐसा कर्म नहीं करना चाहिए। उसे इस तथ्य के प्रति सदैव जागरूक रहना चाहिए।
एइ शिक्षा सबाकारे, सबे मने कैल। आचार्य-गोसान्नि मने आनन्द पाइल ॥
५३॥
जब चैतन्य महाप्रभु ने कमलाकान्त को यह शिक्षा दी, तो वहाँ पर उपस्थित सारे लोगों ने यही माना कि यह हर एक के लिए है। इस प्रकार अद्वैत आचार्य अत्यधिक प्रसन्न हुए।
आचार अभिप्राय प्रभु-मात्र बुझे । प्रभुर गम्भीर वाक्य आचार्य समुझे ॥
५४॥
केवल चैतन्य महाप्रभु ही अद्वैत आचार्य के मनोभाव समझ सके और अद्वैत आचार्य महाप्रभु के गम्भीर उपदेश को समझ सके।
एइ त' प्रस्तावे आछे बहुत विचार । ग्रन्थ-बाहुल्य-भये नारि लिखिबार ॥
५५ ॥
इस कथन में अनेक गुह्य विचार हैं। मैं उन सबको नहीं लिख रहा, क्योंकि इससे पुस्तक के व्यर्थ ही बढ़ जाने का भय है।
श्री-यदुनन्दनाचार्य–अद्वैतेर शाखा । ताँर शाखा-उपशाखार नाहि हय लेखा ॥
५६॥
। अद्वैत आचार्य की पाँचवीं शाखा श्री यदुनन्दन आचार्य थे, जिनसे इतनी शाखाएँ तथा उपशाखाएँ निकलीं कि उन सबको लिपिबद्ध करना सम्भव है।
वासुदेव दत्तेर तेंहो कृपार भाजन ।।सर्व-भावे आश्रियाछे चैतन्य-चरण ॥
५७॥
श्री यदुनन्दन आचार्य वासुदेव दत्त के शिष्य थे और उन्हें गुरु की पूरी कपा प्राप्त थी। अतएव उन्होंने सभी प्रकार से श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणों को परम आश्रय के रूप में स्वीकार किया।
भागवताचार्य, आर विष्णुदासाचार्य ।।चक्रपाणि आचार्य, आर अनन्त आचार्य ॥
५८॥
भागवत आचार्य, विष्णुदास आचार्य, चक्रपाणि आचार्य तथा अनन्त । अद्वैत आचार्य की क्रमशः छठी, सातवीं, आठवीं तथा नवीं शाखाएँ थे।
नन्दिनी, आर कामदेव, चैतन्य-दास ।दुर्लभ विश्वास, आर वनमालि-दास ॥
५९॥
। : नन्दिनी, कामदेव, चैतन्य दास, दुर्लभ विश्वास तथा वनमाली दास श्री अद्वैत आचार्य की क्रमशः दसवीं, ग्यारहवीं, बारहवीं, तेरहवीं तथा चौदवी शाखाएँ थे।
जगन्नाथ कर, आर कर भवनाथ । हृदयानन्द सेन, आर दास भोलानाथ ॥
६० ॥
इसी तरह जगन्नाथ कर, भवनाथ कर, हृदयानन्द सेन तथा भोलानाथ पास अद्वैत आचार्य की क्रमशः पंद्रहवीं, सोलहवीं, सत्रहवीं तथा अठारहवीं शाखाएँ थे।
यादव-दास, विजय-दास, दास जनार्दन । अनन्त-दास, कानु-पण्डित, दास नारायण ॥
६१॥
यादव दास, विजय दास, जनार्दन दास, अनन्त दास, कानु पण्डित तथा नारायण दास क्रमशः उन्नीसवीं, बीसवीं, इक्कीसवीं, बाइसवीं, तेइसवीं और चौबीसवीं शाखाएँ थे।
श्रीवत्स पण्डित, ब्रह्मचारी हरिदास ।पुरुषोत्तम ब्रह्मचारी, आर कृष्णदास ॥
६२॥
श्रीवत्स पण्डित, हरिदास ब्रह्मचारी, पुरुषोत्तम ब्रह्मचारी तथा कृष्णदास अद्वैत आचार्य की क्रमशः पच्चीसवीं, छब्बीसवीं, सत्ताइसवीं तथा अठ्ठाइसवीं शाखाएँ थे।
पुरुषोत्तम पण्डित, आर रघुनाथ ।वनमाली कविचन्द्र, आर वैद्यनाथ ॥
६३ ॥
उसके आगे क्रमशः पुरुषोत्तम पण्डित, रघुनाथ, वनमाली कविचन्द्र तथा वैद्यनाथ अद्वैत आचार्य की उन्तीसवीं, तीसवीं, इकतीसवीं और बत्तीसवीं शाखाएँ थे।
लोकनाथ पण्डित, आर मुरारि पण्डित । श्री-हरिचरण, आर माधव पण्डित ॥
६४॥
लोकनाथ पण्डित, मुरारी पण्डित, श्री हरिचरण तथा माधव पण्डित अद्वैत आचार्य की क्रमशः तैंतीसवीं चौंतीसवीं, पैंतीसवीं और छत्तीसवीं पाएँ थे।
विजय पण्डित, आर पण्डित श्रीराम ।असङ्ख्य अद्वैत-शाखा कत लइब नाम ॥
६५॥
विजय पण्डित तथा श्रीराम पण्डित अद्वैत आचार्य की दो महत्त्वपूर्ण खाएँ थे। शाखाएँ तो असंख्य हैं, लेकिन मैं उन सबका नाम गिना पाने असमर्थ हूँ।
मालि-दत्त जल अद्वैत-स्कन्ध स्रोगाय ।सेइ जले जीये शाखा, फुल-फल पाय ॥
६६॥
अद्वैत आचार्य की शाखा को मूल माली श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा प्रदत्त जल प्राप्त हुआ। इस तरह उपशाखाओं का प्रतिपालन हुआ और उनमें प्रचुर फल-फूल लगे।
इहार मध्ये माली पाछे कोन शाखा-गण ।।ना माने चैतन्य-माली दुर्दैव कारण ॥
६७॥
चैतन्य महाप्रभु के तिरोधान के बाद दुर्भाग्यवश कुछ शाखाएँ महाप्रभु द्वारा दिखाए गये मार्ग से भटक गईं।
सृजाइल, जीयाइल, ताँरे ना मानिल। कृतघ्न होइला, ताँरे स्कन्ध क्रुद्ध हइल ॥
६८॥
। कुछ शाखाओं ने उस मूल तने को स्वीकार नहीं किया, जो सम्पूर्ण क्ष का जीवनदाता तथा पालनकर्ता था। इस प्रकार जब वे कृतघ्न बन गई, तो मूल तना उन पर क्रुद्ध हो गया।
क्रुद्ध हा स्कन्ध तारे जल ना सञ्चारे । जलाभावे कृश शाखा शुकाइया मरे ॥
६९॥
इस प्रकार चैतन्य महाप्रभु ने उन पर अपनी कृपा-रूपी जल नहीं छिड़का और धीरे-धीरे वे मुरझाकर मर गईं।
चैतन्य-रहित देह—शुष्ककाठे-सम । जीवितेइ मृत सेइ, मैले दण्डे ग्रम ॥
७०॥
कृष्णभावनाविहीन पुरुष शुष्क काठ या मृत शरीर से बढ़कर कुछ। नहीं है। वह जीवित होकर भी मृत माना जाता है और मरने के बाद उसे यमराज दण्डित करते हैं।
केवल ए गण-प्रति नहे एइ दण्ड ।चैतन्य-विमुख येइ सेइ त' पाषण्ड ॥
७१॥
। । न केवल अद्वैत आचार्य के दिग्भ्रमित वंशज, अपितु जो कोई भी श्री चैतन्य महाप्रभु सम्प्रदाय के विरुद्ध है, उसे नास्तिक मानना चाहिए और ह यमराज के दण्ड का पात्र है।
कि पण्डित, कि तपस्वी, किबा गृही, ग्रति ।चैतन्य-विमुख ग्रेइ, तार एइ गति ॥
७२॥
। चाहे कोई पण्डित हो, महान् तपस्वी हो अथवा सफल गृहस्थ हो या प्रसिद्ध संन्यासी ही क्यों न हो, किन्तु यदि वह चैतन्य महाप्रभु के सम्प्रदाय के विरुद्ध है, तो उसे यमराज द्वारा दिये जाने वाला कष्ट भोगना ही होगा।
ये ये लैल श्री-अच्युतानन्देर मत ।सेइ आचार्येर गण-महा-भागवत ॥
७३॥
अद्वैत आचार्य के जिन वंशजों ने श्री अच्युतानन्द के मार्ग को अपनाया, वे सबके सब महान् भक्त हुए।
सेइ सेइ,--आचार्गेर कृपार भाजन ।अनायासे पाइल सेइ चैतन्य-चरण ॥
७४॥
अद्वैत आचार्य की कृपा से जिन भक्तों ने चैतन्य महाप्रभु के मार्ग का दृढ़ता से पालन किया, उन्हें चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों का आश्रय सहज ही प्राप्त हो गया।
अच्युतेर ग्रेइ मत, सेइ मत सार ।।और व्रत मत सब हैल छारखार ॥
७५ ॥
अतएव यह निष्कर्ष यह निकलता है कि अच्युतानन्द का मार्ग ही यात्मिक जीवन का सार है। जिन लोगों ने इस मार्ग का पालन नहीं किया, वे मात्र तितर-बितर होकर रह गये।
सेइ आचार्य-गणे मोर कोटि नमस्कार ।अच्युतानन्द-प्राय, चैतन्य जीवन याँहार ॥
७६ ॥
अतः मैं अच्युतानन्द के उन असली अनुगामियों को कोटि-कोटि नमस्कार करता हूँ, जिनके जीवनाधार श्री चैतन्य महाप्रभु थे।
एइ त कहिलाँ आचार्य-गोसाजिर गण ।।तिन स्कन्ध-शाखार कैल संक्षेप गणन ॥
७७॥
इस तरह मैंने संक्षेप में श्री अद्वैत आचार्य के वंशजों की तीन शाखाओं (अच्युतानन्द, कृष्ण मिश्र तथा गोपाल) का वर्णन किया है।
शाखा-उपशाखा, तार नाहिक गणन।किछु-मात्र कहि' करि दिग्दरशन ॥
७८॥
अद्वैत आचार्य की असंख्य शाखाएँ तथा उपशाखाएँ हैं। उन सबकी पूर्णरूपेण गणना कर पाना अत्यन्त कठिन है। मैंने तो पूरे तने तथा इसकी शाखाओं-उपशाखाओं की झाँकी मात्र प्रस्तुत की है।
श्री-गदाधर पण्डित शाखाते महोत्तम ।।ताँर उपशाखा किछु करि ग्रे गणन ॥
७९॥
अद्वैत आचार्य की शाखाओं तथा उपशाखाओं का वर्णन करने के बाद मैं अब श्री गदाधर पण्डित के कुछ वंशजों का वर्णन करने का प्रयास करूंगा, क्योंकि यह प्रधान शाखाओं में से एक है।
शाखा-श्रेष्ठ धुवानन्द, श्रीधर ब्रह्मचारी ।। भागवताचार्य, हरिदास ब्रह्मचारी ॥
८०॥
वा श्री गदाधर पण्डित की मुख्य शाखाएँ थीं (१) श्री धुवानन्द, १) श्रीधर ब्रह्मचारी, (३) हरिदास ब्रह्मचारी तथा (४) रघुनाथ गवताचार्य।
अनन्त आचार्य, कविदत्त, मिश्र-नयन ।गङ्गामन्त्री मामु ठाकुर, कण्ठाभरण ॥
८१॥
। पाँचवीं शाखा थे अनन्त आचार्य, छठी कविदत्त, सातवीं नयन मिश्र, आठवीं गंगामन्त्री, नवीं मामु ठाकुर तथा दसवीं शाखा कण्ठाभरण थे।
भूगर्भ गोसाजि, आर भागवत-दास ।।ग्रेइ दुइ आसि' कैल वृन्दावने वास ॥
८२ ॥
गदाधर गोस्वामी की ग्यारहवीं शाखा में भूगर्भ गोसांइ हुए और बारहवीं में भागवतदास। ये दोनों वृन्दावन चले गये और जीवनभर वहीं रहे।
वाणीनाथ ब्रह्मचारी—बड़ महाशय । वल्लभ-चैतन्य-दास—कृष्ण-प्रेममय ॥
८३॥
। तेरहवीं शाखा थे वाणीनाथ ब्रह्मचारी और चौदहवीं वल्लभ चैतन्य स। ये दोनों महापुरुष सदैव कष्ण-प्रेम से परित रहते थे।
श्रीनाथ चक्रवर्ती, आर उद्धव दास ।।जितामित्र, काष्ठकाटा-जगन्नाथ-दास ॥
८४॥
श्रीनाथ चक्रवर्ती पंद्रहवीं, उद्धव सोलहवीं, जितामित्र सत्रहवीं तथा जगन्नाथ दास अठारहवीं शाखाएँ थे।
श्री-हरि आचार्य, सादि-पुरिया गोपाल ।कृष्णदास ब्रह्मचारी, पुष्प-गोपाल ॥
८५ ॥
श्री हरि आचार्य उन्नीसवीं, सादिपुरिया गोपाल बीसवीं, कृष्णदास ब्रह्मचारी इक्कीसवीं तथा पुष्पगोपाल बाइसवीं शाखाएँ थे।
श्रीहर्ष, रघु-मिश्र, पण्डित लक्ष्मीनाथ ।बङ्गवाटी-चैतन्य-दास, श्री-रघुनाथ ॥
८६॥
श्रीहर्ष तेईसवीं शाखा थे, रघु मिश्र चौबीसवीं, लक्ष्मीनाथ पण्डित पीसवीं, बंगवाटी चैतन्य दास छब्बीसवीं तथा रघुनाथ सत्ताइसवीं खाएँ थे।
अमोघ पण्डित, हस्ति-गोपाल, चैतन्य-वल्लभ ।यदु गाङ्गुलि आर मङ्गल वैष्णव ॥
८७॥
अट्ठाइसवीं शाखा अमोघ पण्डित थे, उन्तीसवीं हस्तिगोपाल, तीसवीं चैतन्य वल्लभ, इकतीसवीं यदु गांगुली तथा मंगल वैष्णव बत्तीसवीं शाखा थे।
चक्रवर्ती शिवानन्द सदा व्रजवासी । महाशाखा-मध्ये तेहो सुदृढ़ विश्वासी ॥
८८॥
शिवानन्द चक्रवर्ती लैंतीसवीं शाखा थे। वे दृढ़ विश्वास के साथ सदा दावन में रहे और गदाधर पण्डित की एक महत्त्वपूर्ण शाखा माने जाते है।
एई त' सङ्क्षेपे कहिलाँ पण्डितेर गण ।ऐछे आर शाखा-उपशाखार गणन ॥
८९॥
इस तरह मैंने गदाधर पण्डित की शाखाओं तथा उपशाखाओं का संक्षेप में वर्णन किया है। तब भी ऐसी अनेक शाखाएँ हैं, जिनका उल्लेख मैंने यहाँ नहीं किया।
पण्डितेर गण सब,-भागवत धन्य। प्राण-वल्लभ-सबार श्रीकृष्ण-चैतन्य ॥
९०॥
गदाधर पण्डित के सारे अनुयायी महान् भक्त माने जाते हैं, क्योंकि श्री चैतन्य महाप्रभु इन सबके प्राणप्रिय थे।
एइ तिन स्कन्धेर कैलँ शाखारे गणन ।याँ-सबा-स्मरणे भव-बन्ध-विमोचन ॥
९१॥
। मैंने जिन तीन तनों (नित्यानन्द, अद्वैत तथा गदाधर) की शाखाओं तथा उपशाखाओं का वर्णन किया है, उनके नामों का स्मरण करने मात्र ही मनुष्य भवबन्धन से छूट जाता है।
याँ-सबा-स्मरणे पाइ चैतन्य-चरण ।याँ-सबा-स्मरणे हये वाञ्छित पूरण ॥
९२॥
इन सारे वैष्णवों के नामों का स्मरण करने मात्र से ही मनुष्य श्री पैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों तक पहुँच सकता है। निस्सन्देह, उनके पवित्र नामों के स्मरण मात्र से सारी इच्छाएँ पूरी हो जाती हैं।
अतएव ताँ-सबार वन्दिये चरण ।चैतन्य-मालीर कहि लीला-अनुक्रम ॥
९३ ॥
अतएव उन सबके चरणकमलों को सादर नमस्कार करते हुए अब मैं माली-रूप श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं का क्रमवार वर्णन करूंगा।
गौर-लीलामृत-सिन्धु–अपार अगाध ।। के करिते पारे ताहाँ अवगाह-साध ॥
९४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं का समुद्र अपार तथा अगाध है। भला ऐसे विशाल समुद्र को मापने का साहस कौन कर सकता है? ताहार माधुर्य-गन्धे लुब्ध हय मन ।। अतएव तटे रहि' चाकि एक कण ॥
९५॥
उस विशाल समुद्र में डुबकी लगाना सम्भव नहीं है, किन्तु उसकी माधुर्य गन्ध मेरे मन को आकृष्ट करती है। अतएव मैं उस समुद्र के तट पर केवल एक बूंद चखने के लिए खड़ा हूँ।
श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश ।। चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
९६॥
भी रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों की वन्दना करते हुए तथा देव उनकी कृपा की आकांक्षा करते हुए मैं कृष्णदास उनके चरणचिह्नों का अनुसरण करते हुए श्रीचैतन्य-चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।
अध्याय तेरह: भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु का आगमन
स प्रसीदतु चैतन्य-देवो ग्रस्य प्रसादतः ।।तल्लीला-वर्णने योग्यः सद्यः स्यादधमोऽप्ययम् ॥
१॥
मैं श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा की कामना करता हूँ, जिनकी कृपा से एक अधम भी उनकी लीलाओं का वर्णन कर सकता है।
जय जय श्री कृष्ण-चैतन्य गौरचन्द्र । जयाद्वैतचन्द्र जय जय नित्यानन्द ॥
२॥
कृष्णचैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री अद्वैतचन्द्र की जय हो! श्री द प्रभु की जय हो! जय जय गदाधर जय श्रीनिवास ।जय मुकुन्द वासुदेव जय हरिदास ॥
३॥
। गदाधर प्रभु की जय हो! श्रीवास ठाकुर की जय हो! मुकुन्द प्रभु ॥
वासुदेव प्रभु की जय हो! हरिदास ठाकुर की जय हो! जय दामोदर-स्वरूप जय मुरारि गुप्त ।।एइ सब चन्द्रोदये तमः कैल लुप्त ॥
४॥
स्वरूप दामोदर तथा मुरारि गुप्त की जय हो! इन सारे दैदीप्यमान चन्द्रमाओं ने मिलकर इस भौतिक जगत् के अंधकार को दूर भगाया है।
जय श्री-चैतन्यचन्द्रेर भक्त चन्द्र-गण ।। सबार प्रेम ज्योत्स्नाय उज्वल त्रिभुवन ॥
५॥
उन सारे चन्द्रमाओं की जय हो, जो चैतन्य महाप्रभु नामक प्रधान चन्द्रमा के भक्त हैं। उनका उज्वल चन्द्रप्रकाश समूचे ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है।
एइ त कहिल ग्रन्थारम्भे मुख-बन्ध । एबे कहि चैतन्य-लीला-क्रम-अनुबन्ध ॥
६॥
इस प्रकार मैंने चैतन्य-चरितामृत की भूमिका कही है। अब मैं चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं का काल-क्रम से वर्णन करूंगा।
प्रथमे त' सूत्र-रूपे करिये गणन। पाछे ताहा विस्तारि करिब विवरण ॥
७॥
। सर्वप्रथम मैं महाप्रभु की लीलाओं को सूत्र-रूप में कहता हूँ। तब मैं उनका वर्णन विस्तार से करूंगा।
श्री-कृष्ण-चैतन्य नवद्वीपे अवतरि । आट-चल्लिश वत्सर प्रकट विहरि ॥
८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु नवद्वीप में अवतरित होकर अड़तालीस वर्षों तक प्रकट रहे और उन्होंने अपनी लीलाओं का आनन्द लिया।
चौद्द-शत सात शके जन्मेर प्रमाण । चौद्द-शत पश्चान्ने हइल अन्तर्धान ॥
९॥
श्री चैतन्य महाप्रभु शक सम्वत १४०७ (१४८६ ई.) में प्रकट हुए और १४५५ (१५३४ ई.) में इस जगत् से अन्तर्धान हो गये।
चब्बिश वत्सर प्रभु कैल गृह-वासे ।।निरन्तर कैल कृष्ण-कीर्तन-विलास ॥
१०॥
भी चैतन्य महाप्रभु चौबीस वर्षों तक गृहस्थाश्रम में रहे और सदा हरे ग आन्दोलन की लीलाओं में व्यस्त रहे।
चब्बिश वत्सर-शेषे करिया सन्यास । आर चब्बिश वत्सर कैल नीलाचले वास ॥
११॥
चौबीस वर्ष बाद उन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया और अगले चौबीस घर्षों तक वे जगन्नाथ पुरी में रहे।
तार मध्ये छय वत्सर-गमनागमन ।।कभु दक्षिण, कभु गौड़, कभु वृन्दावन ॥
१२॥
इन अन्तिम चौबीस वर्षों में से छः वर्षों तक वे लगातार भारत का भ्रमण करते रहे-कभी दक्षिण भारत में, कभी बंगाल में तो कभी वृन्दावन में।
अष्टादश वत्सर रहिला नीलाचले ।।कृष्ण-प्रेम-नामामृते भासा'ल सकले ॥
१३॥
शेष अठारह वर्षों तक वे निरन्तर जगन्नाथ पुरी में ही रहे। वहाँ उन्होंने अमृततुल्य हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करते हुए हर एक को कृष्णप्रेम की बाढ़ से सराबोर कर दिया।
गार्हस्थ्ये प्रभुर लीला ‘आदि'-लीलाख्यान ।‘मध्य'-'अन्त्य'-लीला–शेष-लीलार दुई नाम ॥
१४॥
उनके गृहस्थ-जीवन की लीलाएँ आदिलीला अर्थात् मूल लीलाएँ कहलाती हैं और उनकी बाद की लीलाएँ मध्यलीला तथा अन्त्यलीला कहलाती हैं।
आदि-लीला-मध्ये प्रभुर ग्रतेक चरित ।।सूत्र-रूपे मुरारि गुप्त करिला ग्रथित ॥
१५॥
आदिलीला के अन्तर्गत श्री चैतन्य महाप्रभु ने जितनी लीलाएँ कीं, मुरारि गुप्त ने संक्षेप में अंकित किया है।
प्रभुर ग्रे शेष-लीला स्वरूप-दामोदर ।।सूत्र करि' ग्रन्थिलेन ग्रन्थेर भितर ॥
१६॥
उनकी बाद की (शेष) लीलाएँ (मध्यलीला तथा अन्त्यलीला ) के सचिव स्वरूप दामोदर गोस्वामी ने संक्षेप में लिपिबद्ध कीं और इस प्रकार वे पुस्तक के रूप में रखी हुई हैं।
एइ दुइ जनेर सूत्र देखियो शुनिया ।वर्णना करेन वैष्णव क्रम → करिया ॥
१७ ॥
इन दो महापुरुषों द्वारा अंकित टिप्पणियों को देखकर तथा सुनकर कोई भी वैष्णव अर्थात् भगवद्भक्त इन लीलाओं को क्रमवार जान सकता हैं।
बाल्य, पौगण्ड, कैशोर, यौवन,—-चारि भेद ।अतएव आदि-खण्डे लीला चारि भेद ॥
१८॥
उनकी आदिलीला में चार विभाग हैं-बाल्य, पौगण्ड, कैशोर तथा यौवन।
सर्व-सद्गुण-पूर्णाम् तां वन्दे फाल्गुन-पूर्णिमाम् ।।यस्यां श्री-कृष्ण-चैतन्योऽवतीर्णः कृष्ण-नामभिः ॥
१९॥
मैं फाल्गुन महीने की पूर्णिमा की संध्या को सादर नमस्कार करता हूँ, जो शुभ-लक्षणों से पूर्ण शुभ घड़ी है, जब श्री चैतन्य महाप्रभु हरे कृष्ण नाम के संकीर्तन के साथ अवतीर्ण हुए।
फाल्गुन-पूर्णिमा-सन्ध्याय प्रभुर जन्मोदय ।।सेइ-काले दैव-योगे चन्द्र-ग्रहण हय ॥
२०॥
फाल्गुन पूर्णिमा की संध्या के समय जब महाप्रभु ने जन्म लिया, योगवश उस समय चन्द्रग्रहण भी लगा था।
‘हरि' ‘हरि' बले लोक हरषित हा ।जन्मिला चैतन्य-प्रभु' नाम' जन्माइया ॥
२१॥
हर्ष से हर व्यक्ति भगवान् के पवित्र नाम हरि! हरि! का उच्चारण कर रहा था और अपने प्रकट होने के पूर्व महाप्रभु पवित्र नाम को प्रकट कर चुके थे।
जन्म-बाल्य-पौगण्ड-कैशोर-युवा-काले ।हरि-नाम लओयाइला प्रभु नाना छले ॥
२२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने जन्म के समय, बाल्य, पौगण्ड, कैशोर तथा युवावस्था में भिन्न-भिन्न बहानों से लोगों को हरि-नाम ( हरे कृष्ण महामन्त्र) का कीर्तन करने के लिए प्रेरित किया।
बाल्य-भाव छले प्रभु करेन क्रन्दन ।'कृष्ण' 'हरि' नाम शुनि' रहये रोदन ॥
२३ ॥
अपने बाल्यकाल में जब महाप्रभु रो रहे होते थे, तब कृष्ण तथा हरि के पवित्र नामों को सुनकर वे तुरन्त रोना बन्द कर देते थे।
अतएव 'हरि' ‘हरि' बले नारीगण ।देखिते आइसे ज़ेबा सर्व बन्धु जन ॥
२४॥
जितनी सारी स्नेहशीला स्त्रियाँ बालक को देखने आती थीं, वे बालक के रोते ही हरि! हरि! नाम का उच्चारण करती थीं।
‘गौरहरि' बलि' तारे हासे सर्व नारी ।अतएव हैल ताँर नाम 'गौरहरि' ॥
२५॥
जब स्त्रियाँ यह कौतुक देखती थीं, तो वे आनन्दित होकर हँसने लगती थीं और वे महाप्रभु को 'गौरहरि' कहकर पुकारने लगीं। तभी से उनका अन्य नाम 'गौरहरि' पड़ गया।
बाल्य वयस–यावत् हाते खड़ि दिल ।। पौगण्ड वयस-—यावविवाह ना कैल ॥
२६॥
उनका बाल्यकाल उनकी शिक्षा का शुभारम्भ होने ( हाते खड़ि) के समय तक रहा, और बाल्यकाल समाप्ति से लेकर उनके विवाहित होने तक की उम्र पौगण्ड कहलाती है।
विवाह करिले हैल नवीन यौवन ।सर्वत्र लओयाइल प्रभु नाम-सङ्कीर्तन ॥
२७॥
उनके विवाह के बाद उनका यौवन प्रारम्भ हुआ, और अपनी युवावस्था में उन्होंने हर एक को सर्वत्र हरे कृष्ण महामन्त्र कीर्तन करने के लिए प्रेरित किया।
पौगण्ड-वयसे पड़ेन, पड़ान शिष्यगणे ।। सर्वत्र करेन कृष्ण-नामेर व्याख्याने ॥
२८॥
पौगण्डे अवस्था में वे गम्भीर विद्यार्थी बन गये और शिष्यों को पढ़ाते भी थे। इस तरह वे सर्वत्र कृष्णनाम की व्याख्या करते थे।
सूत्र-वृत्ति-पाँजि-टीका कृष्ोते तात्पर्य ।।शिष्येर प्रतीत हय,—प्रभाव आश्चर्य ॥
२९॥
व्याकरण का पाठ पढ़ाते समय तथा व्याख्या करके बताते समय श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने शिष्यों को भगवान् कृष्ण की महिमा के विषय में शिक्षा दी। चूंकि उनकी सारी व्याख्याएँ कृष्ण में समाप्त होती थीं, अतएव शिष्यगण उन्हें आसानी से समझ सकते थे। इस तरह उनका प्रभाव आश्चर्यजनक था।
यारे देखे, तारे कहे,—कह कृष्ण-नाम । कृष्ण-नामे भासाइल नवद्वीप-ग्राम ॥
३०॥
जब चैतन्य महाप्रभु विद्यार्थी थे, तब उन्हें जो कोई मिलता था उसको वे हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करने के लिए कहते थे। इस तरह उन्होंने । पूरे नवद्वीप ग्राम को हरे कृष्ण कीर्तन से आप्लावित कर दिया।
किशोर वयसे आरम्भिला सङ्कीर्तन ।रात्र-दिने प्रेमे नृत्य, सङ्गे भक्त-गण ॥
३१॥
युवावस्था के कुछ पहले उन्होंने संकीर्तन आन्दोलन प्रारम्भ किया। वे अपने भक्तों के साथ भावविभोर होकर दिन-रात नृत्य किया करते थे।
नगरे नगरे भ्रमे कीर्तन करिया । भासाइल त्रिभुवन प्रेम-भक्ति दिया ॥
३२॥
। ज्यों-ज्यों महाप्रभु कीर्तन करते हुए सर्वत्र भ्रमण करने लगे, त्यों संकीर्तन आन्दोलन नगर के एक छोर से दूसरे छोर तक बढ़ता गया। स तरह उन्होंने सारे विश्व को भगवत्प्रेम वितरण करके आप्लावित कर या।
चब्बिश वत्सर ऐछे नवद्वीप-ग्रामे ।। लओयाइला सर्व-लोके कृष्ण-प्रेम-नामे ।। ३३॥
चैतन्य महाप्रभु नवद्वीप क्षेत्र में चौबीस वर्षों तक रहे और उन्होंने हर व्यक्ति को हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करने तथा इस तरह कृष्ण-प्रेम में निमग्न होने के लिए प्रेरित किया।
चब्बिश वत्सर छिला करिया सन्यास ।भक्त-गण लञा कैला नीलाचले वास ॥
३४॥
शेष चौबीस वर्षों तक श्री चैतन्य महाप्रभु संन्यास लेकर अपने भक्तों के साथ जगन्नाथ पुरी में निवास करते रहे।
तार मध्ये नीलाचले छय वत्सर ।नृत्य, गीत, प्रेमभक्ति-दान निरन्तर ॥
३५॥
नीलाचल (जगन्नाथ पुरी) के इन चौबीस वर्षों में से छः वर्षों तक उन्होंने सदैव कीर्तन और नृत्य द्वारा भगवत्प्रेम का वितरण किया।
सेतुबन्ध, आर गौड़-व्यापि वृन्दावन । प्रेम-नाम प्रचारिया करिला भ्रमण ॥
३६॥
इन छः वर्षों में कुमारी अन्तरीप से लेकर बंगाल होते हुए वृन्दावन क कीर्तन करते, नाचते और कृष्ण-प्रेम का वितरण करते हुए उन्होंने सारे भारत का भ्रमण किया।
एइ ‘मध्य-लीला' नाम–लीला-मुख्यधाम ।शेष अष्टादश वर्षअन्त्य-लीला' नामे ॥
३७॥
। संन्यास ग्रहण करने के बाद चैतन्य महाप्रभु के भ्रमण के समय के कार्यकलाप ही उनकी मुख्य लीलाएँ हैं। शेष अठारह वर्षों के उनके कार्यकलाप अन्त्यलीला कहलाते हैं।
तार मध्ये छय वत्सर भक्तगण-सङ्गे ।प्रेम-भक्ति लओयाइल नृत्य-गीत-रङ्गे ॥
३८ ॥
इन अठारह वर्षों में से वे छः वर्षों तक लगातार जगन्नाथ पुरी में रहे और नियमित रूप से कीर्तन किया और सारे भक्तों को कीर्तन तथा नृत्य द्वारा कृष्ण-प्रेम के लिए प्रेरित किया।
द्वादश वत्सर शेष रहिला नीलाचले । प्रेमावस्था शिखाइला आस्वादन-च्छले ॥
३९॥
शेष बारह वर्ष वे जगन्नाथ पुरी में रहे और कृष्ण-प्रेम की दिव्य अनुभूति का आस्वादन करते हुए उन्होंने हर एक को इसके आस्वादन की विधि की शिक्षा प्रदान की।
रात्रि-दिवसे कृष्ण-विरह-स्फुरण ।उन्मादेर चेष्टा करे प्रलाप-वचन ॥
४०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु को दिन-रात कृष्ण का विरह सताता रहता था। इस विरह के लक्षणों को प्रकट करते हुए करुण पुकार करते, और पागल की तरह प्रलाप करते थे।
श्री-राधार प्रलाप ग्रैछे उद्धव-दर्शने ।।सेइमत उन्माद-प्रलाप करे रात्रि-दिने ॥
४१॥
जिस प्रकार उद्धव, से भेंट होने पर श्रीमती राधारानी असम्बद्ध बातें करती थीं, उसी तरह श्री चैतन्य महाप्रभु श्रीमती राधारानी के भाव में रात-दिन वैसा ही आस्वादन करते थे।
विद्यापति, जयदेव, चण्डीदासेर गीत ।।आस्वादेन रामानन्द-स्वरूप-सहित ॥
४२ ॥
महाप्रभु विद्यापति, जयदेव तथा चण्डीदास की कृतियाँ पढ़ा करते थे और रामानन्द राय तथा स्वरूप दामोदर गोस्वामी जैसे अपने अन्तरंग पार्षदों के साथ उनके गीतों का रसास्वादन करते थे।
कृष्णेर वियोगे व्रत प्रेम-चेष्टित ।। आस्वादिया पूर्ण कैल आपन वाञ्छित ।। ४३॥
कृष्ण के वियोग में श्री चैतन्य महाप्रभु इन सारे भावाविष्ट कार्यकलापों का आस्वादन करते थे और इस तरह वे स्वयं की इच्छाओं की पूर्ति करते थे।
अनन्त चैतन्य-लीला क्षुद्र जीव हा ।। के वर्णिते पारे, ताहा विस्तार करिया ॥
४४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाएँ अनन्त हैं। भला एक क्षुद्र जीव उन । दिव्य लीलाओं को कितना विस्तारपूर्वक वर्णन कर सकता है? सूत्र करि' गणे यदि आपने अनन्त । सहस्र-वदने तेहो नाहि पाय अन्त ॥
४५ ॥
यदि साक्षात् शेषनाग अनन्त को चैतन्य महाप्रभु की लीलाएँ सूत्रबद्ध करनी पड़े, तो वे अपने हजारों मुखों से भी उनकी सीमा पा सकने में समर्थ नहीं हो सकते।
दामोदर-स्वरूप, आर गुप्त मुरारि ।मुख्य-मुख्य-लीला सूत्रे लिखियाछे विचारि' ॥
४६।। श्री स्वरूप दामोदर तथा मुरारि गुप्त जैसे भक्तों ने पर्याप्त विचार विमर्श के बाद चैतन्य महाप्रभु की प्रमुख लीलाओं को सूत्रबद्ध किया है।
सेइ, अनुसारे लिखि लीला-सूत्रगण ।विस्तारि' वणिआछेन ताहा दास-वृन्दावन ॥
४७॥
श्री स्वरूप दामोदर तथा मुरारि गुप्त ने जो संक्षिप्त टिप्पणियाँ लिखी थीं, वे ही इस पुस्तक के आधारस्वरूप हैं। उन्हीं टिप्पणियों का अनुसरण करते हुए मैं महाप्रभु की सारी लीलाएँ लिख रहा हूँ। इन टिप्पणियों का विशद् वर्णन वृन्दावन दास ठाकुर द्वारा हुआ है।
चैतन्य-लीलार व्यास,---दास वृन्दावन ।मधुर करिया लीला करिला रचन ।। ४८ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं के प्रामाणिक लेखक श्रील वृन्दावन दास ठाकुर श्रील व्यासदेव के ही समान हैं। उन्होंने इन लीलाओं का वर्णन इस प्रकार किया है कि वे अधिक मधुर बन गई हैं।
ग्रन्थ-विस्तार-भये छाड़िला ग्रे ग्रे स्थान ।।सेइ सेइ स्थाने किछु करिब व्याख्यान ॥
४९॥
। इस भय से कि उनका ग्रंथ कहीं बहुत बृहदाकार न हो जाए, उन्होंने कुछ स्थानों का विस्तृत वर्णन छोड़ दिया है। मैं उन्हीं-उन्हीं स्थानों को यथाशक्ति पूरित करने का प्रयास करूंगा।
प्रभुर लीलामृत तेंहो कैल आस्वादन ।।ताँर भुक्त-शेष किछु करिये चर्वण ॥
५०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की दिव्य लीलाओं का वास्तविक आस्वादन तो श्रील वृन्दावन दास ठाकुर ने किया है। मैं तो उन्हीं के छोड़े हुए भोजन को चबाने का प्रयास-मात्र कर रहा हूँ।
आदि-लीला-सूत्र लिखि, शुन, भक्त-गण ।सक्षेपे लिखिये सम्यक् ना ग्राय लिखन ॥
५१॥
। हे भगवान् चैतन्य के भक्तों, अब मैं आदिलीला के सूत्रों को संक्षेप में लिख रहा हूँ, क्योंकि इन लीलाओं का पूर्ण रूप से वर्णन करना सम्भव नहीं है।
कोन वाञ्छा पूरण लागि' व्रजेन्द्र-कुमार।अवतीर्ण हैते मने करिला विचार ॥
५२॥
अपने मन की एक विशेष इच्छा पूरी करने के लिए व्रजेन्द्रकुमार भगवान् कृष्ण ने भलीभाँति विचार करने के बाद इस लोक में अवतरित होने का निश्चय किया।
आगे अवतारिला ग्रे ये गुरु-परिवार ।सङ्क्षेपे कहिये, कहा ना ग्राय विस्तार ॥
५३॥
अतएव भगवान् कृष्ण ने सबसे पहले अपने वरिष्ठ जनों के परिवार को पृथ्वी पर अवतरित होने दिया। मैं उनका संक्षेप में ही वर्णन करूँगा, क्योंकि उनका पूर्णतया वर्णन कर पाना सम्भव नहीं है।
श्री-शची-जगन्नाथ, श्री-माधव-पुरी ।। केशव भारती, आर श्री-ईश्वर पुरी ॥
५४॥
अद्वैत आचार्य, आर पण्डित श्रीवास ।।आचार्यरत्न, विद्यानिधि, ठाकुर हरिदास ॥
५५॥
भगवान् श्रीकृष्ण ने चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट होने के पूर्व इन भक्तों को अपने से पहले प्रकट होने का आग्रह किया-श्री शचीदेवी, जगन्नाथ मिश्र, माधवेन्द्र पुरी, केशव भारती, ईश्वर पुरी, अद्वैत आचार्य, श्रीवास पण्डित, आचार्यरत्न, विद्यानिधि तथा ठाकुर हरिदास।
श्रीहट्ट-निवासी श्री-उपेन्द्र-मिश्र-नाम ।वैष्णव, पण्डित, धनी, सद्गुण-प्रधान ॥
५६॥
श्रीहट्ट जिले के एक निवासी थे जिनका नाम श्री उपेन्द्र मिश्र था। वे भगवान् विष्णु के महान् भक्त, विद्वान पण्डित, धनी तथा सारे सद्गुणों की खान थे।
सप्त मिश्र ताँर पुत्र—सप्त ऋषीश्वर । कंसारि, परमानन्द, पद्मनाभ, सर्वेश्वर ॥
५७॥
जगन्नाथ, जनार्दन, त्रैलोक्यनाथ ।।नदीयाते गङ्गा-वास कैल जगन्नाथ ॥
५८॥
उपेन्द्र मिश्र के सात पुत्र थे और वे सभी परम सन्त तथा अत्यन्त प्रभावशाली थे। इनके नाम थे-(१) कंसारि, (२) परमानन्द, (३) पद्मनाभ, (४) सर्वेश्वर, (५) जगन्नाथ, (६) जनार्दन तथा (७) त्रैलोक्यनाथ। पाँचवें पुत्र जगन्नाथ मिश्र ने गंगा नदी के तट पर नदिया नामक स्थान में रहने का निश्चय किया।
जगन्नाथ मिश्रवर—पदवी 'पुरन्दर' ।नन्द-वसुदेव-रूप सद्गुण-सागर ॥
५९॥
। जगन्नाथ मिश्र को 'पुरन्दर' उपाधि मिली थी। वे नन्द महाराज तथा वसुदेव की ही भाँति समस्त सद्गुणों के सागर थे।
ताँर पत्नी ‘शची'-नाम, पतिव्रता सती ।। याँर पिता 'नीलाम्बर' नाम चक्रवर्ती ॥
६०॥
उनकी पत्नी श्रीमती शचीदेवी सती स्त्री थीं और अत्यन्त पतिव्रता थीं। शचीदेवी के पिता का नाम नीलाम्बर था तथा उनका कुलनाम चक्रवर्ती था।
राढ़देशे जन्मिला ठाकुर नित्यानन्द ।। गङ्गादास पण्डित, गुप्त मुरारि, मुकुन्द ॥
६१॥
राढ़देश बंगाल का वह भाग है जहाँ गंगा दिखाई नहीं पड़ती। उसी देश में नित्यानन्द प्रभु, गंगादास पण्डित, मुरारि गुप्त तथा मुकुन्द ने जन्म लिया।
असङ्ख्य भक्तेर कराइला अवतार । शेषे अवतीर्ण हैला व्रजेन्द्रकुमार ॥
६२ ।। व्रजेन्द्र कुमार भगवान् कृष्ण ने सर्वप्रथम असंख्य भक्तों को प्रकट होने दिया और अन्त में वे स्वयं प्रकट हुए।
प्रभुर आविर्भाव-पूर्वे व्रत वैष्णव-गण । अद्वैत-आचार स्थाने करेन गमन ॥
६३॥
चैतन्य महाप्रभु के प्रकट होने के पूर्व नवद्वीप के सारे भक्त अद्वैत यं के घर में जुटा करते थे।
गीता-भागवत कहे आचार्य-गोसाजि ।ज्ञान-कर्म निन्दि' करे भक्तिर बड़ाइ ।। ६४॥
। वैष्णवों की इन सभाओं में अद्वैत आचार्य भगवद्गीता तथा मद्भागवत सुनाया करते थे, जिसमें वे दार्शनिक चिन्तन तथा सकाम फर्म की निन्दा करते और भक्ति की सर्वश्रेष्ठता स्थापित करते थे।
सर्व-शास्त्रे कहे कृष्ण-भक्तिर व्याख्यान । ज्ञान, योग, तपो-धर्म नाहि माने आन ।। ६५॥
। वैदिक संस्कृति के सारे प्रामाणिक शास्त्र भगवान् कृष्ण की भक्ति की व्याख्या से भरे पड़े हैं। इसलिए भगवान् कृष्ण के भक्त दार्शनिक सर्क, योग, व्यर्थ तपस्या एवं तथाकथित धार्मिक अनुष्ठानों को मान्यता प्रदान नहीं करते। वे भक्ति के अतिरिक्त अन्य किसी विधि को ना स्वीकार करते।
ताँर सङ्गे आनन्द करे वैष्णवेर गण । कृष्ण-कथा, कृष्ण-पूजा, नाम-सङ्कीर्तन ॥
६६॥
सारे वैष्णव अद्वैत आचार्य के घर में सदैव कृष्ण के विषय में बातें करने, कृष्ण की पूजा करने तथा हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करने में आनन्द का अनुभव करते थे।
किन्तु सर्व-लोक देखि' कृष्ण-बहिर्मुख । विषये निमग्न लोक देखि पाय दुःख ॥
६७॥
। किन्तु श्री अद्वैत आचार्य को पीड़ा होती, जब वे देखते कि सारे लोग णभावनामृत से रहित हैं और मात्र भौतिक इन्द्रियभोग में डूबे हुए हैं।
लोकेर निस्तार-हेतु करेन चिन्तन ।। केमते ए सब लोकेर हइबे तारण ॥
६८ ॥
संसार की ऐसी दशा देखकर वे गम्भीरतापूर्वक सोचने लगे कि माया के पाश से किस प्रकार इन लोगों का उद्धार किया जा सकता है।
कृष्ण अवतरि' करेन भक्तिर विस्तार ।तबे त' सकल लोकेर हइबे निस्तार ॥
६९॥
श्रील अद्वैत आचार्य प्रभु ने सोचा, यदि भक्ति सम्प्रदाय का वितरण करने के लिए स्वयं कृष्ण अवतरित हों, तभी सारे लोगों का उद्धार होना सम्भव है।
कृष्ण अवतारिते आचार्य प्रतिज्ञा करिया ।। कृष्ण-पूजा करे तुलसी-गङ्गाजल दिया ॥
७० ॥
इस उद्देश्य से अद्वैत आचार्य प्रभु ने भगवान् को अवतरित कराने की प्रतिज्ञा करते हुए तुलसीदल तथा गंगाजल से पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की पूजा करनी शुरू कर दी।
कृष्णेर आह्वान करे सघन हुङ्कार ।।हुङ्कारे आकृष्ट हैला व्रजेन्द्र कुमार ॥
७१॥
उन्होंने जोर जोर से हुंकार करके भगवान् कृष्ण को प्रकट होने के लिए आमन्त्रित किया, और उनकी बार-बार की हुंकार से कृष्ण अवतरित होने के लिए आकृष्ट हुए।
जगन्नाथमिश्र-पत्नी शचीर उदरे । अष्ट कन्या क्रमे हैल, जन्मि' जन्मि' मरे ॥
७२॥
चैतन्य महाप्रभु के जन्म के पूर्व जगन्नाथ मिश्र की पत्नी शचीमाता की कोख से एक-एक करके आठ पुत्रियाँ जन्म ले चुकी थीं। किन्तु उन सबकी जन्म लेने के तुरन्त बाद मृत्यु हो गई।
अपत्य-विरहे मिश्रर दुःखी हैल मन ।।पुत्र लागि' आराधिल विष्णुर चरण ॥
७३॥
एक-एक करके सारी सन्तानों की मृत्यु से जगन्नाथ मिश्र अत्यन्त दुःखी थे। अतएव उन्होंने पुत्र-प्राप्ति की कामना से भगवान् विष्णु के चरणकमलों की पूजा की।
तबे पुत्र जनमिला 'विश्वरूप' नाम ।महा-गुणवान् तेह—'बलदेव'-धाम ॥
७४॥
। इसके बाद जगन्नाथ मिश्र को विश्वरूप नामक पुत्र की प्राप्ति हुई, जो अत्यन्त शक्तिमान तथा गुणवान थे, क्योंकि वे बलदेव के अवतार थे।
बलदेव-प्रकाश-परम-व्योमे ‘सङ्कर्षण' ।।तेह—विश्वेर उपादान-निमित्त-कारण ॥
७५ ॥
आध्यात्मिक जगत् में बलदेव के अंश संकर्षण कहलाते हैं, जो इस भौतिक जगत् के उपादान तथा प्रत्यक्ष कारण हैं।
ताँहा बइ विश्वे किछु नाहि देखि आर ।अतएव विश्वरूप' नाम ये ताँहार ॥
७६ ॥
विराट्-रूप को महासंकर्षण का विश्वरूप अवतार कहते हैं। इस तरह इस विराट् जगत् में हमें उनके अतिरिक्त कुछ भी और देखने को नहीं मिलता।
नैतच्चित्रं भगवति ह्यनन्ते जगदीश्वरे ।। ओतं प्रोतमिदं ग्रस्मिन्तन्तुष्वङ्ग ग्रथा पटः ॥
७७ ॥
जिस प्रकार वस्त्र में धागा लम्बाई तथा चौड़ाई दोनों ओर फैला रहता है, उसी तरह इस ब्रह्माण्ड के भीतर की प्रत्येक वस्तु में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से विद्यमान हैं। यह उनके लिए आश्चर्यजनक नहीं है।
अतएव प्रभु ताँरै बले, ‘बड़ भाइ' ।। कृष्ण, बलराम दुइ-चैतन्य, निताई ॥
७८॥
। महासंकर्षण प्रकट ब्रह्माण्ड के उपादान तथा निमित्त कारण हैं, अतएव वे ब्रह्माण्ड की हर वस्तु में विद्यमान हैं। अतएव चैतन्य महाप्रभु न्हें अपना बड़ा भाई कहते थे। आध्यात्मिक जगत् में दोनों भाई कृष्ण तथा बलराम कहलाते हैं, किन्तु अब वे ही चैतन्य तथा निताई हैं। अतएव निष्कर्ष यह है कि नित्यानन्द प्रभु आदि संकर्षण, बलदेव हैं।
पुत्र पाञा दम्पति हैला आनन्दित मन ।।विशेषे सेवन करे गोविन्द-चरण ॥
७९॥
विश्वरूप को पुत्र रूप में पाकर दम्पति (जगन्नाथ मिश्र तथा शचीमाता) मन ही मन अत्यन्त प्रसन्न थे। इसी प्रसन्नता के कारण वे गोविन्द के चरणकमलों की सेवा विशेषरूप से करने लगे।
चौद्द-शत छय शके शेष माघ मासे । जगन्नाथ-शचीर देहे कृष्णेर प्रवेशे ।। ८०॥
शक सम्वत १४०६ के माघ मास (१४८५ ई. का जनवरी मास) में भगवान् कृष्ण जगन्नाथ मिश्र तथा शचीदेवी दोनों ही के शरीर में प्रविष्ट हुए।
मिश्र कहे शची-स्थाने,-—देखि आन रीत । ज्योतिर्मय देह, गेह लक्ष्मी-अधिष्ठित ॥
८१॥
जगन्नाथ मिश्र ने शचीमाता से कहा, मैं आश्चर्य देख रहा हूँ। तुम्हारा और ज्योति से युक्त है और ऐसा लगता है कि साक्षात् लक्ष्मी देवी मेरे घर पधारी हैं।
ग्राहाँ ताहाँ सर्व-लोक करये सम्मान ।घरे पाठाइया देय धन, वस्त्र, धान ॥
८२॥
मैं जहाँ कहीं जाता हूँ, लोग मेरा सम्मान करते हैं। वे मेरे कहे बिना ही स्वेच्छा से मुझे धन, वस्त्र तथा धान देते हैं।
शची कहे,---मुजि देखों आकाश-उपरे । दिव्य-मूर्ति लोक सब ग्रेन स्तुति करे ॥
८३॥
शचीमाता ने अपने पति से कहा, मुझे बाह्य आकाश में अत्यन्त विचित्र तेजोमय पुरुष प्रकट होते दिख रहे हैं, मानों वे स्तुति कर रहे हों।
जगन्नाथ मिश्र कहे,—स्वप्न ग्ने देखिल ।ज्योतिर्मय-धाम मोर हृदये पशिल ॥
८४॥
तब जगन्नाथ मिश्र ने कहा, मैंने सपने में भगवान् के तेजोमय धाम को अपने हृदय में प्रवेश होते देखा है।
आमार हृदय हैते गेला तोमार हृदये ।। हेन बुझि, जन्मिबेन कोन महाशये ॥
८५ ॥
फिर यह मेरे हृदय से निकलकर तुम्हारे हृदय में प्रविष्ट हुआ। इसलिए मुझे लगता है कि शीघ्र ही किसी महापुरुष का जन्म होगा।
एत बलि' हे रहे हरषित हा ।। शालग्राम सेवा करे विशेष करिया ॥
८६॥
इस वार्तालाप के बाद पति-पत्नी दोनों परम हर्षित थे और दोनों ने मिलकर घर की शालग्राम-शिला की सेवा की।
हैते हैते हैल गर्भ त्रयोदश मास । तथापि भूमिष्ठ नहे,—मिश्रेर हैल त्रास ॥
८७॥
इस तरह गर्भ तेरहवें मास में आ पहुँचा, किन्तु शिशु के प्रसव का कोई संकेत न था। फलतः जगन्नाथ मिश्र को बड़ी चिन्ता होने लगी।"
नीलाम्बर चक्रवर्ती कहिल गणिया ।। एइ मासे पुत्र हबे शुभ-क्षण पाञा ॥
८८ ॥
तब नीलाम्बर चक्रवर्ती (चैतन्य महाप्रभु के नाना ) ने नक्षत्रों की गणना करके बतलाया कि शुभ क्षण का लाभ उठाकर इसी मास में बालक का जन्म होगा।
चौद्द-शत सात-शके मास ये फाल्गुन ।।पौर्णमासीर सन्ध्या-काले हैले शुभ-क्षण ॥
८९॥
इस प्रकार शक सम्वत १४०७ (१४८६ ई.) के फाल्गुन मास ( फरवरी-मार्च) में पूर्णमासी की सन्ध्या के समय वांछित शुभ मुहूर्त आ गया।
सिंह-राशि, सिंह-लग्न, उच्च ग्रह-गण ।घडू-वर्ग, अष्ट-वर्ग, सर्व सुलक्षण ॥
९०॥
। (ज्योतिर्वेद अर्थात् वैदिक ज्योतिष के अनुसार मुहूर्त का वर्णन निम्न प्रकार है), शुभ जन्म चन्द्र सिंह राशि पर था, सिंह उच्च स्थान पर था। ग्रहगण उच्च स्थान पर शक्तिशाली स्थिति में थे। षड्वर्ग एवं अष्ट-वर्ग शुभ प्रभाव को प्रदर्शित कर रहे थे।
अ-कलङ्क गौरचन्द्र दिला दरशन ।। स-कलङ्क चन्द्रे आर को प्रयोजन ॥
९१ ॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु रूपी निष्कलंक चन्द्रमा दिख गया, तो फिर कलंकयुक्त चन्द्रमा की आवश्यकता कहाँ रही? एत जानि' राहु कैल चन्द्रेर ग्रहण । 'कृष्ण' 'कृष्ण' ‘हरि' नामे भासे त्रिभुवन ॥
९२॥
यह सोचकर काले ग्रह राहु ने पूर्णचन्द्रमा को ढक लिया और तुरन्त ही तीनों जगत् कृष्ण! कृष्ण! हरि! की ध्वनि से गुंजायमान हो उठे।
जय जय ध्वनि हैल सकल भुवन ।।चमत्कार हैया लोक भावे मने मन ॥
९३॥
इस तरह सारे लोग चन्द्र ग्रहण के समय हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन कर रहे थे और उनके मन आश्चर्यचकित थे।
जगत् भरिया लोक बले–‘हरि' ‘हरि' ।सेइ-क्षणे गौरकृष्ण भूमे अवतरि ॥
९४॥
जब सारा जगत् इस तरह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन कर रहा था, तब गौरहरि के रूप में स्वयं कृष्ण पृथ्वी पर अवतरित हुए।
प्रसन्न हइल सब जगतेर मन ।।‘हरि' बलि' हिन्दुके हास्य करये ग्रवन ॥
९५॥
सारा जगत् प्रसन्न था। जहाँ हिन्दू लोग भगवान् के नाम का कीर्तन कर रहे थे, वहीं अहिन्दू, विशेषतया मुसलमान, उनके शब्दों की हँसी हँसी में नकल कर रहे थे।
‘हरि' बलि' नारीगण देइ हुलाहुलि ।।स्वर्गे वाद्य-नृत्य करे देव कुतूहली ॥
९६॥
जब सारी स्त्रियाँ पृथ्वी पर हरि-नाम का उच्चारण कर रही थीं, तो उस समय स्वर्गलोक में नृत्य और गान चल रहा था, क्योंकि देवतागण अत्यन्त उत्सुक थे।
प्रसन्न हैल दश दिक्, प्रसन्न नदीजल ।स्थावर-जङ्गम हैल आनन्दे विह्वल ॥
९७॥
इस प्रकार के वातावरण में दशों दिशाएँ प्रमुदित हो उठीं और नदियों की तरंगे भी उसी तरह उमड़ने लगीं। साथ ही सारे चर तथा अचर प्राणी दिव्य आनन्द से अभिभूत हो उठे।
नदीया-उदयगिरि, पूर्णचन्द्र गौरहरि, कृपा करि' हइल उदय ।। पाप-तम: हैल नाश, त्रि-जगतेर उल्लास,जगभरि' हरि-ध्वनि हय ॥
९८॥
इस तरह अपनी अहैतुकी कृपा से पूर्णचन्द्र रूपी गौरहरि नदिया जिले में उदित हुए। नदिया की उपमा उस उदयगिरि से दी गई है, जहाँ सूर्य सर्वप्रथम दिखता है। आकाश में उनके उदय होने से पापमय जीवन का अंधकार विनष्ट हो गया और तीनों लोक हर्षित हो उठे तथा भगवान के पवित्र नाम का कीर्तन करने लगे।
सेइ-काले निजालय, उठिया अद्वैत राय,नृत्य करे आनन्दित-मने । हरिदासे लञा सङ्गे, हुङ्कार-कीर्तन-रङ्गेकेने नाचे, केह नाहि जाने ॥
९९ ॥
उस समय श्री अद्वैत आचार्य प्रभु अपने शान्तिपुर के घर में प्रसन्न मुद्रा में नाच रहे थे। वे हरिदास ठाकुर को अपने साथ लेकर नाच रहे थे और ऊँचे स्वर में हरे कृष्ण का कीर्तन कर रहे थे। किन्तु वे क्यों नाच रहे थे, यह कोई नहीं समझ सका।
देखि' उपराग हासि', शीघ्र गङ्गा-घाटे आसि'आनन्दे करिल गङ्गा-स्नान ।। पाञा उपराग-छले, आपनार मनो-बले, ब्राह्मणेरे दिल नाना दान ॥
१०० ॥
चन्द्र-ग्रहण को देखते तथा हँसते हुए अद्वैत आचार्य तथा हरिदास ठाकुर दोनों तुरन्त गंगा के तट पर गये और परम हर्ष के साथ उन्होंने गंगास्नान किया। चन्द्रग्रहण के अवसर का लाभ उठाते हुए अद्वैत आचार्य ने अपनी मानसिक शक्ति के द्वारा ब्राह्मणों को तरह-तरह के दान दिये।
जगतानन्दमय, देखि' मने स-विस्मय, ठारेठोरे कहे हरिदास ।। तोमार ऐछन रङ्ग, मोर मन परसन्न,देखि—किछु कार्ये आछे भास ॥
१०१॥
जब हरिदास ने देखा कि सारा संसार हर्षित है, तो उन्होंने विस्मित मन से अद्वैत आचार्य से प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से कह ही दिया, आपका नाचना और दान वितरित करना मुझे बहुत हर्षित कर रहा है। मैं समझ सकता हूँ कि इन क्रियाओं के पीछे अवश्य ही कोई विशेष प्रयोजन है।
आचार्यरत्न, श्रीवास, हैल मने सुखोल्लासग्राइ' स्नान कैल गङ्गा-जले ।। आनन्दे विह्वल मन, करे हरि-सङ्कीर्तन नाना दान कैल मनो-बले ॥
१०२॥
। । आचार्यरत्न (चन्द्रशेखर) तथा श्रीवास ठाकुर उल्लास से अभिभूत गये और वे तुरन्त गंगा नदी के तट पर गये और गंगाजल में स्नान करने लगे उनके मन आनन्द से पूर्ण थे। उन्होंने हरे कृष्ण मन्त्र का कीर्तन या और मनोबल द्वारा दान दिया।
एइ मत भक्त-तति, ग्राँर येइ देशे स्थिति,ताहाँ ताहाँ पाञा मनो-बले ।। नाचे, करे सङ्कीर्तन, आनन्दे विह्वल मन, दान करे ग्रहणेर छले ॥
१०३ ॥
इस तरह से सारे भक्त, जो जहाँ भी, जिस नगर तथा जिस देश में थे, सबके सब चन्द्र-ग्रहण के बहाने नाचने लगे, संकीर्तन करने लगे और मनोबल द्वारा दान देने लगे। उन सबके मन प्रसन्नता के मारे विह्वल थे।
ब्राह्मण-सज्जन-नारी, नाना-द्रव्ये थाली भरि'आइला सबे यौतुक लइया ।। ग्रेन काँचा-सोणा-द्युति, देखि' बालकेर मूर्ति,आशीर्वाद करे सुख पाञा ॥
१०४॥
सभी कोटियों के सम्मानीय ब्राह्मण जन तथा स्त्रियाँ विविध उपहारों से भरी थालियाँ भेंट करने आईं। सोने की तरह चमचमाते स्वरूप वाले नवजात शिशु को देखकर उन सबने अत्यन्त प्रसन्नता का अनुभव करते हुए आशीर्वाद दिये।
सावित्री, गौरी, सरस्वती, शची, रम्भा, अरुन्धतीआर ग्रत देव-नारीगण ।। नाना-द्रव्ये पात्र भरि', ब्राह्मणीर वेश धरि', आसि' सबे करे दरशन ।। १०५॥
समस्त दैवी स्त्रियाँ जिनमें ब्रह्माजी, शिवजी, भगवान् नृसिंहदेव, राजा त्र तथा ऋषि वशिष्ठ की पत्नियाँ एवं स्वर्ग की अप्सरा रम्भा भी सम्मिलित थीं, ब्राह्मणियों का वेश धारण करके नाना प्रकार के उपहार लेकर वहाँ पर आईं।
अन्तरीक्षे देव-गण, गन्धर्व, सिद्ध, चारण, स्तुति-नृत्य करे वाद्य-गीत ।। नर्तक, वादक, भाट, नवद्वीपे यार नाट, सबे आसि' नाचे पाञा प्रीत ॥
१०६॥
बाह्य अन्तरिक्ष में सारे देवता, जिनमें गन्धर्वलोक, सिद्धलोक तथा चारणलोक के निवासी सम्मिलित थे, स्तुति करने लगे और गीत गाका तथा ढोल बजाकर नाचने लगे। इसी प्रकार नवद्वीप नगरी में सारे पेशेवर नर्तक, गायक तथा भाटगण एकत्र होकर अत्यन्त प्रसन्नता के मारे नाचने लगे।
केबा आसे केबा याय, केबा नाचे केबा गाय,सम्भालिते नारे कार बोल । खण्डिलेक दुःख-शोक, प्रमोद-पूरित लोक, मिश्र हैला आनन्दे विह्वल ॥
१०७॥
कोई यह समझ नहीं पा रहा था कि कौन आ रहा है, कौन जा रहा फोन नाच रहा है और कौन गा रहा है। कोई एक दूसरे की भाषा तक समझ पा रहा था। किन्तु हुआ यह कि सारा दुःख और शोक तुरन्त से गया और सारे लोग प्रसन्न हो उठे। इस तरह जगन्नाथ मिश्र भी नन्द से अभिभूत हो गये।
आचार्यरत्न, श्रीवास, जगन्नाथ मिश्र-पाश,आसि' ताँरे करे सावधान ।। कराइल जातकर्म, ये आछिल विधि-धर्म,तबे मिश्र करे नाना दान ॥
१०८॥
। चन्द्रशेखर आचार्य तथा श्रीवास ठाकुर दोनों ने ही जगन्नाथ मिश्र के पास आकर तरह-तरह से उनका ध्यान आकर्षित किया। उन्होंने धार्मिक नियमों के अनुसार जन्मकाल के सारे अनुष्ठान सम्पन्न कराये। जगन्नाथ मिश्र ने भी तरह-तरह के दान दिये।
ग्रौतुक पाइल ग्रत, घरे वा आछिल कत,सब धन विप्रे दिल दान । ग्रत नर्तक, गायन, भाट, अकिञ्चन जन,धन दिया कैल सबार मान ॥
१०९॥
जगन्नाथ मिश्र ने भेंटों या उपहारों के रूप में जो धन पाया और जो कुछ उसके घर में था, उसे उन्होंने ब्राह्मणों, पेशेवर गायकों, नाचने वालों, भाटों तथा गरीबों में बाँट दिया। उन्होंने दान में धन देकर उन सबका सम्मान किया।
श्रीवासेर ब्राह्मणी, नाम ताँर ‘मालिनी',आचार्यरत्नेर पत्नी-सङ्गे।। सिन्दूर, हरिद्रा, तैल, खइ, कला, नारिकेल, दिया पूजे नारीगण रङ्गे ॥
११०॥
(आचार्यरत्न) की पत्नी तथा अन्य स्त्रियाँ परम प्रसन्नता से बालक की पूजा करने के लिए सिन्दूर, हल्दी, तेल, खइ ( भुने चावल), केले तथा नारियल जैसी सामग्री लेकर आईं।
अद्वैत-आचार्य-भार्या, जगत्पूजिता आर्या,नाम ताँर 'सीता ठाकुराणी' ।। आचार आज्ञा पाळा, गेल उपहार ला, देखिते बालक-शिरोमणि ॥
१११॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के जन्म के एक दिन बाद अद्वैत आचार्य की पत्नी सीतादेवी, जो जगत-भर के लिए पूज्य हैं, अपने पति से आज्ञा लेकर और अपने साथ तरह-तरह की भेंटें और उपहार लेकर उस सर्वश्रेष्ठ बालक को देखने गईं।
सुवर्णेर कड़ि-ब-उलि, रजतमुद्रा-पाशुलि, सुवर्णेर अङ्गद, कङ्कण ।। दु-बाहुते दिव्य शङ्ख, रजतेर मलबङ्क,स्वर्ण-मुद्रार नाना हारगण ॥
११२॥
वे अपने साथ अनेक प्रकार के सोने के आभूषण लाई थीं, जिनमें हाथ के कंगन, बाजूबन्द, हार तथा पाँव की पायल थी।
व्याघ्र-नख हेम-जड़ि, कटि-पट्टसूत्र-डोरी हस्त-पदेर व्रत आभरण ।। चित्र-वर्ण पट्ट-साड़ी, बुनि फोतो पट्टपाड़ी,स्वर्ण-रौप्य-मुद्रा बहु-धन ॥
११३॥
उसमें सोने में जड़े बघनखे, रेशमी कमरबन्ध, हाथों तथा पाँवों के । आभूषण, सुन्दर छपी रेशमी साड़ियाँ तथा रेशम की ही बनी बच्चे की पोषाक भी थे। साथ ही सोने तथा चाँदी के सिक्कों समेत अन्य द्रव्य भी बालक को न्यौछावर किये गये।
दुर्वा, धान्य, गोरोचन, हरिद्रा, कुङ्कुम, चन्दन,मङ्गल-द्रव्य पात्र भरिया ।। वस्त्र-गुप्त दोला चड़ि' सङ्गे ला दासी चेड़ी, वस्त्रालङ्कार पेटारि भरिया ॥
११४॥
सीता ठाकुराणी पर्दे से ढकी पालकी में चढ़कर और दासियों को साथ लेकर जगन्नाथ मिश्र के घर आईं। वे अपने साथ अनेक मंगल द्रव्य-यथा दूर्वा, धान, गोरोचन, हल्दी, कुंकुम एवं चन्दन लाई थीं। ये सारी भेटें एक बड़ी पिटारी में भरी हुई थीं।
भक्ष्य, भोज्य, उपहार, सङ्गे लइल बहु भार,शची-गृहे हैल उपनीत । देखिया बालक-ठाम, साक्षात्गोकुल-कान,वर्ण-मात्र देखि विपरीत ॥
११५॥
जब सीता ठाकुराणी अपने साथ अनेक खाने की वस्तुएँ, वस्त्र तथा अन्य उपहार लेकर शचीदेवी के घर आईं, तो वे नवजात शिशु को देखकर चकित हुईं, क्योंकि उन्हें लगा कि यह शिशु साक्षात् गोकुल के कृष्ण हैं, केवल रंग का अन्तर है।
सर्व अङ्ग सुनिर्माण, सुवर्ण-प्रतिमा-भान, सर्व अङ्ग–सुलक्षणमय ।। बालकेर दिव्य ज्योति, देखि' पाइल बहु प्रीति,वात्सल्येते द्रविल हृदय ॥
११६॥
बालक के दिव्य शारीरिक तेज, शुभ लक्षणों से युक्त सुगठित अंगों तथा स्वर्ण जैसे स्वरूप को देखकर सीता ठाकुराणी अत्यधिक प्रसन्न थीं और अपने मातृस्नेह के कारण उन्हें लग रहा था मानो उनका हृदय द्रवित हो उठा है।
दुर्वा, धान्य, दिल शीर्षे, कैल बहु आशीषे,चिरजीवी हओ दुई भाइ । डाकिनी-शाङ्खिनी हैते, शङ्का उपजिल चिते,डरे नाम थुइल निमाई' ॥
११७॥
। उन्होंने नवजात शिशु के सिर पर दूर्वादल तथा धान्य रखकर यह आशीष दिया दीर्घायु हो। किन्तु भूत-प्रेत तथा डायनों से भयभीत होने के कारण उन्होंने बालक का नाम निमाई रख दिया।
पुत्रमाता-स्नानदिने, दिल वस्त्र विभूषणे,पुत्र-सह मिश्रेरे सम्मानि' ।। शची-मिश्रेर पूजा लजा, मनेते हरिष हो,घरे आइला सीता ठाकुराणी ॥
११८॥
जिस दिन माता तथा बालक ने स्नान किया और प्रसूति-घर को छोड़ा, उस दिन सीता ठाकुराणी ने उन्हें सभी तरह के गहने और वस्त्र दिये। और जगन्नाथ मिश्र को भी सम्मानित किया। तत्पश्चात् सीता ठाकुराणी भी माता शचीदेवी और जगन्नाथ मिश्र द्वारा समादरित होकर अपने मन में अत्यधिक प्रसन्न हुईं और फिर अपने घर लौट आईं।
ऐछे शची-जगन्नाथ, पुत्र पाञा लक्ष्मीनाथ, पूर्ण हइल सकल वाञ्छित ।। धन-धान्ये भरे घर, लोकमान्य कलेवर,दिने दिने हय आनन्दित ॥
११९॥
इस प्रकार लक्ष्मीपति को पुत्र रूप में पाकर माता शचीदेवी तथा जगन्नाथ मिश्र की सारी मनोकामनाएँ पूरी हो गईं। उनका घर सदैव धनधान्य से भरा रहने लगा। वे ज्यों-ज्यों श्री चैतन्य के प्यारे शरीर को देखते, दिन-प्रतिदिन उनका आनन्द बढ़ता जाता था।
मिश्र वैष्णव, शान्त, अलम्पट, शुद्ध, दान्त,धन-भोगे नाहि अभिमान ।। पुत्रेर प्रभावे ग्रत, धन आसि' मिले, तत,विष्णु-प्रीते द्विजे देन दान ॥
१२०॥
। जगन्नाथ मिश्र एक आदर्श वैष्णव थे। वे शान्त, इन्द्रियतृप्ति में संयमित, शुद्ध तथा संयमी थे। अतएव उनमें भौतिक ऐश्वर्य भोगने की । कोई इच्छा नहीं थी। जो भी धन उनके दिव्य पुत्र के प्रभाव से आया, उसे उन्होंने विष्णु की तुष्टि के लिए ब्राह्मणों को दान में दे दिया।
लग्न गणि' हर्षमति, नीलाम्बर चक्रवर्ती,गुप्ते किछु कहिल मिशेरे ।। महापुरुषेर चिह्न, लग्ने अङ्गे भिन्न भिन्न,देखि,—एइ तारिबे संसारे ॥
१२१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की जन्मघड़ी की गणना करके नीलाम्बर चक्रवर्ती जगन्नाथ मिश्र से एकान्त में कहा कि उन्होंने बालक के शरीर तथा जन्मघड़ी दोनों में ही महान् व्यक्ति के विभिन्न लक्षण देखे हैं। इस प्रकार में समझ गये कि यह बालक भविष्य में तीनों लोकों का उद्धार करेगा।
ऐछे प्रभु शची-घरे, कृपाय कैल अवतारे, ग्रेइ इहा करये श्रवण ।। गौर-प्रभु दयामय, ताँरे हयेन सदय, सेइ पाय ताँहार चरण ॥
१२२॥
इस तरह चैतन्य महाप्रभु अपनी अहैतुकी कृपावश शचीदेवी के घर में अवतरित हुए। चैतन्य महाप्रभु उस किसी भी व्यक्ति पर अत्यन्त कृपाल होते हैं, जो उनके जन्म के इस वृत्तान्त को सुनता है। ऐसा मनुष्य महाप्रभु के चरणकमलों को प्राप्त करता है।
पाइया मानुष जन्म, ये ना शुने गौर-गुण,हेन जन्म तार व्यर्थ हैल ।। पाइया अमृतधुनी, पिये विष-गर्त-पानि,जन्मिया से केने नाहि मैल ॥
१२३॥
। जो व्यक्ति मनुष्य का शरीर पाकर भी श्री चैतन्य महाप्रभु के सम्प्रदाय को ग्रहण नहीं करता, वह अपने सुअवसर को खो देता है। अमृतधुनी भक्तिरूपी अमृत की प्रवाहमान नदी है। यदि मनुष्य शरीर पाकर कोई ऐसी नदी का जल पीने के बदले भौतिक सुख रूपी विषैले गड्ढे का जल पीता है, तो अच्छा यही होता कि वह जीवित रहने के बजाय बहुत पहले ही मर गया होता।
श्री-चैतन्य-नित्यानन्द, आचार्य अद्वैतचन्द्र,स्वरूप-रूप-रघुनाथदास ।। इँहा-सबार श्री-चरण, शिरे वन्दि निज-धन,जन्म-लीला गाइल कृष्णदास ॥
१२४॥
। मैंने, कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने, श्री चैतन्य महाप्रभु, नित्यानन्द प्रभु, आचार्य अद्वैतचन्द्र, स्वरूप दामोदर, रूप गोस्वामी तथा रघुनाथ स गोस्वामी के चरणकमलों को अपनी सम्पत्ति समझकर अपने सिर भारण करके श्री चैतन्य महाप्रभु के आविर्भाव का वर्णन किया है।
अध्याय चौदह: भगवान चैतन्य की बचपन की लीलाएँ
कथञ्चन स्मृते ग्रस्मिन्दुष्करं सुकरं भवेत् ।। विस्मृते विपरीतं स्यात् श्री-चैतन्यं नमामि तम् ॥
१॥
यदि कोई चैतन्य महाप्रभु का किसी भी प्रकार से स्मरण करता है, तो उसका कठिन कार्य सरल हो जाता है। किन्तु यदि उनका स्मरण नहीं किया जाता, तो सरल कार्य भी बड़ा कठिन बन जाता है। ऐसे चैतन्य महाप्रभु को मैं सादर नमस्कार करता हूँ।
जय जय श्री-चैतन्य, जय नित्यानन्द ।। जयाद्वैतचन्द्र, जय गौर-भक्त-वृन्द ॥
२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु, श्री नित्यानन्द प्रभु, श्री अद्वैत प्रभु तथा चैतन्य महाप्रभु के सारे भक्तों की जय हो! प्रभुर कहिल एइ जन्मलीला-सूत्र ।। यशोदा-नन्दन ग्रैछे हैल शची-पुत्र ॥
३॥
इस तरह मैंने श्री चैतन्य महाप्रभु के आविर्भाव को संक्षेप में सूत्रबद्ध किया है, जो शचीमाता के पुत्र के रूप में उसी तरह प्रकट हुए जिस तरह माता यशोदा के पुत्र रूप में श्रीकृष्ण प्रकट हुए थे।
सङ्क्षेपे कहिल जन्मलीला-अनुक्रम ।। एबे कहि बाल्यलीला-सूत्रेर गणन ॥
४॥
मैं उनके जन्म की लीलाओं का क्रमबद्ध वर्णन पहले ही कर चुका हूँ। अब मैं उनकी बाल्यकाल की लीलाओं को संक्षेप में बताऊँगा।
वन्दे चैतन्य-कृष्णस्य बाल्य-लीलां मनो-हराम् । लौकिकीमपि तामीश-चेष्टया वलितान्तराम् ॥
५॥
मैं उन श्री चैतन्य महाप्रभु की बाल-लीलाओं को सादर नमस्कार करता हूँ, जो स्वयं भगवान् कृष्ण हैं। यद्यपि ऐसी लीलाएँ सामान्य बालक के कार्यकलाप के समान लगती हैं, किन्तु उन्हें पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की विविध लीलाओं के रूप में समझा जाना चाहिए।
बाल्य-लीलाय आगे प्रभुर उत्तान शयन ।पिता-माताय देखाइल चिह्न चरण ॥
६॥
अपनी पहली बाल-लीलाओं में महाप्रभु अपने बिस्तर पर लेटे लेटे ऊपर से नीचे की ओर पलट गये और इस तरह उन्होंने अपने माता-पिता को अपने चरणकमलों के चिह्न दिखलाये।
गृहे दुई जन देखि लघुपद-चिह्न ।।ताहे शोभे ध्वज, वज्र, शङ्ख, चक्र, मीन ॥
७॥
जब महाप्रभु ने चलने का प्रयास किया, तो उनके पाँव की छोटी छोटी छाप में भगवान् विष्णु के विशिष्ट चिह्न-ध्वज, वज्र, शंख, चक्र तथा मछली-दिखलाई पड़े।
देखिया दोंहार चित्ते जन्मिल विस्मय ।। कार पद-चिह्न घरे, ना पाय निश्चय ॥
८॥
। इन सारी छाप को देखकर न तो उनके पिता, न ही माता समझ पाये कि पाँवों की ये छाप किसकी हैं। इस प्रकार विस्मित होकर वे यह निश्चय नहीं कर पाये कि उनके घर में ये चिह्न कैसे आये।
मिश्र कहे,—बालगोपाल आछे शिला-सङ्गे।।तेंहो मूर्ति हा घरे खेले, जानि, रङ्गे ॥
९॥
जगन्नाथ मिश्र ने कहा, निश्चय ही बाल कृष्ण शालग्राम-शिला के साथ हैं। वे अपना बालरूप धारण करके कमरे के भीतर खेल रहे हैं।
सेइ क्षणे जागि' निमाइ करये क्रन्दन ।अङ्के लञा शची ताँरे पियाइल स्तन ॥
१०॥
जब माता शची तथा जगन्नाथ मिश्र बातें कर रहे थे, तब बालक निमाइ जग गया और रोने लगा। माता शची ने उसे गोद में उठा लिया और अपने स्तन से दूध पिलाने लगीं।
स्तन पियाइते पुत्रेर चरण देखिल ।सेइ चिह्न पाये देखि' मिश्रे बोलाईल ॥
११॥
जब माता शची बालक को स्तनपान करवा रही थीं, तब उन्होंने अपने पुत्र के चरणकमल में वे सारे चिह्न देखें, जो उन्हें कमरे के फर्श पर दिखे थे। तब उन्होंने जगन्नाथ मिश्र को बुलाया।
देखिया मिश्रेर हइल आनन्दित मति ।। गुप्ते बोलाइल नीलाम्बर चक्रवर्ती ॥
१२॥
जब जगन्नाथ मिश्र ने अपने पुत्र के तलवे पर ये अद्भुत चिह्न देखे, तो वे अत्यन्त पुलकित हुए और चुपके से उन्होंने नीलाम्बर चक्रवर्ती को बुलावा भेजा।
चिह्न देखि' चक्रवर्ती बलेन हासिया ।।लग्न गणि' पूर्वे आमि राखियाछि लिखिया ॥
१३॥
जब नीलाम्बर चक्रवर्ती ने ये चिह्न देखे, तो हँसते हुए उन्होंने कहा, मैंने पहले ही नक्षत्र-गणना से इसे निश्चित कर लिया था और लिख भी लिया था।
बत्रिश लक्षण–महापुरुष-भूषण ।एइ शिशु अङ्गे देखि से सब लक्षण ॥
१४॥
बत्तीस लक्षणों से महापुरुष का बोध होता है और मैं इस बालक के शरीर में इन सारे लक्षणों को देख रहा हूँ।
पञ्च-दीर्घः पञ्च-सूक्ष्मः सप्त-रक्तः षडू-उन्नतः । त्रि-ह्रस्व-पृथु-गम्भीरो द्वात्रिंशल्लक्षणो महान् ॥
१५ ॥
महापुरुष के शरीर में ३२ लक्षण होते हैं-उसके शरीर के पाँच अंग बड़े, पाँच सूक्ष्म, सात लाल रंग के, छह उठे हुए, तीन छोटे, तीन चौड़े तथा तीन गहरे ( गम्भीर) होते हैं।'
नारायणेर चिह्न-युक्त श्री-हस्त चरण ।एइ शिशु सर्व लोके करिबे तारण ॥
१६॥
इस बालक की हथेलियों तथा तलवों में भगवान् नारायण के सारे लक्षण (चिह्न) हैं। यह तीनों लोकों का उद्धार करने में समर्थ होगा।
एई त' करिबे वैष्णव-धर्मेर प्रचार ।।इहा हैते हबे दुइ कुलेर निस्तार ॥
१७॥
यह बालक वैष्णव सम्प्रदाय का प्रचार करेगा और अपने मातृ तथा पितृ दोनों कुलों का उद्धार करेगा।
महोत्सव कर, सब बोलाह ब्राह्मण ।।आजि दिन भाल,—करिब नाम-करण ॥
१८ ॥
मैं नामकरण संस्कार करना चाहता हूँ। हम उत्सव मनायें और ब्राह्मणों को बुलायें, क्योंकि आज का दिन अत्यन्त शुभ है।
सर्व-लोकेर करिबे इहँ धारण, पोषण ।‘विश्वम्भर' नाम इहार,—एइ त’ कारण ॥
१९॥
यह बालक भविष्य में सारे जगत् की रक्षा और पालन करेगा। इसलिए इसे विश्वम्भर नाम से पुकारा जायेगा।
शुनि' शची-मिश्रेर मने आनन्द बाड़िल ।। ब्राह्मण-ब्राह्मणी आनि' महोत्सव कैल ॥
२० ॥
नीलाम्बर चक्रवर्ती की भविष्यवाणी सुनकर शचीमाता तथा जगन्नाथ मिश्र ने बड़े ही आनन्द के साथ सारे ब्राह्मणों और उनकी पत्नियों को आमन्त्रित करके नामकरण उत्सव सम्पन्न किया।
तबे कत दिने प्रभुर जानु-चङ्क्रमण ।।नाना चमत्कार तथा कराइल दर्शन ॥
२१॥
कुछ दिनों के बाद महाप्रभु अपने घुटनों पर सरकने लगे और वे तरह-तरह के चमत्कार दिखलाने लगे।
क्रन्दनेर छल्ले बलाइल हरि-नाम ।नारी सब ‘हरि' बले, हासे गौर-धाम ॥
२२ ॥
महाप्रभु रोने के बहाने सारी स्त्रियों को हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करने के लिए बाध्य कर देते और जब वे कीर्तन करतीं तो महाप्रभु मुस्काते रहते।
तबे कत दिने कैल पद-चक्रमण । शिशु-गणे मिलि' कैल विविध खेलन ॥
२३॥
कुछ दिनों के बाद महाप्रभु पाँवों से चलने लगे। वे अन्य बालकों के साथ मिलने-जुलने लगे और तरह-तरह के खेल दिखाने लगे।
एकदिन शची खइ-सन्देश आनिया ।।बाटा भरि' दिया बैल,——खाओ त' बसिया ॥
२४॥
एक दिन जब महाप्रभु अन्य छोटे बालकों के साथ खेल रहे थे, तब शचीमाता खइ तथा मिष्टान से भरा थाल ले आईं और उन्होंने बालक से कहा, बैठकर खा लो।
एत बलि' गेला शची गृहे कर्म करिते ।।लुका लागिला शिशु मृत्तिका खाइते ॥
२५॥
किन्तु जब शचीमाता वापस जाकर गृहकार्यों में लग गईं, तो बालक अपनी माता से छिपकर मिट्टी खाने लगा।
देखि' शची धाआ आइला करि' ‘हाय, हाय' ।।माटि काड़ि' लञा कहे ‘माटि केने खाय' ॥
२६॥
यह देखकर शचीमाता हड़बड़ी में यह क्या है! यह क्या है! चिल्लाती हुई लौट आईं। उन्होंने महाप्रभु के हाथों से मिट्टी छीन ली और पूछा इसे क्यों खा रहे हो? कान्दिया बलेन शिशु,—केने कर रोष ।तुमि माटि खाइते दिले, मोर किबा दोष ॥
२७॥
रोते हुए बालक ने अपनी माता से पूछा, आप नाराज क्यों होती हैं? आपने मिट्टी ही तो खाने के लिए मुझे दी है। इसमें मेरा क्या दोष है? खइ-सन्देश-अन्न ग्रतेक-माटिर विकार । एहो माटि, सेह माटि, कि भेद-विचार ॥
२८॥
खइ, सन्देश (मिठाई) तथा अन्य सारे खाद्य पदार्थ मिट्टी के ही रूपान्तर (विकार ) हैं। यह भी मिट्टी है और वह भी मिट्टी है। कृपया इसे पर विचार करें। इनमें अन्तर ही क्या है? माटि–देह, माटि–भक्ष्य, देखह विचारि' । अविचारे देह दोष, कि बलिते पारि ॥
२९॥
यह शरीर मिट्टी का विकार है और खाने की वस्तुएँ ( भक्ष्य) भी मिट्टी के विकार हैं। कृपया इस पर विचार करें। आप बिना विचार के मुझे दोष दे रही हैं। मैं क्या कह सकता हूँ? अन्तरे विस्मित शची बलिल ताहारे ।।माटि खाइते ज्ञान-योग के शिखाल तोरे ॥
३०॥
शचीमाता आश्चर्यचकित थीं कि यह बालक मायावाद दर्शन बोल रहा है, अतएव वे बोलीं, “तुम्हें यह दार्शनिक तर्कवितर्क किसने सिखलाया है, जो मिट्टी खाने को सही ठहराता है? माटिर विकार अन्न खाइले देह-पुष्टि हय ।माटि खाइले रोग हय, देह ग्राय क्षय ॥
३१॥
दार्शनिक बालक के मायावादी विचार का उत्तर देते हुए माता शची ने कहा, प्रिय पुत्र, यदि हम अन्न में रूपान्तरित मिट्टी खाते हैं, तो हमारे शरीर का पोषण होता है और वह हृष्ट-पुष्ट बनता है, किन्तु यदि हम कोरी मिट्टी खाते हैं, तो शरीर हृष्ट-पुष्ट होने के बजाय रुग्ण होकर नष्ट हो जाता है माटिर विकार घटे पानि भरि' आनि ।माटि-पिण्डे धरि ग्रबे, शोषि' ग्राय पानि ॥
३२॥
मिट्टी के ही रूपान्तर एक घड़े में मैं आसानी से पानी ला सकती हूँ, किन्तु यदि मैं मिट्टी के ढेले पर पानी डालें, तो ढेला जल को सोख लेगी और मेरा परिश्रम व्यर्थ हो जायेगा।
आत्म लुकाइते प्रभु बलिला ताँहारे ।। आगे केन इहा, माता, ना शिखाले मोरे ॥
३३॥
महाप्रभु ने अपनी माता से कहा, आपने पहले ही मुझे यह वहारिक दर्शन क्यों नहीं सिखलाया? आपने आत्म-साक्षात्कार की यह धि मुझसे क्यों छिपा रखी? ।
एबे से जानिलाँ, आर माटि ना खाइब ।।क्षुधा लागे ग्रबे, तबे तोमार स्तन पिब ॥
३४॥
अब मैं समझा इस दर्शन को। अब मैं मिट्टी नहीं खाऊँगा। जब भी मुझे भूख लगेगी, मैं आपके स्तनों से दुग्ध का पान करूंगा।
एत बलि' जननीर कोलेते चड़िया ।।स्तन पान करे प्रभु ईषत् हासिया ॥
३५ ॥
यह कहकर महाप्रभु धीरे से हँसते हुए अपनी माता की गोद में चल गये और उनका स्तनपान करने लगे।
एइमते नाना-छले ऐश्वर्य देखाय ।। बाल्य-भाव प्रकटिया पश्चात् लुकाय ॥
३६॥
इस तरह महाप्रभु अपने बचपन में विविध बहानों से अपना अधिक से अधिक ऐश्वर्य प्रदर्शित करते और इन ऐश्वर्यों को दिखला चुकने के बाद वे स्वयं को छिपा लेते।
अतिथि-विप्रेर अन्न खाइल तिन-बार । पाछे गुप्ते सेइ विप्रे करिल निस्तार ॥
३७॥
। एक बार महाप्रभु एक ब्राह्मण अतिथि के भोजन को तीन बार खा ये और बाद में उन्होंने गुप्त रूप से उस ब्राह्मण का भवबन्धन से उद्धार र दिया।
चोरे ला गेल प्रभुके बाहिरे पाइया ।।तारे स्कन्धे चड़ि' आइला तारे भुलाइया ॥
३८॥
बचपन में महाप्रभु को दो चोर उठाकर उनके घर के बाहर ले गये। किन्तु महाप्रभु उन चोरों के कंधे पर चढ़ गये और जब वे सोच रहे थे कि हम इस बालक के आभूषण आराम से उतार लेंगे, तो महाप्रभु ने उन्हें भ्रमित कर दिया, जिससे वे चोर अपने घर जाने के बदले जगन्नाथ मिश्र के घर वापस जा पहुँचे।
व्याधि-छले जगदीश-हिरण्य-सदने ।विष्णु-नैवेद्य खाइल एकादशी-दिने ॥
३९॥
महाप्रभु ने बीमार होने के बहाने एकादशी के दिन हिरण्य तथा जगदीश के घर से कुछ भोजन माँगा।
शिशु सब लये पाड़ा-पड़सीर घरे ।चुरि करि' द्रव्य खाय मारे बालकेरे ॥
४०॥
जैसाकि बच्चों में होता है, महाप्रभु ने खेलना सीखा और वे अपने । मित्रों के साथ पड़ोसी मित्रों के घरों में जाते, उनकी खाने की वस्तुएँ चुराते और खाते। कभी-कभी बच्चे परस्पर लड़ते-झगड़ते।।
शिशु सब शची-स्थाने कैल निवेदन ।शुनि' शची पुत्रे किछु दिला ओलाहन ॥
४१॥
सारे बच्चों ने शचीमाता से शिकायत की कि महाप्रभु उनसे लड़ते हैं। और पड़ोसियों के घरों से चीजें चुराते हैं। फलस्वरूप कभी-कभी माता अपने पुत्र को दण्ड देती अथवा डाँटती रहती थीं।
केने चुरि कर, केने मारह शिशुरे । केने पर-घरे ग्राह, किबा नाहि घरे ॥
४२॥
शचीमाता ने कहा-तुम दूसरों की चीजें क्यों चुराते हो? तुम दूसरे लड़कों को क्यों मारते हो? तुम दूसरों के घर के भीतर क्यों जाते हो? आखिर तुम्हारे घर में कौन-सी चीज नहीं है? शुनि' क्रुद्ध हा प्रभु घर-भितर ग्राजा ।। घरे व्रत भाण्ड छिल, फेलिल भाङ्गिया ॥
४३॥
इस प्रकार माता की डाँट खाकर महाप्रभु क्रोधित होकर कमरे के भीतर चले जाते और वहाँ पर सारे बर्तन तोड़-फोड़ देते।
तबे शची कोले करि' कराइल सन्तोष । लजित हइला प्रभु जानि' निज-दोष ॥
४४॥
तब शचीमाता अपने पुत्र को गोद में लेकर चुप करातीं और महाप्रभु अपनी गलतियाँ स्वीकार करते और काफी लज्जित होते।
कभु मृदु-हस्ते कैल माताके ताड़न ।माताके मूर्च्छिता देखि' करये क्रन्दन ॥
४५ ॥
एक बार बालक चैतन्य ने अपनी माता को अपने कोमल हाथ से मारा, तो उनकी माता दिखावे के लिए मूर्च्छित हो गईं। यह देखकर चैतन्य महाप्रभु रोने लगे।
नारीगण कहे,_नारिकेल देह आनि' ।तबे सुस्थ हइबेन तोमार जननी ॥
४६॥
पड़ोस की स्त्रियों ने उनसे कहा, बेटा, जाकर कहीं से एक नारियल । ले आओ। तब तुम्हारी माता स्वस्थ होंगी।
बाहिरे ग्राञी आनिलेन दुई नारिकेल ।। देखिया अपूर्व हैल विस्मित सकल ॥
४७॥
वे घर से बाहर गये और तुरन्त ही दो नारियल ले आये। सारी स्त्रियाँ ऐसा अद्भुत कार्य देखकर विस्मित हो गईं।
कभु शिशु-सङ्गे स्नान करिल गङ्गाते ।। कन्यागण आइला ताहाँ देवता पूजिते ॥
४८॥
कभी-कभी महाप्रभु अन्य बालकों के साथ गंगा नदी में स्नान करने जाते और पास की लड़कियाँ भी वहीं पर देवताओं की पूजा करने आतीं।
गङ्गा-स्नान करि' पूजा करिते लागिला । कन्यागण-मध्ये प्रभु आसिया बसिला ॥
४९॥
जब कन्याएँ गंगास्नान करके विभिन्न देवताओं की पूजा करने लगतीं, तो बालक महाप्रभु वहाँ आते और उनके बीच में बैठ जाते।
कन्यारे कहे,—आमा पूज, आमि दिब वर । गङ्गा-दुर्गादासी मोर, महेश—किङ्कर ॥
५०॥
। महाप्रभु कन्याओं को सम्बोधित करके कहते, मेरी पूजा करो, तो मैं तुम्हें सुन्दर पति या सुन्दर वरदान दूंगा। गंगा तथा देवी दुर्गा मेरी दासियाँ हैं और अन्य देवताओं की बात तो दूर रही, शिवजी तक मेरे दास हैं।
आपनि चन्दन परि' परेन फुल-माला ।।नैवेद्य काड़िया खान सन्देश, चाल, कला ॥
५१॥
महाप्रभु कन्याओं की अनुमति के बिना ही चन्दन निकाल लेते और पने शरीर में लगा लेते, उनकी फूल-मालाओं को अपने गले में पहन ते और मिठाइयाँ, चावल तथा केलों की भेंट को छीनकर स्वयं खा जाते ।
क्रोधे कन्यागण कहे—शुन, हे निमाबि ।।ग्राम-सम्बन्धे हओ तुमि आमा सबार भाई ॥
५२॥
महाप्रभु के इस व्यवहार से सारी कन्याएँ अत्यन्त क्रुद्ध हो गईं। उन्होंने कहा, अरे निमाइ, तुम गाँव के रिश्ते से हमारे भाई जैसे हो।
आमा सबाकार पक्षे इहा करिते ना युयाय ।। ना लह देवता सज्ज, ना कर अन्याय ॥
५३॥
अतएव ऐसा करना तुम्हें शोभा नहीं देता। तुम हमारी देव-पूजन की सामग्री मत लो। तुम इस तरह उपद्रव ने मचाओ।
प्रभु कहे,–तोमा सबाके दिल एइ वर ।तोमा सबार भर्ता हबे परम सुन्दर ॥
५४॥
महाप्रभु ने कहा, मेरी प्रिय बहनों, मैं तुम्हें वर देता हूँ कि तुम सबको अत्यन्त सुन्दर पति मिलेंगे।
पण्डित, विदग्ध, युवा, धन-धान्यवान् ।सात सात पुत्र हबे-चिरायु, मतिमान् ॥
५५॥
वे विद्वान, चतुर तथा तरुण होंगे और धन-धान्य से परिपूर्ण होंगे। इतना ही नहीं, बल्कि तुम सबके सात-सात बेटे होंगे, जो लम्बी आयु वाले तथा अत्यन्त बुद्धिमान होंगे।
वर शुनि' कन्या-गणेर अन्तरे सन्तोष । बाहिरे भर्सन करे करि' मिथ्या रोष ॥
५६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा दिया गया यह वर सुनकर सारी कन्याएँ मन ही मन अत्यन्त प्रसन्न थीं, किन्तु ऊपर से, जैसाकि कन्याओं के लिए स्वाभाविक है, क्रुद्ध होने का बहाना बनाकर उन्हें डाँटने लगीं।
कोन कन्या पलाइल नैवेद्य लइया ।। तारे डाकि' कहे प्रभु सक्रोध हइया ॥
५७॥
जब कुछ कन्याएँ नैवेद्य लेकर भाग गईं, तो महाप्रभु ने क्रुद्ध होकर उन्हें बुलाया और इस तरह कहा।
यदि नैवेद्य ना देह हइया कृपणी । बुड़ा भर्ता हबे, आर चारि चारि सतिनी ॥
५८॥
यदि तुम कंजूसी करोगी और मुझे भेंट नहीं चढ़ाओगी, तो तुम में से हर एक को बूढ़ा पति और कम से कम चार चार सौतनें मिलेंगी।
इहा शुनि' ता-सबार मने हइल भय ।।कोन किछु जाने, किबा देवाविष्ट हय ॥
५९॥
श्री चैतन्य का यह कल्पित शाप सुनकर कन्याओं ने सोचा कि हो सकता है यह कुछ असाधारण बातें जानता हो या इसे देवताओं से शक्ति प्राप्त हो, अतः वे भयभीत हो गई थीं कि उसका शाप कहीं सच न हो जाए।
आनिया नैवेद्य तारा सम्मुखे धरिल ।।खाड्या नैवेद्य तारे इष्ट-वर दिल ॥
६०॥
तब कन्याएँ महाप्रभु के समक्ष अपनी अपनी भेटें ले आईं और महाप्रभु ने उन्हें खाकर कन्याओं को मनोवांछित आशीर्वाद दिया।
एइ मत चापल्य सेब लोकेरे देखाय ।।दुःख कारो मने नहे, सबे सुखे पाय ॥
६१॥
जब लोगों को कन्याओं के प्रति महाप्रभु की इस चातुरी का पता लगा, तो उनमें किसी तरह की गलतफहमी नहीं हुई। बल्कि उन्हें इन व्यवहारों से आनन्द प्राप्त हुआ।
एक-दिन वल्लभाचार्य-कन्या 'लक्ष्मी' नाम ।देवता पूजिते आइल करि गङ्गा-स्नान ॥
६२ ॥
एक दिन वल्लभाचार्य की पुत्री, जिसका नाम लक्ष्मी था, गंगा किनारे नदी में स्नान करने और देवताओं को पूजने आई।
ताँरे देखि प्रभुर हइल साभिलाष मन ।।लक्ष्मी चित्ते प्रीत पाइल प्रभुर दर्शन ॥
६३॥
लक्ष्मीदेवी को देखकर महाप्रभु उनके प्रति अनुरक्त हो गये और महाप्रभु को देखकर लक्ष्मी को अपने मन में परम सन्तोष की अनुभूति हुई।
साहजिक प्रीति देंहार करिल उदय ।।बाल्य-भावाच्छन्न तभु हइल निश्चय ॥
६४॥
उन में परस्पर सहज प्रेम जाग्रत हुआ और बाल्यकाल की भावनाओं से प्रच्छन्न होने पर भी यह प्रकट हो गया कि वे दोनों एक दूसरे पर स्वाभाविक रूप से अनुरक्त हैं।
मुँहा देखि' मुँहार चित्ते हइल उल्लास । देव-पूजा छले कैल हे परकाश ॥
६५॥
उन दोनों ने एक दूसरे को निहारने के नैसर्गिक आनन्द का आस्वादन । किया और देव-पूजा के बहाने दोनों ने अपनी भावनाएँ प्रकट कीं।
प्रभु कहे, 'आमा' पूज, आमि महेश्वर ।।आमारे पूजिले पाबे अभीप्सित वर’ ॥
६६॥
महाप्रभु ने लक्ष्मी से कहा, मेरी पूजा करो, क्योंकि मैं परमेश्वर हूँ। यदि तुम मेरी पूजा करोगी, तो निश्चय ही तुम्हें मनोवांछित वर प्राप्त होगा।
लक्ष्मी ताँर अङ्गे दिल पुष्प-चन्दन । मल्लिकार माला दिया करिल वन्दन । ६७॥
श्री चैतन्य महाप्रभु का आदेश सुनकर लक्ष्मी ने तुरन्त उनकी पूजा की-उनके शरीर पर चन्दन तथा फूल चढ़ाये, उन्हें मल्लिका फूलों की माला पहनाई और उनकी स्तुति की।
प्रभु ताँर पूजा पाञा हासिते लागिला ।।श्लोक पड़ि' ताँर भाव अङ्गीकार कैला ॥
६८ ।। लक्ष्मी द्वारा इस प्रकार पूजे जाने पर महाप्रभु मुस्काने लगे। उन्होंने श्रीमद्भागवत का एक श्लोक कहा और लक्ष्मी द्वारा व्यक्त मनोभाव को। स्वीकार कर लिया।
सङ्कल्पो विदितः साध्व्यो भवतीनां मदर्चनम् ।।मयानुमोदितः सोऽसौ सत्यो भवितुमर्हति ॥
६९॥
। हे प्रिय गोपियों, मैं तुम्हारा पति बनने तथा इस प्रकार से मेरी पूजा करने की तुम लोगों की इच्छा को स्वीकार करता हूँ। मैं चाहता हूँ कि तुम लोगों की इच्छा पूरी हो, क्योंकि यह पूरी होने योग्य है।
एड्-मत लीला करि' हे गेला घरे ।।गम्भीर चैतन्य-लीला के बुझिते पारे ॥
७० ॥
इस तरह परस्पर अपने-अपने भावों को व्यक्त करने के बाद भगवान् चैतन्य तथा लक्ष्मी दोनों अपने-अपने घर लौट गये। भला चैतन्य महाप्रभु की गम्भीर लीलाओं को कौन समझ सकता है? चैतन्य-चापल्य देखि' प्रेमे सर्व जन । शची-जगन्नाथे देखि' देन ओलाहन ॥
७१॥
पास पड़ोस के लोगों ने जब चैतन्य महाप्रभु के नटखट स्वभाव को देखा, तो उन्होंने प्रेमवश शचीमाता तथा जगन्नाथ मिश्र से शिकायत की।
एकदिन शची-देवी पुत्रेरे भत्सिया ।।धरिबारे गेला, पुत्र गेला पलाइया ॥
७२॥
एक दिन शचीमाता अपने पुत्र को डाँटने के उद्देश्य से उसे पकड़ने गईं, किन्तु वे उस स्थान से भाग निकले।
उच्छिष्ट-गर्ते त्यक्त-हाण्डीर उपर ।बसियाछेन सुखे प्रभु देव-विश्वम्भर ॥
७३॥
। यद्यपि चैतन्य महाप्रभु सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के पालनकर्ता हैं, किन्तु एक बार वे उस गड्डे में भोजन पकाने के बाद फेंके गये पात्रों के ऊपर जाकर बैठ गये, जहाँ जूठन फेंका जाता है।
शची आसि' कहे,—केने अशुचि छुडिला ।गङ्गा-स्नान कर ग्राइ'—अपवित्र होइला ॥
७४॥
जब शचीमाता ने अपने बेटे को फेंकी हुई हाँड़ियों के ऊपर बैठे देखा, तो उन्होंने यह कहकर आपत्ति प्रकट की, तुमने इन अशुद्ध बर्तनों को क्यों छुआ? अब तुम अशुद्ध हो गये हो। जाओ और गंगा में स्नान करो।
इहा शुनि' माताके कहिल ब्रह्म-ज्ञान ।विस्मिता हइया माता कराइल स्नान ॥
७५ ॥
यह सुनकर चैतन्य महाप्रभु ने अपनी माता को ब्रह्म-ज्ञान की शिक्षा दी। यद्यपि वे इससे विस्मित तो हुईं, किन्तु फिर भी उन्होंने महाप्रभु को स्नान करने के लिए बाध्य किया।
कभु पुत्र-सड़े शची करिला शयन ।देखे, दिव्यलोक आसि' भरिल भवन ॥
७६ ॥
कभी-कभी शचीमाता अपने पुत्र को लेकर बिस्तर पर लेटतीं और वे देखतीं कि स्वर्गलोक के निवासी वहाँ आये हुए हैं, जिनसे सारा घर भर गया है।
शची बले,—याह, पुत्र, बोलाह बापेरे ।।मातृ-आज्ञा पाइया प्रभु चलिलो बाहिरे ॥
७७॥
एक बार शचीमाता ने महाप्रभु से कहा, जाकर अपने पिता को बुला लाओ। माता का आदेश पाकर वे उन्हें बुलाने बाहर गये।
चलिते चरणे नूपुर बाजे झन्झन् ।शुनि' चमकित हैल पिता-मातार मन ॥
७८ ॥
जब बालक बाहर जा रहा था, तो उसके चरणकमलों से नुपुर की ध्वनि आ रही थी। यह सुनकर पिता तथा माता दोनों ही आश्चर्यचकित हो गये।
मिश्र कहे,—एइ बड़ अद्भुत काहिनी ।।शिशुर शून्य-पदे केने नूपुरेर ध्वनि ॥
७९॥
जगन्नाथ मिश्र ने कहा, यह बड़ी अद्भुत घटना है। मेरे पुत्र के नंगे । पाँवों से नूपुरों की ध्वनि कैसे आ रही है? शची कहे,—आर एक अद्भुत देखिल ।। दिव्य दिव्य लोक आसि' अङ्गन भरिल ।। ८० ॥
माता शची ने कहा, मैंने भी एक और आश्चर्य देखा है। स्वर्गलोक से लोग उतरे चले आ रहे थे और पूरे आँगन में भीड़ लगी थी।
किबा कोलाहल करे, बुझिते ना पारि ।। काहाके वा स्तुति करे अनुमान करि ॥
८१॥
। उन्होंने जोर-जोर से कुछ शब्द किया जिसे मैं नहीं समझ पाई। मेरा अनुमान है कि वे किसी की स्तुति कर रहे थे।
मिश्र बले,—किछु हउक्, चिन्ता किछु नाइ । विश्वम्भरेर कुशल हउक्,--एइ मात्र चाइ ॥
८२॥
जगन्नाथ मिश्र ने उत्तर दिया, इसकी परवाह मत करो। चिन्ता की कोई बात नहीं है। विश्वम्भर सदैव कुशल रहे। यही मेरी कामना है।
एक-दिन मिश्र पुत्रेर चापल्य देखिया ।। धर्म-शिक्षा दिल बहु भर्त्सना करिया ॥
८३॥
एक अन्य अवसर पर जगन्नाथ मिश्र ने अपने बेटे की चपलता देखकर उसे खूब फटकारा और फिर नैतिकता की शिक्षा दी।
रात्रे स्वप्न देखे,—एक आसि' ब्राह्मण । मिश्रेरे कहये किछु स-रोष वचन ॥
८४॥
उसी रात को जगन्नाथ मिश्र ने सपना देखा कि एक ब्राह्मण आकर क्रोध में उनसे ये वचन कह रहा है : मिश्र, तुमि पुत्रेर तत्त्व किछुइ ना जान ।भर्सन-ताड़न कर,—पुत्र करि' मान ॥
८५॥
हे प्रिय मिश्र, तुम अपने पुत्र के बारे में कुछ भी नहीं जानते। तुम । उसे अपना पुत्र समझकर फटकारते और प्रताड़ित करते हो।
मिश्र कहे, देव, सिद्ध, मुनि केने नय ।।ये से बड़ हउक् मात्र आमार तनय ॥
८६॥
जगन्नाथ मिश्र ने उत्तर दिया, यह बालक देवता, योगी या सन्त पुरुष है, तो हुआ करे। मुझे इसकी परवाह नहीं कि वह क्या है, क्योंकि मैं उसे अपना पुत्र ही मानता हूँ।
पुत्रेर लालन-शिक्षा-पितार स्व-धर्म ।।आमि ना शिखाले कैछे जनिबे धर्म-मर्म ॥
८७॥
यह पिता का कर्तव्य है कि वह अपने पुत्र को धर्म तथा नैतिकता की शिक्षा दे। यदि मैं इसे यह शिक्षा नहीं दूंगा तो यह जानेगा कैसे? विप्र कहे,—पुत्र यदि दैव-सिद्ध हय ।।स्वतः-सिद्ध-ज्ञान, तबे शिक्षा व्यर्थ हय ॥
८८॥
ब्राह्मण ने उत्तर दिया, यदि तुम्हारा पुत्र स्वयं तेजोमय पूर्ण ज्ञान से युक्त दिव्य योगी है, तो तुम्हारी शिक्षा का क्या लाभ है? मिश्र कहे,–पुत्र केने नहे नारायण । तथापि पितार धर्मपुत्रेर शिक्षण ॥
८९॥
जगन्नाथ मिश्र ने कहा, चाहे मेरा पुत्र सामान्य पुरुष न होकर नारायण ही क्यों न हो, तो भी पिता का कर्तव्य है कि अपने पुत्र को शिक्षा दे।
एइ-मते मुँहे करेन धर्मेर विचार ।।विशुद्ध-वात्सल्य मिश्रेर, नाहि जाने आर ॥
९० ॥
इस तरह स्वप्न में जगन्नाथ मिश्र तथा ब्राह्मण में धर्म विषयक विचारविमर्श होता रहा। फिर भी जगन्नाथ मिश्र शुद्ध वात्सल्य रस में निमग्न रहे और वे दूसरा कुछ जानना नहीं चाहते थे।
एत शुनि' द्विज गेला हा आनन्दित । मिश्र जागिया हइला परम विस्मित ॥
९१॥
जगन्नाथ मिश्र से बातें करने के बाद अत्यन्त प्रसन्न होकर वह ब्राह्मण चला गया और जब जगन्नाथ मिश्र अपने स्वप्न से जगे, तो वे अत्यधिक विस्मित थे।
बन्धु-बान्धव-स्थाने स्वप्न कहिल ।कल लोक विस्मित हइल ॥
९२॥
उन्होंने अपने मित्रों तथा सम्बन्धियों से अपना स्वप्न कह सुनाया और वे सब इसे सुनकर अत्यन्त विस्मित हुए।
एइ मत शिशु-लीला करे गौरचन्द्र ।। दिने दिने पिता-मातार बाड़ाय आनन्द ॥
९३॥
इस तरह गौरहरि ने अपनी बाल-लीलाएँ सम्पन्न कीं और दिनप्रतिदिन वे अपने माता-पिता के आनन्द को बढ़ाते रहे।
कत दिने मिश्र पुत्रेर हाते खड़ि दिल ।।अल्प दिने द्वादश-फला अक्षर शिखिल ॥
९४॥
कुछ दिनों के बाद जगन्नाथ मिश्र ने अपने पुत्र का हातखड़ी संस्कार सम्पन्न करके उसकी प्रारम्भिक शिक्षा का शुभारम्भ कर दिया। महाप्रभु ने कुछ ही दिनों में सारे अक्षर और संयुक्त अक्षर सीख लिए।
बाल्यलीला-सूत्र एइ कैल अनुक्रम । हा विस्तारियाछेन दास-वृन्दावन ॥
९५ ॥
यह श्री चैतन्य महाप्रभु की बाल-लीलाओं की रूपरेखा है, जिसे यहाँ क्रमबद्ध करके प्रस्तुत किया गया है। वृन्दावन दास ठाकुर ने पहले ही अपनी पुस्तक चैतन्य-भागवत में इन लीलाओं का विस्तार से वर्णन किया है।
अतएव एइ-लीला सङ्क्षेपे सूत्र कैल ।।पुनरुक्ति-भये विस्तारिया ना कहिल ॥
९६ ॥
इसलिए मैंने केवल संक्षिप्त सारांश दिया है। पुनरुक्ति के भय से मैंने इस विषय को विस्तार से नहीं दिया।
श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश ।चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
९७॥
श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों की स्तुति करते हुए और सदैव उनकी कृपा की आकांक्षा करते हुए मैं कृष्णदास उन्हीं के चरणचिह्नों का अनुसरण करते हुए श्रीचैतन्य-चरितामृत का वर्णन कररहा हूँ।
अध्याय पंद्रह: भगवान की पौगंड-लीला
कु-मनाः सु-मनस्त्वं हि याति यस्य पदाब्जयोः । सु-मनोऽर्पण-मात्रेण तं चैतन्य-प्रभुं भजे ॥
१॥
मैं श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों में सादर नमस्कार करता हूँ, क्योंकि उनके चरणकमलों पर फूल चढ़ाने मात्र से ही बड़े से बड़ा । भौतिकतावादी भी भक्त बन जाता है।
जय जय श्री-चैतन्य जय नित्यानन्द ।जयाद्वैतचन्द्र, जय गौर-भक्त-वृन्द ॥
२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! श्री अद्वैत आचार्य की जय हो तथा श्री चैतन्य महाप्रभु के भक्तों की जय हो! पौगण्ड-लीलार सूत्र करिये गणन ।पौगण्ड-वयसे प्रभुर मुख्य अध्ययन ॥
३॥
अब मैं चैतन्य महाप्रभु की पाँच वर्ष की आयु से लेकर दस वर्ष की आयु तक की लीलाओं का संक्षिप्त वर्णन करने जा रहा हूँ। इस अवधि में उन्होंने मुख्य रूप से अध्ययन का कार्य किया।
पौगण्ड-लीला चैतन्ये-कृष्णस्याति-सुविस्तृता ।विद्यारम्भ-मुखा पाणि-ग्रहणान्ता मनो-हरा ॥
४॥
पौगण्ड अवस्था के अन्तर्गत महाप्रभु की लीलाएँ अत्यन्त व्यापक रहीं। उनका मुख्य कार्य उनकी शिक्षा ही रहा और उसके बाद उनका अन्यन्त सुन्दर ढंग से विवाह हुआ।
गङ्गादास पण्डित-स्थाने पड़ेन व्याकरण ।श्रवण-मात्रे कण्ठे कैल सूत्र-वृत्ति-गण ॥
५॥
। जब महाप्रभु श्री गंगादास पण्डित के यहाँ व्याकरण पढ़ रहे थे, तो वे व्याकरण के सारे नियम एवं परिभाषाएँ एक बार सुनकर ही तुरन्त कण्ठस्थ कर लेते थे।
अल्प-काले हैला पञ्जी-टीकाते प्रवीण ।।चिर-कालेर पडुया जिने हइया नवीन ॥
६॥
वे शीघ्र ही पञ्जी-टीका की व्याख्या करने में दक्ष हो गये, जिससे नये होने पर भी समस्त विद्यार्थियों में वे सबसे आगे हो गये।
ध्ययन-लीला प्रभुर दास-वृन्दावन ।‘चैतन्य-मङ्गले' कैल विस्तारि वर्णन ॥
७॥
श्रील वृन्दावन दास ठाकुर ने अपनी पुस्तक चैतन्य-मंगल ( बाद में इसका नाम चैतन्य-भागवत पड़ा) में महाप्रभु की अध्ययन-लीला का बड़े विस्तार से वर्णन किया है।
एक दिन मातार पदे करिया प्रणाम ।।प्रभु कहे, माता, मोरे देह एक दान ॥
८॥
एक दिन श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपनी माता के चरणकमलों पर गिरकर उनसे प्रार्थना की कि वे उन्हें एक वस्तु का दान दें।
माता बले,—ताइ दिब, ग्रा तुमि मागिबे ।।प्रभु कहे,—एकादशीते अन्न ना खाइबे ॥
९॥
उनकी माता ने कहा मेरे प्रिय पुत्र, जो तुम माँगोगे वही मैं दूंगी। तब महाप्रभु बोले, प्रिय माता, कृपया आप एकादशी के दिन अन्न न खायें।
शची कहे,—ना खाइबे, भाल-इ कहिला ।सेइ हैते एकादशी करिते लागिला ॥
१०॥
माता शची ने कहा, तुमने बहुत अच्छा कहा। मैं एकादशी के दिन अन्न नहीं खाऊँगी। उस दिन से वे एकादशी के दिन उपवास रखने लगीं।
तबे मिश्र विश्वरूपेर देखियो यौवन ।कन्या चाहि' विवाह दिते करिलेन मन ॥
११॥
तत्पश्चात् विश्वरूप को युवक हुआ देखकर जगन्नाथ मिश्र ने कोई कन्या ढूंढकर उसका विवाह कर देना चाहा।
विश्वरूप शुनि' घर छाड़ि पलाइला ।सन्यास करिया तीर्थ करिबारे गेला ॥
१२॥
यह सुनकर विश्वरूप ने तुरन्त गृहत्याग कर दिया और वे संन्यास लेकर एक तीर्थस्थान से दूसरे तीर्थस्थान की यात्रा करने निकल गये।
शुनि, शची-मिश्रेर दुःखी हैल मन ।।तबे प्रभु माता-पितार कैल आश्वासन ॥
१३॥
जब शचीमाता तथा जगन्नाथ मिश्र ने अपने ज्येष्ठ पुत्र विश्वरूप के चले जाने का समाचार सुना, तो वे अत्यन्त दुःखी हुए, किन्तु श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें ढाढ़स बँधाने का प्रयास किया।
भाल हैल,—विश्वरूप सन्यास करिल ।पितृ-कुल, मातृ-कुल, दुइ उद्धारिल ॥
१४॥
महाप्रभु ने कहा, हे माता तथा पिता! यह अच्छा ही हुआ कि विश्वरूप ने संन्यास ग्रहण कर लिया है, क्योंकि इस तरह उसने अपने पितृ-कुल तथा अपने मातृ-कुल दोनों का ही उद्धार कर दिया है।
आमि त' करिब तोमा' मुँहार सेवन ।।शुनिया सन्तुष्ट हैल पिता-मातार मन ॥
१५॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने माता-पिता को आश्वासन दिया, मैं आप दोनों की सेवा करूँगा। इस तरह उनके माता-पिता के मन को सन्तोष हो गया।
एक-दिन नैवेद्य-ताम्बूल खाइया ।।भूमिते पड़िला प्रभु अचेतन हो ॥
१६ ॥
। एक दिन श्री चैतन्य महाप्रभु ने अर्चाविग्रह पर चढ़ी पान-सुपारी खा ली, जिससे उन्हें नशा चढ़ गया और वे अचेत होकर जमीन पर गिर पड़े।
आस्ते-व्यस्ते पिता-माता मुखे दिल पानि ।सुस्थ ही कहे प्रभु अपूर्व काहिनी ॥
१७॥
जब उनके माता-पिता ने हड़बड़ी में उनके मुँह पर पानी छिड़का, तो उन्हें होश आया और उन्होंने ऐसी आश्चर्यजनक बात सुनाई, जो उन्होंने पहले कभी नहीं सुनी थी।
एथा हैते विश्वरूप मोरे ला गेला ।।सन्यास करह तुमि, आमारे कहिला ॥
१८॥
महाप्रभु ने कहा, विश्वरूप मुझ यहा से कहा बोले कि मैं भी संन्यास ग्रहण कर लें।
आमि कहि,–आमार अनाथ पिता-माता ।।आमि बालक, सन्यासेर किबी जानि कथा ॥
१९॥
मैंने विश्वरूप से कहा, 'मेरे माता-पिता असहाय हैं और मैं भी अभी बच्चा ही हूँ। मैं संन्यास के बारे में क्या जानूं? गृहस्थ हइया करिब पिता-मातार सेवन ।इहाते-इ तुष्ट हबेन लक्ष्मी-नारायण ॥
२०॥
बाद में मैं गृहस्थ बनूंगा और इस तरह माता-पिता की सेवा करूंगा, क्योंकि इससे भगवान् नारायण तथा उनकी पत्नी लक्ष्मीदेवी अत्यधिक तुष्ट होंगी।'
तबे विश्वरूप इहाँ पाठाइल मोरे ।।माताके कहिओ कोटि कोटि नमस्कारे ॥
२१॥
तभी विश्वरूप ने मुझे घर लौटा दिया और कहा, 'माता शची देवी से मेरा कोटि-कोटि नमस्कार कहना।
एई मत नाना लीला करे गौरहरि ।कि कारणे लीला,—इहा बुझिते ना पारि ॥
२२॥
इस प्रकार चैतन्य महाप्रभु ने अनेक लीलाएँ कीं, किन्तु उन्होंने ऐसा क्यों किया मैं समझ नहीं सकता।
कत दिन रहि' मिश्र गेला पर-लोक ।माता-पुत्र मुँहार बाड़िल हृदि शोक ॥
२३ ॥
कुछ दिनों के बाद जगन्नाथ मिश्र इस संसार से दिव्य लोक को चले गये। इससे माता तथा पुत्र दोनों ही हृदय से अत्यन्त शोकाकुल हो गये।
बन्धु-बान्धव असि' मुँहा प्रबोधिल ।।पितृ-क्रिया विधि-मते ईश्वर करिल ॥
२४॥
चैतन्य महाप्रभु तथा उनकी माता को धीरज बँधाने के लिए मित्रजन तथा सम्बन्धी लोग वहाँ आये। चैतन्य महाप्रभु, यद्यपि साक्षात् भगवान् थे, तथापि उन्होंने वैदिक विधि से अपने मृत पिता का संस्कार सम्पन्न किया।
कत दिने प्रभु चित्ते करिला चिन्तन ।।गृहस्थ हइलाम, एबे चाहि गृह-धर्म ॥
२५॥
कुछ दिनों के बाद महाप्रभु ने सोचा, मैंने संन्यास नहीं लिया और चूँकि मैं घर पर रहता हूँ, अतएव यह मेरा कर्तव्य है कि गृहस्थ की तरह कर्म करूं।
गृहिणी विना गृह-धर्म ना हय शोभन ।एत चिन्ति' विवाह करते हैल मन ॥
२६॥
चैतन्य महाप्रभु ने विचार किया, पत्नी बिना गृहस्थ जीवन का कोई अर्थ नहीं है। इस तरह उन्होंने विवाह करने का निश्चय किया।
न गृहं गृहमित्याहुगृहिणी गृहमुच्यते । तया हि सहितः सर्वान्पुरुषार्थान्समश्नुते ॥
२७॥
घर-मात्र घर नहीं होता। यह तो पत्नी है, जो घर को सार्थक बनाती है। यदि कोई अपनी पत्नी के साथ घर में रहता है, तो वे दोनों मिलकर मनुष्य जीवन के समस्त हितों ( पुरुषार्थों ) को पूरा कर सकते हैं।
दैवे एक दिन प्रभु पड़िया आसिते ।। वल्लभाचार कन्या देखे गङ्गा-पथे ॥
२८॥
एक दिन जब महाप्रभु पाठशाला से वापस आ रहे थे, तब अचानक उन्होंने वल्लभाचार्य की पुत्री देखी, जो गंगाजी की ओर जा रही थी।
पूर्व-सिद्ध भाव वँहार उदय करिले । दैवे वनमाली घटक शची-स्थाने आइल ॥
२९ ॥
महाप्रभु तथा लक्ष्मीदेवी के मिलने पर उनके सम्बन्ध जागृत हुए, जो पहले से तय हो चुके थे और संयोग से विवाह तय कराने वाला ( घटक) वनमाली शचीमाता से मिलने आ गया।
शचीर इङ्गिते सम्बन्ध करिल घटन।लक्ष्मीके विवाह कैल शचीर नन्दन ॥
३०॥
शचीदेवी का संकेत पाकर, वनमाली घटक ने विवाह पक्का करा दिया और इस प्रकार निर्धारित समय पर महाप्रभु ने लक्ष्मीदेवी के साथ विवाह कर लिया।
विस्तारिया वर्णिला ताहा वृन्दावन-दास ।एइ त' पौगण्ड-लीलार सूत्र-प्रकाश ॥
३१ ॥
वृन्दावन दास ठाकुर ने महाप्रभु की इन समस्त पौगण्ड-लीलाओं का विस्तार से वर्णन किया है। मैंने तो उन्हीं लीलाओं का केवल संक्षिप्त रूप प्रस्तुत किया है।
पौगण्ड वयसे लीला बहुत प्रकार ।वृन्दावन-दास इहा करियाछेन विस्तार ॥
३२॥
महाप्रभु ने अपनी पौगण्ड अवस्था में नाना प्रकार की लीलाएँ की हैं। और श्रील वृन्दावन दास ठाकुर ने इन सबका विस्तार से वर्णन किया है।
अतएव दिंमात्र इहाँ देखाइल ।।‘चैतन्य-मङ्गले' सर्व-लोके ख्यात हैल ॥
३३॥
मैंने तो इन लीलाओं का संकेत-मात्र किया है, क्योंकि वृन्दावन दास ठाकुर ने अपनी पुस्तक चैतन्य-मंगल ( अब चैतन्य-भागवत ) में इन सबका विस्तार से वर्णन किया है।
श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश । चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
३४॥
श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों की वन्दना करते हुए और सदैव उनकी कृपा की आकांक्षा करते हुए मैं कृष्णदास उन्हीं के चरणचिह्नों का अनुसरण करते हुए श्रीचैतन्य-चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।
अध्याय सोलह: बचपन और युवावस्था में भगवान की लीलाएँ
पा-सुधा-सरिद् ग्रस्य विश्वमाप्लावयन्त्यपि ।।नीच-गैव सदा भाति तं चैतन्य-प्रभुं भजे ॥
१॥
। मैं उन श्री चैतन्य महाप्रभु की पूजा करता हूँ, जिनकी अमृतमयी कृपा एक महान् नदी की तरह अखिल ब्रह्माण्ड को आप्लावित करती हुई प्रवाहित होती है। जिस प्रकार नदी नीचे की ओर बहती है, उसी तरह चैतन्य महाप्रभु पतितों के लिए विशेष रूप से सुलभ हैं।
जय जय श्री-चैतन्य जय नित्यानन्द । जयाद्वैतचन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ॥
२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! श्री अद्वैतचन्द्र की जय हो तथा महाप्रभु के समस्त भक्तों की जय हो! जीयाकैशोर-चैतन्यो मूर्ति-मत्या गृहाश्रमात् ।। लक्ष्म्यार्चितोऽथ वाग्देव्या दिशां जय-जय-च्छलात् ॥
३॥
कैशोर अवस्था को प्राप्त श्री चैतन्य महाप्रभु दीर्घजीवी हों! लक्ष्मीदेवी तथा सरस्वती दोनों उनकी पूजा करती थीं। सरस्वती ने विश्वविजयी पण्डित पर उनकी विजय के लिए उनकी पूजा की, तो लक्ष्मीदेवी ने घर में उनकी पूजा की। चूँकि वे दोनों देवियों के पति या स्वामी हैं, अतएव मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ।
एइ त' कैशोर-लीलार सूत्र-अनुबन्ध ।। शिष्य-गण पड़ाइते करिला आरम्भ ॥
४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ग्यारह वर्ष की आयु में विद्यार्थियों को पढ़ाने लगे थे। यहीं से उनकी किशोरावस्था प्रारम्भ होती है।
शत शत शिष्य सङ्गे सदा अध्यापन ।व्याख्या शुनि सर्व-लोकेर चमकित मन ॥
५॥
। जब महाप्रभु शिक्षक बने, तो अनेकानेक विद्यार्थी उनके पास आने । लगे और हर विद्यार्थी उनकी व्याख्या की शैली सुनकर आश्चर्यचकित रह जाता।
सर्व-शास्त्रे सर्व पण्डित पाय पराजये ।।विनय-भङ्गीते कारो दुःख नाहि हय ॥
६॥
महाप्रभु ने शास्त्रार्थ में सभी प्रकार के पण्डितों को हराया; तथापि कोई भी पण्डित महाप्रभु की विनयशीलता के कारण दुःखी नहीं हुआ।
विविध औद्धत्य करे शिष्य-गण-सङ्गे।।जाह्नविते जल-केलि करे नाना रङ्गे ॥
७॥
जब महाप्रभु शिक्षक थे, तब वे गंगा के जल में अनेक प्रकार की क्रीड़ाएँ करते थे।
कत दिने कैल प्रभु बङ्गेते गमन ।।ग्राहाँ ग्राय, ताहाँ लओयाय नाम-सङ्कीर्तन ॥
८॥
कुछ दिनों के बाद महाप्रभु पूर्व बंगाल गये और वे जहाँ-जहाँ गये, उन्होंने वहाँ-वहाँ संकीर्तन आन्दोलन का सूत्रपात किया।
विद्यार प्रभाव देखि चमत्कार चिते ।।शत शत पडुया आसि लागिला पड़िते ॥
९॥
चैतन्य महाप्रभु की बौद्धिक शक्ति के प्रभाव से चकित होकर सैकड़ों विद्यार्थी उनके निर्देशन में अध्ययन करने के लिए आने लगे।
सेइ देशे विप्र, नाम–मिश्र तपन ।निश्चय करिते नारे साध्य-साधन ॥
१०॥
पूर्वी बंगाल में तपन मिश्र नामक एक ब्राह्मण था, जो निश्चय नहीं कर पा रहा था कि जीवन का उद्देश्य क्या है और उसे किस तरह प्राप्त किया जाए।
बहु-शास्त्रे बहु-वाक्ये चित्ते भ्रम हय । साध्य-साधन श्रेष्ठ ना हय निश्चय ॥
११॥
यदि कोई किताबी कीड़ा बनकर अनेक ग्रंथ तथा शास्त्रों को पढता रहता है और अनेकानेक लोगों की टीकाएँ एवं उपदेश सुनता है, तो उसके मन में सन्देह उत्पन्न हो जायेगा। इस तरह मनुष्य जीवन का वास्तविक लक्ष्य निश्चित नहीं कर पाता।
स्वप्ने एक विप्र कहे,—शुनह तपन ।निमाजि-पण्डित पाशे करह गमन ॥
१२॥
। इस प्रकार से मोहग्रस्त तपन मिश्र को स्वप्न में एक ब्राह्मण ने निर्देश दिया कि तुम निमाइ पण्डित ( चैतन्य महाप्रभु) के पास जाओ।
तेहो तोमार साध्य-साधन करिबे निश्चय ।साक्षातीश्वर तेंहो,–नाहिक संशय ॥
१३ ॥
उस ब्राह्मण ने कहा, चूँकि वे साक्षात् ईश्वर हैं, अतएव वे निस्सन्देह तुम्हारा सही दिशा-निर्देशन कर सकते हैं।
स्वप्न देखि' मिश्र आसि' प्रभुर चरणे ।।स्वप्नेर वृत्तान्त सब कैल निवेदने ॥
१४॥
स्वप्न देखने के बाद तपन मिश्र महाप्रभु के चरणों की शरण में आये और उन्होंने महाप्रभु से स्वप्न का विस्तार से वर्णन किया।
प्रभु तुष्ट हा साध्य-साधन कहिल ।नाम-सङ्कीर्तन कर,—उपदेश कैल ॥
१५॥
महाप्रभु ने सन्तुष्ट होकर उसे जीवन-लक्ष्य तथा उसे प्राप्त करने की विधि के बारे में उपदेश दिया। उन्होंने उपदेश दिया कि सफलता की कुंजी भगवान् के पवित्र नाम ( हरे कृष्ण महामन्त्र) का कीर्तन करना है।
ताँर इच्छा,—प्रभु-सङ्गे नवद्वीपे वसि ।प्रभु आज्ञा दिल, तुमि ग्राओ वाराणसी ॥
१६॥
तपन मिश्र की इच्छा थी कि वह महाप्रभु के साथ नवद्वीप में रहे, किन्तु महाप्रभु ने उसे वाराणसी (बनारस ) जाने के लिए कहा।
ताहाँ आमा-सङ्गे तोमार हबे दरशन ।।राजा मिश्र कैल काशीते गमन ॥
१७॥
महाप्रभु ने तपन मिश्र को आश्वस्त किया कि वे पुनः वाराणसी में मिलेंगे। यह आज्ञा पाकर तपन मिश्र वहाँ चले गये।
प्रभुर अतर्क्स-लीला बुझिते नो पारि । स्व-सङ्ग छाड़ा केने पाठाय काशीपुरी ॥
१८॥
मैं श्री चैतन्य महाप्रभु की अचिन्त्य लीलाओं को नहीं समझ सकता, क्योंकि तपन मिश्र महाप्रभु के साथ नवद्वीप में रहना चाहते थे, किन्तु महाप्रभु ने उन्हें वाराणसी जाने का आदेश दिया।
एइ मत बङ्गेर लोकेर कैला महा हित ।। 'नाम' दिया भक्त कैल, पड़ा पण्डित ॥
१९॥
। इस प्रकार से श्री चैतन्य महाप्रभु ने पूर्वी बंगाल के लोगों को हरिनाम अर्थात् हरे कृष्ण महामंत्र के कीर्तन में दीक्षित करके तथा उन्हें शिक्षा देकर विद्वान बनाकर उन पर बड़ा उपकार किया।
एइ मत बङ्गे प्रभु करे नाना लीला ।। एथा नवद्वीपे लक्ष्मी विरहे दुःखी हैला ॥
२०॥
महाप्रभु पूर्वी बंगाल में नाना प्रकार के प्रचार-कार्य में लगे हुए थे, अतएव उनकी पत्नी लक्ष्मीदेवी अपने पति के विरह में घर पर अत्यधिक दुःखी थीं।
प्रभुर विरह-सर्प लक्ष्मीरे दंशिल । विरह-सर्प-विषे ताँर परलोक हैल ॥
२१॥
विरहरूपी सर्प ने लक्ष्मीदेवी को डस लिया और इसके विष के कारण उनका देहान्त हो गया। इस तरह वे परलोक सिधार गईं-वे भगवद्धाम वापस चली गईं।
अन्तरे जानिला प्रभु, याते अन्तर्यामी ।देशेरे आइला प्रभु शची-दुःख जानि' ॥
२२॥
लक्ष्मीदेवी के तिरोधान को महाप्रभु जान गये थे, क्योंकि वे स्वयं परमात्मा हैं। इस तरह वे अपनी माता शचीदेवी को सान्त्वना देने घर लौट आये, जो अपनी पुत्रवधू के देहावसान के कारण अत्यन्त दुःखी थीं।
घरे आइला प्रभु बहु ला धन-जन ।।तत्त्व-ज्ञाने कैला शचीर दुःख विमोचन ॥
२३॥
जब महाप्रभु प्रचुर धन तथा अनेक अनुयायियों के साथ घर लौटे, तो उन्होंने शचीदेवी को शोक से छुटकारा दिलाने के लिए उन्हें दिव्य ज्ञान का उपदेश दिया।
शिष्य-गण लञा पुनः विद्यार विलास । विद्या-बले सबा जिनि' औद्धत्य प्रकाश ॥
२४॥
पूर्वी बंगाल से लौट आने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने फिर से लोगों को पढ़ाना शुरू कर दिया। अपनी शिक्षा के बल पर उन्होंने हर एक पर विजय प्राप्त की और इस तरह वे अधिक गर्व का अनुभव करने लगे।
तबे विष्णुप्रिया-ठाकुराणीर परिणय । तबे त' करिल प्रभु दिग्विजयी जय ॥
२५ ॥
। बाद में चैतन्य महाप्रभु ने लक्ष्मी देवी विष्णुप्रिया से विवाह किया और उसके बाद उन्होंने केशव काश्मीरी नामक दिग्विजयी विद्वान को पराजित किया।
वृन्दावन-दास इहा करियाछेन विस्तार ।।स्फुट नाहि करे दोष-गुणेर विचार ॥
२६ ॥
वृन्दावन दास ठाकुर पहले ही इसका विस्तार से वर्णन कर चुके हैं। जो स्पष्ट है, उसके गुण-दोषों की छानबीन करने की आवश्यकता नहीं है।
सेइ अंश कहि, ताँरै करि' नमस्कार ।। या' शुनि' दिग्विजयी कैल आपना धिक्कार ॥
२७॥
श्रील वृन्दावन दास ठाकुर को नमस्कार करके मैं महाप्रभु द्वारा की गई व्याख्या के उस अंश का वर्णन करूँगा, जिसे सुनकर दिग्विजयी ने स्वयं को धिक्कारा ।
ज्योत्स्नावती रात्रि, प्रभु शिष्य-गण सङ्गे।। वसियाछेन गङ्गातीरे विद्यार प्रसङ्गे ॥
२८॥
एक बार पूर्णमासी की रात को महाप्रभु अपने अनेक शिष्यों के साथ गंगाजी के किनारे बैठकर साहित्यिक चर्चा कर रहे थे।
हेन-काले दिग्विजयी ताहाङिआइला ।।गङ्गारे वन्दन करि' प्रभुरे मिलिला ॥
२९॥
संयोगवश पण्डित केशव काश्मीरी भी वहाँ आया। उसने माता गंगा की स्तुति की और फिर वह चैतन्य महाप्रभु से मिला।
वसाइली तारे प्रभु आदर करिया ।।दिग्विजयी कहे मने अवज्ञा करिया ॥
३०॥
महाप्रभु ने उसका सम्मानपूर्वक स्वागत किया, किन्तु केशव काश्मीरी अत्यन्त अभिमानी था, अतएव उसने महाप्रभु के साथ उपेक्षापूर्वक बातें व्याकरण पड़ाह, निमात्रि पण्डित तोमार नाम । बाल्य-शास्त्रे लोके तोमार कहे गुण-ग्राम ॥
३१॥
उसने कहा मैं समझता हूँ कि आप व्याकरण के शिक्षक हैं और आपका नाम निमाइ पण्डित है। लोग आपके बाल-व्याकरण पढ़ाने की बहुत प्रशंसा करते हैं।
व्याकरण-मध्ये, जानि, पड़ाह कलाप । शुनिहुँ फाङ्किते तोमार शिष्येर संलाप ॥
३२॥
मैं समझता हूँ कि आप कलाप व्याकरण पढ़ाते हैं। मैंने सुना है कि आपके विद्यार्थी इस व्याकरण के शब्द-जाल में अत्यन्त पटु हैं।
काहाँ तुमि सर्व-शास्त्रे कवित्वे प्रवीण । काहाँ आमि सबे शिशु—पड़या नवीन ॥
३४॥
हे महाशय, कहाँ आप सभी शास्त्रों के प्रकाण्ड पण्डित और कविता रचने में अत्यन्त अनुभवी और कहाँ मैं एक बालक, नया विद्यार्थी मात्र! प्रभु कहे, व्याकरण पड़ाइ–अभिमान करि ।शिष्येते ना बुझे, आमि बुझाइते नारि ॥
३३॥
महाप्रभु ने कहा, हाँ, मैं व्याकरण का शिक्षक माना जाता हूँ, किन्तु । तथ्य यह है कि न तो मैं अपने विद्यार्थियों को अपने व्याकरण-ज्ञान से प्रभावित कर पाता हूँ, न ही वे मेरी बात ठीक से समझ पाते हैं।
तोमार कवित्व किछु शुनिते हय मन ।। कृपा करि' कर ग्रदि गङ्गार वर्णन ॥
३५॥
। अतएव मेरी इच्छा आपके मुख से आपकी कविता-रचना का कौशल सुनने की है। यदि आप कृपा करके माता गंगा के यश का वर्णन करें, तो हम सब सुनें।
शुनिया ब्राह्मण गर्ने वर्णिते लागिला ।।घटी एके शत श्लोक गङ्गार वर्णिला ॥
३६॥
जब उस ब्राह्मण केशव काश्मीरी ने यह सुना, तो वह और भी गर्वित हुआ और घंटे-भर के ही भीतर उसने गंगा-माता का वर्णन करते हुए एक सौ श्लोक रच डाले।
शुनिया करिल प्रभु बहुत सत्कार ।तोमा सम पृथिवीते कवि नाहि आर ॥
३७॥
। महाप्रभु ने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा, महाशय, सारे संसार में आपके समान दूसरा कवि नहीं है।
तोमार कविता श्लोक बुझिते कार शक्ति ।।तुमि भाल जान अर्थ किंवा सरस्वती ॥
३८॥
आपकी कविता इतनी कठिन है कि उसे आप तथा विद्या की देवी ।। माता सरस्वती के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं समझ सकता।
एक श्लोकेर अर्थ यदि कर निज-मुखे ।।शुनि' सब लोक तबे पाइब बड़-सुखे ॥
३९॥
किन्तु यदि आप एक श्लोक का अर्थ व्याख्या करके कहें, तो हम सब स्वयं आपके मुख से सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हो सकते हैं।
तबे दिग्विजयी व्याख्यार श्लोक पुछिल ।। शत श्लोकेर एक श्लोक प्रभु त' पड़िल ॥
४०॥
दिग्विजयी केशव काश्मीरी ने पूछा कि आप किस श्लोक की । व्याख्या चाहते हैं। तब महाप्रभु ने केशव काश्मीरी द्वारा रचे एक सौ श्लोकों में से एक श्लोक सुनाया।
महत्त्वं गङ्गायाः सततमिदमाभाति नितरांप्रदेषा श्री-विष्णोश्चरण-कमलोत्पत्ति-सुभगा । द्वितीय-श्री-लक्ष्मीरिव सुर-नरैर-चरणाभवानी-भर्तुर्या शिरसि विभवत्यद्भुत-गुणा ॥
४१॥
माता गंगा की महानता सदैव चमकती रहने वाली है। वे सर्वाधिक भाग्यशालिनी हैं, क्योंकि वे भगवान् विष्णु के चरणकमलों से निकलती हैं। वे द्वितीय लक्ष्मी हैं, इसीलिए देवता तथा मनुष्य सदा उनकी पूजा करते हैं। वे सारे अद्भुत गुणों से समन्वित होकर शिवजी के मस्तक पर सुशोभित होती हैं।
‘एइ श्लोकेर अर्थ कर'—प्रभु यदि बैल ।।विस्मित हा दिग्विजयी प्रभुरे पुछिल ॥
४२॥
जब चैतन्य महाप्रभु ने इस श्लोक का अर्थ बतलाने के लिए कहा, । तो दिग्विजयी ने आश्चर्यचकित होकर उनसे पूछा।
झञ्झावात-प्राय आमि श्लोक पड़िले ।तार मध्ये श्लोक तुमि कैछे कण्ठे कैल ॥
४३॥
मैंने तो सारे श्लोक आँधी की गति से सुनाये हैं। तुमने उन श्लोकों में से इस एक श्लोक को किस तरह ठीक से कण्ठस्थ कर लिया? प्रभु कहे, देवेर वरे तुमि–'कवि-वर' ।ऐछे देवेर वरे केहो हय' श्रुतिधर' ॥
४४॥
महाप्रभु ने उत्तर दिया, जिस तरह भगवान् की कृपा से कोई कोई महाकवि बनता है, उसी तरह उन्हीं की कृपा से कोई-कोई महान् श्रुतिधर । भी बन सकता है, जो किसी चीज को तुरन्त स्मरण रख ले।
श्लोकेर अर्थ कैल विप्र पाइया सन्तोष ।प्रभु कहे—कह श्लोकेर किबा गुण-दोष ॥
४५॥
वह ब्राह्मण ( केशव काश्मीरी ) महाप्रभु के कथन से सन्तुष्ट हुआ और उसने उधृत श्लोक का अर्थ बतलाया। तब महाप्रभु ने कहा, कृपया इस श्लोक के कुछ विशेष गुणों और दोषों की भी व्याख्या कर दें।
विप्र कहे श्लोके नाहि दोषेर आभास ।।उपमालङ्कार गुण, किछु अनुप्रास ॥
४६॥
। ब्राह्मण ने उत्तर दिया, इस श्लोक में नाम-मात्र भी दोष नहीं है। प्रत्युत यह उपमा तथा अनुप्रास की उत्कृष्ट विशेषताओं से युक्त है।
प्रभु कहेन, कहि, यदि न करह रोष ।कह तोमार एइ श्लोके किबा आछे दोष ॥
४७॥
महाप्रभु ने कहा, हे महाशय, यदि आप रूष्ट न हों, तो मैं कुछ कहूँ। क्या आप इस श्लोक के दोषों की व्याख्या कर सकेंगे? प्रतिभार काव्य तोमार देवता सन्तोषे ।। भाल-मते विचारिले जानि गुण-दोषे ॥
४८॥
इस में सन्देह नहीं कि आपकी कविता प्रतिभा से युक्त है और निश्चय ही, इसने परमेश्वर को सन्तुष्ट कर लिया है। फिर भी यदि हम इसकी समीक्षात्मक रूप से विवेचना करें, तो इसमें गुण और दोष दोनों मिल जायेंगे।
ताते भाल करि' श्लोक करह विचार । कवि कहे,—ये कहिले सेइ वेद-सार ॥
४९॥
महाप्रभु ने अन्त में कहा, अतएव अब हम इस श्लोक की भलीभाँति विवेचना कर लें। तब उस कवि ने उत्तर दिया, हाँ, तुमने जो श्लोक पढ़ा है, वह पूरी तरह सही है।
व्याकरणिया तुमि नाहि पड़ अलङ्कार ।। तुमि कि जानिबे एइ कवित्वेर सार ॥
५० ॥
आप तो व्याकरण के सामान्य विद्यार्थी हो। काव्य-शास्त्र के अलंकारों के बारे में आप क्या जानो? आप इस कविता की समालोचना नहीं कर सकते, क्योंकि आपको इसका कोई ज्ञान नहीं है।
प्रभु कहेन अतएव पुछिये तोमारे ।।विचारियो गुण-दोष बुझाह आमारे ॥
५१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने विनीत भाव से कहा, चूँकि मैं आपके स्तर का नहीं हैं, इसीलिए मैंने आपसे अनुरोध किया है कि आप अपनी कविता के गुण-दोषों की व्याख्या करके मुझे सिखाएँ।
नाहि पड़ि अलङ्कार, करियाछि श्रवण ।।ताते एइ श्लोके देखि बहु दोष-गुण ॥
५२॥
निश्चय ही मैंने अलंकार-शास्त्र नहीं पढ़ा। किन्तु मैंने बड़े लोगों से इस सम्बन्ध में सुना है, अतएव मैं इस श्लोक की समीक्षा कर सकता हूँ। और इसमें अनेक दोष और अनेक विशेषताएँ हूँढ सकता हूँ।
कवि कहे, कह देखि, कोन् गुण-दोष । प्रभु कहेन,—कहि, शुन, ना करिह रोष ॥
५३॥
कवि ने कहा, जरा देखें तो, आपने कौन-कौन से गुण और दोष ढूँढे हैं। महाप्रभु ने उत्तर दिया, मैं कह रहा हूँ। कृपया आप रुष्ट हुए बिना सुनें।
पञ्च दोष एइ श्लोके पञ्च अलङ्कार । क्रमे आमि कहि, शुन, करह विचार ॥
५४॥
हे महोदय, इस श्लोक में पाँच दोष हैं और पाँच अलंकार हैं। मैं क्रम से उन्हें कहूँगा। कृपया सुनें और फिर अपना निर्णय दें।
‘अविमृष्ट-विधेयांश'–दुइ ठाञि चिह्न ।‘विरुद्ध-मति', 'भग्न-क्रम', 'पुनरात्त', दोष तिन ॥
५५॥
इस श्लोक में अविमृष्टविधेयांश दोष दो बार आया है और विरुद्धमति, भग्नक्रम तथा पुनरात्त दोष एक-एक बार आये हैं।
‘गङ्गार महत्त्व'–श्लोके मूल 'विधेय' ।इदं शब्दे ‘'–पाछे अविधेय ॥
५६॥
। इस श्लोक का मुख्य अज्ञात विषय (विधेय) गंगा का महत्त्व ( महत्त्वं गंगायाः) है और ज्ञात विषय ( उद्देश्य) इदम् शब्द से सूचित होता है, जो अज्ञात के बाद रखा हुआ है।
‘विधेय' आगे कहि' पाछे कहिले '' ।एइ लागि' श्लोकेर अर्थ करियाछे बाध ॥
५७ ॥
चूँकि आपने ज्ञात विषय को ( उद्देश्य या को) अन्त में रखा है और जो अज्ञात है (विधेय) उसे प्रारम्भ में रखा है, अतएव यह रचना दोषपूर्ण है और शब्दों का अर्थ सन्देहजनक हो गया है।
मनुक्त्वैव न विधेयमुदीरयेत् ।न ह्यलब्धास्पदं किञ्चित्कुत्रचित्प्रतितिष्ठति ॥
५८॥
सर्वप्रथम ज्ञात का उल्लेख किये बिना अज्ञात को स्थान नहीं देना चाहिए, क्योंकि जिसकी ठोस आधारभूमि नहीं होती, उसे कहीं भी स्थापित नहीं किया जा सकता।
‘द्वितीय श्री-लक्ष्मी'---इहाँ ‘द्वितीयत्व' विधेय ।। समासे गौण हैल, शब्दार्थ गेल क्षय ॥
५९॥
द्वितीय श्रीलक्ष्मी' शब्द में द्वितीय लक्ष्मी होने का गुण अज्ञात है। इस समास के बनाने से अर्थ गौण हो गया और अभीष्ट मूल अर्थ खो गया।
‘द्वितीय' शब्द–विधेय ताहा पड़िल समासे ।। ‘लक्ष्मीर समता' अर्थ करिल विनाशे ॥
६० ॥
चूँकि 'द्वितीय' शब्द विधेय ( अज्ञात) है, अतएव इस समास में लक्ष्मी की समता का जो अभीष्ट अर्थ था, वह नष्ट हो गया है।
‘अविमृष्ट-विधेयांश'–एइ दोषेर नाम ।।आर एक दोष आछे, शुन सावधान ॥
६१ ॥
न केवल अविमृष्ट विधेयांश का दोष ही है, अपितु एक अन्य दोष भी है, जिसे मैं आपको इंगित करने जा रहा हूँ। कृपया ध्यानपूर्वक सुनें।
भवानी-भर्तृ-शब्द दिले पाइयो सन्तोष ।।‘विरुद्ध-मति-कृत्' नाम एइ महा दोष ॥
६२ ॥
यहाँ पर एक अन्य महान् दोष है। आपने अपने पूर्ण सन्तोष के लिए भवानीभर्तृ' शब्द रखा है, किन्तु इसमें विरुद्धमतिकृत् नामक ( विरोधाभास का ) दोष है।
भवानी-शब्दे कहे महादेवेर गृहिणी ।।ताँर भर्ता कहिले द्वितीय भर्ता जानि ॥
६३ ॥
भवानी' का शब्दार्थ है 'शिवजी की पत्नी।' किन्तु जब हम उनके पति का उल्लेख करते हैं, तो इससे यह निष्कर्ष भी निकल सकता है कि उनका कोई दूसरा पति भी है।
'शिव-पत्नीर भर्ता' इहा शुनिते विरुद्ध ।।‘विरुद्ध-मति-कृत्' शब्द शास्त्रे नहे शुद्ध ॥
६४॥
। यह सुनना विरोधाभासी लगता है कि शिवजी की पत्नी का एक दूसरा पति है। साहित्य में ऐसे शब्दों के प्रयोग से विरुद्धमतिकृत् नामक दोष उत्पन्न होता है।"
‘ब्राह्मण-पत्नीर भर्तार हस्ते देह दान' ।शब्द शुनितेइ हय द्वितीय-भर्ता ज्ञान ॥
६५ ॥
यदि कोई कहे कि 'यह दान ब्राह्मण की पत्नी के पति के हाथ में दे दो,' तो इन विपरीतार्थी शब्दों को सुनते ही हम तुरन्त समझते हैं कि ब्राह्मण-पत्नी को कोई दूसरा पति भी है।
‘विभवति' क्रियाय वाक्य–साङ्ग, पुनः विशेषण ।‘अद्भुत-गुणा'–एइ पुनरात्त दूषण ॥
६६॥
विभवति ( फलती फूलती है ) शब्द द्वारा कहा गया कथन पूर्ण है। किन्तु इसके विशेषण के रूप में अद्भुतगुणारखने से पुनरुक्ति नामक दोष उत्पन्न होता है।
तिन पादे अनुप्रास देखि अनुपम ।एक पादे नाहि, एइ दोष'भग्न-क्रम' ॥
६७॥
इस श्लोक की तीन पंक्तियों में अद्वितीय अनुप्रास पाया जाता है, किन्तु एक पंक्ति में अनुप्रास बिल्कुल नहीं है। यह भग्नक्रम नामक दोष उत्पन्न होता हैं। दश अलङ्कारे यदि एक श्लोक हय । एक दोषे सब अलङ्कार हय क्षय ॥
६९॥
यदि किसी श्लोक में दस अलंकार हों, किन्तु एक भी दोष रहने पर पूरा श्लोक व्यर्थ हो जाता है।
यद्यपि एइ श्लोके आछे पञ्च अलङ्कार ।।एइ पञ्च-दोघे श्लोक कैल छारखार ॥
६८ ॥
यद्यपि इस श्लोक में पाँच अलंकार हैं, किन्तु इन पाँच दोषों के कारण पूरा श्लोक नष्ट-भ्रष्ट हो गया है।
सुन्दर शरीर ग्रैछे भूषणे भूषित ।। एक श्वेत-कुष्ठे ग्रैछे करये विगीत ॥
७० ॥
किसी का सुन्दर शरीर रत्नों से क्यों न अलंकृत हो, किन्तु यदि श्वेत कुष्ठ का एक भी दाग दिखे तो सारा शरीर घृणित हो जाता है।
रसालङ्कार-वत् काव्यं दोष-मुक् चेद् विभूषितम् ।। स्याद्वपुः सुन्दरमपि श्वित्रेणैकेन दुर्भगम् ॥
७१॥
जिस प्रकार गहनों से सुसज्जित शरीर श्वेत कुष्ठ के एक दाग से भी अशुभ हो जाता है, उसी तरह पूरी कविता अनुप्रास, उपमा तथा रूपक से युक्त होने पर भी केवल एक दोष से व्यर्थ हो जाती है।'
पञ्च अलङ्कारेर एबे शुनह विचार ।। दुइ शब्दालङ्कार, तिन अर्थ-अलङ्कार ॥
७२॥
अब पाँच साहित्यिक अलंकारों का विवरण सुनें। दो शब्दालंकार हैं और तीन अर्थालंकार हैं।
शब्दालङ्कार-तिन-पादे आछे अनुप्रास ।। 'श्री-लक्ष्मी' शब्दे ‘पुनरुक्तवदाभास' ॥
७३॥
श्लोक की तीन पंक्तियों में अनुप्रास नामक शब्दालंकार है।'श्री' तथा 'लक्ष्मी' शब्दों के समास में पुनरुक्तवदाभास शब्दालंकार है।
प्रथम-चरणे पञ्चत'-कारेर पाँति । तृतीय-चरणे हय पञ्च ‘रेफ'-स्थिति ॥
७४॥
श्लोक के प्रथम चरण में 'त' पाँच बार आया है और तीसरे चरण में 'र' पाँच बार आया है।
चतुर्थ-चरणे चारि 'भ'-कार-प्रकाश । अतएव शब्दालङ्कार अनुप्रास ॥
७५ ॥
चौथे चरण में ‘भ' अक्षर चार बार आया है। इस तरह श्लोक में अनुप्रास नामक मधुर शब्दालंकार है।
'श्री'-शब्दे, 'लक्ष्मी'-शब्दे–एक वस्तु उक्त ।पुनरुक्त-प्राय भासे, नहे पुनरुक्त ॥
७६॥
यद्यपि 'श्री' तथा 'लक्ष्मी' शब्दों का अर्थ एक ही है, अतएवं पुनरुक्ति प्रतीत होती है, किन्तु पुनरुक्ति है नहीं।"
'श्री-युक्त लक्ष्मी' अर्थे अर्थेर विभेद ।।पुनरुक्तवदाभास, शब्दालङ्कार-भेद ॥
७७॥
लक्ष्मी को श्री ( ऐश्वर्य) युक्त कहने से पुनरुक्ति के साथ अर्थ में अन्तर आता है। यह द्वितीय शब्दालंकार पुनरुक्तवदाभास है।
‘लक्ष्मीरिव' अर्थालङ्कार–उपमा-प्रकाश ।आर अर्थालङ्कार आछे, नाम–'विरोधाभास' ॥
७८ ॥
लक्ष्मीरिव (लक्ष्मी के समान) में उपमा नामक अर्थालंकार है। एक अन्य अर्थालंकार विरोधाभास भी है।
‘गङ्गाते कमल जन्मे'—सबार सुबोध ।। ‘कमले गङ्गार जन्म'—अत्यन्त विरोध ॥
७९॥
। यह सबको ज्ञात है कि कमल के फूल गंगाजल में खिलते हैं। किन्तु यह कहना कि गंगा का जन्म कमल-फूल से होता है, यह अत्यन्त विरोधाभासी प्रतीत होता है।
‘इहाँ विष्णु-पाद-पद्ये गङ्गार उत्पत्ति' । विरोधालङ्कार इहा महा-चमत्कृति ॥
८० ॥
गंगा माता की उत्पत्ति भगवान् के चरणकमलों से होती है। यद्यपि यह कथन कि कमल के फूल से जल आता है विरोधमूलक है, किन्तु भगवान् विष्णु के प्रसंग में यह महान् चमत्कार है।
ईश्वर-अचिन्त्य-शक्त्ये गङ्गार प्रकाश । इहाते विरोध नाहि, विरोध-आभास ॥
८१॥
गंगा की उत्पत्ति में भगवान् की अचिन्त्य शक्ति के कारण तनिक भी विरोध नहीं है, यद्यपि यह विरोधाभास जैसा प्रतीत होता है।
अम्बुजमम्बुनि जातं क्वचिदपि न जातमम्बुजादम्बु । मुर-भिदि तद्विपरीतं पादाम्भोजान्महा-नदी जाता ॥
८२॥
हर कोई जानता है कि कमल के फूल जल में खिलते हैं, किन्तु कमल में जल कभी नहीं उगता। फिर भी ये सारे विरोधाभास कृष्ण में अद्भुत रूप से सम्भव हैं। गंगा जैसी महान् नदी भगवान् के चरणकमलों से निकली है।
गङ्गार महत्त्व- साध्य, साधन ताहार ।विष्णु-पादोत्पत्ति-अनुमान' अलङ्कार ॥
८३ ।। गंगा नदी की असली महिमा यह है कि वह भगवान् विष्णु के चरणकमलों से उत्पन्न हुई हैं। ऐसी परि-कल्पना अनुमान नामक अलंकार है।
ल एइ पञ्च दोष, पञ्च अलङ्कार ।। सूक्ष्म विचारिये यदि आछये अपार ॥
८४॥
मैंने पाँच स्थूल दोषों तथा पाँच साहित्यिक अलंकारों पर ही विचार किया है, किन्तु यदि हम सूक्ष्म विचार करें, तो पायेंगे कि दोषों की गणना कर पाना सम्भव नहीं है।
प्रतिभा, कवित्व तोमार देवता-प्रसादे ।। अविचार काव्ये अवश्य पड़े दोष-बाधे ॥
८५॥
आपको कवि-कल्पना तथा प्रतिभा अपने आराध्य देव की कृपा से प्राप्त हुई है। किन्तु यदि काव्य की ठीक से समीक्षा नहीं की जाती है, तो वह निश्चय ही आलोचित होता है।
विचारि' कवित्व कैले हय सुनिर्मल । सालङ्कार हैले अर्थ करे झलमल ॥
८६॥
। यदि विचारपूर्वक कवित्व का प्रयोग किया जाए, तो वह अत्यन्त निर्मल होता है और रूपकों तथा उपमाओं से वह चमकने लगता है।
शुनिया प्रभुर व्याख्या दिग्विजयी विस्मित ।मुखे ना निःसरे वाक्य, प्रतिभा स्तम्भित ॥
८७॥
चैतन्य महाप्रभु की व्याख्या सुनकर दिग्विजयी कवि हतप्रभ हो गया, उसकी सारी चतुराई जड़ बन गई और उसके मुख से शब्द ही निकल नहीं पाए।
कहिते चाहये किछु, ना आइसे उत्तर । तबे विचारये मने हइया फाँफर ॥
८८॥
वह कुछ कहना चाहता था, किन्तु उसके मुँह से कोई उत्तर नहीं निकलता था। तब वह अपने मन में इस उलझन पर विचार करने लगा।
पड़या बालक कैल मोर बुद्धि लोप ।। जानि-सरस्वती मोरे करियाछेन कोप ॥
८९॥
इस छोटे से बालक ने मेरी बुद्धि को अवरुद्ध कर दिया है। अतएव मेरी समझ में आता है कि माता सरस्वती मुझ से रूठ गई हैं।
ग्रे व्याख्या करिल, से मनुष्येर नहे शक्ति ।निमात्रि-मुखे रहि' बले आपने सरस्वती ॥
९० ॥
इस लड़के ने जो अद्भुत व्याख्या की है, वह किसी भी मनुष्य के लिए सम्भव नहीं हो सकती थी। अतएव माता सरस्वती ही उसके मुख से स्वयं बोली होंगी।
एत भावि' कहे–शुन, निमात्रि पण्डित ।।तव व्याख्या शुनि' आमि हइलाँ विस्मित ॥
९१॥
यह सोचकर पण्डित ने कहा, हे निमाइ पण्डित, मेरी बात सुनो। आपकी व्याख्या सुनकर मैं तो आश्चर्यचकित हो गया हूँ।
अलङ्कार नाहि पड़, नाहि शास्त्राभ्यास । केमने ए सब अर्थ करिले प्रकाश ॥
९२॥
मैं चकित हूँ। आप साहित्य-शास्त्र के विद्यार्थी नहीं हैं और आपको शास्त्र पढ़ने का दीर्घकालीन अनुभव भी नहीं है। तो फिर आप ये सारी आलोचनात्मक बातों की व्याख्या कैसे कर सके? इहा शुनि' महाप्रभु अति बड़ रङ्गी । ताँहार हृदय जानि' कहे करि' भङ्गी ॥
९३॥
यह सुनकर तथा पण्डित के मन की बात जानकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने हँसी में उत्तर दिया।
शास्त्रेर विचार भाल-मन्द नाहि जानि । सरस्वती ये बलाय, सेइ बलि वाणी ॥
९४॥
हे महोदय, मैं यह नहीं जानता कि अच्छी रचना क्या है और बुरी क्या है। किन्तु मैंने जो कुछ भी कहा है, उसे माता सरस्वती द्वारा कहा गया समझा जाना चाहिए।
इहा शुनि' दिग्विजयी करिल निश्चय । शिशु-द्वारे देवी मोरे कैल पराजय ॥
९५ ॥
जब पण्डित ने चैतन्य महाप्रभु से यह निर्णय सुना, तो वह दुःखी हुआ और आश्चर्य करने लगा कि माता सरस्वती ने उसे छोटे बालक के माध्यम से क्यों हराना चाहा।
आजि ताँरै निवेदिब, करि' जप-ध्यान ।।शिशु-द्वारे कैल मोरे एत अपमान ।। ९६॥
उस दिग्विजयी ने सोचा, मैं सरस्वती देवी की स्तुति करूँगा, उनका ध्यान करूँगा तथा उनसे यह पूढुंगा कि आपने इस बालक के माध्यम से मेरा ऐसा घोर अपमान क्यों कराया।
वस्तुतः सरस्वती अशुद्ध श्लोक कराइल ।विचार-समय ताँर बुद्धि आच्छादिल ।। ९७॥
वास्तव में सरस्वती ने ही उस दिग्विजयी को अशुद्ध ढंग से अपना श्लोक रचने के लिए प्रेरित किया था। यही नहीं, जब श्लोक की व्याख्या हुई तो उन्होंने उसकी बुद्धि पर परदा डाल दिया, जिससे महाप्रभु की । बुद्धि जीत गई।
तबे शिष्य-गण सब हासिते लागिल । ता'-सबा निषेधि' प्रभु कविरे कहिल ॥
९८॥
जब वह दिग्विजयी कवि इस तरह परास्त हो गया, तो वहाँ पर बैठे हुए महाप्रभु के सारे शिष्य जोर-जोर से हँसने लगे। किन्तु श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें ऐसा करने से मना किया और कवि को इस तरह से सम्बोधित किया।
तुमि बड़ पण्डित, महाकवि-शिरोमणि ।ग्राँर मुखे बाहिराय ऐछे कव्य-वाणी ॥
९९॥
आप बहुत बड़े पण्डित तथा सभी महाकवियों में शिरोमणि हैं, अन्यथा इतना अच्छा काव्य आपके मुख से कैसे निकलता? तोमार कवित्व येन गङ्गा-जल-धार ।। तोमा-सम कवि कोथा नाहि देखि आर ॥
१००॥
आपका काव्य-चातुर्य निरन्तर प्रवाहित होने वाले गंगा जल की तरह है। मुझे संसार में ऐसा कोई नहीं दिखता, जो आपकी बराबरी कर सके।
भवभूति, जयदेव, आर कालिदास ।।ताँ-सबार कवित्वे आछे दोषेर प्रकाश ॥
१०१॥
भवभूति, जयदेव तथा कालिदास जैसे महाकवियों के काव्य में भी अनेक दोष हैं।
दोष-गुण-विचार-एइ अल्प करि' मानि ।। कवित्व-करणे शक्ति, ताँहा से वाखानि ॥
१०२॥
। ऐसे दोषों को नगण्य मानना चाहिए। केवल इतना ही देखना चाहिए कि ऐसे कवियों ने किस तरह अपनी कवित्व-शक्ति का प्रदर्शन किया शैशव-चापल्य किछु ना लबे आमार ।। शिष्येर समान मुजि ना हँ तोमार ॥
१०३ ॥
मैं आपका शिष्य भी होने योग्य नहीं हूँ। अतएव मैंने जो भी बालसुलभ धृष्टता की है, उसे बुरा नहीं माने।
आजि वासा' ग्राह, कालि मिलिब आबार ।शुनिब तोमार मुखे शास्त्रेर विचार ॥
१०४॥
कृपया घर जायें। कल हम फिर से मिलेंगे, ताकि मैं आपके मुख से शास्त्र-सम्बन्धी चर्चाएँ सुन सकें।
एइ-मते निज घरे गेला दुइ जन ।कवि रात्रे कैल सरस्वती-आराधन ।। १०५॥
इस तरह कवि और चैतन्य महाप्रभु दोनों जन अपने-अपने घर चले गये और कवि ने रात में माता सरस्वती का आराधन किया।
सरस्वती स्वप्ने तारे उपदेश कैल ।।साक्षातीश्वर करि' प्रभुके जानिल ॥
१०६॥
सरस्वती देवी ने स्वप्न में उसे महाप्रभु के पद की जानकारी दी और दिग्विजयी कवि यह समझ गया कि चैतन्य महाप्रभु साक्षात् पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं।
प्राते आसि' प्रभु-पदे लइल शरण ।प्रभु कृपा कैल, ताँर खण्डिल बन्धन ॥
१०७॥
। दूसरे दिन वह कवि भगवान् चैतन्य के पास आया और उनके चरणकमलों में शरणागत हो गया। महाप्रभु ने उस पर कृपा की और उसके भौतिक आसक्ति के सारे बन्धन काट दिये।
भाग्यवन्त दिग्विजयी सफल-जीवन । विद्या-बले पाइल महाप्रभुर चरण ॥
१०८॥
वह दिग्विजयी कवि निश्चित रूप से परम भाग्यशाली था। उसको जीवन उसकी विशद विद्या और पाण्डित्यपूर्ण अध्ययन कौशल के कारण सफल हुआ और इस तरह उसे चैतन्य महाप्रभु की शरण प्राप्त हुई।
ए-सब लीला वर्णियाछेन वृन्दावन-दास ।ये किछु विशेष इहाँ करिल प्रकाश ॥
१०९॥
श्रील वृन्दावन दास ठाकुर ने इन सारी घटनाओं का विस्तार से वर्णन किया है। मैंने तो उन विशिष्ट घटनाओं को ही प्रस्तुत किया है, जिनका वर्णन उन्होंने नहीं किया।
चैतन्य-गोसाबिर लीला--अमृतेर धार ।सर्वेन्द्रिय तृप्त हुये श्रवणे ग्राहार ॥
११०॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं के अमृतकण हर किसी सुनने वाले की इन्द्रियों को तृप्त करने वाले हैं।
श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश ।।चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
१११॥
। श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों की वन्दना करता हुआ तथा उनकी कृपा की कामना करता हुआ, मैं कृष्णदास उन्हीं के चरणचिह्नों का अनुसरण करते हुए श्रीचैतन्य-चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।
अध्याय सत्रह: युवावस्था में भगवान चैतन्य महाप्रभु की लीलाएँ
वन्दे स्वैराद्भुतेहं तं चैतन्यं यत्प्रसादतः ।।ग्रवनाः सुमनायन्ते कृष्ण-नाम-प्रजल्पकाः ॥
१॥
मैं उन श्री चैतन्य महाप्रभु को सादर नमस्कार करता हूँ, जिनकी कृपा से अशुद्ध यवन भी भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन करने से पूरी तरह सुसंस्कृत बन जाते हैं। श्री चैतन्य महाप्रभु की शक्ति ही ऐसी है।
जय जय श्री-चैतन्य जय नित्यानन्द । जयाद्वैतचन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ।।२।। श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! श्री अद्वैत आचार्य की जय हो तथा श्री चैतन्य महाप्रभु के भक्तों की जय हो! कैशोर-लीलार सूत्र करिल गणन। यौवन-लीलार सूत्र करि अनुक्रम ॥
३॥
मैं श्री चैतन्य महाप्रभु की कैशोर-लीला का सारांश दे चुका हूँ। अब मैं उनकी यौवन-लीलाओं को क्रमानुसार वर्णन करूंगा।
विद्या-सौन्दर्य-सद्वेश-सम्भोग-नृत्य-कीर्तनैः । प्रेम-नाम-प्रदानैश्च गौरो दीव्यति यौवने ॥
४॥
अपनी विद्वत्ता, सौन्दर्य और सुन्दर वेश का प्रदर्शन करके चैतन्य महाप्रभु ने नृत्य किया, संकीर्तन किया तथा सुप्त कृष्ण-प्रेम को जगाने के लिए भगवान् के पवित्र नाम का वितरण किया। इस तरह श्री गौरसुन्दर अपनी यौवन-लीलाओं में काफी चमके।
यौवन-प्रवेशे अङ्गेर अङ्ग विभूषण । दिव्य वस्त्र, दिव्य वेश, माल्य-चन्दन ॥
५॥
जैसे चैतन्य महाप्रभु युवावस्था में प्रविष्ट हुए, वे सुन्दर आभूषण और सुन्दर वस्त्र धारण करते, फूलों की माला पहनते और चन्दन-लेप करते।
विद्यार औद्धत्ये काहों ना करे गणन ।। सकल पण्डित जिनि' करे अध्यापन ॥
६ ॥
अपनी शिक्षा से गर्वित एवं अन्य किसी की परवाह न करने वाले श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने अध्ययन-काल में समस्त कोटि के पण्डितों को परास्त कर दिया।
वायु-व्याधि-च्छले कैल प्रेम परकाश ।।भक्त-गण लञा कैल विविध विलास ॥
७॥
महाप्रभु ने युवावस्था में शारीरिक वायु विकार के बहाने कृष्ण के प्रति अपना भावमय प्रेम प्रदर्शित किया। इस तरह अपने अन्तरंग संगियों के साथ मिलकर उन्होंने विविध लीलाओं का आस्वादन किया।
तबेत करिला प्रभु गयाते गमन ।।ईश्वर-पुरीर सङ्गे तथाइ मिलन ॥
८॥
इसके बाद महाप्रभु गया चले गये। वहाँ उनकी भेंट श्रील ईश्वर पुरी से हुई।
दीक्षा-अनन्तरे हैल, प्रेमेर प्रकाश ।। देशे आगमन पुनः प्रेमेर विलास ॥
९॥
गया में श्री चैतन्य महाप्रभु ने ईश्वर पुरी से दीक्षा ग्रहण की और उसी के तुरन्त बाद उनमें भगवत्प्रेम के चिह्न दिखाई दिये। घर लौटने पर भी उनमें ऐसे लक्षण प्रकट हुए।
शचीके प्रेम-दान, तबे अद्वैत-मिलन । अद्वैत पाइल विश्वरूप-दरशन ॥
१०॥
। तत्पश्चात् महाप्रभु ने अपनी माता शचीदेवी द्वारा अद्वैत आचार्य के चरणकमलों पर किये गये अपराध को क्षमा करके, उन्हें कृष्ण-प्रेम प्रदान किया। इस तरह अद्वैत आचार्य से भेंट हुई और उन्हें बाद में भगवान् के विश्वरूप का दर्शन मिला।
प्रभुर अभिषेक तबे करिल श्रीवास।खाटे वसि' प्रभु कैला ऐश्वर्य प्रकाश ॥
११॥
। तत्पश्चात् श्रीवास ठाकुर ने चैतन्य महाप्रभु का अभिषेक किया। महाप्रभु ने खाट के ऊपर बैठे-बैठे दिव्य ऐश्वर्य प्रकाशित किया।
तबे नित्यानन्द-स्वरूपेर आगमन । प्रभुके मिलिया पाइल घडू-भुज-दर्शन ॥
१२॥
श्रीवास ठाकुर के घर पर इस उत्सव के बाद नित्यानन्द प्रभु का वहाँ आगमन हुआ और जब वे चैतन्य महाप्रभु से मिले, तो उन्हें महाप्रभु के षड्-भुज रूप के दर्शन करने का अवसर मिला।
प्रथमे षडू-भुज ताँरै देखाइल ईश्वर ।।शङ्ख-चक्र-गदा-पद्म-शाई-वेणु-धर ॥
१३॥
एक दिन चैतन्य महाप्रभु ने नित्यानन्द प्रभु को शंख, चक्र, गदा, कमल, धनुष तथा वंशी धारण किया हुआ अपना षड्भुज रूप दिखलाया।
तबे चतुर्भुज हैला, तिन अङ्ग वक्र ।दुइ हस्ते वेणु बाजाय, दुये शङ्ख-चक्र ॥
१४॥
तत्पश्चात् त्रिभंगी होकर उन्होंने अपना चतुर्भुज रूप दिखलाया। वे अपने दो हाथों से मुरली बजा रहे थे और अन्य दो हाथों में शंख तथा चक्र धारण किये थे।
तबे त' द्वि-भुज केवल वंशी-वदन ।। श्याम-अङ्ग पीत-वस्त्र व्रजेन्द्र-नन्दन ॥
१५॥
। अन्त में महाप्रभु ने नित्यानन्द प्रभु को महाराज नन्द के पुत्र कृष्ण का द्विभुज रूप दिखलाया, जिसमें वे मात्र वंशी बजा रहे थे और अपने श्याम वर्ण शरीर पर पीत-वस्त्र धारण किये थे।
तबे नित्यानन्द-गोसाजिर व्यास-पूजन ।। नित्यानन्दावेशे कैल मुघल धारण ॥
१६॥
। तब नित्यानन्द प्रभु ने भगवान् श्री गौरसुन्दर की व्यास-पूजा अर्थात् गुरु-पूजा करने का प्रबन्ध किया। किन्तु श्री चैतन्य महाप्रभु ने नित्यानन्द प्रभु के भाव में आकर मूषल धारण कर लिया।
तबे शची देखिल, राम-कृष्ण- दुइ भाई ।तबे निस्तारिल प्रभु जगाइ-माधाइ ॥
१७॥
तत्पश्चात् शचीदेवी ने कृष्ण तथा बलराम दोनों भाइयों को चैतन्य तथा नित्यानन्द के स्वरूपों में देखा। तब महाप्रभु ने जगाई तथा माधाइ नामक दो भाइयों का उद्धार किया।
तबे सप्त-प्रहर छिला प्रभु भावावेशे ।।यथा तथा भक्त-गण देखिल विशेषे ॥
१८॥
इस घटना के बाद महाप्रभु इक्कीस घण्टों तक भावातिरेक की स्थिति में रहे और सारे भक्तों ने उनकी विशेष लीलाएँ देखीं।
वराह-आवेश हैला मुरारि-भवने । ताँर स्कन्धे चड़ि' प्रभु नाचिला अङ्गने ॥
१९॥
एक दिन श्री चैतन्य महाप्रभु को वराह-अवतार का भावावेश हुआ, तो वे मुरारि गुप्त के कंधों पर चढ़ गये। फिर मुरारि गुप्त के आँगन में दोनों नाचने लगे।
तबे शुक्लाम्बरेर कैल तण्डुल-भक्षण । 'हरेर्नाम' श्लोकेर कैल अर्थ विवरण ॥
२०॥
इसके बाद महाप्रभु ने शुक्लाम्बर ब्रह्मचारी द्वारा दिया हुआ कच्चा चावल खाया और बृहन्नारदीय पुराण में उल्लिखित हरेर्नाम श्लोक का विस्तार से भावार्थ बतलाया।
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामेव केवलम् । कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ॥
२१॥
इस कलियुग में आत्म-साक्षात्कार के लिए भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन, भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन, भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है, अन्य कोई उपाय नहीं है, अन्य कोई उपाय नहीं है।
कलि-काले नाम-रूपे कृष्ण-अवतार । नाम हैते हय सर्व-जगत्निस्तार ॥
२२ ॥
दाढूर्य लागि' ‘हरेर्नाम'-उक्ति तिन-वार ।। इस कलियुग में भगवान् के पवित्र नाम अर्थात् हरे कृष्ण महामन्त्र भगवान् कृष्ण का अवतार है। केवल पवित्र नाम के कीर्तन से मनुष्य भगवान् की प्रत्यक्ष संगति कर सकता है। जो कोई भी ऐसा करता है, उसका निश्चित रूप से उद्धार हो जाता है।
जड़ लोक बुझाइते पुनः ‘एव'-कार ॥
२३॥
इस श्लोक में बल देने के लिये एव(निश्चय ही ) शब्द को तीन बार दोहराया गया है और इसमें हरेर्नाम ( भगवान् का पवित्र नाम) भी तीन बार दोहराया गया है, जिससे सामान्य लोग इसे समझ सकें।
‘केवल'-शब्दे पुनरपि निश्चय-करण ।। ज्ञान-योग-तप-कर्म-आदि निवारण ॥
२४॥
‘केवल' शब्द का प्रयोग ज्ञान, योग, तप तथा सकाम कर्म जैसी अन्य विधियों का निषेध करने वाला है।
अन्यथा ये माने, तार नाहिक निस्तार। नाहि, नाहि, नाहिए तिन 'एव'-कार ॥
२५॥
। यह श्लोक स्पष्ट बतलाता है कि जो कोई अन्य मार्ग स्वीकार करता है, उसका कभी उद्धार नहीं हो सकता। इसीलिए तीन बार 'अन्य कुछ नहीं, अन्य कुछ नहीं, अन्य कुछ नहीं,' कहा गया है, जो आत्म-साक्षात्कार की असली विधि पर बल देता है।
तृण हैते नीच हा सदा लबे नाम । आपनि निरभिमानी, अन्ये दिबे माने ॥
२६॥
निरन्तर पवित्र नाम का कीर्तन करने के लिए मनुष्य को रास्ते में उगी घास से भी विनीत होना चाहिए और निजी सम्मान की कामना से रहित होना चाहिए, किन्तु अन्यों को पूरा आदर देना चाहिए।
तरु-सम सहिष्णुता वैष्णव करिबे ।भर्सन-ताड़ने काके किछु ना बलिबे ॥
२७॥
भगवन्नाम-कीर्तन में संलग्न व्यक्ति में वृक्ष जैसी सहनशीलता होनी चाहिए। डाँटे-फटकारे जाने पर भी बदले की भावना से उसे किसी से कुछ नहीं कहना चाहिए।
काटिलेह तरु ग्रेन किछु ना बोलय । शुकाइया मरे, तबु जल ना मागय ॥
२८॥
। यदि कोई वृक्ष को काटता भी है, तो भी वह प्रतिरोध नहीं करता, न ही वह सूखने और मरने पर किसी से जल की याचना करता है।
एइ-मत वैष्णव कारे किछु ना मागिब । अयाचित-वृत्ति, किंवा शाक-फल खाइब ॥
२९॥
इस प्रकार वैष्णव को किसी से कुछ भी नहीं माँगना चाहिए। यदि कोई बिना माँगे ही कुछ देता है, तो उसे स्वीकार करना चाहिए, किन्तु यदि कुछ न मिले, तो वैष्णव को शाक तथा फल जो भी मिल सकें, उन्हें खाकर सन्तुष्ट होना चाहिए।
सदा नाम लइब, ग्रथा-लाभेते सन्तोष ।। एइत आचार करे भक्ति-धर्म-पोष ॥
३०॥
मनुष्य को सदा नाम-कीर्तन करने के सिद्धान्त का दृढ़ता से पालन करना चाहिए और उसे जो कुछ आसानी से मिल जाए, उसी से सन्तुष्ट होना चाहिए। ऐसे भक्तिमय आचरण से उसकी भक्ति सुदृढ़ बनी रहती है।
तृणादपि सु-नीचेन तरोरिव सहिष्णुना । अमानिना मान-देन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥
३१॥
जो अपने आपको घास से भी अधिक तुच्छ मानता है, जो वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु है और जो किसी से निजी सम्मान की अपेक्षा नहीं रखता, फिर भी दूसरों को सम्मान देने के लिए सदा तत्पर रहता है, वह सरलता से सदा भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन कर सकता है।
ऊर्ध्व-बाहु करि' कहों, शुन, सर्व-लोक।नाम-सूत्रे गाँथि' पर कण्ठे एइ श्लोक ॥
३२॥
मैं अपने हाथ ऊपर उठाकर घोषित कर रहा हूँ, कृपया हर कोई मुझे सुनें! इस श्लोक को पवित्र नाम के धागे में पिरोकर निरन्तर स्मरण करने के लिए अपने गले में पहन लें।
प्रभु-आज्ञाय कर एइ श्लोक आचरण ।अवश्य पाइबे तबे श्री-कृष्ण-चरण ॥
३३।। इस श्लोक में श्री चैतन्य महाप्रभु ने जो सिद्धान्त बतलाये हैं, उनका दृढ़ता से पालन करना चाहिए। यदि कोई चैतन्य महाप्रभु तथा गोस्वामियों के चरणचिह्नों का अनुसरण करता रहे, तो उसे जीवन का चरम लक्ष्य अर्थात् श्रीकृष्ण के चरणकमल अवश्य प्राप्त होंगे।
तबे प्रभु श्रीवासेर गृहे निरन्तर ।।रात्रे सङ्कीर्तन कैल एक संवत्सर ॥
३४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु पूरे एक वर्ष तक हर रात्रि को श्रीवास ठाकुर के घर पर हरे कृष्ण मंत्र का सामूहिक कीर्तन नियमित रूप से चलाते रहे।
कपाट दिया कीर्तन करे परम आवेशे । पाषण्डी हासिते आइसे, ना पाय प्रवेशे ॥
३५॥
यह भावपूर्ण कीर्तन दरवाजे बन्द करके किया जाता था, जिससे हँसी उड़ाने की दृष्टि से आने वाले अविश्वासी लोग प्रवेश न कर सकें।
कीर्तन शुनि' बाहिरे तारा ज्वलि' पुड़ि' मरे । श्रीवासेरे दुःख दिते नाना मुक्ति करे ॥
३६॥
। इस तरह अविश्वासी लोग मानो जलकर राख हो गये और ईष्र्या से मर । गये। बदला लेने के लिए उन्होंने श्रीवास ठाकुर को अनेक प्रकार से कष्ट पहुँचाने की योजना बनाई।
एक-दिन विप्र, नाम-'गोपाल चापाल' । पाषण्डि-प्रधान सेइ दुर्मुख, वाचाल ॥
३७॥
भवानी-पूजार सब सामग्री ला ।रात्रे श्रीवासेर द्वारे स्थान लेपार ॥
३८॥
एक दिन जब रात में श्रीवास ठाकुर के घर के भीतर कीर्तन चल रहा था, तब गोपाल चापाल नामक एक ब्राह्मण, जो नास्तिकों (पाषण्डियों) का अगुवा था और बहुत बातूनी तथा बोलने में अक्खड़ था, श्रीवास ठाकुर के द्वार के बाहर दुर्गादेवी की पूजन-सामग्री रख आया।
कलार पात उपरे थुइल ओड़-फुल ।। हरिद्रा, सिन्दूर आर रक्त-चन्दन, तण्डुल ॥
३९॥
उसने केले के पत्ते के ऊपर पूजा की सामग्री रखी थी, जिसमें ओड़फूल, हल्दी, सिन्दूर, लाल-चन्दन का लेप तथा चावल थे।
मद्य-भाण्ड-पाशे धरि' निज-घरे गेल ।। प्रातः-काले श्रीवास ताहा त देखिले ॥
४०॥
इस सामग्री के पास उसने एक शराब का घड़ा रख दिया था। प्रात:काल जब श्रीवास ठाकुर ने अपना दरवाजा खोला, तो उन्हें यह सारी सामग्री दिखाई दी।
बड़ बड़ लोक सब आनिल बोलाइया । सबारे कहे श्रीवास हासिया हासिया ॥
४१॥
श्रीवास ठाकुर ने पड़ोस के सारे प्रतिष्ठित लोगों को बुलाया और हँसते-हँसते उनसे इस प्रकार कही।
नित्य रात्रे करि आमि भवानी-पूजन ।। आमार महिमा देख, ब्राह्मण-सज्जन ॥
४२॥
हे महाशयों, मैं हर रात देवी भवानी की पूजा करता हूँ। चूँकि पूजा की सारी सामग्री यहाँ उपस्थित है, अतएव समस्त आदरणीय ब्राह्मणों तथा उच्च जाति के सदस्यों, आप मेरी स्थिति को समझ सकते हैं।
तबे सब शिष्ट-लोक करे हाहाकार ।ऐछे कर्म हेथा कैल को दुराचार ॥
४३॥
तब वहाँ एकत्र सारे सज्जन हाहाकार करके बोले, यह क्या? यह क्या? किसने यह बदमाशी की है? वह पापी कौन है? हाड़िके आनिया सब दूर कराइल । जल-गोमय दिया सेइ स्थान लेपाइल ॥
४४॥
उन्होंने एक झाड़ लगाने वाले (हाड़ी) को बुलाया, जिसने सारी पूजा-सामग्री दूर फेंकी और उस स्थान को जल तथा गोबर से लीपकर शुद्ध किया।
तिन दिन रहि' सेइ गोपाल-चापाल ।।सर्वाङ्गे हेइल कुष्ठ, वहे रक्त-धार ॥
४५ ॥
तीन दिनों के बाद गोपाल चापाल को कोढ़ हो गया और उसके सारे शरीर में घाव होकर उसमें से रक्त निकलने लगा।
सर्वाङ्ग बेड़िल कीटे, काटे निरन्तर । असह्य वेदना, दुःखे चलये अन्तर ॥
४६॥
उसके सारे शरीर में कीड़े पड़ गये और वे उसे निरन्तर काटने लगे। गोपाल चापाले को असह्य पीड़ा होने लगी। उसका सारा शरीर कष्ट से जलने लगा।
गङ्गा-घाटे वृक्ष-तले रहे त' वसिया ।। एक दिन बले किछु प्रभुके देखिया ॥
४७॥
चूंकि कोढ़ छूत का रोग है, इसलिए गोपाल चापाल गाँव छोड़कर गंगा नदी के किनारे एक वृक्ष के नीचे जा बैठा। एक दिन उसने चैतन्य महाप्रभु को उधर से जाते देखा, तो उनसे वह इस तरह बोला।
ग्राम-सम्बन्धे आमि तोमार मातुल ।। भागिना, मुइ कुष्ठ-व्याधिते हञाछि व्याकुल ॥
४८॥
हे भांजे, मैं गाँव के नाते आपका मामा लगता हूँ। देखो ने इस कुष्ठरोग के आक्रमण ने मुझे किस तरह पीड़ित कर रखा है।
लोक सब उद्धारिते तोमार अवतार । मुजि बड़ दुखी, मोरे करह उद्धार ॥
४९॥
आप ईश्वर के अवतार हैं और अनेक पतितात्माओं का उद्धार कर रहे हैं। मैं भी अत्यन्त दुःखी पतितात्मा हूँ। कृपा करके मेरा भी उद्धार कीजिये।
एत शुनि' महाप्रभुर हइल क्रुद्ध मन ।। क्रोधावेशे बले तारे तर्जन-वचन ॥
५०॥
यह सुनकर चैतन्य महाप्रभु अत्यधिक क्रोधित प्रतीत हुए और उसी क्रोधावेश में उन्होंने उसे कुछ प्रताड़ना-भरे शब्द कहे।
आरे पापि, भक्त-द्वेषि, तोरे न उद्धारिमु ।। कोटि-जन्म एइ मते कीड़ाय खाओयाइमु ॥
५१॥
अरे पापी, शुद्ध भक्तों से द्वेष करने वाले, मैं तुम्हारा उद्धार नहीं करूंगा! मैं चाहूंगा कि तुम इसी तरह करोड़ों वर्षों तक इन कीड़ों से काटे जाते रहो।।
श्रीवासे कराइलि तुइ भवानी-पूजन । कोटि जन्म हबे तोर रौरवे पतन ॥
५२॥
तुमने कुछ ऐसा किया जिससे लगे कि श्रीवास ठाकुर देवी भवानी की पूजा करते हैं। केवल इसी अपराध के लिए तुम्हें करोड़ों जन्मों तक नारकीय जीवन बिताना पड़ेगा।
पाषण्डी संहारिते मोर एइ अवतार ।पाषण्डी संहारि' भक्ति करिमु प्रचार ॥
५३॥
पाषंडियों ( असुरों) को मारने के लिए और उन्हें मारने के बाद भक्ति-सम्प्रदाय का प्रचार करने हेतु मैं इस अवतार में प्रकट हुआ हूँ।
एत बलि' गेला प्रभु करिते गङ्गा-स्नान । सेइ पापी दुःख भोगे, ना ग्राय पराण ॥
५४॥
यह कहकर महाप्रभु गंगास्नान करने चले गये और उस पापी के प्राण नहीं निकले, अपितु वह कष्ट भोगता रहा।
सन्यास करिया ग्रबे प्रभु नीलाचले गेला । तथा हैते ग्रबे कुलिया ग्रामे आइला ॥
५५॥
तबे सेइ पापी प्रभुर लइल शरण ।हित उपदेश कैल हइया करुण ॥
५६॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु संन्यास लेने के बाद जगन्नाथ पुरी गये और फिर लौटकर कुलिया गाँव आये, तब उस पापी ने महाप्रभु के चरणकमलों की शरण ग्रहण की। तब महाप्रभु ने कृपा करके उसके लाभ के लिए उसे उपदेश दिया।
श्रीवास पण्डितेर स्थाने आछे अपराध ।। तथा ग्राह, तेंहो यदि करेन प्रसाद ॥
५७॥
तबे तोर हबे एइ पाप-विमोचन । ग्रदि पुनः ऐछे नाहि कर आचरण ॥
५८॥
। महाप्रभु ने कहा, तुमने श्रीवास ठाकुर के चरणकमलों पर अपराध किया है। अतएव सबसे पहले तुम वहाँ जाओ और उनसे कृपा की याचना करो। तब यदि वे तुम्हें आशीर्वाद देते हैं और तुम फिर से ऐसे पाप नहीं करते, तो तुम इन पापफलों से मुक्त कर दिये जाओगे।
तबे विप्र लइले आसि श्रीवास शरण ।।ताँहार कृपाय हैल पाप-विमोचन ॥
५९॥
तब वह ब्राह्मण गोपाल चापाल श्रीवास ठाकुर के पास गया और उसने उनके चरणकमलों की शरण ली और श्रीवास ठाकुर की कृपा से वह सारे पापों के फल से मुक्त हो गया।
आर एक विप्र आइल कीर्तन देखिते ।द्वारे कपाट, ना पाइल भितरे ग्राइते ॥
६०॥
एक दूसरा ब्राह्मण कीर्तन देखने आया, किन्तु दरवाजा बन्द था, अतएव वह भीतर नहीं जा पाया।
फिरि' गेल विप्र घरे मने दुःख पाजा।।आर दिन प्रभुके कहे गङ्गाय लाग पाञा ॥
६१॥
वह दुःखी मन से घर लौट गया, किन्तु दूसरे दिन गंगा के तट पर वह महाप्रभु से मिला तो उनसे बोला।
शापिब तोमारे मुञि, पाछि मनो-दुःख ।पैता छिण्डिया शापे प्रचण्ड दुर्मुख ॥
६२॥
वह ब्राह्मण कटुभाषी था और दूसरों को शाप देने में पटु था। उसने अपना जनेऊ तोड़ डाला और घोषित किया, अब मैं तुम्हें शाप दूंगा, क्योंकि तुम्हारे व्यवहार से मुझे घोर कष्ट हुआ है।
संसार-सुख तोमार हउक विनाश ।शाप शुनि' प्रभुर चित्ते हइल उल्लास ॥
६३॥
उस ब्राह्मण ने महाप्रभु को शाप दिया, तुम सारे भौतिक सुखों से वंचित हो जाओगे! जब महाप्रभु ने इसे सुना, तो उन्हें मन ही मन अधिक हर्ष हुआ।
प्रभुर शाप-वार्ता ग्रेइ शुने श्रद्धावान् ।। ब्रह्म-शाप हैते तार हय परित्राण ॥
६४॥
जो कोई भी श्रद्धावान व्यक्ति उस ब्राह्मण द्वारा महाप्रभु के शाप देने की बात को सुनता है, वह समस्त ब्रह्मशापों से छूट जाता है।
मुकुन्द-दत्तेरे कैल दण्ड-परसाद ।। खण्डिल ताहार चित्तेर सब अवसाद ॥
६५॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु ने मुकुन्द दत्त को प्रसाद-रूप में दण्ड दिया और इस तरह उसके सारे मानसिक अवसाद को दूर कर दिया।
आचार्यु-गोसाजिरे प्रभु करे गुरु-भक्ति ।।ताहाते आचार्य बड़ हय दुःख-मति ॥
६६ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु अद्वैत आचार्य को अपने गुरु के रूप में सम्मान देते थे, किन्तु अद्वैत आचार्य उनके ऐसे व्यवहार से अत्यधिक दुःखी थे।
भङ्गी करि' ज्ञान-मार्ग करिल व्याख्यान ।क्रोधावेशे प्रभु तारे कैल अवज्ञान ॥
६७॥
अतः विनोदपूर्वक वे ज्ञान-मार्ग की व्याख्या करने लगे और महाप्रभु ने क्रोध में आकर ऊपरी तौर पर उनका अनादर किया।
तबे आचार्य-गोसाजिर आनन्द हड्ल ।लज्जित हइया प्रभु प्रसाद करिल ॥
६८॥
तब अद्वैत आचार्य अत्यधिक हर्षित हुए। महाप्रभु यह समझ गये और कुछ-कुछ लज्जित हुए, किन्तु उन्होंने अद्वैत आचार्य को इच्छित वर दिया।
मुरारि-गुप्त-मुखे शुनि' राम-गुण-ग्राम । ललाटे लिखिल ताँर 'रामदास' नाम ॥
६९ ॥
मुरारि गुप्त भगवान् रामचन्द्र के महान् भक्त थे। जब महाप्रभु ने उनके मुँह से भगवान् रामचन्द्र की महिमा सुनी, तो उन्होंने तुरन्त उनके मस्तक पर 'रामदास' ( भगवान् रामचन्द्र का नित्य दास ) लिख दिया।
श्रीधरेर लौह-पात्रे कैल जल-पान ।समस्त भक्तेरे दिल इष्ट वर-दान ॥
७० ॥
एक बार चैतन्य महाप्रभु कीर्तन के बाद श्रीधर के घर गये और वहाँ उन्होंने उनके एक टूटे-फूटे लोहे के बर्तन में पानी पिया। तत्पश्चात् उन्होंने सारे भक्तों को इच्छित वर दिये।
हरिदास ठाकुरेरे करिल प्रसाद ।आचार्य-स्थाने मातार खण्डाइल अपराध ॥
७१॥
इस घटना के बाद महाप्रभु ने हरिदास ठाकुर को आशीर्वाद दिया और अद्वैत आचार्य के घर पर अपनी माता के अपराध का खंडन किया।
भक्त-गणे प्रभु नाम-महिमा कहिल ।शुनिया पडुया ताहाँ अर्थ-वाद कैल ॥
७२॥
एक बार महाप्रभु ने भक्तों से नाम की महिमा बताई, किन्तु कुछ सामान्य विद्यार्थियों ने सुनकर उसकी मनगढंत व्याख्या की।
नामे स्तुति-वाद शुनि' प्रभुर हैल दुःख ।।सबारे निषेधिल,—इहार ना देखिह मुख ॥
७३॥
जब किसी विद्यार्थी ने पवित्र नाम की महिमा की अतिशयोक्तियुक्त प्रार्थना के रूप में व्याख्या दी, तो चैतन्य महाप्रभु अत्यन्त दुःखी हो उठेऔर उन्होंने तुरन्त सबको भविष्य में उस विद्यार्थी का मुँह भी न देखने के लिए चेतावनी दी।
सगणे सचेले गिया कैल गङ्गा-स्नान ।। भक्तिर महिमा ताहाँ करिल व्याख्यान ॥
७४॥
महाप्रभु ने बिना कपड़े उतारे अपने संगियों समेत गंगा नदी में स्नान किया। वहाँ उन्होंने भक्ति की महिमा की व्याख्या की।
ज्ञान-कर्म-योग-धर्मे नहे कृष्ण वश ।कृष्ण-वश-हेतु एक—प्रेम-भक्ति-रस ॥
७५ ॥
ज्ञान, कर्म या इन्द्रियों को वश में करने के लिए योग के मार्ग का अनुसरण करके भगवान् कृष्ण को प्रसन्न नहीं किया जा सकता। भगवान् कृष्ण की प्रसन्नता का एकमात्र कारण उनकी शुद्ध प्रेमाभक्ति है।
न साधयति मां ग्रोगो न साङ्ख्यं धर्म उद्धव ।न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो ग्रथा भक्तिर्ममोर्जिता ॥
७६ ॥
[ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण ने कहा : 'हे उद्धव, न तो अष्टांग योग द्वारा, न ही निर्विशेष अद्वैतवाद द्वारा, न परम सत्य विषयक वैश्लेषिक अध्ययन (सांख्य) द्वारा, न वेदों के अध्ययन द्वारा, न तपस्या, न दान द्वारा, न संन्यास द्वारा मुझे उतना प्रसन्न किया जा सकता है, जितना कि मेरी अनन्य भक्ति विकसित करके किया जा सकता है।
मुरारिके कहे तुमि कृष्ण वश कैला ।शुनिया मुरारि श्लोक कहिते लागिला ॥
७७॥
तब चैतन्य महाप्रभु ने मुरारि गुप्त की प्रशंसा यह कहते हुए की, तुमने भगवान् कृष्ण को प्रसन्न कर लिया है। यह सुनकर मुरारि गुप्त ने श्रीमद्भागवत का एक श्लोक सुनाया।
क्वाहं दरिद्रः पापीयान् क्व कृष्णः श्री-निकेतनः । ब्रह्म-बन्धुरिति स्माहं बाहुभ्यां परिरम्भितः ॥
७८॥
चूँकि मैं गरीब, पापी ब्रह्मबन्धु मात्र हूँ, अर्थात् ब्राह्मण-कुल में उत्पन्न होकर भी ब्राह्मण-योग्यता से रहित हूँ और आप, हे भगवान् कृष्ण, लक्ष्मीदेवी के आश्रय हैं, इसलिए मेरे लिए यह आश्चर्यजनक ही है कि आपने अपनी भुजाओं से मेरा आलिंगन किया है।
एक-दिन प्रभु सब भक्त-गण ला ।। सङ्कीर्तन करि' वैसे श्रम-युक्त हा ॥
७९॥
एक दिन महाप्रभु ने अपने सभी भक्तों के साथ मिलकर संकीर्तन किया और जब सभी लोग थक गये, तो वे बैठ गये।
एक आम्र-बीज प्रभु अङ्गने रोपिल ।। तत्क्षणे जन्मिल वृक्ष बाड़िते लागिल ॥
८०॥
तब महाप्रभु ने आँगन में एक आम की गुठली बोई और तुरन्त ही वह गुठली वृक्ष का रूप धारण करके बढ़ने लगी।
देखिते देखिते वृक्ष हइल फलित ।। पाकिल अनेक फल, सबेइ विस्मित ॥
८१॥
लोगों के देखते-देखते वह वृक्ष बढ़ गया और उसमें फल लग गये। और वे फल पकने भी लगे। इस तरह सारे लोग आश्चर्यचकित रह गये।"
शत दुइ फल प्रभु शीघ्र पाड़ाइल ।।प्रक्षालन करि' कृष्णे भोग लागाइल ॥
८२॥
महाप्रभु ने तुरन्त ही उसमें से लगभग दो सौ फल तोड़े और धोने के बाद उनका कृष्ण को भोग लगाया।
रक्त-पीत-वर्ण,–नाहि अष्ठि-वल्कल ।एक जनेर पेट भरे खाइले एक फल ॥
८३॥
ये फल लाल तथा पीले थे, उनमें न तो गुठली थी, न छिलका और एक ही फल खाने से मनुष्य का पेट भर सकता था।
देखियो सन्तुष्ट हैला शचीर नन्दन । सबाके खाओयाल आगे करिया भक्षण ॥
८४॥
आमों का गुण देखकर महाप्रभु अत्यन्त सन्तुष्ट हुए और पहले स्वयं खाने के बाद अन्य सभी भक्तों को खिलाए।
अष्ठि-वल्कल नाहि,—अमृत-रसमय । एक फल खाइले रसे उदर पूरय ॥
८५ ॥
फलों में गुठली या छिलका नहीं था। वे सभी अमृत के समान मीठे रस से भरे थे और इतने मीठे थे कि एक ही फल खाने से मनुष्य पूरी तरह सन्तुष्ट हो जाए।
एइ-मत प्रतिदिन फले बार मास । वैष्णवे खायेन फल,—प्रभुर उल्लास ॥
८६॥
इस तरह बारहों महीने प्रतिदिन उस वृक्ष में फल लगते रहे और वैष्णवजन उन्हें खाते रहे, जिससे महाप्रभु को परम सन्तोष मिलता था।
एइ सब लीला करे शचीर नन्दन ।अन्य लोक नाहि जाने विना भक्त-गण ॥
८७॥
ये हैं शची-पुत्र की गुह्य लीलाएँ। भक्तों के अतिरिक्त इस घटना को अन्य कोई नहीं जानता।।
एइ मत बार-मास कीर्तन-अवसाने ।आम्र-महोत्सव प्रभु करे दिने दिने ॥
८८॥
इस प्रकार महाप्रभु प्रतिदिन संकीर्तन करते और बारहों मास संकीर्तन के बाद प्रतिदिन आम खाने का उत्सव मनाया जाता था।
कीर्तन करिते प्रभु आइल मेघ-गण ।आपन-इच्छाय कैल मेघ निवारण ॥
८९॥
। एक बार जब महाप्रभु कीर्तन कर रहे थे, तो आकाश में बादल छा गये; महाप्रभु ने अपनी इच्छा से तुरन्त ही उन्हें बरसने से रोक दिया।
एक-दिन प्रभु श्रीवासेरे आज्ञा दिल ।।‘बृहत्सहस्र-नाम' पड़, शुनिते मन हैल ॥
९०॥
एक दिन महाप्रभु ने श्रीवास ठाकुर से बृहत् सहस्रनाम ( विष्णु सहस्रनाम ) पढ़ने के लिए कहा, क्योंकि महाप्रभु को उस समय उन्हें सुनने की इच्छा हुई।
पड़िते आइला स्तवे नृसिंहेर नाम ।शुनिया आविष्ट हैला प्रभु गौरधाम ॥
९१॥
। जब वे विष्णु सहस्रनाम पढ़ रहे थे, तो भगवान् नृसिंह का पवित्र नाम आया। नृसिंह नाम सुनते ही महाप्रभु भाव में पूरी तरह निमग्न हो गये।
नृसिंह-आवेशे प्रभु हाते गदा ला ।। पाषण्डी मारिते ग्राय नगरे धाइया ॥
९२॥
चैतन्य महाप्रभु भगवान् नृसिंह देव के आवेश में सारे नास्तिकों का वध करने के लिए उद्यत होकर हाथ में गदा लेकर नगर की सड़कों में दौड़ने लगे।
नृसींह-आवेश देखि' महा-तेजोमय ।। पथ छाड़ि' भागे लोक पाञआ बड़ भय ॥
९३॥
लोग उन्हें नृसिंह भगवान् के आवेश में अत्यन्त भयानक रूप में देखकर एवं उनके क्रोध से भयभीत होकर सड़कों से दौड़कर इधर-उधर भाग गये।
लोक-भय देखि' प्रभुर बाह्य हइल । श्रीवास-गृहेते गिया गदा फेलाइल ॥
९४॥
लोगों को इस तरह भयभीत देखकर महाप्रभु को बाह्य चेतना आई, अतएव वे श्रीवास ठाकुर के घर लौट आये और गदा फेंक दी।
श्रीवासे कहेन प्रभु करिया विषाद ।।लोक भये पाय,—मोर हय अपराध ॥
९५॥
महाप्रभु खिन्न हुए और उन्होंने श्रीवास ठाकुर से कहा, जब मैंने भगवान् नृसिंह देव का आवेश धारण किया, तो लोग बहुत भयभीत हो उठे, अतएव मैं रुक गया, क्योंकि लोगों में भय उत्पन्न करना अपराध है।
श्रीवास बलेन,—ये तोमार नाम लय । तार कोटि अपराध सब हय क्षय ॥
९६ ॥
श्रीवास ठाकुर ने उत्तर दिया, जो व्यक्ति आपका पवित्र नाम लेता है, उसके एक करोड़ अपराध भी तुरन्त क्षय हो जाते हैं।
अपराध नाहि, कैले लोकेर निस्तार ।। ये तोमा' देखिल, तार छुटिल संसार ॥
९७ ॥
नृसिंह रूप प्रकट करके आपने कोई अपराध नहीं किया। बल्कि जिस किसी व्यक्ति ने आपको उस आवेश में देखा, वह तुरन्त ही भौतिक अस्तित्व से मुक्त हो गया।
एत बलि' श्रीवास करिल सेवन । तुष्ट हा प्रभु आइला आपन-भवन ॥
९८॥
यह कहकर श्रीवास ठाकुर ने महाप्रभु की पूजा की, जिससे वे परम तुष्ट हुए और अपने घर चले गये।
आर दिन शिव-भक्त शिव-गुण गाय ।। प्रभुर अङ्गने नाचे, डमरु बाजाय ॥
९९॥
दूसरे किसी दिन शिवजी का कोई महान् भक्त महाप्रभु के घर आया और वह शिवजी के गुणों का वर्णन कर-करके आँगन में नाचने और अपना डमरू बजाने लगा।
महेश-आवेश हैला शचीर नन्दन ।तार स्कन्धे चड़ि नृत्य कैल बहु-क्षण ॥
१०० ॥
तब चैतन्य महाप्रभु शिवजी के भावावेश में उस व्यक्ति के कंधे पर चढ़ गये और इस तरह लम्बे समय तक दोनों साथ-साथ नाचते रहे।
आर दिन एक भिक्षुक आइला मागिते ।। प्रभुर नृत्य देखि नृत्य लागिल करिते ॥
१०१॥
दूसरे किसी दिन एक भिक्षुक महाप्रभु के घर भिक्षा माँगने आया। किन्तु जब उसने महाप्रभु को नाचते देखा, तो वह भी नाचने लगा।
प्रभु-सङ्गे नृत्य करे परम उल्लासे ।। प्रभु तारे प्रेम दिल, प्रेम-रसे भासे ॥
१०२ ॥
वह महाप्रभु के साथ नाचने लगा, क्योंकि उसे कृष्ण-प्रेम की कृपा प्राप्त हुई थी। इस प्रकार वह भगवत्प्रेम के रस में बहने लगा।
आर दिने ज्योतिष सर्वज्ञ एक आइल । ताहारे सम्मान करि' प्रभु प्रश्न कैल ॥
१०३॥
दूसरे किसी दिन एक ज्योतिषी आया, जो भूत, वर्तमान और भविष्य-सभी जानने वाला माना जाता था। अतएव महाप्रभु ने उसका सम्मान किया और उससे यह प्रश्न पूछा।
के आछिर्लं आमि पूर्व जन्मे कह गणि' ।गणिते लागिला सर्वज्ञ प्रभु-वाक्य शुनि' ॥
१०४॥
महाप्रभु ने पूछा, कृपया मुझे अपनी ज्योतिष-गणना से बतायें कि मैं पिछले जन्म में कौन था? महाप्रभु की यह बात सुनकर ज्योतिषी तुरन्त गणना करने लगा।
गणि' ध्याने देखे सर्वज्ञ,—महा-ज्योतिर्मय । अनन्त वैकुण्ठ-ब्रह्माण्ड सबार आश्रय ॥
१०५॥
उस सर्वज्ञ ज्योतिषी ने गणना और ध्यान के माध्यम से महाप्रभु के अत्यन्त ओजस्वी शरीर को देखा, जो अनन्त वैकुण्ठ-लोकों का आश्रय स्थल है।
परम-तत्त्व, पर-ब्रह्म, परम-ईश्वर ।।देखि' प्रभुर मूर्ति सर्वज्ञ हइल फाँफर ॥
१०६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु को उसी परम सत्य परम ब्रह्म, भगवान् के रूप में देखकर वह ज्योतिषी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया।
बलिते ना पारे किछु, मौन हइल ।।प्रभु पुनः प्रश्न कैल, कहिते लागिल ॥
१०७॥
। वह ज्योतिषी आश्चर्यचकित होकर मौन रह गया। वह कुछ बोल नहीं सका। किन्तु जब महाप्रभु ने फिर वही प्रश्न पूछा, तो उसने इस प्रकार उत्तर दिया।
पूर्व जन्मे छिला तुमि जगताश्रय ।परिपूर्ण भगवान् सर्वेश्वग्नमय ॥
१०८॥
हे प्रभु! पिछले जन्म में आप समस्त सृष्टि के आश्रय, सब ऐश्वर्यों से पूर्ण भगवान् थे।
पूर्वे ग्रैछे छिला तुमि एबेह से-रूप ।दुर्विज्ञेय नित्यानन्द तोमार स्वरूप ।। १०९॥
। आप अब भी वही भगवान् हैं, जो अपने पूर्वजन्म में थे। आपका स्वरूप अचिन्त्य एवं सनातन आनन्दमय है।
प्रभु हासि' कैला,—तुमि किछु ना जानिला ।पूर्वे आमि आछिलाँ जातिते गोयाला ॥
११०॥
जब ज्योतिषी महाप्रभु के विषय में बड़ी बातें कर रहा था, तो श्री चैतन्य महाप्रभु ने उसे रोका और हँसते हुए कहा, हे महोदय, मुझे लगता है कि आप ठीक से नहीं जानते कि मैं कौन था, क्योंकि मैं जानता हूँ कि पिछले जन्म में मैं ग्वालबाल था।
गोप-गृहे जन्म छिल, गाभीर राखाल ।सेइ पुण्ये हैलाँ एबे ब्राह्मण-छाओयाल ॥
१११॥
मैं अपने पिछले जन्म में ग्वालों के परिवार में उत्पन्न हुआ था और मैंने गायों तथा बछड़ों को संरक्षण प्रदान किया था। ऐसे पुण्यकर्मों के ही कारण अब मैं ब्राह्मण-पुत्र के रूप में आया हूँ।
सर्वज्ञ कहे आमि ताहा ध्याने देखिलाँ।। ताहाते ऐश्वर्घ देखि' फाँफर हइलाँ ॥
११२॥
ज्योतिषी ने कहा, मैंने ध्यान में जो कुछ देखा वह ऐश्वर्यमय था, इसीलिए मैं भ्रमित हो गया।
सेइ-रूपे एइ-रूपे देखि एकाकार । कभु भेद देखि, एइ मायाय तोमार ॥
११३॥
मुझे इसमें कोई सन्देह नहीं है कि आपका यह स्वरूप तथा ध्यान में देखा गया स्वरूप एक ही हैं। यदि मुझे भेद कोई दिखता है, तो यह आपकी माया का काम है।
ये हओ, से हओ तुमि, तोमाके नमस्कार ।।प्रभु तारे प्रेम दिया कैल पुरस्कार ॥
११४॥
वह सर्वज्ञ ज्योतिषी इस नतीजे पर पहुँचा, आप जो भी और जो कुछ भी हैं, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ! तब महाप्रभु ने अपनी अहैतुकी कृपा से उसे भगवत्प्रेम प्रदान किया और उसकी सेवा का उसे फल मिल गया।
एक दिन प्रभु विष्णु-मण्डपे वसिया । ‘मधु आन', 'मधु आन' बलेन डाकिया ॥
११५॥
एक दिन महाप्रभु विष्णु-मन्दिर की बारादरी में बैठकर जोर-जोर से पुकारने लगे, थोड़ा शहद लाओ! थोड़ा शहद लाओ! नित्यानन्द-गोसाञि प्रभुर आवेश जानिल ।।गङ्गा-जल-पात्र आनि' सम्मुखे धरिल ॥
११६॥
नित्यानन्द प्रभु गोसांई श्री चैतन्य महाप्रभु के भावावेश को समझ गये, अतएव उन्होंने संकेत के रूप में एक बर्तन में गंगाजल लाकर उनके सम्मुख रख दिया।
जल पान करिया नाचे हा विह्वल ।।यमुनाकर्षण-लीला देखये सकल ॥
११७॥
उस जल को पने के बाद भगवान् चैतन्य इतने भावाविष्ट हो गये कि वे नाचने लगे। इस प्रकार सबने यमुना-आकर्षण-लीला देखी।
मद-मत्त-गति बलदेव-अनुकार । आचार्य शेखर ताँरे देखे रामाकार ॥
११८॥
जब महाप्रभु बलदेव के भावावेश में मधु पीकर उन्मत्त होकर घूम रहे। थे, तो आचार्यों में प्रमुख ( आचार्य शेखर) अद्वैत आचार्य ने उन्हें बलराम के रूप में देखा।
वनमाली आचार्य देखे सोणार लाङ्गल । सबे मिलि' नृत्य करे आवेशे विह्वल ॥
११९॥
वनमाली आचार्य ने बलराम के हाथ में सोने का हल देखा और सारे भक्त एकत्र होकर आवेश में आकर नाचने लगे।
एइ-मत नृत्य हइल चारि प्रहर। सन्ध्याय गङ्गा-स्नान करि' सबे गेला घेर ॥
१२०॥
इस प्रकार वे बारह घंटों तक नाचते रहे और संध्या-समय गंगा में स्नान करने के बाद अपने अपने घर चले गये।
नगरिया लोके प्रभु झबे आज्ञा दिला ।।घरे घरे सङ्कीर्तन करिते लागिला ॥
१२१॥
महाप्रभु ने नवद्वीप के सारे नागरिकों को हरे कृष्ण मन्त्र का कीर्तन करने का आदेश दिया और वे घर-घर में नियमित रूप से संकीर्तन करने लगे।
‘हरये नमः, कृष्ण यादवाय नमः ।।गोपाल गोविन्द राम श्री-मधुसूदन' ॥
१२२॥
[ सारे भक्त हरे कृष्ण महामन्त्र के साथ यह लोकप्रिय गीत भी गाने लगे हरये नमः कृष्ण यादवाय नमः / गोपाल गोविन्द राम श्री मधुसूदन।
मृदङ्ग-करताल सङ्कीर्तन-महाध्वनि ।‘हरि' ‘हरि'–ध्वनि विना अन्य नाहि शुनि ॥
१२३॥
जब इस तरह संकीर्तन आन्दोलन आरम्भ हो गया, तो नवद्वीप में ‘हरि!' ‘हरि!' शब्दों की ध्वनि एवं मृदंग तथा करताल बजने की ध्वनि के अतिरिक्त कोई अन्य ध्वनि किसी को सुनाई नहीं पड़ती थी।
शुनिया ये क्रुद्ध हैल सकल ग्रवन । काजी-पाशे आसि' सबे कैल निवेदन ॥
१२४॥
हरे कृष्ण मन्त्र की गुंजायमान ध्वनि सुनकर स्थानीय मुसलमानों ने अत्यन्त क्रुद्ध होकर काजी के पास शिकायत की।
क्रोधे सन्ध्या-काले काजी एक घरे आइल ।। मृदङ्ग भाङ्गिया लोके कहिते लागिल ॥
१२५॥
क्रोध से भरा चाँद काजी एक दिन संध्या-समय एक घर में आया और जब उसने देखा कि कीर्तन चल रहा है, तो उसने मृदंग तोड़ डाला और फिर इस प्रकार बोला।
एत-काल केह नाहि कैल हिन्दुयानि ।।एबे ये उद्यम चालाओ कार बल जानि' ॥
१२६॥
आज तक तुम सबने हिन्दू धर्म के नियम-सिद्धान्तों का पालन नहीं किया, किन्तु अब बड़े उत्साह से करने लगे हो। क्या मैं जान सकता हूँ कि किसके बल पर ऐसा कर रहे हो? केह कीर्तन ना करिह सकल नगरे । आजि आमि क्षमा करि' ग्राइतेछों घरे ॥
१२७॥
कोई भी व्यक्ति नगर की सड़कों में संकीर्तन नहीं करेगा। हाँ, आज मैं इस अपराध को क्षमा करके घर वापस जा रहा हूँ।
आर यदि कीर्तन करिते लाग पाइमु । सर्वस्व दण्डिया तार जाति ग्रे लइमु ॥
१२८॥
यदि अगली बार मैंने किसी को ऐसा संकीर्तन करते देखा, तो दण्डस्वरूप न केवल उसकी सारी सम्पत्ति जब्त कर लूंगा, अपितु उसे मुसलमान भी बना दूंगा।
एत बलि' काजी गेल,–नगरियो लोक ।। प्रभु-स्थाने निवेदिल पाजा बड़ शोक ॥
१२९॥
यह कहकर काजी घर चला गया, किन्तु हरे कृष्ण कीर्तन करने से वर्जित किये जाने के फलस्वरूप दुःखी भक्तों ने श्री चैतन्य महाप्रभु को अपना दुःखड़ा कह सुनाया।
प्रभु आज्ञा दिल–ग्राह करह कीर्तन । मुञि संहारिमु आजि सकल ग्रवन ॥
१३०॥
महाप्रभु चैतन्य ने आज्ञा दी, जाओ, संकीर्तन करो। मैं आज सारे मुसलमानों को मार डालूंगा! घरे गिया सबे लोक करये कीर्तन । काजीर भये स्वच्छन्द नहे, चमकित मन ॥
१३१॥
सारे नागरिक घर लौटकर संकीर्तन करने लगे, किन्तु काजी के आदेश के कारण वे चिन्तामुक्त न थे; वे सदैव चिन्ता से घिरे रहते थे।
ता-सभार अन्तरे भय प्रभु मने जानि ।।कहिते लागिला लोके शीघ्र डाकि' आनि' ॥
१३२॥
। लोगों के मन में घर कर गई चिन्ता को समझते हुए महाप्रभु ने उन सबको बुलाया और उनसे इस प्रकार कहा।
नगरे नगरे आजि करिमु कीर्तन ।।सन्ध्या-काले कर सभे नगर-मण्डन ॥
१३३॥
मैं प्रत्येक नगर-नगर में जाकर सन्ध्या-समय संकीर्तन करूंगा। अतएव तुम लोग संध्या-समय नगर को सजाओ।
सन्ध्याते देउटि सबे ज्वाल घरे घरे । देख, कोन काजी आसि' मोरे माना करे ॥
१३४॥
संध्या-समय घर-घर में मशाल जलाओ। मैं हर एक की रक्षा करूंगा। मैं देखूगा कि कौन सा काजी आकर हमारे कीर्तन को रोकता है। एत कहि' सन्ध्या-काले चाले गौरराय ।। कीर्तनेर कैल प्रभु तिन सम्प्रदाय ॥
१३५॥
संध्या-समय भगवान् गौरसुन्दर बाहर गये और कीर्तन करने के लिए उन्होंने तीन मंडलियाँ बना लीं।।
आगे सम्प्रदाये नृत्य करे हरिदास ।।मध्ये नाचे आचार्य-गोसाञि परम उल्लास ॥
१३६ ॥
मंडली के आगे-आगे ठाकुर हरिदास नाच रहे थे और मंडली के बीच में परम हर्ष के साथ अद्वैत आचार्य नाच रहे थे।
पाछे सम्प्रदाये नृत्य करे गौरचन्द्र ।ताँर सङ्गे नाचि' बुले प्रभु नित्यानन्द ॥
१३७॥
भगवान् गौरसुन्दर पीछे वाली मंडली में नाच रहे थे और श्री नित्यानन्द प्रभु नाचते हुए चैतन्य महाप्रभु के साथ-साथ चल रहे थे।
वृन्दावन-दास इहा 'चैतन्य-मङ्गले' ।।विस्तारि' वर्णियाछेन, प्रभु-कृपा-बले ॥
१३८ ॥
महाप्रभु की कृपा से श्रील वृन्दावन दास ठाकुर ने इस घटना का विस्तृत वर्णन चैतन्य-मंगल( अब चैतन्य भागवत) में किया है।
एइ मत कीर्तन करि' नगरे भ्रमिला ।भ्रमिते भ्रमिते सभे काजी-द्वारे गेला ॥
१३९॥
इस तरह कीर्तन करते हुए नगर के हर गली-कूचे की परिक्रमा करते हुए अन्त में वे काजी के दरवाजे पर पहुँचे।
तर्ज-गर्ज करे लोक, करे कोलाहल ।।गौरचन्द्र-बले लोक प्रश्रय-पागल ॥
१४० ॥
क्रोध से फुसफुसाते और गर्जना करते हुए सारे लोग महाप्रभु के संरक्षण में ऐसा करते हुए पागल हो उठे।
कीर्तनेर ध्वनिते काजी लुकाइल घरे ।तर्जन गर्जन शुनि' ना हय बाहिरे ॥
१४१॥
हरे कृष्ण मन्त्र के कीर्तन की ऊँची गर्जना से काजी निश्चय ही अत्यधिक डर गया और वह अपने कमरे में छिप गया। लोगों को इस प्रकार विरोध करते और अत्यन्त क्रोध में बुदबुदाते सुनकर काजी अपने घर से बाहर नहीं आ सका।
उद्धत लोक भाङ्गे काजीर घर-पुष्पवन ।।विस्तारि' वर्णिला इहा दास-वृन्दावन ॥
१४२॥
स्वाभाविक रूप से लोग बहुत उत्तेजित हो गये थे और वे काजी के घर को तथा फूलों के बगीचे को तोड़-फोड़कर उसके किये का बदला लेने लगे। श्रील वृन्दावन दास ठाकुर ने इस घटना का विस्तार से वर्णन किया है।
तबे महाप्रभु तार द्वारेते वसिला ।भव्य-लोक पाठाइया काजीरे बोलाइला ॥
१४३॥
तत्पश्चात् जब महाप्रभु काजी के घर पहुँच गये, तो वे दरवाजे पर बैठ गये और काजी को बुलाने कुछ प्रतिष्ठित व्यक्तियों को भेजा।
दूर हइते आइला काजी माथा नोयाइया ।। काजीरे वसाइला प्रभु सम्मान करिया ॥
१४४॥
जब काजी अपना सिर झुकाये आया, तो महाप्रभु ने उसका सम्मान किया और उसे बैठने के लिए आसन दिया।
प्रभु बलेन, आमि तोमार आइलाम अभ्यागत ।। आमि देखि लुकाइला, ए-धर्म केमत ॥
१४५ ॥
महाप्रभु ने मैत्रीपूर्वक कहा, हे महोदय, मैं आपके घर अतिथि के रूप में आया हूँ, किन्तु आप हैं कि मुझे देखकर अपने कमरे में छिप गये। यह कैसा शिष्टाचार है? काजी कहे—तुमि आइस क्रुद्ध हइया ।तोमा शान्त कराइते रहिनु लुकाइया ॥
१४६॥
काजी ने कहा, आप मेरे घर अत्यन्त क्रोधित होकर आये हैं। आपको शान्त करने के लिए मैं तुरन्त आपके सामने नहीं आ पाया, वरन् अपने आपको छुपा लिया।
एबे तुमि शान्ता हैले, आसि, मिलिलाँ ।भाग्य मोर, तोमा हेन अतिथि पाइलाँ ॥
१४७॥
चूंकि अब आप शान्त हो चुके हैं, इसलिए मैं आपके पास आया हूँ। यह मेरा अहोभाग्य है कि मैं आप जैसे महान् अतिथि का स्वागत कर रहा हूँ।
ग्राम-सम्बन्धे ‘चक्रवर्ती' हय मोर चाचा ।।देह-सम्बन्धे हैते हय ग्राम-सम्बन्ध साँचा ॥
१४८ ॥
गाँव के नाते नीलाम्बर चक्रवर्ती ठाकुर मेरे चाचा लगते थे। ऐसा नाता शारीरिक सम्बन्ध से अधिक सुदृढ़ होता है।
नीलाम्बर चक्रवर्ती हय तोमार नाना । से-सम्बन्धे हओ तुमि आमार भागिना ॥
१४९॥
। नीलाम्बर चक्रवर्ती तुम्हारे नाना हैं, अतएव तुम इस नाते मेरे भांजे हुए।
भागिनार क्रोध मामा अवश्य सहये । मातुलेर अपराध भागिना ना लय ॥
१५०॥
जब भांजा अधिक नाराज होता है, तब मामा सहता है और जब मामा कोई अपराध करता है, तो भांजा उस पर ध्यान नहीं देता।
एइ मत देंहार कथा हय ठारे-ठोरे ।। भितरेर अर्थ केह बुझिते ना पारे ॥
१५१॥
इस तरह महाप्रभु तथा काजी एक दूसरे से संकेतों से बातें करते रहे, किन्तु कोई बाहरी व्यक्ति उनकी वार्ता के आन्तरिक अर्थ को नहीं समझ सकता था।
प्रभु कहे,---प्रश्न लागि' आइलाम तोमार स्थाने । काजी कहे,—आज्ञा कर, ये तोमार मने ॥
१५२॥
महाप्रभु ने कहा, हे मामा, मैं आपके घर आपसे कुछ प्रश्न पूछने आया हूँ। काजी ने उत्तर दिया, आपका स्वागत है। अपने मन की बात मुझे बतलाओ।
प्रभु कहे,—गो-दुग्ध खाओ, गाभी तोमार माता । वृष अन्न उपजाय, ताते तेंहो पिता ॥
१५३॥
महाप्रभु ने कहा, आप गाय का दूध पीते हैं, अतएव गाय आपकी माता हुई। और बैल आपके भरण के लिए अन्न उपजाता है, इसलिए वह आपका पिता हुआ।
पिता-माता मारि' खाओ-एबा को धर्म । को बले कर तुमि ए-मत विकर्म ॥
१५४॥
चूँकि गाय तथा बैल आपके माता-पिता हैं, तो फिर आप उन्हें मारकर कैसे खा सकते हैं? यह कैसा धर्म है? आप किस बल पर ऐसे पापकर्म करने का दुस्साहस करते हैं? काजी कहे,—तोमार ग्रैछे वेद-पुराण ।। तैछे आमार शास्त्र केताब 'कोराण' ॥
१५५॥
काजी ने उत्तर दिया, जिस तरह आपके शास्त्र हैं, जिन्हें वेद तथा पुराण कहते हैं, उसी तरह हमारा भी पवित्र शास्त्र है, जो कुरान कहलाता है।
सेई शास्त्रे कहे,—प्रवृत्ति-निवृत्ति-मार्ग-भेद ।।निवृत्ति-मार्गे जीव-मात्र-वधेर निषेध ॥
१५६ ॥
कुरान के अनुसार उन्नति के दो मार्ग हैं-भोग की प्रवृत्ति को प्रबल करना तथा भोग की प्रवृत्ति को कम करना। आसक्ति कम करने के मार्ग (निवृत्ति मार्ग ) में पशुओं की हत्या निषिद्ध है।
प्रवृत्ति-मार्गे गो-वध करिते विधि हय । शास्त्र-आज्ञाय वध कैले नाहि पाप-भय ॥
१५७॥
भौतिक कार्यकलापों के मार्ग में गोवध का नियम है। यदि शास्त्र के निर्देशानुसार ऐसा वध किया जाए, तो इसमें पाप नहीं लगता।
तोमार वेदेते आछे गो-वधेर वाणी ।।अतएव गो-वध करे बड़ बड़ मुनि ।। १५८॥
उस काजी ने एक विद्वान के रूप में श्री चैतन्य महाप्रभु से कहा, आपके वैदिक शास्त्रों में गोवध का आदेश मिलता है। इसी आदेश के बल पर बड़े-बड़े मुनि गोवध वाले (गोमेध) यज्ञ करते थे।
प्रभु कहे,—वेदे कहे गो-वध निषेध ।।अतएव हिन्दु-मात्र ना करे गो-वध ॥
१५९ ॥
काजी के कथन का प्रतिवाद करते हुए महाप्रभु ने तुरन्त कहा, वेदों का स्पष्ट आदेश है कि गोवध न किया जाए। अतएव कोई भी हिन्दू गोवध करने से बचता है।
जियाइते पारे ग्रदि, तबे मारे प्राणी ।।वेद-पुराणे आछे हेन आज्ञा-वाणी ॥
१६०॥
वेदों तथा पुराणों में स्पष्ट कहा गया है कि यदि कोई किसी जीव को पुनर्जीवित कर सकता है, तो वह प्रयोग के निमित्त उसे मार सकता है।
अतएव जरगव मारे मुनि-गण । वेद-मन्त्रे सिद्ध करे ताहार जीवन ॥
१६१॥
इसलिए महान् मुनिगण कभी-कभी वृद्ध गायों को मारते थे और सिद्धि के लिए वे वैदिक स्तोत्रों का उच्चारण करके उन्हें जीवित कर लेते थे।
जरगव हा युवा हय आर-वार । ताते तार वध नहे, हय उपकार ॥
१६२॥
ऐसी वृद्ध तथा अशक्त गायों का वध एवं उनको फिर से युवा बनाना वास्तव में वध करना नहीं, अपितु बड़े ही लाभ का कर्म था।
कलि-काले तैछे शक्ति नाहिक ब्राह्मणे ।। अतएव गो-वध केह ना करे एखने ॥
१६३॥
। पूर्वकाल में ब्राह्मणों में इतना सामर्थ्य होता था कि वे वैदिक स्तोत्रों द्वारा ऐसे प्रयोग करते थे, किन्तु अब कलियुग के कारण ब्राह्मण उतने समर्थ नहीं रहे। अतएव गायों तथा बैलों को फिर से युवा बनाने के लिए उनका वध करना वर्जित है।
अश्वमेधं गवालम्भं सन्यासं पल-पैतृकम् । देवरेण सुतोत्पत्ति कलौ पञ्च विवर्जयेत् ॥
१६४॥
इस कलियुग में पाँच कर्म वर्जित हैं-अश्वमेध यज्ञ करना, गोमेध यज्ञ करना, संन्यास ग्रहण करना, पूर्वजों को मांस का पिण्डदान देना तथा अपने भाई की पत्नी से पुत्र उत्पन्न करना।'
तोमरा जीयाइते नार,—वध-मात्र सार । नरक हइते तोमार नाहिक निस्तार ॥
१६५॥
चूँकि आप मुसलमान लोग मरी गायों को जीवित नहीं कर सकते, अतएव आप उनके वध के लिए उत्तरदायी हो। इसलिए आप नरक जा रहे हो और आपके मोक्ष के लिए कोई मार्ग नहीं है।
गो-अङ्गे व्रत लोम, तत सहस्र वत्सर । गो-वधी रौरव-मध्ये पचे निरन्तर ॥
१६६॥
गोवध करने वालों को उतने हजार वर्षों तक नरक में सड़ना पड़ता है, जितने रोएँ उस गाय के शरीर में होते हैं।
तोमा-सबार शास्त्र-कर्ता- सेह भ्रान्त हैल । ना जानि' शास्त्रेर मर्म ऐछे आज्ञा दिल ॥
१६७॥
। आपके शास्त्रों में अनेक त्रुटियाँ और भ्रान्तियाँ हैं। इनके रचयिताओं ने ज्ञान का सार न जानने के कारण, ऐसे आदेश दिये, जो विवेक एवं तर्क के विरुद्ध थे।
शुनि' स्तब्ध हैल काजी, नाहि स्फुरे वाणी ।।विचारिया कहे काजी पराभव मानि' ॥
१६८॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु के इन कथनों को सुनकर काजी तर्कहीन हो गया और आगे एक भी शब्द न बोल सका। इस तरह पूर्ण विचार करके काजी ने हार स्वीकार कर ली और इस प्रकार कहा।
तुमि ग्रे कहिले, पण्डित, सेइ सत्य हय ।। आधुनिक आमार शास्त्र, विचार-सह नय ॥
१६९॥
। । हे निमाइ पण्डित, आपने जो कुछ कहा है, वह पूरी तरह सत्य है। हमारे शास्त्र हाल ही में विकसित हुए हैं और निश्चित रूप से वे तर्कसंगत तथा विचारपूर्ण नहीं हैं।
कल्पित आमार शास्त्र,—आमि सब जानि ।।जाति-अनुरोधे तबु सेइ शास्त्र मानि ॥
१७०॥
। मुझे पता है कि हमारे शास्त्र कल्पना तथा भ्रान्तियों से भरे हैं, तथापि अपर्याप्त आधार होने पर भी एक मुसलमान होने के नाते अपने समुदाय के निमित्त, मैं उन्हें स्वीकार करता हूँ।
सहजे ग्रवन-शास्त्रे अदृढ़ विचार । हासि' ताहे महाप्रभु पुछेन आर-बार ॥
१७१॥
काजी ने अन्त में कहा, मांसाहारी यवनों के शास्त्रों के तर्क सुदृढ़ नहीं हैं। यह कथन सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने हँसते हुए उससे इस प्रकार पूछा।
आर एक प्रश्न करि, शुन, तुमि मामा ।।यथार्थ कहिबे, छले ना वञ्छिबे आमा' ॥
१७२॥
। हे मामा, मैं आपसे दूसरा प्रश्न करना चाहता हूँ। कृपया आप सच सच बतलायें। आप मुझे छलने का प्रयास न करें।
तोमार नगरे हय सदा सङ्कीर्तन ।वाद्य-गीत-कोलाहल, सङ्गीत, नर्तन ॥
१७३॥
आपके नगर में सदैव पवित्र नाम को कीर्तन होता रहता है। सदैव संगीत की ध्वनि, गान और नृत्य चलता रहता है।
तुमि काजी-हिन्दु-धर्म-विरोधे अधिकारी ।एबे ये ना कर माना बुझिते ना पारि ॥
१७४॥
मुसलमान मैजिस्ट्रेट (काजी) होने के नाते आप हिन्दू उत्सवों को मनाने का विरोध कर सकते हैं, किन्तु अब आप उन्हें नहीं रोकते। मैं इसका कारण नहीं समझ सकता।
काजी बले—सभे तोमाय बले ‘गौरहरि' ।। सेइ नामे आमि तोमाय सम्बोधन करि ॥
१७५॥
काजी ने कहा, सभी लोग आपको गौरहरि कहते हैं। कृपया अब मुझे भी आप इसी नाम से पुकारने दें।
शुन, गौरहरि, एइ प्रश्नेर कारण ।निभृत हओ यदि, तबे करि निवेदन ॥
१७६ ॥
हे गौरहरि, कृपया सुनिये! यदि आप एकान्त स्थान में आयें, तो मैं कारण समझा दूंगा।
प्रभु बले,—ए लोक आमार अन्तरङ्ग हय ।स्फुट करि' कह तुमि, ना करिह भय ॥
१७७॥
महाप्रभु ने उत्तर दिया, ये सारे लोग मेरे अन्तरंग साथी हैं। आप निःसंकोच भाव से कहें। इनसे डरने की कोई बात नहीं है।
काजी कहे,—ग्रबे आमि हिन्दुर घरे गिया । कीर्तन करिलॅ माना मृदङ्ग भाङ्गिया ॥
१७८॥
सेइ रात्रे एक सिंह महा-भयङ्कर ।।नर-देह, सिंह-मुख, गर्जये विस्तर ॥
१७९॥
काजी ने कहा, जब मैं हिन्दू के घर गया और वहाँ मैंने मृदंग तोड़ा और संकीर्तन करने की मनाही कर दी, तो उसी रात मैंने सपने में एक भयानक गर्जन करता हुआ सिंह देखा, जिसका शरीर तो मनुष्य जैसा था, किन्तु उसका मुख सिंह जैसा था।
शयने आमार उपर लाफ दिया चड़ि' ।। अट्ट अट्ट हासे, करे दन्त-कड़मड़ि ॥
१८० ॥
जब मैं सो रहा था, तब वह सिंह मेरी छाती पर कूद पड़ा; वह अट्टहास कर रहा था और अपने दाँत कटकटा रहा था।
मोर बुके नख दिया घोर-स्वरे बले ।फाड़िमु तोमार बुक मृदङ्ग बदले ॥
१८१॥
सिंह ने मेरी छाती पर अपने नाखून गढ़ाते हुए भयानक स्वर में कहा, 'चूंकि तुमने मृदंग तोड़ा है, इसलिए मैं तुम्हारी छाती को अभी फाड़ देने जा रहा हूँ।
मोर कीर्तन माना करिस्, करिमु तोर क्षय ।।आङ्खि मुदि' काँपि आमि पाजा बड़ भय ॥
१८२ ॥
तुमने मेरे संकीर्तन पर प्रतिबन्ध लगाया है, अतएव मैं तुम्हारा विनाश कर दूंगा!' उससे डरकर मैंने अपनी आँखें बन्द कर लीं और काँपने लगा।
भीत देखि' सिंह बले हइया सदय ।। तोरे शिक्षा दिते कैलु तोर पराजय ॥
१८३॥
मुझे इस तरह डरा हुआ देखकर सिंह बोला, 'तुम्हें सबक सिखाने के लिए ही मैंने तुम्हें पराजित किया है, किन्तु अब मुझे तुम पर कृपालु होना चाहिए।
से दिन बहुत नाहि कैलि उत्पात । तेजि क्षमा करि' ना करिनु प्राणाघात ॥
१८४॥
उस दिन तुमने कोई बड़ा उत्पात नहीं मचाया, इसलिए मैंने तुम्हें क्षमा कर दिया है और तुम्हारे प्राण नहीं लिये।
ऐछे यदि पुनः कर, तबे ना सहिमु । सवंशे तोमारे मारि यवन नाशिमु ॥
१८५॥
किन्तु यदि तुम फिर से ऐसा कार्य करोगे, तो मैं सहन नहीं करूंगा। तब मैं तुम्हें, तुम्हारे सारे परिवार को और सारे मांसाहारी यवनों को मार डालूंगा।
एत कहि' सिंह गेल, आमार हैल भय । एइ देख, नख-चिह्न अमोर हृदय ॥
१८६॥
। यह कहकर सिंह चला गया, किन्तु मैं उससे बहुत ही भयभीत था। देखिये न मेरे हृदय पर बने उसके नाखूनों के चिह्नों को! एत बलि' काजी निज-बुक देखाइल ।।शुनि' देखि' सर्व-लोक आश्चर्य मानिल ॥
१८७॥
इस वर्णन के बाद काजी ने अपनी छाती दिखाई। उसकी बातें सुनकर तथा चिह्नों को देखकर सारे लोग इस विस्मयकारी घटना को मान गये।
काजी कहे,—इहा आमि कारे ना कहिल ।सेइ दिन आमार एक पियादा आइल ॥
१८८॥
काजी ने कहा, मैंने इस घटना की बात किसी से नहीं की, किन्तु उसी दिन मेरा एक अर्दली ( सेवक ) मुझसे मिलने आया।
आसि' कहे,—गेलु मुजि कीर्तन निषेधिते ।।अग्नि उल्का मोर मुखे लागे आचम्बिते ॥
१८९॥
मेरे पास आकर उस अर्दली ने कहा, 'जब मैं संकीर्तन रोकने गया, तो सहसा मेरे मुँह पर आग की लपटें टकरा गईं।
पुड़िल सकल दाड़ि, मुखे हैल व्रण । ग्रेड पेयादा ग्राय, तार एइ विवरण ॥
१९०॥
मेरी दाढ़ी जल गई और मेरे गालों पर फफोले पड़ गये।' जो भी अर्दली वहाँ गया, उसने वैसा ही विवरण दिया।
ताहा देखि' रहिनु मुजि महा-भय पाजा। कीर्तन ना वर्जिह, घरे रहों त' वसिया ॥
१९१॥
यह देखकर मैं अत्यधिक डर गया। मैंने उनसे संकीर्तन को न रोककर घर पर बैठने के लिए कहा।
तबे त' नगरे हइबे स्वच्छन्दे कीर्तन ।शुनि' सब म्लेच्छ आसि' कैल निवेदन ॥
१९२॥
तब सारे मांसाहारी यवनों ने यह सुनकर कि नगर में स्वच्छन्द संकीर्तन होगा, आकर निवेदन किया।
नगरे हिन्दुर धर्म बाड़िल अपार ।।‘हरि' ‘हरि' ध्वनि बइ नाहि शुनि आर ॥
१९३॥
हिन्दू धर्म असीम रूप से बढ़ गया है, क्योंकि सदैव 'हरि! हरि!' की ध्वनि होती है। हमें इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं सुनाई पड़ता।'
आर म्लेच्छ कहे, हिन्दु 'कृष्ण कृष्ण' बलि' ।।हासे, कान्दे, नाचे, गाय, गड़ि ग्राय धूलि ॥
१९४॥
एक यवन ने कहा, ‘हिन्दू कृष्ण, कृष्ण कहते हैं और वे हँसते हैं, रोते हैं, नाचते हैं, कीर्तन करते हैं और जमीन पर गिरकर धूलि में लोटते हैं।
‘हरि' ‘हरि' करि' हिन्दु करे कोलाहल । पातसाह शुनिले तोमार करिबेक फल ॥
१९५॥
हिन्दू लोग हरि, हरि का उच्चारण करके कोलाहल मचाते हैं। यदि राजा ( पातसाह) इसे सुन ले, तो निश्चय ही आपको दण्ड देगा।'
तबे सेइ झवनेरे आमि त’ पुछिल । हिन्दु हरि' बले, तार स्वभाव जानिल ॥
१९६।। तब मैंने इन यवनों से पूछा, मैं जानता हूँ कि ये हिन्दू स्वभाव से हरि, हरि का उच्चारण करते हैं।
तुमित ग्रवन हआ केने अनुक्षण ।। हिन्दुर देवतार नाम लह कि कारण ॥
१९७॥
हिन्दू लोग हरि का नाम इसलिए लेते हैं, क्योंकि वह उनके ईश्वर का नाम है। किन्तु तुम लोग मांसभक्षी मुसलमान हो। फिर तुम लोग हिन्दुओं के ईश्वर का नाम क्यों लेते हो?' म्लेच्छ कहे,—हिन्दुरे आमि करि परिहास ।केह केह—कृष्णदास, केह—रामदास ॥
१९८॥
उस म्लेच्छ ने उत्तर दिया, 'कभी-कभी मैं हिन्दुओं से मजाक करता हूँ। उनमें से कुछ कृष्णदास कहलाते हैं और कुछ रामदास।
केह-हरिदास, सदा बले ‘हरि' 'हरि' ।।जानि कार घरे धन करिबेक चुरि ॥
१९९॥
उनमें से कुछ हरिदास कहलाते हैं। वे सदैव हरि, हरि का उच्चारण करते हैं। इस तरह मैंने सोचा कि ये किसी के घर से धन चुरायेंगे।
सेइ हैते जिह्वा मोर बले ‘हरि' ‘हरि' ।।इच्छा नाहि, तबु बले,—कि उपाय करि ॥
२०० ॥
तभी से मेरी जीभ भी निरन्तर 'हरि, हरि' ध्वनि का उच्चारण करती है। यद्यपि मेरी इच्छा नहीं होती कि इसे कहूँ, किन्तु तो भी मेरी जीभ वही कहे जाती है। मेरी समझ में नहीं आता कि मैं क्या करूं।'
आर म्लेच्छ कहे, शुन-आमि त' एइ-मते । हिन्दुके परिहास कैनु से दिन हइते ॥
२०१॥
जिह्वा कृष्ण-नाम करे, ना माने वर्जन ।। ना जानि, कि मन्त्रौषधि जाने हिन्दु-गण ॥
२०२॥
दूसरे यवन ने कहा, 'कृपया, मेरी सुनें। जिस दिन से मैंने कुछ हिन्दुओं के साथ इस तरह मजाक किया है, तब से मेरी जीभ हरे कृष्ण का मन्त्र जपने लगी है और उसे त्यागती नहीं। मैं नहीं जानता कि ये हिन्दू कौन-सा मन्त्र और कौन-सी जड़ी-बूटी जानते हैं?' एत शुनि' ता'-सभारे घरे पाठाइल ।हेन-काले पाषण्डी हिन्दु पाँच-सात आइल ॥
२०३॥
यह सब सुनने के बाद मैंने सारे म्लेच्छों को अपने-अपने घरों को भेज दिया। तब पाँच-सात नास्तिक हिन्दू मेरे पास आये।
आसि' कहे, हिन्दुर धर्म भाङ्गिल निमाई ।।ये कीर्तन प्रवर्ताइल, कभुशुनि नाइ ॥
२०४॥
। मेरे पास आकर कुछ हिन्दुओं ने शिकायत की, निमाइ पण्डित ने तो हिन्दू धर्म के सिद्धान्तों को तोड़ दिया है। उसने संकीर्तन प्रणाली चलाई है, जिसे हमने किसी भी शास्त्र में नहीं सुना।
मङ्गलचण्डी विषहरि करि' जागरण । ता'ते वाद्य, नृत्य, गीत,—योग्य आचरण ॥
२०५॥
जब हम मंगलचण्डी तथा विषहरि की पूजा के लिए रात्रि-जागरण करके धार्मिक उत्सव मनाते हैं, तब बाजा बजाना, नाचना तथा कीर्तन करना निस्सन्देह उचित प्रथा है।
पूर्वे भाल छिल एइ निमाइ पण्डित । गया हैते आसिया चालाय विपरीत ॥
२०६॥
। निमाइ पण्डित पहले तो बहुत अच्छा लड़का था, किन्तु जब से वह गया से होकर लौटा है, वह अलग आचरण करने लगा है।
उच्च करि' गाय गीत, देय करतालि ।मृदङ्ग-करताल-शब्दे कर्णे लागे तालि ॥
२०७॥
अब वह सभी प्रकार के गाने जोर से गाता है, तालियाँ बजाता है, मृदंग और करताल बजाता है तथा इतनी ऊँची आवाज में शोर करता है। कि हमारे कान बहरे हो जाते हैं।
ना जानि,—कि खाजा मत्त हा नाचे, गाय ।।हासे, कान्दे, पड़े, उठे, गड़ागड़ि ग्राय ॥
२०८॥
हमें समझ में नहीं आता कि वह क्या खाता है, जिससे उन्मत्त होकर वह नाचता है, गाता है, कभी हँसता है, रोता है, गिरता है, कूदता है और भूमि पर लोटने लगता है।
नगरियाके पागल कैल सदा सङ्कीर्तन ।रात्रे निद्रा नाहि ग्राइ, करि जागरण ॥
२०९॥
उसने संकीर्तन करके सारे लोगों को एक तरह से पागल बना दिया है। रात में हम सो नहीं पाते, हम सदा जागते रहते हैं।
‘निमाञि' नाम छाड़ि' एबे बोलाय 'गौरहरि' ।। हिन्दुर धर्म नष्ट कैल पाषण्ड सञ्चारि' ॥
२१०॥
अब उसने अपना निमाइ नाम छोड़कर 'गौरहरि' नाम शुरु किया है। उसने हिन्दू धर्म के धार्मिक सिद्धान्तों को नष्ट कर दिया है और अविश्वासियों के अधर्म का सूत्रपात किया है।
कृष्णेर कीर्तन करे नीच बाड़ बाड़। एइ पापे नवद्वीप हइबे उजाड़ ॥
२११॥
अब नीच जाति के लोग भी बारम्बार हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन कर रहे हैं। इस पापकर्म के कारण सारा नवद्वीप नगर वीरान हो जायेगा।
हिन्दु-शास्त्रे 'ईश्वर' नाम–महा-मन्त्र जानि ।।सर्व-लोक शुनिले मन्त्रेर वीर्य हय हानि ॥
२१२॥
। हिन्दू शास्त्र के अनुसार ईश्वर का नाम सबसे शक्तिशाली मन्त्र है। यदि हर कोई नाम-संकीर्तन सुनता है, तो मन्त्र की शक्ति जाती रहेगी।
ग्रामेर ठाकुर तुमि, सब तोमार जन । निमाइ बोलाइया तारे करह वर्जन ॥
२१३॥
मान्यवर, आप इस नगर के शासक हैं। चाहे हिन्दू हों या मुसलमान, सभी आपके सरंक्षण में हैं। अतएव आप कृपया निमाइ पण्डित को बुलायें और उससे नगर छोड़ने के लिए कहें।'
तबे आमि प्रीति-वाक्य कहिल सबारे । सबे घरे ग्राह, आमि निषेधिब तारे ॥
२१४॥
उनकी शिकायतें सुनने के बाद मैंने मीठी वाणी में उनसे कहा, ‘आप लोग घर जाएँ। मैं अवश्य ही निमाइ पण्डित को इस हरे कृष्ण आन्दोलन को चालू रखने से मना कर दूंगा।'
हिन्दुर ईश्वर बड़ ग्रेइ नारायण ।। सेइ तुमि हओ,—हेन लय मोर मन ॥
२१५॥
मैं जानता हूँ कि नारायण हिन्दुओं के परमेश्वर हैं और मेरी समझ में आप वही नारायण हैं। मैं अपने अन्तःकरण में ऐसा अनुभव करता हूँ।
एत शुनि' महाप्रभु हासिया हासिया ।कहिते लागिला किछु काजिरे छुडिया ॥
२१६॥
काजी को इस प्रकार सुन्दर वचन बोलते हुए सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने उसका स्पर्श किया और हँसते हुए इस प्रकार बोले।
तोमार मुखे कृष्ण-नाम,—ए बड़ विचित्र । पाप-क्षय गेल, हैला परम पवित्र ॥
२१७॥
आपके मुख से कृष्ण के पवित्र नाम के उच्चारण ने आश्चर्य कर दिखाया है। इसने आपके सारे पापकर्मों के फलों को निर्मूल कर दिया है। अब आप नितान्त शुद्ध बन गये हैं।
‘हरि' 'कृष्ण' 'नारायण'लैले तिन नाम । बड़ भाग्यवान्तुमि, बड़ पुण्यवान् ॥
२१८॥
चूंकि आपने हरि, कृष्ण तथा नारायण-भगवान् के इन तीन पवित्र नामों का उच्चारण किया है, अतएव आप निस्सन्देह, परम भाग्यशाली और पुण्यात्मा हैं।
एत शुनि' कोजीर दुइ चक्षे पड़े पानि ।। प्रभुर चरण छुङि बले प्रिय-वाणी ॥
२१९॥
यह सुनकर काजी की आँखों से आँसू बहने लगे। उसने तुरन्त ही महाप्रभु के चरणकमलों का स्पर्श किया और मीठी वाणी में इस प्रकार कहा।
तोमार प्रसादे मोर घुचिल कुमति ।। एइ कृपा कर,—ग्नेन तोमाते रहु भक्ति ॥
२२०॥
केवल आपकी कृपा से ही मेरे बुरे विचार दूर हो सके हैं। अब मुझ पर कृपा करें, जिससे मेरी भक्ति आप पर स्थिर रहे।
प्रभु कहे,—एक दान मागिये तोमाय ।सङ्कीर्तन वाद ट्रैछे नहे नदीयाय ॥
२२१॥
महाप्रभु ने कहा, मैं आपसे एक दान माँगता हूँ। आप वचन दें कि कम-से-कम नदिया जिले में यह संकीर्तन आन्दोलन रोका नहीं जायेगा।
काजी कहे,—मोर वंशे ग्रत उपजिबे ।ताहाके 'तालाक' दिब,–कीर्तन ना बाधिबे ॥
२२२॥
काजी ने कहा, भविष्य में मेरे वंश में जितने भी लोग उत्पन्न होंगे, उन्हें मैं यह कड़ी चेतावनी देता हूँ कि कोई भी संकीर्तन आन्दोलन को न रोके।
शुनि' प्रभु 'हरि' बलि' उठिला आपनि । उठिल वैष्णव सब करि' हरि-ध्वनि ॥
२२३॥
यह सुनकर महाप्रभु हरि! हरि! कहते हुए उठ खड़े हुए। उनके पीछे पीछे अन्य सारे वैष्णव भी पवित्र नाम की ध्वनि करते हुए खड़े हो गये।
कीर्तन करिते प्रभु करिला गमन । सङ्गे चलि' आइसे काजी उल्लसित मन ॥
२२४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु कीर्तन करने चले गये और काजी भी प्रसन्न मन से उनके साथ गया।
काजीरे विदाय दिल शचीर नन्दन ।नाचिते नाचिते आइला आपन भवन ॥
२२५॥
महाप्रभु ने काजी से घर लौट जाने के लिए कहा। उसके बाद शचीमाता के पुत्र महाप्रभु नाचते-नाचते अपने घर आये।
एइ मते काजीरे प्रभु करिला प्रसाद ।इहा येइ शुने तार खण्डे अपराध ॥
२२६॥
यह घटना काजी तथा उस पर भगवान् की कृपा से सम्बन्धित है। जो भी इसे सुनता है, वह सारे अपराधों से छूट जाता है।
एक दिन श्रीवासेर मन्दिरे गोसाजि ।नित्यानन्द-सङ्गे नृत्य करे दुइ भाई ॥
२२७॥
एक दिन नित्यानन्द प्रभु तथा श्री चैतन्य महाप्रभु दोनों भाई श्रीवास ठाकुर के पवित्र घर में नृत्य कर रहे थे।
श्रीवास-पुत्रेर ताहाँ हैल परलोक ।तबु श्रीवासेर चित्ते ना जन्मिल शोक ॥
२२८॥
उस समय एक विपत्ति आ पड़ी-श्रीवास ठाकुर के पुत्र का देहान्त हो गया। फिर भी श्रीवास ठाकुर रंच-भर भी दुःखी नहीं हुए।
मृत-पुत्र-मुखे कैल ज्ञानेर कथन ।आपने दुइ भाइ हैला श्रीवास-नन्दन ॥
२२९॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु ने मृत पुत्र से ज्ञान की बातें कहलवाई और तब दोनों भाई स्वयं श्रीवास ठाकुर के पुत्र बन गये।
तबे त' करिला सब भक्ते वर दान । उच्छिष्ट दिया नारायणीर करिल सम्मान ॥
२३०॥
। तत्पश्चात् महाप्रभु ने अपने सभी भक्तों को वरदान दिया। उन्होंने नारायणी के प्रति विशेष सम्मान प्रकट करते हुए उसे अपना शेष बचा प्रसाद दिया।
श्रीवासेर वस्त्र सिंये दरजी झवन । प्रभु तारे निज-रूप कराइल दर्शन ॥
२३१॥
एक दर्जी था जो मांसभक्षी था, किन्तु वह श्रीवास ठाकुर के कपड़े सिला करता था। महाप्रभु ने उस पर कृपा करके उसे अपना स्वरूप दिखलाया।
‘देखिनु' ‘देखिनु' बलि' हइल पागल ।।प्रेमे नृत्य करे, हैल वैष्णव आगल ॥
२३२॥
मैंने देख लिया है! मैंने देख लिया है! कहते हुए तथा भावविभोर होकर पागल की तरह नाचते हुए वह दर्जी उच्च कोटि का वैष्णव बन गया।
आवेशेते श्रीवासे प्रभु वंशी त' मागिल । श्रीवास कहे,—वंशी तोमार गोपी हरि' निल ॥
२३३॥
भाव में महाप्रभु ने श्रीवास ठाकुर से अपनी वंशी माँगी, किन्तु श्रीवास ठाकुर ने उत्तर दिया, आपकी वंशी तो गोपियों ने चुरा ली है।
शुनि' प्रभु 'बल' ‘बल' बलेन आवेशे ।।श्रीवास वर्णेन वृन्दावन-लीला-रसे ॥
२३४॥
यह उत्तर सुनकर महाप्रभु ने आवेश में कहा, बोलते चलो! बोलते चलो! इस प्रकार श्रीवास ने श्री वृन्दावन की लीलाओं के दिव्य रस का वर्णन किया।
प्रथमेते वृन्दावन-माधुर्य वर्णिल ।शुनिया प्रभुर चित्ते आनन्द बाड़िल ॥
२३५॥
सबसे पहले श्रीवास ठाकुर ने वृन्दावन-लीलाओं की दिव्य मधुरता का वर्णन किया, जिन्हें सुनकर महाप्रभु के चित्त में हर्ष अत्यन्त बढ़ने लगा।
तबे 'बल' 'बल' प्रभु बले वार-वार ।पुनः पुनः कहे श्रीवास करिया विस्तार ॥
२३६॥
तत्पश्चात् महाप्रभु ने उनसे बारम्बार कहा, बोलते चलो! बोलते चलो! इस तरह श्रीवास ने वृन्दावन की लीलाओं का वर्णन विस्तार से बारम्बार किया।
वंशी-वाद्ये गोपी-गणेर वने आकर्षण ।ताँ-सबार सङ्गे ग्रैछे वन-विहरण ॥
२३७॥
श्रीवास ठाकुर ने विस्तार से बतलाया कि किस तरह गोपियाँ कृष्ण की वंशी की धुन से वृन्दावन के जंगलों की ओर आकृष्ट हुई थीं और किस तरह वे जंगल में उनके साथ साथ विहार करती थीं।
ताहि मध्ये छय-ऋतु लीलार वर्णन ।।मधु-पान, रासोत्सव, जल-केलि कथन ॥
२३८॥
श्रीवास पण्डित ने छह ऋतुओं में की गई सारी लीलाओं का वर्णन किया। उन्होंने मधु-पान करने, रास नृत्य रचाने, यमुना में तैरने तथा अन्य ऐसी घटनाओं का वर्णन किया।
‘बल' 'बल' बले प्रभु शुनिते उल्लास । श्रीवास कहेन तबे रास रसेर विलास ॥
२३९॥
जब महाप्रभु ने अत्यन्त हर्षित होकर सुनते हुए कहा, कहते चलो! कहते चलो! तब श्रीवास ठाकुर ने रासलीला का वर्णन किया, जो दिव्य रस से भरपूर है।
कहिते, शुनिते ऐछे प्रातः काल हैल ।।प्रभु श्रीवासेरे तोषि' आलिङ्गन कैल ॥
२४०॥
इस तरह महाप्रभु को कहते-कहते और श्रीवास ठाकुर को सुनातेसुनाते प्रात:काल हो गया, तो महाप्रभु ने श्रीवास ठाकुर का आलिंगन करके उन्हें तुष्ट किया।
तबे आचार घरे कैल कृष्ण-लीला ।। रुक्मिणी-स्वरूप प्रभु आपने हइला ॥
२४१॥
तत्पश्चात् श्री चन्द्रशेखर आचार्य के घर में कृष्ण की लीलाओं का नाटकीय अभिनय हुआ। स्वयं महाप्रभु ने कृष्ण की मुख्य पटरानी रुक्मिणी का अभिनय किया।
कभु दुर्गा, लक्ष्मी हय, कभु वा चिच्छक्ति ।। खाटे वसि' भक्त-गणे दिला प्रेम-भक्ति ॥
२४२॥
महाप्रभु कभी देवी दुर्गा का अभिनय करते, कभी लक्ष्मी, या मुख्य शक्ति योगमाया का। पलंग पर बैठकर उन्होंने सारे उपस्थित भक्तों को भगवत्प्रेम प्रदान किया।
एक-दिन महाप्रभुर नृत्य-अवसाने । एक ब्राह्मणी आसि' धरिल चरणे ॥
२४३॥
एक दिन जब महाप्रभु ने अपना नृत्य समाप्त किया, तभी एक स्त्री, किसी ब्राह्मण की पत्नी, वहाँ आई और उसने महाप्रभु के चरणकमल पकड़ लिए।
चरणेर धूलि सेइ लय वार वार ।।देखियो प्रभुर दुःख हइल अपार ॥
२४४॥
ज्योंही वह स्त्री बारम्बार उनके चरणों की धूल लेने लगी, महाप्रभु को अपार दुःख हुआ।
सेइ-क्षणे धाज्ञा प्रभु गङ्गाते पड़िल ।। नित्यानन्द-हरिदास धरि' उठाइल ॥
२४५ ॥
वे तुरन्त ही दौड़े-दौड़े गंगा नदी में गये और उस स्त्री के पापफलों को दूर करने के लिए नदी में कूद पड़े। नित्यानन्द प्रभु तथा हरिदास ठाकुर ने उन्हें पकड़कर नदी से निकाला।
विजय आचार घरे से रात्रे रहिला । प्रातःकाले भक्त सबे घरे ला गेला ॥
२४६॥
उस रात महाप्रभु विजय आचार्य के घर पर रुके। प्रातःकाल महाप्रभु अपने भक्तों को साथ लेकर घर लौट आये।
एक-दिन गोपी-भावे गृहेते वसिया ।। ‘गोपी' 'गोपी' नाम लय विषण्ण हञा ॥
२४७॥
एक दिन महाप्रभु गोपियों के भाव में अपने घर बैठे हुए थे। वे विरह से अत्यन्त खिन्न होकर गोपी! गोपी! पुकार रहे थे।
एक पड़या आइल प्रभुके देखिते । ‘गोपी' ‘गोपी' नाम शुनि' लागिल बलिते ॥
२४८॥
महाप्रभु का दर्शन करने आया हुआ एक विद्यार्थी चकित था कि वे गोपी! गोपी! पुकार रहे हैं। अतएव वह इस प्रकार बोला।
कृष्ण-नाम ना लओ केने, कृष्ण-नाम-धन्य ।। ‘गोपी' ‘गोपी' बलिले वा किबा हय पुण्य ॥
२४९॥
आप भगवान् कृष्ण के यशस्वी एवं पवित्र नाम का उच्चारण करने के बदले ‘गोपी, गोपी' क्यों पुकार रहे हैं? आप ऐसा करने से कौन-सा पुण्य प्राप्त करेंगे? शुनि' प्रभु क्रोधे कैल कृष्णे दोषोद्गार ।ठेङ्गा ला उठिला प्रभु पडुया मारिबार ॥
२५०॥
मूर्ख विद्यार्थी की बात सुनकर महाप्रभु बहुत क्रुद्ध हुए और उन्होंने अनेक प्रकार से भगवान् कृष्ण को फटकार लगाई। फिर वे लाठी उठाकर उस विद्यार्थी को मारने उठे।
भये पलाय पड़या, प्रभु पाछे पाछे धाय ।। आस्ते व्यस्ते भक्त-गण प्रभुरे रहाय ॥
२५१॥
वह विद्यार्थी डर के मारे भागा, तो महाप्रभु उसके पीछे दौड़ने लगे। किन्तु भक्तों ने किसी तरह उन्हें रोका।
प्रभुरे शान्त करि' आनिल निज घरे ।पडुया पलाया गेल पडुया-संभारे ॥
२५२ ॥
भक्तों ने महाप्रभु को शान्त किया और उन्हें घर ले आये। वह विद्यार्थी भागकर अन्य विद्यार्थियों की टोली में गया।
पडुया सहस्र ग्राहाँ पड़े एक-ठाजि ।प्रभुर वृत्तान्त द्विज कहे ताहाँ झाइ ॥
२५३॥
वह ब्राह्मण विद्यार्थी भागकर वहाँ गया, जहाँ एक हजार विद्यार्थी एकसाथ पढ़ रहे थे। वहाँ उसने उनसे इस घटना का वर्णन किया।
शुनि' क्रोध कैले सब पड़यार गण । सबे मेलि' करे तबे प्रभुर निन्दन ॥
२५४॥
यह घटना सुनकर सारे विद्यार्थी अत्यधिक क्रुद्ध हो गये और एकजुट होकर महाप्रभु की आलोचना करने लगे।
सब देश भ्रष्ट कैल एकला निमात्रि ।। ब्राह्मण मारिते चाहे, धर्म-भय नाइ ॥
२५५॥
उन्होंने आरोप लगाया, अकेले निमाई पण्डित ने ही सारा देश भ्रष्ट कर दिया है। वह कुलीन ब्राह्मण को आघात पहुँचाना चाहता है। उसे धार्मिक सिद्धान्तों से कोई भय नहीं रहा।
पुनः यदि ऐछे करे मारिब ताहरे ।। कोन् वा मानुष हय, कि करिते पारे ॥
२५६॥
यदि वह फिर से ऐसा निर्मम कार्य करता है, तो हम अवश्य ही बदला लेंगे और उसे मारेंगे। वह कौन सा ऐसा महत्त्वपूर्ण व्यक्ति है कि हमें ऐसा करने से रोक सकता है? प्रभुर निन्दाय सबार बुद्धि हैल नाश ।। सुपठित विद्या कारओ ना हय प्रकाश ॥
२५७॥
जब सारे विद्यार्थियों ने श्री चैतन्य महाप्रभु की निन्दा करते हुए ऐसा निश्चय किया, तब उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई। यद्यपि वे सभी विद्वान थे, किन्तु इस अपराध के कारण उनमें ज्ञान का सार प्रकट नहीं हो रहा था।
तथापि दाम्भिक पड़या नम्र नाहि हय ।ग्राहाँ ताहाँ प्रभुर निन्दा हासि' से करय ॥
२५८ ॥
किन्तु दम्भी विद्यार्थी विनीत नहीं हुए। उल्टे वे इस घटना की चर्चा कहीं भी और सर्वत्र करते रहे। वे हँसी-हँसी में महाप्रभु की आलोचना करते रहे।
सर्व-ज्ञ गोसाजि जानि' सबार दुर्गति ।घरे वसि' चिन्ते ता'-सबार अव्याहति ॥
२५९॥
सर्वज्ञ होने के नाते श्री चैतन्य महाप्रभु इन विद्यार्थियों की दुर्गति समझ गये। फलतः वे घर पर ही बैठकर उनको उबारने पर विचार करने लगे।
ग्रत अध्यापक, आर ताँर शिष्य-गण । धर्मी, कर्मी, तपो-निष्ठ, निन्दक, दुर्जन ॥
२६०॥
महाप्रभु ने सोचा, सारे तथाकथित अध्यापक तथा विज्ञानी एवं उनके विद्यार्थी धर्म के नियमों, सकाम कर्मों तथा तपस्या का पालन करते हैं, फिर भी वे साथ-साथ निन्दक एवं धूर्त होते हैं।
एइ सब मोर निन्दा-अपराध हैते ।आमि ना लओयाइले भक्ति, ना पारे लइते ॥
२६१॥
यदि मैं इन्हें भक्ति के लिए प्रेरित न करूं, तो निन्दा अपराध करने के कारण इनमें से कोई भी भक्ति ग्रहण न कर सकेगा।
निस्तारिते आइलाम आमि, हैल विपरीत ।ए-सब दुर्जनेर कैछे हइबेक हित ॥
२६२॥
मैं समस्त पतितों का उद्धार करने आया हूँ, किन्तु अभी तो इसके ठीक विपरीत घटना घटी। इन धूर्ते का किस तरह उद्धार हो सकता है? ये किस तरह लाभान्वित हो सकते हैं? आमाके प्रणति करे, हय पाप-क्षय ।तबे से इहारे भक्ति लओयाइले लय ॥
२६३ ॥
। यदि ये धूर्त मुझे नमस्कार करें, तो इनके सारे पापों के फल विनष्ट । हो जाएँ। फिर यदि मैं इन्हें प्रेरित करूँ, तो ये भक्ति करने लगेंगे।
मोरे निन्दा करे ये, ना करे नमस्कार ।ए-सब जीवेरे अवश्य करिब उद्धार ॥
२६४॥
मुझे इन सभी पतितों को अवश्य ही उद्धार करना चाहिए, जो मेरी निन्दा करते हैं और मुझे नमस्कार नहीं करते।
अतएव अवश्य आमि सन्यास करिब ।।सन्यासि-बुद्ध्ये मोरे प्रणत हइब ॥
२६५ ॥
मैं संन्यास आश्रम स्वीकार करूँगा, क्योंकि इस प्रकार लोग मुझे संन्यासी जानकर नमस्कार करेंगे।
प्रणतिते ह'बे इहार अपराध क्षय ।निर्मल हृदये भक्ति कराइब उदय ॥
२६६॥
। नमस्कार करने से उनके सारे पाप कर्मों के फल दूर हो जायेंगे। फिर मेरी कृपा से उनके शुद्ध हृदयों में भक्ति जाग्रत होगी।
ए-सब पाषण्डीर तबे हइबे निस्तार ।।आर कोन उपाय नाहि, एइ झुक्ति सार ॥
२६७॥
इस संसार के सारे श्रद्धाविहीन धूर्ते ( पाखण्डियों) का उद्धार इसी विधि से हो सकता है। दूसरा कोई विकल्प नहीं है। तर्क को सार यही है।
एइ दृढ़ मुक्ति करि' प्रभु आछे घरे । केशव भारती आइला नदीया-नगरे ॥
२६८ ॥
इस दृढ़ निष्कर्ष पर पहुँचने के बाद महाप्रभु घर पर ही रहे। इसी समय केशव भारती नदिया नगरी में पधारे।
प्रभु ताँरै नमस्करि' कैल निमन्त्रण । भिक्षा कराइयो ताँरै कैल निवेदन ॥
२६९॥
महाप्रभु ने उनको सादर नमस्कार किया और उन्हें अपने घर पर आमंत्रित किया। उन्हें अच्छी तरह से भोजन कराने के बाद महाप्रभु ने उनसे निवेदन किया।
तुमि त' ईश्वर बट, साक्षालारायण ।।कृपा करि' कर मोर संसार मोचन ॥
२७० ॥
हे महाशय, आप साक्षात् नारायण हैं। अतएव मुझ पर कृपा करें। कृपया मेरा इस भवबन्धन से उद्धार करें।
भारती कहेन, तुमि ईश्वर, अन्तर्यामी ।ग्रे कराह, से करिब, स्वतन्त्र नहि आमि ॥
२७१॥
केशव भारती ने महाप्रभु को उत्तर दिया, आप परम ईश्वर, परमात्मा हैं। मैं वहीं करूंगा जो आप मुझसे करायेंगे। मैं आपसे स्वतन्त्र नहीं हूँ।
एत बलि' भारती गोसाञि काटोयाते गेला ।महाप्रभु ताहा ग्राइ' सन्यास करिला ॥
२७२॥
यह कहकर गुरु केशव भारती अपने गाँव कटवा वापस चले गये। श्री चैतन्य महाप्रभु ने वहाँ जाकर संन्यास ग्रहण कर लिया।
सङ्गे नित्यानन्द, चन्द्रशेखर आचार्य ।।मुकुन्द-दत्त,—एइ तिन कैल सर्व कार्य ॥
२७३ ॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने संन्यास ग्रहण किया, तब सारे आवश्यक कार्य सम्पन्न करने के लिए उनके साथ तीन व्यक्ति थे-नित्यानन्द प्रभु, चन्द्रशेखर आचार्य तथा मुकुन्द दत्त।
एइ आदि-लीलार कैल सूत्र गणन ।विस्तारि वर्णिला इहा दास वृन्दावन ॥
२७४॥
इस तरह मैंने आदिलीला की घटनाओं का संक्षेप में वर्णन किया है। श्रील वृन्दावन दास ठाकुर ने इनका विस्तृत वर्णन ( चैतन्य-भागवत में) किया है।
ग्रशोदा-नन्दन हैला शचीर नन्दन ।चतुर्विध भक्त-भाव करे आस्वादन ॥
२७५ ॥
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् जो माता यशोदा के पुत्र रूप में प्रकट हुए थे, वे ही अब माता शची के पुत्र रूप में प्रकट हुए हैं और चार प्रकार के भक्ति भावों का आस्वादन कर रहे हैं।
स्व-माधुर्य राधा-प्रेम-रस आस्वादिते ।। राधा-भाव अङ्गी करियाछे भाल-मते ॥
२७६ ॥
। कृष्ण के प्रति श्रीमती राधारानी के प्रेम के रस का आस्वादन करने तथा कृष्णरूप आनन्द के आगार को समझने के लिए ही स्वयं कृष्ण ने श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में राधारानी के भाव को अंगीकार किया।
गोपी-भाव ग्राते प्रभु धरियाछे एकान्त ।व्रजेन्द्र-नन्दने माने आपनार कान्त ॥
२७७॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन गोपियों का भाव स्वीकार किया, जो व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण को अपने प्रियतम के रूप में मानती हैं।
गोपिका-भावेर एइ सुदृढ़ निश्चय ।।व्रजेन्द्र-नन्दन विना अन्यत्र ना हय ॥
२७८ ॥
यह सुदृढ़ निष्कर्ष निकलता है कि गोपिकाओं का भाव केवल कृष्ण के ही साथ सम्भव है, किसी अन्य के साथ नहीं।
श्यामसुन्दर, शिखिपिच्छ-गुञ्जा-विभूषण ।। गोप-वेश, त्रि-भङ्गिम, मुरली-वदन ॥
२७९॥
उनका रंग श्यामल है, सिर पर मोरपंख है, गुन्जा माला है और ग्वालों जैसी वेशभूषा है। उनका शरीर तीन स्थानों से मुड़ा है और वे होंठो पर बांसुरी रखे हुए हैं।
इहा छाड़ि' कृष्ण यदि हय अन्याकार । गोपिकार भाव नाहि याय निकट ताहार ॥
२८०॥
यदि भगवान् कृष्ण अपने इस आदि रूप को छोड़कर कोई अन्य विष्णु-रूप धारण करते हैं, तो उनके निकट जाने पर भी गोपियों में भाव जाग्रत नहीं होता।
गोपीनां पशुपेन्द्र-नन्दन-जुषो भावस्य कस्तां कृती विज्ञातुं क्षमते दुरूह-पदवी-सञ्चारिणः प्रक्रियाम् । आविष्कुर्वति वैष्णवीमपि तनुं तस्मिन्भुजैजिष्णुभिर्ग्रासां हन्त चतुर्भिरद्भुत-रुचि रागोदयः कुञ्चति ॥
२८१॥
एक बार भगवान् श्रीकृष्ण ने खेल-खेल में चार विजयी हाथों वाले तथा अत्यन्त सुन्दर स्वरूप वाले नारायण का रूप प्रकट किया। किन्तु इस उत्कृष्ट रूप को देखकर गोपियों की ऊर्मिपूर्ण भावनाएँ संकुचित हो गईं। अतएव विद्वान व्यक्ति भी उन गोपियों के भावों को नहीं समझ सकते, जो नन्द महाराज के पुत्र भगवान् कृष्ण के मूल स्वरूप पर केन्द्रित हैं। कृष्ण के परम रस में गोपियों के अद्भुत भाव आध्यात्मिक जीवन में सबसे बड़ा रहस्य हैं।
वसन्त-काले रास-लीला करे गोवर्धने ।।अन्तर्धान कैला सङ्केत करि' राधा-सने ॥
२८२ ॥
वसन्त ऋतु में जब रासनृत्य चल रहा था, तो कृष्ण सहसा घटनास्थल से यह दिखाने के लिए अन्तर्धान हो गये कि वे श्रीमती राधारानी के साथ एकान्त वास चाहते हैं।
निभृत-निकुञ्ज वसि' देखे राधार बाट ।अन्वेषिते आइला ताहाँ गोपिकार ठाट ॥
२८३॥
कृष्ण एकान्त कुंज में बैठे प्रतीक्षा कर रहे थे कि श्रीमती राधारानी उधर से गुजरें। किन्तु तभी गोपियाँ वहाँ आ पहुँची, जैसे कि कोई खोजी सैन्य दल हो।
दूर हैते कृष्णे देखि' बले गोपी-गण ।एइ देख कुबेर भितर व्रजेन्द्र-नन्दन ॥
२८४॥
दूर से कृष्ण को देखकर गोपियों ने कहा, जरा देखो न! ये रहे कुंज के भीतर नन्द महाराज के पुत्र कृष्ण।
गोपी-गण देखि' कृष्णेर हइल साध्वस ।। लुकाइते नारिल, भये हैला विवश ॥
२८५॥
। ज्योंही कृष्ण ने सारी गोपियों को देखा, वे भावविह्वल हो उठे। इस तरह वे अपने आपको छिपा नहीं सके और भयवश वे हतप्रभ हो गये।
चतुर्भुज मूर्ति धरि' आछेन वसिया । कृष्ण देखि' गोपी कहे निकटे आसिया ॥
२८६॥
कृष्ण अपना चतुर्भुज नारायण रूप धारण करके वहाँ बैठ गये। जब सारी गोपियाँ आईं, तो उन्हें देखकर वे इस प्रकार बोलीं।
‘इहों कृष्ण नहे, इहों नारायण मूर्ति' ।एत बलि' ताँरै सभे करे नति-स्तुति ॥
२८७॥
ये कृष्ण नहीं, भगवान् नारायण हैं। यह कहकर उन्होंने नमस्कार किया और उनकी सादर स्तुति इस प्रकार की।
नमो नारायण, देव करह प्रसाद ।।कृष्ण-सङ्ग देह' मोर घुचाह विषाद ॥
२८८॥
हे भगवान् नारायण, हम आपको सादर नमस्कार करती हैं। आप हम पर कृपालु हों। कृपया आप हमें कृष्ण की संगति प्रदान करें और इस प्रकार हमारे शोक को दूर करें।
एत बलि नमस्करि' गेला गोपी-गण ।। हेन-काले राधा आसि' दिला दरशन ॥
२८९॥
ऐसा कहने के बाद तथा नमस्कार करके सारी गोपियाँ इधर-उधर चली गईं। तब श्रीमती राधारानी आईं और भगवान् कृष्ण के समक्ष प्रकट हुईं।
राधा देखि' कृष्ण ताँरै हास्य करिते ।सेइ चतुर्भुज मूर्ति चाहेन राखिते ॥
२९०॥
जब भगवान् कृष्ण ने राधारानी को देखा, तो उन्होंने उनके साथ परिहास करने के लिए अपना चतुर्भुज रूप बनाये रखना चाहा।
लुकाइला दुइ भुज राधार अग्रेते ।। बहु ग्रन कैला कृष्ण, नारिल राखिते ॥
२९१॥
किन्तु श्रीमती राधारानी के सम्मुख श्रीकृष्ण को अपनी दो अतिरिक्त भुजाएँ छिपानी पड़ी। कृष्ण ने उनके सामने अपनी चारों भुजाएँ रखने का पूरा प्रयत्न किया, किन्तु वे ऐसा कर पाने में पूरी तरह विफल रहे।
राधार विशुद्ध-भावेर अचिन्त्य प्रभाव ।।ये कृष्णेरे कराइला द्वि-भुज-स्वभाव ॥
२९२॥
राधारानी के शुद्ध भाव का प्रभाव अचिन्त्य रूप से इतना महान् है। कि उसने कृष्ण को अपना आदि द्विभुज रूप धारण करने के लिए बाध्य कर दिया।
रासारम्भ-विधौ निलीय वसता कुल्ले मृगाक्षी-गणैर्दृष्टं गोपयितुं स्वमुद्धरे-धिया य़ा सुष्ठ सन्दर्शिता । राधायाः प्रणयस्य हन्त महिमा ग्रस्य श्रियो रक्षितुंसा शक्या प्रभविष्णुनापि हरिणा नासीच्चतुर्बाहुता ॥
२९३॥
रासनृत्य प्रारम्भ होने के पूर्व भगवान् कृष्ण ने परिहासवश अपने आप को कुंज में छिपा लिया। जब मृगली के समान नेत्रों वाली गोपियाँ आयीं, तो अपनी तीक्ष्ण बुद्धि के द्वारा कृष्ण ने अपने आपको छिपाने के लिए अपना सुन्दर चतुर्भुज रूप प्रकट किया। किन्तु जब श्रीमती राधारानी वहाँ आईं, तो वे उनके सामने अपना वह चतुर्भुज रूप नहीं रख पाये। यह श्रीमती राधा के प्रेम की अद्भुत महिमा है।
सेइ व्रजेश्वर–इहँ जगन्नाथ पिता । सेइ व्रजेश्वरी–इहँ शचीदेवी माता ॥
२९४॥
व्रजभूमि के राजा नन्द अब श्री चैतन्य महाप्रभु के पिता जगन्नाथ मिश्र हैं और व्रजभूमि की महारानी माता यशोदा चैतन्य महाप्रभु की माता शचीदेवी हैं।
सेइ नन्द-सुत—इहँ चैतन्य-गोसान्नि । सेइ बलदेव-इहँ नित्यानन्द भाई ॥
२९५॥
जो पहले नन्द महाराज के पुत्र थे, वे अब श्री चैतन्य महाप्रभु हैं और जो पहले कृष्ण के भाई बलदेव थे, वे अब नित्यानन्द प्रभु, श्री चैतन्य महाप्रभु के भाई हैं।
वात्सल्य, दास्य, सख्य–तिन भावमये ।सेइ नित्यानन्दकृष्ण-चैतन्य-सहाय ॥
२९६॥
श्री नित्यानन्द प्रभु को सदैव वात्सल्य, दास्य तथा सख्य भाव का अनुभव होता है। वे श्री चैतन्य महाप्रभु की सदा उसी तरह से सहायता करते हैं।
प्रेम-भक्ति दिया तेंहो भासा 'ल जगते ।ताँर चरित्र लोके ना पारे बुझिते ॥
२९७ ॥
श्री नित्यानन्द प्रभु ने दिव्य प्रेमाभक्ति का वितरण करके सारे जगत् को आप्लावित कर दिया। उनके चरित्र तथा उनके कार्यों को कोई नहीं समझ सकता।
अद्वैत-आचार्य-गोसाञि भक्त-अवतार ।कृष्ण अवतारिया कैला भक्तिर प्रचार ॥
२९८ ॥
श्रील अद्वैत आचार्य प्रभु एक भक्त के अवतार-रूप में प्रकट हुए। वे कृष्ण की श्रेणी में हैं, किन्तु वे इस धरा पर भक्ति का प्रचार करने के लिए अवतरित हुए।
सख्य, दास्य, दुइ भाव सहज ताँहार ।।कभु प्रभु करेन ताँरे गुरु-व्यवहार ॥
२९९॥
उनके सहज भाव सदा सख्य तथा दास्य भाव के स्तर पर होते थे, किन्तु महाप्रभु कभी-कभी उनके साथ अपने आध्यात्मिक गुरु जैसा व्यवहार करते थे।
श्रीवासादि ग्रत महाप्रभुर भक्त-गण ।निज निज भावे करेन चैतन्य-सेवन ॥
३००॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु के सभी भक्तगण जिनमें श्रीवास ठाकुर प्रमुख हैं, अपनी अपनी भावपूर्ण मनोदशा से महाप्रभु की सेवा करते हैं।
पण्डित-गोसाजि आदि याँर येइ रस ।सेइ सेई रसे प्रभु हन ताँर वश ॥
३०१॥
महाप्रभु के सारे निजी पार्षद यथा गदाधर पण्डित, स्वरूप दामोदर, रामानन्द राय तथा रूप गोस्वामी आदि छहों गोस्वामी अपने-अपने दिव्य रसों में स्थित हैं। इस तरह महाप्रभु विभिन्न दिव्य रसों के वशीभूत हो जाते हैं।
तिहँ श्याम,—वंशी-मुख, गोप-विलासी ।इहँ गौर कभु द्विज, कभु त' सन्यासी ॥
३०२ ॥
कृष्ण-लीला में भगवान् का वर्ण साँवला है। वे वंशी बजाते हुए ग्वालबाल की तरह आनन्दमग्न रहते हैं। अब वही व्यक्ति गौरवर्ण धारण करके कभी ब्राह्मण के रूप में लीला करते हैं और कभी संन्यासी के रूप में।
अतएव आपने प्रभु गोपी-भाव धरि' ।व्रजेन्द्र-नन्दने कहे ‘प्राण-नाथ' करि' ॥
३०३ ॥
इसीलिए स्वयं भगवान् गोपी भाव धारण करके अब नन्द महाराज के पुत्र को हे मेरे प्राणनाथ! हे मेरे प्रिय पति! कहकर सम्बोधित करते है।
सेई कृष्ण, सेइ गोपी,—परम विरोध ।।अचिन्त्य चरित्र प्रभुर अति सुदुर्बोध ॥
३०४॥
वे कृष्ण हैं, फिर भी उन्होंने गोपी-भाव धारण किया है। ऐसा क्यों है? यही तो भगवान् का अचिन्त्य चरित्र है, जिसे समझ पाना अत्यन्त कठिन है।
इथे तर्क करि' केह ना कर संशय । कृष्णेर अचिन्त्य-शक्ति एई मत हय ॥
३०५॥
संसारी तर्को के द्वारा महाप्रभु के चरित्र के विरोधाभासों को नहीं समझा जा सकता। फलस्वरूप किसी को इस सम्बन्ध में कोई संशय नहीं करना चाहिए। मनुष्य को केवल कृष्ण की अचिन्त्य शक्ति को समझने का प्रयास करना चाहिए, अन्यथा वह यह नहीं समझ सकेगा कि ऐसे विरोध किस तरह सम्भव होते हैं।
अचिन्त्य, अद्भुत कृष्ण-चैतन्य-विहार। चित्र भाव, चित्र गुण, चित्र व्यवहार ॥
३०६॥
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की लीलाएँ अचिन्त्य तथा अद्भुत हैं। उनका भाव अद्भुत है, उनके गुण अद्भुत हैं और उनको व्यवहार अद्भुत है।
तर्के इहा नाहि माने येइ दुराचार । कुम्भीपाके पचे, तार नाहिक निस्तार ॥
३०७॥
यदि कोई व्यर्थ ही इन संसारी तर्कों में उलझा रहता है और इसे स्वीकार नहीं करता, वह कुम्भीपाक नरक में तेल में उबलता रहता है। उसका उद्धार नहीं होता।
अचिन्त्याः खलु ये भावा न तांस्तर्केण योजयेत् । प्रकृतिभ्यः परं ग्रच्च तदचिन्त्यस्य लक्षणम् ॥
३०८॥
भौतिक प्रकृति से परे कोई भी दिव्य बात अचिन्त्य कहलाती है, जबकि सारे तर्क संसारी होते हैं। चूंकि संसारी तर्क दिव्य विषयों को स्पर्श भी नहीं कर पाते, अतएव मनुष्य को संसारी तर्को से दिव्य विषयों को समझने का प्रयास नहीं करना चाहिए।
अद्भुत चैतन्य-लीलाय याहार विश्वास ।। सेइ जन ग्राय चैतन्येर पद पाश ॥
३०९॥
जिस व्यक्ति की चैतन्य महाप्रभु की अद्भुत लीलाओं में दृढ़ निष्ठा है, वही उनके चरणकमलों तक पहुँच पाता है।
प्रसङ्गे कहिल एइ सिद्धान्तेर सार। इहा येइ शुने, शुद्ध-भक्ति हय तार ॥
३१०॥
इस आख्यान में मैंने भक्ति के सार को बतलाया है। जो कोई भी इसे सुनता है, उसमें भगवान् की शुद्ध भक्ति विकसित होती है।
लिखित ग्रन्थेर यदि करि । तबे से ग्रन्थेर अर्थ पाइये आस्वाद ॥
३११॥
यदि मैं पहले से लिखी बातों की पुनरावृत्ति करूँ, तो इस शास्त्र के प्रयोजन का आस्वादन कर सकें।
देखि ग्रन्थे भागवते व्यासेर आचार ।।कथा कहि' करे वार वार ॥
३१२॥
हम श्रीमद्भागवत शास्त्र में इसके रचयिता श्री व्यासदेव के आचरण को देख सकते हैं। वे कथा कहकर उसको बारम्बार दोहराते हैं।
ताते आदि-लीलार करि परिच्छेद गणन ।।प्रथम परिच्छेदे कैलँ‘मङ्गलाचरण' ॥
३१३ ॥
अतएव मैं आदिलीला के अध्यायों की गणना करूंगा। पहले अध्याय के अन्तर्गत मैं गुरु को नमस्कार करता हूँ, क्योंकि यह शुभ लेखन का प्रारम्भ है।
द्वितीय परिच्छेदे चैतन्य-तत्त्व-निरूपण' । स्वयं भगवान् येई व्रजेन्द्र-नन्दन ॥
३१४॥
दूसरे अध्याय में श्री चैतन्य महाप्रभु के तत्त्व की व्याख्या की गई है। वे महाराज नन्द के पुत्र पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण हैं।
तेहो त' चैतन्य-कृष्ण-शचीर नन्दन । तृतीय परिच्छेदे जन्मेर 'सामान्य' कारण ॥
३१५॥
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु, जो स्वयं कृष्ण हैं, अब माता शची के पुत्ररूप में प्रकट हुए हैं। तृतीय अध्याय में उनके प्राकट्य के सामान्य कारण का वर्णन है।
तहिं मध्ये प्रेम-दान–'विशेष' कारण । युग-धर्म- कृष्ण-नाम-प्रेम-प्रचारण ॥
३१६॥
। तीसरे अध्याय में भगवत्प्रेम के वितरण का विशेष वर्णन हुआ है। इसमें युगधर्म का भी वर्णन है, जो भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम का सहजता से वितरण और उनसे प्रेम करने की विधि का प्रचार करना है।
चतुर्थे कहिलें जन्मेर 'मूल' प्रयोजन ।।स्व-माधुर्य-प्रेमानन्द-रस-आस्वादन ॥
३१७॥
चौथे अध्याय में उनके प्राकट्य के प्रमुख कारण का वर्णन है, जो उन्हीं की दिव्य प्रेमाभक्ति तथा उनके ही माधुर्य के रस का आस्वादन करने के लिए है।
पञ्चमे 'श्री-नित्यानन्द'-तत्त्व निरूपण ।। नित्यानन्द हैला राम रोहिणी-नन्दन ॥
३१८॥
पाँचवें अध्याय में श्री नित्यानन्द प्रभु के तत्त्व का वर्णन हुआ है, जो रोहिणी-पुत्र बलराम ही हैं।
षष्ठ परिच्छेदे 'अद्वैत-तत्त्वे र विचार ।अद्वैत-आचार्य—महा-विष्णु-अवतार ॥
३१९॥
छठे अध्याय में अद्वैत आचार्य के तत्त्व पर विचार किया गया है। वे महाविष्णु के अवतार हैं।
सप्तम परिच्छेदे ‘पञ्च-तत्त्वे'र आख्यान ।पञ्च-तत्त्व मिलि' त्रैछे कैला प्रेम-दान ॥
३२०॥
सातवें अध्याय में पंचतत्त्व-श्री चैतन्य महाप्रभु, नित्यानन्द प्रभु, श्री अद्वैत, गदाधर तथा श्रीवास का वर्णन है। वे सभी भगवत्प्रेम का सर्वत्र प्रचार करने के लिए संयुक्त हुए हैं।
अष्टमे 'चैतन्य-लीला-वर्णन'-कारण ।एक कृष्ण-नामेर महा-महिमा-कथन । ३२१॥
आठवें अध्याय में श्री चैतन्य की लीलाओं का वर्णन किये जाने का कारण दिया गया है। इसमें कृष्ण-नाम की महानता का भी वर्णन हुआ है।
नवमेते 'भक्ति-कल्प-वृक्षेर वर्णन' ।।श्री-चैतन्य-माली कैला वृक्ष आरोपण ॥
३२२॥
नवें अध्याय में भक्तिरूपी कल्पवृक्ष का वर्णन है। श्री चैतन्य महाप्रभु स्वयं माली हैं, जिन्होंने इसका आरोपण किया।
दशमेते मूल-स्कन्धेर 'शाखादि-गणन' ।।सर्व-शाखा-गणेर ग्रैछे फल-वितरण ॥
३२३ ॥
दसवें अध्याय में मुख्य तने की शाखाओं-उपशाखाओं एवं उनके फलों के वितरण का वर्णन हुआ है।
एकादशे नित्यानन्द-शाखा-विवरण' ।द्वादशे 'अद्वैत-स्कन्ध शाखार वर्णन' ॥
३२४॥
ग्याहरवें स्कन्ध में श्री नित्यानन्द प्रभु की शाखा (वंश) का वर्णन है। बारहवें अध्याय में श्री अद्वैत प्रभु नामक शाखा का वर्णन है।
त्रयोदशे महाप्रभुर ‘जन्म-विवरण' ।।कृष्ण-नाम-सह त्रैछे प्रभुर जनम ॥
३२५ ॥
तेरहवें अध्याय में श्री चैतन्य महाप्रभु के जन्म का वर्णन है, जो कृष्ण-नाम कीर्तन चलते समय हुआ।
चतुर्दशे 'बाल्य-लीला'र किछु विवरण ।।पञ्चदशे ‘पौगण्ड-लीला'र सङ्क्षेपे कथन ॥
३२६॥
चौदहवें अध्याय में महाप्रभु की कुछ बाल-लीलाओं का वर्णन है। पंद्रहवें अध्याय में महाप्रभु की पौगण्ड-लीलाओं का संक्षिप्त वर्णन हुआ है।
षोड़श परिच्छेदे ‘कैशोर-लीला' र उद्देश ।। सप्तदशे ‘यौवन-लीला' कहिलें विशेष ॥
३२७॥
सोलहवें अध्याय में, मैंने कैशोर अवस्था ( युवावस्था के पूर्व ) की लीलाओं का संकेत किया है। सत्रहवें अध्याय में विशेषतया उनकी युवावस्था की लीलाओं का वर्णन हुआ है।
एइ सप्तदश प्रकार आदि-लीलार प्रबन्ध । द्वादश प्रबन्ध ताते ग्रन्थ-मुखबन्ध ॥
३२८॥
इस तरह प्रथम स्कन्ध में सत्रह प्रकार के विषय हैं, जो आदिलीला के नाम से विख्यात हैं। इनमें से बारह इस ग्रंथ के आमुख के रूप में हैं।
पञ्च-प्रबन्धे पञ्च-रसेर चरित । सङ्क्षेपे कहिलॆ अति,—ना कैलें विस्तृत ॥
३२९॥
मैंने आमुख के अध्यायों के पश्चात् पाँच अध्यायों में पाँच दिव्य रसों का वर्णन किया है। मैंने विस्तृत वर्णन की अपेक्षा इनका संक्षिप्त वर्णन किया है।
वृन्दावन-दास इहाचैतन्य-मङ्गले' ।। विस्तारि' वर्णिला नित्यानन्द-आज्ञा-बले ॥
३३०॥
श्री नित्यानन्द प्रभु के आदेश तथा बल पर श्रील वृन्दावन दास ठाकुर ने अपने ग्रंथ चैतन्य-मंगल में उन विषयों का विस्तार से वर्णन किया है, जिनका वर्णन मैंने नहीं किया।
श्री-कृष्ण-चैतन्य-लीला—अद्भुत, अनन्त । ब्रह्मा-शिव-शेष याँर नाहि पाय अन्त ॥
३३१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाएँ अद्भुत एवं अनन्त हैं। ब्रह्माजी, शिवजी तथा शेषनाग जैसे भी उनका पार नहीं पा सकते।
ये येइ अंश कहे, शुने सेइ धन्य ।। अचिरे मिलिबे तारे श्री-कृष्ण-चैतन्य ॥
३३२॥
कोई भी व्यक्ति, जो इस विस्तृत विषय के किसी भी अंश को कहता या सुनता है, उसे बहुत जल्दी ही श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की अहैतुकी कृपा प्राप्त हो जायेगी।
श्री-कृष्ण-चैतन्य, अद्वैत, नित्यानन्द ।। श्रीवास-गदाधरादि व्रत भक्त-वृन्द ॥
३३३॥
[ यहाँ लेखक पुन: पंचतत्त्व का वर्णन करते हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य, प्रभु नित्यानन्द, श्री अद्वैत, गदाधर, श्रीवास तथा महाप्रभु के सारे भक्तों! ग्रत ग्रत भक्त-गण वैसे वृन्दावने । नम्र हञा शिरे धरों सबार चरणे ॥
३३४॥
। मैं वृन्दावन के समस्त निवासियों को सादर नमस्कार करता हूँ। मैं विनीत भाव से उनके चरणकमलों को अपने शीश पर रखना चाहता हूँ।
श्री-स्वरूप-श्री-रूप-श्री-सनातन । श्री-रघुनाथ-दास, आर श्री-जीव-चरण ॥
३३५॥
शिरे धरि वन्दों, नित्य करों ताँर आश ।। चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
३३६॥
मैं गोस्वामियों के चरणकमलों को अपने सिर पर रखना चाहता हूँ। उनके नाम हैं श्री स्वरूप दामोदर, श्री रूप गोस्वामी, श्री सनातन गोस्वामी, श्री रघुनाथ दास गोस्वामी तथा श्री जीव गोस्वामी। उनके चरणकमलों को अपने सिर पर रखकर और सदा उनकी सेवा करने की आशा से मैं श्रीकृष्णदास उनके चरणचिह्नों पर चलते हुए श्रीचैतन्यचरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।
मध्य लीला:अध्याय एक: भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु की बाद की लीलाएँ
ग्रस्य प्रसादादज्ञोऽपि सद्यः सर्व-ज्ञतां व्रजेत् ।। से श्री-चैतन्य-देवो मे भगवान्सम्प्रसीदतु ॥
१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के आशीर्वाद मात्र से एक अज्ञानी व्यक्ति भी तुरन्त समस्त ज्ञान प्राप्त कर सकता है। अतएव मैं महाप्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि वे मुझ पर अपनी अहैतुकी कृपा करें।
वन्दे श्री-कृष्ण-चैतन्य-नित्यानन्दौ सहोदितौ ।।गौड़ोदये पुष्पवन्तौ चित्रौ शन्दौ तमो-नुदौ ॥
२॥
मैं श्रीकृष्ण चैतन्य और नित्यानन्द प्रभु को सादर प्रणाम करता हूँ, जो सूर्य और चन्द्रमा के समान हैं। वे गौड़ देश के क्षितिज पर अज्ञान के अन्धकार को दूर करने के लिए और इस प्रकार सबको अद्भुत आशीर्वाद देने के लिए एक साथ उदित हुए हैं।"
जयतां सुरतौ पोर्मम मन्द-मतेर्गती ।।मत्सर्वस्व-पदाम्भोजौ राधा-मदन-मोहनौ ॥
३॥
। परम कृपालु राधा तथा मदनमोहन की जय हो! यद्यपि मैं लंगड़ा और मूर्ख हैं, फिर भी वे मेरे मार्गदर्शक हैं और उनके चरणकमल मेरे लिए सर्वस्व हैं।"
दीव्यद्न्दारण्य-कल्प-द्रुमाधःश्रीमद्रत्नागार-सिंहासन-स्थौ ।। श्रीमद्राधा-श्रील-गोविन्द-देवौ ।प्रेष्ठालीभिः सेव्यमानौ स्मरामि ॥
४॥
वृन्दावन में कल्पवृक्ष के नीचे, रत्नों के मन्दिर के भीतर श्री श्री राधागोविन्द एक देदीप्यमान सिंहासन पर विराजमान हैं और उनके सर्वाधिक अन्तरंग पार्षद उनकी सेवा में लगे हुए हैं। मैं उन्हें मेरे विनम्र प्रणाम करता हैं।"
श्रीमान्नास-रसारम्भी वंशी-वट-तट-स्थितः ।।कर्षन्वेणु-स्वनैर्गोपीर्गोपीनाथः श्रियेऽस्तु नः ॥
५॥
अपने वंशी-वादन से समस्त गोपियों को आकृष्ट करने वाले एवं वंशीवट में यमुना नदी के तट पर अत्यन्त मधुर रासनृत्य को आरम्भ करने वाले गोपीनाथजी हम सब पर दयालु हों।"
जय जय गौरचन्द्र जय कृपा-सिन्धु ।।जय जय शची-सुत जय दीन-बन्धु ॥
६॥
। दया के सिन्धु श्री गौरहरि की जय हो! हे शचीदेवी के पुत्र! आपकी जय हो, क्योंकि आप समस्त पतितात्माओं के एकमात्र मित्र हैं।"
जय जय नित्यानन्द जयाद्वैत-चन्द्र ।।जय श्रीवासादि जय गौर-भक्त-वृन्द ॥
७॥
। श्री नित्यानन्द प्रभु तथा अद्वैत प्रभु की जय हो! श्रीवास ठाकुर आदि श्री चैतन्य महाप्रभु के सभी भक्तों की जय हो! पूर्वे कहिलॆ आदि-लीलार सूत्र-गण ।। ग्राहा विस्तारियाछेन दास-वृन्दावन ॥
८॥
। इसके पहले मैंने आदिलीला (प्रारम्भिक लीलाएँ) का संक्षेप में वर्णन किया है, जिसका विस्तृत वर्णन वृन्दावन दास ठाकुर पहले ही कर चुके ।
अतएव तार आमि सूत्र-मात्र कैलें।ग्रे किछु विशेष, सूत्र-मध्येइ कहिलें ॥
९॥
इसीलिए मैंने उन घटनाओं को केवल संक्षेप में दिया है और जो कुछ विशेष कहने योग्य था, वह भी उसी के साथ वर्णित है।
एबे कहि शेष-लीलार मुख्य सूत्र-गण ।। प्रभुर अशेष लीला ना ग्राय वर्णन ॥
१० ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की अनन्त लीलाओं का वर्णन कर पाना सम्भव नहीं है, किन्तु अब मैं मुख्य घटनाएँ बताना चाहता हूँ और अन्त में घटित होने वाली लीलाओं का सार प्रस्तुत करना चाहता हूँ।"
तार मध्ये ग्रेइ भाग दास-वृन्दावन ।। चैतन्य-मङ्गले' विस्तारि' करिला वर्णन ॥
११॥
सेइ भागेर इहाँ सूत्र-मात्र लिखिब। ताहाँ ये विशेष किछु, इहाँ विस्तारिब ॥
१२॥
श्रील वृन्दावन दास ठाकुर ने अपनी पुस्तक चैतन्य मंगल में जिन लीलाओं का विस्तार से वर्णन किया है, उसे मैं केवल संक्षेप में कहूँगा। किन्तु जो घटनाएँ विशिष्ट हैं, उनका मैं बाद में विस्तार करूंगा।
चैतन्य-लीलार व्यास---दास वृन्दावन ।। ताँर आज्ञाय करों ताँर उच्छिष्ट चर्वण ॥
१३॥
वास्तव में श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं के प्रामाणिक संकलनकर्ता तो श्रील वृन्दावन दास हैं, जो व्यासदेव के अवतार हैं। उनकी आज्ञा से ही मैं उनके द्वारा छोड़े गये उच्छिष्ट को पुनः चबाने का प्रयास कर रहा हूँ।
भक्ति करि' शिरे धरि ताँहार चरण ।। शेष-लीलार सूत्र-गण करिये वर्णन ॥
१४॥
। अब मैं अत्यन्त भक्तिपूर्वक उनके चरणकमलों को अपने मस्तक पर धारण करके महाप्रभु की अन्तिम लीलाओं (शेषलीला ) का संक्षिप्त वर्णन करूंगा।"
चब्बिश वत्सर प्रभुर गृहे अवस्थान ।। ताहाँ ये करिला लीला--'आदि-लीला' नाम ॥
१५ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु चौबीस वर्षों तक घर पर रहे और इस काल में उन्होंने जो भी लीलाएँ कीं, वे आदिलीला के नाम से जानी जाती हैं।"
चब्बिश वत्सर शेषे येइ माघ-मास ।तार शुक्ल-पक्षे प्रभु करिला सन्यास ॥
१६॥
चौबीस वर्ष पूरे होने पर माघ मास के शुक्लपक्ष में महाप्रभु ने संन्यास ग्रहण किया।"
सन्यास करिया चब्बिश वत्सर अवस्थान ।।ताहाँ ग्रेइ लीला, तार 'शेष-लीला' नाम ॥
१७ ॥
। संन्यास ग्रहण करने के बाद चैतन्य महाप्रभु अगले चौबीस वर्षों तक इस भौतिक जगत् में रहे। इस काल में उन्होंने जो भी लीलाएँ कीं, वे शेषलीला कहलाती हैं अर्थात् ऐसी लीलाएँ जो अन्त में घटित हुईं।"
शेष-लीलार'मध्य’ ‘अन्त्य',—दुइ नाम हय ।।लीला-भेदे वैष्णवे सब नाम-भेद कय ॥
१८॥
अन्तिम चौबीस वर्षों में सम्पन्न होने वाली लीलाएँ मध्य तथा अन्त्यइन दो नामों से जानी जाती हैं। इन्हीं विभागों के अनुसार सारे भक्त महाप्रभु की लीलाओं का उल्लेख करते हैं।"
तार मध्ये छय वत्सर-गमनागमन ।।नीलाचल-गौड़-सेतुबन्ध-वृन्दावन ॥
१९॥
अन्तिम चौबीस वर्षों में से छह वर्षों तक श्री चैतन्य महाप्रभु ने जगन्नाथ पुरी से लेकर बंगाल और कुमारी अन्तरीप से लेकर वृन्दावन तक सारे भारतवर्ष में भ्रमण किया।"
ताहाँ येइ लीला, तार 'मध्य-लीला' नाम । तार पाछे लीला-'अन्त्य-लीला' अभिधान ॥
२०॥
इन स्थानों में महाप्रभु ने जितनी लीलाएँ कीं, वे मध्य-लीला कहलाती हैं और उसके बाद की जितनी लीलाएँ हैं, वे अन्त्य-लीला कहलाती हैं।"
‘आदि-लीला', 'मध्य-लीला', 'अन्त्य-लीला' आर।। एबे ‘मध्य-लीलार' किछु करिये विस्तार ॥
२१॥
इसीलिए महाप्रभु की लीलाओं को तीन कालों में विभाजित किया जाता है-आदि-लीला, मध्य-लीला तथा अन्त्य-लीला। अब मैं मध्यलीला का विस्तारपूर्वक वर्णन करूंगा।"
अष्टादश-वर्ष केवल नीलाचले स्थिति । आपनि आचरि' जीवे शिखाइला भक्ति ॥
२२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु अठारह वर्षों तक लगातार जगन्नाथ पुरी में रहे और उन्होंने अपने खुद के आचरण से सारे जीवों को भक्तियोग का उपदेश दिया।"
तार मध्ये छय वत्सर भक्त-गण-सङ्गे।। प्रेम-भक्ति प्रवर्ताइला नृत्य-गीत-रङ्गे ॥
२३ ॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु ने जगन्नाथ पुरी में इन अठारह वर्षों में से छह वर्ष अपने अनेक भक्तों के साथ बिताये। उन्होंने कीर्तन तथा नृत्य द्वारा भगवान् की प्रेमाभक्ति का प्रवर्तन किया।"
नित्यानन्द-गोसाजिरे पाठाइल गौड़-देशे ।।तेंहो गौड़-देश भासाइल प्रेम-रसे ॥
२४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने नित्यानन्द प्रभु को जगन्नाथ पुरी से बंगाल भेजे, जो गौड़ देश के नाम से प्रसिद्ध है। श्री नित्यानन्द प्रभु ने भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति से इस देश को आप्लावित कर दिया।"
सहजेइ नित्यानन्द—कृष्ण-प्रेमोद्दाम ।।प्रभु-आज्ञाय कैल ग्राहाँ ताहाँ प्रेम-दान ॥
२५॥
श्री नित्यानन्द प्रभु स्वभाव से भगवान् कृष्ण की दिव्य प्रेमाभक्ति करने के लिए अत्यधिक उत्साहित रहते हैं। अतएव जब श्री चैतन्य महाप्रभु का आदेश हुआ, तो उन्होंने इस प्रेमाभक्ति का सर्वत्र वितरण किया।"
ताँहार चरणे मोर कोटि नमस्कार ।। चैतन्येर भक्ति स्नेहो लओयाइल संसार ॥
२६॥
मैं उन श्री नित्यानन्द प्रभु के चरणकमलों में असंख्य प्रणाम करता हूँ, जो इतने दयालु हैं कि उन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु की भक्ति को सारे विश्व में प्रचारित किया।"
चैतन्य-गोसाञि याँरै बले 'बड़ भाइ' । तेंहो कहे, मोर प्रभु–चैतन्य-गोसाञि ॥
२७॥
श्री चैतन्य महाप्रभु श्री नित्यानन्द प्रभु को अपना बड़ा भाई कहकरपुकारते थे, जबकि नित्यानन्द प्रभु चैतन्य महाप्रभु को अपने स्वामी कहा करते थे।"
ग्रद्यपि आपनि हये प्रभु बलराम ।। तथापि चैतन्येर करे दास-अभिमान ॥
२८॥
। यद्यपि नित्यानन्द प्रभु स्वयं बलराम हैं, तथापि वे अपने आपको सदैव श्री चैतन्य महाप्रभु के नित्य दास मानते हैं।"
‘चैतन्य' सेव, चैतन्य' गाओ, लओ'चैतन्य'-नाम । चैतन्ये' ये भक्ति करे, सेइ मोर प्राण ॥
२९॥
नित्यानन्द प्रभु हर एक से श्री चैतन्य महाप्रभु की सेवा करने, उनकी महिमा का कीर्तन करने तथा उनका नाम उच्चारण करने का आग्रह करते थे। वे उस व्यक्ति को अपने प्राणों के तुल्य समझते थे, जो श्री चैतन्य महाप्रभु की भक्तिमय सेवा करता था।"
इ मत लोके चैतन्य-भक्ति लओयाइल । दीन-हीन, निन्दक, सबारे निस्तारिल ॥
३०॥
इस प्रकार श्रील नित्यानन्द प्रभु ने बिना भेदभाव के हर एक को श्री चैतन्य-सम्प्रदाय में सम्मिलित किया। ऐसा करने से पतितात्माओं तथा निन्दकों का भी उद्धार हो गया।
तबे प्रभु व्रजे पाठाइल रूप-सनातन । प्रभु-आज्ञाय दुइ भाई आइला वृन्दावन ॥
३१॥
तत्पश्चात् श्री चैतन्य महाप्रभु ने श्रील रूप गोस्वामी तथा श्रील सनातन गोस्वामी दोनों भाईयों को व्रज भेजे। उनके आदेश से वे श्री वृन्दावन धाम गये।"
भक्ति प्रचारिया सर्व-तीर्थ प्रकाशिल । मदन-गोपाल-गोविन्देर सेवा प्रचारिल ॥
३२॥
। वृन्दावन जाकर इन दोनों भाइयों ने भक्ति का प्रचार किया और अनेक तीर्थस्थानों की खोज की। उन्होंने विशेष रूप से मदनमोहन तथा गोविन्दजी की सेवा का शुभारम्भ किया।"
नाना शास्त्र आनि' कैला भक्ति-ग्रन्थ सार ।। मूढ़ अधम-जनेरे तेंहो करिला निस्तार ॥
३३॥
। रूप गोस्वामी तथा सनातन गोस्वामी दोनों ने वृन्दावन में अनेक शास्त्र एकत्र किये और भक्ति विषयक अनेक शास्त्रों का संकलन करके इनका सार प्रस्तुत किया। इस प्रकार उन्होंने सारे धूर्ती तथा पतितों का उद्धार किया।"
प्रभु आज्ञाय कैल सब शास्त्रेर विचार । व्रजेर निगूढ़ भक्ति करिल प्रचार ॥
३४॥
इन गोस्वामियों ने समस्त गुह्य वैदिक साहित्य के विश्लेषणात्मक अध्ययन के आधार पर भक्ति का प्रचार किया। यह सब श्री चैतन्य महाप्रभु के आदेश की पूर्ति के निमित्त था। इस तरह कोई भी वृन्दावन की सर्वाधिक गुह्य भक्ति को समझ सकता है।
हरि-भक्ति-विलास, आर भागवतामृत ।।दशम-टिप्पनी, आर दशम-चरित ॥
३५ ॥
श्रील सनातन गोस्वामी द्वारा रचित कुछ पुस्तकें इस प्रकार हैंहरिभक्ति-विलास, बृहद् भागवतामृत, दशम-टिप्पणी तथा दशम-चरित।"
एइ सब ग्रन्थ कैल गोसात्रि सनातन ।। रूप-गोसाजि कैल ग्रत, के करु गणन ॥
३६॥
मैंने सनातन गोस्वामी द्वारा रचित चार ग्रंथों के नाम पहले ही दे दिये हैं। इसी तरह श्रील रूप गोस्वामी ने भी अनेक ग्रंथों की रचना की है, जिनकी गिनती नहीं की जा सकती।"
प्रधान प्रधान किछु करिये गणन ।। लक्ष ग्रन्थे कैल व्रज-विलास वर्णन ॥
३७॥
। अतएव मैं श्रील रूप गोस्वामी द्वारा रचित मुख्य-मुख्य ग्रंथों के ही नाम गिनाऊँगा। उन्होंने एक लाख श्लोकों में वृन्दावन की लीलाओं का वर्णन किया है।"
रसामृत-सिन्धु, आर विदग्ध-माधव ।। उज्वल-नीलमणि, आर ललित-माधव ॥
३८॥
। श्री रूप गोस्वामी द्वारा रचित ग्रंथों में भक्तिरसामृतसिन्धु, विदग्ध माधव, उज्वल-नीलमणि तथा ललित-माधव सम्मिलित हैं।"
दान-केलि-कौमुदी, आर बहु स्तवावली । अष्टादश लीला-च्छन्द, आर पद्यावली ॥
३९॥
गोविन्द-विरुदावली, ताहार लक्षण । मथुरा-माहात्म्य, आर नाटक-वर्णन ॥
४०॥
श्रील रूप गोस्वामी ने दानकेलि-कौमुदी, स्तवावली, लीलाच्छन्द, पद्यावली, गोविन्द-विरुदावली, मथुरा-माहात्म्य तथा नाटक-वर्णन नामक पुस्तकों की भी रचना की।"
लघु-भागवतामृतादि के करु गणन ।।सर्वत्र करिल व्रज-विलास वर्णन ॥
४१॥
भला श्रील रूप गोस्वामी द्वारा रचित शेष पुस्तकों (जिनमें लघु भागवतामृत मुख्य है) की गिनती कौन कर सकता है? उन्होंने उन सब ग्रंथ में ‘वृन्दावन की लीलाओं का वर्णन किया है।"
ताँर भ्रातुष्पुत्र नाम–श्री-जीव-गोसाजि ।।ग्रत भक्ति-ग्रन्थ कैल, तर अन्त नाई ॥
४२॥
। श्री रूप गोस्वामी के भतीजे श्रील जीव गोस्वामी ने भक्ति सम्बन्धी इतनी पुस्तकें लिखी हैं कि उनकी गणना नहीं की जा सकती।"
श्री-भागवत-सन्दर्भ-नाम ग्रन्थ-विस्तार ।।भक्ति-सिद्धान्तेर ताते देखाइयाछेन पार ॥
४३॥
श्रील जीव गोस्वामी ने श्री भागवत-सन्दर्भ में भक्ति की चरम पराकाष्ठा का विस्तार से वर्णन किया है।"
गोपाल-चम्पू-नामे ग्रन्थ-महाशूर ।। नित्य-लीला स्थापन ग्राहे व्रज-रस-पूर ॥
४४॥
गोपाल-चम्पू सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं प्रभावशाली दिव्य ग्रंथ है। इस ग्रंथ में भगवान् की सनातन लीलाओं की स्थापना की गई है और वृन्दावन में भोगे जाने वाले दिव्य रसों का वर्णन विस्तारपूर्वक हुआ है।
एइ मत नाना ग्रन्थ करिया प्रकाश । गोष्ठी सहिते कैला वृन्दावने वास ॥
४५ ॥
इस प्रकार श्रील रूप गोस्वामी, सनातन गोस्वामी तथा उनके भतीजे श्रील जीव गोस्वामी तथा लगभग उनका सारा परिवार वृन्दावन में रहा और उन्होंने भक्ति पर महत्त्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित कीं।"
प्रथम वत्सरे अद्वैतादि भक्त-गण । प्रभुरे देखिते कैल, नीलाद्रि गमन ॥
४६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा संन्यास ग्रहण कर लेने के एक वर्ष बाद, श्री अद्वैत प्रभु के नेतृत्व में सारे भक्त उनका दर्शन करने के लिए जगन्नाथ पुरी गये।।"
रथ-यात्रा देखि ताहाँ रहिला चारि-मास । प्रभु-सङ्गे नृत्य-गीत परम उल्लास ॥
४७॥
जगन्नाथ पुरी में रथयात्रा महोत्सव में सम्मिलित होने के बाद सारे भक्त चार मास तक वहीं रहे और चैतन्य महाप्रभु के साथ कीर्तन ( कीर्तन तथा नृत्य) का परम आनन्द लूटते रहे।"
विदाय समय प्रभु कहिला सबारे ।।प्रत्यब्द आसिबे सबे गुण्डिचा देखिबारे ॥
४८॥
विदाई के समय महाप्रभु ने सभी भक्तों से निवेदन किया, 'कृपा करके प्रतिवर्ष भगवान् जगन्नाथ की गुण्डिचा मन्दिर तक की यात्रा (जो रथयात्रा महोत्सव के नाम से विख्यात है) देखने के लिए अवश्य आयें।'
प्रभु-आज्ञार्य भक्त-गण प्रत्यब्द आसिया ।।गुण्डिचा देखिया या 'न प्रभुरे मिलिया ॥
४९॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के आदेश का पालन करते हुए सारे भक्त प्रतिवर्ष उन्हें मिलने आते थे। वे जगन्नाथ पुरी में गुण्डिचा-उत्सव देखते और चार मास के बाद अपने घर लौट जाया करते थे।
विंशति वत्सर ऐछे कैला गतागति ।।अन्योन्ये मुँहार हा विना नाहि स्थिति ॥
५०॥
लगातार बीस वर्षों तक इस प्रकार भेट होती रही और स्थिति इतनी तीव्र हो गई कि महाप्रभु तथा भक्तगण एक-दूसरे से मिले बिना सुख से नहीं रह पाते थे।"
शेष आर ग्रेड रहे द्वादश वत्सर ।।कृष्ोर विरह-लीला प्रभुर अन्तर ॥
५१।। । महाप्रभु ने अन्तिम बारह वर्ष अपने हृदय के भीतर केवल कृष्ण की विरह-लीला का आस्वादन करने में बिताये।।"
निरन्तर रात्रि-दिन विरह उन्मादे ।।हासे, कान्दे, नाचे, गाय परम विषादे ॥
५२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु इस विरह-भाव में रात-दिन उन्मत्त प्रतीत होते थे। कभी वे हँसते और कभी विलाप करते; कभी नाचते और कभी अत्यन्त शोक में कीर्तन करते थे।"
ने काले करेन जगन्नाथ दरशन ।मने भावे, कुरुक्षेत्रे पाबाछि मिलन ॥
५३॥
ऐसे अवसरों पर श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथजी के मन्दिर जायाकरते। उस समय उनकी मनोदशा ठीक ठीक उन गोपियों जैसी होती, जिन्होंने दीर्घ विछोह के बाद कुरुक्षेत्र में कृष्ण के दर्शन किये थे। कृष्ण अपने भाई तथा बहन के साथ कुरुक्षेत्र आये हुए थे।"
रथ-यात्राय आगे प्रबे करेन नर्तन ।।ताहाँ एइ पद मात्र करये गायन ॥
५४॥
रथयात्रा के समय जब चैतन्य महाप्रभु रथ के आगे नृत्य करते थे, तो वे सदैव निम्नलिखित दो पंक्तियाँ गाते थे।"
सेइत पराण-नाथ पाइनु ।ग्राहा लागी' मदन-दहने झुरि गेनु ॥
५५॥
मैंने अपने प्राणों के उन स्वामी को पा लिया है, जिनके लिए मैं कामाग्नि में जल रहा था।"
एइ धुया-गाने नाचेन द्वितीय प्रहर । कृष्ण ला व्रजे ग्राई–ए-भाव अन्तरं ॥
५६ ।। श्री चैतन्य महाप्रभु इस गीत ( सेहत पराणनाथ) को दिन के दूसरे पहर में विशेष रूप से गाते और सोचा करते, मैं कृष्ण को लेकर वृन्दावन लौट जाऊँ। यह भाव सदैव उनके हृदय में उठता रहता था।"
एइ भावे नृत्य-मध्ये पड़े एक श्लोक ।। सेइ श्लोकेर अर्थ केह नाहि बुझे लोक ॥
५७।। उस भावावेश में श्री चैतन्य महाप्रभु भगवान जगन्नाथ के समक्ष नृत्य करते समय एक श्लोक गाया करते थे, जिसका अर्थ लगभग कोई भी नहीं समझ पाता था।"
ग्रः कौमार-हरः स एव हि वरस्ता एव चैत्र-क्षपास् । . ते चोन्मीलित-मालती-सुरभयः प्रौढ़ाः कदम्बानिलाः ।। सा चैवास्मि तथापि तत्र सुरत-व्यापार-लीला-विधौ ।रेवी-रोधसि वेतसी-तरु-तले चेतः समुत्कण्ठते ॥
५८॥
। जिस व्यक्ति ने मेरी युवावस्था में मेरा हृदय चुरा लिया था, वही अब पुनः मेरा स्वामी है। ये चैत्र-मास की वही चाँदनी रातें हैं, वही मालती फूलों की सुगन्ध है और वही मधुर वायु कदम्ब वन से आ रही है। अपने घनिष्ठ सम्बन्ध में मैं भी वही प्रेमिका हूँ, किन्तु फिर भी मेरा मन यहाँ सुखी नहीं है। मैं रेवा नदी के तट पर वेतसी वृक्ष के नीचे उसी स्थान पर फिर से जाने के लिए लालायित हूँ। यही मेरी इच्छा है।
एइ श्लोकेर अर्थ जाने एकले स्वरूप ।।दैवे से वत्सर ताहाँ गियाछेन रूप ॥
५९॥
यह श्लोक एक सामान्य भौतिक युवक तथा युवती की लालसा के समान लगता है, किन्तु इसका वास्तविक गहन अर्थ एकमात्र स्वरूप दामोदर को ज्ञात था। संयोगवश रूप गोस्वामी भी एक वर्ष वहाँ उपस्थित थे।
प्रभु-मुखे श्लोक शुनि' श्री-रूप-गोसाजि ।सेइ श्लोकेर अर्थ-श्लोक करिला तथाइ ॥
६०॥
यद्यपि इस श्लोक का अर्थ केवल स्वरूप दामोदर को ज्ञात था, किन्तु रूप गोस्वामी ने श्री चैतन्य महाप्रभु से इसे सुनकर तुरन्त एक अन्य श्लोक की रचना कर डाली, जिसमें मूल श्लोक का अर्थ दिया गया था।"
श्लोक करि' एक ताल-पत्रेते लिखिया । आपन वासार चाले राखिल गुञ्जिया ॥
६१॥
। इस श्लोक की रचना करके रूप गोस्वामी ने इसे एक ताड़ के पत्ते पर लिख दिया और जिस कुटिया में वे रह रहे थे उसकी छत पर रख दिया।"
श्लोक राखि' गेला समुद्र-स्नान करिते ।। हेन-काले आइला प्रभु ताँहारे मिलिते ॥
६२॥
इस श्लोक की रचना करके इसे अपने घर की छत पर रखने के बाद श्रील रूप गोस्वामी समुद्र में स्नान करने चले गये। इसी बीच श्री चैतन्य महाप्रभु उनसे मिलने उनकी कुटिया में आये।"
हरिदास ठाकुर और रूप-सनातन ।। जगन्नाथ-मन्दिरे ना मान तिन जन ।। ६३ ।। विरोध की स्थिति से बचने के लिए श्रील हरिदास ठाकुर, श्रील रूप गोस्वामी तथा श्रील सनातन गोस्वामी-ये तीनों महान् भक्त जगन्नाथ मन्दिर में प्रवेश नहीं करते थे।"
महाप्रभु जगन्नाथेर उपल-भोग देखियो । निज-गृहे यान एइ तिनेरे मिलिया ।। ६४ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु नित्यप्रति जगन्नाथ मन्दिर में उपलभोग उत्सव देखते थे और उसके बाद वे अपने निवासस्थान लौटते समय इन तीनों महापुरुषों से भेंट किया करते थे।"
एइ तिन मध्ये ग्नबे थाके येइ जन ।।ताँरै आसि' आपने मिले,-प्रभुर नियम ॥
६५॥
। यदि इन तीनों में से कोई एक उपस्थित नहीं होता था, तो वे शेष जनों से मिलते थे। यह उनका दैनिक नियम था।"
दैवे आसि' प्रभु ग्रबे ऊर्ध्वते चाहिला ।। चाले गोंजा ताल-पत्रे सेइ श्लोक पाइला ॥
६६॥
। जब श्री चैतन्य महाप्रभु श्रील रूप गोस्वामी के आवास में गये, तो संयोगवश उन्होंने छत पर रखा ताड़-पत्र देख लिया और उन्होंने उनके द्वारा रचित उस श्लोक को पढ़ा।"
श्लोक पडि' आछे प्रभू आविष्ट हइया ।।रूप-गोसाजि आसि' पड़े दण्डवत् हा ॥
६७॥
। इस श्लोक को पढ़कर श्री चैतन्य महाप्रभु को भावावेश हो आया। जब वे इस दशा में थे, तो श्रील रूप गोस्वामी आ गये और वे तुरन्त ही भूमि पर दण्डवत् गिर पड़े।"
उठि' महाप्रभु ताँरै चापड़ मारिया । कहिते लागिला किछु कोलेते करिया ॥
६८॥
जब श्रील रूप गोस्वामी डंडे के समान गिर पड़े, तो श्री चैतन्य महाप्रभु उठे और उन्हें एक चपत लगाई। फिर उन्हें अपनी गोद में लेकर उनसे इस प्रकार कहा : मोर श्लोकेर अभिप्राय ना जाने कोन जने । मोर मनेर कथा तुमि जानिले केमने? ॥
६९॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, मेरे श्लोक का तात्पर्य कोई नहीं जानता। तुम मेरे मन के भाव को कैसे समझ गये?" एत बलि' तारे बहु प्रसाद करिया ।।स्वरूप-गोसाजिरे श्लोक देखाइल लञा ॥
७० ॥
यह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने श्रील रूप गोस्वामी को अनेकआशीर्वाद दिये और उस श्लोक को ले जाकर बाद में स्वरूप गोस्वामी को दिखलाया।"
स्वरूपे पुछेन प्रभु हइया विस्मिते ।। मोर मनेर कथा रूप जानिल केमते ॥
७१॥
स्वरूप दामोदर को अत्यन्त आश्चर्य के साथ वह श्लोक दिखाते हुए चैतन्य महाप्रभु ने उनसे पूछा कि रूप गोस्वामी किस तरह उनके मन के भाव को समझ सके।"
स्वरूप कहे,----य़ाते जानिल तोमार मन ।। ताते जानि, हय तोमार कृपार भाजन ॥
७२॥
श्रीले स्वरूप दामोदर गोस्वामी ने श्री चैतन्य महाप्रभु से कहा, यदि रूप गोस्वामी आपके मन तथा भावों को जान सकते हैं, तो अवश्य ही । उन्हें आपको विशेष आशीर्वाद प्राप्त हुआ होगा।"
प्रभु कहे,—तारे आमि सन्तुष्ट हा । आलिङ्गन कैलु सर्व-शक्ति सञ्चारिया ॥
७३॥
महाप्रभु ने कहा, मैं रूप गोस्वामी से इतना प्रसन्न था कि मैंने उसका आलिंगन कर लिया और उसे भक्ति की विधि का प्रचार करने के लिए। सारी आवश्यक शक्तियाँ प्रदान कर दीं।
ग्रोग्य पात्र हय गूढ़-रस-विवेचने ।तुमिओ कहिओ तारे गूढ़-रसाख्याने ॥
७४॥
। मैं श्रील रूप गोस्वामी को भक्ति के गुह्य रस को समझने के लिए सर्वथा योग्य समझता हूँ और संस्तुति करता हूँ कि तुम उसे भक्ति के विषय में और आगे बतलाओ।"
ए-सब कहिब आगे विस्तार करिजा । संक्षेपे उद्देश कैल प्रस्ताव पाइञा ॥
७५ ॥
। मैं इन सब घटनाओं के बारे में बाद में विस्तार से बतलाऊँगा। यहाँ पर मैंने केवल संक्षिप्त वर्णन किया है।"
प्रियः सोऽयं कृष्णः सहचरि कुरुक्षेत्र-मिलितस्तथाहं सो राधा तदिदमुभयोः सङ्गम-सुखम् ।। तथाप्यन्तः-खेलन्मधुर-मुरली-पञ्चम-जुषेमनो मे कालिन्दी-पुलिन-विपिनाय स्पृहयति ॥
७६ ॥
[ यह श्रीमती राधारानी द्वारा कहा गया श्लोक है।हे प्रिय सखी, अब मैं इस कुरुक्षेत्र में अपने अत्यन्त पुराने और प्रिय मित्र कृष्ण से मिली हूँ। मैं वही राधारानी हूँ और अब हम मिल रहे हैं। यह अत्यन्त सुखद है, किन्तु अब भी मेरा मन यमुना-तट पर वहाँ के वन के वृक्षों के नीचे बैठने के लिए लालायित है। मैं वृन्दावन के वन के भीतर पंचम स्वर में गूंजने वाली उनकी मधुर मुरली की ध्वनि सुनने की इच्छुक हूँ।"
एइ श्लोकेर संक्षेपार्थ शुन, भक्त-गण ।। जगन्नाथ देखि' त्रैछे प्रभुर भावने ॥
७७॥
। अब हे भक्तों, इस श्लोक की संक्षिप्त व्याख्या सुनो। श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ के विग्रह का दर्शन करते हुए इस प्रकार सोचते थे।"
श्री-राधिका कुरुक्षेत्रे कृष्णेर दरशन ।। यद्यपि पायेन, तबु भावेन ऐछन ।। ७८ ॥
वे उन श्रीमती राधारानी के विषय में सोच रहे थे, जो कृष्ण से कुरुक्षेत्र में मिली थीं। यद्यपि वे कृष्ण से वहाँ मिल चुकी थीं, किन्तु फिर भी वे उनके विषय में इस प्रकार सोच रही थीं।"
राज-वेश, हाती, घोड़ा, मनुष्य गहन । काहाँ गोप-वेश, काहाँ निर्जन वृन्दावन ॥
७९ ॥
वे कृष्ण को वृन्दावन के शान्त वातावरण में गोपवेश धारण किये हुए सोच रही थीं। किन्तु कुरुक्षेत्र में तो वे राजसी वेश में थे और उनके साथ हाथी, घोड़े तथा लोगों का समूह था। इस प्रकार वहाँ का वातावरण उनके मिलन के लिए अनुकूल नहीं था।"
सेइ भाव, सेइ कृष्ण, सेई वृन्दावन ।। ग्रबे पाइ, तबे हय वाञ्छित पूरण ॥
८०॥
इस प्रकार कृष्ण से मिलकर और वृन्दावन के वातावरण के विषय में सोचकर राधारानी ने मन ही मन चाहा कि वे मुझे पुन: वृन्दावन ले जाकर उस शान्त वातावरण में मेरी इच्छा पूरी करें।"
आहुश्च ते नलिन-नाभ पदारविन्दंयोगेश्वरैर्हदि विचिन्त्यमगाध-बोधैः ।।संसार-कूप-पतितोत्तरणावलम्बगेहं जुषामपि मनस्युदियात्सदा नः ॥
८१॥
गोपियाँ इस प्रकार बोलीं : हे कमल-पुष्प जैसी नाभि वाले प्रभु! आपके चरणकमल इस भौतिक अस्तित्वरूपी गहरे कुएँ में गिरे हुए व्यक्तियों के लिए एकमात्र आश्रय हैं। आपके चरणों की पूजा एवं ध्यान बड़े-बड़े योगियों और विद्वान दार्शनिकों द्वारा किया जाता है। हमारी मनोकामना है कि ये चरणकमल हमारे हृदयों के भीतर भी उदित हों, यद्यपि हम घर के कार्यकलापों में लगी हुईं साधारण स्त्रियाँ हैं।
तोमार चरण मोर व्रज-पुर-घरे ।उदय करये ग्रदि, तबे वाञ्छा पूरे ॥
८२॥
गोपियों ने सोचा, हे प्रभु! यदि आपके चरणकमलों को हमारे वृन्दावन स्थित घरों में फिर पदार्पण हो, तो हमारी मनोकामनाएँ पूरी हो जायेंगी।"
भागवतेर श्लोक-गूढार्थ विशद करिजा ।रूप-गोसाजि श्लोक कैल लोक बुझाइञा ॥
८३॥
। श्रील रूप गोस्वामी ने साधारण जनों को समझाने के लिए श्रीमद्भागवत के श्लोक के गुह्य अर्थ को एक श्लोक में बतलाया है।"
ग्रा ते लीला-रस-परिमलोद्गारि-वन्यापरीता ।धन्या क्षौणी विलसति वृता माथुरी माधुरीभिः ।। तत्रास्माभिश्चटुल-पशुपी-भाव-मुग्धान्तराभिः ।संवीतस्त्वं कलय वदनोल्लासि-वेणुर्विहारम् ॥
८४॥
गोपियों ने आगे कहा-हे कृष्ण! आपके लीला-रसों की सुगन्धि मथुरा जनपद की माधुरी से घिरे हुए वृन्दावन की धन्य भूमि के वनों में व्याप्त है। इस अद्भुत भूमि के अनुकूल वातावरण में अपने अधरों पर थिरकने वाली बाँसुरी से तथा हम गोपियों के मध्य, जिनके हृदय अकथनीय आह्लादपूर्ण भावों से सदैव मोहित रहते हैं, आप अपनी लीलाओं का आनन्द लूट सकते हैं।"
एइ-मत महाप्रभु देखि जगन्नाथे ।सुभद्रा-सहित देखे, वंशी नाहि हाते ॥
८५॥
इस तरह जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने जगन्नाथ का दर्शन किया, तो । उन्होंने देखा कि वे अपनी बहन सुभद्रा के साथ थे और उनके हाथ में वंशी नहीं थी।"
त्रिभङ्ग-सुन्दर व्रजे व्रजेन्द्र-नन्दन ।।काहाँ पाब, एइ वाञ्छा बाड़े अनुक्षण ॥
८६॥
गोपियों के हर्षोन्माद भाव में मग्न श्री चैतन्य महाप्रभु भगवान् जगन्नाथ को अपने आदि स्वरूप, वृन्दावन में त्रिभंगी शरीर के कारण अत्यन्त सुन्दर लगने वाले नन्दनन्दन कृष्ण-रूप में देखना चाहते थे। इस रूप का दर्शन करने की उनकी इच्छा निरन्तर बढ़ती जा रही थी।
राधिका-उन्माद ग्रैछे उद्धव-दर्शने ।।उद्भूर्णा-प्रलाप तैछे प्रभुर रात्रि-दिने ॥
८७॥
। जिस प्रकार श्रीमती राधारानी ने उद्धव की उपस्थिति में एक भौंरे से असंगत रूप में प्रलाप किया था, उसी तरह श्री चैतन्य महाप्रभु भावावेश में उन्मत्त की तरह रात-दिन असंगत बातें करते थे।
द्वादश वत्सर शेष ऐछे गोडाइल ।।एइ मत शेष-लीला त्रि-विधाने कैल ॥
८८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के अन्तिम बारह वर्ष इसी दिव्य उन्माद में बीते। इस तरह उन्होंने अपनी अन्त्य लीलाएँ तीन प्रकार से सम्पन्न कीं।
सन्यास करि' चब्बिश वत्सर कैला ने ये कर्म ।अनन्त, अपार-----तार के जानिबे मर्म ॥
८९॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने संन्यास ग्रहण करने के बाद चौबीस वर्षों तक जो-जो लीलाएँ कीं, वे असंख्य तथा अपार थीं। ऐसी लीलाओं का मर्म भला कौन समझ सकता है? उद्देश करिते करि दिग्दरशन ।।मुख्य मुख्य लीलार करि सूत्र गणन ॥
९०॥
उन लीलाओं का संकेत करने के उद्देश्य से मैं मुख्य-मुख्य लीलाओं को सूत्र रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ।
प्रथम सूत्र प्रभुर सन्यास-करण ।। सन्यास करि' चलिला प्रभु श्री-वृन्दावन ॥
९१॥
पहला सूत्र यह है : संन्यास ग्रहण करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन की ओर चल पड़े।
प्रेमेते विह्वल बाह्य नाहिक स्मरण । राढ़-देशे तिन दिन करिला भ्रमण ॥
९२॥
। जब श्री चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन की ओर जा रहे थे, तो वे कृष्णप्रेम में विह्वल हो गये और उनकी बाहरी जगत् की सारी सुध-बुध जाती रही। इस तरह उन्होंने तीन दिनों तक उस राढ़देश में भ्रमण किया, जो ऐसा प्रदेश है, जिसमें गंगा नदी नहीं बहती।।
नित्यानन्द प्रभु महाप्रभु भुलाइयो । गङ्गा-तीरे लजा आइला 'यमुना' बलिया ॥
९३ ॥
। सर्वप्रथम नित्यानन्द प्रभु ने श्री चैतन्य महाप्रभु को गंगा के किनारेकिनारे ले जाते समय यह कहकर भ्रमित कर दिया कि यह यमुना नदी है।
शान्तिपुरे आचार गृहे आगमन ।।प्रथम भिक्षा कैल ताहाँ, रात्रे सङ्कीर्तन ॥
९४॥
तीन दिन बाद श्री चैतन्य महाप्रभु शान्तिपुर में अद्वैत आचार्य के घर आये और वहाँ उन्होंने भिक्षा ग्रहण की। यह उनके द्वारा प्रथम भिक्षा-ग्रहण था। उस रात उन्होंने वहाँ सामूहिक कीर्तन किया।
माता भक्त-गणेर ताहाँ करिल मिलन ।सर्व समाधान करि' कैल नीलाद्रि-गमन ॥
९५॥
अद्वैत प्रभु के घर में वे अपनी माता से तथा मायापुर के सारे भक्तों से मिले। वहाँ पर सबका समाधान करने के बाद वे जगन्नाथ पुरी चले गये।
पथे नाना लीला-रस, देव-दरशन । माधव-पुरीर कथा, गोपाल-स्थापन ॥
९६ ॥
जगन्नाथ पुरी के मार्ग में श्री चैतन्य महाप्रभु ने अन्य अनेक लीलाएँ कीं। उन्होंने विविध मन्दिरों की मुलाकात ली और गोपाल की स्थापना एवं माधवेन्द्र पुरी की कथा सुनी।।
क्षीर-चुरि-कथा, साक्षि-गोपाल-विवरण ।नित्यानन्द कैल प्रभुर दण्ड-भञ्जन ॥
९७॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने नित्यानन्द प्रभु से क्षीर-चुरी गोपीनाथ एवं साक्षीगोपाल की कथाएँ सुनीं। इसके बाद नित्यानन्द प्रभु ने श्री चैतन्य महाप्रभु का संन्यास-दण्ड तोड़ दिया।
क्रुद्ध हा एका गेला जगन्नाथ देखिते ।। देखिया मूर्च्छित हा पड़िला भूमिते ॥
९८ ॥
इसके बाद जब नित्यानन्द प्रभु ने उनका संन्यास-दण्ड तोड़ डाला, तो श्री चैतन्य महाप्रभु बाह्य रूप से अत्यधिक क्रुद्ध हुए और वे उनका साथ छोड़कर अकेले ही जगन्नाथ मन्दिर की यात्रा के लिए चल पड़े। जब श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ-मन्दिर के भीतर प्रविष्ट हुए और उन्होंने भगवान् जगन्नाथ का दर्शन किया, तो वे तुरन्त अचेत होकर भूमि पर गिर पड़े।
सार्वभौम लञा गेला आपन-भवन ।।तृतीय प्रहरे प्रभुर हइल चेतन ॥
९९ ॥
जब मन्दिर में श्री चैतन्य महाप्रभु भगवान् जगन्नाथ के दर्शन करने के बाद अचेत होकर गिर पड़े, तो सार्वभौम भट्टाचार्य उन्हें अपने घर ले गये। महाप्रभु दोपहर के बाद तक अचेत रहे। तब अन्त में उन्हें चेतना आई।
नित्यानन्द, जगदानन्द, दामोदर, मुकुन्द ।। पाछे आसि' मिलि' सबे पाइल आनन्द ॥
१०० ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु नित्यानन्द का साथ छोड़कर अकेले जगन्नाथ मन्दिर गये थे, किन्तु बाद में नित्यानन्द, जगदानन्द, दामोदर तथा मुकुन्द उन्हें मिलने के लिए आये और उन्हें देखकर वे सभी अत्यन्त प्रसन्न हुए।
तबे सार्वभौमे प्रभु प्रसाद करिल ।। आपने-ईश्वर-मूर्ति ताँरे देखाइल ॥
१०१।। । इस घटना के बाद भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु ने सार्वभौम भट्टाचार्य को अपना आदि-भगवान् रूप दिखलाकर उन पर कृपा की।
तबे त' करिला प्रभु दक्षिण गमन ।। कूर्म-क्षेत्रे कैल वासुदेव विमोचन ॥
१०२॥
सार्वभौम भट्टाचार्य पर कृपादृष्टि करने के बाद महाप्रभु दक्षिण भारत के लिए चल पड़े। जब वे कूर्मक्षेत्र आये, तो वहाँ उन्होंने वासुदेव नामक व्यक्ति का उद्धार किया।
जियड़-नृसिंहे कैल नृसिंह-स्तवन । पथे-पथे ग्रामे-ग्रामे नाम-प्रवर्तन ॥
१०३॥
कूर्मक्षेत्र की यात्रा करने के बाद महाप्रभु दक्षिण भारत में जियड़ नृसिंह के मन्दिर गये और वहाँ भगवान् नृसिंह देव की स्तुति की। रास्ते में उन्होंने प्रत्येक गाँव में हरे कृष्ण महामंत्र के कीर्तन का शुभारम्भ किया।
गोदावरी-तीर-वने वृन्दावन-भ्रम । रामानन्द राय सह ताहाञि मिलन ॥
१०४॥
एक बार महाप्रभु ने गोदावरी नदी के तट पर स्थित एक वन को वृन्दावन समझ लिया। वहाँ उनकी भेंट रामानन्द राय से हुई।
त्रिमल्ल-त्रिपदी-स्थान कैले दरशन ।। सर्वत्र करिल कृष्ण-नाम प्रचारण ॥
१०५ ॥
उन्होंने तिरुमल तथा तिरुपति नामक स्थानों की यात्रा की और वहाँ उन्होंने भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन का सर्वत्र प्रचार किया।
तबे त' पाषण्डि-गणे करिल दलन ।। अहोवल-नृसिंहादि कैल दरशन ॥
१०६ ।। तिरुमल तथा तिरुपति मन्दिर के दर्शन के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु को कुछ नास्तिकों का दमन करना पड़ा। इसके बाद उन्होंने अहोवलनृसिंह मन्दिर में दर्शन किया।
श्री-रङ्ग-क्षेत्र आइला कावेरीर तीर । श्री-रङ्ग देखिया प्रेमे हुइला अस्थिर ॥
१०७॥
। जब श्री चैतन्य महाप्रभु कावेरी के तट पर स्थित श्रीरंग क्षेत्र में आये, तो उन्होंने श्री रंगनाथ मन्दिर में दर्शन किये और वहाँ पर वे भगवत्प्रेम के आनन्द में विह्वल हो गये।
त्रिमल्ल भट्टर घरे कैल प्रभु वास । ताहाञि रहिला प्रभु वर्षा चारि मास ॥
१०८॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु वर्षा ऋतु के चार महीने त्रिमल्ल भट्ट के घर में रहे।
श्री-वैष्णव त्रिमल्ल-भट्ट- परम पण्डित ।। गोसाजिर पाण्डित्य-प्रेमे हइला विस्मित ॥
१०९॥
श्री त्रिमल्ल भट्ट श्री-वैष्णव संप्रदाय का सदस्य होने के साथ ही प्रकाण्ड विद्वान भी थे; अतएव जब उन्होंने परम विद्वान एवं महान् भक्त श्री चैतन्य महाप्रभु को देखे, तो वे अत्यन्त विस्मित हुए।
चातुर्मास्य ताँहा प्रभु श्री-वैष्णवेर सने ।। गोङगइल नृत्य-गीत-कृष्ण-सङ्कीर्तने ॥
११०॥
भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु ने श्री-वैष्णवों के साथ नृत्य, गान तथा कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए चातुर्मास व्यतीत किये।
चातुर्मास्य-अन्ते पुनः दक्षिण गमन ।। परमानन्द-पुरी सह ताहाञि मिलन ॥
१११॥
। चातुर्मास के समाप्त होने पर श्री चैतन्य महाप्रभु सारे दक्षिण भारत में भ्रमण करते रहे। तभी उनकी भेंट परमानन्द पुरी से हुई।
तबे भट्टथारि हैते कृष्ण-दासेर उद्धार ।।राम-जपी विप्र-मुखे कृष्ण-नाम प्रचार ॥
११२॥
। इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने भट्टथारि के चंगुल से अपने सेवक कृष्णदास को बचाया। इसके बाद उन्होंने शिक्षा दी कि भगवान् कृष्ण के नाम का कीर्तन उन ब्राह्मणों को भी करना चाहिए, जो भगवान् राम के नाम का कीर्तन करने के अभ्यस्त हैं।
श्री-रङ्ग-पुरी सह ताहाजि मिलन ।रामदास विप्रेर कैले दुःख-विमोचन ॥
११३॥
। तत्पश्चात् श्री चैतन्य महाप्रभु श्री रंग पुरी से मिले और उन्होंने रामदास नामक एक ब्राह्मण के सारे दुःखों को दूर किया।
तत्त्व-वादी सह कैल तत्त्वेर विचार ।।आपनाके हीन-बुद्धि हैल ताँ-सबार ॥
११४ ।। श्री चैतन्य महाप्रभु ने तत्त्ववादी सम्प्रदाय से भी विचार-विमर्श किया और उन तत्त्ववादियों ने अपने आपको निम्न वैष्णव अनुभव किया।
अनन्त, पुरुषोत्तम, श्री-जनार्दन ।।पद्मनाभ, वासुदेव कैल दरशन ॥
११५॥
इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने अनन्तदेव, पुरुषोत्तम, श्री जनार्दन, पद्मनाभ तथा वासुदेव के विष्णु-मन्दिरों में दर्शन किया।
तबे प्रभु कैल सप्त-ताल विमोचन ।सेतु-बन्धे स्नान, रामेश्वर दरशन ॥
११६॥
इसके बाद भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु ने विख्यात सप्तताल वृक्षों का उद्धार किया, सेतुबन्ध रामेश्वर में स्नान किया और शिवजी अर्थात् रामेश्वर के मन्दिर में दर्शन किया।
ताहाञि करिल कूर्म-पुराण श्रवण ।। माया-सीता निलेक रावण, ताहाते लिखन ॥
११७॥
। रामेश्वर में श्री चैतन्य महाप्रभु को कूर्म पुराणपढ़ने का अवसर मिला, जिससे उन्हें यह पता चला कि रावण ने जिस सीता का अपहरण किया था वह वास्तविक सीता न थीं, अपितु उनकी छाया-मात्र थीं।
शुनिया प्रभुर आनन्दित हैल मन ।। रामदास विप्रेर कथा हुइल स्मरण ॥
११८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु माया-सीता के विषय में पढ़कर अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्हें रामदास विप्र से अपनी भेंट का स्मरण हो आया, जो अत्यन्त दुःखी था कि रावण ने सीता माता का अपहरण किया था।
सेइ पुरातन पत्र आग्रह करि' निल ।।रामदासे देखाइया दुःख खण्डाइल ॥
११९ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कूर्म पुराण की उस अत्यन्त प्राचीन पुस्तक से यह पन्ना उत्सुकता के कारण फाड़ लिया और बाद में इसे रामदास विप्र को दिखलाया, जिसे देखकर उसका दुःख दूर हुआ।
ब्रह्म-संहिता, कर्णामृत, दुइ पुँथि पाञा ।।दुड़ पुस्तक लञा आइला उत्तम जानिळा ॥
१२०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु को दो ग्रन्थ और भी मिले-ब्रह्म-संहिता तथा कृष्णकर्णामृत । इन ग्रन्थों को श्रेष्ठ मानते हुए वे उन्हें अपने भक्तों को भेंट करने के लिए ले आये।
पुनरपि नीलाचले गमन करिल ।। भक्त-गणे मेलिया स्नान-यात्रा देखिल ॥
१२१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु इन पुस्तकों को लेकर जगन्नाथ पुरी लौट आये। उस समय जगन्नाथजी का स्नान-उत्सव मनाया जा रहा था, जिसे उन्होंने देखा।
अनवसरे जगन्नाथेर ना पाजा दरशन ।। विरहे आलालनाथ करिला गमन ॥
१२२॥
जब जगन्नाथजी मन्दिर में नहीं थे, तब श्री चैतन्य महाप्रभु उनका दर्शन नहीं कर सके। फलतः उनके विरह में वे जगन्नाथ पुरी छोड़कर आलालनाथ नामक स्थान पर चले गये।
भक्त-सने दिन कत ताहाजि रहिली ।।गौड़ेर भक्त आइसे, समाचार पाइला ।। १२३॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु कुछ दिनों तक आलालनाथ रहे। तभी उन्हें यह समाचार मिला कि बंगाल से सारे भक्तगण जगन्नाथ पुरी आ रहे हैं।
नित्यानन्द-सार्वभौम आग्रह करिजा ।।नीलाचले आइला महाप्रभुके लइञा ॥
१२४॥
जब बंगाल के भक्तगण जगन्नाथ पुरी आ गये, तो नित्यानन्द प्रभु तथा सार्वभौम भट्टाचार्य काफी प्रयास से श्री चैतन्य महाप्रभु को जगन्नाथ पुरी वापस ले आये।।
विरहे विह्वल प्रभु ना जाने रात्रि-दिने ।हेन-काले आइला गौड़ेर भक्त-गणे ॥
१२५॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु अन्ततः आलालनाथ छोड़कर जगन्नाथ पुरी लौटे, तो वे जगन्नाथ के विरह में रात-दिन भावविभोर रहने लगे। उनके शोक की कोई सीमा न थी। इस समय बंगाल के विभिन्न भागों के और विशेष रूप से नवद्वीप के सारे भक्त जगन्नाथ पुरी पहुँचे।
सबे मिलि' युक्ति करि कीर्तन आरम्भिल । कीर्तन-आवेशे प्रभुर मन स्थिर हैल ॥
१२६॥
परस्पर विचार-विमर्श के बाद सभी भक्तों ने सामूहिक कीर्तन प्रारम्भ किया। इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु का मन कीर्तन के आह्लाद से शान्त हुआ।
पूर्वे ग्रबे प्रभु रामानन्देरे मिलिला ।।नीलाचले आसिबारे ताँरै आज्ञा दिला ॥
१२७॥
इसके पूर्व जब श्री चैतन्य महाप्रभु दक्षिण भारत का भ्रमण कर रहे थे, तब गोदावरी नदी के तट पर उनकी भेंट रामानन्द राय से हुई थी। उस समय यह तय हुआ था कि रामानन्द राय अपने राज्यपाल के पद से त्यागपत्र दे देंगे और जगन्नाथ पुरी आयेंगे और श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ रहेंगे।
राज-आज्ञा लञा तेहो आइला कत दिने । रात्रि-दिने कृष्ण-कथा रामानन्द-सने ॥
१२८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के आदेश पर श्री रामानन्द राय ने राजा से छुट्टी । माँगी और जगन्नाथ पुरी आ गये। उनके वहाँ आने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने उनके साथ दिन-रात कृष्ण तथा उनकी लीलाओं के विषय में बातें करते हुए प्रचुर आनन्द प्राप्त किया।
काशी-मिश्रे कृपा, प्रद्युम्न मिश्रादि-मिलन । परमानन्द-पुरी-गोविन्द-कोशीश्वरागमन ॥
१२९॥
। रामानन्द राय के आने के बाद, श्री चैतन्य महाप्रभु ने काशी मिश्र पर कृपा की और प्रद्युम्न मिश्र तथा अन्य भक्तों से भेंट की। उस समय तीन और भक्त परमानन्द पुरी, गोविन्द तथा काशीश्वर श्री चैतन्य महाप्रभु से मिलने जगन्नाथ पुरी आये।।
दामोदर-स्वरूप-मिलने परम आनन्द ।।शिखि-माहिति-मिलन, राय भवानन्द ॥
१३०॥
। अन्ततः स्वरूप दामोदर गोस्वामी से भेंट होने पर चैतन्य महाप्रभु अत्यन्त प्रसन्न हुए। इसके बाद शिखि माहिति तथा रामानन्द राय के पिता भवानन्द राय से उनकी भेंट हुई।
गौड़ हइते सर्व वैष्णवेर आगमन ।।कुलीन-ग्राम-वासि-सङ्गे प्रथम मिलन ॥
१३१॥
बंगाल के सारे भक्त क्रमशः जगन्नाथ पुरी पहुँचने लगे। उस समय कुलीन ग्राम के निवासी भी श्री चैतन्य महाप्रभु से भेंट करने पहली बार आये।
नरहरि दास आदि ग्रत खण्ड-वासी ।।शिवानन्द-सेन-सङ्गे मिलिला सबे आसि' ॥
१३२॥
अन्ततोगत्वा नरहरि दास तथा खण्ड के सारे निवासी शिवानन्द सेन सहित आये और श्री चैतन्य महाप्रभु उन सबसे मिले।
स्नान-यात्रा देखि' प्रभु सङ्गे भक्त-गण ।।सबा लञा कैला प्रभु गुण्डिचा मार्जन ॥
१३३॥
भगवान जगन्नाथ की स्नान यात्रा के दर्शन के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने अनेक भक्तों की सहायता से श्री गुण्डिचा मन्दिर को धोया और सफाई की।
सबा-सङ्गे रथ-यात्रा कैल दरशन ।।रथ-अग्रे नृत्य करि' उद्याने गमन ॥
१३४॥
इसके बाद समस्त भक्तों सहित श्री चैतन्य महाप्रभु ने रथयात्रा को दर्शन किया। चैतन्य महाप्रभु ने रथ के आगे स्वयं नृत्य किया और नृत्य के बाद एक बगीचे में गये।
प्रतापरुद्रेरे कृपा कैल सेइ स्थाने ।।गौड़ीया-भक्ते आज्ञा दिल विदायेर दिने ॥
१३५॥
। उस बगीचे में श्री चैतन्य महाप्रभु ने राजा प्रतापरुद्र पर कृपा की। इसके बाद जब बंगाल के भक्तगण अपने घरों को लौटने वाले थे, तो महाप्रभु ने लगभग सबों को अलग-अलग आदेश दिये।
प्रत्यब्द आसिबे रथ-यात्रा-दरशने ।एइ छले चाहे भक्त-गणेर मिलने ॥
१३६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु बंगाल के सारे भक्तों से प्रतिवर्ष मिलते रहना चाहते थे। अतएव महाप्रभु ने उन्हें आज्ञा दी कि वे प्रतिवर्ष रथयात्रा का दर्शन करने आया करें।
सार्वभौम-घरे प्रभुर भिक्षा-परिपाटी ।पाठीर माता कहे, ग्राते राण्डी हउक् षाठी ॥
१३७॥
सार्वभौम भट्टाचार्य के घर भोजन करने के लिए श्री चैतन्य महाप्रभु आमन्त्रित किये गये। जब महाप्रभु सुस्वादु भोजन कर रहे थे, तो सार्वभौम भट्टाचार्य के जामाता उनकी पुत्री पाठी के पति ) ने उनकी आलोचना की। इसके कारण पाठी की माता ने उसे शाप दे दिया कि षाठी विधवा हो जाये। दूसरे शब्दों में, उसने अपने जामाता को मर जाने का शाप दे डाला।
वर्षान्तरे अद्वैतादि भक्तेर आगमन ।।प्रभुरे देखिते सबे करिला गमन ॥
१३८॥
साल के अन्त में बंगाल के सारे भक्त अद्वैत आचार्य के साथ पुनः श्री चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करने आये। निस्सन्देह, जगन्नाथ पुरी जाने के लिए भक्तों की भारी भीड़ उमड़ रही थी।
आनन्दे सबारे निया देन वास-स्थान ।शिवानन्द सेन करे सबार पालन ॥
१३९॥
जब बंगाल के सारे भक्त आ गये, तो श्री चैतन्य महाप्रभु ने सबको रहने का स्थान दिया और शिवानन्द सेन को उनकी देखरेख का भार सौंप दिया।
शिवानन्देर सङ्गे आइला कुकुर भाग्यवान् ।प्रभुर चरण देखि' कैल अन्तर्धान ॥
१४०॥
। शिवानन्द सेन तथा भक्तों के साथ एक कुत्ता आया था, जो इतना भाग्यवान निकला कि श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों का दर्शन करने के बाद वह मुक्त हो गया और भगवधाम वापस चला गया।
पथे सार्वभौम सह सबार मिलन ।।सार्वभौम भट्टाचार काशीते गमन ॥
१४१॥
वाराणसी जा रहे सार्वभौम भट्टाचार्य से मार्ग में सभी लोग मिले।
प्रभुरे मिलिला सर्व वैष्णव आसिया ।। जल-क्रीड़ा कैल प्रभु सबारे लइयो । १४२॥
जगन्नाथ पुरी आकर सारे वैष्णव श्री चैतन्य महाप्रभु से मिले। बाद में सभी भक्तों को साथ लेकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने जलक्रीड़ा की।
सबा लञा कैल गुण्डिचा-गृह-सम्मार्जन ।। रथ-यात्रा-दरशने प्रभुर नर्तन ॥
१४३॥
सबसे पहले महाप्रभु ने गुण्डिचा-मन्दिर को बारीकी से धोया। उसके बाद सब भक्तों ने रथयात्रा उत्सव एवं रथ के आगे महाप्रभु के नृत्य का दर्शन किया।
उपवने कैल प्रभु विविध विलास । प्रभुर अभिषेक कैल विप्र कृष्णदास ॥
१४४॥
जगन्नाथ मन्दिर से गुण्डिचा के रास्ते में पड़ने वाले बगीचे में श्री चैतन्य महाप्रभु ने विविध लीलाएँ कीं। कृष्णदास नामक एक ब्राह्मण ने श्री चैतन्य महाप्रभु का अभिषेक किया।
गुण्डिचाते नृत्य-अन्ते कैल जल-केलि ।हेरा-पञ्चमीते देखिल लक्ष्मी देवीर केली ॥
१४५ ॥
गुण्डिचा-मन्दिर में नृत्य करने के बाद महाप्रभु ने भक्तों के साथ जलक्रीड़ा की और हेरापंचमी के दिन उन सबने लक्ष्मीदेवी के कार्यकलापों का दर्शन किया।
कृष्ण-जन्म-ग्रात्राते प्रभु गोप-वेश हैला ।।दधि-भार वहि' तबे लगुड़ फिराइला ॥
१४६॥
। कृष्ण के जन्मदिवस, जन्माष्टमी को, श्री चैतन्य महाप्रभु ने ग्वालबाल का वेश बनाकर दही के मटकों से युक्त एक बहँगी धारण की तथा एक लाठी को घुमाइ।
गौड़ेर भक्त-गणे तबे करिल विदाय ।। सङ्गेर भक्त लजा करे कीर्तन सदाय ॥
१४७॥
। इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने गौड़देश ( बंगाल ) से आये सारे भक्तों को विदा किया। महाप्रभु सदा साथ रहने वाले अपने अन्तरंग भक्तों के साथ सदैव कीर्तन करते रहे।
वृन्दावन ग्राइते कैल गौड़ेरे गमन । प्रतापरुद्र कैल पथे विविध सेवन ॥
१४८॥
वृन्दावन जाने के लिए, महाप्रभु पहले गौड़देश ( बंगाल) गये। रास्ते में राजा प्रतापरुद्र ने महाप्रभु को प्रसन्न करने के लिए अनेक प्रकार से सेवाएँ कीं।
पुरी-गोसाजि-सङ्गे वस्त्र-प्रदान-प्रसङ्ग ।।रामानन्द राय आइला भद्रक पर्यन्त ॥
१४९॥
बंगाल होकर वृन्दावन जाते समय एक घटना घटी, जिसमें पुरी गोसांई का वस्त्र उनसे बदल गया। श्री रामानन्द राय महाप्रभु के साथमाथ भद्रक नगर तक गये।
आसि' विद्या-वाचस्पतिर गृहेते रहिला ।।प्रभुरे देखिते लोक-सङ्घट्ट हइला ॥
१५०॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन जाते हुए विद्यानगर ( बंगाल) पहुँचे, तो वे सार्वभौम भट्टाचार्य के भाई विद्या वाचस्पति के घर पर रुके। जब महाप्रभु सहसा उनके घर पहुँचे, तो वहाँ लोगों की भारी भीड़ जमा हो गई।
पञ्च-दिन देखे लोक नाहिक विश्राम ।।लोक-भये रात्रे प्रभु आइला कुलिया-ग्राम ॥
१५१॥
लोग लगातार पाँच दिनों तक महाप्रभु का दर्शन करने आते रहे और उन्हें कोई विश्राम नहीं मिल रहा था। अतएव भीड़ के भय से महाप्रभु ने रात्रि में ही प्रस्थान कर दिया और वे कुलिया नामक ग्राम ( आज का नवद्वीप ) में चले गये।
कुलिया-ग्रामेते प्रभुर शुनिया आगमन ।। कोटि कोटि लोक आसि' कैल दरशन ॥
१५२॥
। कुलियाग्राम में महाप्रभु का आगमन सुनकर हजारों-लाखों लोग उनका दर्शन करने आये।।
कुलिया-ग्रामे कैल देवानन्देरे प्रसाद ।। गोपाल-विप्रेरे क्षमाइल श्रीवासापराध ॥
१५३ ॥
इस समय श्री चैतन्य महाप्रभु ने जो विशेष कार्य किये, उनमें देवानन्द पंडित पर कृपा करना तथा गोपाल चापल नामक ब्राह्मण, जिसने श्रीवास ठाकुर के चरणकमलों के प्रति अपराध किया था, उसको क्षमा प्रदान करना मुख्य हैं।
पाषण्डी निन्दक आसि' पड़िला चरणे ।। अपराध क्षमि' तारे दिल कृष्ण-प्रेमे ॥
१५४॥
अनेक नास्तिक तथा निन्दक भी आये और महाप्रभु के चरणकमलों में गिर पड़े। महाप्रभु ने उन्हें क्षमा की और उनको कृष्ण-प्रेम प्रदान किया।
वृन्दावन ग्राबेन प्रभु शुनि' नृसिंहानन्द ।।पथ साजाइल मने पाइया आनन्द ॥
१५५॥
। जब श्री नृसिंहानन्द ब्रह्मचारी ने सुना कि श्री चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन जायेंगे, तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुए और मन ही मन उस मार्ग को सजाने लगे।
कुलिया नगर हैते पथ रत्ने बान्धाइल ।।निवृन्त पुष्प-शय्या उपरे पतिल ॥
१५६॥
सर्वप्रथम नृसिंहानन्द ब्रह्मचारी ने कुलिया नगरी से शुरु होने वाली एक चौड़ी सड़क का चिन्तन किया। उन्होंने पुनः इस सड़क को रत्नों से सजाया और उसके ऊपर डंठल रहित फूलों की एक सेज बिछायी।
पथे दुइ दिके पुष्य-बकुलेर श्रेणी ।।मध्ये मध्ये दुइ-पाशे दिव्य पुष्करिणी ॥
१५७॥
। उन्होंने मन-ही-मन सड़क के दोनों किनारों को बकुल पुष्प के वृक्षों से सजाया और बीच-बीच में दोनों ओर दिव्य सरोवर निर्मित किये।
रत्न-बाँधा घाट, ताहे प्रफुल्ल कमल ।।नाना पक्षि-कोलाहल, सुधा-सम जल ॥
१५८॥
इन सरोवरों में स्नान करने के घाट रत्नों से बने थे, जिनमें कमल के फूल खिले थे। तरह-तरह के पक्षी चहक रहे थे और सरोवरों का जल अमृत के समान था।
शीतल समीर वहे नाना गन्ध लबा। ‘कानाइर नाटशाला' पर्यन्त लइल बान्धिञा ॥
१५९॥
पूरी सड़क में नाना प्रकार की शीतल हवा बह रही थी, जो विविध फूलों की सुगन्ध से लदी थी। वे इस सड़क को कानाइ नाटशाला तक बनाते हुए ले गये।
आगे मन नाहि चले, ना पारे बान्धिते । पथ-बान्धा ना याय, नृसिंह हैला विस्मिते ॥
१६०॥
नृसिंहानन्द ब्रह्मचारी अपने मन में कानाइ नाटशाला के आगे सड़क नहीं बना पाये। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि पूरी सड़क क्यों नहीं बन पा रही है, अतः वे चकित थे।
निश्चय करिया कहि, शुन, भक्त-गण ।। एबार ना झाबेन प्रभु श्री-वृन्दावन ॥
१६१॥
उसके बाद उन्होंने विश्वासपूर्वक भक्तों से बतलाया कि इस बार श्री चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन नहीं जायेंगे।
कानाजिर नाटशाला' हैते आसिब फिरिना ।। जानिबे पश्चात्, कहिले निश्चय करिञा ॥
१६२॥
नृसिंहानन्द ब्रह्मचारी ने कहा, महाप्रभु कानाइ नाटशाला तक जायेंगे और पुनः लौट आयेंगे। इसे तुम बाद में जानोगे, किन्तु मैं अभी बड़े ही विश्वास के साथ कह रहा हूँ।
गोसात्रि कुलिया हैते चलिला वृन्दावन ।। सङ्गे सहस्रेक लोक व्रत भक्त-गण ॥
१६३॥
। जब श्री चैतन्य महाप्रभु कुलिया से वृन्दावन की ओर चलने लगे, तो हजारों लोग उनके साथ थे और ये सारे भक्त थे।
ग्राहाँ ग्राय प्रभु, ताहाँ कोटि-संख्य लोक ।। देखिते आइसे, देखि' खण्डे दुःख-शोक ॥
१६४॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु जहाँ-जहाँ गये, वहीं असंख्य लोगों की भीड़ उनका दर्शन करने आई। दर्शन करने पर उनका सारा दुःख और शोक दूर हो गया ग्राहाँ ग्राहाँ प्रभुर चरण पड़ये चलिते ।।से मृत्तिका लय लोक, गर्त हय पथे ॥
१६५ ॥
जहाँ-जहाँ महाप्रभु के चरणकमल भूमि पर पड़ते थे, लोग तुरन्त आकर वहाँ की धूल ले लेते थे। उन लोगों ने इतनी धूल एकत्रित की कि इससे मार्ग में अनेक गड्ढे बन गये।
ऐछे चलि, आइला प्रभु 'रामकेलि' ग्राम । गौड़ेर निकट ग्राम अति अनुपाम ॥
१६६ ॥
अन्त में श्री चैतन्य महाप्रभु रामकेलि नामक गाँव में आये। यह गाँव बंगाल की सीमा पर स्थित है और अत्यन्त मनोहर है।
ताहाँ नृत्य करे प्रभु प्रेमे अचेतन ।। कोटि कोटि लोक आइसे देखते चरण ॥
१६७ ।। रामकेलि ग्राम में संकीर्तन करते समय महाप्रभु नृत्य करते और कभीकभी भगवत्-प्रेमवश अपनी चेतना खो देते थे। रामकेलि ग्राम में असंख्य लोग उनके चरणकमलों का दर्शन करने के लिए आये।
गौड़ेश्वर ग्नवन-राजा प्रभाव शुनिजा।। कहिते लागिल किछु विस्मित हुआ ॥
१६८॥
जब बंगाल के मुसलमान राजा ने सुना कि श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रभाव से असंख्य लोग आकृष्ट हो रहे हैं, तो वह अत्यन्त विस्मित हुआ और इस प्रकार कहने लगा।
काजी, वन इहार ना करिह हिंसन ।आपन-इच्छाय बुलुन, ग्राहाँ उँहार मन ॥
१७० ॥
। उस मुसलमान राजा ने अपने काजी ( मैजिस्ट्रेट) को आदेश दिया, इस हिन्दू ईश्वर के दूत को ईर्ष्यावश तंग मत करना। यह जहाँ भी जो कुछ चाहे उसे करने दिया जाये।
विना दाने एत लोक ग्राँर पाछे हुय ।। सेइ त' गोसाजा, इहा जानिह निश्चय ॥
१६९॥
बिना कुछ दान दिये ही जिस व्यक्ति का इतने लोग अनुसरण कर रहे हैं, वह निश्चय ही ईश्वर का दूत होगा। मैं निश्चित रूप से ऐसा समझता केशव-छत्रीरे राजा वार्ता पुछिल ।।प्रभुर महिमा छत्री उड़ाइया दिल ॥
१७१॥
जब मुसलमान राजा ने अपने सहायक केशव छत्री से श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रभाव के बारे में जानना चाहा, तो उसने महाप्रभु के बारे में सब कुछ जानते हुए भी बात टालने के लिए चैतन्य महाप्रभु के कार्यकलापों को कोई महत्त्व नहीं दिया।
भिखारी सन्यासी करे तीर्थ पर्यटन ।।ताँरै देखिबारे आइसे दुइ चारि जन ॥
१७२॥
केशव छत्री ने मुसलमान राजा को बतलाया कि चैतन्य महाप्रभु एक संन्यासी हैं, जो विभिन्न तीर्थस्थलों की यात्रा कर रहे हैं, अतएव कुछेक लोग ही उन्हें देखने आते हैं।
ग्रवने तोमार ठात्रि करये लागानि ।।ताँर हिंसाय लाभ नाहि, हय आर हानि ॥
१७३॥
केशव छत्री ने कहा, आपका मुसलमान सेवक ईष्यवश उनके विरुद्ध षड्यंत्र कर रहा है। मेरे विचार से उनमें अधिक रुचि लेना आपके लिए लाभप्रद नहीं होगा, प्रत्युत इससे नुकसान ही हो सकता है।
राजारे प्रबोधि' केशव ब्राह्मण पाठाजा ।। चलिबार तरे प्रभुरे पाठाइल कहि ॥
१७४॥
इस प्रकार राजा को समझा-बुझाकर केशव छत्री ने श्री चैतन्य महाप्रभु के पास इस प्रार्थना के साथ एक ब्राह्मण दूत भेजा कि वे शीघ्र ही वहाँ से चले जायें।
दबिर खासेरे राजा पुछिल निभृते ।। गोसाजिर महिमा तेहो लागिल कहते ॥
१७५ ॥
राजा ने एकान्त में दबिर खास ( श्रील रूप गोस्वामी ) से पूछताछ की, तो वे महाप्रभु की महिमाओं का वर्णन करने लगे।
ये तोमारे राज्य दिल, ये तोमार गोसाजा ।। तोमार देशे तोमार भाग्ये जन्मिला आसिजा ॥
१७६॥
श्रील रूप गोस्वामी ने कहा, जिस पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ने आपको यह राज्य दिया है और जिन्हें आप ईश्वर के दूत के रूप में स्वीकार करते हैं, उन्होंने आपके सौभाग्य से आपके देश में जन्म लिया है।
तोमार मङ्गल वाञ्छे, कार्य-सिद्धि हय ।। इहार आशीर्वादे तोमार सर्वत्र-इ जय ॥
१७७॥
यह ईश्वर के दूत सदैव आपके मंगल के आकांक्षी हैं। उन्हीं की कृपा से आपके सारे कार्य सफल होते हैं। उनके आशीर्वाद से आपकी सर्वत्र विजय होगी।
मोरे केन पुछ, तुमि पुछ आपने-मन ।। तुमि नराधिप हओ विष्णु-अंश सम ॥
१७८ ॥
आप मुझसे क्यों पूछ रहे हैं? आप अपने मन से क्यों नहीं पूछते? आप जनता के राजा होने के कारण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के प्रतिनिधि हैं। अतएव आप इसे मुझसे अधिक अच्छी तरह समझ सकते हैं।
तोमार चित्ते चैतन्येरे कैछे हय ज्ञान ।।तोमार चित्ते येइ लय, सेइ त' प्रमाण ॥
१७९॥
इस प्रकार श्रील रूप गोस्वामी ने राजा को बतलाया कि उसका मन श्री चैतन्य महाप्रभु को जानने का एक साधन है। उन्होंने राजा को विश्वास दिलाया कि उसके मन में जो भी आये उसे ही प्रमाण मानें।
राजा कहे, शुन, मोर मने येइ लय ।।साक्षातीश्वर इहँ नाहिक संशय ॥
१८० ॥
। राजा ने उत्तर दिया, मैं श्री चैतन्य महाप्रभु को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् मानता हूँ। इसमें कोई सन्देह नहीं है।
एत कहि' राजा गेला निज अभ्यन्तरे ।तबे दबिर खास आइला आपनार घरे ॥
१८१॥
रूप गोस्वामी के साथ इस बातचीत के बाद राजा अपने अन्तःपुर में चला गया। तब रूप गोस्वामी (जो उस समय दबिर खास कहलाते थे) भी अपने घर लौट गये।
घरे आसि' दुइ भाइ झुकति करिजा ।।प्रभु देखिबारे चले वेश लुकाञा ॥
१८२॥
अपने घर लौट आने के बाद दबिर खास तथा उनके भाई ने पर्याप्त विचार विमर्श के बाद महाप्रभु से वेष बदलकर मिलने का निर्णय किया।
अर्ध-रात्रे दुई भाइ आइला प्रभु-स्थाने ।।प्रथमे मिलिला नित्यानन्द-हरिदास सने ॥
१८३॥
इस प्रकार दबिर खास तथा साकर मल्लिक दोनों भाई आधी रात को वेश बदलकर श्री चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करने गये। सर्वप्रथम वे नित्यानन्द प्रभु तथा हरिदास ठाकुर से मिले।
ताँरा दुइ-जन जानाइला प्रभुर गोचरे ।।रूप, साकर-मल्लिक आइला तोमा' देखिबारे ॥
१८४॥
श्री नित्यानन्द प्रभु तथा हरिदास ठाकुर ने श्री चैतन्य महाप्रभु को बतलाया कि दो भक्त-श्री रूप तथा सनातन-उनका दर्शन करने के लिए आये हैं।
दुई गुच्छ तृण पँहे दशने धरिजा ।।गले वस्त्र बान्धि' पड़े दण्डवत् हा ॥
१८५॥
दोनों भाई अत्यन्त दीनतावश अपने दाँतों में तिनके दबाकर और अपने गले में कपड़ा बाँधकर महाप्रभु के सामने दण्ड के समान गिर पड़े।
दैन्य रोदन करे, आनन्दे विह्वल ।।प्रभु कहे,—उठ, उठ, हइल मङ्गल ॥
१८६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु को देखकर दोनों भाई आनन्द से अभिभूत हो गये और दीनतावश रोने लगे। महाप्रभु ने उनसे उठने के लिए कहा और उनके मंगल की कामना की।
उठि' दुइ भाइ तबे दन्ते तृण धरि' ।। दैन्य करि' स्तुति करे करयोड़ करि ॥
१८७॥
दोनों भाई उठ खड़े हुए और पुनः अपने दाँतों में तिनका दबाकर उन्होंने हाथ जोड़कर विनीत भाव से प्रार्थना की।
जय जय श्री कृष्ण-चैतन्य दयामय ।। पतित-पावन जय, जय महाशय ॥
१८८॥
पतितात्माओं का उद्धार करने वाले परम दयालु श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय हो! परम भगवान् की जय हो! नीचे-जाति, नीच-सङ्गी, करि नीच काज ।। तोमार अग्रेते प्रभु कहिते वासि लाज ॥
१८९॥
। हे प्रभु, हम नीच जाति के हैं और हमारे संगी तथा हमारी नौकरी भीनिम्न कोटि की है। अतएव हम आपके समक्ष अपना परिचय नहीं दे सकते। हमें यहाँ आपके समक्ष खड़े होने में अत्यधिक लज्जा का अनुभव हो रहा है।
मत्तुल्यो नास्ति पापात्मा नापराधी च कश्चन । परिहारेऽपि लज्जा मे किं ब्रुवे पुरुषोत्तम ॥
१९०॥
हे प्रभु, हम आपको बतला देना चाहते हैं कि न तो हम से बड़ा कोई पापी है, न ही हमारे समान कोई अपराधी है। यदि हम अपने पापकर्म बताना भी चाहें, तो हमें तुरन्त लज्जा आ जाती है। उन्हें छोड़ने की बात तो दूर रही।
पतित-पावन-हेतु तोमार अवतार । आमा-बइ जगते, पतित नाहि आर ॥
१९१॥
दोनों भाइयों ने निवेदन किया, हे प्रभु, आप पतितात्माओं का उद्धार करने के लिए अवतरित हुए हैं। आप ऐसा समझिये कि इस संसार में हम जैसा पतित कोई नहीं है।
जगाइ-माधाइ दुइ करिले उद्धार । ताहाँ उद्धारिते श्रम नहिल तोमार ॥
१९२॥
आपने जगाइ तथा माधाई दोनों भाइयों का उद्धार किया, किन्तु उनका उद्धार करने में आपको अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ा।
ब्राह्मण-जाति तारा, नवद्वीपे घर । नीच-सेवा नाहि करे, नहे नीचेर कूर्पर ॥
१९३ ॥
जगाइ तथा माधाइ में केवल एक दोष था-वे पापकर्मों में लिप्त रहते थे। किन्तु पापकर्मों का भण्डार आपके पवित्र नाम के कीर्तन के आभास मात्र से ही जलकर भस्म हो सकता है।
सबे एक दोष तार, हय पापाचार । पाप-राशि दहे नामाभासेइ तोमार ॥
१९४॥
जगाइ तथा माधाइ दोनों भाई ब्राह्मण जाति के थे और उनका निवास-स्थान नवद्वीप की पुण्यभूमि में था। उन्होंने न तो कभी नीच पुरुषों की सेवा की थी, न ही वे नीच कार्यों के साधन बने।
तोमार नाम लञा तोमार करिल निन्दन । सेइ नाम हइल तार मुक्तिर कारण ॥
१९५॥
जगाइ तथा माधाइ ने आपकी निन्दा के रूप में आपके पवित्र नाम का उच्चारण किया। सौभाग्यवश वही पवित्र नाम उनकी मुक्ति का कारण बना।
जगाइ-माधाइ हैते कोटी कोटी गुण ।। अधम पतित पापी आमि दुइ जन ॥
१९६॥
हम दोनों जगाइ तथा माधाइ से करोड़ों गुना अधम हैं। हम उनसे अधिक नीच, पतित तथा पापी हैं।
म्लेच्छ-जाति, म्लेच्छ-सेवी, करि म्लेच्छ-कर्म ।। गो-ब्राह्मण-द्रोहि-सङ्गे आमार सङ्गम ॥
१९७॥
वास्तव में हम म्लेच्छ (मांसाहारी ) जाति के हैं, क्योंकि हम म्लेच्छों के नौकर हैं। निस्सन्देह, हमारे कार्य बिल्कुल म्लेच्छों की ही तरह हैं। चूँकि हम सदैव ऐसे लोगों की संगति करते हैं, अतएव हम गौवों तथा ब्राह्मणों के प्रति शत्रुभाव रखने वाले हैं।
मोर कर्म, मोर हाते-गलाय बान्थियो । कु-विषय-विष्ठा-गर्ते दियाछे फेलाइया ॥
१९८॥
साकर मल्लिक तथा दबिर खास, दोनों भाइयों ने विनीत भाव से निवेदन किया कि अपने जघन्य कार्यों के फलस्वरूप उन्हें हाथ तथा गले से बाँधकर भौतिक इन्द्रिय-भोग रूपी घृणित मल जैसे पदार्थों के गड्ढे में गिरा दिये गये हैं।
आमा उद्धारिते बली नाहि त्रि-भुवने । पतित-पावन तुमि—सबे तोमा विने ॥
१९९॥
तीनों लोकों में हमारा उद्धार करने में कोई भी समर्थ नहीं है। आप पतितात्माओं के एकमात्र उद्धारक हैं, अतएव आपके अतिरिक्त हमारा कोई दूसरा नहीं है।
आमा उद्धारिया यदि देखाओ निज-बल ।।‘पतित-पावन' नाम तबे से सफल ॥
२०० ॥
यदि आप अपने दिव्य बल से हमारा उद्धार कर दें, तो निश्चय ही आप 'पतितपावन' के रूप में जाने जायेंगे। सत्य एक बात कहों, शुन, दयामय ।।मो-विनु दयार पात्र जगते ना हय ॥
२०१॥
हम बिल्कुल सत्य कह रहे हैं। हे दयामय! कृपया इसे सुन लीजिये। तीनों लोकों में हमारे अतिरिक्त कोई दूसरा दया का पात्र नहीं है।
मोरे दया करि' कर स्व-दया सफल ।। अखिल ब्रह्माण्ड देखक तोमार दया-बल ॥
२०२॥
हम सर्वाधिक पतित हैं, अतएव हम पर दया करने पर आपकी दया सर्वाधिक सफल होगी। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को आपकी दया की शक्ति देखने दीजिये! न मृषा परमार्थमेव मेशृणु विज्ञापनमेकमग्रतः ।। यदि मे न दयिष्यसे तदा ।दयनीयस्तव नाथ दुर्लभः ॥
२०३॥
हे प्रभु, हमें आपके समक्ष एक बात कहने दें। यह रंचमात्र भी मिथ्या नहीं है अपितु सार्थक है। यह इस प्रकार है-यदि आप हम पर दयालु नहीं होंगे, तो आपकी कृपा के लिए हमसे अधिक योग्य पात्र ढूंढ पाना अत्यधिक कठिन होगा।'
आपने अयोग्य देखि' मने पाँ क्षोभ ।। तथापि तोमार गुणे उपजय लोभ ॥
२०४॥
आपकी कृपा के लिए उपयुक्त पात्र न होने से हम अत्यधिक क्षुब्ध हैं। फिर भी हमने आपके दिव्य गुणों के विषय में सुन रखा है, अतएव हम आपके प्रति अत्यधिक आकृष्ट हैं।
वामन ग्रैछे चाँद धरिते चाहे करे ।। तैछे एइ वाञ्छा मोर उठये अन्तरे ॥
२०५॥
। निस्सन्देह, हम उस वामन के तुल्य हैं, जो चाँद को पकड़ना चाहता है। यद्यपि हम सर्वथा अयोग्य हैं, किन्तु हमारे मनों में आपकी कृपा प्राप्त करने की इच्छा उठ रही है।
भवन्तमेवानुचरन्निरन्तरः ।प्रशान्त-नि:शेष-मनो-रथान्तरः । कदाहमैकान्तिक-नित्य-किङ्करः।प्रहर्षयिष्यामि सनाथ-जीवितम् ॥
२०६॥
आपकी निरन्तर सेवा करने से मनुष्य सारी भौतिक इच्छाओं से मुक्त हो जाता है और पूर्ण शान्ति प्राप्त करता है। वह समय कब आयेगा जब मैं आपका नित्य दास बनूंगा और ऐसा योग्य स्वामी पाकर सदैव प्रसन्नता का अनुभव करूँगा? ।
शुनि' महाप्रभु कहे,—शुन, दबिर-खास । तुमि दुइ भाइ–मोर पुरातन दास ॥
२०७॥
दबिर खास तथा साकर मल्लिक की प्रार्थना सुनने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, हे दबिर खास, तुम दोनों भाई मेरे पुराने सेवक हो।
आजि हैते मुँहार नाम 'रूप' 'सनातन' । दैन्य छाड़, तोमार दैन्ये फाटे मोर मन ॥
२०८॥
। हे साकर मल्लिक, आज से तुम्हारे नाम श्रील रूप तथा श्रील सनातन होंगे। अब अपनी दीनता को त्यागो, क्योंकि तुम्हारी दीनता देखकर मेरा हृदय फटा जा रहा है।
दैन्य-पत्री लिखि' मोरे पाठाले बार बार ।। सेइ पत्री-द्वारा जानि तोमार व्यवहार ॥
२०९॥
तुमने मेरे पास अपनी दीनता जताने वाले अनेक पत्र लिखे, जिनसे तुम्हारी दीनता परिलक्षित होती है। मैं उन पत्रों से तुम्हारे व्यवहार को समझ सकता हूँ।
तोमार हृदय आमि जानि पत्री-द्वारे । तोमा शिखाइते श्लोक पाठाइल तोमारे ॥
२१०॥
मैं तुम्हारे पत्रों से ही तुम्हारे हृदय को जान गया था। इसलिए तुम्हें देने के लिए मैंने तुम्हारे पास एक श्लोक लिख भेजा था, जो इस प्रकार है।
पर-व्यसनिनी नारी व्यग्रापि गृह-कर्मसु ।। तदेवास्वादयत्यन्तर्नव-सङ्ग-रसायनम् ॥
२११॥
यदि कोई स्त्री अपने पति को छोड़कर किसी अन्य पुरुष में आसक्त गती है, तो वह अपने घरेलू कामों में अत्यधिक व्यस्त दिखेगी, किन्तु अपने अन्तर में वह अपने प्रेमी के सान्निध्य की अनुभूति का सदैव भवादन करती रहती है।
गौड़-निकट आसिते नाहि मोर प्रयोजन ।।तोमा-मुँहा देखिते मोर इहाँ आगमन ॥
२१२॥
। वास्तव में बंगाल आने में मेरा कोई प्रयोजन नहीं था, किन्तु मैं तुम योगी भाइयों को मिलने के लिए ही आया हूँ।
एइ मोर मनेर कथा केह नाहि जाने ।सबै बले, केने आइला रामकेलि-ग्रामे ॥
२१३॥
हर कोई पूछ रहा है कि मैं इस रामकेलि गाँव में क्यों आया हूँ। कोई भी मेरे प्रयोजन को नहीं जानता।
भाल हैल, दुई भाइ आइला मोर स्थाने ।।घरे ग्राह, भय किछु ना करिह मने ॥
२१४॥
यह अच्छा हुआ कि तुम दोनों भाई मुझे मिलने आये। अब तुम घर जा सकते हो। अब किसी बात का डर न रखो।
जन्मे जन्मे तुमि दुई—किङ्कर आमार ।।अचिराते कृष्ण तोमाय करिबे उद्धार ॥
२१५॥
तुम दोनों जन्म-जन्मांतर मेरे सनातन दास रहे हो। मुझे विश्वास है कि कृष्ण शीघ्र ही तुम्हारा उद्धार करेंगे।
एत बलि देंहार शिरे धरिल दुई हाते ।। दुइ भाइ प्रभु-पद निल निज माथे ॥
२१६॥
तब महाप्रभु ने उन दोनों के सिरों पर अपने दोनों हाथ रख दिये और उन दोनों ने तुरन्त ही अपने-अपने मस्तक पर महाप्रभु के चरणकमलों को रख लिया।
दोहा आलिङ्गिया प्रभु बलिल भक्त-गणे । सबे कृपा करि' उद्धारह दुइ जने ॥
२१७॥
इसके बाद महाप्रभु ने उन दोनों को अपने आलिंगन में ले लिया और वहाँ पर उपस्थित सारे भक्तों से अनुरोध किया कि वे उन पर दयालु हों और उनका उद्धार करें।
दुइ जने प्रभुर कृपा देखि' भक्त-गणे ।। ‘हरि' 'हरि' बले सबे आनन्दित-मने ॥
२१८॥
जब समस्त भक्तों ने दोनों भाइयों पर महाप्रभु की कृपा देखी, तो वे अत्यन्त पुलकित हुए और हरि! हरि! कहकर भगवन्नाम का कीर्तन करने लगे।
नित्यानन्द, हरिदास, श्रीवास, गदाधर ।। मुकुन्द, जगदानन्द, मुरारि, वक्रेश्वर ॥
२१९॥
हाप्रभु के सभी वैष्णव पार्षद वहाँ उपस्थित थे, जिनमें नित्यानन्द , अग्दिास ठाकुर, श्रीवास ठाकुर, गदाधर पण्डित, मुकुन्द, जगदानन्द स, मुरारि तथा वक्रेश्वर सम्मिलित थे।
सबार चरणे धरि, पड़े दुई भाइ ।। सबे बले,—धन्य तुमि, पाइले गोसाजि ॥
२२० । श्री चैतन्य महाप्रभु के आदेशानुसार रूप तथा सनातन दोनों भाइयों ने तुरन्त ही इन वैष्णवों के चरणकमलों का स्पर्श किया। वे सभी अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने दोनों भाइयों को महाप्रभु की कृपा प्राप्त होने पर बधाई दी।
सबा-पाश आज्ञा मागि' चलन-समय ।। प्रभु-पदे कहे किछु करिया विनय ॥
२२१॥
। वहाँ पर उपस्थित सारे वैष्णवों से आज्ञा लेकर दोनों भाइयों ने विदा लेते समय महाप्रभु के चरणकमलों पर कुछ निवेदन किया।
इहाँ हैते चल, प्रभु, इहाँ नाहि काज । यद्यपि तोमारे भक्ति करे गौड-राज ॥
२२२॥
उन्होंने कहा, हे प्रभु, यद्यपि बंगाल का राजा नवाब हुसैन शाह आपका अत्यन्त सम्मान करता है, किन्तु अब आपको यहाँ कोई अन्य काम नहीं है। अतएव कृपया आप इस स्थान से प्रस्थान करें।
तथापि झवन जाति, ना करि प्रतीति ।।तीर्थ-यात्राय एत संघट्ट भाल नहे रीति ॥
२२३।। यद्यपि राजा आपके प्रति आदर-भाव रखता है, तो भी वह यवन जाति का है और उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता। हमारे विचार से वृन्दावन की तीर्थयात्रा के लिए अपने साथ इतनी बड़ी भीड़ ले जाने की कोई आवश्यकता नहीं है।
ग्रार सङ्गे चले एइ लोक लक्ष-कोटि ।।वृन्दावन-यात्रार ए नहे परिपाटी ॥
२२४॥
हे प्रभु, आप अपने साथ लाखों लोगों को लेकर वृन्दावन जा रहे हैं, किन्तु तीर्थयात्रा करने की यह उपयुक्त विधि नहीं है।
यद्यपि वस्तुतः प्रभुर किछु नाहि भय ।।तथापि लौकिक-लीला, लोक-चेष्टा-मय ॥
२२५॥
। यद्यपि श्री चैतन्य महाप्रभु स्वयं श्रीकृष्ण भगवान् थे और तनिक भी भयभीत नहीं थे, तथापि उन्होंने अपने नये भक्तों को शिक्षा देने के लिए एक मनुष्य की भाँति आचरण किया।
एत बलि' चरण वन्दि' गेला दुई-जन ।।प्रभुर सेइ ग्राम हैते चलिते हैल मन ॥
२२६॥
। यह कहकर दोनों भाइयों ने महाप्रभु के चरणकमलों की वन्दना की और अपने घर लौट आये। तत्पश्चात् महाप्रभु ने उस गाँव को छोड़ने का धार किया।
प्राते चलि' आइला प्रभु'कानाइर नाटशाला' ।देखिल सकल ताहाँ कृष्ण-चरित्र-लीला ॥
२२७॥
प्रातःकाल महाप्रभु वहाँ से चल पड़े और कानाइ नाटशाला नामक स्थान गये। वहाँ उन्होंने भगवान् कृष्ण की अनेक लीलाएँ देखीं।
सेइ रात्रे प्रभु ताहाँ चिम्ले मने मन ।सङ्गे संघट्ट भाल नहे, कैल सनातन ॥
२२८॥
। उस रात महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी के इस प्रस्ताव पर विचार किया कि उन्हें इतने लोगों को साथ लेकर वृन्दावन नहीं जाना चाहिए।
मथुरा ग्राइब आमि एत लोक सङ्गे।। किछु सुख ना पाइब, हबे रस-भङ्गे ॥
२२९॥
। महाप्रभु ने सोचा, यदि मैं इतनी बड़ी भीड़ के साथ मथुरा जाऊँगा, तो बहुत अच्छा नहीं होगा; क्योंकि इससे वातावरण अशान्त हो जायेगा।
एकाकी ग्राइब, किम्वा सङ्गे एक जन ।तबे से शोभये वृन्दावनेरे गमन ॥
२३०॥
। महाप्रभु इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि वे अकेले ही या अधिक से अधिक एक व्यक्ति के साथ वृन्दावन जायेंगे। इस तरह से वृन्दावन जाना अत्यन्त मुखद होगा।
एत चिन्ति प्रातः-काले गङ्गा-स्नान करि' ।।‘नीलाचले ग्राब' बलि' चलिला गौरहरि ॥
२३१॥
। इस प्रकार सोचकर महाप्रभु ने प्रात:काल गंगा नदी में स्नान किया और यह कहकर चल पड़े कि, मैं नीलाचल जाऊँगा। ।
एइ मत चलि' चलि' आइला शान्तिपुरे ।दिन पाँच-सात रहिला आचार घरे ॥
२३२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु चलते-चलते शान्तिपुर पहुँचे और अद्वैत आचार्य के घर में पाँच-सात दिन रहे।
शची-देवी आनि' ताँरे कैल नमस्कार ।।सात दिन ताँर ठाञि भिक्षा-व्यवहार ॥
२३३॥
इस अवसर का लाभ उठाकर श्री अद्वैत आचार्य प्रभु ने माता शचीदेवी को बुला लिया और वे उनके घर में महाप्रभु का भोजन बनाने के लिए सात दिन तक रहीं।
ताँर आज्ञा लञा पुनः करिला गमने ।। विनय करिया विदाय दिल भक्त-गणे ॥
२३४॥
। अपनी माता से आज्ञा लेकर श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी के लिए चल पड़े। जब भक्तगण उनके साथ चलने लगे, तो महाप्रभु ने उनसे विनती की कि वे वहीं रहें और तब उन्होंने सबसे विदा ली।
जना दुई सङ्गे आमि ग्राब नीलाचले ।।आमारे मिलिबा आसि' रथ-यात्रा-काले ॥
२३५॥
यद्यपि श्री चैतन्य महाप्रभु ने सारे भक्तों से लौट जाने के लिए कहा, किन्तु उनमें से दो लोगों को उन्होंने अपने साथ आने दिया। बलभद्र भट्टाचार्य, आर पण्डित दामोदर ।। दुइ-जन-सङ्गे प्रभु आइला नीलाचल ॥
२३६॥
दो भक्त जो श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ जगन्नाथ पुरी ( नीलाचल) जा रहे थे, वे थे बलभद्र भट्टाचार्य तथा दामोदर पण्डित।
दिन कत ताहाँ रहि चलिला वृन्दावन ।।लुकाजा चलिला रात्रे, ना जाने कोन जन ॥
२३७॥
जगन्नाथ पुरी में कुछ दिन रहकर महाप्रभु रात में चुपके से वृन्दावन के लिए चल पड़े। उन्होंने यह कार्य किसी की जानकारी में आये बिना किया।
बलभद्र भट्टाचार्य रहे मात्र सङ्गे। ।झारिखण्ड-पथे काशी आइला महा-रङ्गे ॥
२३८॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी से वृन्दावन के लिए चले, तब उनके साथ केवल बलभद्र भट्टाचार्य थे। इस तरह वे मार्ग में झारखण्ड होते हुए बड़ी प्रसन्नतापूर्वक बनारस (वाराणसी) पहुँचे।
दिन चार काशीते रहि' गेला वृन्दावन ।। मथुरा देखिया देखे द्वादश कानन ॥
२३९॥
श्री चैतन्य महाप्रभु बनारस में केवल चार दिन रहे और फिर वृन्दावन के लिए चल पड़े। मथुरा नगरी देखने के बाद उन्होंने बारह वन देखे।
लीला-स्थल देखि प्रेमे हइला अस्थिर ।। बलभद्र कैल ताँरे मथुरार बाहिर ॥
२४०॥
श्रीकृष्ण की बारहों लीलास्थलियाँ देखकर श्री चैतन्य महाप्रभु भावावेश के कारण अत्यधिक विह्वल हो उठे। उन्हें बलभद्र भट्टाचार्य किसी तरह मथुरा से बाहर ले गये।
गङ्गा-तीर-पथे लबा प्रयागे आइला ।। श्री-रूप आसि' प्रभुके तथाई मिलिला ॥
२४१॥
। मथुरा छोड़ने के बाद महाप्रभु गंगा नदी के किनारे-किनारे चलने लगे और अन्त में प्रयाग (इलाहबाद) नामक पवित्र स्थान पर आ पहुँचे। यहीं पर श्रील रूप गोस्वामी आकर महाप्रभु से मिले।
दण्डवत्करि' रूप भूमिते पड़िला । परम आनन्द प्रभु आलिङ्गन दिला ॥
२४२॥
प्रयाग में रूप गोस्वामी ने आकर महाप्रभु को दण्डवत् प्रणाम किया और महाप्रभु ने बड़ी प्रसन्नतापूर्वक उनका आलिंगन किया।
श्री-रूपे शिक्षा कराइ' पाठाइला वृन्दावन । आपने करिला वाराणसी आगमन ॥
२४३॥
प्रयाग में दशाश्वमेध घाट पर श्रील रूप गोस्वामी को शिक्षा देने के बाद चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें वृन्दावन जाने का आदेश दिया। तत्पश्चात् माप्रभु वाराणसी लौट आये।।
काशीते प्रभुके आसि' मिलिला सनातन ।।दुइ मास रहि' ताँरै कराइला शिक्षण ॥
२४४॥
जबचैतन्य महाप्रभु वाराणसी आये, तो वहाँ उनसे सनातन गोस्वामी मले। महाप्रभु वहाँ दो मास तक रहे और सनातन गोस्वामी को पूरी तरह शिक्षा दी।
मथुरा पाठाइला ताँरे दिया भक्ति-बल ।।सन्यासीरे कृपा करि' गेला नीलाचल ॥
२४५ ॥
। सनातन गोस्वामी को पूरी तरह शिक्षित करके श्री चैतन्य महाप्रभु ने में भक्ति की शक्ति देकर मथुरा भेज दिये। बनारस में उन्होंने मायावादी संन्यासियों पर भी कृपा की। तत्पश्चात् वे नीलाचल (जगन्नाथ पुरी ) लौट गये।"
छय वत्सर ऐछे प्रभु करिला विलास ।।कभु इति-उति, कभु क्षेत्र-वास ॥
२४६॥
महाप्रभु छः वर्षों तक सारे भारत में भ्रमण करते रहे। वे अपनी दिव्य लीलाएँ सम्पन्न करते हुए कभी इधर तो कभी उधर रहते और कभी वे जगन्नाथ पुरी में रहते।
आनन्दे भक्त-सङ्गे सदा कीर्तन-विलास ।जगन्नाथ-दरशन, प्रेमेर विलास ॥
२४७॥
जगन्नाथ पुरी में रहते हुए महाप्रभु संकीर्तन करने और भाव-विभोर होकर जगन्नाथ मन्दिर का दर्शन करने में अपना समय प्रसन्नतापूर्वक बिताते रहे।
मध्य-लीलार कैलँ एइ सूत्र-विवरण ।अन्त्य-लीलार सूत्र एबे शुन, भक्त-गण ॥
२४८॥
इस प्रकार मैंने महाप्रभु की मध्यलीला का सारांश दिया है। हे भक्तों, कृपया अब महाप्रभु की अन्तिम लीला का सारांश सुनो, जो अन्त्यलीला कहलाती है।
वृन्दावन हैते यदि नीलाचले आइला ।। आठार वर्ष ताहाँ वास, काहाँ नाहि गेला ॥
२४९॥
जब महाप्रभु वृन्दावन से लौटकर जगन्नाथ पुरी आ गये, तो वे वहीं पर रहे और अठारह वर्षों तक कहीं नहीं गये।
प्रतिवर्ष आइसेन ताहाँ गौड़ेर भक्त-गण ।। चारि मास रहे प्रभुर सङ्गे सम्मिलन ॥
२५०॥
इन अठारह वर्षों में बंगाल के सारे भक्त प्रतिवर्ष उनसे जगन्नाथ पुरी में आकर मिलते रहे। वे वहाँ लगातार चार महीने रहते और महाप्रभु के संग का आनन्द लूटते।
निरन्तर नृत्य-गीत कीर्तन-विलास । आचण्डाले प्रेम-भक्ति करिला प्रकाश ॥
२५१॥
जगन्नाथ पुरी में श्री चैतन्य महाप्रभु निरन्तर कीर्तन और नृत्य करते। इस तरह उन्होंने संकीर्तन-लीला के आनन्द का आस्वादन किया। वे सब पर, यहाँ तक कि नीच से नीच व्यक्ति (चाण्डाल ) पर भी, अपनी अहैतुकी कृपा अर्थात् शुद्ध भगवत्प्रेम प्रकट करते।
पण्डित-गोसात्रि कैल नीलाचले वास ।वक्रेश्वर, दामोदर, शङ्कर, हरिदास ॥
२५२॥
जगन्नाथ पुरी में चैतन्य महाप्रभु के साथ रहने वालों में पण्डित गोसांई तथा अन्य भक्त यथा वक्रेश्वर, दामोदर, शंकर तथा हरिदास ठाकुर थे।
जगदानन्द, भगवान्, गोविन्द, काशीश्वर ।। परमानन्द-पुरी, आर स्वरूप-दामोदर ॥
२५३ ॥
महाप्रभु के साथ जो अन्य भक्त रह रहे थे, उनके नाम थेजगदानन्द, भगवान, गोविन्द, काशीश्वर, परमानन्द पुरी तथा स्वरूप दामोदर।
त्र-वासी रामानन्द राय प्रभृति ।। प्रभु-सङ्गे एइ सब कैल नित्य-स्थिति ॥
२५४॥
श्री रामानन्द राय तथा जगन्नाथ पुरी के निवासी अन्य भक्तगण भी महाप्रभु के साथ स्थायी रूप से रहते थे।
अद्वैत, नित्यानन्द, मुकुन्द, श्रीवास ।। विद्यानिधि, वासुदेव, मुरारि,—ग्रत दास ॥
२५५॥
प्रतिवर्षे आइसे सङ्गे रहे चारि-मास ।ताँ-सबा लञा प्रभुर विविध विलास ॥
२५६॥
अन्य भक्त जिनमें अद्वैत आचार्य, नित्यानन्द प्रभु, मुकुन्द, श्रीवास, विद्यानिधि, वासुदेव तथा मुरारि प्रमुख हैं, जगन्नाथ पुरी आया करते थे और लगातार चार मास तक महाप्रभु के साथ रहा करते थे। महाप्रभु इन सबके साथ विविध लीलाओं का आनन्द लेते थे।
हरिदासेर सिद्धि-प्राप्ति,—अद्भुत से सब ।आपनि महाप्रभु याँर कैल महोत्सव ॥
२५७॥
। जगन्नाथ पुरी में हरिदास ठाकुर ने देह त्याग किया। यह घटना अत्यन्त अद्भुत थी, क्योंकि स्वयं महाप्रभु ने हरिदास ठाकुर के तिरोभाव के उपलक्ष्य में उत्सव मनाया।
तबे रूप-गोसाजिर पुनरागमन ।। ताँहार हृदये कैल प्रभु शक्ति-सञ्चारण ॥
२५८॥
। श्रील रूप गोस्वामी जगन्नाथ पुरी में महाप्रभु से पुनः मिले। महाप्रभु ने उनके हृदय में समस्त दिव्य शक्ति संचारित कर दी।
तबे छोट हरिदासे प्रभु कैल दण्ड ।। दामोदर-पण्डित कैल प्रभुके वाक्य-दण्ड ॥
२५९॥
इसके बाद महाप्रभु ने छोटे हरिदास को दण्ड दिया और दामोदर पण्डित ने महाप्रभु को कुछ चेतावनी दी।
तबे सनातन-गोसाजिर पुनरागमन ।। ज्यैष्ठ-मासे प्रभु ताँरे कैल परीक्षण ॥
२६०॥
इसके बाद सनातन गोस्वामी पुनः चैतन्य महाप्रभु से मिले और महाप्रभु ने ज्येष्ठ मास की झुलसाने वाली गर्मी में उनकी परीक्षा ली।
तुष्ट हा प्रभु ताँरे पाठाइला वृन्दावन । अद्वैतेर हस्ते प्रभुर अद्भुत भोजन ॥
२६१॥
प्रसन्न होकर महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी को पुनः वृन्दावन भेज दिये। इसके बाद महाप्रभु ने श्री अद्वैत आचार्य के हाथों से अद्भुत भोजन किया।
नित्यानन्द-सङ्गे मुक्ति करिया निभृते ।ताँरै पाठाइला गौड़े प्रेम प्रचारिते ॥
२६२॥
सनातन गोस्वामी को वृन्दावन पुनः भेजने के बाद महाप्रभु ने श्री नित्यानन्द प्रभु से एकान्त में परामर्श किया। तत्पश्चात् उन्होंने भगवत्-प्रेम का प्रचार करने के लिए उन्हें बंगाल भेज दिये।
तबे त' वल्लभ भट्ट प्रभुरे मिलिला ।। कृष्ण-नामेर अर्थ प्रभु ताँहारे कहिला ॥
२६३ ।। इसके तुरन्त बाद वल्लभ भट्ट महाप्रभु से जगन्नाथ पुरी में मिले और महाप्रभु ने उन्हें पवित्र कृष्ण-नाम का अर्थ बतलाया।
प्रद्युम्न मिरे प्रभु रामानन्द-स्थाने । कृष्ण-कथा शुनाइल कहि' ताँर गुणे ॥
२६४॥
रामानन्द राय के दिव्य गुणों की व्याख्या कर महाप्रभु ने प्रद्युम्न मिश्र को रामानन्द राय के घर भेजा और प्रद्युम्न मिश्र ने उनसे कृष्ण-कथा सुनी।।
गोपीनाथ पट्टनायक–रामानन्द-भ्राता ।। राजा मारितेछिल, प्रभु हैल त्राता ॥
२६५ ॥
इसके बाद चैतन्य महाप्रभु ने रामानन्द राय के छोटे भाई गोपीनाथ पट्टनायक को राजा द्वारा दिये जाने वाले मृत्यु-दण्ड से बचाया।
रामचन्द्र-पुरी-भये भिक्षा घाटाइला ।वैष्णवेर दुःख देखि' अर्धेक राखिला ॥
२६६॥
रामचन्द्र पुरी ने महाप्रभु के भोजन की आलोचना की, अतएव उन्होंने अपना भोजन न्यूनतम कर दिया। किन्तु जब सारे वैष्णव इससे अत्यन्त 1:जी हुए, तो महाप्रभु ने उसे बढ़ाकर पहले का आधा कर दिया।
ब्रह्माण्ड-भितरे हय चौद्द भुवन ।।चौद्द-भुवने वैसे व्रत जीव-गण ॥
२६७ ॥
इस ब्रह्माण्ड के भीतर चौदह भुवन ( ग्रह मण्डल ) हैं और सारे जीव भ ग्रह मण्डलों में रहते हैं।
मनुष्येर वेश धरि' यात्रिकेर छले ।।प्रभुर दर्शन करे आसि' नीलाचले ॥
२६८॥
वे सभी तीर्थयात्रियों का वेश धारण करके श्री चैतन्य महाप्रभु का १र्शन करने जगन्नाथ पुरी आया करते थे।
एक-दिन श्रीवासादि व्रत भक्त-गण ।।महाप्रभुर गुण गाजा करेन कीर्तन ॥
२६९॥
एक दिन श्रीवास ठाकुर इत्यादि सारे भक्त श्री चैतन्य महाप्रभु के दिव्य गुणों का कीर्तन कर रहे थे।
शुनि' भक्त-गणे कहे स-क्रोध वचने ।।कृष्ण-नाम-गुण छाड़ि, कि कर कीर्तने ॥
२७० ॥
। अपने दिव्य गुणों का कीर्तन श्री चैतन्य महाप्रभु को अच्छा नहीं लगा। अतएव उन्होंने उन सबको डाँटा मानो वे नाराज हों। उन्होंने पूछा, यह कैसा कीर्तन है? क्या तुम लोग भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन छोड़ रहे हो? द्धत्य करते हैल सबाकार मन ।।स्वतन्त्र हइया सबे नाशा 'बे भुवन ॥
२७१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने यह कहते हुए सबको प्रताड़ित किया कि तुम । लोग स्वतन्त्र बनकर अपनी धृष्टता मत दिखलाओ और इस तरह सारे संसार का विनाश मत करो।।
देश-दिके कोटी कोटी लोक हेन काले ।। जय कृष्ण-चैतन्य' बलि' करे कोलाहले ॥
२७२ ॥
जय श्री चैतन्य महाप्रभु बाह्य रूप से नाराज दिख रहे थे और अपने भक्तों को प्रताड़ित कर रहे थे, तब बाहर से हजारों भक्तों ने उच्च स्वर में पुकारा, श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! जय जय महाप्रभु-व्रजेन्द्र कुमार ।। जगत्तारिते प्रभु, तोमार अवतार ॥
२७३॥
महाप्रभु ने लोगों की विनीत याचना सुनी, तो उनका हृदय द्रवित हो उठा। अत्यन्त दयालु होने के कारण वे तुरन्त बाहर निकल आये और Tो नर्शन दिया।
बहु-दूर हैते आइनु हा बड़ आर्त ।। दरशन दिया प्रभु करह कृतार्थ ॥
२७४॥
हे प्रभु, हम बहुत दुःखी हैं। हम बहुत दूर से चलकर आपका दर्शन करने आये हैं। कृपया दयालु होकर आपकी कृपा का प्रदर्शन करें।
शुनिया लोकेर दैन्य द्रविला हृदय ।बाहिरे आसि' दरशन दिला दयामय ॥
२७५ ॥
सारे भक्त उच्च स्वरों में कीर्तन करने लगे, महाराज नन्द के पुत्र श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! आप सारे जगत् का उद्धार करने के लिए। प्रकट हुए हैं।
बाहु तुलि' बले प्रभु बल' ‘हरि' ‘हरि' ।।उठिल–श्री-हरि-ध्वनि चतुर्दिक्भरि' ॥
२७६ ॥
॥
अपनी दोनों बाँहें उठाकर महाप्रभु ने सबसे भगवान् हरि के पवित्र नाम को स्वर में कीर्तन करने को कहा। तुरन्त ही वहाँ हलचल मच गई । ध्वनि से समस्त दिशाएँ गुंजायमान हो उठीं।
प्रभु देखि' प्रेमे लोक आनन्दित मन ।प्रभुके ईश्वर बलि' करये स्तवन ॥
२७७॥
महाप्रभु का दर्शन करके सभी लोग प्रेमवश आनन्दित हो उठे। सबने महाप्रभु को भगवान् के रूप में स्वीकार किये और उनकी स्तुति की।
स्तव शुनि' प्रभुके कहेन श्रीनिवास ।। घरे गुप्त हओ, केने बाहिरे प्रकाश ॥
२७८॥
जब लोग इस प्रकार से महाप्रभु की स्तुति कर रहे थे, तब श्रीनिवास आचार्य ने महाप्रभु से व्यंग्यपूर्वक कहा,आप तो घर में गुप्त रहना चाहते थे। किन्तु आपने अपने आपको बाहर क्यों प्रकट कर दिया? के शिखाल एइ लोके, कहे कोन्बात ।।इहा-सबार मुख ढाक दिया निज हात ॥
२७९॥
। श्रीवास ठाकुर ने आगे कहा, इन लोगों को किसने सिखाया है? ये सब क्या कह रहे हैं? अब आप इनके मुँह अपने हाथ से बन्द कर सकते हैं।
सूर्य ग्रैछे उदय करि' चाहे लुकाइते । बुझिते ना पारि तैछे तोमार चरिते ॥
२८० ॥
। यह तो उसी प्रकार है जैसे मानो सूर्य उदय होने के बाद अपने आपको छिपाना चाहे। हम आपके चरित्र ( व्यवहार) के ऐसे गुणों को अपम नहीं पाते।
प्रभु कहेन,–श्रीनिवास, छाड़ विडम्बना ।।सबे मेलि' कर मोर कतेक लाञ्चना ॥
२८१॥
महाप्रभु ने उत्तर दिया,हे श्रीनिवास, यह परिहास बन्द करो। तुम । लोग इस प्रकार से मुझे शर्मिन्दा करने के लिए आपस में मिल गये हो।
एत बलि' लोके करि’ शुभ-दृष्टि दान ।।अभ्यन्तरे गेला, लोकेर पूर्ण हैल काम ॥
२८२॥
इस प्रकार कहकर लोगों पर कृपापूर्वक अपनी शुभ दृष्टि डालकर महाप्रभु अपने कमरे में चले गये। इस तरह सभी लोगों की मनोकामनाएँ पूर्ण हुईं।
रघुनाथ-दास नित्यानन्द-पाशे गेला ।। चिड़ा-दधि-महोत्सव ताहाङि करिला ॥
२८३ ॥
। इसके बाद रघुनाथ दास श्री नित्यानन्द प्रभु के पास पहुँचे और उनके आदेशानुसार उत्सव का आयोजन किया और चिउड़ा तथा दही से युक्त प्रसाद का वितरण किया।
ताँर आज्ञा लञा गेला प्रभुर चरणे ।।प्रभु ताँरै समर्पिला स्वरूपेर स्थाने ॥
२८४॥
बाद में श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी ने अपना घर छोड़ दिया और जगन्नाथ पुरी में श्री चैतन्य महाप्रभु की शरण ली। उस समय महाप्रभु ने उन्हें स्वीकार किया और आध्यात्मिक उन्नति के लिए स्वरूप-दामोदर के रिक्षण में सौंप दिया।
ब्रह्मानन्द-भारतीर घुचाइल चर्माम्बर । एइ मत लीला कैल छय वत्सर ॥
२८५ ॥
बाद में श्री चैतन्य महाप्रभु ने ब्रह्मानन्द भारती का मृगचर्म पहनने की भादत को बन्द करवाया। इस प्रकार महाप्रभु छः वर्षों तक निरन्तर अपनी नीलाएँ करते हुए अनेक प्रकार के दिव्य आनन्द का अनुभव करते रहे।
एइ त कहिल मध्य-लीलार सूत्र-गण ।।शेष द्वादश वत्सरेर शुन विवरण ॥
२८६॥
इस तरह मैंने मध्यलीला का सारांश कह दिया है। अब कृपा करके महाप्रभु द्वारा अन्तिम बारह वर्षों में सम्पन्न की गई लीलाओं को सुने।।
श्री-रूप-रघुनाथ-पदे ग्रार आश ।।चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
२८७॥
श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों की वन्दना करते हुए एवं है। उनकी कृपा की कामना करते हुए मैं कृष्णदास उनके चरणचिह्नों भर चलते हुए श्री चैतन्य-चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।
अध्याय दो: भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु की परमानंद अभिव्यक्तियाँ
विच्छेदेऽस्मिन्प्रभोरन्त्य-लीला-सूत्रानुवर्णने ।।गौरस्य कृष्ण-विच्छेद-प्रलापाद्यनुवर्ण्यते ॥
१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं के अन्तिम विभाग को सारांश रूप में प्रप्तुत करते हुए इस अध्याय में मैं भगवान् के दिव्य भाव का वर्णन करूंगा, जो कृष्ण से उनके विरह के कारण उन्माद जैसा प्रतीत होता है।
जय जय श्री-चैतन्य जय नित्यानन्द ।जयाद्वैतचन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ॥
२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! भतधन्द्र की जय हो और महाप्रभु के सारे भक्तों की जय हो! शेष ग्ने रहिल प्रभुर द्वादश वत्सर ।कृष्णेर वियोग-स्फूर्ति हय निरन्तर ॥
३॥
अन्तिम बारह वर्षों में श्री चैतन्य महाप्रभु ने अविरत कृष्ण के विरह आम के सारे लक्षण प्रकट किये।
श्री-राधिकार चेष्टा ग्रेन उद्धव-दर्शने ।।एइ-मत दशा प्रभुर हय रात्रि-दिने ॥
४॥
भी चैतन्य महाप्रभु की मानसिक दशा दिन-रात वैसी ही रहती थी, भी कि राधारानी की थी, जब उद्धव गोपियों से मिलने वृन्दावन आये थे।
निरन्तर हय प्रभुर विरह-उन्माद ।।भ्रम-मय चेष्टा सदा, प्रलाप-मय वाद ॥
५॥
महाप्रभु लगातार विरहजनित उन्माद के भाव में रहते थे। उनके सारे कार्यकलाप विस्मृति तथा उनकी बातचीत सदैव प्रलाप पर आधारित रहती थी।
रोम-कूपे रक्तोद्गम, दन्त सब हाले ।क्षणे अङ्ग क्षीण हय, क्षणे अङ्ग फुले ॥
६॥
। उनके शरीर के समस्त रोमछिद्रों से रक्त बहता था और उनके सारे दाँत हिलने लगते थे। किसी क्षण उनका सारा शरीर दुबला हो जाता और दूसरे ही क्षण मोटा हो जाता।
गम्भीरा-भितरे रात्रे नाहि निद्रा-लव ।भित्ते मुख-शिर घषे, क्षत हय सब ॥
७॥
दालान के आगे का छोटा कमरा गम्भीरा कहलाता है। श्री चैतन्य महाप्रभु उसी कमरे में रहते थे, किन्तु वे एक क्षण-भर भी सोते नहीं थे। वे रात भर अपना मुँह और सिर दीवार पर रगड़ते रहते थे और उनके सारे भूमण्डल में घाव हो गये थे।
तिन द्वारे कपाट, प्रभु झायेन बाहिरे । कभु सिंह-द्वारे पड़े, कभु सिन्धु-नीरे ॥
८॥
यद्यपि घर के तीनों दरवाजे सदैव बन्द रहते थे, किन्तु फिर भी महाप्रभु हर चले जाते थे। कभी वे जगन्नाथ मन्दिर के सिंहद्वार पर पाये जाते थे और कभी वे समुद्र में गिर पड़ते थे।
चटक पर्वत देखि' 'गोवर्धन' भ्रमे ।धाञा चले आर्त-नाद करिया क्रन्दने ॥
९॥
श्री चैतन्य महाप्रभु बालू के टीलों को गोवर्धन पर्वत समझकर तेजी ॥
दौड़ते। दौड़ते समय महाप्रभु उच्च स्वर में विलाप तथा क्रन्दन करते।
उपवनोद्यान देखि' वृन्दावन-ज्ञान ।।ताहाँ ग्राइ' नाचे, गाय, क्षणे मूच्र्छा ग्रा'न ॥
१०॥
कभी-कभी श्री चैतन्य महाप्रभु को नगर के छोटे छोटे उद्यानों से वृन्दावन का भ्रम हो जाता। कभी वे वहाँ जाते, नाचते और कीर्तन करते और कभी-कभी आध्यात्मिक भावावेश में अचेत हो जाते।
काहाँ नाहि शुनि येइ भावेर विकार ।।सेइ भाव हय प्रभुरे शरीरे प्रचार ॥
११॥
दिव्य भावों के कारण महाप्रभु के शरीर में जो अद्वितीय विकार प्रकट होते, वे उनके अतिरिक्त किसी अन्य के शरीर में सम्भव नहीं है।
हस्त-पदेर सन्धि सब वितस्ति-प्रमाणे ।।सन्धि छाड़ि' भिन्न हये, चर्म रहे स्थाने ॥
१२ ॥
कभी-कभी उनके हाथों तथा पैरों के जोड़ आठ इंच (एक बित्ता) के अलग हो जाते थे और ऊपर से केवल चमड़ी से जुड़े रहते थे।
हस्त, पद, शिर सब शरीर-भितरे ।प्रविष्ट हय कूर्म-रूप देखिये प्रभुरे ॥
१३॥
कभी-कभी श्री चैतन्य महाप्रभु के हाथ, पैर तथा सिर उनके शरीर के भीतर उसी तरह समा जाते, जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को भीतर समेट लेता है।
एइ मत अद्भुत-भाव शरीरे प्रकाश ।। मनेते शून्यता, वाक्ये हा-हा-हुताश ॥
१४॥
इस प्रकार श्री चैतन्य महाप्रभु अद्भुत भावपूर्ण लक्षण (भाव) प्रकट करते थे। उनका मन शून्य प्रतीत होता और उनके शब्दों में निराशा तथा हताशा प्रकट होती।
काहाँ मोर प्राण-नाथ मुरली-वदन ।। काहाँ करों काहाँ पाँ व्रजेन्द्र-नन्दन ॥
१५॥
श्री चैतन्य महाप्रभु अपने मन के भाव इस प्रकार प्रकट करते, मुरली वादन करने वाले मेरे प्राणनाथ कहाँ हैं? अब मैं क्या करूँ? मैं महाराज नन्द के बेटे को ढूंढने कहाँ जाऊँ? काहारे कहिब, केबा जाने मोर दु:ख ।। व्रजेन्द्र-नन्दन विनु फाटे मोर बुक ॥
१६॥
मैं किससे कहूँ? मेरे दुःख को कौन समझ सकेगा? नन्द महाराज के पुत्र के बिना मेरा हृदय फटा जा रहा है।
एड-मत विलाप करे विह्वल अन्तर ।। रायेर नाटक-श्लोक पड़े निरन्तर ॥
१७॥
इस प्रकार श्री चैतन्य महाप्रभु कृष्ण के विरह में सदैव अपनी विह्वलता प्रकट करते और विलाप करते। ऐसे अवसरों पर वे रामानन्द राय के नाटक, जगन्नाथ-वल्लभ-नाटक से श्लोक का उच्चारण करते।
प्रेम-च्छेद-रुजोऽवगच्छति हरिर्नायं न च प्रेम वा ।स्थानास्थानमवैति नापि मदनो जानाति नो दुर्बलाः ।। अन्यो वेद न चान्य-दुःखमखिलं नो जीवनं वाश्रवंद्वि-त्राण्येव दिनानि यौवनमिदं हा-हा विधे को गतिः ॥
१८॥
। [ श्रीमती राधारानी विलाप किया करती थीं :हमारा कृष्ण इस पर कोई ध्यान नहीं देता कि हमने प्रेम-सम्बन्ध में न जाने कितनी चोटें सही हैं। वास्तव में प्रेम में हमारा दुरुपयोग किया गया है, क्योंकि प्रेम यह नहीं । जानता कि कहाँ प्रहार किया जाय और कहाँ नहीं। यहाँ तक कि कामदेव भी हमारी असहाय अवस्था से परिचित नहीं है। मैं किसी से क्या कहूँ? कोई दूसरे की कठिनाइयों को नहीं समझ सकता। हमारा जीवन वास्तव में हमारे वश में नहीं रहा, क्योंकि यौवन तो दो-तीन दिन रहेगा और शीघ्र ही समाप्त हो जायेगा। ऐसी अवस्था में हे विधाता, हमारी गति क्या होगी? उपजिल प्रेमाङ्कर, भाङ्गिल ग्रे दुःख-पूर,कृष्ण ताहा नाहि करे पान ।।बाहिरे नागर-राज, भितरे शठेर काज,पर-नारी वधे सावधान ॥
१९॥
। । कृष्ण के विरह में दुःखी श्रीमती राधारानी ने इस प्रकार कहा : ओह! मैं अपने दुःख के बारे में क्या कहूँ? कृष्ण से मिलने के बाद ही प्रेम का अंकुर फूटा, किन्तु उनसे विलग होने पर मुझे इतना बड़ा जा लगा कि वह व्याधि की तरह जाने का नाम नहीं ले रहा। इस व्याधि १ एकमात्र वैद्य स्वयं कृष्ण हैं, किन्तु वे भक्ति के इस अंकुरित पौधे की । चिन्ता नहीं कर रहे। मैं कृष्ण के व्यवहार के बारे में क्या कहूँ? र से वे एक आकर्षण तरुण प्रेमी हैं, किन्तु भीतर से महा ठग हैं और रों की पत्नियों को मारने में अत्यन्त निपुण हैं।
सखि हे, ना बुझिये विधिर विधान सुख लागि' कैलँ प्रीत, हैल दुःख विपरीत, ।एबे ग्राय, ना रहे पराण ॥
२०॥
[कृष्ण से प्रेम करने के परिणामों के विषय में श्रीमती राधारानी ने आगे कहा : हे सखी, मैं विधाता के विधान को नहीं समझ पा रही। मैंने तो सुख के लिए कृष्ण से प्रेम किया था, किन्तु परिणाम बिल्कुल विपरीत निकला। अब मैं दु:ख के सागर में डूब रही हूँ। हो सकता है कि मैं अब मरने वाली हैं, क्योंकि मेरी जीवनी-शक्ति चुक गई है। ऐसी है मेरी मानसिक दशा।
कुटिल प्रेमा अगेयान, नाहि जाने स्थानास्थान,भाल-मन्द नारे विचारिते ।। क्रूर शठेर गुण-डोरे, हाते-गले बान्धि' मोरे,राखियाछे, नारि' उकाशिते ॥
२१॥
प्रेम-व्यापार प्रकृति से कुटिल होते हैं। उनमें पर्याप्त ज्ञान से प्रवेश नहीं किया जाता, न ही वे इसका विचार करते हैं कि कोई स्थान उपयुक्त है या नहीं। न ही वे परिणामों की चिन्ता करते हैं। क्रूर कृष्ण ने अपने सद्गुणों की डोरी से मेरा गला तथा मेरे हाथ बाँध दिये हैं और अब मैं सुख पाने में असमर्थ हूँ।
ये मदन तनु-हीन, पर-द्रोहे परवीण, पाँच बाण सन्धे अनुक्षण ।। अबलार शरीरे, विन्धि' कैल जरजरे, दुःख देय, ना लय जीवन ॥
२२॥
मेरे प्रेम सम्बन्ध में मदन नाम का एक व्यक्ति है। उसके गुण इस कार है-उसका कोई स्थूल शरीर नहीं है, किन्तु वह अन्यों को पीड़ा ने में बहुत ही प्रवीण है। उसके पास पाँच बाण हैं, जिन्हें वह अपने धनुष्य पर चढ़ाकर निर्दोष स्त्रियों के शरीर में सन्धान करता है। इस प्रकार ये स्रियाँ जर्जर हो जाती हैं। अच्छा तो यह होता कि वह बिना हिचक के । प्राण ले लेता, किन्तु वह ऐसा नहीं करता। वह मुझे केवल पीड़ा देता हैं अन्येर ये दुःख मने, अन्ये ताहा नाहि जाने,सत्य एइ शास्त्रेर विचारे । अन्य जन काहाँ लिखि, ना जानये प्राण-सखी,झाते कहे धैर्य धरिबारे ॥
२३॥
शास्त्रों में कहा गया है कि एक मनुष्य दूसरे के मन के दुःख को नहीं जान सकता। अतएव मैं ललिता तथा अपनी अन्य प्रिय सखियों के बारे में क्या कह सकती हूँ? न ही वे मेरे अन्तर के दुःख को समझ सकती हैं। वे बारम्बार यही कहकर मुझे सान्त्वना देती हैं ‘हे सखी, धैर्य धरो।'
‘कृष्ण कृपा-पारावार, कभु करिबेन अङ्गीकार'सखि, तोर ए व्यर्थ वचन ।। जीवेर जीवन चञ्चल, ग्रेन पद्म-पत्रेर जल,तत दिन जीवे कोन्जन ॥
२४॥
मैं कहती हैं, 'हे सखियों, तुम मुझे यह कहकर धैर्य धरने को कहती हो कि कृष्ण कृपासिन्धु हैं और एक न एक दिन मुझे स्वीकार कर लेंगे। किन्तु मैं बतला हूँ कि मुझे इससे सान्त्वना नहीं मिल सकेगी। जीव का जीवन क्षणभंगुर है। यह कमल की पंखुड़ी पर टिके जल के समान है। कृष्ण-कृपा की आशा में भला इतने दिन कौन जीवित रहेगा? शत वत्सर पर्यन्त, जीवेर जीवन अन्त,एइ वाक्य कह ना विचारि' ।। नारीर यौवन-धन, यारे कृष्ण करे मन,से यौवन-दिन दुइ-चारि ॥
२५॥
मनुष्य सौ वर्ष से अधिक जीवित नहीं रहता। तुम्हें यह भी विचार करना होगा कि स्त्री का यौवन, जो कृष्ण का एकमात्र आकर्षण है, कुछ 0 दिनों तक रहता है।
अग्नि ग्रैछे निज-धाम, देखाइया अभिराम,पतङ्गीरे आकर्षिया मारे ।। कृष्ण ऐछे निज-गुण, देखाइया हरे मन,पाछे दुःख-समुद्रेते डारे ॥
२६ ॥
यदि तुम यह कहती हो कि कृष्ण दिव्य गुणों के सागर हैं, अतएव कभी न कभी दयालु होंगे, तो मुझे इतना ही कहना है कि वे उस अग्नि के समान हैं, जो अपनी चकाचौंध से पतंगों को आकृष्ट करती है और उन्हें मार डालती है। कृष्ण के गुण ऐसे हैं। वे अपने दिव्य गुण दिखलाकर वे हमारे मनों को आकृष्ट करते हैं और बाद में हमसे विलग होकर हमें दुः के सागर में डुबा देते हैं।
एतेक विलाप करि', विषादे श्री-गौरहरि,उघाड़िया दुःखेर कपाट ।। भावेर तरङ्ग-बले, नाना-रूपे मन चले, आर एक श्लोक कैल पाठ ॥
२७॥
इस प्रकार श्री चैतन्य महाप्रभु विषाद के महासागर में विलाप करते। और अपने दुःख के द्वारों को खोल देते थे। भाव की तरंगों के वशीभूत होकर उनको मन दिव्य रसों में विचरण करता और इस तरह वे एक अन्य श्लोक का उच्चारण करते ( जो निम्न है)।
श्री-कृष्ण-रूपादि-निषेवणं विनाव्यर्थानि मेऽहान्यखिलेन्द्रियाण्यलम् । पाषाण-शुष्केन्धन-भारकाण्यहोबिभर्मि वा तानि कथं हत-त्रपः ॥
२८ ॥
हे सखियों, यदि मैं श्रीकृष्ण के दिव्य रूप, गुणों तथा लीलाओं को सेवा नहीं करती, तो मेरे सारे दिन तथा मेरी सारी इन्द्रियाँ पूर्णतया व्यर्थ हो आयेंगे। अभी मैं पत्थर तथा सूखी लकड़ी जैसी अपनी इन्द्रियों का भार व ही ढो रही हूँ। मैं नहीं जानती कि निर्लज्ज बनकर कब तक मैं यह र दोती रहूंगी।'
वंशी-गानामृत-धाम, लावण्यामृत-जन्म-स्थान,ने ना देखे से चाँद वदन ।।से नयने किबा काज, पड़क तार मुण्डे वाज,से नयन रहे कि कारण ॥
२९॥
उस मनुष्य की आँखों का क्या लाभ, जो कृष्ण के उस चन्द्र ।। मुख को नहीं देखता, जो सारी सुन्दरता का जन्मस्थान है और उनकी वंशी के अमृततुल्य गीतों का आगार है? अरे! उस मनुष्य के सिर पर वज्रपात हो जाये! उसने ऐसी आँखें क्यों रखी हैं? सखि हे, शुन, मोर हत विधि-बल मोर वपु-चित्त-मन, सकल इन्द्रिय-गण, ।।कृष्ण विनु सकल विफले ॥
३०॥
हे सखियों, कृपया मेरी बात सुनो। विधाता द्वारा प्रदत्त मेरी सारी । शक्ति जाती रही है। कृष्ण के बिना मेरा शरीर, मेरी चेतना, मन तथा उसी के माथ मेरी सारी इन्द्रियाँ व्यर्थ हैं।
कृष्णेर मधुर वाणी, अमृतेर तरङ्गिणी, तार प्रवेश नाहि ये श्रवणे । कोणाकड़ि-छिद्र सम, जानिह से श्रवण,तार जन्म हैल अकारणे ॥
३१॥
कृष्ण की कथाएँ अमृत की तरंगों के समान हैं। यदि ऐसा अमृत किमी के कानों में प्रविष्ट नहीं करता, तो वे कान टूटे शंख के छिद्र के अमान हैं। ऐसे कान को बनाने का प्रयोजन व्यर्थ है।
कृष्णेर अधरामृत, कृष्ण-गुण-चरित,सुधा-सार-स्वाद-विनिन्दन ।। तार स्वाद ये ना जाने, जन्मिया ना मैल केने,से रसना भेक जिह्वा सम ॥
३२॥
भगवान् कृष्ण के होठों का अमृत तथा उनके दिव्य गुण और चरि, सभी अमृत के सार के स्वाद को तुच्छ बनाने वाले हैं, और ऐसे अमृत का आस्वादन करने में कोई दोष नहीं है। जो इसका आस्वादन नहीं करता, उसे जन्म लेते ही मर जाना चाहिए और उसकी जीभ मेंढक की जीभ ।। समान समझी जानी चाहिए।
मृग-मद नीलोत्पल, मिलने ग्रे परिमल,येइ हरे तार गर्व-मान ।। हेन कृष्ण-अङ्ग-गन्ध, यार नाहि से सम्बन्ध,सेइ नासा भस्त्रार समान ॥
३३॥
कृष्ण के शरीर की सुगन्ध कस्तूरी की सुगन्ध के साथ मिली नी कमल के फूल की सुगन्ध के समान है। जिसने कृष्ण की इस सुगन्धको नहीं हूँघा, उसके नथुने लोहार की धौंकनी के तुल्य हैं। वस्तुतः ऐसी सुगन्ध कृष्ण के शरीर की सुगन्ध के आगे फीकी पड़ जाती है।
कृष्ण-कर-पद-तल, कोटि-चन्द्र-सुशीतल,तार स्पर्श ग्रेन स्पर्श-मणि ।। तार स्पर्श नाहि ग्रार, से ग्राउक्छारखार,सेइ वपु लौह-सम जानि ॥
३४॥
कृष्ण के हाथ तथा पैर के तलवे इतने शीतल और सुहावने हैं कि उनकी उपमा करोड़ों चन्द्रमाओं के प्रकाश से ही दी जा सकती है। जिसने के हाथों तथा पैरों का स्पर्श किया है, उसने सचमुच पारस पत्थर के प्रभाव का अनुभव किया है। यदि किसी ने उनका स्पर्श नहीं किया, तो का जीवन व्यर्थ है और उसका शरीर लोहे के समान है।
करि' एत विलपन, प्रभु शची-नन्दन, उघाड़िया हृदयेर शोक ।। दैन्य-निर्वेद-विषादे, हृदयेर अवसादे,पुनरपि पड़े एक श्लोक ॥
३५॥
इस प्रकार विलाप करते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने हृदय के । भीतर शोक के कपाट खोल दिये। उन्होंने हताश, दीन एवं उदास होका अवसाद भरे हृदय से बार-बार एक श्लोक पढ़ा।
यदा ग्रातो दैवान्मधु-रिपुरसौ लोचन-पथंतदास्माकं चेतो मदन-हतकेनाहृतमभूत् । पुनर्यस्मिन्नेष क्षणमपि दृशोरेति पदवींविधास्यामस्तस्मिन्नखिल-घटिका रत्न-खचिताः ॥
३६॥
। पदि दैववश कृष्ण का दिव्य रूप मेरी दृष्टि के सामने आये, तो में व्यथित मेरा हृदय, मूर्तिमन्त आनन्द रूप कामदेव द्वारा चुरा लिया। गा। चूंकि मैं कृष्ण के सुन्दर रूप को जी-भरकर नहीं देख सकी, । जिस क्षण मैं इस रूप को पुनः देखेंगी, तो उस क्षण को मैं अनेक में अलंकृत करूंगी।'
ग्रे काले वा स्वपने, देखिनु वंशी-वदने,सेइ काले आइला दुइ वैरि ।।‘आनन्द' आर ‘मदन', हरि' निल मोर मन,देखिते ना पाइनु नेत्र भरि' ॥
३७॥
जब भी, यहाँ तक कि स्वप्न में भी, मुझे कृष्ण के मुख तथा उनकी वंशी के दर्शन का अवसर मिलता था, तो मेरे सामने दो शत्रु प्रकट हो जाते थे-आनन्द तथा कामदेव। चूंकि ये मेरे चित्त को हर लेते थे, अतएव में। नेत्र-भरकर कृष्ण के मुख को न देख सकी।
पुनः यदि कोन क्षण, कराय कृष्ण दरशनतबे सेइ घटी-क्षण-पल ।। दिया माल्य-चन्दन, नाना रत्न-आभरण,अलङ्कृत करिमु सकल ॥
३८ ॥
यदि दैववश ऐसा क्षण आये कि मैं पुनः कृष्ण को देख पाऊँ तो उन क्षणों, घड़ियों तथा घंटों की फूल की मालाओं तथा चन्दन-लेप में। पूजा करूंगी और उन्हें सभी प्रकार के रत्नों तथा आभूषणों से सजाऊँगी। ।
क्षणे बाह्य हैल मन, आगे देखे दुइ जन,ताँरै पुछे,—आमि ना चैतन्य?।।स्वप्न-प्राय कि देखिनु, किबा आमि प्रलापिनु,तोमरा किछु शुनियाछ दैन्य? ॥
३९॥
क्षण भर में श्री चैतन्य महाप्रभु को बाह्य चेतना आ गई और उन्होंने ने पपक्ष दो व्यक्तियों को देखा। महाप्रभु ने उनसे पूछा, क्या मैं सचेत मैं कौन से स्वपन देख रहा था? मैं कैसा प्रलाप कर रहा था? क्या सैन्य के कुछ वचन सुने ? शुन मोर प्राणेर बान्धव नाहि कृष्ण-प्रेम-धन, दरिद्र मोर जीवन, ।।देहेन्द्रिय वृथा मोर सब ॥
४०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, हे मित्रों, तुम लोग मेरे प्राण हो, अतएव मैं तुम्हें बतलाता हूँ कि मेरे पास कृष्ण-प्रेमरूपी धन नहीं है। इसलिए मेरा जीवन दरिद्र है। मेरे अंग तथा इन्द्रियाँ व्यर्थ हैं।
पुनः कहे,—हाय हाय, शुन, स्वरूप-रामराय,एइ मोर हृदय-निश्चय ।। शुनि करह विचार, हय, नय---कह सार, एत बलि' श्लोक उच्चारय ॥
४१॥
निराशाभरे शब्दों में उन्होंने पुनः स्वरूप दामोदर तथा राय रामानन्द को सम्बोधित किया, हाय! मेरे मित्रों, अब तुम मेरे हृदय के निश्चय को जान सकते हो और यह जान लेने के बाद तुम यह निर्णय करो कि मैं सही हूँ या नहीं। तुम इस बारे में ठीक से कह सकते हो। इसके बाद श्री । महाप्रभु ने दूसरे श्लोक का उच्चारण किया।
क-इ-अवरहि-अं पेम्मं ण हि होइ माणुसे लोए । ज-इ होइ कस्स विरहे होन्तम्मि को जीअ-इ ॥
४२॥
छलसहित भगवत्प्रेम इस भौतिक जगत् में सम्भव नहीं है। यदि ऐसा , तो उसमें विरह नहीं हो सकता, क्योंकि विरह में कोई कैसे जीवित रह सकता है?' अकैतव कृष्ण-प्रेम, ग्रेन जाम्बूनद-हेम,सेइ प्रेमा नृलोके ना हय ।। यदि हय तार योग, ना हय तबे वियोग, वियोग हैले केह ना जीयय ॥
४३॥
कृष्ण का शुद्ध प्रेम जाम्बू नदी से मिलने वाले सोने की तरह है, जो मानव समाज में नहीं पाया जाता। यदि यह होता तो इसमें वियोग नहीं होता। वियोग होने से कोई जीवित नहीं रह सकता।
एत कहि' शची-सुत, श्लोक पड़े अद्भुत,शुने मुँहे एक-मन हा । आपन-हृदय-काज, कहिते वासिये लाज, तबु कहि लाज-बीज खाजा ॥
४४॥
। इस प्रकार कहते हुए श्रीमती शचीमाता के पुत्र ने एक दूसरा अद्भुत श्लोक सुनाया, जिसे रामानन्द राय एवं स्वरूप दामोदर ने एकाग्र चित्त से सुना। श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, मैं अपने मन के कार्य बताने में लज्जा का अनुभव कर रहा हूँ। फिर भी मैं सारी औपचारिकताओं को छोड़कर अपने मन की बात कहूँगा। सुनो। ।
न प्रेम-गन्धोऽस्ति दरापि मे हरौक्रन्दामि सौभाग्य-भरं प्रकाशितुम् ।। वंशी-विलास्यानन-लोकनं विनाबिभर्मि ग्रत्प्राण-पतङ्गकान्वृथा ॥
४५ ॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, हे मित्रों, मेरे हृदय में रंचमात्र भी भगवत् प्रेम नहीं है। जब तुम लोग मुझे विरह में रोते देखते हो, तो मैं अपने पाम सौभाग्य का मात्र झूठा प्रदर्शन कर रहा होता हूँ। निस्सन्देह, मुरली बजाते हुए कृष्ण के सुन्दर मुखमण्डल का दर्शन किये बिना मैं एक कीट भी तरह व्यर्थ जीवन व्यतीत कर रहा हूँ।
दूरे शुद्ध-प्रेम-गन्ध, कपट प्रेमेर बन्ध,सेह मोर नाहि कृष्ण-पाय ।। तबे ये करि क्रन्दन, स्व-सौभाग्य प्रख्यापन,करि, इहा जानिह निश्चय ॥
४६॥
वास्तव में मुझे कृष्ण से बिल्कुल भी प्रेम नहीं है। मैं जो भी करता हूँ, वह सब कपटपूर्ण भगवत्प्रेम का दिखावा है। जब मैं रोता हूँ, तो मात्र अपने सौभाग्य का मिथ्या प्रदर्शन करता हूँ। इसे निश्चत रूप से जानो।
ग्राते वंशी-ध्वनि-सुख, ना देखि' से चाँद मुख,यद्यपि नाहिक 'आलम्बन' । निज-देहे करि प्रीति, केवल कामेर रीति,प्राण-कीटेर करिये धारण ॥
४७॥
यद्यपि मैं वंशी बजाते हुए कृष्ण का चन्द्रमुख नहीं देख पाता, न ही मेरी उनसे भेंट होने की कोई सम्भावना है, तब भी मैं अपने शरीर की देखभाल करता हूँ। यही कामवासना की रीति है। इस प्रकार मैं अपने कीट सदृश जीवन को धारण किए रहता हूँ।
कृष्ण-प्रेमा सुनिर्मल, ग्रेन शुद्ध-गङ्गा-जल, सेइ प्रेमा-अमृतेर सिन्धु ।। निर्मल से अनुरागे, ना लुकाय अन्य दागे,शुक्ल-वस्त्रे त्रैछे मसी-बिन्दु ॥
४८॥
। कृष्ण-प्रेम गंगाजल के समान अत्यन्त शुद्ध है। ऐसा प्रेम अमृत का म है। कृष्ण के प्रति ऐसा शुद्ध अनुराग किसी दाग को नहीं छिपाता, भी मफेद वस्त्र पर स्याही के दाग के समान दिखता है।
शुद्ध-प्रेम-सुख-सिन्धु, पाइ तार एक बिन्दु,सेइ बिन्दु जगत्डुबाय ।। कहिबार योग्य नय, तथापि बाउले कय, कहिले वा केबा पातियाय ॥
४९॥
शुद्ध कृष्ण-प्रेम सुख के सागर जैसा है। यदि किसी को उसकी एक बूंद भी मिल जाये, तो उस बूंद में सारा संसार डूब सकता है। यद्यपि ऐसे भगवत्प्रेम को व्यक्त करना उचित नहीं है, तथापि एक उन्मत्त व्यक्ति उसे कह देगा। किन्तु उसके कहने पर भी उस पर कोई विश्वास नहीं करता।
एई मत दिने दिने, स्वरूप-रामानन्द-सने,निज-भाव करेन विदित । बाह्ये विष-ज्वाला हये, भितरे आनन्द-मय,कृष्ण-प्रेमार अद्भुत चरित ॥
५०॥
। इस प्रकार चैतन्य महाप्रभु नित्य प्रति इन भावों का आनन्द लेते और भा को स्वरूप तथा रामानन्द के सामने प्रकट करते। ऊपर से तो नाण कष्ट प्रतीत होता था, मानों महाप्रभु किसी विषैले प्रभाव से त हो, किन्तु हृदय में वे आनन्द का अनुभव करते थे। कृष्ण के दिव्य का यही गुण है।
एइ प्रेमा-आस्वादन, तप्त-इक्षु-चर्वण,मुख ज्वले, ना ग्राय त्यजन ।। सेइ प्रेमा ग्राँर मने, तार विक्रम सेइ जाने,विषामृते एकत्र मिलन ॥
५१॥
। । जो ऐसे भगवत्-प्रेम का आस्वादन करता है, वह इसकी तुलना गर्म = (ई) से करता है। गर्म गन्ने को यदि कोई चबाता है, तो उसका लता है, फिर भी वह उसे छोड़ नहीं सकता। इसी प्रकार किसी में यदि लेश मात्र भी भगवत्प्रेम हो, तो वह इसके सशक्त प्रभाव का अनुभव कर सकता है। इसकी तुलना अमृत और विष के मिश्रण से ही की जा सकती हैं। पीड़ाभिर्नव-काल-कूट-कटुता-गर्वस्य निर्वासनोनिस्यन्देन मुदां सुधा-मधुरिमाहङ्कार-सङ्कोचनः । प्रेमा सुन्दरि नन्द-नन्दन-परो जागर्ति ग्रस्यान्तरे ।ज्ञायन्ते स्फुटमस्य वक़-मधुरास्तेनैव विक्रान्तयः ॥
५२॥
चैतन्य महाप्रभु ने कहा, हे सुन्दरियों, यदि कोई भगवत्प्रेम अर्थात् नन्द महाराज के पुत्र, कृष्ण के प्रति प्रेम जाग्रत कर लेता है, तो उसके हृदय में इस प्रेम के कड़वे तथा मीठे सभी प्रभाव प्रकट होंगे। ऐसा भगवत्प्रेम दो प्रकार से कार्य करता है। भगवत्प्रेम का विषैला प्रभाव सर्प के ताजे तथा तीव्र विष को भी पराजित करनेवाला है। तथापि उसी के साथ ऐसा दिव्य आनन्द भी मिलता है, जो अमृत के अहंकार को चूर करके उसके मान को घटाता है। दूसरे शब्दों में, कृष्ण-प्रेम इतना शक्तिशाली है कि वह सर्प के विषैले प्रभाव के साथ-साथ सिर पर गिरने वाले अमृत से प्राप्त सुख को भी परास्त करने वाला होता है। इसका अनुभव दो रूपों में किया जाता है-एक साथ विषैला तथा अमृततुल्य।
ग्रे काले देखे जगन्नाथ-श्रीराम-सुभद्रा-साथ,तबे जाने–आइलाम कुरुक्षेत्र ।। सफल हैल जीवन, देखिलँ पद्म-लोचन,जुड़ाइल तनु-मन-नेत्र ॥
५३॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथजी को श्री बलराम तथा सुभद्रा के माथ देखते, तो वे तुरन्त सोचने लगते कि वे कुरुक्षेत्र पहुँच गये हैं, जहाँ १ सय आये थे। वे अपने जीवन को कृतार्थ समझते, क्योंकि उन्होंने उन कमलनयन के दर्शन किये हैं, जो अपने दर्शन से तन, मन तथा नेत्रों को शान्त करने वाले हैं।
गरुड़ेर सन्निधाने, रहि' करे दरशने,से आनन्देर कि कहिब ब'ले ।। गरुड़-स्तम्भेर तले, आछे एक निम्न खाले,से खाल भरिल अश्रु-जले ॥
५४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु गरुड़-स्तम्भ के पास खड़े रहकर भगवान जगन्नाथ का दर्शन करते थे। भला उस प्रेम के बल के विषय में क्या। कहा जा सकता है? उस गरुड़-स्तम्भ के नीचे भूमि पर एक गहरी नाली थी, जो उनके अश्रु-जल से भर जाती थी।
ताहाँ हैते घरे आसि', माटीर उपरे वसि',नखे करे पृथिवी लिखन ।। हा-हा काहाँ वृन्दावन, काहाँ गोपेन्द्र-नन्दन,काहाँ सेइ वंशी-वदन ॥
५५॥
जगन्नाथ-मन्दिर से घर लौटकर श्री चैतन्य महाप्रभु भूमि पर बैठा और अपने नाखूनों से उसे कुरेदते। ऐसे अवसर पर वे अत्यन्त दुःखी हो प्रलाप करते, हाय, वृन्दावन कहाँ है? गोपेन्द्रनन्दन कृष्ण कहाँ हैं? वंशी बजाने वाला कहाँ है? काहाँ से त्रि-भङ्ग-ठाम, काहाँ सेइ वेणु-गान,काहाँ सेइ यमुना-पुलिन ।। काहाँ से रास-विलास, काहाँ नृत्य-गीत-हास,काहाँ प्रभु मदन-मोहन ॥
५६॥
भी चैतन्य महाप्रभु यह कहकर विलाप किया करते, त्रिभंगी कृष्ण हैं? कहाँ है उनकी बाँसुरी का मधुर गान? कहाँ है यमुना का तट? । रास-नृत्य? कहाँ है वह नृत्य, गीत और हँसी? कहाँ है मेरे नाथ मोहन, जो कामदेव को मोहत करने वाले हैं? उठिल नाना भावावेग, मने हैल उद्वेग,क्षण-मात्र नारे गोडाइते ।। प्रबल विरहानले, धैर्य हैल टलमले, नाना श्लोक लागिला पड़िते ॥
५७॥
इस प्रकार विविध भावावेग उत्पन्न होते और चैतन्य महाप्रभु का मन उद्विग्न हो उठता। वे एक क्षण भी निश्चिन्त नहीं रह पाते। इस तरह विरह की प्रबल भावनाओं के कारण उनका धैर्य छूटने लगता और वे विभिन्न श्लोकों का उच्चारण करने लगते।।
अमून्यधन्यानि दिनान्तराणिहरे त्वदालोकनमन्तरेण ।। अनाथ-बन्धो करुणैक-सिन्धोहा हन्त हा हन्त कथं नयामि ॥
५८॥
हे प्रभु, हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्, हे अनाथों के मित्र! आप एकमात्र कृपा के सागर हैं। चूंकि मैं आपसे मिल नहीं पाया, इसलिए मेरे अशुभ दिन तथा रातें असह्य हो गये हैं। मैं समझ नहीं पा रहा कि मैं अपना समय किस तरह व्यतीत करूं?' तोमार दर्शन-विने, अधन्य ए रात्रि-दिने,एड काल ना ग्राय काटन ।। तुमि अनाथेर बन्धु, अपार करुणा-सिन्धु, कृपा करि' देह देरशन ॥
५९॥
। आपके दर्शन के अभाव में ये अशुभ दिन तथा रातें कट नहीं रही हैं। समझ में नहीं आता कि यह समय कैसे काटा जाये। किन्तु आप अनाथों के मित्र और करुणा के सागर हैं। कृपा करके अपना दर्शन दें, क्योंकि मैं बहुत संदिग्ध अवस्था में हूँ।
उठिल भाव-चापल, मन हइल चञ्चल,भावेर गति बुझन ना ग्राय ।। अदर्शने पोड़े मन, केमने पाब दरशन,कृष्ण-ठाजि पुछेन उपाय ॥
६०॥
इस प्रकार महाप्रभु भावावेश के कारण अस्थिर हो गये और उनका मन उत्तेजित हो गया। कोई यह समझ नहीं पा रहा था कि यह भाव किभर ले जायेगा। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण से न मिल पाने के कारण भी चैतन्य महाप्रभु का मन जलने लगा। वे भगवान् कृष्ण से उन तक पहुँचने का उपाय पूछने लगे।
त्वच्छैशवं त्रि-भुवनाद्भुतमित्यवेहि ।मच्चापलं च तव वा मम वाधिगम्यम् । तत्कि करोमि विरलं मुरली-विलासिमुग्धं मुखाम्बुजमुदीक्षितुमीक्षणाभ्याम् ॥
६१ ॥
हे कृष्ण, हे वंशीवादक, आपके बाल्यकाल की माधुरी तीनों लोको में अद्भुत है। आप मेरी चपलता को जानते हैं और मैं आपकी। इस विषय में अन्य कोई नहीं जानता। मैं आपके सुन्दर आकर्षक मुखमण्डल को एकान्त में देखना चाहता हूँ, किन्तु यह कैसे सम्भव होगा?' तोमार माधुरी-बल, ताते मोर चापल,एइ दुइ, तुमि आमि जानि ।। काहाँ करों काहाँ ग्राँ, काहाँ गेले तोमा पाँ,ताहा मोरे कह त' आपनि ॥
६२॥
प्रिय कृष्ण! आपके सुन्दर रूप की शक्ति को केवल मैं या आप भाभते हैं और मेरी अस्थिरता (चपलता) का कारण भी वही है। अब । स्थिति ऐसी है कि समझ में नहीं आता क्या करूँ और कहाँ जाऊँ। आपको कहाँ पा सकता हूँ। मैं तो आपसे ही मार्गदर्शन के लिए कह रहा हूँ ।
नाना-भावेर प्राबल्य, हैल सन्धि-शाबल्य,भावे-भावे हैल महा-रण ।। औत्सुक्य, चापल्य, दैन्य, रोषामर्ष आदि सैन्य,प्रेमोन्माद—सबारे कारण ॥
६३॥
विभिन्न प्रकार के भावों के कारण मन में विरोधी दशाएँ उत्पन्न होती, जिससे विभिन्न प्रकार के भावों में डटकर युद्ध होता था। चिन्ता, चपलता, दीनता, क्रोध तथा अधीरता सैनिकों की भाँति युद्ध करते और इसका कारण था भगवत्-प्रेम का उन्माद।
मत्त-गज भाव-गण, प्रभुर देह-इक्षु-वन, गज-युद्धे वनेर दलन ।। प्रभुर हैल दिव्योन्माद, तनु-मनेर अवसाद,भावावेशे करे सम्बोधन ॥
६४॥
महाप्रभु का शरीर उस गन्ने के खेत के समान था, जिसमें भावरूपी उन्मत्त हाथी प्रवेश कर गये हों। इन हाथियों में युद्ध होने से ईख का सारा गत नष्ट हो गया। इस तरह महाप्रभु के शरीर में दिव्य उन्माद का उदय हुआ और उन्हें मन तथा शरीर में निराशा का अनुभव होने लगा। ऐसी भर दशा में वे इस प्रकार बोलने लगे।
हे देव हे दयित हे भुवनैक-बन्धोहे कृष्ण हे चपल हे करुणैक-सिन्धो ।हे नाथ हे रमण हे नयनाभिरामहा हा कदा नु भवितासि पदं दृशोर्मे ॥
६५॥
हे प्रभु! हे प्रियतम! हे ब्रह्माण्ड के एकमात्र सखा! हे कृष्ण, ।। चपल, हे करुणासिन्धु! हे स्वामी, हे मेरे भोक्ता, हे मेरे नयनाभिराम।।हाय, आप मुझे अब पुनः कब दर्शन देंगे? उन्मादेर लक्षण, कराय कृष्ण-स्फुरण,भावावेशे उठे प्रणय मान ।। सोल्लुण्ठ-वचन-रीति, मान, गर्व, व्याज-स्तुति,कभु निन्दा, कभु वा सम्मान ॥
६६॥
उन्माद के लक्षणों से कृष्ण के स्मरण को प्रोत्साहन मिलता था।भावावेश में प्रेम (प्रणय), मान, मीठे वचनों द्वारा तिरस्कार, गर्व, आदर तथा अप्रत्यक्ष स्तुति जाग्रत होते थे। इस प्रकार कभी कृष्ण की निन्दा होती है। कभी उनका सम्मान होता। तुमि देव क्रीड़ा-रत, भुवनेर नारी व्रत, ताहे कर अभीष्ट क्रीड़न ।। तुमि मोर दयित, मोते वैसे तोमार चित,मोर भाग्ये कैले आगमन ॥
६७॥
राधारानी के मनोभाव में श्री चैतन्य महाप्रभु ने कृष्ण को इस प्रकार सम्बोधित किया : हे प्रभु, आप अपनी लीलाओं में रत हैं और आप अपनी इच्छानुसार ब्रह्माण्ड की सारी स्त्रियों का उपभोग करते हैं। आप मुझ पर अत्यन्त कृपालु हैं। आप अपना ध्यान मेरी ओर दें, क्योंकि भाग्यवश आप मेरे समक्ष प्रकट हुए हैं।
भुवनेर नारी-गण, सबा' कर आकर्षण,ताहाँ कर सब समाधान । तुमि कृष्ण—चित्त-हर, ऐछे कोन पामर,तोमारे वा केबा करे मान ॥
६८ ॥
हे प्रभु, आप ब्रह्माण्ड की सारी स्त्रियों को आकृष्ट करते हैं और वे आती हैं, तब आप उन सबका समाधान करते हैं। आप भगवान् कृष्ण हैं और सबके चित्त को हरने वाले हैं, किन्तु अन्ततः आप हैं लेप (विलासी ) ही। भला आपका सम्मान कौन करेगा? तोमार चपल-मति, एकत्र ना हय स्थिति,ता'ते तोमार नाहि किछु दोष ।। तुमि त' करुणा-सिन्धु, आमार पराण-बन्धु,तोमाय नाहि मोर कभु रोष ॥
६९॥
। हे प्रिय कृष्ण, आपका मन सदैव चंचल रहता है। आप एक स्थान ॥
नहीं रह सकते, किन्तु इसमें आपका दोष नहीं है। आप तो करुणा के मगर हैं, मेरे प्राण-प्रिय हैं। अतएव आपसे रुष्ट होने का कोई कारण नहीं तुमि नाथ-व्रज-प्राण, व्रजेर कर परित्राण, बहु कार्ये नाहि अवकाश ।। तुमि आमार रमण, सुख दिते आगमन,ए तोमार वैदग्ध्य-विलास ॥
७० ॥
॥
हे नाथ, आप वृन्दावन के स्वामी तथा उसके प्राण हैं। कृपा करके वृन्दावन के उद्धार का उपाय कीजिये। हमें अपने अनेक कामों से तनिक भी अवकाश नहीं है। वास्तव में आप मेरे भोक्ता हैं। आप मुझे सुख प्रदान करने के लिए ही प्रकट हुए हैं और यह आपकी दक्ष लीलाओं में से एक है।
मोर वाक्य निन्दा मानि, कृष्ण छाड़ि' गेला जानि,शुन, मोर ए स्तुति-वचन ।। नयनेर अभिराम, तुमि मोर धन-प्राण,हा-हा पुनः देह दरशन ॥
७१॥
मेरे वचनों को निन्दा मानकर भगवान् कृष्ण मुझे छोड़कर चले गये हैं। मैं जानता हूँ कि वे चले गये हैं, किन्तु मेरी स्तुति सुन लीजिये : 'आप मेरे नेत्रों की तुष्टि हो। आप ही मेरे धन और जीवन हो। हाय! कृपया एक । बार फिर मुझे अपना दर्शन दीजिये। ।
स्तम्भ, कम्प, प्रस्वेद, वैवर्य, अश्रु, स्वर-भेद, देह हैल पुलके व्यापित ।। हासे, कान्दे, नाचे, गाय, उठि' इति उति धाय,क्षणे भूमे पड़िया मूर्च्छित ॥
७२॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु के शरीर में विविध विकार प्रकट होते थेलाभत होना, कांपना, पसीना आना, रंग फीका पड़ना, रोना और गला रुँधना। इस प्रकार उनका सारा शरीर दिव्य आनन्द से व्याप्त रहता था। फलस्वरूप श्री चैतन्य महाप्रभु कभी हँसते, कभी रोते, कभी नाचते तो कभी गाते थे। कभी वे उठकर इधर-उधर दौड़ते और कभी भूमि पर गिर जाते और अचेत हो जाते।
मूच्छय हैल साक्षात्कार, उठि' करे हुहुङ्कार,कहे—एइ आइला महाशय ।। कृष्णेर माधुरी-गुणे, नाना भ्रम हय मने, श्लोक पड़ि' करये निश्चय ॥
७३॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु अचेत थे, तब उनकी भेंट पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् से हुई। फलस्वरूप वे तुरन्त उठकर जोर से हुंकार करने लगे और उन्होंने ऊँचे स्वर में घोषित किया, महापुरुष कृष्ण अब उपस्थित हैं। इस प्रकार कृष्ण के मधुर गुणों के कारण चैतन्य महाप्रभु को मन में तरह-तरह के भ्रम होते थे। वे निम्नलिखित श्लोक को पढ़कर भगवान् कृष्ण की उपस्थिति सुनिश्चित करते थे।
मारः स्वयं नु मधुर-द्युति-मण्डलं नु।माधुर्यमेव नु मनो-नयनामृतं नु । वेणी-मृजो नु मम जीवित-वल्लभो नु।कृष्णोऽयमभ्युदयते मम लोचनाय ।। ७४ ॥
राधारानी के भाव में श्री चैतन्य महाप्रभु ने गोपियों को सम्बोधित किया, हे सखियों, कदम्ब पुष्प के समान तेजस्वी, साक्षात् माधुर्य, मेरी आँखों तथा मन के अमृत, गोपियों के बालों को शिथिल करने वाले, दिव्य आनन्द के परम स्रोत और मेरे जीवन-प्राण रूपी मूर्तिमान कामदेव कृष्ण कहाँ हैं? क्या वे मेरे नेत्रों के समक्ष दोबारा प्रकट हुए हैं?' किबा एई साक्षात्काम, द्युति-बिम्ब मूर्तिमान्,कि माधुर्य स्वयं मूर्तिमन्त ।। किबा मनो-नेत्रोत्सव, किबा प्राण-वल्लभ,सत्य कृष्ण आइला नेत्रानन्द ॥
७५॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु इस प्रकार कहने लगे, “क्या कदम्ब वृक्ष के तेज एवं प्रतिबिम्ब के साथ साक्षात् कामदेव उपस्थित है? क्या ये वही व्यक्ति हैं, जो साक्षात् माधुर्य हैं, जो मेरी आँखों तथा मन के आनन्द हैं, जो मेरे जीवन और प्राण हैं? क्या सचमुच कृष्ण मेरी आँखों के सामने आ गये हैं? गुरु नाना भाव-गण, शिष्य—प्रभुर तनु-मन,नाना रीते सतत नाचाय ।निर्वेद, विषाद, दैन्य, चापल्य, हर्ष, धैर्य, मन्यु,एइ नृत्ये प्रभुर काल ग्राय ॥
७६ ॥
जिस प्रकार गुरु शिष्य को डांटता है और उसे भक्ति की कला मरवृलाता है, उसी प्रकार निर्वेद ( उदासी), विषाद, दीनता, चंचलता, आर्य, धैर्य और क्रोध आदि भाव महाप्रभु के शरीर तथा मन को शिक्षा देते थे। इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु अपना समय बिताते थे।
चण्डीदास, विद्यापति, रायेर नाटक-गीति,कर्णामृत, श्री-गीत-गोविन्द ।। स्वरूप-रामानन्द-सने, महाप्रभु रात्रि-दिने,गाय, शुने—परम आनन्द ॥
७७॥
वे अपना समय पुस्तकें पढ़ने तथा चण्डीदास और विद्यापति द्वारा रचित गीत गाने और जगन्नाथ वल्लभ नाटक, कृष्णकर्णामृत तथा गीतगोविन्द के उद्धरण सुनने में बिताते थे। इस तरह स्वरूप दामोदर तथा राय रामानन्द के साथ श्री चैतन्य महाप्रभु परम आनन्द के साथ कीर्तन एवं श्रवण करके दिन तथा रात व्यतीत करते थे।
पुरीर वात्सल्य मुख्य, रामानन्देर शुद्ध-सख्य,गोविन्दाद्येर शुद्ध-दास्य-रस ।। गदाधर, जगदानन्द, स्वरूपेर मुख्य रसानन्द,एइ चारि भावे प्रभु वश ॥
७८ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु को अपने पार्षदों में परमानन्द पुरी से वात्सल्य, रामानन्द राय से सख्य, गोविन्द तथा अन्यों से शुद्ध दास्य और गदाधर, जगदानन्द तथा स्वरूप दामोदर से माधुर्य रस का आनन्द प्राप्त होता था। श्री चैतन्य महाप्रभु इन चारों रसों का आस्वादन करते और इस तरह अपने भक्तों के वश में रहते हुए जगन्नाथ पुरी में रहे।
लीलाशुक–मर्त्य-जन, ताँर हय भावोद्गम,ईश्वरे से कि इहा विस्मय ।। ताहे मुख्य-रसाश्रय, हइयाछेन महाशय,ताते हय सर्व-भावोदय ॥
७९ ॥
लीलाशुक (बिल्वमंगल ठाकुर) एक सामान्य मनुष्य थे; फिर भी के शरीर में अनेक भाव उत्पन्न होते थे। तो फिर यदि पूर्ण पुरुषोत्तम । भगवान् के शरीर में ये लक्षण प्रकट हों, तो कौन-सा आश्चर्य है? श्री बैतन्य महाप्रभु माधुर्य भाव में सर्वोच्च स्थिति पर थे, अतएव उनके शरीर में समस्त भाव स्वाभाविक रूप से प्रकट होते थे।
पूर्वे व्रज-विलासे, येइ तिन अभिलाषे,ग्रत्नेह आस्वाद ना हैल ।। श्री-राधार भाव-सार, आपने करि' अङ्गीकार,सेइ तिन वस्तु आस्वादिल ॥
८० ॥
। वृन्दावन की अपनी पूर्ववर्ती लीलाओं में भगवान् कृष्ण तीन विधि प्रकार के भावों का आस्वादन करना चाहते थे, किन्तु अत्यधिक प्रय के बाद भी वे वैसा नहीं कर पाये। ऐसे भावों पर श्रीमती राधारानी एकाधिकार है। अतएव उनका आस्वादन करने के लिए ही श्रीकृष्ण श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में श्रीमती राधारानी का स्थान अंगीकार किया।
आपने करि' आस्वादने, शिखाइल भक्त-गणे,प्रेम-चिन्तामणिर प्रभु धनी ।। नाहि जाने स्थानास्थान, झारे तारे कैल दान,महाप्रभु–दाता-शिरोमणि ॥
८१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने स्वयं भगवत्प्रेम रस का आस्वादन करके अपने । को इस विधि की शिक्षा दी। वे भगवत्-प्रेम रूपी चिन्तामणि ( पारस पत्थर ) से संपन्न सर्वाधिक धनवान व्यक्ति हैं। वे पात्र-कुपात्र का किये बिना हर एक को यह धन प्रदान करते हैं। इस प्रकार वे । उदार हैं।
एइ गुप्त भाव-सिन्धु, ब्रह्मा ना पाय एक बिन्दु,हेन धन विलाइल संसारे । ऐछे दयालु अवतार, ऐछे दाता नाहि आर,गुण केह नारे वर्णिबारे ॥
८२॥
ब्रह्माजी समेत कोई भी इस गुप्त भाव-सिन्धु की एक बूंद का भी पार नहीं पा सकता या आस्वादन नहीं कर सकता। किन्तु श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपनी अहैतुकी कृपा से इस भगवत्प्रेम को सारे विश्व में बाँट दिया है। अतएव श्री चैतन्य महाप्रभु से बढ़कर उदार अन्य कोई अवतार नहीं हो सकता। उनसे बड़ा दाता कोई नहीं है। भला उनके दिव्य गुणों का वर्णन कौन कर सकता है? कहिबार कथा नहे, कहिले केह ना बुझये,ऐछे चित्र चैतन्येर रङ्ग ।। सेइ से बुझिते पारे, चैतन्येर कृपा याँरे,हय ताँर दासानुदास-सङ्ग ॥
८३॥
ऐसी कथाएँ सार्वजनिक रूप से कहने के लिए नहीं हैं, क्योंकि ऐसा करने पर भी कोई उन्हें समझ नहीं पायेगा। श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाएँ इतनी अद्भुत हैं। जो उन्हें समझ सकता है, उस पर श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने निजी दास के दास की संगति प्रदान करके अवश्य कृपा की है।
चैतन्य-लीला-रत्न-सार, स्वरूपेर भाण्डार, तेहो थुइला रघुनाथेर कण्ठे ।। ताहाँ किछु → शुनिलँ, ताहा इहाँ विस्तारिलें,भक्त-गणे दिलॆ एइ भेटे । ८४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाएँ सर्वश्रेष्ठ रत्न हैं। वे स्वरूप दामोदर गोस्वामी के भंडार में रखे हुए थे। स्वरूप दामोदर गोस्वामी ने रघुनाथ दास गोस्वामी को उनके बारे में बतलाया और रघुनाथ दास गोस्वामी ने ये लीलाएँ मेरे सामने दोहरायी। मैंने जो कुछ थोड़ा-बहुत रघुनाथ दास गोस्वामी से सुना, उसी को इस पुस्तक में, सभी भक्तों को भेंट स्वरूप, वर्णित किया है।
यदि केह हेन कय, ग्रन्थ कैल श्लोक-मय,इतर जने नारिबे बुझिते ।। प्रभुर येइ आचरण, सेइ करि वर्णन,सर्व-चित्त नारि आराधिते ॥
८५॥
यदि कोई यह कहता है कि श्रीचैतन्य-चरितामृत संस्कृत श्लोकों से भरी होने के कारण साधारण व्यक्तियों की समझ के बाहर है, तो मैं इसको उत्तर यही हूँगा कि मैंने इसमें श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं का ही वर्णन किया है और मेरे लिए हर एक को सन्तुष्ट करना सम्भव नहीं है।
नाहि काहाँ सविरोध, नाहि काहाँ अनुरोध,सहज वस्तु करि विवरण । यदि हय रागोदेश, ताहाँ हये आवेश, सहज वस्तु ना ग्राय लिखन ।। ८६ ॥
। इस चैतन्य-चरितामृत में न तो कोई विरोधात्मक निर्णय है, न ही किसी अन्य के मत को स्वीकृति दी गई है। मैंने यह पुस्तक उस सहज विषयवस्तु का वर्णन करने के लिए लिखी है, जिसे मैंने अपने गुरुजनों से सुना है। यदि मैं किसी की रुचि तथा अरुचि से प्रभावित होता, तो सम्भवतः मैं इस सरल सत्य को न लिख पाता।
ग्रेबा नाहि बुझे केह, शुनिते शुनिते सेह,कि अद्भुत चैतन्य-चरित ।। कृष्णे उपजिबे प्रीति, जानिबे रसेर रीति,शुनिलेइ बड़ हय हित ॥
८७॥
यदि प्रारम्भ में किसी की समझ में नहीं आता, किन्तु वह बार-बार इसे सुनता रहता है, तो उसमें महाप्रभु की लीलाओं के अद्भुत प्रभाव से कृष्ण-प्रेम उत्पन्न हो जायेगा। धीरे-धीरे वह कृष्ण तथा गोपियों एवं वृन्दावन के अन्य पार्षदों की माधुर्य लीलाओं को समझने लगेगा। पूरा लाभ उठाने के लिए हर एक को परामर्श दिया जाता है कि वह बार-बार श्रवण करता रहे।
भागवत–श्लोक-मय, टीका तार संस्कृत हय,तबु कैछे बुझे त्रिभुवन ।। इहाँ श्लोक दुइ चारि, तार व्याख्या भाषा करि,केने ना बुझिबे सर्व-जन ॥
८८ । जो आलोचक यह कहते हैं कि श्री चैतन्य-चरितामृत संस्कृत श्लोकों से भरा है, उसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि श्रीमद्भागवत भी संस्कृत श्लोकों से भरा है और उसके भाष्य भी। तथापि श्रीमद्भागवत को हर कोई समझ लेता है-वे उन्नत भक्तगण भी, जो संस्कृत भाष्य पढ़ते हैं। तो फिर लोग चैतन्य-चरितामृत को क्यों नहीं समझ पायेंगे? इसमें कुछ ही संस्कृत श्लोक हैं और उनकी व्याख्या बांग्ला भाषा में दी हुई है। तो फिर इसे समझने में क्या कठिनाई है? शेष-लीलार सूत्र-गण, कैलँ किछु विवरण,इहाँ विस्तारिते चित्त हय । थाके यदि आयुः-शेष, विस्तारिब लीला-शेष,ग्रदि महाप्रभुर कृपा हय ॥
८९॥
। मैंने पहले ही श्री चैतन्य महाप्रभु की अन्तिम लीलाओं से सम्बन्धित सारे तथ्यों को सूत्र रूप में दे दिया है। मेरी इच्छा है कि मैं इनका विस्तृत वर्णन करूं। यदि मैं अधिक काल तक जीवित रहा और श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा प्राप्त करने का सौभाग्य मिला, तो मैं पुनः इनका विस्तार से वर्णन करने का प्रयास करूंगा।
आमि वृद्ध जरातुर, लिखिते काँपये कर,मने किछु स्मरण ना हय ।। ना देखिये नयने, ना शुनिये श्रवणे,तबु लिखि'–ए बड़ विस्मय ॥
९०॥
मैं अब अत्यन्त वृद्ध हो गया हूँ और अपनी अक्षमता से विचलित हूँ। लिखते समय मेरे हाथ काँपते हैं। न तो मुझे कुछ स्मरण रहता है, न मैं ठीक से देख या सुन सकता हूँ। फिर भी मैं लिखता हूँ; यह बहुत बड़ा आश्चर्य है।
एइ अन्त्य-लीला-सार, सूत्र-मध्ये विस्तार,करि' किछु करितुं वर्णन ।। इहा-मध्ये मरि ग्रबे, वर्णिते ना पारि तबे,एइ लीला भक्त-गण-धन ॥
९१॥
इस अध्याय में मैंने श्री चैतन्य महाप्रभु की अन्तिम लीलाओं के सार का कुछ वर्णन किया है। यदि इसी बीच मैं मर जाऊँ और विस्तार से उनका वर्णन न कर पाऊँ, तो भक्तों को कम-से-कम यह दिव्य कोष तो मिल ही जायेगा।
सङ्क्षेपे एइ सूत्र कैल, येइ इहाँ ना लिखिल,आगे ताहा करिब विस्तार । यदि तत दिन जिये, महाप्रभुर कृपा हये, इच्छा भरि' करिब विचार ।। ९२॥
मैंने इस अध्याय में संक्षेप में अन्त्य-लीला का वर्णन किया है। जो कुछ बच रहा है, उसका विस्तार से वर्णन भविष्य में करूंगा। यदि श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा से मैं इतने दिनों तक जीवित रहा कि मैं अपनी इच्छाएँ पूरी कर पाऊँ, तो इन लीलाओं पर पूरी तरह विचार करूंगा।
छोट बड़ भक्त-गण, वन्दों सबार श्री-चरण,सबे मोरे करह सन्तोष । स्वरूप-गोसाजिर मत, रूप-रघुनाथ जाने व्रत,ताइ लिखि' नाहि मोर दोष ॥
९३ ॥
। मैं यहाँ छोटे-बड़े सभी भक्तों के चरणकमलों की वन्दना करता हूँ। मेरी उनसे प्रार्थना है कि मुझ से सन्तुष्ट हों। मैं निर्दोष हूँ, क्योंकि मैंने म्यरूप दामोदर गोस्वामी तथा रूप और रघुनाथ दास गोस्वामियों से जैसा समझा है, वैसा ही लिख दिया है। मैंने उसमें अपनी ओर से न तो कुछ जोड़ा है, न कम किया है।
श्री-चैतन्य, नित्यानन्द, अद्वैतादि भक्त-वृन्द,शिरे धरि सबार चरण ।। स्वरूप, रूप, सनातन, रघुनाथेर श्री-चरण,धूलि करों मस्तके भूषण ॥
९४॥
। परम्परा पद्धति के अनुसार मैं श्री चैतन्य महाप्रभु, नित्यानन्द प्रभु, अद्वैत प्रभु तथा श्री चैतन्य महाप्रभु के समस्त पार्षदों यथा स्वरूप दामोदर, रूप गोस्वामी, सनातन गोस्वामी और रघुनाथ दास गोस्वामी के चरणकमलों की धूलि लेना चाहता हूँ। मैं उनके चरणकमलों की धूलि अपने मस्तक पर धारण करना चाहता हूँ। इस प्रकार मैं उनकी कृपा का आशीर्वाद चाहता हूँ।
पाजा ग्राँर आज्ञा-धन, व्रजेर वैष्णव-गण,वन्दों ताँर मुख्य हरिदास ।। चैतन्य-विलास-सिन्धु-कल्लोलेर एक बिन्दु,तार कणा कहे कृष्णदास ॥
९५ ॥
उपर्युक्त महापुरुषों एवं वृन्दावन के वैष्णवों, विशेषकर गोविन्दजी के पजारी हरिदास की आज्ञा से मैंने (कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने) श्री चैतन्य महाप्रभु के लीला-सिन्धु की एक लहर के एक बिन्दु के एक कण का वर्णन करने का प्रयास किया है।
अध्याय तीन: भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु का अद्वैत आचार्य के घर पर रहना
न्यासं विधायोत्प्रणयोऽथ गौरोवृन्दावनं गन्तु-मना भ्रमाद् ग्रः ।। राढ़े भ्रमन्शान्ति-पुरीमयित्वाललास भक्तैरिह तं नतोऽस्मि ॥
१॥
संन्यास ग्रहण करने के बाद चैतन्य महाप्रभु कृष्ण के प्रति उत्कट प्रेमवश वृन्दावन जाना चाहते थे, किन्तु लौकिक रूप से भ्रमवश वे राढ़देश में घूमते रहे। बाद में वे शान्तिपुर पहुँचे और वहाँ भक्तों के साथ आनन्दपूर्वक रहे। मैं उन श्री चैतन्य महाप्रभु को सादर नमस्कार करता हूँ।
जय जय श्री-चैतन्य जय नित्यानन्द । जयाद्वैतचन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ॥
२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! श्री अद्वैत प्रभु की जय हो! श्रीवास आदि श्री चैतन्य महाप्रभु के समस्त भक्तों की जय हो! चब्बिश वत्सर-शेष ग्रेइ माघ-मास ।।तार शुक्ल-पक्षे प्रभु करिला सन्यास ॥
३॥
चौबीसवें वर्ष के अन्त में माघ मास के शुक्लपक्ष में श्री चैतन्य महाप्रभु ने संन्यास आश्रम स्वीकार किया।
सन्यास करि' प्रेमावेशे चलिला वृन्दावन ।राढ़-देशे तिन दिन करिला भ्रमण ॥
४॥
। संन्यास ग्रहण करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु कृष्ण के प्रगाढ़ प्रेमवश वृन्दावन के लिए चल पड़े। किन्तु भूल से वे लगातार तीन दिनों तक समाधि में राढ़ देश नामक भूखण्ड में भ्रमण करते रहे।
एइ श्लोक पड़ि' प्रभु भावेर आवेशे ।।भ्रमिते पवित्र कैल सब राढ़-देशे ॥
५॥
राढ़देश नामक भूभाग में भ्रमण करते समय श्री चैतन्य महाप्रभु ने भावावेश में निम्नलिखित श्लोक सुनाया।
तां स आस्थाय परात्म-निष्ठाम्अध्यासितां पूर्वतमैर्महद्भिः । अहं तरिष्यामि दुरन्त-पारंतमो मुकुन्दाघ्रि-निषेवयैव ॥
६॥
। [ जैसाकि अवन्ती देश के एक ब्राह्मण ने कहा : 'भगवान् कृष्ण के चरणकमलों की सेवा में दृढ़तापूर्वक स्थिर होकर मैं अज्ञान के दुर्लंघ्य सागर को पार कर जाऊँगा। इसकी पुष्टि उन पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा की गई है, जो परमात्मा, पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान् की दृढ़ भक्ति में स्थिर थे।
प्रभु कहे—साधु एइ भिक्षुर वचन । मुकुन्द सेवन-व्रत कैल निर्धारण ॥
७॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने इस श्लोक के तात्पर्य का अनुमोदन भिक्षुक भक्त द्वारा भगवान् मुकुन्द की सेवा में लगने के संकल्प के कारण किया। उन्होंने इस श्लोक को अपनी सहमति दे दी, जिससे सूचित होता है कि यह श्लोक अत्युत्तम है।
परात्म-निष्ठा-मात्र वेष-धारण ।।मुकुन्द-सेवाय हय संसार-तारण ॥
८ ॥
संन्यास स्वीकार करने का वास्तविक प्रयोजन मुकुन्द की सेवा में अपने आप को समर्पित करना है। मुकुन्द की सेवा करने से मनुष्य अवश्य ही भव-बन्धन से मुक्त हो सकता है।
सेइ वेष कैल, एबे वृन्दावन गिया ।। कृष्ण-निषेवण करि निभूते वसिया ॥
९॥
संन्यास स्वीकार करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने वृन्दावन जाने और वहाँ एकान्त में पूर्ण मनोयोग से केवल मुकुन्द की सेवा में लग जाने का निश्चय किया।
एत बलि' चले प्रभु, प्रेमोन्मादेर चिह्न । दिक्विदिक्ज्ञान नाहि, किबी रात्रि-दिन ॥
१०॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन के रास्ते में थे, तब उनमें प्रेमोन्माद के सारे लक्षण प्रकट होने लगे। उन्हें इसका ज्ञान नहीं रहा कि वे किस दिशा में जा रहे हैं अथवा यह दिन है या रात।।
नित्यानन्द, आचार्यरत्न, मुकुन्द, तिन जन । प्रभु-पाछे-पाछे तिने करेन गमन ॥
११॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन की ओर जा रहे थे, तब नित्यानन्द प्रभु, चन्द्रशेखर तथा मुकुन्द प्रभु उनके पीछे-पीछे चल रहे थे।
ग्रेइ ग्रेइ प्रभु देखे, सेइ सेइ लोक ।। प्रेमावेशे ‘हरि' बले, खण्डे दुःख-शोक ॥
१२॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु राढ़देश से होकर जा रहे थे, तो जो भी उन्हें देखता वह भावावेश में हरि! हरि! कह उठता। ज्योंही वे महाप्रभु के साथ कीर्तन करते, त्योंही उनके सारे सांसारिक दुःख विनष्ट हो जाते।
गोप-बालक सब प्रभुके देखियो । ‘हरि' ‘हरि' बलि' डाके उच्च करिया ॥
१३ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु को जाते देखकर सारे ग्वालबाल उनके साथ चलने लगे और उच्च-स्वर से हरि! हरि! पुकारने लगे।
शुनि' ता-सबार निकट गेला गौरहरि ।‘बल' 'बल' बले सबार शिरे हस्त धरि' ॥
१४॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने सभी ग्वालबालों को हरि! हरि! उच्चारण करते सुना, तो वे अत्यधिक प्रसन्न हुए। वे उनके पास गये, उनके सिर पर हाथ रखा और उनसे बोले, इसी तरह कीर्तन करते रहो।
ता'-सबार स्तुति करे,—तोमरा भाग्यवान् ।कृतार्थ करिले मोरे शुना हरि-नाम ॥
१५॥
। इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन सबको यह कहते हुए आशीर्वाद दिया कि वे सभी भाग्यवान हैं। उन्होंने इस तरह उनकी प्रशंसा की और चूंकि उन लोगों ने पवित्र हरिनाम कीर्तन किया था, इसलिए महाप्रभु ने अपने आपको कृतार्थ समझा।
गुप्ते ता-सबा आनि' ठाकुर नित्यानन्द । शिखाइला सबकारे करिया प्रबन्ध ॥
१६॥
सारे बालकों को एकान्त में बुलाकर और एक तर्कपूर्ण कहानी बतलाते हुए नित्यानन्द प्रभु ने उन सबको इस प्रकार सूचना दी।
वृन्दावन-पथ प्रभु पुछेन तोमारे। गङ्गा-तीर-पथ तबे देखाइह ताँरै ॥
१७॥
यदि श्री चैतन्य महाप्रभु तुम लोगों से वृन्दावन का रास्ता पूछे, तो उन्हें गंगा नदी के किनारे का रास्ता दिखला देना।
तबे प्रभु पुछिलेन,'शुन, शिशु-गण ।। कह देखि, कोन्पथे ग्राब वृन्दावन' ॥
१८॥
शिशु सब गङ्गा-तीर-पथ देखाइल ।। सेइ पथे आवेशे प्रभु गमन करिल ॥
१९॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने ग्वालबालों से वृन्दावन का रास्ता पूछा, तो उन बालकों ने गंगा के किनारे वाला रास्ता बतला दिया और महाप्रभु भावावेश में उसी रास्ते चल पड़े।
"text":"आचार्य रत्न कहे नित्यानंद गोसांई। शीघ्र यहा तुमि अद्वैताचार्य ठानी ।।२०॥
जैसे ही भगवान गंगा के किनारे आगे बढ़े, श्री नित्यानंद प्रभु ने आचार्यरत्न [चंद्रशेखर आचार्य से तुरंत अद्वैत आचार्य के घर जाने का अनुरोध किया।"
प्रभु लये ग्राब आमि ताँहार मन्दिरे ।सावधाने रहेन ग्रेन नौका लञा तीरे ॥
२१॥
श्री नित्यानन्द गोस्वामी ने उनसे कहा, मैं श्री चैतन्य महाप्रभु को शान्तिपुर में गंगा के तट पर ले जाऊँगा। आप अद्वैत आचार्य से कहें कि वे सावधान होकर एक नाव लेकर किनारे पर रहें।
तबे नवद्वीपे तुमि करिह गमन ।। शची-सह लजा आइस सब भक्त-गण ॥
२२॥
नित्यानन्द प्रभु ने आगे कहा, उसके बाद मैं अद्वैत आचार्य के घर जाऊँगा और आप नवद्वीप जाकर माता शची तथा अन्य सभी भक्तों को लेकर लौट आना।
ताँरे पाठाइया नित्यानन्द महाशय ।।महाप्रभुर आगे आसि' दिल परिचय ॥
२३ ॥
आचार्यरत्न को अद्वैत आचार्य के घर भेजकर श्री नित्यानन्द प्रभु श्री चैतन्य महाप्रभु के सामने आये और अपने आने की सूचना दी।
प्रभु कहे,–श्रीपाद, तोमार कोथाके गमन ।।श्रीपाद कहे, तोमार सङ्गे ग्राब वृन्दावन ॥
२४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु भावावेश में थे और उन्होंने पूछा कि नित्यानन्द प्रभु कहाँ जा रहे थे? नित्यानन्द प्रभु ने उत्तर दिया कि वे महाप्रभु के साथ वृन्दावन जा रहे थे।
प्रभु कहे,—कत दूरे आछे वृन्दावन ।।तेंहो कहेन,—कर एइ यमुना दरशन ॥
२५॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने नित्यानन्द प्रभु से पूछा कि अब वृन्दावन कितनी दूर है, तो नित्यानन्द प्रभु ने उत्तर दिया देखिये! यह रही यमुना नदी।
एत बलि' आनिल ताँरै गङ्गा-सन्निधाने ।।आवेशे प्रभुर हैल गङ्गारे ग्नमुना-ज्ञाने ॥
२६॥
यह कहकर नित्यानन्द प्रभु उन्हें गंगा नदी के पास ले गये और श्री चैतन्य महाप्रभु ने भावावेश के कारण गंगा नदी को ही यमुना नदी के रूप में स्वीकार कर लिया।
अहो भाग्य, ग्नमुनारे पाइलँ दरशन ।एत बलि' यमुनार करेन स्तवन ॥
२७॥
महाप्रभु ने कहा, ओह, कितना सौभाग्य है! आज मुझे यमुना नदी के दर्शन हुए हैं। इस तरह गंगा को ही यमुना नदी मानकर उन्होंने उसकी स्तुति करनी प्रारम्भ की।
चिदानन्द-भानोः सदा नन्द-सूनोःपर-प्रेम-पात्री द्रव-ब्रह्म-गात्री ।। अघानां लवित्री जगत्क्षेम-धात्री ।पवित्री-क्रियान्नो वपुर्मित्र-पुत्री ॥
२८॥
हे यमुना नदी, तुम वह आनन्दमय दिव्य जल हो, जो नन्द महाराज के पुत्र को प्रेम प्रदान करता है। तुम वैकुण्ठ लोक के जल के ही समान हो, क्योंकि तुम हमारे पूरे जीवन में किये गये सारे अपराधों एवं पापफलों को नष्ट करने वाली हो। तुम संसार के लिए सभी मंगल वस्तुओं की जननी हो। हे सूर्यदेव की पुत्री, कृपया तुम अपने पुण्यकर्मों से हम सबको शुद्ध कर दो।
एत बलि' नमस्करि' कैल गङ्गा-स्नान ।।एक कौपीन, नाहि द्वितीय परिधान ॥
२९॥
। इस मन्त्र का उच्चारण करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने नमस्कार करके गंगा नदी में स्नान किया। उस समय उनके पास एक ही कौपीन था, कोई दूसरा वस्त्र नहीं था।
हेन काले आचार्य-गोसाजि नौकाते चड़िा ।आइल नूतन कौपीन-बहिर्वास लञा ॥
३०॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु वहाँ दूसरे वस्त्र के बिना खड़े थे, तब अद्वैत आचार्य अपने साथ नया कौपीन तथा बाह्य वस्त्र लेकर नाव से वहाँ आये।
आगे आचार्य आसि' रहिला नमस्कार करि' ।। आचार्य देखि' बले प्रभु मने संशय करि' ॥
३१॥
। अद्वैत आचार्य आकर महाप्रभु के समक्ष प्रस्तुत हुए और उन्हें नमस्कार किया। उन्हें देखकर महाप्रभु को सारी परिस्थिति के विषय में सन्देह होने लगा।
तुमि त' आचार्य-गोसाञि, एथा केने आइला ।।आमि वृन्दावने, तुमि के-मते जानिला ।। ३२॥
। भावावेश में ही महाप्रभु ने अद्वैत आचार्य से पूछा, आप यहाँ क्यों आये? आपको कैसे पता चला कि मैं वृन्दावन में हूँ? आचार्य कहे—तुमि ग्राहाँ, सेइ वृन्दावन ।। मोर भाग्ये गङ्गा-तीरे तोमार आगमन ॥
३३॥
अद्वैत आचार्य ने श्री चैतन्य महाप्रभु से यह कहकर सारी स्थिति स्पष्ट कर दी, आप जहाँ हैं, वहीं वृन्दावन है। यह तो मेरा परम सौभाग्य है कि आप गंगा नदी के तट पर आये हैं।
प्रभु कहे,—नित्यानन्द आमारे वञ्चिला ।। गङ्गाके आनिया मोरे यमुना कहिला ॥
३४॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, नित्यानन्द ने मुझे धोखा दिया है। वह मुझे गंगा के तट पर ले आये और मुझसे यह बतलाया है कि यह यमुना है। आचार्य कहे, मिथ्या नहे श्रीपाद-वचन ।। यमुनाते स्नान तुमि करिला एखन ॥
३५॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने नित्यानन्द पर धोखा देने का आरोप लगाया, तो श्रील अद्वैत आचार्य ने कहा, नित्यानन्द प्रभु ने आपसे जो कुछ कहा है, वह झूठ नहीं है। आपने सचमुच अभी यमुना नदी में स्नान किया है।
गङ्गाय ग्नमुना वहे हा एक-धार । पश्चिमे यमुना वहे, पूर्वे गङ्गा-धार ॥
३६॥
फिर अद्वैत आचार्य ने समझाया कि उस स्थान पर गंगा तथा यमुना दोनों साथ-साथ बहती हैं। पश्चिम की ओर यमुना है और पूर्व की ओर गंगा हैं। पश्चिम-धारे प्रमुना वहे, ताहाँ कैले स्नान ।।आर्द्र कौपीन छाड़ि' शुष्क कर परिधान ॥
३७॥
फिर अद्वैत आचार्य ने प्रार्थना की कि यमुना नदी में स्नान करने के कारण चैतन्य महाप्रभु का कौपीन गीला हो गया है, अतएव उन्हें अपना कौपीन बदलकर सूखा वस्त्र पहन लेना चाहिए।
प्रेमावेशे तिन दिन आछ उपवास ।।आजि मोर घरे भिक्षा, चल मोर वास ॥
३८॥
अद्वैत आचार्य ने कहा, कृष्ण-प्रेम के भावावेश में आप तीन दिन से अनवरत उपवास करते आ रहे हैं, अतएव मैं आपको अपने घर पर भिक्षा ग्रहण करने के लिये आमन्त्रित करता हूँ। आप मेरे साथ मेरे घर चलें ।
एक-मुष्टि अन्न मुजि करियाछों पाक ।शुखारुखा व्यञ्जन कैलें, सूप आर शाक ॥
३९॥
अद्वैत आचार्य ने आगे कहा, मैंने अपने घर में मुट्ठी-भर चावल पकाया है। तरकारियाँ भी अत्यन्त सादी हैं। कोई भी विलासप्रिय व्यंजन नहीं है--केवल थोड़ा सूप है और कुछ शाक है।
एत बलि' नौकाय चड़ा निल निज-घर ।पाद-प्रक्षालन कैल आनन्द-अन्तर ॥
४०॥
यह कहकर श्री अद्वैत आचार्य उन्हें नाव में बैठाकर अपने घर ले आये। वहाँ पर अद्वैत आचार्य ने महाप्रभु के चरण प्रक्षालन किये और इस तरह भीतर-भीतर परम आनन्दित हुए।
प्रथमे पाक करियाछेन आचार्याणी ।विष्णु-समर्पण कैल आचार्य आपनि ॥
४१॥
। सर्वप्रथम अद्वैत आचार्य की पत्नी ने सारे पकवान बनाये। तत्पश्चात् स्वयं श्रील अद्वैत आचार्य ने हर वस्तु भगवान् विष्णु को अर्पित की।
तिन ठाजि भोग बाड़ाइल सम करि' । ।कृष्णेर भोग बाड़ाइल धातु-पात्रोपरि ॥
४२ ।। सारे पकाये गये भोग के तीन बराबर भाग किये गये। एक भाग भगवान् कृष्ण को अर्पित करने के लिए धातु की थाली पर परोसा गया।
बत्तिशा-आठिया-कलार आङ्गटिया पाते । दुइ ठात्रि भोग बाड़ाइल भाल मते ॥
४३॥
। तीन भागों में से एक भाग धातु की थाली पर रखा गया था और शेष दो भाग केले के पत्तों पर। ये पत्तियाँ बीच से विभाजित नहीं थीं और ऐसे केले के वृक्ष से ली गई थी, जिसमें कम-से-कम बत्तीस केले के गुच्छे । लगे थे। इन दोनों पत्तों में निम्नलिखित व्यंजन सुन्दर ढंग से भरकर रखे गये थे।
मध्ये पीत-घृत-सिक्त शाल्यन्नेर स्तूप ।। चारि-दिके व्यञ्जन-डोङ्गा, आर मुद्ग-सूप ।। ४४॥
। प्रवीणता से पके चावल का ढेर अत्यन्त सुन्दर दाने वाला था और बीच में गाय के दूध से बनाया गया पीले रंग का घी था। चावल के ढेर के चारों ओर केले के पेड़ों की छाल से बने पात्र थे, जिनमें तरह तरह की तरकारियाँ तथा मूंग की दाल थी।
साईक, वास्तुक-शाक विविध प्रकार ।। पटोल, कुष्माण्ड-बड़ि, मानकचु आर ॥
४५॥
पकी तरकारियों में पटोला, सीताफल, मानकचु था तथा अदरक के कड़ों और विभिन्न प्रकार की पालक से बना सलाद था।
चइ-मरिच-सुख्त दिया सब फल-भूले ।। अमृत-निन्दक पञ्च-विध तिक्त-झाले ॥
४६॥
सभी प्रकार की तरकारियों के साथ सुख्त, करेला मिला था, जो अमृत के स्वाद को मात करने वाला था। कड़वे तथा चरपरे सुख्ख पाँच प्रकार के थे।
कोमल निम्ब-पत्र सह भाजा वार्ताकी । पटोल-फुल-बड़ि-भाजा, कुष्माण्ड़-मानचाकि ॥
४७॥
। विविध तरकारियों में नीम की ताजा मुलायम पत्तियों को बैंगन के साथ तला गया था। पटोल फल को फुलबड़ी ( दाल से बनाया गया एक व्यंजन जिसे पहले मसला जाता है और फिर सुखाया जाता है) के साथ तला गया था। कुष्माण्ड-मानचाकि नामक व्यंजन भी था।
नारिकेल-शस्य, छाना, शर्करा मधुर ।। मोचा-घण्ट, दुग्ध-कुष्माण्ड, सकल प्रचुर ॥
४८॥
। नारियल के गूदे, दही तथा मिश्री से बना व्यंजन अत्यन्त मीठा था। दूध में पकाये गये सीताफल और केले के फूलों की सब्जी प्रचुर मात्रा में थी।
मधुराम्ल-बड़ा, अम्लादि पाँच-छय ।।सकल व्यञ्जन कैल लोके व्रत हय ॥
४९॥
मीठी तथा खट्टी चटनी में तैयार की गई छोटी टिक्कियाँ और पाँचछ: तरह के खट्टे व्यंजन थे। सारी तरकारियाँ इतनी बनाई गई थीं कि वहाँ पर उपस्थित सारे लोग प्रसाद-रूप में ग्रहण कर सकें।
मुद्ग-बड़ा, कला-बड़ा, माष-बड़ा, मिष्ट ।क्षीर-पुली, नारिकेल, व्रत पिठा इष्ट ॥
५०॥
। मूंग की दाल के नर्म बड़े, पके केले से बने नर्म बड़े, उड़द की दाल से बने नर्म बड़े, तरह तरह की मिठाइयाँ, क्षीरपुली (चावल के बड़े खीर के साथ), नारियल से बना व्यंजन तथा सभी प्रकार के बड़े थे।
बत्तिशा-आठिया कलार डोङ्गा बड़ बड़।। चले हाले नाहि,--डोङ्गा अति बड़ दड़ ॥
५१॥
सारी तरकारियाँ केले के ऐसे वृक्षों के पत्तों से बने दोनों में परोसी गई थीं, जिनमें कम-से-कम केले के बत्तीस गुच्छे लगे थे। ये दोने काफी मजबूत और बड़े थे और इधर-उधर हिलने-डुलने वाले नहीं थे, न ही तिरछे होने वाले थे।
पञ्चाश पञ्चाश डोङ्गा व्यञ्जने पूरिजा ।तिन भोगेर आशे पाशे राखिल धरिजा ॥
५२॥
भोजन करने के तीनों स्थानों के चारों ओर तरह तरह की तरकारियों से भरे एक सौ दोने थे।
सघृत-पायस नव-मृत्कुण्डिका भरि ।।तिन पात्रे घनावर्त-दुग्ध राखेत धरिजा ॥
५३॥
सभी तरकारियों के चारों ओर घी से मिश्रित खीर रखी थी। इसे नये मिट्टी के बर्तनों में रखा गया था। अच्छी तरह से गाड़े उबले दूध से भरे मिट्टी के बर्तन तीनों स्थानों पर रखे गये थे।
दुग्ध-चिड़ा-कला आर दुग्ध-लक्लकी ।।ग्रतेक करिल' ताहा कहिते ना शकि ॥
५४॥
। अन्य व्यंजनों के अतिरिक्त दूध में बना तथा केले से मिला चिवड़ा तथा दूध में पकाया सफेद सीताफल था। वहाँ पर उपस्थित सभी व्यंजनों का वर्णन कर पाना सम्भव नहीं है।
दुइ पाशे धरिल सब मृत्कुण्डिका भरि' । चाँपाकला-दधि-सन्देश कहिते ना पारि ॥
५५॥
दो स्थानों पर दही, सन्देश ( दही से बनी एक मिठाई) तथा केले से बना एक अन्य व्यंजन मिट्टी के पात्रों में भरकर रखा हुआ था। मैं उन सबका वर्णन कर पाने में असमर्थ हूँ।
अन्न-व्यञ्जन-उपरि दिल तुलसी-मञ्जरी ।। तिन जल-पात्रे सुवासित जल भरि' ॥
५६॥
पके चावल एवं सारी तरकारियों के ढेर के ऊपर तुलसी की मंजरिय थीं। सुगन्धित गुलाब-जल से भरे पात्र भी रखे गये थे।
तिन शुभ्र-पीठ, तार उपरि वसन । एइ-रूपे साक्षात्कृष्णे कराइल भोजन ॥
५७॥
तीनों आसनों पर मुलायम कपड़े बिछे थे। इस तरह भगवान् कृष्ण को सारी भोज्य सामग्री अर्पित की गई और उन्होंने इसे बड़े ही मन से ग्रहण किया।
आरतिर काले दुइ प्रभु बोलाइल ।। प्रभु-सङ्गे सबे आसि' आरति देखिल ॥
५८ ॥
भोग अर्पित करने के बाद भोग-आरती सम्पन्न करने की प्रथा है। अद्वैत प्रभु ने दोनों भाइयों-चैतन्य महाप्रभु तथा नित्यानन्द प्रभु को आरती देखने के लिए बुलाया। दोनों प्रभु तथा वहाँ उपस्थित सारे लोग आरती समारोह देखने गये।
आरति करिया कृष्णे करा'ल शयन । आचार्य आसि' प्रभुरे तबे कैला निवेदन ॥
५९॥
मन्दिर में अर्चाविग्रहों की आरती हो चुकने के बाद कृष्ण को शयन कराया गया। तब अद्वैत आचार्य श्री चैतन्य महाप्रभु से कुछ निवेदन करने के लिए आगे आये।
गृहेर भितरे प्रभु करुन गमन । दुई भाइ आइला तबे करिते भोजन ॥
६०॥
श्री अद्वैत प्रभु ने कहा, हे प्रभु, कृपया इस कमरे में चलें। तब श्री चैतन्य महाप्रभु तथा नित्यानन्द प्रभु दोनों भाई प्रसाद ग्रहण करने के लिए आगे आये।
मुकुन्द, हरिदास,—दुइ प्रभु बोलाइल ।।योड़-हाते दुइ-जन कहिते लागिल ॥
६१॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु तथा नित्यानन्द प्रभु प्रसाद लेने गये, तो उन्होंने मुकुन्द तथा हरिदास को अपने साथ चलने के लिए बुलाया। किन्तु मुकुन्द तथा हरिदास दोनों ने हाथ जोड़कर इस प्रकार कहा।
मुकुन्द कहे–मोर किछु कृत्य नाहि सरे ।।पाछे मुञि प्रसाद पामु, तुमि ग्राह घरे ॥
६२॥
। बुलाये जाने पर मुकुन्द ने निवेदन किया, हे प्रभु, मुझे कुछ काम करना शेष है। मैं बाद में प्रसाद ग्रहण करूँगा, अतएव आप दोनों प्रभु अब कमरे के भीतर जाएँ।
हरिदास कहे—मुबि पापिष्ठ अधम ।। बाहिरे एक मुष्टि पाछे करिमु भोजन ॥
६३॥
हरिदास ठाकुर ने कहा, मैं अत्यन्त पापी और अधम हूँ। मैं बाहर ही प्रतीक्षा करते हुए बाद में एक मुट्ठी प्रसाद खाऊँगा।
दुइ प्रभु लजा आचार्य गेला भितर घरे ।।प्रसाद देखिया प्रभुर आनन्द अन्तरे ॥
६४॥
। अद्वैत आचार्य अपने साथ नित्यानन्द प्रभु तथा चैतन्य महाप्रभु को कमरे के भीतर ले गये, जहाँ दोनों प्रभुओं ने प्रसाद की व्यवस्था देखी। विशेषकर श्री चैतन्य महाप्रभु अत्यधिक प्रसन्न हुए।
ऐछे अन्न ग्रे कृष्णके कराय भोजन ।जन्मे जन्मे शिरे धरों ताँहार चरण ॥
६५॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कृष्ण को अर्पित किये जाने वाले भोजन के पकाने की सारी विधियों का अनुमोदन किया। वे इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने कहा, मैं हृदय से कहता हूँ कि जो कोई कृष्ण को इतना अच्छा भोजन अर्पित कर सकता है, उसके चरणकमलों को मैं जन्म-जन्मांतर अपने मस्तक पर धारण करने को प्रस्तुत हूँ।
प्रभु जाने तिन भोग–कृष्णेर नैवेद्य । आचार्येर मनः-कथा नहे प्रभुर वेद्य ॥
६६॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु कमरे में प्रविष्ट हुए, तो उन्होंने भोजन के तीन भाग देखे और यह समझा कि ये तीनों कृष्ण के लिए हैं। किन्तु वे अद्वैत आचार्य के मनोभावों को नहीं समझ पाये।
प्रभु बले-वैस तिने करिये भोजन ।। आचार्य कहे—आमि करिब परिवेशन ॥
६७॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, चलो, इन तीनों स्थानों में बैठकर हम प्रसाद ग्रहण करें। किन्तु अद्वैत आचार्य ने कहा, मैं प्रसाद का वितरण करूंगा।
कोन् स्थाने वसिब, आर आन दुइ पात ।। अल्प करि' आनि' ताहे देह व्यञ्जन भात ॥
६८॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु ने सोचा कि तीनों थालियाँ वितरण करने के लिए हैं, अतएव उन्होंने यह कहते हुए और दो केले के पत्ते माँगे, हमें थोड़ी। तरकारी तथा चावल दें।
आचार्य कहे वैस दोहे पिंड़िर उपरे । एत बलि' हाते धरि' वसाइल मुँहारे ॥
६९॥
अद्वैत आचार्य ने कहा, कृपया इन आसनों पर बैठे। उन्होंने उन दोनों के हाथ पकड़कर उन्हें बैठाया।
प्रभु कहे—सन्यासीर भक्ष्य नहे उपकरण । इहा खाइले कैछे हय इन्द्रिय वारण ॥
७० ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, संन्यासी के लिए इतनी तरह के व्यंजन ग्रहण करना उचित नहीं है। यदि वह ऐसा करता है, तो फिर वह अपनी । इन्द्रियों को किस तरह वश में रख सकता है? आचार्य कहे—छाड़ तुमि आपनीर चुरि ।। आमि सब जानि तोमार सन्यासेर भारि-भूरि ॥
७१ ॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने पहले से परोसे हुए उस भोजन को ग्रहण नहीं किया, तो अद्वैत आचार्य ने कहा कृपया अपना छल त्यागिये। मैं जानता हूँ कि आप कौन हैं और मैं आपके द्वारा संन्यास लेने के रहस्य को भी जानता हूँ।
भोजन करह, छाड़ वचन-चातुरी ।। प्रभु कहे—एत अन्न खाइते ना पारि ॥
७२॥
अद्वैत आचार्य ने श्री चैतन्य महाप्रभु से प्रार्थना की कि वे वाक्चातुरी त्यागकर भोजन करें। इस पर महाप्रभु ने उत्तर दिया, मैं सचमुच इतना भोजन नहीं खा सकता।
आचार्य बले--अकपटे करह आहार ।यदि खाइते ना पार पाते रहिबेक आर ॥
७३॥
तब अद्वैत आचार्य ने महाप्रभु से अनुरोध किया कि वे बहाना छोड़कर प्रसाद ग्रहण करें। यदि वे पूरा नहीं खा सकते, तो शेष भाग थाली पर पड़ा राने दें।
प्रभु बले–एत अन्न नारिब खाइते ।।सन्यासीर धर्म नहे उच्छिष्ट राखिते ॥
७४॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, मैं इतना भोजन नहीं खा सकेंगा और यह संन्यासी का धर्म नहीं है कि वह जूठन छोड़े।
आचार्य बले- नीलाचले खाओ चौयान्न-बार । एक-बारे अन्न खाओ शत शत भार ॥
७५ ॥
। इस सन्दर्भ में श्री अद्वैत आचार्य ने चैतन्य महाप्रभु द्वारा जगन्नाथ पुरी में भोजन करने का उदाहरण दिया। भगवान जगन्नाथ और श्री चैतन्य महाप्रभु अभिन्न हैं। अद्वैत आचार्य ने बतलाया कि जगन्नाथ पुरी में श्री चैतन्य महाप्रभु प्रतिदिन चौवन बार खाते हैं और हर बार वे भोग के सैकड़ों पात्र ग्रहण करते हैं।
तिन जनार भक्ष्य-पिण्ड-तोमार एक ग्रास ।तार लेखाय एइ अन्न नहे पञ्च-ग्रास ॥
७६ ॥
। श्री अद्वैत आचार्य ने कहा, तीन जन जितना खाते हैं वह आपके एक ग्रास के बराबर भी नहीं है। इस गणना के अनुसार ये खाद्य पदार्थ आपके पाँच ग्रास भी नहीं होंगे।
मोर भाग्ये, मोर घरे, तोमार आगमन ।।छाड़ह चातुरी, प्रभु, करह भोजन ॥
७७॥
अद्वैत आचार्य ने आगे कहा, यह मेरा परम सौभाग्य है कि आप मेरे पर पधारे हैं। कृपया बातें मत बनाइये। बातें छोड़कर भोजन करना प्रारम्भ कीजिये।
एत बलि' जल दिल दुइ गोसाजिर हाते ।।हासिया लागिला पँहे भोजन करते ॥
७८ ॥
। यह कहकर अद्वैत आचार्य ने दोनों प्रभुओं को हाथ धोने के लिए जल दिया। तत्पश्चात् दोनों प्रभु बैठ गये और हँसते हुए प्रसाद ग्रहण करने लगे।
नित्यानन्द कहे-कैर्ले तिन उपवास ।। आजि पारणा करिते छिल बड़ आश ॥
७९॥
। नित्यानन्द प्रभु ने कहा, मैं लगातार तीन दिनों से उपवास करता रहा हूँ। मुझे आशा थी कि आज मेरा उपवास टूटेगा। ।
आजि उपवास हैल आचार्य-निमन्त्रणे ।। अर्ध-पेट ना भरिबे एई ग्रासेक अन्ने ॥
८०॥
। जहाँ श्री चैतन्य महाप्रभु सोच रहे थे कि भोजन की मात्रा अत्यधिक है, वहीं नित्यानन्द प्रभु ने सोचा कि वह तो एक ग्रास भी नहीं है। वे तीन दिन से उपवास कर रहे थे और उन्हें पूरी आशा थी कि आज वे अपना उपवास भंग करेंगे। उन्होंने कहा, यद्यपि अद्वैत आचार्य ने मुझे आज खाने के लिए बुलाया है, किन्तु आज भी मेरा उपवास है। इतने थो भोजन से तो मेरा आधा पेट भी नहीं भरेगा।
आचार्य कहे—तुमि हओ तैर्थिक सन्यासी ।।कभु फल-मूल खाओ, कभु उपवासी ॥
८१॥
अद्वैत आचार्य ने उत्तर दिया, आप तो तीर्थों की यात्रा करने वाले संन्यासी ठहरे। कभी आप फल खाते हैं, तो कभी कन्दमूल और कभी केवल उपवास करते हैं।
दरिद्र-ब्राह्मण-घरे ग्ने पाइला मुष्ट्येक अन्न ।इहाते सन्तुष्ट हओ, छाड़ लोभ-मन ॥
८२॥
मैं तो दरिद्र ब्राह्मण हूँ और आप मेरे घर पधारे हैं। आपको जो और बहुत भोजन मिला है, इतने से सन्तुष्ट हों और अपनी लोभी मनोवृत्ति को छोड़ दें।
नित्यानन्द बले—ग्रबे कैले निमन्त्रण ।।तत दिते चाह, व्रत करिये भोजन ॥
८३ ।। नित्यानन्द प्रभु ने उत्तर दिया, मैं जो भी होऊँ, आपने मुझे बुलाया है, अतएव आपको चाहिए कि मैं जितना खाना चाहूँ उतना दो।
शुनि' नित्यानन्देर कथा ठाकुर अद्वैत ।।कहेन ताँहारे किछु पाइया पिरीत ॥
८४॥
ठाकुर अद्वैत आचार्य को नित्यानन्द की विनोद-पूर्ण बातें सुनने के बाद अवसर मिला कि वे परिहास करें, अतः वे इस प्रकार बोले।।
भ्रष्ट अवधूत तुमि, उदर भरिते । ।सन्यास लइयाछ, बुझि, ब्राह्मण दण्डिते ॥
८५॥
अद्वैत आचार्य ने कहा, आप भ्रष्ट परमहंस हो और आपने मात्र पेड भरने के लिए संन्यास ग्रहण किया है। मैं समझ गया हूँ कि आपका पेशा है ब्राह्मणों को कष्ट पहुँचाना।
तुमि खेते पार दश-विश मानेर अन्न ।आमि ताहा काँहा पाब दरिद्र ब्राह्मण ॥
८६॥
नित्यानन्द प्रभु पर लांछन लगाते हुए अद्वैत आचार्य ने कहा, आप तो दस-बीस मन चावल खा सकते हो। मैं तो ठहरा निर्धन ब्राह्मण। भला मैं इतना चावल कैसे ला सकता हूँ? ने पाजाछ मुष्ट्येक अन्न, ताहा खाजा उठ ।।पागलामि ना करिह, ना छड़ाइओ झुठ ॥
८७॥
जो कुछ आपको दिया है, भले ही वह मुट्ठी-भर चावल क्यों न हो, कृपया उसे खाओ और उठ जाओ। अपना पागलपन मत दिखलाओ और ।। जूठन इधर-उधर मत बिखराओ।
एइ मत हास्य-रसे करेन भोजन ।।अर्ध-अर्ध खात्रा प्रभु छाडेन व्यञ्जन ॥
८८॥
इस तरह नित्यानन्द प्रभु तथा चैतन्य महाप्रभु ने भोजन ग्रहण किया। और अद्वैत आचार्य से परिहास किया। श्री चैतन्य महाप्रभु को जितनी तरकारियाँ परोसी गयी थीं, उन्होंने उनमें से हर एक को आधा-आधा खाकर छोड़ दिया।
सेइ व्यञ्जन आचार्य पुनः करेन पूरण ।।एइ मत पुनः पुनः परिवेशे व्यञ्जन ।। ८९॥
जब पात्र की आधी तरकारी समाप्त हो जाती, तो अद्वैत आचार्य फिर में उसे पूरा भर देते। इस तरह ज्योंही महाप्रभु आधा व्यंजन समाप्त करते कि अद्वैत आचार्य पुनः पुनः उसे पूरा भर देते।।
दोना व्यञ्जने भरि' करेन प्रार्थन ।प्रभु बलेन-आर कत करिब भोजन ॥
९०॥
। दोने को तरकारी से भरकर अद्वैत आचार्य ने उनसे प्रार्थना की कि वे और खायें। किन्तु चैतन्य महाप्रभु ने कहा, मैं और कितना खा सकता हूँ ।
आचार्य कहे ये दियाछि, ताहा ना छाड़िबा ।।एखन ये दिये, तारे अर्धेक खाइबा ॥
९१॥
अद्वैत आचार्य ने कहा, कृपा करके मेरे द्वारा परोसे हुए अन्न को न छोड़ें। अब मैं जो भी दे रहा हूँ, उसका आप आधा खाकर छोड़ सकते है।
नाना ग्रन-दैन्ये प्रभुरे कराइल भोजन ।।आचार इच्छा प्रभु करिल पूरण ॥
१२॥
। इस तरह विविध प्रकार से अनुनय-विनय करके अद्वैत आचार्य ने श्री चैतन्य महाप्रभु एवं नित्यानन्द प्रभु को भोजन कराया। इस प्रकार श्री चैतन्य महाप्रभु ने अद्वैत आचार्य की सारी इच्छाएँ पूरी कीं।।
नित्यानन्द कहे-आमार पेट ना भरिल ।।ला ग्राह, तोर अन्न किछु ना खाइल ॥
९३॥
नित्यानन्द प्रभु ने पुनः परिहास में कहा, मेरा पेट अब भी भरा नहीं है। अपना भोजन ले जाइये। मैंने इसमें से कुछ भी नहीं खाया है।
एत बलि' एक-ग्रास भात हाते लञा । उझालि' फेलिल आगे प्लेन क्रुद्ध हञा ॥
९४॥
। यह कहकर नित्यानन्द प्रभु ने एक मुट्ठी चावल लिया और उसे फर्श पर उनके आगे फेंक दिया, मानों वे क्रुद्ध हों।
भात दुइ-चारि लागे आचार अङ्गे।। भात अङ्गे लजा आचार्य नाचे बहु-रङ्गे ॥
९५॥
जब इस फेंके हुए चावलों के दो-चार दाने अद्वैत आचार्य के शरीर गे, तो वे उसी तरह चावल लगे शरीर से तरह-तरह से नाचने लगे।
अवधूतेर झुठा लागिल मोर अङ्गे।। परम पवित्र मोरे कैल एइ ढङ्गे ॥
९६॥
जब नित्यानन्द प्रभु द्वारा फेंके गये चावलों का अद्वैत आचार्य के शरीर से स्पर्श हुआ, तो आचार्य ने परमहंस नित्यानन्द द्वारा फेंके गये उस ।। उच्छिष्ट के स्पर्श से अपने आपको परम पवित्र बना समझा। अतः वे नाचने लगे।
तोरे निमन्त्रण करि' पाइनु तार फल ।तोर जाति-कुल नाहि, सहजे पागल ॥
९७॥
अद्वैत आचार्य ने हँसी-हँसी में कहा, हे प्रिय नित्यानन्द, मैंने आपको आमन्त्रित किया और उसका फल भी मुझे मिल चुका है। आपकी कोई जाति या कुल निश्चित नहीं है। आप स्वभाव से पागल हो।
आपनार सम मोरे करिबार तरे ।।झुठा दिले, विप्र बलि' भय ना करिले ॥
९८॥
आपने मुझे भी अपने समान पागल बनाने के लिए ही मेरे ऊपर फेंका है। आपको इसका भी डर नहीं हुआ कि मैं एक ब्राह्मण हूँ।
नित्यानन्द बले,—एइ कृष्णेर प्रसाद ।।इहाके 'झुठा' कहिले, तुमि कैले अपराध ॥
९९॥
नित्यानन्द प्रभु ने उत्तर दिया, यह भगवान् कृष्ण का उच्छिष्ट है। यदि आप इसे सामान्य जूठन समझते है, तो आपने अपराध किया है।
शतेक सन्यासी यदि कराह भोजन ।।तबे एइ अपराध हइबे खण्डन ॥
१०० ॥
श्रील नित्यानन्द प्रभु ने आगे कहा, यदि आप एक सौ संन्यासियों को अपने घर बुलाकर उन्हें भरपेट भोजन कराएंगे, तो आपका अपराध पण्डित हो सकेगा।
आचार्य कहे-—ना करिब सन्यासि-निमन्त्रण।सन्यासी नाशिल मोर सब स्मृति-धर्म ॥
१०१॥
। अद्वैत आचार्य ने उत्तर दिया, अब मैं कभी किसी संन्यासी को नहीं बुलाऊँगा, क्योंकि एक संन्यासी ने ही मेरे सारे ब्राह्मण स्मृति-नियमों को कलुषित कर दिया है।
एत बलि' दुइ जने कराइल आचमन ।। उत्तम शय्याते लइया कराइल शयन ॥
१०२॥
इसके बाद अद्वैत आचार्य ने दोनों प्रभुओं के हाथ और मुँह धुलवाये। फिर उन्हें उत्तम शय्या पर ले जाकर विश्राम कराने के लिए लिटा दिया।
लवङ्ग एलाची-बीज–उत्तम रस-वास । तुलसी-मञ्जरी सह दिल मुख-वास ॥
१०३॥
। श्री अद्वैत आचार्य ने दोनों जनों को लौंग तथा इलायची के साथ तुलसी-मंजरी का सेवन करवाया। इस तरह उनके मुखों में सुगन्ध आने लगी।
सुगन्धि चन्दने लिप्त कैल कलेवर ।। सुगन्धि पुष्प-माला आनि' दिल हृदय-उपर ॥
१०४॥
। श्री अद्वैत आचार्य ने दोनों प्रभुओं के शरीरों पर चन्दन का लेप किया और फिर उनके वक्षस्थलों पर अत्यन्त सुगन्धित फूलों की मालाएँ पहनाईं।
आचार्य करिते चाहे पाद-संवाहन ।।सङ्कुचित हा प्रभु बलेन वचन ॥
१०५॥
जब महाप्रभु शय्या पर लेट गये, तो अद्वैत आचार्य उनके पाँव दबाना चाहते थे, किन्तु महाप्रभु को संकोच हो रहा था, अतएव वे अद्वैत आचार्य से इस प्रकार बोले।
बहुत नाचाइले तुमि, छाड़ नाचान ।। मुकुन्द-हरिदास लइया करह भोजन ॥
१०६ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, अद्वैत आचार्य, आपने मुझे बहुत नाच नचाया। अब आप ऐसा करना छोड़ दीजिये। मुकुन्द और हरिदास के साथ जाकर भोजन करें।
तबे त' आचार्य सङ्गे ला दुइ जने ।। करिल इच्छाय भोजन, ग्रे आछिल मने ॥
१०७॥
तत्पश्चात् अद्वैत आचार्य ने मुकुन्द तथा हरिदास के साथ प्रसाद ग्रहण किया और उन तीनों ने भरपेट इच्छानुसार भोजन किया।
शान्तिपुरेर लोक शुनि' प्रभुर आगमन । देखिते आइला लोक प्रभुर चरण ।। १०८॥
जब शान्तिपुर के लोगों ने सुना कि श्री चैतन्य महाप्रभु वहाँ ठहरे हैं, ती वे तुरन्त ही उनके चरणकमलों का दर्शन करने आये।
‘हरि' ‘हरि' बले लोक आनन्दित हजा ।।चमत्कार पाइल प्रभुर सौन्दर्य देखिञा ॥
१०९॥
। सारे लोग अत्यन्त हर्षित होकर उच्च स्वर से भगवान् के पवित्र नाम- हरि! हरि! का उच्चारण करने लगे। वस्तुतः वे महाप्रभु का मौन्दर्य देखकर वे पूर्णतया आश्चर्यचकित हो गये।
गौर-देह-कान्ति सूर्य जिनिया उज्वल ।अरुण-वस्त्र-कान्ति ताहे करे झल-मल ॥
११०॥
। उन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु के अत्यन्त गौर वर्ण शरीर तथा उनकी 1 rवल कान्ति को देखा, जो सूर्य के तेज को भी परास्त करने वाली थी।इससे भी बढ़कर उनके केसरिया वस्त्रों का सौन्दर्य था, जो उनके शरीर पर झलमल कर रहे थे।
आइसे ग्राय लोक हर्षे, नाहि समाधान ।।लोकेर सङ्कट्टे दिन हैल अवसान ॥
१११॥
। लोग बड़े ही हर्ष के साथ आते और जाते थे। इसकी कोई गिनती न थी कि सूर्यास्त तक वहाँ कितने लोग एकत्र हुए थे।
सन्ध्याते आचार्य आरम्भिल सङ्कीर्तन ।।आचार्यु नाचेन, प्रभु करेन दर्शन ॥
११२॥
शाम होते ही अद्वैत आचार्य ने सामूहिक कीर्तन प्रारम्भ किया। वे स्वयं भी नृत्य करने लगे और महाप्रभु उनका नृत्य देखने लगे।
नित्यानन्द गोसाजि बुले आचार्य धरिजा । हरिदास पाछे नाचे हरषित हुआ ॥
११३॥
जब अद्वैत आचार्य नाचने लगे, तो नित्यानन्द प्रभु उनके पीछे पीछे नाचने लगे। हरिदास ठाकुर भी अत्यन्त हर्षित होकर उनके पीछे नाचने लगे।
कि कहिब रे सखि आजुक आनन्द ओर ।। चिर-दिने माधव मन्दिरे मोर ॥
११४॥
अद्वैत आचार्य ने कहा, हे सखियों! मैं क्या कहूँ? आज मुझे सर्वोच्च दिव्य आनन्द प्राप्त हुआ है। अनेकानेक दिनों के बाद भगवान् कृष्ण मेरे पर पधारे हैं।
एइ पद गाओयाझ्या हर्षे करेन नर्तन ।। स्वेद-कम्प-पुलकाश्रु-हुङ्कार-गर्जन ॥
११५॥
अद्वैत आचार्य संकीर्तन टोली का नेतृत्व कर रहे थे और उन्होंने इस श्लोक को बड़े हर्ष से गाया। उनके शरीर में भावमय स्वेद, कँपकँपी, रोमांच, अश्रु तथा कभी-कभी गर्जन और हुंकार का प्राकट्य हो रहा था।
फिरि' फिरि' कभु प्रभुर धरेन चरण । चरणे धरिया प्रभुरे बलेन वचन ॥
११६॥
नाचते हुए अद्वैत आचार्य चक्राकार घूमने लगते और श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमल पकड़ लेते। फिर वे उनसे इस प्रकार बोलते।।
अनेक दिन तुमि मोरे बेड़ाइले भाण्डिया । घरेते पाञाछि, एबे राखिब बान्धिया ॥
११७॥
श्री अद्वैत आचार्य कहने लगे, आप बहुत दिनों तक बहकाकर मुमसे बचते रहे। अब आप मेरे घर आये हैं और मैं आपको बाँधकर रखूँगा ।
एत बलि' आचार्य आनन्दे करेन नर्तन ।।प्रहरेक-रात्रि आचार्य कैल सङ्कीर्तन ॥
११८॥
इस तरह कहते हुए उस रात को अद्वैत आचार्य ने बड़े ही आनन्द के साथ तीन घंटे तक संकीर्तन किया और सारे समय नाचते रहे।
प्रेमेर उत्कण्ठा,—प्रभुर नाहि कृष्ण-सङ्ग ।विरहे बाड़िल प्रेम-ज्वालार तरङ्ग ॥
११९॥
जब अद्वैत आचार्य इस प्रकार नृत्य कर रहे थे, तब चैतन्य महाप्रभु को कृष्ण के भावोल्लासमय प्रेम की अनुभूति हुई और उनके विरह के कारण प्रेम की लहरें और ज्वालाएँ तीव्रतर हो उठीं।
व्याकुल हा प्रभु भूमिते पड़िला ।। गोसाञि देखिया आचार्य नृत्य सम्बरिला ॥
१२०॥
। भावोल्लास से व्याकुल होकर श्री चैतन्य महाप्रभु सहसा भूमि पर गिर पड़े। यह देखकर अद्वैत आचार्य ने नृत्य करना बन्द कर दिया।
प्रभुर अन्तर मुकुन्द जाने भाल-मते ।। भावेर सदृश पद लागला गाइते ॥
१२१॥
जब मुकुन्द ने श्री चैतन्य महाप्रभु के भावोल्लास को देखा, तो वे महाप्रभु की मनोदशा को समझते हुए उनके भाव को पुष्ट करने वाले अनेक पद गाने लगे।
आचार्य उठाइल प्रभुके करिते नर्तन ।।पद शुनि' प्रभुर अङ्ग ना ग्राय धारण ॥
१२२॥
अद्वैत आचार्य ने श्री चैतन्य महाप्रभु को उठाया जिससे वे नृत्य कर सकें, किन्तु मुकुन्द द्वारा गाये जाने वाले पदों को सुनकर महाप्रभु को उनके शारीरिक लक्षणों के कारण पकड़े नहीं रखे जा सके।
अश्रु, कम्प, पुलक, स्वेद, गद्गद वचन ।।क्षणे उठे, क्षणे पड़े, क्षणेक रोदन ॥
१२३॥
उनके नेत्रों से अश्रु गिरने लगे और उनका सारा शरीर काँपने लगा। उन्हें रोमांच हो आया, उनका शरीर स्वेदमय हो गया और उनकी वाणी ।अवरुद्ध हो गई। कभी वे उठ खड़े होते और कभी गिर पड़ते, तो कभी रोदन करने लगते।
हा हा प्राण-प्रिय-सखि, कि ना हैल मोरे ।कानु-प्रेम-विषे मोर तनु-मन जरे ॥
१२४॥
मुकुन्द गाने लगे, हे प्राण प्रिय सखि! मेरे साथ क्या-क्या नहीं बीता! कृष्ण के प्रेमरूपी विष के प्रभाव से मेरा शरीर तथा मन दोनों अत्यन्त पीड़ित हैं।
रात्रि-दिने पोड़े मन सोयास्ति ना पाँ।।ग्राहाँ गेले कानु पाँ, ताहाँ उड़ि' याँ ॥
१२५॥
मेरी भावना इस प्रकार है : मेरा मन दिन-रात जलता है और मुझे तनिक भी आराम नहीं मिलता। यदि कोई ऐसा स्थान हो, जहाँ मैं श्रीकृष्ण से मिलने जा सकें, तो मैं तुरन्त वहाँ उड़कर चली जाऊँ।
एइ पद गाय मुकुन्द मधुर सुस्वरे ।शुनिया प्रभुर चित्त अन्तरे विदरे ॥
१२६॥
मुकुन्द ने इस पद को अत्यन्त मधुर स्वर में गाया, किन्तु ज्योंही भी चैतन्य महाप्रभु ने यह पद सुना, उनका हृदय विदीर्ण हो गया।
निर्वेद, विषाद, हर्ष, चापल्य, गर्व, दैन्य ।। प्रभुर सहित युद्ध करे भाव-सैन्य ॥
१२७॥
दिव्य भावों के सारे लक्षण यथा निराशा, खिन्नता, हर्ष, चपलता, गर्व तथा दीनता महाप्रभु के हृदय में सैनिकों की तरह लड़ने लगे।
जर-जर हैल प्रभु भावेर प्रहारे ।भूमिते पड़िल, श्वास नाहिक शरीरे ॥
१२८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु का सारा शरीर विविध भाव-लक्षणों के प्रहार से जर्जर होने लगा। फलस्वरूप वे तुरन्त ही भूमि पर गिर गये और उनकी साँस रुक-सी गई।
देखिया चिन्तित हैला व्रत भक्त-गण ।।आचम्बिते उठे प्रभु करिया गर्जन ॥
१२९॥
महाप्रभु की यह दशा देखकर सारे भक्त अत्यन्त चिन्तित हो उठे। तभी महाप्रभु सहसा उठ खड़े हुए और गर्जना करने लगे।
बल्’ ‘बल्’ बले, नाचे, आनन्दे विह्वल ।बुझन ना ग्राय भाव-तरङ्ग प्रबल ॥
१३० ।। । महाप्रभु ने उठकर कहा, बोलते रहो! बोलते रहो! इस तरह। आनन्द-विभोर होकर नाचने लगे। कोई भी उनके इस भाव की प्रबल तरंगों को जान नहीं सका।
नित्यानन्द सङ्गे बुले प्रभुके धरिजा ।। आचार्य, हरिदास बुले पाछे त' नाचिञा ॥
१३१॥
नित्यानन्द प्रभु श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ-साथ चलने लगे, जिससे वे गिरे नहीं और अद्वैत आचार्य तथा हरिदास ठाकुर नाचते हुए उनके पीछे-पीछे चलने लगे।
एइ मत प्रहरेक नाचे प्रभु रङ्गे।।कभु हर्ष, कभु विषाद, भावेर तरङ्गे ॥
१३२॥
इस तरह महाप्रभु कम-से-कम तीन घंटे नृत्य करते रहे। कभी-कभी नमें हर्ष, विषाद तथा अन्य भावों की अनेक तरंगे दृष्टिगोचर होती थीं।
तिन दिन उपवासे करिया भोजन ।।उद्दण्ड-नृत्येते प्रभुर हैल परिश्रम ॥
१३३।। महाप्रभु तीन दिनों से उपवास कर रहे थे और उसके बाद उन्होंने पर्याप्त भोजन किया था। अतएव जब वे नाचे और ऊँचा कूदे, तो उन्हें थोड़ी थकान हो आई।।
तबु त' ना जाने श्रम प्रेमाविष्ट हो । नित्यानन्द महाप्रभुके राखिल धरिञा ॥
१३४॥
किन्तु भगवत् प्रेम में पूर्णतः मग्न होने के कारण महाप्रभु थकान का अनुभव नहीं कर रहे थे। फिर भी नित्यानन्द प्रभु ने उन्हें पकड़ लिया और उन्हें नाचने से रोका।
आचार्य-गोसाजि तबे राखिल कीर्तन । नाना सेवा करि' प्रभुके कराइल शयन ॥
१३५॥
। यद्यपि महाप्रभु थके हुए थे, किन्तु नित्यानन्द प्रभु ने उन्हें पकड़कर शान्त किया। उस समय अद्वैत आचार्य ने कीर्तन समाप्त कर दिया और रह तरह की सेवाएँ करके महाप्रभु को विश्राम हेतु शयन करवाया।
एइ-मत दश-दिन भोजन-कीर्तन । एक-रूपे करि' करे प्रभुर सेवन ॥
१३६॥
अद्वैत आचार्य ने इस प्रकार लगातार दस दिनों तक शाम के समय भोज और कीर्तन का आयोजन किया। वे बिना किसी परिवर्तन के महाप्रभु की इस तरह सेवा करते रहे।
प्रभाते आचार्यरत्न दोलाय चड़ाना । भक्त-गण-सङ्गे आइला शचीमाता लञा ।। १३७॥
प्रातःकाल चन्द्रशेखर शचीमाता को उनके घर से पालकी में बैठाकर अनेक भक्तों समेत ले आये।
नदीया-नगरेर लोक-स्त्री-बालक-वृद्ध ।। सब लोक आइला, हैल सङ्घट्ट समृद्ध ॥
१३८ ॥
इस प्रकार नदिया नगर के सारे लोग-जिसमें स्त्रियाँ, बालक तथा वृद्ध सम्मिलित थे-वहाँ आये। इस तरह वहाँ विशाल भीड़ एकत्र हो गई।
प्रात:-कृत्य करि' करे नाम-सङ्कीर्तन । शचीमाता लबा आइला अद्वैत-भवन ॥
१३९॥
प्रात:काल शौच आदि दैनिक कृत्यों से निवृत्त होने के बाद महाप्रभु हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन कर रहे थे, तभी शचीमाता साथ लोग अद्वैत आचार्य के घर पहुँचे।
शची-आगे पड़िला प्रभु दण्डवत् हा ।। कान्दिते लागिला शची कोले उठाइञा ॥
१४०॥
। ज्योंही शचीमाता वहाँ पहुँचीं, तो चैतन्य महाप्रभु उनके चरणों में दण्ड के समान गिर पड़े। शचीमाता महाप्रभु को गोद में लेकर रोने लगीं।
दोंहार दर्शने मुँहे हइला विह्वल ।।केश ना देखिया शची हइला विकल ॥
१४१॥
एक-दूसरे को देखकर दोनों विह्वल हो उठे। महाप्रभु के शिर को केशविहीन देखकर शचीमाता अत्यन्त विक्षुब्ध हो उठीं।।
अङ्ग मुछे, मुख चुम्बे, करे निरीक्षण ।।देखिते ना पाय,—अश्रु भरिल नयन ॥
१४२॥
। स्नेहवश वे महाप्रभु के शरीर पर हाथ फेरने लगीं। कभी वे मुख चूमती और ध्यान से उन्हें देखने का प्रयत्न करतीं, किन्तु अश्रुपूरित नेत्र के कारण वे देख न सकीं।
कान्दिया कहेन शची, बाछारे निमात्रि ।। विश्वरूप-सम ना करिह निठुराइ ॥
१४३॥
यह समझकर कि चैतन्य महाप्रभु ने संन्यास ग्रहण कर लिया शचीमाता ने रोते हुए महाप्रभु से कहा, मेरे दुलारे निमाइ! तुम अपने विश्वरूप की तरह निष्ठुर न बनो।
सन्यासी हइया पुनः ना दिल दरशन ।। तुमि तैछे कैले मोर हेइबे मरण ॥
१४४॥
शचीमाता ने कहा, विश्वरूप ने संन्यास लेने के बाद फिर मुझे कभी दर्शन नहीं दिया। यदि तुम उसी की तरह करोगे, तो तुम समझ ली। निश्चित रूप से मेरी मृत्यु हो जायेगी।
कान्दिया बलेन प्रभु–शुन, मोर आइ ।।तोमार शरीर एइ, मोर किछु नाइ ॥
१४५ ॥
महाप्रभु ने उत्तर दिया, हे माता! कृपया सुनिये। यह शरीर आपका है।। मेरा अपना कुछ भी नहीं है।
तोमार पालित देह, जन्म तोमा हैते ।। कोटि जन्मे तोमार ऋण ना पारि शोधिते ॥
१४६॥
। यह शरीर आपके द्वारा पाला-पोसा गया है और यह आपसे ही उत्पन्न है मैं करोड़ों जन्मों में भी यह ऋण नहीं चुका सकता।
जानि' वा ना जानि' कैल यद्यपि सन्यास ।। तथापि तोमारे कभु नहिब उदास ॥
१४७॥
भाने या अनजाने मैंने यह संन्यास स्वीकार किया है। फिर भी मैं आपसे विमुख नहीं होऊँगा।
तुमि ग्राहाँ कह, आमि ताहाङि रहिब ।। तुमि ग्रेइ आज्ञा कर, सेइ त' करिब ॥
१४८॥
अनुन्नाद हे माता, आप मुझे जहाँ भी रहने के लिए कहेंगी, मैं वहीं रहूँगा और आप जो भी आज्ञा देंगी, उसका मैं पालन करूंगा।
एत बलि' पुनः पुनः करे नमस्कार ।। तुष्ट हन्ना आइ कोले करे बार बार ॥
१४९॥
यह कहकर महाप्रभु ने अपनी माता को बारम्बार प्रणाम किया। शचीमाता ने भी उनसे प्रसन्न होकर उन्हें बारम्बार अपनी गोद में लिया।
तबे आइ लजा आचार्य गेला अभ्यन्तर । भक्त-गण मिलिते प्रभु हइला सत्वर ॥
१५०॥
तत्पश्चात् अद्वैत आचार्य शचीमाता को घर के भीतर ले गये। महाप्रभु तुरन्त ही सारे भक्तों से मिलने के लिए तैयार हो गये।
एके एके मिलिल प्रभु सब भक्त-गण ।। सबार मुख देखि' करे दृढ़ आलिङ्गन ॥
१५१॥
महाप्रभु एक-एक करके सारे भक्तों से मिले और हर एक के मुख को देखकर उन्होंने उसका दृढ़तापूर्वक आलिंगन किया।
केश ना देखिया भक्त यद्यपि पाय दुःख ।।सौन्दर्य देखिते तबु पाय महा-सुख ॥
१५२॥
। यद्यपि भक्तगण महाप्रभु के बालों को न देखकर दुःखी थे, फिर भी उनके सौन्दर्य को देखकर परम सुख प्राप्त कर रहे थे।
श्रीवास, रामाई, विद्यानिधि, गदाधर ।। गङ्गादास, वक्रेश्वर, मुरारि, शुक्लाम्बर ॥
१५३॥
बुद्धिमन्त खाँ, नन्दन, श्रीधर, विजय ।। वासुदेव, दामोदर, मुकुन्द, सञ्जय ॥
१५४॥
कत नाम लइब ग्रत नवद्वीप-वासी ।।सबारे मिलिला प्रभु कृपा-दृष्ट्ये हासि' ॥
१५५॥
श्रीवास, रामाइ, विद्यानिधि, गदाधर, गंगादास, वक्रेश्वर, मुरारि, शुक्लाम्बर, बुद्धिमन्त खां, नन्दन, श्रीधर, विजय, वासुदेव, दामोदर, मुकुन्द, संजय तथा अन्य जितने भी नाम मैं गिना सकें-सभी नवद्वीप के निवासी वहाँ आये और महाप्रभु सब पर कृपा दृष्टि डालते हुए तथा । मुस्कुराते हुए उनसे मिले।
आनन्दे नाचये सबे बलि’ ‘हरि' ‘हरि' ।।आचार्य-मन्दिर हैल श्री-वैकुण्ठ-पुरी ॥
१५६॥
हर कोई पवित्र हरिनाम का कीर्तन करते हुए नाच रहा था। इस तरह अद्वैत आचार्य का निवास स्थान श्री वैकुण्ठपुरी में बदल गया था।
ग्रत लोक आइल महाप्रभुके देखिते ।।नाना-ग्राम हैते, आर नवद्वीप हैते ॥
१५७॥
नवद्वीप के अतिरिक्त आसपास के अन्य विभिन्न गाँवों के भी लोग श्री चैतन्य महाप्रभु के दर्शन हेतु आये।
सबाकारे वासा दिल–भक्ष्य, अन्न-पान ।।बहु-दिन आचार्य-गोसाञि कैल समाधान ॥
१५८ ॥
। अद्वैत आचार्य ने महाप्रभु का दर्शन करने के लिए निकट के गाँवों से आये हर व्यक्ति को, विशेषतया नवद्वीप के निवासियों को कई दिनों तक रहने के लिए स्थान और सभी प्रकार की खाद्य सामग्री प्रदान की। उन्होंने हर बात का अच्छी तरह प्रबन्ध किया।
आचार्य-गोसाजिर भाण्डार---अक्षय, अव्यय ।। ग्रत द्रव्य व्यय करे तत द्रव्य हय ॥
१५९॥
अद्वैत आचार्य का भण्डार अक्षय तथा अटूट था। वे जितनी भी सामग्री का उपयोग करते, उतनी ही सामग्री फिर से प्रकट हो आती।।
सेइ दिन हैते शची करेन रन्धन ।।भक्त-गण लञा प्रभु करेन भोजन ॥
१६० ॥
जिस दिन से शचीमाता अद्वैत आचार्य के घर आईं, वे ही भोजन पकाती थीं और श्री चैतन्य महाप्रभु सारे भक्तों के साथ भोजन करते थे।
दिने आचार प्रीति प्रभुर दर्शन ।।रात्रे लोक देखे प्रभुर नर्तन-कीर्तन ॥
१६१॥
दिन में जितने सारे लोग वहाँ आते थे, वे श्री चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करते थे और अद्वैत आचार्य के प्रेमपूर्ण व्यवहार को देखते थे। रात्रि में उन्हें महाप्रभु का नृत्य देखने और उनका कीर्तन सुनने का अवसर प्राप्त होता था।
कीर्तन करिते प्रभुर सर्व-भावोदय ।। स्तम्भ, कम्प, पुलकाश्रु, गद्गद, प्रलय ॥
१६२॥
कीर्तन करते समय महाप्रभु में सभी प्रकार के दिव्य लक्षण प्रकट हो जाते थे। वे स्तम्भित एवं कम्पित लगते, उन्हें रोमांच हो जाता और उनकी वाणी अवरुद्ध हो जाती। आंसुओं के साथ प्रलय प्रकट हो जाती।
क्षणे क्षणे पड़े प्रभु आछाड़ खाजा ।। देखि' शचीमाता कहे रोदन करिया ॥
१६३॥
महाप्रभु रह-रहकर पछाड़ खाकर भूमि पर गिर पड़ते थे। यह देखकर उनकी माता शची रोने लगतीं।।
चूर्ण हैल, हेन वासों निमाजि-कलेवर ।।हा-हा करि' विष्णु-पाशे मागे एइ वर ॥
१६४॥
श्रीमती शचीमाता ने सोचा कि इस तरह भूमि पर गिरने से निमाइ का शरीर चूर-चूर हो रहा होगा, अतएव वे चित्कार कर उठीं, हाय और फिर भगवान् विष्णु से वर माँगने लगीं।
बाल्यकाल हैते तोमार ये कैलँ सेवन ।।तार एइ फल मोरे देह नारायण ॥
१६५ ॥
हे प्रभु, मैंने अपने बचपन से लेकर आज तक आपकी जो भी सेवा की है, उसके बदले में कृपा करके मुझे यह वर दें।
ने काले निमात्रि पड़े धरणी-उपरे ।।व्यथा ग्रेन नाहि लागे निमाजि-शरीरे ।। १६६ ॥
। जब-जब निमाइ धरती पर गिरे, तब-तब उसे पीड़ा का अनुभव न हो।
एइ-मत शचीदेवी वात्सल्ये विह्वल ।।हर्ष-भय-दैन्य-भावे हइल विकल ॥
१६७॥
इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रति वात्सल्य-प्रेम से अभिभूत होने पर शचीमाता हर्ष, भय तथा दीनता से विह्वल और साथ ही शारीरिक भाव-लक्षणों से युक्त हो गई।
श्रीवासादि ग्रत प्रभुर विप्र भक्त-गण ।।प्रभुके भिक्षा दिते हैल सबाकार मन ॥
१६८॥
चूँकि अद्वैत आचार्य श्री चैतन्य महाप्रभु को भिक्षा तथा भोजन देते थे, अतएव श्रीवास ठाकुर आदि अन्य भक्त भी उन्हें भिक्षा देने और भोजन के लिए आमन्त्रित करना चाह रहे थे।
शुनि' शची सबकारे करिल मिनति ।।निमाजिर दरशन आर मुञि पाब कति ॥
१६९॥
। महाप्रभु के अन्य भक्तों द्वारा ऐसे प्रस्तावों को सुनकर शचीमाता ने भक्तों से कहा, अब मुझे निमाइ के दर्शन पाने के कितने अवसर हाथ लगेंगे? तोमा-सब-सने हबे अन्यत्र मिलन ।।मुञि अभागिनीर मात्र एइ दरशन ॥
१७० ॥
। शचीमाता ने निवेदन किया, जहाँ तक आप लोगों की बात है, आप निमाइ अर्थात् श्री चैतन्य महाप्रभु से अन्यत्र भी अनेक बार मिल सकते हो, किन्तु मेरे लिए उससे दोबारा मिलने की क्या सम्भावना है? मुझे तो घर पर रहना होगा। संन्यासी कभी अपने घर वापस नहीं आता।
ग्रावताचार्य-गृहे निमाजिर अवस्था । मुजि भिक्षा दिमु, सबकारे मागों दान ॥
१७१॥
शचीमाता ने सभी भक्तों से यह दान माँगा, जब तक श्री चैतन्य महाप्रभु अद्वैत आचार्य के घर में रहें, केवल वे ही उन्हें भोजन प्रदान करेंगी।
शुनि' भक्त-गण कहे करि' नमस्कार ।। मातार ये इच्छा सेइ सम्मत सबार ॥
१७२॥
शचीमाता का यह निवेदन सुनकर सारे भक्तों ने उन्हें नमस्कार करते हुए कहा, “हम सभी लोग शचीमाता की इच्छा से सहमत हैं।
मातार व्यग्रता देखि प्रभुर व्यग्र मन । भक्त-गण एकत्र करि' बलिला वचन ॥
१७३ ॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपनी माता की महान् उत्सुकता देखी, तो वे कुछ विचलित हुए। अतएव उन्होंने वहाँ उपस्थित सारे भक्तों को एकत्र किया और उनसे बोले।
तोमा-सबार आज्ञा विना चलिलाम वृन्दावन ।।याइते नारिल, विघ्न कैल निवर्तन ॥
१७४।। । श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन सबको बतलाया, मैं आप लोगों की आज्ञा लिये बिना वृन्दावन जाना चाह रहा था। किन्तु कुछ बाधा उत्पन्न हुई और मुझे लौटना पड़ा।
यद्यपि सहसा आमि करियाछि सन्यास ।। तथापि तोमा-सबा हैते नहिब उदास ॥
१७५ ॥
हे मित्रों, यद्यपि मैंने अचानक ही यह संन्यास ग्रहण कर लिया है, किन्तु मैं जानता हूँ कि तब भी मैं आप लोगों से कभी उदासीन नहीं होऊँगा।
तोमा-सब ना छाड़िब, ग्रावतामि जीब' ।मातारे तावतामि छाड़िते नारिब ॥
१७६ ॥
मेरे प्रिय मित्रों, जब तक मैं जीवित रहूँगा, आप लोगों को कभी नहीं छोडूंगा। न ही मैं अपनी माता को छोड़ पाऊँगा।
सन्यासीर धर्म नहे---सन्यास करिना ।निज जन्म-स्थाने रहे कुटुम्ब ला ॥
१७७॥
संन्यास स्वीकार करने के बाद संन्यासी का यह धर्म नहीं होता कि वह अपने जन्मस्थान में रहे और अपने कुटुम्बियों से घिरा रहे।
केह ग्रेन एइ बलि' ना करे निन्दन ।।सेइ झुक्ति कह, झाते रहे दुइ धर्म ॥
१७८ ॥
अतएव कुछ ऐसा प्रबन्ध करो, जिससे मैं आप लोगों को न छोड़ें और लोग मुझ पर संन्यास लेने के बाद सम्बन्धियों के साथ रहने का। लांछन भी न लगा सकें।
शुनिया प्रभुर एइ मधुर वचन ।।शची-पाश आचार्यादि करिल गमन ॥
१७९॥
महाप्रभु के वचन सुनकर अद्वैत आचार्य आदि सारे भक्त शचीमाता के पास गये।
प्रभुर निवेदन ताँरे सकल कहिल ।।शुनि' शची जगन्माता कहिते लागिल ॥
१८०॥
जब उन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु के वचन कहे, तो अखिल विश्व की माता शची कहने लगीं।
तेहो झदि इहाँ रहे, तळे पो छ । । ताँर निन्दा हय यदि, सेह मोर दु:ख ।। १८१ ।। शचीमाता ने कहा, यह मेरे लिए परम सुख की बात होगी यदि निमाइ ( श्री चैतन्य महाप्रभु) यहाँ रहता है। किन्तु यदि कोई उसकी निन्दा करे तो यह मेरे लिए अत्यन्त दुःख की बात होगी।
ताते एइ युक्ति भाल, मोर मने लय ।। नीलाचले रहे ग्रदि, दुई कार्य हर !! १८२ ।। । शचीमाता ने कहा, यह अच्छा विचार है। मेरे विचार से यदि निमाइ जगन्नाथ पुरी में रहे, तो वह हममें से किसी को छोड़ेगा भी नहीं और उसी के साथ-साथ वह संन्यासी के रूप में अलग भी रह सकता है। इस तरह दोनों उद्देश्य पूरे हो जायेंगे।
नीलाचले नवद्वीपे ग्रेन दुइ घर ।। लोक-गतागति-वार्ता पाब निरन्तर ॥
१८३॥
चूँकि जगन्नाथ पुरी और नवद्वीप का निकट सम्बन्ध है-मानों एक ही घर के दो कमरे हों-इसलिए नवद्वीप के लोग सामान्यतः जगन्नाथ पुरी जाते रहते हैं और जगन्नाथ पुरी के लोग नवद्वीप आते रहते हैं। इस आनेजाने से चैतन्य महाप्रभु के समाचार मिलने में सुविधा होगी। इस तरह मुझे उसके समाचार मिलते रहेंगे।
तुमि सब करिते पार गमनागमन ।। गङ्गा-स्नाने कभु हबे ताँर आगमन ॥
१८४॥
तुम सारे भक्त आ-जा सकोगे और कभी-कभी वह भी गंगा-स्नान करने के लिए आ सकता है।
आपनार दुःख-सुख ताहाँ नाहि गणि ।।ताँर ग्रेइ सुख, ताहा निज-सुख मानि ॥
१८५॥
मुझे अपने सुख या दुःख की चिन्ता नहीं है, चिन्ता केवल उसके सुख की है। मैं उसके सुख को ही अपना सुख मानती हूँ।
शुनि' भक्त-गण ताँरै करिल स्तवन ।वेद-आज्ञा ग्रैछे, माता, तोमार वचन ॥
१८६॥
शचीमाता के वचन सुनकर सारे भक्तों ने उनकी स्तुति की और उन्हें विश्वास दिलाया कि उनका आदेश वेदों के आदेश के समान है, जिसका अतिक्रमण नहीं किया जा सकता।
भक्त-गण प्रभु-आगे आसिया कहिल ।।शुनिया प्रभुर मने आनन्द हइल ॥
१८७॥
सारे भक्तों ने चैतन्य महाप्रभु को शचीमाता के निर्णय की सूचना दी। यह सुनकर महाप्रभु अत्यन्त प्रसन्न हुए।
नवद्वीप-वासी आदि ग्रत भक्त-गण ।सबारे सम्मान करि' बलिला वचन ।। १८८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने नवद्वीप तथा अन्य नगरों से आये सभी भक्तों का सम्मान किया और उनसे इस प्रकार कहा : तुमि-सब लोक—मोर परम बान्धव ।।एइ भिक्षा मागों,--मोरे देह तुमि सब ॥
१८९॥
। मेरे प्रिय मित्रों, आप सभी मेरे घनिष्ठ मित्र हो। अब मैं आप सबसे एक भिक्षा माँगता हूँ। कृपा करके मुझे यह भिक्षा दें।
घरे यात्रा कर सदा कृष्ण-सङ्कीर्तन ।। कृष्ण-नाम, कृष्ण-कथा, कृष्ण आराधन ॥
१९०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन सबसे प्रार्थना की कि वे घर लौट जाएँ और वहाँ सामूहिक नाम-कीर्तन प्रारम्भ कर दें। उन्होंने यह भी प्रार्थना की कि वे कृष्ण की पूजा करें, उनके पवित्र नाम का कीर्तन करें तथा उनकी पवित्र लीलाओं की चर्चा करें।
आज्ञा देह नीलाचले करिये गमन । मध्ये मध्ये आसि' तोमाय दिब दरशन ॥
१९१॥
भक्तों को इस प्रकार उपदेश देने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने जगन्नाथ पुरी जाने की अनुमति चाही। उन्होंने आश्वासन दिया कि वे बीच बीच में वहाँ आते रहेंगे और उनसे बार-बार मिलते रहेंगे।
एत बलि' सबाकारे ईषत् हासिजा ।।विदाय करिल प्रभु सम्मान करिजा ॥
१९२॥
इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने सभी भक्तों का सम्मान करते हुए और सौम्यता से मुस्कुराते हुए सबको विदा किया।
सबा विदाय दिया प्रभु चलिते कैल मन ।हरिदास कान्दि' कहे करुण वचन ॥
१९३॥
सभी भक्तों से घर लौट जाने की विनती करने के बाद महाप्रभु ने जगन्नाथ पुरी जाने का निश्चय किया। उस समय हरिदास ठाकुर क्रन्दन करते हुए करुण वचन बोले।
नीलाचले ग्राबे तुमि, मोर कोन्गति ।नीलाचले ग्राइते मोर नाहिक शकति ॥
१९४॥
। हरिदास ठाकुर ने कहा, यह तो ठीक है कि आप नीलाचल ( जगन्नाथ पुरी) जा रहे हैं, किन्तु मेरी क्या गति होगी? मैं तो नीलाचल जाने में असमर्थ हैं।
मुजि अधम तोमार ना पाब दरशन ।। केमते धरिब एइ पापिष्ठ जीवन ॥
१९५॥
अत्यन्त नीच व्यक्ति होने के कारण मैं आपके दर्शन नहीं पा सर्केगा। मैं अपने पापमय जीवन को किस तरह धारण किये रहूँगा? प्रभु कहे,---कर तुमि दैन्य सम्वरण ।। तोमार दैन्येते मोर व्याकुल हय मन ॥
१९६॥
महाप्रभु ने हरिदास ठाकुर से कहा, कृपया आप अपनी दीनता को नियंत्रित कीजिये। आपकी दीनता देखकर मेरा मन अत्यधिक व्याकुल हो। रहा है।
तोमा लागि' जगन्नाथे करिब निवेदन । तोमा-ला याब आमि श्री-पुरुषोत्तम ॥
१९७॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु ने हरिदास ठाकुर को आश्वस्त किया कि वे भगवान् जगन्नाथ के समक्ष निवेदन करेंगे और निश्चय ही उन्हें जगन्नाथ पुरी ले चलेंगे।
तबे त' आचार्य कहे विनय करिजा ।। दिन दुइ-चारि रह कृपा त' करिजा ॥
१९८॥
इसके बाद अद्वैत आचार्य ने श्री चैतन्य महाप्रभु से अनुनय-विनय की कि वे दो-चार दिन और रहने की कृपा करें।
आचार्गेर वाक्य प्रभु ना करे लड्न ।।रहिला अद्वैत-गृहे, ना कैल गमन ।। १९९॥
श्री चैतन्य महाप्रभु कभी भी अद्वैत आचार्य की प्रार्थना का उल्लंघन नहीं करते थे; अतएव वे उनके घर पर रुके रहे और उन्होंने जगन्नाथ पुरी के लिए तुरन्त प्रस्थान नहीं किया।
आनन्दित हैल आचार्य, शची, भक्त, सब ।।प्रति-दिन करे आचार्य महा-महोत्सव ॥
२००॥
महाप्रभु के निर्णय से अद्वैत आचार्य, शचीमाता तथा सारे भक्त अत्यन्त प्रसन्न हुए। अद्वैत आचार्य प्रतिदिन महान् उत्सवों का आयोजन करते रहे।
दिने कृष्ण-कथा-रस भक्त-गण-सङ्गे।।रात्रे महा-महोत्सव सङ्कीर्तन-रङ्गे ॥
२०१॥
दिन के समय सारे भक्त कृष्ण-कथाओं की चर्चा करते और रात में अद्वैत आचार्य के घर सामूहिक कीर्तन महोत्सव मनाया जाता।
आनन्दित हा शची करेन रन्धन ।। सुखे भोजन करे प्रभु ला भक्त-गण ॥
२०२॥
माता शची बड़े आनन्द से भोजन पकातीं और भक्तों सहित श्री चैतन्य महाप्रभु बड़े ही आनन्द के साथ प्रसाद ग्रहण करते।
आचार श्रद्धा-भक्ति-गृह-सम्पद-धने ।। सकल सफल हैल प्रभुर आराधने । २०३॥
इस तरह अद्वैत आचार्य के सारे ऐश्वर्य-उनकी श्रद्धा, भक्ति, घर, धन और अन्य सब कुछ-श्री चैतन्य महाप्रभु की सेवा में भलीभाँति उपयोग किये गये।
शचीर आनन्द बाड़े देखि' पुत्र-मुख । भोजन कराञी पूर्ण कैल निज-सुख ॥
२०४॥
शचीमाता का आनन्द निरन्तर अपने पुत्र का मुख देखकर तथा भोजन । कराकर बढ़ता रहा तथा अतन्तः पूर्णता को प्राप्त हुआ।
एइ-मत अद्वैत-गृहे भक्त-गण मिले ।।वञ्चिला कतक-दिन महा-कुतूहले ॥
२०५॥
इस तरह सारे भक्त अद्वैत आचार्य के घर पर मिले और उन्होंने महोत्सवमय वातावरण में एक साथ कुछ दिन बिताये।
आर दिन प्रभु कहे सब भक्त-गणे ।।निज-निज-गृहे सबे करह गमने ॥
२०६॥
अगले दिन चैतन्य महाप्रभु ने सभी भक्तों से अपने-अपने घर लौट जाने की विनती की।
घरे गिया कर सबे कृष्ण-सङ्कीर्तन ।।पुनरपि आमा-सङ्गे हइबे मिलन ॥
२०७।। । श्री चैतन्य महाप्रभु ने सबसे अपने-अपने घरों में भगवन्नाम का सामूहिक संकीर्तन करने के लिए भी कहा और उन्होंने विश्वास दिलाया कि वे उनसे दोबारा अवश्य मिल सकेंगे।
कभु वा तोमरा करिबे नीलाद्रि गमन ।। कभु वा आसिब आमि करिते गङ्गा-स्नान ॥
२०८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने उनसे कहा, 'कभी तुम लोग जगन्नाथ पुरी आओगे और कभी मैं गंगा स्नान करने आऊँगा।'
नित्यानन्द-गोसाजि, पण्डित जगदानन्द ।। दामोदर पण्डित, आर दत्त मुकुन्द ॥
२०९॥
एइ चारि-जन आचार्य दिल प्रभु सने । जननी प्रबोध करि' वन्दिल चरणे ॥
२१०॥
। श्री अद्वैत आचार्य ने महाप्रभु के साथ जाने के लिए चार जनों को भेजा। इनके नाम थे-नित्यानन्द गोसांई, जगदानन्द पण्डित, दामोदर पंडित तथा मुकुन्द दत्त। अपनी माता को सान्त्वना देने के बाद महाप्रभु ने उनके चरणकमलों में प्रार्थना की।
तौरे प्रदक्षिण करि' करिल गमन ।।एथा आचार घरे उठिल क्रन्दन ॥
२११॥
सभी प्रबंध होने के बाद चैतन्य महाप्रभु ने अपनी माता की प्रदक्षिणा की और तत्पश्चात् वे जगन्नाथ पुरी के लिए चल पड़े। इधर अद्वैत आचार्य के घर में उच्च स्वर से रोदन प्रारम्भ हो गया।
निरपेक्ष हा प्रभु शीघ्र चलिला ।।कान्दिते कान्दिते आचार्य पश्चात्चलिला ॥
२१२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु अप्रभावित थे। वे तेजी से चल दिये और अद्वैत । आचार्य रोते हुए उनके पीछे चल रहे थे।
कत दूर गिया प्रभु करि' ग्रोड़ हात ।। आचार्ये प्रबोधि' कहे किछु मिष्ट बात ॥
२१३॥
जब अद्वैत आचार्य चैतन्य महाप्रभु के पीछे-पीछे कुछ दूर तक गये, तो महाप्रभु ने हाथ जोड़कर उनसे याचना की। वे निम्नलिखित मधुर शब्द बोले।
जननी प्रबोधि' कर भक्त समाधान ।। तुमि व्यग्र हैले कारो ना रहिबे प्राण ॥
२१४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, कृपया सारे भक्तों को तथा मेरी माता को सान्त्वना दीजिये। यदि आप ही व्यग्र हो जायेंगे, तो फिर कोई जीवित नहीं रह सकेगा।
एत बलि' प्रभु ताँरे करि' आलिङ्गन ।निवृत्ति करिया कैल स्वच्छन्द गमन ॥
२१५॥
यह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने अद्वैत आचार्य का आलिंगन किया और उन्हें और आगे चलने से मना किया। फिर निश्चिंत होकर वे जगन्नाथ पुरी के लिए चल पड़े।
गङ्गा-तीरे-तीरे प्रभु चारि-जन-साथे ।।नीलाद्रि चलिला प्रभु छत्रभोग-पथे ॥
२१६॥
महाप्रभु चारों व्यक्तियों के साथ गंगा नदी के किनारे-किनारे छत्रभोग के मार्ग से नीलाद्रि अर्थात् जगन्नाथ पुरी की ओर चलने लगे।
चैतन्य-मङ्गले' प्रभुर नीलाद्रि-गमन ।। विस्तारि वणियाछेन दास-वृन्दावन ॥
२१७॥
वृन्दावन दास ठाकुर ने अपनी पुस्तक चैतन्य-मंगल (चैतन्य भागवत ) में जगन्नाथ पुरी तक महाप्रभु के गमन का विस्तार से वर्णन किया है।
अद्वैत-गृहे प्रभुर विलास शुने ग्रेइ जन ।।अचिरे मिलये ताँरै कृष्ण-प्रेम-धन ।। २१८॥
जो व्यक्ति अद्वैत आचार्य के घर में सम्पन्न महाप्रभु के कार्यकलापों को सुनता है, उसे निश्चय ही तुरन्त कृष्ण-प्रेम रूपी धन प्राप्त होता है।
श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश ।। चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
२१९॥
श्री रूप और श्री रघुनाथ के चरणकमलों की वन्दना करते हुए और सदा उनकी कृपा की कामना करते हुए मैं, कृष्णदास, उनके चरणचिह्नों पर चलकर श्री चैतन्य-चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।"
अध्याय चार: श्री माधवेंद्र पुरी की भक्ति सेवा
यस्मै दातुं चोरयन्क्षीर-भाण्डेगोपीनाथः क्षीर-चोराभिधोऽभूत् ।। श्री-गोपालः प्रादुरासीद्वशः सन् ।ग्रत्प्रेम्णा तं माधवेन्द्रं नतोऽस्मि ॥
१॥
मैं उन माधवेन्द्र पुरी को सादर नमस्कार करता हूँ, जिन्हें श्री गोपीनाथ ने खीर का एक पात्र चुराकर दिया और तत्पश्चात् स्वयं क्षीर-चोरा कहलाये। माधवेन्द्र पुरी के प्रेम से प्रसन्न होकर गोवर्धन-स्थित श्री गोपाल-विग्रह ने जनसमूह को दर्शन दिया।
जय जय गौरचन्द्र जय नित्यानन्द ।।जयाद्वैतचन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ॥
२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! श्री अद्वैत प्रभु की जय हो! तथा श्री चैतन्य महाप्रभु के समस्त भक्तों की जय हो! नीलाद्रि-गमन, जगन्नाथ-दरशन । सार्वभौम भट्टाचार्य-प्रभुर मिलन ॥
३॥
ए सब लीला प्रभुर दास वृन्दावन । विस्तारि' करियाछेन उत्तम वर्णन ॥
४॥
महाप्रभु जगन्नाथ पुरी गये और भगवान् जगन्नाथ के मन्दिर के दर्शन किये। वे सार्वभौम भट्टाचार्य से भी मिले। इन सब लीलाओं का अत्यन्त विस्तृत वर्णन वृन्दावन दास ठाकुर द्वारा अपने ग्रन्थ चैतन्य-भागवत में किया गया है।
सहजे विचित्र मधुर चैतन्य-विहार ।। वृन्दावन-दास-मुखे अमृतेर धार ॥
५॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की सभी लीलाएँ स्वभावतः अत्यन्त अद्भुत और मधुर हैं और जब उनका वर्णन वृन्दावन दास ठाकुर द्वारा किया जाता है, तब वे अमृत की धारा के समान बन जाती हैं।
अतएव ताहा वर्णिले हय पुनरुक्ति ।दम्भ करि' वणि यदि तैछे नाहि शक्ति ॥
६॥
इसलिए मेरा सविनय निवेदन है कि चूंकि इन लीलाओं का सुन्दर वर्णन वृन्दावन दास ठाकुर द्वारा पहले ही हो चुका है, अतएव उन लीलाओं की पुनरावृत्ति दंभ की परिचायक होगी, अतएव ऐसा करना अच्छा नहीं होगा। मुझमें ऐसी शक्ति नहीं है।
चैतन्य-मङ्गले ग्राहा करिल वर्णन ।।सूत्र-रूपे सेइ लीला करिये सूचन ॥
७॥
अतएव चैतन्य मंगल ( अब चैतन्य भागवत नाम से विख्यात ) में वृन्दावन दास ठाकुर जिन लीलाओं का पहले से विस्तृत वर्णन कर चुके हैं, उन्हें मैं सूत्र-रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ।
ताँर सूत्रे आछे, तेह ना कैल वर्णन ।। ग्रथा-कथञ्चित्करि' से लीला कथन ॥
८॥
उन्होंने कुछ लीलाओं का विस्तृत वर्णन नहीं किया है, प्रत्युत सारमात्र दिया है, अतएव मैं इस पुस्तक में उनका वर्णन करने का प्रयास करूंगा।
अतएव ताँर पाये करि नमस्कार ।ताँर पाय अपराध ना हउक् आमार ॥
९॥
अतएव मैं वृन्दावन दास ठाकुर के चरणकमलों में अपना सादर नमस्कार अर्पित करता हूँ। मुझे आशा है कि मेरे इस कार्य से उनके चरणकमलों के प्रति अपराध नहीं होगा।
एइ-मत महाप्रभु चलिला नीलाचले ।चारि भक्त सङ्गे कृष्ण-कीर्तन-कुतूहले ॥
१०॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु अपने चार भक्तों सहित जगन्नाथ पुरी की ओर चल पड़े और वे बड़े उत्साह से भगवान् के पवित्र नाम-हरे कृष्ण मंत्र-का कीर्तन कर रहे थे।
भिक्षा लागि' एक-दिन एक ग्राम गिया । आपने बहुत अन्न आनिल मागिया ॥
११॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु प्रतिदिन स्वयं एक गाँव में जाते और प्रसाद तैयार करने के लिए चावल तथा अन्य अनाज पर्याप्त मात्रा में माँग लाते।।
पथे बड़े बड़े दानी विघ्न नाहि करे ।। ता' सबारे कृपा करि' आइला रेमुणारे ॥
१२॥
रास्ते में अनेक नदियाँ पड़ीं और हर नदी पर कर एकत्र करने वाला व्यक्ति था। किन्तु उसने महाप्रभु को रोका नहीं। महाप्रभु ने भी उन सब पर कृपा की। अन्त में वे रेमुणा गाँव पहुँचे।
रेमुणाते गोपीनाथ परम-मोहन ।भक्ति करि' कैल प्रभु ताँर दरशन ॥
१३॥
रेमुणा के मन्दिर में गोपीनाथ का विग्रह अत्यन्त आकर्षक था। चैतन्य महाप्रभु ने इस मन्दिर में दर्शन किये और अत्यन्त भक्तिपूर्वक नमस्कार किया।
ताँर पाद-पद्म निकट प्रणाम करिते ।।ताँर पुष्प-चूड़ा पड़िल प्रभुर माथाते ॥
१४॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु गोपीनाथ विग्रह के चरणकमलों में प्रणाम कर रहे थे, तो गोपीनाथ के सिर का पुष्य-मुकुट महाप्रभु के मस्तक पर गिर गया।
चूड़ा पाञा महाप्रभुर आनन्दित मन ।।बहु नृत्य-गीत कैल ला भक्त-गण ॥
१५ ॥
जब अर्चाविग्रह का पुष्प-मुकुट उनके मस्तक पर आ गिरा, तो श्री चैतन्य महाप्रभु अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने अपने भक्तों के साथ विभिन्न प्रकार से कीर्तन तथा नर्तन किया।
प्रभुर प्रभाव देखि' प्रेम-रूप-गुण ।।विस्मित हइला गोपीनाथेर दास-गण ॥
१६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रगाढ़ प्रेम, उनके अत्युत्तम सौन्दर्य तथा उनके दिव्य गुणों को देखकर अर्चाविग्रह के सभी सेवक आश्चर्यचकित रह गये।
नाना-रूपे प्रीत्ये कैल प्रभुर सेवन ।।सेइ रात्रि ताहाँ प्रभु करिला वञ्चन ॥
१७॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रति प्रेमवश उन सेवकों ने नाना प्रकार से महाप्रभु की सेवा की और उस रात महाप्रभु गोपीनाथ के मन्दिर में रुक गये।
महाप्रसाद-क्षीर-लोभे रहिला प्रभु तथा ।। पूर्वे ईश्वर-पुरी ताँरे कहियाछेन कथा ॥
१८॥
। महाप्रभु वहाँ इसीलिए रुके थे, क्योंकि वे गोपीनाथ-विग्रह का खीरप्रसाद पाने के लिए अत्यन्त उत्सुक थे। उन्होंने अपने गुरु ईश्वर पुरी से यहाँ घटित एक कथा सुन रखी थी।
‘क्षीर-चोरा गोपीनाथ' प्रसिद्ध ताँर नाम ।। भक्त-गणे कहे प्रभु सेइ त आख्यान ॥
१९॥
यह विग्रह दूर-दूर तक क्षीरचोरा-गोपीनाथ के नाम से विख्यात था। और चैतन्य महाप्रभु ने अपने भक्तों को वह कथा सुनाई कि यह विग्रह इतना प्रसिद्ध कैसे हुआ।
पूर्वे माधव-पुरीर लागि' क्षीर कैल चुरि ।। अतएव नाम हैल' क्षीर-चोरा हरि' ॥
२०॥
पूर्वकाल में इस विग्रह ने माधवेन्द्र पुरी के लिए क्षीर का पात्र चुराया था, अतएव वे क्षीर चुराने वाले भगवान् के नाम से प्रसिद्ध हुए।
पूर्वे श्री-माधव-पुरी आइला वृन्दावन ।। भ्रमिते भ्रमिते गेला गिरि गोवर्धन ॥
२१॥
एक बार श्री माधवेन्द्र पुरी वृन्दावन गये और वहाँ घूमते-घूमते वे गोवर्धन पर्वत पहुँचे।
प्रेमे मत्त,नाहि ताँर रात्रि-दिन-ज्ञान ।। क्षणे उठे, क्षणे पड़े, नाहि स्थानास्थान ॥
२२ ।।। माधवेन्द्र पुरी भगवत्प्रेम में उन्मत्त रहते थे और उन्हें इसका ज्ञान भी नहीं रहता था कि दिन है या रात। कभी वे उठ बैठते और कभी भूमि पर गिर पड़ते। उन्हें उचित अथवा अनुचित स्थान में भेद नहीं रहता था।
शैल परिक्रमा करि' गोविन्द-कुण्डे आसि' ।। स्नान करि, वृक्ष-तले आछे सन्ध्याय वसि ॥
२३॥
गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा करने के बाद श्री माधवेन्द्र पुरी गोविन्द कुण्ड गये और वहाँ स्नान किया। फिर संध्या विश्राम के लिए एक वृक्ष के नीचे बैठ गये।।
गोपाल-बालक एक दुग्ध-भाण्ड लञा ।। आसि' आगे धरि' किछु बलिल हासियों ॥
२४॥
जब वे वृक्ष के नीचे बैठे थे, तभी एक अज्ञात ग्वालबाल दूध का पात्र लेकर आया और माधवेन्द्र पुरी के सामने पात्र रखकर हँसते हुए उनसे इस प्रकार बोला।
पुरी, एइ दुग्ध लञा कर तुमि पान ।। मागि' केने नाहि खाओ, किबी कर ध्यान ॥
२५॥
। हे माधवेन्द्र पुरी, कृपया मेरे द्वारा लाया हुआ दूध पीजिये। आप खाने के लिए कुछ भोजन क्यों नहीं माँग लाते ? आप किस तरह का ध्यान कर रहे हैं? बालकेर सौन्दर्ये पुरीर हुइल सन्तोष ।ताहार मधुर-वाक्ये गेल भोक-शोष ॥
२६॥
उस बालक के सौन्दर्य को देखकर माधवेन्द्र पुरी अत्यधिक सन्तुष्ट हुए। उसके मीठे वचन सुनकर वे अपनी सारी भूख तथा प्यास भूल गये।
पुरी कहे,--के तुमि, काहाँ तोमार वास ।।के-मते जानिले, आमि करि उपवास ॥
२७॥
माधवेन्द्र पुरी ने कहा, तुम कौन हो? तुम कहाँ रहते हो? तुम कैसे जान पाये कि मैं उपवास कर रहा हूँ? बालक कहे,—गोप आमि, एइ ग्रामे वसि । आमार ग्रामेते केह ना रहे उपवासी ॥
२८॥
बालक ने उत्तर दिया, महाशय, मैं ग्वालबाल हूँ और इसी गाँव में रहता हूँ। मेरे गाँव में कोई भूखा नहीं रहता।
केह अन्न मागि' खाय, केह दुग्धाहार ।। अयाचक-जने आमि दिये त' आहार ॥
२९॥
। इस गाँव में कोई भी व्यक्ति दूसरे से माँगकर भोजन कर सकता है। कुछ लोग केवल दूध पीकर रहते हैं। किन्तु यदि कोई व्यक्ति किसी से भोजन नहीं माँगता, तो मैं उसको खाने की सारी वस्तुएँ देता हूँ। ।
जल निते स्त्री-गण तोमारे देखि' गेल ।स्त्री-सब दुग्ध दिया आमारे पाठाइल ॥
३०॥
पानी लेने आई हुई स्त्रियों ने आपको यहाँ देखा, तो उन्होंने यह दूध देकर मुझे आपके पास भेजा है।
गो-दोहन करिते चाहि, शीघ्र आमि ग्राब ।।आर-बार आसि आमि एइ भाण्ड लइब ॥
३१॥
। बालक ने आगे कहा, मुझे शीघ्र ही गाएँ दुहने जाना है, किन्तु मैं लौटकर यह दूध का पात्र आपसे ले जाऊँगा।
एत बलि' गेला बालक ना देखिये आर ।।माधव-पुरीर चित्ते हइल चमत्कार ॥
३२॥
यह कहकर वह बालक वहाँ से चला गया। वह बालक अचानक अन्तर्धान हो गया, तो माधवेन्द्र पुरी का मन आश्चर्यचकित हो गया।
दुग्ध पान करि' भाण्ड धुजा राखिल ।। बाट देखे, से बालक पुनः ना आइल ॥
३३॥
। दूध पीने के बाद श्री माधवेन्द्र पुरी ने पात्र को धोया और एक तरफ रख दिया। फिर वे उस बालक की राह देखते रहे, किन्तु वह बालक नहीं लौटा।
वसि' नाम लय पुरी, निद्रा नाहि हय ।। शेष-रात्रे तन्द्रा हैल,—बाह्य-वृत्ति-लय ॥
३४॥
माधवेन्द्र पुरी सो नहीं सके। वे बैठे रहे और हरे कृष्ण महामन्त्र का जप करते रहे। रात्रि समाप्त होने पर उन्हें थोड़ी झपकी आ गई और उनके सारे बाह्य कार्य रुक गये।
स्वप्ने देखे, सेइ बालक सम्मुखे आसिजा ।एक कुल्ले ला गेल हातेते धरिला ॥
३५॥
। माधवेन्द्र पुरी ने स्वप्न में उसी बालक को देखा। वह बालक उनके सामने आया और उनका हाथ पकड़कर उन्हें जंगल में एक कुंज तक ले गया।
कुञ्ज देखा कहे,—आमि एइ कुल्ले रइ ।।शीत-वृष्टि-वाताग्निते महा-दुःख पाइ ॥
३६॥
बालक ने माधवेन्द्र पुरी को वह कुंज दिखाया और कहा, “मैं इसी कुंज में रहता हूँ, अतएव मुझे कड़ाके की ठण्ड, बरसती वर्षा, वायु तथा झुलसती गर्मी के कारण अत्यन्त कष्ट हो रहा है।
ग्रामेर लोक आनि' आमा काढ़' कुञ्ज हैते । पर्वत-उपरि लञा राख भाल-मते ॥
३७॥
कृपा करके गाँव के लोगों को लाकर मुझे इस झाड़ी से निकालिये और उनसे कहकर मुझे पर्वत की चोटी पर भली प्रकार स्थापित कर दीजिये।
एक मठ करि' ताहाँ करह स्थापने ।। बहु शीतल जले कर श्री-अङ्ग मार्जन ॥
३८ ॥
बालक ने आगे कहा, “कृपया उस पर्वत की चोटी पर एक मन्दिर बनवाइये और मुझे उस मन्दिर में स्थापित कर दीजिये। इसके बाद मुझे पर्याप्त शीतल जल से स्नान कराईये, जिससे मेरा शरीर स्वच्छ हो जाये।
बह-दिन तोमार पथ करि निरीक्षण । कबे आसि' माधव आमा करिबे सेवन ॥
३९॥
मैं बहुत दिनों से तुम्हारी बाट देखता रहा हूँ और सोचता रहा हूँ कि, ‘कब माधवेन्द्र पुरी यहाँ आकर मेरी सेवा करेगा?' तोमार प्रेम-वशे करि' सेवा अङ्गीकार ।।दर्शन दिया निस्तारिब सकल संसार ॥
४०॥
मैंने तुम्हारे प्रेमभाव के कारण ही तुम्हारी सेवा स्वीकार की है। इस प्रकार मैं प्रकट होऊँगा और मेरा दर्शन करने से सारे पतित लोगों का उद्धार हो जायेगा।
'श्री-गोपाल' नाम मोर,—गोवर्धन-धारी ।वज्रर स्थापित, आमि इहाँ अधिकारी ॥
४१॥
मेरा नाम गोपाल है। मैं गोवर्धन पर्वत को धारण करने वाला हूँ। मेरी स्थापना वज्र द्वारा की गई थी और मैं यहाँ का अधिकारी हूँ।
शैल-उपरि हैते आमा कुल्ले लुकाजा ।। म्लेच्छ-भये सेवक मोर गेल पलाजा ॥
४२॥
यह कहकर बालक अन्तर्धान हो गया। तब माधवेन्द्र पुरी जाग गये और अपने स्वप्न के बारे में विचार करने लगे।
सेइ हैते रहि आमि एड कुञ्ज-स्थाने ।। भाल हैल आइला आमा काढ़ सावधाने ॥
४३॥
पुजारी के जाने के बाद से मैं इसी कुंज में रह रहा हूँ। यह अच्छा हुआ कि तुम आ गये। अब सावधानी से मुझे बाहर निकाल लो।
एत बलि' से-बालक अन्तर्धान कैल ।। जागिया माधव-पुरी विचार करिल ॥
४४॥
जब मुसलमानों का आक्रमण हुआ, तो मेरी सेवा करने वाले पुजारी ने मुझे जंगल कि इस कुंज में छिपा दिया। फिर वह आक्रमण के भय से भाग खड़ा हुआ।
श्री-कृष्णके देखिनु मुजि नारिनु चिनिते ।। एत बलि' प्रेमावेशे पड़िला भूमिते ॥
४५ ॥
। माधवेन्द्र पुरी पश्चात्ताप करने लगे, मैंने साक्षात् भगवान् कृष्ण को देखे, किन्तु मैं उन्हें पहचान न सका! यह कहकर वे प्रेमावेश में भूमि पर गिर पड़े।
क्षणेक रोदन करि, मन कैल धीर ।। आज्ञा-पालन लागि' हइला सुस्थिर ॥
४६॥
माधवेन्द्र पुरी कुछ समय तक रोते रहे, किन्तु उसके बाद उन्होंने गोपाल की आज्ञा का पालन करने पर अपना चित्त स्थिर किया। इस तरह वे शान्त हुए।
प्रातः-स्नान करि' पुरी ग्राम-मध्ये गेला ।।सब लोक एकत्र करि' कहिते लागिला ॥
४७॥
प्रात:काल स्नान करने के बाद माधवेन्द्र पुरी गाँव में गये और सारे लोगों को एकत्र किया। फिर वे इस प्रकार कहने लगे।
ग्रामेर ईश्वर तोमार---गोवर्धन-धारी ।।कुल्ले आछे, चल, ताँरै बाहिर ग्रे करि ॥
४८॥
। इस गाँव के स्वामी, गोवर्धनधारी, कुंज में पड़े हुए हैं। आइये, चलकर उन्हें उस स्थान से बाहर निकाल लें।
अत्यन्त निविड़ कुञ्ज,–नारि प्रवेशिते ।कुठारि कोदालि लह द्वार करिते ॥
४९॥
झाड़ियाँ इतनी घनी हैं कि हमें जंगल में प्रवेश नहीं कर पायेंगे। अतएव रास्ता बनाने के लिए कुल्हाड़े तथा कुदाल ले लो।
शुनि' लोक ताँर सङ्गे चलिला हरिषे ।कुञ्ज काटि' द्वार करि' करिला प्रवेशे ॥
५०॥
। यह सुनकर सारे लोग अत्यन्त हर्षित हो माधवेन्द्र पुरी के साथ चल पड़े। उनके निर्देशानुसार उन्होंने झाड़ियाँ काटकर रास्ता बनाया और जंगल में प्रवेश किया।
ठाकुर देखिल माटी-तृणे आच्छादित ।।देखि' सब लोक हैल आनन्दे विस्मित ॥
५१॥
जब उन्होंने अर्चाविग्रह को धूल तथा घास से ढका देखा, तो सब आश्चर्य तथा हर्ष से भर गये।
आवरण दूर करि' करिल विदिते ।महा-भारी ठाकुर केह नारे चालाइते ॥
५२॥
। जब अर्चाविग्रह के शरीर को साफ कर दिया गया, तो उनमें से कुछ लोगों ने कहा, यह विग्रह बहुत भारी है। इसे अकेला एक व्यक्ति हिला नहीं सकता।
महा-महा-बलिष्ठ लोक एकत्र करि ।पर्वत-उपरि गेल पुरी ठाकुर लञा ॥
५३॥
चूंकि विग्रह बहुत भारी था, अतएव कुछ बलवान लोग उसे पर्वत की चोटी पर ले जाने के लिए एकत्र हुए। माधवेन्द्र पुरी भी वहाँ गये।
पाथरेर सिंहासने ठाकुर वसाइल ।बड़ एक पाथर पृष्ठे अवलम्ब दिल ॥
५४॥
। एक बड़े पत्थर को सिंहासन बनाया गया और उस पर अर्चाविग्रह को प्रतिष्ठित कर दिया गया। एक दूसरा बड़ा पत्थर विग्रह के सहारे के लिए पीछे लगा दिया गया।
ग्रामेर ब्राह्मण सब नव घट लञा ।।गोविन्द-कुण्डेर जल आनिल छानिळा ॥
५५॥
गाँव के सारे ब्राह्मण पुरोहित जल के नौ घड़े लेकर एकत्र हुए और गोविन्द-कुण्ड से पानी लाया गया तथा उसे छाना गया।
नव शत-घट जल कैल उपनीत ।।नाना वाद्य-भेरी बाजे, स्त्री-गण गाय गीत ॥
५६॥
अर्चाविग्रह की प्रतिष्ठा करते समय गोविन्द-कुण्ड से ९०० घड़े जल लाया गया। बिगुल तथा ढोल बजने लगे और स्त्रियाँ गीत गाने लगीं।।
केह गाय, केह नाचे, महोत्सव हैल ।। दधि, दुग्ध, घृत आइल ग्रामे ग्रत छिल ॥
५७॥
। प्रतिष्ठा-उत्सव के समय कुछ लोग गा रहे थे तो कुछ नाच रहे थे। गाँव का सारा दूध, दही तथा घी उत्सव के लिए लाया गया।
भोग-सामग्री आइल सन्देशादि ग्रत ।।नाना उपहार, ताहा कहिते पारि कत ॥
५८॥
वहाँ पर नाना प्रकार के व्यंजन तथा मिठाइयाँ और अन्य उपहार लाये गये। मैं उन सबका वर्णन कर पाने में असमर्थ हूँ।
तुलसी आदि, पुष्प, वस्त्र आइल अनेक ।आपने माधव-पुरी कैल अभिषेक ॥
५९॥
गाँव वाले प्रचुर मात्रा में तुलसीदल, फूल तथा विविध प्रकार के । वस्त्र ले आये। तब श्री माधवेन्द्र पुरी ने स्वयं अभिषेक (स्नान कराने का उत्सव ) प्रारम्भ किया।
अमङ्गला दूर करि' कराइल स्नान ।। बहु तैल दिया कैल श्री-अङ्ग चिक्कण ॥
६०॥
जब मंत्रोच्चारण से सारा अमंगल दूर हो गया, तब अर्चाविग्रह का अभिषेक प्रारम्भ हुआ। सर्वप्रथम विग्रह पर प्रचुर तेल मला गया, जिससे उनका शरीर चिकना हो उठा।
पञ्च-गव्य, पञ्चामृते स्नान करा ।। महा-स्नान कराइल शत घट दिञा ॥
६१॥
प्रथम स्नान के बाद पंचगव्य से तथा फिर पंचामृत से स्नान कराया गया। फिर एक सौ घड़ों में लाये गये घी तथा जल से महास्नान कराया गया।
पुन: तैल दिया कैल श्री-अङ्ग चिक्कण ।।शङ्ख-गन्धोदके कैल स्नान समाधान ॥
६२॥
महास्नान के बाद पुनः विग्रह को सुगन्धित तेल से मलकर उनके शरीर को चिकना किया गया। तत्पश्चात् एक शंख में सुगन्धित जल भरकर अन्तिम अभिषेक सम्पन्न किया गया।
श्री-अङ्ग मार्जन करि' वस्त्र पराइल ।चन्दन, तुलसी, पुष्पमाला अङ्गे दिल ॥
६३॥
विग्रह का शरीर स्वच्छ करने के बाद उन्हें सुन्दर नये वस्त्र पहनाये गये। फिर विग्रह पर चन्दन, तुलसी-माला तथा अन्य सुगन्धित फूलों की मालाएँ पहनाई गईं।
धूप, दीप, करि' नाना भोग लागाइल ।।दधि-दुग्ध-सन्देशादि ग्रत किछु आइल ॥
६४॥
अभिषेक सम्पन्न हो जाने के बाद अर्चाविग्रह को धूप तथा दीप अर्पित किये गये और विभिन्न प्रकार का भोग अर्पित किया गया। भोग में दही, दूध तथा अनेक मिठाइयाँ सम्मिलित थीं।
सुवासित जल नव-पात्रे समर्पिल ।। आचमन दिया से ताम्बूल निवेदिल ॥
६५॥
सर्वप्रथम अर्चाविग्रह को तरह-तरह का भोग अर्पित किया गया, फिर नये पात्रों में सुवासित पीने का जल और तब आचमन के लिए जल दिया गया। अन्त में मसालेदार पान का भोग लगाया गया।
आरात्रिक करि' कैल बहुत स्तवन ।। दण्डवत्करि' कैल आत्म-समर्पण ॥
६६॥
तांबूल तथा पान देने के बाद भोग आरती सम्पन्न की गई। अन्त में हर एक ने विविध प्रार्थनाएँ कीं तथा विग्रह को पूर्ण आत्मसमर्पण के भाव में दण्डवत् प्रणाम किया।
ग्रामेर व्रतेक तण्डुल, दालि गोधूम-चूर्ण । सकल आनिया दिल पर्वत हैल पूर्ण ॥
६७॥
ज्योंही गाँववालों को पता चला कि अर्चाविग्रह की प्रतिष्ठा होने जा रही है, वे अपने यहाँ से सारा चावल, दाल तथा गेहूँ का आटा ले आये। यह सामग्री इतनी मात्रा में थी कि पर्वत की चोटी उससे पूरी तरह भर गई।
कुम्भकार घरे छिल ने मृद्भाजन ।। सब आनाइल प्राते, चड़िल रन्धन ॥
६८॥
जब गाँव वाले चावल, दाल तथा आटा ले आये, तो गाँव के कुम्हार भोजन पकाने के सभी प्रकार के बर्तन ले आये और प्रात:काल से भोजन पकाना प्रारम्भ हुआ।
दश-विप्र अन्न रान्धि' करे एक स्तूप ।। जना-पाँच रान्धे व्यञ्जनादि नाना सूप ॥
६९॥
दस ब्राह्मणों ने अन्न पकाया और पाँच ब्राह्मणों ने सूखी तथा रसदार सब्जियाँ पकाईं।"
वन्य शाक-फल-मूले विविध व्यञ्जन ।। केह बड़ा-बड़ि-कड़ि करे विप्र-गण ॥
७० ॥
सारी तरकारियाँ जंगल से एकत्र किये गये शाक, जड़ों तथा फलों से बनाई गईं। किसी ने दाल पीसकर बड़े तथा बड़ियाँ बनाईं। इस तरह ब्राह्मणों ने सभी तरह के व्यंजन बनाए।
जना पाँच-सात रुटि करे राशि-राशि । अन्न-व्यञ्जन सब रहे घृते भासि ॥
७१ ॥
पके चावलों का पलाश के पत्तों में ढेर लगा दिया गया। ये पत्ते भूमि पर बिछे नये वस्त्र के ऊपर फैले थे।
नव-वस्त्र पाति' ताहे पलाशेर पात ।। रान्धि' रान्धि' तार उपर राशि कैल भात ॥
७२॥
पके चावल के ढेर के पास ही रोटियों का ढेर था और सारी तरकारियों तथा रसदार व्यंजनों को विभिन्न पात्रों में भरकर उनके चारों ओर रख दिया गया था।
तार पाशे रुटि-शशिर पर्वत हइल ।। सूप-आदि-व्यञ्जन-भाण्ड चौदिके धरिल ।। ७३ ॥
पाँच-सात व्यक्तियों ने बहुत सी रोटियाँ बनाईं और उन्हें पर्याप्त घी से चुपड़ दिया। सारी सब्जियाँ, दाल तथा भात भी घी से सिक्त थे।
तार पाशे दधि, दुग्ध, माठा, शिखरिणी । पायस, मथनी, सर पाशे धरि आनि' ॥
७४॥
तरकारियों के पास दही, दूध, मट्ठा, शिखरिणी, खीर, मक्खन तथा दही की मलाई भरे पात्र रख दिये गये।
ग्रद्यपि गोपाल सब अन्न-व्यञ्जन खाइल । ताँर हस्त-स्पर्शे पुनः तेमनि हइल ॥
७७॥
। यद्यपि श्री गोपाल ने भोग लगाई गई सारी सामग्री खा ली थी, फिर भी उनके दिव्य हाथ के स्पर्श से हर वस्तु पूर्ववत् बनी रही।
हेन-मते अन्न-कूट करिल साजने । पुरी-गोसाजि गोपालेरे कैल समर्पण ॥
७५ ॥
इस प्रकार अन्नकूट उत्सव मनाया गया और श्री माधवेन्द्र पुरी गोस्वामी ने स्वयं गोपाल को हर वस्तु का भोग लगाया।
अनेक घट भरि' दिल सुवासित जल ।। बहु-दिनेर क्षुधाय गोपाल खाइल सकल ॥
७६ ॥
पीने के लिए अनेक घड़ों में सुगंधित जल भरा गया और भगवान् श्री गोपाल ने, जो इतने दिनों से भूखे थे, अर्पित की गई प्रत्येक वस्तु खाई।
इहा अनुभव कैल माधव गोसाजि ।।ताँर ठाजि गोपालेर लुकान किछु नाइ ॥
७८ ॥
माधवेन्द्र पुरी ने दिव्य अनुभव से जान लिया कि किस तरह गोपाल द्वारा सब कुछ खा लिया गया और फिर भी भोजन ज्यों का त्यों बना रहा। भगवान् के भक्तों से कुछ छिपा नहीं रहता।।
एक-दिनेर उद्योगे ऐछे महोत्सव कैल ।। गोपाल-प्रभावे हय, अन्ये ना जानिल ॥
७९॥
यह अद्भुत महोत्सव तथा श्री गोपालजी की प्रतिष्ठा, दोनों की व्यवस्था एक ही दिन में हो गई थी। निस्सन्देह, यह सब गोपाल की शक्ति से ही सम्भव हो सका। इसे भक्तों के अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं समझ सकता।
आचमन दिया दिल विड़क-सञ्चय ।। आरति करिल लोके, करे जय जय ॥
८०॥
श्री माधवेन्द्र पुरी ने गोपाल को आचमन के लिए जल दिया और चबाने के लिए पान दिये। उसके बाद जब आरती की गई, तो सारे लोगों ने गोपाल की जय जयकार की।
शय्या कराइल, नूतन खाटे आनाञी ।। नव वस्त्र आनि' तार उपरे पातिया ॥
८१ ॥
भगवान् के विश्राम का प्रबन्ध करने के उद्देश्य से श्रील माधवेन्द्र पुरी एक नई चारपाई ले आये और उसके ऊपर एक नई चादर बिछाकर शय्या प्रस्तुत कर दी गयी।
तृण-टाटि दिया चारि-दिक् आवरिल । उपरेते एक टाटि दिया आच्छादिल ॥
८२॥
चारपाई को चारों ओर से चटाई से ढककर एक अस्थायी मन्दिर बना दिया गया। इस तरह एक शय्या थी और उसे ढकने के लिए चटाईयाँ थीं।
पुरी-गोसाजि आज्ञा दिल सकल ब्राह्मणे ।आ-बाल-वृद्ध ग्रामेर लोक कराह भोजने ॥
८३॥
भगवान् को शयन कराने के उपरान्त माधवेन्द्र पुरी ने प्रसाद बनाने वाले सारे ब्राह्मणों को एकत्र किया और उनसे कहा, अब बच्चे से लेकर वृद्ध तक हर एक को भरपेट भोजन कराइये।
सबे वसि' क्रमे क्रमे भोजन करिल ।।ब्राह्मण-ब्राह्मणी-गणे आगे खाओयाइल ॥
८४॥
वहाँ पर एकत्र सारे लोग प्रसाद ग्रहण करने के लिए बैठ गये और एक-एक करके सबने प्रसाद ग्रहण किया। सबसे पहले सभी ब्राह्मणों तथा उनकी पत्नियों को भोजन कराया गया।
अन्य ग्रामेर लोक व्रत देखिते आइल ।।गोपाल देखिया सब प्रसाद खाइल ॥
८५॥
गोवर्धन गाँव के लोगों ने ही नहीं अपितु अन्य गाँवों से आये हुए लोगों ने भी प्रसाद ग्रहण किया। उन्होंने गोपाल विग्रह का दर्शन भी किया और उन्हें प्रसाद भी मिला।
देखिया पुरीर प्रभाव लोके चमत्कार ।।पूर्व अन्नकूट ग्रेन हैल साक्षात्कार ॥
८६॥
माधवेन्द्र पुरी का प्रभाव देखकर वहाँ एकत्र सारे लोग आश्चर्यचकित हो गये। उन्होंने देखा कि कृष्ण के समय जो अन्नकूट उत्सव मनाया गया था, वही अब श्री माधवेन्द्र पुरी की कृपा से पुनः मनाया जा रहा था।
सकल ब्राह्मणे पुरी वैष्णव करिल ।।सेइ सेइ सेवा-मध्ये सबा नियोजिल ॥
८७॥
इस अवसर पर उपस्थित सारे ब्राह्मणों को श्रील माधवेन्द्र पुरी ने वैष्णव सम्प्रदाय में दीक्षा दी और उन्हें विभिन्न सेवा-कार्यों में लगा दिया।
पुनः दिन-शेषे प्रभुर कराइल उत्थान ।।किछु भोग लागाइल कराइल जल-पान ॥
८८ ॥
विश्राम के बाद विग्रह को संध्या-समय जगाना चाहिए और तुरन्त ही उन्हें कुछ भोजन तथा जल का भोग लगाना चाहिए।
गोपाल प्रकट हैल,-देशे शब्द हैल । आश-पाश ग्रामेर लोक देखिते आइल ॥
८९ ।। । जब देश-भर में यह प्रचार हो गया कि भगवान् गोपाल गोवर्धन पर्वत के ऊपर प्रकट हो चुके हैं, तो आसपास के सभी गाँव वाले विग्रह का दर्शन करने आये।
एकेक दिन एकेक ग्रामे लइल मागिना । अन्न-कूट करे सबे हरषित हा ॥
९०॥
हर एक गाँव वालों ने एक-एक करके माधवेन्द्र पुरी से प्रार्थना की। कि अन्नकूट उत्सव मनाने के लिए उन्हें एक दिन नियत कर दिया जाये। इस तरह कुछ समय तक दिन-प्रतिदिन अन्नकूट उत्सव मनाया जाता रहा।
रात्रि-काले ठाकुरेरे कराड्या शयन ।। पुरी-गोसाञि कैल किछु गव्य भोजन ॥
९१ ।। श्री माधवेन्द्र पुरी ने दिन-भर कुछ नहीं खाया, किन्तु रात में विग्रह को शयन कराने के बाद उन्होंने दूध से बना प्रसाद खाया।
प्रातः-काले पुनः तैछे करिल सेवन ।। अन्न ला एक-ग्रामेर आइल लोक-गण ॥
९२॥
। पुनः अगली सुबह अर्चाविग्रह की सेवा प्रारम्भ हुई और एक गाँव के लोग विविध प्रकार के खाद्य-द्रव्य लेकर आ गये।
अन्न, घृत, दधि, दुग्ध,—ग्रामे ग्रत छिल ।। गोपालेर आगे लोक आनियो धरिल ॥
१३॥
गाँव के सारे निवासी गाँव-भर का सारा अन्न, घी, दही तथा दूध गोपाल-अर्चाविग्रह को भोग लगाने के लिए लाये।
पूर्व-दिन-प्राय विप्र करिल रन्धन । तैछे अन्न-कूट गोपाल करिल भोजन ॥
९४॥
दूसरे दिन पहले की तरह अन्नकूट उत्सव मनाया गया। सारे ब्राह्मणों ने भोजन पकाया और गोपाल ने उसे ग्रहण किया।
व्रज-वासी लोकेर कृष्णे सहज पिरीति ।। गोपालेर सहज-प्रीति व्रज-वासि-प्रति ॥
९५ ॥
कृष्णभावनामृत सम्पन्न करने के लिए आदर्श स्थान व्रजभूमि या वृन्दावन है, जहाँ लोग स्वभावतः कृष्ण से प्रेम करते हैं और कृष्ण भी उनसे प्रेम करते हैं।
महा-प्रसाद खाइल आसिया सब लोक ।। गोपाल देखिया सबार खण्डे दुःख-शोक ॥
९६॥
विभिन्न गाँवों से अनेक लोग गोपाल-विग्रह का दर्शन करने आये और उन सबने पेट भरकर महाप्रसाद ग्रहण किया। जब उन लोगों ने गोपाल के सर्वोत्कृष्ट रूप को देखा, तो उनका सारा शोक तथा दुःख नष्ट हो गया।
आश-पाश व्रज-भूमेर व्रत ग्राम सब ।। एक एक दिन सबे करे महोत्सव ॥
९७॥
व्रजभूमि ( वृन्दावन ) के आसपास के सारे गाँव के लोग गोपाल के प्राकट्य की जानकारी मिलने पर इनका दर्शन करने आये। उन सबने दिन प्रतिदिन अन्नकूट उत्सव मनाया।
गोपाल-प्रकट शुनि' नाना देश हैते ।। नाना द्रव्य लञा लोक लागिल आसिते ॥
९८॥
इस तरह न केवल पड़ोसी गाँव अपितु अन्य प्रान्त भी गोपाल के प्रादुर्भाव के विषय में जान गये। फलतः सभी जगहों से लोग नाना प्रकार के उपहार लेकर आये।
मथुरार लोक सब बड़ बड़ धनी ।।भक्ति करि' नाना द्रव्य भेट देय आनि' ॥
९९॥
मथुरा के बड़े-बड़े धनी लोग भी नाना प्रकार के उपहार लेकर आये और उन्होंने भक्तिपूर्वक उन्हें अर्चाविग्रह को अर्पित किया।
स्वर्ण, रौप्य, वस्त्र, गन्ध, भक्ष्य-उपहार ।।असङ्ख्य आइसे, नित्य बाड़िल भाण्डार ॥
१०० ॥
इस तरह सोना, चाँदी, वस्त्र, सुगन्धित द्रव्य तथा खाद्य पदार्थों के असंख्य उपहार आये और गोपाल का भण्डार प्रतिदिन बढ़ता गया।
एक महा-धनी क्षत्रिय कराइल मन्दिर ।।केह पाक-भाण्डार कैल, केह त' प्राचीर ॥
१०१॥
। धनी क्षत्रिय राज पुरुष ने मन्दिर बनवा दिया, किसी ने भोजन पकाने के बर्तन दे दिये और किसी ने चार दीवारियाँ बनवा दीं।
एक एक व्रज-वासी एक एक गाभी दिल ।सहस्र सहस्र गाभी गोपालेर हैल ॥
१०२॥
व्रजभूमि में रहने वाले हर परिवार ने एक एक गाय दी। इस तरह हजारों गाएँ गोपाल की सम्पत्ति बन गईं।
गौड़ हइते आइला दुइ वैरागी ब्राह्मण ।पुरी-गोसाजि राखिल तारे करिया ग्रतन ॥
१०३॥
अन्त में बंगाल से दो संन्यासी ब्राह्मण वहाँ आये। माधवेन्द्र पुरी को वे बहुत अच्छे लगे और उन्हें वृन्दावन में रखकर सभी सुविधाएँ प्रदान कीं।
सेइ दुइ शिष्य करि' सेवा समर्पिल । ।राज-सेवा हय,—पुरीर आनन्द बाड़िल ॥
१०४॥
। तब माधवेन्द्र पुरी ने उन दोनों को दीक्षा दी और भगवान् की दैनिक सेवा का कार्यभार सौंप दिया। यह सेवा लगातार होती रही और अर्चाविग्रह की पूजा अत्यन्त सुन्दर ढंग से होने लगी थी। इससे माधवेन्द्र पुरी अति आनन्दित हुए।
एइ-मत वत्सर दुइ करिल सेवन ।। एक-दिन पुरी-गोसाजि देखिल स्वपन ॥
१०५॥
इस प्रकार दो वर्षों तक मन्दिर में अर्चाविग्रह की पूजा अत्यन्त ऐश्वर्य के साथ चलती रही। तब एक दिन माधवेन्द्र पुरी ने एक सपना देखा।
गोपाल कहे, पुरी आमार ताप नाहि ग्राय ।। मलयज-चन्दन लेप', तबे से जुड़ाय ॥
१०६ ।। सपने में माधवेन्द्र पुरी ने देखा कि गोपाल कह रहे हैं, “मेरे शरीर का ताप अभी भी कम नहीं हुआ है। तुम मलय-प्रदेश से चन्दन लाओ और मुझे शीतल बनाने के लिए मेरे शरीर पर इसका लेप करो।।
मलयज आन, यात्रा नीलाचल हैते ।।अन्ये हैते नहे, तुमि चलह त्वरिते ॥
१०७॥
तुम जगन्नाथ पुरी से चन्दन लाओ। कृपया तुरन्त जाओ। चूँकि यह काम कोई और नहीं कर सकता, इसलिए तुम ही करो।
स्वप्न देखि' पुरी-गोसाजिर हैल प्रेमावेश ।।प्रभु-आज्ञा पालिबारे गेला पूर्व-देश ॥
१०८॥
इस स्वप्न को देखकर माधवेन्द्र पुरी गोस्वामी भगवत्प्रेम के भाव के कारण अत्यन्त प्रसन्न हुए और भगवान् के आदेश का पालन करने के उद्देश्य से वे बंगाल जाने के लिए पूर्व की ओर चल पड़े।
सेवार निर्बन्ध---लोक करिल स्थापन ।आज्ञा मागि' गौड़-देशे करिल गमन ॥
१०९॥
। चलने के पूर्व माधवेन्द्र पुरी ने नियमित सेवा-पूजा के लिए सारी व्यवस्था कर दी और उन्होंने विभिन्न लोगों को विविध कार्यों में लगा । दिया। फिर गोपाल की आज्ञा लेकर करके वे बंगाल के लिए चल पड़े।
शान्तिपुर आइला अद्वैताचार घरे ।पुरीर प्रेम देखि' आचार्य आनन्द अन्तरे ॥
११०॥
। जब माधवेन्द्र पुरी शान्तिपुर में अद्वैत आचार्य के घर पहुँचे, तो माधवेन्द्र पुरी में ऊर्मिपूर्ण भगवत्प्रेम को देखकर आचार्य अत्यन्त हर्षित हुए।
ताँर ठाजि मन्त्र लैल ग्रतन करिजा ।चलिला दक्षिणे पुरी ताँरै दीक्षा दिना ॥
१११॥
। अद्वैत आचार्य ने माधवेन्द्र पुरी से दीक्षा देने की प्रार्थना की। उन्हें दीक्षा देने के बाद माधवेन्द्र पुरी दक्षिण भारत के लिए चल पड़े।
रेमुणाते कैल गोपीनाथ दरशन ।।ताँर रूप देखिञा हैल विह्वल-मन ॥
११२॥
दक्षिण भारत जाते समय माधवेन्द्र पुरी रेमुणा गये, जहाँ गोपीनाथ स्थित हैं। विग्रह की सुन्दरता देखकर माधवेन्द्र पुरी भावविभोर हो गये।
नृत्य-गीत करि' जग-मोहने वसिला ।।‘क्या क्या भोग लागे?' ब्राह्मणे पुछिला ॥
११३॥
। मन्दिर के बरामदे में, जहाँ से लोग सामान्यतया अर्चाविग्रह का दर्शन करते थे, माधवेन्द्र पुरी ने कीर्तन और नृत्य किया। फिर वे वहाँ बैठ गये और उन्होंने एक ब्राह्मण से पूछा कि अर्चाविग्रह को किस किस वस्तु का भोग लगाया जाता है? सेवार सौष्ठव देखि' आनन्दित मने ।।उत्तम भोग लागे—एथा बुझि अनुमाने ॥
११४ प्रबन्ध की उत्कृष्टता से माधवेन्द्र पुरी ने अनुमान लगाया कि वहाँ अवश्य उत्तम भोजन ही अर्पित किया जाता होगा।
प्रैछे इहा भोग लागे, सकल-इ पुछिब ।।तैछे भियाने भोग गोपाले लागाइब ॥
११५॥
। माधवेन्द्र पुरी ने सोचा, मैं पुजारी से पूढुंगा कि गोपीनाथ को किस प्रकार का भोजन अर्पित किया जाता है, जिससे हम भी अपने रसोई-घर में उनकी व्यवस्था करके वैसा ही भोजन श्री गोपाल को अर्पित कर सकें।
एइ लागि' पुछिलेन ब्राह्मणेर स्थाने ।।ब्राह्मण कहिल सब भोग-विवरणे ॥
११६॥
जब ब्राह्मण पुजारी से इस विषय में पूछा गया, तब उसने विस्तारपूर्वक बतलाया कि गोपीनाथ के अर्चाविग्रह को कौन-कौन से भोग अर्पित किये जाते हैं।
सन्ध्याय भोग लागे क्षीर—'अमृत-केलि' नाम । द्वादश मृत्पात्रे भरि' अमृत-समान ॥
११७॥
ब्राह्मण पुजारी ने कहा, संध्या-समय अर्चाविग्रह को मिट्टी के बारह पात्रों में खीर का भोग लगाया जाता है। चूंकि इसका स्वाद अमृत जैसा होता है, अतएव यह अमृत-केलि कहलाता है।
‘गोपीनाथेर क्षीर' बलि' प्रसिद्ध नाम ग्रार ।। पृथिवीते ऐछे भोग काहाँ नाहि आर ॥
११८॥
यह खीर सारे जगत् में गोपीनाथ-क्षीर के नाम से विख्यात है। ऐसी खीर दुनिया में अन्यत्र कहीं भी अर्पित नहीं की जाती है।
हेन-काले सेइ भोग ठाकुरे लागिल ।। शुनि' पुरी-गोसाञि किछु मने विचारिल ॥
११९॥
जब माधवेन्द्र पुरी ब्राह्मण पुजारी से बातें कर रहे थे, तब खीर का भोग अर्चाविग्रह के समक्ष लगाया गया था। यह सुनकर माधवेन्द्र पुरी ने इस प्रकार विचार किया।
अयाचित क्षीर प्रसाद अल्प यदि पाइ ।स्वाद जानि' तैछे क्षीर गोपाले लागाइ ॥
१२०॥
यदि मुझे बिना माँगे थोड़ी-सी खीर मिल जाय, तो मैं उसे चख लें और ऐसी ही खीर अपने भगवान् गोपाल के लिए तैयार करूं। ।
एइ इच्छाये लज्जा पाजा विष्णु-स्मरण कैल ।।हेन-काले भोग सरि' आरति बाजिल ॥
१२१॥
। जब माधवेन्द्र पुरी को खीर चखने की इच्छा हुई तो उन्हें बहुत लज्जा आ गई, अतएव वे तुरन्त ही भगवान् विष्णु का चिन्तन करने लगे। जब वे इस प्रकार भगवान् विष्णु का चिन्तन कर रहे थे, तब भोग का अर्पण समाप्त हो गया और आरती शुरू हो गई।
आरति देखिया पुरी कैल नमस्कार ।।बाहिरे आइला, कारे किछु ना कहिल आर ॥
१२२॥
आरती समाप्त होने के बाद माधवेन्द्र पुरी ने अर्चाविग्रह को नमस्कार किया और फिर मन्दिर से बाहर चले गये। उन्होंने किसी से और कुछ भी नहीं कहा।
अयाचित-वृत्ति पुरी–विरक्त, उदास ।।अयाचित पाइले खा'न, नहे उपवास ॥
१२३॥
श्री माधवेन्द्र पुरी भिक्षा माँगने से बचते थे। वे पूर्णतया विरक्त और भौतिक वस्तुओं के प्रति उदासीन थे। बिना मांगे यदि कोई खाने के लिए कुछ दे देता तो खा लेते, अन्यथा वे उपवास करते थे।
प्रेमामृते तृप्त, क्षुधा-तृष्णा नाहि बाधे।।क्षीर-इच्छा हैल, ताहे माने अपराधे ॥
१२४॥
माधवेन्द्र पुरी जैसी परमहंस सदैव भगवान् की प्रेमाभक्ति से सन्तुष्ट रहता है। भौतिक भूख-प्यास उनके कार्यकलापों में बाधक नहीं बन सकते। जब उन्हें अर्चाविग्रह को अर्पित थोड़ी खीर खाने की इच्छा हुई, तो उन्होंने सोचा कि उनसे अपराध हुआ है, क्योंकि वे अर्चाविग्रह को भोग लगाई जा रही वस्तु को खाना चाह रहे थे।
ग्रामेर शून्य-हाटे वसि' करेन कीर्तन ।एथा पूजारी कराइल ठाकुरे शयन ॥
१२५ ॥
माधवेन्द्र पुरी मन्दिर से बाहर चले गये और गाँव के खाली बाजार में बैठ गये। वे वहाँ बैठकर कीर्तन करने लगे। इसी बीच मन्दिर के पुजारी ने अर्चाविग्रह को शयन करा दिया।
निज कृत्य करि' पूजारी करिल शयन ।स्वपने ठाकुर आसि' बलिला वचन ॥
१२६॥
पुजारी अपना दैनिक कार्य समाप्त करके आराम करने लगा। सपने में उसने देखा कि गोपीनाथ अर्चाविग्रह आकर उससे बातें कर रहे हैं। अर्चाविग्रह इस प्रकार बोले।
उठह, पूजारी, कर द्वार विमोचन । क्षीर एक राखियाछि सन्यासि-कारण ॥
१२७॥
हे पूजारी, कृपया उठो और मन्दिर का द्वार खोलो। मैंने खीर का एक पात्र संन्यासी माधवेन्द्र पुरी के लिए रख लिया है।
धड़ार अञ्चले ढाका एक क्षीर हय ।। तोमरा ना जानिला ताहा आमार मायाय ॥
१२८॥
यह खीर का पात्र मेरे कपड़े के पर्दे के पीछे है। तुम मेरी माया के कारण उस पात्र को नहीं देख पाये।
माधव-पुरी सन्यासी आछे हाटेते वसि ।। ताहाके त' एइ क्षीर शीघ्र देह लञा ॥
१२९॥
माधवेन्द्र पुरी नामक एक संन्यासी निर्जन बाजार में बैठा है। तुम खीर के इस पात्र को मेरे पीछे से उठा लो और जाकर उसे दे दो।
स्वप्न देखि' पूजारी उठि' करिला विचार ।। स्नान करि' कपाट खुलि, मुक्त कैल द्वार ॥
१३०॥
स्वप्न पूरा होने पर पुजारी तुरन्त शय्या से उठ खड़ा हुआ और उसने अर्चाविग्रह के कक्ष में प्रवेश करने के पूर्व स्नान करना उचित समझा। फिर उसने मन्दिर का द्वार खोला।।
धड़ार आँचल-तले पाइल सेइ क्षीर ।। स्थान लेपि' क्षीर लञा हइल बाहिर ॥
१३१॥
। अर्चाविग्रह के निर्देशानुसार पुजारी ने खीर का पात्र कपड़े के पर्दे के पीछे पाया। उसने वह पात्र हटाया और उस स्थान को साफ किया जहाँ वह रखा था। इसके बाद वह मन्दिर से बाहर चला गया।
द्वार दिया ग्रामे गेला सेइ क्षीर लञा ।। हाटे हाटे बुले माधव-पुरीके चाहिजा ॥
१३२॥
वह मन्दिर का द्वार बन्द करके खीर का पात्र लेकर गाँव में चला गया। उसने माधवेन्द्र पुरी की खोज में प्रत्येक हाट में जाकर पुकारा।
क्षीर लह एई, ग्रार नाम 'माधव-पुरी' । तोमा लागि' गोपीनाथ क्षीर कैल चुरि ॥
१३३॥
वह पुजारी खीर का पात्र उठाकर पुकारने लगा, जिसका नाम माधवेन्द्र पुरी हो वह आकर यह पात्र ले जाये! गोपीनाथ ने तुम्हारे लिए इस खीर के पात्र की चोरी की है! क्षीर लञा सुखे तुमि करह भक्षणे ।। तोमा-सम भाग्यतान् नाहि त्रिभुवने ॥
१३४॥
यह निमन्त्रण सुनकर माधवेन्द्र पुरी सामने आये और उन्होंने अपना परिचय दिया। तब पुजारी ने उन्हें वह खीर-पात्र दिया और दण्डवत् प्रणाम किया।
एत शुनि' पुरी-गोसाजि परिचय दिल ।क्षीर दिया पूजारी ताँरै दण्डवत् हैल ॥
१३५॥
पुजारी ने आगे कहा, क्या माधवेन्द्र पुरी नामक संन्यासी आकर यह खीर-पात्र लेंगे और अत्यन्त सुखपूर्वक प्रसाद ग्रहण करेंगे? आप तो तीनों लोकों में परम भाग्यशाली व्यक्ति हो! क्षीरेर वृत्तान्त तारे कहिल पूजारी । शुनि' प्रेमाविष्ट हैल श्री-माधव-पुरी ॥
१३६ ॥
जब माधवेन्द्र पुरी को खीर-पात्र की कथा विस्तार से बतलाई गई, तो वे कृष्ण-प्रेम के आनन्द में मग्न हो गये।
प्रेम देखि' सेवक कहे हइया विस्मित ।कृष्ण ये इँहार वश,—हय ग्रथोचित ॥
१३७॥
श्रील माधवेन्द्र पुरी में प्रेम-भाव के लक्षण देखकर पुजारी आश्चर्यचकित हो गया। उसकी समझ में आ गया कि कृष्ण उनके प्रति इतने कृतज्ञ क्यों हो गये थे और उसने देखा कि कृष्ण का यह कार्य उपयुक्त था।
एत बलि' नमस्करि' करिला गमन ।आवेशे करिला पुरी से क्षीर भक्षण ॥
१३८ ॥
माधवेन्द्र पुरी को नमस्कार करके वह पुजारी मन्दिर लौट गया। तब भावावेश में माधवेन्द्र पुरी ने कृष्ण द्वारा प्रदत्त खीर ग्रहण की।
पात्र प्रक्षालन करि' खण्ड खण्ड कैले ।बहिर्वासे बान्धि' सेइ ठिकारि राखिल ॥
१३९॥
इसके बाद माधवेन्द्र पुरी ने उस पात्र को धोया और तोड़कर उसे खण्ड-खण्ड कर दिया। फिर उन्होंने उन खण्डों को बाह्य वस्त्र में बाँधकर ठीक से रख लिया।
प्रति-दिन एक-खानि करेन भक्षण ।। खाइले प्रेमावेश हय,—अद्भुत कथन ॥
१४० ॥
माधवेन्द्र पुरी प्रतिदिन उस मिट्टी के पात्र का एक खण्ड खाते और खाते ही वे भावावेश में आ जाते। ये सब अद्भुत कथाएँ हैं।
‘ठाकुर मोरे क्षीर दिल–लोक सब शुनि' । दिने लोक-भिड़ हबे मोर प्रतिष्ठा जानि' ॥
१४१॥
उस पात्र को खण्ड-खण्ड करके अपने वस्त्र में बाँध लेने के बाद माधवेन्द्र पुरी सोचने लगे, भगवान् ने मुझे खीर का पात्र दिया है और कल प्रातःकाल जब लोग इसके बारे में सुनेंगे, तो बहुत बड़ी भीड़ लग जायेगी।
सेइ भये रात्रि-शेषे चलिला श्री-पुरी ।। सेइ-खाने गोपीनाथे दण्डवत्करि' ॥
१४२॥
यह सोचकर श्री माधवेन्द्र पुरी ने उसी स्थान पर गोपीनाथजी को दंडवत् प्रणाम किया और प्रातः होने के पूर्व ही रेमुणा से चले गये।
चलि' चलि' आइला पुरी श्री-नीलाचल ।जगन्नाथ देखि' हैला प्रेमेते विह्वल ॥
१४३॥
माधवेन्द्र पुरी चलते चलते जगन्नाथ पुरी पहुँचे, जो नीलाचल के नाम से भी विख्यात है। वहाँ उन्होंने भगवान् जगन्नाथजी के दर्शन किये और प्रेमानन्दवश विह्वल हो गये।
प्रेमावेशे उठे, पड़े, हासे, नाचे, गाय।।जगन्नाथ-दरशने महा-सुख पाय ॥
१४४॥
श्रील माधवेन्द्र पुरी भगवत्प्रेम से भावाभिभूत होकर कभी उठ खड़े होते और कभी भूमि पर गिर पड़ते। कभी वे हँसते, नाचते और गाते । इस प्रकार जगन्नाथ-विग्रह के दर्शन करके उन्होंने दिव्य आनन्द का अनुभव किया।
‘माधव-पुरी श्रीपाद आइल',—लोके हैल ख्याति ।सब लोक आसि' ताँरे करे बहु भक्ति ॥
१४५ ।। जब माधवेन्द्र पुरी जगन्नाथ पुरी आये, तो लोग उनकी दिव्य ख्याति से परिचित थे। अतएव लोगों की भीड़ आने लगी और भक्तिवश उनका तरह-तरह से सम्मान करने लगी।
प्रतिष्ठार स्वभाव एइ जगते विदित ।ये ना वाञ्छे, तार हय विधाता-निर्मित ॥
१४६ ॥
मनुष्य भले ही न चाहता हो, फिर भी विधाता द्वारा नियत प्रतिष्ठा उसे मिल ही जाती है। निस्सन्देह, भक्त की दिव्य प्रतिष्ठा समग्र विश्व में फैल जाती है।
प्रतिष्ठार भये पुरी गेला पलाञा ।कृष्ण-प्रेमे प्रतिष्ठा चले सङ्गे गड़ाञा ॥
१४७॥
अपनी प्रतिष्ठा के भय से माधवेन्द्र पुरी रेमुणा छोड़कर चले गये। किन्तु भगवत्प्रेम द्वारा प्रदत्त प्रतिष्ठा इतनी उत्कृष्ट है कि वह भक्त के साथसाथ जाती है, मानो उसका पीछा कर रही हो।
यद्यपि उद्वेग हैल पलाइते मन ।। ठाकुरेर चन्दन-साधन हइल बन्धन ॥
१४८॥
माधवेन्द्र पुरी जगन्नाथ पुरी छोड़ना चाह रहे थे, क्योंकि लोग उनका महान् भक्त के रूप में आदर कर रहे थे, किन्तु इससे गोपाल-विग्रह के लिए चन्दन की लकड़ी एकत्र करने में बाधा उत्पन्न होने का भय था।
जगन्नाथेर सेवक व्रत, व्रतेक महान्त । सबाके कहिल पुरी गोपाल-वृत्तान्त ॥
१४९॥
। श्री माधवेन्द्र पुरी ने वहाँ पर जगन्नाथजी के सभी सेवकों तथा महान् भक्तों से श्री गोपाल के प्राकट्य की कथा बतलाई।
गोपाल चन्दन मागे,——शुनि' भक्त-गण ।। आनन्दे चन्दन लागि' करिल ग्रतन ॥
१५०॥
जब जगन्नाथ पुरी के सारे भक्तों ने सुना कि गोपाल-विग्रह चन्दन चाहते हैं, तो सभी हर्षित होकर चन्दन एकत्र करने का प्रयास करने लगे।
राज-पात्र-सने झार ग्रार परिचय ।।तारे मागि' कर्पूर-चन्दन करिला सञ्चय ॥
१५१॥
जो लोग राज अधिकारियों से परिचित थे, वे उनसे मिले और कपूर तथा चन्दन माँग-माँगकर एकत्र किया।
एक विप्र, एक सेवक, चन्दन वहिते । पुरी-गोसाजिर सङ्गे दिल सम्बल-सहिते ॥
१५२॥
इस चन्दन को ले जाने के लिए माधवेन्द्र पुरी को एक ब्राह्मण तथा एक सेवक दिया गया। उन्हें आवश्यक मार्ग-व्यय भी दिया गया।
घाटी-दानी छाड़ाइते राज-पात्र द्वारे ।। राज-लेखा करि' दिल पुरी-गोसाजिर करे ॥
१५३॥
रास्ते के चुंगी वसूलने वालों से बचने के लिए माधवेन्द्र पुरी को सरकारी अफसरों से छूट के आवश्यक कागजात दिलाए गये। ये कागजात उनके हाथ में दिये गये।
चलिल माधव-पुरी चन्दन ला । कत-दिने रेमुणोते उत्तरिल गिया ।। १५४॥
इस तरह माधवेन्द्र पुरी चन्दन सहित वृन्दावन के लिए चल पड़े और कुछ दिनों के बाद वे पुनः रेमुणा गाँव तथा वहाँ के गोपीनाथ मन्दिर में पहुँचे गोपीनाथ-चरणे कैल बहु नमस्कार ।। प्रेमावेशे नृत्य-गीत करिला अपार ॥
१५५॥
। जब माधवेन्द्र पुरी गोपीनाथ के मन्दिर पहुँचे, तो उन्होंने भगवान् के चरणकमलों पर अनेक बार नमस्कार किया। वे प्रेमभाव में सतत नृत्य और गान करने लगे।
पुरी देखि' सेवक सब सम्मान करिल ।। क्षीर-प्रसाद दिया ताँरे भिक्षा कराइल ॥
१५६॥
जब गोपीनाथ के पुजारी ने माधवेन्द्र पुरी को फिर से आये देखे, तो उसने उन्हें सादर नमस्कार किया और उन्हें खीर प्रसाद खिलाया।
सेइ रात्रे देवालये करिल शयन ।शेष-रात्रि हैले पुरी देखिल स्वपन ॥
१५७॥
उस रात माधवेन्द्र पुरी ने मन्दिर में विश्राम किया, किन्तु रात्रि के अन्त में उन्हें दोबारा स्वप्न दिखलाई पड़ा।
गोपाल आसिया कहे,—शुन हे माधव । कर्पूर-चन्दन आमि पाइलाम सब ॥
१५८॥
। माधवेन्द्र पुरी ने सपने में देखा कि गोपाल उनके सामने आकर कह रहे हैं, “हे माधवेन्द्र पुरी, मुझे पहले ही सारी चन्दन तथा कपूर प्राप्त हो चुका है। कर्पूर-सहित घषि' ए-सब चन्दन । गोपीनाथेर अङ्गे नित्य करह लेपन ॥
१५९॥
तुम सारे चन्दन को कपूर के साथ घिसकर तब तक गोपीनाथ के विग्रह पर इसका प्रतिदिन लेप करते रहो, जब तक यह समाप्त न हो जाये।
गोपीनाथ आमार से एक-इ अङ्ग हय ।।इँहाके चन्दन दिले हबे मोर ताप-क्षय ॥
१६०॥
मेरे शरीर तथा गोपीनाथ के शरीर में कोई अन्तर नहीं है। वे अभिन्न हैं। अतएव यदि तुम गोपीनाथ के शरीर पर चन्दन-लेप करते हो, तो वह मेरे शरीर पर लेप के समान ही है। इस प्रकार मेरे शरीर का ताप कम हो जायेगा।
द्विधा ना भाविह, ना करिह किछु मने ।।विश्वास करि' चन्दन देह आमार वचने ॥
१६१॥
मेरे आदेशानुसार कार्य करने में तुम तनिक भी सन्देह मत करो। मुझ पर विश्वास रखकर जो आवश्यक हो वह करो।
एत बलि' गोपाल गेल, गोसाञि जागिला ।गोपीनाथेर सेवक-गणे डाकिया आनिला ॥
१६२॥
इतना आदेश देकर गोपाल अन्तर्धान हो गये और श्रील माधवेन्द्र पुरी जाग गये। उन्होंने तुरन्त गोपीनाथ के सभी सेवकों को बुलाया और वे वहाँ उपस्थित हो गये।
भुर आज्ञा हैल,—एइ कर्पूर-चन्दन ।गोपीनाथेर अङ्गे नित्य करह लेपन ॥
१६३॥
माधवेन्द्र पुरी ने कहा, गोपीनाथ के विग्रह पर इस कपूर तथा चन्दन का लेप करो, जिसे मैं वृन्दावन स्थित गोपाल के लिए लाया हूँ। इसे नियमित रूप से प्रतिदिन करो।
इँहाके चन्दन दिले, गोपाल हइबे शीतल ।।स्वतन्त्र ईश्वर ताँर आज्ञा से प्रबल ॥
१६४॥
। यदि गोपीनाथ के शरीर पर चन्दन का लेप किया जाये, तो गोपाल शीतल हो जायेंगे। आखिर पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् पूर्णतया स्वतन्त्र हैं; उनका आदेश सर्व-शक्तिमान है।
ग्रीष्म-काले गोपीनाथ परिबे चन्दन ।शुनि' आनन्दित हैल सेवकेर मन ॥
१६५ ॥
गोपीनाथ के सेवक यह सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुए कि गर्मियों में यह सारा चन्दन गोपीनाथ के शरीर पर लेप करने के लिए प्रयोग होगा।
पुरी कहे,—एइ दुइ घषिबे चन्दन ।आर जना-दुइ देह, दिब ग्रे वेतन ॥
१६६ ॥
माधवेन्द्र पुरी ने कहा, ये दो सेवक नियमित रूप से चन्दन घिसेंगे और तुम सहायता के लिए अन्य दो व्यक्ति और ले लो। उनका वेतन मैं दूंगा।
एइ मत चन्दन देय प्रत्यह घषिया । पराय सेवक सब आनन्द करिया ॥
१६७॥
इस तरह प्रतिदिन गोपीनाथजी को चन्दन घिसकर लेप किया जाता रहा। इससे गोपीनाथ के सेवक अत्यन्त प्रसन्न थे।
प्रत्यह चन्दन पराय, यावत् हैल अन्त ।तथाय रहिल पुरी तावत्पर्य्यन्त ॥
१६८॥
इस प्रकार पूरा चन्दन समाप्त होने तक गोपीनाथ के विग्रह पर चन्दन का लेप होता रहा और माधवेन्द्र पुरी तब तक वहीं रहे।
ग्रीष्म-काल-अन्ते पुनः नीलाचले गेला ।।नीलाचले चातुर्मास्य आनन्दे रहिला ॥
१६९ ॥
गर्मी के अन्त में माधवेन्द्र पुरी जगन्नाथ पुरी लौट आये, जहाँ उन्होंने बड़े ही आनन्द से चातुर्मास्य बिताया।
श्री-मुखे माधव-पुरीर अमृत-चरित ।। भक्त-गणे शुनाना प्रभु करे आस्वादित ॥
१७० ॥
इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने स्वयं माधवेन्द्र पुरी के अमृतमय गुणों की प्रसंशा की और जब वे यह सब भक्तों को सुना रहे थे, तो उन्होंने स्वयं भी इसका आस्वादन किया।
प्रभु कहे,—नित्यानन्द, करह विचार । पुरी-सम भाग्यवान् जगते नाहि आर ॥
१७१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने नित्यानन्द से यह निर्णय करने के लिए कहा कि क्या इस जगत् में माधवेन्द्र पुरी के समान और कोई भाग्यशाली है! दुग्ध-दान-छले कृष्ण याँरै देखा दिल । तिन-बारे स्वप्ने आसि' याँरै आज्ञा कैल ॥
१७२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, माधवेन्द्र पुरी इतने भाग्यशाली थे कि साक्षात् भगवान् कृष्ण उनके समक्ष दूध देने के बहाने प्रकट हुए। भगवान् ने माधवेन्द्र पुरी को स्वप्न में तीन बार आदेश दिया।
याँर प्रेमे वश हा प्रकट हइला । सेवा अङ्गीकार करि' जगत् तारिला ॥
१७३॥
माधवेन्द्र पुरी के प्रेम के वशीभूत होकर स्वयं भगवान् कृष्ण गोपाल विग्रह के रूप में प्रकट हुए और उनकी सेवा स्वीकार करके भगवान् ने सारे जगत् का उद्धार किया।
झाँर लागि' गोपीनाथ क्षीर कैल चुरि । अतएव नाम हैल' क्षीर-चोरा' करि' ॥
१७४॥
माधवेन्द्र पुरी के ही कारण भगवान् गोपीनाथ ने खीर-पात्र चुराया। इस तरह वे ' क्षीर-चोरा' के नाम से प्रसिद्ध हुए।"
कर्पूर-चन्दन याँर अङ्गे चड़ाइल ।।आनन्दे पुरी-गोसाजिर प्रेम उथलिल ॥
१७५ ॥
माधवेन्द्र पुरी ने गोपीनाथ के श्रीविग्रह पर चन्दन का लेप किया और इस प्रकार वे भगवत्प्रेम से विह्वल हो गये।
म्लेच्छ-देशे कर्पूर-चन्दन आनिते जञ्जाल ।।पुरी दुःख पाबे इहा जानिया गोपाल ॥
१७६॥
मुसलमानों द्वारा शासित भारतीय प्रान्तों में चन्दन तथा कपूर लेकर यात्रा करना अत्यन्त असुविधाजनक था। इसके कारण माधवेन्द्र पुरी कष्ट में पड़ सकते थे। यह गोपाल-विग्रह को ज्ञात हो गया।
महा-दया-मय प्रभु-भकत-वत्सल ।।चन्दन परि' भक्त-श्रम करिल सफल ॥
१७७॥
भगवान् अत्यधिक दयालु हैं और अपने भक्तों से अनुरक्त रहते हैं; अतएव जब गोपीनाथ को चन्दन का लेप लगाया गया, तो माधवेन्द्र पुरी का श्रम सार्थक हो गया।
पुरीर प्रेम-पराकाष्ठा करह विचार ।। अलौकिक प्रेम चित्ते लागे चमत्कार ॥
१७८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने नित्यानन्द प्रभु को माधवेन्द्र पुरी के उत्कट प्रेम के आदर्श पर अपना निर्णय देने के लिए कहा। चैतन्य महाप्रभु ने कहा, उनके सारे प्रेम-व्यवहार असाधारण हैं। निस्सन्देह, उनके कार्यकलापों को सुनकर हर कोई आश्चर्यचकित रह जाता है।
परम विरक्त, मौनी, सर्वत्र उदासीन ।ग्राम्य-वार्ता-भये द्वितीय-सङ्ग-हीन ॥
१७९॥
चैतन्य महाप्रभु ने आगे बतलाया, श्री माधवेन्द्र पुरी अकेले रहा करते थे। वे पूर्ण विरक्त थे और सदैव मौन रहते थे। वे किसी भी भौतिक वस्तु में रुचि नहीं रखते थे और संसारी बातें करने के भय से अकेले रहते थे।
हेन-जन गोपालेर आज्ञामृत पाजा ।।सहस्त्र क्रोश आसि' बुले चन्दन मागिळा ॥
१८०॥
गोपालजी का दिव्य आदेश पाकर इस महापुरुष ने माँगकर चन्दन एकत्र करने हेतु हजारों मील की यात्रा की।
भोके रहे, तबु अन्न मागिजा ना खाय ।हेन-जन चन्दन-भार वहि' लञा ग्राय ॥
१८१॥
माधवेन्द्र पुरी ने भूखे रहने पर भी किसी से खाने के लिए भोजन नहीं माँगा। इस विरक्त पुरुष ने श्री गोपाल के निमित्त चन्दन का भार वहन किया।
मणेक चन्दन, तोला-विशेक कर्पूर ।गोपाले पराइब'–एइ आनन्द प्रचुर ॥
१८२॥
अपनी निजी सुख-सुविधा की चिन्ता न करके माधवेन्द्र पुरी एक मन चन्दन ( लगभग ८२ पौंड) तथा बीस तोला (लगभग ८ औंस ) कपूर गोपाल के विग्रह को लेप करने के लिए उठा लाये। यही दिव्य आनन्द उनके लिए पर्याप्त था।
उत्कलेर दानी राखे चन्दन देखिञा ।ताहाँ एड़ाइल राज-पत्र देखाजा ॥
१८३॥
चूंकि उड़ीसा प्रान्त से बाहर चन्दन ले जाने पर प्रतिबन्ध था, अतएव चुंगी अधिकारी ने पूरा चन्दन अपने पास रख लिया, किन्तु माधवेन्द्र पुरी ने उसे सरकार द्वारा दिया गया विमोचन-प्रपत्र दिखलाया, जिससे वे कठिनाइयों से बच गये।
म्लेच्छ-देश दूर पथ, जगाति अपार ।के-मते चन्दन निब- नाहि ए विचार ॥
१८४॥
। माधवेन्द्र पुरी वृन्दावन की लम्बी यात्रा के दौरान मुस्लिमों के द्वारा शासित एवं अनगिनत पहरेदारों से भरे हुए प्रान्तों से गुजरते हुए तनिक भी चिन्तित नहीं हुए।
सङ्गे एक वट नाहि घाटी-दान दिते ।तथापि उत्साह बड़ चन्दन लञा ग्राइते ॥
१८५ ॥
। यद्यपि माधवेन्द्र पुरी के पास एक छदाम भी नहीं था, किन्तु वे चुंगी अफसरों के पास से निकलने के लिए तनिक भी भयभीत नहीं थे। उनका एकमात्र आनन्द गोपाल के लिए वृन्दावन तक चन्दन का बोझ उठाकर ले चलने में था।
प्रगाढ़-प्रेमेर एइ स्वभाव-आचार । निज-दुःख-विघ्नादिर ना करे विचार ॥
१८६॥
। उत्कट भगवत्प्रेम का यही स्वाभाविक परिणाम होता है। भक्त निजी असुविधाओं या विघ्नों पर विचार नहीं करता। वह सभी परिस्थितियों में भगवान् की सेवा करना चाहता है।
एइ तार गाढ़ प्रेमा लोके देखाइते । गोपाल ताँरे आज्ञा दिल चन्दन आनिते ॥
१८७॥
श्री गोपाल यह दिखलाना चाहते थे कि माधवेन्द्र पुरी कृष्ण से । कितना प्रगाढ़ प्रेम करते थे; अतएव उन्होंने नीलाचल से चन्दन तथा कपूर लाने के लिए उनसे कहा।
बहु परिश्रमे चन्दन रेमुणा आनिल ।आनन्द बाड़िल मने, दुःख ना गणिल ॥
१८८॥
अत्यन्त कष्ट उठाकर तथा अत्यधिक परिश्रम करके माधवेन्द्र पुरी चन्दन को रेमुणा ले आये। फिर भी वे अत्यन्त प्रसन्न थे; उन्होंने कठिनाइयों की तनिक भी चिन्ता नहीं की।
परीक्षा करिते गोपाल कैल आज्ञा दान ।परीक्षा करिया शेषे हैल दयावान् ॥
१८९॥
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् गोपाल ने माधवेन्द्र पुरी के उत्कट प्रेम की परीक्षा करने के लिए उन्हें नीलाचल से चन्दन लाने का आदेश दिया और जब माधवेन्द्र पुरी इस परीक्षा में खरे उतरे, तो भगवान् उन पर अत्यन्त कृपालु हुए।
एइ भक्ति, भक्त-प्रिय-कृष्ण-व्यवहार । बुझितेओ आमा-सबार नाहि अधिकार ॥
१९०॥
भक्त तथा भक्त के प्रिय श्रीकृष्ण के मध्य प्रेमाभक्ति के ऐसे व्यवहार का प्रदर्शन दिव्य है। साधारण व्यक्ति के लिए इसे समझ पाना सम्भव नहीं है। सामान्य व्यक्तियों में इतनी क्षमता ही नहीं होती।
एत बलि' पड़े प्रभु ताँर कृत श्लोक । येइ श्लोक-चन्द्रे जगत्कछे आलोक ॥
१९१॥
। यह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने माधवेन्द्र पुरी का प्रसिद्ध श्लोक पढ़ा। यह श्लोक चन्द्रमा के समान है। इसने सारे जगत् को प्रकाशमान किया है।
घषिते घषिते प्रैछे मलयज-सार । गन्ध बाड़े, तैछे एइ श्लोकेर विचार ॥
१९२॥
जिस प्रकार निरन्तर घिसने से मलय चन्दन की सुगन्ध बढ़ती है, उसी तरह इस श्लोक पर मनन करने से इसकी महत्ता समझ में आती है।
रत्न-गण-मध्ये प्रैछे कौस्तुभ-मणि ।। रस-काव्य-मध्ये तैछे एइ श्लोक गणि ॥
१९३॥
जिस प्रकार रत्नों में कौस्तुभ-मणि को अत्यन्त मूल्यवान माना जाता है, उसी तरह भक्ति के रस से सम्बन्धित काव्य में इस श्लोक को सर्वोत्तम माना जाता है।
एइ श्लोक कहियाछेन राधा-ठाकुराणी ।।ताँर कृपाय स्फुरियाछे माधवेन्द्र-वाणी ॥
१९४॥
वास्तव में इस श्लोक को श्रीमती राधारानी ने स्वयं कहा था और की कृपा से ही यह माधवेन्द्र पुरी के शब्दों में प्रकट हुआ।
किबा गौरचन्द्र इहा करे आस्वादन ।इहा आस्वादिते आर नाहि चौठ-जन ॥
१९५॥
केवल श्री चैतन्य महाप्रभु ने इस श्लोक के काव्यत्व का आस्वादन किया है। इसे समझ पाने में कोई चौथा व्यक्ति समर्थ नहीं है।
शेष-काले एइ श्लोक पठिते पठिते । सिद्धि-प्राप्ति हैल पुरीर श्लोकेर सहिते ॥
१९६॥
पृथ्वी पर जीवन के अन्तिम काल में माधवेन्द्र पुरी इस श्लोक को बारम्बार पढ़ते रहते थे। इस प्रकार इस श्लोक का उच्चारण करते करते उन्होंने जीवन का चरम लक्ष्य प्राप्त किया।
अयि दीन-दयार्द्र नाथ हे।मथुरा-नाथ कदावलोक्यसे । हृदयं त्वदलोक-कातरं । दयित भ्राम्यति किं करोम्यहम् ॥
१९७॥
हे नाथ! हे परम कृपालु स्वामी! हे मथुरापति! मुझे फिर आपके दर्शन कब होंगे? आपका दर्शन न कर पाने के कारण मेरा विक्षुब्ध हृदय अस्थिर हो चुका है। हे प्रिय, अब मैं क्या करूं? एई श्लोक पड़िते प्रभु हइला मूच्छिते । प्रेमेते विवश हा पड़िल भूमिते ॥
१९८॥
यह श्लोक पढ़ते ही श्री चैतन्य महाप्रभु अचेत होकर भूमि पर गिर पड़े। वे विह्वल थे, अतएव अपने वश में नहीं थे।
आस्ते-व्यस्ते कोले करि' निल नित्यानन्द ।क्रन्दन करिया तबे उठे गौरचन्द्र ॥
१९९॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु भावावेश में भूमि पर गिर पड़े, तो नित्यानन्द प्रभु ने तुरन्त उन्हें अपनी गोद में उठा लिया। तब श्री चैतन्य महाप्रभु क्रंदन करते हुए फिर से उठ बैठे।
प्रेमोन्माद हैल, उठि' इति-उति धाय ।हुङ्कार करये, हासे, कान्दे, नाचे, गाय ॥
२००॥
प्रेमोन्माद प्रकट करते हुए महाप्रभु हुंकार करते हुए इधर-उधर दौड़ने लगे। कभी वे हँसते, कभी रोते, कभी नाचते और कभी गाते थे।"
‘अयि दीन, 'अयि दीन' बले बार-बार ।कण्ठे ना निःसरे वाणी, नेत्रे अश्रु-धार ॥
२०१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु पूरा श्लोक नहीं सुना पाये। उन्होंने बारम्बार इतना ही कहा, अयि दीन! अयि दीन! इस तरह वे बोल नहीं सके और उनकी आँखों से अश्रु की धारा बहने लगी।
कम्प, स्वेद, पुलकाश्रु, स्तम्भ, वैवर्त्य ।।निर्वेद, विषाद, जाय, गर्व, हर्ष, दैन्य ॥
२०२॥
कँपकँपी, पसीना, हर्ष के अश्रु, स्तम्भ, शरीर का रंग फीका पड़ना, निराशा, खिन्नता, स्मृति-ह्रास, गर्व, हर्ष तथा दीनता-ये सारे लक्षण श्री चैतन्य महाप्रभु के शरीर में दिख रहे थे।
एइ श्लोके उघाड़िला प्रेमेर कपाट । गोपीनाथ-सेवक देखे प्रभुर प्रेम-नाट ॥
२०३॥
इस श्लोक ने प्रेमभाव के द्वार खोल दिये और गोपीनाथ के सारे सेवकों ने महाप्रभु को भावावेश में नृत्य करते देखा।
लोकेर सङ्घट्ट देखि' प्रभुर बाह्य हैल ।। ठाकुरेर भोग सरि' आरति बाजिल ॥
२०४॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु के चारों ओर अनेक लोगों की भीड़ लग गई, तो वे बाह्य चेतना में आये। उसी बीच अर्चाविग्रह को भोग का समर्पण समाप्त हुआ और सुमधुर ध्वनि के साथ आरती सम्पन्न हुई।
ठाकुरे शयन कराञा पूजारी हैल बाहिर ।। प्रभुर आगे आनि' दिल प्रसाद बार क्षीर ॥
२०५॥
अर्चाविग्रहों को शयन कराने के बाद पुजारी मन्दिर के बाहर आ गया और उसने खीर के सारे बारहों पात्र श्री चैतन्य महाप्रभु को दे दिये।
क्षीर देखि' महाप्रभुर आनन्द बाड़िल । भक्त-गणे खाओयाइते पञ्च क्षीर लैल ॥
२०६॥
जब गोपीनाथ महाप्रसाद के सारे खीर-पात्र श्री चैतन्य महाप्रभु के समक्ष रखे गये, तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुए। भक्तों को खिलाने के लिए उन्होंने पाँच पात्र स्वीकार किये।
सात क्षीर पूजारीके बाहुड़िया दिल । पञ्च-क्षीर पञ्च-जने वाँटिया खाइल ॥
२०७॥
शेष सात पात्र आगे बढ़ाकर पुजारी को दे दिये गये। फिर महाप्रभु द्वारा लिये गये पाँच पात्रों की खीर पाँच भक्तों में बाँटी गई और उन सबने प्रसाद ग्रहण किया।
गोपीनाथ-रूपे ग्रदि करियाछेन भोजन ।।भक्ति देखाइते कैल प्रसाद भक्षण ॥
२०८॥
गोपीनाथ विग्रह से अभिन्न श्री चैतन्य महाप्रभु पहले ही खीर-पात्रों का आस्वादन कर चुके थे। फिर भी भक्ति प्रकट करने के लिए उन्होंने भक्त के रूप में पुनः खीर खाई।
नाम-सङ्कीर्तने सेइ रात्रि गोइला ।मङ्गल-आरति देखि' प्रभाते चलिला ॥
२०९॥
वह रात्रि महाप्रभु ने उस मन्दिर में संकीर्तन करने में व्यतीत की। प्रात:काल मंगल-आरती देखकर वे वहाँ से चल पड़े।
गोपाल-गोपीनाथ-पुरी-गोसाजिर गुण ।भक्त-सङ्गे श्री-मुखे प्रभु कैला आस्वादन ॥
२१०॥
इस तरह स्वयं चैतन्य महाप्रभु ने गोपालजी, गोपीनाथ तथा श्री माधवेन्द्र पुरी के दिव्य गुणों का आस्वादन अपने श्री मुख से किया।
एइ त' आख्याने कहिली दोंहार महिमा ।।प्रभुर भक्त-वात्सल्य, आर भक्त-प्रेम-सीमा ॥
२११॥
। इस तरह मैंने श्री चैतन्य महाप्रभु की अपने भक्तों के प्रति वात्सल्य की दिव्य महिमा तथा भगवत्प्रेम के भाव की पराकाष्ठा-दोनों का वर्णन किया है।
श्रद्धा-युक्त हल्ला इहा शुने येइ जन ।श्री-कृष्ण-चरणे सेइ पाय प्रेम-धन ॥
२१२॥
जो कोई श्रद्धा तथा भक्ति से इस कथा को सुनता है, उसे श्रीकृष्ण के चरणकमलों के प्रति भगवत्प्रेम का धन प्राप्त होता है।
श्री-रूप-रघुनाथ-पदे ग्रार आश ।।चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
२१३। श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों की वन्दना करते हुए और उनकी कृपा की कामना करते हुए, मैं कृष्णदास उनके चरणचिह्नों पर चलकर श्री चैतन्य-चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।
अध्याय पाँच: साक्षी-गोपाल की गतिविधियाँ
पद्भ्यां चलन् यः प्रतिमा-स्वरूपो ब्रह्मण्य-देवो हि शताह-गम्यम् । देशं ग्रयौ विप्र-कृतेऽद्भुतेहंतं साक्षि-गोपालमहं नतोऽस्मि ॥
१॥
मैं उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ( ब्रह्मण्य-देव) को सादर नमस्कार करता हूँ, जो एक ब्राह्मण पर उपकार करने के लिए साक्षीगोपाल के रूप में प्रकट हुए। उन्होंने १०० दिनों तक देश की पैदल यात्रा की। इस तरह उनकी लीलाएँ अद्भुत हैं।
जय जय श्री-चैतन्ये जय नित्यानन्द । जयाद्वैतचन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ॥
२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! श्री अद्वैत प्रभु की जय हो और श्री चैतन्य महाप्रभु के समस्त भक्तों की जय चलिते चलते आइला झाजपुर-ग्राम ।।वराह-ठाकुर देखि' करिला प्रणाम ॥
३॥
चलते चलते श्री चैतन्य महाप्रभु अपनी टोली सहित वैतरणी नदी के तट पर स्थित याजपुर गाँव आये। वहाँ उन्होंने वराहदेव का मन्दिर देखा और उन्हें नमस्कार किया।
नृत्य-गीत कैल प्रेमे बहुत स्तवन ।। ग्राजपुरे से रात्रि करिला यापन ॥
४॥
वराह देव के मन्दिर में श्री चैतन्य महाप्रभु ने कीर्तन तथा नृत्य किया और प्रार्थनाएँ की । वह रात्रि उन्होंने मन्दिर में ही बिताई।
कटके आइला साक्षि-गोपाल देखिते । गोपाल-सौन्दर्य देखि' हैला आनन्दिते ॥
५॥
इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु कटक नामक नगर में साक्षीगोपाल का मन्दिर देखने गये। गोपाल विग्रह के सौन्दर्य को देखकर वे अत्यन्त प्रफुल्लित हुए।
प्रेमावेशे नृत्य-गीत कैल कत-क्षण ।।आविष्ट हा कैल गोपाल स्तवन ॥
६॥
वहाँ पर श्री चैतन्य महाप्रभु कुछ समय तक कीर्तन तथा नृत्य करते गई और भावाभिभूत होकर उन्होंने गोपाल की अनेक प्रकार से स्तुति की । सेइ रात्रि ताहाँ रहि' भक्त-गण-सङ्गे ।गोपालेर पूर्व-कथा शुने बहु रङ्गे ॥
७॥
उस रात श्री चैतन्य महाप्रभु गोपाल के मन्दिर में रहे और सभी भक्तों सहित उन्होंने साक्षीगोपाल की कथा अत्यन्त उत्साहपूर्वक सुनी।
नित्यानन्द-गोसाजि ग्रबे तीर्थ भ्रमिला।साक्षि-गोपाल देखिबारे कटक आइला ॥
८॥
इसके पूर्व जब नित्यानन्द प्रभु ने विभिन्न तीर्थस्थलों का दर्शन करने के लिए पूरे भारत का भ्रमण किया था, तो वे कटक स्थित साक्षीगोपाल का दर्शन करने भी आये थे।
साक्षि-गोपालेर कथा शुनि, लोक-मुखे ।।सेइ कथा कहेन, प्रभु शुने महा-सुखे ॥
९॥
उस समय नित्यानन्द प्रभु ने साक्षीगोपाल की कथा उस नगर के लोगों से सुनी थी। अब उन्होंने वही कथा फिर सुनाई और चैतन्य महाप्रभु ने उस कथा को अत्यन्त सुखपूर्वक सुना।
पूर्वे विद्यानगरेर दुइ त' ब्राह्मण । तीर्थ करिबारे मुँहे करिला गमन ॥
१०॥
प्राचीनकाल में दक्षिण भारत में विद्यानगर में दो ब्राह्मण थे, जिन्होंने विभिन्न तीर्थस्थानों के दर्शनार्थ लम्बी यात्रा की।
गया, वाराणसी, प्रयाग—सकल करिया ।।मथुराते आइला मुँहे आनन्दित हा ॥
११॥
। सर्वप्रथम वे गया गये, फिर काशी और तब प्रयाग। अन्त में वे अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक मथुरा आये।
वन-यात्राय वन देखि' देखे गोवर्धन ।द्वादश-वन देखि' शेषे गेला वृन्दावन ॥
१२॥
मथुरा पहुँचकर उन्होंने वृन्दावन के विभिन्न वनों का दर्शन करना प्रारम्भ किया। तब वे गोवर्धन पर्वत आये। उन्होंने सारे बारहों वनों के दर्शन किये और अन्त में वृन्दावन नगरी पहुँचे।
वृन्दावने गोविन्द-स्थाने महा-देवालय ।से मन्दिरे गोपालेर महा-सेवा हय ॥
१३॥
पंचक्रोशी वृन्दावन ग्राम में, जहाँ अब गोविन्द मन्दिर स्थित है, पहले एक विशाल मन्दिर था जहाँ गोपाल की भव्य सेवा की जाती थी।
केशी-तीर्थ, कालीय-हृदादिके कैल स्नान ।।श्री-गोपाल देखि' ताहाँ करिला विश्राम ॥
१४॥
यमुना नदी के किनारे स्थित विभिन्न घाटों में, यथा केशीघाट तथा कालिय घाट में, स्नान करने के बाद वे दोनों यात्री गोपाल-मन्दिर में दर्शन करने गये। इसके बाद उन्होंने उस मन्दिर में विश्राम किया।
गोपाल-सौन्दर्घ मुँहार मन निल हरि' ।।सुख पाञा रहे ताहाँ दिन दुइ-चारि ॥
१५॥
गोपाल-विग्रह के सौन्दर्य ने उनके मनों को हर लिया और परम सुख का अनुभव करते हुए वे दोनों दो-चार दिन वहाँ रुके रहे।
दुइ-विप्र-मध्ये एक विप्र-वृद्ध-प्राय ।।आर विप्र—ब्रुवा, ताँर करेन सहाय ॥
१६॥
दोनों ब्राह्मणों में एक वृद्ध था और दूसरा तरुण। यह तरुण व्यक्ति वृद्ध ब्राह्मण की सहायता कर रहा था।
छोट-विप्र करे सदा ताँहार सेवन । ताँहार सेवाय विप्रेर तुष्ट हैल मन ॥
१७॥
निस्सन्देह तरुण ब्राह्मण वृद्ध की सतत सेवा करता था और वह वृद्ध ब्राह्मण उसकी सेवा से सन्तुष्ट होने के कारण उससे प्रसन्न था।
विप्र बले तुमि मोर बहु सेवा कैला ।सहाय हआ मोरे तीर्थ कराइला ॥
१८॥
बूढ़े व्यक्ति ने उस तरुण से कहा, तुमने तरह-तरह से मेरी सेवा की है और इन सारे तीर्थस्थानों की यात्रा करने में मेरी सहायता की है।
पुत्रेओ पितार ऐछे ना करे सेवन ।। तोमार प्रसादे आमि ना पाइलाम श्रम ॥
१९॥
मेरा पुत्र भी ऐसी सेवा नहीं करता। तुम्हारी दया से मुझे यात्रा में कोई थकान नहीं हुई।
कृतघ्नता हय तोमाय ना कैले सम्मान ।अतएव तोमाय आमि दिब कन्या-दान ॥
२०॥
यदि मैं तुम्हारा आदर न करूं, तो मैं कृतघ्न माना जाऊँगा। अतएव मैं वचन देता हूँ कि मैं तुम्हें अपनी कन्या दान में दूंगा।
छोट-विप्र कहे, शुन, विप्र-महाशय ।।असम्भव कह केने, ग्रेई नाहि हय ॥
२१॥
तरुण ब्राह्मण ने कहा, हे भद्र ब्राह्मण, कृपया मेरी बात सुनें। आप कुछ असम्भव बात कर रहे हैं। ऐसा कभी होता नहीं।
महा-कुलीन तुमि—विद्या-धनादि-प्रवीण ।आमि अकुलीन, आर धन-विद्या-हीन ॥
२२॥
आप उच्च कुल के व्यक्ति हैं, सुशिक्षित हैं और अत्यन्त धनी हैं। और मैं न तो उच्च कुल का हूँ, न ही मेरे पास उत्तम शिक्षा है, न ही धन है।
कन्या-दान-पात्र आमि ना हइ तोमार ।कृष्ण-प्रीत्ये करि तोमार सेवा-व्यवहार ॥
२३ ॥
हे महोदय, मैं आपकी कन्या के उपयुक्त वर नहीं हूँ। मैं तो केवल कृष्ण की तुष्टि के लिए आपकी सेवा कर रहा हूँ।
ब्राह्मण-सेवाय कृष्णेर प्रीति बड़ हय ।।ताँहार सन्तोषे भक्ति-सम्पद्वाड़य ॥
२४॥
भगवान् कृष्ण ब्राह्मणों की सेवा करने से अत्यन्त प्रसन्न होते हैं और जब भगवान् प्रसन्न होते हैं, तो भक्ति संपदा बढ़ती है।
बड़-विप्र कहे,–तुमि ना कर संशय ।।तोमाके कन्या दिब आमि, करिल निश्चय ॥
२५॥
उस वृद्ध ब्राह्मण ने कहा, बेटे, तुम मुझ पर सन्देह मत करो। मैं तुम्हें कन्यादान दूंगा। मैंने पहले ही यह निश्चय कर लिया है।
छोट-विप्र बले,–तोमार स्त्री-पुत्र सब । बहु ज्ञाति-गोष्ठी तोमार बहुत बान्धव ॥
२६॥
तरुण ब्राह्मण बोला, आपके पत्नी तथा पुत्र हैं तथा आपके अनेक परिजन तथा मित्र हैं।
ता'-सबार सम्मति विना नहे कन्या-दान । रुक्मिणीर पिता भीष्मक ताहाते प्रमाण ॥
२७॥
अपने सारे मित्रों तथा परिजनों की सम्मति के बिना आप अपनी कन्या का दान मुझे नहीं दे सकते। कृपया महारानी रुक्मिणी तथा उनके पिता भीष्मक की कथा पर विचार करें।
भीष्मकेर इच्छा,—कृष्ण कन्या समर्पिते ।।पुत्रेर विरोधे कन्या नारिल अर्पिते ॥
२८॥
वृद्ध ब्राह्मण ने कहा, मेरी पुत्री मेरी निजी सम्पत्ति है। यदि मैं किसी को अपनी सम्पत्ति देना चाहूँ, तो किसमें शक्ति है कि मुझे रोक सके? बड़-विप्र कहे,-कन्या मोर निज-धन ।।निज-धन दिते निषेधिबे को जन ॥
२९॥
राजा भीष्मक अपनी कन्या रुक्मिणी का दान कृष्ण को करना चाहते थे, किन्तु उनके बड़े पुत्र रुक्मी ने विरोध किया। अतएव वे अपना निर्णय पूरा नहीं कर सके।
तोमाके कन्या दिब, सबाके करि' तिरस्कार ।संशय ना कर तुमि, करह स्वीकार ॥
३०॥
प्रिय बालक, मैं तुम्हें अपनी कन्या दान करूंगा और मैं अन्यों की चिन्ता नहीं करूंगा। तुम इसमें मुझ पर सन्देह मत करो। तुम मेरा प्रस्ताव स्वीकार कर लो।
छोट-विप्र कहे,यदि कन्या दिते मन ।।गोपालेर आगे कह ए सत्य-वचन ॥
३१॥
तरुण ब्राह्मण ने उत्तर दिया, यदि आपने अपनी तरुण कन्या मुझे देने का निश्चय कर लिया है, तो गोपाल-विग्रह के सामने चलकर ऐसा कहें।
गोपालेर आगे विप्र कहिते लागिल । ‘तुमि जान, निज-कन्या इहारे आमि दिल' ॥
३२॥
उस वृद्ध ब्राह्मण ने गोपाल के समक्ष आकर कहा, हे प्रभु, आप साक्षी हैं कि मैंने अपनी कन्या इस लड़के को दे दी है।
छोट-विप्र बले,–ठाकुर, तुमि मोर साक्षी ।। तोमा साक्षी बोलाईमु, यदि अन्यथा देखि ॥
३३॥
। तब तरुण ब्राह्मण ने विग्रह को सम्बोधित करते हुए कहा, हे प्रभु, आप मेरे साक्षी हैं। यदि बाद में जरूरत पड़ी, तो मैं आपको साक्षी के रूप में बुलाऊँगा।
एत बलि' दुइ-जने चलिला देशेरे।।गुरु-बुद्धये छोट-विप्र बहु सेवा करे ॥
३४॥
इस वार्तालाप के बाद दोनों ब्राह्मण घर के लिए चल पड़े। पहले की ही तरह तरुण ब्राह्मण उस वृद्ध ब्राह्मण के साथ चला, मानो वृद्ध ब्राह्मण उसका गुरु हो और वह उसकी तरह-तरह से सेवा करता रहा।
देशे आसि' दुइ-जने गेला निज-घरे ।। कत दिने बड़-विप्र चिन्तित अन्तरे ॥
३५ ॥
विद्यानगर लौटकर दोनों ब्राह्मण अपने-अपने घर चले गये। कुछ समय बाद वृद्ध ब्राह्मण को चिन्ता सताने लगी।
तीर्थे विप्रे वाक्य दिहुँ, केमते सत्य हय ।। स्त्री, पुत्र, ज्ञाति, बन्धु जानिबे निश्चय ॥
३६॥
वह सोचने लगा, मैंने तीर्थस्थान में एक ब्राह्मण को वचन दिया है। और मेरे वचन का अवश्य पालन होना चाहिए। अब मुझे अपनी स्त्री, पुत्रों, अन्य सम्बन्धियों तथा मित्रों को यह बात बता देनी चाहिए।
एक-दिन निज-लोक एकत्र करिल ।। ता-सबार आगे सब वृत्तान्त कहिल ॥
३७॥
फलतः उस वृद्ध ब्राह्मण ने एक दिन अपने सारे सम्बन्धियों तथा मित्रों की सभा बुलाई और उसने उन सबको गोपाल के समक्ष हुई पूरी । घटना बताई।
शुनि' सब गोष्ठी तार करे हाहाकार । ‘ऐछे बात् मुखे तुमि ना आनिबे आर ॥
३८॥
। जब परिवार वालों ने वृद्ध ब्राह्मण का वृत्तान्त सुना, तो वे निराशा प्रकट करते हुए हाहाकार करने लगे। उन सबने यही अनुरोध किया कि वह फिर ऐसा प्रस्ताव न रखे।
नीचे कन्या दिले कुल ग्राइबेक नाश । शुनिजी सकल लोक करिबे उपहास' ॥
३९॥
सबने एक स्वर से कहा, यदि तुम अपनी कन्या निम्न परिवार में देते हो, तो तुम्हारी कुलीनता जाती रहेगी। जब लोग इसे सुनेंगे, तो वे तुम्हारा उपहास करेंगे।
विप्र बले,–तीर्थ-वाक्य केमने करि आने ।ये हउक्, से हडक, आमि दिबे कन्या-दान ॥
४०॥
वृद्ध ब्राह्मण ने कहा, तीर्थयात्रा के समय पवित्र स्थान में दिया गया वचन मैं कैसे मिटा सकता हूँ? चाहे जो भी हो, मुझे उसे ही कन्यादान करना चाहिए।
ज्ञाति लोक कहे,–'मोरा तोमाके छाड़िब' ।।स्त्री-पुत्र कहे,--‘विष खाइया मरिब' ॥
४१॥
सम्बन्धियों ने एकजुट होकर कहा, यदि तुम अपनी कन्या उस लड़के को दोगे, तो हम तुमसे अपने सारे सम्बन्ध तोड़ देंगे। उसकी स्त्री तथा पुत्रों ने घोषित किया, यदि ऐसा होता है, तो हम सभी विष खाकर पर जायेंगे।
विप्र बले,--साक्षी बोलाजा करिबेक न्याय । जिति' कन्या लबे, मरि व्यर्थ धर्म हय ॥
४२॥
वृद्ध ब्राह्मण ने कहा, यदि मैं अपनी कन्या उस तरुण ब्राह्मण को नहीं देता, तो वह श्री गोपालजी को साक्षी के रूप में बुलायेगा। इस तरह वह मेरी कन्या को बलपूर्वक ले जायेगा और उस दशा में मेरा धर्म नष्ट हो जायेगा।
पुत्र बले,– प्रतिमा साक्षी, सेह दूर देशे ।के तोमार साक्षी दिबे, चिन्ता कर किसे ॥
४३॥
उसके पुत्र ने उत्तर दिया, भले ही विग्रह साक्षी हों किन्तु वे दूर देश में हैं। भला वे आपके विरुद्ध साक्षी देने किस तरह आ सकते हैं? आप इसके विषय में इतने चिन्तित क्यों हैं? नाहि कहि–ना कहिओ ए मिथ्या-वचन ।।सबे कहिबे–‘मोर किछु नाहिक स्मरण' ॥
४४॥
आपको एकदम यह नहीं कहना है कि आपने ऐसी बात नहीं कही थी। ऐसी झूठी बात कहने की आवश्यकता नहीं है। आप केवल इतना ही कहिये कि आपको स्मरण नहीं है कि आपने क्या कहा था।
तुमि यदि कह,–'आमि किछुइ ना जानि'।तबे आमि न्याय करि' ब्राह्मणेरे जिनि ॥
४५॥
यदि आप केवल इतना ही कहें, ‘मुझे स्मरण नहीं है, तो बाकी मैं निपट लूंगा। मैं तर्क द्वारा उसे तरुण ब्राह्मण को हरा दूंगा।
एत शुनि' विप्रेर चिन्तित हैल मन ।।एकान्त-भावे चिन्ते विप्र गोपाल-चरण ॥
४६॥
जब वृद्ध ब्राह्मण ने यह सुना, तो उसका मन क्षुब्ध हो उठा। असहाय अवस्था में उसने अपना ध्यान गोपाल के चरणकमलों पर एकाग्र किया।
‘मोर धर्म रक्षा पाय, ना मरे निज-जन ।।दुइ रक्षा कर, गोपाल, लैनु शरण' ॥
४७॥
वृद्ध ब्राह्मण ने विनती की, हे प्रभु गोपाल! मैंने आप के चरणकमलों की शरण ली है, अतएव मेरी आपसे यही प्रार्थना है कि मेरे । धर्म की रक्षा करें और साथ ही मेरे आत्मीय जनों को मरने से बचायें।
एइ-मत विप्र चित्ते चिन्तिते लागिल ।आर दिन लघु-विप्र ताँर घरे आइल ॥
४८॥
अगले दिन जब वह ब्राह्मण इस बारे में गम्भीरतापूर्वक विचार कर रहा था, तभी वह तरुण ब्राह्मण उसके घर आया।
आसिजा परम-भक्त्ये नमस्कार करि' ।।विनय करिआ कहे कर दुइ गुड़ि' ॥
४९॥
तरुण ब्राह्मण ने उसके पास आकर सादर प्रणाम किया। फिर अत्यन्त विनीत भाव से हाथ जोड़कर वह इस प्रकार बोला।
‘तुमि मोरे कन्या दिते कर्याछ अङ्गीकार । एबे किछु नाहि कह, कि तोमार विचार' ॥
५०॥
आपने मुझे अपनी कन्या दान करने का वचन दिया है। किन्तु अब आप कुछ नहीं बोल रहे हैं। आपने क्या निर्णय लिया है? एत शुनि' सेइ विप्र रहे मौन धरि' ।।ताँर पुत्र मारिते आइल हाते ठेङ्गा करि' ॥
५१॥
तरुण ब्राह्मण द्वारा ऐसा कहे जाने पर वृद्ध ब्राह्मण मौन रहा। इस अवसर का लाभ उठाकर वृद्ध ब्राह्मण का पुत्र उस तरुण ब्राह्मण को मारने के लिए लाठी लेकर तुरन्त बाहर निकल आया।
'आरे अधम! मोर भग्नी चाह विवाहिते ।। वामन हा चाँद ग्रेन चाह त' धरिते' ॥
५२॥
पुत्र ने कहा, अरे नीच! तू मेरी बहन के साथ इस प्रकार विवाह करना चाहता है, जैसे कोई बौना व्यक्ति चाँद को पकड़ना चाहता हो! ठेला देखि' सेइ विप्र पलाञा गेल ।। आर दिन ग्रामेर लोक एकत्र करिल ॥
५३॥
उसके हाथ में लाठी देखकर बेचारा तरुण ब्राह्मण भाग गया। किन्तु अगले दिन उसने गाँव के सारे लोगों को एकत्र किया।
सब लोक बड़-विप्रे डाकिया आनिल ।। तबे सेइ लघु-विप्र कहिते लागिल ॥
५४॥
तब गाँव के सभी लोगों ने वृद्ध ब्राह्मण को सभा-स्थल पर बुलाया। तत्पश्चात् तरुण ब्राह्मण ने उनके समक्ष कहना शुरू किया।
‘इँह मोरे कन्या दिते कर्याछे अङ्गीकार ।एबे ये ना देन, पुछ इँहार व्यवहार' ॥
५५॥
इन महाशय ने अपनी कन्या मुझे देने का वचन दिया था, किन्तु अब ये अपना वचन नहीं निभा रहे हैं। कृपया इनसे इनके इस व्यवहार के विषय में पूछे।
तबे सेइ विप्रेरे पुछिल सर्व-जन ।।‘कन्या केने ना देह, यदि दियाछ वचन' ॥
५६॥
वहाँ पर एकत्रित सभी लोगों ने वृद्ध ब्राह्मण से पूछा, यदि पहले आप कन्यादान का वचन दे चुके हैं तो अपना वादा पूरा क्यों नहीं कर रहे हैं? आपने वचन दे रखा है। वृद्ध ब्राह्मण ने कहा, हे मित्रों, कृपया मेरा निवेदन सुनें। मुझे ठीक से स्मरण नहीं है कि मैंने ऐसा कोई वचन दिया था।
विप्र कहे,–'शुन, लोक, मोर निवेदन ।कबे कि बलियाछि, मोर नाहिक स्मरण' ॥
५७॥
वृद्ध ब्राह्मण ने कहा, हे मित्रों, कृपया मेरा निवेदन सुनें। मुझे ठीक से स्मरण नहीं है कि मैंने ऐसा कोई वचन दिया था।
एत शुनि' ताँर पुत्र वाक्य-च्छल पाजा ।प्रगल्भ हइया कहे सम्मुखे आसिजा ॥
५८॥
जब वृद्ध ब्राह्मण के पुत्र ने यह सुना, तो उसे शब्दों को तोड़नेमरोड़ने का अवसर मिल गया। वह सभा के समक्ष अत्यन्त धृष्टतापूर्वक खड़ा हो गया और इस प्रकार बोला।
‘तीर्थ-यात्राय पितार सङ्गे छिल बहु धन ।।धन देखि एइ दुष्टेर लैते हैल मन ॥
५९॥
जगह-जगह की तीर्थयात्रा करते समय मेरे पिता अपने साथ प्रचुर धन ले गये थे। इस धूर्त ने उस धन को ले लेने की ठान ली।
आर केह सङ्गे नाहि, एइ सङ्गे एकल ।। धुतुरा खाओयाञा बापे करिल पागल ॥
६०॥
मेरे पिता के साथ इसके अतिरिक्त अन्य कोई नहीं था। इस धूर्त ने मेरे पिता को धतूरा खिलाकर पागल बना दिया।
सब धन लञा कहे-‘चोरे लइल धन' ।। ‘कन्या दिते चाहियाछे'–उठाइल वचन ॥
६१ ॥
इस धूर्त ने मेरे पिता का सारा धन लेकर यह कह दिया कि उसे कोई चोर ले गया। अब वह यह दावा कर रहा है कि मेरे पिता ने उसे अपनी कन्या दान करने का वचन दिया है।
तोमरा सकल लोक करह विचारे । ‘मोर पितार कन्या दिते ग्रोग्य कि इहारे' ॥
६२॥
। यहाँ पर एकत्र आप सभी लोग सज्जन हैं। कृपया यह विचार करें क्या इस दरिद्र ब्राह्मण को मेरे पिता का कन्यादान उचित होगा? एत शुनि' लोकेर मने हइल संशय ।।‘सम्भवे,—धन-लोभे लोक छाड़े धर्म-भय' ॥
६३॥
ये सब तर्क सुनकर वहाँ पर एकत्र सारे लोग कुछ कुछ शंकित हो। गये। उन्होंने सोचा कि यह सम्भव है कि धन के लोभ से कोई अपना धर्म छोड़ दे।
तबे छोट-विप्र कहे, शुन, महाजन ।।न्याय जिनिबारे कहे असत्य-वचन ॥
६४॥
। उस समय तरुण ब्राह्मण ने कहा, हे सज्जनों, कृपया मेरी बात सुनें। तर्क में जीतने के लिए ही यह व्यक्ति झूठ बोल रहा है।
एइ विप्र मोर सेवाय तुष्ट ग्रबे हैला ।'तोरे आमि कन्या दिब' आपने कहिला ॥
६५॥
मेरी सेवा से अत्यधिक सन्तुष्ट होकर इस ब्राह्मण ने स्वेच्छा से मुझसे कहा कि, मैं तुम्हें अपनी कन्या दान करने का वचन देता हूँ।
तबे मुञि निषेधिनु, शुन, द्विज-वर ।।तोमार कन्यार योग्य नहि मुजि वर ॥
६६॥
। उस समय मैंने इनसे यह कहते हुए ऐसा करने से मना किया, हे। ब्राह्मण-श्रेष्ठ, मैं आपकी पुत्री के लिए योग्य वर नहीं हूँ।
काहाँ तुमि पण्डित, धनी, परम कुलीन ।।काहाँ मुञि दरिद्र, मूर्ख, नीच, कुल-हीन ॥
६७॥
कहाँ आप पंडित, धनी और उच्च कुली के व्यक्ति! कहाँ मैं एक गरीब, अशिक्षित तथा कुलहीन व्यक्ति।'
तबु एइ विप्र मोरे कहे बार बार ।।तोरे कन्या दिलँ, तुमि करह स्वीकार ॥
६८॥
फिर भी इस ब्राह्मण ने हठ किया। इन्होंने बारम्बार मुझसे यह कहते हुए प्रस्ताव स्वीकार करने को कहा, 'मैंने तुम्हें अपनी कन्या दे दी। तुम उसे स्वीकार करो।'
तबे आमि कहिलाँ–शुन, महा-मति । तोमार स्त्री-पुत्र-ज्ञातिर ना हबे सम्मति ॥
६९॥
तब मैंने कहा, 'कृपया मेरी बात सुनिये। आप विद्वान ब्राह्मण हैं। आपकी पत्नी, आपके मित्र तथा सम्बन्धी इस प्रस्ताव से कभी भी सहमत नहीं होंगे।
कन्या दिते नारिबे, हबे असत्य-वचन ।। पुनरपि कहे विप्र करिया ग्रतन ॥
७० ॥
मान्यवर, आप अपना वचन निभा नहीं पायेंगे। अतः आपका वचन अंग होगा।' फिर भी ये ब्राह्मण अपने वचन पर बारम्बार बल देते रहे।
कन्या तोरे दिलँ, द्विधा ना करिह चिते । आत्म-कन्या दिब, केबा पारे निषेधिते ॥
७1॥
मैंने तुम्हें कन्यादान दिया है। संकोच मत करो। वह मेरी पुत्री है और । मैं उसे तुम्हें दूंगा। भला मुझे कौन मना कर सकता है?' तबे आमि कहिलाँ दृढ़ करि' मन । गोपालेर आगे कह ए-सत्य वचन ॥
७२॥
उस समय मैंने अपना मन दृढ़ किया और ब्राह्मण से विनती की कि वे गोपाल-विग्रह के समक्ष वचन दें।
तबे इँहो गोपालेर आगेते कहिल ।। तुमि जान, एइ विप्रे कन्या आमि दिल ॥
७३॥
तब इस महाशय ने गोपाल-विग्रह के समक्ष कहा, 'हे प्रभु, आप साक्षी हैं। मैंने अपनी कन्या इस ब्राह्मण को दान दे दी है।
तबे आमि गोपालेरे साक्षी करिजा ।। कहिलाँ ताँर पदे मिनति करिञा ॥
७४॥
तब मैंने गोपाल-विग्रह को अपना साक्षी बनाकर उनके चरणकमलों में इस प्रकार निवेदन किया।
यदि एइ विप्र मोरे ना दिबे कन्या-दान ।। साक्षी बोलाइमु तोमाय, हइओ सावधान ॥
७५ ॥
यदि बाद में ये ब्राह्मण अपनी कन्या मुझे देने में संकोच करेंगे, तो मैं आपको साक्षी के रूप में बुलाऊँगा। कृपया इसे सावधान होकर सुनें।'
एइ वाक्ये साक्षी मोर आछे महाजन । ग्राँर वाक्य सत्य करि माने त्रिभुवन ॥
७६॥
इस तरह इस घटना में मैंने एक महापुरुष का आवाहन किया है। मैंने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को मेरा साक्षी बनने को कहा है। भगवान् के वचनों को तीनों लोक सत्य मानते हैं।
तबे बड़-विप्र कहे, एइ सत्य कथा । गोपाल यदि साक्षी देन, आपने आसि' एथा ॥
७७॥
तबे कन्या दिब आमि, जानिह निश्चय ।ताँर पुत्र कहे,–'एइ भाल बात हय' ॥
७८ ॥
। इस अवसर का लाभ उठाते हुए वृद्ध ब्राह्मण ने तुरन्त पुष्टि की कि यह वास्तव में सच है। उसने कहा, यदि स्वयं गोपाल साक्षी के रूप में यहाँ तक चलकर आयें, तो मैं इस तरुण ब्राह्मण को अपनी कन्या दान दे दूंगा। उस वृद्ध ब्राह्मण के पुत्र ने तुरन्त ही यह कहकर पुष्टि की, हाँ, यह बहुत ही उत्तम प्रस्ताव है।
बड़-विप्रेर मने,–'कृष्ण बड़ दयावान् ।अवश्य मोर वाक्य तेंहो करिबे प्रमाण' ॥
७९॥
उस वृद्ध ब्राह्मण ने सोचा, चूंकि भगवान् कृष्ण अत्यन्त दयालु हैं, वे निश्चय ही मेरे कथन को प्रमाणित करने हेतु आयेंगे।
पुत्रेर मने,–'प्रतिमा ना आसिबे साक्षी दिते' । एई बुद्ध्ये दुइ-जन हइला सम्मते ॥
८०॥
नास्तिक पुत्र ने सोचा, गोपाल के लिए यह सम्भव नहीं कि वे आकर साक्षी दें। ऐसा सोचकर पिता तथा पुत्र दोनों सहमत हो गये।
छोट-विप्र बले,—पत्र करह लिखन। पुनः ग्रेन नाहि चले ए-सब वचन' ॥
८१॥
तरुण विप्र ने अवसर पाकर कहा, कृपया यह बात एक कागज पर स्पष्ट रूप से लिख दें, जिससे फिर आप अपने वचनों को बदल न सकें।
तबे सब लोक मेलि' पत्र त' लिखिल । मुँहार सम्मति लञा मध्यस्थ राखिल ॥
८२॥
वहाँ पर एकत्र सारे लोगों ने यह बात कागज पर स्पष्ट रूप से अंकित करा दी और उन दोनों के हस्ताक्षर लेकर वे मध्यस्थ बन गये।
तबे छोट-विप्र कहे,—शुन, सर्व-जन । एइ विप्र सत्य-वाक्य, धर्म-परायण ॥
८३॥
तब तरुण ब्राह्मण ने कहा,यहाँ पर एकत्र सारे लोग कृपया मेरी बात सुनेंगे? यह वृद्ध ब्राह्मण निस्सन्देह सत्यवादी हैं और धर्म का पालन करने वाले हैं।
स्व-वाक्य छाड़िते इँहार नाहि कभु मन ।। स्वजन-मृत्यु-भये कहे असत्य-वचन ॥
८४॥
वे अपना वचन भंग करना नहीं चाहते थे, किन्तु इस भय से कि उसके सम्बन्धी आत्महत्या न कर लें, सत्य के पथ से विचलित हो गये।
इँहार पुण्ये कृष्णे आनि' साक्षी बोलाइब ।।तबे एइ विप्रेर सत्य-प्रतिज्ञा राखिब ॥
८५॥
मैं इस ब्राह्मण के पुण्य के बल पर भगवान् को साक्षी के रूप में बुलाऊँगा और इसके सत्य वचन की रक्षा करूंगा।
एत शुनि' नास्तिक लोक उपहास करे ।केह बले, ईश्वर दयालु, आसितेह पारे ॥
८६॥
उस तरुण विप्र के ऐसे दृढ़ वचन सुनकर उस सभा में उपस्थित कुछ नास्तिक उसका उपहास करने लगे। किन्तु किसी एक ने कहा, अन्ततः ईश्वर दयालु हैं और चाहें तो आ सकते हैं।
तबे सेइ छोट-विप्र गेला वृन्दावन ।।दण्डवत्करि' कहे सब विवरण ॥
८७॥
सभा समाप्त होने पर वह तरुण ब्राह्मण वृन्दावन के लिए चल पड़ा। वहाँ पहुँचकर सर्वप्रथम उसने विग्रह को सादर दंडवत् प्रणाम किया और फिर विस्तार से सारा वृत्तान्त कह सुनाया।
ब्रह्मण्य-देव तुमि बड़ दया-मय ।दुइ विप्रेर धर्म राख हा सदय ॥
८८॥
उसने कहा, हे प्रभु, आप ब्राह्मण संस्कृति के रक्षक हैं और आप अत्यन्त दयावान भी हैं। अतएव आप हम दोनों ब्राह्मणों के धर्म की रक्षा करके अपनी परम दया प्रदर्शित करें।
कन्या पाब,—मोर मने इहा नाहि सुख ।ब्राह्मणेर प्रतिज्ञा ग्राय एई बड़े दुःख ॥
८९॥
हे प्रभु, मैं उसकी कन्या को पत्नी रूप में पाकर सुखी बनने की बात नहीं सोच रहा। मैं तो यह सोच रहा हूँ कि उस ब्राह्मण ने अपना वचन तोड़ा है-यही बात मुझे अत्यधिक पीड़ा पहुँचा रही है।"
एत जानि' तुमि साक्षी देह, दया-मय ।।जानि' साक्षी नाहि देय, तार पाप हय ॥
९० ॥
उस तरुण ब्राह्मण ने आगे कहा, हे प्रभु, आप अत्यन्त कृपालु तथा सर्वज्ञ हैं। अतएव कृपया इस मामले में साक्षी बनें। जो व्यक्ति सही बातें जानते हुए भी साक्षी नहीं बनता, वह पापकर्म का भागी होता है।
कृष्ण कहे, विप्र, तुमि ग्राह स्व-भवने । सभा करि' मोरे तुमि करिह स्मरणे ॥
९१॥
कृष्ण ने उत्तर दिया, हे ब्राह्मण, तुम अपने घर लौट जाओ और वहाँ सारे लोगों को बुलाकर एक सभा करो। उस सभा में तुम मेरा स्मरण मात्र करना।
आविर्भाव हा आमि ताहाँ साक्षी दिब । तबे दुइ विप्रेर सत्य प्रतिज्ञा राखिब ॥
९२॥
मैं वहाँ निश्चित रूप से प्रकट होऊँगा और उस समय मैं दिए हुए वचन का साक्षी बनकर तुम दोनों के सम्मान की रक्षा करूंगा।
विप्र बले, यदि हओ चतुर्भुज-मूर्ति ।। तबु तोमार वाक्ये कारु ना हबे प्रतीति ॥
९३॥
तरुण ब्राह्मण ने उत्तर दिया, हे प्रभु, भले ही आप चतुर्भुज विष्णु । रूप में क्यों न प्रकट हों, तब भी उन लोगों में से कोई भी आपके वाक्यों पर विश्वास नहीं करेगा।
एइ मूर्ति गिया यदि एइ श्री-वदने । साक्षी देह यदि तबे सर्व-लोक शुने ॥
९४॥
किन्तु यदि आप इसी गोपाल-रूप में वहाँ चलें और अपने श्रीमुख से कहें, तभी आपकी साक्षी सभी लोगों द्वारा सुनी जायेगी।
कृष्ण कहे, प्रतिमा चले, कोथाह ना शुनि ।।विप्र बले,–प्रतिमा हञा कह केने वाणी ॥
९५॥
। भगवान् कृष्ण ने कहा, मैंने आज तक किसी विग्रह को एक स्थान से दूसरे स्थान तक चलकर जाते नहीं सुना। ब्राह्मण ने कहा, यह सत्य है, किन्तु यह कैसे सम्भव हो रहा है कि आप विग्रह होकर भी मुझसे बातें कर रहे हैं।
प्रतिमा नह तुमि साक्षात्व्रजेन्द्र-नन्दन । विप्र लागि' कर तुमि अकार्य-करण ॥
१६॥
। । हे प्रभु, आप मूर्ति नहीं हैं, आप तो साक्षात् महाराज नन्द के पुत्र हैं। आप उस वृद्ध ब्राह्मण के लिए आप ऐसा कुछ कर सकते हैं, जो आपने अभी तक न किया हो।
हासिबा गोपाल कहे,–शुनह, ब्राह्मण । तोमार पाछे पाछे आमि करिब गमन ॥
९७॥
श्री गोपाल ने मुस्कराते हुए कहा, हे प्रिय ब्राह्मण, मेरी बात सुनो। मैं तुम्हारे पीछे-पीछे चलूंगा और इस तरह तुम्हारे साथ चलूंगा।
उलटिया आमा तुमि ना करिह दरशने । आमाके देखिले, आमि रहिब सेइ स्थाने ॥
९८॥
भगवान् ने कहा, तुम मुझे मुड़कर देखने का प्रयत्न मत करना। अन्यथा तुम ज्योंहीं मेरी ओर देखोगे, मैं उसी स्थान पर स्थिर हो जाऊँगा।
नूपुरेर ध्वनि-मात्र आमार शुनिबा । सेइ शब्दे आमार गमन प्रतीति करिबा ॥
९९॥
। तुम मेरे नुपुर की ध्वनि से जानोगे कि मैं तुम्हारे पीछे-पीछे चल रहा हूँ।
एक-सेर अन्न रान्धि' करिह समर्पण ।। ताहा खाजा तोमार सङ्गे करिब गमन ॥
१००॥
प्रतिदिन एक किलो चावल पकाकर मुझे अर्पित करना। मैं उसी चावल को खाऊँगा और तुम्हारे पीछे-पीछे चलूंगा।
आर दिन आज्ञा मागि' चलिला ब्राह्मण । तार पाछे पाछे गोपाल करिला गमन ॥
१०१॥
अगले दिन ब्राह्मण ने गोपाल से आज्ञा माँगी और वह अपने देश के लिए चल पड़ा। गोपाल भी उसके पीछे-पीछे चल पड़े।
नूपुरेर ध्वनि शुनि' आनन्दित मन ।। उत्तमान्न पाक करि' कराय भोजन ॥
१०२॥
जब गोपाल उस तरुण ब्राह्मण के पीछे चल रहे थे, तो उनके नुपुरों की रूनझुन ध्वनि सुनाई पड़ने लगी। वह ब्राह्मण अत्यधिक प्रसन्न हुआ और उसने उत्तम चावल गोपाल के भोग के लिए पकाया।
एइ-मते चलि' विप्र निज-देशे आइला ।। ग्रामेर निकट आसि' मनेते चिन्तिला ॥
१०३ ॥
इस प्रकार यह तरुण ब्राह्मण चलता रहा, जब तक कि वह अपने देश में नहीं पहुँच गया। जब वह अपने गाँव के निकट पहुँचा, तो वह इस प्रकार सोचने लगा।
‘एबे मुजि ग्रामे आइनु, ग्राइमु भवन । लोकेरे कहिब गिया साक्षीर आगमन ॥
१०४॥
अब मैं अपने गाँव पहुँच चुका हूँ और अपने घर जाकर सभी लोगों को बतलाऊँगा कि साक्षी आ गया है।
साक्षाते ना देखिले मने प्रतीति ना हय ।।इहाँ ग्रदि रहेन, तबु नाहि किछु भय' ॥
१०५ ॥
उस ब्राह्मण ने सोचा कि यदि गाँव वाले गोपाल-विग्रह का प्रत्यक्ष दर्शन नहीं करेंगे, तो उन्हें विश्वास नहीं होगा कि गोपाल आ गये हैं। उसने सोचा, किन्तु यदि गोपाल यहीं पर ही रह जाएँ, तो भी डर की कोई बात नहीं है।
एत भावि' सेइ विप्र फिरिया चाहिल । हासिआ गोपाल-देव तथाय रहिल ॥
१०६॥
तब उस ब्राह्मण ने अपने गाँव जाकर सबको गोपाल के आगमन की जानकारी दी। यह सुनकर सारे लोग आश्चर्यचकित हो उठे।
ब्राह्मणेरे कहे,–तुमि ग्राह निज-घर । एथाय रहिब आमि, ना ग्राब अत:पर ॥
१०७॥
भगवान् ने ब्राह्मण से कहा, अब तुम घर जा सकते हो। मैं यहीं रुकेंगा और कहीं नहीं जाऊँगा।
तबे सेइ विप्र झाइ नगरे कहिल। शुनिआ सकल लोक चमत्कार हैल ॥
१०८॥
यह सोचकर वह देखने के लिए पीछे मुड़ा और उसने देखा कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् गोपाल मुसकाते हुए वहाँ खड़े थे।
आइल सकल लोक साक्षी देखिबारे ।गोपाल देखि लोक दण्डवत् करे ॥
१०९॥
गाँव के सारे वासी साक्षीगोपाल को देखने गये और जब उन्होंने सचमुच भगवान् को खड़े देखे, तो सबने उन्हें सादर दंडवत् प्रणाम किया।
गोपाल-सौन्दर्य देखि' लोके आनन्दित ।प्रतिमा चलिञा आइला, शुनिआ विस्मित ॥
११०॥
लोग गोपाल की सुन्दरता देखकर अत्यधिक प्रसन्न थे और जब उन लोगों ने यह सुना कि वे सचमुच चलकर आये हैं, तो उन सबके आश्चर्य का ठिकाना न रहा।
तबे सेइ बड़-विप्र आनन्दित हजा।गोपालेर आगे पड़े दण्डवत् हा ॥
१११॥
तब वह वृद्ध ब्राह्मण भी परम आनन्दित होकर गोपाल के सआया और तुरन्त ही दण्ड के समान पृथ्वी पर गिर पड़ा।
सकल लोकेर आगे गोपाल साक्षी दिल ।बड़-विप्र छोट-विप्रे कन्या-दान कैल ॥
११२॥
इस तरह गाँव-भर के निवासियों के समक्ष गोपाल इसके साक्षी कि उस वृद्ध ब्राह्मण ने तरुण ब्राह्मण को अपनी कन्या दान में दी थी।
तबे सेइ दुई विप्रे कहिल ईश्वर ।।तुमि-दुइ–जन्मे-जन्मे आमार किङ्कर ॥
११३॥
विवाह सम्पन्न हो जाने के बाद भगवान् ने उन दोनों ब्राह्मण बतलाया, तुम दोनों ब्राह्मण जन्म-जन्मांतर से मेरे सनातन दास हो।
मुँहार सत्ये तुष्ट हइलाँ, मुँहे माग' वर ।।दुइ-विप्र वर मागे आनन्द-अन्तर ॥
११४॥
भगवान् ने कहा, मैं तुम दोनों की सच्चाई से अतीव प्रसन्न हुआ हूँ। अब तुम वर माँग सकते हो। इस तरह दोनों ब्राह्मणों ने अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक वर माँगा।
यदि वर दिबे, तबे रह एइ स्थाने ।किङ्करेरे दया तव सर्व-लोके जाने ॥
११५॥
उन ब्राह्मणों ने कहा, कृपा करके आप यहीं रहें, जिससे सारे संसार के लोग जान सकें कि आप अपने सेवकों पर कितने कृपालु हैं।
गोपाल रहिला, मुँहे करेन सेवन । देखिते आइला सब देशेर लोक-जन ॥
११६॥
भगवान् गोपाल वहीं रहने लगे और दोनों ब्राह्मण उनकी सेवा में लग गये। यह घटना सुनकर विभिन्न देशों से अनेक लोग गोपाल का दर्शन मरने के लिए आने लगे।
से देशेर राजा आइल आश्चर्य शुनि । परम सन्तोष पाइल गोपाले देखिञा ॥
११७॥
अन्त में उस देश के राजा ने यह आश्चर्यजनक कथा सुनी, तो वह भी गोपाल का दर्शन करने के लिए आया और अत्यन्त सन्तुष्ट हुआ।
मन्दिर करिया राजा सेवा चालाइल ।। ‘साक्षि-गोपाल' बलि' ताँर नाम ख्याति हैल ॥
११८॥
उस राजा ने एक सुन्दर मन्दिर बनवा दिया और नियमित सेवा प्रारम्भ करवाई। गोपाल साक्षीगोपाल के नाम से अत्यन्त विख्यात हो गये।
एइ मत विद्यानगरे साक्षि-गोपाल । सेवा अङ्गीकार करि' आछेन चिर-काल ॥
११९॥
इस प्रकार साक्षीगोपाल ने विद्यानगर में रहकर दीर्घकाल तक सेवा स्वीकार की।
उत्कलेर राजा पुरुषोत्तम-देव नाम ।सेइ देश जिनि' निल करिया सङ्ग्राम ॥
१२० ॥
बाद में युद्ध हुआ जिसमें उड़ीसा के राजा पुरुषोत्तम देव ने इस देश को जीत लिया।
सेइ राजा जिनि' निल ताँर सिंहासन ।‘माणिक्य-सिंहासन' नाम अनेक रतन ॥
१२१॥
। । उस राजा ने विद्यानगर के राजा को हरा दिया और उसके माणिक्य सिंहासन' नामक सिंहासन को अपने अधिकार में कर लिया, जिसमें अनेक रत्न जड़े हुए थे।
पुरुषोत्तम-देव सेइ बड़ भक्त आर्य । गोपाल-चरणे मागे,–'चल मोर राज्य' ॥
१२२॥
उस राजा का नाम पुरुषोत्तम देव था। वह महान् भक्त था और आई। सभ्यता में अग्रसर था। उसने गोपाल के चरणकमलों पर याचना की, कृपा करके मेरे राज्य में चलें।
ताँर भक्ति-वशे गोपाल तौरै आज्ञा दिल ।। गोपाल लइया सेइ कटके आइल ॥
१२३॥
जब राजा ने गोपाल से अपने राज्य में चलने के लिए प्रार्थना की, तो गोपाल ने उसकी भक्ति के वश में होकर उसकी प्रार्थना स्वीकार का ली। इस तरह गोपाल-विग्रह को वह राजा अपने साथ लेकर कटक लौह गया।
जगन्नाथे आनि' दिल माणिक्य-सिंहासन ।। कटके गोपाल-सेवा करिल स्थापन ॥
१२४॥
माणिक्य सिंहासन को जीतकर राजा पुरुषोत्तम देव उसे जगन्नाथ पुरी ले आया और उसने उसे जगन्नाथ भगवान् को समर्पित कर दिया। इस पीच उसने कटक में गोपाल की नियमित पूजा भी स्थापित की।
ताँहार महिषी आइला गोपाल-दर्शने । भक्ति करि' बहु अलङ्कार कैल समर्पणे ॥
१२५॥
जब गोपाल-विग्रह की स्थापना कटक में हो गई, तो पुरुषोत्तम देव की रानी उनका दर्शन करने गईं और उसने अत्यन्त भक्ति के साथ अनेक प्रकार के आभूषण भेंट किये।
ताँहार नासाते बहु-मूल्य मुक्ता हय । ताहा दिते इच्छा हैल, मनेते चिन्तय ॥
१२६॥
रानी ने अपनी नाक में अति मूल्यवान मोती पहन रखा था, जिसे वह गोपाल को भेंट करना चाह रही थी। तब वह इस प्रकार सोचने लगी।
ठाकुरेर नासाते ग्रदि छिद्र थाकित । तबे एइ दासी मुक्ती नासाय पराइत ॥
१२७॥
। यदि विग्रह की नाक में छेद होता, तो मैं अपना मोती उन्हें पहना सकती थी।
एत चिन्ति' नमस्करि' गेला स्व-भवने । रात्रि-शेषे गोपाल ताँरे कहेन स्वपने ॥
१२८॥
यह विचार करके रानी ने गोपाल को नमस्कार किया और वह अपने महल लौट आई। उस रात उसने सपना देखा कि गोपाल प्रकट हुए हैं। और उससे कह रहे हैं।
बाल्य-काले माता मोर नासा छिद्र करि' । मुक्ता पराञाछिल बहु ग्रन करि' ॥
१२९॥
बचपन में मेरी माता ने मेरी नाक में छेद करके उसमें बड़े यत्न से एक मोती पहनाया था।
सेइ छिद्र अद्यापिह आछये नासाते ।सेइ मुक्ता पराह, ग्राहा चाहियाछ दिते ॥
१३०॥
वह छेद अब भी है। चाहो तो तुम इस छेद का प्रयोग उस मोती को पहनाने के लिए कर सकती हो जिसे तुम मुझे देना चाहती थी।
स्वप्ने देखि' सेइ राणी राजाके कहिल । राजा-सह मुक्ता लञा मन्दिरे आइल ॥
१३१॥
यह सपना देखने के बाद रानी ने अपने राजा पति से इसकी चर्चा की। तब राजा तथा रानी दोनों ही वह मोती लेकर मन्दिर में गये।
पराइल मुक्ता नासाय छिद्र देखिञा ।महा-महोत्सव कैल आनन्दित हा ॥
१३२॥
विग्रह की नाक में छेद देखकर उन्होंने वह मोती वहाँ पहना दिया और अत्यधिक प्रसन्न होकर उन्होंने विशाल उत्सव का आयोजन किया।
सेइ हैते गोपालेर कटकेते स्थिति ।।एइ लागि ‘साक्षि-गोपाल' नाम हैल ख्याति ॥
१३३॥
। तभी से गोपाल कटक नगर में विराजमान हैं और तभी से वे साक्षीगोपाल नाम से विख्यात हैं।
नित्यानन्द-मुखे शुनि' गोपाल-चरित ।।तुष्ट हैला महाप्रभु स्वभक्त-सहित ॥
१३४॥
इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने गोपाल की लीलाओं को सुना। इससे वे तथा उनके भक्त अत्यन्त सन्तुष्ट हुए।
गोपालेर आगे बे प्रभुर हय स्थिति ।।भक्त-गणे देखे ग्रेन हे एक-मूर्ति ॥
१३५ ॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु गोपाल-विग्रह के समक्ष बैठे हुए थे, तो सारे भक्तों ने उन्हें तथा विग्रह को एकरूप देखा।
मुँहे—एक वर्ण, मुँहे प्रकाण्ड-शरीर ।मुँहे रक्ताम्बर, मुँहार स्वभाव-गम्भीर ॥
१३६॥
दोनों एक ही वर्ण के तथा एक जैसे विराट शरीर वाले थे। दोनों ने केसरिया वस्त्र पहन रखा था और दोनों ही गम्भीर थे।
महा-तेजोमय है कमल-नयन ।मुँहार भावावेश, मुँहे–चन्द्र-वदन ॥
१३७॥
भक्तों ने देखा कि चैतन्य महाप्रभु तथा गोपाल दोनों ही दीप्तिमान तेज से युक्त थे और दोनों के नेत्र कमल जैसे थे। दोनों ही भाव में मग्न थे और उनके मुखमण्डल पूर्णचन्द्रमा सदृश थे।
मुँहा देखि' नित्यानन्द-प्रभु महा-रङ्गे।। ठाराठारि करि' हासे भक्त-गण-सङ्गे ॥
१३८॥
जब श्री नित्यानन्द ने श्री चैतन्य महाप्रभु तथा गोपाल-विग्रह दोनों को इस तरह देखा, तो वे भक्तों से परिहास करने लगे जो सबके सब मुस्कुरा रहे थे।
एइ-मत महा-रङ्गे से रात्रि वञ्चिया ।प्रभाते चलिला मङ्गल-आरति देखिञा ॥
१३९॥
इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने मन्दिर में वह रात बड़े ही आनन्द से बिताई। प्रातःकालीन मंगल आरती देखने के बाद उन्होंने अपनी यात्रा आरम्भ की।
भुवनेश्वर-पथे ग्रैछे कैल दरशन । विस्तारि' वणियाछेन दास-वृन्दावन ॥
१४०॥
श्रील वृन्दावन दास ठाकुर ने ( अपनी पुस्तक चैतन्य भागवत में) श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा भुवनेश्वर जाते समय देखे गये स्थानों का विस्तार से वर्णन किया है।
कमलपुरे आसि भार्गीनदी-स्नान कैल।।नित्यानन्द-हाते प्रभु दण्ड धरिल ॥
१४१॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु कमलपुर पहुँचे, तो उन्होंने भार्गीनदी में स्नान किया। स्नानार्थ जाते समय वे अपना संन्यास-दंड नित्यानन्द प्रभु को देते गये।
कपोतेश्वर देखिते गेला भक्त-गण सङ्गे। एथा नित्यानन्द-प्रभु कैल दण्ड-भङ्गे ॥
१४२॥
तिने खण्ड करि' दण्ड दिल भासा ।।भक्त-सङ्गे आइला प्रभु महेश देखिञा ॥
१४३॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु कपोतेश्वर नामक शिव-मन्दिर में गये, तब नित्यानन्द प्रभु ने अपने पास रखे उनके संन्यास-दण्ड के तीन खण्ड करके भार्गी नदी में फेंक दिया। बाद में यह नदी दण्ड-भांगा-नदी कहलाने लगी।
जगन्नाथेर देउल देखि' आविष्ट हैला ।दण्डवत्करि प्रेमे नाचिते लागिला ॥
१४४॥
दूर से ही जगन्नाथ के मन्दिर को देखकर श्री चैतन्य महाप्रभु तुरन्त भावाविष्ट हो गये। मन्दिर को दंडवत् प्रणाम करने के बाद वे प्रेमावेश में नृत्य करने लगे।
भक्त-गण आविष्ट हबा, सबे नाचे गाय।। प्रेमावेशे प्रभु-सङ्गे राज-मार्गे ग्राये ॥
१४५॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ साथ सारे भक्त भी भावाविष्ट हो गये और इस तरह भगवत्प्रेम में मग्न होकर वे मुख्य मार्ग पर जाते हुए नाचने तथा गाने लगे।
हासे, कान्दे, नाचे प्रभु हुङ्कार गर्जन । तिन-क्रोश पथ हैल—सहस्र ग्रोजन ॥
१४६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु हँसते, रोदन करते, नाचते तथा भाव में आकर हुँकार कर रहे थे। यद्यपि मन्दिर केवल छह मील दूरी पर था, किन्तु उन्हें यह दूरी हजारों मील लगी।
चलिते चलते प्रभु आइला 'आठारनाला' ।ताहाँ आसि' प्रभु किछु बाह्य प्रकाशिला ॥
१४७॥
इस तरह चलते-चलते महाप्रभु आठारनाला नामक स्थान पर पहुँचे। वहाँ आकर उन्होंने श्री नित्यानन्द प्रभु से बातें करते हुए अपनी बाह्य चेतना व्यक्त की।
नित्यानन्दे कहे प्रभु,—देह मोर दण्ड ।।नित्यानन्द बले, दण्ड हैल तिन खण्ड ॥
१४८॥
। जब श्री चैतन्य महाप्रभु को बाह्य चेतना आई, तो उन्होंने श्री नित्यानन्द प्रभु से कहा, मेरा दण्ड लौटा दो। तब नित्यानन्द प्रभु ने उत्तर दिया, उसके तो तीन खण्ड हो गये हैं।
प्रेमावेशे पड़िला तुमि, तोमारे धरिनु ।तोमा-सह सेइ दण्ड-उपरे पड़िनु ॥
१४९॥
नित्यानन्द प्रभु ने कहा, जब आप भावावेश में गिरे, तो मैंने आपको पकड़ा, किन्तु हम दोनों ही उस दण्ड पर गिर पड़े।
दुइ-जनार भरे दण्ड खण्ड खण्ड हैल ।सेइ खण्ड काँहा पड़िल, किछु ना जानिल ॥
१५०॥
इस तरह वह दण्ड हम लोगों के भार से टूट गया। मैं नहीं जानता कि उसके टुकड़े कहाँ गये।
मोर अपराधे तोमार दण्ड हइल खण्ड ।ये उचित हय, मोर कर तार दण्ड ॥
१५१॥
आपका दण्ड निश्चित रूप से मेरे अपराध के कारण टूटा है। अब आप जो उचित समझें, मुझे दण्ड दें।
शुनि' किछु महाप्रभु दुःख प्रकाशिला ।।ईषत् क्रोध करि' किछु कहिते लागिला ॥
१५२॥
जिस तरह से उनका दण्ड टूटा था, उसकी कहानी सुनकर महाप्रभु ने थोड़ा दुःख प्रकट किया और कुछ क्रोध में आकर वे इस प्रकार बोले।
नीलाचले आनि' मोर सबे हित कैला ।। सबे दण्ड-धन छिल, ताहा नो राखिला ॥
१५३ ॥
चैतन्य महाप्रभु ने कहा, आप लोगों ने मुझे नीलांचल लाकर मुझ पर उपकार किया है। किन्तु वह दण्ड मेरा एकमात्र धन था, जिसे आप लोग संभालकर नहीं रख पाये।
तुमि-सब आगे ग्राह ईश्वर देखिते । किबा आमि आगे ग्राइ, ना ग्राब सहिते ॥
१५४॥
अतएव आप सारे लोग या तो मुझसे पहले या मेरे बाद भगवान् जगन्नाथ का दर्शन करने जाओ। मैं आप लोगों के साथ नहीं जाऊँगा।
मुकुन्द दत्त कहे,—प्रभु, तुमि ग्राह आगे ।।आमि-सब पाछे ग्राब, ना ग्राब तोमार सङ्गे ॥
१५५ ॥
मुकुन्द दत्त ने श्री चैतन्य महाप्रभु से कहा, हे प्रभु, आप आगे आगे चलें और अन्यों को पीछे-पीछे चलने की अनुमति दें। हम आपके साथ। साथ नहीं जायेंगे।
एत शुनि' प्रभु आगे चलिला शीघ्र-गति ।।बुझिते ना पारे केह दुइ प्रभुर मति ॥
१५६॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु अन्य सभी भक्तों के आगे-आगे शीघ्रता से चलने लगे। कोई भी दोनों प्रभुओं-चैतन्य महाप्रभु तथा नित्यानन प्रभु-के वास्तविक उद्देश्य को नहीं समझ सका।
इँहो केने दण्ड भाङ्गे, तेंहो केने भाङ्गाय ।भाङ्गाजा क्रोधे तेंहो इँहाके दोषाय ॥
१५७॥
भक्तगण यह नहीं समझ पाये कि नित्यानन्द प्रभु ने दण्ड क्यों तोड़ा, महाप्रभु ने उन्हें ऐसा क्यों करने दिया और ऐसा करने देने के बाद अब महाप्रभु क्रुद्ध क्यों हो गये।
दण्ड-भङ्ग-लीला एइ–परम गम्भीर ।सेइ बुझे, मुँहार पदे ग्राँर भक्ति धीर ॥
१५८॥
दण्डभंग लीला अत्यन्त गम्भीर है। इसे वही समझ सकता है, जिसकी दोनों प्रभुओं के चरणकमलों पर दृढ़ भक्ति हो।
ब्रह्मण्य-देव-गोपालेर महिमा एइ धन्य ।। नित्यानन्द–वक्ता ग्रार, श्रोता-श्री-चैतन्य ॥
१५९॥
ब्राह्मणों पर कृपालु रहने वाले भगवान् गोपाल की महिमा अपार ।। साक्षीगोपाल की यह कथा नित्यानन्द प्रभु द्वारा सुनाई गई और इसके श्रोता थे श्री चैतन्य महाप्रभु।
श्रद्धा-युक्त हा इहा शुने ग्रेइ जन ।।अचिरे मिलये तारे गोपाल-चरण ॥
१६० ॥
जो व्यक्ति श्रद्धा तथा प्रेमपूर्वक गोपाल के इस आख्यान को सुनता है, उसे शीघ्र ही गोपाल के चरणकमल प्राप्त होते हैं।
श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश ।चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
१६१॥
श्री रूप और श्री रघुनाथ के चरणकमलों की वन्दना करते हुए तथा । उनकी कृपा की सदैव कामना करते हुए मैं कृष्णदास उनके चरणचिह्नों पर चलते हुए श्री चैतन्य-चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।
अध्याय छह: सार्वभौम भट्टाचार्य की मुक्ति
नौमि तं गौरचन्द्रं यः कुतर्क-कर्कशाशयम् ।सार्वभौमं सर्व-भूमा भक्ति-भूमीनमाचरत् ॥
१॥
मैं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् गौरचन्द्र को सादर नमस्कार करता हूँ, जिन्होंने सारे कुतर्को के आगार, कठोर हृदय वाले सार्वभौम भट्टाचार्य को महान् भक्त में बदल दिया।
जय जय गौरचन्द्र जय नित्यानन्द । जयाद्वैतचन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ॥
२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! श्री अद्वैत आचार्य की जय हो! श्री चैतन्य महाप्रभु के भक्तों की जय हो! आवेशे चलिला प्रभु जगन्नाथ-मन्दिरे ।। जगन्नाथ देखि' प्रेमे हइला अस्थिरे ॥
३॥
श्री चैतन्य महाप्रभु भावावेश में आठारनाला से जगन्नाथ मन्दिर गये। वहाँ जगन्नाथ भगवान् का दर्शन करके वे भगवत्प्रेमवश अत्यन्त व्याकुल हो उठे।
जगन्नाथ आलिङ्गिते चलिला धाञा । मन्दिरे पड़िला प्रेमे आविष्ट हा ॥
४॥
भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु तेजी से भगवान जगन्नाथ का आलिंगन करने गये, किन्तु मन्दिर में प्रवेश करने के बाद वे भगवत्प्रेम में इतने विभोर हो गये कि वे भूमि पर मूर्छित होकर गिर पड़े।
दैवे सार्वभौम ताँहाके करे दरशन । पड़िछा मारिते तेंहो कैल निवारण ॥
५॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु गिर पड़े, तब दैववश सार्वभौम भट्टाचार्य ने उन्हें देख लिया। जब सुरक्षाकर्मी ने महाप्रभु को मारने की धमकी दी, तो सार्वभौम भट्टाचार्य ने तुरन्त उसे मना कर दिया।
प्रभुर सौन्दर्य आर प्रेमेर विकार ।।देखि’ सार्वभौम हैला विस्मित अपार ॥
६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की सुन्दरता तथा भगवत्प्रेम के कारण उनके शरीर में उत्पन्न दिव्य विकारों को देखकर सार्वभौम भट्टाचार्य को अत्यधिक आश्चर्य हुआ।
बहु-क्षणे चैतन्य नहे, भोगेर काल हैल । सार्वभौम मने तबे उपाय चिन्तिल ॥
७॥
श्री चैतन्य महाप्रभु अधिक समय तक अचेतन पड़े रहे। तभी भगवान जगन्नाथ को भोग लगाने का समय हो गया और भट्टाचार्य कुछ उपाय सोचने लगे।
शिष्य पड़िछा-द्वारा प्रभु निल वहाजा ।। घरे आनि' पवित्र स्थाने राखिल शोयाजा ।। ८॥
सार्वभौम भट्टाचार्य सुरक्षाकर्मी तथा कुछ शिष्यों की सहायता से भी चैतन्य महाप्रभु को अचेत अवस्था में ही अपने घर ले आये और उन्हें एक अत्यन्त पवित्र स्थान में लिटा दिया।
श्वास-प्रश्वास नाहि उदर-स्पन्दन । देखिया चिन्तित हैल भट्टाचार्येर मन ॥
९॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के शरीर की परीक्षा करने पर सार्वभौम ने देखा कि न तो उनका उदर गति कर रहा है न ही वे श्वास ले रहे हैं। उनकी यह दशा देखकर भट्टाचार्य अत्यन्त चिन्तित हो उठे।
सूक्ष्म तुला आनि' नासा-अग्रेते धरिल ।। ईषत चलये तुला देखि' धैर्य हैल ॥
१०॥
भट्टाचार्य ने बारीक रुई का फोहा लिया और उसे महाप्रभु के नासिका के सामने रखा। जब उन्होंने देखा कि रुई कुछ-कुछ हिल रही है, तो उन्हें कुछ आशा बँधी।
वसि' भट्टाचार्य मने करेन विचार । एइ कृष्ण-महाप्रेमेर सात्त्विक विकार ॥
११॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के पास बैठकर उन्होंने सोचा, यह दिव्य ऊर्मिपृर्ण परिवर्तन ( सात्त्विक विकार) कृष्ण-प्रेम के कारण हुआ है।
'सूद्दीप्त सात्त्विक' एइ नाम ग्रे ‘प्रलय' ।।नित्य-सिद्ध भक्ते से ‘सूद्दीप्त भाव' होय ॥
१२॥
सूद्दीप्त सात्त्विक के लक्षण देखकर सार्वभौम भट्टाचार्य को समझते देर न लगी कि चैतन्य महाप्रभु के शरीर में दिव्य भावावेश (सूद्दीप्त भाव ) हुआ है। ऐसा लक्षण केवल नित्यसिद्ध भक्तों के शरीरों में ही दिखा करता ।
‘अधिरूढ़ भाव' याँर, ताँर ए विकार ।मनुष्येर देहे देखि,—बड़ चमत्कार ॥
१३॥
सार्वभौम भट्टाचार्य ने विचार किया, श्री चैतन्य महाप्रभु के शरीर में अधिरूढ भाव के असाधारण दिव्य लक्षण प्रकट हो रहे हैं। यह बड़ा आश्चर्यजनक है! भला मनुष्य के शरीर में ये किस तरह सम्भव हैं? एत चिन्ति' भट्टाचार्य आछेन वसिया ।।नित्यानन्दादि सिंह-द्वारे मिलिल आसिया ॥
१४॥
जब भट्टाचार्य अपने घर में इस प्रकार विचार कर रहे थे, तब नित्यानन्द प्रभु समेत चैतन्य महाप्रभु के सारे भक्त मन्दिर के सिंह-द्वार ( प्रवेश-द्वार) के निकट पहुँचे।
ताँहा शुने लोके कहे अन्योन्ये बात् ।एक सन्यासी आसि' देखि' जगन्नाथ ॥
१५॥
वहाँ पर इन भक्तों ने लोगों को एक संन्यासी के बारे में बातें करते सुना, जो जगन्नाथ पुरी आया था और जिसने जगन्नाथ विग्रह के दर्शन किये थे।
मूर्च्छित हैल, चेतन ना हय शरीरे । सार्वभौम लञा गेला आपनार घरे ॥
१६॥
लोग कह रहे थे कि वह संन्यासी जगन्नाथ के विग्रह का दर्शन करने पर मूर्छित हो गया। चूँकि उसको होश नहीं आया, इसलिए सार्वभौम भट्टाचार्य उसे अपने घर ले गये।
शुनि' सबै जानिला एइ महाप्रभुर कार्य । हेन-काले आइला ताहाँ गोपीनाथाचार्य ॥
१७॥
यह सुनकर भक्तगण समझ गये कि वे लोग श्री चैतन्य महाप्रभु के बारे में बातें कर रहे हैं। तभी श्री गोपीनाथ आचार्य वहाँ आये।
नदीया-निवासी, विशारदेर जामाता । महाप्रभुर भक्त तेहो प्रभु-तत्त्वज्ञाता ॥
१८॥
गोपीनाथ आचार्य नदिया के निवासी, विशारद के दामाद तथा चैतन्य महाप्रभु के भक्त थे। वे महाप्रभु की वास्तविक पहचान को जानते थे।
मुकुन्द-सहित पूर्वे आछे परिचय ।।मुकुन्द देखिया ताँर हइल विस्मय ॥
१९॥
गोपीनाथ आचार्य पहले से मुकुन्द दत्त को जानते थे; अतएव जब उन्होंने मुकुन्द दत्त को जगन्नाथ पुरी में देखा, तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा।
मुकुन्द ताँहारे देखि' कैल नमस्कार ।तेहो आलिङ्गिया पुछे प्रभुर समाचार ॥
२० ॥
जब मुकुन्द दत्त गोपीनाथ आचार्य से मिलें, तो उन्होंने उन्हें नमस्कार किया। उनका आलिंगन करने के बाद गोपीनाथ आचार्य ने श्री चैतन्य महाप्रभु के विषय में पूछा।
मुकुन्द कहे,—प्रभुर इहाँ हैल आगमने ।। आमि-सब आसियाछि महाप्रभुर सने ॥
२१॥
मुकुन्द दत्त ने उत्तर दिया, महाप्रभु तो पहले ही यहाँ आ चुके हैं। हम उन्हीं के साथ आये हैं।
नित्यानन्द-गोसाजिके आचार्य कैल नमस्कार । सबे मेलि' पुछे प्रभुर वार्ता बार बार ॥
२२ ॥
गोपीनाथ आचार्य ने श्री नित्यानन्द प्रभु को देखते ही उन्हें प्रणाम किया। इस तरह सभी भक्तों से मिलकर उन्होंने बारम्बार श्री चैतन्य महाप्रभु का समाचार पूछा।
मुकुन्द कहे,—‘महाप्रभु सन्यास करिया ।। नीलाचले आइला सङ्गे आमा-सबा ला ॥
२३॥
मुकुन्द दत्त ने आगे कहा, संन्यास लेने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी आये हैं और हम सबको अपने साथ लाये हैं।
आमा-सबा छाड़ि' आगे गेला दरशने । आमि-सब पाछे आइलाँ ताँर अन्वेषणे ॥
२४॥
महाप्रभु हमारा साथ छोड़कर आगे-आगे भगवान् जगन्नाथ का दर्शन करने चले आये। हम सब अभी आये हैं और अब उन्हीं की खोज में हैं।
अन्योन्ये लोकेर मुखे ये कथा शुनिल ।। सार्वभौम-गृहे प्रभु,—अनुमान कैल ॥
२५ ॥
सब लोगों की बातों से हमने अनुमान लगाया है कि महाप्रभु अब सार्वभौम भट्टाचार्य के घर में हैं।
ईश्वर-दर्शने प्रभु प्रेमे अचेतन ।सार्वभौम ला गेला आपन-भवन ॥
२६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु भगवान् जगन्नाथ का दर्शन करके भावविभोर हो गये और अचेत हो गये और सार्वभौम भट्टाचार्य उन्हें उसी अवस्था में अपने घर ले गये हैं।
तोमार मिलने ग्रबे आमार हैले मन ।दैवे सेइ क्षणे पाइलैं तोमार दरशन !! २७॥
जब मैं आपसे मिलने की सोच रहा था, अकस्मात् हमारी भेंट संयोग से हो गई।
चल, सबे ग्राइ सार्वभौमेर भवन ।प्रभु देखि' पाछे करिब ईश्वर दर्शन' ॥
२८॥
चलिये, पहले सार्वभौम भट्टाचार्य के घर चलकर श्री चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करें। बाद में हम भगवान जगन्नाथ का दर्शन करने आयेंगे।
एत शुनि' गोपीनाथ सबारे ला ।सार्वभौम-घरे गेला हरषित हा ॥
२९॥
यह सुनकर हर्षित मन से गोपीनाथ आचार्य तुरन्त सभी भक्तों को साथ लेकर सार्वभौम भट्टाचार्य के घर पहुँचे।
सार्वभौम-स्थाने गिया प्रभुके देखिल ।।प्रभु देखि' आचार दुःख-हर्ष हैल ॥
३०॥
सार्वभौम भट्टाचार्य के घर जाकर सबने देखा कि महाप्रभु अचेतावस्था में हैं। उन्हें इस अवस्था में देखकर गोपीनाथ आचार्य अत्यन्त दुःखी हुए, किन्तु साथ ही प्रसन्न थे कि उन्हें महाप्रभु का दर्शन मिल रहा है।
सार्वभौमे जानाञा सबा निल अभ्यन्तरे । नित्यानन्द-गोसाञिरे तेंहो कैल नमस्कारे ॥
३१॥
सार्वभौम भट्टाचार्य ने सभी भक्तों को घर के भीतर आने दिया और नित्यानन्द प्रभु को देखकर भट्टाचार्य ने उन्हें प्रणाम किया।
सबा सहित ग्रथा-ग्रोग्य करिल मिलन ।। प्रभु देखि' सबार हैल हरषित मन ॥
३२॥
सार्वभौम सभी भक्तों से मिले और उनका समुचित स्वागत किया। वे सभी श्री चैतन्य महाप्रभु को देखकर प्रसन्न थे।
सार्वभौम पाठाइल सबा दर्शन करते । ‘चन्दनेश्वर' निज-पुत्र दिल सबार साथे ॥
३३ ॥
तब भट्टाचार्य ने उन सबको जगन्नाथजी का दर्शन करने के लिए वापस भेज दिया और मार्गदर्शक के रूप में अपने पुत्र चन्दनेश्वर को उनके साथ भेजा।
जगन्नाथ देखि' सबार हइल आनन्द ।। भावेते आविष्ट हैला प्रभु नित्यानन्द ॥
३४॥
। तत्पश्चात् जगन्नाथजी के विग्रह को देखकर सभी लोग अत्यन्त प्रसन्न हुए। नित्यानन्द प्रभु विशेष रूप से भावविभोर हो गये।
सबे मेलि' धरि तारे सुस्थिर करिल ।। ईश्वर-सेवक माला-प्रसाद आनि' दिल ॥
३५ ॥
जब नित्यानन्द प्रभु लगभग अचेत हो गये, तो सारे भक्तों ने उन्हें पकड़कर सुस्थिर किया। उस समय जगन्नाथजी का पुजारी विग्रह पर अर्पित एक माला ले आया और नित्यानन्द प्रभु को समर्पित की।
प्रसाद पाजा सबे हैला आनन्दित मने । पुनरपि आइला सबे महाप्रभुर स्थाने ।। ३६॥
। भगवान् जगन्नाथ द्वारा पहनी हुई इस माला को प्राप्त करके सारे लोग अत्यन्त प्रसन्न हुए। बाद में वे सभी उस स्थान पर लौट आये जहाँ महाप्रभु रुके थे।
उच्च करि' करे सबे नाम-सङ्कीर्तन । तृतीय प्रहरे हैल प्रभुर चेतन ॥
३७॥
तत्पश्चात् सारे भक्त उच्च स्वर में हरे कृष्ण मन्त्र का कीर्तन करने लगे। महाप्रभु दोपहर से थोड़ा समय पहले सचेत हो गये।
हुङ्कार करिया उठे ‘हरि' ‘हरि' बलि' ।। आनन्दे सार्वभौम ताँर लैल पद-धूलि ॥
३८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु उठकर बैठ गये और हुंकार भरते हुए हरि! हरि! का उच्चारण करने लगे । सार्वभौम भट्टाचार्य महाप्रभु को सचेत देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने महाप्रभु के चरण-धूलि ग्रहण की।
सार्वभौम कहे,—शीघ्र करह मध्याह्न ।। मुजि भिक्षा दिमु आजि महाप्रसादान्न ॥
३९॥
भट्टाचार्य ने सबसे कहा, कृपया तुरन्त ही दोपहर का स्नान कर लें। आज मैं आप लोगों को महा-प्रसाद अर्थात् भगवान जगन्नाथ को अर्पित भोग का उच्चिष्ठ दूंगा।
समुद्र-स्नान करि' महाप्रभु शीघ्र आइला । चरण पाखालि' प्रभु आसने वसिला ॥
४०॥
समुद्र स्नान करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनके भक्तजन तुरन्त ही लौट आये। तत्पश्चात् महाप्रभु ने अपने पाँव धोये और भोजन करने के लिए एक आसन पर बैठ गये।
बहुत प्रसाद सार्वभौम आनाइल ।।तबे महाप्रभु सुखे भोजन करिल ॥
४१॥
सार्वभौम भट्टाचार्य ने जगन्नाथ मन्दिर से विविध प्रकार का महाप्रसाद लाये जाने की व्यवस्था की। तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने परम सुखपूर्वक दोपहर का भोजन ग्रहण किया।
सुवर्ण-थालीर अन्न उत्तम व्यञ्जन ।भक्त-गण-सङ्गे प्रभु करेन भोजन ॥
४२॥
चैतन्य महाप्रभु को सोने की थाली में विशेष चावल तथा सर्वोत्तम तरकारियाँ परोसी गईं। इस तरह महाप्रभु ने अपने भक्तों के साथ भोजन किया।
सार्वभौम परिवेशन करेन आपने । प्रभु कहे,----मोरे देह लाफ्रा-व्यञ्जने ॥
४३॥
जब सार्वभौम भट्टाचार्य स्वयं ही प्रसाद का वितरण कर रहे थे, तो श्री चैतन्य महाप्रभु ने उनसे अनुरोध किया, कृपया मुझे केवल उबली तरकारियाँ दें।
पीठा-पाना देह तुमि इँहा-सबाकारे । तबे भट्टाचार्य कहे गुड़ि' दुइ करे ॥
४४॥
आप सारे भक्तों को पीठा ( केक) तथा कड़े हुए दूध से बने द्रव्य( रबड़ी ) दे सकते हैं। यह सुनकर भट्टाचार्य दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार बोले।
जगन्नाथ कैछे करियाछेन भोजन । आजि सब महाप्रसाद कर आस्वादन ॥
४५ ॥
आज आप सब दोपहर के भोजन का उसी प्रकार आस्वादन करें, जिस प्रकार भगवान् जगन्नाथ ने इसे स्वीकार किया है।
एत बलि' पीठा-पाना सब खाओयाइला । भिक्षा कराञा आचमन कराइला ॥
४६॥
यह कहकर उन्होंने सबको विविध प्रकार का पीठा तथा पाना ( दूध से निर्मित व्यंजन) खिलाया। बाद में उन्हें हाथ, मुँह तथा पाँव धोने के लिए जल दिया।
आज्ञा मागि' गेला गोपीनाथ आचार्यके ला ।।प्रभुर निकट आइला भोजन करिञा ॥
४७॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनके भक्तों से आज्ञा लेकर सार्वभौम भट्टाचार्य गोपीनाथ आचार्य सहित भोजन करने गये। भोजन करने के बाद वे महाप्रभु के पास लौट आये।
'नमो नारायणाय' बलि' नमस्कार कैल ।।‘कृष्ण मतिरस्तु' बलि' गोसाजि कहिल ॥
४८॥
सार्वभौम भट्टाचार्य ने नमो नारायणाय ( मैं नारायण को नमस्कार करता हूँ) कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु को नमस्कार किया। श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर में कृष्णो मतिरस्तु कहा ( आपका ध्यान कृष्ण में हो )।
शुनि' सार्वभौम मने विचार करिल ।वैष्णव-सन्यासी इँहो, वचने जानिल ॥
४९॥
ये वचन सुनकर सार्वभौम समझ गये कि श्री चैतन्य महाप्रभु एक वैष्णव संन्यासी हैं।
गोपीनाथ आचार्गेरे कहे सार्वभौम ।।गोसाजिर जानिते चाहि काहाँ पूर्वाश्रम ॥
५०॥
तब सार्वभौम ने गोपीनाथ आचार्य से कहा, मैं श्री चैतन्य महाप्रभु के पूर्व आश्रम (स्थिति ) को जानना चाहता हूँ।
गोपीनाथाचार्य कहे,—नवद्वीपे घर ।।‘जगन्नाथ' नाम, पदवी मिश्र पुरन्दर' ॥
५१॥
गोपीनाथ आचार्य ने उत्तर दिया, नवद्वीप में जगन्नाथ नामक एक निवासी थे, जिनका उपनाम मिश्र पुरन्दर था।
‘विश्वम्भर' नाम इँहार, ताँर इँहो पुत्र ।।नीलाम्बर चक्रवर्तीर हयेन दौहित्र ॥
५२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु उन्हीं जगन्नाथ मिश्र के पुत्र हैं और इनका पहले का नाम विश्वम्भर मिश्र था। ये नीलाम्बर चक्रवर्ती के नाती भी लगते सार्वभौम कहे,—नीलाम्बर चक्रवर्ती ।।विशारदेर समाध्यायी,—एइ ताँर ख्याति ॥
५३॥
भट्टाचार्य ने कहा, नीलाम्बर चक्रवर्ती तो मेरे पिता महेश्वर विशारद के सहपाठी थे। मैं उन्हें इसी रूप में जानता था।
‘मिश्र पुरन्दर' ताँर मान्य, हेन जानि । पितार सम्बन्धे दोंहाके पूज्य करि' मानि ॥
५४॥
मेरे पिता जगन्नाथ मिश्र पुरन्दर का आदर करते थे। इस तरह मेरे पिता के साथ सम्बन्ध होने के कारण मैं जगन्नाथ मिश्र तथा नीलाम्बर चक्रवर्ती दोनों का आदर करता हूँ।
नदीया-सम्बन्धे सार्वभौम रूष्ट हैला ।प्रीत हा गोसाञिरे कहिते लागिला ॥
५५॥
यह सुनकर कि श्री चैतन्य महाप्रभु नदीया जिले के हैं, सार्वभौम भट्टाचार्य अत्यन्त प्रसन्न हुए और महाप्रभु से वे इस प्रकार बोले।।
सहजेइ पूज्य तुमि, आरे त' सन्यास । अतएव हङतोमार आमि निज-दास' ॥
५६॥
। आप स्वाभाविक रूप से मेरे पूज्य हैं। इसके अतिरिक्त आप संन्यासी हैं, अतएव मैं आपका निजी दास बनना चाहता हूँ।
शुनि' महाप्रभु कैल श्री-विष्णु स्मरण । भट्टाचार्ये कहे किछु विनय वचन ॥
५७॥
भट्टाचार्य से यह सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने तुरन्त भगवान् विष्णु का स्मरण किया और अत्यन्त विनीत भाव से उनसे इस प्रकार बोले।
तुमि जगद्गुरु–सर्वलोक-हित-कर्ता ।। वेदान्त पड़ाओ, सन्यासीर उपकर्ता ॥
५८॥
चूँकि आप वेदान्त दर्शन के अध्यापक हैं, अतएव आप विश्व के समस्त लोगों के गुरु तथा उनके शुभचिन्तक भी हैं। आप सभी संन्यासियों का हित भी करने वाले हैं।
आमि बालक-सन्यासी–भाल-मन्द नाहि जानि । तोमार आश्रय निहुँ, गुरु करि' मानि ॥
५९॥
मैं तो अभी तरुण संन्यासी हूँ और मुझे अच्छे-बुरे का कोई ज्ञान नहीं है। अतएव मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूँ और आपको अपना गुरु मानता हूँ।
तोमार सङ्ग लागि' मोर इहाँ आगमन ।।सर्व प्रकारे करिबे आमाय पालन ॥
६० ॥
मैं यहाँ आपका संग करने आया हूँ और अब मैं आपकी शरण ग्रहण कर रहा हूँ। क्या आप कृपया सभी प्रकार से मेरा पालन करेंगे? आजि ये हैल आमार बड़-इ विपत्ति ।।ताहा हैते कैले तुमि आमार अव्याहति ॥
६१॥
आज जो घटना घटी है, वह मेरे लिए महान् विपत्ति थी; किन्तु आपने मुझे उससे उबार लिया है।
भट्टाचार्य कहे,—एकले तुमि ना ग्राइह दर्शने । आमार सङ्गे ग्राबे, किम्वा आमार लोक-सने ॥
६२ ॥
भट्टाचार्य ने उत्तर दिया, आप जगन्नाथ मन्दिर में विग्रह-दर्शन करने अकेले न जाएँ। अच्छा होगा कि आप या तो मेरे साथ या मेरे लोगों के साथ जाएँ।
प्रभु कहे,–'मन्दिर भितरे ना ग्राइब ।गरुड़ेर पाशे रहि' दर्शन करिब' ॥
६३॥
महाप्रभु ने कहा, मैं अब कभी भी मन्दिर के भीतर नहीं जाऊँगा। मैं सदैव गरुड़-स्तम्भ के पास से भगवान् का दर्शन किया करूंगा।
गोपीनाथाचाय़के कहे सार्वभौम ।‘तुमि गोसाजिरे ला कराईह दरशन ॥
६४॥
तब सार्वभौम भट्टाचार्य ने गोपीनाथ आचार्य से कहा, गोस्वामीजी को ले जाओ और उन्हें जगन्नाथजी का दर्शन कराओ।
आमार मातृ-स्वसा-गृह–निर्जन स्थान ।ताहाँ वासा देह, कर सर्व समाधान' ॥
६५॥
मेरी मौसी का घर अत्यन्त निर्जन स्थान में है। वहीं इनके रहने की सारी व्यवस्था कर देना।
गोपीनाथ प्रभु ला ताहाँ वासा दिल ।जल, जल-पात्रादिक सर्व समाधान कैल ॥
६६॥
गोपीनाथ आचार्य श्री चैतन्य महाप्रभु को उस घर तक ले गये और उन्हें पानी, पानी के पात्र, नाँद आदि दिखला दिया। इस प्रकार उन्होंने सब प्रकार की व्यवस्था कर दी।
आर दिन गोपीनाथ प्रभु स्थाने गिया ।। शय्योत्थान दरशन कराइल लञा ॥
६७॥
अगले दिन गोपीनाथ आचार्य चैतन्य महाप्रभु को जगन्नाथ भगवान् का शय्योत्थान ( भोर के समय उठाना ) दिखाने ले गये।
मुकुन्द-दत्त लजा आइला सार्वभौम स्थाने । सार्वभौम किछु ताँरे बलिला वचने ॥
६८॥
इसके बाद गोपीनाथ आचार्य मुकुन्द दत्त को अपने साथ लेकर सार्वभौम भट्टाचार्य के घर गये। वहाँ पहुँचने पर सार्वभौम ने मुकुन्द दत्त से इस प्रकार कहा।
‘प्रकृति-विनीत, सन्यासी देखिते सुन्दर । आमार बहु-प्रीति बाड़े इँहार उपर ॥
६९॥
यह संन्यासी अत्यन्त नम्र एवं विनीत स्वभाव का है और देखने में अत्यन्त सुन्दर है। फलतः इसके प्रति मेरा स्नेह बढ़ता जा रहा है।
कोन्सम्प्रदाये सन्यास कर्याछेन ग्रहण ।। किबा नाम इँहार, शुनिते हय मन' ॥
७० ॥
इन्होंने किस सम्प्रदाय से संन्यास ग्रहण किया है और इनका नाम क्या है? गोपीनाथ कहे,- नाम श्रीकृष्ण-चैतन्य ।।गुरु इँहार केशव-भारती महा-धन्य ॥
७१॥
गोपीनाथ आचार्य ने उत्तर दिया, महाप्रभु का नाम श्रीकृष्ण चैतन्य है और उन्हें संन्यास देने वाले गुरु महाभाग्यवान केशव भारती हैं।
सार्वभौम कहे,–'इँहार नाम सर्वोत्तम । भारती-सम्प्रदाय इँहो–हयेन मध्यम' ॥
७२॥
सार्वभौम भट्टाचार्य ने कहा, श्रीकृष्ण नाम अत्युत्तम है, किन्तु ये भारती सम्प्रदाय के हैं, अतएव ये द्वितीय श्रेणी के संन्यासी हैं।
गोपीनाथ कहे,—इँहार नाहि बाह्यापेक्षा ।। अतएव बड़ सम्प्रदायेर नाहिक अपेक्षा ॥
७३॥
। गोपीनाथ आचार्य ने उत्तर दिया, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु किसी बाहरी औपचारिकता पर निर्भर नहीं हैं। उन्हें किसी श्रेष्ठ सम्प्रदाय से संन्यास ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं है।
भट्टाचार्य कहे,—इँहार प्रौढ़ ग्रौवन ।।केमते सन्यास-धर्म हइबे रक्षण ॥
७४॥
। भट्टाचार्य ने पूछा, श्री चैतन्य महाप्रभु तो अपनी पूर्ण यौवनावस्था में हैं। वे संन्यास के नियमों का किस तरह पालन कर पायेंगे? निरन्तर इँहाके वेदान्त शुनाइब ।वैराग्य-अद्वैत-मार्गे प्रवेश कराइब ॥
७५ ॥
मैं इन्हें निरन्तर वेदान्त दर्शन सुनाऊँगा, जिससे वे अपने वैराग्य में स्थिर रहें और इस तरह अद्वैत मार्ग में प्रवेश कर सकें।
कहेन यदि, पुनरपि स्रोग-पट्ट दिया ।संस्कार करिये उत्तम-सम्प्रदाये आनिया' ।। ७६ ॥
तब सार्वभौम भट्टाचार्य ने सुझाया, यदि श्री चैतन्य महाप्रभु चाहें,तो मैं उन्हें गेरुआ वस्त्र प्रदान करके एवं उनका पुनः संस्कार कराकर उच्च कोटि के सम्प्रदाय में ले आऊँगा।
शुनि' गोपीनाथ-मुकुन्द मुँहे दुःखी हैला ।गोपीनाथाचार्य किछु कहिते लागिला ॥
७७॥
गोपीनाथ आचार्य तथा मुकुन्द दत्त यह सुनकर बहुत दुःखी हुए। अतः गोपीनाथ आचार्य ने सार्वभौम भट्टाचार्य को इस प्रकार सम्बोधित । किया।
भट्टाचार्य' तुमि इँहार ना जान महिमा ।भगवत्ता-लक्षणेर इँहातेइ सीमा ॥
७८॥
हे भट्टाचार्य, आप श्री चैतन्य महाप्रभु की महिमा को नहीं जानते। इनमें भगवत्ता के समस्त लक्षण अपनी चरम सीमा को प्राप्त हैं।
ताहाते विख्यात इँहो परम-ईश्वर । अज्ञ-स्थाने किछु नहे विज्ञेर गोचर' ॥
७९॥
गोपीनाथ आचार्य ने आगे कहा, श्री चैतन्य महाप्रभु पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के रूप में विख्यात हैं। इस विषय से अनजान व्यक्ति तत्त्ववेताओं के निर्णय को अत्यन्त कठिनाई से समझ पाते हैं।
शिष्य-गण कहे,–'ईश्वर कह कोन्प्रमाणे' ।। आचार्य कहे,--'विज्ञ-मत ईश्वर-लक्षणे' ।। ८० ॥
सार्वभौम भट्टाचार्य के शिष्यों ने प्रतिकार करते हुए पूछा, आप किस साक्ष्य के आधार पर यह निर्णय कर रहे हैं कि श्री चैतन्य महाप्रभु परमेश्वर हैं? गोपीनाथ आचार्य ने उत्तर दिया, इसका प्रमाण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को जानने वाले प्रामाणिक आचार्यों के कथन हैं।
शिष्य कहे,–'ईश्वर-तत्त्व साधि अनुमाने' । आचार्य कहे,–'अनुमाने नहे ईश्वर-ज्ञाने ॥
८१ ॥
भट्टाचार्य के शिष्यों ने कहा, हम तार्किक अनुमान के द्वारा परम सत्य का ज्ञान प्राप्त करते हैं। गोपीनाथ आचार्य ने उत्तर दिया, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के विषय में वास्तविक ज्ञान इस प्रकार के अनुमान तथा तर्क से प्राप्त नहीं किया जा सकता।
अनुमान प्रमाण नहे ईश्वर-तत्त्व-ज्ञाने ।।कृपा विना ईश्वरेरे केह नाहि जाने ॥
८२॥
गोपीनाथ आचार्य ने आगे कहा, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को केवल उनकी कृपा द्वारा ही जाने जा सकते हैं, अनुमान द्वारा नहीं।
ईश्वरेर कृपा-लेश हय त' ग्राहारे ।सेइ त' ईश्वर-तत्त्व जानिबारे पारे ॥
८३॥
आचार्य ने आगे कहा, यदि किसी को भक्ति द्वारा भगवान् की लेशमात्र भी कृपा प्राप्त होती है, तो वह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को तत्त्व से समझ सकता है।
अथापि ते देव पदाम्बुज-द्वयप्रसाद-लेशानुगृहीत एव हि । जानाति तत्त्वं भगवन्महिम्नोन चान्य एकोऽपि चिरं विचिन्वन् ॥
८४॥
हे प्रभु, यदि आप के चरणकमलों की रंचमात्र भी कृपा किसी पर हो जाये, तो वह आपकी महानता को समझ सकता है। किन्तु जो लोग पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को समझने के लिए तर्कवितर्क करते हैं, वे अनेक वर्षों तक वेदों का अध्ययन करते रहने पर भी आपको जानने में अक्षम रहते हैं।
यद्यपि जगद्गुरु तुमि-शास्त्र-ज्ञानवान् । पृथिवीते नाहि पण्डित तोमार समान ॥
८५॥
ईश्वरेर कृपा-लेश नाहिक तोमाते ।।अतएव ईश्वर-तत्त्व ना पार जानिते ॥
८६॥
तब गोपीनाथ आचार्य ने सार्वभौम भट्टाचार्य को सम्बोधित किया, आप महान् पंडित हैं और अनेक शिष्यों के गुरु हैं। निस्सन्देह, आपके समान इस पृथ्वी पर अन्य कोई विद्वान नहीं है। फिर भी आप भगवान् की रंचमात्र कृपा से भी वंचित हैं, अतएव आप उन्हें अपने घर में पाकर भी नहीं समझ सकते।
तोमार नाहिक दोष, शास्त्रे एइ कहे ।।पाण्डित्याद्ये ईश्वर-तत्त्व-ज्ञान कभु नहे' ॥
८७॥
यह आपका दोष नहीं है; यह तो शास्त्रों का निर्णय है। आप केवल पाण्डित्य से पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को नहीं समझ सकते।
सार्वभौम कहे,—आचार्य, कह सावधाने ।तोमाते ईश्वर-कृपा इथे कि प्रमाणे ॥
८८॥
। सार्वभौम भट्टाचार्य ने उत्तर दिया, हे गोपीनाथ आचार्य, कृपया आप सावधानी से कहें। आपके पास इसका क्या प्रमाण है कि आपको भगवत्कृपा प्राप्त हो चुकी है? आचार्य कहे,–वस्तु-विषये हय वस्तु-ज्ञान ।। वस्तु-तत्त्व-ज्ञान हय कृपाते प्रमाण ॥
८९॥
गोपीनाथ आचार्य ने उत्तर दिया, सर्वाधिक कल्याणकारी परम सत्य का ज्ञान ही परमेश्वर की कृपा का प्रमाण है।
इँहार शरीरे सब ईश्वर-लक्षण ।।महा-प्रेमावेश तुमि पाळाछ दर्शन ॥
९०॥
। गोपीनाथ आचार्य ने आगे कहा, जब श्री चैतन्य महाप्रभु भावाविष्ट थे, तो उनके शरीर में आपने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के लक्षण देखे हैं।
तबु त' ईश्वर-ज्ञान ना हय तोमार।ईश्वरेर माया एइ–बलि व्यवहार ॥
९१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के शरीर में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के लक्षणों को प्रत्यक्ष देखने के बाद भी आप उन्हें नहीं समझ सके। इसे ही सामान्यतया माया ( भ्रम) कहा जाता है।
देखिले ना देखे तारे बहिर्मुख जन ।। शुनि' हासि' सार्वभौम बलिल वचन ॥
९२॥
। बहिरंगा शक्ति से प्रभावित व्यक्ति बहिर्मुखजन अर्थात् संसारी व्यक्ति कहलाता है, क्योंकि देखने के बाद भी वह वास्तविक वस्तु को नहीं समझ पाता। गोपीनाथ आचार्य के वचन सुनकर सार्वभौम भट्टाचार्य मुसकाये और इस प्रकार कहने लगे।
इष्ट-गोष्ठी विचार करि, ना करिह रोष ।।शास्त्र-दृष्ट्ये कहि, किछु ना लइह दोष ॥
९३॥
भट्टाचार्य ने कहा, हम तो मित्रों के बीच चर्चा कर रहे हैं और शास्त्रों में वर्णित बातों पर विचार कर रहे हैं। आप क्रुद्ध न हों। मैं तो केवल शास्त्रों के आधार पर ही बोल रहा हूँ। आप इसे अपराध न मानें।
हा-भागवत हय चैतन्य-गोसाजि ।एइ कलि-काले विष्णुर अवतार नाइ ॥
९४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु अवश्य ही महान् एवं असाधारण भक्त हैं, किन्तु हम उन्हें भगवान् विष्णु के अवतार के रूप में स्वीकार नहीं कर सकते, क्योंकि शास्त्रों के अनुसार इस कलियुग में कोई अवतार नहीं होने वाला है।
अतएव 'त्रि-युग' करि' कहि विष्णु-नाम ।कलि-मुगे अवतार नाहि, शास्त्र-ज्ञान ॥
९५॥
भगवान् विष्णु का एक नाम त्रियुग है, क्योंकि कलियुग में उनका अवतार नहीं होता है। यह प्रामाणिक शास्त्रों का निर्णय है।
शुनिया आचार्य कहे दुःखी हा मने ।शास्त्र-ज्ञ करिजा तुमि कर अभिमाने ॥
९६॥
यह सुनकर गोपीनाथ आचार्य अत्यन्त दुःखी हुए। उन्होंने भट्टाचार्य से कहा, “आप स्वयं को समस्त वैदिक शास्त्रों का ज्ञाता (शास्त्रज्ञ ) मानते हैं।
भागवत-भारत दुइ शास्त्रेर प्रधान ।सेइ दुइ-ग्रन्थ-वाक्ये नाहि अवधान ॥
९७ ॥
श्रीमद्भागवत तथा महाभारत दो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण वैदिक शास्त्र हैं, किन्तु आपने इनके कथनों पर कोई ध्यान नहीं दिया।
सेइ दुइ कहे कलिते साक्षातवतार ।तुमि कह,—कलिते नाहि विष्णुर प्रचार ॥
९८॥
। श्रीमद्भागवत तथा महाभारत में कहा गया है कि स्वयं भगवान् अवतरित होते हैं, किन्तु आप कह रहे हैं कि इस युग में भगवान् विष्णु का प्राकट्य या अवतार ही नहीं होता।
कलि-मुंगे लीलावतार ना करे भगवान् ।।अतएव 'त्रि-युग' करि' कहि तार नाम ॥
९९॥
इस कलियुग में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का कोई लीलावतार नहीं होता, इसीलिए वे त्रियुग कहलाते हैं और यह उनके पवित्र नामों में से एक है।
प्रतियुगे करेन कृष्ण युग-अवतार ।तर्क-निष्ठ हृदय तोमार नाहिक विचार ॥
१०० ॥
गोपीनाथ आचार्य ने आगे कहा, निश्चित रूप से प्रत्येक युग में एक अवतार होता है, जो युग-अवतार कहलाता है। किन्तु आपका हृदय तर्क के कारण इतना कठोर हो चुका है कि आप इन तथ्यों पर विचार नहीं कर सकते।
आसन्वर्णास्त्रयो ह्यस्य गृहृतोऽनु-युगं तनूः ।। शुक्लो रक्तस्तथा पीत इदानीं कृष्णतां गतः ॥
१०१।। भूतकाल में युग के अनुसार आपके पुत्र के तीन विभिन्न रंगों वाले शरीर थे। ये रंग थे श्वेत, लाल तथा पीत। इस ( द्वापर) युग में उन्होंने कृष्ण (श्याम) शरीर धारण किया है।'
इति द्वापर उर्वीश स्तुवन्ति जगदीश्वरम् ।।नाना-तन्त्र-विधानेन कलावपि तथा शृणु ॥
१०२॥
कलियुग में तथा द्वापर युग में भी लोग विभिन्न मन्त्रों से पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की स्तुति करते हैं और पूरक वैदिक ग्रंथों के नियमों का पालन करते हैं। अब आप कृपया मुझसे इसके विषय में सुनें।
कृष्णवर्णं त्विषाकृष्णं साङ्गोपाङ्गास्त्र-पार्षदम् ।।ग्रज्ञैः सङ्कीर्तन-प्रायैर्यजन्ति हि सुमेधसः ॥
१०३॥
इस कलियुग में बुद्धिमान लोग हरे कृष्ण महामन्त्र का सामूहिक कीर्तन करते हैं और उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की पूजा करते हैं, जो इस युग में सदैव कृष्ण की महिमा का वर्णन करने के लिए प्रकट होते हैं। ये अवतार पीत वर्ण के होते हैं और सदैव अपने पूर्ण विस्तारों (यथा नित्यानन्द प्रभु) तथा स्वांशों (यथा गदाधर) के अतिरिक्त भक्तों तथा पार्षदों ( यथा स्वरूप दामोदर) को साथ रखते हैं।
सुवर्ण-वर्णो हेमाङ्गो वराङ्गश्चन्दनाङ्गदी । सन्यास-कृच्छमः शान्तो निष्ठा-शान्ति-परायणः ॥
१०४॥
(गौरसुन्दर अवतार में) भगवान् का रंग सुनहरा है। उनका अत्यन्त सुगठित शरीर पिघले सोने जैसा है। उनके सारे शरीर पर चन्दन का लेप है। वे चतुर्थ आश्रम ( संन्यास) ग्रहण करेंगे और अत्यन्त आत्म-संयमी होंगे। वे मायावादी संन्यासियों से इस कारण भिन्न होंगे कि वे भक्ति में स्थिर होंगे और संकीर्तन आन्दोलन का विस्तार करेंगे।
तोमार आगे एत कथार नाहि प्रयोजन ।।ऊषर-भूमिते ग्रेन बीजेर रोपण ॥
१०५॥
तब गोपीनाथ आचार्य ने कहा, शास्त्रों से और अधिक प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि आप शुष्क चिन्तक हैं। बंजर भूमि में बीज डालने से कोई लाभ नहीं होता।
तोमार उपरे ताँर कृपा ग्रबे हबे ।ए-सब सिद्धान्त तबे तुमिह कहिबे ॥
१०६॥
जब आप पर भगवान् प्रसन्न होंगे, तब आप भी इन सारे सिद्धान्तों को समझ सकेंगे और फिर शास्त्रों से उद्धरण देंगे।
तोमार ग्रे शिष्य कहे कुतर्क, नाना-वाद ।।इहार कि दोष—एइ मायारे प्रसाद ॥
१०७॥
। आपके शिष्यों के झूठे तर्क तथा दार्शनिक शब्दाडम्बर उनके दोष नहीं हैं। उन्हें केवल मायावाद दर्शन का प्रसाद प्राप्त हुआ है।
मृच्छक्तयो वदतां वादिनां वैविवाद-संवाद-भुवो भवन्ति । कुर्वन्ति चैषां मुहुरात्म-मोहं । तस्मै नमोऽनन्त-गुणाय भूम्ने ॥
१०८॥
मैं उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को सादर नमस्कार करता हूँ, जो असीम गुणों से सम्पन्न हैं और जिनकी विभिन्न शक्तियाँ वाद-विवाद करने वालों के बीच सहमति तथा विरोध लाने वाली हैं। इस तरह वाद-विवाद करने वाले दोनों पक्षों के आत्म-साक्षात्कार को माया पुनः पुनः आवृत करती रहती है।
युक्तं च सन्ति सर्वत्र भाषन्ते ब्राह्मणा ग्रथा ।मायां मदीयामुद्गृह्य वदतां किं नु दुर्घटम् ॥
१०९॥
। प्रायः सभी क्षेत्रों में विद्वान ब्राह्मण के वचन मान्य होते हैं। जो मेरी बहिरंगा माया की शरण में आता है और उसके वशीभूत होकर बोलता है, उसके लिए कुछ भी असम्भव नहीं है।
तबे भट्टाचार्य कहे, ग्राह गोसाजिर स्थाने ।। आमार नामे गण-सहित कर निमन्त्रणे ॥
११०॥
गोपीनाथ आचार्य से यह सुनकर सार्वभौम भट्टाचार्य ने कहा, पहले आप उस स्थान को जाएँ, जहाँ श्री चैतन्य महाप्रभु ठहरे हैं और उन्हें उनके साथियों समेत मेरी ओर से आमंत्रित करके यहाँ बुलाएँ।
प्रसाद आनि' ताँरै कराह आगे भिक्षा ।।पश्चात् आसि' आमारे कराइह शिक्षा ॥
१११॥
जगन्नाथजी को प्रसाद लीजिये और सर्वप्रथम इसे चैतन्य महाप्रभु तथा उनके साथियों को दीजिये। उसके बाद यहाँ लौटकर आइए और तब मुझे भलीभाँति शिक्षा दीजिये।
आचार्य-भगिनी-पति, श्यालक-भट्टाचार्य ।।निन्दा-स्तुति-हास्ये शिक्षा करा'न आचार्ट्स ॥
११२ ।। गोपीनाथ आचार्य सार्वभौम भट्टाचार्य के बहनोई थे; अतएव उनका सम्बन्ध अत्यन्त मधुर तथा घनिष्ठ था। ऐसी स्थिति में, गोपीनाथ आचार्यने उन्हें कभी उनकी निन्दा करके, कुछ उनकी प्रशंसा करके और कुछ परिहास करके सिखलाया। कुछ समय से ऐसा ही चल रहा था।
आचार्येर सिद्धान्ते मुकुन्देर हैल सन्तोष । भट्टाचार्येर वाक्य मने हैल दुःख-रोष ॥
११३॥
श्री मुकुन्द दत्त गोपीनाथ आचार्य के निष्कर्षात्मक वचनों को सुनकर अत्यन्त सन्तुष्ट हुए; किन्तु सार्वभौम भट्टाचार्य के कथनों को सुनकर वे अत्यन्त दुःखी तथा रुष्ट हुए।
गोसाजिर स्थाने आचार्य कैल आगमन । भट्टाचार नामे ताँरै कैल निमन्त्रण ॥
११४॥
सार्वभौम भट्टाचार्य के आदेशानुसार गोपीनाथ आचार्य श्री चैतन्य महाप्रभु के पास गये और उन्हें भट्टाचार्य की ओर से आमन्त्रित किया।
मुकुन्द-सहित कहे भट्टाचार कथा । भट्टाचार निन्दा करे, मने पाळा व्यथा ॥
११५॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के सामने भट्टाचार्य के कथनों की चर्चा की गई। गोपीनाथ आचार्य तथा मुकुन्द दत्त दोनों ने ही भट्टाचार्य के कथनों को अस्वीकार कर दिया, क्योंकि उनसे उनको मानसिक दुःख पहुँचता था।
शुनि महाप्रभु कहे ऐछे मत् कह। आमा प्रति भट्टाचार्मेर हय अनुग्रह ॥
११६॥
यह सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, आप इस तरह न बोलें। सार्वभौम भट्टाचार्य मेरे प्रति अत्यन्त वत्सल एवं कृपालु हैं।
आमार सन्यास-धर्म चाहेन राखिते । वात्सल्ये करुणा करेन, कि दोष इहाते ॥
११७॥
वे मेरे प्रति वात्सल्य के कारण मेरी रक्षा करना चाहते हैं और यह चाहते हैं कि मैं संन्यासी के नियमों का पालन करूं। इसमें कौन-सा दोष हैं।
आर दिन महाप्रभु भट्टाचार्य-सने । आनन्दे करिला जगन्नाथ दरशने ॥
११८॥
अगले दिन प्रात:काल श्री चैतन्य महाप्रभु सार्वभौम भट्टाचार्य के साथ जगन्नाथजी के मन्दिर दर्शन करने गये। दोनों ही अत्यन्त प्रसन्न मुद्रा में थे।
भट्टाचार्य-सङ्गे ताँर मन्दिरे आइला ।।इन दिया आपने वसिला ॥
११९॥
जब वे मन्दिर में पहुँचे, तो सार्वभौम भट्टाचार्य ने चैतन्य महाप्रभु को आसन दिया और संन्यासी के आदरार्थ स्वयं भूमि पर बैठ गये।
वेदान्त पड़ाइते तबे आरम्भ करिला । स्नेह-भक्ति करि' किछु प्रभुरे कहिला ॥
१२०॥
तब उन्होंने चैतन्य महाप्रभु को वेदान्त-दर्शन पढ़ाना शुरू किया और स्नेह तथा भक्ति के कारण महाप्रभु से वे इस प्रकार बोले।
वेदान्त-श्रवण,—एइ सन्यासीर धर्म ।। निरन्तर कर तुमि वेदान्त श्रवण ॥
१२१॥
भट्टाचार्य ने कहा, वेदान्त दर्शन सुनना ही संन्यासी का मुख्य कर्तव्य है। अतएव आपको चाहिए कि बिना हिचक के वेदान्त-दर्शन का अध्ययन करें और किसी श्रेष्ठ व्यक्ति से इसका निरन्तर श्रवण करें।
प्रभु कहे,–'मोरे तुमि कर अनुग्रह।सेइ से कर्तव्य, तुमि ग्रेइ मोरे कह' ॥
१२२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, आप मुझ पर अत्यन्त कृपालु हैं। अतएव आपके आदेश का पालन करना मेरा कर्तव्य है।
सात दिन पर्यन्त ऐछे करेन श्रवणे ।।भाल-मन्द नाहि कहे, वसि' मात्र शुने ॥
१२३॥
इस तरह महाप्रभु ने सार्वभौम भट्टाचार्य द्वारा प्रतिपादित वेदान्त-दर्शन का सात दिनों तक लगातार श्रवण किया। किन्तु चैतन्य महाप्रभु न तो कुछ बोले, न ही इसका संकेत दिया कि यह सही है या गलत। वे केवल बैठे बैठे भट्टाचार्य की बातें सुनते रहे।
अष्टम-दिवसे ताँरै पुछे सार्वभौम । सात दिन कर तुमि वेदान्त श्रवण ॥
१२४॥
आठवें दिन सार्वभौम भट्टाचार्य ने चैतन्य महाप्रभु से कहा, आप लगातार सात दिनों से मुझसे वेदान्त दर्शन सुन रहे हैं।
भाल-मन्द नाहि कह, रह मौन धरि' ।।बुझ, कि ना बुझ, इहा बुझिते ना पारि ।। १२५ ॥
आप मौन धारण किये हुए सुनते रहे हैं। चूंकि आप यह नहीं कह रहे हैं कि यह सही है या गलत, अतएव मैं यह नहीं समझ पा रहा कि आप वेदान्त-दर्शन को वास्तव में समझ पा रहे हैं या नहीं।
प्रभु कहे–मूर्ख आमि, नाहि अध्ययन ।तोमार आज्ञाते मात्र करिये श्रवण ॥
१२६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर में कहा, मैं मूर्ख हूँ, फलतः मैं वेदान्तसूत्र का अध्ययन नहीं करता। आपने आदेश दिया है, अतएव मैं आपसे इसे सुनने का प्रयत्न कर रहा हूँ।
सन्यासीर धर्म लागि' श्रवण मात्र करि ।तुमि ग्रेइ अर्थ कर, बुझिते ना पारि ॥
१२७॥
मैं तो संन्यासी धर्म के पालन के लिए ही सुनता हूँ। दुर्भाग्यवश आप जो अर्थ कह रहे हैं, उसका मैं लेशमात्र भी अर्थ नहीं समझ पा रहा हूँ।
भट्टाचार्य कहे,—ना बुझि', हेन ज्ञान ग्रार ।बुझिबार लागि' सेह पुछे पुनर्बार ॥
१२८॥
सार्वभौम भट्टाचार्य ने कहा, मैं मानता हूँ कि आप नहीं समझ रहे, किन्तु जिसकी समझ में नहीं आता, वह भी तो विषय-वस्तु के विषय में जिज्ञासा करता है।
तुमि शुनि' शुनि' रह मौन मात्र धरि'। हृदये कि आछे तोमार, बुझिते ना पारि ॥
१२९॥
आप लगातार सुनते जा रहे हैं, किन्तु मौन धारण किये हुए हैं। मेरी समझ में नहीं आ रहा कि वास्तव में आपके मन में है क्या? प्रभु कहे,–सूत्रेर अर्थ बुझिये निर्मल ।। तोमार व्याख्या शुनि' मन हय त' विकल ॥
१३०॥
तब महाप्रभु ने यह कहते हुए अपने मन की बात प्रकट की, मैं प्रत्येक सूत्र का अर्थ बहुत अच्छी तरह समझ सकता हूँ, किन्तु आपकी व्याख्या ने मेरे मन को विचलित कर दिया है।
सूत्रेर अर्थ भाष्य कहे प्रकाशिया ।।तुमि, भाष्य कह—सूत्रेर अर्थ आच्छादिया ॥
१३१॥
वेदान्त-सूत्र के श्लोकों का स्पष्ट तात्पर्य उन्हीं में निहित है, किन्तु आपने जितने अन्य तात्पर्य प्रस्तुत किये हैं, उन्होंने सूत्र के अर्थ को बादल की तरह ढक लिया है।
सूत्रेर मुख्य अर्थ ना करह व्याख्यान ।कल्पनार्थे तुमि ताहा कर आच्छादन ॥
१३२॥
आप ब्रह्मसूत्र का मुख्य अर्थ नहीं बतला रहे। ऐसा लगता है कि आपका कार्य वास्तविक अर्थ को छिपाना है।
उपनिषशब्दे येइ मुख्य अर्थ हय ।सेइ अर्थ मुख्य, व्यास-सूत्रे सब कय ॥
१३३॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, वेदान्त-सूत्र समस्त उपनिषदों का सार है; इसलिए उपनिषदों में जो भी मुख्य अर्थ है, वह सब वेदान्त-सूत्र या व्यास-सूत्र में भी अंकित है।
मुख्यार्थ छाड़िया कर गौणार्थ कल्पना ।।‘अभिधा'-वृत्ति छाड़ि' कर शब्देर लक्षणा ॥
१३४॥
प्रत्येक सूत्र के मुख्य (प्रधान) अर्थ को बिना किसी अनुमान के स्वीकार कर लेना चाहिए। किन्तु आप तो मुख्य अर्थ को त्यागकर अपने मनोकल्पित अर्थ को लेकर आगे बढ़ते हैं।
प्रमाणेर मध्ये श्रुति प्रमाण–प्रधान । श्रुति ने मुख्यार्थ कहे, सेइ से प्रमाण ॥
१३५॥
यद्यपि अन्य प्रमाण भी हैं, किन्तु वैदिक प्रमाण को सर्वोपरि मानना चाहिए। वेदों में वर्णित सिद्धान्तों का मुख्य अर्थ सर्वोत्तम प्रमाण है।
जीवेर अस्थि-विष्ठा दुइ–शङ्ख-गोमय । श्रुति-वाक्ये सेइ दुइ महा-पवित्र हय ॥
१३६ ॥
चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, शंख तथा गोबर किन्हीं जीवों की अस्थियाँ और विष्ठा मात्र हैं, किन्तु श्रुतिवाक्य है कि ये दोनों अत्यन्त पवित्र हैं।
स्वतः-प्रमाण वेद सत्य येइ कय ।। लक्षणा' करिले स्वतः-प्रामाण्य-हानि हय ॥
१३७॥
वैदिक कथन स्वतः प्रमाण होते हैं। वेदों में वर्णित प्रत्येक कथन को स्वीकार करना चाहिए। यदि हम अपनी खुद की मनोकल्पना से उसकी व्याख्या करते हैं, तो वैदिक प्रमाण की सत्ता तुरन्त नष्ट हो जाती हैं।
व्यास-सूत्रेर अर्थ—प्रैछे सूर्येर किरण । स्व-कल्पित भाष्य-मेघे करे आच्छादन ।। १३८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, श्रील व्यासदेव द्वारा रचित ब्रह्मसूत्र सूर्य के समान तेजस्वी है। इसके अर्थ का अनुमान लगाने की चेष्टा सूर्य के इस प्रकाश को केवल बादल से आच्छादित करने के समान है।
वेद-पुराणे कहे ब्रह्म-निरूपण ।।सेइ ब्रह्म-—बृहद्वस्तु, ईश्वर-लक्षण ॥
१३९॥
सारे वेदों तथा वैदिक सिद्धान्तों को अनुगमन करने वाले अन्य साहित्य का निश्चित मत है कि परब्रह्म ही परम सत्य है, सबसे महान है और भगवान् का एक पहलू है।
सर्वैश्वर्य-परिपूर्ण स्वयं भगवान् ।ताँरै निराकार करि' करह व्याख्यान ॥
१४०॥
वास्तव में परम सत्य एक पुरुष है, पूर्ण पुरुष भगवान् है और सभी ऐश्वर्यों से पूर्णतया युक्त है। आप उनकी व्याख्या निराकार तथा निर्विशेष के रूप में कर रहे हैं।
‘निर्विशेष' ताँरे कहे येइ श्रुति-गण ।‘प्राकृत' निषेधि करे 'अप्राकृत' स्थापन ॥
१४१॥
वेदों में जहाँ कहीं भी निराकार का वर्णन हुआ है, वहाँ वेदों का उद्देश्य यह स्थापित करना है कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् से सम्बन्धित हर वस्तु दिव्य है और भौतिक गुणों से सर्वथा स्वतन्त्र है।
ग्रा य़ा श्रुतिर्जल्पति निर्विशेषसा साभिधत्ते स-विशेषमेव । विचार-योगे सति हन्त तासांप्रायो बलीयः स-विशेषमेव ।। १४२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, परम सत्य को निराकार वर्णित करने वाले मंत्र अन्त में यही सिद्ध करते हैं कि परम सत्य एक पुरुष है। भगवान् निराकार तथा साकार इन दो रूपों में समझे जाते हैं। यदि कोई व्यक्ति पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को इन दोनों रूपों में मानता है, तो वह सचमुच परम सत्य को समझ सकता है। वह जानता है कि साकार ज्ञान सशक्त है, क्योंकि हम देखते हैं कि हर वस्तु विविधता से पूर्ण है। कोई व्यक्ति ऐसी वस्तु नहीं देख सकता जो विविधता से पूर्ण न हो।'
ब्रह्म हैते जन्मे विश्व, ब्रह्मते जीवय ।। सेई ब्रह्मे पुनरपि हये ग्राय लय ॥
१४३ ॥
इस विराट जगत् की प्रत्येक वस्तु परम सत्य से उत्पन्न होती है, उसी में रहती है और प्रलय के बाद पुनः परम सत्य में प्रवेश करती है।
‘अपादान,' ‘करण, ''अधिकरण'-कारक तिन । भगवानेर सविशेषे एइ तिन चिह्न ॥
१४४॥
। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के साकार स्वरूप की तीन श्रेणियाँ हैंअपादान, करण तथा अधिकरण।
भगवान् बहु हैते ग्रबे कैल मन ।। प्राकृत-शक्तिते तबे कैल विलोकन ॥
१४५॥
से काले नाहि जन्मे 'प्राकृत' मनो-नयन । अतएव 'अप्राकृत' ब्रह्मेर नेत्र-मन ॥
१४६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, जब पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ने अनेक होने की इच्छा की, तब उन्होंने भौतिक प्रकृति पर दृष्टिपात किया। सृष्टि के पूर्व भौतिक नेत्रों या मन का आस्तित्व नहीं था, अतएव परम सत्य के मन तथा नेत्रों की दिव्य प्रकृति की पुष्टि होती है।
ब्रह्म-शब्दे कहे पूर्ण स्वयं भगवान् ।स्वयं भगवान्कृष्ण, शास्त्रेर प्रमाण ॥
१४७ । ब्रह्म' शब्द पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को सूचित करता है, जो स्वयं श्रीकृष्ण हैं। यही समस्त वैदिक साहित्य का निर्णय है।
वेदेर निगूढ़ अर्थ बुझन ना हय । पुराण-वाक्ये सेइ अर्थ करय निश्चय ॥
१४८ ॥
। साधारण लोग आसानी से वेदों के गूढ़ अर्थ को नहीं समझ पाते, इसलिए उसकी पूर्ति पुराणों के वाक्यों द्वारा की जाती है।
अहो भाग्यमहो भाग्यं नन्द-गोप-व्रजौकसाम् ।।ग्रन्मित्रं परमानन्दं पूर्णं ब्रह्म सनातनम् ॥
१४९ ॥
नन्द महाराज, गोप तथा व्रजभूमि के सारे निवासी कितने भाग्यशाली हैं। उनके भाग्य की कोई सीमा नहीं है, क्योंकि दिव्य आनन्द के स्रोत सनातन परम ब्रह्म, परम सत्य उनके मित्र बन चुके हैं।
अपाणि-पाद'-श्रुति वर्जे 'प्राकृत' पाणि-चरण ।पुनः कहे, शीघ्र चले, करे सर्व ग्रहण ॥
१५०॥
। अपाणि-पाद-वैदिक मन्त्र भौतिक हाथों तथा पाँवों का निषेध करता है, फिर भी यह बतलाता है कि भगवान् अत्यन्त तेज चलते हैं और अर्पित की जाने वाली हर वस्तु को ग्रहण करते हैं।
अतएव श्रुति कहे, ब्रह्म-सविशेष ।।‘मुख्य' छाड़ि' ‘लक्षणा'ते माने निर्विशेष ॥
१५१॥
ये सभी मन्त्र इसकी पुष्टि करते हैं कि परम सत्य साकार है, किन्तु मायावादी मुख्य अर्थ को त्यागकर परम सत्य का निराकार या निर्विशेष के रूप में अर्थ लगाते हैं।
षडू-ऐश्वर्य-पूर्णानन्द-विग्रह याँहार ।।हेन-भगवाने तुमि कह निराकार ? ॥
१५२ ।। जिन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का दिव्य स्वरूप छह दिव्य ऐश्वर्यों से युक्त है, क्या आप उन्हें निराकार कह रहे हैं? स्वाभाविक तिन शक्ति येइ ब्रह्मे हय । ‘नि:शक्तिक' करि' ताँरे करह निश्चय? ॥
१५३॥
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की तीन मूल शक्तियाँ होती हैं। तो क्या आप यह सिद्ध करना चाहते हैं कि उनकी शक्तियाँ नहीं होतीं? विष्णु-शक्तिः परा प्रोक्ता क्षेत्र-ज्ञाख्या तथा परा ।।अविद्या-कर्म-संज्ञान्या तृतीया शक्तिरिष्यते ॥
१५४॥
जैसाकि शास्त्रों में कहा गया है, भगवान् विष्णु की अन्तरंगी शक्ति आध्यात्मिक है। एक अन्य आध्यात्मिक शक्ति है, जो क्षेत्रज्ञ या जीव कहलाती है। तीसरी शक्ति अविद्या कहलाती है, जो जीव को ईश्वरविहीन (निरीश्वर) बनाती है और उसे सकाम कर्म से पूरित करती है।
यया क्षेत्र-ज्ञ-शक्तिः सा वेष्टिता नृप सर्व-गा। संसार-तापानखिलानवाप्नोत्यत्र सन्ततान् ॥
१५५॥
। । हे राजन्, क्षेत्रज्ञ शक्ति जीव है। यद्यपि उसे भौतिक में अथवा तो आध्यात्मिक जगत् में रहने की सुविधा प्राप्त है, किन्तु वह अविद्या शक्ति के वशीभूत होकर भौतिक जगत् के तीन प्रकार के कष्टों को भोगता है, क्योंकि यह शक्ति उसकी स्वाभाविक वैधानिक स्थिति को आच्छादित कर लेती है।
तया तिरोहितत्वाच्च शक्तिः क्षेत्र-ज्ञ-संज्ञिता ।सर्व-भूतेषु भू-पाल तारतम्येन वर्तते ॥
१५६ ॥
अविद्या के प्रभाव में आच्छादित होकर यह जीव भौतिक अवस्था में विभिन्न रूपों में विद्यमान रहता है। हे राजन्, इस तरह वह कम या अधिक मात्रा में भौतिक शक्ति के प्रभाव के अनुपात में मुक्त रहता है।'
ह्लादिनी सन्धिनी सम्वित्त्वय्येका सर्व-संश्रये ।। ह्लाद-ताप-करी मिश्रा त्वयि नो गुण-वर्जिते ॥
१५७॥
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् सच्चिदानन्द विग्रह हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि उनमें मूलतः तीन शक्तियाँ हैं-ह्लादिनी ( आनन्द), सन्धिनी (शाश्वतता ) तथा सम्वित् (ज्ञान-शक्ति)। ये सभी मिलकर चित् शक्ति कहलाती हैं और भगवान् में ये पूर्णरूपेण पाई जाती हैं। भगवान् के अंशरूप जीवों के लिए भौतिक जगत् में ह्लादिनी शक्ति कभी अरुचिकर होती है और कभी मिश्रित होती है। किन्तु पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के साथ ऐसा नहीं है, क्योंकि वे भौतिक शक्ति या उसके गुणों से प्रभावित नहीं होते।'
सच्चिदानन्द-मय हय ईश्वर-स्वरूप । तिन अंशे चिच्छक्ति हय तिन रूप ॥
१५८॥
। अपने आदि रूप में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् शाश्वतता, ज्ञान तथा आनन्द से परिपूर्ण हैं। इन तीनों अंशों ( सत्, चित्, आनन्द) में आध्यात्मिक शक्ति तीन विभिन्न रूप ग्रहण करती है।
आनन्दांशे ‘ह्लादिनी,' सदंशे ‘सन्धिनी' ।चिदंशे 'सम्वित्', यारे ज्ञान करि मानि ॥
१५९॥
आध्यात्मिक शक्ति के तीन अंश ह्लादिनी ( आनन्द अंश), सन्धिनी (सत् अंश) तथा सम्वित् (चित् या ज्ञान अंश) कहलाते हैं। हम इन तीनों के ज्ञान को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के पूर्ण ज्ञान के रूप में स्वीकार करते हैं।
अन्तरङ्गा–चिच्छक्ति, तटस्था--जीव-शक्ति । बहिरङ्गा–माया, तिने करे प्रेम-भक्ति ॥
१६०॥
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की आध्यात्मिक शक्ति भी तीन अवस्थाओं में प्रकट होती है-अन्तरंगा, तटस्था तथा बहिरंगा। ये सभी उनकी प्रेमाभक्ति में लगी रहती हैं।
घडू-विध ऐश्वर्य-प्रभुर चिच्छक्ति-विलास ।।हेन शक्ति नाहि मान, परम साहस ॥
१६१॥
भगवान् अपनी आध्यात्मिक शक्ति में छह प्रकार के ऐश्वर्यों का भोग करते हैं। आप इस आध्यात्मिक शक्ति को स्वीकार नहीं करते। यह आपकी भारी धृष्टता के कारण है।
‘मायाधीश' ‘माया-वश'–ईश्वरे-जीवे भेद । हेन-जीवे ईश्वर-सह कह त' अभेद ॥
१६२॥
भगवान् शक्तियों के अधीश्वर हैं और जीव उनका दास है। भगवान् तथा जीव में यही अन्तर है। किन्तु आप यह कह रहे हैं कि भगवान् तथा जीव एक ही हैं।
गीता-शास्त्रे जीव-रूप 'शक्ति' करि' माने ।हेन जीवे 'भेद' कर ईश्वरेर सने ॥
१६३॥
भगवद्गीता में जीव को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की तटस्था शक्ति बतलाया गया है। फिर भी आप कहते हो कि जीव भगवान् से पूर्णतया भिन्न है।
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च । अहङ्कार इतीयं मे भिन्न प्रकृतिरष्टधा ॥
१६४।। । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा मिथ्या अहंकार-ये मेरी आठ पृथक् शक्तियाँ हैं।
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि में पराम् । जीव-भूतां महा-बाहो ग्रयेदं धार्यते जगत् ॥
१६५॥
इन भौतिक निकृष्ट शक्तियों के अतिरिक्त मेरी एक अन्य शक्ति है, जो कि आध्यात्मिक शक्ति है और हे महाबाहु, यह जीव है। सारा भौतिक जगत् जीवों के द्वारा धारण किया जाता है।
ईश्वरेर श्री-विग्रह सच्चिदानन्दाकार । से-विग्रहे कह सत्त्व-गुणेर विकार ॥
१६६॥
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का दिव्य स्वरूप शाश्वतता, ज्ञान तथा आनन्द से परिपूर्ण है, किन्तु आप इसे भौतिक सत्त्वगुण की उपज बतला रहे हैं।
श्री-विग्रह ये ना माने, सेइ त' पाषण्डी ।। अदृश्य अस्पृश्य, सेइ हय ग्रम-दण्डी ॥
१६७॥
जो व्यक्ति भगवान् के दिव्य रूप को स्वीकार नहीं करता, वह निश्चय ही पाषण्डी है। ऐसे व्यक्ति को न तो देखना चाहिए, न ही उसका स्पर्श करना चाहिए। निस्सन्देह, वह यमराज द्वारा दण्डनीय है।
वेद ना मानिया बौद्ध हय त' नास्तिक । वेदाश्रय नास्तिक्य-वाद बौद्धके अधिक ॥
१६८॥
चूंकि बौद्धगण वेदों की सत्ता को नहीं मानते, अतएव वे नास्तिक माने जाते हैं। किन्तु जो लोग वैदिक शास्त्रों की शरण लेकर भी मायावादी दर्शन के अनुसार नास्तिकता का प्रचार करते हैं, वे बौद्धों से भी अधिक नास्तिक हैं।
जीवेर निस्तार लागि' सूत्र कैल व्यास । मायावादि-भाष्य शुनिले हय सर्वनाश ॥
१६९॥
। श्रील व्यासदेव ने बद्धजीवों के उद्धार हेतु वेदान्त-दर्शन प्रस्तुत किया, किन्तु यदि कोई व्यक्ति शंकराचार्य का भाष्य सुनता है, तो उसका सर्वनाश हो जाता है।
‘परिणाम-वाद'–व्यास-सूत्रेर सम्मत ।अचिन्त्य-शक्ति ईश्वर जगद् रूपे परिणत ॥
१७० ॥
वेदान्त-सूत्र का लक्ष्य यह स्थापित करना है कि विराट जगत् पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की अचिन्त्य शक्ति के रूपान्तर से उत्पन्न हुआ है।
मणि ग्रैछे अविकृते प्रसबे हेम-भार ।जगद् रूप हय ईश्वर, तबु अविकार ॥
१७१॥
पारस-पत्थर लोहे का स्पर्श करके ढेरों सोना उत्पन्न करता है, किन्तु स्वयं अपरिवर्तित बना रहता है। इसी तरह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् अपनी अचिन्त्य शक्ति द्वारा अपने आपको विराट जगत् के रूप में प्रकट करते हैं, किन्तु उनका सनातन दिव्य स्वरूप अपरिवर्तित रहता है।
व्यास–भ्रान्त बलि' सेइ सूत्रे दोष दिया ।‘विवर्त-वाद' स्थापियाछे कल्पना करिया ॥
१७२ ॥
शंकराचार्य के सिद्धान्त के अनुसार परम सत्य रूपान्तरित होता है। इस सिद्धान्त के बल पर मायावादी दार्शनिक श्रील वेदव्यास में दोष दिखलाकर उन्हें नीचा दिखाते हैं। इस तरह वे वेदान्त-सूत्र में त्रुटि निकालते हैं और विवर्तवाद की स्थापना करने हेतु वे इस विषय में अपना अर्थ लगाते हैं।
जीवेर देहे आत्म-बुद्धि–सेइ मिथ्या हय ।।जगत् ग्रे मिथ्या नहे, नश्वर-मात्र हय ॥
१७३॥
विवर्तवाद तभी प्रभावी होता है, जब जीव अपनी पहचान शरीर के रूप में करे। किन्तु जहाँ तक विराट जगत् का सम्बन्ध है, इसे मिथ्या नहीं कहा जा सकता। हाँ, यह नश्वर अवश्य है।
'प्रणव' ये महा-वाक्य-—ईश्वरेर मूर्ति । प्रणव हैते सर्व-वेद, जगत् उत्पत्ति ॥
१७४॥
ॐकार की दिव्य ध्वनि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का शब्द-रूप है। सारा वैदिक ज्ञान तथा यह विराट जगत् भगवान् के इस शब्द-रूप से उत्पन्न हुए हैं।
‘तत्त्वमसि'-जीव-हेतु प्रादेशिक वाक्य । प्रणव ना मानि' तारे कहे महा-वाक्य ॥
१७५॥
तत्त्वमसि'(तुम वही हो) गौण ध्वनि ( प्रादेशिक वाक्य) जीव की जानकारी के लिए है, किन्तु मुख्य ध्वनि ॐकार है। शंकराचार्य ने ॐकार को महत्त्व न देकर तत्त्वमसि ध्वनि पर बल दिया है।
एइ-मते कल्पित भाष्ये शत दोष दिल ।।भट्टाचार्य पूर्व-पक्ष अपार करिल ॥
१७६ ॥
इस प्रकार श्री चैतन्य महाप्रभु ने शंकराचार्य के शारीरक भाष्य को काल्पनिक कहकर आलोचना की और उसमें सैकड़ों दोष दिखलाये, किन्तु सार्वभौम भट्टाचार्य ने शंकराचार्य का पक्ष लेते हुए अनेक तर्क प्रस्तुत किये।
वितण्डा, छल, निग्रहादि अनेक उठाइल ।सब खण्डि' प्रभु निज-मत से स्थापिले ॥
१७७॥
भट्टाचार्य ने छद्म तर्क समेत विविध प्रकार के मिथ्या तर्क प्रस्तुत किये और अपने प्रतिपक्षी को हराने के लिए अनेक प्रकार से प्रयास किये। किन्तु श्री चैतन्य महाप्रभु ने इन सारे तर्को को खण्डित किये और अपना मत स्थापित किया।
भगवान्–'सम्बन्ध', भक्ति-अभिधेय' हय । प्रेमा–‘प्रयोजन', वेदे तिन-वस्तु कय ॥
१७८ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, सभी सम्बन्धों के केन्द्र पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं, उनकी भक्ति करना (अभिधेय) मनुष्य का वास्तविक कर्म है और भगवत्प्रेम की प्राप्ति ही जीवन का चरम लक्ष्य (प्रयोजन ) है। वैदिक साहित्य में इन तीनों विषयों का वर्णन हुआ है।
आर ये ग्रे-किछु कहे, सकल-इ कल्पना ।। स्वतः-प्रमाण वेद-वाक्ये कल्पेन लक्षणा ॥
१७९॥
यदि कोई व्यक्ति भिन्न तरीके से वैदिक साहित्य की विवेचना करने की चेष्टा करता है, तो वह मात्र कल्पना है। स्वतः प्रमाणरूप वेद वाक्य के विषय में अनुमान लगाने को कोरी कल्पना ही समझना चाहिए।
आचार्गेर दोष नाहि, ईश्वर-आज्ञा हैल । अतएव कल्पना करि' नास्तिक-शास्त्र कैल ॥
१८०॥
वास्तव में इसमें शंकराचार्य का कोई दोष नहीं है। उन्होंने केवल पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के आदेश का पालन किया है। उन्हें किसी न किसी प्रकार के अनुमान की कल्पना करनी थी, अतएव उन्होंने ऐसा वैदिक साहित्य प्रस्तुत किया, जो पूर्णतया नास्तिक है।
स्वागमैः कल्पितैस्त्वं च जनान्मद्विमुखान्कुरु ।मां च गोपय ग्रेन स्यात्सृष्टिरेषोत्तरोत्तरा ॥
१८१॥
[ शिवजी को सम्बोधित करते हुए पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ने कहा : 'आप साधारण लोगों को वेदों की अपनी कल्पित व्याख्या द्वारा मुझसे विमुख कर दीजिए। आप मुझे इस प्रकार ढक दीजिए कि लोगों में ऐसा प्रचार हो कि वे भौतिक सभ्यता में प्रगति करने में अधिक रुचि लेने लगें, ताकि आध्यात्मिक ज्ञान से रहित जनसंख्या में वृद्धि हो।'
मायावादमसच्छास्त्रं प्रच्छन्नं बौद्धमुच्यते ।मयैव विहितं देवि कलौ ब्राह्मण-मूर्तिना ॥
१८२॥
[ शिवजी ने भौतिक जगत् की अधिष्ठात्री देवी दुर्गा को बतलाया : ‘कलियुग में मैं एक ब्राह्मण का रूप धारण करके मिथ्या शास्त्रों के माध्यम से वेदों की व्याख्या नास्तिक ढंग से करूँगा, जो बौद्ध दर्शन जैसी होगी।
शुनि' भट्टाचार्य हैल परम विस्मित ।मुखे ना नि:सरे वाणी, हइला स्तम्भित ॥
१८३॥
यह सुनकर सार्वभौम भट्टाचार्य अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गये। वे स्तम्भित रह गये और कुछ भी न बोल सके।
प्रभु कहे,—भट्टाचार्य, ना कर विस्मय । भगवाने भक्ति–परम-पुरुषार्थ हय ॥
१८४॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने उनसे कहा, आप विस्मित न हों। वास्तव में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की भक्ति मानव-कर्म की सर्वोच्च सिद्धि है।
‘आत्माराम' पर्यन्त करे ईश्वर भजन ।।ऐछे अचिन्त्य भगवानेर गुण-गण ॥
१८५ ॥
भगवान् के दिव्य गुण ऐसे हैं कि आत्मतुष्ट ( आत्माराम ) सन्त भी भगवान् की भक्ति करते हैं। उनके गुण अचिन्त्य आध्यात्मिक शक्ति से पूर्ण हैं।
आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे ।कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूत-गुणो हरिः ॥
१८६॥
जो आत्मतुष्ट ( आत्माराम ) हैं और बाह्य भौतिक इच्छाओं से विरक्त हैं, वे भी भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेममयी सेवा के प्रति आकृष्ट होते हैं, क्योंकि कृष्ण के गुण दिव्य हैं और उनके कार्यकलाप अद्भुत हैं। भगवान् हरि इसीलिए कृष्ण कहलाते हैं, क्योंकि वे दिव्य आकर्षक लक्षणों से युक्त हैं।
शुनि' भट्टाचार्य कहे,‘शुन, महाशय ।। एइ श्लोकेर अर्थ शुनिते वाञ्छा हय' ॥
१८७॥
आत्माराम श्लोक सुनने के बाद सार्वभौम भट्टाचार्य ने श्री चैतन्य महाप्रभु से आग्रह किया, 'हे महोदय, कृपया इस श्लोक की व्याख्या कीजिये। मैं इस पर आपकी व्याख्या सुनने के लिए अत्यन्त उत्सुक हूँ।'" प्रभु कहे,—तुमि कि अर्थ कर, ताहा आगे शुनि' । पाछे आमि करिब अर्थ, ग्रेबा किछु जानि' ॥
१८८॥
महाप्रभु ने उत्तर दिया, पहले मुझे अपनी व्याख्या सुनायें। तब मैं जो थोड़ा-बहुत जानता हूँ, बताने की चेष्टा करूंगा।
शुनि' भट्टाचार्य श्लोक करिल व्याख्याने । तर्क-शास्त्र-मत उठाय विविध विधान ॥
१८९॥
तब सार्वभौम भट्टाचार्य ने आत्माराम श्लोक की व्याख्या करनी शुरू की और तर्कशास्त्र के सिद्धान्तों के अनुसार उन्होंने अनेक प्रस्तावनाएँ प्रस्तुत कीं।
नव-विध अर्थ कैल शास्त्र-मत ला । शुनि' प्रभु कहे किछु ईषत् हासिया ॥
१९०॥
भट्टाचार्य ने शास्त्रों के आधार पर आत्माराम श्लोक की व्याख्या नौ विविध प्रकारों से की। उनकी व्याख्या सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु मन्दहास करते हुए बोले।।
‘भट्टाचार्य', जानि-तुमि साक्षात्बृहस्पति ।शास्त्र-व्याख्या करिते ऐछे कारो नाहि शक्ति ॥
१९१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, हे भट्टाचार्य, आप तो साक्षात् स्वर्गलोक के पुरोहित, बृहस्पति के समान हैं। निस्सन्देह इस जगत् में शास्त्रों की ऐसी व्याख्या करने की शक्ति अन्य किसी में नहीं है।
किन्तु तुमि अर्थ कैले पाण्डित्य-प्रतिभाय ।इहा वइ श्लोकेर आछे आरो अभिप्राय ॥
१९२॥
। हे प्रिय भट्टाचार्य, आपने अवश्य ही इस श्लोक की व्याख्या अपने विस्तृत पाण्डित्य के बल पर की है, किन्तु आप जान लीजिये कि इस पाण्डित्यपूर्ण व्याख्या के अतिरिक्त भी इस श्लोक का अन्य तात्पर्य है।
भट्टाचार्येर प्रार्थनाते प्रभु व्याख्या कैल ।। ताँर नव अर्थ-मध्ये एक ना छुडिल ॥
१९३॥
। सार्वभौम भट्टाचार्य के अनुरोध पर श्री चैतन्य महाप्रभु ने भट्टाचार्य के नवों अर्थों को छुये बिना श्लोक की व्याख्या प्रारम्भ की।
आत्मारामाश्च-श्लोके 'एकादश' पद हय । पृथक् पृथक् कैल पदेर अर्थ निश्चय ॥
१९४॥
आत्माराम श्लोक में ग्यारह शब्द हैं। श्री चैतन्य महाप्रभु ने एक-एक करके इनकी व्याख्या की।
तत्तत्पद-प्राधान्ये 'आत्माराम' मिलाञा ।। अष्टादश अर्थ कैल अभिप्राय लञा ॥
१९५॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने प्रत्येक शब्द को लेकर उसके साथ। आत्माराम शब्द को जोड़ा। इस तरह उन्होंने आत्माराम' शब्द की व्याख्या अठारह भिन्न प्रकार से की।
भगवान्, ताँर शक्ति, ताँर गुण-गण ।। अचिन्त्य प्रभाव तिनेर ना याय कथन ॥
१९६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्, उनकी विभिन्न शक्तियाँ तथा उनके दिव्य गुण-ये सभी अचिन्त्य शक्ति से युक्त हैं। उनकी पूर्ण व्याख्या कर पाना सम्भव नहीं है।
अन्य व्रत साध्य-साधन करि' आच्छादन । एइ तिने हरे सिद्ध-साधकेर मन ॥
१९७॥
ये तीनों आध्यात्मिक कार्यों में संलग्न सिद्ध जिज्ञासु को आकृष्ट कर लेते हैं तथा अन्य सभी प्रकार के आध्यात्मिक साधनों को आच्छादित कर लेते हैं।
सनकादि-शुकदेव ताहाते प्रमाण । एइ-मत नाना अर्थ करेन व्याख्यान ॥
१९८॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु ने शुकदेव गोस्वामी तथा सनक, सनत्कुमार, सनातन और सनन्दन नामक चार ऋषियों का प्रमाण प्रस्तुत करते हुए इस श्लोक की व्याख्या की। इस तरह महाप्रभु ने विविध अर्थ तथा व्याख्याएँ प्रस्तुत कीं।
शुनि' भट्टाचार मने हैल चमत्कार ।।प्रभुके कृष्ण जानि' करे आपना धिक्कार ॥
१९९॥
श्री चैतन्य महाप्रभु से आत्माराम श्लोक की व्याख्या सुनकर सार्वभौम भट्टाचार्य चकित रह गये। तब वे समझ गये कि श्री चैतन्य महाप्रभु साक्षात् कृष्ण हैं और उन्होंने स्वयं को निम्नलिखित शब्दों से धिक्कारा।
‘इँहो त' साक्षात्कृष्ण,–मुजि ना जानिया । महा-अपराध कैनु गर्वित हइया' ॥
२०० ॥
चैतन्य महाप्रभु निश्चय ही साक्षात् भगवान् कृष्ण हैं। उन्हें न समझ पाने के कारण और अपने पाण्डित्य पर अत्यन्त गर्वित होने के कारण मैंने अनेक अपराध किये हैं।
आत्म-निन्दा करि' लैल प्रभुर शरण ।कृपा करिबारे तबे प्रभुर हैल मन ॥
२०१॥
जब सार्वभौम भट्टाचार्य ने अपने आपको अपराधी कहकर धिक्कारा और महाप्रभु की शरण ग्रहण की, तो महाप्रभु का उन पर कृपा करने का मन हुआ।
निज-रूप प्रभु ताँरै कराइल दर्शन ।चतुर्भुज-रूप प्रभु हइला तखन ॥
२०२॥
। उन पर कृपा करने हेतु श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने विष्णु रूप का दर्शन कराया। उन्होंने तुरन्त चतुर्भुज रूप धारण कर लिया।
देखाइल ताँरे आगे चतुर्भुज-रूप ।पाछे श्याम-वंशी-मुख स्वकीय स्वरूप ॥
२०३॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने सर्वप्रथम अपना चतुर्भुज रूप दिखलाया और फिर वे उनके समक्ष कृष्ण के अपने मूल रूप में श्याम वर्ण तथा अधरों पर वंशी धारण किये प्रकट हुए।
देखि' सार्वभौम दण्डवत्करि' पड़ि' ।पुनः उठि' स्तुति करे दुइ कर गुड़ि' ॥
२०४॥
। जब सार्वभौम भट्टाचार्य ने चैतन्य महाप्रभु में भगवान् कृष्ण का स्वरूप देखा, तो वे तुरन्त उन्हें दण्डवत् प्रणाम करने के लिए गिर पड़े। फिर वे खड़े हुए और दोनों हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे।
प्रभुर कृपाय ताँर स्फुरिल सब तत्त्व । नाम-प्रेम-दान-आदि वर्णेन महत्त्व ॥
२०५॥
। महाप्रभु की कृपा से सार्वभौम भट्टाचार्य को सभी तत्त्व स्फुरित हो गये और वे भगवन्नाम का कीर्तन तथा भगवत्प्रेम का सर्वत्र वितरण करने के महत्त्व को समझ सके।
शत श्लोक कैल एक दण्ड ना ग्राइते ।। बृहस्पति तैछे श्लोक ना पारे करिते ॥
२०६॥
। सार्वभौम भट्टाचार्य ने अल्प समय में सौ श्लोक रच दिये। निस्सन्देह स्वर्गलोक के पुरोहित बृहस्पति भी इतनी शीघ्रता से श्लोकों की रचना नहीं कर सकते थे।
शुनि' सुखे प्रभु ताँरै कैल आलिङ्गन । भट्टाचार्य प्रेमावेशे हैल अचेतन ॥
२०७॥
एक सौ श्लोक सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने प्रसन्नतापूर्वक सार्वभौम भट्टाचार्य का आलिंगन किया और भगवत्प्रेम से अभिभूत होने के कारण सार्वभौम भट्टाचार्य तुरन्त अचेत हो गये।
अश्रु, स्तम्भ, पुलक, स्वेद, कम्प थरहरि । नाचे, गाय, कान्दे, पड़े प्रभु-पद धरि' ॥
२०८॥
। भगवत्प्रेम के भावावेश के कारण भट्टाचार्य की आँखों से आँसू झर रहे थे और उनका शरीर स्तम्भित था। वे पुलकित हो गये और उनको पसीना आ गया, वे काँपने और थरथराने लगे। वे कभी नाचते, कभी गाते, कभी रोते और कभी महाप्रभु के चरणकमलों का स्पर्श करने के लिए नीचे गिर पड़ते।
देखि' गोपीनाथाचार्य हरषित-मन ।। भट्टाचार्येर नृत्य देखि' हासे प्रभुर गण ॥
२०९॥
सार्वभौम भट्टाचार्य को इस भावावेश में देखकर गोपीनाथ आचार्य अत्यधिक हर्षित हुए। श्री चैतन्य महाप्रभु के सभी पार्षद भट्टाचार्य को इस तरह नाचते देखकर हँस पड़े।
गोपीनाथाचार्य कहे महाप्रभुर प्रति ।।'सेइ भट्टाचार्येर प्रभु कैले एइ गति' ॥
२१०॥
गोपीनाथ आचार्य ने चैतन्य महाप्रभु से कहा, हे प्रभु, आपने सार्वभौम भट्टाचार्य की यह गति बना दी है।
प्रभु कहे,--‘तुमि भक्त, तोमार सङ्ग हैते ।।जगन्नाथ इँहारे कृपा कैल भाल-मते' ॥
२११॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, आप भक्त हैं। आपकी संगति के कारण ही जगन्नाथ भगवान् ने इन पर यह कृपा की है।
तबे भट्टाचार्ये प्रभु सुस्थिर करिल ।।स्थिर हा भट्टाचार्य बहु स्तुति कैल ॥
२१२ ॥
इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने भट्टाचार्य को शान्त किया। शान्त होने पर उन्होंने महाप्रभु की अनेक प्रकार से स्तुतियाँ कीं।
‘जगत् निस्तारिले तुमि,—सेह अल्प-कार्य । आमा उद्धारिले तुमि,—ए शक्ति आश्चर्य ॥
२१३॥
सार्वभौम भट्टाचार्य द्वारा की गई स्तुति सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु अपने निवासस्थान पर लौट आये और भट्टाचार्य ने गोपीनाथ आचार्य के माध्यम से उन्हें वहीं पर भोजन करवाया।
तर्क-शास्त्रे जड़ आमि, भैछे लौह-पिण्ड । आमा द्रवाइले तुमि, प्रताप प्रचण्ड' ॥
२१४॥
तर्कशास्त्र सम्बन्धी अनेक पुस्तकें पढ़ने के कारण मेरी जड़ बुद्धि लोहे की छड़ के समान बन गई थी। फिर भी आपने मुझे द्रवित कर दिया, अतएव आपका प्रभाव अत्यन्त प्रचण्ड है।
स्तुति शुनि' महाप्रभु निज वासा आइला । भट्टाचार्य आचार्य-द्वारे भिक्षा कराइला ॥
२१५॥
सार्वभौम भट्टाचार्य ने कहा, हे प्रभु, आपने सारे जगत् का उद्धार किया है, किन्तु यह कोई बड़ा काम नहीं है। किन्तु आपने मेरा भी उद्धार कर दिया, जो निश्चित रूप से अद्भुत शक्ति का काम है।
आर दिन प्रभु गेला जगन्नाथ-दरशने । दर्शन करिला जगन्नाथ-शय्योत्थाने ॥
२१६॥
अगले दिन प्रातःकाल श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथजी का दर्शन करने मन्दिर गये और उन्होंने भगवान् के शय्या से उठने के दर्शन किये।
पूजारी आनिया माला-प्रसादान्न दिला ।।प्रसादान्न-माला पाआ प्रभु हर्ष हैला ॥
२१७॥
पुजारी ने उन्हें जगन्नाथजी को अर्पित फूल-मालाएँ तथा प्रसाद लाकर दिये। इससे महाप्रभु अत्यन्त प्रसन्न हुए।
सेइ प्रसादान्न-माला अञ्चले बान्धिया ।भट्टाचार्येर घरे आइला त्वरायुक्त हा ॥
२१८॥
इस प्रसाद तथा माला को सावधानी से कपड़े में बाँधकर श्री चैतन्य महाप्रभु सार्वभौम भट्टाचार्य के घर की ओर तेजी से बढ़े।
अरुणोदय-काले हैल प्रभुर आगमन ।।सेइ-काले भट्टाचार हैल जागरण ॥
२१९॥
वे सूर्योदय होने से थोड़ा पहले भट्टाचार्य के घर पधारे। ठीक उसी समय भट्टाचार्य सोकर जगे थे।
‘कृष्ण' 'कृष्ण' स्फुट कहि' भट्टाचार्य जागिला ।कृष्ण-नाम शुनि' प्रभुर आनन्द बाड़िला ॥
२२०॥
सार्वभौम भट्टाचार्य ने उठते ही स्पष्ट रूप से कृष्ण, कृष्ण का उच्चारण किया। श्री चैतन्य महाप्रभु उन्हें कृष्ण-नाम का उच्चारण करते सुनकर अत्यन्त हर्षित हुए।
बाहिरे प्रभुर तेहो पाइल दरशन ।आस्ते-व्यस्ते आसि' कैल चरण वन्दन ॥
२२१॥
भट्टाचार्य ने महाप्रभु को बाहर खड़े देखा, तो आतुरता से वे उनके पास गये और उनके चरणकमलों की वन्दना की।
वसिते आसन दिया मुँहेत वसिला ।।प्रसादान्न खुलि' प्रभु ताँर हाते दिला ॥
२२२॥
भट्टाचार्य ने महाप्रभु को बैठने के लिए आसन दिया और फिर दोनों ने आसन ग्रहण किया। तत्पश्चात् श्री चैतन्य महाप्रभु ने प्रसाद खोला और उसे भट्टाचार्य के हाथों पर रख दिया।
प्रसादान्न पाजा भट्टाचार्येर आनन्द हैल ।। स्नान, सन्ध्या, दन्त-धावन यद्यपि ना कैल ॥
२२३॥
। उस समय भट्टाचार्य ने न तो मुँह धोया था, न स्नान किया था, न ही प्रात:कालीन नित्य कर्म किया था। फिर भी वे जगन्नाथजी का प्रसाद पाकर अत्यन्त आनन्दित थे।
चैतन्य-प्रसादे मनेर सब जाडूय गेल ।एइ श्लोक पड़ि' अन्न भक्षण करिल ॥
२२४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा से सार्वभौम भट्टाचार्य के मन की सारी जड़ता दूर हो गई थी। उन्होंने निम्नलिखित दो श्लोक पढ़कर उस प्रसाद को ग्रहण किया।
शुष्कं पर्युषितं वापि नीतं वा दूर-देशतः । प्राप्ति-मात्रेण भोक्तव्यं नात्र काल-विचारणा ॥
२२५॥
भट्टाचार्य ने कहा, भगवान् का महाप्रसाद पाते ही उसे तुरन्त ग्रहण कर लेना चाहिए, भले ही वह सूखा, बासी या दूर देश से लाया हुआ क्यों न हो। इसमें देश व काल का विचार नहीं करना चाहिए।
न देश-नियमस्तत्र न काल-नियमस्तथा ।प्राप्तमन्नं द्रुतं शिष्टैर्भोक्तव्यं हरिरब्रवीत् ॥
२२६॥
शिष्ट लोगों को चाहिए कि ज्योंही भगवान् कृष्ण का प्रसाद प्राप्त हो, त्योंही उसे ग्रहण कर लिया जाये; इसमें किसी प्रकार का संकोच नहीं करना चाहिए। इसके लिए देश तथा काल के विषय में कोई नियम नहीं है। यह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का आदेश है।
देखि' आनन्दित हैल महाप्रभुर मन ।।प्रेमाविष्ट हा प्रभु कैला आलिङ्गन ॥
२२७॥
यह देखकर श्री चैतन्य महाप्रभु अत्यन्त प्रसन्न हुए। वे भगवत्प्रेम में भावाविष्ट हो गये और उन्होंने सार्वभौम भट्टाचार्य का आलिंगन किया।
दुइ-जने धरि' मुँहे करेन नर्तन ।।प्रभु-भृत्य हा स्पर्शे, दोंहार फुले मन ॥
२२८॥
प्रभु तथा दास ने एक-दूसरे का आलिंगन किया और दोनों नाचने लगे। वे एक-दूसरे के स्पर्श मात्र से भावाविष्ट हो गये।
स्वेद-कम्प-अश्रु पँहे आनन्दे भासिला ।प्रेमाविष्ट हञा प्रभु कहिते लागिला ॥
२२९॥
जब वे नाचने लगे और आलिंगन करने लगे, तो उनके शरीरों में आध्यात्मिक लक्षण प्रकट होने लगे। उनको पसीना आ गया, वे काँपने तथा रोने लगे और महाप्रभु भावावेश में बोलने लगे।
आजि मुजि अनायासे जिनिनु त्रिभुवन ।।आजि मुजि करिनु वैकुण्ठ आरोहण ॥
२३०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, आज मैंने बड़ी आसानी से तीनों लोकों को जीत लिया है। आज मुझे वैकुण्ठ लोक प्राप्त हो गया है।
आजि मोर पूर्ण हैल सर्व अभिलाष । सार्वभौमेर हैल महा-प्रसादे विश्वास ॥
२३१॥
चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, मेरी समझ में आज मेरी सारी इच्छाएँ पूरी हो गईं, क्योंकि मैं देख रहा हूँ कि सार्वभौम भट्टाचार्य को जगन्नाथजी के महाप्रसाद में श्रद्धा उत्पन्न हो गई है।
आजि तुमि निष्कपटे हैला कृष्णाश्रय । कृष्ण आजि निष्कपटे तोमा हैल सदय ॥
२३२॥
निस्सन्देह, आज आपने निष्कपट होकर कृष्ण के चरणकमलों की शरण ग्रहण की है और कृष्ण भी निष्कपट होकर आपके प्रति अत्यन्त दयालु हो गये हैं।
आजि से खण्डिल तोमार देहादि-बन्धन । आजि तुमि छिन्न कैले मायार बन्धन ॥
२३३ ।। हे प्रिय भट्टाचार्य, आज आप देहात्म-बुद्धि के भौतिक बन्धन से मुक्त हो गये। आपने माया के बन्धन को खण्ड-खण्ड कर दिया है।
आजि कृष्ण-प्राप्ति-योग्य हैल तोमार मन ।। वेद धर्म लङ्घि' कैले प्रसाद भक्षण ॥
२३४॥
आज आपका मन कृष्ण के चरणकमलों की शरण ग्रहण करने के योग्य हुआ है, क्योंकि आपने वैदिक नियमों का उल्लंघन करके भगवत्प्रसाद ग्रहण किया है।
येषां स एष भगवान्दययेदनन्तः सर्वात्मनाश्रित-पदो ग्नदि नियंलीकम् । ते दुस्तरामतितरन्ति च देव-मायां ।नैषां ममाहमिति धीः श्व-शृगाल-भक्ष्ये ॥
२३५॥
। जब मनुष्य निष्कपट भाव से पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के चरणकमलों की शरण ग्रहण करता है, तो असीम दयालु भगवान् उस पर अपनी अहैतुकी कृपा दिखलाते हैं। इस तरह वह अज्ञान के दुर्लंघ्य सागर को पार कर सकता है। जिसकी बुद्धि देहात्म-बोध में लगी रहती है और जो यह सोचता है कि, मैं यह शरीर हूँ वह कुत्तों तथा सियारों का उपयुक्त भोजन है। परम भगवान् ऐसे व्यक्ति पर कभी कृपा नहीं करते।
एत कहि' महाप्रभु आइला निज-स्थाने । सेइ हैते भट्टाचार्येर खण्डिले अभिमाने ॥
२३६॥
सार्वभौम भट्टाचार्य से ऐसा कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु अपने निवासस्थान लौट आये। उस दिन से भट्टाचार्य मुक्त हो गये, क्योंकि उनका मिथ्या अभिमान टूट चुका था।
चैतन्य-चरण विने नाहि जाने आन ।भक्ति विनु शास्त्रेर आर ना करे व्याख्यान ॥
२३७॥
। उस दिन से सार्वभौम भट्टाचार्य ने श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों के अतिरिक्त और कुछ नहीं जाना। उस दिन से वे केवल भक्तियोग के अनुसार शास्त्रों की व्याख्या करने लगे।
गोपीनाथाचार्य ताँर वैष्णवता देखियो ।‘हरि' ‘हरि' बलि' नाचे हाते तालि दिया ॥
२३८॥
सार्वभौम भट्टाचार्य को वैष्णव सम्प्रदाय में दृढ़ता के साथ अवस्थित हुए देखकर उनके बहनोई गोपीनाथ आचार्य नाचने, ताली बजाने और हरि! हरि का उच्चारण करने लगे।
आर दिन भट्टाचार्य आइला दर्शने ।। जगन्नाथ ना देखि' आइला प्रभु-स्थाने ॥
२३९॥
अगले दिन भट्टाचार्य जगन्नाथ मन्दिर गये, किन्तु मन्दिर पहुँचने के पहले वे चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करने गये।
दण्डवत्करि' कैल बहु-विध स्तुति । दैन्य करि' कहे निज पूर्व-दुर्मति ॥
२४० ॥
महाप्रभु से मिलने पर भट्टाचार्य ने उन्हें दण्डवत् प्रणाम किया। विविध प्रकार से उनकी स्तुति करने के बाद उन्होंने अत्यन्त दीन भाव से अपनी पूर्व दुर्मति का वर्णन किया।
भक्ति-साधन-श्रेष्ठ शुनिते हैल मन । प्रभु उपदेश कैल नाम-सङ्कीर्तन ॥
२४१॥
तत्पश्चात् भट्टाचार्य ने चैतन्य महाप्रभु से पूछा, भक्ति की साधना में कौन-सा कार्य सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है? महाप्रभु ने उत्तर दिया कि सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन है।
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् । कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ॥
२४२॥
कलह और दिखावे के इस युग में उद्धार का एकमात्र साधन भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन है। इसके अतिरिक्त अन्य कोई साधन नहीं है, अन्य कोई नहीं है, अन्य कोई नहीं है।
एइ श्लोकेर अर्थ शुनाइल करिया विस्तार । शुनि' भट्टाचार्य-मने हैल चमत्कार ॥
२४३॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने बृहन्नारदीय-पुराण के हरेर्नाम श्लोक की विस्तार से व्याख्या की। सार्वभौम भट्टाचार्य उनकी व्याख्या सुनकर चकित रह गये।
गोपीनाथाचार्य बले,–'आमि पूर्वे ग्रे कहिल ।शुन, भट्टाचार्य, तोमार सेइ त' हइल' ॥
२४४॥
गोपीनाथ आचार्य ने सार्वभौम भट्टाचार्य को स्मरण कराया, प्रिय भट्टाचार्य, मैंने आपसे जो कुछ पहले कहा था, अब वह घटित हो गया।"
भट्टाचार्य कहे ताँरे करि' नमस्कारे । तोमार सम्बन्धे प्रभु कृपा कैल मोरे ॥
२४५ ॥
गोपीनाथ आचार्य को नमस्कार करते हुए भट्टाचार्य ने कहा, मैं आपका सम्बन्धी हूँ और आप भक्त हैं, अतएव आपकी कृपा से महाप्रभु ने मुझ पर कृपा की है।
तुमि–महाभागवत, आमि तर्क-अन्धे । प्रभु कृपा कैल मोरे तोमार सम्बन्धे ॥
२४६॥
आप महाभागवत (उच्च कोटि के भक्त ) हैं और मैं तर्कशास्त्र के अन्धकार में पड़ा हुआ व्यक्ति। किन्तु भगवान् के साथ आपका सम्बन्ध होने के कारण भगवान् ने मुझे अपना आशीर्वाद प्रदान किया है।
विनय शुनि' तुष्ट्ये प्रभु कैल आलिङ्गन ।। कहिल,—ग्राञा करह ईश्वर दरशन ॥
२४७॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु इस विनीत वचन से अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने भट्टाचार्य का आलिंगन करके उनसे कहा, अब आप मन्दिर में भगवान् जगन्नाथ का दर्शन करने जाएँ।
जगदानन्द दामोदर, दुई सङ्गे ला । घरे आइल भट्टाचार्य जगन्नाथ देखिया ॥
२४८॥
भगवान् जगन्नाथ के मन्दिर के दर्शन करने के बाद सार्वभौम भट्टाचार्य जगदानन्द तथा दामोदर के साथ घर लौट आये।।
उत्तम उत्तम प्रसाद बहुत आनिला ।। निज-विप्र-हाते दुइ जना सङ्गे दिला ॥
२४९॥
भट्टाचार्य अपने साथ भगवान जगन्नाथ का बहुत-सा सर्वोत्तम प्रसाद ले आये थे। उन्होंने यह सारा प्रसाद अपने ब्राह्मण सेवक तथा जगदानन्द और दामोदर को दे दिया।
निज कृत दुइ श्लोक लिखिया ताल-पाते । ‘प्रभुके दिह' बलि' दिल जगदानन्द-हाते ॥
२५०॥
तब सार्वभौम भट्टाचार्य ने ताड़पत्र पर दो श्लोकों की रचना की और वह ताड़पत्र जगदानन्द प्रभु को देते हुए उनसे प्रार्थना की कि वे उसे श्री । चैतन्य महाप्रभु को दे दें।
प्रभु-स्थाने आइला मुँहे प्रसाद-पत्री ला ।। मुकुन्द दत्त पत्री निल तार हाते पाञा ॥
२५१॥
तब जगदानन्द तथा दामोदर प्रसाद तथा वह लिखा ताड़पत्र लेकर श्री चैतन्य महाप्रभु के पास लौट आये। किन्तु मुकुन्द दत्त ने वह ताड़पत्र महाप्रभु को दिये जाने के पूर्व ही जगदानन्द के हाथ से ले लिया।
दुइ श्लोक बाहिर-भिते लिखिया राखिल ।। तबे जगदानन्द पत्री प्रभुके लञा दिल ॥
२५२॥
। तब मुकुन्द दत्त ने कमरे की बाहरी दीवाल पर दोनों श्लोकों को लिख दिये। इसके बाद जगदानन्द ने मुकुन्द दत्त से ताड़पत्र ले लिया और उसे श्री चैतन्य महाप्रभु को दे दिया।
प्रभु श्लोक पड़ि' पत्र छिण्डिया फेलिल । भित्त्ये देखि' भक्त सब श्लोक कण्ठे कैल ॥
२५३॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने दोनों श्लोकों को पढ़ते ही ताड़पत्र को तुरन्त फाड़ डाला। किन्तु सारे भक्तों ने बाहरी दीवाल पर इन श्लोकों को पढ़े और उन्हें कण्ठस्थ कर लिये। ये श्लोक इस प्रकार थे।
वैराग्य-विद्या-निज-भक्ति-योगशिक्षार्थमेकः पुरुषः पुराणः । श्री-कृष्ण-चैतन्य-शरीर-धारीकृपाम्बुधिय़स्तमहं प्रपद्ये ॥
२५४॥
। मैं उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण करता हूँ, जो हमें वास्तविक ज्ञान, अपनी भक्ति तथा कृष्णभावनामृत के विकास में बाधक वस्तुओं से विरक्ति सिखलाने के लिए श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में अवतरित हुए हैं। वे दिव्य कृपा के सिन्धु होने के कारण अवतरित हुए हैं। मैं उनके चरणकमलों की शरण ग्रहण करता हूँ।
कालान्नष्टं भक्ति-योगं निजं ग्रः।प्रादुष्कर्तुं कृष्ण-चैतन्य-नामा । आविर्भूतस्तस्य पादारविन्दे । गाढ़े गाढ़े लीयतां चित्त-भृङ्गः ॥
२५५॥
मधुकर के समान मेरी चेतना उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के चरणकमलों की शरण ग्रहण करे, जो अब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में अपने प्रति प्राचीन भक्तियोग की शिक्षा देने के लिए प्रकट हुए हैं। यह भक्तियोग समय के प्रभाव से लुप्तप्राय हो चुका था।
एइ दुइ श्लोक-भक्त-कण्ठे रत्न-हार । सार्वभौमेर कीर्ति घोषे ढक्का-वाद्याकार ॥
२५६ ।। । सार्वभौम भट्टाचार्य द्वारा रचित ये दोनों श्लोक उनके नाम तथा यश की घोषणा ढोल की थाप के समान उच्च स्वर से सदैव करते रहेंगे, क्योंकि ये श्लोक सारे भक्तों के कंठ का रत्नहार बन चुके हैं।
सार्वभौम हैला प्रभुर भक्त एकतान । महाप्रभुर सेवा-विना नाहि जाने आन ॥
२५७॥
निस्सन्देह, सार्वभौम भट्टाचार्य चैतन्य महाप्रभु के अनन्य भक्त बन गये। महाप्रभु की सेवा के अतिरिक्त वे दूसरा कुछ भी नहीं जानते थे।
'श्री-कृष्ण-चैतन्य शची-सूत गुण-धाम' ।। एई ध्यान, एई जपे, लये एइ नाम ॥
२५८ ॥
भट्टाचार्य सदैव माता शची के पुत्र एवं समस्त सद्गुणों के आगार श्रीकृष्ण चैतन्य के नाम का कीर्तन करते थे। निस्सन्देह नाम-कीर्तन ही उनका ध्यान बन गया।
एक-दिन सार्वभौम प्रभु-आगे आइला ।नमस्कार करि' श्लोक पड़िते लागिला ॥
२५९ ॥
एक दिन सार्वभौम भट्टाचार्य चैतन्य महाप्रभु के समक्ष आये और नमस्कार करने के बाद एक श्लोक सुनाने लगे।
भागवतेर ‘ब्रह्म-स्तवे'र श्लोक पड़िला ।श्लोक-शेषे दुइ अक्षर-पाठ फिराइला ॥
२६० ॥
वे श्रीमद्भागवत से ब्रह्माजी की एक स्तुति सुनाने लगे, किन्तु उन्होंने श्लोक के अन्तिम दो अक्षरों को बदल दिया।
तत्तेऽनुकम्पां सुसमीक्षमाणोभुञ्जान एवात्म-कृतं विपाकम् । हृद्वाग्वपुभिर्विदधन्नमस्ते ।जीवेत म्रो भक्ति-पदे स दाय-भाक् ॥
२६१॥
[ यह श्लोक थाजो आपकी अनुकम्पा चाहता है और अपने विगत कर्मों से उत्पन्न सभी प्रकार की विपरीत परिस्थितियों को सहन करता है, जो मन, वचन तथा शरीर से सदैव आपकी सेवा में संलग्न रहता है और जो सदैव आपको नमस्कार करता है, वह निश्चय ही आपका अनन्य भक्त बनने का पात्र है।
प्रभु कहे, ‘मुक्ति-पदे'—इहा पाठ हय । ‘भक्ति-पदे' केने पड़, कि तोमार आशय ॥
२६२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने तुरन्त आपत्ति की, उस श्लोक में 'मुक्तिपदे' शब्द आया है, किन्तु आपने इसे बदलकर 'भक्तिपदे' कर दिया है। आप क्या कहना चाहते हैं? भट्टाचार्य कहे,–'भक्ति'-सम नहे मुक्ति-फल ।भगवद्भक्ति-विमुखेर हय दण्ड केवल ॥
२६३ ॥
सार्वभौम भट्टाचार्य ने उत्तर दिया, शुद्ध भगवत्प्रेम का उदय जो भक्ति का फल है, वह भौतिक बन्धन की मुक्ति से कहीं बढ़कर है। जो भक्ति से विमुख हैं, उनके लिए ब्रह्मतेज में समा जाना एक प्रकार का दण्ड है।
कृष्णेर विग्रह येइ सत्य नाहि माने ।। येइ निन्दा-युद्धादिक करे ताँर सने ॥
२६४॥
सेइ दुइर दण्ड हय–ब्रह्म-सायुज्य-मुक्ति' ।तार मुक्ति फल नहे, ग्रेड करे भक्ति ॥
२६५ ॥
। भट्टाचार्य ने आगे कहा, भगवान् श्रीकृष्ण के दिव्य रूप को न मानने वाले निर्विशेषवादी तथा भगवान् की निन्दा करने और उनसे सदैव युद्ध करने वाले असुर ब्रह्मज्योति में समाकर दण्डित होते हैं। किन्तु जो व्यक्ति भगवान् की भक्तिमयी सेवा में लगा रहता है, उसके साथ ऐसा नहीं होता।
यद्यपि से मुक्ति हय पञ्च-परकार ।सालोक्य-सामीप्य-सारूप्य-सार्टि-सायुज्य आर ॥
२६६॥
मुक्ति पाँच प्रकार की है—सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सार्टि तथा सायुज्य।
सालोक्यादि' चारि यदि हय सेवा-द्वार ।तबु कदाचित्भक्त करे अङ्गीकार ॥
२६७॥
यदि शुद्ध भक्त को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की सेवा करने का अवसर मिले, तो वह कभी-कभी सालोक्य, सारूप्य, सामीप्य या सार्टि मुक्ति को तो स्वीकार करता है, किन्तु सायुज्य को कभी नहीं।
‘सायुज्य' शुनिते भक्तेर हय घृणा-भय ।।नरक वाञ्छये, तबु सायुज्य ना लय ॥
२६८॥
शुद्ध भक्त तो सायुज्य मुक्ति का नाम भी सुनना नहीं चाहता, क्योंकि उससे उसे भय तथा घृणा उत्पन्न होते हैं। निस्सन्देह, शुद्ध भक्त भगवान् के तेज में समा जाने की अपेक्षा नरक जाना पसन्द करेगा।
ब्रह्मे, ईश्वरे सायुज्य दुइ त' प्रकार ।ब्रह्म-सायुज्य हैते ईश्वर-सायुज्य धिक्कार ॥
२६९।। सार्वभौम भट्टाचार्य ने आगे कहा, सायुज्य मुक्ति दो प्रकार की हैब्रह्मतेज में समा जाना और भगवान् के शरीर में समा जाना। भगवान् के शरीर में समा जाना तो उनके तेज में समा जाने से भी अधिक निन्दनीय है।
सालोक्य-सार्टि-सामीप्य-सारूप्यैकत्वमप्युत ।दीयमानं न गृह्णन्ति विना मत्सेवनं जनाः ॥
२७० ॥
सार्वभौम भट्टाचार्य ने अन्त में कहा, समस्त प्रकार की मुक्तियाँ प्रदान किये जाने पर भी शुद्ध भक्त उन्हें स्वीकार नहीं करता। वह भगवान् की सेवा में लगे रहने से ही सन्तुष्ट रहता है।"
प्रभु कहे,–'मुक्ति-पदे'र आर अर्थ हय ।मुक्ति-पद-शब्दे साक्षातीश्वर' कहय ॥
२७१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, मुक्ति-पदे शब्द का अन्य अर्थ है। मुक्ति-पद साक्षात् पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का द्योतक है।
मुक्ति पदे याँर, सेइ ‘मुक्ति-पद' हय ।किम्वा नवम पदार्थ 'मुक्तिर' समाश्रय ॥
२७२॥
चूँकि सभी प्रकार की मुक्तियाँ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के चरणकमलों में विद्यमान रहती हैं, अतएव वे मुक्तिपद कहे जाते हैं। एक अन्य अर्थ के अनुसार मुक्ति नौवाँ विषय है और पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् मुक्ति के आश्रय हैं।
दुइ-अर्थे 'कृष्ण' कहि, केने पाठ फिरि । सार्वभौम कहे,—ओ-पाठ कहिते ना पारि ॥
२७३ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, चूंकि मैं इन दोनों अर्थों से श्रीकृष्ण को समझ सकता हूँ, तो फिर श्लोक को बदलने से क्या लाभ? सार्वभौम भट्टाचार्य ने उत्तर दिया, मैं इस श्लोक का वह पाठ नहीं कर पा रहा था।
यद्यपि तोमार अर्थ एइ शब्दे कय । तथापि 'आश्लिष्य-दोषे' कहने ना ग्राय ॥
२७४॥
यद्यपि आपकी व्याख्या सही है, किन्तु ‘मुक्तिपद' पद में असमंजसता होने के कारण इसका प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए।
ग्रद्यपि ‘मुक्ति'-शब्देर हय पञ्च वृत्ति ।।रूढ़ि-वृत्त्ये कहे तबु ‘सायुज्ये' प्रतीति ॥
२७५ ॥
मुक्ति' शब्द पाँच प्रकार की मुक्तियों का घोतक है। किन्तु सामान्यतया इसका मुख्य अर्थ सायुज्य की प्रतीति है।
मुक्ति-शब्द कहिते मने हय घृणा-त्रास । भक्ति-शब्द कहिते मने हय त' उल्लास ॥
२७६ ॥
मुक्ति' शब्द की ध्वनि मात्र से मन में घृणा तथा भय का भाव उत्पन्न होता है, किन्तु जब हम 'भक्ति' शब्द कहते हैं, तो हमारे मन में दिव्य आनन्द की सहज अनुभूति होती है।
शुनिया हासेन प्रभु आनन्दित-मने । भट्टाचार्य कैल प्रभु दृढ़ आलिङ्गने ॥
२७७॥
यह व्याख्या सुनकर महाप्रभु हँसने लगे और तुरन्त ही उन्होंने अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक भट्टाचार्य का दृढ आलिंगन किया।
ग्रेइ भट्टाचार्य पड़े पड़ाय मायावादे । ताँर ऐछे वाक्य स्फुरे चैतन्य-प्रसादे ॥
२७८ ॥
जो व्यक्ति मायावाद-दर्शन पढ़ने और पढ़ाने का अभ्यस्त था, वही अब मुक्ति शब्द से घृणा कर रहा था। यह सब केवल श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा से ही सम्भव हुआ।
लोहाके यावत्स्पर्शि' हेम नाहि करे ।तावत्स्पर्श-मणि केह चिनिते ना पारे ॥
२७९॥
जब तक स्पर्शमणि लोहे को अपने स्पर्श से सोना न बना दे, तब तक कोई भी व्यक्ति किसी अज्ञात पत्थर को स्पर्शमणि के रूप में नहीं जान सकता।
भट्टाचार्येर वैष्णवता देखि' सर्व-जन ।। प्रभुके जानिल-‘साक्षात्व्रजेन्द्र-नन्दन' ॥
२८०॥
सार्वभौम भट्टाचार्य की दिव्य वैष्णवता देखकर हर व्यक्ति यह जान सका कि चैतन्य महाप्रभु नन्द महाराज के पुत्र कृष्ण के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं हैं।
काशी-मिश्र-आदि व्रत नीलाचल-वासी ।शरण लइल सबे प्रभु-पदे आसि' ॥
२८१॥
इस घटना के बाद काशीमिश्र आदि जगन्नाथ पुरी के सारे निवासी महाप्रभु के चरणकमलों की शरण में आ गये।
सेइ सब कथा आगे करिब वर्णन ।सार्वभौम करे ग्रैछे प्रभुर सेवन ॥
२८२॥
मैं इसका वर्णन बाद में करूंगा कि सार्वभौम भट्टाचार्य किस प्रकार महाप्रभु की सेवा में सदा लगे रहते थे।
ग्रैछे परिपाटी करे भिक्षा-निर्वाहन । विस्तारिया आगे ताहा करिब वर्णन ॥
२८३॥
मैं इसका भी विस्तार से वर्णन करूंगा कि किस तरह सार्वभौम भट्टाचार्य ने भिक्षा देकर श्री चैतन्य महाप्रभु की सम्यक् सेवा की।
एइ महाप्रभुर लीला- सार्वभौम-मिलन । इहा ग्रेइ श्रद्धा करि' करये श्रवण ॥
२८४॥
ज्ञान-कर्म-पाश हैते हय विमोचन ।। अचिरे मिलये तौरै चैतन्य-चरण ॥
२८५॥
। यदि कोई व्यक्ति श्रद्धा तथा प्रेमपूर्वक सार्वभौम भट्टाचार्य तथा चैतन्य महाप्रभु के मिलन से सम्बन्धित इन लीलाओं को सुनता है, तो वह तुरन्त ही मानसिक तर्कवितर्क तथा सकाम कर्म के बन्धन से मुक्त हो जाता है और श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों की शरण प्राप्त करता है।
श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश ।चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
२८६॥
मैं कृष्णदास श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों की वन्दना करते हुए तथा सदैव उनकी कृपा की कामना करते हुए उनके चरणचिह्नों पर चलकर श्री चैतन्य-चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।
अध्याय सात: भगवान ने दक्षिण भारत का दौरा शुरू किया
धन्यं तं नौमि चैतन्यं वासुदेवं दयाई-धी। नष्ट-कुष्ठं रूप-पुष्टं भक्ति-तुष्टं चकार ग्नः ॥
१॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु ने वासुदेव नामक ब्राह्मण पर अत्यन्त कृपालु होकर उसका कुष्ठ रोग ठीक कर दिया। उन्होंने उसे भक्ति से सन्तुष्ट एक सुन्दर पुरुष में परिवर्तित कर दिया। मैं उन महिमावान श्री चैतन्य महाप्रभु को सादर प्रणाम करता हूँ।"
जय जय श्री-चैतन्य जय नित्यानन्द ।। जयाद्वैत-चन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ॥
२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! श्री अद्वैत आचार्य की जय हो एवं श्री चैतन्य महाप्रभु के सारे भक्तों की जय हो!" एइ-मते सार्वभौमेर निस्तार करिल ।दक्षिण-गमने प्रभुर इच्छा उपजिल ॥
३॥
सार्वभौम भट्टाचार्य का उद्धार करने के बाद महाप्रभु को दक्षिण भारत में प्रचार करने की इच्छा हुई।"
माघ-शुक्ल-पक्षे प्रभु करिल सन्यास ।।फाल्गुने आसिया कैल नीलाचले वास ॥
४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने माघ मास के शुक्लपक्ष में संन्यास ग्रहण किया। उसके अगले मास फाल्गुन में वे जगन्नाथ पुरी गये और वहाँ रहे।"
फाल्गुनेर शेषे दोल-यात्रा से देखिल ।।प्रेमावेशे ताँहा बहु नृत्य-गीत कैल ॥
५॥
फाल्गुन मास के अन्त में उन्होंने दोलयात्रा उत्सव देखा और अपने स्वाभाविक भगवत् प्रेम के भावावेश में आकर उन्होंने उस अवसर पर कीर्तन तथा विविध प्रकार से नृत्य किया।"
चैत्रे रहि' कैल सार्वभौम-विमोचन ।। वैशाखेर प्रथमे दक्षिण ग्राइते हैल मन ॥
६॥
। चैत्र मास में जगन्नाथ पुरी में रहते हुए उन्होंने सार्वभौम भट्टाचार्य का उद्धार किया और वैशाख मास के लगते ही उन्होंने दक्षिण भारत जाने का निश्चय किया।"
निज-गण आनि' कहे विनय करिया ।।आलिङ्गन करि' सबाय श्री-हस्ते धरिया ॥
७॥
तोमा-सबा जानि आमि प्राणाधिक करि' ।। प्राण छाड़ा द्याय, तोमा-सबा छाड़िते ना पारि ॥
८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने सारे भक्तों को बुलाकर और उनके हाथ पकड़कर विनयपूर्वक उनसे इस प्रकार कहा, तुम सभी लोग मुझे अपने प्राणों से भी अधिक प्यारे हो। मैं अपना प्राण छोड़ सकता हूँ, किन्तु तुम लोगों को छोड़ पाना मेरे लिए कठिन है।"
तुमि-सब बन्धु मोर बन्धु-कृत्य कैले । इहाँ आनि' मोरे जगन्नाथ देखाइले ॥
९॥
तुम सब मेरे मित्र हो और तुम लोगों ने मुझे जगन्नाथ पुरी लाकर तथा मन्दिर में भगवान जगन्नाथ का दर्शन करने का अवसर प्रदान करके अपना मित्र-कर्तव्य निभाया है।"
एबे सबा-स्थाने मुजि मागों एक दाने ।। सबे मेलि' आज्ञा देह, ग्राइब दक्षिणे ॥
१०॥
अब मैं तुम लोगों से एक छोटा-सा दान माँग रहा हूँ। कृपा करके मुझे दक्षिण भारत की यात्रा पर प्रस्थान करने की अनुमति प्रदान करें।"
विश्वरूप-उद्देशे अवश्य आमि ग्राब ।। एकाकी ग्राइब, काहो सङ्गे ना लइब ॥
११॥
मैं विश्वरूप की खोज करने जाउँगा। तुम लोग मुझे क्षमा करना, किन्तु मैं अकेले जाना चाहता हूँ। मैं किसी को अपने साथ नहीं ले जाना चाहता।"
सेतुबन्ध हैते आमि ना आसि ग्रावत् ।।नीलाचले तुमि सब रहिबे तावत् ॥
१२॥
जब तक मैं सेतुबन्ध से लौट न आऊँ, तब तक तुम सब जगन्नाथ पुरी में ही रहना।"
विश्वरूप-सिद्धि-प्राप्ति जानेन सकल ।दक्षिण-देश उद्धारिते करेन एइ छल ॥
१३ ॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु सर्वज्ञ हैं, इसलिए वे भलीभाँति जानते थे कि विश्वरूप पहले ही चल बसे हैं, किन्तु अनजान बनने का बहाना आवश्यक था, जिससे वे दक्षिण भारत जाकर वहाँ के लोगों का उद्धार कर सकें।"
शुनिया सबार मने हैल महा-दुःख । निःशब्द हइला, सबार शुकाइल मुख ॥
१४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के मुख से यह समाचार सुनकर सारे भक्त अत्यन्त दुःखी हुए, उनके मुख सूख गये और वे मौन हो गये।"
नित्यानन्द-प्रभु कहे, ऐछे कैछे हय ।। एकाकी ग्राइबे तुमि, के इहा सहय ॥
१५॥
तब नित्यानन्द प्रभु ने कहा, यह कैसे हो सकता है कि आप अकेले जाएँ? इसे कौन सहन कर सकता है? दुइ-एक सङ्गे चलुक, ना पड़ हठ-रङ्गे।। झारे कह सेइ दुइ चलुक्तोमार सङ्गे ॥
१६॥
हममें से एक या दो को अपने साथ चलने दें, अन्यथा आप रास्ते में चोरों तथा धूर्तों के चंगुल में पड़ सकते हैं। हममें से आप जिन्हें चाहें ले लें, किन्तु हर हालत में दो व्यक्तियों को आपके साथ जाना चाहिए।"
दक्षिणेर तीर्थ-पथ आमि सब जानि ।।आमि सङ्गे ग्राइ, प्रभु, आज्ञा देह तुमि ॥
१७॥
मैं दक्षिण भारत के विभिन्न तीर्थस्थलों के सारे मार्ग जानता हूँ। बस, आप आज्ञा दें तो मैं आपके साथ चला चलँ।"
प्रभु कहे, आमि-नर्तक, तुमि सूत्र-धार । तुमि त्रैछे नाचाओ, तैछे नर्तन आमार ॥
१८ ॥
महाप्रभु ने उत्तर दिया, मैं तो मात्र नर्तक हूँ और तुम डोर खींचने वाले ( सूत्रधार) हो। तुम जिस तरह नचाओगे, मैं उसी तरह नाचूंगा।"
सन्यास करिया आमि चलिलाँ वृन्दावन । तुमि आमा लञा आइले अद्वैत-भवन ॥
१९॥
संन्यास ग्रहण करने के बाद मैंने वृन्दावन जाने का निश्चय किया, किन्तु तुम मुझे वहाँ न ले जाकर अद्वैत प्रभु के घर ले आये।"
नीलाचल आसिते पथे भाङ्गिला मोर दण्ड ।। तोमा-सबार गाढ़-स्नेहे आमार कार्य-भङ्ग ॥
२०॥
जगन्नाथ पुरी आते समय तुमने मेरा संन्यास-दण्ड तोड़ डाला। मैं जानता हूँ कि तुम सबका मुझ पर अतीव स्नेह है, किन्तु इससे मेरे कार्य में बाधा पहुँचती है।"
जगदानन्द चाहे आमा विषय भुञ्जाइते ।।ग्रेइ कहे सेइ भये चाहिये करिते ॥
२१॥
जगदानन्द चाहता है कि मैं शारीरिक इन्द्रिय-भोग करूँ और वह मुझसे जो-जो कहता है, वह भयवश मैं करता हूँ।"
कभु यदि इँहार वाक्य करिये अन्यथा ।क्रोधे तिन दिन मोरे नाहि कहे कथा ॥
२२॥
यदि कभी मैं उसकी इच्छा के विरुद्ध कुछ करता हूँ, तो वह क्रोधवश तीन दिनों तक मुझसे बात नहीं करता।"
मुकुन्द हयेन दुःखी देखि' सन्यास-धर्म ।।तिनबारे शीते स्नान, भूमिते शयन ॥
२३॥
संन्यासी होने के कारण मेरा धर्म है कि जमीन पर सोऊँ और जाड़े में भी प्रतिदिन तीन बार स्नान करूं। किन्तु मुकुन्द बेचारा मेरी कठोर तपस्या को देखकर अत्यन्त दु:खी होता है।"
अन्तरे दुःखी मुकुन्द, नाहि कहे मुखे ।। इहार दुःख देखि' मोर द्वि-गुण हये दुःखे ॥
२४॥
हाँ, मुकुन्द कुछ कहता नहीं, किन्तु मैं जानता हूँ कि वह अन्दर से अत्यन्त दुःखी है और उसे दुःखी देखकर मैं उससे दुगना दुःखी हो जाता हूँ ।"
आमि त' सन्यासी, दामोदर—ब्रह्मचारी ।। सदा रहे आमार उपर शिक्षा-दण्ड धरि ॥
२५॥
यद्यपि मैं संन्यासी हूँ और दामोदर एक ब्रह्मचारी है, फिर भी वह मुझे शिक्षा देने के लिए अपने हाथ में दण्ड लिए रहता है।"
इँहार आगे आमि ना जानि व्यवहार ।। इँहारे ना भाय स्वतन्त्र चरित्र आमार ॥
२६॥
। दामोदर के अनुसार सामाजिक व्यवहार में मैं अब भी नौसिखिया हूँ, अतएव उसे मेरी स्वतन्त्र प्रकृति नहीं भाती।"
लोकापेक्षा नाहि इँहार कृष्ण-कृपा हैते ।।आमि लोकापेक्षा कभु ना पारि छाड़िते ॥
२७॥
दामोदर पण्डित तथा अन्य लोगों को भगवान् कृष्ण की अधिक कृपा प्राप्त है, अतएव वे लोग लोक-मत से स्वतन्त्र हैं। इसलिए वे चाहते हैं कि मैं इन्द्रियतृप्ति करूं, भले ही यह अनैतिक क्यों न हो। किन्तु मैं एक दीन संन्यासी हूँ। मैं संन्यास के कर्तव्यों को नहीं त्याग सकता, अतएव मैं उनका कठोरता से पालन करता हूँ।"
अतएव तुमि सब रह नीलाचले ।।दिन कत आमि तीर्थ भ्रमिब एकले ॥
२८॥
अतएव तुम सभी लोग कुछ दिनों तक यहाँ नीलाचल में रहो, जिससे मैं अकेले ही तीर्थस्थानों की यात्रा कर आऊँ।"
इँहा-सबार वश प्रभु हये ये ये गुणे ।।दोषारोप-च्छले करे गुण आस्वादने ॥
२९॥
वास्तव में महाप्रभु अपने सारे भक्तों के सद्गुणों के वशीभूत थे। उन्होंने दोषारोपण करने के बहाने उन सारे गुणों का आस्वादन किया।"
चैतन्येर भक्त-वात्सल्य--अकथ्य-कथन । आपने वैराग्य-दुःख करेन सहन ॥
३०॥
। अपने भक्तों के प्रति श्री चैतन्य महाप्रभु में जो प्रेम था, उसका सहीसही वर्णन कोई भी नहीं कर सकता। उन्होंने संन्यास ग्रहण करने के फलस्वरूप सभी प्रकार के निजी दुःखों को सदैव सहन किया।"
सेइ दुःख देखि' ग्रेइ भक्त दुःख पाय ।। सेई दुःख ताँर शक्त्ये सहन ना ग्राय ॥
३१॥
कभी-कभी श्री चैतन्य महाप्रभु असह्य नियमों का पालन करते और सारे भक्त उनसे अत्यधिक दुःखी होते। यद्यपि महाप्रभु नियमों का कठोरता से पालन करते, किन्तु वे अपने भक्तों के दुःखों को सहन नहीं कर पाते थे।"
गुणे दोषोद्गार-च्छले सबा निषेधिया ।।एकाकी भ्रमिबेन तीर्थ वैराग्य करिया ॥
३२॥
। अतएव उन्हें अपने साथ चलने और दुःखी होने से रोकने के लिए श्री चैतन्य महाप्रभु ने उनके गुणों को दोष कहकर घोषित किया।"
तबे चारि-जन बहु मिनति करिल ।।स्वतन्त्र ईश्वर प्रभु कभु ना मानिल ॥
३३॥
। तब चार भक्तों ने बहुत अनुनय-विनय की कि वे महाप्रभु के साथ चलें, किन्तु स्वतन्त्र पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् होने के कारण श्री चैतन्य महाप्रभु ने उनकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की।"
तबे नित्यानन्द कहे,—ये आज्ञा तोमार।दुःख सुख ये हउक्कर्तव्य आमार ॥
३४॥
तब नित्यानन्द प्रभु ने कहा, आपकी आज्ञा मेरा कर्तव्य है, चाहे उससे हमें सुख मिले या दुःख।"
किन्तु एक निवेदन करों आर बार।।विचार करिया ताहा कर अङ्गीकार ॥
३५॥
। फिर भी मैं आपसे एक निवेदन करना चाहता हूँ। कृपया इस पर विचार करें और यदि उचित समझें, तो स्वीकार कर लें।"
कौपीन, बहिर्वास और जल-पात्र ।। आर किछु नाहि ग्राबे, सबे एइ मात्र ॥
३६॥
आप अपने साथ एक लँगोटा, बाह्य वस्त्र तथा एक जलपात्र लें। आप इससे अधिक कुछ भी न लें।"
तोमार दुई हस्त बद्ध नाम-गणने ।।जल-पात्र-बहिर्वास वहिबे केमने ॥
३७॥
जब आपके दोनों हाथ सदैव नाम-जप तथा पवित्र नाम जप की गिनती करने में लगे रहेंगे, तो आप जलपात्र तथा बाह्य वस्त्रों को किस प्रकार ले जायेंगे?" प्रेमावेशे पथे तुमि हबे अचेतन ।। ए-सब सामग्री तोमार के करे रक्षण ॥
३८॥
जब आप रास्ते में भगवत्प्रेम के आवेश में अचेत हो जायेंगे, तो आपके सामान की-जलपात्र, वस्त्र आदि की रक्षा कौन करेगा?" ‘कृष्णदास'-नामे एइ सरल ब्राह्मण ।। इँहो सङ्गे करि' लह, धर निवेदन ॥
३९॥
श्री नित्यानन्द प्रभु ने आगे कहा, यह कृष्णदास नामक एक सीधासादा ब्राह्मण है। कृपया आप इसे अपने साथ ले जाएँ। यही मेरी विनती है।"
जल-पात्र-वस्त्र वहि' तोमा-सङ्गे ग्राबे ।। ये तोमार इच्छा, कर, किछु ना बलिबे ॥
४०॥
वह आपका जलपात्र तथा वस्त्र वहन करेगा। आप चाहे जो भी करेंगे, वह एक शब्द भी नहीं बोलेगा।"
तबे ताँर वाक्य प्रभु करि' अङ्गीकारे ।ताहा-सबा ला गेला सार्वभौम-घरे ॥
४१॥
श्री नित्यानन्द प्रभु के अनुरोध को मानकर भगवान् चैतन्य ने अपने सारे भक्तों को अपने साथ लिया और वे सार्वभौम भट्टाचार्य के घर गये।"
नमस्करि' सार्वभौम आसन निवेदिल ।।सबाकारे मिलि' तबे आसने वसिल ॥
४२॥
। सार्वभौम भट्टाचार्य ने उनके प्रविष्ट होते ही महाप्रभु को नमस्कार किया और उन्हें बैठने को आसन दिया। फिर अन्य सारे भक्तों को बैठाने के बाद भट्टाचार्य स्वयं बैठे।"
नाना कृष्ण-वार्ता कहि' कहिल ताँहारे ।। ‘तोमार ठाजि आइलाँ आज्ञा मागिबारे ॥
४३॥
भगवान् कृष्ण विषयक विविध वार्ताएँ करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने सार्वभौम भट्टाचार्य को बतलाया, मैं तो आपके यहाँ आपका आदेश प्राप्त करने आया हूँ।"
सन्यास करि' विश्वरूप गियाछे दक्षिणे । अवश्य करिब आमि ताँर अन्वेषणे ॥
४४॥
। मेरा बड़ा भाई विश्वरूप संन्यास लेकर दक्षिण भारत चला गया है। अब मुझे उसकी खोज करने जाना है।"
आज्ञा देह, अवश्य आमि दक्षिणे चलिब । तोमार आज्ञाते सुखे लेउटि' आसिब' ॥
४५ ॥
। कृपया मुझे जाने की अनुमति दें, क्योंकि मुझे दक्षिण भारत की यात्रा करनी है। आपकी आज्ञा से मैं शीघ्र ही सुखपूर्वक वापस लौट आऊँगा।"
शुनि' सार्वभौम हैला अत्यन्त कातर ।।चरणे धरिया कहे विषाद-उत्तर ॥
४६॥
यह सुनकर सार्वभौम भट्टाचार्य अत्यन्त क्षुब्ध हो उठे। उन्होंने चैतन्य महाप्रभु के चरणकमल पकड़ लिए और विषाद से पूर्ण यह उत्तर दिया।"
‘बहु-जन्मेर पुण्य-फले पाइनु तोमार सङ्ग ।हेन-सङ्ग विधि मोर करिलेक भङ्ग ॥
४७॥
मुझे कुछ पुण्यकर्मों के कारण अनेक जन्मों के बाद आपको संग मिला था। अब विधाता इस अमूल्य संग का विच्छेद कर रहा है।"
शिरे वज़ पड़े ग्रदि, पुत्र मरि' ग्राय ।।ताहा सहि, तोमार विच्छेद सहन ना याय ॥
४८॥
। यदि मेरे सिर पर वज्रपात हो जाए अथवा मेरा पुत्र मर जाए, तो मैं उसे सहन कर सकता हूँ। किन्तु मैं आपके वियोग के दुःख को नहीं सह सकता।"
स्वतन्त्र-ईश्वर तुमि करिबे गमन ।।दिन कथो रह, देखि तोमार चरण' ॥
४९॥
हे प्रभु, आप स्वतन्त्र पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं। आपको जाना निश्चित है, यह मैं जानता हूँ। फिर भी मैं आपसे कुछ दिन और रुकने के लिए निवेदन कर रहा हूँ, जिससे आपके चरणकमलों का दर्शन कर सकें।"
ताहार विनये प्रभुर शिथिल हैल मन ।।रहिल दिवस कथो, ना कैल गमन ॥
५०॥
सार्वभौम भट्टाचार्य की विनती सुनकर, चैतन्य महाप्रभु दयाई हो गये। वे कुछ दिन और रुके रहे और प्रस्थान नहीं किया।"
भट्टाचार्य आग्रह करि' करेन निमन्त्रण । गृहे पाक करि' प्रभुके करा'न भोजन ॥
५१॥
भट्टाचार्य ने बड़े ही आग्रहपूर्वक चैतन्य महाप्रभु को अपने घर आमन्त्रित किया और उन्हें अच्छी तरह भोजन कराया।"
ताँहार ब्राह्मणी, ताँर नाम-पाठीर माता' ।। रान्धि' भिक्षा देन तेंहो, आश्चर्य ताँर कथा ॥
५२॥
भट्टाचार्य की पत्नी का नाम पाठीमाता (पाठी की माता) था। उन्होंने ही भोजन पकाया। इन लीलाओं का वर्णन अत्यन्त आश्चर्यजनक है।"
आगे त' कहिब ताहा करिया विस्तार । एबे कहि प्रभुर दक्षिण-यात्रा-समाचार ॥
५३॥
बाद में इसका विस्तार से वर्णन करूँगा, किन्तु इस समय मैं श्री चैतन्य महाप्रभु की दक्षिण भारत यात्रा का वर्णन करना चाहता हूँ।"
दिन पाँच रहि' प्रभु भट्टाचार्य-स्थाने । चलिबार लागि' आज्ञा मागिला अपने ॥
५४॥
। सार्वभौम भट्टाचार्य के घर पर पाँच दिन रुककर श्री चैतन्य महाप्रभु ने दक्षिण भारत के लिए प्रस्थान करने हेतु स्वयं अनुमति माँगी।"
प्रभुर आग्रहे भट्टाचार्य सम्मत हइला ।। प्रभु ताँरे ला जगन्नाथ-मन्दिरे गेला ॥
५५ ।। भट्टाचार्य की अनुमति पाकर श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथजी के मन्दिर में दर्शन करने गये। वे अपने साथ भट्टाचार्य को लेते गये।"
दर्शन करि' ठाकुर-पाश आज्ञा मागिला । पूजारी प्रभुरे माला-प्रसाद आनि' दिला ॥
५६॥
भगवान जगन्नाथ का दर्शन करके श्री चैतन्य महाप्रभु ने उनसे भी आज्ञा माँगी। तब पुजारी ने महाप्रभु को तुरन्त प्रसाद और माला लाकर दी ।"
आज्ञा-माला पाजा हर्षे नमस्कार करि' ।। आनन्दे दक्षिण-देशे चले गौरहरि ॥
५७॥
माला के रूप में भगवान जगन्नाथजी की आज्ञा पाकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें नमस्कार किया और अत्यन्त प्रसन्नचित्त होकर दक्षिण भारत जाने की तैयारी की।"
भट्टाचार्य-सङ्गे आर ग्रत निज-गण। जगन्नाथ प्रदक्षिण करि' करिला गमन ॥
५८॥
अपने निजी संगियों तथा सार्वभौम भट्टाचार्य के साथ श्री चैतन्य महाप्रभु ने जगन्नाथजी की वेदी की प्रदक्षिणा की। तत्पश्चात् वे अपनी दक्षिण भारत की यात्रा पर रवाना हो गये।"
समुद्र-तीरे तीरे आलालनाथ-पथे ।। सार्वभौम कहिलेन आचार्य-गोपीनाथे ॥
५९॥
जब महाप्रभु समुद्र-तट पर स्थित आलालनाथ के मार्ग पर जा रहे थे, तब सार्वभौम भट्टाचार्य ने गोपीनाथ आचार्य को निम्नलिखित आदेश दिया।"
चारि कोपीन-बहिर्वास राखियाछि घरे ।। ताहा, प्रसादान्न, लजा आइस विप्र-द्वारे ॥
६०॥
मैंने घर पर कौपीन तथा बाहरी वस्त्रों के जो चार जोड़े रख छोड़े हैं, उन्हें लाओ और साथ में कुछ जगन्नाथजी का प्रसाद भी लेते आओ। तुम किसी ब्राह्मण की सहायता से ये चीजें अपने साथ लेते आना।"
तबे सार्वभौम कहे प्रभुर चरणे ।। अवश्य पालिबे, प्रभु, मोर निवेदने ॥
६१॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु विदा हो रहे थे, तो सार्वभौम भट्टाचार्य ने उनके चरणकमलों पर यह निवेदन किया, हे प्रभु, मेरी एक अन्तिम प्रार्थना है और मुझे आशा है कि आप उसे अवश्य पूरी करेंगे।"
‘रामानन्द राय' आछे गोदावरी-तीरे । अधिकारी हयेन तेंहो विद्यानगरे ॥
६२॥
गोदावरी नदी के किनारे स्थित विद्यानगर नामक नगरी में रामानन्द राय नामक एक जिम्मेदार सरकारी अधिकारी हैं।"
शूद्र विषयि-ज्ञाने उपेक्षा ना करिबे ।आमार वचने ताँरे अवश्य मिलिबे ॥
६३॥
आप कृपया उन्हें भौतिक कार्यकलापों में व्यस्त रहने वाला शूद्र समझकर उनकी उपेक्षा न करें। मेरी विनती है कि आप उनसे अवश्य मिलें।"
तोमार सङ्गेर स्रोग्य तेहो एक जन ।।पृथिवीते रसिक भक्त नाहि ताँर सम ॥
६४॥
। सार्वभौम भट्टाचार्य ने आगे कहा, रामानन्द राय आपकी संगति के लिए उपयुक्त व्यक्ति है। दिव्य रसों के ज्ञान के विषय में अन्य कोई भक्त उनकी बराबरी नहीं कर सकता।"
पाण्डित्य आर भक्ति-रस, मुँहेर तेहो सीमा ।सम्भाषिले जानिबे तुमि ताँहार महिमा ॥
६५॥
वे अत्यन्त विद्वान एवं भक्ति-रस में दक्ष हैं। वे वास्तव में अत्यन्त उन्नत हैं और जब आप उनसे बात करेंगे, तो देखेंगे कि वे कितने महिमावान हैं।"
अलौकिक वाक्य चेष्टा ताँर ना बुझिया ।।परिहास करियाछि ताँरे 'वैष्णव' बलिया ।। ६६॥
जब पहले पहल मैंने रामानन्द राय से बात की थी, तो मुझे इसका अनुभव नहीं हो पाया था कि उनकी बातचीत तथा चेष्टाएँ दिव्य और असामान्य हैं। मैंने उनका परिहास किया था, क्योंकि वे वैष्णव थे।"
तोमार प्रसादे एबे जानिनु ताँर तत्त्व ।। सम्भाषिले जानिबे ताँर ग्रेमन महत्त्व ॥
६७॥
भट्टाचार्य ने कहा, आपकी कृपा से मैंने अब रामानन्द राय को वास्तव में समझा है। आप उनसे बातें करेंगे, तो आप भी उनकी महानता को स्वीकार करेंगे।"
अङ्गीकार करि' प्रभु ताँहार वचन ।। तारै विदाय दिते ताँरै कैल आलिङ्गन ॥
६८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने सार्वभौम भट्टाचार्य के इस अनुरोध को मान लिया कि वे रामानन्द राय से अवश्य मिलें। महाप्रभु ने सार्वभौम से विदा लेते हुए उनका आलिंगन किया।"
घरे कृष्ण भजि' मोरे करिह आशीर्वादे ।। नीलाचले आसि' ग्रेन तोमार प्रसादे ॥
६९॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने भट्टाचार्य से कहा कि जब वे अपने घर में भगवान् कृष्ण की भक्ति में लगे हों, तब वे उन्हें आशीर्वाद देते रहें, जिससे सार्वभौम की कृपा से वे पुनः जगन्नाथ पुरी वापस आ सकें।"
एत बलि' महाप्रभु करिला गमन । मूर्च्छित हा ताहाँ पड़िला सार्वभौम ॥
७० ॥
यह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु अपनी यात्रा पर चल पड़े और उधर सार्वभौम भट्टाचार्य तुरन्त मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े।"
ताँरै उपेक्षिया कैल शीघ्र गमन ।। के बुझिते पारे महाप्रभुर चित्त-मन ॥
७१॥
यद्यपि सार्वभौम भट्टाचार्य मूर्छित हो गये, किन्तु श्री चैतन्य महाप्रभु ने इस पर ध्यान नहीं दिया, प्रत्युत वे तुरन्त वहाँ से चले गये। भला श्री चैतन्य महाप्रभु के मन तथा मनोभाव को कौन समझ सकता है? महानुभावेर चित्तेर स्वभाव एइ हय ।। पुष्प-सम कोमल, कठिन वज्र-मय ॥
७२॥
एक महान् व्यक्ति के मन का स्वभाव ऐसा ही होता है। कभी वह फूल के समान कोमल हो जाता है, तो कभी वज्र के समान कठोर।"
वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि ।। लोकोत्तराणां चेतांसि को नु विज्ञातुमीश्वरः ॥
७३॥
सामान्य व्यक्ति से ऊँचे व्यवहार वालों के हृदय कभी वज्र से भी अधिक कठोर होते हैं, तो कभी फूल से भी अधिक कोमल होते हैं। महापुरुषों में ऐसे विरोधाभासों को समझने में कौन समर्थ हो सकता है? नित्यानन्द प्रभु भट्टाचार्ये उठाइल ।।ताँर लोक-सङ्गे ताँरै घरे पाठाइल ॥
७४। श्री नित्यानन्द प्रभु ने सार्वभौम भट्टाचार्य को उठाया और उनके लोगों की सहायता से उन्हें उनके घर भेज दिया।"
भक्त-गण शीघ्र आसि' लैल प्रभुर साथ।वस्त्र-प्रसाद ली तबे आइला गोपीनाथ ॥
७५ ॥
तुरन्त सारे भक्त आ गये और श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ हो लिए। इसके बाद गोपीनाथ आचार्य वस्त्र तथा प्रसाद लेकर आये।"
सबा-सङ्गे प्रभु तबे आलालनाथ आइला । नमस्कार करि' तारे बहु-स्तुति कैला ॥
७६ ।। । सारे भक्त श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ-साथ आलालनाथ तक गये। वहाँ उन सबने नमस्कार किया और विविध स्तुतियाँ कीं।"
प्रेमावेशे नृत्य-गीत कैल कत-क्षण ।।देखिते आइला ताहाँ वैसे व्रत जन ॥
७७॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कुछ समय तक अत्यधिक भावावेश में नृत्य और कीर्तन किया। पड़ोस के सारे लोग उन्हें देखने आये।"
चौदिकेते सब लोक बले ‘हरि' ‘हरि' ।प्रेमावेशे मध्ये नृत्य करे गौरहरि ॥
७८ ॥
गौरहरि के नाम से विख्यात श्री चैतन्य महाप्रभु के चारों ओर लोग जोर-जोर से हरि नाम का उच्चारण करने लगे। श्री चैतन्य महाप्रभु हमेशा की तरह अपने प्रेमावेश में मग्न होकर उन सबके बीच नाचते रहे।"
काञ्चने-सदृश देह, अरुण वसन ।पुलकाश्रु-कम्प-स्वेद ताहाते भूषण ॥
७९ ॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु का शरीर प्राकृतिक रूप से अत्यन्त सुन्दर था। यह पिघले सोने के समान था और केसरिया वस्त्र से सजित था। वे भावलक्षणों यथा रोमांच, अश्रु, कम्पन तथा शरीर-भर में पसीने से अलंकृत होकर अत्यन्त सुन्दर लग रहे थे।"
देखिया लोकेर मने हैल चमत्कार ।।ग्रत लोक आइसे, केह नाहि ग्राय घर ॥
८०॥
वहाँ पर उपस्थित सारे लोग श्री चैतन्य महाप्रभु के नृत्य तथा उनके शारीरिक परिवर्तनों को देखकर चकित थे। जो भी वहाँ आया वह घर जाने का नाम नहीं ले रहा था।"
केह नाचे, केह गाय, 'श्री-कृष्ण' ‘गोपाल' । प्रेमेते भासिल लोक, स्त्री-वृद्ध-आबाल ॥
८१॥
। बच्चे, बूढ़े तथा स्त्रियाँ-हर कोई श्रीकृष्ण तथा गोपाल नाम लेलेकर नाचने-गाने लगा। इस तरह वे सब भगवत्प्रेम के सागर में तैर रहे थे।"
देखि' नित्यानन्द प्रभु कहे भक्त-गणे ।एइ-रूपे नृत्य आगे हबे ग्रामे-ग्रामे ॥
८२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के कीर्तन तथा नृत्य को देखकर श्री नित्यानन्द प्रभु ने भविष्यवाणी की कि आगे चलकर गाँव-गाँव में ऐसा नृत्य तथा कीर्तन होगा।"
अतिकाल हैल, लोक छाड़िया ना ग्राय ।।तबे नित्यानन्द-गोसाञि सृजिला उपाय ॥
८३ ॥
यह देखकर कि काफी विलम्ब हो रहा है, नित्यानन्द गोसांई ने भीड़ छटाने का उपाय ढूंढ निकाला।"
मध्याह्न करिते गेला प्रभुके लजी ।।ताहा देखि’ लोक आइसे चौदिके धाज्ञा ॥
८४॥
जब नित्यानन्द प्रभु श्री चैतन्य महाप्रभु को दोपहर का भोजन कराने ले गये, तो सारे लोग उनके चारों ओर दौड़ते हुए आये।"
मध्याह्न करिया आइला देवता-मन्दिरे ।निज-गण प्रवेशि' कपाट दिल बहिद्वरि ॥
८५॥
स्नान करने के बाद वे दोपहर के समय मन्दिर लौट आये। श्री नित्यानन्द प्रभु ने अपने लोगों को भीतर लेकर बाहरी दरवाजे को बन्द कर लिया।"
तबे गोपीनाथ दुइ-प्रभुरे भिक्षा कराइल ।। प्रभुर शेष प्रसादान्न सबे बाँटि' खाइल ॥
८६॥
। तत्पश्चात् गोपीनाथ आचार्य दोनों प्रभुओं के खाने के लिए प्रसाद ले आये, और जब वे खा चुके, तो प्रभुओं के शेष बचे प्रसाद को सभी भक्तों में बाँट दिया गया।"
शुनि' शुनि' लोक-सब आसि' बहिद्वारे । ‘हरि' ‘हरि' बलि' लोक कोलाहल करे ॥
८७।। यह सुनकर सारे लोग बाहरी दरवाजे पर आ गये और ‘हरि' ‘हरि' कहकर कीर्तन करने लगे। इस तरह वहाँ पर कोलाहल मच गया।"
तबे महाप्रभु द्वार कराइल मोचन ।आनन्दे आसिया लोक पाइल दरशन ॥
८८॥
। दोपहर के भोजन के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने दरवाजा खुलवा दिया। इस तरह हर एक ने बड़े ही आनन्द से उनका दर्शन प्राप्त किया।"
एई-मत सन्ध्या पर्यन्त लोक आसे, ग्राय ।।‘वैष्णव' हइल लोक, सबे नाचे, गाय ॥
८९॥
लोग संध्या-समय तक आते और जाते रहे। वे सभी वैष्णव-भक्त बन गये और कीर्तन करने और नाचने लगे।"
एइ-रूपे सेइ ठाजि भक्त-गण-सङ्गे।।सेइ रात्रि गोइला कृष्ण-कथा-रङ्गे ॥
९०॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने रात वहीं बिताई, और अपने भक्तों के साथ बड़े ही आनन्द से भगवान् कृष्ण की लीलाओं की चर्चा की।"
प्रातः-काले स्नान करि' करिला गमन ।।भक्त-गणे विदाय दिला करि' आलिङ्गन ॥
९१॥
। प्रातःकाल स्नान करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु अपनी दक्षिणभारत यात्रा पर चल पड़े। उन्होंने भक्तों का आलिंगन करके उनसे विदा ली।।"
मूर्च्छित हा सबे भूमिते पड़िला ।।ताँहा-सबा पाने प्रभु फिरि' ना चाहिला ॥
९२॥
। यद्यपि वे सब बेहोश होकर भूमि पर गिर पड़े थे, किन्तु महाप्रभु ने मुड़कर उनकी ओर नहीं देखा-वे आगे ही बढ़ते गये।"
विच्छेदे व्याकुल प्रभु चलिला दुःखी हा ।। पाछे कृष्णदास ग्राय जल-पात्र लञा ॥
९३॥
वियोग के कारण महाप्रभु अत्यन्त व्याकुल हो उठे और दुःखी मन से चलते रहे। उनका सेवक कृष्णदास उनका जलपात्र लिए उनके पीछे पीछे चल रहा था।"
भक्त-गण उपवासी ताहाङिहिला ।। आर दिने दुःखी हा नीलाचले आइला ॥
९४॥
। सारे भक्त वहीं बिना खाये पड़े रहे, किन्तु अगले दिन सभी दुःखी मन से जगन्नाथ पुरी लौट गये।"
मत्त-सिंह-प्राय प्रभु करिला गमन ।। प्रेमावेशे ग्राय करि' नाम-सङ्कीर्तन ॥
९५॥
। प्रायः उन्मत्त सिंह की भाँति श्री चैतन्य महाप्रभु अपनी यात्रा पर निकल पड़े। वे प्रेमावेश से पूर्ण थे और कृष्ण-नाम का निम्नवत् उच्चारण करते हुए संकीर्तन करते जा रहे थे।"
कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! हे । कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! हे ॥
कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! रक्ष माम् ।। कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! पाहि माम् ॥
राम! राघव! राम! राघव! राम! राघव! रक्ष माम् ।।कृष्ण! केशव! कृष्ण! केशव! कृष्ण! केशव! पाहि माम् ॥
९६॥
महाप्रभु कीर्तन कर रहे थेकृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! हे कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! हे कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! रक्ष माम् कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण! पाहि माम्।अर्थात् हे भगवान् कृष्ण! कृपया मेरी रक्षा कीजिये और मेरा पालन कीजिये। उन्होंने यह भी कीर्तन किया राम! राघव! राम! राघव! राम! राघव! रक्ष माम्।। कृष्ण! केशव! कृष्ण! केशव! कृष्ण! केशव! पाहि माम्।अर्थात् हे राजा रघु के वंशज! हे भगवान् राम! मेरी रक्षा करें। हे कृष्ण, हे केशी असुर के संहारक केशव, कृपया मेरा पालन करें।"
एइ श्लोक पड़ि' पथे चलिला गौरहरि ।। लोक देखि' पथे कहे,---बल' हरि' 'हरि' ॥
९७॥
इस श्लोक का कीर्तन करते हुए गौरहरि श्री चैतन्य महाप्रभु अपने मार्ग पर चले जा रहे थे। जब वे किसी को देखते, तो वे उससे अनुरोध करते कि हरि! हरि! बोलो।"
सेई लोक प्रेम-मत्त हा बले 'हरि' 'कृष्ण' ।। प्रभुर पाछे सङ्गे ग्राय दर्शन-सतृष्ण ॥
९८॥
जो कोई भी श्री चैतन्य महाप्रभु को हरि! हरि! बोलते सुनता, वह भी हरि तथा कृष्ण के नामों का उच्चारण करने लगता। इस तरह वे सब महाप्रभु का दर्शन पाने की उत्सुकता से उनके पीछे-पीछे चलने लगते।"
कत-क्षणे रहि' प्रभु तारे आलिङ्गिया ।। विदाय करिल तारे शक्ति सञ्चारिया ॥
९९॥
। कुछ समय बाद महाप्रभु उन लोगों का आलिंगन करते और उन्हें आध्यात्मिक शक्ति से ओतप्रोत करने के बाद घर वापस जाने के लिए कहते।।"
सेड़-जन निज-ग्रामे करिया गमन 'कृष्ण' बलि' हासे, कान्दे, नाचे अनुक्षण ॥
१००॥
। इस प्रकार शक्ति को पाकर हर व्यक्ति कृष्ण-नाम का कीर्तन करता और कभी हँसता, रोता और नाचता हुआ अपने घर को लौटता।"
झारे देखे, तारे कहे,—कह कृष्ण-नाम ।।एड-मत 'वैष्णव' कैल सब निज-ग्राम ॥
१०१।। इस प्रकार शक्ति प्राप्त व्यक्ति जिस किसी को देखता, उसी से प्रार्थना करता कि वह कृष्ण-नाम का उच्चारण करें। इस तरह सारे गाँव वाले भी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के भक्त बन जाते।।"
ग्रामान्तर हैते देखिते आइल ग्रत जन ।।ताँर दर्शन-कृपाय हय ताँर सम ॥
१०२॥
ऐसे शक्ति प्राप्त लोगों का दर्शन करने मात्र से विभिन्न गाँवों के लोग जो उन्हें देखने आते, उनकी कृपादृष्टि से उन्हीं के समान बन जाते।"
सेइ ग्राइ' ग्रामेर लोक वैष्णव करय ।।अन्य-ग्रामी आसि' ताँरै देखि' वैष्णव हय ॥
१०३॥
जब शक्ति से संचारित ये लोग अपने अपने गाँवों को लौटते, तो इन्होंने भी दूसरों को भक्त बना लिया। जब और लोग विभिन्न गाँवों से इन्हें देखने आये, तो वे भी भक्त बन गये।"
सेइ ग्राइ' आर ग्रामे करे उपदेश ।।एइ-मत 'वैष्णव' हैल सब दक्षिण-देश ॥
१०४॥
इस प्रकार जैसे जैसे वे सारे शक्ति-प्राप्त लोग एक गाँव से दूसरे गाँव जाने लगे, वैसे वैसे दक्षिण भारत के सारे लोग भक्त बनते गये।"
एइ-मत पथे ग्राइते शत शत जन ।।‘वैष्णव' करेन ताँरै करि' आलिङ्गन ॥
१०५ ॥
इस तरह कई सौ लोग वैष्णव बन गये, जो महाप्रभु को रास्ते में मिले और जिन्हें उन्होंने गले लगाया।"
ग्रेइ ग्रामे रहि' भिक्षा करेन याँर घरे ।।सेइ ग्रामेर व्रत लोक आइसे देखिबारे ॥
१०६॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु जिस-जिस गाँव में भिक्षा ग्रहण करने के लिए रुके, वहीं अनेक लोग उनका दर्शन करने आये।"
प्रभुर कृपाय हय महाभागवत ।सेई सब आचार्य हा तारिल जगत् ॥
१०७॥
। भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा से सारे व्यक्ति उच्च कोटि के भक्त बन गये। बाद में वे शिक्षक या गुरु बने और उन्होंने सम्पूर्ण जगत् का उद्धार किया।"
एइ-मत कैला झावला सेतुबन्धे ।।सर्व-देश 'वैष्णव' हैल प्रभुर सम्बन्धे ॥
१०८॥
इस तरह महाप्रभु भारत की दक्षिण सीमा तक गये और उन्होंने सारे प्रान्तों के लोगों को वैष्णव बना दिया।"
नवद्वीपे ग्रेइ शक्ति ना कैला प्रकाशे ।।से शक्ति प्रकाशि' निस्तारिल दक्षिण-देशे ॥
१०९॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने नवद्वीप में अपनी आध्यात्मिक शक्ति प्रकट नहीं की, किन्तु उन्होंने ने दक्षिण भारत में उसे प्रकट किया और वहाँ के सारे लोगों का उद्धार किया।"
प्रभुके ये भजे, तारे ताँर कृपा हय ।।सेइ से ए-सब लीला सत्य करि' लय ॥
११०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु अन्यों को किस तरह शक्ति प्रदान करते हैं, उसे केवल वही समझ सकता है, जो वास्तव में भगवद्भक्त है और जिसे उनकी कृपा प्राप्त हो चुकी है।"
अलौकिक-लीलाय ग्रार ना हय विश्वास । इह-लोक, पर-लोक तार हय नाश ॥
१११॥
जो व्यक्ति महाप्रभु की असामान्य दिव्य लीलाओं में विश्वास नहीं करता, उसका इस लोक तथा परलोक दोनों में विनाश हो जाता है।"
प्रथमेइ कहिल प्रभुर ग्रे-रूपे गमन । एइ-मत जानिह यावत्दक्षिण-भ्रमण ॥
११२॥
मैंने पहले महाप्रभु के गमन के विषय में जो कुछ कहा है, उसे महाप्रभु की दक्षिण भारत की पूरी यात्रा की अवधि पर लागू समझना चाहिए।"
एइ-मत ग्राइते साइते गेला कूर्म-स्थाने ।। कूर्म देखि' कैल ताँरे स्तवन-प्रणामे ॥
११३॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु कूर्मक्षेत्र नामक तीर्थस्थान में पहुँचे, तो उन्होंने अर्चाविग्रह का दर्शन किया, स्तुति की तथा प्रणाम किया।"
प्रेमावेशे हासि' कान्दि' नृत्य-गीत कैल ।।देखि' सर्व लोकेर चित्ते चमत्कार हैल ॥
११४॥
जब तक श्री चैतन्य महाप्रभु इस स्थान पर रहे, वे यथावत् अपने भगवत्प्रेम के भावावेश में रहे और हँसते, रोते, नाचते तथा कीर्तन करते रहे। जो भी उन्हें देखता, आश्चर्यचकित रह जाता।"
आश्चर्य शुनिया लोक आइल देखिबारे ।।प्रभुर रूप-प्रेम देखि' हैला चमत्कारे ॥
११५ ।। इन अद्भुत घटनाओं को सुन-सुनकर लोग वहाँ उनके दर्शन करने आते। जब वे महाप्रभु का सौन्दर्य तथा उनकी भावदशा देखते, तो वे आश्चर्यचकित रह जाते।"
दर्शने 'वैष्णव' हैल, बले 'कृष्ण' ‘हरि' ।। प्रेमावेशे नाचे लोक ऊर्ध्व बाहु करि' ॥
११६॥
चैतन्य महाप्रभु के दर्शन-मात्र से लोग भक्त बन गये। वे कृष्ण तथा हरि एवं समस्त पवित्र नामों का कीर्तन करने लगे। वे सभी प्रेमावेश में मग्न होकर अपने हाथ ऊपर उठा-उठाकर नाचने लगे।"
कृष्ण-नाम लोक-मुखे शुनि' अविराम । सेड लोक वैष्णव' कैल अन्य सब ग्राम ॥
११७॥
उन्हें सदैव भगवान् कृष्ण के पवित्र नामों को कीर्तन करते सुनकर दूसरे सभी गाँवों के लोग भी वैष्णव बन गये।"
एइ-मत परम्पराय देश 'वैष्णव' हैल । कृष्ण-नामामृत-वन्याय देश भासाइल ॥
११८॥
कृष्ण का पवित्र नाम सुन-सुनकर सारा देश वैष्णव बन गया। ऐसा प्रतीत होता था मानो कृष्ण के पवित्र नाम के अमृत ने सम्पूर्ण देश को आप्लावित कर दिया हो।"
कत-क्षणे प्रभु यदि बाह्य प्रकाशिला ।। कूर्मेर सेवक बहु सम्मान करिला ।। ११९॥
कुछ समय बाद जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने बाह्य चेतना दिखलाई, तो कूर्मदेव के एक पुजारी ने उन्हें विविध भेटें दीं।"
ग्रेड ग्रामे ग्राय ताहाँ एइ व्यवहार ।। एक ठात्रि कहिल, ना कहिब आर बार ॥
१२०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की प्रचार-विधि का वर्णन मैं पहले ही कर चुका हैं, अतएव मैं उसे फिर से नहीं दोहराऊँगा। महाप्रभु जिस किसी गाँव में जाते, उनका व्यवहार वैसा ही रहता।।"
‘कूर्म'-नामे सेइ ग्रामे वैदिक ब्राह्मण ।बहु श्रद्धा-भक्त्ये कैल प्रभुर निमन्त्रण ॥
१२१॥
एक गाँव में कूर्म नाम का एक वैदिक ब्राह्मण था। उसने बड़े ही सत्कार तथा भक्ति से श्री चैतन्य महाप्रभु को अपने घर आमन्त्रित किया।"
घरे आनि' प्रभुर कैल पाद प्रक्षालन ।।सेई जल वंश-सहित करिल भक्षण ।। १२२॥
यह ब्राह्मण महाप्रभु को अपने घर ले आया, उसने उनके चरणकमल धोये और उस जल को परिवार सहित पिया।"
अनेक-प्रकार स्नेहे भिक्षा कराइल ।। गोसाजिर शेषान्न स-वंशे खाइल ॥
१२३॥
। उस कूर्म ब्राह्मण ने महाप्रभु को बड़े ही स्नेह तथा आदर से सभी प्रकार का भोजन कराया। उसके बाद जो शेष बचा उसे परिवार के सारे सदस्यों सहित उसने खाया।।"
‘ग्रेइ पाद-पद्म तोमार ब्रह्मा ध्यान करे।सेइ पाद-पद्म साक्षाताइल मोर धरे ॥
१२४॥
फिर उस ब्राह्मण ने प्रार्थना करनी शुरू की, हे प्रभु, आपके जिन चरणकमलों का ध्यान ब्रह्माजी करते हैं, वे ही चरणकमल मेरे घर में पधारे हैं।"
मोर भाग्येर सीमा ना याय कहने ।आजि मोर श्लाघ्य हैल जन्म-कुल-धन ॥
१२५॥
हे प्रभु, मेरे महान् सौभाग्य की कोई सीमा नहीं रही। इसका वर्णन नहीं किया जा सकता। आज मेरा परिवार, जन्म तथा मेरा धन सभी धन्य हो गये।"
कृपा कर, प्रभु, मोरे, ग्राँ तोमा-सङ्गे।।सहिते ना पारि दुःख विषय-तरङ्गे' ॥
१२६॥
उस ब्राह्मण ने श्री चैतन्य महाप्रभु से प्रार्थना की, हे प्रभु, आप मुझ पर कृपादृष्टि करें और मुझे अपने साथ चलने दें। मैं अब और अधिक समय तक भौतिक जीवन से उत्पन्न दुःख की लहरों को सहन नहीं कर सकता।"
प्रभु कहे,–ऐछे बाकभु ना कहिबा ।। गृहे रहि' कृष्ण-नाम निरन्तर लइबा ॥
१२७॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, अब फिर से ऐसा मत कहना। अच्छा यही होगा कि तुम घर पर रहो और सदैव कृष्ण-नाम का जप करो।।"
ग्रारे देख, तारे कह 'कृष्ण'-उपदेश ।। आमार आज्ञाय गुरु हा तार' एइ देश ॥
१२८॥
हर एक को उपदेश दो कि वह भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में दिये गये भगवान् श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करे। इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो।"
कभु ना बाधिबे तोमार विषय-तरङ्ग ।। पुनरपि एइ ठाजि पाबे मोर सङ्ग ॥
१२९॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कूर्म ब्राह्मण को यह भी उपदेश दिया, यदि तुम इस उपदेश का पालन करोगे, तो तुम्हारा गृहस्थ जीवन तुम्हारी आध्यात्मिक प्रगति में बाधक नहीं बनेगा। यदि तुम इन नियमों का पालन करोगे, तो हम पुनः यहीं मिलेंगे, अथवा तुम मेरा साथ कभी नहीं छोड़ोगे।"
एइ मत ग्राँर घरे करे प्रभु भिक्षा ।।सेइ ऐछे कहे, ताँरे कराय एइ शिक्षा ॥
१३०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु जिस किसी के घर में प्रसाद ग्रहण करके भिक्षा लेते, वे उस घर के रहने वालों को अपने संकीर्तन आन्दोलन में सम्मिलित कर लेते और उन्हें वैसी ही शिक्षा देते, जैसी कि कूर्म नामक ब्राह्मण को दी थी।"
पथे ग्राइते देवालये रहे येइ ग्रामे ।। याँर घरे भिक्षा करे, सेइ महा-जने ॥
१३१॥
कूर्मे भैछे रीति, तैछे कैल सर्व-ठानि ।।नीलाचले पुनः ग्रावत्नी आइला गोसाजि ॥
१३२॥
अपनी यात्रा के दौरान श्री चैतन्य महाप्रभु या तो मन्दिर में या सड़क के किनारे रात बिताते। जब वे किसी व्यक्ति के घर भोजन ग्रहण करते, तो वे उसे वही उपदेश देते, जो उन्होंने कूर्म ब्राह्मण को दिया था। दक्षिण भारत की यात्रा से जगन्नाथ पुरी लौट आने तक महाप्रभु इसी प्रकार प्रचार करते रहे।"
अतएव इहाँ कहिलाँ करिया विस्तार । एइ-मत जानिबे प्रभुर सर्वत्र व्यवहार ॥
१३३॥
इस तरह मैंने कूर्म के प्रसंग में महाप्रभु के व्यवहार का विस्तार से वर्णन किया है। इसी तरह से आप सारे दक्षिण भारत में महाप्रभु के व्यवहार को जान सकेंगे।"
एइ-मत सेइ रात्रि ताहाङि रहिला ।।प्रातः-काले प्रभु स्नान करिया चलिला ॥
१३४॥
इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु एक स्थान में रात-भर रहते, और प्रातःकाल स्नान करके पुनः चल देते।"
प्रभुर अनुव्रजि' कूर्म बहु दूर आइला ।।प्रभु ताँरे यत्न करि' घरे पाठाइला ॥
१३५॥
जब महाप्रभु चले, तो कूर्म ब्राह्मण बहुत दूर तक उनके पीछे-पीछे आया, किन्तु अन्त में महाप्रभु ने उसे घर वापस भेज दिया।"
‘वासुदेव'-नाम एक द्विज महाशय । सर्वाङ्गे गलित कुष्ठ, ताते कीड़ा-मय ॥
१३६॥
। वासुदेव नाम का एक अन्य ब्राह्मण था, जो एक महान् व्यक्ति था, किन्तु कोढ़ से पीड़ित था। उसका शरीर जीवित कीड़ों से भरा था।"
अङ्ग हैते येइ कीड़ा खसिया पड़य । उठाजा सेई कीड़ा राखे सेइ ठाञ ॥
१३७॥
यद्यपि वासुदेव कोढ़ से पीड़ित था, किन्तु ज्ञानी था। ज्योंही उसके शरीर से कोई कीड़ा गिर पड़ता, तो वह उसे उठाकर पुनः उसी स्थान में रख देता।"
रात्रिते शुनिला तेंहो गोसाजिर आगमन ।।देखिबारे आइला प्रभाते कूर्मेर भवन ॥
१३८॥
एक रात को वासुदेव ने महाप्रभु के आगमन की बात सुनी, और प्रातः होते ही वह कूर्म के घर महाप्रभु का दर्शन करने आया।"
प्रभुर गमन कूर्म-मुखेते शुनिळा ।।भूमिते पड़िला दुःखे मूर्च्छित हा ॥
१३९॥
जब वह कोढ़ी वासुदेव कूर्म के घर चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करने गया, तो उसे बताया गया कि महाप्रभु वहाँ से पहले ही जा चुके हैं। इस पर वह बेहोश होकर भूमि पर गिर पड़ा।"
अनेक प्रकार विलाप करिते लागिला ।सेइ-क्षणे आसि' प्रभु ताँरै आलिङ्गिला ॥
१४०॥
जब वह कोढ़ी ब्राह्मण वासुदेव महाप्रभु का दर्शन न कर सकने के कारण विलाप कर रहा था, तो महाप्रभु तुरन्त उस स्थान को लौट आये और उन्होंने उसका आलिंगन किया।"
प्रभु-स्पर्शे दुःख-सङ्गे कुछ दूरे गेल ।। आनन्द सहिते अङ्ग सुन्दर हइल ॥
१४१॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने उसका स्पर्श किया, तो उसका कोढ़ तथा उसका कष्ट एकसाथ दूर भाग गये। वासुदेव का शरीर अत्यन्त सुन्दर हो गया, जिससे उसे परम सुख प्राप्त हुआ।"
प्रभुर कृपा देखि' ताँर विस्मय हैल मन ।। श्लोक पड़ि' पाये धरि, करये स्तवन ॥
१४२॥
वह ब्राह्मण वासुदेव श्री चैतन्य महाप्रभु की अद्भुत कृपा देखकर चकित था और वह महाप्रभु के चरणकमलों का स्पर्श करके श्रीमद्भागवत का एक श्लोक सुनाने लगा।"
क्वाहं दरिद्रः पापीयान्क्व कृष्णः श्री-निकेतनः ।। ब्रह्म-बन्धुरिति स्माहं बाहुभ्यां परिरम्भितः ॥
१४३॥
उसने कहा, मैं कौन हूँ? एक पापी दरिद्र ब्रह्मबन्धु। और कृष्ण कौन हैं? छः ऐश्वर्ययुक्त पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्। फिर भी उन्होंने अपनी दोनों भुजाओं में भरकर मेरा आलिंगन किया है।"
बहु स्तुति करि' कहे,—–शुन, दया-मय ।। जीवे एई गुण नाहि, तोमाते एइ हय ॥
१४४॥
मोरे देखि' मोर गन्धे पलाय पामर ।। हेन-मोरे स्पर्श' तुमि, स्वतन्त्र ईश्वर ॥
१४५॥
वासुदेव ब्राह्मण ने आगे कहा, हे दयामय प्रभु, ऐसी कृपा सामान्य जीवों में सम्भव नहीं। ऐसी कृपा तो केवल आप में ही पाई जा सकती है। पापी व्यक्ति भी मुझे देखकर मेरे शरीर की दुर्गंध के कारण दूर चला जाता है, फिर भी आपने मेरा स्पर्श किया। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का व्यवहार ऐसा स्वतन्त्र होता है।"
किन्तु आछिलाँ भाल अधम हा । एबे अहङ्कार मोर जन्मिबे आसिया ॥
१४६ ॥
उस दीन विनम्र वासुदेव को चिन्ता थी कि श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा से ठीक हो जाने से कहीं वह गर्वित न हो उठे।"
प्रभु कहे,–कभु तोमार ना हबे अभिमान । निरन्तर कह तुमि 'कृष्ण' 'कृष्ण' नाम ॥
१४७॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने उस ब्राह्मण को इससे बचाने के लिए उपदेश दिया कि वह निरन्तर हरे कृष्ण मन्त्र का जप करे। ऐसा करने से वह कभी भी व्यर्थ गर्वित नहीं होगा।"
कृष्ण उपदेशि' कर जीवेर निस्तार । अचिराते कृष्ण तोमा करिबेन अङ्गीकार ॥
१४८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने वासुदेव को यह भी सलाह दी कि वह कृष्ण के विषय में उपदेश दे और इस तरह जीवों का उद्धार करे। फलस्वरूप, कृष्ण शीघ्र ही उसका अपने भक्त के रूप में स्वीकार कर लेंगे।"
एतेक कहिया प्रभु कैल अन्तर्धाने । दुइ विप्र गलागलि कान्दे प्रभुर गुणे ॥
१४९॥
वासुदेव ब्राह्मण को इस प्रकार उपदेश देने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु उस स्थान से अदृश्य हो गये। तब कूर्म तथा वासुदेव दोनों ब्राह्मण एकदूसरे के गले लगकर श्री चैतन्य महाप्रभु के दिव्य गुणों का स्मरण करके रोने लगे।"
'वासुदेवोद्धार' एइ कहिल आख्यान ।। ‘वासुदेवामृत-प्रद' हैल प्रभुर नाम ॥
१५० ॥
इस प्रकार श्री चैतन्य महाप्रभु ने जिस तरह वासुदेव कोढ़ी का उद्धार किया, और जिस तरह उनका नाम वासुदेवामृत-प्रद पड़ा, उसका वर्णन मैंने किया है।"
एइ त कहिल प्रभुर प्रथम गमन । कूर्म-दरशन, वासुदेव-विमोचन ।। १५१॥
इस तरह मैं श्री चैतन्य महाप्रभु की प्रारम्भिक यात्रा का वर्णन समाप्त करता हूँ, जिसमें उन्होंने कूर्म-मन्दिर का दर्शन किया और कोढ़ी ब्राह्मण वासुदेव का उद्धार किया।"
श्रद्धा करि' एइ लीला ग्रे करे श्रवण । अचिराते मिलये तारे चैतन्य-चरण ॥
१५२॥
। जो कोई श्री चैतन्य महाप्रभु की इन लीलाओं को अत्यन्त श्रद्धापूर्वक सुनेगा, उसे तुरन्त ही उनके चरणकमल प्राप्त हो जायेंगे।"
चैतन्य-लीलार आदि-अन्त नाहि जानि ।। सेइ लिखि, ग्रेइ महान्तेर मुखे शुनि ॥
१५३ ॥
मैं स्वीकार करता हूँ कि मैं श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं का आदि और अन्त नहीं जानता। फिर भी मैंने जो कुछ लिखा है, उसे महापुरुषों के मुख से सुनकर लिखा है।"
इथे अपराध मोर ना लइओ, भक्त-गण ।।तोमा-सबार चरण–मोर एकान्त शरण ॥
१५४॥
हे भक्तों, कृपया इस विषय में मेरे अपराधों पर विचार मत करना। आपके चरणकमल ही मेरे एकमात्र शरण हैं।"
श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश । चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
१५५॥
श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों पर प्रार्थना करते हुए और सदैव उनकी कृपा की कामना करते हुए मैं कृष्णदास उनके चरणचिह्नों पर चलते हुए श्रीचैतन्य-चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।"
अध्याय आठ: श्री चैतन्य महाप्रभु और रामानंद राय के बीच बातचीत
सञ्चार्य रामाभिध-भक्त-मेघेस्व-भक्ति-सिद्धान्त-चयामृतानि । गौराब्धिरेतैरमुना वितीर्णैस् ।तज्ज्ञत्व-रत्नालयतां प्रयाति ॥
१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु, जो गौरांग भी कहलाते हैं, भक्ति विषयक समस्त सैद्धान्तिक ज्ञान के सागर हैं। उन्होंने श्री रामानन्द राय को शक्ति प्रदान की, जिनकी तुलना भक्ति के बादल से की जा सकती है। यह बादल भक्ति के समस्त सैद्धान्तिक निष्कर्षों रूपी जल से पूरित था, और सागर द्वारा शक्तिप्रदत्त था कि वह इस जल को स्वयं श्री चैतन्य महाप्रभु रूपी समुद्र के ऊपर फैला दे। इस प्रकार श्री चैतन्य महाप्रभु रूपी समुद्र स्वयं शुद्ध भक्ति के ज्ञान रूपी रत्नों से भर गया।"
जय जय श्री-चैतन्य जय नित्यानन्द ।। जयाद्वैत-चन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ॥
२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! श्री अद्वैत आचार्य की जय हो तथा श्री चैतन्य महाप्रभु के समस्त भक्तों की जय हो! पूर्व-रीते प्रभु आगे गमन करिला ।‘जियड़-नृसिंह'-क्षेत्रे कत-दिने गेला ॥
३॥
अपने पूर्ववर्ती कार्यक्रम के अनुसार श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे यात्रा की और कुछ दिनों के बाद जियड़-नृसिंह नामक तीर्थस्थान पहुँचे।।"
नृसिंह देखिया कैल दण्डवत्प्रणति ।।प्रेमावेशे कैल बहु नृत्य-गीत-स्तुति ॥
४॥
मन्दिर में भगवान् नृसिंह के अर्चाविग्रह का दर्शन करके श्री चैतन्य महाप्रभु ने दण्डवत् प्रणाम किया। फिर प्रेमावेश में उन्होंने अनेक प्रकार से नृत्य किया, कीर्तन किया और स्तुतियाँ कीं।"
श्री-नृसिंह, जय नृसिंह, जय जय नृसिंह । प्रह्लादेश जय पद्मा-मुख-पद्म-भृङ्ग ॥
५॥
नृसिंहदेव की जय हो! नृसिंहदेव की जय हो! प्रह्लाद महाराज के प्रभु नृसिंहदेव की जय हो, जो भौंरे के समान ही लक्ष्मीजी के कमल सदृश मुख को देखने में सदैव लगे रहते हैं।'" उग्रोऽप्यनुग्र एवायं स्व-भक्तानां नृ-केशरी ।।केशरीव स्व-पोतानामन्येषां उग्र-विक्रमः ॥
६॥
यद्यपि सिंहिनी अत्यन्त हिंस्र होती है, किन्तु वह अपने बच्चों के प्रति अत्यन्त दयालु होती है। इसी तरह यद्यपि नृसिंहदेव हिरण्यकशिपु जैसे अभक्तों के प्रति अत्यन्त उग्र हैं, किन्तु वे प्रह्लाद महाराज जैसे भक्तों के प्रति अत्यन्त कोमल एवं दयालु हैं।"
एइ-मत नाना श्लोक पड़ि' स्तुति कैल ।।नृसिंह-सेवक माला-प्रसाद आनि' दिल ॥
७॥
इस प्रकार श्री चैतन्य महाप्रभु ने शास्त्रों से अनेक श्लोक सुनाये। तब नृसिंहदेव के पुजारी ने महाप्रभु को मालाएँ तथा प्रसाद लाकर दिया।"
पूर्ववत्कोन विप्रे कैल निमन्त्रण ।। सेइ रात्रि ताहाँ रहि' करिला गमन ॥
८॥
पहले की ही तरह एक ब्राह्मण ने श्री चैतन्य महाप्रभु को अपने यहाँ आमन्त्रित किया। महाप्रभु ने वह रात्रि मन्दिर में ही बिताइ और पुनः अपनी यात्रा शुरू कर दी।"
प्रभाते उठिया प्रभु चलिला प्रेमावेशे । दिग्विदिक्नाहि ज्ञान रात्रि-दिवसे ॥
९ ॥
अगली सुबह श्री चैतन्य महाप्रभु अत्यन्त प्रेमावेश में अपनी यात्रा पर बिना किसी दिशा-ज्ञान के ही चल पड़े और दिन-रात चलते गये।"
पूर्ववत् वैष्णव' करि' सर्व लोक-गणे । गोदावरी-तीरे प्रभु आइला कत-दिने ॥
१०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने पहले की ही तरह मार्ग में मिलने वाले अनेक लोगों को वैष्णव बनाया। कुछ दिनों बाद महाप्रभु गोदावरी नदी के तट पर जा पहुँचे।"
गोदावरी देखि' हइल 'यमुना'-स्मरण ।। तीरे वन देखि' स्मृति हैल वृन्दावन ॥
११॥
जब उन्होंने गोदावरी नदी देखी, तो उन्हें यमुना नदी का स्मरण हो आया और जब उन्होंने नदी के तट पर स्थित वन देखा, तो उन्हें श्री वृन्दावन धाम की याद हो आई।"
सेइ वने कत-क्षण करि' नृत्य-गान ।। गोदावरी पार हा ताहाँ कैल स्नान ॥
१२॥
इस वन में कुछ समय तक कुछ काल के लिए पहले की तरह कीर्तन तथा नृत्य करने के बाद महाप्रभु ने नदी पार की और दूसरे किनारे पर पहुँचकर स्नान किया।"
घाट छाड़ि' कत-दूरे जल-सन्निधाने ।वसि' प्रभु करे कृष्ण-नाम-सङ्कीर्तने ॥
१३॥
नदी में स्नान करने के बाद महाप्रभु स्नान-घाट से कुछ दूर गये और कृष्ण के पवित्र नाम के कीर्तन में लग गये।"
हेन-काले दोलाय चड़ि' रामानन्द राय ।।स्नान करिबारे आइला, बाजना बाजाय ॥
१४॥
उस समय बाजे-गाजे के साथ पालकी पर चढ़कर रामानन्द राय वहाँ ग्नान करने आये।"
ताँर सङ्गे बहु आइला वैदिक ब्राह्मण ।। विधि-मते कैल तेंहो स्नानादि-तर्पण ॥
१५॥
रामानन्द राय के साथ साथ वैदिक सिद्धान्तों का पालन करने वाले अनेक ब्राह्मण थे। रामानन्द राय ने वैदिक रीति से स्नान किया और अपने पितरों को तर्पण दिया।"
प्रभु ताँरै देखि' जानिल—एइ राम-राय ।। ताँहारे मिलिते प्रभुर मन उठि' धाय ॥
१६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु जान गये कि जो व्यक्ति नदी में स्नान करने आये हैं, वे रामानन्द राय हैं। महाप्रभु उनसे मिलने के लिए इतने इच्छुक हो उठे। कि उनका मन उसके पीछे-पीछे दौड़ने लगा।"
तथापि धैर्य धरि' प्रभु रहिला वसिया ।।रामानन्द आइला अपूर्व सन्यासी देखिया ॥
१७॥
यद्यपि श्री चैतन्य महाप्रभु का मन उसके पीछे पीछे दौड़ रहा था, किन्तु वे धैर्यपूर्वक बैठे रहे। तब रामानन्द राय इसे अपूर्व संन्यासी को देखकर उनसे मिलने आये।"
सूर्य-शत-सम कान्ति, अरुण वसन । सुबलित प्रकाण्ड देह, कमल-लोचन ॥
१८॥
श्रील रामानन्द राय ने देखा कि श्री चैतन्य महाप्रभु सौ सूर्यों के समान कान्तिवान हैं। उन्होंने केसरिया वस्त्र पहन रखा था। उनका शरीर विशाल तथा सुदृढ़ था और उनकी आँखें कमल की पंखुड़ियों जैसी थीं।"
देखिया ताँहार मने हैल चमत्कार ।। आसिया करिल दण्डवत्नमस्कार ॥
१९॥
जब रामानन्द राय ने इस अद्भुत संन्यासी को देखा, तो वे । आश्चर्यचकित रह गये। वे उनके पास गये और तुरन्त भूमि पर दण्डवत् गिरकर उन्हें सादर नमस्कार किया।"
उठि' प्रभु कहे,—ऊठ, कह'कृष्ण' 'कृष्ण' । तारे आलिङ्गिते प्रभुर हृदय सतृष्ण ॥
२० ॥
महाप्रभु खड़े हो गये और उन्होंने रामानन्द राय से उठने तथा कृष्णनाम का कीर्तन करने के लिए कहा। श्री चैतन्य महाप्रभु उनका आलिंगन करने के लिए अत्यन्त उत्सुक थे।"
तथापि पुछिल, तुमि राय रामानन्द?।। तेंहो कहे,—सेई हङदास शूद्र मन्द ॥
२१॥
तब महाप्रभु ने पूछा कि क्या आप रामानन्द राय हो? तो उन्होंने उत्तर दिया, हाँ, मैं आपका तुच्छ दास हूँ और शूद्र जाति का हूँ।"
तबे तारे कैल प्रभु दृढ़ आलिङ्गन ।प्रेमावेशे प्रभु-भृत्य दोहे अचेतन ॥
२२॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने श्री रामानन्द राय का दृढ़ता से आलिंगन किया। इस तरह प्रभु तथा दास दोनों प्रेमावेश में अचेत-से हो गये।"
स्वाभाविक प्रेम दोंहार उदय करिला ।।मुँहा आलिङ्गिया हे भूमिते पड़िला ॥
२३॥
दोनों में एक-दूसरे के प्रति स्वाभाविक प्रेम उमड़ आया, दोनों ने आलिंगन किया और दोनों भूमि पर गिर पड़े।"
स्तम्भ, स्वेद, अश्रु, कम्प, पुलक, वैवर्य ।।मुँहार मुखेते शुनि' गद्गद 'कृष्ण' वर्ण ॥
२४॥
। एक-दूसरे का आलिंगन करते समय उनमें स्तम्भ, स्वेद, अश्रु, कम्प, पुलक, वैवर्य-ये भावलक्षण प्रकट हो आये। उनके मुखों से रुकरुककर ‘कृष्ण’ शब्द निकल रहा था।"
देखिया ब्राह्मण-गणेर हैल चमत्कार ।।वैदिक ब्राह्मण सबै करेन विचार ॥
२५॥
जब रूढ़िवादी कर्मकाण्डी वैदिक ब्राह्मणों ने इस प्रेम-आवेश के प्राकट्य को देखा, तो वे आश्चर्यचकित रह गये। वे सारे ब्राह्मण इस प्रकार विचार करने लगे।"
एइ त' सन्यासीर तेज देखि ब्रह्म-सम ।।शूद्रे आलिङ्गिया केने करेन क्रन्दन ॥
२६॥
ब्राह्मणों ने सोचा, हम देख रहे हैं कि इस संन्यासी में ब्रह्म जैसा तेज है, किन्तु यह समाज के चौथे वर्ण के एक शूद्र का आलिंगन करके से क्यों रहा है? एइ महाराज—महा-पण्डित, गम्भीर । सन्यासीर स्पर्शे मत्त हइला अस्थिर ॥
२७॥
उन्होंने सोचा, यह रामानन्द राय तो मद्रास का गवर्नर है, प्रकाण्ड पण्डित और गम्भीर व्यक्ति है, किन्तु इस संन्यासी का स्पर्श करके यह पागल व्यक्ति की तरह व्याकुल हो उठा है।"
एइ-मत विप्र-गण भावे मने मन ।।विजातीय लोक देखि, प्रभु कैल सम्वरण ॥
२८॥
जब सारे ब्राह्मण श्री चैतन्य महाप्रभु एवं रामानन्द राय के कार्यों के fuषय में इस प्रकार सोच रहे थे, तो श्री चैतन्य महाप्रभु ने इन बाहरी ब्राह्मणों को देख लिया, अतएव उन्होंने अपने दिव्य भावों को रोका।"
सुस्थ हा मुँहे सेइ स्थानेते वसिला ।।तबे हासि' महाप्रभु कहिते लागिला ॥
२९॥
। जब दोनों के मन स्थिर हो गये, तो दोनों बैठ गये और श्री चैतन्य महाप्रभु ने हँसकर इस प्रकार कहना शुरू किया।"
‘सार्वभौम भट्टाचार्य कहिल तोमार गुणे ।तोमारे मिलिते मोरे करिल ग्नतने ॥
३०॥
सार्वभौम भट्टाचार्य ने आपके सारे अच्छे गुण मुझसे बतलाये हैं। और उन्होंने मुझे प्रभावित करने का भरसक प्रयास किया कि मैं आपसे मिलँ।।"
तोमा मिलिबारे मोर एथा आगमन । भाल हैल, अनायासे पाइलँ दरशन' ॥
३१॥
निस्सन्देह, मैं यहाँ आपसे ही मिलने आया हूँ। अच्छा हुआ कि बिना प्रयास के आपसे यहाँ भेंट हो गईं।"
राय कहे,—सार्वभौम करे भृत्य-ज्ञान ।। परोक्षेह मोर हिते हेय सावधान ॥
३२॥
रामानन्द राय ने उत्तर दिया, सार्वभौम भट्टाचार्य मुझे अपने सेवक की तरह मानते हैं। वे मेरी अनुपस्थिति में भी मेरा हित करने के लिए सोचते रहते हैं।"
ताँर कृपाय पाइनु तोमार दरशन ।। आजि सफल हैल मोर मनुष्य-जनम ॥
३३ ॥
। उनकी कृपा से मुझे यहाँ पर आपका दर्शन प्राप्त हुआ है। फलतः मैं मानता हूँ कि आज मेरा मनुष्य-जन्म सफल हो गया।"
सार्वभौमे तोमार कृपा,—तार एइ चिह्न ।। अस्पृश्य स्पर्शले हा ताँर प्रेमाधीन ॥
३४॥
मैं देख रहा हूँ कि आपने सार्वभौम भट्टाचार्य पर विशेष कृपा की है। अतएव आपने मेरा स्पर्श किया है, यद्यपि मैं अस्पृश्य ( अछूत) हूँ। यह आपके प्रति उनके प्रेम के ही कारण है।"
काहाँ तुमि–साक्षातीश्वर नारायण ।काहाँ मुजि—राज-सेवी विषयी शूद्राधम ॥
३५॥
आप साक्षात् पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् नारायण हैं और मैं भौतिकतावादी कार्यों में रुचि रखने वाला केवल एक सरकारी नौकर हूँ। निस्सन्देह, मैं शूद्रों में भी सबसे नीच हूँ।"
मोर स्पर्शे ना करिले घृणा, वेद-भय ।। मोर दर्शन तोमा वेदे निषेधय ॥
३६॥
आपको इस वैदिक आदेश का भी भय नहीं है कि आपको शूद्र का संग नहीं करना चाहिए। यद्यपि वेदों में शूद्रों की संगति करने का निषेध है, किन्तु आपको मेरा स्पर्श करने में कोई घृणा नहीं हुई।"
तोमार कृपाय तोमाय कराय निन्द्य-कर्म । साक्षातीश्वर तुमि, के जाने तोमार मर्म ॥
३७॥
आप स्वयं साक्षात् पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं, अतएव आपके प्रयोजन ( रहस्य) को कोई नहीं समझ सकता। यह आपकी कृपा है क्रि आप मेरा स्पर्श कर रहे हैं, यद्यपि वेदों द्वारा इसकी अनुमति नहीं है।"
आमा निस्तारिते तोमार इहाँ आगमन ।।परम-दयालु तुमि पतित-पावन ॥
३८॥
आप यहाँ मेरा उद्धार करने के लिए विशेष रूप से पधारे हैं। आप इतने दयालु हैं कि सभी पतितात्माओं को केवल आप ही उबार सकते हैं।"
महान्त-स्वभाव एइ तारिते पामर ।। निज कार्य नाहि तबु यान तार घर ॥
३९॥
सारे सन्त पुरुषों का यह सामान्य कार्य है कि वे पतितों का उद्धार करते हैं। इसीलिए वे लोगों के घरों में जाते हैं, यद्यपि वहाँ उनका कोई निजी कार्य नहीं रहता।।"
महद्विचलनं नृणां गृहिणां दीन-चेतसाम् ।।निःश्रेयसाय भगवन्नान्यथा कल्पते क्वचित् ॥
४०॥
। हे प्रभु, कभी-कभी बड़े से बड़े सन्त पुरुष भी गृहस्थों के घर जाते हैं, यद्यपि ये गृहस्थ सामान्यतया तुच्छ बुद्धि वाले होते हैं। जब कोई सन्त पुरुष उनके घर जाता है, तो यही समझना चाहिए कि गृहस्थों को लाभ पहुँचाने के अतिरिक्त उनका अन्य कोई उद्देश्य नहीं हो सकता।"
आमार सङ्गे ब्राह्मणादि सहस्त्रेक जन ।। तोमार दर्शने सबार द्रवी-भूत मन ॥
४१॥
मेरे साथ ब्राह्मणों को मिलाकर लगभग एक हजार व्यक्ति हैं और उन सबके हृदय आपके दर्शन से द्रवीभूत हो चुके हैं।"
'कृष्ण' 'कृष्ण' नाम शुनि सबार वदने । सबार अङ्ग पुलकित, अश्रुनयने ॥
४२॥
मैं हर व्यक्ति को कृष्ण-नाम का कीर्तन करते हुए सुन रहा हूँ। प्रत्येक व्यक्ति का शरीर भाव से पुलकित है और हर एक की आँखों में आँसू हैं।"
आकृत्ये-प्रकृत्ये तोमार ईश्वर-लक्षण ।।जीवे ना सम्भवे एइ अप्राकृत गुण ॥
४३॥
हे मान्यवर, आप अपने शारिरिक लक्षणों तथा स्वभाव से पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान् हैं। सामान्य जीवों में ऐसे दिव्य लक्षणों का मिलना असम्भव है।"
प्रभु कहे,—तुमि महा-भागवतोत्तम । तोमार दर्शने सबार द्रव हैल मन ॥
४४॥
। महाप्रभु ने रामानन्द राय को उत्तर दिया, हे महोदय, आप सर्वोच्च भक्तों के शिरोमणि हैं, अतएव आपके दर्शन से हर एक का हृदय द्रवित हो उठा है।"
अन्येर कि कथा, आमि–‘मायावादी सन्यासी' । आमिह तोमार स्पर्शे कृष्ण-प्रेमे भासि ॥
४५ ॥
। यद्यपि मैं मायावादी संन्यासी अर्थात् अभक्त हूँ, किन्तु आपका स्पर्श पाने मात्र से मैं भी कृष्ण-प्रेम के सागर में तैर रहा हूँ। दूसरों का तो कहना ही क्या? एइ जानि' कठिन मोर हृदय शोधिते ।।सार्वभौम कहिलेन तोमारे मिलिते ॥
४६॥
सार्वभौम भट्टाचार्य यह जानते थे कि ऐसा होगा और इसीलिए मेरे अत्यन्त कठोर हृदय को शुद्ध करने के उद्देश्य से उन्होंने मुझे आपसे मिलने के लिए कहा है।"
एइ-मत ढूँहे स्तुति करे मुँहार गुण ।।मुँहे बँहार दरशने आनन्दित मन ॥
४७॥
इस तरह दोनों एक-दूसरे के गुणों की प्रशंसा करते रहे, और दोनों ही एक-दूसरे को देखकर अत्यन्त प्रसन्न थे।"
हेन-काले वैदिक एक वैष्णव ब्राह्मण । दण्डवत्करि' कैल प्रभुरे निमन्त्रण ॥
४८ ।। उसी समय एक वैष्णव ब्राह्मण आया, जो वैदिक नियमों का पालन करने वाला था और उसने नमस्कार किया। महाप्रभु के समक्ष दण्डवत् गिरने के बाद उसने उन्हें भोजन करने के लिए आमन्त्रित किया।"
निमन्त्रण मानिल ताँरै वैष्णव जानिया । रामानन्दे कहे प्रभु ईषत् हासिया ॥
४९॥
। महाप्रभु ने उस ब्राह्मण को एक भक्त जानकर उसका निमन्त्रण स्वीकार कर लिया और कुछ-कुछ हँसते हुए रामानन्द राय से वे इस प्रकार बोले।"
तोमार मुखे कृष्ण-कथा शुनिते हय मन । पुनरपि पाइ ग्रेन तोमार दरशन ॥
५०॥
“मैं आपसे भगवान् कृष्ण के विषय में सुनना चाहता हूँ। मेरा मन ऐसा चाहता है, अतएव मैं आपके दर्शन फिर से करना चाहता हूँ।"
राय कहे, आइला यदि पामर शोधिते । दर्शन-मात्रे शुद्ध नहे मोर दुष्ट चित्ते ॥
५१॥
दिन पाँच-सात रहि' करह मार्जन ।।तबे शुद्ध हय मोर एइ दुष्ट मन ॥
५२॥
रामानन्द राय ने उत्तर दिया, हे प्रभु, यद्यपि आप मुझ पतित का शोधन करने आये हैं, किन्तु मेरा मन आपको देखने से अभी शुद्ध नहीं हुआ है। कृपया आप पाँच-सात दिन रुकें और मेरे दूषित मन को शुद्ध कर दें। इतने दिनों में मेरा मन अवश्य ही शुद्ध हो जायेगा।"
ग्रद्यपि विच्छेद दोंहार सहन ना ग्राय ।। तथापि दण्डवत्करि' चलिला राम-राय ॥
५३॥
यद्यपि वे दोनों एक-दूसरे के विछोह को सहन नहीं कर सकते थे, फिर भी रामानन्द राय ने महाप्रभु को नमस्कार किया और वहाँ से विदा ली।"
प्रभु झाइ' सेइ विप्र-घरे भिक्षा कैल ।दुइ जनार उत्कन्ठाय आसि' सन्ध्या हैल ॥
५४॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु उस ब्राह्मण के घर गये, जिसने उन्हें आमन्त्रित किया था और उन्होंने वहीं भोजन किया। जब संध्या हुई, तो रामानन्द राय तथा महाप्रभु दोनों ही एक-दूसरे से पुनः मिलने के लिए उत्कण्ठित हो उठे।"
प्रभु स्नान-कृत्य करि' आछेन वसिया ।। एक-भृत्य-सङ्गे राय मिलिला आसिया ॥
५५॥
। शाम को स्नान करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु बैठकर रामानन्द राय के आने की प्रतीक्षा करने लगे। तभी रामानन्द राय एक नौकर के साथ उनसे मिलने के लिए आये।"
नमस्कार कैल राय, प्रभु कैल आलिङ्गने ।। दुइ जने कृष्ण-कथा कय रहः-स्थाने ॥
५६॥
। रामानन्द राय ने महाप्रभु के पास आकर सादर नमस्कार किया और महाप्रभु ने उनका आलिंगन किया। फिर वे दोनों एकान्त स्थान में कृष्ण के विषय में चर्चा करने लगे।"
प्रभु कहे,–पड़ श्लोक साध्येिर निर्णय ।। राय कहे,–स्व-धर्माचरणे विष्णु-भक्ति हय ॥
५७॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने रामानन्द राय को आदेश दिया, जीवन के चरम लक्ष्य से सम्बन्धित शास्त्रों से एक श्लोक सुनायें। इस पर रामानन्द ने उत्तर दिया, यदि कोई अपने सामाजिक पद सम्बन्धी नियत कर्मों को सम्पन्न करता है, तो वह अपनी मूल कृष्णभावनामृत को जाग्रत करता हैं ।"
वर्णाश्रमाचार-वता पुरुषेण परः पुमान् ।। विष्णुराराध्यते पन्था नान्यत्तत्तोष-कारणम् ॥
५८॥
वर्णाश्रम प्रणाली में नियत कर्तव्यों को उचित रीति से सम्पन्न करके पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु की पूजा की जाती है। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को तुष्ट करने की अन्य कोई विधि है ही नहीं। मनुष्य को चारों वर्गों तथा चारों आश्रमों के संस्थान में स्थित होना चाहिए।"
प्रभु कहे, एहो बाह्य, आगे कह आर ।। राय कहे, कृष्णे कर्मार्पण सर्व-साध्य-सार ॥
५९॥
महाप्रभु ने कहा, यह तो बाह्य है। आप मुझे कोई दूसरा साधन बतलायें। इस पर रामानन्द ने उत्तर दिया, सारी पूर्णता का सार यह है। कि अपने कर्मों के फल कृष्ण को अर्पित किये जाएँ।"
ग्रत्करोषि ग्रदश्नासि झज्जुहोषि ददासि ग्रत् ।। यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥
६० ॥
रामानन्द राय ने आगे कहा, हे कुन्ती-पुत्र, तुम जो कुछ करो, जो भी खाओ, जो भी यज्ञ करो, जो भी दान दो तथा तुम जितनी भी तपस्याएँ करो, उन सबके फल मुझे, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण को अर्पण करो।"
प्रभु कहे,-एहो बाह्य, आगे कह आर ।।राय कहे,–स्वधर्म-त्याग, एइ साध्य-सार ॥
६१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, यह भी बाह्य है। इस विषय पर आगे कहो। तब रामानन्द राय ने उत्तर दिया, वर्णाश्रम में अपने नियत कर्मों को त्यागना ही पूर्णता का सार है।"
आज्ञायैवं गुणान्दोषान्मयादिष्टानपि स्वकान् ।।धर्मान्सन्त्यज्य ग्रः सर्वान्मां भजेत्स च सत्तमः ॥
६२॥
रामानन्द राय ने आगे कहा, शास्त्रों में नियत कर्तव्यों का वर्णन हुआ है। उनका विश्लेषण करने पर उनके गुण-दोषों का पता चल सकता है। और तब उनका पूर्ण परित्याग करके पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की सेवा की जा सकती है। ऐसा व्यक्ति उच्च कोटि का माना जाता है।"
सर्व-धर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । अहं त्वां सर्व-पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
६३॥
। जैसाकि शास्त्र ( भगवद्गीता १८.६६ ) में कहा गया है, 'यदि तुम सारे धार्मिक तथा नियत कर्तव्यों को त्यागकर मुझ भगवान् की शरण में । आ जाओ, तो मैं तुम्हें तुम्हारे जीवनभर के सारे पापकर्मों के फलों से । छुटकारा दिला हूँगा। तुम चिन्ता मत करो।"
प्रभु कहे,_एहो बाह्य, आगे कह आर ।। राय कहे, ज्ञान-मिश्रा भक्ति-साध्य-सार ॥
६४॥
रामानन्द राय को इस तरह बातें करते सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने उनके कथन को अस्वीकार करते हुए कहा, आगे कुछ और कहो। तब रामानन्द राय ने कहा, ज्ञानमिश्रित भक्ति ही पूर्णता का सार है।"
ब्रह्म-भूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति ।। समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ॥
६५॥
रामानन्द राय ने आगे कहा, भगवद्गीता के अनुसार-'जो इस प्रकार दिव्य पद को प्राप्त है, उसे परम ब्रह्म की अनुभूति तुरन्त हो जाती है और वह पूर्णतया प्रसन्न हो जाता है। वह न तो कभी चिन्ता करता है, न किसी वस्तु की इच्छा रखता है। वह सभी जीवों के प्रति समभाव रखता है। उस अवस्था में वह मेरी पूर्ण भक्ति प्राप्त करता है।"
प्रभु कहे, एहो बाह्य, आगे कह आर ।। राय कहे,--ज्ञान-शून्या भक्ति–साध्य-सार ॥
६६॥
यह सुनकर महाप्रभु ने पहले की तरह इसे भी बाह्य भक्ति मानते हुए अस्वीकार कर दिया। उन्होंने रामानन्द राय से पुनः आगे बोलने के लिए कहा। इस पर रामानन्द राय ने उत्तर दिया, ज्ञान से रहित शुद्ध भक्ति ही पूर्णता का सार है।"
ज्ञाने प्रयासमुदपास्य नमन्त एव ।जीवन्ति सन्मुखरितां भवदीय-वार्ताम् । स्थाने स्थिताः श्रुति-गतां तनु-वाङ्मनोभिर्ये प्रायशोऽजित जितोऽप्यसि तैत्रि-लोक्याम् ॥
६७॥
रामानन्द ने आगे कहा, [ ब्रह्माजी ने कहा :‘हे प्रभु, जिन भक्तों ने परम सत्य के बारे में निर्विशेष खयाल को त्याग दिया है और जिन्होंने चिन्तन के दार्शनिक सत्यों के बारे में विचार-विमर्श करना त्याग दिया है, उन्हें स्वरूपसिद्ध भक्तों से आपके नाम, रूप, लीलाओं तथा गुणों के बारे में श्रवण करना चाहिए। उन्हें भक्ति के नियमों का पूर्णतया पालन करना चाहिए और अवैध सम्बन्ध, जुआ, नशा तथा पशु-हत्या से दूर रहना चाहिए। मन, कर्म तथा वचन से शरणागत होकर वे किसी भी वर्ण या आश्रम में रह सकते हैं। निस्सन्देह, आप सदैव अजेय होते हुए भी ऐसे व्यक्तियों द्वारा जीते जाते हैं।"
प्रभु कहे, एहो हय, आगे कह आर ।। राय कहे, प्रेम-भक्ति--सर्व-साध्य-सार ॥
६८ ॥
। इस पर श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, यह ठीक है, फिर भी कुछ आगे कहो। तब रामानन्द राय ने कहा, समस्त पूर्णता का सार पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की भावपूर्ण प्रेमाभक्ति है।"
नानोपचार-कृत-पूजनमार्त-बन्धोः ।प्रेम्णैव भक्त-हृदयं सुख-विद्रुतं स्यात् ।। यावत्क्षुदस्ति जठरे जरठा पिपासातावत्सुखाय भवतो ननु भक्ष्य-पेये ॥
६९॥
रामानन्द राय ने आगे कहा, जब तक पेट में भूख और प्यास है, तब तक विविध प्रकार के खाद्य-पेय पदार्थों से मनुष्य अत्यन्त सुख का अनुभव करता है। इसी तरह जब शुद्ध प्रेम से भगवान् की पूजा की जाती है, तो उस पूजा के दौरान किए गये विभिन्न कार्यकलापों से भक्त के हृदय में दिव्य आनन्द जाग्रत होता है।"
कृष्ण-भक्ति-रस-भाविता मतिः । क्रीयतां यदि कुतोऽपि लभ्यते । तत्र लौल्यमपि मूल्यमेकलंजन्म-कोटि-सुकृतैर्न लभ्यते ॥
७० ॥
सैकड़ों-हजारों जन्मों के पुण्यकर्मों से भी कृष्णभावनाभावित शुद्ध भक्ति प्राप्त नहीं की जा सकती। इसे तो केवल एक मूल्य पर-उसे प्राप्त करने की उत्कट लालसा से ही–प्राप्त की जा सकती है। यदि यह कहीं भी उपलब्ध हो सके, तो उसे तुरन्त ही खरीद लेनी चाहिए।"
प्रभु कहे, एहो हय, आगे कह आर ।। राय कहे, दास्य-प्रेम–सर्व-साध्य-सार ॥
७९॥
स्वतः स्फूर्त प्रेम की बात सुनकर महाप्रभु ने कहा, यह ठीक है, किन्तु यदि आप और अधिक जानते हों तो कृपया मुझे बतलायें। इसके उत्तर में रामानन्द राय ने कहा, स्वतः स्फूर्त दास्य प्रेम-स्वामी तथा । सेवक में आदान-प्रदान होने वाला प्रेम-ही सर्वोच्च पूर्णता है।"
ग्रन्नाम-श्रुति-मात्रेण पुमान्भवति निर्मलः ।तस्य तीर्थ-पदः किं वा दासानामवशिष्यते ॥
७२॥
जिन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के चरणकमल तीर्थस्थानों को उत्पन्न करते हैं, उनके पवित्र नाम को सुनने से ही मनुष्य निर्मल हो जाता है। अतएव जो उनके दास बन चुके हैं, उन्हें अब आगे पाने के लिए क्या बचा है? भवन्तमेवानुचरन्निरन्तरःप्रशान्त-नि:शेष-मनो-रथान्तरः ।।कदाहमैकान्तिक-नित्य-किङ्करःप्रहर्षयिष्यामि स-नाथ-जीवितम् ॥
७३॥
। आपकी निरन्तर सेवा करते रहने से मनुष्य सारी भौतिक इच्छाओं से मुक्त हो जाता है और पूर्णतया शान्त बन जाता है। वह दिन कब आयेगा जब आप मुझे अपना सनातन दास बना लेंगे और मैं आप जैसे पूर्ण स्वामी को पाकर परम हर्ष का अनुभव करूँगा? प्रभु कहे, एहो हय, किछु आगे आर ।।राय कहे, सख्य-प्रेम--सर्व-साध्य-सार ॥
७४॥
रामानन्द राय से यह सुनकर महाप्रभु ने पुनः प्रार्थना की कि वे और आगे बढ़े। रामानन्द राय ने उत्तर में कहा, सख्य भाव से की गई कृष्ण की प्रेमाभक्ति सर्वोच्च पूर्णता है।"
इत्थं सतां ब्रह्म-सुखानुभूत्यादास्यं गतानां पर-दैवतेन ।। मायाश्रितानां नर-दारकेण ।सार्धं विजः कृत-पुण्य-पुञ्जाः ॥
७५॥
जो लोग भगवान् के ब्रह्मतेज की सराहना करते हुए आत्मसाक्षात्कार में लगे हैं, और जो लोग भगवान् को स्वामी के रूप में स्वीकार करके भक्ति में लगे हैं, तथा वे जो भगवान् को सामान्य पुरुष मानकर माया के पाश में बँधे रहते हैं, कभी यह नहीं समझ सकते कि कुछ महापुरुष अनेक पुण्यकर्मों को संचित करने के बाद ग्वालबालों के रूप में भगवान् के साथ मित्र बनकर खेल रहे हैं।"
प्रभु कहे,–एहो उत्तम, आगे कह आर ।। राय कहे, वात्सल्य-प्रेम–सर्व-साध्य-सार ॥
७६ ॥
महाप्रभु ने कहा, ह कथन अति उत्तम है, किन्तु आगे कहते चलो।तब रामानन्द राय ने उत्तर दिया, भगवान् के प्रति वात्सल्य प्रेम सर्वोच्च पूर्णता की अवस्था है।"
नन्दः किमकरोद्बह्मन्श्रेय एवं महोदयम् ।।यशोदा वा महा-भागा पपौ यस्याः स्तनं हरिः ॥
७७॥
रामानन्द राय कहते रहे, हे ब्राह्मण, भला नन्द महाराज ने कौनसा पुण्यकर्म किया था, जिसके कारण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण उन्हें पुत्र रूप में प्राप्त हुए? और माता यशोदा ने कौन-से पुण्यकर्म किये थे, जिनके कारण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण से अपने आपको माता कहलवाया और अपने स्तनों का पान कराया? नेमं विरिञ्चो न भवो न श्रीरप्यङ्ग-संश्रया ।प्रसादं लेभिरे गोपी ग्रत्तत्प्राप विमुक्ति-दात् ॥
७८ ॥
मुक्ति प्रदान करने वाले श्रीकृष्ण से माता यशोदा को जो कृपाप्रसाद मिला, वह न तो कभी ब्रह्माजी को प्राप्त हो सका, न शिवजी को, न ही उन लक्ष्मीजी को जो सदैव भगवान् विष्णु के वक्षस्थल पर विराजमान रहती हैं।"
प्रभु कहे, एहो उत्तम, आगे कह आर ।राय कहे, कान्ती-प्रेम सर्व-साध्य-सार ॥
७९॥
। महाप्रभु ने कहा, तुम्हारे कथन उत्तरोत्तर अच्छे होते जा रहे हैं, किन्तु इन सबसे बढ़कर अन्य दिव्य रस है, जिसे आप अच्छी तरह बतला सकते हैं। तब रामानन्द राय ने उत्तर दिया, भगवत्प्रेम में कृष्ण के प्रति माधुर्य आसक्ति सर्वोपरि है।"
नायं श्रियोऽङ्ग उ नितान्त-रतेः प्रसादः ।स्वर्णोषितां नलिन-गन्ध-रुचां कुतोऽन्याः ।। रासोत्सवेऽस्य भुज-दण्ड-गृहीत-कण्ठलब्धाशिषां य उदगाव्रज-सुन्दरीणाम् ॥
८०॥
। जब भगवान् श्रीकृष्ण गोपियों के साथ रासनृत्य कर रहे थे, तब उनकी भुजाएँ गोपियों के गले के इर्द गिर्द उनका आलिंगन कर रही थीं। ऐसा दिव्य सुयोग न तो कभी लक्ष्मीजी को प्राप्त हुआ, न ही वैकुण्ठ की अन्य प्रेयसियों को। न ही स्वर्गलोक की उन श्रेष्ठ सुन्दरियों ने कभी ऐसी कल्पना की थी, जिनकी शारीरिक कान्ति तथा सुगन्धि कमल के फूल जैसी है। तो भला उन सांसारिक स्त्रियों की बात ही क्या, जो भौतिक दृष्टि से अत्यन्त सुन्दर हों? तासामाविरभूच्छौरिः स्मयमान-मुखाम्बुजः ।।पीताम्बर-धरः स्रग्वी साक्षान्मन्मथ-मन्मथः ॥
८१ ॥
गोपियों की विरह भावनाओं के कारण कृष्ण पीताम्बर पहने फूलों की माला धारण किये एकाएक उनके बीच में प्रकट हो गये। उनका कमल-मुख मुस्कुरा रहा था और वे कामदेव के मन को भी आकृष्ट करने वाले थे।"
कृष्ण-प्राप्तिर उपाय बहु-विध हय ।।कृष्ण-प्राप्ति-तारतम्य बहुत आछय ॥
८२॥
कृष्ण की कृपा प्राप्त करने के अनेक साधन तथा विधियाँ हैं। अब उन सारी दिव्य विधियों का अध्ययन सापेक्ष महत्त्व की दृष्टि से किया जायेगा।"
किन्तु याँर ग्रेड रस, सेई सर्वोत्तम । तट-स्थ हा विचारिले, आछे तर-तम ॥
८३॥
यह सच है कि भगवान् के साथ जिस भक्त का जैसा भी सम्बन्ध है, वही उसके लिए सर्वोत्तम है। किन्तु तो भी जब हम विभिन्न विधियों का अध्ययन तटस्थ होकर करते हैं, तो हम समझ सकते हैं कि प्रेम की उच्च तथा निम्न कोटियाँ होती हैं।"
ग्रथोत्तरमसौ स्वाद-विशेषोल्लास-मय्यपि । रतिर्वासनया स्वाद्वी भासते कापि कस्यचित् ॥
८४॥
“एक के बाद एक रसों में अधिकाधिक प्रेम का अनुभव होता है। किन्तु सर्वोच्च स्वाद वाला प्रेम तो माधुर्य रस में ही प्रकट होता है।"
पूर्व-पूर्व-रसेर गुण----परे परे हय ।। दुइ-तिन गणने पञ्च पर्यन्त बाड़य ।। ८५॥
एक रस से लेकर बाद के रसों तक क्रमशः बढ़ोतरी होती जाती है। दूसरे, तीसरे और अधिक से अधिक पाँचवे रस तक प्रत्येक परवर्ती रस के गुण में पूर्ववर्ती रस के गुण प्रकट होते हैं।"
गुणाधिक्ये स्वादाधिक्य बाड़े प्रति-रसे ।।शान्त-दास्य-सख्य-वात्सल्येर गुण मधुरेते वैसे ॥
८६॥
गुणों में वृद्धि के साथ-साथ प्रत्येक रस के स्वाद में भी वृद्धि होती जाती है। अतएव शान्त रस, दास्य रस, सख्य रस तथा वात्सल्य रस के सारे गुण माधुर्य रस में प्रकट होते हैं।"
आकाशादिर गुण ग्रेन पर-पर भूते ।।दुइ-तिन क्रमे बाड़े पञ्च पृथिवीते ॥
८७।। पाँच भौतिक तत्त्वों-आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी-में गुणों की उत्तरोत्तर वृद्धि एक, दो, तथा तीन की क्रमिक विधि से होती है और अन्तिम अवस्था में पृथ्वी तत्त्व में पाँचों गुण पूर्णतया दृष्टिगोचर होते है।"
परिपूर्ण-कृष्ण-प्राप्ति एइ ‘प्रेमा' हैते ।। एइ प्रेमार वश कृष्ण कहे भागवते ॥
८८ ॥
भगवान् कृष्ण के चरणकमलों की पूर्ण प्राप्ति भगवत्प्रेम से, विशेष रूप से माधुर्य रस द्वारा सम्भव हो पाती है। भगवान् कृष्ण इस स्तर के प्रेम के वश में हो जाते हैं। श्रीमद्भागवत में ऐसा कहा गया है।"
मयि भक्तिर्हि भूतानाममृतत्वाय कल्पते । दिष्ट्या ग्रदासीन्मत्स्नेहो भवतीनां मदापनः ॥
८९॥
भगवान् कृष्ण ने गोपियों से कहा, 'मेरी कृपा प्राप्त करने का साधन मेरी प्रेममयी सेवा है और सौभाग्य से तुम सब उसी में लगी हुई हो। जो जीव मेरी सेवा करते हैं, वे वैकुण्ठ जाने और ज्ञान तथा आनन्द से पूर्ण शाश्वत जीवन प्राप्त करने के पात्र हैं।"
कृष्णेर प्रतिज्ञा दृढ़ सर्व-काले आछे ।ग्रे ग्रैछे भजे, कृष्ण तारे भजे तैछे ॥
९०॥
। भगवान् कृष्ण ने सदा सदा के लिए दृढ़ प्रतिज्ञा की है। जो कोई कृष्ण की जितनी सेवा करता है, वे उसे भगवद्भक्ति में उतनी ही सफलता प्रदान करते हैं।"
ग्रे ग्रथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।।मम वर्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥
९१॥
[ भगवद्गीता (४.११) में भगवान् कृष्ण के अनुसार : ‘जिस भाव से सभी लोग मेरी शरण में आते हैं, उसी के अनुरूप मैं उन्हें फल प्रदान करता हूँ। हे पृथा-पुत्र, हर व्यक्ति सभी प्रकार से मेरे पथ का अनुसरण करता है।"
एइ ‘प्रेमे 'र अनुरूप ना पारे भजिते ।।अतएव 'ऋणी' हय—कहे भागवते ॥
९२॥
श्रीमद्भागवत (१०.३२.२२) में कहा गया है कि भगवान् कृष्ण माधुर्य रस में भक्ति का आदान-प्रदान समान अनुपात में नहीं कर पाते, अतएव वे ऐसे भक्तों के सदैव ऋणी रहते हैं।"
न पारयेऽहं निरवस्व-साधु-कृत्यं विबुधायुषापि वः ।। ग्रा माभजन्दुर्जय-गेह-शृङ्खलाः ।संवृश्च्य तद्वः प्रतियातु साधुना ॥
१३॥
जब गोपियाँ कृष्ण से रासलीला में उनकी अनुपस्थिति के कारण असन्तुष्ट होकर विह्वल थीं, तभी कृष्ण वापस आ गये और उन्होंने उनसे कहा, हे गोपियों, हमारा मिलन निस्सन्देह समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त है। मैं स्वीकार करता हूँ कि मैं तुम सबके ऋण को अनेक जन्मों में भी नहीं चुका सकुँगा, क्योंकि तुम लोगों ने मुझे ढूंढ़ने के लिए अपने पारिवारिक बन्धनों को तोड़ डाला है। अतएव मैं ऋण चुकाने में असमर्थ हूँ। फलतः तुम लोग इस सम्बन्ध में किये गये अपने नेक कार्यों से सन्तुष्ट हो जाओ।"
यद्यपि कृष्ण-सौन्दर्य-माधुर धुर्घ ।।व्रज-देवीर सङ्गे ताँर बाड़ये माधुर्यं ॥
९४।। यद्यपि कृष्ण का अप्रतिम सौन्दर्य भगवत्प्रेम का सर्वोच्च माधुर्य है, किन्तु जब वे गोपियों के संग में होते हैं, तब उनका माधुर्य असीम रूप से बढ़ जाता है। फलस्वरूप गोपियों के साथ कृष्ण द्वारा प्रेम का आदानप्रदान भगवत्प्रेम की चरम पूर्णता है।"
तत्रातिशुशुभे ताभिर्भगवान्देवकी-सुतः ।। मध्ये मणीनां हैमानां महा-मरकतो यथा ॥
९५॥
यद्यपि देवकी-पुत्र भगवान् समस्त सौन्दर्य के आगार हैं, किन्तु जब वे गोपियों के बीच होते हैं, तब वे और भी अधिक सुन्दर लगते हैं, श्योंकि वे सोने तथा अन्य मणियों से घिरे हुए मरकत मणि जैसे लगते हैं प्रभु कहे,---एइ ‘साध्यावधि' सुनिश्चय ।। कृपा करि' कह, यदि आगे किछु हय ॥
९६ ।। । श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, यह निश्चय ही पूर्णता की सीमा है, किन्तु आप मुझ पर कृपा करें और यदि कुछ और हो तो उसे कहें।"
राय कहे,—इहार आगे पुछे हेन जने ।। एत-दिन नाहि जानि, आछये भुवने ॥
९७॥
रामानन्द राय ने उत्तर दिया, आज तक मैं इसे भौतिक संसार में ऐसे किसी व्यक्ति को नहीं जानता था, जो भक्ति की इस पूर्ण अवस्था के आगे क्या है, इसके बारे में पूछ सके।"
इँहार मध्ये राधार प्रेम-साध्य-शिरोमणि' ।झाँहार महिमा सर्व-शास्त्रेते वाखानि ॥
९८॥
रामानन्द राय कहते गये, गोपियों के प्रेम व्यापार में से कृष्ण के प्रति श्रीमती राधारानी का प्रेम सर्वोपरि है। निस्सन्देह, श्रीमती राधारानी की महिमा का बखान सभी प्रामाणिक शास्त्रों में उच्च स्तर पर हुआ है।"
यथा राधा प्रिया विष्णोस्तस्याः कुण्डं प्रियं तथा । सर्व-गोपीषु सैवैका विष्णोरत्यन्त-वल्लभा ॥
९९॥
जिस तरह श्रीमती राधारानी श्रीकृष्ण को परम प्रिय हैं, उसी तरह उनका स्नान-स्थान राधाकुण्ड भी उन्हें प्रिय है। सारी गोपियों में श्रीमती राधारानी सर्वोच्च हैं और कृष्ण को अत्यन्त प्रिय हैं।"
अनयाराधितो नूनं भगवान्हरिरीश्वरः ।। ग्रन्नो विहाय गोविन्दः प्रीतो ग्रामनयद्रहः ॥
१००॥
[ गोपियों ने परस्पर बातें करते हुए कहा : 'हे सखियों, जिस गोपी को कृष्ण अपने साथ एकान्त स्थल में ले गये हैं, उसने भगवान् की पूजा दूसरे सब की अपेक्षा अधिक की होगी।"
प्रभु कहे—आगे कह, शुनिते पाइ सुखे ।।अपूर्वामृत-नदी वहे तोमार मुखे ॥
१०१॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, बोलते जाइये। मुझे आपकी बातें सुनकर परम सुख हो रहा है, क्योंकि आपके मुख से अद्वितीय अमृत की नदी बह रही है।"
चुरि करि' राधाके निल गोपी-गणेर डरे । अन्यापेक्षा हैले प्रेमेर गाढ़ता ना स्फुरे ॥
१०२ ॥
श्रीकृष्ण ने रासनृत्य के समय अन्य गोपियों की उपस्थिति के कारण श्रीमती राधारानी से प्रेम का आदान-प्रदान नहीं किया। अन्यों पर आश्रित होने के कारण राधा तथा कृष्ण के प्रेम की प्रगाढ़ता प्रकट नहीं हो पाई। इसीलिए वे उन्हें चुरा ले गये।"
राधा लागि' गोपीरे यदि साक्षात्करे त्याग । तबे जानि,—राधाय कृष्णेर गाढ़-अनुराग ॥
१०३ ॥
यदि भगवान् कृष्ण ने राधारानी के लिए अन्य गोपियों का साथ त्याग दिया, तो हम यह समझ सकते हैं कि भगवान् श्रीकृष्ण में उनके fणा प्रगाढ़ स्नेह है।"
राय कहे,—तबे शुन प्रेमेर महिमा ।।त्रि-जगते राधा-प्रेमेर नाहिक उपमा ॥
१०४॥
रामानन्द राय ने आगे कहा, “अतएव आप मुझसे श्रीमती राधारानी के प्रेम की महिमा सुनें। तीनों लोकों में उसकी तुलना के योग्य अन्य कोई नहीं है।"
गोपी-गणेर रास-नृत्य-मण्डली छाड़िया ।।राधा चाहि' वने फिरे विलाप करिया ॥
१०५॥
श्रीमती राधारानी ने जब यह देखा कि उनके साथ अन्य गोपियों जैसा व्यवहार हो रहा है, तो उन्होंने चाल चली और रासनृत्य के मण्डल (वृत्त) को छोड़ दिया। श्रीमती राधारानी को न पाकर कृष्ण दुःखी हुए और विलाप करते हुए उनकी खोज में सारे वन में घूमने लगे।"
कंसारिरपि संसार-वासना-बद्ध-शृङ्खलाम् ।। राधामाधाय हृदये तत्याज व्रज-सुन्दरीः ॥
१०६॥
कंस के शत्रु भगवान् कृष्ण ने श्रीमती राधारानी को अपने हृदय में बसा लिया, क्योंकि वे उनके साथ नृत्य करना चाहते थे। इस तरह उन्होंने रासनृत्य के क्षेत्र को तथा व्रज की अन्य सुन्दरियों का साथ छोड़ दिया।"
इतस्ततस्तामनुसृत्य राधिकाम् ।अनङ्ग-बाण-व्रण-खिन्न-मानसः ।। कृतानुतापः स कलिन्द-नन्दिनी ।तटान्त-कुल्ले विषसाद माधवः ॥
१०७॥
कामदेव के बाणों से विद्ध होकर तथा राधारानी के साथ किये गये दुर्व्यवहार से दुःखी होकर माधव, भगवान् कृष्ण, श्रीमती राधारानी को यमुना नदी के किनारे-किनारे खोजने लगे। किन्तु जब वे उन्हें नहीं खोज सके, तो वे वृन्दावन के कुंजों में प्रवेश करके विलाप करने लगे।"
एइ दुइ-श्लोकेर अर्थ विचारिले जानि ।। विचारिते उठे येन अमृतेर खनि ॥
१०८॥
केवल इन्हीं दो श्लोकों पर विचार करने से समझा जा सकता है कि ऐसे प्रेम-व्यापारों में कितना अमृत है। यह तो वैसा ही है जैसे अमृत की खान को खुला छोड़ दिया जाए।"
शत-कोटि गोपी-सङ्गे रास-विलास ।। तार मध्ये एक-मूर्ये रहे राधा-पाश ॥
१०९॥
। यद्यपि रासनृत्य के समय श्रीकृष्ण लाखों गोपियों के बीच में थे, किन्तु तो भी उन्होंने अपने आपको अनेकों में से एक दिव्य रूप में श्रीमती राधारानी की बगल में रखा।"
साधारण-प्रेमे देखि सर्वत्र 'समता' ।। राधार कुटिल-प्रेमे हइल 'वामता' ॥
११०॥
यद्यपि भगवान् कृष्ण अपने सामान्य व्यवहार में सबके प्रति समभाव रखते हैं, किन्तु श्रीमती राधारानी के कुटिल प्रेमभाव के कारण विरोधी तत्त्व उपस्थित हो गये।"
अहेरिव गतिः प्रेम्णः स्वभाव-कुटिला भवेत् ।।अतो हेतोरहेतोश्च यूनोर्मान उदञ्चति ॥
१११॥
। तरुण युवक तथा तरुण युवती के मध्य प्रेम की प्रगति साँप की गति जैसी होती है। इसके फलस्वरूप तरुण युगलों में दो प्रकार का क्रोध उत्पन्न होता है-एक तो हेतु सहित क्रोध और दूसरे हेतु रहित क्रोध।"
क्रोध करि' रास छाड़ि' गेला मान करि' ।। तारै ना देखिया व्याकुल हैल श्री-हरि ॥
११२॥
जब श्रीमती राधारानी बुरा मान गईं और क्रुद्ध होकर रासनृत्य से चली गईं, तो उन्हें न देखकर श्रीकृष्ण अत्यन्त व्याकुल हो उठे।"
सम्यक्सार वासना कृष्णेर रास-लीला ।।रास-लीला-वासनाते राधिका शृङ्खला ॥
११३॥
रासलीला मण्डल में भगवान् कृष्ण की इच्छा सम्यक् रूप से पूर्ण है, किन्तु उस इच्छा को बाँधने वाली कड़ी श्रीमती राधारानी हैं।"
ताँहा विनु रास-लीला नाहि भाय चित्ते ।।मण्डली छाड़िया गेला राधा अन्वेषिते ॥
११४॥
श्रीमती राधारानी के बिना कृष्ण के हृदय में रासनृत्य में आनन्द नहीं रहता। अतएव उन्होंने भी रासनृत्य मण्डल को छोड़ दिया और वे राधा की खोज में निकल गये।"
इतस्ततः भ्रमि' काहाँ राधा ना पाजा ।।विषाद करेन काम-बाणे खिन्न हा ॥
११५॥
जब कृष्ण श्रीमती राधारानी की खोज में निकल गये, तो वे इधरउधर घूमते रहे। किन्तु उन्हें न पाकर वे कामदेव के बाण से खिन्न होकर विलाप करने लगे।"
शत-कोटि-गोपीते नहे काम-निर्वापण ।।ताहातेइ अनुमानि श्री-राधिकार गुण ॥
११६॥
चूंकि कृष्ण की काम-वासना लाखों गोपियों के बीच में भी पूरी हीं हो सकी और इस प्रकार वे श्रीमती राधारानी की खोज कर रहे थे, ताव हम अनुमान लगा सकते हैं कि राधारानी में कितने दिव्य गुण थे।"
प्रभु कहे ये लागि' आइलाम तोमा-स्थाने । सेइ सबै तत्त्व-वस्तु हैल मोर ज्ञाने ॥
११७॥
यह सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने रामानन्द राय से कहा, मैं जिसके लिए आपके निवासस्थान पर आया हूँ, वह तत्त्व-वस्तु अब मेरी समझ में आ चुकी है।"
एबे से जानिहुँ साध्य-साधन-निर्णय ।। आगे आर आछे किछु, शुनिते मन हय ॥
११८॥
अब जाकर मैं जीवन के दिव्य लक्ष्य को और उसे प्राप्त करने की विधि को समझ पाया हूँ। इतने पर भी मैं सोचता हूँ कि अभी और कुछ बाकी है, जिसे पाने के लिए मेरा मन इच्छा रखता है।"
'कृष्णेर स्वरूप' कह 'राधार स्वरूप' ।। 'रस' कोन्तत्त्व, ‘प्रेम'- कोन्तत्त्व-रूप ॥
११९॥
। कृपया कृष्ण तथा श्रीमती राधारानी के दिव्य स्वरूप का वर्णन करें। इसके साथ दिव्य रस तथा भगवत्प्रेम का दिव्य स्वरूप भी बतलायें।"
कृपा करि' एइ तत्त्व कह त' आमारे ।। तोमा-विना केह इहा निरूपिते नारे ॥
१२०॥
। कृपा करके मुझे इन सारे तत्त्वों को समझा दें। आपके अतिरिक्त इनको कोई और नहीं समझा सकता।"
राय कहे,—इहा आमि किछुइ ना जानि ।। तुमि ग्रेइ कहाओ, सेइ कहि आमि वाणी ॥
१२१॥
। श्री रामानन्द राय ने उत्तर दिया, मैं इसके विषय में कुछ भी नहीं जानता। मैं तो वही शब्द कह पाता हैं, जिसे आप मुझसे बुलवाते हैं।"
तोमार शिक्षाय पड़ि ग्रेन शुक-पाठ । साक्षातीश्वर तुमि, के बुझे तोमार नाट ॥
१२२॥
मैं तो आपके द्वारा दी गई शिक्षाओं को तोते की तरह केवल दोहराता हूँ। आप स्वयं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं। आपके नाटकीय कृत्यों को भला कौन समझ सकता है? हृदये प्रेरण कर, जिह्वाय कहाओ वाणी ।।कि कहिये भाल-मन्द, किछुइ ना जानि ॥
१२३॥
। आप मेरे हृदय के भीतर से मुझे प्रेरित करते हैं और जीभ से कहलवाते हैं। मैं यह नहीं जानता कि मैं अच्छा बोल रहा हूँ या बुरा।"
प्रभु कहे,—मायावादी आमि त' सन्यासी ।। भक्ति-तत्त्व नाहि जानि, मायावादे भासि ॥
१२४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, मैं तो मायावादी संन्यासी हूँ और मैं यह भी नहीं जानता कि भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति है क्या। मैं तो केवल मायावादी दर्शन के सागर में तैरता रहता हूँ।"
सार्वभौम-सङ्गे मोर मन निर्मल हइल ।।‘कृष्ण-भक्ति-तत्त्व कह,' ताँहारे पुछिल ॥
१२५॥
सार्वभौम भट्टाचार्य की संगति करने से मेरा मन निर्मल हुआ है। इसीलिए मैंने उनसे कृष्ण की दिव्य प्रेमाभक्ति के तत्त्व के विषय में पृछताछ की।"
तेहो कहे-आमि नाहि जानि कृष्ण-कथा ।।सबे रामानन्द जाने, तेहो नाहि एथा ॥
१२६॥
सार्वभौम भट्टाचार्य ने मुझसे कहा, 'वास्तव में मैं भगवान् कृष्ण की कथा के विषय में नहीं जानता। रामानन्द राय ही सब कुछ जानता है, किन्तु वह यहाँ उपस्थित नहीं है।"
तोमार ठाजि आइलाङ तोमार महिमा शुनिया । तुमि मोरे स्तुति कर 'सन्यासी' जानिया ॥
१२७॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, मैं आपकी महिमा सुनकर आपके यहाँ आया हूँ। किन्तु आप मुझे संन्यासी जानकर मेरी प्रशंसा कर रहे हैं।"
किबा विप्र, किबा न्यासी, शूद्र केने नय ।। ग्रेइ कृष्ण-तत्त्ववेत्ता, सेइ 'गुरु' हय ॥
१२८॥
कोई चाहे ब्राह्मण हो अथवा संन्यासी या शूद्र हो-यदि वह कृष्णतत्त्व जानता है, तो गुरु बन सकता है।"
‘सन्यासी' बलिया मोरे ना करिह वञ्चन ।।कृष्ण-राधा-तत्त्व कहि' पूर्ण कर मन ॥
१२९॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, आप मुझे विद्वान संन्यासी समझकर ठगने की चेष्टा न करें। कृपया आप राधा तथा कृष्ण के तत्त्व का वर्णन करके मेरे मन को तुष्ट करें।"
यद्यपि राय—प्रेमी, महा-भागवते । ताँर मन कृष्ण-माया नारे आच्छादिते ॥
१३०॥
तथापि प्रभुर इच्छा–परम प्रबल ।जानिलेह रायेर मन हैल टलमल ॥
१३१॥
श्री रामानन्द राय भगवान् के महान् भक्त थे तथा भगवत्-प्रेमी थे और यद्यपि उनका मन कृष्ण की माया से कभी आच्छादित नहीं किया जा सकता था और वे महाप्रभु के दृढ़ और गम्भीर मन की बात समझ सकते। थे, किन्तु फिर भी रामानन्द का मन कुछ-कुछ विचलित हो उठा।"
राय कहे,–आमिनट, तुमि—सूत्र-धार।ग्रेइ मत नाचाओ, तैछे चाहि नाचिबार ॥
१३२॥
श्री रामानन्द राय ने कहा, मैं तो केवल नाचने वाली कठपुतली हूँ, और आप रस्सी खींचने वाले हैं। आप मुझे जिस तरह नचायेंगे, मैं उसी तरह नाचूँगा।"
मोर जिह्वा-वीणा-यन्त्र, तुमि–वीणा-धारी ।।तोमार मने ग्रेइ उठे, ताहाइ उच्चारि ॥
१३३॥
हे प्रभु, मेरी जीभ वीणा के समान है, और आप इस वीणा के वादक हैं। अतएव जो आपके मन में उठता है, मैं उसी की ध्वनि उत्पन्न करता हूँ।"
परम ईश्वर कृष्ण-स्वयं भगवान् ।। सर्व-अवतारी, सर्व-कारण-प्रधान ॥
१३४॥
फिर रामानन्द राय कृष्ण-तत्त्व पर बोलने लगे। उन्होंने कहा, कृष्ण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं। वे स्वयं आदि ईश्वर हैं, समस्त अवतारों के उद्गम तथा समस्त कारणों के कारण हैं।"
अनन्त वैकुण्ठ, आर अनन्त अवतार ।। अनन्त ब्रह्माण्ड इहाँ,—सबार आधार ॥
१३५॥
वैकुण्ठ ग्रहों की संख्या अनन्त है और अवतार भी असंख्य हैं। भौतिक जगत् में भी असंख्य ब्रह्माण्ड हैं और कृष्ण उन सबके परम आधार हैं।"
सच्चिदानन्द-तनु, व्रजेन्द्र-नन्दन ।।सर्वैश्वर्य-सर्वशक्ति-सर्वरस-पूर्ण ॥
१३६॥
। श्रीकृष्ण का दिव्य देह सनातन है और आनन्द तथा ज्ञान से पूर्ण है। वे नन्द महाराज के पुत्र हैं। वे समस्त ऐश्वर्यो, शक्तियों तथा दिव्य रसों से पूर्ण हैं।"
ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्द-विग्रहः ।। अनादिरादिर्गोविन्दः सर्व-कारण-कारणम् ॥
१३७॥
गोविन्द के नाम से विख्यात श्रीकृष्ण परम नियन्ता हैं। उनका शरीर शाश्वत, आनन्दपूर्ण तथा आध्यात्मिक है। वे सबके उद्गम हैं। समस्त कारणों के मूल कारण होने के कारण उनका कोई अन्य उद्गम नहीं है।"
वृन्दावने 'अप्राकृत नवीन मदन' ।।काम-गायत्री काम-बीजे याँर उपासन ॥
१३८॥
वृन्दावन के आध्यात्मिक क्षेत्र में कृष्ण चिरनवीन आध्यात्मिक कामदेव हैं। उनकी पूजा आध्यात्मिक बीज क्लीम् के साथ कामगायत्री मन्त्र का उच्चारण करके की जाती है।"
पुरुष, योषित्, किबा स्थावर-जङ्गम ।। सर्व-चित्ताकर्षक, साक्षात्मन्मथ-मदन ॥
१३९॥
कृष्ण नाम का ही अर्थ यह होता है कि वे कामदेव को भी आकृष्ट करने वाले हैं। अतएव वे सबके लिए-स्त्री तथा पुरुष, चर तथा अचर । जीवों के लिए आकर्षक हैं। निस्सन्देह, कृष्ण सर्वचित्ताकर्षक के रूप में सर्वविदित हैं।"
तासामाविरभूच्छौरिः स्मयमान-मुखाम्बुजः ।। पीताम्बर-धरः स्रग्वी साक्षान्मन्मथ-मन्मथः ॥
१४०॥
जब कृष्ण रासलीला नृत्य छोड़कर चले गये, तब गोपियाँ अत्यन्त खिन्न हो गईं; किन्तु जब वे शोकमग्न थीं तो कृष्ण पीताम्बर धारण किये पुनः प्रकट हो गये। फूलों की माला पहने तथा मृदु मुस्कान करते वे कामदेव को भी आकृष्ट करने वाले थे। इस तरह कृष्ण गोपियों के बीच प्रकट हो गये।"
नाना-भक्तेर रसामृत नाना-विध हय ।। सेइ सब रसामृतेर 'विषय' 'आश्रय' ॥
१४१॥
हर भक्त का कृष्ण के साथ एक विशेष प्रकार का दिव्य रस होता है। किन्तु इन सारे दिव्य सम्बन्धों में भक्त पूजक ( आश्रय ) होता है और कृष्ण पूज्य (विषय) होते हैं।"
अखिल-रसामृत-मूर्तिः।प्रसृमर-रुचि-रुद्ध-तारका-पालिः ।। कलित-श्यामा-ललितोराधा-प्रेयान्विधुर्जयति ॥
१४२॥
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण की जय हो! उन्होंने निरन्तर बढ़ने वाले अपने आकर्षक लक्षणों के कारण तारका तथा पाली नामक गोपियों को जीत लिया है और श्यामा तथा ललिता के मनों को हर लिया है। वे भीमती राधारानी के सर्वाधिक आकर्षक प्रेमी हैं और समस्त रसों में भक्तों के लिए आनन्द के आगार हैं।"
शृङ्गार-रसराज-मय-मूर्ति-धर।।अतएव आत्म-पर्यन्त-सर्व-चित्त-हर ॥
१४३॥
। कृष्ण सारे रसों में भक्तों के लिए सर्व-आकर्षक हैं, क्योंकि वे माधुर्य रस के मूर्तिमान स्वरूप हैं। कृष्ण न केवल समस्त भक्तों के लिए, अपितु स्वयं के लिए भी आकर्षक हैं।"
विश्वेषामनुरञ्जनेन जनयन्नानन्दमिन्दीवरश्रेणी-श्यामल-कोमलैरुपनयन्नङ्गैरनङ्गोत्सवम् । स्वच्छन्दं व्रज-सुन्दरीभिरभितः प्रत्यङ्गमालिङ्गितः।शृङ्गारः सखि मूर्तिमानिव मधौ मुग्धो हरिः क्रीड़ति ॥
१४४॥
। हे सखियों, जरा देखो न, श्रीकृष्ण किस तरह वसन्त ऋतु का आनन्द लूट रहे हैं। गोपियाँ उनके सारे अंगों का आलिंगन कर रही हैं, जिससे वे श्रृंगार प्रेम के मूर्तिमान स्वरूप लगते हैं। वे अपनी दिव्य लीलाओं से सारी गोपियों तथा अखिल सृष्टि को जीवन प्रदान करते हैं। उनके मृदु श्यामल हाथ तथा पाँव नीले कमलों के समान हैं, जिनसे उन्होंने कामदेव के लिए उत्सव की सृष्टि कर दी है।"
लक्ष्मी-कान्तादि अवतारेर हरे मन ।। लक्ष्मी-आदि नारी-गणेर करे आकर्षण ॥
१४५॥
वे संकर्षण के अवतार तथा लक्ष्मी-पति नारायण को भी आकर्षित करने वाले हैं। वे न केवल नारायण को अपितु नारायण की प्रेयसी लक्ष्मी समेत समस्त स्त्रियों को आकर्षित करते हैं।"
द्विजात्मजा में ग्रुवयोर्दिदृक्षुणा ।मयोपनीता भुवि धर्म-गुप्तये ।।कलावतीर्णाववनेर्भरासुरान्हत्वेह भूयस्त्वरयेतमन्ति मे ॥
१४६॥
[ कृष्ण तथा अर्जुन को सम्बोधित करते हुए महाविष्णु ( महापुरुष) ने कहा :‘मैं आप दोनों को देखना चाहता था, इसलिए मैं ब्राह्मण-पुत्रों को यहाँ ले आया हूँ। आप दोनों इस भौतिक जगत् में धर्म की स्थापना करने के लिए अपनी-अपनी समस्त शक्तियों समेत प्रकट हुए हैं। आप कृपया सारे असुरों का वध करने के बाद तुरन्त आध्यात्मिक जगत् में लौट जायें।"
कस्यानुभावोऽस्य न देव विद्महेतवाघ्रि-रेणु-स्परशाधिकारः ।। ग्रद्वाञ्छया श्रीलंलनाचरत्तपो ।विहाय कामान्सु-चिरं धृत-व्रता ॥
१४७॥
हे प्रभु! हम नहीं जानते कि किस तरह कालिय नाग को आपके चरणकमलों की धूल स्पर्श करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इसके लिए लक्ष्मीजी ने अन्य सारी इच्छाएँ त्यागकर तथा दृढ़ व्रत धारण करके शताब्दियों तक तपस्या की थी। निस्सन्देह, हम नहीं जानतीं कि इस कालिय नाग को ऐसा अवसर किस तरह प्राप्त हुआ।"
आपन-माधुर्ये हरे आपनार मन ।।आपना आपनि चाहे करिते आलिङ्गन ॥
१४८॥
भगवान् कृष्ण की मधुरता इतनी आकर्षक है कि वह स्वयं उन्हीं के मन को चुरा लेती है। इस तरह वे स्वयं अपने आपको भी आलिंगन करना चाहते हैं।"
अपरिकलित-पूर्वः कश्चमत्कार-कारीस्फुरति मम गरीयानेष माधुर्य-पूरः ।। अयमहमपि हन्त प्रेक्ष्य ग्रं लुब्ध-चेताः ।स-रभसमुपभोक्तुं कामये राधिकेव ॥
१४९॥
द्वारका के महल के रत्नजटित खंभों में अपनी ही परछाई देखकर कृष्ण ने यह कहते हुए उसे आलिंगन करना चाहा, “हाय, मैंने इसके पूर्व इतना सुन्दर व्यक्ति नहीं देखा। यह कौन है? इसे देखकर ही मैं श्रीमती राधारानी के समान इसका आलिंगन करने को उत्सुक हो रहा हूँ।"
एइ त' सङ्क्षेपे कहिल कृष्णेर स्वरूप ।।एबे सङ्क्षेपे कहि शुन राधा-तत्त्व-रूप ॥
१५०॥
तब श्री रामानन्द राय ने कहा, “इस तरह मैंने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के आदि स्वरूप को संक्षेप में कहा है। अब मैं श्रीमती राधारानी की स्थिति का वर्णन करूंगा।"
कृष्णेर अनन्त-शक्ति, ताते तिन—प्रधान ।।‘चिच्छक्ति', ‘माया-शक्ति', ‘जीव-शक्ति'-नाम् ॥
१५१॥
। श्रीकृष्ण की अनन्त शक्तियाँ हैं, जिन्हें तीन प्रमुख भागों में विभाजित किया जा सकता है। ये हैं-आध्यात्मिक शक्ति, भौतिक शक्ति तथा तटस्था शक्ति जो जीवों के नाम से विख्यात है।"
'अन्तरङ्गा', 'बहिरङ्गा', 'तटस्था' कहि झारे । अन्तरङ्गा 'स्वरूप-शक्ति'—सबार उपरे ॥
१५२॥
दूसरे शब्दों में, अन्तरंगा, बहिरंगा तथा तटस्था—ये सब भगवान् की शक्तियाँ हैं, किन्तु अन्तरंगा शक्ति भगवान् की निजी शक्ति है और अन्य दो से श्रेष्ठ है।"
विष्णु-शक्तिः परा प्रोक्ता क्षेत्रज्ञाख्या तथा परा ।।अविद्या-कर्म-संज्ञान्या तृतीया शक्तिरिष्यते ॥
१५३ ॥
भगवान् विष्णु की आदि शक्ति श्रेष्ठ अर्थात् आध्यात्मिक है। जीव वास्तव में इसी श्रेष्ठ शक्ति से सम्बन्धित है; किन्तु एक अन्य शक्ति भी है, जो भौतिक शक्ति कहलाती है। यह तीसरी शक्ति अज्ञान से भरी है।"
सच्चिदानन्द-मय कृष्णेर स्वरूप ।। अतएव स्वरूप-शक्ति हय तिन रूप ॥
१५४॥
मूलतः भगवान् कृष्ण सच्चिदानन्द-विग्रह अर्थात् शाश्वतता, ज्ञान तथा आनन्द के दिव्य रूप हैं, अतएव उनकी निजी शक्ति-अन्तरंगा शक्ति-के तीन विविध रूप हैं।"
आनन्दांशे ‘ह्लादिनी', सदंशे 'सन्धिनी' । चिदंशे ‘सम्वित्', झारे ज्ञान करि' मानि ॥
१५५ ॥
। ह्लादिनी उनका आनन्द पक्ष है, सन्धिनी उनका शाश्वतता पक्ष है और मम्वित् ज्ञान पक्ष है।"
ह्लादिनी सन्धिनी सम्वित्त्वय्येका सर्व-संश्रये ।। ह्लाद-ताप-करी मिश्रा त्वयि नो गुण-वर्जिते ॥
१५६॥
हे प्रभु, आप समस्त दिव्य शक्तियों के दिव्य आगार हैं। आपकी दिनी (आनन्द देने वाली शक्ति), सन्धिनी ( अस्तित्व शक्ति) तथा वित् (ज्ञान शक्ति ) शक्तियाँ वास्तव में आपकी एक ही अन्तरंगा शक्ति । बद्ध आत्मा, आध्यात्मिक होते हुए भी कभी हर्ष का अनुभव करता है, तो कभी पीड़ा का और कभी हर्ष और पीड़ा दोनों के मिश्रण का। ऐसा पदार्थ का स्पर्श होने से होता है। किन्तु आप समस्त भौतिक गुणों से परे ; अतएव ये गुण आप में नहीं पाये जाते। आपकी परा आध्यात्मिक शक्ति पूर्णतया दिव्य है। आपके लिए सापेक्ष हर्ष, पीड़ा या हर्षमिश्रित । पीड़ा जैसी कोई वस्तु नहीं होती।"
कृष्णके आह्लादे, ता'ते नाम ‘ह्लादिनी' ।।सेइ शक्ति-द्वारे सुख आस्वादे आपनि ॥
१५७॥
ह्लादिनी शक्ति कृष्ण को दिव्य आनन्द प्रदान करती है। इसी क्लादिनी शक्ति के माध्यम से कृष्ण समस्त आध्यात्मिक आनन्द का स्वयं आस्वादन करते हैं।"
सुख-रूप कृष्ण करे सुख आस्वादन ।।भक्त-गणे सुख दिते ‘ह्लादिनी'—कारण ॥
१५८॥
। भगवान् कृष्ण मूर्तिमान सुख होते हुए भी सभी प्रकार के दिव्य सुख का आस्वादन करते हैं। उनके शुद्ध भक्तों द्वारा आस्वादन किया गया सुख भी उनकी ह्लादिनी शक्ति से प्रकट होता है।"
ह्लादिनीर सार अंश, तार 'प्रेम' नाम । आनन्द-चिन्मय-रस प्रेमेर आख्यान ॥
१५९॥
इस ह्लादिनी शक्ति का सबसे महत्त्वपूर्ण अंश भगवत्प्रेम है। फलस्वरूप भगवत्प्रेम की व्याख्या भी आनन्द से पूर्ण दिव्य रस है।"
प्रेमेर परम-सार'महाभाव' जानि ।।सेइ महाभाव-रूपा राधा-ठाकुराणी ॥
१६० ॥
भगवत्प्रेम का सार अंश महाभाव अर्थात् दिव्य आह्लाद कहलाता है और इस महाभाव का प्रतिनिधित्व करने वाली हैं श्रीमती राधारानी।"
तयोरप्युभयोर्मध्ये राधिका सर्वथाधिका ।।महाभाव-स्वरूपेयं गुणैरतिवरीयसी ॥
१६१॥
वृन्दावन की गोपियों में श्रीमती राधारानी तथा एक अन्य गोपी प्रमुख मानी जाती हैं। किन्तु जब हम गोपियों की परस्पर तुलना करते हैं, तो ऐसा लगता है कि श्रीमती राधारानी सबसे महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि उनके असली स्वरूप से सर्वोत्तम प्रेमभाव व्यक्त होता है। अन्य गोपियों द्वारा अनुभव किया जाने वाला प्रेमभाव श्रीमती राधारानी के प्रेमभाव की बराबरी नहीं कर सकता।"
प्रेमेर 'स्वरूप-देह'–प्रेम-विभावित ।। कृष्णेर प्रेयसी-श्रेष्ठा जगते विदित ॥
१६२॥
श्रीमती राधारानी का शरीर भगवत्प्रेम का वास्तविक रूपान्तर है। वे कृष्ण की सर्वाधिक प्रिय संगिनी हैं, जो सारे जगत् में सुप्रसिद्ध हैं।"
आनन्द-चिन्मय-रस-प्रतिभाविताभिस् ।ताभिर्य एव निज-रूपतया कलाभिः ।। गोलोक एव निवसत्यखिलात्म-भूतोगोविन्दमादि-पुरुषं तमहं भजामि ॥
१६३॥
मैं उन आदि भगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ, जो अपने गोलोक-धाम में राधा के साथ निवास करते हैं। ये राधा उनके आध्यात्मिक स्वरूप के समान हैं, और आनन्ददायिनी ह्लादिनी-शक्ति स्वरूपा हैं। उनकी अन्तरंग सखियाँ उनके स्वरूप के विस्तार रूप हैं, और सदैव आनन्दमय रस से परिव्याप्त रहती हैं।"
सेइ महाभाव हय 'चिन्तामणि-सार' ।।कृष्ण-वाञ्छा पूर्ण करे एइ कार्य ताँर ॥
१६४॥
श्रीमती राधारानी का वह महाभाव ही आध्यात्मिक जीवन का सार है। उनका एकमात्र कार्य कृष्ण की समस्त इच्छाओं को पूर्ण करना रहता है।
‘महाभाव-चिन्तामणि' राधार स्वरूप ।।ललितादि सखी—ताँर काय-व्यूह-रूप ॥
१६५ ॥
श्रीमती राधारानी सर्वोत्तम आध्यात्मिक मणि हैं और अन्य गोपियाँ-यथा ललिता, विशाखा आदि-उनके आध्यात्मिक शरीर के विस्तार रूप हैं।
राधा-प्रति कृष्ण-स्नेह—सुगन्धि उद्वर्तन ।।ता'ते अति सुगन्धि देह—उज्वल-वरण ॥
१६६॥
श्रीमती राधारानी का दिव्य शरीर उज्वल कान्ति वाला है, तथा समस्त दिव्य सुगन्धियों से पूर्ण है। उनके प्रति कृष्ण का स्नेह सुगन्धित उबटन के समान है।
कारुण्यामृत-धाराये स्नान प्रथम ।। तारुण्यामृत-धाराय स्नान मध्यम ॥
१६७।। श्रीमती राधारानी पहला स्नान करुणा रूपी अमृत की धारा में करती हैं, और दूसरा स्नान युवावस्था के अमृत में करती हैं।
लावण्यामृत-धाराय तदुपरि स्नान ।।निज-लज्जा-श्याम-पट्टसाटि-परिधान ॥
१६८॥
। दोपहर के स्नान के बाद श्रीमती राधारानी शारीरिक कान्ति के अमृत से पुनः स्नान करती हैं और तब लज्जा रूपी वस्त्र धारण करती हैं, जो उनकी काली रेशमी साड़ी होती है।
कृष्ण-अनुराग द्वितीय अरुण-वसन ।प्रणय-मान-कञ्चलिकाय वक्ष आच्छादन ॥
१६९॥
कृष्ण के प्रति श्रीमती राधारानी का स्नेह उनका ऊपरी वस्त्र है, जिसका रंग गुलाबी है। वे अपने स्तनों को एक दूसरे वस्त्र से ढकती हैं, जो कृष्ण के प्रति स्नेह तथा रोष से युक्त होता है।
सौन्दर्य—कुङ्कम, सखी-प्रणय–चन्दन ।। स्मित-कान्ति कर्पूर, तिने–अङ्गे विलेपन ॥
१७०॥
। श्रीमती राधारानी के निजी सौन्दर्य की उपमा कुंकुम नामक लाल चूर्ण से की जाती है। अपनी सखियों के प्रति उनका स्नेह चन्दन-लेप की तरह है, और उनकी हँसी की मधुरता कपूर के समान है। इन सबको मिलाकर उनके शरीर पर लेप किया जाता है।
कृष्णेर उज्वल-रस-मृगमद-भर ।। सेइ मृगमदे विचित्रित कलेवर ॥
१७१॥
। कृष्ण के प्रति उनकी अनुरक्ति उनके चमकीले होठों पर पान का लाले रंग है। उनकी प्रेम-कुटिलता उनकी आँखों में लगा काजल है।
प्रच्छन्न-मान वाम्य-धम्मिल्ल-विन्यास ।। ‘धीराधीरात्मक' गुण–अङ्गे पट-वास ॥
१७२॥
प्रच्छन्न मान तथा ढका हुआ क्रोध उनके केश विन्यास हैं। ईष्र्या के कारण उत्पन्न क्रोध का गुण उनके शरीर पर पड़े रेशमी वस्त्र का आवरण हैं।
राग-ताम्बूल-रागे अधर उज्वल । ।प्रेम-कौटिल्य नेत्र-युगले कज्जल ॥
१७३॥
कृष्ण के प्रति माधुर्य प्रेम मानो कस्तूरी की प्रचुरता है। इसी कस्तूरी से राधारानी का सम्पूर्ण शरीर सजाया जाता है।
‘सूद्दीप्त-सात्त्विक' भाव, हर्षादि 'सञ्चारी' ।। एइ सब भाव-भूषण सब-अङ्गे भरि' ॥
१७४॥
उनके शरीर में सजे हुए गहने दीप्तिवान सात्त्विक भाव हैं, और इन स्थायी भावों में हर्ष प्रमुख है। ये सारे भाव उनके पूरे शरीर में गहनों के समान हैं।
‘किल-किञ्चितादि'-भाव-विंशति-भूषित ।।गुण-श्रेणी-पुष्पमाला सर्वाङ्गे पूरित ॥
१७५॥
। किलकिंचित से प्रारम्भ होने वाले बीस प्रकार के भाव-लक्षणों से उनका शरीर विभूषित है। उनके दिव्य गुणों से उनके सारे शरीर पर लटक रही फूल की माला बनी है।
सौभाग्य-तिलक चारु-ललाटे उज्वल ।।प्रेम-वैचित्त्य रत्न, हृदय तरल ॥
१७६॥
उनके सुन्दर चौड़े मस्तक पर सौभाग्य का तिलक है। उनके विविध प्रेम-व्यवहार मणि हैं और उनका हृदय लाकेट है।
मध्य-वयस, सखी-स्कन्धे कर-न्यास ।।कृष्णलीला-मनोवृत्ति-सखी आश-पाश ॥
१७७॥
श्रीमती राधारानी की गोपी सखियाँ उनकी मानसिक क्रियाएँ हैं, जो कृष्ण-लीलाओं पर ही केन्द्रित रहती हैं। वे अपना हाथ युवावस्था की प्रतीक अपनी सखी के कन्धे पर रखती हैं।
निजाङ्ग-सौरभालये गर्व-पर्युङ्क।। ता'ते वसि' आछे, सदा चिन्ते कृष्ण-सङ्ग ॥
१७८॥
। श्रीमती राधारानी की सेज साक्षात् गर्व है, जो उनकी शारीरिक सुगन्धि के धाम में स्थित है। वे सदैव उसमें आसीन होकर कृष्ण के संग के विषय में सोचती रहती हैं।
कृष्ण-नाम-गुण-यश-अवतंस काणे ।कृष्ण-नाम-गुण-यश-प्रवाह-वचने ॥
१७९॥
श्रीमती राधारानी के कान की बालियाँ भगवान् कृष्ण के नाम, यश तथा गुणों की प्रतीक हैं। भगवान् कृष्ण के नाम, यश तथा गुणों की । महिमा उनकी वाणी को आप्लावित किये रहती है।
कृष्णके कराय श्याम-रस-मधु पान ।।निरन्तर पूर्ण करे कृष्णेर सर्व-काम ॥
१८०॥
श्रीमती राधारानी कृष्ण को माधुर्य रस का मधु पीने के लिए प्रेरित करती रहती हैं। फलतः वे कृष्ण की सारी काम-वासनाओं को पूरा करने में लगी रहती हैं।
कृष्णेर विशुद्ध-प्रेम-रत्नेर आकर ।। अनुपम-गुणगण-पूर्ण कलेवर ॥
१८१॥
श्रीमती राधारानी कृष्ण-प्रेम रूपी अमूल्य मणियों से पूर्ण खान के सदृश हैं। उनका दिव्य शरीर अद्वितीय आध्यात्मिक गुणों से पूर्ण है।
का कृष्णस्य प्रणय-जनि-भूः श्रीमती राधिकैकाकास्य प्रेयस्यनुपम-गुणा राधिकैका न चान्या । जैह्यं केशे दृशि तरलता निष्ठरत्वं कुचेऽस्या ।वाञ्छा-पूयँ प्रभवति हरे राधिकैका न चान्या ॥
१८२॥
यदि कोई पूछे कि कृष्ण-प्रेम का उद्गम कहाँ है, तो उत्तर होगा एकमात्र श्रीमती राधारानी में। कृष्ण का सर्वाधिक प्रिय मित्र कौन है? पुनः उत्तर होगा एकमात्र श्रीमती राधारानी। अन्य कोई नहीं। श्रीमती राधारानी के बाल अत्यन्त पुंघराले हैं, उनकी दोनों आँखें हमेशा चंचल रहती हैं और उनके स्तन दृढ़ हैं। चूँकि श्रीमती राधारानी में सारे दिव्य गुण प्रकट हैं, अतएव अकेले वे ही कृष्ण की सारी इच्छाएँ पूरी करने में समर्थ हैं - अन्य कोई नहीं।'
ग्राँर सौभाग्य-गुण वाञ्छे सत्यभामा ।। ग्राँर ठाञि कला-विलास शिखे व्रज-रामा ॥
१८३॥
याँर सौन्दर्यादि-गुण वाञ्छे लक्ष्मी-पार्वती ।।ग्राँर पतिव्रता-धर्म वाञ्छे अरुन्धती ॥
१८४॥
यहाँ तक कि श्रीकृष्ण की रानियों में से एक सत्यभामा भी श्रीमती राधारानी के सौभाग्य और उत्तम गुणों के लिए इच्छा करती रहती हैं। सारी गोपियाँ श्रीमती राधारानी से सजने की कला सीखती हैं और विष्णुपत्नी लक्ष्मी तथा शिव-पत्नी पार्वती भी उनके सौन्दर्य और गुणों के लिए इच्छा करती हैं। वसिष्ठ की पतिव्रता पत्नी अरुन्धती भी श्रीमती राधारानी के पातिव्रत्य तथा धार्मिक नियमों का अनुकरण करना चाहती हैं।
याँर सद्गुण-गणने कृष्ण ना पाय पार ।।ताँर गुण गणिबे केमने जीव छार ॥
१८५॥
। स्वयं भगवान् कृष्ण भी श्रीमती राधारानी के दिव्य गुणों का पार नहीं पा सकते, तो भला तुच्छ जीव किस प्रकार उनकी गिनती कर सकता है? प्रभु कहे,—जानिहुँ कृष्ण-राधा-प्रेम-तत्त्व ।शुनिते चाहिये मुँहार विलास-महत्त्व ॥
१८६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, “अब जाकर मैं राधा तथा कृष्ण के प्रेम-तत्त्व को समझ सकता हूँ। तो भी मैं सुनने का इच्छुक हूँ कि वे दोनों ऐसे प्रेम का उपभोग किस गौरव पूर्ण ढंगसे करते है।
राय कहे,—कृष्ण हय 'धीर-ललित' ।।निरन्तर काम-क्रीड़ा—याँहार चौरैत ॥
१८७॥
। रामानन्द राय ने उत्तर दिया, “भगवान् कृष्ण धीरललित हैं, क्योंकि वे अपनी प्रेयसियों को सदा वश में रख सकते हैं। इस तरह उनका एकमात्र व्यापार है इन्द्रियतृप्ति का भोग करना।
विदग्धो नव-तारुण्यः परिहास-विशारदः ।।निश्चिन्तो धीर-ललितः स्यात्प्राय: प्रेयसी-वशः ॥
१८८ ॥
जो व्यक्ति अत्यन्त चालाक होता है, सदैव तरुण रहता है, परिहास करने में दक्ष होता है, चिन्तारहित होता है और जो अपनी प्रेयसियों को मदेव वश में रखता है, वह धीरललित कहलाता है।
रात्रि-दिन कुल्ले क्रीड़ा करे राधा-सङ्गे।।कैशोर वयस सफल कैल क्रीड़ा-रङ्गे ॥
१८९ ॥
भगवान् श्रीकृष्ण वृन्दावन के कुंजों में श्रीमती राधारानी के सात पिन रात क्रीड़ा करते हैं। इस तरह उनकी कैशोर अवस्था राधारानी के माथ क्रीड़ा में सफल होती है।
वाचा सूचित-शर्वरी-रति-कला-प्रागल्भ्यया राधिकाव्रीड़ा-कुञ्चित-लोचनां विरचयन्नग्रे सखीनामसौ ।। तद्वक्षोरुह-चित्र-केलि-मकरी-पाण्डित्य-पारं गतः ।कैशोरं सफली-करोति कलयन्कुञ्ज विहारं हरिः ॥
१९०॥
। इस तरह भगवान् श्रीकृष्ण ने गत रात्रि की रति-क्रीड़ा का वर्णन किया। इससे राधारानी ने लज्जावश अपनी आँखें बन्द कर लीं। इस अवसर का लाभ उठाते हुए श्रीकृष्ण ने उनके स्तनों पर तरह-तरह की मछलियाँ चित्रित कर दीं। इस तरह वे समस्त गोपियों के लिए अत्यन्त कुशल चित्रकार बन गये। ऐसी लीलाओं में भगवान् ने अपनी कैशोर अवस्था का पूरी तरह भोग किया।
प्रभु कहे,——एहो हय, आगे कह आर।।राय कहे, ईहा वइ बुद्धि-गति नाहि आर ॥
१९१।। श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, यह तो ठीक है, किन्तु और आगे कहिये। तब रामानन्द राय ने उत्तर दिया, मैं नहीं समझता कि मेरी बुद्धि इससे आगे जा सकती है।
येबा ‘प्रेम-विलास-विवर्त' एक हय ।।ताहा शुनि' तोमार सुख हय, कि ना हय ॥
१९२॥
तब रामानन्द राय ने श्री चैतन्य महाप्रभु को बतलाया, प्रेम विलास विर्त नामक एक अन्य विषय है। चाहें तो आप उसे मुझसे सुन सकते ।, किन्तु मैं कह नहीं सकता कि इससे आप सुखी होंगे अथवा नहीं।
एत बलि' आपन-कृत गीत एक गाहिल ।।प्रेमे प्रभु स्व-हस्ते ताँर मुख आच्छादिल ॥
१९३॥
पर कहकर रामानन्द राय ने स्वरचित एक गीत गाना शुरू किया, किन्तु श्री चैतन्य महाप्रभु ने भावावेश में आकर तुरन्त ही अपने हाथ से रामानन्द राय का मुँह बन्द कर दिया।
पहिलेहि राग नयन-भङ्गे भेल ।अनुदिन बाढ़ल, अवधि ना गेल ना सो रमण, ना हाम रमणी ।पँहु-मन मनोभव पेषल जानि' ए सखि, से-सब प्रेम-काहिनी ।कानु-ठामे कहबि विछुरल जानि ना खोंजलै दूती, ना खोंजलु आन् ।पँहुकेरि मिलने मध्य त पाँच-बाण अब्सोहि विराग, हुँहु भेलि दूतीसु-पुरुख-प्रेमकि ऐछन रीति ॥
१९४॥
। हाय! हमारे मिलन के पूर्व हमारे बीच चितवन के आदान-प्रदान से प्रारम्भिक अनुरक्ति हुई थी। इस तरह अनुरक्ति विकसित होती रही। यह अनुरक्ति क्रमशः बढ़ने लगी है और अब इसकी कोई सीमा नहीं रही। अब वही अनुरक्ति हमारे बीच स्वाभाविक व्यवहार बन चुकी है। ऐसा नहीं है कि यह भोक्ता कृष्ण के कारण है, न ही मुझ भोग्या के कारण है। ऐसा नहीं है। यह अनुरक्ति हमारे पारस्परिक मिलन से ही सम्भव हो सकी है। आकर्षण का यह आदान-प्रदान मनोभव अर्थात् कामदेव कहलाता है। मग मन और कृष्ण का मन मिलकर एक हो गया है। अब इस विरह की पड़ी में इन प्रेम-व्यापारों की व्याख्या कर पाना कठिन है। हे प्रिय सखी, सम्भव है कृष्ण ये सारी बातें भूल चुके हों, किन्तु तुम समझ सकती हो, इसलिए यह सन्देश उन तक ले जा सकती हो। किन्तु प्रथम मिलन के समय हम दोनों के बीच न तो कोई दूत था, न ही मैंने किसी से कहा था कि वह उनके पास जाए। कामदेव के पाँच बाण ही हमारे माध्यम थे। अब मि विरह की अवधि में वह आकर्षण दूसरी भावदशा तक बढ़ गया है। है प्रिय सखी, कृपया मेरी दूती बनो, क्योंकि सुन्दर पुरुष से प्रेम करने का पही परिणाम होता है।'
राधाया भवतश्च चित्त-जतुनी स्वेदैर्विलाप्य क्रमाद् ।झुञ्जन्नद्रि-निकुञ्ज-कुञ्जर-पते निर्भूत-भेद-भ्रमम् । । चित्राय स्वयमवरञ्जयदिह ब्रह्माण्ड-हर्योदरे ।भूयोभिर्नव-राग-हिङ्गल-भरैः शृङ्गार-कारुः कृती ॥
१९५॥
हे प्रभु, आप गोवर्धन पर्वत के जंगल में रहते हैं और आप हाथियो । के राजा की तरह माधुर्य प्रेम की कला में पटु हैं। हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, आपका हृदय तथा श्रीमती राधारानी का हृदय दोनों लाख की तरह है। और वे अब आपके आध्यात्मिक पसीने में द्रवित हो गये हैं। इसलिए अब आप में तथा राधारानी में कोई भी व्यक्ति अन्तर नहीं बता सकता। अब आपने अपने नवीन स्नेह को, जो सिन्दूर की तरह है, दोनों के द्रवित हृदय के साथ मिश्रित कर दिया है और सारे विश्व के कल्याण हेतु इस ब्रह्माण रूपी प्रासाद के भीतर दोनों के हृदयों को लाल रंग दे दिया है। ।
प्रभु कहे,–'साध्य-वस्तुर अवधि' एइ हये । तोमार प्रसादे इहा जानिहुँ निश्चय ॥
१९६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने श्री रामानन्द राय द्वारा सुनाये गये इन श्लोकों की पुष्टि यह कहकर की, मानव-जीवन के लक्ष्य की यही सीमा है। केवल आपकी कृपा से मैं निश्चित रूप से इसे समझ सका हूँ।
‘साध्य-वस्तु' ‘साधन' विनु केह नाहि पाये ।। कृपा करि' कह, राय, पाबार उपाय ॥
१९७॥
विधि के पालन बिना जीवन-लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता। म आप मुझ पर कृपा करके उस उपाय को बतलायें, जिससे यह जीवन लक्ष्य प्राप्त किया जा सके।
राय कहे,—ग्रेइ कहाओ, सेइ कहि वाणी ।।कि कहिये भाल-मन्द, किछुइ ना जानि ॥
१९८॥
। श्री रामानन्द राय ने उत्तर दिया, “मैं क्या कह रहा हूँ, यह मैं नहीं जानता, किन्तु अच्छा या बुरा जो भी है, उसे आप ही मुझसे कहलवा रहे हैं। मैं तो केवल उसी सन्देश को दोहरा रहा हूँ।
त्रिभुवन-मध्ये ऐछे हय कोन्धीर ।। ये तोमार माया-नाटे हइबेक स्थिर ॥
१९९॥
। तीनों लोकों में ऐसा कौन अविचलित व्यक्ति होगा, जो आपकी विभिन्न शक्तियों के अदलने-बदलने पर स्थिर रह सके? मोर मुखे वक्ता तुमि, तुमि हओ श्रोता ।।अत्यन्त रहस्य, शुन, साधनेर कथा ॥
२०० ॥
। वास्तव में आप ही मेरे मुँह से बोल रहे हैं और साथ साथ आप ही सुन भी रहे हैं। यह अत्यन्त रहस्यमय है। जो भी हो, कृपा करके उस व्याख्या को सुनें जिससे लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।
राधा-कृष्णेर लीला एइ अति गूढ़तर । दास्य-वात्सल्यादि-भावे ना हय गोचर ॥
२०१॥
राधा तथा कृष्ण की लीलाएँ अत्यन्त गूढ़ हैं। उन्हें दास्य, सख्य या वात्सल्य रसों के माध्यम से नहीं समझा जा सकता।
सबे एक सखी-गणेर इहाँ अधिकार । सखी हैते हय एइ लीलार विस्तार ॥
२०२॥
वास्तव में एकमात्र गोपियों को ही यह अधिकार है कि वे इन दिव्य लीलाओं का आस्वादन करें और केवल वे ही इन लीलाओं का विस्तार कर सकती हैं।
सखी विना एइ लीला पुष्ट नाहि हय ।।सखी लीला विस्तारिया, सखी आस्वादय ॥
२०३॥
गोपियों के बिना राधाकृष्ण की इन लीलाओं का संवर्धन नहीं हो सकता। केवल उन्हीं के सहयोग से इन लीलाओं का विस्तार होता है। इन रसों का आस्वादन करना भी उन्हीं का कार्य है।
सखी विना एइ लीलाय अन्येर नाहि गति ।। सखी-भावे ग्रे ताँरै करे अनुगति ॥
२०४॥
राधा-कृष्ण-कुञ्जसेवा-साध्य सेइ पाय ।।सेइ साध्य पाइते आर नाहिक उपाय ॥
२०५॥
गोपियों की सहायता के बिना इन लीलाओं में प्रवेश नहीं किया जा सकता। जो व्यक्ति गोपी भाव में भगवान् की पूजा करता है और गोपियों के पदचिह्नों पर चलता है, वही श्री श्री राधा-कृष्ण की सेवा वृन्दावन के कुंजों में कर सकता है। केवल तभी वह राधा और कृष्ण के माधुर्य रस को समझ सकता है। इसके अतिरिक्त इसे समझने का कोई अन्य उपाय नहीं है।
विभुरपि सुख-रूपः स्व-प्रकाशोऽपि भावः।क्षणमपि न हि राधा-कृष्णयोर्या ऋते स्वाः ।। प्रवहति रस-पुष्टिं चिद्विभूतीरिवेशः।श्रयति न पदमासां कः सखीनां रस-ज्ञः ॥
२०६॥
श्री राधा तथा कृष्ण की लीलाएँ स्वतः तेजोमय हैं। वे मूर्तिमान सुख हैं, अनन्त तथा सर्वशक्तिमान हैं। इतने पर भी ऐसी लीलाओं का आध्यात्मिक रस भगवान् की सखियों अर्थात् गोपियों के बिना कभी पुष्ट नहीं होता। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् अपनी आध्यात्मिक शक्तियों के बिना कभी भी पूर्ण नहीं होते। अतएव गोपियों की शरण लिए बिना कोई राधा तथा कृष्ण की संगति प्राप्त नहीं कर सकता। भला गोपियों की शरण लिए बिना राधा-कृष्ण की आध्यात्मिक लीलाओं में कौन रुचि रख सकता है?' ।
सखीर स्वभाव एक अकथ्य-कथन ।कृष्ण-सह निज-लीलाय नाहि सखीर मन ॥
२०७॥
गोपियों की स्वाभाविक प्रवृत्ति (स्वभाव) अवर्णनीय है। गोपियाँ कृष्ण के साथ कभी भी स्वयं भोग करना नहीं चाहतीं।
कृष्ण सह राधिकार लीला ग्रे कराय।। निज-सुख हैते ताते कोटि सुख पाय ॥
२०८॥
जब गोपियाँ श्री श्री राधा और कृष्ण को उनकी दिव्य लीलाओं में प्रवृत्त करने का काम करती हैं, तो उनका सुख करोड़ गुना बढ़ जाता है।
राधार स्वरूप कृष्ण-प्रेम-कल्पलता ।।सखी-गण हय तार पल्लव-पुष्प-पाता ॥
२०९॥
। स्वभाव से श्रीमती राधारानी भगवत्प्रेम की लता के समान हैं और गोपियाँ उस लता की टहनियाँ, फूल तथा पत्तियाँ हैं।
कृष्ण-लीलामृत यदि लताके सिञ्चय ।।निज-सुख हैते पल्लवाद्येर कोटि-सुख हय ॥
२१०॥
जब इस लता पर कृष्ण-लीला रूपी अमृत छिड़का जाता है, तो टहनियों, फूलों तथा पत्तियों को जो सुख मिलता है, वह लता की तुलना में एक करोड़ गुना अधिक होता है।
सख्यः श्री-राधिकाया व्रज-कुमुद-विधोह्रदिनी-नाम-शक्तेःसारांश-प्रेम-वल्ल्याः किसलय-दल-पुष्पादि-तुल्याः स्व-तुल्याः ।सिक्तायां कृष्ण-लीलामृत-रस-निचयैरुल्लसन्त्याममुष्यां ।जातोल्लासाः स्व-सेकाच्छत-गुणमधिकं सन्ति ग्रत्तन्न चित्रम् ॥
२११।। श्रीमती राधारानी की निजी सखियाँ-सारी गोपियाँ-उन्हीं के समान हैं। जिस तरह चन्द्रमा कमल-पुष्पों को अच्छा लगता है, कृष्ण उसी तरह व्रजभूमि के निवासियों को अच्छे लगते हैं। उनकी आनन्ददायिनी शक्ति आह्लादिनी कहलाती है, जिसका मुख्य सक्रिय तत्त्व श्रीमती राधारानी हैं। उनकी उपमा उस लता से दी जाती है, जिसमें नयेनये फूल तथा कोंपले लगी हैं। जब कृष्ण-लीला रूपी अमृत श्रीमती राधारानी पर छिड़का जाता है, तो उनकी सारी सखियों ( गोपियाँ) को, वह अमृत अपने ऊपर छिड़के जाने की अपेक्षा, सैकड़ों गुना अधिक आनन्द का अनुभव होता है। वास्तव में यह तनिक भी आश्चर्यजनक नहीं है।'
यद्यपि सखीर कृष्ण-सङ्गमे नाहि मन ।।तथापि राधिका यत्ने करान सङ्गम ॥
२१२॥
यद्यपि श्रीमती राधारानी की सखियाँ ( गोपियाँ) कृष्ण के साथ प्रत्यक्ष भोग नहीं करना चाहतीं, किन्तु श्रीमती राधारानी श्रीकृष्ण को गोपियों के साथ भोग करने के लिए प्रेरित करने का काफी प्रयत्न करती हैं।
नाना-च्छले कृष्णे प्रेरि' सङ्गम कराय।। आत्म-कृष्ण-सङ्ग हैते कोटि-सुख पाय ॥
२१३॥
श्रीमती राधारानी कभी-कभी तरह-तरह के बहानों से गोपियों को कृष्ण के पास भेजती हैं, जिससे वे उनका प्रत्यक्ष संग कर सकें। ऐसे अवसरों पर उन्हें अपने प्रत्यक्ष मिलन की अपेक्षा एक करोड़ गुना अधिक सुख मिलता है।
अन्योन्ये विशुद्ध प्रेमे करे रस पुष्ट । ताँ-सबार प्रेम देखि' कृष्ण हय तुष्ट ॥
२१४॥
भगवत्प्रेम के पारस्परिक व्यवहार में दिव्य रस की पुष्टि होती है। जब का यह देखते हैं कि गोपियों ने उनके लिए किस तरह से शुद्ध प्रेम विकसित कर लिया है, तो वे अत्यधिक तुष्ट होते हैं।
सहज गोपीर प्रेम,-नहे प्राकृत काम ।।काम-क्रीड़ा-साम्ये तार कहि 'काम'-नाम ॥
२१५॥
यह ध्यान देने की बात है कि परम भगवान् से प्रेम करना गोपियों का सहज गुण है। उनकी कामेच्छा की तुलना भौतिक कामवासना से नहीं की जानी चाहिए। फिर भी कभी-कभी उनकी इच्छा भौतिक कामवासना जैसी प्रतीत होती है, इसलिए कभी-कभी कृष्ण के प्रति उनका दिव्य प्रेम 'काम' कहकर पुकारा जाता है।
प्रेमैव गोप-रामाणां काम इत्यगमत्प्रथाम् ।। इत्युद्धवादयोऽप्येतं वाञ्छन्ति भगवत्प्रियाः ॥
२१६॥
गोपियों के कृष्ण के साथ व्यवहार शुद्ध भगवत्प्रेम के स्तर पर होते हैं। किन्तु कभी-कभी उन्हें काममय मान लिया जाता है। किन्तु ऐसे व्यवहार सर्वथा आध्यात्मिक होते हैं, अतएव उद्धव जैसे भगवान् के अन्य अत्यन्त प्रिय भक्त भी उनमें भाग लेने के इच्छुक रहते हैं।"
निजेन्द्रिय-सुख-हेतु कामेर तात्पर्य । कृष्ण-सुख-तात्पर्य गोपी-भाव-वर्य ॥
२१७॥
। कामेच्छाओं का अनुभव तब होता है, जब कोई अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए उत्सुक रहता है। किन्तु गोपियों का भाव ऐसा नहीं होता। उनकी एकमात्र इच्छा कृष्ण की इन्द्रियों को तृप्त करना है।"
निजेन्द्रिय-सुख-वाञ्छा नाहि गोपिकार ।।कृष्णे सुख दिते करे सङ्गम-विहार ॥
२१८॥
। गोपियों में अपनी खुद की इन्द्रियतृप्ति की रंचमात्र इच्छा नहीं है। उनकी एकमात्र इच्छा कृष्ण को आनन्द देने की होती है। इसी कारण वे उनसे मिलती हैं और उनके साथ भोग करती हैं।"
ग्रत्ते सुजात-चरणाम्बुरुहं स्तनेषुभीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु । तेनाटवीमटसि तद्यथते न किं स्वित् ।कूर्पादिभिर्भमति धीभवदायुषां नः ॥
२१९॥
[ सारी गोपियों ने कहा : ‘हे कृष्ण, हम आपके कोमल चरणकमलों को बड़ी सावधानी से अपने कठोर स्तनों पर रखती हैं। जब आप जंगल में विचरण करते हैं, तो आपके कोमल चरणकमलों में कंकड़-पत्थर लगते हैं। हम डरती रहती हैं कि इससे आपको पीड़ा होती होगी। चूँकि आप हमारे जीवन और आत्मा हैं, अतएव जब आपके चरणकमलों को पीड़ा पहुँचती हैं, तो हमारे मन अत्यन्त विचलित हो उठते हैं।"
सेइ गोपी-भावामृते याँर लोभ हय ।। वेद-धर्म-लोक त्यजि' से कृष्ण भजय ॥
२२०॥
। जो व्यक्ति गोपियों के ऐसे प्रेमभाव से आकृष्ट है, वह वैदिक जीवन के विधानों या लोकमत की परवाह नहीं करता। प्रत्युत वह कृष्ण की शरण में पूर्णतया जाकर उनकी सेवा करता है।"
रागानुग-मार्गे ताँरै भजे येइ जन ।। सेइ-जन पाय व्रजे व्रजेन्द्र-नन्दन ॥
२२१॥
जो व्यक्ति रागानुग मार्ग पर (स्वतःस्फूर्त प्रेम से) भगवान् की पूजा मरता है और वृन्दावन जाता है, उसे नन्द महाराज के पुत्र व्रजेन्द्रनन्दन की शण प्राप्त होती है।"
व्रज-लोकेर कोन भाव लजा ग्रेइ भजे ।।भाव-योग्य देह पाजा कृष्ण पाय व्रजे ॥
२२२॥
। इस मुक्त अवस्था में भक्त भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति के पाँच रसों में से किसी एक रस के द्वारा आकृष्ट होता है। वह उसी भाव से भगवान् की सेवा करते रहने से गोलोक वृन्दावन में कृष्ण की सेवा करने के लिए आध्यात्मिक शरीर प्राप्त करता है।"
ताहाते दृष्टान्त–उपनिषद्श्रुति-गण । राग-मार्गे भजि' पाइल व्रजेन्द्र-नन्दन ॥
२२३॥
जो सन्तजन उपनिषदों का प्रतिनिधित्व करते हैं, वे इसके ज्वलन्त दाहरण हैं। रागानुग प्रेम के मार्ग पर भगवान् की पूजा करके उन्होंने न; महाराज के पुत्र व्रजेन्द्रनन्दन के चरणकमल प्राप्त किये।"
निभृत-मरुन्मनोऽक्ष-दृढ़-स्रोग-युजो हृदि ग्रन् ।मुनय उपासते तदरयोऽपि ययुः स्मरणात् ।। स्त्रिय उरगेन्द्र-भोग-भुज-दण्ड-विषक्त-धियो ।वयमपि ते समाः सम-दृशोऽघ्रि-सरोज-सुधाः ॥
२२४॥
बड़े बड़े मुनि योगाभ्यास तथा प्राणायाम द्वारा अपने मन तथा इन्द्रियों को जीतते हैं। इस तरह योग में प्रवृत्त होकर वे अपने हृदयों के भीतर परमात्मा का दर्शन करते हैं, और अन्ततः निर्विशेष ब्रह्म में प्रवेश करते हैं। किन्तु यह पद तो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के शत्रु भी उनका केवल चिन्तन करके प्राप्त करते हैं। किन्तु व्रजांगनाएँ अर्थात् गोपियाँ कृष्ण के सौन्दर्य से आकृष्ट होकर कृष्ण का और उनकी सर्प जैसी भुजाओं का आलिंगन करना चाहती थीं। इस प्रकार उन्होंने अन्ततोगत्वा भगवान् के चरणकमलों के अमृत का आस्वादन किया। इसी तरह हम उपनिषद् भी गोपियों के पदचिह्नों पर चलकर कृष्ण के चरणकमलों का अमृत चख सकते हैं।"
‘सम-दृश:'-शब्द कहे 'सेइ भावे अनुगति' ।। ‘समा:'-शब्दे कहे श्रुतिर गोपी-देह-प्राप्ति ॥
२२५॥
पिछले श्लोक के चतुर्थ चरण में उल्लिखित ‘समदृशः' शब्द का अर्थ है, ‘गोपियों के भाव का अनुगमन करते हुए।' 'समाः' का अर्थ है, ‘श्रुतियों द्वारा गोपियों जैसा ही शरीर प्राप्त करके।'" ‘अघ्रि-पद्म-सुधा'य कहे 'कृष्ण-सङ्गानन्द' ।। विधि-मार्गे ना पाइये व्रजे कृष्ण-चन्द्र ।। २२६॥
। अघ्रि-पद्मसुधा' का अर्थ है, कृष्ण से घनिष्ठतापूर्वक संगति करते हुए।' ऐसी पूर्णता एकमात्र भगवान् के रागानुग प्रेम द्वारा मिल सकती है। केवल विधि-विधानों द्वारा भगवान् की सेवा करने से गोलोक वृन्दावन में कृष्ण को प्राप्त नहीं किया जा सकता।"
नायं सुखापो भगवान्देहिनां गोपिका-सुतः ।। ज्ञानिनां चत्म-भूतानां ग्रथा भक्ति-मतामिह ॥
२२७॥
यशोदा के पुत्र पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण उन भक्तों को सुलभ हैं, जो रागानुगा भक्ति में लगे हुए हैं। किन्तु वे शुष्क चिन्तकों, कठिन व्रत तथा तपस्या द्वारा आत्म-साक्षात्कार के लिए प्रयत्न करने वालों या शरीर को आत्मा मानने वालों को इतनी सरलता से सुलभ नहीं हैं।'" अतएव गोपी-भाव करि अङ्गीकार ।।रात्रि-दिन चिन्ते राधा-कृष्णेर विहार ॥
२२८॥
अतएव मनुष्य को गोपियों के सेवाभाव को ग्रहण करना चाहिए। ऐसे दिव्य भाव में श्री राधाकृष्ण की लीलाओं का निरन्तर चिन्तन करना चाहिए।"
सिद्ध-देहे चिन्ति' करे ताहाँञि सेवन ।।सखी-भावे पाय राधा-कृष्णेर चरण ॥
२२९॥
राधा-कृष्ण तथा उनकी लीलाओं का दीर्घकाल तक चिन्तन करने और भौतिक कल्मष से पूरी तरह मुक्त होने पर मनुष्य आध्यात्मिक जगत् को चला जाता है। वहाँ भक्त को गोपी के रूप में राधा तथा कृष्ण की सेवा करने का सुअवसर प्राप्त होता है।"
गोपी-आनुगत्य विना ऐश्वर्य-ज्ञाने । भजिलेह नाहि पाय व्रजेन्द्र-नन्दने ॥
२३०॥
। जब तक मनुष्य गोपियों के चरणचिह्नों का अनुसरण नहीं करता, तब तक उसे नन्द महाराज के पुत्र कृष्ण के चरणकमलों की सेवा प्राप्त नहीं हो सकती। यदि वह भगवान् के ऐश्वर्य के ज्ञान से परास्त हो जाता है, तो उसे भगवान् के चरणकमल प्राप्त नहीं हो सकते, भले ही वह भक्तिमयी सेवा में क्यों न लगा हुआ हो।"
ताहाते दृष्टान्त–लक्ष्मी करिल भजन ।। तथापि ना पाइल व्रजे व्रजेन्द्र-नन्दन ॥
२३१॥
इस प्रसंग में अकथनीय उदाहरण लक्ष्मीजी का है, जिन्होंने वृन्दावन में कृष्ण की लीलाओं को प्राप्त करने के लिए भगवान् कृष्ण की पूजा की। किन्तु अपनी ऐश्वर्यमयी जीवन-शैली के कारण उन्हें वृन्दावन में कृष्ण की सेवा प्राप्त नहीं हो सकी।"
नायं श्रियोऽङ्ग उ नितान्त-रतेः प्रसादः ।स्वर्शोषितां नलिन-गन्ध-रुचां कुतोऽन्याः ।। रासोत्सवेऽस्य भुज-दण्ड-गृहीत-कण्ठलब्धाशिषां ग्न उदगाव्रज-सुन्दरीणाम् ॥
२३२॥
जब भगवान् श्रीकृष्ण गोपियों के साथ रासलीला में नृत्य कर रहे थे, तब भगवान् की भुजाएँ गोपियों की गर्दन को आलिंगित किए थीं। यह दिव्य कृपा न तो लक्ष्मीजी को, न ही वैकुण्ठ में अन्य किसी प्रेयसी को प्राप्त हो पाई। न ही स्वर्गलोक की उन सुन्दरियों ने कभी ऐसी कल्पना भी की थी, जिनकी शारीरिक कान्ति तथा सुगन्ध कमल-पुष्य जैसी है। तो भला संसारी स्त्रियों के विषय में क्या कहा जाए, जो भौतिक दृष्टि से [कतनी भी सुन्दर क्यों न हों? एत शुनि' प्रभु ताँरै कैल आलिङ्गन ।दुइ जने गलागलि करेन क्रन्दन ॥
२३३॥
यह सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने रामानन्द राय का आलिंगन किया और दोनों एक-दूसरे को गले लगाकर रुदन करने लगे।"
एड्-मत प्रेमावेशे रात्रि गोइला ।।प्रातः-काले निज-निज-कार्ये हे गेला ॥
२३४॥
इस तरह सारी रात भगवान् के प्रेमावेश में बीती और प्रातःकाल दोनों अपने-अपने कार्यों पर चले गये।"
विदाय-समये प्रभुर चरणे धरिया ।।रामानन्द राय कहे विनति करिया ॥
२३५॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु से विदा होने के पूर्व रामानन्द राय ने पृथ्वी पर गिरकर महाप्रभु के चरणकमल पकड़ लिए। फिर वे अत्यन्त विनीत भावे से इस प्रकार बोले।"
‘मोरे कृपा करिते तोमार इहाँ आगमन ।।दिन दश रहि' शोध मोर दुष्ट मन ॥
२३६॥
श्री रामानन्द राय ने कहा, “आप मुझ पर अपनी अहैतुकी कृपा दर्शाने ही यहाँ आये हैं। अतएव आप यहाँ कम-से-कम दस दिन तक रुक जायें और मेरे दूषित मन को शुद्ध कर दें।"
तोमा विना अन्य नाहि जीव उद्धारिते ।तोमा विना अन्य नाहि कृष्ण-प्रेम दिते' ॥
२३७॥
आपके अतिरिक्त ऐसा कौन है, जो सारे जीवों का उद्धार कर सके, क्योंकि केवल आप ही कृष्ण-प्रेम प्रदान कर सकते हैं।"
प्रभु कहे,—आइलाङशुनि' तोमार गुण ।।कृष्ण-कथा शुनि, शुद्ध कराइते मन ॥
२३८॥
महाप्रभु ने उत्तर दिया, मैं आपके सद्गुण सुनकर यहाँ आया हूँ। मैं तो आपके पास कृष्ण का गुणानुवाद सुनने और इस तरह अपना मन शुद्ध करने आया हूँ।"
ग्रैछे शुनिलु, तैछे देखिलें तोमार महिमा ।।राधा-कृष्ण-प्रेमरस-ज्ञानेर तुमि सीमा ॥
२३९॥
जिस तरह मैंने आपके बारे में सुना था, उसी तरह मैंने आपकीमा भी देख ली। जहाँ तक राधा-कृष्ण की प्रेम-लीलाओं का सम्बन्ध ।, आप तो ज्ञान की सीमा हैं।"
दश दिनेर का-कथा ग्रावतामि जीब' ।।तावत्तोमार सङ्ग छाड़िते नारिब ॥
२४०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, दस दिन की क्या बात है, जब तक मैं जीवित रहूँगा तब तक आपका साथ छोड़ पाना मेरे लिए असम्भव होगा।"
नीलाचले तुमि-आमि थाकिब एक-सङ्गे।।सुखे गोङकाइब काल कृष्ण-कथा-रङ्गे ॥
२४१॥
आप और मैं दोनों साथ साथ जगन्नाथ पुरी में रहेंगे। हम एक साथ आनन्द में कृष्ण तथा उनकी लीलाओं की चर्चा करते हुए अपना समय बितायेंगे।"
एत बलि' मुँहे निज-निज कार्ये गेला ।।सन्ध्या-काले राय पुनः आसिया मिलिला ॥
२४२॥
इस तरह वे दोनों अपने अपने कामों पर चले गये। तत्पश्चात् संध्यासमय रामानन्द राय श्री चैतन्य महाप्रभु से मिलने आये।"
अन्योन्ये मिलि' मुँहे निभृते वसिया ।।प्रश्नोत्तर-गोष्ठी कहे आनन्दित हा ॥
२४३॥
इस तरह वे बारम्बार मिलते, एकान्त स्थान में बैठते और प्रश्नोत्तर के रूप में प्रसन्न चित्त होकर कृष्ण की लीलाओं पर चर्चा करते थे।"
प्रभु पुछे, रामानन्द करेन उत्तर ।।एइ मत सेई रात्रे कथा परस्पर ॥
२४४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु प्रश्न पूछते थे और रामानन्द राय उत्तर देते थे। इस तरह रात-भर वे चर्चा में लगे रहते।"
प्रभु कहे,कोन्विद्या विद्या-मध्ये सार?।। राय कहे,कृष्ण-भक्ति विना विद्या नाहि आर ॥
२४५॥
एक अवसर पर महाप्रभु ने पूछा, सभी प्रकार की विद्याओं में कौनसी विद्या सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है? रामानन्द राय ने उत्तर दिया, दिव्य कृष्ण-भक्ति के अतिरिक्त अन्य कोई विद्या महत्त्वपूर्ण नहीं है।"
'कीर्ति-गण-मध्ये जीवेर कोन्बड़ कीर्ति?'। ‘कृष्ण-भक्त बलिया याँहार हय ख्याति' ॥
२४६॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने रामानन्द राय से पूछा, समस्त यशस्वी कार्यों में कौन-सा कार्य सर्वाधिक यशस्वी है? रामानन्द राय ने उत्तर दिया, वह व्यक्ति जो भगवान् कृष्ण के भक्त के रूप में विख्यात है, वही सर्वाधिक यश तथा कीर्ति भोगता है।"
‘सम्पत्तिर मध्ये जीवेर कोन्सम्पत्ति गणि?' ।। ‘राधा-कृष्ण प्रेम ग्राँर, सेइ बड़ धनी' ॥
२४७॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने पूछा, धनवानों में सर्वोच्च कौन है? रामानन्द राय ने उत्तर दिया, जो राधा तथा कृष्ण के प्रेम का सबसे बड़ा धनी है, वही सबसे बड़ा धनवान है।"
‘दुःख-मध्ये कोन दुःख हय गुरुतर?' ।।‘कृष्ण-भक्त-विरह विना दुःख नाहि देखि पर' ॥
२४८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने पूछा, समस्त दुःखों में कौन-सा दुःख सर्वाधिक कष्टदायक है? श्री रामानन्द राय ने उत्तर दिया, मेरी जानकारी में कृष्ण-भक्त के विरह से बढ़कर कोई दूसरा असह्य दुःख नहीं है।"
‘मुक्त-मध्ये कोन्जीव मुक्त करि' मानि?'।। ‘कृष्ण-प्रेम याँर, सेइ मुक्त-शिरोमणि' ॥
२४९॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने पूछा, समस्त मुक्त पुरुषों में किसे सबसे महान् माना जाए? रामानन्द राय ने उत्तर दिया, जो कृष्ण-प्रेम से युक्त है, उसे ही सर्वोच्च मुक्ति प्राप्त है।"
‘गान-मध्ये कोन गान–जीवेर निज धर्म?'। ‘राधा-कृष्णेर प्रेम-केलि'——येइ गीतेर मर्म ॥
२५०॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने रामानन्द राय से पूछा, अनेक गीतों में से कम गीत को जीव का वास्तविक धर्म माना जाए? रामानन्द राय ने तर दिया, श्री राधा तथा कृष्ण के प्रेम का वर्णन करने वाला गीत अन्य मस्त गीतों से श्रेष्ठ है।
‘श्रेयो-मध्ये कोन श्रेयः जीवेर हय सार?'। ‘कृष्ण-भक्त-सङ्ग विना श्रेयः नाहि आर' ॥
२५१॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने पूछा, समस्त शुभ तथा लाभप्रद कार्यों में से जीव के लिए सर्वश्रेष्ठ कार्य कौन-सा है? रामानन्द राय ने उत्तर दिया, एकमात्र शुभ कार्य कृष्ण-भक्तों की संगति है।"
‘काँहार स्मरण जीव करिबे अनुक्षण?' ।।‘कृष्ण'-नाम-गुण-लीला—प्रधान स्मरण' ॥
२५२॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु ने पूछा, सारे जीव किसका निरन्तर स्मरण करें? रामानन्द राय ने उत्तर दिया, स्मरण करने की मुख्य वस्तु सदैव भगवान् के नाम, गुण तथा लीलाएँ हैं।"
ध्येय-मध्ये जीवेर कर्तव्य कोन्ध्यान?' ।।‘राधा-कृष्ण-पदाम्बुज-ध्यान–प्रधान' ॥
२५३॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु ने और आगे पूछा, समस्त प्रकार के ध्यानों में से कौन-सा ध्यान जीवों के लिए आवश्यक है? श्रील रामानन्द राय ने उत्तर दिया, प्रत्येक जीव का प्रधान कर्तव्य यह है कि वह राधाकृष्ण के चरणकमलों का ध्यान करे।"
‘सर्व त्यजि' जीवेर कर्तव्य काहाँ वास?' ।। ‘व्रज-भूमि वृन्दावन ग्राहाँ लीला-रास' ॥
२५४॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु ने पूछा, “जीव को अन्य सारे स्थान त्यागकर कहाँ रहना चाहिए? रामानन्द राय ने उत्तर दिया, उसे वृन्दावन या व्रजभूमि नामक पवित्र स्थान में रहना चाहिए, जहाँ भगवान् ने रासनृत्य किया था।"
श्रवण-मध्ये जीवेर कोन्श्रेष्ठ श्रवण?' ।। ‘राधा-कृष्ण-प्रेम-केलि कर्ण-रसायन' ॥
२५५॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने पूछा, सुने जाने वाले समस्त विषयों में से कौन-सा विषय समस्त जीवों के लिए सर्वोत्तम है? रामानन्द राय ने उत्तर दिया, राधा तथा कृष्ण के प्रेम-व्यापार के विषय में श्रवण करना कानों को सर्वाधिक सुहावना लगता है।"
'उपास्येर मध्ये कोनुपास्य प्रधान?' । ।‘श्रेष्ठ उपास्य–मुगल ‘राधा-कृष्ण' नाम' ॥
२५६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने पूछा, समस्त पूजा के योग्य ( उपास्य) वस्तुओं में से कौन प्रधान है? रामानन्द ने उत्तर दिया, प्रधान पूजा योग्य वस्तु राधाकृष्ण का नाम-हरे कृष्ण मन्त्र-है।"
‘मुक्ति, भुक्ति वाञ्छे येइ, काहाँ वँहार गति?'। ‘स्थावर-देह, देव-देह ग्रैछे अवस्थिति' ॥
२५७॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने पूछा, और जो मुक्ति चाहते हैं तथा जो इन्द्रियतृप्ति की इच्छा करते हैं, उनका गन्तव्य क्या है? रामानन्द राय ने उत्तर दिया, जो लोग भगवान् के अस्तित्व में समा जाने की चेष्टा करते हैं, उन्हें वृक्ष के समान शरीर धारण करना होगा और जो लोग इन्द्रियतृप्ति में अधिक आसक्त हैं, उन्हें देवताओं का शरीर मिलेगा।"
अरस-ज्ञ काक चूषे ज्ञान-निम्ब-फले ।। रस-ज्ञ कोकिल खाय प्रेमाम्र-मुकुले ॥
२५८॥
रामानन्द राय ने आगे कहा, सभी दिव्य रसों से रहित व्यक्ति ( अरसिक) उन कौवों के समान हैं, जो ज्ञानरूपी नीम वृक्ष के कटु फलों का रस चूसते हैं, जबकि रसज्ञ व्यक्ति उन कोयलों के तुल्य हैं, जो भगवत्प्रेम रूपी आम्र वृक्ष की मंजरियों को खाते हैं।"
अभागिया ज्ञानी आस्वादये शुष्क ज्ञान ।। कृष्ण-प्रेमामृत पान करे भाग्यवान् ॥
२५९॥
रामानन्द राय ने आगे कहा, अभागे शुष्क दार्शनिक दर्शन की शुष्क विधि का आस्वादन करते हैं, किन्तु भक्तगण नियमित रूप से कृष्ण-प्रेम रूपी अमृत का पान करते हैं। अतएव वे सर्वाधिक भाग्यशाली हैं।"
एइ-मत दुइ जन कृष्ण-कथा-रसे ।। नृत्य-गीत-रोदने हैल रात्रि-शेषे ॥
२६० ॥
इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु तथा रामानन्द राय ने कृष्ण-कथा के रस का आस्वादन करते हुए पूरी रात बिताई। उनके कीर्तन करते, नाचते तथा रोते हुए सारी रात बीत गई।"
दोंहे निज-निज-कार्ये चलिला विहाने । सन्ध्या-काले राय आसि' मिलिला आर दिने ॥
२६१॥
प्रातः होने पर दोनों अपने अपने कार्य पर चले गये, किन्तु संध्यासमय रामानन्द पुनः महाप्रभु से मिलने आये।
इष्ट-गोष्ठी कृष्ण-कथा कहि कत-क्षण ।।प्रभु-पद धरि' राय करे निवेदन ॥
२६२॥
उसी दिन संध्या-समय कुछ समय तक कृष्ण-कथा की चर्चा चलाने के बाद रामानन्द राय ने महाप्रभु के चरणकमल पकड़ लिए और इस तरह बोले।
'कृष्ण-तत्त्व', ‘राधा-तत्त्व', 'प्रेम-तत्त्व-सार' ।‘रस-तत्त्व 'लीला-तत्त्व' विविध प्रकार ॥
२६३॥
राधारानी तथा कृष्ण विषयक तत्त्व तथा उनके दिव्य प्रेम, रस तथा लीलाओं के अनेकानेक दिव्य तत्त्व हैं।
एत तत्त्व मोर चित्ते कैले प्रकाशन ।।ब्रह्माके वेद ग्रेन पड़ाइल नारायण ॥
२६४॥
आपने मेरे हृदय में इन अनेक दिव्य तत्त्वों ( सत्यों) को प्रकट किया है। नारायण ने इसी तरह ब्रह्माजी को शिक्षा दी थी।"
अन्तर्यामी ईश्वरेर एइ रीति हये ।। बाहिरे ना कहे, वस्तु प्रकाशे हृदये ॥
२६५ ॥
रामानन्द राय ने आगे कहा, परमात्मा हर एक के हृदय के भीतर से बोलते हैं, बाहर से नहीं। वे सभी प्रकार से भक्तों को उपदेश देते हैं, और यही उनकी उपदेश-विधि है।"
जन्माद्यस्य व्रतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्व-राट्तेने ब्रह्म हुदा य़ आदि-कवये मुह्यन्ति यत्सूरयः । तेजो-वारि-मृदां ग्रथा विनिमयो यत्र त्रि-सर्गोऽमृषाधाम्ना स्वेन सदा निरस्त-कुहकं सत्यं परं धीमहि ॥
२६६॥
हे मेरे प्रभु, वसुदेव के पुत्र श्रीकृष्ण, हे सर्वव्यापी भगवान्, मैं आपको सादर प्रणाम करता हूँ। मैं भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूँ, क्योंकि वे परम अद्वय सत्य हैं और व्यक्त ब्रह्माण्डों की सृष्टि, स्थिति और प्रलय के कारणों के आदि कारण हैं। वे प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से समस्त जगत् से अवगत रहते हैं और वे स्वतंत्र हैं, क्योंकि उनसे परे अन्य कोई भी कारण नहीं है। उन्होंने ही पहले प्रथम-जीव ब्रह्मा के हृदय में वैदिक ज्ञान प्रदान किया। उनके द्वारा बड़े-बड़े ऋषि और देवतागण भी मोहित हो जाते हैं, जैसे अग्नि में जल या जल में भूमि दिखने से मनुष्य भ्रमित हो जाता है। उन्हीं के कारण तीन गुणों की क्रिया-प्रतिक्रियाओं से निर्मित भौतिक ब्रह्माण्ड वास्तविकता प्रतीत होते हैं, यद्यपि वे अवास्तविक होते हैं। अतएव मैं उन परम सत्य श्रीकृष्ण का ध्यान करता हैं, जो अपने दिव्य धाम में निरन्तर रहते हैं, जो भौतिक जगत् की माया से सदा मुक्त है। मैं उनका ध्यान करता हूँ, क्योंकि वे परम सत्य हैं।"
एक संशय मोर आछये हृदये ।। कृपा करि' कह मोरे ताहार निश्चये ॥
२६७॥
। तत्पश्चात् रामानन्द राय ने कहा कि उनके हृदय में अब एक ही संशय बचा है; अतएव उन्होंने महाप्रभु से याचना की कि, आप मुझ पर कृपालु हों और मेरा संशय दूर करें।"
पहिले देखिहूँ तोमार सन्यासि-स्वरूप ।।एबे तोमा देखि मुजि श्याम-गोप-रूप ॥
२६८ ॥
। तब रामानन्द राय ने श्री चैतन्य महाप्रभु से कहा, पहले मैंने आपको संन्यासी के रूप में देखा, किन्तु अब मैं आपको एक गोपाल बालक श्यामसुन्दर के रूप में देख रहा हूँ।"
तोमार सम्मुखे देखि काञ्चन-पञ्चालिका ।।ताँर गौर-कान्त्ये तोमार सर्व अङ्ग ढाका ॥
२६९॥
अब मैं आपको सुनहरे गुड्डे की तरह प्रकट होते देख रहा हूँ और आपका सारा शरीर सुनहरी कान्ति से आच्छादित प्रतीत होता है।"
ताहाते प्रकट देखों स-वंशी वदन । नाना भावे चञ्चल ताहे कमल-नयन ॥
२७० ॥
मैं देख रहा हूँ कि आप मुख में वंशी धारण किये हैं और आपके कमल-नेत्र विभिन्न भावों के कारण चंचल हो रहे हैं।"
एइ-मत तोमा देखि' हय चमत्कार ।। अकपटे कह, प्रभु, कारण इहार ॥
२७१॥
मैं आपको वास्तव में इसी रूप में देख रहा हूँ और यह अत्यन्त अद्भुत है। हे प्रभु, कृपया निष्कपट भाव से बतलायें कि ऐसा क्यों है। रहा है।"
प्रभु कहे,—कृष्णे तोमार गाढ़-प्रेम हय ।।प्रेमार स्वभाव एइ जानिह निश्चय ॥
२७२॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, आप में कृष्ण के प्रति प्रगाढ़ प्रेम है और जिसमें भगवान् के प्रति ऐसा प्रगाढ़ भावमय प्रेम होता है, वह वाभाविक रूप से वस्तुओं को इसी तरह से देखता है। आप इसे निश्चय जानें।"
महा-भागवत देखे स्थावर-जङ्गमे ।।ताहाँ ताहाँ हय ताँर श्री-कृष्ण-स्फुरण ॥
२७३॥
आध्यात्मिक स्थिति में उन्नत भक्त प्रत्येक चर तथा अचर वस्तु को भगवान् के रूप में देखता है। उसे इधर-उधर दिखने वाली सारी वस्तुएँ भगवान् कृष्ण के ही स्वरूप जान पड़ती हैं।"
स्थावर-जङ्गम देखे, ना देखे तार मूर्ति ।सर्वत्र हय निज इष्ट-देव-स्फूर्ति ॥
२७४॥
महान् भक्त अर्थात् महाभागवत अवश्य हर चर तथा अचर को देखता है, किन्तु वह उनके बाह्य रूपों को नहीं देखता। प्रत्युत वह जहाँ कहीं भी देखता है, उसे तुरन्त भगवान् का स्वरूप प्रकट होते दिखता है।"
सर्व-भूतेषु यः पश्येद्भगवद्भावमात्मनः ।। भूतानि भगवत्यात्मन्येष भागवतोत्तमः ॥
२७५ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, भक्ति में अग्रसर व्यक्ति हर वस्तु के भीतर आत्माओं के आत्मा, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण को देखता है। फलस्वरूप वह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के स्वरूप को समस्त कारणों के कारण के रूप में देखता है और यह समझता है कि सारी वस्तुएँ उन्हीं में स्थित हैं।'" वन-लतास्तरव आत्मनि विष्णुव्यञ्जयन्त्य इव पुष्प-फलाढ्याः ।। प्रणत-भार-विटपो मधु-धाराः ।प्रेम-हृष्ट-तनवो ववृषुः स्म ॥
२७६॥
कृष्ण-प्रेम के भाव में पौधे, लताएँ तथा वृक्ष फूलों तथा फलों से लदे थे, जिसके कारण वे झुके जा रहे थे। वे कृष्ण के ऐसे प्रगाढ़ प्रेम से प्रेरित थे कि वे लगातार मधु की वर्षा कर रहे थे। इस तरह गोपियों ने । वृन्दावन के पूरे जंगल को देखा।"
राधा-कृष्णे तोमार महा-प्रेम हय ।।ग्राहाँ ताहाँ राधा-कृष्ण तोमारे स्फुरय ॥
२७७॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, हे राय, आप महान् भक्त हैं, और राधाकृष्ण के प्रेमभाव से सदैव पूरित रहते हैं। अतएव आप जहाँ कहीं जो कुछ देखते हैं, वह आप में कृष्णभावनामृत को जाग्रत करता है।"
राय कहे,—प्रभु तुमि छाड़ भारि-भूरि ।।मोर आगे निज-रूप ना करिह चुरि ॥
२७८ ॥
रामानन्द राय ने उत्तर दिया, हे प्रभु, कृपया आप इन सारी गम्भीर बातों को छोड़ दें। कृपया आप मुझसे अपना असली रूप मत छिपायें।"
राधिकार भाव-कान्ति करि' अङ्गीकार ।।निज-रस आस्वादिते करियाछ अवतार ॥
२७९॥
रामानन्द राय ने आगे कहा, हे प्रभु, मैं जानता हूँ कि आपने श्रीमती राधारानी का भाव तथा शारीरिक वर्ण धारण कर रखा है। इस तरह आप अपने निजी दिव्य रस का आस्वादन कर रहे हैं, और इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में अवतरित हुए हैं।"
निज-गूढ़-कार्य तोमार—प्रेम आस्वादन ।आनुषङ्गे प्रेम-मय कैले त्रिभुवन ॥
२८० ॥
हे प्रभु, आप निजी कारणों से चैतन्य महाप्रभु के इस रूप में अवतरित होकर प्रकट हुए हैं। आप अपने स्वयं के आध्यात्मिक आनन्द का आस्वादन करने के लिए आये हैं और साथ ही साथ भगवत्प्रेम का प्रसार करके सारे जगत् को रूपान्तरित कर रहे हैं।
आपने आइले मोरे करिते उद्धार । एबे कपट कर,—तोमार कोन व्यवहार ॥
२८१॥
हे प्रभु, आप मुझे मुक्ति प्रदान करने के लिए अपनी अहैतुकी कृपा में मेरे समक्ष प्रकट हुए हैं। अब लेकिन आप छल कर रहे हैं। ऐसे व्यवहार का क्या कारण है?" तबे हासि' तौरै प्रभु देखाइल स्वरूप ।।‘रस-राज', ‘महाभाव'–दुइ एक रूप ॥
२८२॥
भगवान् कृष्ण समस्त आनन्द के आगार हैं और श्रीमती राधारानी मामात् महाभावमय भगवत्प्रेम की मूर्तिमन्त स्वरूप हैं। श्री चैतन्य महाप्रभु में ये दोनों स्वरूप मिलकर एक हो गये हैं। ऐसा होने के कारण श्री चैतन्य महाप्रभु ने रामानन्द राय को अपना वास्तविक स्वरूप दिखलाया।"
देखि' रामानन्द हैला आनन्दे मूच्छिते ।। धरिते ना पारे देह, पड़िला भूमिते ॥
२८३॥
यह स्वरूप देखकर रामानन्द राय दिव्य आनन्द के कारण मूर्छित हो गये। वे खड़े नहीं रह सके, अतः भूमि पर गिर पड़े।"
प्रभु ताँरे हस्त स्पर्शि' कराइला चेतन ।। सन्यासीर वेष देखि विस्मित हैल मन ॥
२८४॥
। जब रामानन्द राय मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़े, तो चैतन्य महाप्रभु ने उनके हाथ का स्पर्श किया, जिससे उन्हें तुरन्त चेतना प्राप्त हो गई। किन्तु जब उन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु को संन्यासी वेश में देखा, तो वे आश्चर्यचकित हो गये।"
आलिङ्गन करि' प्रभु कैल आश्वासन ।तोमा विना एइ-रूप ना देखे अन्य-जन ॥
२८५॥
रामानन्द राय का आलिंगन करने के बाद महाप्रभु ने उन्हें सान्त्वना मी और बतलाया, आपके अतिरिक्त अन्य किसी ने यह स्वरूप नहीं देखा है।"
मोर तत्त्व-लीला-रस तोमार गोचरे ।। अतएव एइ-रूप देखाइहुँ तोमारे ॥
२८६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने पुष्टि की, मेरी लीलाओं तथा रसों का सारा । तत्त्व ( सत्य) आपको ज्ञात है। इसीलिए मैंने आपको यह स्वरूप दिखलाया है।"
गौर अङ्ग नहे मोर—राधाङ्ग-स्पर्शन ।।गोपेन्द्र-सुत विना तेहो ना स्पर्शे अन्य-जन ॥
२८७॥
। वास्तव में मेरा शरीर गौर वर्ण का नहीं है। यह तो श्रीमती राधारानी के शरीर को स्पर्श करने से ऐसा प्रतीत होता है। किन्तु राधारानी नन्द महाराज के पुत्र के अतिरिक्त अन्य किसी का स्पर्श नहीं करती।।"
ताँर भावे भावित करि' आत्म-मन ।।तबे निज-माधुर्घ करि आस्वादने ॥
२८८॥
अब मैंने अपने शरीर तथा मन को श्रीमती राधारानी के भाव में रंग लिया है। इस तरह मैं अपने ही माधुर्य का आस्वादन उस रूप में कर रहा हूँ।"
तोमार ठाजि आमार किछु गुप्त नाहि कर्म ।लुकाइले प्रेम-बले जाने सर्व-मर्म ॥
२८९॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने शुद्ध भक्त रामानन्द राय के समक्ष स्वीकार किया, अब कोई ऐसा गुप्त कार्य नहीं है, जो आपसे अज्ञात हो। यद्यपि मैं अपने कार्यों को गुप्त रखने की चेष्टा करता हूँ, फिर भी आप मेरे प्रति अपने उन्नत प्रेम के कारण प्रत्येक बात को विस्तार से समझ सकते हैं।
गुप्ते राखिह, काहाँ ना करिओ प्रकाश ।।आमार बातुल-चेष्टा लोके उपहास ॥
२९०॥
। तब महाप्रभु ने रामानन्द राय से अनुरोध किया, इन सारी बातों को गुप्त रखें। आप इन्हें कहीं भी प्रकट न करें। चूंकि मेरे कार्य उन्मत्त व्यक्ति जैसे प्रतीत होते हैं, अतएव लोग उनकी गम्भीरता न समझते हुए हँसी उड़ा सकते हैं।"
आमि—एक बातुल, तुमि—द्वितीय बातुल ।अतएव तोमाय आमाय हइ सम-तुल ॥
२९१॥
चैतन्य महाप्रभु ने तब कहा, मैं सचमुच उन्मत्त व्यक्ति हूँ और आप भी उन्मत्त हो। अतएव हम दोनों समान धरातल पर हैं।"
एइ-रूप देश-रात्रि रामानन्द-सङ्गे। सुखे गोडाइला प्रभु कृष्ण-कथा-रङ्गे ॥
२९२॥
इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु तथा रामानन्द राय ने कृष्ण की लीलाओं पर चर्चा करते हुए सुखपूर्वक दस रातें बिताईं।"
निगूढ़ व्रजेर रस-लीलार विचार । अनेक कहिल, तार ना पाइल पार ॥
२९३॥
। रामानन्द राय तथा श्री चैतन्य महाप्रभु के बीच हुई वार्ताएँ अत्यन्त गूढ़ हैं, जो वृन्दावन (व्रजभूमि) में राधा तथा कृष्ण के माधुर्य प्रेम से सम्बन्धित हैं। यद्यपि दोनों ने इन लीलाओं पर विस्तार से बातें कीं, किन्तु । उनको पार नहीं पा सके।
तामा, काँसा, रूपा, सोना, रत्न-चिन्तामणि ।।केह ग्रदि काहाँ पोता पाय एक-खानि ॥
२९४॥
वस्तुतः ये वार्ताएँ उस विशाल खान के तुल्य हैं, जहाँ पर एक ही स्थान से सभी तरह की धातुएँ निकाली जा सकती हैं यथा ताँबा, काँसा, चाँदी, सोना तथा अन्य सभी धातुओं का आधार चिन्तामणि पत्थर।"
क्रमे उठाइते सेह उत्तम वस्तु पाय ।। ऐछे प्रश्नोत्तर कैल प्रभु-रामराय ॥
२९५ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु तथा रामानन्द राय ने एक से एक उत्तम धातुओं को निकालने वाले खनिक का काम किया। उनके प्रश्न तथा उत्तर बिल्कुल इसी तरह के हैं।"
आर दिन राय-पाशे विदाय मागिला ।।विदायेर काले ताँरे एइ आज्ञा दिला ॥
२९६॥
अगले दिन श्री चैतन्य महाप्रभु ने प्रस्थान करने के लिए रामानन्द यि से अनुमति माँगी। विदा होते समय महाप्रभु ने राय को निम्नलिखित आज्ञा दी।
विषय छाड़िया तुमि ग्राह नीलाचले ।।आमि तीर्थ करि' ताँहा आसिब अल्प-काले ॥
२९७॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने उनसे कहा, आप सारे भौतिक कार्यकलाप ोड़कर जगन्नाथ पुरी जायें। मैं अपनी तीर्थयात्रा समाप्त करके शीघ्र ही वहां लौट आऊँगा।"
दुइ-जने नीलाचले रहिब एक-सङ्गे। ।सुखे गोडनइब काल कृष्ण-कथा-रङ्गे ॥
२९८॥
हम दोनों जगन्नाथ पुरी में मिलकर रहेंगे और कृष्ण-कथा कहते हुए सुखपूर्वक अपना समय बितायेंगे।
एत बलि' रामानन्दे करि' आलिङ्गन ।।ताँरे घरे पाठाइया करिल शयन ॥
२९९॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने रामानन्द राय का आलिंगन किया और उन्हें उनके घर भेजकर वे स्वयं विश्राम करने लगे।
प्रातः-काले उठि' प्रभु देखि' हनुमान् ।।तारै नमस्करि' प्रभु दक्षिणे करिला प्रयाण ॥
३०० ॥
प्रात:काल जगने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु स्थानीय मन्दिर में गये, जहाँ हनुमानजी का विग्रह था। उन्हें नमस्कार करने के बाद महाप्रभु ने दक्षिण भारत के लिए प्रस्थान किया।
‘विद्यापूरे' नाना-मत लोक वैसे ग्रत ।।प्रभु-दर्शने 'वैष्णव' हैल छाड़ि' निज-मत ॥
३०१॥
विद्यानगर के सारे निवासी विभिन्न मतों को मानने वाले थे, किन्तु श्री चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करने के बाद उन्होंने अपना-अपना मत त्याग दिया और वैष्णव बन गये।"
रामानन्द हैला प्रभुर विरहे विह्वल ।।प्रभुर ध्याने रहे विषय छाड़िया सकल ॥
३०२॥
रामानन्द राय श्री चैतन्य महाप्रभु के विरह में विह्वल हो उठे। वे अपने सारे भौतिक कार्यकलाप त्यागकर महाप्रभु के ध्यान में मग्न रहने लगे।"
सङ्क्षेपे कहिलें रामानन्देर मिलन ।।विस्तारि' वर्णिते नारे सहस्र-वदन ॥
३०३॥
मैंने श्री चैतन्य महाप्रभु तथा रामानन्द राय के मिलन का संक्षेप में वर्णन किया है। इसका पूरे विस्तार से वर्णन कर पाना सम्भव नहीं है। यह तक कि हजार फनों वाले भगवान् शेषनाग भी इसका वर्णन नहीं कर सकते।"
सहजे चैतन्य-चरित्र—घन-दुग्ध-पूर ।।रामानन्द-चरित्र ताहे खण्ड प्रचुर ॥
३०४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के कार्यकलाप गाढ़े दूध के समान हैं और रामानन्द राय के कार्यकलाप मिश्री के ढेर के समान हैं।"
राधा-कृष्ण-लीला—ताते कर्पूर-मिलन ।। भाग्यवान् ग्रेइ, सेइ करे आस्वादन ॥
३०५॥
उनका मिलन गाढ़े दूध और मिश्री के मिश्रण के समान है। जब वे राधा तथा कृष्ण की लीलाओं के विषय में बातें करते हैं, तो मानो उसमें कपूर मिल गया हो। जो व्यक्ति इस मिश्रित व्यंजन का स्वाद चखता है, वह परम भाग्यशाली है।"
ने इहा एक-बार पिये कर्ण-द्वारे । तार कर्ण लोभे इहा छाड़िते ना पारे ॥
३०६॥
इस अद्भुत व्यंजन को कानों से ग्रहण करना होता है। जो इसे ग्रहण करता है, वह इसका और अधिक आस्वादन करने के लिए लालायित हो जाता है।"
'रस-तत्त्व-ज्ञान' हय इहार श्रवणे । ‘प्रेम-भक्ति' हय राधा-कृष्णेर चरणे ॥
३०७॥
। रामानन्द राय तथा श्री चैतन्य महाप्रभु की वार्ताओं को सुनकर राधाकृष्ण-लीलाओं के रसों का दिव्य ज्ञान प्राप्त होता है। इस तरह राधा तथा कृष्ण के चरणकमलों के प्रति अनन्य प्रेम विकसित हो सकता है।"
चैतन्येर गूढ़-तत्त्व जानि इहा हैते ।। विश्वास करि' शुन, तर्क ना करिह चित्ते ॥
३०८॥
। लेखक का हर पाठक से यही अनुरोध है कि इन वार्ताओं को श्रद्धापूर्वक बिना तर्क किये सुने। इस तरह से अध्ययन करने पर ही वह श्री चैतन्य महाप्रभु के गूढ़ तत्त्व को समझ सकेगा।"
अलौकिक लीला एइ परम निगूढ़ ।। विश्वासे पाइये, तर्के हय बहु-दूर ॥
३०९॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं का यह अंश परम गोपनीय है। मनुष्य केवल श्रद्धा से तुरन्त लाभान्वित हो सकता है, अन्यथा तर्क करने से वह इससे वंचित रहेगा।"
श्री-चैतन्य-नित्यानन्द-अद्वैत-चरण ।।याँहार सर्वस्व, ताँरै मिले एइ धन ॥
३१०॥
। जिसने श्री चैतन्य महाप्रभु, नित्यानन्द प्रभु तथा अद्वैत प्रभु के चरणकमलों को सब कुछ मान रखा है, वही इस दिव्य खजाने को प्राप्त कर सकता है।"
रामानन्द राये मोर कोटी नमस्कार ।। ग्राँर मुखे कैल प्रभु रसेर विस्तार ॥
३११॥
मैं श्री रामानन्द राय के चरणकमलों में एक करोड़ बार नमस्कार करता हूँ, क्योंकि श्री चैतन्य महाप्रभु ने उनके मुख से प्रचुर आध्यात्मिक ज्ञान का विस्तार किया।"
दामोदर-स्वरूपेर कड़चा-अनुसारे । रामानन्द-मिलन-लीला करिल प्रचारे ॥
३१२॥
। मैंने श्री स्वरूप दामोदर के गुटकों के अनुसार श्री चैतन्य महाप्रभु तथा रामानन्द राय की मिलन-लीलाओं का प्रचार किया है।
श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश ।।चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
३१३॥
श्री रूप और श्री रघुनाथ दास के चरणकमलों पर प्रार्थना करते उनकी कृपा की कामना करते हुए मैं कृष्णदास उनके चरणचिह्नों पर चलकर श्रीचैतन्य-चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।
अध्याय नौ: भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु की पवित्र स्थानों की यात्राएँ
नाना-मत-ग्राह-ग्रस्तान्दाक्षिणात्य-जन-द्विपान् ।।कृपारिणा विमुच्यैतागौरश्चक्रे स वैष्णवान् ॥
१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने दक्षिण भारत के निवासियों का हृदय-परिवर्तन किया। ये लोग हाथी के समान बलशाली थे, किन्तु वे विभि विचारधाराओं-यथा बौद्ध, जैन, मायावादी दर्शन-रूपी घड़ियालों (मगरमच्छों) के चंगुल में फँसे हुए थे। महाप्रभु ने अपनी कृपा रूपी चक्र से सबको वैष्णव अर्थात् भगवद्भक्त बनाकर सबका उद्धार किया।
जय जय श्री-चैतन्य जय नित्यानन्द ।जयाद्वैत-चन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ॥
२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो।! श्री अद्वैत प्रभु की जय हो तथा श्री चैतन्य महाप्रभु के सारे भक्तों की जय हो! दक्षिण-गमन प्रभुर अति विलक्षण । सहस्र सहस्र तीर्थ कैल दरशन ॥
३॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की दक्षिण भारत की यात्रा निश्चय ही अद्वितीय थी, क्योंकि उन्होंने वहाँ कई हजार तीर्थस्थान देखे।
सेइ सब तीर्थ स्पर्शि' महा-तीर्थ कैल।। सेइ छले सेइ देशेर लोक निस्तारिल ॥
४॥
उन तीर्थस्थानों में जाने के बहाने उन्होंने हजारों निवासियों का हृदय परिवर्तन किया और इस तरह उनका उद्धार किया। उन्होंने तीर्थस्थानों को अपने स्पर्श मात्र से महान् तीर्थस्थलों में परिणत कर दिया। सेइ सब तीर्थेर क्रम कहिते ना पारि ।दक्षिण-वामे तीर्थ-गमन हय फेराफेरि ॥
५॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने जिन समस्त तीर्थस्थानों का भ्रमण किया, उनका क्रमबद्ध वर्णन कर पाना मेरे लिए सम्भव नहीं है। मैं संक्षेप में इतना ही कह सकता हूँ कि महाप्रभु ने आते-जाते दाहिने तथा बाँये के सारे तीर्थस्थानों का भ्रमण किया।"
अतएव नाम-मात्र करिये गणन । कहिते ना पारि तार था अनुक्रम ॥
६ ॥
चूंकि इन सारे स्थानों का क्रमबद्ध वर्णन कर पाना मेरे लिए सम्भव नहीं है, अतएव मैं नाम के लिए ही उनका वर्णन करूंगा।"
पूर्ववत्पथे ग्राइते ग्रे पाय दरशन ।।ग्रेइ ग्रामे याय, से ग्रामेर व्रत जन ॥
७॥
सबेइ वैष्णव हय, कहे 'कृष्ण' ‘हरि' । अन्य ग्राम निस्तारये सेइ वैष्णव' करि' ॥
८॥
जैसाकि पहले कहा जा चुका है, भगवान् चैतन्य महाप्रभु जिन-जिन गाँवों में गये, वहाँ के सारे निवासी वैष्णव बन गये, और 'हरि' तथा 'कृष्ण' नाम का उच्चारण करने लगे। इस तरह महाप्रभु जितने सारे गाँवों में गये, उनका हर व्यक्ति वैष्णव भक्त बन गया।"
दक्षिण देशेर लोक अनेक प्रकार ।।केह ज्ञानी, केह कर्मी, पाषण्डी अपार ॥
९॥
। दक्षिण भारत में अनेक प्रकार के लोग थे। कुछ तो ज्ञानी थे और कुछ सकाम कर्मी, किन्तु अभक्तों की संख्या अपार थी।
सेइ सब लोक प्रभुर दर्शन-प्रभावे ।।निज-निज-मत छाड़ि' हइल वैष्णवे ॥
१०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रभाव से इन सारे लोगों ने अपने-अपने मते त्याग दिये और वैष्णव अर्थात् कृष्ण-भक्त बन गये।
वैष्णवेर मध्ये राम-उपासक सब ।।केह'तत्त्ववादी', केह हय 'श्री-वैष्णव' ॥
११॥
उस समय दक्षिण भारत के सारे वैष्णव भगवान् रामचन्द्र के पास थे। उनमें से कुछ तत्त्ववादी थे और कुछ रामानुजाचार्य के अनुयायी ।
सेइ सब वैष्णव महाप्रभुर दर्शने ।।कृष्ण-उपासक हैल, लय कृष्ण-नामे ॥
१२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु से भेंट करने के बाद वे सारे वैष्णव कृष्ण-भक्त बन गये और हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करने लगे।
राम! राघव! राम! राघव! राम! राघव! पाहि माम् ।।कृष्ण! केशव! कृष्ण! केशव! कृष्ण! केशव! रक्ष माम् ॥
१३॥
हे रघुवंशी रामचन्द्र, कृपया आप मेरी रक्षा करें! हे केशी असुर को । मारने वाले कृष्ण, कृपया आप मेरी रक्षा करें!" एइ श्लोक पथे पड़ि' करिला प्रयाण ।। गौतमी-गङ्गाय ग्राइ' कैल गङ्गा-स्नान ॥
१४॥
मार्ग पर जाते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु इसी रामराघव मन्त्र का कीर्तन करते थे। इस प्रकार कीर्तन करते-करते वे गौतमी-गंगा के तट पर पहुँचे और वहाँ पर उन्होंने स्नान किया।"
मल्लिकार्जुन-तीर्थे ग्राइ' महेश देखिल ।ताहाँ सब लोके कृष्ण-नाम लओयाइल ॥
१५॥
तत्पश्चात् श्री चैतन्य महाप्रभु मल्लिकार्जुन तीर्थ गये और वहाँ पर शिवजी के अर्चाविग्रह का दर्शन किया। उन्होंने सारे लोगों को हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करने के लिए प्रेरित भी किया।
रामदास महादेवे करिल दरशन ।।अहोवल-नृसिंहेरे करिला गमन ॥
१६ ॥
वहाँ पर उन्होंने भगवान् राम के दास महादेव (शिव) का दर्शन किया। इसके बाद वे अहोवल-नृसिंह देखने गये।
नृसिंह देखिया ताँरे कैल नति-स्तुति ।।सिद्धवट गेला याहाँ मूर्ति सीतापति ॥
१७॥
। अहोवल नृसिंह अर्चाविग्रह का दर्शन करने के बाद चैतन्य महाप्रभु ने भगवान् की स्तुति की। फिर वे सिद्धवट गये, जहाँ उन्होंने सीतादेवी के स्वामी रामचन्द्र के अर्चाविग्रह का दर्शन किया।
रघुनाथ देखि' कैल प्रणति स्तवन ।।ताहाँ एक विप्र प्रभुर कैल निमन्त्रण ॥
१८॥
महाप्रभु ने रघुवंशी भगवान् रामचन्द्र के अर्चाविग्रह का दर्शन करने के बाद उनको नमस्कार किया और स्तुति की। तत्पश्चात् एक ब्राह्मण ने उन्हें भोजन करने के लिए आमन्त्रित किया।
सेइ विप्र राम-नाम निरन्तर लय ।।‘राम' 'राम' विना अन्य वाणी ना कहय ॥
१९॥
वह ब्राह्मण निरन्तर पवित्र राम-नाम का उच्चारण करता था। वह ब्राह्मण राम-नाम के अतिरिक्त अन्य किसी शब्द का उच्चारण नहीं करता था।
सेइ दिन ताँर घरे रहि' भिक्षा करि' ।ताँरे कृपा करि' आगे चलिला गौरहरि ॥
२०॥
उस दिन भगवान् चैतन्य वहीं रहे और उसके घर में प्रसाद ग्रहण किया। इस तरह उस ब्राह्मण पर कृपा करने के बाद महाप्रभु आगे बढ़ गये।
स्कन्द-क्षेत्र-तीर्थे कैल स्कन्द दरशन ।।त्रिमठ आइला, ताहाँ देखि' त्रिविक्रम ॥
२१॥
स्कन्द-क्षेत्र नामक तीर्थस्थल में श्री चैतन्य महाप्रभु ने स्कन्द का मन्दिर देखा। वहाँ से वे त्रिमठ गये, जहाँ उन्होंने विष्णु के अर्चाविग्रह त्रिविक्रम का दर्शन किया।"
पुनः सिद्धवट आइला सेइ विप्र-घरे ।। सेइ विप्र कृष्ण-नाम लय निरन्तरे ॥
२२॥
त्रिविक्रम मन्दिर का दर्शन करने के बाद महाप्रभु सिद्धवट लौट आये, जहाँ वे पुनः उसी ब्राह्मण के घर गये, जो अब निरन्तर हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करता था।"
भिक्षा करि' महाप्रभु ताँरे प्रश्न कैल ।। कह विप्र, एइ तोमार कोन्दशा हैल ॥
२३॥
भोजन करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने उस ब्राह्मण से पूछा, “हे। मित्रवर, मुझसे अपनी वर्तमान स्थिति के विषय में बतलाओ।"
पूर्वे तुमि निरन्तर लैते राम-नाम ।।एबे केने निरन्तर लओ कृष्ण-नाम ॥
२४॥
पहले तो तुम भगवान् राम के पवित्र नाम का निरन्तर जप करते थे। तुम अब कृष्ण-नाम का निरन्तर जप क्यों करते हो? विप्र बले,—एइ तोमार दर्शन-प्रभावे ।।तोमा देखि' गेल मोर आजन्म स्वभावे ॥
२५॥
ब्राह्मण ने उत्तर दिया, हे महाशय, यह आपके प्रभाव से है। आपका दर्शन करने के बाद मैंने अपने जीवन-भर के उस अभ्यास को छोड़ दिया।"
बाल्यावधि राम-नाम-ग्रहण आमार ।।तोमा देखि' कृष्ण-नाम आइल एक-बार ॥
२६॥
। मैं अपने बचपन से भगवान् रामचन्द्र के नाम का कीर्तन करता रहा। हूँ, किन्तु आपको देखने के बाद मैंने एक बार भगवान् कृष्ण के नाम का कीर्तन किया।"
सेइ हैते कृष्ण-नाम जिह्वाते वसिला । कृष्ण-नाम स्फुरे, राम-नाम दूरे गेला ॥
२७॥
तब से मेरी जिह्वा पर कृष्ण का पावन नाम ही बैठ गया है। क्योंकि अब मैं कृष्ण-नाम का कीर्तन करता हूँ, अतः भगवान् रामचन्द्र का नाम दूर भाग गया है।"
बाल्यकाल हैते मोर स्वभाव एक हय ।। नामेर महिमा-शास्त्र करिये सञ्चय ॥
२८॥
मैं अपने बचपन से शास्त्रों से पवित्र नाम की महिमाओं का संग्रह करता रहा हूँ।"
रमन्ते योगिनोऽनन्ते सत्यानन्दे चिदात्मनि ।। इति राम-पदेनासौ परं ब्रह्माभिधीयते ॥
२९॥
परम सत्य राम कहलाता है, क्योंकि अध्यात्मवादी आध्यात्मिक अस्तित्व के असीम यथार्थ सुख में आनन्द लेते हैं।"
कृषिभू-वाचकः शब्दो णश्च निर्वृति-वाचकः ।। तयोरैक्यं परं ब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते ॥
३०॥
। कृष् शब्द भगवान् के अस्तित्व का आकर्षक स्वरूप है, और ण का अर्थ है आध्यात्मिक आनन्द। कृष् धातु ण प्रत्यय से मिलकर कृष्ण बनाती है, जिसका अर्थ है परम सत्य।'" परं ब्रह्म दुइ-नाम समान हइल । पुनः आर शास्त्रे किछु विशेष पाइल ॥
३१॥
जहाँ तक राम तथा कृष्ण के पवित्र नामों का सम्बन्ध है, वे एक समान हैं। किन्तु अधिक उन्नति के लिए हमें प्रामाणिक शास्त्रों से कुछ विशेष जानकारी प्राप्त होती है।"
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।। सहस्र-नामभिस्तुल्यं राम-नाम वरानने ॥
३२॥
[ शिवजी ने अपनी पत्नी दुर्गा से कहा :‘हे वरानना, मैं राम, राम, राम के पवित्र नाम का कीर्तन करता हूँ, और इस सुन्दर ध्वनि का आनन्द लूटता हूँ। रामचन्द्र का यह पवित्र नाम भगवान् विष्णु के एक हजार नामों के बराबर है।"
सहस्र-नाम्नां पुण्यानां त्रिरावृत्त्या तु यत्फलम् ।। एकावृत्त्या तु कृष्णस्य नामैकं तत्प्रयच्छति ॥
३३॥
विष्णु के पवित्र सहस्र नामों को तीन बार उच्चारण करने से जो पुण्य मिलता है, वही कृष्ण के नाम का केवल एक बार उच्चारण करने से मिल जाता है।'" एइ वाक्ये कृष्ण-नामेर महिमा अपार ।। तथापि लइते नारि, शुन हेतु तार ॥
३४॥
शास्त्रों के कथनानुसार कृष्ण के पवित्र नाम की महिमा अपार है। फिर भी मैं उनका नाम नहीं ले पाया। कृपया आप इसका कारण सुनें।"
इष्ट-देव राम, ताँर नामे सुख पाई ।। सुख पाबा राम-नाम रात्रि-दिन गाइ ॥
३५॥
मेरे आराध्य देव भगवान् रामचन्द्र रहे हैं, और उनके पवित्र नाम के कीर्तन से मैं सुख प्राप्त करता रहा हूँ। चूंकि मुझे इतना सुख प्राप्त हुआ, इसलिए मैं भगवान् राम के पवित्र नाम का कीर्तन दिन-रात करता रहा।"
तोमार दर्शने ग्रबे कृष्ण-नाम आइल ।। ताहार महिमा तबे हृदये लागिल ॥
३६॥
आपके आने से भगवान् कृष्ण का पवित्र नाम भी आया। तब मेरे हृदय में कृष्ण नाम की महिमा का उदय हुआ।"
सेइ कृष्ण तुमि साक्षात्-इहा निर्धारिल ।एत कहि' विप्र प्रभुर चरणे पड़िल ॥
३७॥
उस ब्राह्मण ने कहा, हे महाशय, आप वही भगवान् कृष्ण स्वयं हैं। यह मेरा दृढ़ मत है। यह कहकर वह ब्राह्मण महाप्रभु के चरणों पर गिर पड़ा।"
ताँरे कृपा करि' प्रभु चलिला आर दिने । उस ब्राह्मण पर कृपा करके श्री चैतन्य महाप्रभु ने अगले दिन प्रस्थान किया और वृद्धकोशी आये, जहाँ उन्होंने शिवजी के मन्दिर की मुलाकात ली।।वृद्धकाशी आसि' कैल शिव-दरशने ॥
३८॥
" ताहाँ हैते चलि' आगे गेला एक ग्रामे ।। ब्राह्मण-समाज ताहाँ, करिल विश्रामे ॥
३९॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु वृद्धकाशी से रवाना होकर आगे बढ़ते रहे। उन्होंने एक गाँव में विश्राम किया और उन्होंने देखा कि वहाँ के अधिकांश निवासी ब्राह्मण थे।
प्रभुर प्रभावे लोक आइल दरशने ।।लक्षार्बुद लोक आइसे ना ग्राय गणने ॥
४०॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रभाव से करोड़ों लोग उनके दर्शन करने आये। इन लोगों की संख्या अनन्त थी, अतएव उनकी गिनती नहीं की जा सकती थी।"
गोसाजिर सौन्दर्य देखि' ताते प्रेमावेश ।।सबे 'कृष्ण' कहे, ‘वैष्णव' हैल सर्व-देश ॥
४१॥
महाप्रभु का शरीर अत्यन्त सुन्दर था। साथ ही वे सदैव भगवान् के प्रेमभाव से आविष्ट रहते थे। उनका दर्शन करने से ही सारे लोग कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करने लगे और प्रत्येक व्यक्ति वैष्णव भक्त बन गया।"
तार्किक-मीमांसक, व्रत मायावादि-गण । साङ्ख्य, पातञ्जल, स्मृति, पुराण, आगम ॥
४२॥
। दार्शनिक कई प्रकार के होते हैं। कुछ तार्किक होते हैं, जो गौतम या कणाद के अनुयायी होते हैं। कुछ जैमिनि के मीमांसा-दर्शन के अनुयायी होते हैं। कुछ शंकराचार्य के मायावाद-दर्शन के तथा कुछ कपिल के सांख्य-दर्शन या पतंजलि के योग-दर्शन के अनुयायी होते हैं। कुछ बीस शास्त्रों से युक्त स्मृति शास्त्र का पालन करते हैं, तथा अन्य लोग पुराण एवं तन्त्र शास्त्र का पालन करते हैं। इस तरह दार्शनिकों के विभिन्न प्रकार होते हैं।"
निज-निज-शास्त्रोद्ग्राहे सबाइ प्रचण्ड । सर्व मत दुषि' प्रभु करे खण्ड खण्ड ॥
४३॥
ये विभिन्न शास्त्रों के अनुयायी अपने-अपने शास्त्रों के निष्कर्ष प्रस्तुत करने के लिए तैयार थे। किन्तु श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन सबके मतों को खण्डन किया और अपने भक्ति-सम्प्रदाय की स्थापना की, जो वेदों, वेदान्त, ब्रह्मसूत्र तथा अचिन्त्य भेदाभेद तत्त्व दर्शन पर आधारित था।।"
सर्वत्र स्थापय प्रभु वैष्णव-सिद्धान्ते ।।प्रभुर सिद्धान्त केह ना पारे खण्डिते ॥
४४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने सर्वत्र भक्ति-सम्प्रदाय की स्थापना की। उन्हें कोई परास्त नहीं कर पाया होते हैं।"
हारि' हारि' प्रभु-मते करेन प्रवेश ।।एइ-मते 'वैष्णव' प्रभु कैल दक्षिण देश ॥
४५॥
। इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु के द्वारा पराजित होकर ये सारे दार्शनिक तथा इनके अनुयायी महाप्रभु के सम्प्रदाय में सम्मिलित हो गये। इस तरह भगवान् चैतन्य ने दक्षिण भारत को वैष्णवों का देश बना दिया।"
पाषण्डी आइल ग्रत पाण्डित्य शुनिया ।। गर्व करि' आइल सङ्गे शिष्य-गण ला ॥
४६॥
जब पाखंडियों ने महाप्रभु के पाण्डित्य के बारे में सुना, तो वे अपनेअपने शिष्यों को लेकर बड़े गर्व के साथ उनके पास आये।"
बौद्धाचार्य महा-पण्डित निज नव-मते । प्रभुर आगे उद्ग्राह करि' लागिला बलिते ॥
४७॥
उनमें से एक बौद्ध-सम्प्रदाय का मुखिया था और बहुत बड़ा पंडित था। वह बौद्धवाद के नौ दार्शनिक निष्कर्षों की स्थापना करने के उद्देश्य से महाप्रभु के समक्ष आया और इस प्रकार बोलने लगा।"
ग्रद्यपि असम्भाष्य बौद्ध अयुक्त देखिते । तथापि बलिला प्रभु गर्व खण्डाइते ॥
४८॥
यद्यपि बौद्धजन विवाद करने के लिए अनुपयुक्त होते हैं और वैष्णवों को चाहिए कि उनका दर्शन न करें, किन्तु उनके मिथ्या अहंकार को कम करने के उद्देश्य से ही चैतन्य महाप्रभु उनसे बोले।"
तर्क-प्रधान बौद्ध-शास्त्र'नव मते' । तर्केइ खण्डिल प्रभु, ना पारे स्थापिते ॥
४९॥
बौद्ध सम्प्रदाय के सारे शास्त्र मुख्यतः तर्क पर आश्रित हैं और उनमें नौ सिद्धान्त प्रमुख हैं। चूंकि श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें उनके तर्क में परास्त कर दिया, अतएव वे अपना मत स्थापित नहीं कर पाये।"
बौद्धाचार्य 'नव प्रश्न' सब उठाइल ।।दृढ़ युक्ति-तकें प्रभु खण्ड खण्ड कैल ॥
५०॥
। बौद्ध-सम्प्रदाय के प्रचारक ने नौ सिद्धान्त प्रस्तुत किये, लेकिन श्री । चैतन्य महाप्रभु ने अपने प्रबल तर्क से उन्हें खण्ड-खण्ड कर डाले।
दार्शनिक पण्डित सबाइ पाइल पराजय ।। लोके हास्य करे, बौद्ध पाइल लज्जा-भय ॥
५१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने सारे बौद्धिक चिन्तकों तथा पण्डितों को हरा दिया, और बौद्ध दार्शनिकों पर जब लोग हँसने लगे, तो उन्हें लज्जा तथा भय दोनों का अनुभव हुआ।"
प्रभुके वैष्णव जानि' बौद्ध घरे गेल । सकल बौद्ध मिलि' तबे कुमन्त्रणा कैल ॥
५२॥
। बौद्ध लोग जान गये कि श्री चैतन्य महाप्रभु वैष्णव हैं, अतएव वे दुःखी मन से अपने-अपने घर वापस गये। किन्तु बाद में उन लोगों ने महाप्रभु के विरुद्ध षड्यन्त्र रचना शुरू कर दिया।"
अपवित्र अन्न एक थालिते भरिया । प्रभु-आगे निल'महा-प्रसाद' बलिया ॥
५३॥
षड्यन्त्र रचने के बाद वे बौद्धजन अपवित्र भोजन की थाली श्री चैतन्य महाप्रभु के समक्ष ले आये, और कहा कि यह महाप्रसाद है।
हेन-काले महाकाय एक पक्षी आइल ।।ठोंटे करि' अन्न-सह थालि ला गेल ॥
५४॥
जब यह दूषित भोजन श्री चैतन्य महाप्रभु को लाकर दिया गया, तब एक बड़ा-सा पक्षी उस स्थान में प्रकट हुआ, और थाली को अपनी चोंच में दबा ली और उसे लेकर उड़ गया।"
बौद्ध-गणेर उपरे अन्न पड़े अमेध्य हैया ।। बौद्धाचार माथाय थालि पड़िल बाजिया ॥
५५॥
। वह अछूत भोजन उन बौद्धों के ऊपर गिर पड़ा और उस बड़े पक्षी ने वह थाली उस प्रमुख बौद्धाचार्य के सिर के ऊपर गिरा दी। जब वह उसके सिर पर गिरी, तो बड़े जोर की आवाज हुई।
तेरछे पड़िल थालि,—माथा काटि' गेल ।मूर्च्छित हा आचार्य भूमिते पड़िल ॥
५६॥
थाली धातु की बनी थी, अतएव जब उसकी धार उस आचार्य के सिर पर लगी, तो घाव हो गया। फलतः वह आचार्य तुरन्त बेहोश होकर भूमि पर गिर पड़ा।"
हाहाकार करि' कान्दे सब शिष्य-गण ।। सबे आसि' प्रभु-पदे लइल शरण ।। ५७।। जब आचार्य बेहोश हो गया, तो उसके सारे शिष्य जोर-जोर से रोने लगे और शरण पाने के लिए श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों की ओर दौड़े।।"
तुमि त' ईश्वर साक्षात्, क्षम अपराध । जीयाओ आमार गुरु, करह प्रसाद ॥
५८॥
। उन सबने श्री चैतन्य महाप्रभु को साक्षात् भगवान् सम्बोधित करते हुए कहा, “कृपया, हमारी अपराध क्षमा करें। हम पर कृपा करें और हमारे गुरुदेव को जीवनदान दें।"
प्रभु कहे,—सबे कह 'कृष्ण' 'कृष्ण' ‘हरि' । गुरु-कर्ण कह कृष्ण-नाम उच्च करि' ॥
५९॥
तब महाप्रभु ने उन बौद्ध शिष्यों से कहा, तुम सभी मिलकर अपने गुरु के कान में जोर से कृष्ण तथा हरि के नामों का उच्चारण करो।"
तोमा-सबार 'गुरु' तबे पाइबे चेतन । सब बौद्ध मिलि' करे कृष्ण-सङ्कीर्तन ॥
६०॥
इस तरह से तुम्हारे गुरु को चेतना प्राप्त होगी। श्री चैतन्य महाप्रभु का परामर्श मानकर वे सारे बौद्ध शिष्य कृष्ण के पवित्र नाम का सामूहिक कीर्तन करने लगे।
गुरु-कणें कहे सबे 'कृष्ण' 'राम' ‘हरि' ।। चेतन पाञा आचार्य बले ‘हरि' ‘हरि' ॥
६१॥
जब सारे शिष्य कृष्ण, राम तथा हरि के पवित्र नामों का कीर्तन करनेलगे, तो बौद्ध आचार्य की चेतना वापस आ गई और वह तुरन्त ही हरिनाम का कीर्तन करने लगा।"
कृष्ण बलि' आचार्य प्रभुरे करेन विनय । देखिया सकल लोक हइल विस्मय ॥
६२॥
। जब वह बौद्धाचार्य कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करने लगा और श्री चैतन्य महाप्रभु की शरण में आ गया, तो वहाँ पर एकत्र सारे लोग आश्चर्य से चकित रह गये।"
एइ-रूपे कौतुक करि' शचीर नन्दन ।अन्तर्धान कैल, केह ना पाय दर्शन ॥
६३॥
। तब शचीदेवी के पुत्र श्री चैतन्य महाप्रभु सहसा आँखों से नाटकीय ढंग से ओझल हो गये, और उन्हें कोई ढूंढ नहीं सका।"
महाप्रभु चलि' आइला त्रिपति त्रिमल्ले ।।चतुर्भुज मूर्ति देखि' व्येङ्कटान्ने चले ।। ६४॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु तिरुपति तथा तिरुमल्ल आये, जहाँ उन्होंने चतुर्भुजी मूर्ति देखी। तत्पश्चात् वे वेंकट पर्वत की ओर चल पड़े।"
त्रिपति आसिया कैल श्री-राम दरशन । रघुनाथ-आगे कैल प्रणाम स्तवन ॥
६५॥
तिरुपति पहुँचकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने भगवान् रामचन्द्र के मन्दिर का दर्शन किया। वहाँ उन्होंने प्रार्थना की और रघुवंशी रामचन्द्र के समक्ष नमस्कार किया।"
स्व-प्रभावे लोक-सबार करा विस्मय ।।पाना-नृसिंहे आइला प्रभु दया-मय ॥
६६॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु जहाँ-जहाँ जाते, वहीं उनके प्रभाव से हर व्यक्ति विस्मित हो उठता। फिर वे पाना-नृसिंह मन्दिर आये। महाप्रभु इतने दयामय हैं।
नृसिंहे प्रणति-स्तुति प्रेमावेशे कैल । प्रभुर प्रभावे लोक चमत्कार हैल ॥
६७॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु ने प्रेमावेश में आकर भगवान् नृसिंह को नमस्कार किया और उनकी स्तुति की। लोग भगवान् चैतन्य के प्रभाव को देखकर चकित हो गये।"
शिव-काञ्ची आसिया कैल शिव दरशन ।।प्रभावे 'वैष्णव' कैल सब शैव-गण ॥
६८॥
शिवकांची आकर चैतन्य महाप्रभु ने शिवजी के अर्चाविग्रह का दर्शन किया। उन्होंने अपने प्रभाव से सारे शिव-भक्तों को वैष्णव बना दिया।"
विष्णु-काञ्ची आसि' देखिल लक्ष्मी-नारायण ।प्रणाम करिया कैल बहुत स्तवन ॥
६९ ॥
तत्पश्चात् महाप्रभु विष्णुकांची नामक स्थान गये, जहाँ उन्होंने लक्ष्मीनारायण के अर्चाविग्रह देखे और उन्हें प्रसन्न करने के लिए नमस्कार किया तथा अनेक स्तुतियाँ कीं।"
प्रेमावेशे नृत्य-गीत बहुत करिल ।। दिन-दुइ रहि लोके ‘कृष्ण-भक्त' कैल ॥
७० ॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु विष्णुकांची में दो दिन ठहरे, तो उन्होंने भावावेश में नृत्य और कीर्तन किया। जब सारे लोगों ने उन्हें देखा, तो वे कृष्ण-भक्त बन गये।"
त्रिमलय देखि' गेला त्रिकाल-हस्ति-स्थाने । महादेव देखि' ताँरे करिल प्रणामे ॥
७१॥
त्रिमलय देखने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु त्रिकालहस्ति देखने गये। यहीं पर उन्होंने शिवजी को देखा और उन्हें सभी प्रकार से प्रणाम किया।"
पक्षि-तीर्थ देखि' कैल शिव दरशन ।। वृद्धकोल-तीर्थे तबे करिला गमन ॥
७२॥
पक्षितीर्थ में श्री चैतन्य महाप्रभु ने शिवजी का मन्दिर देखा। तब वे वृद्धकोल तीर्थ गये।
श्वेत-वराह देखि, ताँरै नमस्करि' ।। पीताम्बर-शिव-स्थाने गेला गौरहरि ॥
७३॥
वृद्धकोल में श्री चैतन्य महाप्रभु ने भगवान् श्वेतवराह का मन्दिर देखा। उन्हें नमस्कार करने के बाद महाप्रभु शिवजी के मन्दिर गये, जहाँ अर्चाविग्रह को पीले रंग के वस्त्र पहनाये जाते हैं।"
शियाली भैरवी देवी करि' दरशन । कावेरीर तीरे आइला शचीर नन्दन ॥
७४॥
शियाली भैरवी ( दुर्गादेवी का अन्य रूप) मन्दिर देखने के बाद शचीदेवी के पुत्र श्री चैतन्य महाप्रभु कावेरी नदी के किनारे गये।"
गो-समाजे शिव देखि' आइला वेदावन । महादेव देखि' तौरै करिला वन्दन ॥
७५ ॥
इसके बाद महाप्रभु गोसमाज नामक स्थान गये, जहाँ उन्होंने शिवमन्दिर देखा। तब वे वेदावन पहुँचे, जहाँ उन्होंने शिवजी का दूसरा अर्चाविग्रह देखा और उन्हें नमस्कार किया।"
अमृतलिङ्ग-शिव देखि' वन्दन करिल । सब शिवालये शैव वैष्णव' हइल ॥
७६ ॥
अमृतलिंग नामक शिव के अर्चाविग्रह को देखने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें नमस्कार किया। इस तरह उन्होंने शिवजी के सारे मन्दिर देखे और शिवजी के भक्तों को वैष्णव बनाये।"
देव-स्थाने आसि' कैल विष्णु दरशन । श्री-वैष्णवेर सङ्गे ताहाँ गोष्ठी अनुक्षण ॥
७७॥
देवस्थान आकर चैतन्य महाप्रभु ने भगवान् विष्णु का मन्दिर देखा और वहाँ रामानुजाचार्य की गुरु-शिष्य परम्परा के वैष्णवों से बातें कीं। ये वैष्णव श्री वैष्णव कहलाते हैं।"
कुम्भकर्ण-कपाले देखि' सरोवर । शिव-क्षेत्रे शिव देखे गौराङ्ग-सुन्दर ॥
७८ ॥
कुम्भकर्ण-कपाल आकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने एक विशाल सरोवर देखा और फिर शिवक्षेत्र नामक पवित्र स्थान देखा, जहाँ पर शिवजी का मन्दिर है।"
पाप-नाशने विष्णु कैल दरशन ।श्री-रङ्ग-क्षेत्रे तबे करिला गमन ॥
७९ ॥
शिवक्षेत्र नामक तीर्थ देखने के बाद चैतन्य महाप्रभु पापनाशन आये, जहाँ उन्होंने भगवान् विष्णु के मन्दिर में दर्शन किये। अन्त में वे श्रीरंगक्षेत्र पहुँचे।"
कावेरीते स्नान करि' देखि' रङ्गनाथ । स्तुति-प्रणति करि' मानिला कृतार्थ ॥
८०॥
कावेरी नदी में स्नान करके श्री चैतन्य महाप्रभु ने रंगनाथ मन्दिर देखा और वहाँ स्तुति की तथा प्रणाम किया। इस तरह उन्होंने अपने आपको कृतार्थ माना।"
प्रेमावेशे कैल बहुत गान नर्तन ।। देखि’ चमत्कार हैल सब लोकेर मन ॥
८१ ॥
रंगनाथ मन्दिर में श्री चैतन्य महाप्रभु ने भावावेश में आकर नृत्य तथा कीर्तन किया, जिसे देखकर सारे लोग आश्चर्यचकित हो गये।"
श्री-वैष्णवे एक,–'व्येङ्कट भट्ट' नाम । प्रभुरे निमन्त्रण कैल करिया सम्मान ॥
८२॥
। तब वेंकट भट्ट नामक एक वैष्णव ने श्री चैतन्य महाप्रभु को बड़े ही आदर के साथ अपने घर आमन्त्रित किया।"
निज-घरे ला कैल पाद-प्रक्षालन । सेइ जल ला कैल सवंशे भक्षण ॥
८३॥
श्री वेंकट भट्ट श्री चैतन्य महाप्रभु को अपने घर ले गये। उन्होंने महाप्रभु के चरण धोये और उस जल को उनके परिवार के सारे लोगों ने पिया।"
भिक्षा कराञा किछु कैल निवेदन ।चातुर्मास्य आसि' प्रभु, हैल उपसन्न ॥
८४॥
महाप्रभु को भोजन कराने के बाद वेंकट भट्ट ने निवेदन किया कि चातुर्मास का समय आ चुका है।"
चातुर्मास्ये कृपा करि' रह मोर घरे ।।कृष्ण-कथा कहि' कृपाय उद्धार' आमारे ॥
८५॥
वेंकट भट्ट ने कहा, आप मुझ पर कृपा करें, और चातुर्मास-भर मेरे घर पर रहें। आप भगवान् कृष्ण की लीलाएँ कहकर कृपा करके मेरा उद्धार करें।"
ताँर घरे रहिला प्रभु कृष्ण-कथा-रसे ।।भट्ट-सङ्गे गोङाइल सुखे चारि मासे ॥
८६॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु वेंकट भट्ट के घर पर चार महीने तक लगातार रहे। महाप्रभु ने बड़े ही सुखपूर्वक भगवान् कृष्ण की लीलाएँ कहते हुए और दिव्य रस का आस्वादन करते हुए अपने दिन बिताये।"
कावेरीते स्नान करि' श्री-रङ्ग दर्शन ।।प्रतिदिन प्रेमावेशे करेन नर्तन ॥
८७॥
वहाँ रहते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु ने कावेरी नदी में स्नान किया और श्री-रंग मन्दिर देखा। महाप्रभु प्रतिदिन भावावेश में नाचते भी रहे।"
सौन्दर्यादि प्रेमावेश देखि, सर्व-लोक ।।देखिबारे आइसे, देखे, खण्डे दुःख-शोक ॥
८८॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु के शरीर के सौन्दर्य तथा उनके प्रेमावेश को हर एक ने देखा। उन्हें देखने अनेक लोग आते रहते थे, और उनका दर्शन करने से ही उनका दुःख तथा शोक भाग जाता था।"
लक्ष लक्ष लोक आइल नाना-देश हैते ।। सबे कृष्ण-नाम कहे प्रभुके देखिते ॥
८९॥
विभिन्न देशों से लाखों लोग महाप्रभु का दर्शन करने आये और उन्हें देखने के बाद उन्होंने हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन किया।"
कृष्ण-नाम विना केह नाहि कहे आर।। सबे कृष्ण-भक्त हैल, लोके चमत्कार ॥
९०॥
वे केवल हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करने लगे, और सबके सब भगवान् कृष्ण के भक्त बन गये। इस तरह सारी जनता आश्चर्यचकित थी।"
श्री-रङ्ग-क्षेत्रे वैसे व्रत वैष्णव-ब्राह्मण ।। एक एक दिन सबे कैल निमन्त्रण ॥
९१॥
श्री रंगक्षेत्र में रहने वाले सारे वैष्णव ब्राह्मणों ने महाप्रभु को एक एक दिन अपने अपने घरों में आमन्त्रित किया।"
एक एक दिने चातुर्मास्य पूर्ण हैल ।। कतक ब्राह्मण भिक्षा दिते ना पाइल ॥
९२॥
। यद्यपि प्रतिदिन विभिन्न ब्राह्मण महाप्रभु को आमन्त्रित करते रहते, किन्तु कुछ को भोजन कराने का अवसर नहीं मिल पाया, क्योंकि चातुर्मास्य की अवधि बीत गई।"
सेइ क्षेत्रे रहे एक वैष्णव-ब्राह्मण ।। देवालये आसि' करे गीता आवर्तन ॥
९३॥
श्री रंगक्षेत्र में एक ब्राह्मण वैष्णव नित्य मन्दिर में दर्शन करने आता , और समूची भगवद्गीता का पाठ करता था।"
अष्टादशाध्याय पड़े आनन्द-आवेशे । अशुद्ध पड़ेन, लोक करे उपहासे ॥
९४॥
। वह ब्राह्मण अत्यन्त भावावेश में भगवद्गीता के अठारहों अध्याय का पाठ करता था। किन्तु वह शुद्ध उच्चारण नहीं कर सकता था, इसलिए लोग उसका मजाक उड़ाते थे।"
केह हासे, केह निन्दे, ताहा नाहि माने ।आविष्ट हा गीता पड़े आनन्दित-मने ॥
९५ ॥
। अशुद्ध उच्चारण करने से लोग कभी उसकी आलोचना करते और उस पर हँसते थे; किन्तु वह उनकी कोई परवाह नहीं करता था। वह भगवद्गीता का पाठ करने के कारण भावाविष्ट रहता था और मन-हीमन अत्यन्त सुखी था।"
पुलकाश्रु, कम्प, स्वेद,—यावत्पठन ।। देखि' आनन्दित हैले महाप्रभुर मन ॥
९६ ॥
भगवद्गीता पढ़ते समय ब्राह्मण को दिव्य शारीरिक विकारों को अनुभव होता था। उसके रोंगटे खड़े हो जाते थे, उसकी आँखों से आँसू आते रहते थे, उसका शरीर काँपने लगता था और वह पसीना-पसीना हो जाता था। यह देखकर श्री चैतन्य महाप्रभु अत्यन्त आनन्दित होते थे।"
महाप्रभु पुछिल तारे, शुन, महाशय ।। कोनर्थ जानि' तोमार एत सुख हय ॥
९७॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने उस ब्राह्मण से पूछा, हे महोदय, आप ऐसे भावावेश में क्यों हैं? आपको भगवद्गीता के किस अंश से ऐसा दिव्य सुख प्राप्त होता है? विप्र कहे,—मूर्ख आमि, शब्दार्थ ना जानि । शुद्धाशुद्ध गीता पड़ि, गुरु-आज्ञा मानि' ॥
९८॥
उस ब्राह्मण ने उत्तर दिया, मैं मूर्ख हूँ, अतएव मैं शब्दों का अर्थ नहीं जानता। मैं कभी भगवद्गीता का शुद्ध पाठ करता हूँ, कभी अशुद्ध, किन्तु ऐसा करके मैं अपने गुरु के आदेश का पालन कर रहा हूँ।"
अर्जुनेर रथे कृष्ण हय रज्जु-धर।। वसियाछे हाते तोत्र श्यामल सुन्दर ॥
९९ ॥
वह ब्राह्मण कहता गया, वास्तव में मैं भगवान् कृष्ण के उस चित्र को ही देखता हूँ, जिसमें वे अर्जुन के सारथी के रूप में रथ पर बैठे हैं। वे अपने हाथों में लगाम थामे हुए अत्यन्त सुन्दर तथा साँवले लगते हैं।"
अर्जुनेरे कहितेछेन हित-उपदेश ।।ताँरै देखि' हये मोर आनन्द-आवेश ॥
१०० ॥
जब मैं रथ में बैठे और अर्जुन को उपदेश देते हुए भगवान् कृष्ण के चित्र को देखता हूँ, तो मैं भावमय आनन्द से पूरित हो उठता हूँ।"
यावत्पड़ों, तावत्पाङ ताँर दरशन ।।एइ लागि' गीता-पाठ ना छाड़े मोर मन ॥
१०१॥
। जब तक मैं गीता पढ़ता हूँ, तब तक मैं भगवान् के सुन्दर स्वरूप जा ही दर्शन करता हूँ। इसी कारण से मैं भगवद्गीता पढ़ता हूँ और मेरा न उससे विचलित नहीं होता।"
प्रभु कहे,—गीता-पाठे तोमाराइ अधिकार ।तुमि से जानह एइ गीतार अर्थ-सार ॥
१०२॥
आ चैतन्य महाप्रभु ने ब्राह्मण से कहा, निस्सन्देह, भगवदगीता पढने के तुम्हीं अधिकारी हो। तुम जो कुछ जानते हो, वही भगवद्गीता का वास्तविक तात्पर्य है।"
एत बलि' सेइ विप्रे कैल आलिङ्गन । प्रभु-पद धरि' विप्र करेन रोदन ॥
१०३॥
यह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने उस ब्राह्मण का आलिंगन किया, और वह ब्राह्मण महाप्रभु के चरणकमलों को पकड़कर रोने लगा।"
तोमा देखि' ताहा हैते द्वि-गुण सुख हय । सेइ कृष्ण तुमि, हेन मोर मने लय ॥
१०४॥
उस ब्राह्मण ने कहा, आपको देखकर मेरा सुख दुगना हो गया है। । मैं तो समझता हूँ कि आप ही वे भगवान् कृष्ण हैं।"
कृष्ण-स्फूर्ये ताँर मन हाछे निर्मल ।। अतएव प्रभुर तत्त्व जानिल सकल ॥
१०५॥
भगवान् कृष्ण के प्रकाशित होने से ब्राह्मण का मन शुद्ध हो गया, अतएव वह श्री चैतन्य महाप्रभु के तत्त्व को पूरी तरह से समझ सका।"
तबे महाप्रभु ताँरै कराइल शिक्षण ।।एइ बात्काहाँ ना करिह प्रकाशन ॥
१०६॥
तत्पश्चात् श्री चैतन्य महाप्रभु ने उस ब्राह्मण को भलीभाँति शिक्षा और उससे अनुरोध किया कि वह यह बात किसी से प्रकट नहीं करे । वे साक्षात् कृष्ण हैं।"
सेइ विप्र महाप्रभुर बड़े भक्त हैल ।चारि मास प्रभु-सङ्ग कभु ना छाड़िल ॥
१०७॥
वह ब्राह्मण श्री चैतन्य महाप्रभु का महान् भक्त बन गया और चतु के चार महीनों तक लगातार उसने उनका साथ नहीं छोड़ा।"
एइ-मत भट्ट-गृहे रहे गौरचन्द्र ।।निरन्तर भट्ट-सङ्गे कृष्ण-कथानन्द ॥
१०८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु वेंकट भट्ट के घर पर रहे और निरन्तर भगवान् ण के विषय में बातें करते रहते। इस तरह वे परम आनन्दित थे।
श्री-वैष्णव' भट्ट सेवे लक्ष्मी-नारायण ।। ताँर भक्ति देखि' प्रभुर तुष्ट हैल मन ॥
१०९॥
रामानुज सम्प्रदाय का वैष्णव होने के कारण वेंकट भट्ट लक्ष्मी तथा नारायण के अर्चाविग्रह की पूजा करता था। उसकी शुद्ध भक्ति देखकर भी चैतन्य महाप्रभु अत्यन्त प्रसन्न थे।"
निरन्तर ताँर सङ्गे हैल सख्य-भाव । हास्य-परिहासे मुँहे सख्येर स्वभाव ॥
११०॥
एक दूसरे के साथ लगातार रहने से श्री चैतन्य महाप्रभु तथा वेंकट भट्ट में धीरे-धीरे मैत्रीभाव स्थापित हो गया। वे कभी मिलकर हँसते और कभी मजाक करते।"
प्रभु कहे,—भट्ट, तोमार लक्ष्मी-ठाकुराणी ।। कान्त-वक्षः-स्थिता, पतिव्रता-शिरोमणि ॥
१११॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने भट्ट से कहा, तुम्हारी आराध्य देवी लक्ष्मी सदैव नारायण के वक्षस्थल पर विराजमान रहती हैं, और वे निश्चय ही सृष्टि की सबसे अधिक पतिव्रता स्त्री हैं।"
आमार ठाकुर कृष्ण गोप, गो-चारक ।। साध्वी हा केने चाहे ताँहार सङ्गम ॥
११२॥
किन्तु मेरे स्वामी तो ग्वालबाल श्रीकृष्ण हैं, जो गायों के चराने में लगे रहते हैं। ऐसा क्यों है कि लक्ष्मी ऐसी पतिव्रता स्त्री होते हुए भी मेरे प्रभु का साथ चाहती हैं?" एइ लागि' सुख-भोग छाड़ि' चिर-काल । व्रत-नियम करि' तप करिल अपार ॥
११३॥
लक्ष्मीजी ने कृष्ण की संगति प्राप्त करने के लिए ही वैकुण्ठ लोक के सारे सुख त्याग दिये और दीर्घकाल तक व्रत-नियम का पालन करके अपार तपस्या की।"
कस्यानुभावोऽस्य न देव विद्महेतवाघ्रि-रेणु-स्परशाधिकारः ।। ग्रद्वाञ्छया श्रीलंलनाचरत्तपो ।विहाय कामान्सु-चिरं धृत-व्रता ॥
११४॥
तब चैतन्य महाप्रभु ने कहा, हे प्रभु, हम नहीं जानते कि कालिय नाग को किस तरह आपके चरणकमलों की धूलि प्राप्त करने का अवसर प्राप्त हुआ। इसके लिए तो लक्ष्मीदेवी को भी समस्त इच्छाओं को त्यागकर और व्रत करके सदियों तक तपस्या करनी पड़ी थी। निस्सन्देह, हम नहीं जानते कि किस तरह कालिय नाग को ऐसा सुअवसर मिल सका।'" भट्ट कहे, कृष्ण-नारायण–एकइ स्वरूप । कृष्णेते अधिक लीला-वैदग्ध्यादि-रूप ॥
११५॥
तब वेंकट भट्ट ने कहा, भगवान् कृष्ण तथा भगवान् नारायण एक ही रूप हैं, किन्तु कृष्ण की लीलाएँ अपने क्रीडा रस के कारण अधिक आस्वाद्य हैं।"
तार स्पर्शे नाहि ग्राय पतिव्रता-धर्म ।। कौतुके लक्ष्मी चाहेन कृष्णेर सङ्गम ॥
११६॥
। चूंकि कृष्ण तथा नारायण एक ही व्यक्ति हैं, अतएव कृष्ण के सा लक्ष्मी का संग उनके पतिव्रता धर्म को भंग नहीं करता। प्रत्युत यह तो अत्यन्त आनन्द की बात थी कि लक्ष्मीजी ने भगवान् कृष्ण का साया करना चाहा।"
सिद्धान्ततस्त्वभेदेऽपि श्रीश-कृष्ण-स्वरूपयोः ।।रसेनोत्कृष्यते कृष्ण-रूपमेषा रस-स्थितिः ॥
११७॥
वेंकट भट्ट ने आगे कहा, दिव्य अनुभूति के अनुसार नारायण तथा कृष्ण के स्वरूपों में कोई अन्तर नहीं है। किन्तु कृष्ण में माधुर्य रस के कारण विशेष दिव्य आकर्षण है, अतएव वे नारायण से बढ़कर हैं। यह दिव्य रसों का निर्णय है।"
कृष्ण-सङ्गे पतिव्रता-धर्म नहे नाश । अधिक लाभ पाइये, आर रास-विलास ॥
११८॥
लक्ष्मीजी ने विचार किया कि उनका पतिव्रता धर्म कृष्ण के साथ उनका सम्बन्ध होने से नष्ट नहीं होगा। प्रत्युत कृष्ण की संगति करने से वे रासनृत्य के लाभ का आस्वादन कर सकेंगी।"
विनोदिनी लक्ष्मीर हय कृष्णे अभिलाष । इहाते कि दोष, केने कर परिहास ॥
११९॥
। वेंकट भट्ट ने आगे बतलाया, माता लक्ष्मी दिव्य आनन्द की भोक्ता भी हैं, अतएव यदि उन्होंने कृष्ण के साथ भोग करना चाहा, तो इसमें कौन-सा दोष है? आप इसका मजाक क्यों उड़ा रहे हैं?" प्रभु कहे,—दोष नाहि, इहा आमि जानि ।। रास ना पाइल लक्ष्मी, शास्त्रे इहा शुनि ॥
१२०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, मुझे पता है कि लक्ष्मीजी में कोई दोष नहीं है, फिर भी वे रासनृत्य में प्रविष्ट नहीं हो पाईं। प्रामाणिक शास्त्रों से हम ऐसा सुनते हैं।"
नायं श्रियोऽङ्ग उ नितान्त-रतेः प्रसादःस्वप्नषितां नलिन-गन्ध-रुचां कुतोऽन्याः । रासोत्सवेऽस्य भुज-दण्ड-गृहीत-कण्ठलब्धाशिषां ग्र उदगाद्व्रज-सुन्दरीणाम् ॥
१२१॥
जब भगवान् श्रीकृष्ण रासलीला में गोपियों के साथ नृत्य कर रहे थे, तब उन्होंने गोपियों को अपनी बाहों में भरकर उनका आलिंगन किया। यह दिव्य कृपा लक्ष्मी या वैकुण्ठ की अन्य प्रेयसियों को प्राप्त नहीं हो पाई। न ही स्वर्गलोक की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरियों ने, जिनकी शारीरिक कान्ति तथा सुगन्ध कमल-पुष्प जैसी होती हैं, कभी इसकी कल्पना की। तो भला संसारी स्त्रियों के विषय में क्या कहा जाए, चाहे वे भौतिक अनुमान से कितनी ही सुन्दर क्यों न हों?' ।"
लक्ष्मी केने ना पाइल, इहार कि कारण ।।तप करि' कैछे कृष्ण पाइल श्रुति--गण ॥
१२२॥
किन्तु क्या आप मुझे बता सकेंगे कि लक्ष्मी रासनृत्य में क्यों प्रवेश नहीं पा सकीं? वैदिक ज्ञान के अधिकारी नृत्य में प्रवेश करके कृष्ण का सान्निध्य प्राप्त कर सके।"
निभृत-मरुन्मनोऽक्ष-दृढ़-ग्रोग-मुजो हृदि ग्रन्मुनय उपासते तदरयोऽपि ययुः स्मरणात् ।। स्त्रिय उरगेन्द्र-भोग-भुज-दण्ड-विषक्त-धियोवयमपि ते समाः समदृशोऽङ्घि-सरोज-सुधीः ॥
१२३ ॥
बड़े बड़े ऋषि योगाभ्यास तथा श्वास-नियन्त्रण द्वारा मन तथा इन्द्रियों को जीतते हैं। इस तरह योग में रत रहकर तथा अपने हृदयों में परमात्मा का दर्शन करते हुए वे निर्विशेष ब्रह्म में प्रवेश करते हैं। किन्तु भगवान् के शत्रु भी मात्र उनके बारे में सोचने के द्वारा वही पद प्राप्त करते हैं। किन्तु कृष्ण के सौन्दर्य से आकृष्ट होकर व्रज की गोपियाँ कृष्ण तथा उनकी सर्प जैसी भुजाओं का आलिंगन चाहती हैं। गोपियों को अन्ततः भगवान् के चरणकमलों का अमृत आस्वादन करने को मिला। इसी प्रकार हम उपनिषद् भी गोपियों के चरणचिह्नों का अनुगमन करते हुए भगवान् के चरणकमलों का अमृत आस्वादन सकते हैं।"
श्रुति पाय, लक्ष्मी ना पाय, इथे कि कारण ।। भट्ट कहे,——इहा प्रवेशिते नारे मोर मन ॥
१२४॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा यह पूछे जाने पर कि रासनृत्य में लक्ष्मी क्यों प्रवेश नहीं कर पाईं, जबकि वैदिक ज्ञान के अधिकारी कर पाये, तब वेंकट भट्ट ने उत्तर दिया, मैं इस बर्ताव के रहस्य में प्रवेश नहीं कर सकता।"
आमि जीव,—क्षुद्र-बुद्धि, सहजे अस्थिर ।ईश्वरेर लीला—कोटि-समुद्र-गम्भीर ॥
१२५ ।।। वेंकट भट्ट ने तब स्वीकार किया, मैं एक सामान्य मनुष्य हूँ। मेरी बुद्धि अत्यन्त सीमित है और मैं सरलता से विचलित हो जाता हूँ, अतएव मेरा मन भगवान् की लीलाओं के अगाध समुद्र में प्रवेश नहीं कर पाता।"
तुमि साक्षात्सेइ कृष्ण, जान निज-कर्म ।यारे जानाह, सेइ जाने तोमार लीला-मर्म ॥
१२६॥
आप साक्षात् पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण हैं। आप ही अपने कार्यों के प्रयोजन को समझते हैं, या फिर जिसे आप यह ज्ञान प्रदान करें, वह भी आपकी लीलाओं को समझ सकता है।
प्रभु कहे,---कृष्णेर एक स्वभाव विलक्षण । स्व-माधुर्ये सर्व चित्त करे आकर्षण ॥
१२७॥
महाप्रभु ने कहा, भगवान् कृष्ण का एक विशिष्ट स्वभाव है। वे अपने माधुर्य रस द्वारा हर एक के चित्त को आकर्षित कर लेते हैं।
व्रज-लोकेर भावे पाइये ताँहार चरण । तौरे ईश्वर करि' नाहि जाने व्रज-जन ॥
१२८॥
व्रजलोक या गोलोक वृन्दावन के निवासियों के चरण चिह्नों का अनुसरण करके मनुष्य भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों का आश्रय प्राप्त सकता है। किन्तु उस लोक के निवासी जानते नहीं हैं कि कृष्ण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं।"
केह ताँरे पुत्र-ज्ञाने उदुखले बान्धे ।। केह सखा-ज्ञाने जिनि' चड़े ताँर कान्धे ॥
१२९॥
। वहाँ कोई उन्हें पुत्र के रूप में स्वीकार करके कभी-कभी उन्हें ओखली से बाँध देता है। कोई उन्हें अपना अन्तरंग सखा मानकर, उन पर विजय पाकर उनके कन्धों पर चढ़ जाता है।
‘व्रजेन्द्र-नन्दन' बलि' ताँरे जाने व्रज-जन । ऐश्वर्य-ज्ञाने नाहि कोन सम्बन्ध-मानन ॥
१३०॥
व्रजभूमि के निवासी कृष्ण को व्रजभूमि के राजा महाराज नन्द के पुत्ररूप में जानते हैं, और वे मानते हैं कि ऐश्वर्य-रस में भगवान् के साथ कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता।
व्रज-लोकेर भावे ग्रेड करये भजन । सेइ जन पाय व्रजे व्रजेन्द्र-नन्दन ॥
१३१॥
। जो व्यक्ति व्रजभूमि के निवासियों के चरणचिह्नों का अनुसरण करता है, वह भगवान् को व्रज के दिव्यलोक में प्राप्त करता है। वहाँ पर वे महाराज नन्द के पुत्र के रूप में विख्यात हैं।
नायं सुखापो भगवान्देहिनां गोपिका-सुतः ।।ज्ञानिनां चात्म-भूतानां ग्रथा भक्ति-मतामिह ॥
१३२॥
तब चैतन्य महाप्रभु ने प्रमाण दिया, यशोदा-पुत्र पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण उन भक्तों को सुलभ हैं, जो रागानुगा भक्ति में लगे हैं, किन्तु वे ज्ञानियों, तपस्या में रत आत्म-साक्षात्कार के लिए प्रयत्न करने वालों या आत्मा और शरीर को एक मानने वालों को सहज सुलभ नहीं श्रुति--गण गोपी-गणेर अनुगत हा ।।व्रजेश्वरी-सुत भजे गोपी-भाव जा ॥
१३३॥
। वैदिक साहित्य के अधिकारियों ने, जो श्रुतिगण कहलाते हैं, गोपीभाव में कृष्ण की पूजा की और उनके चरणचिह्नों का अनुसरण किया।
बाह्यान्तरे गोपी-देह व्रजे ग्रबे पाइल ।। सेइ देहे कृष्ण-सङ्गे रास-क्रीड़ा कैल ॥
१३४॥
। वैदिक स्तोत्रों के साकार अधिकारियों ने गोपियों जैसा शरीर प्राप्त किया और व्रजभूमि में जन्म लिया। तब उन शरीरों में उन्हें भगवान् की रासलीला नृत्य में प्रविष्ट होने दिया गया।
गोप-जाति कृष्ण, गोपी प्रेयसी ताँहार । देवी वा अन्य स्त्री कृष्ण ना करे अङ्गीकार ॥
१३५॥
भगवान् कृष्ण गोप जाति के हैं, और गोपियाँ कृष्ण की सर्वप्रिय प्रेमिकाएँ हैं। यद्यपि स्वर्गलोक के निवासियों की पत्नियाँ भौतिक जगत् में सर्वाधिक ऐश्वर्यवान हैं, किन्तु न तो वे, न भौतिक जगत् की अन्य स्त्रियाँ, कृष्ण का सान्निध्य प्राप्त कर सकती हैं।
लक्ष्मी चाहे सेइ देहे कृष्णेर सङ्गम ।। गोपिका-अनुगा हा ना कैल भजन ॥
१३६॥
। लक्ष्मीजी कृष्ण के साथ भोग करना चाहती थीं, किन्तु साथ ही साथ लक्ष्मी के रूप में अपना आध्यात्मिक शरीर बनाये रखना चाहती थीं। किन्तु उन्होंने कृष्ण की पूजा करने में गोपियों के पदचिह्नों का अनुसरण नहीं किया।
अन्य देहे ना पाइये रास-विलास ।। अतएव नायं' श्लोक कहे वेद-व्यास ॥
१३७॥
वैदिक साहित्य के सर्वोपरि अधिकारी व्यासदेव ने नायं सुखापो भगवान् से प्रारम्भ होने वाले श्लोक की रचना की, क्योंकि गोपियों के शरीर के अतिरिक्त अन्य कोई शरीर में व्यक्ति रासलीला नृत्य में प्रवेश नहीं कर सकता।
पूर्वे भट्टेर मने एक छिल अभिमान ।। श्री-नारायण' हयेन स्वयं-भगवान् ॥
१३८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा की गई इस विवेचना के पूर्व वेंकट भट्ट मानते थे कि श्री नारायण ही पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं।
ताँहार भजन सर्वोपरि-कक्षा हय । श्री-वैष्णवे'र भजन एई सर्वोपरि हय ॥
१३९॥
इस प्रकार सोचते हुए वेंकट भट्ट का विश्वास था कि नारायण की पूजा ही सर्वोपरि पूजा है-भक्ति की अन्य सभी विधियों से सर्वोपरि है, क्योंकि इसका अनुसरण रामानुजाचार्य के श्री वैष्णव शिष्य करते थे।
एइ ताँर गर्व प्रभु करिते खण्डन ।।परिहास-द्वारे उठाय एतेक वचन ॥
१४०॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु वेंकट भट्ट की इस भ्रान्ति को समझ गये थे, और इसे सुधारने के उद्देश्य से ही महाप्रभु इस प्रकार परिहास में इतना बोल रहे।
प्रभु कहे,–भट्ट, तुमि ना करिह संशय ।‘स्वयं-भगवान् कृष्ण एइ त निश्चय ॥
१४१॥
तब महाप्रभु ने कहा, हे वेंकट भट्ट, अब अधिक संशय मत करो। कृष्ण ही स्वयं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं, और यही वैदिक साहित्य का निर्णय है।
कृष्णेर विलास-मूर्ति–श्री-नारायण ।।अतएव लक्ष्मी-आद्येर हरे तेंह मन ॥
१४२ ॥
कृष्ण का ऐश्वर्यशाली रूप, भगवान् नारायण, लक्ष्मी तथा उनकी सखियों के मन को आकृष्ट करता है।
एते चांश-कलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान्स्वयम् ।इन्द्रारि-व्याकुलं लोकं मृड़यन्ति युगे युगे ॥
१४३॥
ईश्वर के ये सारे अवतार, पुरुषावतार के अंश या कला हैं। किन्तु कृष्ण साक्षात् पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं। जब-जब इन्द्र के शत्रुओं द्वारा यह जगत् व्याकुल होता है, तब-तब हर युग में वे अपने विभिन्न स्वरूपों द्वारा संसार की रक्षा करते हैं।'
नारायण हैते कृष्णेर असाधारण गुण ।।अतएव लक्ष्मीर कृष्णे तृष्णा अनुक्षण ॥
१४४॥
चूंकि कृष्ण में ऐसे चार असाधारण गुण हैं, जो नारायण में नहीं हैं, अतएव लक्ष्मीजी सदैव उनका संग चाहती हैं।
तुमि से पड़िला श्लोक, से हय प्रमाण ।।सेइ श्लोके आइसे 'कृष्ण—स्वयं भगवान्' ॥
१४५ ॥
तुमने सिद्धान्ततस्त्वभेदेऽपि से आरम्भ होने वाला श्लोक सुनाया है। यह श्लोक ही साक्षी है कि कृष्ण स्वयं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं।
सिद्धान्ततस्त्वभेदेऽपि श्रीश-कृष्ण-स्वरूपयोः ।।रसेनोत्कृष्यते कृष्ण-रूपमेषा रस-स्थितिः ॥
१४६॥
दिव्य अनुभूति के अनुसार कृष्ण तथा नारायण के रूपों में कोई अन्तर नहीं है। फिर भी माधुर्य रस के कारण कृष्ण में विशिष्ट दिव्य आकर्षण है। फलतः वे नारायण से बढ़कर हैं। यह दिव्य रसों का निष्कर्ष है।
स्वयं भगवान् कृष्ण हरे लक्ष्मीर मन ।।गोपिकार मन हरिते नारे 'नारायण' ॥
१४७॥
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण लक्ष्मी के मन को आकृष्ट करते हैं, किन्तु भगवान् नारायण गोपियों के मन को आकृष्ट नहीं कर पाते। इससे कृष्ण की सर्वोत्कृष्टता सिद्ध होती है।
नारायणेर का कथा, श्री-कृष्ण आपने । गोपिकारे हास्य कराइते हुयनारायणे' ॥
१४८ ॥
भगवान् नारायण के विषय में क्या कहा जाये, गोपियों के साथ मजाक उड़ाने के लिए भगवान् कृष्ण स्वयं नारायण के रूप में प्रकट हुए।
‘चतुर्भुज-मूर्ति' देखाय गोपी-गणेर आगे ।।सेइ ‘कृष्णे' गोपिकार नहे अनुरागे ॥
१४९।। यद्यपि कृष्ण ने नारायण का चतुर्भुज स्वरूप धारण कर लिया, किन्तु वे गोपिकाओं की प्रेमदृष्टि को आकृष्ट नहीं कर सके।
गोपीनां पशुपेन्द्र-नन्दन-जुषो भावस्य कस्तां कृतीविज्ञातुं क्षमते दुरूह-पदवी-सञ्चारिणः प्रक्रियाम् । आविष्कुर्वति वैष्णवीमपि तनुं तस्मिन्भुजैर्जिष्णुभिर् ग्रासां हन्त चतुर्भिरद्भुत-रुचिं रागोदयः कुञ्चति ॥
१५०॥
एक बार भगवान् कृष्ण ने चतुर्भुजी नारायण का अत्यन्त सुन्दर स्वरूप धारण किया। किन्तु जब गोपियों ने उनके इस भव्य स्वरूप को देखा, तो उनके भाव कुंठित हो गये। इसलिए विद्वान व्यक्ति भी गोपियों के ऊर्मिमय भावों को नहीं समझ सकता, क्योंकि वे नन्द महाराज के पुत्र कृष्ण के आदि स्वरूप पर पूरी तरह स्थिर हैं। कृष्ण के साथ गोपियों का परम रस आध्यात्मिक जीवन का सबसे बड़ा रहस्य है।
एत कहि' प्रभु ताँर गर्व चूर्ण करिया ।।ताँरै सुख दिते कहे सिद्धान्त फिराइया ॥
१५१।। । इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने वेंकट भट्ट के गर्व को चूर्ण कर दिया, किन्तु उन्हें पुनः प्रसन्न करने के उद्देश्य से वे इस प्रकार बोले।
दुःख ना भाविह, भट्ट, कैलँ परिहास ।। शास्त्र-सिद्धान्त शुन, झाते वैष्णव-विश्वास ॥
१५२॥
महाप्रभु ने वेंकट भट्ट को यह कहकर सान्त्वना दी, 'वास्तव में मैंने जो कुछ कहा, वह परिहास था। अब तुम मुझसे शास्त्रों का निष्कर्ष सुन सकते हो, जिसमें हर वैष्णव भक्त का दृढ़ विश्वास होता है।
कृष्ण-नारायण, ग्रैछे एक स्वरूप ।।गोपी-लक्ष्मी-भेद नाहि हय एक-रूप ॥
१५३॥
भगवान् कृष्ण तथा भगवान् नारायण में कोई भेद नहीं है, क्योंकि दोनों एकरूप हैं। इसी प्रकार गोपियों तथा लक्ष्मी में कोई अन्तर नहीं है, क्योंकि वे भी एकरूप हैं।
गोपी-द्वारे लक्ष्मी करे कृष्ण-सङ्गास्वाद ।।ईश्वरत्वे भेद मानिले हय अपराध ॥
१५४॥
लक्ष्मीजी गोपियों के माध्यम से कृष्ण संग का आस्वादन करती हैं। हमें चाहिए कि भगवान् के स्वरूपों में भेदभाव न बरतें, क्योंकि ऐसा करना अपराध है।
एक ईश्वर–भक्तेर ध्यान-अनुरूप । एकइ विग्रहे करे नानाकार रूप ॥
१५५॥
। भगवान् के दिव्य रूपों में कोई अन्तर नहीं होता। विभिन्न भक्तों की विभिन्न अनुरक्तियों के कारण विभिन्न रूप प्रकट होते हैं। वास्तव में भगवान् एक हैं, लेकिन वे अपने भक्तों को सन्तुष्ट करने के लिए विविध रूपों में प्रकट होते हैं।
। मणिग्रंथा विभागेन नील-पीतादिभिर्युतः ।।रूप-भेदमवाप्नोति ध्यान-भेदात्तथाच्युतः ॥
१५६॥
जब वैदूर्य मणि अन्य वस्तुओं का स्पर्श करता है, तो यह विभिन्न रंगों में विभक्त होता प्रतीत होता है, फलतः उसके रूप भी भिन्न लगने लगते हैं। इसी प्रकार भक्त के ध्यान-भाव के अनुसार अच्युत भगवान् एक होते हुए भी विभिन्न रूपों में प्रकट होते हैं।
भट्ट कहे,—काहाँ आमि जीव पामर ।।काहाँ तुमि सेइ कृष्ण,—साक्षातीश्वर ॥
१५७ ॥
तब वेंकट भट्ट ने कहा, मैं सामान्य पतित जीव हूँ, किन्तु आप तो साक्षात् पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण हैं।
अगाध ईश्वर-लीला किछुइ ना जानि ।।तुमि ग्रेइ कह, सेइ सत्य करि' मानि ॥
१५८ ॥
भगवान् की लीलाएँ अगाध हैं और मैं उनके विषय में कुछ भी नहीं जानता। आप जो भी कहते हैं मैं उन्हें ही सत्य के रूप में स्वीकार करता मोरे पूर्ण कृपा कैल लक्ष्मी-नारायण ।।ताँर कृपाय पाइनु तोमार चरण-दरशन ॥
१५९ ॥
मैं लक्ष्मी-नारायण की सेवा में लगा हुआ था और उन्हीं की कृपा में आपके चरणकमलों का दर्शन कर सका हूँ।।
कृपा करि' कहिले मोरे कृष्णेर महिमा ।। याँर रूप-गुणैश्वर्येर केह ना पाय सीमा ॥
१६०॥
अपनी अहैतुकी कृपा से आपने मुझे भगवान् कृष्ण की महिमा बतलाई। भगवान् के ऐश्वर्य, गुण तथा रूप का कोई भी अन्त नहीं पा सकता।
एबे से जानिनु कृष्ण-भक्ति सर्वोपरि ।। कृतार्थ करिले, मोरे कहिले कृपा करि' ॥
१६१॥
अब मैं समझ सका हूँ कि भगवान् कृष्ण की भक्ति ही सर्वोपरि पूजा है। आपने अहैतुकी कृपा करते हुए तथ्यों की व्याख्या करके ही मेरे जीवन को कृतार्थ कर दिया।
एत बलि' भट्ट पड़िला प्रभुर चरणे । कृपा करि' प्रभु ताँरै कैला आलिङ्गने ॥
१६२॥
यह कहकर वेंकट भट्ट महाप्रभु के चरणकमलों पर गिर पड़े और महाप्रभु ने अपनी अहैतुकी कृपा करते हुए उनका आलिंगन किया।
चातुर्मास्य पूर्ण हैल, भट्ट-आज्ञा लञा ।।दक्षिण चलिला प्रभु श्री-रङ्ग देखिया ॥
१६३॥
जब चातुर्मास्य का काल व्यतीत हो गया, तब पर श्री चैतन्य महाप्रभु। ने प्रस्थान करने के लिए वेंकट भट्ट से अनुमति माँगी, और श्रीरंग का दर्शन करने के बाद वे दक्षिण भारत की ओर आगे बढ़ गये।
सङ्क्ते चलिला भट्ट, ना ग्राय भवने ।ताँरै विदाय दिला प्रभु अनेक ग्रतने ॥
१६४॥
वेंकट भट्ट घर लौटना नहीं चाहते थे, किन्तु उनके साथ जाना चाह रहे थे। श्री चैतन्य महाप्रभु ने बड़े ही प्रयत्न से उन्हें विदा किया।
प्रभुर वियोगे भट्ट हैल अचेतन ।एइ रङ्ग-लीला करे शचीर नन्दन ॥
१६५ ॥
। महाप्रभु के चले जाने पर वेंकट भट्ट बेहोश होकर गिर पड़े। श्रीरंगक्षेत्र में शचीपुत्र श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाएँ ऐसी थीं।
ऋषभ-पर्वते चलि' आइला गौरहरि ।।नारायण देखिला ताँहा नति-स्तुति करि' ॥
१६६।। महाप्रभु ने ऋषभ पर्वत पहुँचकर भगवान् नारायण का मन्दिर देखा। और नमस्कार किया। साथ ही विविध स्तुतियाँ कीं।
परमानन्द-पुरी ताहाँ रहे चतुर्मास ।। शुनि' महाप्रभु गेला पुरी-गोसाजिर पाश ॥
१६७॥
। परमानन्द पुरी चतुर्मास में इसी ऋषभ पर्वत में रह रहे थे और जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने यह सुना, तो वे तुरन्त उन्हें मिलने गये।
पुरी-गोसाजिर प्रभु कैले चरण वन्दन ।। प्रेमे पुरी गोसाजि ताँरे कैल आलिङ्गन ॥
१६८॥
परमानन्द पुरी से मिलने पर श्री चैतन्य महाप्रभु ने उनका पाद-स्पर्श । करके सम्मान किया और परमानन्द पुरी ने प्रेमवश महाप्रभु का आलिंगन किया।
तिन-दिन प्रेमे दोंहे कृष्ण-कथा-रङ्गे। सेइ विप्र-घरे दोहे रहे एक-सङ्गे ॥
१६९॥
श्री चैतन्य महाप्रभु परमानन्द पुरी के साथ उसी ब्राह्मण के घर रुके, जहाँ परमानन्द पुरी रह रहे थे। दोनों ने कृष्ण-कथा की चर्चा में तीन दिन बिताये।
पुरी-गोसाजि बले,—आमि झाब पुरुषोत्तमे ।। पुरुषोत्तम देखि' गौड़े ग्राब गङ्गा-स्नाने ॥
१७०॥
परमानन्द पुरी ने श्री चैतन्य महाप्रभु को बतलाया कि वे जगन्नाथ पुरी स्थित पुरुषोत्तम का दर्शन करने जा रहे हैं। वहाँ भगवान् जगन्नाथ का दर्शन करने के बाद वे गंगास्नान करने बंगाल जायेंगे।
प्रभु कहे, तुमि पुनः आइस नीलाचले । आमि सेतुबन्ध हैते आसिब अल्प-काले ॥
१७१॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने उनसे कहा, कृपा करके जगन्नाथ पुरी फिर । आयें, क्योंकि मैं शीघ्र ही रामेश्वर (सेतुबन्ध) से वहाँ लौट आऊँगा।
तोमार निकटे रहि, हेन वाञ्छा हय ।।नीलाचले आसिबे मोरे हा सदय ॥
१७२ ॥
मेरी इच्छा है कि आपके साथ रहूँ, अतएव यदि आप जगन्नाथ पुरी वापस आ सकें, तो यह मेरे ऊपर महान् कृपा होगी।
एत बलि' ताँर ठाञि एइ आज्ञा लञा ।।दक्षिणे चलिला प्रभु हरषित हा ॥
१७३॥
परमानन्द पुरी से इस तरह बातें करके महाप्रभु ने उनसे प्रस्थान करने की आज्ञा माँगी और अत्यन्त प्रसन्न चित्त से दक्षिण भारत के लिए रवाना हो गये।
परमानन्द पुरी तबे चलिला नीलाचले ।महाप्रभु चलि चलि आइला श्री-शैले ॥
१७४॥
इस तरह परमानन्द पुरी जगन्नाथ पुरी चले गये, और श्री चैतन्य महाप्रभु श्री शैल की ओर चल पड़े।
शिव-दुर्गा रहे ताहाँ ब्राह्मणेर वेशे । महाप्रभु देखि' दोंहार हुइल उल्लासे ॥
१७५ ॥
इसी श्री शैल पर शिवजी तथा उनकी पत्नी दुर्गा ब्राह्मण-वेश में रहते थे, और जब उन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु को देखा तो अत्यन्त प्रसन्न हुए।
तिन दिन भिक्षा दिल करि' निमन्त्रण ।।निभृते वसि' गुप्त-वार्ता कहे दुइ जन ॥
१७६॥
ब्राह्मण वेशधारी शिवजी ने श्री चैतन्य महाप्रभु को भिक्षा दी, और एकान्त में तीन दिन बिताने का आमन्त्रण दिया। दोनों वहाँ पर साथ बैठकर गुप्त बातें करते रहे।
ताँर सङ्गे महाप्रभु करि इष्टगोष्ठी ।।ताँर आज्ञा लबा आइला पुरी कामकोष्ठी ॥
१७७॥
शिवजी से वार्तालाप करने के बाद महाप्रभु ने उनसे विदा ली और कामकोष्ठी-पुरी गये।।
दक्षिण-मथुरा आइला कामकोष्ठी हैते ।।ताहाँ देखा हैल एक ब्राह्मण-सहिते ॥
१७८॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु कामकोष्ठी से दक्षिण-मथुरा पहुँचे, तो वहाँ उनकी भेंट एक ब्राह्मण से हुई।
सेइ विप्र महाप्रभुके कैल निमन्त्रण ।।राम-भक्त सेइ विप्र-विरक्त महाजन ॥
१७९॥
उस ब्राह्मण ने महाप्रभु को अपने घर आमन्त्रित किया। यह ब्राह्मण महान् भक्त था और श्री रामचन्द्र भगवान् के बारे में विशेषज्ञ अधिकारी था। वह भौतिक कार्यकलापों से सदा विरक्त रहता था।
कृतमालाय स्नान करि' आइला ताँर घरे ।भिक्षा कि दिबेन विप्र,----पाक नाहि करे ।। १८०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु कृतमाला नदी में स्नान करके उस ब्राह्मण के घर भोजन करने गये, किन्तु उन्होंने देखा कि भोजन तैयार नहीं था-अभी ब्राह्मण ने उसे पकाया नहीं था।
महाप्रभु कहे तौरे,—शुन महाशय ।।मध्याह्न हैल, केने पाक नाहि हय ॥
१८१॥
। यह देखकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “हे महाशय, मुझे बतायें कि आपने भोजन क्यों नहीं पकाया है। अब तो दोपहर हो चुकी है।
विप्र कहे,—प्रभु, मोर अरण्ये वसति ।।पाकेर सामग्री वने ना मिले सम्प्रति ॥
१८२॥
ब्राह्मण ने उत्तर दिया, हे प्रभु, हम वन में रहते हैं। इस समय हमें भोजन की सारी सामग्री वन में प्राप्त नहीं हो सकती।
वन्य शाक-फल-मूल आनिबे लक्ष्मण ।। तबे सीता करिबेन पाक-प्रयोजन ॥
१८३॥
जब लक्ष्मण जंगल से शाक-सब्जियाँ, फल तथा कन्दमूल लायेंगे, तब सीताजी भोजन पकाने का प्रबन्ध करेंगी।
ताँर उपासना शुनि' प्रभु तुष्ट हैला ।। आस्ते-व्यस्ते सेइ विप्र रन्धन करिला ॥
१८४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु उस ब्राह्मण की पूजा-विधि सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। अन्त में ब्राह्मण ने त्वरित भोजन पकाने की व्यवस्था की।
प्रभु भिक्षा कैल दिनेर तृतीय-प्रहरे ।। निर्विण्ण सेइ विप्र उपवास करे ॥
१८५ ।।। श्री चैतन्य महाप्रभु ने तीन बजे के लगभग दोपहर का भोजन किया। किन्तु दुःखी होने के कारण वह ब्राह्मण उपवास पर रह गया।
प्रभु कहे,—विप्र काँहे कर उपवास ।केने एत दुःख, केने करह हुताश ॥
१८६॥
ब्राह्मण को उपवास किए देखकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने उससे पूछा, 'आप उपवास क्यों कर रहे हैं? आप दुःखी क्यों हैं? आप इतने चिन्तित क्यों हैं?' विप्र कहे,—जीवने मोर नाहि प्रयोजन ।अग्नि-जले प्रवेशिया छाड़िब जीवन ॥
१८७॥
। ब्राह्मण ने उत्तर दिया, मेरे जीने का कोई प्रयोजन नहीं है। मैं या तो अग्नि में या जल में प्रवेश करके अपने प्राण त्याग दूंगा।
जगन्माता महा-लक्ष्मी सीता-ठाकुराणी ।।राक्षसे स्पर्शिल ताँरे,—इहा काने शुनि ॥
१८८॥
। हे महाशय, सीताजी जगज्जननी और महालक्ष्मी हैं। उनका स्पर्श राक्षस रावण ने किया है और मैं यह समाचार सुनकर अत्यन्त क्षुब्ध हूँ।
ए शरीर धरिबारे कभु ना ग्रुयाय ।।एइ दुःखे ज्वले देह, प्राण नाहि ग्राय ॥
१८९॥
हे महाशय, इस दुःख के कारण अब मैं जीवित नहीं रह सकता। यद्यपि मेरा शरीर जल रहा है, किन्तु प्राण निकल नहीं रहे।
प्रभु कहे,—ए भावना ना करिह आर।।पण्डित हा केने ना करह विचार ॥
१९०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, आप अब इस तरह न सोचें। आप तो विद्वान पंडित हैं। आप इस समस्या पर विचार क्यों नहीं करते? ईश्वर-प्रेयसी सीता–चिदानन्द-मूर्ति ।प्राकृत-इन्द्रियेर ताँरै देखिते नाहि शक्ति ॥
१९१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु कहते रहे, “भगवान् रामचन्द्र की प्रियतमा सीतादेवी का रूप निश्चय ही आनन्दमय एवं आध्यात्मिक है। उन्हें कोई भी व्यक्ति अपनी भौतिक आँखों से नहीं देख सकता, क्योंकि किसी भी भौतिक प्राणी में वह शक्ति नहीं है।
स्पर्शिबार कार्य आछुक, ना पाय दर्शन ।।सीतार आकृति-माया हरिल रावण ॥
१९२॥
। माता सीता को स्पर्श करने की तो बात ही दूर रही, भौतिक इन्द्रिय वाला व्यक्ति उन्हें देख तक नहीं सकता। रावण ने तो उनके भौतिक मायारूप का ही हरण किया था।
रावण आसितेइ सीता अन्तर्धान कैल।। रावणेर आगे माया-सीता पाठाइल ॥
१९३॥
ज्योंही रावण सीताजी के सम्मुख आया, वे अप्रकट हो गईं। उन्होंने रावण को धोखा देने के लिए ही अपना मायारूप भेजा।
अप्राकृत वस्तु नहे प्राकृत-गोचर ।। वेद-पुराणेते एइ कहे निरन्तर ॥
१९४॥
। आध्यात्मिक वस्तु कभी-भी भौतिक अनुभूति के सीमा-क्षेत्र में नहीं रहती। यही वेदों और पुराणों का निर्णय है।
विश्वास करह तुमि आमार वचने । पुनरपि कु-भावना ना करिह मने ॥
१९५॥
तत्पश्चात् श्री चैतन्य महाप्रभु ने उस ब्राह्मण को आश्वस्त किया, “मेरे वचनों में विश्वास रखें, और अपने मन को इस कुंभावना से बोझिल मत करें।
प्रभुर वचने विप्रेर हद्दल विश्वास । भोजन करिल, हैल जीवनेर आश ॥
१९६॥
यद्यपि वह ब्राह्मण उपवास कर रहा था, किन्तु उसे श्री चैतन्य महाप्रभु के शब्दों पर विश्वास था, अतएव उसने भोजन ग्रहण किया और इस तरह उसकी जान बच गई।
ताँरे आश्वासियो प्रभु करिला गमन ।।कृतमालाय स्नान करि आइला दुर्वशन ॥
१९७॥
। ब्राह्मण को आश्वासन देने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु दक्षिण भारत में और आगे बढ़ते गये और अन्त में दुर्वशन पहुँचे, जहाँ उन्होंने कृतमाला नदी में स्नान किया।
दुर्वशने रघुनाथे कैल दरशन ।। महेन्द्र-शैले परशुरामेर कैल वन्दन ॥
१९८॥
। दुर्वशन में श्री चैतन्य महाप्रभु ने भगवान् रामचन्द्र के मन्दिर का दर्शन किया। इसी तरह महेन्द्र-शैल नामक पर्वत पर उन्होंने भगवान् परशुराम के दर्शन किये।
सेतुबन्धे आसि' कैल धनुस्तीर्थे स्नान ।। रामेश्वर देखि' ताहाँ करिल विश्राम ॥
१९९॥
तत्पश्चात् श्री चैतन्य महाप्रभु सेतुबन्ध (रामेश्वर) गये, जहाँ उन्होंने धनुस्तीर्थ नामक स्थान पर स्नान किया। वहाँ से वे रामेश्वर मन्दिर देखने गये और तब विश्राम किया।
विप्र-सभाय शुने ताँहा कूर्म-पुराण ।तार मध्ये आइला पतिव्रता-उपाख्यान ॥
२०० ॥
वहाँ पर श्री चैतन्य महाप्रभु ने ब्राह्मणों के संग में कूर्म-पुराण सुना, जिसमें पतिव्रता स्त्री की कथा का आख्यान है।
पतिव्रता-शिरोमणि जनकनन्दिनी ।। जगतेर माता सीता–रामेर गृहिणी ॥
२०१॥
श्रीमती सीतादेवी तीनों लोकों की माता तथा भगवान् रामचन्द्र की पत्नी हैं। वे पतिव्रता स्त्रियों में सर्वोच्च हैं और राजा जनक की पुत्री हैं।
रावण देखिया सीता लैल अग्निर शरण । रावण हैते अग्नि कैल सीताके आवरण ॥
२०२॥
जब रावण माता सीता का हरण करने आया और उन्होंने उसे देखा तो उन्होंने अग्नि-देवता की शरण ग्रहण कर ली। अग्निदेव ने माता सीता के शरीर को ढक लिया और इस तरह रावण से उनकी रक्षा हो सकी।
‘माया-सीता' रावण निल, शुनिला आख्याने ।। शुनि' महाप्रभु हैल आनन्दित मने ॥
२०३॥
। कूर्म-पुराण में यह सुनकर कि किस तरह रावण ने माता सीता के माया रूप का हरण किया, श्री चैतन्य महाप्रभु अत्यन्त आनन्दित हुए।
सीता लञा राखिलेन पार्वतीर स्थाने । ‘माया-सीता' दिया अग्नि वञ्चिला रावणे ॥
२०४॥
। अग्नि-देव वास्तविक सीता को देवी दुर्गा अर्थात् पार्वती के स्थान पर ले आये और रावण को सीता को माया-रूप दे दिया। इस तरह रावण को ठगा गया।
रघुनाथ आसि' ग्रबे रावणे मारिल । अग्नि-परीक्षा दिते ग्नबे सीतारे आनिल ॥
२०५॥
जब भगवान् रामचन्द्रजी ने रावण को मार डाला, तब उसके बाद सीतादेवी परीक्षा हेतु अग्नि के समक्ष लायी गईं।
तबे माया-सीता अग्नि करि अन्तर्धान ।। सत्य-सीता आनि' दिल राम-विद्यमान ॥
२०६॥
। जब रामचन्द्रजी द्वारा अग्नि के समक्ष माया सीता लाई गईं तो अग्नि ने इस माया-रूप को अप्रकट कर दिया और भगवान् रामचन्द्र को वास्तविक सीता लाकर प्रदान कीं।
शुनिळा प्रभुर आनन्दित हैल मन ।।रामदास-विप्रेर कथा हइल स्मरण ॥
२०७॥
। जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने यह कहानी सुनी, तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्हें रामदास विप्र के शब्द याद आये।
ए-सब सिद्धान्त शुनि' प्रभुर आनन्द हैल। ब्राह्मणेर स्थाने मागि' सेइ पत्र निल ॥
२०८॥
। जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने कूर्म-पुराण से इन निश्चयात्मक सिद्धान्तों को सुना, तो उन्हें अतीव प्रसन्नता हुई। उन्होंने ब्राह्मण की अनुमति से कूर्म-पुराण के इन हस्तलिखित पन्नों को ले लिया।
नूतन पत्र लेखाजा पुस्तके देओयाइल । प्रतीति लागि' पुरातन पत्र मागि' निल ॥
२०९॥
। चूंकि कूर्म-पुराण अत्यन्त प्राचीन है, अतएव उसकी पाण्डुलिपि भी अत्यन्त प्राचीन थी। श्री चैतन्य महाप्रभु ने प्रत्यक्ष साक्ष्य के लिए मूल पन्ने रख लिए और नये पन्नों पर मूल की प्रतिलिपि करके कूर्म पुराण में लगा दी।
पत्र लञा पुनः दक्षिण-मथुरा आइला ।। रामदास विप्रे सेइ पत्र आनि दिला ॥
२१०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु तब लौटकर दक्षिण मथुरा ( मदुरई) आये और कूर्म पुराण की मूल पाण्डुलिपि रामदास विप्र को दी।
सीतयाराधितो वह्निश्छाया-सीतामजीजनत् ।। तां जहार दश-ग्रीवः सीता वह्नि-पुरं गता ॥
२११॥
परीक्षा-समये वह्नि छाया-सीता विवेश सा ।। वह्निः सीतां समानीय तत्पुरस्तादनीनयत् ॥
२१२॥
नुवाद जब सीताजी ने अग्निदेव का आवाहन किया, तो वे सीता का मायारूप ले आये, और दस सिरों वाले रावण ने इस माया-सीता का अपहरण कर लिया। तब मूल सीता अग्निदेव के घर चली गईं। जब भगवान् रामचन्द्र ने सीता के शरीर की परीक्षा ली, तो वह माया-सीता थी जो अग्नि में प्रवेश कर गईं। उसी समय अग्निदेव ने मूल सीता को अपने घर से लाकर भगवान् रामचन्द्र को अर्पित कर दीं।
पत्र पाजा विप्रेर हैल आनन्दित मन ।। प्रभुर चरणे धरि' केरये क्रन्दन ॥
२१३॥
रामदास विप्र कूर्म पुराण के मूल पन्ने पाकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ। वह तुरन्त श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों पर गिरकर रुदन करने लगा।
विप्र कहे,--तुमि साक्षात्श्री-रघुनन्दन ।। सन्यासीर वेषे मोरे दिला दरशन ॥
२१४॥
पाण्डुलिपि पाकर अत्यन्त प्रसन्न हुए ब्राह्मण ने कहा, आप साक्षात् भगवान् रामचन्द्र हैं, और संन्यासी के वेश में मुझे दर्शन देने आये हैं।
महा-दुःख हइते मोरे करिला निस्तार ।आजि मोर घरे भिक्षा कर अङ्गीकार ॥
२१५॥
हे मान्यवर, आपने मुझे अत्यन्त दुःखद परिस्थिति से उबारा है। मेरी प्रार्थना है कि आप मेरे घर भोजन करें। कृपया मेरा यह निमन्त्रण स्वीकार करें।
मनो-दुःखे भाल भिक्षा ना दिल सेइ दिने ।मोर भाग्ये पुनरपि पाइलें दरशने ॥
२१६॥
मानसिक क्षोभ के कारण उस दिन मैं आपको अच्छा भोजन नहीं करा सका। अब सौभाग्यवश आप पुनः मेरे घर पधारे हैं।
एत बलि' सेइ विप्र सुखे पाक कैल ।। उत्तम प्रकारे प्रभुके भिक्षा कराइल ॥
२१७॥
यह कहकर उस ब्राह्मण ने सुखपूर्वक भोजन बनाया और श्री चैतन्य महाप्रभु को उत्तम कोटि को भोजन कराया।
सेइ रात्रि ताहाँ रहि' ताँरै कृपा करि' ।। पाण्ड्य-देशे ताम्रपर्णी गेलो गौरहरि ॥
२१८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने वह रात उस ब्राह्मण के घर बिताई। उस पर कृपा करने के बाद महाप्रभु ने पाण्ड्य देश में ताम्रपर्णी नदी की ओर यात्रा प्रारम्भ की।
ताम्रपर्णी स्नान करि' ताम्रपर्णी-तीरे । नय त्रिपति देखि' बुले कुतूहले ॥
२१९॥
ताम्रपर्णी नदी के तट पर नयत्रिपति नामक स्थान में भगवान् विष्णु के नौ मन्दिर थे। महाप्रभु ने नदी में स्नान करने के बाद अत्यन्त उत्सुकता से अर्चाविग्रह देखे और वहाँ विचरण किया।
चियड़तला तीर्थे देखि' श्री-राम-लक्ष्मण ।। तिल-काञ्ची आसि' कैल शिव दरशन ॥
२२०॥
इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु चियड़तला नामक तीर्थस्थान गये, जहाँ उन्होंने रामचन्द्र तथा लक्ष्मण दोनों भाइयों के अर्चाविग्रह देखे। तब थे तिलकांची गये, जहाँ उन्होंने शिवजी का मन्दिर देखा।
गजेन्द्र-मोक्षण-तीर्थे देखि विष्णु-मूर्ति ।।पानागड़ि-तीर्थे आसि' देखिल सीतापति ॥
२२१॥
तत्पश्चात् श्री चैतन्य महाप्रभु गजेन्द्रमोक्षण नामक तीर्थस्थान गये, जहाँ उन्होंने भगवान् विष्णु का मन्दिर देखा। फिर वे पानागड़ि नामक पवित्र स्थल पर आये, जहाँ उन्होंने भगवान् रामचन्द्र तथा सीताजी के अर्चाविग्रह देखे।
चाम्तापुरे आसि' देखि' श्री-राम-लक्ष्मण ।।श्री-वैकुण्ठे आसि' कैल विष्णु दरशन ॥
२२२॥
। बाद में महाप्रभु चाम्तापुर गये, जहाँ उन्होंने श्री रामचन्द्र तथा लक्ष्मण के अर्चाविग्रह के दर्शन किये। इसके बाद वे श्री वैकुण्ठ गये, और वहाँ भगवान् विष्णु का मन्दिर देखा।
मलय-पर्वते कैल अगस्त्य-वन्दन ।कन्या-कुमारी ताहाँ कैल दरशन ॥
२२३॥
इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु मलय पर्वत गये और उन्होंने अगस्त्य मुनि की वन्दना की। तत्पश्चात् उन्होंने कन्याकुमारी (केप केमोरिन) नामक स्थान की मुलाकात ली।
आम्लितलाय देखि' श्री-राम गौरहरि ।। मल्लार-देशेते आइला ग्रथा भट्टथारि ॥
२२४॥
। कन्याकुमारी देख चुकने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु आप्ति आये, जहाँ उन्होंने श्री रामचन्द्र के अर्चाविग्रह का दर्शन किया। तत्य वे मल्लार देश गये, जहाँ भट्टथारि जाति के लोग रहते थे।
तमाल-कार्तिक देखि' आइल वेतापनि ।रघुनाथ देखि' ताहाँ वञ्चिला रजनी ॥
२२५॥
मल्लार देश घूमने के बाद महाप्रभु तमालकार्तिक गये, और वहाँ से तापनि गये। वहाँ उन्होंने रघुनाथ अर्थात् रामचन्द्र का मन्दिर देखा और रात बिताई।
गोसाजिर सङ्गे रहे कृष्णदास ब्राह्मण ।। भट्टथारि-सह ताहाँ हैल दरशन ॥
२२६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ उनका सेवक था, जिसका नाम कृष्णदास था। वह ब्राह्मण था, किन्तु वहाँ उसकी भेंट भट्टथारियों से हो । गई।
स्त्री-धन देखाजा ताँर लोभ जन्माइल ।। आर्य सरल विप्रेर बुद्धि-नाश कैल ॥
२२७॥
भट्टथारियों ने ब्राह्मण कृष्णदास को स्त्रियों के माध्यम से लोभ में फँसा लिया, क्योंकि वह सरल एवं भला आदमी था। उन्होंने अपनी बुरी संगति से उसकी बुद्धि भ्रष्ट कर दी।
प्राते उठि' आइला विप्र भट्टथारि-घरे । ताहार उद्देशे प्रभु आइला सत्वरे ॥
२२८॥
भट्टथारियों से फुसलाया हुआ कृष्णदास प्रात:काल उठते ही उनके घर गया और महाप्रभु भी उसे ढूंढने के लिए तेजी से वहाँ गये।
आसिया कहेन सब भट्टथारि-गणे ।। आमार ब्राह्मण तुमि राख कि कारणे ॥
२२९॥
भट्टथारियों के पास आकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने उनसे पूछा, “तुम लोग मेरे ब्राह्मण सहायक को अपने यहाँ क्यों रखे हुए हो? आमिह सन्यासी देख, तुमिह सन्यासी ।।मोरे दुःख देह,—तोमार'न्याय' नाहि वासि ॥
२३०॥
मैं संन्यासी हूँ और तुम लोग भी हो। फिर भी तुम लोग जान-बूझकर मुझे कष्ट दे रहे हो। मुझे इसमें कोई अच्छा कारण नहीं दिखता।
शुनि' सब भट्टथारि उठे अस्त्र ला । मारिबारे आइल सबे चारि-दिके धाज्ञा ॥
२३१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की बात सुनकर सारे भट्टथारि सभी दिशाओं से अपने-अपने हाथों में हथियार लिए महाप्रभु को मारने के लिए दौड़े आये।
तार अस्त्र तार अड़े पड़े हात हैते ।। खण्ड खण्ड हैल भट्टथारि पलाय चारि भिते ॥
२३२॥
। किन्तु उनके हथियार उनके हाथों से छूटकर गिर पड़े, और उन्हीं के शरीरों पर जा लगे। इस तरह जब कुछ भट्टथारि कटकर टुकड़े-टुकड़े हो गये, तो अन्य लोग चारों दिशाओं में भाग गये।
भट्टथारि-घरे महा उठिल क्रन्दन । केशे धरि' विप्रे ला करिल गमन ॥
२३३॥
जब भट्टथारि जाति में चीख-चीत्कार मच गई, तब श्री चैतन्य महाप्रभु कृष्णदास के बाल पकड़कर उसे बाहर ले आये।
सेइ दिन चलि' आइला पयस्विनी-तीरे ।। स्नान करि' गेला आदि-केशव-मन्दिरे ॥
२३४॥
उसी रात श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनका सहायक कृष्णदास पयस्विनी नदी के तट पर आये। उन्होंने स्नान किया और फिर वे आदिकेशव का मन्दिर देखने गये।
केशव देखिया प्रेमे आविष्ट हैला ।।नति, स्तुति, नृत्य, गीत, बहुत करिला ॥
२३५॥
। आदि-केशव मन्दिर को देखते ही महाप्रभु भावाविष्ट हो गये। वे विविध नमस्कार तथा स्तुतियाँ करके कीर्तन करने लगे और नाचने लगे।
प्रेम देखि' लोके हैल महा-चमत्कार ।।सर्व-लोक कैल प्रभुर परम सत्कार ॥
२३६॥
वहाँ के सारे लोग श्री चैतन्य महाप्रभु की भावमयी लीलाओं को देखकर अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गये। उन्होंने महाप्रभु का अच्छे से सत्कार किया।
महा-भक्त-गण-सह ताहाँ गोष्ठी कैल ।।‘ब्रह्म-संहिताध्याय'-पॅथि ताहाँ पाइल ॥
२३७॥
। आदि-केशव के मन्दिर में श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन्नत भक्तों के बीच आध्यात्मिक विषयों पर चर्चा की। वहाँ रहते हुए उन्हें ब्रह्म-संहिताका एक अध्याय मिला।
पॅथि पाञा प्रभुर हैल आनन्द अपार ।।कम्पाश्रु-स्वेद-स्तम्भ-पुलक विकार ॥
२३८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु इस शास्त्र का एक अध्याय प्राप्त करके अत्यन्त प्रसन्न थे और उनके शरीर में कम्प, अश्रु, पसीना, समाधि तथा प्रसन्नता के भावरूपी विकार प्रकट हो आये।
सिद्धान्त-शास्त्र नाहि 'ब्रह्म-संहिता'र सम ।। गोविन्द-महिमा ज्ञानेर परम कारण ॥
२३९॥
अल्पाक्षरे कहे सिद्धान्त अपार ।। सकल-वैष्णव-शास्त्र-मध्ये अति सार ॥
२४०॥
जहाँ तक अन्तिम आध्यात्मिक सिद्धान्तों का सम्बन्ध है, ब्रह्म-संहिता के समान अन्य कोई शास्त्र नहीं है। निस्सन्देह, यह शास्त्र भगवान् गोविन्द की महिमाओं का परम प्रकाश है, क्योंकि यह उनके विषय में सर्वोच्च ज्ञान प्रकट करता है। चूंकि सारे सिद्धान्त ब्रह्म-संहिता में संक्षेप में दिये। हैं, अतएव यह सारे वैष्णव ग्रंथों का सार है।
बहु ग्रने सेइ पुँथि निल लेखाइयो । 'अनन्त पद्मनाभ' आइला हरषित हा ॥
२४१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने यत्नपूर्वक ब्रह्म-संहिता की प्रतिलिपि उता और बाद में वे हर्षित होकर अनन्त-पद्मनाभ नामक स्थान गये।
दिन-दुई पद्मनाभेर कैल दरशन ।। आनन्दे देखिते आइला श्री-जनार्दन ॥
२४२॥
भी चैतन्य महाप्रभु अनन्त-पद्मनाभ में दो-तीन दिन रहे, और उन्होंने का मन्दिर देखा। फिर हर्षपूर्वक वे श्री जनार्दन मन्दिर देखने गये।
दिन-दुइ ताहाँ करि' कीर्तन-नर्तन । पयस्विनी आसिया देखे शङ्कर नारायण ॥
२४३॥
भी चैतन्य महाप्रभु श्री जनार्दन में दो दिन तक कीर्तन तथा नृत्य करते फिर वे पयस्विनी नदी के किनारे गये और वहाँ उन्होंने शंकर-नारायण का मन्दिर देखा।
शृङ्गेरि-मठे आइला शङ्कराचार्य-स्थाने ।। मत्स्य-तीर्थ देखि' कैल तुङ्गभद्राय स्नाने ॥
२४४॥
वहाँ उन्होंने श्रृंगेरी मठ देखा जो शंकराचार्य का निवास है। उन्होंने मत्स्य-तीर्थ देखा और तुंगभद्रा नदी में स्नान किया।
मध्वाचार्य-स्थाने आइलो याँहा 'तत्त्ववादी' ।। उड़पीते 'कृष्ण' देखि, ताहाँ हैल प्रेमोन्मादी ॥
२४५॥
तत्पश्चात् चैतन्य महाप्रभु मध्वाचार्य के स्थान उडुपी पर पहुँचे, जो तत्त्ववादी के नाम से जाने जाने वाले दार्शनिक रहते थे। वे वहाँ भगवान् कृष्ण के अर्चाविग्रह को देखकर भावविह्वल हो उठे।
नर्तक गोपाल देखे परम-मोहने ।।मध्वाचार्ये स्वप्न दिया आइला ताँर स्थाने ॥
२४६ ॥
उडुपी मठ में श्री चैतन्य महाप्रभु ने नर्तक गोपाल' के अतीव सुन्दर अर्चाविग्रह के दर्शन किये। यह विग्रह मध्वाचार्य के स्वप्न में आये थे।
गोपी-चन्दन-तले आछिल डिङ्गाते ।।मध्वाचार्य सेइ कृष्ण पाइला कोन-मते ॥
२४७॥
मध्वाचार्य ने कृष्ण का यह विग्रह उस गोपीचन्दन के ढेर से किसी न किसी तरह प्राप्त किया था, जो नाव में लाया गया था।
मध्वाचार्य आनि' तौरे करिला स्थापन ।अद्यावधि सेवा करे तत्त्ववादि-गण ॥
२४८ ॥
मध्वाचार्य इस नर्तक गोपाल के विग्रह को उडुपी ले आये और उन्होंने उन्हें मन्दिर में स्थापित कर दिया। मध्वाचार्य के अनुयायी अर्थात् तत्त्ववादीगण आज भी इस मूर्ति की पूजा करते हैं।
कृष्ण-मूर्ति देखि' प्रभु महा-सुख पाइल ।।प्रेमावेशे बहु-क्षण नृत्य-गीत कैल ॥
२४९॥
श्री चैतन्य महाप्रभु को गोपाल का यह सुन्दर रूप देखकर अत्यन्त हर्ष हुआ। वे देर तक भावावेश में नृत्य तथा कीर्तन करते रहे।
तत्त्ववादि-गण प्रभुके ‘मायावादी' ज्ञाने ।।प्रथम दर्शने प्रभुके ना कैल सम्भाषणे ॥
२५०॥
पहले तो तत्त्ववादी वैष्णवों ने श्री चैतन्य महाप्रभु को मायावादी संन्यासी समझा, अतएव उन्होंने उनसे बात नहीं की।
पाछे प्रेमावेश देखि' हैल चमत्कार ।।वैष्णव-ज्ञाने बहुत करिल सत्कार ॥
२५१॥
। बाद में श्री चैतन्य महाप्रभु को भावावेश में देखकर वे लोग चकित हे गये। तत्पश्चात् उन्हें वैष्णव जानकर उन्होंने उनका अच्छा स्वागत किया। वैष्णवता' सबार अन्तरे गर्व जानि' ।।ईषत् हासिया किछु कहे गौरमणि ॥
२५२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु जान गये कि तत्त्ववादियों को अपने वैष्णव होने पर अत्यधिक गर्व है। अतएव वे मुसकाये और उनसे बातें करने लगे।
ताँ-सबार अन्तरे गर्व जानि गौरचन्द्र ।।ताँ-सबा-सङ्गे गोष्ठी करिला आरम्भ ॥
२५३॥
उन्हें अत्यन्त गर्वित जानकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने उनसे शास्त्रार्थ शुरू किया।
तत्त्ववादी आचार्य—सब शास्त्रेते प्रवीण ।ताँरे प्रश्न कैल प्रभु हा ग्रेन दीन ॥
२५४॥
तत्त्ववादियों का मुख्य आचार्य शास्त्रों में अत्यन्त पटु था। श्री चैतन्य महाप्रभु ने अत्यन्त विनीत भाव से उससे प्रश्न किया।
साध्य-साधन आमि ना जानि भाल-मते ।।साध्य-साधन-श्रेष्ठ जानाह आमाते ॥
२५५॥
चैतन्य महाप्रभु ने कहा, मैं जीवन का लक्ष्य तथा उसे प्राप्त करने की विधि को ठीक से नहीं जानता। कृपया मुझे बतलायें कि मानवता के लिए सर्वश्रेष्ठ आदर्श क्या है और उसे कैसे प्राप्त किया जाए? आचार्य कहे,–'वर्णाश्रम-धर्म, कृष्णे समर्पण' ।। एइ हय कृष्ण-भक्तेर श्रेष्ठ 'साधन' ॥
२५६॥
आचार्य ने उत्तर दिया, जब चारों वर्षों तथा चारों आश्रमों के कार्य कृष्ण को समर्पित किये जाते हैं, तो वे ही सर्वश्रेष्ठ साधन होते हैं, जिनसे जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।
‘पञ्च-विध मुक्ति' पाजा वैकुण्ठे गमन । ‘साध्य-श्रेष्ठ' हय,—एई शास्त्र-निरूपण ॥
२५७॥
जब मनुष्य वर्णाश्रम धर्म के कार्य कृष्ण को समर्पित करता है, तो वह पाँच प्रकार की मुक्ति का पात्र होता है और वैकुण्ठ लोक भेज दिया जाता है। यही जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है और यही सारे शास्त्रों का निष्कर्ष है।
प्रभु कहे,—शास्त्रे कहे श्रवण-कीर्तन । कृष्ण-प्रेम-सेवा-फलेर 'परम-साधन' ॥
२५८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, शास्त्रों के निष्कर्ष के अनुसार कृष्ण की प्रेमाभक्ति प्राप्त करने के सर्वश्रेष्ठ साधन श्रवण तथा कीर्तन हैं।
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पाद-सेवनम् । अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्म-निवेदनम् ॥
२५९॥
इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नव-लक्षणा । क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥
२६० ॥
इस विधि में श्रवण, कीर्तन, भगवान् के पवित्र नाम, रूप, गुण, स्मीलाओं तथा पार्षदों का स्मरण, देश, काल तथा पात्र के अनुसार सेवा करना, अर्चाविग्रह की पूजा करना, स्तुति करना, अपने आपको कृष्ण का शाश्वत दास समझना, उनके प्रति सख्य भाव उत्पन्न करना और उन्हें अपना सर्वस्व अर्पित करना सम्मिलित हैं। जब इस तरह कृष्ण की नौ प्रकार से सीधी प्रेममयी सेवा की जाती है, तो वही जीवन की सर्वोच्च उपलब्धि है। यही प्रामाणिक शास्त्रों का मत है।'
श्रवण-कीर्तन हइते कृष्णे हय ‘प्रेमा' ।।सेइ पञ्चम पुरुषार्थ—पुरुषार्थेर सीमा ॥
२६१॥
जब मनुष्य श्रवण-कीर्तन से आरम्भ होने वाली इन नौ विधियों से कृष्ण की प्रेममयी सेवा करता है, तब उसे सिद्धि का पाँचवाँ पद ए जीवन के लक्ष्य की सीमा प्राप्त होती है।
एवं-व्रतः स्व-प्रिय-नाम-कीत्र्याजातानुरागो द्रुत-चित्त उच्चैः । हसत्यथो रोदिति रौति गायत्य् ।उन्माद-वन्नृत्यति लोक-बाह्यः ॥
२६२॥
जब कोई व्यक्ति वास्तव में उन्नत होता है और अपने प्रिय भगवान के पवित्र नाम के कीर्तन में आनन्द का अनुभव करता है, तब वह उत्तेजित होकर जोर-जोर से पवित्र नाम का उच्चारण करता है। वह किसी को परवाह न करते हुए हँसता है, रोता है, क्षोभित होता है और पागल मनुष्य की तरह कीर्तन करता है।' कर्म-निन्दा, कर्म-त्याग, सर्व-शास्त्रे कहे ।।कर्म हैते प्रेम-भक्ति कृष्णे कभु नहे ॥
२६३ ॥
प्रत्येक प्रामाणिक शास्त्र सकाम कर्म की निन्दा करता है। सभी जगह यही उपदेश दिया गया है कि सारे सकाम कर्मों का त्याग कर दिया। जाए, क्योंकि इसके द्वारा जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य, भगवत्प्रेम को प्राप्त नहीं किया जा सकता।
आज्ञायैवं गुणान्दोषान्मयादिष्टानपि स्वकान् ।।धर्मान्सन्त्यज्य सः सर्वान्मां भजेत्स च सत्तमः ॥
२६४॥
। धार्मिक शास्त्रों में नियत कर्मों का वर्णन किया गया है। उनकी विवेचना करने पर मनुष्य उनके गुणों तथा दोषों को पूरी तरह समझ सकता है और तब भगवान् की सेवा करने के लिए उनका पूर्ण परित्याग कर सकता है। जो मनुष्य ऐसा करता है, वह प्रथम कोटि का व्यक्ति (उत्तम) कहलाता है।'
सर्व-धर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।। अहं त्वां सर्व-पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
२६५ ॥
सारे धर्मों को त्याग कर मेरी शरण में आओ। मैं तुम्हें सारे पापकर्मों से मुक्त कर दूंगा। तुम डरो मत।। तावत्कर्माणि कुर्वीत न निर्विद्येत सावता ।। त्कथा-श्रवणादौ वा श्रद्धा यावन्न जायते ॥
२६६॥
जब तक मनुष्य सकाम कर्म द्वारा तृप्त नहीं होता और श्रवणं कीर्तन विष्णोः द्वारा भक्ति के लिए रुचि विकसित नहीं कर लेता, तब तक उसे वैदिक आदेशों के विधि-विधानों के अनुसार कर्म करना आवश्यक है। पञ्च-विध मुक्ति त्याग करे भक्त-गण ।।फल्गु करि' ‘मुक्ति' देखे नरकेर सम ॥
२६७॥
शुद्ध भक्त मुक्ति के पाँचों प्रकारों को त्याग देते हैं। निस्सन्देह उनके लिए मुक्ति अत्यन्त नगण्य है, क्योंकि वे इसे नरक के समान मानते हैं। सालोक्य-सार्टि-सामीप्य-सारूप्यैकत्वमध्युत ।।दीयमानं न गृह्णन्ति विना मत्सेवनं जनाः ॥
२६८॥
शुद्ध भक्त सदैव पाँच प्रकार की मुक्ति का बहिष्कार करते हैंये हैं वैकुण्ठ लोक में रहना, भगवान् जैसे ऐश्वर्यों से युक्त होना, भगवान् जैसा स्वरूप प्राप्त करना, भगवान् की संगति करना तथा भगवान् के शरीर में समा जाना। शुद्ध भक्त भगवद्भक्ति के बिना इन वरदानों को स्वीकार नहीं करते।' ग्रो दुस्त्यजान्क्षिति-सुत-स्वजनार्थ-दारान् ।प्राथ्र्यां श्रियं सुर-वरैः सदयावलोकाम् ।। नैच्छन्नृपस्तदुचितं महतां मधु-द्विट्सेवानुरक्त-मनसामभवोऽपि फल्गुः ॥
२६९॥
भौतिक ऐश्वर्य, भूमि, सन्तान, समाज, मित्र, धन, पत्नी या लक्ष्मी के आशीर्वादों को त्याग पाना अत्यन्त कठिन है, जो बड़े-बड़े देवताओं द्वारा भी प्रार्थित हैं। किन्तु राजा भरत को ऐसी वस्तुओं की कामना नहीं थी और यह उनके पद के अनुरूप भी था, क्योंकि ऐसे शुद्ध भक्त के लिए, जिसका मन सदैव भगवान् की सेवा में लगा रहता है, मुक्ति या भगवान् से तादात्म्य भी तुच्छ है। तो फिर भौतिक अवसरों के विषय में तो कहना ही क्या?' नारायण-पराः सर्वे न कुतश्चन बिभ्यति ।।स्वर्गापवर्ग-नरकेष्वपि तुल्यार्थ-दर्शिनः ॥
२७० ॥
भगवान् नारायण का भक्त नरक से नहीं डरता, क्योंकि वह इसे स्वर्ग जाने या मुक्ति के ही समान मानता है। भगवान् नारायण के भक्त इन वस्तुओं को एक-सा ही मानने के अभ्यस्त होते हैं।'
मुक्ति, कर्म–दुइ वस्तु त्यजे भक्त-गण ।।सेइ दुइ स्थाप' तुमि ‘साध्य’, ‘साधन' ॥
२७१॥
भक्तगण मुक्ति तथा सकाम कर्म-इन दोनों का परित्याग करते हैं। आप इन्हें ही जीवन का लक्ष्य तथा उसे प्राप्त करने की विधि के रूप में स्थापित करना चाह रहे हैं।
सन्यासी देखिया मोरे करह वञ्चन ।।ना कहिली तेञि साध्य-साधन-लक्षण ॥
२७२।। श्री चैतन्य महाप्रभु उस तत्त्ववादी आचार्य से कहते रहे, आप मुझे संन्यासी वेश में देखकर मेरे साथ कपटपूर्ण आचरण कर रहे हैं। आपने विधि ( साधन ) तथा चरम लक्ष्य (साध्य) का सही-सही वर्णन नहीं किया है।
शुनि' तत्त्वाचार्य हैला अन्तरे लज्जित । प्रभुर वैष्णवता देखि, हइला विस्मित ॥
२७३॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की बात सुनकर तत्त्ववादी सम्प्रदाय का आचार्य अत्यधिक लज्जित हो गया। वैष्णव-धर्म में श्री चैतन्य महाप्रभु की दृढ़ श्रद्धा देखकर वह आश्चर्यचकित रह गया।
आचार्य कहे,—तुमि ग्रेइ कह, सेइ सत्य हय ।।सर्व-शास्त्रे वैष्णवेर एइ सुनिश्चय ॥
२७४॥
तत्त्ववादी आचार्य ने उत्तर दिया, आपने जो कहा है, वह सत्य है; यही सारे प्रामाणिक वैष्णव शास्त्रों का निर्णय है।
तथापि मध्वाचार्य → करियाछे निर्बन्ध ।सेइ आचरिये सबे सम्प्रदाय-सम्बन्ध ॥
२७५ ॥
। तो भी मध्वाचार्य ने हमारे सम्प्रदाय के लिए जो सूत्र निश्चित कर दिये हैं, हम उन्हीं का पालन सम्प्रदाय की नीति के रूप में करते हैं।
प्रभु कहे,—कर्मी, ज्ञानी,—दुइ भक्ति-हीन ।तोमार सम्प्रदाये देखि सेइ दुइ चिह्न ॥
२७६ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, सकाम कर्मी तथा ज्ञानी-दोनों ही अभक्त माने जाते हैं। हमें ये दोनों आपके सम्प्रदाय में दिखते हैं।
सबे, एक गुण देखि तोमार सम्प्रदाये ।।सत्य-विग्रह करि' ईश्वरे करह निश्चये ॥
२७७॥
मुझे आपके सम्प्रदाय में जो एकमात्र गुण दिखता है, वह यही है। कि आप लोग भगवान् के अर्चाविग्रह को सत्य रूप मानते हैं।
एइ-मत ताँर घरे गर्व चूर्ण करि' ।।फल्गु-तीर्थे तबे चलि आइला गौरहरि ॥
२७८ ॥
। इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने तत्त्ववादियों के गर्व को चूर-चूर कर दिया। तब वे फल्गु तीर्थ गये।
त्रितकूपे विशालार करि' दरशन । पञ्चाप्सरा-तीर्थे आइला शचीर नन्दन ॥
२७९॥
माता शची के पुत्र श्री चैतन्य महाप्रभु तब त्रितकूप गये और वहाँ पर विशाला अर्चाविग्रह का दर्शन करने के बाद वे पंचाप्सरा नामक तीर्थस्थान गये।
गोकर्णे शिव देखि' आइला द्वैपायनि । सूर्पारक-तीर्थे आइला न्यासि-शिरोमणि ॥
२८०॥
पंचाप्सरा की मुलाकात लेने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु गोकर्ण गये। वहाँ उन्होंने शिवजी का मन्दिर देखा और फिर द्वैपायनी गये। तब संन्यासियों में सर्वश्रेष्ठ श्री चैतन्य महाप्रभु सूर्पारक तीर्थ गये।
कोलापुरे लक्ष्मी देखि' देखेन क्षीर-भगवती ।। लाङ्ग-गणेश देखि' देखेन चोर-पार्वती ।। २८१॥
इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु कोलापुर नामक नगर गये, जहाँ उन्होंने क्षीर भगवती के मन्दिर में लक्ष्मीजी को और चोर पार्वती नामक अन्य मन्दिर में लांग गणेश के दर्शन किये।
तथा हैते पाण्डरपुरे आइला गौरचन्द्र ।विठ्ठल-ठाकुर देखि' पाइला आनन्द ॥
२८२॥
वहाँ से श्री चैतन्य महाप्रभु पांडरपुर गये, जहाँ उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक विठ्ठल ठाकुर का मन्दिर देखा।
प्रेमावेशे कैले बहुत कीर्तन-नर्तन ।। ताहाँ एक विप्र ताँरे कैल निमन्त्रण ॥
२८३ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु सदा की तरह कई प्रकार से नृत्य और कीर्तन करने लगे और एक ब्राह्मण उन्हें भावावेश में देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ। उसने महाप्रभु को अपने घर पर भोजन करने के लिए भी आमन्त्रण दिया।
बहुत आदरे प्रभुके भिक्षा कराइल ।।भिक्षा करि' तथा एक शुभ-वार्ता पाइल ॥
२८४॥
इस ब्राह्मण ने अतीव सम्मान सहित तथा प्रेमपूर्वक श्री चैतन्य महाप्रभु को भोजन कराया। भोजन करने के बाद महाप्रभु को शुभ समाचार मिला।
माधव-पुरीर शिष्य'श्री-रङ्ग-पुरी' नाम । सेइ ग्रामे विप्र-गृहे करेन विश्राम ॥
२८५॥
श्री चैतन्य महाप्रभु को यह समाचार मिला कि श्री माधवेन्द्र पुरी के एक शिष्य श्री रंग पुरी उसी गाँव में एक ब्राह्मण के घर उपस्थित हैं।
शुनिया चलिला प्रभु ताँरै देखिबारे ।। विप्र-गृहे वसि' आछेन, देखिला ताँहारे ॥
२८६ ॥
यह समाचार सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु तुरन्त श्री रंग पुरी को मिलने उस ब्राह्मण के घर गये। प्रवेश करते ही महाप्रभु ने उन्हें वहाँ बैठे देखा।
प्रेमावेशे करे ताँरै दण्ड-परणाम ।। अश्रु, पुलक, कम्प, सर्वाङ्गे पड़े घाम ॥
२८७॥
श्री रंग पुरी को देखते ही श्री चैतन्य महाप्रभु ने भूमि पर दण्डवत् गिरकर भावावेश में प्रणाम किया। उनके शरीर में अश्रु, हर्ष, कम्पन तथा स्वेद (पसीने) के दिव्य विकार लक्षण प्रकट हो गये थे।
देखिया विस्मित हैल श्री-रङ्ग-पुरीर मन ।। उठह श्रीपाद बलि' बलिला वचन ॥
२८८ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु को ऐसे भावावेश में देखकर श्रीरंग पुरी ने कहा, हे श्रीपाद, कृपया उठे।
श्रीपाद, धर मोर गोसाजिर सम्बन्ध ।। ताहा विना अन्यत्र नाहि एइ प्रेमार गन्ध ।। २८९॥
हे श्रीपाद, आप श्री माधवेन्द्र पुरी से सम्बन्धित हैं, जिनके बिना प्रेमानन्द की कोई सुगन्ध नहीं होती।
एते बलि' प्रभुके उथाजा कैल आलिङ्गन । गलागलि करि' हे करेन क्रन्दन ॥
२९०॥
यह कहकर श्री रंग पुरी ने श्री चैतन्य महाप्रभु को उठाया और उनका आलिंगन किया। आलिंगन करते समय दोनों भाववश रुदन करने लगे।
क्षणेके आवेश छाड़ि' मुँहार धैर्य हैल ।।ईश्वर-पुरीर सम्बन्ध गोसाजि जानाइल ॥
२९१॥
कुछ क्षणों के बाद उन्हें होश आया, तो वे शान्त हुए। तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने श्री रंग पुरी से ईश्वर पुरी के साथ अपने सम्बन्ध के विषय में बतलाया।
अद्भुत प्रेमेर वन्या वँहार उथलिल ।।हे मान्य करि' हे आनन्दे वसिल ॥
२९२॥
। वे दोनों अपने भीतर उठने वाले अद्भुत प्रेम-भाव से आप्लावित हो उठे। अन्त में दोनों बैठ गये और आदरपूर्वक बातें करने लगे।
दुइ जने कृष्ण-कथा कहे रात्रि-दिने ।।एइ-मते गोवाइल पाँच-सात दिने ।। २९३॥
इस तरह वे दोनों लगातार पाँच-सात दिनों तक कृष्ण-विषयक कथाओं की चर्चा करते रहे।
कौतुके पुरी ताँरै पुछिल जन्म-स्थान ।।गोसाजि कौतुके कहेन 'नवद्वीप' नाम ॥
२९४ ।। श्री रंग पुरी ने उत्सुकतावश चैतन्य महाप्रभु से उनके जन्मस्थान के विषय में पूछा, तो महाप्रभु ने बतलाया कि नवद्वीप धाम उनका जन्मस्थान है।
श्री-माधव-पुरीर सङ्गे श्री-रङ्ग-पुरी ।।पूर्वे आसियाछिला तेंहो नदीया-नगरी ॥
२९५॥
। पहले श्री रंग पुरी श्री माधवेन्द्र पुरी के साथ नवद्वीप जा चुके थे, अतएव उन्हें वहाँ हुई घटनाएँ याद आ गईं।
जगन्नाथ-मिश्र-घरे भिक्षा ग्रे करिल ।।अपूर्व मोचार घण्ट ताहाँ ये खाइल ॥
२९६॥
नवद्वीप का नाम सुनते ही श्री रंग पुरी को स्मरण हो आया कि वे माधवेन्द्र पुरी के साथ जगन्नाथ मिश्र के घर गये थे, जहाँ उन्होंने दोपहर का भोजन किया था। यहाँ तक कि उन्हें केले के फूलों की बनी सब्जी का अद्वितीय स्वाद भी याद आ गया।
जगन्नाथेर ब्राह्मणी, तेंह–महा-पतिव्रता ।वात्सल्ये हयेन तेंह ग्रेन जगन्माता ॥
२९७॥
श्री रंग पुरी को जगन्नाथ मिश्र की पत्नी भी याद आईं। वे अत्यन्त समर्पित तथा पतिव्रता थीं। वात्सल्य में तो वे जगन्माता तुल्य थीं।
रन्धने निपुणा ताँ-सम नाहि त्रिभुवने ।पुत्र-सम स्नेह करेन सन्यासि-भोजने ॥
२९८॥
उन्हें यह भी स्मरण हो आया कि श्री जगन्नाथ मिश्र की पत्नी शचीमाता भोजन बनाने में कैसी निपुण थीं। उन्हें स्मरण हो आया कि वे संन्यासियों के प्रति अत्यधिक स्नेह रखती थीं और उन्हें अपने पुत्रों के समान भोजन कराती थीं।
ताँर एक योग्य पुत्र करियाछे सन्यास ।‘शङ्करारण्य' नाम ताँर अल्प वयस ॥
२९९॥
श्री रंग पुरी यह भी जानते थे कि उनके एक योग्य पुत्र ने कम वय में ही संन्यास ले लिया था। उसका नाम शंकरारण्य था।
एइ तीर्थे शङ्कारण्येर सिद्धि-प्राप्ति हैल ।।प्रस्तावे श्री-रङ्ग-पुरी एतेक कहिल ॥
३००॥
श्री रंग पुरी ने श्री चैतन्य महाप्रभु को बतलाया कि इसी तीर्थ पांडरपुर में शंकरारण्य नामक संन्यासी ने सिद्धि प्राप्त की थी।
प्रभु कहे,—पूर्वाश्रमे तेंह मोर भ्राता ।।जगन्नाथ मिश्र–पूर्वाश्रमे मोर पिता ॥
३०१॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “मेरे पूर्व आश्रम में शंकरारण्य मेरा भाई था और जगन्नाथ मिश्र मेरे पिता थे।
एइ-मत दुइ-जने इष्ट-गोष्ठी करि' ।। द्वारका देखिते चलिला श्री-रङ्ग-पुरी ॥
३०२॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु से बातें करने के बाद श्री रंग पुरी द्वारका धाम के लिए रवाना हो गये।
दिन चारि तथा प्रभुके राखिल ब्राह्मण ।। भीमा-नदी स्नान करि' करेन विठ्ठल दर्शन ॥
३०३॥
श्री रंग पुरी के द्वारका-गमन के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु पाण्डरपुर में उस ब्राह्मण के घर चार दिनों तक और रहे। उन्होंने भीमा नदी में स्नान किया और विठ्ठल-मन्दिर का दर्शन किया।
तबे महाप्रभु आइला कृष्ण-वेण्वा-तीरे ।। नाना तीर्थ देखि' ताहाँ देवता-मन्दिरे ॥
३०४॥
इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु कृष्णवेण्वा नदी के किनारे गये, जहाँ उन्होंने अनेक तीर्थस्थल तथा विभिन्न देवों के मन्दिर देखे।"
ब्राह्मण-समाज सब-वैष्णव-चरित ।। वैष्णव सकल पड़े ‘कृष्ण-कर्णामृत' ॥
३०५॥
वहाँ के ब्राह्मण समाज में सभी शुद्ध भक्त थे, जो नियमित रूप से बिल्वमंगल ठाकुर कृत कृष्णकर्णामृत नामक ग्रंथ का अध्ययन करते थे।
कृष्ण-कर्णामृत शुनि' प्रभुर आनन्द हैल ।। आग्रह करिया पुँथि लेखाजा लैल ॥
३०६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु कृष्णकर्णामृत पुस्तक सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। और उन्होंने बड़ी ही उत्सुकता से उसकी नकल करवाई तथा उसे अपने साथ लेते गये।
‘कर्णामृत'-सम वस्तु नाहि त्रिभुवने । ग्राहा हैते हय कृष्णे शुद्ध-प्रेम-ज्ञाने ॥
३०७॥
तीनों लोकों में कृष्णकर्णामृत की बराबरी का कोई ग्रंथ नहीं है। इस पुस्तक को पढ़ने से कृष्ण की शुद्ध भक्ति का ज्ञान प्राप्त होता है।
सौन्दर्य-माधुर्य-कृष्ण-लीलार अवधि ।। सेइ जाने, ये 'कर्णामृत' पड़े निरवधि ॥
३०८ ॥
। जो व्यक्ति निरन्तर कृष्णकर्णामृत को पढ़ता है, वह भगवान् कृष्ण के सौन्दर्य तथा उनकी लीलाओं के मधुर स्वाद को समझ सकता है।
‘ब्रह्म-संहिता', 'कर्णामृत' दुइ पुँथि पाञा ।। महा-रत्न-प्राय पाइ आइला सङ्गे ला ॥
३०९॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ब्रह्म-संहिता तथा कृष्ण-कर्णामृत नामक दो पुस्तकों को अत्यन्त मूल्यवान रत्न मानते थे। अतएव अपनी वापसी यात्रा में वे इन्हें अपने साथ ले आये।
तापी स्नान करि' आइला माहिष्मती-पुरे ।। नाना तीर्थ देखि ताहाँ नर्मदार तीरे ॥
३१०॥
। इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु तापी नदी के तट पर पहुँचे। वहाँ स्नान करने के बाद वे माहिष्मतीपुर गये। वहाँ रहते हुए उन्होंने नर्मदा नदी के किनारे अनेक तीर्थस्थानों को देखा।
धनुस्तीर्थ देखि' करिला निर्विन्ध्याते स्नाने । ऋष्यमूक-गिरि आइला दण्डकारण्ये ॥
३११॥
। इसके बाद महाप्रभु धनुस्तीर्थ में पहुँचे, जहाँ पर उन्होंने निर्विन्ध्या नदी में स्नान किया। तत्पश्चात् वे ऋष्यमूक पर्वत पर पहुँचे और वहाँ से दण्डकारण्य चले गये।
‘सप्तताल-वृक्ष' देखे कानन-भितर ।अति वृद्ध, अति स्थूल, अति उच्चतर ॥
३१२॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने दण्डकारण्य जंगल के भीतर सप्तताले नामक स्थान देखा। यहाँ के ताड़ के सात वृक्ष अत्यन्त पुराने, मोटे तथा ऊँचे थे।
सप्तताल देखि प्रभु आलिङ्गन कैल ।।सशरीरे सप्तताल वैकुण्ठे चलिल ॥
३१३॥
। सात ताड़ वृक्षों को देखकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें गले लगा लिया। फलस्वरूप वे वृक्ष वैकुण्ठ लोक वापस चले गये।
शून्य-स्थल देखि लोकेर हैल चमत्कार ।।लोके कहे, ए सन्यासी–राम-अवतार ॥
३१४॥
जब सातों ताड़ के वृक्ष वैकुण्ठ लोक चले गये, तो वहाँ के सारे लोग चकित रह गये। तब वे कहने लगे, श्री चैतन्य महाप्रभु नामक यह संन्यासी अवश्य ही भगवान् रामचन्द्र के अवतार हैं।
सशरीरे ताल गेल श्री-वैकुण्ठ-धाम ।।ऐछे शक्ति कार हय, विना एक राम ॥
३१५॥
केवल भगवान् रामचन्द्र में सप्ततालों को वैकुण्ठ लोक भेजने की शक्ति है।
प्रभु आसि' कैल पम्पा-सरोवरे स्नान ।।पञ्चवटी आसि, ताहाँ करिल विश्राम ॥
३१६॥
अन्ततः श्री चैतन्य महाप्रभु पम्पा नामक सरोवर आये, जहाँ उन्होंने स्नान किया। इसके बाद वे पंचवटी गये, जहाँ उन्होंने विश्राम किया।
नासिके त्र्यम्बक देखि' गेला ब्रह्मगिरि ।।कुशावर्ते आइला ग्राहाँ जन्मिला गोदावरी ॥
३१७॥
तत्पश्चात् श्री चैतन्य महाप्रभु नासिक गये, जहाँ उन्होंने त्र्यम्बक (शिवजी ) का दर्शन किया। तब वे ब्रह्मगिरि गये और फिर गोदावरी के उद्गम स्थान कुशावर्त गये।।
सप्त गोदावरी आइला करि' तीर्थ बहुतर । पुनरपि आइला प्रभु विद्यानगर ॥
३१८॥
अन्य अनेक तीर्थों की मुलाकात लेने के बाद महाप्रभु सप्तगोदावरी गये। अन्त में वे विद्यानगर लौट आये।
रामानन्द राय शुनि' प्रभुर आगमन ।। आनन्दे आसिया कैल प्रभु-सह मिलन ॥
३१९॥
। जब रामानन्द राय ने सुना कि श्री चैतन्य महाप्रभु आ गये हैं, तो वे अत्यन्त आनन्दित हो उठे और तुरन्त ही उन्हें मिलने गये।
दण्डवत् हा पड़े चरणे धरिया ।।आलिङ्गन कैल प्रभु ताँरै उठाञा ॥
३२०॥
जब रामानन्द राय श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों को स्पर्श करते हुए दण्डवत् गिर पड़े, तो महाप्रभु ने तुरन्त उन्हें उठा लिया और उनका आलिंगन किया।
दुइ जने प्रेमावेशे करेन क्रन्दन ।प्रेमानन्दे शिथिल हैल मुँहाकार मन ॥
३२१॥
वे दोनों भावाविष्ट होकर रोने लगे और इस तरह उनके मन शिथिल पड़ गये।
कत-क्षणे दुइ जना सुस्थिर हा ।।नाना इष्ट-गोष्ठी करे एकत्र वसिया ॥
३२२॥
कुछ समय के बाद दोनों को होश में आये और वे एकसाथ बैठकर विभिन्न विषयों पर बातें करने लगे।
तीर्थ-यात्रा-कथा प्रभु सकल कहिला ।। कर्णामृत, ब्रह्म-संहिता, दुइ पुँथि दिला ॥
३२३ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने रामानन्द राय को तीर्थस्थानों की यात्रा का सुन्दर विवरण सुनाया और उन्हें बतलाया कि उन्होंने कृष्णकर्णामृत तथा ब्रह्म-संहिता नामक दो ग्रंथ किस तरह प्राप्त किये। महाप्रभु ने दोनों पुस्तकें रामानन्द राय को दे दीं।
प्रभु कहे,—तुमि ग्रेइ सिद्धान्त कहिले । एई दुइ पुँथि सेइ सब साक्षी दिले ॥
३२४॥
। महाप्रभु ने कहा : आपने मुझसे भक्ति के विषय में जो कुछ कहा है, उसकी पुष्टि इन दोनों पुस्तकों से होती है।
रायेर आनन्द हैल पुस्तक पाइयो । प्रभु-सह आस्वादिल, राखिल लिखिया ॥
३२५॥
। इन पुस्तकों को पाकर रामानन्द राय अत्यन्त हर्षित हुए। उन्होंने महाप्रभु के साथ मिलकर इनका रसास्वादन किया और दोनों की एक प्रतिलिपि तैयार कर ली।
‘गोसाञि आइला' ग्रामे हैल कोलाहल ।।प्रभुके देखिते लोक आइल सकल ॥
३२६॥
विद्यानगर गाँव में श्री चैतन्य महाप्रभु के आने की खबर फैल गई और सारे लोग एक बार फिर उनके दर्शन के लिए आये।
लोक देखि ' रामानन्द गेला निज-घरे ।।मध्याह्न उठिला प्रभु भिक्षा करिबारे ॥
३२७॥
। यहाँ पर एकत्र लोगों को देखकर श्री रामानन्द राय अपने घर चले आये। दोपहर में श्री चैतन्य महाप्रभु भोजन करने के लिए उठे।
रात्रि-काले राय पुनः कैल आगमन ।। दुइ जने कृष्ण-कथाय कैल जागरण ॥
३२८ ।। रामानन्द राय रात्रि में फिर आये और वे तथा चैतन्य महाप्रभु दोनों कृष्ण-विषयक कथाओं पर चर्चा करते रहे। उन्होंने इसी तरह रात बिताई।
दुइ जने कृष्ण-कथा कहे रात्रि-दिने । परम-आनन्दे गेल पाँच-सात दिने ॥
३२९॥
रामानन्द राय तथा श्री चैतन्य महाप्रभु रात-दिन कृष्ण-कथा की चर्चा करते रहे। इस तरह उन्होंने बड़े ही आनन्द में पाँच-सात दिन बिता दिये।।
रामानन्द कहे,—प्रभु, तोमार आज्ञा पाळा ।।राजाके लिखिलॆ आमि विनय करिया ॥
३३०॥
रामानन्द राय ने कहा, “हे प्रभु, आपकी अनुमति से मैं विनयपूर्वक राजा को एक पत्र लिख चुका हूँ।
राजा मोरे आज्ञा दिल नीलाचले ग्राइते । चलिबार उद्योग आमि लागियाछि करिते ॥
३३१॥
राजा ने मुझे जगन्नाथ पुरी लौट जाने का आदेश दे दिया है और मैं वापस जाने का प्रबन्ध कर रहा हूँ।
प्रभु कहे,---एथा मोर ए-निमित्ते आगमन ।। तोमा ला नीलाचले करिब गमन ॥
३३२॥
। तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, मैं केवल इसी कार्य के लिए यहाँ लौटकर आया हूँ। मैं आपको अपने साथ जगन्नाथ पुरी ले चलना चाहता हूँ।
राय कहे,--प्रभु, आगे चल नीलाचले ।।मोर सङ्गे हाती-घोड़ा, सैन्य-कोलाहले ॥
३३३॥
। रामानन्द राय ने कहा, हे प्रभु, अच्छा यही होगा, यदि आप जगन्नाथ पुरी अकेले जायें, क्योंकि मेरे साथ अनेक घोड़े, हाथी तथा सैनिक होंगे, जिनके कारण बहुत कोलाहल मचता रहेगा।
दिन-दशे इहा-सबार करि' समाधान ।।तोमार पाछे पाछे आमि करिब प्रयाण ॥
३३४॥
मैं दस दिनों में सारी तैयारी कर लूंगा। मैं जल्दी ही आपके पीछेपीछे नीलाचल आऊँगा।
तबे महाप्रभु ताँरे आसिते आज्ञा दिया ।नीलाचले चलिला प्रभु आनन्दित हुआ ॥
३३५॥
रामानन्द राय को नीलाचल आने की आज्ञा देकर श्री चैतन्य महाप्रभु अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक जगन्नाथ पुरी के लिए चल दिये।
येइ पथे पूर्वे प्रभु कैला आगमन ।। सेइ पथे चलिला देखि, सर्व वैष्णव-गण ॥
३३६ ॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु जिस रास्ते से पहले विद्यानगर आये थे, उसी से लौटे और सारे वैष्णवजन रास्ते में उन्हें फिर से मिले।
याहाँ याय, लोक उठे हरि-ध्वनि करि' ।। देखि आनन्दिते-मन हैला गौरहरि ॥
३३७॥
जहाँ कहीं भी श्री चैतन्य महाप्रभु जाते, श्री हरि के नाम का उच्चारण होता। यह देखकर महाप्रभु अत्यन्त प्रसन्न हुए।
आलालनाथे आसि' कृष्णदासे पाठाइल ।।नित्यानन्द-आदि निज-गणे बोलाइल ॥
३३८ ॥
आलालनाथ पहुँचकर महाप्रभु ने अपने सहायक कृष्णदास को नित्यानन्द प्रभु तथा अन्य निजी संगियों को बुलाने के उद्देश्य से आगे भेज दिया।
प्रभुर आगमन शुनि' नित्यानन्द राय ।।उठिया चलिला, प्रेमे थेह नाहि पाय ॥
३३९॥
ज्योंही नित्यानन्द प्रभु ने श्री चैतन्य महाप्रभु के आगमन की खबर सुनी, त्योंही वे तुरन्त उठकर उन्हें मिलने चल दिये। वे महान् भाव के कारण अत्यन्त अधीर हो उठे।
जगदानन्द, दामोदर-पण्डित, मुकुन्द ।।नाचिया चलिला, देहे ना धरे आनन्द ॥
३४०॥
आनन्द के मारे श्री नित्यानन्द राय, जगदानन्द, दामोदर पण्डित तथा मुकुन्द भावविभोर हो उठे और वे रास्ते-भर नाचते हुए महाप्रभु से मिलने गये।
गोपीनाथाचार्य चलिला आनन्दित हजा।।प्रभुरे मिलिला सबे पथे लाग्पञिा ॥
३४१॥
गोपीनाथ आचार्य भी अत्यन्त प्रसन्न मुद्रा में गये। वे सब महाप्रभु से मिलने गये और अन्त में रास्ते में ही उन सबकी भेंट हो गई।
प्रभु प्रेमावेशे सबाय कैल आलिङ्गन ।।प्रेमावेशे सबे करे आनन्द-क्रन्दन ॥
३४२॥
। महाप्रभु भी प्रेमवश हो गये और उन्होंने सबका आलिंगन किया। वे सभी प्रेमवश आनन्दित होकर रोने लगे।
सार्वभौम भट्टाचार्य आनन्दे चलिला ।। समुद्रेर तीरे आसि' प्रभुरे मिलिला ॥
३४३॥
सार्वभौम भट्टाचार्य भी परम आनन्दित होकर महाप्रभु से मिलने गये, और उनकी भेंट समुद्र के किनारे हो गई।
सार्वभौम महाप्रभुर पड़िला चरणे ।। प्रभु ताँरै उठाजा कैल आलिङ्गने ॥
३४४॥
सार्वभौम भट्टाचार्य महाप्रभु के चरणकमलों पर गिर पड़े और महाप्रभु ने उन्हें उठाकर उनका आलिंगन किया।
प्रेमावेशे सार्वभौम करिला रोदने । सबा-सङ्गे आइला प्रभु ईश्वर-दरशने ॥
३४५॥
सार्वभौम भट्टाचार्य अत्यधिक प्रेमावेश में रोने लगे। तब महाप्रभु सबके साथ जगन्नाथ मन्दिर गये।
जगन्नाथ-दरशन प्रेमावेशे कैल ।। कम्प-स्वेद-पुलकाश्रुते शरीर भासिल ॥
३४६॥
भगवान् जगन्नाथ का दर्शन करते समय प्रेमावेश के कारण कम्पन, स्वेद, अश्रु तथा पुलक से महाप्रभु का शरीर आप्लावित हो उठा।
बहु नृत्य-गीत कैल प्रेमाविष्ट हो । पाण्डा-पाल आइल सबे माला-प्रसाद लञा ॥
३४७॥
।श्री चैतन्य महाप्रभु प्रेमावेश के कारण नाचने लगे और कीर्तन करने लगे। उस समय सारे पाण्डे तथा पुजारी उन्हें भगवान जगन्नाथ का प्रसाद तथा माला देने आये।
माला-प्रसाद पाञा प्रभु सुस्थिर हुइला । जगन्नाथेर सेवक सब आनन्दे मिलिला ॥
३४८॥
भगवान् जगन्नाथ की माला तथा प्रसाद पाकर श्री चैतन्य महाप्रभु सन्तुष्ट हुए। भगवान् जगन्नाथ के सारे सेवक बहुत ही प्रसन्नतापूर्वक श्री चैतन्य महाप्रभु से मिले।
काशी-मिश्र आसि' प्रभुर पड़िला चरणे ।। मान्य करि' प्रभु ताँरै कैल आलिङ्गने ॥
३४९॥
बाद में काशी मिश्र आये और वे महाप्रभु के चरणकमलों पर गिर पड़े। महाप्रभु ने बड़े ही आदर से उनका आलिंगन किया।
प्रभु ला सार्वभौम निज-घरे गेला ।मोर घरे भिक्षा बलि' निमन्त्रण कैला ॥
३५०॥
तब सार्वभौम भट्टाचार्य महाप्रभु को अपने साथ अपने घर यह कहकर ले गये, “आज आप मेरे घर में भोजन करेंगे। इस तरह उन्होंने महाप्रभु को आमन्त्रित किया।
दिव्य महाप्रसाद अनेक आनाइल ।।पीठा-पाना आदि जगन्नाथ ने खाइल ॥
३५१॥
सार्वभौम भट्टाचार्य भगवान् जगन्नाथ द्वारा छोड़े गये विविध प्रकार के प्रसाद ले आये। वे अनेक प्रकार के पकवान तथा औंटे दूध की बनी वस्तुएँ ले आये।
मध्याह्न करिला प्रभु निज-गण लञा ।।सार्वभौम-घरे भिक्षा करिला आसिया ॥
३५२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु अपने संगियों समेत सार्वभौम भट्टाचार्य के घर गये। और वहाँ दोपहर का भोजन किया।
भिक्षा कराळा ताँरै कराइल शयन ।। आपने सार्वभौम करे पाद-संवाहन ॥
३५३॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु को भोजन कराने के बाद सार्वभौम भट्टाचार्य ने उन्हें विश्राम के लिए शयन कराया और स्वयं उनके पाँव दबाने लगे।
प्रभु ताँरे पाठाइल भोजन करते ।। सेइ रात्रि ताँर घरे रहिला ताँर प्रीते ॥
३५४॥
तब महाप्रभु ने सार्वभौम भट्टाचार्य से कहा कि जाकर भोजन करें और महाप्रभु उन्हें प्रसन्न करने के लिए उस रात्रि उन्हीं के घर रुके।
सार्वभौम-सङ्गे आर लञा निज-गण ।। तीर्थ-यात्रा-कथा कहि' कैल जागरण ॥
३५५ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनके निजी संगी सार्वभौम भट्टाचार्य के यहीं रहे। वे सारी रात महाप्रभु की तीर्थयात्रा का वृत्तान्त सुनते हुए जगते रहे।
प्रभु कहे,—एत तीर्थ कैलँ पर्यटन । तोमा-सम वैष्णव ना देखिलॅ एक-जन ॥
३५६॥
महाप्रभु ने सार्वभौम भट्टाचार्य से कहा, मैंने अनेक तीर्थस्थानों की यात्रा की है, किन्तु कहीं भी आप जैसा वैष्णव नहीं देखा।।
एक रामानन्द राय बह सख दिल ।। भट्ट कहे,—एइ लागि' मिलिते कहिले ॥
३५७॥
श्री चैतन्य महाप्रभु कहते रहे, रामानन्द राय की बातों से मुझे बहुत सुख प्राप्त हुआ। भट्टाचार्य ने उत्तर दिया, इसीलिए मैंने आपसे विनती की थी कि आप उनसे अवश्य मिलें।
तीर्थ-यात्रा-कथा एइ कैलँ समापन । सङ्क्षेपे कहिलँ, विस्तार ना ग़ाय वर्णन ॥
३५८ ॥
इस तरह मैंने श्री चैतन्य महाप्रभु की तीर्थयात्रा का वर्णन संक्षेप में पूरा किया है। इसे और विस्तार से नहीं बतलाया जा सकता।
अनन्त चैतन्य-लीला कहिते ना जानि ।।लोभे लज्जा खाजा तार करि टानाटानि ॥
३५९॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाएँ अनन्त हैं। उनके कार्यकलापों का कोई ठीक से वर्णन नहीं कर सकता, फिर भी लोभवश मैंने चेष्टा की है। इससे मेरी निर्लज्जता ही प्रकट होती है।
भुर तीर्थ-यात्रा-कथा शुने येइ जन ।।चैतन्य-चरणे पाय गाढ़ प्रेम-धन ॥
३६०॥
जो कोई भी श्री चैतन्य महाप्रभु की विभिन्न तीर्थस्थानों की यात्रा के विषय में सुनता है, वह प्रगाढ़ प्रेमभाव रूपी धन को प्राप्त करता है।
चैतन्य-चरित शुन श्रद्धा-भक्ति करि' ।। मात्सर्घ छाड़िया मुखे बल ‘हरि' ‘हरि' ॥
३६१॥
कृपया श्रद्धा तथा भक्ति के साथ श्री चैतन्य महाप्रभु की दिव्य लीलाओं का श्रवण करें। सब लोग भगवान् से ईष्र्या करना छोड़कर भगवान् के पवित्र नाम हरि का कीर्तन करो।
एइ कलि-काले आर नाहि कोन धर्म ।। वैष्णव, वैष्णव-शास्त्र, एइ कहे मर्म ॥
३६२॥
। इस कलियुग में कोई असली धर्म नहीं रहा। केवल वैष्णव भक्तों तथा वैष्णव शास्त्रों द्वारा स्थापित सिद्धान्त रह गये हैं। यही सभी बातों का सार है।
चैतन्य-चन्द्रेर लीला–अगाध, गम्भीर । प्रवेश करते नारि,-स्पर्श रहि' तीर ॥
३६३ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाएँ अगाध समुद्र की भाँति हैं। उनमें प्रवेश कर पाना मेरे लिए सम्भव नहीं है। मैं तो समुद्र-तट पर खड़े होकर केवल जल का स्पर्श कर रहा हूँ।
चैतन्य-चरित श्रद्धाय शुने ग्रेइ जन । । ग्रतेक विचारे, तत पाय प्रेम-धन ।। ३६४॥
जितना अधिक कोई श्रद्धापूर्वक श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं को सुनता है और व्याख्या करके उनका अध्ययन करता है, उतना ही अधिक। वह भगवत्प्रेम रूपी धन को प्राप्त करता है।
श्री-रूप-रघुनाथ-पदे ग्रार आश । ।चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
३६५॥
श्री रूप और श्री रघुनाथ के चरणकमलों पर प्रार्थना करते हुए तथा सदैव उनकी कृपा की कामना करते हुए मैं कृष्णदास उनके चरणचिहों पर चलकर श्री चैतन्य-चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।
अध्याय दस: भगवान की जगन्नाथ पुरी में वापसी
तं वन्दे गौर-जलदं स्वस्य स्रो दर्शनामृतैः ।। विच्छेदावग्रह-म्लान-भक्त-शस्यान्यजीवयत् ॥
१॥
मैं उन श्री चैतन्य महाप्रभु को सादर नमस्कार करता हूँ, जो वर्षा की कमी से कष्ट पा रहे भक्तरूपी धान्य के खेतों में जल बरसाने वाले बादल की तरह हैं। श्री चैतन्य महाप्रभु का वियोग सूखे की तरह है, किन्तु जब महाप्रभु लौटते हैं, तो उनकी उपस्थिति उस अमृत-वर्षा की तरह है, जो सूखते हुए अनाज पर बरसकर उसे नष्ट होने से बचा लेती है।
जय जय श्री-चैतन्य जय नित्यानन्द ।। जयाद्वैत-चन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ॥
२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! अद्वैत आचार्य की जय हो तथा भगवान् चैतन्य के समस्त भक्तों की जय हो! पूर्वे ग्रबे महाप्रभु चलिला दक्षिणे । प्रतापरुद्र राजा तबे बोलाइल सार्वभौमे ॥
३॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु दक्षिण भारत के लिए चल पड़े, तब राजा प्रतापरुद्र ने सार्वभौम भट्टाचार्य को अपने महल में बुलाया।
वसिते आसन दिल करि' नमस्कारे ।महाप्रभुर वार्ता तबे पुछिल ताँहारे ॥
४॥
जब सार्वभौम भट्टाचार्य राजा से मिले, तो राजा ने उन्हें सम्मानपूर्वक आसन प्रदान किया और श्री चैतन्य महाप्रभु का समाचार पूछा।
शुनिलाङ तोमार घरे एक महाशय । गौड़ हइते आइला, तेंहो महा-कृपामय ॥
५॥
राजा ने भट्टाचार्य से कहा, मैंने सुना है कि बंगाल से एक महापुरुष आये हैं, जो आपके घर ठहरे हैं। मैंने यह भी सुना है कि वे अत्यन्त कृपालु हैं।
तोमारे बहु कृपा कैला, कहे सर्व-जन । कृपा करि' कराह मोरे ताँहार दर्शन ॥
६॥
मैंने यह भी सुना है कि इस महापुरुष ने आप पर महती कृपा की है। जो भी हो, विभिन्न लोगों से मैं यही सुन रहा हूँ। अब आप कृपा करके मेरी उनसे भेंट कराकर मुझे कृतार्थ करें।
भट्ट कहे,—ये शुनिला सब सत्य हय । ताँर दर्शन तोमार घटन ना हय ॥
७॥
भट्टाचार्य ने उत्तर दिया, आपने जो कुछ भी सुना है, वह सत्य है। किन्तु जहाँ तक भेंट करने की बात है, उसका प्रबन्ध कर पाना अत्यन्त कठिन है।
विरक्त सन्यासी तेंहो रहेन निर्जने ।स्वप्नेह ना करेन तेहो राज-दरशने ॥
८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु संन्यासी हैं और सांसारिक मामलों से अत्यधिक विरक्त हैं। वे निर्जन स्थान में ठहरते हैं और सपने में भी किसी राजा से भेंट नहीं करते।
तथापि प्रकारे तोमा कराइताम दरशन ।सम्प्रति करिला तेंहो दक्षिण गमन ॥
९॥
इतने पर भी मैं आपकी भेंट कराने का प्रयास करता, किन्तु वे हाल ही में दक्षिण भारत के भ्रमण पर गये हैं।
राजा कहे,—जगन्नाथ छाड़ि' केने गेला ।।भट्ट कहे,—महान्तेर एइ एक लीला ॥
१०॥
राजा ने पूछा, उन्होंने जगन्नाथ पुरी को क्यों छोड़ा?' भट्टाचार्य ने उत्तर दिया, महापुरुषों की लीलाएँ ही ऐसी हैं।
तीर्थ पवित्र करिते करे तीर्थ-भ्रमण ।सेइ छले निस्तारये सांसारिक जन ॥
११॥
“बड़े-बड़े सन्त तीर्थस्थानों को पवित्र बनाने के लिए उनकी यात्रा करते हैं। इसीलिए चैतन्य महाप्रभु अनेक तीर्थों का भ्रमण कर रहे हैं और अनेकानेक बद्धजीवों का उद्धार कर रहे हैं।
भवद्विधा भागवतास्तीर्थी-भूताः स्वयं विभो ।तीर्थी-कुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्तः-स्थेन गदा-भृता ॥
१२॥
आप जैसे सन्त पुरुष साक्षात् तीर्थ हैं। वे अपनी शुद्धता के कारण भगवान् के चिरन्तन संगी हैं, अतएव वे तीर्थों को भी शुद्ध कर सकते हैं।'
वैष्णवेर एइ हय एक स्वभाव निश्चल ।।तेंहो जीव नहेन, हन स्वतन्त्र ईश्वर ॥
१३॥
। वैष्णव तीर्थस्थानों की यात्रा उन्हें पवित्र बनाने तथा पतित बद्धजीवों का उद्धार करने के लिए करता है। यह वैष्णवों का कर्तव्य है। वास्तव में श्री चैतन्य महाप्रभु जीव नहीं, अपितु साक्षात् पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान् हैं। फलस्वरूप वे पूर्णतः स्वतन्त्र नियन्ता हैं, फिर भी भक्तरूप में वे भक्त के कार्य करते हैं।
राजा कहे,—तौरै तुमि ग्राइते केने दिले ।।पाय पड़ि' ग्रल करि' केने ना राखिले ॥
१४॥
यह सुनकर राजा ने कहा, आपने उन्हें क्यों जाने दिया? आपने उनके चरणकमलों पर गिरकर उन्हें यहीं क्यों नहीं रखा? भट्टाचार्य कहे,—तेंहो स्वयं ईश्वर स्वतन्त्र ।साक्षात्श्रीकृष्ण, तेहो नहे पर-तन्त्र ॥
१५ ॥
सार्वभौम भट्टाचार्य ने उत्तर दिया, श्री चैतन्य महाप्रभु स्वयं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं और वे पूर्ण तथा स्वतन्त्र हैं। साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण होने के कारण वे किसी पर आश्रित नहीं हैं।
तथापि राखिते ताँरै बहु ग्रन कैलँ।।ईश्वरेर स्वतन्त्र इच्छा, राखिते नारिलें ॥
१६॥
फिर भी मैंने उन्हें यहाँ रखने के लिए बहुत प्रयत्न किया, किन्तु वे परम भगवान् हैं तथा पूर्णतया स्वतन्त्र हैं, अतएव मैं इसमें सफल नहीं हो सका।
राजा कहे,——भट्ट तुमि विज्ञ-शिरोमणि ।तुमि ताँरै 'कृष्ण' कह, ताते सत्य मानि ॥
१७॥
राजा ने कहा, हे भट्टाचार्य, मैं जिन्हें जानता हूँ उनमें से आप सर्वाधिक विद्वान तथा अनुभवी व्यक्ति हैं। अतएव जब आप श्री चैतन्य महाप्रभु को भगवान् कृष्ण कहते हैं, तो मैं इसको सत्य के रूप में स्वीकार करता हूँ।
पुनरपि इहाँ ताँर हैले आगमन । एक-बार देखि करि सफल नयन ॥
१८ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु जब पुनः यहाँ आयें, तो मैं अपने नेत्रों को सफल बनाने के लिए उनका एक बार दर्शन करना चाहता हूँ।
भट्टाचार्य कहे, तेंहो आसिबे अल्प-काले । रहिते ताँरे एक स्थान चाहिये विरले ॥
१९॥
सार्वभौम भट्टाचार्य ने उत्तर दिया, श्री चैतन्य महाप्रभु शीघ्र ही लौट आयेंगे। मैं उनके लिए एक उत्तम स्थान चाहता हूँ, जो एकान्त तथा शान्त हो।
ठाकुरेर निकट, आर हइबे निर्जने । ए-मत निर्णय करि' देह' एक स्थाने ॥
२०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु का निवासस्थान एकान्त में हो तथा जगन्नाथ मन्दिर के निकट भी। आप इस प्रस्ताव पर विचार करें और उनके लिए एक अच्छा-सा स्थान दें।
राजा कहे,—ऐछे काशी-मिश्रेर भवन । ठाकुरेर निकट, हय परम निर्जन ॥
२१॥
राजा ने उत्तर दिया, आप जैसा चाहते हैं, काशी मिश्र का घर वैसा ही है। वह मन्दिर के निकट है और अत्यन्त निर्जन तथा शान्त भी है।
एत कहि' राजा रहे उत्कण्ठित हजा। भट्टाचार्य काशी-मिश्रे कहिल आसिया ॥
२२॥
यह कहकर राजा महाप्रभु के पुनरागमन के लिए अत्यन्त आतुर । उठे। तब सार्वभौम भट्टाचार्य काशी मिश्र के घर राजा की इच्छा त्यातला गये।
काशी-मिश्र कहे,—आमि बड़ भाग्यवान् । मोर गृहे 'प्रभु-पादेर' हबे अवस्थान ॥
२३॥
जब काशी मिश्र ने यह प्रस्ताव सुना तो उन्होंने कहा, मैं पर। भाग्यवान् हूँ कि समस्त प्रभुओं के स्वामी श्री चैतन्य महाप्रभु मेरे घर । ठहरेंगे।
एइ-मत पुरुषोत्तम-वासी मृत जन । प्रभुके मिलिते सबार उत्कण्ठित मन ॥
२४॥
इस तरह जगन्नाथ पुरी अर्थात् पुरुषोत्तम के सारे निवासी श्री चैतन्य महाप्रभु से फिर से भेंट करने के लिए परम उत्सुक हो गये।
सर्व-लोकेर उत्कण्ठा ग्रबे अत्यन्त बाड़िल । महाप्रभु दक्षिण हैते तबहि आइल ॥
२५॥
जब जगन्नाथ पुरी के सारे निवासी पुनः महाप्रभु से भेंट करने के लिए अत्यन्त उत्सुक हो गये, तभी महाप्रभु दक्षिण भारत से लौट आये।
शुनि' आनन्दित हैल सबाकार मन ।। सबे आसि' सार्वभौमे कैल निवेदन ॥
२६॥
महाप्रभु की वापसी के बारे में सुनकर सभी लोग अत्यन्त प्रसन्न हुए और वे सभी लोग सार्वभौम भट्टाचार्य के पास जाकर इस प्रकार बोले।
प्रभुर सहित आमा-सबार कराह मिलने । तोमार प्रसादे पाइ प्रभुर चरण ॥
२७॥
।कृपा करके श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ हमारी भेंट कराने की व्यवस्था कर दें। आपकी कृपा के बल पर ही हमें महाप्रभु के चरणकमलों की शरण प्राप्त हो सकती है।
भट्टाचार्य कहे,—कालि काशी-मिश्रेर घरे । प्रभु ग्राइबेन, ताहाँ मिलाब सबारे ॥
२८॥
भट्टाचार्य ने लोगों से कहा, महाप्रभु कल काशी मिश्र के घर पर होंगे। तभी मैं आप लोगों की उनसे मिलने की व्यवस्था करूंगा।
आर दिन महाप्रभु भट्टाचार सङ्गे।।जगन्नाथ दरशन कैल महा-रङ्गे ॥
२९॥
अगले दिन श्री चैतन्य महाप्रभु आ गये और वे बड़े ही उत्साहपूर्वक सार्वभौम भट्टाचार्य के साथ भगवान जगन्नाथ के मन्दिर में दर्शन करणे गये।
महाप्रसाद दिया ताहाँ मिलिला सेवक-गण ।महाप्रभु सबाकारे कैल आलिङ्गन ॥
३०॥
। भगवान जगन्नाथ के सारे सेवकों ने चैतन्य महाप्रभु को भगवान् का प्रसाद लाकर दिया। तब बदले में, चैतन्य महाप्रभु ने उन सबका आलिंगन किया।
दर्शन करि' महाप्रभु चलिला बाहिरे ।भट्टाचार्य आनिल ताँरै काशी-मिश्र-घरे ॥
३१॥
भगवान् जगन्नाथ का दर्शन करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु मन्दिर से बाहर आ गये। फिर भट्टाचार्य उन्हें काशी मिश्र के घर ले गये।।
काशी-मिश्र आसि' पड़िल प्रभुर चरणे ।। गृह-सहित आत्मा ताँरे कैल निवेदने ॥
३२॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु काशी मिश्र के घर आये, तो वे तुरन्त उनके अरणकमलों पर गिर पड़े और उन्होंने स्वयं को तथा अपने सारे घर-बार को उनकी शरण में दे दिया।
प्रभु चतुर्भुज-मूर्ति ताँरै देखाइल । आत्मसात्करि' तारे आलिङ्गन कैले ॥
३३॥
तब महाप्रभु ने काशी मिश्र को अपना चतुर्भुज स्वरूप दिखलाया। महाप्रभु ने उसकी सेवा स्वीकार की और उसे गले लगाया।
तबे महाप्रभु ताहाँ वसिला आसने ।चौदिके वसिला नित्यानन्दादि भक्त-गणे ॥
३४॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु अपने लिए तैयार किये गये आसन पर बैठ गये और नित्यानन्द प्रभु समेत सारे भक्तगण उनके चारों ओर बैठ गये।
सुखी हैला देखि' प्रभु वासार संस्थान ।। येइ वासाय हय प्रभुर सर्व-समाधान ॥
३५॥
श्री चैतन्य महाप्रभु अपने निवासस्थान को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए, जिसमें उनकी सारी आवश्यकताओं को पूरा करने का ध्यान रखा गया था।
सार्वभौम कहे,—प्रभु, योग्य तोमार वासा । तुमि अङ्गीकार कर, काशी-मिश्रेर आशा ॥
३६॥
इसके बाद सार्वभौम भट्टाचार्य महाप्रभु की दाहिनी ओर बैठकर पुरुषोत्तम अर्थात् जगन्नाथ पुरी के सारे निवासियों का परिचय कराने लगे।।
प्रभु कहे,—एइ देह तोमा-सबाकार ।। ग्रेइ तुमि कह, सेइ सम्मत आमार ॥
३७॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, 'यह मेरा शरीर आप सबका है। अतएव आप लोग जो भी कहेंगे, वह मुझे स्वीकार है।
तबे सार्वभौम प्रभुर दक्षिण-पश्र्थेि वसि' ।मिलाइते लागिला सब पुरुषोत्तम-वासी ॥
३८॥
सार्वभौम भट्टाचार्य ने कहा, “यह स्थान आपके अनुकूल है। कृपया इसे स्वीकार करें; ऐसी काशी मिश्र की आशा है।
एइ सब लोक, प्रभु, वैसे नीलाचले ।उत्कण्ठित हाछे सबे तोमा मिलिबारे ॥
३९॥
भट्टाचार्य ने कहा, “हे प्रभु, ये नीलाचल के सारे निवासी आपसे । मिलने के लिए अत्यन्त उत्सुक हो रहे हैं।
तृषित चातक ग्रैछे करे हाहाकार । तैछे एइ सब,—सबे कर अङ्गीकार ॥
४०॥
। आपकी अनुपस्थिति में ये सारे लोग प्यासे चातकों की तरह निराश होकर रोदन कर रहे थे। कृपया इन्हें अपनी शरण में लें।
जगन्नाथ-सेवक एइ, नाम-जनार्दन । अनवसरे करे प्रभुर श्री-अङ्ग-सेवन ॥
४१॥
सार्वभौम भट्टाचार्य ने सर्वप्रथम जनार्दन का परिचय देते हुए कहा, यह भगवान जगन्नाथ का सेवक जनार्दन है। यह भगवान् की तब सेवा करता है, जब उनके दिव्य शरीर को नया बनाया जाता है।
कृष्णदास-नाम एइ सुवर्ण-वेत्र-धारी । शिखि माहाति-नाम एइ लिखनाधिकारी ॥
४२॥
सार्वभौम भट्टाचार्य ने बतलाया, यह कृष्णदास है, जो सोने का एक दण्ड लिए रहता है और यह है शिखि माहिति जो लेखन अधिकारी प्रद्युम्न-मिश्र इँह वैष्णव प्रधान । जगन्नाथेर महा-सोयार इँह 'दास' नाम ॥
४३॥
यह प्रद्युम्न मिश्र है, जो सारे वैष्णवों का मुखिया है। यह जगन्नाथजी का महान् सेवक है और इसका नाम 'दास' है।
मुरारि माहाति ईंह–शिखि-माहातिर भाइ ।तोमार चरण विनु आर गति नाइ ॥
४४॥
यह शिखि माहिति का भाई मुरारि माहिती है। आपके चरणकमलों के अतिरिक्त इसका अन्य कोई आश्रय नहीं है।
चन्दनेश्वर, सिंहेश्वर, मुरारि ब्राह्मण । विष्णुदास,—इँह ध्याये तोमार चरण ॥
४५ ॥
ये चन्दनेश्वर, सिंहेश्वर, मुरारि ब्राह्मण तथा विष्णुदास हैं। ये सभी निरन्तर आपके चरणकमलों का ध्यान करने में लगे रहते हैं।
प्रहरराज महापात्र इँह महा-मति ।। परमानन्द महापात्र इँहार संहति ॥
४६॥
ये परमानन्द प्रहरराज हैं, जो महापात्र नाम से भी जाने जाते हैं। ये अत्यधिक बुद्धिमान हैं।
ए-सब वैष्णव-एइ क्षेत्रेर भूषण । एकान्त-भावे चिन्ते सबे तोमार चरण ॥
४७॥
ये सारे शुद्ध भक्त जगन्नाथ पुरी के आभूषणों के समान सेवा करते हैं। ये सभी आपके चरणकमलों का अविचलित भाव से ध्यान करते हैं।
तबे सबे भूमे पड़े दण्डवत् हा ।सबा आलिङ्गिला प्रभु प्रसाद करिया ॥
४८॥
इस परिचय के बाद सारे लोग जमीन पर डण्डे की तरह गिर पड़े। श्री चैतन्य महाप्रभु ने हर एक पर कृपा करके उन सबका आलिंगन किया।
हेन-काले आइला तथा भवानन्द राय ।।चारि-पुत्रे-सङ्ग पड़े महाप्रभुर पाय ॥
४९।। तभी भवानन्द राय अपने चार पुत्रों के साथ आये और वे सभी श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों पर गिर पड़े।
सार्वभौम कहे,——एइ राय भवानन्द ।।इँहार प्रथम पुत्र राय रामानन्द ॥
५०॥
सार्वभौम भट्टाचार्य ने आगे बतलाया, ये भवानन्द राय हैं, जिनके प्रथम पुत्र रामानन्द राय हैं।
तबे महाप्रभु ताँरे कैल आलिङ्गन ।स्तुति करि' कहे रामानन्द-विवरण ॥
५१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने भवानन्द राय का आलिंगन किया और बड़े ही आदर के साथ उनके पुत्र रामानन्द राय का बखान किया।
रामानन्द-हेन रत्न झाँहार तनय ।। ताँहार महिमा लोके कहन ना ग्राय ॥
५२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने भवानन्द राय का यह कहकर सम्मान किया, जिस व्यक्ति को रामानन्द राय जैसा पुत्र-रत्न हो, उसकी महिमा का वर्णन इस मर्त्यलोक में नहीं किया जा सकता।
साक्षात्पाण्डु तुमि, तोमार पत्नी कुन्ती । पञ्च-पाण्डव तोमार पञ्च-पुत्र महा-मति ॥
५३॥
आप साक्षात् महाराज पाण्डु हैं और आपकी पत्नी साक्षात् कुन्ती हैं। आपके सारे के सारे पुत्र अत्यन्त बुद्धिमान हैं, जो पाँचों पाण्डवों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
राय कहे,—आमि शूद्र, विषयी, अधम । तबु तुमि स्पर्श,—एइ ईश्वर-लक्षण ॥
५४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा की गई प्रशंसा सुनकर भवानन्द राय ने निवेदन किया, “मैं चार वर्षों में चौथा (शूद्र) हूँ और सांसारिक कार्यों में लगा रहने वाला प्राणी हूँ। मैं अत्यन्त पतित हूँ, फिर भी आपने मेरा स्पर्श किया। यह इसका प्रमाण है कि आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं।
निज-गृह-वित्त-भृत्य-पञ्च-पुत्र-सने ।।आत्मा समर्पिलें आमि तोमार चरणे ॥
५५॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा की प्रशंसा करते हुए भवानन्द राय ने यह भी कहा, 'मैं अपने घर, धन, नौकरों तथा पाँचों पुत्र समेत आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करता हूँ।
एइ वाणीनाथ रहिबे तोमर चरणे ।ग्रबे ग्रेइ आज्ञा, ताहा करिबे सेवने ॥
५६॥
। यह वाणीनाथ नामक मेरा पुत्र आपके चरणकमलों में रहकर आपके आदेशों का तुरन्त पालन करेगा और आपकी सेवा करता रहेगा।
आत्मीय-ज्ञाने मोरे सङ्कोच ना करिबे । येइ ग्रबे इच्छा, तबे सेइ आज्ञा दिबे ॥
५७॥
हे प्रभु, कृपया आप मुझे अपना सम्बन्धी (आत्मीय) समझें। आप जब भी जो चाहें, उसके लिए आदेश देने में तनिक भी संकोच नहीं करें।
प्रभु कहे,—कि सङ्कोच, तुमि नह पर ।।जन्मे जन्मे तुमि आमार सवंशे किङ्कर ॥
५८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने भवानन्द राय की बात यह कहते हुए मान ली, मैं बिना संकोच के स्वीकार करता हूँ, क्योंकि आप पराये नहीं हैं। आप जन्म-जन्मांतर अपने परिवार सहित मेरे सेवक रहते आये हैं।
दिन-पाँच-सात भितरे आसिबे रामानन्द । ताँर सङ्गे पूर्ण हबे आमार आनन्द ॥
५९॥
पाँच-सात दिनों के ही भीतर श्री रामानन्द आने वाले हैं। ज्यों ही ये आ जायेंगे, हमारी सारी इच्छाएँ पूरी हो जायेंगी। मुझे उनके संग में अत्यन्त आनन्द प्राप्त होता है।
एत बलि' प्रभु ताँरै कैल आलिङ्गन ।। ताँर पुत्र सब शिरे धरिल चरण ॥
६० ॥
यह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने भवानन्द का आलिंगन किया। फिर उन्होंने उनके पुत्रों के सिरों पर अपने चरणकमल रखे।
तबे महाप्रभु ताँरे घरे पाठाइल ।। वाणीनाथ-पट्टनायके निकटे राखिल ॥
६१॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने भवानन्द राय को उनके घर वापस भेज दिया और अपनी निजी सेवा में केवल वाणीनाथ पट्टनायक को रख लिया।
भट्टाचार्य सब लोके विदाय कराइल ।। तबे प्रभु काला-कृष्णदासे बोलाइल ॥
६२॥
फिर सार्वभौम भट्टाचार्य ने सभी लोगों से विदा होने के लिए कहा। तत्पश्चात् श्री चैतन्य महाप्रभु ने काला कृष्णदास को बुलवाया, जो उनके साथ दक्षिण भारत की यात्रा में गया था।
प्रभु कहे,—भट्टाचार्य, शुनह ईंहार चरित । दक्षिण गियाछिल ईंह आमार सहित ॥
६३॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, हे भट्टाचार्य, जरा इस आदमी के चरा पर विचार कीजिये, जो मेरे साथ दक्षिण भारत गया था।
भट्टथारि-काछे गेला आमारे छाड़िया ।। भट्टथारि हैते इँहारे आनिहुँ उद्धारिया ॥
६४॥
इसने भट्टथारियों के साथ रहने के लिए मेरा संग छोड़ दिया था, किन्तु मैं उनकी संगति से बचाकर इसे यहाँ लाया हूँ।
एबे आमि इहाँ आनि' करिलाङ विदाय ।। ग्राहाँ इच्छा, ग्राह, आमा-सने नाहि आर दाय ॥
६५॥
मैं इसे यहाँ लाया हूँ, अतएव मैं इसे अब विदा कर रहा हूँ। अब वह जहाँ चाहे जा सकता है, क्योंकि मैं आगे इसके लिए उत्तरदायी नहीं हूँ।
एत शुनि' कृष्णदास कान्दिते लागिल ।।मध्याह्न करिते महाप्रभु चलि' गेल ॥
६६॥
यह सुनकर कि महाप्रभु ने उसका परित्याग कर दिया है, काला कृष्णदास रोने लगा। किन्तु महाप्रभु ने उसकी परवाह नहीं की और वे अपना दोपहर का भोजन करने तुरन्त चले गये।
नित्यानन्द, जगदानन्द, मुकुन्द, दामोदर ।।चारि-जने युक्ति तबे करिला अन्तर ॥
६७॥
इसके बाद नित्यानन्द प्रभु, जगदानन्द, मुकुन्द तथा दामोदर आदि अन्य भक्त किसी युक्ति पर विचार करने लगे।
गौड़-देशे पाठाइते चाहि एक-जन ।‘आइ'के कहिबे ग्राइ, प्रभुर आगमन ॥
६८॥
महाप्रभु के चारों भक्तों ने विचार किया, हमें ऐसा एक व्यक्ति चाहिए, जो बंगाल जाकर शचीमाता को श्री चैतन्य महाप्रभु के जगन्नाथ पुरी आने की सूचना दे सके।
अद्वैत-श्रीवासादि व्रत भक्त-गण ।सबेइ आसिबे शुनि' प्रभुर आगमन ॥
६९ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के आगमन का समाचार सुनकर अद्वैत तथा श्रीवास जैसे भक्त उन्हें मिलने के लिए निश्चित रूप से आना चाहेंगे।
एइ कृष्णदासे दिब गौड़े पाठात्रा । एत कहि' तारे राखिलेन आश्वासिया ॥
७० ॥
यह कहकर कि, कृष्णदास को हम बंगाल क्यों न भेज दें उन सबने कृष्णदास को महाप्रभु की सेवा में लगाये रखा और उसे आश्वस्त किया।
आर दिने प्रभु-स्थाने कैल निवेदन ।। आज्ञा देह' गौड़-देशे पाठाइ एक-जन ॥
७१॥
अगले दिन भक्तों ने श्री चैतन्य महाप्रभु से निवेदन किया, “कृपा करके एक व्यक्ति को बंगाल जाने की अनुमति प्रदान करें।
तोमार दक्षिण-गमन शुनि' शची ‘आइ' ।। अद्वैतादि भक्त सब आछे दुःख पाइ' ॥
७२॥
माता शची तथा अद्वैत प्रभु आदि भक्तगण दक्षिण भारत भ्रमण से आपके पुनरागमन का समाचार न पाकर अत्यन्त दुःखी हैं।
एक-जन ग्राइ' कहुक्शुभ समाचार ।। प्रभु कहे,—सेइ कर, ये इच्छा तोमार ॥
७३॥
एक व्यक्ति बंगाल जाकर उन्हें जगन्नाथ पुरी में आपके पुनरागमन का शुभ समाचार दे आये। यह सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, आप लोग जो चाहें तय करें।
तबे सेइ कृष्णदासे गौड़े पाठाइल । वैष्णव-सबाके दिते महा-प्रसाद दिल ॥
७४॥
इस तरह काला कृष्णदास बंगाल भेज दिया गया और वहाँ बाँटे जाने के लिए उसे भगवान जगन्नाथ का पर्याप्त प्रसाद दे दिया गया।
तबे गौड़-देशे आइला काला-कृष्णदास ।। नवद्वीपे गेल तेह शची-आइ-पाश ॥
७५ ॥
तब काला कृष्णदास बंगाल गया, जहाँ सर्वप्रथम वह माता शची को मिलने नवद्वीप पहुँचा।
महा-प्रसाद दिया ताँरे कैले नमस्कार । दक्षिण हैते आइला प्रभु,—कहे समाचार ॥
७६॥
शची माता के पास पहुँचकर काला कृष्णदास ने प्रथम उन्हें नमस्कार किया और महाप्रसाद भेंट किया। फिर उसने यह शुभ समाचार दिया कि श्री चैतन्य महाप्रभु अपनी दक्षिण भारत की यात्रा से लौट आये हैं।
शुनिया आनन्दित हैल शचीमातार मन ।। श्रीवासादि आर ग्रत व्रत भक्त-गण ॥
७७॥
इस शुभ समाचार से माता शची तथा श्रीवास ठाकुर इत्यादि नवद्वीप के सारे भक्तों को परम आनन्द हुआ।
शुनिया सबार हैल परम उल्लास । अद्वैत-आचार्य-गृहे गेला कृष्णदास ॥
७८ ॥
महाप्रभु की पुरी में वापसी सुनकर सभी लोग अत्यन्त हर्षित हुए। इसके बाद कृष्णदास अद्वैत आचार्य के घर गया।
आचार्येरे प्रसाद दिया करि' नमस्कार । सम्यक्कहिल महाप्रभुर समाचार ॥
७९॥
नमस्कार करने के बाद कृष्णदास ने अद्वैत आचार्य को महाप्रसाद दिया। फिर उसने उनसे महाप्रभु का समाचार विस्तार में बतलाया।
शुनि' आचार्य-गोसाजिर आनन्द हइल ।। प्रेमावेशे हुङ्कार बहु नृत्य-गीत कैल ॥
८०॥
जब अद्वैत आचार्य ने श्री चैतन्य महाप्रभु के लौट आने का समाचार सुना, तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने प्रेमावेश में आकर हुँकार की और बहुत देर तक नृत्य और कीर्तन करते रहे।
हरिदास ठाकुरेर हैल परम आनन्द ।।वासुदेव दत्त, गुप्त मुरारि, सेन शिवानन्द ॥
८१॥
। यह शुभ समाचार पाकर हरिदास ठाकुर परम प्रसन्न हुए। इसी तरह वासुदेव दत्त, मुरारि गुप्त तथा शिवानन्द सेन भी प्रसन्न हुए।
आचार्यरत्न, आर पण्डित वक्रेश्वर । आचार्यनिधि, आर पण्डित गदाधर ॥
८२॥
। इस शुभ समाचार से आचार्यरत्न, वक्रेश्वर पण्डित, आचार्यनिधि तथा गदाधर पण्डित सभी अत्यन्त प्रसन्न हुए।
श्रीराम पण्डित आर पण्डित दामोदर । श्रीमान्पण्डित, आर विजय, श्रीधर ॥
८३॥
राघव पंडित, अद्वैत आचार्य का पुत्र तथा समस्त भक्तगण अत्यन्त प्रसन्न हुए। मैं कहाँ तक और भक्तों के नामों का वर्णन करूं? राघव-पण्डित, आर आचार्य नन्दन । कतेक कहिब आर ग्रत प्रभुर गण ॥
८४॥
राघव पंडित, अद्वैत आचार्य का पुत्र तथा समस्त भक्तगण अत्यन्त प्रसन्न हुए। मैं कहाँ तक और भक्तों के नामों का वर्णन करूं? शुनिया सबार हैल परम उल्लास ।।सबे मेलि' गेला श्री-अद्वैतेर पाश ॥
८५॥
। वे सभी अत्यन्त प्रसन्न थे, और सभी मिलकर अद्वैत आचार्य के घर आये।
आचार सबे कैले चरण वन्दन ।आचार्य-गोसाङि सबारे कैल आलिङ्गन ॥
८६॥
सारे भक्तों ने अद्वैत आचार्य के चरणकमलों पर नमस्कार किया, और अद्वैत आचार्य ने उन सबका आलिंगन किया।
दिन दुइ-तिन आचार्य महोत्सव कैल ।।नीलाचल ग्राइते आचार्य मुक्ति दृढ़ कैल ॥
८७॥
तब अद्वैत आचार्य ने एक उत्सव मनाया, जो दो-तीन दिनों तक चला। तत्पश्चात् उन सबने जगन्नाथ पुरी जाने का दृढ़ संकल्प किया।
सबे मेलि' नवद्वीपे एकत्र हो ।नीलाद्रि चलिल शचीमातार आज्ञा लञा ॥
८८॥
सारे भक्त नवद्वीप में एकत्र हुए और शची माता की आज्ञा लेकर नीलाद्रि अर्थात् जगन्नाथ पुरी के लिए चल दिये।
प्रभुर समाचार शुनि' कुलीन-ग्राम-वासी ।सत्यराज-रामानन्द मिलिला सबे आसि' ॥
८९॥
सत्यराज, रामानन्द तथा अन्य भक्त जो कुलीन ग्राम के निवासी थे, आकर अद्वैत आचार्य के साथ हो लिए।
मुकुन्द, नरहरि, रघुनन्दन खण्ड हैते ।।आचार ठाजि आइला नीलाचल ग्राइते ॥
९० ॥
मुकुन्द, नरहरि, रघुनन्दन तथा अन्य सब लोग खण्ड नामक स्थान से अद्वैत आचार्य के घर आये, जिससे वे उनके साथ जगन्नाथ पुरी जा सकें।
से-काले दक्षिण हैते परमानन्द-पुरी ।।गङ्गा-तीरे-तीरे आइला नदीया नगरी ॥
९१॥
। उसी समय परमानन्द पुरी दक्षिण भारत से आ गये। वे गंगा नदी के किनारे-किनारे यात्रा करते हुए अन्ततः नदिया नगरी पहुँचे।
आइर मन्दिरे सुखे करिला विश्राम ।।आई ताँरे भिक्षा दिली करिया सम्मान ॥
९२॥
नवद्वीप में परमानन्द पुरी ने शचीमाता के घर में ही अपना रहने और भोजन करने का स्थान बनाया। वे उन्हें हर वस्तु बड़े ही आदर के साथ देती थीं।
प्रभुर आगमन तेंह ताहाँजि शुनिल ।। शीघ्र नीलाचल ग्राइते ताँर इच्छा हैल ॥
९३॥
जब परमानन्द पुरी शचीमाता के घर पर रह रहे थे, तभी उन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु के जगन्नाथ पुरी लौटने का समाचार सुना। अतएव उन्होंने शीघ्रातिशीघ्र वहाँ जाने का निश्चय किया।
प्रभुर एक भक्त–‘द्विज कमलाकान्त' नाम । ताँरे ला नीलाचले करिला प्रयाण ॥
९४॥
वहाँ पर श्री चैतन्य महाप्रभु का एक भक्त था, जिसका नाम द्विज कमलाकान्त था, जिसे परमानन्द पुरी अपने साथ जगन्नाथ पुरी लेते गये।
सत्वरे आसिया नँह मिलिला प्रभुरे । प्रभुर आनन्द हैल पाञा तोहार ॥
९५॥
परमानन्द पुरी शीघ्र ही श्री चैतन्य महाप्रभु के स्थान पर आ पहुँचे। महाप्रभु उन्हें देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए।
प्रेमावेशे कैल ताँर चरण वन्दन ।।तँह प्रेमावेशे कैल प्रभुरे आलिङ्गन ॥
९६॥
महाप्रभु ने अत्यन्त प्रेमावेश में परमानन्द पुरी के चरणकमलों की पूजा की और परमानन्द पुरी ने भी महाप्रभु का प्रेमावेश में आलिंगन किया।
प्रभु कहे,—तोमा-सङ्गे रहिते वाञ्छा हय ।।मोरे कृपा करि' कर नीलाद्रि आश्रय ॥
९७॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, कृपया मेरे साथ रुकें और जगन्नाथ पुरी की शरण ग्रहण करके मेरे ऊपर कृपा करें।
पुरी कहे,—तोमा-सङ्गे रहिते वाञ्छा करि' ।गौड़ हैते चलि' आइलाङ नीलाचल-पुरी ॥
९८॥
परमानन्द पुरी ने कहा, मैं भी आप के साथ रहना चाहता हूँ। सीलिए मैं गौड़ देश (बंगाल) से जगन्नाथ पुरी आया हूँ।
दक्षिण हैते शुनि' तोमार आगमन ।शची आनन्दित, आर व्रत भक्त-गण ॥
१९॥
'नवद्वीप में माता शची तथा अन्य सारे भक्त दक्षिण भारत से आपका पुनरागमन सुनकर अत्यन्त आनन्दित हुए।
सबे आसितेछेन तोमारे देखिते ।।ताँ-सबार विलम्ब देखि' आइलाङ त्वरिते ॥
१०० ॥
वे सभी आपके दर्शन के लिए यहाँ आ रहे हैं। किन्तु जब मैंने देखा कि वे विलम्ब कर रहे हैं, तो मैं तुरन्त अकेले ही चला आया।
काशी-मिश्रर आवासे निभृते एक घर ।प्रभु ताँरै दिल, आर सेवार किङ्कर ॥
१०१॥
काशी मिश्र के घर में एक एकान्त कमरा था, जिसे श्री चैतन्य महाप्रभु ने परमानन्द पुरी को दे दिया। उन्होंने एक सेवक भी दिया।
आर दिने आइला स्वरूप दामोदर ।।प्रभुर अत्यन्त मर्मी, रसेर सागर ॥
१०२॥
अगले दिन स्वरूप दामोदर भी आ गये। वे श्री चैतन्य महाप्रभु के घनिष्ठ मित्र थे और दिव्य रसों के सागर थे।
‘पुरुषोत्तम आचार्य' ताँर नाम पूर्वाश्रमे ।। नवद्वीपे छिला तेंह प्रभुर चरणे ॥
१०३॥
जब स्वरूप दामोदर श्री चैतन्य महाप्रभु की शरण में नवद्वीप में निवास कर रहे थे, तब उनका नाम पुरुषोत्तम आचार्य था।
प्रभुर सन्यास देखि' उन्मत्त हा । सन्यास ग्रहण कैल वाराणसी गिया ॥
१०४॥
जब उन्होंने देखा कि श्री चैतन्य महाप्रभु ने संन्यास ग्रहण कर लिया है, तो पुरुषोत्तम आचार्य उन्मत्त हो उठे और संन्यास ग्रहण करने तुरन्त वाराणसी गये।
‘चैतन्यानन्द' गुरु ताँर आज्ञा दिलेन ताँरै ।।वेदान्त पड़िया पड़ाओ समस्त लोकेरे ॥
१०५॥
संन्यास के अन्त में उनके गुरु चैतन्यानन्द भारती ने उन्हें आदेश दिया, वेदान्त-सूत्र पढ़ो और अन्यों को इसकी शिक्षा दो।
परम विरक्त तेंह परम पण्डित ।।काय-मने आश्रियाछे श्री-कृष्ण-चरित ॥
१०६॥
स्वरूप दामोदर परम विरक्त तथा महान् पण्डित थे। उन्होंने आत्मा तथा मन से पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण की।
‘निश्चिन्ते कृष्ण भजिब' एइ त' कारणे ।उन्मादे करिल तेह सन्यास ग्रहणे ॥
१०७॥
वे बिना किसी उपद्रव के श्रीकृष्ण की पूजा करने के लिए अत्यन्त उत्सुक रहते थे, इसीलिए प्रायः उन्मादावस्था में उन्होंने संन्यास स्वीकार कर लिया।
सन्यास करिला शिखा-सूत्र-त्याग-रूप ।। योग-पट्ट ना निल, नाम हैल ‘स्वरूप' ॥
१०८ ॥
संन्यास ग्रहण करने के बाद पुरुषोत्तम आचार्य ने नियमानुसार अपनी चोटी तथा जनेऊ तो त्याग दिये, किन्तु उन्होंने गेरुवा वस्त्र नहीं स्वीकार किया। उन्होंने संन्यासी पदवी भी नहीं स्वीकार की, अपितु नैष्ठिक ब्रह्मचारी बने रहे।
गुरु-ठाजि आज्ञा मागि' आइला नीलाचले ।।रात्रि-दिने कृष्ण-प्रेम-आनन्द-विह्वले ॥
१०९॥
अपने संन्यास-गुरु से आज्ञा लेकर स्वरूप दामोदर नीलाचल गये और वहाँ उन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु की शरण ग्रहण की। फिर वे अहर्निश कृष्ण के प्रेम में आनन्दविह्वल होकर भगवान् की प्रेममयी सेवा में दिन रस का आस्वादन करने लगे।
पाण्डित्येर अवधि, वाक्य नाहि कारो सने ।निर्जने रहये, लोक सब नाहि जाने ॥
११०॥
। स्वरूप दामोदर पाण्डित्य की पराकाष्ठा थे, किन्तु वे किसी से एक शब्द भी नहीं बोलते थे। वे निर्जन स्थान में रहते थे और कोई यह नहीं जान सका कि वे कहाँ थे।
कृष्ण-रस-तत्त्ववेत्ता, देह—प्रेम-रूप ।साक्षात्महाप्रभुर द्वितीय स्वरूप ॥
१११॥
। श्री स्वरूप दामोदर साक्षात् प्रेमस्वरूप थे और कृष्ण-रस के ज्ञान को पूर्णतया जानने वाले थे। वे श्री चैतन्य महाप्रभु के द्वितीय विस्तार के प्रत्यक्ष प्रतिनिधि-रूप थे। ग्रन्थ, श्लोक, गीत केह प्रभु-पाशे आने ।।स्वरूप परीक्षा कैले, पाछे प्रभु शुने ॥
११२॥
। यदि कोई पुस्तक लिखता, श्लोक तथा गीत बनाता और उन्हें श्री चैतन्य महाप्रभु के समक्ष सुनाना चाहता, तो सर्वप्रथम स्वरूप दामोदर उनकी परीक्षा करते और फिर शुद्ध रूप में उसे महाप्रभु के सामने रखते। केवल तभी श्री चैतन्य महाप्रभु सुनने के लिए राजी होते।
भक्ति-सिद्धान्त-विरुद्ध, आर रसाभास ।।शुनिते ना हय प्रभुर चित्तेर उल्लास ॥
११३॥
श्री चैतन्य महाप्रभु कभी-भी भक्ति के सिद्धान्तों के विरुद्ध पुस्तकें या श्लोक नहीं सुनना चाहते थे। वे रसाभास अर्थात् दिव्य रसों का अतिक्रमण भी नहीं सुनना चाहते थे।
अतएव स्वरूप आगे करे परीक्षण । शुद्ध हय व्रदि, प्रभुरे करा'न श्रवण ॥
११४॥
स्वरूप दामोदर गोस्वामी सारे साहित्य का परीक्षण यह जानने के लिए करते थे कि उनके निष्कर्ष सही हैं या नहीं। केवल तभी वे उसे श्री चैतन्य महाप्रभु को सुनाये जाने की अनुमति देते थे।
विद्यापति, चण्डीदास, श्री-गीत-गोविन्द ।।एइ तिन गीते करा'न प्रभुर आनन्द ॥
११५॥
श्री स्वरूप दामोदर विद्यापति तथा चण्डीदास के गीत तथा जयदेव गोस्वामी कृत श्री गीत गोविन्द पढ़ा करते थे। वे इन गीतों को गाकर श्री चैतन्य महाप्रभु को अत्यन्त आनन्दित किया करते थे।
सङ्गीते—गन्धर्व-सम, शास्त्रे बृहस्पति ।। दामोदर-सम आर नाहि महा-मति ॥
११६॥
। स्वरूप दामोदर गन्धर्वो के तुल्य दक्ष गायक थे और शास्त्र चर्चा में वे देवताओं के पुरोहित बृहस्पति के समान थे। अतएव यह निष्कर्ष निकलता है कि स्वरूप दामोदर जैसा कोई अन्य महापुरुष नहीं था।
अद्वैत-नित्यानन्देर परम प्रियतम ।श्रीवासादि भक्त-गणेर हय प्राण-सम ॥
११७॥
श्री स्वरूप दामोदर अद्वैत आचार्य तथा नित्यानन्द प्रभु को परम प्रिय थे, और वे श्रीवास ठाकुर आदि सभी भक्तजनों के प्राणों के तुल्य थे।
सेइ दामोदर आसि' दण्डवत् हैला ।चरणे पड़िया श्लोक पड़िते लागिला ॥
११८॥
। वही स्वरूप दामोदर जगन्नाथ पुरी आकर श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों पर गिर पड़े और नमस्कार करने के बाद उन्होंने एक श्लोक सुनाया।
हेलोडूनित-खेदया विशदया प्रोन्मीलदामोदयाशाम्यच्छास्त्र-विवादया रस-दया चित्तार्पितोन्मादया । शश्वद्भक्ति-विनोदया स-मदया माधुर्घ-मर्यादयाश्री-चैतन्य दयानिधे तक्या भूयादमन्दोदया ॥
११९॥
हे कृपा के सागर श्री चैतन्य महाप्रभु! आपकी शुभ कृपा जाग्रत हो, जो सभी प्रकार के भौतिक दुःखों को आसानी से भगाने वाली है। आपकी कृपा से हर वस्तु शुद्ध तथा आनन्दमय बन जाती है। निस्सन्देह, आपकी कृपा दिव्य आनन्द को जगाती है और भौतिक सुख को आच्छादित कर देती है। आपकी शुभ कृपा से विभिन्न शास्त्रों के मतभेद विनष्ट हो जाते हैं। आपकी शुभ कृपा दिव्य रसों को उंडेलती है, जिससे हृदय आनन्दमग्न हो जाता है। आपकी हर्ष से युक्त कृपा सदैव भक्ति को उद्दीप्त करती है और माधुर्य प्रेम को महिमान्वित करती है। आपकी अहैतुकी कृपा मेरे हृदय में दिव्य आनन्द को जाग्रत करे।
उठा महाप्रभु कैल आलिङ्गन ।दुइ-जने प्रेमावेशे हैल अचेतन ॥
१२०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने स्वरूप दामोदर को उनके पैरों पर खड़ा कर उनका आलिगंन किया। वे दोनों ही प्रेमावेश में अचेत हो गये।
कत-क्षणे दुइ जने स्थिर ग्रबे हैला ।तबे महाप्रभु ताँरै कहिते लागिला ॥
१२१॥
जब दोनों ने धैर्य-धारण किया, तो श्री चैतन्य महाप्रभु कहने लगे।"
तुमि ग्रे आसिबे, आजि स्वप्नेते देखिल ।।भाल हैल, अन्ध ग्रेन दुइ नेत्र पाइल ॥
१२२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, मैंने सपने में देखा कि तुम आ रहे हो, अतएव यह अत्यन्त शुभ है। मैं तो अंधे व्यक्ति के समान था, किन्तु तुम्हारे आने से मुझे फिर से दृष्टि मिल गई है।
स्वरूप कहे,—प्रभु, मोर क्षम' अपराध । तीमा छाड़ि' अन्यत्र गेनु, करिनु प्रमाद ॥
१२३॥
स्वरूप ने कहा, हे प्रभु, कृपया आप मेरा अपराध क्षमा करें। मैंने अन्यत्र जाने के लिए आपका संग छोड़ दिया था, और यही मेरी सबसे बड़ी भूल थी।
तोमार चरणे मोर नाहि प्रेम-लेश ।। तोमा छाड़ि' पापी मुजि गेनु अन्य देश ॥
१२४॥
हे प्रभु, आपके चरणकमलों के प्रति मेरा रंचमात्र भी प्रेम नहीं है। यदि ऐसा होता, तो मैं दूसरे देश क्यों जाता? अतएव मैं सबसे बड़ा पापी व्यक्ति हूँ।
मुजि तोमा छाड़िल, तुमि मोरे ना छाड़िला ।।कृपा-पाश गले बान्धि' चरणे आनिला ॥
१२५॥
मैंने तो आपका साथ छोड़ दिया, किन्तु आपने मुझे नहीं छोड़ा। आपने अपनी कृपारूपी रस्सी से मेरे गले को बाँधकर पुनः मुझे अपने चरणकमलों पर वापस ला दिया है।
तबे स्वरूप कैल निताइर चरण वन्दन ।नित्यानन्द-प्रभु कैल प्रेम-आलिङ्गन ॥
१२६॥
तब स्वरूप दामोदर ने नित्यानन्द प्रभु के चरणकमलों की वन्दना की और नित्यानन्द प्रभु ने प्रेमवश उनका आलिंगन किया।
जगदानन्द, मुकुन्द, शङ्कर, सार्वभौम । सबा-सङ्गे ग्रथा-योग्य करिल मिलन ॥
१२७॥
नित्यानन्द प्रभु की वन्दना करने के बाद स्वरूप दामोदर जगदानन्द, मुकुन्द, शंकर तथा सार्वभौम से यथायोग्य रीति से मिले।
परमानन्द पुरीर कैले चरण वन्दन । पुरी-गोसाजि ताँरे कैल प्रेम-आलिङ्गन ॥
१२८॥
स्वरूप दामोदर ने परमानन्द पुरी के चरणकमलों की भी वन्दना की और परमानन्द पुरी ने उलटकर प्रेमवश उनका आलिंगन किया।
महाप्रभु दिल ताँरे निभृते वासा-घर । जलादि-परिचय़ लागि' दिल एक किङ्कर ॥
१२९॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने स्वरूप दामोदर को एक एकान्त निवासस्थान दे दिया और एक सेवक से कहा कि वह उन्हें पानी तथा अन्य आवश्यक वस्तुएँ देता रहे।
आर दिन सार्वभौम-आदि भक्त-सङ्गे।। वसिया आछेन महाप्रभु कृष्ण-कथा-रङ्गे ॥
१३०॥
अगले दिन श्री चैतन्य महाप्रभु सार्वभौम भट्टाचार्य इत्यादि भक्तों के साथ बैठकर कृष्ण-लीलाओं की चर्चाएँ करते रहे।
हेन-काले गोविन्देर हैल आगमन ।दण्डवत्करि' कहे विनय-वचन ॥
१३१॥
। उसी समय गोविन्द वहाँ आ गये। उन्होंने प्रणाम करने के बाद विनीत होकर इस प्रकार कहा।
ईश्वर-पुरीर भृत्य,–'गोविन्द' मोर नाम ।पुरी-गोसाजिर आज्ञाय आइनु तोमार स्थान ॥
१३२॥
मैं ईश्वर पुरी का सेवक हूँ। मेरा नाम गोविन्द है। मैं अपने गुरु की आज्ञा का पालन करके यहाँ आया हूँ।
सिद्ध-प्राप्ति-काले गोसाजि आज्ञा कैल मोरे ।कृष्ण-चैतन्य-निकटे रहि सेविह ताँहारे ॥
१३३॥
सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करने के लिए इस मर्त्यलोक से विदा होने के पूर्व ईश्वर पुरी ने मुझसे कहा कि मुझे श्री चैतन्य महाप्रभु के पास जाना चाहिए और उनकी सेवा करनी चाहिए।
काशीश्वर आसिबेन सब तीर्थ देखिया ।।प्रभु-आज्ञाय मुञि आइनु तोमा-पदे धाज्ञा ॥
१३४॥
काशीश्वर भी सारे तीर्थों का भ्रमण करने के बाद यहाँ आयेगा। किन्तु मैं तो अपने गुरु की आज्ञानुसार आपके चरणकमलों पर उपस्थित होने के लिए शीघ्र चला आया।"
गोसाजि कहिल, ‘पुरीश्वर' वात्सल्य करे मोरे । कृपा करि' मोर ठाजि पाठाइला तोमारे ॥
१३५॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, मेरे गुरु ईश्वर पुरी मुझ पर सदैव पिता जैसा स्नेह करते थे। इसीलिए उन्होंने अपनी अहैतुकी कृपावश तुम्हें यहाँ भेजा है।
एत शुनि' सार्वभौम प्रभुरे पुछिल । पुरी-गोसाजि शूद्र-सेवक काँहे त' राखिल ॥
१३६॥
यह सुनकर सार्वभौम भट्टाचार्य ने श्री चैतन्य महाप्रभु से पूछा, ईश्वर पुरी ने शूद्र को सेवक के रूप में क्यों रखा? प्रभु कहे,—ईश्वर हय परम स्वतन्त्र ।ईश्वरेर कृपा नहे वेद-परतन्त्र ।। १३७।। । श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, 'भगवान् तथा मेरे गुरु ईश्वर पुरी दोनों ही पूर्ण स्वतन्त्र हैं। अतएव भगवान् तथा ईश्वर पुरी दोनों की कृपा किसी वैदिक नियम के अधीन नहीं है।
ईश्वरेर कृपा जाति-कुलादि ना माने ।विदुरेर घरे कृष्ण करिला भोजने ॥
१३८॥
'पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की कृपा जाति-पाँति के बन्धन से सीमित नहीं रहती। यद्यपि विदुर शूद्र थे, किन्तु कृष्ण ने उनके घर भोजन किया।
स्नेह-लेशापेक्षा मात्र श्री-कृष्ण-कृपार । स्नेह-वश हञा करे स्वतन्त्र आचार ॥
१३९॥
भगवान् कृष्ण की कृपा एकमात्र स्नेह पर निर्भर है। केवल स्नेह के वशीभूत होकर कृष्ण स्वतन्त्र रूप से आचरण करते हैं।
मर्यादा हैते कोटि सुख स्नेह-आचरणे । परमानन्द हय ग्रार नाम-श्रवणे ॥
१४० ॥
फलस्वरूप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के साथ स्नेह-आचरण मर्यादाआचरण की अपेक्षा लाखों गुना सुख प्रदान करने वाला है। भक्त भगवान् का पवित्र नाम सुनकर ही दिव्य आनन्द में मग्न हो जाता है।"
एत बलि' गोविन्देरे कैल आलिङ्गन ।। गोविन्द करिल प्रभुर चरण वन्दन ॥
१४१॥
यह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने गोविन्द का आलिंगन किया और गोविन्द ने भी महाप्रभु के चरणकमलों की वन्दना की।
प्रभु कहे,—भट्टाचार्य, करह विचार ।गुरुर किङ्कर हय मान्य से आमार ॥
१४२॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने सार्वभौम भट्टाचार्य से आगे कहा, “आप इस पर विचार करें। गुरु का सेवक मेरे लिए सदैव आदरणीय है।
ताँहारे आपन-सेवा कराइते ना युयाय । गुरु आज्ञा दियाछेन, कि करि उपाय ॥
१४३॥
अतएव यह उचित नहीं होगा कि गुरु का सेवक मेरी निजी सेवा करे। फिर भी मेरे गुरु ने यह आदेश दिया है। तो मैं क्या करूं? भट्ट कहे,—गुरुर आज्ञा हय बलवान् ।।गुरु-आज्ञा ना लङ्घिये, शास्त्र--प्रमाण ॥
१४४॥
सार्वभौम भट्टाचार्य ने कहा, “गुरु का आदेश अत्यन्त बलवान होता है और उसका उल्लंघन नहीं किया जा सकता। यही प्रामाणिक शास्त्रों का आदेश है।
स शुश्रुवान्मातरि भार्गवेणपितुर्नियोगात्प्रहृतं द्विषद्वत् । प्रत्यगृहीदग्रज-शासनं तद्आज्ञा गुरूणां ह्यविचारणीया ॥
१४५॥
अपने पिता की आज्ञा पाकर परशुराम ने अपनी माता रेणुका को मार डाला, मानो वह कोई शत्रु रही हो। भगवान् रामचन्द्र के छोटे भाई लक्ष्मण यह सुनकर तुरन्त अपने बड़े भाई की सेवा में लगकर उनके आदेशों का पालन करने लगे। गुरु की आज्ञा का बिना किसी विचार के पालन किया जाना चाहिए।'
निर्विचारं गुरोराज्ञा मया कार्या महात्मनः ।श्रेयो ह्येवं भवत्याश्च मम चैव विशेषतः ॥
१४६॥
पिता जैसे महान् व्यक्ति की आज्ञा का पालन बिना विचारे करना चाहिए, क्योंकि ऐसी आज्ञा हम दोनों का सौभाग्य है। विशेषतया मेरे लिए सौभाग्य है। तबे महाप्रभु ताँरै कैल अङ्गीकार ।।आपन-श्री-अङ्ग-सेवाय दिल अधिकार ॥
१४७॥
सार्वभौम भट्टाचार्य के ऐसा कहने पर श्री चैतन्य महाप्रभु ने गोविन्द का आलिंगन किया और उसे अपने शरीर की सेवा करने के लिए लगा लिया। प्रभुर प्रिय भृत्य करि' सबे करे मान ।सकल वैष्णवेर गोविन्द करे समाधान ॥
१४८॥
सभी व्यक्ति गोविन्द को श्री चैतन्य महाप्रभु का प्रियतम दास समझकर उसका सम्मान करते थे और गोविन्द सारे वैष्णवों की सेवा करता था तथा उनकी आवश्यकताओं का ध्यान रखता था।"
छोटे-बड़-कीर्तनीया दुइ हरिदास ।।रामाइ, नन्दाइ रहे गोविन्देर पाश ॥
१४९॥
बड़ा हरिदास तथा छोटा हरिदास, दोनों जो गायक (कीर्तनिये ) थे तथा रामाइ और नन्दाइ भी गोविन्द के साथ रहते थे।"
गोविन्देर सङ्गे करे प्रभुर सेवन ।गोविन्देर भाग्य-सीमा ना ग्राय वर्णन ॥
१५०॥
वे सभी श्री चैतन्य महाप्रभु की सेवा करने के लिए गोविन्द के साथ रहते थे। अतः कोई भी गोविन्द के सौभाग्य का अनुमान नहीं लगा सकता था।"
आर दिने मुकुन्द-दत्त कहे प्रभुर स्थाने ।ब्रह्मानन्द भारती आइला तोमार दरशने ॥
१५१॥
अगले दिन मुकुन्द दत्त ने श्री चैतन्य महाप्रभु को सूचना दी, आपके दर्शन हेतु ब्रह्मानन्द भारती आये हैं।"
आज्ञा देह' यदि ताँरै आनिये एथाइ ।प्रभु कहे,—गुरु तेंह, ग्राब ताँर ठाजि ॥
१५२॥
फिर मुकुन्द दत्त ने महाप्रभु से पूछा, क्या मैं उन्हें यहाँ ले आऊँ? तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, ब्रह्मानन्द भारती मेरे गुरुतुल्य हैं। अच्छा यही होगा कि मैं उनके पास जाऊँ।"
एत बलि' महाप्रभु भक्त-गण-सङ्गे । चलि' आइला ब्रह्मानन्द-भारतीर आगे ॥
१५३ ॥
यह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनके भक्तगण ब्रह्मानन्द भारती के समक्ष आये।"
ब्रह्मानन्द परियाछे मृग-चर्माम्बर । ताहा देखि' प्रभु दुःख पाइला अन्तर ॥
१५४॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनके भक्त उनके निकट पहुँचे, तो उन्होंने देखा कि वे मृगचर्म पहने थे। यह देखकर श्री चैतन्य महाप्रभु अत्यन्त दुःखी हुए।"
देखिया त छद्म कैल ग्रेन देखे नाजि ।। मुकुन्देरे पुछे, काहाँ भारती-गोसाजि ॥
१५५ ॥
ब्रह्मानन्द भारती को मृगचर्म के वेश में देखकर चैतन्य महाप्रभु ने ऐसा बहाना बनाया मानों वे उन्हें नहीं देख रहे हैं। इसके विपरीत उन्होंने मुकुन्द दत्त से कहा, मेरे गुरु ब्रह्मानन्द भारती कहाँ हैं?" मुकुन्द कहे,—एइ आगे देख विद्यमान । प्रभु कहे, तेह नहेन, तुमि अगेयान ॥
१५६ ॥
मुकुन्द दत्त ने उत्तर दिया, ये ब्रह्मानन्द भारती आपके समक्ष हैं। महाप्रभु ने कहा, तुम गलत कह रहे हो। ये ब्रह्मानन्द भारती नहीं हैं।
अन्येरे अन्य कह, नाहि तोमार ज्ञान ।।भारती-गोसाञि केने परिबेन चाम ॥
१५७॥
तुम किसी दूसरे की बात कर रहे होगे, क्योंकि निश्चित रूप से ये ब्रह्मानन्द भारती नहीं हैं। तुम्हें कोई ज्ञान नहीं है। भला ब्रह्मानन्द भारती क्यों मृगचर्म पहनने लगे?" शुनि' ब्रह्मानन्द करे हृदये विचारे । मोर चर्माम्बर एइ ना भाय इँहारे ॥
१५८॥
जब ब्रह्मानन्द भारती ने यह सुना तो उन्होंने सोचा, मेरा मृगचर्म श्री चैतन्य महाप्रभु को अच्छा नहीं लग रहा है।"
भाल कहेन,—चर्माम्बर दम्भ लागि' परि । चर्माम्बर-परिधाने संसार ना तरि ॥
१५९॥
इस तरह अपनी त्रुटि स्वीकार करते हुए ब्रह्मानन्द भारती ने सोचा, उन्होंने ठीक ही कहा है। मैं इस मृगचर्म को केवल प्रतिष्ठा के लिए ही धारण करता हूँ। मैं केवल मृगचर्म पहनकर अज्ञान के सागर को पार नहीं कर सकता।
आजि हैते ना परिब एइ चर्माम्बर।।प्रभु बहिर्वास आनाइला जानिया अन्तर ॥
१६० ॥
। आज से मैं यह मृगचर्म धारण नहीं करूंगा। जैसे ही ब्रह्मानन्द भारती ने यह निश्चय किया, वैसे ही श्री चैतन्य महाप्रभु उनके मन की बात जान गये और उन्होंने तुरन्त ही संन्यासी के वस्त्र मँगा भेजे।"
चर्माम्बर छाड़ि' ब्रह्मानन्द परिल वसन ।।प्रभु आसि' कैल ताँर चरण वन्दन ॥
१६१॥
ज्योंही ब्रह्मानन्द भारती ने अपना मृगचर्म त्याग दिया और संन्यासी के वस्त्र पहन लिए, त्योंही श्री चैतन्य महाप्रभु ने आकर उनके चरणकमलों में नमस्कार किया।
भारती कहे,—तोमार आचार लोक शिखाइते ।पुनः ना करिबे नति, भय पाङ चित्ते ॥
१६२॥
ब्रह्मानन्द भारती ने कहा, आप अपने आचरण के द्वारा सामान्य जनता को शिक्षा देते हैं। मैं आपकी इच्छा के विरुद्ध कुछ भी नहीं करूँगा, अन्यथा आप मुझे नमस्कार भी नहीं करेंगे और मेरी उपेक्षा करोगे। मुझे इसी का डर है।"
साम्प्रतिक 'दुइ ब्रह्म' इहाँ 'चलाचल' ।जगन्नाथ–अचल ब्रह्म, तुमि त' सचल ॥
१६३॥
इस समय मुझे दो ब्रह्म दिख रहे हैं-एक ब्रह्म हैं भगवान जगन्नाथ जो गतिमान नहीं हैं और दूसरे ब्रह्म आप हैं, जो सचल हैं। भगवान् जगन्नाथ पूज्य अर्चाविग्रह हैं और वे अचल ब्रह्म हैं। किन्तु आप तो श्री चैतन्य महाप्रभु हैं और आप यहाँ-वहाँ चलते-फिरते रहते हैं। आप दोनों एक ही ब्रह्म अर्थात् भौतिक प्रकृति के स्वामी हैं, किन्तु आप दो भूमिकाएँ निभा रहे हैं-एक सचल की और दूसरी अचल की। इस तरह जगन्नाथ पुरी या पुरुषोत्तम में अब दो ब्रह्म निवास कर रहे हैं।"
तुमि–गौर-वर्ण, तेह-श्यामल-वर्ण ।दुइ ब्रह्मे कैल सब जगत्तारण ॥
१६४॥
। दोनों ब्रह्मों में से आप गोरे रंग के हो और दूसरे ब्रह्म भगवान जगन्नाथ साँवले हैं। किन्तु आप दोनों ही सारे जगत् का उद्धार कर रहे हैं।
प्रभु कहे,—सत्य कहि, तोमार आगमने ।दुइ ब्रह्म प्रकटिल श्री-पुरुषोत्तमे ॥
१६५॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, “वास्तव में, सच्ची बात तो यह है कि आपकी उपस्थिति से जगन्नाथ पुरी में अब दो ब्रह्म हैं।
‘ब्रह्मानन्द' नाम तुमि–गौर-ब्रह्म 'चल' ।श्याम-वर्ण जगन्नाथ वसियाछेन ‘अचल' ॥
१६६॥
ब्रह्मानन्द तथा गौरहरि-दोनों ही सचल हैं, किन्तु श्याम-वर्ण वाले जगन्नाथ दृढ़ता से बैठे हैं और अचल हैं।"
भारती कहे, सार्वभौम, मध्यस्थ हा ।।इँहार सने आमार 'न्याय' बुझ' मन दिया ॥
१६७॥
ब्रह्मानन्द भारती ने कहा, हे सार्वभौम भट्टाचार्य, आप मेरे तथा श्री चैतन्य महाप्रभु के बीच इस तर्क में मध्यस्थ बनो।"
'व्याप्य' 'व्यापक'-भावे 'जीव'-'ब्रह्मे' जानि ।।जीव–व्याप्य, ब्रह्म–व्यापक, शास्त्रेते वाखानि ॥
१६८ ॥
ब्रह्मानन्द भारती ने कहा, जीव स्थानीय है, जबकि परम ब्रह्म सर्वव्यापक है। यह शास्त्रों का निर्णय है।"
चर्म घुचा कैल आमारे शोधन ।। दोंहार व्याप्य-व्यापकत्वे एइ त' कारण ॥
१६९॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने मेरा मृगचर्म छुड़ाकर मुझे निर्मल बना दिया है। यह इसका प्रमाण है कि वे सर्वव्यापक तथा सर्वशक्तिमान हैं और मैं उनके अधीन हूँ।"
सुवर्ण-वर्णो हेमाङ्गो वराङ्गश्चन्दनाङ्गदी ।। सन्यास-कृच्छमः शान्तो निष्ठा-शान्ति-परायणः ॥
१७०॥
उनके शरीर का रंग सुनहला है और उनका सारा शरीर पिघले सोने जैसा है। उनके शरीर का अंग-प्रत्यंग सुडौल है तथा चन्दन से लेप किया हुआ है। संन्यास ग्रहण करके महाप्रभु सदैव सन्तुलित रहते हैं। वे हरे । कृष्ण मन्त्र के कीर्तन के अपने उद्देश्य में दृढ़ हैं और वे अपने द्वैत निर्णय तथा अपनी शान्ति में दृढ़ता से स्थित हैं।'" एइ सब नामेर इँह हय निजास्पद ।। चन्दनाक्त प्रसाद-डोर-श्री-भुजे अङ्गद ॥
१७१॥
विष्णुसहस्र-नाम-स्तोत्र के श्लोक में उल्लिखित सारे लक्षण श्री चैतन्य महाप्रभु के शरीर में प्रकट हैं। उनकी भुजाएँ चन्दन-लेप एवं श्री जगन्नाथजी पर चढ़े डोरे से सुसज्जित हैं और ये उनके आभूषण-रूप कंकण हैं।"
भट्टाचार्य कहे,—भारती, देखि तोमार जय ।। प्रभु कहे,—ग्रेइ कह, सेइ सत्य हय ॥
१७२॥
यह सुनकर सार्वभौम भट्टाचार्य ने अपना निर्णय यह कहते हुए सुनाया, हे ब्रह्मानन्द भारती, मैं देख रहा हूँ कि आप विजयी हो। इस पर श्री चैतन्य महाप्रभु ने तुरन्त उत्तर दिया, ब्रह्मानन्द भारती ने जो कुछ कहा है उसे मैं स्वीकार करता हूँ। यह मेरे लिए बिल्कुल सही है।"
गुरु-शिष्य-न्याये सत्य शिष्येर पराजय । भारती कहे,—एहो नहे, अन्य हेतु हय ॥
१७३॥
इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने आपको शिष्य और ब्रह्मानन्द भारती को अपने गुरु के रूप में स्वीकार किया। तब उन्होंने कहा, यह शिष्य अपने गुरु से तर्क में निश्चय ही हार गया है। ब्रह्मानन्द भारती ने तुरन्त प्रतिवाद करते हुए कहा आपकी हार का कारण यह नहीं है। कारण कुछ दूसरा ही है।"
भक्त ठाजि हार' तुमि, ए तोमार स्वभाव । आर एक शुन तुमि आपन प्रभाव ॥
१७४॥
यह आपका स्वाभाविक गुण है कि आप अपने भक्तों के हाथों अपनी पराजय स्वीकार करते हैं। आपकी एक दूसरी भी महिमा है, जिसे आप सावधान होकर सुनो।"
आजन्म करिनु मुञि 'निराकार'-ध्यान । तोमा देखि' ‘कृष्ण' हैल मोर विद्यमान ॥
१७५ ॥
मैं जन्म से ही निर्विशेष ब्रह्म का ध्यान करता रहा हूँ, किन्तु जब से आपको देखा है, मुझे कृष्ण की पूरी-पूरी अनुभूति हो गई है।
कृष्ण-नाम स्फुरे मुखे, मने नेत्रे कृष्ण ।तोमाके तद्रूप देखि' हृदय सतृष्ण ॥
१७६॥
। ब्रह्मानन्द भारती कहते रहे, जब से मैंने आपको देखा है, तब से मैं । अपने मन में भगवान् कृष्ण की उपस्थिति का अनुभव कर रहा हूँ और उन्हें अपनी आँखों के सामने देख रहा हूँ। अब मैं भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करना चाहता हूँ। इसके अतिरिक्त, मैं अपने हृदय में आपको कृष्ण मानता हूँ, अतएव मैं आपकी सेवा करने के लिए अत्यन्त उत्सुक हूँ।"
बिल्वमङ्गल कैल ग्रैछे दशा आपनार ।इहाँ देखि' सेइ दशा हइल आमार ॥
१७७॥
। बिल्वमंगल ठाकुर ने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के साक्षात्कार के लिए अपनी निर्विशेष अनुभूति त्याग दी। अब मैं देख रहा हूँ कि मेरी दशा भी उन्हीं जैसी हो रही है, क्योंकि अब यह बदल चुकी है।
अद्वैत-वीथी-पथिकैरुपास्याःस्वानन्द-सिंहासन-लब्ध-दीक्षाः ।। शठेन केनापि वयं हठेनदासी-कृता गोप-वधू-विटेन ॥
१७८ ॥
। ब्रह्मानन्द भारती इस निष्कर्ष पर पहुँचे, यद्यपि मैं अद्वैत मार्ग पर चलने वालों द्वारा पूजित था तथा योग पद्धति द्वारा आत्म-साक्षात्कार में दीक्षित था, किन्तु गोपियों से परिहास करने वाले एक चतुर बालक ने बलपूर्वक मुझे एक दासी के रूप में परिणत कर दिया है।"
प्रभु कहे,—कृष्णे तोमार गाढ़ प्रेमा हय । ग्राहाँ नेत्र पड़े, ताहाँ श्री कृष्ण स्फुरय ॥
१७९॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, कृष्ण के प्रति आप में अगाध प्रेम है, अतएव आप जहाँ भी देखते हैं, आपकी कृष्ण-चेतना बढ़ती जाती है।"
भट्टाचार्य कहे, दोंहार सुसत्य वचन ।।आगे ग्रदि कृष्ण देन साक्षात्दरशन ॥
१८० ॥
सार्वभौम भट्टाचार्य ने कहा, आप दोनों के कथन सही हैं। कृष्ण अपनी कृपा के माध्यम से साक्षात् दर्शन देते हैं।"
प्रेम विना कभु नहे ताँर साक्षात्कार ।। इँहार कृपाते हय दरशन इँहार ॥
१८१॥
कृष्ण-प्रेम के बिना हम उनका प्रत्यक्ष दर्शन नहीं कर सकते। इसलिए श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा से ब्रह्मानन्द भारती को भगवान् का साक्षात्कार हो सका।"
प्रभु कहे,—'विष्णु' ‘विष्णु', कि कह सार्वभौम । ‘अति-स्तुति' हय एइ निन्दार लक्षण ॥
१८२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा,अरे सार्वभौम भट्टाचार्य, यह आप क्या कह रहे हैं? हे विष्णु! मुझे बचाओ! ऐसी स्तुति निन्दा का दूसरा रूप है।"
एत बलि' भारतीरे ला निज-वासा आइला ।भारती-गोसाजि प्रभुर निकटे रहिला ॥
१८३॥
यह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु ब्रह्मानन्द भारती को अपने साथ अपने निवासस्थाने ले गये। उस क्षण से ब्रह्मानन्द भारती महाप्रभु के साथ रहने लगे।"
रामभद्राचार्य, आर भगवानाचार्य ।।प्रभु-पदे रहिला मुँहे छाड़ि' सर्व कार्य ॥
१८४॥
बाद में रामभद्र आचार्य तथा भगवान् आचार्य भी उनके साथ आ गये। वे अपने अपने उत्तरदायित्व को छोड़कर श्री चैतन्य महाप्रभु के आश्रय में रहे।"
काशीश्वर गोसाजि आइला आर दिने ।सम्मान करिया प्रभु राखिला निज स्थाने ।। १८५॥
अगले दिन काशीश्वर गोसांई भी आ गये। श्री चैतन्य महाप्रभु ने उनका बड़ा सम्मान किया और वे भी उन्हीं के साथ रहने लगे।"
प्रभुके ला करा'न ईश्वर दरशन । आगे लोक-भिड़ सब करि' निवारण ॥
१८६॥
काशीश्वर महाप्रभु को जगन्नाथ मन्दिर के भीतर ले जाया करता था। वह भीड़ में महाप्रभु के आगे-आगे रहता और लोगों को दूर रखता, जिससे लोग उनका स्पर्श न कर सकें।"
ग्रत नद नदी ग्रैछे समुद्रे मिलय ।।ऐछे महाप्रभुर भक्त याहाँ ताहाँ हय ॥
१८७॥
जिस तरह सारी नदियाँ समुद्र में मिलती हैं, उसी तरह देश के सारे भक्त श्री चैतन्य महाप्रभु की शरण में आने लगे।"
सबे आसि' मिलिला प्रभुर श्री-चरणे ।। प्रभु कृपा करि' सबाय राखिल निज स्थाने ॥
१८८॥
चूंकि सारे भक्त उनकी शरण में आने लगे, अतएव श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन सब पर कृपा की और उन्हें अपने संरक्षण में रख लिया।"
एइ त कहिल प्रभुर वैष्णव-मिलन ।। इहा येइ शुने, पाय चैतन्य-चरण ॥
१८९॥
इस तरह मैंने श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ समस्त वैष्णवों के मिलन का वर्णन किया है। जो भी इस वर्णन को सुनता है, वह अन्ततः उनके चरणकमलों की शरण प्राप्त करता है।"
श्री-रूप-रघुनाथ-पदे ग्रार आश ।। चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
१९०॥
श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों पर प्रार्थना करते हुए तथा सदैव उनकी कृपा की कामना करते हुए तथा उनका अनुगमन करते हुए, मैं कृष्णदास उनके चरणचिह्नों पर चलकर श्री चैतन्य-चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।"
अध्याय ग्यारह: श्री चैतन्य महाप्रभु की बेदा-कीर्तन लीलाएँ
अत्युद्दण्डं ताण्डवं गौरचन्द्रः ।कुर्वन्भक्तैः श्री-जगन्नाथ-गेहे ।। नाना-भावालङ्कताङ्गः स्व-धाम्ना ।चक्रे विश्व प्रेम-वन्या-निमग्नम् ॥
१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने जगन्नाथ मन्दिर के भीतर अपना सुन्दर नृत्य करके सारे जगत् को प्रेम के सागर में निमग्न कर दिया। उन्होंने बहुत ही अच्छी तरह से ऊँचे उछलकर नृत्य किया।
जय जय श्री-चैतन्य जय नित्यानन्द ।। जयाद्वैत-चन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ॥
२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! श्री अद्वैत प्रभु की जय हो! श्री चैतन्य महाप्रभु के सारे भक्तों की जय हो!" आर दिन सार्वभौम कहे प्रभु-स्थाने ।अभय-दान देह' म्रदि, करि निवेदने ॥
३॥
अगले दिन सार्वभौम भट्टाचार्य ने चैतन्य महाप्रभु से निवेदन किया कि वे उन्हें अनुमति दें, जिससे वे अभय होकर अपनी बात कह सकें।"
प्रभु कहे, कह तुमि, नाहि किछु भय ।।योग्य हैले करिब, अयोग्य हैले नय ॥
४॥
महाप्रभु ने भट्टाचार्य को आश्वासन दिया कि वे बिना किसी भय के अपनी बात कहें, किन्तु साथ में यह भी कहा कि यदि उनकी बात उपयुक्त होगी, तभी वे स्वीकार करेंगे, अन्यथा अस्वीकार कर देंगे।"
सार्वभौम कहे--एइ प्रतापरुद्र राय ।। उत्कण्ठा हाछे, तोमा मिलिबारे चाय ॥
५॥
सार्वभौम भट्टाचार्य ने कहा, प्रतापरुद्र राय नाम का एक राजा है। वह आपसे मिलने के लिए अत्यन्त उत्सुक है और आपकी अनुमति चाहता है।"
कर्णे हस्त दिया प्रभु स्मरे 'नारायण' ।। सार्वभौम, कह केन अयोग्य वचन ॥
६॥
इस प्रस्ताव को सुनते ही श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने हाथों से कान बन्द कर दिये और कहा, अरे सार्वभौम, आप मुझसे ऐसी अनुपयुक्त बात के लिए अनुरोध क्यों कर रहे हैं?" विरक्त सन्यासी आमार राज-दरशन । स्त्री-दरशन-सम विषेर भक्षण ॥
७॥
मैं संन्यासी हैं, इसलिए मेरे लिए किसी राजा से मिलना उसी तरह घातक है, जिस तरह किसी स्त्री से मिलना। इन दोनों से मिलना विषपान करने के तुल्य है।"
निष्किञ्चनस्य भगवद्भजनोन्मुखस्यपारं परं जिगमिषोर्भव-सागरस्य । सन्दर्शनं विषयिणामथ योषितां चहा हन्त हन्त विष-भक्षणतोऽप्यसाधु ॥
८॥
अत्यधिक शोक प्रकट करते हुए महाप्रभु ने सार्वभौम भट्टाचार्य को बतलाया हाय! जो व्यक्ति भवसागर को पार करना चाहता है और बिना किसी भौतिक हेतु के भगवान् की दिव्य प्रेममयी सेवा में लगना चाहता है, उसके लिए इन्द्रियतृप्ति में लगे भौतिकतावादी अथवा ऐसी ही रुचि रखने वाली स्त्री को देखना जान-बूझकर विष खाने से भी अधिक निन्दनीय है।"
सार्वभौम कहे,—सत्य तोमार वचन ।।जगन्नाथ-सेवक राजा किन्तु भक्तोत्तम ॥
९ ॥
सार्वभौम भट्टाचार्य ने उत्तर दिया, हे प्रभु, आपने जो कुछ कहा है, वह सही है; किन्तु यह राजा कोई सामान्य राजा नहीं है। यह जगन्नाथजी का महान् भक्त तथा सेवक है।"
प्रभु कहे, तथापि राजा काल-सर्पाकार ।काष्ठ-नारी-स्पर्शे ग्रैछे उपजे विकार ॥
१०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, यह सच है कि राजा महान् भक्त है, फिर भी उसे विषैला साँप ही समझना होगा। इसी प्रकार स्त्री चाहे काठ की ही ( पुतली ) क्यों न हो, उसके रूप को स्पर्श करने मात्र से मनुष्य विचलित हो उठता है।"
आकारादपि भेतव्यं स्त्रीणां विषयिणामपि ।।यथाहेर्मनसः क्षोभस्तथा तस्याकृतेरपि ॥
११॥
जिस तरह मनुष्य किसी जीवित सर्प या सर्प की आकृति को देखते ही डर जाता है, उसी तरह आत्म-साक्षात्कार के इच्छुक व्यक्ति को भौतिकतावादी पुरुष तथा स्त्री से डरना चाहिए। उसे उनके शारीरिक लक्षणों पर दृष्टि भी नहीं डालनी चाहिए।'" ऐछे बात पुनरपि मुखे ना आनिबे ।।कह ग्रदि, तबे आमाय एथा ना देखिबे ॥
१२॥
हे भट्टाचार्य, यदि आप इसी तरह मुझसे कहते रहोगे, तो आप मुझे पुनः यहाँ कभी नहीं देखेंगे। अतः आप कभी भी ऐसा निवेदन अपने मुख से न करना।"
भय पाना सार्वभौम निज घरे गेला ।वासाय गिया भट्टाचार्य चिन्तित हुइला ॥
१३॥
सार्वभौम डरकर अपने घर वापस चले गये और इस विषय पर मनन करने लगे।"
हेन काले प्रतापरुद्र पुरुषोत्तमे आइला ।।पात्र-मित्र-सङ्गे राजा दरशने चलिला ॥
१४॥
उसी समय महाराज प्रतापरुद्र जगन्नाथ पुरी अर्थात् पुरुषोत्तम पधारे और वे अपने मन्त्रियों, सचिवों तथा सैनिक अधिकारियों समेत जगन्नाथ मन्दिर का दर्शन करने गये।।"
रामानन्द राय आइला गजपति-सङ्गे।।प्रथमेइ प्रभुरे आसि' मिलिला बहु-रङ्गे ।। १५ ।। । जब राजा प्रतापरुद्र जगन्नाथ पुरी लौटे, तब रामानन्द राय भी उनके साथ आये। वे तुरन्त हर्षपूर्वक श्री चैतन्य महाप्रभु से मिलने गये।"
राय प्रणति कैल, प्रभु कैल आलिङ्गन ।दुइ जने प्रेमावेशे करेन क्रन्दन ॥
१६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु से मिलकर रामानन्द राय ने उन्हें नमस्कार किया। महाप्रभु ने उनका आलिंगन किया और दोनों प्रेमावेश में आकर रोने लगे।"
राय-सङ्गे प्रभुर देखि' स्नेह-व्यवहार । सर्व भक्त-गणेर मने हैल चमत्कार ॥
१७॥
। श्री रामानन्द राय के साथ श्री चैतन्य महाप्रभु के घनिष्ठ व्यवहार को देखकर सारे भक्त अचम्भित हो गये।"
राय कहे,—तोमार आज्ञा राजाके कहिल।। तोमार इच्छाय राजा मोर विषय छाड़ाइल ॥
१८॥
रामानन्द राय ने कहा, मैंने राजा प्रतापरुद्र को आपके आदेश से अवगत करा दिया है कि वे मुझे नौकरी से मुक्त कर दें। आपकी कृपा से राजा ने प्रसन्न होकर मुझे इन भौतिक कार्यों से मुक्त कर दिया है।"
आमि कहि,—आमा हैते ना हय ‘विषय' । चैतन्य-चरणे रहों, यदि आज्ञा होय ॥
१९॥
मैंने उनसे कहा, 'हे राजन्, अब मैं राजनैतिक कार्यों में नहीं लगा रहना चाहता। मेरी इच्छा केवल श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों में रहने की है। कृपया मुझे अनुमति दें।।"
तोमार नाम शुनि' राजा आनन्दित हैल ।।आसन हैते उठि' मोरे आलिङ्गन कैल ॥
२०॥
जब मैंने यह प्रस्ताव रखा, तो आपका नाम सुनते ही राजा अत्यधिक प्रसन्न हो गये। वे तुरन्त अपने सिंहासन से उठे और उन्होंने मेरा आलिंगन कर लिया।"
तोमार नाम शुनि' हैल महा-प्रेमावेश ।मोर हाते धरि' करे पिरीति विशेष ॥
२१॥
हे प्रभु, ज्योंही राजा ने आपका पवित्र नाम सुना, वे अत्यधिक भावविह्वल हो उठे। मेरा हाथ पकड़कर उन्होंने प्रेम के सारे लक्षणों को प्रदर्शित किये।"
तोमार ने वर्तन, तुमि खाओ सेइ वर्तन ।। निश्चिन्त हञा भज चैतन्येर चरण ॥
२२॥
ज्योंही उन्होंने मेरा निवेदन सुना, उन्होंने तुरन्त बिना कटौती के मेरी अवकाशवृत्ति (पेंशन) मंजूर कर दी। इस तरह राजा ने अवकाशवृत्ति के रूप में पूरा वेतन देने की अनुमति दी और मुझसे अनुनय किया कि मैं आपके चरणकमलों की सेवा निश्चिन्त होकर करूँ।"
आमिछार, योग्य नहि ताँर दरशने ।। तारै ग्रेइ भजे ताँर सफल जीवने ॥
२३॥
तब महाराज प्रतापरुद्र ने विनीत होकर कहा, 'मैं अत्यन्त पतित हैं और गर्हित हूँ। मैं महाप्रभु का दर्शन पाने के लिए अयोग्य हूँ। जो व्यक्ति उनकी सेवा में लगता है, उसका जीवन सफल हो जाता है।'" परम कृपालु तेह व्रजेन्द्र-नन्दन ।। कोन-जन्मे मोरे अवश्य दिबेन दरशन ॥
२४॥
राजा ने तब कहा, 'श्री चैतन्य महाप्रभु महाराज नन्द के पुत्र कृष्ण हैं। वे अत्यन्त कृपालु हैं और मैं आशा करता हूँ कि वे मुझे अगले जन्म में अवश्य दर्शन देंगे।'" ये ताँहार प्रेम-आर्ति देखिलॅ तोमाते ।। तार एक प्रेम-लेश नाहिक आमाते ॥
२५॥
हे प्रभु, मैं सोचता हूँ कि मुझ में महाराज प्रतापरुद्र के प्रेम का एक अंश भी नहीं है।"
प्रभु कहे,—तुमि कृष्ण-भकत-प्रधान ।तोमाके ये प्रीति करे, सेइ भाग्यवान् ॥
२६॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, हे रामानन्द राय, आप कृष्ण के भक्तों में अग्रणी हो, अतएव जो भी आप से प्रेम करता है, वह निश्चित रूप से अत्यन्त भाग्यशाली है।"
तोमाते ग्रे एत प्रीति हइल राजार ।।एई गुणे कृष्ण ताँरै करिबे अङ्गीकार ॥
२७॥
चूंकि राजा ने आप पर इतना प्रेम दर्शाया है, अतएव भगवान् कृष्ण उसे अवश्य स्वीकार करेंगे।"
ने मे भक्त-जनाः पार्थ न मे भक्ताश्च ते जनाः ।। मद्भक्तानां च ये भक्तास्ते मे भक्त-तमा मताः ॥
२८॥
। ( भगवान् कृष्ण ने अर्जुन से कहा :) 'जो मेरे प्रत्यक्ष भक्त हैं, वे वास्तव में मेरे भक्त नहीं हैं, किन्तु जो मेरे दास के भक्त हैं, वे सचमुच मेरे भक्त हैं।'" आदरः परिचर्यायां सर्वाङ्गैरभिवन्दनम् ।। मद्भक्त-पूजाभ्यधिका सर्व-भूतेषु मन्मतिः ॥
२९॥
मदर्थेष्वङ्ग-चेष्टा च वचसा मद्गुणेरणम् ।।मय्यर्पणं च मनसः सर्व-काम-विवर्जनम् ॥
३०॥
। मेरे भक्त बड़ी सतर्कता तथा आदर से मेरी सेवा करते हैं। वे अपने सारे अंगों से मुझे नमस्कार करते हैं। वे मेरे अन्य भक्तों की पूजा करते हैं। और सारे जीवों को मुझसे सम्बन्धित पाते हैं। वे मेरे लिए अपने शरीर की सारी शक्ति लगा देते हैं। वे मेरे गुणों तथा रूप की महिमा का बखान करने में अपनी वाणी का प्रयोग करते हैं। वे अपना मन भी मुझे अर्पित कर देते हैं और सारी भौतिक इच्छाओं को त्यागने की चेष्टा करते हैं। मेरे भक्तों के यही लक्षण हैं।'" आराधनानां सर्वेषां विष्णोराराधनं परम् ।।तस्मात्परतरं देवि तदीयानां समर्चनम् ॥
३१॥
( शिवजी ने दुर्गा देवी से कहा :) 'हे देवी, यद्यपि वेदों में देवताओं की पूजा की संस्तुति की गई है, लेकिन भगवान् विष्णु की पूजा सर्वोपरि है। किन्तु भगवान् विष्णु की सेवा से भी बढ़कर है उन वैष्णवों की सेवा, जो भगवान् विष्णु से सम्बन्धित हैं।'" दुरापा ह्यल्प-तपसः सेवा वैकुण्ठ-वर्मसु ।।यत्रोपगीयते नित्यं देव-देवो जनार्दनः ॥
३२॥
जिनकी तपस्या बहुत कम है, वे भगवद्धाम वापस जाने के मार्ग पर आगे बढ़ते हुए शुद्ध भक्तों की सेवा शायद ही प्राप्त कर सकते हैं। शुद्ध भक्त उन भगवान् की महिमा के गायन में अपना शत-प्रतिशत समय लगाते हैं, जो देवताओं के स्वामी हैं और सारे जीवों के नियन्ता हैं।"
पुरी, भारती-गोसाञि, स्वरूप, नित्यानन्द ।।जगदानन्द, मुकुन्दादि ग्रत भक्त-वृन्द ॥
३३ ।। उस समय महाप्रभु के समक्ष परमानन्द पुरी, ब्रह्मानन्द भारती गोसांई, स्वरूप दामोदर गोसांई, नित्यानन्द प्रभु, जगदानन्द, मुकुन्द तथा अन्य भक्त उपस्थित थे।"
चारि गोसाजिर कैल राय चरण वन्दन । यथा-योग्य सब भक्तेर करिल मिलन ॥
३४॥
। श्री रामानन्द राय ने सभी भक्तों को, विशेषकर चारों गुरुओं को नमस्कार किया और वे अन्य सभी भक्तों से यथायोग्य रूप से मिले।"
प्रभु कहे,—राय, देखिले कमल-नयन? । राय कहे,—एबे ग्राइ पाब दरशन ॥
३५ ॥
। तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने रामानन्द राय से पूछा, क्या तुमने कमल जैसे नेत्रों वाले भगवान जगन्नाथ के मन्दिर का दर्शन किया है? रामानन्द राय ने कहा, अब मैं मन्दिर में दर्शन करने जाऊँगा।"
प्रभु कहे,- राय, तुमि कि कार्य करिले?।।ईश्वरे ना देखि' केने आगे एथा आइले? ॥
३६॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, मेरे प्रिय राय, तुमने क्या कर दिया? तुम पहले जगन्नाथजी का दर्शन करने जाते और तब यहाँ आते? तुम पहले यहाँ पर क्यों आये हो?" राये कहे, चरण–रथ, हृदय-सारथि ।।याहाँ लञा याय, ताहाँ ग्राय जीव-रथी ॥
३७॥
। रामानन्द राय ने कहा, चरण रथ के तुल्य हैं, और हृदय रथ चलाने वाले सारथी के समान है। हृदय जीव को जहाँ भी ले जाता है, जीव को वहीं जाना पड़ता है।"
आमि कि करिब, मन इहाँ लजा आइल । जगन्नाथ-दरशने विचार ना कैल ॥
३८॥
श्री रामानन्द राय कहते गये, मैं क्या करूं? मेरा मन मुझे यहाँ ले आया। मैं पहले जगन्नाथजी के मन्दिर जाने की बात सोच ही न सका।"
प्रभु कहे, शीघ्र गिया कर दरशन ।। ऐछे घर ग्राइ' कर कुटुम्ब मिलन ॥
३९॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने परामर्श दिया, भगवान् का दर्शन करने तुरन्त जगन्नाथ मन्दिर में जाओ। तब तुम घर जाकर अपने परिवार वालों से मिलो।"
प्रभु आज्ञा पाळा राय चलिला दरशने ।। रायेर प्रेम-भक्ति-रीति बुझे कोन्जने ॥
४० ।।। श्री चैतन्य महाप्रभु की आज्ञा पाकर रामानन्द राय शीघ्रतापूर्वक जगन्नाथ मन्दिर गये। भला रामानन्द राय की भक्ति को कौन समझ सकता है।"
त्रे आसि' राजा सार्वभौमे बोलाइला ।। सार्वभौमे नमस्करि' ताँहारे पुछिला ॥
४१॥
जब राजा प्रतापरुद्र लौटकर जगन्नाथ पुरी आये, तो उन्होंने सार्वभौम भट्टाचार्य को बुलवाया। जब भट्टाचार्य राजा से भेंट करने गये, तो राजा ने उन्हें नमस्कार किया और उनसे पूछा।"
मोर लागि' प्रभु-पदे कैले निवेदन ? ।। सार्वभौम कहे,—कैनु अनेक ग्रतन ॥
४२॥
राजा ने पूछा, क्या आपने महाप्रभु के समक्ष मेरा निवेदन प्रस्तुत किया?' सार्वभौम ने उत्तर दिया, हाँ, मैंने भरसक प्रयत्न किया है।"
तथापि ना करे तेंह राज-दरशन ।।क्षेत्र छाड़ि' ग्राबेन पुनः यदि करि निवेदन ॥
४३॥
मेरे अथक प्रयास के बावजूद भी महाप्रभु राजा से मिलने के लिए राजी नहीं हैं। उन्होंने कहा कि यदि उनसे फिर से पूछा गया, तो वे जगन्नाथ पुरी छोड़कर अन्यत्र चले जायेंगे।"
शुनिया राजार मने दुःख उपजिल । विषाद करिया किछु कहिते लागिल ॥
४४॥
यह सुनकर राजा अत्यन्त दुःखी हुए और शोक करते हुए इस प्रकार बोले।"
पापी नीच उद्धारिते ताँर अवतार ।। जगाई माधाइ तेह करिला उद्धार ॥
४५ ॥
राजा ने कहा : श्री चैतन्य महाप्रभु सभी प्रकार के पापी एवं निम्न पुरुषों का उद्धार करने के लिए ही अवतरित हुए हैं। फलस्वरूप उन्होंने जगाइ तथा माधाइ जैसे पापियों का उद्धार किया है।"
प्रतापरुद्र छाड़ि' करिबे जगलिस्तार ।।एइ प्रतिज्ञा करि' करियाछेन अवतार? ॥
४६॥
हाय, क्या श्री चैतन्य महाप्रभु महाराज प्रतापरुद्र नामक राजा के अतिरिक्त अन्य सभी पापियों के ही उद्धार के लिए अवतरित हुए हैं ?" अदर्शनीयानपि नीच-जातीन् ।संवीक्षते हन्त तथापि नो माम् ।। मदेक-वर्णं कृपयिष्यतीति ।निर्णीय किं सोऽवततार देवः ॥
४७॥
। हाय! क्या श्री चैतन्य महाप्रभु ने यह निर्णय लेकर अवतार लिया है कि वे मेरे अतिरिक्त अन्य सबका उद्धार करेंगे? वे अपनी कृपादृष्टि ऐसे अनेक निम्न जाति के व्यक्तियों पर डालते हैं, जिन्हें देखना भी वर्जित है।"
ताँर प्रतिज्ञा––मोरे ना करिबे दरशन ।। मोर प्रतिज्ञा–ताँहा विना छाड़िब जीवन ।। ४८॥
। महाराज प्रतापरुद्र ने आगे कहा, यदि श्री चैतन्य महाप्रभु ने मुझे न देखने का संकल्प ले रखा है, तो मैं भी कृतसंकल्प हूँ कि यदि मैं उनका दर्शन नहीं पाता, तो मैं अपना जीवन त्याग दूंगा।"
यदि सेइ महाप्रभुर ना पाइ कृपा-धन ।। किबा राज्य, किबा देह,---सब अकारण ॥
४९॥
यदि मुझे श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा प्राप्त नहीं होती, तो मेरा शरीर तथा मेरा राज्य निश्चित रूप से व्यर्थ हैं।"
एत शुनि' सार्वभौम हुइला चिन्तित ।।राजार अनुराग देखि' हइला विस्मित ॥
५०॥
राजा प्रतापरुद्र के संकल्प को सुनकर सार्वभौम चिन्तित हो उठे। वे राजा के संकल्प को देखकर अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गये।"
भट्टाचार्य कहे देव ना कर विषाद ।। तोमारे प्रभुर अवश्य हइबे प्रसाद ॥
५१॥
अन्त में सार्वभौम भट्टाचार्य ने कहा, हे राजन्! आप चिन्ता न करें। आपके दृढ़ संकल्प के कारण आपको श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा अवश्य प्राप्त होगी।"
तेह—प्रेमाधीन, तोमार प्रेम–गाढ़तर ।।अवश्य करिबेन कृपा तोमार उपर ॥
५२॥
जब भट्टाचार्य ने राजा के दृढ़ संकल्प को जान लिया, तो उन्होंने घोषित किया, केवल शुद्ध प्रेम से भगवान् तक पहुँचा जा सकता है। श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रति आपका प्रेम अत्यन्त गहरा है, अतएव वे आप पर अवश्य ही कृपा करेंगे।"
तथापि कहिये आमि एक उपाय ।।एइ उपाय कर' प्रभु देखिबे ग्राहाय ॥
५३॥
तब सार्वभौम ने सुझाया, एक उपाय है, जिससे आप उनका प्रत्यक्ष दर्शन कर सकते हैं।"
रथ-यात्रा-दिने प्रभु सब भक्त ल ।।रथ-आगे नृत्य करिबेन प्रेमाविष्ट हा ॥
५४॥
रथयात्रा के दिन श्री चैतन्य महाप्रभु बड़े ही भावावेश में अर्चाविग्रह के समक्ष नृत्य करेंगे।"
प्रेमावेशे पुष्पोद्याने करिबेन प्रवेश ।।सेइ-काले एकले तुमि छाड़ि' राज-वेश ।। ५५ ।। उस रथयात्रा के दिन भगवान जगन्नाथ के समक्ष नृत्य करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु गुण्डीचा उद्यान में जायेंगे। उस समय आप अपना राजसी वेश उतारकर अकेले ही वहाँ जायें।"
‘कृष्ण-रास-पञ्चाध्याय' करिते पठन ।।एकले ग्राइ' महाप्रभुर धरिबे चरण ॥
५६॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु गुण्डीचा उद्यान में प्रवेश करें, तभी आप भी वहाँ जायें और श्रीमद्भागवत् के उन पाँच अध्यायों को पढ़े, जिनमें गोपियों के साथ कृष्ण के रासनृत्य का वर्णन है। इस तरह आप महाप्रभु के चरणकमलों को पकड़ सकते हैं।"
बाह्य-ज्ञान नाहि, से-काले कृष्ण-नाम शुनि, ।।आलिङ्गन करिबेन तोमाय 'वैष्णव' ‘जानि' ॥
५७॥
। प्रेमाविष्ट होने के कारण श्री चैतन्य महाप्रभु को बाहरी सुधि-बुधि नहीं रहेगी। उसी समय आप श्रीमद्भागवत के वे अध्याय सुनाना शुरू करें। तब वे आपको शुद्ध वैष्णव जानकर गले लगा लेंगे।"
रामानन्द राय, आजि तोमार प्रेम-गुण ।। प्रभु-आगे कहिते प्रभुर फिरि' गेल मन ॥
५८॥
रामानन्द राय ने उनसे आपके प्रेम का जो विवरण दिया है, उससे महाप्रभु ने पहले ही अपना मन बदल लिया है।"
शुनि' गजपतिर मने सुख उपजिल ।।प्रभुरे मिलिते एइ मन्त्रणा दृढ़ कैल ॥
५९॥
महाराज प्रतापरुद्र ने भट्टाचार्य का परामर्श मान लिया और उनके आदेशों का पालन करने का दृढ़ निश्चय किया। इस तरह उन्हें दिव्य सुख का अनुभव हुआ।"
स्नान-यात्रा कबे हुबे पुछिल भट्टरे ।। भट्ट कहे,—–तिन दिन आछये ग्रात्रारे ।। ६०॥
जब राजा ने भट्टाचार्य से पूछा कि भगवान जगन्नाथ को नहलाने का उत्सव (स्नान-यात्रा) कब होगा, तो भट्टाचार्य ने बतलाया कि इस उत्सव के होने में केवल तीन दिन शेष हैं।"
राजारे प्रबोधिया भट्ट गेला निजालय ।।स्नान-यात्रा-दिने प्रभुर आनन्द हृदय ॥
६१॥
। इस तरह राजा को प्रोत्साहित करके सार्वभौम भट्टाचार्य अपने घर चले गये। भगवान् जगन्नाथ की स्नान-यात्रा के दिन श्री चैतन्य महाप्रभु हृदय से परम प्रसन्न थे।"
स्नान-यात्रा देखि' प्रभुर हैल बड़ सुख ।।ईश्वरेर ‘अनवसरे' पाइल बड़ दुःख ।। ६२ ।। भगवान् जगन्नाथ की स्नान-यात्रा देखकर श्री चैतन्य महाप्रभु अत्यन्तप्रसन्न हुए। किन्तु जब उत्सव के बाद भगवान जगन्नाथ विश्राम करने चले गये, तब भगवान् चैतन्य अत्यन्त दुःखी हो गये, क्योंकि वे उनका दर्शन नहीं पा सके।"
गोपी-भावे विरहे प्रभु व्याकुल हा ।।आलालनाथे गेला प्रभु सबारे छाड़िया ॥
६३॥
। भगवान् जगन्नाथ से विलग होने के कारण श्री चैतन्य महाप्रभु को वैसी ही व्याकुलता का अनुभव हुआ, जैसी कि कृष्ण के वियोग में गोपियों को हुई थी। ऐसी अवस्था में उन्होंने सबका संग छोड़ दिया और आलालनाथ चले गये।
पाछे प्रभुर निकट आइला भक्त-गण । गौड़ हैते भक्त आइसे, कैल निवेदन ॥
६४॥
भक्तगण महाप्रभु का पीछा करते-करते उनके समक्ष आये और उनसे पुरी लौट चलने के लिए अनुनय-विनय की। उन्होंने निवेदन किया कि बंगाल के भक्त पुरुषोत्तम-क्षेत्र में पधार रहे हैं।"
सार्वभौम नीलाचले आइला प्रभु लजा ।प्रभु आइला,—राजा-ठात्रि कहिलेन गिया ॥
६५ ॥
इस तरह सार्वभौम भट्टाचार्य भगवान् चैतन्य को जगन्नाथ पुरी वापस ले आये। तब राजा प्रतापरुद्र के यहाँ जाकर उन्होंने महाप्रभु के आने की उन्हें जानकारी दी।"
हेन-काले आइला तथा गोपीनाथाचार्य ।।राजाके आशीर्वाद करि' कहे,—शुन भट्टाचार्य ॥
६६॥
। जब सार्वभौम भट्टाचार्य राजा प्रतापरुद्र के साथ थे, उसी समय गोपीनाथ आचार्य वहाँ आये। ब्राह्मण होने के नाते उन्होंने राजा को आशीर्वाद दिया और सार्वभौम भट्टाचार्य से इस प्रकार कहा।"
गौड़ हैते वैष्णव आसितेछेन दुई-शत ।।महाप्रभुर भक्त सब-–महा-भागवत ॥
६७॥
लगभग दो सौ भक्त बंगाल से आ रहे हैं। वे सभी महाभागवत हैं। और श्री चैतन्य महाप्रभु को विशेष रूप से समर्पित हैं।"
नरेन्द्रे आसिया सबे हैल विद्यमान ।।ताँ-सबारे चाहि वासा प्रसाद-समाधान ॥
६८॥
वे सभी नरेन्द्र सरोवर के तट पर आ चुके हैं और वहाँ प्रतीक्षा कर रहे हैं। मैं चाहता हूँ कि उनके रहने तथा प्रसाद की व्यवस्था हो जाए।"
राजा कहे,—पड़िछाके आमि आज्ञा दिब ।। वासा आदि ने चाहिये,—पड़िछ। सब दिब ॥
६९॥
राजा ने उत्तर दिया, मैं मन्दिर के कर्मचारी को आज्ञा दिये देता हूँ। वह आपकी इच्छानुसार सबके लिए आवास तथा प्रसाद की व्यवस्था कर देगा।"
महाप्रभुर गण व्रत आइल गौड़ हैते । भट्टाचार्य, एके एके देखाह अमाते ॥
७० ॥
हे सार्वभौम भट्टाचार्य, कृपया मुझे बंगाल से आने वाले श्री चैतन्य महाप्रभु के सारे भक्तों को एक-एक करके दिखलाइये।"
भट्ट कहे,—अट्टालिकाय कर आरोहण ।।गोपीनाथ चिने सबारे, कराबे दरशन ॥
७१॥
। सार्वभौम भट्टाचार्य ने राजा से अनुरोध किया, कृपया अपने महल की छत पर चढ़ जाएँ। गोपीनाथ आचार्य हर भक्त को जानते हैं। वे आपको उनकी पहचान करवा देंगे।
आमि काहो नाहि चिनि, चिनिते मन हय ।। गोपीनाथाचार्य सबारे करा'बे परिचय ॥
७२॥
वास्तव में मैं उनमें से किसी को नहीं पहचानता, यद्यपि उन्हें जानने की मेरी इच्छा है। चूंकि गोपीनाथ आचार्य उन सबको जानते हैं, अतएव वे उनका नाम आपको बता सकेंगे।
एत बलि' तिन जन अट्टालिकाय चड़िल ।। हेन-काले वैष्णव सब निकटे आइल ॥
७३॥
यह कहकर सार्वभौम भट्टाचार्य राजा तथा गोपीनाथ आचार्य के साथ महल के ऊपर चले गये। उसी समय बंगाल के सारे वैष्णव भक्त महल के निकट आ गये।
दामोदर-स्वरूप, गोविन्द,—दुइ जन ।माला-प्रसाद ला याय, याहाँ वैष्णव-गण ॥
७४॥
स्वरूप दामोदर तथा गोविन्द जगन्नाथजी का प्रसाद तथा फूलों की मालाएँ लेकर उस स्थान पर गये, जहाँ सारे वैष्णव खड़े थे।
प्रथमेते महाप्रभु पाठाइला बँहारे ।।राजा कहे, एइ दुइ कोन्चिनाह आमारे ॥
७५ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने इन दोनों को पहले ही भेज दिया था। राजा ने पूछा, ये दोनों कौन हैं? कृपया मुझे इनकी पहचान करायें।
भट्टाचार्य कहे,—एइ स्वरूप-दामोदर ।। महाप्रभुर हय इँह द्वितीय कलेवर ॥
७६ ॥
श्री सार्वभौम भट्टाचार्य ने उत्तर दिया, ये स्वरूप दामोदर हैं, जो एक तरह से श्री चैतन्य महाप्रभु के शरीर के द्वितीय विस्तार रूप हैं।
द्वितीय, गोविन्द–भृत्य, इहाँ दोंहा दिया ।। माला पाठाबाछेन प्रभु गौरव करिया ॥
७७॥
। दूसरे व्यक्ति महाप्रभु का निजी सेवक गोविन्द है। महाप्रभु ने बंगाल के भक्तों का सम्मान करने के लिए इन दोनों के हाथों जगन्नाथजी का प्रसाद तथा मालाएँ भेजी हैं।
आदौ माला अद्वैतेरे स्वरूप पराइल । पाछे गोविन्द द्वितीय माला आनि' ताँरे दिल ॥
७८ ॥
। पहले स्वरूप दामोदर ने आगे बढ़कर अद्वैत आचार्य को माला पहनायी। इसके बाद गोविन्द ने आकर दूसरी माला अद्वैत आचार्य को पहनायी।
तबे गोविन्द दण्डवत्केल आचार्येरे ।ताँरै नाहि चिने आचार्य, पुछिल दामोदरे ॥
७९ ॥
। जब गोविन्द ने भूमि पर गिरकर अद्वैत आचार्य को दण्डवत् प्रणाम किया, तो अद्वैत आचार्य ने स्वरूप दामोदर से उसकी पहचान के बारे में पूछताछ की, क्योंकि वे तब गोविंद को नहीं जानते थे।
दामोदर कहे,—इहार 'गोविन्द' नाम ।।ईश्वर-पुरीर सेवक अति गुणवान् ॥
८०॥
स्वरूप दामोदर ने उन्हें बतलाया, “यह गोविन्द ईश्वर पुरी का सेवक था। वह अत्यन्त योग्य है।
प्रभुर सेवा करिते पुरी आज्ञा दिल । अतएव प्रभु इँहाके निकटे राखिल ॥
८१॥
ईश्वर पुरी ने गोविन्द को आज्ञा दी कि वह श्री चैतन्य महाप्रभु की सेवा करे। अतएव महाप्रभु उसे अपने पास रखते हैं।
राजा कहे,—याँरै माला दिल दुइ-जन ।।आश्चर्य तेज, बड़े महान्त,—कहे कोन्जन? ॥
८२॥
। राजा ने पूछा, स्वरूप दामोदर तथा गोविन्द ने दोनों मालाएँ किसे पहनाईं? उनके शरीर को तेज इतना अधिक है कि वे अवश्य ही महान् । भक्त होंगे। कृपया मुझे बतलायें कि वे कौन हैं? आचार्य कहे,—इँहार नाम अद्वैत आचार्य ।।महाप्रभुर मान्य-पात्र, सर्व-शिरोधार्य ॥
८३॥
गोपीनाथ आचार्य ने उत्तर दिया, इनका नाम अद्वैत आचार्य है। इनका आदर श्री चैतन्य महाप्रभु भी करते हैं, अतएव वे सर्वश्रेष्ठ भक्त हैं।
श्रीवास-पण्डित ईंह, पण्डित-वक्रेश्वर ।।विद्यानिधि-आचार्य, इँह पण्डित-गदाधर ॥
८४॥
। ये श्रीवास पण्डित, वक्रेश्वर पण्डित, विद्यानिधि आचार्य तथा गदाधर पण्डित हैं।
आचार्यरत्न ईंह, पण्डित-पुरन्दर ।गङ्गादास पण्डित ईंह, पण्डित-शङ्कर ॥
८५ ॥
ये रहे आचार्यरत्न, पुरन्दर पण्डित, गंगादास पंडित तथा शंकर पंडित।
एइ मुरारि गुप्त, इँह पण्डित नारायण ।हरिदास ठाकुर इँह भुवन-पावन ॥
८६॥
ये हैं मुरारि गुप्त, पण्डित नारायण तथा सारे ब्रह्माण्ड के उद्धारक हरिदास ठाकुर।।
एइ हरि-भट्ट, एइ श्री-नृसिंहानन्द ।। एइ वासुदेव दत्त, एइ शिवानन्द ॥
८७॥
ये रहे हरि भट्ट और वे हैं नृसिंहानन्द। ये वासुदेव दत्त तथा शिवानन्द सेन हैं।
गोविन्द, माधव घोष, एइ वासु-घोष ।। तिन भाइर कीर्तने प्रभु पायेन सन्तोष ॥
८८॥
और ये हैं गोविन्द घोष, माधव घोष तथा वासुदेव घोष। ये तीनों भाई हैं और इनका संकीर्तन महाप्रभु को बहुत अच्छा लगता है।
राघव पण्डित, इँह आचार्य नन्दन । श्रीमान्पण्डित एइ, श्रीकान्त, नारायण ॥
८९॥
। ये हैं राघव पण्डित, ये रहे आचार्यनन्दन, वे श्रीमान पण्डित हैं तथा ये हैं श्रीकान्त तथा नारायण।
शुक्लाम्बर देख, एइ श्रीधर, विजये ।।वल्लभ-सेन, एइ पुरुषोत्तम, सञ्जय ॥
९० ॥
गोपीनाथ आचार्य भक्तों की ओर संकेत करते रहे, ये शुक्लाम्बर हैं। वे रहे श्रीधर। ये विजय हैं और ये हैं वल्लभ सेन। ये रहे पुरुषोत्तम और वे हैं संजय।
कुलीन-ग्राम-वासी एड सत्यराज-खान ।। रामानन्द-आदि सबे देख विद्यमान ॥
९१॥
। और ये सत्यराज तथा रामानन्द जैसे सभी कुलीन ग्राम के निवासी हैं। वे सभी यहाँ उपस्थित हैं। कृपा करके देखें।
मुकुन्द-दास, नरहरि, श्री-रघुनन्दन ।।खण्ड-वासी चिरञ्जीव, आर सुलोचन ॥
९२॥
ये रहे मुकुन्द दास, नरहरि, श्री रघुनन्दन, चिरंजीव तथा सुलोचनये सभी खण्ड के निवासी हैं।
कतेक कहिब, एइ देख ग्रत जन ।।चैतन्येर गण, सब––चैतन्य-जीवन ॥
९३ ॥
मैं आपको कितने नाम गिनाऊँ? आप यहाँ जितने सारे भक्त देखरहे हैं, वे सब श्री चैतन्य महाप्रभु के संगी हैं, और महाप्रभु ही उनके प्राण राजा कहे देखि' मोर हैल चमत्कार ।।वैष्णवेर ऐछे तेज देखि नाहि आर ॥
९४॥
राजा ने कहा, इन सब भक्तों को देखकर मैं अत्यधिक चकित हूँ, क्योंकि इसके पूर्व मैंने किसी में इतना तेज कभी नहीं देखा।
कोटि-सूर्य-सम सब–उज्वल-वरण ।कभु नाहि शुनि एइ मधुर कीर्तन ॥
९५॥
। सचमुच, उनका तेज करोड़ सूर्यों के तेज के समान है। न ही मैंने इसके पूर्व कभी भगवन्नाम का इतना मधुर कीर्तन होते सुना है।
ऐछे प्रेम, ऐछे नृत्य, ऐछे हरि-ध्वनि ।।काहाँ नाहि देखि, ऐछे काहाँ नाहि शुनि ॥
९६॥
मैंने न तो कभी ऐसा प्रेमभाव देखा है, ने भगवान् के नाम का इस तरह कीर्तन होते सुना है, न ही संकीर्तन के समय इस प्रकार का नृत्य होते देखा है।
भट्टाचार्य कहे एइ मधुर वचन ।। चैतन्येर सृष्टि-—एइ प्रेम-सङ्कीर्तन ॥
९७॥
सार्वभौम भट्टाचार्य ने कहा, यह मधुर दिव्य ध्वनि महाप्रभु की विशेष सृष्टि है, जो प्रेम-संकीर्तन कहलाती है।
अवतरि' चैतन्य कैल धर्म-प्रचारण ।।कलि-काले धर्म-कृष्ण-नाम-सङ्कीर्तन ॥
९८॥
इस कलियुग में श्री चैतन्य महाप्रभु कृष्णभावनामृत धर्म का प्रचार करने के लिए अवतरित हुए हैं। अतएव भगवान् कृष्ण के पवित्र नामों का कीर्तन वही इस युग का धर्म है।
सङ्कीर्तन-यज्ञे ताँरे करे आराधन ।।सेइ त' सुमेधा, आर---कलि-हत-जन ॥
९९॥
जो भी व्यक्ति संकीर्तन द्वारा श्री चैतन्य महाप्रभु की सेवा करता है, उसे अत्यन्त बुद्धिमान समझा जाना चाहिए। जो ऐसा नहीं करता, उसे इस युग का शिकार तथा बुद्धि से रहित समझा जाना चाहिए।
कृष्ण-वर्णं त्विषाकृष्णं साङ्गोपाङ्गास्त्र-पार्षदम् ।।यज्ञैः सङ्कीर्तन-प्रायैर्यजन्ति हि सु-मेधसः ॥
१०० ।। इस कलियुग में बुद्धिमान लोग भगवान् के उन अवतार की, जो निरन्तर कृष्ण-नाम का गायन करते हैं, पूजा करने के लिए संकीर्तन करते हैं। यद्यपि उनका रंग साँवला नहीं है, तो भी वे साक्षात् कृष्ण हैं। वे अपने संगियों, सेवकों, अस्त्रों तथा पार्षदों से युक्त रहते हैं।
राजा कहे,—शास्त्र-प्रमाणे चैतन्य हुन कृष्ण ।तबे केने पण्डित सब ताँहाते वितृष्ण? ॥
१०१॥
। राजा ने कहा, शास्त्रों के प्रमाण के अनुसार यह निष्कर्ष निकलता है कि श्री चैतन्य महाप्रभु ही स्वयं भगवान् कृष्ण हैं। तो फिर पण्डितजन कभी-कभी उनके प्रति उदासीन क्यों रहते हैं? भट्ट कहे, ताँर कृपा-लेश हय ग्राँरै ।।सेइ से ताँहारे 'कृष्ण' करि' लइते पारे ॥
१०२॥
। भट्टाचार्य ने उत्तर दिया, जिसे श्री चैतन्य महाप्रभु की रंचमात्र भी कृपा प्राप्त हुई है, वही व्यक्ति समझ पाता है कि वे कृष्ण हैं, अन्य कोई नहीं।
ताँर कृपा नहे झारे, पण्डित नहे केने ।देखिले शुनिलेह ताँरे 'ईश्वर' ना माने ॥
१०३॥
जब तक किसी व्यक्ति पर श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा नहीं होती, तब तक कोई कितना ही बड़ा पण्डित क्यों न हो और वह कितना ही क्यों न देखे या सुने, वह महाप्रभु को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के रूप में नहीं स्वीकार कर सकता।
अथापि ते देव पदाम्बुज-द्वय प्रसाद-लेशानुगृहीत एव हि । जानाति तत्त्वं भगवन्महिम्नो ।न चान्य एकोऽपि चिरं विचिन्वन् ॥
१०४॥
। ( ब्रह्माजी ने कहा ) हे प्रभु, यदि किसी को आपके चरणकमलों की रंचमात्र भी कृपा प्राप्त हो जाती है, तो वह आपकी महानता को समझ सकता है। किन्तु जो लोग पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को समझने के लिए तर्कवितर्क करते हैं, वे अनेक वर्षों तक वेदों का अध्ययन करते रहने पर भी आपको नहीं जान पाते। ।
राजा कहे,—सबे जगन्नाथ ना देखिया ।।चैतन्येर वासा-गृहे चलिला धाआ ॥
१०५ ॥
राजा ने कहा, सारे भक्त भगवान जगन्नाथ के मन्दिर जाने के बदले श्री चैतन्य महाप्रभु के निवासस्थान की ओर दौड़े जा रहे हैं।
भट्ट कहे,—एइ त' स्वाभाविक प्रेम-रीत ।।महाप्रभु मिलिबारे उत्कण्ठित चित ॥
१०६॥
। सार्वभौम भट्टाचार्य ने कहा, यही रागानुग प्रेम है। सारे भक्त श्री चैतन्य महाप्रभु से मिलने के लिए अत्यन्त उत्सुक हैं।
आगे ताँरे मिलि' सबे ताँरै सङ्गे लञा ।ताँर सङ्गे जगन्नाथ देखिबेन गिया ॥
१०७॥
सारे भक्त पहले श्री चैतन्य महाप्रभु से मिलेंगे और तब उन्हें साथ लेकर वे सब भगवान जगन्नाथ का दर्शन करने मन्दिर में जायेंगे।
राजा कहे,—भवानन्देर पुत्र वाणीनाथ ।।प्रसाद लञा सङ्गे चले पाँच-सात ॥
१०८॥
राजा ने कहा, भवानन्द राय का पुत्र वाणीनाथ पाँच-सात अन्य लोगों के साथ जगन्नाथजी का प्रसाद लाने गये हैं।
महाप्रभुर आलये करिल गमन ।।एत महा-प्रसाद चाहि' कह कि कारण ॥
१०९॥
। वस्तुतः वाणीनाथ पहले ही श्री चैतन्य महाप्रभु के निवासस्थान जा चुका है और पर्याप्त महाप्रसाद ले गया है। कृपा करके मुझे इसका कारण बतलायें।
भट्ट कहे,—-भक्त-गण आइल जानि ।।प्रभुर इङ्गिते प्रसाद ग्राय ताँरा लञा ॥
११०॥
सार्वभौम भट्टाचार्य ने कहा, यह समझकर कि सारे भक्त आ चुके हैं, महाप्रभु ने संकेत दिया और इतनी मात्रा में महाप्रसाद ले आये हैं।
राजा कहे,—उपवास, क्षौर-तीर्थेर विधान।ताहा ना करिया केने खाइब अन्न-पान ॥
१११॥
तब राजा ने भट्टाचार्य से पूछा, उन भक्तों ने तीर्थस्थान की मुलाकात लेने के नियमों का-यथा उपवास रखने, बाल बनवाने इत्यादि का पालन क्यों नहीं किया? उन्होंने पहले प्रसाद क्यों ग्रहण किया? भट्ट कहे,—तुमि येइ कह, सेइ विधि-धर्म ।एइ राग-मार्गे आछे सूक्ष्म-धर्म-मर्म ॥
११२॥
भट्टाचार्य ने राजा से कहा, आपने जो कुछ कहा है, वह तीर्थस्थानों की मुलाकात लेने के नियमानुसार ठीक है, किन्तु एक दूसरा भी मार्ग है, जो स्वतःस्फूर्त रागानुग प्रेम का मार्ग है। इसके अनुसार धार्मिक नियमों के पालन में सूक्ष्म बारीकियाँ सन्निहित हैं।
ईश्वरेर परोक्ष आज्ञा—क्षौर, उपोषण ।। प्रभुर साक्षाताज्ञा–प्रसाद-भोजन ॥
११३॥
सिर मुंड़ाने तथा उपवास रखने के शास्त्रीय आदेश पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की परोक्ष आज्ञा हैं, किन्तु जब महाप्रभु प्रसाद ग्रहण करने की प्रत्यक्ष आज्ञा देते हैं, तो स्वाभाविक है कि भक्तगण उसे ही प्रथम कर्तव्य मानकर प्रसाद ग्रहण करते हैं।
ताहाँ उपवास, याहाँ नाहि महा-प्रसाद ।। प्रभु-आज्ञा-प्रसाद-त्यागे हय अपराध ॥
११४॥
जहाँ महाप्रसाद उपलब्ध न हो, वहीं उपवास करना चाहिए, किन्तु जहाँ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् प्रत्यक्ष रूप से प्रसाद ग्रहण करने का आदेश दें, वहाँ ऐसे सुअवसर की उपेक्षा करना अपराध है।
विशेषे श्री-हस्ते प्रभु करे परिवेशन ।। एत लाभ छाड़ि' कोन्करे उपोषण ॥
११५॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु अपने दिव्य हाथ से प्रसाद बाँट रहे हों, तो भला कौन उस अवसर को हाथ से जाने देगा और उपवास के विधान को स्वीकार करेगा? पूर्वे प्रभु मोरे प्रसाद-अन्न आनि' दिल ।। प्राते शय्याय वसि' आमि से अन्न खाइल ।। ११६॥
इससे पहले एक दिन प्रात:काल महाप्रभु ने मुझे महाप्रसाद को अन्न दिया था, जिसे मैंने बिना हाथ-मुँह धोये ही बिस्तर पर बैठे-बैठे खाया था।
याँरे कृपा करि' करेन हृदये प्रेरण। कृष्णाश्रय हय, छाड़े वेद-लोक-धर्म ॥
११७॥
महाप्रभु जिस मनुष्य को भीतर से प्रेरित करके उस पर अपनी कृपा दर्शाते हैं, वह केवल भगवान् कृष्ण की शरण ग्रहण करता है और समस्त वैदिक तथा सामाजिक प्रथाओं को त्याग देता है।
यदा ग्रमनुगृह्णाति भगवानात्म-भावितः ।।स जहाति मतिं लोके वेदे च परिनिष्ठिताम् ॥
११८॥
जब कोई व्यक्ति अपने हृदय में आसीन भगवान् के द्वारा प्रेरित होता है, तब वह न तो सामाजिक रीतियों की न ही वैदिक विधानों की परवाह करता है।
तबे राजा अट्टालिका हैते तलेते आइला ।। काशी-मिश्र, पड़िछा-पात्र, मुँहे आनाइला ॥
११९ इसके बाद राजा प्रतापरुद्र अपने महल की अटारी से नीचे चले आये और काशी मिश्र को तथा मन्दिर की देख-रेख करने वाले को बुला भेजा।
प्रतापरुद्र आज्ञा दिल सेइ दुइ जने । प्रभु-स्थाने आसियाछेन ग्रत प्रभुर गणे ॥
१२०॥
बारे स्वच्छन्द वासा, स्वच्छन्द प्रसाद ।। स्वच्छन्द दर्शन कराइह, नहे येन बाध ॥
१२१॥
फिर महाराज प्रतापरुद्र ने काशी मिश्र तथा मन्दिर की देख-रेख करने वाले से कहा, श्री चैतन्य महाप्रभु के सारे भक्तों तथा संगियों के लिए आवास, प्रसाद तथा मन्दिर में दर्शन करने की सुविधा की समुचित व्यवस्था की जाए, जिससे उन्हें कोई कठिनाई न हो।
प्रभुर आज्ञा पालिह मुँहे सावधान हन्ना ।। आज्ञा नहे, तबु करिह, इङ्गित बुझिया ॥
१२२॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु की आज्ञाओं का सावधानी से पालन होना चाहिए। यद्यपि महाप्रभु सीधे कोई आदेश नहीं देंगे, फिर भी उनके संकेतों को समझकर उनकी इच्छाओं का पालन किया जाए।
एत बलि' विदाय दिल सेइ दुइ-जने । सार्वभौम देखिते आइल वैष्णव-मिलने ॥
१२३॥
यह कहकर राजा ने उन दोनों को जाने दिया। सार्वभौम भट्टाचार्य भी सारे वैष्णवों के समूह से मिलने गये।
गोपीनाथाचार्य भट्टाचार्य सार्वभौम । दूरे रहि' देखे प्रभुर वैष्णव-मिलन ॥
१२४॥
गोपीनाथ आचार्य तथा सार्वभौम भट्टाचार्य दूर से श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ समस्त वैष्णवों का मिलन देखते रहे।
सिंह-द्वार डाहिने छाड़ि' सब वैष्णव-गण । काशी-मिश्र-गृह-पथे करिला गमन ॥
१२५ ॥
। मन्दिर के मुख्य द्वार की दाईं ओर से सारे वैष्णव काशी मिश्र के घर की ओर जाने लगे।
हेन-काले महाप्रभु निज-गण-सङ्गे।। वैष्णवे मिलिला आसि' पथे बहु-रङ्गे ॥
१२६॥
तभी मार्ग पर श्री चैतन्य महाप्रभु अपने निजी संगियों समेत सारे वैष्णवों से बड़ी ही प्रसन्नतापूर्वक मिले।
अद्वैत करिल प्रभुर चरण वन्दन ।आचार्येरे कैल प्रभु प्रेम-आलिङ्गन ॥
१२७।।। सर्वप्रथम अद्वैत आचार्य ने महाप्रभु के चरणकमलों की वन्दना की और महाप्रभु ने प्रेमवश तुरन्त उनका आलिंगन कर लिया।
प्रेमानन्दे हैला देंहे परम अस्थिर ।समय देखिया प्रभु हैला किछु धीर ॥
१२८॥
प्रेमवश श्री चैतन्य महाप्रभु तथा अद्वैत आचार्य विचलित हो उठे। किन्तु काल तथा परिस्थिति देखकर महाप्रभु ने धीरज धारण की।
श्रीवासादि करिल प्रभुर चरण वन्दन ।।प्रत्येके करिल प्रभु प्रेम-आलिङ्गन ॥
१२९॥
इसके बाद श्रीवास ठाकुर तथा सभी भक्तों ने महाप्रभु के चरणकमलों की वन्दना की और महाप्रभु ने बारी-बारी से हर एक का अत्यन्त प्रेमभाव से आलिंगन किया।
एके एके सर्व-भक्ते कैल सम्भाषण ।। सबा लञा अभ्यन्तरे करिला गमन ॥
१३०॥
महाप्रभु ने एक-एक करके सारे भक्तों को सम्बोधित किया और वे उन सबको अपने साथ घर के भीतर ले गये।
मिश्रर आवास सेइ हय अल्प स्थान । असङ्ख्य वैष्णव ताहाँ हैल परिमाण ॥
१३१॥
चूंकि काशी मिश्र के घर में पर्याप्त स्थान न था, इसलिए वहाँ एकत्र भक्तों की भीड़ लग गई।
आपन-निकटे प्रभु सबा वसाइला । आपनि श्री-हस्ते सबारे माल्य-गन्ध दिला ॥
१३२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने सारे भक्तों को अपने पास बैठाया और अपने हाथ से उन्हें मालाएँ तथा चन्दन-लेप दिया।
भट्टाचार्य, आचार्य तबे महाप्रभुर स्थाने ।। प्रथा-स्रोग्य मिलिला सबाकार सने ॥
१३३॥
इसके बाद गोपीनाथ आचार्य तथा सार्वभौम भट्टाचार्य श्री चैतन्य महाप्रभु के निवासस्थान पर सभी वैष्णवों से समुचित ढंग से मिले।
अद्वैतेरे कहेन प्रभु मधुर वचने ।। आजि आमि पूर्ण हइलाङ तोमार आगमने ॥
१३४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने मीठे वचनों से अद्वैत आचार्य प्रभु को सम्बोधित किया, “हे प्रिय महाशय, आपके आने से आज मैं पूर्ण हो गया हूँ।
अद्वैत कहे, ईश्वरेर एइ स्वभाव हय । यद्यपि आपने पूर्ण, सर्वेश्वर्य-मय ॥
१३५॥
तथापि भक्त-सङ्गे हय सुखोल्लास ।।भक्त-सङ्गे करे नित्य विविध विलास ॥
१३६ ॥
अद्वैत आचार्य प्रभु ने उत्तर दिया, यह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का स्वाभाविक गुण है। यद्यपि वे स्वयं सम्पूर्ण हैं और समस्त ऐश्वर्यों से युक्त हैं, किन्तु वे अपने भक्तों के संग में अनेक प्रकार की नित्य लीलाएँ करके दिव्य आनन्द का आस्वादन करते हैं।
वासुदेव देखि' प्रभु आनन्दित हा ।।ताँरै किछु कहे ताँर अङ्गे हस्त दिया ॥
१३७॥
महाप्रभु ने ज्योंही मुकुन्द दत्त के बड़े भाई वासुदेव दत्त को देखा, त्योंही वे तुरन्त अत्यन्त प्रसन्न हो उठे और उनके शरीर पर अपना हाथ रखकर बोलने लगे।
यद्यपि मुकुन्द–आमा-सङ्गे शिशु हैते ।। ताँहा हैते अधिक सुख तोमारे देखते ॥
१३८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, यद्यपि मुकुन्द मेरा बचपन का मित्र है, किन्तु उसकी तुलना में आपको देखकर मुझे कहीं अधिक प्रसन्नता हो रही है।
वासु कहे,—मुकुन्द आदौ पाइल तोमार सङ्ग। तोमार चरण पाइल सेइ पुनर्जन्म ॥
१३९॥
। वासुदेव ने उत्तर दिया, मुकुन्द को प्रारम्भ में आपका साथ मिला। अतएव उसने आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण कर ली है। यही उसका दिव्य पुनर्जन्म है।
छोट हा मुकुन्द एबे हैल आमार ज्येष्ठ । तोमार कृपा-पात्र ताते सर्व-गुणे श्रेष्ठ ॥
१४०॥
। इस तरह वासुदेव दत्त ने अपने छोटे भाई मुकुन्द से अपनी कनिष्ठता स्वीकार कर ली। उन्होंने कहा, यद्यपि मुकुन्द मुझ से छोटा है, किन्तु उसे आपकी कृपा पहले प्राप्त हुई। अत: वह मुझसे आध्यात्मिक दृष्टि से वरिष्ठ हो गया। इसके अतिरिक्त, आप उस पर बहुत कृपालु हैं। इस तरह वह सारे सद्गुणों में मुझसे वरिष्ठ है।
पुनः प्रभु कहे-आमि तोमार निमित्ते ।।दुइ पुस्तक आनियाछि ‘दक्षिण' हइते ॥
१४१॥
। महाप्रभु ने कहा, “मैं केवल आपके लिए दक्षिण भारत से दो पुस्तकें लाया हूँ।
स्वरूपेर ठाङि आछे, लह ता लिखिया । वासुदेव आनन्दित पुस्तक पाञा ॥
१४२॥
वे पुस्तकें स्वरूप दामोदर के पास रखी हैं और आप उनकी नकल करवा सकते हैं। यह सुनकर वासुदेव अत्यन्त प्रसन्न हुए।
प्रत्येक वैष्णव सबे लिखिया लइल ।।क्रमे क्रमे दुइ ग्रन्थ सर्वत्र व्यापिल ॥
१४३॥
प्रत्येक वैष्णव ने इन दोनों पुस्तकों की प्रतिलिपि कर ली। धीरे-धीरे ये दोनों पुस्तकें ( ब्रह्म-संहिता तथा श्रीकृष्णकर्णामृत ) सारे भारत में व्याप्त हो गईं।
श्रीवासाद्ये कहे प्रभु करि' महा-प्रीत ।तोमार चारि-भाइर आमि हइनु विक्रीत ॥
१४४॥
महाप्रभु ने श्रीवास तथा उनके भाइयों को अत्यन्त प्रेम तथा स्नेह के साथ सम्बोधित किया, मैं तो इतना कृतज्ञ हूँ कि तुम चारों भाइयों ने मुझे खरीद लिया है।
श्रीवास कहेन, केने कह विपरीत । कृपा-मूल्ये चारि भाई हइ तोमार क्रीत ॥
१४५॥
तब श्रीवास ने महाप्रभु से कहा, आप उल्टा क्यों कह रहे हैं? वास्तव में हमें चारों भाई आपकी कृपा द्वारा खरीदे जा चुके हैं।
शङ्करे देखिया प्रभु कहे दामोदरे । सगौरव-प्रीति आमार तोमार उपरे ॥
१४६॥
शंकर को देखकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने दामोदर से कहा, तुम पर मेरा स्नेह गौरव से युक्त है।
शुद्ध केवल-प्रेम शङ्कर-उपरे ।अतएव तोमार सङ्गे राखह शङ्करे ॥
१४७॥
इसलिए तुम अपने छोटे भाई शंकर को अपने साथ रखो, क्योंकि वह मुझसे शुद्ध प्रेम से जुड़ा हुआ है।
दामोदर कहे,- शङ्कर छोट आमा हैते ।।एबे आमार बड़ भाइ तोमार कृपाते ॥
१४८॥
। दामोदर पंडित ने उत्तर दिया, शंकर मेरा छोटा भाई तो है, किन्तु आज से वह मेरा बड़ा भाई बन गया, क्योंकि उस पर आपकी विशेष कृपा है।"
शिवानन्दे कहे प्रभु, तोमार आमाते ।।गाढ़ अनुराग हय, जानि आगे हैते ॥
१४९॥
फिर शिवानन्द सेन की ओर मुड़ते हुए महाप्रभु ने कहा, मैं जानता हूँ कि प्रारम्भ से ही मेरे प्रति तुम्हारा अतीव अनुराग रहा है।"
शुनि' शिवानन्द-सेन प्रेमाविष्ट हा ।। दण्डवत् हा पदे श्लोक पड़िया ॥
१५०।। यह सुनते ही शिवानन्द सेन भावविभोर हो उठे और महाप्रभु को प्रणाम करके भूमि पर गिर पड़े। फिर उन्होंने निम्नलिखित श्लोक सुनाना शुरू किया।"
निमजतोऽनन्त भवार्णवान्तश् ।चिराय मे कुलमिवासि लब्धः ।। त्वयापि लब्धं भगवन्निदानीम् ।अनुत्तमं पात्रमिदं दयायाः ॥
१५१॥
हे प्रभु! हे असीम! यद्यपि मैं अज्ञान के सागर में डूबा हुआ था, किन्तु अब दीर्घकाल के बाद मैंने आपको उसी प्रकार प्राप्त किये हैं, जिस प्रकार किसी को समुद्र का किनारा मिल जाए। हे प्रभु, मुझे प्राप्त करके आपने ऐसा उपयुक्त व्यक्ति प्राप्त किया है, जिस पर आप अपनी अहैतुकी कृपा प्रदान कर सकते हैं।"
प्रथमे मुरारि-गुप्त प्रभुरे ना मिलिया ।। बाहिरेते पड़ि' आछे दण्डवत् हा ॥
१५२॥
। मुरारि गुप्त पहले महाप्रभु से नहीं मिले, किन्तु दरवाजे के बाहर से ही उन्हें दण्डवत् प्रणाम किया।"
मुरारि ना देखियो प्रभु करे अन्वेषण ।।मुरारि लइते धाा आइला बहु-जन ॥
१५३॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने भक्तों के बीच मुरारि गुप्त को नहीं देखा, तो उन्होंने उनके विषय में पूछताछ की। फलतः अनेक लोग उन्हें महाप्रभु के पास लाने के लिए दौड़े-दौड़े गये।"
तृण दुइ-गुच्छ मुरारि दशने धरिया ।।महाप्रभु आगे गेला दैन्याधीन हा ॥
१५४॥
इस तरह मुरारि गुप्त अपने दाँतो में तिनके के दो गुच्छे दबाकर अत्यन्त दीन-हीन भाव से महाप्रभु के समक्ष गये।"
मुरारि देखिया प्रभु आइला मिलिते ।पाछे भागे मुरारि, लागिला कहिते ॥
१५५॥
यह देखकर कि मुरारि उनसे मिलने आ रहे हैं, श्री चैतन्य महाप्रभु उनके पास गये, किन्तु मुरारि दूर भागने लगे और इस प्रकार कहने लगे।"
मोरे ना छुडिह, प्रभु, मुजि त' पामर ।।तोमार स्पर्श-योग्य नहे पाप कलेवर ॥
१५६॥
हे प्रभु! कृपया आप मुझे न छुएँ। मैं अत्यन्त नीच हूँ और आपके छूने योग्य नहीं हैं, क्योंकि मेरा शरीर पापमय है। ।"
प्रभु कहे,—मुरारि, कर दैन्य संवरण ।तोमार दैन्य देखि' मोर विदीर्ण हय मन ॥
१५७॥
महाप्रभु ने कहा, हे मुरारि, कृपया तुम अपनी अनावश्यक दीनता बन्द करो। तुम्हारी दीनता देखकर मेरा मन विचलित हो रहा है।"
एत बलि' प्रभु ताँरै कैल आलिङ्गन ।निकटे वसाझा करे अङ्ग सम्मार्जन ॥
१५८॥
यह कहकर महाप्रभु ने मुरारि का आलिंगन किया और उन्हें अपने पास में बैठाया। फिर महाप्रभु अपने हाथों से उनका शरीर साफ करने लगे।"
आचार्यरत्न, विद्यानिधि, पण्डित गदाधर ।। गङ्गादास, हरि-भट्ट, आचार्य पुरन्दर ॥
१५९॥
प्रत्येके सबार प्रभु करि' गुण गान ।।पुनः पुनः आलिङ्गिया करिल सम्मान ॥
१६०॥
इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने आचार्यरत्न, विद्यानिधि, पंडित गदाधर, गंगादास, हरिभट्ट तथा आचार्य पुरन्दर इत्यादि सभी भक्तों का बारम्बार आलिंगन किया। उनके सद्गुणों का बखान किया और बारम्बार उनका सम्मान किया।"
सबारे सम्मानि' प्रभुर हद्दल उल्लास ।।हरिदासे ना देखिया कहे,—काहाँ हरिदास ॥
१६१॥
इस तरह प्रत्येक भक्त का सम्मान करके श्री चैतन्य महाप्रभु अत्यन्त प्रफुल्लित हुए। किन्तु हरिदास ठाकुर को न देखकर उन्होंने पूछा, हरिदास कहाँ हैं?" दूर हैते हरिदास गोसाळे देखियो ।राजपथ-प्रान्ते पड़ि' आछे दण्डवत् ह ॥
१६२॥
तभी श्री चैतन्य महाप्रभु ने देखा कि हरिदास ठाकुर दूर से, रास्ते पर गिरकर, उन्हें प्रणाम कर रहे हैं।"
मिलन-स्थाने आसि' प्रभुरे ना मिलिला ।।राजपथ-प्रान्ते दूरे पड़िया रहिला ॥
१६३॥
हरिदास ठाकुर महाप्रभु के मिलन-स्थल पर नहीं आये, अपितु वे दूर ही सामान्य रास्ते पर दण्डवत् पड़े रहे।"
भक्त सब धाजी आइल हरिदासे निते ।प्रभु तोमाय मिलिते चाहे, चलह त्वरिते ॥
१६४॥
तब सारे भक्त हरिदास ठाकुर के पास जाकर बोले, “महाप्रभु आपसे मिलना चाहते हैं। कृपया तुरन्त आइये।"
हरिदास कहे,–मुबि नीच-जाति छार ।।मन्दिर-निकटे ग्राइते मोर नाहि आधिकार ॥
१६५ ॥
हरिदास ठाकुर ने उत्तर दिया, मैं मन्दिर के पास नहीं जा सकता, क्योंकि मैं नीच जाति का अधम व्यक्ति हूँ। मुझे वहाँ जाने का कोई अधिकार नहीं है।"
निभृते टोटा-मध्ये स्थान यदि पाङ।। ताहाँ पड़ि' रहो, एकले काल गोङ॥
१६६॥
तब हरिदास ठाकुर ने अपनी इच्छा व्यक्त की, यदि मुझे मन्दिर के निकट कोई एकान्त स्थान मिल जाता, तो मैं वहाँ अकेले रहकर अपना समय बिताता।"
जगन्नाथ-सेवकेर मोर स्पर्श नाहि हय ।।ताहाँ पड़ि' रहों,—मोर एइ वाञ्छा हय ॥
१६७॥
मैं नहीं चाहता कि भगवान जगन्नाथ के सेवक मेरा स्पर्श करें। मैं वहाँ बगीचे में अकेला रहूँगा। यही मेरी इच्छा है।"
एइ कथा लोक गिया प्रभुरे कहिल ।।शुनिया प्रभुर मने बड़ सुख हइल ॥
१६८॥
जब लोगों ने श्री चैतन्य महाप्रभु को यह सन्देश दिया, तो वे यह सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुए।"
हेन-काले काशी-मिश्र, पड़िछा,--दुइ जन ।।आसिया करिल प्रभुर चरण वन्दन ॥
१६९॥
उसी समय काशी मिश्र मन्दिर की देख-रेख करने वाले के साथ आये और उन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों पर अपना सादर नमस्कार किया।"
सर्व वैष्णव देखि सुख बड़ पाइला । यथा-स्रोग्य सबा-सने आनन्दे मिलिला ॥
१७० ॥
सारे वैष्णवों को एकसाथ देखकर काशी मिश्र तथा अध्यक्ष दोनों अत्यन्त प्रसन्न हुए। वे उन सबसे समुचित रीति से अति प्रसन्नतापूर्वक मिले।"
प्रभु-पदे दुई जने कैल निवेदने ।। आज्ञा देह',—वैष्णवेर करि समाधाने ॥
१७१॥
दोनों ने श्री चैतन्य महाप्रभु से निवेदन किया, “कृपया हमें आदेश दें, जिससे हम सारे वैष्णवों के रहने की उचित व्यवस्था कर सकें।"
सबार करियाछि वासा-गृह-स्थान ।। महा-प्रसाद सबकारे करि समाधान ॥
१७२॥
। सारे वैष्णवों के रहने की व्यवस्था हो चुकी है। अब हम उन सबों को महा-प्रसाद वितरित करेंगे।"
प्रभु कहे,—गोपीनाथ, ग्राह' वैष्णव लजी ।ग्राहाँ ग्राहाँ कहे वासा, ताहाँ देह' लञा ॥
१७३॥
तुरन्त ही श्री चैतन्य महाप्रभु ने गोपीनाथ आचार्य से कहा, आप वैष्णवों के साथ जाएँ और काशी मिश्र तथा मन्दिर की देख-रेख करने वाले सज्जन जो भी निवासस्थान दें, वहाँ उन सबको रखने का प्रबन्ध करें।"
महा-प्रसादान्न देह वाणीनाथ-स्थाने ।।सर्व-वैष्णवेर इँहो करिबे समाधाने ॥
१७४॥
तब महाप्रभु ने काशी मिश्र तथा मन्दिर के अध्यक्ष से कहा, जहाँ तक जगन्नाथजी के महाप्रसाद की बात है, उसका भार वाणीनाथ राय को दे दिया जाए, क्योंकि वे सारे वैष्णवों की देखभाल कर सकते हैं और उन्हें महाप्रसाद वितरित कर सकते हैं।"
आमार निकटे एइ पुष्पेर उद्याने । एक-खानि घर आछे परम-निर्जने ॥
१७५॥
फिर श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, मेरे स्थान के पास इस फुलवारी में एक कमरा है, जो अत्यन्त एकान्त में है।"
सेइ घर आमाके देह'–आछे प्रयोजन ।।निभृते वसिया ताहाँ करिब स्मरण ।। १७६ ॥
वह कमरा मुझे दे दें, क्योंकि मुझे उसकी आवश्यकता है। मैं उस एकान्त स्थान में बैठकर भगवान् के चरणकमलों का स्मरण करूंगा।"
मिश्र कहे,—सब तोमार, चाह कि कारणे?।।आपन-इच्छाये लह, ग्रेइ तोमार मने ॥
१७७॥
तब काशी मिश्र ने श्री चैतन्य महाप्रभु से कहा, हर वस्तु आपकी है। फिर माँगने से क्या लाभ? आप अपनी इच्छानुसार जो चाहें ले सकते है।
आमि-दुइ हइ तोमार दास आज्ञाकारी ।।ग्रे चाह, सेइ आज्ञा देह' कृपा करि' ॥
१७८ ॥
हे प्रभु, हम दोनों दास आपकी आज्ञाओं को पूरा करने के लिए हैं। कृपा करके आप जो भी चाहें हमसे करने को कहें।"
एत कहि' दुइ जने विदाय लइल ।।गोपीनाथ, वाणीनाथ-मुँहे सङ्गे निल ॥
१७९॥
यह कहकर काशी मिश्र तथा मन्दिर की देख-रेख करने वाले व्यक्ति ने विदा ली और गोपीनाथ तथा वाणीनाथ भी उनके साथ गये।"
गोपीनाथे देखाइल सब वासा-घर ।।वाणीनाथ-ठात्रि दिल प्रसाद विस्तर ॥
१८०॥
तब गोपीनाथ को सारे निवासस्थान दिखलाये गये और वाणीनाथ को प्रचुर मात्रा में जगन्नाथजी का महाप्रसाद दिया गया।"
वाणीनाथ आइला बहु प्रसाद पिठा लञा ।।गोपीनाथ आइला वासा संस्कार करिया ॥
१८१ ।। इस तरह वाणीनाथ राय प्रचुर मात्रा में भगवान जगन्नाथजी के प्रसाद के साथ-साथ मिठाई आदि लेकर लौटे। गोपीनाथ आचार्य भी सारे आवासीय कमरों की सफाई कराने के बाद लौट आये।।"
महाप्रभु कहे,—शुन, सर्व वैष्णव-गण ।। निज-निज-वासा सबे करह गमन ॥
१८२॥
तभी श्री चैतन्य महाप्रभु ने सभी वैष्णवों को सम्बोधित करते हुए कहा, सभी लोग सुनिये। अब आप लोग अपने अपने रिहायशी कमरों में जा सकते हैं।"
समुद्र-स्नान करि' कर चूड़ा दरशन ।।तबे आजि इहँ आसि' करिबे भोजन ॥
१८३॥
सभी लोग समुद्र जाकर स्नान करो और मन्दिर के शिखर के दर्शन करो। ऐसा करने के बाद यहाँ आकर भोजन प्राप्त करो।"
प्रभु नमस्करि' सबे वासाते चलिला । गोपीनाथाचार्य सबे वासा-स्थान दिला ॥
१८४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु को नमस्कार करने के बाद सारे भक्त अपने अपने निवासस्थानों को चले गये और गोपीनाथ आचार्य ने उन सबको उनके कमरे दिखलाये।"
महाप्रभु आइला तबे हरिदास-मिलने । हरिदास करे प्रेमे नाम-सङ्कीर्तने ॥
१८५॥
इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु हरिदास ठाकुर से मिलने गये और वहाँ देखा कि वे अत्यन्त प्रेम से महामन्त्र के कीर्तन में संलग्न हैं। हरिदास । हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे / हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे-का कीर्तन कर रहे थे।"
प्रभु देखि' पड़े आगे दण्डवत् हा ।।प्रभु आलिङ्गन कैल तरै उठाजा ॥
१८६॥
ज्योंही हरिदास ठाकुर ने श्री चैतन्य महाप्रभु को देखा, वे उन्हें प्रणाम करने के लिए तुरन्त दण्डवत् गिर गये और श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें उठाकर अपने गले लगाया।"
दुइ-जने प्रेमावेशे करेन क्रन्दने ।।प्रभु-गुणे भृत्य विकल, प्रभु भृत्य-गुणे ॥
१८७।। । तब महाप्रभु तथा उनके दास ( हरिदास) दोनों ही प्रेमवश रुदन करने लगे। प्रभु अपने दास के गुण से और दास अपने स्वामी के गुण से प्रभावित थे।"
हरिदास कहे,—प्रभु, ना छुडिओ मोरे ।। मुञि—नीच, अस्पृश्य, परम पामरे ॥
१८८ ॥
हरिदास ठाकुर ने कहा, हे प्रभु, कृपया आप मुझे न छुएँ, क्योंकि मैं अत्यन्त पतित, अछूत तथा मनुष्यों में सबसे नीच हूँ।"
प्रभु कहे,—तोमा स्पर्शि पवित्र हइते ।। तोमार पवित्र धर्म नाहिक आमाते ॥
१८९॥
महाप्रभु ने कहा, मैं तो पवित्र बनने के लिए तुम्हारा स्पर्श करना चाहता हूँ, क्योंकि तुम्हारे जैसे पवित्र कर्म मुझ में नहीं हैं।"
क्षणे क्षणे कर तुमि सर्व-तीर्थे स्नान ।।क्षणे क्षणे कर तुमि यज्ञ-तपो-दान ॥
१९०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने हरिदास ठाकुर की प्रशंसा करते हुए कहा, तुम प्रतिक्षण सारे तीर्थस्थानों में स्नान करते हो और प्रतिक्षण यज्ञ, तप तथा दान करते रहते हो।"
निरन्तर कर चार वेद अध्ययन ।।द्विज--न्या हैले तुमि परम-पावन ॥
१९१॥
तुम तो निरन्तर चारों वेदों का अध्ययन करते हो और किसी भी ब्राह्मण या संन्यासी से बढ़कर हो।"
अहो बत श्व-पचोऽतो गरीयान्ग्रज्जिह्वाग्रे वर्तते नाम तुभ्यम् । तेपुस्तपस्ते जुहुवुः सस्नुराग्नब्रह्मानूचुर्नाम गृणन्ति ये ते ॥
१९२॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने यह श्लोक सुनाया, हे प्रभु, जो व्यक्ति आपके पवित्र नाम को अपनी जीभ पर सदैव रखता है, वह दीक्षित ब्राह्मण से बढ़कर बन जाता है। भले ही वह चंडाल परिवार में उत्पन्न हुआ हो और इस कारण से भौतिक दृष्टि में अत्यन्त नीच क्यों न माना जाये, तो भी वह प्रशंसनीय है। यह भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन का अद्भुत प्रभाव है। अतएव निष्कर्ष यह निकालना चाहिए कि जो व्यक्ति भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन करता है, समझ लो कि उसने वेदों में वर्णित सारे तप तथा यज्ञ सम्पन्न कर लिए; उसने सारे तीर्थस्थानों में स्नान कर लिया है; उसने सारे वेदों का अध्ययन कर लिया है और वह वास्तव में आर्य है।"
एत बलि ताँरे ला गेला पुष्पोद्याने ।अति निभृते ताँरे दिला वासा-स्थाने ॥
१९३॥
यह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु हरिदास ठाकुर को फूल के बगीचे के भीतर ले गये और वहीं एक अत्यन्त एकान्त स्थान में उनको रहने के लिए निवासस्थान दे दिया।"
एइ-स्थाने रहि' कर नाम सङ्कीर्तन । प्रति-दिन आसि' आमि करिब मिलन ॥
१९४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने हरिदास ठाकुर से निवेदन किया, तुम यहीं पर रहो और हरे कृष्ण महामन्त्र का जप करो। मैं प्रतिदिन यहीं तुमसे मिलने आता रहूँगा।"
मन्दिरेर चक्र देखि' करिह प्रणाम ।। एइ ठात्रि तोमार आसिबे प्रसादान्न ॥
१९५॥
तुम यहीं शान्तिपूर्वक रहो और मन्दिर के शिखर पर लगे चक्र को देखकर नमस्कार किया करो। जहाँ तक तुम्हारे प्रसाद की बात है, मैं उसे तुम्हारे पास भेजे जाने की व्यवस्था करा दूंगा।"
नित्यानन्द, जगदानन्द, दामोदर, मुकुन्द ।। हरिदासे मिलि' सबे पाइल आनन्द ॥
१९६ ।। नित्यानन्द प्रभु, जगदानन्द प्रभु, दामोदर प्रभु तथा मुकुन्द प्रभु हरिदास ठाकुर से मिलकर अत्यन्त आनन्दित हुए।"
समुद्र-स्नान करि' प्रभु आइला निज स्थाने ।।अद्वैतादि गेला सिन्धु करिबारे स्नाने ॥
१९७॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु समुद्र-स्नान करके अपने निवासस्थान वापस आ गये, तो अद्वैत प्रभु इत्यादि सारे भक्त समुद्र में स्नान करने गये।"
आसि' जगन्नाथेर कैल चूड़ा दरशन ।। प्रभुर आवासे आइला करिते भोजन ॥
१९८॥
समुद्र-स्नान करने के बाद अद्वैत प्रभु समेत सारे भक्त लौट आये और उन्होंने लौटते समय जगन्नाथ मन्दिर की चोटी का दर्शन किया। इसके बाद वे भोजन करने के लिए श्री चैतन्य महाप्रभु के निवासस्थान गये।"
सबारे वसाइला प्रभु ग्रोग्य क्रम करि' ।। श्री-हस्ते परिवेशन कैल गौरहरि ॥
१९९॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने एक-एक करके सारे भक्तों को उनके उचित स्थान पर बैठाया। फिर उन्होंने अपने दिव्य हाथ से प्रसाद वितरण करना शुरू किया।"
अल्प अन्न नाहि आइसे दिते प्रभुर हाते ।। दुइ-तिनेर अन्न देन एक एक पाते ॥
२००॥
। सारे भक्तों को केले के पत्तों में प्रसाद परोसा गया और श्री चैतन्य महाप्रभ ने हर पत्ते पर इतनी मात्रा परोसी जो दो-तीन व्यक्तियों के लिए पर्याप्त थी, क्योंकि उनके हाथ इससे कम नहीं बाँट सकते थे।"
प्रभु ना खाइले केह ना करे भोजन । ऊर्ध्व-हस्ते वसि' रहे सर्व भक्त-गण ॥
२०१।। सारे भक्त अपने-अपने हाथ परोसे हुए प्रसाद के ऊपर उठाये रहे, क्योंकि वे महाप्रभु को पहले खाते हुए देखे बिना खाना नहीं चाह रहे थे।"
स्वरूप-गोसाञि प्रभुके कैल निवेदन । तुमि ना वसिले केह ना करे भोजन ॥
२०२॥
तब स्वरूप दामोदर गोस्वामी ने श्री चैतन्य महाप्रभु को सूचित किया, जब तक आप बैठेंगे नहीं और प्रसाद नहीं ग्रहण करेंगे, तब तक कोई भोजन नहीं करेगा।"
तोमा-सङ्गे रहे व्रत सन्यासीर गण ।। गोपीनाथाचार्य ताँरै करियाछे निमन्त्रण ।। २०३॥
। गोपीनाथ आचार्य ने उन सारे संन्यासियों को आने और प्रसाद ग्रहण करने के लिए आमन्त्रित किया है, जो आपके साथ रहते हैं।"
आचार्य आसियाछेन भिक्षार प्रसादान्न लो। पुरी, भारती आछेन तोमार अपेक्षा करिया ॥
२०४॥
गोपीनाथ आचार्य सारे संन्यासियों को बाँटने के लिए पर्याप्त प्रसाद लेकर पहले ही आ चुके हैं और परमान्द पुरी तथा ब्रह्मानन्द भारती जैसे संन्यासी आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।"
नित्यानन्द लञा भिक्षा करिते वैस तुमि ।।वैष्णवेर परिवेशन करितेछि आमि ॥
२०५॥
आप बैठ जाएँ और नित्यानन्द प्रभु के साथ भोजन करें। मैं प्रसाद सारे वैष्णवों को वितरित कर दूंगा।"
तबे प्रभु प्रसादान्न गोविन्द-हाते दिला ।।ग्रल करि' हरिदास-ठाकुरे पाठाइला ॥
२०६॥
इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने कुछ प्रसाद गोविन्द के हाथों में हरिदास ठाकुर को भेजे जाने के लिए लाकर दिया।"
आपने वसिला सब सन्यासीरे लञा । । परिवेशन करे आचार्य हरषित हा ॥
२०७॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु अन्य संन्यासियों के साथ भोजन करने बैठ गये और गोपीनाथ आचार्य बड़े ही हर्ष के साथ प्रसाद का वितरण करने लगे।"
स्वरूप गोसाजि, दामोदर, जगदानन्द । वैष्णवेरे परिवेशे तिन जने–आनन्द ॥
२०८॥
। इसके बाद स्वरूप दामोदर गोस्वामी, दामोदर पण्डित तथा जगदानन्द ने बड़े हर्ष से भक्तों को प्रसाद बाँटा।"
नाना पिठा-पानी खाय आकण्ठ पूरिया ।।मध्ये मध्ये ‘हरि' कहे आनन्दित हञा ॥
२०९॥
उन्होंने हर तरह की मिठाईयाँ तथा खीर भरपेट खाई और बीच-बीच में हर्षित होकर 'हरि' के पवित्र नाम का उच्चारण किया।"
भोजन समाप्त हैल, कैल आचमन ।।सबारे पराइल प्रभु माल्य-चन्दन ॥
२१०॥
। जब सभी लोग खाकर अपने अपने हाथ-मुँह धो चुके, तो श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने हाथों से हर एक को फूल की माला तथा चन्दन-लेप से अलंकृत किया।"
विश्राम करिते सबे निज वासा गेला ।सन्ध्या-काले आसि' पुनः प्रभुके मिलिला ॥
२११॥
। इस प्रकार प्रसाद ग्रहण करने के बाद वे सब अपने-अपने वासस्थानों में विश्राम करने चले गये और संध्या समय वे फिर महाप्रभु से मिलने आये।"
हेन-काले रामानन्द आइला प्रभु-स्थाने ।।प्रभु मिलाइल ताँरै सब वैष्णव-गणे ॥
२१२॥
उसी समय रामानन्द राय भी श्री चैतन्य महाप्रभु से भेंट करने आये और महाप्रभु ने सभी वैष्णवों से उनका परिचय कराने के लिए इस अवसर का लाभ उठाया।"
सबा ला गेला प्रभु जगन्नाथालय ।। कीर्तन आरम्भ तथा कैल महाशय ॥
२१३॥
तब महापुरुष श्री चैतन्य महाप्रभु उन सबको जगन्नाथ मन्दिर ले गये और वहाँ उन्होंने भगवान् के पवित्र नाम का संकीर्तन प्रारम्भ कर दिया।"
सन्ध्या-धूप देखि' आरम्भिला सङ्कीर्तन ।पड़िछा आसि' सबारे दिल माल्य-चन्दन ॥
२१४॥
भगवान् की धूप-आरती देखने के बाद सबने संकीर्तन प्रारम्भ किया। तब पड़िछा ( मन्दिर की देखभाल करने वाला) आया और उसने हर एक को फूलमाला तथा चन्दन-लेप दिया।"
चारि-दिके चारि सम्प्रदाय करेन कीर्तन ।।मध्ये नृत्य करे प्रभु शचीर नन्दन ॥
२१५॥
। चारों दिशाओं में संकीर्तन करने के लिए चार टोलियाँ बनायी गई और उन चारों के बीच में माता शची के पुत्र महाप्रभु स्वयं नृत्य करने लगे।"
अष्ट मृदङ्ग बाजे, बत्रिश करताल । हरि-ध्वनि करे सबे, बले-भाल, भाल ॥
२१६॥
चारों टोलियों के पास आठ मृदंग तथा बत्तीस करताल थे। वे सभी एकसाथ दिव्य ध्वनि करने लगे और हर व्यक्ति कहने लगा, बहुत अच्छा! बहुत अच्छा! कीर्तनेर ध्वनि महा-मङ्गल उठिल ।।चतुर्दश लोक भरि' ब्रह्माण्ड भेदिल ॥
२१७॥
। जब संकीर्तन का कोलाहल गूंजने लगा, तो तुरन्त ही सारा सौभाग्य जाग उठा और यह ध्वनि चौदहों लोकों को पूरित करके ब्रह्माण्ड को भेद गई।"
कीर्तन-आरम्भे प्रेम उथलि' चलिल ।।नीलाचल-वासी लोक धा आइल ॥
२१८ ॥
जब संकीर्तन प्रारम्भ हुआ, तो तुरन्त प्रेम-भाव ने हर वस्तु को आप्लावित कर दिया और जगन्नाथ पुरी के सारे निवासी दौड़ते हुए आये।"
कीर्तन देखि' सबार मने हैल चमत्कार ।।कभु नाहि देखि ऐछे प्रेमेर विकार ॥
२१९ ॥
। प्रत्येक व्यक्ति उस तरह संकीर्तन होते देखकर आश्चर्यचकित था। सबने स्वीकार किया कि इसके पूर्व कभी भी न तो ऐसा कीर्तन हुआ, ने ईश्वर-प्रेम का ऐसा प्राकट्य हुआ।"
तबे प्रभु जगन्नाथेर मन्दिर बेड़िया ।प्रदक्षिण करि' बुलेन नर्तन करिया ॥
२२०॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने जगन्नाथ मन्दिर की प्रदक्षिणा की और पूरी प्रदक्षिणा-भर लगातार नाचते रहे।"
आगे-पाछे गान करे चारि सम्प्रदाय ।। अछाड़ेर काले धरे नित्यानन्द राय ॥
२२१॥
जब प्रदक्षिणा की जा रही थी, तब चारों टोलियों ने आगे और पीछे कीर्तन किया। जब श्री चैतन्य महाप्रभु भूमि पर गिर पड़े, तो नित्यानन्द प्रभु ने उन्हें उठा लिया।"
अश्रु, पुलक, कम्प, स्वेद, गम्भीर हुङ्कार ।। प्रेमेर विकार देखि लोके चमत्कार ॥
२२२॥
जब कीर्तन चल रहा था, तब श्री चैतन्य महाप्रभु के शरीर में प्रेमविकार उत्पन्न हुए-यथा अश्रु, हर्ष, कम्पन, प्रस्वेद तथा गम्भीर हुंकार। इन विकारों को देखकर वहाँ पर उपस्थित सारे लोग अत्यन्त आश्चर्यचकित हुए।"
पिच्कारि-धारा जिनि' अश्रु नयने ।।चारि-दिकेर लोक सब करये सिनाने ॥
२२३॥
महाप्रभु के नेत्रों से अश्रु की धारा तेजी से निकल पड़ी, मानो पिचकारी से पानी निकल रहा हो। उनके चारों ओर खड़े लोग उनके अश्रुओं से भीग गये।"
‘बेड़ा-नृत्य' महाप्रभु करि' कत-क्षण ।मन्दिरेर पाछे रहि' करये कीर्तन ॥
२२४॥
मन्दिर की प्रदक्षिणा करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु कुछ समय तक मन्दिर के पीछे रहे और उन्होंने अपना संकीर्तन जारी रखा।"
चारि-दिके चारि सम्प्रदाय उच्चैःस्वरे गाय ।मध्ये ताण्डव-नृत्य करे गौरराय ॥
२२५॥
चारों दिशाओं में चारों संकीर्तन टोलियाँ जोर-जोर से कीर्तन कर रही थीं और श्री चैतन्य महाप्रभु बीच में ऊँचे उछल-उछलकर नाच रहे थे।"
बहु-क्षण नृत्य करि' प्रभु स्थिर हैला ।। चारि महान्तेरे तबे नाचिते आज्ञा दिली ॥
२२६॥
लम्बे समय तक नाचने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु स्थिर हो गये और उन्होंने चार महापुरुषों को नृत्य शुरू करने का आदेश दिया।"
एक सम्प्रदाये नाचे नित्यानन्द-राये ।। अद्वैत-आचार्य नाचे आर सम्प्रदाये ॥
२२७॥
। एक टोली में नित्यानन्द प्रभु नाचने लगे और दूसरी टोली में अद्वैत आचार्य नाचने लगे।"
आर सम्प्रदाये नाचे पण्डित-वक्रेश्वर ।। श्रीवास नाचे आर सम्प्रदाय-भितर ॥
२२८॥
अन्य टोली में वक्रेश्वर पण्डित तथा चौथी टोली में श्रीवास ठाकुर नाचने लगे।"
मध्ये रहि' महाप्रभु करेन दरशन ।।ताहाँ एक ऐश्वर्य ताँर हइल प्रकटन ॥
२२९॥
। जब यह नृत्य चल रहा था, तब श्री चैतन्य महाप्रभु उन्हें देख रहे थे और तब उन्होंने एक चमत्कार प्रदर्शित किया।"
चारि-दिके नृत्य-गीत करे व्रत जन ।।सबे देखे,—प्रभु करे आमारे दरशन ॥
२३०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु नाचने वालों के बीच में खड़े थे और सारी दिशाओं के नाचने वालों ने अनुभव किया कि श्री चैतन्य महाप्रभु उनकी ही ओर देख रहे हैं।"
चारि जनेर नृत्य देखिते प्रभुर अभिलाष ।। सेइ अभिलाषे करे ऐश्वर्य प्रकाश ॥
२३१॥
। चारों महापुरुषों का नाच देखने की अभिलाषा से श्री चैतन्य महाप्रभु ने यह चमत्कार दिखाया, मानो वे हर एक को देख रहे हों।"
दर्शने आवेश ताँर देखि' मात्र जाने । केमने चौदिके देखे,—इहा नाहि जाने ॥
२३२॥
जिस किसी ने श्री चैतन्य महाप्रभु को देखा, वह समझ सका कि वे चमत्कार कर रहे हैं, किन्तु वे यह नहीं जान सके कि वे चारों दिशाओं में किस प्रकार देख सकते हैं।"
पुलिन-भोजने ग्रेन कृष्ण मध्य-स्थाने । चौदिकेर सखा कहे,—आमारे नेहाने ॥
२३३॥
। जब कृष्ण अपनी वृन्दावन-लीलाओं में यमुना नदी के तट पर अपने मित्रों के बीच में बैठकर भोजन किया करते थे, तब हर ग्वालबाल यही अनुभव करता था कि कृष्ण उसकी ओर देख रहे हैं। इसी तरह जब चैतन्य महाप्रभु नाच देख रहे थे, तब हर व्यक्ति ने चैतन्य महाप्रभु को अपनी ओर देखते पाया।"
नृत्य करते येइ आइसे सन्निधाने । महाप्रभु करे ताँरे दृढ़ आलिङ्गने ।। २३४॥
जब कोई नाचता हुआ उनके निकट आता, तो श्री चैतन्य महाप्रभु उसका कसकर आलिंगन करते।"
महा-नृत्य, महा-प्रेम, महा-सङ्कीर्तन ।। देखि' प्रेमावेशे भासे नीलाचल-जन ॥
२३५ ।। महानृत्य, महाप्रेम तथा महासंकीर्तन देखकर जगन्नाथ पुरी के सारे लोग प्रेम के सागर में तैरने लगे।"
गजपति राजा शुनि' कीर्तन-महत्त्व ।। अट्टालिका चड़ि' देखे स्वगण-सहित ॥
२३६॥
संकीर्तन की महानता को सुनकर राजा प्रतापरुद्र अपने महल के ऊपर चढ़ गये और उन्होंने अपने निजी संगियों सहित संकीर्तन होते देखा।"
कीर्तन देखिया राजार हैल चमत्कार ।। प्रभुके मिलिते उत्कण्ठा बाड़िल अपार ॥
२३७॥
। राजा महाप्रभु का कीर्तन देखकर अत्यधिक आश्चर्यचकित थे और महाप्रभु से मिलने की उनकी उत्कण्ठा अत्यधिक बढ़ गई।"
कीर्तन-समाप्त्ये प्रभु देखि' पुष्पाञ्जलि ।। सर्व वैष्णव ला प्रभु आइला वासा चलि' ॥
२३८॥
जब संकीर्तन समाप्त हो गया, तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने भगवान् जगन्नाथ के अर्चाविग्रह पर पुष्प अर्पित होते देखा। फिर वे तथा सारे वैष्णव अपने निवासस्थान लौट गये।"
पड़िछा आनिया दिल प्रसाद विस्तर ।। सबारे बाँटिया ताहा दिलेन ईश्वर ॥
२३९॥
। तत्पश्चात् मन्दिर की देख-रेख करने वाला अध्यक्ष काफी मात्रा में प्रसाद ले आया, जिसे श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने हाथों से सारे भक्तों को बाँटा।"
सबारे विदाय दिल करिते शयन । एइ-मत लीला करे शचीर नन्दन ॥
२४०॥
अन्त में सारे लोग सोने के लिए चले गये। इस तरह शचीमाला के पुत्र श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपनी लीलाएँ कीं।"
यावताछिला सबे महाप्रभु-सङ्गे।। प्रति-दिन एइ-मत करे कीर्तन-रङ्गे ॥
२४१॥
जब तक भक्तगण जगन्नाथ पुरी में श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ रहे, तब तक प्रतिदिन बड़े ही हर्ष के साथ संकीर्तन लीला चलती रही।"
एइ त कहिलँ प्रभुर कीर्तन-विलास ।। ग्रेबा इहा शुने, हय चैतन्येर दास ॥
२४२॥
। इस तरह मैंने महाप्रभु की संकीर्तन लीला का वर्णन किया है और मैं हर एक को यही आशीर्वाद देता हूँ–यह विवरण सुनकर प्रत्येक व्यक्ति निश्चित रूप से श्री चैतन्य महाप्रभु का दास बन जायेगा।"
श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश ।।चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
२४३॥
। श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों की वन्दना करते हुए तथा सदैव उनकी कृपा की आकांक्षा करते हुए मैं कृष्णदास उनके चरणचिह्नों पर चलते हुए श्रीचैतन्य-चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।"
अध्याय बारह: गुंडिका मंदिर की सफाई
श्री-गुण्डिचा-मन्दिरमात्म-वृन्दैःसम्मार्जयन्क्षालनतः स गौरः ।। स्व-चित्त-वच्छीतलमुज्वलं चकृष्णोपवेशौपयिकं चकार ॥
१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने भक्तों और संगियों के साथ गुण्डिचा मन्दिर को धोया तथा उसकी सफाई की और इस तरह उन्होंने मन्दिर को अपने हृदय के ही समान शीतल तथा उज्ज्वल बना दिया, जिससे वह श्रीकृष्ण के बैठने के लिए अनुकूल स्थान बन सका।
जय जय गौरचन्द्र जय नित्यानन्द । जयाद्वैत-चन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ॥
२॥
गौरचन्द्र की जय हो! नित्यानन्द की जय हो! अद्वैत आचार्य की जय हो! श्री चैतन्य महाप्रभु के सारे भक्तों की जय हो! जय जय श्रीवासादि गौर-भक्त-गण ।। शक्ति देह,—करि ग्रेन चैतन्य वर्णन ॥
३॥
श्रीवास ठाकुर इत्यादि श्री चैतन्य महाप्रभु के भक्तों की जय हो! मैं उनसे शक्ति प्रदान करने की याचना करता हूँ, जिससे श्री चैतन्य महाप्रभु का उचित ढंग से वर्णन कर सकें।
पूर्वे दक्षिण हैते प्रभु झबे आइला ।।ताँरै मिलिते गजपति उत्कण्ठित हैला ॥
४॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु अपनी दक्षिण भारत की यात्रा से वापस लौट आये, तब उड़ीसा के राजा महाराज प्रतापरुद्र उनसे मिलने के लिए अत्यन्त आतुर हो उठे।
कटक हैते पत्री दिल सार्वभौम-ठाजि । प्रभुर आज्ञा हय यदि, देखिबारे ग्राइ ॥
५॥
राजा ने अपनी राजधानी कटक से सार्वभौम भट्टाचार्य के पास एक चिट्ठी भेजी, जिसमें यह अनुरोध किया गया था कि वे महाप्रभु से यह आज्ञा प्राप्त कर लें, ताकि वे वहाँ आकर उनसे मिल सके।
प्रभुर निकटे आछे व्रत भक्त-गण ।। मोर लागि' ताँ-सबारे करिह निवेदन ॥
७॥
राजा ने इस पत्र में सार्वभौम भट्टाचार्य से प्रार्थना की, कृपया मेरी ओर से महाप्रभु के सारे भक्तों से यह निवेदन करें और मेरी ओर से यह पत्र उनको दे दें।
भट्टाचार्य लिखिल,—प्रभुर आज्ञा ना हैल ।। पुनरपि राजा ताँरै पत्री पाठाइल ॥
६॥
राजा के पत्र का उत्तर देते हुए सार्वभौम भट्टाचार्य ने लिखा कि श्री चैतन्य महाप्रभु की आज्ञा नहीं मिल सकी। इसके बाद राजा ने उनको दूसरा पत्र लिखा।
सेइ सब दयालु मोरे हा सदय । मोर लागि' प्रभु-पदे करिबे विनय ॥
८॥
यदि महाप्रभु से सम्बन्धित सारे भक्त मेरे प्रति अनुकूल हों, तो वे महाप्रभु के चरणकमलों में मेरा यह निवेदन प्रस्तुत कर सकते हैं।
ताँ-सबार प्रसादे मिले श्री-प्रभुर पाय ।। प्रभु-कृपा विना मोर राज्य नाहि भाय ॥
९॥
समस्त भक्तों की कृपा से ही किसी को महाप्रभु के चरणों की शरण मिल सकती है। महाप्रभु की कृपा के बिना मुझे अपना राज्य अच्छा नहीं लगता।।"
यदि मोरे कृपा ना करिबे गौरहरि ।। राज्य छाड़ि' योगी हइ' हइब भिखारी ॥
१०॥
यदि गौरहरि, श्री चैतन्य महाप्रभु मुझ पर कृपा नहीं करेंगे, तो मैं अपना राज्य छोड़कर योगी बन जाऊँगा और द्वार-द्वार भिक्षा माँगूंगा।"
भट्टाचार्य पत्री देखि' चिन्तित हजा । भक्त-गण-पाश गेला सेइ पत्री लञा ॥
११॥
जब भट्टाचार्य को यह पत्र मिला, तो वे अत्यधिक चिन्तित हो उठे। वे उस पत्र को लेकर महाप्रभु के भक्तों के पास गये।
सबारे मिलिया कहिल राज-विवरण ।। पिछे सेइ पत्री सबारे कराइल दरशन ॥
१२॥
सार्वभौम भट्टाचार्य ने सारे भक्तों से मिलकर राजा की इच्छा बतलाई। फिर उन्होंने सबको वह पत्र दिखाया।"
पत्री देखि' सबार मने हइल विस्मय । प्रभु-पदे गजपतिर एत भक्ति हय! ॥
१३ ॥
पत्र पढ़कर सभी लोग चकित थे कि श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों पर राजा की इतनी भक्ति है।"
सबे कहे,—-प्रभु ताँरै कभु ना मिलिबे ।।आमि-सब कहि ग्रदि, दुःख से मानिबे ॥
१४॥
भक्तों ने अपना विचार प्रकट किया, महाप्रभु कभी भी राजा से नहीं मिलेंगे और यदि हम उनसे मिलने की प्रार्थना करें, तो वे निश्चित रूप से दुःखी हो जायेंगे।"
सार्वभौम कहे,—सबे चल' एक-बार ।।मिलिते ना कहिब, कहिब राज-व्यवहार ॥
१५॥
तब सार्वभौम भट्टाचार्य ने कहा, हम एक बार पुनः महाप्रभु के पास चलेंगे, किन्तु हम उनसे राजा से भेंट करने के लिए नहीं कहेंगे। बल्कि हम केवल राजा के उत्तम व्यवहार के विषय में ही कहेंगे।"
एत बलि' सबे गेला महाप्रभुर स्थाने ।।कहिते उन्मुख सबे, ना कहे वचने ॥
१६॥
इस तरह तय करके वे सभी श्री चैतन्य महाप्रभु के स्थान पर गये। वहाँ वे कुछ कहना तो चाहते थे, किन्तु एक शब्द भी नहीं कह पाये।"
प्रभु कहे,—कि कहिते सबार आगमन ।। देखिये कहते चाह,—ना कह, कि कारण? ॥
१७॥
जब वे लोग श्री चैतन्य महाप्रभु के स्थान पर आ गये, तो उन्हें देखकर महाप्रभु ने कहा, तुम सभी लोग यहाँ क्या कहने आये हो? मैं देख रहा हूँ कि तुम लोग कुछ कहना चाहते हो, किन्तु कह नहीं रहे। क्या कारण है?" नित्यानन्द कहे,—तोमाय चाहि निवेदिते ।। ना कहिले रहिते नारि, कहिते भय चित्ते ॥
१८॥
तब नित्यानन्द प्रभु ने कहा, हम आपसे कुछ कहना चाहते हैं। यद्यपि हमसे बिना कहे रहा नहीं जाता, किन्तु कहते हुए हमें अत्यधिक भय हो रहा है।"
स्रोग्यायोग्य तोमाय सब चाहि निवेदिते ।तोमा ना मिलिले राजा चाहे योगी हैते ॥
१९॥
हम आपसे कुछ ऐसी बात कहना चाहते हैं, जो उचित हो सकती है और नहीं भी हो सकती। बात यह है–यदि उड़ीसा का राजा आपके दर्शन नहीं पाता, तो वह योगी बन जायेगा।
काणे मुद्रा लइ' मुजि हइब भिखारी ।राज्य-भोग नहे चित्ते विना गौरहरि ॥
२०॥
नित्यानन्द प्रभु ने कहा, राजा ने निश्चय किया है कि वह भिखारी बनकर अपने कानों में हाथी-दाँत की बालियाँ पहन लेगा। वह श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों का दर्शन किये बिना अपने राज्य का भोग नहीं करना चाहता।
देखिब से मुख-चन्द्र नयन भरिया ।।धरिब से पाद-पद्म हृदये तुलिया ॥
२१॥
नित्यानन्द प्रभु ने आगे कहा, राजा ने यह भी अभिलाषा व्यक्त की है कि वे महाप्रभु के चन्द्रमा सदृश मुख को दृष्टिभर देखना चाहते हैं। वे महाप्रभु के चरणकमलों को उठाकर अपने हृदय पर रखना चाहते हैं।
यद्यपि शुनिया प्रभुर कोमल हय मन ।।तथापि बाहिरे कहे निष्ठुर वचन ॥
२२ ॥
इतनी सारी बातें सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु का मन निश्चित रूप से द्रवित हुआ, किन्तु ऊपर से वे कुछ कठोर वचन कहना चाहते थे।
तोमा-सबार इच्छा,—एइ आमारे लञा ।।राजाके मिलह इहँ कटकेते गिया ॥
२३॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, मैं समझता हूँ कि तुम सब राजा से भेंट कराने के लिए मुझे कटक ले जाना चाहते हो।
परमार्थ थाकुक लोके करिबे निन्दन ।लोके रहु-दामोदर करिबे भर्सन ॥
२४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, आध्यात्मिक प्रगति की बात तो दूर रही, सारे लोग मेरी निन्दा करेंगे। सारे लोगों की बात जाने दें, दामोदर तक मेरी भत्र्सना करेगा।
तोमा-सबार आज्ञाय आमि ना मिलि राजारे ।। दामोदर कहे ग्रबे, मिलि तबे ताँरे ॥
२५॥
मैं तुम सब भक्तों के अनुरोध से राजा से नहीं मिलूंगा, किन्तु यदि दामोदर कहेगा तो मैं ऐसा करूंगा।
दामोदर कहे,—तुमि स्वतन्त्र ईश्वर । कर्तव्याकर्तव्य सब तोमार गोचर ॥
२६॥
दामोदर ने तुरन्त उत्तर दिया, हे प्रभु, आप सर्वथा स्वतन्त्र पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं। चूंकि आप हर बात को जानते हैं, अतएव आपको पता है कि क्या करने योग्य है और क्या नहीं।
आमि कोन्क्षुद्र-जीव, तोमाके विधि दिब? ।। आपनि मिलिबे ताँरे, ताहाओ देखिब ॥
२७॥
मैं तो एक क्षुद्र जीव हूँ, अतएव मुझमें वह शक्ति कहाँ कि मैं आपको आदेश दें? आप स्वेच्छा से राजा से मिलेंगे और मैं देखूगा।
राजा तोमारे स्नेह करे, तुमि-स्नेह-वश ।। ताँर स्नेहे करावे तौरे तोमार परश ॥
२८॥
राजा आप पर अत्यन्त अनुरक्त है और आप भी उसके प्रति स्नेह का अनुभव करते हैं। अतएव मैं समझ सकता हूँ कि आप राजा के स्नेह से वशीभूत होकर उनका स्पर्श करेंगे।
यद्यपि ईश्वर तुमि परम स्वतन्त्र । तथापि स्वभावे हओ प्रेम-परतन्त्र ॥
२९॥
यद्यपि आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं और पूर्णतया स्वतन्त्र हैं, फिर भी आप अपने भक्तों के स्नेह एवं प्रेम के अधीन हो जाते हैं। यही आपका स्वभाव है।
नित्यानन्द कहे ऐछे हय कोन्जन ।।ये तोमारे कहे, ‘कर राज-दरशन' ॥
३० ॥
तब नित्यानन्द प्रभु ने कहा, भला तीनों लोकों में ऐसा कौन-सा व्यक्ति है, जो आपसे कह सके कि आप राजा से मिलें? किन्तु अनुरागी लोकेर स्वभाव एक हय ।।इष्ट ना पाइले निज प्राण से छाड़य ॥
३१॥
फिर भी यदि अनुरक्त व्यक्ति को अपनी वांछित वस्तु प्राप्त न हो पाये, तो क्या यह उसका स्वभाव नहीं है कि वह अपना जीवन त्याग दे? ग्राज्ञिक-ब्राह्मणी सब ताहाते प्रमाण । कृष्ण लागि' पति-आगे छाड़िलेक प्राण ॥
३२॥
उदाहरणार्थ, यज्ञ करने वाले ब्राह्मणों की कुछ पत्नियों ने कृष्ण के लिए अपने पतियों के समक्ष अपने प्राण त्याग दिये।
एक झुक्ति आर्छ, यदि कर अवधान ।। तुमि ना मिलिलेह ताँरे, रहे ताँर प्राण ॥
३३॥
तब नित्यानन्द प्रभु ने महाप्रभु के विचारार्थ एक सुझाव रखा। उन्होंने कहा, “ऐसी एक युक्ति है, जिससे आपको राजा से मिलने की आवश्यकता नहीं रह जायेगी, किन्तु उससे राजा के प्राण बच जायेंगे।
एक बहिर्वास ग्रदि देह' कृपा करि' ।ताहा पात्रा प्राण राखे तोमार आशा धरि ॥
३४॥
यदि आप कृपा करके अपना एक उत्तरीय वस्त्र राजा को भेज दें, तो वह किसी न किसी समय आपके दर्शन होने की आशा में जीवित बना रहेगा।
प्रभु कहे,—तुमि-सब परम विद्वान् ।।येइ भाल हय, सेइ कर समाधान ॥
३५॥
महाप्रभु ने कहा, चूंकि आप लोग सभी परम विद्वान हैं, अतएव आप लोग जो भी निर्णय लेंगे वह मुझे स्वीकार्य होगा।
तबे नित्यानन्द-गोसाजि गोविन्देर पाश ।।मागिया लइल प्रभुर एक बहिर्वास ॥
३६॥
तब नित्यानन्द प्रभु ने गोविन्द से कहकर महाप्रभु का पहना हुआ एक बाह्य वस्त्र प्राप्त कर लिया।
सेइ बहिर्वास सार्वभौम-पाश दिल ।।सार्वभौम सेइ वस्त्र राजारे पाठा'ल ॥
३७॥
नित्यानन्द प्रभु ने वह पुराना वस्त्र सार्वभौम भट्टाचार्य को दे दिया और सार्वभौम भट्टाचार्य ने उसे राजा के पास भेज दिया।
वस्त्र पाजा राजार हैल आनन्दित मन ।।प्रभु-रूप करि' करे वस्त्रेर पूजन ॥
३८॥
जब राजा को वह पुराना वस्त्र मिल गया, तो उन्होंने उसकी वैसी ही पूजा शुरू कर दी, जैसे वे साक्षात् महाप्रभु की पूजा करते।
रामानन्द राय ग्रबे 'दक्षिण' हैते आइला ।।प्रभु-सङ्गे रहिते राजाके निवेदिला ॥
३९॥
दक्षिण भारत से अपनी नौकरी छोड़कर लौटने के बाद रामानन्द राय ने राजा से प्रार्थना की कि वे उन्हें श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ रहने की अनुमति दे दें।।
तबे राजा सन्तोषे ताँहारे आज्ञा दिला ।आपनि मिलन लागि' साधिते लागिला ॥
४०॥
जब रामानन्द राय ने महाप्रभु के साथ ठहरने के लिए राजा से अनुमति माँगी, तो राजा ने बड़े ही सन्तोष के साथ तुरन्त ही उन्हें अनुमति दे दी। और राजा ने महाप्रभु से अपने मिलाप की व्यवस्था के लिए रामानन्द राय से अनुरोध करना प्रारम्भ कर दिया।
महाप्रभु महा-कृपा करेन तोमारे ।।मोरे मिलिबारे अवश्य साधिबे ताँहारे ॥
४१॥
राजा ने रामानन्द राय से कहा, श्री चैतन्य महाप्रभु आप पर अत्यन्त कृपालु हैं। अतएव आप मेरी भेंट के लिए उनसे अवश्य अनुरोध करें।
एक-सङ्गे दुइ जन क्षेत्रे ग्रबे आइला ।।रामानन्द राय तबे प्रभुरे मिलिला ॥
४२॥
राजा तथा रामानन्द राय साथ-साथ जगन्नाथ-क्षेत्र (पुरी) लौटे और तब श्री रामानन्द राय श्री चैतन्य महाप्रभु से मिले।
प्रभु-पदे प्रेम-भक्ति जानाइल राजार ।प्रसङ्ग पाञा ऐछे कहे बार-बार ॥
४३॥
उस समय रामानन्द राय ने श्री चैतन्य महाप्रभु से राजा के प्रेमभाव के बारे में बतलाया। जब भी कोई अवसर मिलता, तो वे महाप्रभु को राजा के बारे में बारम्बार बतलाते।
राज-मन्त्री रामानन्द–व्यवहारे निपुण ।।राज-प्रीति कहि' द्रवाइल प्रभुर मन ॥
४४॥
श्री रामानन्द राय निस्सन्देह राजा के नीतिनिपुण मन्त्री थे। वे सामान्य व्यवहार में अत्यन्त निपुण थे। उन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु से राजा के प्रेम का वर्णन कर-करके महाप्रभु के मन को द्रवित कर दिया।
उत्कण्ठाते प्रतापरुद्र नारे रहिबारे ।रामानन्द साधिलेन प्रभुरे मिलिबारे ॥
४५ ॥
चूँकि महाराज प्रतापरुद्र महाप्रभु का दर्शन न पा सकने के कारण अत्यन्त उत्कंठित थे और वे इसे सहन नहीं कर पा रहे थे, अतएव श्री रामानन्द राय ने निपुणता से राजा के साथ महाप्रभु की भेंट कराने की व्यवस्था की।
रामानन्द प्रभु-पाय कैल निवेदन ।।एक-बार प्रतापरुद्रे देखाह चरण ॥
४६॥
रामानन्द राय ने श्री चैतन्य महाप्रभु से खुलकर यह निवेदन किया, कृपा करके कम-से-कम एक बार तो राजा को अपने चरणकमलों का दर्शन करने दें।
प्रभु कहे,—रामानन्द, कह विचारिया ।राजाके मिलिते नुयाय सन्यासी हा? ॥
४७॥
। श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, हे रामानन्द, संन्यासी को राजा से मिलना उचित होगा या नहीं, यह विचार करने के बाद ही तुम्हें मुझसे अनुरोध करना चाहिए।
राजार मिलने भिक्षुकेर दुइ लोक नाश ।। परलोक रहु, लोके करे उपहास ॥
४८॥
यदि कोई संन्यासी राजा से भेंट करता है, तो उसके लिए यह लोक तथा परलोक दोनों नष्ट हो जायेंगे। हाँ, परलोक के बारे में अभी से क्या कहा जाये। इसी लोक में लोग हँसी उड़ायेंगे, यदि संन्यासी राजा से भेंट करे।
रामानन्द कहे, तुमि ईश्वर स्वतन्त्र ।।कारे तोमार भय, तुमि नह परतन्त्र ॥
४९॥
रामानन्द राय ने उत्तर दिया, हे प्रभु, आप तो परम स्वतन्त्र हैं। आपको किसी से कोई डर नहीं है, क्योंकि आप किसी पर आश्रित नहीं हैं। प्रभु कहे,—आमि मनुष्य आश्रमे सन्यासी ।काय-मनो-वाक्ये व्यवहारे भय वासि ॥
५०॥
जब रामानन्द राय ने महाप्रभु को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कहकर सम्बोधित किया, तो महाप्रभु ने यह कहकर आपत्ति की, मैं परमेश्वर नहीं, अपितु एक सामान्य मनुष्य हूँ। इसलिए मुझे जनता के मत से तीन प्रकार से डरना चाहिए-अपने शरीर, मन तथा शब्दों से।
शुक्ल-वस्त्रे मसि-बिन्दु भैछे ना लुकाय ।। सन्यासीर अल्प छिद्र सर्व-लोके गाय ॥
५१॥
जनता को जैसे ही किसी संन्यासी के आचरण में थोड़ा भी दोष दिख जाता है, तो वह उसे जंगल की आग की तरह विज्ञापित करती है। सफेद वस्त्र पर स्याही का काला धब्बा छिपाये नहीं छिपता। वह सदैव स्पष्ट दिखता रहता है।
राय कहे,—कत पापीर करियाछ अव्याहति ।। ईश्वर-सेवक तोमार भक्त गजपति ॥
५२॥
रामानन्द ने उत्तर दिया, हे प्रभु, आपने अनेकों पापी पुरुषों का उद्धार किया है। यह उड़ीसा का राजा, प्रतापरुद्र वास्तव में भगवान् का सेवक और आपका भक्त है।
प्रभु कहे,—पूर्ण भैछे दुग्धेर कलस ।। सुरा-बिन्दु-पाते केह ना करे परश ॥
५३॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, भले ही किसी बड़े पात्र में कितना अधिक दूध क्यों न हो, किन्तु यदि इसमें शराब की एक भी बूंद गिर जाती है, तो वह अस्पृश्य हो जाता है।
यद्यपि प्रतापरुद्र—सर्व-गुणवान् ।। ताँहारे मलिन कैल एक राजा'-नाम ॥
५४॥
यद्यपि राजा समस्त सद्गुणों से सम्पन्न है, किन्तु उसके नाम के साथ 'राजा' पदवी लगी रहने से प्रत्येक वस्तु दूषित हो चुकी है।
तथापि तोमार यदि महाग्रह हय ।। तबे आनि' मिलाह तुमि ताँहार तनय ॥
५५॥
किन्तु इतने पर भी यदि तुम अत्यधिक इच्छुक हो कि राजा मुझसे भेंट करे, तो सर्वप्रथम उसके पुत्र को लाकर मुझसे मिलाओ।
आत्मा वै जायते पुत्रः-एइ शास्त्र-वाणी । पुत्रेर मिलने ग्रेन मिलिबे आपनि ॥
५६॥
शास्त्रों में इंगित किया गया है कि पुत्र पिता का प्रतिनिधित्व करता है, अतएव उसके पुत्र की भेंट मेरे साथ उसके पिता की भेंट के तुल्य होगी।
तबे राय ग्राइ' सब राजारे कहिला ।।प्रभुर आज्ञाय ताँर पुत्र लञा आइला ॥
५७॥
तब रामानन्द राय राजा के पास महाप्रभु के साथ हुई अपनी बातचीत से अवगत कराने गये और महाप्रभु की आज्ञा के अनुसार वे राजा के पुत्र को उनसे मिलाने के लिए अपने साथ लेते आये।
सुन्दर, राजार पुत्र-श्यामल-वरण ।किशोर वयस, दीर्घ कमल-नयन ॥
५८॥
राजकुमार नवयौवन अवस्था होने के कारण अत्यन्त सुन्दर था। उसका रंग साँवला था और कमल जैसी बड़ी-बड़ी आँखें थीं।
पीताम्बर, धरे अङ्गे रत्न-आभरण ।।श्री-कृष्ण-स्मरणे तेह हैलाउद्दीपन' ॥
५९॥
राजकुमार पीला वस्त्र पहने था और रत्न के आभूषणों से उसका शरीर अलंकृत था। अतएव जो भी उसे देखता, उसे भगवान् कृष्ण का स्मरण हो आता।
ताँरै देखि, महाप्रभुर कृष्ण-स्मृति हैल ।।प्रेमावेशे तौरै मिलि' कहते लागिल ॥
६०॥
। राजकुमार को देखते ही श्री चैतन्य महाप्रभु को कृष्ण का स्मरण हो आया। अतः महाप्रभु उससे प्रेमावेश में मिलते हुए कहने लगे।
एइ–महा-भागवत, याँहार दर्शने ।व्रजेन्द्र-नन्दन-स्मृति हय सर्व-जने ॥
६१ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, यहाँ है महान् भक्त। इसे देखकर किसी भी व्यक्ति को नन्द महाराज के पुत्र भगवान् कृष्ण की याद आ जायेगी।
कृतार्थ हइलाङआमि इँहार दरशने ।एत बलि' पुनः तारे कैल आलिङ्गने ॥
६२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, मैं इस लड़के को देखकर ही अत्यन्त कृतार्थ हो गया हूँ। यह कहकर महाप्रभु ने राजकुमार को फिर से आलिंगन में ले लिया।
प्रभु-स्पर्शे राज-पुत्रेर हैल प्रेमावेश ।।स्वेद, कम्प, अश्रु, स्तम्भ, पुलक विशेष ॥
६३ ॥
ज्योंही श्री चैतन्य महाप्रभु ने राजकुमार का स्पर्श किया, त्योंही उसके शरीर में प्रेमावेश के लक्षण स्वत: उत्पन्न हो गये। ये लक्षण थे-पसीना, कँपकँपी, आँसू, स्तम्भ तथा हर्ष।
‘कृष्ण' 'कृष्ण' कहे, नाचे, करये रोदन ।। ताँर भाग्य देखि' श्लाघा करे भक्त-गण ॥
६४॥
वह राजकुमार रोने और नाचने लगा तथा कृष्ण! कृष्ण का उच्चारण करने लगा। उसके शारीरिक लक्षण तथा उसके कीर्तन एवं नृत्य को देखकर सारे भक्तों ने उसके सौभाग्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की।
तबे महाप्रभु तारे धैर्य कराइल । । नित्य आसि' आमाय मिलिह——एइ आज्ञा दिल ॥
६५॥
उस समय श्री चैतन्य महाप्रभु ने उस नवयुवक को शान्त कराया और उसे आदेश दिया कि वह नित्य ही उनसे मिलने वहाँ आया करे।
विदाय हा राय आइल राज-पुत्रे ला ।। राजा सुख पाइल पुत्रेर चेष्टा देखियो । ६६ ।। तब रामानन्द राय तथा राजकुमार ने श्री चैतन्य महाप्रभु से विदा ली और रामानन्द राय राजकुमार को राजमहल वापस ले आये। जब राजा ने अपने पुत्र के कार्यकलापों के बारे में सुना, तो वे अत्यन्त सुखी हुए।
पुत्रे आलिङ्गन करि' प्रेमाविष्ट हैला ।।साक्षात्परश ग्रेन महाप्रभुर पाइला ॥
६७॥
अपने पुत्र का आलिंगन करने से ही राजा प्रेमाविष्ट हो गये, मानो उन्हें साक्षात् चैतन्य महाप्रभु का स्पर्श मिला हो।
सेइ हैते भाग्यवान्नाजार नन्दन ।। प्रभु-भक्त-गण-मध्ये हैला एक-जन ॥
६८ ॥
तब से भाग्यशाली राजकुमार महाप्रभु के सर्वाधिक अन्तरंग भक्तों में से एक बन गया।
एइ-मत महाप्रभु भक्त-गण-सङ्गे।। निरन्तर क्रीड़ा करे सङ्कीर्तन-रङ्गे ॥
६९ ॥
इस प्रकार श्री चैतन्य महाप्रभु अपनी लीलाएँ करते हुए और संकीर्तन आन्दोलन का विस्तार करते हुए अपने शुद्ध भक्तों के समाज में कार्य करते थे।
आचादि भक्त करे प्रभुरे निमन्त्रण ।। ताहाँ ताहाँ भिक्षा करे ला भक्त-गण ॥
७० ॥
अद्वैत आचार्य जैसे कुछ प्रमुख भक्त श्री चैतन्य महाप्रभु को अपने अपने घरों में भोजन करने के लिए निमन्त्रित किया करते थे। महाप्रभु ऐसे निमन्त्रणों को स्वीकार कर लेते थे और अपने भक्तों समेत वहाँ जाते थे।
एइ-मत नाना रङ्गे दिन कत गेल ।। जगन्नाथेर रथ-यात्रा निकट हुइल ॥
७१॥
इस तरह महाप्रभु ने कुछ दिन बड़े हर्ष-उल्लास के साथ बिताये। तब जगन्नाथ रथयात्रा महोत्सव निकट आ पहुँचा।
प्रथमेइ काशी-मिश्रे प्रभु बोलाइल ।।पड़िछा-पात्र, सार्वभौमे बोलाजा आनिल ॥
७२ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने सर्वप्रथम काशी मिश्र को बुलावा भेजा, तब मन्दिर की देख-रेख करने वाले को और उसके बाद सार्वभौम को बुलावा भेजा।
तिन-जन-पाशे प्रभु हासिया कहिल ।। गुण्डिचा-मन्दिर-मार्जन-सेवा मागि' निल ॥
७३॥
जब ये तीनों आ गये, तो महाप्रभु ने उनसे गुण्डिचा मन्दिर की धुलाई करने की अनुमति माँगी।
पड़िछा कहे,—आमि-सब सेवक तोमार। ये तोमार इच्छा सेइ कर्तव्य आमार ॥
७४॥
गुण्डिचा मन्दिर की धुलाई करने की महाप्रभु की याचना सुनकर पड़िछा अर्थात् मन्दिर के निरीक्षक ने कहा, हे महोदय, हम सभी आपके सेवक हैं। आप जो भी इच्छा करेंगे, उसे पूरा करना हमारा कर्तव्य है।
विशेषे राजार आज्ञा हाछे आमारे । प्रभुर आज्ञा येइ, सेइ शीघ्र करिबारे ।। ७५ ॥
राजा ने मुझे विशेष आदेश दिया है कि जो भी आप आज्ञा दें, उसे मैं तुरन्त पूरा करूँ।
तोमार ग्रोग्य सेवा नहे मन्दिर-मार्जन ।।एइ एक लीला कर, ये तोमार मन ॥
७६॥
हे प्रभु, मन्दिर की धुलाई करने की सेवा आपके योग्य नहीं है। फिर भी, यदि आप चाहते हैं, तो इसे हम आपकी लीला के रूप में स्वीकार करते हैं।
किन्तु घट, सम्मार्जनी बहुत चाहिये ।।आज्ञा देह–आजि सब इहाँ आनि दिये ॥
७७॥
मन्दिर की धुलाई करने के लिए अनेक घड़ों तथा झाड़ओं की आवश्यकता होगी, अतएव आप मुझे आदेश दें। मैं ये सारी चीजें तुरन्त लाये देता हूँ।
नूतन एक-शत घट, शत सम्मार्जनी ।।पड़िछा आनिया दिल प्रभुर इच्छा जानि' ॥
७८ ॥
ज्योंही पड़िछा ( निरीक्षक ) को महाप्रभु की इच्छा का पता चल गया, उसने तुरन्त एक सौ नये घड़े तथा मन्दिर बुहारने के लिए एक सौ झाड़ लाकर दे दिये।
आर दिने प्रभाते लञा निज-गण ।। श्री-हस्ते सबार अङ्गे लेपिला चन्दन ॥
७९॥
अगले दिन भोर होते ही महाप्रभु ने अपने संगियों को अपने साथ ले लिया और अपने हाथ से उन सबके शरीरों पर चन्दन-लेप लगाया।
श्री-हस्ते दिल सबारे एक एक मार्जनी । सब-गण लञा प्रभु चलिला आपनि ॥
८०॥
फिर उन्होंने अपने हाथ से हर भक्त को एक-एक झाड़ दी और उन सबको अपने साथ लेकर महाप्रभु गुण्डिचा गये।।
गुण्डिचा-मन्दिरे गेला करिते मार्जन ।। प्रथमे मार्जनी लञा करिल शोधन ॥
८१॥
इस तरह महाप्रभु तथा उनके संगी गुण्डिचा मन्दिर की सफाई करने गये। सर्वप्रथम उन्होंने झाड़ओं से मन्दिर को बुहारा।
भितर मन्दिर उपर, सकल माजिल ।। सिंहासन माजि' पुनः स्थापन करिल ॥
८२॥
महाप्रभु ने मन्दिर के भीतर की हर चीज को, यहाँ तक कि छत को भी बहुत अच्छी तरह से साफ किया। फिर उन्होंने सिंहासन उठाया, उसे साफ किया और उसे पुनः उसी स्थान पर रख दिया।
छोट-बड़-मन्दिर कैल मार्जन-शोधन ।। पाछे तैछे शोधिल श्री-जगमोहन ॥
८३॥
इस तरह महाप्रभु तथा उनके संगियों ने मन्दिर की बड़ी तथा छोटी सारी इमारतें बुहारीं और साफ कीं। अन्त में उन्होंने मन्दिर तथा कीर्तन के सभास्थल के बीच के भाग को साफ किया।
चारि-दिके शत भक्त सम्मार्जनी-करे ।।ओपनि शोधेन प्रभु, शिखा'न सबारे ॥
८४॥
सैंकड़ों भक्त मन्दिर की चारों ओर सफाई करने में लगे थे और श्री चैतन्य महाप्रभु दूसरों को शिक्षा देने के लिए स्वयं भी कार्य कर रहे थे।
प्रेमोल्लासे शोधेन, लयेन कृष्ण-नाम् ।।भक्त-गण 'कृष्ण' कहे, करे निज-काम ॥
८५ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने अत्यन्त उल्लसित होकर सारे समय कृष्ण-नाम का उच्चारण करते हुए मन्दिर को बुहारा और धोया। इसी तरह सारे भक्त भी कीर्तन करते जाते थे और अपना-अपना कार्य कर रहे थे।
धूलि-धूसर तनु देखिते शोभन ।काहाँ काहाँ अश्रु-जले करे सम्मार्जन ॥
८६॥
महाप्रभु का सारा सुन्दर शरीर धूल से धूसरित था। इससे वह और भी दिव्य रूप से सुन्दर लगने लगा था। मन्दिर की सफाई करते हुए कभीकभी महाप्रभु के आँसू आ जाते और कहीं-कहीं तो उन्होंने उन्हीं आँसुओं से ही धुलाई की।
भोग-मन्दिर शोधन करि' शोधिल प्राङ्गण ।सकल आवास क्रमे करिल शोधन ॥
८७॥
इसके बाद जहाँ अर्चाविग्रह का भोजन रखा जाता था ( भोगमन्दिर), उस स्थान की सफाई की गई। तत्पश्चात् आँगन साफ किया गया और तब एक-एक करके सारे रिहायशी मकान साफ किये गये।
तृण, धूलि, झिङ्कर, सब एकत्र करिया ।।बहिर्वासे लञा फेलाय बाहिर करिया ॥
८८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने तिनकों, धूल तथा बालू के कणों को एक स्थान पर एकत्र किया और फिर अपने वस्त्र में बाँधकर उन्हें बाहर ले जाकर फेंक दिया।
एइ-मत भक्त-गण करि' निज-वासे ।।तृण, धूलि बाहिरे फेलाय परम हरिषे ॥
८९॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के उदाहरण का अनुसरण करते हुए सारे भक्त भी उल्लासपूर्वक तिनके तथा धूल को अपने अपने वस्त्रों में बाँध-बाँधकर मन्दिर के बाहर ले जाकर फेंकने लगे।
प्रभु कहे,—के कत करियाछ सम्मार्जन ।।तृण, धूलि देखिलेइ जानिब परिश्रम ॥
९०॥
तब महाप्रभु ने भक्तों से कहा, मैं केवल यह देखकर कि कितने तिनके तथा धूल बाहर ले जाकर ढेर लगाया गया है, बतला सकता हूँ कि आप लोगों ने कितना परिश्रम किया है और कितनी अच्छी तरह से मन्दिर की सफाई की है।
सबार झ्याँटान बोझा एकत्र करिल । सबा हैते प्रभुर बोझा अधिक हइल ॥
९१॥
यद्यपि सारे भक्तों ने धूल का एक ढेर लगाया था, किन्तु श्री चैतन्य महाप्रभु का ढेर उस से भी बड़ा था।
एइ-मत अभ्यन्तर करिल मार्जन । पुनः सबाकोरे दिल करिया वण्टन ॥
९२ ॥
जब मन्दिर की भीतरी सफाई पूरी हो गई, तो महाप्रभु ने फिर से भक्तों द्वारा साफ किये जाने के लिए अलग-अलग खण्ड निर्धारित किये।
सूक्ष्म धूलि, तृण, काङ्कर, सब करह दूर ।। भाल-मते शोधन करह प्रभुर अन्तःपुर ॥
९३॥
तत्पश्चात् महाप्रभु ने सबको आदेश दिया कि वे सारी बारीक धूल, तिनके तथा बालू के कणों को बाहर फेंककर अच्छी तरह से मन्दिर के भीतरी भाग की सफाई करें।
सब वैष्णव लञा ग्नबे दुई-बार शोधिल ।। देखि' महाप्रभुर मने सन्तोष हइल ॥
९४॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु तथा सारे वैष्णवों ने मन्दिर की दुबारा सफाई कर ली, तो श्री चैतन्य महाप्रभु सफाई देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए।
आर शत जन शत घटे जल भरि' ।। प्रथमेड़ लग्ना आछे काल अपेक्षा करि' ॥
९५॥
जब मन्दिर बुहारा जा रहा था, तो लगभग एक सौ व्यक्ति जल से भरे घड़े लिए तैयार खड़े थे और उनमें से पानी फेंकने के महाप्रभु के आदेश की प्रतीक्षा कर रहे थे।
जल आन' बलि' ग्रबे महाप्रभु कहिल ।।तबे शत घट आनि' प्रभु-आगे दिल ॥
९६॥
ज्योंही श्री चैतन्य महाप्रभु ने पानी लाने के लिए कहा, त्योंही सारे लोग तुरन्त जल से भरे उन एक सौ घड़ों को ले आये और लाकर महाप्रभु के सामने रख दिये।
प्रथमे करिल प्रभु मन्दिर प्रक्षालन । ऊर्ध्व-अधो भित्ति, गृह-मध्य, सिंहासन ॥
९७॥
इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने सबसे पहिले मुख्य मन्दिर धोया और तब छत, दीवारें, फर्श, सिंहासन तथा कमरे के भीतर की अन्य वस्तुओं को भलीभाँति धोया।
खापरा भरिया जल ऊर्ध्वं चालाइल । सेइ जले ऊर्ध्व शोधि भित्ति प्रक्षालिल ॥
९८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु स्वयं तथा उनके सारे भक्त छत पर जल फेंकने लगे। जब यह पानी नीचे की ओर गिरा, तो उससे दीवारें तथा फर्श धुल गये।
श्री-हस्ते करेन सिंहासनेर मार्जन ।।प्रभु आगे जले आनि' देय भक्त-गण ॥
९९॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु अपने हाथों से भगवान जगन्नाथ का सिंहासन धोने लगे और सारे भक्त जल लाकर महाप्रभु को देने लगे।
भक्त-गण करे गृह-मध्य प्रक्षालन ।। निज निज हस्ते करे मन्दिर मार्जन ॥
१००॥
सारे भक्त मन्दिर के भीतर धुलाई करने लगे। हर एक के हाथ में एक एक झाड़ था, जिससे उन्होंने भगवान् के मन्दिर को स्वच्छ किया।
केह जल आनि' देय महाप्रभुर करे ।। केह जल देय ताँर चरण-उपरे ॥
१०१॥
उनमें से कोई महाप्रभु के हाथों में पानी लाकर देता और कोई उनके चरणकमलों में पानी गिराता।।
केह लुकाअ करे सेइ जल पान ।।केह मागि' लय, केह अन्ये करे दान ॥
१०२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणों पर गिरने वाले जल को कोई चोरीचोरी पी रहा था, कोई उस जल को माँग रहा था और कोई उस जल का दान कर रहा था।
घर धुइ' प्रणालिकाय जल छाड़ि' दिले ।।सेइ जले प्राङ्गण सब भरिया रहिल ॥
१०३ ॥
जब कमरा धुल गया, तो पानी को एक नाली से बाहर निकाल दिया गया और यही पानी बहकर बाहर के प्रांगण में भर गया।
निज-वस्त्रे कैल प्रभु गृह सम्मार्जन । महाप्रभु निज-वस्त्रे माजिल सिंहासन ॥
१०४॥
महाप्रभु ने अपने वस्त्रों से कमरों को पोंछा और उन्हीं वस्त्रों से सिंहासन को चमकाया भी।
शत घट जले हैल मन्दिर मार्जन ।। मन्दिर शोधिया कैल—येन निज मन ।। १०५ ॥
इस तरह पानी के सौ घड़ों से सारे कमरे धो दिये गये। कमरों की सफाई के बाद भक्तों के मन कमरों की ही तरह निर्मल हो गये।
निर्मल, शीतल, स्निग्ध करिल मन्दिरे । आपन-हृदय ग्रेन धरिल बाहिरे ॥
१०६॥
स्वच्छ हो जाने के बाद मन्दिर शुद्ध, शीतल तथा मनभावन हो गया, मानो स्वयं महाप्रभु का शुद्ध मन प्रकट हुआ हो।
शत शत जन जल भरे सरोवरे ।।घाटे स्थान नाहि, केह कूपे जल भरे ॥
१०७॥
चूँकि सैंकड़ों व्यक्ति सरोवर से जल लाने में लगे हुए थे, अतएव किनारे पर खड़े होने तक के लिए जगह नहीं थी। इसलिए कुछ लोग कुएँ से पानी खींचने लगे।
पूर्ण कुम्भ लजा आइसे शत भक्त-गण ।।शून्य घट लञा ग्राय आर शत जन ॥
१०८॥
सैंकड़ों भक्त जल से भरे घड़े लाते और सैंकड़ों भक्त खाली घड़ों को फिर से भरने के लिए ले जाते।
नित्यानन्द, अद्वैत, स्वरूप, भारती, पुरी ।। इँहा विनु आर सब आने जल भरि' ॥
१०९॥
नित्यानन्द प्रभु, अद्वैत आचार्य, स्वरूप दामोदर, ब्रह्मानन्द भारती तथा परमानन्द पुरी को छोड़कर सारे लोग घड़ों में पानी भरकर लाने में व्यस्त थे।
घटे घटे ठेकि' कत घट भाङ्गि' गेल ।। शत शत घट लोक ताहाँ लञा आइल ॥
११०॥
लोगों के परस्पर टकरा जाने से अनेक घड़े टूट गये और सैंकड़ों लोगों को पानी भरने के लिए नये घड़े लाने पड़े।
जल भरे, घर धोय, करे हरि-ध्वनि ।। 'कृष्ण' ‘हरि' ध्वनि विना आर नाहि शुनि ।। १११॥
कुछ लोग घड़े भर रहे थे और कुछ कमरों की धुलाई कर रहे थे, किन्तु सारे लोग कृष्ण तथा हरि के नाम का उच्चारण करते जा रहे थे।
'कृष्ण' 'कृष्ण' कहि' करे घटेर प्रार्थन।‘कृष्ण' 'कृष्ण' कहि' करे घट समर्पण ॥
११२॥
कोई व्यक्ति कृष्ण, कृष्ण कहकर घड़ा माँग रहा था और कोई व्यक्ति कृष्ण, कृष्ण कहकर घड़ा दे रहा था।
ग्रेइ ग्रेइ कहे, सेइ कहे कृष्ण-नामे ।।कृष्ण-नाम हइल सङ्केत सब-कामे ॥
११३॥
जब किसी को कुछ कहना होता, तो वह 'कृष्ण' नाम का उच्चारण करके ऐसा करती। अतएव जिस किसी को जो कुछ माँगना होता, उसके लिए 'कृष्ण' नाम संकेत बन गया था।
प्रेमावेशे प्रभु कहे 'कृष्ण' 'कृष्ण'-नाम । एकले प्रेमावेशे करे शत-जनेर काम ॥
११४॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु प्रेमाविष्ट होकर कृष्ण का नाम लेते थे, तो ये स्वयं सैंकड़ों आदमियों का काम करते थे।
शत-हस्ते करेन ग्रेन क्षालन-मार्जन ।। प्रतिजन-पाशे ग्राइ' करान शिक्षण ॥
११५ ॥
ऐसा प्रतीत होता मानो श्री चैतन्य महाप्रभु एक सौ हाथों से सफाईधुलाई कर रहे हों। वे हर एक भक्त के पास यह शिक्षा देने के लिए पहुँचते कि काम किस तरह करना चाहिए।
भाल कर्म देखि' तारे करे प्रसंशन । मने ना मिलिले करे पवित्र भर्सन ॥
११६॥
जब कोई ठीक से काम करता, तो महाप्रभु उसकी प्रशंसा करते, किन्तु जब वे देखते कि कोई व्यक्ति सन्तोषजनक कार्य नहीं कर रहा, तो वे बिना किसी द्वेष के उस व्यक्ति की प्रताड़ना करते।
तुमि भाल करियाछ, शिखाह अन्येरे ।एइ-मत भाल कर्म सेहो ग्रेन करे ॥
११७॥
महाप्रभु कहते, तुमने बहुत अच्छा किया है। तुम दूसरों को भी सिखला दो, जिससे वे भी इसी तरह से काम करें।
ए-कथा शुनिया सबे सङ्कुचित हा ।।भाल-मते कर्म करे सबै मन दिया ॥
११८ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु से ऐसा सुनकर हर व्यक्ति लज्जित हो जाता। इसलिए भक्तों ने बड़े ही मनोयोग से काम करना आरम्भ कर दिया।
तबे प्रक्षालन कैल श्री-जगमोहन । भोग-मन्दिर-आदि तबे कैल प्रक्षालन ॥
११९॥
उन्होंने जगमोहन-क्षेत्र की धुलाई की और इसके बाद जहाँ प्रसाद रखा जाता था, वह स्थान धोया गया। फिर अन्य सभी स्थान भी धोये गये।
नाटशाला धुइ' धुइल चत्वर-प्राङ्गण ।।पाकशाला-आदि करि करिल प्रक्षालन ॥
१२०॥
इस तरह सभा-भवन, समूचे प्रांगण, चबूतरों, रसोई-घर तथा अन्य कमरों की धुलाई की गई।
मन्दिरेर चतुर्दिक्प्रक्षालन कैल ।सब अन्तःपुर भाल-मते धोयाइल ॥
१२१॥
। इस तरह मन्दिर के चारों ओर के सारे स्थान भीतर और बाहर से धो दिये गये।"
हेन-काले गौड़ीयो एक सुबुद्धि सरल ।। प्रभुर चरण-युगे दिल घट-जल ॥
१२२॥
जब पूरी तरह सफाई हो चुकी, तो बंगाल से आये हुए एक अत्यन्त बुद्धिमान एवं सरल वैष्णव ने आकर महाप्रभु के चरणकमलों पर जल चढ़ाया।
सेइ जल लजा आपने पान कैल ।। ताहा देखि' प्रभुर मने दुःख रोष हैल ॥
१२३॥
तब उस गौड़ीय वैष्णव ने उस जल को लेकर पी लिया। यह देखकर श्री चैतन्य महाप्रभु कुछ-कुछ दुःखी और बाहर से क्रुद्ध भी हुए।
यद्यपि गोसाजि तारे हाछे सन्तोष । धर्म-संस्थापन लागि' बाहिरे महा-रोष ॥
१२४॥
यद्यपि महाप्रभु उससे सन्तुष्ट थे, किन्तु धर्म के शिष्टाचार की स्थापना करने के लिए वे बाहर से क्रुद्ध हुए।
शिक्षा लागि' स्वरूपे डाकि' कहिल ताँहारे ।एइ देख तोमार गौड़ीया'र व्यवहारे ॥
१२५॥
तब महाप्रभु ने स्वरूप दामोदर को बुलाया और उनसे कहा, 'जरा अपने बंगाली वैष्णव का व्यवहार तो देखो। '" ईश्वर-मन्दिरे मोर पद धोयाइल ।।सेइ जल आपनि लञा पान कैल ॥
१२६॥
इस बंगाली वैष्णव ने भगवान् के मन्दिर के भीतर मेरे पाँव धोये हैं। यही नहीं, उसने जल भी पी लिया है।
एइ अपराधे मोर काहाँ हबे गति ।। तोमार 'गौड़ीया' करे एतेक फैजति! ॥
१२७॥
मैं नहीं जानता कि इस अपराध के कारण मेरी क्या गति होगी! तुम्हारे बंगाली वैष्णव ने मुझे झंझट में फँसा दिया है।
तबे स्वरूप गोसाजि तार घाड़े हात दिया । ढेका मारि' पुरीर बाहिर राखिलेन ला ॥
१२८॥
तभी स्वरूप दामोदर गोस्वामी ने गौड़ीय वैष्णव की गर्दन पकड़ ली और उसे धक्का देकर गुण्डिचा पुरी मन्दिर से बाहर कर दिया तथा उसे बाहर ही रहने दिया।
पुनः आसि' प्रभु पाय करिल विनय ।। ‘अज्ञ-अपराध' क्षमा करिते ग्रुयाय ॥
१२९॥
मन्दिर में वापस आकर स्वरूप दामोदर गोस्वामी ने श्री चैतन्य महाप्रभु से प्रार्थना की कि वे उस अबोध व्यक्ति को क्षमा कर दें।
तबे महाप्रभुर मने सन्तोष हइल । सारि करि' दुइ पाशे सबारे वसाइला ॥
१३० ॥
इस घटना के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु को परम सन्तोष हुआ। तब उन्होंने सारे भक्तों को दो पंक्तियों में दोनों ओर बैठ जाने को कहा।
आपने वसिया माझे, आपनार हाते ।।तृण, काङ्कर, कुटा लागिला कुड़ाइते ॥
१३१॥
तब महाप्रभु स्वयं बीच में बैठ गये और सभी तरह के तिनके, बालू के कण तथा गंदी वस्तुएँ चुनने लगे।
के कत कुड़ाय, सब एकत्र करिब ।। ग्रार अल्प, तार ठाजि पिठा-पाना लइब ॥
१३२॥
तिनके तथा बालू के कण चुनते हुए महाप्रभु ने कहा, मैं हर एक के कूड़े को एकत्र करूँगा और जिसका कूड़ा कम होगा उससे कहूँगा कि वह जुर्माना के रूप में मिठाई ( पिठा) तथा खीर ( पाना ) दे।
एइ मत सब पुरी करिल शोधन । शीतल, निर्मल कैल–ग्रेन निज-मन ॥
१३३॥
इस तरह गुण्डिचा मन्दिर के सभी कमरे पूरी तरह स्वच्छ हो गये। सारे कमरे ठंडे तथा स्वच्छ थे, मानो निर्मल तथा शान्त मन हों।
प्रणालिका छाड़ि' यदि पानि वहाइल । नूतन नदी ग्रेन समुद्रे मिलिल ।। १३४।। जब सारे कमरों का पानी हाल कमरे से होकर निकाला गया, तो ऐसा लगा जैसे कि नई नदियाँ समुद्र से मिलने जा रही हों।
एइ-मत पुरद्वार-आगे पथ ग्रत ।। सकल शोधिल, ताहा के वर्णिबे कत ॥
१३५॥
मन्दिर के द्वार के बाहर की सारी सड़कें भी साफ की गईं। किन्तु कोई यह नहीं बता सकता था कि यह सब कैसे हुआ।
नृसिंह-मन्दिर-भितर-बाहिर शोधिल ।। क्षणेक विश्राम करि' नृत्य आरम्भिल ॥
१३६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने नृसिंह मन्दिर की भी भीतर और बाहर से सफाई की। अन्त में उन्होंने कुछ मिनट विश्राम किया और तब नृत्य शुरू किया।"
चारि-दिके भक्त-गण करेन कीर्तन ।।मध्ये नृत्य करेन प्रभु मत्त-सिंह-सम ॥
१३७॥
सारे भक्तों ने श्री चैतन्य महाप्रभु के चारों ओर संकीर्तन किया और महाप्रभु एक उन्मत्त सिंह के समान बीच में नाचने लगे।
स्वेद, कम्प, वैवण्र्याश्रु पुलक, हुङ्कार ।।निज-अङ्ग धुइ' आगे चले अश्रु-धार ॥
१३८॥
हमेशा की तरह जब चैतन्य महाप्रभु नाचने लगे तो पसीना, कँपकँपी, विवर्णता ( रंग फीका पड़ना ), आँसू, हर्ष तथा हुंकार प्रकट होने लगे। उनकी आँखों के अश्रुओं ने उनके शरीर को तथा उनके समक्ष खड़े लोगों के शरीरों को धो दिया।
चारि-दिके भक्त-अङ्ग कैल प्रक्षालन ।। श्रावणेर मेघ ग्रेन करे वरिषण ॥
१३९॥
इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपनी आँखों के आँसुओं से सारे भक्तों के शरीरों को धो डाला। आँसू इस तरह गिर रहे थे मानों सावन मास की वर्षा हो।
महा-उच्च-सङ्कीर्तने आकाश भरिल ।प्रभुर उद्दण्ड-नृत्ये भूमि-कम्प हैल ॥
१४०॥
महान् तथा जोर-जोर से उच्चरित होने वाले संकीर्तन से आकाश पूँज । उठा और चैतन्य महाप्रभु के कूदने तथा नाचने से धरती हिलने लगी।
स्वरूपेर उच्च-गान प्रभुरे सदा भाय ।। आनन्दे उद्दण्ड नृत्य करे गौरराय ॥
१४१।। श्री चैतन्य महाप्रभु को स्वरूप दामोदर का जोर-जोर से संकीर्तन करना सदा पसन्द था। अतएव जब स्वरूप दामोदर गाते तो श्री चैतन्य महाप्रभु नाचते और हर्ष से ऊँचा उछलते थे।
एइ-मत कत-क्षण नृत्य ग्रे करिया ।।विश्राम करिला प्रभु समय बुझिया ॥
१४२॥
महाप्रभु इस तरह कुछ समय तक कीर्तन करते और नाचते रहे। अन्त में परिस्थिति को समझकर वे रुक गये।
आचार्य-गोसाजिर पुत्र श्री-गोपाल-नाम ।।नृत्य करिते ताँरे आज्ञा दिल गौरधाम ॥
१४३॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने अद्वैत आचार्य के पुत्र श्री गोपाल को नाचने का आदेश दिया।
प्रेमावेशे नृत्य करि' हइला मूच्छिते ।।अचेतन हा तेह पड़िला भूमिते ॥
१४४॥
प्रेमावेश में नाचते हुए श्री गोपाल मूर्छित हो गया और अचेत होकर जमीन पर गिर पड़ा।
आस्ते-व्यस्ते आचार्य ताँरै कैल कोले ।।श्वास-रहित देखि' आचार्य हैला विकले ॥
१४५ ॥
। जब श्री गोपाल मूर्छित हो गया, तो अद्वैत आचार्य ने तुरन्त उसे अपनी गोद में उठा लिया। यह देखकर कि उसकी साँस नहीं चल रही, वे अत्यन्त क्षुब्ध हो उठे।
नृसिंहेर मन्त्र पड़ि' मारे जल-छाँटि ।।हुङ्कारेर शब्दे ब्रह्माण्ड ग्राय फाटि' ॥
१४६॥
अद्वैत आचार्य तथा अन्य लोग भगवान् नृसिंह के नाम का उच्चारण करके जल छिड़कने लगे। उच्चारण की हुंकार इतनी तेज थी कि उससे सारा ब्रह्माण्ड हिलता हुआ प्रतीत हुआ।
अनेक करिल, तबु ना हय चेतन ।।आचार्य कान्देन, कान्दे सब भक्त-गण ॥
१४७॥
जब लड़के को कुछ समय तक होश नहीं आया, तो अद्वैत आचार्य तथा अन्य भक्तगण रोने लगे।
तबे महाप्रभु ताँर बुके हस्त दिल ।।‘उठह गोपाल' बलि' उच्चैःस्वरे कहिल ॥
१४८॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने श्री गोपाल की छाती पर अपना हाथ रखा और जोर से बोले, गोपाल, उठो! शुनितेइ गोपालेर हुइल चेतन ।। 'हरि' बलि' नृत्य करे सर्व-भक्त-गण ॥
१४९॥
ज्योंही गोपाल ने श्री चैतन्य महाप्रभु की वाणी सुनी, उसे तुरन्त चेत हो गया। अतः सारे भक्त हरि का नाम लेकर नाचने लगे।
एइ लीला वर्णियाछेन दास वृन्दावन ।। अतएव सङ्क्षेप करि करिलॅ वर्णन ॥
१५०॥
वृन्दावन दास ठाकुर ने इस घटना का विस्तार से वर्णन किया है, अतएव मैंने संक्षेप में ही इसे कहा है।
तबे महाप्रभु क्षणेक विश्राम करिया । स्नान करिबारे गेला भक्त-गण लञा ॥
१५१॥
विश्राम करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु तथा सारे भक्त स्नान करने चले गये।
तीरे उठि' परेन प्रभु शुष्क वसन ।। नृसिंह-देवे नमस्करि' गेला उपवन ॥
१५२॥
स्नान करने के बाद महाप्रभु ने सरोवर के किनारे खड़े होकर सूखे कपड़े पहने। फिर पास ही के मन्दिर में स्थित भगवान् नृसिंह देव को नमस्कार करके वे बगीचे में आये।
उद्याने वसिला प्रभु भक्त-गण लञा । तबे वाणीनाथ आइला महा-प्रसाद लञा ॥
१५३॥
उस बगीचे में श्री चैतन्य महाप्रभु अन्य भक्तों के साथ बैठ गये। तभी वाणीनाथ राय सभी प्रकार का प्रसाद लेकर आये।
काशी-मिश्र, तुलसी-पड़िछा-दुइ जन ।। पञ्च-शत लोक व्रत करये भोजन ॥
१५४॥
तत अन्न-पिठा-पाना सब पाठाइल ।। देखि' महाप्रभुर मने सन्तोष हइल ॥
१५५ ॥
काशी मिश्र तथा मन्दिर की देख-रेख करने वाला तुलसी–दोनों इतना अधिक प्रसाद लेकर आये जो पाँच सौ व्यक्तियों के खाने लायक था। इस प्रसाद में चावल, रोटियाँ, खीर तथा विविध प्रकार की तरकारियाँ थीं। इन्हें देखकर महाप्रभु अत्यन्त सन्तुष्ट हुए।
पुरी-गोसाञि, महाप्रभु, भारती ब्रह्मानन्द ।।अद्वैत-आचार्य, आर प्रभु-नित्यानन्द ॥
१५६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के पास उपस्थित भक्तों में परमानन्द पुरी, ब्रह्मानन्द भारती, अद्वैत आचार्य तथा नित्यानन्द प्रभु थे।
आचार्यरत्न, आचार्यनिधि, श्रीवास, गदाधरे ।शङ्कर, नन्दनाचार्य, आर राघव, वक्रेश्वर ॥
१५७॥
वहाँ पर आचार्यरत्न, आचार्यनिधि, श्रीवास ठाकुर, गदाधर पण्डित, शंकर, नन्दनाचार्य, राघव पण्डित तथा वक्रेश्वर भी उपस्थित थे।
प्रभु-आज्ञा पाजा वैसे आपने सार्वभौम ।।पिण्डार उपरे प्रभु वैसे ला भक्त-गण ॥
१५८॥
महाप्रभु की आज्ञा पाकर सार्वभौम भट्टाचार्य बैठ गये। श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनके सारे भक्त काठ के चबूतरे (पिण्डार) पर बैठे।
तार तले, तार तले करि' अनुक्रम ।।उद्यान भरि' वैसे भक्त करिते भोजन ॥
१५९॥
इस तरह सारे भक्त एक-दूसरे के पीछे पंक्ति बनाकर भोजन करने के लिए बैठ गये।
‘हरिदास' बलि' प्रभु डाके घने घन ।।दूरे रहि' हरिदास करे निवेदन ॥
१६०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु बारम्बार हरिदास, हरिदास कहकर पुकार रहे थे। वे उस समय दूर खड़े थे और वहीं से वे इस तरह बोले।
भक्त-सङ्गे प्रभु करुन प्रसाद अङ्गीकार ।।ए-सङ्गे वसिते योग्य नहि मुजि छार ॥
१६१॥
हरिदास ठाकुर ने कहा, महाप्रभु! आप भक्तों के साथ भोजन ग्रहण करें। चूँकि मैं निन्दनीय हूँ, अतएव आप लोगों के बीच में नहीं बैठ सकता।
पाछे मोरे प्रसाद गोविन्द दिबे बहिद्वारे । मन जानि' प्रभु पुनः ना बलिल ताँरे ॥
१६२॥
गोविन्द बाद में मुझे दरवाजे के बाहर प्रसाद दे जायेगा। महाप्रभु ने उनके मन की बात जान कर फिर से नहीं पुकारा।
स्वरूप-गोसाजि, जगदानन्द, दामोदर । काशीश्वर, गोपीनाथ, वाणीनाथ, शङ्कर ॥
१६३॥
परिवेशन करे ताहाँ एई सात-जन ।।मध्ये मध्ये हरि-ध्वनि करे भक्त-गण ॥
१६४॥
स्वरूप दामोदर गोस्वामी, जगदानन्द, दामोदर पण्डित, काशीश्वर, गोपीनाथ, वाणीनाथ तथा शंकर ने प्रसाद का वितरण किया और भक्तगण बीच-बीच में हरि नाम का उच्चारण करते जा रहे थे।
पुलिन-भोजन कृष्ण पूर्वे ट्रैछे कैल । सेइ लीला महाप्रभुर मने स्मृति हैल ॥
१६५ ॥
जिस तरह भगवान् श्रीकृष्ण ने पहले जंगल में भोजन किया था, श्री चैतन्य महाप्रभु को वही लीला याद हो आयी।
ग्रद्यपि प्रेमावेशे प्रभु हैला अस्थिर ।।समय बुझिया प्रभु हैला किछु धीर ॥
१६६ ॥
श्रीकृष्ण की लीलाओं के स्मरण मात्र से श्री चैतन्य महाप्रभु को प्रेमावेश हो आया, किन्तु समय तथा परिस्थिति को देखते हुए वे कुछ धीर बने रहे।
प्रभु कहे,—मोरे देह' लाफ्रा-व्यञ्जने । पिठा-पाना, अमृत-गुटिका देह' भक्त-गणे ॥
१६७॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, आप मुझे साधारण तरकारी, जिसे लाफरा व्यंजन कहते हैं, परोसें और सभी भक्तों को मिठाई, खीर तथा अमृत गुटिका जैसे उत्तम व्यंजन परोसें।
सर्वज्ञ प्रभु जानेन याँरे येइ भाय ।तारे ताँरे सेइ देओयाय स्वरूप-द्वाराय ॥
१६८ ॥
चूंकि चैतन्य महाप्रभु सब कुछ जानने वाले हैं, अतएव वे जानते थे कि किस व्यक्ति को कौन-सा व्यंजन पसन्द है। इसलिए चैतन्य महाप्रभु के आदेश से हरेक भक्त को स्वरूप दामोदर के हाथों से उन व्यंजनों को भरपेट परोसा गया।
जगदानन्द बेड़ाय परिवेशन करिते ।।प्रभुर पाते भाल-द्रव्य देन अचम्बिते ।। १६९॥
जगदानन्द प्रसाद वितरण करने आये और उसने सहसा सर्वश्रेष्ठ व्यंजन महाप्रभु की पत्तल में परोस दिये।
यद्यपि दिले प्रभु ताँरे करेन रोष ।।बले-छले तबु देन, दिले से सन्तोष ॥
१७०॥
जब महाप्रभु की पत्तल में इतना अच्छा प्रसाद परोस दिया गया, तो वे बाहर से अत्यधिक क्रुद्ध प्रतीत हुए। किन्तु फिर भी जब कभी किसी न किसी बहाने से अथवा जबरदस्ती उनकी पत्तल पर व्यंजन परोस दिये जाते, तो महाप्रभु को अत्यधिक सन्तोष हुआ।
पुनरपि सेइ द्रव्य करे निरीक्षण ।ताँर भये प्रभु किछु करेन भक्षण ॥
१७१॥
जब इस तरह भोजन परोस दिया जाता, तो महाप्रभु कुछ समय तक उसे देखते रहते। किन्तु जगदानन्द के भय से वे अन्ततः उसमें से कुछ न कुछ खा लेते।
ना खाइले जगदानन्द करिबे उपवास ।। ताँर आगे किछु खान—मने ऐ त्रास ॥
१७२॥
महाप्रभु जानते थे कि यदि वे जगदानन्द द्वारा परोसा गया भोजन नहीं खायेंगे, तो वे अवश्य उपवास करेंगे। इस भय से श्री चैतन्य महाप्रभु ने उसके द्वारा दिये गये प्रसाद में से कुछ अंश खा लिया।
स्वरूप-गोसाजि भाल मिष्ट-प्रसाद ला ।। प्रभुके निवेदन करे आगे दाण्डाजा ॥
१७३॥
तब स्वरूप दामोदर गोसांई कुछ उत्तम मिठाइयाँ ले आये और महाप्रभु के सामने खड़े होकर उन्हें अर्पित किया।
एइ महा-प्रसाद अल्प करह आस्वादन ।। देख, जगन्नाथ कैछे कर्याछेन भोजन ॥
१७४॥
तब स्वरूप दामोदर गोस्वामी ने कहा, इस महाप्रसाद में से थोड़ा ले लें और देखें कि भगवान जगन्नाथ ने इसे किस प्रकार ग्रहण किया।
एते बलि' आगे किछु करे समर्पण ।।ताँर स्नेहे प्रभु किछु करेन भोजन ॥
१७५ ॥
यह कहकर स्वरूप दामोदर गोसांई ने महाप्रभु के सामने कुछ भोजन रख दिया और महाप्रभु ने स्नेहवश उसे ग्रहण किया।
एइ मत दुइ-जन करे बार-बार ।। विचित्र एइ दुइ भक्तेर स्नेह-व्यवहार ॥
१७६ ॥
स्वरूप दामोदर तथा जगदानन्द ने महाप्रभु को बारम्बार कुछ भोजन दिया। इस तरह उन्होंने महाप्रभु के साथ स्नेहपूर्ण व्यवहार किया। यह अत्यन्त असामान्य बात थी।
सार्वभौमे प्रभु वसाळाछेन वाम-पाशे ।। दुइ भक्तेर स्नेह देखि' सार्वभौम हासे ॥
१७७॥
महाप्रभु ने सार्वभौम भट्टाचार्य को अपने बाईं ओर बैठा लिया। सार्वभौम ने जब स्वरूप दामोदर तथा जगदानन्द का व्यवहार देखा, तो वे हँसने लगे।
सार्वभौमे देयान प्रभु प्रसाद उत्तम । स्नेह करि' बार-बार करान भोजन ॥
१७८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु सार्वभौम भट्टाचार्य को भी उत्तम भोजन देना चाहते थे, अतएव उन्होंने परोसने वाले से बार-बार उनकी पत्तल में उत्तम भोजन परोसने को कहा।
गोपीनाथाचार्य उत्तम महा-प्रसाद आनि' ।। सार्वभौमे दिया कहे सुमधुर वाणी ॥
१७९॥
गोपीनाथ आचार्य ने भी उत्तम भोजन लाकर मधुर वचन कहते हुए। सार्वभौम भट्टाचार्य को दिया।
काहाँ भट्टाचार पूर्व जड़-व्यवहार ।।काहाँ एइ परमानन्द, करह विचार ॥
१८० ॥
भट्टाचार्य को उत्तम भोजन परोसने के बाद गोपीनाथ आचार्य ने कहा, जरा विचार करें कि भट्टाचार्य को पूर्ववर्ती भौतिक आचरण कैसा था! जरा विचार करें कि इस समय वे किस तरह दिव्य आनन्द भोग रहे हैं।
सार्वभौम कहे,—आमि तार्किक कुबुद्धि ।। तोमार प्रसादे मोर ए सम्पत्सिद्धि ॥
१८१॥
सार्वभौम भट्टाचार्य ने गोपीनाथ आचार्य को उत्तर दिया, मैं अल्पबुद्धि तार्किक था। फिर भी आपकी कृपा से मुझे सिद्धि का यह ऐश्वर्य प्राप्त हो सका है।
महाप्रभु विना केह नाहि दयामय । काकेरे गरुड़ करे,---ऐछे कोन्हय ॥
१८२॥
सार्वभौम भट्टाचार्य ने आगे कहा, श्री चैतन्य महाप्रभु के अतिरिक्त इतना दयावान कौन हो सकता है? उन्होंने एक कौवे को गरुड़ बना दिया है। भला इतना दयावान और कौन हो सकता है? तार्किक-शृगाल-सङ्गे भेउ-भेउ करि । सेइ मुखे एबे सदा कहि 'कृष्ण' ‘हरि' ॥
१८३॥
तार्किक व्यक्ति रूपी सियारों के साथ मैं भौं-भौं की गूंज करता था। अब मैं उसी मुँह से 'कृष्ण' तथा 'हरि' के पवित्र नामों का उच्चारण कर रहा हूँ। काहाँ बहिर्मुख तार्किक-शिष्यगण-सङ्गे।। काहाँ एइ सङ्ग-सुधा-समुद्र-तरङ्गे ॥
१८४॥
कहाँ मैं अभक्त तार्किक शिष्यों की संगति में रहता था, कहाँ अब में भक्तों के संग-रूपी अमृत के सागर की लहरों में निमग्न हूँ।
प्रभु कहे,—पूर्वे सिद्ध कृष्णे तोमार प्रीति ।।तोमा-सङ्गे आमा-सबार हैल कृष्णे मति ॥
१८५॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने सार्वभौम भट्टाचार्य को कहा, आप अपने पूर्वजन्म से कृष्णभावनामृत में रहते आ रहे हो। आप कृष्ण से इतना प्रेम करते हो कि आपकी संगति से हम लोगों में कृष्णभावना विकसित हो गी है।
भक्त-महिमा बाड़ाइते, भक्ते सुख दिते ।।महाप्रभु विना अन्य नाहि त्रिजगते ॥
१८६॥
इस तरह तीनों लोकों के भीतर श्री चैतन्य महाप्रभु के अतिरिक्त ऐसा कोई अन्य व्यक्ति नहीं है, जो भक्तों की महिमा को बढ़ाने की इच्छा रखता हो और उन्हें सन्तोष प्रदान करता हो।
तबे प्रभु प्रत्येके, सब भक्तेर नाम लञा ।। पिठा-पाना देओयाइल प्रसाद करिया ॥
१८७॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने जगन्नाथजी पर चढ़ाया गया सारा पीठापाना (मिठाई तथा खीर) लेकर अन्य सभी भक्तों को एक एक करके बुला-बुलाकर उनमें वितरित कर दिया।
अद्वैत-नित्यानन्द वसियाछेन एक ठात्रि ।। दुइ-जने क्रीड़ा-कलह लागिल तथाइ ॥
१८८ ॥
श्री अद्वैत आचार्य तथा नित्यानन्द प्रभु पास-पास बैठ गये और जब प्रमाद बाँटा जाने लगा, तो वे एक तरह के दिखावटी झगड़े ( क्रीड़ाकलह ) में लग गये।
अद्वैत कहे,—अवधूतेर सङ्गे एक पङि ।। भोजन करिलें, ना जानि हबे कोन्गति ॥
१८९॥
पहले अद्वैत आचार्य ने कहा, मैं एक अज्ञात अवधूत के साथ पंक्ति में बैठा हूँ और उसके साथ भोजन कर रहा हूँ; अतः मैं नहीं जानता कि मेरी क्या गति होगी? प्रभु त' सन्यासी, उँहार नाहि अपचय ।। अन्न-दोषे सन्यासीर दोष नाहि हय ॥
१९०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु तो संन्यासी हैं। अतएव वे कोई दोष नहीं देखते। तथ्य तो यह है कि संन्यासी कहीं का भी अन्न खाने से प्रभावित नहीं होता।
नान्ने-दोषेण मस्करी–एइ शास्त्र-प्रमाण ।आमि त' गृहस्थ-ब्राह्मण, आमार दोष-स्थान ॥
१९१॥
शास्त्रों के अनुसार यदि संन्यासी दूसरे के घर में भोजन करे तो इसमें कोई त्रुटि नहीं है। किन्तु गृहस्थ ब्राह्मण के लिए इस तरह भोजन करना दोषपूर्ण है।
जन्म-कुल-शीलाचार ना जानि ग्राहार ।। तार सङ्गे एक पङ्कि-बड़ अनाचार ॥
१९२॥
जिन लोगों का पूर्वजन्म, कुल, चरित्र तथा आचरण अज्ञात हो, उनके साथ गृहस्थों को भोजन करना उचित नहीं है।
नित्यानन्द कहे—तुमि अद्वैत-आचार्य ।‘अद्वैत-सिद्धान्ते' बाधे शुद्ध-भक्ति-कार्य ॥
१९३ ॥
नित्यानन्द प्रभु ने तुरन्त ही अद्वैत आचार्य का खण्डन करते हुए कहा, ' आप निर्विशेष अद्वैतवाद के शिक्षक हो और अद्वैतवादी निष्कर्ष प्रगतिशील शुद्ध भक्ति के पथ में बहुत बड़ा अवरोध है। '" तोमार सिद्धान्त-सङ्ग करे ग्रेइ जने ।‘एक वस्तु विना सेइ द्वितीय' नाहि माने ॥
१९४॥
जो आपके निर्विशेष अद्वैतवादी दर्शन में भाग लेता है, वह एक ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं स्वीकार करता।
हेन तोमार सङ्गे मोर एकत्रे भोजन ।ना जानि, तोमार सङ्गे कैछे हय मन ॥
१९५॥
नित्यानन्द प्रभु ने आगे कहा, आप इस तरह के अद्वैतवादी हो! और मैं अब आपकी बगल में बैठकर खा रहा हूँ। मैं नहीं जानता कि इससे मेरा मन किस तरह प्रभावित होगा? ।
एइ-मत दुइ-जने करे बलाबलि । ।व्याज-स्तुति करे मुँहे, ग्रेन गालागालि ॥
१९६॥
। इस तरह दोनों बातें करते और एक-दूसरे की प्रशंसा करते रहे, यद्यपि उनकी प्रशंसा नकारात्मक जान पड़ती थी, क्योंकि ऐसा लग रहा था मानो वे एक दूसरे को गाली दे रहे हों।
तबे प्रभु सर्व-वैष्णवेर नाम लञा ।।महा-प्रसाद देन महा-अमृत सिञ्चिया ॥
१९७॥
तत्पश्चात् सारे वैष्णवों का नाम ले-लेकर बुलाकर महाप्रभु ने महाप्रसाद वितरित किया, मानो वे अमृत छिड़क रहे हों। उस समय अद्वैत आचार्य तथा नित्यानन्द प्रभु की क्रीड़ा-कलह अधिकाधिक रोचक लगने लगी।
भोजन करि' उठे सबे हरि-ध्वनि करि' । हरि-ध्वनि उठिल सब स्वर्ग-मर्त्य भरि' ।। १९८॥
भोजन करने के बाद सारे वैष्णव हरि हरि की ध्वनि करते हुए उठ खड़े हुए। यह हरि-ध्वनि सभी उच्चलोकों तथा निम्नलोकों में भर गई।
तबे महाप्रभु सब निज-भक्त-गणे ।। सबकारे श्री-हस्ते दिला माल्य-चन्दने ॥
१९९॥
इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने सारे भक्त संगियों को अपने हाथ से फूल-मालाएँ तथा चन्दन-लेप प्रदान किया।
तबे परिवेशक स्वरूपादि सात जन ।। गृहेर भितरे कैल प्रसाद भोजन ॥
२००॥
प्रसाद वितरण में लगे स्वरूप दामोदर आदि सात भक्तों ने इसके बाद कमरे के भीतर भोजन किया।
प्रभुर अवशेष गोविन्द राखिल धरिया । सेइ अन्न हरिदासे किछु दिल लञा ॥
२०१॥
गोविन्द ने महाप्रभु द्वारा छोड़े गये कुछ शेष प्रसाद को सावधानी से रख लिया और बाद में इसमें से कुछ अंश हरिदास ठाकुर को लाकर दे दिया।
भक्त-गण गोविन्द-पाश किछु मागि' निल ।। सेइ प्रसादान्न गोविन्द आपनि पाइल ॥
२०२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के उच्छिष्ट प्रसाद को बाद में उन भक्तों में वितरित किया गया, जिन्होंने याचना की और फिर जो कुछ बचा उसे स्वयं गोविन्द ने खाया।
स्वतन्त्र ईश्वर प्रभु करे नाना खेला ।। ‘धोया-पाखला' नाम कैल एइ एक लीला ॥
२०३। परम स्वतन्त्र भगवान् नाना प्रकार की लीलाएँ करते हैं। गुण्डिचा मन्दिर की धुलाई और सफाई उनमें से केवल एक है।
आर दिने जगन्नाथेर 'नेत्रोत्सव' नाम ।। महोत्सव हैल भक्तेर प्राण-समान ॥
२०४॥
अगले दिन नेत्रोत्सव मनाया गया। यह महोत्सव भक्तों के प्राणों के समान था।
पक्ष-दिन दुःखी लोक प्रभुर अदर्शने ।। दर्शन करिया लोक सुख पाइल मने ॥
२०५॥
एक पखवाड़े तक सारे लोग भगवान जगन्नाथ का दर्शन न पाने से दु:खी थे। किन्तु इस उत्सव में भगवान् का दर्शन करके भक्तगण परम प्रसन्न थे।
महाप्रभु सुखे लञा सब भक्त-गण ।। जगन्नाथ-दरशने करिला गमन ॥
२०६॥
। इस अवसर पर सारे भक्तों को अपने साथ लेकर महाप्रभु ने आनन्दपूर्वक मन्दिर में भगवान् का दर्शन किया।
आगे काशीश्वर यायं लोक निवारिया ।। पाछे गोविन्द ग्राय जल-करङ्ग लञा ॥
२०७॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु मन्दिर में दर्शन करने गये, तो काशीश्वर उनके आगे-आगे चलकर भीड़ को रोक रहा था और पीछे-पीछे गोविन्द था, जो जल से भरा संन्यासी को कमण्डलु लिए हुए था।
प्रभुर आगे पुरी, भारती, मुँहार गमन । ।स्वरूप, अद्वैत, मुँहेर पार्थे दुइ-जन ॥
२०८॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु मन्दिर की ओर जा रहे थे, तो परमानन्द पुरी तथा ब्रह्मानन्द भारती उनके आगे-आगे चल रहे थे और स्वरूप दामोदर तथा अद्वैत आचार्य उनके अगल-बगल चल रहे थे।
पाछे पाछे चलि' ग्राय आर भक्त-गण ।। उत्कण्ठाते गेला सब जगन्नाथ-भवन ॥
२०९॥
अन्य सारे भक्त परम उत्सुकता के साथ महाप्रभु के पीछे-पीछे जगन्नाथजी के मन्दिर में गये।
दर्शन-लोभेते करि' मर्यादा लङ्घन ।।भोग-मण्डपे ग्राञा करे श्री-मुख दर्शन ॥
२१०॥
उन सबने भगवान् का दर्शन करने की परम उत्सुकता के कारण विधि-विधानों की उपेक्षा कर दी और भगवान् के मुख का दर्शन करने के लिए ही वे सभी भोग-मन्दिर में गये।
तृषार्त प्रभुर नेत्र--भ्रमर-युगल ।।गाढ़ तृष्णाय पिये कृष्णेर वदन-कमल ॥
२११॥
श्री चैतन्य महाप्रभु भगवान् का दर्शन करने के लिए अत्यन्त प्यासे थे, अतः उनके दोनों नेत्र उन दो भौरों के तुल्य बन गये, जो साक्षात् कृष्णस्वरूप भगवान जगन्नाथ के कमलव नेत्रों के मधु का पान कर रहे थे ।
प्रफुल्ल-कमल जिनि' नयन-युगल ।। नीलमणि-दर्पण-कान्ति गण्ड झलमल ॥
२१२॥
भगवान् जगन्नाथ की आँखें प्रफुल्लित कमलों के सौन्दर्य को जीतने वाली और उनकी गर्दन नीलमणि से बने दर्पण की तरह कान्तियुक्त थी।
बान्धुलीर फुल जिनि' अधर सुरङ्ग।ईषत् हसित कान्ति–अमृत-तरङ्ग ॥
२१३ ॥
भगवान् की ठुड्डी लाल रंग से रंगी थी, जो बान्धुली फूल की शोभा को मात करने वाली थी। इससे उनके मन्द हास की सुन्दरता बढ़ गई, जो अमृत की चमकीली तरंगों के समान थी।
श्री-मुख-सुन्दर-कान्ति बाढ़ क्षणे क्षणे ।।कोटि-भक्त-नेत्र-भृङ्ग करे मधु-पाने ॥
२१४॥
उनके सुन्दर मुख की कान्ति प्रतिक्षण बढ़ती जा रही थी और करोड़ों भक्तों के नेत्र भौरों के तुल्य उसका मधुपान कर रहे थे।
ग्रत पिये तत तृष्णा बाढ़े निरन्तर ।।मुखाम्बुज छाड़ि' नेत्र ना ग्राय अन्तर ॥
२१५ ॥
ज्यों-ज्यों उनके नेत्र भगवान् के कमल-मुख का अमृततुल्य मधु पी रहे थे, त्यों-त्यों उनकी प्यास बढ़ती जा रही थी। इस तरह उनकी आँखें उन्हें छोड़ नहीं पा रही थीं।
एइ-मत महाप्रभु लञा भक्त-गण । मध्याह्न पर्यन्त कैल श्री-मुख दरशन ॥
२१६॥
इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनके भक्तों ने जगन्नाथजी के मुख का दर्शन करके दिव्य आनन्द प्राप्त किया। ऐसा दोपहर तक चलता रहा।
स्वेद, कम्प, अश्रु-जल वहे सर्व-क्षण । दर्शनेर लोभे प्रभु करे संवरण ॥
२१७॥
हमेशा की तरह चैतन्य महाप्रभु के शरीर में दिव्य आनन्द के लक्षण प्रकट हो आये। उन्हें पसीना हो आया और वे काँपने लगे। उनके नेत्रों से । लगातार अश्रु की धारा बहने लगी। किन्तु महाप्रभु ने इन आँसुओं को रोका, जिससे भगवान् का मुख देखने में बाधा न पहुँचे।
मध्ये मध्ये भोग लागे, मध्ये दरशन ।।भोगेर समये प्रभु करेन कीर्तन ॥
२१८॥
जब-जब भोग लगाया जाता, केवल तब ही भगवान जगन्नाथ का मुख-दर्शन करने में बाधा पहुँचती थी। इसके बाद वे पुनः उनका मुख देखने लगते। जब भगवान् को भोग अर्पित किया जाता, तो श्री चैतन्य महाप्रभु कीर्तन करने लगते।।
दर्शन-आनन्दे प्रभु सब पासरिला ।। भक्त-गण मध्याह्न करिते प्रभुरे ला गेला ॥
२१९॥
भगवान् जगन्नाथ के मुख का दर्शन करके परम आनन्द का अनुभव करने से श्री चैतन्य महाप्रभु सब कुछ भूल गये। किन्तु भक्तगण उन्हें दोपहर के समय भोजन कराने ले गये।
प्रात:-काले रथ-यात्रा हबेक जानिया ।।सेवक लागाय भोग द्विगुण करिया ॥
२२०॥
यह जानते हुए कि रथयात्रा प्रात:काल शुरू होगी, जगन्नाथजी के सारे सेवकों ने चढ़ाये जाने वाले भोजन की मात्रा दुगुनी कर दी।
गुण्डिचा-मार्जन-लीला सङ्क्षेपे कहिले ।ग्राहा देखि' शुनि' पापीर कृष्ण-भक्ति हैल ॥
२२१॥
मैंने गुण्डिचा मन्दिर के धोने और साफ करने की महाप्रभु की लीला का संक्षिप्त वर्णन किया है। इन लीलाओं को देखकर अथवा सुनकर पापी व्यक्तियों में भी कृष्ण-भक्ति जाग्रत हो सकती है।
श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश ।।चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
२२२॥
श्री रूप और श्री रघुनाथ के चरणकमलों की वन्दना करते हुए और सदैव उनकी कृपा की कामना करते हुए मैं कृष्णदास उन्हीं के पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए श्रीचैतन्य-चरितामृत कह रहा हूँ।
अध्याय तेरह: रथयात्रा में भगवान का परमानंद नृत्य
स जीयाकृष्ण-चैतन्यः श्री-रथाग्रे ननर्त ग्रः ।।ग्रेनासीज्जगतां चित्रं जगन्नाथोऽपि विस्मितः ॥
१॥
श्री जगन्नाथ के रथ के समक्ष नृत्य वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण चैतन्य की जय हो! उनके नृत्य को देखकर न केवल सारा ब्रह्माण्ड चकित था, अपितु स्वयं भगवान जगन्नाथ भी अत्यधिक चकित हो गये।
जय जय श्री-कृष्ण-चैतन्य नित्यानन्द ।।जयाद्वैत-चन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ॥
२॥
श्रीकृष्ण चैतन्य तथा प्रभु नित्यानन्द की जय हो! अद्वैतचन्द्र की जय हो! चैतन्य महाप्रभु के सारे भक्तों की जय हो! जय श्रोती-गण, शुन, करि' एक मन ।।रथ-यात्रीय नृत्य प्रभुर परम मोहन ॥
३ ॥
श्री चैतन्य-चरितामृत के श्रोताओं की जय हो! अब कृपा करके ग्थयात्रा उत्सव के समय श्री चैतन्य महाप्रभु के नृत्य का विवरण सुनें। उनका नृत्य अत्यन्त मनोहारी है। कृपा करके इसे ध्यानपूर्वक सुनें।
आर दिन महाप्रभु ही सावधान ।। रात्रे उठि' गण-सङ्गे कैल प्रातः-स्नान ॥
४॥
अगले दिन श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनके निजी संगी अँधेरे में ही जग गये और उन्होंने ध्यानपूर्वक प्रात:कालीन स्नान किया।
पाण्डु-विजय देखिबारे करिले गमन ।। जगन्नाथ यात्रा कैल छाड़ि' सिंहासन ॥
५॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु अपने संगियों समेत पाण्डुविजय उत्सव देखने गये। इस उत्सव में भगवान जगन्नाथ अपना सिंहासन छोड़कर रथ पर चढ़ते हैं।
आपनि प्रतापरुद्र लञा पात्र-गण।महाप्रभुर गणे कराय विजय-दर्शन ॥
६॥
राजा प्रतापरुद्र तथा उनके संगियों ने श्री चैतन्य महाप्रभु के समस्त संगियों को पाण्डुविजय उत्सव देखने की अनुमति प्रदान की।
अद्वैत, निताई आदि सङ्गे भक्त-गण ।सुखे महाप्रभु देखे ईश्वर-गमन ॥
७॥
श्री चैतन्य महाप्रभु तथा अद्वैत आचार्य, नित्यानन्द प्रभु इत्यादि अन्य प्रमुख भक्त यह देखकर परम सुखी थे कि भगवान जगन्नाथ किस तरह रथयात्रा शुरू करने जा रहे हैं।
बलिष्ठ दयिता' गण—ग्रेन मत्त हाती । जगन्नाथ विजय कराय करि' हाताहाति ॥
८॥
बलिष्ठ दयिता ( जगन्नाथ अर्चाविग्रह को ले जाने वाले ) मत्त हाथियों के समान शक्तिशाली थे। वे भगवान् जगन्नाथ को हाथोंहाथ सिंहासन से रथ तक ले गये।।
कतक दयिता करे स्कन्ध आलम्बन । कतक दयिता धरे श्री-पद्म-चरण ॥
९॥
भगवान जगन्नाथ के अर्चाविग्रह को ले जाते समय कुछ दयिताओं ने उनके कन्धे पकड़े और कुछ ने उनके चरणकमल पकड़ लिए।
कटि-तटे बद्ध, दृढ़ स्थूल पट्ट-डोरी ।। दुइ दिके दयिता-गण उठाय ताहा धरि' ॥
१०॥
जगन्नाथजी के अर्चाविग्रह की कमर पर मजबूत मोटी रेशम की रस्सी । बाँधी गई। दयिताओं ने दोनों ओर से इस रस्सी को पकड़ लिया और अर्चाविग्रह को ऊपर उठा लिया।
उच्च दृढ़ तुली सब पाति' स्थाने स्थाने ।। एक तुली हैते त्वराय आर तुलीते आने ॥
११ ॥
सिंहासन से लेकर रथ तक धुनी रुई के मजबूत गद्दे ( तुली ) बिछा दिये गये और जगन्नाथजी का भारी अर्चाविग्रह दयिताओं द्वारा एक गद्दे ॥
दूसरे गद्दे तक ले जाया गया।
प्रभु-पदाघाते तुली हय खण्ड खण्ड ।तुला सेब उड़ि' याय, शब्द हय प्रचण्ड ॥
१२॥
जब दयितागण जगन्नाथजी के भारी अर्चाविग्रह को एक गद्दे से दूसरे तक ले जा रहे थे, तब कुछ गद्दे टूट गये और उनकी रुई हवा में उड़ने लगी। इन गद्दों के टूटने से पटाखे जैसा प्रचण्ड शब्द हुआ।
"text":"विश्वम्भर जगन्नाथ की चालति परे। आपना इच्छाया चले करते विहारी।।१३॥
भगवान जगन्नाथ पूरे ब्रह्मांड के अनुचर हैं। उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर कौन ले जा सकता है? प्रभु अपने चाह द्वारा चलते हैं, बस उनकी लीलाएँ करने के लिए।"
महाप्रभु 'मणिमा' ‘मणिमा' करे ध्वनि ।।नाना-वाद्य-कोलाहले किछुइ ना शुनि ॥
१४॥
जब भगवान् को सिंहासन से रथ तक ले जाये जा रहे थे, तब विविध वाद्य-यंत्रों से तुमुल ध्वनि हो रही थी और श्री चैतन्य महाप्रभु मणिमा! मणिमा! का उच्चारण कर रहे थे किन्तु उनकी आवाज किसी को सुनाई। नहीं दे रही थी।
तबे प्रतापरुद्र करे आपने सेवन । ।सुवर्ण-मार्जनी लजा करे पथ सम्मार्जन ॥
१५॥
जब भगवान् को सिंहासन से रथ तक ले जाये जा रहे थे, तब राजा प्रतापरुद्र हाथ में सुनहरी मूठ वाली झाड़ लिए भगवान् की सेवा हेतु मार्ग की सफाई करने में व्यस्त थे।
चन्दन-जलेते करे पथ निषेचने ।।तुच्छ सेवा करे वसि' राज-सिंहासने ॥
१६॥
राजा ने मार्ग पर चन्दन से सुगन्धित जल का छिड़काव किया। यद्यपि में राज सिंहासन के स्वामी थे, किन्तु भगवान जगन्नाथ के लिए तुच्छ सेवा में लगे हुए थे।
उत्तम हा राजा करे तुच्छ सेवन ।।अतएव जगन्नाथेर कृपार भाजन ॥
१७॥
यद्यपि राजा अत्यन्त सम्मानित व्यक्ति थे, फिर भी भगवान् के लिए में तुच्छ सेवा कर रहे थे। अतएव वे भगवान् की कृपा प्राप्त करने के अपयुक्त पात्र बन गये।
महाप्रभु सुख पाइल से-सेवा देखिते ।महाप्रभुर कृपा हैल से-सेवा हइते ॥
१८॥
राजा को ऐसी तुच्छ सेवा में संलग्न देखकर चैतन्य महाप्रभु अत्यन्त प्रसन्न हुए। यह सेवा करने से ही राजा को महाप्रभु की कृपा प्राप्त हो पाई।
रथेर साजनि देखि' लोके चमत्कार ।। नव हेममय रथ—सुमेरु-आकार ॥
१९॥
रथ की सजावट देखकर हर व्यक्ति आश्चर्यचकित था। रथ नये सिरे में सोने का बना लग रहा था और सुमेरु पर्वत जितना ऊँचा था।
शत शत सु-चामर-दर्पणे उज्वल । उपरे पताका शोभे चाँदोया निर्मल ॥
२० ॥
इस सजावट में चमकीले शीशे तथा सैंकड़ों चामर थे। रथ के ऊपर स्वच्छ छत्र तथा एक अत्यन्त सुन्दर झंडा था।
घाघर, किङ्किणी बाजे, घण्टार क्वणित । नाना चित्र-पट्ट-वस्त्रे रथ विभूषित ॥
२१॥
रथ को रेशमी वस्त्र तथा विविध चित्रों से भी सजाया गया था। अनेक पितल के घंटे, घड़ियाल तथा धुंघरू बज रहे थे।
लीलाय चड़िल ईश्वर रथेर उपर ।। आर दुइ रथे चड़े सुभद्रा, हलधर ॥
२२॥
भगवान जगन्नाथ रथयात्रा-लीला के लिए एक रथ पर चढ़े और उनकी बहन सुभद्रा तथा बड़े भाई बलराम अन्य दो रथों पर आरूढ़ हुए।
पञ्च-दश दिन ईश्वर महा-लक्ष्मी ला ।।ताँर सङ्गे क्रीड़ा कैल निभृते वसिया ॥
२३ ॥
भगवान् पन्द्रह दिनों तक महालक्ष्मी के साथ एकान्त स्थान में रहे और उनके साथ क्रीड़ा-विहार किया।
ताँहार सम्मति ला भक्ते सुख दिते ।।रथे चड़ि' बाहिर हैल विहार करिते ॥
२४॥
महालक्ष्मी की अनुमति लेकर भगवान् रथ पर चढ़ने और भक्तों के आनन्द हेतु अपनी लीलाएँ करने के लिए बाहर आये।
सूक्ष्म श्वेत-बालु पथे पुलिनेर सम ।।दुइ दिके टोटा, सब—ग्रेन वृन्दावन ॥
२५॥
सारे मार्ग में बिछी महीन श्वेत बालू यमुना-तट के समान लग रही थी। और दोनों ओर के छोटे-छोटे बगीचे वृन्दावन के बगीचों जैसे लग रहे थे।
रथे चड़ि' जगन्नाथ करिला गमन ।दुइ-पाश्चै देखि चले आनन्दित-मन ॥
२६॥
जब भगवान जगन्नाथ रथ पर चढ़ गये और उन्होंने दोनों ओर के मौन्दर्य को निहारा, तो उनका मन आनन्द से भर गया।
‘गौड़' सब रथ टाने करिया आनन्द ।।क्षणे शीघ्र चले रथ, क्षणे चले मन्द ॥
२७॥
रथ को खींचने वाले गौड़ कहलाते थे और वे रथ को अतीव आनन्द से खींच रहे थे। किन्तु यह रथ कभी तो बहुत तेज चलता था और कभी अत्यन्त मन्द हो जाता था।
क्षणे स्थिर हआ रहे, टानिलेह ना चले । ईश्वर-इच्छाय चले, ना चले कारो बले ॥
२८॥
कभी रथ स्थिर हो जाता और टस से मस न होता, भले ही इसे कितने ही जोर से क्यों न खींचा जाता। अतः यह रथ भगवान् की इच्छा से चल रहा था, किसी सामान्य व्यक्ति की शक्ति से नहीं।
तबे महाप्रभु सब लञा भक्त-गण ।। स्वहस्ते पराइल सबे माल्य-चन्दन ॥
२९॥
जब रथ स्थिर हो गया, तो महाप्रभु ने अपने सारे भक्तों को एकत्र किया और उन्हें अपने हाथों से फूलों की माला तथा चन्दन से सजाया।
परमानन्द पुरी, आर भारती ब्रह्मानन्द ।।श्री-हस्ते चन्दन पाञा बाड़िल आनन्द ॥
३०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने हाथों से परमानन्द पुरी तथा ब्रह्मानन्द भारती को मालाएँ तथा चन्दन प्रदान किया। इससे उनका दिव्य आनन्द बढ़ गया।
अद्वैत-आचार्य, आर प्रभु-नित्यानन्द ।।श्री-हस्त-स्पर्शे ढुंहार हइल आनन्द ॥
३१॥
इसी तरह जब अद्वैत आचार्य तथा नित्यानन्द प्रभु को श्री चैतन्य महाप्रभु के दिव्य हाथों का स्पर्श प्राप्त हुआ, तो वे दोनों अत्यन्त प्रसन्न कीर्तनीया-गणे दिल माल्य-चन्दन ।।स्वरूप, श्रीवास,—याहाँ मुख्य दुइ-जन ॥
३२॥
महाप्रभु ने संकीर्तन करने वालों को भी मालाएँ तथा चन्दन दिया। दो मुख्य कीर्तनिये थे-स्वरूप दामोदर तथा श्रीवास ठाकुर।
चारि सम्प्रदाये हैल चब्बिश गायन ।दुइ दुइ मार्दङ्गिक हैल अष्ट जन ॥
३३॥
कीतर्न करने वालों की कुल चार टोलियाँ थीं, जिनमें कुल चौबीस कीर्तनिये थे। प्रत्येक टोली में दो-दो मृदंगवादक थे, जिससे आठ अतिरिक्त व्यक्ति हो गये।
तबे महाप्रभु मने विचार करिया ।।चारि सम्प्रदाय दिल गायन बाँटिया ॥
३४॥
जब चार टोलियाँ बन गईं, तो थोड़ा-सा विचार करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने कीर्तनियों को बाँट दिया।
नित्यानन्द, अद्वैत, हरिदास, वक्रेश्वरे ।। चारि जने आज्ञा दिल नृत्य करिबारे ॥
३५॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने नित्यानन्द प्रभु, अद्वैत आचार्य, हरिदास ठाकुर तथा वक्रेश्वर पण्डित को आज्ञा दी कि वे चारों टोलियों में से प्रत्येक में जाकर नृत्य करें।
प्रथम सम्प्रदाये कैल स्वरूप प्रधान ।। आर पञ्च-जन दिल ताँर पालिगान ॥
३६॥
स्वरूप दामोदर को पहली टोली का अगुवा चुना गया और उन्हें पाँच महायक दिये गये, जो उनके कीर्तन को दुहरायें।
दामोदर, नारायण, दत्त गोविन्द ।। राघव पण्डित, आर श्री गोविन्दानन्द ॥
३७॥
जो पाँच जन स्वरूप दामोदर के गाने को दुहराते थे, वे थे दामोदर पण्डित, नारायण, गोविन्द दत्त, राघव पण्डित तथा श्री गोविन्दानन्द।
अद्वैतेरे नृत्य करिबारे आज्ञा दिल ।।श्रीवास-प्रधान आर सम्प्रदाय कैल ॥
३८॥
अद्वैत आचार्य प्रभु को पहली टोली में नृत्य करने के लिए आदेश मिला। तब महाप्रभु ने एक अन्य टोली बनाई, जिसके प्रधान व्यक्ति हुए श्रीवास ठाकुर।
गङ्गादास, हरिदास, श्रीमान्, शुभानन्द ।।श्री-राम पण्डित, ताहाँ नाचे नित्यानन्द ॥
३९॥
श्रीवास ठाकुर के गाने को दोहराने वाले पाँच गायक थे-गंगादास, हरिदास, श्रीमान्, शुभानन्द तथा श्रीराम पण्डित। श्री नित्यानन्द प्रभु को वर्तक नियुक्त किये गये।
वासुदेव, गोपीनाथ, मुरारि ग्राहाँ गाय ।।मुकुन्द-प्रधान कैल आर सम्प्रदाय ॥
४०॥
एक अन्य टोली भी बना ली गई जिसमें वासुदेव, गोपीनाथ तथा गरि थे। ये सब दुहराने वाले गायक थे और मुकुन्द प्रधान गायक थे।
श्रीकान्त, वल्लभ-सेन आर दुई जन ।।हरिदास-ठाकुर ताहाँ करेन नर्तन ॥
४१॥
श्रीकान्त तथा वल्लभसेन नामक दो अन्य व्यक्ति दुहराने वाले गवैयों ६) माथ हो लिए। इस टोली के नर्तक थे ज्येष्ठ हरिदास ( हरिदास ठाकुर)।
गोविन्द-घोष—प्रधान कैल आर सम्प्रदाय ।।हरिदास, विष्णुदास, राघव, ग्राहाँ गाय ॥
४२॥
महाप्रभु ने एक अन्य टोली बनाई, जिसके अगुवा गोविन्द धोष नियुक्त किये गये। इस टोली में छोटा हरिदास, विष्णुदास तथा राघव दुहराने वाले गवैये थे।
माधव, वासुदेव-घोष, दुइ सहोदर ।।नृत्य करेन ताहाँ पण्डित-वक्रेश्वर ॥
४३॥
माधव घोष तथा वासुदेव घोष नामक दोनों भाई भी इस टोली में दुहराने वालों में सम्मिलित हो गये। वक्रेश्वर पण्डित इसके नर्तक थे।
कुलीन-ग्रामेर एक कीर्तनीया-समाज ।।ताहाँ नृत्य करेन रामानन्द, सत्यराज ॥
४४॥
कुलीन-ग्राम नामक गाँव की एक कीर्तनियों की टोली थी, जिसमें रामानन्द तथा सत्यराज नर्तक के रूप में नियुक्त किये गये।
शान्तिपुरेर आचार एक सम्प्रदाय ।।अच्युतानन्द नाचे तथा, आर सब गाय ॥
४५ ॥
शान्तिपुर की भी एक टोली थी, जिसे अद्वैत आचार्य ने बनाई थी। अच्युतानन्द इसके नर्तक थे और शेष लोग गवैये थे।
खण्डेर सम्प्रदाय करे अन्यत्र कीर्तन ।।नरहरि नाचे ताहाँ श्री-रघुनन्दन ॥
४६॥
खण्ड के लोगों ने एक अन्य टोली बनाई थी। ये लोग एक भिन्न स्थान पर गा रहे थे। इस दल में नरहरि प्रभु तथा रघुनन्दन नाच रहे थे।
जगन्नाथेर आगे चारि सम्प्रदाय गाय ।।दुई पाशे दुइ, पाछे एक सम्प्रदाय ॥
४७॥
चार टोलियाँ भगवान जगन्नाथ के सामने कीर्तन कर रही थीं और नाच रही थीं। उनके दोनों ओर दो अन्य टोलियाँ थीं। पीछे भी एक टोली थी।
सात सम्प्रदाये बाजे चौद्द मादल ।। ग्रार ध्वनि शुनि' वैष्णव हैल पागल ॥
४८॥
कुल मिलाकर सात संकीर्तन टोलियाँ थीं और प्रत्येक टोली में दो व्यक्ति ढोल नगाड़े बजा रहे थे। इस प्रकार एकसाथ चौदह ढोल बज रहे। थे। इनकी ध्वनि इतनी कोलाहलपूर्ण थी कि सारे भक्त पागल हो गये।
वैष्णवेर मेघ-घटाय हइल बादल । कीर्तनानन्दे सब वर्षे नेत्र-जल ॥
४९॥
सारे वैष्णव बादलों के समूह की तरह एकसाथ आये। जब भक्तों ने अत्यन्त भावपूर्वक नाम-कीर्तन किया, तो उनकी आँखों से आँसू गिरने लगे मानों आँखों से वर्षा हो रही हो।
त्रिभुवन भरि' उठे कीर्तनेर ध्वनि । अन्य वाद्यादिर ध्वनि किछुइ ना शुनि ॥
५०॥
जब संकीर्तन की प्रतिध्वनि हुई, तो उससे तीनों लोक भर गये। तब किसी को संकीर्तन के अतिरिक्त किसी बाजे की ध्वनि या अन्य ध्वनि नहीं सुनाई देती थी।
सात ठाजि बुले प्रभु 'हरि' ‘हरि' बलि' ।। ‘जय जगन्नाथ', बलेन हस्त-युग तुलि' ॥
५१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु हरि!, हरि! उच्चारण करते हुए सातों दलों में Hधरण कर रहे थे। वे अपने दोनों हाथ उठाकर जोर से बोले “जय जगन्नाथ! आर एक शक्ति प्रभु करिल प्रकाश । एक-काले सात ठात्रि करिल विलास ॥
५२॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने एक ही साथ सभी सातों टोलियों में लीलाएँ सम्पन्न करके अपनी अन्य योगशक्ति का परिचय दिया।
सबे कहे,—-प्रभु आछेन मोर सम्प्रदाय ।।अन्य ठाजि नाहि ग्रा'न आमारे दयाय ॥
५३॥
हर एक ने कहा, श्री चैतन्य महाप्रभु मेरी टोली में उपस्थित हैं। वे अन्यत्र कहीं नहीं जाते। वे हम सब पर कृपा की वृष्टि कर रहे हैं।
केह लखिते नारे प्रभुर अचिन्त्य-शक्ति ।।अन्तरङ्ग-भक्त जाने, याँर शुद्ध-भक्ति ॥
५४॥
वास्तव में कोई भी महाप्रभु की अचिन्त्य शक्ति को देख नहीं सका। केवल सर्वाधिक अन्तरंग भक्त ही, जो शुद्ध अनन्य भक्ति में स्थित थे, समझ सके।
कीर्तन देखिया जगन्नाथ हरषित ।।सङ्कीर्तन देखे रथ करिया स्थगित ॥
५५॥
भगवान जगन्नाथ संकीर्तन से अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने कीर्तन देखने के लिए ही अपने रथ को खड़ा कर दिया।
प्रतापरुद्रेर हैल परम विस्मय ।।देखिते विवश राजा हैल प्रेममय ॥
५६॥
राजा प्रतापरुद्र भी संकीर्तन देखकर विस्मित हो गये। वे निष्क्रिय हो गये और कृष्ण के भावप्रेम में रूपान्तरित हो गये।
काशी-मिश्रे कहे राजा प्रभुर महिमा ।।काशी-मिश्र कहे,—तोमार भाग्येर नाहि सीमा ॥
५७॥
जब राजा ने काशी मिश्र से महाप्रभु की महिमा के विषय में बतलाया, तो काशीमिश्र ने उत्तर दिया, हे राजा, आपके भाग्य की सीमा नहीं है।
सार्वभौम-सङ्गे राजा करे ठाराठारि ।आर केह नाहि जाने चैतन्येर चुरि ॥
५८॥
राजा तथा सार्वभौम भट्टाचार्य दोनों ही महाप्रभु की लीला से अवगत थे, किन्तु श्री चैतन्य महाप्रभु की युक्तियों को अन्य कोई नहीं देख सकता था।
यारे ताँर कृपा, सेइ जानिबारे पारे ।कृपा विना ब्रह्मादिक जानिबारे नारे ॥
५९॥
उन्हें केवल वही समझ सकता है, जिसे महाप्रभु की कृपा प्राप्त हो चुकी हो। महाप्रभु की कृपा के बिना ब्रह्मादिक देवतागण तक नहीं समझ सकते।
राजार तुच्छ सेवा देखि' प्रभुर तुष्ट मन । सेइ त' प्रसादे पाइल 'रहस्य-दर्शन' ॥
६०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु राजा को मार्ग की सफाई जैसा तुच्छ कार्य करते देखकर अत्यन्त प्रसन्न थे। राजा ने इसी दीनता के कारण श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा प्राप्त की। अतएव वे श्री चैतन्य महाप्रभु के कार्यों के रहस्य को देख सकते थे।
साक्षाते ना देय देखा, परोक्षे त' दया ।के बुझिते पारे चैतन्य-चन्द्रेर माया ॥
६१॥
यद्यपि राजा को मिलने से मना कर दिया गया था, किन्तु अप्रत्यक्ष रूप से उन पर अहैतुकी कृपा प्रदान की गई थी। भला श्री चैतन्य महाप्रभु की अन्तरंगा शक्ति को कौन समझ सकता है? सार्वभौम, काशी-मिश्र, दुइ महाशय ।राजारे प्रसाद देखि' हइला विस्मय ॥
६२॥
जब सार्वभौम भट्टाचार्य तथा काशी मिश्र महोदयों ने राजा के ऊपर महाप्रभु की अहैतुकी कृपा देखी, तो वे चकित रह गये।
एइ-मत लीला प्रभु कैल कत-क्षण । आपने गायेन, नाचान निज-भक्त-गण ॥
६३ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कुछ समय तक अपनी लीलाएँ इसी प्रकार से कीं। वे स्वयं गा रहे थे और उन्होंने अपने संगियों को नाचने के लिए प्रेरित किया।
कभु एक मूर्ति, कभु हन बहु-मूर्ति ।।कार्य-अनुरूप प्रभु प्रकाशये शक्ति ॥
६४॥
महाप्रभु अपनी आवश्यकता के अनुसार कभी एक रूप प्रदर्शित करते, तो कभी अनेक। ऐसा उनकी अन्तरंगा शक्ति द्वारा सम्पन्न हो रहा था।
लीलावेशे प्रभुर नाहि निजानुसन्धान ।। इच्छा जानि'लीला शक्ति' करे समाधान ॥
६५॥
महाप्रभु अपनी दिव्य लीलाओं के दौरान अपने आपको भूल गये, किन्तु उनकी अन्तरंगा शक्ति ( लीला शक्ति ) ने उनके मनोभावों को जानते हुए सारी व्यवस्था कर दी।
पूर्वे ट्रैछे रासादि लीला कैल वृन्दावने ।।अलौकिक लीला गौर कैल क्षणे क्षणे ॥
६६॥
जिस तरह पूर्वकाल में श्रीकृष्ण ने वृन्दावन में रासलीला तथा अन्य नीनाएँ की थीं, उसी तरह श्री चैतन्य महाप्रभु प्रतिक्षण अलौकिक लीलाएँ का रहे थे।
भक्त-गण अनुभवे, नाहि जाने आन ।। श्री-भागवत-शास्त्र ताहाते प्रमाण ॥
६७॥
केवल शुद्ध भक्तगण ही महाप्रभु को रथयात्रा के रथ के समक्ष नृत्य करने की अनुभूति कर सकते थे। अन्य लोग इसे नहीं समझ सके। भगवान् श्रीकृष्ण के विलक्षण नृत्य का वर्णन श्रीमद्भागवत में मिलता है।
एइ-मत महाप्रभु करे नृत्य-रङ्गे।।भासाइल सब लोक प्रेमेर तरङ्गे ॥
६८ ॥
इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने परम प्रसन्न होकर नृत्य किया और प्रेम की तरंगों से सारे लोगों को आप्लावित कर दिया।
एइ-मत हैल कृष्णेर रथे आरोहण ।। तार आगे प्रभु नाचाइल भक्त-गण ॥
६९॥
इस तरह भगवान् अपने जगन्नाथ रथ पर आरूढ़ हुए और श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने सारे भक्तों को रथ के समक्ष नाचने के लिए प्रोत्साहित किया।
आगे शुन जगन्नाथेर गुण्डिचा-गमन ।। तार आगे प्रभु प्रैछे करिला नर्तन ॥
७० ॥
आप कृपा करके वह वृतान्त सुनिये, जिस समय भगवान जगन्नाथ 10डचा मन्दिर जा रहे थे और महाप्रभु रथ के समक्ष नृत्य कर रहे थे।
एइ-मत कीर्तन प्रभु करिल कत-क्षण ।।आपन-उद्योगे नाचाइल भक्त-गण ॥
७१॥
महाप्रभु ने कुछ समय तक कीर्तन किया और अपने प्रयास से सारे भक्तों को नाचने के लिए प्रेरित किया।
आपनि नाचिते ग्रबे प्रभुर मन हैल ।।सात सम्प्रदाथ तबे एकत्र करिल ॥
७२॥
जब महाप्रभु का मन नाचने को हुआ, तो सातों टोलियाँ आकर मिल गईं।
श्रीवास, रामाइ, रघु, गोविन्द, मुकुन्द ।।हरिदास, गोविन्दानन्द, माधव, गोविन्द ॥
७३॥
श्रीवास, रामाइ, रघु, गोविन्द, मुकुन्द, हरिदास, गोविन्दानन्द, माधव तथा गोविन्द इत्यादि महाप्रभु के सभी भक्त इकट्टे हो गये।
उद्दण्ड-नृत्ये प्रभुर ग्रबे हैल मन ।।स्वरूपेर सङ्गे दिल एइ नव जन ।। ७४।। जब श्री चैतन्य महाप्रभु का ऊँचे कूदते हुए नृत्य करने का मन हुआ, तो उन्होंने इन नौ लोगों को स्वरूप दामोदर के अधीन कर दिया।
एइ दश जन प्रभुर सङ्गे गाय, धाय ।। आर सब सम्प्रदाय चारि दिके गाय ॥
७५ ।। ये भक्त (स्वरूप दामोदर तथा उनके अधीनस्थ भक्त) महाप्रभु के साथ-साथ गाते थे और उन्हीं के साथ दौड़ते भी थे। भक्तों के अन्य समूह भी गाते थे।
दण्डवत्करि, प्रभु गुड़ि' दुइ हात ।। ऊर्ध्व-मुखे स्तुति करे देखि' जगन्नाथ ॥
७६ ॥
महाप्रभु ने हाथ जोड़कर नमस्कार करते हुए अपना मुख जगन्नाथजी की ओर उठाया और इस प्रकार प्रार्थना की।
नमो ब्रह्मण्य-देवाय गो-ब्राह्मण-हिताय च । जगद्धिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः ॥
७७ मैं उन भगवान् कृष्ण को सादर नमस्कार करता हूँ, जो समस्त ब्राह्मणों के आराध्य देव हैं, जो गायों तथा ब्राह्मणों के शुभचिन्तक हैं तथा जो सदैव सारे जगत् को लाभ पहुँचाते हैं। मैं कृष्ण तथा गोविन्द के नाम से विख्यात भगवान् को बारम्बार नमस्कार करता हूँ।तात्पर्य यह श्लोक विष्णु पुराण (१.१९.६५) से लिया गया है।
जयति जयति देवो देवकीनन्दनोऽसौ ।जयति जयति कृष्णो वृष्णि-वंश-प्रदीपः ।। जयति जयति मेघ-श्यामलः कोमलाङ्गोजयति जयति पृथ्वी-भार-नाशो मुकुन्दः ॥
७८ ॥
उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की जय हो, जो देवकी-पुत्र कहलाते। है। उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की जय हो, जो वृष्णि-वंश के दीपक हैं। अग पृर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की जय हो, जिनके शरीर की कान्ति नये दिल की तरह है और जिनका शरीर कमल के फूल के समान कोमल है। उन पृर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की जय हो, जो संसार का असुरों के भार ॥
उद्धार करने के लिए इस पृथ्वी पर प्रकट हुए हैं और जो हर एक को न दे सकते हैं।' जयति जन-निवासो देवकी-जन्म-वादोग्रदु-वर-परिषत्स्वैर्दोभिरस्यन्नधर्मम् । स्थिर-चर-वृजिन-घन: सुस्मित-श्री-मुखेनव्रज-पुर-वनितानां वर्धयन्काम-देवम् ॥
७९॥
भगवान् श्रीकृष्ण जननिवास हैं अर्थात् समस्त जीवों के परम आश्रय हैं और वे देवकीनन्दन या यशोदानन्दन भी कहलाते हैं। वे यदुवंश के मार्गदर्शक हैं और वे अपनी बलशाली भुजाओं से समस्त अशुभ वस्तुओं का तथा अपवित्र मनुष्यों का वध करते हैं। अपनी उपस्थिति से वे उन समस्त वस्तुओं का विनाश करते हैं, जो चर तथा अचर जीवों के लिए अशुभ वस्तुओं का विनाश करते हैं। उनका हँसमुख आनन्ददायक मुख वृन्दावन की गोपियों की कामेच्छाओं को बढ़ाने वाला है। वे विजयी और सुखी हों।
नाहं विप्रो न च नर-पतिर्नापि वैश्यो न शूद्रो ।नाहं वर्णी न च गृह-पतिर्ने वनस्थो तिर्वा ।। किन्तु प्रोद्यन्निखिल-परमानन्द-पूर्नामृताब्धेर् ।गोपी-भर्तुः पद-कमलयोर्दास-दासानुदासः ॥
८०॥
मैं न तो ब्राह्मण हूँ, न क्षत्रिय, न वैश्य, न ही शूद्र हूँ। न ही मैं ब्राह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ या संन्यासी हूँ। मैं तो गोपियों के भर्ता भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों के दास के दास का भी दास हूँ। वे अमृत के मागर के तुल्य हैं और विश्व के दिव्य आनन्द के कारणस्वरूप हैं। वे सदैव जोमय रहते हैं।
एत पड़ि' पुनरपि करिल प्रणाम ।झोड़-हाते भक्त-गण वन्दे भगवान् ॥
८१॥
शास्त्र के इन श्लोकों को सुनाने के बाद महाप्रभु ने पुनः नमस्कार किया और सारे भक्तों ने भी हाथ जोड़कर पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की निना की।
उद्दण्ड नृत्य प्रभु करिया हुङ्कार ।। चक्र-भ्रमि भ्रमे ग्रैछे अलात-आकार ॥
८२॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु बादलों जैसी गर्जना करते हुए और चक्र की तरह चक्कर लगाते हुए ऊँचा उछल-उछलकर नाच रहे थे, तब वे घूमते अग्निपुंज की तरह लग रहे थे।
नृत्ये प्रभुर याहाँ ग्राँहा पड़े पद-तल ।। ससागर-शैल मही करे टलमल ॥
८३॥
नाचते समय महाप्रभु जहाँ कहीं भी चरण रखते थे, पूरी धरती पर्वतों तथा समुद्रों समेत हिलती-डुलती प्रतीत हो रही थी।
स्तम्भ, स्वेद, पुलक, अश्रु, कम्प, वैवर्य ।नाना-भावे विवशता, गर्व, हर्ष, दैन्य ॥
८४॥
जब चैतन्य महाप्रभु नाच रहे थे, तब उनके शरीर में आनन्द के विविध यि विकार उत्पन्न हो उठे। कभी ऐसा लगता मानों वे जड़ हो गये हों। कभी उनके शरीर के रोंगटे खड़े हो जाते। कभी उन्हें पसीना आ जाता, कभी वे रोते, कभी वे काँपने लगते, कभी उनके शरीर का रंग बदल जाता | और कभी उनके शरीर में विवशता, गर्व, हर्ष और दैन्य के लक्षण प्रकट हो आते।
आछाड़ खाजा पड़े भूमे गड़ि' ग्राय ।।सुवर्ण-पर्वत चैछे भूमेते लोटाय ॥
८५ ॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु नाचते हुए पछाड़ खाकर गिरते तो वे भूमि ५। नीटने लगते। उस समय ऐसा प्रतीत होता मानो सुवर्ण पर्वत भूमि पर लौट रहा हो।
नित्यानन्द-प्रभु दुइ हात प्रसारिया। प्रभुरे धरिते चाहे आश-पाश धाबा ॥
८६॥
यह देखकर नित्यानन्द प्रभु अपने दोनों हाथ फैलाकर इधर-उधर दौड़ रहे महाप्रभु को पकड़ने का प्रयास करते।
प्रभु-पाछे बुले आचार्य करिया हुङ्कार ।।‘हरि-बोल' ‘हरि-बोल' बले बार बार ॥
८७॥
अद्वैत आचार्य महाप्रभु के पीछे-पीछे चलते और बारम्बार जोर-जोर से हरिबोल! हरिबोल! का उच्चारण करते।
लोक निवारिते हैल तिन मण्डले । प्रथम-मण्डले नित्यानन्द महा-बल ॥
८८॥
भीड़ को महाप्रभु के पास न आने से रोकने के लिए भक्तों ने तीन वर्तुल बना लिए थे। पहले वर्तुल का निर्देशन नित्यानन्द प्रभु कर रहे थे, जो साक्षात् बलराम अर्थात् महान् शक्ति के स्वामी हैं।
काशीश्वर गोविन्दादि यत भक्त-गण ।।हाताहाति करि' हैल द्वितीय आवरण ॥
८९॥
काशीश्वर तथा गोविन्द आदि सारे भक्तों ने एक-दूसरे का हाथ पकड़कर महाप्रभु के चारों ओर दूसरा वृत्त बना लिया।
बाहिरे प्रतापरुद्र लञा पात्र-गण ।। मण्डल हा करे लोक निवारण ॥
९०॥
महाराज प्रतापरुद्र तथा उनके निजी सहायकों ने दोनों भीतरी वर्तुलों के चारों ओर एक तीसरा वर्तुल बना लिया, जिससे भीड़ अधिक निकट न आ सके।
हरिचन्दनेर स्कन्धे हस्त आलम्बिया ।प्रभुर नृत्य देखे राजा आविष्ट हा ॥
९१॥
हरिचन्दन के कन्धों पर अपने हाथ रखकर राजा प्रतापरुद्र नृत्य करते हुए महाप्रभु का दर्शन कर सके और इससे वे अत्यधिक भावाविष्ट हो गये।
हेन-काले श्रीनिवास प्रेमाविष्ट-मन ।। राजार आगे रहि' देखे प्रभुर नर्तन ॥
९२॥
जब राजा नाच देख रहे थे, तब उनके आगे खड़े श्रीवास ठाकुर ने ज्योंही महाप्रभु को नाचते देखा, वे भावाविष्ट हो गये।
राजार आगे हरिचन्दन देखे श्रीनिवास । हस्ते ताँरे स्पर्शि' कहे,—हओ एक-पाश ॥
९३॥
श्रीवास ठाकुर को राजा के सामने खड़े देखकर हरिचन्दन ने अपने हाथ से श्रीवास को छूकर एक ओर हटने के लिए अनुरोध किया।
नृत्यावेशे श्रीनिवास किछुइ ना जाने ।। बार बार ठेले, तेंहो क्रोध हैल मने ॥
९४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु को नृत्य करते हुए देखने में मग्न होने के कारण भीवास ठाकुर यह नहीं समझ पाये कि उन्हें क्यों छुआ और धकेला जा रहा था। जब उन्हें बारम्बार धकेला गया, तो वे नाराज हो उठे।
चापड़ मारिया तारे कैल निवारण ।। चापड़ खाजा क्रुद्ध हैला हरिचन्दन ॥
९५॥
श्रीवास ठाकुर ने हरिचन्दन को झापड़ मारा, ताकि वह उन्हें धकेलना बन्द करे। इससे हरिचन्दन नाराज हो गया।
क्रुद्ध हा ताँरे किछु चाहे बलिबारे ।। आपनि प्रतापरुद्र निवारिल तारे ॥
९६।। जब क्रुद्ध हरिचन्दन श्रीवास ठाकुर से कुछ बोलने वाला था, तब प्रतापरुद्र महाराज ने खुद उसे रोका।
भाग्यवान्तुमि-इँहार हस्त-स्पर्श पाइला ।।आमार भाग्ये नाहि, तुमि कृतार्थ हैला ॥
९७॥
राजा प्रतापरुद्र ने कहा, तुम अत्यन्त भाग्यशाली हो, क्योंकि श्रीवास ठाकुर ने तुम्हें अपने स्पर्श से कृतार्थ किया है। मैं इतना भाग्यशाली नहीं। हूँ। तुम्हें उनके प्रति कृतज्ञता का अनुभव करना चाहिए।
प्रभुर नृत्य देखि' लोके हैल चमत्कार ।।अन्य आछु, जगन्नाथेर आनन्द अपार ॥
९८॥
चैतन्य महाप्रभु के नृत्य को देखकर हर व्यक्ति चकित था। यहाँ तक कि भगवान जगन्नाथ भी उन्हें देखकर अतीव प्रसन्न हुए।
रथ स्थिर कैल, आगे ना को गमन ।।अनिमिष-नेत्रे करे नृत्य दरशन ॥
९९ ।। उनका रथ पूर्णतया स्थिर हो गया और जब तक जगन्नाथ अपलक नेत्रों से श्री चैतन्य महाप्रभु का नाच देखते रहे, तब तक रथ स्थिर खड़ा हा।
सुभद्रा-बलरामेर हृदये उल्लास ।नृत्य देखि' दुइ जनार श्री-मुखेते हास ॥
१०० ॥
देवी सुभद्रा तथा भगवान् बलराम दोनों को अपने हृदयों में परम सुख तथा भाव का अनुभव हुआ। निस्सन्देह, वे नृत्य देखकर मुस्कुरा रहे थे।
उद्दण्ड नृत्ये प्रभुर अद्भुत विकार ।।अष्ट सात्त्विक भाव उदय हय सम-काल ॥
१०१॥
जब चैतन्य महाप्रभु नाच रहे थे और ऊँचे उछल रहे थे, तब उनके शरीर में आठ प्रकार के सात्त्विक भाव प्रकट हो आये। ये सारे लक्षण एकसाथ दृष्टिगोचर हो रहे थे।
मांस-व्रण सम रोम-वृन्द पुलकित ।शिमुलीर वृक्ष येन कण्टक-वेष्टित ॥
१०२॥
उनके शरीर के रोंगटे खड़े हो गये। ऐसा लगा मानो उनकी चमड़ी में फोड़े फूट निकले हों। उनका शरीर काँटों से आवृत-सेमल वृक्ष के समान प्रतीत हो रहा था।
एक एक दन्तेर कम्प देखिते लागे भय ।।लोके जाने, दन्त सब खसिया पड़य ॥
१०३।। उनके दाँतों को कटकटाते देखकर लोग डर गये और उन्होंने यहाँ तक सोच लिया कि उनके दाँत गिर जायेंगे।
सर्वाङ्गे प्रस्वेद छुटे ताते रक्तोद्गम ।। ‘जज गग' ‘जज गग'–गद्गद-वचन ॥
१०४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के सारे शरीर से पसीना बह रहा था और साथ ही फ़ फूट रहा था। वे भावावेश में जज गग, जज गग की आँधी आवाज निकाल रहे थे।
जलयन्त्र-धारा ग्रैछे वहे अश्रु-जल ।।आश-पाशे लोक व्रत भिजिल सकल ॥
१०५॥
महाप्रभु की आँखों से तेजी से अश्रु निकल रहे थे, मानो पिचकारी में जल निकल रहा हो, जिससे उनके चारों ओर खड़े लोग भीग गये।
देह-कान्ति गौर-वर्ण देखिये अरुण ।।कभु कान्ति देखि ग्रेन मल्लिका-पुष्य-सम ॥
१०६ ॥
सभी लोगों ने देखा कि उनके शरीर का रंग गोरे से गुलाबी हो गया है, जिससे उनकी देह की कान्ति मल्लिका फूल जैसी लग रही थी।
कभु स्तम्भ, कभु प्रभु भूमिते लोटाय ।।शुष्क-काष्ठ-सम पद-हस्त ना चलय ॥
१०७॥
कभी वे स्तम्भित जान पड़ते और कभी जमीन पर लोटने लगते। कभी-कभी उनके हाथ तथा पाँव लकड़ी जैसे कड़े हो जाते, जिससे वे चल-फिर नहीं सकते थे।
कभु भूमे पड़े, कभु श्वास हय हीन ।ग्राहा देखि' भक्त-गणेर प्राण हय क्षीण ॥
१०८॥
जब महाप्रभु जमीन पर गिर पड़ते, तो कभी-कभी उनकी साँस रुकसी जाती। जब भक्तों ने ऐसा देखा, तो उनके प्राण भी क्षीण हो गये।
कभु नेत्रे नासाय जल, मुखे पड़े फेन ।।अमृतेर धारा चन्द्र-बिम्बे वहे ग्रेन ॥
१०९॥
कभी उनकी आँखों से पानी बहता, तो कभी नासिकाओं से। उनके मुख से फेन गिरता। ऐसा प्रतीत होता मानो चन्द्रमा से अमृत की धाराएँ बह चली हों।
सेइ फेन लञा शुभानन्द कैल पान ।। कृष्ण-प्रेम-रसिक तेंहो महा-भाग्यवान् ॥
११०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के मुख से जो फेन गिरा, उसे शुभानन्द ने पी लिया, क्योंकि वह महाभाग्यशाली था और कृष्ण-प्रेम रस का आस्वादन करने में पटु था।
एइ-मत ताण्डव-नृत्य कैल कत-क्षण ।। भाव-विशेषे प्रभुर प्रवेशिल मन ।। १११॥
कुछ काल तक ऐसा प्रलयंकारी नृत्य करने के बाद महाप्रभु का मन प्रेमभाव में प्रविष्ट हुआ।
ताण्डव-नृत्य छाड़ि' स्वरूपेरे आज्ञा दिल ।।हृदय जानिया स्वरूप गाइते लागिल ॥
११२।। नाचना छोड़कर महाप्रभु ने स्वरूप दामोदर को गाने के लिए आज्ञा दी। उनके मन की बात समझकर स्वरूप दामोदर इस प्रकार गाने लगे।
सेइ ते पराण-नाथ पाइनु ।ग्राहा लागि' मदन-दहने झुरि' गेनु ॥
११३॥
अब मुझे अपने जीवन के स्वामी प्राप्त हो गये हैं, जिनके बिना में कामदेव द्वारा दग्ध हो रही थी और सूखी जा रही थी।
एइ धुया उच्चैः-स्वरे गाय दामोदर ।।आनन्दे मधुर नृत्य करेन ईश्वर ॥
११४॥
जब स्वरूप दामोदर इस टेक को जोर-जोर से गा रहे थे, तब श्री चैतन्य महाप्रभु दिव्य आनन्द में मग्न होकर ताल पर फिर नृत्य करने लगे।
धीरे धीरे जगन्नाथ करेन गमन ।।आगे नृत्य करि' चलेन शचीर नन्दन ॥
११५॥
तब जगन्नाथजी का रथ धीरे-धीरे चलने लगा और शचीमाता के पुत्र आगे बढ़कर रथ के समक्ष नाचने लगे।
जगन्नाथे नेत्र दिया सबे नाचे, गाय ।।कीर्तनीया सह प्रभु पाछे पाछे ग्राय ॥
११६॥
नाचते तथा गाते हुए, भगवान जगन्नाथ के सामने जितने भक्त थे, वे उन्हीं पर आँखें टिकाये थे। तब चैतन्य महाप्रभु कीर्तनियों के साथ जुलूस के पिछले सिरे तक गये।
जगन्नाथे मग्न प्रभुर नयन-हृदय ।। श्री-हस्त-युगे करे गीतेर अभिनय ॥
११७॥
चैतन्य महाप्रभु अपने नेत्रों तथा मन को भगवान जगन्नाथ पर टिकाए हुए अपने दोनों हाथों से गीत का अभिनय करने लगे।
गौर यदि पाछे चले, श्याम हय स्थिरे ।।गौर आगे चले, श्याम चले धीरे-धीरे ॥
११८॥
गीत का अभिनय करते हुए महाप्रभु कभी-कभी जुलूस में पिछ जाते। ऐसे अवसरों पर भगवान जगन्नाथ स्थिर हो जाते। जब चैतन्य महाप्रभु पुनः आगे आ जाते, तो भगवान जगन्नाथ का रथ पुनः धीरे-धीरे चल देता।
एइ-मत गौर-श्यामे, दोंहे ठेलाठेलि ।। स्वरथे श्यामेरे राखे गौर महा-बली ॥
११९॥
इस तरह चैतन्य महाप्रभु तथा भगवान जगन्नाथ में यह देखने की होड़ लगी थी कि कौन आगे निकल जाए। किन्तु चैतन्य महाप्रभु इतने बलशाली थे कि जगन्नाथजी को अपने रथ में प्रतीक्षा करनी पड़ती।
नाचिते नाचिते प्रभुर हैला भावान्तर ।। हस्त तुलि' श्लोक पड़े करि' उच्चैः-स्वर ॥
१२०॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु नाच रहे थे, तो उनका भाव बदल गया।वे। अपने दोनों हाथ ऊपर उठाकर ऊँचे स्वर से निम्नलिखित श्लोक सुनाने लगे।
ग्रः कौमार-हरः स एव हि वरस्ता एव चैत्र-क्षेपास्ते चोन्मीलित-मालती-सुरभयः प्रौढ़ाः कदम्बानिलाः ।। सा चैवास्मि तथापि तत्र सुरत-व्यापार-लीला-विधौ ।रेवा-रोधसि वेतसी-तरु-तले चेतः समुत्कण्ठते ॥
१२१॥
| जिस व्यक्ति ने युवावस्था में मेरा हृदय चुरा लिया था, वही अब फिर से मेरा स्वामी है। ये चैत्र-मास की वही चाँदनी रातें हैं। वही मालती पुष्पों की सुगन्ध है और कदम्ब वन की वही मधुर वायु बह रही है। अपने घनिष्ठ सम्बन्ध में मैं वही प्रेमिका हूँ, फिर भी मेरा मन यहाँ सुखी नहीं है। मैं रेवा नदी के तट पर स्थित वेतसी वृक्ष के नीचे वापस जाने के लिए उत्सुक हूँ। ही मेरी उत्कण्ठा है।
एइ श्लोक महाप्रभु पड़े बार बार ।। स्वरूप विना अर्थ केह ना जाने इहार ॥
१२२॥
श्री चैतन्य महप्रभु इस श्लोक को बारम्बार पढ़ रहे थे, किन्तु स्वरूप दामोदर के अलावा इसका अर्थ अन्य कोई नहीं समझ सका।
एइ श्लोकार्थ पूर्वे करियाछि व्याख्यान ।। श्लोकेर भावार्थ करि सङ्क्षेपे आख्यान ॥
१२३॥
मैं इस श्लोक की व्याख्या पहले ही कर चुका हूँ। अब मैं संक्षेप में इसका वर्णन करूंगा।
पूर्वे ट्रैछे कुरुक्षेत्रे सब गोपी-गण ।। कृष्णेर दर्शन पाञा आनन्दित मन ॥
१२४॥
पहले, जब वृन्दावन की सारी गोपियाँ कृष्ण से कुरुक्षेत्र की पवित्र भूमि में मिलीं, तो वे परम प्रसन्न हुईं।
जगन्नाथ देखि' प्रभुर से भाव उठिल ।। सेई भावाविष्ट हा धुया गाओयाइल ॥
१२५॥
इसी तरह भगवान जगन्नाथ का दर्शन करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु में गोपी-भाव जाग्रत हुआ। इस भाव में मग्न होने के कारण होंने स्वरूप दामोदर से कहा कि वे टेक गायें।
अवशेषे राधा कृष्णे करे निवेदन ।। सेइ तुमि, सेइ आमि, सेइ नव सङ्गम ॥
१२६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने भगवान जगन्नाथ से इस प्रकार कहा, आप ही कृष्ण हैं और मैं वही राधारानी हूँ। हम पुनः उसी प्रकार मिल रहे हैं, wम तरह हम अपने जीवन के प्रारम्भ में मिले थे।
तथापि आमार मन हरे वृन्दावन ।। वृन्दावने उदय कराओ आपन-चरण ॥
१२७॥
यद्यपि हम दोनों वही हैं, किन्तु आज भी मेरा मन वृन्दावन-धाम के प्रति आकृष्ट होता है। मेरी इच्छा है कि आप पुनः वृन्दावन में अपने चरणकमल रखें।
इहाँ लोकारण्य, हाती, घोड़ा, रथ-ध्वनि ।। ताहाँ पुष्पारण्य, भृङ्ग-पिक-नाद शुनि ॥
१२८॥
कुरुक्षेत्र में लोगों की भीड़ है; उनके हाथी, घोड़े तथा घर घर्र करते रथ हैं। किन्तु वृन्दावन में फूलों के बाग हैं और उनमें मधुमक्खियों की गुंजार तथा पक्षियों की चहचहाहट सुनी जा सकती है।
इहाँ राज-वेश, सङ्गे सब क्षत्रिय-गण । ताहाँ गोप-वेश, सङ्गे मुरली-वादन ॥
१२९॥
यहाँ कुरुक्षेत्र में आप राजसी वेश में हैं और आपके साथ बड़े-बड़े योद्धा हैं, किन्तु वृन्दावन में आप सामान्य ग्वालबाल की तरह अपनी सुन्दर मुरली लिए प्रकट हुए थे।
व्रजे तोमार सङ्गे ग्रेइ सुख-आस्वादन । सेइ सुख-समुद्रेर इहाँ नाहि एक कण ॥
१३०॥
यहाँ पर उस सुखसागर की एक बूंद भी नहीं है, जिसका आनन्द मैं वृन्दावन में आपके साथ लेती थी।
आमा लञा पुनः लीला करह वृन्दावने ।। तबे आमार मनो-वाञ्छा हय त' पूरणे ॥
१३१॥
अतएव मैं आपसे प्रार्थना करती हूँ कि आप वृन्दावन आयें और मेरे साथ लीलाविलास करें। यदि आप ऐसा करेंगे, तो मेरी मनोकामना पूरी हो जायेगी।
भागवते आछे प्रैछे राधिका-वचन ।पूर्वे ताहा सूत्र-मध्ये करियाछि वर्णन ॥
१३२॥
मैं पहले ही श्रीमद्भागवत से श्रीमती राधारानी के कथन का संक्षिप्त वर्णन कर चुका हूँ।
सेइ भावावेशे प्रभु पड़े आर श्लोक ।।सेइ सब श्लोकेर अर्थ नाहि बुझे लोक ॥
१३३॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने उस भावावेश में अन्य कई श्लोक सुनाये, किन्तु सामान्य लोग उनका अर्थ नहीं समझ सके।
स्वरूप-गोसाजि जाने, ना कहे अर्थ तार ।। श्री-रूप-गोसात्रि कैल से अर्थ प्रचार ॥
१३४॥
इन श्लोकों का अर्थ स्वरूप दामोदर गोस्वामी को ज्ञात था, किन्तु होंने इसे प्रकट नहीं किया। फिर भी श्री रूप गोस्वामी ने इसका अर्थ ज्ञापित किया है।
स्वरूप सङ्गे ग्रार अर्थ करे आस्वादन ।।नृत्य-मध्ये सेइ श्लोक करेन पठन ॥
१३५॥
नाचते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु ने निम्नलिखित श्लोक पढ़ना शुरू किया, जिसका आस्वादन उन्होंने स्वरूप दामोदर गोस्वामी के साथ किया।
आहुश्च ते नलिन-नाभ पदारविन्दंग्रोगेश्वरैर्हदि विचिन्त्यमगाध-बोधैः ।। संसार-कूप-पतितोत्तरणावलम्बंगेहं जुषामपि मनस्युदियात्सदा नः ॥
१३६॥
[ गोपियाँ इस प्रकार बोलीं : हे कमल-नाभ, जो लोग भौतिक संसाररूपी गहरे कुएँ में गिर चुके हैं, उनके लिए आपके चरणकमल ही एकमात्र आश्रय हैं। आपके चरणों की पूजा तथा उनका ध्यान बड़े-बड़े योगी तथा विद्वान दार्शनिक करते हैं। हम चाहती हैं कि वे ही चरणकमल हमारे हृदयों में भी उदित हों, यद्यपि हम सभी गोपियाँ गृहस्थी के कार्यों में संलग्न रहने वाली सामान्य स्त्रीयाँ हैं।
‘मने' ‘वने' एक करि' जानि ।। ताहाँ तोमार पद-द्वय, कराह यदि उदय, तबे तोमार पूर्ण कृपा मानि ॥
१३७॥
श्रीमती राधारानी के भाव में श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, अधिकांश गोगों के लिए मन तथा हृदय एक होते हैं, किन्तु मेरा मन कभी भी गन्दावन से अलग नहीं होता, अतएव मैं अपने मन और वृन्दावन को एक मानती हूँ। मेरा मन पहले से वृन्दावन है और चूँकि आप वृन्दावन को पसन्द करते हैं, तो क्या आप अपने चरणकमल वहाँ रखेंगे? इसे मैं आपकी पूर्ण कृपा मानूंगी।
प्राण-नाथ, शुन मोर सत्य निवेदन व्रज–आमार सदन, ताहाँ तोमार सङ्गम, ।।ना पाइले ना रहे जीवन ॥
१३८॥
हे प्रभु, कृपया मेरी सच्ची विनती सुनें। मेरा घर वृन्दावन है और मैं वहाँ आपका सान्निध्य चाहती हूँ। किन्तु यदि मुझे सान्निध्य नहीं मिला, तो मेरा जीवन दूर्भर हो जायेगा।
पूर्वे उद्धव-द्वारे, एबे साक्षातामारे,योग-ज्ञाने कहिला उपाय । तुमि–विदग्ध, कृपामय, जानह आमार हृदय,मोरे ऐछे कहिते ना युयाय ॥
१३९॥
हे कृष्ण, जब आप पहले मथुरा में रह रहे थे, तब आपने मुझे योग तथा ज्ञान की शिक्षा देने के लिए उद्धव को भेजा था। अब आप स्वयं वही बात कह रहे हैं, किन्तु मेरा मन उसे स्वीकार नहीं करता। मेरे मन में ज्ञानयोग या ध्यानयोग के लिए कोई स्थान नहीं है। यद्यपि आप मुझे अच्छी तरह से जानते हैं, फिर भी ज्ञानयोग तथा ध्यानयोग का उपदेश दे रहे हैं। ऐसा करना आपके लिए उचित नहीं है।
चित्त काढ़ि' तोमा हैते, विषये चाहि लागाइते,य़त्न करि, नारि काढ़िबारे । तारे ध्यान शिक्षा कराह, लोक हासाला मार,स्थानास्थान ना कर विचारे ॥
१४०॥
चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, मैं अपनी चेतना आपसे हटाकर भौतिक कार्यों में लगाना चाहती हैं, लेकिन लाख प्रयत्न करके भी ऐसा नहीं कर पाती। मैं स्वभाव से आपकी ओर उन्मुख हूँ। अतएव आपका यह उपदेश कि मैं आपका ध्यान करू, अत्यन्त हास्यास्पद प्रतीत होता है। इस तरह आप तो मुझे मारे डाल रहे हैं। आपके लिए अच्छा नहीं है कि आप मुझे अपने उपदेशों का पात्र समझें।।
नहे गोपी योगेश्वर, पद-कमल तोमार,ध्यान करि' पाइबे सन्तोष । तोमार वाक्य-परिपाटी, तार मध्ये कुटिनाटी,शुनि' गोपीर आरो बाढ़ रोष ॥
१४१ ॥
गोपियाँ योगियों जैसी नहीं हैं। वे आपके चरणकमलों का ध्यान ने एवं तथाकथित योगियों का अनुकरण करने मात्र से कभी तुष्ट नहीं होगी। गोपियों को ध्यान की शिक्षा देना एक अन्य प्रकार का छल है। जबउन्हें योगाभ्यास करने का उपदेश दिया जाता है, तब वे तनिक भी सन्तुष्ट नहीं होतीं। उल्टे वे आपसे और अधिक नाराज हो जाती हैं।
देह-स्मृति नाहि झार, संसार-कूप काहाँ तार,ताहा हैते ना चाहे उद्धार ।। विरह-समुद्र-जले, काम-तिमिङ्गिले गिले,गोपी-गणे नेह' तार पार ॥
१४२। श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, गोपियाँ विरह रूपी महासागर में १गर गईं हैं और उन्हें आपकी सेवा करने की अभिलाषा रूपी तिमिंगल मछली निगले जा रही है। शुद्ध भक्त होने के कारण गोपियों को इन शिपिंगल मछलियों से बचाना है। उन्हें जीवन की भौतिक अनुभूति नहीं तो फिर वे मुक्ति की आकांक्षा क्यों करें ? गोपियों को योगियों तथा भनियों द्वारा अभीष्ट मुक्ति नहीं चाहिए, क्योंकि वे पहले से ही भौतिक अस्तित्व के सागर से मुक्त हो चुकी हैं।
वृन्दावन, गोवर्धन, ग्रमुना-पुलिन, वन,सेइ कुल्ले रासादिक लीला ।। सेइ व्रजेर व्रज-जन, माता, पिता, बन्धु-गण,बड़ चित्र, केमने पासरिला ॥
१४३॥
यह विचित्र बात है कि आप वृन्दावन की भूमि को भूल गये हैं। भला आप अपने पिता, माता तथा मित्रों को कैसे भूल गये? आपने गोवर्धन पर्वत, यमुना-तट तथा उस वन को, जहाँ आप रासनृत्य का आनन्द लूटते थे, किस तरह भुला दिया? विदग्ध, मृदु, सद्गुण, सुशील, स्निग्ध, करुण,तुमि, तोमार नाहि दोषाभास ।। तबे ने तोमार मन, नाहि स्मरे व्रज-जन,से—आमार दुर्दैव-विलास ॥
१४४ ॥
हे कृष्ण, आप समस्त सद्गुणों से युक्त शिष्ट महानुभाव हैं। आप सदाचारी हैं, नम्र हृदय वाले तथा दयालु हैं। मैं जानती हूँ कि आपमें दोष का लेशमात्र भी नहीं है, फिर भी आपका मन वृन्दावनवासियों का स्मरण तक नहीं करता। यह हमारे दुर्भाग्य के अलावा और क्या हो सकता है? ना गणि आपन-दुःख, देखि' व्रजेश्वरी-मुख,व्रज-जनेर हृदय विदरे । किबा मार' व्रज-वासी, किबा जीयाओ व्रजे आसि',केन जीयाओ दुःख सहाइबारे? ॥
१४५ ॥
मुझे अपने निजी दुःख की परवाह नहीं है, किन्तु जब मैं माता यशोदा का खिन्न मुखड़ा तथा आपके कारण समस्त वृन्दावनवासियों के भग्न हृदयों को देखती हूँ, तो मुझे आश्चर्य होता है कि आप कहीं उन सबको मारना तो नहीं चाहते। या आप यहाँ आकर उन्हें जीवनदान देना चाहते हैं? आप क्यों उन्हें कष्टप्रद स्थिति में जिन्दा रखना चाहते हैं? तोमार ने अन्य वेश, अन्य सङ्ग, अन्य देश,व्रज-जने कभु नाहि भाय ।। व्रज-भूमि छाड़िते नारे, तोमा ना देखिले मरे,व्रज-जनेर कि हबे उपाय ॥
१४६॥
वृन्दावन के निवासी आपको न तो राजकुमार के वेश में देखना चाहते हैं, न ही वे चाहते हैं कि आप अनजाने देश में महायोद्धाओं की संगति करें। वे वृन्दावन भूमि को छोड़ नहीं सकते और आपकी उपस्थिति के बिना वे सब मर रहे हैं। न जाने उनकी कैसी दशा होगी? तुमि--व्रजेर जीवन, व्रज-राजेर प्राण-धन,तुमि व्रजेर सकल सम्पद् । कृपाई तोमार मन, आसि' जीयाओ व्रज-जन,व्रजे उदय कराओ निज-पद ॥
१४७।। हे कृष्ण, आप वृन्दावन धाम के प्राण और आत्मा हैं। आप विशेषकर नन्द महाराज के जीवन हैं। आप वृन्दावन भूमि में एकमात्र ऐश्वर्य हैं और आप अत्यन्त कृपालु हैं। कृपा करके आइये और सभी वृन्दावनवासियों को जीवन दीजिये। कृपया वृन्दावन में पुनः अपने चरणकमल रखिये।
शुनिया राधिका-वाणी, व्रज-प्रेम मने आनि,भावे व्याकुलित देह-मन ।। व्रज-लोकेर प्रेम शुनि', आपनाके 'ऋणी' मानि',करे कृष्ण ताँरे आश्वासन ॥
१४८॥
श्रीमती राधारानी के वचनों को सुनकर भगवान् कृष्ण में वृन्दावनवासियों के प्रति प्रेम जाग्रत हो आया और उनका तन तथा मन अत्यन्त व्याकुल हो उठा। अपने प्रति उनके प्रेम की बात सुनकर भगवान् ने सोचा कि वे वृन्दावनवासियों के चिर ऋणी हैं। तब कृष्ण श्रीमती राधारानी को इस प्रकार सान्त्वना देने लगे।
प्राण-प्रिये, शुन, मोर ए-सत्य-वचन तोमा-सबार स्मरणे, झुरों मुजि रात्रि-दिने, ।। मोर दुःख ना जाने कोन जन ॥
१४९॥
प्रिय श्रीमती राधारानी! कृपया मेरी बात सुनो। मैं सच कह रहा हूँ। मैं तुम समस्त वृन्दावनवासियों की याद कर-करके रात-दिन रोता रहता हूँ। कोई नहीं जानता कि इससे मैं कितना दुःखी हो जाता हूँ।
व्रज-वासी ग्रत जन, माता, पिता, सखा-गण,सबे हय मोर प्राण-सम ।। ताँर मध्ये गोपी-गण, साक्षात्मोर जीवन,तुमि मोर जीवनेर जीवन ॥
१५० ।। श्रीकृष्ण ने आगे कहा, वृन्दावन धाम के सारे निवासी-मेरे माता, पिता, ग्वालसखा तथा अन्य सभी मेरे प्राणों के समान हैं। वृन्दावन के सारे निवासियों में से गोपियाँ तो मेरे प्राण के समान हैं और गोपियों में, हे राधारानी! तुम मुख्य हो। अतएव तुम मेरे जीवन का भी जीवन हो।
तोमा-सबार प्रेम-रसे, आमाके करिल वशे,आमि तोमार अधीन केवल । तोमा-सबा छाड़ाळा, आमा दूर-देशे लजा,राखियाछे दुर्दैव प्रबल ॥
१५१॥
हे श्रीमती राधारानी! मैं तुम सबके प्रेम के अधीन हूँ। मैं तो एकमात्र तुम्हारे वश में हूँ। तुमसे मेरा विछोह तथा दूर स्थान में मेरा प्रवास मेरे प्रबल दुर्भाग्य के कारण ही हुआ है।
प्रिया प्रिय-सङ्ग-हीना, प्रिय प्रिया-सङ्ग विना,नाहि जीये,—ए सत्य प्रमाण ।। मोर दशा शोने ग्रबे, ताँर एइ दशा हबे,एइ भये मुँहे राखे प्राण ॥
१५२॥
जब किसी स्त्री का उसके प्रेमी से विछोह होता है या कोई पुरुष अपनी प्रिया से विलग होता है, तो उनमें से कोई भी जीवित नहीं रह सकता। यह तथ्य है कि वे एक-दूसरे के लिए जीवित रहते हैं, क्योंकि | पर इनमें से कोई मरता है, तो दूसरा इसे सुनते ही मर जाता है।
सेइ सती प्रेमवती, प्रेमवान्सेइ पति,वियोगे ये वाञ्छे प्रिय-हिते ।। ना गणे आपन-दुःख, वाञ्छे प्रियजन-सुख,सेइ दुइ मिले अचिराते ॥
१५३ ॥
॥
ऐसी प्रेमवती सती पत्नी तथा प्रेमवान पति, विरह में एक-दूसरे की शुभकामना करते हैं और अपने निजी सुख की परवाह नहीं करते। वे एक-दूसरे के कल्याण की ही कामना करते रहते हैं। ऐसे प्रेमी-प्रेमिका दोनों शीघ्र ही फिर से मिलते हैं।
राखिते तोमार जीवन, सेवि आमि नारायण,ताँर शक्त्ये आसि निति-निति ।। तोमा-सने क्रीड़ा करि', निति ग्राइ ग्रदु-पुरी,ताहा तुमि मानह मोर स्फूर्ति ॥
१५४॥
तुम मेरी अत्यन्त प्रिय हो और मैं जानता हूँ कि तुम मेरे बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकती। तुम्हें जीवित रखने के लिए ही मैं भगवान् नारायण की पूजा करता हूँ। उनकी कृपामयी शक्ति से मैं तुम्हारे साथ । लीला करने के लिए नित्य वृन्दावन आता हूँ। फिर मैं द्वारका धाम लौट जाता हूँ। इस तरह तुम वृन्दावन में सदैव मेरी उपस्थिति का अनुभव कर सकती हो।
मोर भाग्य मो-विषये, तोमार ने प्रेम हये,सेइ प्रेम-परम प्रबल ।। लुका आमा आने, सङ्ग कराय तोमा-सने,प्रकटेह आनिबे सत्वर ॥
१५५ ॥
हमारी प्रेम-व्यापार इतना शक्तिशाली इसीलिए है, क्योंकि सौभाग्यवश मुझे नारायण की कृपा प्राप्त है। इससे मैं दूसरों से अप्रकट होकर वहाँ आ सकता हूं। मुझे आशा है कि शीघ्र ही मैं सबको दिख सर्केगा।
यादवेर विपक्ष, ग्रेत दुष्ट कंस-पक्ष,ताहा आमि कैलँ सब क्षय । आछे दुइ-चारि जन, ताहा मारि' वृन्दावन, आइलाम आमि, जानिह निश्चय ॥
१५६ ॥
मैं यदुवंश के उत्पाती असुर शत्रुओं को पहले ही मार चुका हूँ और मैंने कंस तथा उनके मित्रों का भी वध कर दिया है। फिर भी दो-चार असुर अभी भी बचे हुए हैं। मैं उन्हें मारना चाहता हूँ और उनका वध करने के बाद मैं शीघ्र ही वृन्दावन लौट आऊँगा। इसे तुम निश्चित जानो।
सेइ शत्रु-गण हैते, व्रज-जन राखिते,रहि राज्ये उदासीन हजा।। येबा स्त्री-पुत्र-धने, करि राज्य आवरणे,ग्रदु-गणेर सन्तोष लागिया ॥
१५७॥
मैं वृन्दावन के निवासियों को अपने शत्रुओं के हमलों से बचाना चाहता हूँ। इसीलिए मैं अपने राज्य में रहता हूँ, अन्यथा मैं अपने राजसी पद के प्रति उदासीन हूँ। मैं राज्य में जो भी पत्नियाँ, पुत्र तथा धन रखता हैं, वे सारे के सारे केवल यदुओं के सन्तोष के लिए हैं।
तोमार ग्रे प्रेम-गुण, करे आमा आकर्षण,आनिबे आमा दिन दश बिशे ।। पुनः आसि' वृन्दावने, व्रज-वधू तोमा-सने,विलसिब रजनी-दिवसे ॥
१५८ ॥
तुम्हारे प्रेममय गुण मुझे सदैव वृन्दावन की ओर खींचते रहते हैं। वे दस-बीस दिनों में मुझे, निश्चय ही, वापस बुला लेंगे और लौटने पर मैं तुम्हारे तथा व्रजभूमि की सारी बालाओं के साथ रात-दिन विलास करूंगा।
एत तौरे कहि कृष्ण, व्रजे ग्राइते सतृष्ण,एक श्लोक पड़ि' शुनाइल ।। सेइ श्लोक शुनि' राधा, खाण्डिल सकल बाधा,कृष्ण-प्राप्त्ये प्रतीति हइल ॥
१५९॥
श्रीमती राधारानी से बातें करते हुए कृष्ण वृन्दावन लौट आने के लिए अत्यन्त उत्सुक हो उठे। उन्होंने उन्हें एक श्लोक सुनाया, जिससे उनके ( श्रीमती राधारानी के ) सारे कष्ट दूर हो गये और आश्वासन प्राप्त हुआ कि उन्हें पुनः श्रीकृष्ण प्राप्त हो जायेंगे।
मयि भक्तिर्हि भूतानाममृतत्वाय कल्पते ।।दिष्ट्या यदासीन्मत्स्नेहो भवतीनां मदापनः ॥
१६०॥
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा, मुझे प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है। मेरी भक्ति करना । हे गोपियों, तुम लोगों ने सौभाग्यवश मेरे लिए जितना भी स्नेह एवं प्रेम प्राप्त कर रखा है, उसी के कारण मैं तुम्हारे पास वापस आ रहा हूँ।
एइ सब अर्थ प्रभु स्वरूपेर सने ।।रात्रि-दिने घरे वसि' करे आस्वादने ॥
१६१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु अपने कमरे में स्वरूप दामोदर के साथ बैठ जाते और इन श्लोकों का रसास्वादन दिन-रात किया करते।
नृत्य-काले सेइ भावे आविष्ट हञा ।।श्लोक पड़ि' नाचे जगन्नाथ-मुख चाजा ॥
१६२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने पूर्णतया भावमग्न होकर नृत्य किया। जगन्नाथ के मुख का दर्शन करते हुए वे नाचते और इन श्लोकों को सुनाते जाते।
स्वरूप-गोसाजिर भाग्य ना ग्राय वर्णन ।।प्रभुते आविष्ट याँर काय, वाक्य, मन ॥
१६३ ॥
स्वरूप दामोदर गोस्वामी के सौभाग्य का वर्णन नहीं किया जा सकता, क्योंकि वे अपने शरीर, मन तथा वाणी से महाप्रभु की सेवा में सदैव लीन रहते हैं।
स्वरूपेर इन्द्रिये प्रभुर निजेन्द्रिय-गण ।। आविष्ट हञा करे गान-आस्वादन ॥
१६४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की इन्द्रियाँ स्वरूप की इन्द्रियों से अभिन्न थीं। अतएव चैतन्य महाप्रभु स्वरूप दामोदर के गाने का आस्वादन करते हुए। पूर्णतया निमग्न हो जाते थे।
भावेर आवेशे कभु भूमिते वसिया ।। तर्जनीते भूमे लिखे अधोमुख हा ॥
१६५ ॥
कभी-कभी भावावेश में चैतन्य महाप्रभु जमीन पर बैठ जाते और नीचे देखते हुए जमीन पर अपनी अँगुली से लिखा करते।
अङ्गलिते क्षत हबे जानि' दामोदर ।।भये निज-करे निवारये प्रभु-कर ॥
१६६॥
यह जानकर कि अँगुली से इस प्रकार लिखते रहने से महाप्रभु को। क्षति पहुँच सकती है, स्वरूप दामोदर ने अपने हाथ से उन्हें रोका।
प्रभुर भावानुरूप स्वरूपेर गान ।।ग्रबे येइ रस ताहा करे मूर्तिमान् ॥
१६७॥
स्वरूप दामोदर महाप्रभु के भाव के अनुरूप ही गाया करते थे। जब भी महाप्रभु किसी रस विशेष का आस्वादन करते, स्वरूप दामोदर उसे गाकर साकार कर देते।
श्री-जगन्नाथेर देखे श्री-मुख-कमल ।ताहार उपर सुन्दर नयन-युगल ॥
१६८। श्री चैतन्य महाप्रभु ने भगवान् जगन्नाथ के सुन्दर कमल जैसे मुख तथा नेत्रों के दर्शन किए।
सूर्येर किरणे मुख करे झलमल । माल्य, वस्त्र, दिव्य अलङ्कार, परिमल ॥
१६९॥
भगवान् जगन्नाथ माला पहने थे, सुन्दर वस्त्रों से सजित एवं सुन्दर आभूषणों से अलंकृत थे। उनका मुख सूर्य की किरणों से जगमगा रहा था और समूचा वातावरण सुगन्धित था।
प्रभुर हृदये आनन्द-सिन्धु उथलिल । उन्माद, झञ्झा-वात तत्क्षणे उठिल ॥
१७०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के हृदय में दिव्य आनन्द का सागर उमड़ रहा था और उनमें उन्मत्तता के लक्षण तुरन्त तूफान की तरह जोर पकड़ने लगे।
आनन्दोन्मादे उठाय भावेर तरङ्ग ।।नाना-भाव-सैन्ये उपजिल युद्ध-रङ्ग ॥
१७१॥
दिव्य आनन्द की उन्मत्तता से विविध भावों की तरंगें उत्पन्न हुई। ये भाव युद्ध करते हुए प्रतिद्वन्द्वी सैनिकों जैसे प्रतीत हो रहे थे।
भावोदय, भाव-शान्ति, सन्धि, शाबल्य ।। सञ्चारी, सात्त्विक, स्थायी स्वभाव-प्राबल्य ।। १७२॥
प्राकृतिक भावों के सभी लक्षणों में वृद्धि हो गई; फलतः भावों का उदय, भाव-शान्ति, मिश्रित भाव, युक्त-भाव, दिव्य भाव तथा स्थाई भाव तथा भाव प्रबलता देखी गई।
प्रभुर शरीर ग्रेन शुद्ध-हेमाचल ।। भाव-पुष्प-द्रुम ताहे पुष्पित सकल ॥
१७३॥
श्री चैतन्य महाप्रभु का शरीर दिव्य हिमालय पर्वत जैसा लगने लगा, जिसमें भावों के पुष्पित वृक्ष उगे हों और ये सारे वृक्ष खिल रहे हों।
देखिते आकर्षये सबार चित्त-मन । प्रेमामृत-वृष्ट्ये प्रभु सिञ्चे सबार मन ॥
१७४॥
इन सारे लक्षणों को देखकर हर एक के मन तथा चित्त आकृष्ट हो रहे थे। महाप्रभु ने हर एक के मन को दिव्य भगवत्प्रेम रूपी अमृत से सींच दिया।
जगन्नाथ–सेवक ग्रत राज-पात्र-गण ।। झात्रिक लोक, नीलाचल-वासी मृत जन ॥
१७५॥
उन्होंने जगन्नाथजी के सेवकों, सरकारी अफसरों, यात्रियों, सामान्य जनता तथा जगन्नाथ पुरी के सभी निवासियों के मनों को सिंचित किया।
प्रभुर नृत्य प्रेम देखि' हय चमत्कार ।। कृष्ण-प्रेम उछलिल हृदये सबार ॥
१७६ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के नृत्य तथा भाव-प्रेम को देखकर सारे लोग चकित हो गये। उन सबके हृदयों में कृष्ण-प्रेम का उछाल लेने लगा।
प्रेमे नाचे, गाय, लोक, करे कोलाहल ।। प्रभुर नृत्य देखि' सबे आनन्दे विह्वल ॥
१७७॥
हर व्यक्ति भाव-प्रेम में नाचने और गाने लगा तथा महान् कोलाहल गूंजने लगा। हर कोई श्री चैतन्य महाप्रभु को नाचते देखकर दिव्य आनन्द से अभिभूत हो गया।
कभु सुखे नृत्य-रङ्ग देखे रथ राखि' ।। से कौतुक ये देखिल, सेइ तार साक्षी ।। १७९ ॥
भगवान् जगन्नाथ तथा भगवान् बलराम कभी-कभी रथ रोक देते और प्रसन्नतापूर्वक महाप्रभु का नृत्य देखने लगते। जो कोई भी उन्हें रथ रोककर नृत्य देखते देख सका, वह उनकी लीलाओं का साक्षी है।
अन्येर कि काय, जगन्नाथ-हलधर ।। प्रभुर नृत्य देखि' सुखे चलिला मन्थर ॥
१७८॥
अन्यों की जाने दें, भगवान जगन्नाथ तथा भगवान् बलराम तक श्री चैतन्य महाप्रभु का नृत्य देखकर परम प्रसन्नतापूर्वक धीरे-धीरे चलने लगे।
एइ-मत प्रभु नृत्य करिते भ्रमिते । प्रतापरुद्रेर आगे लागिला पड़िते ॥
१८०॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु इस तरह नाच तथा घूम रहे थे, तब वे महाराज प्रतापरुद्र के सामने गिर पड़े।
सम्भ्रमे प्रतापरुद्र प्रभुके धरिल ।। ताँहाके देख़िते प्रभुर बाह्य-ज्ञान हइल ॥
१८१॥
महाराज प्रतापरुद्र ने बड़े सम्मान से महाप्रभु को उठाया, किन्तु राजा को देखकर महाप्रभु को बाह्य चेतना आ गई।
राजा देखि' महाप्रभु करेन धिक्कार ।। छि, छि, विषयीर स्पर्श हइल आमार ॥
१८२॥
राजा को देखकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने आपको यह कहकर धिक्कारा, छिः! कितने दुःख की बात है कि मैंने ऐसे व्यक्ति का स्पर्श कर लिया, जो संसारी मामलों में रुचि रखता है।
आवेशेते नित्यानन्द ना हैला सावधाने ।। काशीश्वर-गोविन्द आछिला अन्य-स्थाने ॥
१८३॥
जब चैतन्य महाप्रभु गिरे, तो न तो नित्यानन्द प्रभु ने, न ही काशीश्वर या गोविन्द ने उनको संभाला। नित्यानन्द अत्यधिक आवेश में थे और काशीश्वर तथा गोविन्द अन्यत्र थे।
यद्यपि राजार देखि हाड़िर सेवन ।। प्रसन्न हाछे ताँरे मिलिबारे मन ॥
१८४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु पहले ही राजा के व्यवहार से प्रसन्न हो चुके थे, क्योंकि राजा ने भगवान जगन्नाथ के लिए झाड़ लगाने का काम स्वीकार किया था। अतः श्री चैतन्य महाप्रभु राजा को वास्तव में मिलना चाहते तथापि आपन-गणे करिते सावधान ।। बाह्ये किछु रोषाभास कैला भगवान् ॥
१८५॥
तथापि अपने निजी संगियों को आगाह करने के लिए पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु ने ऊपर से रोष प्रकट किया।
प्रभुर वचने राजार मने हैल भय ।। सार्वभौम कहे, तुमि ना कर संशय ॥
१८६॥
महाप्रभु द्वारा बाहरी रोष दिखाये जाने पर राजा प्रतापरुद्र भयभीत हो गये, लेकिन सार्वभौम भट्टाचार्य ने राजा से कहा, आप चिन्ता न करें।
तोमार उपरे प्रभुर सुप्रसन्न मन ।।तोमा लक्ष्य करि' शिखायेन निज गण ॥
१८७॥
सार्वभौम भट्टाचार्य ने राजा से कहा, महाप्रभु आप से अत्यन्त प्रसन्न हैं। वे आपको लक्ष्य बनाकर अपने निजी संगियों को शिक्षा दे रहे थे कि संसारी लोगों से किस तरह व्यवहार करना चाहिए।
अवसर जानि' आमि करिब निवेदन ।।सेइ-काले ग्राइ' करिह प्रभुर मिलन ॥
१८८॥
सार्वभौम भट्टाचार्य ने आगे कहा, उपयुक्त अवसर पाकर मैं आपकानिवेदन प्रस्तुत करूंगा। तब आपके लिए आकर महाप्रभु से मिलना आसान होगा।
तबे महाप्रभु रथ प्रदक्षिण करिया ।। रथ-पाछे स्राइ' ठेले रथे माथा दिया ॥
१८९॥
जगन्नाथ की प्रदक्षिणा करके श्री चैतन्य महाप्रभु रथ के पीछे चले गये और अपने सिर से रथ को ढकेलने लगे।
ठेलितेइ चलिल रथ 'हड़' ‘हड़' करि' ।। चतुर्दिके लोक सब बले ‘हरि' ‘हरि' ॥
१९०॥
उनके ढकेलते ही रथ'घर' 'घर' की आवाज करके चल पड़ा। चारों ओर से लोग भगवान् के पवित्र नाम-हरि! हरि! -का उच्चारण करने लगे।
तबे प्रभु निज-भक्त-गण ला सङ्गे।।बलदेव-सुभद्राग्रे नृत्य करे रङ्गे ॥
१९१॥
जैसे ही रथ चल दिया, श्री चैतन्य महाप्रभु अपने निजी संगियों को भगवान् बलराम तथा लक्ष्मी देवी सुभद्रा के रथों के समक्ष ले गये। वे अत्यधिक प्रेरित होकर उनके समक्ष नाचने लगे।
ताहाँ नृत्य करि' जगन्नाथ आगे आइला ।।जगन्नाथ देखि' नृत्य करते लागिला ॥
१९२॥
बलदेवजी तथा सुभद्रा के समक्ष नृत्य करने के बाद श्री महाप्रभु भगवान जगन्नाथ के रथ के समक्ष आये और उन्हें देखकर पुनः नाचने नगे।
चलिया आइल रथ' बलगण्डि'–स्थाने ।।जगन्नाथ रथ राखि' देखे डाहिने वामे ॥
१९३॥
जब वे बलगंडि नामक स्थान पर पहुँचे, तो भगवान जगन्नाथ ने अपना रथ रोक दिया और दाएँ-बाएँ देखने लगे।
वामे-‘विप्र-शासन' नारिकेल-वन ।।डाहिने त' पुष्पोद्यान येन वृन्दावन ॥
१९४॥
भगवान जगन्नाथ ने बाईं ओर ब्राह्मणों की बस्ती विप्रशासन और नारियल के वृक्षों का कुंज देखा। दाहिनी ओर उन्होंने पवित्र धाम वृन्दावन के जैसे सुन्दर पुष्पों के उद्यान देखे।
आगे नृत्य करे गौर लञा भक्त-गण ।।रथ राखि' जगन्नाथ करेन दरशन ॥
१९५।। श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनके भक्त रथ के सामने नाच रहे थे और भगवान् जगन्नाथ अपना रथ रोककर उनका नृत्य देखने लगे।
सेइ स्थले भोग लागे,—आछये नियम ।। कोटि भोग जगन्नाथ करे आस्वादन ॥
१९६॥
भगवान् को विप्रशासन स्थान पर भोजन समर्पित किये जाने की प्रथा थी। उन्हें असंख्य व्यंजन समर्पित किये गये और जगन्नाथजी ने उन सबका आस्वादन किया।
जगन्नाथेर छोट-बड़ त भक्त-गण । निज निज उत्तम-भोग करे समर्पण ॥
१९७॥
भगवान जगन्नाथ के सभी तरह के भक्तों ने-नये भक्त से लेकर न्नत भक्तों ने-अपना-अपना सर्वोत्तम भोजन भगवान् को समर्पित किया।
राजा, राज-महिषी-वृन्द, पात्र, मित्र-गण ।। नीलाचल-वासी ग्रत छोट-बड़ जन ॥
१९८॥
इसमें राजा, उनकी रानियाँ, उनके मन्त्री तथा मित्र और जगन्नाथ पुरी के छोटे-बड़े सभी निवासी सम्मिलित थे।
नाना-देशेर देशी व्रत ग्रात्रिक जन ।। निज-निज-भोग ताहाँ करे समर्पण ॥
१९९॥
विभिन्न देशों से जगन्नाथ पुरी आये हुए यात्रियों तथा स्थानीय भक्तों ने जगन्नाथजी को अपने हाथों से पकाया हुआ भोजन अर्पित किया।
आगे पाछे, दुई पार्थे पुष्पोद्यान-वने ।। येइ ग्राहो पाय, लागाय,–नाहिक नियमे ॥
२००॥
भक्तों ने रथ के आगे और पीछे, रथ के दोनों ओर तथा पुष्पोद्यान के भीतर-सभी जगह अपना भोजन अर्पित किया। जहाँ-जहाँ भी सम्भव था, उन्होंने भगवान् को भोग चढ़ाया, क्योंकि इसके लिए कोई नियत नियम नहीं थे।
भोगेर समय लोकेर महा भिड़ हैल ।।नृत्य छाड़ि' महाप्रभु उपवने गेल ॥
२०१॥
। भोजन अर्पित करते समय बहुत बड़ी भीड़ एकत्र हो गई। तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपना नृत्य रोक दिया और वे पास के बगीचे में चले गये।
प्रेमावेशे महाप्रभु उपवन पाजा ।। पुष्पोद्याने गृह-पिण्डाय रहिला पड़िया ॥
२०२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु बगीचे में चले गये। वहाँ वे प्रेमावेश में निमग्न होकर एक चबूतरे पर लेट गये।
नृत्य-परिश्रमे प्रभुर देहे घन घर्म ।।सुगन्धि शीतल-वायु करेन सेवन ॥
२०३॥
महाप्रभु नाचने के कठोर श्रम से बहुत थक गये थे और उनके सारे शरीर पर पसीना था। अतएव उन्होंने बगीचे की सुगन्धित शीतल वायु को आनन्द उठाया।
ग्रत भक्त कीर्तनीया आसिया आरामे ।। प्रति-वृक्ष-तले सबै करेन विश्रामे ॥
२०४॥
संकीर्तन करने वाले सारे भक्त भी वहाँ आ गये और उन्होंने वृक्षों के नीचे विश्राम किया।
एइ त कहिल प्रभुर महा-सङ्कीर्तन । जगन्नाथेर आगे ग्रैछे करिल नर्तन ॥
२०५॥
इस तरह मैंने श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा किये गये महासंकीर्तन का वर्णन किया है, जिस तरह वे जगन्नाथ के समक्ष नाचे थे।
रथाग्रेते प्रभु त्रैछे करिला नर्तन ।।चैतन्याष्टके रूप-गोसाञि कर्याचे वर्णन ॥
२०६॥
श्रील रूप गोस्वामी ने चैतन्याष्टक नामक अपनी स्तुति में महाप्रभु द्वारा जगन्नाथजी के रथ के समक्ष नाचने का स्पष्ट वर्णन किया है।
रथारूढ़स्यारादधिपदवि नीलाचल-पतेर् ।अदभ्र-प्रेमोर्मि-स्फुरित-नटनोल्लास-विवशः ।। स-हर्ष गायद्भिः परिवृत-तनुर्वैष्णव-जनैः ।स चैतन्यः किं मे पुनरपि दृशोर्यास्यति पदम् ॥
२०७॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने रथ पर विराजमान नीलाचल के स्वामी भगवान् जगन्नाथ के समक्ष प्रमुख मार्ग में परम प्रसन्नतापूर्वक नृत्य किया। नृत्य करने के दिव्य आनन्द से अभिभूत होकर तथा नामोच्चार करने वाले वैष्णवों से घिरे महाप्रभु ने उत्कट भगवत्प्रेम की लहरें प्रकट कीं। ऐसे श्री चैतन्य महाप्रभु कब मेरे समक्ष पुनः दृष्टिगोचर होंगे? इहा ग्रेइ शुने सेइ श्री-चैतन्य पाय ।। सुदृढ़ विश्वास-सह प्रेम-भक्ति हय ॥
२०८॥
जो भी रथयात्रा के इस विवरण को सुनता है, उसे श्री चैतन्य महाप्रभु प्राप्त होंगे। उसे वह उच्च अवस्था भी प्राप्त होगी, जिससे उसे भगवद्भक्ति तथा भगवत्प्रेम में दृढ़ विश्वास प्राप्त होगा।
श्री-रूप-रघुनाथ-पदे झार आश । चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
२०९॥
श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों की प्रार्थना करते हुए और उनकी कृपा की कामना करते हुए मैं कृष्णदास श्रीचैतन्य-चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।
अध्याय चौदह: वृन्दावन लीलाओं का प्रदर्शन
गौरः पश्यन्नात्म-वृन्दैः श्री-लक्ष्मी-विजयोत्सवम् ।श्रुत्वा गोपी-रसोल्लासं हृष्टः प्रेम्णा ननर्त सः ॥
१॥
अपने निजी भक्तों के साथ श्री चैतन्य महाप्रभु लक्ष्मी विजयोत्सव में गये। वहाँ उन्होंने गोपियों के सर्वोत्कृष्ट प्रेम की चर्चा की। इन सबको सुनने से ही वे परम प्रसन्न हुए और भगवत्प्रेम से अभिभूत होकर खूब नाचे।
जय जय गौरचन्द्र श्री-कृष्ण-चैतन्य ।।जय जय नित्यानन्द जयाद्वैत धन्य ॥
२॥
गौरचन्द्र नाम से विख्यात श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! नित्यानन्द प्रभु की जय हो! परम धन्य अद्वैत आचार्य की जय हो! जय जय श्रीवासादि गौर-भक्त-गण । जय श्रोता-गण,-----यॉर गौर प्राण-धन ॥
३॥
श्रीवास ठाकुर इत्यादि समस्त भक्तों की जय हो! उन सारे पाठकों की जय हो, जिन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु को अपने प्राणधन माने हैं।
एड-मत प्रभु आछेन प्रेमेर आवेशे ।।हेन-काले प्रतापरुद्र करिल प्रवेशे ॥
४॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु प्रेमाविष्ट होकर विश्राम कर रहे थे, तभी राजा प्रतापरुद्र बगीचे के भीतर प्रविष्ट हुए।
सार्वभौम-उपदेशे छाड़ि' राज-वेश ।।एकला वैष्णव-वेशे करिल प्रवेश ॥
५॥
सार्वभौम भट्टाचार्य के उपदेशानुसार राजा ने अपना राजसी वेश छोड़ दिया और अब वह वैष्णव-वेश में बगीचे में प्रविष्ट हुए।
सब-भक्तेर आज्ञा निल ग्रोड़-हात हा ।।प्रभु-पद धरि' पड़े साहस करिया ॥
६॥
महाराज प्रतापरुद्र इतने विनीत थे कि सर्वप्रथम उन्होंने सारे भक्तों से हाथ जोड़कर अनुमति माँगी। तब साहस बटोरकर वे महाप्रभु के चरणों पर गिर पड़े और उनका स्पर्श किया।
आङ्घि मुदि' प्रभु प्रेमे भूमिते शयान ।नृपति नैपुण्ये करे पाद-संवाहन ॥
७॥
श्री चैतन्य महाप्रभु प्रेमाविष्ट होकर आँखें मूंदे चबूतरे पर लेटे थे और राजा बड़ी निपुणता से उनके पाँव दबाने लगे।
रास-लीलार श्लोक पडि' करेन स्तवन ।। जयति तेऽधिकं अध्याय करेन पठन ॥
८॥
वे श्रीमद्भागवत से रासलीला विषयक श्लोक पढ़कर सुनाने लगे। उन्होंने जयति तेऽधिकम् से प्रारम्भ होने वाला अध्याय पढ़ा।
शुनिते शुनिते प्रभुर सन्तोष अपार ।। ‘बल, बल' बलि' प्रभु बले बार बार ॥
९॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने इन श्लोकों को सुना, तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुए और बारम्बार कहने लगे सुनाते रहो, सुनाते रहो।
तव कथामृतं श्लोक राजा ने पड़िल ।।उठि' प्रेमावेशे प्रभु आलिङ्गन कैल ॥
१०॥
ज्योंही राजा ने तव कथामृतं शब्दों से आरम्भ होने वाला श्लोक पढ़ा, त्योंही महाप्रभु तुरन्त प्रेमावेश में आकर उठे और उन्होंने राजा का आलिंगन कर लिया।
तुमि मोरे दिले बहु अमूल्य रतन ।मोर किछु दिते नाहि, दिलु आलिङ्गन ॥
११॥
राजा द्वारा सुनाये गये श्लोक को सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, तुमने मुझे अमूल्य रत्न प्रदान किये हैं, किन्तु मेरे पास बदले में तुम्हें देने के लिए कुछ भी नहीं है। इसीलिए मैं तुम्हारा आलिंगन-मात्र कर रहा ।
एत बलि' सेइ श्लोक पड़े बार बार । दुइ-जनार अड़े कम्प, नेत्रे जल-धार ॥
१२॥
यह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु उसी श्लोक को बारम्बार पढ़ने लगे। राजा तथा श्री चैतन्य महाप्रभु दोनों ही काँप रहे थे और उनकी आँखों से आँसू बह रहे थे।
तव कथामृतं तप्त-जीवनं ।कविभिरीड़ितं कल्मषापहम् ।। श्रवण-मङ्गलं श्रीमदाततं ।भुवि गृणन्ति ये भूरिदा जनाः ॥
१३॥
हे प्रभु, आपकी वाणी का अमृत तथा आपके कार्यकलापों का वर्णन इस भौतिक जगत् से संतप्त जीवों के लिए प्राणतुल्य हैं। ये कथाएँ महापुरुषों द्वारा संप्रेषित की जाती हैं और ये सभी पापफलों का नाश करने वाली हैं। जो भी इन कथाओं को सुनता है, उसे सौभाग्य प्राप्त होता है। ये कथाएँ विश्वभर में प्रसारित होती हैं और आध्यात्मिक शक्ति से युक्त होती हैं। जो लोग ईश्वर के सन्देश का प्रचार करते हैं, वे निश्चय । महान् दानी तथा कल्याणकर्ता हैं।
भूरिदा' 'भूरिदा' बलि' करे आलिङ्गन ।। इँहो नाहि जाने,—इहों हय कोन्जन ॥
१४॥
इस श्लोक को पढ़ने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने तुरन्त राजा प्रतापरुद्र का आलिंगन कर लिया और कहा, तुम अत्यन्त वदान्य (दानी ) हो! तुम अत्यन्त दानी हो। अभी तक श्री चैतन्य महाप्रभु यह नहीं जानते थे कि राजा कौन थे।
पूर्व-सेवा देखि' ताँरै कृपा उपजिले ।। अनुसन्धान विना कृपा-प्रसाद करिल ॥
१५॥
श्री चैतन्य महाप्रभु में राजा की पिछली सेवा के फलस्वरूप दयाभाव जागा था। अतएव बिना पूछे कि वह कौन है, महाप्रभु ने तुरन्त उस पर कृपा की।
एइ देख, चैतन्येर कृपा-महाबल ।। तार अनुसन्धान विना कराय सफल ॥
१६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा कितनी शक्तिशाली है! महाप्रभु ने राजा में पूछे बिना हर काम को सफल बना दिया।
प्रभु बले,—के तुमि, करिला मोर हित?।।आचम्बिते आसि' पियाओ कृष्ण-लीलामृत? ॥
१७॥
अन्त में श्री चैतन्य महाप्रभु बोले, तुम कौन हो? तुमने मेरे लिए इतना किया है। सहसा यहाँ आकर तुमने मुझे कृष्ण की लीलाओं का अमृतपान कराया है।
राजा कहे,—आमि तोमार दासेर अनुदास ।भृत्येर भृत्य कर,——एइ मोर आश ॥
१८॥
राजा ने उत्तर दिया, हे प्रभु. मैं आपके दासों का परम आज्ञाकारी दास हूँ। मेरी अभिलाषा है कि आप मुझे अपने दासों के दास के रूप में स्वीकार करें।
तबे महाप्रभु ताँरे ऐश्वर्य देखाइल ।। ‘कारेह ना कहिबे' एइ निषेध करिल ॥
१९॥
उस समय श्री चैतन्य महाप्रभु ने राजा को अपना कुछ दैवी ऐश्वर्य दिखलाया और उन्हें मना किया कि वे इसे किसी से प्रकट न करे।
‘राजा'–हेन ज्ञान कभु ना कैल प्रकाश ।। अन्तरे सकल जानेन, बाहिरे उदास ॥
२०॥
यद्यपि जो कुछ घटित हो रहा था, उसे महाप्रभु मन ही मन जानते थे, किन्तु बाह्य रूप से उन्होंने उसे प्रकट नहीं किया। न ही उन्होंने यह प्रकट किया कि वे यह जान रहे थे कि वे राजा प्रतापरुद्र से बातें कर रहे थे।
प्रतापरुद्रेर भाग्य देखि भक्त-गणे । राजारे प्रशंसे सबे आनन्दित-मने ॥
२१॥
राजा प्रतापरुद्र पर महाप्रभु की विशेष कृपा देखकर सारे भक्तों ने । ना के भाग्य की प्रशंसा की और उन सबके मन आनन्दमग्न हो गये।
दण्डवत्करि' राजा बाहिरे चलिला ।। ग्रोड़ हस्त करि' सब भक्तेरे वन्दिला ॥
२२॥
राजा बड़े ही विनीत भाव से हाथ जोड़कर भक्तों को प्रणाम करके और श्री चैतन्य महाप्रभु को नमस्कार करके बाहर चले गये।
मध्याह्न करिला प्रभु लञा भक्त-गण ।। वाणीनाथ प्रसाद लञा कैल आगमन ॥
२३ ।।। इसके बाद वाणीनाथ राय सभी प्रकार के प्रसाद ले आया और श्री चैतन्य महाप्रभु ने भक्तों सहित भोजन किया।
सार्वभौम-रामानन्द-वाणीनाथे दिया ।प्रसाद पाठा'ल राजा बहुत करिया ॥
२४॥
राजा ने भी सार्वभौम भट्टाचार्य, रामानन्द राय तथा वाणीनाथ राय के हाथों पर्याप्त प्रसाद भेजा।
'बलगण्डि भोगेर प्रसाद–उत्तम, अनन्त ।‘नि-सकड़ि' प्रसाद आइल, यार नाहि अन्त ॥
२५॥
राजा द्वारा भेजा गया प्रसाद बलगंडि उत्सव में अर्पित किया गया था। इसमें दूध के बने कच्चे पदार्थ तथा फल थे। ये सभी उत्तम कोटि के थे और अनन्त किस्मों वाले थे।
छाना, पाना, पैड़, आम्र, नारिकेल, काँठाल ।नाना-विध कदलक, आर बीज-ताल ॥
२६ ॥
उसमें दही, फल का रस, नारियल, आम, सूखा नारियल, कटहल, तरह-तरह के केले तथा ताड़फल के बीज थे।
नारङ्ग, छोलङ्ग, टाबा, कमला, बीज-पूर।बादाम, छोहारा, द्राक्षा, पिण्ड-खर्जुर ॥
२७॥
उसमें नारंगियाँ, चकोतरे, कमला, बादाम, छोहारे, किशमिश तथा खजूरें थीं।
मनोहरा-लाड़ आदि शतेक प्रकार ।।अमृत-गुटिका-आदि, क्षीरसा अपार ॥
२८॥
उसमें मनोहर लड्ड इत्यादि सैंकड़ों प्रकार की मिठाइयाँ, अमृत गुटिका जैसी मिठाइयाँ तथा औंटे दूध की अनेक किस्में थीं।
अमृत-मण्डा, सरवती, आर कुम्ड़ा-कुरी ।।सरामृत, सरभाजा, आर सरपुरी ॥
२९॥
उसमें पपीते, शरबती नारंगी तथा सीताफल का गुदा थे। सरामृत ( क्रीम ), सरभाजा (तली क्रीम) तथा क्रीम की बनी पूड़ी ( सरपुरी) थीं।
हरि-वल्लभ, सेडोति, कर्पूर, मालती ।डालिमा मरिच-लाडु, नवात, अमृति ॥
३० ॥
हरिवल्लभ मिठाई तथा सेवंती, कपूर एवं मालती फूलों से बनी fuठाइयाँ भी थीं। उसमें अनार, काली मिर्च से बनी मिठाइयाँ, नवात ( चीनी को गलाकर बनाई गई मिठाई) तथा अमृति जिलिपि थीं।
पद्मचिनि, चन्द्रकान्त, खाजा, खण्डसार ।वियरि, कझा, तिलाखाजार प्रकार ॥
३१॥
उसमें कमलचीनी, बड़ा, खाजा, खण्डसारी, वियरि (तले चावल से बनी मिठाई), कद्मा (तिल से बनी मिठाई) तथा तिलखाजा (तिल से बनी मिठाई ) थे।
नारङ्ग-छोलङ्ग-आम्रवृक्षेर आकार ।।फुल-फल-पत्र-युक्त खण्डेर विकार ॥
३२॥
खण्डसारी से बनी नारंगी, नींबू तथा आम के वृक्ष के आकार की मिठाइयाँ, फल-फूल तथा पत्तियों से सजाई गई थीं।
दधि, दुग्ध, ननी, तक्र, रसाला, शिखरिणी ।स-लवण मुद्गाङ्कर, आदा खानि खानि ॥
३३॥
उसमें दही, दूध, मक्खन, छाछ, फलों का रस, शिखरिणी ( दही। तथा शक्कर से तलकर बनी) तथा कतरे अदरक से युक्त नमकीन मूंग की। दाल के अंकुर थे।
लेम्बु-कुल-आदि नाना-प्रकार आचार । लिखिते ना पारि प्रसाद कतेक प्रकार ॥
३४॥
उसमें कई प्रकार के अचार भी थे-यथा नींबू का अचार, बेर का अचार इत्यादि। मैं भगवान जगन्नाथजी को अर्पित किये जाने वाले पकवानों के प्रकारों का वर्णन करने में सक्षम नहीं हूँ।
प्रसादे पूरित हइल अर्ध उपवन ।। देखिया सन्तोष हैल महाप्रभुर मन ॥
३५ ॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने देखा कि नाना प्रकार के प्रसाद से आधा बगीचा भरा हुआ है, तो वे परम सन्तुष्ट हुए।
एइ-मत जगन्नाथ करेन भोजन ।। एइ सुखे महाप्रभुर जुड़ाय नयन ॥
३६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु यह देखकर पूर्णतया सन्तुष्ट थे कि भगवान् जगन्नाथ ने किस तरह सारा भोजन ग्रहण किया।
केया-पत्र-द्रोणी आइल बोझा पाँच-सात ।। एक एक जने दश दोना दिल,—एत पात ॥
३७॥
फिर केतकी वृक्ष की पत्तियों की बनी प्लेटों के पाँच-सात बोझ आये। प्रत्येक व्यक्ति को ऐसी दस दस प्लेटें दी गईं और इस तरह पत्तों की ये प्लेटें बाँटी गईं।
कीर्तनीयार परिश्रम जानि' गौरराय ।। ताँ-सबारे खाओयाइते प्रभुर मन धाय ॥
३८ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु सभी कीर्तनियों के परिश्रम को समझ रहे थे, 3अतएव वे उन्हें पेट भरकर खिलाना चाहते थे।
पाँति पाँति करि' भक्त-गणे वसाइला ।।परिवेशन करिबारे आपने लागिला ॥
३९॥
सारे भक्त पाँतों में बैठ गये और श्री चैतन्य महाप्रभु स्वयं प्रसाद का वितरण करने लगे।
प्रभु ना खाइले, केह ना करे भोजन ।स्वरूप-गोसाञि तबे कैल निवेदन ॥
४०॥
किन्तु भक्त तब तक प्रसाद ग्रहण नहीं कर रहे थे, जब तक स्वयं महाप्रभु प्रसाद ग्रहण न कर लें। स्वरूप गोस्वामी ने यह बात महाप्रभु को बताई।
आपने वैस, प्रभु, भोजन करिते ।।तुमि ना खाइले, केह ना पारे खाइते ॥
४१॥
स्वरूप दामोदर ने कहा, हे प्रभु, कृपया आप खाने के लिए बैठ जायें। जब तक आप नहीं खायेंगे, तब तक कोई भी नहीं खायेगा।
तबे महाप्रभु वैसे निज-गण ला ।। भोजन कराइल सबाके आकण्ठ पूरिया ॥
४२।।। तब श्री चैतन्य महाप्रभु अपने निजी संगियों समेत बैठ गये और उन सबको भरपेट भोजन कराया।
भोजन करि' वसिला प्रभु करि' आचमन ।। प्रसाद उबरिल, खाय सहस्त्रेक जन ॥
४३॥
भोजन करने के बाद महाप्रभु अपना मुँह धोकर बैठ गये। इतना अधिक प्रसाद बचा था कि उसे हजारों लोगों में वितरित कर दिया गया।
प्रभुर आज्ञाय गोविन्द दीन-हीन जने ।।दुःखी काङ्गाल आनि' कराय भोजने ॥
४४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के आदेश पर उनके निजी सेवक गोविन्द ने सारे दीन-भिखारियों को बुलाया, जो अपनी गरीबी से दुःखी थे और उन्हें भर-पेट भोजन कराया।
काङ्गालेर भोजन-रङ्ग देखे गौरहरि ।।‘हरि-बोल' बलि' तारे उपदेश करि ॥
४५ ॥
गरीबों को प्रसाद ग्रहण करते देखकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने हरिबोल! का उच्चारण किया और उन्हें उपदेश दिया कि वे इस नाम का कीर्तन करें।
‘हरि-बोल' बलि' काङ्गाल प्रेमे भासि' ग्राय ।।ऐछन अद्भुत लीला करे गौरराय ॥
४६॥
ज्योंही भिखारियों ने हरिबोल का उच्चारण किया, वे सभी तुरन्त भगवत्प्रेम में निमग्न हो गये। इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने अद्भुत लीलाएँ सम्पन्न कीं।
इहाँ जगन्नाथेर रथ-चलन-समय ।।गौड़ सब रथ टाने, आगे नाहि याय ॥
४७॥
जब जगन्नाथजी का रथ खींचने का समय हो गया, तो बगीचे के बाहर सारे कार्यकर्ता ( गौड़) उसे खींचने का प्रयास करने लगे, किन्तु रथ आगे नहीं बढ़ा।
टानिते ना पारे गौड़, रथ छाड़ि' दिल । पात्र-मित्र लञा राजा व्यग्र हा आइल ।।४८॥
जब गौड़ों ने देखा कि रथ टस से मस नहीं हो रहा, तो उन्होंने प्रयास करना छोड़ दिया। तभी अत्यन्त चिन्तित राजा वहाँ आये और उनके साथ अनके अधिकारी तथा मित्र थे।
महा-मल्ल-गणे दिल रथ चालाइते । आपने लागिला रथ, ना पारे टानिते ॥
४९॥
तब राजा ने रथ खींचने के लिए बड़े-बड़े पहलवानों को लगाया और साथ में राजा भी सम्मिलित हो गये किन्तु रथ हिलाये नहीं हिला।।
व्यग्र हञा आने राजा मत्त-हाती-गण।रथ चालाइते रथे करिल ग्रोजन ॥
५०॥
रथ को चलाने की और अधिक उत्सुकता में राजा ने अत्यन्त बलशाली हाथी मँगवाकर रथ में जोते।
मत्त-हस्ति-गण टाने यार व्रत बल ।।एक पद ना चले रथ, हइल अचल ॥
५१॥
बलशाली हाथियों ने रथ को पूरी शक्ति से खींचा, लेकिन इतने पर। भी रथ एक इंच भी नहीं हिला तथा अचल बना रहा।
शुनि' महाप्रभु आइला निज-गण लञा ।।मत्त-हस्ती रथ टाने, देखे दाण्डाजा ॥
५२॥
ज्योंही श्री चैतन्य महाप्रभु ने यह खबर सुनी, वे अपने सारे निजी संगियों के साथ वहाँ गये। वे वहाँ खड़े होकर हाथियों द्वारा रथ खींचने का प्रयास देखने लगे।
अङ्कशेर घाय हस्ती करये चित्कार ।।रथ नाहि चले, लोके करे हाहाकार ॥
५३॥
सारे हाथी अंकुश से मारे जाने के कारण चिंघाड़ रहे थे, फिर भी रथ Iहिल- इल नहीं रहा था। वहाँ पर एकत्र सारे लोग हाहाकार करने लगे।
तबे महाप्रभु सब हस्ती घुचाइल ।निज-गणे रथ-काछि टानिबारे दिल ॥
५४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने सारे हाथियों को छोड़ दिया और रथ की ५ अपने संगियों के हाथों में थमा दीं।
आपने रथेर पाछे ठेले माथा दिया ।। हेडू हडू करि, रथ चलिल धाड्या ॥
५५॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु स्वयं रथ के पिछले हिस्से में गये और अपने सिर से रथ को ठेलने लगे। तब वह रथ घर घर्र की आवाज करके चलने लगा।
भक्त-गण काछि हाते करि' मात्र धाय ।।आपने चलिल रथ, टानिते ना पाय ॥
५६॥
वास्तव में रथ स्वतः चलने लगा और भक्तगण अपने हाथों में मात्र रस्सियाँ थामे रहे। चूँकि रथ बिना प्रयास के चल रहा था, अतएव भक्तों को खींचने की आवश्यकता नहीं पड़ी।
आनन्दे करये लोक 'जय' 'जय'-ध्वनि ।।‘जय जगन्नाथ' बई आर नाहि शुनि ॥
५७॥
जब रथ आगे बढ़ने लगा, तो सभी लोग प्रसन्न होकर जय! जय! तथा भगवान जगन्नाथ की जय हो! बोलने लगे। इसके अतिरिक्त और कुछ भी सुनाई नहीं पड़ रहा था।
निमेषे त' गेल रथ गुण्डिचार द्वार ।।चैतन्य-प्रताप देखि' लोके चमत्कार ॥
५८॥
वह रथ क्षण-भर में गुण्डिचा मन्दिर के द्वार पहुँच गया। महाप्रभु की असाधारण शक्ति देखकर सारे लोग आश्चर्यचकित थे।
जय गौरचन्द्र', 'जय श्री कृष्ण-चैतन्य' ।एई-मत कोलाहल लोके धन्य धन्य ॥
५९॥
भीड़ ने जय गौरचन्द्र! जय श्रीकृष्ण चैतन्य! का तुमुल नाद किया। और लोग अद्भुत! अद्भुत! कहने लगे।
देखिया प्रतापरुद्र पात्र-मित्र-सड़े।।प्रभुर महिमा देखि' प्रेमे फुले अङ्गे ॥
६०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की महानता देखकर प्रतापरुद्र महाराज तथा उनके मंत्री एवं मित्रगण भावमय प्रेम से इतने अभिभूत हुए कि उन्हें रोमांच हो आया।
पाण्डु-विजय तबे करे सेवक-गणे ।।जगन्नाथ वसिला गिया निज-सिंहासने ॥
६१॥
तब जगन्नाथजी के सारे सेवकों ने उन्हें रथ से नीचे उतारा और भगवान् अपने सिंहासन पर बैठने चले गये।
सुभद्रा-बलराम निज-सिंहासने आइला ।।जगन्नाथेर स्नान-भोग हइते लागिला ॥
६२॥
सुभद्रा तथा बलराम भी अपने-अपने सिंहासन पर बैठ गये। इसके बाद जगन्नाथजी को स्नान कराया गया और अन्त में भोग लगाया गया।
आङ्गिनाते महाप्रभु लञा भक्त-गण ।। आनन्दे आरम्भ कैल नर्तन-कीर्तन ।। ६३ ।।। जब भगवान जगन्नाथ, भगवान् बलराम तथा सुभद्रा अपने-अपने महासनों पर बैठ गये, तो श्री चैतन्य महाप्रभु अपने भक्तों के साथ मन्दिर के आँगन में बड़े ही हर्ष से संकीर्तन करने लगे और नाचने-गाने लगे।
आनन्दे महाप्रभुर प्रेम उथलिल ।। देखि' सब लोक प्रेम-सागरे भासिल ॥
६४॥
जय श्री चैतन्य महाप्रभु नाच-गा रहे थे, तो वे प्रेमाविष्ट हो गये और जिन लोगों ने उन्हें देखा, वे भी भगवत्प्रेम के सागर में डूब गये।
नृत्य करि' सन्ध्या-काले आरति देखिल । आइटोटा आसि' प्रभु विश्राम करिल ॥
६५॥
। गुण्डिचा मन्दिर के आँगन में अपना नृत्य समाप्त करके संध्या-समय महाप्रभु ने आरती उत्सव देखा। तत्पश्चात् वे आइटोटा नामक स्थान पर गये और वहाँ रात्रि में विश्राम किया।
अद्वैतादि भक्त-गण निमन्त्रण कैल ।।मुख्य मुख्य नव जन नव दिन पाइल ॥
६६॥
तभी अद्वैत आचार्य इत्यादि प्रमुख भक्तों ने नौ दिनों तक अपने-अपने घरों में महाप्रभु को आमन्त्रित करने का अवसर प्राप्त किया।
आर भक्त-गण चातुर्मास्ये ग्रत दिन ।एक एक दिन करि' करिल वण्टन ॥
६७॥
शेष भक्तों ने वर्षा के चार महीनों में महाप्रभु को एक एक दिन अपने यहाँ आमन्त्रित किया। इस तरह उन्होंने आमन्त्रणों का बँटवारा कर लिया।
चारि मासेर दिन मुख्य-भक्त बाँटि' निल ।।आर भक्त-गण अवसर ना पाइल ।। ६८॥
इस चार महीने की अवधि में प्रतिदिन का आमन्त्रण महत्त्वपूर्ण भक्तों ने आपस में बाँट लिया। शेष भक्तों को महाप्रभु को अपने यहाँ आमन्त्रित करने का अवसर ही नहीं मिल पाया।
एक दिन निमन्त्रण करे दुइ-तिने मिलि' ।एइ-मत महाप्रभुर निमन्त्रण-केलि ॥
६९॥
चूँकि उन्हें एक एक दिन नहीं मिला, अतएव दो या तीन भक्तों ने मिलकर आमन्त्रण दिया। ये लीलाएँ हैं महाप्रभु द्वारा आमन्त्रण स्वीकार होने की।
प्रातः-काले स्नान करि' देखि' जगन्नाथ ।।सङ्कीर्तने नृत्य करे भक्त-गण साथ ॥
७० ॥
प्रात:काल स्नान करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु भगवान् जगन्नाथ का दर्शन करने मन्दिर जाया करते थे। तब वे अपने भक्तों के साथ संकीर्तन करते थे।
कभु अद्वैते नाचाय, कभु नित्यानन्दे ।। कभु हरिदासे नाचाय, कभु अच्युतानन्दे ॥
७१ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कीर्तन तथा नृत्य के द्वारा कभी अद्वैत आचार्य को नाचने के लिए प्रेरित किया। तो कभी वे नित्यानन्द प्रभु, हरिदास ठाकुर तथा अच्युतानन्द को नाचने के लिए प्रेरित करते।
कभु वक्रेश्वरे, कभु आर भक्त-गणे । त्रिसन्ध्या कीर्तन करे गुण्डिचा-प्राङ्गणे ॥
७२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु कभी वक्रेश्वर को कीर्तन तथा नृत्य में लगा देते थे तो कभी अन्य भक्तों को। महाप्रभु गुण्डिचा मन्दिर के आँगन में नित्य तीन बार-प्रातः, दोपहर तथा शाम को-संकीर्तन करते थे।
वृन्दावने आइला कृष्ण–एइ प्रभुर ज्ञान ।कृष्णेर विरह-स्फूर्ति हैल अवसान ॥
७३॥
इस समय पर चैतन्य महाप्रभु को लगा कि कृष्ण वृन्दावन लौट चुके हैं। ऐसा सोचकर उनकी कृष्ण-विरह की अनुभूति शान्त हो गई।
राधा-सङ्गे कृष्ण-लीला--एइ हैल ज्ञाने ।एइ रसे मग्न प्रभु हइला आपने ॥
७४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु सदैव राधा तथा कृष्ण की लीलाओं का चिन्तन #ते रहते और वे इसी चेतना में निमग्न रहते।
नानोद्याने भक्त-सङ्गे वृन्दावन-लीला ।।'इन्द्रद्युम्न'-सरोवरे करे जल-खेला ॥
७५ ॥
गुण्डिचा मन्दिर के पास अनेक बगीचे थे और श्री चैतन्य महाप्रभु । तथा उनके भक्त इन सबमें वृन्दावन-लीलाएँ किया करते थे। इन्द्रद्युम्न नामक सरोवर में वे जल-क्रीड़ा करते थे।
आपने सकल भक्ते सिञ्चे जल दिया । सब भक्त-गण सिचे चौदिके बेड़िया ॥
७६॥
महाप्रभु स्वयं सारे भक्तों पर जल उछालते और सारे भक्त भी उन्हें । चारों ओर से घेरकर उन पर पानी उछालते।
कभु एक मण्डल, कभु अनेक मण्डल ।। जल-मण्डूक-वाद्ये सबे बाजाय करताल ॥
७७॥
जल में वे कभी एक वृत्त ( मण्डल ) बनाते और कभी अनेक वृत्त बनाते। वे जल के भीतर करताल बजाकर मेढ़कों की टर्राहट की नकल उतारते।
दुइ-दुइ जने मेलि' करे जल-रण ।। केह हारे, केह जिने—प्रभु करे दरशन ॥
७८॥
कभी दो भक्त जोड़ी बनाकर जल में लड़ते। इनमें से एक जीत जाता और दूसरा हार जाता। महाप्रभु यह सारा तमाशा देखते रहते।
अद्वैत-नित्यानन्दे जल-फेलाफेलि ।। आचार्य हारिया पाछे करे गालागालि ॥
७९ ॥
पहला खिलवाड़ अद्वैत आचार्य तथा नित्यानन्द प्रभु के बीच हुआ। में एक दूसरे पर पानी फेंकने लगे। अद्वैत आचार्य हार गये और बाद में नित्यानन्द को गालियाँ देने लगे।
विद्यानिधिर जल-केलि स्वरूपेर सने ।।गुप्त-दत्ते जल-केलि करे दुइ जने ॥
८०॥
स्वरूप दामोदर तथा विद्यानिधि भी एक-दूसरे पर पानी फेंकने लगे। मुरारि गुप्त तथा वासुदेव दत्त ने भी इसी तरह खिलवाड़ किया।
श्रीवास-सहित जल खेले गदाधर ।। राघव-पण्डित सने खेले वक्रेश्वर ॥
८१॥
श्रीवास ठाकुर तथा गदाधर पण्डित के बीच जलक्रीड़ा हुई तथा राघव पण्डित और वक्रेश्वर पण्डित के बीच भी ऐसी ही क्रीड़ा हुई। वे । एक-दूसरे पर जल फेंकने में व्यस्त हो गये।
सार्वभौम-सङ्गे खेले रामानन्द-राय ।। गाम्भीर्य गेल दोंहार, हैल शिशु-प्राय ॥
८२॥
सार्वभौम भट्टाचार्य श्रीरामानन्द राय के साथ जल-क्रीड़ा करने लगे। वे दोनों अपनी गम्भीरता त्यागकर बच्चों जैसे बन गये।
महाप्रभु ताँ दोंहार चाञ्चल्य देखियो । गोपीनाथाचार्ये किछु कहेन हासिया ॥
८३ ॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने सार्वभौम भट्टाचार्य तथा रामानन्द राय की चंचलता देखी, तो वे हँसने लगे और गोपीनाथ आचार्य से बोले।
पण्डित, गम्भीर, मुँहे—प्रामाणिक जन । बाल-चाञ्चल्य करे, कराह वर्जन ॥
८४॥
भट्टाचार्य तथा रामानन्द राय दोनों से कहो कि वे अपना बालकों नैमा खेल बन्द कर दें, क्योंकि दोनों अत्यन्त विद्वान, गम्भीर तथा महापुरुष हैं।
गोपीनाथ कहे,—तोमार कृपा-महासिन्धु ।उछलित करे ग्रबे तार एक बिन्दु ॥
८५ ॥
गोपीनाथ आचार्य ने उत्तर दिया, मुझे लगता है कि आपकी महान् कृपा रूपी सिंधु का एक बिन्दु उनके ऊपर उछलकर गिर पड़ा है।
मेरु-मन्दर-पर्वत डुबाय ग्रथा तथा।। एइ दुइ–गण्ड-शैल, इहार का कथा ॥
८६॥
आपके कृपा-सिन्धु की एक बूंद सुमेरु तथा मन्दर जैसे विशाल पर्वतों को डुबो सकती है। चूंकि ये दोनों महाशय लघु पर्वतों जैसे हैं, अतएव ये दोनों आपकी कृपा रूपी सिन्धु में डूबे जा रहे हैं।
शुष्क-तर्क-खलि खाइते जन्म गेल याँर।। ताँरै लीलामृत पियाओ,—ए कृपा तोमार ॥
८७॥
तर्क उस शुष्क खली के समान है, जिसमें से सारा तेल निचोर लिया गया हो। भट्टाचार्य का सारा जीवन ऐसी शुष्क खली को खाने में बीता, किन्तु अब आपने उन्हें दिव्य लीलाओं का अमृतपान कराया है। निश्चय ही यह आपकी उन पर महती कृपा है।
हासि' महाप्रभु तबे अद्वैते आनिल ।।जलेर उपरे तौरै शेष-शय्या कैल ॥
८८ ॥
गोपीनाथ आचार्य की बात सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु हँसने लगे और अद्वैत आचार्य को बुलाकर उन्हें शेष नाग की शय्या जैसा बनने को कहा।
आपने ताँहार उपर करिल शयन ।‘शेष-शायी-लीला' प्रभु कैल प्रकटन ॥
८९॥
जल में तैर रहे अद्वैत प्रभु के ऊपर लेटकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने शेषशायी विष्णु की लीला का प्रदर्शन किया।
अद्वैत निज-शक्ति प्रकट करिया ।। महाप्रभु ला बुले जलेते भासिया ॥
९०॥
अद्वैत आचार्य अपनी निजी शक्ति प्रकट करते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु को लेकर जल के ऊपर तैरते रहे।
एइ-मत जल-क्रीड़ा करि' कत-क्षण । आइटोटा आइला प्रभु लञा भक्त-गण ॥
९१॥
कुछ काल तक जल-क्रीड़ा करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु अपने भक्तों के साथ आइटोटा नामक अपने स्थान पर लौट आये।
पुरी, भारती आदि ग्रत मुख्य भक्त-गण ।। आचार्येर निमन्त्रणे करिला भोजन ॥
९२॥
अद्वैत आचार्य द्वारा निमन्त्रित किये जाने पर परमानन्द पुरी, ब्रह्मानन्द भारती तथा महाप्रभु के अन्य प्रमुख भक्तों ने भोजन ग्रहण किया।
वाणीनाथ आर ग्रत प्रसाद आनिल ।। महाप्रभुर गणे सेइ प्रसाद खाइल ॥
९३॥
वाणीनाथ राय अपने साथ जो भी अधिक प्रसाद लाये थे, उसे महाप्रभु के अन्य संगियों ने खाया।
अपराह्ने आसि' कैल दर्शन, नर्तन । निशाते उद्याने आसि' करिला शयन ॥
९४॥
दोपहर के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु गुण्डिचा मन्दिर में भगवान् का दर्शन करने तथा नाचने के लिए गये। रात्रि में वे विश्राम करने के लिए बगीचे में गये।
आर दिन आसि' कैल ईश्वर दरशन ।।प्राङ्गणे नृत्य-गीत कैल कत-क्षण ॥
९५॥
अगले दिन श्री चैतन्य महाप्रभु गुण्डिचा मन्दिर भी गये और भगवान् का दर्शन किया। तब वे आँगन में कुछ समय तक गाते और नाचते रहे।
भक्त-गण-सङ्गे प्रभु उद्याने आसिया ।।वृन्दावन-विहार करे भक्त-गण ला ॥
९६ ॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु अपने भक्तों के साथ बगीचे में गये और वहाँ । उन्होंने वृन्दावन-लीला का आनन्द उठाया।
वृक्ष-वल्ली प्रफुल्लित प्रभुर दरशने । भृङ्ग-पिक गाय, वहे शीतल पवने ॥
९७॥
बगीचे में नाना प्रकार के वृक्ष तथा लताएँ थे और वे सभी श्री चैतन्य महाप्रभु को देखकर अत्यन्त प्रफुल्लित थे। पक्षी चहचहा रहे थे, भौंरे गुनगुना रहे थे और शीतल पवन बह रही थी।
प्रति-वृक्ष-तले प्रभु करेन नर्तन ।। वासुदेव-दत्त मात्र करेन गायन ॥
९८॥
चूंकि महाप्रभु हर वृक्ष के नीचे नाच रहे थे, इसलिए वासुदेव को अकेले गाना पड़ा।
एक एक वृक्ष-तले एक एक गान गाय । परम-आवेशे एका नाचे गौरराय ॥
१९॥
जब वासुदेव दत्त हर वृक्ष के नीचे पृथक्-पृथक् गाना गा रहे थे, तो श्री चैतन्य महाप्रभु बड़े ही भावावेश में अकेले नाच रहे थे।
तबे वक्रेश्वरे प्रभु कहिली नाचिते ।।वक्रेश्वर नाचे, प्रभु लागिला गाइते ॥
१००॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने वक्रेश्वर पण्डित को नाचने के लिए आदेश दिया और ज्योंही वे नाचने लगे, महाप्रभु गाने लगे।
प्रभु-सङ्गे स्वरूपादि कीर्तनीया गाय ।।दिक्विदिक्नाहि ज्ञान प्रेमेर वन्याय ॥
१०१॥
तब स्वरूप दामोदर तथा अन्य कीर्तनिये भी श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ-साथ गाने लगे। प्रेमविभोर होने के कारण उन्हें समय तथा परिस्थिति का ध्यान ही न रहा।
एइ मत कत-क्षण करि वन-लीला ।।नरेन्द्र-सरोवरे गेला करिते जल-खेला ॥
१०२॥
कुछ समय तक इस तरह उद्यान-लीला करने के बाद वे सभी नरेन्द्र सरोवर में स्नान करने गये और वहाँ जल-क्रीड़ा का आनन्द लूटा।
जल-क्रीड़ा करि' पुनः आइला उद्याने ।भोजन-लीला कैला प्रभु ला भक्त-गणे ॥
१०३ ॥
जल-क्रीड़ा करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु पुनः बगीचे में लौट आये और वहाँ भक्तों के साथ प्रसाद ग्रहण किया।
नव दिन गुण्डिचाते रहे जगन्नाथ ।।महाप्रभु ऐछे लीला करे भक्त-साथ ॥
१०४॥
भगवान् श्री जगन्नाथ देव नौ दिनों तक गुण्डिचा मन्दिर में निवासकरते रहे। इस बीच श्री चैतन्य महाप्रभु भी वहीं रुके रहे और अपने भक्तों के साथ लीलाएँ करते रहे, जिनका वर्णन किया जा चुका है।
‘जगन्नाथ-वल्लभ' नाम बड़ पुष्पाराम ।। नव दिन करेन प्रभु तथाइ विश्राम ॥
१०५॥
जहाँ महाप्रभु लीलाएँ कर रहे थे, वह बगीचा बहुत बड़ा था और जगन्नाथ वल्लभ कहलाता था। श्री चैतन्य महाप्रभु ने वहीं नौ दिनों तक विश्राम किया।
‘हेरा-पञ्चमी र दिन आइल जानिया । काशी-मिश्रे कहे राजा सयत्न करिया ॥
१०६॥
यह जानकर कि हेरापंचमी उत्सव आने वाला है, राजा प्रतापरुद्र ने काशी मिश्र से बड़ी सावधानी से बात की।
कल्य'हेरा-पञ्चमी' हबे लक्ष्मीर विजय । ऐछे उत्सव कर ग्रेन कभु नाहि हय ॥
१०७॥
कल हेरापंचमी या लक्ष्मीविजय उत्सव होगा। तुम इस उत्सव को इस | तरह से मनाओ, जैसाकि इसके पूर्व कभी न मनाया गया हो।
महोत्सव कर तैछे विशेष सम्भार ।। देखि' महाप्रभुर भैछे हय चमत्कार ॥
१०८॥
जो प्रतापरुद्र ने कहा, तुम इस उत्सव को इतने शानदार ढंग सेमनाओ कि इसे देखकर चैतन्य महाप्रभु पूरी तरह प्रसन्न और चकित हो जाएँ।
ठाकुरेर भाण्डारे आर आमार भाण्डारे ।। चित्र-वस्त्र-किङ्किणी, आर छत्र-चामरे ॥
१०९॥
मेरे भण्डार में तथा अर्चाविग्रह के भण्डार-घर में जितने भी छपे कपड़े, छोटी घंटियाँ, छत्र तथा चामर हों, इन सबको ले लो।
ध्वजावृन्द-पताका-घण्टाय करह मण्डन । नाना-वाद्य-नृत्य-दोलाय करह साजन ॥
११०॥
सभी तरह की छोटी बड़ी झंडियाँ तथा झंडे और घण्टे एकत्र करो। तब वाहन ( दोला ) सजाओ और विभिन्न संगीत तथा नृत्य मंडलियों को उसके साथ कर दो। इस तरह वाहन को आकर्षक ढंग से सजाओ।
द्विगुण करिया कर सब उपहार । रथ-यात्रा हैते ग्रैछे हय चमत्कार ॥
१११॥
प्रसाद की मात्रा को भी दुगुना कर दो। प्रसाद इतनी मात्रा में बने कि रथयात्रा उत्सव को भी मात दे दे।
सेइत' करिह, प्रभु लञा भक्त-गण ।। स्वच्छन्दे आसिया ग्रैछे करेन दरशन ॥
११२॥
उत्सव की व्यवस्था ऐसी हो कि श्री चैतन्य महाप्रभु अपने भक्तों समेत स्वच्छन्दपूर्वक बिना किसी कठिनाई के अर्चाविग्रह का दर्शन करने जा सकें।
प्रातःकाले महाप्रभु निज-गण लञा ।। जगन्नाथ दर्शन कैल सुन्दराचले याञा ॥
११३॥
प्रात:काल श्री चैतन्य महाप्रभु अपने निजी संगियों को साथ लेकर भगवान् जगन्नाथ का दर्शन करने सुन्दराचल गये।।
नीलाचले आइला पुनः भक्त-गण-सङ्गे।।देखिते उत्कण्ठा हेरा-पञ्चमीर रङ्गे ॥
११४॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनके निजी संगी हेरापंचमी उत्सव देखने के लिए बड़ी ही उत्सुकता के साथ नीलाचल लौट आये।
काशी-मिश्र प्रभुरे बहु आदर करिया ।स्वगण-सह भाल-स्थाने वसाइल लञा ॥
११५॥
काशी मिश्र ने बड़े ही आदर के साथ चैतन्य महाप्रभु का स्वागत किया और महाप्रभु तथा उनके संगियों को एक बहुत अच्छे स्थान में ले जाकर बिठाया।
रस-विशेष प्रभुर शुनिते मन हैल ।। ईषत् हासिया प्रभु स्वरूपे पुछिल ।। ११६ बैठने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु की इच्छा एक विशेष भक्ति-रस के बारे में सुनने को हुई, अतः वे मन्द हँसते हुए स्वरूप दामोदर से पूछने लगे।
यद्यपि जगन्नाथ करेन द्वारकाय विहार । सहज प्रकट करे परम उदार ।। ११७ ।।। तथापि वत्सर-मध्ये हय एक-बार ।। वृन्दावन देखिने तर उत्कण्ठा अपार ।। ११८ ॥
यद्यपि जगन्नाथ भगवान् द्वारका धाम में अपनी लीलाएँ करते हैं। औ। हां परम उदारता प्रकट करते हैं, फिर भी वर्ष में एक बार वे वृन्दावन देखने के लिए अत्यधिक उत्कण्ठित हो उठते हैं।
वृन्दावन-सम एइ उपवन-गण ।। ताहा देखिबारे उत्कण्ठित हय मन ॥
११९॥
पड़ोस के बगीचों की ओर लक्ष्य करते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, ये सारे बगीचे वृन्दावन जैसे ही हैं, अतएव जगन्नाथजी इन्हें फिर से देखने के लिए अत्यधिक उत्सुक हैं।
बाहिर हुइते करे रथ-यात्रा-छल ।। सुन्दराचले ग्राय प्रभु छाड़ि' नीलाचल ॥
१२०॥
बाहर से वे यह दिखावा करते हैं कि वे रथयात्रा में भाग लेना चाहते हैं, लेकिन वास्तव में वे वृन्दावन की प्रतिमूर्ति गुण्डिचा मन्दिर अर्थात् । सुन्दराचल जाने के लिए जगन्नाथ पुरी छोड़ना चाहते हैं।
नाना-पुष्पोद्याने तथा खेले रात्रि-दिने । लक्ष्मीदेवीरे सङ्गे नाहि लय कि कारणे? ॥
१२१।। भगवान् रात-दिन फूलों के विभिन्न बगीचों में लीलाओं का आनन्द लेते हैं। लेकिन वे अपने साथ लक्ष्मीदेवी को क्यों नहीं ले जाते ? स्वरूप कहे,- शुन, प्रभु, कारण इहार ।। वृन्दावन-क्रीड़ाते लक्ष्मीर नाहि अधिकार ॥
१२२ ॥
स्वरूप दामोदर ने उत्तर दिया, हे प्रभु, कृपया इसका कारण सुनें। मीदेवी को वृन्दावन लीलाओं में प्रवेश नहीं कराया जा सकता।
वृन्दावन-लीलाय कृष्णेर सहाय गोपीगण ।। गोपी-गण विना कृष्णेर हरिते नारे मन ।। १२३ ।। दावन लीलाओं में एकमात्र सहायिकाएँ गोपियाँ ही हैं। गोपियों है तरिक्त अन्य कोई कृष्ण का मन आकृष्ट नहीं कर सकता।
प्रभु कहे,--यात्रा-छले कृष्णेर गमन ।सुभद्रा आर बलदेव, सङ्गे दुइ जन ॥
१२४॥
महाप्रभु ने कहा, कृष्ण वहाँ रथयात्रा के बहाने सुभद्रा तथा बलदेव के साथ जाते हैं।
गोपी-सङ्गे ग्रत लीला हय उपवने ।।निगूढ़ कृष्णेर भाव केह नाहि जाने ॥
१२५।। उन बगीचों में गोपियों के साथ की सारी लीलाएँ भगवान् कृष्ण के अत्यन्त गुह्य भाव हैं। उन्हें कोई नहीं जानता।
अतएव कृष्णेर प्राकट्ये नाहि किछु दोष ।।तबे केने लक्ष्मीदेवी करे एत रोष? ॥
१२६॥
चूंकि कृष्ण की लीलाओं में कोई दोष नहीं है, तो फिर लक्ष्मीजी श्यों रुष्ट होती हैं? स्वरूप कहे,--प्रेमवतीर एइ त स्वभाव ।। कान्तेर औदास्य-लेशे हय क्रोध-भाव ॥
१२७।। स्वरूप दामोदर ने उत्तर दिया, प्रेम-पीड़ित युवती का स्वभाव है कि वह अपने प्रेमी से उपेक्षित होने पर तुरन्त क्रुद्ध हो जाती है।
हेन-काले, खचित ग्राहे विविध रतन । सुवर्णेर चौदोला करि' आरोहण ॥
१२८॥
जय स्वरूप दामोदर तथा श्री चैतन्य महाप्रभु इस प्रकार बातें कर रहे थे, तो लक्ष्मीजी का जुलूस निकट आ गया। वे सोने की पालकी में सवार थी, जिसे चार आदमी ले जा रहे थे और पालकी तरह-तरह के रत्नों से भी हुई थी।
छत्र-चामर-ध्वजा पताकार गण ।। नाना-वाद्य-आगे नाचे देव-दासी-गण ।। १२९॥
पालकी के चारों ओर लोग छत्र, चामर तथा झंडे-झंडियाँ लिए हुए थे और इनके आगे-आगे गवैये तथा नर्तकियाँ थीं।
ताम्बूल-सम्पुट, झारि, व्यजन, चामर ।। साथे दासी शत, हार दिव्य भूषाम्बर ।। १३०॥
दासियाँ जल के घड़े, चामर तथा पान की पिटारियाँ लिए थीं। ऐसी । सैंकड़ों दासियाँ थीं और वे सभी आकर्षक वस्त्र धारण किये थीं और बहुमूल्य हार पहने थीं।
अलौकिक ऐश्वर्य सड़े बहु-परिवार ।।क्रुद्ध हा लक्ष्मीदेवी आइला सिंह-द्वार ॥
१३१॥
लक्ष्मीजी क्रुद्ध मुद्रा में मन्दिर के मुख्य द्वार पर आ पहुँचीं। उनके साथ उनके परिवार के अनेक सदस्य थे और वे सभी असाधारण ऐश्वर्य का प्रदर्शन कर रहे थे।
जगन्नाथेर मुख्य मुख्य व्रत भृत्य-गणे ।। लक्ष्मीदेवीर दासी-गण करेन बन्धने ॥
१३२॥
जब जुलूस आ गया, तो लक्ष्मीजी की सारी दासियाँ भगवान जगन्नाथ के सारे प्रधान सेवकों को बन्दी बनाने लगीं।
बान्धिया आनिया पाड़े लक्ष्मीर चरणे ।।चोरे ग्रेन दण्ड करि' लय नाना-धने ॥
१३३ ॥
दासियों ने जगन्नाथजी के सेवकों को बाँधकर उन्हें हथकड़ियाँ लगा मी और उन्हें लाकर लक्ष्मीजी के चरणकमलों पर गिरने के लिए बाध्य किया। वे सभी धन लूटने वाले चोरों की तरह बन्दी बना लिए गये।
अचेतनवत्तारे करेन ताड़ने ।नाना-मत गालि देन भण्ड-वचने ॥
१३४॥
जब नौकर लक्ष्मी के चरणकमलों पर गिरे, तो वे लगभग अचेत हो गये। उन्हें डाँटा-डपटा गया और भद्दी-भद्दी गालियाँ दी गईं तथा मजाक के पात्र बनाये गये।
लक्ष्मी-सङ्गे दासी-गणेर प्रागल्भ्य देखिया ।हासे महाप्रभुर गण मुखे हस्त दिया ॥
१३५॥
जब महाप्रभु के संगियों ने लक्ष्मीजी की दासियों की ऐसी धृष्टता देखी, तो उन्होंने अपने हाथों से अपना मुख ढक लिया और वे हँसने लगे।
दामोदर कहे,—ऐछे मानेर प्रकार ।।त्रिजगते काहाँ नाहि देखि शुनि आर ॥
१३६॥
स्वरूप दामोदर ने कहा, तीनों लोकों में इस तरह का अहंकार नहीं है। कम-से-कम मैंने न तो देखा है, न सुना है।
मानिनी निरुत्साहे छाड़े विभूषण ।।भूमे वसि' नखे लेखे, मलिन-वदन ॥
१३७॥
जब कोई स्त्री उपेक्षित और निराश हो जाती है, तो अहंकार (मान) मश वह अपने आभूषण उतारकर खिन्न होकर फर्श पर बैठ जाती है और अपने नाखूनों से फर्श पर रेखाएँ खींचती है।
पूर्वे सत्यभामार शुनि एवं-विध मान ।। व्रजे गोपी-गणेर मान—रसेर निधान ॥
१३८॥
मैंने इस प्रकार का गर्व (मान) कृष्ण की सबसे गर्वीली महारानी सत्यभामा में सुना है। मैंने समस्त दिव्य रसों की खान समान वृन्दावन की गोपियों में भी ऐसा मान सुना है।
इँहो निज-सम्पत्ति सब प्रकट करिया। प्रियेर उपर ग्राय सैन्य साजाजा ॥
१३९॥
किन्तु लक्ष्मीजी के किस्से में मैं अन्य प्रकार का मान देख रहा हूँ। वे अपना ऐश्वर्य प्रदर्शित करती हैं, यहाँ तक कि अपने पति पर आक्रमण करने के लिए अपने सैनिकों के साथ जाती हैं।
प्रभु कहे,—कह व्रजेर मानेर प्रकार ।। स्वरूप कहे,—गोपी-मान-नदी शत-धार ॥
१४०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, कृपया वृन्दावन में प्रकट होने वाले समस्त प्रकार के मानों का वर्णन कीजिये। स्वरूप दामोदर ने उत्तर दिया, गोपियों का मान सैंकड़ों धाराओं के साथ बहने वाली नदी के समान है।
नायिकार स्वभाव, प्रेम-वृत्ते बहु भेद ।। सेइ भेदे नाना-प्रकार मानेर उद्धेद ॥
१४१॥
विभिन्न स्त्रियों ( नायिकाओं) में प्रेम के गुण तथा स्वभाव भिन्न flv, होते हैं। उनके ईष्र्यायुक्त क्रोध के भी अनेक भेद तथा गुण होते हैं।
सम्यगोपिकार मान ना याय कथन ।। एक-दुइ-भेदे करि दिग्दरशन ॥
१४२॥
गोपियों द्वारा प्रदर्शित विविध प्रकार के ईष्र्यायुक्त क्रोध का पूरा वर्णन कर पाना सम्भव नहीं है, किन्तु कुछ सिद्धान्तों से संकेत मिल जायेगा।
माने केह हय धीरा', केह त' 'अधीरा' । एइ तिन-भेदे, केह हय धीराधीरा' ॥
१४३॥
द्वेषपूर्ण क्रोध से युक्त नायिकाओं के तीन भेद हैं-धीर, अधीर तथा धीराधीरा।
धीरा' कान्ते दूरे देखि' करे प्रत्युत्थान ।।निकटे आसिले, करे आसन प्रदान ॥
१४४॥
जब धीर नायिका दूर से ही अपने नायक को आते देख लेती है, तो उसके स्वागत के लिए वह तुरन्त उठ खड़ी होती है। जब वह निकट आ जाता है, तो वह तुरन्त उसे बैठने के लिए आसन देती है।
हृदये कोप, मुखे कहे मधुर वचन । प्रिय आलिङ्गिते, तारे करे आलिङ्गन ।। १४५ ॥
धीरा नायिका अपने क्रोध को अपने हृदय में छिपा लेती है और बाहर से मीठी बोली बोलती है। जब उसका प्रेमी उसको आलिंगन करता है, तो वह भी उसे आलिंगन करती है।
सरल व्यवहार, करे मानेर पोषण ।। किम्वा सोल्लुण्ठ-वाक्ये करे प्रिय-निरसन ।। १४६ ।। धीरा नायिका का व्यवहार अत्यन्त सरल होता है। वह अपने मान को अपने हृदय के भीतर रखती है, किन्तु मृदु वचनों तथा मुसकानों से वह अपने प्रेमी के आचरण का प्रतिवाद करती है।
‘अधीरा' निष्ठर-वाक्ये करये भर्सन ।।कर्णोत्पले ताड़े, करे मालाय बन्धन ॥
१४७॥
किन्तु अधीर नायिका कभी-कभी अपने प्रेमी की भर्त्सना कड़ शब्दों से करती है, कभी-कभी उसके कान खींच लेती है और कभीकभी फूल की माला से उसे बाँध देती है।
'धीराधीरा' वक्र-वाक्ये करे उपहास ।कभु स्तुति, कभु निन्दा, कभु वा उदास ॥
१४८ ॥
धीर तथा अधीर स्वभाव वाली नायिका सदैव द्विअर्थी शब्दों : मजाक उड़ाती है। कभी वह अपने प्रेमी की प्रशंसा करती है, कभी निन्। करती है और कभी निरपेक्ष रहती है।
‘मुग्धा', 'मध्या', 'प्रगल्भा',—तिन नायिकार भेद ।। 'मुग्धा' नाहि जाने मानेर वैदग्ध्य-विभेद ॥
१४९॥
नायिकाओं का वर्गीकरण मुग्धा, मध्या तथा प्रगल्भा के रूप में भी या जा सकता है। मुग्धा नायिका द्वेषपूर्ण क्रोध के छलपूर्ण व्यवहार बारीकियों के विषय में अधिक नहीं जानती रहती।
मुख आच्छादिया करे केवल रोदन । कान्तेर प्रिय-वाक्य शुनि' हय परसन्न ॥
१५०॥
मुग्धा नायिका केवल अपना मुँह ढककर रोती रहती है। जब वह अपने प्रेमी से मधुर शब्द सुनती है, तो अत्यन्त प्रसन्न हो उठती है।
‘मध्या' ‘प्रगल्भा' धरे धीरादि-विभेद ।। तार मध्ये सबार स्वभावे तिन भेद ॥
१५१॥
मध्या तथा प्रगल्भा नायिकाओं को धीर, अधीर तथा धीराधीर में विभाजित की जा सकती हैं। इन सबके गुणों के और तीन विभाग किये जा सकते हैं।
केह'प्रखरा', केह'मृद्', केह हय 'समा' ।। स्व-स्वभावे कृष्णेर बाड़ाय प्रेम-सीमा ॥
१५२॥
इनमें से कुछ अत्यधिक बातूनी, कुछ मृदु तथा कुछ संतुलित होती हैं। हर नायिका अपने स्वभाव के अनुसार श्रीकृष्ण के प्रेमभाव को बढ़ाती प्राखर्य, मार्दव, साम्य स्वभाव निर्दोष ।सेइ सेइ स्वभावे कृष्णे कराय सन्तोष ॥
१५३॥
यद्यपि कुछ गोपियाँ बातूनी, कुछ मृदु तथा कुछ संतुलित हैं, किन्तु वे सभी दिव्य तथा निर्दोष हैं। वे अपने विशिष्ट गुणों द्वारा कृष्ण को प्रसन्न करती हैं।
ए-कथा शुनिया प्रभुर आनन्द अपार ।। ‘कह, कह, दामोदर',--बले बार बार ॥
१५४॥
यह विवरण सुनकर महाप्रभु को असीम आनन्द का अनुभव हुआ। उन्होंने स्वरूप दामोदर से आगे कहते रहने के लिए बारम्बार प्रार्थना की।
दामोदर कहे,—कृष्ण रसिक-शेखर । रस-आस्वादक, रसमय-कलेवर ॥
१५५ ॥
दामोदर गोस्वामी ने कहा, कृष्ण समस्त दिव्य रसों के स्वामी हैं। वे सभी दिव्य रसों का आस्वादन करने वाले हैं और उनका शरीर दिव्य आनन्द से बना हुआ है।
प्रेममय-वपु कृष्ण भक्त-प्रेमाधीन ।।शुद्ध-प्रेमे, रस-गुणे, गोपिका—प्रवीण ॥
१५६॥
कृष्ण प्रेममय हैं और सदैव अपने भक्त के प्रेम के अधीन रहते हैं। गोपियाँ शुद्ध प्रेम में तथा दिव्य रसों के आचार-व्यवहार में अत्यन्त अनुभवी हैं।
गोपिकार प्रेमे नाहि रसाभास-दोष ।।अतएव कृष्णेर करे परम सन्तोष ॥
१५७॥
गोपियों के प्रेम में कोई दोष या मिलावट नहीं है, अतएव वे कृष्ण को परम सन्तोष प्रदान करती हैं।
एवं शशङ्कांशु-विराजिता निशाःस सत्य-कामोऽनुरताबला-गणः । सिषेव आत्मन्यवरुद्ध-सौरतः।सर्वाः शरत्काव्य-कथा-रसाश्रयाः ॥
१५८ ॥
परम सत्य भगवान् श्रीकृष्ण शरद ऋतु में प्रत्येक रात रासनृत्य का आनन्द लेते रहे। वे चाँदनी रात में पूर्ण दिव्य रस से युक्त होकर यह नृत्य करते रहे। वे कवित्वपूर्ण शब्दों का प्रयोग करते थे और उन स्त्रियों से घिरे रहते थे, जो उनके प्रति अत्यन्त आकृष्ट थीं।
‘वामा' एक गोपी-गण, ‘दक्षिणा' एक गण ।।नाना-भावे कराय कृष्णे रस आस्वादन ॥
१५९ ।। गोपियों दो वर्ग किये जा सकते हैं-वामा (वामपक्षी ) तथा दक्षिणा ( दक्षिणपक्षी )। दोनों ही वर्ग की गोपियाँ विभिन्न प्रकार के प्रेमभाव प्रकट करके कृष्ण को दिव्य रसों का आस्वादन कराती हैं।
गोपी-गण-मध्ये श्रेष्ठा राधा-ठाकुराणी ।। निर्मल-उज्ज्वल-रस-प्रेम-रत्न-खनि ॥
१६०॥
समस्त गोपियों में श्रीमती राधारानी प्रमुख हैं। वे प्रेमरूपी रत्न की खान हैं और समस्त शुद्ध दिव्य माधुर्य रस की स्रोत हैं।
वयसे 'मध्यमा' तेंहो स्वभावेते 'समा' ।।गाढ़ प्रेम-भावे तेंहो निरन्तर 'वामा' ॥
१६१॥
राधारानी वयस्क हैं और उनका चरित्र ( स्वभाव) समदर्शी है। वे सदैव प्रगाढ़ प्रेम में निमग्न रहती हैं और निरन्तर वामपक्षी गोपीयों के भाव का अनुभव करती रहती हैं।
वाम्य-स्वभावे मान उठे निरन्तर ।।तार मध्ये उठे कृष्णेर आनन्द-सागर ॥
१६२॥
वामा गोपी होने के कारण उनका स्त्रियोचित क्रोध सदैव जाग्रत होता रहता है, किन्तु कृष्ण को उनके कार्यकलापों से दिव्य आनन्द मिलता हैं।
अहेरिव गतिः प्रेम्णः स्वभाव-कुटिला भवेत् ।अतो हेतोरहेतोश्च यूनोर्मान उदञ्चति ॥
१६३ ॥
तरुण-तरुणी के बीच प्रेम की प्रगति स्वभाव से साँप की गति समान कुटिल होती है। इसलिए उनके बीच दो प्रकार का क्रोध उत् होता है-सकारण क्रोध तथा अकारण क्रोध।
एत शुनि' बाड़े प्रभुर आनन्द-सागर । 'कह, कह' कहे प्रभु, बले दामोदर ॥
१६४॥
इन बातों को सुनकर महाप्रभु के दिव्य आनन्द का सागर बढ़ने लगा। अतएव उन्होंने स्वरूप दामोदर से कहा, कहते चलो, कहते चलो। तथा स्वरूप दामोदर आगे कहते रहे।
अधिरूढ़ महाभाव'–राधिकार प्रेम ।। विशुद्ध, निर्मल, त्रैछे दश-वाण हेम ।। १६५ ।। श्रीमती राधारानी का प्रेम अत्यधिक उन्नत भाव ( अधिरूढ़ भाय ) है। उनके सारे व्यापार नितान्त शुद्ध तथा भौतिक कल्मष से त हैं। वस्तुत: उनके व्यापार सोने से भी दस गुना अधिक शुद्ध हैं।
कृष्णेर दर्शन यदि पाय आचम्बिते । नाना-भाव-विभूषणे हेय विभूषिते ॥
१६६॥
जैसे ही राधारानी को कृष्ण का दर्शन करने का अवसर प्राप्त होता है, सहसा उनका शरीर विविध भावरूपी आभूषणों से अलंकृत हो जाता है ।
अष्ट सात्त्विक', हर्षादि व्यभिचारी' याँर ।। ‘सहज प्रेम', विंशति 'भाव'-अलङ्कार ॥
१६७॥
श्रीमती राधारानी के शरीर के दिव्य आभूषणों में आठ सात्त्विक या । दिव्य भाव, हर्ष या आनन्दमय सहज प्रेम इत्यादि तैंतीस व्यभिचारी भाव तथा बीस भाव-अलंकार सम्मिलित हैं।
‘किल-किञ्चित', 'कुट्टमित', 'विलास', 'ललित' ।। ‘विव्वोक', 'मोट्टायित', आर ‘मौग्ध्य', 'चकित' ॥
१६८॥
जिन कतिपय लक्षणों की विवेचना निम्नलिखित श्लोकों में की गई है वे हैं-किलकिंचित, कुट्टमित, विलास, ललित, विव्वोक, मोट्टायित, भीग्थ्य तथा चकित।
एत भाव-भूषाय भूषित श्री-राधार अङ्ग । देख़िते उथले कृष्ण-सुखाब्धि-तरङ्ग ॥
१६९।।। जब श्रीमती राधारानी इन अनेक भाव-आभूषणों को प्रकट करती हैं, तो कृष्ण के सुख-समुद्र में तुरन्त दिव्य लहरें उठने लगती हैं।
किल-किञ्चितादि-भावेर शुन विवरण ।।ये भाव-भूषाय राधा हरे कृष्ण-मन ॥
१७० ॥
अब किलकिंचित इत्यादि विभिन्न भावों का विवरण सुनें। श्रीमती राधारानी इन भावरूपी आभूषणों से कृष्ण के मन को हर लेती हैं।
राधा देखि' कृष्ण यदि छुडिते करे मन ।।दान-घाटि-पथे ग्रबे वर्जन गमन ॥
१७१ ॥
जब श्रीकृष्ण श्रीमती राधारानी को देखते हैं और उनका मन श्रीमती राधारानी के शरीर का स्पर्श करने को करता है, तो वे उन्हें उस स्थान पर जाने से रोक देते हैं जहाँ से यमुना नदी को पार की जा सकती है।
ग्रबे आसि' माना करे पुष्प उठाइते ।।सखी-आगे चाहे यदि गाये हात दिते ॥
१७२॥
राधारानी के पास जाकर कृष्ण उन्हें फूल चुनने से मना करते हैं। में उनकी सखियों के सामने भी उनका स्पर्श कर सकते हैं।
एइ-सब स्थाने 'किल-किञ्चित' उद्गम ।।प्रथमे ‘हर्ष' सञ्चारी- मूल कारण ॥
१७३॥
ऐसे अवसरों पर किलकिंचित भाव के लक्षण जाग्रत होते हैं। सर्वप्रथम भावप्रेम में हर्ष का संचार होता है और यही इन लक्षणों का भय कारण है।
गर्वाभिलाष-रुदित-स्मितासूया-भय-क्रुधाम् । सङ्करी-करणं हर्षादुच्यते किल-किञ्चितम् ॥
१७४॥
गर्व, अभिलाषा, रुदन, हँसी, ईष्र्या, भय तथा क्रोध-ये सात प्रेमभाव-लक्षण हैं, जो हर्ष के कारण सिकुड़कर दूर हटने के फलस्वरूप प्रकट होते हैं। ये लक्षण किलकिंचित भाव कहलाते हैं।
आर सात भाव आसि' सहजे मिलय । अष्ट-भाव-सम्मिलने ‘महा-भाव' हय ॥
१७५॥
सात दिव्य भाव और हैं और जब वे हर्ष के स्तर पर मिलते हैं, तो उनका मेल ( मिलाप ) महाभाव कहलाता है।
गर्व, अभिलाष, भय, शुष्क-रुदित ।। क्रोध, असूया हय, आर मन्द-स्मित ॥
१७६॥
महाभाव में सात अवयव मिले होते हैं-गर्व, अभिलाषा, भय, बनावटी रोदन, क्रोध, ईष्र्या तथा मृदु मुस्कान।
नाना-स्वादु अष्ट-भाव एकत्र मिलन ।। याहार आस्वादे तृप्त हय कृष्ण-मन ॥
१७७॥
दिव्य हर्ष के स्तर पर प्रेमभाव के आठ लक्षण हैं और जब वे मिलते हैं, तो उनका आस्वादन करके भगवान् कृष्ण का मन पूर्णतः तृप्त हो जाता है।
दधि, खण्ड, घृत, मधु, मरीच, कर्पूर ।।एलाचि-मिलने झैछे रसाला मधुर ॥
१७८॥
उनकी उपमा दही, खाँड, घी, शहद, काली मिर्च, कपूर तथा इलायची के मिश्रण से दी जाती है। इन्हें मिला देने पर वे अत्यन्त स्वादिष्ट और मधुर हो जाते हैं।
एइ भाव-मुक्त देखि' राधास्य-नयन ।।सङ्गम हइते सुख पाय कोटि-गुण ॥
१७९॥
भगवान् श्रीकृष्ण भावमय प्रेम के इस मिश्रण से प्रकाशित श्रीमती राधारानी के मुखमण्डल को देखकर उनसे प्रत्यक्ष मिलन की अपेक्षा करोड़ों गुना अधिक सन्तुष्ट होते हैं।
अन्तः स्मेरतयोज्वला जल-कण-व्याकीर्ण-पक्ष्माङ्करा ।किञ्चित्पाटलिताञ्चला रसिकतोत्सिता पुरः कुञ्चती । रुद्धायाः पथि माधवेन मधुर-व्याभुग्न-तोरोत्तरा।राधायाः किल-किञ्चित-स्तवकिनी दृष्टिः श्रियं वः क्रियात् ॥
१८०॥
श्रीमती राधारानी का किलकिंचित भाव, जो गुलदस्ते के समान है, सबको सौभाग्य प्रदान करे। जब श्रीकृष्ण ने राधारानी का दानघाटि का रास्ता रोक दिया, तो उनके हृदय में हँसी उत्पन्न हुई। उनकी आँखें अमक उठीं और उनकी आँखों से नये आँसू बहने लगे, जिससे वे लाललाल हो गईं। कृष्ण से उनके मधुर सम्बन्ध के कारण उनकी आँखें ताहयुक्त थीं और जब उनका रोना रुक गया, तो वे और अधिक सुन्दर नग लगीं।'
बाष्प व्याकुलतारुणाञ्चल-चलन्नेत्रं रसोल्लासितं ।हेलोल्लास चलाधरं कुटिलित-भ्रू-युग्ममुद्यस्मितम् ।।राधायाः किल-किञ्चिताञ्चितमसौ वीक्ष्याननं सङ्गमाद् ।आनन्दं तमवाप कोटि-गुणितं ग्रोऽभून्न गीर्गोचरः ॥
१८१।। ‘आँसुओं से व्याकुल श्रीमती राधारानी की आँखें लाल-लाल हो गईं, मानो सूर्योदय के समय पूर्वी क्षितिज हो। उनके होंठ हर्ष तथा कामवासना के मारे कांपने लगे। उनकी भौंहे टेढ़ी हो गई और उनके कमल जैसे मुखमण्डल में हल्की-सी मुस्कान आ गई। राधारानी के मुखमण्डल से ऐसे भाव प्रकट होते देखकर श्रीकृष्ण को उनका आलिंगन करने की अपेक्षा लाखों गुना अधिक सुख प्राप्त हुआ। भगवान् कृष्ण का यह सुख तनिक भी भौतिक नहीं है। एत शुनि' प्रभु हैला आनन्दित मन ।। सुखाविष्ट ही स्वरूपे कैला आलिङ्गन ॥
१८२।। यह सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु अत्यन्त आनन्दित हुए और इस सुख में मग्न होकर उन्होंने स्वरूप दामोदर गोस्वामी का आलिंगन कर लिया।
‘विलासादि-भाव-भूषार कह त' लक्षण ।।ग्रेइ भावे राधा हरे गोविन्देर मन? ॥
१८३॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने स्वरूप दामोदर से कहा, कृपा करके भीमती राधारानी के शरीर को अलंकृत करने वाले उन भावरूपी आभूषणों को बतलाइये, जिनसे वे श्री गोविन्द के मन को हर लेती हैं।
तबे त' स्वरूप-गोसात्रि कहिते लागिला ।।शुनि' प्रभुर भक्त-गण महा-सुख पाइला ॥
१८४॥
म तरह अनुरोध किये जाने पर स्वरूप दामोदर ने कहना प्रारम्भ गा। इसे सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु के सारे भक्त अत्यन्त प्रसन्न थे।
राधा वसि' आछे, किबा वृन्दावने ग्राय ।।ताहाँ यदि आचम्बिते कृष्ण-दरशन पाय ॥
१८५॥
कभी-कभी जब श्रीमती राधारानी बैठी रहती हैं या जब वे वृन्दावन जा रही होती हैं, तो वे कृष्ण का दर्शन पा जाती हैं।
देखिते नाना-भाव हय विलक्षण ।।से वैलक्षण्येर नाम विलास'-भूषण ॥
१८६॥
उस समय विभिन्न भावों के जो-जो लक्षण प्रकट होते हैं, वे विलास कहलाते हैं।
गति-स्थानासनादीनां मुख-नेत्रादि-कर्मणाम् ।।तात्कालिकं तु वैशिष्ट्यं विलासः प्रिय-सङ्ग-जम् ॥
१८७॥
नायिका के मुख, नेत्रों तथा शरीर के अन्य भागों में प्रकट होने वाले [विध लक्षण तथा उसके चलने, खड़े होने या अपने प्रेमी से मिलने पर बैठने की मुद्रा को विलास कहते हैं।
लज्जा, हर्ष, अभिलाष, सम्भ्रम, वाम्य, भय । एत भाव मिलि' राधाय चञ्चल करय ॥
१८८॥
स्वरूप दामोदर ने कहा, लज्जा, हर्ष, अभिलाषा, आदर, भय तथा मा गोपियों के लक्षण-ये सब मिलकर श्रीमती राधारानी को चंचल पाते हैं।
पुरः कृष्णालोकात्स्थगित-कुटिलास्या गतिरभूत् ।तिरश्चीनं कृष्णाम्बर-दर-वृतं श्री-मुखमपि । चलत्तारं स्फारं नयन-युगमाभुग्नमिति साविलासाख्य-स्वालङ्करण-वलितासीत्प्रिय-मुदे ॥
१८९॥
जब श्रीमती राधारानी ने भगवान् कृष्ण को अपने सामने देखा, तो उनकी गति रुक गई और उनकी मनोवृत्ति वामा ( कुटिला ) सी हो गई। यद्यपि उनका मुख नीले वस्त्र से थोड़ा सा ढका था, किन्तु उनके बड़ेबड़े और वक्र नेत्र चंचल थे। इस तरह वे विलास के आभूषण से अलंकृत थीं और उनका सौन्दर्य भगवान् कृष्ण को आनन्द प्रदान करने के लिए बढ़ गया।'
कृष्ण-आगे राधा ग्रदि रहे दाण्डाजा ।।तिन-अङ्गभङ्गे रहे भ्रू नाचा ॥
१९०॥
जब श्रीमती राधारानी कृष्ण के समक्ष खड़ी होती हैं, तब वे तीन स्थानों से टेढ़ी हो जाती हैं-गर्दन, कमर तथा पाँव से और उनकी भौंहे नाचने लगती हैं।
मुखे-नेत्रे हय नाना-भावेर उद्गार ।। एइ कान्ता-भावेर नाम 'ललित'-अलङ्कार ।। १९१ ॥
जब श्रीमती राधारानी के मुख पर तथा नेत्रों पर विविध भावों का उदय होता है, जो सुन्दर नारी-सुलभ प्रवृत्ति के उपयुक्त होते हैं, तब ललित अलंकार का प्राकट्य हुआ माना जाता है।
विन्यास-भङ्गिङ्गानां भू-विलास-मनोहरा । सुकुमारा भवेद् यत्र ललितं तदुदाहृतम् ॥
१९२॥
जब शारीरिक अंग मुलायम तथा भंगिमायुक्त हो और जब भौंहे सुन्दर ढंग से उत्तेजित हों, तो नारी-स्वभाव का सौन्दर्य आभूषण प्रकट होता है, जिसे ललित अलंकार कहा जाता है।
ललित-भूषित राधा देखे ग्रदि कृष्ण । हे मुँहा मिलिबारे हयेन सतृष्ण ॥
१९३॥
जब भगवान् श्रीकृष्ण श्रीमती राधारानी को इन ललित अलंकारों से विभूषित देखते हैं, तो दोनों में एक-दूसरे से मिलने की उत्कण्ठा जाग्रत हो जाती है।
ह्रिया तिर्यग्ग्रीवा-चरण-कटि-भङ्गी-सुमधुराचलच्चिल्ली-वल्ली-दलित-रतिनाथोर्जित-धनुः ।। प्रिय-प्रेमोल्लासोल्लसित-ललितालालित-तनुः ।प्रिय-प्रीत्यै सासीदुदित-ललितालङ्कति-ग्रुता ॥
१९४॥
जब श्रीकृष्ण के प्रेम को बढ़ाने मात्र के लिए श्रीमती राधारानी को ललित अलंकार से सजाया गया, तो उनकी गर्दन, घुटनों तथा कमर से। एक आकर्षक भाव-भंगिमा प्रकट हुई। यह कृष्ण से बचने की उनकी इच्छा तथा उनकी लज्जा से उत्पन्न हुई। उनकी भौहों की चंचलता कामदेव के शक्तिशाली धनुष को जीतने वाली थी। अपने प्रियतम के हर्ष को बढ़ाने के लिए, उन्होंने अपने शरीर को ललित अलंकारों से सजाया था।
लोभे आसि' कृष्ण करे कञ्चकाकर्षण ।।अन्तरे उल्लास, राधा करे निवारण ॥
१९५॥
जब कृष्ण आगे बढ़कर लालचवश श्रीमती राधारानी की साड़ी का किनारा खींचते हैं, तब वे भीतर से अत्यधिक प्रसन्न होती हैं, किन्तु शहर से उन्हें रोकने का प्रयास करती हैं।
बाहिरे वामता-क्रोध, भितरे सुख मने ।‘कुट्टमित'-नाम एइ भाव-विभूषणे ॥
१९६॥
श्रीमती राधारानी की यह आनन्दमय भाव कुट्टमित कहलाता है। । यह भाव प्रकट होता है, तब वे बाह्य रूप से कृष्ण से दूर रहना चाहती और ऊपर से क्रुद्ध होती हैं, यद्यपि मन ही मन वे अत्यन्त सुखी होती हैं।
स्तनाधरादि-ग्रहणे हृत्प्रीतावपि सम्भ्रमात् ।। बहिः क्रोधो व्यथित-वत्प्रोक्तं कुट्टमितं बुधैः ॥
१९७ ॥
जब कृष्ण उनकी साड़ी की किनारी तथा उनके घूघट को पकड़ लेते हैं, तो वे बाहर से अपमानित तथा क्रुद्ध प्रतीत होती हैं, किन्तु अपने हृदय में अत्यन्त सुखी होती हैं। विद्वान लोग इसे कुट्टमित भाव कहते हैं।'
कृष्ण-वाञ्छा पूर्ण हय, करे पाणि-रोध ।। अन्तरे आनन्द राधा, बाहिरे वाम्य-क्रोध ॥
१९८॥
यद्यपि श्रीमती राधारानी अपने हाथ से कृष्ण को रोक रही थीं, किन्तु भीतर ही भीतर सोच रही थीं, ‘कृष्ण को अपनी इच्छा पूरी करने दो।' इस तरह वे भीतर से अत्यन्त प्रसन्न थीं, किन्तु बाहर से विरोध तथा क्रोध प्रकट कर रही थीं।
व्यथा पाजा' करे ग्रेन शुष्क रोदन । ईषत् हासिया कृष्णे करेन भर्सन ॥
१९९॥
श्रीमती राधारानी बाहर से बनावटी रोदन जैसा भाव प्रदर्शित करती मानो उन्हें व्यथा पहुँचती हो। फिर वे मन्द हँसती हैं और कृष्ण को ताड़ना देती हैं।
पाणि-रोधमविरोधित-वाञ्छं।भर्सनाश्च मधुर-स्मित-गर्भाः ।। माधवस्य कुरुते करभोरुर् ।हारि शुष्क-रुदितं च मुखेऽपि ॥
२००॥
वास्तव में उनकी इच्छा नहीं होती कि वे कृष्ण को अपना शरीर ने से मना करें, किन्तु हाथी के बच्चे की सैंड जैसी जाँघों वाली श्रीमती पागनी उनके आगे बढ़ने पर विरोध करती हैं और मीठी हँसी द्वारा उन्हें प्रताड़ित करती हैं। ऐसे अवसरों पर वे अपने आकर्षक मुख पर अश्रु नाये बिना रोती हैं।'
एइ-मत आर सब भाव-विभूषण ।। ग्राहाते भूषित राधा हरे कृष्ण मन ॥
२०१॥
इस प्रकार श्रीमती राधारानी उन विभिन्न प्रेम-भावों से अलंकृत एवं विभूषित हैं, जो श्रीकृष्ण के मन को आकृष्ट करते हैं।
अनन्त कृष्णेर लीला ना ग्राय वर्णन ।। आपने वर्णेन यदि सहस्त्र-वदन' ॥
२०२॥
श्रीकृष्ण की अनन्त लीलाओं का वर्णन कर पाना बिल्कुल सम्भव नहीं है, भले ही वे स्वयं सहस्र वदन अर्थात् एक हजार मुख वाले शेष नाग । के अवतार के रूप में उनका वर्णन क्यों न करें।"
श्रीवास हासिया कहे,—शुन, दामोदर ।आमार लक्ष्मीर देख सम्पत्ति विस्तर ॥
२०३॥
इस पर श्रीवास ठाकुर हँस पड़े और स्वरूप दामोदर से बोले, “हे महाशय, जरा सुनो तो! देखो मेरी लक्ष्मीजी कितनी ऐश्वर्यवान हैं।
वृन्दावनेर सम्पद्देख,—पुष्प-किसलय ।। गिरिधातु-शिखिपिच्छ-गुञ्जाफल-मय । २०४॥
जहाँ तक वृन्दावन के ऐश्वर्य की बात है, उसमें कुछ फूल तथा बानियाँ, कुछ पहाड़ी खनिज, कुछ मोरपंख तथा गुंजा नामक पौधा हैं।
वृन्दावन देखिबारे गेला जगन्नाथ ।। शुनि' लक्ष्मी-देवीर मने हैल आसोयाथ ॥
२०५॥
वृन्दावन देखने का निश्चय करने पर जब जगन्नाथजी वहाँ गये, तो इसे सुनकर लक्ष्मीजी को ईष्र्या तथा बेचैनी का अनुभव होने लगा।
एत सम्पत्ति छाड़ि' केने गेला वृन्दावन ।तारै हास्य करिते लक्ष्मी करिला साजन ॥
२०६॥
उन्हें आश्चर्य हुआ कि, 'जगन्नाथजी इतना ऐश्वर्य छोड़कर वृन्दावन क्यों गये?' उनकी हँसी उड़ाने के उद्देश्य से लक्ष्मीजी ने अपने आपको सजाने का काफी प्रबन्ध किया।
तोमार ठाकुर, देख एत सम्पत्ति छाड़ि' ।।पत्र-फल-फुल-लोभे गेला पुष्प-बाड़ी ॥
२०७॥
तब लक्ष्मीजी की सेविकाओं ने भगवान जगन्नाथजी के दासों से कहा, 'तुम्हारे स्वामी भगवान् जगन्नाथ ने लक्ष्मीजी के महान् ऐश्वर्य को त्याग क्यों किया और कुछ पत्तियों, फूलों तथा फलों के लिए वे श्रीमती राधारानी का फूलों का बगीचा क्यों देखने गये? एइ कर्म करे काहाँ विदग्ध-शिरोमणि? ।। लक्ष्मीर अग्रेते निज प्रभुरे देह' आनि ॥
२०८॥
तुम्हारे स्वामी हर बात में अत्यन्त पटु हैं, लेकिन तो भी वे ऐसे कार्य क्यों करते हैं? तुम लोग अपने स्वामी को लक्ष्मीजी के समक्ष लाओ।'
एत बलि' महा-लक्ष्मीर सब दासी-गणे ।। कटि-वस्त्रे बान्धि' आने प्रभुर निज-गणे ॥
२०९॥
इस तरह लक्ष्मीजी की सारी दासियाँ जगन्नाथजी के सभी दासों को बन्दी बनाकर, कटिवस्त्रों से बाँधकर, लक्ष्मीजी के समक्ष ले आई।।
लक्ष्मीर चरणे आनि' कराय प्रणति ।। धन-दण्ड लय, आर कराय मिनति ॥
२१०॥
जब जगन्नाथजी के सारे दास लक्ष्मीजी के चरणकमलों के समक्ष गाये गये, तो उनको दण्ड दिया गया और उन्हें प्रणाम करने के लिए बाध्य किया गया।
रथेर उपरे करे दण्डेर ताड़न । चोर-प्राय करे जगन्नाथेर सेवक-गण ॥
२११॥
फिर सारी दासियाँ रथ पर लाठियों से प्रहार करने लगीं और उन्होंने भगवान् जगन्नाथ के दासों के साथ लगभग चोरों जैसा बर्ताव किया।
सब भृत्य-गण कहे,—ग्रोड़ करि' हात । ।‘कालि आनि दिब तोमार आगे जगन्नाथ' ॥
२१२॥
अन्त में भगवान जगन्नाथ के सारे दासों ने हाथ जोड़कर लक्ष्मीजी से विनती की और उन्हें विश्वास दिलाया कि वे अगले दिन जगन्नाथजी को। लाकर उनके समक्ष पेश कर देंगे।
तबे शान्त हजा लक्ष्मी ग्राय निज घर ।।आमार लक्ष्मीर सम्पद्वाक्य-अगोचर ॥
२१३॥
तब लक्ष्मीजी इस प्रकार शान्त किए जाने पर अपने घर चली गईं। देखो न! हमारी लक्ष्मीजी का ऐश्वर्य वर्णनातीत है।
दुग्ध आउटि' दधि मथे तोमार गोपी-गणे ।। आमार ठाकुराणी वैसे रत्न-सिंहासने ॥
२१४॥
श्रीवास ठाकुर ने स्वरूप दामोदर से आगे कहा, आपकी गोपियाँ दूध औंटने तथा दही मथने में लगी रहती हैं, किन्तु मेरी ठकुरानी लक्ष्मीजी । तो रत्नों के सिंहासन पर बैठी रहती हैं।
नारद-प्रकृति श्रीवास करे परिहास । शुनि' हासे महाप्रभुर व्रत निज-दास ॥
२१५॥
नारद मुनि के भाव में श्रीवास ठाकुर इस प्रकार मजाक कर रहे थे। था सुनकर महाप्रभु के सारे निजी दास हँसने लगे।
प्रभु कहे,—श्रीवास, तोमाते नारद-स्वभाव । ऐश्वर्य-भावे तोमाते, ईश्वर-प्रभाव ॥
२१६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने तब श्रीवास ठाकुर से कहा, अरे श्रीवास, तुम्हारा स्वभाव ठीक नारद मुनि जैसा है। भगवान् का ऐश्वर्य तुम पर अपना सीधा असर कर रहा है।
इँहो दामोदर-स्वरूप—शुद्ध-व्रजवासी ।। ऐश्वर्य ना जाने इँहो शुद्ध-प्रेमे भासि ॥
२१७॥
स्वरूप दामोदर वृन्दावन के शुद्ध भक्त हैं। वे इतना भी नहीं जानते कि ऐश्वर्य क्या होता है, क्योंकि वे शुद्ध भक्ति में ही डूबे रहते हैं।
स्वरूप कहे,--श्रीवास, शुन सावधाने ।। वृन्दावन-सम्पतोमार नाहि पड़े मने? ॥
२१८॥
तब स्वरूप दामोदर ने उलटकर कहा, अरे श्रीवास, तुम मेरी बात ध्यान से सुनो। तुम वृन्दावन के दिव्य ऐश्वर्य को भूल गये हो।
वृन्दावने साहजिक ग्ने सम्पत्सिन्धु ।।द्वारका-वैकुण्ठ-सम्पत्–तार एक बिन्दु ॥
२१९॥
वृन्दावन का प्राकृतिक ऐश्वर्य एक समुद्र के समान है। द्वारका तथा वैकुण्ठ का ऐश्वर्य एक बूंद के बराबर भी नहीं है।
परम पुरुषोत्तम स्वयं भगवान् ।कृष्ण ग्राहाँ धनी ताहाँ वृन्दावन-धाम ॥
२२०॥
श्रीकृष्ण समस्त ऐश्वर्यों के स्वामी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं और उनका पूर्ण ऐश्वर्य केवल वृन्दावन धाम में ही प्रकट होता है।
चिन्तामणि-मय भूमि रत्नेर भवन ।।चिन्तामणि-गण दासी-चरण-भूषण ॥
२२१॥
वृन्दावन धाम दिव्य चिन्तामणि से बना है। इसकी पूरी भूमि बहुमूल्य रत्नों की खान है और चिन्तामणि का प्रयोग वृन्दावन की दासियों के चरणकमलों को अलंकृत करने के लिए किया जाता है।
कल्पवृक्ष-लतार—याहाँ साहजिक-वन ।पुष्प-फल विना केह ना मागे अन्य धन ॥
२२२॥
वृन्दावन कल्पवृक्ष तथा लताओं का प्राकृतिक वन है और वृन्दावन के निवासियों को इन कल्पवृक्षों के फल और फूल के अतिरिक्त किसी भी वस्तु की इच्छा नहीं रहती।
अनन्त काम-धेनु ताहाँ फिरे वने वने ।दुग्ध-मात्र देन, केह ना मागे अन्य धने ॥
२२३॥
वृन्दावन में कामधेनु गौएँ हैं जिनकी संख्या अनन्त है। वे एक जंगल से दूसरे जंगल में चरती हैं और केवल दूध देती हैं। लोगों को और कुछ भी नहीं चाहिए।
सहज लोकेर कथा—याहाँ दिव्य-गीत ।।सहज गमन करे,—प्रैछे नृत्य-प्रतीत ॥
२२४॥
वृन्दावन के लोगों की सहज वाणी संगीत जैसी लगती है और उनकी सहज चाल नृत्य जैसी प्रतीत होती है।
सर्वत्र जले—ग्राहाँ अमृत-समान ।।चिदानन्द ज्योतिः स्वाद्य----याहाँ मूर्तिमान् ॥
२२५ ।। वृन्दावन का जल अमृत के समान होता है और वहाँ ब्रह्मज्योति का तेज जो दिव्य आनन्द से परिपूर्ण है, साक्षात् दृष्टिगोचर होता है।
लक्ष्मी जिनि' गुण ग्राहाँ लक्ष्मीर समाज ।।कृष्ण-वंशी करे ग्राहाँ प्रिय-सखी-काय ॥
२२६॥
वहाँ गोपियाँ भी लक्ष्मियाँ हैं और वे वैकुण्ठ में रहने वाली लक्ष्मी को मात करती हैं। वृन्दावन में भगवान् कृष्ण अपनी प्रिय संगिनी दिव्य वंशी को सदैव बजाते रहते हैं।
श्रियः कान्ताः कान्तः परम-पुरुषः कल्प-तरवोद्रुम भूमिश्चिन्तामणि-गण-मयी तोयममृतम् । कथा गानं नाट्यं गमनमपि वंशी प्रिय-सखीचिदानन्दं ज्योतिः परमपि तदास्वाद्यमपि च ॥
२२७॥
वृन्दावन की ललनाएँ-गोपियाँ–सर्वोपरि लक्ष्मियाँ हैं। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण ही वृन्दावन में भोक्ता हैं। वहाँ के सारे वृक्ष कल्पतरु हैं और वहाँ की भूमि दिव्य चिन्तामणि पत्थर की बनी हुई है। यहाँ का जल अमृत है, वहाँ का वार्तालाप संगीत होता है, चलना-फिरना नृत्य होता है और बाँसुरी कृष्ण की चिरसंगिनी है। सर्वत्र दिव्य आनन्द का तेज अनुभव किया जाता है, अतएव वृन्दावन धाम ही एकमात्र आस्वाद्य धाम है।'
चिन्तामणिश्चरण-भूषणमङ्गनानां ।शृङ्गार-पुष्प-तरवस्तरवः सुराणाम् ।। वृन्दावने व्रज-धनं ननु काम-धेनुवृन्दानि चेति सुख-सिन्धुरहो विभूतिः ॥
२२८ ॥
व्रजभूमि की ललनाओं के पायल ( नूपुर) चिन्तामणि पत्थर के बने हुए हैं। यहाँ के वृक्ष कल्पतरु हैं और उनके फूलों से गोपियाँ अपने आपको सजाती हैं। वहाँ पर कामधेनु गौएँ भी हैं, जो असीम दूध देती हैं। ये धेनुएँ वृन्दावन की सम्पत्ति हैं। इस तरह वृन्दावन का वैभव बड़े ही आनन्द से प्रदर्शित होता है।
शुनि' प्रेमावेशे नृत्य करे श्रीनिवास ।। कक्ष-तालि बाजाय, करे अट्ट-अट्ट हास ॥
२२९ ॥
तब श्रीवास ठाकुर प्रेम से अभिभूत होकर नाचने लगे। वे अपनी काँख में हथेली मारकर आवाज निकालने लगे और जोर-जोर से हँसने लगे।
राधार शुद्ध-रस प्रभु आवेशे शुनिल ।। सेइ रसावेशे प्रभु नृत्य आरम्भिल ॥
२३०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने श्रीमती राधारानी के शुद्ध दिव्य रस की इन। व्याख्याओं को सुना, तो वे दिव्य प्रेम-भाव में मग्न होकर नाचने लगे।
रसावेशे प्रभुर नृत्य, स्वरूपेर गान ।।‘बल' 'बल' बलि' प्रभु पाते निज-काण ॥
२३१॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु रस के आवेश में नाच रहे थे और स्वरूप दामोदर गा रहे थे तो महाप्रभु ने कहा, गाते रहो! गाते रहो! फिर महाप्रभु ने अपने कान फैला दिये।
व्रज-रस-गीत शुनि' प्रेम उथलिल ।पुरुषोत्तम-ग्राम प्रभु प्रेमे भासाइल ॥
२३२॥
इस तरह वृन्दावन के गीत सुनकर महाप्रभु को प्रेम जाग्रत हुआ। इस तरह उन्होंने पुरुषोत्तम ग्राम अर्थात् जगन्नाथ पुरी को भगवत्प्रेम से आप्लावित कर दिया।
लक्ष्मी देवी स्रथा-काले गेला निज-घर ।।प्रभु नृत्य करे, हैल तृतीय प्रहर ॥
२३३॥
अन्ततः लक्ष्मीजी अपने घर लौट गईं। अभी श्री चैतन्य महाप्रभु नाच ही रहे थे कि तीसरा पहर हो गया।
चारि सम्प्रदाय गान करि' बहु श्रान्त हैल ।। महाप्रभुर प्रेमावेश द्विगुण बाड़िल ॥
२३४॥
काफी गाने के बाद चारों संकीर्तन-टोलियाँ थक गई, लेकिन महाप्रभु का प्रेमावेश बढ़कर दुगुना हो गया।
राधा-प्रेमावेशे प्रभु हैला सेइ मूर्ति । नित्यानन्द दूरे देखि' करिलेन स्तुति ॥
२३५॥
श्रीमती राधारानी के प्रेमावेश में डूबकर नाचते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु उन्हीं के रूप में दिखने लगे। नित्यानन्द प्रभु, जो दूर से इस रूप को देख रहे थे, उनकी स्तुति करने लगे।
नित्यानन्द देखिया प्रभुर भावावेश ।।निकटे ना आइसे, रहे किछु दूर-देश ॥
२३६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के भावावेश को देखकर नित्यानन्द प्रभु उनके निकट नहीं गये और कुछ दूरी पर ही रहे।
नित्यानन्द विना प्रभुके धरे कोन्जन ।। प्रभुर आवेश ना याय, ना रहे कीर्तन ॥
२३७॥
केवल नित्यानन्द प्रभु ही ऐसे थे, जो महाप्रभु को पकड़ सकते थे, किन्तु महाप्रभु का आवेश रुकने का नाम नहीं ले रहा था। उस समय कीर्तन भी नहीं चालू रखा जा सकता था।
भङ्गि करि' स्वरूप सबार श्रम जानाइल ।। भक्त-गणेर श्रम देखि' प्रभुर बाह्य हैल ॥
२३८॥
तब स्वरूप दामोदर ने महाप्रभु को बतलाया कि सारे भक्त थक गये हैं। यह दशा देखकर महाप्रभु को बाह्य चेतना आ गई।
सब भक्त लञा प्रभु गेला पुष्पोद्याने । विश्राम करिया कैला माध्याह्निक स्नाने ॥
२३९॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु सभी भक्तों को लेकर फूल के बगीचे में आये। वहाँ पर थोड़ी देर विश्राम करने के बाद उन्होंने दोपहर का स्नान किया।
जगन्नाथेर प्रसाद आइल बहु उपहार ।। लक्ष्मीर प्रसाद आइल विविध प्रकार ॥
२४०॥
तभी श्री जगन्नाथजी पर चढ़ाया गया विविध प्रकार का पर्याप्त प्रसाद आया और इसके बाद लक्ष्मीजी पर अर्पित विविध प्रकार का प्रसाद भी आया।
सबा लञा नाना-रङ्गे करिला भोजन ।। सन्ध्या स्नान करि' कैल जगन्नाथ दरशन ॥
२४१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने दोपहर का भोजन किया और शाम को स्नान करने के बाद वे जगन्नाथजी का दर्शन करने गये।
जगन्नाथ देखि' करेन नर्तन-कीर्तन ।। नरेन्द्रे जल-क्रीड़ा करे लञा भक्त-गण ॥
२४२॥
भगवान् जगन्नाथ को देखते ही श्री चैतन्य महाप्रभु नाचने और कीर्तन करने लगे। तत्पश्चात् अपने भक्तों के साथ उन्होंने नरेन्द्र सरोवर में जलक्रीड़ा की।
उद्याने आसिया कैल वन-भोजन । एइ-मत क्रीड़ा कैल प्रभु अष्ट-दिन ॥
२४३॥
तत्पश्चात् फूल के बगीचे में आकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने भोजन किया। इस तरह आठ दिनों तक महाप्रभु सभी प्रकार की लीलाएँ लगातार करते रहे।
आर दिने जगन्नाथेर भितर-विजये ।।रथे चड़ि' जगन्नाथ चले निजालय ॥
२४४।। अगले दिन भगवान जगन्नाथ मन्दिर से बाहर निकले और रथ पर चढ़कर अपने धाम वापस चले गये।
पूर्ववत्कैल प्रभु ला भक्त-गण ।।परम आनन्दे करेन नर्तन-कीर्तन ॥
२४५ ॥
पहले की तरह श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनके भक्त पुनः परम् । आनन्दित होकर कीर्तन करने और नाचने लगे।
जगन्नाथेर पुनः पाण्डु-विजय हइल ।। एक गुटि पट्ट-डोरी ताँहा टुटि' गेल ॥
२४६॥
पाण्डुविजय के समय भगवन जगन्नाथ को जब ले जाये जा रहे थे , तो रेशमी डोरियों का एक गुच्छा टूट गया।
पाण्डु-विजयेर तुलि फाटि-फुटि ग्राय ।।जगन्नाथेर भरे तुला उड़िया पलाये ॥
२४७॥
जब जगन्नाथ के अर्चाविग्रह को ले जाया जाता है, तो उन्हें थोड़ीथोड़ी दूरी पर रुई के गद्दों पर रखा जाता है। जब रस्सियाँ टूट गईं, तो जगन्नाथजी के भार से रुई के गद्दे भी टूट गये और उनकी रुई हवा में उड़ने लगी।।
कुलीन-ग्रामी रामानन्द, सत्यराज खाँन ।।ताँरै आज्ञा दिल प्रभु करिया सम्मान ॥
२४८ ॥
उस शाम कुलीन ग्राम के रामानन्द वसु तथा सत्यराज खान उपस्थित थे, अत: श्री चैतन्य महाप्रभु ने बड़े आदर के साथ उन्हें यह आदेश दिया।
जगन्नाथेर पुनः पाण्डु-विजय हइल ।। एक गुटि पट्ट-डोरी ताँहा टुटि' गेल ॥
२४६॥
एइ पट्ट-डोरीर तुमि हओ यजमान ।। प्रति-वत्सर आनिबे डोरी' करिया निर्माण ॥
२४९॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने रामानन्द वसु और सत्यराज खान दोनों को आदेश दिया कि वे इन रस्सियों के पूजक बनें और अपने गाँव से प्रतिवर्ष रेशमी डोरियाँ लाया करें।
एत बलि' दिल ताँरै छिण्डा पट्ट डोरी । इहा देखि करिब डोरी अति दृढ़ करि' ॥
२५०॥
यह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें टूटी रेशमी डोरियाँ दिखलाई और कहा, “इस नमूने को देखो। तुम इनसे अधिक मजबूत रस्सियों बनाना।
एइ पट्ट-डोरीते हय ‘शेष'-अधिष्ठान ।।दश-मूर्ति हा ग्रॅहो सेवे भगवान् ॥
२५१॥
फिर श्री चैतन्य महाप्रभु ने रामानन्द वसु और सत्यराज खान को बतलाया कि यह रस्सी उन भगवान् शेष का धाम है, जो दश रूपों में विस्तार करके पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की सेवा करते हैं।
भाग्यवान्सत्यराज वसु रामानन्द ।। सेवा-आज्ञा पाळा हैल परम-आनन्द ॥
२५२॥
महाप्रभु से सेवा करने का आदेश पाकर भाग्यशाली सत्यराज तथा रामानन्द वसु परम प्रसन्न हुए।
प्रति वत्सर गुण्डिचाते भक्त-गण-सड़े। पट्ट-डोरी लञा आइसे अति बड़ रङ्गे ॥
२५३ ॥
उसके बाद वर्षानुवर्ष जब गुण्डिचा मन्दिर की सफाई होती, तो सत्यराज तथा रामानन्द वसु अन्य भक्तों के साथ आते और प्रसन्नतापूर्वक रेशमी डोरी लाते।
तबे जगन्नाथ ग्राइ' वसिला सिंहासने ।।महाप्रभु घरे आइला ला भक्त-गणे ॥
२५४॥
इस तरह जगन्नाथजी अपने मन्दिर लौट आये और अपने सिंहासन पर आसीन हुए। श्री चैतन्य महाप्रभु भी अपने भक्तों सहित अपने निवासस्थान पर लौट आये।।
एइ-मत भक्त-गणे य़ात्रा देखाइल ।।भक्त-गण ला वृन्दावन-केलि कैल ॥
२५५ ॥
इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने भक्तों को रथयात्रा उत्सव दिखलाया और उनके साथ वृन्दावन लीला सम्पन्न की।
चैतन्य गोसाजिर लीला—अनन्त, अपार । सहस्त्र-वदन' सार नाहि पाय पार ॥
२५६ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाएँ अनन्त और अपार हैं। यहाँ तक कि सहस्र-वदन शेष नाग भी उनकी लीलाओं का पार नहीं पा सकते।
श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश ।।चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
२५७॥
श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों पर प्रार्थना करते हुए तथा उनकी कृपा की सदा कामना करते हुए मैं, कृष्णदास उन्हीं के चरणचिह्नों का अनुसरण करते हुए श्री चैतन्य-चरितामृत कह रहा हूँ।
अध्याय पंद्रह: भगवान सर्वभौम भट्टाचार्य के घर पर प्रसाद स्वीकार करते हैं
सार्वभौम-गृहे भुञ्जन्स्व-निन्दकममोघकम् ।। अङ्गी-कुर्वन्स्फुटां चक्रे गौर: स्वां भक्त-वश्यताम् ॥
१॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु सार्वभौम भट्टाचार्य के घर पर प्रसाद ग्रहण कर रहे थे, तब अमोघ ने उनकी आलोचना की। फिर भी महाप्रभु ने अमोघ को स्वीकार करके दिखला दिया कि वे अपने भक्तों के कितने कृतज्ञ हैं।
जय जय श्री-चैतन्य जय नित्यानन्द ।। जयाद्वैत-चन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ॥
२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! नित्यानन्द प्रभु की जय हो! अद्वैतचन्द्र की जय हो तथा चैतन्य महाप्रभु के समस्त भक्तों की जय हो! जय श्री-चैतन्य-चरितामृत-स्रोता-गण ।। चैतन्य-चरितामृत-—याँर प्राण-धन ॥
३॥
श्री चैतन्य-चरितामृत के श्रोताओं की जय हो, जिन्होंने इसे अपना Tण तथा आत्मा मान रखा है।
एइ-मत महाप्रभु भक्त-गण-सङ्गे।। नीलाचले रहि' करे नृत्य-गीत-रङ्गे ॥
४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी में रहते हुए अपने भक्तों के साथ निरन्तर कीर्तन और नर्तन का आनन्द लेते रहे।
प्रथमावसरे जगन्नाथ-दरशन । नृत्य-गीत करे दण्ड-परणाम, स्तवन ॥
५॥
दिन आरम्भ होते ही श्री चैतन्य महाप्रभु ने मन्दिर में भगवान जगन्नाथ के अर्चाविग्रह के दर्शन किये, उन्हें नमस्कार किया, उनकी स्तुति की और उनके समक्ष नाचा-गाया।
उपल-भोग' लागिले करे बाहिरे विजय ।। हरिदास मिलि' आइसे आपन निलय ॥
६॥
मन्दिर में जाने के बाद, श्री चैतन्य महाप्रभु उपलभोग के समय मन्दिरके बाहर रहते थे। तब वे हरिदास ठाकुर से मिलने जाते और फिर अपने निवासस्थान लौट आते थे।
घरे वसि' करे प्रभु नाम सङ्कीर्तन ।अद्वैत आसिया करे प्रभुर पूजन ॥
७॥
महाप्रभु अपने कमरे में बैठकर माला पर जप करते और अद्वैत प्रभु वहाँ पर महाप्रभु की पूजा करने आया करते।
सुगन्धि-सलिले देन पाद्य, आचमन ।।सर्वाङ्गे लेपये प्रभुर सुगन्धि चन्दन ॥
८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की पूजा करते समय अद्वैत आचार्य उन्हें मुँह तथापाँव धोने के लिए सुगन्धित जल दिया करते। फिर अद्वैत आचार्य महाप्रभु के पूरे शरीर में सुगन्धित चन्दन का लेप किया करते।
गले माला देन, माथाय तुलसी-मञ्जरी ।।ग्रोड़-हाते स्तुति करे पदे नमस्करि' ॥
९॥
श्री अद्वैत आचार्य महाप्रभु के गले में फूल की माला और सिर पर तुलसी की मंजरी चढ़ाया करते थे। फिर हाथ जोड़कर उन्हें नमस्कार करते और उनकी स्तुति करते थे।
पूजा-पात्रे पुष्प-तुलसी शेष ग्रे आछिल ।सेइ सब लञा प्रभु आचार्ये पूजिल ॥
१०॥
इस तरह अद्वैत आचार्य द्वारा पूजे जाने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु थाल में बचे फूलों तथा तुलसी मंजरी एवं जो कुछ सामग्री बची होती, उससे अद्वैत आचार्य की पूजा करते।
ग्रोऽसि सोऽसि नमोऽस्तु ते एइ मन्त्र पड़े। . मुख-वाद्य करि' प्रभु हासाय आचार्येरे ॥
११ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु आप जैसे भी हो, हो। लेकिन मैं आपको नमस्कार करता हूँ-इस मन्त्र का उच्चारण करके अद्वैत आचार्य की पूजा करते थे। इसके अतिरिक्त भी महाप्रभु अपने मुँह के भीतर कुछ ध्वनि करते, जिससे अद्वैत आचार्य को हँसी आ जाती।
एड़-मत अन्योन्ये करेन नमस्कार ।। प्रभुरे निमन्त्रण करे आचार्य बार बार ॥
१२॥
इस तरह अद्वैत आचार्य तथा श्री चैतन्य महाप्रभु एक-दूसरे को सादर नमस्कार करते थे। तब अद्वैत आचार्य श्री चैतन्य महाप्रभु को बारम्बार अपने यहाँ आने का निमन्त्रण देते।
आचार निमन्त्रण---आश्चर्य-कथन । विस्तारि' वर्णियाछेन दास-वृन्दावन ॥
१३॥
श्री अद्वैत आचार्य का निमन्त्रण दूसरी अद्भुत कथा है। इसका विस्तृत स्पष्ट वर्णन वृन्दावन दास ठाकुर ने किया है।
पुनरुक्ति हय, ताहा ना कैलँ वर्णन । आर भक्त-गण करे प्रभुरे निमन्त्रण ॥
१४॥
चूंकि अद्वैत आचार्य के निमन्त्रण का वर्णन श्रील वृन्दावन दास ठाकुर कर चुके हैं, अतएव मैं इस कथा को नहीं दुहराऊँगा। किन्तु मैं यह कहूँगा कि अन्य भक्तों ने भी महाप्रभु को निमन्त्रण दिये।
एक एक दिन एक एक भक्त-गृहे महोत्सव ।। प्रभु-सङ्गे ताहाँ भोजन करे भक्त सब ॥
१५॥
प्रतिदिन एक के बाद दूसरा भक्त श्री चैतन्य महाप्रभु तथा अन्य भक्तों को भोजन के लिए निमन्त्रण देता और अपने यहाँ उत्सव मनाता।
चारि-मास रहिला सबे महाप्रभु-सङ्गे।। जगन्नाथेर नाना यात्रा देखे महा-रङ्गे ॥
१६॥
सारे भक्त लगातार चार मास तक जगन्नाथ पुरी में रहे और उन्होंने बड़े ही उत्साह के साथ भगवान जगन्नाथ के सारे उत्सव मनाये।
कृष्ण-जन्म-यात्रा-दिने नन्द-महोत्सव ।। गोप-वेश हैला प्रभु लञा भक्त सब ॥
१७॥
भक्तों ने कृष्ण जन्माष्टमी उत्सव भी मनाया, जिसे नन्द महोत्सव भी कहा जाता है। इस अवसर पर श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनके भक्तों ने ग्वालों का वेश धारण किया।
दधि-दुग्ध-भार सबे निज-स्कन्धे करि' ।।महोत्सव-स्थाने आइला बलि ‘हरि' ‘हरि' ॥
१८॥
ग्वालों का वेश धारण करके तथा कंधे में बहँगी पर दूध तथा दही के बर्तन लेकर सारे भक्त ‘हरि' ‘हरि' का उच्चारण करते हुए महोत्सवस्थल पर आये।
कानाजि-खुटिया आछेन'नन्द'-वेश धरि' । जगन्नाथ-माहाति हाछेन 'व्रजेश्वरी' ॥
१९॥
कानाइ खुटिया ने नन्द महाराज का वेश बनाया और जगन्नाथ माहाति ने माता यशोदा का वेश बना लिया।
आपने प्रतापरुद्र, आर मिश्र-काशी ।। सार्वभौम, आर पड़िछा-पात्र तुलसी ॥
२०॥
उस समय काशी मिश्र, सार्वभौम भट्टाचार्य तथा तुलसी पड़िछापात्र समेत राजा प्रतापरुद्र भी वहाँ उपस्थित थे।
इँहा-सबा ला प्रभु करे नृत्य-रङ्ग ।। दधि-दुग्ध हरिद्रा-जले भरे सबार अङ्ग ॥
२१॥
सदैव की तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने उल्लासपूर्वक नृत्य किया। सारे लोग दूध, दही तथा हल्दी के पीले जल से सराबोर हो गये।
अद्वैत कहे,—सत्य कहि, ना करिह कोप । लगुड़ फिराइते पार, तबे जानि गोप ॥
२२॥
तभी श्रील अद्वैत आचार्य ने कहा, आप नाराज न हों। मैं सच कह रहा हूँ। यदि आप इस लाठी को चन्द्राकार रूप में घुमा सको, तो मैं समझेंगा कि आप ग्वाले हो।
तबे लगुड़ लञा प्रभु फिराइते लागिला ।।बार बार आकाशे फेलि' लुफिया धरिला ॥
२३ ॥
अद्वैत आचार्य की चुनौती को स्वीकार करके श्री चैतन्य महाप्रभु ने बड़ी-सी लाठी ली और वे उसे चारों ओर घुमाने लगे। वे बार-बार लाठी को आकाश में उछालते और गिरते समय पकड़ लेते।
शिरेर उपरे, पृष्ठे, सम्मुखे, दुइ-पाशे ।पाद-मध्ये फिराय लगुड़, देखि' लोक हासे ॥
२४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु अपनी लाठी को घुमाते और उछालते और कभीकभी अपने सिर पर ले जाते, कभी पीठ पीछे, कभी सामने, कभी बगल में और कभी दोनों पाँवों के बीच। यह देखकर सारे लोग हँसने लगे।
अलात-चक्रेर प्राय लगुड़ फिराय ।।देखि' सर्व लोक चित्ते चमत्कार पाय ।। २५ ।।। जब श्री चैतन्य महाप्रभु लाठी को अग्निबाण ( अलातचक्र ) की तरह घुमा रहे थे, तो देखने वालों के हृदय चमत्कृत हो गये।
एइ-मत नित्यानन्द फिराय लगुड़ ।।के बुझिबे ताँहा बँहार गोप-भाव गूढ़ ॥
२६॥
नित्यानन्द प्रभु ने भी लाठी घुमाई। कौन समझ सकता है कि वे ग्वालों के भाव में कितने गहरे डूब गये थे? प्रतापरुद्रेर आज्ञाय पड़िछा-तुलसी ।।जगन्नाथेर प्रसाद-वस्त्र एक लञा आसि ॥
२७॥
महाराज प्रतापरुद्र की आज्ञा पाकर मन्दिर का निरीक्षक तुलसी भगवान् जगन्नाथ के उतारे वस्त्रों में से एक वस्त्र ले आया।
बहु-मूल्य वस्त्र प्रभु-मस्तके बान्धिल ।।आचार्मादि प्रभुर गणेरे पराइल ॥
२८ ॥
यह बहुमूल्य वस्त्र श्री चैतन्य महाप्रभु के सिर पर लपेट दिया गया। अद्वैत आचार्य आदि दूसरे भक्तों ने भी अपने सिरों पर इसी तरह वस्त्र लपेट लिये।
कानाञि-खुटिया, जगन्नाथ, दुइ-जन ।।आवेशे विलाइल घरे छिल ग्रत धन ॥
२९॥
कानाई खुटिया जिसने भावावेश में नन्द महाराज को और जगन्नाथ माहाति जिसने माता यशोदा का वेश धरा था, घर में संचित सारे धन को बाँट दिया।
देखि' महाप्रभु बड़ सन्तोष पाइला ।माता-पिता-ज्ञाने हे नमस्कार कैला ॥
३०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु यह देखकर अत्यन्त सन्तुष्ट हुए। उन्होंने उन दोनों को अपना पिता तथा माता के रूप में स्वीकार करके नमस्कार किया।
परम-आवेशे प्रभु आइला निज-घर ।।एई-मत लीला करे गौराङ्ग-सुन्दर ॥
३१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु परम आवेश में अपने निवासस्थान पर लौट आये। इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने, जो गौरांग सुन्दर के नाम से जाने जाते थे, विविध लीलाएँ कीं।
विजया-दशमी—लङ्का-विजयेर दिने ।वानर-सैन्य कैला प्रभु ला भक्त-गणे ॥
३२॥
लंका पर श्री रामचन्द्र की विजय का उत्सव, विजयादशमी मनाने के दिन श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने सारे भक्तों को वानर सैनिकों का वेश धारण कराया।
हनुमानावेशे प्रभु वृक्ष-शाखा ला ।लङ्का-गड़े चड़ि' फेले गड़ भाङ्गिया ॥
३३॥
हनुमान के आवेश में श्री चैतन्य महाप्रभु ने एक विशाल वृक्ष की शाखा ले ली और लंका गढ़ की दीवालों पर चढ़कर वे उसे तहस-नहस करने लगे।
‘काहाँरै राव्णा' प्रभु कहे क्रोधावेशे ।। ‘जगन्माता हरे पापी, मारिमु सवंशे' ॥
३४॥
हनुमान के भावावेश में श्री चैतन्य महाप्रभु ने क्रुद्ध होकर कहा, कहाँ है वह धूर्त रावण? उसने जगन्माता सीताजी का अपहरण किया है। अब मैं उसे तथा उसके सारे परिवार को मार डालूंगा।
गोसाजिर आवेश देखि लोके चमत्कार । सर्व-लोक 'जय' 'जय' बले बार बार ॥
३५।। सारे लोग श्री चैतन्य महाप्रभु का आवेश देखकर अचम्भित हो गये । और बारम्बार जय हो! जय हो! का घोष करने लगे।
एइ-मत रास-यात्रा, आर दीपावली । उत्थान-द्वादशी यात्रा देखिला सकलि ॥
३६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनके सारे भक्तों ने रास-यात्रा, दीपावली तथा उत्थान द्वादशी इन सभी उत्सवों में भाग लिया।
एक-दिन महाप्रभु नित्यानन्दे लञा ।। दुइ भाइ युक्ति कैल निभृते वसिया ॥
३७॥
एक दिन श्री चैतन्य महाप्रभु तथा नित्यानन्द प्रभु दोनों भाइयों ने कान्त स्थान में बैठकर परस्पर विचार-विमर्श किया।
किबा झुक्ति कैल बँहे, केह नाहि जाने ।फले अनुमान पाछे कैले भक्त-गणे ॥
३८॥
यह कोई नहीं जान पाया कि दोनों भाइयों ने परस्पर क्या बातें कीं, किन्तु बाद में सभी भक्तों ने अनुमान लगा लिया कि उनका विषय क्या था।
तबे महाप्रभु सब भक्ते बोलाइल ।।गौड़-देशे ग्राह सबे विदाय करिल ॥
३९॥
इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने सारे भक्तों को बुलाकर उनसे बंगाल वापस जाने के लिए कहा। इस तरह उन्होंने उन सबको विदा किया।
सबारे कहिल प्रभु–प्रत्यब्द आसिया ।।गुण्डिचा देखिया ग्राबे आमारे मिलिया ॥
४०॥
सारे भक्तों को विदा करते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु ने उनसे प्रार्थना की कि वे प्रति वर्ष उन्हें देखने जगन्नाथ पुरी वापस आते रहें और गुण्डिचा मन्दिर की सफाई देखें।
आचार्गेरे आज्ञा दिल करिया सम्मान । ‘आ-चण्डाल आदि कृष्ण-भक्ति दिओ दान' ॥
४१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने अत्यन्त सम्मानपूर्वक अद्वैत आचार्य से प्रार्थना की, आप अधम से अधम व्यक्तियों ( चण्डालों ) को भी कृष्ण-भक्ति रूपी चेतना प्रदान करें।
नित्यानन्दे आज्ञा दिल,‘ग्राह गौड़-देशे ।। अनर्गल प्रेम-भक्ति करिह प्रकाशे ॥
४२॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने नित्यानन्द प्रभु को आज्ञा दी, आप बंगाल जाओ और बिना किसी प्रतिबन्ध के कृष्ण-भक्ति अर्थात् कृष्णभावनामृत का प्राकट्य करो।
राम-दास, गदाधर आदि कत जने ।तोमार सहाय लागि' दिलु तोमार सने ॥
४३॥
नित्यानन्द प्रभु को रामदास, गदाधर दास तथा अन्य कुछ सहायक दिये गये। श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, मैं इन्हें आपकी सहायता के लिए दे रहा हूँ।
मध्ये मध्ये आमि तोमार निकट ग्राइब ।।अलक्षिते रहि' तोमार नृत्य देखिब' ॥
४४॥
मैं बीच-बीच में आपको देखने आया करूंगा। मैं अदृश्य रहकर आपका नृत्य देखा करूंगा।
श्रीवास-पण्डिते प्रभु करि' आलिङ्गन ।कण्ठे धरि' कहे ताँरै मधुर वचन ॥
४५॥
तत्पश्चात् श्री चैतन्य महाप्रभु ने श्रीवास पण्डित का आलिगंन किया और उनके गले में बाँहे डालकर उनसे मधुर वचन कहे।
तोमार घरे कीर्तने आमि नित्य नाचिब ।तुमि देखा पाबे, आर केह ना देखिब ॥
४६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने श्रीवास ठाकुर से प्रार्थना की, आप नित्य संकीर्तन करना और इतना समझ रखना कि आपकी उपस्थिति में मैं भीनृत्य करूंगा। आप यह नृत्य देख सकोगे, किन्तु अन्य लोग नहीं देख सकेंगे।
एइ वस्त्र माताके दिह', एई सब प्रसाद ।।दण्डवत्करि' आमार क्षमाइह अपराध ॥
४७॥
इस जगन्नाथ प्रसाद को और इस वस्त्र को लो। इन्हें मेरी माता शचीदेवी को जाकर दे देना। उन्हें प्रणाम करने के बाद उनसे प्रार्थना करना कि वे मेरा अपराध क्षमा कर दें।
ताँर सेवा छाड़ि' आमि करियाछि सन्यास ।धर्म नहे, करि आमि निज धर्म-नाश ॥
४८॥
मैंने अपनी माता की सेवा छोड़कर संन्यास धारण कर लिया है। वास्तव में मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था, क्योंकि ऐसा करके मैंने अपना धर्म नष्ट किया है।
ताँर प्रेम-वश आमि, ताँर सेवा-धर्म ।। ताहा छाड़ि' करियाछि बातुलेर कर्म ॥
४९॥
मैं अपनी माता के प्रेम के अधीन हूँ और मेरा धर्म है कि बदले में मैं उनकी सेवा करूं। लेकिन ऐसा करने के बदले मैंने संन्यास ग्रहण कर लिया। निस्सन्देह, यह पागलपन है।
बातुल बालकेर माता नाहि लय दोष ।। एइ जानि' माता मोरे ना करय रोष ॥
५०॥
एक माता अपने पागल बेटे से रुष्ट नहीं होती। यह जानते हुए मेरी माता मुझ पर रोष नहीं करतीं।
कि काय सन्यासे मोर, प्रेम निज-धन । ग्रे-काले सन्यास कैलें, छन्न हैल मन ।। ५१॥
मुझे इस संन्यास को स्वीकार करने तथा अपने धनस्वरूप मातृप्रेम की बलि देने से कुछ भी प्रयोजन नहीं था। वास्तव में जब मैंने संन्यास स्वीकार किया, उस समय मुझ पर पागलपन सवार था।
नीलाचले आछों मुजि ताँहार आज्ञाते ।। मध्ये मध्ये आसिमु ताँर चरण देखिते ॥
५२॥
मैं यहाँ जगन्नाथ पुरी (नीलाचल) में उनके आदेशों का पालन करने के लिए रुका हुआ हूँ। किन्तु बीच-बीच में मैं उनके चरणकमलों का दर्शन करने आता रहूँगा।
नित्य झाइ' देखि मुजि ताँहार चरणे ।।स्फूर्ति-ज्ञाने तेहो ताहा सत्य नाहि माने ॥
५३॥
वास्तव में मैं रोज ही वहाँ अपनी माता के चरणकमलों का दर्शन करने जाता हूँ। यद्यपि उन्हें मेरी उपस्थिति का आभास होता है, पर वेले सत्य नहीं मानतीं।
एक-दिन शाल्यन्न, व्यञ्जन पाँच-सात ।। शाक, मोचा-घण्ट, भृष्ट-पटोल-निम्ब-पात ॥
५४॥
लेम्बु-आदा-खण्ड, दधि, दुग्ध, खण्ड-सार ।शालग्रामे समर्पिलेन बहु उपहार ॥
५५॥
एक दिन मेरी माता शचीदेवी ने शालग्राम विष्णु को भोजन अर्पित किया। उन्होंने शालि धान से पकाया चावल, तरह-तरह की तरकारियाँ, पालक, केले के फूलों की बनी कढ़ी, नीम की पत्तियों के साथ तले । पटोल, नींबू समेत अदरक के टुकड़े, दही, दूध, खांड तथा अन्य पकवान अर्पित किये।
प्रसाद लञा कोले करेन क्रन्दन ।। निमाड़र प्रिय मोर-ए-सब व्यञ्जन ॥
५६॥
अपनी गोद में भोजन लेकर तथा यह याद करके मेरी माता रो रही । (के यह भोजन तो मेरे निमाइ को अत्यन्त प्रिय है।
निमात्रि नाहिक एथा, के करे भोजन ।। मोर ध्याने अश्रु-जले भरिल नयन ॥
५७॥
मेरी माता सोच रही थीं, 'यहाँ पर निमाइ नहीं है। इस सारे भोजन को कौन ग्रहण करेगा?' जब वे मेरे बारे में इस तरह सोच रही थीं, तो उनकी आँखो में आँसू भर आये।
शीघ्र ग्राइ' मुजि सब करिनु भक्षण ।शून्य-पात्र देखि' अश्रु करिया मार्जन ॥
५८॥
जब वे इस तरह सोचकर रो रही थीं, तो मैं जल्दी से वहाँ गया और सब भोजन ग्रहण कर लिया। थाल को खाली देखकर उन्होंने अपने आँसू पोछ डाले।
‘के अन्न-व्यञ्जन खाइल, शुन्य केने पात?।। बालगोपाल किबी खाइल सब भात? ॥
५९॥
तब वे आश्चर्य करने लगीं कि किसने सारा भोजन खा लिया। यह | थाल खाली क्यों है?' उन्हें यह आश्चर्य हुआ कि कहीं बालगोपाल ने तो नहीं खा लिया।
किबा मोर कथाय मने भ्रम हा गेल! ।।किबा कोन जन्तु आसि' सकल खाइल? ॥
६०॥
वे आश्चर्य करने लगीं कि थाल में पहले से भोजन था भी या नहीं। फिर उन्होंने सोचा कि हो सकता है कोई पशु आकर सारा भोजन खा गया हो।
किबा आमि अन्न-पात्रे भ्रमे ना बाड़िल!' ।एत चिन्ति' पाक-पात्र यात्रा देखिल ॥
६१॥
उन्होंने सोचा कि, 'हो सकता है गलती से मैंने थाल में भोजन रखाही न हो।' इस तरह सोचते हुए वे रसोई-घर गईं और वहाँ बर्तनों को देखा।
अन्न-व्यञ्जन-पूर्ण देखि' सकल भाजने । देखिया संशय हैल किछु चमत्कार मने ॥
६२॥
जब उन्होंने देखा कि सारे बर्तन अब भी चावल तथा तरकारी से भरे हैं, तो उनके मन में कुछ सन्देह हुआ और वे अचम्भित हुईं।
ईशाने बोलाजा पुनः स्थान लेपाइल ।। पुनरपि गोपालके अन्न समर्पिल ॥
६३॥
इस तरह आश्चर्यचकित होकर उन्होंने अपने नौकर ईशान को बुलाया और उस स्थान की फिर से सफाई कराई। तब उन्होंने गोपाल को दूसरी थाल अर्पित की।
एइ-मत ग्रबे करेन उत्तम रन्धन ।मोरे खाओयाइते करे उत्कण्ठाय रोदन ॥
६४॥
अब जब भी वे कोई अच्छा भोजन बनाती हैं और मुझे वह भोजन खिलाना चाहती हैं, तब वे उत्कण्ठावश रोने लगती हैं।
ताँर प्रेमे आनि' आमाय कराय भोजने ।अन्तरे मानये सुख, बाह्ये नाहि माने ।। ६५ ॥
उनके प्रेम के वशीभूत होकर मैं वहाँ भोजन करने के लिए जाता हैं। मेरी माता ये बातें भीतर-भीतर जानती हैं और सुखी होती हैं, किन्तु बाहर से वे इन्हें नहीं मानती।।
एड विजया-दशमीते हैल एइ रीति ।।ताँहाके पुछिया ताँर कराइह प्रतीति ॥
६६॥
ऐसी घटना पिछली विजयादशमी के दिन घटी। तुम उनसे इस घटनाके बारे में पूछ सकते हो और उन्हें विश्वास दिलाना कि मैं सचमुच वहाँ जाता हूँ।
एतेक कहिते प्रभु विह्वल हइला ।लोक विदाय करिते प्रभु धैर्य धरिला ॥
६७॥
यह सब कहते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु विह्वल हो गये, किन्तु भक्तों की विदाई पूरी करने के उद्देश्य से उन्होंने धैर्य धारण कर रखा।
राघव पण्डिते कहेन वचन सरस ।।‘तोमार शुद्ध प्रेमे आमि हइ' तोमार वश' ॥
६८॥
इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु राघव पण्डित से मीठी वाणी में बोले, मेरे प्रति तुम्हारा प्रेम शुद्ध है, जिसके लिए मैं तुम्हारा कृतज्ञ हूँ।
इँहार कृष्ण-सेवार कथा शुन, सर्व-जन । परम-पवित्र सेवा अति सर्वोत्तम ॥
६९ ॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने सबसे कहा, सुनो! तुम लोग राघव पण्डित द्वारा की गई शुद्ध कृष्ण-भक्ति के बारे में सुनो! राघव पण्डित की सेवा परम शुद्ध तथा सर्वोत्तम है।
आर द्रव्य रहु–शुन नारिकेलेर कथा । पाँच गण्डा करि' नारिकेल विकाय तथा ॥
७० ॥
अन्य वस्तुओं के अतिरिक्त उसके द्वारा नारियल भेंट किये जाने के बारे में सुनो। एक नारियल पाँच गण्डे में बिकता है।
वाटिते कत शत वृक्षे लक्ष लक्ष फल । तथापि शुनेन ग्रथा मिष्ट नारिकेल ॥
७१॥
यद्यपि उसके पास पहले से सैंकड़ों वृक्ष तथा लाखों फल हैं, किन्तुफिर भी वह उस स्थान के विषय में सुनने के लिए अत्यधिक उत्सुक रहता है, जहाँ मीठा नारियल मिलता हो।
एक एक फलेर मूल्य दिया चारि-चारि पण ।दश-क्रोश हैते आनाय करिया ग्नतन ॥
७२॥
वह बीस मील दूर स्थान से भी नारियल को यत्नपूर्वक लाता है। और हर नारियल के लिए चार पण चुकाता है।
प्रति-दिन पाँच-सात फल छोलाजा ।।सुशीतल करिते राखे जले डुबाइबा ॥
७३॥
प्रतिदिन पाँच-सात नारियल छीलकर उन्हें शीतल बनाये रखने के लिए जल के भीतर रखा जाता है।
भोगेर समय पुनः छुलि' संस्करि' । कृष्णे समर्पण करे मुख छिद्र करि' ॥
७४॥
भोग लगाते समय नारियलों को फिर से छीला जाता है और साफ किया जाता है। उनमें ऊपर से छेद करने के बाद उन्हें कृष्ण को अर्पित किया जाता है।
कृष्ण सेइ नारिकेल-जल पान करि' ।।कभु शून्य फल राखेन, कभु जल भरि' ॥
७५ ॥
इन नारियलों का जल कृष्ण पीते हैं और कभी-कभी नारियलों का जल निकालकर उन्हें पूरी तरह से खाली कर दिया जाता है। कभीकभी इन नारियलों में जल भरा रहता है।
जल-शून्य फल देखि' पण्डित-हरषित ।।फल भाङ्गि' शस्ये करे सत्पात्र पूरित ॥
७६ ॥
जब राघव पण्डित देखता है कि नारियलों का जल पी लिया गयाहै, तो वह अत्यन्त प्रसन्न होता है। तब वह नारियल तोड़कर गरी निकालता और उसे किसी अन्य थाल पर रख देता है।
शस्य समर्पण करि बाहिरे धेयान ।। शस्य खाजा कृष्ण करे शून्य भाजन ॥
७७॥
गरी चढ़ाने के बाद वह मन्दिर द्वार के बाहर ध्यान करता है। इस बीच भगवान् कृष्ण सारी गरी खाकर थाल को रिक्त छोड़ देते हैं।
कभु शस्य खाजा पुनः पात्र भरे शांसे ।। श्रद्धा बाड़े पण्डितेर, प्रेम-सिन्धु भासे ।। ७८ । । कभी-कभी गरी खाने के बाद कृष्ण थाल को नई गरी से भर देते हैं। इस तरह राघवे पण्डित की श्रद्धा बढ़ती जाती है और वह प्रेम के सागर में तैरता रहता है।
एक दिन फल दश संस्कार करिया ।।भोग लागाइते सेवक आइल लञा ।। ७९॥
एक दिन ऐसा हुआ कि एक नौकर अर्चाविग्रह पर चढ़ाने के लिए लगभग दस छिले हुए नारियल लाया।
अवसर नाहि हय, विलम्ब हुइल ।।फल-पात्र-हाते सेवक द्वारे त' रहिल ॥
८० ॥
जब नारियल लाए गये, उस समय उन नारियलों को चढ़ाने के लिए समय न था, क्योंकि पहले ही काफी विलम्ब हो चुका था। अतएव वह नौकर नारियलों के पात्र को पकड़े हुए दरवाजे पर ही खड़ा रहा।
द्वारेर उपर भिते तेंहो हात दिल । ।सेइ हाते फल छुडिल, पण्डित देखिल ॥
८१॥
राघव पण्डित ने देखा कि उस नौकर ने दरवाजे के ऊपर की छत १३ई है और उसी हाथ से नारियलों को छुआ है।
पण्डित कहे,—द्वारे लोक करे गतायाते ।।तार पद-धूलि उड़ि' लागे उपर भिते ॥
८२॥
तब राघव पण्डित ने कहा, 'लोग इसे दरवाजे से लगातार आते-जाते रहते हैं। उनके पैरों की धूल उड़कर छत को छूती है।
सेइ भिते हात दिया फल परशिला ।कृष्ण-योग्य नहे, फल अपवित्र हैला ॥
८३॥
तुमने दरवाजे के ऊपर की छत छूकर नारियलों का स्पर्श किया है। अब ये कृष्ण पर चढ़ाने लायक नहीं रह गये, क्योंकि ये दूषित हो गये हैं।'
एत बलि' फल फेले प्राचीर लङ्घिया ।। ऐछे पवित्र प्रेम-सेवा जगत्जिनिया ॥
८४॥
राघव पण्डित की सेवा ऐसी थी। उन्होंने उन नारियलों को नहीं लिया, अपितु उन्हें दीवार से बाहर फेंक दिया। उनकी यह सेवा अनन्य प्रेम पर आश्रित है और यह सारे जगत् को जीतने वाली है।
तबे आर नारिकेल संस्कार कराइल ।परम पवित्र करि' भोग लागाइल ॥
८५ ॥
इसके बाद राघव पण्डित ने दूसरे नारियल मँगवाये, उन्हें साफ कराया और छिलवाया और बड़ी ही सावधानी से अर्चाविग्रह को खाने के लिए अर्पित किया।
एइ-मत कला, आम्र, नारङ्ग, काँठाल ।।ग्राहा ग्राहा दूर-ग्रामे शुनियाछे भाल ॥
८६॥
इस तरह उन्होंने उत्तम केले, आम, नारंगी, कटहल तथा दूर-दूर के गाँवों से जिन-जिन उत्तम फलों के विषय में सुना-सबको एकत्र किया।
बहु-मूल्य दिया आनि' करिया ग्रतन । पवित्र संस्कार करि' करे निवेदन ॥
८७॥
ये सारे फल दूर-दूर के स्थानों से काफी ऊंची कीमत देकर एकत्र किये गये। फिर उन्हें बड़ी सावधानी तथा सफाई से काटकर राघव पण्डित ने उन्होंने अर्चाविग्रह को अर्पित किया।
एइ मत व्यञ्जनेर शाक, मूल, फल ।।एइ मत चिड़ा, हुड़म, सन्देश सकल ॥
८८॥
इस तरह राघव पण्डित बड़ी सावधानी तथा ध्यान से पालक, अन्य सब्जियाँ, मूली, फल, चिउड़ा, चूर्णित चावल तथा मिठाईयाँ तैयार करते।
एइ-मत पिठा-पाना, क्षीर-ओदन ।परम पवित्र, आर करे सर्वोत्तम ॥
८९॥
उन्होंने पीठा, पाना, खीर तथा प्रत्येक वस्तु को बड़े ही ध्यान से पकाई और पकाते समय इतनी सफाई रखी कि भोजन उत्तम कोटि का तथा स्वादिष्ट बने।
काशम्दि, आचार आदि अनेक प्रकार ।। गन्ध, वस्त्र, अलङ्कार, सर्व द्रव्य-सार ॥
९० ॥
राघव पण्डित काशम्दि जैसे सभी प्रकार के अचार भी भोग लगाते। उन्होंने विविध सुगन्धियाँ, वस्त्र, गहने तथा अच्छी से अच्छी वस्तुएँ अर्पित कीं।
एइ-मत प्रेमेर सेवा करे अनुपम ।। ग्राहा देखि' सर्व-लोकेर जुड़ाय नयन ॥
९१॥
इस तरह राघव पण्डित अद्वितीय विधि से भगवान् की सेवा करते। उन्हें देखकर सारे लोग अत्यन्त सन्तुष्ट होते।
एत बलि' राघवेरे कैल आलिङ्गने । एइ-मत सम्मानिल सर्व भक्त-गणे ॥
९२॥
इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने दयापूर्वक राघव पण्डित का आलिंगन किया। महाप्रभु ने अन्य सभी भक्तों को भी इसी तरह सम्मान किया।
शिवानन्द सेने कहे करिया सम्मान ।वासुदेव-दत्तेर तुमि करिह समाधान ॥
९३॥
महाप्रभु ने शिवानन्द सेन से भी आदरपूर्वक कहा, “वासुदेव दत्त का ठीक से ध्यान रखना।
परम उदार इँहो, ग्रे दिन ग्रे आइसे ।सेइ दिने व्यय करे, नाहि राखे शेषे ॥
९४॥
वासुदेव दत्त अत्यन्त उदार है। उसे प्रतिदिन जितनी आमदनी होती है, उसे वह खर्च कर देता है। वह कुछ भी बचाकर नहीं रखता।
‘गृहस्थ' हयेन इँहो, चाहिये सञ्चय ।। सञ्चय ना कैले कुटुम्ब-भरण नाहि हय ॥
९५॥
गृहस्थ होने के कारण वासुदेव दत्त को कुछ धन बचाना चाहिए। किन्तु वह ऐसा नहीं करता, इसलिए उसके लिए अपने परिवार का भरणपोषण कर पाना अत्यन्त कठिन है।
इहार घरेर आय-व्यय सब–तोमार स्थाने । ‘सर खेल' हा तुमि करिह समाधाने ॥
१६॥
कृपया वासुदेव दत्त के पारिवारिक मामलों पर ध्यान दें। उनके व्यवस्थापक बनकर समुचित प्रबन्ध करो।
प्रति-वर्षे आमार सब भक्त-गण ला । गुण्डिचाय आसिबे सबाय पालन करिया ॥
९७॥
तुम लोग हर वर्ष आना और मेरे सारे भक्तों को अपने साथ गुण्डिचा उत्सव में लाना। मेरी यह भी विनती है कि उन सबका भरण-पोषण करना।
कुलीन-ग्रामीरे कहे सम्मान करिया ।।प्रत्यब्द आसिबे यात्राय पट्ट-डोरी ला ॥
९८॥
इसके बाद महाप्रभु ने कुलीन ग्राम के सारे निवासियों को आदरपूर्वक आमन्त्रित किया कि वे प्रतिवर्ष आयें और रथयात्रा उत्सव के समय भगवान जगन्नाथ को खींचे जाने के लिए रेशमी रस्सी लायें।
गुणराज-खाँन कैल श्री-कृष्ण-विजय ।।ताहाँ एक-वाक्य ताँर आछे प्रेममय ॥
९९॥
फिर श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, कुलीन ग्राम के श्री गुणराज खान ने श्रीकृष्णविजय नामक एक ग्रंथ रचा है, जिसमें लेखक के कृष्ण-प्रेम को प्रकट करने वाला एक वाक्य है।
नन्दनन्दन कृष्ण–मोर प्राण-नाथ ।। एइ वाक्ये विकाइनु ताँर वंशेर हात ॥
१०० ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, नन्द महाराज के पुत्र श्रीकृष्ण मेरे प्राणाधार हैं। मैं इसी वाक्य से गुणराज खान के उत्तराधिकारियों के हाथों बिक गया हूँ।
तोमार कि कथा, तोमार ग्रामेर कुकुर ।। सेइ मोर प्रिय, अन्य-जन रहु दूर ॥
१०१॥
तुम्हारे लिए तो क्या कहना, तुम्हारे गाँव का रहने वाला कुत्ता भी मुझे अत्यन्त प्रिय है। तो फिर अन्यों के बारे में तो कहना ही क्या? तबे रामानन्द, आर सत्यराज खाँन ।। प्रभुर चरणे किछु कैल निवेदन ॥
१०२॥
इसके बाद रामानन्द वसु तथा सत्यराज खान दोनों ने श्री चैत महाप्रभु के चरणकमलों में कुछ प्रश्न निवेदन किये।
गृहस्थ विषयी आमि, कि मोर साधने ।। श्री-मुखे आज्ञा कर प्रभु–निवेदि चरणे ॥
१०३॥
सत्यराज खान ने कहा, हे प्रभु, गृहस्थ तथा भौतिकतावादी व्यक्ति होने के कारण मैं आध्यात्मिक जीवन में आगे बढ़ने की विधि नहीं जानता। इसीलिए मैं आपके चरणकमलों की शरण स्वीकार करता हूँ और प्रार्थना करता हूँ कि आप मुझे आदेश दें।
प्रभु कहेन,'कृष्ण-सेवा', 'वैष्णव-सेवन' । ‘निरन्तर कर कृष्ण-नाम-सङ्कीर्तन' ॥
१०४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, तुम निरन्तर कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करो और जब भी सम्भव हो, उनकी तथा उनके भक्त वैष्णवों की सेवा करो।
सत्यराज बले,—वैष्णव चिनिब केमने?।। के वैष्णव, कह ताँर सामान्य लक्षणे ॥
१०५॥
यह सुनकर सत्यराज ने कहा, मैं वैष्णव को कैसे पहचान सकता हूँ? कृपया मुझे बतायें कि वैष्णव कौन होता है? उसके सामान्य लक्षण क्या हैं? प्रभु कहे,–याँर मुखे शुनि एक-बार ।। कृष्ण-नाम, सेइ पूज्य,—श्रेष्ठ सबकार ॥
१०६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा,जो भी व्यक्ति कृष्ण के पवित्र नाम का एक बार भी उच्चारण करता है, वह पूज्य है और सर्वोच्च मानव है।
एक कृष्ण-नामे करे सर्व-पाप क्षय ।। नव-विधा भक्ति पूर्ण नाम हैते हय ॥
१०७॥
कृष्ण के पवित्र नाम का एक बार कीर्तन करने मात्र से मनुष्य सारे पापी जीवन के सारे फलों से छूट जाता है। पवित्र नाम का कीर्तन करने से मनुष्य भक्ति की नवों विधियों को पूरा कर सकता है।
दीक्षा-पुरश्चर्या-विधि अपेक्षा ना करे ।। जिह्वा-स्पर्शे आ-चण्डाल सबारे उद्धारे ॥
१०८॥
न तो दीक्षा लेने की आवश्यकता है न दीक्षा के पूर्व के आवश्यक कृत्य करने की। मनुष्य को केवल होठों पर पवित्र नाम लाना होता है। इस प्रकार अधम से अधम व्यक्ति (चण्डाल ) का भी उद्धार हो जाता है।
अनुषङ्ग-फले करे संसारेर क्षय ।।चित्त आकर्षिया कराय कृष्ण प्रेमोदय ॥
१०९॥
ि भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन द्वारा मनुष्य भौतिक कामों के बन्धन का विनाश करता है। इसके बाद वह कृष्ण के प्रति अत्यधिक आकृष्ट होता है और इस तरह सुप्त कृष्ण-प्रेम का उदय होता है।
आकृष्टिः कृत-चेतसां सु-मनसामुच्चाटनं चांहसाम् ।आचण्डालममूक-लोक-सुलभो वश्यश्च मुक्ति-श्रियः ।। नो दीक्षां न च सक्रियां न च पुरश्च मनागीक्षते ।मन्त्रोऽयं रसना-स्पृगेव फलति श्री-कृष्ण-नामात्मकः ॥
११०॥
भगवान् कृष्ण का पवित्र नाम अनेक सन्त एवं उदार लोगों के लि अत्यन्त आकर्षक है। यह सारे पापों का संहार करने वाला है और शक्तिशाली है कि गैंगों के अतिरिक्त, जो इसका उच्चारण नहीं कर सकते, अधम से अधम व्यक्ति, चण्डाल तक के लिए यह सहज उपलब्ध है। कृष्ण का नाम मुक्ति के ऐश्वर्य का नियामक है और यह कृष्ण से अभिन्न है। जीभ से नाम का स्पर्श करते ही तुरन्त उसका प्रभाव पड़ता है। नामकीर्तन दीक्षा, पुण्यकर्म या दीक्षा के पूर्व पालन किये जाने वाले पुरश्चर्या नियमों पर आश्रित नहीं है। पवित्र नाम इन सारे कार्यों की प्रतीक्षा नहीं करता। वह स्वयं में पर्याप्त है।
अतएव याँर मुखे एक कृष्ण-नाम ।। सेइ त' वैष्णव, करिह ताँहार सम्मान ॥
१११॥
अन्त में श्री चैतन्य महाप्रभु ने उपदेश दिया, जो व्यक्ति हरे कृष्ण मन्त्र कीर्तन करता है, वह वैष्णव माना जाता है, अतएव तुम उसका पूरी में सम्मान करना।
खण्डेर मुकुन्द-दास, श्री-रघुनन्दन । श्री-नरहरि,—एइ मुख्य तिन जन ॥
११२॥
इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने खण्ड नामक स्थान के तीन निवासियों-मुकुन्द दास, रघुनन्दन तथा श्री नरहरि की ओर ध्यान दिया।
मुकुन्द दासेरे पुछे शचीर नन्दन । ‘तुमि—पिता, पुत्र तोमार-श्री-रघुनन्दन? ॥
११३॥
इसके बाद शची-पुत्र श्री चैतन्य महाप्रभु ने मुकुन्द दास से पूछा, “तुम पिता हो और तुम्हारा पुत्र रघुनन्दन है। ऐसा ही है न? किबा रघुनन्दन—पिता, तुमि–तार तनय? ।निश्चय करिया कह, ग्राउक संशय' ॥
११४॥
अथवा श्रील रघुनन्दन तुम्हारा पिता है और तुम उसके पुत्र हो? कृपा करके मुझे असली बात बताओ, जिससे मेरा सन्देह दूर हो जाए।
मुकुन्द कहे,—रघुनन्दन मोर 'पिता' हय ।।आमि तार 'पुत्र',—एइ आमार निश्चय ॥
११५॥
मुकुन्द ने उत्तर दिया, रघुनन्दन मेरा पिता है और मैं उसका पुत्र हूँ। यही मेरा निश्चय है।
आमा सबार कृष्ण-भक्ति रघुनन्दन हैते ।।अतएव पिता रघुनन्दन आमार निश्चिते ॥
११६॥
रघुनन्दन के कारण हम सबको कृष्ण-भक्ति प्राप्त हुई है, इसलिए गरे विचार में वही मेरा पिता है।"
शुनि' हर्षे कहे प्रभु–कहिले निश्चय । याँहा हैते कृष्ण-भक्ति सेइ गुरु हय ॥
११७॥
मुकुन्द दास से यह उचित निर्णय सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने यह कहकर इसकी पुष्टि की, हाँ, यह सही है। जो कृष्ण-भक्ति को जाग्रत करता है, वह निश्चित रूप से गुरु है।
भक्तेर महिमा प्रभु कहिते पाय सुख । भक्तेर महिमा कहिते हय पञ्च-मुख ॥
११८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु अपने भक्तों की महिमा का बखान करने से अत्यन्त सुखी थे। जब वे उनकी महिमा का वर्णन कर रहे थे, तो मानो उनके पाँच मुख हो गये हों।
भक्त-गणे कहे,—शुन मुकुन्देर प्रेम ।। निगूढ़ निर्मल प्रेम, येन दग्ध हेम ॥
११९॥
तब महाप्रभु ने अपने सारे भक्तों को बतलाया, “कृपा करके मुकुन्द के भगवत्प्रेम के विषय में सुनें। यह अत्यन्त गहरा और शुद्ध प्रेम है और इसकी उपमा केवल शुद्ध किये गये सोने से ही दी जा सकती है।
बाह्ये राज-वैद्य इँहो करे राज-सेवा । अन्तरे कृष्ण-प्रेम ईंहार जानिबेक केबा ॥
१२०॥
बाहर से मुकुन्द दास सरकारी नौकरी में लगा राज-वैद्य प्रतीत होता है, किन्तु भीतर से उसमें कृष्ण के प्रति अगाध प्रेम है। भला उसके प्रेम को कौन समझ सकता है? एक दिन म्लेच्छ-राजार उच्च-टुङ्गिते ।। चिकित्सार बात्कहे ताँहार अग्रेते ॥
१२१॥
एक दिन राजवैद्य मुकुन्द दास मुसलिम राजा के साथ ऊँचे आमा पर बैठकर ईलाज के विषय में बात कर रहा था।
हेन-काले एक मयूर-पुच्छेर आड़ानी । राज-शिरोपरि धरे एक सेवक आनि' ॥
१२२॥
जिस समय राजा और मुकुन्द दास बातें कर रहे थे, उस समय एक नौकर मोर के पंखों का बना पंखा लाया, जिससे राजा के सिर की पृ से रक्षा की जा सके। फलतः वह राजा के सिर के ऊपर उस पंखे को पक रहा।
शिखि-पिच्छ देखि' मुकुन्द प्रेमाविष्ट हैला ।अति-उच्च टुङ्गि हैते भूमिते पड़िला ॥
१२३॥
मोर के पंख से बने पंखे को देखकर मुकुन्द भगवत्प्रेम में आविष्ट गया और वह उस उच्च आसन से भूमि पर गिर पड़ा।
राजार ज्ञान,—राज-वैद्येर हइल मरण ।। आपने नामिया तबे कराइल चेतन ॥
१२४॥
राजा डर गया कि राजवैद्य की मृत्यु हो गई, फलतः वह स्वयं नीचे तर गया और उसे होश में ले आया।
राजा बले–व्यथा तुमि पाइले कोन ठाजि? । मुकुन्द कहे,—अति-बड़ व्यथा पाइ नाइ ॥
१२५॥
जब राजा ने मुकुन्द से पूछा, तुम्हें कहाँ दर्द है?' तो मुकुन्द ने उत्तर दिया, 'मुझे अधिक दर्द नहीं है।'
राजा कहे,—मुकुन्द, तुमि पड़िला कि लागि'?।। मुकुन्द कहे, राजा, मोर व्याधि आछे मृगी ॥
१२६॥
जब राजा ने पूछा, 'हे मुकुन्द, तुम क्यों गिरे ?' तो मुकुन्द ने उत्तर दिया, 'हे राजन्, मुझे मिरगी नामक रोग है।'
महा-विदग्ध राजा, सेइ सब जाने ।। मुकुन्देरे हैल ताँर 'महा-सिद्ध'-ज्ञाने ॥
१२७॥
अत्यधिक बुद्धिमान होने के कारण राजा सारी बात जान गया। उसके अनुमान से मुकुन्द अत्यन्त असाधारण, महान, मुक्त पुरुष था।
रघुनन्दन सेवा करे कृष्णेर मन्दिरे । द्वारे पुष्करिणी, तार घाटेर उपरे ॥
१२८॥
कदम्बेर एक वृक्षे फुटे बार-मासे । नित्य दुई फुल हय कृष्ण-अवतंसे ॥
१२९॥
रघुनन्दन भगवान् कृष्ण के मन्दिर में निरन्तर सेवारत रहता है। मन्दिर के प्रवेश-द्वार के निकट एक सरोवर है, जिसके तट पर एक कदम्ब का वृक्ष है, जो कृष्ण की सेवा के लिए नित्य दो फूल देता है।
मुकुन्देरे कहे पुनः मधुर वचन ।।‘तोमार कार्य-धर्मे धन-उपार्जन ॥
१३०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु पुनः मुकुन्द से मीठी वाणी में बोले, “तुम्हारा कार्य भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों सम्पत्ति अर्जित करना है।
रघुनन्दनेर कार्य कृष्णेर सेवन ।।कृष्ण-सेवा विना इँहार अन्य नाहि मन ॥
१३१॥
रघुनन्दन का यह भी कार्य है कि वह सदैव भगवान् कृष्ण की सेवा में लगा रहे। भगवान् कृष्ण की सेवा के अतिरिक्त उसका अन्य कोई मन्तव्य नहीं है।
नरहरि रहु आमार भक्त-गण-सने, ।।एइ तिन कार्य सदा करह तिन जने' ॥
१३२॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने नरहरि को आदेश दिया, मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे भक्तों के साथ यहीं रहो। इस तरह तुम तीनों भगवान् की सेवा के लिए ये तीनों कार्य सदैव करते रहना।
सार्वभौम, विद्या-वाचस्पति,–दुइ भाइ ।। दुइ-जने कृपा करि' कहेन गोसाजि ॥
१३३॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपनी अहैतुकी कृपावश सार्वभौम भट्टाचार्य तथा विद्यावाचस्पति-इन दोनों भाइयों को निम्नलिखित आदेश दिये।
'दारु'-जल'-रूपे कृष्ण प्रकट सम्प्रति । ‘दरशन'-‘स्नाने' करे जीवेर मुकति ॥
१३४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, इस कलियुग में कृष्ण दो रूपों मेंकाठ तथा जल के रूप में प्रकट हुए हैं। इस तरह बद्धजीवों द्वारा काठ का दर्शन करके और जल में स्नान करके मुक्त होने में वे सहायक हैं।
'दारु-ब्रह्म'-रूपे साक्षात्श्री-पुरुषोत्तम ।भागीरथी हन साक्षात् ‘जल-ब्रह्म'-सम ॥
१३५ ॥
भगवान जगन्नाथ काठ के रूप में साक्षात् भगवान् हैं और गंगा नदी जल के रूप में साक्षात् भगवान् है।
सार्वभौम, कर 'दारु-ब्रह्म'-आराधने । वाचस्पति, कर जल-ब्रह्मेर सेवन ॥
१३६॥
हे सार्वभौम भट्टाचार्य, आप जगन्नाथ पुरुषोत्तम की पूजा में अपने आपको लगाओ और हे वाचस्पति, आप माता गंगा की पूजा करो।
मुरारि-गुप्तेरे प्रभु करि' आलिङ्गन ।।ताँर भक्ति-निष्ठा कहेन, शुने भक्त-गण ॥
१३७।। तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने मुरारि गुप्त का आलिंगन किया और उससे भक्ति-निष्ठा के विषय में बातें कीं। इसे सारे भक्तों ने सुना।
पूर्वे आमि इँहारे लोभाइल बार बार ।परम मधुर, गुप्त, व्रजेन्द्र कुमार ॥
१३८ । श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, इसके पूर्व मैं मुरारि गुप्त को कृष्ण कीओर आकृष्ट होने के लिए बारम्बार प्रेरित करता रहा। मैंने उससे कहा, '।। गुप्त, व्रजेन्द्र कुमार श्रीकृष्ण अत्यन्त मधुर हैं।
स्वयं भगवान्कृष्ण----सर्वांशी, सर्वाश्रय ।विशुद्ध-निर्मल-प्रेम, सर्व-रसमय ॥
१३९॥
कृष्ण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं, समस्त अवतारों के उद्गम तथा सारी वस्तुओं के स्रोत हैं। वे विशुद्ध दिव्य प्रेम रूप हैं और समस्त आनन्। के आगार हैं।
सकल-सद्गुण-वृन्द-रत्न-रत्नाकर ।।विदग्ध, चतुर, धीर, रसिक-शेखर ॥
१४०॥
कृष्ण समस्त दिव्य गुणों के आगार हैं। वे रत्नों की खान के तम्य हैं। वे हर बात में दक्ष हैं, अत्यन्त बुद्धिमान एवं धीर हैं और वे समय दिव्य रसों की पराकाष्ठा हैं।
मधुर-चरित्र कृष्णेर मधुर-विलास ।। चातुर्य-वैदग्ध्य करे याँर लीला-रस ॥
१४१॥
उनका चरित्र अत्यन्त मधुर है और उनकी लीलाएँ मधुर हैं। वे बुद्धि दक्ष हैं। इस तरह वे सारी लीलाओं एवं रसों का आनन्द लूटते हैं।'
सेइ कृष्ण भज तुमि, हओ कृष्णाश्रय । कृष्ण विना अन्य-उपासना मने नाहि लय ॥
१४२॥
तब मैंने मुरारि गुप्त से अनुरोध किया कि, तुम कृष्ण की पूजा परी और उनकी शरण में जाओ। उनकी सेवा के अतिरिक्त मन को अन्य कुछ भी अच्छा नहीं लगता।'
एइ-मत बार बार शुनिया वचन ।। आमार गौरवे किछु फिरि' गेल मन ॥
१४३॥
इस तरह वह बारम्बार मुझे सुनता रहा। मेरे प्रभाव से उसका मन कुछ-कुछ बदला।
आमारे कहेन,—आमि तोमार किङ्कर ।।तोमार आज्ञाकारी आमि नाहि स्वतन्तर ॥
१४४॥
तब मुरारि गुप्त ने उत्तर दिया, मैं आपका सेवक और आज्ञावाहक हूँ। मेरा स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है।'
केमने छाड़िब रघुनाथेर चरण ।।आजि रात्र्ने प्रभु मोर कराह मरण ॥
१४६॥
इसके बाद मुरारि गुप्त ने भगवान् रामचन्द्र के चरणकमलों की प्रार्थना की। उसने प्रार्थना की कि उसके लिए रघुनाथ के चरणकमल को त्याग पाना सम्भव नहीं होगा, अतएव रात में उसकी मृत्यु हो जाए।
एइ मत सर्व-रात्रि करेन क्रन्दन ।मने सोयास्ति नाहि, रात्रि कैल जागरण ॥
१४७॥
इस तरह मुरारि गुप्त रातभर रोता रहा। उसके मन में शांति नहीं थी, अतः वह सो नहीं सका और रातभर जागता रहा।
एत बलि' घरे गेल, चिन्ति' रात्रि-काले । रघुनाथ-त्याग-चिन्ताय हइल विकले ॥
१४५॥
इसके बाद मुरारि गुप्त घर गया और रातभर सोचता रहा कि वह किस तरह रघुनाथ अर्थात् भगवान् रामचन्द्रजी का साथ छोड़ सकेगा। इस तरह वह विह्वल हो गया।
प्रातः-काले आसि' मोर धरिल चरण ।कान्दिते कान्दिते किछु करे निवेदन ॥
१४८ ॥
प्रात:काल मुरारि गुप्त मुझसे मिलने आया। मेरे चरण पकड़कर रोते हुए उसने निवेदन किया।
रघुनाथेर पाय मुञि वेचियाछों माथा । काढ़िते ना पारि माथा, मने पाइ व्यथा ॥
१४९॥
मुरारि गुप्त ने कहा, 'मैंने अपना सिर रघुनाथ के चरणों में बेच दिया है। अब उसे मैं वापस नहीं ले सकता, क्योंकि इससे मुझे अत्यधिक पीड़ा होगी।
श्री-रघुनाथ-चरण छाड़ान ना ग्राय ।। तव आज्ञा-भङ्ग हय, कि करों उपाय ॥
१५०॥
मुझसे रघुनाथ के चरणकमलों की सेवा छोड़ी नहीं जाती। साथ ही यदि मैं ऐसा नहीं करता, तो आपकी आज्ञा भंग होती है। मैं क्या करूं?' ताते मोरे एइ कृपा कर, दयामय ।।तोमार आगे मृत्यु हउक, ग्राउक संशय ॥
१५१॥
इस तरह मुरारि गुप्त ने मुझसे निवेदन किया, 'आप दयालु हैं, इसलिए आप मुझ पर यह कृपा करें : मुझे अपने सामने मर जाने दें, जिससे मेरे सारे संशय समाप्त हो जाएँ।'
एत शुनि' आमि बड़ मने सुख पाइलें ।इँहारे उठाजा तबे आलिङ्गन कैलें ॥
१५२॥
यह सुनकर मैं अत्यन्त प्रसन्न हुआ। तब मैंने मुरारि गुप्त को उठाकर उसका आलिंगन किया।
साधु साधु, गुप्त, तोमार सुदृढ़ भजन ।।आमार वचनेह तोमार ना टलिल मने ॥
१५३॥
मैंने उससे कहा, हे मुरारि गुप्त, तुम्हारी जय हो! तुम्हारी पूजाविधि अत्यधिक सुदृढ़ है-यहाँ तक कि मेरे अनुरोध पर भी तुम्हारा मन नहीं बदला।
एइ-मत सेवकेर प्रीति चाहि प्रभु-पाय ।। प्रभु छाड़ाइलेह, पद छाड़ान ना ग्राय ॥
१५४॥
भगवान् के चरणकमलों पर सेवक का ऐसा ही प्रेम होना चाहिए। यहाँ तक कि भगवान् भी छुड़ाना चाहें, तो भी भक्त उनके चरणकमलों का आश्रय नहीं छोड़ सकता।
एइ-मत तोमार निष्ठा जानिबार तरे ।तोमारे आग्रह आमि कैलॅ बारे बारे ॥
१५५॥
मैंने भगवान् के प्रति तुम्हारी दृढ़ श्रद्धा की परीक्षा करने के लिए। ही तुमसे भगवान् रामचन्द्र की भक्ति छोड़कर कृष्ण की पूजा करने के लिए बारम्बार अनुरोध किया था।
साक्षात् हनुमान्तुमि श्री-राम-किङ्कर ।।तुमि केने छाड़िबे ताँर चरण-कमल ॥
१५६॥
इस तरह मैंने मुरारि गुप्त को बधाई देते हुए कहा, 'निस्सन्देह तुम हनुमान के अवतार हो, फलतः तुम भगवान् रामचन्द्र के सनातन दास हो। तो फिर तुम भगवान् रामचन्द्र तथा उनके चरणकमलों की पूजा क्यों त्यागो? सेइ मुरारि-गुप्त एई—मोर प्राण सम ।।इँहार दैन्य शुनि' मोर फाटये जीवन ॥
१५७॥
श्री चैतन्य ने आगे कहा, मैं इस मुरारि गुप्त को अपने प्राण के समान मानता हूँ। जब मैं उसकी दीनता सुनता हूँ, तो मेरा जीवन विचलित हो जाता है।
तबे वासुदेवे प्रभु करि' आलिङ्गन ।। ताँर गुण कहे हा सहस्र-वदन ॥
१५८॥
इसके बाद महाप्रभु ने वासुदेव दत्त का आलिंगन किया और उसकी महिमा का वर्णन इस तरह करने लगे मानो उनके हजार मुख हों।
निज-गुण शुनि' दत्त मने लज्जा पात्रा। निवेदन करे प्रभुर चरणे धरिया ॥
१५९ ॥
जब चैतन्य महाप्रभु ने उसकी महिमा का वर्णन किया, तो वासुदेव दत्त तुरन्त मन में व्याकुल और लज्जित हो उठे। तब उन्होंने महाप्रभु के चरणकमल छूते हुए यह निवेदन किया।
जगत्तारिते प्रभु तोमार अवतार ।मोर निवेदन एक करह अङ्गीकार ॥
१६० ॥
वासुदेव दत्त ने महाप्रभु से कहा, हे प्रभु, आप समस्त बद्धजीवों का उद्धार करने के लिए अवतरित होते हैं। मेरी आपसे एक विनती है, जिसे मैं चाहता हूँ कि आप स्वीकार करें।
करिते समर्थ तुमि हओ, दयामय । तुमि मन कर, तबे अनायासे हय ॥
१६१॥
हे प्रभु, आप जो चाहें सो करने में समर्थ हैं और निस्सदेह आप दयालु हैं। यदि आप चाहें तो आसानी से सब कुछ कर सकते हैं।
जीवेर दुःख देखि' मोर हृदय विदरे ।सर्व-जीवेर पाप प्रभु देह' मोर शिरे ॥
१६२॥
हे प्रभु, समस्त बद्धजीवों के कष्टों को देखकर मेरा दिल फटता है; अतएव मेरी प्रार्थना है कि आप उनके पापकर्मों को मेरे ऊपर डाल दें।
जीवेर पाप ला मुञि करों नरक भोग ।।सकल जीवेर, प्रभु, घुचाह भव-रोग ॥
१६३ ॥
हे प्रभु, सारे जीवों के पापों को अपने ऊपर लादकर मुझे निरन्तर नरक भोगने दें। किन्तु आप उनके रुग्ण भौतिक जीवन को समाप्त कर दें।
एत शुनि' महाप्रभुर चित्त द्रविला ।।अश्रु-कम्प-स्वरभङ्गे कहिते लागिला ॥
१६४॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने वासुदेव का यह कथन सुना, तो उनका हृदय अत्यन्त द्रवित हो उठा। उनकी आँखो से आँसू बहने लगे और वे काँपने लगे। वे कम्पित स्वर में बोले।
तोमार विचित्र नहे, तुमि–साक्षात्प्रह्लाद ।तोमार उपरे कृष्णेर सम्पूर्ण प्रसाद ॥
१६५॥
वासुदेव दत्त को महान् भक्त स्वीकार करते हुए महाप्रभु ने कहा, ऐसा कथन तनिक भी आश्चर्यजनक नहीं है, क्योंकि तुम प्रह्लाद महाराज के अवतार हो। ऐसा लगता है कि भगवान् कृष्ण ने तुम्हें सम्पूर्ण कृपा प्रदान कर दी है। इसमें सन्देह नहीं है।
कृष्ण सेइ सत्य करे, येइ मागे भृत्य ।।भृत्य-वाञ्छा-पूर्ति विनु नाहि अन्य कृत्य ॥
१६६॥
| शुद्ध भक्त अपने स्वामी से जो भी माँगता है, उसे भगवान् कृष्ण अवश्य ही प्रदान करते हैं, क्योंकि उनके पास अपने भक्त की इच्छा पूरी करने के अतिरिक्त कोई अन्य कर्तव्य नहीं रहता।
ब्रह्माण्ड जीवेर तुमि वाञ्छिले निस्तार । विना पाप-भोगे हबे सबार उद्धार ॥
१६७॥
यदि तुम चाहते हो कि ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत सारे जीवों का उद्धार हो जाए, तो तुम्हारे द्वारा पापकर्मों का कष्ट भोगे बिना ही उनका उद्धार किया जा सकता है।
असमर्थ नहे कृष्ण, धरे सर्व बल ।।तोमाके वा केने भुञ्जाइबे पाप-फल? ॥
१६८॥
कृष्ण अक्षम नहीं हैं, क्योंकि उनके पास सारी शक्तियाँ हैं। भला वे अन्य जीवों के पापकर्मों के फलों का कष्ट तुम्हें क्यों भोगने देंगे? तुमि याँर हित वाञ्छ', से हैल ‘वैष्णव' ।वैष्णवेर पाप कृष्ण दूर करे सब ॥
१६९॥
तुम जिस किसी को हित चाहते हो, वह तुरन्त वैष्णव हो जाता है। और कृष्ण सारे वैष्णवों को उनके विगत पापकर्मों से मुक्त कर देते हैं।
ग्रस्त्विन्द्र-गोपमथ वेन्द्रमहो स्व-कर्मबन्धानुरूप-फल-भाजनमातनोति । कर्माणि निर्दहति किन्तु च भक्ति-भाजांगोविन्दमादि-पुरुषं तमहं भजामि ॥
१७० ॥
मैं उन आदि भगवान् गोविन्द को सादर नमस्कार करता हूँ, जो प्रत्येक व्यक्ति-स्वर्ग के राजा इन्द्र से लेकर छोटे से छोटे कीट (इन्द्रगोप) तक–के कष्टों तथा कर्मों के भोग को नियन्त्रित करते हैं। यही भगवान् भक्ति में लगे व्यक्ति के सकाम कर्म को नष्ट करते हैं।'
तोमार इच्छा-मात्रे हबे ब्रह्माण्ड-मोचन ।। सर्व मुक्त करिते कृष्णेर नाहि किछु श्रम ॥
१७१॥
तुम्हारी सच्ची इच्छा-मात्र से ब्रह्माण्ड के सारे जीवों का उद्धार हो जायेगा, क्योंकि कृष्ण को ब्रह्माण्ड के जीवों को मुक्ति देने के लिए कुछ करना नहीं पड़ता।
एक उडुम्बर वृक्षे लागे कोटि-फले । कोटि ग्रे ब्रह्माण्ड भासे विरजार जले ॥
१७२॥
जिस तरह उडुम्बर वृक्ष में करोड़ों फल लगते हैं, उसी तरह विरजा नदी के जल में करोड़ों ब्रह्माण्ड तैरते रहते हैं।
तार एक फल पड़ि' यदि नष्ट हय ।। तथापि वृक्ष नाहि जाने निज-अपचय ॥
१७३॥
इस उडुम्बर वृक्ष में करोड़ों फल लगते हैं, अतएव यदि एक फल गिरकर नष्ट हो जाए, तो भी वृक्ष को किसी प्रकार की क्षति का अनुभव नहीं होता।
तैछे एक ब्रह्माण्ड यदि मुक्त हय । तबु अल्प-हानि कृष्णेर मने नाहि लय ॥
१७४॥
इसी तरह यदि जीवों के मुक्त हो जाने से एक ब्रह्माण्ड रिक्त भी हो जाए, तो भी कृष्ण के लिए यह मामूली बात है। वे इसे गम्भीरता से नहीं लेते।
अनन्त ऐश्वर्य कृष्णेर वैकुण्ठादि-धाम । तार गड़-खाइ कारणाब्धि झार नाम ॥
१७५ ॥
सम्पूर्ण आध्यात्मिक जगत् कृष्ण का ऐश्वर्य है, जिसमें असंख्य वैकुण्ठ लोक हैं। कारण सागर को वैकुण्ठ लोक के चारों ओर की जल की खाई माना जाता है।
ताते भासे माया लञा अनन्त ब्रह्माण्ड । गड़-खाइते भासे ग्रेन राइ-पूर्ण भाण्ड ॥
१७६ ॥
उस कारण सागर में माया तथा उसके अनन्त भौतिक ब्रह्माण्ड स्थित हैं। निस्सन्देह, माया तो राई के बीजों से भरे तैरते हुए पात्र के समान लगती है।
तार एक राई-नाशे हानि नाहि मानि ।। ऐछे एक अण्ड-नाशे कृष्णेर नाहि हानि ॥
१७७॥
यदि इस तैरते पात्र के करोड़ों बीजों में से एक बीज नष्ट हो जाए, तो यह हानि उल्लेखनीय नहीं है। इसी तरह यदि एक ब्रह्माण्ड नष्ट हो जाए, तो भगवान् कृष्ण के लिए इसका महत्त्व नहीं है।
सब ब्रह्माण्ड सह यदि 'माया'र हय क्षय ।।तथापि ना माने कृष्ण किछु अपचय ॥
१७८॥
एक ब्रह्माण्ड रूपी बीज की बात जाने दें, यदि सारे ब्रह्माण्ड तथा भौतिक शक्ति (माया) भी विनष्ट हो जाएँ, तो भी कृष्ण इस क्षति की परवाह तक नहीं करते।
कोटि-कामधेनु-पतिर छागी भैछे मरे ।।षडू-ऐश्वर्य-पति कृष्णेर माया किबा करे? ॥
१७९॥
यदि एक करोड़ कामधेनुओं के मालिक की एक बकरी खो जाए,तो उसे इस हानि की परवाह नहीं होती। कृष्ण छहों ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं। यदि सम्पूर्ण भौतिक शक्ति ( माया) विनष्ट हो जाए, तो इससे उनको कौन सी क्षति पहुँचने वाली है? जय जय जह्यजामजित दोष-गृभीत-गुणांत्वमसि यदात्मना समवरुद्ध-समस्त-भगः । अग-जगदोकसामखिल-शक्त्यवबोधक तेक्वचिदजयात्मना च चरतोऽनुचरेन्निगमः ॥
१८०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु कहते रहे, हे प्रभु, हे अजित, हे समस्त शक्तियों के स्वामी, आप समस्त चर तथा अचर प्राणियों के अज्ञान को दूर करने के लिए कृपया अपनी अन्तरंगा शक्ति प्रकट कीजिए। अपने अज्ञान के कारण वे सभी दोषपूर्ण बातों को स्वीकार कर लेते हैं, जिससे भयानक स्थिति प्रकट हो जाती है। हे प्रभु, अपनी महिमा प्रकट करें! आप इसे आसानी से कर सकते हैं, क्योंकि आपकी अन्तरंगा शक्ति बहिरंगा शक्ति से परे है और आप समस्त ऐश्वर्य के आगार हैं। आप भौतिक शक्ति के भी प्रदर्शनकर्ता हैं। आप वैकुण्ठ में अपनी लीलाएँ करते रहते हैं, जहाँ आप अपनी सुरक्षित अन्तरंगा शक्ति प्रकट करते हैं और कभी-कभी बहिरंगा शक्ति को उस पर दृष्टिपात करके प्रकट करते हैं। इस तरह आप लीलाएँ प्रकट करते हैं। वेदों द्वारा आपकी इन दोनों शक्तियों की पुष्टि होती है और वे उनसे प्रकट होने वाली लीलाओं को स्वीकार करते हैं।'
एइ मत सर्व-भक्तेर कहि' सब गुण । सबारे विदाय दिल करि' आलिङ्गन ॥
१८१॥
इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु अपने भक्तों के सद्गुणों का बखान एक-एक करके करते रहे। इसके बाद उन्होंने सबका आलिंगन किया और उन्हें विदा कर दिया।
प्रभुर विच्छेदे भक्त करेन रोदन ।। भक्तेर विच्छेदे प्रभुर विषण्ण हैल मन ॥
१८२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु से आसन्न विछोह के कारण सारे भक्त रोने लगे। महाप्रभु भी भक्तों के विछोह के कारण खिन्न थे।
गदाधर-पण्डित रहिला प्रभुर पाशे ।।ग्रमेश्वरे प्रभु यौरे कराइला आवासे ॥
१८३॥
गदाधर पण्डित श्री चैतन्य महाप्रभु के पास रहे। उन्हें यमेश्वर में रहने के लिए स्थान दिया गया।
पुरी-गोसाजि, जगदानन्द, स्वरूप-दामोदर । दामोदर-पण्डित, आर गोविन्द, काशीश्वर ॥
१८४॥
एइ-सब-सङ्गे प्रभु वैसे नीलाचले ।जगन्नाथ-दरशन नित्य करे प्रातः-काले ॥
१८५॥
श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी, नीलाचल में परमानन्द पुरी, जगदानन्द, स्वरूप दामोदर, दामोदर पण्डित, गोविन्द तथा काशीश्वर के साथ रहे। श्री चैतन्य महाप्रभु नित्य ही प्रात:काल जगन्नाथजी का दर्शन करने जाते।
प्रभु-पाश आसि’ सार्वभौम एक दिन ।योड़-हात करि' किछु कैल निवेदन ॥
१८६॥
एक दिन सार्वभौम भट्टाचार्य हाथ जोड़े हुए चैतन्य महाप्रभु के समक्ष आये और उनसे एक प्रार्थना करने लगे।
एबे सब वैष्णव गौड़-देशे चलि' गेल । एबे प्रभुर निमन्त्रणे अवसर हैल ॥
१८७॥
चूँकि सारे वैष्णव बंगाल वापस चले गये थे, अतएव यह अच्छा अवसर था कि महाप्रभु निमन्त्रण स्वीकार कर लेंगे।
एबे मोर घरे भिक्षा करह 'मास' भरि' । प्रभु कहे,—धर्म नहे, करिते ना पारि ॥
१८८ ॥
सार्वभौम भट्टाचार्य ने कहा, कृपया एक मास तक मेरे यहाँ भोजन करने का निमन्त्रण स्वीकार करें। महाप्रभु ने उत्तर दिया,“ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि यह संन्यासी धर्म के विरुद्ध है।
सार्वभौम कहे,—भिक्षा करह बिश दिन । प्रभु कहे,——-एह नहे ग्रति-धर्म-चिह्न ॥
१८९॥
तब सार्वभौम ने कहा, तो फिर बीस दिनों के लिए निमन्त्रण स्वीकार करें। किन्तु श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, यह संन्यास आश्रम का धर्म नहीं है।
सार्वभौम कहे पुनः,—दिन ‘पञ्च-दश' ।प्रभु कहे,—तोमार भिक्षा 'एक' दिवस ॥
१९०॥
जब सार्वभौम भट्टाचार्य ने पुनः पन्द्रह दिन तक भोजन करने के लिए आग्रह किया, तो महाप्रभु ने कहा, मैं आपके घर केवल एक दिन भोजन ग्रहण करूंगा।
तबे सार्वभौम प्रभुर चरणे धरिया ।। ‘दश-दिन भिक्षा कर' कहे विनति करिया ॥
१९१॥
तब सार्वभौम ने महाप्रभु के चरण पकड़ लिए और विनयपूर्वक कहा, “कम-से-कम दस दिनों तक तो भोजन अवश्य ग्रहण करें।
प्रभु क्रमे क्रमे पाँच-दिन घाटाइल ।।पाँच-दिन ताँर भिक्षा नियम करिल ॥
१९२॥
इस तरह धीरे-धीरे महाप्रभु ने अवधि को घटाकर पाँच दिन दी। इस तरह वे महीने में लगातार पाँच दिनों तक भट्टाचार्य के निमन्त्रण को स्वीकार करते रहे।
तबे सार्वभौम करे आर निवेदन ।।तोमार सङ्गे सन्यासी आछे दश-जन ॥
१९३॥
इसके बाद सार्वभौम भट्टाचार्य ने कहा, हे प्रभु, आपके साथ दस संन्यासी हैं।
पुरी गोसाजिर भिक्षा पाँच दिन मोर घरे ।पूर्वे आमि कहियाछों तोमार गोचरे ॥
१९४॥
तब सार्वभौम भट्टाचार्य ने निवेदन किया कि परमानन्द पुरी भी उनके घर पाँच दिन का निमन्त्रण स्वीकार करेंगे। इसका निर्णय महाप्रभु के समक्ष पहले ही हो चुका था।
दामोदर-स्वरूप,—एइ बान्धव आमार ।कभु तोमार सङ्गे ग्राबे, कभु एकेश्वर ॥
१९५॥
सार्वभौम भट्टाचार्य ने कहा, दामोदर स्वरूप मेरा घनिष्ठ मित्र है। कभी वह आपके साथ आयेगा और कभी अकेले।
आर अष्ट सन्यासीर भिक्षा दुइ दुइ दिवसे ।।एक एक-दिन, एक एक जने पूर्ण हइल मासे ॥
१९६॥
अन्य आठ संन्यासी दो-दो दिन का निमन्त्रण स्वीकार करेंगे। इस तरह पूरे महीने प्रतिदिन के लिए कार्यक्रम रहेगा।
बहुत सन्यासी यदि आइसे एक ठानि ।।सम्मान करते नारि, अपराध पाइ ॥
१९७॥
यदि सारे संन्यासी एकसाथ आयेंगे, तो मैं उनका समुचित सत्कार नहीं कर पाऊँगा और मैं अपराधी बनूंगा।
तुमिह निज-छाये आसिबे मोर घर ।। कभु सङ्गे आसिबेन स्वरूप-दामोदर ॥
१९८॥
कभी आप अकेले मेरे घर आयेंगे और कभी स्वरूप दामोदर के साथ।
प्रभुर इङ्गित पाजा आनन्दित मन ।।सेइ दिन महाप्रभुर कैल निमन्त्रण ॥
१९९॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने इस प्रबन्ध की पुष्टि कर दी, तो भट्टाचार्य अत्यन्त प्रसन्न हुए और तुरन्त उसी दिन महाप्रभु को अपने घर आने को निमन्त्रित किया।
षाठीर माता' नाम, भट्टाचार गृहिणी ।प्रभुर महा-भक्त तेंहो, स्नेहेते जननी ॥
२००॥
सार्वभौम भट्टाचार्य की पत्नी पाठी की माता कहलाती थीं। वे श्री चैतन्य महाप्रभु की महान् भक्तिन थीं। वे माता के समान स्नेहिल थीं।
घरे आसि' भट्टाचार्य तौरे आज्ञा दिल । आनन्दे पाठीर माता पाक चड़ाइल ॥
२०१॥
घर लौटकर सार्वभौम भट्टाचार्य ने अपनी पत्नी को आदेश दिया, तो उनकी पत्नी षाठीर माता बड़े ही आनन्द से भोजन पकाने लगीं।
भट्टाचार गृहे सब द्रव्य आछे भरि' । ग्रेबा शाक-फलादिक, आनाइल आहरि' ॥
२०२॥
सार्वभौम भट्टाचार्य के घर में खाद्य पदार्थ का सदैव संग्रह रहता था। जितनी पालक, तरकारियाँ, फल इत्यादि की आवश्यकता थी, उतनी लाकर संग्रह कर दिया गया।
आपनि भट्टाचार्य करे पाकेर सब कर्म ।।पाठीर माता–विचक्षणा, जाने पाक-मर्म ॥
२०३॥
सार्वभौम भट्टाचार्य भोजन पकाने में अपनी पत्नी की सहायता करने लगे। उनकी पत्नी पाठीर माता अत्यन्त अनुभवी थीं और वे अच्छा भोजन बनाना जानती थीं।
पाक-शालार दक्षिणे—दुइ भोगालय ।। एक-घरे शालग्रामेर भोग-सेवा हये ॥
२०४॥
रसोई-घर के दक्षिण की ओर भोजन अर्पण करने के दो कमरे थे, जिनमें से एक में शालग्राम नारायण को भोग लगाया जाता था।
आर घर महाप्रभुर भिक्षार लागिया ।निभृते करियाछे भट्ट नूतन करिया ॥
२०५ ॥
दूसरा कमरा श्री चैतन्य महाप्रभु को भोजन कराने के लिए था। यह कमरा एकान्त में था और इसे भट्टाचार्य ने अभी नया नया बनवाया था।
बाह्ये एक द्वार तार, प्रभु प्रवेशिते ।।पाक-शालार एक द्वार अन्न परिवेशिते ॥
२०६॥
यह कमरा इस तरह बना था कि श्री चैतन्य महाप्रभु के लिए बाहर से जाने के लिए केवल एक दरवाजा था, जो बाहर की ओर खुलता था। दूसरा दरवाजा रसोई-घर के साथ लगा था, जिससे भोजन लाया जाता था।
बत्तिशा-आठिया कलार आङ्गटिया पाते ।।तिन-मान तण्डुलेर उभारिल भाते ॥
२०७॥
सर्वप्रथम केले के बड़े पत्ते पर तीन मान (लगभग ६ पौंड) पकाया चावल परोसा गया।
पीत-सुगन्धि-घृते अन्न सिक्त कैल ।चारि-दिके पाते घृत वहिया चलिल ॥
२०८॥
तब पूरे चावल में इतना पीला सुगन्धित घी डाला गया कि वह पत्ते से बाहर बह चला।
केयापत्र-कलाखोला-डोङ्गा सारि सारि ।चारि-दिके धरियाछे नाना व्यञ्जन भरि' ॥
२०९॥
केले की छाल तथा केया की पत्तियों के बने अनेक दोने थे। इन्हें विविध तरकारियों से भरकर पत्तल के चारों ओर रख दिया गया।
दश-प्रकार शाक, निम्ब-तिक्त-सुख्त-झोल ।मरिचेर झाल, छाना-बड़ा, बड़ि घोल ॥
२१०॥
व्यंजनों में दस प्रकार की पालक, कड़वी नीम की पत्तियों का बना शोरबा (सुख्त), काली मिर्च का बना तीखा व्यंजन, छाना-बड़ा, बड़ी घोल थे।
दुग्ध-तुम्बी, दुग्ध-कुष्माण्ड, वेसर, लाफ्रा ।।मोचा-घण्ट, मोचा-भाजा, विविध शाक्रा ॥
२११॥
व्यंजनों में दुग्ध-तुम्बी, दुग्ध-कुष्माण्ड, वेसर, लाफ्रा, मोचा-घण्टा, मोचा-भाजा तथा अन्य तरकारियाँ थीं।
वृद्ध-कुष्माण्ड-बड़ीर व्यञ्जन अपार ।फुलबड़ी-फल-मूल विविध प्रकार ॥
२१२॥
अनेक प्रकार की वृद्धकुष्माण्ड बड़ी, फुलबड़ी, फल तथा विविध कन्द थे।
नव-निम्बपत्र-सह भृष्ट-वार्ताकी ।फुल-बड़ी पटोल-भाजा, कुष्माण्ड-मान-चाकी ॥
२१३॥
अन्य व्यंजनों में नीम की नई सुखाई पत्तियों से मिला बैंगन, हल्की बड़ी, सूखा पटोल तथा कुम्हड़े के बने पेठे थे।
भृष्ट-माष-मुद्ग-सूप अमृत निन्दय ।।मधुराम्ल, बड़ाम्लादि अम्ल पाँच छय ॥
२१४॥
तली उड़द की दाल तथा मूंग की दाल का शोरबा अमृत से भी बढ़कर था। मीठी चटनी के साथ ही पाँच-छः प्रकार के खट्टे व्यंजन थे, जिनमें बड़ाम्ल मुख्य था।
मुद्ग-बड़ा, माष-बड़ा, कला-बड़ा मिष्ट । क्षीर-पुलि, नारिकेल-पुलि आर व्रत पिष्ट ॥
२१५॥
मूंग की दाल, उड़द की दाल तथा मीठे केले के बड़े बने थे और मीठे चावल की बर्फी, नारिकेल की बर्फी तथा अन्य अनेक बर्फियाँ थीं।
काँजि-बड़ा, दुग्ध-चिड़ा, दुग्ध-लक्लकी ।। आर व्रत पिठा कैल, कहिते ना शकि ॥
२१६॥
कांजी बड़ा, दुग्ध-चिड़ा, दुग्ध लक्लकी तथा विविध मिठाईंयाँ थीं, जिनका वर्णन करने में मैं अक्षम हूँ।
घृत-सिक्त परमान्न, मृत्कुण्डिका भरि' ।। चाँपाकला-घनदुग्ध-आम्र ताहा धरि ॥
२१७॥
घी मिलाकर मीठे चावल को मिट्टी के पात्र में डाला गया और उसमें चाँपाकला, औंटाया दूध तथा आम मिला दिया गया।
रसाला-मथित दधि, सन्देश अपारे ।गौड़े उत्कले व्रत भक्ष्येर प्रकार ॥
२१८॥
अन्य व्यंजन थे-अत्यन्त स्वादिष्ट लस्सी तथा तरह-तरह की सन्देश मिठाइयाँ। वास्तव में बंगाल तथा उड़ीसा में उपलब्ध सभी विभिन्न खाद्यों को तैयार किया गया था।
श्रद्धा करि' भट्टाचार्य सब कराइल ।शुभ्र-पीठोपरि सूक्ष्म वसने पातिल ॥
२१९॥
इस तरह भट्टाचार्य ने अनेक प्रकार के व्यंजन तैयार किये और तब उन्होंने श्वेत काठ की चौकी पर महीन वस्त्र बिछा दिया।
दुइ पाशे सुगन्धि शीतल जल-झारी ।अन्न-व्यञ्जनोपरि दिल तुलसी-मञ्जरी ॥
२२०॥
भोजन की थाली के दोनों ओर सुगन्धित शीतल जल से भरे घड़े थे। चावल के ढेर के ऊपर तुलसी की मंजरियाँ रखी गई थीं।
अमृत-गुटिका, पिठा-पाना आनाइल ।जगन्नाथ-प्रसाद सब पृथक्धरिल ॥
२२१॥
सार्वभौम भट्टाचार्य ने भगवान जगन्नाथ पर अर्पित किये गये कई । प्रकार के व्यंजनों को भी सम्मिलित कर लिया था। इनमें अमृत गुटिका, खीर तथा केक सम्मिलित थे। इन्हें अलग रखा गया था।
हेन-काले महाप्रभु मध्याह्न करिया ।। एकले आइल ताँर हृदय जानिया ॥
२२२॥
जब सारी वस्तुएँ तैयार हो गईं, तो श्री चैतन्य महाप्रभु दोपहर का कार्य समाप्त करने के बाद वहाँ अकेले ही आये। वे सार्वभौम भट्टाचार्य के हृदय की बात जानते थे।
भट्टाचार्य कैल तबे पाद प्रक्षालन । घरेर भितरे गेला करिते भोजन ॥
२२३॥
जब सार्वभौम भट्टाचार्य महाप्रभु के पाँव धो चुके, तो महाप्रभु दोपहर का भोजन करने कमरे में प्रविष्ट हुए।
अन्नादि देखिया प्रभु विस्मित हा । भट्टाचार्ये कहे किछु भङ्गि करिया ॥
२२४॥
इतना बृहत आयोजन देखकर श्री चैतन्य महाप्रभु कुछ विस्मित थे, अतः वे कुछ संकेत करके सार्वभौम भट्टाचार्य से कुछ बोले।
अलौकिक एइ सब अन्न-व्यञ्जन ।। दुइ प्रहर भितरे कैछे हइल रन्धन? ॥
२२५॥
यह अत्यन्त असामान्य है! चावल तथा तरकारियों को छह घंटे के भीतर किस तरह पका लिया गया? शत चुलाय शत जन पाक यदि करे ।।तबु शीघ्र एत द्रव्य रान्धिते ना पारे ॥
२२६॥
यदि सौ आदमी सौ चूल्हों में भोजन पकाते, तो भी इतने सारे व्यंजनों को इतने कम समय में न बना पाते।
कृष्णेर भोग लागाछ,—अनुमान करि ।उपरे देखिये ग्राते तुलसी-मञ्जरी ॥
२२७॥
मेरा अनुमान है कि कृष्ण को पहले ही भोजन अर्पित किया जा चुका है, क्योंकि थालों के ऊपर मुझे तुलसी मंजरियाँ दिखती हैं।
भाग्यवान्तुमि, सफल तोमार उद्योग ।राधा-कृष्णे लागाछ एतादृश भोग ॥
२२८॥
आप अत्यन्त भाग्यवान हैं और आपका परिश्रम सफल है, क्योंकि आपने राधा-कृष्ण को इतना अद्भुत भोजन प्रदान किया है।
अन्नेर सौरभ्य, वर्ण–अति मनोरम ।राधा-कृष्ण साक्षातिहाँ करियाछेन भोजन ॥
२२९॥
चावल का रंग इतना आकर्षक है और इसकी सुगन्ध इतनी उत्तम है, मानो राधा तथा कृष्ण ने साक्षात् इसे ग्रहण किया है।
तोमार बहुत भाग्य कत प्रशंसिब ।। आमि–भाग्यवान्, इहार अवशेष पाबे ॥
२३०॥
हे प्रिय भट्टाचार्य, आप बड़े भाग्यशाली हो। मैं आपकी कितनी प्रशंसा करूँ? मैं भी अत्यन्त भाग्यशाली हूँ कि इस भोजन का अवशिष्ट ग्रहण कर रहा हूँ।
कृष्णेर आसन-पीठ राखह उठाना । मोरे प्रसाद देह' भिन्न पात्रेते करिया ॥
२३१॥
कृष्ण का आसन उठाकर एक ओर रख दो; तब मुझे एक अलग पत्तल में प्रसाद दो।
भट्टाचार्य बले—प्रभु ना करह विस्मय ।ग्रेइ खाबे, ताँहार शक्त्ये भोग सिद्ध होय ॥
२३२॥
सार्वभौम भट्टाचार्य ने कहा, हे प्रभु, यह उतना आश्चर्यजनक नहीं है। यह सब उनकी शक्ति तथा दया से ही सम्भव हो सका है, जिन्हें यह भोजन करना है।
उद्योग ना छिल मोर गृहिणीर रन्धने ।ग्राँर शक्त्ये भोग सिद्ध, सेइ ताहा जाने ॥
२३३॥
मेरी पत्नी तथा मैंने भोजन बनाने में कोई विशेष प्रयास नहीं किया। जिनकी शक्ति से यह भोजन तैयार हुआ है, वे सब कुछ जानते हैं।
एइत आसने वसि' करह भोजन ।।प्रभु कहे,—पूज्य एइ कृष्णेर आसन ॥
२३४॥
अब कृपा करके इस स्थान पर बैठे और भोजन करें। चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, यह स्थान पूजनीय है, क्योंकि इसका उपयोग कृष्ण द्वारा हो चुका है।
भट्ट कहे,—अन्न, पीठ,—समान प्रसाद ।अन्न खाबे, पीठे वसिते काहाँ अपराध? ॥
२३५॥
भट्टाचार्य ने कहा, भोजन तथा बैठने का स्थान-दोनों ही भगवान् की कृपा के तुल्य हैं। यदि आप उच्छिष्ट भोजन कर सकते हैं, तो इस स्थान पर आपके बैठने में कौन-सा अपराध है? प्रभु कहे,—भाल कैले, शास्त्र-आज्ञा हय ।।कृष्णेर सकल शेष भृत्य आस्वादये ॥
२३६॥
तब चैतन्य महाप्रभु ने कहा, हाँ, आपने ठीक कहा है। शास्त्रों का आदेश है कि भक्त कृष्ण द्वारा छोड़ी गई किसी भी वस्तु का आस्वादन कर सकता है।
त्वयोपयुक्त-स्रग्गन्ध-वासोऽलङ्कार-चर्चिताः ।। उच्छिष्ट-भोजिनो दासास्तव मायां जयेम हि ॥
२३७॥
हे प्रभु, आपको अर्पित की गईं मालाएँ, सुगन्धित पदार्थ, वस्त्र, गहने तथा अन्य वस्तुएँ बाद में आपके सेवकों द्वारा काम में लाई जा सकती हैं। इन वस्तुओं को ग्रहण करने तथा आपका उच्छिष्ट भोजन खाने से हम माया को जीत सकेंगे।
तथापि एतेक अन्न खाओन ना ग्राय । भट्ट कहे,—जानि, खाओ ग्रतेक मुयाय ॥
२३८॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, यहाँ इतना भोजन है कि उसे खा पाना असम्भव है। भट्टाचार्य ने उत्तर दिया, मैं जानता हूँ कि आप कितना खा सकते हैं।
नीलाचले भोजन तुमि कर बायान्न बार।एक एक भोगेर अन्न शत शत भार ॥
२३९॥
जगन्नाथ पुरी में दिन-भर में आप कम-से-कम ५२ बार भोजन करते हैं और एक-एक बार में आप प्रसाद से भरी सैंकड़ों बाल्टियाँ ग्रहण करते हैं।
द्वारकाते षोल-सहस्र महिषी-मन्दिरे ।अष्टादश माता, आर यादवेर घरे ॥
२४०॥
द्वारका में आपके सोलह हजार महलों में सोलह हजार रानियाँ हैं। वहाँ अठारह माताएँ, अनेक मित्र तथा यदुवंश के अनेक सम्बन्धी भी हैं।
व्रजे ज्येठा, खुड़ा, मामा, पिसादि गोप-गण । सखा-वृन्द सबार घरे द्विसन्ध्या-भोजन ॥
२४१॥
वृन्दावन में भी आपके ताऊ, चाचा, मामा, फूफा तथा अनेक ग्वाले हैं। वहाँ गोप-मित्र भी हैं और आप उन सबके घरों में प्रातः और सांयकाल दो बार भोजन करते हैं।
गोवर्धन-यज्ञे अन्न खाइला राशि राशि ।।तार लेखीय एइ अन्न नहे एक ग्रासी ॥
२४२॥
सार्वभौम भट्टाचार्य ने कहा, आपने गोवर्धन पूजा के अवसर पर जितने ढेरों चावल खाया था, उसकी तुलना में यह अल्पमात्र एक कौर भी नहीं है।
तुमि त' ईश्वर, मुञि- क्षुद्र जीव छार ।।एक-ग्रास माधुकरी करह अङ्गीकार ॥
२४३॥
कहाँ आप पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान्, और कहाँ मैं एक क्षुद्रतम जीव! अतएव आप मेरे घर में अल्प मात्रा में भोजन ग्रहण कीजिए।
एत शुनि' हासि' प्रभु वसिला भोजने ।जगन्नाथेर प्रसाद भट्ट देन हर्ष-मने ॥
२४४॥
यह सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु हँसने लगे और खाने के लिए बैठ गये। भट्टाचार्य ने अति प्रसन्न होकर सबसे पहले उन्हें जगन्नाथजी का प्रसाद दिया।
हेन-काले 'अमोघ,'–भट्टाचार्गेर जामाता ।।कुलीन, निन्दक तेंहो षाठी-कन्यार भर्ता ॥
२४५ ॥
उसी समय भट्टाचार्य की पुत्री षाठी का पति अर्थात् उनका जामाता अमोघ आया। यद्यपि वह उच्च ब्राह्मण कुल में जन्मा था, किन्तु वह निन्दक था।"
भोजन देखिते चाहे, आसिते ना पारे । लाठि-हाते भट्टाचार्य आछेन दुयारे ॥
२४६॥
अमोघ चाहता था कि महाप्रभु को भोजन करते देखे, किन्तु उसे अन्दर जाने नहीं दिया गया। भट्टाचार्य दरवाजे पर लाठी लेकर अपने घर की रखवाली करते रहे।
तेहो यदि प्रसाद दिते हैला आन-मन । अमोध आसि' अन्न देखि' करये निन्दन ॥
२४७॥
किन्तु ज्योंही भट्टाचार्य प्रसाद वितरण करने लगे और थोड़े असावधान हुए, त्योंही अमोघ भीतर आ गया। भोजन की मात्रा देखकर वह निन्दा करने लगा।
एइ अन्ने तृप्त हय दश बार जन । एकेला सन्यासी करे एतेक भक्षण! ॥
२४८॥
इतना भोजन तो दस-बारह लोगों को तुष्ट कर सकता है, लेकिन यह संन्यासी तो अकेले ही इतना सारा खा रहा है।
शुनितेइ भट्टाचार्य उलटि' चाहिल । ताँर अवधान देखि' अमोघ पलाइल ॥
२४९॥
जब अमोघ ने यह कहा, तो सार्वभौम भट्टाचार्य ने उसकी ओर घूरकर देखा। भट्टाचार्य का रुख देखकर अमोघ तुरन्त भाग गया।
भट्टाचार्ये लाठि लञा मारिते धाइल ।। पलाइल अमोघ, तार लाग ना पाइल ॥
२५०॥
भट्टाचार्य लाठी लिए उसके पीछे-पीछे उसे मारने के लिए दौड़े, किन्तु अमोघ इतनी तेजी से निकल भागा कि भट्टाचार्य उसे पकड़ न पाये।
तबे गालि, शाप दिते भट्टाचार्य आइला ।।निन्दा शुनि' महाप्रभु हासिते लागिला ॥
२५१॥
तब भट्टाचार्य अपने दामाद को गाली देने लगे और शाप देने लगे। जब भट्टाचार्य लौटे, तो उन्होंने देखा कि श्री चैतन्य महाप्रभु उनके द्वारा की गई अमोघ की आलोचना सुनकर हँस रहे थे।
शुनि' पाठीर माता शिरे-बुके घात मारे । ‘षाठी राण्डी हउक'—इहा बले बारे बारे ॥
२५२ ॥
जब भट्टाचार्य की पत्नी षाठी की माता ने इस घटना को सुनी, तो वह यह कहकर तुरन्त अपना सिर तथा छाती पीटने लगी, यह षाठी को राँड (विधवा) हो जाने दो! मुँहार दुःख देखि' प्रभु मुँहा प्रबोधिया । मुँहार इच्छाते भोजन कैल तुष्ट हन्ना ।। २५३॥
पति-पत्नी दोनों के शोक को देखकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें सान्त्वना दिलाने का प्रयास किया। महाप्रभु ने उन दोनों की इच्छापूर्ति के लिए प्रसाद ग्रहण किया और वे अत्यन्त तुष्ट हुए।
आचमन कराा भट्ट दिल मुख-वास ।तुलसी-मञ्जरी, लवङ्ग, एलाचि रस-वास ॥
२५४॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु खा चुके, तो भट्टाचार्य ने उनके मुँह, हाथ तथा पाँव धुलाये और उन्हें सुगन्धित मसाले, तुलसी-मंजरियाँ, लवंग तथा इलायची खाने को दी।
सर्वाङ्गे पराइल प्रभुर माल्य-चन्दन ।।दण्डवत् हा बले सदैन्य वचन ॥
२५५ ॥
फिर भट्टाचार्य ने श्री चैतन्य महाप्रभु को फूल-माला पहनाई और उनके शरीर पर चन्दन का लेप किया। नमस्कार करने के बाद भट्टाचार्य ने विनयपूर्वक इस प्रकार निवेदन किया।
निन्दा कराइते तोमा आनिनु निज-घरे ।।एइ अपराध, प्रभु, क्षमा कर मोरे ॥
२५६ ।। | मैं आपको अपने घर आपकी निन्दा कराने के लिए ही लाया। यह बहुत बड़ा अपराध है। मैं इसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।
प्रभु कहे,—निन्दा नहे, 'सहज' कहिल ।।इहाते तोमार किबा अपराध हैल? ॥
२५७॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, अमोघ ने जो कुछ कहा है, वह सही है, अतएव यह निन्दा नहीं है। इसमें आपको क्या अपराध है? एत बलि' महाप्रभु चलिला भवने ।। भट्टाचार्य तॉर घरे गेला तर सने ॥
२५८॥
यह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु वहाँ से चलकर अपने घर वापस आये। सार्वभौम भट्टाचार्य भी उनके साथ-साथ गये।
प्रभु-पदे पड़ि' बहु आत्म-निन्दा कैल ।ताँरे शान्त करि' प्रभु घरे पाठाइल ॥
२५९॥
सार्वभौम भट्टाचार्य ने महाप्रभु के चरणों पर गिरकर आत्म-निन्दा में अनेक बातें कहीं। तब महाप्रभु ने उन्हें शान्त किया और उन्हें घर वापस भेज दिया।
घरे आसि' भट्टाचार्य पाठीर माता-सने ।आपना निन्दिया किछु बलेन वचने ॥
२६० ॥
अपने घर लौटकर सार्वभौम भट्टाचार्य ने पाठी की माता से परामर्श किया। फिर अपनी निन्दा करते हुए वे इस प्रकार बोले।
चैतन्य-गोसाजिर निन्दा शुनिल ग्राहा हैते ।। तारे वध कैले हय पाप-प्रायश्चित्ते ॥
२६१॥
जिस व्यक्ति ने श्री चैतन्य महाप्रभु की निन्दा की, यदि उसका वध कर दिया जाए, तो उससे पापकर्म का प्रायश्चित्त हो सकता है।
किम्वा निज-प्राण यदि करि विमोचन । दुइ ग्रोग्य नहे, दुइ शरीर ब्राह्मण ॥
२६२॥
सार्वभौम भट्टाचार्य ने आगे कहा, अथवा यदि मैं अपने प्राण त्याग दें, तो इस पापकर्म का प्रायश्चित्त हो सकता है। किन्तु इनमें से दोनों विचार उपयुक्त नहीं हैं, क्योंकि दोनों शरीर ब्राह्मणों के हैं।
पुनः सेइ निन्दकेर मुख ना देखिब। परित्याग कैलें, तार नाम ना लइब ॥
२६३ ॥
इसके बजाए, मैं उस निन्दक का अब फिर कभी मुँह तक नहीं देखेंगा। मैं उसका परित्याग कर रहा हूँ और उससे सम्बन्ध तोड़ रहा हूँ। अब मैं उसका नाम तक नहीं लूंगा।
पाठीरे कह—तारे छाड़क, से हइल 'पतित' ।।‘पतित' हइले भर्ता त्यजिते उचित ॥
२६४॥
मेरी पुत्री पाठी से कहो कि वह अपने पति से सम्बन्ध तोड़ ले, क्योंकि वह पतित हो चुका है। जब पति पतित हो जाय, तो पत्नी का कर्तव्य है कि वह उससे सम्बन्ध विच्छेद कर ले।
पतिं च पतित त्यजेत ॥
२६५ ॥
यदि पतिं पतितहो जाए, तो उससे सम्बन्ध तोड़ लेना चाहिए।
सेइ रात्रे अमोघ काहाँ पलाजा गेल ।।प्रातः-काले तार विसूचिका-व्याधि हैल ॥
२६६ ॥
उस रात को सार्वभौम भट्टाचार्य का दामाद अमोघ भाग गया और प्रातः होते ही वह हैजे से ग्रस्त हो गया।
अमोघ मरेन–शुनि' कहे भट्टाचार्य ।।सहाय हइया दैव कैल मोर कार्य ॥
२६७॥
जब भट्टाचार्य ने सुना कि अमोघ हैजे से मर रहा है, तो उन्होंने सोचा, 'यह दैव की कृपा है कि जो मैं करना चाह रहा हूँ वही हो रहा है।'
ईश्वरे त' अपराध फले तत-क्षण ।एत बलि' पड़े दुइ शास्त्रेर वचन ॥
२६८ ॥
जब कोई पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के प्रति अपराध करता है, तो कर्म तुरन्त प्रभाव दिखाता है। यह कहकर उन्होंने शास्त्रों से दो श्लोक सुनाये।
महता हि प्रयत्नेन हस्त्यश्व-रथ-पत्तिभिः ।। अस्माभिर्युदनुष्ठेयं गन्धर्वैस्तदनुष्ठितम् ॥
२६९ ॥
जिस कार्य को हाथी, घोड़े, रथ तथा पैदल सैनिकों को एकत्र करके बड़े ही प्रयत्न के साथ हमें करना पड़ता, उसे गन्धर्वो ने पहले ही सम्पन्न कर लिया है।'
आयुः श्रियं ग्रशो धर्म लोकानाशिष एव च । हन्ति श्रेयांसि सर्वाणि पुंसो महदतिक्रमः ॥
२७० ॥
जब कोई व्यक्ति किसी महापुरुषों के साथ दुर्व्यवहार करता है, तो उसकी आयु, ऐश्वर्य, कीर्ति, धर्म, धन तथा सौभाग्य सभी नष्ट हो जाते हैं।'
गोपीनाथाचार्य गेला प्रभु-दरशने । प्रभु तौरे पुछिल भट्टाचार्य-विवरणे ॥
२७१ ॥
उसी समय गोपीनाथ आचार्य श्री चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करने आये, तो महाप्रभु ने उनसे सार्वभौम भट्टाचार्य के घर में घट रही घटनाओं के बारे में पूछा।
आचार्य कहे,—उपवास कैल दुइ जन । विसूचिका-व्याधिते अमोघ छाड़िछे जीवन ॥
२७२ ॥
गोपीनाथ आचार्य ने महाप्रभु को बतलाया कि पति-पत्नी दोनों ही उपवास पर हैं और उनका दामाद अमोघ हैजे से मर रहा है।
शुनि' कृपामय प्रभु आइला धाज्ञा ।।अमोघेरे कहे तार बुके हस्त दिया ॥
२७३ ॥
ज्योहीं महाप्रभु ने सुना कि अमोघ मरणासन्न है, वे तुरन्त जल्दीजल्दी उसके पास दौड़े गये। फिर अमोघ की छाती पर अपना हाथ रखकर वे इस प्रकार बोले।
सहजे निर्मल एइ ‘ब्राह्मण'-हृदय ।कृष्णेर वसिते एइ ग्रोग्य-स्थान हय ॥
२७४॥
ब्राह्मण का हृदय स्वभाव से शुद्ध होता है, अतः कृष्ण के वास करने के लिए यह उपयुक्त स्थान होता है।
‘मात्सर्य'-चण्डाल केने इहाँ वसाइले ।।परम पवित्र स्थान अपवित्र कैले ॥
२७५ ॥
उसमें तुमने ईष्र्या रूपी चण्डाल को भी स्थान क्यों दिया? इसी के कारण तुमने अपने अत्यन्त पवित्र स्थान, हृदय को भी दूषित कर दिया है।
सार्वभौम-सङ्गे तोमार 'कलुष' हैल क्षय ।।‘कल्मष' घुचिले जीव 'कृष्ण-नाम' लय ॥
२७६ ॥
किन्तु सार्वभौम भट्टाचार्य की संगति से तुम्हारा सारा कल्मष घुल चुका है। जब मनुष्य के हृदय का सारा कल्मष धुल जाता है, तब वह हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन कर सकता है।
उठह, अमोघ, तुमि लओ कृष्ण-नाम ।अचिरे तोमारे कृपा करिबे भगवान् ॥
२७७॥
अतएव हे अमोघ, तुम उठो और हरे कृष्ण महामन्त्र का जप करो! यदि तुम ऐसा करोगे, तो कृष्ण अवश्य ही तुम पर कृपा करेंगे।
शुनि' 'कृष्ण' 'कृष्ण' बलि' अमोघ उठिला ।। मोन्मादे मत्त हा नाचिते लागिला ॥
२७८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की वाणी सुनकर तथा उनका स्पर्श पाकर, मरणशय्या में पड़ा अमोघ उठ खड़ा हुआ और कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करने लगा। इस तरह वह प्रेमोन्मत्त होकर नाचने लगा।
कम्प, अश्रु, पुलक, स्तम्भ, स्वेद, स्वर-भङ्ग । प्रभु हासे देखि' तार प्रेमेर तरङ्ग ॥
२७९॥
प्रेमोन्मत्त होकर नाचते समय अमोघ में सारे भावलक्षण-यथा कम्पन, अश्रु, पुलकित होना, स्तम्भ, स्वेद तथा स्वरभंग प्रकट हो आये। इस प्रेम-तरंगों को देखकर श्री चैतन्य महाप्रभु हँसने लगे।
प्रभुर चरणे धरि' करये विनय । अपराध क्षम मोरे, प्रभु, दयामय ॥
२८० ॥
अमोघ महाप्रभु के चरणकमलों पर गिर पड़ा और विनीत भाव से बोला, “हे दयामय प्रभु, कृपया मेरा अपराध क्षमा करें।
एई छार मुखे तोमार करिनु निन्दने ।।एत बलि' आपन गाले चड़ाय आपने ॥
२८१॥
अमोघ ने न केवल महाप्रभु से क्षमा-दान माँगा, अपितु वह यह कहकर अपने गालों पर चपत लगाने लगा, मैंने इसी मुँह से आपकी निन्दा की है।
चड़ाइते चड़ाइते गाल फुलाइल ।हाते धरि' गोपीनाथाचार्य निषेधिल ॥
२८२॥
अमोघ अपने गालों पर तब तक चपत लगाता रहा, जब तक उसके गाल सूज नहीं गये। अन्त में गोपीनाथ आचार्य ने उसके हाथ पकड़कर उसे रोका।
प्रभु आश्वासन करे स्पर्शि' तार गात्र ।सार्वभौम-सम्बन्धे तुमि मोर स्नेह-पात्र ॥
२८३॥
इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने उसके शरीर का स्पर्श करते हुए उसे यह कहकर शान्त किया, तुम मेरे स्नेह-पात्र हो, क्योंकि तुम सार्वभौम भट्टाचार्य के दामाद हो।
सार्वभौम-गृहे दास-दासी, ग्रे कुकुर ।सेह मोर प्रिय, अन्य जन रहु दूर ॥
२८४॥
सार्वभौम भट्टाचार्य के घर का हर प्राणी मुझे अत्यन्त प्रिय हैयहाँ तक कि उनके दास-दासियाँ तथा उनका कुत्ता भी। तो भला उनके सम्बन्धियों के विषय में क्या कहूँ? अपराध' नाहि, सदा लओ कृष्ण-नाम ।एत बलि' प्रभु आइला सार्वभौम-स्थान ॥
२८५ ॥
अरे अमोघ, अब तुम सदैव हरे कृष्ण महामन्त्र का जप करना और आगे कोई अपराध न करना। अमोघ को इस तरह उपदेश देकर श्री चैतन्य महाप्रभु सार्वभौम के घर गये।
प्रभु देखि' सार्वभौम धरिला चरणे । प्रभु ताँरै आलिङ्गिया वसिला आसने ॥
२८६ ॥
महाप्रभु को देखते ही सार्वभौम भट्टाचार्य ने उनके चरणकमल पकड़ लिए। महाप्रभु भी उनका आलिंगन किया और फिर बैठ गये।
प्रभु कहे,—अमोघ शिशु, किबा तार दोष ।केने उपवास कर, केने कर रोष ॥
२८७॥
| श्री चैतन्य महाप्रभु ने यह कहकर सार्वभौम को शान्त किया, आखिर आपका दामाद अमोघ एक बच्चा है। अतएव इसमें उसका क्या दोष? आप क्यों उपवास कर रहे हो और गुस्सा क्यों कर रहे हो? उठ, स्नान कर, देख जगन्नाथ-मुख ।शीघ्र आसि, भोजन कर, तबे मोर सुख ॥
२८८॥
उठो और स्नान करो। फिर जाकर जगन्नाथजी के मुख का दर्शन करो। तब लौटकर अपना भोजन करो। तभी मैं प्रसन्न होऊँगा।
तावत्रहिब आमि एथाय वसिया । ग्रावत्ना खाइबे तुमि प्रसाद आसिया ॥
२८९॥
जब तक आप लौट करके जगन्नाथजी का प्रसाद ग्रहण नहीं कर लेते, तब तक मैं यहीं रुका रहूँगा।
प्रभु-पद धरि' भट्ट कहिते लागिला । मरित' अमोघ, तारे केने जीयाइला ॥
२९०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों को पकड़कर भट्टाचार्य ने कहा, आपने अमोघ को क्यों जिलाया? यदि वह मर गया होता तो अच्छा हुआ होता।
प्रभु कहे,—अमोघ शिशु, तोमार बालक । बालक-दोष ना लय पिता, ताहाते पालक ॥
२९१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, अमोघ तो बच्चा है और आपका पुत्र है। पिता अपने पुत्र के दोष पर ध्यान नहीं देता, विशेष करके तब जब वह उसका पालक हो।
एबे 'वैष्णव' हैल, तार गेल 'अपराध' । ताहार उपरे एबे करह प्रसाद ॥
२९२॥
अब वैष्णव बन जाने से वह अपराधरहित हो चुका है। अब आप निःसंकोच भाव से उस पर कृपा कर सकते हैं।
भट्ट कहे,—चल, प्रभु, ईश्वर-दरशने ।। स्नान करि' ताँहा मुञि आसिछों एखने ॥
२९३ ॥
सार्वभौम भट्टाचार्य ने कहा, हे प्रभु, चलिए, जगन्नाथजी का दर्शन करने चलिए। मैं स्नान करने के बाद वहाँ जाऊँगा और तब लौहूँगा।
प्रभु कहे,—गोपीनाथ, इहाञि रहिबा ।। इँहो प्रसाद पाइले, वार्ता आमाके कहिबा ॥
२९४॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने गोपीनाथ से कहा, तुम यहीं रुको और मुझे सूचित करना जब सार्वभौम भट्टाचार्य प्रसाद ग्रहण कर चुके।"
एत बलि' प्रभु गेला ईश्वर-दरशने ।।भट्ट स्नान दर्शन करि' करिला भोजने ॥
२९५॥
यह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु भगवान् जगन्नाथ का दर्शन करने चले गये। सार्वभौम भट्टाचार्य ने स्नान किया, भगवान् जगन्नाथ का दर्शन किया और फिर वे भोजन ग्रहण करने के लिए अपने घर लौट आये।
सेइ अमोघ हैल प्रभुर भक्त 'एकान्त' । प्रेमे नाचे, कृष्ण-नाम लय महा-शान्त ॥
२९६॥
इसके बाद अमोघ श्री चैतन्य महाप्रभु को शुद्ध भक्त बन गया। वह प्रेम में नाचता और शान्त भाव से भगवान् कृष्ण के नाम का जप करता।
ऐछे चित्र-लीला करे शचीर नन्दन ।। ग्रेइ देखे, शुने, ताँर विस्मय हय मन ॥
२९७॥
इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपनी विविध लीलाएँ सम्पन्न कीं। जो भी उन्हें देखता या सुनता है, वह विस्मित हुए बिना नहीं रहता।
ऐछे भट्ट-गृहे करे भोजन-विलास ।। तार मध्ये नाना चित्र-चरित्र-प्रकाश ॥
२९८ ॥
इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने सार्वभौम भट्टाचार्य के घर में भोजन करने का आनन्द उठाया। इसी एक लीला के अन्तर्गत अनेक अद्भुत लीलाएँ प्रकट हुईं।
सार्वभौम-घरे एइ भोजन-चरित ।सार्वभौम-प्रेम याँहा हइला विदित ॥
२९९॥
ये श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं के विशिष्ट लक्षण हैं। इस तरह महाप्रभु ने सार्वभौम भट्टाचार्य के घर पर भोजन किया और महाप्रभु के प्रति सार्वभौम का प्रेम विख्यात हुआ।
पाठीर मातार प्रेम, आर प्रभुर प्रसाद ।।भक्त-सम्बन्धे ग्राहा क्षमिल अपराध ॥
३००॥
इस तरह मैंने सार्वभौम की पत्नी पाठी की माता के प्रेम का वर्णन किया है। मैंने श्री चैतन्य महाप्रभु की महान् कृपा का भी वर्णन किया है,जिसे उन्होंने अमोघ के अपराध को क्षमा करके प्रदर्शित किया। उन्होंने अमोघ का भक्त के साथ सम्बन्ध होने के कारण ऐसा किया।
श्रद्धा करि' एई लीला शुने ग्रेइ जन ।। अचिरात्पाय सेइ चैतन्य-चरण ॥
३०१॥
जो कोई श्रद्धा तथा प्रेम से श्री चैतन्य महाप्रभु की इन लीलाओं को सुनता है, उसे तुरन्त ही महाप्रभु के चरणों में शरण मिलेगी।
श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश ।चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
३०२॥
श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों की प्रार्थना करते हुए और सदैव उनकी कृपा की इच्छा रखते हुए उन्हीं के पदचिह्नों पर चलते हुए। मैं कृष्णदास श्री चैतन्य-चरितामृत कह रहा हूँ।
अध्याय सोलह: भगवान का वृन्दावन जाने का प्रयास
गौड़ोद्यानं गौर-मेघः सिञ्चन्स्वालोकनामृतैः । भवाग्नि-दग्ध-जनता-वीरुधः समजीवयत् ॥
१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु रूपी बादल ने अपनी दृष्टिरूपी अमृत से गौड़देश के उद्यान को सींचा और उन लोगों को जीवन प्रदान किया, जो लताओं तथा वृक्षों की भाँति भौतिक अस्तित्व की दावाग्नि से जल रहे थे।
जय जय गौरचन्द्र जय नित्यानन्द । जयाद्वैत-चन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ॥
२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! अद्वैतचन्द्र की जय हो तथा महाप्रभु के समस्त भक्तों की जय हो! प्रभुर हइल इच्छा ग्राइते वृन्दावन ।। शुनिया प्रतापरुद्र हइला विमन ॥
३॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने वृन्दावन जाने का निश्चय किया, तो महाराज प्रतापरुद्र यह समाचार सुनकर अत्यन्त खिन्न हो उठे।
सार्वभौम, रामानन्द, आनि' दुई जन । मुँहाके कहेन राजा विनय-वचन ॥
४॥
अतएव राजा ने सार्वभौम भट्टाचार्य तथा रामानन्द राय को बुलवा भेजा और उनसे विनीत शब्द कहे।
नीलाद्रि छाड़ि' प्रभुर मन अन्यत्र ग्राइते । तोमरा करह यत्न ताँहारे राखिते ॥
५॥
महाराज प्रतापरुद्र ने कहा, कृपा करके श्री चैतन्य महाप्रभु को जगन्नाथ पुरी में ही रखने का प्रयास करें, क्योंकि अब वे अन्यत्र जाने की सोच रहे हैं।
ताँहा विना एइ राज्य मोरे नाहि भाय ।। गोसाजि राखिते करह नाना उपाय ॥
६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के बिना मेरा यह राज्य मुझे अच्छा नहीं लग रहा। अतएव ऐसा उपाय करें कि महाप्रभु यहीं रुके रहें।
रामानन्द, सार्वभौम, दुइ-जना-स्थाने ।तबे मुक्ति करे प्रभु ‘ग्राब वृन्दावने' ॥
७॥
इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने रामानन्द राय तथा सार्वभौम से परामर्श किया और कहा, मैं वृन्दावन जाऊँगा।
मुँहे कहे,—रथ-यात्रा कर दरशन ।कार्तिक आइले, तबे करिह गमन ॥
८॥
रामानन्द राय तथा सार्वभौम भट्टाचार्य ने महाप्रभु से प्रार्थना की कि वे सर्वप्रथम रथयात्रा उत्सव मना लें, तब कार्तिक मास आने पर वृन्दावन जाएँ।
कार्तिक आइले कहे--एबे महा-शीत ।।दोल-यात्रा देखि’ ग्राओ—एइ भाल रीत ॥
९॥
किन्तु जब कार्तिक मास आया तो दोनों ने महाप्रभु से कहा, अब बहुत जाड़ा पड़ रहा है। अच्छा हो यदि आप दोल-यात्रा उत्सव देखकर जायें। यह अत्युत्तम रहेगा।
आजि-कालि करि' उठाय विविध उपाय ।। ग्राइते सम्मति ना देय विच्छेदेर भय ॥
१०॥
इस तरह उन दोनों ने महाप्रभु को अप्रत्यक्ष रूप से वृन्दावन जाने की अनुमति न देने के लिए अनेक अवरोध उपस्थित किये। वे ऐसा इसलिए कर रहे थे, क्योंकि वे उनके विछोह से भयभीत थे।
यद्यपि स्वतन्त्र प्रभु नहे निवारण । भक्त-इच्छा विना प्रभु ना करे गमन ॥
११॥
यद्यपि श्री चैतन्य महाप्रभु पूर्णतया स्वतन्त्र हैं और उन्हें रोक पाने में कोई समर्थ नहीं है, किन्तु तो भी वे अपने भक्तों की अनुमति के बिना नहीं गये।
तृतीय वत्सरे सब गौड़ेर भक्त-गण । नीलाचले चलिते सबार हैल मन ॥
१२॥
तीसरे वर्ष भी बंगाल के सारे भक्त पुनः जगन्नाथ पुरी जाना चाहते थे।
सबे मेलि' गेला अद्वैत आचार्येर पाशे ।।प्रभु देखिते आचार्य चलिला उल्लासे ॥
१३॥
सारे बंगाली भक्त अद्वैत आचार्य के पास आये और अद्वैत आचार्य अत्यन्त उल्लासपूर्वक श्री चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करने जगन्नाथ पुरी के लिए रवाना हो गये।
यद्यपि प्रभुर आज्ञा गौड़ेते रहिते ।। नित्यानन्द-प्रभुके प्रेम-भक्ति प्रकाशिते ॥
१४॥
तथापि चलिला महाप्रभुरे देखिते ।।नित्यानन्देर प्रेम-चेष्टा के पारे बुझिते ॥
१५ ॥
यद्यपि महाप्रभु ने नित्यानन्द प्रभु को बंगाल में रहकर भगवत्प्रेम का विस्तार करने के लिए कहा था, लेकिन नित्यानन्द प्रभु महाप्रभु का दर्शन करने के लिए रवाना हो गये। भला नित्यानन्द प्रभु के प्रेमभाव को कौन समझ सकता है? आचार्यरत्न, विद्यानिधि, श्रीवास, रामाइ । वासुदेव, मुरारि, गोविन्दादि तिन भाइ ॥
१६॥
राघव पण्डित निज-झालि साजाज्ञा ।कुलीन-ग्राम-वासी चले पट्ट-डोरी ला ॥
१७॥
आचार्यरत्न, विद्यानिधि, श्रीवास, रामाइ, वासुदेव, मुरारि, गोविन्द तथा उसके दो भाई एवं राघव पण्डित समेत नवद्वीप के सारे भक्तजन चल पड़े। राघव पण्डित अपने साथ विभिनन प्रकार के भोजन के झोले लेकर चल पड़े। कुलीनग्राम के निवासी भी रेशमी रस्सियाँ लेकर चल पड़े।
खण्ड-वासी नरहरि, श्री-रघुनन्दन । सर्व-भक्त चले, तार के करे गणन ॥
१८॥
खण्डग्राम के निवासी नरहरि तथा श्री रघुनन्दन एवं अन्य अनेक भक्त भी रवाना हो गये। भला उनकी गिनती कौन कर सकता है? शिवानन्द-सेन करे घाटि समाधान ।सबारे पालन करि' सुखे ला ग्रान ॥
१९॥
शिवानन्द सेन पर सारी टोली का भार था। उन्होंने कर वसूले जाने वाले स्थानों पर कर चुकाये जाने की व्यवस्था की। उन्होंने सारे भक्तों की निगरानी का जिम्मा ले रखा था और उनके साथ वे सुखपूर्वक यात्रा कर रहे थे।
सबार सर्व-कार्य करेन, देन वासा-स्थान ।शिवानन्द जाने उड़िया-पथेर सन्धान ॥
२० ॥
शिवानन्द सेन भक्तों की सभी आवश्यकताओं को पूरी करते। विशेषरूप से उन्होंने उनके रहने के लिए कमरों की व्यवस्था की और वे उड़ीसा के सभी मार्ग जानते थे।
से वत्सर प्रभु देखिते सब ठाकुराणी ।।चलिला आचार्य-सङ्गे अच्युत-जननी ॥
२१॥
उस वर्ष भक्तों की पत्नियाँ ( ठाकुरानियाँ) भी श्री चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करने गईं। अच्युतानन्द की माता सीतादेवी अद्वैत आचार्य के साथ गईं।
श्रीवास पण्डित-सङ्गे चलिला मालिनी ।शिवानन्द-सङ्गे चले ताँहार गृहिणी ॥
२२॥
श्रीवास पण्डित अपनी पत्नी मालिनी को ले गये और शिवानन्द सेन की पत्नी भी अपने पति के साथ गई।
शिवानन्देर बालक, नाम-चैतन्य-दसि ।।तेहो चलियाछे प्रभुरे देखिते उल्लास ॥
२३ ॥
शिवानन्द सेन का पुत्र चैतन्य दास भी परम प्रसन्नतापूर्वक महाप्रभु के दर्शन की इच्छा से उन सबके साथ जा रहा था।
आचार्यरत्न-सङ्गे चले ताहार गृहिणी ।।ताँहार प्रेमेर कथा कहिते ना जानि ॥
२४॥
चन्द्रशेखर ( आचार्यरत्न) की पत्नी भी गईं। महाप्रभु के प्रति चन्द्रशेखर के प्रेम की महानता का वर्णन मेरे बूते की बात नहीं है।
सब ठाकुराणी महाप्रभुके भिक्षा दिते ।प्रभुर नाना प्रिय द्रव्य निल घर हैते ॥
२५ ॥
महान् भक्तों की सारी पत्नियाँ महाप्रभु को तरह-तरह का भोजन भेंटकरने के लिए अपने-अपने घरों से महाप्रभु की मनपसन्द वस्तुएँ ले आई थीं।
शिवानन्द-सेन करे सब समाधान ।।घाटियाल प्रबोधि' देन सबारे वासा-स्थान ॥
२६॥
जैसा कहा जा चुका है, शिवानन्द सेन ने टोली की सभी आवश्यकताओं का प्रबन्ध किया। विशेषतया वे कर वसूल करने वाले व्यक्तियों को शान्त करते और हर एक के लिए विश्राम-स्थल हूँढते थे।
भक्ष्य दिया करेन सबार सर्वत्र पालने ।परम आनन्दे ग्रान प्रभुर दरशने ॥
२७॥
शिवानन्द सेन सभी भक्तों को भोजन देते थे और रास्ते-भर उनकी देख-रेख करते थे। इस तरह वे परम प्रसन्नतापूर्वक श्री चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करने जगन्नाथ पुरी गये।
रेमुणाय आसिया कैल गोपीनाथ दरशन ।आचार्य करिल ताहाँ कीर्तन, नर्तन ॥
२८॥
जब वे सब रेमुणा पहुँचे, तो सारे लोग भी गोपीनाथ का दर्शन करने गये। वहाँ मन्दिर में अद्वैत आचार्य ने नृत्य किया और गाया।
नित्यानन्देर परिचय सब सेवक सने ।बहुत सम्मान आसि' कैल सेवक-गणे ॥
२९॥
मन्दिर के सारे पुजारी श्री नित्यानन्द प्रभु से पहले से परिचित थे; अतएव वे सब आये और उन्होंने प्रभु का बहुत सम्मान किया।
सेइ रात्रि सब महान्त ताहानि रहिला ।बार क्षीर आनि' आगे सेवक धरिला ॥
३० ॥
उस रात सारे बड़े-बड़े भक्त मन्दिर में रहे और पुरोहितों ने दूध की खीर के बारह पात्र लाकर नित्यानन्द प्रभु के सामने रख दिये।
क्षीर बाँटि' सबारे दिल प्रभु-नित्यानन्द ।क्षीर-प्रसाद पाञा सबार बाड़िल आनन्द ॥
३१॥
नित्यानन्द प्रभु ने इस खीर को प्रसाद रूप में हर एक को बाँट दिया। इस तरह हर एक का दिव्य आनन्द बढ़ गया।
माधव-पुरीर कथा, गोपाल-स्थापन ।।ताँहारे गोपाल ग्रैछे मागिल चन्दन ॥
३२॥
तब सबने माधवेन्द्र पुरी द्वारा गोपाल-अर्चाविग्रह की स्थापना की कहानी की चर्चा की और इसकी भी चर्चा की कि किस तरह गोपाल ने उनसे चन्दन माँगा था।
ताँर लागि' गोपीनाथ क्षीर चुरि कैल ।।महाप्रभुर मुखे आगे ए कथा शुनिल ॥
३३ ॥
गोपीनाथ ने ही माधवेन्द्र पुरी के लिए खीर चुराई थी। इस घटना का वर्णन स्वयं श्री चैतन्य महाप्रभु पहले कर चुके थे।
सेइ कथा सबार मध्ये कहे नित्यानन्द ।।शुनिया वैष्णव-मने बाड़िल आनन्द ॥
३४॥
यही कथा भगवान् नित्यानन्द ने सारे भक्तों को फिर से सुनाई। इस कथा को फिर से सुनकर भक्तों का दिव्य आनन्द बढ़ गया।
एइ-मत चलि' चलि' कटक आइला । साक्षि-गोपाल देखि सबे से दिन रहिला ॥
३५॥
इस तरह चलते चलते भक्तगण कटके शहर पहुँचे, जहाँ पर वे एक दिन रहे और उन्होंने साक्षि-गोपाल का मन्दिर देखा।
साक्षि-गोपालेर कथा कहे नित्यानन्द ।।शुनिया वैष्णव-मने बाड़िल आनन्द ॥
३६॥
जब नित्यानन्द प्रभु ने साक्षि-गोपाल के सारे कार्यकलाप कह सुनाये, तो सारे वैष्णवों के मनों में दिव्य आनन्द उमड़ आया।
प्रभुके मिलिते सबार उत्कण्ठा अन्तरे ।।शीघ्र करि' आइला सबे श्री-नीलाचले ॥
३७॥
टोली के सारे लोग महाप्रभु को देखने के लिए मन में बड़े उत्सुक थे, अतएव वे जल्दी-जल्दी जगन्नाथ पुरी की ओर चले।
आठारनालाके आइला गोसाजि शुनिया । दुइ-माला पाठाइला गोविन्द-हाते दिया ॥
३८॥
जब वे सब आठारनाला नामक पुल पर आ गये, तो श्री चैतन्य महाप्रभु ने उनके आने का समाचार सुनकर गोविन्द के हाथों दो फूलमालाएँ भेजीं।
दुई माला गोविन्द दुइजने पराइल ।। अद्वैत, अवधूत-गोसाञि बड़ सुख पाइल ॥
३९॥
गोविन्द ने वे दोनों मालाएँ अद्वैत आचार्य तथा नित्यानन्द प्रभु को भेंट कीं। इससे वे दोनों अत्यन्त सुखी हुए।
ताहाजि आरम्भ कैल कृष्ण-सङ्कीर्तन ।नाचिते नाचिते चलि' आइला दुइ-जन ॥
४० ॥
उन्होंने वे उसी स्थान पर भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन प्रारम्भ कर दिया और अद्वैत आचार्य तथा नित्यानन्द प्रभु दोनों ही नाचतेनाचते जगन्नाथ पुरी पहुँचे।
पुनः माला दिया स्वरूपादि निज-गण । आगु बाड़ि' पाठाइल शचीर नन्दन ॥
४१॥
तब दूसरी बार श्री चैतन्य महाप्रभु ने स्वरूप दामोदर तथा अपने अन्य निजी संगियों के हाथों मालाएँ भेजीं। शचीमाता के पुत्र द्वारा भेजे जाने से वे सभी आगे बढ़े।
नरेन्द्र आसिया ताहाँ सबारे मिलिला । महाप्रभुर दत्त माला सबारे पराइला ॥
४२॥
जब बंगाल से आने वाले भक्त नरेन्द्र सरोवर पहुँचे, तो स्वरूप दामोदर तथा अन्य लोग उनसे मिले और उन्हें श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा भेजी गई मालाएँ भेंट कीं।
सिंह-द्वार-निकटे आइला शुनि' गौरराय । आपने आसिया प्रभु मिलिला सबाय ॥
४३॥
जब भक्तगण सिंह-द्वार के पास पहुँच गये, तो श्री चैतन्य महाप्रभु ने यह समाचार सुना और वे स्वयं उनसे मिलने गये।
सबा लञा कैल जगन्नाथ-दरशन । सबा लञा आईला पुनः आपन-भवन ॥
४४॥
| फिर श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनके सारे भक्तों ने भगवान जगन्नाथ का दर्शन किया। अन्त में वे उन सबको अपने साथ लेकर अपने निवासस्थान लौट गये।
वाणीनाथ, काशी-मिश्र प्रसाद आनिल ।स्वहस्ते सबारे प्रभु प्रसाद खाओयाइल ॥
४५ ॥
तब वाणीनाथ राय तथा काशी मिश्र बड़ी मात्रा में प्रसाद ले आये और श्री चैतन्य महाप्रभु ने उस प्रसाद को अपने हाथों से सबको बाँटा तथा खिलाया।
पूर्व वत्सरे ग्राँर ग्रेइ वासा-स्थान ।ताहाँ सबा पाठात्रा कराइल विश्राम ॥
४६॥
पिछले वर्ष हर एक को विशेष निवासस्थान मिला था; उसे वही स्थान पुनः दिया गया। इस तरह वे सभी आराम करने चले गये।
एइ-मत भक्त-गण रहिला चारि मास ।प्रभुर सहित करे कीर्तन-विलास ॥
४७॥
सारे भक्त लगातार चार मास तक वहीं रहे और श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ हरे कृष्ण महामन्त्र के कीर्तन का आनन्द लेते रहे।
पूर्ववत् रथ-यात्रा-काल ग्राबे आइल ।सबा ला गुण्डिचा-मन्दिर प्रक्षालिल ॥
४८॥
जब रथयात्रा का समय आया, तो सबने पिछले वर्ष की तरह गुण्डिचा मन्दिर की सफाई की।
कुलीन-ग्रामी पट्ट-डोरी जगन्नाथे दिले ।पूर्ववत् रथ-अग्रे नर्तन करिल ॥
४९॥
कुलीन ग्राम के निवासियों ने रेशमी डोरियाँ जगन्नाथजी को भेंट कीं और पहले की तरह वे सब भगवान् के रथ के आगे नाचे।
बहु नृत्य करि' पुनः चलिल उद्याने ।वापी-तीरे ताहाँ ग्राइ' करिल विश्रामे ॥
५०॥
काफी नाचने के बाद सभी निकटवर्ती बगीचे में गये और उन्होंने सरोवर के तट पर विश्राम किया।
राढ़ी एक विप्र, तेहो—नित्यानन्द दास । महा-भाग्यवान्तेंहो, नाम–कृष्णदास ॥
५१॥
कृष्णदास नामक एक ब्राह्मण, जो राढ़देश का रहने वाला था और नित्यानन्द प्रभु का सेवक था, महा भाग्यशाली व्यक्ति था।
घट भरि' प्रभुर तेहो अभिषेक कैल ।। ताँर अभिषेके प्रभु महा-तृप्त हैल ॥
५२॥
कृष्ण दास ने एक बड़े पात्र में जल भरकर महाप्रभु के ऊपर डालकर स्नान कराया। इससे महाप्रभु अत्यन्त सन्तुष्ट हो गये।
बलगण्डि-भोगेर बहु प्रसाद आइल ।सबा सङ्गे महाप्रभु प्रसाद खाइल ॥
५३॥
तभी बलगण्डि में भगवान् का अर्पित काफी प्रसाद आया, जिसे श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनके सभी भक्तों ने ग्रहण किया।
पूर्ववत् रथ-यात्रा कैल दरशन ।हेरा-पञ्चमी-ग्रात्रा देखे लञा भक्त-गण ॥
५४॥
पिछले वर्ष की तरह महाप्रभु ने सारे भक्तों सहित रथयात्रा उत्सव तथा हेरापंचमी उत्सव भी देखा।
आचार्य-गोसाञि प्रभुर कैल निमन्त्रण ।तार मध्ये कैल ग्रैछे झड़-वरिषण ॥
५५॥
तब अद्वैत आचार्य ने श्री चैतन्य महाप्रभु को निमन्त्रण दिया, किन्तु तभी तेज वर्षा के साथ भीषण तूफान आ गया।
विस्तारि' वर्णियाछेन दास-वृन्दावन ।श्रीवास प्रभुरे तबे कैल निमन्त्रण ॥
५६॥
इन सारी घटनाओं का विस्तृत वर्णन श्रील वृन्दावन दास ठाकुर ने किया है। तब एक दिन श्रीवास ठाकुर ने महाप्रभु को निमन्त्रण दिया।
प्रभुर प्रिय-व्यञ्जन सब रान्धेन मालिनी ।‘भक्त्ये दासी'-अभिमान, ‘स्नेहेते जननी' ॥
५७ ॥
श्रीवास ठाकुर की पत्नी मालिनी देवी ने महाप्रभु की प्रिय तरकारियाँ पकाईं। वे भक्तिवश अपने आपको श्री चैतन्य महाप्रभु की दासी मानती थीं, किन्तु स्नेह में वे माता तुल्य थीं।
आचार्यरत्न-आदि ग्रत मुख्य भक्त-गण ।मध्ये मध्ये प्रभुरे करेन निमन्त्रण ॥
५८॥
चन्द्रशेखर ( आचार्यरत्न ) आदि प्रमुख भक्त बारी-बारी से श्री चैतन्य महाप्रभु को निमन्त्रित देते रहे।
चातुर्मास्य-अन्ते पुनः नित्यानन्दे ला ।।किबा झुक्ति करे नित्य निभृते वसिया ॥
५९॥
चातुर्मास्य बीत जाने पर चैतन्य महाप्रभु नित्य ही एकान्त स्थान में नित्यानन्द से फिर परामर्श करने लगे। किन्तु कोई यह नहीं जान सका कि वे क्या परामर्श करते थे।
आचार्य-गोसाञि प्रभुके कहे ठारे-ठोरे ।आचार्य तर्जा पड़े, केह बुझिते ना पारे ॥
६०॥
तब श्रील अद्वैत आचार्य ने इशारों से चैतन्य महाप्रभु से कुछ कहा और कुछ पद्य पढ़े, जिन्हें कोई समझ नहीं सका।
ताँर मुख देखि' हासे शचीर नन्दन ।अङ्गीकार जानि' आचार्य करेन नर्तन ॥
६१॥
अद्वैत आचार्य का मुँह देखकर श्री चैतन्य महाप्रभु हँसने लगे। यह जानकर कि महाप्रभु ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया है, अद्वैत आचार्य नाचने लगे।
किबा प्रार्थना, किबा आज्ञा केह ना बुझिल ।आलिङ्गन करि' प्रभु ताँरै विदाय दिल ।। ६२॥
यह कोई नहीं जान सका कि अद्वैत आचार्य ने किस चीज के लिए प्रार्थना की अथवा महाप्रभु ने क्या आदेश दिया। आचार्य का आलिंगन करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें विदा किया।
नित्यानन्दे कहे प्रभु,शुनह, श्रीपाद ।।एई आमि मागि, तुमि करह प्रसाद ॥
६३॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने नित्यानन्द प्रभु से कहा, हे श्रीपाद, कृपया मेरी सुनो। मैं तुम से कुछ अनुरोध करना चाहता हूँ। उसे स्वीकार करो।
प्रति-वर्ष नीलाचले तुमि ना आसिबा ।गौड़े रहि' मोर इच्छा सफल करिबा ॥
६४॥
प्रतिवर्ष जगन्नाथ पुरी न आओ, अपितु बंगाल में ही रहकर मेरी इच्छा पूरी करो।
ताहाँ सिद्धि करे--हेन अन्ये ना देखिये ।। आमार ‘दुष्कर' कर्म, तोमा हैते हये ॥
६५॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, तुम वह कार्य कर सकते हो, जिसे मैं भी नहीं कर सकता। तुम्हारे अतिरिक्त मुझे गौड़देश में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिल सकता, जो मेरे उद्देश्य को वहाँ पूरा कर सके।
नित्यानन्द कहे,—आमि ‘देह' तुमि 'प्राण' । ‘देह' ‘प्राण' भिन्न नहे,--एइ ते प्रमाण ॥
६६॥
नित्यानन्द प्रभु ने उत्तर दिया, हे प्रभु, आप प्राण हैं और मैं शरीर हूँ। प्राण तथा शरीर में कोई अन्तर नहीं है। अपितु प्राण शरीर से बढ़कर है।
अचिन्त्य-शक्त्ये कर तुमि ताहार घटन।। ये कराह, सेइ करि, नाहिक नियम ॥
६७॥
आप अपनी अचिन्त्य शक्ति से जो चाहें सो कर सकते हैं और आप मुझसे जो भी कराते हैं, उसे मैं बिना किसी प्रतिबन्ध के करता हूँ।
ताँरै विदाय दिल प्रभु करि' आलिङ्गन ।। एइ-मत विदाय दिल सब भक्तगण ॥
६८॥
इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने नित्यानन्द प्रभु का आलिंगन किया और उन्हें विदा किया। तब उन्होंने अन्य सारे भक्तों को विदा किया।
कुलीन-ग्रामी पूर्ववत्कैल निवेदन ।प्रभु, आज्ञा करे,—आमार कर्तव्य साधन ॥
६९ ॥
पिछले वर्ष की तरह कुलीनग्राम के एक निवासी ने महाप्रभु से विनती की, हे प्रभु, कृपा करके बतायें कि मेरा क्या कर्तव्य है और मैं इसे कैसे पूरा करूं? प्रभु कहे,–वैष्णव-सेवा, नाम-सङ्कीर्तन ।दुइ कर, शीघ्र पाबे श्री कृष्ण-चरण ॥
७० ॥
महाप्रभु ने उत्तर दिया,तुम्हें भगवान् कृष्ण के दासों की सेवा में लगना चाहिए और सदैव कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करना चाहिए। यदि तुम ये दोनों काम करोगे, तो तुम्हें शीघ्र ही श्रीकृष्ण के चरणकमलों में शरण प्राप्त हो सकेगी।
तेंहो कहे,---के वैष्णव, कि ताँर लक्षण? ।तबे हासि' कहे प्रभु जानि' ताँर मन ।। ७१।। उस कुलीनग्राम के निवासी ने कहा, कृपा करके बतलायें कि वास्तव में वैष्णव कौन है और उसके लक्षण क्या हैं? उसके मन की बात जानकर श्री चैतन्य महाप्रभु मुस्काने लगे और उन्होंने यह उत्तर दिया।
कृष्ण-नाम निरन्तर याँहार वदने ।सेइ वैष्णव-श्रेष्ठ, भज ताँहार चरणे ।। ७२ ॥
जो व्यक्ति सदैव भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन करता रहता है, उसे उत्तम श्रेणी का वैष्णव समझना चाहिए और तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम उसके चरणकमलों की सेवा करो।
वर्षान्तरे पुनः ताँरा ऐछे प्रश्न कैल । वैष्णवेर तारतम्य प्रभु शिखाइल ॥
७३॥
अगले वर्ष भी कुलीनग्राम के निवासियों ने महाप्रभु से फिर वहीप्रश्न पूछा। इस प्रश्न को सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने पुनः विभिन्न प्रकार के वैष्णवों के विषय में शिक्षा दी।
याँहार दर्शने मुखे आइसे कृष्ण नाम ।ताँहारे जानिह तुमि 'वैष्णव-प्रधान' ॥
७४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, उत्तम कोटि का वैष्णव वह है, जिसकी उपस्थिति मात्र से अन्य लोग कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करने लगते हैं।
क्रम करि' कहे प्रभु ‘वैष्णव'-लक्षण ।'वष्णव', 'वष्णवतर', आर' वैष्णवतम' ॥
७५ ॥
इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने विभिन्न प्रकार के वैष्णवों-वैष्णव, वैष्णवतर तथा वैष्णवतम-की शिक्षा दी। इस तरह उन्होंने कुलीनग्राम के निवासियों को एक के बाद एक करके वैष्णव के सारे लक्षण अच्छी तरह समझा दिये।
एइ-मत सब वैष्णव गौड़े चलिला । विद्यानिधि से वत्सर नीलाद्रि रहिला ॥
७६ ॥
अन्ततोगत्वा सारे वैष्णवजन बंगाल लौट गये, किन्तु उस वर्ष पुण्डरीक विद्यानिधि जगन्नाथ पुरी में ही रहे।
स्वरूप-सहित ताँर हय सख्य-प्रीति ।दुइ-जनाय कृष्ण-कथाये एकत्र-इ स्थिति ॥
७७॥
स्वरूप दामोदर गोस्वामी तथा पुण्डरीक विद्यानिधि में घनिष्ठ मित्रता थी और जहाँ तक कृष्ण विषयक कथाओं पर चर्चा करने की बात थी, वे दोनों ही समान स्तर के थे।
गदाधर-पण्डिते तेंहो पुनः मन्त्र दिल ।।ओड़न-षष्ठीर दिने यात्रा ये देखिल ॥
७८ ॥
पुण्डरीक विद्यानिधि ने गदाधर पण्डित को दुबारा दीक्षित किया और ओडनषष्ठी के दिन उन्होंने उत्सव देखा।
जगन्नाथ परेन तथा 'माया' वसन ।। देखिया सघृण हैल विद्यानिधिर मन ॥
७९॥
जब पुण्डरीक विद्यानिधि ने देखा कि जगन्नाथजी को मांड़युक्त वस्त्र ओढ़ाया जाता है, तो उनका मन कुछ-कुछ घृणा से भर गया। इस तरह उनका मन दूषित हो गया।
सेइ राये जगन्नाथ-बलाइ आसिया । दुइ–भाइ चड़ा'न ताँरै हासिया हासिया ॥
८० ॥
उस रात को भगवान जगन्नाथ तथा बलराम दोनों भाई पुण्डरीक विद्यानिधि के घर आये और हँस-हँसकर उन्हें चपत लगाने लगे।
गाल फुलिल, आचार्य अन्तरे उल्लास ।विस्तारि' वर्णियाछेन वृन्दावन-दास ।। ८१॥
यद्यपि चपत लगने से उनके गाल सूज गये थे, किन्तु पुण्डरीक विद्यानिधि भीतर से अत्यन्त प्रसन्न थे। इस घटना का विस्तृत वर्णन ठाकुर वृन्दावन दास ने किया है।
एइ-मत प्रत्यब्द आइसे गौड़ेर भक्त-गण ।प्रभु-सङ्गे रहि' करे यात्रा-दरशन ॥
८२॥
प्रतिवर्ष बंगाल के भक्तगण आते और रथयात्रा का दर्शन करने के लिए श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ ठहरते थे।
तार मध्ये ये ये वर्षे आछये विशेष ।विस्तारिया आगे ताहा कहिब नि:शेष ॥
८३॥
उन वर्षों में जो कुछ उल्लेखनीय घटनाएँ घटीं, उनका वर्णन बाद में किया जायेगा।
एइ-मत महाप्रभुर चारि वत्सर गेल ।।दक्षिण ग्राञा आसिते दुइ वत्सः लागिल ॥
८४॥
इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने चार वर्ष बिताये। प्रथम दो वर्ष उन्होंने दक्षिण भारत के भ्रमण में लगा दिये।
आर दुई वत्सर चाहे वृन्दावन ग्राइते ।।रामानन्द-हठे प्रभु ना पारे चलिते ॥
८५ ॥
अन्य दो वर्षों तक श्री चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन जाना चाहते रहे, किन्तु वे रामानन्द राय की चालों के कारण जगन्नाथ पुरी छोड़ नहीं पाये।
पञ्चम वत्सरे गौड़ेर भक्त-गण आइला ।। रथ देखि' ना रहिला, गौड़ेरे चलिला ।। ८६ ।। पाँचवें वर्ष बंगाल के भक्तगण रथयात्रा देखने आये, किन्तु देखने के बाद वे रुके नहीं, अपितु बंगाल लौट गये।
तबे प्रभु सार्वभौम-रामानन्द-स्थाने ।।आलिङ्गन करि' कहे मधुर वचने ॥
८७॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने सार्वभौम भट्टाचार्य तथा रामानन्द राय के समक्ष एक प्रस्ताव रखा। उन्होंने उन दोनों का आलिंगन करते हुए मधुर वचन कहे।
बहुत उत्कण्ठा मोर ग्राइते वृन्दावन ।।तोमार हठे दुइ वत्सर ना कैलें गमन ॥
८८॥
चैतन्य महाप्रभु ने कहा, वृन्दावन जाने की मेरी इच्छा अत्यन्त बलवती हो उठी है। तुम्हारी चालों के कारण मैं विगत दो वर्षों से वहाँ जा नहीं पाया।
अवश्य चलिब, हे करह सम्मति ।।तोमा-मुँहा विना मोर नाहि अन्य गति ॥
८९॥
अब मैं अवश्य जाऊँगा। अब तो तुम लोग अनुमति दोगे न? तुम दोनों के अतिरिक्त मेरे पास कोई अन्य आश्रय नहीं है।
गौड़-देशे हय मोर 'दुइ समाश्रय' ।जननी' ‘जाह्नवी',——एई दुई दयामये ॥
९०॥
बंगाल में मेरे दो आश्रय हैं-मेरी माता तथा गंगा नदी। ये दोनों अत्यन्त दयालु हैं ।
गौड़-देश दिया झाब ताँ-सबा देखियो । तुमि मुँहे आज्ञा देह' परसन्न हञा ॥
९१॥
मैं बंगाल होता हुआ वृन्दावन जाऊँगा और अपनी माता तथा गंगा नदी दोनों को देबूंगा। क्या अब तुम दोनों मुझे अनुमति दोगे? शुनिया प्रभुर वाणी मने विचारय ।। प्रभु-सने अति हठ कभु भाल नय ॥
९२॥
जब सार्वभौम भट्टाचार्य तथा रामानन्द राय ने ये शब्द सुने, तो वे विचार करने लगे कि यह अच्छी बात नहीं है कि उन्होंने महाप्रभु के साथ इतनी चालें चली थीं।
मुँहे कहे,—एबे वर्षा, चलिते नारिबा ।। विजया-दशमी आइले अवश्य चलिबा ॥
९३॥
उन दोनों ने कहा, वर्षा ऋतु होने के कारण आपके लिए यात्रा करनी कठिन हो जायेगी। वृन्दावन प्रस्थान करने के लिए विजयादशमी तक प्रतीक्षा करना ठीक रहेगा।
आनन्दे महाप्रभु वर्षा कैल समाधान । विजया-दशमी-दिने करिल पयान ॥
९४॥
इस तरह अनुमति प्राप्त करके श्री चैतन्य महाप्रभु अत्यधिक प्रसन्न हुए। उन्होंने वर्षा ऋतु बीत जाने तक प्रतीक्षा की और जब विजयादशमी आई तो वे वृन्दावन के लिए चल पड़े।
जगन्नाथेर प्रसाद प्रभु ग्रत पाछिल ।। कड़ार, चन्दन, डोर, सब सङ्गे लैल ॥
९५॥
महाप्रभु ने जगन्नाथजी का प्रसाद एकत्र किया। उन्होंने अपने साथ भगवान् का कड़ार अंजन, चन्दन तथा डोरियाँ भी प्रसाद रूप में ले लीं।
जगन्नाथे आज्ञा मागि' प्रभाते चलिला ।। उड़िया-भक्त-गण सङ्गे पाछे चलि' आइला ॥
९६॥
भोर के समय भगवान जगन्नाथ से आज्ञा लेकर श्री चैतन्य महाप्रभु चल पड़े और उड़ीसा के सारे भक्त भी उनके पीछे पीछे जाने लगे।
उड़िया-भक्त-गणे प्रभु मृत्ले निवारिला । निज-गण-सङ्गे प्रभु 'भवानीपुर' आइला ॥
९७ ॥
चैतन्य महाप्रभु बड़े यत्न से उड़ीसा के भक्तों को अपने साथ चलने से मना कर पाये। फिर वे अपने निजी संगियों के साथ सबसे पहले भवानीपुर गये।
रामानन्द आइला पाछे दोलाय चड़िया । वाणीनाथ बहु प्रसाद दिल पाठाञी ।। ९८॥
जब भगवान् चैतन्य भवानीपुर पहुँच गये, तो उनके पीछे पीछे रामानन्द राय अपनी पालकी पर चढ़कर आये और वाणीनाथ राय ने महाप्रभु के लिए प्रचुर मात्रा में प्रसाद भेजा था।
प्रसाद भोजन करि' तथाय रहिला ।प्रातः-काले चलि' प्रभु' भुवनेश्वर' आइला ॥
९९ ॥
प्रसाद ग्रहण करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु वहाँ रात-भर रहे। प्रातः होते ही वे चल पड़े और अन्त में भुवनेश्वर आ पहुँचे।
‘कटके' आसिया कैल ‘गोपाल' दरशन । स्वप्नेश्वर-विप्र कैल प्रभुर निमन्त्रण ॥
१०० ॥
कटक नगर पहुँचकर उन्होंने गोपाल मन्दिर के दर्शन किये। वहाँ पर स्वप्नेश्वर नाम के ब्राह्मण ने उन्हें भोजन करने के लिए निमन्त्रण दिया।
रामानन्द-राय सब-गणे निमन्त्रिल ।बाहिर उद्याने आसि' प्रभु वासा कैल ॥
१०१॥
रामानन्द राय ने अन्य सभी जनों को भोजन करने के लिए निमन्त्रित किया और श्री चैतन्य महाप्रभु ने मन्दिर के बाहर बगीचे में अपना विश्राम स्थान बनाया।
भिक्षा करि' बकुल-तले करिला विश्राम ।प्रतापरुद्र-ठाञि राय करिल पयान ॥
१०२॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु बकुल वृक्ष के नीचे विश्राम कर रहे थे, तो रामानन्द राय तुरन्त महाराज प्रतापरुद्र के पास गये।
शुनि' आनन्दित राजा अति-शीघ्र आइला । प्रभु देखि' दण्डवत्भूमेते पड़िला ॥
१०३ ॥
राजा यह समाचार पाकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। और शीघ्रता से वहाँ | आये। महाप्रभु को देखकर उन्होंने दण्डवत् प्रणाम किया।
पुनः उठे, पुनः पड़े प्रणय-विह्वल ।।स्तुति करे, पुलकाङ्ग, पड़े अश्रु-जल ॥
१०४॥
प्रेम से विह्वल होकर राजा बारम्बार उठते और गिरते रहे। जब वे प्रार्थना कर रहे थे, तो उनका सारा शरीर काँपने लगा और उनकी आँखों से आँसू बह चले।
ताँर भक्ति देखि' प्रभुर तुष्ट हैल मन ।। उथि' महाप्रभु ताँरै कैला आलिङ्गन ॥
१०५॥
श्री चैतन्य महाप्रभु राजा की भक्ति देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए, अतएव उन्होंने उठकर उनका आलिंगन किया।
पुनः स्तुति करि' राजा करये प्रणाम ।।प्रभु-कृपा-अश्रुते ताँर देह हैल स्नान ॥
१०६॥
जब महाप्रभु ने राजा का आलिंगन किया, तो राजा ने बारम्बार प्रार्थना की और उन्हें नमस्कार किया। इस तरह महाप्रभु की कृपा से राजा की आँखों में आँसू आ गये, जिससे महाप्रभु का शरीर नहा उठा।
सुस्थ करि, रामानन्द राजारे बसाइला ।काय-मनो-वाक्ये प्रभु ताँरै कृपा कैला ॥
१०७॥
अन्त में रामानन्द राय ने राजा को सान्त्वना दी और उन्हें बैठाया। महाप्रभु ने भी अपने शरीर, मन तथा वाणी से राजा पर कृपा की।
ऐछे ताँहारे कृपा कैल गौरराय ।।प्रतापरुद्र-सन्त्राता नाम हैल ग्राय ॥
१०८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने राजा पर इतनी कृपा प्रदर्शित की कि उस दिन से महाप्रभु का नाम 'प्रतापरुद्र-संत्राता' अर्थात् ‘महाराज प्रतापरुद्र के उद्धारक' पड़ गया।
राज-पात्र-गण कैल प्रभुर वन्दन ।राजारे विदाय दिला शचीर नन्दन ॥
१०९॥
सारे सरकारी अधिकारियों ने भी महाप्रभु को नमस्कार किया और तब शची-पुत्र महाप्रभु ने राजा तथा उनके व्यक्तियों को विदा किया।
बाहिरे आसि' राजा आज्ञा-पत्र लेखाइल।निज-राज्ये व्रत 'विषयी', ताहारे पाठाइल ॥
११०॥
तब राजा बाहर गये और उन्होंने आदेश पत्र लिखाकर अपने राज्यभर के सरकारी नौकरों को भिजवाया।
‘ग्रामे-ग्रामे' नूतन आवास करिबा ।पाँच-सात नव्य-गृहे सामग्रग्ने भरिबा ॥
१११॥
उनको आदेश था, प्रत्येक गाँव में नये आवास स्थान बनाये जाएँ और पाँच-सात नये घरों में सभी तरह का भोजन संग्रह कर लिया जाए।
आपनि प्रभुके लजा ताहाँ उत्तरिबा ।रात्रि-दिबा वेत्र-हस्ते सेवाय रहिबा ॥
११२॥
तुम लोग स्वयं महाप्रभु को इन नवनिर्मित घरों में ले जाना। तुम लोग रात-दिन अपने हाथों में बेंत (लाठी ) लिए उनकी सेवा में लगे रहना।
दुइ महा-पात्र, हरिचन्दन', 'मर्दराज' ।ताँरे आज्ञा दिल राजा-करिह सर्व काय ।। ११३॥
राजा ने हरिचन्दन तथा मर्दराज नामक दो सम्मानित अधिकारियों को आदेश दिया कि इन आदेशों के पालन करने के लिए जो भी आवश्यक हो, करें।
एक नव्य-नौका आनि' राखह नदी-तीरे ।। ग्राहाँ स्नान करि' प्रभु या 'न नदी-पारे ॥
११४॥
ताहाँ स्तम्भ रोपण कर 'महा-तीर्थ' करि' ।।नित्य स्नान करिब ताहाँ, ताहाँ ग्रेन मरि ॥
११५॥
राजा ने उन्हें यह भी आदेश दिया कि नदी के तटों पर एक नयी नाव रखें और जहाँ-जहाँ श्री चैतन्य महाप्रभु स्नान करें या नदी के उस पार जाएँ, वहाँ-वहाँ वे स्मृति-स्तम्भ स्थापित कर दें और उस स्थान को तीर्थस्थल बना दें। राजा ने कहा, मैं वहीं-वहीं स्नान किया करूँगा और मुझे मरने भी वहीं देना।
चतुद्वारे करह उत्तम नव्य वास । रामानन्द, ग्राह तुमि महाप्रभु-पाश ॥
११६॥
राजा ने आगे आदेश दिया, चतुर्द्वार पर एक नया वासस्थान तैयार कराना । हे रामानन्द, अब आप महाप्रभु के पास लौट सकते हैं।
सन्ध्याते चलिबे प्रभु, नृपति शुनिल ।हस्ती-उपर ताम्बु-गृहे स्त्री-गणे चड़ाइल ॥
११७॥
जब राजा ने सुना कि महाप्रभु उस दिन संध्या-समय चले जायेंगे, तो उसने तुरन्त ही कुछ ऐसे हाथी लाये जाने का प्रबन्ध कर दिया जिनकी पीठ पर छोटे-छोटे तम्बू लगे हों। फिर महल की सारी स्त्रियाँ उन हाथियों पर बैठ गईं।
प्रभुर चलिबार पथे रहे सारि हुआ ।सन्ध्याते चलिला प्रभु निज-गण लञा ॥
११८॥
ये सारी स्त्रियाँ उस मार्ग में पंक्ति बाँधकर प्रतीक्षा-रत रहीं, जिससे होकर महाप्रभु जाने वाले थे। उस शाम को महाप्रभु अपने भक्तों सहित वहाँ से चल पड़े।
‘चित्रोत्पला-नदी' आसि' घाटे कैल स्नाने ।महिषी-सकल देखि' करये प्रणाम ॥
११९॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु चित्रोत्पला नदी में स्नान करने गये, तो सारी रानियों तथा स्त्रियों ने उन्हें सादर नमस्कार किया।
प्रभुर दरशने सबे हैल प्रेममय ।'कृष्ण' 'कृष्ण' कहे, नेत्र अश्रु वरिषये ॥
१२०॥
महाप्रभु को देखकर वे सारी स्त्रियाँ भगवत्प्रेम से अभिभूत हो उठीं और आँखों से अश्रु गिराते हुए कृष्ण! कृष्ण! कीर्तन करने लगीं।
एमन कृपालु नाहि शुनि त्रिभुवने । कृष्ण-प्रेमा हय ग्राँर दूर दरशने ॥
१२१॥
तीनों लोकों में श्री चैतन्य महाप्रभु के समान दयामय कोई नहीं है। उनका दूर से दर्शन करने मात्र से मनुष्य भगवत्प्रेम से अभिभूत हो जाता है। नौकाते चड़िया प्रभु हैल नदी पार ।ज्योत्स्नावती रात्र्ये चलि' आइला चतुर ॥
१२२॥
तब महाप्रभु ने एक नई नाव में चढ़कर नदी को पार किया। वे चाँदनी रात में चलकर चतुर नामक नगर में जा पहुँचे।
राये तथा रहि' प्राते स्नान-कृत्य कैल।हेन-काले जगन्नाथेर महा-प्रसाद आइल ॥
१२३॥
महाप्रभु ने रात वहीं बिताई और प्रात:काल उठकर स्नान किया। उसी समय जगन्नाथजी का प्रसाद आ गया।
राजार आज्ञाय पड़िछा पाठाय दिने-दिने । बहुत प्रसाद पाठाय दिया बहु-जने ॥
१२४॥
राजा की आज्ञा के अनुसार मन्दिर का निरीक्षक प्रतिदिन काफी मात्रा में प्रसाद भेज देता था, जिसे कई लोग उठाकर लाते थे।
स्वगण-सहिते प्रभु प्रसाद अङ्गीकरि' । उठिया चलिला प्रभु बलि' ‘हरि' ‘हरि' ॥
१२५॥
प्रसाद ग्रहण करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु उठ खड़े हुए और हरि! हरि! कीर्तन करते हुए चल पड़े।
रामानन्द, मर्दराज, श्री-हरिचन्दन । सङ्गे सेवा करि' चले एइ तिन जन ॥
१२६॥
रामानन्द राय, मर्दराज तथा श्री हरिचन्दन सदैव श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ-साथ रहते और उनकी सेवा करते थे।
प्रभु-सङ्गे पुरी-गोसाजि, स्वरूप-दामोदर । जगदानन्द, मुकुन्द, गोविन्द, काशीश्वर ॥
१२७॥
हरिदास-ठाकुर, आर पण्डित-वक्रेश्वर । गोपीनाथाचार्य, आर पण्डित-दामोदर ॥
१२८॥
रामाई, नन्दाइ, आर बहु भक्त-गण ।। प्रधान कहिलँ, सबार के करे गणन ।। १२९ ॥
महाप्रभु के साथ साथ परमानन्द पुरी गोस्वामी, स्वरूप दामोदर, जगदानन्द, मुकुन्द, गोविन्द, काशीश्वर, हरिदास ठाकुर, वक्रेश्वर पण्डित, गोपीनाथ आचार्य, दामोदर पण्डित, रामाइ, नन्दाइ तथा अन्य अनेक भक्त थे। इनमें से मुख्य भक्तों के नाम मैंने गिनाये हैं। पूरी संख्या बता पाना किसी के लिए भी सम्भव नहीं है।
गदाधर-पण्डित ग्रबे सङ्क्ते चलिला ।‘क्षेत्र-सन्यास ना छाड़िह'- प्रभु निषेधिला ॥
१३०॥
जब गदाधर पण्डित महाप्रभु के साथ जाने को उद्यत हुए, तो उन्हें मना कर दिया गया और कहा गया कि वे क्षेत्र-संन्यास-व्रत का परित्याग ने करे।
पण्डित कहे, ग्राहाँ तुमि, सेइ नीलाचल ।क्षेत्र-सन्यास मोर ग्राउक रसातल ॥
१३१॥
जब गदाधर पण्डित से लौट जाने के लिए कहा गया तो वे महाप्रभु से बोले, आप जहाँ भी रहते हैं, वही जगन्नाथ पुरी है। मेरा तथाकथित क्षेत्र-संन्यास नरक में जाए।
प्रभु कहे, इँहा कर गोपीनाथ सेवन ।। पण्डित कहे,कोटि-सेवा त्वत्पाद-दर्शन ।। १३२ ।। जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने गदाधर पण्डित से जगन्नाथ पुरी में रुक जाने तथा गोपीनाथ की सेवा करने के लिए कहा, तो गदाधर पण्डित ने उत्तर दिया, आपके चरणकमलों के दर्शन मात्र से गोपीनाथ की करोड़ बार सेवा हो जाती है।
प्रभु कहे,–सेवा छाड़िबे, आमाय लागे दोष । इँहा रहि' सेवा कर,–आमार सन्तोष ॥
१३३॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, यदि आप उनकी सेवा करना बन्द कर दोगे, तो यह मेरा दोष होगा। अतः अच्छा यही होगा कि आप यहाँ रहकर सेवा-कार्य करो। इससे मुझे सन्तोष मिलेगा।
पण्डित कहे,सब दोष आमार उपर । तोमा-सङ्गे ना ग्राइब, ग्राइब एकेश्वर ॥
१३४॥
पण्डित ने उत्तर दिया, चिन्ता न करें। सारे दोष मेरे सिर पर होंगे। लीजिये, मैं आपके साथ नहीं, अपितु अकेले जाऊँगा।
आइ'के देखिते ग्राइबे, ना ग्राइब तोमा लागि' । ‘प्रतिज्ञा'-'सेवा'-त्याग-दोष, तार आमि भागी' ॥
१३५॥
मैं शचीमाता को मिलने जाऊँगा, किन्तु आपके कारण नहीं जाऊँगा। मैं गोपीनाथ की सेवा करने के अपने व्रत को भंग करने के लिए स्वयं जिम्मेदार होऊँगा।
एत बलि' पण्डित-गोसाजि पृथक्कलिला ।।कटके आसि' प्रभु ताँरै सङ्गे आनाइला ॥
१३६॥
इस तरह गदाधर पण्डित गोस्वामी अकेले यात्रा पर निकले, किन्तु जब वे सभी लोग कटक पहुँचे तो श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें बुला लिया और वे महाप्रभु के साथ हो गए।
पण्डितेर गौराङ्ग-प्रेम बुझन ना ग्राय ।।‘प्रतिज्ञा', 'श्री-कृष्ण-सेवा' छाड़िल तृण-प्राय ॥
१३७॥
गदाधर पण्डित तथा श्री चैतन्य महाप्रभु के बीच के प्रेम की घनिष्ठता को कोई नहीं समझ सकता। गदाधर पण्डित ने अपनी प्रतिज्ञा तथा गोपीनाथ की सेवा का उसी तरह परित्याग कर दिया, जिस तरह कोई तिनके के टुकड़े को त्याग देता है।
ताँहार चरित्रे प्रभु अन्तरे सन्तोष । ताँहार हाते धरि' कहे करि' प्रणय-रोष ॥
१३८॥
गदाधर पण्डित का आचरण श्री चैतन्य महाप्रभु के हृदय को अत्यन्त मोहक लगा। फिर भी महाप्रभु ने उनका हाथ पकड़कर प्रेममय क्रोध प्रदर्शित करते हुए कहा।
प्रतिज्ञा', 'सेवा' छाड़िबे,—ए तोमार ‘उद्देश' ।से सिद्ध हइल—छाड़ि' आइला दूर देश ॥
१३९॥
| तुमने गोपीनाथ की सेवा छोड़ी है और पुरी में रहने की अपनी प्रतिज्ञा भंग की है। चूंकि तुम इतनी दूर निकल आये हो, अतएव वह सब अब पूर्ण हो गया।
आभार सङ्गे रहिते चाह,वाञ्छ निज-सुख ।तोमार दुइ धर्म ग्राय,—आमार हय ‘दुःख' ॥
१४० ।। मेरे साथ जाने की तुम्हारी इच्छा तुम्हारे द्वारा इन्द्रियतृप्ति कीअभिलाषा मात्र है। इस तरह तुम दो धार्मिक सिद्धान्तों को तोड़ रहे हो, जिसके कारण मैं अत्यन्त दुःखी हूँ।
मोर सुख चाह यदि, नीलाचले चल ।आमार शपथ, यदि आर किछु बल ॥
१४१॥
यदि तुम मेरी प्रसन्नता चाहते हो, तो तुम नीलाचल लौट जाओ। यदि इस विषय में तुम कुछ अधिक कहोगे तो तुम मेरी निन्दा ही करोगे।
एत बलि' महाप्रभु नौकाते चड़िला ।मूर्च्छित हा पण्डित तथाई पड़िला ॥
१४२॥
यह कह कर श्री चैतन्य महाप्रभु नाव में चढ़ गये और गदाधर पण्डित तुरन्त ही मूर्च्छित होकर जमीन पर गिर पड़े।
पण्डिते ला ग्राइते सार्वभौमे आज्ञा दिला ।। भट्टाचार्य कहे,—उठ, ऐछे प्रभुर लीला ॥
१४३ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने सार्वभौम भट्टाचार्य को आदेश दिया कि वे अपने साथ गदाधर पण्डित को लेते जाएँ। अतएव भट्टाचार्य ने गदाधर पण्डित से कहा, उठो! श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाएँ ऐसी ही हैं।
तुमि जान, कृष्ण निज-प्रतिज्ञा छाड़िला । भक्त कृपा-वशे भीष्मेर प्रतिज्ञा राखिला ॥
१४४॥
तुम जानते हो कि भगवान् कृष्ण ने भीष्म पितामह की प्रतिज्ञा रखने के लिए स्वयं अपनी प्रतिज्ञा का उल्लंघन किया।
स्व-निगममपहाय मत्प्रतिज्ञाम् | ऋतमधिकर्तुमवप्लुतो रथ-स्थः । धृत-रथ-चरणोऽभ्ययाच्चलद्गुर्हरिरिव हन्तुमिभं गतोत्तरीयः ॥
१४५ ॥
मेरी प्रतिज्ञा को सत्य बनाने के लिए भगवान् कृष्ण ने कुरुक्षेत्र में अस्त्र ग्रहण न करने की अपनी खुद की प्रतिज्ञा तोड़ दी। उनका उत्तरीय वस्त्र नीचे गिर रहा था, तभी वे अपने रथ से कूद पड़े, रथ का पहिया उठा लिया और मुझे मारने के लिए दौड़ते हुए आये। वे मुझ पर उसी तरह झपटे, जिस तरह सिंह हाथी को मारने के लिए झपटता है। उन्होंने सारी पृथ्वी को हिला दिया।'
एइ-मत प्रभु तोमार विच्छेद सहिया ।तोमार प्रतिज्ञा रक्षा कैल ग्रल करिया ।। १४६ ।। इसी तरह तुम्हारा वियोग सहते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु ने बड़े यत्न से तुम्हारे व्रत की रक्षा की है।
एइ-मत कहि' ताँरे प्रबोध करिला ।। दुइ-जने शोकाकुल नीलाचले आइला ॥
१४७॥
इस तरह से सार्वभौम भट्टाचार्य ने गदाधर पण्डित में प्राण संचार किया। फिर दोनों अत्यन्त शोकाकुल होकर जगन्नाथ पुरी अर्थात् नीलाचल वापस चले आये।
प्रभु लागि' धर्म-कर्म छाड़े भक्त-गण । भक्त-धर्म-हानि प्रभुर ना हय सहन ॥
१४८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के निमित्त सारे भक्त अपने सभी तरह के कार्य छोड़ देते थे। फिर भी महाप्रभु नहीं चाहते थे कि भक्तगण अपने वचनबद्ध कर्तव्यों को छोड़ दें।
‘प्रेमेर विवर्त' इहा शुने ग्रेइ जन ।। अचिरे मिलिये ताँरै चैतन्य-चरण ॥
१४९॥
ये सब प्रेम के विरोधाभास हैं। जो कोई भी इन घटनाओं को सुनता है, उसे शीघ्र ही श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों की शरण प्राप्त हो जाती है।
दुइ राज-पात्र येइ प्रभु-सङ्गे ग्राय ।‘ग्राजपुर' आसि' प्रभु तारे दिलेन विदाय ॥
१५०॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनकी टोली याजपुर पहुँची, तो महाप्रभु ने उन दोनों सरकारी अधिकारियों को लौट जाने के लिए कहा, जो उनके साथ आये थे।
प्रभु विदाय दिल, राय याय ताँर सने । कृष्ण-कथा रामानन्द-सने रात्रि-दिने ॥
१५१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने अधिकारियों को विदा कर दिया, किन्तु रामानन्द राय उनके साथ बने रहे। महाप्रभु रामानन्द राय से दिन-रात श्रीकृष्ण के विषय में बातें करते।।
प्रति-ग्रामे राज-आज्ञाय राज-भृत्य-गण । नव्य गृहे नाना-द्रव्ये करये सेवन ॥
१५२॥
राजा के आदेशानुसार सरकारी अधिकारियों ने गाँव-गाँव में नये घर बनवा दिये और हर एक में अन्न का संग्रह कर दिया। इस तरह उन्होंने महाप्रभु की सेवा की।
एइ-मत चलि' प्रभु ‘रेमुणा' आइला ।तथा हैते रामानन्द-राये विदाय दिला ॥
१५३॥
अन्त में श्री चैतन्य महाप्रभु रेमुणा पहुँचे, जहाँ से उन्होंने श्री रामानन्द राय को भी विदा किया।
भूमेते पड़िला राय नाहिक चेतन ।।राये कोले करि' प्रभु करये क्रन्दन ॥
१५४॥
जब रामानन्द राय बेहोश होकर भूमि पर गिर गये, तो श्री चैतन्य महाप्रभु उन्हें अपनी गोद में लेकर विलाप करने लगे।
रायेर विदाय-भाव ना याय सहन । कहिते ना पारि एइ ताहार वर्णन ॥
१५५॥
रामानन्द राय से वियोग के कारण महाप्रभु की भावनाओं का वर्णन कर पाना अत्यन्त कठिन है। यह प्रायः असह्य है, अतएव मैं इसके आगे वर्णन नहीं कर सकता।
तबे ‘ओढू-देश-सीमा' प्रभु चलि' आइला ।। तथा राज-अधिकारी प्रभुरे मिलिला ॥
१५६॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु अन्त में उड़ीसा राज्य की सीमा पर आ पहुँचे, तो एक सरकारी अधिकारी उनसे मिलने आया।
दिन दुइ-चारि तेंहो करिल सेवन ।आगे चलिबारे सेइ कहे विवरण ॥
१५७॥
वह सरकारी अधिकारी दो-चार दिन तक उनकी सेवा करता रहा। उसने महाप्रभु को आगे की विस्तृत जानकारी भी दी।
मद्यप झवन-राजार आगे अधिकार । ताँर भये पथे केह नारे चलिबार ॥
१५८॥
उसने महाप्रभु को बतलाया कि आगे का भूभाग एक शराबी मुस्लिम गवर्नर द्वारा शासित है। उस राजा के भय से लोग मार्ग पर स्वतन्त्र होकर चल नहीं सकते।
पिछलदा पर्यन्त सब ताँर अधिकार ।। ताँर भये नदी केह हैते नारे पार ॥
१५९॥
मुस्लिम सरकार की सीमा पिछलदा तक है। मुसलमानों के भय से कोई भी व्यक्ति नदी पार नहीं करता था।
दिन कत रह–सन्धि करि ताँर सने । तबे सुखे नौकाते कराइब गमने ॥
१६०॥
महाराज प्रतापरुद्र के सरकारी अधिकारी ने श्री चैतन्य महाप्रभु को यह भी बतलाया कि उन्हें कुछ दिन तक उड़ीसा की सीमा में रुकना चाहिए, जिससे मुस्लिम गवर्नर से शान्तिपूर्ण समझौता किया जा सके। इस तरह महाप्रभु नाव से नदी को शान्तिपूर्वक पार कर सकेंगे।
सेइ काले से यवनेर एक अनुचर । 'उड़िया-कटके' आइल करि' वेशान्तर ॥
१६१॥
उसी समय मुस्लिम गवर्नर का एक सेवक वेश बदलकर उड़ीसा के खेमे ( शिविर ) में आया।
प्रभुर सेइ अदभुत चरित्र देखियो । हिन्दु-चर कहे सेइ ग्रवन-पाश गिया ॥
१६२॥
‘एक सन्यासी आइल जगन्नाथ हइते ।। अनेक सिद्ध-पुरुष हय ताँहार सहिते ॥
१६३॥
उस मुस्लिम जासूस ने श्री चैतन्य महाप्रभु के अद्भुत गुण देखे और उसने मुस्लिम गवर्नर के पास लौटने पर बतलाया, एक संन्यासी अनेक सिद्ध पुरुषों के साथ जगन्नाथ पुरी से आया है।
निरन्तर करे सबे कृष्ण-सङ्कीर्तन । सबे हासे, नाचे, गाय, करये क्रन्दन ॥
१६४॥
ये सारे सन्त महात्मा निरन्तर हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन करते हैं। और सभी हँसते, नाचते, गाते तथा रोते हैं।
लक्ष लक्ष लोक आइसे ताहा देखिबारे । ताँरै देखि' पुनरपि ग्राइते नारे घरे ॥
१६५॥
उन्हें देखने के लिए लाखों की संख्या में लोग आते हैं और एक बार देख लेने के बाद वे अपने घर वापस जाने का नाम नहीं लेते।
सेइ सब लोक हय बाउलेर प्राय ।।'कृष्ण' कहि' नाचे, कान्दे, गड़ागड़ि ग्राय ॥
१६६॥
ये सारे लोग पागल जैसे हो जाते हैं। वे केवल कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करते हैं तथा नाचते हैं। कभी-कभी वे रोते भी हैं और भूमि पर लोटते हैं।
कहिबार कथा नहे देखिले से जानि ।। ताँहार प्रभावे ताँरे 'ईश्वर' करि' मानि' ॥
१६७॥
वस्तुतः इन बातों का वर्णन भी नहीं किया जा सकता। केवल देखकर ही उन्हें समझा जा सकता है। उसके प्रभाव को देखकर मैं उन्हें भगवान् मानता हूँ।
एत कहि' सेइ चर ‘हरि' 'कृष्ण' गाय ।।हासे, कान्दे, नाचे, गाय बाउलेर प्राय ॥
१६८॥
यह कहने के बाद वह सन्देशवाहक हरि तथा कृष्ण के नाम का कीर्तन करने लगा। वह हँसने, रोने, नाचने तथा उन्मत्त की तरह गाने भी लगा।
एत शुनि' ग्रवनेर मन फिरि' गेल ।आपन-'विश्वास' उड़िया स्थाने पाठाइल ॥
१६९॥
यह सुनकर मुस्लिम गवर्नर का मन फिर गया। तब उसने अपने निजी सचिव को उड़ीसा शासन के प्रतिनिधि के पास भेजा।
'विश्वास' आसिया प्रभुर चरण वन्दिल ।‘कृष्ण' 'कृष्ण' कहि' प्रेमे विह्वल हइल ॥
१७० ॥
वह मुस्लिम सचिव श्री चैतन्य महाप्रभु को देखने आया। जब उसने महाप्रभु के चरणकमलों पर अपना सादर नमस्कार निवेदन किया और कृष्ण, कृष्ण के पवित्र नाम का उच्चारण किया, तो वह भी प्रेमभाव में विह्वल हो गया।
धैर्य हा उड़ियाके कहे नमस्करि' ।‘तोमा-स्थाने पाठाइला म्लेच्छ अधिकारी ॥
१७१॥
शान्त होने पर मुस्लिम सचिव ने अभिवादन करने के बाद उड़ीसा सरकार के प्रतिनिधि को सूचित किया, मुस्लिम गवर्नर ने मुझे यहाँ भेजा है।
तुमि यदि आज्ञा देह' एथाके आसिया । ग्रवन अधिकारी ग्राय प्रभुके मिलिया ॥
१७२॥
यदि आप सहमत हों, तो मुस्लिम गवर्नर श्री चैतन्य महाप्रभु से मिलने यहाँ पर आयें और फिर लौट जाएँ।
बहुत उत्कण्ठा ताँर, कर्नाछे विनय ।तोमा-सने एइ सन्धि, नाहि झुद्ध-भय' ॥
१७३ ॥
मुस्लिम गवर्नर अत्यन्त उत्सुक हैं और उन्होंने आदरपूर्वक निवेदन किया है। यह शान्ति का प्रस्ताव है। आप डरें नहीं कि हम युद्ध करेंगे।
शुनि' महा-पात्र कहे हा विस्मय ।‘मद्यप ग्रवनेर चित्त ऐछे के करय! ॥
१७४॥
| यह प्रस्ताव सुनकर उड़ीसा सरकार का प्रतिनिधि महापात्र अत्यन्त विस्मित हुआ। उसने सोचा, यह मुस्लिम गवर्नर तो शराबी है। उसके मन को किसने बदल दिया है? आपने महाप्रभु ताँर मन फिराइल ।। दर्शन-स्मरणे याँर जगत्तारिल' ॥
१७५ ॥
अवश्य ही स्वयं श्री चैतन्य महाप्रभु ने इस मुसलमान के मन को बदला होगा। उनकी उपस्थिति एवं उनके स्मरण मात्र से सारे संसार का उद्धार हो जाता है।
एत बलि' विश्वासेरे कहिल वचन ।भाग्य ताँर—आसि' करुक प्रभु दरशन ।। १७६॥
यह सोचकर महापात्र ने मुस्लिम सचिव को तुरन्त बतलाया, यह तो तुम्हारे गवर्नर का बड़ा भाग्य है। उससे कहो कि वे आकर चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करें।
प्रतीत करिये—-यदि निरस्त्र हा ।। आसिबेक पाँच-सात भृत्य सङ्गे लञा? ॥
१७७॥
किन्तु मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि उन्हें यहाँ बिना हथियार के आना चाहिए। हाँ, वे अपने साथ पाँच-सात सेवक ला सकते हैं।
विश्वास' याञा ताँहारे सकल कहिल ।।हिन्दु-वेश धरि' सेइ ग्रवन आइल ॥
१७८॥
वह सचिव लौटकर मुस्लिम गवर्नर के पास गया और उसे यह समाचार दिया। तब वह मुस्लिम गवर्नर हिन्दू-वेश धारण करके श्री चैतन्य महाप्रभु को देखने आया।
दूर हैते प्रभु देखि' भूमेते पड़िया ।।दण्डवत्करे अश्रु-पुलकित हो ॥
१७९॥
दूर से ही श्री चैतन्य महाप्रभु को देखकर मुस्लिम गवर्नर ने भूमि परगिरकर नमस्कार किया। उसकी आँखों में आँसू आ गये और भावाविष्ट होने के कारण वह पुलकित हो उठा।
महा-पात्र आनिल ताँरे करिया सम्मान ।।ग्रोड़-हाते प्रभु-आगे लय कृष्ण-नाम ॥
१८०॥
इस तरह महापात्र मुस्लिम गवर्नर को आदरपूर्वक श्री चैतन्य महाप्रभु के समक्ष ले गया। तब वह गवर्नर हाथ जोड़कर महाप्रभु के समक्ष खड़ा हो गया और कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करने लगा।
अधम ग्रवन-कुले केन जन्म हैल ।।विधि मोरे हिन्दु-कुले केन ना जन्माइल ॥
१८१॥
तब गवर्नर ने विनीत भाव से पूछा, “मेरा जन्म मुस्लिम परिवार में क्यों हुआ? यह अधम जन्म माना जाता है। विधाता ने मुझे हिन्दू परिवार में क्यों नहीं जन्म लेने दिया? ‘हिन्दु' हैले पाइताम तोमार चरण-सन्निधान ।व्यर्थ मोर एइ देह, ग्राउक पराण ॥
१८२॥
यदि मेरा जन्म हिन्दू परिवार में हुआ होता, तो मेरे लिए आपके चरणकमलों के निकट रहना आसान हुआ होता। चूंकि अब मेरा शरीर व्यर्थ है, अतएव मुझे तुरन्त मर जाना चाहिए।
एत शुनि' महा-पात्र आविष्ट हा ।प्रभुके करेन स्तुति चरणे धरिया ॥
१८३॥
गवर्नर की विनीत बात सुनकर महापात्र को हर्षातिरेक हो आया। उसने श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमल पकड़ लिए और निम्नलिखित स्तुति करनी प्रारम्भ की।
‘चण्डाल–पवित्र ग्राँर श्री-नाम-श्रवणे ।।हेन-तोमार एई जीव पाइल दरशने ॥
१८४॥
आपका पवित्र नाम सुनने मात्र से अधम चण्डाल भी पवित्र हो । जाता है। इस बद्धजीव को आपका दर्शन अब जाकर मिला है।
इँहार ये एई गति, इथे कि विस्मय? ।। तोमार दर्शन-प्रभाव एइ-मत हय' ॥
१८५॥
इसमें आश्चर्य की क्या बात यदि इस मुस्लिम गवर्नर को ऐसी गति प्राप्त हुई। आपके दर्शन मात्र से यह सब सम्भव है।
ग्रन्नामधेय-श्रवणानुकीर्तनाद्ग्रत्प्रङ्खणाद् यत्स्मरणादपि क्वचित् ।। श्वादोऽपि सद्यः सवनाय कल्पते ।कुतः पुनस्ते भगवन्नु दर्शनात् ॥
१८६॥
उन व्यक्तियों की आध्यात्मिक उन्नति के बारे में तो कुछ कहना ही। नहीं, जो भगवान् का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करते हैं। यदि चण्डाल-परिवार में उत्पन्न व्यक्ति भी एक बार भगवान् के पवित्र नाम का उच्चारण करता है, या उनका कीर्तन करता है, उनकी लीलाओं का श्रवण करता है, उन्हें नमस्कार करता है या उनका स्मरण भी करता है, तो वह तुरन्त वैदिक यज्ञ करने का अधिकारी बन जाता है।
तबे महाप्रभु ताँरे कृपा-दृष्टि करि' ।आश्वासिया कहे, तुमि कह 'कृष्ण' ‘हरि' ॥
१८७॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने उस मुस्लिम गवर्नर पर अपनी कृपादृष्टि डाली। उसे आश्वासन देते हुए उन्होंने उससे कृष्ण तथा हरि के पवित्र नामों का कीर्तन करने के लिए कहा।
सेइ कहे,–'मोरे यदि कैला अङ्गीकार ।।एक आज्ञा देह, सेवा करि ये तोमार ॥
१८८ ॥
तब मुस्लिम गवर्नर ने कहा, चूंकि आपने मुझे कृपा करके अपनाया है, अतः आप कृपया कोई आदेश दें, जिससे मैं आपकी सेवा कर सकें।
गो-ब्राह्मण-वैष्णवे हिंसा कर्माछि अपार ।।सेइ पाप हइते मोर हउक निस्तार ॥
१८९॥
तब उस मुस्लिम गर्वनर ने उन असंख्य पापकर्मों के फलों से अपनी मुक्ति के लिए प्रार्थना की, जिसे उसने इसके पूर्व ब्राह्मणों तथा वैष्णवों के प्रति ईष्र्यालु रहकर तथा गौवों की हत्या करके अर्जित किया था।
तबे मुकुन्द दत्त कहे,–'शुन, महाशय । गङ्गा-तीर ग्राइते महाप्रभुर मन हय ॥
१९०॥
तब मुकुन्द दत्त ने मुस्लिम गवर्नर से कहा, हे महोदय, कृपया सुनें। श्री चैतन्य महाप्रभु गंगा नदी के तट तक जाना चाहते हैं।
ताहाँ ग्राइते कर तुमि सहाय-प्रकार ।एइ बड़ आज्ञा, एई बड़ उपकार' ॥
१९१॥
आप उनकी सहायता करें, जिससे वे वहाँ जा सकें। आपके लिए यही पहला बड़ा आदेश है और यदि आप इसे पूरा कर दें, तो आप द्वारा यह महान् सेवा होगी।
तबे सेइ महाप्रभुर चरण वन्दिया । सबार चरण वन्दि' चले हृष्ट हा ॥
१९२ ॥
इसके बाद मुस्लिम गवर्नर ने श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ ही साथउनके सारे भक्तों के चरणकमलों की वन्दना की और फिर चला गया। वह अत्यधिक सन्तुष्ट था।
महा-पात्र ताँर सने कैले कोलाकुलि।अनेक सामग्री दिया करिल मितालि ॥
१९३॥
गवर्नर के विदा होने के पूर्व महापात्र ने उसका आलिगंन किया और उसे अनेक वस्तुएँ भेंट में दीं। इस तरह उसने उसके साथ मित्रता स्थापित कर ली।
प्रातः-काले सेइ बहु नौका साजा ।।प्रभुके आनिते दिल विश्वास पाठा ॥
१९४॥
अगले दिन प्रात:काल उस गवर्नर ने अपने सचिव को अनेक अच्छी तरह सजी हुई नावों के साथ महाप्रभु को नदी के उस पार ले जाने के लिए। भेजा।
महा-पात्र चलि' आइला महाप्रभुर सने ।।म्लेच्छ आसि' कैल प्रभुर चरण वन्दने ॥
१९५॥
महापात्र ने श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ नदी पार की और जब वे दूसरे किनारे पर पहुँच गये तो मुस्लिम गवर्नर ने स्वयं महाप्रभु की अगवानी की और उनके चरणकमलों की पूजा की।
एक नवीन नौका, तार मध्ये घर ।।स्व-गणे चड़ाइला प्रभु ताहार उपर ॥
१९६॥
नावों में से एक नाव नई बनवाई हुई थी, जिसके बीच एक कमरा बना था। उन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनके संगियों को उसी नाव में बैठा दिया।
महा-पात्रे महाप्रभु करिला विदाय ।।कान्दिते कान्दिते सेइ तीरे रहि' चाय ॥
१९७।। अन्त में श्री चैतन्य महाप्रभु ने महापात्र को भी विदा किया। महापात्र नदी के तट पर खड़े होकर नाव की ओर देख-देखकर रोने लगा।
जल-दस्यु-भये सेइ ग्रवन चलिल ।दश नौका भरि' बहु सैन्य सङ्गे निल ॥
१९८॥
तब स्वयं मुस्लिम गवर्नर श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ चल पड़ा। गवर्नर ने समुद्री डाकुओं के कारण साथ में दस नावें ले लीं, जिनमें अनेक सैनिक सवार थे।
‘मन्त्रेश्वर'-दुष्ट-नदे पार कराइल ।।‘पिछल्दा' पर्यन्त सेइ ग्रवन आइल ॥
१९९॥
मुस्लिम गवर्नर श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ मन्त्रेश्वर के आगे तक गया। यह स्थान डाकुओं के कारण अत्यन्त खतरनाक था। वह महाप्रभु को पिछल्दा नामक स्थान ले गया, जो मन्त्रेश्वर के निकट ही था।
ताँरे विदाय दिल प्रभु सेइ ग्राम हैते । से-काले ताँर प्रेम-चेष्टा ना पारि वर्णिते ॥
२०० ॥
अन्त में श्री चैतन्य महाप्रभु ने गवर्नर को भी विदा दी। गवर्नर द्वारा प्रदर्शित प्रेमभाव का वर्णन नहीं किया जा सकता है।
अलौकिक लीला करे श्री कृष्ण-चैतन्य । ग्रेइ इहा शुने ताँर जन्म, देह धन्य । २०१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाएँ अलौकिक हैं। जो भी इन कार्यकलापों को सुनता है, वह धन्य हो जाता है और उसका जीवन पूर्ण हो जाता है।
सेइ नौका चड़ि' प्रभु आइला 'पानिहाटि' ।।नाविकेरे पराइल निज-कृपा-साटी ॥
२०२॥
महाप्रभु अन्ततः पानिहाटि पहुँचे और उन्होंने नाव चलाने वाले को कृपा-कृत्य के रूप में अपना वस्त्र दे दिया।
‘प्रभु आइला' बलि' लोके हैल कोलाहले ।मनुष्य भरिल सब, किबा जल, स्थल । २०३ ॥
पानिहाटि गंगा-तट पर आया हुआ था। श्री चैतन्य महाप्रभु के आगमन का समाचार सुनकर सभी तरह के लोग स्थल पर तथा जल में एकत्र हो गये।
राघव-पण्डित आसि' प्रभु ला गेला ।।पथे ग्राइते लोक-भिड़े कष्टे-सृष्ट्ये आइला ॥
२०४॥
आखिरकार श्री चैतन्य महाप्रभु को राघव पण्डित अपने साथ ले गये। रास्ते-भर काफी भीड़ इकट्ठी हो गई थी, जिससे महाप्रभु बड़ी कठिनाई से राघव पण्डित के घर पहुँच पाये।
एक-दिन प्रभु तथा करिया निवास ।।प्राते कुमारहट्टे आइला,—ग्राहाँ श्रीनिवास ॥
२०५॥
महाप्रभु श्री राघव पण्डित के घर केवल एक दिन ठहरे। अगले दिन प्रातःकाल वे कुमारहट्ट गये, जहाँ श्रीवास ठाकुर रहते थे।
ताहाँ हैते आगे गेला शिवानन्द-घर । वासुदेव-गृहे पाछे आइला ईश्वर ॥
२०६॥
श्रीवास ठाकुर के घर से चलकर महाप्रभु शिवानन्द सेन के घर गये और बाद में वासुदेव दत्त के घर गये।
वाचस्पति-गृहे' प्रभु प्रेमते रहिला । लोक-भिड़ भये ग्रैछे 'कुलिया' आइला ॥
२०७।। महाप्रभु कुछ समय तक विद्यावाचस्पति के घर पर रहे, किन्तु वहाँ पर काफी भीड़ थी अतएव वे कुलिया चले गये।।
माधव-दास-गृहे तथा शचीर नन्दन । लक्ष-कोटि लोक तथा पाइल दरशन ॥
२०८॥
जब महाप्रभु माधवदास के घर पर ठहरे, तो लाखों-करोड़ों लोग उनका दर्शन करने आये।
सात दिन रहि' तथा लोक निस्तारिला । सब अपराधि-गणे प्रकारे तारिला ॥
२०९॥
महाप्रभु वहाँ सात दिनों तक रुके रहे और उन्होंने सभी तरह के अपराधियों तथा पापियों का उद्धार किया।
‘शान्तिपुराचार्य'-गृहे ऐछे आइला । शची-माता मिलि' ताँर दुःख खण्डाइला ॥
२१०॥
कुलिया छोड़ने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु शान्तिपुर में अद्वैत आचार्य के घर गये। यहीं पर उनकी माता शचीमाता उनसे मिलीं और उनका महान् दुःख दूर हुआ।
तबे ‘रामकेलि'-ग्रामे प्रभु त्रैछे गेला ।।'नाटशाला' हैते प्रभु पुनः फिरि' आइला ॥
२११॥
इसके बाद महाप्रभु रामकेलि गाँव तथा कानाइ नाटशाला नामक स्थान गये। वहाँ से वे शान्तिपुर लौट आये।
शान्तिपुरे पुनः कैल दश-दिन वास ।।विस्तारि' वर्णियाछेन वृन्दावन-दास ॥
२१२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु शान्तिपुर में दस दिनों तक रुके। इसका विस्तृत वर्णन वृन्दावन दास ठाकुर ने किया है।
अतएव इहाँ तार ना कैहुँ विस्तार ।।पुनरुक्ति हय, ग्रन्थ बाड़ये अपार ॥
२१३॥
मैं इन घटनाओं का वर्णन नहीं करूंगा, क्योंकि वृन्दावन दास ठाकुरद्वारा ये पहले ही वर्णित हो चुकी हैं। उसी बात को दुहराने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इसे दोहराने से इस ग्रंथ का आकार बढ़कर असीम हो जायेगा।
तार मध्ये मिलिला ग्रैछे रूप-सनातन । नृसिंहानन्द कैल ग्रैछे पथेर साजन ॥
२१४॥
सूत्र-मध्ये सेइ लीला आमि त' वर्णिलँ।।अतएव पुनः ताहा इहाँ ना लिखिलें ॥
२१५ ॥
इन वर्णनों से पता चलता है कि श्री चैतन्य महाप्रभु किस तरह रूप तथा सनातन बन्धुओं से मिले और किस तरह नृसिंहानन्द ने मार्ग सजाया। मैं पहले ही इस पुस्तक के संक्षिप्त विवरण में इनका वर्णन कर चुका हूँ, अतएव मैं उनको फिर से नहीं दुहराऊँगा।
पुनरपि प्रभु यदि ‘शान्तिपुर' आईला । रघुनाथ-दास आसि' प्रभुरे मिलिला ॥
२१६॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु शान्तिपुर लौटे, तब रघुनाथ दास उनसे मिलने आये।
‘हिरण्य’, ‘गोवर्धन',—दुइ सहोदर ।।सप्तग्रामे बार-लक्ष मुद्रार ईश्वर ॥
२१७॥
सप्तग्राम के निवासी हिरण्य तथा गोवर्धन नामक दो भाइयों की वार्षिक आय बारह लाख रुपये थी।
महैश्वर्य-मुक्त हे वदान्य, ब्रह्मण्य ।। सदाचारी, सत्कुलीन, धार्मिकाग्रगण्य ॥
२१८॥
हिरण्य तथा गोवर्धन मजुमदार दोनों ही अत्यन्त ऐश्वर्यवान तथा वदान्य थे। वे सदाचारी और ब्राह्मण संस्कृति को समर्पित थे। वे सम्माननीय कुलीन परिवार के थे और धार्मिकों में उनका प्रमुख स्थान था।
नदीया-वासी, ब्राह्मणेर उपजीव्य-प्राय । अर्थ, भूमि, ग्राम दिया करेन सहाय ॥
२१९॥
नदिया के रहने वाले प्रायः सारे ब्राह्मण हिरण्य तथा गोवर्धन के दान पर आश्रित थे, क्योंकि वे उन्हें धन, भूमि तथा गाँव देते थे।
नीलाम्बर चक्रवर्ती–आराध्य देंहार । चक्रवर्ती करे मुँहाय 'भ्रातृ'-व्यवहार ॥
२२०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के नाना नीलाम्बर चक्रवर्ती इन दोनों के द्वारा पूजित थे, किन्तु नीलाम्बर चक्रवर्ती उनके साथ अपने भाइयों जैसा व्यवहार करते थे।
मिश्र-पुरन्दरेर पूर्वे कर्याछेन सेवने । अतएव प्रभु भाल जाने दुइ-जने ॥
२२१॥
पहले ये दोनों भाई श्री चैतन्य महाप्रभु के पिता मिश्र पुरन्दर की काफी सेवा कर चुके थे। इसीलिए महाप्रभु इन्हें भलीभाँति जानते थे।
सेइ गोवर्धनेर पुत्र---रघुनाथ दास । बाल्यकाल हैते तेंहो विषये उदास ॥
२२२॥
रघुनाथ दास गोवर्धन मजुमदार के पुत्र थे। वे बचपन से ही भौतिक भोगों की ओर अनासक्त रहते थे।
सन्यास करि' प्रभु ग्रबे शान्तिपुर आइला ।तबे आसि' रघुनाथ प्रभुरे मिलिला ॥
२२३ ॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु संन्यास ग्रहण करने के बाद शान्तिपुर वापस आये, तब रघुनाथ दास उनसे मिले थे।
प्रभुर चरणे पड़े प्रेमाविष्ट हा ।। प्रभु पाद-स्पर्श कैल करुणा करिया ॥
२२४॥
जब रघुनाथ दास श्री चैतन्य महाप्रभु से भेंट करने गये, तो वे प्रेमवश महाप्रभु के चरणकमलों पर गिर पड़े। महाप्रभु ने उन पर कृपा दिखाते हुए उन्हें अपने चरणों से छू दिया।
ताँर पिता सदा करे आचार्य-सेवन । अतएव आचार्य ताँरै हैला परसन्न ॥
२२५॥
रघुनाथ दास के पिता गोवर्धन सदैव ही अद्वैत आचार्य की अत्यधिक सेवा करते थे। फलतः अद्वैत आचार्य भी इस परिवार से अत्यन्त प्रसन्न थे।
आचार्य-प्रसादे पाइल प्रभुर उच्छिष्ट-पाते ।।प्रभुर चरण देखे दिन पाँच-सात ॥
२२६॥
जब रघुनाथ दास वहाँ रहते, तो अद्वैत आचार्य उन्हें महाप्रभु द्वारा छोड़ा गया भोजन दिया करते थे। इस तरह रघुनाथ दास पाँच-सात दिनों तक महाप्रभु के चरणकमलों की सेवा में लगे रहे।
प्रभु ताँरे विदाय दिया गेला नीलाचल । तेहो घरे आसि' हैला प्रेमेते पागल ॥
२२७॥
रघुनाथ दास को विदा करके श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी लौट आये। घर लौटकर रघुनाथ दास प्रेम के भावावेश में पागल हो उठे।
बार बार पलाय तेहो नीलाद्रि ग्राइते ।। पिता ताँरै बान्धि' राखे अनि' पथ हैते ॥
२२८॥
रघुनाथ दास जगन्नाथ पुरी जाने के लिए घर से बारम्बार भागते रहते थे, किन्तु उनके पिता उन्हें बाँध रखते और वापस लाते रहते।
पञ्च पाइक तौरै राखे रात्रि-दिने । चारि सेवक, दुइ ब्राह्मण रहे ताँर सने ॥
२२९॥
उनके पिता ने उनकी रात-दिन रखवाली करने के लिए पाँच चौकीदार नियुक्त कर रखे थे। उनकी सुख-सुविधा देखने के लिए चार नौकर और उनके लिए भोजन बनाने के लिए दो ब्राह्मण नियुक्त कर रखे थे।
एकादश जन ताँरे राखे निरन्तर ।नीलाचले ग्राइते ना पाय, दुःखित अन्तर ॥
२३०॥
इस तरह ग्यारह व्यक्ति रघुनाथ दास को निरन्तर वश में रखते थे। इस तरह वे जगन्नाथ पुरी नहीं जा सके, फलत: वे अत्यन्त दुःखी रहते थे।
एबे यदि महाप्रभु 'शान्तिपुर' आइला । शुनिया पितारे रघुनाथ निवेदिला ॥
२३१॥
जब रघुनाथ दास को पता चला कि श्री चैतन्य महाप्रभु शान्तिपुर पधारे हैं, तो उन्होंने अपने पिता से निवेदन किया।
आज्ञा देह', माजा देखि प्रभुर चरण । अन्यथा, ना रहे मोर शरीरे जीवन ॥
२३२॥
रघुनाथ दास ने अपने पिता से पूछा, कृपा करके मुझे महाप्रभु के चरणकमलों का दर्शन करने की अनुमति दें। यदि आप ऐसा नहीं करेंगे, तो मेरे प्राण इस शरीर के भीतर नहीं रह पायेंगे।
शुनि' ताँर पिता बहु लोक-द्रव्य दिया । पाठाइल बलि’ ‘शीघ्र आसिह फिरिया' ॥
२३३॥
यह विनती सुनकर रघुनाथ दास के पिता सहमत हो गये। अनेक नौकर तथा सामग्री देकर पिता ने अपने पुत्र को श्री चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करने के लिए यह कहकर भेजा कि वह शीघ्र ही लौट आये।
सात दिन शान्तिपुरे प्रभु-सङ्गे रहे।रात्रि-दिवसे एइ मनः-कथा कहे ॥
२३४॥
रघुनाथ दास शान्तिपुर में सात दिन तक श्री चैतन्य महाप्रभु के संग में रहे। उस अवधि में रात-दिन उनके मन में निम्नलिखित विचार घुमड़ते रहे।
‘रक्षकेर हाते मुजि केमने छुटिब! ।।केमने प्रभुर सङ्गे नीलाचले ग्राब?' ॥
२३५॥
रघुनाथ दास ने सोचा, मैं इन रखवालों के चंगुल से किस तरह छूट सर्केगा? मैं किस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ नीलाचल जा सर्केगा? सर्वज्ञ गौराङ्ग-प्रभु जानि' ताँर मन ।शिक्षा-रूपे कहे ताँरै आश्वास-वचन ।। २३६ ॥
चूँकि श्री चैतन्य महाप्रभु सर्वज्ञ थे, अतएव वे रघुनाथ दास के मन की बात समझ गये। इसलिए महाप्रभु ने उन्हें ढाढ़स बँधाते हुए इस प्रकार उपदेश दिया।
स्थिर हा घरे ग्राओ, ना हओ बातुल ।।क्रमे क्रमे पाय लोक भव-सिन्धु-कूल ॥
२३७॥
धैर्य धरो और घर वापस जाओ। पागल मत बनो। तुम क्रमशः भवसागर को पार कर सकोगे।
मर्कट-वैराग्य ना कर लोक देखाञा ।ग्रथा-स्रोग्य विषय भुञ्ज' अनासक्त हा ॥
२३८॥
तुम दिखावटी भक्त मत बनो और मिथ्या वैरागी मत बनो। अभी तुम उपयुक्त ढंग से भौतिक जगत् को भोग करो, किन्तु इसमें आसक्त मत होना।
अन्तरे निष्ठा कर, बाह्ये लोक-व्यवहार । अचिरात्कृष्ण तोमाय करिबे उद्धार ॥
२३९॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, तुम्हें चाहिए कि अन्तर से श्रद्धावान बने रहो, किन्तु बाहर से सामान्य व्यक्ति जैसा व्यवहार करो। इस तरह कृष्ण जल्द ही प्रसन्न होंगे और तुम्हें माया के पाश से छुड़ा लेंगे।
वृन्दावन देखि' ग्रबे आसिब नीलाचले ।। तबे तुमि आमा-पाश आसिह कोन छले ॥
२४० ॥
जब मैं वृन्दावन की मुलाकात लेने के बाद लौट आऊँ, तब तुम मुझसे नीलाचल, जगन्नाथ पुरी में मिल सकते हो। तब तक तुम निकल भागने की कोई दूसरी युक्ति सोच सकते हो।
से छल से-काले कृष्ण स्फुराबे तोमारे । कृष्ण-कृपा याँरे, तारे के राखिते पारे ॥
२४१॥
उस समय तुम्हें कौन-से उपायों को काम में लाना पड़ेगा, यह तो कृष्ण ही बतलायेंगे। यदि किसी पर कृष्ण की कृपा हो, तो उसे कोई रोक नहीं सकता।
एत कहि' महाप्रभु ताँरै विदाय दिल ।। घरे आसि' महाप्रभुर शिक्षा आचरिल ॥
२४२॥
इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने रघुनाथ दास को विदा किया। वे अपने घर लौट गये और महाप्रभु द्वारा बताई गई विधि के अनुसार कार्य करने लगे।
बाह्य वैराग्य, बातुलता सकल छाड़िया ।। यथा-स्रोग्य कार्य करे अनासक्त हञा ॥
२४३॥
घर आने पर रघुनाथ दास ने सारा पागलपन तथा बाह्य छद्म वैराग्य छोड़ दिया और वे गृहस्थी के कार्यों में बिना आसक्ति के रहने लगे।
देखि' ताँर पिता-माता बड़ सुख पाइल। ताँहार आवरण किछु शिथिल हइल ॥
२४४॥
जब रघुनाथ दास के माता-पिता ने देखा कि उनका पुत्र गृहस्थ की तरह रह रहा है, तो वे अत्यन्त सुखी हुए। फलस्वरूप उन्होंने चौकसी में ढील कर दी।
इहाँ प्रभु एकत्र करि' सब भक्त-गण । अद्वैत-नित्यानन्दादि यत भक्त-जन ॥
२४५॥
सबा आलिङ्गन करि' कहेन गोसात्रि ।। सबे आज्ञा देह'–आमि नीलाचले ग्राइ ॥
२४६ ।। तभी शान्तिपुर में श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने सारे भक्तों-अद्वैत आचार्य, श्री नित्यानन्द प्रभु आदि को एकत्र किया और उन सबका आलिंगन करने के बाद उनसे जगन्नाथ पुरी जाने की अनुमति माँगी।
सबार सहित इहाँ आमार हइल मिलन ।। ए वर्ष ‘नीलाद्रि' केह ना करिह गमन ॥
२४७॥
चूँकि श्री चैतन्य महाप्रभु शान्तिपुर में सबसे मिल चुके थे, अतः उन्होंने सारे भक्तों से विनती की कि वे इस वर्ष जगन्नाथ पुरी न आयें।।
ताहाँ हैते अवश्य आमि वृन्दावन' याब ।। सबे आज्ञा देह', तबे निर्विघ्ने आसिब ॥
२४८ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, मैं जगन्नाथ पुरी से वृन्दावन अवश्य जाऊँगा। यदि आप सभी लोग मुझे अनुमति दें, तो मैं बिना किसी कठिनाई के यहाँ फिर आ जाऊँगा।
मातार चरणे धरि' बहु विनय करिल । वृन्दावन ग्राइते ताँर आज्ञा लइल ॥
२४९॥
महाप्रभु ने अपनी माता के चरण पकड़कर उनसे विनयपूर्वक अनुमति माँगी। उन्होंने महाप्रभु को वृन्दावन जाने की अनुमति दे दी।
तबे नवद्वीपे तारे दिल पाठाजा । नीलाद्रि चलिला सङ्गे भक्त--गण लञा ॥
२५०॥
श्रीमती शचीदेवी को नवद्वीप वापस भेज दिया गया और महाप्रभु अपने भक्तों सहित नीलाद्रि अर्थात् जगन्नाथ पुरी के लिए रवाना हो गये।
सेइ सब लोक पथे करेन सेवन ।सुखे नीलाचल आइला शचीर नन्दन ॥
२५१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ जाने वाले भक्तों ने नीलाचल जगन्नाथ पुरी के रास्ते-भर उनकी सभी प्रकार से सेवा की। इस तरह महाप्रभु परम प्रसन्नतापूर्वक लौट आये।
प्रभु आसि' जगन्नाथ दरशन कैल ।।‘महाप्रभु आइला'---ग्रामे कोलाहल हैल ॥
२५२ ॥
जगन्नाथ पुरी आकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने भगवान् के मन्दिर का दर्शन किया। फिर तो सारे नगर में यह समाचार फैल गया कि महाप्रभु लौट आये हैं।
आनन्दित भक्त-गण आसिया मिलिला ।।प्रेम-आलिङ्गन प्रभु सबारे करिला ॥
२५३ ॥
तब सारे भक्तों ने आकर परम सुखपूर्वक महाप्रभु से भेंट की। महाप्रभु ने भी उन सबका एक-एक करके प्रेमपूर्वक आलिंगन किया।
काशी-मिश्र, रामानन्द, प्रद्युम्न, सार्वभौम ।। वाणीनाथ, शिखि-आदि ग्रत भक्तगण ॥
२५४॥
काशी मिश्र, रामानन्द राय, प्रद्युम्न, सार्वभौम भट्टाचार्य, वाणीनाथ राय, शिखि माहिति तथा अन्य सारे भक्त भी महाप्रभु से मिले।
गदाधर-पण्डित आसि' प्रभुरे मिलिला ।। सबार अग्रेते प्रभु कहिते लागिला ॥
२५५ ॥
गदाधर पण्डित भी आये और महाप्रभु से मिले। तब महाप्रभु सभी भक्तों के समक्ष इस प्रकार बोले।
'वृन्दावन ग्राब आमि गौड़-देश दिया।निज-मातार, गङ्गार चरण देखिया ॥
२५६॥
मैंने अपनी माता तथा गंगा नदी का दर्शन करने के लिए ही बंगाल से होते हुए वृन्दावन जाने का संकल्प किया था।
एत मते करि' कैलँ गौड़ेरे गमन ।।सहस्त्रेक सङ्गे हैल निज-भक्त-गण ॥
२५७॥
इस तरह मैं बंगाल गया, लेकिन हजारों भक्त मेरे साथ चल पड़े।
लक्ष लक्ष लोक आइसे कौतुक देखिते ।। लोकेर सङ्घट्टे पथ ना पारि चलिते ॥
२५८॥
लाखों लोग उत्सुकतावश मुझे देखने आये और ऐसी भीड़ हुई कि रास्ते में मुक्त होकर चलना भी कठिन हो गया।
यथा रहि, तथा घर-प्राचीर हय चूर्ण ।।ग्रथा नेत्र पड़े तथा लोक देखि पूर्ण ॥
२५९॥
भीड़ इतनी बढ़ गई कि मैं जिस घर में रुका था, वह घर तथा उसकी चाहारदीवारी टूट-फूट गई और मैं जिधर देखता उधर विशाल जनसमूह ही दिखाई पड़ता था।
कष्टे-सृष्ट्ये करि' गेलाङ रामकेलि-ग्राम ।।आमार ठाजि आइला 'रूप' 'सनातन' नाम ॥
२६० ॥
मैं बड़ी मुश्किल से रामकेलि गाँव गया, जहाँ मुझे रूप तथा सनातन दो भाई मिले।
दुइ भाइ–भक्त-राज, कृष्ण-कृपा-पात्र । व्यवहारे–राज-मन्त्री हय राज-पात्रे ॥
२६१॥
ये दोनों भाई महान् भक्त तथा कृष्ण-कृपा के समुचित पात्र हैं। किन्तु सामान्य तौर पर वे हैं सरकारी अधिकारी-राजा के मन्त्री।
विद्या-भक्ति-बुद्धि-बले परम प्रवीण ।तबु आपनाके माने तृण हैते हीन ॥
२६२॥
श्रील रूप तथा सनातन शिक्षा, भक्ति, बुद्धि तथा बल में अत्यन्त अनुभवी हैं, फिर भी वे अपने आपको सड़क के तिनके से भी नीच मानते हैं।
ताँर दैन्य देखि' शुनि' पाषाण विदरे ।। आमि तुष्ट हा तबे कहिलॆ दोंहारे ॥
२६३ ॥
उत्तम हबा हीन करि' मानह आपनारे । अचिरे करिबे कृष्ण तोमार उद्धारे ॥
२६४॥
निस्सन्देह, इन दोनों भाइयों के दैन्य से पत्थर भी पिघल सकता था। उनके आचरण से तुष्ट होकर मैंने उनसे कहा, 'यद्यपि तुम दोनों उच्च कोटि के हो, किन्तु अपने आपको निम्न मानते हो; इसीलिए कृष्ण शीघ्र ही तुम दोनों का उद्धार करेंगे।'
एत कहि' आमि बे विदाय ताँरे दिल ।। गमन-काले सनातन ‘प्रहेली' कहिल ॥
२६५॥
याँर सङ्गे हय एइ लोक लक्ष कोटि । वृन्दावन ग्राइबार एइ नहे परिपाटी ॥
२६६॥
उनसे ऐसा कहकर मैंने उनसे विदा ली। जब मैं विदा हो रहा था, तो सनातन ने मुझसे कहा, 'जब हजारो लोगों की भीड़ किसी का अनुसरण कर रही हो, तब इस प्रकार से वृन्दावन जाना उचित नहीं है।'
तबु आमि शुनिलँ मात्र, ना कैलँ अवधान । प्राते चलि' आइलाङ' कानाइर नाटशाला'-ग्राम ॥
२६७॥
यद्यपि मैंने यह सुना, किन्तु उस पर ध्यान नहीं दिया, और प्रातःकाल मैं कानाइ नाटशाला गया।
रात्रि-काले मने आमि विचार करिल ।। सनातन मोरे किबा 'प्रहेली' कहिल ॥
२६८॥
किन्तु रात में मैंने सनातन के कहे हुए पर विचार किया।
भालत' कहिल,—-मोर एत लोक सङ्गे । लोक देखि' कहिबे मोरे–‘एइ एक ढङ्गे' ॥
२६९॥
मैं इस निर्णय पर पहुँचा कि सनातन ने बहुत ठीक कहा था। मेरे साथ बहुत बड़ी भीड़ थी, अतएव इतने सारे लोगों को देखकर लोग निश्चय ही मेरी निन्दा करेंगे कि 'यह एक और धूर्त है।'
‘दुर्लभ' 'दुर्गम' सेइ 'निर्जन' वृन्दावन । एकाकी ग्राइब, किबा सङ्गे एक-जन ॥
२७० ॥
तब मैं सोचने लगा कि वृन्दावन तो एकान्त स्थान है। यह दुर्गम और दुर्लभ है। इसलिए मैंने अकेले या फिर बहुत हुआ तो अपने साथ केवल एक व्यक्ति लेकर जाने का निश्चय किया है।
माधवेन्द्र-पुरी तथा गेला ‘एकेश्वरे'। दुग्ध-दान-च्छले कृष्ण साक्षादिल तौरै ॥
२७१॥
माधवेन्द्र पुरी अकेले ही वृन्दावन गये थे और कृष्ण ने दूध देने के बहाने उन्हें दर्शन दिया था।
बादियार बाजि पाति' चलिलाङतथारे ।बहु-सङ्गे वृन्दावन गमन ना करे ॥
२७२॥
तब मैं समझ पाया कि मैं खेल दिखाने वाले जादूगर की तरह वृन्दावन जा रहा हूँ और यह निश्चय ही ठीक नहीं है। किसी को भी इतने सारे लोगों के साथ वृन्दावन नहीं जाना चाहिए।
एका ग्राइब, किबा सङ्गे भृत्य एक-जन । तबे से शोभय वृन्दावनेर गमन ॥
२७३ ॥
इसीलिए मैंने अकेले या अधिक से अधिक एक नौकर के साथ वृन्दावन जाने का निश्चय किया है। इस तरह मेरी वृन्दावन यात्रा बहुत सुन्दर होगी।
वृन्दावन ग्राब काहाँ 'एकाकी' हा! ।। सैन्य सङ्गे चलियाछि ढाक बाजा! ॥
२७४॥
मैंने सोचा, मैं वृन्दावन अकेले न जाकर सैनिकों को साथ लिए और ढोल बजाते जा रहा हूँ।
धिक्, धिकापनाके बलि' हइलाङ अस्थिर ।निवृत्त हा पुनः आइलाङगङ्गा-तीर ॥
२७५ ॥
इसलिए मैंने अपने आपको धिक्कारा और अत्यन्त उत्तेजित होकर मैं गंगा-तीर लौट आया।
भक्त-गणे राखिया आइनु निज निज स्थाने ।। आमा-सङ्गे आइला सबे पाँच-छय जने ॥
२७६ ॥
तब मैंने सारे भक्तों को वहाँ छोड़ दिया और अपने साथ केवल पाँच-छ: व्यक्तियों को रखा।
निर्विघ्ने एबे कैछे ग्राइब वृन्दावने ।। सबे मेलि' युक्ति देह' हा परसन्ने ॥
२७७॥
अब मैं चाहता हूँ कि तुम सब लोग मुझ पर प्रसन्न होओ और मुझे अच्छी सलाह दो। मुझे बताओ कि मैं किस तरह निर्विघ्न होकर वृन्दावन जा सकता हूँ।
गदाधरे छाड़ि' गेनु, इँहो दुःख पाइल । सेइ हेतु वृन्दावन ग्राइते नारिल ॥
२७८ ॥
मैंने यहाँ गदाधर पण्डित को छोड़ दिया, तो वह अत्यन्त दुःखी हुआ। इसलिए मैं वृन्दावन नहीं जा सका।
तबे गदाधर-पण्डित प्रेमाविष्ट हबा । प्रभु-पद धरि' कहे विनय करिया ॥
२७९ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के शब्दों से उत्साहित होकर गदाधर पण्डित प्रेमभाव में डूब गये। उन्होंने तुरन्त ही महाप्रभु के चरण पकड़ लिए और विनीत भाव से कहा।
तुमि ग्राहाँ-याहाँ रह, ताहाँ 'वृन्दावन' ।।ताहाँ यमुना, गङ्गा, सर्व-तीर्थ-गण ॥
२८०॥
गदाधर पण्डित ने कहा, आप जहाँ कहीं भी ठहरते हैं, वहीं वृन्दावन है और वहीं यमुना, गंगा नदियाँ तथा अन्य तीर्थस्थल हैं।
तबु वृन्दावन ग्राह' लोक शिखाइते ।। सेइत करिबे, तोमार येइ लय चित्ते ॥
२८१॥
यद्यपि आप जहाँ भी ठहरते हैं वहीं वृन्दावन है, तो भी आप लोगों को शिक्षा देने के लिए वृन्दावन जाते हैं। अन्यथा, जो आप को अच्छा लगे, वही करते हैं।
एई आगे आइला, प्रभु, वर्षार चारि मास ।। एइ चारि मास कर नीलाचले वास ॥
२८२ ॥
इस अवसर को पाकर गदाधर पण्डित ने कहा, अब तो चातुर्मास्य प्रारम्भ हो चुका है। अतएव आपको अगले चार मास जगन्नाथ पुरी में ही बिताने चाहिए।
पाछे सेइ आचरिबा, ग्रेइ तोमार मन । आपन-इच्छाय चल, रह,–के करे वारण ॥
२८३ ॥
यहाँ चार महीने रहने के बाद आप जैसा चाहें कर सकते हैं। वास्तव में आपको जाने या रहने से कोई रोक नहीं सकता।
शुनि' सब भक्त कहे प्रभुर चरणे । सबाकार इच्छा पण्डित कैल निवेदने ॥
२८४॥
यह कथन सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों पर उपस्थित भक्तों ने कहा कि गदाधर पण्डित ने उनकी इच्छा को सही ढंग से प्रस्तुत की है।
सबार इच्छाय प्रभु चारि मास रहिला ।। शुनिया प्रतापरुद्र आनन्दित हैला ॥
२८५॥
सारे भक्तों के अनुरोध पर श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी में चार मास तक रुके रहने के लिए राजी हो गये। यह सुनकर राजा प्रतापरुद्र अत्यधिक प्रसन्न हुए।
सेइ दिन गदाधर कैल निमन्त्रण । ताहाँ भिक्षा कैल प्रभु लञा भक्त-गण ॥
२८६॥
उस दिन गदाधर पण्डित ने श्री चैतन्य महाप्रभु को निमन्त्रण दिया और महाप्रभु ने अन्य भक्तों सहित उनके यहाँ भोजन ग्रहण किया।
भिक्षाते पण्डितेर स्नेह, प्रभुर आस्वादन । मनुष्येर शक्त्ये दुइ ना ग्राय वर्णन ॥
२८७॥
सम्भवतः कोई भी साधारण व्यक्ति गदाधर पण्डित द्वारा परोसे गये स्नेहपूर्ण भोजन एवं महाप्रभु द्वारा इस भोजन के आस्वादन का वर्णन नहीं कर सकता।
एइ मत गौर-लीला—अनन्त, अपार । सङ्क्षेपे कहिये, कहा ना ग्राय विस्तार ॥
२८८॥
इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु अपनी लीलाएँ करते हैं, जो अनन्त तथा अपार हैं। किसी न किसी प्रकार इनका संक्षिप्त वर्णन किया गया है। इनका विस्तृत वर्णन कर पाना सम्भव नहीं है।
सहस्र-वदने कहे आपने 'अनन्त' ।। तबु एक लीलार तेहो नाहि पाय अन्त ॥
२८९॥
यद्यपि अनन्तदेव अपने सहस्र मुखों से भगवान् की लीलाओं का सदैव वर्णन करते रहते हैं, किन्तु वे किसी एक लीला का भी पार नहीं पा सकते।
श्री-रूप-रघुनाथ पदे ग्रार आश ।चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
२९०॥
श्री रूप तथा रघुनाथ के चरणकमलों पर प्रार्थना करते हुए तथा उनकी कृपा की कामना करते हुए मैं कृष्णदास उनके चरणचिह्नों का अनुसरण करते हुए श्री चैतन्य-चरितामृत कह रहा हूँ।
अध्याय सत्रह: भगवान वृन्दावन की यात्रा करते हैं
गच्छन्वृन्दावनं गौरो व्याघ्रभैण-खगान्वने । प्रेमोन्मत्तान्सहोन्नृत्यान्विदधे कृष्ण-जल्पिनः ॥
१॥
वृन्दावन जाते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु झारखंड के जंगलों से होकर गुजरे और उन्होंने सारे बाघों, हाथियों, हिरनों तथा पक्षियों को हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन और नृत्य करने के लिए प्रेरित किया। इस तरह ये सारे पशु प्रेमभाव से उन्मत्त हो उठे।
जय जय गौरचन्द्र जय नित्यानन्द । जयाद्वैत-चन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ॥
२ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! अद्वैतचन्द्र की जय हो! महाप्रभु के सारे भक्तों की जय हो! शरत्काल हैल, प्रभुर चलिते हैल मति ।रामानन्द-स्वरूप-सङ्गे निभृते युकति ॥
३॥
जब शरद ऋतु आई, तो श्री चैतन्य महाप्रभु ने वृन्दावन जाने का निश्चय किया। उन्होंने एकान्त में रामानन्द राय तथा स्वरूप दामोदर गोस्वामी से परामर्श किया।
मोर सहाय कर यदि, तुमि-दुइ जन ।।तबे आमि यात्रा देखि श्री-वृन्दावन ॥
४॥
महाप्रभु ने रामानन्द राय तथा स्वरूप दामोदर गोस्वामी से अनुरोध किया कि वे उन्हें वृन्दावन जाने में सहायता करें।
रात्र्ये उठि' वन-पथे पलाञा ग्राब। एकाकी ग्राइब, काहों सङ्गे ना लइब ॥
५॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, मैं भोर के समय यात्रा आरम्भ करूंगा और जंगल के मार्ग में अलक्षित होकर अकेले जाऊँगा। मैं अपने साथ किसी को भी नहीं लूंगा।
केह ग्रदि सङ्ग लइते पाछे उठि' धाय ।।सबारे राखिबा, ग्रेन केह नाहि ग्राय ॥
६॥
यदि कोई मेरे पीछे आना भी चाहे, तो उसे आप लोग रोक लें। मैं नहीं चाहता कि कोई भी मेरे साथ जाये।
प्रसन्न हा आज्ञा दिबा, ना मानिबा'दुःख' ।।तोमा-सबार 'सुखे' पथे हबे मोर 'सुख' ।।७।। तुम लोग कृपया प्रसन्नतापूर्वक मुझे आज्ञा दो और दुःखी मत हो। यदि तुम लोग सुखी होंगे, तो मैं वृन्दावन को प्रस्थान करते हुए सुखी हूँगा।
दुइ-जन कहे,---‘तुमि ईश्वर स्वतन्त्र' ।।येइ इच्छा, सेइ करिबा, नह'परतन्त्र' ॥
८॥
यह सुनकर रामानन्द राय तथा स्वरूप दामोदर गोस्वामी ने कहा, “हे प्रभु, आप पूर्णतया स्वतन्त्र हैं। चूँकि आप किसी पर आश्रित नहीं हैं, अतएव आपकी जो इच्छा होगी आप वही करेंगे।
किन्तु आमा-मुँहार शुन एक निवेदने ।‘तोमार सुखे आमार सुख'–कहिला आपने ॥
९॥
हे प्रभु, कृपया हमारी एक विनती सुनें। आपने पहले ही कहा है कि हमारे सुख से आपको सुख मिलेगा। यह आपको अपना कथन है।
आमा-बँहार मने तबे बड़‘सुख' हय ।एक निवेदन यदि धर, दयामय ॥
१०॥
यदि आप हमारी केवल एक विनती मान लें, तो हम अत्यधिक सुखी होंगे।
‘उत्तम ब्राह्मण' एक सङ्गे अवश्य चाहि ।।भिक्षा करि' भिक्षा दिबे, ग्राबे पात्र वहि ॥
११॥
हमारे प्रभु! आप अपने साथ एक उत्तम ब्राह्मण अवश्य ले लें। वह आपके लिए भिक्षा लायेगा, पकायेगा, आपको प्रसाद देगा और आपकी यात्रा के समय आपका जलपात्र उठायेगा।
वन-पथे ग्राइते नाहि 'भोज्यान्न'-ब्राह्मण ।आज्ञा कर, सङ्गे चलुक विप्र एक-जन' ॥
१२॥
जब आप जंगल से होकर यात्रा करेंगे, तो आपको ऐसा कोई ब्राह्मण नहीं मिल सकेगा, जिसके यहाँ आप भोजन कर सकें। अतएव आप कृपया आज्ञा दें, जिससे आपके साथ कम-से-कम एक शुद्ध ब्राह्मण जा सके।
प्रभु कहे,—निज-सङ्गी काँहो ना लइब ।। एक-जने निले, आनेर मने दुःख हेइब ॥
१३॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, मैं अपने साथ अपने किसी भी संगी को नहीं ले जाऊँगा, क्योंकि यदि मैं किसी को भी चुनँगा, तो अन्य सभी लोग दुःखी होंगे।
नूतन सङ्गी हइबेक,—स्निग्ध याँर मन ।।ऐछे व्रबे पाइ, तबे लइ 'एक' जन ॥
१४॥
ऐसा व्यक्ति नया ही होना चाहिए। उसे शान्तचित्त होना चाहिए। यदि मुझे ऐसा व्यक्ति मिल सके, तो मैं उसे अपने साथ लेने के लिए तैयार हूँ। स्वरूप कहे,—एइ बलभद्र-भट्टाचार्य ।।तोमाते सु-स्निग्ध बड़, पण्डित, साधु, आर्य ॥
१५॥
तब स्वरूप दामोदर ने कहा, 'यह बलभद्र भट्टाचार्य है। इसे आपके प्रति अत्यधिक अनुराग है। यह सच्चरित्र, विद्वान तथा आध्यात्मिक चेतना में उन्नत है।'
प्रथमेड़ तोमा-सङ्गे आइला गौड़ हैते ।।इँहार इच्छा आछे ‘सर्व-तीर्थ' करिते ॥
१६॥
प्रारम्भ में वह बंगाल से आपके साथ आया था। उसकी इच्छा है कि वह समस्त तीर्थस्थानों का दर्शन करे।
इँहार सङ्गे आछे विप्र एक 'भृत्य' ।। इँहो पथे करिबेन सेवा-भिक्षा-कृत्य ॥
१७॥
इसके अतिरिक्त आप दूसरा ब्राह्मण भी ले जाएँ, जो रास्ते में सेवक का काम कर सके और आपकी भोजन-व्यवस्था कर सके।
इँहारे सङ्गे लह व्रदि, सबार हय 'सुख' ।। वन-पथे ग्राइते तोमार नहिबे कोन 'दुःख' ॥
१८॥
यदि आप उसे भी साथ ले सकें, तो हम अत्यन्त सुखी होंगे। यदि आपके साथ जंगल के मार्ग में दो लोग रहेंगे, तो निश्चित रूप से आपको कोई भी कठिनाई या असुविधा नहीं होगी।
सेइ विप्र वहि' निबे वस्त्राम्बु-भाजन ।। भट्टाचार्य भिक्षा दिबे करि' भिक्षाटन ॥
१९ ॥
दूसरा ब्राह्मण आपके वस्त्र तथा जलपात्र लिए रहेगा और बलभद्र भट्टाचार्य भिक्षा माँगकर आपके लिए भोजन पकायेगा।
ताँहार वचन प्रभु अङ्गीकार कैल।। बलभद्र-भट्टाचार्ये सङ्गे करि' निल ॥
२०॥
इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने स्वरूप दामोदर पण्डित की बात मान ली और बलभद्र भट्टाचार्य को अपने साथ ले जाना स्वीकार कर लिया।
पूर्व-रात्र्ये जगन्नाथ देखि' ‘आज्ञा' लञा ।। शेष-रात्रे उठि' प्रभु चलिला लुकाञा ॥
२१॥
पिछली रात्रि श्री चैतन्य महाप्रभु ने भगवान जगन्नाथ का दर्शन किया था और उनसे आज्ञा ले ली थी। अब रात्रि समाप्त होने के पूर्व महाप्रभु जगे और तुरन्त चल पड़े। उनको किसीने देखा नहीं।
प्रातः-काले भक्त-गण प्रभु ना देखियो । अन्वेषण करि' फिरे व्याकुल ही ॥
२२॥
चूँकि महाप्रभु जा चुके थे, अतः जब प्रात:काल भक्तों ने उन्हें नहीं देखा, तो वे अत्यन्त व्याकुल होकर उनकी खोज करने लगे।
स्वरूप-गोसाजि सबाय कैल निवारण ।। निवृत्त हआ रहे सबै जानि' प्रभुर मन ॥
२३ ॥
जब सारे भक्त महाप्रभु की खोज कर रहे थे, तब स्वरूप दामोदर ने उन्हें रोका। तब सारे लोग श्री चैतन्य महाप्रभु के मन की बात जानकर चुप हो गये।
प्रसिद्ध पथ छाड़ि' प्रभु उपपथे चलिला ।। 'कटक' डाहिने करि' वने प्रवेशिला ॥
२४॥
महाप्रभु जाने-पहचाने सार्वजनिक मार्ग पर न चलकर उपमार्ग से होकर गये। इस तरह उन्होंने कटक शहर को अपनी दाईं ओर छोड़ते हुए जंगल में प्रवेश किया।
निर्जन-वने चले प्रभु कृष्ण-नाम लञा ।हस्ति-व्याघ्र पथ छाड़े प्रभुरे देखिया ॥
२५॥
जब महाप्रभु सुनसान जंगल से होकर कृष्ण-नाम का कीर्तन करते हुए जा रहे थे, तो बाघों तथा हाथियों ने उन्हें देखकर रास्ता छोड़ दिया।
पाले-पाले व्याघ्र, हस्ती, गण्डार, शूकर-गण । तार मध्ये आवेशे प्रभु करिला गमन ॥
२६॥
जब महाप्रभु भावावेश में जंगल से होकर जा रहे थे, तो झुंड के झुंड बाघ, हाथी, गैंडे तथा सुअर आये। महाप्रभु इन सबके बीच से होकर चलते गये।
देखि' भट्टाचार्येर मने हय महा-भय ।। प्रभुर प्रतापे तारा एक पाश हय ॥
२७॥
बलभद्र भट्टाचार्य उन्हें देखकर अत्यन्त डरा हुआ था, किन्तु श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रताप से सारे पशु एक ओर खड़े रहे।
एक-दिन पथे व्याघ्र करियाछे शयन ।। आवेशे तार गाये प्रभुर लागिल चरण ॥
२८ ॥
एक दिन एक बाघ रास्ते में लेटा हुआ था और श्री चैतन्य महाप्रभु भावावेश में रास्ते पर चले जा रहे थे, तो उनका पाँव उस बाघ से छू गया।
प्रभु कहे,—कह 'कृष्ण', व्याघ्र उठिल ।।‘कृष्ण' 'कृष्ण' कहि' व्याघ्र नाचिते लागिल ॥
२९॥
महाप्रभु ने कहा, कृष्ण-नाम का कीर्तन करो! इस पर वह बाघ तुरन्त उठ खड़ा हुआ और कृष्ण! कृष्ण! कहकर नृत्य करने लगा।
आर दिने महाप्रभु करे नदी स्नान ।मत्त-हस्ति-यूथ आइल करिते जल-पाने ॥
३०॥
अन्य दिन जब श्री चैतन्य महाप्रभु नदी में स्नान कर रहे थे, तब मत्त हाथियों का एक झुंड पानी पीने के लिए वहाँ आया।
प्रभु जल-कृत्य करे, आगे हस्ती आइला ।।‘कृष्ण कह' बलि' प्रभु जल फेलि' मारिला ॥
३१॥
जब महाप्रभु स्नान कर रहे थे और गायत्री मन्त्र जप रहे थे, तब वे हाथी उनके सामने आये। महाप्रभु ने तुरन्त उन हाथियों पर पानी उछालकर उनसे कृष्ण-नाम का उच्चारण करने के लिए कहा।
सेइ जल-बिन्दु-कणा लागे ग्रार गाय ।।सेइ 'कृष्ण' 'कृष्ण' कहे, प्रेमे नाचे, गाय ॥
३२॥
जिन हाथियों के शरीर पर महाप्रभु द्वारा उछाला पानी पड़ा, वे कृष्ण! कृष्ण! कहने लगे और प्रेम में नाचने और गाने लगे।
केह भूमे पड़े, केह करये चित्कार।देखि' भट्टाचार्येर मने हय चमत्कार ॥
३३ ॥
कुछ हाथी भूमि पर गिर पड़े और कुछ प्रेमवश चिंघाड़ने लगे। यह देखकर बलभद्र भट्टाचार्य एकदम आश्चर्यचकित हो गया।
पथे ग्राइते करे प्रभु उच्च सङ्कीर्तन ।।मधुर कण्ठ-ध्वनि शुनि' आइसे मृगी-गण ॥
३४॥
कभी-कभी जंगल से गुजरते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु उच्च स्वर से कीर्तन करने लगते। उनकी मधुर वाणी सुनकर सारी हिरणियाँ उनके निकट आ जातीं।
डाहिने-वामे ध्वनि शुनि' ग्राय प्रभु-सङ्गे।। प्रभु तार अङ्ग मुछे, श्लोक पड़े रङ्गे ॥
३५॥
उनका उच्च स्वर सुनकर हिरणियाँ उनके दाएँ-बाएँ चलती जातीं। महाप्रभु उन्हें अत्यन्त उत्सुकता से श्लोक सुनाते हुए उनकी पीठ थपथपाते।
धन्याः स्म मूढ़-मतयोऽपि हरिण्य एता ।ग्रा नन्द-नन्दनमुपात्त-विचित्र-वेशम् ।। आकर्य वेणु-रणितं सह-कृष्ण-साराःपूजां दधुर्विरचितां प्रणयावलोकैः ॥
३६॥
वे मूर्ख हिरण धन्य हैं, क्योंकि वे सुन्दर वेशधारी और बाँसुरी बजा रहे नन्द महाराज के पुत्र के समीप आये। निस्सन्देह, हिरण तथा हिरणियाँ प्रेम की चितवनों से भगवान् की पूजा करते हैं।
हेन-काले व्याघ्र तथा आइल पाँच-सात ।। व्याघ्र-मृगी मिलि' चले महाप्रभुर साथ ॥
३७॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु जंगल से होकर जा रहे थे, तो पाँच-सात बाघ आये और वे हिरणों के साथ मिलकर महाप्रभु के पीछे-पीछे चलने लगे।
देखि' महाप्रभुर 'वृन्दावन'-स्मृति हैल ।। वृन्दावन-गुण-वर्णन श्लोक पड़िल ॥
३८ ॥
बाघों तथा हिरणों को अपने पीछे आते देखकर श्री चैतन्य महाप्रभु को सहसा वृन्दावन का स्मरण हो आया। अतः वे वृन्दावन के दिव्य गुणों का वर्णन करने वाला श्लोक सुनाने लगे।
यत्र नैसर्ग-दुर्वैराः सहासन्नृ-मृगादयः ।। मित्राणीवाजितावास-द्रुत-रुतर्षणादिकम् ॥
३९॥
वृन्दावन भगवान् का दिव्य धाम है। वहाँ न भूख है, न क्रोध, न । ही प्यास है। यद्यपि मनुष्यों तथा हिंसक पशुओं में सहज वैर होता है, किन्तु वे वहाँ दिव्य भाव में मैत्रीपूर्वक रहते हैं।
‘कृष्ण कृष्ण कह' करि' प्रभु ग्रबे बलिल । 'कृष्ण' कहि' व्याघ्र-मृग नाचिते लागिल ॥
४०॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, कृष्ण! कृष्ण!' बोलो तो बाघ तथा हिरन कृष्ण! का नाम लेने लगे और नृत्य करने लगे।
नाचे, कुन्दे व्याघ्र-गण मृगी-गण-सड़े। बलभद्र-भट्टाचार्य देखे अपूर्व-रङ्गे ॥
४१॥
जब सारे बाघ तथा हिरन नाचने और कूदने लगे, तो बलभद्र भट्टाचार्य उन्हें देखकर आश्चर्यचकित रह गया। व्याघ्र-मृग अन्योन्ये करे आलिङ्गन ।मुखे मुख दिया करे अन्योन्ये चुम्बन ॥
४२॥
बाघ तथा हिरन एक-दूसरे का आलिंगन करने लगे और एक-दूसरे का मुख स्पर्श करके चूमने लगे।
कौतुक देखिया प्रभु हासिते लागिला ।ता-सबाके ताहाँ छाड़ि' आगे चलि' गेला ॥
४३॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने यह कौतुक देखा, तो वे मन्दहास करने लगे। अन्त में उन पशुओं को छोड़कर महाप्रभु अपने रास्ते पर चल दिये।
मयूरादि पक्षि-गण प्रभुरे देखियो ।सङ्गे चले, 'कृष्ण' बलि' नाचे मत्त हा ॥
४४॥
मोर इत्यादि पक्षियों ने श्री चैतन्य महाप्रभु को देखा, तो उन्होंने भी कीर्तन करते और नाचते हुए महाप्रभु का पीछा करना शुरू कर दिया। वे मष कृष्ण के पावन नाम से मतवाले हो गये थे।
‘हरि-बोल' बलि' प्रभु करे उच्च-ध्वनि ।वृक्ष-लता प्रफुल्लित, सेइ ध्वनि शुनि, ॥
४५॥
जब महाप्रभु उच्चस्वर से हरिबोल का उच्चारण करते, तो सारे वृक्ष तथा लताएँ उनकी ध्वनि सुनकर प्रफुल्लित हो जातीं।
‘झारिखण्डे' स्थावर-जङ्गम आछे व्रत ।। कृष्ण-नाम दिया कैल प्रेमेते उन्मत्त ॥
४६॥
इस तरह झारखण्ड के वन के सारे चर-अचर जीव महाप्रभु द्वारा ध्वनित कृष्ण का पवित्र नाम सुनकर मतवाले हो रहे थे।
येइ ग्राम दिया ग्नान, ग्राहाँ करेन स्थिति ।। से-सब ग्रामेर लोकेर हय ‘प्रेम-भक्ति' ॥
४७॥
। महाप्रभु जिन-जिन गाँवों से होकर गये और जिन-जिन स्थानों में यात्रा के दौरान रुके, वहाँ के सारे लोग पवित्र हो गये और उनमें भगवत्प्रेम जागृत हो गया।
केह यदि ताँर मुखे शुने कृष्ण-नाम ।। ताँर मुखे आन शुने ताँर मुखे आन ॥
४८॥
सबे 'कृष्ण' ‘हरि' बलि' नाचे, कान्दे, हासे । परम्पराय ‘वैष्णव' हुइल सर्व देशे ॥
४९॥
यदि किसी ने श्री चैतन्य महाप्रभु के मुख से पवित्र नाम का कीर्तन सुना और अन्य किसी ने इस व्यक्ति से यह कीर्तन सुना और पुन: तीसरे व्यक्ति से और किसी ने सुना, तो इस तरह की गुरु-शिष्य परम्परा के माध्यम से सारे देशों के लोग वैष्णव बन गये। इस प्रकार हर व्यक्ति कृष्ण तथा हरि के नाम का कीर्तन करता, नाचता, रोता और हँसता।
यद्यपि प्रभु लोक-सङ्घटेर त्रासे ।।प्रेम 'गुप्त' करेन, बाहिरे ना प्रकाशे ॥
५०॥
महाप्रभु ने हमेशा अपने प्रेमभाव का प्रदर्शन नहीं किया। वे लोगों की भीड़ से भयभीत थे, अतः उन्होंने अपने प्रेम को गुप्त रखा।
तथापि ताँर दर्शन-श्रवण-प्रभावे ।।सकल देशेर लोक हइल ‘वैष्णवे' ॥
५१॥
यद्यपि श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने सहज प्रेमभाव को प्रकट नहीं किया, फिर भी हर व्यक्ति उन्हें देखकर और सुनकर शुद्ध भक्त बन गया।
गौड़, बङ्ग, उत्कल, दक्षिण-देशे गिया । लोकेर निस्तार कैल आपने भ्रमिया ॥
५२॥
इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने बंगाल, पूर्वी बंगाल, उड़ीसा तथा दक्षिणी देशों की यात्रा की और कृष्णभावना का प्रसार करके सभी प्रकार के लोगों का उद्धार किया।
मथुरा ग्राइबार छले आसेन झारिखण्ड ।।भिल्ल-प्राय लोक ताहाँ परम-पाषण्ड ॥
५३॥
जब मथुरा जाते हुए महाप्रभु झारिखण्ड आये, तो उन्होंने देखा कि वहाँ के लोग लगभग असभ्य थे और भगवद्भावना से विहीन थे।
नाम-प्रेम दिया कैल सबार निस्तार ।।चैतन्येर गूढ़-लीला बुझिते शक्ति कार ॥
५४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने इन भीलों को भी पवित्र नाम का कीर्तन करने और दिव्य प्रेम-पद तक ऊपर उठने का अवसर प्रदान किया। इस तरह उन्होंने उन सबका उद्धार किया। भला महाप्रभु की दिव्य लीलाओं को समझ पाने की शक्ति किसमें है? वन देखि' भ्रम हय--एइ 'वृन्दावन' ।।शैल देखि' मने हय——एइ गोवर्धन' ॥
५५॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु झारिखण्ड जंगल से होकर जा रहे थे, तब उन्होंने उसे वृन्दावन ही समझ लिया। जब वे पहाड़ियों से होकर गुजर रहे। थे, तो उन्हें वे गोवर्धन पर्वत समझ बैठे।
याहाँ नदी देखे ताहाँ मानये-'कालिन्दी' ।।महा-प्रेमावेशे नाचे प्रभु पड़े कान्दि' ॥
५६।।। इसी तरह जब भी श्री चैतन्य महाप्रभु कोई नदी देखते, तो वे उसे तुरन्त यमुना नदी मान बैठते। इस तरह जंगल में वे परम प्रेमावेश से पूर्ण हो जाते और नाचते तथा रोते-रोते गिर पड़ते थे।
पथे ग्राइते भट्टाचार्य शाक-मूल-फल ।।ग्राहाँ ग्रेड पायेन ताहाँ लयेन सकल ॥
५७।। मार्ग में बलभद्र भट्टाचार्य सभी तरह के शाक, कन्द तथा फल जहाँ कहीं उपलब्ध होते, एकत्र कर लेते।
ग्रे-ग्रामे रहेन प्रभु, तथाय ब्राह्मण ।।पाँच-सात जन आसि' करे निमन्त्रण ॥
५८॥
जब भी श्री चैतन्य महाप्रभु किसी गाँव में जाते, तो पाँच-सात ब्राह्मण आकर महाप्रभु को निमन्त्रण दे जाते। केह अन्न आनि' देय भट्टाचार्य-स्थाने ।केह दुग्ध, दधि, केह घृत, खण्ड आने ॥
५९॥
कुछ लोग अन्न लाकर बलभद्र भट्टाचार्य को दे जाते। अन्य लोग दूध तथा दही ले आते, तो कोई घी तथा शक्कर ले आता।
ग्राहाँ विप्र नाहि ताहाँ ‘शूद्र-महाजन'। आसि' सबे भट्टाचार्ये करे निमन्त्रण ॥
६०॥
कुछ गाँवों में ब्राह्मण नहीं थे, फिर भी अब्राह्मण कुलों में जन्मे भक्त आते और बलभद्र भट्टाचार्य को आमन्त्रित कर जाते।
भट्टाचार्य पाक करे वन्य-व्यञ्जन ।। वन्य-व्यञ्जने प्रभुर आनन्दित मन ॥
६१॥
बलभद्र भट्टाचार्य जंगल से एकत्र किये गये सभी तरह के साग-- सब्जी को पकाता और श्री चैतन्य महाप्रभु इन व्यंजनों को परम प्रसन्न होकर ग्रहण करते थे।
दुइ-चारि दिनेर अन्न राखेन संहति ।। याहाँ शून्य वन, लोकेर नाहिक वसति ।। ६२ ।। ताहाँ सेइ अन्न भट्टाचार्य करे पाक । फल-मूले व्यञ्जन करे, वन्य नाना शाक ॥
६३ ॥
बलभद्र भट्टाचार्य दो-चार दिन चल सकने के लिए अन्न का संग्रह कर लेता था। निर्जन स्थान पर वह इसी अन्न को पकाता और जंगल से एकत्र किये हुए साग-सब्जी तथा फल-मूल को खाने के लिए तैयार करता।
परम सन्तोष प्रभुर वन्य-भोजने । महा-सुख पान, ग्रे दिन रहेन निर्जने ॥
६४।। महाप्रभु इस जंगली साग-सब्जी को खाकर परम सुखी होते और इससे भी अधिक सुखी तब होते जब वे किसी निर्जन स्थान में ठहरते।
भट्टाचार्य सेवा करे, स्नेहे ग्रैछे 'दास' ।।ताँर विप्र वहे जल-पात्र-बहिर्वास ।। ६५ ।। बलभद्र भट्टाचार्य महाप्रभु से इतना स्नेह करता कि वह दास की तरह सेवा करता रहता। उसका सहायक ब्राह्मण जलपात्र तथा वस्त्र लिये रहता।
निर्झरेते उष्णोदके स्नान तिन--बार ।।दुइ-सन्ध्या अग्नि-ताप काष्ठेर अपार ।। ६६ ॥
महाप्रभु झरने के गरम जल से तीन बार स्नान करते थे। वे प्रात: और सायंकाल प्रचुर लकड़ियों से उत्पन्न अग्नि से अपने आपको गरमाते थे।
निरन्तर प्रेमावेशे निर्जने गमन ।।सुख अनुभवि' प्रभु कहेन वचन ॥
६७ ॥
इस एकान्त जंगल में यात्रा करते हुए और परम सुख का अनुभव करते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु ने ये वचन कहे।
शुन, भट्टाचार्य,–आमि गेलाङ बहु-देश ।।वन-पथे दुःखेर काहाँ नाहि पाइ लेश ॥
६८ ॥
हे भट्टाचार्य, मैंने जंगल से होकर बहुत दूर की यात्रा की है, किन्तु मुझे तनिक भी कष्ट नहीं हुआ है।
कृष्ण कृपालु, आमाय बहुत कृपा कैला ।वन-पथे आनि' आमाय बड़ सुख दिला ॥
६९॥
कृष्ण मुझ पर विशेष कृपालु हैं। उन्होंने जंगल से होकर जाने वाले इस पथ पर लाकर मुझ पर कृपा दिखलाई है। इस तरह उन्होंने मुझे अत्यधिक आनन्द प्रदान किया है।
पूर्वे वृन्दावन ग्राइते करिलाङविचार ।माता, गङ्गा, भक्त-गणे देखिब एक-बार ॥
७० ॥
इसके पूर्व मैंने वृन्दावन जाने और रास्ते में एक बार फिर से अपनी माता, गंगा नदी तथा अन्य भक्तों को देखने का निश्चय किया था।
भक्त-गण-सङ्गे अवश्य करिब मिलन ।भक्त-गणे सङ्गे ला याब 'वृन्दावन' ॥
७१॥
मैंने सोचा था कि एक बार फिर सभी भक्तों को देखूगा और उनसे मिलूंगा तथा उन्हें अपने साथ वृन्दावन ले जाऊँगा।
एत भावि' गौड़-देशे करिलॅ गमन ।।माता, गङ्गा भक्ते देखि' सुखी हैल मन ॥
७२॥
इस तरह मैं बंगाल गया और वहाँ अपनी माता, गंगा नदी तथा भक्तों को देखकर अत्यन्त सुखी हुआ।
भक्त-गणे लञा तबे चलिलाङरङ्गे।।लक्ष-कोटि लोक ताहाँ हैल आमा-सङ्गे ॥
७३॥
किन्तु जब मैं वृन्दावन को चलने लगा, तो हजारों, लाखों लोग एकत्रित हो गये और मेरे साथ चलने लगे।
सनातन-मुखे कृष्ण आमा शिखाइला ।ताहा विघ्न करि' वन-पथे ला आइला ॥
७४॥
इस तरह मैं एक बड़ी भीड़ के साथ वृन्दावन जा रहा था, किन्तु सनातन के मुख से कृष्ण ने मुझे एक शिक्षा दी। इस तरह कुछ अवरोध डालकर उन्होंने मुझे इस जंगल से होकर जाने वाले वृन्दावन के मार्ग पर ला दिया।
कृपार समुद्र, दीन-हीने दयामय ।। कृष्ण-कृपा विना कोन 'सुख' नाहि हय ॥
७५ ॥
कृष्ण कृपा के सागर हैं। वे दीन तथा पतितों पर विशेष रूप से दयालु हैं। उनकी कृपा के बिना सुख की कोई सम्भावना नहीं है।
भट्टाचार्ये आलिङ्गिया ताँहारे कहिल ।। ‘तोमार प्रसादे आमि एत सुख पाइल' ॥
७६ ॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने बलभद्र भट्टाचार्य का आलिंगन किया और उससे कहा, तुम्हारी कृपा से ही मैं अब इतना सुखी हूँ।
तेंहो कहेन,---तुमि 'कृष्ण', तुमि 'दयामय' ।अधम जीव मुञि, मोरे हइला सदय ॥
७७ ॥
बलभद्र भट्टाचार्य ने उत्तर दिया, हे प्रभु, आप साक्षात् कृष्ण हैं, इसीलिए आप इतने दयालु हैं। मैं तो पतित जीव हूँ, किन्तु आपने मुझ पर अतीव कृपा की है।
मुजि छारे, मोरे तुमि सङ्गे ला आइला ।कृपा करि' मोर हाते 'प्रभु' भिक्षा कैली ॥
७८ ॥
हे महोदय, मैं अत्यन्त पतित हैं, फिर भी आप मुझे अपने साथ ले। आये। आपने महती कृपा करके मेरे द्वारा बनाया हुआ भोजन स्वीकार किया है।
अधम-काकेरे कैला गरुड़-समान ।।‘स्वतन्त्र ईश्वर' तुमिस्वयं भगवान् ॥
७९ ॥
यद्यपि मैं अधम कौवे से अधिक अच्छा नहीं हूँ, किन्तु आपने मुझे अपना वाहन गरुड़ बनाया है। आप स्वतन्त्र पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्वर हैंआदि भगवान् हैं।
मूकं करोति वाचालं पङ्गं लङ्घयते गिरिम् ।।ग्रत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द-माधवम् ॥
८० ॥
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् सच्चिदानन्द विग्रह-दिव्य आनन्द, ज्ञान तथा शाश्वतता के मूर्तिमान रूप हैं। मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ, जिनकी कृपा से गूंगा वक्ता बन जाता है और लंगड़ा पर्वत को लाँघ जाता है। ऐसी है भगवान् की कृपा।
एइ-मत बलभद्र करेन स्तवन ।।प्रेम-सेवा करि' तुष्ट कैल प्रभुर मन ॥
८१॥
इस तरह बलभद्र भट्टाचार्य ने महाप्रभु की स्तुति की। उसने प्रेममयी सेवा करके महाप्रभु के मन को तुष्ट किया।
एइ-मत नाना-सुखे प्रभु आइला 'काशी' । मध्याह्न-स्नान कैल मणिकर्णिकाय आसि' ॥
८२॥
अन्त में महाप्रभु प्रसन्न मन से काशी नामक तीर्थस्थान में आ पहुँचे। वहाँ उन्होंने मणिकर्णिका नामक घाट में स्नान किया।
सेइ-काले तपन-मिश्र करे गङ्गा-स्नान ।।प्रभु देखि' हैल ताँर किछु विस्मय ज्ञान ॥
८३॥
उस समय तपन मिश्र गंगा में स्नान कर रहे थे। वे महाप्रभु को वहाँ देखकर विस्मित हुए।
‘पूर्वे शुनियाछि प्रभु कय़छेन सन्यास' ।निश्चय करिया हैल हृदये उल्लास ॥
८४॥
तब तपन मिश्र सोचने लगे, मैंने सुना है कि श्री चैतन्य महाप्रभु ने संन्यास ग्रहण कर लिया है। यह सोचकर तपन मिश्र मन ही मन अत्यन्त प्रफुल्लित हुए।
प्रभुर चरण धरि' करेन रोदन ।।प्रभु तारे उठाजा कैल आलिङ्गन ॥
८५॥
फिर उन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमल पकड़ लिये और रुदन करने लगे। महाप्रभु ने उन्हें उठाकर उनका आलिंगन किया।
प्रभु ला गेला विश्वेश्वर-दरशने ।तबे आसि' देखे बिन्दु-माधव-चरणे ॥
८६॥
तब तपन मिश्र श्री चैतन्य महाप्रभु को विश्वेश्वर मन्दिर में दर्शन करने ले गये। वहाँ से आते हुए दोनों ने बिन्दु माधव के चरणकमलों का दर्शन किया।
घरे लजा आइला प्रभुके आनन्दित हा ।सेवा करि' नृत्य करे वस्त्र उड़ाना ॥
८७॥
तपन मिश्र खुशी-खुशी श्री चैतन्य महाप्रभु को अपने घर ले आये और उनकी सेवा करने लगे। वे अपने वस्त्र लहराकर नृत्य करने लगे।
प्रभुर चरणोदक सवंशे कैल पान ।।भट्टाचार पूजा कैल करिया सम्मान ॥
८८ ॥
उन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों को धोया और बाद में उस चरणोदक को उन्होंने स्वयं तथा पूरे परिवार ने पिया। उन्होंने बलभद्र । भट्टाचार्य की भी पूजा की और सम्मान किया।
प्रभुरे निमन्त्रण करि' घरे भिक्षा दिल ।बलभद्र-भट्टाचार्ये पाक कराइल ॥
८९॥
तपन मिश्र ने श्री चैतन्य महाप्रभु को अपने घर में भोजन करने के लिए आमन्त्रित किया और बलभद्र भट्टाचार्य को भोजन बनाने का काम सौंप दिया।
भिक्षा करि' महाप्रभु करिला शयन ।।मिश्र-पुत्र रघु करे पाद-सम्वाहन ॥
९०॥
भोजन के बाद जब श्री चैतन्य महाप्रभु विश्राम करने लगे, तब तपन मिश्र के पुत्र रघु ने उनके पाँव दबाये।
प्रभुर 'शेषान्न' मिश्र सवंशे खाइले ।‘प्रभु आइला' शुनि' चन्द्रशेखर आइल ॥
९१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा छोड़े गये भोजन को तपन मिश्र के सारे परिवार ने ग्रहण किया। जब महाप्रभु के आने का समाचार फैल गया, तो चन्द्रशेखर भी उन्हें मिलने आये।
मिश्रेर सखा तेहो प्रभुर पूर्व दास ।। वैद्य-जाति, लिखन-वृत्ति, वाराणसी-वास ॥
९२॥
चन्द्रशेखर तपन मिश्र के मित्र थे और श्री चैतन्य महाप्रभु अपने दास के रूप में उन्हें बहुत पहले से जानते थे। वे जाति के वैद्य थे, किन्तु मुनीम का पेशा करते थे। उस समय वे वाराणसी में रह रहे थे।
आसि' प्रभु-पदे पड़ि' करेन रोदन ।।प्रभु उठि' ताँरै कृपाय कैल आलिङ्गन ॥
९३॥
चन्द्रशेखर वहाँ आकर श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों पर गिरकर रोने लगे। महाप्रभु ने खड़े होकर अपनी अहैतुकी कृपावश उनका आलिंगन किया।
चन्द्रशेखर कहे,“प्रभु, बड़ कृपा कैला ।आपने आसिया भृत्ये दरशन दिला ॥
९४॥
चन्द्रशेखर ने कहा, हे प्रभु, आपने मुझ पर अपनी अहैतुकी कृपा प्रदर्शित की है, क्योंकि मैं आपका पुराना सेवक हूँ। निस्सन्देह, आप मुझे दर्शन देने के लिए यहाँ पधारे हैं।
आपन-प्रारब्धे वसि' वाराणसी-स्थाने ।‘माया', 'ब्रह्म' शब्द विना नाहि शुनि काणे ॥
९५ ॥
मैं अपने विगत कर्मों के कारण वाराणसी में रह रहा हूँ, किन्तु यहाँ पर मैं 'माया' तथा 'ब्रह्म' शब्दों के अतिरिक्त और कुछ नहीं सुनता।
घडू-दर्शन-व्याख्या विना कथा नाहि एथा ।। मिश्र कृपा करि' मोरे शुनान कृष्ण-कथा ॥
९६ ॥
चन्द्रशेखर ने आगे कहा, वाराणसी में छः दर्शनों की व्याख्या के अतिरिक्त कोई दूसरी बात नहीं होती। इतने पर भी तपन मिश्र मुझ पर बहुत कृपालु हैं, क्योंकि वे कृष्ण सम्बन्धी कथाएँ सुनाते हैं।
निरन्तर बँहे चिन्ति तोमार चरण ।। ‘सर्वज्ञ ईश्वर' तुमि दिला दरशन ॥
९७॥
हे प्रभु, हम दोनों निरन्तर आपके चरणकमलों का चिन्तन करते हैं। यद्यपि आप सर्वज्ञ पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान् हैं, तथापि आपने हमें अपना दर्शन दिया है।
शुनि, ‘महाप्रभु' ग्राबेन श्री-वृन्दावने ।। दिन कत रहि' तार' भृत्य दुइ-जने ॥
९८॥
हे प्रभु, मैंने सुना है कि आप वृन्दावन जा रहे हैं। कृपया वाराणसी में कुछ दिन रहकर आप हमारा उद्धार कर दें, क्योंकि हम दोनों आपके सेवक हैं।
मिश्र कहे,'प्रभु, यावत्काशीते रहिबा ।। मोर निमन्त्रण विना अन्य ना मानिबा' ॥
९९ ॥
तब तपन मिश्र ने कहा, हे प्रभु, आप जब तक वारणसी में रहें, आप कृपया मेरे अतिरिक्त अन्य किसी का निमन्त्रण स्वीकार न करें।
एइ-मत महाप्रभु दुइ भृत्येर वशे । इच्छा नाहि, तबु तथा रहिला दिन-दशे ॥
१००॥
अपने इन दो सेवकों की प्रार्थनाओं से वश होकर महाप्रभु वाराणसी में दस दिनों तक रहे, यद्यपि उनकी कोई ऐसी योजना नहीं थी।
महाराष्ट्रीय विप्र आइसे प्रभु देखिबारे ।।प्रभुर रूप-प्रेम देखि' हय चमत्कारे ॥
१०१॥
वाराणसी में महाराष्ट्र का रहने वाला एक ब्राह्मण था, जो नित्य ही श्री चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करने आता था। वह ब्राह्मण महाप्रभु के । सौन्दर्य तथा कृष्ण-प्रेम को देखकर अतीव चकित था।
विप्र सब निमन्त्रय, प्रभु नाहि माने ।।प्रभु कहे,–'आजि मोर हाछे निमन्त्रणे' ॥
१०२॥
जब वाराणसी के ब्राह्मण महाप्रभु को भोजन पर निमन्त्रित करते, तो वे उनका निमन्त्रण स्वीकार नहीं करते थे। वे यह उत्तर देते, मैं पहले से अन्यत्र निमन्त्रित हूँ।
एइ-मत प्रति-दिन करेन वञ्चन ।।सन्यासीर सङ्ग-भये ना मानेन निमन्त्रण ॥
१०३ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु प्रतिदिन लोगों के निमन्त्रण अस्वीकार करते रहते थे, क्योंकि वे मायावादी संन्यासियों की संगति से डरते थे।
प्रकाशानन्द श्रीपाद सभाते वसिया ।। ‘वेदान्त' पड़ान बहु शिष्य-गण ला ॥
१०४॥
वहाँ प्रकाशानन्द सरस्वती नामक एक महान् मायावादी संन्यासी थे, जो अपने अनुयायियों की एक बहुत बड़ी सभा को वेदान्त-दर्शन पढ़ाया करते थे।
एक विप्र देखि' आइला प्रभुर व्यवहार ।। प्रकाशानन्द-आगे कहे चरित्र ताँहार ॥
१०५॥
एक ब्राह्मण जिसने श्री चैतन्य महाप्रभु के विचित्र व्यवहार को देखा था, वह प्रकाशानन्द सरस्वती के पास आया और उसने महाप्रभु के गुणों का बखान किया।
एक सन्यासी आइला जगन्नाथ हैते । ताँहार महिमा-प्रताप ना पारि वर्णिते ।। १०६॥
उस ब्राह्मण ने प्रकाशानन्द सरस्वती से कहा, जगन्नाथ पुरी से एक मंन्यासी आया है, जिसके अद्भुत प्रभाव तथा यश का वर्णन करने में मैं असमर्थ हूँ।
सकल देखिये ताँते अद्भुत-कथन ।।प्रकाण्ड-शरीर, शुद्ध-काञ्चन-वरण ॥
१०७॥
उस संन्यासी की हर वस्तु निराली है। उसका शरीर सुगठित तथा अत्यलंकृत है और उसका रंग विशुद्ध सोने के समान है।
आजानु-लम्बित भुज, कमल-नयन ।ग्रत किछु ईश्वरेर सर्व सल्लक्षण ॥
१०८॥
उसकी भुजाएँ घुटने तक लम्बी हैं और उसकी आँखें कमल की पंखुड़ियों जैसी हैं। उसके शरीर में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के सारे लक्षण है।
ताहा देखि' ज्ञान हय–‘एइ नारायण ।। येइ ताँरै देखे, करे कृष्ण-सङ्कीर्तन ॥
१०९॥
जो भी उसके ये लक्षण देखता है, वह उसे साक्षात् नारायण मानने लगता है। जो भी उसे देखता है, वह तुरन्त कृष्ण-नाम का कीर्तन करने लगता है।
महा-भागवत'-लक्षण शुनि भागवते । से-सब लक्षण प्रकट देखिये ताँहाते ॥
११०॥
हमने श्रीमद्भागवत में महाभागवत के जो-जो लक्षण सुने हैं, वे सभी लक्षण श्री चैतन्य महाप्रभु के शरीर में प्रकट हैं।
‘निरन्तर कृष्ण-नाम' जिह्वा ताँर गाय ।दुइ-नेत्रे अश्रु वहे गङ्गा-धारा-प्राय ॥
१११॥
उसकी जीभ निरन्तर कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करती है और उसकी आँखों से आँसू गंगा की धारा की तरह निरन्तर बहते रहते हैं।
क्षणे नाचे, हासे, गाय, करये क्रन्दन ।।क्षणे हुहुङ्कार करे,—सिंहेर गर्जन ॥
११२॥
कभी वह नाचता है, हँसता है, गाता है, रोता है और कभी सिंह की तरह गर्जना करता है।
जगत्मङ्गल ताँर ‘कृष्ण-चैतन्य'-नाम ।।नाम, रूप, गुण ताँर, सब–अनुपम ॥
११३॥
उसका नाम कृष्ण चैतन्य है, जो सारे जगत् के लिए शुभ है। उसका । सब कुछ-नाम, रूप तथा गुण सभी अद्वितीय हैं।
देखिले से जानि ताँर 'ईश्वरेर रीति' ।अलौकिक कथा शुनि' के करे प्रतीति? ॥
११४॥
उसे देखने से ही जान पड़ता है कि उसमें पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के सारे गुण विद्यमान हैं। ऐसे गुण निश्चित रूप से असामान्य हैं। भला इन पर कौन विश्वास करेगा? शुनिया प्रकाशानन्द बहुत हासिला ।।विप्रे उपहास करि' कहते लागिला ॥
११५॥
यह विवरण सुनकर प्रकाशानन्द सरस्वती खूब हँसे। उस ब्राह्मण का उपहास करते हुए वे इस तरह बोले।
शुनियाछि गौड़-देशेर सन्यासी-'भावुक' ।केशव-भारती-शिष्य, लोक-प्रतारक ॥
११६॥
प्रकाशानन्द सरस्वती ने कहा, हाँ, मैंने भी उसके विषय में सुना है। वह बंगाल से आया हुआ संन्यासी है और अत्यन्त भावुक है। मैंने यह भी सुना है कि वह भारती सम्प्रदाय का है, क्योंकि वह केशव भारती का शष्य है। किन्तु वह केवल ढोंगी है।
‘चैतन्य'-नाम ताँर, भावुक-गण ला ।। देशे देशे ग्रामे ग्रामे बुले नाचा ॥
११७॥
प्रकाशानन्द सरस्वती ने आगे कहा: मैं जानता हूँ कि उसका नाम चैतन्य है और उसके साथ अनेक भावुक लोग रहते हैं। उसके अनुयायी उसके साथ नाचते हैं और एक देश से दूसरे देश तथा एक गाँव से दूसरे गाँव में जाते रहते हैं।
ग्रेड ताँरै देखे, सेइ ईश्वर करि' कहे ।। ऐछे मोहन-विद्या ये देखे से मोहे ॥
११८॥
जो भी उसे देखता है, वह उसे पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान् के रूप में स्वीकार कर लेता है। चूंकि वह अपनी योगशक्ति से लोगों को सम्मोहित करता है, अतः जो भी उसे देखता है, वह मोहित हो जाता है।
सार्वभौम भट्टाचार्य-पण्डित प्रबल । शुनि' चैतन्येर सङ्गे हइल पागल ॥
११९॥
सार्वभौम भट्टाचार्य बहुत बड़े विद्वान थे, किन्तु मैंने सुना है कि वे भी इस चैतन्य की संगति से पागल हो गये हैं।
‘सन्यासी' नाम-मात्र, महा-इन्द्रजाली! ।। “काशीपुरे' ना विकाबे ताँर भावकालि ॥
१२०॥
यह चैतन्य केवल नाम का संन्यासी है। वास्तव में यह एक बहुत बड़ा जादूगर है। जो भी हो, काशी में उसकी भावुकता की माँग अधिक नहीं होगी।
वेदान्त' श्रवण कर, ना ग्राइह ताँर पाश । उच्छृङ्खल-लोक-सङ्गे दुइ-लोक-नाश ॥
१२१॥
तुम चैतन्य को मिलने मत जाना। तुम वेदान्त सुनते रहो। यदि तुम ऐसे उच्छृखल लोगों का संग करोगे, तो तुम्हारा यह लोक तथा परलोक दोनों नष्ट हो जायेंगे।
एत शुनि' सेइ विप्र महा-दुःख पाइला ।। 'कृष्ण' 'कृष्ण' कहि' तथा हैते उठि' गेला ॥
१२२॥
जब उस ब्राह्मण ने प्रकाशानन्द सरस्वती को श्री चैतन्य महाप्रभु के विषय में इस तरह कहते सुना, तो वह अत्यन्त दुःखी हुआ। वह कृष्ण कृष्ण कहता हुआ वहाँ से तुरन्त चला गया।
प्रभुर दरशने शुद्ध हजाछे ताँर मन ।। प्रभु-आगे दुःखी हञा कहे विवरण ॥
१२३॥
उस ब्राह्मण ने कहा, ज्योंही मैंने उसके सामने आपके नाम का उच्चारण किया, त्योंही उसने इस बात की पुष्टि की कि वह आपके नाम को जानता है।
शुनि' महाप्रभु तबे ईषत् हासिला ।। पुनरपि सेइ विप्र प्रभुरे पुछिला ॥
१२४॥
यह सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु थोड़ा मुस्कुराये। तब वह ब्राह्मण महाप्रभु से पुनः बोला।
तार आगे धबे आमि तोमार नाम लइल ।। सेह तोमार नाम जाने,—आपने कहिले ।। १२५ ॥
उस ब्राह्मण का चित्त भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करने के कारण पहले से शुद्ध हो चुका था। अतः वह श्री चैतन्य महाप्रभु के पास गया और प्रकाशानन्द सरस्वती के सामने जो कुछ हुआ था, उन्हें कह सुनाया।
तोमार ‘दोष' कहिते करे नामेर उच्चार ।। 'चैतन्य' 'चैतन्य' करि' कहे तिन-बार ।। १२६।। आपके दोषों को गिनाते हुए उसने तीन बार 'चैतन्य' ‘चैतन्य' ‘चैतन्य' उच्चारण करके आपके नाम का उच्चारण किया।
तिन-बारे ‘कृष्ण-नाम' ना आइल तार मुखे ।।‘अवज्ञा'ते नाम लय, शुनि' पाइ दुःखे ॥
१२७॥
यद्यपि उसने आपका नाम तीन बार लिया, किन्तु 'कृष्ण' का नाम एक बार भी नहीं लिया। चूंकि उसने तिरस्कार करके आपका नाम लिया, अतएव मुझे बहुत दुःख हुआ।
इहार कारण मोरे कह कृपा करि' । तोमा देखि' मुख मोर बले 'कृष्ण' हरि ॥
१२८॥
आखिर प्रकाशानन्द ने 'कृष्ण' तथा 'हरि' के नाम क्यों नहीं लिए? उसने 'चैतन्य' नाम का तीन बार उच्चारण किया। मैं तो आपको देखकर ही 'कृष्ण' तथा 'हरि' नामों का उच्चारण करने के लिए प्रेरित हो जाता हैं।
प्रभु कहे,_मायावादी कृष्णे अपराधी ।। ‘ब्रह्म', 'आत्मा,' 'चैतन्य' कहे निरवधि ॥
१२९ ।। श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, मायावादी निर्विशेषवादी लोग भगवान् कृष्ण के सबसे बड़े अपराधी हैं। इसीलिए वे मात्र ‘ब्रह्म, ‘आत्मा' तथा 'चैतन्य' शब्दों का उच्चारण करते हैं।
अतएव तार मुखे ना आइसे कृष्ण-नाम ।। ‘कृष्ण-नाम', 'कृष्ण-स्वरूप'–दुइत 'समान' ॥
१३०॥
कृष्ण' को पवित्र नाम उनके मुखों पर नहीं आता, क्योंकि वे भगवान् कृष्ण, जो अपने नाम से अभिन्न हैं, उनके प्रति अपराधी हैं।
'नाम', 'विग्रह', 'स्वरूप'––तिन एक-रूप । तिने 'भेद' नाहि,तिन 'चिदानन्द-रूप' ॥
१३१॥
भगवान् का पवित्र नाम, उनका विग्रह और उनका स्वरूप-ये तीनों एक हैं। इनमें कोई अन्तर नहीं है। चूंकि ये सभी परम पूर्ण हैं, अतः ये चिदानन्द स्वरूप अर्थात् दिव्य रूप से आनन्दमय हैं।
देह-देहीर, नाम-नामीर कृष्णे नाहि भेद' ।। जीवेर धर्म–नाम-देह-स्वरूपे 'विभेद' ॥
१३२॥
कृष्ण के शरीर तथा स्वयं कृष्ण में या उनके नाम तथा स्वयं उनमें कोई अन्तर नहीं है। किन्तु जहाँ तक बद्धजीव का सवाल है, उसका नाम उसके शरीर से, उसके मूल स्वरूप आदि से भिन्न होता है।
नाम चिन्तामणिः कृष्णश्चैतन्य-रस-विग्रहः । पूर्णः शुद्धो नित्य-मुक्तोऽभिन्नत्वान्नाम-नामिनोः ॥
१३३॥
कृष्ण का पवित्र नाम दिव्य रूप से आनन्दमय है। यह सभी प्रकार के आध्यात्मिक वर देने वाला है, क्योंकि यह समस्त आनन्द के आगार, स्वयं कृष्ण है। कृष्ण का नाम पूर्ण है और यह सभी दिव्य रसों का स्वरूप है। यह किसी भी स्थिति में भौतिक नाम नहीं है और यह स्वयं कृष्ण से किसी तरह कम शक्तिशाली नहीं है। चूंकि कृष्ण का नाम भौतिक गुणों से कलुषित नहीं होता, अतएव इसका माया में लिप्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता। कृष्ण का नाम सदैव मुक्त तथा आध्यात्मिक है, यह कभी भी भौतिक प्रकृति के नियमों द्वारा बद्ध नहीं होता। ऐसा इसीलिए है, क्योंकि कृष्ण-नाम तथा स्वयं कृष्ण अभिन्न हैं।
अतएव कृष्णेर 'नाम', 'देह', ‘विलास' ।।प्राकृतेन्द्रिय-ग्राह्य नहे, हय स्व-प्रकाश ॥
१३४॥
भगवान् कृष्ण का पवित्र नाम, उनका शरीर तथा उनकी लीलाएँ इन कुंठित भौतिक इन्द्रियों द्वारा नहीं जाने जा सकते। वे स्वतन्त्र रूप से प्रकट होते हैं।
कृष्ण-नाम, कृष्ण-गुण, कृष्ण-लीला-वृन्द । कृष्णेर स्वरूप-सम-सब चिदानन्द ॥
१३५॥
कृष्ण का पवित्र नाम, उनके दिव्य गुण तथा उनकी दिव्य लीलाएँ स्वयं भगवान् कृष्ण के समान हैं। वे सभी आध्यात्मिक तथा आनन्दमय हैं।
अत: श्रीकृष्ण-नामादि न भवेद्ग्राह्यमिन्द्रियैः ।। सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ स्वयमेव स्फुरत्यदः ॥
१३६ ।। इसलिए भौतिक इन्द्रियाँ कृष्ण के नाम, रूप, गुण तथा लीलाओं को समझ नहीं पातीं। जब बद्धजीवों में कृष्णभावना जाग्रत होती है और वह अपनी जीभ से भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन करता है तथा भगवान् के शेष बचे भोजन का आस्वादन करता है, तब उसकी जीभ शुद्ध हो जाती है और वह क्रमशः समझने लगता है कि कृष्ण कौन हैं।
ब्रह्मानन्द हैते पूर्णानन्द लीला-रस ।।ब्रह्म-ज्ञानी आकर्षिया करे आत्म-वश ॥
१३७॥
भगवान् कृष्ण की लीलाओं के रस आनन्द से पूर्ण हैं। वे ज्ञानी को ब्रह्म-साक्षात्कार के आनन्द से आकर्षित कर उसे जीत लेते हैं।
स्व-सुख-निभृत-चेतास्तद्व्युदस्तान्य-भावोऽप्यजित-रुचिर-लीलाकृष्ट-सारस्तदीयम् । व्यतनुत कृपया यस्तत्त्व-दीपं पुराणंतमखिल-वृजिन-घ्नं व्यास-सूनुं नतोऽस्मि ॥
१३८॥
मैं अपने गुरु व्यास-पुत्र शुकदेव गोस्वामी को सादर नमस्कार करता हूँ। वे ही इस ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत सारी अशुभ वस्तुओं को परास्त करते हैं। यद्यपि वे प्रारम्भ में ब्रह्म-साक्षात्कार के सुख में निमग्न थे और अन्य समस्त प्रकार की चेतना का परित्याग करके एकान्त वास कर रहे थे, किन्तु वे श्रीकृष्ण की अत्यन्त रागमयी लीलाओं के प्रति आकृष्ट हो गये। अतएव उन्होंने कृपापूर्वक श्रीमद्भागवत नामक सर्वोच्च पुराण का प्रवचन किया, जो परम सत्य का उज्ज्वल प्रकाश है और जो भगवान् कृष्ण की लीलाओं का वर्णन करता है।'
ब्रह्मानन्द हैते पूर्णानन्द कृष्ण-गुण ।।अतएव आकर्षये आत्मारामेर मन ॥
१३९॥
श्रीकृष्ण के दिव्य गुण पूर्णतया आनन्दमय तथा आस्वाद्य हैं। फलस्वरूप भगवान् कृष्ण के गुण आत्म-साक्षात्कार प्राप्त व्यक्तियों के मन को भी आत्म-साक्षात्कार के आनन्द से आकर्षित कर लेते हैं।
आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे ।।कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूत-गुणो हरिः ॥
१४०॥
जो आत्माराम अर्थात् स्वयं-सन्तुष्ट हैं और बाहरी भौतिक इच्छाओं से आकृष्ट नहीं होते, वे भी श्रीकृष्ण की प्रेमाभक्ति के प्रति आकर्षित होते हैं, जिनके गुण दिव्य हैं और कार्यकलाप अद्भुत हैं। भगवान् हरि कृष्ण कहलाते हैं, क्योंकि उनका स्वरूप अत्यन्त दिव्य और आकर्षक है।'
एइ सब रहु—कृष्ण-चरण-सम्बन्धे । आत्मारामेर मन हरे तुलसीर गन्धे ॥
१४१॥
भगवान् कृष्ण की लीलाओं के अतिरिक्त, जब उनके चरणकमलों पर तुलसी-दल चढ़ाया जाता है, तब उसकी सुगन्ध से आत्म-साक्षात्कार प्राप्त व्यक्तियों ( आत्माराम) के भी मन आकृष्ट हो जाते हैं।
तस्यारविन्द-नयनस्य पदारविन्द ।। किञ्जल्क-मिश्र-तुलसी-मकरन्द-वायुः ।। अन्तर्गतः स्व-विवरेण चकार तेषां ।सक्षोभमक्षर-जुषामपि चित्त-तन्वोः ॥
१४२॥
जब भगवान् के चरणकमलों से तुलसी तथा केशर की सुगन्ध ले जाने वाली वायु ने उन मुनियों ( कुमारों) की नासिकाओं से होकर हृदय में प्रवेश किया, तो निर्विशेष ब्रह्म में आसक्त रहते हुए भी उन्होंने अपने तन तथा मन में परिवर्तन का अनुभव किया।'
अतएव कृष्ण-नाम' ना आइसे तार मुखे ।। मायावादि-गण य़ाते महा बहिर्मुखे ॥
१४३॥
चूंकि मायावादी महान् अपराधी तथा नास्तिक हैं, इसीलिए कृष्ण का पवित्र नाम उनके मुखों से नहीं निकलता।
भावकालि वेचिते आमि आइलाङकाशीपुरे ।। ग्राहक नाहि, ना विकाय, लञा याब घरे ॥
१४४॥
मैं इस काशी नगरी में अपने प्रेम-भावों को बेचने आया हूँ, किन्तु मझे कोई ग्राहक नहीं मिल पा रहा है। यदि वे नहीं बिक सकते तो उन्हें में घर वापस लेता जाऊँगा।
भारी बोझा ला आइलाङ, केमने ला ग्राब? । अल्प-स्वल्प-मूल्य पाइले, एथाइ वेचिब ॥
१४५ ॥
मैं इस शहर में बेचने के लिए भारी बोझ लेकर आया हूँ। इसे फिर वापस ले जाना कठिन कार्य है, अतः यदि मुझे असली मूल्य का कुछ अंश भी मिल सका, तो मैं इस काशी नगरी में इसे बेच दूंगा।
एत बलि' सेइ विप्रे आत्मसाथ करि' ।।प्राते उठि मथुरा चलिला गौरहरि ॥
१४६॥
यह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने उस ब्राह्मण को अपने भक्त के रूप में स्वीकार कर लिया। अगले दिन वे जल्दी उठकर मथुरा के लिए चल पड़े।
सेइ तिन सङ्गे चले, प्रभु निषेधिल ।।दूर हैते तिन-जने घरे पाठाइल ॥
१४७॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु मथुरा के लिए चल पड़े, तो तीनों भक्त उनके साथ चलने लगे। किन्तु महाप्रभु ने दूर से ही उन्हें साथ चलने से मना किया और उन्हें घर लौट जाने के लिए आदेश दिया।
प्रभुर विरहे तिने एकत्र मिलिया ।। प्रभु-गुण गान करे प्रेमे मत्त हा ॥
१४८॥
महाप्रभु के विरह में तीनों जन एकत्र होकर उनके पवित्र गुणों का महिमागान करते और इस तरह प्रेमभाव में निमग्न रहते।
‘प्रयागे' आसिया प्रभु कैल वेणी-स्नान ।। ‘माधव' देखिया प्रेमे कैल नृत्य-गान ॥
१४९॥
इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु प्रयाग गये जहाँ उन्होंने गंगा और यमुना नदी के संगम में स्नान किया। फिर वे वेणी माधव के मन्दिर गये और वहाँ प्रेमावेश में उन्होंने कीर्तन और नृत्य किया।
यमुना देखिया प्रेमे पड़े झाँप दिया । आस्ते-व्यस्ते भट्टाचार्य उठाय धरिया ॥
१५०॥
ज्योंही श्री चैतन्य महाप्रभु ने यमुना नदी देखी, वे उसमें कूद पड़े। बलभद्र भट्टाचार्य ने शीघ्र ही उन्हें पकड़ लिया और सावधानी से ऊपर वीध लिया।
एइ-मत तिन-दिन प्रयागे रहिला ।।कृष्ण-नाम-प्रेम दिया लोक निस्तारिला ॥
१५१॥
महाप्रभु प्रयाग में तीन दिन रहे। उन्होंने कृष्ण का पवित्र नाम तथा प्रेम प्रदान किया। इस तरह उन्होंने अनेक लोगों का उद्धार किया।
‘मथुरा' चलिते पथे ग्रथा रहि' ग्राय ।।कृष्ण-नाम-प्रेम दिया लोकेरे नाचाय ॥
१५२॥
मथुरा जाते हुए जहाँ भी महाप्रभु रुकते, वे कृष्ण-नाम तथा कृष्णप्रेम प्रदान करते। इस तरह वे लोगों को नचाते।
पूर्वे ब्रेन ‘दक्षिण' ग्राइते लोक निस्तारिला ।।‘पश्चिम'-देशे तैछे सब 'वैष्णव' करिला ॥
१५३॥
जब उन्होंने दक्षिण भारत का भ्रमण किया था, तब उन्होंने अनेक लोगों का उद्धार किया था और जब वे पश्चिमी प्रदेश में गये, तब उन्होंने उसी तरह से अनेक लोगों को वैष्णव बनाया।
पथे ग्राहाँ ग्राहाँ हय ग्रमुना-दर्शन ।ताहाँ झाँप दिया पड़े प्रेमे अचेतन ॥
१५४॥
मथुरा जाते हुए महाप्रभु को कई बार यमुना नदी मिली और वे यमुना नदी को देखते ही उसमें तुरन्त कूद पड़ते तथा जल के भीतर कृष्ण-प्रेम में अचेत हो जाते।
मथुरा-निकटे आइला–मथुरा देखियो ।दण्डवत् हा पड़े प्रेमाविष्ट हा ॥
१५५ ॥
जब मथुरा के निकट पहुँचकर उन्होंने शहर देखा, तो उन्होंने भूमि पर गिरकर अत्यन्त प्रेमाविष्ट होकर दण्डवत् प्रणाम किया।
मथुरा आसिया कैला 'विश्रान्ति-तीर्थे' स्नान ।। ‘जन्म-स्थाने' ‘केशव' देखि करिला प्रणाम ।। १५६ ॥
मथुरा नगरी में प्रवेश करने पर श्री चैतन्य महाप्रभु ने विश्राम घाट में स्नान किया। फिर वे कृष्ण की जन्मभूमि का दर्शन करने गये और उन्होंने केशवजी का दर्शन किया। महाप्रभु ने उन्हें सादर नमस्कार किया।
प्रेमानन्दे नाचे, गाय, सघन हुङ्कार ।।प्रभुर प्रेमावेश देखि' लोके चमत्कार ॥
१५७॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु नाचने, गाने तथा जोर-जोर से हुंकार भरने लगे, तो सारे लोग उनके प्रेमावेश को देखकर चकित रह गये।
एक-विप्र पड़े प्रभुर चरण धरिया ।प्रभु-सङ्गे नृत्य करे प्रेमाविष्ट हञा ॥
१५८॥
एक ब्राह्मण आकर महाप्रभु के चरणकमलों पर गिर पड़ा और फिर प्रेमाविष्ट होकर उनके साथ साथ नृत्य करने लगा।
मुँहे प्रेमे नृत्य करि' करे कोलाकुलि ।।हरि कृष्ण कह देंहे बले बाहु तुलि' ॥
१५९॥
वे दोनों भावाविष्ट होकर नाचने तथा एक-दूसरे को आलिंगन करने लगे। वे हाथ उठाकर कहने लगे, हरि तथा कृष्ण के नामों का कीर्तन करो! लोक ‘हरि' ‘हरि' बले, कोलाहल हैल ।। ‘केशव'-सेवक प्रभुके माला पराइल ॥
१६०॥
तब सारे लोग हरि! हरि! उच्चारण करने लगे और वहाँ बहुत कोलाहल होने लगा। भगवान् केशव की सेवा में लगे पुजारी ने महाप्रभु को लाकर एक माला भेंट की।
लोके कहे प्रभु देखि' हा विस्मय ।।ऐछे हेन प्रेम ‘लौकिक' कभु नय ॥
१६१॥
जब लोगों ने श्री चैतन्य महाप्रभु को नृत्य करते तथा कीर्तन करते देखा, तो वे आश्चर्यचकित रह गये और सबने कहा, ऐसा दिव्य प्रेम होना कोई सामान्य बात नहीं है।
ग्राँहार दर्शने लोके प्रेमे मत्त हुआ। हासे, कान्दे, नाचे, गाय, कृष्ण-नाम लञा ॥
१६२॥
लोगों ने कहा, श्री चैतन्य महाप्रभु के दर्शन मात्र से हर व्यक्ति कृष्ण-प्रेम में मतवाला हो रहा है। हर कोई हँस रहा है, रो रहा है, नाच रहा है, कीर्तन कर रहा है और कृष्ण का पवित्र नाम ले रहा है।
सर्वथा-निश्चित-इँहो कृष्ण-अवतार ।मथुरा आइला लोकेर करिते निस्तार ॥
१६३॥
निश्चय ही श्री चैतन्य महाप्रभु सभी तरह से भगवान् कृष्ण के अवतार हैं। अब वे हर एक का उद्धार करने मथुरा आये हैं।
तबे महाप्रभु सेइ ब्राह्मणे ला ।।ताँहारे पुछिला किछु निभृते वसिया ॥
१६४॥
इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु उस ब्राह्मण को एक ओर ले गये। फिर एकान्त स्थान में बैठकर उससे पूछने लगे।
'आर्य, सरल, तुमि-वृद्ध ब्राह्मण ।।काहाँ हैते पाइले तुमि एइ प्रेम-धन?' ॥
१६५॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, आप वृद्ध ब्राह्मण हैं, निष्ठावान हैं तथा आध्यात्मिक जीवन में उन्नत हैं। आपको भावमय कृष्ण-प्रेम का यह दिव्य वैभव कहाँ से मिला? विप्र कहे,–'श्रीपाद श्री-माधवेन्द्र-पुरी ।।भ्रमिते भ्रमिते आइला मथुरा-नगरी ॥
१६६ ।। उस ब्राह्मण ने कहा, श्रीपाद माधवेन्द्र पुरी अपने भ्रमण के समय मथुरा नगरी में आये थे।
कृपा करि' तेंहो मोर निलये आइला । मोरे शिष्य करि' मोर हाते ‘भिक्षा' कैला ॥
१६७ ॥
मथुरा में रहते हुए श्रीपाद माधवेन्द्र पुरी मेरे घर पधारे थे और उन्होंने मुझे शिष्य बनाया था। उन्होंने मेरे घर में भोजन भी किया था।
गोपाल प्रकट करि' सेवा कैल'महाशय' ।। अद्यापिह ताँहार सेवा 'गोवर्धने' हय ॥
१६८॥
गोपाल अर्चाविग्रह की स्थापना करने के बाद श्रील माधवेन्द्र पुरी ने उनकी सेवा की। आज भी गोवर्धन पर्वत पर उसी अर्चाविग्रह की पूजा की जाती है।
शुनि' प्रभु कैल ताँर चरण वन्दन । भय पात्रा प्रभु-पाय पड़िला ब्राह्मण ॥
१६९॥
ज्योंही महाप्रभु ने उस ब्राह्मण के साथ माधवेन्द्र पुरी के सम्बन्ध के बारे में सुना, त्योंही उन्होंने उस ब्राह्मण के चरणकमलों पर अपना नमस्कार निवेदित किया। वह ब्राह्मण भी डरकर तुरन्त ही महाप्रभु के चरणों पर गिर पड़ा।
प्रभु कहे,–तुमि 'गुरु', आमि ‘शिष्य'-प्राय ।'गुरु' हा 'शिष्ये' नमस्कार ना नुयाय ॥
१७० ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, आप मेरे गुरु-पद पर आसीन हैं और मैं आपका शिष्य हूँ। चूंकि आप मेरे गुरु हैं, अतः यह उचित नहीं होगा कि आप मुझे नमस्कार करें।
शुनिया विस्मित विप्र कहे भय पात्रा ।।ऐछे बात् कह केने सन्यासी हा ॥
१७१॥
यह सुनकर ब्राह्मण डर गया। तब उसने कहा, 'आप ऐसा क्यों कह रहे हैं? आप तो संन्यासी हैं।'
किन्तु तोमार प्रेम देखि' मने अनुमानि ।। माधवेन्द्र-पुरीर 'सम्बन्ध' धर—जानि ॥
१७२ ॥
आपके उत्कट प्रेम को देखकर मैं अनुमान लगा सकता हूँ कि आपका माधवेन्द्र पुरी के साथ कुछ न कुछ सम्बन्ध होना चाहिए। ऐसा समझता हूँ।
कृष्ण-प्रेमा ताँहा, याँहा ताँहार ‘सम्बन्ध' । ताहाँ विना एइ प्रेमार काहाँ नाहि गन्ध ॥
१७३ ॥
इस तरह का उत्कट प्रेम तभी अनुभव किया जा सकता है, जब fa,मी का माधवेन्द्र पुरी से सम्बन्ध हो। उनके बिना, ऐसे दिव्य उत्कट प्रेम की सुगन्ध भी सम्भव नहीं है।
तबे भट्टाचार्य तारे 'सम्बन्ध' कहिल । शुनि' आनन्दित विप्र नाचिते लागिल ॥
१७४॥
तब बलभद्र भट्टाचार्य ने माधवेन्द्र पुरी तथा श्री चैतन्य महाप्रभु का सम्बन्ध कह सुनाया। यह सुनकर ब्राह्मण अत्यन्त प्रसन्न हुआ और नाचने लगा।
तबे विप्र प्रभुरे लजा आइला निज-घरे ।।आपन-इच्छाय प्रभुर नाना सेवा करे ॥
१७५। तब वह ब्राह्मण श्री चैतन्य महाप्रभु को अपने घर ले गया और अपनी इच्छा से महाप्रभु की अनेक प्रकार से सेवा करने लगा।
भिक्षा लागि' भट्टाचार्ये कराइला रन्धन ।।तबे महाप्रभु हासि' बलिला वचन ।। १७६॥
उसने बलभद्र भट्टाचार्य से कहा कि महाप्रभु का भोजन पकायें। उस समय महाप्रभु ने हँसते हुए ये वचन कहे।
पुरी-गोसाजि तोमार घरे कर्याछेन भिक्षा ।। मोरे तुमि भिक्षा देह,--एइ मोर 'शिक्षा' ॥
१७७॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, माधवेन्द्र पुरी आपके स्थान पर पहले ही भोजन कर चुके हैं। अतः आप भोजन बनाकर मुझे दे सकते हैं। यह मेरा आदेश है।
यद् यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।। से ग्रत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥
१७८ ॥
महापुरुष जो भी कर्म करता है, सामान्यजन उसका अनुसरण करते हैं। और वह अपने आदर्श कार्यों से जो भी मानदण्ड स्थापित करता है, सारा जगत् उसका अनुगमन करता है।
यद्यपि 'सनोड़िया' हय सेइत ब्राह्मण ।। सनोड़िया-घरे सन्यासी ना करे भोजन ॥
१७९।।। वह ब्राह्मण सनोड़िया जाति का ब्राह्मण था और संन्यासी ऐसे ब्राह्मण के घर भोजन नहीं करता।
तथापि पुरी देखि' ताँर 'वैष्णव'-आचार ।‘शिष्य' करि' ताँर भिक्षा कैल अङ्गीकार ॥
१८०॥
यद्यपि वह ब्राह्मण सनोड़िया जाति का था, किन्तु श्रील माधवेन्द्र पुरी ने देखा कि उसका आचरण वैष्णव जैसा है, इसलिए उन्होंने उसेअपना शिष्य बना लिया। माधवेन्द्र पुरी ने उसका पकाया भोजन भी ग्रहण किया था।
महाप्रभु ताँरे यदि भिक्षा मागिल ।।दैन्य करि' सेइ विप्र कहिते लागिल ॥
१८१॥
इसलिए श्री चैतन्य महाप्रभु ने स्वेच्छा से उस ब्राह्मण से भोजन माँगा और वह ब्राह्मण स्वाभाविक दैन्य का अनुभव करते हुए इस प्रकार बोला।
तोमारे 'भिक्षा' दिब—बड़ भाग्य से आमार ।।तुमि-—ईश्वर, नाहि तोमार विधि-व्यवहार ॥
१८२॥
आपको भोजन देने में मेरा महान् सौभाग्य है। आप परम भगवान् हैं और दिव्य पद पर होने के कारण आप पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं है।
'मूर्ख'-लोक करिबेक तोमार निन्दन ।सहिते ना पारिमु सेइ ‘दुष्टे'र वचन ॥
१८३॥
मूर्ख लोग आपकी निन्दा करेंगे, किन्तु मैं ऐसे दुष्ट लोगों के वचन सहन नहीं कर सकेंगा।
प्रभु कहे,—श्रुति, स्मृति, व्रत ऋषि-गण ।। सबे 'एक'-मत नहे, भिन्न भिन्न धर्म ॥
१८४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, वेद, पुराण तथा ऋषिगण सदैव आपस में सहमत नहीं होते। फलतः धर्म के भिन्न भिन्न सिद्धान्त पाये जाते।
धर्म-स्थापन-हेतु साधुर व्यवहार ।। पुरी-गोसाजिर ने आचरण, सेइ धर्म सार ॥
१८५॥
भक्त के आचरण से धर्म के वास्तविक प्रयोजन की स्थापना होती है। माधवेन्द्र पुरी गोस्वामी का आचरण ऐसे धर्मों का सार है।
तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्नानासावृषिग्रस्य मतं न भिन्नम् ।। धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायांमहाजनो येन गतः स पन्थाः ॥
१८६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, शुष्क तर्क में निर्णय का अभाव होता है। जिस महापुरुष का मत अन्यों से भिन्न नहीं होता, उसे महान् ऋषि नहीं माना जाता। केवल विभिन्न वेदों के अध्ययन से कोई सही मार्ग पर नहीं आ सकता, जिससे धार्मिक सिद्धान्तों को समझा जाता है। धार्मिक सिद्धान्तों को ठोस सत्य शुद्ध स्वरूपसिद्ध व्यक्ति के हृदय में छिपा रहता है। फलस्वरूप, जैसाकि सारे शास्त्र पुष्टि करते हैं, मनुष्य को महाजनों द्वारा बतलाये गये प्रगतिशील पथ पर ही चलना चाहिए।
तबे सेइ विप्र प्रभुके भिक्षा कराइल ।।मधु-पुरीर लोक सब प्रभुके देखिते आइल ॥
१८७॥
इस वार्ता के बाद ब्राह्मण श्री चैतन्य ने महाप्रभु को भोजन कराया। फिर मथुरा के सारे निवासी महाप्रभु का दर्शन करने आये।
लक्ष-सङ्ख्य लोक आइसे, नाहिक गणन ।बाहिर हा प्रभु दिल दरशन ॥
१८८ ॥
लोग लाखों की संख्या में आये, जिनकी गणना कोई नहीं कर सकता था। अतः श्री चैतन्य महाप्रभु लोगों को दर्शन देने के लिए घर से बाहर आये।
बाहु तुलि' बले प्रभु ‘हरि-बोल'-ध्वनि ।प्रेमे मत्त नाचे लोक करि' हरि-ध्वनि ॥
१८९॥
जब लोग एकत्र हो गये, तो श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने हाथ उठाकर जोर से कहा, हरि बोल! लोगों ने महाप्रभु के साथ नामोच्चारण किया और प्रेमाविष्ट हो गये। वे उन्मत्त की तरह नाचने तथा हरि! की दिव्य यानि का उच्चारण करने लगे।
यमुनार ‘चब्बिश घाटे' प्रभु कैल स्नान ।। इ विप्र प्रभुके देखाय तीर्थ-स्थान ॥
१९०॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने यमुना नदी के किनारे के चौबीस घाटों में स्नान किया और उसे ब्राह्मण ने उन्हें सारे तीर्थस्थान दिखलाये।
स्वयम्भु, विश्राम, दीर्घ-विष्णु, भूतेश्वर ।।महाविद्या, गोकर्णादि देखिला विस्तर ॥
१९१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने यमुना नदी के तट पर स्थित सारे तीर्थस्थानों को देखा, जिनमें स्वयम्भु, विश्रामघाट, दीर्घ विष्णु, भूतेश्वर, महाविद्या तथा गोकर्ण सम्मिलित हैं।
‘वन' देखिबारे यदि प्रभुर मन हैल ।। सेइत ब्राह्मणे प्रभु सङ्गेते लइल ॥
१९२॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु को वृन्दावन के विविध वनों को देखने की इच्छा हुई, तो उन्होंने उसी ब्राह्मण को अपने साथ ले लिया।
मधु-वन, ताल, कुमुद, बहुला-वन गेला ।। ताहाँ ताहाँ स्नान करि' प्रेमाविष्ट हैला ॥
१९३॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने विभिन्न वन देखे, जिनमें मधुवन, तालवन, कुमुदवन तथा बहुलावन सम्मिलित हैं। वे जहाँ जहाँ गये, उन्होंने अत्यन्त प्रेमपूर्वक स्नान किया।
पथे गाभी-घटा चरे प्रभुरे देखियो ।प्रभुके बेड़य आसि' हुङ्कार करिया ॥
१९४॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन से होकर जा रहे थे, तब चरती हुई गौवों के झुंड ने उन्हें जाते हुए देखा। वे तुरन्त उन्हें घेरकर उच्च स्वर से भाने लगीं।
गाभी देखि' स्तब्ध प्रभु प्रेमेर तरङ्गे।। वात्सल्ये गोभी प्रभुर चाटे सब-अङ्गे ॥
१९५॥
ग्वाले बड़ी कठिनाई से अपनी गौएं संभाल पाये। फिर जब महाप्रभु ने कीर्तन किया, तो उनकी मधुर ध्वनि सुनकर सारे हिरन उनके पास आ गये।
सुस्थ हञा प्रभु करे अङ्ग-कण्डूयन ।। प्रभु-सङ्गे चले, नाहि छाड़े धेनु-गण ॥
१९६॥
स्वस्थचित्त होकर श्री चैतन्य महाप्रभु गौओं को सहलाने लगे और गौएं भी उनका साथ न छोड़ पाने के कारण उन्हीं के साथ-साथ चलने लगीं।
कष्टे-सृष्ट्ये धेनु सब राखिल गोयाल ।। प्रभु-कण्ठ-ध्वनि शुनि' आइसे मृगी-पाल ।।१९७॥
झुंड को पास आते देखकर महाप्रभु प्रेमवश स्तब्ध रह गये। तब गौएं बड़े ही वात्सल्य से उनके शरीर को चाटने लगीं।
मृग-मृगी मुख देखि' प्रभु-अङ्ग चाटे ।। भय नाहि करे, सड़े स्नाय वाटे-वाटे ॥
१९८॥
जब हिरनों तथा हिरनियों ने आकर महाप्रभु का मुख देखा, तो वे उनका शरीर चाटने लगे। उनसे तनिक भी भयभीत हुए बिना वे उनके साथ-साथ रास्ते में चलने लगे।
शुक, पिक, भृङ्ग प्रभुरे देखि' ‘पञ्चम' गाय । शिखि-गण नृत्य करि' प्रभु-आगे ग्राय ॥
१९९॥
भौंरे तथा तोता और कोयल जैसे पक्षी पंचम स्वर में गाने लगे तथा मोर महाप्रभु के आगे नाचने लगे।
प्रभु देखि' वृन्दावनेर वृक्ष-लता-गणे ।। ङ्कर पुलक, मधु-अश्रु वरिषणे ॥
२००॥
श्री चैतन्य महाप्रभु को देखकर वृन्दावन के वृक्ष तथा लताएँ सब प्रफुल्लित हो उठे। उनकी टहनियाँ खड़ी हो गई और वे मधु के रूप में प्रेम के आँसू बहाने लगे।
फुल-फल भरि' डाल पड़े प्रभु-पाय ।।बन्धु देखि' बन्धु येन 'भेट' ला ग्राय ॥
२०१॥
फूल-फल से लदे वृक्ष तथा लताएँ महाप्रभु के चरणों पर गिरकर नाना प्रकार की भेंटों से उनका स्वागत करने लगीं, मानो उनके मित्र हों।
प्रभु देखि' वृन्दावनेर स्थावर-जङ्गम् ।।आनन्दित—बन्धु ग्रेन देखे बन्धु-गण ॥
२०२॥
इस तरह वृन्दावन के सारे चर तथा अचर प्राणी महाप्रभु को देखकर परम हर्षित हुए। ऐसा लग रहा था मानों मित्रगण अपने अन्य मित्र को देखकर प्रसन्न हुए हों।
ता-सबार प्रीति देखि' प्रभु भावावेशे ।।सबा-सने क्रीड़ा करे हा तार वशे ॥
२०३॥
उनके स्नेह को देखकर महाप्रभु प्रेमाविष्ट हो गये। वे उनसे उसी तरह येलने लगे, जिस तरह मित्र एक दूसरे के साथ खेलते हैं। इस तरह वे रवेच्छा से अपने मित्रों के वशीभूत हो गये।
प्रति वृक्ष-लता प्रभु करेन आलिङ्गन ।पुष्पादि ध्याने करेन कृष्णे समर्पण ॥
२०४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु हर वृक्ष तथा हर लता को आलिंगन करने लगे और ने बदले में उन्हें अपने फल-फूल समर्पित करने लगे, मानो वे समाधि में हो।
अश्रु-कम्प-पुलक-प्रेमे शरीर अस्थिरे ।‘कृष्ण' बल, 'कृष्ण' बल–बले उच्चैःस्वरे ॥
२०५॥
महाप्रभु का शरीर चंचल था और उसमें अश्रु, कॅपन तथा हर्ष प्रकट हो रहे थे। वे जोर-जोर से कृष्ण बोल! कृष्ण बोल! कह रहे थे।
स्थावर-जङ्गम मिलि' करे कृष्ण-ध्वनि ।।प्रभुर गम्भीर-स्वरे ग्रेन प्रति-ध्वनि ॥
२०६॥
तब सारे चर तथा अचर प्राणी हरे कृष्ण की दिव्य ध्वनि का उच्चारण करने लगे, मानो वे चैतन्य महाप्रभु के गहन स्वर की प्रतिध्वनि कर रहे हों।
मृगेर गला धरि' प्रभु करेन रोदने ।मृगेर पुलक अङ्गे, अश्रु नयने ॥
२०७॥
फिर महाप्रभु मृगों को गले लगाकर रोने लगे। उन मृगों के शरीरों से हर्ष प्रकट हो रहा था और नेत्रों में आँसू थे।
वृक्ष-डाले शुक-शारी दिल दरशन ।।ताहा देखि' प्रभुर किछु शुनिते हैल मन ॥
२०८॥
| जब नर तथा मादा तोता वृक्ष की डाल पर दिखे, तो महाप्रभु उन्हें देखकर उनको बोलते हुए सुनना चाहते थे।
शुक-शारिका प्रभुर हाते उड़ि' पड़े।प्रभुके शुनाज्ञा कृष्णेर गुण-श्लोक पड़े ॥
२०९॥
नर तथा मादा दोनों तोते उड़कर महाप्रभु के हाथ पर बैठ गये और कृष्ण के दिव्य गुणों का गान करने लगे, जिसे महाप्रभु सुनते रहे।
सौन्दर्य ललनालि-धैर्य-दलनं लीला रमा-स्तम्भिनी ।वीर्यं कन्दुकताद्रि-वर्यममला: पारे-पराधं गुणाः ।। शीलं सर्व-जनानुरञ्जनमहो यस्यायमस्मत्प्रभुर् ।विश्वं विश्व-जनीन-कीर्तिरवतात्कृष्णो जगन्मोहनः ॥
२१०॥
नर तोता गाने लगा, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण का गुणगान ब्रह्माण्ड में हर एक के लिए लाभप्रद है। उनका सौन्दर्य वृन्दावन की गोपियों को मात देने वाला है और उनके धैर्य को दमित करने वाला है। उनकी लीलाएँ लक्ष्मीदेवी को स्तम्भित करने वाली हैं तथा उनका शारीरिक बल गोवर्धन पर्वत को गेंद जैसा छोटा खिलौना बना देता है। उनके निर्मल गुण अनन्त हैं और उनका आचरण सबको तुष्ट करने वाला है। भगवान् कृष्ण सबके लिए आकर्षक हैं। ओह, हमारे प्रभु सारे ब्रह्माण्ड का पालन करें।
शुक-मुखे शुनि' तबे कृष्णेर वर्णन । शारिका पड़ये तबे राधिका-वर्णन ।। २११॥
न तोते से भगवान् कृष्ण का वर्णन सुनकर मादा तोता श्रीमती भगिनी का वर्णन करने लगी।
श्री-राधिकायाः प्रियता सु-रूपता ।सु-शीलता नर्तन-गान-चातुरी ।। गुणालि-सम्पत्कविता च राजते ।जगन्मनो-मोहन-चित्त-मोहिनी ॥
२१२॥
मादा तोता ने कहा, श्रीमती राधारानी का स्नेह, उनका अनुपम गर्म तथा उत्तम आचरण, उनका कलापूर्ण नृत्य तथा गायन और उनकी ता ---- सबके सब इतने आकर्षक हैं कि वे उन कृष्ण के मन को भी ए कर लेते हैं, जो ब्रह्माण्ड के हर व्यक्ति के मन को आकर्षित करने वाले हैं ।
पुनः शुक कहे,—कृष्ण ‘मदन-मोहन' ।।तबे आर श्लोक शुक करिल पठन ॥
२१३॥
तत्पश्चात् नर तोते ने कहा, कृष्ण तो कामदेव के भी मन को मोहने वाले हैं। फिर वह दूसरा श्लोक सुनाने लगा।
वंशी-धारी जगन्नारी-चित्त-हारी से शारिके ।।विहारी गोप-नारीभिर्जीयान्मदन-मोहनः ॥
२१४॥
तब तोते ने कहा, हे प्रिये शारी! ( मादा तोता ) श्रीकृष्ण वंशी धारण करने वाले हैं और ब्रह्माण्ड-भर की सारी स्त्रियों के हृदयों को हरने वाले हैं। वे सुन्दर गोपिकाओं के विशेष रूप से भोक्ता हैं और कामदेव को भी मोहने वाले हैं। आओ उनका यशोगान करें! पुनः शारी कहे शुके करि' परिहास ।ताहा शुनि' प्रभुर हैल विस्मय-प्रेमोल्लास ॥
२१५॥
तब मादा तोता ने नर तोते से परिहास करते हुए बोलना प्रारम्भ किया और श्री चैतन्य महाप्रभु उसे इस तरह बोलते सुनकर अद्भुत प्रेम से कित रह गये।
राधा-सङ्गे ग्रदा भाति तदा ‘मदन-मोहनः ।अन्यथा विश्व-मोहोऽपि स्वयं 'मदन-मोहितः ॥
२१६॥
मादा तोता (शारी) ने कहा, जब श्रीकृष्ण राधारानी के साथ होते है, तब वे कामदेव को भी मोहने वाले ( मदनमोहन ) होते हैं। अन्यथा जब अकेले होते हैं, तब वे समस्त ब्रह्माण्ड को मोहने वाले होते हुए भी काम के शीभूत हो जाते हैं।
शुक-शारी उड़ि' पुनः गेल वृक्ष-डाले । मयूरेर नृत्य प्रभु देखे कुतूहले ॥
२१७॥
तब नर तथा मादा तोते उड़कर वृक्ष की डाल पर चले गये और श्री चैतन्य महाप्रभु अत्यन्त उत्सुकतापूर्वक मोरों का नृत्य देखने लगे।
मयूरेर कण्ठ देखि' प्रभुर कृष्ण-स्मृति हैल ।। प्रेमावेशे महाप्रभु भूमिते पड़िल ॥
२१८॥
जब महाप्रभु ने मोरों की नीली गर्दन देखी, तो तुरन्त उनमें कृष्ण की स्मृति जाग उठी और वे प्रेमाविष्ट होकर भूमि पर गिर पड़े।
प्रभुरे मूर्च्छित देखि' सेइ त ब्राह्मण । भट्टाचार्य-सङ्गे करे प्रभुर सन्तर्पण ॥
२१९॥
जब ब्राह्मण ने देखा कि श्री चैतन्य महाप्रभु मूर्च्छित हो गये हैं, तो उसने तथा बलभद्र भट्टाचार्य ने उनकी देख-रेख की।
आस्ते-व्यस्ते महाप्रभुर ला बहिर्वास ।।जल-सेक करे अङ्गे, वस्त्रेर वातास ॥
२२०॥
| । उहोंने तुरन्त महाप्रभु के शरीर पर पानी छिड़का। फिर उन्होंने महाप्रभु । बाहरी वस्त्र ले लिया और उससे पंखा झलने लगे।
प्रभु-कर्णे कृष्ण-नाम कहे उच्च करि' ।।चेतन पाना प्रभु ग्रा'न गड़ागड़ि ॥
२२१॥
| फिर वे महाप्रभु के कान में कृष्ण-नाम का उच्चारण करने लगे। महाप्रभु को चेतना आई, तो वे भूमि पर लोटने लगे।
कण्टक-दुर्गम वने अङ्ग क्षत हैल।।भट्टाचार्य कोले करि' प्रभुरे सुस्थ कैल ॥
२२२ ।। जब महाप्रभु भूमि पर लोट रहे थे, तब तीक्ष्ण काँटों से उनका शरीर घायल हो गया। बलभद्र भट्टाचार्य ने गोद में उठाकर उन्हें शान्त किया।
कृष्णावेशे प्रभुर प्रेमे गरगर मन ।।‘बोल्’ ‘बोल्’ करि' उठि' करेन नर्तन ॥
२२३॥
श्री चैतन्य महाप्रभु का मन कृष्ण के प्रेम में भ्रमण कर रहा था। वे तुरन्त उठ खड़े हुए और बोले, कीर्तन करो! कीर्तन करो! फिर वे स्वयं नाचने लगे।
भट्टाचार्य, सेइ विप्र ‘कृष्ण-नाम' गाय ।।नाचिते नाचिते पथे प्रभु चलि' ग्राय ॥
२२४॥
महाप्रभु का आदेश पाने पर बलभद्र भट्टाचार्य तथा ब्राह्मण दोनों कृष्ण-नाम का कीर्तन करने लगे। तब महाप्रभु नाचते-नाचते मार्ग पर आगे बढ़ने लगे।
प्रभुर प्रेमावेश देखि' ब्राह्मण—विस्मित ।।प्रभुर रक्षा लागि' विप्र होइला चिन्तित ॥
२२५ ॥
वह ब्राह्मण श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रेमावेश के भावों को देखकर विस्मित था। फिर वह महाप्रभु को सुरक्षा प्रदान करने के लिए चिन्तित हो उठा।
नीलाचले छिला भैछे प्रेमावेश मन ।।वृन्दावन ग्राइते पथे हैल शत-गुण ॥
२२६ ।। श्री चैतन्य महाप्रभु का मन जगन्नाथ पुरी में प्रेमावेश में मग्न था, किन्तु जब वे वृन्दावन के मार्ग से होकर निकल रहे थे, तब वह प्रेम सैकड़ों गुना बढ़ गया।
सहस्र-गुण प्रेम बाड़े मथुरा दरशने ।।लक्ष-गुण प्रेम बाड़े, भ्रमेन ग्रबे वने ॥
२२७॥
जब महाप्रभु ने मथुरा देखा तो उनका प्रेम हजार गुना बढ़ गया, किन्तु जब वे वृन्दावन के जंगलों में घूम रहे थे, तब वह लाख गुना बढ़ गया।
अन्य-देश प्रेम उछले 'वृन्दावन'-नामे । साक्षात्भ्रमये एबे सेइ वृन्दावने ॥
२२८॥
प्रेमे गरगर मन रात्रि-दिवसे ।स्नान-भिक्षादि-निर्वाह करेन अभ्यासे ॥
२२९॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु अन्यत्र थे, तब वृन्दावन का नाम सुनकर ही उनका प्रेम बढ़ जाता था। अब जबकि वे वृन्दावन के जंगल में वास्तव में भ्रमण कर रहे थे, तो उनका मन रात-दिन प्रेम में निमग्न रहता था। वे मात्र अभ्यास के कारण खाते और नहाते थे।
एइ-मत प्रेम यावत्भ्रमिल'बार' वन ।।एकत्र लिखि, सर्वत्र ना ग्राय वर्णन ॥
२३०॥
इस तरह मैंने महाप्रभु के प्रेम का वर्णन किया है, जो वृन्दावन के धारहों वनों में भ्रमण करते समय उन्होंने एक स्थान पर प्रकट किया। सभी स्थानों पर उन्होंने क्या अनुभव किया इसका पूरा-पूरा वर्णन कर पाना असंभव होगा ।
वृन्दावने हैल प्रभुर ग्रतेक प्रेमेर विकार । कोटि-ग्रन्थे 'अनन्त' लिखेन ताहार विस्तार ॥
२३१॥
वृन्दावन में श्री चैतन्य महाप्रभु को प्रेम-विकार की जो अनुभूति हुई, उसका विशद वर्णन करने के लिए भगवान् अनन्त लाखों ग्रन्थों की रचना करते हैं।
तबु लिखिबारे नारे तार एक कण । उद्देश करिते करि दिग्दरशन ॥
२३२॥
चूंकि भगवान् अनन्त स्वयं इन लीलाओं के एक अंश का भी वर्णन नहीं कर सकते, अतः मैं तो केवल दिशा-निर्देश ही कर रहा हूँ।
जगत्भासिल चैतन्य-लीलार पाथारे ।याँर व्रत शक्ति तत पाथारे साँतारे ॥
२३३॥
सारा संसार श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं की बाढ़ में डूब गया। कोई भी व्यक्ति अपनी शक्ति के अनुसार ही उस जल में तैर सकता है।
श्री-रूप-रघुनाथ-पदे ग्रार आश ।।चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
२३४॥
श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों में प्रार्थना करते हुए तथा सदैव उनकी कृपा की आकांक्षा करते हुए मैं कृष्णदास उनके उनके चरण चिन्हों का अनुमान करता हुआ श्री चैतन्य चरितामृत कह रहा हूँ ।"
अध्याय अठारह: भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु की श्री वृन्दावन यात्रा
वृन्दावने स्थिर-चरान्नन्दयन्स्वावलोकनैः ।।आत्मानं च तदालोकागौराङ्गः परितोऽभ्रमत् ॥
१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने सारे वृन्दावन में घूमकर सारे चर तथा अचर जीवों को अपनी चितवन से प्रफुल्लित किया। हर व्यक्ति को देखने में महाप्रभु को प्रसन्नता होती। इस तरह भगवान् गौरांग ने वृन्दावन का भ्रमण किया।
जय जय गौरचन्द्र जय नित्यानन्द ।।जयाद्वैत-चन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ॥
२॥
भी गौरचन्द्र की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! अद्वैत प्रभु hwय हो तथा भगवान् चैतन्य के भक्तगण श्रीवास ठाकुर आदि की जय हो! एइ-मत महाप्रभु नाचिते नाचिते ।।‘आरिट्'-ग्रामे आसि’ ‘बाह्य' हैल आचम्बिते ॥
३॥
भी चैतन्य महाप्रभु प्रेमाविष्ट होकर नाचते रहते थे, किन्तु जब वे आट ग्राम आये, तो उनकी बाह्य चेतना जाग्रत हो उठी।
आरिटे राधा-कुण्ड-वार्ता पुछे लोक-स्थाने । केह नाहि कहे, सङ्गेर ब्राह्मण ना जाने ॥
४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने स्थानीय लोगों से पूछा कि राधाकुण्ड कहाँ है, किन्तु उन्हें कोई भी न बता सका। उनके साथ रहने वाला ब्राह्मण भी कुछ नहीं जानता था।
तीर्थ 'लुप्त' जानि' प्रभु सर्वज्ञ भगवान् ।। दुइ धान्य-क्षेत्रे अल्प-जले कैला स्नान ॥
५॥
तब महाप्रभु समझ गये कि राधाकुण्ड नामक तीर्थस्थल लुप्त हो का है। किन्तु सर्वज्ञ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् होने के नाते महाप्रभु ने दो। आन के खेतों में राधाकुण्ड तथा श्यामकुण्ड खोज निकाले। उनमें बहुत कम जल था, किन्तु महाप्रभु ने वहाँ स्नान किया।
देखि' सब ग्राम्य-लोकेर विस्मय हैल मन ।प्रेमे प्रभु करे राधा-कुण्डेर स्तवन ॥
६॥
जब गाँव के लोगों ने धान के खेतों के बीच स्थित दो कुण्डों में श्री बैतन्य महाप्रभु को स्नान करते देखा, तो वे अत्यधिक आश्चर्यचकित हुए। महाप्रभु ने श्री राधाकुण्ड की स्तुति की।
सब गोपी हैते राधा कृष्णेर प्रेयसी ।तैछे राधा-कुण्ड प्रिय 'प्रियार सरसी' ॥
७॥
समस्त गोपियों में राधारानी सर्वाधिक प्रिय हैं। इसी तरह राधाकुण्ड भी भगवान को अत्यन्त प्रिय है, क्योंकि यह श्रीमती राधारानी को अत्यन्त प्रिय है।
ग्रथा राधा प्रिया विष्णोस्तस्याः कुण्डं प्रियं तथा । सर्व-गोपीषु सैवैका विष्णोरत्यन्त-वल्लभा ॥
८॥
जिस प्रकार श्रीमती राधारानी भगवान् कृष्ण को अत्यन्त प्रिय हैं, उसी प्रकार उनका सरोवर राधाकुण्ड भी उन्हें अत्यधिक प्रिय है। समस्त गोपियों में श्रीमती राधारानी निश्चित रूप से अत्यन्त प्रिय हैं।'
येइ कुण्डे नित्य कृष्ण राधिकार सङ्गे।। जले जल-केलि करे, तीरे रास-रङ्गे ॥
९॥
इस कुण्ड में भगवान् कृष्ण तथा श्रीमती राधारानी नित्य प्रति जलविहार किया करते थे और इसके तट पर रासनृत्य करते थे।
सेइ कुण्डे ग्रेड एक-बार करे स्नान ।।ताँरे राधा-सम 'प्रेम' कृष्ण करे दान ॥
१०॥
जो कोई इस कुण्ड में एक बार भी स्नान करता है, उसे भगवान् कृष्ण श्रीमती राधारानी जैसा ही प्रेम प्रदान करते हैं।
कुण्डेर 'माधुरी'—ग्रेन राधार ‘मधुरिमा' ।कुण्डेर 'महिमा'—येन राधार 'महिमा' ॥
११॥
राधाकुण्ड का आकर्षण श्रीमती राधरानी के ही समान मधुर है। इसी तरह राधाकुण्ड की महिमा श्रीमती राधारानी की महिमा के ही समान महन है।
श्री राधेव हरेस्तदीय-सरसी प्रेष्ठाद्भुतैः स्वैर्गुणैर् ।यस्यां श्री-ग्रुत-माधवेन्दुरनिशं प्रीत्या तया क्रीड़ति ।। प्रेमास्मिन्बत राधिकेव लभते ग्रस्यां सकृत्स्नान-कृत् ।तस्या वै महिमा तथा मधुरिमा केनास्तु वर्त्यः क्षितौ ॥
१२॥
राधाकुण्ड अपने अद्भुत दिव्य गुणों के कारण कृष्ण को श्रीमती राधारानी के ही समान प्रिय है। इसी कुण्ड में सर्व ऐश्वर्यमान भगवान् श्रीकृष्ण ने श्रीमती राधारानी के साथ अत्यन्त आनन्दपूर्वक दिव्य लीलाएँ कीं। जो भी राधाकुण्ड में एक बार स्नान करता है, वह श्रीकृष्ण के प्रति राधारानी के प्रेमाकर्षण को प्राप्त करता है। भला इस लोक में ऐसा कौन होगा जो श्री राधाकुण्ड की महिमा तथा मधुरिमा का वर्णन कर सके? एइ-मत स्तुति करे प्रेमाविष्ट हञा ।तीरे नृत्य करे कुण्ड-लीला सडरिया ॥
१३॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने राधाकुण्ड की स्तुति की। प्रेमावेश में अभिभूत होकर वे राधाकुण्ड के किनारे भगवान् कृष्ण द्वारा सम्पन्न की गई। लीलाओं का स्मरण करके नृत्य करने लगे।
कुण्डेर मृत्तिका लञा तिलक करिल । भट्टाचार्य-द्वारा मृत्तिका सङ्गे करि' लैल ॥
१४॥
इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने राधाकुण्ड की मिट्टी से अपने शरीर पर तिलक लगाया और बलभद्र भट्टाचार्य की सहायता से उस कुण्ड से मिट्टी एकत्र की तथा उसे अपने साथ लेते गये।
तबे चलि' आइला प्रभु 'सुमनः-सरोवर' ।। ताहाँ ‘गोवर्धन' देखि' हइला विह्वल ॥
१५॥
गधाकुण्ड से श्री चैतन्य महाप्रभु सुमनस्-सरोवर गये। जब उन्होंने से गोवर्धन पर्वत देखा, तो वे प्रसन्नता के मारे विह्वल हो उठे।
गोवर्धन देखि प्रभु हइला दण्डवत् ।।‘एक शिला' आलिङ्गिया हइला उन्मत्त ॥
१६ ॥
महाप्रभु ने गोवर्धन पर्वत को देखकर भूमि पर गिरकर दण्डवत् प्रणाम किया। उन्होंने गोवर्धन पर्वत के एक शिला-खण्ड का आलिंगन किया और उन्मत्त हो गये।
प्रेमे मत्त चलि' आइला गोवर्धन-ग्राम ।। ‘हरिदेव' देखि ताहाँ हइला प्रणाम ॥
१७॥
प्रेम में उन्मत्त महाप्रभु गोवर्धन नामक गाँव में आये। वहाँ उन्होंने हरिदेव अर्चाविग्रह का दर्शन किया और उन्हें सादर नमस्कार किया।
‘मथुरा'-पद्मर पश्चिम-दले ग्राँर वास ।। ‘हरिदेव' नारायण-–आदि परकाश ॥
१८ ॥
हरिदेव नारायण के अवतार हैं और उनका निवास स्थान मथुरा रूपी कमल की पश्चिमी पंखुड़ी पर है।
हरिदेव-आगे नाचे प्रेमे मत्त हा ।। सब लोक देखिते आइल आश्चर्य शुनिया ॥
१९॥
श्री चैतन्य महाप्रभु प्रेम में उन्मत्त होकर हरिदेव अर्चाविग्रह के सम्मुख नृत्य करने लगे। महाप्रभु के अद्भुत कार्यकलाप सुनकर सारे लोग उन्हें देखने आये।
प्रभु-प्रेम-सौन्दर्य देखि' लोके चमत्कार । हरिदेवेर भृत्य प्रभुर करिल सत्कार ॥
२०॥
जब लोगों ने श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रेमावेश तथा उनके शारीरिक मी-दर्य को देखा, तो वे चकित रह गये। हरिदेव विग्रह की सेवा करने वाले पुजारी ने महाप्रभु का भलीभाँति सत्कार किया।
भट्टाचार्छ ‘ब्रह्म-कुण्डे' पाक ग्राजा कैल । ब्रह्म-कुण्डे स्नान करि' प्रभु भिक्षा कैल ॥
२१॥
भट्टाचार्य ने ब्रह्मकुण्ड में भोजन पकाया और महाप्रभु ने ब्रह्मकुण्ड में स्नान करने के बाद भोजन किया।
से-रात्रि रहिला हरिदेवेर मन्दिरे ।। रात्रे महाप्रभु करे मनेते विचारे ॥
२२॥
उसी रात महाप्रभु हरिदेव के मन्दिर में रुके रहे और रात में वे अपने मन में सोचने लगे।
‘गोवर्धन-उपरे आमि कभु ना चड़िब ।। गोपाल-रायेर दरशन केमने पाइब?' ॥
२३॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने सोचा, मैं तो गोवर्धन पर्वत पर चढ़ेगा नहीं, तो फिर मुझे गोपाल राय के दर्शन किस प्रकार हो सकेंगे? एत मने करि' प्रभु मौन करि' रहिला ।। जानिया गोपाल किछु भङ्गी उठाइला ॥
२४॥
इस तरह सोचते हुए महाप्रभु मौन हो गये, किन्तु भगवान् गोपाल अनके विचार को जानते थे, इसलिए उन्होंने एक चाल चली।
अनारुरुक्षवे शैलं स्वस्मै भक्ताभिमानिने ।। अवरुह्य गिरेः कृष्णो गौराय स्वमदर्शयत् ॥
२५ ॥
गोवर्धन पर्वत से नीचे उतरकर भगवान् गोपाल ने श्री चैतन्य महाप्रभु को दर्शन दिया, क्योंकि महाप्रभु अपने आपको कृष्ण-भक्त मानने के कारण पर्वत पर चढ़ने के लिए अनिच्छुक थे।
‘अन्नकूट'-नामे ग्रामे गोपालेर स्थिति ।। राजपुत-लोकेर सेइ ग्रामे वसति ॥
२६॥
गोपाल गोवर्धन पर्वत पर अन्नकूट गाँव में स्थित थे। उस गाँव में जो लोग रहते थे, वे मुख्यतः राजस्थान के थे।
एक-जन आसि' रात्रे ग्रामीके बलिल ।। ‘तोमार ग्राम मारिते तुरुक-धारी साजिल ॥
२७॥
एक व्यक्ति ने गाँव में आकर ग्रामवासियों को सूचित किया, “तुर्क सैनिक तुम लोगों के गाँव पर आक्रमण करने वाले हैं।
आजि रात्र्ये पलाह, ना रहिह एक-जन ।। ठाकुर लञा भाग', आसिबे कालि ग्रवन' ॥
२८॥
आज रात में इस गाँव से भाग जाओ और एक व्यक्ति भी यहाँ न रहे। अपने साथ गोपाल का अर्चाविग्रह लो और यहाँ से पलायन करो, क्योंकि मुसलमान सैनिक कल यहाँ आ जायेंगे।
शुनिया ग्रामेर लोक चिन्तित हुइल ।। प्रथमे गोपाल ला गाँठुलि-ग्रामे खुइल ॥
२९॥
यह सुनकर सारे ग्रामवासी अत्यन्त चिन्तित हो उठे। पहले उन्होंने गोपाल को उठाया और फिर उन्हें गाँठुलि नामक गाँव में ले गये।
विप्र-गृहे गोपालेर निभृते सेवन ।। ग्राम उजाड़ हैल, पलाइल सर्व-जन ॥
३०॥
गोपाल के अर्चाविग्रह को एक ब्राह्मण के घर में रखा गया और चोरी-चुपके उनकी पूजा की जाती रही। सभी लोगों के भाग जाने से अन्नकूट ग्राम उजाड़ हो गया था।
ऐछे म्लेच्छ-भये गोपाल भागे बारे-बारे ।। मन्दिर छाड़ि' कुल्ले रहे, किबा ग्रामान्तरे ॥
३१॥
मुसलमानों के भय से गोपाल के अर्चाविग्रह को बारम्बार एक गाँव में मरे गाँव में ले जाया जा रहा था। इस तरह मन्दिर छोड़ने के बाद पान कभी झाड़ी में तो कभी किसी गाँव में और कभी अन्य गाँव में रहे।
प्रातः-काले प्रभु 'मानस-गङ्गा'य करि' स्नान ।। गोवर्धन-परिक्रमाय करिला प्रयाण ॥
३२॥
प्रात:काल श्री चैतन्य महाप्रभु ने मानसगंगा नामक कुंड में स्नान पा। फिर उन्होंने गोवर्धन की परिक्रमा की।
गोवर्धन देखि' प्रभु प्रेमाविष्ट हा ।। नाचिते नाचिते चलिला श्लोक पड़िया ॥
३३॥
गोवर्धन पर्वत को देखते ही श्री चैतन्य महाप्रभु कृष्ण-प्रेम से आविष्ट हो गये। उन्होंने नाचते-नाचते निम्नलिखित श्लोक सुनाया।
हन्तायमद्रिरबला हरि-दास-वर्यो ।|ग्नद्राम-कृष्ण-चरण-स्परश-प्रमोदः ।। मानं तनोति सह-गो-गणयोस्तयोर्यत् ।पानीय-सूयवस-कन्दर-कन्द-मूलैः ॥
३४॥
सभी भक्तों में यह गोवर्धन पर्वत सर्वश्रेष्ठ है! हे सखियों, यह पर्वत कृष्ण तथा बलराम के साथ ही उनके बछड़ों, गायों तथा ग्वालमित्रों को सभी तरह की वस्तुएँ-पीने के लिए जल, कोमल घास, गुफाएँ, फल, फूल तथा तरकारियाँ-देता है। इस तरह यह पर्वत भगवान् का सम्मान करता है। गोवर्धन पर्वत कृष्ण तथा बलराम के चरणकमलों का स्पर्श पाकर अत्यन्त प्रफुल्लित दिखता है।
‘गोविन्द-कुण्डादि' तीर्थे प्रभु कैला स्नान ।।ताहाँ शुनिलागोपाल गेल गाँठुलि ग्राम ॥
३५ ॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने गोविन्द-कुण्ड में स्नान किया और वहाँ रहते हुए उन्होंने सुना कि गोपाल-अर्चाविग्रह पहले ही गाँठुलि ग्राम चले गये हैं।
सेइ ग्रामे गिया कैल गोपाल-दरशन ।।प्रेमावेशे प्रभु करे कीर्तन-नर्तन ॥
३६॥
इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु गाँठुलि ग्राम गये और वहाँ उन्होंने गोपाल अर्चाविग्रह का दर्शन किया। वे प्रेमाविष्ट होकर कीर्तन तथा नृत्य करने लगे।
गोपालेर सौन्दर्य देखि' प्रभुर आवेश ।।एइ श्लोक पड़ि' नाचे, हैल दिन-शेष ॥
३७॥
गोपाल-अर्चाविग्रह का सौन्दर्य देखते ही महाप्रभु प्रेमाविष्ट हो गये और उन्होंने निम्नलिखित श्लोक पढ़ा। फिर वे दिन डूबने तक कीर्तन करते रहे और नाचते रहे।
वामस्तामरसाक्षस्य भुज-दण्डः स पातु वः ।।क्रीड़ा-कन्दुकतां ग्रेन नीतो गोवर्धनो गिरिः ॥
३८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, कमल-फूल की पंखुड़ियों जैसे नेत्र वाले श्रीकृष्ण की वाम भुजा आपकी सदैव रक्षा करे। उन्होंने अपनी इसी भुजा से गोवर्धन पर्वत को खिलौने की तरह उठा लिया था।
एड-मत तिन-दिन गोपाले देखिला । चतुर्थ-दिवसे गोपाल स्वमन्दिरे गेला ॥
३९॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने गोपाल-अर्चाविग्रह का तीन दिन तक दर्शन किया। चौथे दिन यह विग्रह अपने मन्दिर में लौट गये।
गोपाल सङ्गे चलि' आइला नृत्य-गीत करि ।। आनन्द-कोलाहले लोक बले ‘हरि' ‘हरि' ॥
४० ॥
। चैतन्य महाप्रभु गोपल विग्रह के साथ-साथ चलने लगे और कीर्तन तथा नृत्य करने लगे। लोगों की विशाल तथा हर्षित भीड़ भी साथ-साथ कृष्ण के दिव्य नाम 'हरि! हरि!' का कीर्तन करने लगी।
गोपाल मन्दिरे गेला, प्रभु रहिला तले ।। प्रभुर वाञ्छा पूर्ण सब करिल गोपाले ॥
४१॥
तब गोपाल अपने मन्दिर लौट गये और श्री चैतन्य महाप्रभु पर्वत की तलहटी पर रहे। इस तरह गोपाल विग्रह ने श्री चैतन्य महाप्रभु की सारी इछाएं पूरी कर दीं।
एइ-मत गोपालेर करुण स्वभाव । ग्रेइ भक्त जनेर देखते हय 'भाव' ॥
४२॥
भगवान् गोपाल अपने भक्तों के प्रति ऐसा ही दयापूर्ण आचरण करते हैं। यह देखकर भक्तगण भावाविष्ट हो गये।
देखिते उत्कण्ठा हय, ना चड़े गोवर्धने ।। कोन छले गोपाल आसि' उतरे आपने ॥
४३॥
श्री चैतन्य महाप्रभु गोपाल को देखने के लिए अत्यन्त उत्कण्ठित थे, किन्तु वे गोवर्धन पर्वत पर चढ़ना नहीं चाहते थे। इसलिए गोपाल विग्रह किसी युक्ति से स्वयं नीचे उतर आये।
कभु कुल्ले रहे, कभु रहे ग्रामान्तरे । सेइ भक्त, ताहाँ आसि' देखये ताँहारे ॥
४४॥
इस तरह किसी न किसी बहाने गोपाल कभी जंगल की झाड़ी में तो कभी गाँव में रुकते हैं। जो भक्त होता है, वह अर्चाविग्रह के दर्शन करने आता है।
पर्वते ना चड़े दुइ-रूप-सनातन ।।एइ-रूपे ताँ-सबारे दियाछेन दरशन ॥
४५॥
रूप तथा सनातन दोनों भाई पर्वत पर नहीं चढ़े। गोपालजी ने उन्हें भी अपना दर्शन दिया।
वृद्ध-काले रूप-गोसाजि ना पारे ग्राइते ।। वाञ्छा हैल गोपालेर सौन्दर्य देखिते ॥
४६॥
श्रील रूप गोस्वामी वृद्धावस्था में वहाँ नहीं जा सकते थे, किन्तु गोपाल का सौन्दर्य देखने की उनकी इच्छा थी।
म्लेच्छ-भये आइला गोपाल मथुरा-नगरे । एक-मास रहिल विठ्ठलेश्वर-घरे ॥
४७॥
मुसलमानों के भय से गोपाल मथुरा चले गये, जहाँ विठ्ठलेश्वर के मन्दिर में वे पूरे एक मास तक रहे।
तबे रूप गोसाञि सब निज-गण ला ।। एक-मास दरशन कैला मथुराय रहिया ॥
४८॥
श्रील रूप गोस्वामी तथा उनके संगी एक मास तक मथुरा में रहे और उन्होंने वहाँ गोपाल विग्रह का दर्शन किया।
सङ्गे गोपाल-भट्ट, दास-रघुनाथ ।। रघुनाथ-भट्ट-गोसाजि, आर लोकनाथ ॥
४९॥
जब रूप गोस्वामी मथुरा में रुके थे, तब उनके साथ गोपाल भट्ट गोस्वामी, रघुनाथ दास गोस्वामी, रघुनाथ भट्ट गोस्वामी तथा लोकनाथ दास गोस्वामी थे।
भूगर्भ-गोसाञि, आर श्री-जीव-गोसाजि ।। श्री-यादवे-आचार्य, आर गोविन्द गोसाजि ॥
५०॥
श्रील रूप गोस्वामी के साथ भूगर्भ गोस्वामी, श्री जीव गोस्वामी, श्री यादव आचार्य तथा गोविन्द गोस्वामी भी थे।
श्री-उद्धव-दास, आर माधव–दुइ-जन ।। श्री-गोपाल-दास, आर दास-नारायण ॥
५१॥
उनके साथ श्री उद्धव दास, माधव, श्री गोपाल दास तथा नारायण दास भी थे।
‘गोविन्द' भक्त, आर वाणी-कृष्णदास ।।पुण्डरीकाक्ष, ईशान, आर लघु-हरिदास ॥
५२॥
महान् भक्त गोविन्द, वाणी कृष्णदास, पुण्डरीकाक्ष, ईशान तथा लघु हरिदास भी उनके साथ थे।
एइ सब मुख्य-भक्त लञा निज-सङ्गे।। श्री-गोपाल दरशन कैला बहु-रङ्गे ॥
५३॥
श्री रूप गोस्वामी ने परम प्रसन्नतापूर्वक इन सारे भक्तों के साथ भगवान् गोपाल का दर्शन किया।
एक-मास रहि' गोपाल गेला निज-स्थाने ।। श्री-रूप-गोसाजि आइला श्री-वृन्दावने ॥
५४॥
मथुरा में एक मास रुके रहने के बाद गोपाल-अर्चाविग्रह अपने स्थान लौट गये और श्री रूप गोस्वामी वृन्दावन चले आये।
प्रस्तावे कहिलॅ गोपाल-कृपार आख्यान । तबे महाप्रभु गेला 'श्री-काम्यवन' ॥
५५॥
इस कथा के मध्य मैं गोपाल की दया का वर्णन कर चुका हूँ। श्री चैतन्य महाप्रभु गोपाल विग्रह का दर्शन करने के बाद श्री काम्यवन गये।
प्रभुर गमन-रीति पूर्वे ये लिखिल । सेइ-मत वृन्दावने तावत्देखिल ॥
५६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु का वृन्दावन भ्रमण पहले ही वर्णित हो चुका है। होंने उसी प्रेमभाव से सारे वृन्दावन की यात्रा की।
ताहाँ लीला-स्थली देखि' गेला 'नन्दीश्वर' ।‘नन्दीश्वर' देखि' प्रेमे हइला विह्वल ॥
५७॥
काम्यवन में कृष्ण के लीला-स्थलों को देखने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु नन्दीश्वर गये। वहाँ पर वे प्रेम से विह्वल हो उठे।
‘पावनादि सब कुण्डे स्नान करिया ।।लोकेरे पुछिल, पर्वत-उपरे ग्राञा ॥
५८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने पावन सरोवर इत्यादि समस्त विख्यात कुण्डों में स्नान किया। तत्पश्चात् वे एक पर्वत पर चढ़ गये और लोगों से पूछा।
किछु देव-मूर्ति हय पर्वत-उपरे ?।। लोक कहे,—मूर्ति हय गोफार भितरे ॥
५९॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने पूछा, क्या इस पर्वत के ऊपर कोई देव-मूर्ति है? स्थानीय लोगों ने उत्तर दिया, इस पर्वत पर देव-मूर्तियाँ हैं, किन्तु वे एक गुफा के भीतर स्थित हैं।
दुइ-दिके माता-पिता पुष्ट कलेवर ।।मध्ये एक 'शिशु' हय त्रिभङ्ग-सुन्दर ॥
६०॥
वहाँ सुगठित शरीर वाले माता-पिता हैं और उनके बीच में एक अत्यन्त सुन्दर शिशु है, जो तीन स्थानों से टेढ़ा ( त्रिभंग ) है।
शुनि' महाप्रभु मने आनन्द पाजा ।।‘तिन' मूर्ति देखिला सेइ गोफा उघाड़िया ॥
६१। यह सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु अत्यन्त प्रसन्न हुए। गुफा की खुदाई कराने पर उन्हें तीन मूर्तियाँ दिखीं।
व्रजेन्द्र-व्रजेश्वरीर कैल चरण वन्दन । प्रेमावेशे कृष्णेर कैल सर्वाङ्ग-स्पर्शन ॥
६२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने नन्द महाराज तथा माता यशोदा को सादर नमस्कार किया और अत्यन्त प्रेमाविष्ट होकर उन्होंने भगवान् कृष्ण के शरीर का स्पर्श किया।
सब दिन प्रेमावेशे नृत्य-गीत कैला ।। ताहाँ हैते महाप्रभु ‘खदिर-वन' आइला ॥
६३ ॥
महाप्रभु नित्य ही प्रेमाविष्ट होकर कीर्तन करते और नृत्य करते। अन्त में वे खदिरवन गये।
लीला-स्थल देखि ताहाँ गेला 'शेषशायी' ।।'लक्ष्मी' देखि' एइ श्लोक पड़ेन गोसाजि ॥
६४॥
भगवान् कृष्ण के लीला-स्थलों को देखने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु शेषशायी गये, जहाँ उन्होंने लक्ष्मी का दर्शन किया और निम्नलिखित श्लोक सुनाया।
यत्ते सुजात-चरणाम्बुरुहं स्तनेषु ।भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु । तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किं स्वित्कूर्पादिभिर्भमति धीर्भवदायुषां नः ॥
६५॥
हे प्रिय! आपके चरणकमल इतने कोमल हैं कि हम उन्हें धीमे से अपने स्तनों पर डरती हुई रखती हैं कि कहीं आपके चरणों में चोट न आ जाए। हमारा जीवन एकमात्र आप पर टिका है। अतः हमारे मन में यही चिन्ता बनी रहती है कि जब आप जंगल के मार्ग पर घूमते हैं तो कंकड़ों से आपके पैर कहीं छिल न जाएँ।
तबे ‘खेला-तीर्थ' देखि 'भाण्डीरवन' आइला । यमुना पार हा 'भद्र-वन' गेला ॥
६६॥
इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने खेलातीर्थ देखा और तब वे भाण्डीरवन गये। यमुना नदी पार करके वे भद्रवन गये।।
श्रीवन' देखि पुनः गेला 'लोह-वन' ।। ‘महावन गिया कैला जन्म-स्थान-दरशन ॥
६७॥
इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने श्रीवन तथा लोहवन देखा। फिर वे महावन गये और कृष्ण की बाल-लीलाओं का स्थान गोकुल देखा।
ग्रमलार्जुन-भङ्गादि देखिल सेइ स्थल ।। प्रेमावेशे प्रभुर मन हैल टलमल ॥
६८॥
जिस स्थान पर श्रीकृष्ण ने जुड़वा अर्जुन वृक्षों को तोड़ा था, उसे देखकर श्री चैतन्य महाप्रभु प्रेमाभिभूत हो गये।
गोकुल' देखिया आइला ‘मथुरा-नगरे । जन्म-स्थान' देखि' रहे सेइ विप्र-घरे ॥
६९॥
गोकुल देखने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु मथुरा लौट आये, जहाँ उन्होंने कृष्ण का जन्मस्थान देखा। वहाँ पर वे उसी सनोड़िया ब्राह्मण के घर पर रहे।
लोकेर सङ्घट्ट देखि मथुरा छाड़िया ।। एकान्ते 'अक्रूर-तीर्थे' रहिला आसिया ॥
७० ॥
मथुरा में भीड़ एकत्र होती देखकर श्री चैतन्य महाप्रभु मथुरा छोड़कर अक्रूर तीर्थ चले गये। वहाँ वे एकान्त स्थान में रहे।
आर दिन आइला प्रभु देखिते वृन्दावन' ।।‘कालीय-ह्रदे' स्नान कैला आर प्रस्कन्दन ॥
७१॥
अगले दिन श्री चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन गये और उन्होंने कालीय हद तथा प्रस्कन्दन में स्नान किया।
‘द्वादश-आदित्य' हैते 'केशी-तीर्थे' आइला ।रास-स्थली देखि प्रेमे मूर्च्छित हइला ॥
७२॥
प्रस्कन्दन नामक पुण्यस्थली देखने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु द्वादशादित्य गये। वहाँ से वे केशीतीर्थ गये और जब उन्होंने वह स्थान देखा, जहाँ रासनृत्य होता था, तो वे प्रेमावेश से तुरन्त मूर्छित हो गये।
चेतन पाजा पुनः गड़ागड़ि ग्राय ।।हासे, कान्दे, नाचे, पड़े, उच्चैः-स्वरे गाय ॥
७३॥
जब महाप्रभु सचेत हुए तो वे भूमि पर लोटने लगे। कभी वे हँसते, कभी रोते तो कभी नाचते और गिर पड़ते। वे ऊँचे स्वर से कीर्तन भी करते।
एइ-रङ्गे सेइ-दिन तथा गोडाइला ।।सन्ध्या-काले अक्रूरे आसि' भिक्षा निर्वाहिला ॥
७४॥
इस तरह दिव्य आनन्द का अनुभव करते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु ने केशीतीर्थ में वह दिन प्रसन्नतापूर्वक बिता दिया। शाम को वे अक्रूर तीर्थ लौट आये, जहाँ उन्होंने भोजन किया।
प्राते वृन्दावने कैला'चीर-घाटे' स्नान । तेतुली-तलाते आसि' करिला विश्राम ॥
७५ ॥
प्रातःकाल श्री चैतन्य महाप्रभु ने वृन्दावन लौटकर चीरघाट में स्नान किया। तब वे तेतुलीतला गये, जहाँ उन्होंने विश्राम किया।
कृष्ण-लीला-कालेर सेइ वृक्ष पुरातन ।। तार तले पिंड़ि-बान्धा परम-चिक्कण ।। ७६ ॥
तेंतुलीतला नामक इमली का वृक्ष अत्यन्त पुराना था, जो श्रीकृष्ण की लीलाओं के समय से वहीं था। उस वृक्ष के नीचे अत्यन्त चमकीला घर बना था।
निकटे यमुना वहे शीतल समीर । वृन्दावन-शोभा देखे यमुनार नीर ॥
७७॥
इस इमली के वृक्ष के निकट यमुना नदी बहती थी, इसलिए अत्यन्त शीतल हवा बहती थी। वहाँ पर महाप्रभु ने वृन्दावन की शोभा तथा यमुना नदी का जल देखा।
तेतुल-तले वसि' करे नाम-सङ्कीर्तन ।। मध्याह्न करि' आसि' करे 'अक्रूरे' भोजन ॥
७८ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु इस इमली के पुराने वृक्ष के नीचे बैठकर भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन करते थे। दोपहर को वे भोजन करने के लिए। अक्रूर तीर्थ लौट आते थे।
अक्रूरेर लोक आइसे प्रभुरे देखिते ।। लोक-भिड़े स्वच्छन्दे नारे 'कीर्तन' करिते ॥
७९ ॥
अक्रूरतीर्थ के निकट रहने वाले सारे लोग श्री चैतन्य महाप्रभु को देखने आते थे और भीड़ बढ़ जाने से महाप्रभु शान्तिपूर्वक नाम-कीर्तन नहीं कर पाते थे।
वृन्दावने आसि' प्रभु वसिया एकान्त ।। नाम-सङ्कीर्तन करे मध्याह्न-पग्रुन्त ॥
८०॥
अतः श्री चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन चले जाते थे और एकान्त स्थान में बैठकर दोपहर तक नाम-संकीर्तन करते रहते थे।
तृतीय-प्रहरे लोक पाय दरशन ।। सबारे उपदेश करे ‘नाम-सङ्कीर्तन' ॥
८१॥
दोपहर के बाद ही लोग उनका दर्शन प्राप्त कर सके। महाप्रभु ने हर एक व्यक्ति को नाम-संकीर्तन का महत्त्व बतलाया।
हेन-काले आइल वैष्णव ‘कृष्णदास' नाम ।। राजपुत-जाति,---गृहस्थ, यमुना-पारे ग्राम ॥
८२॥
तभी कृष्णदास नामक एक वैष्णव श्री चैतन्य महाप्रभु से मिलने आया। वह गृहस्थ था और क्षत्रिय जाति का था। उसका घर यमुना नदी के उस पार था।
‘केशी' स्नान करि' सेइ 'कालीय-दह' ग्राइते । आम्लि-तलाय गोसाजिरे देखे आचम्बिते ॥
८३॥
केशीतीर्थ में स्नान करने के बाद कृष्णदास कालीयदह की ओर गया और उसने एकाएक श्री चैतन्य महाप्रभु को आम्लितला ( तेतुलीतला ) में बैठे हुए देखा।
प्रभुर रूप-प्रेम देखि' हइल चमत्कार । प्रेमावेशे प्रभुरे करेन नमस्कार ॥
८४॥
महाप्रभु के सौंदर्य तथा प्रेम को देखकर कृष्णदास अत्यधिक अचम्भित हुआ। उसने प्रेमवश महाप्रभु को सादर नमस्कार किया।
प्रभु कहे,—के तुमि, काहाँ तोमार घर?।। कृष्णदास कहे,–मुइ गृहस्थ पामर ॥
८५॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कृष्णदास से पूछा, तुम कौन हो? तुम्हारा घर कहाँ है? इस पर कृष्णदास ने उत्तर दिया, मैं अत्यन्त पतित गृहस्थ हूँ।
राजपुत-जाति मुञि, ओ-पारे मोर घर ।। मोर इच्छा हय‘हङवैष्णव-किङ्कर' ॥
८६॥
मैं राजपूत जाति का हूँ और मेरा घर यमुना नदी के उस पार है। कन्तु मैं वैष्णव का सेवक बनना चाहता हूँ।
किन्तु आजि एक मुजि 'स्वप्न' देखिनु ।। सेइ स्वप्न परतेक तोमा आसि' पाइनु ॥
८७॥
आज मैंने एक सपना देखा है। उस स्वप्न के अनुसार ही मैं यहाँ आया हूँ तथा आपको पा सका हूँ।
प्रभु ताँरे कृपा कैला आलिङ्गन करि ।।प्रेमे मत्त हैल सेइ नाचे, बले ‘हरि' ॥
८८ ॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने कृष्णदास का आलिंगन करते हुए उसे अपनी अहैतुकी कृपा प्रदान की। कृष्णदास प्रेम से उन्मत्त हो उठा और वह नाचने लगा तथा पवित्र हरि नाम का कीर्तन करने लगा।
प्रभु-सङ्गे मध्याह्ने अक्रूर तीर्थे आइला ।प्रभुर अवशिष्ट-पात्रे-प्रसाद पाइला ॥
८९॥
कृष्णदास महाप्रभु के साथ अक्रूरतीर्थ आया, जहाँ उसे महाप्रभु का शेष बचा भोजन दिया गया।
प्राते प्रभु-सङ्गे आइला जल-पात्र लञा ।।प्रभु-सङ्गे रहे गृह-स्त्री-पुत्र छाड़िया ॥
९०॥
अगले दिन कृष्णदास श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ-साथ उनका जलपात्र लिए हुए वृन्दावन गया। इस तरह कृष्णदास ने अपनी पत्नी, घर तथा बच्चे छोड़ दिये, जिससे कि वह श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ रह सके।
वृन्दावने पुनः 'कृष्ण' प्रकट हइल ।।ग्राहाँ ताहाँ लोक सब कहिते लागिल ॥
९१॥
महाप्रभु जहाँ भी जाते, वहाँ के सारे लोग कहते, वृन्दावन में पुनः कृष्णब्द हुए हैं।
एक-दिन अक्रूरेते लोक प्रातः-काले ।। वृन्दावन हैते आइसे करि' कोलाहले ॥
९२॥
एक दिन प्रातःकाल अनेक लोग अक्रूरतीर्थ आये। चूँकि वे वृन्दावन से आये थे, अतः वे अधिक कोलाहल कर रहे थे।
प्रभु देखि' करिल लोक चरण वन्दन ।प्रभु कहे,—काहाँ हैते करिला आगमन? ॥
९३॥
श्री चैतन्य महाप्रभु को देखकर उन सबने उनके चरणकमलों में अपना नमस्कार निवेदित किया। तब महाप्रभु ने उन सबसे पूछा, तुम लोग कहाँ से आ रहे हो? लोके कहे,—कृष्ण प्रकट कालीय-दहेर जले! ।। कालीय-शिरे नृत्य करे, फणा-रत्न ज्वले ॥
१४॥
लोगों ने उत्तर दिया, कालीयदह के जल में कृष्ण पुनः प्रकट हुए हैं। वे कालीय सर्प के फनों पर नाचते हैं और फनों के रत्न चमचमा रहे है।
साक्षात्देखिल लोक-नाहिक संशय ।।शुनि' हासि' कहे प्रभु,—सब 'सत्य' हय ॥
९५ ॥
सबने साक्षात् कृष्ण को देखा है, इसमें संशय नहीं है। यह सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु हँसने लगे और बोले, यह सब सत्य है।
एइ-मत तिन-रात्रि लोकेर गमन ।।सबे आसि' कहे,—कृष्ण पाइलँ दरशन ॥
९६॥
लगातार तीन रात तक लोग कृष्ण का दर्शन करने कालीयदह गये और हर एक यही कहता हुआ लौटा कि, अब हमने साक्षात् कृष्ण का दर्शन दिया है।
प्रभु-आगे कहे लोक,–श्री-कृष्ण देखिल । 'सरस्वती' एइ वाक्ये 'सत्य' कहाइल ॥
९७॥
हर व्यक्ति श्री चैतन्य महाप्रभु के आगे आकर यही कहता, अब हमने कृष्ण को प्रत्यक्ष देखा है। इस तरह सरस्वती देवी की कृपा से हर व्यक्ति को सच कहना पड़ा।
महाप्रभु देखि' 'सत्य' कृष्ण-दरशन ।। निजाज्ञाने सत्य छाड़ि' 'असत्ये सत्य-भ्रम' ॥
९८॥
जब लोगों ने श्री चैतन्य महाप्रभु को देखा, तो वास्तव में उन्होंने कृष्ण का ही दर्शन किया, किन्तु अपने अज्ञान के कारण ही उन्होंने गलत वस्तु को कृष्ण मान लिया था।
भट्टाचार्य तबे कहे प्रभुर चरणे ।। ‘आज्ञा देह', ग्राइ' करि कृष्ण दरशने!' ॥
९९ ॥
तभी बलभद्र भट्टाचार्य ने श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों में निवेदन किया, मुझे आज्ञा दें कि मैं जाकर कृष्ण का प्रत्यक्ष दर्शन कर सकें।
तबे तौरे कहे प्रभु चापड़ मारिया ।। मूर्खर वाक्ये 'मूर्ख' हैला पण्डित हा ॥
१०० ॥
जब बलभद्र भट्टाचार्य ने कालीयदह में कृष्ण का दर्शन करने के लिए आज्ञा चाही, तो श्री चैतन्य महाप्रभु ने यह कहकर दयापूर्वक उसको चपत लगाई, तुम विद्वान होकर भी अन्य मूर्खा की बातों में आकर मूर्ख बन रहे हो।
कृष्ण केने दरशन दिबे कलि-काले? ।।निज-भ्रमे मूर्ख-लोक करे कोलाहले ॥
१०१॥
भला कलियुग में कृष्ण क्यों प्रकट होने लगे? भ्रमित मूर्ख लोग ही उत्तेजना फैलाते हैं और कोलाहल मचाते हैं।
‘वातुल' ना हइओ, घरे रहत वसिया । 'कृष्ण' दरशन करिह कालि रात्र्ये ग्नाआ ॥
१०२॥
पागल मत बनो। यहीं बैठे रहो और कल रात में तुम कृष्ण का दर्शन करने जाओगे।
प्रातः-काले भव्य-लोक प्रभु-स्थाने आइला । ‘कृष्ण देखि' आइला?'–प्रभु ताँहारे पुछिला ॥
१०३ ॥
अगले दिन कुछ भद्र लोग श्री चैतन्य महाप्रभु से मिलने आये और महाप्रभु ने उनसे पूछा, क्या आपने कृष्ण को देखा? लोक कहे,—राये कैवर्त्य नौकाते चड़िया ।। कालीय-दहे मत्स्य मारे, देउटी ज्वालिया ॥
१०४॥
इन भद्र लोगों ने उत्तर दिया, रात में कालीयदह में एक मछुआरा अपनी नाव में दीपक जलाकर मछलियाँ पकड़ता है।
दूर हैते ताहा देखि' लोकेर हय ' भ्रम' ।। 'कालीयेर शरीरे कृष्ण करिछे नर्तन'! ॥
१०५॥
दूर से लोग भ्रमवश सोचते हैं कि वे कालीय नाग के शरीर पर कृष्ण को नाचते हुए देख रहे हैं।
नौकाते कालीय-ज्ञान, दीपे रत्न-ज्ञाने! । जालियारे मूढ़-लोक'कृष्ण' करि' माने! ॥
१०६ ॥
ये मूर्ख सोचते हैं कि नाव कालीय नाग है और दीपक उसके फनों की मणियाँ हैं। लोग मछुआरे को भी कृष्ण मान बैठते हैं।
वृन्दावने 'कृष्ण' आइला, सेइ'सत्य' हय ।। कृष्णेरे देखिल लोक,—इहा 'मिथ्या' नय ॥
१०७॥
सचमुच ही भगवान् कृष्ण फिर से वृन्दावन में लौट आये हैं। यह मध है और यह भी सच है कि लोगों ने उन्हें देखा है।
किन्तु काहों 'कृष्ण' देखे, काहों 'भ्रम' माने । स्थाणु-पुरुषे ग्रैछे विपरीत-ज्ञाने ॥
१०८॥
किन्तु वे कृष्ण को कहाँ देख रहे हैं, यह उनका भ्रम है। यह तो सूखे वृक्ष को पुरुष मानने जैसा है।
प्रभु कहे,–'काहाँ पाइला कृष्ण दरशन?' । लोक कहे,–'सन्यासी तुमि जङ्गम-नारायण ॥
१०९॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने उनसे पूछा,तुमने कृष्ण को प्रत्यक्ष कहाँ देखा है? लोगों ने उत्तर दिया, आप संन्यासी हैं, अतएव आप चलतेफिरते नारायण ( जङ्गम-नारायण) हैं।
वृन्दावने हइला तुमि कृष्ण-अवतार । तोमा देखि' सर्व-लोक हइल निस्तार ॥
११०॥
तब लोगों ने कहा, आप वृन्दावन में कृष्ण के अवतार के रूप में प्रकट हुए हैं। आपका दर्शन करने से ही हर व्यक्ति मुक्त हो गया है।
प्रभु कहे,–विष्णु' 'विष्णु' इहा ना कहिबा! ।जीवाधमे 'कृष्ण'-ज्ञान कभु ना करिबा! ॥
१११॥
श्री चैतन्य महाप्रभु तुरन्त बोल पड़े, विष्णु! विष्णु! मुझे भगवान् मत कहो। जीव कभी-भी कृष्ण नहीं बन सकता। ऐसी बात कभी मत कहना! सन्यासी—चित्कण जीव, किरण-कण-सम । घडू-ऐश्वर्य-पूर्ण कृष्ण हय सूर्योपम ॥
११२॥
संन्यासी निश्चित ही पूर्ण का अंश है, जिस तरह कि धूप का चमकता लघु कण सूर्य का अंश होता है। कृष्ण सूर्य के समान हैं, छः ऐश्वर्यों से पृर्ण; किन्तु जीव पूर्ण का केवल अंश मात्र है।
जीव, ईश्वर-तत्त्व—कभु नहे 'सम' ।।ज्वलदग्नि-राशि प्रैछे स्फुलिङ्गेर 'कण' ॥
११३॥
जीव तथा परम भगवान् कभी भी समान नहीं माने जा सकते, जिस तरह कि स्फुलिंग का कण कभी मूल प्रज्वलित अग्नि नहीं माना जा सकता।
ह्लादिन्या संविदाश्लिष्टः सच्चिदानन्द ईश्वरः ।। स्वाविद्या-संवृतो जीवः सङ्क्लेश-निकराकरः ॥
११४॥
परम नियन्ता, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् सदैव दिव्य आनन्द से पूर्ण रहते हैं और ह्लादिनी तथा सम्वित् शक्तियों से युक्त होते हैं। किन्तु बद्धजीव सदैव अज्ञान से आवृत रहता है और जीवन के तीन प्रकार के कष्टों से ग्रस्त रहता है। इस तरह वह सभी प्रकार के कष्टों की खान है।'
ग्रेइ मूढ़ कहे,---जीव ईश्वर हय ‘सम' ।। सेइत 'पाषण्डी' हय, दण्डे तारे ग्रम ॥
११५॥
जो मूर्ख यह कहता है कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् जीव के समान है, वह नास्तिक है। वह यमराज द्वारा दण्डित होने का पात्र बनता है।
ग्रस्तु नारायणं देवं ब्रह्म-रुद्रादि-दैवतैः ।। समत्वेनैव वीक्षेत स पाषण्डी भवेधुवम् ॥
११६॥
जो व्यक्ति ब्रह्मा तथा शिव जैसे देवताओं को नारायण के समकक्ष मानता है, उसे अपराधी अथवा पाषण्डी माना जाता है।
लोक कहे,—तोमाते कभु नहे 'जीव'-मति । कृष्णेर सदृश तोमार आकृति-प्रकृति ॥
११७॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु सामान्य जीव तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के बीच का अन्तर बतला चुके, तो लोगों ने कहा, आपको कोई भी व्यक्ति सामान्य मनुष्य नहीं मानता। आप हर तरह से, शारीरिक लक्षणों तथा गुणों से, कृष्ण के तुल्य हैं।
‘आकृत्ये' तोमारे देखि ‘व्रजेन्द्र-नन्दन' ।।देह-कान्ति पीताम्बर कैल आच्छादन ॥
११८॥
हम आपके शारीरिक लक्षणों से देखते हैं कि आप नन्द महाराज के पुत्र के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं हैं, यद्यपि आपके शरीर की सुनहरी कान्ति ने आपके मूल वर्ण को आच्छादित कर लिया है।
मृग-मद वस्त्रे बान्धे, तबु ना लुकाय ।।‘ईश्वर-स्वभाव' तोमार टाका नाहि ग्राय ॥
११९॥
जिस तरह कस्तूरी की महक कपड़े में बाँधने पर भी छिपाए नहीं पती, उसी तरह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के रूप में आपके गुणों को किसी भी प्रकार छिपाया नहीं जा सकता।
अलौकिक ‘प्रकृति' तोमार—बुद्धि-अगोचर ।तोमा देखि' कृष्ण-प्रेमे जगत्पागल ॥
१२०॥
निस्सन्देह, आपके गुण असाधारण हैं और सामान्य जीव की । कल्पना से परे हैं। आपको देख करके ही सारा ब्रह्माण्ड कृष्ण-प्रेम में पागल हो उठता है।
स्त्री-बाल-वृद्ध, आर चण्डाल’ ‘ग्रवन' ।। येइ तोमार एक-बार पाय दरशन ॥
१२१॥
कृष्ण-नाम लय, नाचे हा उन्मत्त ।।आचार्य हइल सेइ, तारिल जगत ॥
१२२॥
यहाँ तक कि स्त्रियाँ, बच्चे, बूढ़े व्यक्ति, मांसाहारी या अधम जाति वाले व्यक्ति भी आपका एक बार दर्शन करने से तुरन्त कृष्ण-नाम का कीर्तन करने लगते हैं, पागलों की भाँति नाचते हैं और सारे संसार को उद्धार करने में समर्थ गुरु बन जाते हैं।
दर्शनेर कार्य आछुक, ये तोमार 'नाम' शुने । सेइ कृष्ण-प्रेमे मत्त, तारे त्रिभुवने ॥
१२३॥
आपके दर्शन के अतिरिक्त जो कोई भी आपका पावन नाम सुनता है, वह कृष्ण-प्रेम में पागल बन जाता है और तीनों लोकों का उद्धार करने में सक्षम हो जाता है।
तोमार नाम शुनि' हय श्वपच 'पावन' । अलौकिक शक्ति तोमार ना ग्राय कथन ॥
१२४॥
आपका पावन नाम सुनने से ही कुत्ते खाने वाले ( चण्डाल ) पवित्र मन बन जाते हैं। आपकी असाधारण शक्तियों का शब्दों में वर्णन नहीं गिया जा सकता।
यन्नामधेय-श्रवणानुकीर्तनाद् ।ग्रत्प्रङ्क्षणाद् यत्स्मरणादपि क्वचित् ।। श्वादोऽपि सद्यः सवनाय कल्पते ।कुतः पुनस्ते भगवन्नु दर्शनात् ॥
१२५॥
परम भगवान् का साक्षात्कार करने वाले लोगों की आध्यात्मिक प्रगति की बात छोड़ दें, चण्डाल के परिवार में जन्मा व्यक्ति भी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के नाम का एक बार भी उच्चारण करता है या उनका कीर्तन करता है, उनकी लीलाओं के विषय में सुनता है, उन्हें नमस्कार करता है या उनका स्मरण करता है, तो वह तुरन्त वैदिक यज्ञ करने का पात्र बन जाता है।'
एइत' महिमा तोमार 'तटस्थ'-लक्षण ।।‘स्वरूप'-लक्षणे तुमि–‘व्रजेन्द्र-नन्दन' ॥
१२६॥
आपकी ये महिमाएँ केवल तटस्थ लक्षण हैं। मूलतः आप महाराज नन्द के पुत्र हैं।
सेइ सब लोके प्रभु प्रसाद करिल ।कृष्ण-प्रेमे मत्त लोक निज-घरे गेल ॥
१२७॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने वहाँ पर उपस्थित सभी लोगों को अपनी अहैतुकी कृपा प्रदान की और हर व्यक्ति भगवत्प्रेम से मत्त हो उठा। अन्त में वे सब अपने-अपने घर चले गये।
एइ मत कत-दिन 'अकूरे' रहिला ।।कृष्ण-नाम-प्रेम दिया लोक निस्तारिला ॥
१२८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु कुछ दिनों तक अक्रूर तीर्थ में रहे। उन्होंने वहाँ कृष्ण-नाम तथा भगवत्प्रेम का वितरण करके हर एक का उद्धार किया।
माधव-पुरीर शिष्य सेइत ब्राह्मण ।।मथुरार घरे-घरे करा'न निमन्त्रण ॥
१२९॥
माधवेन्द्र पुरी के ब्राह्मण शिष्य ने मथुरा में घर-घर जाकर अन्य ब्राह्मणों को प्रोत्साहित किया कि श्री चैतन्य महाप्रभु को अपने घरों में आमंत्रित करें।
मथुरार व्रत लोक ब्राह्मण सज्जन ।।भट्टाचार्य-स्थाने आसि' करे निमन्त्रण ॥
१३०॥
अतः मथुरा के सारे सम्मानित व्यक्ति, जिनमें ब्राह्मण अग्रणी थे, बलभद्र भट्टाचार्य के पास आये और महाप्रभु के लिए निमन्त्रण दिया।
एक-दिन 'दश' 'बिश' आइसे निमन्त्रण ।।भट्टाचार्य एकेर मात्र करेन ग्रहण ॥
१३१॥
प्रतिदिन दस से बीस निमन्त्रण प्राप्त होते, किन्तु बलभद्र भट्टाचार्य उनमें से केवल एक को स्वीकार करते।
अवसर ना पाय लोक निमन्त्रण दिते ।। सेइ विप्रे साधे लोक निमन्त्रण निते ॥
१३२॥
चूँकि हर एक को श्री चैतन्य महाप्रभु को आमन्त्रित करने का अवसर नहीं मिला, अतएव उन्होंने सनोड़िया ब्राह्मण से प्रार्थना की कि वे महाप्रभु से उनका निमन्त्रण स्वीकार करने के लिए कहें।
कान्यकुब्ज़-दाक्षिणात्येर वैदिक ब्राह्मण । दैन्य करि, करे महाप्रभुर निमन्त्रण ।। १३३॥
कान्यकुब्ज तथा दक्षिण भारत जैसे विभिन्न स्थानों के ब्राह्मणों ने, जो वैदिक धर्म के पक्के अनुयायी थे, परम दैन्य भाव से श्री चैतन्य महाप्रभु को निमन्त्रण दिया।
प्रातःकाले अकूरे आसि' रन्धन करिया ।। प्रभुरे भिक्षा देन शालग्रामे समर्पिया ॥
१३४॥
प्रात:काल वे अक्रूर तीर्थ आते और भोजन पकाते थे। फिर इसे शालग्राम शिला को अर्पित करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु को देते।
एक-दिन सेइ अक्रूर-घाटेर उपरे । वसि’ महाप्रभु किछु करेन विचारे ।। १३५ ॥
एक दिन श्री चैतन्य महाप्रभु अक्रूर-तीर्थ के स्नानघाट पर बैठ गये। और इस तरह सोचने लगे।
एइ घाटे अक्रूर वैकुण्ठ देखिल ।। व्रजवासी लोक 'गोलोक' दर्शन कैल ॥
१३६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने सोचा, इस घाट पर अक्रूर को वैकुण्ठ लोक ग्वा था और सारे व्रजवासियों ने गोलोक वृन्दावन देखा था।
एत बलि' झाँप दिला जलेर उपरे ।डुबिया रहिला प्रभु जलेर भितरे ॥
१३७॥
यह सोचते हुए कि अक्रूर किस तरह जल के भीतर रहे, श्री चैतन्य महाप्रभु तुरन्त जल में कूद पड़े और कुछ समय तक जल के भीतर रहे।
देखि' कृष्णदास कान्दि' फुकार करिल ।।भट्टाचार्य शीघ्र आसि’ प्रभुरे उठाइल ॥
१३८॥
जब कृष्णदास ने देखा कि चैतन्य महाप्रभु डूब रहे हैं, तो वह खूब जोर से चिल्लाया। तुरन्त ही बलभद्र भट्टाचार्य ने आकर महाप्रभु को जल से बाहर खींचा।
तबे भट्टाचार्य सेइ ब्राह्मणे ला ।।युक्ति करिला किछु निभृते वसिया ॥
१३९॥
इसके बाद बलभद्र भट्टाचार्य सनोड़िया ब्राह्मण को एकान्त स्थान में ले गया और उससे विचार-विमर्श किया।
आजि आमि आछिलाङ उठाइलें प्रभुरे ।।वृन्दावने डुबेन यदि, के उठाबे ताँरे? ॥
१४० ॥
बलभद्र भट्टाचार्य ने कहा, चूँकि मैं आज उपस्थित था, इसलिए महाप्रभु को ऊपर खींच पाना मेरे लिए सम्भव हो सका। किन्तु यदि वे गन्दावन में डूबने लगें, तो कौन उनकी सहायता करेगा? लोकेर सङ्घट्ट, आर निमन्त्रणेर जञ्जाल ।।निरन्तर आवेश प्रभुर ना देखिये भाल ॥
१४१।। अब यहाँ पर लोगों की भीड़ होने लगी है और इन निमन्त्रणों से बहुत परेशानी होती है। साथ ही, महाप्रभु सदैव भावावेश में रहते हैं। मुझे यहाँ की स्थिति बहुत अच्छी नहीं लगती।
वृन्दावन हैते यदि प्रभुरे काड़िये ।।तबे मङ्गल हय,–एइ भाल युक्ति हुये ।। १४२॥
अच्छा यही होगा, यदि हम श्री चैतन्य महाप्रभु को वृन्दावन से बाहर ले चलें। यही मेरा अन्तिम निर्णय है।
विप्र कहे,—प्रयागे प्रभु ला ग्राइ ।गङ्गा-तीर-पथे ग्राइ, तबे सुख पाइ ॥
१४३ ॥
सनोडिया ब्राह्मण ने कहा, चलो, हम उन्हें प्रयाग ले चलें और गंगा के किनारे-किनारे चलें। उस मार्ग से होकर जाना बहुत ही आनन्दप्रद होगा।
‘सोरो-क्षेत्रे, आगे ग्राञा करि' गङ्गा-स्नान ।।सेइ पथे प्रभु लञा करिये पयान ॥
१४४॥
सोरोक्षेत्र नामक तीर्थस्थान जाकर तथा गंगास्नान करके हम श्री चैतन्य महाप्रभु को उसी मार्ग से होकर ले चलें।
माघ-मास लागिल, एबे यदि ग्राइये ।।मकरे प्रयाग-स्नान कत दिन पाइये ॥
१४५॥
अब माघ मास लग रहा है। यदि हम इस समय प्रयाग जाएँ, तो हमें मकर संक्रान्ति के अवसर पर कुछ दिन स्नान करने का अवसर मिल जायेगा।
आपनार दुःख किछु करि' निवेदन ।।‘मकर-पँचसि प्रयागे' करिह सूचन ॥
१४६॥
सनोड़िया ब्राह्मण ने आगे कहा, तुम अपने मन के भीतर जिस दुःख का अनुभव कर रहे हो, उसे चैतन्य महाप्रभु के सामने निवेदन करो। तब यह प्रस्ताव रखो कि हम माघ मास की पूर्णिमा को प्रयाग जाना चाहते हैं।
गङ्गा-तीर-पथे सुख जानाइह ताँरे ।भट्टाचार्य आसि' तबे कहिल प्रभुरे ॥
१४७॥
तुम महाप्रभु से जाकर उस सुख को बतलाओ, जो तुम गंगा नदी के किनारे-किनारे यात्रा करने में अनुभव करोगे। अत: बलभद्र भट्टाचार्य ने श्री चैतन्य महाप्रभु से यह प्रार्थना निवेदित की।
सहिते ना पारि आमि लोकेर गड़बड़ि।। निमन्त्रण लागि' लोक करे हुड़ाहुड़ि ॥
१४८ ॥
बलभद्र भट्टाचार्य ने महाप्रभु से बतलाया, मैं अब भीड़ द्वारा किये जाने वाले उपद्रव को और नहीं सह सकता। लोग एक के बाद एक निमन्त्रण देने के लिए चले आते हैं।
प्रातःकाले आइसे लोक, तोमारे ना पाय ।। तोमारे ना पाजा लोक मोर माथा खाय ॥
१४९॥
प्रातःकाल लोग यहाँ आते हैं और आपको उपस्थित न देखकर मेरा सिर खाते हैं।
तबे सुख हय ग्रबे गङ्गा-पथे ग्राइये । एबे ग्रदि ग्राइ, ‘मकरे' गङ्गा-स्नान पाइये ॥
१५०॥
मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी, यदि हम सभी गंगा नदी के किनारे के मार्ग से यात्रा करें। तब हमें मकर संक्रान्ति के अवसर पर प्रयाग में स्नान करने का अवसर प्राप्त हो सकता है।
उद्विग्न हइल प्राण, सहिते ना पारि ।। प्रभुर ग्रे आज्ञा हय, सेइ शिरे धरि ॥
१५१॥
मेरा मन अत्यन्त उद्विग्न हो उठा है और मैं इस चिन्ता को सह नहीं सकता। अब तो आपकी अनुमति पर ही सब निर्भर करता है। आप जो करना चाहें वह मुझे स्वीकार्य होगा।
ग्रद्यपि वृन्दावन-त्यागे नाहि प्रभुर मन ।। भक्त-इच्छा पूरिते कहे मधुर वचन ॥
१५२॥
यद्यपि श्री चैतन्य महाप्रभु की इच्छा नहीं थी कि वृन्दावन छोड़े, किन्तु अपने भक्त की इच्छा पूरी करने के लिए वे मीठे बचन बोले।
तुमि आमाय आनि' देखाइला वृन्दावन ।।एइ 'ऋण' आमि नारिब करिते शोधन ॥
१५३॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, तुम मुझे यहाँ वृन्दावन दिखलाने के लिए लाये हो। इसके लिए मैं तुम्हारा अत्यधिक ऋणी हूँ और मैं इस ऋण को चुका सकने में समर्थ नहीं हो सकेंगा।
ये तोमार इच्छा, आमि सेइत करिब ।।ग्राहाँ लजा ग्राह तुमि, ताहाङिग्राइब ॥
१५४॥
जो तुम्हारी इच्छा है, वही मैं करूँगा। तुम मुझे जहाँ भी ले जाओगे, भी जाऊँगा।
प्रातः-काले महाप्रभु प्रातः-स्नान कैल ।।‘वृन्दावन छाड़िब' जानि' प्रेमावेश हैल ॥
१५५॥
अगले दिन श्री चैतन्य महाप्रभु जल्दी उठ गये। स्नान करने के बाद यह जानकर कि अब उन्हें वृन्दावन छोड़ना है, वे भावाविष्ट हो गये।
बाह्य विकार नाहि, प्रेमाविष्ट मन ।। भट्टाचार्य कहे,—चल, ग्राइ महावन ॥
१५६ ॥
यद्यपि महाप्रभु के शरीर में बाह्य लक्षण प्रकट नहीं हुए, किन्तु उनका मन प्रेमाविष्ट था। उस समय बलभद्र भट्टाचार्य ने कहा, चलिए महावन ( गोकुल ) चलें।
एत बलि' महाप्रभुरे नौकाय वसा ।।पार करि' भट्टाचार्य चलिला ला ॥
१५७॥
यह कहकर बलभद्र भट्टाचार्य ने श्री चैतन्य महाप्रभु को नौका में चढ़ाया और नदी पार करने के बाद वह महाप्रभु को अपने साथ ले गया।
प्रेमी कृष्णदास, आर सेइत ब्राह्मण ।। गङ्गा-तीर-पथे ग्राइबार विज्ञ दुइ-जन ॥
१५८॥
राजपूत कृष्णदास तथा सनोड़िया ब्राह्मण दोनों ही गंगा नदी के कनारे के रास्ते से भलीभाँति परिचित थे।
ग्राइते एक वृक्ष-तले प्रभु सबा लञा ।। वसिला, सबार पथ-श्रान्ति देखिया ॥
१५९॥
जाते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु समझ गये कि अन्य लोग थक गये हैं, अतः वे सबको एक वृक्ष के तले ले गये और बैठ गये।
सेइ वृक्ष-निकटे चरे बहु गाभी-गण ।। ताहा देखि' महाप्रभुर उल्लसित मन ॥
१६०॥
उस वृक्ष के पास बहुत-सी गाएँ चर रही थीं और महाप्रभु उन्हें देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए।
अचम्बिते एक गोप वंशी बाजाइल । शुनि' महाप्रभुर महा-प्रेमावेश हैल ॥
१६१॥
सहसा एक ग्वाले ने अपनी वंशी बजाई, तो महाप्रभु तुरन्त प्रेमाविष्ट हो गये।
अचेतन हा प्रभु भूमिते पड़िला । मुखे फेना पड़े, नासाय श्वास रुद्ध हैला ॥
१६२॥
भावाविष्ट होने से महाप्रभु अचेत होकर भूमि पर गिर पड़े। उनके मुख से फेन निकलने लगा और उनकी श्वास रुक गई।
हेन-काले ताहाँ आशोयार दश आइला । म्लेच्छ-पाठान घोड़ा हैते उत्तरिला ॥
१६३ ॥
जब महाप्रभु बेहोश थे, तब वहाँ दस अश्वारोही सिपाही, जो पुसलमान पठान सैनिक थे, आये और घोड़े से उतरे।
प्रभुरे देखिया म्लेच्छ करये विचार ।। एइ यति-पाश छिल सुवर्ण अपार ॥
१६४॥
महाप्रभु को बेहोश देखकर सिपाहियों ने सोचा, इस संन्यासी के पास अवश्य ही काफी मात्रा में सोना होगा।
एइ चारि बाटोयार धुतुरा खाओयाजा ।। मारि' डारियाछे, ग्रतिर सब धन लञा ॥
१६५ ॥
इन चारों धूर्ती ने धतूरा खिलाकर मारने के बाद अवश्य ही इस संन्यासी का धन ले लिया होगा।
तबे सेइ पाठान चारि-जनेरे बाँधिल ।।काटिते चाहे, गौड़िया सब काँपिते लागिल ॥
१६६॥
यह सोचकर पठान सैनिकों ने उन चारों जनों को बन्दी बना लिया और उनको मार डालने का निश्चय किया। इसके कारण दोनों बंगाली काँपने लगे।
कृष्णदास----राजपुत, निर्भय से बड़ ।।सेइ विप्र निर्भय, से—मुखे बड़ दड़ ॥
१६७॥
भक्त कृष्णदास राजपूत जाति का था और बहुत निडर था। सनोड़िया ब्राह्मण भी निडर था, अतः वह बड़ी बहादुरी से बोला।
विप्र कहे,—पाठान, तोमार पात्सार दोहाइ । चल तुमि आमि सिक्दार-पाश ग्राइ ॥
१६८॥
ब्राह्मण ने कहा, तुम पाठान सिपाही अपने राजा के संरक्षण में हो। भलो हम तुम्हारे अधिकारी के पास चलते हैं और उनका निर्णय लेते हैं।
एइ ग्रति आमार गुरु, आमि–माथुर ब्राह्मण ।। पात्सार आगे आछे मोर ‘शत जन' ॥
१६९॥
यह संन्यासी मेरे गुरु हैं और मैं मथुरा से आया हूँ। मैं ब्राह्मण हूँ और में ऐसे सैकड़ों व्यक्तियों को जानता हूँ, जो मुसलमान राजा की नौकरी में हैं ।"
एइ ग्रति व्याधिते कभु हयेन मूच्छित ।अबँहि चेतन पाइबे, हइबे सम्वित ॥
१७०॥
ये संन्यासी रोग के कारण कभी-कभी बेहोश हो जाते हैं। कृपया बैठ जाएँ और आप देखेंगे कि शीघ्र ही उन्हें चेतना आ जायेगी और वे सामान्य हो जायेंगे।
क्षणेक इहाँ वैस, बान्धि' राखह सबारे ।।इँहाके पुछिया, तबे मारिह सबारे ॥
१७१॥
आप थोड़ी देर बैठे रहें और हम सबको बन्दी बनाये रखें। जब इन संन्यासी को होश आ जाए, तब आप इनसे पूछे। तब यदि आप चाहें तो हम सबको मार सकते हैं।
पाठान कहे,—तुमि पश्चिमा माथुर दुइ-जन ।।‘गौड़िया' ठक् एइ काँपे दुइ-जन ॥
१७२ ॥
सिपाहियों ने कहा, तुम सभी धूर्त हो। तुम में से एक पश्चिम से है, एक मथुरा जिले से है और अन्य दो, जो काँप रहे हैं, बंगाल के हैं।
कृष्णदास कहे,—आमार घर एइ ग्रामे ।।दुइ-शत तुर्की आछे, शतेक कामाने ॥
१७३॥
राजपूत कृष्णदास ने कहा, मेरा घर यहीं है और मेरे पास लगभग मी तुर्की सिपाही तथा एक सौ तोपें हैं।
एखनि आसिबे सब, आमि यदि फुकारि ।।घोड़ा-पिड़ा लुटि' लबे तोमा-सबा मारि' ॥
१७४॥
यदि मैं पुकारूँ, तो वे तुरन्त आकर तुम्हारा वध कर देंगे और तुम्हारे थी तथा काठी लूट लेंगे।
गौड़िया--' बाटपाड़' नहे, तुमि-बाटपाड़' ।तीर्थ-वासी लुठ', आर चाह' मारिबार ॥
१७५ ॥
बंगाली यात्री धूर्त नहीं हैं। तुम्हीं धूर्त हो, जो यात्रियों को मारकर लूट लेना चाहते हो।
शुनिया पाठान मने सङ्कोच हइल ।। हेन-काले महाप्रभु चैतन्य' पाइल ॥
१७६ ॥
यह ललकार सुनकर पाठान सिपाही हिचकिचाये। तभी श्री चैतन्य महाप्रभु की सहसा चेतना लौट आयी।
हुङ्कार करिया उठे, बले ‘हरि' ‘हरि' ।।प्रेमावेशे नृत्य करे ऊर्ध्व-बाहु करि' ॥
१७७॥
चेतना आने पर महाप्रभु जोर-जोर से हरि! हरि! का उच्चारण करने लगे। वे अपनी दोनों बाहें ऊपर उठाकर प्रेमावेश में नृत्य करने लगे।
प्रेमावेशे प्रभु ग्रबे करेन चित्कार। म्लेच्छेर हृदये ग्रेन लागे शेलधार ॥
१७८॥
जब प्रेमावेश में महाप्रभु ने गर्जना की, तो मुसलमान सिपाहियों को लगा कि उनके हृदयों पर वज्रपात हो गया है।
भय पाञा म्लेच्छ छाड़ि' दिल चारि-जन ।। प्रभु ना देखिल निज-गणेर बन्धन ॥
१७९॥
सभी पठान सिपाहियों ने भय के मारे चारों व्यक्तियों को छोड़ दिया। म तह श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने निजी संगियों को बन्दी रूप में नहीं भट्टाचार्य आसि' प्रभुरे धरि' वसाइल ।। म्लेच्छ-गण देखि' महाप्रभुर'बाह्य' हैल ॥
१८०॥
तभी बलभद्र भट्टाचार्य ने श्री चैतन्य महाप्रभु के पास जाकर उन्हें पकड़कर बैठाया। मुसलमान सिपाहियों को देखकर महाप्रभु को बाह्य चेतना हो गई।
म्लेच्छ-गण आसि' प्रभुर वन्दिल चरण ।।प्रभु-आगे कहे,—एइ ठक् चारि-जन ॥
१८१॥
तब सारे मुसलमान सिपाही महाप्रभु के समक्ष आये, उन्होंने उनके चरणकमलों की वन्दना की और कहा, ये चारों धूर्त ( ठग ) हैं।
एइ चारि मिलि' तोमाय धुतुरा खाओयाजा ।। तोमार धन लैल तोमाये पागल करिया ॥
१८२॥
इन चारों ने मिलकर आपको धतूरा खिलाया और आपको पागल बनाकर आपका सारा धन ले लिया है।
प्रभु कहेन, ठक् नहे, मोर 'सङ्गी' जन ।। भिक्षुक सन्यासी, मोर नाहि किछु धन ॥
१८३ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, ये चारों ठग नहीं हैं। ये मेरे साथी हैं। सन्यासीभिक्षुक होने के कारण मेरे पास कुछ भी नहीं है।
मृगी-व्याधिते आमि कभु हइ अचेतन ।। एइ चारि दया करि' करेन पालन ॥
१८४॥
मिरगी रोग के कारण मैं कभी-कभी बेहोश हो जाता हूँ। ये चारों यावश मेरी देख-रेख करते हैं।
सेइ म्लेच्छ-मध्ये एक परम गम्भीर ।। काल वस्त्र परे सेइ, लोके कहे 'पीर' ॥
१८५॥
उन मुसलमानों में से एक गम्भीर व्यक्ति था, जो काले वस्त्र पहने था। लोग उसे साधु पुरुष (पीर) कहते थे।
चित्त आई हैल ताँर प्रभुरे देखियो । 'निर्विशेष-ब्रह्म' स्थापे स्वशास्त्र उठाझा ॥
१८६॥
उस पीर का मन श्री चैतन्य महाप्रभु को देखकर मृदु हो गया। उसने उनसे बात करनी चाही और अपने शास्त्र कुरान के आधार पर निर्विशेष ब्रह्म की स्थापना करनी चाही।
‘अद्वैत-ब्रह्म-वाद' सेइ करिल स्थापन । तार शास्त्र-युक्त्ये तारे प्रभु कैला खण्डन ॥
१८७॥
जब उस पीर ने कुरान के आधार पर परम सत्य की निर्विशेष ब्रह्मवाद के रूप में स्थापना करने का प्रयास किया, तो श्री चैतन्य महाप्रभु ने उसके तर्को का खण्डन किया।
येइ ग्रेइ कहिल, प्रभु सकलि खण्डिल ।। उत्तर ना आइसे मुखे, महा-स्तब्ध हैल ॥
१८८॥
वह जो भी तर्क प्रस्तुत करता, महाप्रभु उन सबका खण्डन कर देते। अन्त में वह व्यक्ति स्तम्भित रह गया और कुछ भी बोल न सका।
प्रभु कहे,—तोमार शास्त्र स्थापे 'निर्विशेषे'।ताहा खण्डि' 'सविशेष' स्थापियाछे शेषे ॥
१८९॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, कुरान द्वारा निश्चय ही निर्विशेषवाद स्थापित होता है, किन्तु अन्त में यह निर्विशेषवाद का खण्डन करके माकार ईश्वर की स्थापना करता है।
तोमार शास्त्रे कहे शेषे 'एक-इ ईश्वर' ।‘सर्वैश्वर्य-पूर्ण तेहो–श्याम-कलेवर ॥
१९०॥
कुरान इस तथ्य को स्वीकार करता है कि अन्ततोगत्वा ईश्वर केवल एक हैं। वे ऐश्वर्य से पूर्ण हैं और उनका शारीरिक वर्ण श्याम (काला) हैं।
सच्चिदानन्द-देह, पूर्ण-ब्रह्म-स्वरूप ।। ‘सर्वात्मा', 'सर्वज्ञ', नित्य सर्वादि-स्वरूप ॥
१९१॥
कुरान के अनुसार भगवान् का स्वरूप सनातन, आनन्दमय तथा दिव्य है। वे परम सत्य, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ तथा शाश्वत व्यक्ति हैं। वे सभी वस्तुओं के उद्गम हैं।
सृष्टि, स्थिति, प्रलय ताँहा हैते हये ।। स्थूल-सूक्ष्म-जगतेर तेंहो समाश्रय ॥
१९२॥
सृष्टि, पालन और संहार उन्हीं से होते हैं। वे समस्त स्थूल तथा सूक्ष्म प्राकट्यों के मूल आश्रय हैं।
सर्व-श्रेष्ठ, सर्वाराध्य, कारणेर कारण ।।ताँर भक्त्ये हय जीवेर संसार-तारण ॥
१९३॥
भगवान् सबके द्वारा आराध्य परम सत्य हैं। वे समस्त कारणों के कारण हैं। उनकी भक्ति करने से जीव भवबन्धन से छूट जाता है।
ताँर सेवा विना जीवेर ना ग्राय 'संसार' ।।ताँहार चरणे प्रीति–‘पुरुषार्थ-सार' ॥
१९४॥
कोई भी बद्धजीव पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की सेवा किये बिना भवबन्धन से छूट नहीं सकता। जीवन का चरम उद्देश्य उनके चरणों के प्रति प्रेम है।
मोक्षादि आनन्द झार नहे एक 'कण' ।।पूर्णानन्द-प्राप्ति ताँर चरण-सेवन ॥
१९५॥
मुक्ति का सुख, जिसमें मनुष्य भगवान् से एकाकार हो जाता है, भगवान् के चरणकमलों की सेवा करने से प्राप्त होने वाले दिव्य आनन्द के एक अंश के भी बराबर नहीं है।
'कर्म', 'ज्ञान', 'ग्रोग' आगे करिया स्थापन ।सब खण्डि' स्थापे 'ईश्वर', 'ताँहार सेवन' ॥
१९६॥
कुरान में सकाम कर्म, ज्ञान, योग तथा सर्वोपरि से मिलन का वर्णन मिलता है, किन्तु अन्ततः हर बात का खण्डन होता है, और भगवान् के रूप तथा उनकी भक्ति की स्थापना होती है।
तोमार पण्डित-सबार नाहि शास्त्र-ज्ञान ।। पूर्वापर-विधि-मध्ये 'पर'–बलवान् ॥
१९७॥
कुरान के विद्वान ज्ञान में अधिक उन्नत नहीं हैं। यद्यपि कई विधियों I aन हुआ है, किन्तु वे यह नहीं जानते कि अन्तिम निर्णय को सबसे मान मानना चाहिए।
निज-शास्त्र देखि' तुमि विचार करिया ।। कि लिखियाछे शेषे कह निर्णय करिया ॥
१९८॥
अपने कुरान को देखकर तथा उसमें जो कुछ लिखा है उस पर र करने के बाद तुम्हारा निर्णय क्या है? ।
म्लेच्छ कहे,—येइ कह, सेइ 'सत्य' हय ।। शास्त्रे लिखियाछे, केह लइते ना पारय ॥
१९९॥
उस मुस्लिम सन्त ने उत्तर दिया, आपने जो कुछ कहा है, वह सत्य है। यह कुरान में लिखा अवश्य है, किन्तु हमारे विद्वान न तो इसे समझते हैं, न स्वीकार करते हैं।
‘निर्विशेष-गोसाञि' लञा करेन व्याख्यान । ‘साकार-गोसाजि'–सेव्य, कारो नाहि ज्ञान ॥
२०० ॥
सामान्यतया वे भगवान् के निर्विशेष पक्ष का वर्णन करते हैं, किन्तु उन्हें शायद ही इसका ज्ञान हो कि भगवान् का साकार रूप पूजनीय है। निस्सन्देह, उनमें इस ज्ञान का अभाव है।
सेइत ‘गोसाजि' तुमि-साक्षात् 'ईश्वर' ।। मोरे कृपा कर, मुञि—अयोग्य पामर ॥
२०१॥
चूँकि आप वही पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं, अतएव मुझ पर कृपा कीजिये। मैं पतित और अयोग्य हूँ।
अनेक देखिनु मुञि म्लेच्छ-शास्त्र हैते ।।'साध्य-साधन-वस्तु' नारि निर्धारिते ॥
२०२॥
मैंने मुसलमान शास्त्र का विस्तार से अध्ययन किया है, किन्तु मैं अन्तिम रूप से यह निश्चय नहीं कर सकता कि जीवन का चरम लक्ष्य क्या है अथवा उस तक मैं कैसे पहुँच सकता हूँ? तोमा देखि' जिह्वा मोर बले 'कृष्ण-नाम' ।।‘आमि-बड़ ज्ञानी'—एइ गेल अभिमान ॥
२०३ ॥
अब आपको देखकर मेरी जीभ हरे कृष्ण महामन्त्र का कीर्तन का रही है। अब मेरा यह मिथ्या अभिमान दूर हो गया है कि मैं विद्वान हूँ।
कृपा करि' बल मोरे ‘साध्य-साधने' ।।एत बलि' पड़े महाप्रभुर चरणे ॥
२०४॥
यह कहकर वह सन्त मुसलमान श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमल पर गिर पड़ा और उनसे प्रार्थना की कि वे जीवन के चरम लक्ष्य तथा उसे प्राप्त करने की विधि के बारे में उससे कहें।
प्रभु कहे,—उठ, कृष्ण-नाम तुमि लइला ।।कोटि-जन्मेर पाप गेल, 'पवित्र' हइला ॥
२०५॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, कृपया उठो। तुमने कृष्ण के पवि नाम का उच्चारण किया है। अतः तुम्हारे करोड़ों जन्मों के पापों के फल चले गये। अब तुम शुद्ध हो गये हो।
'कृष्ण' कह, 'कृष्ण' कह, कैला उपदेश ।।सबे 'कृष्ण' कहे, सबार हैल प्रेमावेश ॥
२०६॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने वहाँ उपस्थित सारे मुसलमानों से कहा, 'कृष्ण' के पवित्र नाम का कीर्तन करो! कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करो! जब वे सब कीर्तन करने लगे, तो वे सभी प्रेमाविष्ट हो गये।
‘रामदास' बलि' प्रभु ताँर कैल नाम ।।आर एक पाठान, ताँर नाम–'विजुली-खाँन' ॥
२०७॥
अग तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने प्रत्यक्ष रूप से उस सन्त मुसलमान को कृष्ण नाम का कीर्तन करने का उपदेश देकर उसे दीक्षित कर दिया। उसका नाम बदलकर रामदास कर दिया गया। एक अन्य पठान भी वहाँ , जिसका नाम विजुली खान रखा गया।
अल्प वयस ताँर, राजार कुमार ।।‘रामदास' आदि पाठान–चाकर ताँहार ॥
२०८॥
विजुली खान नवयुवक था और राजा का पुत्र था। रामदास आदि अन्य सारे पठान उसके नौकर थे।
'कृष्ण' बलि' पड़े सेइ महाप्रभुर पाय ।।प्रभु श्री-चरण दिल ताँहार माथाय ॥
२०९॥
विजुली खान भी श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों पर गिर पड़ा। और महाप्रभु ने उसके सिर पर अपना चरण रखा।
ताँ-सबारे कृपा करि' प्रभु त' चलिला ।। सेइत पाठान सब 'वैरागी' हइला ॥
२१०॥
इस तरह उन सब पर कृपा करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु चल पड़े। तब सारे पठान मुस्लिम साधु ( वैरागी) हो गये।
पाठान-वैष्णव बलि' हैल ताँर ख्याति ।। सर्वत्र गाहिया बुले महाप्रभुर कीर्ति ॥
२११॥
ये ही पठान बाद में पठान वैष्णवों के नाम से विख्यात हुए। वे देशभर घूम-घूमकर श्री चैतन्य महाप्रभु की कीर्ति का गुणगान करने लगे।
सेइ विजुली-खाँन हैल 'महा-भागवत' ।।सर्व-तीर्थे हैल ताँर परम-महत्त्व ॥
२१२॥
विजुली खान बहुत बड़ा भक्त बन गया और उसका महत्त्व प्रत्येक तीर्थस्थान में विख्यात हो गया।
ऐछे लीला करे प्रभु श्री-कृष्ण-चैतन्य ।।‘पश्चिमे' आसिया कैल ग्रवनादि धन्य ॥
२१३॥
इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने लीलाएँ कीं। उन्होंने भारत के पश्चिमी भाग में आकर यवनों तथा म्लेच्छों को सौभाग्य प्रदान किया।
सोरो-क्षेत्रे आसि' प्रभु कैला गङ्गा-स्नान । गङ्गा-तीर-पथे कैला प्रयागे प्रयाण ।। २१४॥
इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु सोरोक्षेत्र नामक तीर्थस्थान गये। उन्होंने वहाँ गगा नदी में स्नान किया और फिर वे गंगा के किनारे-किनारे प्रयाग लिए चल पड़े।
सेइ विप्रे, कृष्णदासे, प्रभु विदाय दिला ।। ग्रोड़-हाते दुइ-जन कहते लागिला ॥
२१५॥
सोरोक्षेत्र में महाप्रभु ने सनोड़िया ब्राह्मण तथा राजपूत कृष्णदास से लौट जाने के लिए कहा, किन्तु वे हाथ जोड़कर इस प्रकार बोले।।
प्रयाग-पर्यन्त मुँहे तोमा-सङ्गे ग्राब ।। तोमार चरण-सङ्ग पुनः काहाँ पाब? ॥
२१६॥
उन्होंने प्रार्थना की, हमें अपने साथ प्रयाग तक चलने दें। यदि हम अभी नहीं जाते, तो हमें आपके चरणकमलों का संग फिर कब मिल पायेगा? म्लेच्छ-देश, केह काहाँ करये उत्पात । भट्टाचार्य–पण्डित, कहिते ना जानेन बात् ॥
२१७॥
यह देश मुख्यतया मुसलमानों से भरा पड़ा है। कोई किसी भी स्थान में उत्पात कर सकता है। यद्यपि आपका संगी बलभद्र भट्टाचार्य विद्वान है, किन्तु वह स्थानीय भाषा में बात करना नहीं जानता।
शुनि' महाप्रभु ईषत् हासिते लागिला ।। सेइ दुइ-जन प्रभुर सङ्गे चलि' आइला ॥
२१८॥
यह सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने थोड़ा हँसते हुए उनका प्रस्ता स्वीकार कर लिया। इस तरह वे दोनों उनके साथ चलते रहे।
येइ येइ जन प्रभुर पाइल दरशन ।। सेइ प्रेमे मत्त हय, करे कृष्ण-सङ्कीर्तन ॥
२१९॥
जो भी श्री चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करता, वह भावाविष्ट हो जाता है। हरे कृष्ण मन्त्र का कीर्तन करने लगता।
ताँर सङ्गे अन्योन्ये, ताँर सङ्गे आने ।।एइ-मत 'वैष्णव' कैला सब देश-ग्राम ॥
२२०॥
जो भी श्री चैतन्य महाप्रभु से मिला, वह वैष्णव बन गया और जो ॥
॥
वैष्णव से मिला, वह भी वैष्णव बन गया। इस तरह एक के बाद मारे नगरवासी तथा ग्रामवासी वैष्णव बन गये।
दक्षिण झाइते भैछे शक्ति प्रकाशिला ।।सेइ-मत पश्चिम देश, प्रेमे भासाइला ॥
२२१॥
जिस तरह महाप्रभु ने अपनी यात्रा से दक्षिण भारत को भगवत्प्रेम से। आप्लावित कर दिया था, उसी तरह उन्होंने देश के पश्चिमी भाग को भी भगवत्प्रेम से आप्लावित किया।
एइ-मत चलि प्रभु 'प्रयोग' आइला ।।दश-दिन त्रिवेणीते मकर-स्नान कैला ॥
२२२॥
अन्त में श्री चैतन्य महाप्रभु प्रयाग पहुँचे और मकर-संक्रान्ति ( माघ मेला ) के अवसर पर लगातार दस दिनों तक गंगा तथा यमुना नदियों के संगम में स्नान किया।
वृन्दावन-गमन, प्रभु-चरित्र अनन्त ।। 'सहस्र-वदन' याँर नाहि पान अन्त ॥
२२३॥
भी चैतन्य महाप्रभु का वृन्दावन गमन और वहाँ पर उनकी लीलाएँ त हैं। यहाँ तक कि सहस्र फनों वाले भगवान् शेष भी उनके भार्यकलापों का अन्त नहीं पा सकते।
ताहा के कहिते पारे क्षुद्र जीव हो ।दिग्दरशन कैलँ मुञि सूत्र करिया ॥
२२४॥
भला कौन सामान्य जीव श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं का वर्णन । सकता है? मैंने तो सार रूप में सामान्य दिशानिर्देशन ही किया है।
अलौकिक-लीला प्रभुर अलौकिक-रीति ।। शुनिलेओ भाग्य-हीनेर ना हय प्रतीति ॥
२२५॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाएँ तथा रीतियाँ असाधारण हैं। जो अभागा होगा वही इन बातों को सुनने के बाद भी उन पर विश्वास नहीं करेगा।
आद्योपान्त चैतन्य-लीला-'अलौकिक' जान' ।। श्रद्धा करि' शुन इहा, 'सत्य' करि' मान' ॥
२२६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाएँ शुरू से लेकर अन्त तक अलौकिक हैं। उन्हें श्रद्धापूर्वक सुनना चाहिए और सत्य के रूप में स्वीकार करना चाहिए।
ग्रेइ तर्क करे इहाँ, सेइ‘मूर्ख-राज' ।। आपनार मुण्डे से आपनि पाड़े वाज ॥
२२७॥
जो भी इनके विषय में तर्क करता है, वह महामूर्ख है। वह जानबूझकर अपने ही सिर पर वज्रपात करता है।
चैतन्य-चरित्र एइअमृतेर सिन्धु' ।।जगत् आनन्दे भासाय ग्रार एक-बिन्दु ॥
२२८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाएँ अमृत के सागर तुल्य हैं। इस समुद्र मी एक बूंद भी सारे संसार को दिव्य आनन्द से आप्लावित कर सकती हैं।
श्री-रूप-रघुनाथ-पदे ग्रार आश ।।चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
२२९॥
श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों में प्रार्थना करते हुए और उनके कृपा की सदैव आकांक्षा करते हुए मैं कृष्णदास उनके चरणचिह्नों का अनुसरण करते हुए श्री चैतन्य-चरितामृत कह रहा हूँ।
अध्याय उन्नीस: भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु श्रील रूप गोस्वामी को निर्देश देते हैं
वृन्दावनीयां रस-केलि-वार्ताकालेन लुप्तां निज-शक्तिमुत्कः ।। सञ्चार्य रूपे व्यतनोत्पुनः स ।प्रभुर्विधौ प्रागिव लोक-सृष्टिम् ॥
१॥
इस विराट् जगत् की सृष्टि करने के पूर्व भगवान् ने ब्रह्मा के हृदय में प की विस्तृत जानकारी प्रकाशित की और वैदिक ज्ञान प्रकट किया। .ओक उसी तरह से महाप्रभु ने भगवान् कृष्ण की वृन्दावन-लीलाओं को पुनर्जीवित करने के लिए रूप गोस्वामी के हृदय को आध्यात्मिक शक्ति प्रचारित किया। श्रील रूप गोस्वामी इस शक्ति से वृन्दावन में कृष्ण भी उन लीलाओं को पुनरुज्जीवित कर सके, जो प्रायः विस्मृत हो चुकी है। इस तरह उन्होंने सारे विश्व में कृष्णभावनामृत का विस्तार किया।
जय जय श्री-चैतन्य जय नित्यानन्द ।। जयाद्वैत-चन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ॥
२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! नित्यानन्द प्रभु की जय हो! अद्वैतचन्द्र की जय हो तथा महाप्रभु के सारे भक्तों की जय हो! श्री-रूप-सनातन रहे रामकेलि-ग्रामे ।।प्रभुरे मिलिया गेला आपन-भवने ॥
३॥
रामकेलि गाँव में श्री चैतन्य महाप्रभु से मिलने के बाद रूप तथा सनातन दोनों भाई अपने अपने घर लौट गये।
दुइ-भाइ विषय-त्यागेर उपाय सृजिल ।बहु-धन दियो दुइ ब्राह्मणे वरिल ।।४॥
दोनों भाइयों ने एक उपाय सोचा जिससे वे अपने भौतिक कार्यकलापों को त्याग सकें। इसके लिए उन्होंने दो ब्राह्मण नियुक्त किये और उन्हें प्रचुर धन दिया।
कृष्ण-मन्त्रे कराइल दुइ पुरश्चरण ।।अचिरात्पाइबारे चैतन्य-चरण ॥
५॥
ब्राह्मणों ने धार्मिक कृत्य सम्पन्न किया और कृष्ण के पवित्र नाम का उच्चारण किया, जिससे दोनों भाइयों को शीघ्र ही श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों में शरण प्राप्त हो सके।
श्री-रूप-गोसाजि तबे नौकाते भरिया ।।आपनार घरे आइला बहु-धन लञा ॥
६॥
इसी समय श्री रूप गोस्वामी अपने साथ नावों में प्रचुर मात्रा में धन लेकर घर लौटे।
ब्राह्मण-वैष्णवे दिला तार अर्ध-धने ।।एक चौठि धन दिला कुटुम्ब-भरणे ॥
७॥
श्रील रूप गोस्वामी ने घर लाये गये धन का बँटवारा कर दिया। होंने पचास प्रतिशत धन ब्राह्मणों तथा वैष्णवों को दान में दे दिया और पधीस प्रतिशत अपने सम्बन्धियों को दिया।
दण्ड-बन्ध लागि' चौठि सञ्चय करिला ।भाल-भाल विप्र-स्थाने स्थाप्य राखिला ॥
८॥
उन्होंने अपनी चौथाई सम्पत्ति एक सम्मानित ब्राह्मण के पास रख दी। इसे उन्होंने अपनी निजी सुरक्षा के लिए रखा, क्योंकि उन्हें आशंका थी। कि वे कहीं कोई कानूनी झंझट में न फंस जायें।
गौड़े राखिल मुद्रा दश-हाजारे ।सनातन व्यय करे, राखे मुदि-घरे ॥
९॥
उन्होंने दस हजार सिक्के एक स्थानीय बंगाली बनिये के यहाँ जमा कर दिये थे, जिनका खर्च बाद में श्री सनातन गोस्वामी ने किया।
श्री-रूप शुनिल प्रभुर नीलाद्रि-गमन ।।वन-पथे ग्राबेन प्रभु श्री-वृन्दावन ॥
१०॥
श्री रूप गोस्वामी ने सुना कि श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथपुरी लौट गये हैं और जंगल से होकर वृन्दावन जाने की तैयारी कर रहे हैं।
रूप-गोसाञि नीलाचले पाठाइल दुइ-जन ।प्रभु ग्रबे वृन्दावन करेन गमन ॥
११॥
श्रील रूप गोस्वामी ने यह पता करने के लिए दो व्यक्ति जगन्नाथपुरी भेजे कि श्री चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन के लिए कब प्रस्थान करेंगे।
शीघ्र आसि' मोरे ताँर दिबा समाचार ।शुनिया तदनुरूप करिब व्यवहार ॥
१२॥
श्री रूप गोस्वामी ने दोनों व्यक्तियों से कहा, तुम लोग जल्दी लौटकर मुझे बताओ कि वे कब प्रस्थान करेंगे तब मैं समुचित व्यवस्था करूंगा।
एथा सनातन-गोसाञि भावे मने मन ।।राजा मोरे प्रीति करे, से–मोर बन्धन ॥
१३॥
गौड़देश में रहते हुए सनातन गोस्वामी सोच रहे थे, नवाब मुझसे अत्यन्त प्रसन्न है। मेरा निश्चित रूप से कर्तव्य बनता है।
कोन मते राजा यदि मोरे क्रुद्ध हय ।।तबे अव्याहति हय, करिलँ निश्चय ॥
१४॥
यदि नवाब किसी तरह मुझसे नाराज हो जाए, तो मुझे मुक्ति मिल सकती है। यही मेरा निश्चय है।
अस्वास्थ्येर छद्म करि' रहे निज-घरे । राज-कार्य छाड़िला, ना ट्राय राज-द्वारे ॥
१५॥
स्वास्थ्य खराब होने का बहाना करके सनातन गोस्वामी घर पर ही रहे। इस तरह उन्होंने अपनी सरकारी नौकरी छोड़ दी और राजदरबार नहीं गये।
लोभी कायस्थ-गण राज-कार्य करे। आपने स्वगृहे करे शास्त्रेर विचारे ॥
१६ ॥
उनके लोभी क्लर्क तथा सचिवालय के कर्मचारी सरकारी कामकाज पूरा कर लेते, किन्तु सनातन घर पर रहते और शास्त्रों की चर्चा करते राहते।
भट्टाचार्य पण्डित बिश त्रिश लळा । भागवत विचार करेन सभाते वसिया ॥
१७॥
श्री सनातन गोस्वामी बीस-तीस विद्वान ब्राह्मणों की सभा में श्रीमद्भागवत पर चर्चा चलाते थे।
आर दिन गौड़ेश्वर, सङ्गे एक-जन ।। आचम्बिते गोसाजि-सभाते कैल आगमन ॥
१८॥
एक दिन जब सनातन गोस्वामी विद्वान ब्राह्मणों की सभा में श्रीमद्भागवत का अध्ययन कर रहे थे, तब बंगाल का नवाब तथा एक अन्य व्यक्ति सहसा वहाँ आ गये।
पात्साह देखिया सबे सम्भ्रमे उठिला ।। सम्भ्रमे आसन दिया राजारे वसाइला ॥
१९॥
ज्योंही सभी ब्राह्मणों तथा सनातन गोस्वामी ने नवाब को आते देखा, ने सभी खड़े हो गये और उन्होंने आदरपूर्वक उसे बैठने के लिए आसन दिया।
राजा कहे,—तोमार स्थाने वैद्य पाठाइलें ।।वैद्य कहे,—व्याधि नाहि, सुस्थ ये देखिलॆ ॥
२०॥
नवाब ने कहा, मैंने तुम्हारे पास मेरा वैद्य भेजा था। उसने सूचना दी। है कि तुम्हें कोई रोग नहीं है। उसके विचार से तुम पूर्ण स्वस्थ हो।
आमार किछु कार्य, सब तोमा लजा ।।कार्य छाड़ि' रहिला तुमि घरेते वसिया ॥
२१॥
मैं अनेकानेक कार्यों को पूरा करने के लिए तुम पर निर्भर हूँ, किन्तु तुम हो कि अपना सरकारी काम-काज छोड़कर घर पर बैठे रहते हो।
मोर व्रत कार्य-काम, सब कैला नाश ।। कि तोमार हृदये आछे, कह मोर पाश ॥
२२॥
तुमने मेरा सारा कामकाज बिगाड़ दिया है। आखिर तुम चाहते क्या । हो? कृपया मुझसे साफ साफ कहो।
सनातन कहे,—नहे आमा हैते काम ।। आर एक-जन दिया कर समाधान ॥
२३ ।। सनातन गोस्वामी ने उत्तर दिया, अब आप मुझसे किसी प्रकार के कार्य की आशा न करें। कृपा करके किसी दूसरे व्यक्ति को ढूंढ लें, जो अपकी व्यवस्था देख सके।
तबे क्रुद्ध हन्ना राजा कहे आर-बार ।तोमार 'बड़ भाइ' करे दस्यु-व्यवहार ॥
२४॥
सनातन गोस्वामी से नाराज होकर नवाब ने कहा, 'तुम्हारा बड़ा भाई लुटेरे जैसा व्यवहार कर रहा है। ' जीव-बहु मारि' कैल चाक्ला सब नाश ।एथा तुमि कैला मोर सर्व कार्य नाश ॥
२५॥
तुम्हारे बड़े भाई ने अनेक जीवों का वध करके समूचे बंगाल को नष्ट कर दिया है। अब तुम मेरी सारी योजनाओं को नष्ट कर रहे हो।
सनातन कहे,—तुमि स्वतन्त्र गौड़ेश्वर ।ये ग्रेइ दोष करे, देह' तार फल ॥
२६॥
सनातन गोस्वामी ने कहा, आप बंगाल के सर्वोच्च शासक हैं और पर्णतया स्वतन्त्र हैं। जब भी कोई व्यक्ति त्रुटि करता है, आप उसे उसी के हिसाब से दण्ड देते हैं।
एत शुनि' गौड़ेश्वर उठि' घरे गेला ।। पलाइब बलि' सनातनेरे बान्धिला ॥
२७॥
यह सुनकर बंगाल का नवाब उठ खड़ा हुआ और वह अपने घर लौट गया। उसने सनातन गोस्वामी को बन्दी बनाये जाने का आदेश दिया, जिससे वे कहीं जा न सकें।
हेन-काले गेल राजा उड़िया मारिते ।। सनातने कहे, तुमि चल मोर साथे ॥
२८॥
उस समय नवाब उड़ीसा प्रान्त पर आक्रमण करने जा रहा था और उसने सनातन गोस्वामी से कहा, तुम मेरे साथ चलो।
तेंहो कहे,—ग्राबे तुमि देवताय दुःख दिते ।मोर शक्ति नाहि, तोमार सङ्गे ग्राइते ॥
२९॥
सनातन गोस्वामी ने उत्तर दिया, आप तो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को कष्ट देने उड़ीसा जा रहे हैं। इसीलिए मैं आपके साथ जाने में अशक्त हूँ। तबे ताँरे बान्धि' राखि' करिला गमन ।।एथा नीलाचल हैते प्रभु चलिला वृन्दावन ॥
३०॥
नवाब ने फिर से सनातन गोस्वामी को बन्दी बनाया और जेल में शल दिया। उस समय श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी से वृन्दावन के ला चल पड़े।
तबे सेइ दुइ चर रूप-ठात्रि आइल ।।‘वृन्दावन चलिला प्रभु'-आसिया कहिल ॥
३१॥
दो व्यक्तियों ने, जो महाप्रभु के प्रस्थान का पता लगाने जगन्नाथ पुरी गये थे, लौटकर रूप गोस्वामी को सूचित किया कि महाप्रभु पहले ही वृन्दावन के लिए चल चुके हैं।
शुनिया श्री-रूप लिखिल सनातन-ठाजि । ‘वृन्दावन चलिला श्री-चैतन्य-गोसात्रि ॥
३२॥
इन दोनों सन्देशवाहकों से यह सन्देश पाकर रूप गोस्वामी ने तुरन्त सनातन गोस्वामी को यह पत्र लिखा कि श्री चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन के लिए चल चुके हैं।
आमि-दुइ-भाइ चलिलाङताँहारे मिलिते ।।तुमि ग्रैछे तैछे छुटि' आइस ताहाँ हैते ॥
३३॥
श्रील रूप गोस्वामी ने सनातन गोस्वामी को अपने पत्र में लिखा, हम दोनों भाई श्री चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करने के लिए प्रस्थान करने वाले हैं। तुम भी किसी तरह छूटकर हमसे मिलो।
दश-सहस्र मुद्रा तथा आछे मुदि-स्थाने ।। ताहा दिया कर शीघ्र आत्म-विमोचने ॥
३४॥
रूप गोस्वामी ने श्रील सनातन गोस्वामी को यह भी सूचित किया, मैं वहाँ एक बनिये के पास दस हजार मुद्राएँ छोड़ आया हूँ। तुम उस धन का उपयोग अपने आपको जेल से छुड़ाने में करो।
भैछे तैछे छुटि' तुमि आइस वृन्दावन' ।। एत लिखि' दुइ-भाइ करिला गमन ॥
३५॥
किसी तरह से छूटकर वृन्दावन आओ। यह लिखकर दोनों भाई ( रूप गोस्वामी तथा अनुपम ) श्री चैतन्य महाप्रभु को मिलने चले गये।
अनुपम मल्लिक, ताँर नाम-'श्री-वल्लभ' ।। रूप-गोसाजिर छोट-भाइ–परम-वैष्णव ॥
३६॥
रूप गोस्वामी का छोटा भाई महान् भक्त था, जिसका सच्चा नाम श्री वल्लभ था; किन्तु उसका नाम अनुपम मल्लिक रख दिया गया था।
ताँहा लेजा रूप-गोसाजि प्रयागे आइला ।। महाप्रभु ताहाँ शुनि' आनन्दित हैला ॥
३७॥
श्रील रूप गोस्वामी तथा अनुपम मल्लिक प्रयाग गये और यह समाचार सुनकर अत्यधिक प्रसन्न हुए कि श्री चैतन्य महाप्रभु वहीं पर हैं।
प्रभु चलियाछेन बिन्दु-माधव-दरशने ।। लक्ष लक्ष लोक आइसे प्रभुर मिलने ॥
३८॥
प्रयाग में श्री चैतन्य महाप्रभु बिन्दुमाधव मन्दिर में दर्शन करने गये और लाखों लोग उनसे मिलने मात्र के लिए उनके पीछे पीछे चल रहे थे।
केह कान्दे, केह हासे, केह नाचे, गाय ।। 'कृष्ण' 'कृष्ण' बलि' केह गड़ागड़ि ग्राय ॥
३९ ॥
महाप्रभु के पीछे चलने वालों में से कुछ लोग रो रहे थे, कुछ हँस रहे थे, कुछ नाच और गा रहे थे। उनमें से कुछ कृष्ण! कृष्ण! पुकारकर भूमि पर लोट रहे थे।
गङ्गा-यमुना प्रयाग नारिल डुबाइते ।।प्रभु डुबाइल कृष्ण-प्रेमेर वन्याते ॥
४० ॥
प्रयाग, गंगा तथा यमुना-इन दो नदियों के संगम पर स्थित है। पपि ये नदियाँ अपने जल से प्रयाग को जलमग्न नहीं कर सकी थीं, जन्तु श्री चैतन्य महाप्रभु ने कृष्ण-प्रेम की लहरों से पूरे भूभाग को अनावित कर दिया।
भिड़ देखि' दुइ भाइ रहिला निर्जने ।। प्रभुर आवेश हैल माधव-दरशने ॥
४१॥
बड़ी भीड़ देखकर दोनों भाई एकान्त स्थान पर खड़े रहे। उन्होंने देखा कि श्री चैतन्य महाप्रभु बिन्दु माधव का दर्शन पाकर प्रेमाविष्ट हो गये।
प्रेमावेशे नाचे प्रभु हरि-ध्वनि करि' ।। ऊर्ध्व-बाहु करि' बले—बल 'हरि' ‘हरि' ॥
४२ ॥
महाप्रभु हरि नाम का उच्च स्वर से कीतर्न कर रहे थे। प्रेमावेश में नाचते हुए और अपनी भुजाएँ उठाते हुए उन्होंने हर एक से हरि! हरि! बोलने के लिए कहा।
प्रभुर महिमा देखि' लोके चमत्कार । प्रयागे प्रभुर लीला नारि वर्णिबार ॥
४३॥
हर व्यक्ति श्री चैतन्य महाप्रभु की महानता देखकर अत्यन्त विस्मित प्रा। मैं महाप्रभु की प्रयाग-लीलाओं का ठीक-ठीक वर्णन नहीं कर सकता।
दाक्षिणात्य-विप्र-सने आछे परिचय ।।सेइ विप्र निमन्त्रिया निल निजालय ॥
४४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की दक्षिण भारत के एक ब्राह्मण से जान-पहचान हो गई थी और उस ब्राह्मण ने उन्हें भोजन के लिए निमन्त्रित किया। वह में अपने घर ले गया।
विप्र-गृहे आसि' प्रभु निभृते वसिला ।श्री-रूप-वल्लभ मुँहे आसिया मिलिला ॥
४५॥
जय महाप्रभु उस दाक्षिणात्य ब्राह्मण के घर एकान्त में बैठे थे, तब रूप गोस्वामी तथा श्री वल्लभ ( अनुपम मल्लिक) उनसे भेंट करने वाले आये।
दुइ-गुच्छ तृण बँहे दशने धरिया । प्रभु देखि' दूरे पड़े दण्डवत् ही ॥
४६॥
दूर से महाप्रभु को देखकर दोनों भाइयों ने अपने दाँतों में तिनकों । दो गुच्छे दबा लिए और उन्हें नमस्कार करने के लिए भूमि पर दण्ड । समान गिर पड़े।
नाना श्लोक पड़ि' उठे, पड़े बार बार । प्रभु देखि' प्रेमावेश हइल मुँहार ॥
४७॥
दोनों भाई प्रेमाविष्ट हो गये और अनेक संस्कृत श्लोक पढ़ते ।। बारम्बार उठते और गिरते।
श्री-रूपे देखिया प्रभुर प्रसन्न हैल मन ।।‘उठ, उठ, रूप, आइस', बलिला वचन ॥
४८॥
भी चैतन्य महाप्रभु श्रील रूप गोस्वामी को देखकर अत्यधिक प्रसन्न होंने उनसे कहा, उठो! उठो! हे प्रिय रूप! मेरे पास आओ।
कृष्णेर करुणा किछु ना ग्राय वर्णने ।विषय-कूप हैते काड़िले तोमा दुइ-जने ॥
४९॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, कृष्ण की कृपा का वर्णन कर ना सम्भव नहीं है, क्योंकि उन्होंने तुम दोनों को भौतिक भोग के कुएँ से बाहर निकाल लिया है।
न मेऽभक्तश्चतुर्वेदी मद्भक्तः श्व-पचः प्रियः।।तस्मै देयं ततो ग्राह्यं स च पूज्यो ग्रथा ह्यहम् ॥
५०॥
( भगवान् कृष्ण ने कहा :) 'कोई भले ही संस्कृत वैदिक साहित्य का बहुत बड़ा विद्वान क्यों न हो, यदि उसकी भक्ति शुद्ध नहीं है, तो वह मेरा भक्त नहीं माना जा सकता। भले ही कोई व्यक्ति चण्डाल परिवार में जन्मा हो, वह भी मुझे अत्यन्त प्रिय है, यदि वह मेरा शुद्ध भक्त है, जिसमें सकाम कर्म या मानसिक तर्कवितर्क को भोगने की कोई इच्छा नहीं है। उसे सभी प्रकार से सम्मान दिया जाना चाहिए और वह जो कुछ भी दे, उसे स्वीकार करना चाहिए। ऐसा भक्त मेरे ही समान पूजनीय है।
एइ श्लोक पड़ि' मुँहारे कैला आलिङ्गन ।कृपाते वँहार माथाय धरिला चरण ॥
५१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने यह श्लोक पढ़कर दोनों भाइयों का आलिंगन किया और अहैतुकी कृपा करके उनके सिरों पर अपने पाँव रखे।
प्रभु-कृपा पाना मुँहे दुइ हात गुड़ि' । दीन हा स्तुति करे विनय आचरि' ॥
५२॥
महाप्रभु की अहैतुकी कृपा पाकर दोनों भाइयों ने हाथ जोड़े और यन्त दीन-भाव से महाप्रभु की निम्नलिखित स्तुति की।
नमो महा-वदन्याय कृष्ण-प्रेम-प्रदाय ते ।। कृष्णाय कृष्ण-चैतन्य-नाम्ने गौर-त्विषे नमः ॥
५३॥
हे परम दयालु अवतार! आप स्वयं कृष्ण हैं, जो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए हैं। आपने श्रीमती राधारानी का गौरवर्ण धारण किया है और आप कृष्ण के शुद्ध प्रेम का उदारता से वितरण कर रहे हैं। हम आपको सादर नमस्कार करते हैं।
ग्रोऽज्ञान-मत्तं भुवनं दयालुर् । उल्लाघयन्नप्यकरोत्प्रमत्तम् ।। स्व-प्रेम-सम्पत्सुधयाद्भुतेहं।श्री-कृष्ण-चैतन्यममुं प्रपद्ये ॥
५४॥
हम उन दयालु पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को सादर नमस्कार करते हैं, जिन्होंने अज्ञान से मदोन्मत्त तीनों लोकों को बदल डाला है और उन्हें भगवत्प्रेम के कोष के अमृत से उन्मत्त बनाकर रुग्ण अवस्था से उनकी रक्षा की है। हम उन भगवान् श्रीकृष्ण चैतन्य की शरण ग्रहण करते हैं, जिनके कार्यकलाप अद्भुत हैं।
तबे महाप्रभु ताँरै निकटे वसाइला ।‘सनातनेर वार्ता कह'–ताँहारे पुछिला ॥
५५॥
इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें अपनी बगल में बैठाया और उनसे पूछा, सनातन का क्या समाचार है? रूप कहेन,--तेहो बन्दी हय राज-घरे ।। तुमि ग्रदि उद्धार', तबे हइबे उद्धारे ॥
५६॥
भी रूप गोस्वामी ने उत्तर दिया, सनातन को हुसेन शाह की सरकार ने अब बन्दी बना लिया है। यदि आप कृपा करके उसे बचायें, तो वह उस बन्धन से छूट सकता है।
प्रभु कहे,—सनातनेर हाछे मोचन ।।अचिरात् आमा-सह हइबे मिलन ॥
५७॥
भी चैतन्य महाप्रभु ने तुरन्त कहा, सनातन उसके कारागार से छूट का है और वह शीघ्र ही आकर मुझसे मिलेगा।
मध्याह्न करिते विप्र प्रभुरे कहिला ।।रूप-गोसाञि से-दिवस तथाञि रहिला ॥
५८ ॥
तब ब्राह्मण ने श्री चैतन्य महाप्रभु से प्रार्थना की कि वे भोजन ग्रहण १५ दिन रूप गोस्वामी भी वहीं रहे।
भट्टाचार्य दुइ भाइये निमन्त्रण कैल ।। प्रभुर शेष प्रसाद-पात्र दुइ-भाई पाइल ॥
५९॥
बलभद्र भट्टाचार्य ने दोनों भाइयों को भी भोजन करने को कहा। उन्हें श्री चैतन्य महाप्रभु की थाल से बचा हुआ भोजन प्रदान किया गया।
त्रिवेणी-उपर प्रभुर वासा-घर स्थान ।।दुइ भाइ वासा कैल प्रभु-सन्निधान ॥
६० ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने गंगा तथा यमुना के संगम के निकट त्रिवेणी नामक स्थान में अपना निवासस्थान चुना। रूप गोस्वामी तथा श्री वल्लभ दोनों भाइयों ने महाप्रभु के निकट ही अपना निवासस्थान चुना।
से-काले वल्लभ-भट्ट रहे आड़ाइल-ग्रामे ।। महाप्रभु आइला शुनि' आइल ताँर स्थाने ॥
६१॥
उस समय श्री वल्लभ भट्ट आड़ाइल ग्राम में रह रहे थे। जब उन्होंने सुना कि श्री चैतन्य महाप्रभु आये हैं, तो वे उनका दर्शन करने उनके स्थान पर गये।
तेहो दण्डवत्कैल, प्रभु कैला आलिङ्गन ।।दुइ जने कृष्ण-कथा हैल कत-क्षण ॥
६२ ॥
नभ भट्टाचार्य ने श्री चैतन्य महाप्रभु को नमस्कार किया और प्रभु ने उनका आलिंगन किया। इसके बाद कुछ समय तक वे कृष्णराओं के विषय में विचार-विमर्श करते रहे।
कृष्ण-कथाय प्रभुर महा-प्रेम उथलिल । भट्टर सङ्कोचे प्रभु सम्वरण कैल ॥
६३ ॥
अब वे कृष्ण-कथा के विषय में बातें कर रहे थे, तब श्री चैतन्य महाप्रभु को अत्यधिक प्रेमावेश का अनुभव हुआ, किन्तु उन्होंने अपना रोका, क्योंकि वल्लभ भट्ट के समक्ष उन्हें संकोच हो रहा था।
अन्तरे गर-गर प्रेम, नहे सम्वरण ।। देखि' चमत्कार हैल वल्लभ-भट्टर मन ॥
६४।। यध्यपि महाप्रभु ने बाहर से अपने आपको रोका, किन्तु उनके भीतर भीतर प्रेमावेश उमड़ने लगा। उसको रोक पाना सम्भव नहीं था। भ भट्ट यह पहचानकर आश्चर्यचकित थे।
तबे भट्ट महाप्रभुरे निमन्त्रण कैला । महाप्रभु दुइ-भाइ ताँहारे मिलाइला ॥
६५॥
इसके बाद वल्लभ भट्ट ने श्री चैतन्य महाप्रभु को भोजन पर बुलाया और महाप्रभु ने रूप तथा वल्लभ दोनों भाइयों का उनसे परिचय करवाया।
दुइ–भाइ दूर हैते भूमिते पड़िया ।।भट्टे दण्डवत्कैला अति दीन हा ॥
६६॥
रूप गोस्वामी तथा श्री वल्लभ दोनों भाइयों ने अत्यधिक दीनतावश दूर से ही भूमि पर गिरकर वल्लभ भट्ट को प्रणाम किया।
भट्ट मिलिबारे स्नाय, हे पलाय दूरे ।।‘अस्पृश्य पामर मुञि, ना कुँइह मोरे' ॥
६७॥
जब वल्लभ भट्टाचार्य उनकी ओर बढ़े, तो वे और दूर चले गये। रूप गोस्वामी ने कहा, मैं अछूत और अत्यन्त पापी हूँ। कृपा करके मुझे न छएँ ।
भट्टर विस्मय हैल, प्रभुर हर्ष मन ।।भट्टेरे कहिला प्रभु ताँर विवरण ॥
६८॥
इस पर वल्लभ भट्टाचार्य को अत्यधिक आश्चर्य हुआ। किन्तु श्री बैतन्य महाप्रभु अत्यन्त प्रसन्न थे; अतएव उन्होंने रूप गोस्वामी का यह विवरण उन्हें दिया।
‘इँहो ना स्पर्शह, हो जाति अति-हीन!।वैदिक, ग्राज्ञिक तुमि कुलीन प्रवीण!' ॥
६९॥
भी चैतन्य महाप्रभु ने कहा, उसे मत छुएँ, क्योंकि वह अत्यन्त निम्न आति का है। आप तो वैदिक नियमों के अनुयायी हैं और अनेक यज्ञों को सपन्न करने में अत्यन्त अनुभवी हैं। आप तो कुलीन भी हैं।
दूँहार मुखे निरन्तर कृष्ण-नाम शुनि'।भट्ट कहे, प्रभुर किछु इङ्गित-भङ्गी जानि' ॥
७० ॥
दोनों भाइयों को कृष्ण-नाम का निरन्तर जप करते सुनकर वल्लभ भट्टाचार्य श्री चैतन्य महाप्रभु के संकेतों को समझ सके।
‘इँहार मुखे कृष्ण-नाम करिछे नर्तन ।एइ-दुइ 'अधम' नहे, हय 'सर्वोत्तम' ॥
७१॥
वल्लभ भट्टाचार्य ने कहा, जब ये दोनों निरन्तर कृष्ण-नाम का जीर्तन जप रहते हैं, तो फिर ये अस्पृश्य कैसे हो सकते हैं? उल्टे, ये जनम हैं।
अहो बत श्व-पचोऽतो गरीयान् ।जिह्वाग्रे वर्तते नाम तुभ्यम् । तेपुस्तपस्ते जुहुवुः सस्नुरा।ब्रह्मानूचुर्नाम गृणन्ति ग्ने ते ॥
७२॥
तब वल्लभ भट्टाचार्य ने यह श्लोक सुनाया, हे प्रभु, जिस व्यक्ति की जीभ पर आपका पवित्र नाम सदा रहता है, वह दीक्षित ब्राह्मण से भी बढ़कर होता है। भले ही वह चण्डाल कुल में क्यों न उत्पन्न हुआ हो और भौतिक दृष्टि से अत्यन्त नीच व्यक्ति हो, फिर भी वह यशस्वी है। या भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन का अद्भुत प्रभाव है। अतः निष्कर्ष यह निकलता है कि जो भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन करता है, उसे वेदोक्त सारे तप तथा यज्ञ सम्पन्न किया हुआ मान लेना चाहिए। वह पहले से सारे तीर्थों में स्नान कर चुका होता है। वह सारे वेदों का अध्ययन कर चुका होता है और वास्तव में आर्य होता है।
शुनि' महाप्रभु ताँरै बहु प्रशंसिला ।।प्रेमाविष्ट हा श्लोक पड़िते लागिला ॥
७३॥
वल्लभ भट्ट को भक्त के विषय में शास्त्र से उद्धरण देते सुनकर प्रभु अत्यन्त प्रसन्न थे। महाप्रभु ने स्वयं उनकी प्रशंसा की और वे गप्रेम से आविष्ट होकर शास्त्रों से अनेक श्लोक सुनाने लगे।
शुचि: सद्भक्ति-दीप्ताग्नि-दग्ध-दुर्जाति-कल्मषः ।श्व पाकोऽपि बुधैः श्लाघ्यो न वेद-ज्ञोऽपि नास्तिकः ॥
७४॥
भी चैतन्य महाप्रभु ने कहा, भक्ति प्रज्वलित अग्नि की तरह विगत जीवन के सारे पापों के फलों को जला देती है। जो व्यक्ति उस भक्ति के ण साह्मण के शुद्ध गुणों से युक्त है, वह निम्न कुल में जन्म लेने ने पापकर्मों के परिणामों से निश्चित रूप से बच जाता है। भले ही वह चांडाल के परिवार में क्यों न जन्मा हो, विद्वान उसे मान्यता प्रदान करते है, किन्तु वैदिक ज्ञान में पंडित व्यक्ति, यदि वह नास्तिक हो, तो उसे यता नहीं मिलती।
भगवद्भक्ति-हीनस्य जातिः शास्त्रं जपस्तपः ।।अप्राणस्येव देहस्य मण्डनं लोक-रञ्जनम् ॥
७५ ॥
भक्तिहीन व्यक्ति के लिए उच्च कुल या राष्ट्र में जन्म लेना, शास्त्रज्ञान, व्रत-तप तथा वैदिक मन्त्रोच्चार वैसे ही हैं, जैसे मृत शरीर को गहने पहनाना। ऐसे गहने केवल सामान्य जनता के मनोकल्पित आनन्द की ही तुष्टि करने वाले होते हैं।
प्रभुर प्रेमावेश, आर प्रभाव भक्ति-सार ।सौन्दय़दि देखि' भट्टर हैले चमत्कार ॥
७६ ॥
महाप्रभु के प्रेमावेश को देखकर वल्लभ भट्टाचार्य अत्यधिक आश्चर्यचकित थे। वे महाप्रभु के भक्ति विषयक ज्ञान तथा उनके शारीरिक सौन्दर्य और प्रभाव से भी आश्चर्यचकित थे।
सगणे प्रभुरे भट्ट नौकाते चड़ाजा ।।भिक्षा दिते निज-घरे चलिला लञा ॥
७७॥
तब वल्लभ भट्टाचार्य ने श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनके संगियों को नाव में चढ़ाया और उन्हें भोजन कराने के लिए अपने स्थान पर ले गये।
यमुनार जल देखि' चिक्कण श्यामल ।।प्रेमावेशे महाप्रभु हइला विह्वल ॥
७८ ॥
यमुना नदी पार करते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु ने चिकना श्यामल जल देखा, तो वे तुरन्त ही प्रेमावेश में विह्वल हो गये।
हुङ्कार करि' यमुनार जले दिला झाँप ।प्रभु देखि' सबार मने हैल भय-काँप ॥
७९॥
यमुना नदी को देखते ही श्री चैतन्य महाप्रभु ने हुंकार की और पानी में कूद पड़े। यह देखकर सारे लोग भयभीत होकर काँपने लगे।
आस्ते-व्यस्ते सबे धरि' प्रभुरे उठाइल ।। नौकार उपरे प्रभु नाचिते लागिल ॥
८०॥
उन्होंने शीघ्रतिशीघ्र श्री चैतन्य महाप्रभु को पकड़ा और जल से बाहर निकाला। नाव के ऊपर आकर महाप्रभु नृत्य करने लगे।
महाप्रभुर भरे नौका करे टलमल ।। डुबिते लागिल नौका, झलके भरे जल ॥
८१॥
महाप्रभु के भार से नाव हिलने-डुलने लगी। उसमें जल भरने लगा और डूबने को हो गई।
यद्यपि भट्टर आगे प्रभुर धैर्य हैल मन ।। दुर्वार उद्भट प्रेम नहे सम्वरण ॥
८२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने वल्लभाचार्य के समक्ष अपने आपको थासम्भव संभालने का प्रयास किया और अपने आपको शान्त रखना हा, किन्तु उनका प्रेमभाव रोके न रुका।
देश-पात्र देखि' महाप्रभु धैर्य हद्दल ।। आड़ाइलेर घाटे नौका आसि' उत्तरिल ॥
८३॥
परिस्थिति देखकर महाप्रभु शान्त हो गये, जिससे नाव आड़ाइल के नारे पहुँचकर लग सकी।
भये भट्ट सङ्गे रहे, मध्याह्न कराना । निज-गृहे आनिला प्रभुरे सङ्क्ते लञा ॥
८४॥
महाप्रभु की कुशलता के लिए भयभीत वल्लभ भट्टाचार्य उनके साथ रहे। महाप्रभु के स्नान का प्रबन्ध करने के बाद भट्टाचार्य उन्हें अपने घर ले गये।
आनन्दित हा भट्ट दिल दिव्यासन । आपने करिल प्रभुर पाद-प्रक्षालन ॥
८५॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु वल्लभ भट्टाचार्य के घर पहुँचे, तब अत्यन्त प्रसन्न होने के कारण, उन्होंने महाप्रभु को सुन्दर आसन प्रदान किया और स्वयं उनके चरणों को धोया।
सवंशे सेइ जल मस्तके धरिल ।। नूतन कौपीन-बहिर्वास पराइल ॥
८६ ।। तब वल्लभ भट्टाचार्य तथा उनके पूरे परिवार ने वह जल अपने सिरों के ऊपर छिड़का। फिर उन्होंने महाप्रभु को नया कौपीन तथा बाह्य व दिये।
गन्ध-पुष्प-धूप-दीपे महा-पूजा कैल ।।भट्टाचार्ये मान्य करि' पाक कराइल ॥
८७॥
बल्लभाचार्य ने सुगन्ध, अगुरु, फूल तथा दीप के द्वारा बड़ी सजधज से महाप्रभु की पूजा की और बड़े ही आदर के साथ ( महाप्रभु के रसोइये) भ भट्टाचार्य को भोजन पकाने के लिए राजी किया।
भिक्षा कराइल प्रभुरे सस्नेह व्रतने ।रूप-गोसाजि दुइ-भाइये कराइल भोजने ॥
८८॥
II इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु को बड़ी ही सावधानी से तथा स्नेह से भोजन परोसा गया। रूप गोस्वामी तथा श्री वल्लभ दोनों भाइयों को भी भोजन दिया गया।
भट्टाचार्य श्री-रूपे देओयाइल अवशेष' ।। तबे सेइ प्रसाद कृष्णदास पाइल शेष ॥
८९॥
वल्लभ भट्टाचार्य ने सबसे पहले श्रील रूप गोस्वामी को महाप्रभु के भोजन का शेष दिया और फिर कृष्णदास को दिया।
मुख-वास दिया प्रभुरे कराइल शयन ।आपने भट्ट करेन प्रभुर पाद-सम्वाहन ॥
९०॥
तब महाप्रभु को मुख-शुद्धि के लिए मसाला दिया गया। इसके बाद उन्हें शयन कराया गया और वल्लभ भट्टाचार्य ने अपने हाथों से उनके पाँव दबाये।
प्रभु पाठाइल ताँरै करिते भोजने ।भोजन करि' आइला तेहो प्रभुर चरणे ॥
९१॥
जब वल्लभ भट्टाचार्य उनके पाँव दबा रहे थे, तब महाप्रभु ने उनसे जाकर प्रसाद ग्रहण करने के लिए कहा। वे प्रसाद ग्रहण करके पुनः महाप्रभु के चरणकमलों पर लौट आये।
हेन-काले आइला रघुपति उपाध्याय ।। तिरुहिता पण्डित, बड़ वैष्णव, महाशय ॥
९२॥
उस समय रघुपति उपाध्याय आया जो तिरुहिता जिले का था। वह बहुत बड़ा विद्वान, महान् भक्त तथा सम्मानित व्यक्ति था।
आसि' तेंहो कैल प्रभुर चरण वन्दन ।। ‘कृष्णे मति रहु' बलि' प्रभुर वचन ॥
९३॥
रघुपति उपाध्याय ने सर्वप्रथम श्री चैतन्य महाप्रभु की वन्दना की और महाप्रभु ने यह कहते हुए आशीर्वाद दिया, सदैव कृष्णभावनामय बने रहो।
शुनि' आनन्दित हैल उपाध्यायेर मन ।।प्रभु ताँरै कहिल,---‘कह कृष्णेर वर्णन' ॥
९४॥
रघुपति उपाध्याय महाप्रभु का आशीर्वाद सुनकर अत्यधिक प्रसन्न हुआ। इसके बाद महाप्रभु ने उससे कृष्ण का वर्णन करने के लिए कहा।
निज-कृत कृष्ण-लीला-श्लोक पड़िल ।।शुनि' महाप्रभुर महा प्रेमावेश हैल ॥
९५ ॥
जबे रघुपति उपाध्याय से कृष्ण का वर्णन करने के लिए कहा गया, तो उसने कुछ श्लोक सुनाये, जो उसने कृष्ण-लीला के विषय में स्वयं लिखे थे। उन श्लोकों को सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु प्रेम से विह्वल हो गये।
श्रुतिमपरे स्मृतिमितरेभारतमन्ये भजन्तु भव-भीताः । अहमिह नन्दं वन्दे ।ग्रस्यालिन्दे परं ब्रह्म ॥
९६ ॥
रघुपति उपाध्याय ने सुनाया, इस भौतिक अस्तित्व से भयभीत लोग वैदिक साहित्य की पूजा करते हैं। कुछ स्मृति की पूजा करते हैं, जो वैदिक साहित्य के उपसिद्धान्त हैं, तो कुछ महाभारत की। किन्तु मैं तो कृष्ण के पिता महाराज नन्द की पूजा करता हूँ, जिनके आँगन में परम सत्य, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् खेल रहे हैं।
‘आगे कह'—प्रभु-वाक्ये उपाध्याय कहिल ।।रघुपति उपाध्याय नमस्कार कैल ॥
९७॥
जब महाप्रभु ने रघुपति उपाध्याय से और अधिक सुनाने के लिए ,हा, तो उसने तुरन्त ही महाप्रभु को नमस्कार किया और उनके आग्रह को स्वीकार कर लिया।
कं प्रति कथयितुमीशेसम्प्रति को वा प्रतीतिमायातु ।। गो-पति-तनया-कुल्लेगोप-वधूटी-विटं ब्रह्म ॥
९८॥
मैं किससे कहूँ और कौन मेरी बातों में विश्वास करेगा, यदि मैं क कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण यमुना नदी के तट पर गोपियों के साथ कुंजों में विहार कर रहे हैं? भगवान् इस तरह से अपनी लीलाओं को प्रदर्शित करते हैं।
प्रभु कहेन,—कह, तेहो पड़े कृष्ण-लीला ।प्रेमावेशे प्रभुर देह-मन आयुयाइला ॥
१९॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने रघुपति उपाध्याय से अनुरोध किया कि श्रीकृष्ण की लीलाओं के विषय में कहता रहे। इस तरह महाप्रभु प्रेमावि हो गये और उनका मन तथा शरीर शिथिल पड़ गये।
प्रेम देखि' उपाध्यायेर हैल चमत्कार ।।‘मनुष्य नहे, इँहो–कृष्ण'–करिल निर्धार ॥
१००॥
जब रघुपति उपाध्याय ने श्री चैतन्य महाप्रभु के भाव-लक्षण देखे, तो उसे यह निश्चित हो गया कि महाप्रभु मनुष्य नहीं, अपितु साक्षात् कृष्ण हैं।
प्रभु कहे,--उपाध्याय, श्रेष्ठ मान' काय? ।।‘श्याममेव परं रूपं'–कहे उपाध्याय ॥
१०१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने रघुपति उपाध्याय से पूछा, तुम्हारे मत के अनुसार सर्वश्रेष्ठ हस्ती कौन है? रघुपति उपाध्याय ने उत्तर दिया, भगवान् श्यामसुन्दर ही सर्वश्रेष्ठ स्वरूप हैं।
श्याम-रूपेर वास-स्थान श्रेष्ठ मान' काय? ।। ‘पुरी मधु-पुरी वरा' कहे उपाध्याय ॥
१०२॥
कृष्ण के समस्त धामों में से तुम किसे सर्वश्रेष्ठ मानते हो? इसके उत्तर में रघुपति उपाध्याय ने कहा, मधुपुरी अर्थात् मथुरा धाम निश्चित रूप से सर्वश्रेष्ठ है।
बाल्य, पौगण्ड, कैशोरे, श्रेष्ठ मान' काय?।। ‘वयः कैशोरकं ध्येयं'–कहे उपाध्याय ॥
१०३॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने प्रश्न किया, कृष्ण की बाल्यावस्था, पौगण्डावस्था तथा कैशोरावस्था-इन तीनों में से तुम किसे सर्वश्रेष्ठ मानते हो? रघुपति उपाध्याय ने उत्तर दिया, कैशोर अवस्था सर्वश्रेष्ठ है।
रस-गण-मध्ये तुमि श्रेष्ठ मान' काय? । ‘आद्य एव परो रसः' कहे उपाध्याय ॥
१०४॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने पूछा, समस्त रसों में तुम किस रस को सर्वश्रेष्ठ मानते हो? तो रघुपति उपाध्याय ने उत्तर दिया, माधुर्य रस ही सर्वोपरि है।
प्रभु कहे,—भाल तत्त्व शिखाइला मोरे ।।एत बलि' श्लोक पड़े गद्गद-स्वरे ॥
१०५॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, तुमने निश्चित रूप से उच्च कोटि के निर्णय दिये हैं। यह कहकर वे लड़खड़ाते स्वर में पूरा श्लोक सुनाने लगे।।
श्याममेव परं रूपं पुरी मधु-पुरी वरा ।।वयः कैशोरकं ध्येयमाद्य एव परो रसः ॥
१०६॥
श्यासुन्दर रूप सर्वश्रेष्ठ रूप है, मथुरापुरी सर्वश्रेष्ठ धाम है, कृष्ण की कैशोरावस्था सदा ध्यान करने योग्य है और माधुर्य रस ही सर्वश्रेष्ठ रस है।
प्रेमावेशे प्रभु ताँरे कैला आलिङ्गन । प्रेम मत्त हा तेंहो करेन नर्तन ॥
१०७॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने प्रेमावेश में रघुपति उपाध्याय का आलिंगन किया। रघुपति उपाध्याय भी प्रेम में विभोर होकर नाचने लगे।
देखि' वल्लभ-भट्ट मने चमत्कार हैल ।। दुई पुत्र आनि' प्रभुर चरणे पाड़िल ॥
१०८॥
श्री चैतन्य महाप्रभु तथा रघुपति उपाध्याय को नाचते देखकर वल्लभ भट्टाचार्य आश्चर्यचकित हो गये। वे अपने दोनों पुत्रों को ले आये और उन्हें महाप्रभु के चरणकमलों में डाल दिया।
प्रभु देखिबारे ग्रामेर सब-लोक आइल ।। प्रभु-दरशने सबे ‘कृष्ण-भक्त' हइल ॥
१०९॥
यह सुनकर कि श्री चैतन्य महाप्रभु आये हुए हैं, सारे ग्रामवासी उनका दर्शन करने के लिए आये। उनका दर्शन करने मात्र से वे सभी कृष्णभक्त बन गये।
ब्राह्मण-सकल करेन प्रभुर निमन्त्रण ।।वल्लभ-भट्ट ताँ-सबारे करेन निवारण ॥
११०॥
गाँव के सारे ब्राह्मण महाप्रभु को निमन्त्रण देने के लिए उत्सुक थे, किन्तु वल्लभ भट्टाचार्य ने उन सबको ऐसा करने से मना कर दिया।
‘प्रेमोन्मादे पड़े गोसाजि मध्य-यमुनाते ।। प्रयागे चालाइब, इहाँ ना दिब रहिते ॥
१११॥
तब वल्लभ भट्ट ने श्री चैतन्य महाप्रभु को आड़ाइल में न रखने का निश्चय किया, क्योंकि महाप्रभु प्रेमावेश में यमुना नदी में कूद पड़े थे। इसलिए उन्होंने महाप्रभु को प्रयाग ले जाने का निश्चय किया।
ग्राँर इच्छा, प्रयागे ग्राञा करिबे निमन्त्रण' ।एत बलि' प्रभु लञा करिल गमन ॥
११२॥
वल्लभ भट्ट ने कहा, जिसकी इच्छा हो वह प्रयाग जा सकता है। और महाप्रभु को निमन्त्रण दे सकता है। इस तरह वे महाप्रभु को अपने साथ लेकर प्रयाग के लिए चल पड़े।
गङ्गा-पथे महाप्रभुरे नौकाते वसावा ।प्रयागे आइला भट्ट गोसाजिरे लञा ॥
११३॥
वल्लभ भट्टाचार्य, यमुना नदी से बचने के लिए, महाप्रभु को नाव में कर गंगा नदी से उनके साथ-साथ प्रयाग गये।
लोक-भिड़-भये प्रभु' दशाश्वमेधे' ग्राजा ।। रूप-गोसाजिरे शिक्षा करा'न शक्ति सञ्चारिया ॥
११४॥
प्रयाग में भारी भीड़ होने के कारण श्री चैतन्य महाप्रभु दशाश्वमेध गये। यहीं पर उन्होंने श्री रूप गोस्वामी को शिक्षा दी और भक्तियोग दर्शन में उनमें शक्ति का संचार किया।
कृष्णतत्त्व-भक्तितत्त्व-रसतत्त्व-प्रान्त ।सब शिखाइल प्रभु भागवत-सिद्धान्त ॥
११५॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने श्रील रूप गोस्वामी को कृष्णतत्त्वे, भक्तितत्त्व तथा रस्तत्त्व की चरम सीमा की शिक्षा दी, जिसकी चरम परिणति राधा तथा कृष्ण के माधुर्य प्रेम में होती है। अन्त में उन्होंने रूप गोस्वामी से श्रीमदभागवत् के चरम सिद्धान्त कहे। रामानन्द-पाशे व्रत सिद्धान्त शुनिला ।। रूपे कृपा करि' ताहा सब सञ्चारिला ॥
११६॥
भी चैतन्य महाप्रभु ने रामानन्द राय से जितने भी सिद्धान्त सुने थे, उन सबको रूप गोस्वामी को सिखलाया और उन्हें भलीभाँति शक्ति प्रदान की, जिससे वे उन्हें समझ सकें।
श्री-रूप-हृदये प्रभु शक्ति सञ्चारिला ।। सर्व-तत्त्व-निरूपणे 'प्रवीण' करिला ॥
११७॥
रूप गोस्वामी के हृदय में प्रवेश करके श्री चैतन्य महाप्रभु ने न समस्त सत्यों के सिद्धान्तों के तत्त्व से समझने की शक्ति प्रदान की। महाप्रभु ने उन्हें अनुभवी भक्त बना दिया, जिनके निर्णय गुरु-शिप परम्परा के निर्णयों से अनुरूप थे। इस प्रकार श्री रूप गोस्वामी को स्वयं श्री चैतन्य महाप्रभु ने शक्ति प्रदान की।
शिवानन्द-सेनेर पुत्र'कवि-कर्णपूर' ।। ‘रूपेर मिलन' स्व-ग्रन्थे लिखियाछेन प्रचुर ॥
११८॥
शिवानन्द सेन के पुत्र कवि कर्णपूर ने अपनी पुस्तक चैतन्य-चन्द्रोदय में भी रूप गोस्वामी तथा श्री चैतन्य महाप्रभु के मिलन का विस्तार से वर्णन कया है।
कालेन वृन्दावन-केलि-वार्ता ।लुप्तेति तां ख्यापयितुं विशिष्य । कृपामृतेनाभिषिषेच देवस्तत्रैव रूपं च सनातनं च ॥
११९॥
कालक्रम में वृन्दावन में कृष्ण की लीलाओं के दिव्य सन्देश लुप्तप्राय हो गये थे। इन दिव्य लीलाओं की स्पष्ट रूप से स्थापना करने के लिए ही श्री चैतन्य महाप्रभु ने प्रयाग में श्रील रूप गोस्वामी तथा भनातन गोस्वामी को अपनी कृपा का अमृत प्रदान किया, जिससे वे नाव में यह कार्य सम्पन्न कर सकें।
ग्नः प्रागेव प्रिय-गुण-गणैर्गाढ़-बद्धोऽपि मुक्तोगेहाध्यासाद्रस इवे परो मूर्त एवाप्यमूर्तः । प्रेमालापैदृढ़तर-परिष्वङ्ग-रङ्गैः प्रयागेतं श्री-रूपं सममनुपमेनानुजग्राह देवः ॥
१२०॥
श्रील रूप गोस्वामी प्रारम्भ से ही श्री चैतन्य महाप्रभु के दिव्य गुणों के प्रति अत्यन्त आकृष्ट थे। इस तरह उन्होंने गृहस्थ जीवन से स्थायी रूप से वैराग्य ले लिया। श्रील रूप गोस्वामी तथा उनके छोटे भाई वल्लभ को श्री चैतन्य महाप्रभु का आशीर्वाद प्राप्त हुआ। यद्यपि महाप्रभु अपने दिव्य शाश्वत रूप में दिव्य पद को प्राप्त थे, किन्तु प्रयाग में उन्होंने रूप गोस्वामी को कृष्ण के दिव्य भावमय प्रेम के विषय में बतलाया। फिर महाप्रभु ने बड़े प्रेम से उनका आलिंगन किया और उन्हें अपनी पूर्ण कृपा प्रदान की।
प्रिय-स्वरूपे दयित-स्वरूपेप्रेम-स्वरूपे सहजाभिरूपे ।।निजानुरूपे प्रभुरेक-रूपेततान रूपे स्व-विलास-रूपे ॥
१२१॥
श्रील स्वरूप दामोदर के प्रिय मित्र, श्रील रूप गोस्वामी, श्री चैतन्य महाप्रभु की हूबहू अनुकृति थे और वे महाप्रभु को अत्यन्त प्रिय थे। श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रेम की साक्षात् मूर्ति होने के कारण रूप गोस्वामी स्वाभाविक रूप से अत्यन्त सुन्दर थे। उन्होंने महाप्रभु द्वारा स्थापित सिद्धान्तों का सावधानी से पालन किया और वे भगवान् कृष्ण की लीलाओं की सही व्याख्या करने के लिए उपयुक्त व्यक्ति थे। श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन पर इसीलिए अपनी कृपादृष्टि डाली, ताकि वे दिव्य साहित्य की रचना करके सेवा कर सकें।
एइ-मत कर्णपूर लिखे स्थाने-स्थाने । प्रभु कृपा कैला ग्रैछे रूप-सनातने ॥
१२२॥
इस तरह कवि कर्णपूर ने जगह-जगह श्रील रूप गोस्वामी के गुणों का वर्णन किया है। उन्होंने इसका भी वर्णन किया है कि श्री चैतन्यमहाप्रभु ने किस तरह श्रील रूप गोस्वामी तथा श्रील सनातन गोस्वामी को अपनी अहैतुकी कृपा प्रदान की।
महाप्रभुर व्रत बड़ बड़ भेक्त मात्र ।रूप-सनातन--सबार कृपा-गौरव-पात्र ॥
१२३॥
श्रील रूप गोस्वामी तथा सनातन गोस्वामी श्री चैतन्य महाप्रभु के बड़े-बड़े भक्तों के प्रेम तथा सम्मान के पात्र थे।
केह यदि देशे ग्राय देखि वृन्दावन ।।ताँरे प्रश्न करेन प्रभुर पारिषद-गण ॥
१२४॥
यदि कोई वृन्दावन देखने के बाद अपने देश लौट आता, तो महाप्रभु के पार्षद उस व्यक्ति से प्रश्न करते।
कह, ताहाँ कैछे रहे रूप-सनातन? । कैछे रहे, कैछे वैराग्य, कैछे भोजन? ॥
१२५॥
वृन्दावन से लौटने वाले से वे पूछते, वृन्दावन में रूप और सनातन कैसे हैं? संन्यास आश्रम में उनके कार्य कैसे हैं? वे किस तरह भोजन की व्यवस्था करते हैं? वे इस प्रकार से पूछते थे।
कैछे अष्ट-प्रहर करेन श्री कृष्ण-भजन? ।तबे प्रशंसिया कहे सेइ भक्त-गण ॥
१२६॥
महाप्रभु के पार्षद यह भी पूछते, रूप तथा सनातन किस तरह चौबीसों घण्टे भक्ति में लगे रहते हैं? उस समय वृन्दावन से होकर आने वाला व्यक्ति श्री रूप तथा सनातन गोस्वामी की प्रशंसा करता।
अनिकेत देंहे, वने व्रत वृक्ष-गण ।।एक एक वृक्षेर तले एक एक रात्रि शयन ॥
१२७॥
उन दोनों भाइयों का कोई स्थायी निवासस्थान नहीं है। वे वृक्षों केनीचे निवास करते हैं-एक रात एक वृक्ष के नीचे तो दूसरी रात दूसरे वृक्ष के नीचे।
‘विप्र-गृहे' स्थूल-भिक्षा, काहाँ माधु-करी ।शुष्क रुटी-चाना चिवाय भोग परिहरि' ॥
१२८॥
श्रील रूप तथा सनातन गोस्वामी ब्राह्मणों के घरों से कुछ भोजन माँग लाते हैं। वे सारे भौतिक भोग का परित्याग करके सूखी रोटी तथा भुने चने ही ग्रहण करते हैं।
करोंया-मात्र हाते, काँथा छिंड़ा, बहिर्वास ।कृष्ण-कथा, कृष्ण-नाम, नर्तन-उल्लास ॥
१२९॥
‘वे एकमात्र कमंडल लिये रहते हैं और फटी गुदड़ी ओढ़ते हैं। वे सदैव कृष्ण के पवित्र नाम का जप करते हैं और उनकी लीलाओं की चर्चा करते हैं। वे अति उल्लास से नृत्य भी करते हैं।
अष्ट-प्रहर कृष्ण-भजन, चारि दण्ड शयने ।। नाम-सङ्कीर्तने सेह नहे कोन दिने ॥
१३०॥
वे लगभग चौबीसों घण्टे भगवान् की सेवा में लगे रहते हैं। वे केवल डेढ़ घंटा सोते हैं और कुछ दिनों तो, जब वे निरन्तर पवित्र नाम का कीर्तन करते हैं, तब बिल्कुल नहीं सोते।
कभु भक्ति-रस-शास्त्र करये लिखन । चैतन्य-कथा शुने, करे चैतन्य-चिन्तन ॥
१३१॥
कभी वे भक्ति सम्बन्धी दिव्य साहित्य की रचना करते हैं, तो कभी वे श्री चैतन्य महाप्रभु के विषय में सुनते हैं और उन्हीं के विषय में चिन्तन करने में अपना सारा समय लगाते हैं।
एइ-कथा शुनि' महान्तेर महा-सुख हय । चैतन्येर कृपा याँहे, ताँहे कि विस्मय? ॥
१३२॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु के पार्षदगण रूप तथा सनातन गोस्वामियों के कार्यों के विषय में सुनते तो वे कहते, उस व्यक्ति के लिए कौन-सी विस्मय की बात है, जिसे महाप्रभु की कृपा प्राप्त हो चुकी है? चैतन्येर कृपा रूप लिखियाछेन आपने ।।रसामृत-सिन्धु-ग्रन्थेर मङ्गलाचरणे ॥
१३३॥
श्रील रूप गोस्वामी ने स्वयं ही अपनी पुस्तक भक्तिरसामृतसिन्धु ( १.१.२) के मंगलाचरण में श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा के विषय में लिखा है।
हृदि यस्य प्रेरणयाप्रवर्तितोऽहं वराक-रूपोऽपि । तस्य हरेः पद-कमलं ।वन्दे चैतन्य-देवस्य ॥
१३४॥
यद्यपि मैं मनुष्यों में सबसे नीच हूँ और मुझे कोई ज्ञान नहीं है, किन्तु मुझे भक्ति विषयक दिव्य ग्रन्थ लिखने की प्रेरणा कृपापूर्वक दी गई है। अतएव मैं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों पर नमस्कार करता हूँ, क्योंकि उन्होंने ही मुझे इन ग्रन्थों की रचना करने का अवसर प्रदान किया है।
एइ-मत दश-दिन प्रयागे रहियो ।श्री-रूपे शिक्षा दिल शक्ति सञ्चारिया ॥
१३५॥
श्री चैतन्य महाप्रभु प्रयाग में दस दिन रहे और उन्होंने रूप गोस्वामी को आवश्यक शक्ति प्रदान करते हुए शिक्षा दी।
प्रभु कहे,---शुन, रूप, भक्ति-रसेर लक्षण ।।सूत्र-रूपे कहि, विस्तार ना ग्राय वर्णन ॥
१३६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, हे प्रिय रूप, कृपया मेरी बात सुनो। भक्ति का पूरी तरह वर्णन कर पाना सम्भव नहीं है; अतएव मैं तुम्हें भक्ति के लक्षणों का सारांश बताने का प्रयास कर रहा हूँ।
पारापार-शून्य गभीर भक्ति-रस-सिन्धु ।।तोमाय चाखाइते तार कहि एक 'बिन्दु' ॥
१३७॥
भक्तिरस का सागर इतना विस्तृत है कि कोई इसकी लम्बाई-चौड़ाई का अनुमान नहीं लगा सकता। फिर भी तुम्हें इसका आस्वादन कराने के लिए मैं उसकी एक बूंद का वर्णन कर रहा हूँ।
एइत ब्रह्माण्ड भरि' अनन्त जीव-गण ।चौराशी-लक्ष योनिते करये भ्रमण ॥
१३८॥
इस ब्रह्माण्ड में ८४,००,००० योनियों में असंख्य जीव हैं और वे सारे के सारे इस ब्रह्माण्ड के भीतर भ्रमण करते रहते हैं।
केशाग्र-शतेक-भाग पुनः शतांश करि ।तार सम सूक्ष्म जीवेर ‘स्वरूप' विचारि ॥
१३९॥
जीव की लम्बाई तथा चौड़ाई बाल के अगले भाग के एक दसहजारवें भाग के बराबर बतलाई जाती है। यह जीव की मूल सूक्ष्म प्रकृति है।
केशाग्र-शत-भागस्य शतांश-सदृशात्मकः ।।जीवः सूक्ष्म-स्वरूपोऽयं सङ्ख्यातीतो हि चित्कणः ॥
१४०॥
यदि हम बाल के अगले भाग के सौ खण्ड करें और इनमें से एक 11ण्ड लेकर फिर से उसके सौ भाग करें, तो वह सूक्ष्म भाग असंख्य भीवों में से एक के आकार के तुल्य होगा। वे सब चित्कण अर्थात् आत्मा के कण होते हैं, पदार्थ के नहीं।'
बालाग्र-शत-भागस्य शतधा कल्पितस्य च ।। भागो जीवः स विज्ञेय इति चाह पर श्रुतिः ॥
१४१॥
यदि हम बाल की नोक को सौ भागों में विभाजित करें और इनमें । से एक भाग को लेकर पुनः उसके सौ भाग करें, तो वह दस हजारवाँ भाग ही जीव की माप है। यह मुख्य वैदिक मन्त्रों का निर्णय है।
सूक्ष्माणामप्यहं जीवः ॥
१४२ ॥
( भगवान् कृष्ण कहते हैं :) इन सूक्ष्मकणों में मैं जीव हूँ।'
अपरिमिता धुवास्तनु-भृतो यदि सर्व-गतास् ।तर्हि न शास्यतेति नियमो ध्रुव नेतरथा । अजनि च ग्रन्मयं तदविमुच्य नियन्तृ भवेत् ।सममनुजानतां ग्रदमतं मत-दुष्टतया ॥
१४३॥
हे प्रभु, यद्यपि भौतिक देह धारण करने वाले सारे जीव भ्यात्मिक हैं तथा संख्या में अनन्त हैं, किन्तु यदि वे सर्वव्यापक होते तो उनका आपके अधीन होने का प्रश्न ही न उठता। किन्तु, यदि उन्हें सनातन रूप से अस्तित्व में रहने वाले आध्यात्मिक पुरुष के कणों के रूप में अर्थात् आप सर्वोपरि आत्मा के अंश रूप में स्वीकार किया जाए, तो हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि वे सदैव आपके नियन्त्रण के अधीन हैं। यदि सारे जीव इतने से ही सन्तुष्ट हो जाएँ कि आध्यात्मिक कणों के रूप । में वे आपके समान हैं, तो वे अनेक वस्तुओं के नियन्ता के रूप में सुखी हो जायें। यह निर्णय दोषपूर्ण है कि जीव तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् एक हैं। यह तथ्य नहीं है।'
तार मध्ये 'स्थावर', 'जङ्गम'–दुइ भेद ।। जङ्गमे तिर्घक्जल-स्थलचर-विभेद ॥
१४४॥
असंख्य जीवों के दो विभाग किये जा सकते हैं-चर तथा अचर। चर जीवों में पक्षी, जलचर तथा पशु आते हैं।
तार मध्ये मनुष्य-जाति अति अल्पतर ।।तार मध्ये म्लेच्छ, पुलिन्द, बौद्ध, शबर ॥
१४५ ॥
यद्यपि जीवों में से मनुष्यों की संख्या अत्यल्प है, किन्तु इस विभाग को और आगे विभाजित किया जा सकता है, क्योंकि म्लेच्छ, पुलिन्द, बौद्ध तथा शबर जैसे अनेक असभ्य मानव हैं।
वेद-निष्ठ-मध्ये अर्धेक वेद ‘मुखे' माने ।।वेद-निषिद्ध पाप करे, धर्म नाहि गणे ॥
१४६॥
मनुष्यों में जो लोग वैदिक नियमों का पालन करने वाले हैं, उन्हें सभ्य माना जाता है। इनमें से आधे लोग दिखावा करते हैं और इन सिद्धान्तों के विरुद्ध सभी तरह के पापकर्म करते हैं। ऐसे लोग विधिविधानों की परवाह नहीं करते।
धर्माचारि-मध्ये बहुत ‘कर्म-निष्ठ' । ।कोटि-कर्म-निष्ठ-मध्ये एक 'ज्ञानी' श्रेष्ठ ॥
१४७॥
वैदिक ज्ञान के अनुयायियों में से अधिकांश सकाम कर्म की विधि का अनुसरण करते हैं और अच्छे तथा बुरे काम में अन्तर करते हैं। ऐसे अनेक निष्ठावान सकामे कर्मियों में ऐसा कोई एक हो सकता है, जो वास्तव में ज्ञानी हो।
कोटि-ज्ञानि-मध्ये हय एक-जन 'मुक्त' ।।कोटि-मुक्त-मध्ये 'दुर्लभ' एक कृष्ण-भक्त ॥
१४८॥
ऐसे लाखों ज्ञानियों में से कोई एक वास्तव में मुक्त होता है और ऐसे लाखों मुक्त लोगों में से कृष्ण का शुद्ध भक्त ढूंढ पाना अत्यन्त दुर्लभ है।
कृष्ण-भक्तनिष्काम, अतएव शान्त' ।।भुक्ति-मुक्ति-सिद्धि-कामी—सकलि' अशान्त' ॥
१४९॥
चूंकि भगवान् कृष्ण का भक्त निष्काम होता है, इसलिए वह शान्त होता है। सकाम कर्मी भौतिक भोग चाहते हैं, ज्ञानी मुक्ति चाहते हैं और योगी भौतिक ऐश्वर्य चाहते हैं; अतः वे सभी कामी हैं और शान्त नहीं हो सकते।
मुक्तानामपि सिद्धानां नारायण-परायणः । सुदुर्लभः प्रशान्तात्मा कोटिष्वपि महा-मुने ॥
१५०॥
हे महामुनि, अज्ञान से मुक्त लाखों पुरुषों में तथा सिद्धि प्राप्त लाखों सिद्धों में से कदाचित् कोई एक नारायण का शुद्ध भक्त होता है। केवल ऐसा भक्त ही वास्तव में पूर्णतया तुष्ट तथा शान्त होता है।
ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान् जीव ।।गुरु-कृष्ण-प्रसादे पाय भक्ति-लता-बीज ॥
१५१॥
सारे जीव अपने-अपने कर्मों के अनुसार समूचे ब्रह्माण्ड में घूम रहे। हैं। इनमें से कुछ उच्च ग्रह-मण्डलों को जाते हैं और कुछ निम्न ग्रहमण्डलों को। ऐसे करोड़ों भटक रहे जीवों में से कोई एक अत्यन्त भाग्यशाली होता है, जिसे कृष्ण की कृपा से अधिकृत गुरु का सान्निध्य प्राप्त करने का अवसर मिलता है। कृष्ण तथा गुरु दोनों की कृपा से ऐसा व्यक्ति भक्ति रूपी लता के बीज को प्राप्त करता है।
माली हा करे सेइ बीज आरोपण ।। श्रवण-कीर्तन-जले करये सेचन ॥
१५२॥
जब किसी व्यक्ति को भक्ति का बीज प्राप्त हो जाता है, तब उसे माली बनकर उस बीज को अपने हृदय में बोकर उसका ध्यान रखना चाहिए। यदि वह बीज को क्रमशः श्रवण तथा कीर्तन की विधि से सींचता है, तो वह बीज अंकुरित होने लगेगा।
उपजिया बाड़े लता ‘ब्रह्माण्ड' भेदि ग्राय ।। ‘विरजा', 'ब्रह्म-लोक' भेदि’ ‘पर-व्योम' पाय ॥
१५३॥
भक्ति-लता-बीज को सींचने पर बीज अंकुरित होता है और लता धीरे-धीरे इस ब्राह्मण्ड की दीवारों को भेदकर वैकुण्ठ तथा भौतिक जगत् के बीच स्थित विरजा नदी के पार चली जाती है। यह ब्रह्मलोक या ब्रह्मज्योति पहुँचती है। ब्रह्मलोक की परत को भी भेदकर भक्ति लता परव्योम तथा गोलोक वृन्दावन पहुँच जाती है।
तबे ग्राय तदुपरि ‘गोलोक-वृन्दावन' ।। ‘कृष्ण-चरण'-कल्प-वृक्षे करे आरोहण ॥
१५४॥
हृदय में स्थित होने से तथा श्रवण-कीर्तन द्वारा सींचे जाने से भक्ति लता अधिकाधिक बढ़ती जाती है। इस तरह इसे कृष्ण के चरणकमल रूपी कल्पवृक्ष का आश्रय प्राप्त हो जाता है, जो परव्योम के सर्वोच्च क्षेत्र गोलोक वृन्दावन में निरन्तर वास करते हैं।
ताहाँ विस्तारित हा फले प्रेम-फल ।। इहाँ माली सेचे नित्य श्रवणादि जल ॥
१५५॥
यह लता गोलोक वृन्दावन ग्रह में खूब बढ़ती है और यहीं इसमें कृष्ण-प्रेम रूपी फल लगता है। यद्यपि माली भौतिक जगत् में रहता है, किन्तु वह नियमित रूप से श्रवण तथा कीर्तन रूपी जल से उसे सींचता है।
यदि वैष्णव-अपराध उठे हाती माता ।। उपाड़े वा छिण्डे, तार शुखि' ग्राय पाता ॥
१५६॥
यदि कोई भक्त भौतिक जगत् में भक्ति-लता का विकास करते हुए किसी वैष्णव के चरणों में अपराध करता है, तो उसके अपराध की तुलना उस पागल हाथी से की जाती है, जो लता को उखाड़कर उसे छिन्न-भिन्न कर देता है। इस तरह लता की पत्तियाँ सूख जाती हैं।
ताते माली मृत्न करि' करे आवरण । अपराध हस्तीर त्रैछे ना हय उद्गम ॥
१५७॥
माली को चारों और बाड़ बनाकर लता की रक्षा करनी चाहिए, जिससे अपराधों का शक्तिशाली हाथी भीतर न प्रवेश कर पाए।
किन्तु यदि लतार सङ्गे उठे ‘उपशाखा' ।। भुक्ति-मुक्ति-वाञ्छा, व्रत असङ्ख्य तार लेखा ॥
१५८॥
कभी-कभी भक्ति-लता के साथ-साथ भौतिक भोग की इच्छाओं तथा भौतिक जगत् से मुक्ति की लालसा की अवांछित लताएँ भी बढ़ने लगती हैं। ऐसी अवांछित लताओं की किस्में असंख्य हैं।
‘निषिद्धाचार', 'कुटीनाटी', 'जीव-हिंसन' । 'लाभ', ‘पूजा', 'प्रतिष्ठादि' व्रत उपशाखा-गण ॥
१५९॥
भक्ति-लता के साथ बढ़ने वाली कुछ अवांछित लताएँ हैं-सिद्धि प्राप्त करने के प्रयास में लगे लोगों के लिए निषिद्ध आचरण, कूटनीति, जीव-हिंसा, सांसारिक लाभ, संसारी पूजा तथा प्रतिष्ठा। ये सभी अवांछित लताएँ हैं।
सेक-जल पा उपशाखा बाड़ि' ग्राय ।। स्तब्ध हन्ना मूल-शाखा बाड़िते ना पाय ॥
१६०॥
यदि भक्ति-लता तथा अन्य लताओं में ठीक से भेद नहीं किया जाता, तो जल सींचने की प्रक्रिया का दुरुपयोग हो जाता है, क्योंकि भक्ति-लता बढ़ नहीं पाती है, जबकि अन्य लताएँ हरी-भरी होती जाती है।
प्रथमेइ उपशाखार करये छेदन ।। तबे मूल-शाखा बाड़ि' ग्राय वृन्दावन ॥
१६१॥
जैसे ही कोई बुद्धिमान भक्त मूल लता के पास अवांछित लता को बढ़ते देखे, उस लता को उसे तुरन्त काट देना चाहिए। तब भक्ति-लता रूपी असली लता ठीक से बढ़ती है और वह भगवदधाम लौटकर कृष्ण के चरणकमलों में आश्रय पाती है।
‘प्रेम-फल' पाकि' पड़े, माली आस्वादय ।।लता अवलम्बि' माली ‘कल्प-वृक्ष' पाय ॥
१६२॥
जब भक्ति का फल पककर नीचे गिर जाता है, तब माली उस फल को चखता है। इस तरह वह लता का लाभ उठाकर गोलोक वृन्दावन में कृष्ण के चरणकमल रूपी कल्पवृक्ष तक पहुँच जाता है।
ताहाँ सेइ कल्प-वृक्षेर करये सेवन ।।सुखे प्रेम-फल-रेस करे आस्वादन ॥
१६३॥
वहाँ पर भक्त भगवान् के कल्पवृक्ष तुल्य चरणकमलों की सेवा करता है। वह बड़े ही आनन्दपूर्वक प्रेम रूपी फल का स्वाद लेता है और शाश्वत रूप से सुखी बन जाता है।
एइत परम-फल ‘परम-पुरुषार्थ' ।।याँर आगे तृण-तुल्य चारि पुरुषार्थ ॥
१६४॥
गोलोक वृन्दावन में भक्ति रूपी फल का आस्वादन ही जीवन की परम सिद्धि है। इस सिद्धि के आगे चार प्रकार की भौतिक सिद्धियाँधर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष-तृण के समान हैं।
ऋद्धा सिद्धि-व्रज-विजयिता सत्य-धर्मा समाधिर् | ब्रह्मानन्दो गुरुरपि चमत्कारयत्येव तावत् ।। ग्रावत्प्रेम्णां मधु-रिपु-वशी-कार-सिद्धौषधीनांगन्धोऽप्यन्तः-करण-सरणी-पान्थतां न प्रयाति ॥
१६५ ॥
जब तक कृष्ण के उस शुद्ध प्रेम की रंचमात्र भी सुगंध नहीं होती, जो हृदय के भीतर कृष्ण को वश में लाने की पूर्ण औषधि है, तब तक भौतिक सिद्धियाँ, ब्राह्मण की पूर्णता ( सत्य, शम, तितिक्षा इत्यादि), योगियों की समाधि तथा ब्रह्मानन्द-ये सभी मनुष्य को अद्भुत लगते ।
‘शुद्ध-भक्ति' हैते हय 'प्रेमा' उत्पन्न ।। अतएव शुद्ध-भक्तिर कहिये 'लक्षण' ॥
१६६॥
शुद्ध भक्ति प्राप्त होने पर मनुष्य में भगवत्प्रेम उत्पन्न होता है; अतएव मैं शुद्ध भक्ति के कुछ लक्षणों का वर्णन करता हूँ।
अन्याभिलाषिता-शून्यं ज्ञान-कर्माद्यनावृतम् ।।आनुकूल्येन कृष्णानु-शीलनं भक्तिरुत्तमा ॥
१६७॥
जब प्रथम श्रेणी की भक्ति विकसित होती है, तब मनुष्य को समस्त भौतिक इच्छाओं, अद्वैत-दर्शन से प्राप्त ज्ञान तथा सकाम कर्म से रहित हो जाना चाहिए। भक्त को कृष्ण की इच्छानुसार अनुकूल भाव से उनकी निरन्तर सेवा करनी चाहिए।'
अन्य-वाञ्छा, अन्य-पूजा छाड़ि' 'ज्ञान', 'कर्म' । आनुकूल्ये सर्वेन्द्रिये कृष्णानुशीलन ॥
१६८॥
शुद्ध भक्त को कृष्ण की सेवा करने के अतिरिक्त अन्य कोई कामना नहीं करनी चाहिए। उसे न तो देवताओं की, न ही संसारी व्यक्तियों की पूजा करनी चाहिए। उसे कृष्णभावनामृत से रहित किसी कृत्रिम ज्ञान का अनुशीलन नहीं करना चाहिए और कृष्णभावानाभावित कार्यों के अतिरिक्त अन्य किसी कार्य में नहीं लगना चाहिए। उसे अपनी सारी विशुद्ध इन्द्रियाँ भगवान् की सेवा में लगानी चाहिए। कृष्णभावनाभावित कार्यों को अनुकूल रीति से सम्पन्न करने की यही विधि है।
एइ ‘शुद्ध-भक्ति'—इहा हैते ‘प्रेमा' हय ।।पञ्चरात्रे, भागवते एई लक्षण कय ॥
१६९॥
ये कार्य शुद्ध भक्ति कहलाते हैं। जो व्यक्ति ऐसी शुद्ध भक्ति करता है, वह उचित समय आने पर कृष्ण के प्रति अपना मूल प्रेम विकसित कर लेता है। पंचरात्र तथा श्रीमद्भागवत जैसे वैदिक ग्रन्थों में इन लक्षणों को वर्णन हुआ है।
सर्वोपाधि-विनिर्मुक्तं तत्परत्वेन निर्मलम् ।हृषीकेण हृषीकेश-सेवनं भक्तिरुच्यते ॥
१७० ॥
भक्ति का अर्थ है समस्त इन्द्रियों के स्वामी, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की सेवा में अपनी सारी इन्द्रियों को लगाना। जब आत्मा भगवान् की सेवा करता है, तो उसके दो गौण प्रभाव होते हैं। मनुष्य सारी भौतिक उपाधियों से मुक्त हो जाता है और भगवान् की सेवा में लगे रहने मात्र से उसकी इन्द्रियाँ शुद्ध हो जाती हैं।
मदगुण-श्रुति-मात्रेण मयि सर्व-गुहाशये ।मनो-गतिरविच्छिन्ना ग्रथा गङ्गाम्भसोऽम्बुधौ ॥
१७१।। जिस तरह गंगा का स्वर्गीय जल अबाध गति से समुद्र में जाकर मिल जाता है, उसी तरह जब मेरे भक्त मेरा श्रवण मात्र करते हैं, तो उनके मन मेरे पास आते हैं। मैं सबके हृदयों में वास करता हूँ।
लक्षणं भक्ति-योगस्य निर्गुणस्य ह्युदाहृतम् ।। अहैतुक्यव्यवहिता ग्रा भक्तिः पुरुषोत्तमे ॥
१७२ ॥
ये पुरुषोत्तम अर्थात् पम भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति के लक्षण हैं; यह अहैतुकी होती है और किसी तरह रोके नहीं रुकती।
सालोक्य-सार्टि-सामीप्य-सारूप्यैकत्वमप्युत । दीयमानं न गृह्णन्ति विना मत्सेवनं जनाः ॥
१७३॥
मेरे भक्त मेरी सेवा करने की तुलना में सालोक्य, सार्टि, सामीप्य तथा सारूप्य इन मुक्तियों को मेरे देने पर भी स्वीकार नहीं करते।
स एव भक्ति-योगाख्य आत्यन्तिक उदाहृतः ।।ग्रेनातिव्रन्य त्रि-गुणं मद्भावायोपपद्यते ॥
१७४॥
ऊपर बतलाया गया भक्तियोग जीवन का चरम लक्ष्य है। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की भक्ति करने से मनुष्य भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों को पार कर जाता है और प्रत्यक्ष भक्ति के स्तर पर आध्यात्मिक पद को प्राप्त करता है।'
भुक्ति-मुक्ति आदि-वाञ्छा ग्रदि मने हय ।।साधन करिले प्रेम उत्पन्न ना हय ॥
१७५॥
यदि कोई भौतिक भोग या भौतिक मुक्ति की कामना से पीड़ित है, तो वह शुद्ध प्रेमाभक्ति के स्तर तक ऊपर नहीं उठ सकता, भले ही वह साधारण विधि-विधानों के अनुसार ऊपरी तौर पर भक्ति क्यों न कर रहा हो।
भुक्ति-मुक्ति-स्पृहा स्रावत्पिशाची हृदि वर्तते ।। तावद्भक्ति-सुखस्यात्र कथमभ्युदयो भवेत् ॥
१७६ ॥
भौतिक जगत् को भोगने की इच्छा तथा भौतिक बन्धन से मुक्त होने की इच्छा-ये दो पिशाचिनियाँ हैं, जो भूतप्रेतों की तरह मँडराती रहती हैं। जब तक ये पिशाचिनियाँ हृदय में रहती हैं, तब तक भला दिव्य आनन्द का अनुभव कैसे हो सकता है? जब तक ये दोनों डायने हृदय मेंरहती हैं, तब तक भक्ति का दिव्य आनन्द अनुभव करने की सम्भावना नहीं रहती।'
साधन-भक्ति हैते हय ‘रतिर उदये ।। रति गाढ़ हैले तार 'प्रेम' नाम कय ॥
१७७॥
नियमित भक्ति करते रहने से मनुष्य क्रमशः पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के प्रति अनुरक्त होता है। जब यह अनुरक्ति प्रगाढ़ हो जाती है, तब यही भगवत्प्रेम कहलाती है।
प्रेम वृद्धि-क्रमे नामस्नेह, मान, प्रणय ।। राग, अनुराग, भाव, महाभाव हय ॥
१७८ ॥
प्रेम के आधारभूत पक्ष धीरे धीरे बढ़कर स्नेह, मान, प्रणय, राग, अनुराग, भाव तथा महाभाव बन जाते हैं।
ग्रैछे बीज, इक्षु, रस, गुड़, खण्ड-सार ।शर्करा, सिता, मिछरि, उत्तम-मिछरि आर ॥
१७९॥
प्रेम के क्रमिक विकास की तुलना चीनी की विभिन्न अवस्थाओं से की जा सकती है। पहले गन्ने का बीज, फिर गन्ना, तब गन्ने का रस होता है। जब इस रस को उबाला जाता है, तो प्रवाही शीरा बनता है, जो ठोस बनकर गुड़, फिर चीनी, फिर मिश्री, कठोर मिश्री तथा चूसने की मिश्री प्रदान करता है।
एइ सब कृष्ण-भक्ति-रसेर स्थायिभाव।।स्थायिभावे मिले यदि विभाव, अनुभाव ॥
१८० ॥
ये सारी अवस्थाएँ मिलकर स्थायी भाव-अर्थात् भक्ति में सतत भगवत्प्रेम-कहलाती हैं। इन अवस्थाओं के अतिरिक्त विभाव तथा अनुभाव भी होते हैं।
सात्त्विक-व्यभिचारि-भावेर मिलने ।कृष्ण-भक्ति-रस हय अमृत आस्वादने ॥
१८१॥
जब सात्त्विक तथा व्यभिचारी भावों के लक्षणों को उच्चस्तरीय प्रेमभाव से मिला दिया जाता है, तब भक्त नाना प्रकार के अमृतमय स्वादों में कृष्ण-प्रेम के दिव्य आनन्द का आस्वादन करता है।
ग्रैछे दधि, सिता, घृत, मरीच, कर्पूर ।।मिलने, ‘रसाला' हय अमृत मधुर ॥
१८२॥
इनके स्वाद दही, मिश्री, घी, काली मिर्च तथा कपूर के मिश्रण के स्वाद के तुल्य हैं और मधुर अमृत की भाँति स्वादिष्ट होते हैं।
भक्त-भेदे रति-भेद पञ्च परकार । । शान्त-रति, दास्य-रति, सख्य-रति आर ॥
१८३ ॥
वात्सल्य-रति, मधुर-रति,—ए पञ्च विभेद ।। रति-भेदे कृष्ण-भक्ति-रसे पञ्च भेद ॥
१८४॥
भक्त के अनुसार रति पाँच प्रकार की होती है-शान्त रति, दास्य रति, सख्य रति, वात्सल्य रति तथा मधुर रति । ये पाँचों प्रकार की रति पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के प्रति भक्त की विभिन्न अनुरक्तियों से उत्पन्न होती हैं। भक्ति से प्राप्त होने वाले दिव्य रस भी पाँच प्रकार के होते हैं।
शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य, मधुर-रस नाम । कृष्ण-भक्ति-रस-मध्ये ए पञ्च प्रधान ॥
१८५।। भगवान् के साथ अनुभव किये जाने वाले प्रमुख रस पाँच हैंशान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य तथा मधुर।
हास्योऽद्भुतस्तथा वीरः करुणो रौद्र इत्यपि ।।भयानकः स-बीभत्स इति गौणश्च सप्तधा ॥
१८६॥
पाँच प्रत्यक्ष रसों के अतिरिक्त सात अप्रत्यक्ष या गौण रस होते हैं, जिन्हें हास्य, अद्भुत, वीर, करुण, रौद्र, भयानक तथा बीभत्स नाम से जाना जाता है।
हास्य, अद्भुत, वीर, करुण, रौद्र, बीभत्स, भय ।।पञ्च-विध-भक्ते गौण सप्त-रस हय ॥
१८७॥
पाँच प्रत्यक्ष रसों के अतिरिक्त सात अप्रत्यक्ष रस हैं, जिन्हें हास्य, अद्भुत, वीर, करुण, रौद्र, बीभत्स तथा भयानक कहा जाता है।
पञ्च-रस 'स्थायी' व्यापी रहे भक्त-मने ।सप्त गौण 'आगन्तुक' पाइये कारणे ॥
१८८॥
भक्ति के पाँच प्रत्यक्ष दिव्य रस भक्त के हृदय में स्थायी रूप से स्थित रहते हैं, जबकि सात गौण भाव किन्हीं विशेष परिस्थितियों में सहसा प्रकट होते हैं और अधिक प्रबल प्रतीत होते हैं।
शान्त-भक्त–नव-योगेन्द्र, सनकादि आर ।। दास्य-भाव-भक्त--सर्वत्र सेवक अपार ॥
१८९॥
शान्त भक्तों के उदाहरणों में नव योगेन्द्र तथा चार कुमार आते हैं। दास्य भक्ति के भक्तों के उदाहरण असंख्य हैं, क्योंकि ऐसे भक्त सर्वत्र है।
सख्य-भक्त--श्रीदामादि, पुरे भीमार्जुन । वात्सल्य-भक्त-माता पिता, व्रत गुरु-जन ॥
१९०॥
वृन्दावन में सख्य भक्तों में श्रीदामा तथा सुदामा, द्वारका में भीम तथा अर्जुन, वृन्दावन में वात्सल्य प्रेमी भक्त माता यशोदा तथा पिता नन्द महाराज और द्वारका में भगवान् के माता-पिता वसुदेव तथा देवकी हैं। अन्य गुरुजन भी वात्सल्य प्रेमी भक्त हैं।
मधुर-रसे भक्त-मुख्य व्रजे गोपी-गण । महिषी-गण, लक्ष्मी-गण, असङ्ख्य गणन ॥
१९१॥
माधुर्य प्रेम में प्रमुख भक्त हैं-वृन्दावन की गोपियाँ, द्वारका की पटरानियाँ तथा वैकुण्ठ की लक्ष्मियाँ। इन भक्तों की संख्या अनन्त है।
पुनः कृष्ण-रति हय दुइत प्रकार ।ऐश्वर्य-ज्ञान-मिश्रा, केवला-भेद आर ॥
१९२॥
कृष्ण रति दो प्रकार की है-पहली ऐश्वर्य-ज्ञान-मिश्रित रति तथा दूसरी ऐश्वर्य-ज्ञान-रहित शुद्ध रति ( केवला )।
गोकुले 'केवला' रति-ऐश्वर्य-ज्ञान-हीन ।पुरी-द्वये, वैकुण्ठाद्ये ऐश्वर्य-प्रवीण ॥
१९३॥
ऐश्वर्य-ज्ञान-विहीन शुद्ध रति गोलोक वृन्दावन में पाई जाती है। ऐश्वर्य तथा ज्ञान से युक्त रति मथुरा तथा द्वारका इन दो पुरियों तथा वैकुण्ठ में पाई जाती है।
ऐश्वर्य-ज्ञान-प्राधान्ये सङ्कचित प्रीति ।। देखिया ना माने ऐश्वर्य---- केवलार रीति !! १९४ ।। ऐश्वर्य प्रधान होने पर भगवत्प्रेम कुछ संकुचित हो जाता है। किन्तु केवला भक्ति में भक्त कृष्ण की असीम शक्ति को देखते हुए भी अपने आपको उनके समान मानता है।
शान्त-दास्य-रसे ऐश्वर्य काहाँ उद्दीपन ।। वात्सल्य-सख्य-मधुरे त' करे सङ्कोचन ॥
१९५॥
शान्त तथा दास्य रस के स्तर पर कभी-कभी भगवान् का ऐश्वर्य । प्रमुख होता है। किन्तु वात्सल्य, सख्य तथा माधुर्य रसों में ऐश्वर्य संकुचित हो जाता है।
वसुदेव-देवकीर कृष्ण चरण वन्दिल ।। ऐश्वर्य-ज्ञाने मुँहार मने भय हैल ॥
१९६॥
जब कृष्ण ने अपने माता-पिता वसुदेव-देवकी के चरणकमलों की वन्दना की, तो दोनों के मन में उनके ऐश्वर्य के ज्ञान के कारण भय तथा आदर उत्पन्न हुआ।
देवकी वसुदेवश्च विज्ञाय जगदीश्वरौ ।।कृत-संवन्दनौ पुत्रौ सस्वजाते न शङ्कितौ ॥
१९७॥
जब देवकी तथा वसुदेव ने यह समझ लिया कि उन्हें प्रणाम करने वाले उनके दोनों पुत्र कृष्ण तथा बलराम पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं, तो वे भयभीत हो उठे और उन्होंने उनका आलिंगन नहीं किया।
कृष्णेर विश्व-रूप देखि अर्जुनेर हैल भय ।।सख्य-भावे धाय॑ क्षमापय करिया विनय ॥
१९८॥
जब कृष्ण ने अपना विराट् रूप दिखलाया, तो अर्जुन भयभीत हो उठा और उसने मित्र रूप के में कृष्ण के प्रति दिखलाई गई धृष्टता के लिए उनसे क्षमा माँगी।
सखेति मत्वा प्रसभं ग्रदुक्तं | हे कृष्ण हे यादव हे सखेति । अजानता महिमानं तवेदं ।मया प्रमादात्प्रणयेन वापि ॥
१९९।। बच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि| विहार-शय्यासन-भोजनेषु । एकोऽथ वाप्यच्युत तत्समक्षंतत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम् ॥
२००॥
मैंने आपकी महिमा न जानने के कारण और आपको मित्र समझकर हे कृष्ण, हे यादव, हे मित्र, कहकर सम्बोधित किया है। मैंने पागलपन या प्रेम में जो कुछ भी किया है, कृपा करके उसके लिए क्षमा कर दें। मैंने एक ही बिस्तर में लेटे हुए परिहास में, साथ-साथ बैठे या खाते हुए, कभी अकेले में तो कभी अपने मित्रों के सामने कई बार आपका अनादर किया है। हे अच्युत, कृपया मेरे उन सारे अपराधों को क्षमा कर दें।
कृष्ण यदि रुक्मिणीरे कैला परिहास ।‘कृष्ण छाड़िबेन'–जानि' रुक्मिणीर हैल त्रास ॥
२०१॥
यद्यपि कृष्ण महारानी रुक्मिणी से परिहास कर रहे थे, किन्तु वेसोच रही थीं कि कृष्ण उनका साथ छोड़ने वाले हैं, जिससे उन्हें भय लगा।
तस्याः सु-दुःख-भय-शोक-विनष्ट-बुद्धेर्| हस्ताच्छ्लथद्वलयतो व्यजनं पपात । देहश्च विक्लव-धियः सहसैव मुह्यन्रम्भेव वात-विहता प्रविकीर्य केशान् ॥
२०२॥
जब कृष्ण द्वारका में रुक्मिणी से परिहास कर रहे थे, तब वे दुःख, भय तथा शोक से संतप्त हो गईं। उनकी बुद्धि भी नष्ट हो गई थी। उन्होंने अपने हाथ की चूड़ियाँ गिरा दीं और जिस पंखे से भगवान् को पंखा झल रही थीं वह भी गिर गया। उनके बाल बिखर गये और वे सहसा बेहोश होकर गिर पड़ीं, मानों तेज हवा से केले का कोई वृक्ष गिर गया हो।'
‘केवला 'र शुद्ध-प्रेम ‘ऐश्वर्य’ ना जाने ।। ऐश्वर्य देखिलेओ निज-सम्बन्ध से माने ॥
२०३॥
केवला (शुद्ध भक्ति) की अवस्था में भक्त अनुभव करते हुए भी कृष्ण के असीम ऐश्वर्य को नहीं मानता। वह कृष्ण से अपने सम्बन्ध के विषय में ही गम्भीरता से विचार करता है।
त्रय्या चोपनिषद्भिश्च साङ्ख्य-योगैश्च सात्वतैः ।। उपगीयमान-माहात्म्यं हरिं साऽमन्यतात्मजम् ॥
२०४॥
जब माता यशोदा ने कृष्ण के मुँह के भीतर सारे ब्रह्माण्डों को देखा, तो क्षण-भर के लिए वे आश्चर्यचकित हो गईं। तीनों वेदों के अनुयायियों द्वारा भगवान्, इन्द्र देव तथा अन्य देवताओं की तरह पूजे जाते हैं। ऐसे अनुयायी भगवान् के लिए यज्ञ करते हैं। उपनिषदों के अध्ययन द्वारा उनकी महानता को जानकर ऋषिगण भगवान् की पूजा निर्विशेष ब्रह्म के रूप में करते हैं। बड़े-बड़े दार्शनिक जो ब्रह्माण्ड का विश्लेषात्मक अध्ययन करते हैं, उनको पुरुष के रूप में पूजते हैं। बड़ेबड़े योगी उन्हें सर्वव्यापक परमात्मा के रूप में तथा भक्त पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के रूप में पूजते हैं। फिर भी माता यशोदा उन्हें अपने पुत्र के रूप में मानती थीं।
तं मत्वात्मजमव्यक्तं मर्त्य-लिङ्गमधोक्षजम् ।।गोपिकोलूखले दाम्ना बबन्ध प्राकृतं ग्रथा ॥
२०५॥
यद्यपि कृष्ण इन्द्रिय अनुभूति से परे तथा मनुष्यों के लिए अप्रकट है, किन्तु वे भौतिक शरीरधारी मनुष्य का वेश धारण करते हैं। इस तरह माता यशोदा ने उन्हें अपना पुत्र माना और ओखली से एक रस्सी द्वारा भगवान् कृष्ण के बाँध दिया, मानो वे सामान्य बालक हों।'
उवाह कृष्णो भगवान् श्रीदामानं पराजितः ।।वृषभं भद्रसेनस्तु प्रलम्बो रोहिणी-सुतम् ॥
२०६॥
जब कृष्ण श्रीदामा से हार गये, तो उन्हें श्रीदामा को अपने कंधों पर ले जाना पड़ा। इसी तरह भद्रसेन ने वृषभ को तथा प्रलम्ब ने रोहिणी सुत बलराम को उठाया था।'
सा च मेने तदात्मानं वरिष्ठां सर्व-स्रोषिताम् ।। हित्वा गोपीः काम-ग्राना मामसौ भजते प्रियः ॥
२०७॥
ततो गत्वा वनोद्देशं दृप्ता केशवमब्रवीत् । न पारयेऽहं चलितुं नय मां यत्र ते मनः ॥
२०८॥
एवमुक्तः प्रियामाह स्कन्धमारुह्यतामिति ।। ततश्चान्तर्दधे कृष्णः सा वधूरन्वतप्यत ॥
२०९॥
हे प्रियतम कृष्ण, आप तुम मेरी पूजा कर रहे हो और उन सारी गोपियों का साथ छोड़ रहे हो, जो आपके साथ आनन्द भोगना चाहती है। ऐसा सोचती हुई श्रीमती राधारानी ने अपने आपको कृष्ण की सर्वाधिक प्रिय गोपी मान लिया। उन्हें गर्व हो गया था और कृष्ण के साथ उन्होंने रासलीला छोड़ दी थी। उन्होंने गहन वन में कहा, हे प्रिय कृष्ण, अब मैं और अधिक नहीं चल सकती। आप जहाँ चाहो मुझे ले चलो। जब श्रीमती राधारानी ने इस प्रकार से कृष्ण से याचना की तो कृष्ण ने कहा, तुम मेरे कंधों पर चढ़ जाओ। ज्योंही राधारानी ऐसा करने लगीं कि वे अदृश्य हो गये। तब श्रीमती राधारानी अपनी प्रार्थना तथा कृष्ण के अदृश्य होने पर शोक करने लगीं।'
पति-सुतान्वय-भ्रातृ-बान्धवान्अतिविलछ्य तेऽन्त्यच्युतागताः । गति-विदस्तवोद्गीत-मोहिताःकितव योषितः कस्त्यजेन्निशि ॥
२१०॥
हे कृष्ण, हम सब अपने पतियों, पुत्रों, परिवार, भाइयों तथा मित्रों के आदेश की अवहेलना करके उनका साथ छोड़कर आपके पास आई हैं। आप हमारी इच्छाओं के विषय में सब कुछ जानते हैं। हम तो आपकी परम संगीतमयी बाँसुरी से आकृष्ट होकर आई हैं। तो भी, आप बहुत बड़े ठग हो। भला ऐसा कौन होगा जो इस तरह रात्रि के अंधकार में हम जैसी तरुणियों का साथ त्यागना चाहेगा?' शान्त-रसे-‘स्वरूप-बुद्ध्ये कृष्णैक-निष्ठता' ।।शमो मन्निष्ठता बुद्धेः इति श्री-मुख-गाथा ॥
२११॥
जब कोई कृष्ण के चरणकमलों में पूरी तरह लगा रहता है, तब उसे शमता अवस्था प्राप्त होती है। शमता' शब्द 'शम' से निकला है। अतः शान्त रस ( तटस्थ अवस्था) का अर्थ है, भगवान् कृष्ण के चरणों में पूरी तरह लगे रहना। यह साक्षात् पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के मुख से निकला निर्णय है। यह अवस्था आत्म-साक्षात्कार कहलाती है।
शमो मन्निष्ठता बुद्धेरिति श्री-भगवद्वचः ।।तन्निष्ठा दुर्घटा बुद्धेरेतां शान्त-रतिं विना ॥
२१२ ॥
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के वचन हैं: जब किसी की बुद्धि मेरे चरणकमलों में पूरी तरह संलग्न रहती है, किन्तु वह व्यक्ति किसी तरहकी व्यावहारिक सेवा नहीं करता, तो उसे शान्त-रति या शम अवस्था प्राप्त हुई रहती है। शान्त रति के बिना कृष्ण के प्रति अनुरक्ति प्राप्त कर पाना अत्यन्त कठिन है।'
शमो मन्निष्ठता बुद्धेर्दम इन्द्रिय-संयमः । तितिक्षा दुःख-सम्मर्षों जिह्वोपस्थ-जयो धृतिः ॥
२१३॥
शम या शान्त-रस शब्द इसका सूचक है कि मनुष्य कृष्ण के चरणकमलों के प्रति अनुरक्त है। दम का अर्थ है इन्द्रियों को वश में रखना और भगवान् की सेवा से तनिक भी विचलित न होना। दुःख का सहना तितिक्षा है और धृति का अर्थ है जीभ तथा उपस्थ (जननेंद्रियों ) को वश में रखना।'
कृष्ण विना तृष्णा-त्याग–तार कार्य मानि । अतएव शान्त' कृष्ण-भक्त एक जानि ॥
२१४॥
जो शान्त रस को प्राप्त होता है, उसका कार्य है कि उन इच्छाओं का परित्याग करे, जो कृष्ण से सम्बन्धित नहीं हैं। केवल कृष्ण-भक्त ही इस पद को प्राप्त कर सकता है। इस तरह वह शान्त रस भक्त कहलाता है।
स्वर्ग, मोक्ष कृष्ण-भक्त 'नरक' करि' माने ।। कृष्ण-निष्ठा, तृष्णा-त्याग—शान्तेर दुइ' गुणे ॥
२१५ ॥
जब भक्त शान्त रस की भूमिका पर अवस्थित होता है, तब वह न तो स्वर्ग जाने की इच्छा करता है, न मोक्ष की। ये तो कर्म तथा ज्ञान के फल हैं और भक्त इन्हें नरक के समान मानता है। शान्त रस को प्राप्त व्यक्ति में दो दिव्य गुण प्रकट होते हैं-एक तो समस्त भौतिक इच्छाओं से विरक्ति तथा दूसरा कृष्ण के प्रति पूर्ण अनुरक्ति।
नारायण-पराः सर्वे न कुतश्चन बिभ्यति ।।स्वर्गापवर्ग-नरकेष्वपि तुल्यार्थ-दर्शिनः ॥
२१६॥
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् नारायण के प्रति पूरी तरह समर्पित व्यक्ति किसी वस्तु से नहीं डरता। भक्त के लिए स्वर्ग जाना, नरक में पहुँचना तथा भवबन्धन से मुक्ति-ये सभी एक जैसे होते हैं।' एई दुइ गुण व्यापे सब भक्त-जने ।आकाशेर 'शब्द'-गुण ग्रेन भूत-गणे ॥
२१७॥
शान्त-रस के ये दोनों गुण सभी भक्तों के जीवन में व्याप्त रहते हैं। ये आकाश में शब्द के गुण के समान हैं। शब्द ध्वनि समस्त भौतिक तत्त्वों में पाई जाती है।
शान्तेर स्वभाव–कृष्णे ममता-गन्ध-हीन । ‘परं-ब्रह्म'-'परमात्मा'-ज्ञान प्रवीण ॥
२१८॥
यह शान्त-रस का स्वभाव है कि उसमें रंचमात्र भी ममता नहीं रहती। प्रत्युत निर्विशेष ब्रह्म तथा अन्तर्यामी परमात्मा का ज्ञान प्रमुख होता है।
केवल 'स्वरूप-ज्ञान' हय शान्त-रसे ।‘पूर्णेश्वर्य-प्रभु-ज्ञान' अधिक हय दास्ये ॥
२१९॥
शान्त-रस के पद पर मनुष्य को केवल अपनी वैधानिक स्थिति का ही पता चल पाता है। किन्तु जब वह दास्य-रस के पद पर उन्नति करता है, तब वह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के पूर्ण ऐश्वर्य को अच्छी तरह से समझ पाता है।
ईश्वर-ज्ञान, सम्भ्रम-गौरव प्रचुर ।‘सेवा' करि' कृष्णे सुख देन निरन्तर ॥
२२०॥
दास्य-रस पद पर पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का ज्ञाने सम्भ्रम तथा गौरव समेत प्रकट होता है। भगवान् कृष्ण की सेवा करके दास्य-रस भक्त भगवान् को निरन्तर सुख प्रदान करता है।
शान्तेर गुण दास्ये आछे, अधिक-सेवन' ।अतएव दास्य-रसेर एइ दुइ' गुण ॥
२२१॥
शान्त-रस के गुण दास्य-रस में भी पाये जाते हैं, किन्तु इसमें सेवा जुड़ जाती है। इस तरह दास्य-रस पद में शान्त-रस तथा दास्य-रस-दोनों के ही गुण रहते हैं।
शान्तेर गुण, दास्येर सेवन—सख्ये दुइ हय ।।दास्येर 'सम्भ्रम-गौरव'-सेवा, सख्ये 'विश्वास'-मय ॥
२२२॥
सख्य-रस पद में शान्त-रस के गुण तथा दास्य-रस की सेवा दोनों ही विद्यमान रहते हैं। सख्य पद पर दास्य-रस के गुणों के साथ आदरयुक्त भय के स्थान पर सख्य का विश्वास मिला रहता है।
कान्धे चड़े, कान्धे चड़ाय, करे क्रीड़ा-रण ।कृष्णे सेवे, कृष्णे कराय आपन-सेवन! ॥
२२३॥
सख्य-रस पद पर कभी भक्त भगवान् की सेवा करता है, तो कभी बदले में कृष्ण से अपनी सेवा करवाता है। क्रीड़ा-युद्ध में ग्वालबाल कभी कृष्ण के कन्धों पर चढ़ जाते थे और कभी वे कृष्ण को अपने कन्धों पर चढ़ा लेते थे।
विश्रम्भ-प्रधान सख्य–गौरव-सम्भ्रम-हीन । अतएव सख्य-रसेर 'तिन' गुण—चिह्न ॥
२२४॥
चूँकि सख्य भाव में आत्मीयता प्रधान होती है, अतएव इसमें संभ्रम तथा गौरव ( आदरयुक्त भय) अनुपस्थित रहते हैं। अतएव सख्य-रस में तीन रसों के गुण विद्यमान होते हैं।
‘ममता' अधिक, कृष्णे आत्म-सम ज्ञान । अतएव सख्य-रसेर वश भगवान् ॥
२२५ ॥
सख्य-रस के पद पर पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् अपने भक्तों के वश में रहते हैं, क्योंकि वे भक्त कृष्ण के घनिष्ठ होते हैं और अपने आपको उन्हीं के समान मानते हैं।
वात्सल्ये शान्तेर गुण, दास्येर सेवन ।।सेइ सेइ सेवनेर इहाँ नाम–‘पालन' ॥
२२६॥
वात्सल्य प्रेम के पद पर शान्त-रस, दास्य-रस तथा सख्य-रस के गुण 'पालन' नामक सेवा में परिणत हो जाते हैं।
सख्येर गुण–‘असङ्कोच', 'अगौरव' सार ।ममताधिक्ये ताड़न-भत्र्सन-व्यवहार ॥
२२७॥
सख्य प्रेम का सार है ममता ( घनिष्ठता ) जिसमें दास्य-रस की औपचारिकता तथा आदर का अभाव रहता है। अधिक घनिष्ठता का भाव होने से भक्त वात्सल्य-रस में कार्य करते हुए भगवान् को सामान्य रूप से दंड देता है और फटकारता है।
आपनारे 'पालक' ज्ञान, कृष्णे ‘पाल्य'-ज्ञान ।‘चारि' गुणे वात्सल्य रस—अमृत-समान ॥
२२८॥
वात्सल्य-रस में भक्त अपने आपको भगवान् का पालक समझता है। इस तरह भगवान् पालन के पात्र रहते हैं, जैसाकि पुत्र होता है। अतएव यह रस शान्त, दास्य, सख्य तथा वात्सल्य रस के चार गुणों से ओतप्रोत रहता है। यह अधिक दिव्य अमृत है।
से अमृतानन्दे भक्त सह डुबेन आपने । ‘कृष्ण-भक्त-वश' गुण कहे ऐश्वर्य-ज्ञानि-गणे ॥
२२९॥
कृष्ण तथा उनके भक्त के बीच आध्यात्मिक आनन्द के आदानप्रदान की तुलना, जिसमें कृष्ण अपने भक्त के वश में रहते हैं, उस अमृत के सागर से की जाती है, जिसमें भक्त तथा कृष्ण डुबकी लगाते हैं। यह उन विद्वानों का मत है, जो कृष्ण के ऐश्वर्य का गुणगान करते हैं।
इतीदृक्स्व-लीलाभिरानन्द-कुण्डेस्वघोषं निमज्जन्तमाख्यापयन्तम् । तदीयेशितज्ञेषु भक्तैर्जितत्वंपुनः प्रेमतस्तं शतावृत्ति वन्दे ॥
२३०॥
मैं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को फिर से सादर नमस्कार करता हूँ। हे प्रभु, मैं आपको सम्पूर्ण स्नेह के साथ सैकड़ों-हजारों बार नमस्कार करता हूँ, क्योंकि आप अपनी निजी लीलाओं से गोपियों को अमृतसागर में निमग्न कर देते हैं। आपके ऐश्वर्य के कारण भक्तगण सामान्यतया घोषित करते हैं कि आप उनकी भावनाओं द्वारा सदैव वशीभूत होते हैं।
मधुर-रसे--कृष्ण-निष्ठा, सेवा अतिशय ।सख्येर असङ्कोच, लालन-ममताधिक्य हय ॥
२३१॥
माधुर्य रस में कृष्ण के प्रति निष्ठा, उनकी सेवा, सख्य का असंकोच भाव तथा पालन की भावना-इन सबकी घनिष्ठता की वृद्धि हो जाती हैं।
कान्त-भावे निजाङ्ग दिया करेन सेवन ।।अतएव मधुर-रसेर हय 'पञ्च' गुण ॥
२३२॥
माधुर्य रस में भक्त भगवान् की सेवा में अपना शरीर अर्पित कर देता है। अतः इस रस में पाँचों रसों के दिव्य गुण उपस्थित रहते हैं।
आकाशादि गुण येन पर पर भूते ।।एक-दुइ-तिन-चारि क्रमे पञ्च पृथिवीते ॥
२३३॥
आकाश आदि भौतिक तत्त्वों में सारे गुण एक के बाद एक विकसित होते जाते हैं। क्रमिक विकास द्वारा सर्वप्रथम एक गुण उत्पन्न होता है, फिर दो भौतिक गुण, तब तीन और चार गुण विकसित होते हैं। और अन्त में पृथ्वी में पाँचों गुण पाये जाते हैं।
एइ-मत मधुरे सब भाव-समाहार ।अतएव आस्वादाधिक्ये करे चमत्कार ॥
२३४॥
इसी तरह माधुर्य रस में भक्तों के सारे भाव घुलमिल जाते हैं। इसका गाढ़ा स्वाद निश्चित रूप से अद्भुत होता है।
एइ भक्ति-रसेर करिलाङ, दिग्दरशन ।।इहार विस्तार मने करिह भावन ॥
२३५॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने यह कहकर समाप्त किया, मैंने भक्ति रसों का सामान्य सर्वेक्षण ही प्रस्तुत किया है। इसे किस तरह समंजित किया जाए तथा विस्तारित किया जाए, इसके विषय में आप विचार कर सकते हैं।
भाविते भाविते कृष्ण स्फुरये अन्तरे ।।कृष्ण-कृपाय अज्ञ पाय रस-सिन्धु-पारे ॥
२३६॥
जब कोई निरन्तर कृष्ण का चिन्तन करता है, तब उनका प्रेम हृदय के भीतर प्रकट होता है। अनजान होते हुए भी कृष्ण की कृपा से मनुष्य दिव्य प्रेम के सागर के बहुत दूर वाले तट तक पहुँच सकता है।
प्रभाते उठिया ग्रबे करिला गमन । तबे ताँर पदे रूप करे निवेदन ॥
२३८॥
अगले दिन प्रातःकाल जब श्री चैतन्य महाप्रभु जगे और वाराणसी ( बनारस) के लिए प्रस्थान करने वाले थे, तब श्रील रूप गोस्वामी ने महाप्रभु के चरणकमलों में यह निवेदन किया।
‘आज्ञा हय, आसि मुञि श्री-चरण-सङ्गे।।सहिते ना पारि मुजि विरह-तरङ्गे' ॥
२३९॥
यदि आप मुझे आज्ञा दें, तो मैं भी आपके साथ चलँ। विरह की तरंगों को सहन कर पाना मेरे लिए सम्भव नहीं है।
एत बलि' प्रभु ताँरै कैला आलिङ्गन ।वाराणसी चलिबारे प्रभुर हैल मन ॥
२३७॥
यह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने श्रील रूप गोस्वामी का आलिंगन किया। तब महाप्रभु ने बनारस शहर जाने का निश्चय किया।
प्रभु कहे, तोमार कर्तव्य, आमार वचन ।।निकटे आसियाछ तुमि, ग्राह वृन्दावन ॥
२४० ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम मेरे आदेश का पालन करो। तुम वृन्दावन के निकट आ चुके हो। अब तुम वहीं जाओ।
वृन्दावन हैते तुमि गौड़-देश दिया।आमारे मिलिबा नीलाचलेते आसिया ॥
२४१॥
बाद में तुम वृन्दावन से बंगाल ( गौड़देश) होते हुए जगन्नाथपुरी जा सकते हो। वहाँ तुम पुनः मुझसे मिलोगे।
ताँरै आलिङ्गिया प्रभु नौकाते चड़िला ।मूर्च्छित हा तेंहो ताहाञि पड़िला ॥
२४२॥
रूप गोस्वामी का आलिंगन करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु एक नाव में सवार हो गये। रूप गोस्वामी मूर्च्छित होकर उसी स्थान पर गिर पड़े।
दाक्षिणात्य-विप्र ताँरै घरे ला गेला ।तबे दुइ भाइ वृन्दावनेरे चलिला ॥
२४३॥
एक दाक्षिणात्य ब्राह्मण रूप गोस्वामी को अपने घर ले गया। तत्पश्चात् दोनों भाई वृन्दावन के लिए चल पड़े।
महाप्रभु चलि' चलि' आइला वाराणसी ।चन्द्रशेखर मिलिला ग्रामेर बाहिरे आसि ॥
२४४॥
चलते चलते श्री चैतन्य महाप्रभु अन्ततः वाराणसी आ पहुँचे, जहाँ शहर से बाहर आ रहे चन्द्रशेखर से उनकी भेंट हुई।
रात्रे तेंहो स्वप्न देखे,—प्रभु आइला घरे ।प्रातः-काले आसि' रहे ग्रामेर बाहिरे ॥
२४५ ॥
चन्द्रशेखर ने स्वप्न में देखा था कि श्री चैतन्य महाप्रभु उसके घर आये हुए हैं; अतः प्रातःकाल वे महाप्रभु का स्वागत करने के लिए शहर के बाहर चले आये थे।
आचम्बिते प्रभु देखि' चरणे पड़िला ।।आनन्दित हा निज-गृहे लञा गेला ॥
२४६॥
जब चन्द्रशेखर शहर के बाहर प्रतीक्षा कर रहे थे, तब उन्होंने महाप्रभु को सहसा आते देखा। वे उनके चरणों पर गिर पड़े और परम आनन्दित होकर उन्हें अपने घर ले गये।
तपन-मिश्र शुनि' आसि' प्रभुरे मिलिला ।इष्ट-गोष्ठी करि' प्रभुर निमन्त्रण कैला ॥
२४७॥
तपन मिश्र ने भी वाराणसी में महाप्रभु के आगमन का समाचार सुना, तो वे चन्द्रशेखर के घर उनसे मिलने गये। बातचीत के बाद उन्होंने महाप्रभु को अपने यहाँ भोजन करने के लिए निमन्त्रित किया।
निज घरे लञा प्रभुरे भिक्षा कराइल ।भट्टाचार्ये चन्द्रशेखर निमन्त्रण कैल ॥
२४८॥
तपन मिश्र चैतन्य महाप्रभु को अपने घर ले गये और उन्हें भोजन कराया।चन्द्रशेखर ने बलभद्र भट्टाचार्य को अपने घर भोजन करने के लिए आमन्त्रित किया।
भिक्षा कराज मिश्र कहे प्रभु-पाय धरि' ।एक भिक्षा मागि, मोरे देह' कृपा करि' ॥
२४९॥
श्री चैतन्य महाप्रभु को भोजन कराने के बाद तपन मिश्र ने महाप्रभु से एक अनुग्रह करने के लिए कहा और प्रार्थना की कि वे उन पर कृपा करें।
द्मावत्तोमार हय काशी-पुरे स्थिति ।।मोर घर विना भिक्षा ना करिबा कति ॥
२५०॥
तपन मिश्र ने कहा, आप जब तक वाराणसी में रुकें, तब तक कृपा करके मेरे अतिरिक्त किसी अन्य का निमन्त्रण न स्वीकार करें।
प्रभु जानेन—दिन पाँच-सात से रहिब ।। सन्यासीर सङ्गे भिक्षा काहाँ ना करिब ॥
२५१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु जानते थे कि उन्हें वहाँ पाँच-सात दिन रुकना है। अतः वे कोई ऐसा निमन्त्रण स्वीकार नहीं करेंगे, जिसमें मायावादी संन्यासी का हाथ हो।
एत जानि' ताँर भिक्षा कैला अङ्गीकार ।। वासा-निष्ठा कैला चन्द्रशेखरेर घर ॥
२५२ ॥
यह जानकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने तपन मिश्र के घर पर भोजन करना स्वीकार कर लिया। महाप्रभु ने चन्द्रशेखर के घर को अपना निवासस्थान बना लिया।
महाराष्ट्रीय विप्र आसि' ताँहारे मिलिला ।।प्रभु ताँरे स्नेह करि' कृपा प्रकाशिला ॥
२५३ ॥
महाराष्ट्रीय ब्राह्मण ने आकर महाप्रभु से भेंट की। महाप्रभु ने स्नेहवश । उसे कृपा प्रदान की।
महाप्रभु आइला शुनि' शिष्ट शिष्ट जन । ब्राह्मण, क्षत्रिय आसि' करेन दरशन ॥
२५४॥
यह सुनकर कि श्री चैतन्य महाप्रभु पधारे हैं, ब्राह्मण तथा क्षत्रिय जातियों के सारे सम्मानित व्यक्ति उनके दर्शन के लिए आये।
श्री-रूप-उपरे प्रभुर व्रत कृपा हैल ।। अत्यन्त विस्तार-कथा सङ्क्षेपे कहिल ॥
२५५॥
इस तरह श्री रूप गोस्वामी पर अत्यधिक कृपावृष्टि हुई। मैंने इन सारी कथाओं का संक्षेप में वर्णन किया है।
श्रद्धा करि' एइ कथा शुने ग्रेड जने ।।प्रेम-भक्ति पाय सेइ चैतन्य-चरणे ॥
२५६॥
जो भी इस कथा को श्रद्धा तथा प्रेम से सुनता है, वह अवश्य ही श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों में भगवत्प्रेम विकसित करता है।
श्री-रूप-रघुनाथ-पदे ग्रार आश ।।चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
२५७॥
श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों में प्रार्थना करते हुए और उनकी कृपा की सदैव आकांक्षा करते हुए मैं कृष्णदास उनके चरणचिह्नों का अनुसरण करता हुआ श्री चैतन्य-चरितामृत कह रहा हूँ।
अध्याय बीस:भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी को परम सत्य के विज्ञान का निर्देश दिया
वन्देऽनन्ताद्भुतैश्वर्यं श्री-चैतन्य महाप्रभुम् । नीचोऽपि यत्प्रसादात्स्याद्भक्ति-शास्त्र-प्रवर्तकः ॥
१॥
मैं उन श्री चैतन्य महाप्रभु को सादर नमस्कार करता हूँ, जिनके पास भवन्त अद्भुत ऐश्वर्य है। उनकी कृपा से नीच से नीच व्यक्ति भी भक्ति के विज्ञान का प्रसार कर सकता है।
जय जय श्री-चैतन्य जय नित्यानन्द ।जयाद्वैत-चन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ॥
२ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! अद्वैत आचार्य की जय हो तथा श्री चैतन्य महाप्रभु के सारे भक्तों की जय हो! एथा गौड़े सनातन आछे बन्दि-शाले ।श्री-रूप-गोसाञीर पत्री आइल हेन-काले ॥
३॥
जब सनातन गोस्वामी बंगाल में बन्दी थे, तब उन्हें श्रील रूप गोस्वामी का पत्र मिला।
पत्री पाञा सनातन आनन्दित हैला ।। यवन-रक्षक-पाश कहिते लागिला ॥
४॥
जब सनातन गोस्वामी को रूप गोस्वामी की यह चिट्ठी मिली, तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुए। वे तुरन्त मांसाहारी ( यवन) जेल अधीक्षक के पास गये और उससे इस तरह बोले।
तुमि एक जिन्दा-पीर महा-भाग्यवान् । केताब-कोरोण-शास्त्रे आछे तोमार ज्ञान ॥
५॥
सनातन गोस्वामी ने मुस्लिम जेलर से कहा-हे महोदय, आप सन्त पुरुष हैं और बड़े ही भाग्यशाली हैं। आप कुरान तथा अन्य शास्त्रों के ज्ञान पूर्णतया अवगत हैं।
एक बन्दी छाड़े ग्रदि निज-धर्म देखियो ।संसार हइते तारे मुक्त करेन गोसाजा ॥
६॥
यदि कोई व्यक्ति बद्धजीव या बन्दी व्यक्ति को धार्मिक नियमों के अनुसार मुक्त कर देता है, तो भगवान् उसे भी भवबन्धन से मुक्त कर देते हैं।
पूर्वे आमि तोमार करियाछि उपकार ।तुमि आमा छाड़ि' कर प्रत्युपकार ॥
७॥
सनातन गोस्वामी ने आगे कहा, इसके पूर्व मैंने आपके लिए बहुत कुछ किया है। अब मैं संकट में हूँ। कृपया मुझे बन्धनमुक्त करके उस उपकार का बदला चुकायें।
पाँच सहस्र मुद्रा तुमि कर अङ्गीकार ।पुण्य, अर्थ, दुइ लाभ हड्बे तोमार ॥
८॥
ये रही पाँच हजार स्वर्ण मुद्राएँ। कृपया इन्हें स्वीकार करें। मुझे मुक्त करने से आपको पुण्य मिलेगा और भौतिक लाभ भी होगा। इस तरह आपको एक साथ दोहरा लाभ होगा।
तबे सेइ ग्रवन कहे, शुन, महाशय ।तोमारे छाड़िब, किन्तु करि राज-भय ॥
९॥
इस प्रकार सनातन गोस्वामी ने जेल-अधीक्षक को विश्वास दिलाया। उसने उत्तर दिया, हे महोदय, कृपया मेरी बात सुनें। मैं आपको छोड़ने के लिए तैयार हूँ, किन्तु मुझे सरकार का डर लग रहा है।
सनातन कहे,–तुमि ना कर राज-भय । दक्षिण गियाछे ग्रदि लेउटि' आओयय ॥
१०॥
ताँहारे कहिओ सेइ बाह्य-कृत्ये गेल ।।गङ्गार निकट गङ्गा देखि' झाँप दिल ॥
११॥
सनातन ने कहा, कोई भय नहीं है। नवाब दक्षिण गया हुआ है। यदि वह लौटकर आता है, तो उससे कहना कि सनातन गंगा नदी के तट पर शौच के लिए गया और गंगा को देखते ही वह उसमें कूद पड़ा।
अनेक देखिल, तार लागे ना पाइल।दाडुका-सहित डुबि काहाँ वहि' गेल ॥
१२॥
उससे कहना कि, 'मैं काफी देर तक उसे ढूंढता रहा, किन्तु उसको तनिक भी पता न चली। वह अपनी हथकड़ियों समेत कूद पड़ा, अतएव वह डूब गया और लहरों में बह गया।'
किछु भय नाहि, आमि ए-देशे ना रेब ।।दरवेश हा आमि मक्काके ग्राइब ॥
१३॥
आपको डरने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि मैं इस देश में नहीं रहूँगा। मैं साधु बनकर पवित्र नगरी मक्का जाऊँगा।
तथापि ग्रवन-मन प्रसन्न ना देखिला ।सात-हाजार मुद्रा तार आगे राशि कैला ॥
१४॥
सनातन गोस्वामी ने देखा कि उस मांसभक्षक का मन अभी भी प्रसन्न नहीं था। तब उन्होंने उसके आगे सात हजार स्त्रैण मुद्राओं की राशि लगा दी।
लोभ हइल झवनेर मुद्रा देखियो ।रात्रे गङ्गा-पार कैल दाडुका काटिया ॥
१५ ॥
जब मांसभक्षक ने मुद्राएँ देखीं, तो वह उनके प्रति आकृष्ट हो गया। वह सहमत हो गया और उस रात उसने सनातन की बेड़ियाँ काट दीं और उन्हें गंगा पार करने दिया।
गड़-द्वार-पथ छाड़िला, नारे ताहाँ ग्राइते ।।रात्रि-दिन चलि' आइला पातड़ा-पर्वते ॥
१६॥
इस तरह सनातन गोस्वामी छूट तो गये, किन्तु वे किले के रास्ते से होकर नहीं जा पाये। वे रात-दिन चलकर अन्त में पातड़ा पहाड़ी-क्षेत्र में पहुँचे।
तथा एक भौमिक हय, तार ठाजि गेला ।‘पर्वत पार कर आमा'—विनति करिला ॥
१७॥
पातड़ा पहुँचकर वे एक जमींदार से मिले और उन्होंने उससे विनती की कि वह उन्हें इस पहाड़ी इलाके को पार करा दे।
सेइ भूजार सङ्गे हय हात-गणिता ।।भूआर काणे कहे सेइ जानि' एइ कथा ॥
१८॥
उस समय उस जमींदार के यहाँ एक ज्योतिषी टिका हुआ था। सनातन के बारे में जानकर जमींदार के कान में वह इस प्रकार फुसफुसाया।
'इँहार ठाञि सुवर्णेर अष्ट मोहर हय' ।।शुनि' आनन्दित भू सनातने कये ॥
१९॥
उस ज्योतिषी ने कहा, इस व्यक्ति सनातन के पास आठ स्वर्ण मुद्राएँ (मोहरें ) हैं। यह सुनकर वह जमींदार बहुत प्रसन्न हुआ और सनातन से इस प्रकार बोला।
रात्र्ये पर्वत पार करिब निज-लोक दिया । भोजन करह तुमि रन्धन करिया ॥
२०॥
जमींदार ने कहा, मैं मेरे लोगों के साथ आपको रात में पर्वत के उस पार भिजवा दूंगा। अभी आप अपना भोजन पकायें और खायें।
एत बलि' अन्न दिल करिया सम्मान ।। सनातन आसि' तबे कैल नदी-स्नान ॥
२१॥
यह कहकर जमींदार ने सनातन गोस्वामी को पकाने के लिए अन्न दिया। तब सनातन नदी के किनारे गये और उन्होंने वहाँ स्नान किया।
दुइ उपवासे कैला रन्धन-भोजने । राज-मन्त्री सनातन विचारिला मने ॥
२२॥
चूँकि सनातन दो दिनों से उपवास कर रहे थे, अतः उन्होंने भोजन पकाया और खाया किन्तु नवाब का मन्त्री रह चुकने के कारण वे स्थिति पर विचार करने लगे।
‘एइ भूजा केने मोरे सम्मान करिल?' ।एत चिन्ति' सनातन ईशाने पुछिल ॥
२३ ॥
नवाब का मन्त्री रहने के कारण सनातन सारी कूटनीति समझते थे। अतः उन्होंने सोचा, यह जमींदार मेरा इतना सम्मान क्यों कर रहा है? यह सोचकर उन्होंने अपने सेवक ईशान से पूछा।
‘तोमार ठाजि जानि किछु द्रव्य आछय' ।ईशान कहे,–'मोर ठाजि सात मोहर हय' ॥
२४॥
सनातन ने अपने सेवक से पूछा, ईशान, मेरी समझ में तुम्हारे पास कुछ बहुमूल्य वस्तुएँ हैं। ईशान ने कहा, हाँ, मेरे पास सात स्वर्ण मुद्राएँ (मोहरें ) हैं।
शुनि' सनातन तारे करिला भर्सन । ‘सङ्गे केने आनियाछ एइ काल-ग्रम?' ॥
२५॥
यह सुनकर सनातन गोस्वामी ने अपने सेवक की भर्सना यह कहते हुए की, तुम यह मृत्यु की घण्टी क्यों अपने साथ लाये हो? तबे सेइ सात मोहर हस्तेते करिया ।। भूआर काछे ग्राञा कहे मोहर धरिया ॥
२६॥
तत्पश्चात् सनातन गोस्वामी सातों स्वर्ण मुद्राएँ अपने हाथ में लेकर जमींदार के पास गये और उसके समक्ष मुद्राएँ रखकर इस प्रकार बोले।
एइ सात सुवर्ण मोहर आछिल आमार। इहा ला धर्म देखि' पर्वत कर पार ॥
२७॥
मेरे पास ये सात स्वर्ण मुद्राएँ हैं। कृपया इन्हें लीजिये और धर्म समझकर मुझे यह पर्वतीय प्रदेश पार करा दीजिये।
राज-बन्दी आमि, गड़-द्वार ग्राइते ना पारि ।।पुण्य हबे, पर्वत आमा देह' पार करि ॥
२८॥
मैं सरकारी बन्दी हूँ और मैं किले के परकोटे के रास्ते से नहीं जा सकता। यदि आप यह धन ले लें और मुझे यह पर्वतीय प्रदेश पार करा दें, तो आपको बड़ा पुण्य होगा।
भूञा हासि' कहे,–आमि जानियाछि पहिले ।अष्ट मोहर हय तोमार सेवक-आँचले ॥
२९॥
जमींदार ने हँसते हुए कहा, तुम्हारे देने के पूर्व ही मैं जानता था कि तुम्हारे सेवक के पास आठ स्वर्ण मुद्राएँ हैं।
तोमा मारि' मोहर लइताम आजिकार रात्र्ये ।। भाल हैल, कहिला तुमि, छुटिलाङपाप हैते ॥
३०॥
आज रात को ही मैं तुम्हें जान से मारकर तुम्हारी मुद्राएँ ले लेता। यह तो अच्छा हुआ कि तुमने स्वेच्छा से उन्हें लाकर मुझे सौंप दिया। अब मैं इस पापकर्म से बच गया।
सन्तुष्ट हइलाङआमि, मोहर ना लइब ।। पुण्य लागि' पर्वत तोमा' पार करि' दिब ॥
३१॥
मैं तुम्हारे आचरण से अत्यन्त सन्तुष्ट हूँ। मैं ये स्वर्ण मुद्राएँ नहीं लूंगा, परन्तु मैं केवल पुण्य-लाभ हेतु तुम्हें यह पर्वतीय प्रदेश पार करा दूंगा।
गोसात्रि कहे,–केह द्रव्य लइबे आमा मारि' । आमार प्राण रक्षा कर द्रव्य अङ्गीकरि ॥
३२॥
सनातन गोस्वामी ने कहा, यदि आप इन मुद्राओं को स्वीकार नहीं करेंगे, तो इनके लिए मुझे कोई दूसरा मार डालेगा। अतः अच्छा यही होगा कि आप इन मुद्राओं को स्वीकार करके मेरी प्राण-रक्षा करें।
तबे भूजा गोसान्निर सङ्गे चारि पाइक दिल ।। रात्र्ये राज्ये वन-पथे पर्वत पार कैल ॥
३३॥
इस समझौते के बाद जमींदार ने सनातन गोस्वामी को चार रक्षक दिये जो उनके साथ जा सकें। वे सभी रात-भर जंगल के रास्ते से होकर चलते रहे और उन्हें पर्वतीय क्षेत्र के पार ले गये।
तबे पार हा गोसाजि पुछिला ईशाने ।जानि,—शेष द्रव्य किछु आछे तोमा स्थाने ॥
३४॥
पर्वत पार करने के बाद सनातन गोस्वामी ने अपने सेवक से कहा, ईशान, मेरी समझ में तुम्हारे पास अब भी कुछ स्वर्ण मुद्राएँ होंगी।
ईशान कहे,–एक मोहर आछे अवशेष । गोसात्रि कहे, मोहर लञा ग्राह' तुमि देश ॥
३५॥
ईशान ने उत्तर दिया, अब भी एक स्वर्ण मुद्रा मेरे पास है। तब सनातन गोस्वामी ने कहा, यह मुद्रा लेकर तुम अपने घर लौट जाओ।
तारे विदाय दिया गोसाजि चलिला एकला ।हाते करोया, छिंड़ा कान्था, निर्भय हइला ॥
३६॥
ईशान को विदा करने के बाद सनातन गोस्वामी हाथ में जलपात्र लेकर अकेले ही चल पड़े। फटी-पुरानी रजाई ओढ़े वे अपनी सारी चिन्ताओं से मुक्त हो गये।
चलि' चलि' गोसाञि तबे आइला हाजिपुरे ।। सन्ध्या-काले वसिला एक उद्यान-भितरे ॥
३७॥
चलते चलते सनातन गोस्वामी अन्ततः हाजीपुर नामक स्थान पर पहुँचे। उन्होंने वह सन्ध्या एक बगीचे के भीतर बैठकर बिताई।
सेइ हाजिपुरे रहे–श्रीकान्त तार नाम । गोसाजिर भगिनी-पति, करे राज-काम ॥
३८॥
हाजीपुर में श्रीकान्त नाम का एक व्यक्ति रहता था, जो सनातन गोस्वामी का बहनोई था। वह वहाँ सरकारी नौकरी करता था।
तिन लक्ष मुद्रा राजा दियाछे तार स्थाने । घोड़ा मूल्य ला पाठाय पात्सार स्थाने ॥
३९॥
श्रीकान्त के पास तीन लाख स्वर्ण मुद्राएँ थीं, जो उसे राजा से घोड़े खरीदने के लिए मिली थीं। इस तरह श्रीकान्त घोड़े खरीद-खरीदकर राजा के पास भेजता रहता था।
टुङ्गि उपर वसि' सेइ गोसाजिरे देखिल । राये एक-जन-सङ्गे गोसाञि-पाश आइल ॥
४०॥
ऊँचे चबूतरे पर बैठे हुए श्रीकान्त ने सनातन गोस्वामी को देखा। अतः उस रात वे वहाँ अपने साथ एक सेवक को लेकर सनातन गोस्वामी से मिलने गया।
दुइ-जन मिलि' तथा इष्ट-गोष्ठी कैल ।। बन्धन-मोक्षण-कथा गोसाञि सकलि कहिल ॥
४१॥
जब वे दोनों मिले तो बहुत बातें हुईं। सनातन गोस्वामी ने विस्तार से अपने बन्दी होने और मुक्ति की बातें बताईं।
तेंहो कहे,–दिन-दुइ रह एइ-स्थाने ।।भद्र हओ, छाड़' एइ मलिन वसने ॥
४२॥
तब श्रीकान्त ने सनातन गोस्वामी से कहा, यहाँ पर कम-से-कम दो दिन रुकिये और भद्र पुरुषों की तरह वस्त्र पहनिये। इन गन्दे वस्त्रों को त्याग दीजिये।
गोसात्रि कहे,'एक-क्षण इहा ना रहिब ।गङ्गा पार करि' देह' ए-क्षणे चलिब ॥
४३॥
सनातन गोस्वामी ने उत्तर दिया, मैं यहाँ पर एक क्षण भी नहीं रुकेंगा। कृपया मुझे गंगा पार करा दें। मैं तुरन्त चला जाऊँगा।
ग्रल करि' तेहो एक भोट-कम्बल दिल ।गङ्गा पार करि' दिल–गोसाजि चलिल ॥
४४॥
श्रीकान्त ने बड़ी सावधानी से उन्हें एक ऊनी कम्बल दिया और गंगा पार जाने में उनकी सहायता की। इस तरह सनातन गोस्वामी फिर चल पड़े।
तबे वाराणसी गोसाञि आइला कत-दिने ।शुनि आनन्दित हइला प्रभुर आगमने ॥
४५ ॥
कुछ दिनों बाद सनातन गोस्वामी वाराणसी आ पहुँचे। वहाँ पर श्री चैतन्य महाप्रभु के आगमन के विषय में सुनकर वे अत्यन्त प्रसन्न हुए।"
चन्द्रशेखरेर घरे आसि' द्वारेते वसिला ।।महाप्रभु जानि' चन्द्रशेखरे कहिला ॥
४६॥
तब सनातन गोस्वामी चन्द्रशेखर के घर गये और उनके दरवाजे के पास बैठ गये। श्री चैतन्य महाप्रभु जान गये कि क्या हो रहा है, अतः वे चन्द्रशेखर से बोले।
‘द्वारे एक 'वैष्णव' हय, बोलाह ताँहारे ।चन्द्रशेखर देखे–‘वैष्णव' नाहिक द्वारे ॥
४७॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, तुम्हारे दरवाजे पर एक भक्त है। कृपया उसे अन्दर बुला लाओ। बाहर जाने पर चन्द्रशेखर को अपने दरवाजे पर कोई वैष्णव नहीं दिखा।
'द्वारेते वैष्णव नाहि'—प्रभुरे कहिल ।‘केह हय' करि' प्रभु ताहारे पुछिल ॥
४८॥
जब चन्द्रशेखर ने महाप्रभु को बतलाया कि उनके दरवाजे पर कोई वैष्णव नहीं है, तो महाप्रभु ने पूछा, क्या तुम्हारे दरवाजे पर कोई भी है? तेहो कहे,——एक दरवेश' आछे द्वारे ।।‘ताँरै आन' प्रभुर वाक्ये कहिल ताँहारे ॥
४९॥
चन्द्रशेखर ने उत्तर दिया, वहाँ एक मुसलमान फकीर है। महाप्रभु ने तुरन्त कहा, कृपया उसे यहाँ ले आओ। तब चन्द्रशेखर ने अपने द्वार पर अभी तक बैठे हुए सनातन गोस्वामी से कहा।
‘प्रभु तोमाय बोलाय, आइस, दरवेश!' । शुनि' आनन्दे सनातन करिला प्रवेश ॥
५० ॥
हे मुसलमान फकीर, कृपया अन्दर आइये। महाप्रभु आपको बुला रहे हैं। यह आदेश सुनकर सनातन गोस्वामी अत्यन्त आनन्दित हुए और चन्द्रशेखर के घर में प्रविष्ट हुए।
ताँहारे अङ्गने देखि' प्रभु धाबा आइला ।ताँरै आलिङ्गन करि' प्रेमाविष्ट हैला ॥
५१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु सनातन गोस्वामी को आँगन में आये हुए देखते ही तेजी से उनके पास गये और उनका आलिंगन किया और स्वयं प्रेमावेश से भावविभोर हो गये।
प्रभु-स्पर्शे प्रेमाविष्ट हइला सनातन । ‘मोरे ना छुडिह' कहे गद्गद-वचन ॥
५२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु का द्वारा स्पर्श पाते ही सनातन गोस्वामी भी प्रेमाविष्ट हो गये। उन्होंने रुद्ध वाणी में कहा, हे प्रभु, आप मेरा स्पर्श न करें।
दुइ-जने गलागलि रोदन अपार ।। देखि' चन्द्रशेखरेर हुइल चमत्कार ॥
५३॥
श्री चैतन्य महाप्रभु तथा सनातन गोस्वामी गले लगकर अत्यधिक रोने लगे। यह देखकर चन्द्रशेखर अत्यधिक चकित हुए।
तबे प्रभु ताँर हात धरि' ला गेला । पिण्डार उपरे आपन-पाशे वसाइला ॥
५४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु चन्द्रशेखर का हाथ पकड़कर भीतर ले गये और उन्हें अपनी बगल में एक ऊँचे आसन पर बिठाया।
श्री-हस्ते करेन ताँर अङ्ग सम्मार्जन ।।तेंहो कहे,‘मोरे, प्रभु, ना कर स्पर्शन' ॥
५५॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु अपने दिव्य हाथों से सनातन गोस्वामी का शरीर साफ करने लगे, तो सनातन गोस्वामी ने कहा, हे प्रभु, कृपया मेरा स्पर्श न करें।
प्रभु कहे,_तोमा स्पर्शि आत्म पवित्रते ।भक्ति-बले पार तुमि ब्रह्माण्ड शोधिते ॥
५६॥
महाप्रभु ने उत्तर दिया, मैं अपने आपको पवित्र बनाने के लिए ही तुम्हारा स्पर्श कर रहा हूँ, क्योंकि तुम अपनी भक्ति के बल से सारे ब्रह्माण्ड को शुद्ध कर सकते हो।
भवद्विधा भागवतास्तीर्थ-भूताः स्वयं प्रभो ।।तीर्थी-कुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्तः-स्थेन गदा-भृता ॥
५७॥
आप जैसे सन्त स्वयं तीर्थस्थान होते हैं। अपनी पवित्रता के कारण वे भगवान् के नित्य पार्षद होते हैं; अतः वे तीर्थस्थलों को भी पवित्र कर सकते हैं।
न मेऽभक्तश्चतुर्वेदी मद्भक्तः श्व-पचः प्रियः ।। तस्मै देयं ततो ग्राह्य स च पूज्यो यथा ह्यहम् ॥
५८॥
भगवान् कृष्ण ने कहा : ‘भले ही कोई व्यक्ति संस्कृत वैदिक साहित्य का कितना ही प्रकाण्ड पण्डित क्यों न हो, जब तक वह भक्ति में शुद्ध न हो, वह तब तक मेरा भक्त नहीं माना जाता। किन्तु भले ही कोई व्यक्ति चण्डाल परिवार में जन्मा हो, वह भी मुझे अत्यन्त प्रिय है, यदि वह शुद्ध भक्त है और सकाम कर्म या मानसिक तर्क को भोगने की इच्छा से रहित है। निस्सन्देह, उसका सभी तरह से आदर होना चाहिए और वह जो भी भेंट करे उसे स्वीकार करना चाहिए। ऐसे भक्त मेरे समान ही पूज्य हैं।'
विप्रादिद्व-षडू-गुण-ग्रुतादरविन्द-नाभपादारविन्द-विमुखात्-श्वपचं वरिष्ठम् । मन्ये तदर्पित-मनो-वचनेहितार्थप्राणं पुनाति स कुलं न तु भूरि-मानः ॥
५९ ॥
भले ही ब्राह्मण परिवार में जन्म लेकर कोई बारहों ब्राह्मण-गुणों से युक्त क्यों न हो, किन्तु यदि वह कमल समान नाभि वाले भगवान् कृष्ण के चरणकमलों में भक्ति नहीं रखता, तो वह उस चण्डाल के भी तुल्य नहीं है, जिसने भगवान् की सेवा में अपना मन, वचन, कर्म, सम्पत्ति तथा जीवन समर्पित कर दिया है। केवल ब्राह्मण परिवार में जन्म लेना या ब्राह्मण गुणों से सम्पन्न होना पर्याप्त नहीं है। उसे भगवान् का शुद्ध भक्त होना चाहिए। यदि श्वपच या चण्डाल भक्त होता है, तो वह न केवल अपना, अपितु अपने पूरे परिवार का उद्धार करता है, जबकि कोई ब्राह्मण यदि भक्त न होकर केवल ब्राह्मण-गुणों से सम्पन्न होता है, तो वह अपने आपको भी शुद्ध नहीं कर पाता, अपने परिवार को शुद्ध करना तो दूर रहा।'
तोमा देखि, तोमा स्पर्शि, गाइ तोमार गुण ।।सर्वेन्द्रिय-फल, एइ शास्त्र-निरूपण ॥
६० ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु कहते गये, तुम्हें देखकर, तुम्हें स्पर्श करके तथा तुम्हारे दिव्य गुणों का गान करके कोई भी व्यक्ति इन्द्रिय के सारे कार्यों के उद्देश्य को पूर्ण बना सकता है। यह प्रामाणिक शास्त्रों का निर्णय है।
अक्ष्णोः फलं त्वादृश-दर्शनं हितनोः फलं त्वादृश-गोत्र-सङ्गः । जिह्वा-फलं त्वादृश-कीर्तनं हि | सु-दुर्लभा भागवता हि लोके ॥
६१॥
हे वैष्णव, आप जैसे व्यक्ति का दर्शन करना दृष्टि की पूर्णता है। आपके चरणकमलों का स्पर्श करना स्पर्शेन्द्रिय की पूर्णता है। आपके सद्गुणों का गान करना जीभ का वास्तविक कार्य है, क्योंकि भौतिक जगत् में भगवान् का शुद्ध भक्त खोज पाना अतीव कठिन है।
एत कहि कहे प्रभु, शुन, सनातन ।। कृष्ण-बड़ दयामय, पतित-पावन ॥
६२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, हे सनातन, कृपया मुझसे सुनो। कृष्ण अत्यन्त दयालु हैं और सभी पतितात्माओं के उद्धारक हैं।
महा-रौरव हैते तोमा करिला उद्धार । कृपार समुद्र कृष्ण गम्भीर अपार ॥
६३॥
हे सनातन, कृष्ण ने तुम्हें जीवन के सबसे गहरे नरक, महारौरव से बचा लिया है। वे दया के सागर हैं और उनकी लीलाएँ अत्यन्त गम्भीर हैं।
सनातन कहे,‘कृष्ण आमि नाहि जानि ।आमार उद्धार-हेतु तोमार कृपा मानि' ॥
६४॥
सनातन ने उत्तर दिया, मैं कृष्ण को नहीं जानता। जहाँ तक मेरा सवाल है, मैं तो एकमात्र आपकी कृपा से बन्दी-गृह से मुक्त किया जा सका हूँ।
'केमने छुटिला' बलि प्रभु प्रश्न कैला ।आद्योपान्त सब कथा तेंहो शुनाइला ॥
६५॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी से पूछा, तुम बन्दी-गृह से किस तरह छूटे? अतः सनातन ने आदि से लेकर अन्त तक सारी कथा कह सुनाई।
प्रभु कहे,–तोमार दुइ–भाइ प्रयागे मिलिला । रूप, अनुपम हे वृन्दावन गेला ॥
६६॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, मैं तुम्हारे दो भाइयों, रूप तथा अनुपम से प्रयाग में मिला था। अब वे वृन्दावन चले गये हैं।
तपन-मिश्रेरे आर चन्द्रशेखरेरे । प्रभु-आज्ञाय सनातन मिलिला दोंहारे ॥
६७ ॥
श्री चैतन्य महाप्रभु के आदेश से सनातन गोस्वामी तपन मिश्र तथा चन्द्रशेखर दोनों से मिले।
तपन-मिश्र तबे तौरे कैला निमन्त्रण । प्रभु कहे,–'क्षौर कराह, ग्राह, सनातन' ॥
६८॥
तब तपन मिश्र ने सनातन गोस्वामी को निमन्त्रण दिया और श्री चैतन्य महाप्रभु ने सनातन से कहा कि वे अपने बाल कटवा दें।
चन्द्रशेखरेरे प्रभु कहे बोलाजा ।।‘एइ वेष दूर कर, ग्राह इँहारे लञा' ॥
६९॥
इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने चन्द्रशेखर को बुलाकर उनसे कहा कि सनातन गोस्वामी को अपने साथ ले जाएँ। उन्होंने उनसे यह भी कहा कि सनातन की यह वेशभूषा भी उतार दें।
भद्र कराळा ताँरै गङ्गा-स्नान कराइल ।।शेखर आनिया ताँरै नूतन वस्त्र दिल ॥
७० ॥
तब चन्द्रशेखर ने सनातन गोस्वामी को भद्र पुरुष की तरह बना दिया। उन्होंने उन्हें गंगास्नान कराया और बाद में उन्हें नये कपड़े दिये।
सेइ वस्त्र सनातन ना कैल अङ्गीकार । शुनिया प्रभुर मने आनन्द अपार ॥
७१॥
चन्द्रशेखर ने सनातन गोस्वामी को नये वस्त्र दिये, किन्तु सनातन ने उन्हें स्वीकार नहीं किया। जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने यह समाचार सुना, तो उन्हें अपार आनन्द हुआ।
मध्याह्न करिया प्रभु गेला भिक्षा करिबारे ।। सनातने ला गेला तपन-मिश्रेर घरे ॥
७२ ॥
दोपहर में स्नान करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु तपन मिश्र के घर भोजन करने गये। वे अपने साथ सनातन गोस्वामी को भी लेते गये।
पाद-प्रक्षालन करि' भिक्षाते वसिला ।।‘सनातने भिक्षा देह'—मिश्रेरे कहिला ॥
७३॥
अपने पाँव धोने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु भोजन करने बैठ गये। उन्होंने तपन मिश्र से कहा कि सनातन गोस्वामी को भी भोजन प्रदान करें।
मिश्र कहे,–'सनातनेर किछु कृत्य आछे।तुमि भिक्षा कर, प्रसाद ताँरै दिब पाछे' ॥
७४॥
तब तपन मिश्र ने कहा, सनातन को अभी कुछ कार्य करने हैं, अतः वे अभी भोजन नहीं कर सकते। भोजन समाप्त हो लेने पर मैं सनातन को शेष प्रसाद दूंगा।
भिक्षा करि' महाप्रभु विश्राम करिल ।।मिश्र प्रभुर शेष-पात्र सनातने दिल ।। ७५ ॥
भोजन करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने थोड़ा आराम किया। तपन मिश्र ने चैतन्य महाप्रभु द्वारा छोड़ा गया भोजन सनातन गोस्वामी को दिया।
मिश्र सनातने दिला नूतन वसन ।वस्त्र नाहि निला, तेहो कैल निवेदन ॥
७६ ॥
जब तपन मिश्र ने सनातन को नया वस्त्र दिया, तो उन्होंने नहीं लिया। अपितु उन्होंने इस प्रकार कहा।
मोरे वस्त्र दिते ग्रदि तोमार हय मन ।।निज परिधान एक देह' पुरातन ॥
७७॥
| यदि आप मुझे कोई वस्त्र देना ही चाहते हैं, तो कृपया मुझे अपना पहना हुआ कोई पुराना वस्त्र दे दें।
तबे मिश्र पुरातन एक धुति दिल ।। तेहो दुइ बहिर्वास-कौपीन करिल ॥
७८ ॥
जब तपन मिश्र ने सनातन को एक पुरानी धोती दी, तो सनातन ने उसे फाड़कर दो अंगोछे तथा एक कौपीन बना लिया।
महाराष्ट्रीय द्विजे प्रभु मिलाइला सनातने ।। सेइ विप्र ताँरे कैल महा-निमन्त्रणे ॥
७९॥
जब चैतन्य महाप्रभु ने महाराष्ट्रीय ब्राह्मण का सनातन से परिचय कराया, तो उस ब्राह्मण ने तुरन्त ही सनातन गोस्वामी को पूर्ण भोजन का निमन्त्रण दिया।
सनातन, तुमि ग्रावत् काशीते रहिबा ।तावत् आमार घरे भिक्षा ये करिबा ॥
८० ।। उस ब्राह्मण ने कहा, हे प्रिय सनातन, तुम जब तक काशी में रहो, तब तक मेरे ही घर पर भोजन करो।
सनातन कहे,–आमि माधुकरी करिब ।।ब्राह्मणेर घरे केने एकत्र भिक्षा लब? ।। ८१॥
सनातन ने उत्तर दिया, मैं माधुकरी की विधि अपनाऊँगा। मैं किसी ब्राह्मण के घर में पूरा भोजन क्यों स्वीकार करूं? सनातनेर वैराग्ये प्रभुर आनन्द अपार । भोट-कम्बल पाने प्रभु चाहे बारे बारे ॥
८२॥
सनातन गोस्वामी को संन्यास के सिद्धान्तों का दृढ़ता से पालन करते देखकर श्री चैतन्य महाप्रभु को अपार आनन्द हुआ। किन्तु वे बारम्बार उस ऊनी कम्बल को देख रहे थे, जिसे सनातन गोस्वामी ने ओढ़ रखा था।
सनातन जानिल एइ प्रभुरे नी भाय । भोट त्याग करिबारे चिन्तिला उपाय ॥
८३॥
चूँकि श्री चैतन्य चैतन्य महाप्रभु इस कीमती ऊनी कम्बल को बारम्बार देख रहे थे, अतः सनातन गोस्वामी समझ गये कि यह महाप्रभु यो पसन्द नहीं आ रहा है, अतएव वे इसे त्यागने के उपाय पर विचार करने लगे।
एत चिन्ति' गेला गङ्गाय मध्याह्न करिते ।।एक गौड़िया कान्था धुञा दियाछे शुकाइते ॥
८४॥
| यह सोचते हुए सनातन स्नान करने गंगा नदी के किनारे गये। वहाँ उन्होंने देखा कि बंगाल के एक साधु ने अपनी गुदड़ी धोकर सूखाने के लिए फैला रखी है।
तारे कहे,---ओरे भाइ, कर उपकारे । एई भोट ला एइ काँथा देह' मोरे ॥
८५॥
तब सनातन ने उस बंगाली साधु से कहा, अरे भाई, मुझ पर एक उपकार करो। इस ऊनी कम्बल के बदले अपनी गुदड़ी मुझे दे दो।
सेइ कहे,_रहस्य कर प्रामाणिक हजा? ।।बहु-मूल्य भोट दिबा केन काँथा लञा? ॥
८६॥
साधु ने उत्तर दिया, हे महाशय, आप तो सम्मानित भद्र व्यक्ति हैं। आप मुझसे परिहासे क्यों कर रहे हैं? मेरी फटी गुदड़ी से आप अपना कीमती कंबल क्यों बदलना चाहेंगे? तेहो कहे,--रहस्य नहे, कहि सत्य-वाणी ।।भोट लह, तुमि देह' मोरे काँथा-खानि ॥
८७॥
सनातन ने कहा, मैं परिहास नहीं कर रहा हूँ; मैं सच कह रहा हूँ। कृपया अपनी फटी गुदड़ी के बदले यह कम्बल ले लें।
एत बलि' काँथा लइल, भोट ताँरे दिया ।गोसाजिर ठाडि आइला काँथा गले दिया ॥
८८॥
। यह कहकर सनातन गोस्वामी ने कम्बल को गुदड़ी से बदल लिया। फिर वे अपने कन्धे में वह गुदड़ी डाले श्री चैतन्य महाप्रभु के पास लौट आये।
प्रभु कहे,--‘तोमार भोट-कम्बल कोथा गेल?'। प्रभु-पदे सब कथा गोसात्रि कहिले ॥
८९॥
जब सनातन गोस्वामी लौटे तो महाप्रभु ने पूछा, तुम्हारा ऊनी कम्बल कहाँ है? तब सनातन ने महाप्रभु से सारी कहानी कह सुनाई।
प्रभु कहे,–इहा आमि करियाछि विचार । विषय-रोग खण्डाइल कृष्ण ग्रे तोमार ॥
९०॥
से केने राखिबे तोमार शेष विषय-भोग?।। रोग खण्डि' सद्-वैद्य ना राखे शेष रोग ॥
९१॥
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, मैं पहले ही इस विषय पर विचार | कर चुका हूँ। चूँकि भगवान् कृष्ण अत्यन्त दयालु हैं, अतएव उन्होंने भौतिक वस्तुओं के प्रति तुम्हारी आसक्ति को खण्डित कर दिया है। भला कृष्ण तुम्हें भौतिक आसक्ति का अन्तिम चिह्न भी क्यों रखने देते? रोग को नष्ट करने के बाद अच्छा वैद्य रोग के किसी भाग को बचा रहने नहीं देता।
तिन मुद्रार भोट गाय, माधुकरी ग्रास ।धर्म-हानि हय, लोक करे उपहास ॥
९२ ॥
माधुकरी का अभ्यास तथा बहुमूल्य कम्बल ओढ़ना पारस्परिक विरोधी हैं। ऐसा करने से मनुष्य अपनी आध्यात्मिक शक्ति खो देता है और वह हँसी का पात्र बन जाता है।
गोसाञि कहे, ये खण्डिल कुविषय-भोग ।। ताँर इच्छाय गेल मोर शेष विषय-रोग ॥
९३॥
सनातन गोस्वामी ने उत्तर दिया, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ने मुझे इस भौतिक संसार के पापमय जीवन से बचा लिया है। उनकी इच्छानुसार भौतिक आकर्षण का मेरा अन्तिम चिह्न भी अब चला गया है।
प्रसन्न हो प्रभु ताँरे कृपा कैल ।ताँर कृपाय प्रश्न करिते ताँर शक्ति हैल ॥
९४॥
सनातन गोस्वामी से प्रसन्न होकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें अपनी अहैतुकी कृपा प्रदान की। भगवान् की कृपा से सनातन गोस्वामी ने उनसे प्रश्न करने की आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त की।
पूर्वे ट्रैछे राय-पाशे प्रभु प्रश्न कैला ।। ताँर शक्त्ये रामानन्द ताँर उत्तर दिला ॥
९५॥
इहाँ प्रभुर शक्त्ये प्रश्न करे सनातन ।आपने महाप्रभु करे तत्त्व'-निरूपण ॥
९६ ॥
इसके पूर्व श्री चैतन्य महाप्रभु ने रामानन्द राय से आध्यात्मिक प्रश्न पूछे थे, जिनका रामानन्द राय ने महाप्रभु की अहैतुकी कृपा से सही-सही उत्तर दिया था। अब श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा से सनातन गोस्वामी महाप्रभु से प्रश्न पूछ रहे थे और स्वयं महाप्रभु ने सत्य का प्रतिपादन किया।
कृष्ण-स्वरूप-माधुर्यैश्वर्य-भक्ति-रसाश्रयम् ।तत्त्वं सनातनायेशः कृपयोपदिदेश सः ॥
९७॥
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु ने स्वयं सनातन गोस्वामी को भगवान् कृष्ण के वास्तविक स्वरूप के सम्बन्ध में बताया। उन्होंने भगवान् के माधुर्य प्रेम, उनके निजी ऐश्वर्य तथा भक्ति-रस के विषय में भी बतलाया। महाप्रभु ने ये सारे तत्त्व अपनी अहैतुकी कृपावश सनातन गोस्वामी को बतलाये।
तबे सनातन प्रभुर चरणे धरिया ।। दैन्य विनति करे दन्ते तृण लबा ॥
९८॥
अपने मुँह में एक तिनका रखकर तथा शीश झुकाकर सनातन गोस्वामी ने महाप्रभु के चरणकमल पकड़ लिए और विनीत होकर इस प्रकार कहा।
नीच जाति, नीच-सङ्गी, पतित अधम ।।कुविषय-कूपे पड़ि' गोडाइनु जनमः ॥
९९ ॥
मैं निम्न परिवार में जन्मा था और मेरे संगी भी निम्नवर्ग के लोग हैं। मैं स्वयं पतित और अधम हूँ। निस्सन्देह, मैंने अपना सारा जीवन पापमय भौतिकता के कुएँ में गिरकर बिताया है।
आपनार हिताहित किछुइ ना जानि! ।। ग्राम्य-व्यवहारे पण्डित, ताइ सत्य मानि ॥
१०० ॥
मैं नहीं जानता कि मेरे लिए क्या लाभप्रद है और क्या हानिप्रद है। फिर भी सामान्य व्यवहार में लोग मुझे विद्वान पंडित मानते हैं और मैं भी अपने आपको ऐसा ही सोचता हूँ।
कृपा करि' यदि मोरे करियाछ उद्धार । आपन-कृपाते कह 'कर्तव्य' आमार ॥
१०१॥
आपने अपनी अहैतुकी कृपा द्वारा भौतिकतावादी मार्ग से मेरा उद्धार कर दिया है। अब उसी अहैतुकी कृपा से आप मुझे मेरे कर्तव्य के विषय में बतलायें।
‘के आमि', 'केने आमाय जारे ताप-त्रय' ।। इहा नाहि जानि–'केमने हित हय' ॥
१०२॥
मैं कौन हूँ? तीनों ताप मुझे निरन्तर कष्ट क्यों देते हैं? यदि मैं यह नहीं जानता, तो फिर मैं किस प्रकार लाभान्वित हो सकता हूँ? ‘साध्य'-‘साधन'-तत्त्व पुछिते ना जानि ।। कृपा करि' सब तत्त्व कह त' आपनि ॥
१०३ ॥
वास्तविकता तो यह है कि मैं नहीं जानता कि जीवन के लक्ष्य तथा उसे प्राप्त करने की विधि के विषय में किस तरह पूछू। आप मुझ पर कृपा करके इन तत्त्वों को मुझे बतलायें।
प्रभु कहे,---कृष्ण-कृपा तोमाते पूर्ण हय ।सब तत्त्व जान, तोमार नाहि ताप-त्रय ॥
१०४॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, तुम पर भगवान् कृष्ण की पूरी कृपा है, जिसके कारण तुम्हें ये सारी बातें ज्ञात हैं। तुम्हारे लिए तीनों तापों का अस्तित्व नहीं है।
कृष्ण-शक्ति धर तुमि, जान तत्त्व-भाव ।जानि' दाढ्य लागि' पुछे,—साधुर स्वभाव ॥
१०५॥
चूँकि तुम्हें कृष्ण की शक्ति प्राप्त है, अतएव तुम इन बातों को जानते हो। किन्तु प्रश्न करना तो साधु का स्वभाव है। यद्यपि साधु इनबातों को जानता है, किन्तु अपने में दृढ़ता लाने के लिए वह प्रश्न करता हैं।
अचिरादेव सर्वार्थः सिध्यत्येषामभीप्सितः ।।सद्धर्मस्यावबोधाय येषां निर्बन्धिनी मतिः ॥
१०६ ॥
जो लोग अपनी आध्यात्मिक चेतना जगाने के लिए उत्सुक हैं, जिन लोगों के पास अविचल बुद्धि है और जो विचलित नहीं होते, वे अवश्य ही अति शीघ्र जीवन का इच्छित लक्ष्य प्राप्त करते हैं।
ग्रोग्य-पात्र हओ तुमि भक्ति प्रवर्ताइते ।क्रमे सब तत्त्व शुन, कहिये तोमाते ॥
१०७॥
तुम भक्ति सम्प्रदाय का प्रसार करने के लिए योग्य हो। अतएव एक-एक करके मुझसे सारे तत्त्वों के विषय में सुनो। मैं तुम्हें उनके बारे में बतलाऊँगा।
झालीतिक कृत्र डिन-बेकद्र ‘ङि' इग्न ॥
७०।। जीवेर 'स्वरूप' हय—कृष्णेर 'नित्य-दास' । कृष्णेर 'तटस्था-शक्ति' ‘भेदाभेद-प्रकाश' ॥
१०८॥
सूर्याश-किरण, शैछे अग्नि-ज्वाला-चय । स्वाभाविक कृष्णेर तिन-प्रकार 'शक्ति' हय ॥
१०९॥
कृष्ण का सनातन सेवक होना जीव की वैधानिक स्थिति है, क्योंकि जीव कृष्ण की तटस्था शक्ति है और वह भगवान् से एक ही समय उसी तरह अभिन्न और भिन्न है, जिस तरह सूर्य-प्रकाश या अग्नि का एक कण। कृष्ण की शक्ति के तीन प्रकार हैं।
एक-देश-स्थितस्याग्नेन्र्योत्स्ना विस्तारिणी ग्रथा ।परस्य ब्रह्मणः शक्तिस्तथेदमखिलं जगत् ॥
११० ॥
जिस तरह एक स्थान पर रखी अग्नि का प्रकाश सर्वत्र फैलता है, उसी तरह परब्रह्म अर्थात् पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की शक्तियाँ इस ब्रह्माण्ड-भर में फैली हुई हैं।'
कृष्णेर स्वाभाविक तिन-शक्ति-परिणति ।चिच्छक्ति, जीव-शक्ति, आर माया-शक्ति ॥
१११॥
भगवान् कृष्ण के स्वभावतः तीन शक्ति-रूपान्तर हैं। इनके नाम हैं-आध्यात्मिक शक्ति, जीव शक्ति तथा माया शक्ति।
विष्णु-शक्तिः परा प्रोक्ता क्षेत्रज्ञाख्या तथा परा ।।अविद्या-कर्म-संज्ञान्या तृतीया शक्तिरिष्यते ॥
११२॥
मूल रूप से कृष्ण की शक्ति आध्यात्मिक है और जीव शक्ति भी आध्यात्मिक है। किन्तु एक शक्ति और भी है, जिसे माया कहते हैं, जो सकाम कर्मों से बनी होती है। यही भगवान् की तीसरी शक्ति है।'
शक्तयः सर्व-भावानामचिन्त्य-ज्ञान-गोचराः यतोऽतो ब्रह्मणस्तास्तु सर्गाद्या भाव-शक्तयः ।।भवन्ति तपतां श्रेष्ठ पावकस्य ग्रथोष्णता ॥
११३॥
सारी सृजनात्मक शक्तियाँ परम अद्वय सत्य में विद्यमान रहती हैं। सामान्य व्यक्ति के लिये यह अचिन्त्य होती है। ये अचिन्त्य शक्तियाँ सृजन, पालन तथा संहार की विधि में कार्य करती हैं। हे श्रेष्ठ तपस्वी, जिस तरह अग्नि में दो शक्तियाँ-ऊष्मा तथा प्रकाश-होती हैं, उसी तरह यह अचिन्त्य शक्तियाँ परम सत्य के स्वाभाविक गुण हैं।'
ग्रया क्षेत्र-ज्ञ-शक्तिः सा वेष्टिता नृप सर्व-गा ।।संसार-तापानखिलानवाप्नोत्यत्र सन्ततान् ।। ११४॥
हे राजन, क्षेत्रज्ञ शक्ति तो जीव है। यद्यपि उसे भौतिक जगत् अथवा आध्यात्मिक जगत् में रहने की सुविधा प्राप्त है, किन्तु वह भौतिक अस्तित्व के तीन तापों को भोगता है, क्योंकि उसे अविद्या शक्ति प्रभावित करती रहती है, जो उसकी वैधानिक स्थिति को आच्छादित कर देती है।
तया तिरोहितत्वाच्च शक्तिः क्षेत्र-ज्ञ-संज्ञिता । सर्व-भूतेषु भू-पाल तारतम्येन वर्तते ॥
११५॥
अविद्या के प्रभाव से आच्छादित यह जीव विभिन्न भौतिक स्थिति में विविध रूपों में विद्यमान रहता है। हे राजा, इस तरह वह कम या अधिक मात्रा में भौतिक शक्ति के प्रभाव से मुक्त होता रहता है।
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि में पराम् ।। जीव-भूतां महा-बाहो ग्रयेदं धाते जगत् ॥
११६ ॥
हे महाबाहु अर्जुन, इस अपरा शक्ति के अतिरिक्त मेरी एक परा शक्ति भी है, जो जीवों से बनी है, जो कि नि:कृष्ट भौतिक शक्ति के स्रोतों का शोषण कर रहे हैं।
कृष्ण भुलि' सेई जीव अनादि-बहिर्मुख । अतएव माया तारे देय संसार-दुःख ॥
११७॥
जीव अनन्त काल से कृष्ण को भूलकर बाह्य रूप द्वारा आकृष्ट होता रहा है, अतः माया उसे इस भौतिक संसार में सभी प्रकार के दुःख देती रहती है।
कभु स्वर्गे उठाय, कभु नरके डुबाय ।।दण्ड्य-जने राजा ग्रेन नदीते चुबाय ॥
११८॥
भौतिक अवस्था में जीव कभी उच्चतर ग्रह-मण्डलों में तथा भौतिक समृद्धि तक ऊपर उठा दिया जाता है, तो कभी नरक में डुबो दिया जाता है। उसकी अवस्था ठीक उस अपराधी जैसी है, जिसे राजा पानी में बारम्बार डुबोये और निकाले जाने का दण्ड देता है।
भयं द्वितीयाभिनिवेशतः स्याद्ईशादपेतस्य विपर्ययोऽस्मृतिः । तन्माययातो बुध आभजेत्तं | भक्त्यैकयेशं गुरु-देवतात्मा ॥
११९॥
जब जीव कृष्ण से भिन्न ऐसी भौतिक शक्ति द्वारा आकृष्ट होता है, तब वह भय द्वारा ग्रस्त हो जाता है। भौतिक शक्ति द्वारा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् से अलग होने के कारण जीवन के प्रति उनकी दृष्टि बदल जाती है। दूसरे शब्दों में, वह कृष्ण का नित्य दास होने के बदले कृष्ण का प्रतियोगी बन जाता है। इसे विपर्ययोऽस्मृतिः कहते हैं। इस भूल को निरस्त करने के लिए वास्तव में विद्वान तथा उन्नत व्यक्ति पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की पूजा अपने गुरु, आराध्य देवता तथा जीवन के स्रोत के रूप में करता है। इस तरह वह अनन्य भक्ति की विधि से भगवान् की पूजा करता है।'
साधु-शास्त्र-कृपाय यदि कृष्णोन्मुख हय ।सेइ जीव निस्तरे, माया ताहारे छाड़ये ॥
१२०॥
यदि कोई बद्धजीव किसी ऐसे साधु पुरुष की कृपा सेकृष्णभावनाभावित हो जाता है, जो उसे शास्त्रों का उपदेश देता रहता है। और उसे कृष्णभावनाभावित होने में सहायता देता है, तो वह बद्धजीव माया के पाश से मुक्त हो जाता है, क्योंकि माया उसे छोड़ देती है।
दैवी ह्येषा गुण-मयी मम माया दुरत्यया ।।मामेव ग्रे प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥
१२१॥
भौतिक प्रकृति के तीन गुणों से युक्त मेरी इस दैवी शक्ति का अतिक्रमण करना कठिन है। किन्तु जिन्होंने मेरी शरण ले रखी है, वे इसे आसानी से पार कर सकते हैं।'
माया-मुग्ध जीवेर नाहि स्वतः कृष्ण-ज्ञान ।।जीवेरे कृपाय कैला कृष्ण वेद-पुराण ॥
१२२॥
बद्धजीव अपने खुद के प्रयत्न से अपनी कृष्णभावना को जाग्रत नहीं कर सकता। किन्तु भगवान् कृष्ण ने अहैतुकी कृपावश वैदिक साहित्य तथा इसके पूरक पुराणों का सृजन किया।
‘शास्त्र-गुरु-आत्म'-रूपे आपनारे जानान । ‘कृष्ण मोर प्रभु, त्राता'—जीवेर हय ज्ञान ॥
१२३॥
कृष्ण आत्मविस्मृत बद्धजीव को वैदिक ग्रन्थों, स्वरूपसिद्ध गुरु तथा परमात्मा के माध्यम से शिक्षा देते हैं। जीव इनके द्वारा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को उनके यथार्थ रूप में समझ सकता है और यह समझ सकता है कि भगवान् कृष्ण उसके सनातन स्वामी तथा माया के पाश से उद्धार करने वाले हैं। इस तरह वह अपने बद्ध जीवन का वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर सकता है और मुक्ति प्राप्त करने का उपाय जान सकता है।
वेद-शास्त्र कहे-‘सम्बन्ध', 'अभिधेय', 'प्रयोजन' ।‘कृष्ण' प्राप्य सम्बन्ध, ‘भक्ति' प्राप्त्येर साधन ॥
१२४॥
वैदिक ग्रन्थ कृष्ण के साथ जीव के सनातन सम्बन्ध के विषय में जानकारी देते हैं। यही सम्बन्ध कहलाता है। जीव द्वारा इस सम्बन्ध की । जानकारी तथा तदनुसार कर्म करना अभिधेय कहलाता है। भगवद्धाम लौट जाना जीवन का चरम लक्ष्य है, जिसे प्रयोजन कहते हैं।
अभिधेय-नाम 'भक्ति', 'प्रेम'-प्रयोजन । पुरुषार्थ-शिरोमणि प्रेम महा-धन ॥
१२५॥
भक्ति अथवा भगवान् की तुष्टि के लिए इन्द्रियों से काम करना अभिधेय कहलाता है, क्योंकि इससे मनुष्य का मूल भगवत्प्रेम विकसित हो सकता है, जो जीवन का लक्ष्य है। यह लक्ष्य जीव का सर्वोच्च हित है और सबसे बड़ा धन है। इस तरह भगवान् के प्रति दिव्य प्रेमाभक्ति प्राप्त होती है।
कृष्ण-माधुर्य-सेवानन्द-प्राप्तिर कारण ।कृष्ण-सेवा करे, आर कृष्ण-रस-आस्वादन ॥
१२६॥
जब किसी को कृष्ण के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध होने का दिव्य आनन्द प्राप्त हो जाता है, तो वह उनकी सेवा करता है और कृष्णभावनामृत-रस का आस्वादन करता है।
इहाते दृष्टान्त-—भैछे दरिद्रेर घरे ।'सर्वज्ञ' आसि' दुःख देखि पुछये ताहारे ॥
१२७॥
निम्नलिखित दृष्टान्त प्रस्तुत किया जा सकता है। एक बार एक निर्धन व्यक्ति के घर एक विद्वान ज्योतिषी आया और उसकी दुःखी दशा देखकर उसने पूछा।
‘तुमि केने दुःखी, तोमार आछे पितृ-धन ।। तोमारे ना कहिल, अन्यत्र छाड़िल जीवन ॥
१२८॥
ज्योतिषी ने पूछा, 'तुम दुःखी क्यों हो? तुम्हारा पिता अत्यन्त धनवान था, किन्तु अन्यत्र मरने के कारण उसने अपनी सम्पत्ति के बारे में तुम्हें नहीं बताया।'
सर्वज्ञेर वाक्ये करे धनेर उद्देशे । ऐछे वेद-पुराण जीवे 'कृष्ण' उपदेशे ॥
१२९॥
जिस तरह सर्वज्ञ ज्योतिषी के शब्दों से निर्धन व्यक्ति के खजाने का पता चला, उसी तरह जब कोई यह जिज्ञासा करता है कि वह दुःखी अवस्था में क्यों है, तो वैदिक ग्रन्थ उसे कृष्णभावनामृत के विषय में उपदेश देते हैं।
सर्वज्ञेर वाक्ये मूल-धन अनुबन्ध ।सर्व-शास्त्रे उपदेशे, 'श्री-कृष्ण'–सम्बन्ध ॥
१३०॥
ज्योतिषी के शब्दों से उस खजाने से निर्धन व्यक्ति का सम्बन्ध स्थापित हुआ। उसी तरह वैदिक साहित्य हमें पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण के साथ अपने वास्तविक सम्बन्ध के विषय में उपदेश देता है।
‘बापेर धन आछे' ज्ञाने धन नाहि पाय ।तबे सर्वज्ञ कहे तारे प्राप्तिर उपाय ॥
१३१॥
वह निर्धन व्यक्ति अपने पिता के धन के प्रति आश्वस्त होकर भी उसे केवल ऐसे ज्ञान के बल पर प्राप्त नहीं कर सकता था। इसीलिए ज्योतिषी को वह साधन बताना पड़ा, जिससे वह उस खजाने को वास्तव में पा सके।
'एइ स्थाने आछे धन'-यदि दक्षिणे खुदिबे ।।‘भीमरुल-बरुली' उठिबे, धन ना पाइबे ॥
१३२॥
ज्योतिषी ने कहा, 'खजाना इस स्थान में है, किन्तु यदि तुम दक्षिण दिशा में खोदोगे, तो बर्र तथा मधुमक्खियाँ निकलेंगी और तुम अपना खजाना नहीं पा सकोगे।
‘पश्चिमे' खुदिबे, ताहा 'ग्रक्ष' एक हय ।।से विघ्न करिबे,–धने हात ना पड़य ॥
१३३॥
यदि तुम पश्चिम दिशा में खोदोगे, तो वहाँ एक प्रेत है। वह ऐसा विघ्न उत्पन्न करेगा कि तुम उस खजाने को हाथ भी नहीं लगा सकोगे।
‘उत्तरे' खुदिले आछे कृष्ण 'अजगरे ।धन नाहि पाबे, खुदिते गिलिबे सबारे ॥
१३४॥
यदि तुम उत्तर दिशा में खोदोगे, तो वहाँ एक विशाल काला साँप है। यदि तुमने खजाना खोदने का प्रयास किया, तो वह तुम्हें निगल जायेगा।
पूर्व-दिके ताते माटी अल्प खुदिते । धनेर झारि पड़िबेक तोमार हातेते ॥
१३५ ॥
किन्तु यदि तुम पूर्व की ओर थोड़ी-सी भी मिट्टी खोदोगे, तो तुरन्त ही खजाने का पात्र तुम्हारे हाथों में आ जायेगा।
ऐछे शास्त्र कहे,--कर्म, ज्ञान, योग त्यजि' ।‘भक्त्ये' कृष्ण वश हय, भक्त्ये ताँरे भजि ॥
१३६॥
प्रामाणिक शास्त्रों का निर्णय है कि मनुष्य को कर्म, ज्ञान तथा योग का परित्याग करके भक्ति को ग्रहण करना चाहिए, जिससे कृष्ण पूर्णतया तुष्ट हो सकें।
न साधयति मां ग्रोगो न साङ्ख्यं धर्म उद्धव ।। न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो ग्रथा भक्तिर्ममोर्जिता ॥
१३७॥
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण ने कहा : ‘हे उद्धव, न तो अष्टांग योग से, न निर्विशेष अद्वैतवाद से, न परम सत्य के विश्लेषणात्मक अध्ययन से, न वेदों के अध्ययन से, न तपस्या से, न दान से, न संन्यास ग्रहण करने से कोई व्यक्ति मुझे उतना ही तुष्ट कर सकता है, जितना कि वह मेरी अनन्य भक्ति करके कर सकता है।
भक्त्याहमेकया ग्राह्यः श्रद्धयात्मा प्रियः सताम् ।।भक्तिः पुनाति मन्निष्ठा श्व-पाकानपि सम्भवात् ॥
१३८॥
भक्तों तथा साधुओं को अत्यन्त प्रिय होने के कारण मुझे अविचल श्रद्धा तथा भक्ति द्वारा प्राप्त किया जाता है। यह भक्तियोग, जो मेरे प्रति अनुरक्ति को क्रमशः बढ़ाता है, चंडाल तक को शुद्ध करने वाला है। अर्थात् भक्तियोग के माध्यम से हर व्यक्ति आध्यात्मिक पद तक ऊपर उठ सकता है।'
अतएव भक्ति'-कृष्ण-प्राप्त्येर उपाय।‘अभिधेय' बलि' तारे सर्व-शास्त्रे गाय ॥
१३९॥
निष्कर्ष यह है कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् तक पहुँचने का एकमात्र उपाय भक्ति है। इसीलिए इस विधि को अभिधेय कहते हैं। यही सभी प्रामाणिक शास्त्रों का निर्णय है।
धन पाइले त्रैछे सुख-भोग फल पाय ।सुख-भोग हैते दुःख आपनि पलाय ॥
१४०॥
जब मनुष्य सचमुच धनी बन जाता है, तब वह स्वभावतः सारे सुखों का भोग करने लगता है। जब वह सुखी मुद्रा में होता है, तो सारी दु:खद दशाएँ स्वतः दूर हो जाती हैं। इसके लिए किसी बाह्य प्रयास की आवश्यकता नहीं पड़ती।
तैछे भक्ति-फले कृष्णे प्रेम उपजय । प्रेमे कृष्णास्वाद हैले भव नाश पाय ॥
१४१॥
इसी तरह भक्ति के फलस्वरूप मनुष्य का सुप्त कृष्ण-प्रेम जाग्रत हो उठता है। जब मनुष्य भगवान् कृष्ण की संगति का आस्वादन कर सकने के योग्य हो जाता है, तब यह भौतिक संसार, जन्म तथा मृत्यु का चक्र, समाप्त हो जाता है।
दारिद्रय़-नाश, भव-क्षय,—प्रेमेर 'फल' नय ।।प्रेम-सुख-भोग–मुख्य प्रयोजन हय ॥
१४२॥
भगवत्प्रेम का लक्ष्य न तो भौतिक दृष्टि से धनी बनना है, न ही भवबन्धन से मुक्त होना है। वास्तविक लक्ष्य तो भगवान् की भक्तिमय सेवा में स्थित होकर दिव्य आनन्द भोगना है।
वेद-शास्त्रे कहे सम्बन्ध, अभिधेय, प्रयोजन ।। कृष्ण, कृष्ण-भक्ति, प्रेम,---तिन महा-धन ॥
१४३॥
वैदिक ग्रन्थों में कृष्ण आकर्षण के केन्द्रबिन्दु हैं और उनकी सेवा करना हमारा कर्म है। हमारे जीवन का चरम लक्ष्य कृष्ण-प्रेम प्राप्त करना वही है। अतएव कृष्ण, कृष्ण की सेवा तथा कृष्ण-प्रेम-ये जीवन के तीन महाधन हैं।
वेदादि सकल शास्त्रे कृष्ण–मुख्य सम्बन्ध । ताँर ज्ञाने आनुषङ्गे ग्राय माया-बन्ध ॥
१४४॥
वेद इत्यादि सारे प्रामाणिक शास्त्रों के आकर्षण के केन्द्रीय बिन्दु कृष्ण हैं। जब कृष्ण विषयक पूर्ण ज्ञान की अनुभूति हो जाती है, तो माया का बन्धन स्वतः टूट जाता है।
व्यामोहाय चराचरस्य जगतस्ते ते पुराणागमास्तां तामेव हि देवतां परमिकां जल्पन्तु कल्पावधि । सिद्धान्ते पुनरेक एव भगवान् विष्णुः समस्तागर्मव्यापारेषु विवेचन-व्यतिकरं नीतेषु निश्चीयते ॥
१४५ ॥
वैदिक शास्त्र तथा पुराण अनेक प्रकार के हैं। उनमें से प्रत्येक में विशेष देवताओं का वर्णन प्रमुख देवताओं के रूप में पाया जाता है। यह समस्त चर तथा अचर प्राणियों में मोह उत्पन्न करने के लिए है। उन्हें निरन्तर ऐसी ही कल्पनाओं में लगे रहने दो। किन्तु जब इन सारे वैदिक शास्त्रों का सामूहिक विश्लेषण किया जाता है, तब निष्कर्ष यही निकलता है कि भगवान् विष्णु ही एकमात्र पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं।'
ख्य-गौण-वृत्ति, किंवा अन्वय-व्यतिरेके ।। वेदेर प्रतिज्ञा केवल कहये कृष्णके ॥
१४६॥
जब कोई व्यक्ति व्याख्या द्वारा, अथवा शाब्दिक अर्थ के द्वारा वैदिक शास्त्रों को स्वीकार करता है, तब वैदिक ज्ञान की अन्तिम घोषणा प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से भगवान् कृष्ण को ही इंगित करती है।
किं विधत्ते किमाचष्टे किमनूद्य विकल्पयेत्इत्यस्या हृदयं लोके नान्यो मद्वेद कश्चन मां विधत्तेऽभिधत्ते मां विकल्प्यापोह्यते ह्यहम्।।४७।।एतावान्सर्व-वेदार्थः शब्द आस्थाय मां भिदाम्माया-मात्रमनूद्यान्ते प्रतिषिध्य प्रसीदति ।।४८।। भगवान् कृष्ण ने कहा : ‘सारे वैदिक शास्त्रों का प्रयोजन क्या है? उनका लक्ष्य किस पर केन्द्रित होता है? सारे चिन्तन का लक्ष्य कौन है? इन बातों को मेरे अतिरिक्त कोई नहीं जानता। अब तुम यह जान लो कि ये सारे कार्य मेरा ही वर्णन करने के लिए एवं मुझे प्राप्त करने के लिए हैं। वैदिक साहित्य का उद्देश्य विभिन्न मानसिक चिन्तनों द्वारा मुझे जानना है, चाहे वह अप्रत्यक्ष ज्ञान हो या शाब्दिक अर्थ द्वारा हो। हर व्यक्ति मेरे विषय में तर्क करता है। मुझमें और माया में अन्तर करना यही सारे वैदिक ग्रन्थों का सार है। मनुष्य माया पर विचार करने पर मुझे समझ पाता है। इस तरह वह वेदों के विषय में तर्क करने से मुक्त हो जाता है और अन्तिम निष्कर्ष के रूप में मेरे पास आता है और तब तुष्ट होता है।'
कृष्णेर स्वरूप-अनन्त, वैभव–अपार । चिच्छक्ति, माया-शक्ति, जीव-शक्ति आर ॥
१४९॥
कृष्ण का दिव्य स्वरूप अनन्त है और उनका ऐश्वर्य अपार है। वे अन्तरंगा, बहिरंगा तथा तटस्था शक्तियों के स्वामी हैं।
वैकुण्ठ, ब्रह्माण्ड-गण-शक्ति-कार्य हय ।।स्वरूप-शक्ति शक्ति-कार कृष्ण समाश्रय ।। १५०॥
भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों ही जगत् कृष्ण की क्रमशः बहिरंगा तथा अन्तरंगा शक्तियों के रूपान्तर हैं। अतएव भौतिक तथा आध्यात्मिक सृष्टियों के मूल स्रोत कृष्ण ही हैं।
दशमे दशमं लक्ष्यमाश्रिताश्रय-विग्रहम् ।।श्री कृष्णाख्यं परं धाम जगद्धाम नमामि तत् ॥
१५१॥
श्रीमद्भागवत का दसवाँ स्कन्ध दसवें लक्ष्य, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को बतलाने वाला है, जो समस्त शरणागतों के आश्रय हैं। वे श्रीकृष्ण नाम से विख्यात हैं और समस्त ब्रह्माण्डों के परम स्रोत हैं। मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ।
कृष्णेर स्वरूप-विचार शुन, सनातन । अद्वय-ज्ञान-तत्त्व, व्रजे व्रजेन्द्र-नन्दन ॥
१५२॥
हे सनातन, अब मुझसे भगवान् कृष्ण के सनातन स्वरूप के विषय में सुनो। वे द्वैत भाव से रहित परम अद्वय सत्य हैं, किन्तु वे वृन्दावन में नन्द महाराज के पुत्र रूप में रहते हैं।
सर्व-आदि, सर्व-अंशी, किशोर-शेखर । चिदानन्द-देह, सर्वाश्रय, सर्वेश्वर ॥
१५३। कृष्ण प्रत्येक वस्तु के आदि स्रोत हैं और हर वस्तु के सर्वाश हैं। वे सर्वोत्कृष्ट किशोर रूप में प्रकट होते हैं और उनका सारा शरीर आध्यात्मिक आनन्द से बना हुआ है। वे हर वस्तु के आश्रय तथा हर एक के स्वामी हैं।
ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्द-विग्रहः ।। अनादिरादिर्गोविन्दः सर्व-कारण-कारणम् ॥
१५४॥
गोविन्द नाम से विख्यात कृष्ण परम नियन्ता हैं। उनका शरीर सनातन, आनन्दमय तथा आध्यात्मिक है। वे सबके उद्गम हैं। उनका अन्य कोई उद्गम नहीं है, क्योंकि वे समस्त कारणों के मुख्य कारण हैं।'
स्वयं भगवान् कृष्ण, ‘गोविन्द' पर नाम ।सर्वैश्वर्य पूर्ण ग्राँर गोलोक—नित्य-धाम ॥
१५५ ॥
आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् तो श्रीकृष्ण हैं। उनका मूल नाम गोविन्द है। वे समस्त ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं और उनका सनातन धाम गोलोक वृन्दावन कहलाता है।
एते चांश-कलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् ।इन्द्रारि-व्याकुलं लोकं मृड़यन्ति युगे युगे ॥
१५६॥
ईश्वर के ये सारे अवतार पुरुष-अवतार के या तो पूर्ण अंश हैं यापूर्ण अंश के अंश हैं। किन्तु कृष्ण स्वयं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं। जब संसार इन्द्र के शत्रुओं द्वारा पीड़ित होता है, तब प्रत्येक युग में वे अपने इन विभिन्न रूपों द्वारा संसार की रक्षा करते हैं।'
ज्ञान, योग, भक्ति,—तिन साधनेर वशे ।।ब्रह्म, आत्मा, भगवान् त्रिविध प्रकाशे ॥
१५७॥
परम अद्वय सत्य को समझने की तीन प्रकार की आध्यात्मिक विधियाँ हैं-ज्ञान, योग तथा भक्ति परम सत्य इन तीनों विधियों से क्रमशः ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान् रूप में प्रकट होते हैं।
वदन्ति तत्तत्त्व-विदस्तत्त्वं यज्ञानमद्वयम् ।ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ॥
१५८ ॥
परम सत्य को जानने वाले विद्वान अध्यात्मवेत्ता इस अद्वय वस्तु को ब्रह्म, परमात्मा या भगवान् कहते हैं।'
ब्रह्म–अङ्ग-कान्ति ताँर, निर्विशेष प्रकाशे । सूर्य ग्रेन चर्म-चक्षे ज्योतिर्मय भासे ॥
१५९॥
निर्विशेष ब्रह्मज्योति की अभिव्यक्ति, जिसमें विविधता नहीं होती, कृष्ण के शारीरिक तेज की किरणें हैं। यह सूर्य के समान है। जब सूर्य को सामान्य आँखों से देखा जाता है, तो इसमें एकमात्र प्रकाश ही दिखता हैं।
ग्रस्य प्रभा प्रभवतो जगदण्ड-कोटिकोटिष्वशेष-वसुधादि-विभूति-भिन्नम् ।। तद् ब्रह्म निष्कलमनन्तमशेष-भूतंगोविन्दमादि-पुरुषं तमहं भजामि ॥
१६० ॥
मैं उन आदि भगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ, जो महान् शक्ति से सम्पन्न हैं। उनके दिव्य स्वरूप का देदीप्यमान तेज निर्विशेष ब्रह्म है, जो परम, पूर्ण तथा असीम है और जो करोड़ों ब्रह्माण्डों में असंख्य विविध लोकों को उनके विभिन्न ऐश्वर्यों समेत प्रदर्शित करते हैं।'
परमात्मा हो, तेंहो कृष्णेर एक अंश ।। आत्मार 'आत्मा' हय कृष्ण सर्व-अवतंस ॥
१६१॥
परमात्मा उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के पूर्ण अंश हैं, जो समस्त जीवों के आदि आत्मा हैं। कृष्ण ही परमात्मा के आदि स्रोत हैं।
कृष्णमेनमवेहि त्वमात्मानमखिलात्मनाम् ।जगद्धिताय सोऽप्यत्र देहीवाभाति मायया ॥
१६२ ॥
तुम कृष्ण को समस्त आत्माओं (जीवों) के आदि आत्मा जानो। वे अपनी अहैतुकी कृपावश सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के लाभ हेतु सामान्य मानव के रूप में प्रकट हुए हैं। उन्होंने अपनी अन्तरंगा शक्ति के बल पर ही ऐसा किया है।'
अथ वा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन । विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ॥
१६३॥
किन्तु हे अर्जुन, इस विस्तृत ज्ञान की आवश्यकता ही क्या है? मैं तो अपने एक अंश से इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त हूँ और इसको धारण करता हूँ।
‘भक्त्ये' भगवानेर अनुभव–पूर्ण-रूप ।। एक-इ विग्रहे ताँर अनन्त स्वरूप ॥
१६४॥
एकमात्र भक्ति द्वारा मनुष्य भगवान् के उस दिव्य रूप को समझ सकता है, जो सभी प्रकार से पूर्ण है। यद्यपि उनका स्वरूप एक है, किन्तु अपनी परम इच्छा से वे इसका विस्तार असंख्य रूपों में कर सकते हैं।
स्वयं-रूप, तदेकात्म-रूप, आवेश—नाम । प्रथमेइ तिन-रूपे रहेन भगवान् ॥
१६५ ॥
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् तीन प्रधान रूपों में विद्यमान रहते हैंस्वयं-रूप, तदेकात्म-रूप तथा आवेश-रूप।
‘स्वयं-रूप' ‘स्वयं-प्रकाश'–दुइ रूपे स्फूर्ति ।। स्वयं-रूपे—एक 'कृष्ण' व्रजे गोप-मूर्ति ॥
१६६ ॥
भगवान् का आदि रूप ( स्वयं-रूप ) दो रूपों में प्रदर्शित होता है-स्वयं-रूप तथा स्वयं-प्रकाश। अपने आदि स्वयं-रूप में कृष्ण वृन्दावन में ग्वालबाल के रूप में देखे जाते हैं।
'प्राभव-वैभव'-रूपे द्विविध प्रकाशे ।।एक-वपु बहु रूप ग्रैछे हैल रासे ॥
१६७॥
अपने आदि रूप में कृष्ण प्राभव तथा वैभव इन दो स्वरूपों में प्रकट होते हैं। वे अपने एक आदि रूप को अनेक रूपों में विस्तार कर लेते हैं, जैसाकि उन्होंने रासलीला नृत्य के अवसर पर किया था।
महिषी-विवाहे हैल बहु-विध मूर्ति ।‘प्राभव प्रकाश'–एई शास्त्र-परसिद्धि ॥
१६८॥
जब भगवान् ने द्वारका में १६,१०८ पलियों से विवाह किया, तब उन्होंने अपने आपको अनेक रूपों में विस्तार किया। ये विस्तार तथा रासनृत्य के अवसर पर हुए विस्तार शास्त्रों के निर्देशानुसार प्राभव-प्रकाश कहलाते हैं।
सौभर्यादि-प्राय सेइ काय-व्यूह नय ।।काय-व्यूह हैले नारदेर विस्मय ना हय ॥
१६९ ॥
भगवान् कृष्ण के ये प्राभव-प्रकाश सौभरि मुनि के विस्तारों जैसे नहीं हैं। यदि ऐसा होता, तो नारद उन्हें देखकर विस्मित न हुए होते।
चित्रं बतैतदेकेन वपुषा युगपत्पृथक् ।।गृहेषु द्वि-अष्ट-साहस्रं स्त्रिय एक उदावहत् ॥
१७० ॥
यह विचित्र बात है कि अद्वय कृष्ण ने सोलह हजार रानियों से विवाह करने के लिए उन्हीं के घरों में अपना विस्तार एक जैसे सोलह हजार रूपों में कर लिया।'
सेइ वपु, सेइ आकृति पृथक् यदि भासे । भावावेश-भेदे नाम 'वैभव-प्रकाशे' ॥
१७१॥
यदि एक रूप या शरीर विभिन्न भावों के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकट हो, तो यह वैभव-प्रकाश कहलाता है।
अनन्त प्रकाशे कृष्णेर नाहि मूर्ति-भेद ।।आकार-वर्ण-अस्त्र-भेदे नाम-विभेद ॥
१७२॥
जब भगवान् अपना विस्तार असंख्य रूपों में करते हैं, तब इन रूपों में कोई भेद नहीं होता, किन्तु विभिन्न लक्षणों, वर्ण तथा अस्त्रों में भिन्नता के कारण उनके नाम भिन्न-भिन्न होते हैं।
अन्ये च संस्कृतात्मानो विधिनाभिहितेन ते ।ग्रजन्ति त्वन्मयास्त्वां वै बहु-मूक-मूर्तिकम् ॥
१७३ ॥
विभिन्न वैदिक शास्त्रों में इन विभिन्न रूपों की पूजा करने के विधि-विधान नियत किये गये हैं। जब मनुष्य इन विधि-विधानों से शुद्ध हो जाता है, तब वह आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की पूजा करता है। यद्यपि आप अनेक रूपों में प्रकट होते हैं, किन्तु आप एक हैं।'
वैभव-प्रकाश कृष्णेर—श्री-बलराम ।वर्ण-मात्र-भेद, सब–कृष्णेर समान ॥
१७४॥
कृष्ण के वैभव-रूप का प्रथम प्राकट्य श्री बलरामजी हैं। श्री बलराम तथा कृष्ण के शरीरों के रंग भिन्न हैं, अन्यथा बलराम सभी प्रकार से कृष्ण के समान ही हैं।
वैभव-प्रकाश प्रैछे देवकी-तनुज । द्विभुज-स्वरूप कभु, कभु हय चतुर्भुज ॥
१७५ ॥
वैभव-प्रकाश का एक उदाहरण है देवकी के पुत्र। उनके कभी दो हाथ होते हैं तो कभी चार हाथ।
ग्रे-काले द्विभुज, नाम वैभव-प्रकाश ।। चतुर्भुज हैले, नाम–प्राभव-प्रकाश ॥
१७६ ॥
जब भगवान् द्विभुज रहते हैं, तो वे वैभव-प्रकाश कहलाते हैं और जब वे चतुर्भुज होते हैं तो प्राभव-प्रकाश कहलाते हैं।
स्वयं-रूपेर गोप-वेश, गोप-अभिमान । वासुदेवेर क्षत्रिय-वेश, 'आमि–क्षत्रिय'-ज्ञान ॥
१७७॥
स्वयं-रूप ( अपने मूल रूप ) में भगवान् ग्वालबाल के वेश में रहते हैं और अपने आपको ग्वालबाल मानते हैं। जब वे वसुदेव तथा देवकी के पुत्र के रूप में प्रकट होते हैं, तब उनका वेश तथा उनकी चेतना एक क्षत्रिय अर्थात् योद्धा जैसे होते हैं।
सौन्दर्य, ऐश्वर्य, माधुर्य, वैदग्ध्य-विलास ।व्रजेन्द्र-नन्दने इहा अधिक उल्लास ॥
१७८॥
जब योद्धा-वासुदेव के सौन्दर्य, ऐश्वर्य, माधुर्य तथा बौद्धिक लीलाओं की तुलना नन्द महाराज के पुत्र ग्वालबाल कृष्ण से की जाती है, तब देखा जाता है कि कृष्ण के लक्षण अधिक सुहावने लगते हैं।
गोविन्देर माधुरी देखि' वासुदेवेर क्षोभ ।।से माधुरी आस्वादिते उपजय लोभ ॥
१७९॥
निस्सन्देह, गोविन्द की माधुरी देखकर वासुदेव में क्षोभ उत्पन्न होता है और तब उस माधुरी का आस्वादन करने के लिए उनमें दिव्य लोभ उत्पन्न होता है।
उद्गीर्णाद्भुत-माधुरी-परिमलस्याभीर-लीलस्य मेंद्वैतं हन्त समीक्षयन्मुहुरसौ चित्रीयते चारणः । चेतः केलि-कुतूहलोत्तरलितं सत्यं सखे मामकं ।यस्य प्रेक्ष्य स्वरूपतां व्रज-वधू-सारूप्यमन्विच्छति ॥
१८० ॥
हे मित्र, यह अभिनेता मेरे द्वितीय रूप जैसा लगता है। यह चित्र की भाँति आश्चर्यजनक आकर्षक माधुरी तथा सुगन्धि से ओतप्रोत ग्वालबाल की तरह मेरी लीलाएँ प्रदर्शित करता है, जो व्रजबालाओं को अत्यन्त प्रिय हैं। जब मैं इस प्रदर्शन को देखता हूँ, तो मेरा मन उत्तेजित हो उठता है। ऐसी लीलाओं के लिए मेरी भी इच्छा होने लगती है और इच्छा होती है। कि मुझे भी व्रजबालाओं जैसा ही रूप प्राप्त हो जाए।
मथुराय ग्रैछे गन्धर्व-नृत्य-दरशने ।।पुनः द्वारकाते ग्रैछे चित्र-विलोकने ॥
१८१॥
एक बार जब वासुदेव ने मथुरा में गन्धर्व-नृत्य देखा, तो कृष्ण के प्रति वासुदेव को आकर्षण का अनुभव हुआ। दूसरी बार द्वारका में हुआ, जब वासुदेव कृष्ण का चित्र देखकर चकित हो गये थे।
अपरिकलित-पूर्वः कश्चमत्कार-कारीस्फुरतु मम गरीयानेष माधुर्य-पूरः । अयमहमपि हन्त प्रेक्ष्य ग्रं लुब्ध-चेताःसरभसमुपभोक्तुं कामये राधिकेव ॥
१८२॥
वह कौन है, जो मुझसे भी बढ़कर ऐसी प्रभूत माधुरी प्रकट कर रहा है, जिसका अनुभव इसके पूर्व कभी नहीं किया गया और जो सबको चकित करने वाली है? हाय! इस सौन्दर्य को देखकर मेरा मन भी मोहित हो रहा है और मैं स्वयं श्रीमती राधारानी के समान इसका आनन्द उठाने के लिए इच्छुक हूँ।'
सेइ वपु भिन्नाभासे किछु भिन्नाकार ।। भावावेशाकृति-भेदे ‘तदेकात्म' नाम ताँर ॥
१८३॥
जब वह शरीर किंचित् भिन्न रूप में प्रकट होता है और इसके स्वरूप भाव तथा रूप में किंचित् भिन्न होते हैं, तो वह तदेकात्म कहलाता है।
तदेकात्म-रूपे 'विलास', ‘स्वांश'दुइ भेद । विलास, स्वांशेर भेदे विविध विभेद ॥
१८४॥
तदेकात्म-रूप के अन्तर्गत विलास ( लीला-विस्तार) तथा स्वांश ( व्यक्तिगत विस्तार) दो भेद हैं। लीला (विलास ) तथा स्वांश के अनुसार विविध विभेद हैं।
प्राभव-वैभव-भेदे विलास-द्विधाकार । विलासेर विलास-भेद–अनन्त प्रकार ॥
१८५॥
पुनः विलास रूपों को दो श्रेणियों में बाँटा गया है-प्राभव तथा वैभव। इन रूपों के विलासों के भी अंसख्य भेद हैं।
प्राभव-विलास वासुदेव, सङ्कर्षण ।।प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, मुख्य चारि-जन ॥
१८६॥
मुख्य चतुयूँहों के नाम हैं वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध। ये प्राभव-विलास कहलाते हैं।
व्रजे गोप-भाव रामेर, पुरे क्षत्रिय-भावन ।।वर्ण-वेश-भेद, ताते ‘विलास' ताँर नाम ॥
१८७॥
| कृष्ण के आदि रूप जैसे ही रूप वाले बलराम वृन्दावन में एक ग्वालबाल हैं और वे अपने आपको द्वारका के क्षत्रिय वंश के एक सदस्य भी मानते हैं। इस तरह उनका रंग तथा वेश भिन्न है और वे कृष्ण के लीला-रूप कहलाते हैं।
वैभव-प्रकाशे आर प्राभव-विलासे ।। एक-इ मूर्ये बलदेव भाव-भेदे भासे ॥
१८८॥
श्री बलराम कृष्ण के वैभव-प्रकाश रूप हैं। वे वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध के मूल चतुयूंह में भी प्रकट होते हैं। ये भिन्न भावों वाले प्राभव-विलास विस्तार हैं।
आदि-चतुयूंह–इँहार केह नाहि सम ।अनन्त चतुयूंह-गणेर प्राकट्य-कारण ॥
१८९ ॥
चतुयूंह का प्रथम विस्तार अद्वितीय है। उनकी कोई तुलना ही नहीं है। ये चतुयूंह-रूप अनन्त चतुयूंह-रूपों के स्रोत हैं।
कृष्णेर एइ चारि प्राभव-विलास ।द्वारका-मथुरा-पुरे नित्य इँहार वास ॥
१९०॥
भगवान् कृष्ण के ये चार प्राभव-विलास रूप द्वारका तथा मथुरा में शाश्वत निवास करते हैं।
एइ चारि हैते चब्बिश मूर्ति परकाश ।अस्त्र-भेदे नाम-भेद-वैभव-विलास ॥
१९१॥
एक मूल चतुयूँह से चौबीस रूप प्रकट होते हैं। वे अपने चारों हाथों में धारण किये जाने वाले अस्त्रों कि स्थिति के अनुसार भिन्न होते हैं। वे वैभव-विलास कहलाते हैं।
पुनः कृष्ण चतुर्व्यह लञा पूर्व-रूपे ।परव्योम-मध्ये वैसे नारायण-रूपे ॥
१९२॥
भगवान् कृष्ण पुनः विस्तार करते हैं और परव्योम अर्थात् आध्यात्मिक आकाश में वे अपने मूल चतुयूंह रूपों के विस्तार के साथ अपने चतुर्भुजी नारायण रूप में पूर्णरूपेण स्थित हैं।
ताँहा हैते पुनः चतुर्व्यह-परकाश ।आवरण-रूपे चारि-दिके ग्राँर वासे ॥
१९३॥
इस तरह मूल चतुयूंह रूप पुनः द्वितीय चतुयूंह रूप में प्रकट होते हैं। इन द्वितीय चतुयूँहों के आवास चारों दिशाओं को आच्छादित करते हैं।
चारि-जनेर पुनः पृथक तिन तिन मूर्ति ।।केशवादि ग्राहा हैते विलासेर पूर्ति ॥
१९४॥
इन चतुयूँहों का पुनः तीन बार विस्तार होता है, जिनमें केशव आदि आते हैं। यह विलास-रूपों की पूर्ति है।
चक्रादि-धारण-भेदे नाम-भेद सब । वासुदेवेर मूर्ति केशव, नारायण, माधव ॥
१९५॥
चतुयूंह में से प्रत्येक रूप के तीन विस्तार होते हैं और वे अस्त्र धारण करने की स्थिति के अनुसार विभिन्न नाम वाले होते हैं। वासुदेव के विस्तार हैं केशव, नारायण तथा माधव।
सङ्कर्षणेर मूर्ति–गोविन्द, विष्णु, मधुसूदन ।। ए अन्य गोविन्द नहे व्रजेन्द्र-नन्दन ॥
१९६॥
संकर्षण के विस्तार हैं गोविन्द, विष्णु तथा मधुसूदन। ये गोविन्द मूल गोविन्द से भिन्न हैं, क्योंकि ये महाराज नन्द के पुत्र नहीं हैं।
प्रद्युम्नेर मूर्ति—त्रिविक्रम, वामन, श्रीधर ।। अनिरुद्धेर मूर्ति–हृषीकेश, पद्मनाभ, दामोदर ॥
१९७॥
प्रद्युम्न के विस्तार हैं त्रिविक्रम, वामन तथा श्रीधर। इसी तरह अनिरुद्ध के विस्तार हृषीकेश, पद्मनाभ तथा दामोदर हैं।
द्वादश-मासेर देवता---ए-बार जन ।मार्गशीर्षे–केशव, पौषे–नारायण ॥
१९८॥
ये बारहों बारह महीनों के प्रधान देवता हैं। केशव अग्रहायण मास के और नारायण पौष मास के प्रधान देवता हैं।
माघेर देवता-माधव, गोविन्द–फाल्गुने ।चैत्रे विष्णु, वैशाखे–श्री-मधुसूदन ॥
१९९॥
माघ मास के प्रधान देवता माधव हैं और फाल्गुन के गोविन्द हैं। विष्णु चैत्र मास के और मधुसूदन वैशाख मास के प्रधान देवता हैं।
ज्यैष्ठे–त्रिविक्रम, आषाढ़े-वामन देवेश ।श्रावणे-श्रीधर, भाद्रे—देव हृषीकेश ॥
२००॥
ज्येष्ठ मास के प्रधान देवता त्रिविक्रम हैं, आषाढ़ के देवता वामन हैं, श्रावण मास के श्रीधर तथा भाद्र मास के हृषीकेश हैं।
आश्विने--पद्मनाभ, कार्तिके दामोदर ।‘राधा-दामोदर' अन्य व्रजेन्द्र-कोडर ॥
२०१॥
आश्विन मास के प्रधान देवता पद्मनाभ हैं और कार्तिक मास के दामोदर हैं। ये दामोदर वृन्दावन के नन्द महाराज के पुत्र राधा-दामोदर से भिन्न हैं।
द्वादश-तिलक-मन्त्र एइ द्वादश नाम ।आचमने एइ नामे स्पर्श तत्तत्स्थान ॥
२०२॥
शरीर के बारह स्थानों पर तिलक लगाते समय विष्णु के इन बारह नामों वाले मन्त्र का उच्चारण करना होता है। नित्य पूजा के बाद जल से आचमन करते समय इन नामों का उच्चारण करते हुए शरीर के प्रत्येक अंग का स्पर्श करना चाहिए।
एइ चारि-जनेर विलास-मूर्ति आर अष्ट जन । ताँ सबार नाम कहि, शुन सनातन ॥
२०३॥
वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध से आठ और विलास-रूप आते हैं। हे सनातन, मैं उनके नामों का उल्लेख करता हूँ। उन्हें सुनो।
पुरुषोत्तम, अच्युत, नृसिंह, जनार्दन । हरि, कृष्ण, अधोक्षज, उपेन्द्र,—अष्ट-जन ॥
२०४॥
ये आठ विलास ( लीला-विस्तार) हैं–पुरुषोत्तम, अच्युत, नृसिंह, जनार्दन, हरि, कृष्ण, अधोक्षज तथा उपेन्द्र।
वासुदेवेर विलास दुइ–अधोक्षज, पुरुषोत्तम । सङ्कर्षणेर विलास उपेन्द्र, अच्युत दुइ-जन ॥
२०५॥
इन आठ विस्तारों में से दो तो वासुदेव के विलास हैं। उनके नाम हैं अधोक्षज तथा पुरुषोत्तम संकर्षण के दो विलास हैं उपेन्द्र तथा अच्युत ।
प्रद्युम्नेर विलास-नृसिंह, जनार्दन ।।अनिरुद्धेर विलास–हरि, कृष्ण दुइ-जन ॥
२०६॥
| प्रद्युम्न के विलास ( लीला-विस्तार ) हैं नृसिंह तथा जनार्दन एवं अनिरुद्ध के विलास हैं हरि तथा कृष्ण।
एइ चब्बिश मूर्ति--प्राभव-विलास प्रधान ।अस्त्र-धारण-भेदे धरे भिन्न भिन्न नाम ॥
२०७॥
ये चौबीसों रूप भगवान् के मुख्य प्राभव-विलास हैं। इनके नाम हाथों में धारण किये गये अस्त्रों की स्थिति के अनुसार भिन्न-भिन्न होते हैं। इँहार मध्ये ग्राहार हय आकार-वेश-भेद ।।सेइ सेइ हय विलास-वैभव-विभेद ॥
२०८॥
इन समस्त रूपों में जो रूप वेश तथा आकार में भिन्न होते हैं, वे वैभव-विलास कहलाते हैं।
पद्मनाभ, त्रिविक्रम, नृसिंह, वामन ।हरि, कृष्ण आदि हय 'आकार' विलक्षण ॥
२०९॥
इनमें से पद्मनाभ, त्रिविक्रम, नृसिंह, वामन, हरि, कृष्ण इत्यादि के शारीरिक रूप भिन्न-भिन्न हैं।
कृष्णेर प्राभव-विलास--वासुदेवादि चारि जन ।। सेइ चारि-जनार विलास–विंशति गणन ॥
२१०॥
वासुदेव तथा अन्य तीन विस्तार भगवान् कृष्ण के प्रत्यक्ष प्राभवविलास हैं। इन चतुयूंह रूपों के बीस विलास विस्तार हैं।
इँहा-सबार पृथक् वैकुण्ठ-परव्योम-धामे । पूर्वादि अष्ट-दिके तिन तिन क्रमे ॥
२११॥
ये सारे रूप आध्यात्मिक आकाश धाम में भिन्न-भिन्न वैकुण्ठ लोकों के अधिष्ठाता हैं, जो पूर्व दिशा से क्रमशः प्रारम्भ होते हैं। आठों दिशाओं में प्रत्येक में तीन भिन्न रूप होते हैं।
यद्यपि परव्योम सबाकार नित्य-धाम । तथापि ब्रह्माण्डे कारो काँहो सन्निधान ॥
२१२॥
यद्यपि इन सबका परव्योम में सनातन निवासस्थान है, किन्तु इनमें से कुछ भौतिक ब्रह्माण्डों में स्थित हैं।
परव्योम-मध्ये नारायणेर नित्य-स्थिति। परव्योम-उपरि कृष्णलोकेर विभूति ॥
२१३॥
परव्योम में नारायण का नित्य निवासस्थान है। इस परव्योम के ऊपरी भाग में कृष्णलोक है, जो समस्त ऐश्वर्यों से परिपूर्ण है।
एक 'कृष्णलोक' हय त्रिविध-प्रकार । गोकुलाख्य, मथुराख्य, द्वारकाख्य आर ॥
२१४॥
कृष्णलोक तीन विभागों में बँटा है-गोकुल, मथुरा तथा द्वारका।
मथुराते केशवेर नित्य सन्निधान ।। नीलाचले पुरुषोत्तम जगन्नाथ' नाम ॥
२१५॥
भगवान् केशव का नित्य निवास मथुरा में है और भगवान् पुरुषोत्तम, जो जगन्नाथ नाम से विख्यात हैं, नीलाचल में नित्य निवास करते हैं।
प्रयागे माधव, मन्दारे श्री-मधुसूदन ।आनन्दारण्ये वासुदेव, पद्मनाभ जनार्दन ॥
२१६॥
प्रयाग में भगवान् बिन्दु माधव के रूप में स्थित हैं और मन्दार पर्वत में मधुसूदन रूप में। वासुदेव, पद्मनाभ तथा जनार्दन ये तीनों आनन्दारण्य में निवास करते हैं।
विष्णु-काञ्चीते विष्णु, हरि रहे, मायापुरे ।ऐछे आर नाना मूर्ति ब्रह्माण्ड-भितरे ॥
२१७॥
विष्णुकांची में भगवान् विष्णु हैं, मायापुर में भगवान् हरि हैं तथा सारे ब्रह्माण्ड में नाना प्रकार के अनेक रूप हैं।
एइ-मत ब्रह्माण्ड-मध्ये सबार 'परकाश' ।।सप्त-द्वीपे नव-खण्डे याँहार विलास ॥
२१८॥
इस ब्रह्माण्ड के भीतर भगवान् विभिन्न आध्यात्मिक स्वरूपों में स्थित हैं। ये सात द्वीपों के नव खण्डों में विद्यमान हैं। इस तरह उनकी लीलाएँ चलती रहती हैं।
सर्वत्र प्रकाश ताँर—भक्ते सुख दिते ।। जगतेर अधर्म नाशि' धर्म स्थापिते ॥
२१९॥
भगवान् अपने भक्तों को प्रसन्न करने के लिए ही सारे ब्रह्माण्डों मेंविभिन्न रूपों में स्थित हैं। इस तरह भगवान् अधर्म का विनाश करते हैं। और धर्म की स्थापना करते हैं।
इँहार मध्ये कारो हय अवतारे' गणन ।ग्रैछे विष्णु, त्रिविक्रम, नृसिंह, वामन ॥
२२०॥
इन रूपों में से कुछ को अवतार माना जाता है। उदाहरणार्थ भगवान् विष्णु, भगवान् त्रिविक्रम, भगवान् नृसिंह तथा भगवान् वामन।
अस्त्र-धृति-भेद-नाम-भेदेर कारण ।चक्रादि-धारण-भेद शुन, सनातन ॥
२२१॥
हे सनातन, अब मुझसे सुनो कि किस तरह विभिन्न विष्णु-मूर्तियाँ अपने-अपने अस्त्र यथा चक्र इत्यादि धारण करती हैं, एवं किस तरह अपने हाथों में धारण किए गये अस्त्रों के अनुसार उनके नाम पड़ते हैं।
दक्षिणाधो हस्त हैते वामाधः पर्युन्त ।।चक्रादि अस्त्र-धारण-गणनार अन्त ॥
२२२ ।। गणना करने की विधि यह है कि निचले दायें हाथ से प्रारम्भ करके क्रमशः ऊपरी दाहिने हाथ, ऊपरी बाएँ हाथ तथा निचले बाएँ हाथ तक बढ़े। भगवान् विष्णु का नाम उनके हाथों में धारण किये गये अस्त्रों के क्रम के अनुसार होता है।
सिद्धार्थ-संहिता करे चब्बिश मूर्ति गणन ।।तार मते कहि आगे चक्रादि-धारण ॥
२२३॥
सिद्धार्थ-संहिता के अनुसार भगवान् विष्णु के चौबीस रूप हैं। सर्वप्रथम मैं उसी ग्रन्थ के अनुसार चक्र से आरम्भ करके उन अस्त्रों की स्थिति का वर्णन करूंगा।
वासुदेव-गदा-शङ्ख-चक्र-पद्म-धर ।।सङ्कर्षण—गदा-शङ्ख-पद्म-चक्र-कर ॥
२२४॥
भगवान् वासुदेव अपने निचले दाहिने हाथ में गदा, ऊपरी दाएँ हाथ में शङ्ख, ऊपरी बाएँ हाथ में चक्र तथा निचले बाएँ हाथ में कमल का फूल धारण करते हैं। संकर्षण अपने निचले दाहिने हाथ में गदा, ऊपरी दाएँ हाथ में शंख, ऊपरी बाएँ हाथ में कमल का फूल तथा निचले बाएँ हाथ में चक्र धारण करते हैं।
प्रद्युम्नचक्र-शङ्ख-गदा-पद्म-धर ।अनिरुद्ध–चक्र-गदा-शङ्ख-पद्म-कर ॥
२२५ ॥
प्रद्युम्न चक्र, शंख, गदा तथा कमल धारण करते हैं और अनिरुद्ध चक्र, गदा, शंख तथा कमल धारण करते हैं।
परव्योमे वासुदेवादि निज निज अस्त्र-धर ।ताँर मत कहि, ग्रे-सब अस्त्र-कर ॥
२२६॥
परव्योम में वासुदेव आदि अंश अपने-अपने क्रम से अस्त्रों को धारण करते हैं। उनका वर्णन करने के लिए मैं सिद्धार्थ-संहिता के मत को दुहरा रहा हूँ।
श्री-केशव--पद्म-शङ्ख-चक्र-गदा-धर ।नारायण शङ्ख-पद्म-गदा-चक्र-धर ॥
२२७॥
भगवान् केशव पद्म, शंख, चक्र तथा गदा धारण करते हैं। भगवान् नारायण शंख, पद्म, गदा तथा चक्र धारण करते हैं।
श्री-माधव-गदा-चक्र-शङ्ख-पद्म-कर ।। श्री गोविन्द-चक्र-गदा-पद्म-शङ्खधर ॥
२२८॥
भगवान् माधव अपने हाथों में गदा, चक्र, शंख तथा कमल धारण करते हैं। भगवान् गोविन्द चक्र, गदा, पद्म तथा शंख धारण करते हैं।
विष्णु-मूर्ति-गदा-पद्म-शङ्ख-चक्र-कर ।मधुसूदन- चक्र-शङ्ख-पद्म-गदा-धर ॥
२२९ ।। भगवान् विष्णु अपने हाथों में गदा, पद्म, शंख तथा चक्र लिये रहते हैं। भगवान् मधुसूदन चक्र, शंख, पद्म तथा गदा धारण करते हैं।
त्रिविक्रम पद्म-गदा-चक्र-शङ्ख-कर ।श्री-वामन-शङ्ख-चक्र-गदा-पदा-धर ॥
२३० ।। भगवान् त्रिविक्रम अपने हाथों में कमल, गदा, चक्र तथा शंख लिये रहते हैं। भगवान् वामन शंख, चक्र, गदा तथा कमल धारण करते हैं।
श्रीधर-पद्म-चक्र-गदा-शङ्ख-कर ।। हृषीकेश-गदा-चक्र-पद्म-शङ्खधर ॥
२३१॥
भगवान् श्रीधर के हाथों में कमल, चक्र, गदा तथा शंख रहते हैं। भगवान् हृषीकेश अपने हाथों में गदा, चक्र, कमल तथा शंख धारण करते हैं।
पद्मनाभ-शङ्ख-पद्म-चक्र-गदा-कर । दामोदर—पद्म-चक्र-गदा-शङ्ख-धर ॥
२३२॥
भगवान् पद्मनाभ शंख, कमल, चक्र तथा गदा लिये रहते हैं। भगवान् दामोदर कमल, चक्र, गदा तथा शंख धारण करते हैं।
पुरुषोत्तम-चक्र-पद्म-शङ्ख-गदा-धर ।।श्री-अच्युत-गदा-पद्म-चक्र-शङ्खधर ॥
२३३ ।। भगवान् पुरुषोत्तम चक्र, पद्म, शंख तथा गदा धारण करते हैं। भगवान् अच्युत गदा, कमल, चक्र तथा शंख धारण करते हैं।
श्री-नृसिंह-चक्र-पद्म-गदा-शङ्खधर ।। जनार्दन–पद्म-चक्र-शङ्ख-गदा-कर ॥
२३४॥
भगवान् नृसिंह चक्र, पद्म, गदा तथा शंख धारण करते हैं। भगवान् जनार्दन अपने हाथों में कमल, चक्र, शंख तथा गदा लिये रहते हैं।
श्री-हरि-शङ्ख-चक्र-पद्म-गदा-कर । श्री कृष्ण शङ्ख-गदा-पद्म-चक्र-कर ।।२३५ ।। श्री हरि अपने हाथों में शंख, चक्र, पद्म तथा गदा लिये रहते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण अपने हाथों में शंख, गदा, कमल तथा चक्र धारण करते हैं।
अधोक्षज–पद्म-गदा-शङ्ख-चक्र-कर।। उपेन्द्र शङ्ख-गदा-चक्र-पद्म-कर ॥
२३६ ॥
भगवान् अधोक्षज अपने हाथों में कमल, गदा, शंख तथा चक्र लिये रहते हैं। भगवान् उपेन्द्र अपने हाथों में शंख, गदा, चक्र तथा कमल धारण करते हैं।
हयशीर्ष-पञ्चरात्रे कहे षोल-जन ।। तार मते कहि एबे चक्रादि-धारण ॥
२३७॥
हयशीर्ष पंचरात्र के अनुसार सोलह पुरुष हैं। मैं अब उस मत का वर्णन करूंगा कि वे किस तरह अस्त्रों को धारण किये रहते हैं।
केशव-भेदे पद्म-शङ्ख-गदा-चक्र-धर । माधव-भेदे चक्र-गदा-शङ्ख-पद्म-कर ॥
२३८।। केशव को कमल, शंख, गदा तथा चक्र धारण किये भिन्न बतलाया जाता है और माधव को हाथों में चक्र, गदा, शंख तथा कमल धारण करने वाले अस्त्रों के अनुसार प्रस्तुत किया जाता है।
नारायण-भेदे नाना अस्त्र-भेद-धर ।इत्यादिक भेद एई सब अस्त्र-कर ॥
२३९॥
हयशीर्ष पंचरात्र के अनुसार नारायण तथा अन्यों को भी विभिन्न हाथों में धारण करने वाले अस्त्रों के अनुसार प्रस्तुत किया जाता है।
‘स्वयं भगवान्', आर 'लीला-पुरुषोत्तम' ।एइ दुइ नाम धरे व्रजेन्द्र-नन्दन ॥
२४०॥
आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण, जो महाराज नन्द के पुत्र हैं, उनके दो नाम हैं। एक है स्वयं भगवान् तथा दूसरा है लीला पुरुषोत्तम।
पुरीर आवरण-रूपे पुरीर नव-देशे ।।नव-व्यूह-रूपे नव-मूर्ति परकाशे ॥
२४१॥
भगवान् कृष्ण द्वारका पुरी को उसके रक्षक के रूप में घेरे रहते हैं। वे पुरी के नौ विभिन्न स्थानों में नौ भिन्न-भिन्न रूपों में अपना विस्तार करते हैं।
चत्वारो वासुदेवाद्या नारायण-नृसिंहको ।हयग्रीवो महाक्रोड़ो ब्रह्मा चेति नवोदिताः ॥
२४२॥
जिन नौ पुरुषों का उल्लेख हुआ है वे हैं-वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, नारायण, नृसिंह, हयग्रीव, वराह तथा ब्रह्मा।'
प्रकाश-विलासेर एइ कैलँ विवरण ।।स्वांशेर भेद एबे शुन, सनातन ॥
२४३॥
मैं विलासों तथा प्रकाशों का वर्णन कर चुका हूँ। अब मुझसे विभिन्न स्वांशों के विषय में सुनो।
सङ्कर्षण, मत्स्यादिक,दुइ भेद ताँर ।।सङ्कर्षण–पुरुषावतार, लीलावतार आर ॥
२४४॥
प्रथम स्वांश ( व्यक्तिगत विस्तार) संकर्षण हैं और अन्य सभी अवतार हैं, मत्स्य इत्यादि। संकर्षण पुरुष अथवा विष्णु के विस्तार हैं। मत्स्य जैसे अवतार विभिन्न युगों में विशिष्ट लीलाओं के लिए प्रकट होते हैं।
अवतार हय कृष्णेर षडू-विध प्रकार ।।पुरुषावतार एक, लीलावतार आर ॥
२४५ ॥
कृष्ण के छह तरह के अवतार होते हैं। एक तो विष्णु के अवतार ( पुरुषावतार) हैं और दूसरे अवतार विभिन्न लीलाओं को सम्पन्न करने के लिए ( लीलावतार) हैं।
गुणावतार, आर मन्वन्तरावतार ।ग्रुगावतार, आर शक्त्यावेशावतार ॥
२४६॥
फिर गुण-अवतार (जो भौतिक गुणों का नियन्त्रण करते हैं), मन्वन्तर-अवतार (जो प्रत्येक मनु के शासन में प्रकट होते हैं), युगअवतार ( विभिन्न युगों में अवतार लेने वाले ) तथा शक्त्यावेश अवतार ( शक्ति संचारित जीवों के अवतार ) हैं।
बाल्य, पौगण्ड हय विग्रहेर धर्म ।एत-रूपे लीला करेन व्रजेन्द्र-नन्दन ॥
२४७॥
अर्चाविग्रह की विशिष्ट अवस्थाएँ हैं-बाल्य तथा पौगण्ड। महाराज नन्द के पुत्र श्रीकृष्ण ने शिशु तथा बालक के रूप में अपनी लीलाएँ सम्पन्न कीं।
अनन्त अवतार कृष्णेर, नाहिक गणन ।शाखा-चन्द्र-न्याय करि दिग्दरशन ॥
२४८॥
कृष्ण के अवतार असंख्य हैं और उनकी गणना कर पाना सम्भव नहीं है। हम चन्द्रमा तथा वृक्ष की शाखाओं का उदाहरण देकर केवल उनका संकेत कर सकते हैं।
अवतारा हासङ्ख्येया हरेः सत्त्व-निधेर्द्विजाः । यथाऽविदासिनः कुल्याः सरसः स्युः सहस्रशः ॥
२४९॥
हे विद्वान ब्राह्मणों, जिस प्रकार विशाल जलाशयों से लाखों छोटेछोटे झरने नीकलते हैं, उसी तरह से समस्त शक्तियों के आगार पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्री हरि से असंख्य अवतार प्रकट होते हैं।
प्रथमेइ करे कृष्ण 'पुरुषावतार' ।सेइत पुरुष हय त्रिविध प्रकार ॥
२५० ॥
प्रारम्भ में कृष्ण स्वयं पुरुष-अवतारों अर्थात् विष्णु-अवतारों के रूप में अवतरित होते हैं। ये तीन प्रकार के हैं।
विष्णोस्तु त्रीणि रूपाणिपुरुषाख्यान्यथो विदुः एकं तु महतः स्रष्ट ।द्वितीयं त्वण्ड-संस्थितम् तृतीयं सर्व-भूत-स्थंतानि ज्ञात्वा विमुच्यते विष्णु के तीन रूप हैं, जो पुरुष कहलाते हैं। प्रथम महाविष्णु हैं, जो सम्पूर्ण भौतिक शक्ति ( महत्) के स्रष्टा हैं, द्वितीय गर्भोदकशायी विष्णु हैं, जो प्रत्येक ब्रह्माण्ड में स्थित हैं तथा तृतीय क्षीरोदकशायी विष्णु हैं, जो प्रत्येक प्राणी के हृदय में रहते हैं। जो इन तीनों को जान लेता है, वह माया के बन्धन से छूट जाता है।'
अनन्त-शक्ति-मध्ये कृष्णेर तिन शक्ति प्रधान । ‘इच्छा-शक्ति', 'ज्ञान-शक्ति', 'क्रिया-शक्ति' नाम ॥
२५२॥
कृष्ण की शक्तियाँ अनन्त हैं, जिनमें से तीन प्रमुख हैं-ये हैं। इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति तथा क्रियाशक्ति।
इच्छा-शक्ति-प्रधान कृष्ण-इच्छाय सर्व-कर्ता । ज्ञान-शक्ति-प्रधान वासुदेव अधिष्ठाता ।। २५३ ॥
इच्छाशक्ति के प्रधान भगवान् कृष्ण हैं, क्योंकि उनकी परम इच्छा से ही हर वस्तु का अस्तित्व है। इच्छा के लिए ज्ञान की आवश्यकता है। और वह ज्ञान वासुदेव के माध्यम से व्यक्त होता है।
इच्छा-ज्ञान-क्रिया विना ना हय सृजन । तिनेर तिन-शक्ति मेलि' प्रपञ्च-रचन ॥
२५४॥
विचार, अनुभव, इच्छा, ज्ञान तथा क्रिया के बिना सृजन सम्भव नहीं है। परम इच्छा, ज्ञान और क्रिया के मेल से विराट् जगत् की रचना होती हैं।
क्रिया-शक्ति-प्रधान सङ्कर्षण बलराम ।प्राकृताप्राकृत-सृष्टि करेन निर्माण ॥
२५५ ॥
भगवान् संकर्षण बलराम हैं। वे क्रियाशक्ति के अधिष्ठाता होने के कारण भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों जगतों की सृष्टि करते हैं।
अहङ्कारेर अधिष्ठाता कृष्णेर इच्छाय ।। गोलोक, वैकुण्ठ सृजे चिच्छक्ति-द्वाराय ॥
२५६॥
आदि संकर्षण ( भगवान् बलराम ) भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों ही सृष्टियों के कारण हैं। वे अहंकार के अधिष्ठाता हैं। वे कृष्ण की इच्छा से तथा आध्यात्मिक शक्ति के बल पर आध्यात्मिक जगत् का सृजन करते हैं जिसमें गोलोक वृन्दावन तथा वैकुण्ठ लोक सम्मिलित हैं।
यद्यपि असृज्य नित्य चिच्छक्ति-विलास ।। तथापि सङ्कर्षण-इच्छाय ताहार प्रकाश ॥
२५७॥
यद्यपि आध्यात्मिक जगत् के सृजन का प्रश्न नहीं उठता, तो भी आध्यात्मिक जगत् संकर्षण की परम इच्छा से ही प्रकट होता है। यह आध्यात्मिक जगत् नित्य आध्यात्मिक शक्ति के विलास का धाम है।
सहस्र-पत्रं कमलं गोकुलाख्यं महत्पदम् ।तत्कर्णिकारं तब्द्धाम तदनन्तांश-सम्भवम् ॥
२५८॥
परम धाम तथा लोक गोकुल एक हजार पंखुड़ियों वाले कमल के फूल जैसा लगता है। इस कमल की कर्णिका भगवान् कृष्ण का धाम है। यह कमल जैसे आकार वाला परम धाम भगवान् अनन्त की इच्छा से उत्पन्न होता है।'
माया-द्वारे सृजे तेहो ब्रह्माण्डेर गण ।।जड़-रूपा प्रकृति नहे ब्रह्माण्ड-कारण ॥
२५९॥
वे ही भगवान् संकर्षण भौतिक शक्ति (माया) के द्वारा सारे ब्रह्माण्डों का सृजन करते हैं। जड़ रूप भौतिक शक्ति, जिसे आधुनिक भाषा में प्रकृति कहा जाता है, भौतिक ब्रह्माण्ड का कारण नहीं है।
जड़ हैते सृष्टि नहे ईश्वर-शक्ति विने । ताहातेइ सङ्कर्षण करे शक्तिर आधाने ॥
२६०॥
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की शक्ति के बिना जड़ पदार्थ विराट् जगत् का सृजन नहीं कर सकता। इसकी शक्ति भौतिक शक्ति से उत्पन्न नहीं होती, किन्तु संकर्षण द्वारा प्रदत्त होती है।
ईश्वरेर शक्त्ये सृष्टि करये प्रकृति ।लौह ग्रेन अग्नि-शक्त्ये पाय दाह-शक्ति ॥
२६१॥
अकेला जड़ पदार्थ किसी वस्तु का सृजन नहीं कर सकता। भौतिक शक्ति पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के बल पर सृष्टि करती है। लोहे में खुद में जलाने की कोई शक्ति नहीं होती, किन्तु जब इसी लोहे को अग्नि में रखा जाता है, तब यह जलाने की शक्ति प्राप्त कर लेता है।
एतौ हि विश्वस्य च बीज-योनी | रामो मुकुन्दः पुरुषः प्रधानम् । अन्वीय भूतेषु विलक्षणस्यज्ञानस्य चेशात इमौ पुराणौ ॥
२६२॥
बलराम तथा कृष्ण इस भौतिक जगत् के मूल, निमित्त एवं भौतिक कारण हैं। वे महाविष्णु तथा भौतिक शक्ति के रूप में भौतिक तत्त्वों में प्रविष्ट होते हैं और नाना शक्तियों द्वारा विविधता उत्पन्न करते हैं। इस तरह वे समस्त कारणों के कारण ।'
सृष्टि-हेतु येइ मूर्ति प्रपञ्चे अवतरे ।सेइ ईश्वर-मूर्ति 'अवतार' नाम धरे ॥
२६३॥
भगवान् का वह रूप, जो सृष्टि करने के हेतु भौतिक जगत् में अवतरित होता है, अवतार कहलाता है।
मायातीत परव्योमे सबार अवस्थान ।।विश्वे अवतरि' धरे 'अवतार' नाम ॥
२६४॥
भगवान् कृष्ण के सारे विस्तार वास्तव में आध्यात्मिक आकाश के निवासी हैं। किन्तु जब वे भौतिक जगत् में अवतरित होते हैं, तो अवतार कहे जाते हैं।
सेइ माया अवलोकिते श्री-सङ्कर्षण ।पुरुष-रूपे अवतीर्ण हइला प्रथम ॥
२६५ ॥
भौतिक शक्ति (माया) पर दृष्टिपात करने तथा उसे शक्ति प्रदान करने के लिए भगवान् संकर्षण सर्वप्रथम भगवान् महाविष्णु के रूप में अवतरित होते हैं।
जगृहे पौरुषं रूपं भगवान्महदादिभिः ।।सम्भूतं षोड़श-कलमादौ लोक-सिसृक्षया ॥
२६६॥
सृष्टि के प्रारम्भ में भगवान् ने भौतिक सृष्टि की समस्त सामग्री केसाथ अपना विस्तार पुरुष अवतार के रूप में किया। सर्वप्रथम उन्होंने सृष्टि करने के लिए सोलह प्रमुख शक्तियाँ उत्पन्न कीं। ऐसा उन्होंने भौतिक ब्रह्माण्डों को प्रकट करने के लिए किया।'
आद्योऽवतारः पुरुषः परस्य ।कालः स्वभावः सदसन्मनश्च ।। द्रव्यं विकारो गुण इन्द्रियाणि ।विराट्स्वराट्स्थास्नु चरिष्णु भूम्नः ॥
२६७ ॥
भगवान् के प्रथम अवतार हैं कारणाब्धिशायी विष्णु ( महाविष्णु), जो सनातन काल, आकाश, कारण तथा कार्य, मन, तत्त्व, भौतिक अहंकार, प्रकृति के गुण, इन्द्रिय-समूह, भगवान् का विराट् रूप, गर्भोदकशायी विष्णु तथा सारे चर एवं अचर जीवों के स्वामी हैं।'
सेइ पुरुष विरजाते करेन शयन ।कारणाब्धिशायी' नाम जगत्कारण ॥
२६८।। वे आदि भगवान्, जिनका नाम संकर्षण है, सर्वप्रथम उस विरजा नदी में शयन करते हैं, जो भौतिक जगत् तथा आध्यात्मिक जगत् के बीच में सीमा का कार्य करती है। कारणाब्धिशायी विष्णु के रूप में वे भौतिक सृष्टि के आदि कारण हैं।
कारणाब्धि-पारे मायार नित्य अवस्थिति । विरजार पारे परव्योमे नाहि गति ॥
२६९॥
विरजा अर्थात् कारण सागर आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों के बीच की सीमा है। इस सागर के एक तट पर भौतिक शक्ति ( माया) स्थित है, किन्तु यह दूसरे किनारे पर प्रवेश नहीं कर सकती, जहाँ आध्यात्मिक आकाश है।
प्रवर्तते यत्र रजस्तमस्तयोःसत्त्वं च मिश्रं न च काल-विक्रमः । न यत्र माया किमुतापरे हरेर्अनुव्रता ग्रत्र सुरासुरार्चिताः ॥
२७०॥
आध्यात्मिक जगत् में न तो रजोगुण है, न तमोगुण, न ही इन दोनों का मिश्रण है। न ही वहाँ मिश्रित सत्त्व है, न काल या स्वयं माया का प्रभाव है। यहाँ केवल भगवान् के शुद्ध भक्त भगवान् के संगी बनकर रहते हैं, जिनकी पूजा देवता तथा असुर दोनों करते हैं।'
मायार ये दुइ वृत्ति'माया' आर 'प्रधान' ।।'माया' निमित्त-हेतु, विश्वेर उपादान ‘प्रधान' ॥
२७१।। माया के दो कार्य हैं। इनमें से एक माया कहलाता है और दूसरा प्रधान। माया सूचक है निमित्त कारण की और प्रधान उन उपादानों ( सामग्री ) का सूचक है, जिनसे विराट् जगत् की सृष्टि होती है।
सेइ पुरुष माया-पाने करे अवधान ।। प्रकृति क्षोभित करि' करे वीर्येर आधान ॥
२७२॥
जब पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् भौतिक शक्ति पर दृष्टि डालते हैं, तो वह क्षुब्ध हो जाती है। उस समय भगवान् उसमें जीव रूपी अपना मूल वीर्य प्रविष्ट कर देते हैं।
स्वाङ्ग-विशेषाभास-रूपे प्रकृति-स्पर्शन ।जीव-रूप 'बीज' ताते कैला समर्पण ॥
२७३ ॥
जीवरूपी बीजों से गर्भित करने के लिए भगवान् भौतिक शक्ति का प्रत्यक्ष स्पर्श नहीं करते, अपितु वे अपने विशेष कार्यकारी विस्तार द्वारा भौतिक प्रकृति का स्पर्श करते हैं। इस तरह सारे जीव, जो उनके अंश रूप हैं, भौतिक प्रकृति में गर्भित हो जाते हैं।"
दैवात्क्षुभित-धर्मिण्यां स्वस्यां ग्रोनौ परः पुमान् । आधत्त वीर्यं सासूत महत्तत्त्वं हिरण्मयम् ॥
२७४॥
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ने अनन्तकाल में तीन गुणों वाली भौतिक प्रकृति को उत्तेजित करके उसके गर्भ में असंख्य जीवों के रूप में अपना वीर्य स्थापित किया। इस तरह भौतिक प्रकृति ने सम्पूर्ण भौतिक शक्ति को जन्म दिया, जो हिरण्मय महत् तत्त्व के नाम से जानी जाती है, जिसका अर्थ है, विश्व-सृष्टि का मूल प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व।
काल-वृत्त्या तु मायायां गुण-मय्यामधोक्षजः ।।पुरुषेणात्म-भूतेन वीर्घमाधत्त वीर्यवान् ॥
२७५ ॥
कालक्रम में पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान् ( महावैकुण्ठनाथ) ने अपने स्वांश विस्तार ( महाविष्णु) द्वारा भौतिक प्रकृति के गर्भ के भीतर जीवरूपी वीर्य स्थापित किया।'
तबे महत्तत्त्व हैते त्रिविध अहङ्कार ।ग्राहा हैते देवतेन्द्रिय-भूतेर प्रचार ॥
२७६॥
सर्वप्रथम समग्र भौतिक शक्ति ( महत् तत्त्व) प्रकट होती है, जिससे तीन प्रकार के अहंकार प्रकट होते हैं और ये ही वे मूल स्रोत हैं, जिनसे सभी देवता (नियन्त्रण करने वाले अधिष्ठाता ), इन्द्रियाँ तथा भौतिक तत्त्व विस्तार करते हैं।
…verse… सर्व तत्त्व मिलि' सृजिल ब्रह्माण्डेर गण ।अनन्त ब्रह्माण्ड, तार नाहिक गणन ॥
२७७॥
विभिन्न तत्त्वों को मिलाकर भगवान् ने सारे ब्रह्माण्डों का सृजन किया। इन ब्रह्माण्डों की संख्या अनन्त है, उन्हें गिन पाना सम्भव नहीं है।
इँहो महत्स्रष्टा पुरुष–‘महा-विष्णु' नाम । अनन्त ब्रह्माण्ड ताँर लोम-कूपे धाम ॥
२७८ ॥
भगवान् विष्णु का प्रथम रूप महाविष्णु कहलाता है। वे ही समग्र भौतिक शक्ति महत् तत्त्व के आदि स्रष्टा हैं। अनन्त ब्रह्माण्ड उनके शरीर के रोमकूपों से उत्पन्न होते हैं।
गवाक्षे उड़िया ग्रैछे रेणु आसे ग्राय ।। पुरुष-निश्वास-सह ब्रह्माण्ड बाहिराय ॥
२७९॥
पुनरपि निश्वास-सह ग्राय अभ्यन्तर । अनन्त ऐश्वर्य ताँर, सब माया-पार ॥
२८० ॥
जब महाविष्णु श्वास छोड़ते हैं, तो ये सारे ब्रह्माण्ड उस वायु में तैरते माने जाते हैं। ये उन सूक्ष्म कणों की भाँति हैं, जो सूर्य-प्रकाश में तैरते हैं। और परदे के छेदों से होकर आते-जाते रहते हैं। इस तरह ये सारे ब्रह्माण्ड महाविष्णु के उच्छ्वास से उत्पन्न होते हैं और जब महाविष्णु श्वास लेते हैं, तो वे सबै पुनः उनके शरीर के भीतर चले जाते हैं। महाविष्णु का असीम ऐश्वर्य पूर्णतया भौतिक धारणा के परे है।
यस्यैक-निश्वसित-कालमथावलम्ब्यजीवन्ति लोम-विल-जा जगदण्ड-नाथाः । विष्णुर्महान्स इह ग्रस्य कला-विशेषो।| गोविन्दमादि-पुरुषं तमहं भजामि ॥
२८१॥
सारे ब्रह्मा तथा भौतिक संसार के अन्य स्वामी महाविष्णु के रोमकूपों से प्रकट होते हैं और उनके एक निश्वास की अवधि तक जीवित रहते हैं। मैं उन आदि भगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ, क्योंकि महाविष्णु उनके पूर्ण अंश ( स्वांश) के अंश हैं।
समस्त ब्रह्माण्ड-गणेर इँहो अन्तर्यामी ।।कारणाब्धिशायी-----सब जगतेर स्वामी ॥
२८२॥
महाविष्णु सारे ब्रह्माण्डों के परमात्मा हैं। कारण सागर में शयन करने वाले वे सारे भौतिक जगतों के स्वामी हैं।
एइत कहिलें प्रथम पुरुषेर तत्त्व ।। द्वितीय पुरुषेर एबे शुनह महत्त्वं ॥
२८३॥
इस प्रकार मैंने प्रथम पुरुष, महाविष्णु की व्याख्या की है। अब मैं द्वितीय पुरुष की महिमा का वर्णन करूंगा।
सेइ पुरुष अनन्त-कोटि ब्रह्माण्ड सृजिया ।।एकैक-मूर्ये प्रवेशिला बहु मूर्ति हा ॥
२८४॥
अनन्त ब्रह्माण्डों की सृष्टि करने के बाद महाविष्णु ने अपना विस्तार असंख्य रूपों में कर लिया और उनमें से हर एक में प्रवेश किया।
प्रवेश करिया देखे, सब––अन्धकार ।रहिते नाहिक स्थान, करिला विचार ॥
२८५ ॥
जब महाविष्णु अनन्त ब्रह्माण्डों में से हर एक में प्रविष्ट हो गये, तो उन्होंने देखा कि वहाँ चारों ओर अँधेरा ही अँधेरा है और रहने के लिए कोई स्थान नहीं है। अतः वे इस स्थिति पर विचार करने लगे।
निजाङ्ग-स्वेद-जले ब्रह्माण्डार्ध भरिल ।।सेइ जले शेष-शय्याय शयन करिल ॥
२८६ ॥
तब भगवान् ने अपने शरीर से पसीना उत्पन्न किया, जिसके जल से आधे ब्रह्माण्ड को भर दिया। तब वे उस जल में भगवान् शेष की शय्या पर लेट गये।
ताँर नाभि-पद्म हैते उठिल एक पद्म ।।सेइ पद्मे हइल ब्रह्मार जन्म-सद्म ॥
२८७॥
तब उन गर्भोदकशायी विष्णु की नाभि से एक कमल का फूल निकल आया और वही फूल ब्रह्मा का जन्मस्थान बना।
सेइ पद्म-नाले हइल चौद्द भुवन ।।तेंहो ‘ब्रह्मा' हा सृष्टि करिल सृजन ॥
२८८ ॥
उस कमल फूल के डंठल से चौदह लोक उत्पन्न हुए। तब वे ब्रह्मा बने और उन्होंने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की रचना की।
‘विष्णु'-रूप ही करे जगत्पालने ।गुणातीत विष्णु-स्पर्श नाहि माया-सने ॥
२८९॥
इस प्रकार अपने विष्णु रूप से पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् सम्पूर्ण भौतिक जगत् का पालन करते हैं। चूंकि वे सदैव भौतिक गुणों से परे हैं, अतः भौतिक प्रकृति (माया) कभी-भी उनका स्पर्श नहीं कर सकती।
‘रुद्र'-रूप धरि करे जगत्संहार ।सृष्टि, स्थिति, प्रलय हय इच्छाय याँहार ॥
२९०॥
वे अपने रुद्र (शिव) रूप में इस भौतिक जगत् का संहार करते हैं। दूसरे शब्दों में, उनकी इच्छा से ही सम्पूर्ण जगत् का सृजन, पालन और संहार होता है।
ब्रह्मा, विष्णु, शिव ताँर गुण-अवतार ।सृष्टि-स्थिति-प्रलयेर तिनेर अधिकार ॥
२९१॥
ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव-ये तीनों उनके भौतिक गुणों के अवतार हैं। क्रमशः सृष्टि, पालन और संहार इन तीनों पुरुषों के अधिकार में है।
हिरण्यगर्भ-अन्तर्यामी–गर्भोदकशायी ।।‘सहस्त्र-शीर्षादि' करि' वेदे याँरे गाइ ॥
२९२ ॥
गर्भोदकशायी विष्णु, जो कि इस ब्रह्माण्ड में हिरण्यगर्भ तथा अन्तर्यामी-अर्थात् परमात्मा के नाम से जाने जाते हैं, उनकी महिमा का गायन वेदों में ‘सहस्रशीर्षा' शब्द से प्रारम्भ होने वाले स्तोत्र द्वारा किया जाता है।
एइ त' द्वितीय-पुरुष–ब्रह्माण्डेर ईश्वर ।।मायार' आश्रय' हय, तबु माया-पार ॥
२९३ ॥
द्वितीय पुरुष गर्भोदकशायी विष्णु प्रत्येक ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं।और बहिरंगा शक्ति (माया) के आश्रय हैं। तो भी वे माया के स्पर्श से परे रहते हैं।
तृतीय-पुरुष विष्णु-गुण-अवतार' ।।दुड़ अवतार-भितर गणना ताँहार ॥
२९४॥
विष्णु के तृतीय अंश क्षीरोदकशायी विष्णु हैं, जो सत्त्वगुण के अवतार हैं। इनकी गणना दो प्रकार के अवतारों (पुरुष-अवतार तथा गुणावतार) में की जाती है।
विराट्यष्टि-जीवेर तेहो अन्तर्यामी ।क्षीरोदकशायी तेहो—पालन-कर्ता, स्वामी ॥
२९५ ।। ये क्षीरोदकशायी विष्णु भगवान् के विराट् रूप हैं और प्रत्येक जीव के भीतर के परमात्मा हैं। वे क्षीरोदकशायी कहलाते हैं, क्योंकि वे क्षीरसागर में शयन करते हैं। वे ब्रह्माण्ड के पालक तथा स्वामी हैं।
पुरुषावतारेर एइ कैलँ निरूपण ।लीलावतार एबे शुन, सनातन ॥
२९६ ॥
हे सनातन, मैं विष्णु के तीन पुरुष अवतारों का स्पष्ट वर्णन कर चुका हूँ। अब मुझसे लीलावतारों के विषय में सुनो।
लीलावतार कृष्णेर ना ग्राय गणन ।प्रधान करिया कहि दिग्दरशन ॥
२९७॥
भगवान् कृष्ण के असंख्य लीलावतारों की गणना कोई भी नहीं कर सकता, किन्तु मैं मुख्य-मुख्य अवतारों का वर्णन करूंगा।
मत्स्य, कूर्म, रघुनाथ, नृसिंह, वामन ।वराहादि–लेखा याँर ना ग्राय गणन ॥
२९८ ॥
कुछ लीलावतार इस प्रकार हैं-मत्स्यावतार, कूर्मावतार, भगवान्रामचन्द्र, भगवान् नृसिंह, भगवान् वामन तथा भगवान् वराह। इनका कोई अन्त नहीं है।
मत्स्याश्व-कच्छप-नृसिंह-वराह-हंसराजन्य-विप्र-विबुधेषु कृतावतारः ।। त्वं पासि नस्त्रि-भुवनं च तथाधुनेश ।भारं भुवो हर ग्रदूत्तम वन्दनं ते ॥
२९९॥
हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, हे यदुकुल श्रेष्ठ, हम आपसे ब्रह्माण्ड के भारी भार को कम करने के लिए प्रार्थना कर रहे हैं। आपने पूर्वकाल में मत्स्य, अश्व ( हयग्रीव), कच्छप, सिंह (नृसिंह), शूकर (वराह) तथा हंस के रूप में भी अवतरित होकर इस भार को कम किया है। आप भगवान् रामचन्द्र, परशुराम तथा वामन के रूप में भी अवतरित हुए हैं। आपने सदैव इस तरह से हम देवताओं तथा ब्रह्माण्ड की रक्षा की है। कृपया अब भी वैसा ही करते रहें।'
लीलावतारेर कैलँ दिग्दरशन ।गुणावतारेर एबे शुन विवरण ॥
३०० ॥
मैंने लीलावतारों के कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। अब मैं गुणावतारों का वर्णन करूंगा। कृपया सुनें।
ब्रह्मा, विष्णु, शिव, तिन गुण अवतार ।त्रि-गुण अङ्गीकरि' करे सृष्ट्यादि-व्यवहार ॥
३०१॥
इस भौतिक जगत् में तीन प्रकार के कार्य हैं। इसमें हर वस्तु उत्पन्न होती है, वह कुछ काल तक रहती है और अन्त में नष्ट हो जाती है। अतएव भगवान् तीनों गुणों-सतो, रजो तथा तमो गुणों के नियन्ता के रूप में अवतरित होते हैं और इस तरह इस भौतिक जगत् का व्यवहार चलता रहता है।
भक्ति-मिश्र-कृत-पुण्ये कोन जीवोत्तम । रजो-गुणे विभावित करि' ताँर मन ॥
३०२ ॥
भक्ति-मिश्रित पूर्व पुण्यकर्मों के फलस्वरूप उत्तम जीव अपने चित्त में रजोगुण से प्रभावित होता है।
गर्भोदकशायि-द्वारा शक्ति सञ्चारि' । व्यष्टि सृष्टि करे कृष्ण ब्रह्मा-रूप धरि' ॥
३०३॥
ऐसे भक्त को गर्भोदकशायी विष्णु शक्ति प्रदान करते हैं। इस तरह ब्रह्मा के रूप में कृष्ण का अवतार, पूरे ब्रह्माण्ड की सम्पूर्ण रचना करता है।
ब्रह्मा य एष जगदण्ड-विधान-कर्ता | गोविन्दमादि-पुरुषं तमहं भजामि ।। ३०४।। सूर्य अपना तेज रत्न में प्रकट करता है, यद्यपि रत्न पत्थर होता है। इसी प्रकार भगवान् गोविन्द पुण्यात्मा जीव में अपनी विशेष शक्ति प्रकट करते हैं। इस तरह वह जीव ब्रह्मा बनता है और ब्रह्माण्ड के कार्य को सँभालता है। मैं उन आदि भगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ।
कोन कल्पे यदि ग्रोग्य जीव नाहि पाये । आपने ईश्वर तबे अंशे 'ब्रह्मा' हय ॥
३०५ यदि किसी एक कल्प में उपयुक्त जीव ब्रह्मा का पदभार सँभालनेके लिए उपलब्ध नहीं होता, तो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् स्वयं अपना विस्तार करके ब्रह्मा बन जाते हैं।
यस्याध्रि-पङ्कज-रजोऽखिल-लोक-पालैर् | मौल्युत्तमैधृतमुपासित-तीर्थ-तीर्थम् ।। ब्रह्मा भवोऽहमपि ग्रस्य कलाः कलायाः | श्रीश्चद्वहेम चिरमस्य नृपासनं क्व ।। ३०६॥
भगवान् कृष्ण के लिए सिंहासन का क्या मूल्य है? उनके चरणकमलों की धूलि को विभिन्न लोकों के स्वामी अपने मुकुट-युक्त सिरों पर धारण करते हैं। वह धूलि तीर्थस्थानों को पवित्र बनाती है और कृष्ण के स्वांश के अंशरूप, ब्रह्मा, शिव, लक्ष्मी तथा मैं स्वयं, उस धूलि को नित्य अपने सिरों पर धारण करते हैं।'
निजांश-कलाय कृष्ण तमोगुण अङ्गीकरि' ।संहारार्थे माया-सङ्गे रुद्र-रूप धरि ॥
३०७॥
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण अपने एक पूर्ण अंश का विस्तार करते हैं और तमोगुण को स्वीकार करते हुए इस जगत् का संहार करने के लिए रुद्र-रूप धारण करते हैं।
माया-सङ्ग-विकारी रुद्र–भिन्नाभिन्न रूप ।।जीव-तत्त्व नहे, नहे कृष्णेर ‘स्वरूप' ॥
३०८॥
रुद्र, शिवजी के विविध रूप हैं, जो माया की संगति से उत्पन्न रूपान्तर हैं। यद्यपि रुद्र जीव-तत्त्व नहीं हैं, फिर भी उन्हें कृष्ण का स्वांश नहीं माना जा सकता।
दुग्ध ग्रेन अम्ल-योगे दधि-रूप धरे ।दुग्धान्तर वस्तु नहे, दुग्ध हैते नारे ॥
३०९॥
जब दूध में जामन डाल दिया जाता है, तो वह दही में परिवर्तित हो । जाता है। इस तरह दही दूध ही है, किन्तु फिर भी वह दूध नहीं है।
क्षीरं ग्रथा दधि विकार-विशेष-योगात्सञ्जायते न हि ततः पृथगस्ति हेतोः । ग्रः शम्भुतामपि तथा समुपैति कार्याद् | गोविन्दमादि-पुरुषं तमहं भजामि ॥
३१०॥
जामन मिलाने से दूध दही में बदल जाता है, किन्तु वास्तव में वैधानिक दृष्टि से वह दूध के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता। इसी तरह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् गोविन्द भौतिक व्यवहार हेतु शिव (शम्भु) का रूप धारण करते हैं। मैं उन भगवान् के चरणकमलों की वन्दना करता हूँ।'
शिव'–माया-शक्ति-सङ्गी, तमो-गुणावेश ।।मायातीत, गुणातीत 'विष्णु'–परमेश ॥
३११॥
शिवजी माया के संगी हैं, इसलिए वे तमोगुण में डूबे रहते हैं। किन्तु भगवान् विष्णु माया से तथा माया के गुणों से परे हैं। इसलिए वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं।
शिवः शक्ति-मुक्तः शश्वत् त्रि-लिङ्गो गुण-संवृतः ।। वैकारिकस्तैजसश्च तामसश्चेत्यहं त्रिधा ॥
३१२॥
शिवजी के विषय में सच बात तो यह है कि वे सदैव तीन भौतिक आवरणों-वैकारिक, तैजस तथा तामस-से आवृत रहते हैं। भौतिक प्रकृति के इन तीनों गुणों के कारण वे बहिरंगा शक्ति माया तथा अहंकार का सदैव संग करते हैं।'
हरिर्हि निर्गुणः साक्षात्पुरुषः प्रकृतेः परः ।। स सर्व-दृगुपद्रष्टा तं भजन्निर्गुणो भवेत् ॥
३१३॥
श्री हरि अर्थात् पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् भौतिक प्रकृति की पहुँच के बाहर स्थित हैं, अतएव वे दिव्य परम पुरुष हैं। वे सारी वस्तुओं के बाहर और भीतर देख सकते हैं, अतएव वे सभी जीवों के परम दृष्टा हैं। जो व्यक्ति उनके चरणकमलों की शरण में जाता है और उनकी पूजा करता है, उसे भी दिव्य पद प्राप्त होता है।'
पालनार्थ स्वांश विष्णु-रूपे अवतार ।। सत्त्व-गुण द्रष्टा, ताते गुण-माया-पार ॥
३१४॥
ब्रह्माण्ड का पालन करने हेतु भगवान् कृष्ण अपने स्वांश विष्णु रूप में अवतरित होते हैं। वे सतोगुण के निर्देशक हैं, अतएव वे भौतिक शक्ति से परे हैं।
स्वरूप—ऐश्वर्य-पूर्ण, कृष्ण-सम प्राय ।कृष्ण अंशी, तेंहो अंश, वेदे हेन गाय ॥
३१५ ॥
भगवान् विष्णु स्वांश श्रेणी में आते हैं, क्योंकि उनमें कृष्ण जैसे ही ऐश्वर्य होते हैं। कृष्ण आदि पुरुष हैं और भगवान् विष्णु उनके स्वांश हैं। समस्त वेदों का यही मत है।
दीपार्चिरेव हि दशान्तरमभ्युपेत्यदीपायते विवृत-हेतु-समान-धर्मा । यस्तादृगेव हि च विष्णुतया विभातिगोविन्दमादि-पुरुषं तमहं भजामि ॥
३१६॥
“जब एक दीपक अपनी लौ का विस्तार दूसरे दीपक में करता है, और फिर उसे भिन्न स्थान में रख दिया जाता है, तब वह अलग से जलता है और इसका प्रकाश मूल दीपक जैसा ही शक्तिमान होता है। इसी तरह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् गोविन्द अपना विस्तार विभिन्न विष्णु रूपों में करते हैं, जो समान रूप से प्रकाशमान, शक्तिमान तथा ऐश्वर्यवान होते हैं। मैं उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ।'
ब्रह्मा, शिव—आज्ञाकारी भक्त-अवतार ।।पालनार्थे विष्णु कृष्णेर स्वरूप-आकार ॥
३१७॥
निष्कर्ष यह है कि ब्रह्माजी तथा शिवजी भक्त अवतार हैं, जो आदेशों का पालन करते हैं। किन्तु भगवान् विष्णु पालक हैं और वे भगवान् कृष्ण के निजी स्वरूप हैं।
सृजामि तन्नियुक्तोऽहं हरो हरति तद्वशः ।।विश्वं पुरुष-रूपेण परिपाति त्रि-शक्ति-धृक् ॥
३१८ ॥
[ ब्रह्माजी ने कहा : ‘पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ने मुझे सृजन करने के लिए नियुक्त किया है। शिवजी उनके आदेशों का पालन करते हुए हर वस्तु का संहार करते हैं। क्षीरोदकशायी विष्णु के रूप में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवन प्रकृति के सरे कार्यों को चलते हैं। इस तरह भौतिक प्रकृति के तीनो गुणों के अधीक्षक भगवन विष्णु हैं।
मन्वन्तरावतार एबे शुन, सनातन । असङ्ख्य गणन ताँर, शुनह कारण ॥
३१९॥
हे सनातन, अब मन्वन्तर अवतारों के बारे में सुनो। वे असंख्य हैं और उनकी गणना कोई नहीं कर सकता। जरा, उनके स्रोत के विषय में सुनो।
ब्रह्मार एक-दिने हय चौद्द मन्वन्तर । चौद्द अवतार ताहाँ करेन ईश्वर ॥
३२० ॥
ब्रह्मा के एक दिन में चौदह मनु बदलते हैं और इनमें से प्रत्येक मनु के शासनकाल में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का एक अवतार प्रकट होता है चौद्द एक दिने, मासे चारि-शत बिश ।ब्रह्मार वत्सरे पञ्च-सहस्र चल्लिश ॥
३२१॥
ब्रह्मा के एक दिन में १४ मन्वन्तर अवतार होते हैं, अर्थात् एक मास में ४२० और एक वर्ष में ५०४० अवतार होते हैं।
शतेक वत्सर हुय'जीवन' ब्रह्मार। पञ्च-लक्ष चारि-सहस्त्र मन्वन्तरावतार ॥
३२२॥
ब्रह्मा के एक सौ वर्ष के जीवन में कुल ५,०४,००० मन्वन्तरअवतार होते हैं।
अनन्त ब्रह्माण्डे ऐछे करह गणन।।महा-विष्णु एक-श्वासे ब्रह्मार जीवन ॥
३२३ ।। यहाँ पर केवल एक ब्रह्माण्ड के मन्वन्तर अवतारों की संख्या दी गई है। अतः असंख्य ब्रह्माण्डों में कितने मन्वन्तर अवतार होंगे, इसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है। इतने सारे ब्रह्माण्ड तथा ब्रह्मा महाविष्णु के एक श्वास-काल तक ही विद्यमान रहते हैं।
महा-विष्णुर निश्वासेर नाहिक पर्यन्त ।एक मन्वन्तरावतारेर देख लेखार अन्त ॥
३२४॥
महाविष्णु के निश्वासों की कोई सीमा नहीं है। जरा देखो न, केवल मन्वन्तर अवतारों को बतलाना या लिखना कितना दुष्कर है।
स्वायंभुवे 'यज्ञ', स्वारोचिषे 'विभु' नाम ।औत्तमे ‘सत्यसेन', तामसे ‘हरि' अभिधान ॥
३२५॥
स्वायंभुव मन्वन्तर में अवतार का नाम यज्ञ है। स्वारोचिष मन्वन्तर में उनका नाम विभु है। औत्तम मन्वन्तर में उनका नाम सत्यसेन है तथा तामस मन्वन्तर में उनका नाम हरि है।
रैवते 'वैकुण्ठ', चाक्षुषे ‘अजित', वैवस्वते 'वामन' ।।सावयें ‘सार्वभौम', दक्ष-सावर्ये 'ऋषभ' गणन ॥
३२६॥
रैवत मन्वन्तर में अवतार का नाम वैकुण्ठ है और चाक्षुष मन्वन्तर में उनका नाम अजित है। वैवस्वत मन्वन्तर में उसका नाम वामन है और सावर्ण्य मन्वन्तर में उनका नाम सार्वभौम तथा दक्षसावर्ण्य मन्वन्तर में उनका नाम ऋषभ है।
ब्रह्म-सावर्ये 'विष्वक्सेन', 'धर्मसेतु' धर्म-सावर्ये ।।रुद्र-सावर्ये ‘सुधामा', ‘योगेश्वर' देव-सावयें ॥
३२७॥
ब्रह्म सावर्ण्य मन्वन्तर में अवतार का नाम विष्वक्सेन है, धर्म सावर्य मन्वन्तर में धर्मसेतु, रुद्रसावण्र्य मन्वन्तर में सुधामा तथा देवसावण्र्य में उनका नाम योगेश्वर है।
इन्द्र-सावर्ये 'बृहद्भानु' अभिधान ।एइ चौद्द मन्वन्तरे चौद्द 'अवतार' नाम ॥
३२८॥
इन्द्रसावर्ण्य मन्वन्तर में अवतार का नाम बृहद्भानु है। इन चौदह मन्वन्तरों में चौदह अवतारों के ये ही नाम हैं।
मुगावतार एबे शुन, सनातन ।सत्य-त्रेता-द्वापर-कलि-मुंगेर गणन ॥
३२९॥
हे सनातन, अब मुझसे युग-अवतारों के विषय में सुनो। सर्वप्रथम युग चार हैं-सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग तथा कलियुग।
शुक्ल-रक्त-कृष्ण-पीत-क्रमे चारि वर्ण ।।चारि वर्ण धरि' कृष्ण करेन युग-धर्म ॥
३३०॥
चारों युगों-सत्य, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग में भगवान् चार रंगों में अवतरित होते हैं। ये रंग क्रमशः श्वेत, लाल, काले तथा पीले हैं। ये रंग विभिन्न युगों में अवतारों के हैं।
आसन्वर्णास्त्रयो ह्यस्य गृहृतोऽनु-युगं तनूः ।शुक्लो रक्तस्तथा पीत इदानीं कृष्णतां गतः ॥
३३१॥
इस बालक के पहले तीन रंग रह चुके हैं, जो विभिन्न युगों के लिए संस्तुत रंगों के अनुसार थे। पहले वह श्वेत, लाल तथा पीला था, किन्तु अब उसने श्याम रंग धारण किया है।'
कृते शुक्लश्चतुर्बाहुर्जटिलो वल्कलाम्बरः ।।कृष्णाजिनोपवीताक्षान्बिभ्रद्दण्ड-कमण्डलू ॥
३३२॥
| सत्ययुग में भगवान् का शरीर श्वेत रंग का था, उनके चार हाथ थे तथा सिर पर जटाजूट था। वे वृक्ष की छाल पहने थे और काला मृगचर्म धारण किये थे। वे उपवीत (जनेऊ) पहने थे और गले में रुद्राक्ष की माला धारण किये थे। वे दण्ड तथा कमण्डलु लिये थे और ब्रह्मचारी थे।'
त्रेतायां रक्त-वर्णोऽसौ चतुर्बाहुस्त्रि-मेखलः । हिरण्य-केशस्त्रय्यात्मा खुक्तुवाद्युपलक्षणः ॥
३३३॥
त्रेतायुग में भगवान् का शरीर रक्त-वर्ण का था और उनकी चार भुजाएँ थीं। उनके उदर में तीन विशिष्ट रेखाएँ थीं और उनके केश सुनहरे थे। उनका स्वरूप वैदिक ज्ञान को प्रकट करने वाला था और वे यज्ञ के चम्मच चुक्-खुवा आदि चिह्नों को धारण किये हुए थे।
सत्य-युगे धर्म-ध्यान कराय‘शुक्ल'-मूर्ति धरि' ।।कर्दमके वर दिला ग्रेहो कृपा करि' ॥
३३४॥
शुक्ल अवतार के रूप में भगवान् ने धर्म तथा ध्यान की शिक्षा दी। उन्होंने कर्दम मुनि को आशीर्वाद दिया और इस तरह उन्होंने अपनी अहैतुकी कृपा प्रदर्शित की।
कृष्ण-'ध्यान' करे लोक ज्ञान-अधिकारी ।त्रेतार धर्म ‘यज्ञ' कराय 'रक्त'-वर्ण धरि' ।। ३३५॥
सत्ययुग में लोग सामान्यतया आध्यात्मिक ज्ञान में अग्रसर होते थे और कृष्ण का सहज ही ध्यान कर सकते थे। त्रेतायुग में लोगों का वृत्तिपरक कार्य बड़े-बड़े यज्ञ को सम्पन्न करना था। भगवान् ने रक्तवर्ण धारण करके इसे प्रोत्साहित किया।
‘कृष्ण-पदार्चन' हय द्वापरेर धर्म ।'कृष्ण'-वर्णे कराये लोके कृष्णार्चन-कर्म ॥
३३६ ॥
द्वापर युग में लोगों का वृत्तिपरक कार्य कृष्ण के चरणकमलों का पूजन करना था। अतएव भगवान् कृष्ण ने श्याम वर्ण धारण करके लोगों को प्रोत्साहित किया कि वे उनकी पूजा करें।
द्वापरे भगवान्श्यामः पीत-वासा निजायुधः ।।श्री-वत्सादिभिरकैश्च लक्षणैरुपलक्षितः ॥
३३७॥
द्वापर युग में भगवान् श्याम-वर्ण के साथ प्रकट होते हैं। वे पीताम्बर धारण किये रहते हैं। वे अपने आयुध लिये रहते हैं तथा कौस्तुभ मणि एवं श्रीवत्स चिह्न से सुशोभित रहते हैं। उनके लक्षणों का वर्णन इस रूप में किया जाता है।
नमस्ते वासुदेवाय नमः सङ्कर्षणाय च ।।प्रद्युम्नायानिरुद्धाय तुभ्यं भगवते नमः ॥
३३८ ॥
मैं उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को सादर नमस्कार करता हूँ, जिन्होंने वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध रूप में अपना विस्तार किया।
एइ मन्त्रे द्वापरे करे कृष्णार्चन । ‘कृष्ण-नाम-सङ्कीर्तन' कलि-युगेर धर्म ॥
३३९॥
इस मन्त्र से लोग द्वापर युग में कृष्ण की पूजा करते हैं। कलियुग में लोगों का वृत्तिपरक कर्म है कृष्ण के पवित्र नाम का सामूहिक कीर्तन करना।
‘पीत'-वर्ण धरि' तबे कैला प्रवर्तन ।।प्रेम-भक्ति दिला लोके ला भक्त-गण ॥
३४० ॥
अपने निजी भक्तों के साथ पीत ( सुनहला ) वर्ण धारण करके भगवान् कृष्ण कलियुग में हरिनाम संकीर्तन अर्थात् हरे कृष्ण मन्त्र के कीर्तन का प्रचार करते हैं। इस तरह वे सामान्य जनता को कृष्ण-प्रेम लाकर देते हैं।
धर्म प्रवर्तन करे व्रजेन्द्र-नन्दन ।प्रेमे गाय नाचे लोक करे सङ्कीर्तन ॥
३४१॥
नन्द महाराज के पुत्र भगवान् कृष्ण ने कलियुग के वृत्तिपरक कार्य ( धर्म ) को स्वयं प्रवर्तन किया। वे कीर्तन करते हैं, भावावेश में नाचते हैं और इस तरह समस्त जगत् सामूहिक संकीर्तन करता है।
कृष्ण-वर्णं त्विषाकृष्णं साङ्गोपाङ्गास्त्र-पार्षदम् । यज्ञैः सङ्कीर्तन-प्रायैर्यजन्ति हि सुमेधसः ॥
३४२॥
कलियुग में बुद्धिमान व्यक्ति कृष्ण-नाम का निरन्तर गान करने वाले भगवान् के अवतार की पूजा करने के लिए संकीर्तन करते हैं। यद्यपि उनका वर्ण श्याम नहीं है, किन्तु वे साक्षात् कृष्ण हैं। उनके साथ उनके पार्षद, सेवक, अस्त्र तथा विश्वस्त संगी रहते हैं।'
आर तिन-युगे ध्यानादिते येइ फल हय ।कलि-युगे कृष्ण-नामे सेइ फल पाय ॥
३४३ ॥
अन्य तीन युगों में सत्य, त्रेता तथा द्वापर में लोग विभिन्न प्रकार के आध्यात्मिक कार्य करते हैं। इस प्रकार से उन्हें जो फल मिलता है, उसे कलियुग में वे केवल हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करके प्राप्त कर सकते हैं।
कलेर्दोष-निधे राजन्नस्ति ह्येको महान्गुणः ।। कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्त-बन्धः परं व्रजेत् ॥
३४४॥
हे राजन्, यद्यपि कलियुग दोषों से भरा है, किन्तु फिर भी इस युग में एक उत्तम गुण है। वह यह है कि हरे कृष्ण महामन्त्र के कीर्तन मात्र से मनुष्य भवबन्धन से मुक्त हो सकता है और दिव्य धाम को प्राप्त कर सकता है।'
कृते ग्रयायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखैः ।।द्वापरे परिचय़यां कलौ तद्धरि-कीर्तनात् ॥
३४५ ॥
| सत्ययुग में विष्णु का ध्यान करने से, त्रेतायुग में यज्ञ करने से तथा द्वापर युग में भगवान् के चरणकमलों की सेवा करने से जो फल प्राप्त होता है, उसे कलियुग में हरे कृष्ण महामन्त्र के कीर्तन द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।
ध्यायन्कृते यजन् यज्ञैत्रेतायां द्वापरेऽर्चयन् । ग्रदाप्नोति तदाप्नोति कलौ सङ्कीर्घ्य केशवम् ॥
३४६॥
सत्ययुग में ध्यान करने से, त्रेतायुग में यज्ञ करने से या द्वापर युग में कृष्ण के चरणकमलों की पूजा करने से जो फल प्राप्त होता है, उसे कलियुग में केवल केशव के गुणगान द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।
कलि सभाजयन्त्यार्या गुण-ज्ञाः सार-भागिनः ।। ऋत्र सङ्कीर्तनेनैव सर्व-स्वार्थोऽभिलभ्यते ॥
३४७॥
जो लोग उन्नत और अत्यन्त योग्य हैं तथा जीवन के सार में रुचि रखते हैं, वे कलियुग के सद्गुणों को जानते हैं। ऐसे लोग कलियुग की पूजा करते हैं, क्योंकि इस युग में हरे कृष्ण महामन्त्र के कीर्तन मात्र से मनुष्य आत्म-ज्ञान में प्रगति कर सकता है और जीवन का लक्ष्य प्राप्त कर सकता है।'
पूर्ववत् लिखि स्रबे गुणावतार-गण । असङ्ख्य सङ्ख्या ताँर, ना हय गणन ॥
३४८॥
जैसाकि मैंने गुणावतारों का वर्णन करते हुए बतलाया था, उसी तरह इन अवतारों को भी असंख्य समझना चाहिए, क्योंकि किसी के भी द्वारा इनकी गणना नहीं की जा सकती।
चारि-मुगावतारे एइ त' गणन ।शुनि' भङ्गि करि' ताँरै पुछे सनातन ॥
३४९॥
इस तरह मैंने चारों युगों के अवतारों का विवरण प्रस्तुत किया है। यह सब सुनकर सनातन गोस्वामी ने महाप्रभु को अप्रत्यक्ष रूप से इंगित किया।
राज-मन्त्री सनातन-बुद्ध्ये बृहस्पति ।।प्रभुर कृपाते पुछे असङ्कोच-मति ॥
३५० ॥
सनातन गोस्वामी नवाब हुसेन शाह के अधीन एक मन्त्री थे और वे निस्सन्देह स्वर्ग के प्रमुख पुरोहित बृहस्पति जैसे ही बुद्धिमान थे। भगवान् की असीम कृपा के फलस्वरूप सनातन गोस्वामी ने बिना किसी संकोच के महाप्रभु से पूछा।
‘अति क्षुद्र जीव मुञि नीच, नीचाचार । केमने जानिब कलिते कोनवतार?' ॥
३५१॥
सनातन गोस्वामी ने कहा : मैं अत्यन्त क्षुद्र जीव हूँ। मैं नीच हूँ और मेरा आचरण नीच है। भला मैं कैसे जान सकता हूँ कि कलियुग में कौन अवतार है? प्रभु कहे,–अन्यावतार शास्त्र-द्वारे जानि ।।कलिते अवतार तैछे शास्त्र-वाक्ये मानि ॥
३५२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, जिस तरह अन्य युगों के अवतार को शास्त्रों के आदेशानुसार स्वीकार किया जाता है, इस कलियुग में ईश्वर के अवतार को उसी तरह स्वीकार किया जाना चाहिए।
सर्वज्ञ मुनिर वाक्य शास्त्र-‘परमाण' ।। आमा-सया जविर हय शास्त्र-द्वारा 'ज्ञान' ॥
३५३ ।। सर्वज्ञ महामुनि व्यासदेव द्वारा रचित वैदिक ग्रन्थ सारे आध्यात्मिक अस्तित्व के प्रमाण हैं। इन्हीं प्रामाणिक शास्त्रों के द्वारा सारे बद्धजीव ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।
अवतार नाहि कहे- आमि अवतार' ।। मुनि सब जानि' करे लक्षण-विचार ॥
३५४॥
ईश्वर का वास्तविक अवतार यह कभी नहीं कहता कि, 'मैं ईश्वर हूँ या 'मैं ईश्वर का अवतार हूँ।' महामुनि व्यासदेव ने यह सब जानते हुए पहले से शास्त्रों में अवतारों के लक्षण अंकित कर दिये हैं।
ग्रस्यावतारा ज्ञायन्ते शरीरेष्वशरीरिणः । तैस्तैरतुल्यातिशयैर्वीर्यैर्देहिष्वसङ्गतैः ॥
३५५॥
भगवान् का शरीर भौतिक नहीं होता, फिर भी वे अपने दिव्य शरीर में अवतार के रूप में मनुष्यों के बीच आते हैं। अतः यह समझना अत्यन्त कठिन है कि कौन अवतार है। वे कुछ तो अपने अद्वितीय शौर्य से तथा कुछ उन असाधारण कार्यों से, जो देहधारी जीवों के लिए असम्भव हैं, जाने जाते हैं कि वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के अवतार हैं।
‘स्वरूप'-लक्षण, आर 'तटस्थ-लक्षण' । एइ दुइ लक्षणे 'वस्तु' जाने मुनि-गण ॥
३५६॥
बड़े-बड़े मुनि किसी वस्तु को दो लक्षणों से जान पाते हैं-स्वरूपलक्षणों तथा तटस्थ लक्षणों से।
आकृति, प्रकृति, स्वरूप, स्वरूप-लक्षण ।कार्य-द्वारा ज्ञान,——एई तटस्थ-लक्षण ॥
३५७॥
आकृति (शारीरिक लक्षण), प्रकृति ( स्वभाव) तथा रूप-ये निजी लक्षण हैं। प्रभु के कार्यकलापों का ज्ञान तटस्थ लक्षण प्रस्तुत करता है।
भागवतारम्भे व्यासे मङ्गलाचरणे ।‘परमेश्वर' निरूपिल एइ दुइ लक्षणे ॥
३५८ ॥
श्रीमद्भागवत के मंगलाचरण में श्रील वेदव्यास ने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का वर्णन इन्हीं लक्षणों द्वारा किया है।
जन्माद्यस्य व्रतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट्तेने ब्रह्म हुदा य़ आदि-कवये मुह्यन्ति यत्सूरयः । तेजो-वारि-मृदां ग्रथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषाधाम्ना स्वेन सदा निरस्त-कुहकं सत्यं परं धीमहि ॥
३५९॥
हे प्रभु, हे वसुदेव-पुत्र श्रीकृष्ण, हे सर्वव्यापी भगवान्, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। मैं भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूँ, क्योंकि वे परम सत्य हैं और व्यक्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति, पालन तथा संहार के समस्त कारणों के आदि कारण हैं। वे प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से सारे प्राकट्यों से अवगत रहते हैं और वे परम स्वतन्त्र हैं, क्योंकि उनसे परे अन्य कोई कारण है ही नहीं। उन्होंने ही सर्वप्रथम आदि जीव ब्रह्माजी के हृदय में वैदिक ज्ञान प्रदान किया। उन्हीं के कारण बड़े-बड़े मुनि तथा देवता उसी तरह मोह में पड़ जाते हैं, जिस प्रकार अग्नि में जल या जल में स्थल देखकर कोई माया के द्वारा मोहग्रस्त हो जाता है। उन्हीं के कारण ये सारे भौतिक ब्रह्माण्ड, जो प्रकृति के तीन गुणों की प्रतिक्रिया के कारण अस्थायी रूप से प्रकट होते हैं, वास्तविक लगते हैं जबकि ये अवास्तविक होते हैं। अतः मैं उन भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूँ, जो भौतिक जगत के भ्रामक रूपों से सर्वथा मुक्त अपने दिव्य धाम में निरन्तर वास करते हैं। मैं उनका ध्यान करता हूँ, क्योंकि वे ही परम सत्य हैं।'
एई श्लोके ‘परं'-शब्दे 'कृष्ण'-निरूपण ।।‘सत्यं' शब्द कहे ताँर स्वरूप-लक्षण ॥
३६० ।। श्रीमद्भागवत के इस मंगलाचरण में ‘परम्' शब्द पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण का सूचक है और 'सत्यम्' शब्द उनके स्वरूप-लक्षण को बतलाता है।
विश्व-सृष्ट्यादि कैल, वेद ब्रह्माके पड़ाइल ।।अर्थाभिज्ञता, स्वरूप-शक्त्ये माया दूर कैल ।। ३६१॥
इसी श्लोक में यह भी कहा गया है कि भगवान् इस विराट् जगत् के स्रष्टा, पालक तथा संहारक हैं और उन्होंने ब्रह्मा को वेदों का ज्ञान प्रदान करके ब्रह्माण्ड की रचना करने के लिए प्रेरित किया। यह भी कहा गया है कि भगवान् को पूर्ण प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष ज्ञान है, वे भूत, वर्तमान तथा भविष्य को जानने वाले हैं और उनकी निजी शक्ति माया से अलग है ।
एइ सब कार्यताँर तटस्थ-लक्षण ।अन्य अवतार ऐछे जाने मुनि-गण ॥
३६२ ।। ये सारे कार्यकलाप ही उनके तटस्थ-लक्षण हैं। महान् मुनि लोग स्वरूप तथा तटस्थ लक्षणों के संकेतों से ही पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के अवतारों को जान पाते हैं। कृष्ण के सारे अवतारों को इसी तरह से समझना होगा।
अवतार-काले हय जगते गोचर । एई दुई लक्षणे केह जानये ईश्वर ॥
३६३ ॥
भगवान् के अवतार प्रकट होने के समय जगत-भर में विख्यात हो जाते हैं, क्योंकि लोग अवतार के मुख्य लक्षण, जिन्हें स्वरूप तथा तटस्थ कहा जाता है, जानने के लिए शास्त्रों को देखते हैं। इस तरह ये अवतार मुनियों द्वारा जाने जाते हैं।
सनातन कहे, झाते ईश्वर-लक्षण । पीत-वर्ण, कार्य-प्रेम-दान-सङ्कीर्तन ॥
३६४॥
सनातन गोस्वामी ने कहा, जिस पुरुष में भगवान् के लक्षण पाये जाते हैं, उसका रंग पीला है। उसके कार्यकलापों में भगवत्प्रेम वितरण तथा भगवन्नाम का कीर्तन सम्मिलित हैं।
कलि-काले सेइ ‘कृष्णावतार' निश्चय ।सुदृढ़ करिया कह, ग्राउक संशय ॥
३६५ ॥
इस युग में कृष्ण के अवतार का संकेत इन्हीं लक्षणों से मिलता है। कृपया इसकी पुष्टि अवश्य करें, जिससे मेरे सारे सन्देह दूर हो सकें।
प्रभु कहे,- चतुरालि छाड़, सनातन ।शक्त्यावेशावतारेर शुन विवरण ॥
३६६ ।। श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, हे सनातन, तुम अपनी चतुराई छोड़ो। अब तुम शक्त्यावेश अवतार का विवरण समझने का प्रयत्न करो।
शक्त्यावेशावतार कृष्योर असङ्ख्य गणन । दिग्दरशन करि मुख्य मुख्य जन ॥
३६७॥
भगवान् कृष्ण के शक्त्यावेश अवतार असंख्य हैं। मैं उनमें से मुख्यमुख्य अवतारों का वर्णन करता हूँ।
शक्त्यावेश दुइ-रूप-‘मुख्य', 'गौण' देखि । साक्षात्शक्त्ये 'अवतार', आभासे 'विभूति' लिखि ॥
३६८॥
शक्त्यावेश अवतार दो प्रकार के हैं-मुख्य तथा गौण। मुख्य वे हैं, जिन्हें पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् सीधे शक्ति प्रदान करते हैं और वे अवतार कहलाते हैं। गौण वे हैं, जिन्हें पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् अप्रत्यक्ष रूप से शक्ति प्रदान करते हैं और तब वे विभूति कहलाते हैं।
‘सनकादि', 'नारद', 'पृथु' 'परशुराम' ।। जीव-रूप 'ब्रह्मार' आवेशावतार-नाम ॥
३६९ ॥
कुछ शक्त्यावेश अवतार इस प्रकार हैं-चार कुमार, नारद, महाराज पृथु तथा परशुराम। जब किसी जीव को ब्रह्मा जैसा कार्य करने के लिए शक्ति प्रदान की जाती है, तब वह भी शक्त्यावेश अवतार माना जाता है।
वैकुण्ठे ‘शेष'–धरा धरये 'अनन्त' ।।एइ मुख्यावेशावतार–विस्तारे नाहि अन्त ॥
३७० ॥
वैकुण्ठ लोक में भगवान् शेष तथा भौतिक जगत् में अपने फनों पर असंख्य लोकों को धारण करने वाले भगवान् अनन्त-ये दोनों मुख्य शक्त्यावेश अवतार हैं। अन्यों को गिनने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि उनकी संख्या अनन्त है।
सनकाद्ये 'ज्ञान'-शक्ति, नारदे शक्ति ‘भक्ति' । ब्रह्माय 'सृष्टि'-शक्ति, अनन्ते 'भू-धारण'-शक्ति ॥
३७१॥
चारों कुमारों में ज्ञानशक्ति निहित की गई थी और नारद में भक्ति की शक्ति निहित की गई थी। सृजन करने की शक्ति ब्रह्माजी में निहित की गई थी तथा असंख्य लोकों को धारण करने की शक्ति भगवान् अनन्त में निहित की गई थी।
शेषे 'स्व-सेवन'-शक्ति, पृथुते 'पालन' । परशुरामे 'दुष्ट-नाशक-वीर्घ-संञ्चारण' ॥
३७२॥
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ने व्यक्तिगत सेवा करने की शक्ति भगवान् शेष को प्रदान की और पृथ्वी पर शासन करने की शक्ति राजा पृथु को। भगवान् परशुराम को सारे दुष्टों तथा धूर्ते का वध करने की शक्ति प्राप्त हुई थी।
ज्ञान-शक्त्यादि-कलया यत्राविष्टो जनार्दनः ।।त आवेशा निगद्यन्ते जीवा एव महत्तमाः ॥
३७३ ॥
जब-जब भगवान् अपनी विविध शक्तियों के अंश रूप में किसी में विद्यमान रहते हैं, तब वह जीव शक्त्यावेश अवतार कहलाता है।
‘विभूति' कहिये ग्रैछे गीता-एकादशे ।जगत्व्यापिल कृष्ण-शक्त्याभासावेशे ॥
३७४॥
जैसाकि भगवद्गीता के ग्यारहवें अध्याय में बताया गया है, कृष्ण ने सारे ब्रह्माण्ड में अपना विस्तार विभूति नामक अपनी विशिष्ट शक्तियों के माध्यम से अनेक पुरुषों में किया है।
यद् यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूजितमेव वा ।।तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोऽश-सम्भवम् ॥
३७५ ॥
यह जान लो कि समस्त ऐश्वर्यशाली सुन्दर, यशस्वी तथा महिमायुक्त सृष्टियाँ मेरे तेज के स्फुलिंग मात्र से प्रकट होती हैं।
अथ वा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।।विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ॥
३७६ ॥
किन्तु हे अर्जुन, इस समस्त विस्तृत ज्ञान की क्या आवश्यकता है? मैं तो अपने एक अंश-मात्र से इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त हूँ और इसको आश्रय देता हूँ।
एइत कहिलँ शक्त्यावेश-अवतार ।।बाल्य-पौगण्ड-धर्मेर शुनह विचार ॥
३७७॥
इस तरह मैं विशेष रूप से शक्त्याविष्ट अवतारों का वर्णन कर चुका हूँ। अब मुझसे कृष्ण के बाल्यकाल, पौगण्ड तथा युवावस्था (किशोर) के लक्षणों को सुनो।
किशोर-शेखर-धर्मी व्रजेन्द्र-नन्दन ।प्रकट-लीला करिबारे ग्रबे करे मन ॥
३७८ ॥
महाराज नन्द के पुत्र के रूप में भगवान् कृष्ण स्वभावतः आदर्श किशोर ( युवक ) हैं। वे इस अवस्था में अपनी लीलाएँ प्रकट करना चाहते हैं।
आदौ प्रकट कराय माता-पिता–भक्त-गणे । पाछे प्रकट हय जन्मादिक-लीला-क्रमे ॥
३७९॥
स्वयं प्रकट होने के पूर्व भगवान् अपने कुछ भक्तों को अपने माता, पिता तथा घनिष्ठ संगियों के रूप में प्रकट होने देते हैं। इसके बाद वे इस तरह प्रकट होते हैं, मानो जन्म ले रहे हों और फिर बढ़कर क्रमशः शिशु तथा किशोर बनते हैं।
वयसो विविधत्वेऽपि सर्व-भक्ति-रसाश्रयः ।। धर्मी किशोर एवात्र नित्य-लीला-विलासवान् ॥
३८० ॥
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् नित्य लीला-विलास करते हैं और वे सभी प्रकार की भक्ति के आश्रय हैं। यद्यपि उनकी अवस्थाएँ विविध हैं, किन्तु इनमें किशोर अवस्था (युवा-पूर्व ) सर्वोत्तम है।'
पूतना-वधादि व्रत लीला क्षणे क्षणे ।।सब लीला नित्य प्रकट करे अनुक्रमे ॥
३८१॥
जब भगवान् कृष्ण प्रकट होते हैं, तो वे क्षण क्षण अपनी लीलाएँ प्रकट करते हैं-यथा पूतना-वध इत्यादि। ये सारी लीलाएँ एक के बाद एक शाश्वत रूप से प्रदर्शित की जाती हैं।
अनन्त ब्रह्माण्ड, तार नाहिक गणन । कोन लीला कोन ब्रह्माण्डे हय प्रकटन ॥
३८२॥
कृष्ण की क्रमिक लीलाएँ क्षणानुक्षण अनन्त ब्रह्माण्डों में से किसीन-किसी में प्रकट होती रहती हैं। इन ब्रह्माण्डों को गिन पाना सम्भव नहीं है, किन्तु तो भी इनमें से किसी-न-किसी ब्रह्माण्ड में भगवान् की कोईन-कोई लीला प्रकट होती रहती है।
एइ-मत सब लीला—येन गङ्गा-धार ।से-से लीला प्रकट करे व्रजेन्द्रकुमार ।। ३८३॥
इस तरह भगवान् की लीलाएँ बहते गंगाजल के समान हैं। ये नन्द महाराज के पुत्र द्वारा इस प्रकार प्रकट की जाती हैं।
क्रमे बाल्य-पौगण्ड-कैशोरता-प्राप्ति ।रास-आदि लीला करे, कैशोरे नित्य-स्थिति ॥
३८४॥
भगवान् कृष्ण बाल्यकाल, पौगण्ड तथा किशोरावस्था की लीलाएँ प्रकट करते हैं। जब वे किशोर हो जाते हैं, तो वे अपना रासनृत्य तथा अन्य लीलाएँ करने के लिए शाश्वत रूप से विद्यमान रहते हैं।
‘नित्य-लीला' कृष्णेर सर्व-शास्त्रे कय ।। बुझिते ना पारे लीला केमने 'नित्य' हय ॥
३८५॥
समस्त प्रामाणिक शास्त्रों में कृष्ण की नित्य लीलाओं का वर्णन मिलता है। किन्तु कोई यह नहीं समझ सकता कि ये लीलाएँ किस तरह से सनातन रूप से चली आती हैं।
दृष्टान्त दिया कहि तबे लोक यदि जाने । कृष्ण-लीला नित्य, ज्योतिश्चक्र-प्रमाणे ॥
३८६॥
मैं एक दृष्टान्त देता हूँ, जिससे लोग भगवान् कृष्ण की सनातन लीलाओं को समझ सकें। इसका एक उदाहरण राशिचक्र में देखा जा सकता है।
ज्योतिश्चक्रे सूर्य ग्रेन फिरे रात्रि-दिने । सप्त-द्वीपाम्बुधि लङ्घि' फिरे क्रमे क्रमे ॥
३८७॥
सूर्य रात-दिन राशिचक्र से होकर घूमता है और सात द्वीपों के मध्य के सागरों को बारी-बारी से पार करता है।
रात्रि-दिने हय षष्टि-दण्ड-परिमाण । तिन-सहस्र छय-शत 'पल' तार मान ॥
३८८॥
- वैदिक ज्योतिष गणना के अनुसार सूर्य साठ दण्डों में चक्कर पूरा करता है, और यह तीन हजार छह सौ पलों में विभाजित है।
सूर्योदय हैते षष्टि-पल-क्रमोदय । सेइ एक दण्ड, अष्ट दण्डे ‘प्रहर' हय ॥
३८९॥
सूर्य क्रमशः साठ पलों में उदय होता है। साठ पल एक दण्ड के बराबर होते हैं और आठ दण्ड का एक प्रहर होता है।
एक-दुइ-तिन-चारि प्रहरे अस्त हय ।।चारि-प्रहर रात्रि गेले पुनः सूर्योदय ॥
३९०॥
रात और दिन आठ प्रहरों में विभाजित हैं। चार प्रहर दिन के हैं तो चार प्रहर रात के। आठ प्रहर के बाद सूर्य पुनः उदय होता है।
ऐछे कृष्णेर लीला-मण्डल चौद्द-मन्वन्तरे ।।ब्रह्माण्ड-मण्डल व्यापि क्रमे क्रमे फिरे ।। ३९१॥
सूर्य की ही तरह कृष्ण की लीलाओं का कक्ष है। ये लीलाएँ एक के बाद एक प्रकट होती हैं। चौदह मन्वन्तरों में यह कक्ष समस्त ब्रह्माण्ड तक विस्तार करता है और क्रमशः फिर से लौट आता है। इस तरह कृष्ण अपनी लीलाओं के माध्यम से एक एक करके सारे ब्रह्माण्डों में विचरण करते हैं।
सओयाशत वत्सर कृष्णेर प्रकट-प्रकाश ।ताहा ग्रैछे व्रज-पुरे करिला विलास ॥
३९२॥
कृष्ण किसी एक ब्रह्माण्ड में १२५ वर्षों तक रहते हैं और अपनी लीलाओं का आनन्द वृन्दावन तथा द्वारका दोनों में लेते हैं।
अलात-चक्र-प्राय सेइ लीला-चक्र फिरे ।।सब लीला सब ब्रह्माण्डे क्रमे उदय करे ॥
३९३॥
उनकी लीलाओं का चक्र अग्निचक्र के समान है। इस तरह से कृष्ण एक एक करके अपनी लीलाएँ हर ब्रह्माण्ड में प्रकट करते हैं।
जन्म, बाल्य, पौगण्ड, कैशोर प्रकाश ।।पूतना-वधादि करि' मौषलान्त विलास ॥
३९४॥
कृष्ण के जन्म, बाल्यकाल, पौगण्ड तथा किशोरावस्था की लीलाएँ पूतना-वध से लेकर मौषल-लीला, अर्थात् यदु-वंश के नाश तक प्रकट होती हैं। ये सारी लीलाएँ प्रत्येक ब्रह्माण्ड में चक्कर लगाती रहती हैं।
कोन ब्रह्माण्डे कोन लीलार हय अवस्थान । ताते लीला 'नित्य' कहे आगम-पुराण ॥
३९५ ॥
चूंकि कृष्ण की सारी लीलाएँ लगातार घटित होती रहती हैं, अतएव प्रत्येक क्षण कोई लीला किसी-न-किसी ब्रह्माण्ड में विद्यमान रहती है। फलतः वेद तथा पुराण इन्हें नित्य लीला कहते हैं।
गोलोक, गोकुल-धाम–'विभु' कृष्ण-सम । कृष्णेच्छाय ब्रह्माण्डे-गणे ताहार सङ्क्रम ॥
३९६॥
गोलोक नामक आध्यात्मिक धाम, जो सुरभि गौवों की चारण भूमि है, कृष्ण के ही समान शक्तिशाली तथा ऐश्वर्यमय है। कृष्ण की इच्छा से मूल गोलोक तथा गोकुल धाम उनके साथ-साथ सारे ब्रह्माण्डों में प्रकट होते हैं।
अतएव गोलोक-स्थाने नित्य विहार ।। ब्रह्माण्ड-गणे क्रमे प्राकट्य ताहार ॥
३९७॥
कृष्ण की नित्य लीलाएँ मूल गोलोक-वृन्दावन ग्रह में निरन्तर चलती रहती हैं। यही लीलाएँ भौतिक जगत् में प्रत्येक ब्रह्माण्ड में क्रमशः प्रकट होती हैं।
व्रजे कृष्ण- सर्वैश्वर्य-प्रकाशे ‘पूर्णतम' ।।पुरी-द्वये, परव्योमे–‘पूर्णतर’, ‘पूर्ण' ॥
३९८॥
आध्यात्मिक आकाश ( वैकुण्ठ) में कृष्ण पूर्ण होते हैं। मथुरा तथा द्वारका में वे और अधिक पूर्ण ( पूर्णतर) होते हैं, किन्तु अपना सारा ऐश्वर्य प्रकट करने के कारण वे वृन्दावन, व्रज में सर्वाधिक पूर्ण ( पूर्णतम ) होते हैं।
हरिः पूर्णतमः पूर्ण-तरः पूर्ण इति त्रिधा ।श्रेष्ठ-मध्यादिभिः शब्दैर्नाट्ये ग्रः परिपठ्यते ॥
३९९॥
नाट्य ग्रन्थों में इसे पूर्ण, पूर्णतर तथा पूर्णतम कहा गया है। इस तरह भगवान् कृष्ण अपने आपको पूर्ण, पूर्णतर तथा पूर्णतम-इन तीन प्रकारों से प्रकट करते हैं।
प्रकाशिताखिल-गुणः स्मृतः पूर्णतमो बुधैः ।।असर्व-व्यञ्जकः पूर्ण-तरः पूर्णोऽल्प-दर्शकः ॥
४०० ॥
जब पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् अपने समस्त गुणों को प्रदर्शित नहीं करते होते, तब वे पूर्ण कहलाते हैं। जब वे सारे गुणों को अपूर्ण रूप से प्रकट करते हैं, तब वे पूर्णतर कहलाते हैं। जब वे सारे गुणों को पूरी तरह से प्रकट करते हैं, तब वे पूर्णतम कहलाते हैं। भक्तियोग के समस्त विद्वानों का यह कथन है।"
कृष्णस्य पूर्णतमता व्यक्ताभूगोकुलान्तरे ।।पूर्णता पूर्णतरता द्वारका-मथुरादिषु ॥
४०१॥
कृष्ण के पूर्णतम गुण वृन्दावन में और उनके पूर्ण तथा पूर्णतर गुण द्वारका तथा मथुरा में प्रकट होते हैं।'
एइ कृष्ण-व्रजे 'पूर्णतम' भगवान् ।आर सब स्वरूप‘पूर्णतर' ‘पूर्ण' नाम ॥
४०२॥
वृन्दावन में भगवान् कृष्ण, पूर्णतम भगवान् हैं। अन्यत्र उनके विस्तार या तो पूर्ण हैं या पूर्णतर हैं।
सङ्क्षेपे कहिलै कृष्णेर स्वरूप-विचार ।'अनन्त' कहिते नारे इहार विस्तार ॥
४०३॥
इस तरह मैंने कृष्ण के दिव्य स्वरूपों के प्राकट्य का संक्षिप्त वर्णन किया है। यह विषय इतना विस्तृत है कि भगवान् अनन्त भी पूर्णरूप से इसका वर्णन नहीं कर सकते।
अनन्त स्वरूप कृष्णेर नाहिक गणने ।शाखा-चन्द्र-न्याये करि दिग्दरशन ॥
४०४॥
इस प्रकार कृष्ण के दिव्य रूपों का अनन्त विस्तार हुआ है। कोई भी उनकी गणना नहीं कर सकता। मैंने जो कुछ बतलाया है, वह मात्र एक झलक है। यह उसी तरह है, जैसाकि किसी वृक्ष की शाखाओं में से होकर चाँद को दिखलाना।
इहा येइ शुने, पड़े, सेइ भाग्यवान् ।कृष्णेर स्वरूप-तत्त्वेर हय किछु ज्ञान ॥
४०५॥
जो भी कृष्ण के शरीर के विस्तारों के इन विवरणों को सुनता है। या सुनाता है, वह निश्चित रूप से अत्यन्त भाग्यवान है। यद्यपि इसे समझ पाना बहुत कठिन है, किन्तु इससे कृष्ण के शरीर के विभिन्न स्वरूपों का कुछ न कुछ ज्ञान प्राप्त हो जाता है।
श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश ।।चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
४०६॥
श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों की वन्दना करते हुए, सदैव उनकी कृपा का इच्छुक, मैं कृष्णदास उनके चरणचिह्नों का अनुगमन करते हुए श्री चैतन्य-चरितामृत कह रहा हूँ।
अध्याय इक्कीसवाँ: भगवान श्रीकृष्ण की ऐश्वर्य और मधुरता
अगत्येक-गतिं नत्वा हीनार्थाधिक-साधकम् ।श्री-चैतन्यं लिखाम्यस्य माधुर्यैश्वर्य-शीकरम् ॥
१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु को सादर नमस्कार करते हुए मैं उनके ऐश्वर्य तथा माधुर्य के एक कणमात्र का वर्णन करता हूँ। वे आध्यात्मिक ज्ञान से रहित पतित बद्धात्माओं के लिए अत्यन्त हितकारी हैं और वे उन लोगों के लिए एकमात्र आश्रय हैं, जो जीवन के वास्तविक लक्ष्य को नहीं जानते।
जय जय श्री-चैतन्य जय नित्यानन्द ।।जयाद्वैत-चन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ॥
२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! अद्वैत आचार्य की जय हो! श्री चैतन्य महाप्रभु के सारे भक्तों की जय हो! सर्व स्वरूपेर धाम-परव्योम-धामे ।।पृथक्-पृथक् वैकुण्ठ सब, नाहिक गणने ॥
३॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, भगवान् के सारे दिव्य रूप आध्यात्मिक आकाश में पाये जाते हैं। वे उस धाम में वैकुण्ठ लोकों की अध्यक्षता करते हैं, किन्तु उन वैकुण्ठ लोकों की कोई गणना नहीं है।
शत, सहस्र, अयुत, लक्ष, कोटी-योजन ।एक एक वैकुण्ठेर विस्तार वर्णन ॥
४॥
प्रत्येक वैकुण्ठ लोक की चौड़ाई आठ सौ, आठ हजार, अस्सी हजार, आठ लाख, आठ करोड़ मील है। दूसरे शब्दों में, प्रत्येक वैकुण्ठ लोक का विस्तार हमारी मापने की शक्ति के परे है।
सब वैकुण्ठ–व्यापक, आनन्द-चिन्मय ।पारिषद-षडैश्वर्य-पूर्ण सब हय ॥
५॥
प्रत्येक वैकुण्ठ लोक विस्तृत है और आध्यात्मिक आनन्द से निर्मित है। इसके सारे निवासी भगवान् के पार्षद हैं और उनमें स्वयं भगवान् जैसा ही पूर्ण ऐश्वर्य पाया जाता है। वैकुण्ठलोक इस तरह स्थित हैं।
अनन्त वैकुण्ठ एक एक देशे यार ।।सेड़ परव्योम-धामेर के करु विस्तार ॥
६ ॥
चूंकि सारे वैकुण्ठ लोक परव्योम के किसी एक एक कोने में स्थित हैं, अतः उसे परव्योम को कौन माप सकता है? अनन्त वैकुण्ठ-परव्योम ग्रार दल-श्रेणी ।।सर्वोपरि कृष्णलोक 'कर्णिकार' गणि ॥
७॥
परव्योम के आकार की तुलना कमल के फूल से की जाती है। इस फूल का सबसे ऊपरी भाग कर्णिका कहलाता है और उसी कर्णिको के भीतर कृष्ण का धाम है। इस आध्यात्मिक कमल फूल की पंखुड़ियाँ ही अनेक वैकुण्ठ लोक हैं।
एइ-मत घडू-ऐश्वर्य, स्थान, अवतार ।ब्रह्मा, शिव अन्त ना पाय-जीव कोन् छार ॥
८ ॥
प्रत्येक वैकुण्ठ लोक दिव्य आनन्द, पूर्ण ऐश्वर्य तथा स्थान से पूर्ण है और हर एक में अवतारों का निवास है। यदि ब्रह्माजी तथा शिवजी आध्यात्मिक आकाश तथा वैकुण्ठ लोकों की लम्बाई तथा चौड़ाई नहीं माप सकते, तो भला सामान्य जीव किस तरह उनकी कल्पना कर सकता है।
को वेत्ति भूमन्भगवन्यरात्मन्योगेश्वरोतीर्भवतस्त्रि-लोक्याम् । क्व वा कथं वा कति वा कदेति । विस्तारयन्क्रीड़सि ग्रोग-मायाम् ॥
९॥
हे परम पूर्ण! हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्! हे परमात्मा, समस्त योगशक्तियों के स्वामी! आपकी लीलाएँ इन संसारों में लगातार चलती रहती हैं, किन्तु इसका अनुमान कौन लगा सकता है कि आप कहाँ, कैसे, और कब अपनी आध्यात्मिक शक्ति का प्रयोग कर रहे हैं और अपनी लीलाएँ प्रकट कर रहे हैं? इन कार्यों के रहस्य को कोई नहीं समझ सकता।'
एइ-मत कृष्णेर दिव्य सद्गुण अनन्त ।। ब्रह्मा-शिव-सनकादि ना पाय याँर अन्त ॥
१०॥
कृष्ण के आध्यात्मिक गुण भी अनन्त हैं। ब्रह्माजी, शिवजी तथा चारों कुमार जैसे महापुरुष भी भगवान् के इन दिव्य गुणों का पार नहीं पा सकते।
गुणात्मनस्तेऽपि गुणान्विमातुं । हितावतीर्णस्य क ईशिरेऽस्य । कालेन त्रैर्वा विमिताः सु-कल्यैर्भू-पांशवः खे मिहिका द्यु-भासः ॥
११ ॥
भले ही समय आने पर बड़े बड़े वैज्ञानिक ब्रह्माण्ड के सारे परमाणुओं, आकाश के सारे नक्षत्रों तथा ग्रहों तथा बर्फ के सारे कणों की गणना कर लें, किन्तु उनमें से ऐसा कौन है, जो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के अनन्त दिव्य गुणों की गणना कर सके? वे समस्त जीवों के लाभ के लिए इस धरातल पर अवतरित होते हैं।'
ब्रह्मादि रहु सहस्र-वदने 'अनन्त' ।।निरन्तर गाय मुखे, ना पाय गुणेर अन्त ॥
१२॥
ब्रह्माजी की तो कोई बात ही नहीं, हजार सिर वाले भगवान् अनन्त भी भगवान् के दिव्य गुणों का पार नहीं पा सकते, यद्यपि वे निरन्तर उनका महिमागान करते रहते हैं।
नान्तं विदाम्यहममी मुनयोऽग्रजास्ते | माया-बलस्य पुरुषस्य कुतोऽवरा ग्रे ।। गायन् गुणान् दश-शतानने आदि-देवः ।शेषोऽधुनापि समवस्यति नास्य पारम् ॥
१३॥
यदि मैं, ब्रह्मा तथा तुम्हारे बड़े भाई, महान् ऋषि तथा मुनि विविध शक्तियों से युक्त पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का पार नहीं पा सकते, तो फिर उन्हें और कौन समझ सकता है? यद्यपि हजार फनों वाले भगवान् शेषनिरन्तर उनके दिव्य गुणों का कीर्तन करते हैं, फिर भी वे भगवान् के कार्यकलापों का अभी तक पार नहीं पा सके हैं।'
सेहो रहु—सर्वज्ञ-शिरोमणि श्री-कृष्ण ।।निज-गुणेर अन्त ना पाजा हयेन सतृष्ण ॥
१४॥
अनन्तदेव को भी जाने दें, स्वयं भगवान् कृष्ण भी अपने दिव्य गुणों का अन्त नहीं पा सकते। निश्चय ही, वे स्वयं उन्हें जानने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं।
द्यु-पतय एव ते न य॒युरन्तमनन्ततयात्वमपि ग्रदन्तराण्ड-निचया ननु सावरणाः । ख इव रजांसि वान्ति वयसा सह ग्रच्छूतयस्त्वयि हि फलन्त्यतन्निरसनेन भवन्निधनाः ॥
१५ ॥
हे प्रभु, आप अनन्त हैं। ब्रह्माजी समेत उच्चतर ग्रह-मण्डलों के प्रमुख आधिष्ठाता देवता भी आपका पार नहीं पा सकते। न ही स्वयं आप अपने गुणों की सीमा पा सकते हैं। आकाश में परमाणुओं की तरह सात आवरणों से युक्त असंख्य ब्रह्माण्ड हैं और वे सब कालक्रमानुसार घूम रहे हैं। वेदविद्या में निपुण सारे लोग भौतिक तत्त्वों को हटाते हुए आपको खोज रहे हैं। इस तरह लगातार खोज करते हुए वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आपमें हर वस्तु पूर्ण है। इस तरह आप हर वस्तु के आश्रय हैं। यह समस्त वैदिक पण्डितों का निष्कर्ष है।'
सेह रहु व्रजे ग्रबे कृष्ण अवतार । ताँर चरित्र विचारिते मन ना पाय पार ॥
१६॥
इन सारे तर्को, न्याय, नकारात्मक अथवा सकारात्मक प्रक्रियाओं से अलग जब वृन्दावन में कृष्ण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के रूप में। विद्यमान थे, तब उनके लक्षणों तथा कार्यकलापों का अध्ययन करके कोई उनकी शक्तियों का पार नहीं पा सका।
प्राकृताप्राकृत सृष्टि कैला एक-क्षणे ।। अशेष-वैकुण्ठाजाण्ड स्व-स्व-नाथ-सने ॥
१७॥
भगवान् ने वृन्दावन में समस्त भौतिक तथा आध्यात्मिक लोकों की रचना क्षण-भर में कर दी। उन सबकी सृष्टि उनके अधिष्ठाताओं समेत की गई।
ए-मत अन्यत्र नाहि शुनिये अद्भुत । याहार श्रवणे चित्त हुये अवधूत ॥
१८॥
हमें ऐसी अद्भुत बातें अन्यत्र सुनाई नहीं पड़तीं। उन घटनाओं के श्रवण मात्र से मनुष्य का चित्त उत्तेजित होकर विमल हो जाता है।
कृष्ण-वत्सैरसङ्ख्यातैः–शुकदेव-वाणी ।।कृष्ण-सङ्गे कत गोप–सङ्ख्या नाहि जानि ॥
१९॥
शुकदेव गोस्वामी के अनुसार कृष्ण के पास अनन्त बछड़े तथा ग्वालबाल थे। उनकी सही-सही संख्या कोई नहीं गिन सकता था।
एक एक गोप करे ये वत्स चारण । कोटि, अर्बुद, शङ्ख, पद्म, ताहार गणन ॥
२० ॥
हर ग्वालबाल करोड़, अर्बुद, शंख तथा पद्म तक की गिनती में बछड़े चरा रहा था। उनकी गणना की यही विधि है।
वेत्र, वेणु, दल, शृङ्ग, वस्त्र, अलङ्कार । गोप-गणेर व्रत, तार नाहि लेखा-पार ॥
२१॥
सारे ग्वालबालों के पास असंख्य बछड़े थे। इसी तरह उनकी छड़ियाँ, बाँसुरियाँ, कमल के फूल, सींग के बाजे, वस्त्र तथा आभूषणभी असंख्य थे। उनके विषय में लिखकर उनकी संख्या सीमित नहीं की जा सकती।
सबे हैला चतुर्भुज वैकुण्ठेर पति ।।पृथक्-पृथक् ब्रह्माण्डेर ब्रह्मा करे स्तुति ॥
२२॥
तब सारे ग्वालबाल वैकुण्ठपति चतुर्भुज नारायण बन गये, और विभिन्न ब्रह्माण्डों के पृथक्-पृथक् ब्रह्मा उन भगवानों की स्तुति करने लगे।
एक कृष्ण-देह हैते सबार प्रकाशे । क्षणेके सबाइ सेइ शरीरे प्रवेशे ॥
२३॥
ये सारे दिव्य शरीर कृष्ण के ही शरीर से उद्भूत हुए और क्षण-भर में ही वे सभी पुनः उनके शरीर में प्रवेश कर गये।
इहा देखि' ब्रह्मा हैला मोहित, विस्मित ।। स्तुति करि' एइ पाछे करिला निश्चित ॥
२४॥
जब इस ब्रह्माण्ड के ब्रह्मा ने यह लीला देखी, तो वे आश्चर्यचकित हो गये। उन्होंने स्तुति करने के बाद यह निर्णय किया।
ये कहे ‘कृष्णेर वैभव मुजि सब जानों' ।। से जानुक, काय-मने मुञि एइ मानों ॥
२५॥
ब्रह्मा ने कहा, 'यदि कोई कहता है कि वह कृष्ण के ऐश्वर्यों के विषय में सब कुछ जानता है, तो वह भले ही ऐसा सोचता रहे। किन्तु जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है, मैं तो अपने शरीर तथा मन से इस तरह मानता हूँ।
एइ ये तोमार अनन्त वैभवामृत-सिन्धु ।। मोर वाङ्मनो-गम्य नहे एक बिन्दु ॥
२६॥
हे प्रभु, आपका वैभव असीम अमृत सागर के समान है। मैं मौखिक रूप से या मानसिक रूप से इस सागर की एक बूंद का भी अनुभव नहीं कर सकता हूँ।
जानन्त एवं जानन्तु किं बहूक्त्या न में प्रभो ।। मनसो वपुषो वाचो वैभवं तव गोचरः ॥
२७॥
ऐसे लोग भी हैं, जो यह कहते हैं कि, मैं कृष्ण के विषय में सब जानता हूँ। उन्हें ऐसा सोचने दें। जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है, मैं इस विषय में अधिक नहीं कहना चाहता। हे प्रभु, मुझे इतना ही कहने दें। जहाँ तक आपके वैभव का सम्बन्ध है, वे मेरे मन, शरीर तथा शब्दों की पहुँच के बाहर हैं।'
कृष्णेर महिमा रहु केबा तार ज्ञाता ।वृन्दावन-स्थानेर देख आश्चर्य विभुता ॥
२८॥
भगवान् कृष्ण की महिमा बनी रहे! भला उन सबसे अवगत कौन हो सकता है? उनके धाम वृन्दावन में अनेक अद्भुत वैभव हैं। कृपया उन्हें देखने का प्रयत्न तो करें।
षोल-क्रोश वृन्दावन,शास्त्रेर प्रकाशे ।।तार एक-देशे वैकुण्ठाजाण्ड-गण भासे ॥
२९॥
प्रामाणिक शास्त्रों के कथन के अनुसार वृन्दावन सोलह कोस तक (३२ मील) फैला हुआ है। फिर भी सारे वैकुण्ठ लोक तथा असंख्य ब्रह्माण्ड इस क्षेत्र के एक कोने में ही स्थित हैं।
अपार ऐश्वर्य कृष्णेर–नाहिक गणन ।शाखा-चन्द्र-न्याये करि दिग्दरशन ॥
३०॥
कृष्ण के ऐश्वर्य का अनुमान लगा पाना किसी के लिए भी सम्भव नहीं है। वह असीम है। फिर भी जिस तरह वृक्ष की शाखाओं से होकर चन्द्रमा दिखता है, उसी तरह मैं संकेत मात्र करना चाहता हूँ।
ऐश्वर्य कहिते स्फुरिल ऐश्वर्य-सागर ।मनेन्द्रिय डुबिला, प्रभु हइला फाँपर ॥
३१ ॥
कृष्ण के दिव्य ऐश्वर्य का वर्णन करते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु के मन में ऐश्वर्य का सागर लहराने लगा और उनका मन तथा उनकी इन्द्रियाँ उसी सागर में निमग्न हो गईं। इस तरह वे विक्षुब्ध हो उठे।
भागवतेर ऐइ श्लोक पड़िला आपने ।।अर्थ आस्वादिते सुखे करेन व्याख्याने ॥
३२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने श्रीमद्भागवत का निम्नलिखित श्लोक स्वयं | सुनाया और इसके अर्थ के आस्वादन के लिए वे स्वयं ही इसकी व्याख्या करने लगे।
स्वयं त्वसाम्यातिशयस्त्र्यधीशः।स्वाराज्य-लक्ष्म्याप्त-समस्त-कामः । बलिं हरद्भिश्चिर-लोक-पालैःकिरीट-कोटीड़ित-पाद-पीठः ॥
३३॥
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण तीनों लोकों तथा तीन प्रमुख देवताओं ( ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव) के स्वामी हैं। कोई न तो उनके तुल्य है, न उनसे बढ़कर है। उनकी सारी इच्छाएँ उनकी आध्यात्मिक शक्तिद्वारा जो स्वराज्य लक्ष्मी के नाम से जानी जाती है, पूरी होती हैं। सारे लोकों के अधिष्ठाता देव पूजा के समय अपना अपना कर चुकाते हैं तथा भेटें प्रदान करते समय अपने मुकुटों से भगवान् के चरणकमलों का स्पर्श करते हैं। इस प्रकार वे उन भगवान् की स्तुति करते हैं।'
परम ईश्वर कृष्ण स्वयं भगवान् ।।ताते बड़, ताँर सम केह नाहि आन ॥
३४॥
कृष्ण आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं; अतएव वे सबसे महान् हैं। न तो कोई उनके बराबर है, न कोई उनसे बढ़कर है।
ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्द-विग्रहः ।। अनादिरादिर्गोविन्दः सर्व-कारण-कारणम् ॥
३५॥
गोविन्द नाम से विख्यात कृष्ण परम नियन्ता हैं। उनका शरीरशाश्वत, आनन्दमय तथा आध्यात्मिक है। वे सबके उद्गम हैं। समस्त कारणों के कारण होने से उनका कोई अन्य उद्गम नहीं है।
ब्रह्मा, विष्णु, हर,—एइ सृष्ट्यादि-ईश्वर ।तिने आज्ञाकारी कृष्णेर, कृष्ण–अधीश्वर ॥
३६ ।। इस भौतिक सृष्टि के मुख्य अधिष्ठाता देव ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव हैं। फिर भी वे केवल भगवान् कृष्ण के आदेशों का पालन करते हैं, क्योंकि कृष्ण उन सबके स्वामी हैं।
सृजामि तन्नियुक्तोऽहं हरो हरति तद्वशः ।।विश्वं पुरुष-रूपेण परिपाति त्रि-शक्ति-धृक् ॥
३७॥
[ ब्रह्माजी ने कहा :‘पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की इच्छानुसार मैं सृजन करता हूँ, शिवजी विनाश करते हैं और वे स्वयं क्षीरोदकशायी विष्णु के रूप में भौतिक प्रकृति के सारे कार्यकलापों का पालन करतेहैं। इस तरह भगवान् विष्णु भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों के परम नियन्ता हैं।
ए सामान्य, अधीश्वरेर शुन अर्थ आर ।जगत्कारण तिन पुरुषावतार ॥
३८ ॥
यह तो एक सामान्य विवरण मात्र है। अब कृपया त्र्यधीश का दूसरा अर्थ समझने का प्रयास करें। विष्णु के तीन पुरुष अवतार भौतिक सृष्टि के मूल कारण हैं।
महा-विष्णु, पद्मनाभ, क्षीरोदक-स्वामी ।एइ तिन--स्थूल-सूक्ष्म-सर्व-अन्तर्यामी ॥
३९ ॥
महाविष्णु, पद्मनाभ तथा क्षीरोदकशायी विष्णु, ये तीनों ही समस्त स्थूल तथा सूक्ष्म अस्तित्व के परमात्मा हैं।
एइ तिन--सर्वाश्रय, जगतीश्वर ।एहो सब कला-अंश, कृष्ण-अधीश्वर ॥
४० ॥
यद्यपि महाविष्णु, पद्मनाभ तथा क्षीरोदकशायी विष्णु सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के आश्रय तथा अधीश्वर (नियन्ता ) हैं, फिर भी वे कृष्ण के पूर्ण अंश या पूर्ण अंश के भी अंश हैं। अतएव वे आदि भगवान् हैं।
यस्यैक-निश्वसित-कालमथावलम्ब्यजीवन्ति लोम-विल-जा जगदण्ड-नाथाः । विष्णुर्महान्स इह ग्रस्य कला-विशेषोगोविन्दमादि-पुरुषं तमहं भजामि ॥
४१॥
ब्रह्मा तथा संसारों के अन्य स्वामी महाविष्णु के रोमकूपों से प्रकट होते हैं और उनके एक निश्वास की अवधि तक जीवित रहते हैं। मैं आदि भगवान् गोविन्द की वन्दना करता हूँ, क्योंकि महाविष्णु इनके पूर्ण अंश के अंश हैं।'
एइ अर्थ—मध्यम, शुन 'गूढ़ अर्थ आर ।।तिन आवास-स्थान कृष्णेर शास्त्रे ख्याति ग्रार ॥
४२॥
यह तो मध्यम अर्थ है। अब इसका गुह्य अर्थ सुनो। भगवान् कृष्ण के तीन निवासस्थान हैं, जो प्रामाणिक शास्त्रों से भलीभाँति जाने जाते हैं ‘अन्त:पुर'-गोलोक-श्री-वृन्दावन ।।याहाँ नित्य-स्थिति माता-पिता-बन्धु-गण ॥
४३॥
अन्तरंग आवास (अन्तःपुर) गोलोक वृन्दावन कहलाता है। यहीं पर Fष्ण के अपने सखा, पार्षद, पिता तथा माता रहते हैं।
मधुरैश्वर्य-माधुर्घ-कृपादि-भाण्डार ।।योगमाया दासी ग्राहाँ रासादि लीला-सारे ॥
४४॥
वृन्दावन कृष्ण की कृपा का एवं माधुर्य-प्रेम के मधुर वैभव का भण्डार है। यहीं पर आध्यात्मिक शक्ति दासी बनकर समस्त लीलाओं के मार रासनृत्य का प्रदर्शन करती है।
करुणा-निकुरम्ब-कोमले | मधुरैश्वर्य-विशेष-शालिनि । जयति व्रज-राज-नन्दने। न हि चिन्ता-कणिकाभ्युदेति नः ॥
४५ ॥
परमेश्वर की कृपा के कारण वृन्दावन धाम अत्यन्त कोमल है और माधुर्य-प्रेम के कारण यह विशेष रूप से ऐश्वर्ययुक्त है। यहाँ पर महाराज नन्द के पुत्र की दिव्य महिमाओं का प्रदर्शन होता है। ऐसी दशा में हमारे भीतर थोड़ी-सी भी चिन्ता उत्पन्न नहीं होती।'" तार तले परव्योम-विष्णुलोक'-नाम ।नारायण-आदि अनन्त स्वरूपेर धाम ॥
४६॥
वृन्दावन लोक के नीचे परव्योम है, जो विष्णु-लोक कहलाता है। यहाँ पर असंख्य वैकुण्ठ लोक हैं, जिनका नियन्त्रण नारायण तथा कृष्ण के अन्य असंख्य विस्तारों द्वारा किया जाता है।
‘मध्यम-आवास' कृष्णेर-घडू-ऐश्वर्य-भाण्डार ।अनन्त स्वरूपे याहाँ करेन विहार ॥
४७॥
परव्योम जो कि छहों ऐश्वर्यों से पूर्ण है, भगवान् कृष्ण का मध्यम आवास है। यहीं पर कृष्ण के अनन्त रूप अपनी लीला का विलास करते हैं।
अनन्त वैकुण्ठ याहाँ भण्डार-कोठरि ।। पारिषद-गणे षडू-ऐश्वर्ये आछे भरि' ॥
४८॥
यहाँ पर असंख्य वैकुण्ठ लोक हैं, जो कोषागार की विभिन्न कोठरियों के समान हैं और समस्त ऐश्वर्यों से पूरित हैं। इन असंख्य लोकों में छः ऐश्वर्यों से समृद्ध कृष्ण के नित्य संगी बसते हैं।
गोलोक-नाम्नि निज-धाम्नि तले च तस्य । देवी-महेश-हरि-धामसु तेषु तेषु ।। ते ते प्रभाव-निचया विहिताश्च येन ।गोविन्दमादि-पुरुषं तमहं भजामि ॥
४९॥
गोलोक वृन्दावन धाम के नीचे देवी-धाम, महेश-धाम तथा हरिधाम नामक लोक हैं। वे विभिन्न प्रकार से ऐश्वर्यपूर्ण हैं। उनकी व्यवस्था आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् गोविन्द द्वारा की जाती है। मैं उन भगवान् को सादर नमस्कार करता हूँ।
प्रधान-परम-व्योम्नोरन्तरे विरजा नदी ।।वेदाङ्ग-स्वेद-जनितैस्तोयैः प्रस्राविता शुभा ॥
५०॥
आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों के बीच विरजा नदी है। यह जल पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् वेदाङ्ग के शरीर से निकले पसीने से उत्पन्न है। इस प्रकार यह नदी प्रवाहित होती है।
तस्याः पारे पर-व्योम त्रि-पाद्भूतं सनातनम् । अमृत शाश्वते नित्यमनन्तं परमं पदम् ॥
५१॥
विरजा नदी से आगे आध्यात्मिक प्रकृति है, जो अखंड, नित्य, अव्यय तथा असीम है। यह परम धाम है, जहाँ भगवान् का तीन चौथाई ऐश्वर्य विद्यमान है। यह परव्योम अर्थात् आध्यात्मिक आकाश कहलाता है।
तार तले 'बाह्यावास' विरजार पार ।। अनन्त ब्रह्माण्ड माहाँ कोठरि अपार ॥
५२॥
विरजा नदी के उस पार बाह्य आवास है, जो अनन्त ब्रह्माण्डों से पूर्ण है और प्रत्येक ब्रह्माण्ड में असंख्य प्रकार के आवास हैं।
‘देवी-धाम' नाम तार, जीव ग्रार वासी । जगल्लक्ष्मी राखि' रहे ग्राहाँ माया दासी ॥
५३॥
बहिरंगा शक्ति का आवास देवी-धाम कहलाता है और इसके निवासी बद्धात्माएँ हैं। यहीं पर भौतिक शक्ति दुर्गा अनेक ऐश्वर्यशाली दासियों के साथ निवास करती हैं।
एइ तिन धामेर हय कृष्ण अधीश्वर ।।गोलोक-परव्योम–प्रकृतिर पर ॥
५४॥
कृष्ण सारे धामों के परम स्वामी हैं, जिनमें गोलोक-धाम, वैकुण्ठ धाम तथा देवी-धाम सम्मिलित हैं। परव्योम तथा गोलोक-धाम इस भौतिक जगत् देवी-धाम से परे हैं।
चिच्छक्ति-विभूति-धाम–त्रिपादैश्वर्य-नाम । मायिक विभूति-एक-पाद अभिधान ॥
५५॥
आध्यात्मिक जगत् को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की शक्ति तथा ऐश्वर्य को तीन चौथाई भाग ( त्रिपाद) माना जाता है, जबकि यह भौतिक जगत् केवल एक चौथाई ( एक पाद) शक्ति होता है। यही हमारी जानकारी है।
त्रि-पाद्विभूतेर्धामत्वात्रि-पाद्भूतं हि तत्पदम् । विभूतिमयिकी सर्वा प्रोक्ता पादात्मिका ग्रतः ॥
५६॥
चूँकि आध्यात्मिक जगत् भगवान् की तीन चौथाई शक्ति से बना है, इसलिए यह त्रिपादभूत कहलाता है। भौतिक जगत् भगवान् की एक चौथाई शक्ति से बना होने के कारण एकपाद कहलाता है।'
त्रिपाद-विभूति कृष्णेर–वाक्य-अगोचर । एक-पाद विभूतिर शुनह विस्तार ॥
५७॥
भगवान् की तीन चौथाई शक्ति हमारी वर्णन शक्ति के परे है। अतः उनकी शेष एक चौथाई शक्ति के विषय में विस्तार से सुनें।
अनन्त ब्रह्माण्डेर व्रत ब्रह्मा-रुद्र-गण ।चिर-लोक-पाल-शब्दे ताहार गणन ॥
५८॥
वास्तव में ब्रह्माण्डों की वास्तविक संख्या का पता लगा पाना बहुत कठिन है। प्रत्येक ब्रह्माण्ड के अपने-अपने ब्रह्मा तथा शिव होते हैं, जो चिर लोकपाल कहलाते हैं। इसलिए इनकी भी कोई गिनती नहीं है।
एक-दिन द्वारकाते कृष्ण देखिबारे ।।ब्रह्मा आइला,—द्वार-पाल जानाइल कृष्णेरे ॥
५९॥
एक बार जब कृष्ण द्वारका में राज्य कर रहे थे, तब ब्रह्माजी उन्हें मिलने आये और द्वारपाल ने तुरन्त ही कृष्ण को ब्रह्माजी के आगमन की जानकारी दी।
कृष्ण कहेन'को ब्रह्मा, कि नाम ताहार?' । द्वारी आसि' ब्रह्मारे पुछे आर बार ॥
६०॥
जब कृष्ण को यह बताया गया, तो उन्होंने तुरन्त ही द्वारपाल से पूछा, 'कौन से ब्रह्मा? उनका नाम क्या है?' अतः द्वारपाल लौट गया और उसने ब्रह्मा से पूछा।
विस्मित हा ब्रह्मा द्वारीके कहिला । ‘कह गिया सनक-पिता चतुर्मुख आइला' ॥
६१ ॥
जब द्वारपाल ने पूछा, 'कौन से ब्रह्मा?' तो ब्रह्मा को आश्चर्य हुआ। उन्होंने द्वारपाल से कहा, 'जाकर भगवान् कृष्ण को सूचित करो कि चारों कुमारों के पिता चतुर्मुख ब्रह्मा आये हैं।
कृष्णे जानाजा द्वारी ब्रह्मारे लञा गेला ।।कृष्णेर चरणे ब्रह्मा दण्डवत् कैला ॥
६२॥
तब द्वारपाल ने भगवान् कृष्ण से ब्रह्मा का विवरण बतलाया और भगवान् कृष्ण ने उसे आज्ञा दी कि उन्हें भीतर आने दिया जाए। द्वारपाल ब्रह्मा को भीतर ले गया और ज्योंही ब्रह्मा ने भगवान् कृष्ण को देखा, उन्होंने उनके चरणकमलों में नमस्कार किया।
कृष्ण मान्य-पूजा करि' तौरे प्रश्न कैल।।‘कि लागि' तोमार इहाँ आगमन हैल?' ॥
६३॥
ब्रह्मा द्वारा पूजा किये जाने के बाद भगवान् कृष्ण ने भी उपयुक्त शब्दों से उनका सम्मान किया। तब भगवान् कृष्ण ने उनसे पूछा, 'आप यहाँ किस लिए आये हैं?' ब्रह्मा कहे,–'ताहा पाछे करिब निवेदन । एक संशय मने हय, करह छेदन ॥
६४॥
पूछे जाने पर ब्रह्माजी ने तुरन्त उत्तर दिया, यह तो मैं बाद में बतलाऊँगा कि मैं किस लिए आया हूँ। पहले तो मेरे मन में एक सन्देह है, जिसे मैं चाहता हूँ कि आप कृपया दूर कर दें।
‘कोन् ब्रह्मा?' पुछिले तुमि कोन् अभिप्राये?।। आमा बइ जगते आर को ब्रह्मा हये?' ॥
६५॥
आपने यह क्यों पूछा कि कौन-सा ब्रह्मा आपको मिलने आया है? ऐसे प्रश्न का क्या अभिप्राय है? क्या इस ब्रह्माण्ड के भीतर मेरे अतिरिक्त कोई अन्य ब्रह्मा भी है?' शुनि' हासि' कृष्ण तबे करिलेन ध्याने । असङ्ख्य ब्रह्मार गण आइला तत-क्षणे ॥
६६॥
यह सुनकर श्रीकृष्ण मुस्कुराये और तुरन्त ध्यानमग्न हो गये। देखते ही देखते वहाँ असंख्य ब्रह्मा आ गये।
दश-बिश-शत-सहस्र-अयुत-लक्ष-वदन । कोट्यर्बुद मुख कारो, ना ग्राय गणन ॥
६७॥
इन ब्रह्माओं के शिरों की संख्या भिन्न-भिन्न थी। किसी के दस शिर थे, तो किसी के बीस, किसी के सौ शिर थे तो किसी के हजार, किसी के दस हजार तो किसी के एक लाख, किसी के एक करोड़ तथा किसी के एक अर्बुद शिर थे। उनके मुखों की संख्या की गणना कोई नहीं कर सकता।
रुद्र-गण आईला लक्ष कोटि-वदन ।। इन्द्र-गण आइला लक्ष कोटि-नयन ॥
६८॥
उस समय वहाँ अनेक शिव भी आये, जिनके लाखों तथा करोड़ों विविध शिर थे। अनेक इन्द्र भी आये और इनके भी सारे शरीरों में लाखोंकरोड़ों आँखें थीं।
देखि चतुर्मुख ब्रह्मा फाँपर हइला ।।हस्ति-गण-मध्ये ग्रेन शशक रहिला ।। ६९॥
जब इस ब्रह्माण्ड के चतुर्मुख ब्रह्मा ने कृष्ण का इतना सारा वैभव देखा, तो वे हैरान रह गये और उन्होंने अपने आपको अनेक हाथियों के बीच एक खरगोश के समान समझा।
आसि' सबै ब्रह्मा कृष्ण-पाद-पीठ-आगे । दण्डवत् करिते मुकुट पाद-पीठे लागे ।। ७० ।। जितने भी ब्रह्मा कृष्ण को मिलने आये, उन सबने उनके चरणकमलों में नमस्कार किया और जब उन्होंने ऐसा किया, तो उनके मुकुटों ने भगवान् के चरणकमलों का स्पर्श किया।
कृष्णेर अचिन्त्य-शक्ति लखिते केह नारे ।ग्रत ब्रह्मा, तत मूर्ति एक-इ शरीरे ॥
७१॥
भगवान् कृष्ण की अचिन्त्य शक्ति का अनुमान कोई भी नहीं लगा सकता। वहाँ जितने ब्रह्मा थे, वे सभी कृष्ण के एक ही शरीर में स्थित थे।
पाद-पीट-मुकुटाग्र-सङ्खट्टे उठे ध्वनि ।पाद-पीठे स्तुति करे मुकुट हेन जानि' ॥
७२॥
जब सारे मुकुट कृष्ण के चरणकमलों पर एकसाथ टकराए, तोतुमुल ध्वनि उत्पन्न हुई। ऐसा लग रहा था, मानों स्वयं मुकुट कृष्ण के चरणकमलों की स्तुति कर रहे हों।
ड़-हाते ब्रह्मा-रुद्रादि करये स्तवन ।।बड़ कृपा करिला प्रभु, देखाइला चरण ॥
७३॥
हाथ जोड़े सारे ब्रह्मा तथा शिव कृष्ण की स्तुति करने लगे, 'हे प्रभु, आपने हम पर बड़ी कृपा की है। हम आपके चरणकमलों का दर्शन पाने में समर्थ हो सके।
भाग्य, मोरे बोलाइला 'दास' अङ्गीकरि' ।।कोनाज्ञा हय, ताहा करि शिरे धरि ॥
७४॥
तब सबने कहा, 'यह मेरा परम सौभाग्य है कि आपने मुझे अपना दास समझकर बुलाया है। अब बतायें कि आपकी क्या आज्ञा है, जिसे मैं शिरोधार्य करूं।'
कृष्ण कहे,—तोमा-सबा देखिते चित्त हैल । ताहा लागि' एक ठाजि सबा बोलाइल ॥
७५ ॥
भगवान् कृष्ण ने उत्तर दिया, चूंकि मैं तुम सबको एक साथ देखना चाहता था, इसलिए मैंने तुम सबको यहाँ बुलाया है।
सुखी हओ सबे, किछु नाहि दैत्य-भय? ।। तारा कहे,–'तोमार प्रसादे सर्वत्र-इ जय ॥
७६॥
तुम सभी सुखी हो। क्या असुरों से तुमको कोई डर है?' उन्होंने उत्तर दिया, 'आपकी कृपा से हम सर्वत्र विजयी होते हैं।
सम्प्रति पृथिवीते ग्रेबा हैयाछिल भार । अवतीर्ण हा ताहा करिला संहार' ॥
७७॥
पृथ्वी पर जो कुछ भार था, उसे आपने उसी ग्रह पर अवतरित होकर दूर कर दिया है।'
द्वारकादि-विभु, तार एइ त प्रमाण ।‘आमार-इ ब्रह्माण्डे कृष्ण' सबार हैल ज्ञान ॥
७८ ॥
यह द्वारका के वैभव का प्रमाण है : सारे ब्रह्माओं ने सोचा, 'अभी कृष्ण मेरे क्षेत्र में विराजमान हैं।'
कृष्ण-सह द्वारका-वैभव अनुभव हैल ।।एकत्र मिलने केह काहो ना देखिल ॥
७९॥
इस तरह हर एक ने द्वारका के वैभव को देखा। यद्यपि वे सभी वहाँ एकत्र थे, किन्तु किसी ने अपने सिवा अन्य किसी को नहीं देखा।
तबे कृष्ण सर्व-ब्रह्मा-गणे विदाय दिला ।दण्डवत् ही सबे निज घरे गेला ॥
८०॥
तब कृष्ण ने सभी ब्रह्माओं को विदा किया और वे सब नमस्कार करके अपने-अपने घर चले गये।
देखि' चतुर्मुख ब्रह्मार हैल चमत्कार ।।कृष्णेर चरणे आसि' कैला नमस्कार ॥
८१॥
इतना सारा वैभव देखकर इस ब्रह्माण्ड के चार शिरों वाले ब्रह्मा आश्चर्यचकित रह गये। पुनः कृष्ण के चरणकमलों के पास आकर उन्होंने नमस्कार किया।
ब्रह्मा बले,—पूर्वे आमि ग्रे निश्चय करिहुँ ।तार उदाहरण आमि आजि त' देखिलें ॥
८२॥
तब ब्रह्मा ने कहा, 'इसके पूर्व मैंने अपने ज्ञान के विषय में जो निश्चय किया था, उसकी सम्पुष्टि मैंने आज स्वयं कर ली है।
जानन्त एव जानन्तु किं बहूक्त्या न मे प्रभो ।।मनसो वपुषो वाचो वैभवं तव गोचरः ॥
८३॥
ऐसे लोग भी हैं, जो यह कहते हैं कि, मैं कृष्ण के विषय में सब जानता हूँ। वे भले ही ऐसा सोचते रहें। जहाँ तक मेरा सवाल है, मैं इस विषय में अधिक नहीं कहना चाहता । हे प्रभु, मुझे इतना ही कहने दें। जहाँ तक आपके ऐश्वर्यों का सम्बन्ध है, वे सब मेरे मन, शरीर तथा वाणी की पहुँच से बाहर हैं।'
कृष्ण कहे, एइ ब्रह्माण्ड पञ्चाशत्कोटि ग्रोजन ।अति क्षुद्र, ताते तोमार चारि वदन ॥
८४॥
कृष्ण ने कहा, 'तुम्हारे ब्रह्माण्ड का व्यास ४ अरब मील तक का है, अतएव यह सारे ब्रह्माण्डों में सबसे छोटा है। इसलिए तुम्हारे केवल चार सिर हैं।
कोन ब्रह्माण्ड शत-कोटि, कोन लक्ष-कोटि ।।कोन नियुत-कोटि, कोन कोटि-कोटि ॥
८५॥
कुछ ब्रह्माण्ड व्यास (डायमीटर) में सौ करोड़ (१ बिलियन) योजन, कोई एक लाख करोड़ योजन, तो कोई दस लाख करोड़ योजन, तो कोई-कोई करोड़-करोड़ योजन के हैं। इस तरह उनका क्षेत्रफल लगभग अनन्त है।
ब्रह्माण्डानुरूप ब्रह्मार शरीर-वदन ।एइ-रूपे पालि आमि ब्रह्माण्डेर गण ॥
८६॥
ब्रह्माण्ड के आकार के अनुसार ही ब्रह्मा के शरीर में इतने सिर होते हैं। इस तरह मैं असंख्य ब्रह्माण्डों का पालन करता हूँ।
‘एक-पाद विभूति' इहार नाहि परिमाण ।'त्रि-पाद विभूति र केबा करे परिमाण ॥
८७॥
जब इस भौतिक जगत् में व्याप्त मेरी एक चौथाई शक्ति की लम्बाई तथा चौड़ाई को ही कोई नहीं माप सकता, तो भला आध्यात्मिक जगत् में प्रकट होने वाली मेरी तीन चौथाई शक्ति को कौन माप सकता है?' तस्याः पारे पर-व्योम त्रिपाद्भूतं सनातनम् ।।अमृतं शाश्वतं नित्यमनन्तं परमं पदम् ॥
८८॥
विरजा नदी के उस पार आध्यात्मिक प्रकृति है, जो अविनाशी, शाश्वत, अव्यय तथा असीम है। यह वह परम धाम है, जिसमें भगवान् का तीन चौथाई वैभव स्थित है। यह परव्योम अर्थात् आध्यात्मिक आकाश कहलाता है।'
तबे कृष्ण ब्रह्मारे दिलेन विदाय ।।कृष्णेर विभूति-स्वरूप जानान ना ग्राय ॥
८९॥
इस तरह कृष्ण ने इस ब्रह्माण्ड के चतुर्मुख ब्रह्मा को विदा किया। इस तरह हम समझ सकते हैं कि कृष्ण की शक्ति के परिमाण की कोई भी गणना नहीं कर सकता।
‘अधीश्वर'-शब्देर अर्थ 'गूढ़' आर हय ।।‘त्रि'-शब्दे कृष्णेर तिन लोक कय ॥
९० ॥
त्र्यधीश्वर' शब्द का अर्थ अत्यन्त गूढ़ है, जो यह बतलाता है कि कृष्ण के अधिकार में तीन विभिन्न लोक या प्रकृतियाँ हैं।
गोलोकाख्य गोकुल, मथुरा, द्वारावती । एइ तिन लोके कृष्णेर सहजे नित्य-स्थिति ॥
९१॥
लोक तीन हैं-गोकुल ( गोलोक ), मथुरा तथा द्वारका। कृष्ण इन्हीं तीनों स्थानों में शाश्वत निवास करते हैं।
अन्तरङ्ग-पूर्णेश्वर्य-पूर्ण तिन धाम ।।तिनेर अधीश्वर–कृष्ण स्वयं भगवान् ॥
९२॥
ये तीनों स्थान अन्तरंगा शक्तियों से पूर्ण हैं और पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण उनके सर्वेसर्वा हैं।
पूर्व-उक्त ब्रह्माण्डेर व्रत दिक्पाल । अनन्त वैकुण्ठावरण, चिर-लोक-पाल ॥
९३ ॥
ताँ-सबार मुकुट कृष्ण-पाद-पीठ-आगे ।। दण्डवत् काले तार मणि पीठे लागे ॥
९४॥
जैसाकि पहले कहा जा चुका है, सारे ब्रह्माण्डों तथा वैकुण्ठ लोकों के समस्त अधिष्ठाता देवों के मुकुटों की मणियों ने भगवान् को नमस्कार करते समय उनके सिंहासन तथा चरणकमलों का स्पर्श किया है।
मणि-पीठे ठेकाठेकि, उठे झन्झनि ।।पीठेर स्तुति करे मुकुट–हेन अनुमानि ॥
९५ ॥
जब सारे अधिष्ठाता देवों के मुकुटों की मणियाँ भगवान् के सिंहासन तथा उनके चरणकमलों के साथ टकराईं, तो झनझन की आवाज उत्पन्न हुई और ऐसा लगता था, मानो सारे मुकुट कृष्ण के चरणकमलों की स्तुति कर रहे हों।
निज-चिच्छक्ते कृष्ण नित्य विराजमान ।चिच्छक्ति-सम्पत्तिर 'षडू-ऐश्वर्य' नाम ॥
९६॥
इस तरह कृष्ण सदैव अपनी आध्यात्मिक शक्ति में स्थित रहते हैं और इस शक्ति का वैभव षडैश्वर्य कहलाता है।
सेइ स्वाराज्य-लक्ष्मी करे नित्य पूर्ण काम । अतएव वेदे कहे 'स्वयं भगवान् ॥
९७ ॥
चूंकि उनके पास आध्यात्मिक शक्तियाँ हैं, जो उनकी सारी इच्छाओं की पूर्ति करती हैं, अतएव कृष्ण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् माने जाते हैं। यह वेदों का कथन है।
कृष्णेर ऐश्वर्य–अपार अमृतेर सिन्धु ।।अवगाहिते नारि, तार छुइनँ एक बिन्दु ॥
९८॥
कृष्ण की असीम शक्तियाँ अमृत के सागर के समान हैं। चूंकि उस सागर में कोई स्नान नहीं कर सकता, इसलिए मैंने उसकी एक बूंद का स्पर्श मात्र किया है।
ऐश्वर्य कहिते प्रभुर कृष्ण-स्फूर्ति हैल । माधुर्ये मजिल मन, एक श्लोक पड़िल ॥
९९ ॥
जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने इस तरह से कृष्ण के ऐश्वर्य तथा उनकी आध्यात्मिक शक्तियों का वर्णन किया, तब उनके भीतर कृष्ण-प्रेम जाग उठा। उनका मन माधुर्य-प्रेम की माधुरी में निमग्न हो गया और उन्होंने श्रीमद्भागवत का निम्नलिखित श्लोक सुनाया।
ग्रन्मर्त्य-लीलौपयिकं स्व-योगमाया-बलं दर्शयता गृहीतम् । विस्मापनं स्वस्य च सौभगधेःपरं पदं भूषण-भूषणाङ्गम् ॥
१०० ॥
भगवान् कृष्ण ने अपनी आध्यात्मिक शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए इस भौतिक जगत् में अपनी लीलाओं के उपयुक्त एक रूप प्रकट किया। यह रूप उनके लिए भी अद्भुत था और सौभाग्य-सम्पदा का परम धाम था। उसके अंग इतने सुन्दर थे कि वे उनके शरीर में धारण किये हुए आभूषणों के सौन्दर्य को बढ़ा रहे थे।'
कृष्णेर व्रतेक खेला, सर्वोत्तम नर-लीला,नर-वपु ताहार स्वरूप । गोप-वेश, वेणु-कर, नव-किशोर, नट-वर,नर-लीलार हय अनुरूप ॥
१०१॥
भगवान् कृष्ण की अनेक लीलाएँ हैं, जिनमें मनुष्य रूप में उनकी लीलाएँ सर्वोत्तम हैं। उसका मनुष्य रूप सर्वोत्कृष्ट दिव्य रूप है। इस रूप में वे ग्वालबाल हैं। वे अपने हाथ में वंशी लिये रहते हैं और उनकी कैशोरावस्था नित्य नूतन बनी रहती है। वे एक दक्ष नर्तक भी हैं। यह सब मनुष्य रूप में उनकी लीलाओं के सर्वथा अनुरूप है।
कृष्णेर मधुर रूप, शुन, सनातन ये रूपेर एक कण, डुबाय सब त्रिभुवन, ।सर्व प्राणी करे आकर्षण ॥
१०२॥
हे प्रिय सनातन, कृष्ण का मधुर आकर्षक दिव्य रूप इतना सुन्दर है। जरा इसे समझने का प्रयास करो। कृष्ण के सौन्दर्य के ज्ञान का एक अंश भी तीनों जगतों को प्रेम के समुद्र में डुबो सकता है। वे तीनों जगतों के सारे जीवों को आकर्षित करने वाले हैं।
योगमाया चिच्छक्ति, विशुद्ध-सत्त्व-परिणति,तार शक्ति लोके देखाइते ।। एइ रूप-रतन, भक्त-गणेर गूढ़-धन, प्रकट कैला नित्य-लीला हैते ॥
१०३ ॥
भगवान् कृष्ण का दिव्य रूप जगत् को उनकी अन्तरंगा शक्ति द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। यह शक्ति शुद्ध सत्त्व का रूपान्तर है। रत्न जैसा यह रूप भक्तों का अत्यन्त गुप्त धन है। यह रूप कृष्ण की सनातन लीलाओं से प्रकट होता है।
रूप देखि' आपनार, कृष्णेर हैल चमत्कार,आस्वादिते मने उठे काम ।। 'स्व-सौभाग्य' याँर नाम, सौन्दर्यादि-गुण-ग्राम, एइ-रूप नित्य तार धाम ॥
१०४॥
कृष्ण का अपना अद्भुत स्वरूप इतना महान् है कि वह कृष्ण को भी अपनी खुद की संगति का आस्वादन करने के लिए आकृष्ट करता है। इस तरह कृष्ण उसका आस्वादन करने के लिए अत्यन्त उत्सुक हो उठते है। सम्पूर्ण सौन्दर्य, ज्ञान, सम्पत्ति, बल, यश तथा त्याग–ये कृष्ण के छह ऐश्वर्य हैं। वे अपने इन ऐश्वर्यों में सदा स्थित रहते हैं।
भूषणेर भूषण अङ्ग, ताहें ललित त्रि-भङ्ग,ताहार उपर भूधनु-नर्तन ।। तेरछे नेत्रान्त बाण, तार दृढ़ सन्धान, विन्धे राधा-गोपी-गण-मन ॥
१०५॥
उस शरीर को आभूषण सहलाते हैं, किन्तु कृष्ण का दिव्य शरीर इतना सुन्दर है कि यह उनके द्वारा पहने गये आभूषणों को सुन्दर बना देता है। इसलिए कृष्ण का शरीर आभूषणों का आभूषण कहलाता है। उनके खड़े होने का त्रिभंगी ढंग उस स्वरूप को भी चार चाँद लगा देता है। इन समस्त सुन्दर लक्षणों के भी ऊपर कृष्ण की आँखें नृत्य करती है और कटाक्ष करती हैं, जो श्रीमती राधारानी तथा गोपियों के मनों को भेदने वाले बाणों का काम करती हैं। जब बाण लक्ष्यभेद कर लेता है, तो उनके मन विचलित हो उठते हैं।
ब्रह्माण्डोपरि परव्योम, ताहाँ ये स्वरूप-गण,ताँ-सबार बले हरे मन ।। पति-व्रता-शिरोमणि, याँरे कहे वेद-वाणी, आकर्षये सेइ लक्ष्मी-गण ॥
१०६॥
कृष्ण के शरीर का सौन्दर्य इतना आकर्षक है कि वह न केवल इस भौतिक जगत् के देवताओं तथा जीवों को आकृष्ट करता है, अपितुनारायण समेत परव्योम के उन समस्त पुरुषों को भी आकृष्ट करने वाला है, जो कृष्ण के विस्तार हैं। इस तरह समस्त नारायणों के मन कृष्ण के शारीरिक सौन्दर्य द्वारा आकृष्ट हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त, इन नारायणों की पत्नियाँ, लक्ष्मियाँ, जिन्हें वेदों में सवाधिक पतिव्रता कहा गया है, कृष्ण के अद्भुत सौन्दर्य द्वारा आकृष्ट हो जाती हैं।
चड़ि' गोपी-मनोरथे, मन्मथेर मन मथे,नाम धरे ‘मदन-मोहन'। जिनि' पञ्चशर-दर्प, स्वयं नव-कन्दर्प, रास करे ला गोपी-गण । १०७॥
गोपियों पर कृपा करते हुए उनके मनरूपी रथों पर चढ़कर तथा उनसे प्रेममयी सेवा प्राप्त करने के लिए कृष्ण कामदेव की भाँति उनके मनों को आकृष्ट करते हैं। इसलिए वे मदनमोहन अर्थात् कामदेव को आकृष्ट करने वाले भी कहलाते हैं। कामदेव के पाँच बाण हैं, जो रूप, स्वाद, गन्ध, शब्द तथा स्पर्श के द्योतक होते हैं। कृष्ण इन पाँचों बाणों के स्वामी हैं और वे कामदेव जैसे सौन्दर्य द्वारा गोपियों के मनों को जीतते हैं, यद्यपि उन्हें अपने अपूर्व सौन्दर्य का बड़ा गुमान है। कृष्ण नवीन कामदेव बनकर उनके मनों को आकृष्ट करते हैं और रासलीला करते हैं।
निज-सम सखा-सङ्गे, गो-गण-चारण रङ्गे, वृन्दावने स्वच्छन्द विहार ।। ग्राँर वेणु-ध्वनि शुनि', स्थावर-जङ्गम प्राणी, पुलक, कम्प, अश्रु वहे धार ॥
१०८॥
जब भगवान् कृष्ण अपने ही समान अपने मित्रों के साथ वृन्दावन में विचरण करते हैं, तब असंख्य गौवें चरती रहती हैं। यह भगवान् का एक अन्य अनन्दमय विहार है। जब वे अपनी बाँसुरी बजाते हैं, तो सारे जीव-जिसमें वृक्ष, पौधे, पशु तथा मनुष्य सम्मिलित हैं,-काँपने लगते है और हर्ष से पूरित हो उठते हैं। उनकी आँखों से निरन्तर अश्रुधारा बहने लगती है।
मुक्ता-हार—बक-पाँति, इन्द्र-धनु-पिञ्छ तति, पीताम्बर विजुरी-सञ्चार ।। कृष्ण नव-जलधर, जगत्-शस्य-उपर,वरिषये लीलामृत-धार ॥
१०९॥
कृष्ण द्वारा गले में पहनी मोती की माला श्वेत बगुलों की पंक्ति जैसी लगती है। उनके बालों में लगा मोरपंख इन्द्रधनुष जैसा और उनके पीले वस्त्र आकाश में बिजली जैसे लगते हैं। कृष्ण नये उठे हुए बादल जैसे लगते हैं और गोपियाँ खेत में खिले नये गेहूँ जैसी लगती हैं। इन नई खिली फसलों पर पर अमृतमयी लीलाओं की निरन्तर वर्षा होती है और ऐसा लगता है कि गोपियाँ कृष्ण से उसी तरह जीवन रश्मियाँ प्राप्त कर रही हैं, जिस तरह वर्षा से विविध प्रकार की फसलें जीवन प्राप्त करती हैं।
माधुर्य भगवत्ता-सार, व्रजे कैल परचार,ताहा शुक–व्यासेर नन्दन ।। स्थाने स्थाने भागवते, वर्णियाछे जानाइते,ताहा शुनि' माते भक्त-गण ॥
११०॥
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण अपने आकर्षक सौन्दर्य समेत छहों ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं, जिसके कारण वे गोपियों के साथ माधुर्य-प्रेम में रत होते हैं। ऐसी माधुरी उनके गुणों का सार है। व्यासदेव के पुत्र शुकदेव गोस्वामी ने श्रीमद्भागवत में स्थान-स्थान पर कृष्ण की इन लीलाओं का वर्णन किया है, जिन्हें सुनकर भक्तगण भगवत्प्रेम में उन्मत्त हो उठते हैं।
कहिते कृष्णेर रसे, श्लोक पड़े प्रेमावेशे,प्रेमे सनातन-हात धरि' ।। गोपी-भाग्य, कृष्ण गुण, ग्रे करिल वर्णन, भावावेशे मथुरा-नागरी ॥
१११॥
जिस तरह मथुरा की स्त्रियों ने वृन्दावन की गोपियों के भाग्य तथा कृष्ण के दिव्य गुणों का भावमय वर्णन किया है, उसी तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने कृष्ण के विभिन्न रसों का वर्णन किया और वे प्रेमभाव से भभिभूत हो गये। उन्होंने सनातन गोस्वामी का हाथ थामकर निम्नलिखित श्लोक पढ़ा।
गोप्यस्तपः किमचरन् यदमुष्य रूपंलावण्य-सारमसमोर्ध्वमनन्य-सिद्धम् । दृग्भिः पिबन्त्यनुसवाभिनवं दुरापम् । एकान्त-धाम ग्रशसः श्रिय ऐश्वरस्य ॥
११२॥
गोपियों ने कौन-सी तपस्या की होगी? वे कृष्ण के रूप के उस अमृत को अपनी आँखों से सदा पीती हैं, जो लावण्य का सार है और जिसकी न तो समानता हो सकती है, न जिसको लाँधा जा सकता है। वह लावण्य सौन्दर्य, यश तथा ऐश्वर्य का एकमात्र धाम है। वह स्वयं-सिद्ध, चिर-नवीन तथा अद्वितीय है।'
तारुण्यामृत-पारावार, तरङ्ग लावण्य-सार,ताते से आवर्त भावोद्गम ।। वंशी--ध्वनि-चक्रवात, नारीर मन-तृण-पात,ताहा डुबाय, ना हय उद्गम् ॥
११३।। श्रीकृष्ण के शरीर का सौन्दर्य चिर यौवन के सागर की एक तरंग की भाँति है। उस महासागर में प्रेमभाव का उदय भंवर के समान है। कृष्ण की वंशी की ध्वनि चक्रवात की तरह है और गोपियों के चंचल मन सूखे पत्तों और तिनकों की तरह हैं। जब वे चक्रवात में गिर जाते हैं, तो फिर ऊपर कभी नहीं उठते, अपितु कृष्ण के चरणकमलों में ही निरन्तर पड़े रहते हैं।
सखि हे, कोन् तप कैल गोपी-गण कृष्ण-रूप-सुमाधुरी, पिबि' पिबि' नेत्र भरि', । श्लाघ्य करे जन्म-तनु-मन ॥
११४॥
हे प्रिय सखी, गोपियों ने कौन-सी कठिन तपस्या की है कि वे उनकी दिव्य सुन्दरता तथा माधुरी को अपनी आँखों से जी भरकर पी रही हैं? इस तरह वे अपने जन्म, शरीर तथा मन को सफल बनाती हैं।
ये माधुरीर ऊर्ध्व आन, नाहि ग्रार समान,परव्योमे स्वरूपेर गणे ।। →हो सब-अवतारी, परव्योम-अधिकारी, ए माधुर्य नाहि नारायणे ॥
११५ ॥
गोपियों द्वारा कृष्ण के सौन्दर्य की जिस माधुरी का आस्वादन किया जाता है, वह अद्वितीय है। उस भावमयी माधुरी के समान या उससे बढ़कर कुछ भी नहीं है। यहाँ तक कि वैकुण्ठ लोकों के अधिष्ठाता नारायणों में भी वह माधुरी नहीं है। निस्सन्देह, नारायण-पर्यन्त कृष्ण के सारे अवतारों में से किसी में भी ऐसा दिव्य सौन्दर्य नहीं है।
ताते साक्षी सेइ रमा, नारायणेर प्रियतमा,पतिव्रता-गणेर उपास्या ।। तिंहो ये माधुर्य-लोभे, छाड़ि' सब काम-भोगे,व्रत करि' करिला तपस्या ॥
११६ ॥
नारायण की प्रियतमा लक्ष्मी इस सम्बन्ध में स्पष्ट प्रमाण हैं। लक्ष्मी की पूजा सारी पतिव्रता स्त्रियाँ करती हैं। उन्हीं लक्ष्मी ने कृष्ण की अद्वितीय माधुरी द्वारा मुग्ध होकर उनके साथ भोग करने की इच्छा से ही सब कुछ त्याग दिया, इस प्रकार उन्होंने कठोर व्रत लिया और कठिन तपस्या की।
सेइ त' माधुर्य-सार, अन्य-सिद्धि नाहि तार, | सिंहो माधुर्यादि-गुण-खनि ।।आर सब प्रकाशे, ताँर दत्त गुण भासे,ग्राहाँ ग्रत प्रकाशे कार्य जानि ॥
११७॥
कृष्ण के शरीर की मधुर कान्ति का सार इतना पूर्ण है कि उससे बढ़कर कोई पूर्णता नहीं है। वे दिव्य गुणों की नित्य खान हैं। उनके अन्य रूपों तथा व्यक्तिगत विस्तारों में ऐसे गुणों का केवल आंशिक प्रदर्शन ही होता है। इस तरह हम उनके समस्त निजी व्यक्तिगत विस्तारों को समझ पाते हैं।
गोपी-भाव-दरपण, नव नव क्षणे क्षण, तार आगे कृष्णेर माधुर्य ।। दोहे करे हुड़ाहुड़ि, बाड़े, मुख नाहि मुड़ि, नव नव दोंहार प्राचुर्घ ॥
११८॥
गोपियाँ तथा कृष्ण दोनों ही पूर्ण हैं। गोपियों का प्रेमभाव उस दर्पण के समान है, जो प्रतिक्षण नूतन होता जाता है और कृष्ण की शारीरिक कान्ति तथा माधुरी को प्रतिबिम्बित करता है। इस तरह एक होड़ सी लग जाती है। चूंकि दोनों पक्षों में से कोई हार नहीं मानता, इसलिए उनकी लीलाएँ नवीनतर होती जाती हैं और दोनों पक्षों में निरन्तर वृद्धि होती जाती है।
कर्म, तप, योग, ज्ञान, विधि-भक्ति, जप, ध्यान,इहा हैते माधुर्य दुर्लभ ।। केवल ये राग-मार्गे, भजे कृष्यो अनुरागे, | तारे कृष्ण-माधुर्य सुलभ ॥
११९॥
कृष्ण तथा गोपियों के पारस्परिक व्यवहार से उत्पन्न दिव्य रसों का आस्वादन कर्म, तप, योग, ज्ञान, विधि-भक्ति, मन्त्र योग या ध्यान द्वारा नहीं किया जा सकता। इस माधुरी का आस्वादन केवल मुक्त पुरुषों के स्वतःस्फूर्त रागानुग प्रेम द्वारा किया जा सकता है, जो परम अनुराग के साथ कृष्ण-नाम का कीर्तन करते हैं।
सेइ-रूप व्रजाश्रय, ऐश्वर्य-माधुर्यमय, | दिव्य-गुण-गण-रत्नालय । आनेर वैभव-सत्ता, कृष्ण-दत्त भगवत्ता,कृष्ण-सर्व-अंशी, सर्वाश्रय ॥
१२०॥
कृष्ण तथा गोपियों के बीच ऐसा भावमय आदान-प्रदान केवल वृन्दावन में सम्भव है, जो दिव्य प्रेम के ऐश्वर्य से ओतप्रोत है। कृष्ण का स्वरूप समस्त दिव्य गुणों का मूल स्रोत है। यह रत्नों की खान के समान है। कृष्ण के व्यक्तिगत विस्तारों के पास जितना ऐश्वर्य होता है, उसे कृष्ण द्वारा प्रदत्त समझा जाना चाहिए। अत: कृष्ण आदि स्रोत हैं तथा सबके आश्रय हैं।
श्री, लज्जा, दया, कीर्ति, धैर्य, वैशारदी मति,एइ सब कृष्णे प्रतिष्ठित । सुशील, मृदु, वदान्य, कृष्ण-सम नाहि अन्य,कृष्ण करे जगतेर हित ।। १२१॥
सौन्दर्य, विनम्रता, दया, कीर्ति, धैर्य तथा दक्ष बुद्धि-ये सभी कृष्ण में प्रकट होते हैं। किन्तु इनके अतिरिक्त भी उनमें सदाचार, मृदुता तथा उदारता के अन्य गुण पाये जाते हैं। वे सारे जगत् के लिए कल्याण-कार्य भी करते हैं। ये सारे गुण नारायण जैसे अंशों में दृष्टिगोचर नहीं होते।
कृष्ण देखि' नाना जन, कैले निमिषे निन्दन,व्रजे विधि निन्दे गोपी-गण ।। सेइ सब श्लोक पड़ि', महाप्रभु अर्थ करि',| सुखे माधुर्घ करे आस्वादन ॥
१२२॥
कृष्ण को देखकर विविध लोग अपनी पलकों के झपकने की निन्दा करते हैं। विशेषतया वृन्दावन में सारी गोपियाँ आँखों के इस दोष के लिए ब्रह्मा की निन्दा करती हैं। इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने श्रीमद्भागवत के कुछ श्लोक सुनाये और उनकी विस्तृत व्याख्या की। इस तरह उन्होंने बहुत ही सुख के साथ दिव्य माधुरी का आस्वादन किया।
ग्रस्याननं मकर-कुण्डल-चारु-कर्णभ्राजकपोल-सुभगं स-विलास-हासम् । नित्योत्सवं न ततृपुट्टशिभिः पिबन्त्यो ।नार्यो नराश्च मुदिताः कुपिता निमेश्च ॥
१२३॥
सारे पुरुष तथा स्त्रियाँ भगवान् कृष्ण के चमकते मुख तथा उनके कानों से लटकते मकराकृति कुण्डलों की शोभा देखने के अभ्यस्त थे। उनका सुन्दर स्वरूप, उनके गाल तथा खिलवाड़ करती हँसी-ये सब मिलकर नेत्रों के लिए निरन्तर उत्सव बने रहते हैं, किन्तु आँखों का झपकना ऐसा अवरोध बन जाता है, जिससे वे उस शोभा को देख नहीं पाते। इसी कारण से पुरुष तथा स्त्रियाँ स्रष्टा ( ब्रह्माजी ) के ऊपर अत्यन्त क्रुद्ध थीं।
अटति ग्नद्भवानह्नि काननंत्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम् । कुटिल-कुन्तलं श्री-मुखं च ते | जड़ उदीक्षतां पक्ष्म-कृशाम् ॥
१२४॥
हे कृष्ण, जब आप दिन में जंगल चले जाते हो और हम आपके सुन्दर मुख को, जो सुन्दर सुंघराले केशों से घिरा हुआ है, नहीं देखतीं तब आधे क्षण का समय हमारे लिए एक युग के बराबर लगता है। तब हम उस स्रष्टा को, जिसने आपको देखने वाली आँखों के ऊपर पलकें लगा दी हैं, मात्र मूर्ख समझती हैं।'
काम-गायत्री-मन्त्र-रूप, हय कृष्णेर स्वरूप,सार्ध-चब्बिश अक्षर तार हय । से अक्षर 'चन्द्र' हय, कृष्णो करि' उदय, त्रिजगत् कैला काममय ॥
१२५ ॥
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण वैदिक मन्त्र काम-गायत्री से अभिन्न हैं, जो साढ़े चौबीस अक्षरों से रचित है। वे अक्षर उन चन्द्रमाओं के सदृश हैं, जो कृष्ण में उदित होते हैं। इस तरह तीनों जगत् काममय हो जाते हैं।
सखि हे, कृष्ण-मुख-द्विज-राज-राज कृष्ण-वपु-सिंहासने, वसि' राज्य-शासने, ।।करे सङ्गे चन्द्रेर समाज ॥
१२६॥
कृष्ण का मुख समस्त चन्द्रमाओं का राजा है और कृष्ण का शरीर सिंहासन है। इस तरह राजा चन्द्रमाओं के समाज पर शासन करता है।
दुइ गण्ड सुचिक्कण, जिनि' मणि-सुदर्पण,सेई दुइ पूर्ण-चन्द्र जानि ।। ललाटे अष्टमी-इन्दु, ताहाते चन्दन-बिन्दु,सेइ एक पूर्ण-चन्द्र मानि ॥
१२७॥
कृष्ण के दोनों गाल चमकीले मणियों जैसे हैं। दोनों पूर्ण चन्द्रमा माने जाते हैं। उनका ललाट अर्धचन्द्रमा माना गया है और वहाँ लगे चन्दन के बिन्दु को पूर्ण चन्द्रमा माना गया है।
कर-नख-चान्देर हाट, वंशी-उपर करे नाट,तार गीत मुरलीर तान ।। पद-नख-चन्द्र-गण, तले करे नर्तन,नूपुरेर ध्वनि ग्रार गान ॥
१२८॥
उनके हाथ के नाखून अनेक पूर्ण चन्द्रमा हैं और वे उनके हाथ की वंशी पर नृत्य करते हैं। उनका गीत उस वंशी की तान है। उनके पाँवों के नाखून भी अनेक पूर्ण चन्द्रमा हैं, जो भूमि पर नृत्य करते हैं। उनका गीत उनके नूपुरों की झंकार है।
नाचे मकर-कुण्डल, नेत्र—लीला-कमल,विलासी राजा सतत नाचाय ।। भू-धनु, नेत्र–बाण, धनुर्गुण–दुइ काण,नारी-मन-लक्ष्य विन्धे ताय ॥
१२९॥
कृष्ण का मुख विलासी राजा है। उनका वह पूर्ण चन्द्रमा रूप मुख उनके मकराकृति कुण्डलों तथा कमलनेत्रों को नचाने वाला है। उनकी भौहें धनुष के समान हैं और उनकी आँखें बाणों जैसी हैं। उनके कान उस धनुष की डोरी पर स्थित हैं और जब उनकी आँखें उनके कानों तक फैलती हैं, तब कृष्ण गोपियों के हृदयों को बींध देते हैं।
एइ चान्देर बड़ नाट, पसारि' चान्देर हाट,विनिमूले विलाय निजामृत ।। काहों स्मित-ज्योत्स्नामृते, काँहारे अधरामृते,सब लोक करे आप्यायित ॥
१३०॥
उनके मुख का नृत्य करता स्वरूप अन्य सभी पूर्ण चन्द्रमाओं से बाजी मार ले जाता है और पूर्ण चन्द्रमाओं के बाजार (हाट) को विस्तृत करता है। कृष्ण के मुख का अमृत अमूल्य होते हुए भी सबमें वितरित किया जाता है। कुछ उनकी मृदु हँसी की चन्द्र-किरणों को खरीदते हैं, तो कुछ उनके होठों के अमृत को। इस तरह वे सबको तुष्ट करते हैं।
विपुलायतारुण, मदन-मद-घूर्णन,मन्त्री ग्रार ए दुइ नयन ।। लावण्य-केलि-सदन, जन-नेत्र-रसायन,सुखमय गोविन्द-वदन ॥
१३१॥
कृष्ण के दो विस्फारित लाल लाल नेत्र हैं। ये राजा के दो मन्त्री हैं। और सुन्दर नेत्रों वाले कामदेव के गर्व का दमन करने वाले हैं। सुख से पूर्ण गोविन्द का वह मुख सौन्दर्य विलास का घर है और यह सबके नेत्रों को अत्यन्त सुहावना लगता है।
याँर पुण्य-पुञ्ज-फले, से-मुख-दर्शन मिले,दुइ आङ्खि कि करिबे पाने ? ।। द्विगुण बाड़े तृष्णा-लोभ, पिते नारे—मनः-क्षोभ,दुःखे करे विधिर निन्दने ॥
१३२॥
यदि किसी को भक्ति द्वारा पुण्यकर्मों का फल प्राप्त होता है और वह कृष्ण के मुख का दर्शन पा लेता है, तो वह अपनी केवल दो आँखों से क्या आस्वादन कर सकता है? तब कृष्ण के अमृतमय मुख को देखने से उसका लोभ तथा उसकी तृष्णा दोनों दुगुने बढ़ जाते हैं। उस अमृत को ठीक से पी न सकने के कारण मनुष्य दुःखी होता है और स्रष्टा की आलोचना इसलिए करने लगता है कि उसने दो से अधिक आँखें क्यों नहीं दीं।
ना दिलेक लक्ष-कोटि, सबे दिला आङ्घि दुटि,ताते दिला निमिष-आच्छादन । विधि–जड़ तपोधन, रस-शून्य तार मन, | नाहि जाने योग्य सृजन ॥
१३३॥
जब कृष्ण का मुख देखने वाला इस तरह असन्तुष्ट हो जाता है, तो वह सोचने लगता है, ‘विधाता ने मुझे लाखों-करोड़ों आँखें क्यों नहीं दीं? उसने मुझे केवल दो ही आँखें क्यों दीं? यहाँ तक कि ये दोनों आँखें भी पलक झपकने के कारण विचलित हो उठती हैं, जिससे मैं कृष्ण के मुख को लगातार देख नहीं पाता।' इस तरह मनुष्य विधाता को कोसता है कि वह कठिन तपस्या में लगे रहने के कारण शुष्क तथा रसविहीन है। ‘विधाता केवल एक शुष्क ( रसशून्य) स्रष्टा है। वह यह भी नहीं जानता कि किस तरह वस्तुओं का सृजन किया जाए और उन्हें उचित स्थानों पर रखा जाए।
ग्ने देखिबे कृष्णानन, तार करे द्वि-नयन, विधि हा हेन अविचार ।। मोर ग्रदि बोले धरे, कोटि आङ्घि तार करे, तबे जानि ग्रोग्य सृष्टि तार ॥
१३४॥
स्रष्टा कहता है, जो कृष्ण के सुन्दर मुख का दर्शन करना चाहते हैं, उनकी दो ही आँखें हों। जरा इस स्रष्टा कहलाने वाले व्यक्ति द्वारा प्रदर्शित अविचार को तो देखो। यदि वह मेरा परामर्श मानता, तो वह कृष्ण का मुख देखने वाले को करोड़ों आँखें देता। यदि वह मेरे इस परामर्श को मान ले, तो मैं कहूँगा कि वह अपने कार्य में पटु है।'
कृष्णाङ्ग-माधुर्य–सिन्धु, सुमधुर मुख इन्दु,अति-मधु स्मित–सुकिरणे । ए-तिने लागिल मन, लोभे करे आस्वादन, श्लोक पड़े स्वहस्त-चालने ॥
१३५ ॥
भगवान् श्रीकृष्ण के दिव्य रूप की उपमा सागर से दी गई है। उस सागर के ऊपर श्रीकृष्ण का मुख रूपी चन्द्रमा विशेष रूप से अद्भुत दृश्य है और इससे भी अधिक अद्वितीय दूसरा दृश्य उनकी मुस्कान है, जो अत्यन्त मधुर है और चन्द्रमा की चमकीली किरणों जैसी है। सनातन गोस्वामी से ये बातें बतलाते-बतलाते श्री चैतन्य महाप्रभु एक-एक करके सारी बातें स्मरण करने लगे। उन्होंने भावावेश में अपने हाथ हिलाते हुए एक श्लोक सुनाया।
मधुरं मधुरं वपुरस्य विभोर्मधुरं मधुरं वदनं मधुरम् ।। मधु-गन्धि मृदु-स्मितमेतदहोमधुरं मधुरं मधुरं मधुरम् ॥
१३६ ॥
हे प्रभु, कृष्ण का दिव्य शरीर अत्यन्त मधुर है और उनका मुख उनके शरीर से भी अधिक मधुर है। उनके मुख पर मृदु हँसी, जो मधुगन्ध की तरह है, और भी मधुर है।'
सनातन, कृष्ण-माधुर्य—अमृतेर सिन्धु मोर मन–सन्निपाति, सब पिते करे मति, । दुर्दैव-वैद्य ना देय एक बिन्दु ॥
१३७॥
हे सनातन, कृष्ण की मधुरता अमृत के सिन्धु जैसी है। यद्यपि मेरा मन इस समय सन्निपात से ग्रस्त है और मैं उस समूचे समुद्र को पी लेना चाहता हूँ, किन्तु दुर्दैव वैद्य मुझे उसकी एक बूंद भी पीने की अनुमति नहीं दे रहा।
कृष्णाङ्ग लावण्य-पूर, मधुर हैते सुमधुर,ताते ग्रेइ मुख सुधाकर ।। मधुर हैते सुमधुर, ताहा हइते सुमधुर, तार ग्रेइ स्मित ज्योत्स्ना-भर ॥
१३८॥
कृष्ण का शरीर आकर्षक रूपों की नगरी है और यह मधुर से मधुरतर है। उनका चन्द्रमा जैसा मुख और भी मधुर है और उस चन्द्रमा जैसे मुख पर परम मन्द हँसी चाँदनी की किरणों जैसी है।
मधुर हैते सुमधुर, ताहा हैते सुमधुर,ताहा हैते अति सुमधुर । आपनार एक कणे, व्यापे सब त्रिभुवने, देश-दिक् व्यापे झार पूर ॥
१३९॥
कृष्ण की हँसी सर्वाधिक मधुर है। उनकी हँसी उस पूर्ण चन्द्रमा की तरह है, जो अपनी किरणों को तीनों लोकों में--गोलोक वृन्दावन, वैकुण्ठ तथा देवी-धाम अर्थात् भौतिक जगत् में–बिखेरता है। इस तरह कृष्ण की उज्वल सुन्दरता दशों दिशाओं में फैल जाती है।
स्मित-किरण-सुकपूर, पैशे अधर-मधुरे,सेइ मधु माताय त्रिभुवने ।वंशी-छिद्र आकाशे, तार गुण शब्दे पैशे,ध्वनि-रूपे पाञा परिणामे ॥
१४०॥
उनकी मन्द मुस्कान तथा सुगन्धित प्रकाश की तुलना कपूर से की जा सकती है, जो उनके ओठों की मधुरता में प्रविष्ट हो जाता है। वही मधुरता ध्वनि बनकर उनकी बाँसुरी के छेदों से आकाश में व्याप्त हो जाती है।
से ध्वनि चौदिके धाय, अण्ड भेदि वैकुण्ठे ग्राय,बले पैशे जगतेर काणे ।। सबा मातोयाल करि', बलात्कारे आने धरि',विशेषतः मुवतीर गणे ॥
१४१॥
कृष्ण की बाँसुरी की ध्वनि चारों दिशाओं में व्याप्त हो जाती है। यद्यपि कृष्ण अपनी बाँसुरी इस ब्रह्माण्ड के भीतर बजाते हैं, किन्तु इसकी ध्वनि ब्रह्माण्ड के आवरण को भेदकर वैकुण्ठ लोक तक जाती है। इस तरह यह ध्वनि सारे निवासियों के कानों में प्रवेश करती है। यह विशेष रूप से गोलोक वृन्दावन धाम में प्रवेश करती है और व्रजभूमि की पुवतियों के मनों को आकृष्ट करके उन्हें बलपूर्वक वहाँ ले जाती है, जहाँ अब्ण उपस्थित होते हैं।
ध्वनि-बड़ उद्धत, पतिव्रतार भाङ्गे व्रत,पति-कोल हैते टानि' आने ।। वैकुण्ठेर लक्ष्मी-गणे, येइ करे आकर्षणे,तार आगे केबी गोपी-गणे ॥
१४२॥
कृष्ण की बाँसुरी की ध्वनि बड़ी उद्धत है और यह समस्त पतिव्रताओं के व्रतों को भंग करती है। इसकी ध्वनि उन्हें बलात् उनके पतियों की गोदों से निकाल लेती है। उनकी बाँसुरी की ध्वनि वैकुण्ठ लोकों की लक्ष्मियों तक को आकृष्ट करती है, तो भला वृन्दावन की असहाय युवतियों के विषय में क्या कहा जाए? नीवि खसाय पति-आगे, गृह-धर्म कराय त्यागे,बले धरि' आने कृष्ण-स्थाने ।। लोक-धर्म, लज्जा, भय, सब ज्ञान लुप्त हय,ऐछे नाचाय सब नारी-गणे ॥
१४३॥
उनकी बाँसुरी की ध्वनि उनके पतियों के समक्ष उनके अधोवस्त्र की गाँठों को ढीला कर देती है। इस तरह गोपियाँ अपने घर का कामकाज त्यागकर कृष्ण के समक्ष आने के लिए बाध्य हो जाती हैं। इस तरह उनका सारा सामाजिक शिष्टाचार, लज्जा तथ भय भाग जाते हैं। उनकी बाँसुरी की ध्वनि सारी स्त्रियों को नचा देती है।
काणेर भितर वासा करे, आपने ताँहा सदा स्फुरे,अन्य शब्द ना देय प्रवेशिते । आन कथा ना शुने काण, आन बलिते बोलय आन,एई कृष्णेर वंशीर चरिते ॥
१४४॥
उनकी बाँसुरी की ध्वनि उस पक्षी के समान है, जो गोपियों के कानों के भीतर अपना घोंसला बनाता है और वहीं पर सदा बना रहता है। वह उनके कानों में किसी अन्य ध्वनि को प्रविष्ट नहीं होने देती। निस्सन्देह, गोपियाँ न तो और कुछ सुन पाती हैं, न ही किसी और बात पर ध्यान एकाग्र कर पाती हैं, न ही वे समुचित उत्तर दे पाती हैं। कृष्ण की बाँसुरी की ध्वनि के प्रभाव ऐसे ऐसे हैं।
पुनः कहे बाह्य-ज्ञाने, आन कहिते कहिलै आने,कृष्ण-कृपा तोमार उपरे । मोर चित्त-भ्रम करि', निजैश्वर्य-माधुरी, मोर मुखे शुनाय तोमारे ॥
१४५ ॥
पुनः अपनी बाह्य चेतना में आकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी से कहा, मैं जो चाहता था वह नहीं कह पाया। भगवान् कृष्ण तुम पर अत्यन्त कृपालु हैं, क्योंकि मेरे मन को भ्रमित करके उन्होंने अपना निजी ऐश्वर्य तथा माधुरी प्रकट की है। उन्होंने ये सारी बातें तुम्हारी जानकारी के लिए मुझसे सुनवा दी हैं।
आमि त' बाउल, आन कहिते आन कहि ।। कृष्णोर माधुर्यामृत-स्रोते ग्राइ वहि' ॥
१४६॥
चूँकि मैं उन्मत्त हो चुका हूँ, इसलिए मैं कुछ का कुछ कह रहा हूँ। इसका कारण यह है कि मैं भगवान् कृष्ण की दिव्य माधुरी के अमृतसागर मी तरंगों द्वारा बहाये लिए जा रहा हूँ।
तबे महाप्रभु क्षणेक मौन करि' रहे।मने एक करि' पुनः सनातने कहे ॥
१४७॥
इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु एक क्षण तक मौन रहे। अन्त में अपने मन को सन्तुलित करते हुए वे पुनः सनातन गोस्वामी से बोले।
कृष्णेर माधुरी आर महाप्रभुर मुखे ।।इहा ग्रेई शुने, सेइ भासे प्रेम-सुखे ॥
१४८॥
यदि किसी को श्रीचैतन्य-चरितामृत के इस अध्याय में कृष्ण की माधुरी के विषय में सुनने का अवसर प्राप्त होता है, तो वह निश्चित रूप से भगवत्प्रेम के दिव्य आनन्दसागर में तैरने का पात्र होगा।
श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश ।चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
१४९ ॥
श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों की वन्दना करते हुए एवं उनकी कृपा की सदैव कामना करते हुए मैं कृष्णदास उनके चरणचिह्नों का अनुसरण करते हुए श्रीचैतन्य-चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।
अध्याय बाईसवां: भक्ति सेवा की प्रक्रिया
वन्दे श्री-कृष्ण-चैतन्य-देवं तं करुणार्णवम् ।। कलावष्यति-गूढ़ेयं भक्तिर्येन प्रकाशिता ॥
१॥
मैं श्री चैतन्य महाप्रभु को सादर नमस्कार करता हूँ। वे दिव्य करुणा के सागर हैं। यद्यपि भक्ति का विषय अत्यन्त गुह्य है, फिर भी उन्होंने इस कलह के युग कलियुग में भी उसे इतनी सुन्दरता से प्रकट किया है।
जय जय श्री कृष्ण-चैतन्य नित्यानन्द । जयाद्वैत-चन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ॥
२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! नित्यानन्द प्रभु की जय हो! अद्वैतचन्द्र की जय हो! श्री चैतन्य महाप्रभु के समस्त भक्तों की जय हो! एइत कहिलॆ सम्बन्ध-तत्त्वेर विचार ।वेद-शास्त्रे उपदेशे, कृष्ण-—एक सार ॥
३॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, 'मैंने अनेक प्रकार से कृष्ण के साथ मनुष्य के सम्बन्ध का वर्णन किया है। यही समस्त वेदों का विषय है। कृष्ण सारे कार्यकलापों के केन्द्र हैं।
एबे कहि, शुन, अभिधेय-लक्षण ।ग्राहा हैते पाइ कृष्ण, कृष्ण-प्रेम-धन ॥
४॥
अब मैं भक्ति के लक्षणों के विषय में कहूँगा, जिसके द्वारा मनुष्य कृष्ण का आश्रय तथा उनकी दिव्य प्रेममयी सेवा को प्राप्त कर सकता है।
कृष्ण-भक्ति-अभिधेय, सर्व-शास्त्रे कय ।अतएव मुनि-गण करियाछे निश्चय ॥
५॥
मनुष्य के सारे कार्यकलाप केवल भगवान् कृष्ण की भक्ति पर केन्द्रित होने चाहिए। यही सारे शास्त्रों का निर्णय है और सारे सन्त पुरुषों ने यही निष्कर्ष निकाला है।
श्रुतिर्माता पृष्टा दिशति भवदाराधन-विधिंग्रथा मातुर्वाणी स्मृतिरपि तथा वक्ति भगिनी । पुराणाद्या ग्रे वा सहज-निवहास्ते तदनुगाअतः सत्यं ज्ञातं मुर-हर भवानेव शरणम् ॥
६॥
जब वेदमाता ( श्रुति ) से प्रश्न किया गया कि किसकी पूजा की ए, तो उसने कहा कि आप ही एकमात्र आराध्य प्रभु हैं। इसी तरह त शास्त्रों के उपसिद्धान्त स्मृतिशास्त्र भी बहिन-तुल्य वही आदेश देते भातुल्य पुराण अपनी माता के पदचिह्नों पर चलते हैं। हे मुर असुर शत्रु, निष्कर्ष यह है कि आप ही एकमात्र आश्रय हैं। मैंने इसे तत्त्वतः लिया है।'
अद्वय-ज्ञान-तत्त्व कृष्ण-स्वयं भगवान् । ‘स्वरूप-शक्ति' रूपे ताँर हय अवस्थान ॥
७॥
कृष्ण अद्वय परम सत्य, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं। यद्यपि वे एक किन्तु अपनी लीलाओं के लिए उनके विभिन्न स्वांश तथा शक्तियाँ हैं।
स्वांश-विभिन्नांश-रूपे हजा विस्तार ।अनन्त वैकुण्ठ-ब्रह्माण्डे करेन विहार ॥
८॥
कृष्ण अपना विस्तार अनेक रूपों में करते हैं। इनमें से कुछ स्वांश हैं और कुछ विभिन्नांश हैं। इस तरह वे आध्यात्मिक तथा भौतिक दोनों जगतों में लीलाएँ करते हैं। आध्यात्मिक जगत् तो वैकुण्ठ लोक हैं और भौतिक जगत् विशाल ब्रह्माण्ड समूह हैं, जिनकी अध्यक्षता ब्रह्मा करते। हैं।
स्वांश-विस्तार-चतुयूंह, अवतार-गण ।।विभिन्नांश जीव ताँर शक्तिते गणन ॥
९॥
उनके स्वांश विस्तार वैकुण्ठ लोक से इस भौतिक जगत् में अवतरित होते हैं-यथा चतुयूंह, जिसमें संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध या वासुदेव आते हैं। सारे जीव विभिन्नांश हैं। यद्यपि वे कृष्ण के अंश है, किन्तु उनकी गणना उनकी भिन्न शक्तियों में की जाती है।
सेइ विभिन्नांश जीव-दुइ त' प्रकार । एक---‘नित्य-मुक्त', एक–'नित्य-संसार' ॥
१०॥
जीवों की दी कोटियाँ हैं। कुछ नित्यमुक्त हैं और कुछ नित्यबद्ध हैं।"
‘नित्य-मुक्त'—नित्य कृष्ण-चरणे उन्मुख ।‘कृष्ण-पारिषद' नाम, भुल्ले सेवा-सुख ॥
११॥
जो नित्यमुक्त हैं, वे कृष्णभावनामृत के प्रति सदैव सचेष्ट रहते हैं और वे भगवान् कृष्ण के चरणों की प्रेममयी दिव्य सेवा करते हैं। उन्हें कृष्ण के नित्य संगी मानने चाहिए। वे कृष्ण-सेवा का दिव्य आनन्द लगातार प्राप्त करते रहते हैं।
‘नित्य-बद्ध'–कृष्ण हैते नित्य-बहिर्मुख ।‘नित्य-संसार', भुझे नरकादि दुःख ॥
१२ ॥
नित्यमुक्त भक्तों से भिन्न ऐसे बद्धजीव हैं, जो भगवान् की सेवा से प्रदेव विमुख रहते हैं। वे इस भौतिक जगत् में निरन्तर बद्ध रहते हैं और उहे विभिन्न शरीर धारण करने के कारण नारकीय अवस्था में दुःख भोगना पड़ता है।
सेइ दोषे माया-पिशाची दण्ड करे तारे ।आध्यात्मिकादि ताप-त्रय तारे जारि' मारे ॥
१३॥
कृष्णभावनामृत का विरोध करने के कारण बद्धजीव को बाह्य शक्ति, मायारूपी पिशाचिनी दण्ड देती है। इस तरह वह तीन प्रकार के कष्ट भोगने के लिए तैयार रहता है-शरीर तथा मन द्वारा दिये गये कष्ट, अन्य जीवों के शत्रुभाव से उत्पन्न कष्ट तथा देवताओं द्वारा उत्पन्न प्राकृतिक उत्पात।
काम-क्रोधेर दास हा तार लाथि खाय ।। भ्रमिते भ्रमिते ग्रदि साधु-वैद्य पाय ॥
१४॥
ताँर उपदेश-मन्त्रे पिशाची पलाय । कृष्ण-भक्ति पाय, तबे कृष्ण-निकट ग्राय ॥
१५ ॥
इस तरह बद्धजीव कामवासनाओं का दास बन जाता है और जब वे वासनाएँ पूरी नहीं होतीं तो वह क्रोध का दास बन जाता है और माया की लात खाता रहता है। वह इस ब्रह्माण्ड में घूमते-घूमते दैववश यदि किसी भक्तवैद्य की संगति पा लेता है, तो उसके निर्देशों तथा मन्त्रों से मायारूपी डायन भाग जाती है। इस तरह बद्धजीव भगवान् कृष्ण की भक्ति के सम्पर्क में आता है, जिससे वह भगवान् के और निकट पहुँच सकता है।
कामादीनां कति न कतिधा पालिता दुर्निदेशास् | तेषां जाता मयि न करुणा न त्रपा नोपशान्तिः । उत्सृज्यैतानथ ग्रदु-पते साम्प्रतं लब्ध-बुद्धिस्त्वामायातः शरणमभयं मां नियुक्ष्वात्म-दास्ये ॥
१६॥
हे प्रभु, कामवासनाओं के अवांछित आदेशों की कोई सीमा नहीं है। यद्यपि मैंने इन इच्छाओं की इतनी सेवा की है, किन्तु उन्होंने मुझ पर रंच-भर भी दया नहीं दिखलाई। उनकी सेवा करने में न तो मुझे लज्जा आई, न ही मैंने कभी उन्हें त्यागने की इच्छा की। किन्तु हे प्रभु, हे यदुवंश के शिरोमणि, हाल ही में मेरी बुद्धि जाग्रत हुई है और अब मैं उनका परित्याग कर रहा हूँ। अपनी दिव्य बुद्धि के कारण मैं अब इन अवांछित इच्छाओं का पालन करने से मना करता हूँ और अब आपके अभय चरणकमलों में शरण लेने के लिए आया हूँ। कृपया मुझे अपनी निजी सेवा में लगा लीजिये और मेरी रक्षा कीजिये।
कृष्ण-भक्ति हय अभिधेय-प्रधान ।भक्ति-मुख-निरीक्षक कर्म-ग्रोग-ज्ञान ॥
१७॥
कृष्ण की भक्ति ही जीव का मुख्य कार्य है। यद्यपि बद्धजीव की मुक्ति के विविध साधन हैं, यथा कर्म, ज्ञान, योग तथा भक्ति, किन्तु ये सब भक्ति पर आश्रित हैं।
एइ सब साधनेर अति तुच्छ बल ।।कृष्ण-भक्ति विना ताहा दिते नारे फल ॥
१८॥
भक्ति के बिना आत्म-साक्षात्कार के अन्य सारे साधन दुर्बल तथातुच्छ हैं। कृष्ण की भक्ति किये बिना, ज्ञान तथा योग से वांछित फल प्राप्त नहीं हो सकता।
नैष्कर्म्यमप्यच्युत-भाव-वर्जितं ।न शोभते ज्ञानमलं निरञ्जनम् । कुतः पुनः शश्वदभद्रमीश्वरेन चार्पितं कर्म ग्रदप्यकारणम् ॥
१९॥
जब शुद्ध ज्ञान समस्त भौतिक आकर्षण से परे होता है, किन्तु पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् (कृष्ण) को समर्पित नहीं होता, तो यह भौतिक मल से रहित होते हुए भी अधिक सुन्दर नहीं लगता। तो फिर सकाम कर्मों का ज्या लाभ, जो प्रारम्भ से कष्टप्रद और क्षणिक हैं, यदि वे भगवान् की भक्तिमयी सेवा में काम नहीं आते ? भला वे किस तरह अत्यन्त आकर्षक हो सकते हैं? तपस्विनो दान-परा ग्रशस्विनोमनस्विनो मन्त्र-विदः सु-मङ्गलाः ।।क्षेमं न विन्दन्ति विना यदर्पणंतस्मै सुभद्र-श्रवसे नमो नमः ॥
२०॥
जो लोग कठोर तपस्या करते हैं, जो दान में अपना सर्वस्व दे डालते हैं, जो अपने पुण्यकर्म के लिए प्रसिद्ध हैं, जो ध्यान तथा ज्ञान में लगे हैं। और जो वैदिक मन्त्रों का उच्चारण करने में अत्यन्त पटु हैं, वे यदि अपने कर्मों को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की सेवा में समर्पित नहीं करते, तो वे कोई शुभ फल नहीं प्राप्त कर पाते, भले ही वे पुण्यकर्मों में क्यों न लगे हों। अतएव मैं उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को बारम्बार सादर नमस्कार करता हूँ, जिनकी महिमा सदैव कल्याणप्रद है।'
केवल ज्ञान 'मुक्ति' दिते नारे भक्ति विने ।।कृष्णोन्मुखे से मुक्ति हय विना ज्ञाने ॥
२१॥
भक्ति के बिना कोरा ज्ञान मुक्ति दिलाने में समर्थ नहीं है। दूसरी ओर यदि कोई भगवद्भक्ति में लगता है, तो वह ज्ञान के बिना भी मुक्ति प्राप्त कर सकता है।
श्रेयः-सृतिं भक्तिमुदस्य ते विभो | क्लिश्यन्ति ये केवल-बोध-लब्धये ।। तेषामसौ क्लेशल एव शिष्यतेनान्यद् यथा स्थूल-तुषावघातिनाम् ॥
२२॥
हे प्रभु, आपकी भक्ति एकमात्र शुभ मार्ग है। यदि कोई केवल ज्ञान के लिए या यह समझकर कि ये सारे जीव आत्माएँ हैं और यह जगत् मिथ्या है, इसका परित्याग कर देता है, तो उसे बहुत कष्ट भोगना पड़ता है। मात्र कष्टप्रद तथा अशुभ कर्म ही उसके हाथ लगते हैं। उसका प्रयास चावल से रहित भूसी को पीटने जैसा है। उसका प्रयास निष्फल हो जाता है।'
दैवी ह्येषा गुण-मयी मम माया दुरत्यया ।।मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥
२३॥
भौतिक प्रकृति के तीन गुणों वाली मेरी इस दैवी शक्ति का अतिक्रमण कर पाना कठिन है। किन्तु जो मेरी शरण में आ चुके हैं, वे इसे आसानी से पार कर सकते हैं।'
‘कृष्ण-नित्य-दासजीव ताहा भुलि' गेल ।एइ दोषे माया तार गलाय बान्धिल ॥
२४॥
जीव माया की जंजीर द्वारा गले से बँधा हुआ है, क्योंकि वह यह भूल गया है कि वह कृष्ण का नित्य दास है।
ताते कृष्ण भजे, करे गुरुर सेवन ।।माया-जाल छुटे, पाय कृष्णेर चरण ॥
२५॥
यदि बद्धजीव भगवान् की सेवा में लगता है और साथ ही अपने गुरु की आज्ञा का पालन करता है और उनकी सेवा करता है, तो वह माया के जाल से छूट सकता है और कृष्ण के चरणकमलों में शरण पाने के योग्य हो सकता है।
चार वर्णाश्रमी व्रदि कृष्ण नाहि भजे ।स्वकर्म करिते से रौरवे पड़ि' मजे ॥
२६ ॥
वर्णाश्रम संस्था के अनुयायी चारों वर्षों ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र) तथा चारों आश्रमों ( ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास) के विधि-विधानों को मानते हैं। यदि वे इन विधानों का पलन करते हैं, किन्तु भगवान् कृष्ण की भक्तिमयी सेवा नहीं करते, तो वे भौतिक जीवन की नारकीय अवस्था में जा गिरते हैं।
मुख-बाहूरु-पादेभ्यः पुरुषस्याश्रमैः सह ।।चत्वारो जज्ञिरे वर्णा गुणैर्विप्रादयः पृथक् ॥
२७॥
ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण प्रकट हुए। इसी तरह उनकी बाँहों से । क्षत्रिय उत्पन्न हुए, उनकी कमर से वैश्य निकले और उनके पाँवों से शूद्र | निकले। ये चारों वर्ण तथा इनके चार आश्रम ( ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास ) मिलकर मानव समाज को पूर्ण बनाते हैं।
ग्र एषां पुरुषं साक्षादात्म-प्रभवमीश्वरम् ।।न भजन्त्यवजानन्ति स्थानाभ्रष्टाः पतन्त्यधः ॥
२८॥
यदि कोई व्यक्ति चारों वर्गों तथा आश्रमों में अपना औपचारिक स्थान बनाये रखता है, किन्तु भगवान् विष्णु की पूजा नहीं करता, तो बह अपने अहंकारपूर्ण उच्च स्थान से गिर जाता है और नारकीय स्थिति को प्राप्त होता है।
ज्ञानी जीवन्मुक्त-दशा पाइनु करि' माने । वस्तुतः बुद्धि 'शुद्ध' नहे कृष्ण-भक्ति विने ॥
२९॥
मायावादी सम्प्रदाय के ऐसे अनेक तर्कवादी ज्ञानी हैं, जो अपने आपको मुक्त मानते हैं और अपने आपको नारायण कहते हैं। किन्तु जब तक वे कृष्ण-भक्ति में नहीं लगते, तब तक उनकी बुद्धि निर्मल नहीं होती।
ग्रेऽन्येऽरविन्दाक्ष विमुक्त-मानिनस्त्वय्यस्त-भावादविशुद्ध-बुद्धयः । आरुह्य कृच्छेण परं पदं ततःपतन्त्यधोऽनादृत-युष्मदछ्यः ॥
३० ॥
हे कमलनेत्र, जो अपने आपको इस जीवन में मुक्त मानते हैं, किन्तु आपकी भक्ति नहीं करते, वे अवश्य ही अशुद्ध बुद्धि वाले हैं। यद्यपि वे कठिन तपस्या करते हैं और उच्च आध्यात्मिक पद अर्थात् निराकार ब्रह्मसाक्षात्कार का पद प्राप्त करते हैं, किन्तु वे पुनः नीचे गिरते जाते हैं, क्योंकि वे आपके चरणकमलों की पूजा करने की उपेक्षा करते हैं।
कृष्ण सूर्य-सम; माया हय अन्धकार । ग्राहाँ कृष्ण, ताहाँ नाहि मायार अधिकार ॥
३१॥
कृष्ण सूर्य के समान हैं और माया अन्धकार के समान है। जहाँ कहीं सूर्य-प्रकाश है, वहाँ अन्धकार नहीं हो सकता। ज्योंही भक्त कृष्णभावनामृत अपनाता है, त्योंही माया का अन्धकार ( बहिरंगा शक्ति का प्रभाव) तुरन्त नष्ट हो जाता है।
विलज्जमानया ग्रस्य स्थातुमीक्षा-पथेऽमुया ।।विमोहिता विकत्थन्ते ममाहमिति दुर्धियः ॥
३२॥
कृष्ण की बहिरंगा मोहक शक्ति, जो माया कहलाती है, कृष्ण के समक्ष खड़े होने में हमेशा उसी तरह लज्जित होती है, जिस तरह अन्धकार सूर्य-प्रकाश के समक्ष रहने में लजित होता है। किन्तु माया उन अभागे व्यक्तियों को मोहग्रस्त कर लेती है, जिनमें बुद्धि नहीं होती। बस वे केवल यही शेखी मारते हैं कि यह भौतिक संसार उनका है और वे इसके भोक्ता हैं।
‘कृष्ण, तोमार हङ’ यदि बले एक-बार ।। माया-बन्ध हैते कृष्ण तारे करे पार ॥
३३॥
यदि कोई गम्भीरता तथा निष्ठा के साथ यह कहता है कि, 'हे कृष्ण! पापि इस भौतिक संसार में मैंने आपको इतने वर्षों से भुला दिया था, किन्तु आज मैं आपकी शरण ग्रहण कर रहा हूँ। मैं आपका निष्ठावान दास हूँ। कृपया मुझे अपनी सेवा में लगा लें, तो वह तुरन्त माया के पाश से मुक्त हो जाता है।
सकृदेव प्रपन्नो ग्रस्तवास्मीति च ग्राचते ।। अभयं सर्वदा तस्मै ददाम्येतद्व्रतं मम ॥
३४॥
यह मेरा व्रत है कि यदि कोई यह कहकर एक बार भी मेरे शरणागत होता है कि, हे प्रभु! आज से मैं आपका हूँ और अभय के लिए मुझसे प्रार्थना करता है, तो मैं उस व्यक्ति को तुरन्त अभय प्रदान करता हूँ और वह उस समय से सदैव सुरक्षित रहता है।'
भुक्ति-मुक्ति-सिद्धि-कामी ‘सुबुद्धि' यदि हय । गाढ़-भक्ति-स्रोगे तबे कृष्णेरे भजय ॥
३५॥
जीव कुसंगति के कारण भौतिक सुख, मोक्ष अथवा भगवान् के शेष पहलू से तादात्म्य चाहता है यो भौतिक शक्ति के लिए योग ना में लग जाता है। यदि ऐसा व्यक्ति वास्तव में बुद्धिमान बन जाता है, तो वह भगवान् श्रीकृष्ण की गहन भक्ति में लगकर कृष्णभावनामृत जो अंगीकार करता है।
अकामः सर्व-कामो वा मोक्ष-काम उदार-धीः ।।तीव्रण भक्ति-योगेन या परम् ॥
३६॥
चाहे कोई सब कुछ चाहता हो या कुछ न चाहता हो, अथवा भगवान् से तादात्म्य चाहता हो, वह तभी बुद्धिमान होता है, जब वह दिव्य प्रेमाभक्ति द्वारा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण की पूजा करता है।
अन्य-कामी य़दि करे कृष्णेर भजन ।।ना मागितेह कृष्ण तारे देन स्व-चरण ॥
३७॥
जो लोग भौतिक सुख चाहते हैं या परम सत्य में समा जाना चाहते हैं, यदि वे भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में अपने आपको लगाते हैं, तो उन्हें तुरन्त कृष्ण के चरणकमलों में शरण प्राप्त हो जाती है, भले ही वे इसकी याचना न करें। अतः कृष्ण अत्यन्त दयामय हैं।
कृष्ण कहे,–'आमा भजे, मागे विषय-सुख ।। अमृत छाड़ि' विष मागे,—एइ बड़ मूर्ख ॥
३८॥
कृष्ण कहते हैं, यदि कोई मेरी दिव्य प्रेमाभक्ति में लगता है, किन्तु साथ ही भौतिक भोग या ऐश्वर्य चाहता है, तो वह महामूर्ख है। निस्सन्देह, वह उस व्यक्ति के समान है, जो अमृत छोड़कर विष पीता है।
आमि—विज्ञ, एई मूर्ख ‘विषय' केने दिब? ।स्व-चरणामृत दिया ‘विषय' भुलाइब ॥
३९॥
चूँकि मैं अत्यन्त बुद्धिमान हूँ, अतः मैं इस मूर्ख को भौतिक सम्पन्नता क्यों हूँ? इसके बदले में मैं इसे अपने चरणकमलों की शरण का अमृत लेने के लिए प्रेरित करूँगा और इसके भ्रामक भौतिक भोग की कामना को भुलवा दूंगा।'
सत्यं दिशत्यर्थितमर्थितो नृणांनैवार्थ-दो ग्रत्पुनरर्थिता व्रतः । स्वयं विधत्ते भजतामनिच्छताम्इच्छा-पिधानं निज-पाद-पल्लवम् ॥
४० ॥
जब भी कृष्ण से किसी इच्छा को पूरी करने की विनती की जाती है, तो वे उसे अवश्य पूरी करते हैं, किन्तु वे ऐसा वर नहीं देते, जिसको भोग करने के बाद भी पुनः पुनः माँगने की आवश्यकता पड़े। जब किसी की अन्य इच्छाएँ रहती हैं, किन्तु साथ ही वह भगवान् की सेवा में लगा । रहता है, तो कृष्ण उसे बलपूर्वक अपने चरणकमलों में शरण देते हैं, जहाँ वह अन्य सारी इच्छाओं को भूल जाता है।'
काम लागि' कृष्ण भजे, पाय कृष्ण-रसे ।।काम छाड़ि' ‘दास' हैते हय अभिलाषे ॥
४१॥
जब कोई अपनी इन्द्रियों की तुष्टि हेतु भगवान् कृष्ण की भक्ति मेंलगता है, किन्तु उसके विपरीत उसे कृष्ण की सेवा करने का स्वाद मिल जाता है, तो वह अपनी भौतिक इच्छाओं को छोड़कर स्वेच्छा से कृष्ण फा सनातन सेवक बन जाता है।
स्थानाभिलाषी तपसि स्थितोऽहंत्वां प्राप्तवान्देव-मुनीन्द्र-गुह्यम् । काचं विचिन्वन्नपि दिव्य-रत्नं ।स्वामिन्कृतार्थोऽस्मि वरं न ग्राचे ॥
४२ ॥
[ जब ध्रुव महाराज को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् वर दे रहे थे, तब उन्होंने कहा था : , 'हे प्रभु, चूंकि मैं ऐश्वर्ययुक्त भौतिक पद की खोज में था, इसलिए मैं कठिन तपस्या कर रहा था। अब तो मैंने आपको पा लिया है, जिन्हें बड़े-बड़े देवता, मुनि तथा राजा भी बड़ी कठिनाई से प्राप्त कर पाते हैं। मैं तो एक काँच का टुकड़ा हूँढ रहा था, किन्तु इसके बदले मुझे बहुमूल्य रत्न मिल गया है। अतएव मैं इतना सन्तुष्ट हूँ कि अब मैं आपसे कोई वर नहीं चाहता।'
संसार भ्रमिते कोन भाग्ये केह तरे ।। नदीर प्रवाहे ग्रेन काष्ठ लागे तीरे ॥
४३॥
बद्धजीव ब्रह्माण्ड के विभिन्न लोकों में भ्रमण करते हुए कई योनियों में प्रवेश करते रहते हैं। सौभाग्यवश इनमें से कोई एक किसी न किसी प्रकार अज्ञान के सागर से मुक्त हो सकता है, जैसे किसी बहती नदी में अनेक बड़ी लकड़ियों में से सहसा कोई एक किनारे तक पहुँच जाए।
मैवं समाधमस्यापि स्यादेवाच्युत-दर्शनम् ।। ह्रियमाण: काल-नद्या क्वचित्तरति कश्चन ॥
४४॥
यह सोचना मेरा भ्रम था कि, चूँकि मैं इतना पतित हूँ, इसलिए हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के दर्शन का कभी अवसर नहीं मिल सकगा। प्रत्युत संयोगवश मुझ जैसा पतित व्यक्ति भी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का दर्शन कर सकता है। यद्यपि मनुष्य कालरूपी नदी की तरंगों में बहता रहता है, किन्तु अन्ततः वह किनारे तक पहुँच सकता है।'
कोन भाग्ये कारो संसार क्षयोन्मुख हय ।साधु-सङ्गे तबे कृष्णे रति उपजय ॥
४५ ॥
भाग्यवश ही मनुष्य अज्ञान के सागर को पार करने के योग्य बनता है और जब उसके भौतिक अस्तित्व की अवधि घटती है, तो उसे शुद्ध भक्तों की संगति करने का अवसर प्राप्त हो सकता है। ऐसी संगति से कृष्ण के प्रति उसका आकर्षण जाग्रत हो जाता है।
भवापवर्गो भ्रमतो ग्रदा भवेज् ।जनस्य तर्छच्युत सत्समागमः ।। सत्सङ्गमो ग्रर्हि तदैव सद्गतौ ।परावरेशे त्वयि जायते रतिः ॥
४६॥
हे प्रभु! हे अच्युत परम पुरुष! जब पूरे ब्रह्माण्ड में भ्रमण करने वाला व्यक्ति भौतिक संसार से मुक्ति पाने का पात्र बनता है, तो उसे भक्तों की संगति करने का अवसर प्राप्त होता है। जब वह भक्तों की संगति करता है, तो आपके प्रति उसका आकर्षण जाग्रत होता है। आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं, सर्वोत्तम भक्तों के चरम गन्तव्य हैं और ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं।'
कृष्ण यदि कृपा करे कोन भाग्यवाने ।गुरु-अन्तर्रामि-रूपे शिखाय आपने ॥
४७॥
कृष्ण प्रत्येक जीव के हृदय में चैत्य गुरु अर्थात् अन्त:करण में स्थित गुरु के रूप में स्थित हैं। जब वे किसी भाग्यशाली बद्धजीव पर दयालु होते हैं, तो वे उसे भीतर से परमात्मा के रूप में और बाहर से गुरु के रूप में भक्ति में प्रगति करने का उपदेश देते हैं।
नैवोपयन्त्यपचितिं कवयस्तवेश ।ब्रह्मायुषापि कृतमृद्ध-मुदः स्मरन्तः । ग्रोऽन्तर्बहिस्तनु-भृतामशुभं विधुन्वन्आचार्य-चैत्य-वपुषा स्व-गतिं व्यनक्ति ॥
४८॥
हे प्रभु, दिव्य कवि तथा अध्यात्म विज्ञान में पटु व्यक्ति भी आपसे पूरी तरह अपनी कृतज्ञता व्यक्त नहीं कर पाये, यद्यपि उन्हें ब्रह्मा जितनीदीर्घायु दी गई थी, क्योंकि आप दो रूपों में-बाह्य रूप में आचार्य की तरह और अन्तःकरण में परमात्मा की तरह-देहधारी जीव को अपने पास आने के निमित्त निर्देश देकर उनका उद्धार करने के लिए प्रकट होते हैं।'
साधु-सङ्गे कृष्ण-भक्त्ये श्रद्धा यदि हय ।।भक्ति-फल 'प्रेम' हय, संसार ग्राय क्षय ॥
४९॥
भक्त की संगति करने से कृष्ण-भक्ति में श्रद्धा जाग्रत होती है। भक्ति के कारण मनुष्य का सुप्त कृष्ण-प्रेम जाग्रत होता है और इस तरह उसका भौतिक बद्ध जीवन समाप्त हो जाता है।
ग्रदृच्छया मत्कथादौ जात-श्रद्धस्तु यः पुमान् ।। न निर्विण्णो नाति-सक्तो भक्ति-योगोऽस्य सिद्धि-देः ॥
५०॥
यदि कोई किसी तरह से मेरी कथा के प्रति आकृष्ट होता है और भगवद्गीता में दी गईं मेरी शिक्षाओं में श्रद्धा रखता है और यदि मनुष्य में भौतिक वस्तुओं के प्रति झूठी आसक्ति नहीं है और साथ ही वह भौतिक जगत् में अधिक आसक्त नहीं होता है, तो मेरे प्रति उसका सुप्त प्रेम भक्ति आरा जाग्रत हो उठेगा।'
महत्कृपा विना कोन कर्मे 'भक्ति' नय । कृष्ण-भक्ति दूरे रहु, संसार नहे क्षय ॥
५१॥
शुद्ध भक्त की कृपा बिना किसी को भक्ति-पद प्राप्त नहीं हो सकता। कृष्ण-भक्ति की बात जाने दें, मनुष्य भवबन्धन तक से नहीं छूट सकता।
रहूगणैतत्तपसा न यातिन चेन्यया निर्वपणाद्गृहाद्वी ।। न च्छन्दसा नैव जलाग्नि-सूर्यैर् ।विना महत्पाद-रजोऽभिषेकम् ॥
५२॥
हे राजा रहूगण, शुद्ध भक्त ( महाजन या महात्मा ) के चरणकमलों की धूल अपने सिर पर धारण किये बिना मनुष्य भक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। केवल कठिन तपस्या करने से, अर्चाविग्रह की भव्य पूजा करने से या संन्यास अथवा गृहस्थाश्रम के नियमों का कठोरता से पालन करने से अथवा वेदों का अध्ययन करने से, जल में डूबे रहने या आग अथवा फड़ी धूप में खुला बैठने से भक्ति प्राप्त नहीं की जा सकती।'
नैषां मतिस्तावदुरुक्रमाग्निस्पृशत्यनर्थापगमो प्रदर्थः ।महीयसां पाद-रजोऽभिषेकंनिष्किञ्चनानां न वृणीत यावत् ॥
५३॥
जब तक मानव-समाज महात्माओं के–वे भक्त जिनका भौतिक सम्पत्ति से कोई लगाव नहीं होता-उनके चरणकमलों की धूल को स्वीकार नहीं करता, तब तक मानव जाति भगवान् कृष्ण के चरणकमलों की ओर अपना ध्यान नहीं ले जा सकती। वे चरणकमल भौतिक जीवन के समस्त अवांछित कष्टों को दूर करने वाले हैं।
‘साधु-सङ्ग', 'साधु-सङ्ग'---सर्व-शास्त्रे कय ।लव-मात्र साधु-सङ्गे सर्व-सिद्धि हय ॥
५४॥
सारे शास्त्रों का निर्णय है कि शुद्ध भक्त के साथ क्षण-भर की संगति से ही मनुष्य सारी सफलता प्राप्त कर सकता है।
तुलयाम लवेनापि न स्वर्गं नापुनर्भवम् ।भगवत्सङ्गि-सङ्गस्य मर्यानां किमुताशिषः ॥
५५॥
भगवद्भक्त के साथ क्षण-भर की संगति के मूल्य की तुलना जब स्वर्ग-प्राप्ति या भौतिक बन्धन से मुक्ति से नहीं की जा सकती, तो भौतिक सम्पति के रूप में सांसारिक वरदान के विषय में क्या कहा जाए, जो उन लोगों के लिए है जिन्हें एक न एक दिन मरना ही है।'
कृष्ण कृपालु अर्जुनेरे लक्ष्य करिया ।। जगतेरे राखियाछेन उपदेश दिया ॥
५६॥
कृष्ण इतने दयालु हैं कि अर्जुन को लक्षित करते हुए अपने उपदेशों के द्वारा उन्होंने सारे जगत् को संरक्षण प्रदान किया है।
सर्व-गुह्यतमं भूयः शृणु मे परमं वचः ।। इष्टोऽसि मे दृढ़मिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् ॥
५७ ॥
मन्मना भव मद्भक्तो मयाजी मां नमस्कुरु ।। मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥
५८ ॥
चूँकि तुम मेरे अत्यन्त प्रिय मित्र हो, इसलिए मैं तुम्हें मेरे सर्वोत्कृष्ट उपदेश के रूप में ज्ञान के सर्वाधिक गुह्य अंश को बतला रहा हूँ। इसे असे सुनो, क्योंकि यह तुम्हारे लाभ के लिए है। सदैव मेरा चिन्तन करो और मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे ही नमस्कार करो। इस तरह तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे। मैं तुम्हें यह वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे प्रिय मित्र हो।'
पूर्व आज्ञा, वेद-धर्म, कर्म, योग, ज्ञान ।सब साधि' शेषे एइ आज्ञा बलवान् ॥
५९॥
| यद्यपि कृष्ण पहले ही वैदिक अनुष्ठान करने, वेदों में वर्णित सकाम कर्म करने, योगाभ्यास करने तथा ज्ञान का अनुशीलन करने की क्षमता बतला चुके थे, किन्तु ये अन्तिम उपदेश अत्यन्त बलवान हैं और अन्य सबसे ऊपर हैं।
एइ आज्ञा-बले भक्तेर 'श्रद्धा' यदि हये ।सर्व-कर्म त्याग करि' से कृष्ण भजय ॥
६० ॥
यदि भक्त को इस आदेश की शक्ति में श्रद्धा है, तो वह अपने सारे कार्यकलापों को त्यागकर भगवान् कृष्ण की पूजा करता है।
तावत्कर्माणि कुर्वीत न निर्विद्येत ग्रोवता ।।मत्कथा-श्रवणादौ वा श्रद्धा ग्रावन्न जायते ॥
६१॥
जब तक मनुष्य सकाम कर्म से तृप्त नहीं हो जाता और श्रवणं कीर्तनं विष्णोः द्वारा भक्ति के प्रति रुचि जाग्रत नहीं कर लेता, तब तक उसे वेदोक्त विधानों के अनुसार कर्म करना पड़ता है।'
'श्रद्धा'-शब्दे—विश्वास कहे सुदृढ़ निश्चय ।कृष्ण भक्ति कैले सर्व-कर्म कृत हय ॥
६२॥
कृष्ण की दिव्य प्रेमाभक्ति करने पर मनुष्य स्वतः सारे गौण कर्म सम्पन्न कर लेता है, ऐसा सुदृढ़ निश्चयश्रद्धा कहलाता है। ऐसी श्रद्धा भक्तिमय सेवा को सम्पन्न करने के लिए अनुकूल सिद्ध होती है।
ग्रथा तरोर्मूल-निषेचनेन ।तृष्यन्ति तत्स्कन्ध-भुजोपशाखाः ।। प्राणोपहाराच्च ग्रथेन्द्रियाणांतथैव सर्वार्हणमच्युतेन्या ॥
६३ ॥
वृक्ष की जड़ में पानी डालने से तना, डालियाँ तथा टहनियाँ स्वतः तुष्ट हो जाते हैं। इसी तरह उदर को भोजन देने से प्राण का पोषण होता है, जिससे सारी इन्द्रियाँ तुष्ट हो जाती हैं। इसी प्रकार कृष्ण की पूजा करने से तथा उनकी सेवा करने से सारे देवता तुष्ट हो जाते हैं।'
श्रद्धावान् जन हय भक्ति-अधिकारी ।।‘उत्तम', 'मध्यम', 'कनिष्ठ'श्रद्धा-अनुसारी ॥
६४॥
श्रद्धावान भक्त सचमुच ही भगवान् की प्रेममयी सेवा के लिए सुपात्र है। भक्त की श्रद्धा के अनुसार ही उसकी गणना सर्वोच भक्त, मध्यम भक्त या कनिष्ठ भक्त के रूप में की जाती है।
शास्त्र-युक्त्ये सुनिपुण, दृढ़-श्रद्धा याँर।। ‘उत्तम-अधिकारी' सेइ तारये संसार ॥
६५॥
जो व्यक्ति तर्क तथा प्रामाणिक शास्त्रों में निपुण है और जिसे कृष्ण में दृढ़ श्रद्धा है, उसकी गणना सर्वोच्च भक्त के रूप में की जाती है। वह सारे संसार का उद्धार कर सकता है।
शास्त्रे युक्तौ च निपुणः सर्वथा दृढ़-निश्चयः ।।प्रौढ़-श्रद्धोऽधिकारी ग्रः स भक्तावुत्तमो मतः ॥
६६॥
जो तर्क तथा प्रामाणिक शास्त्रों को समझने में निपुण है और जिसका निश्चय दृढ़ होता है तथा जिसकी अगाध श्रद्धा होती है, जो अंधी नहीं होती, उसे उत्तम भक्त माना जाता है।
शास्त्र-युक्ति नाहि जाने दृढ़, श्रद्धावान् ।‘मध्यम-अधिकारी' सेइ महा-भाग्यवान् ॥
६७॥
जो प्रामाणिक शास्त्रों पर आधारित तर्क में अधिक दक्ष नहीं है, किन्तु दृढ़ श्रद्धा से युक्त है, वह द्वितीय श्रेणी का ( मध्यम ) भक्त माना जाता है। उसे भी अत्यन्त भाग्यशाली मानना चाहिए।
ग्रः शास्त्रादिष्वनिपुणः श्रद्धावान्स तु मध्यमः ॥
६८ ॥
जो शास्त्रीय तर्क को भलीभाँति नहीं जानता, किन्तु जिसमें दृढ़ श्रद्धा होती है, वह मध्यम या द्वितीय श्रेणी का भक्त कहलाता है।'
ग्राहार कोमल श्रद्धा, से 'कनिष्ठ' जन ।।क्रमे क़मे तेहो भक्त हइबे 'उत्तम' ॥
६९॥
जिसकी श्रद्धा कोमल एवं लचकदार होती है, वह कनिष्ठ भक्त कहलाता है। किन्तु विधि का क्रमशः पालन करने से वह प्रथम कोटि (उत्तम) के भक्त-पद को प्राप्त कर लेता है।
ग्रो भवेत्कोमल-श्रद्धः स कनिष्ठो निगद्यते ॥
७०।। जिसकी श्रद्धा अत्यन्त प्रबल नहीं होती, और जिसने अभी शुरूआत =ी है, उसे नया कनिष्ठ) भक्त समझना चाहिए।'
रति-प्रेम-तारतम्ये भक्त–तर-तम ।एकादश स्कन्धे तार करियाछे लक्षण ॥
७१॥
भक्त को उसकी अनुरक्ति तथा प्रेम के अनुसार श्रेष्ठतर अथवा मेष्ठतम माना जाता है। श्रीमद्भागवत के ग्यारहवें स्कन्ध में निम्नलिखित लक्षण निश्चित किये गये हैं।
सर्व-भूतेषु यः पश्येद्भगवद्भावमात्मनः । भूतानि भगवत्यात्मन्येष भागवतोत्तमः ॥
७२॥
भक्ति में उन्नत व्यक्ति हर वस्तु के भीतर आत्माओं के आत्मा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण को देखता है। फलस्वरूप वह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के रूप को समस्त कारणों का कारण के रूप में देखता है और यह समझता है कि सारी वस्तुएँ उन्हीं में स्थित हैं।
ईश्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च ।। प्रेम-मैत्री-कृपोपेक्षा ग्रः करोति स मध्यमः ॥
७३॥
मध्यम भक्त पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के प्रति प्रेम प्रदर्शित करता है, सभी भक्तों के प्रति मैत्रीभाव रखता है और नये भक्तों तथा अज्ञानी व्यक्तियों पर अत्यन्त कृपालु रहता है। जो लोग भक्ति से ईष्र्या रखते हैं, उनकी वह उपेक्षा करता है।
अर्चायामेव हरये पूजां ग्रः श्रद्धयेहते । न तद्भक्तेषु चान्येषु स भक्तः प्राकृतः स्मृतः ॥
७४॥
प्राकृत अथवा भौतिकतावादी भक्त शास्त्रों का जानबुझकर अध्ययन नहीं करता और न शुद्ध भक्ति के वास्तविक स्तर को समझने का प्रयास करता है। फलतः वह उन्नत भक्तों के प्रति समुचित आदर प्रदर्शित नहीं करता। किन्तु वह चाहे तो अपने गुरु से या परिवार से सीखी हुई पूजा की विधि विधान का पालन कर सकता है। उसे भौतिक स्तर पर ही माना जाना चाहिए, यद्यपि वह भक्ति में प्रगति करने के लिए प्रयत्नशील रहता है। ऐसा व्यक्ति भक्तप्राय (नया भक्त) या भक्ताभास होता है, क्योंकि उसे वैष्णव दर्शन से थोड़ा ज्ञान प्राप्त हो जाता है।'
सर्व महा-गुण-गण वैष्णव-शरीरे ।कृष्ण-भक्ते कृष्णेर गुण सकलि सञ्चारे ॥
७५ ॥
वैष्णव वह है, जिसने समस्त उत्तम दिव्य गुण विकसित कर लिए हों। कृष्ण-भक्त में कृष्ण के सारे सद्गुण क्रमशः विकसित होते हैं।
ग्रस्यास्ति भक्तिर्भगवत्यकिञ्चनासर्वैर्गुणैस्तत्र समासते सुराः । हरावभक्तस्य कुतो महद्गुणा ।मनो-रथेनासति धावतो बहिः ॥
७६ ॥
कृष्ण में जिस व्यक्ति की अविचल भक्तिमयी श्रद्धा होती है, उस व्यक्ति में कृष्ण तथा देवताओं के समस्त सद्गुण सदा प्रकट होते हैं। किन्तु जिसमें पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के प्रति भक्ति नहीं होती, उसमें कोई सद्गुण नहीं होते, क्योंकि वह उस भौतिक जगत् में मानसिक कल्पना में लगा रहता है, जो भगवान् का बाह्य लक्षण है।
सेइ सब गुण हय वैष्णव-लक्षण । सब कहा ना ग्राय, करि दिग्दरशन ॥
७७॥
ये सारे दिव्य गुण शुद्ध वैष्णवों के लक्षण हैं और इनकी पूरी व्याख्या नहीं की जा सकती, किन्तु मैं इनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण गुणों को इंगित करने का प्रयास करूंगा।
कृपालु, अकृत-द्रोह, सत्य-सार सम । निदोष, वदान्य, मृदु, शुचि, अकिञ्चन ॥
७८ ॥
सर्वोपकारक, शान्त, कृष्णैक-शरण ।। अकाम, अनीह, स्थिर, विजित-घडू-गुण ॥
७९॥
मित-भुक्, अप्रमत्त, मानद, अमानी । गम्भीर, करुण, मैत्र, कवि, दक्ष, मौनी ॥
८०॥
भक्तगण सदैव कृपालु, विनीत, सत्यवादी, सबके प्रति समभाव रखने वाले, निर्दोष, उदार, मृदु तथा स्वच्छ होते हैं। उनके पास भौतिक सम्पत्ति नहीं होती और वे हर एक के लिए उपकार का कार्य करते हैं। वे शान्त, कृष्ण के शरणागत तथा इच्छारहित होते हैं। वे भौतिक उपलब्धियों के प्रति उदासीन रहते हैं और भक्ति में स्थिर रहते हैं। वे छः दुर्गुणों-काम, क्रोध, लोभ इत्यादि--पर पूरा नियन्त्रण रखते हैं। वे आवश्यकता अनुसार खाते हैं और उन्मत्तता से अप्रभावित होते हैं। वे दूसरों का आदर करने वाले, गम्भीर, दयालु तथा झूठी प्रतिष्ठा से रहित होते हैं। वे मैत्रीपूर्ण, कवि, दक्ष तथा मौन होते हैं।
तितिक्षवः कारुणिकाः सुहृदः सर्व-देहिनाम् । अजातशत्रवः शान्ताः साधवः साधु-भूषणाः ॥
८१ ॥
भक्तगण सदैव सहिष्णु तथा दयालु होते हैं। वे प्रत्येक जीव के शुभचिन्तक होते हैं। वे शास्त्रों के आदेशों का पालन करते हैं और उनका कोई शत्रु नहीं होता, इसलिए वे अत्यन्त शान्त होते हैं। ये भक्तों के आभूषण हैं।'
महत्सेवां द्वारमाहुर्विमुक्तेस्तमो-द्वार योषिता सङ्गि-सङ्गम् । महान्तस्ते सम-चित्ताः प्रशान्ताविमन्यवः सुहृदः साधवो ग्रे ॥
८२॥
समस्त शास्त्रों तथा महापुरुषों का यह निर्णय है कि शुद्ध भक्त की सेवा करने से मुक्ति-पथ प्राप्त होता है। किन्तु भौतिक भोग तथा स्त्रियों पर आसक्त रहने वाले भौतिकतावादी लोगों की संगति करने से अन्धकार का पथ प्राप्त होता है। जो वास्तव में भक्त हैं, वे विशाल-हृदय वाले, सबके प्रति समभाव रखने वाले तथा अत्यन्त शान्त होते हैं। वे कभी कोधित नहीं होते और सारे जीवों से मैत्री-भाव रखते हैं।'
कृष्ण-भक्ति-जन्म-मूल हय 'साधु-सङ्ग' ।कृष्ण-प्रेम जन्मे, तेहो पुनः मुख्य अङ्ग ॥
८३॥
कृष्ण-भक्ति का मूल कारण महान् भक्तों की संगति है। कृष्ण के प्रति सुप्त प्रेम के जाग्रत हो जाने पर भी भक्तों की संगति अत्यावश्यक है।
भवापवर्गो भ्रमतो ग्रदा भवेजजनस्य तर्हच्युत सत्समागमः ।।सत्सङ्गमो झर्हि तदैव सद्गतौपरावरेशे त्वयि जायते रतिः ॥
८४॥
हे प्रभु! हे अच्युत परम पुरुष! जब कोई व्यक्ति ब्रह्माण्डों में घूमते घूमते भौतिक संसार से मोक्ष पाने के योग्य बनता है, तब उसे भक्तों की संगति करने का अवसर प्राप्त होता है। जब वह भक्तों की संगति करता है, तब आपके प्रति उसका आकर्षण जाग्रत होता है। आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं, सर्वोत्कृष्ट भक्तों के सर्वोच्च लक्ष्य तथा ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं।'
अत आत्यन्तिकं क्षेमं पृच्छामो भवतोऽनघाः ।।संसारेऽस्मिन्क्षणार्थोऽपि सत्सङ्गः सेवधिर्नृणाम् ॥
८५॥
| हे भक्तों! समस्त पापों से मुक्त तुम सब लोगों! मैं तुम सबसे उसके विषय में पूछता हूँ, जो सारे जीवों के लिए परम कल्याणकारी है। इस भौतिक जगत् में शुद्ध भक्त के साथ आधे क्षण की संगति भी मानव समाज के लिए सबसे बड़ा खजाना है।'
सतां प्रसङ्गान्मम वीर्य-संविदोभवन्ति हृत्कर्ण-रसायनाः कथाः । तज्जोषणादाश्वपवर्ग-वर्मनिश्रद्धा रतिर्भक्तिरनुक्रमिष्यति ॥
८६॥
आध्यात्मिक रूप से बलशाली भगवत्-सन्देश की समुचित चर्चा केबल भक्तों के समाज में हो सकती है और उनके संग में श्रवण करना अत्यन्त प्रिय लगता है। यदि भक्तों से सुना जाता है, तो दिव्य अनुभव का भार्ग तुरन्त खुल जाता है और क्रमशः दृढ़ श्रद्धा उत्पन्न होती है, जो भालान्तर में आकर्षण तथा भक्ति में बदल जाती है।
असत्सङ्ग-त्याग,—एइ वैष्णव-आचार । ‘स्त्री-सङ्गी'—एक असाधु, कृष्णभक्त' आर ॥
८७॥
वैष्णव को सामान्य लोगों की संगति से हमेशा बचना चाहिए। सामान्य लोग बुरी तरह से भौतिकता में, विशेषतया स्त्रियों में आसक्त रहते हैं। वैष्णवों को उन लोगों की भी संगति से बचना चाहिए, जो कृष्ण भक्त नहीं हैं।
सत्यं शौचं दया मौनं बुद्धिहः श्रीर्घशः क्षमा ।। शमो दमो भगश्चेति ग्रसङ्गाद् ग्राति सक्षयम् ॥
८८॥
तेष्वशान्तेषु मूढेषु खण्डितात्मस्वसाधुषु ।। सङ्गं न कुर्याच्छोच्येषु ग्रोषिक्रीड़ा-मृगेषु च ॥
८९॥
न तथास्य भवेन्मोहो बन्धश्चान्य-प्रसङ्गतः ।। ग्रोषित्सङ्गाद् यथा पुंसो ग्रथा तत्सङ्गि-सङ्गतः ॥
९० ॥
संसारी लोगों की संगति से मनुष्य सत्य, शौच, दया, गम्भीरता, आध्यात्मिक बुद्धि, लज्जा, तपस्या, यश, क्षमा, मन का संयम, इन्द्रिय निग्रह, ऐश्वर्य तथा समस्त अवसरों से विहीन हो जाता है। मनुष्य को कभी भी ऐसे निरे मूर्ख की संगति नहीं करनी चाहिए, जो आत्म-साक्षात्कार के ज्ञान से रहित हो और जो स्त्रियों के हाथ का पशु के समान खिलौना बना हुआ हो। अन्य किसी वस्तु से आसक्ति के फलस्वरूप उत्पन्न मोह तथा अन्धन उतना खतरनाक नहीं होता, जितना कि स्त्री या स्त्रियों पर अत्यन्त अनुरक्त रहने वाले पुरुषों की संगति करने से होता है।'
वरं हुत-बह-ज्वाला-पञ्जरान्तर्व्यवस्थितिः । न शौरि-चिन्ता-विमुख-जन-संवास-वैशसम् ॥
९१ ॥
पिंजरे के भीतर बन्दी होने तथा जलती अग्नि के द्वारा घिर जाने जैसे कष्टों को सहन कर लेना कृष्णभावना से विहीन लोगों की संगति करने से श्रेयस्कर है। ऐसी संगति महान् विपदापूर्ण है।
मा द्राक्षीः क्षीण-पुण्यान् क्वचिदपि भगवद्भक्ति-हीनान् मनुष्यान् ॥
१२॥
जो लोग कृष्णभावनामृत से विहीन होने के कारण पुण्यकर्मों से । रहित हैं, उनको देखना तक नहीं चाहिए।'
एत सब छाड़ि' आर वर्णाश्रम-धर्म ।।अकिञ्चन हा लय कृष्णैक-शरण ॥
९३॥
मनुष्य को बुरी संगति त्यागकर तथा चारों वर्गों और चारों आश्रमों विधानों की भी उपेक्षा करके बिना किसी द्विधा के पूर्ण विश्वास के Nथ भगवान् कृष्ण की एकमात्र शरण ग्रहण करनी चाहिए। कहने का अभिप्राय यह है कि मनुष्य को सभी भौतिक आसक्ति का त्याग करना चाहिए।'
सर्व-धर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।अहं त्वां सर्व-पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
९४॥
| यदि तुम सारे धार्मिक तथा वृत्तिपरक कर्तव्यों को त्यागकर मुझ, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की शरण ग्रहण करते हो, तो मैं तुम्हें जीवन के सारे पापमय फलों से सुरक्षा प्रदान करूंगा। तुम चिन्ता मत करो।'
भक्त-वत्सल, कृतज्ञ, समर्थ, वदान्य ।हेन कृष्ण छाड़ि' पण्डित नाहि भजे अन्य ॥
९५ ॥
कृष्ण अपने भक्तों के प्रति अत्यन्त कृपालु हैं। वे सदैव अत्यधिक कृतज्ञ तथा उदार हैं और समस्त क्षमताओं से युक्त हैं। विद्वान व्यक्ति अन्य किसी की पूजा करने के लिए कृष्ण को नहीं छोड़ते।।
कः पण्डितस्त्वदपरं शरणं समीयाद्भक्त-प्रियादृत-गिरः सुहृदः कृतज्ञात् । सर्वान्ददाति सुहृदो भजतोऽभिकामान् ।आत्मानमप्युपचयापचयौ न यस्य ॥
९६॥
हे प्रभु, आप अपने भक्तों के प्रति अत्यन्त वत्सल हैं। आप सत्यनिष्ठ या कृतज्ञ मित्र भी हैं। भला ऐसा कौन विद्वान व्यक्ति होगा, जो आपको पागकर अन्य किसी की शरण ग्रहण करेगा? आप अपने भक्तों की सारी ईछाएँ पूर्ण करते हैं, यहाँ तक कि कभी-कभी आप उन्हें अपने आपको भी दे देते हैं। फिर भी ऐसे कार्य से न आप में वृद्धि होती है, न कमी आती हैं।
विज्ञ-जनेर हय यदि कृष्ण-गुण-ज्ञान ।। अन्य त्यजि', भजे, ताते उद्धव-प्रमाण ॥
९७॥
जब कोई अनुभवी व्यक्ति कृष्ण तथा उनके दिव्य गुणों का वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर लेता है, तो वह स्वाभाविक रूप से अन्य कार्यों को त्याग देता है और भगवान् की सेवा करने लगता है। उद्धव इसका प्रमाण देते हैं।
अहो बकी ग्रं स्तन-काल-कूटं | जिघांसयापाययदप्यसाध्वी । लेभे गतिं धात्र्युचितां ततोऽन्यंकं वा दयालुं शरणं व्रजेम ॥
९८॥
यह कैसा अद्भुत है कि बकासुर की बहन पूतना अपने स्तनों में घातक विष का लेप करके और स्तनपान कराकर कृष्ण को मारना चाहती थी। फिर भी भगवान् कृष्ण ने उसे अपनी माता के रूप में स्वीकार किया और इस तरह उसने कृष्ण की माता के योग्य गति प्राप्त की। तो मैं उन कृष्ण के अतिरिक्त और किसकी शरण ग्रहण करूँ, जो सर्वाधिक दयालु हैं?' शरणागतेर, अकिञ्चनेर—एकइ लक्षण ।।तार मध्ये प्रवेशये 'आत्म-समर्पण' ॥
९९॥
भक्त दो प्रकार के होते हैं-अकिंचन, जो पूर्णतया सन्तुष्ट और मस्त भौतिक कामनाओं से मुक्त होते हैं और वे जो भगवान् केणकमलों में पूर्णतया शरणागत होते हैं। उनके गुण एक-से होते हैं, जन्तु जो कृष्ण के चरणकमलों में शरणागत हैं, उनमें एक दिव्य गुण और पाया जाता है-वह है आत्मसमर्पण का गुण।
आनुकूल्यस्य सङ्कल्पः प्रातिकूल्यस्य वर्जनम् रक्षिष्यतीति विश्वासो गोप्तृत्त्वे वरणं तथा ।आत्म-निक्षेप-कार्पण्ये षडू-विधा शरणागतिः ॥
१०० ॥
शरणागति के छह विभाग ये हैं-भक्ति के अनुकूल बातों को स्वीकार करना, प्रतिकूल बातों का बहिष्कार करना, कृष्ण द्वारा संरक्षण पर पूर्ण विश्वास होना, भगवान् को संरक्षक या स्वामी के रूप में स्वीकार करना, पूर्ण आत्मसमर्पण तथा दीनता।
तवास्मीति वदन्वाचा तथैव मनसा विदन् । तत्स्थानमाश्रितस्तन्वा मोदते शरणागतः ॥
१०१॥
जिसका शरीर पूर्णतया समर्पित है, वह उस पवित्र स्थान की शरण लेता है, जहाँ कृष्ण ने उनकी लीलाएँ की थीं। वह भगवान् से प्रार्थना फरता है, हे प्रभु, मैं आपका हूँ। वह इसे मन से जानकर आध्यात्मिक आनन्द का अनुभव करता है।'
शरण लञा करे कृष्णे आत्म-समर्पण। कृष्ण तारे करे तत्काले आत्म-सम ॥
१०२॥
जब इस तरह भक्त कृष्ण के चरणकमलों में पूरी तरह आत्मसमर्पण कर देता है, तो कृष्ण उसे अपने अन्तरंग पार्षदों में से एक के रूप में स्वीकार कर लेते हैं।
मर्यो यदा त्यक्त-समस्त-कर्मा | निवेदितात्मा विचिकीर्षितो मे । तदामृतत्वं प्रतिपद्यमानोमयात्म-भूयाय च कल्पते वै ॥
१०३॥
जन्म तथा मृत्यु का शिकार बनने वाला जीव जब सारे भौतिक कार्यों को त्याग देता है, मेरे आदेश का पालन करने में अपना जीवन अर्पित कर देता है और मेरे आदेशों के अनुसार कर्म करता है, तो वह अमरत्व को प्राप्त करता है। इस तरह वह मेरे साथ प्रेम-रस का विनिमय करने से प्राप्त आध्यात्मिक आनन्द को भोगने के लिए उपयुक्त बन जाता है।'
एबे साधन-भक्ति-लक्षण शुन, सनातन । ग्राहा हैते पाइ कृष्ण-प्रेम-महा-धन ॥
१०४॥
हे सनातन, अब कृपया भक्ति सम्पन्न करने के विधानों के विषय में सुनो इस विधि से मनुष्य भगवत्प्रेम की सर्वोच्च पूर्णता प्राप्त कर सकता जो सर्वाधिक वांछित महाधन है।
कृति-साध्या भवेत्साध्य-भावा सा साधनाभिधा । नित्य-सिद्धस्य भावस्य प्राकट्यं हृदि साध्यता ॥
१०५॥
जिस दिव्य भक्ति से कृष्ण-प्रेम प्राप्त किया जाता है, यदि उसे इन्द्रियों से सम्पन्न किया जाता है, तो वह साधन भक्ति कहलाती है। ऐसी कि हर जीव के हृदय के भीतर निरन्तर स्थित रहती है। इस सनातन त का उदय ही साधन भक्ति द्वारा साध्य होने वाला फल है।'
श्रवणादि-क्रिया–तार ‘स्वरूप'-लक्षण । ‘तटस्थ'-लक्षणे उपजाय प्रेम-धन ॥
१०६ ॥
श्रवण, कीर्तन, स्मरण इत्यादि आध्यात्मिक कार्यकलाप भक्ति के स्वाभाविक लक्षण हैं। इसका तटस्थ लक्षण यह है कि इससे कृष्ण के प्रति शुद्ध प्रेम उत्पन्न होता है।
नित्य-सिद्ध कृष्ण-प्रेम ‘साध्य' कभु नय ।श्रवणादि-शुद्ध-चित्ते करये उदय ॥
१०७॥
कृष्ण के प्रति शुद्ध प्रेम जीवों के हृदयों में नित्य स्थापित रहता है। यह ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे किसी अन्य स्रोत से प्राप्त किया जाए। जब श्रवण तथा कीर्तन से हृदय शुद्ध हो जाता है, तब यह प्रेम स्वाभाविक रूप से जाग्रत हो उठता है।
एइ त साधन-भक्ति–दुइ त' प्रकार ।एक 'वैधी भक्ति', 'रागानुगा-भक्ति' आर ॥
१०८॥
साधन भक्ति की दो विधियाँ हैं। एक है वैधी भक्ति तथा दूसरी रागानुगा भक्ति।
राग-हीन जन भजे शास्त्रेर आज्ञाय ।‘वैधी भक्ति' बलि' तारे सर्व-शास्त्रे गाय ॥
१०९॥
जिन्हें रागानुगा भक्ति प्राप्त नहीं हुई, वे शास्त्रों में वर्णित विधानों के अनुसार प्रामाणिक गुरु के मार्गदर्शन में भक्ति करते हैं। शास्त्रों के अनुसार ऐसी भक्ति वैधी भक्ति कहलाती है।
तस्माद्भारत सर्वात्मा भगवान्हरिरीश्वरः ।।श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च स्मर्तव्यश्वेच्छताभयम् ॥
११०॥
हे भरतवंशी, महाराज परीक्षित! जो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् मनुष्य के हृदय में परमात्मा रूप में स्थित हैं, जो परम नियन्ता हैं और जो सारे जीवों के कष्टों को सदा दूर करने वाले हैं, उनका प्रामाणिक स्रोत से । अषण, उनकी महिमा का गायन तथा उनका स्मरण उन लोगों द्वारा सदैव किया जाना चाहिए, जो निर्भय बनना चाहते हैं।'
मुख-बाहूरु-पादेभ्यः पुरुषस्याश्रमैः सह ।। चत्वारो जज्ञिरे वर्णा गुणैर्विप्रादयः पृथक् ॥
१११॥
ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण-वर्ण प्रकट हुए। इसी तरह उनकी बाहुओं से क्षत्रिय उत्पन्न हुए, उनकी कमर से वैश्य प्रकट हुए और उनके पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए। ये चारों वर्ण तथा उनके आध्यात्मिक आश्रम ( ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास ) मिलकर मानव-समाज को पूर्ण बनाते है।
ग्र एषां पुरुषं साक्षादात्म-प्रभवमीश्वरम् ।। न भजन्त्यवजानन्ति स्थानाद्भ्रष्टाः पतन्त्यधः ॥
११२ ॥
यदि कोई व्यक्ति चारों वर्षों तथा आश्रमों में केवल औपचारिक स्थिति बनाये रखता है, किन्तु परम भगवान् विष्णु की पूजा नहीं करता, तो वह अपने गर्वित स्थान से गिरकर नरक में जा पहुँचता है।'
स्मर्तव्यः सततं विष्णुर्विस्मर्तव्यो न जातुचित् ।।सर्वे विधि-निषेधाः स्युरेतयोरेव किङ्कराः ॥
११३॥
कृष्ण ही भगवान् विष्णु के उद्गम हैं। उनका सतत स्मरण करना हिए और किसी भी समय उन्हें भूलना नहीं चाहिए। शास्त्रों में उल्लिखित सारे नियम तथा निषेध इन्हीं दोनों नियमों के अधीन होने पाहिए।'
विविधाङ्ग साधन-भक्तिर बहुत विस्तार ।सङ्क्षेपे कहिये किछु साधनाङ्ग-सार ॥
११४॥
मैं भक्ति के विविध साधनांगों के विषय में कुछ कहूँगा, जिनका विस्तार अनेक प्रकार से हुआ है। मैं मुख्य साधनांगों के विषय में संक्षेप में कहना चाहता हूँ।
गुरु-पादाश्रय, दीक्षा, गुरुर सेवन ।।सद्धर्म-शिक्षा-पृच्छा, साधु-मार्गानुगमन ॥
११५ ॥
साधन भक्ति के मार्ग में निम्नलिखित अंगों का पालन करना चाहिए -( १ ) एक प्रामाणिक गुरु की शरण ग्रहण करनी चाहिए। सौ से दीक्षा ली जाए।(३) उसी की सेवा की जाए।(४) गुरु 7 ग्रहण की जाए और भक्ति की शिक्षा के लिए प्रश्न किये जाएँ। पूर्ववर्ती आचार्यों के पदचिह्नों का अनुगमन किया जाए तथा गुरु ये गये निर्देशों का पालन किया जाए।
कृष्ण-प्रीत्ये भोग-त्याग, कृष्ण-तीर्थे वास ।यावन्निर्वाह-प्रतिग्रह, एकादश्युपवास ॥
११६॥
अगले अंग इस प्रकार हैं-(६) कृष्ण की तुष्टि के लिए सर्वस्व भाग करने के लिए प्रस्तुत रहना तथा कृष्ण की तुष्टि के लिए हीबस्तु को स्वीकार करना। (७) जहाँ कृष्ण हों-यथा वृन्दावन, पा कृष्ण मन्दिर में-वहीं रहना । (८) जीविका-निर्वाह के लिए पक हो उतना ही धन कमाना (९) एकादशी के दिन उपवास रखना।
धात्र्यश्वत्थ-गो-विप्र-वैष्णव-पूजन ।। सेवा-नामापराधादि दूरे विसर्जन ॥
११७॥
( १०) मनुष्य को चाहिए कि वह धात्री वृक्षों, बरगद वृक्षों, गौवों, ब्राह्मणों तथा भगवान् विष्णु के भक्तों की पूजा करे।(११) उसे भक्ति तथा पवित्र नाम के विरुद्ध अपराधों से बचना चाहिए।
अवैष्णव-सङ्ग-त्याग, बहु-शिष्य ना करिब ।। बहु-ग्रन्थ-कलाभ्यास-व्याख्यान वर्जिब ॥
११८॥
बारहवाँ अंग है अभक्तों की संगति त्याग देना। (१३) मनुष्य को असंख्य शिष्य नहीं बनाने चाहिए। (१४) मात्र प्रमाण देने तथा टीका करने के उद्देश्य से अनेक शास्त्रों का अधूरा अध्ययन नहीं करना चाहिए।
हानि-लाभे सम, शोकादिर वश ना हइब ।। अन्य-देव, अन्य-शास्त्र निन्दा ना करिब ॥
११९॥
( १५) भक्त को चाहिए कि वह हानि तथा लाभ को समान माने। (१६) भक्त को शोक से अभिभूत नहीं होना चाहिए।(१७) भक्त । न तो देवताओं की पूजा करनी चाहिए, न ही उनका अनादर करना। चाहिए। इसी तरह भक्त को चाहिए कि वह न तो अन्य शास्त्रों का अध्ययन करे, न उनकी आलोचना करे।
विष्णु-वैष्णव-निन्दा, ग्राम्य-वार्ता ना शुनिब ।।प्राणि-मात्रे मनो-वाक्ये उद्वेग ना दिब ॥
१२०॥
(१८) भक्त को भगवान् विष्णु या उनके भक्तों की निन्दा कभी नहीं सुननी चाहिए। (१९) भक्त को समाचार-पत्र अथवा स्त्री-पुरुषों की प्रेम-कथाओं वाली पुस्तकें या इन्द्रियों को अच्छे लगने वाले विषयों को पढ़ने या सुनने से बचना चाहिए। (२०) भक्त को चाहिए कि मन या वचन से किसी जीव को न सताये, भले ही वह कितना ही तुच्छ क्यों न हो।
श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पूजन, वन्दन । परिचर्या, दास्य, सख्य, आत्म-निवेदन ॥
१२१॥
भक्ति में प्रतिष्ठित व्यक्ति के लिए करणीय कर्म इस प्रकार हैं| भवण, (२) कीर्तन, (३) स्मरण, (४) पूजन, (५) वन्दन, सेवा, (७) दास्य-भाव को स्वीकार करना, (८) मित्र बनना तथा ३) पूर्णतया समर्पण करना।
अग्रे नृत्य, गीत, विज्ञप्ति, दण्डवन्नति ।।अभ्युत्थान, अनुव्रज्या, तीर्थ-गृहे गति ॥
१२२॥
भक्त को चाहिए कि वह (१०) अर्चाविग्रह के समक्ष नृत्य करे, ११) उनके समक्ष गाये, (१२) उनसे मन की बात कहे, (१३) उनको मस्कार करे, (१४) उनके तथा गुरु के समक्ष खड़ा होकर सम्मान ताये, (१५) उनका अथवा गुरु का अनुगमन करे तथा (१६) विभिन्न पार्थस्थानों में जाये या मन्दिर में अर्चाविग्रह का दर्शन करने जाये।
परिक्रमा, स्तव-पाठ, जप, सङ्कीर्तन ।।धूप-माल्य-गन्ध-महाप्रसाद-भोजन ॥
१२३॥
भक्त को चाहिए कि वह (१७) मन्दिर की परिक्रमा को, (१८) स्तव-पाठ करे, (१९) मन्द स्वर में जप करे, (२०) सामूहिक कीर्तन करे, (२१) अर्चाविग्रह पर चढ़ी धूप तथा फूलों की माला को सुध तथा (२२) अर्चाविग्रह पर चढ़ाये गये भोजन का शेष ग्रहण करे।
आरात्रिक-महोत्सव-श्रीमूर्ति-दर्शन । निज-प्रिय-दान, ध्यान, तदीय-सेवन ॥
१२४॥
उसे चाहिए कि (२३) आरती तथा उत्सवों में सम्मिलित हो, (२४) अर्चाविग्रह का दर्शन करे, (२५) अपनी प्रिय वस्तु अर्चाविग्रह पर चढ़ाये, (२६) अर्चाविग्रह का ध्यान करे तथा (२७-३०) भगवान से सम्बन्धित लोगों की सेवा करे।
‘तदीय'—तुलसी, वैष्णव, मथुरा, भागवत । एइ चारिर सेवा हय कृष्णेर अभिमत ॥
१२५॥
तदीय का अर्थ है, तुलसी-दल, कृष्ण के भक्त, कृष्ण का स्थान (मथुरा) तथा वैदिक ग्रन्थ श्रीमद्भागवत। कृष्ण यह देखने लिए अत्यन्त उत्सुक रहते हैं कि उनका भक्त तुलसी, वैष्णव, मथुरा भागवत की सेवा करे।
कृष्णार्थे अखिल-चेष्टा, तत्कृपावलोकन ।। जन्म-दिनादि-महोत्सव ला भक्त-गण ॥
१२६॥
(३१) भक्त को चाहिए कि वह कृष्ण के लिए सारी चेष्टाएँ करे। (३२) उनकी कृपा के लिए लालायित रहे। (३३) भक्तों के साथ | मिलकर विभिन्न उत्सवों में-यथा कृष्ण जन्माष्टमी या रामचन्द्र के जन्मोत्सव में भाग ले।
सर्वथा शरणापत्ति, कार्तिकादि-व्रत ।‘चतुःषष्टि अङ्ग' एइ परम-महत्त्व ॥
१२७॥
(३४) भक्त को चाहिए कि सभी प्रकार से कृष्ण की शरण में जाये।( ३५ ) कार्तिक व्रत जैसे विशेष व्रत रखे। भक्ति के चौंसठ का ? में से ये कुछ महत्त्वपूर्ण बातें हैं।
साधु-सङ्ग, नाम-कीर्तन, भागवत-श्रवण ।।मथुरा-वास, श्री-मूर्तिर श्रद्धाय सेवन ॥
१२८॥
मनुष्य को चाहिए कि वह भक्तों की संगति करे, भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन करे, श्रीमद्भागवत सुने, मथुरा में वास करे तथा श्रद्धा सम्मानपूर्वक अर्चाविग्रह की पूजा करे।
सकल-साधन-श्रेष्ठ एइ पञ्च अङ्ग ।कृष्ण-प्रेम जन्माय एइ पाँचेर अल्प सङ्ग ॥
१२९॥
भक्ति के ये पाँच अंग सर्व अंगों में श्रेष्ठ हैं। यदि इन पाँचों को थोड़ा सा भी सम्पन्न किया जाए, तो कृष्ण-प्रेम जाग्रत होता है।
श्रद्धा विशेषतः प्रीतिः श्री-मूर्तेरध्रि-सेवने ॥
१३०॥
अर्चाविग्रह के चरणकमलों की पूजा पूर्ण श्रद्धा तथा प्रेम मग करनी चाहिए।
श्रीमद्भागवतार्थानामास्वादो रसिकैः सह ।। सजातीयाशये स्निग्धे साधौ सङ्गः स्वतो वरे ॥
१३१॥
शुद्ध भक्तों की संगति में श्रीमद्भागवत के अर्थ का आस्वादन करना चाहिए। उसे अपने से अधिक उन्नत तथा अपने ही जैसे भगवत्प्रेमी भक्तों की संगति करनी चाहिए।
नाम-सङ्कीर्तनं श्रीमन्मथुरा-मण्डले स्थितिः ॥
१३२॥
भक्त को भगवान् के पवित्र नाम का सामूहिक कीर्तन करना चाहिए और वृन्दावन में निवास करना चाहिए।'
दुरूहाद्भुत-वीर्येऽस्मिन्श्रद्धा दूरेऽस्तु पञ्चके । यत्र स्वल्पोऽपि सम्बन्धः सद्धियां भाव-जन्मने ॥
१३३॥
इन पाँचों सिद्धान्तों की शक्ति अद्भुत और समझ पानी कठिन है। अपराधरहित श्रद्धाविहीन व्यक्ति भी उनसे थोड़ा भी सम्बन्धित होने पर कृष्ण के प्रति सुप्त प्रेम को जाग्रत कर सकता है।
'एक' अङ्ग साधे, केह साधे 'बहु' अङ्ग ।‘निष्ठा' हैले उपजय प्रेमेर तरङ्ग ॥
१३४॥
ऐसे अनेक भक्त हैं, जो भक्ति की नौ विधियों में से केवल एक का पालन करते हैं, तो भी उन्हें चरम सफलता प्राप्त होती है। महाराज अम्बरीष जैसे भक्तगण नवों विधियों का सदैव पालन करते हैं और वे भी चरम सफलता प्राप्त करते हैं।
'एक' अङ्गे सिद्धि पाइल बहु भक्त-गण । अम्बरीषादि भक्तेर 'बहु' अङ्ग-साधन ॥
१३५॥
जब कोई व्यक्ति भक्ति में स्थिर हो जाता है, तो चाहे वह भक्ति की बिधि को सम्पन्न करे या अनेक विधियों को, उसमें भगवत्प्रेम की में जाग्रत हो ही जाती हैं।
श्री-विष्णोः श्रवणे परीक्षिदभवद्वैयासकिः कीर्तने ।प्रह्लादः स्मरणे तदध्रि-भजने लक्ष्मीः पृथुः पूजने । अक्रूरस्त्वभिवन्दने कपि-पतिर्दास्येऽथ सख्येऽर्जुनःसर्व-स्वात्म-निवेदने बलिरभूत्कृष्णाप्तिरेषां परा ॥
१३६॥
महाराज परीक्षित ने भगवान् कृष्ण के चरणकमलों की शरण केवल विष्णु के विषय में सुनकर प्राप्त की। यही उनकी चरम सिद्धि थी। शुकदेव गोस्वामी ने केवल श्रीमद्भागवत सुनाकर पूर्णता प्राप्त की। प्रह्लाद महाराज ने भगवान् का स्मरण करके पूर्णता प्राप्त की। लक्ष्मी ने महाविष्णु के दिव्य चरण दबाकर पूर्णता प्राप्त की। महाराज पृथु ने अर्चाविग्रह की पूजा करके तथा अक्रूर ने भगवान् की स्तुति करके पूर्णता प्राप्त की। वज्राँगजी ( हनुमान) ने भगवान् रामचन्द्र की सेवा करके तथा अर्जुन ने कृष्ण का सखा बनकर पूर्णता प्राप्त की। बलि महाराज ने कृष्ण के चरणकमलों पर अपना सर्वस्व अर्पित करके पूर्णता प्राप्त की।
स वै मनः कृष्ण-पदारविन्दयोर्वचांसि वैकुण्ठ-गुणानुवर्णने ।। करौ हरेर्मन्दिर-मार्जनादिषु ।श्रुतिं चकाराच्युत-सत्कथोदये ॥
१३७॥
मुकुन्द-लिङ्गालय-दर्शने दृशौ ।तद्धृत्य-गात्रे-स्परशेऽङ्ग-सङ्गमम् ।। घ्राणं च तत्पाद-सरोज-सौरभे | श्रीमत्तुलस्या रसनां तदर्पिते ॥
१३८॥
पादौ हरेः क्षेत्र-पदानुसर्पणे ।शिरो हृषीकेश-पदाभिवन्दने । कामं च दास्ये न तु काम-काम्ययाग्रथोत्तम:श्लोक-जनाश्रया रतिः ॥
१३९॥
महाराज अम्बरीष सदैव अपने मन को कृष्ण के चरणकमला । अपनी वाणी को आध्यात्मिक जगत् तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् । वर्णन करने में, अपने हाथों को भगवान् का मन्दिर बुहारने तथा धोने में अपने कानों को परमेश्वर की कथाएँ सुनने में, अपनी आँखों को मार में स्थापित भगवान् कृष्ण के अर्चाविग्रह का दर्शन करने में, अपने शरीर को वैष्णवों के चरणकमलों का स्पर्श करने में तथा उनका आलिग करने में, अपने नथुनों को कृष्ण के चरणकमलों पर चढ़ी तुलसी पत्तियों की गन्ध सँघने में, अपनी जीभ को कृष्ण को अर्पित भोजन आस्वादन करने में, अपने पाँवों को वृन्दावन या मथुरा जैसे तीर्थस्थान तक या भगवान् के मन्दिर तक जाने में और अपने सिर को भगवान । चरणकमलों का स्पर्श में करने तथा उनकी स्तुति करने में और अपने इच्छाओं को भगवान् की निष्ठापूर्ण सेवा करने में लगाया। इस त महाराज अम्बरीष ने अपनी सारी इन्द्रियों को भगवान् की दिव्य प्रेमाभा में लगाया। फलस्वरूप उन्होंने अपनी सुप्त भगवत्सेवा लालसा को जाम किया।
काम त्यजि' कृष्ण भजे शास्त्र-आज्ञा मानि' ।।देव-ऋषि-पित्रादिकेर कभु नहे ऋणी ॥
१४०॥
कोई व्यक्ति प्रामाणिक शास्त्रों के आदेशानुसार समस्त भौतिक को त्यागकर कृष्ण की प्रेमाभक्ति में पूरी तरह लग जाता है, तो ओं, ऋषियों, मुनियों या पूर्वजों से उऋण हो जाता है।
देवर्षि-भूताप्त-नृणां पितृणांन किङ्करो नायमृणी च राजन् ।सर्वात्मना यः शरणं शरण्यंगतो मुकुन्दं परिहृत्य कर्तम् ॥
१४१॥
जिस व्यक्ति ने सारे भौतिक कर्तव्यों का परित्याग करके सबको शरण देने वाले मुकुन्द के चरणकमलों में शरण ग्रहण कर ली है, वह देवताओं, ऋषियों, सामान्य जीवों, सम्बन्धियों, मित्रों, मनुष्यों या दिवंगत पूर्वजों का ऋणी नहीं रह जाता।'
विधि-धर्म छाड़ि' भजे कृष्णेर चरण ।। निषिद्ध पापाचारे तार कभु नहे मन ॥
१४२ ॥
यद्यपि शुद्ध भक्त वर्णाश्रम के सारे नियमों का पालन नहीं करता, किन्तु वह कृष्ण के चरणकमलों की पूजा करता है। इसलिए उसमें स्वाभाविक रूप से पाप करने की प्रवृत्ति नहीं होती।
अज्ञाने वा हय यदि ‘पाप’ उपस्थित ।कृष्ण ताँरै शुद्ध करे, ना कराये प्रायश्चित्त ॥
१४३॥
किन्तु यदि संयोगवश कोई भक्त पापकर्म में लिप्त हो जाता है, तो कृष्ण उसे शुद्ध कर लेते हैं। उसे विधिवत् प्रायश्चित्त नहीं करना पड़ता।
स्व-पाद-मूलं भजत: प्रियस्यत्यक्तान्य-भावस्य हरिः परेशः । विकर्म ग्नच्चोत्पतितं कथञ्चिद्धुनोति सर्वं हृदि सन्निविष्टः ॥
१४४॥
जिसने सब कुछ त्यागकर पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हरि के णकमलों में शरण ले ली है, वह कृष्ण को अत्यन्त प्रिय होता है। यदि गवश वह किसी पापकर्म में लिप्त हो जाता है, तो प्रत्येक हृदय में त पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् उसके पापों को सरलता से दूर कर देते है।
ज्ञान-वैराग्यादि-भक्तिर कभु नहे 'अङ्ग' ।अहिंसा-यम-नियमादि बुले कृष्ण-भक्त-सङ्ग ॥
१४५ ॥
भक्ति के लिए ज्ञान तथा त्याग का मार्ग आवश्यक नहीं है। हाँ, कुछ सद्गुण-यथा अहिंसा तथा मन और इन्द्रिय का नियन्त्रणगवान् कृष्ण के भक्त में स्वतः आ जाते हैं।
तस्मान्मद्भक्ति-युक्तस्य योगिनो वै मदात्मनः ।।न ज्ञानं न च वैराग्यं प्रायः श्रेयो भवेदिह ॥
१४६॥
जो मेरी भक्ति में पूरी तरह से लगा हुआ है, जिसका मन मेरे भक्तियोग में स्थिर है, उसके लिए तार्किक ज्ञान तथा शुष्क वैराग्य का मार्ग अधिक लाभप्रद नहीं होता।
एते न ह्यद्भुता व्याध तवाहिंसादयो गुणाः ।।हरि-भक्तो प्रवृत्ता ये न ते स्युः पर-तापिनः ॥
१४७॥
हे व्याध, तुमने जो अहिंसा जैसा सद्गुण अपना रखा है, वह | आश्चर्यजनक नहीं है, क्योंकि जो भगवान् की भक्ति में लगे हुए हैं, वे ईर्ष्यावश अन्यों को कष्ट नहीं देना चाहते।'
वैधी-भक्ति-साधनेर कहिलॆ विवरण ।। रागानुगा-भक्तिर लक्षण शुन, सनातन ॥
१४८॥
हे सनातन, मैं वैधी भक्ति के विषय में विस्तार से बतला चुका हूँ। अब मुझसे स्वतःस्फूर्त रागानुगा भक्ति तथा उसके लक्षणों के विषय में सुनो।
रागात्मिका-भक्ति–'मुख्या' व्रज-वासि-जने ।तार अनुगत भक्तिर 'रागानुगा'-नामे ॥
१४९॥
वृन्दावन के मूल निवासी कृष्ण से रागात्मिका भक्ति द्वारा जुड़े हुए हैं। ऐसी रागात्मिका भक्ति की कोई बराबरी नहीं कर सकता। जब कोई भक्त वृन्दावन के भक्तों के चरणचिह्नों का अनुसरण करता है, तो उसकी भक्ति रागानुगा ( स्वतःस्फूर्त ) भक्ति कहलाती है।
इष्टे स्वारसिकी रागः परमाविष्टता भवेत् । तन्मयी ग्रा भवेद्भक्तिः सात्र रागात्मिकोदिता ॥
१५०॥
जब भक्त पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् में अनुरक्त हो जाता है, तब उसकी प्रेम करने की सहज प्रवृत्ति भगवान् के चिन्तन में पूर्ण रूप से मिमग्न हो जाती है। यह दिव्य अनुराग कहलाता है और इस अनुराग के अनुसार की गई भक्ति रागात्मिका भक्ति अर्थात् स्वतःस्फूर्त भक्तिमयी सेवा कहलाती है।'
इष्टे गाढ़-तृष्णा' रागेर स्वरूप-लक्षण । इष्टे 'आविष्टता'—एइ तटस्थ-लक्षण ॥
१५१॥
रागात्मिका प्रेम का मूल लक्षण है पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के प्रति प्रगाढ़ अनुराग। भगवान् में तल्लीनता तटस्थ लक्षण है।
रागमयी-भक्तिर हय 'रागात्मिका' नाम ।ताहा शुनि' लुब्ध हय कोने भाग्यवान् ॥
१५२॥
इस तरह जो भक्ति राग (प्रगाढ़ आसक्ति) से युक्त होती है, वह रागात्मिका कहलाती है। यदि कोई भक्त ऐसी स्थिति को प्राप्त होता है, तो वह परम भाग्यशाली माना जाता है।
लोभे व्रज-वासीर भावे करे अनुगति ।।शास्त्र-युक्ति नाहि माने रागानुगार प्रकृति ॥
१५३॥
यदि कोई व्यक्ति ऐसी दिव्य चेतना के वशीभूत होकर वृन्दावनवासियों के चरणचिह्नों का अनुसरण करता है, तो वह शास्त्रों के आदेशों या तर्कों की परवाह नहीं करता। यही राग का मार्ग है।
विराजन्तीमभिव्यक्तां व्रज-वासि-जनादिषु । रागात्मिकामनुसृता ग्रा सा रागानुगोच्यते ॥
१५४॥
वृन्दावन के निवासियों में स्वतःस्फूर्त प्रेम में की जाने वाली भक्ति की जीवन्त अभिव्यक्ति तथा प्राकट्य देखा जाता है। जो भक्ति वृन्दावनवासियों की भक्ति के अनुरूप होती है, वह रागानुगा भक्ति अर्थात् स्वतःस्फूर्त प्रेम जाग्रत होने पर सम्पन्न होने वाली भक्ति कहलाती है।'
तत्तद्भावादि-माधुर्ये श्रुते धीर्घदपेक्षते ।। नात्र शास्त्रं न युक्तिं च तल्लोभोत्पत्ति-लक्षणम् ॥
१५५ ॥
जब कोई स्वरूपसिद्ध उन्नत भक्त वृन्दावन के भक्तों के कार्योंशान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य तथा माधुर्य रसों-के विषय में सुनता है, तो वह इनमें से किसी एक की ओर उन्मुख हो जाता है और उसकी बुद्धि उसी ओर आकृष्ट हो जाती है। निस्सन्देह, वह उस विशेष भक्ति की ओर लुब्ध हो जाता है। जब ऐसा लोभ उत्पन्न हो जाता है, तो उसकी बुद्धि शास्त्र के आदेश, या तर्क पर आश्रित नहीं रहती।'
बाह्य, अन्तर,—इहार दुइ त’ साधन । ‘बाह्ये' साधक-देहे करे श्रवण-कीर्तन ॥
१५६॥
'मने' निज-सिद्ध-देह करिया भावन।रात्रि-दिन करे व्रजे कृष्णेर सेवन ॥
१५७॥
रागानुगा भक्ति बाह्य तथा आन्तरिक, इन दो विधियों से सम्पन्न की जा सकती है। जब उन्नत भक्त स्वरूपसिद्ध होता है, तो वह बाहर से कनिष्ठ जैसा बना रहता है और श्रवण तथा कीर्तन जैसे समस्त शास्त्रीय आदेशों का पालन करता रहता है। किन्तु वह अपनी मूल शुद्ध स्वरूपसिद्ध स्थिति में, अपने मन में विशिष्ट विधि से वृन्दावन में कृष्ण की सेवा करता है। वह चौबीसों घण्टे कृष्ण की सेवा में लगा रहता है।
सेवा साधक-रूपेण सिद्ध-रूपेण चात्र हि । तद्भाव-लिप्सुना काय़ व्रज-लोकानुसारतः ॥
१५८ ॥
रागानुगा भक्ति की ओर उन्मुख उन्नत भक्त (साधक) को वृन्दावन में कृष्ण के पार्षद-विशेष के कार्यों का अनुगमन करना चाहिए। उसे बाहर से वैधी भक्त की तरह भक्ति करने के साथ-साथ अपनी स्वरूपसिद्ध अवस्था में अन्दर ही अन्दर सेवा करनी चाहिए। इस तरह उसे बाहर तथा भीतर दोनों ही रूप में भक्ति करनी चाहिए।'
निजाभीष्ट कृष्ण-प्रेष्ठ पाछेत' लागिया ।।निरन्तर सेवा करे अन्तर्मना हा ॥
१५९ ॥
वस्तुतः कृष्ण को वृन्दावनवासी अत्यन्त प्रिय हैं। यदि कोई रागानुगा भक्ति करना चाहता है, तो उसे वृन्दावनवासियों का अनुसरण करना चाहिए और अपने मन में निरन्तर कृष्ण-सेवा करनी चाहिए।
कृष्णं स्मरन् जनं चास्य प्रेष्ठं निज-समीहितम् ।। तत्तत्कथा-रतश्चासौ कुर्याद्वासं व्रजे सदा ॥
१६०॥
भक्त को चाहिए कि वह अपने अन्तर में सदैव कृष्ण का चिन्तन करे और ऐसे प्रिय भक्त को चुने जो वृन्दावन में कृष्ण का सेवक हो। उसे उस सेवक की कथाओं के विषय में तथा कृष्ण के साथ उसके प्रेममय सम्बन्ध के विषयों का सदैव चिन्तन करना चाहिए और उसे वृन्दावन में निवास करना चाहिए। हाँ, यदि कोई शरीर से वृन्दावन नहीं जा सकता, तो उसे मानसिक रूप से वहाँ रहना चाहिए।'
दास-सखा-पित्रादि-प्रेयसीर गण। राग-मार्गे निज-निज-भावेर गणन ॥
१६१॥
कृष्ण-भक्त अनेक प्रकार के होते हैं-कुछ दास, कुछ मित्र, कुछ माता-पिता तथा कुछ प्रेयसी रूप में। जो भक्त इनमें से अपनी इच्छानुसार किसी भी रागवृत्ति में स्थित होते हैं, उन्हें रागमार्ग में प्रवृत्त माना जाता है।
न कहिँचिन्मत्पराः शान्त-रूपेनड्क्ष्यन्ति नो मेऽनिमिषो लेढ़ि हेतिः । येषामहं प्रिय आत्मा सुतश्च ।सखी गुरुः सुहृदो दैवमिष्टम् ॥
१६२ ॥
हे माता देवहूति! हे शान्ति की प्रतीक! मेरा कालचक्र रूपी शस्त्र उन लोगों का विनाश नहीं करता, जिन्हें मैं अत्यन्त प्रिय हैं, जिनके लिए मैं परमात्मा, पुत्र, मित्र, गुरु, हितचिन्तक, पूज्य देव तथा इच्छित लक्ष्य हूँ। चूंकि भक्तगण सदैव मुझ में अनुरक्त रहते हैं, अतः वे काल के दूतों द्वारा कभी विनष्ट नहीं होते।'
पति-पुत्र-सुहृद्भ्रातृ-पितृवन्मित्रवद्धरिम् ।।ये ध्यायन्ति सदोद्युक्तास्तेभ्योऽपीह नमो नमः ॥
१६३॥
मैं उन लोगों को बारम्बार नमस्कार करता हूँ, जो पूर्ण पुरुषोत्तम गवान् का ध्यान उत्सुकतापूर्वक पति, पुत्र, सखा, भाई, पिता या घनिष्ठ के रूप में करते हैं।'
एइ मत करे येबा रागानुगा-भक्ति। कृष्णेर चरणे ताँर उपजय ‘प्रीति' ॥
१६४॥
यदि कोई भगवान् की रागानुगा भक्ति में प्रवृत्त होता है, तो भगवान् कृष्ण के चरणकमलों के लिए उसका स्नेह बढ़ जाता है।
प्रीत्यङ्करे ‘रति', 'भाव' हय दुइ नाम । ग्राहा हैते वश हुन श्री-भगवान् ॥
१६५ ॥
स्नेह के बीज में आसक्ति होती है, जिसके दो नाम हैं-रति तथा भाव। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ऐसी आसक्ति के वशीभूत हो जाते हैं।
ग्राहा हैते पाइ कृष्णेर प्रेम-सेवन ।।एइत' कहिलू ‘अभिधेय'-विवरण ॥
१६६॥
जिस विधि से भगवान् की प्रेमाभक्ति प्राप्त की जा सकती है, उसका विस्तृत वर्णन मैंने अभिधेय नामक भक्ति के सम्पन्न करने के रूप में किया है।
अभिधेय, साधन-भक्ति एबे कहिलँ सनातन ।सङ्क्षेपे कहिलँ, विस्तार ना ग्राय वर्णन ॥
१६७॥
हे सनातन, मैंने साधन-भक्ति का संक्षिप्त वर्णन किया है, जो ण-प्रेम प्राप्त करने का साधन है। इसका विस्तार से वर्णन नहीं किया सकता।
अभिधेय साधन-भक्ति शुने ग्रेइ जन ।अचिरात्पाय सेइ कृष्ण-प्रेम-धन ॥
१६८॥
जो भी साधन-भक्ति की विधि को सुनता है, वह शीघ्र ही कृष्ण के परणकमलों में प्रेमपूर्वक शरण प्राप्त करता है।
श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश ।।चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
१६९॥
श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों की वन्दना करते हुए तथा उनकी कृपा की सदैव कामना करते हुए मैं कृष्णदास उनके चरणचिह्नों पर चलते हुए श्रीचैतन्य-चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ। | इस तरह श्रीचैतन्य-चरितामृत की मध्यलीला के बाइसवें अध्याय । भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ जिसमें भक्ति करने का वर्णन हुआ है।
अध्याय तेईसवाँ: जीवन का अंतिम लक्ष्य - ईश्वर का प्रेम
चिराददत्तं निज-गुप्त-वित्तंस्व-प्रेम-नामामृतमत्युदारः । आ-पामरं म्रो विततार गौरः ।कृष्णो जनेभ्यस्तमहं प्रपद्ये ॥
१॥
गौरकृष्ण नाम से विख्यात सर्वाधिक वदान्य पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् । ने हर एक को–यहाँ तक कि अधम से अधर्म व्यक्तियों को भी-अपने प्रेम तथा अपने पवित्र नाम के अमृत-रूप गुह्य खजाना बाँटा। यह इसके पहले कभी भी लोगों को नहीं दिया गया था। अतएव मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ।
जय जय गौरचन्द्र जय नित्यानन्द ।।जयाद्वैत-चन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ॥
२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! अद्वैत चार्य की जय हो! श्री चैतन्य महाप्रभु के समस्त भक्तों की जय हो! एबे शुन भक्ति-फल 'प्रेम'-प्रयोजन । ग्राहार श्रवणे हय भक्ति-रस-ज्ञान ॥
३॥
श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा, हे सनातन, अब भक्ति के फल के बारे में सुनो, जो जीवन का चरम लक्ष्य, भगवत्प्रेम है। यदि कोई व्यक्ति इस विवरण को सुनता है, तो उसे दिव्य भक्ति-रस का ज्ञान प्राप्त हो जाता है।
कृष्णे रति गाढ़ हैले 'प्रेम'-अभिधान ।।कृष्ण-भक्ति-रसेर एइ 'स्थायि-भाव'-नाम ॥
४॥
जब कृष्ण के प्रति स्नेह प्रगाढ़ हो जाता है, तो भक्ति में भगवत्प्रेम की प्राप्ति होती है। ऐसी दशा स्थायी भाव कहलाती है, जिसमें कृष्णभक्ति-रस का स्थायी आस्वादन होता है।
शुद्ध-सत्त्व-विशेषात्मा प्रेम-सूर्यांशु-साम्य-भाक् ।रुचिभिश्चित्त-मसृण्य-कृदसौ भाव उच्यते ॥
५॥
जब भक्ति शुद्ध सत्त्व के दिव्य पद पर की जाती है, तो यह कृष्णप्रेम रूपी सूर्य की किरण जैसी होती है। उस समय भक्ति विविध आस्वादनों के द्वारा हृदय को मृदु बनाती है। तब मनुष्य भाव में स्थित होता है।
ए दुइ,—भावेर 'स्वरूप', 'तटस्थ' लक्षण ।प्रेमेर लक्षण एबे शुन, सनातन ॥
६॥
भाव के दो विविध लक्षण होते हैं-वैधानिक (स्वाभाविक ) तथा तटस्थ। हे सनातन, अब तुम मुझसे प्रेम के लक्षण सुनो।
सम्पँ-मसृणित-स्वान्तो ममत्वातिशयाङ्कितः ।।भावः स एव सान्द्रात्मा बुधैः प्रेमा निगद्यते ॥
७॥
जब वह भाव हृदय को पूर्णरूपेण कोमल बना देता है, भगवान् के प्रति अपनत्व की महान् भावना से समन्वित और अत्यन्त प्रगाढ़ तथा घनीभूत हो जाता है, तो विद्वानों द्वारा वह प्रेम ( भगवत्प्रेम ) कहलाता है।
अनन्य-ममता विष्णौ ममता प्रेम-सङ्गता ।।भक्तिरित्युच्यते भीष्म-प्रह्लादोद्धव-नारदैः ॥
८॥
जब कोई व्यक्ति भगवान् विष्णु के प्रति गूढ़ अपनत्व का भाव उत्पन्न कर लेता है, अथवा जब कोई विष्णु को ही प्रेम के एकमात्र लक्ष्यमानता है, तो ऐसी जागृति भीष्म, प्रह्लाद, उद्धव तथा नारद जैसे महापुरुषों द्वारा भक्ति कहलाती है।'
कोन भाग्ये कोन जीवेर 'श्रद्धा' यदि हय । तबे सेइ जीव 'साधु-सङ्ग' ने करय ॥
९ ॥
यदि सौभाग्यवश कोई जीव कृष्ण में श्रद्धा उत्पन्न कर लेता है, तो वह भक्तों की संगति करना प्रारम्भ कर देता है।
साधु-सङ्ग हैते हय 'श्रवण-कीर्तन' । साधन-भक्त्ये हय ‘सर्वानर्थ-निवर्तन' ॥
१०॥
जब भक्तों की संगति से कोई व्यक्ति भक्ति की ओर उन्मुख होता है, तो वह विधि-विधानों का पालन करने से और कीर्तन तथा श्रवण द्वारा सारे अवांछित कल्मष से मुक्त हो जाता है।
अनर्थ-निवृत्ति हैले भक्त्ये 'निष्ठा' हय ।। निष्ठा हैते श्रवणाद्ये ‘रुचि' उपजय ॥
११॥
जब मनुष्य सारे अवांछित कल्मष से मुक्त हो जाता है, तो वह दृढ़ निष्ठा के साथ अग्रसर होता है। जब भक्ति में दृढ़ निष्ठा जाग्रत हो जाती है, तो श्रवण तथा कीर्तन का आस्वादन भी जाग्रत होता है।
रुचि हैते भक्त्ये हय 'आसक्ति' प्रचुर ।।आसक्ति हैते चित्ते जन्मे कृष्णे प्रीत्यङ्कर ॥
१२ ॥
रुचि जाग्रत होने पर गहरी आसक्ति उत्पन्न होती है और उस आसक्ति से हृदय में कृष्ण-प्रेम का बीज अंकुरित होता है।
सेइ 'भाव' गाढ़ हैले धरे ‘प्रेम'-नाम ।। सेइ प्रेमा ‘प्रयोजन' सर्वानन्द-धाम ॥
१३॥
जब ऐसी भावदशा प्रगाढ़ होती है, तो उसे भगवत्प्रेम कहा जाता है। ऐसा प्रेम जीवन का चरम लक्ष्य है तथा समस्त आनन्द का आगार है।
आदौ श्रद्धा ततः साधु-सङ्गोऽथ भजन-क्रिया ।। ततोऽनर्थ-निवृत्तिः स्यात्ततो निष्ठा रुचिस्ततः ॥
१४॥
अथासक्तिस्ततो भावस्ततः प्रेमाभ्युदञ्चति ।।साधकानामयं प्रेम्णः प्रादुर्भावे भवेत्क्रमः ॥
१५॥
सर्वप्रथम श्रद्धा होनी चाहिए। तब मनुष्य शुद्ध भक्तों की संगतिकरने में रुचि दिखाने लगता है। तत्पश्चात् वह गुरु द्वारा दीक्षित होता है। और उसके आदेशानुसार विधि-विधानों का पालन करता है। इस तरह वह समस्त अवांछित आदतों से मुक्त हो जाता है और भक्ति में स्थिर हो जाता है। इसके बाद रुचि तथा आसक्ति उत्पन्न होती है। यह साधन-भक्ति का मार्ग है। धीरे-धीरे भाव गहन होते जाते हैं और अन्त में प्रेम जाग्रत होता । है। कृष्णभावनामृत में रुचि रखने वाले भक्त के लिए यही भगवत्प्रेम के क्रमिक विकास की प्रक्रिया है।'
सतां प्रसङ्गान्मम वीर्य-संविदोभवन्ति हृत्कर्ण-रसायनाः कथाः । तज्जोषणादाश्वपवर्ग-वर्मनिश्रद्धा रतिर्भक्तिरनुक्रमिष्यति ॥
१६ ॥
आध्यात्मिक रूप से ईश्वर के सशक्त सन्देश की सटीक चर्चा केवल भक्त-समाज में ही हो सकती है और उस संगति में उसे सुनना बहुत ही आनन्ददायक होता है। भक्तों से सुनने पर उसके लिए दिव्य अनुभव का मार्ग शीघ्र खुल जाता है और धीरे-धीरे उसे दृढ़ श्रद्धा ( निष्ठा) प्राप्त होती है, जो कालक्रम से आकर्षण ( रति ) तथा भक्ति में विकसित होती है।'
याँहार हृदये एइ भावाङ्कर हय ।ताँहाते एतेक चिह्न सर्व-शास्त्रे कय ॥
१७॥
यदि किसी के हृदय में वास्तव में दिव्य भाव का बीज रहता है, तो उसके कर्मों में परिलक्षित होगा। सभी शास्त्रों का यही निर्णय है।
क्षान्तिरव्यर्थ-कालत्वं विरक्तिर्मान-शून्यता । आशा-बन्धः समुत्कण्ठा नाम-गाने सदा रुचिः ॥
१८॥
आसक्तिस्तद्गुणाख्याने प्रीतिस्तद्वसति-स्थले ।इत्यादयोऽनुभावाः स्युर्जात-भावारे जने ॥
१९॥
जब कृष्ण के लिए भावरूपी बीज का अंकुरण होता है, तब मनुष्य के स्वभाव में नौ लक्षण प्रकट होते हैं। ये हैं-क्षमाशीलता, समय को व्यर्थ न गॅवाने के प्रति सतर्कता, विरक्ति, मिथ्या मान का अभाव, आशा, उत्सुकता, भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन करने के लिए रुचि, भगवान के दिव्य गुणों के वर्णन के प्रति अनुरक्ति, भगवान् के निवासस्थानों यथा मन्दिर या वृन्दावन जैसे तीर्थस्थान के प्रति स्नेह। ये अनुभाव अर्थात् उत्कट भाव के गौण लक्षण कहलाते हैं। ये सब अनुभाव उस व्यक्ति के हृदय में दृष्टिगोचर होते हैं, जिसमें भगवत्प्रेम अंकुरित होना शुरू हो गया होता है।'
एइ नव प्रीत्यङ्कर ग्राँर चित्ते हय ।।प्राकृत-क्षोभे ताँर क्षोभ नाहि हय ॥
२०॥
यदि किसी के हृदय में कृष्ण के प्रति प्रेम अंकुरित हो जाता है, तो वह भौतिक वस्तुओं से क्षुब्ध नहीं होता।
तं मोपयातं प्रतियन्तु विप्रा ।गङ्गा च देवी धृत-चित्तमीशे । द्विजोपसृष्टः कुहकस्तक्षको वादशत्वलं गायत विष्णु-गाथाः ॥
२१ ॥
हे ब्राह्मणों, मुझे पूर्णतया शरणागत जीव मानो और भगवान् की प्रतिनिधि, माता गंगा भी मुझे ऐसा ही मानें, क्योंकि मैं पहले ही भगवान् के चरणकमलों को अपने हृदय में आसीन कर चुका हूँ। इस तक्षक को, अथवा ब्राह्मण ने जो कुछ भी इन्द्रजाल रचा है, मुझे तुरन्त काटने दें। मेरी एकमात्र इच्छा यह है कि आप लोग भगवान् विष्णु के कार्यों का गायन करते रहें।
कृष्ण-सम्बन्ध विना काल व्यर्थ नाहि ग्राय ॥
२२॥
एक क्षण भी नहीं नष्ट करना चाहिए। प्रत्येक क्षण का उपयोग कृष्ण या उनसे सम्बन्धित बातों के लिए करना चाहिए।
वाग्भिः स्तुवन्तो मनसा स्मरन्तस्तन्वा नमन्तोऽप्यनिशं न तृप्ताः । भक्ताः श्रवन्नेत्र-जला: समग्रम् | आयुर्हरेरेव समर्पयन्ति ॥
२३॥
वे शब्दों से भगवान् की स्तुति करते हैं। वे मन से नित्य भगवान् का स्मरण करते हैं। वे अपने शरीरों से भगवान् को नमस्कार करते हैं। इतने पर भी वे तुष्ट नहीं होते। ऐसा है शुद्ध भक्तों का स्वभाव। वे अपने नेत्रों से अश्रु बहाते हुए अपना सारा जीवन भगवान् की सेवा में अर्पित कर देते हैं।'" भुक्ति, सिद्धि, इन्द्रियार्थ तारे नाहि भाय ॥
२४॥
भौतिक क्षेत्र में लोग भौतिक भोग, योग-सिद्धि तथा इन्द्रियतृप्ति में रुचि दिखाते हैं। किन्तु भक्तों को ये बातें कदापि रुचिकर नहीं लगतीं ।
ग्रो दुस्त्यजान् दार-सुतान् सुहृद् राज्यं हृदि-स्पृशः ।जहौ ग्रुवैव मल-वदुत्तमःश्लोक-लालसः ॥
२५ ॥
| राजा भरत उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण का सान्निध्य प्राप्त करने के लिए अत्यन्त उत्सुक थे, जो उत्तमश्लोक कहे जाते हैं, क्योंकि उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए स्तुतियाँ की जाती हैं। राजा भरत ने अपनी युवावस्था में अपनी आकर्षक पत्नी तथा पुत्रों एवं अपने प्रिय मित्रों तथा वैभवशाली साम्राज्य को उसी तरह छोड़ दिया, जिस तरह मल का विसर्जन करने के बाद उसे त्याग दिया जाता है।'
‘सर्वोत्तम' आपनाके 'हीन' करि माने ॥
२६॥
यद्यपि शुद्ध भक्त का स्तर सर्वोपरि होता है, फिर भी वह अपने आपको सबसे हीन (तुच्छ) मानता है।
हरौ रतिं वहन्नेष नरेन्द्राणां शिखा-मणिः ।।भिक्षामटन्नरि-पुरे श्व-पाकमपि वन्दते ॥
२७॥
भरत महाराज सदैव अपने हृदय में कृष्ण के प्रति स्नेह वहन करते थे। यद्यपि भरत महाराज राजाओं के मुकुटमणि थे, फिर भी अपने शत्रुओं की नगरी में घूम-घूमकर भिक्षा माँगते थे। यहाँ तक कि वे तुच्छ जाति के चण्डालों को भी नमस्कार करते थे, जो कुत्तों का मांस भक्षण करते हैं।'
‘कृष्ण कृपा करिबेन'-दृढ़ करि' जाने ॥
२८॥
एक पूर्णतया शरणागत भक्त को सर्वदा आशा रहती है कि भगवान् कृष्ण उस पर कृपालु होंगे। उसमें यह आशा दृढ़ रहती है।
न प्रेमा श्रवणादि-भक्तिरपि वा योगोऽथ वा वैष्णवोज्ञानं वा शुभ-कर्म वा कियदहो सज्जातिरप्यस्ति वा । हीनार्थाधिक-साधके त्वयि तथाप्यच्छेद्य-मूला सती ।हे गोपी-जन-वल्लभ व्यथयते हा हा मदाशैव माम् ॥
२९॥
हे प्रभु, न तो मुझमें आपके लिए प्रेम है, न ही मुझमें कीर्तन तथा अवण द्वारा भक्ति करने की योग्यता है। न ही मुझमें वैष्णव की योगशक्ति, ज्ञानं या पुण्यकर्म है। न ही मैं उच्च कुल से सम्बन्धित हूँ। इस तरह मुझमें कुछ भी नहीं है। फिर भी हे गोपियों के प्रिय, मेरे हृदय में निरन्तर एक अटूट आशा है, क्योंकि आप अधम से अधम पर दया करने वाले हैं। वही आशा मुझे निरन्तर पीड़ा दे रही है।'
समुत्कण्ठा हय सदा लालसा-प्रधान ॥
३०॥
यह उत्सुकता भगवान् का सान्निध्य प्राप्त करने के लिए प्रगाढ़ इच्छा से युक्त है।
त्वच्छैशवं त्रि-भुवनाद्भुतमित्यवेहिमच्चापलं च तव वा मम वाधिगम्यम् । तत्किं करोमि विरलं मुरली-विलासिमुग्धं मुखाम्बुजमुदीक्षितुमीक्षणाभ्याम् ॥
३१॥
हे कृष्ण, हे वंशीवादक, आपके शैशव की माधुरी तीनों लोकों में अद्भुत है। मैं आपकी चपलता जानता हूँ और आप मेरी। इसे अन्य कोई नहीं जानता। मैं किसी एकान्त में आपका सुन्दर आकर्षक मुख देखना चाहता हूँ, किन्तु यह हो तो कैसे?' नाम-गाने सदा रुचि, लय कृष्ण-नाम ॥
३२ ॥
नाम के प्रति गहरी रुचि होने से मनुष्य हरे कृष्ण महामन्त्र का निरन्तर करना चाहता है।
रोदन-बिन्दु-मरन्द-स्यन्दिदृगिन्दीवराद्य गोविन्द । तव मधुर-स्वर-कण्ठी ।गायति नामावल बाला ॥
३३॥
हे गोविन्द, यह युवती जिसका नाम राधिका है, मधुर स्वर में आपके पवित्र नाम का गायन करती हुई निरन्तर अश्रु बरसा रही है, मानो फूलों से मधु गिर रहा हो।'
कृष्ण-गुणाख्याने हय सर्वदा आसक्ति ॥
३४॥
| इस भावदशा में भक्त में भगवान् के दिव्य गुणों को कीर्तन औरवर्णन करने की प्रवृत्ति जाग उठती है। उसे इस विधि में आसक्ति हो जाती है।
मधुरं मधुरं वपुरस्य विभोर्| मधुरं मधुरं वदनं मधुरम् । मधु-गन्धि मृदु-स्मितमेतदहो | मधुरं मधुरं मधुरं मधुरम् ॥
३५॥
हे प्रभु, कृष्ण का दिव्य शरीर मधुर है और उनका मुख तो उनके शरीर से भी अधिक मधुर है। किन्तु मधु (शहद) की गन्ध के समान उनके मुख की मृदु हँसी और भी मधुर है।'
कृष्ण-लीला-स्थाने करे सर्वदा वसति ॥
३६॥
कृष्ण के भाव में मग्न भक्त सदैव ऐसे स्थान में निवास करता है, जहाँ कृष्ण ने लीलाएँ की थीं।
कदाहं यमुना-तीरे नामानि तव कीर्तयन् ।।उद्वाष्यः पुण्डरीकाक्ष रचयिष्यामि ताण्डवम् ॥
३७॥
हे पुण्डरीकाक्ष भगवान्, कब मैं अपनी आँखों में आँसू भरकर मुना के तट पर आपके नाम का कीर्तन करते हुए भाव में नृत्य करूँगा?' कृष्णे ‘रतिर' चिह्न एइ कैलँ विवरण ।।‘कृष्ण-प्रेमेर' चिह्न एबे शुन सनातन ॥
३८ ॥
जिस व्यक्ति ने कृष्ण के लिए आकर्षण ( भाव) उत्पन्न कर लिया है, ये उसके लक्षण हैं। अब मुझे उस व्यक्ति के लक्षण बताने दो, जिसने सचमुच कृष्ण-प्रेम प्राप्त कर लिया है। हे सनातन, इसे मुझसे सुनो।
याँर चित्ते कृष्ण-प्रेमा करये उदय ।। ताँर वाक्य, क्रिया, मुद्रा विज्ञेह ना बुझय ॥
३९॥
जो व्यक्ति भगवत्प्रेम को प्राप्त कर चुका है, उसके शब्दों, कार्यों तथा लक्षणों को बड़े से बड़ा विद्वान भी नहीं समझ सकता।
धन्यस्यायं नव-प्रेमा यस्योन्मीलति चेतसि ।। अन्तर्वाणिभिरप्यस्य मुद्रा सुष्ष्ठ सु-दुर्गमा ॥
४० ॥
जिस महापुरुष के हृदय में भगवत्प्रेम जाग्रत हो चुका है, उसके कार्यों तथा लक्षणों को बड़े से बड़ा विद्वान भी नहीं समझ सकता।'
एवं-व्रतः स्व-प्रिय-नाम-कीर्त्याजातानुरागो द्रुत-चित्त उच्चैः ।। हसत्यथो रोदिति रौति गायत्यउन्माद-वन्नृत्यति लोक-बाह्यः ॥
४१॥
जब मनुष्य वास्तव में उन्नत होता है और अपने प्रिय भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन करने में आनन्द का अनुभव करता है, तब वह संक्षोभित होकर उच्च स्वर से भगवन्नाम का कीर्तन करता है। वह बाहरी लोगों की परवाह न करते हुए पागल की तरह हँसता है, रोता है, उत्तेजित होता है और कीर्तन करता है।
प्रेमा क्रमे बाड़ि' हय- स्नेह, मान, प्रणय ।राग, अनुराग, भाव, महाभाव हय ॥
४२॥
इस तरह भगवत्प्रेम बढ़ता जाता है और वह स्नेह, मान, प्रणय, राग, अनुराग, भाव तथा महाभाव के रूप में प्रकट होता है।
बीज, इक्षु, रस, गुड़ तबे खण्ड-सार ।। शर्करा, सिता-मिछरि, शुद्ध-मिछरि आर ॥
४३॥
इस तरह के विकास की उपमा गन्ने के बीज, गन्ने के पौधे, गन्ने के रस, गुड़, खांड, साफ चीनी, मिश्री और शुद्ध मिश्री से दी जाती है।
इहा भैछे क्रमे निर्मल, क्रमे बाड़े स्वाद । रति-प्रेमादिर तैछे बाड़ये आस्वाद ॥
४४॥
जिस प्रकार चीनी को धीरे-धीरे शुद्ध करते रहने पर उसका स्वाद बढ़ता जाता है, उसी तरह यह समझना चाहिए कि जब भगवत्प्रेम जिसकी उपमा बीज से दी जाती है, रति के स्तर से आगे बढ़ता है, तो उसका स्वाद बढ़ता जाता है।
अधिकारि-भेदे रति—पञ्च परकार ।। शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य, मधुर आर ॥
४५ ॥
इन (स्नेह, मान आदि ) दिव्य गुणों से युक्त पात्र के अनुसार रस च प्रकार के हैं-शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य तथा माधुर्य ।।
एइ पञ्च स्थायी भाव हय पञ्च'रस' ।ये-रसे भक्त 'सुखी', कृष्ण हय ‘वश' ॥
४६॥
ये पाँचों दिव्य रस स्थायी रूप से विद्यमान रहते हैं। भक्त इनमें से किसी एक के प्रति आकृष्ट हो सकता है और इस तरह वह सुखी हो जाता है। कृष्ण भी ऐसे भक्त की ओर उन्मुख होते हैं और उसके वश में हो जाते है।
प्रेमादिक स्थायि-भाव सामग्री-मिलने ।।कृष्ण-भक्ति रस-रूपे पाय परिणामे ॥
४७॥
जब स्थायी भावों (शान्त, दास्य आदि) को अन्य सामग्री के साथ मिला दिया जाता है, तब भगवद्भक्ति रूपान्तरित होकर रसों से युक्त हो जाती है।
विभाव, अनुभावे, सात्त्विक, व्यभिचारी।स्थायि-भाव 'रस' हय एइ चारि मिलि' ॥
४८॥
विभाव (विशेष भाव), अनुभाव ( अधीनस्थ भाव), सात्त्विक (स्वाभाविक भाव) तथा व्यभिचारी भाव के मिश्रण से स्थायी भाव अधिकाधिक स्वादयुक्त दिव्य रस बन जाता है।
दधि ग्रेने खण्ड-मरिच-कर्पूर-मिलने ।‘रसालाख्य' रस हय अपूर्वास्वादने ॥
४९॥
जब दही में खांड, काली मिर्च तथा कपूर मिला दिये जाते हैं, तो वह अत्यन्त स्वादिष्ट बन जाता है। ठीक वैसे ही जब स्थायी भाव अन्य भाव-लक्षणों से मिलता है, तो वह अपूर्व स्वादिष्ट बन जाता है।
द्विविध विभाव', आलम्बन, उद्दीपन । वंशी-स्वरादि-‘उद्दीपन', कृष्णादि-आलम्बन' ॥
५०॥
विभाव के दो प्रकार हैं-एक आलम्बन तथा दूसरा उद्दीपन। कृष्ण की वंशी-ध्वनि उद्दीपन का उदाहरण है और साक्षात् कृष्ण आलम्बन के उदाहरण हैं।
‘अनुभाव'—स्मित, नृत्य, गीतादि उद्भास्वर ।। स्तम्भादि-‘सात्त्विक अनुभावेर भितर ॥
५१॥
हँसना, नाचना, गाना तथा शरीर के विभिन्न प्रकट लक्षण अनुभाव ( अधीनस्थ भाव) के अन्तर्गत आते हैं। स्तम्भ इत्यादि सात्त्विक भावों को अनुभावों के अन्तर्गत माना जाता है।
निर्वेद-हर्षादि तेत्रिश'व्यभिचारी' ।।सब मिलि''रस' हय चमत्कार-कारी ॥
५२॥
निर्वेद, हर्ष इत्यादि अन्य अवयव भी हैं। सब मिलाकर ३३ प्रकार और जब ये सब एकजुट होते हैं, तो रस अत्यन्त चमत्कारी बन जाता हैं। पञ्च-विध रस–शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य । मधुर-नाम शृङ्गार-रस-सबाते प्राबल्य ॥
५३॥
दिव्य रस पाँच हैं-शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य तथा माधुर्य ग, जिसे श्रृंगार रस भी कहा जाता है। रसों में माधुर्य रस सर्वोपरि है।
शान्त-रसे शान्ति-रति 'प्रेम' पर्यन्त हय ।। दास्य-रति 'राग' पर्यन्त क्रमेत बाड़य ॥
५४॥
शान्त रस की स्थिति उस बिन्दु तक बढ़ती जाती है, जहाँ मनुष्य को भगवत्प्रेम में अभिरुचि होने लगती है। दास्य रस क्रमशः भगवान् के रागमय प्रेम (राग) तक बढ़ता जाता है।
सख्य-वात्सल्य-रति पाय 'अनुराग'-सीमा ।।सुबलाछेर 'भाव' पर्यन्त प्रेमेर महिमा ॥
५५ ॥
‘दास्य रस के बाद सख्य रस तथा वात्सल्य रस आते हैं, जो बढ़तेबढ़ते अनुराग की सीमा तक पहुँच जाते हैं। सुबल इत्यादि मित्रों में पाये । जाने वाले प्रेम की महानता भगवान् के भावमय प्रेम के स्तर तक विस्तृत होती है।
शान्तादि रसेर 'योग', 'वियोग' दुइ भेद ।। सख्य-वात्सल्ये योगादिर अनेक विभेद ॥
५६ ।। इन पाँचों रसों के दो-दो विभेद होते हैं-योग (मिलन) तथा वियोग (विछोह)। सख्य तथा वात्सल्य रस में योग तथा वियोग इन दोनों के भी अनेकानेक विभेद हैं।
‘रूढ़', 'अधिरूढ़' भाव–केवल ‘मधुरे' ।। महिषी-गणेर' रूढ़', 'अधिरूढ़' गोपिका-निकरे ॥
५७॥
केवल श्रृंगार (मधुर) रस में ही दो भाव-लक्षण मिलते हैं, जिन्हें रूढ़ ( उन्नत ) तथा अधिरूढ़ ( अत्यधिक उन्नत ) कहा जाता है। रूढ़ भाव द्वारका की पटरानियों में पाया जाता है और अधिरूढ़ भाव गोपियों में पाया जाता है।
अधिरूढ़-महाभाव–दुइ त' प्रकार ।।सम्भोगे 'मादन', विरहे 'मोहन' नाम तार ॥
५८॥
अधिरूढ़ महाभाव के दो प्रकार होते हैं-मादन तथा मोहन। परस्पर मिलन मादन कहलाता है और विरह मोहन कहलाता है।
'मादने'–चुम्बनादि हय अनन्त विभेद । ‘उद्भूर्णा', 'चित्र-जल्प'–‘मोहने' दुइ भेद ॥
५९॥
मादन भाव के अन्तर्गत चुम्बन तथा अन्य अनेक लक्षण आते हैं, जिनकी कोई गिनती नहीं है। मोहन अवस्था के दो विभेद हैं-उद्भूर्णा ( अस्थायित्व) तथा चित्र-जल्प ( पागलों का-सा प्रलाप )।
चित्र-जल्पेर दश अङ्ग-प्रजल्पादि-नाम । भ्रमर-गीता'र दश श्लोक ताहाते प्रमाण ॥
६०॥
चित्रजल्प के अन्तर्गत दस विभाग हैं, जिन्हें प्रजल्प तथा अन्य नामों से पुकारा जाता है। इसका प्रमाण है श्रीमती राधारानी द्वारा कहे गये दस श्लोक, जो 'भ्रमर-गीत' के नाम से विख्यात हैं।
उद्भूर्णा, विवश-चेष्टा—दिव्योन्माद-नाम ।विरहे कृष्ण-स्फूर्ति, आपनाके 'कृष्ण'-ज्ञान ॥
६१॥
उद्भूर्णा ( अस्थायित्व) तथा विवश-चेष्टा ( गर्वपूर्ण कार्य ) दिव्य उन्मत्तता के अंग हैं। कृष्ण के विरह में भक्त को कृष्ण के प्राकट्य की अनुभूति होती है और वह अपने आपको कृष्ण सोचने लगता है।
‘सम्भोग'-‘विप्रलम्भ'-भेदे द्विविध शृङ्गार ।सम्भोगेर अनन्त अङ्ग, नाहि अन्त तार ॥
६२॥
श्रृंगार के दो विभाग हैं-सम्भोग (मिलन) तथा विप्रलम्भ (वियोग)। सम्भोग स्तर पर अनेक विभेद हैं, जिनका वर्णन कर पाना सम्भव नहीं है।
‘विप्रलम्भ' चतुर्विध–पूर्व-राग, मान ।।प्रवासाख्य, आर प्रेम-वैचित्त्य-आख्यान ॥
६३॥
विप्रलम्भ के चार विभाग होते हैं-पूर्व-राग, मान, प्रवास तथा प्रेमवैचित्य।
राधिकाचे ‘पूर्व-राग' प्रसिद्ध ‘प्रवास', 'माने' ।‘प्रेम-वैचित्त्य' श्री-दशमे महिषी-गणे ॥
६४॥
चार प्रकार के वियोग में से तीन ( पूर्वराग, प्रवास तथा मान) श्रीमती राधारानी तथा गोपियों में प्रसिद्ध हैं। द्वारका में पटरानियों में प्रेमवैचित्त्य का भाव अत्यन्त प्रमुख है।
कुररि विलपसि त्वं वीत-निद्रा न शेषेस्वपिति जगति रात्र्यामीश्वरो गुप्त-बोधः ।वयमिव सखि कच्चिद्गाढ़-निर्विद्ध-चेतानलिन-नयन-हासोदार-लीलेक्षितेन ॥
६५ ॥
हे सखी कुररी, अब तो रात्रि हो गई है और श्रीकृष्ण सोये हुए हैं। |तुम न तो सोयी हो, न विश्राम कर रही हो, अपितु विलाप कर रही हो। क्या मैं यह मान लें कि तुम भी हमारी ही तरह कमलनेत्रों वाले कृष्ण की। हासयुक्त उदार चंचल चितवन से प्रभावित हो? यदि ऐसा है, तो तुम्हारा हृदय बुरी तरह से बिंध चुका है। क्या इसीलिए तुम निद्राविहीन विलाप के चिह्न प्रकट कर रही हो?' व्रजेन्द्र-नन्दन कृष्ण–नायक-शिरोमणि । नायिकार शिरोमणि-राधा-ठाकुराणी ॥
६६॥
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण, जो कि नन्द महाराज के पुत्र के रूपमें प्रकट हुए, अपने सारे व्यवहारों में श्रेष्ठ नायक हैं। इसी प्रकार श्रीमती राधारानी अपने व्यवहारों में सर्वोपरि नायिका हैं।
नायकानां शिरो-रत्नं कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् ।ग्रत्र नित्यतया सर्वे विराजन्ते महा-गुणाः ॥
६७॥
कृष्ण तो स्वयं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं और समस्त नायकों के शिरोमणि हैं। कृष्ण में सारे दिव्य उत्तम गुण स्थायी रूप से विराजते हैं।'
देवी कृष्ण-मयी प्रोक्ता राधिका पर-देवता ।सर्व-लक्ष्मी-मयी सर्व-कान्तिः सम्मोहिनी परा ॥
६८ ॥
दिव्य देवी श्रीमती राधारानी तो भगवान् कृष्ण की साक्षात् प्रतिमूर्ति हैं। वे समस्त लक्ष्मियों की केन्द्रबिन्दु हैं। वे सर्वाकर्षक भगवान् को आकृष्ट करने के लिए समस्त आकर्षण से युक्त हैं। वे भगवान् की आदि अन्तरंगा शक्ति हैं।'
अनन्त कृष्णेर गुण, चौषट्टि–प्रधान ।एक एक गुण शुनि' जुड़ाय भक्त-काण ॥
६९॥
भगवान् कृष्ण के दिव्य गुण अनन्त हैं, जिनमें से चौंसठ प्रधान माने जाते हैं। इन गुणों का क्रमशः श्रवण करने मात्र से भक्तों के कान तृप्त हो जाते हैं।
अयं नेता सु-रम्याङ्गः सर्व-सल्लक्षणान्वितः ।।रुचिरस्तेजसा मुक्तो बलीयान् वयसान्वितः ॥
७० ॥
नायक शिरोमणि कृष्ण का दिव्य शरीर अत्यन्त सुन्दर है। उनका शरीर सभी शुभ लक्षणों से युक्त है। यह शरीर अत्यन्त तेजयुक्त है और आँखों को अत्यन्त सुहावना लगता है। उनका शरीर बलवान तथा यौवन से पूर्ण (किशोर) है।
विविधाद्भुत-भाषा-वित् सत्य-वाक्यः प्रियं-वदः ।वावदूकः सु-पाण्डित्यो बुद्धिमान्प्रतिभान्वितः ॥
७१॥
कृष्ण सारी अद्भुत भाषाओं के वेत्ता हैं। वे सत्यवादी तथा मधुरभाषी हैं। वे बोलने में चतुर ( वाक्पटु) हैं और अत्यन्त बुद्धिमान, विद्वान तथा प्रतिभावान हैं।
विदग्धश्चतुरो दक्षः कृत-ज्ञः सु-दृढ़-व्रतः ।।देश-काल-सुपात्र-ज्ञः शास्त्र-चक्षुः शुचिर्वशी ॥
७२॥
कृष्ण कलात्मक भोग में अत्यन्त पटु हैं। वे अत्यन्त चतुर, दक्ष, कृतज्ञ तथा अपने व्रत पर दृढ़ रहने वाले हैं। वे देश, काल तथा पात्र के अनुसार आचरण करना जानते हैं और शास्त्रों तथा प्रामाणिक ग्रन्थों के माध्यम से देखते हैं। वे अत्यन्त पवित्र तथा आत्मसंयमी हैं।
स्थिरो दान्तः क्षमा-शीलो गम्भीरो धृतिमान्समः ।।वदान्यो धार्मिकः शूरः करुणो मान्य-मान-कृत् ॥
७३॥
भगवान् कृष्ण स्थिर, इन्द्रियों को वश में रखने वाले, क्षमाशील, गम्भीर तथा शान्त हैं। वे सब पर समदृष्टि रखने वाले भी हैं। साथ ही वे दान्य, धार्मिक, शूर तथा दयालु हैं। वे सम्मानित व्यक्तियों के प्रति सदैव आदरयुक्त हैं।
दक्षिणो विनयी ह्रीमान्शरणागत-पालकः ।सुखी भक्त-सुहृत्प्रेम-वश्यः सर्व-शुभं-करः ॥
७४। कृष्ण अत्यन्त सरल तथा उदार हैं, वे विनीत तथा लज्जाशील हैं और शरणागतों के रक्षक हैं। वे परम सुखी, अपने भक्तों के शुभचिन्तक, परम कल्याणप्रद तथा प्रेम के वशीभूत होने वाले हैं।
प्रतापी कीर्तिमान् रक्त-लोकः साधु-समाश्रयः ।नारी-गण-मनोहारी सर्वाराध्यः समृद्धिमान् ॥
७५ ॥
कृष्ण अत्यन्त प्रतापी तथा विख्यात हैं और वे हर एक की अनुरक्ति के लक्ष्य हैं। वे अच्छे तथा गुणी लोगों के आश्रय हैं। वे स्त्रियों के मन को आकृष्ट करने वाले और सबके आराध्य हैं। वे अत्यन्त समृद्धिशाली हैं।
वरीयानीश्वरश्चेति गुणास्तस्यानुकीर्तिताः ।समुद्रा इव पञ्चाशदुर्विगाहा हरेरमी ॥
७६॥
कृष्ण सर्वोपरि हैं और सदैव परमेश्वर तथा नियन्ता के रूप में महिमामंडित किये जाते हैं। इस तरह उपर्युक्त सारे दिव्य गुण उनमें पाये जाते हैं। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के उपर्युक्त पचास गुण समुद्र के समान गम्भीर हैं। तात्पर्य यह है कि उन्हें पूर्णरूपेण समझ पाना कठिन है।
जीवेष्वेते वसन्तोऽपि बिन्दु-बिन्दुतया क्वचित् । परिपूर्णतया भान्ति तत्रैव पुरुषोत्तमे ॥
७७॥
जीवों में ये गुण कभी-कभी सूक्ष्म मात्रा में प्रकट होते हैं, किन्तु पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् में तो ये पूरी तरह से प्रकट होते हैं।'
अथ पञ्च-गुणा ये स्युरंशेन गिरिशादिषु ॥
७८॥
इन पचास गुणों के अतिरिक्त भी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् में पाँच गुण और पाये जाते हैं, जो शिवजी जैसे देवताओं में आंशिक रूप से पाये जाते हैं।
सदा स्वरूप-सम्प्राप्तः सर्वज्ञो नित्य-नूतनः ।। सच्चिदानन्द-सान्द्राङ्गः सर्व-सिद्धि-निषेवितः ॥
७९॥
अथोच्यन्ते गुणाः पञ्च ये लक्ष्मीशादि-वर्तिनः । अविचिन्त्य-महा-शक्तिः कोटि-ब्रह्माण्ड-विग्रहः ॥
८० ॥
अवतारावली-बीजं हतारि-गति-दायकः ।आत्माराम-गणाकर्षीत्यमी कृष्णे किलोद्भुताः ॥
८१॥
ये गुण हैं (१) भगवान् सदैव अपनी मूल स्थिति में रहते हैं, २) वे भर्वज्ञ हैं, (३) वे नित्यनूतन तथा युवा हैं, (४) वे शाश्वतता, ज्ञान तथा आनन्द के घनीभूत रूप हैं तथा (५) वे समस्त योगसिद्धियों से युक्त हैं। इसके अतिरिक्त पाँच गुण और हैं, जो लक्ष्मीपति नारायण में वैकुण्ठ लोकों में पाये जाते हैं। ये गुण कृष्ण में भी पाये जाते हैं, किन्तु ये गुण | शिवजी इत्यादि देवताओं अथवा अन्य जीवों में नहीं पाये जाते। ये गुण हैं (१) भगवान् अचिंत्य सर्वोपरि शक्ति से युक्त हैं, (२) वे अपने शरीर से अनन्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति करते हैं, (३) वे समस्त अवतारों के मूल स्रोत हैं, (४) वे उनके द्वारा मारे गये शत्रुओं को मुक्ति देते हैं तथा (५) वे स्वयं-सन्तुष्ट आत्मारामों को भी आकृष्ट करते हैं। यद्यपि ये गुण वैकुण्ठ लोक के प्रधान विग्रह नारायण में पाये जाते हैं, किन्तु कृष्ण में तो ये और भी अद्भुत रूप में मिलते हैं।
सर्वाद्भुत-चमत्कार-लीला-कल्लोल-वारिधिः । अतुल्य-मधुर-प्रेम-मण्डित-प्रिय-मण्डलः ॥
८२॥
त्रि-जगन्मानसाकर्षि-मुरली-कल-कूजितः ।। असमानोर्ध्व-रूप-श्री-विस्मापित-चराचरः ॥
८३॥
इन साठ दिव्य गुणों के अतिरिक्त कृष्ण में चार अन्य दिव्य गुण पाये जाते हैं, जो नारायण में भी नहीं पाये जाते। ये हैं—(१) कृष्ण लीलाओं की तरंगों से पूरित सागर के समान हैं, जो तीनों लोकों में हर प्राणी के भीतर आश्चर्य उत्पन्न करने वाली हैं। (२) वे अपने माधुर्य-प्रेम के कार्यकलापों में सदा अपने प्रिय भक्तों से घिरे रहते हैं, जो उनके प्रति अप्रतिम प्रेम रखते हैं।(३) वे अपनी वंशी की मधुर ध्वनि से तीनों लोकों के मनों को आकृष्ट करने वाले हैं।(४) उनका सौन्दर्य तथा उनका ऐश्वर्य अद्वितीय है। न तो कोई उनके समान है और न उनसे बढ़कर है। इस तरह तीनों लोकों में भगवान् सारे चर एवं अचर जीवों को चमत्कृत करते हैं। वे इतने सुन्दर हैं कि वे कृष्ण कहलाते हैं।
लीला प्रेम्णा प्रियाधिक्यं माधुर्यं वेणु-रूपयोः। इत्यसाधारणं प्रोक्तं गोविन्दस्य चतुष्टयम् ॥
८४॥
एवं गुणाश्चतुर्भेदाश्चतुःषष्टिरुदाहृताः ॥
८५ ॥
कृष्ण में नारायण से बढ़कर चार विशेष दिव्य गुण हैं-उनकी | अद्भुत लीलाएँ, अद्भुत संगियों की प्रचुरता ( यथा गोपियाँ) जो उन्हें अत्यन्त प्रिय हैं, उनका अद्भुत सौन्दर्य तथा उनकी बाँसुरी की अद्भुत प्वनि। भगवान् कृष्ण सामान्य जीवों तथा शिवजी समान देवताओं से भी श्रेष्ठ । यहाँ तक कि वे स्वांश नारायण से भी श्रेष्ठ हैं। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् में कुल मिलाकर ६४ दिव्य गुण पूर्ण रूप से होते हैं।'
अनन्त गुण श्री-राधिकार, पॅचिश प्रधान ।ग्रेइ गुणेर ‘वश' हय कृष्ण भगवान् ॥
८६॥
इसी प्रकार श्रीमती राधारानी में अनन्त दिव्य गुण हैं, जिनमें से पच्चीस प्रमुख हैं। श्रीकृष्ण श्रीमती राधारानी के इन्हीं दिव्य गुणों के वश में रहते हैं।
अथ वृन्दावनेश्वर्याः कीर्त्यन्ते प्रवरा गुणाः मधुरेयं नव-वयाश्चलापाङ्गोज्वल-स्मिता । चारु-सौभाग्य-रेखाढूया गन्धोन्मादित-माधवा ॥
८७॥
सङ्गीत-प्रसराभिज्ञा रम्य-वाँ नर्म-पण्डिता । विनीता करुणा-पूर्णा विदग्धा पाटवान्विता ॥
८८॥
लज्जा-शीला सु-मर्यादा धैर्य-गाम्भीर्य-शालिनी ।। सु-विलासा महाभाव-परमोत्कर्ष-तर्षिणी ॥
८९॥
गोकुल-प्रेम-वसतिर्जगच्छेणी-लसद्-यशाः । गुर्वर्पित-गुरु-स्नेहा सखी-प्रणयिता-वशी ॥
९०॥
कृष्ण-प्रियावली-मुख्या सन्ततोश्रव-केशवा ।। बहुना किं गुणास्तस्याः सङ्ख्यातीता हरेरिव ॥
९१॥
श्रीमती राधारानी के पच्चीस दिव्य गुण इस प्रकार हैं-( १ ) वे अत्यन्त मधुरा हैं।(२) वे नित्य नवयौवना हैं।(३) उनकी आँखें चंचल है।(४) वे उज्वल हँसी हँसती हैं। (५) उनकी रेखाएँ सुन्दर तथा शुभ है।(६) वे कृष्ण को अपनी शारीरिक सुगन्ध से सुखी बनाती हैं।(७) वे गायन में निपुणा हैं।(८) उनकी वाणी मोहक है।(९) वे परिहास करने तथा मधुर बोलने में पटु हैं। (१०) वे अत्यन्त विनीता हैं। (११) वे करुणा से पूर्ण हैं।(१२) वे चतुरा हैं। (१३) वे अपना कार्य करने में पटु हैं।(१४) वे लज्जाशीला हैं।(१५) वे सदैव आदर देवे वाली हैं। (१६) वे सदैव शान्त हैं।(१७) वे सदा गम्भीर रहने वाली हैं।( १८ ) वे जीवन का आनन्द उठाने में पटु हैं।(१९) वे महाभाव में स्थित रहती हैं। (२०) वे गोकुल में प्रेमालापों की आगार हैं।(२१) वे विनीत भक्तों में सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। (२२) वे गुरुजनों के प्रति स्नेह रखने वाली हैं। (२३) वे अपनी सखियों के प्रेम के वश में हैं।( २४) वे प्रमुख गोपी हैं। (२५) वे कृष्ण को निरन्तर अपने वश में रखती हैं। संक्षेप में, वे कृष्ण की ही तरह असीम दिव्य गुणों से युक्त हैं।'
नायक, नायिका,--दुइ रसेर 'आलम्बन' ।।सेइ दुइ श्रेष्ठ, राधा, व्रजेन्द्र-नन्दन ॥
९२॥
नायक तथा नायिका समस्त रसों का आधार होते हैं और श्रीमती राधारानी तथा महाराज नन्द के पुत्र श्रीकृष्ण सर्वश्रेष्ठ नायिका-नायक हैं।
एइ-मत दास्ये दास, सख्ये सखा-गण ।।वात्सल्ये माता पिता आश्रयालम्बन ॥
९३॥
जिस तरह भगवान् कृष्ण तथा श्रीमती राधारानी माधुर्य-प्रेम के आलम्बन तथा आश्रय हैं, उसी तरह दास्य रस में महाराज नन्द के पुत्र । आलम्बन तथा चित्रक, रक्तक तथा पत्रक जैसे दास आश्रय हैं। इसी प्रकार दिव्य सख्य रस में कृष्ण आलम्बन हैं और श्रीदामा, सुदामा तथा सुबल जैसे मित्र आश्रय हैं। दिव्य वात्सल्य रस में कृष्ण आलम्बन हैं और माता यशोदा तथा महाराज नन्द आश्रय हैं।
एइ रस अनुभवे ट्रैछे भक्त-गण ।। ग्रैछे रस हय, शुन ताहार लक्षण ॥
९४॥
अब यह सुनें कि रस किस तरह प्रकट होते हैं और विभिन्न पदों पर स्थित भक्तों द्वारा वे किस तरह अनुभव किये जाते हैं।
भक्ति-निर्धेत-दोषाणां प्रसन्नोज्वल-चेतसाम् । श्री-भागवत-रक्तानां रसिकासङ्ग-रङ्गिणाम् ॥
९५॥
जीवनी-भूत-गोविन्द-पाद-भक्ति-सुख-श्रियाम् ।। प्रेमान्तरङ्ग-भूतानि कृत्यान्येवानुतिष्ठताम् ॥
९६॥
भक्तानां हृदि राजन्ती संस्कार-युगलोज्वला ।। रतिरानन्द-रूपैव नीयमाना तु रस्यताम् ॥
९७॥
कृष्णादिभिर्विभावाद्यैर्गतैरनुभवाध्वनि ।।प्रौढ़ानन्दश्चमत्कार-काष्ठामापद्यते पराम् ॥
९८॥
जो भक्ति द्वारा समस्त भौतिक कल्मष से पूरी तरह मुक्त हो चुके हैं, जो सदैव सन्तुष्ट रहते हैं और जिनके हृदय ज्ञान से पूरी तरह से प्रकाशित हो चुके हैं, जो सदैव श्रीमद्भागवत का दिव्य अर्थ समझने के प्रति अनुरक्त रहते हैं, जो सदैव उन्नत भक्तों का संग करने के लिए उत्सुक रहते हैं, जिनका जीवन मात्र गोविन्द के चरणकमलों की सेवा से प्राप्त आनन्द में है, जो प्रेम के गुह्य कार्यों को सदैव सम्पन्न करते हैं-ऐसे उन्नत भक्तों के लिए, जो सहज ही आनन्द में स्थित रहते हैं, प्रेम का बीज ( रति ) पूर्व तथा वर्तमान संस्कारों से हृदय में विस्तार करता है। इस तरह भावों के अवयवों का मिश्रण स्वादिष्ट बन जाता है और वह भक्त की अनुभूति के अन्तर्गत होने से चमत्कार तथा गहरे आनन्द के सर्वोच्च पद तक पहुँच जाता है।'
एइ रस-आस्वाद नाहि अभक्तेर गणे ।कृष्ण-भक्त-गण करे रस आस्वादने ॥
९९ ॥
कृष्ण तथा विभिन्न दिव्य रसों में स्थित भिन्न-भिन्न भक्तों के बीच जो आदान-प्रदान होता है, उसका अनुभव अभक्तों को नहीं होता। भक्ति में उन्नत भक्त ही पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के साथ विभिन्न प्रकार की भक्ति आदान-प्रदान को अच्छी तरह समझ सकते हैं।
सर्वथैव दुरूहोऽयमभक्तैर्भगवद्रसः ।तत्पादाम्बुज-सर्वस्वैर्भक्तैरेवानुरस्यते ॥
१०० ॥
भक्त तथा भगवान् के बीच जिस दिव्य रस का आदान-प्रदान किया जाता है, उसे अभक्त लोग नहीं समझ सकते। इन्हें समझना सभी तरह से अत्यन्त कठिन है, किन्तु जिसने भगवान् कृष्ण के चरणकमलों सर्वस्व अर्पित कर दिया है, वह इन दिव्य रसों का आस्वादन कर सकता है।
सङ्क्षेपे कहिलॆ एइ ‘प्रयोजन'-विवरण ।पञ्चम-पुरुषार्थ–एइ ‘कृष्ण-प्रेम'-धन ॥
१०१॥
यह संक्षिप्त विवरण जीवन के चरम लक्ष्य का विस्तार है। निस्सन्देह, यह पाँचवा तथा अन्तिम लक्ष्य है, जो कि मोक्ष-पद से परे है। यह कृष्ण प्रेमधन कहलाता है।
पूर्वे प्रयागे आमि रसेर विचारे ।। तोमार भाइ रूपे कैलँ शक्ति-सञ्चारे ॥
१०२॥
इसके पूर्व मैं तुम्हारे भाई रूप गोस्वामी को इन रसों को समझने की शक्ति प्रदान कर चुका हूँ। प्रयाग में दशाश्वमेध घाट पर उसे शिक्षा देते हुए मैंने ऐसा किया है।
तुमिह करिह भक्ति-शास्त्रेर प्रचार ।मथुराय लुप्त-तीर्थेर करिह उद्धार ॥
१०३ ॥
हे सनातन, तुम भक्ति के प्रामाणिक शास्त्रों का प्रचार करना और मथुरा जिले के लुप्त तीर्थस्थलों का पुनरुद्धार करना।
वृन्दावने कृष्ण-सेवा, वैष्णव-आचार।भक्ति-स्मृति-शास्त्र करि' करिह प्रचार ॥
१०४॥
वृन्दावन में भगवान् कृष्ण तथा राधारानी की सेवा स्थापित करना। भक्तिशास्त्रों का भी संकलन करना और वृन्दावन से भक्ति सम्प्रदाय का प्रचार करना।
मुक्त-वैराग्य-स्थिति सब शिखाइल ।।शुष्क-वैराग्य-ज्ञान सब निषेधिल ॥
१०५॥
तत्पश्चात् श्री चैतन्य महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी को विशेष स्थिति के अनुसार उचित वैराग्य के विषय में बतलाया और सभी प्रकार से शुष्क वैराग्य तथा शुष्क ज्ञान का निषेध किया।
अद्वेष्टा सर्व-भूतानां मैत्रः करुण एव च । निर्ममो निरहङ्कारः सम-दुःख-सुखः क्षमी ॥
१०६॥
सन्तुष्टः सततं योगी व्रतात्मा दृढ़ निश्चयः ।।मय्यर्पित-मनो-बुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥
१०७॥
जो ईष्र्यालु नहीं है अपितु सारे जीवों का दयालु मित्र है, जो अपने आपको स्वामी नहीं मानता, जो मिथ्या अहंकार से रहित है, जो सुख तथा दुःख दोनों में समभाव रखता है, जो सदैव सन्तुष्ट रहता है, जो क्षमावान तथा आत्मसंयमी है, जो संकल्प के साथ भक्ति में संलग्न रहता है और जिसका मन तथा बुद्धि मुझमें समर्पित है-ऐसा भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय हैं।
ग्रस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते तु ग्रः ।।हर्षामर्ष-भयोद्वेगैर्मुक्तो ग्रः स च मे प्रियः ॥
१०८॥
जिससे किसी को कोई कष्ट नहीं पहुँचता और जो किसी से विचलित नहीं होता, जो हर्ष, क्रोध, भय तथा चिन्ता से मुक्त है, वह मुझे अत्यन्त प्रिय है।
अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गत-व्यथः ।। सर्वारम्भ-परित्यागी यो मे भक्तः स मे प्रियः ॥
१०९॥
जो भक्त किसी अन्य पर आश्रित न रहकर केवल मुझ पर आश्रित रहता है, जो भीतर तथा बाहर से शुद्ध है, जो दक्ष है, जो भौतिक वस्तुओं के प्रति उदासीन है, जो निश्चिन्त है, जो समस्त कष्टों से रहित है और जो सारे पुण्य तथा पाप कार्यों को त्याग देता है, वह मुझे अत्यन्त प्रिय है।
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति । शुभाशुभ-परित्यागी भक्तिमान् ग्रः स मे प्रियः ॥
११०॥
जो न तो भौतिक बातों से हर्षित होता है न द्वेष रखता है, जो न तो शोक करता है न इच्छा करता है, जो शुभ तथा अशुभ भौतिक वस्तुओं का समान रूप से परित्याग करता है और जो मेरी भक्ति में स्थिर रहता है, वह मुझे अत्यन्त प्रिय है।
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः ।। शीतोष्ण-सुख-दुःखेषु समः सङ्ग-विवर्जितः ॥
१११॥
तुल्य-निन्दा-स्तुतिर्मोंनी सन्तुष्टो येन केनचित् ।।अनिकेतः स्थिर-मतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ॥
११२॥
जो मित्रों तथा शत्रुओं के प्रति समभाव रखता है, जो मान तथा अपमान, गर्मी तथा सर्दी, सुख तथा दुःख, यश तथा अपयश में एक समान रहता है, जो भौतिक वस्तुओं से सदैव कल्मषरहित, गम्भीर तथा सन्तुष्ट रहता है, जो किसी प्रकार के घर-बार की परवाह नहीं करता तथा जो भक्ति में सदैव स्थिर रहता है, वह मुझे अत्यन्त प्रिय है।
ये तु धर्मामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते ।श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव में प्रियाः ॥
११३॥
इस तरह से जो व्यक्ति मुझे परम लक्ष्य मानकर अत्यन्त श्रद्धा तथा भक्ति के साथ कृष्णभावनामृत के इन अमर धार्मिक सिद्धान्तों का पालन करता है, वह मुझे अतीव प्रिय है।'
चीराणि किं पथि न सन्ति दिशन्ति भिक्षा | नैवाघ्रि-पाः पर-भृतः सरितोऽप्यशुष्यन् । रुद्धा गुहाः किमजितोऽवति नोपसन्नान् | कस्माद्भजन्ति कवयो धन-दुर्मदान्धान् ॥
११४॥
क्या आम रास्ते में चिथड़े पड़े नहीं मिलते हैं? क्या दूसरों का पालन करने के लिए जीवित रहने वाले वृक्ष अब भिक्षा-दान नहीं करते? क्या नदियाँ सूख जाने के कारण अब प्यासे को जल नहीं देतीं? क्या पर्वतकी गुफाएँ अब बन्द हो चुकी हैं अथवा क्या अजेय भगवान् पृर्ण शरणागतों की रक्षा नहीं करते? तो फिर भक्तों जैसे विद्वान पुरुष उन लोगों की चाटुकारिता करने क्यों जाएँ, जो अपने कठिन परिश्रम से अर्जित किये हुए धन के कारण अन्धे हो रहे हैं? तबे सनातन सब सिद्धान्त पुछिला ।।भागवत-सिद्धान्त गूढ़ सकलि कहिला ॥
११५॥
इस के बाद सनातन गोस्वामी ने श्री चैतन्य महाप्रभु से भक्ति विषयक सारे सिद्धान्तों के विषय में पूछा और महाप्रभु ने श्रीमद्भागवत के गुह्य अर्थों को बहुत अच्छी तरह से बतलाया।
हरि-वंशे कहियाछे गोलोके नित्य-स्थिति ।।इन्द्र आसि' करिल ग्रबे श्री कृष्णेरे स्तुति ॥
११६॥
हरिवंश पुराण में गोलोक वृन्दावन का विवरण मिलता है, जहाँ भगवान् कृष्ण शाश्वत रूप से निवास करते हैं। यह जानकारी इन्द्र ने तब दी, जब कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत उठा लिया था और उसने कृष्ण की शरण स्वीकार करके उनकी स्तुति की थी।
मौषल-लीला, आर कृष्ण-अन्तर्धान । केशावतार, आर व्रत विरुद्ध व्याख्यान ॥
११७॥
महिषी-हरण आदि, सब–मायामय ।व्याख्या शिखाइल ग्रैछे सुसिद्धान्त हय ॥
११८॥
कृष्णभावनामृत के निष्कर्षों के विरुद्ध जो काल्पनिक कथाएँ हैं, उनका सम्बन्ध यदुवंश के विनाश, कृष्ण के अन्तर्धान होने, क्षीरोदकशायी विष्णु के श्याम तथा श्वेत बालों से कृष्ण तथा बलराम की उत्पत्ति और रानियों के अपहरण से है। श्री चैतन्य महाप्रभु ने इन कथाओं के सही सही निष्कर्षों की व्याख्या सनातन गोस्वामी से की।
तबे सनातन प्रभुर चरणे धरिया। निवेदन करे दन्ते तृण-गुच्छ लञा ॥
११९॥
तब सनातन गोस्वामी अपने आपको तिनके से भी तुच्छ मानकर प्रतीकात्मक रूप से अपने मुँह में कुछ तिनके दबाकर श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों पर गिर पड़े और उनके चरण पकड़कर उनसे निम्नलिखित निवेदन किया।
नीच-जाति, नीच-सेवी, मुजि सुपामर ।। सिद्धान्त शिखाइला,—ग्रेइ ब्रह्मार अगोचर ॥
१२०॥
सनातन गोस्वामी ने कहा, हे प्रभु, मैं अत्यन्त नीच जाति में उत्पन्न व्यक्ति हूँ। वस्तुतः मैं तो नीच जाति में उत्पन्न लोगों का सेवक हूँ; अतः मैं अत्यन्त नीच हूँ। तो भी आपने मुझे वे सिद्धान्त सिखलाये हैं, जो ब्रह्मा तक को ज्ञात नहीं हैं।
तुमि ग्रे कहिला, एइ सिद्धान्तामृत-सिन्धु ।।मोर मन छुइँते नारे इहार एक-बिन्दु ॥
१२१॥
आपने जो सिद्धान्त मुझसे कहे हैं, वे सत्यरूपी अमृत के सागर हैं। मेरा मन उस सागर की एक बूंद को भी छू पाने में समर्थ नहीं है।
पङ्ग नाचाइते यदि हय तोमार मन ।वर देह' मोर माथे धरिया चरण ॥
१२२ ॥
यदि आप मुझ जैसे लंगड़े व्यक्ति को नचाना चाहते हैं, तो फिरआप मेरे सिर पर अपने चरणकमल रखकर मुझे अपना दिव्य आशीर्वाद दें।
‘मुबि ये शिखालँ तोरे स्फुरुक सकल' ।।एइ तोमार वर हैते हबे मोर बल ॥
१२३॥
क्या अब आप कृपा करके मुझसे कहेंगे कि, ‘जो कुछ मैंने तुमसे कहा है, वह सब तुम में पूरी तरह से प्रकट हो जाए।' मुझे ऐसा वरदान देकर आप मुझे वह शक्ति प्रदान करेंगे, जिससे मैं इसका वर्णन कर सकें।
तबे महाप्रभु ताँर शिरे धरि' करे ।वर दिला–‘एइ सब स्फुरुक तोमारे' ॥
१२४॥
| तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने सनातन गोस्वामी के सिर पर अपना हाथ रखा और यह वर दिया, ये सारे उपदेश तुम में प्रकट हो जाएँ।
सङ्क्षेपे कहिलँ–'प्रेम'-प्रयोजन-संवाद । विस्तारि' कहन ना याय प्रभुर प्रसाद ॥
१२५ ।। इस तरह मैंने जीवन के चरम लक्ष्य, भगवत्प्रेम के संवाद का संक्षिप्त पर्णन किया है। श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा का वर्णन विस्तार से नहीं किया जा सकता।
प्रभुर उपदेशामृत शुने येइ जन ।। अचिरात्मिलये ताँरे कृष्ण-प्रेम-धन ॥
१२६ ॥
जो कोई भी महाप्रभु द्वारा सनातन गोस्वामी को दिये गये इन उपदेशों को सुनता है, वह शीघ्र ही कृष्ण-प्रेम का अनुभव करने लगता है।
श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश ।। चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्णदास ॥
१२७॥
श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों की वन्दना करते हुए और उनकी कृपा की सदैव आकांक्षा करते हुए, मैं कृष्णदास उनके चरणचिह्नों पर चलकर श्रीचैतन्य-चरितामृत का वर्णन कर रहा हूँ।
अध्याय चौबीस: आत्माराम श्लोक की इकसठवीं व्याख्याएँ
आत्मारामेति पद्यार्कस्यार्थाशून् ग्रः प्रकाशयन् । जगत्तमो जहाराव्यात्स चैतन्योदयाचलः ॥
१॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो, जिन्होंने पूर्व दिशा के क्षितिज की तरह व्यवहार किया, जहाँ आत्माराम श्लोक का सूर्य उदित हुआ। उन्होंने विभिन्न अर्थों के रूप में इसकी किरणें बिखेरीं और इस तरह उन्होंने भौतिक जगत् के अन्धकार को दूर किया। वे ब्रह्माण्ड की रक्षा करें।
जय जय श्री-चैतन्य जय नित्यानन्द ।। जयाद्वैत-चन्द्र जय गौर-भक्त-वृन्द ॥
२॥
श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! श्री नित्यानन्द प्रभु की जय हो! श्री अद्वैतचन्द्र की जय हो तथा श्री चैतन्य के समस्त भक्तों की जय हो! तबे सनातन प्रभुर चरणे धरिया । पुनरपि कहे किछु विनय करिया ॥
३॥
इसके बाद सनातन गोस्वामी ने श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमल पकड़ लिए और विनीत भाव से इस प्रकार याचना की।
‘पूर्वे शुनियाछों, तुमि सार्वभौम-स्थाने ।एक श्लोके आठार अर्थ कैराछ व्याख्याने ॥
४॥
सनातन गोस्वामी ने कहा, हे प्रभु, मैंने सुना है कि आप इससे पहले सार्वभौम भट्टाचार्य के घर पर आत्माराम श्लोक की अठारह प्रकार से विविध व्याख्याएँ कर चुके हैं।
आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे ।।कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूत-गुणो हरिः ॥
५॥
श्री चैतन्य महाप्रभु बोले, मैं एक पागल व्यक्ति हूँ और सार्वभौम चार्य दूसरे पागल व्यक्ति हैं। अतएव उन्होंने मेरे शब्दों को सच मान लिया।
आश्चर्य शुनिया मोर उत्कण्ठित मन ।। कृपा करि' कह ग्रदि, जुड़ाय श्रवण' ॥
६॥
मैंने यह अद्भुत कथा सुनी है, इसीलिए मैं आपकी व्याख्या पुनः सुनने के लिए अत्यन्त उत्सुक हूँ। यदि आप इसे फिर से कहें, तो मैं इसे सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हूँगा।
प्रभु कहे,–आमि वातुल, आमार वचने ।। सार्वभौम वातुल ताहा सत्य करि' माने ॥
७॥
जो लोग आत्म सन्तुष्ट ( आत्माराम ) हैं तथा बाह्य भौतिक इच्छाओं । द्वारा आकृष्ट नहीं होते, वे भी श्रीकृष्ण की प्रेमाभक्ति द्वारा आकृष्ट हो जाते हैं, क्योंकि उनके गुण दिव्य और कार्यकलाप अद्भुत हैं। भगवान हरि इसीलिए कृष्ण कहलाते हैं, क्योंकि उनके लक्षण इतने दिव्य और आकर्षक हैं।
किबी प्रलापिलाङ, किछु नाहिक स्मरणे ।।तोमार सङ्ग-बले ग्रदि किछु हय मने ॥
८॥
मुझे स्मरण नहीं है कि मैंने उस सम्बन्ध में क्या कहा था, किन्तु यदि तुम्हारी संगति से मेरे मन में कुछ आता है, तो मैं उसे बतलाऊँगा।
सहजे आमार किछु अर्थ नाहि भासे ।।तोमा-सबार सङ्ग-बले ग्रे किछु प्रकाशे ॥
९॥
सामान्यतया मैं अपने आप कोई व्याख्या नहीं कर सकता, किन्तु भले ही तुम्हारी संगति से कुछ अपने आप प्रकट हो जाये।
एकादश पद एइ श्लोके सुनिर्मल ।।पृथक् नाना अर्थ पदे करे झलमल ॥
१०॥
इस श्लोक में ग्यारह स्पष्ट शब्द हैं, किन्तु जब उनका अलग-अलग अध्ययन किया जाता है, तो प्रत्येक शब्द से विविध अर्थ झलकते हैं।
'आत्मा'-शब्दे ब्रह्म, देह, मन, ग्रन, धृति ।।बुद्धि, स्वभाव,—-एइ सात अर्थ-प्राप्ति ॥
११॥
आत्मा शब्द के सात विभिन्न अर्थ हैं: परम सत्य, शरीर, मन, प्रयत्न, दृढ़ता, बुद्धि तथा स्वभाव।
आत्मा देह-मनो-ब्रह्म-स्वभाव-धृति-बुद्धिषु, प्रयत्ने च इति ॥
१२॥
आत्मा के पर्याय हैं-शरीर, मन, परम सत्य, स्वभाव, धृति, बुद्धि तथा प्रयत्न।'
एइ साते रमे येइ, सेइ आत्माराम-गण । आत्माराम-गणेर आगे करिब गणन ॥
१३॥
आत्माराम' शब्द उसका द्योतक है, जो इन सातों ( परम सत्य, शरीर, मन इत्यादि) में आनन्द लेता है। बाद में मैं आत्मारामों के नाम गिनाऊँगा।
‘मुनि'-आदि शब्देर अर्थ शुन, सनातन । पृथक्पृथकर्थ पाछे करिब मिलन ॥
१४॥
हे सनातन, पहले 'मुनि' इत्यादि अन्य शब्दों के अर्थ सुनो। सर्वप्रथम मैं उनके अलग-अलग अर्थ बतलाऊँगा और बाद में उन्हें जोड़ूंगा।
‘मुनि'-शब्दे मनन-शील, आर कहे मौनी । तपस्वी, व्रती, ग्रति, आर ऋषि, मुनि ॥
१५॥
मुनि' शब्द उसका सूचक है, जो मननशील है, जो गम्भीर या मौन रहता है, तपस्वी है, जो बड़े व्रत रखता है, जो संन्यासी है और जो सन्त है। ये ‘मुनि' शब्द के विविध अर्थ हैं।
'निर्ग्रन्थ'-शब्दे कहे, अविद्या-ग्रन्थि-हीन । विधि-निषेध-वेद-शास्त्र-ज्ञानादि-विहीन ॥
१६॥
निर्ग्रन्थ' शब्द उसका सूचक है, जो अज्ञान की भौतिक गाँठ से छूट चुका है। यह उसका भी सूचक है, जो वैदिक साहित्य में दिये गये समस्त विधि-विधानों से विहीन है। यह ज्ञान से शून्य का भी सूचक है। मूर्ख, नीच, म्लेच्छ आदि शास्त्र-रिक्त-गण । धन-सञ्चयीनिर्ग्रन्थ, और ये निर्धन ॥
१७॥
निर्ग्रन्थ' उनका भी सूचक है, जो अशिक्षित हैं, नीच हैं, दुराचारी , असंयमित हैं और जो वैदिक साहित्य के प्रति आदर से रहित हैं। यह शब्द पूँजीपति तथा निर्धन का भी सूचक है।
निर्निश्चये निष्क्रमार्थे निर्निर्माण-निषेधयोः ।ग्रन्थो धनेऽथ सन्दर्भे वर्ण-सङ्ग्रथनेऽपि च ॥
१८॥
उपसर्ग निः का प्रयोग निश्चय, वर्गीकरण, निर्माण या निषेध के अर्थ में किया जाता है। ग्रन्थ शब्द का अर्थ धन, निबन्ध तथा शब्दों को जोड़ना है।
'उरुक्रम'-शब्दे कहे, बड़ याँर क्रम ।।‘क्रम'-शब्दे कहे एई पाद-विक्षेपण ॥
१९॥
उरुक्रम' शब्द का अर्थ है, जिसका क्रम अर्थात् कदम बड़ा हो। ‘क्रम' शब्द का अर्थ है पाँव को आगे रखना अर्थात् कदम, डग।।
शक्ति, कम्प, परिपाटी, झुक्ति, शक्त्ये आक्रमण ।चरण-चालने काँपाइल त्रिभुवन ॥
२०॥
क्रम' के अन्य अर्थ भी हैं-शक्ति, काँपना, विधि, तर्क तथा आगे बढ़कर बलपूर्वक आक्रमण करना। इस तरह वामन ने तीनों लोकों को। कॅपा दिया था।
विष्णोर्नु वीर्घ गणनां कतमोऽर्हतीहयः पार्थिवान्यपि कविर्विममे रजांसि । चस्कम्भ ग्रः स्व-रंहसास्खलता त्रि-पृष्ठंग्रस्मास्त्रि-साम्य-सदनादुरु कम्पयानम् ॥
२१॥
भले ही विद्वान व्यक्ति इस भौतिक जगत् के सूक्ष्म परमाणुओं की गणना कर ले, फिर भी वह भगवान् विष्णु की शक्तियों की गणना नहीं कर सकता। भगवान् विष्णु ने वामन अवतार के रूप में भौतिक जगत् के मूल से लेकर सत्यलोक तक के सारे लोकों को बिना किसी बाधा के वश में कर लिया। निस्सन्देह, उन्होंने अपने कदमों के बल से प्रत्येक लोक को कँपा दिया।'
विभु-रूपे व्यापे, शक्त्ये धारण-पोषण ।।माधुर्य-शक्त्ये गोलोक, ऐश्वर्ये परव्योम ॥
२२॥
अपने सर्वव्यापी रूप के माध्यम से पूर्ण पुरुषोत्तम पुरुषोत्तम भगवान् ने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का विस्तार किया है। वे अपनी असाधारण शक्ति से इस सृष्टि का धारण और पोषण करते हैं। वे अपनी माधुर्य शक्ति से गोलोक वृन्दावन का पालन करते हैं। वे अपने छः ऐश्वर्यों से अनेक वैकुण्ठ लोकों का पालन करते हैं।
माया-शक्त्ये ब्रह्माण्डादि-परिपाटी-सृजन ।‘उरुक्रम'-शब्देर एइ अर्थ निरूपण ॥
२३॥
उरुक्रम' शब्द पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का द्योतक है, जिन्होंने अपनी बहिरंगा शक्ति से असंख्य ब्रह्माण्डों की सम्यक् रचना की है।
क्रमः शक्ती परिपाट्यां क्रमश्चालन-कम्पयोः ॥
२४॥
क्रम शब्द के भिन्न-भिन्न अर्थ हैं। यह शक्ति, क्रमबद्ध योजना, ग ( पग), चालन या कम्पन के लिए प्रयुक्त होता है।'
'कुर्वन्ति'-पद एइ परस्मैपद हये ।।कृष्ण-सुख-निमित्त भजने तात्पर्य कहय ॥
२५॥
कुर्वन्ति' शब्द का अर्थ है, वे दूसरों के लिए कुछ करते हैं, 'चूंकि यह ‘करना' क्रिया का एक रूप है, अतः यह 'अन्यों के लिए किये गये कार्य' को सूचित करता है। यह उस भक्ति के सन्दर्भ में प्रयुक्त होता है, जिसे कृष्ण की तुष्टि के लिए की जाती है। कुर्वन्ति' शब्द का यही तात्पर्य है।
स्वरित-जितः कर्जभिप्राये क्रिया-फले ॥
२६॥
आत्मनेपद के अन्त्य तभी प्रयुक्त होते हैं, जब कर्म का फल क्रियाओं के कर्ता को मिलता है, जिसका सूचक अ या स्वरित स्वर होता हैं।
‘हेतु'-शब्दे कहे—भुक्ति-आदि वाञ्छान्तरे । भुक्ति, सिद्धि, मुक्ति मुख्य एइ तिन प्रकारे ॥
२७॥
हेतु शब्द का अर्थ यह है कि किसी उद्देश्य से कोई कार्य किया है। उद्देश्य तीन हो सकते हैं : चाहे कोई उस फल को स्वयं भोगना ना हो, चाहे कोई भौतिक सिद्धि प्राप्त करना चाहता हो या मुक्ति प्राप्त ना चाहता हो।
एक भुक्ति कहे, भोग–अनन्त-प्रकार ।सिद्धि-अष्टादश, मुक्ति–पञ्च-विधाकार ॥
२८॥
सर्वप्रथम हम भुक्ति' (भौतिक भोग) शब्द लेते हैं। यह भुक्ति अनन्त प्रकार की होती है। हम ‘सिद्धि' शब्द को भी ले सकते हैं, जो अठारह प्रकार की होती है। इसी तरह 'मुक्ति' शब्द के पाँच प्रकार हैं।
एइ याँहा नाहि, ताहा भक्ति--'अहैतुकी' ।ग्राहा हैते वश हय श्री कृष्ण कौतुकी ॥
२९॥
अहैतुकी भक्ति भोग, सिद्धि या मुक्ति द्वारा प्रेरित नहीं होती। जब मनुष्य इन सारे कल्मषों से मुक्त हो जाता है, तब वह अत्यन्त कौतुकी कृष्ण को अपने वश में कर सकता है।
‘भक्ति'-शब्देर अर्थ हय दश-विधाकार। एक–साधन', 'प्रेम-भक्ति'–नव प्रकार ॥
३०॥
भक्ति शब्द के दस अर्थ हैं। इनमें से एक है विधि-विधानों के अनुसार भक्ति करना ( साधन भक्ति) और दूसरी भक्ति, जिसे प्रेमभक्ति कहते हैं नौ प्रकार की है।
‘रति'-लक्षणा, ‘प्रेम'-लक्षणा, इत्यादि प्रचार । भाव-रूपा, महाभाव-लक्षण-रूपा आर ॥
३१॥
इसके बाद भगवत्प्रेम के लक्षणों की व्याख्या की गई है, जो नौ प्रकार के हैं-रति से लेकर भाव और अन्त में महाभाव तक।
शान्त-भक्तेर रति बाड़े 'प्रेम'-पर्यन्त । दास्य-भक्तेर रति हय 'राग'-दशा-अन्त ॥
३२॥
शान्त भाव के भक्तों का कृष्ण के प्रति आकर्षण भगवत्प्रेम तक बढ़ता जाता है और दास्य भाव के भक्तों का आकर्षण राग तक बढ़ता है।
सखा-गणेर रति हय 'अनुराग' पर्यन्त । पितृ-मातृ-स्नेह आदि 'अनुराग'-अन्त ॥
३३॥
वृन्दावन के भक्तगण, जो कि भगवान् के मित्र हैं, वे अपने प्रेम को। अनुराग तक वर्धित कर सकते हैं। कृष्ण के माता-पिता का वात्सल्य-स्नेह अनुराग-दशा के अन्त को प्राप्त हो सकता है।
कान्ता-गणेर रति पाय 'महाभाव'-सीमा । ‘भक्ति'-शब्देर एइ सब अर्थेर महिमा ॥
३४॥
वृन्दावन की गोपियाँ, जो कृष्ण से माधुर्य-प्रेम द्वारा युक्त हैं, वे अपने प्रेम को महाभाव दशा तक ले जा सकती हैं।‘भक्ति' शब्द के ये कुछ महिमायुक्त अर्थ हैं।
‘इत्थम्भूत-गुणः'-शब्देर शुनह व्याख्यान । ‘इत्थं'-शब्देर भिन्न अर्थ, 'गुण'-शब्देर आन ॥
३५॥
अब आत्माराम श्लोक में आये 'इत्थम्भूतगुण' शब्द का अर्थ सुनो। ‘इत्थम्भूत' के विभिन्न अर्थ होते हैं और 'गुण' के उससे भिन्न अर्थ होते हैं।
'इत्थम्भूत'-शब्देर अर्थ—पूर्णानन्दमय ।। याँर आगे ब्रह्मानन्द तृण-प्राय हय ॥
३६॥
इत्थम्भूत' शब्द दिव्य रूप से बहुत ही उन्नत है, क्योंकि इसका अर्थ है 'दिव्य आनन्द से पूर्ण।' इस दिव्य आनन्द के समक्ष ब्रह्म-तादात्म्य से प्राप्त आनन्द ( ब्रह्मानन्द) तिनके के समान तुच्छ प्रतीत होता है।
त्वत्साक्षात्करणाह्लाद-विशुद्धाब्धि-स्थितस्य मे ।। सुखानि गोष्पदायन्ते ब्राह्माण्यपि जगद्गुरो ॥
३७॥
हे प्रभु, हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, चूँकि मैंने आपका प्रत्यक्ष दर्शन किया है, इसलिए मेरे आनन्द ने महासमुद्र का रूप धारण कर लिया है। अब इस समुद्र में स्थित होने के कारण मैं यह अनुभव कर रहा हूँ कि अन्य सारे तथाकथित आनन्द बछड़े के खुर की छाप में भरे जल के समान हैं।
सर्वाकर्षक, सर्वाह्लादक, महा-रसायन । आपनार बले करे सर्व-विस्मारण ॥
३८॥
भगवान् कृष्ण इतने महान् हैं कि वे अन्य किसी से भी अधिक आकर्षक तथा प्रसन्न करने वाले हैं। वे आनन्द के सर्वोत्तम धाम हैं। वे अपने बल से अन्य सारे आनन्दों को भुलवा देने वाले हैं।
भुक्ति-मुक्ति-सिद्धि-सुख छाड़य ग्रार गन्धे ।।अलौकिक शक्ति-गुणे कृष्ण-कृपाय बान्धे ॥
३९॥
शुद्ध भक्ति इतनी उत्कृष्ट होती है कि व्यक्ति इसके आगे भौतिक सुख, भौतिक मुक्ति तथा योगसिद्धि का सुख आसानी से भूल जाता है। इसलिए भक्त कृष्ण की कृपा तथा उनकी असामान्य शक्ति तथा गुणों से बँध जाता है।
शास्त्र-युक्ति नाहि इहाँ सिद्धान्त-विचार ।।एइ स्वभाव-गुणे, ग्राते माधुर सार ॥
४०॥
जब मनुष्य दिव्य पद पर कृष्ण के प्रति आकृष्ट हो जाता है, तब न शास्त्र के आधार पर कोई तर्क काम करता है, न ही ऐसे सिद्धान्तों पर कोई विचार हो पाता है। यही उनका दिव्य गुण है, जो समस्त दिव्य माधुर्य को सार है।
‘गुण' शब्देर अर्थ—कृष्णेर गुण अनन्त ।सच्चिद्-रूप-गुण सर्व पूर्णानन्द ॥
४१॥
कृष्ण के गुण दिव्य और अनन्त हैं। समस्त आध्यात्मिक गुण दिव्य आनन्द से पूर्ण हैं।
ऐश्वर्य-माधुर्घ-कारुण्ये स्वरूप पूर्णता ।।भक्त-वात्सल्य, आत्म-पर्यन्त वदान्यता ॥
४२॥
ऐश्वर्य, माधुर्य तथा करुणा जैसे कृष्ण के दिव्य गुण सब तरह से पूर्ण हैं। जहाँ तक अपने भक्तों के प्रति कृष्ण की वत्सलता का प्रश्न है, वे इतने वदान्य हैं कि वे अपने भक्तों को अपने आप तक को दे देते हैं।
अलौकिक रूप, रस, सौरभादि गुण ।। कारो मन कोन गुणे करे आकर्षण ॥
४३॥
कृष्ण के गुणों की कोई सीमा नहीं है। भक्तगण उनके असाधारण सौन्दर्य, रसों तथा सुगन्धि से आकृष्ट होते हैं। इस तरह वे विभिन्न दिव्य रसों में विभिन्न रूप से स्थित होते हैं। इसीलिए कृष्ण को सर्व-आकर्षक कहा जाता है।
सनकादिर मन हरिल सौरभादि गुणे ॥
४४॥
चारों कुमार-मुनियों ( सनक, सनातन, सनन्दन तथा सनत्कुमार) के मन भगवान् को अर्पित तुलसी की सुगन्ध के कारण भगवान् के चरणकमलों के प्रति आकृष्ट हो गये।
तस्यारविन्द-नयनस्य पदारविन्दकिञ्जल्क-मिश्र-तुलसी-मकरन्द-वायुः ।अन्तर्गतः स्व-विवरेण चकार तेषांसक्षोभमक्षर-जुषामपि चित्त-तन्वोः ॥
४५ ॥
जब कमलनयन भगवान् के चरणकमलों से तुलसी-दल तथा केसर की सुगन्धि ले जाने वाली वायु उन कुमारों के नासारन्ध्रों से होकर हृदयों में प्रविष्ट हुई, तो उन्हें शरीर तथा मन दोनों में परिवर्तन का अनुभव हुआ, यद्यपि वे निराकार ब्रह्म धारणा के प्रति आसक्त थे।'
शुकदेवेर मन हरिल लीला-श्रवणे ॥
४६॥
शुकदेव का मन भगवान् की लीलाओं के श्रवण में खो गया था।
परिनिष्ठितोऽपि नैर्गुण्ये उत्तम:श्लोक-लीलया ।।गृहीत-चेता राजर्षे आख्यानं ग़दधीतवान् ॥
४७॥
[ शुकदेव गोस्वामी ने परीक्षित महाराज से कहा : ‘हे राजन, यद्यपि मैं पूर्णतया दिव्य पद को प्राप्त था, किन्तु फिर भी मैं भगवान कृष्ण की लीलाओं के प्रति आकृष्ट हो गया। इसीलिए मैंने अपने पिता से श्रीमद्भागवत का अध्ययन किया।
स्व-सुख-निभृत-चेतास्तव्युदस्तान्य-भावोऽप्यजित-रुचिर-लीलाकृष्ट-सारस्तदीयम् । व्यतनुत कृपया ग्रस्तत्त्व-दीपं पुराणंतमखिल-वृजिन-घ्नं व्यास-सूनुं नतोऽस्मि ॥
४८॥
मैं समस्त पापफलों को नष्ट करने वाले व्यासपुत्र श्रील शुकदेव गोस्वामी को सादर नमस्कार करता हूँ। आत्म-साक्षात्कार एवं आनन्द से पूर्ण होने के कारण उनकी कोई भौतिक इच्छा नहीं थी। फिर भी वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की दिव्य लीलाओं के प्रति आकृष्ट हुए और लोगों पर दया करके उन्होंने श्रीमद्भागवत नामक दिव्य ऐतिहासिक ग्रन्थ का वर्णन किया। यह ग्रन्थ परम सत्य के दीपक के समान है।
श्री-अङ्ग-रूपे हरे गोपिकार मन ॥
४९॥
भगवान् श्रीकृष्ण अपने सुन्दर दिव्य स्वरूप द्वारा समस्त गोपियों के मन को हर लेते हैं।
वीक्ष्यालकावृत-मुखं तवे कुण्डल-श्री| गण्ड-स्थलाधर-सुधं हसितावलोकम् । दत्ताभयं च भुज-दण्ड-ग्रुगं विलोक्यवक्षः श्रियैक-रमणं च भवाम दास्यः ॥
५०॥
हे कृष्ण, हम तो आपकी दासियों के रूप में आत्मसमर्पण कर चुकी हैं, क्योंकि हमने बालों की लटों से अलंकृत आपके सुन्दर मुख को, आपके गालों पर लटकते आपके कुण्डलों को, आपके होठों के अमृत को तथा आपके मृदुहास्य की सुन्दरता को देखा है और साहस प्रदान करने वाली आपकी भुजाओं द्वारा हम आलिंगित भी हुई हैं। चूंकि हमने आपके सुन्दर तथा प्रशस्त वक्षस्थल को देखा है, अतएव हम आपकी शरण में हैं।
रूप-गुण-श्रवणे रुक्मिण्यादिर आकर्षण ॥
५१॥
रुक्मिणी आदि द्वारका की रानियाँ भी कृष्ण के दिव्य सौन्दर्य तथा गुणों को सुनकर उनकी और आकृष्ट हो जाती हैं।
श्रुत्वा गुणान्भुवन-सुन्दर शृण्वतां तेनिर्विश्य कर्ण-विवरैर्हरतोऽङ्ग-तापम् ।रूपं दृशां दृशिमतामखिलार्थ-लाभं। त्वय्यच्युताविशति चित्तमपत्रपं मे ॥
५२॥
हे अतीव सुन्दर कृष्ण, मैंने दूसरों से आपके दिव्य गुणों के विषय में सुना है, जिसके कारण मेरे शरीर के सारे दुःख जाते रहे हैं। यदि कोई आपके दिव्य सौन्दर्य का दर्शन कर लेता है, तो उसके नेत्रों को जीवन का सारा लाभ प्राप्त हो जाता है। हे अच्युत, आपके गुणों के विषय में सुनकर मैं लज्जाविहीन हो गई हूँ और मैं आपके प्रति आकृष्ट हो चुकी हूँ।'
वंशी-गीते हरे कृष्ण लक्ष्म्यादिर मन ॥
५३॥
भगवान् कृष्ण अपनी दिव्य वंशी बजाकर लक्ष्मी देवी आदि के भी मन को आकृष्ट कर लेते हैं।
कस्यानुभावोऽस्य न देव विद्महेतवाघ्रि-रेणु-स्परशाधिकारः । ग्रद्वाञ्छया श्रीलंलनाचरत्तपो ।विहाय कामान्सु-चिरं धृत-व्रता ॥
५४॥
हे प्रभु, हम नहीं जानतीं कि कालिय सर्प को किस तरह आपके चरणकमलों की धूल को स्पर्श करने का सुअवसर प्राप्त हो सका। ऐसा अवसर पाने के लिए तो लक्ष्मीजी ने सारी इच्छाएँ त्यागकर सदियों तक कठोर व्रत लेकर तपस्या की थी। निस्सन्देह, हम नहीं जानती हैं कि इस कालिय सर्प को यह सुअवसर कैसे प्राप्त हो सका?' ।
योग्य-भावे जगते व्रत युवतीर गण ॥
५५॥
कृष्ण न केवल गोपियों एवं लक्ष्मीओं के मनों को आकृष्ट करने । वाले हैं, अपितु वे तीनों लोकों की युवतियों के भी मनों को आकृष्ट करते हैं | का स्त्रयङ्ग ते कल-पदामृत-वेणु-गीतसम्मोहितार्य-चरितान्न चलेत्रि-लोक्याम् । त्रैलोक्य-सौभगमिदं च निरीक्ष्य रूपंग्रगो-द्विज-द्रुम-मृगाः पुलकोन्यबिभ्रन् ॥
५६॥
हे भगवान् कृष्ण, भला तीनों लोकों में वह कौन-सी स्त्री होगी, जो आपकी अद्भुत बाँसुरी से निकले मधुर संगीत की लहरियों से मोहित न हो जाए? भला इस तरह कौन-सी स्त्री अपने पतिव्रता पथ से विचलित नहीं हो जायेगी? आपका सौन्दर्य तीनों लोकों में सर्वोत्कृष्ट है। आपके सौन्दर्य को देखकर गौवें, पक्षी, पशु तथा वन के वृक्ष भी हर्ष के मारे जड़ हो जाते हैं।'
गुरु-तुल्य स्त्री-गणेर वात्सल्ये आकर्षण । दास्य-सख्यादि-भावे पुरुषादि गण ॥
५७॥
वृन्दावन की स्त्रियाँ, जो वयोवृद्धा हैं, कृष्ण के प्रति मातृ-स्नेह से आकृष्ट होती हैं। वृन्दावन के पुरुष कृष्ण के प्रति सेवक, मित्र तथा पिता के रूप में आकृष्ट होते हैं।
पक्षी, मृग, वृक्ष, लता, चेतनाचेतन । प्रेमे मत्त करि' आकर्षये कृष्ण-गुण ॥
५८॥
कृष्ण के गुण जड़ तथा चेतन को समान रूप से मोहने वाले हैं। यहाँ तक कि पक्षी, पशु तथा वृक्ष भी कृष्ण के गुणों से आकृष्ट हो जाते हैं।
‘हरिः'-शब्दे नानार्थ, दुइ मुख्यतम ।सर्व अमङ्गल हरे, प्रेम दिया हरे मन ॥
५९॥
यद्यपि हरि शब्द के अनेक अर्थ हैं, किन्तु उनमें से दो मुख्य हैं। एक अर्थ यह है कि भगवान् अपने भक्त का सारा अमंगल हर लेते हैं और दूसरा अर्थ यह है कि वे भगवत्प्रेम द्वारा मन को आकृष्ट करते हैं।
ग्रैछे तैछे ग्रोहि कोहि करये स्मरण ।।चारि-विध ताप तार करे संहरण ॥
६० ॥
जब भक्त जहाँ कहीं भी और जैसे कैसे भी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का सदैव स्मरण करता है, तो भगवान् हरि जीवन के चार प्रकार के तापों को हर लेते हैं।
ग्रंथाग्निः सु-समृद्धार्चः करोत्येधांसि भस्म-सात् ।तथा मद्विषया भक्तिरुद्धवैनांसि कृत्स्नशः ॥
६१॥
जिस प्रकार पूरी तरह प्रज्वलित अग्नि द्वारा सारा ईंधन जलकर राख हो जाता है, उसी तरह मेरी सेवा में लगने पर मनुष्य के सारे पापकृत्य पूर्णतया दूर हो जाते हैं।'
तबे करे भक्ति-बाधक कर्म, अविद्या नाश ।।श्रवणाद्येर फल ‘प्रेमा' करये प्रकाश ॥
६२॥
इस तरह जब पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की कृपा से सारे पापकर्म दूर हो जाते हैं, तो धीरे-धीरे भक्ति के मार्ग के सारे अवरोध एवं उसी के साथ इन अवरोधों से उत्पन्न अज्ञान भी दूर हो जाते हैं। इसके बाद मनुष्य श्रवण, कीर्तन आदि नौ प्रकार की भक्ति के माध्यम से अपने मूल भगवत्प्रेम कोरी तरह से प्रकट करता है।
निज-गुणे तबे हरे देहेन्द्रिय-मन । ऐछे कृपालु कृष्ण, ऐछे ताँर गुण ॥
६३॥
जब भक्त सारे भौतिक पापकर्मों से मुक्त हो जाता है, तो कृष्ण उसके शरीर, मन तथा इन्द्रियों को अपनी सेवा में लगा लेते हैं। इस तरह कृष्ण अत्यन्त कृपालु हैं और उनके दिव्य गुण अत्यन्त आकर्षक हैं।
चारि पुरुषार्थ छाड़ाय, गुणे हरे सबार मन ।‘हरि'-शब्देर एइ मुख्य कहिलँ लक्षण ॥
६४॥
जब मनुष्य का मन, इन्द्रियाँ तथा शरीर हरि के दिव्य गुणों के प्रति आकृष्ट हो जाते हैं, तो वह भौतिक सफलता के चारों सिद्धान्तों का परित्याग कर देता है। इस तरह मैंने ‘हरि' शब्द के मुख्य अर्थों की व्याख्या कर दी है।
‘च' 'अपि', दुइ शब्द ताते 'अव्यय' हय ।। ग्रेइ अर्थ लागाइये, सेइ अर्थ होय ॥
६५॥
जब समुच्चय-बोधक च तथा क्रियाविशेषण अपि ये दो शब्द इस श्लोक में जोड़ दिये जाते हैं, तो इस श्लोक से जैसा भी अर्थ चाहें, प्राप्त किया जा सकता है।
तथापि च-कारेर कहे मुख्य अर्थ सात ॥
६६॥
च' शब्द की व्याख्या सात प्रकार से की जा सकती है।
चान्वाचये समाहारेऽन्योन्यार्थे च समुच्चये । ग्रलान्तरे तथा पाद-पूरणेऽप्यवधारणे ॥
६७॥
यह शब्द च ( तथा ) का प्रयोग किसी शब्द या वाक्य को पिछले शब्द या वाक्य से जोड़ने, समाहार करने, अर्थ में सहायता करने, सामूहिक जानकारी देने, अन्य विकल्प सुझाने या श्लोक के चरण की पूर्ति करने के लिए किया जाता है। इसका प्रयोग निश्चय के अर्थ में भी होता है।'
अपि-शब्दे मुख्य अर्थ सात विख्यात ॥
६८ ॥
| अपि' शब्द के सात मुख्य अर्थ होते हैं। वे इस प्रकार हैं।
अपि सम्भावना-प्रश्न-शङ्का-गह-समुच्चये ।।तथा युक्त पदार्थेषु काम-चार-क्रियासु च ॥
६९॥
यह शब्द अपि का प्रयोग सम्भावना, प्रश्न, सन्देह, निन्दा, समुच्चय, वस्तुओं का सही ढंग से सम्प्रयोग तथा अतिशियोक्ति के अर्थ में किया जाता है।
एइ त' एकादश पदेर अर्थ-निर्णय । एबे श्लोकार्थ करि, ग्रथा ये लागय ॥
७० ॥
मैं अब ग्यारह अलग-अलग शब्दों के विभिन्न अर्थ बतला चुका हूँ। अब मैं इस श्लोक का पूरा अर्थ कहूँगा, जैसाकि यह विभिन्न स्थलों पर उपयुक्त है।
‘ब्रह्म' शब्देर अर्थतत्त्व सर्व-बृहत्तम । स्वरूप ऐश्वर्य करि' नाहि ग्राँर सम ॥
७१॥
ब्रह्म' शब्द परम सत्य को सूचक है, जो अन्य सभी सत्यों से श्रेष्ठ है। यह मूल स्वरूप है और इस परम सत्य के तुल्य अन्य कोई सत्य नहीं है।
बृहत्त्वाद्हणत्वाच्च तद्ब्रह्म परमं विदुः ।।तस्मै नमस्ते सर्वात्मन् ग्रोगि-चिन्त्याविकारवत् ॥
७२॥
मैं उन परम सत्य को सादर नमस्कार करता हूँ। वे सर्वव्यापक तथा : महान् योगियों के लिए सर्वोच्च विषय हैं। वे अपरिवर्तनशील हैं और सबके आत्मा हैं।'
सेइ ब्रह्म-शब्दे कहे स्वयं-भगवान् ।अद्वितीय-ज्ञान, याँहा विना नाहि आन ॥
७३॥
ब्रह्म' शब्द का वास्तविक अर्थ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् है, जो अद्वितीय हैं और जिनके बिना अन्य किसी भी वस्तु का अस्तित्व सम्भव नहीं है।
वदन्ति तत्तत्त्व-विदस्तत्त्वं प्रज्ज्ञानमद्वयम् ।ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ॥
७४॥
विद्वान अध्यात्मवादी, जो परम सत्य को जानते हैं, कहते हैं कि वे ही अद्वय ज्ञान हैं और वे ही निराकार ब्रह्म, अन्तर्यामी परमात्मा तथा भगवान् कहलाते हैं।'
सेइ अद्वय-तत्त्व कृष्ण–स्वयं-भगवान् ।।तिन-काले सत्य तिंहो-शास्त्र-प्रमाण ॥
७५ ॥
वे अद्वय परम सत्य कृष्ण हैं, जो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं। वे भूत, वर्तमान तथा भविष्य के परम सत्य हैं। यही समस्त प्रामाणिक शास्त्रों का प्रमाण है।
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् ग्रसदसत्परम् ।। पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम् ॥
७६ ॥
सृष्टि के पूर्व केवल मैं विद्यमान रहता हूँ, कोई स्थूल, सूक्ष्म या । आदि तत्त्व कुछ भी नहीं रहता। सृष्टि के बाद मैं ही प्रत्येक वस्तु में - विद्यमान रहता हूँ और संहार के बाद केवल मैं ही शाश्वत रूप से रह जाता ‘आत्म'-शब्दे कहे कृष्ण बृहत्त्व-स्वरूप ।सर्व-व्यापक, सर्व-साक्षी, परम-स्वरूप ॥
७७॥
आत्मा' शब्द सर्वोच्च सत्य, कृष्ण का सूचक है। वे सबके सर्वव्यापी साक्षी हैं और परम स्वरूप हैं।
आततत्वाच्च मातृत्वादात्मा हि परमो हरिः ॥
७८ ॥
भगवान् हरि प्रत्येक वस्तु के सर्वव्यापक आदि उद्गम हैं। इसलिए वे सबके परमात्मा हैं।'
सेइ कृष्ण-प्राप्ति-हेतु त्रिविध साधन' ।ज्ञान, योग, भक्ति,—तिनेर पृथक्लक्षण ॥
७९॥
परम सत्य कृष्ण के चरणकमलों को प्राप्त करने के तीन साधन हैं। ये हैं--दार्शनिक चिन्तन, योगाभ्यास तथा भक्तिमय सेवा। इन तीनों के लक्षण अलग-अलग हैं।
तिन साधने भगवान् तिने स्वरूपे भासे ।।ब्रह्म, परमात्मा, भगवत्ता,—त्रिविध प्रकाशे ॥
८० ॥
परम सत्य तो एक ही हैं, किन्तु उन्हें समझने के प्रक्रिया के अनुसार वे--ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान् ये तीन रूपों में-प्रकट होते हैं।
वदन्ति तत्तत्त्व-विदस्तत्त्वं ज्ञानमद्वयम् । ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ॥
८१॥
परम सत्य को जानने वाले विद्वान अध्यात्मवादी कहते हैं कि यह भद्वय ज्ञान है और निर्विशेष ब्रह्म, अन्तर्यामी परमात्मा तथा भगवान् कहलाता है।'
‘ब्रह्म-आत्मा'-शब्दे यदि कृष्णेरे कहय । ‘रूढ़ि-वृत्त्ये' निर्विशेष अन्तर्यामी कय ॥
८२ ॥
यद्यपि 'ब्रह्म' तथा 'आत्मा' शब्द कृष्ण के सूचक हैं, किन्तु उनके प्रत्यक्ष अर्थ क्रमशः निर्विशेष ब्रह्म तथा परमात्मा के ही सूचक हैं।
ज्ञान-मार्गे---निर्विशेष-ब्रह्म प्रकाशे । योग-मार्गे--अन्तर्रामि-स्वरूपेते भासे ॥
८३ ।। यदि कोई दार्शनिक चिन्तन के मार्ग का अनुसरण करता है, तो परम सत्य अपने आपको निर्विशेष ब्रह्म के रूप में प्रकट करते हैं, किन्तु यदि वह योग का अनुगामी है, तो परम सत्य ( भगवान्) स्वयं को परमात्मा के रूप में प्रकट करते हैं।
राग-भक्ति-विधि-भक्ति हय दुइ-रूप ।‘स्वयं-भगवत्त्वे', भगवत्त्वे प्रकाश द्वि-रूप ॥
८४॥
भक्ति-कर्म दो प्रकार का है-रागानुग (स्वतःस्फूर्त ) तथा विधिविधानपरक ( साधन भक्ति)। रागानुगा भक्ति से मनुष्य को मूल भगवान् अर्थात् कृष्ण की प्राप्ति होती है और विधि-विधानों (वैधी भक्ति) से मनुष्य को भगवान् का विस्तार रूप प्राप्त होता है।
राग--भक्त्ये व्रजे स्वयं-भगवाने पाय ॥
८५ ॥
वृन्दावन में रागानुगा भक्ति सम्पन्न करने से मनुष्य को मूल पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण प्राप्त होते हैं।
नायं सुखापो भगवान्देहिनां गोपिका-सुतः ।।ज्ञानिनां चात्म-भूतानां ग्रथा भक्तिमतामिह ॥
८६॥
माता यशोदा के पुत्र पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण रागानुगा प्रेमाभक्ति में लगे भक्तों के लिए उपलब्ध हैं, किन्तु वे ज्ञानियों, कठिन तपस्या द्वारा आत्म-साक्षात्कार के लिए प्रयत्न करने वालों या शरीर को आत्मा के तुल्य मानने वालों के लिए उतनी सरलता से सुलभ नहीं होते।'
विधि-भक्त्ये पार्षद-देहे वैकुण्ठेते ग्राय ॥
८७॥
वैधी भक्ति करने से मनुष्य नारायण का पार्षद बनता है और आध्यात्मिक आकाश में वैकुण्ठ लोक प्राप्त करता है।
ग्रच्च व्रजन्त्यनिमिषामृषभानुवृत्त्या | दूरे-ग्रमा ह्युपरि नः स्पृहणीय-शीलाः ।। भर्तुर्मथः सु-यशसः कथनानुरागवैक्लव्य-बाष्प-कलया पुलकी-कृताङ्गाः ।।८८ ॥
जो भगवान् कृष्ण के कार्यों की चर्चा करते हैं, वे भक्ति के चरम पद को प्राप्त रहते हैं और उनके नेत्रों से अश्रु तथा शारीरिक पुलक के लक्षण दृष्टिगोचर होते हैं। ऐसे लोग योग-पद्धति के विधि-विधानों का अभ्यास किये बिना ही कृष्ण की भक्ति करते हैं। उनमें सारे आध्यात्मिक गुण पाये जाते हैं और वे वैकुण्ठ लोकों को जाते हैं, जो हमारे ऊपर स्थित हैं।'
सेइ उपासक हय त्रिविध प्रकार । अकाम, मोक्ष-काम, सर्व-काम आर ॥
८९।। भक्तगण तीन वर्गों में विभाजित हैं-अकाम (निष्काम ), मोक्षकाम ( मोक्ष के इच्छुक ) तथा सर्वकाम ( भौतिक सिद्धि के इच्छुक)।
अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः ।तीव्रण भक्तिय़ोगेन व्रजेत पुरुषं परम् ॥
९०॥
जो वास्तव में बुद्धिमान है, वह भले ही भौतिक इच्छाओं से मुक्त भक्त हो, या सारी भौतिक सुविधाएँ चाहने वाला कर्मी हो अथवा मोक्ष की कामना करने वाला ज्ञानी हो, उसे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की तुष्टि के लिए गम्भीरतापूर्वक भक्तियोग का पालन करना चाहिए।'
बुद्धिमान्-अर्थे–यदि ‘विचार-ज्ञ' हय ।निज-काम लागिह तबे कृष्णेरे भजये ॥
९१॥
उदारधीः' शब्द का अर्थ बुद्धिमान या विचारवान है। इसीलिए मनुष्य अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए भी कृष्ण की भक्ति में संलग्न होता है।
भक्ति विनु कोन साधन दिते नारे फल ।।सब फल देय भक्ति स्वतन्त्र प्रबल ॥
९२॥
अन्य विधियाँ तब तक कोई फल प्रदान नहीं कर सकतीं, जब तक उनकी संगति भक्ति से नहीं हो जाती। किन्तु भक्ति इतनी प्रबल तथा स्वतन्त्र है कि यह मनुष्य को सारे वांछित फल दे सकती है।
अजा-गल-स्तन-न्याय अन्य साधन ।।अतएव हरि भजे बुद्धिमान् जन ॥
९३॥
भक्ति को छोड़कर आत्म-साक्षात्कार की सारी विधियाँ बकरी के गले के स्तन के समान हैं। अतः बुद्धिमान मनुष्य आत्म-साक्षात्कार की अन्य सारी विधियों को त्यागकर एकमात्र भक्ति को अपनाता है।
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।आर्ते जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥
९४॥
हे भरत-श्रेष्ठ ( अर्जुन ), चार प्रकार के पुण्यात्मा मेरी भक्ति करते हैं-आर्त ( दुःखी ), धने का इच्छुक, जिज्ञासु तथा परम पूर्ण के ज्ञान की खोज करने वाला।'
आर्त, अर्थार्थी, दुइ सकाम-भितरे गणि।।जिज्ञासु, ज्ञानी,-दुइ मोक्ष-काम मानि ॥
९५॥
भौतिकतावादी भक्तगण भक्ति तथा कृष्ण की पूजा तब करते हैं, | जब वे संकट में होते हैं या उन्हें धन की आवश्यकता होती है। जो लोग र वस्तु के परम स्रोत को जानने के लिए वास्तव में उत्सुक रहते हैं, तथा जो लोग ज्ञान की खोज में रहते हैं, वे अध्यात्मवादी कहलाते हैं, क्योंकि 'वे समस्त भौतिक कल्मष से मुक्ति चाहते हैं।
एइ चारि सुकृति हय महा-भाग्यवान् ।तत्तत्कामादि छाड़ि' हय शुद्ध-भक्तिमान् ॥
९६ ॥
पवित्र पृष्ठभूमि होने के कारण इन चारों प्रकार के लोगों को अत्यन्त भाग्यवान मानना चाहिए। ऐसे लोग धीरे-धीरे भौतिक इच्छाओं का परित्याग कर देते हैं और शुद्ध भक्त बन जाते हैं।
साधु-सङ्ग-कृपा किम्वा कृष्णेर कृपाय ।।कामादि ‘दुःसङ्ग' छाड़ि' शुद्ध-भक्ति पाय ॥
९७ ॥
वैष्णव, प्रामाणिक गुरु तथा कृष्ण की विशेष कृपा से ही मनुष्य भक्ति-पद को प्राप्त होता है। इस पद पर मनुष्य सारी भौतिक इच्छाओं तथा अवांछित लोगों की संगति को त्याग देता है। इस तरह मनुष्य शुद्ध भक्ति के पद को प्राप्त करता है।
सत्सङ्गान्मुक्त-दुःसङ्गो हातुं नोत्सहते बुधः । कीर्त्यमानं यशो ग्रस्य सकृदाकण्यं रोचनम् ॥
१८ ॥
बुद्धिमान लोग, जिन्होंने शुद्ध भक्तों की संगति में रहकर परमेश्वर को समझ लिया है और जो भौतिक कुसंगति से मुक्त हो चुके हैं, पहले केवल एक बार सुनने पर भी भगवान् की महिमा के श्रवण की उपेक्षा नहीं कर सकते।'
‘दुःसङ्ग’ कहिये--‘कैतव', 'आत्म-वञ्चना' ।। कृष्ण, कृष्ण-भक्ति विनु अन्य कामना ।। ९९॥
अपने आपको और दूसरों को ठगना कैतव कहा जाता है। इस तरह ठगने वाले ठगों की संगति करना दुःसंग कहलाता है, जिसका अर्थ है बुरी संगति। जो लोग कृष्ण की सेवा करने के अतिरिक्त अन्य बातें चाहते हैं, वे भी दुःसंग कहलाते हैं।
धर्मः प्रोज्झित-कैतवोऽत्र परमो निर्मत्सराणां सतांवेद्यं वास्तवमत्र वस्तु शिव-दं ताप-त्रयोन्मूलनम् । श्रीमद्भागवते महा-मुनि-कृते किं वा परैरीश्वरः ।सद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः शुश्रूषुभिस्तत्क्षणात् ॥
१०० ॥
महामुनि व्यासदेव द्वारा चार प्रारम्भिक श्लोकों से विरचित महान् शास्त्र श्रीमद्भागवत में अत्यन्त दयालु-हृदय वाले उन्नत भक्तों का वर्णन हुआ है और इसमें भौतिकता से प्रेरित धार्मिकता के वंचना-मार्गों का पूरा बहिष्कार हुआ है। वह शाश्वत धर्म के सर्वोच्च सिद्धान्तों की स्थापना करता है, जिनसे जीव के तीन प्रकार के कष्ट वास्तविक रूप से दूर हो सकते हैं और वह सम्पन्नता तथा ज्ञान का सर्वोच्च वर प्रदान कर सकता है। जो लोग विनीत होकर सेवाभाव से इस शास्त्र का सन्देश ग्रहण करना चाहते हैं, वे तुरन्त ही भगवान् को अपने हृदयों में बन्दी बना सकते हैं। अतएव श्रीमद्भागवत के अतिरिक्त अन्य किसी शास्त्र की आवश्यकता नहीं है।'
‘प्र'-शब्दे-मोक्ष-वाञ्छा कैतव-प्रधान । एइ श्लोके श्रीधर-स्वामी करियाछेन व्याख्यान ॥
१०१॥
प्रोज्झित' शब्द के प्रारम्भ में 'प्र' उपसर्ग विशेष रूप से मोक्षकामी या ब्रह्म में लीन होने के इच्छुक लोगों की ओर संकेत करता है। ऐसी इच्छा को ठग-प्रवृत्ति में प्रमुख माननी चाहिए। महान् भाष्यकार श्रीधर स्वामी ने इस श्लोक की व्याख्या इसी रूप में की है।
सकाम-भक्ते 'अज्ञ' जानि' दयालु भगवान् । स्व-चरण दिया करे इच्छार पिधान ॥
१०२॥
जब दयालु भगवान् यह समझ लेते हैं कि मूर्ख भक्त भौतिक सम्पन्नता चाहता है, तो वे उसे अपने चरणकमलों में कृपा करके शरण देते हैं। इस तरह भगवान् उसकी अवांछित इच्छाओं को ढक देते हैं।
सत्यं दिशत्यथितमर्थितो नृणां | नैवार्थ-दो ग्रत्पुनरर्थिता ग्रतः । स्वयं विधत्ते भजतामनिच्छताम्।इच्छा-पिधानं निज-पाद-पल्लवम् ॥
१०३ ॥
जब भी कोई कृष्ण से अपनी इच्छापूर्ति के लिए प्रार्थना करता है, तो वे उसे अवश्य ही पूरी कर देते हैं, किन्तु वे कोई ऐसी वस्तु प्रदान नहीं करते जिससे उसे बारम्बार अपनी और इच्छाएँ पूरी करने के लिए याचना नी पड़े। जब मनुष्य अन्य इच्छाएँ होने पर भी भगवान् की सेवा में गा रहता है, तो कृष्ण उसे बलात् अपने चरणकमलों में शरण प्रदान ते हैं, जहाँ व्यक्ति अन्य सारी इच्छाएँ इच्छाओं को भूल जाता है।
साधु-सङ्ग, कृष्ण-कृपा, भक्तिर स्वभाव ।ए तिने सब छाड़ाय, करे कृष्णे 'भाव' ॥
१०४॥
साधु-संग, कृष्ण-कृपा तथा भक्ति की प्रकृति-ये तीनों समस्त अवांछित संगति को त्यागने तथा क्रमशः भगवत्प्रेम का पद प्राप्त करने में सहायक होते हैं।
आगे व्रत व्रत अर्थ व्याख्यान करिब ।। कृष्ण-गुणास्वादेर एइ हेतु जानिब ॥
१०५॥
इस तरह मैं आत्माराम श्लोक के सारे शब्दों की व्याख्या करता चलूंगा। यह स्मरण रहे कि ये सारे शब्द कृष्ण के दिव्य गुणों का आस्वादन कराने के निमित्त हैं।
श्लोक-व्याख्या लागि' एइ करितुं आभास ।एबे करि श्लोकेर मूलार्थ प्रकाश ॥
१०६॥
मैंने इस श्लोक का अर्थ इंगित करने के लिए ही इतनी सारी व्याख्याएँ की हैं। अब मैं इस श्लोक का वास्तविक अर्थ कहने जा रही हैं।
ज्ञान-मार्गे उपासक दुइत' प्रकार ।केवल ब्रह्मोपासक, मोक्षाकाङ्क्षी आर ॥
१०७॥
ज्ञान-मार्ग के उपासक दो प्रकार के होते हैं-एक तो ब्रह्म उपासक, जो निर्विशेष ब्रह्म के उपासक होते हैं तथा दूसरे मोक्षाकांक्षी, जो मोक्ष की आकांक्षा करते हैं।
केवल ब्रह्मोपासक तिन भेद हय ।।साधक, ब्रह्ममय, आर प्राप्त-ब्रह्म-लय ॥
१०८॥
निर्विशेष ब्रह्म के उपासकों के तीन प्रकार हैं-साधक, ब्रह्म के ध्यान में मग्न रहने वाले तथा निर्विशेष ब्रह्म को वस्तुतः प्राप्त।
भक्ति विना केवल ज्ञाने 'मुक्ति' नाहि हय ।।भक्ति साधन करे येइ 'प्राप्त-ब्रह्म-लय' ॥
१०९॥
भक्ति से रहित मानसिक चिन्तन के माध्यम से ही मुक्ति प्राप्त नहीं की जा सकती। किन्तु यदि भक्ति सम्पन्न की जाती है, तो स्वतः ब्रह्म-पद प्राप्त हो जाता है।
भक्तिर स्वभाव,—ब्रह्म हैते करे आकर्षण ।दिव्य देह दिया कराय कृष्णेर भजन ॥
११०॥
विचित्र बात है कि जो भक्ति करता है, वह निर्विशेष ब्रह्म-पद से दूर हटता जाता है। उसे कृष्ण की सेवा में लगने के लिए दिव्य शरीर प्रदान किया जाता है।
भक्त-देह पाइले हय गुणेर स्मरण ।। गुणाकृष्ट हञा करे निर्मल भजन ॥
१११॥
भक्त का आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होने पर मनुष्य कृष्ण के दिव्य गुणों को स्मरण कर सकता है। कृष्ण के दिव्य गुणों के प्रति आकृष्ट होने मात्र से मनुष्य उनकी सेवा में लगकर शुद्ध भक्त बन जाता है।
मुक्ता अपि लीलया विग्रहं कृत्वा भगवन्तं भजन्ते ॥
११२॥
निर्विशेष ब्रह्म में मग्न रहने वाला मुक्तात्मा भी कृष्ण की लीलाओं के प्रति आकृष्ट होता है। तब वह अर्चाविग्रह स्थापित करके भगवान् की सेवा करता है।
जन्म हैते शुक-सनकादि 'ब्रह्ममय' ।।कृष्ण-गुणाकृष्ट हा कृष्णेरे भजय ॥
११३॥
यद्यपि शुकदेव गोस्वामी तथा चारों कुमार सदैव निर्विशेष ब्रह्म के विचार में डूबे रहते थे और इस तरह ब्रह्मवादी थे, फिर भी वे कृष्ण की दिव्य लीलाओं तथा गुणों के द्वारा आकृष्ट हुए थे। इसीलिए बाद में वे कृष्ण-भक्त बन गये।
सनकाद्यैर कृष्ण-कृपाय सौरभे हरे मन ।।गुणाकृष्ट हा करे निर्मल भजन ॥
११४॥
चारों कुमारों के मन कृष्ण के चरणकमलों पर चढ़ाये गये फूलों की सुगन्ध से आकृष्ट हो गये। इस तरह कृष्ण के दिव्य गुणों से आकृष्ट होकर वे शुद्ध भक्ति में लग गये।
तस्यारविन्द-नयनस्य पदारविन्दकिञ्जल्क-मिश्र-तुलसी-मकरन्द-वायुः । अन्तर्गतः स्व-विवरेण चकार तेषांसक्षोभमक्षर-जुषामपि चित्त-तन्वोः ॥
११५ ॥
जब कमल जैसे नेत्रों वाले भगवान् के चरणकमलों पर चढ़े। तुलसी-दल तथा केसर की सुगन्धि को ले जाने वाली वायु उन ऋषियों ( कुमारों) के नासारन्ध्रों से होकर उनके हृदयों में पहुँची, तो निर्विशेष ब्रह्म में आसक्त होते हुए भी उन्होंने अपने शरीर तथा मन दोनों में परिवर्तन का अनुभव किया।'
व्यास-कृपाय शुकदेवेर लीलादि-स्मरण ।।कृष्ण-गुणाकृष्ट हुआ करेन भजन ।। ११६॥
श्रील व्यासदेव की कृपा से शुकदेव गोस्वामी भगवान् कृष्ण की लीलाओं के प्रति आकृष्ट हुए। इस तरह कृष्ण के दिव्य गुणों के प्रति आकृष्ट होने पर वे भी भक्त बन गये और उनकी सेवा करने लगे।
हरेर्गुणाक्षिप्त-मतिर्भगवान्बादरायणिः ।।अध्यगान्महदाख्यानं नित्यं विष्णु-जन-प्रियः ॥
११७॥
भगवान् की दिव्य लीलाओं द्वारा अत्यधिक आकृष्ट होने पर श्रील शुकदेव गोस्वामी का मन कृष्णभावना से उत्तेजित हुआ। अतः वे अपने |पिता की कृपा से श्रीमद्भागवत का अध्ययन करने लगे।
नव-योगीश्वर जन्म हैते ‘साधक' ज्ञानी ।विधि-शिव-नारद-मुखे कृष्ण-गुण शुनि' ॥
११८॥
नौ योगीश्वर ( योगेन्द्र) जन्म से ही परम सत्य के निर्विशेष दार्शनिक थे। किन्तु उन्होंने ब्रह्माजी, शिवजी तथा महर्षि नारद से कृष्ण के गुणों के विषय में सुना, तो वे भी कृष्ण-भक्त बन गये।
गुणाकृष्ट हा करे कृष्णेर भजन ।।एकादश-स्कन्धे ताँर भक्ति-विवरण ॥
११९॥
श्रीमद्भागवत के ग्यारहवें स्कन्ध में उन नवों योगेन्द्रों की भक्ति का पूरा वर्णन मिलता है, जिन्होंने भगवान् के दिव्य गुणों के द्वारा आकृष्ट होकर भक्ति की।
अक्लेशां कमल-भुवः प्रविश्य गोष्ठीं ।कुर्वन्तः श्रुति-शिरसां श्रुतिं श्रुत-ज्ञाः ।। उत्तुङ्गं यदु-पुर-सङ्गमाय रङ्गंयोगीन्द्राः पुलक-भृतो नवाप्यवापुः ॥
१२०॥
नवों योगेन्द्र ब्रह्माजी के सान्निध्य में गये और उनसे उन्होंने उपनिषदों का वास्तविक अर्थ सुना। यद्यपि वे पहले से वैदिक ज्ञान के जानकार थे, किन्तु ब्रह्मा के मुख से कृष्णभावना के विषय में सुनकर वे अत्यन्त पुलकित हुए। इस प्रकार उन्होंने भगवान् कृष्ण के निवासस्थान द्वारका में प्रविष्ट होना चाहा। इस तरह अन्त में वे रंगक्षेत्र नामक स्थान को प्राप्त र सके।'
मोक्षाकाङ्क्षी ज्ञानी हय तिन-प्रकार ।मुमुक्षु, जीवन्मुक्त, प्राप्त-स्वरूप आर ॥
१२१॥
निर्विशेष ब्रह्म में लीन होने के इच्छुक लोग भी तीन प्रकार के होते ४-वे जो मुक्त होना चाहते हैं, वे जो पहले से मुक्त हैं तथा वे जो ब्रह्म का साक्षात्कार कर चुके हैं।
‘मुमुक्षु' जगते अनेक संसारी जन ।। ‘मुक्ति' लागि' भक्त्ये करे कृष्णेर भजन ॥
१२२॥
इस भौतिक जगत् में अनेक लोग हैं, जो मुक्ति की कामना करते हैं और इसके लिए वे भगवान् कृष्ण की भक्ति करते हैं।
मुमुक्षवो घोर-रूपान्हित्वा भूत-पतीनथ । नारायण-कलाः शान्ता भजन्ति ह्यनसूयवः ॥
१२३॥
जो लोग भवबन्धन से छूटना चाहते हैं, वे भयानक रूप वाले देवताओं की पूजा करना बन्द कर देते हैं। ऐसे शान्त भक्त, जो देवताओं से ईर्ष्या नहीं करते, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् नारायण के विविध रूपों की पूजा करते हैं।'
सेइ सबेर साधु-सङ्गे गुण स्फुराय । कृष्ण-भजन कराय, 'मुमुक्षा' छाड़ाये ॥
१२४॥
देवपूजा से आसक्त लोग यदि सौभाग्यवश भक्तों की संगति पा जाते हैं, तो उनकी सुप्त भक्ति तथा भगवान् के गुणों के प्रति उनका भनुराग धीरे-धीरे जाग्रत हो उठता है। इस तरह वे भी कृष्ण की भक्ति करने लगते हैं और मुक्ति तथा निर्विशेष ब्रह्म में लीन होने की इच्छा का परित्याग कर देते हैं।
अहो महात्मन्बहु-दोष-दुष्टोऽप्येकेन भात्येष भवो गुणेन । सत्सङ्गमाख्येन सुखावहेनकृताद्य नो येन कृशा मुमुक्षा ॥
१२५ ॥
हे महा विद्वान भक्त, यद्यपि इस भौतिक जगत् में अनेक दोष हैं, किन्तु एक सुअवसर है और वह है भक्तों की संगति। ऐसी संगति से अत्यधिक सुख प्राप्त होता है। इसी सद्गुण के कारण ब्रह्मज्योति से तादात्म्य द्वारा मोक्ष प्राप्त करने की हमारी प्रबल इच्छा निर्बल पड़ गई। है।'
नारदेर सङ्गे शौनकादि मुनि-गण ।मुमुक्षा छाड़िया कैला कृष्णेर भजन ॥
१२६॥
नारद जैसे महामुनि की संगति से शौनक तथा अन्य बड़े-बड़े ऋषियों ने मोक्ष की इच्छा त्याग दी और कृष्ण की भक्तिमय सेवा में लग गये।
कृष्णेर दर्शने, कारो कृष्णेर कृपाय ।। मुमुक्षा छाड़िया गुणे भजे ताँर पाय ॥
१२७॥
कृष्ण के दर्शन या कृष्ण की विशेष कृपा पाने मात्र से मनुष्य मोक्ष की इच्छा छोड़ सकता है। कृष्ण के दिव्य गुणों के द्वारा आकर्षित होने पर मनुष्य उनकी सेवा में लग सकता है।
अस्मिन्सुख-धन-मूर्तीपरमात्मनि वृष्णि-पत्तने स्फुरति । आत्मारामतया में। वृथा गतो बत चिरं कालः ॥
१२८॥
इस द्वारका धाम में मैं आध्यात्मिक आनन्द के मूर्तिमान रूप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण द्वारा आकृष्ट हो रहा हूँ। केवल उनका दर्शन करके मैं परम सुख का अनुभव कर रहा हूँ। ओह, निर्विशेष-अनुशीलन द्वारा स्वरूपसिद्ध बनने के प्रयास में मैंने कितना समय आँवा दिया है। यही मेरे सन्ताप का कारण है!' ‘जीवन्मुक्त' अनेक, सेइ दुइ भेद जानि ।।'भक्त्ये जीवन्मुक्त', 'ज्ञाने जीवन्मुक्त' मानि ॥
१२९॥
ऐसे अनेक लोग हैं, जो इसी जीवन में मुक्त हो चुके होते हैं। कुछ तो भक्ति करके और कुछ ज्ञान की विधि द्वारा मुक्त बनते हैं।
'भक्त्ये जीवन्मुक्त' गुणाकृष्ट हा कृष्ण भजे ।।शुष्क-ज्ञाने जीवन्मुक्त अपराधे अधो मजे ॥
१३०॥
जो लोग भक्ति द्वारा मुक्त बनते हैं, वे कृष्ण के दिव्य गुणों द्वारा अधिकाधिक आकृष्ट होते जाते हैं। इस प्रकार वे उनकी सेवा में लग जाते हैं। जो लोग शुष्क ज्ञान द्वारा मुक्त बनते हैं, वे अन्त में अपने अपराधी कृत्य द्वारा पुनः नीचे गिर जाते हैं।
येऽन्येऽरविन्दाक्ष विमुक्त-मानिनस्त्वय्यस्त-भावादविशुद्ध-बुद्धयः ।। आरुह्य कृच्छ्रेण परं पदं ततः ।पतन्त्यधोऽनादृत-युष्मदछ्यः ॥
१३१॥
हे कमलनयन, जो लोग आपकी भक्ति के बिना ही इस जीवन में अपने आपको मुक्त मानते हैं, उनकी बुद्धि अशुद्ध रहती है। यद्यपि वे विविध कठोर तपस्याएँ करते हैं और निर्विशेष ब्रह्म साक्षात्कार रूपी आध्यात्मिक पद प्राप्त कर लेते हैं, फिर भी आपके चरणकमलों की पूजा की उपेक्षा करने के कारण वे पुनः नीचे गिर जाते हैं।
ब्रह्म-भूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति ।। समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ॥
१३२॥
जो दिव्य पद को प्राप्त है, उसे तुरन्त ही परम ब्रह्म की अनुभूति होती है और वह पूर्णतया प्रसन्न हो जाता है। वह न तो कभी शोक करता है, न किसी वस्तु की कामना करता है। वह प्रत्येक जीव के प्रति समभाव रखता है। उस स्थिति में वह मेरी शुद्ध भक्ति को प्राप्त करता है।'" अद्वैत-वीथी-पथिकैरुपास्याःस्वानन्द-सिंहासन-लब्ध-दीक्षाः ।। शठेन केनापि वयं हठेनदासी-कृता गोप-वधू-विटेन ॥
१३३॥
यद्यपि मैं अद्वैत पथ पर चलने वालों द्वारा पूजित था तथा योगपद्धति द्वारा आत्म-साक्षात्कार में दीक्षित था, तो भी मैं बलपूर्वक किसी नटखट बालक द्वारा, जो सदैव गोपियों के साथ परिहास करता रहता है, दासी बना दिया गया हूँ।'
भक्ति-बले ‘प्राप्त-स्वरूप' दिव्य-देह पाय । कृष्ण-गुणाकृष्ट हन्ना भजे कृष्ण-पाय ॥
१३४॥
जिसने भक्ति द्वारा अपना वैधानिक पद प्राप्त कर लिया है, उसे इसी जीवन में ही दिव्य देह प्राप्त हो जाता है। वह कृष्ण के दिव्य गुणों के द्वारा आकर्षित होने पर उनके चरणकमल की सेवा में पूर्णरूपेण लग जाता है।
निरोधोऽस्यानुशयनमात्मनः सह शक्तिभिः ।।मुक्तिर्हित्वान्यथा-रूपं स्वरूपेण व्यवस्थितिः ॥
१३५ ॥
जब महाविष्णु विश्राम करते हैं और विराट् जगत् को समेट लेते हैं (विनष्ट कर देते हैं), तब सारे जीव तथा अन्य शक्तियाँ उन्हीं में समा जाती हैं। मुक्ति का अर्थ है परिवर्तनशील स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों को त्याग करने के बाद अपने सनातन मूल स्वरूप में स्थित रहना।'
कृष्ण-बहिर्मुख-दोषे माया हैते भय । कृष्णोन्मुख भक्ति हैते माया-मुक्त हय ॥
१३६ ॥
कृष्णभावनामृत का विरोध करके मनुष्य पुनः माया के प्रभाव द्वारा बद्ध तथा भयभीत हो जाता है। श्रद्धापूर्वक भक्तिमयी सेवा सम्पन्न करने से मनुष्य माया से मुक्त हो जाता है।
भयं द्वितीयाभिनिवेशतः स्याद्ईशादपेतस्य विपर्ययोऽस्मृतिः । तन्माययातो बुध अभिजेत्तं ।भक्त्यैकयेशं गुरु-देवतात्मा ॥
१३७॥
जब जीव कृष्ण से पृथक् भौतिक शक्ति द्वारा आकृष्ट होता है, तो वह भयाक्रान्त हो जाता है। चूंकि वह भौतिक शक्ति द्वारा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् से अलग कर दिया जाता है, उसकी जीवन-धारणा विपरीत हो जाती है। दूसरे शब्दों में, वह कृष्ण का नित्य दास बनने के बजाय कृष्ण का प्रतियोगी बन जाता है। इसे विपर्ययः अस्मृतिः कहते हैं। इस भूल का निराकरण करने के लिए जो मनुष्य वास्तव में विद्वान एवं उन्नत होता है, वह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की पूजा अपने गुरु, पूज्य अर्चाविग्रह तथा जीवन के उद्गम के रूप में करता है। इस तरह वह अनन्य भक्ति की विधि द्वारा भगवान् की पूजा करता है।'
दैवी ह्येषा गुण-मयी मम माया दुरत्यया । मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥
१३८॥
तीन गुणों से युक्त मेरी इस दैवी शक्ति को जीत पाना कठिन है। किन्तु जिन्होंने मेरी शरण ग्रहण कर ली है, वे इसको सरलता से पार कर सकते हैं।'
भक्ति विनु मुक्ति नाहि, भक्त्ये मुक्ति हय ।। १३९॥
भक्ति के बिना किसी को मुक्ति प्राप्त नहीं होती। मुक्ति तो एकमात्र भक्ति द्वारा ही प्राप्त की जाती है।
यः-सृतिं भक्तिमुदस्य ते विभोक्लिश्यन्ति ये केवल-बोध-लब्धये । तेषामसौ क्लेशल एव शिष्यतेनान्यद् यथा स्थूल-तुषावघातिनाम् ॥
१४०॥
हे प्रभु, आपकी भक्ति ही एकमात्र शुभ मार्ग है। यदि कोई इसे केवल शुष्क ज्ञान के लिए या इस विचार से त्याग देता है कि ये सारे जीव आत्माएँ हैं और भौतिक जगत् मिथ्या है, तो उसे बहुत कष्ट मिलता है। केवल कष्टप्रद तथा अशुभ कार्यकलाप ही उसके हाथ लगते हैं। उसके कार्य उसी तरह हैं, जैसे धान से रहित भूसे को पीटना। उसका सारा श्रम व्यर्थ जाता है।'
ग्रेऽन्येऽरविन्दाक्ष विमुक्त-मानिनस्त्वय्यस्त-भावादविशुद्ध-बुद्धयः ।।आरुह्य कृच्छेण परं पदं ततःपतन्त्यधोऽनादृत-ग्रुष्मदङ्ग्रयः ॥
१४१॥
.हे कमलनेत्रों वाले, जो लोग आपकी भक्ति के बिना ही इस जीवन में अपने आपको मुक्त मानते हैं, उनकी बुद्धि अशुद्ध रहती है। यद्यपि वे कठोर तपस्याएँ करते हैं और निर्विशेष ब्रह्म-साक्षात्कार रूपी आध्यात्मिक पद को प्राप्त कर लेते हैं, फिर भी आपके चरणकमलों की पूजा की उपेक्षा करने के कारण वे पुनः नीचे गिर जाते हैं।'
ग्र एषां पुरुषं साक्षादात्म-प्रभवमीश्वरम् ।। न भजन्त्यवजानन्ति स्थानाभ्रष्टाः पतन्त्यधः ॥
१४२ ॥
यदि कोई चारों वर्षों तथा आश्रमों में ही अपनी स्थिति बनाये रखता है, किन्तु भगवान् विष्णु की पूजा नहीं करता, तो वह अपने गर्वित स्थान से गिरकर नरक में जाता है।
भक्त्ये मुक्ति पाइलेह अवश्य कृष्णेरे भजय ॥
१४३॥
जब कोई भक्ति करने से सचमुच मुक्ति पा लेता है, तो वह भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति में सदैव लगा रहता है।
मुक्ता अपि लीलया विग्रहं कृत्वा भगवन्तं भजन्ते ॥
१४४॥
निर्विशेष ब्रह्मतेज में निमग्न मुक्तात्मा भी कृष्ण की लीलाओं के प्रति आकर्षित होता है। इस तरह वह अर्चाविग्रह स्थापित करके भगवान् की सेवा करता है।'
एइ छय आत्माराम कृष्णेरे भजय ।पृथक्-पृथक् च-कारे इहा 'अपि'र अर्थ कय ॥
१४५ ॥
ये छह प्रकार के आत्माराम कृष्ण की प्रेमाभक्ति में लगे रहते हैं। भन्न प्रकार की सेवाएँ'च' लगाकर सूचित की जाती हैं और वे 'अपि निस्सन्देह) का भी अर्थ वहन करते हैं।
आत्मारामाश्च अपि करे कृष्णे अहैतुकी भक्ति ।मुनयः सन्तः इति कृष्ण-मनने आसक्ति ॥
१४६ ॥
छहों प्रकार के आत्माराम बिना किसी अन्य अभिलाषा के कृष्ण की भक्ति करते हैं। मुनयः तथा सन्तः शब्द उन लोगों के सूचक हैं, जो कृष्ण का ध्यान करने में अत्यन्त अनुरक्त हैं।
निर्ग्रन्थाः अविद्या-हीन, केह-विधि-हीन । ग्राहाँ येइ ग्रुक्त, सेइ अर्थेर अधीन ॥
१४७॥
निर्ग्रन्थाः' शब्द का अर्थ है 'बिना अज्ञान के' तथा 'विधि-विधान से रहित ।' इनमें से जो भी अर्थ उपयुक्त हो, उसे लिया जा सकता है।
च-शब्दे करि यदि ‘इतरेतर' अर्थ ।।आर एक अर्थ कहे परम समर्थ ॥
१४८ ॥
च' शब्द का प्रयोग विभिन्न स्थलों में करने से भिन्न-भिन्न अर्थ निकलते हैं। इनके अतिरिक्त, एक अन्य भी अर्थ है, जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं।
आत्मारामाश्च आत्मारामाश्च करि' बार छय ।पञ्च आत्माराम छय च-कारे लुप्त हय ॥
१४९॥
यद्यपि 'आत्मारामाश्च' शब्द की छह पुनरावृतियाँ की जा सकती हैं, किन्तु केवल 'च' शब्द जोड़ने से पाँच आत्माराम लुप्त हो जाते हैं।
एक 'आत्माराम'-शब्द अवशेष रहे । एक 'आत्माराम'-शब्दे छय-जन कहे ॥
१५०॥
इसलिए आत्माराम शब्द की पुनरावृति करने की आवश्यकता नहीं ह जाती। केवल एक पर्याप्त है और यही एक शब्द छह व्यक्तियों का सूचित करता है।
सरूपाणामेक-शेष एक-विभक्तौ”।उक्तार्थानामप्रयोगः। रामश्च रामश्च रामश्च रामा इतिवत् ॥
१५१॥
एक ही रूप तथा विभक्ति होने पर केवल अन्तिम शब्द को रखा जाता है। उदाहरणार्थ, रामश्च, रामश्च, रामश्च इत्यादि के लिए रामाः शब्द प्रयुक्त किया जाता है।
तबे ये चे-कार, सेइ ‘समुच्चय' कय ।।आत्मारामाश्च मुनयश्च कृष्णेरे भजय ॥
१५२॥
समुच्चयबोधक शब्द'च' के प्रयोग से यह इंगित किया जाता है कि सारे आत्माराम तथा सन्त कृष्ण की सेवा करते हैं और उन्हें पूजते हैं।
निर्ग्रन्था अपिर एइ 'अपि'–सम्भावने ।एइ सात अर्थ प्रथमे करिलॅ व्याख्याने ॥
१५३॥
निर्ग्रन्थाः' के साथ 'अपि' जुड़ने से सम्भावना व्यक्त होती है। इस तरह मैंने ( आत्माराम श्लोक के) सात प्रकार के अर्थ समझाने की चेष्टा की है।
अन्तर्वामि-उपासक ‘आत्माराम' कय ।।सेइ आत्माराम योगीर दुइ भेद हय ॥
१५४॥
जो योगी अपने अन्तर में परमात्मा की पूजा करता है, वह भी आत्माराम कहलाता है। आत्माराम-योगियों के दो प्रकार हैं।
सगर्भ, निगर्भ, एइ हय दुई भेद ।।एक एक तिन भेदे छय विभेद ॥
१५५ ॥
आत्माराम-योगियों के दो प्रकार-सगर्भ तथा निगर्भ कहलाते हैं। इनमें से प्रत्येक के तीन-तीन भेद हैं, अतः परमात्मा के उपासकों के छह प्रकार हुए।
केचित्स्व-देहान्तहृदयावकाशे | प्रादेश-मात्रं पुरुषं वसन्तम् । चतुर्भुजं कञ्ज-रथाङ्ग-शङ्खगदा-धरं धारणया स्मरन्ति ॥
१५६ ॥
कुछ योगी भगवान् का चिन्तन अपने हृदयों के भीतर छह इंच मा। वाले भगवान् के रूप में करते हैं। भगवान् के चार हाथ हैं, जिनमें से शंख, गदा, चक्र तथा पद्म धारण किये रहते हैं। जो योगी अपने हृदय में विष्णु के इस रूप की पूजा करते हैं, वे सगर्भ योगी कहलाते हैं।'
एवं हरी भगवति प्रतिलब्ध-भावोभक्त्या द्रवधृदय उत्पुलकः प्रमोदात् ।। औत्कण्ठ्य-बाष्प-कलया मुहुरद्यमानस्तच्चापि चित्त-बड़िशं शनकैर्वियुड़े ॥
१५७॥
जब किसी को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् से प्रेम होता है, तो उसका हृदय भक्तियोग से द्रवित हो उठता है और उसे दिव्य आनन्द का अनुभव होता है। उसके शरीर में लक्षण प्रकट होते हैं और उत्सुकतावश उसकी आँखों में आँसू आ जाते हैं। इस तरह उसे आध्यात्मिक आनन्द मिलता है। जब हृदय अत्यधिक व्यथित होता है, तो चिन्तनमग्न मन ध्यान के लक्ष्य से उसी तरह धीरे-धीरे विलग होने लगता है, जिस तरह मछली पकड़ने का काँटा।'
‘ग्रोगारुरुक्षु', ‘ग्रोगारूढ़' ‘प्राप्त-सिद्धि' आर । एइ तिन भेदे हय छय प्रकार ॥
१५८॥
योग की प्रगति के इन तीन विभागों-योगारुरुक्षु, योगारुढ़ तथा प्राप्त-सिद्धि के द्वारा योगियों के छह भेद हो जाते हैं।
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते । ग्रोगारूढ़स्य तस्यैव शर्मः कारणमुच्यते ॥
१५९॥
जो सन्त लोग योग-सिद्धि प्राप्त करना चाहते हैं, वे योगाभ्यास करते हैं और उसके नियमों को दृढ़ता से पालन करते हैं। वे आसन तथा प्राणायाम करते हैं। जो लोग पहले से इस पद को प्राप्त हुए रहते हैं, वे ध्यान करते हैं और अपने मन को भगवान् पर केन्द्रित करते हैं। वे समस्त भौतिक कार्यों को त्यागकर अपने मन को सन्तुलित ( शम) रखते हैं।'
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।।सर्व-सङ्कल्प-सन्यासी ग्रोगारूढ़स्तदोच्यते ॥
१६० ।। जब मनुष्य इन्द्रियतृप्ति के लिए कर्म करने में कोई रुचि नहीं लेता और समस्त भौतिक इच्छाओं को त्याग देता है, तो उसे योगारूढ़ कहा जाता है।
एइ छय योगी साधु-सङ्गादि-हेतु पा ।।कृष्ण भजे कृष्ण-गुणे आकृष्ट हा ॥
१६१॥
जब शुद्ध योगी भक्तों की संगति करता है, तो वह भगवान् के दिव्य णों से आकृष्ट होने के फलस्वरूप कृष्ण की भक्ति में लग जाता है।
च-शब्दे ' अपि'र अर्थ इहाङको कहय ।।‘मुनि', ‘निर्ग्रन्थ'-शब्देर पूर्ववतर्थ हय ॥
१६२॥
यहाँ पर 'च' तथा 'अपि' शब्दों के अर्थों का प्रयोग किया जा सकता है। ‘मुनि' तथा 'निर्ग्रन्थ' शब्दों के अर्थ पहले जैसे ही हैं।
उरुक्रमे अहैतुकी काहाँ कोन अर्थ ।।एई तेर अर्थ कहिलँ परम समर्थ ॥
१६३ ॥
अहैतुकी' शब्द सदैव पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् उरुक्रम के लिए प्रयुक्त किया जाता है। इस तरह मैंने आत्माराम श्लोक के अर्थ तेरह प्रकारों से बताये हैं।
एइ सब शान्त ग्रबे भजे भगवान् ।‘शान्त' भक्त करि' तबे कहि ताँर नाम ॥
१६४॥
ये तेरह प्रकार के योगी तथा मुनि शान्त भक्त कहलाते हैं, क्योंकि ये पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति शान्त अवस्था में करते हैं।
'आत्मा' शब्दे ‘मन’ कह—मने येइ रमे ।। साधु-सङ्गे सेह भजे श्री-कृष्ण-चरणे ॥
१६५ ॥
कभी-कभी 'आत्मा' शब्द का अर्थ 'मन' होता है। उस दशा में 'आत्माराम' शब्द का अर्थ होगा, वह व्यक्ति जो मानसिक चिन्तन द्वारा तुष्ट रहता है। जब ऐसा व्यक्ति किसी शुद्ध भक्त की संगति करता है, तो बह कृष्ण के चरणकमलों की भक्ति शुरू कर देता है।
उदरमुपासते म्र ऋषि-वर्मसु कूर्प-दृशःपरिसर-पद्धतिं हृदयमारुणयो दहरम् । तत उदगादनन्त तव धाम शिरः परमंपुनरिह यत्समेत्य न पतन्ति कृतान्त-मुखे ॥
१६६ ॥
जो लोग महान् सन्त योगियों का अनुसरण करते हैं, वे योग-आसन विधि अपनाते हैं और अपने उदर से पूजा शुरू कर देते हैं, जहाँ पर ब्रह्मको स्थित बतलाया जाता है। ऐसे लोग शार्कराक्ष कहलाते हैं, जिसका अर्थ यह है कि वे स्थूल देहात्मबुद्धि में स्थित हैं। कुछ लोग अरुण का के भी अनुयायी हैं। इस पथ का अनुसरण करते हुए ये लोग नाड़ियों की क्रिया का निरीक्षण करते हैं। इस तरह वे धीरे-धीरे हृदय तक पहुँचते है, जहाँ सूक्ष्म ब्रह्म अर्थात् परमात्मा स्थित रहते हैं। तब वे उनकी उपासना करते हैं। हे असीम अनन्त! इन लोगों से बेहतर तो वे योगी हैं, जो अपने शिरोभाग से आपकी पूजा करते हैं। वे उदर से प्रारम्भ करके हृदय से होकर सिर के ऊपरी भाग तक पहुँच जाते हैं और ब्रह्मरन्ध्र से होकर निकल जाते हैं, जो खोपड़ी के ऊपर एक छिद्र है। इस तरह ये योगी सिद्धि-पद को प्राप्त होते हैं और जन्म-मृत्यु के चक्र में दुबारा प्रवेश नहीं करते।'
एहो कृष्ण-गुणाकृष्ट महा-मुनि हो ।अहैतुकी भक्ति करे निर्ग्रन्थ हा ॥
१६७॥
योगीगण कृष्ण के दिव्य गुणों से आकर्षित होकर महान् मुनि बन जाते हैं। तब वे योग-विधि से बाधित नहीं होते और वे अनन्य भक्ति करने लगते हैं।
'आत्मा'-शब्दे ‘यत्न' कहे---यत्न करिया ।।मुनयोऽपि कृष्ण भजे गुणाकृष्ट हा ॥
१६८ ॥
आत्मा' शब्द का एक अर्थ ‘प्रयत्न' भी है। कुछ सन्त कृष्ण के दिव्य गुणों द्वारा आकर्षित होकर उनकी सेवा करने योग्य बनने के लिए महान् प्रयत्न करते हैं।
तस्यैव हेतोः प्रयतेत कोविदोन लभ्यते यद्भ्रमतामुपर्यधः ।। तल्लभ्यते दुःख-वदन्यतः सुखंकालेन सर्वत्र गभीर-रंहसा ॥
१६९॥
ब्रह्मलोक तथा सत्यलोक से पाताललोक तक ऊपर नीचे घूमने पर भी दिव्य पद की प्राप्ति नहीं की जा सकती। यदि कोई सचमुच बुद्धिमान तथा विद्वान है, तो उसे उस दुर्लभ दिव्य पद को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। चौदहों लोकों में जो भौतिक सुख उपलब्ध हो सकता है, उसे काल के प्रभाव से उसी तरह प्राप्त किया जा सकता है, जिस प्रकारकालक्रम में दुःख प्राप्त होता है। किन्तु चूँकि आध्यात्मिक चेतना को इस प्रकार प्राप्त नहीं की जा सकती, अतएव इसके लिए प्रयास करना। चाहिए।'
सद्धर्मस्यावबोधाय येषां निर्बन्धिनी मतिः । अचिरादेव सर्वार्थः सिध्यत्येषामभीप्सितः ॥
१७०॥
जो अपनी आध्यात्मिक चेतना जाग्रत करने के लिए उत्सुक हैं, जिनकी बुद्धि अचल है और विचलित नहीं होती, वे निश्चय ही वांछित जीवन लक्ष्य प्राप्त करते हैं।'
च-शब्द अपि-अर्थे, 'अपि'–अवधारणे ।। ग्रलाग्रह विना भक्ति ना जन्माय प्रेमे ॥
१७१॥
च' शब्द का प्रयोग 'अपि' के स्थान में किया जा सकता है, जो किसी बात पर बल देने वाला है। इस तरह इसका अर्थ यह हुआ कि भक्ति में निष्ठावान प्रयत्न के बिना भगवत्प्रेम प्राप्त नहीं किया जा सकता।
साधनौधैरनासङ्गैरलभ्या सु-चिरादपि ।।हरिणा चाश्वदेयेति द्विधा सा स्यात्सु-दुर्लभा ॥
१७२॥
भक्ति की पूर्णता प्राप्त करना दो कारणों से अतीव कठिन है। पहला यह कि जब तक कोई कृष्ण के प्रति अनुरक्त नहीं होता, तब तक उसे भक्ति की पूर्णता प्राप्त नहीं होती, भले ही वह दीर्घकाल तब भक्ति क्यों न करता रहे। दूसरा यह कि कृष्ण सरलता से भक्ति की पूर्णता प्रदान नहीं करते।'
तेषां सतत-युक्तानां भजतां प्रीति–पूर्वकम् ।। ददामि बुद्धि-योगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥
१७३ ॥
जो लोग निरन्तर मेरी भक्ति में लगे रहते हैं और प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करते हैं, उन्हें मैं बुद्धि प्रदान करता हूँ जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं।'
'आत्मा'-शब्दे ‘धृति' कहे,——धैर्ये येइ रमे । धैर्यवन्त एव हल्ला करय भजने ॥
१७४॥
आत्मा का दूसरा अर्थ धृति या धैर्य है। जो व्यक्ति धैर्यपूर्वक प्रयास करता है, वह आत्माराम है। ऐसा व्यक्ति धैर्यपूर्वक भक्ति में लगता है।
‘मुनि'-शब्दे-पक्षी, भृङ्गः ‘निर्ग्रन्थे'- मूर्ख-जन ।कृष्ण-कृपाय साधु-कृपाय दोंहार भजन ॥
१७५ ॥
मुनि' शब्द के अर्थ 'पक्षी' तथा 'भौंरा' भी हैं। निर्ग्रन्थ' शब्द मूर्ख लोगों का सूचक है। कृष्ण की कृपा से ऐसे जीव जब किसी साधु (गुरु) के सम्पर्क में आते हैं, तो वे भक्ति में लग जाते हैं।
प्रायो बताम्ब मुनयो विहगा वनेऽस्मिन्कृष्णेक्षितं तदुदितं कल-वेणु-गीतम् । आरुह्य ये द्रुम-भुजान् रुचिर-प्रवालान्शृण्वन्ति मीलित-दृशो विगतान्य-वाचः ॥
१७६ ॥
हे माता, इस जंगल में सारे पक्षी वृक्षों की सुन्दर शाखाओं पर बैठने के बाद अपनी आँखें बन्द किये हैं और किसी अन्य ध्वनि से आकृष्ट हुए बिना केवल कृष्ण की बाँसुरी की ध्वनि सुन रहे हैं। ऐसे पक्षी जरूर मुनियों जैसे पद पर ही होंगे।
एतेऽलिनस्तव यशोऽखिल-लोक-तीर्थंगायन्त आदि-पुरुषानुपथं भजन्ते । प्रायो अमी मुनि-गणा भवदीय-मुख्यागूढ़ वनेऽपि न जहत्यनघात्म-दैवम् ॥
१७७॥
हे मूर्तिमन्त सौभाग्य! हे आदि पुरुष, ये सारे भौंरे आपके दिव्य यश का गान कर रहे हैं, जिससे समग्र ब्रह्माण्ड शुद्ध हो जायेगा। निस्सन्देह, ये जंगल में आपके पथ का अनुसरण कर रहे हैं और आपकी पूजा कर रहे हैं। वस्तुतः ये सभी साधु पुरुष हैं, किन्तु अब इन्होंने भ्रमरों। का रूप धारण कर रखा है। यद्यपि आप मनुष्य की तरह क्रीड़ा कर रहे हैं, किन्तु वे भूल नहीं पाये कि आप उनके आराध्य देव हैं।'
सरसि सारस-हंस-विहङ्गाश्चारु-गीत-हृत-चेतस एत्य । हरिमुपासत ते व्रत-चित्ताहन्त मीलित-दृशो धृत-मौनाः ॥
१७८ ॥
जल में सारे सारस तथा हंस कृष्ण की बाँसुरी के मधुर गीत से मोहित हो रहे हैं। वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के निकट पहुँचकर पूरे मनोयोग से उनकी पूजा कर रहे हैं। अरे, वे तो अपनी आँखें बन्द किये हैं और पूर्णतया शान्त हो गये हैं।'
किरात-हूनान्ध्र-पुलिन्द-पुक्कशा | आभीर-शुम्भा यवनाः खशादयः ।। येऽन्ये च पापा यदपाश्रयाश्रयाःशुध्यन्ति तस्मै प्रभविष्णवे नमः ॥
१७९ ॥
'धृति' शब्द का प्रयोग तब भी किया जाता है, जब कोई ज्ञान में परिपूर्ण होता है। जब पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के चरणकमलों को प्राप्त 'जर लेने के बाद भक्त के सारे भौतिक कष्ट दूर हो जाते हैं, तब वह पूर्णता के उच्चतम पद 'महापूर्ण' को प्राप्त करता है।
किंवा 'धृति'-शब्दे निज-पूर्णतादि-ज्ञान कय ।।दुःखाभावे उत्तम-प्राप्त्ये महा-पूर्ण हय ॥
१८०॥
मैं परम शक्तिमान उन भगवान् को नमस्कार करता हूँ, जिनके भक्तों की शरण ग्रहण करने से किरात, हूण, आन्ध्र, पुलिन्द, पुक्कश, आभीर, शुम्भ, यवन और खश तथा अन्य जातियाँ भी, जो पापकर्म में निरत रहती हैं, शुद्ध हो सकती हैं।
धृतिः स्यात्पूर्णता-ज्ञान-दुःखाभावोत्तमाप्तिभिः ।। अप्राप्तातीत-नष्टार्था-नभिसंशोचनादि-कृत् ॥
१८१॥
धृति वह पूर्णता है, जो दुःख की अनुपस्थिति में और भगवज्ञान प्राप्त होने तथा शुद्ध भगवत्प्रेम प्राप्त होने पर अनुभव की जाती है। लक्ष्य प्राप्त न कर सकने अथवा किसी प्राप्त की हुई वस्तु की क्षति से उत्पन्न सन्ताप इस पूर्णता को प्रभावित नहीं करते।'
कृष्ण-भक्त–दुःख-हीन, वाञ्छान्तर-हीन । कृष्ण-प्रेम-सेवा-पूर्णानन्द-प्रवीण ।। १८२ ॥
कृष्ण का भक्त कभी दुःखी अवस्था में नहीं रहता, न ही उसे कृष्ण की सेवा करने के अतिरिक्त कोई अन्य इच्छा होती है। वह अनुभवी तथा उन्नत होता है। वह कृष्ण-प्रेम के दिव्य आनन्द का अनुभव करता है और उन्हीं की सेवा में पूर्णता के साथ लगा रहता है।
मत्सेवया प्रतीतं ते सालोक्यादि-चतुष्टयम् ।। नेच्छन्ति सेवया पूर्णाः कुतोऽन्यत्काल-विप्लुतम् ॥
१८३॥
मेरी सेवा करने से अपनी इच्छाएँ पूरी कर लेने के बाद मेरे भक्त चार प्रकार की मुक्तियों को स्वीकार नहीं करते, जो ऐसी सेवा से सरलता से प्राप्त की जा सकती हैं। तो फिर वे ऐसे आनन्दों को क्यों स्वीकार करेंगे, जो समय के साथ विलुप्त हो जाते हैं?' हृषीकेशे हृषीकाणि झस्य स्थैर्य-गतानि हि ।। स एव धैर्यमाप्नोति संसारे जीव-चञ्चले ॥
१८४॥
इस भौतिक जगत् में सारे जीव अपने चंचल स्वभाव के कारण विचलित रहते हैं। किन्तु भक्त इन्द्रियों के स्वामी भगवान् के चरणकमलों की सेवा में स्थिर रहता है। ऐसा व्यक्ति धैर्य तथा सहिष्णुता में स्थित माना जाता है।'
‘च'–अवधारणे, इहा 'अपि'—समुच्चये । धृतिमन्त हा भजे पक्षि-मूर्ख-चये ॥
१८५॥
च' शब्द बल देने के लिए है और 'अपि' शब्द समुच्चय के रूप में प्रयुक्त है। इस प्रकार यह समझना होगा कि मन्द प्राणी भी ( पक्षी तथा निरक्षर) सहनशील हो सकते हैं और कृष्ण-भक्ति में लग सकते हैं।
‘आत्मा'-शब्दे ‘बुद्धि' कहे बुद्धि-विशेष ।। सामान्य-बुद्धि-युक्त व्रत जीव अवशेष ॥
१८६॥
आत्मा' शब्द विशेष प्रकार की बुद्धि के लिए भी प्रयुक्त होता है। चूँकि सामान्यतया समस्त जीवों में थोड़ी-बहुत बुद्धि होती है, अतः ये इसमें आ जाते हैं।
बुद्धये रमे आत्माराम दुइ त' प्रकार ।‘पण्डित' मुनि-गण, निर्ग्रन्थ 'मूर्ख' आर ॥
१८७॥
हर जीव में किसी न किसी तरह की बुद्धि रहती है और जो अपनी बुद्धि का उपयोग करता है, वह आत्माराम कहलाता है। आत्माराम के दो प्रकार हैं-एक तो विद्वान तथा दार्शनिक और दूसरा अशिक्षित तथा मूर्ख है।
कृष्ण-कृपाय साधु-सङ्गे रति-बुद्धि पाय ।।सब छाड़ि' शुद्ध-भक्ति करे कृष्ण-पाय ॥
१८८॥
कृष्ण की कृपा एवं भक्तों की संगति से शुद्ध भक्ति के प्रति व्यक्ति का आकर्षण और बुद्धि बढ़ती है, अतः वह सब कुछ त्यागकर कृष्ण एवं उनके शुद्ध भक्तों के चरणकमलों में अपने आपको नियुक्त कर देता है।
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ।। इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भाव-समन्विताः ॥
१८९॥
मैं ( कृष्ण ) हर वस्तु का उद्गम हूँ। हर वस्तु मुझ से ही उद्भूत होती है। जो बुद्धिमान इसे भलीभाँति जान लेते हैं, वे प्रेम तथा भक्ति के साथ मेरी सेवा में लग जाते हैं।'
ते वै विदन्त्यतितरन्ति च देव-मायांस्त्री-शूद्र-हूण-शबरा अपि पाप-जीवाः ।। प्रद्यद्भुत-क्रम-परायण-शील-शिक्षास्तिर्यग्जना अपि किमु श्रुत-धारणा ग्रे ॥
१९०॥
स्त्रियाँ, शूद्र, असभ्य पहाड़ी जातियाँ, शिकारी तथा अन्य अनेक निम्न कुल में उत्पन्न लोगों के साथ ही पक्षी तथा पशु भी अद्भुत प्रकार से कार्य करने वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की सेवा कर सकते हैं और भक्तों के पथ का अनुसरण करते हुए उनसे शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं। यद्यपि अज्ञान का सागर विस्तृत है, फिर भी वे इसे पार कर सकते हैं। तो फिर जो लोग वैदिक ज्ञान में उन्नत हैं, उनके लिए कौन-सी कठिनाई है?' विचार करिया ग्रबे भजे कृष्ण-पाय ।। सेइ बुद्धि देन ताँरे, झाते कृष्ण पाय ॥
१९१॥
इन सब बातों पर विचार करते हुए जब कोई कृष्ण के चरणकमलों की सेवा में संलग्न होता है, तो कृष्ण उसे ऐसी बुद्धि प्रदान करते हैं, जिससे वह धीरे-धीरे भगवत्सेवा में पूर्णता की ओर आगे बढ़ सकता है।
तेषां सतत-युक्तानां भजतां प्रीति–पूर्वकम् ।। ददामि बुद्धि-योगं तं ग्रेन मामुपयान्ति ते ॥
१९२॥
जो लोग निरन्तर भक्ति करते हैं और प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करते हैं, उन्हें मैं ऐसा ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिससे वे मेरे पास आ सकते हैं।'
सत्सङ्ग, कृष्ण-सेवा, भागवत, नाम ।। व्रजे वास,—एइ पञ्च साधन प्रधान ॥
१९३॥
भक्ति-पद तक ऊपर उठने के लिए निम्नलिखित पाँच बातों का ध्यान रखना चाहिए-भक्तों की संगति करना, भगवान् कृष्ण की सेवा में लगना, श्रीमद्भागवत का पाठ करना, भगवान के पवित्र नाम का कीर्तन करना तथा वृन्दावन या मथुरा में निवास करना।
एइ-पञ्च-मध्ये एक स्वल्प' यदि हय ।। सुबुद्धि जनेर हय कृष्ण-प्रेमोदय ॥
१९४॥
यदि कोई इन पाँचों बातों में से किसी एक में थोड़ा भी अग्रसर होता है और बुद्धिमान होता है, तो कृष्ण के प्रति उसका सुप्त प्रेम क्रमशः जाग्रत हो उठता है।
दुरूहाद्भुत-वीर्येऽस्मिन्श्रद्धा दूरेऽस्तु पञ्चके । यत्र स्वल्पोऽपि सम्बन्धः सद्धियां भाव-जन्मने ॥
१९५॥
इन पाँचों सिद्धान्तों की शक्ति अतीव अद्भुत है और समझनी मुश्किल है। उनमें श्रद्धा के बिना ही निरपराध व्यक्ति उनके साथ रंचमात्र सम्बन्ध होने पर अपने सुप्त कृष्ण-प्रेम को जाग्रत कर सकता है।'
उदार महती ग्राँर सर्वोत्तमा बुद्धि । नाना कामे भजे, तबु पाय भक्ति-सिद्धि ।। १९६॥
यदि मनुष्य वास्तव में उदार तथा बुद्धिमान है, तो वह आगे बढ़ सकता है और भक्ति में पूर्ण बन सकता है, भले ही उसमें भौतिक इच्छाएँ क्यों न हों और चाहे वह किसी स्वार्थ से भगवान् की सेवा क्यों न करता है।
अकामः सर्व-कामो वा मोक्ष-काम उदार-धीः ।। तीव्रण भक्ति-योगेन यजेत पुरुषं परम् ॥
१९७॥
कोई चाहे सकाम हो या अकाम अथवा भगवान् से तादात्म्य का इच्छुक हो, वह तभी बुद्धिमान है जब वह दिव्य प्रेमाभक्ति द्वारा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण की पूजा करता है।'
भक्ति-प्रभाव,---सेइ काम छाड़ा । कृष्ण-पदे भक्ति कराय गुणे आकर्षिया ॥
१९८॥
भक्ति इतनी प्रबल है कि जब कोई इसमें लग जाता है, तो वह क्रमशः समस्त भौतिक इच्छाओं का परित्याग कर देता है और पूरी तरह से कृष्ण के चरणकमलों के प्रति अनुरक्त हो जाता है। यह सब भगवान् के दिव्य गुणों के प्रति आकर्षण से ही सम्भव होता है।
सत्यं दिशत्यर्थितमर्थितो नृणां ।| नैवार्थ-दो ग्रत्पुनरर्थिता ग्रतः । स्वयं विधत्ते भजतामनिच्छताम् | इच्छा-पिधानं निज-पाद-पल्लवम् ॥
१९९॥
जब भी कृष्ण से किसी इच्छा को पूरा करने के लिए प्रार्थना की जाती है, तो वे अवश्य ही वैसा करते हैं, किन्तु वे ऐसी कोई वस्तु नहीं प्रदान करते, जिसका उपभोग किये जाने के बाद अधिकाधिक इच्छाओं को पूरा करने के लिए बारम्बार याचना करनी पड़े। जब किसी की अन्य इच्छाएँ होती हैं, किन्तु वह भगवान् की सेवा में लगता है, तो कृष्ण उसे बलात् अपने चरणकमलों में शरण देते हैं, जहाँ वह अन्य सारी इच्छाओं को भूल जाता है।'
‘आत्मा'-शब्दे 'स्वभाव' कहे, ताते येइ रमे ।। आत्माराम जीव व्रत स्थावर-जङ्गमे ॥
२००॥
आत्मा' शब्द का अन्य अर्थ मनुष्य का लाक्षणिक स्वभाव' है। जो भी अपने विशिष्ट प्रकार के स्वभाव का भोग करता है, वह आत्माराम कहलाता है। अतः सारे जीव भी, चाहे चर हों या अचर, आत्माराम कहलाते हैं।
जीवेर स्वभाव-कृष्ण-'दास'-अभिमान । देहे आत्म-ज्ञाने आच्छादित सेइ 'ज