भगवान कृष्ण की अनु गीता

अनु गीता

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  • अध्याय 36

    अध्याय 1

    1.1 जनमेजय ने पूछा! ब्रह्मन! शत्रुओं का नाश करके जब महत्मा श्रीकृष्ण और अर्जुन सभा भवन में रहने लगे, उन दिनों उन दोनों में क्या-क्या बातचीत हुई?" 1.2 वैशम्पायन जी ने कहा- राजन! श्रीकृष्ण के सहित अर्जुन जब केवल अपने राज्य पर पूरा अधिकार प्राप्त कर लिया, तब वे उस दिव्य सभाभावन में आनन्दपूर्वक रहने लगे। नरेश्वर! एक दिन वहाँ स्वजनों से घिरे हुए वे दोनों मित्र स्वेच्छा से घूमते-घामते सभामण्डल के एक ऐसे भाग में पहुँचे, जो स्वर्ग के समान सुन्दर था। पाण्डुनन्दन अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण के साथ रहकर बहुत प्रसन्न थे। उन्होंने एक बार उस रमणीय सभा की ओर दृष्टि डालन भगवान श्रीकृष्ण से कहा- ‘महाबाहो! देवकीनन्दन! जब संग्राम का समय उपस्थित था, उस समय मुझे आपके माहात्म्य का ज्ञान और ईश्वरीय स्वरूप का दर्शन हुआ था। किंतु केशव! आपने सौहार्दवश पहले मुझे जो ज्ञान का उपदेश दिया था, मेरा वह सब ज्ञान इस समय विचलित-चित्त हो जाने के कारण नष्ट हो गया (भूल गया) है। माधव! उन विषयों को सुनने के लिये मेरे मन में बारंबार उत्कष्ठा होती है। इधर आप जल्दी ही द्वारका जाने वाले है, अत: पुन: वह सब विषय मुझे सुना दीजिये’।"

    1.3 वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! अर्जुन के ऐसा कहने पर वक्ताओं में श्रेष्ठ महातेजस्वी भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें गले से लगाकर इस प्रकार उत्तर दिया। श्रीकृष्ण बोले- अर्जुन! उस समय मैने तुम्हें अत्यन्त गोपनीय ज्ञान का श्रवण कराया था, अपने स्वरूपभूत धर्म-सनातन पुरुषोत्तम तत्त्व का परिचय दिया था और[1 सम्पूर्ण नित्य लोकों का वर्णन किया था, किंतु तुमने जो अपनी नासमझी के कारण उस उपदेश को याद नहीं रखा, यह मुझे बहुत अप्रिय है। उन बातों का अब पूरा-पूरा स्मरण होना सम्भव नहीं जान पड़ता है। पाण्डुनन्दन! निश्चय ही तुम बड़े श्रद्धाहीन हो, तुम्हारी बुद्धि बहुत मन्द जान पड़ती है। धनंजय! अब मैं उस उपदेश को ज्यों-का त्यों नहीं कह सकता है। क्योंकि वह धर्म ब्रह्मपद की प्राप्ति कराने के लिये पर्याप्त था, वह सारा-का-सारा धर्म उसी रूप में फिर दुहरा देना अब मेरे वश की बात भी नहीं है। उस समय योगमुक्त होकर मैने परमात्मतत्त्व का वर्णन किया था। अब उस विषय का ज्ञान कराने के लिये मैं एक प्राचीन इतिहास का वर्णन करता हूँ। जिससे तुम उस समत्वबुद्धि का आश्रय लेकर उत्तम गति प्राप्त कर लोगे। धर्मात्माओं में श्रेष्ठ अर्जुन! अब तुम मेरी सारी बातें ध्यान देकर सुनो।"

    1.4 शत्रुदमन! एक दिन की बात है, एक दुर्धर्ष ब्राह्मण ब्रह्मलोक से उतरकर स्वर्गलोक में होते हुए मेरे यहाँ आये। मैंने उनकी विधिवत पूजा की ओर मोझ धर्म के विषय में प्रश्न किया। भारत श्रेष्ठ है! मेरे प्रश्न का उन्होंने सुन्दर विधि से उत्तर दिया। पार्थ! वही मैं तुम्हें बतला रहा हूँ। कोई अन्यथा विचार न करके इसे ध्यान देकर सुनो। ब्राह्मण ने कहा- श्रीकृष्ण! मधुसूदन! तुमने सब प्राणियों पर कृपा करके उनके मोह का नाश करने के लिये जो यह मोक्ष-धर्म से संबंध रखने वाला प्रश्न किया है, उसका मैं यथावत उत्तर दे रहा हूँ। प्रभो! माधव! सावधान होकर मेरी बात श्रवण करो।"

    1.5 प्राचीन समय में काश्यप नामक के एक धर्मज्ञ और तपस्वी ब्राह्मण किसी सिद्ध महर्षि के पास गये, जो धर्म के विषय में शासन के सम्पूर्ण रहस्यों को जानने वाले, भूत और भविष्य के ज्ञान-विज्ञान में प्रवीण, लोक-तत्त्व के ज्ञान में कुशल, सुख:दुख के रहस्य को समझने वाले, जन्म-मृत्यु के तत्त्वज्ञ, पाप-पुण्य के ज्ञाता और ऊँच-नीच प्राणियों को कर्मानुसार प्राप्त होने वाली गति के प्रत्यक्ष दृष्टा थे। वे मुक्त की भाँति विचरने वाले, सिद्ध, शान्तचित्त, जितेन्द्रिय, बह्मतेज से, देदीप्यमान, सर्वत्र घुमने वाले और अन्तर्धान विद्या के ज्ञाता थे। अदृश्य रहने वाले चक्रधारी सिद्धों के साथ वे विचरते, बातचीत करते और उन्हीं के साथ एकान्त में बैठते थे। जैसे वायु कहीं आसक्त न होकर सर्वत्र प्रवाहित होती है, उसी तरह वे सर्वत्र अनासक्त भाव से स्वच्छन्दतापूर्वक विचरा करते थे। महर्षि काश्यप उनकी उपर्युत महिमा सुनकर ही उनके पास गये थे। निकट जाकर उन मेधावी, तपस्वी, धर्माभिलाषी और एकाग्रचित्त महर्षि ने न्यायानुसार उन सिद्ध महात्मा के चरणों में प्रणाम किया। वे ब्राह्मणों में श्रेष्ठ और बड़े अद्भुत संत थे। उनमें सब प्रकार की योग्यता थी। वे शास्त्र के ज्ञाता और सच्चरित्र थे। उनका दर्शन करके काश्यप को बड़ा विस्मय हुआ। वे उन्हें गुरु मानकर उनकी सेवा में लग गये और शुश्रुणा, गुरुभक्ति तथा श्रद्धाभाव के द्वारा उन्होंने उन सिद्ध महात्मा को संतुष्ट कर लिया। जनार्दन! अपने शिष्य काश्यप के ऊपर प्रसन्न होकर उन सिद्ध महर्षि ने परासिद्धि के संबंध में विचार करके जो उपदेश किया, उसे बताता हूँ, सुनो।"

    1.6 सिद्ध ने कहा- तात कश्यप! मनुष्य नाना प्रकार के शुभ कर्मों का अनुष्ठान करके केवल पुष्य के संयोग से इस लोक में उत्तम फल और देवलोक में स्थान प्राप्त करते हैं। जीवन को कहीं भी अत्यन्त सुख नहीं मिलता। किसी भी लोक में वह सदा नहीं रहने पाता। तपस्या आदि के द्वारा कितने ही कष्ट सहकर बड़े-से-बड़े स्थान को क्यों न प्राप्त किया जाय, वहाँ से भी बार-बार नीचे आना ही पड़ता है। मैंने काम-क्रोध से युक्त और तृष्णा से मोहित होकर अनेक बार पाप किये हैं और उनके सेवन के फलस्वरूप घोर कष्ट देने वाली अशुभ गतियों का भोग है। बार-बार जन्म और बार-बार मृत्यु का क्लेश उठाया है। तरह-तरह के आहार ग्रहण किये और अनेक स्तनों का दूध पीया है। अनध! बहुत-से पिता और भाँति-भाँति की माताएँ देखी है। विचित्र-विचित्र सुख-दु:खों का अनुभव किया है। कितनी ही बार मुझसे प्रियाजनों का वियोग और अप्रिय जनों का संयोग हुआ है। जिस धन को मैने बहुत कष्ट सहकर कमाया था, वह मेरे देखते-देखते नष्ट हो गया है। राजा और स्वजनों की ओर से मुझे कई बार बड़े-बड़े कष्ट और अपमान उठाने पड़े है। तन और मन की अत्यंत भंयकर वेदनाएँ सहनी पड़ी है। मैंने अनेक बार घोर अपमान, प्राणदण्ड और कड़ी कैद की सजाएँ भोगी है। मुझे नरक में गिरना और यमलोक में मिलने वाली यातानाओं को सहना पड़ा है। इस लोक में जन्म लेकर मैने बारंबार बुढ़ापा, रोग, व्यसन और राग-द्वेषादि द्वन्दों की प्रचुर दु:ख सदा ही भोगे हैं। इस प्रकार बारंबार क्लेश उठाने से एक दिन मेरे मन में बड़ा खेद हुआ और मैं दुखों से घबराकर निराकर परमात्मा की शरण ली तथा समस्त लोकव्यवहार का परित्याग कर दिया।"

    1.7 इस लोक में अनुभव के पश्चात मैंने इस मार्ग का अवलम्बन किया है और अब परमात्मा की कृपा से मुझे यह उत्तम सिद्धि प्राप्त हुई है। अब मैं पुन: इस संसार में नहीं जाऊँगा। जब तक यह सृष्टि कायम रहेगी और जब तक मेरी मुक्ति नहीं हो जाएगी, तब तक मैं अपनी और दूसरे प्राणियों की शुभ गति का अवलोकन करूँगा।"

    1.8 द्विजश्रेष्ठ! इस प्रकार मुझे यह उत्तम सिद्धी मिली है। इसके बाद मैं उत्तम लोक में जाऊँगा। फिर उससे भी परम उत्कृष्ट सत्यलोक में जा पहुँचूँगा और क्रमश: अव्यक्त ब्रह्मपद (मोक्ष) को प्राप्त कर लूँगा। इसमें तुम्हें संशय नहीं करना चाहिये। काम-क्रोध आदि शत्रुओं को संताप देने वाला काश्यप! अब मैं पुन: इस मृत्युलोक में नहीं आऊँगा।"

    1.9 महाप्राज्ञ! मैं तुम्हारे ऊपर बहुत प्रसन्न हूँ। बोलो, तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूँ? तुम जिस वस्तु को पाने की इच्छा से मेरे पास आये हो, उसके प्राप्त होने का यह समय आ गया है। तुम्हारे आने का उद्देश्य क्या है, इसे मैं जानता हूँ और शीघ्र ही यहाँ से चला जाऊँगा। इसलिये मैने स्वयं तुम्हें प्रश्न करने के लिये प्रेरिता किया है। विद्वन! तुम्हारे उत्तम आचरण से मुझे बड़ा संतोष है। तुम अपने कल्याण की बात पूछो। मैं तुम्हारे अभीष्ट प्रश्न का उत्तर दूँगा। काश्यप! मैं तुम्हारी बुद्धि की सराहना करता और उसे बहुत आदर देता हूँ। तुमने मुझे पहचान लिया है, इसी से कहता हूँ कि बड़े बुद्धिमान हो।"

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    अध्याय 2

    2.1 भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- तदनन्तर धर्मात्माओं में श्रेष्ठ काश्यप ने उन सिद्ध महात्मा के दोनों पैर पकड़कर जिनका उत्तर कठिनाई से दिया जा सके, ऐसे बहुत धर्मयुक्त प्रश्न पूछे। काश्यप ने पूछा- महात्मन! यह शरीर किस प्रकार गिर जाता है? फिर दूसरा शरीर कैसे प्राप्त होता है? संसारी जीव किस तरह इस दु:खमय संसार से मुक्त होता है? जीवात्मा प्रकृति (मूल विद्या) और उससे उत्पन्न होने वाले शरीर कैसे त्याग करता है? और शरीर से छूटकर दूसरे में वह किस प्रकार प्रवेश करता है? मनुष्य अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मों का फल कैसे भोगता है और शरीर न रहने पर उसके कर्म कहाँ रहता है? ब्राह्मण कहते हैं- वृष्णिनन्दन श्रीकृष्ण! काश्यप के इस प्रकार पूछने पर सिद्ध महात्मा उनके प्रश्नों का क्रमश: उत्तर देना आरम्भ किया। वह मैं बता रहा हूँ, सुनिये।"

    2.2 सिद्ध ने कहा- काश्यप! मनुष्य इस लोक में आयु और कीर्ति को बढ़ाने वाले जिन कर्मों का सेवन करता है, वे शरीर-प्राप्ति में कारण होते हैं। शरीर-ग्रहण के अनन्तर जब वे सभी कर्म अपना फल देकर क्षीण हो जाते हैं, उस समय जीव की आयु का भी क्षय हो जाता है। उस अवस्था वह विपरीत कर्मों का सेवन करने लगता है और विनाशकाल निकट आने पर उसकी बुद्धि उलटी हो जाती है। वह अपने सत्त्व (धैर्य), बल और अनुकुल समय को जानकारी भी मन पर अधिकार न होने के कारण असमय में तथा अपनी प्रकृति के विरुद्ध भोजन करता है। अत्यन्त हानि पहुँचाने वाली जितनी वस्तुएँ है, उन सबका वह सेवन करता है। कभी तो बहुत अधिक खा लेता है, कभी बिल्कुल ही भोजन नहीं करता है। कभी दूषित खाद्य अन्न-पान भी ग्रहण लेता है, कभी एक-दूसरे से विरुद्ध गुण वाले पदार्थों को एक साथ खा लेता है। किसी दिन गरिष्ठ अन्न और वह भी बहुत अधिक मात्रा में खा जाता है। कभी-कभी एक बार का खाया हुआ अन्न पचने भी नहीं पाता कि दुबारा भोजन कर लेता है। अधिक मात्र में व्यायाम और स्त्री-सम्भोग करता है।"

    2.3 सदा काम करने के लोभ से मल-मूत्र के वेग को रोके रहता है। रसीला अन्न खाता और दिन में सोता है तथा कभी-कभी खाये हुए अन्न के पचने के पहले असमय में भोजन करके स्वयं ही अपने शरीर में स्थित वात-पित्त आदि दोषों को कुपित कर देता है। उन दोषों के कुपित होने से वह अपने लिये प्राणनाशक रोगों को बुला लेता है। अथवा फाँसी लगाने या जल में डूबने आदि शास्त्र विरुद्ध उपायों का आश्रय लेता है। इन्हीं सब कारणों से जीवन का शरीर नष्ट हो जाता है।"

    2.4 इस प्रकार जो जीव का जीवन बताया जाता है, उसे अच्छी तरह समझ लो। शरीर में तीव्र वायु से प्रेरित हो पित्त का प्रकोप बढ़ जाता है और वह शरीर में फैलकर समस्त प्राणों की गति को रोक देता है। इस शरीर में कुपित होकर अत्यन्त प्रबल हुआ पित्त जीव के मर्मस्थानों को विदीर्ण कर देता है। इस बात को ठीक समझो। जब मर्मस्थान छिन्न-भिन्न होने लगते हैं, तब वेदना से व्यथित हुआ जीवन तत्काल इस जड़ शरीर से निकल जाता है। उस शरीर को सदा के लिये त्याग देता है।"

    2.5 द्विजश्रेष्ठ! मृत्युकाल में जीव का तन-मन वेदना से व्यथित होता है, इस बात को भलीभाँति जान लो। इस तरह संसार के सभी प्राणी सदा जन्म और मरण से उद्विग्न रहता है। विप्रवर! सभी जीव अपने शरीरों का त्याग करते देखे जाते हैं। गर्भ में मनुष्य प्रवेश करते समय तथा गर्भ से नीचे गिरते समय भी वैसी ही वेदना का अनुभव करता है। मृत्यु काल में जीवों के शरीर की सन्धियाँ टूटने लगती हैं और जन्म के समय वह गर्भस्थ जल से भीगकर अत्यन्त व्याकुल हो उठता है। अन्य प्रकार की तीव्र वायु से प्रेरित हो शरीर में सर्दी से कुपित हुई जो वायु पाँचों भूतों में प्राण और अपान के स्थान में स्थित है, वही पंचभूतों के संघात का नाश करती है तथा वह देहधारियों को बड़े कष्ट से त्यागकर ऊर्ध्वलोक को चली जाती है। इस प्रकार जब जीव शरीर का त्याग करता है, तब प्राणियों का शरीर उच्छ्वास हीन दिखायी देता है। उसमें गर्मी, उच्छ्वास, शोभा और चेतना कुछ भी नहीं रह जाती। इस तरह जीवात्मा से परित्यक्त उस शरीर को लोग मृत (मरा हुआ) कहते है। देहधारी जीव जिन इन्द्रियों के द्वारा रूप, रस आदि विषयों का अनुभव करता है, उनके द्वारा वह भोजन से परिपुष्ट होने वाले प्राणों को नहीं जान पाता। इस शरीर के भीतर रहकर जो कार्य करता है, वह सनातन जीव है। कहीं-कहीं संधिस्थानों में जो-जो अंग संयुक्त होता है, उस-उस को तुम मर्म समझो, क्योंकि शास्त्र में मर्मस्थान का ऐसा ही लक्षण देखा गया है। उन मर्मस्थानों (संधियों)-के विलग होने पर वायु ऊपर को उठती हुई प्राण के हृदय में प्रविष्ट हो शीघ्र ही उसकी बुद्धि को अवरुद्ध कर लेती है। "

    2.6 तब अन्तकाल उपस्थित होने पर प्राणी सचेतन होने पर भी कुछ समझ नहीं पाता, क्योंकि तुम (अविद्या)- के द्वारा उसकी ज्ञानशक्ति आवृत्त हो जाती है। मर्मस्थान भी अवरुद्ध हो जाते है। उस समय जीव के लिये कोई आधार नहीं रह जाता है और वायु उसे अपने स्थान से विचलित कर देती है। तब वह जीवात्मा बारंबार भंयकर एवं लंबी साँस छोड़कर बाहर निकलने लगता है। उस समय सहसा इस जड़ शरीर को कम्पित कर देता है। शरीर से अलग होने पर वह जीव अपने किये हुए शुभ कार्य पुण्य अथवा अशुभ कार्य पाप कर्मों द्वारा सब ओर से घिरा रहता है। जिन्होंने वेद-शास्त्रों के सिद्धांतों का यथावत अध्ययन किया है, वे ज्ञान सम्पन्न ब्राह्मण लक्षणों के द्वारा यह जान लेते हैं कि अमुक जीव पुण्यात्मा रहा है। अमुक जीव पापी। जिस तरह आँख वाले मनुष्य अंधेरे में इधर-उधर उगते-बुझते हुए खद्योत को देखते हैं, उसी प्रकार ज्ञान-नेत्र वाले सिद्ध पुरुष अपनी दिव्य दृष्टि से जन्मते, मरते तथा गर्भ में प्रवेश करते हुए जीव को सदा देखते रहते हैं। शास्त्र के अनुसार जीव के तीन प्रकार के स्थान देखे गये हैं (मृत्युलोक, स्वर्गलोक और नरक)। यह मृत्युलोक की भूमि जहाँ बहुत से प्राणी रहते हैं, कर्मभूमि कहलाती है। अत: यहाँ शुभ और अशुभ कर्म करके सब मनुष्य उसके फलस्वरूप अपने कर्मों के अनुसार अच्छे-बुरे भोग प्राप्त करते हैं।"

    2.7 यहीं पाप करने वाले मानव अपने कर्मों के अनुसार नरक में पड़ते हैं। यह जीव की अधोगति है, जो घोर कष्ट देने वाली है। इसमें पड़कर पापी मनुष्य नरकाग्नि में पकाये जाते हैं। उससे छुटकारा मिलना बहुत कठिन है। अत: (पापकर्म से दर रहकर) अपने को नरक से बचाये रखने का विशेष प्रयत्न करना चाहिये। स्वर्ग आदि ऊर्ध्वलोकों में जाकर प्राणी जिन स्थानों में निवास करते हैं, उनका यहाँ वर्णन किया जाता है, इस विषय को यथार्थ रूप से मुझ से सुनो।"

    2.8 इसको सुनने से तुम्हें कर्मों की गति का निश्चय हो जायगा और नैष्ठि की बुद्धि प्राप्त होगी। जहाँ ये समस्त तारे हैं, जहाँ वह चन्द्रमण्डल प्रकाशित होता है और जहाँ सूर्यमण्डल जगत में अपनी प्रभा से उद्भासित हो रहा है, ये सब-के-सब पुण्यकर्म पुरुषों के स्थान हैं, ऐसा जाना[1 जब जीवों के पुण्यकर्मों का भोग समाप्त हो जाता है, तब वे वहाँ से नीचे गिरते हैं। इस प्रकार बारंबार उनका आवागमन होता रहता है।"

    2.9 स्वर्ग में भी उत्तम, मध्यम और अधम का भेद रहता है। वहाँ भी दूसरों का अपने से बहुत अधिक दीप्तिमान तेज एवं ऐश्वर्य देखकर मन में संतोष नहीं होता है। इस प्रकार जीव की इन सभी गतियों का मैंने तुम्हारे समक्ष पृथक-पृथक वर्णन किया है।"

    2.10 अब मैं यह बतलाऊँगा कि जीव किस प्रकार गर्भ में आकर जन्म धारण करता है। ब्रह्मन! तुम एकाग्रचित्त होकर मेरे मुख से इस विषय का वर्णन सुनो।"

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    अध्याय 3

    3.1 जीवन के गर्भ-प्रवेश, आचार-धर्म, कर्म-फल की अनिवार्यता तथा संसार से तरने के उपाय का वर्णन ---

    सिद्ध ब्राह्मण बोले- काश्यप! इस लोक में किये हुए शुभ और अशुभ कर्मों का फल भोगे बिना नाश नहीं होता। वे कर्म वैसा-वैसा कर्मानुसार एक के बाद एक शरीर धारण कराकर अपना फल देते रहते हैं। जैसे फल देने वाला वृक्ष फलने का समय आने पर बहुत से फल प्रदान करता है, उसी प्रकार शुद्ध हृदय से किये हुए पुण्य का फल अधिक होता है। इसी तरह कलुषित चित्त से किये हुए पाप के फल में भी वृद्धि होती है, क्योंकि जीवात्मा मन को आगे करके ही प्रत्येक कार्य में प्रवृत होता है। काम क्रोध से घिरा हुआ मनुष्य जिस प्रकार कर्मजाल में आबद्ध गर्भ में प्रवेश करता है, उसका भी उत्तर सुनो।"

    3.2 जीव पहले पुरुष के वीर्य में प्रविष्ट होता है, फिर स्त्री के गर्भाशय में जाकर उसके रज में मिल जाता है। तत्पश्चात उसे कर्मानुसार शुभ या अशुभ शरीर की प्राप्ति होती है। जीव अपनी इच्छा के अनुसार उस शरीर में प्रवेश करके सूक्ष्म और अव्यक्त होने के कारण कहीं आसक्त नहीं होता है, क्योंकि वास्वत में वह सनातन परब्रह्म स्वरूप है। वह जीवात्मा सम्पूर्ण भूतों की स्थिति का हेतु है, क्योंकि उसी के द्वारा सब प्राणी जीवित रहते हैं। वह जीव गर्भ के समस्त अंग में प्रविष्ट हो उसके प्रत्येक स्थान वक्ष:स्थल में स्थित हो समस्त अंगों का संचालन करता है। तभी वह गर्भ चेतना से सम्पन्न होता है। जैसे तपाये हुए लोहे का द्रव जैसे साँचे में ढाला जाता है उसी का रूप धारण कर लेता है, उसी प्रकार गर्भ में जीव का प्रवेश होता है, ऐसा समझो। (अर्थात जीव जिस प्रकार की योनि में प्रविष्ट होता है, उसी रूप में उसका शरीर बन जाता है)। जैसे आग लोहपिण्ड में प्रविष्ट होकर उसे बहुत तपा देती है, उसी प्रकार गर्भ में जीव का प्रवेश होता है और वह उसमें चेतनता ला देता है। इस बात को तुम अच्छी तरह समझ लो। जिस प्रकार जलता हुआ दीपक समूचे घर में प्रकाश फैलाता है, उसी प्रकार जीव की चैतन्य शक्ति शरीर के सब अवयवों को प्रकाशित करती है।"

    3.3 मनुष्य शुभ अथवा जो-जो कर्म करता है, पूर्व जन्म के शरीर से किये गये उन सब कर्मों का फल उसे अवश्य भोगना पड़ता है। उपभोग से प्राचीन कर्म का तो क्षय होता है और फिर दूसरे नये-नये कर्मों का संचय बढ़ जाता है। जब तक मोक्ष की प्राप्ति में सहायक धर्म का उसे ज्ञान नहीं होता, तब तक यह कर्मों की परम्परा नहीं टूटती है। साधुशिरोमणेे! इस प्रकार भिन्न-भिन्न योनियों में भ्रमण करने वाला जीव जिन के अनुष्ठान से सुखी होता है, उन कर्मों का वर्णन सुनो।"

    3.4 दान, व्रत, ब्रह्मचर्य, शास्त्रोक्त रीति से वेदाध्ययन, इन्द्रियग्रह, शान्ति, समस्त प्राणियों पर दया, चित्त का संयम, कोमलता, दूसरों के धन लेने की इच्छा का त्याग, संसार के प्राणियों का मन से भी अहित न करना, माता-पिता की सेवा, देवता, अतिथि और गुरुओं की पूजा, दया, पवित्रता, इन्द्रियों को सदा काबू में रखना तथा शुभ कर्मों का प्रचार करना- यह सब श्रेष्ठ पुरुषों का बर्ताव कहलाता है। इनके अनुष्ठान से धर्म होता है, जो सदा प्रजावर्ग की रक्षा करता है।"

    3.5 सत्पुरुषों में सदा ही इस प्रकार का धार्मिक आचरण देखा जाता है। उन्हीं में धर्म की अटल स्थिति होती है। सदाचार ही धर्म का परिचय देता है। शान्तचित्त महात्मा पुरुष सदाचार में ही स्थित रहते हैं। उन्हीं में पूर्वोक्त दान आदि कर्मों की स्थिति है। वे ही कर्म सनातन धर्म के नाम से प्रसिद्ध हैं। जो उस सनातन धर्म का आश्रय लेता है, उसे कभी दुर्गति नहीं भोगनी पड़ती है। इसीलिये धर्म मार्ग से भ्रष्ट होने वाले लोगों का नियंत्रण किया जाता है। जो योगी और मुक्त है, वह अन्य धर्मात्माओं की अपेक्षा श्रेष्ठ होता है। जो धर्म के अनुसार बर्ताव करता है, वह जहाँ जिसे अवस्था में हो, वहाँ उसी स्थिति में उसको अपने कर्मानुसार उत्तम फल की प्राप्ति होती है और वह धीरे-धीरे अधिक काल बीतने पर संसार-सागर से तर जाता है। इस प्रकार जीव सदा अपने पूर्वजन्मों में किये हुए कर्मों का फल भोगता है। यह आत्मा निर्विकार ब्रह्म होने पर भी विकृत होकर इस जगत में जो जन्म धरण करता है, उसमें कर्म ही कारण है।"

    3.6 आत्मा के शरीर धारण करने की प्रथा सबसे पहले किसने चलायी है, इस प्रकार संदेह प्राय: लोगों के मन में उठा करता है, अब: उसी का उत्तर दे रहा हूँ। सम्पूर्ण जगत के पितामह ब्रह्मा जी ने सबसे पहले स्वयं ही शरीर धारण करके स्थावर-जंगम रूप समस्त त्रिलोकी की (कर्मानुसार) रचना की। उन्होंने प्रधान नामक तत्त्व की उत्पत्ति की, जो देहधारी जीवों की प्रकृति कहलाती है। जिसने इस सम्पूर्ण जगत को व्याप्त कर रखा है तथा लोक में जिसे मूल प्रकृति के नाम से जानते हैं। यह प्राकृत जगत क्षर कहलाता है, इससे भिन्न अविनाशी जीवात्मा को अक्षर कहते हैं। (इनसे विलक्षण शुद्ध पर ब्रह्म हैं)- इन तीनों से जो दो तत्त्व- क्षर और अक्षर हैं, वे सब प्रत्येक जीव के लिये पृथक-पृथक होते हैं। श्रुति में जो सृष्टि के आरम्भ में समरूप से निर्दिष्ट हुए हैं, उन प्रजापति ने समस्त स्थावर भूतों और जंगम प्राणियों की सृष्टि की है, यह पुरातन श्रुति है।"

    3.7 पितामह ने जीव के लिये नियत समय तक शरीर धारण किये रहने की, भिन्न-भिन्न योनियों में भ्रमण करने की और परलोक से लौटकर फिर इस लोक में जन्म लेने आदि की भी व्यवस्था की है। जिसने पूर्वजन्म में अपने आत्मा का साक्षात्कार कर लिया हो, ऐसा कोई मेधावी अधिकारी पुरुष संसार की अनित्यता के विषयक में जैसी बात कह सकता है, वैसी ही मैं भी कहूँगा। मेरी कही हुई सारी बातें यथार्थ और संगत होंगी। जो मनुष्य सुख और दु:ख दोनों को अनित्य समझता है, शरीर को अपवित्र वस्तुओं का समूह समझता है और मृत्यु को कर्म का फल समझता है तथा सुख के रूप में प्रतीत होने वाला जो कुछ भी है वह सब दु:ख ही दु:ख है, ऐसा मानता है, वह घोर एवं दुस्तर संसार सागर से पार हो जायगा।"

    3.8 जन्म, मृत्यु एवं रोगों से घिरा हुआ जो पुरष प्रधान तत्त्व (प्रकृति) को जानता है और समस्त चेतन प्राणियों में चैतन्य को समान रूप से व्याप्त देखता है, व पूर्ण परम पद के अनुसंधान में संलग्न हो जगत के भोगों से विरक्त हो जाता है।"

    3.9 साधुशिरोमणे! उस वैराग्यवान पुरुष के लिये जो हितकर उपदेश है, उसका मैं यथार्थ रूप से वर्णन करूँगा। उसके लिये जो सनातन अविनाशी परमात्मा का उत्तम ज्ञान अभीष्ट है, उसका मैं वर्णन करता हूँ। विप्रवर! तुम सारी बातों को ध्यान देकर सुनो।"

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    अध्याय 4

    4.1 गुरु-शिष्य के संवाद में मोक्ष प्राप्ति के उपाय का वर्णन ---

    सिद्ध ब्राह्मण ने कहा- काश्यप! जो मनुष्य (स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों में क्रमश:) पूर्व-पूर्व का अभिमान त्यागकर कुछ भी चिन्तन नहीं करता और मौन भाव से रहकर सब के एकमात्र अधिष्ठान पर ब्रह्म परमात्मा में लीन रहता है, वही संसार बन्धन से मुक्त होता है। जो सबका मित्र, सब कुछ सहने वाला, मनोनिग्रह में तत्पर, जितेन्द्रिय, भय और क्रोध से रहित तथा आत्मवान है, वह मनुष्य बन्धन से मुक्त हो जाता है। जो नियमपरायण और पवित्र रहकर सब प्राणियों के प्रति आपने जैसा बर्ताव करता है, जिसके भीतर सम्मान पाने की इच्छा नहीं है तथा जो अभिमान से दूर रहता है, वह सर्वथा मुक्त ही है। जो जीवन मरण, सुख दु:ख, लाभ-हानि तथा प्रिय-अप्रिय आदि द्वन्द्वों को समभाव से देखता है, वह मुक्त हो जाता है। जो किसी के द्रव्य का लोभ नहीं रखता, किसी की अवहेलना नहीं करता, जिसके मन पर द्वन्द्वों का प्रभाव नहीं पड़ता और जिसके चित्त की आसक्ति दूर हो गयी है, वह सर्वथा मुक्त ही है। जो किसी को अपना मित्र, बन्धु या संतान नहीं मानता, जिसने सकाम धर्म, अर्थ और काम का त्याग कर दिया है तथा जो सब प्रकार की आकांक्षाओं से रहित है, वह मुक्त हो जाता है।"

    4.2 जिसकी न धर्म में आसक्ति है न अधर्म में, जो पूर्व संचित कर्मों को त्याग चुका है, वासनाओं का क्षय हो जाने से जिसका चित्त शान्त हो गया है तथा जो सब प्रकार के द्वन्द्वों से रहित है, वह मुक्त हो जाता है। जो किसी भी कर्म का कर्ता नहीं बनता, जिसके मन में कोई कामना नहीं है, जो इस जगत को अश्वत्थ के समान अनित्य-कल तक न टिक सकने वाला समझता है तथा जो सदा इसे जन्म, मृत्यु और जरा से युक्त जानता है, जिसकी बुद्धि वैराग्य में लगी है और जो निरन्तर अपने दोषों पर दृष्टि रखता है, वह शीघ्र ही अपने बन्धन का नाश कर देता है। जो आत्मा को गन्ध, रस, स्पर्श, शब्द, परिग्रह, रूप से रहित तथा अज्ञेय मानता है, वह मुक्त हो जाता है। जिसकी दृष्टि में आत्मा पांच भौतिक गणों से हीन, निराकार, कारण रहित तथा निर्गुण होते हुए भी (माया के सम्बन्ध से) गुणों का भोक्ता है, वह मुक्त हो जाता है। जो बुद्धि से विचार करके शारीरिक और मानसिक सब संकल्पों का त्याग कर देता है, वह बिना ईंधन की आग के समान धीरे-धीरे शान्ति को प्राप्त हो जाता है।"

    4.3 जो सब प्रकार के संस्कारों से रहित, द्वन्द्व और परिग्रह से रहित हो गया है तथा जो तपस्या के द्वारा इन्द्रिय-समूह को अपने वश में करके (अनासक्त) भाव से विचरता है, वह मुक्त ही है। जो सब प्रकार के संस्कारों से मुक्त होता है, वह मनुष्य शान्त, अचल, नित्य, अविनशी एवं सनातन पर ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। अब मैं उस परम उत्तम योग शास्त्र का वर्णन करूँगा, जिसके अनुसार योग-साधन करने वाले योगी पुरुष अपने आत्मा का साक्षात्कार कर लेते हैं। मैं उसका यथावत उपदेश करता हूँ। मनोनिग्रह के जिन उपायों द्वारा चित्त को इस शरीर के भीतर ही वशीभूत एवं अन्तमुर्ख करके योगी आने नित्य आत्मा का दर्शन करता है, उन्हें मुझसे श्रवण करो।"

    4.4 इन्द्रियों को विषयों की ओर से हटाकर मन में और मन को आत्मा में स्थापित करे। इस प्रकार पहले तीव्र तपस्या करके फिर मोक्षोपयोगी उपाय का अवलम्बन करना चाहिये। मनीषी ब्राह्मण को चाहिये कि वह सदा तपस्या में प्रवृत्त एवं यत्नशील होकर योग शास्त्रों का उपाय का अनुष्ठान करे। इससे वह मन के द्वारा अन्त:करण में आत्मा का साक्षात्कार करता है। एकान्त में रहने वाला साधक पुरुष यदि अपने मन को आत्मा में लगाये रखने में सफल हो जाता है तो वह अवश्य ही अपने में आत्मा का दर्शन करता है। जो साधक सदा संयमपरायण, योगयुक्त, मन को वश में करने वाला और जितेन्द्रिय है, वही आत्मा से प्रेरित होकर बुद्धि के द्वारा उसका साक्षात्कार कर सकता है। जैसे मनुष्य सपने में किसी अपरिचित पुरुष को देखक जब पुन: उसे जाग्रत अवस्था में देखता है, तब तुरंत पहचान लेता है कि ‘यह वही है।’ उसी प्रकार साधन परायण योगी समाधि अवस्था में आत्मा को जिस रूप में देखता है, उसी रूप में उसके बाद भी देखता रहता है। जैसे कोई मनुष्य मूँज से सींक को अलग करके दिखा दे, वैसे ही योगी पुरुष आत्मा को इस देह से पृथक करके देखता है। यहाँ शरीर को मूँज कहा गया है और आत्मा को सींक। योग वेत्ताओं ने देह और आत्मा के पार्थक्य को समझ ने के लिये यह बहुत उत्तम दृष्टान्त दिया है। देहधारी जीव जब योग के द्वारा आत्मा का यथार्थ रूप से दर्शन कर लेता है, उस समय उसके ऊपर त्रिभुवन के अधीश्वर का भी आधिपत्य नहीं रहता है।"

    4.5 वह योगी अननी इच्छा के अनुसार विभिन्न प्रकार के शरीर धारण कर सकता है, बुढ़ापा और मृत्यु को भी भगा देता है, वह न कभी शोक करता है न हर्ष। अपनी इंद्रियों को वश में रखने वाला योगी पुरुष देवताओं का भी देवता हो सकता है। वह इस अनित्य शरीर का त्याग करके अविनाशी ब्रह्म को प्राप्त होता है। सम्पूर्ण प्राणियों का विनाश होने पर भी उसे भय नहीं होता। सबके क्लेश उठाने पर भी उसको किसी से क्लेश नहीं पहुँचता। शान्तचित्त एवं नि:स्पृह योगी आसक्ति और स्नेह से प्राप्त होने वाले भयंकर दु:ख शोक तथा भय से विचलित नहीं होता। उसे शस्त्र नहीं बींध सकते, मृत्यु उसके पास नहीं पहुँच पाती, संसार में उससे बढ़कर सुखी कहीं कोई नहीं दिखायी देता। वह मन को आत्मा में लीन करके उसी में स्थित हो जाता है तथा बुढ़ापा के दु:खों से छुटकारा पाकर सुख से सोता-अक्षय आनन्द का अनुभव करता है। वह इस मानव शरीर का त्याग करके इच्छानुसार दूसरे बहुत से शरीर धारण करता है। योगजनित ऐश्वर्य का उपभोग करने वाले योगी को योग से किसी तरह विरक्त नहीं होना चाहिये। अच्छी तरह योग का अभ्यास करके जब योगी अपने में ही आत्मा का साक्षात्कार करने लगात है, उस समय वह साक्षात इन्द्र के पद को पाने की इच्छा नहीें करता है। एकान्त में ध्यान करने वाले पुरुष को जिस प्रकार योग की प्राप्ति होती है, वह सुनो- जो उपदेश पहले श्रुति में देखा गया है, उसका चिन्तन करके जिस भाग में जीव का निवास माना गया है, उसी में मन को भी स्थापित करे। उसके बाहर कदापि न जाने दे।"

    4.6 शरीर के भीतर रहते हुए वह आत्मा जिस आश्रय में स्थित होता है, उसी में बाह्य और आभ्यन्तर विषयों सहित मन को धारण करे। मूलाधार आदि किस आश्रय में चिन्तर करके जब वह सर्वस्वरूप परमात्मा का साक्षात्कार करता है, उस समय उसका मन प्रत्यक स्परूप आत्मा से भिन्न कोई ‘बाह्य’ वस्तु नहीं रह जाता। निर्जन वन में इन्द्रिय समुदाय को वश में करके एकाग्रचित्त हो शब्द शून्य अपने शरीर के बाहर और भीतर प्रत्येक अंग में परिपूर्ण परब्रह्म परमात्मा का चिन्तन करे। दन्त, तालु, जिह्वा, गला, ग्रीवा, हृदय तथा हृदय बन्धन (नाड़ी मार्ग) को भी परमात्मरूप से चिन्तन करे।"

    4.7 मधुसूदन! मेरे ऐसा कहने पर उस मेधावी शिष्य ने पुन: जिसका निरूपण करना अत्यन्त कठिन है, उस मोक्षधर्म के विषय में पूछा- ‘यह बारंबार खाया हुआ अन्न उदर में पहुँचकर कैसे पचता है? किस तरह उसका रस बनता है और किस प्रकार वह रक्त के रूप में परिणत हो जाता है? स्त्री शरीर में मांस, मेदा, स्नायु और हड्डियाँ कैसे होती हैं? देहधारियों के समस्त शरीर कैसे बढ़ते हैं? बढ़ते हुए शरीर का बल कैसे बढ़ता है? जिनका सब ओर से अवरोध है, उन मलों का पृथक पृथक नि:सारण कैसे होता है? यह जीव कैसे साँस लेता, कैसे अच्छ्वास खींचता और किस स्थान में रहकर इस शरीर में सदा विद्यमान रहता है? चेष्टाशील जीवात्मा इस शरीर का भार कैसे वहन करता है? फिर कैसे और किस रंग के शरीर को धारण करता है। निष्पाप भगवन! यह सब मुझे यथार्थरूप से बताइये।’"

    4.8 शत्रुदमन महाबाहु माधव! उस ब्राह्मण के इस प्रकार पूछने पर मैंने जैसा सुना था वैसा ही उसे बताया। जैसे घर का सामान अपने कोटे में डालकर भी मनुष्य उन्हीं के चिन्तन में मन लगाये रहता है, उसी प्रकार इन्द्रियरूपी चंचल द्वादरों से विचरने वाले मन को अपनी काया में ही स्थापित करके वहीं आत्मा का अनुसंधान करे और प्रमाद को त्याग दे। इस प्रकार सदा ध्यान के लिये प्रयत्न करने वाले पुरुष का चित्त शीघ्र ही प्रसन्न हो जाता है और वह उस परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर लेता है, जिसका साक्षात्कार करके मनुष्य प्रकृति एवं उसके विकारों को स्वत: जान लेता है। उस परमात्मा का इन चर्म चक्षुओं से दर्शन नहीं हो सकता, सम्पूर्ण इन्द्रियों से भी उसको ग्रहण नहीं किया जा सकता, केवल बुद्धिरूपी दीपक ही सहायता से ही उस महान आत्मा का दर्शन होता है। वह सब ओर हाथ पैर वाला, सब ओर नेत्र और सिर वाला तथा सब ओर कान वाला है, क्योंकि वह संसार में सबको व्याप्त करके स्थित है। तत्त्वज्ञ जीव अपने आपको शरीर से पृथक देखता है। वह शरीर के भीतर रहकर भी उसका त्याग करे उसकी पृथकता का अनुभव करके अपने स्वरूप भूत केवल परब्रह्म परमात्मा का चिन्तन करता हुआ बुद्धि के सहयोग से आत्मा का साक्षात्कार करता है। उस समय वह यह सोचकर हँसता सा रहता है कि अहो! मृगतृष्णा में प्रतीत होने वाले जल की भाँति मुझ में ही प्रतीत होने वाले इस संसार ने मुझे अब तक व्यर्थ ही भ्रम में डाल रखा था। जो इस प्रकार परमात्मा का दर्शन करता है, वह उसी का आश्रय लेकर अन्त में मुझमें ही मुक्त हो जाता है। (अर्थात अपने आप में ही परमात्मा का अनुभव करने लगता है।)" 4.9 द्विजश्रेष्ठ! यह सारा रहस्य मैंने तुम्हें बता दिया। अब मैं जाने की अनुमति चाहता हूँ। विप्रवर! तुम भी सुखपूर्वक अपने स्थान को लौट जाओ। श्रीकृष्ण! मेरे इस प्रकार कहने पर वह कठोर व्रत का पालन करने वाला मेरा महातपस्वी शिष्य ब्राह्मण काश्यप इच्छानुसार अपने अभीष्ट स्थान को चला गया।"

    4.10 भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- अर्जुन! मोक्ष धर्म का आश्रय लेने वाले वे सिद्ध महात्मा श्रेष्ठ ब्राह्मण मुझ से यह प्रसंग सुनाकर वहीं अन्तर्धान हो गये। पार्थ! क्या तुमने मरे बताये हुए इस उपदेश को एकाग्रचित्त होकर सुना है? उस युद्ध के समय भी तुमने रथ पर बैठे-बैठे इसी तत्त्व को सुना था। कुन्तीनन्दन! मेरा तो ऐसा विश्वास है कि जिसका चित्त व्यग्र है, जिसे ज्ञान का उपदेश नहीं प्राप्त है, वह मनुष्य इस विषय को सुगमतापूर्वक नहीं समझ सकता। जिसका अन्त:करण शुद्ध है वही इसे जान सकता है। भरतश्रेष्ठ! यह मैंने देवताओं का परम गोपनीय रहस्य बताया है। पार्थ! इस जगत में किसी भी मनुष्य ने इस रहस्य का श्रवण नहीं किया है। अनघ! तुम्हारे सिवा दूसरा कोई मनुष्य इसे सुनने का अधिकारी भी नहीं है। जिसका चित्त दुविधा में पड़ा हुआ है, वह इस समय इसे अच्छी तरह नहीं समझ सकता। कुन्तीकुमार! क्रियावान पुरुषों से देवलोक भरा पड़ा है। देवताओं का यह अभीष्ट नहीं है कि मनुष्य के मर्त्यरूप की निवृत्ति हो। पार्थ! जो सनातन ब्रह्म है, वही जीव की परम गति है। ज्ञानी मनुष्य देह को त्यागकर उस ब्रह्म में ही अमृतत्त्व को प्राप्त होता है और सदा के लिये सुखी हो जाता है।"

    4.11 इस आत्मदर्शन रूप धर्म का आश्रय लेकर वैश्य और शूद्र तथा जो पाप योनि के मनुष्य हैं वे परमगति को प्राप्त हो जाते हैं। पार्थ! फिर जो अपने धर्म में प्रेम रखते और ब्रह्मलोक की प्राप्ति के साधन में लगे रहते हैं, उन बहुश्रुत ब्राह्मण और क्षत्रियों की तो बात ही क्या है? इस प्रकार मैंने तुम्हें मोक्षधर्म का युक्तियुक्त उपदेश किया है। उसके साधन के उपाय भी बतलाये हैं और सिद्धि, फल, मोक्ष तथा दु:ख के स्वरूप का भी निर्णय किया है। भरतश्रेष्ठ! इससे बढ़कर दूसरा कोई सुखदायक धर्म नहीं है। पाण्डुनन्दन! जो कोई बुद्धिमान, श्रद्धालु और पराक्रमी मनुष्य लौकिक सुख को सारहीन समझकर उसे त्याग देता है, वह उपर्युक्त इन उपायों के द्वारा बहुत शीघ्र परम गति को प्राप्त कर लेता है। पार्थ! इतना ही कहने योग्य विषय है। इससे बढ़कर कुछ भी नहीं है। जो छ: महीने तक निरन्तर योग का अभ्यास करता है, उसका योग अवश्य सिद्ध हो जाता है। "

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    अध्याय 5

    5.1 ब्राह्मणगीता- एक ब्राह्मण का अपनी पत्नी से ज्ञान यज्ञ का उपदेश करना---

    श्रीकृष्ण कहते हैं- भरतश्रेष्ठ! अर्जुन! इसी विषय में पति-पत्नी के संवाद रूप एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। एक ब्राह्मण, जो ज्ञान-विज्ञान के पारगामी विद्वान थे, एकान्त स्थान में बैठे हुए थे, यह देखकर उनकी पत्नी ब्राह्मणी अपने उन पति देव के पास जाकर बोली- ‘प्राणानाथ! मैंने सुना है कि स्त्रियाँ पति के कर्मानुसार प्राप्त हुए लोकों को जाती हैं, किंतु आप जो कर्म छोड़कर बैठे हैं और मेरे प्रति कठोरता का बर्ताव करते हैं। आपको इस बात का पता नहीं है कि मैं अनन्य भाव से आपके ही आश्रित हूँ। ऐसी दशा में आप जैसे पति का आश्रय लेकर में किस लोक में आऊँगी? आपको पति रूप में पाकर मेरी क्या गति होगी’। पत्नी के ऐसा कहने पर वे शान्तचित्त वाले ब्राह्मण देवता हँसते हुए से बोले- ‘सौभाग्यशालिनि! तुम पाप से सदा दूर रहती हो, अत: तुम्हारे इस कथन के लिये मैं बुरा नहीं मानता।"

    5.2 संसार में ग्रहण करने योग्य दीक्षा और व्रत आदि हैं तथा इन आँखों से दिखायी देने वाले जो स्थूल कर्म हैं, उन्हीं को वस्तुत: कर्म माना जाता है। कर्मठ लोग ऐसे ही कर्म को कर्म के नास से पुकारते हैं। किंतु जिन्हें ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई है, वे लोग कर्म के द्वारा मोह का ही संग्रह करते हैं। इस लोक मेें कोई दो घड़ी भी बिना कर्म किये रह सके, ऐसा सम्भव नहीं है। मन से, वाणी से तथा क्रिया द्वारा जो भी शुभ या अशुभ कार्य होता है, वह तथा जन्म, स्थिति, विनाश एवं शरीर भेद आदि कर्म प्राणियों में विद्यमान हैं। जब राक्षसों दुर्जनों ने जहाँ सोम और घृत आदि दृश्य द्रव्यों का उपयोग होता है, उन कर्म मार्गों का विनाश आरम्भ कर दिया, जब मैंने उनसे विरक्त होकर स्वयं ही अपने भीतर स्थित हुए आत्मा के स्थान को देखा। जहाँ द्वन्द्वों से रहित व परब्रह्म परमात्मा विराजमान हैं, जहाँ सोम अग्नि के साथ नित्य समागम करता है तथा जहाँ सब भूतों को धारण करने वाला धीर समीर निरन्तर चलता रहता है।"

    5.3 जहाँ ब्रह्मा आदि देवता तथा उत्तम व्रत का पालन करने वाले शान्तचित्त जितेन्द्रिय विद्वान योगयुक्त होकर उस अविनाशी ब्रह्म की उपासना करते हैं। वह अविनाशी ब्रह्म घ्राणेन्द्रियों से सूघँने और जिह्वा द्वारा आस्वादन करने योग्य नहीं है। स्पर्शेन्द्रिय त्वचा द्वारा उसका स्पर्श भी नहीं किया जा सकता, केवल बुद्धि के द्वारा उसका अनुभव किया जा सकता है। वह नेत्रों का विषय नहीं हो सकता। वह अनिर्वयनीय परब्रह्म श्रवणेन्द्रिय की पहुँच से सर्वथा परे है। गन्ध, रस, स्पर्श रूप और शब्द आदि कोई भी लक्षण उसमें उपलब्ध नहीं है। उसी से सृष्टि आदि का विस्तार होता है और उसी में उसकी स्थिति है। प्राण, अपान, समान, व्यान और उदान- ये उसी से प्रकट होते और फिर उसी में प्रविष्ट हो जाते हैं। समान और व्यान- इन दोनों के बीच में प्राण और अपान विचरते हैं। उस अपान सहित प्राण के लीन होने पर समान और व्यान का भी लय हो जाता है। अपान और प्राण के बीच में उदान सबको व्याप्त करके स्थित होता है। इसीलिये सोये हुए पुरुष को प्राण और अपान नहीं छोड़ते हैं।"

    5.4 प्राणों का आयतन (आधार) होने के कारण उसे विद्वान पुरुष उदान कहते हैं। इसलिये वेदवादी मुझमें स्थित तप का निश्चय करते हैं। एक दूसरे के सहारे रहने वाले तथा सबके शरीरों में संचार करने वाले उन पाँचों प्राणवायुओं के मध्य भाग में जो समान वायु का स्थान नाभिमण्डल है, उसके बीच में स्थित हुआ वैश्वानर अग्नि सात रूपों में प्रकाशमान है। घ्राण (नासिका), जिह्वा, नेत्र, त्वचा और पाँचवाँ कान एवं मन तथा बुद्धि- ये उस वैश्वानर अग्नि की सात जिह्वाएँ हैं। सूँघने योग्य गन्ध, दर्शनीय रूप, पीने योज्य रस, स्पर्श करने योज्य वस्तु, सुनने योग्य शब्द, मन के द्वारा मनन करने और बुद्धि के द्वारा समझने योज्य विषय- ये सात मुझ वैश्वानर की सतिधाएँ हैं। "

    5.5 सूँघने वाला, खाने वाला, देखने वाला, स्पर्श करने वाला, पाँचवाँ श्रवण करने वाला एवं मनन करने वाला और समझने वाला- ये सात श्रेष्ठ ऋत्विज हैं। सुभगे! सूँघने योज्य, पीने योज्य, देखने योज्य, स्पर्श करने योज्य, सुनने, मनन करने तथा समझने योज्य विषय- इन सबके ऊपर तुम सदा दृष्टिपात करो (इनमें हविष्य बुद्धि करो)।"

    5.6 पूर्वोक्त सात होता उक्त सात हविष्यों का सात रूपों में विभक्त हुए वैश्वानर में भली-भाँति हवन करके (अर्थात विषयों की ओर से आसक्ति हटाकर) विद्वान पुरुष अपने तन्मात्रा आदि योनियों में शब्दादि विषयों को उत्पन्न करते हैं। पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, तेज, मन और बुद्धि- ये सात योनि कहलाते हैं। इनके जो समस्त गुण हैं, वे हविष्य रूप हैं। "

    5.7 जो अग्रिजनित गुण (बुद्धिवृत्ति) में प्रवेश करते हैं। वे अन्त: करण में संस्कार रूप से रहकर अपनी योनियों में जन्म लेते हैं। वे प्रलय काल में अन्त:करण में ही अवरुद्ध रहते और भूतों की सृष्टि के समय वहीं से प्रकट होते हैं। वहीं से गन्ध और वहीं से रस की उत्पत्ति होती है। वहीं से रूप, स्पर्श और शब्द का प्राकट्य होता है। संशय का जन्म भी वहीं होता है और निश्चयात्म का बुद्धि भी वहीं पैदा होती है। "

    5.8 यह सात प्रकार का जन्म माना गया है। असी प्रकार से पुरातन ऋषियों ने श्रुति के अनुसार घ्राण आदि का रूप ग्रहण किया है। ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय- इन तीन आहुतियों से समस्त लोक परिपूर्ण हैं। वे सभी लोक आत्मज्योति से परिपूर्ण होते हैं।’"

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    अध्याय 6

    6.1 दस होताओं से सम्पन्न होने वाले यज्ञ का वर्णन तथा मन और वाणी की श्रेष्ठता का प्रतिपादन---

    ब्राह्मण कहते हैं- प्रिये! इस विषय में विद्वान पुरुष इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। दस होता मिलकर जिस प्रकार यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं, वह सुनो। भामिनि! कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा (वाक् और रसना), नासिका, हाथ, पैर, उपस्थ और गुदा- ये दस होता है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, वाणी, क्रिया, गति, वीर्य, मूत्र का त्याग और मल त्याग- ये दस विषय ही दस हविष्य हैं।"

    6.2 भामिनि! दिशा, वायु, सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी, अग्नि, विष्णु, इन्द्र, प्रजापति और मित्र- ये दस देवता अग्नि हैं। भाविनि! दस इन्द्रियरूपी होता दस देवतारूपी अग्नि में दस विषयरूपी हविष्य एवं समिधाओं का हवन करते हैं (इस प्रकार मेरे अन्तर में निरन्तर यज्ञ हो रहा है, फिर मैं अकर्मण्य कैसे हूँ?)। इस यज्ञ में चित्त ही स्त्रुवा पवित्र एवं उत्तम ज्ञान ही धन है। यह सम्पूर्ण जगत पहले भली-भाँति विभक्त था, ऐसा सुना गया हैं। जानने में आने वाला यह सारा जगत चित्तरूप ही है, वह ज्ञान की अर्थात प्रकाश की अपेक्षा रखता है तथा वीर्यजनित शरीर समुदाय में रहने वाला शरीरधारी जीव उसको जानने वाला है। वह शरीर का अभिमानी जीव गार्हपत्य अग्नि है। उससे जो दूसरा पावक प्रकट होता है, वह मन है। मन आहवनीय अग्नि है। उसी में पूर्वोक्त हविष्य की आहुति दी जाती है। उससे वाचस्पति (वेदवाणी) का प्राकट्य होता है। उसे मन देखता है। मन के अनन्तर रूप का प्रादुर्भाव होता है, जो नील, पीत आदि वर्णों से रहित होता है। वह रूप मन की ओर दौड़ता है।"

    6.3 ब्राह्मणी बोली- प्रियतम! किस कारण से वाक की उत्पत्ति पहले हुई और क्यों मन पीछे हुआ? जबकि मन से सोचे-विचारे वचन को ही व्यहार में लाया जाता है। किस विज्ञान के प्रभाव से मति चित्त के आश्रित होती है? वह ऊँचे उठायी जाने पर विषयों की ओर क्यों नहीं जाती? कौन उसके मार्ग में बाधा डालता है?"

    6.4 ब्राह्मण ने कहा- प्रिये! अपान पति रूप होकर उस मति को अपान भाव की ओर ले जाता है। वह अपान भाव की प्राप्ति मन की गति बतायी गयी है, इसलिये मन उसकी अपेक्षा रखता है। परंतु तुम मुझ से वाणी और मन के विषय में ही प्रश्न करती हो, इसलिये मैं तुम्हें उन्हीं दोनों का संवाद बताऊँगा। मन और वाणी दोनों ने जीवात्मा के पास जाकर पूछा- ‘प्रभो! हम दोनों में कौन श्रेष्ठ है? यह बताओ और हमारे संदेह का निवारण करो’। तब भगवान आत्मदेव ने कहा- ‘मन ही श्रेष्ठ है।’ यह सुनकर सरस्वती बोलीं- ‘मैं ही तुम्हारे लिये कामधेनु बनकर सब कुछ देती हूँ।’ इस प्रकार वाणी ने स्वयं ही अपनी श्रेष्ठता बतायी। ब्राह्मण देवता कहते हैं- प्रिये! स्थावर और जंगम ये दोनों मेरे मन हैं। स्थावर अर्थात बाह्य इन्द्रियों से गृहित होने वाला जो यह जगत है, वह मेरे समीप है और जंगम अर्थात इन्द्रियातीत जो स्वर्ग आदि है, वह तुम्हारे अधिकार में है।"

    6.5 जो मंत्र, वर्ण अथवा स्वर उस अलौकिक विषय को प्रकाशित करता है, उसका अनुसरण करने वाला मन भी यद्यपि जंगम नाम धारण करता है तथापि वाणी स्वरूपा तुम्हारे द्वारा ही मन का उस अतीन्द्रिय जगत मे प्रवेश होता है। इसलिये तुम मन से भी श्रेष्ठ एवं गौरवशालिनी हो। क्योंकि शोभामयी सरस्वती! तुमने स्वयं ही पास आकर समाधान अर्थात अपने पक्ष की पुष्टि की है। इससे मैं उच्छ्वास लेकर कुछ कहूँगा। महाभागे! प्राण और अपान के बीच में देवी सरस्वती सदा विद्यमान रहती हैं। वह प्राण की सहायता के बिना जब निम्नतम दशा को प्राप्त होने लगी, तब दौड़ी हुई प्रजापति के पास गयी और बोली- ‘भगवन! प्रसन्न होइये’। तब वाणी को पुष्ट-सा करता हुआ पुन: प्राण प्रकट हुआ। इसलिये उच्छ्वास लेते समय वाणी कभी कोई शब्द नहीं बोलती है।"

    6.6 वाणी दो प्रकार की होती है- एक घोष युक्त (स्पष्ट सुनायी देने वाली) और दूसरी घोष रहित, जो सदा सभी अवस्थाओं में विद्यमान रहती है। इन दोनों में घोषयुक्त वाणी की अपेक्षा घोष रहित ही श्रेष्ठतम है। (क्योंकि घोषयुक्त वाणी को प्राणशक्ति की अपेक्षा रहती है और घोषरहित उसकी अपेक्षा के बिना भी स्वभावत: उच्चरित होती रहती है)। शुचिस्मिते! घोषयुक्त (वैदिक) वाणी भी उत्तम गुणों से सुशोभित होती है। वह दूध देने वाली गाय की भाँति मनुष्यों के लिये सदा उत्तम रस झरती एवं मनोवांछित पदार्थ उत्पन्न करती है और ब्रह्म का प्रतिपादन करने वाली उपनिषद वाणी (शाश्वत ब्रह्म) का बोध करने वाली है। इस प्रकार वाणीरूपी गौ दिव्य और अदिव्य प्रभाव से युक्त है। दोनों ही सूक्ष्म हैं और अभीष्ट पदार्थ का प्रस्रव करने वाली हैं। इन दोनों में क्या अन्तर है, इसको स्वयं देखो।"

    6.7 ब्राह्मणी ने पूछा- नाथ! जब वाक्य उत्पन्न नहीं हुए थे, उस समय कुछ कहने की इच्छा से प्रेरित की हुई सरस्वती देवी ने पहले क्या कहा था?"

    6.8 ब्राह्मण ने कहा- प्रिये! वह वाक् प्राण के द्वारा शरीर में प्रकट होती है, फिर प्राण से अपान भाव को प्राप्त होती है। तत्पश्चात उदान स्वरूप होकर शरीर को छोड़कर व्यान रूप से सम्पूर्ण आकाश को व्याप्त कर लेती है। तदनन्तर समान वायु में प्रतिष्ठित होती है। इस प्रकार वाणी ने पहले अपनी उत्पत्ति का प्रकार बताया था।[1 इसलिये स्थावर होने के कारण मन श्रेष्ठ है और जंगम होने के कारण वाग्देवी श्रेष्ठ हैं।"

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    अध्याय 7

    7.1 मन-बुद्धि और इन्द्रिय रूप सप्त होताओं का, यज्ञ तथा मन-इन्द्रिय संवाद का वर्णन---

    ब्राह्मण ने कहा- सुभगे! इसी विषय में इस पुरातन इतिहास का भी उदाहरण दिया जाता है। सात होताओं के यज्ञ का जैसा विधान है, उसे सुनो। नासिका, नेत्र, जिह्वा, त्वचा और पाँचवाँ कान, मन और बुद्धि- ये सात होता अलग-अलग रहते हैं। यद्यपि ये सभी सूक्ष्म शरीर में ही निवास करते हैं तो भी एक दूसरे को नहीं देखते हैं। शोभने! इन सात होताओं को तुम स्वभाव से ही पहचानों।"

    7.2 Tब्राह्मणी ने पूछा- भगवन! जब सभी सूक्ष्म शरीर में ही रहते हैं, तब एक दूसरे को देख क्यों नहीं पाते? प्रभो! उनके स्वभाव कैसे हैं? यह बताने की कृपा करें।"

    7.3 ब्राह्मण ने कहा- प्रिये! (यहाँ देखने का अर्थ है, जानना) गुणों को न जानना ही गणुवान को न जानना कहलाता है और गुणों को जानना ही गुणवान को जानना है। ये नासिका आदि सात होता एक दूसरे के गुणों को कभी नहीं जान पाते हैं (इसीलिये कहा गया है कि ये एक दूसरे को नहीं देखते हैं)। जीभ, आँख, कान, त्वचा, मन और बुद्धि- ये गन्धों को नहीं समझ पाते, किंतु नासिका उसका अनुभव करती है। नासिका, कान, नेत्र, त्वचा, मन और बुद्धि- ये रसों का आस्वादन नहीं कर सकते। केवल जिह्वा उसका स्वाद ले सकती है। नासिका, जीभ, कान, त्वचा, मन और बुद्धि- ये रूप का ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकते, किंतु नेत्र इनका अनुभव करते हैं। नासिका, जीभ, आँख, कान, बुद्धि और मन- ये स्पर्श का अनुभव नहीं कर सकते, किंतु त्वचा को उसका ज्ञान होता है। नासिका, जीभ, आँख, त्वचा, मन और बुद्धि- इन्हें शब्द का ज्ञान नहीं होता है, किंतु कान को होता है। नासिका, जीभ, आँख, त्वचा, कान और बुद्धि- ये संशय (संकल्प-विकल्प) नहीं कर सकते। यह काम मन का है।"

    7.4 इसी प्रकार नासिका, जीभ, आँख, त्वचा, कान, और मन- वे किसी बात का निश्चय नहीं कर सकते। निश्चयात्मक ज्ञान तो केवल बुद्धि को होता है। भामिनि! इस विषय में इन्द्रियों और मन के संवाद रूप एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। एक बार मन ने इन्द्रियों से कहा- 'मेरी सहायता के बिना नासिका सूँघ नहीं सकती, जीभ रस का स्वाद नहीं ले सकती, आँख रूप नहीं देख सकती, त्वचा स्पर्श का अनुभव नहीं कर सकती और कानों को शब्द नहीं सुनायी दे सकता। इसलिये मैं सब भूतों में श्रेष्ठ और सनातन हूँ। मेरे बिना समस्त इन्द्रियाँ बुझी लपटों वाली आग और सूने घर की भाँति सदा श्रीहीन जान पड़ती हैं।'"

    7.5 संसार के सभी जीव इन्द्रियों के यत्न करते रहने पर भी मेरे बिना उसी प्रकार विषयों का अनुभव नहीं कर सकते, जिस प्रकार कि सूखे गीले काष्ठ कोई अनुभव नहीं कर सकते।' यह सुनकर इन्द्रियों ने कहा- 'महोदय! यदि आप भी हमारी सहायता लिये बिना ही विषयों का अनुभव कर सकते तो हम आपकी इस बात को सच मान लेतीं। हमारा लय हो जाने पर भी आप तृप्त रह सकें, जीवन धारण कर सकें और सब प्रकार के भोग भोग सकें तो आप जैसा कहते और मानते हैं, वह सब सत्य हो सकता है। अथवा हम सब इन्द्रियाँ जीन हो जायँ या विषयों में स्थित रहें, यदि आप अपने संकल्प मात्र से विषयों का यथार्थ अनुभव करने की शक्ति रखते हैं और आपको ऐसा करने में सदा ही सफलता प्राप्त होती है तो जरा नाक के द्वारा रूप का तो अनुभव कीजिये, आँख से रस का तो स्वाद लीजिये और कान के द्वारा गन्धों को तो ग्रहण कीजिये।"

    7.6 इसी प्रकार अपनी शक्ति से जिह्वा के द्वारा स्पर्श का, त्वचा के द्वारा शब्द का और बुद्धि के द्वारा स्पर्श का तो अनुभव कीजिये। आप जैसे बलवान लोग नियमों के बन्धन में नहीं रहते, नियम तो दुर्बलों के लिये होते हैं। आप नये ढंग से नवीन भोगों का अनुभव कीजिये। हम लोगों की जूठन खाना आपको शोभा नहीं देता।"

    7.7 जैसे शिष्य श्रुति के अर्थ को जानने के लिये उपदेश करने वाले गुरु के पास जाता है और उनसे श्रुति के अर्थ का ज्ञान प्राप्त करके फिर स्वयं उसका विचार और अनुसरण करता है, वैसे ही आप सोते और जागते समय हमारे ही दिखाये हुए भूत और भविष्य विषयों का उपभोग करते हैं।"

    7.8 जो मनरहित मन्दबुद्धि प्राणी हैं, उनमें भी हमारे लिये ही कार्य किये जाने पर प्राण धारण देखा जाता है। बहुत से संकल्पों का मनन और स्वप्नों का आश्रय लेकर भोग भोगने की इच्छा से पीड़ित हुआ प्राणी विषयों की ओर ही दौड़ता है। विषय वासना से अनुविद्ध संकल्पजनित भोगों का उपभोग करके प्राणशक्ति के क्षीण होने पर मनुष्य बिना दरवाजे के घर में घुसे हुए मनुष्य की भाँति उसी तरह शान्त हो जाता है, जैसे समिधाओं के जल जाने पर प्रज्वलित अग्नि स्वयं ही बुझ जाती है।"

    7.9 भले ही हम लोगों की अपने-अपने गुणों के प्रति आसक्ति हो और भले ही हम परस्पर एक दूसरे के गुणों को न जान सकें, किंतु यह बात सत्य है कि आप हमारी सहायता के बिना किसी भी विषय का अनुभव नहीं कर सकते। आपके बिना तो हमें केवल हर्ष से ही वंचित होना पड़ता है।'"

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    अध्याय 8

    8.1 प्राण, अपान आदि का संवाद और ब्रह्मा जी का सबकी श्रेष्ठता बतलाना---

    ब्राह्मण ने कहा- प्रिये! अब पंचहोताओं के यज्ञ का जैसा विधान है, उसके विषय में एक प्राचीन दृष्टान्त बतलाया जाता है। प्राण, अपान, उदान, समान और व्यान- ये पाँचों प्राण पाँच होता है। विद्वान पुरुष इन्हें सबसे श्रेष्ठ मानते हैं।"

    8.2 ब्राह्मणी बोली- नाथ! पहले तो मैं समझती थी कि स्वाभावत: सात होता है, किंतु अब आपके मुँह से पाँच होताओं की बात मालूम हुई। अत: ये पाँचों होता किस प्रकार हैं? आप इनकी श्रेष्ठता का वर्णन कीजिये।"

    8.3 ब्राह्मण ने कहा- प्रिये! वायु प्राण के द्वारा पुष्ट होकर अपान रूप, अपान के द्वारा पुष्ट होकर व्यान रूप, व्यान से पुष्ट होकर उदान रूप, उदान से परिपुष्ट होकर समान रूप होता है। एक बार इन पाँचों वायुओं ने सबके पूर्वज पितामह ब्रह्मा जी से प्रश्न किया- ‘भगवन! हममें जो श्रेष्ठ हो उसका नाम बता दीजिये, वही हम लोगों में प्रधान होगा।' ब्रह्मा जी ने कहा- 'प्राणधारियों के शरीर में स्थित हुए तुम लोगों में से जिसका लय हो जाने पर सभी प्राण लीन हो जायँ और जिसके संचरित होने पर सब के सब संचार करने लगें, वही श्रेष्ठ है। अब तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, जाओ।' यह सुनकर प्राणवायु ने अपान आदि से कहा- 'मेरे लीन होने पर प्राणियों के शरीर में स्थित सभी प्राण लीन हो जाते हैं तथा मेरे संचरित होने पर सब के सब संचार करने लगते हैं, इसलिये मैं ही सबसे श्रेष्ठ हूँ। देखा, अब मैं लीन हो रहा हूँ (फिर तुम्हारा भी लय हो जायगा)।'"

    8.4 ब्राह्मण कहते हैं- शुभे! यों कहकर प्राणवायु थोड़ी देर के लिये छिप गया और उसके बाद फिर चलने लगा। तब समान और उदानवायु उससे पुन: बोले- ‘प्राण! जैसे हम लोग इस शरीर में व्याप्त हैं, उस तरह तुम इस शरीर में व्याप्त होकर नहीं रहते। इसलिये तुम हम लोगों से श्रेष्ठ नहीं हो। केवल अपान तुम्हारे वश में है (अत: तुम्हारे लय होने से हमारी कोई हानि नहीं हो सकती)। तब प्राण पुन: पूर्ववत चलने लगा। तदनन्तर अपान बोला। अपान ने कहा- 'मेरे लीन होने पर प्राणियों के शरीर में स्थित सभी प्राण लीन हो जाते हैं तथा मेरे संचरित होने पर सब के सब संचार करने लगते हैं। इसलिये मैं ही सबसे श्रेष्ठ हूँ। देखो, अब मैं लीन हो रहा हूँ (फिर तुम्हारा भी लय हो जायग)।'"

    8.5 ब्राह्मण कहते हैं- तब व्यान, और उदान ने पूर्वोक्त बात कहने वाले अपान से कहा- ‘अपान! केवल प्राण तुम्हारे अधीन है, इसलिये तुम हमसे श्रेष्ठ नहीं हो सकते।’ यह सुनकर अपान भी पूर्ववत चलने लगा। तब व्यान ने उससे फिर कहा- ‘मैं ही सबसे श्रेष्ठ हूँ। मेरी श्रेष्ठता का कारण क्या है। वह सुनो। मेरे लीन होने पर प्राणियों के शरीर में स्थित सभी प्राण लीन हो जाते हैं तथा मेरे संचरित होने पर सब के सब संचार करने लगते हैं। "

    8.6 इसलिये मैं ही सबसे श्रेष्ठ हूँ। देखो, अब मैं लीन हो रहा हूँ (फिर तुम्हारा भी लय हो जायगा)।' ब्राह्मण कहते हैं- तब व्यान कुछ देर के लिये लीन हो गया, फिर चलने लगा। उस समय प्राण, अपान, उदान और समान ने उससे कहा- ‘व्यान! तुम हमसे श्रेष्ठ नहीं हो, केवल समान वायु तुम्हारे वश में है।’"

    8.7 ह सुनकर व्यान पूर्ववत चलने लगा। तब समान ने पुन: कहा- ‘मैं जिस कारण से सबमें श्रेष्ठ हूँ, वह बताता हूँ सुनो। मेरे लीन होने पर प्राणियों के शरीर में स्थित सभी प्राण लीन हो जाते हैं तथा मेरे संचरित होने पर सब के सब संचार करने लगते हैं। इसलिये मैं ही सबसे श्रेष्ठ हूँ। देखो, अब मैं लीन हो रहा ह (फिर तुम्हारा भी लय हो जाएगा)।'"

    8.8 ब्राह्मण कहते हैं- यह कहकर समान कुछ देर के लिये लीन हो गया और पुन: पूर्ववत् चलने लगा। उस समय प्राण, अपान, व्यान और उदान ने उससे कहा- ‘समान! तुम हम लोगों से श्रेष्ठ नहीं हो, केवल व्यान ही तुम्हारे वश में है।’ यह सुनकर समान पूवर्वत चलने लगा। तब उदान ने उससे कहा- ‘मैं ही सबसे श्रेष्ठ हूँ, इसका क्या कारण है? यह सुनो। मेरे लीन होने पर प्राणियों के शरीर में स्थित सभी प्राण लीन हो जाते हैं तथा मेरे संचरित होने पर सब के सब संचार करने लगते हैं। इसलिये मैं ही सबसे श्रेष्ठ हूँ। देखो, अब मैं लीन हो रहा ह (फिर तुम्हारा भी लय हो जाएगा)।' यह सुनकर उदान कुछ देर के लिये लीन हो गया और पुन: चलने लगा। तब प्राण, अपान, समान और व्यान ने उससे कहा- ‘उदान! तुम हम लोगों से श्रेष्ठ नहीं हो। केवल व्यान ही तुम्हारे वश में है।’"

    8.9 ब्राह्मण कहते हैं- तदनन्तर वे सभी प्राण ब्रह्मा जी के पास एकत्र हुए। उस समय उन सबसे प्रजापति ब्रह्मा ने कहा- ‘वायुगण! तुम सभी श्रेष्ठ हो। अथवा तुम में से कोई भी श्रेष्ठ नहीं है। तुम सबका धारण रूप धर्म एक दूसरे पर अवलम्बित है। सभी अपने अपने स्थान पर श्रेष्ठ हो और सबका धर्म एक दूसरे पर अवलम्बित है।’ "

    8.10 इस प्रकार वहाँ एकत्र हुए सब प्राणों से प्रजापति ने फिर कहा- ‘एक ही वायु स्थिर और अस्थिर रूप से विराजमान है। उसी के विशेष भेद से पाँच वायु होते हैं। इस तरह एक ही मेरा आत्मा अनेक रूपों में वृद्धि को प्राप्त होता है।"

    8.11 तुम्हारा कल्याण हो। तुम कुशलपूर्वक जाओ और एक दूसरे के हितैषी रहकर परस्पर की उन्नती में सहायता पहुँचाते हुए एक दूसरे को धारण किये रहो।’"

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    अध्याय 9

    9.1 देवर्षि नारद और देवमत का संवाद एवं उदान के उत्कृष्ट रूप का वर्णन---

    ब्राह्मण ने कहा- प्रिये! इस विषय में देवर्षि नारद और देवमत के संवाद रूप प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं।

    9.2 देवमत ने पूछा- देवर्षे! जब जीव जन्म लेता है, उस समय सबसे पहले उसके शरीर में किसकी प्रवृत्ति होती है? प्राण, अपान, समान, व्यान अथवा उदान की? नारद जी ने कहा- मुने जिस निमित्त कारण से इस जीव की उत्पत्ति होती है, उससे भिन्न दूसरा पदार्थ भी पहले कारण रूप से उपस्थित होता है। वह है प्राणों द्वन्द्व। जो ऊपर (देवलोक), तिर्यक (मनुष्यलोक) और अधोलोक (पशु आदि) में व्याप्त है, ऐसा समझना चाहिये।

    9.3 देवमत ने पूछा- नारद जी! किस निमित्त कारण से इस जीव की सृष्टि होती है? दूसरा कौन पहले कारण रूप से उपस्थित होता है तथा प्राणों द्वन्द्व क्या है, जो ऊपर, मध्य में और नीचे व्याप्त है? नारद जी ने कहा- मुने! संकल्प से हर्ष उत्पन्न होता है, मनोनुकूल शब्द से, रस से और रूप से भी हर्ष की उत्पत्ति होती है। रज में मिले हुए वीर्य से पहले प्राण आकर उस में कार्य आरम्भ करता है। उस प्राण से वीर्य में विकार उत्पन्न होने पर फिर अपान की प्रवृत्ति होती है। शुक्र से और रस से भी हर्ष की उत्पत्ति होती है, यह हर्ष ही उदान का रूप है। उक्त कारण और कार्य रूप जो मिथुन है, उन दोनों के बीच में हर्ष व्याप्त होकर स्थित है। प्रवृत्ति के मूलभूत काम से वीर्य उत्पन्न होता है। उससे रज की उत्पत्ति होती है। ये दोनों वीर्य और रज समान और व्यान से उत्पन्न होते हैं। इसलिये सामान्य कहलाते हैं।

    9.4 प्राण और अपान- ये दोनों भी द्वन्द्व हैं। ये नीचे और ऊपर को जाते हैं। व्यान और समान- ये दोनों मध्यगामी द्वन्द्व कहे जाते हैं। अग्नि अर्थात परमात्मा ही सम्पूर्ण देवता हैं। यह वेद उन परमेश्वर की आज्ञा रूप है। उस वेद से ही ब्राह्मण में बुद्धियुक्त ज्ञान उत्पन्न होता है। उस अग्नि का धुआँ तमोमय और भस्म रजोमय है। जिसके निमित्त हविष्य की आहुति दी जाती है, उस अग्नि से (प्रकाश स्वरूप परमेश्वर से) यह सारा जगत उत्पन्न होता है। यज्ञवेत्ता पुरुष यह जानते हैं कि सत्त्वगुण से समान और व्यान की उत्पत्ति होती है। प्राण और अपान आज्यभाग नामक दो आहुतियों के समान हैं। उनके मध्य भाग में अग्नि की स्थिति है। यही उदान का उत्कृष्ट रूप है, जिसे ब्राह्मण लोग जानते हैं। जो निर्द्वन्द्व कहा गया है, उसे भी बताता हूँ, तुम मेरे मुख से सुनो। ये दिन और रात द्वन्द्व हैं, इनके मध्य भाग में अग्नि हैं। ब्राह्मण लोग इसी को उदान का उत्कृष्ट रूप मानते हैं।

    9.5 सत और असत- ये दोनों द्वन्द्व हैं तथा इनके मध्य भाग में अग्नि हैं। ब्राह्मण लोग इसे उदान का परम उत्कृष्ट रूप मानते हैं। ऊर्ध्व अर्थात ब्रह्म जिस संकल्प नामक हेतु से समान और व्यान रूप होता है, उसी से कर्म का विस्तार होता है। अत: संकल्प को रोकना चाहिये। जाग्रत और स्वप्न के अतिरिक्त जो तीसरी अवस्था है, उससे उपलक्षित ब्रह्म का समान के द्वारा ही निश्चय होता है। एक मात्र व्यान शान्ति के लिये है। शान्ति सनातन ब्रह्म है। ब्राह्मण लोग इसी को उदान का परम उत्कृष्ट रूप मानते हैं।

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    अध्याय 10

    10.1 चातुहोम यज्ञ का वर्णन---

    ब्राह्मण ने कहा- प्रिये! इसी विषय में चार होताओं से युक्त यज्ञ का जैसा विधान है, उसको बताने वाले इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। भद्रे! उस सबके विधि विधान का उपदेश किया जाता है। तुम मेरे मुख से इस अद्भुत रहस्य को सुनो। भाविनि! करण, कर्म, कर्ता और मोक्ष- ये चार होता है, जिनके द्वारा यह सम्पूर्ण जगत आवृत है। इनके जो हेतु हैं, उन्हें युक्तियों द्वारा सिद्ध किया जाता है। वह सब पूर्णरूप से सुनो। घ्राण (नासिका), जिह्वा, नेत्र, त्वचा, पाँचवाँ कान तथा मन और बुद्धि- ये सात कारण रूप हेतु गुणमय जानने चाहिये। गन्ध, रस, रूप, शब्द, पाँचवाँ स्पर्श तथा मन्तव्य और बोद्धव्य- ये सात विषय कर्मरूप हेतु हैं। सूँघने वाला, खाने वाला, देखने वाला, बोलने वाला, पाँचवाँ सुनने वाला तथा मनन करने वाला और निश्चयात्मक बोध प्राप्त करने वाला- ये सात कर्तारूप हेतु हैं। ये प्राण आदि इन्द्रियाँ गुणवान हैं

    10.2 अत: अपने शुभाशुभ विषयों रूप गुणों का उपभोग करती हैं। मैं निर्गुण और अनन्त हूँ, (इनसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है, यह समझ लेेने पर) ये सातों- घ्राण आदि मोक्ष के हेतु होते हैं। विभिन्न विषयों का अनुभव करने वाले विद्वानों के घ्राण आदि अपने अपने स्थान को विधिपूर्वक जानते हैं और देवता रूप होकर सदा हविष्य का भोग करते हैं। अज्ञानी पुरुष अन्न भोजन करते समय उसके प्रति ममत्व से युक्त हो जाता है। इसी प्रकार जो अपने लिये भोजन पकाता है, वह भी ममत्व दोष से मारा जाता हैं। वह अभक्ष्य भक्षण और मद्यपान जैसे दुर्व्यसनों को भी अपना लेता है, जो उसके लिये घातक होते हैं। वह भक्षण के द्वारा उस अन्न की हत्या करता है और उसकी हत्या करके वह स्वयं भी उसके द्वारा मारा जाता है। जो विद्वान इस अन्न को खाता है, अर्थात अन्न से उपलक्षित समसत प्रपंच को अपने आप में लीन कर देता है, वह ईश्वर सर्व समर्थ होकर पुन: अन्न आदि का जनक होता है। उस अन्न से उस विद्वान पुरुष में कोई सूक्ष्म से सूक्ष्म दोष भी नहीं उत्पन्न होता।

    10.3 जो मन से अवगत होता है, वाणी द्वारा जिसका कथन होता है, जिसे कान से सुना और आँख से देखा जाता है, जिसको त्वचा से छूआ और नासिका से सूँघा जाता है। इन मन्तव्य आदि छहों विषयरूपी हविष्यों का मन आदि छाहों इन्द्रियों के संयमपूर्वक अपने आप में होम करना चाहिये। उस होम के अधिष्ठानभूत गुणवान पावकरूप परमात्म का मेरे तन मन के भीतर प्रकाशित हो रहे हैं। मैंने योगरूपी यज्ञ का अनुष्ठान आरम्भ कर दिया है। इस यज्ञ का उद्भव ज्ञानरूपी अग्नि को प्रकाशित करने वाला है। इसमें प्राण ही स्तोत्र है, अपान शस्त्र है और सर्वस्व का त्याग ही उत्तम दक्षिणा है। कर्ता (अंहकार), अनुमन्ता (मन) और आत्मा (बुद्धि)- ये तीनों ब्रह्मरूप होकर क्रमश: होता, अध्वर्यु और उद्गाता हैं। सत्यभाषण ही प्रशास्ता का शस्त्र है और अपवर्ग (मोक्ष) ही उस यज्ञ की दक्षिणा है।

    10.4 नारायण को जानने वाले पुरुष इस योग यज्ञ के प्रमाण में ऋचाओं का भी उल्लेख करते हैं। पूर्वकाल में भगवान नारायण देव की प्राप्ति के लिये भक्त पुरुषों ने इन्द्रियरूपी पशुओं को अपने अधीन किया था।

    10.5 भगवत्प्राप्ति हो जाने पर परमानन्द से परिपूर्ण हुए सिद्ध पुरुष जो समागान करते हैं, उसका दृष्टान्त तैत्तिरीय उपनिषद के विद्वान ‘एतत् सामगायन्नास्ते’ इत्यादि मंत्रों के रूप में उपस्थित करते हैं। भीरू! तुम उस सर्वात्मा भगवान नारायण देव का ज्ञान प्राप्त करो।

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    अध्याय 11

    11.1 अन्तर्यामी की प्रधानता---

    ब्राह्मण ने कहा- प्रिये! जगत का शासक एक ही है, दूसरा नहीं। जो हृदय के भीतर विराजमान है, उस परमात्मा को ही मैं सबका शासक बतला रहा हूँ। जैसे पानी ढालू स्थान से नीचे की ओर प्रवाहित होता है, वैसे ही उस- परमात्मा की प्रेरणा से मैं जिस तरह के कार्य में नियुक्त होता हूँ, उसी का पालन करता रहता हूँ। एक ही गुरु है दूसरा नहीं। जो हृदय में स्थित है, उस परमात्मा को ही मैं गुरु बतला रहा हूँ। उसी गुरु के अनुशासन से समस्त दानव हार गये हैं। एक ही बन्धु है, उससे भिन्न दूसरा कोई बन्धु नहीं है। जो हृदय में स्थित है, उस परमात्मा को ही मैं बन्धु कहता हूँ। उसी के उपदेश से बान्धवगण बन्धुमान होते हैं और सप्तर्षि लोग आकाश में प्रकाशित होते हैं।

    11.2 एक ही श्रोता है, दूसरा नहीं। जो हृदय मे स्थित परमात्मा है, उसी को मैं श्रोता कहता हूँ। इन्द्र ने उसी को गुरु मान कर गुरुकुलवास का नियम पूरा किया अर्थात शिष्य भाव से वे उस अन्तर्यामी की ही शरण में गये। इससे उन्हें सम्पूर्ण लोकों का साम्राज्य और अमरत्व प्राप्त हुआ। एक ही शत्रु है दूसरा नहीं। जो हृदय में स्थित है, उस परमात्मा को ही मैं गुरु बतला रहा हूँ। उसी गुरु की प्रेरणा से जगत के सारे साँप सदा द्वेषभाव से युक्त रहते हैं। पूर्वकाल में सर्पों, देवताओं और ऋषियों की प्रजापति के साथ जो बात चीत हुई थी, उस प्राचीन इतिहास के जानकार लोग उस विषय में उदाहरण दिया करते हैं। एक बाद देवता, ऋषि, नाग और असुरों ने प्रजापति के पास बैठकर पूछा- ‘भगवन! हमारे कलयाण का क्या उपाय है? यह बताइये।’ कल्याण की बात पूछने वाले उन महानुभावों का प्रश्न सुनकर भगवान प्रजापति ब्रह्मा जी ने एकाक्षर ब्रह्म- ॐकार का उच्चारण किया। उनका प्रणवनाद सुनकर सब लोग अपनी अपनी दिशा (अपने अपने स्थान) की ओर भाग चले।

    11.3 फिर उन्होंने उस उपदेश के अर्थ पर जब विचार किया, तब सबसे पहले सर्पों के मन दूसरों के डँसने का भाव पैदा हुआ, असुरों में स्वाभाविक दम्भ का आविर्भाव हुआ था देवताओं ने दान को और महर्षियों ने दम को ही अपना ने का निश्चय किया। इस प्रकार सर्प, देवता, ऋषि और दानव- ये सब एक ही उपदेशक गुरु के पास गये थे और एक ही शब्द के उपदेश से उनकी बुद्धि का संस्कार हुआ तो भी उनके मन में भिन्न भिन्न प्रकार के भाव उत्पन्न हो गये। श्रोता गुरु के कहे हुए उपदेश को सुनता है और उसको जैसे जैसे (भिन्न भिन्न रूप में) ग्रहण करता है। अत: प्रश्न पूछने वाले शिष्य के लिये अपने अन्तर्यामी से बढ़कर दूसरा कोई गुरु नहीं है। पहले वह कर्म का अनुमोदन करता है, उसके बाद जीव की उस कर्म में प्रवृत्ति होती है। इस प्रकार हृदय में प्रकट होने वाला परमात्मा ही गुरु, ज्ञानी, श्रोता और द्वेष्टा है। संसार में जो पाप करते हुए विचरता है, वह पापाचारी और जो शुभ कर्मों का आचरण करता है, वह शुभाचारी कहलाता है। इसी तरह कामनाओं के द्वारा इन्द्रिय सुख में परायण मनुष्य कामचारी और इन्द्रिय संयम में प्रवृत्त रहने वाला पुरुष सदा ही ब्रह्मचारी है।

    11.4 जो व्रत और कर्मों का त्याग करके केवल ब्रह्म में स्थित है, वह ब्रह्म स्वयं होकर संसार में विचरता रहता है, वही मुख्य ब्रह्मचारी है। ब्रह्म की उसकी समिधा है, ब्रह्म ही अग्नि है, ब्रह्म से ही वह उत्पन्न हुआ है, ब्रह्म ही उसका जल और ब्रह्म ही गुरु है।

    11.5 उसकी चित्तवृतियाँ सदा ब्रह्म में ही लीन रहती हैं। विद्वानों ने इसी को सूक्ष्म ब्रह्मचर्य बतलाया है। तत्त्वदर्शी का उपदेश पाकर प्रबुद्ध हुए आत्मज्ञानी पुरुष इस ब्रह्मचर्य के स्वरूप को जानकर सदा उसका पालन करते रहते हैं।

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    अध्याय 12

    12.1 अध्यात्मविषयक महान् वन का वर्णन---

    ब्राह्मण ने कहा- प्रिये! जहाँ संकल्परूपी डाँस और मच्छरों की अधिकता होती है। शोक और हर्षरूपी गर्मी, सर्दी का कष्ट रहता है, मोहरूपी अन्धकार फैला हुआ है, लोभ तथा व्याधिरूपी सर्प विचरा करते हैं। जहाँ विषयों का ही मार्ग है, जिसे अकेले ही तै करना पड़ता है तथा जहाँ काम और क्रोधरूपी शत्रु डेरा डाले रहते हैं, उस संसाररूपी दुर्गम पथ का उल्लंघन करके अब मैं ब्रह्मरूपी महान वन में प्रवेश कर चुका हूँ।

    12.2 ब्राह्मणी ने पूछा- महाप्राज्ञ! वह वन कहाँ है? उसमें कौन-कौन से वृक्ष, गिरि, पर्वत और नदियाँ हैं तथा वह कितनी दूरी पर है।

    12.3 ब्राह्मण ने कहा- प्रिये! उस वन में न भेद है न अभेद, वह इन दोनों से अतीत है। वहाँ लौकिक सुख और दु:ख दोनों का अभाव है। उससे अधिक छोटी, उससे अधिक बड़ी और उससे अधिक सूख्म भी दूसरी कोई वस्तु नहीं है। उसके समान सुखरूप भी कोई नहीं है। उस वन में प्रवष्टि हो जाने पर द्विजातियों को न हर्ष होता है, न शोक। न तो वे स्वयं किन्हीं प्राणियों से डरते हैं और न उन्हीं से दूसरे कोई प्राणी भय मानते हैं। वहाँ सात बड़े बड़े वृक्ष हैं, सात उन वृक्षों के फल हैं तथा सात ही उन फलों के भोक्ता अतिथि हैं। सात आश्रम हैं। वहाँ सात प्रकार की समाधि और सात प्रकार की दीक्षाएँ हैं। यही उस वन का स्वरूप है। वहाँ के वृक्ष पाँच प्रकार के रंगों के दिव्य पुष्पों और फलों की सृष्टि करते हुए सब ओर से वन को व्याप्त करके स्थित हैं। वहाँ दूसरे वृक्षों ने सुन्दर दो रंग वाले पुष्प और फल उत्पन्न करते हुए उस वन को सब ओर से व्याप्त कर रखा है। तीसरे वृक्ष वहाँ सुगन्धयुक्त दो रंग वाले पुष्प और फल प्रदान करते हुए उस वन को व्याप्त करके स्थित हैं। चौथे वृक्ष सुगन्धयुक्त केवल एक रंग वाले पुष्प और फलों की सृष्टि करते हुए उस वन के सब ओर फैले हैं।

    12.4 वहाँ दो महावृक्ष बहुत से अव्यक्त रंग वाले पुष्प और फलों की रचना करते हुए उस वन को व्याप्त करके स्थित हैं। उस वन में एक ही अग्नि है, जीव शुद्धचेता ब्राह्मण हैं, पाँच इन्द्रियाँ समिधाएँ हैं। उनसे जो मोक्ष प्राप्त होता है, वह सात प्रकार का है। इस यज्ञ की दीक्षा का फल अवश्य होता है। गुण ही फल है। सात अतिथि ही फलों के भोक्ता हैं। वे महर्षिगण इस यज्ञ में आतिथ्य ग्रहण करते हैं और पूजा स्वीकार करते ही उनका लय हो जाता है। तत्पश्चात वह ब्रह्मरूप वन विलक्षण रूप से प्रकाशित होता है। उसमें प्रज्ञारूपी वृक्ष शोभा पाते हैं, मोक्षरूपी फल लगते हैं और शान्तिमयी छाया फैली रहती है। ज्ञान वहाँ का आश्रय स्थान और तृप्ति जल है। उस वन के भीतर आत्मारूपी सूर्य का प्रकाश छाया रहता है। जो श्रेष्ठ पुरुष उस वन का आश्रय लेते हैं, उन्हें फिर कभी भय नहीं होता। वह वन ऊपर नीचे तथा इधर-उधर सब ओर व्याप्त है। उसका कहीं भी अन्त नहीं है।

    12.5 वहाँ सात स्त्रियाँ निवास सकती हैं, जो लज्जा के मारे अपना मुँह नीचे की ओर किये रहती हैं। वे चिन्मय ज्योति से प्रकाशित होती हैं। वे सबकी जननी हैं और वे उस वन में रहने वाली प्रजा से सब प्रकार के उत्तम रस उसी प्रकार ग्रहण करती हैं, जैसे अनित्यता सत्य को ग्रहण करती है। सात सिद्ध सप्तर्षि वसिष्ठ आदि के साथ उसी वन में लीन होते और उसी से उत्पन्न होते हैं। यश, प्रभा, भग (ऐश्वर्य), विजय, सिद्धि (ओज) और तेज- ये सात ज्योतियाँ उपर्युक्त आत्मारूपी सूर्य का ही अनुसरण करती हैं। उस ब्रह्मतत्त्व में ही गिरी, पर्वत, झरने, नदी और सरिताएँ स्थित हैं, जो ब्रह्मजनित जल बहाया करती हैं।

    12.6 नदियों का संगम भी उसी के अत्यन्त गूढ़ हृदयाकाश में संक्षेप से होता है। जहाँ योगरूपी यज्ञ का विस्तार होता रहता है। वही साक्षात पितामह का स्वरूप है। आत्मज्ञान से तृप्त पुरुष उसी को प्राप्त होते हैं। जिनकी आशा क्षीण हो गयी है, जो उत्तम व्रत के पालन की इच्छा रखते हैं। तपस्या से जिनके सारे पाप दग्ध हो गये हैं। वे ही पुरुष अपनी बुद्धि को आत्मनिष्ठ करके परब्रह्म की उपासना करते हैं। विद्या (ज्ञान) के ही प्रभाव से ब्रह्मरूपी वन का स्वरूप समझ में आता है। इस बात को जानने वाले मनुष्य इस वन में प्रवेश करने के उद्देश्य से शम (मनोनिग्रह) की ही प्रशंसा करते हैं, जिससे बुद्धि स्थिर होती है। ब्राह्मण ऐसे गुण वाले इस पवित्र वन को जानते हैं और तत्त्वदर्शी के उपदेश से प्रबुद्ध हुए आत्मज्ञानी पुरुष उस ब्रह्मवन को शास्त्रत: जानकर शम आदि साधनों के अनुष्ठान में लग जाते हैं।

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    अध्याय 13

    13.1 ज्ञानी पुरुष की स्थिति तथा अध्वर्यु और यति का संवाद[1 ब्राह्मण कहते हैं- मैं न तो गन्धों को सूघँता हूँ, न रसों का आस्वादन करता हूँ, न रूप को देखता हूँ, न किसी वस्तु का स्पर्श करता हूँ, न नाना प्रकार के शब्दों को सुनता हूँ और न कोई संकल्प ही करता हूँ। स्वभाव ही अभीष्ट पदार्थों की कामना रखता है, स्वभाव ही सम्पूर्ण द्वेष्य वस्तुओं के प्रति द्वेष करता है। जैसे प्राण और अपान स्वभाव से ही प्राणियों के शरीरों में प्रविष्ट होकर अन्न पाचन आदि का कार्य करते रहते हैं, उसी प्रकार स्वभाव से ही राग और द्वेष की उत्पत्ति होती है। तात्पर्य यह कि बुद्धि आदि इन्द्रियाँ स्वभाव से ही पदार्थों में बर्त रही हैं।

    13.2 इन बाह्य इन्द्रियों और विषयों से भिन्न जो स्वप्न और सुषुप्ति के वासनामय विषय एवं इन्द्रियाँ हैं तथा उनमें भी जो नित्यभाव हैं, उनसे भी विलक्षण जो भूतात्मा है, उसको शरीर के भीतर योगीजन देख पाते हैं। उसी भूतात्मा में स्थित हुआ मैं कहीं किसी तरह भी काम, क्रोध, जरा और मृत्यु से ग्रस्त नहीं होता। मैं सम्पूर्ण कामनाओं में से किसी की कामना नहीं करता। समस्त दोषों से भी कभी द्वेष नहीं करता। जैसे कमल के पत्तों पर जल बिन्दु का लेप नहीं होता, उसी प्रकार मेरे स्वभाव में राग और द्वेष का स्पर्श नहीं है। जिनका स्वभाव बहुत प्रकार का है, उन इन्द्रिय आदि को देखने वाले इस नित्यस्वरूप आत्मा के लिये सब भोग अनित्य हो जाते हैं। अत: वे भोगसमुदाय उस विद्वान को उसी प्रकार कर्मों में लिप्त नहीं कर सकते, जैसे आकाश में सूर्य की किरणों का समुदाय सूर्य को लिप्त नहीं कर सकता। यशस्विनि! इस विषय में अध्वर्यु यति के संवाद रूप प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है, तुम उसे सुनो। किसी यज्ञ कर्म में पशु का प्रोक्षण होता देख वहीं बैठे हुए यति ने अध्वर्यु से उसकी निन्दा करते हुए कहा- ‘यह हिंसा है (अत: इससे पाप होगा)।’

    13.3 अध्वर्यु ने यति को इस प्रकार उत्तर दिया- ‘यह बकरा नष्ट नहीं होगा। यदि ‘पशुर्वै नीयमान:’ इत्यादि श्रुति सत्य है तो यह जीवन कल्याण का ही भागी होगा। इसके शरीर का जो पार्थिव भाग है, वह पृथ्वी में विलीन हो जायगा। इसका जो कुछ भी जलीय भाग हैं, वह जल में प्रविष्ट हो जायगा। नेत्र सूर्य में, कान दिशाओं में और प्राण आकाश में ही लय को प्राप्त होगा। शास्त्र की आज्ञा के अनुसार बर्ताव करने वाले मुझ को कोई दोष नहीं लगेगा।’

    13.4 यति ने कहा- यदि तुम बकरे के प्राणों का वियोग हो जाने पर भी उसका कल्याण ही देखते हो, तब तो यह यज्ञ उस बकरे के लिये ही हो रहा है। तुम्हारा इस यज्ञ से क्या प्रयोजन है? श्रुति कहती है- ‘पशो! इस विषय में तुझे तेरे भाई, पिता, माता और सखा की अनुमति प्राप्त होनी चाहिये।’ इस श्रुति के अनुसार विशेषत: पराधीन हुए इस पशु को ले जाकर इसके पिता माता आदि से अनुमति लो (अन्यथा तुझे हिंसा का दोष अवश्य प्राप्त होगा)।

    13.5 पहले तुम्हें इस पशु के उन सम्बन्धियों से मिलना चाहिये। यदि वे भी ऐसा ही करने की अनुमति दे दें, तब उनका अनुमोदन सुनकर तदनुसार विचार कर सकते हो। तुमने इस छाग की इन्द्रियों उनके कारणों में विलीन कर दिया है। मेरे विचार से अब तो केवल इसका निश्चेष्ट शरीर ही अवशिष्ट रह गया है। यह चेतनाशून्य जड़ शरीर ईंधन ही समान है, उससे हिंसा के प्रायश्चित की इच्छा से यज्ञ करने वालों के लिये ईंधन ही पशु है। वृद्ध पुरुषों का यह उपदेश है कि अहिंसा सब धर्मों में श्रेष्ठ है, जो कार्य हिंसा से रहित हो वही करने योग्य है, यही हमारा मत है। इसके बाद भी यदि मैं कुछ कहूँ तो यही कह सकता हूँ कि सबको यह प्रतिज्ञा कर लेनी चाहिये कि ‘मैं अंहिसा धर्म का पालन करूँगा।’ अन्यथा आपके द्वारा नाना प्रकार के कार्य दोष सम्पादित हो सकते हैं। किसी भी प्राणी की हिंसा न करना ही हमें सदा अच्छा लगता है। हम प्रत्यक्ष फल के साधक हैं, परोक्ष की उपासना नहीं करते हैं।

    13.6 अध्वर्यु ने कहा- यते! यह तो तुम मानते ही हो कि सभी भूतों में प्राण है, तो भी तुम पृथ्वी के गन्ध गुणों का उपभोग करते हो, जलमय रसों को पीते हो, तेज के गुण? रूप का दर्शन करते हो और वायु के गुण स्पर्श को छूते हो, आकाशजनित शब्दों को सुनते हो और मन से मति का मनन करते हो। एक ओर तो तुम किसी प्राणी के प्राण लेने के कार्य से निवृत्त हो और दूसरी ओर हिंसा में लगे हुए हो। द्विजवर! कोई भी चेष्टा हिंसा के बिना नहीं होती। फिर तुम कैसे समझते हो कि तुम्हारे द्वारा अहिंसा का ही पालन हो रहा है?

    13.7 यति ने कहा- आत्मा के रूप हैं- एक अक्षर और दूसरा क्षर। जिसकी सत्ता तीनों कालों में कभी नहीं मिटती वह सत्स्वरूप अक्षर (अविनाशी) कहा गया है तथा जिसका सर्वथा और सभी कालों में अभाव है, वह क्षर कहलाता है। प्राण, जिह्वा, मन और रजोगुण सहित सत्त्वगुण- ये रज अर्थात माया सहित सद्भाव हैं। इन भावों से मुक्त निर्द्वन्द्व, निष्काम, समस्त प्राणियों के प्रति संंभाव रखने वाले, ममता रहित, जितात्मा तथा सब ओर से बन्धन शून्य पुरुष को कभी और कहीं भी भय नहीं होता।

    13.8 Tअध्वर्यु ने कहा- बुद्धिमान में श्रेष्ठ यते! इस जगत में आप जैसे साधु पुरुषों के साथ ही निवास करना उचित है। आपका यह मत सुनकर मेरी बुद्धि में भी ऐसी ही प्रतीति हो रही है। भगवन! विप्रवर! मैं आपकी बुद्धि से ज्ञान सम्पन्न होकर यह बात कह रहा हूँ कि वेद मंत्रों द्वारा निश्चित किये हुए व्रत का ही मैं पालन कर रहा हूँ। अत: इसमें मेरा कोई अपराध नहीं है। ब्राह्मण कहते हैं- प्रिये! अध्वर्यु की दी हुई युक्ति से वह यति चुप हो गया और फिर कुछ नहीं बोला। फिर अध्वर्यु भी मोह रहित होकर उस महायज्ञ में अग्रसर हुआ। इस प्रकार ब्राह्मण मोक्ष का ऐसा ही अत्यन्त सूक्ष्म स्वरूप बताते हैं और तत्त्दर्शी पुरुष के उपदेश के अनुसार उस मोक्ष धर्म को जानकर उसका अनुष्ठान करते हैं।

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    अध्याय 14

    14.1 परशुराम जी के द्वारा क्षत्रिय कुल का संहार---

    ब्राह्मण ने कहा- भामिनि! इस विषय में भी कार्तवीर्य और समुद्र के संवाद रूप का एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। पूर्वकाल में कार्तवीर्य अर्जुन के नाम से प्रसिद्ध एक राजा था, जिसकी एक हजार भुजाएँ थीं। उसने केवल धनुष-बाण की सहायता से समुद्र पर्यन्त पृथ्वी को अपने अधिकार में कर लिया था। सुना जाता है, एक दिन राजा कार्तवीर्य समुद्र के किनारे विचर रहा था। वहाँ उसने अपने बल के घमण्ड में आकर सैकड़ों बाणों की वर्षा से समुद्र को आच्छादित कर दिया। तब समुद्र ने प्रकट होकर उसके आगे मस्तक झुकाया और हाथ जोड़कर कहा- ‘वीरवर! राजसिंह! मुझ पर बाणों की वर्षा न करो। बोलो, तुम्हारी किस आज्ञा का पालन करूँ? शक्तिशाली नरेश्वर! तुम्हारे छोड़े हुए इन महान बाणों से मेरे अन्दर रहने वाले प्राणियों की हत्या हो रही है। उन्हें अभय दान करो।’

    14.2 कार्तवीर्य अर्जुन बोला- समुद्र! यदि कहीं मेरे समान धनुर्धर वीर मौजूद हो, जो युद्ध में मेरा मुकाबला कर सके तो उसका पता बता दो। फिर मैं तुम्हें छोड़कर चला जाऊँगा। समुद्र ने कहा- राजन! यदि तुमने महर्षि जमदग्नि का नाम सुना हो तो उन्हीं के आश्रम पर चले जाओ। उनके पुत्र परशुराम जी तुम्हारा अच्छी तरह सत्कार कर सकते हैं। ब्राह्मण ने कहा- कमल के समान नेत्रों वाली देवी! तदनन्तर राज कार्तवीर्य बड़े क्रोध में भरकर महर्षि जमदग्नि के आश्रम पर परशुराम जी के पास जा पहुँचा और अपने भाई-बन्धुओं के साथ उनके प्रतिकूल बर्ताव करने लगा। उसने अपने अपराधों से महात्मा परशुराम जी को उद्विग्न कर दिया। फिर तो शत्रु सेना को भस्म करने वाला अमित तेजस्वी परशुराम जी का तेज प्रज्वलित हो उठा। उन्होंने अपना फरसा उठाया और हजार भुजाओं वाले उस राजा को अनेक शाखाओं से युक्त वृक्ष की भाँति सहसा काट डाला। उसे मरकर जमीन पर पड़ा देख उसके सभी बन्धु-बान्धव एकत्र हो गये तथा हाथों में तलवार और शक्तियाँ लेकर परशुराम जी पर चारों ओर से टूट पड़े।

    14.3 इधर परशुराम जी भी धनुष लेकर तुरंत रथ पर सवार हो गये और बाणों की वर्षा करते हुए राजा की सेना का संहार करने लगे। उस समय बहुत से क्षत्रिय पराशुराम जी के भय से पीड़ित हो सिंह के सताये हुए मृगों की भाँति पर्वतों की गुफाओं में घुस गये। उन्होंने उनके डर से अपने क्षत्रियोचित कर्मों का भी त्याग कर दिया। बहुत दिनों तक ब्राह्मणों दर्शन न कर सकने के कारण वे धीरे-धीरे अपने कर्म भूलकर शूद्र हो गये। इस प्रकार द्रविड, आभीर, पुण्ड्र और शबरों के सहवास में रहकर वे क्षत्रिय होते हुए भी धर्म त्याग के कारण शूद्र की अवस्था में पहुँच गये। तत्पश्चात क्षत्रिय वीरों के मारे जाने पर ब्राह्मणों ने उनकी स्त्रियों से नियोग की विधि के अनुसार पुत्र उत्पन्न किये, किंतु उन्हें भी बड़े होने पर परशुराम जी ने फरसे से काट डाला। इस प्रकार एक-एक करके जब इक्कीस बार क्षत्रियों का संहार हो गया, तब परशुराम जी को दिव्य आकाशवाणी ने मधुर स्वर में सब लोगों के सुनते हुए यह कहा- ‘बेटा! परशुराम! इस हत्या के काम से निवृत्त हो जाओ। परशुुराम! भला बारंबार इन बेचारे क्षत्रियों के प्राण लेने में तुम्हें कौन सा लाभ दिखलायी देता है?’ 14.4 Tउस समय महात्मा परशुराम जी को उनके पितामह ऋचीक आदि ने भी इसी प्रकार समझाते हुए कहा- ‘महाभाग! यह काम छोड़ दो, क्षत्रियों को न मारो।’ पिता के वध को सहन न करते हुए परशुराम जी ने उन ऋषियों से इस प्रकार कहा- ‘आप लोगों को मुझे इस काम से निवारण नहीं करना चाहिये।’

    14.5 पितर बोल- विजय पाने वालों में श्रेष्ठ परशुराम! बेचारे क्षत्रियों को मारना तुम्हारे योग्य नहीं है, क्योंकि तुम ब्राह्मण हो, अत: तुम्हारे हाथ से राजाओं का वध होना उचित नहीं है।

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    अध्याय 15

    15.1 अलर्क के ध्यानयोग का उदाहरण देकर पितामहों का परशुराम जी को समझाना और परशुराम जी का तपस्या के द्वारा सिद्धि प्राप्त करना---

    पितरों ने कहा- ब्राह्मणश्रेष्ठ! इसी विषय में एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है, उसे सुनकर तुम्हें वैसा ही आचरण करना चाहिये। पहले की बात है, अलर्क नाम से प्रसिद्ध एक राजर्षि थे, जो बड़े ही तपस्वी, धर्मज्ञ, सत्यावादी, महात्मा और दृढ़ प्रतिज्ञ थे। उन्होंने अपने धनुष की सहायता से समुद्रपर्यन्त इस पृथ्वी को जीतकर अत्यन्त दुष्कर पराक्रम कर दिखाया था। इसके पश्चात उनका मन सूक्ष्मतत्त्व की खोज में लगा। महामते! वे बड़े-बड़े कर्मों का आरम्भ त्याग कर एक वृक्ष के नीचे जा बैठे और सूक्ष्मतत्त्व की खोज के लिये इस प्रकार चिन्ता करने लगे।

    15.2 अलर्क कहने लगे- मुझे मन से ही बल प्राप्त हुआ है, अत: वही सबसे प्रबल है। मन को जीत लेने पर ही मुझे स्थायी विजय प्राप्त हो सकती है। मैं इन्द्रियरूपी शत्रुओं से घिरा हुआ हूँ, इसलिये बाहर के शत्रुओं पर हमला न करके इन भीतरी शत्रुओं को ही अपने बाणों का निशाना बनाऊँगा। यह मन चंचलता के कारण अभी मनुष्यों से तरह-तरह के कर्म कराता है, अत: अब मैं मन पर ही तीखे बाणों का प्रहार करूँगा। मन बोला- अलर्क! तुम्हारे ये बाण मुझे किसी तरह नहीं बींध सकते। यदि इन्हें चलाओंगे तो ये तुम्हारे ही मर्मस्थानों को चीर डालेंगे और मर्म स्थानों के चीरे जाने पर तुम्हारी ही मृत्यु होगी, अत: तुम अन्य प्रकार के बाणों का विचार करो, जिनसे तुम मुझे मार सकोगे। यह सुनकर अलर्क ने थोड़ी देर तक विचार किया, इसके बाद वे (नासिका को लक्ष्य करके) बोले।

    15.3 अलर्क ने कहा- मेरी यह नासिका अनेक प्रकार की सुगन्धियों का अनुभव करके भी फिर उन्हीं की इच्छा करती है, इसलिये इन तीखे बाणों मैं इस नासिका पर ही छोड़ूँगा। नासिका बोली- अलर्क! ये बाण मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। इनसे तो तुम्हारे ही मर्म विदीर्ण होंगे और मर्म स्थानों का भेदन हो जाने पर तुम्हीं मरोगे, अत: तुम दूसरे प्रकार के बाणों का अनुसंधान करो, जिससे तुम मुझे मार सकोगे। नासिका का यह कथन सुनकर अलर्क कुछ देर विचार करने के पश्चात (जिह्वा को लक्ष्य करके) कहने लगे।

    15.4 अलर्क ने कहा- यह रसना स्वादिष्ट रसों का उपभोग करके फिर उन्हें ही पाना चाहती है। इसलिये अब इसी के ऊपर अपने तीखे सायकों का प्रहार करूँगा। जिह्वा बोली- अलर्क! ये बाण मुझे किसी प्रकार नहीं छेद सकते। ये तो तुम्हारे ही मर्म स्थानों को बींधेंगे। मर्म स्थानों के बिंध जाने पर तुम्हीं मरोगे। अत: दूसरे प्रकार के बाणों का प्रबन्ध सोचो, जिनकी सहायता से तुम मुझे मार सकोगे। यह सुनकर अलर्क कुछ देर तक सोचते विचारते रहे, फिर (त्वचा पर कुपित होकर) बोले।

    15.5 अलर्क ने कहा- यह त्वचा नाना प्रकार के स्पर्शों का अनुभव करके फिर उन्हीं की अभिलाषा किया करती है, अत: नाना प्रकार के बाणों से मारकर इस त्वचा को ही विदीर्ण कर डालूँगा। त्वचा बोली- अलर्क! ये बाण किसी प्रकार मुझे अपना निशाना नहीं बना सकते। ये तो तुम्हारा ही मर्म विदीर्ण करेंगे और मर्म विदीर्ण होने पर तुम्हीं मौत के मुख में पड़ोगे। मुझे मारने के लिये तो दूसरी तरह के बाणों की व्यवस्था सोचो, जिनसे तुम मुझे मार सकोगे।

    15.6 त्वचा की बात सुनकर अलर्क ने थोड़ी देर तक विचार किया, फिर (श्रोत को सुनाते हुए) कहा- अलर्क बोले- यह श्रोत्र बारंबार नाना प्रकार के शब्दों को सुनकर उन्हीं की अभिलाषा करता है, इसलिये मैं इन तीखे बाणों को श्रोत्र-इन्द्रिय के ऊपर चलाऊँगा। श्रोत्र ने कहा- अलर्क! ये बाण मुझे किसी प्रकार नहीं छेद सकते। ये तुम्हारे ही मर्म स्थानों को विदीर्ण करेंगे। तब तुम जीवन से हाथ धो बैठोगे। अत: तुम अन्य प्रकार के बाणों की खोज करो, जिनसे मुझे मार सकोगे। यह सुनकर अलर्क ने कुछ सोच विचार कर (नेत्र को सुनाते हुए) कहा।

    15.7 अलर्क बोल- यह आँख भी अनेकों बार विभिन्न रूपों का दर्शन करके पुन: उन्हीं को देखना चाहती है। अत: मैं इसे अपने तीखे तीरों से मार डालूँगा। आँख ने कहा- अलर्क! ये बाण मुझे किसी प्रकार नहीं छेद सकते। ये तुम्हारे ही मर्मस्थानों को बींध डालेंगे और मर्म विदीर्ण हो जाने पर तुम्हें ही जीवन से हाथ धोना पड़ेगा। अत: दूसरे प्रकार के सायकों का प्रबन्ध सोचो, जिनकी सहायता से तुम मुझे मार सकोगे। यह सुनकर अलर्क ने कुछ देर विचार करने के बाद (बुद्धि को लक्ष्य करके) यह बात कही।

    15.8 अलर्क ने कहा- यह बुद्धि अपनी ज्ञानशक्ति से अनेक प्रकार का निश्चय करती है, अत: इस बुद्धि पर ही अपने तीक्ष्ण सायकों का प्रहार करूँगा। बुद्धि बोली- अलर्क! ये बाण मेरा किसी प्रकार भी स्पर्श नहीं कर सकते। इनसे तुम्हारा ही मर्म विदीर्ण होगा और मर्म विदीर्ण होने पर तुम्हीं मरोगे। जिनकी सहायता से मुझे मार सकोगे, वे बाण तो कोई और ही हैं। उनके विषय में विचार करो।

    15.9 ब्राह्मण ने कहा- देवि! तदनन्तर अलर्क ने उसी पेड़ के नीचे बैठकर घोर तपस्या की, किंतु उसे मन बुद्धि सहित पाँचों इन्द्रियों को मारने योग्य किसी उत्तम बाण का पता न चला। तब वे सामर्थ्यशाली राजा एकाग्रचित्त होकर विचार करने लगे। विप्रवर! बहुत दिनों तक निरन्तर सोचने विचारने के बाद बुद्धिमानों में श्रेष्ठ राजा अलर्क को योग से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी साधन नहीं प्रतीत हुआ। वे मन को एकाग्र करके स्थिर आसन से बैठ गये और ध्यानयोग का साधन करने लगे। इस ध्यान योग रूप एक ही बाण से मारकर उन बलशाली नरेश ने समस्त इन्द्रियों को सहसा परास्त कर दिया। वे ध्यान योग के द्वारा आत्मा में प्रवेश करके परम सिद्धि (मोक्ष) को प्राप्त हो गये। इस सफलता से राजर्षि अलर्क को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने इस गाथा का गान किया- 15.10 ‘अहो! बड़े कष्ट की बात है कि अब तक मैं बाहरी कामों में ही लगा रहा और भोगों की तृष्णा से आबद्ध होकर राज्य की ही उपासना करता रहा। ध्यान योग से बढ़कर दूसरा कोई उत्तम सुख का साधन नहीं है, यह बात तो मुझे बहुत पीछे मालूम हुई है।’ (पितामहों ने कहा-) बेटा परशुराम! इन सब बातों को अच्छी तरह समझकर तुम क्षत्रियों का नाश न करो। घोर तपस्या में लग जाओ, उसी से तुम्हें कल्याण प्राप्त होगा। अपने पितामहों के इस प्रकार कहने पर महान सौभाग्यशाली जमदग्निनन्दन परशुराम जी ने कठोर तपस्या की और इससे उन्हें परम दुर्लभ सिद्धि प्राप्त हुई।

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    अध्याय 16

    16.1 राजा अम्बरीष की गायी हुई आध्यात्मिक स्वराज्य विषयक गाथा---

    ब्राह्मण ने कहा- देवि! इस संसार में सत्त्व, रज और तम- ये तीन मेरे शत्रु हैं। ये वृत्तियों के भेद से नौ प्रकार के माने गये हैं। हर्ष, प्रीति और आनन्द- ये तीन सात्त्विक गुण हैं, तृष्णा, क्रोध और द्वेषभाव- ये तीन राजस गुण हैं और थकावट, तन्द्रा तथा मोह- ये तीन तामस गुण हैं। शान्तचित्त, जितेन्द्रिय, आलस्य हीन और धैर्यवान पुरुष शम-दम आदि बाण समूहों के द्वारा इन पूर्वोक्त गुणों का उच्छेद करके दूसरों को जीतने का उत्साह करते हैं।

    16.2 इस विषय में पूर्वकाल में बातों के जानकार लोग एक गाथा सुनाया करते हैं। पहले कभी शान्तिपरायण महाराज अम्बरीष ने इस गाथा का गान किया था। कहते हैं- जब दोषों का बल बढ़ा और अच्छे गुण दबने लगे, उस समय महायशस्वी महाराज अम्बरीष ने बलपूर्वक राज्य की बागडोर अपने हाथ में ली। उन्होंने अपने दोषों को दबाया और उत्तम गुणों का आदर किया। इससे उन्हें बहुत बड़ी सिद्धि प्राप्त हुई और उन्होंने यह गाथा गयी- ‘मैंने बहुत से दोषों पर विजय पायी और समस्त शत्रुओं का नाश कर डाला, किंतु एक सबसे बड़ा दोष रह गया है। यद्यपि वह नष्ट कर देने योग्य है तो भी अब तक मैं नाश न कर सका। उसी को प्रेरणा से इस प्राणी को वैराग्य नहीं होता। तृष्णा के वश में पड़ा हुआ मनुष्य संसार में नीच कर्मों की ओर दौड़ता है, सचेत नहीं होता। उससे प्रेरित होकर वह यहाँ नहीं करने योग्य काम भी कर डालता है। उस दोष का नाम है लोभ।

    16.3 उसे ज्ञानरूपी तलवार से काटरक मनुष्य सुखी होता है। लोभ से तृष्णा और तृष्णा से चिन्ता पैदा होती है। लोभी मनुष्य पहले बहुत से राजस गुणों को पाता है और उनकी प्राप्ति हो जाने पर उसमें तामसिक गुण भी अधिक मात्रा में आ जाते हैं। उन गुणों के द्वारा देह बन्धन में जकड़कर वह बारंबार जन्म लेता और तरह तरह के कर्म करता रहता है। फिर जीवन का अन्त समय आने पर उसके देह के तत्त्व विलग-विलग होकर बिखर जाते हैं और वह मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। इसके बार फिर जन्म मृत्यु के बन्धन में पड़ता है।

    16.4 इसलिये इस लोभ के स्वरूप को अच्छी तरह समझकर इसे धैयपूर्वक दबाने और आत्मराज्य पर अधिकार पाने की इच्‍छा करनी चाहिये। यही वास्तविक स्वराज्य है। यहाँ दूसरा कोई राज्य नहीं है। आत्मा का यथार्थ ज्ञान हो जाने पर वही राजा है’। इस प्रकार यशस्वी अम्बरीष ने आत्मराज्य को आगे रखकर एक मात्र प्रबल शत्रु लोभ का उच्छेद करते हुए उपर्युक्त गाथा का गान किया था।

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    अध्याय 17

    17.1 ब्राह्मणरूप धारी धर्म और जनक का ममत्व त्यागविषयक संवाद---

    ब्राह्मण ने कहा- भामिनि! इसी प्रसंग में एक ब्राह्मण और राजा जनक के संवादरूप प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। एक समय राजा जनक ने किसी अपराध में पकड़े हुए ब्राह्मण को दण्ड देते हुए कहा- ‘ब्राह्मन! आप मेरे देश से बाहर चले जाइये।’ यह सुनकर ब्राह्मण ने उस श्रेष्ठ राजा को उत्तर दिया- ‘महाराज! आपके अधिकार में जितना देश है, उसकी सीमा बताइये। सामर्थ्यशाली नरेश! इस बात को जानकर मैं दूसरे राजा के राज्य में निवास करना चाहता हूँ और शास्त्र के अनुसार आपकी आज्ञा का पालन करना चाहता हूँ।’ उस यशस्वी ब्राह्मण के ऐसा कहने पर राजा जनक बार-बार गरम उच्छ्वास लेेने लगे, कुछ जवाब न दे सके। वे अमित तेजस्वी राजा जनक बैठे हुए विचार कर रहे थे, उस समय उनको उसी प्रकार मोह ने सहसा घेर लिया जैसे राहु ग्रह सूर्य को घेर लेता है। जब राजा जनक विश्राम कर चुके और उनके मोह का नाश हो गया, तब थोड़ी देर चुप रहने के बाद वे ब्राह्मण से बोले जनक ने कहा- 17.2 'ब्राह्मन! यद्यपि बाप-दादों के समय से ही मिथिला प्रान्त के राज्य पर मेरा अधिकार है, तथापि जब मैं विचार दृष्टि से देखता हूँ तो सारी पृथ्वी में खोजने पर भी कहीं मुझे अपना देश नहीं दिखायी देता। जब पृथ्वी पर अपने राज्य का पता न पा सका तो मैंने मिथिला में खोज की। जब वहाँ से भी निराशा हुई तो अपनी प्रजा पर आपे अधिकार का पता लगाया, किंतु उन पर भी अपने अधिकार का निश्चय न हुआ, तब मुझे मोह हो गया। फिर विचार के द्वारा उस मोह का नाश होने पर मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि कहीं भी मेरा राज्य नहीं है अथवा सर्वत्र मेरा ही राज्य है। एक दृष्टि से यह शरीर भी मेरा नहीं है और दूसरी दृष्टि से यह सारी पृथ्वी ही मेरी है। यह जिस तरह मेरी है, उसी तरह दूसरों की भी है- ऐसा मैं मानता हूँ। इसलिये द्विजोत्तम! अब आपकी जहाँ इच्छा हो, रहिये एवं जहाँ रहें, उसी स्थान का उपभोग कीजिये।'

    17.3 ब्राह्मण ने कहा- राजन! जब बाप-दादों के समय से ही मिथिला प्रान्त के राज्य पर आपका अधिकार है, तब बताइये किस बुद्धि का आश्रय लेकर आपने इसके प्रति अपनी ममता को त्याग दिया है? किस बुद्धि का आश्रय लेकर आप सर्वत्र अपना ही राज्य मानते हैं और किस तरह कहीं भी अपना राज्य नहीं समझते एवं किस तरह सारी पृथ्वी को ही अपना देश समझते हैं? जनक ने कहा- ब्राह्मन! इस संसार में कर्मों के अनुसार प्राप्त होने वाली सभी अवस्थाएँ आदि अन्तवाली हैं, यह बात मुझे अच्छी तरह मालूम है। इसलिये मुझे ऐसी कोई वस्तु नहीं प्रतीत होती जो मेरी हो सके। वेद भी कहता है- ‘यह वस्तु किसकी है? यह किसका धन है?[1 (अर्थात् किसी का नहीं है)’ इसलिये जब मैं अपनी बुद्धि से विचार करता हूँ, तब कोई भी वस्तु ऐसी नहीं जान पड़ती, जिसे अपनी कह सकें। इसी बुद्धि का आश्रय लेकर मैंने मिथिला के राज्य से अपना ममत्व हटा लिया है। अब जिस बुद्धि का आश्रय लेकर मैं सर्वत्र अपना ही राज्य समझता हूँ, उसको सुनो।

    17.4 मैं अपनी नासिका में पहुँची हुई सुगन्ध को भी अपने सुख के लिये नहीं ग्रहण करना चाहता। इसलिये मैंने पृथ्वी को जीत लिया है और वह सदा ही मेरे वश में रहती है। मुख में पड़े हुए रसों का भी मैं अपनी तृप्ति के लिये नहीं आस्वादन करना चाहता, इसलिये जलतत्त्व पर भी मैं विजय पा चुका हूँ और वह सदा मेरे अधीन रहता है। मैं नेत्र के विषयभूत रूप और ज्योति का अपने सुख के लिये अनुभव नहीं करना चाहता, इसलिये मैंने तेज को जीत लिया है और वह सदा मेरे अधीन रहता है। तथा मैं त्वचा के संसर्ग से प्राप्त हुए स्पर्शजनित सुखों को अपने लिये नहीं चाहता, अत: मेरे द्वारा जीता हुआ वायु सदा मेरे वश में रहता है।

    17.5 मैं कानों में पड़े हुए शब्दों को भी अपने सुख के लिये नहीं ग्रहण करना चाहता, इसलिये वे मेरे द्वारा जीते हुए शब्द सदा मेरे अधीन रहते हैं। मैं मन में आये हुए मन्तव्य विषयों का भी अपने सुख के लिये अनुभव करना नहीं चाहता, इसलिये मेरे द्वारा जीता हुआ मन सदा मेरे वश में रहता है। मेरे समस्त कार्यों का आरम्भ देवता, पितर, भूत और अतिथियों के निमित्त होता है। जनक की ये बातें सुनकर वह ब्राह्मण हँसा और फिर कहने लगा- ‘महाराज! आपको मालूम होना चाहिये कि मैं धर्म हूँ और आपकी परीक्षा लेने के लिये ब्राह्मण का रूप धारण करके यहाँ आया हूँ। अब मुझे निश्चय हो गया कि संसार में सत्त्वगुण रूप नेमि से घिरे हुए और कभी पीछे की ओर न लौटने वाले इस ब्रह्म प्राप्तिरूप दुर्निवार चक्र का संचालन करने वाले एकमात्र आप ही हैं।’

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    अध्याय 18

    18.1 ब्राह्मण का पत्नी के प्रति अपने ज्ञाननिष्ठ स्वरूप का परिचय देना ब्राह्मण ने कहा- भीरू! तुम अपनी बुद्धि से मुझे जैसा समझकर फटकार रही हो, मैं वैसा नहीं हूँ। मैं इस लोक में देहाभिमानियों की तरह आचरण नहीं करता। तुम मुझे पाप-पुण्य में आसक्त देखती हो, किंतु वास्तव में मैं ऐसा नहीं हूँ। मैं ब्राह्मण, जीवन्मुक्त महात्मा, वानप्रस्त, गृहस्थ और ब्रह्मचारी सब कुछ हूँ। इस भूतल पर जो कुछ दिखायी देता है, वह सब मेरे द्वारा व्याप्त है।

    18.2 संसार में जो कोई भी स्थावर जंगम प्राणी हैं, उन सबका विनाश करने वाला मृत्यु उसी प्रकार मुझे समझो, जिस प्रकार कि लकड़ियों का विनाश करने वाला अग्नि है। सम्पूर्ण पृथ्वी तथा स्वर्ग पर जो राज्य है, उसे यह बुद्धि जानती है, अत: बुद्धि ही मेरा धन है। ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और संन्यास आरम्भ में स्थित ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण जिस मार्ग से चलते हैं, उन ब्राह्मणों का मार्ग एक ही है। क्योंकि वे लोग बहुत से व्याकुलता रहित चिह्नों को धारण करके भी एक बुद्धि का ही आश्रय लेते हैं।

    18.3 भिन्न-भिन्न आश्रमों में रहते हुए भी जिनकी बुद्धि शान्ति के साधन में लगी हुई है, वे अन्त में एकमात्र सत्स्वरूप ब्रह्म को उसी प्रकार प्राप्त होते हैं, जिस प्रकार सब नदियाँ समुद्र को प्राप्त होती हैं। यह मार्ग बुद्धिगम्य है, शरीर के द्वारा इसे नहीं प्राप्त किया जा सकता। सभी कर्म आदि और अन्त वाले हैं तथा शरीर कर्म का हेतु है।

    18.4 इसलिये देवि! तुम्हें परलोक के लिये तनिक भी भय नहीं करना चाहिये। तुम परमात्मभाव की भवना में रत रहकर अन्त में मेरे ही स्वरूप को प्राप्त हो जाओगी।

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    अध्याय 19

    19.1 भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा ब्राह्मण, ब्राह्मणी और क्षेत्रज्ञ का रहस्य बतलाते हुए ब्राह्मण गीता का उपसंहार---

    ब्राह्मणी बोली- नाथ! मेरी बुद्धि थोड़ी और अन्त:करण अशुद्ध है, अत: आपने संक्षेप में जिस महान ज्ञान का उपदेश किया है, उस बिखरे हुए उपदेश को समझना मेरे लिये कठिन है। मैं तो उसे सुनकर भी धारण न कर सकी। अत: आप कोई ऐसा उपाय बताइये, जिससे मुझे भी यह बुद्धि प्राप्त हो। मेरा विश्वास है कि वह उपाय आप ही से ज्ञात हो सकता है।

    19.2 ब्राह्मण ने कहा- देवि! तुम बुद्धि को नीचे की अरणी और गुरु को ऊपर की अरणी समझो। तपस्या और वेद-वेदान्त के श्रवण मनन द्वारा मन्थन करने पर उन अरणियों से ज्ञान रूप अग्नि प्रकट होती है।

    19.3 ब्राह्मणी ने पूछा- नाथ! क्षेत्रज्ञ नाम से प्रसिद्ध शरीरान्वर्तर्ती जीवात्मा को जो ब्रह्म का स्वरूप बताया जाता है, यह बात कैसे सम्भव है? क्योंकि जीवात्मा ब्रह्म के नियन्त्रण में रहता है और जो जिसके नियन्त्रण में रहता है, वह उसका स्वरूप हो, ऐसा कभी नहीं देखा गया।

    19.4 ब्राह्मण ने कहा- देवि! क्षेत्रज्ञ वास्वत में देह सम्बन्ध से रहित और निर्गुण है, क्योंकि उसके सगुण और साकार होने का कोई कारण नहीं दिखायी देता। अत: मैं वह उपाय बताता हूँ जिससे वह ग्रहण किया जा सकता है अथवा नहीं भी किया जा सकता। उस क्षेत्र का साक्षात्कार करने के लिये पूर्ण उपाय देखा गया है। वह यह है कि उसे देखने की क्रिया का त्याग कर देने से भौरों के द्वारा गन्ध की भाँति वह अपने आप जाना जाता है। किंतु कर्म विषयक बुद्धि वास्तव में बुद्धि न होने के कारण ज्ञान के सदृश प्रतीत होती है तो भी वह ज्ञान नहीं है। (अत: क्रिया द्वारा उसका साक्षात्कार नहीं हो सकता)। यह कर्तव्य है, यह कर्तव्य नहीं है- यह बात मोक्ष के साधनों में नहीं कही जाती। जिन साधनों में देखने और सुनने वाले की बुद्धि आत्मा के स्वरूप में निश्चित होती है, वही यथार्थ साधन है। यहाँ जितनी कल्पनाएँ की जात सकती हैं, उतने ही सैकड़ों और हजारों अव्यक्त और व्यक्त रूप अंशों की कल्पना कर लें। वे सभी प्रत्यक्ष प्रतीत होने वाले पदार्थ वास्तविक अर्थयुक्त नहीं हो सकते। जिससे पर कुछ भी नहीं है, उसका साक्षात्कार तो ‘नेति-नेति’ अर्थात यह भी नहीं, यह भी नहीं इस अभ्यास के अन्त में ही होगा।

    19.5 भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- पार्थ! उसके बाद उस ब्राह्मणी की बुद्धि, जो क्षेत्र यज्ञ के संशय से युक्त थी, क्षेत्र के ज्ञान से अतीत क्षेत्रज्ञों से युक्त हुई। अर्जुन ने पूछा- श्रीकृष्ण! वह ब्राह्मणी कौन थी और वह श्रेष्ठ ब्राह्मण कौन था? अच्युत! जिन दोनों के द्वारा यह सिद्धि प्राप्त की गयी, उन दोनों का परिचय मुझ बताइये। भगवान श्रीकृष्ण बोल- अर्जुन! मेरे मन को तो तुम ब्राह्मण समझो और मेरी बुद्धि को ब्राह्मणी समझो एवं जिसको क्षेत्रज्ञ ऐसा कहा गया है, वह मैं ही हूँ।

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    अध्याय 20

    20.1 श्रीकृष्ण के द्वारा अर्जुन से मोक्ष धर्म का वर्णन- गुरु और शिष्य के संवाद में ब्रह्मा और महर्षियों के प्रश्नोत्तर---

    अर्जुन बोले- भगवन! इस समय आपकी कृपा से सूक्ष्म विषय के श्रवण में मेरी बुद्धि लग रही है, अत: जानने योग्य परब्रह्म के स्वरूप की व्याख्या कीजिये।

    20.2 भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन! इस विषय को लेकर गुरु और शिष्य में जो मोक्षविषयक संवाद हुआ था, वह प्राचीन इतिहास बतलाया जा रहा है।'

    20.3 एक दिन उत्तम व्रत का पालन करने वाले एक ब्रह्मवेत्ता आचार्य अपने आसन पर विराजमान थे। परंतप! उस समय किसी बुद्धिमान शिष्य ने उनके पास जाकर निवेदन किया- ‘भगवन! मैं कलयाण मार्ग में प्रवृत्त होकर आपकी शरण में आया हूँ और आपके चरणों में मस्तक झुकाकर याचना करता हूँ कि मैं जो कुछ पूछूँ, उसका उत्तर दीजिये। मैं जानना चाहता हूँ कि श्रेय क्या है?’ पार्थ! इस प्रकार कहने वाले उस शिष्य से गुरु बोले- ‘विप्र! तुम्हारा जिस विषय में संशय है, वह सब मैं तुम्हें बताऊँगा।’ महाबुद्धिमान कुरुश्रेष्ठ अर्जुन! गुरु के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर उस गुरु के प्यारे शिष्य ने हाथ जोड़कर जो कुछ पूछा, उसे सुनो।

    20.4 शिष्य बोला- विप्रवर! मैं कहाँ से आया हूँ और आप कहाँ से आये हैं? जगत के चराचर जीव कहाँ से उत्पन्न हुए हैं? जो परमतत्त्व है, उसे आप यथार्थरूप से बताईये। विप्रवर! सम्पूर्ण जीव किससे जीवन धारण करते हैं? उनकी अधिक से अधिक आयु कितनी है? सत्य और तप क्या? सत्पुरुषों ने किन गुणों की प्रशंसा की है? कौन-कौन से मार्ग कल्याण करने वाले हैं? सर्वोत्तम सुख क्या है? और पाप किसे कहते हैं? श्रेष्ठ व्रत का आचरण करने वाले गरुदेव! मेरे इन प्रश्नों का आप यथार्थ रूप से उत्तर देने में समर्थ हैं। धर्मज्ञों में श्रेष्ठ विप्रर्षे! यह सब जानने के लिये मेरे मन में बड़ी उत्कण्ठा है। इस विषय में इन प्रश्नों का तत्त्वत: यथार्थ उत्तर देने में आपसे अतिरिक्त दूसरा कोई समर्थ नहीं है। अत: आप ही बतलाइये, क्योंकि संसार में मोक्ष धर्मों के तत्त्व के ज्ञान में आप कुशल बताये हैं। हम संसार से भयभीत और मोक्ष के इच्छुक हैं। आपके सिवा दूसरा कोई ऐसा नहीं, जो सब प्रकार की शंकाओं का निवारण कर सके।

    20.5 भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- कुरुकुल श्रेष्ठ शत्रुदमन अर्जुन! वह शिष्य सब प्रकार से गुरु की शरण में आया था। यथोचित रीति से प्रश्न करता था। गुणवान और शान्त था। छाया की भाँति साथ रहकर गुरु का प्रिय करता था तथा जितेन्द्रिय, संयमी और ब्रह्मचारी था। उसके पूछने पर मेधावी एवं व्रतधारी गुरु ने पूर्वोक्त सभी प्रश्नों का ठीक-ठीक उत्तर दिया। गुरु बोल- बेटा! ब्रह्मा जी ने वेद विद्या का आश्रय लेकर तुम्हारे पूछे हुए इन सभी प्रश्नों का उत्तर पहले से ही दे रखा है तथा प्रधान-प्रधान ऋषियों ने उसका सदा ही सेवन किया है। उन प्रश्नों के उत्तर में परमार्थ विषयक विचार किया गया है। हम ज्ञान को ही परब्रह्म और संन्यास को उत्तम तप जानते हैं। जो अबाधित ज्ञानतत्त्व को निश्चयपूर्वक जानकर अपने को सब प्राणियों के भीतर स्थित देखता है, वह सर्वगति (सर्वव्यापक) माना जाता है।

    20.6 जो विद्वान संयोग और वियोग को तथा वैसे ही एकत्व और नानात्व को एक साथ तत्त्व: जानता है, वह दु:ख से मुक्त हो जाता है। जो किसी वस्तु की कामना नहीं करता तथा जिसके मन में किसी बात का अभिमान नहीं होता, वह इस लोक में रहता हुआ ही ब्रह्म भाव को प्राप्त हो जाता है। जो माया और सत्त्वादि गुणों के तत्त्व को जानता है, जिसे सब भूतों के विधान का ज्ञान है और जो ममता तथा अहंकार से रहित हो गया है, वह मुक्त हो जाता है- इसमें संदेह नहीं है। यह देह एक वृक्ष के समान है। अज्ञान इसका मूल अंकुर (जड़) है, बुद्धि स्कन्ध (तना) है, अंहकार शाखा है, इन्द्रियाँ खोखले हैं, पंच महाभूत उसके विशेष अवयव हैं और उन भूतों के विशेष भेद उसकी टहनियाँ हैं। इसमें सदा ही संकल्प रूपी पत्ते उगते और कर्मरूपी फूल खिलते रहते हैं। शुभाशुभ कर्मों से प्राप्त होने वाले सुख-दु:खादि ही उसमें सदा लगे हरने वाले फल हैं। इस प्रकार ब्रह्मरूपी बीज से प्रकट होकर प्रवाह रूप से सदा मौजूद रहने वाला देरूपी वृक्ष समस्त प्राणियों के जीवन का आधार है। जो इसके तत्त्व को भली-भाँति जानकर ज्ञानरूपी उत्तम तलवार से इसे काट डालता है। वह अमरत्व को प्राप्त होकर जन्म-मृत्यु के बन्धन से छुटकारा पा जाता है।

    20.7 महाप्राज्ञ! जिसमें भूत, वर्तमान और भविष्य आदि के तथा धर्म, अर्थ और काम के स्वरूप का निश्चय किया गया है, जिसको सिद्धों के समुदाय ने भली-भाँति जाना है, जिसका पूर्वकाल में निर्णय किया गया था और बुद्धिमान पुरुष जिसे जानकर सिद्ध हो जाते हैं, उस परम उत्तम सनातन ज्ञान का अब मैं तुम से वर्णन करता हूँ। पहले की बात है, प्रजापति दक्ष, भरद्वाज, गौतम भृगुनन्दन शुक्र, वसिष्ठ, कश्यप, विश्वामित्र और अत्रि आदि महर्षि अपने कर्मों द्वारा समस्त मार्गों में भटकते भटकते जब बहुत थक गये, जब एकत्रित हो आपस में जिज्ञासा करते हुए परम वृद्ध अंगिरा मुनि को आगे करके ब्रह्मलोक में गये और वहाँ सुखपूर्वक बैठे हुए पापरहित महात्मा ब्रह्मा जी का दर्शन करके उन महर्षि ब्राह्मणों ने विनयपूर्वक उन्हें प्रणाम किया। फिर तुम्हारी ही तरह अपने परम कल्याण के विषय में पूछा- 20.8 ‘श्रेष्ठ कर्म किस प्रकार करना चाहिये? मनुष्य पाप से किस प्रकार छूटता है? कौन से मार्ग हमारे लिये कल्याण कारक हैं? सत्य क्या है? और पाप क्या है? तथा कर्मों के वे दो मार्ग कौन से हैं, जिनसे मनुष्य दक्षिणायन और उत्तरायण गति को प्राप्त होते हैं? प्रलय और मोक्ष क्या हैं? एवं प्राणियों के जन्म और मरण क्या है?’ शिष्य! उन मुनिश्रेष्ठ महर्षियों के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर उन प्रतितामह ब्रह्मा जी ने जो कुछ कहा, वह मैं तुम्हें शास्त्रानुसार पूर्णतया बताऊँगा, उसे सुनो। ब्रह्मा जी ने कहा- उत्तम व्रत का पालन करने वाले महर्षियो! ऐसा जानो कि चराचर जीव सत्यस्वरूप परमात्मा से उत्पन्न हुए हैं और तपरूप कर्म से जीवन धारण करते हैं। वे अपने कारण स्वरूप ब्रह्म को भूलकर अपने कर्मों के अनुसार आवागमन के चक्र में घूमते हैं। क्योंकि गुणों से युक्त हुआ सत्य ही पाँच लक्षणों वाला निश्चित किया गया है।

    20.9 ब्रह्म सत्य है, तप सत्य है और प्रजापति भी सत्य है। सत्य से ही सम्पूर्ण भूतों का जन्म हुआ है। यह भौतिक जगत सत्य रूप ही है। इसलिये सदा योग में लगे रहने वाले, क्रोध और संताप से दूर रहने वाले तथा नियमों का पालन करने वाले धर्म सेवी ब्राह्मण सत्य का आश्रय लेते हैं। जो परस्पर एक दूसरे को नियम के अंदर रखने वाले, धर्म मर्यादा के प्रवर्तक और विद्वान हैं, उन ब्राह्मणों के प्रति मैं लोक कल्याणकारी सनातन धर्मों का उपदेश करूँगा। वैस ही प्रत्येक वर्ण और आश्रम के लिये पृथक-पृथक चार विद्याओं का वर्णन करूँगा। मनीषी विद्वान चार चरणों वाले एक धर्म को नित्य बतलाते हैं। द्विजवरो! पूर्व काल में मनीषी पुरुष जिसका सहारा ले चुके हैं और जो ब्रह्मभाव की प्राप्ति का सुनिश्चित साधन है, उस परम मंगलकारी कल्याणमय मार्ग का तुम लोगों के प्रति उपदेश करता हूँ, उसे ध्यान देकर सुनो।

    20.10 सौभाग्यशाली प्रवक्तागण! उस अत्यन्त दुर्विज्ञेय मार्ग को, जो कि पूर्णतया परमपद स्वरूप है, यहाँ अब मुझ से सुनो। आश्रमों में ब्रह्मचर्य को प्रथम आश्रम बताया गया है। गार्हस्थ्य दूसरा और वानप्रस्थ तीसरा आश्रम है, उसके बार संन्यास आश्रम है। इसमें आत्मज्ञान की प्रधानता होती है, अत: इसे परमपद स्वरूप समझना चाहिये। जब तक अध्यात्म ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती, तब तक मनुष्य इन ज्योति, आकाश, वायु, सूर्य, इन्द्र और प्रजापति आदि के यथार्थ तत्त्व को नहीं जानता। (आत्मज्ञान होने पर इनका यथार्थ ज्ञान हो जाता है<) अत: पहले उस आत्मज्ञान का उपाय बतलाता हूँ, सब लोग सुनिये। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य- इन तीन द्विजातियों के लिये वानप्रस्थ आश्रम का विधान है।

    20.11 वन में रहकर मुनिवृत्ति का सेवन करते हुए फल-फूल और वायु के आहार पर जीवन निर्वाह करने से वानप्रस्थ धर्म का पालन होता है। गृहस्थ आश्रम का विधान सभी वर्णों के लिये है। विद्वानों ने श्रद्धा को ही धर्म का मुख्य लक्षण बतलाया है। इस प्रकार आप लोगों के प्रति देवयान मार्गों का वर्णन किया गया है। धैर्यवान संत महात्मा अपने कर्मों से धर्म मर्यादा का पालन करते हैं। धर्मों में से किसी का भी दृढ़तापूर्वक पालन करते हैं, वे कालक्रम से सम्पूर्ण प्राणियों के जन्म और मरण को सदा ही प्रत्यक्ष देखते हैं। अब मैं यथार्थ युक्ति के द्वारा पदार्थों में विभागपूर्वक रहने वाले सम्पूर्ण तत्त्वों का वर्णन करता हूँ। अव्यक्त प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार, दस इन्द्रियाँ एक मन, पंच महाभूत और उनके शब्द आदि विशेष गुण यह चौबीस तत्त्वों का सनातन सर्ग है। तथा एक जीवात्मा इस प्रकार तत्त्वों की संख्या पच्चीस बतलायी गयी है।

    20.12 जो इन सब तत्त्वों की उत्पत्ति और लय को ठीक-ठीक जानता है, वह सम्पूर्ण प्राणियों में धीर है और वह कभी मोह में नहीं पड़ता। जो सम्पूर्ण तत्त्वों, गणों तथा समस्त देवताओं को यथार्थ रूप से जानता है, उसके पाप धुल जाते हैं और वह बन्धन से मुक्त होकर सम्पूर्ण दिव्यलोकों के सुख का अनुभव करता है।

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    अध्याय 21

    21.1 ब्रह्मा जी के द्वारा तमोगुण का, उसके कार्य का और फल का वर्णन---

    ब्रह्मा जी ने कहा- महर्षियों! जब तीनों गुणों की साम्यावस्था होती है, उस समय उसका नाम अव्यक्त प्रकृति होता है। अव्यक्त समस्त प्राकृत कार्यों में व्यापक, अविनाशी और स्थिर है। उपर्युक्त तीन गुणों में जब विषमता आती है, तब वे पंचभूत का रूप धारण करते है और उनसे नौ द्वार वाले नगर (शरीर) का निर्माण होता है, ऐसा जानो। इस पुर में जीवात्मा को विषयों की और प्रेरित करने वाली मन सति ग्यारह इन्द्रियाँ हैं। इनकी अभिव्यक्ति मन के द्वारा हुई है। बुद्धि इस नगर की स्वामिनी है, ग्याहरवाँ मन दस इन्द्रियों से श्रेष्ठ है। इसमें जो तीन स्त्रोत (त्रिरूपी नदी के प्रवाह) हैं, वे उन तीन गुणमयी नाड़ियों के द्वारा बार-बार भरे जाते एवं प्रवाहित होते हैं। सत्त्व, रज और तम- इन तीनों को गुण कहते हैं। ये परस्पर एक दूसरे के प्रतिद्वन्दी, एक दूसरे के आश्रित, करनेे वाले और परस्पर मिश्रित रहने वाले हैं। पाँचों महाभूत त्रिगुणात्मक हैं। तमोगुण का प्रतिद्वन्द्वी है सत्त्वगुण और सत्त्वगुण का प्रतिद्वन्द्वी रजोगणु है।

    21.2 इसी प्रकार रजोगुण का प्रतिद्वन्दी सत्त्वगुण है और सत्त्वगुण का प्रतिद्वन्द्वी तमोगुण है। जहाँ तमोगुण को रोका जाता है, वहाँ रजोगुण बढ़ता है और जहाँ रजोगुण को दबाया जाता है, वहाँ सत्त्वगुण की वृद्धि होती है। तम को अन्धकार रूप और त्रिगुणमय समझना चाहिये। उसका दूसरा नाम मोह है। वह अधर्म को लक्षित कराने वाला और पाप करने वाले लोगों में निश्चित रूप से विद्यमान रहने वाला है। तमोगुण का यह स्वरूप दूसरे गुणों से मिश्रित भी दिखायी देता है। रजोगुण को प्रकृति रूप बतलाया गया है, यह सृष्टि की उत्पत्ति का कारण है। सम्पूर्ण भूतों में इसकी प्रवृति देखी जाती है। यह दृश्य जगत उसी का स्वरूप है, उत्पत्ति या प्रवृत्ति ही उसका लक्षण है। सब भूतों में प्रकाश, लघुता (गर्वहीनता) और श्रद्धा- यह सत्त्वगुण का रूप है। गर्वहीनता की श्रेष्ठ पुरुषों ने प्रशंसा की है। अब मैं तात्विक युक्तियों द्वारा संक्षेप और विस्तार के साथ इन तीनों गुणों के कार्यों का यथार्थ वर्णन करता हूँ, इन्हें ध्यान देकर सुनो।

    21.3 मोह, अज्ञान, त्याग का अभाव, कर्मों का निर्णय न कर सकना, निद्रा, गर्व, भय, लोभ, स्वयं शुभ कर्मों में दोष देखना, स्मरणशक्ति का अभाव, परिणाम न सोचना, नास्तिकता, दुश्चरित्रता, निर्विशेषता (अच्छे-बुरे के विवेक का अभाव), इन्द्रियों की शिथिलता, हिंसा आदि निन्दनीय दोषों में प्रवृत्त होना, अकार्य को कार्य और अज्ञान को ज्ञान समझना, शत्रुता, काम में मन न लगाना, अश्रद्धा, मूर्खतापूर्ण विचार, कुटिलता, नासमझी, पाप करना, अज्ञान, आलस्य आदि के कारण देह का भारी होना, भाव-भक्ति का न होना, अजितेन्द्रियता और नीच कर्मों में अनुराग- ये सभी दुर्गुण तमोगुण के कार्य बतलाये गये हैं। इसके सिवा और भी जो-जो बातें इस लोक में निषिद्ध मानी गयी हैं, वे सब तमोगुण ही हैं। देवता, ब्राह्मण और वेद की सदा निन्दा करना, दान न देना, अभिमान, मोह, क्रोध, असहनशीलता और प्राणियों के प्रति मात्सर्य- वे सब तामस बर्ताव हैं। (विधि और श्रद्ध से रहित) व्यर्थ कार्यों का आरम्भ करना, (देश-काल पात्र का विचार न करके अश्रद्धा और अवहेलनापूर्वक) व्यर्थ दान देना तथा (देवता और अतिथि को दिये बिना) व्यर्थ भोजन करना भी तामसिक कार्य है।

    21.4 अतिवाद, अक्षमा, मत्सरता, अभिमान और अश्रद्धा को भी तमोगुण का बर्ताव माना गया है। संसार में ऐसे बर्ताव वाले और धर्म की मर्यादा भंग करने वाले जो भी पापी मनुष्य हैं, वे सब तमोगुणी माने गये हैं। ऐसे पापी मनुष्यों के लिये दूसरे जन्म में जो योनियाँ निश्चित की हुई हैं, उनका परिचय दे रहा हूँ। उनमें से कुछ तो नीचे नरकों में ढकेले जाते हैं और कुछ तिर्यग्योनियों में जन्म ग्रहण करते हैं। स्थावर (वृक्ष-पर्वत आदि) जीव, पशु, वाहन, राक्षस, सर्प, कीड़े-मकोड़े, पक्षी, अण्डज प्राणी, चौपाये, पागल, बहरे, गूँगे तथा अन्य जितने पापमय रोग वाले (कोढ़ी आदि) मनुष्य हैं, वे सब तमोगुण में डूबे हुए हैं। अपने कर्मों के अनुसार लक्षणों वाले ये दुराचारी जीव सदा दु:ख में निमग्न रहते हैं। उनकी चित्तवृत्तियों का प्रवाह निम्न दशा की ओर होता है, इसलिये उन्हें अर्वाक्‌ स्त्रोत कहते हैं। वे तमोगुण में निमग्न रहने वाले सभी प्राणी तामसी हैं। इसके पश्चात मैं यह वर्णन करूँगा कि उन तामसी योनियों में गये हुए प्राणियों का उत्थान और समृद्धि किस प्रकार होती है तथा वे पुण्यकर्मा होकर किस प्रकार श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होते हैं।

    21.5 जो विपरीत योनियों को प्राप्त प्राणी हैं, उनके (पाप कर्मों का भोग पूरा हो जाने पर) जब पूर्वकृत पुण्य कर्मों का उदय होता है, तब वे शुभ कर्मों के संस्कारों के प्रभाव से स्वकर्मनिष्ठ कल्याणकामी ब्राह्मणों की समानता को प्राप्त होते हैं अर्थात उनके कुल में उत्पन्न होते हैं और वहाँ पुन: यत्नशील होकर ऊपर उठते हैं एवं देवताओं के स्वर्गलोक में चले जाते हैं- यह वेद की श्रुति है। वे पुनरावृत्तिशील सकाम धर्म का आचरण करने वाले मनुष्य देवभाव को प्रात हो जाने के अनन्तर जब वहाँ से दूसरी योनि में जाते हैं तब यहाँ (मृत्यु लोक में) मनुष्य होते हैं। उनमें से कोई- कोई (बचे हुए पाप कर्म का फल भोगने के लिये) पुन: पापयोनि से युक्त चाण्डाल, गूँगे और अटककर बोलने वाले होते हैं और प्राय: जन्म जन्मान्तर में उत्तरोत्तर उच्च वर्ण को प्राप्त होते हैं। कोई शूद्र योनि से आगे बढ़कर भी तामस गुणों से युक्त हो जाते हैं और उसके प्रवाह में पड़कर तमोगुण में ही प्रवृत्त रहते हैं। यह जो भोगों में आसक्त हो जाना है, यही महामोह बताया गया है। इस मोह में पड़कर भोगों का सुख चाहने वाले ऋषि, मुनि और देवगण भी मोहित हो जाते हैं। (फिर साधारण मनुष्यों की तो बात ही क्या है?) तम (अविद्या), मोह (अस्मिता), महामोह (राग), क्रोध नाम वाला तामिस्र और मृत्यु रूप अन्धतामिस्र यह पांच प्रकार की तामसी प्रकृति बतलायी गयी है। क्रोध को ही तामिस्र कहते हैं।

    21.6 विप्रवरो! वर्ण, गुण, योनि और तत्त्व के अनुसार मैंने आप से तमोगुण का पूरा-पूरा यथावत वर्णन किया। जो अतत्त्व में तत्त्व दृष्टि रखने वला है, ऐसा कौन सा मनुष्य इस विषय को अच्छी तरह देख और समझ सकता है? यह विपरित दृष्टि तमोगुण की यथार्थ पहचान है। इस प्रकार तमोगुण के स्वरूप और उसके कार्यभूत नाना प्रकार के गुणों का यथावत वर्णन किया गया तथा तमोगुण से प्राप्त होने वाली ऊँची नीची योनियाँ भी बतला दी गयीं। जो मनुष्य इन गुणों को ठीक-ठीक जानता है, वह सम्पूर्ण तामसिक गुणों से सदा मुक्त रहता है।

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    अध्याय 22

    22.1 रजोगुण के कार्य का वर्णन और उसके जानने का फल---

    ब्रह्मा जी ने कहा- महाभाग्यशाली श्रेष्ठ महर्षियों! अब मैं तुम लोगों से रजोगुण के स्वरूप और उसके कार्य भूतगुणों का यथार्थ वर्णन करूँगा। ध्यान देकर सुनो संताप, रूप, आयास, सुख दु:ख, सर्दी, गर्मी, ऐश्वर्य, विग्रह, सन्धि, हेतुवाद, मन का प्रसन्न न रहना, सहनशक्ति, बल, शूरता, मद, रोष, व्यायाम, कलह, ईर्ष्या, इच्छा, चुगली खाना, युद्ध करना, ममता, कुटुम्ब का पालन, वध, बन्धन, क्लेश, क्रय-विक्रय, छेदन, भेदन और विदारण का प्रयत्न, दूसरों के मर्म को विदीर्ण कर डालने की चेष्टा, उग्रता, निष्ठुरता, चिल्लाना, दूसरों के छिद्र बताना, लौकिक बातों की चिन्ता करना, पश्चात्ताप, मत्सरता, नाना प्रकार के सांसारिक भावों से भावित होना, असत्य भाषण, मिथ्या दान, संशयपूर्ण विचार, तिरस्कारपूर्वक बोलना, निन्दा, स्तुति, प्रशंसा, प्रताप, बलात्कार, स्वार्थ बुद्धि से रोगी की परिचर्या और बड़ों की शुश्रूषा एवं सेवावृत्ति, तृष्णा, दूसरों के आश्रित रहना, व्यवहार कुशलता, नीति, प्रमाद (अपव्यय), परिवाद और परिग्रह ये सभी रजोगुण के कार्य हैं। संसार में जो स्त्री, पुरुष, भूत, द्रव्य और गृह आदि में पृथक-पृथक संस्कार होते हैं, वे भी रजोगुण की ही प्रेरणा के फल हैं। संताप, अविश्वास, सकाम भाव से व्रत नियमों का पालन, काम्य कर्म, नाना प्रकार के पूर्व (वापी, कूप तड़ाग आदि पुण्य) कर्म, स्वाहाकार, नमस्कार, स्वधाकार, वषट्कार, याजन, अध्यापन, यजन, अध्ययन, दान, प्रतिग्रह, प्रायश्चित और मंगलजनक कर्म भी राजस माने गये हैं।

    22.2 मुझे यह वस्तु मिल जाय, वह मिल जाय’ इस प्रकार जो विषयों को पाने के लिये आसक्तिमूलक उत्कण्ठा होती है, उसका कारण रजोगुण ही है। विप्रगण! द्रोह, माया, शठता, मान, चोरी, हिंसा, घृणा, परिताप, जागरण, दम्भ, दर्प, राग, सकाम भक्ति, विषय प्रेम, प्रमोद, द्यूतक्रीड़ा, लोगों के साथ विवाद करना, स्त्रियों के लिये सम्बन्ध बढ़ाना, नाच बाजे और गान में आसक्त होना- ये सब राजस गुण कहे गये हैं।

    22.3 जो इस पृथ्वी पर भूत, वर्तमान और भविष्य पदार्थों की चिन्ता करते हैं, धर्म, अर्थ और कामरूप त्रिवर्ग के सेवन में लगे रहते हैं, मनमाना बर्ताव करते हैं और सब प्रकार के भोगों की समृद्धि से आनन्द मानते हैं, वे मनुष्य राजोगुण से आवृत हैं, उन्हें अर्वाक्स्त्रोत कहते हैं। ऐसे लोग इस लोक में बार-बार जन्म लेकर विषयजनित आनन्द में मग्न रहते हैं और इहलोक तथा परलोक में सुख पाने का प्रयत्न किया करते हैं। अत: वे सकाम भाव से दान देते हैं, प्रतिग्रह लेते हैं तथा दर्पण और यज्ञ करते हैं। मुनिवरों! इस प्रकार मैंने तुम लोगों से नाना प्रकार के राजस गुणों और तदनुकूल बर्तावों का यथावत वर्णन किया। जो मनुष्य इन गुणों को जानता है, वह सदा इन समस्त राजस गुणों के बन्धनों से दूर रहता है।

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    अध्याय 23

    23.1 सत्त्वगुण के कार्य का वर्णन और उसके जानने का फल ब्रह्मा जी ने कहा- महर्षियों! अब मैं तीसरे उत्तम गुण (सत्त्वगुण) का वर्णन करूँगा, जो जगत में सम्पूर्ण प्राणियों का हितकारी और श्रेष्ठ पुरुषों का प्रशंसनीय धर्म है। आनन्द, प्रसन्नता, उन्नति, प्रकाश, सुख, कृपणता का अभाव, निर्भयता, संतोष, श्रद्धा, क्षमा, धैर्य, अहिंसा, समता, सत्य, सरलात, क्रोध का अभाव, किसी के दोष न देखना, पवित्रता, चतुरता और पराक्रम- ये सत्त्वगुण के कार्य हैं। नाना प्रकार की सांसारिक जानकारी, सकाम व्यवहार, सेवा और श्रम व्यर्थ है- ऐसा समझकर जो कल्याण के साधन में लग जाता है, वह परलोक में अक्षय सुख का भागी होता है।

    23.2 ममता, अहंकार और आशा से रहित होकर सर्वत्र समदृष्टि रखना और सर्वथा निष्काम हो जाना ही श्रेष्ठ पुरुषों का सनातन धर्म है। विश्वास, लज्जा, तितिक्षा, त्याग, पवित्रता, आलस्य रहित होना, कोमलता, मोह का अभाव, प्राणियों पर दया करना, चुगली न खाना, हर्ष, संतोष, गर्वहीनता, विनय, सद्बर्ताव, शान्ति कर्म में शुद्ध भाव से प्रवृत्ति, उत्तम बुद्धि, आसक्ति से छूटना, जगत के भोगों से उदासीनता, ब्रह्मचर्य, सब प्रकार का त्याग, निर्ममता, फल की कामना न करना त था धर्म का निरन्तर पालन करते रहना- ये सब सत्त्वगुण के कार्य हैं।

    23.3 Tसकाम दान, यज्ञ, अध्ययन, व्रत, परिग्रह, धर्म और तप- ये सब व्यर्थ हैं, ऐसा समझकर जो उपर्युक्त बर्ताव का पालन करते हुए इस जगत में सत्य का आश्रय लेते हैं और वेद की उत्पत्ति के स्थान भूत पर ब्रह्म परमात्मा में निष्ठा रखते हैं, वे ब्राह्मण ही धीर और साधुदर्शी माने गये हैं। वे धीर मनुष्य सब पापों का त्याग करके शोक से रहित हो जाते हैं और स्वर्गलोक में जाकर वहाँ के भोग भोगने के लिऐ अनेक शरीर धारण कर लेते हैं। सत्त्वगुण सम्पन्न महात्मा स्वर्गवासी देवताओं की भाँति ईशित्व, वशित्व और लघिमा आदि मानसिक सिद्धियों को प्राप्त करते हैं। वे ऊर्ध्वस्त्रोता और वैकारिक देवता माने गये हैं।

    23.4 (योग बल से) स्वर्ग को प्राप्त होने पर उनका चित्त उन-उन भोगजनित संस्कारों से विकृत होता है। उस समय वो जो-जो चाहते हैं, उस-उस वस्तु को पाते और बाँटते हैं। श्रेष्ठ ब्राह्मणों! इस प्रकार मैंने तुम लोगों से सत्त्वगुण के कार्यों का वर्णन किया। जो इस विषय को अच्छी तरह जानता है, वह जिस-जिस वस्तु की इच्छा करता है, उसी को पा लेता है। यह सत्त्वगुण का विशेष रूप से वर्णन किया गया तथा सत्त्वगुण का कार्य भी बताया गया। जो मनुष्य इन गुणों को जानता है, वह सदा गुणों को भोगता हैं, किंतु उनसे बंधता नहीं।

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    अध्याय 24

    24.1 सत्त्व आदि गुणों का और प्रकृति के नामों का वर्णन---

    ब्रह्मा जी ने कहा- महर्षियो! सत्त्व, रज और तम- इन गुणों का सर्वथा पृथक रूप से वर्णन करना असम्भव है, क्योंकि ये तीनों गुण अविच्छिन्न (मिले हुए) देखे जाते हैं। ये सभी परस्पर रँगे हुए, एक दूसरे से अनुप्राणित, अन्योन्याश्रित तथा एक दूसरे का अनुसरण करने वाले हैं। इसमें संदेह नहीं कि इस जगत में जब तक सत्त्चगुण रहता है, तब तक रजोगुण भी रहता है एवं जब तक तमोगुण रहता है, तब तक सत्त्वगुण और रजोगुण की भी सत्ता रहती है, ऐसा कहते हैं। ये गुण किसी निमित्त से अथवा बिना निमित्त के भी सदा साथ रहते हैं, साथ ही साथ विचरते हैं, समूह बनाकर यात्रा करते हैं और संघात (शरीर) में मौजूद रहते हैं। ऐसा होने पर भी कहीं तो इन उन्नति और अवनति के स्भाव वाले तथा एक दूसरे का अनुसरण करने वाले गुणों से किसी की न्यूनता देखी जाती है और कहीं अधिकता। सो किस प्रकार? यह बताया जाता है। तिर्यग योनियों में जहाँ तमोगुण की अधिकता होती है, वहाँ थोड़ा रजोगुण और बहुत थोड़ा सत्त्वगुण समझना चाहिये। मध्यस्रोता अर्थात मनुष्ययोनियों में, जहाँ रजोगुण की मात्रा अधिक होती है, वहाँ थोड़ा तमोगुण और बहुत थोड़ा सत्त्वगुण समझना चाहिये।

    24.2 इसी प्रकार ऊर्ध्वस्रोता यानि देवयोनियों में जहाँ सत्त्वगुण की वृद्धि होती है, वहाँ तमोगुण अल्प और रजोगुण अल्पतर जानना चाहिये। सत्त्वगुण इन्द्रियों की उत्पत्ति का कारण है, उसे वैकारिक हेतु मानते हैं। वह इन्द्रियों और उनके विषयों को प्रकाशित करने वाला है। सत्त्वगुण से बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं बताया गया है। सत्त्वगुण में स्थित पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकों को जाते हैं, रजोगुण में स्थित पुरुष मध्य में अर्थात मनुष्य लोक में ही रहते हैं और तमोगुण के कार्यरूप निद्रा, प्रमाद एवं आलस्य आदि में स्थित हुए तामस मनुष्य अधोगति को प्राप्त होते- नीच योनियों अथवा नरकों में पड़ते हैं। शूद्र में तमोगुण की, क्षत्रिय में रजोगुण की और ब्राह्मण में सत्त्वगुण की प्रधानता होती है। इस प्रकार इन तीन वर्णों में मुख्यता से ये तीन गुण रहते हैं। एक साथ चलने वाले ये गुण दूर से भी मिल हुए ही दिखायी पड़ते हैं। तमोगुण, सत्त्वगुण और रजोगुण- ये सर्वथा पृथक-पृथक हों, ऐसा कभी नहीं सुना।

    24.3 सूर्य को उदित हुआ देखकर दुराचारी मनुष्यों को भय होता है और धूप से दु:खित राहगीर संतप्त होते हैं। क्योंकि सूर्य सत्त्वगुण प्रधान हैं, दुराचारी मनुष्य तमोगुण प्रधान हैं एवं राहगीरों को होने वाला संताप रजोगुण प्रधान कहा गया है। सूर्य का प्रकाश सत्त्वगुण है, उनका ताप रजोगुण है और अमावास्या के दिन जो उन पर ग्रहण लगता है, वह तमोगुण का कार्य है। इस प्रकार सभी ज्योतियों में तीनों गुण क्रमश: वहाँ-वहाँ उस-उस प्रकार से प्रकट होते और विलीन होते रहते हैं। स्थावर प्राणियों में तमोगुण अधिक होता है, उनमें जो बढ़ने की क्रिया है वह राजस है और जो चिकनापन है वह सात्त्विक है। गुणों के भेद से दिन को भी तीन प्रकार का समझना चाहिये। रात भी तीन प्रकार की होती है तथा मास, पक्ष, वर्ष, ऋतु और संध्या के भी तीन-तीन भेद होते हैं।

    24.4 गुणों के भेद से तीन प्रकार से दान दिये जाते हैं। तीन प्रकार का यज्ञानुष्ठान होता है। लोक, देव, विद्या और गति भी तीन-तीन प्रकार की होती है। भूत, वर्तमान, भविष्य, धर्म, अर्थ, काम, प्राण, अपान और उदान- ये सब त्रिगुणात्मक ही हैं। इस जगत में जो कोई भी वस्तु भिन्न भिन्न स्थानों में भिन्न भिन्न प्रकार से उपलब्ध होती है, वह सब त्रिगुणमय हैं।

    24.5 सर्वत्र तीनों गुणों की ही सत्ता है। ये तीनों अव्यक्त और प्रवाह रूप से नित्य भी है। सत्त्व, रज और तम- इन गुणों की सृष्टि सनातन है। प्रकृति को तम, व्यक्त, शिव, धाम, रज, योनि, सनातन, प्रकृति, विकार, प्रलय, प्रधान, प्रभव, अप्यय, अनद्रिक्त, अनून, अकम्प, अचल, ध्रुव, सत्, असत्, अव्यक्त और त्रिगुणात्मक कहते हैं। अध्यात्मतत्त्व का चिन्तन करने वाले लोगों को इन नामों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। जो मनुष्य प्रकृति के इन नामों, सत्त्वादि गुणों और सम्पूर्ण विशुद्ध गतियों को ठीक-ठीक जानता है, वह गुण विभाग के तत्त्व का ज्ञाता है। उसके ऊपर सांसारिक दु:खों का प्रभाव नहीं पड़ता है। वह देह त्याग के पश्चात सम्पूर्ण गुणों के बन्धन से छुटकारा पा जाता है।

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    अध्याय 25

    25.1 महत्तत्त्व के नाम और परमात्मतत्त्व को जानने की महिमा---

    ब्रह्मा जी बोले- महर्षिगण! पहले अव्यक्त प्रकृति से महान आत्मस्वरूप महाबुद्धितत्त्व उत्पन्न हुआ। यही सब गुणों का आदि तत्त्व और प्रथम सर्ग कहा जाता है। महान आत्मा, मति, विष्णु, शम्भु, वीर्यवान, बुद्धि, प्रज्ञा, उपलब्धि, ख्याति, धृति, स्मृति- इन पर्यायवाची नामों से महान आत्मा की पहचान होती है। उसके तत्त्व को जानने वाला विद्वान ब्राह्मण कभी मोह में नहीं पड़ता। परमात्मा सब ओर हाथ-पैर वाला, सब ओर नेत्र, सिर और मुख वाला तथा सब ओर कान वाला है, क्योंकि वह संसार में सबको व्याप्त करके स्थित है। सबके हृदय में विराजमान परम पुरुष परमात्मा का प्रभाव बहुत बड़ा है। अणिमा, लघिमा और प्राप्ति आदि सिद्धियाँ उसी के स्वरूप हैं। वह सबका शासन करने वाला, ज्योतिर्मय और अविनाशी है।

    25.2 संसार में जो कोई भी मनुष्य बुद्धिमान, सद्भाव परायण, ध्यानी, नित्य योगी, सत्यप्रतिज्ञ, जितेन्द्रिय, ज्ञानवान, लोभहीन, क्रोध को जीतने वाले, प्रसन्नचित, धीर तथा ममता और अहंकार से रहित हैं, वे सब मुक्त होकर परमात्मा को प्राप्त होते हैं। जो सर्वश्रेष्ठ परमात्मा की महिला को जानता है, उसे पुण्यदायक उत्तम गति मिलती है। पृथ्वी, वायु, आकाश, जल और पाँचवाँ तेज- ये पाँचों महाभूत अहंकार से उत्पन्न होते हैं। उन पाँचों महाभूतों तथा उनके कार्य शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदि से सम्पूर्ण प्राणी युक्त हैं।

    25.3 धैर्यशाली महर्षियो! जब पंचमहा भूतों के विनाश के समय प्रलयकाल उपस्थित होता है, उस समय समस्त प्राणियों को महान भय का सामना करना पड़ता है। किंतु सम्पूर्ण लोगों में जो आत्मज्ञानी धीर पुरुष है, वह उस समय भी मोहित नहीं होता है। आदिसर्ग में सर्वसमर्थ स्वयम्भू विष्णु ही स्वयं अपनी इच्छा से प्रकट होते हैं। जो इस प्रकार बुद्धिरूपी गुहा में स्थित, विश्वरूप, पुराणपुरुष, हिरण्मय देव और ज्ञानियों की परम गतिरूप परम प्रभु को जानता है, वह बुद्धिमान बुद्धि की सीमा के पार पहुँच जाता है।

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    अध्याय 26

    26.1 अहंकार की उत्पत्ति और उसके स्वरूप का वर्णन---

    ब्रह्मा जी ने कहा- महर्षियो! जो पहले महत्तत्त्व उत्पन्न हुआ था, वही अहंकार कहा जाता है। जब वहा अहंरूप में प्रादुर्भूत होता है, तब वह दूसरा सर्ग कहलाता है। यह अहंकार भूतादि विकारों का कारण है, इसलिये वैकारिक माना गया है। यह रजोगुण का स्वरूप है, इसलिये तैजस है। इसका आधार चेतन आत्मा है। सारी प्रजा की सृष्टि इसी से होती है, इसलिये इसको प्रजापति कहते हैं।

    26.2 यह श्रोत्रादि इन्द्रिय रूप देवों का और मन का उत्पत्ति स्थान एवं स्वयं भी देवस्वरूप है, इसलिये इसे त्रिलोकी का कर्त्ता माना गया है। यह सम्पूर्ण जगत अहंकार स्वरूप है, इसलिये यह अभिमन्ता कहा जाता है। जो अध्यात्मज्ञान में तृप्त, आत्मा का चिन्तन करने वाले और स्वाध्याय रूपी यज्ञ में सिद्ध हैं, उन मुनिजनों को यह सनातन लोक प्राप्त होता है।

    26.3 समस्त भूतों का आदि और सबको उत्पन्न करने वाला वह अहंकार आधारभूत जीवात्मा अहंकार के द्वारा सम्पूर्ण गुणों की रचना करता है और उनका उपभोग करता है। यह जो कुछ भी चेष्टाशील जगत है, वह विकारों के कारण रूप अहंकार का ही स्वरूप है। वह अहंकार ही अपने तेज से सारे जगत को रजोमय (भोगों का इच्छुक) बनाता है।

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    अध्याय 27

    27.1 अहंकार से पंच महाभूतों और इन्द्रियों की सृष्टि, अध्यात्म, अधिभूत और अधिदैवत का वर्णन तथा निवृत्ति मार्ग का उपदेश---

    ब्रह्मा जी ने कहा- महर्षिगण! अहंकार से पृथ्वी, वायु, आकाश, जल और पाँचवाँ तेज- ये पंच महाभूत उत्पन्न हुए हैं। इन्हीं पंच महाभूतों में अर्थात इनके शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध नामक विषयों में समस्त प्राणी मोहित रहते हैं। धैर्यशाली महर्षियों! महाभूतों का नाश होते समय जब प्रलय का अवसर आता है, उस समय समस्त प्राणियों को महान भय प्राप्त होता है। जो भूत जिससे उत्पन्न होता है, उसका उसी में लय हो जाता है। ये भूत अनुलोम क्रम से एक के बाद एक प्रकट होते हैं और विलोम क्रम से इनका अपने-अपने कारण में लय होता है। इस प्रकार सम्पूर्ण चराचर भूतों का लय हो जाने पर भी स्मरणशक्ति से सम्पन्न धीर-हृदय योगी पुरुश कभी नहीं लीन होते। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और पाँचवाँ गन्ध तथा इनको ग्रहण करने की क्रियाएँ- ये कारण रूप से (अर्थात सूक्ष्म मन: स्वरूप होने के कारण) नित्य हैं, अत: इनका भी प्रलयकाल में लय नहीं होता। जो (स्थूल पदार्थ) अनित्य हैं उनको मोह के नाम से पुकारा जाता है। लोभ, लोभपूर्वक किये जाने वाले कर्म और उन कर्मों से उत्पन्न समस्त फल समान भाव से वास्तव में कुछ भी नहीं है। शरीर के बाह्य अंग रक्त मांस के संघात आदि एक दूसरे के सहारे रखने वाले हैं। इसीलिये ये दीन और कृपण माने गये हैं। प्राण, अपान, उदान, समान और व्यान- ये पाँच वायु नियत रूप से शरीर के भीतर निवास करते हैं, अत: ये सूक्ष्म हैं। मान, वाणी और बुद्धि के साथ गिनने से इनकी संख्या आठ होती है। ये आठ इस जगत के उपादान कारण हैं।

    27.2 जिसकी त्वचा, नासिका, कान, आँख, रसना और वाक्- ये इन्द्रियाँ वश में हों, मन शुद्ध हो और बुद्धि एक निश्चय पर स्थिर रहने वाली हो तथा जिसके मन को उपर्युक्त इन्द्रियादि रूप आठ अग्नियाँ संतप्त न करती हों, वह पुरुष उस कल्याणमय ब्रह्म को प्राप्त होता है, जिससे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है। द्विजवरो! अहंकार से उत्पन्न हुई जो मन सहित ग्यारह इन्द्रियाँ बतलायी जाती हैं, उनका अब विशेष रूप से वर्णन करूँगा, सुनो। कान, त्वचा, आँख, रसना, पाँचवीं नासिका तथा हाथ, पैर, गुदा, उपस्थ और वाक्- यह दस इन्द्रियों का समूह है। मन ग्यारहवाँ है। मनुष्य को पहले इस समुदाय पर विजय प्राप्त करना चाहिये। तत्पश्चात उसे ब्रह्म का साक्षात्कार होता है। इन इन्द्रियों में पाँच ज्ञानेन्द्रिय हैं और पाँच कर्मेन्द्रिय वस्तुत: कान आदि पाँच इन्द्रियों को ज्ञानेन्द्रिय कहते हैं और उनसे भिन्न शेष जो पांच इन्द्रियाँ हैं, वे कर्मेन्द्रिय कहलाती है। मन का सम्बन्ध ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय दोनों से है और बुद्धि बारहवीं हैं। इस प्रकार क्रमश: ग्यारह इन्द्रियों का वर्णन किया गया। इनके तत्त्व को अच्छी तरह जानने वाले विद्वान अपने को कृतार्थ मानते हैं। अब समस्त ज्ञानेन्द्रियों के भूत, अधिभूत आदि विविध विषयों का वर्णन किया जाता है। आकाश पहला भूत है। कान उसका अध्यात्म (इन्द्रिय), शब्द उसका अधिभूत (विषय) और दिशाएँ उसकी अधिदैवत (अधिष्ठातृ देवता) हैं। वायु दूसरा भूत है। त्वचा उसका अध्यात्म तथा स्पर्श उसका अधिभूत सुना गया है और विद्युत् उसका अधिदैवत है।

    27.3 तीसरे भूत का नाम है तेज। नेत्र उसका अध्यात्म, रूप उसका अधिभूत और सूर्य उसका अधिदैवत कहा जाता है। जल को चौथा भूत समझना चाहिये। रसना उसका अध्यात्म, रस उसका अधिभूत और चन्द्रमा उसका अधिदैवत कहा जाता है। पृथ्वी पाँचवाँ भूत है। नासिका उसका अध्यात्म, गन्ध उसका अधिभूत और वायु उसका अधिदैवत कहा जाता है। इन पाँच भूतों में अध्यात्म, अधिभूत और अधिदैवत रूप तीन भेद माने गये हैं। अब कर्मेन्द्रियों से सम्बन्ध रखने वाले विविध विषयों का निरूपण किया जाता है। तत्त्वदर्शी ब्राह्मण दोनों पैरों को अध्यात्म कहते हैं और गन्तव्य स्थान को उनके अधिभूत तथा विष्णु को उनके अधिदैवत बतलाते हैं।

    27.4 निम्न गति वाला अपान एवं गुदा अध्यात्म कहा गया है और मलत्याग उसका अधिभूत तथा मित्र उसके अधिदेवता हैं। सम्पूर्ण प्राणियों को उत्पन्न करने वाला उपस्थ अध्यात्म है और वीर्य उसका अधिभूत तथा प्रजापति उसके अधिष्ठाता देवता कहे गये हैं। अध्यात्म तत्त्व को जानने वाले पुरुष दोनों हाथों को अध्यात्म बतलाते हैं। कर्म उनके अधिभूत और इन्द्र उनके अधिदेवता हैं। विश्व की देवी पहली वाणी यहाँ अध्यात्म कही गयी है। वक्तव्य उसका अधिभूत तथा अग्नि उसका अधिदैवत है। पंचभूतों का संचालन करने वाला मन अध्यात्म कहा गया है। संकल्प उसका अधिभूत है और चन्द्रमा उसके अधिष्ठाता देवता माने गये हैं। सम्पूर्ण संसार को जन्म देने वाला अहंकार अध्यात्म है और अभिमान उसका अधिभूत तथा रुद्र उसके अधिष्ठाता देवता हैं। पांच इन्द्रियों और छठे मन को जानने वाली बुद्धि को अध्यात्म कहते हैं। मन्तव्य उसका अधिभूत और ब्रह्मा उसके अधिदेवता हैं। प्राणियों के रहने के तीन ही स्थान हैं- जल, थल और आकाश। चौथा स्थान सम्भव नहीं है।

    27.5 देहधारियों का जन्म चार प्रकार का होता है- अण्डज, उद्भिज्ज, स्वेदज और जरायुज। समस्त भूत समुदाय का चार प्रकार का ही जन्म देखा जाता है। इनके अतिरिक्त जो दूसरे आकाशचारी प्राणी हैं तथा जो पेट से चलने वाले सर्प आदि हैं, उन सबको भी अण्डज जानना चाहिये। पसीने से उत्पन्न होने वाले जू आदि कीट और जन्तु स्वेदज कहे जाते हैं। यह क्रमश: दूसरा जन्म पहले की अपेक्षा निम्न स्तर का कहा जाता है। द्विजवरो! जो पृथ्वी को फोड़कर समय पर उत्पन्न होते हैं, उन प्राणियों को उद्भिज्ज कहते हैं। श्रेष्ठ ब्राह्मणो! दो पैर वाले, बहुत पैर वाले एवं टेढ़े मेढ़े चलने वाले तथा विकृत रूप वाले प्राणी जरायुज हैं। ब्राह्मणत्व का सनातन हेतु दो प्रकार का जानना चाहिये- तपस्या ओर पुण्यकर्म का अनुष्ठान, यही विद्वानों का निश्चय है। कर्म के अनेक भेद हैं, उनमें पूजा, दान और यज्ञ में हवन करना- ये प्रधान हैं। वृद्ध पुरुषों का कथन है कि द्विजों के कुल में उत्पन्न हुए पुरुष के लिये वेदों का अध्ययन करना भी पुण्य का कार्य है। द्विजवरो! जो मनुष्य इस विषय को विधिपूर्वक जानता है, वह योगी होता है तथा उसे सब पापों से छुटकारा मिल जाता है। इसे भली-भाँति समझो। इस प्रकार मैंने तुम लोगों से अध्यात्म विधि का यथावत वर्णन किया। धर्मज्ञजन! ज्ञानी पुरुषों को इस विषय का सम्यक ज्ञान होता है।

    27.6 इन्द्रियों, उनके विषयों और पंच महाभूतों की एकता का विचार करके उसे मन में अच्छी तरह धारण कर लेना चाहिये। मन के क्षीण होने के साथ ही सब वस्तुओं का क्षय हो जाने पर मनुष्य को जन्म के सुख (लौकिक सुख भोग आदि) की इच्छा नहीं होती। जिनका अन्त:करण ज्ञान से सम्पन्न होता है, उन विद्वानों को उसी में सुख का अनुभव होता है। महर्षिगण! अब मैं मन की सूक्ष्म भावना को जाग्रत करने वाली कल्याणमयी निवृत्ति के विषय में उपदेश देता हूँ, जो कोमल और कठोर भाव से समस्त प्राणियों में रहती है। जहाँ गुण होते हुए भी नहीं के बराबर हैं, जो अभिमान से रहित और एकान्तचर्या से युक्त हैं तथा जिसमें भेद दृष्टि का सर्वथा अभाव हैं, वही ब्रह्ममय बर्ताव बतलाया गया है, वही समस्त सुखों का एकमात्र आधार है।

    27.7 जैसे कछुआ अपने अंगों को सब ओर से समेट लेता है, उसी प्रकार जो विद्वान मनुष्य अपनी सम्पूर्ण कामनाओं का सब ओर से संकुचित करके रजोगुण से रहित हो जाता है, वह सब प्रकार के बन्धनों से मुक्त एवं सदा के लिये सुखी हो जाता है। जो कामनाओं को अपने भीतर लीन करके तृष्णा से रहित, एकाग्रचित्त तथा सम्पूर्ण प्राणियों का सुहृद और मित्र होता है, वह ब्रह्म प्राप्ति का पात्र हो जाता है। विषयों की अभिलाषा रखने वाली समस्त इन्द्रियों को रोककर जन समुदाय के स्थान का परित्याग करने से मुनि का अध्यात्म ज्ञानरूपी तेज अधिक प्रकाशित होता है। जैसे ईंधन डालने से आग प्रज्वलित होकर अत्यन्त उद्दीप्त दिखायी देती है, उसी प्रकार इन्द्रियों का निरोध करने से परमात्मा के प्रकाश का विशेष अनुभव होने लगता है। जिस समय योगी प्रसन्नचित होकर सम्पूर्ण प्राणियों को अपने अन्त:करण में स्थित देखने लगता है, उस समय वह स्वयंज्योति स्वरूप होकर सूक्ष्म से भी सूक्ष्म सर्वोत्तम परमात्मा को प्राप्त होता है।

    27.8 अग्नि जिसका रूप है, रुधिर जिसका प्रवाह है, पवन जिसका स्पर्श है, पृथ्वी जिसमें हाड़-मांस आदि कठोर रूप में प्रकट है, आकाश जिसका कान है, जो रोग और शोक से चारों ओर से घिरा हुआ है, जो पाँच प्रवाहों से आवृत है, जो पाँच भूतों से भली-भाँति युक्त है, जिसके नौ द्वार हैं, जिसके दो (जीव और ईश्वर) देवता हैं, जो रजोगुणमय, अदृश्य (नाशवान्), (सुख दु:ख और मोहरूप) तीन गुणों से तथा वात, पित्त और कफ इन तीन धातुओं से युक्त है, जो संसर्ग में रत और जड़ है, उसको शरीर समझना चाहिये। जिसका सम्पूर्ण लोक में विचरण करना दु:खद है, जो बुद्धि के आश्रित है, वही इस लोक में कालचक्र है। यह कालचक्र और अगाध और मोह नाम से कहा जाने वाला बड़ा भारी समुद्र रूप है। यह देवताओं के सहित समस्त जागत का संक्षेप और विस्तार करता है तथा सबको जगाता है। सदा इन्द्रियों के निरोध से मनुष्य काम, क्रोध, भय, लोभ, द्रोह और असत्य- इन सब दुस्त्यज अवगुणों को त्याग देता है। जिसने इस लोक में तीन गुणों वाले पांचभौतिक देह का अभिमान त्याग दिया है, उसे अपने हृदयाकाश में पर ब्रह्मरूप उत्तम पद की उपलब्धि होती है- वह मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।

    27.9 जिसमें पाँच इन्द्रिय रूपी बड़े कगारे हैं, जो मनोवेग रूपी महान जलराशि से भरी हुई है और जिसके भीतर मोहमय कुण्ड है, उस देहरूपी नदी को लाँघकर जो काम और क्रोध- दोनों को जीत लेता है, वही सब दोषों से युक्त होकर परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार करता है। जो मन को हृदय कमल में स्थापित करके अपने भीतर ही ध्यान के द्वारा आत्मदर्शन का प्रयत्न करता है, वह सम्पूर्ण भूतों में सर्वज्ञ होता है और उसे अन्त:करण में परमात्मतत्त्व का अनुभव हो जाता है।

    27.10 जैसे एक दीप से सैकड़ों दीप जला लिये जाते हैं, उसी प्रकार एक ही परमात्मा यत्र-तत्र अनेक रूपों में उपलब्ध होता है। ऐसा निश्चय करके ज्ञानी पुरुष नि:सन्देह सब रूपों को एक से ही उत्पन्न देखता है। वास्तव में वही परमात्मा विष्णु, मित्र, वरुण, अग्नि, प्रजापति, धाता, विधाता, प्रभु, सर्वव्यापी, सम्पूर्ण प्राणियों का हृदय तथा महान आत्मा के रूप में प्रकाशित है। ब्राह्मण समुदाय, देवता, असुर, यक्ष, पिशाच, पितर, पक्षी, राक्षस, भूत और सम्पूर्ण महर्षि भी सदा उस परमात्मा की स्तुति करते हैं।

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    अध्याय 28

    28.1 चराचर प्राणियों के अधिपतियों का, धर्म आदि के लक्षणों का और विषयों की अनुभूति के साधनों का वर्णन तथा क्षेत्रज्ञ की विलक्षणता---

    ब्रह्मा जी ने कहा- महर्षियों! मनुष्यों का राजा तो रजोगुण से युक्त क्षत्रिय है। सवारियों में हाथी, बनवासियों में सिंह, समस्त पुशओं में भेड़ और बिल में रहने वालों में सर्प, गौओं में बैल एवं स्त्रियों में पुरुष प्रधान है। बरगद, जामुन, पीपल, सेमल, शीशम, मेषश्रृंग (मेढ़ासिंगी) और पोले बाँस- ये इस लोक में वृक्षों के राजा हैं, इसमें संदेह नहीं है। हिमवान, पारियात्र, सह्य, विन्ध्य, त्रिकूट, श्वेत, नील, भास, कोष्ठवान, पर्वत, गुरुस्कन्ध, महेन्द्र और माल्यवान पर्वत- ये सब पर्वत पर्वतों के अधिपति हैं। गणों के मरुद्गण, ग्रहों के सूर्य और नक्षत्रों के चन्द्रमा अधिपति हैं। यमराज पितरों के और समुद्र सरिताओं के स्वामी हैं। वरुण जल के और इन्द्र मरुद्गणों के स्वामी कहे जाते हैं। उष्ण प्रभा के अधिपति सूर्य हैं और ताराओं के स्वामी चन्द्रमा कहे गये हैं। भूतों के नित्य अधीश्वर अग्निदेव हैं तथा ब्राह्मणों के स्वामी बृहस्पति हैं। औषधियों के स्वामी सोम हैं तथा बलवानों में श्रेष्ठ विष्णु हैं। रूपों के अधिपति सूर्य और पशुओं के ईश्वर भगवान शिव हैं।

    28.2 दीक्षा ग्रहण करने वालों के यज्ञ और देवताओं के इन्द्र अधिपति हैं। दिशाओं की स्वामिनी उत्तर दिशा है एवं ब्राह्मणों के राजा प्रतापी सोम हैं। सब प्रकार के रत्नों के स्वामी कुबेर, देवताओं के स्वामी इन्द्र और प्रजाओं के स्वामी प्रजापति हैं। यह भूतों के अधिपतियों का सर्ग है। मैं ही सम्पूर्ण प्राणियों का महान अधीश्वर और बह्ममय हूँ। मुझसे अथवा विष्णु से बढ़कर दूसरा कोई प्राणी नहीं है। ब्रह्ममय महाविष्णु ही सबके राजाधिराज हैं, उन्हीं को ईश्वर समझना चाहिये। वे श्रीहरि सबके कर्ता हैं, किंतु उनका कोई कर्ता नहीं है। वे विष्णु ही मनुष्य, किन्नर, यक्ष, गन्धर्व, सर्प, राक्षस, देव, दानव और नाग सबके अधीश्वर हैं। कामी पुरुष जिनके पीछे फिरते हैं, उन सब में सुन्दर नेत्रों वाली स्त्री प्रधान है एवं जो माहेश्वरी, महादेवी और पार्वती नाम से कही जाती हैं उन मंगलमयी उमादेवी की स्त्रियों में सर्वोत्तम जानो तथा रमण करने योग्य स्त्रियों में स्वर्ण विभूषित अप्सराएँ प्रधान हैं।

    28.3 राजा धर्म पालन के इच्छुक होते हैं और ब्राह्मण धर्म के सेतु हैं। अत: राजा को चाहिये कि वह सदा ब्राह्मणों का रक्षा का प्रयत्न करे। जिन राजाओं के राज्य में श्रेष्ठ पुरुषों को कष्ट होता है, वे अपने समस्त राजोचित गुणों से हीन हो जाते और मरने के बाद नीच गति को प्राप्त होते हैं। द्विजवरो! जिनके राज्य में श्रेष्ठ पुरुषों की सब प्रकार से रक्षा की जाती है, वे महामना नरेश इस लोक में आनन्द के भीगी होते हैं और परलोक में अक्षय सुख प्राप्त करते हैं, ऐसा समझो। अब मैं सबके नियत धर्म के लक्षणों का वर्णन करता हूँ। अहिंसा सबसे श्रेष्ठ धर्म है और हिंसा अधर्म का लक्षण (स्वरूप) है। प्रकाश देवताओं का और यज्ञ आदि कर्म मनुष्यों का लक्षण हैं। शब्द आकाश का, वायु स्पर्श का, रूप तेज का और रस जल का लक्षण है। गन्ध सम्पूर्ण प्राणियों को धारण करने वाली पृथ्वी का लक्षण है तथा स्वर व्यंजन की शुद्धि से युक्त वाणी का लक्षण शब्द हैं।

    28.4 चिन्तन मन का और निश्चय बुद्धि का लक्षण है, क्योंकि मनुष्य इस जगत में मन के द्वारा चिन्तन की हुई वस्तुओं का बुद्धि से ही निश्चय करते हैं, निश्चय के द्वारा ही बुद्धि जानने में आती है, इसमें संदेह नहीं है। मन का लक्षण ध्यान है और श्रेष्ठ पुरुष का लक्षण बाहर से व्यक्त नहीं होता (वह स्वसंवेद्य हुआ करता है)। योग का लक्षण प्रवृत्ति और संन्यास का लक्षण ज्ञान है। इसलिये बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि वह ज्ञान का आश्रय लेकर यहाँ संन्यास ग्रहण करे। ज्ञानयुक्त संन्यास मौत और बुढ़ापा को लाँघकर सब प्रकार के द्वन्द्वों से परे हो अज्ञानान्धकार के पार पहुँचकर परमगति को प्राप्त होता है।

    28.5 महर्षियो! यह मैंने तुम लोगों से लक्षणों सहित धर्म का विधिवत वर्णन किया। अब यह बतला रहा हूँ कि किस गुण को किस इन्द्रिय से ठीक-ठीक ग्रहण किया जाता है। पृथ्वी का जो गन्ध नामक गुण है, उसका नासिका के द्वारा ग्रहण होता है और नासिका में स्थित वायु उस गन्ध का अनुभव कराने में सहायक होती है। जल का स्वाभाविक गुण रस है, जिसका जिह्वा के द्वारा ग्रहण किया जाता है और जिह्वा में स्थित चन्द्रमा उस रस के आस्वादन में सहायक होता है। तेज का गुण रूप है और वह नेत्र में स्थित सूर्य देवता की सहायता से नेत्र के द्वारा सदा देखा जाता है। वायु का स्वाभाविक गुण स्पर्श है, जिसका त्वचा के द्वारा ज्ञान होता है और त्वचा में स्थित वायुदेव उस स्पर्श का अनुभव कराने में सहायक होता है। आकाश के गुण शब्द का कानों के द्वारा ग्रहण होता है और कान में स्थित सम्पूर्ण दिशाएँ शब्द के श्रवण में सहायक बतायी गयी हैं।

    28.6 मन का गुण चिन्तन है, जिसका बुद्धि के द्वारा ग्रहण किया जाता है और हृदय में स्थित चेतन (आत्मा) मन के चिन्तन कार्य में सहायता देता है। निश्चय के द्वारा बुद्धि का और ज्ञान के द्वारा महत्तत्त्व का ग्रहण होता है। इनके कार्यों से ही इनकी सत्ता का निश्चय होता है और इसी से इन्हें व्यक्त माना जाता है, किंतु वास्वत में तो अतीन्द्रिय होने के कारण ये बुद्धि आदि अव्यक्त ही हैं, इसमें संशय नहीं है।

    28.7 नित्य क्षेत्रज्ञ आत्मा का कोई ज्ञापन लिंग नहीं है, क्योंकि वह (स्वयं प्रकाश और) निर्गुण है। अत: क्षेत्रज्ञ अलिंग (किसी विशेष लक्षण से रहित) है, अत: केवल ज्ञान ही उसका लक्षण (स्वरूप) माना गया है। गुणों की उत्पत्ति और लय के कारण भूत अव्यक्त प्रकृति को क्षेत्र कहते हैं। मैं उसमें संलग्न होकर सदा उसे जानता और सुनता हूँ। आत्मा क्षेत्र को जानता है, इसलिये वह क्षेत्रज्ञ कहलाता है।

    28.8 क्षेत्रज्ञ आदि, मध्य और अन्त से युक्त समस्त उत्पत्तिशील अचेतन गुणों के कार्य को और उनकी क्रिया को भी भली-भाँति जानता है, किंतु बारंबार उत्पन्न होने वाले गुण आत्मा को नहीं जान पाते। जो गुणों और गुणों के कार्यों से अत्यन्त परे हैं, उस परम महान सत्यस्व रूप क्षेत्रज्ञ को कोई नहीं जानता, परंतु वह सबको जानता है। अत: इस लोक में जिसके दोषों का क्षय हो गया है, वह गुणातीत धर्मज्ञ पुरुष सत्त्व (बुद्धि) और गुणों का परित्याग करके क्षेत्रज्ञ के शुद्ध स्वरूप परमात्मा में प्रवेश कर जाता है। क्षेत्रज्ञ सुख-दुखादि द्वन्द्वों से रहित, किसी को नमस्कार न करने वाला, स्वाहाकार रूप यज्ञादि कर्म न करने वाला, अचल और अनिकेत है। वही महान विभु है।

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    अध्याय 29

    29.1 सब पदार्थों के आदि अन्त का और ज्ञान की नित्यता का वर्णन---

    ब्रह्मा जी ने कहा- महर्षियो! अब मैं सम्पूर्ण पदार्थों के नाम लक्षणों सहित आदि, मध्य और अन्त का तथा उनके ग्रहण के उपाय का यथार्थ करता हूँ। पहले दिन है फिर रात्रि; (अत: दिन रात्रि का आदि है। इसी प्रकार) शुक्लपक्ष महीने का, श्रणव नक्षत्रों का और शिशिर ऋतुओं का आदि है। गन्धों का आदि कारण भूमि है। रसों का जल, रूपों का ज्योतिर्मय आदित्य, स्पर्शों का वायु और शब्द का आदिकारण आकाश है। ये गन्ध आदि पंचभूतों से उत्पन्न गुण हैं। अब मैं भूतों के उत्तम आदि का वर्णन करता हूँ। सूर्य समस्त ग्रहों का और जठरानल सम्पूर्ण प्राणियों का आदि बतलाया गया है। सावित्री सब विद्याओं की और प्रजापति देवताओं के आदि हैं।

    29.2 ॐकार सम्पूर्ण वेदों का और प्राण वाणी का आदि है। इस संसार में जो नियत उच्चारण है, वह सब गायत्री कहलाता है। छन्दों का आदि गायत्री और प्रजा का आदि सृष्टि का प्रारम्भ काल है। गौएँ चौपायों की और ब्राह्मण मनुष्यों के आदि हैं। द्विजवरो! पक्षियों में बाज, यज्ञों में उत्तम आहुति और सम्पूर्ण रेंगकर चलने वाले जीवों में साँप श्रेष्ठ हैं। सत्ययुग सम्पूर्ण युगों का आदि हैं, इसमें संशय नहीं है। समस्त रत्नों में सुवर्ण और अन्नों में जो श्रेष्ठ है। सम्पूर्ण भक्ष्य-भोज्य पदार्थों में अन्न श्रेष्ठ कहा जाता है। बहने वाले और सभी पीने योग्य पदार्थों में जल उत्तम है। समस्त स्थावर भूतों में सामान्यत: ब्रह्म क्षेत्र पाकर नाम वाला वृक्ष श्रेष्ठ एवं पवित्र माना गया है। सम्पूर्ण प्रजापतियों का आदि मैं हूँ, इसमें संशय नहीं है। मेरे आदि अचिन्त्यात्मा भगवान विष्णु हैं। उन्हीं को स्वयम्भू कहते हैं। समस्त पर्वतों में सबसे पहले महामेरूगिरि की उत्पत्ति हुई है। दिशा और विदिशाओं में पूर्व दिशा उत्तम और आदि मानी गयी है। सब नदियों में त्रिपथगा गंगा ज्येष्ठ मानी गयी है। सरोवरों में सर्वप्रथम समुद्र का प्रादुर्भाव हुआ है।

    29.3 देव, दानव, भूत, पिशाच, सर्प, राक्षस, मनुष्य, किन्नर और समस्त यक्षों के स्वामी भगवान शंकर हैं। सम्पूर्ण जगत के आदि कारण ब्रह्मस्वरूप महाविष्णु हैं। तीनों लोकों में उनसे बढ़कर दूसरा कोई प्राणी नहीं है। सब आश्रमों का आदि गृहस्थ आश्रम है, इसमें संदेह नहीं है। समस्त जगत का आदि और अन्त अव्यकत प्रकृति ही है। दिन का अन्त है सूर्यास्त और रात्रि का अन्त है सूर्योदय। सुख का सदा दु:ख है और दु:ख का अन्त सदा सुख है। समस्त संग्रह का अन्त है विनाश, उत्थान का अन्त है पतन, संयोग का अन्त है वियोग और जीवन का अन्त मृत्यु। जिन-जिन वस्तुओं का निर्माण हुआ है, उनका नाश अवश्यम्भावी है। जो जन्म ले चुका है उसकी मृत्यु निश्चित है। इस जगत में स्थावर या जंगम कोई भी सदा रहने वाला नहीं है। जितने भी यज्ञ, दान, तप, अध्ययन, व्रत और नियम है, उन सबका अन्त में विनाश होता हे, कवेल ज्ञान का अन्त नहीं होता। इसलिये विशुद्ध ज्ञान के द्वारा जिसका चित्त शान्त हो गया है, जिसकी इन्द्रियाँ वश में हो चुकी है तथा जो ममता और अहंकार से रहित हो गया है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है।

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    अध्याय 30

    30.1 देहरूपी कालचक्र का तथा गृहस्थ और ब्रह्मण के धर्म का कथन---

    ब्रह्मा जी ने कहा- महर्षियों! मन के समान वेग वाला (देहरूपी) मनोरम कालचक्र निरन्तर चल रहा है। यह महत्तत्त्व से लेकर स्थूलभूतों तक चौबीस तत्त्वों से बना हुआ है। इसकी गति कहीं भी नहीं रुकती। यह संसार बन्धन का अनिवार्य कारण है। बुढ़ापा और शोक इसे घेरे हुए हैं। यह रोग और दुर्व्यसनों की उत्पत्ति का स्थान है। यह देश और काल के अनुसार विचरण करता रहता है। बुद्धि इस काल चक्र का सार, मन खम्भा और इन्द्रिय समुदाय बन्धन हैं। पंचमहाभूत इसका तना है। अज्ञान ही इसका आवरण है। श्रम तथा व्यायाम इसके शब्द हैं। रात और दिन इस चक्र का संचालन करते हैं। सर्दी और गर्मी इसका घेरा है। सुख और दु:ख इसकी सन्धियाँ (जोड़) हैं। भूख और प्यास इसके कीलक तथा धूप और छाया इसकी रेखा हैं। आँखों के खोलने और मीचने से इसकी व्याकुलता (चंचलता) प्रकट होती है। घोर मोह रूपी जल (शोकाश्रु) से यह व्याप्त रहता है। यह सदा ही गतिशील और अचेतन है। मास और पक्ष आदि के द्वारा इसकी आयु की गणना की जाती है। यह कभी भी एक सी अवस्था में नहीं रहता।

    30.2 ऊपर-नीचे और मध्यवर्ती लोकों में सदा सक्कर लगाता रहता है। तमोगुण के वश में होने पर इसकी पाप पक में प्रवृति होती है और रजोगुण का वेग इसे भिन्न-भिन्न कर्मों में लगाया करता है। यह महान दर्प से उद्दीप्त रहता है। तीनों गुणों के अनुसार इसकी प्रवृत्ति देखी जाती है। मानसिक चिन्ता ही इस चक्र की बन्धन पट्टिका है। यह सदा शोक और मृत्यु के वशीभूत रहने वाला तथा क्रिया और कारण से युक्त है। आसक्ति ही उसका दीर्घ विस्तार (लंबाई-चौड़ाई) है। लोभ और तृष्णा ही इस चक्र को ऊँचे-नीचे स्थानों में गिराने के हेतु हैं। अद्भुत अज्ञान (माया) इसकी उत्पत्ति का कारण है। भय और मोह से सब ओर से घेरे हुए हैं। यह प्राणियों को मोह में डालने वाला, आनन्द और प्रीति के लिये विचरने वाला तथा काम और क्रोध का संग्रह करने वाला है।

    30.3 यह राग द्वेषादि द्वन्द्वों से युक्त जड़ देहरूपी कालचक्र ही देवताओं सहित सम्पूर्ण जगत की सृष्टि और संहार का कारण है। तत्त्व ज्ञान की प्राप्ति का भी यही साधन है। जो मनुष्य इस देहमय कालचक्र की प्रवृत्ति और निवृत्ति को सदा अच्छी तरह जानता है, वह कभी मोह में नहीं पड़ता। वह सम्पूर्ण वासनाओं, सब प्रकार के द्वन्द्वों और समस्त पापों से मुक्त होकर परम गति को प्राप्त होता है। ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और संन्यास- ये चार आश्रम शास्त्रों में बताये गये हैं। गृहस्थ आश्रम ही इन सबका मूल है। इस संसार में जो कोई भी विधि-निषेध रूप शास्त्र कहा गया है, उसमें पारंगत विद्वान होना गृहस्थ द्विजों के लिये उत्तम बात है। इसी से सनातन यश की प्राप्ति होती है। पहले सब प्रकार के संस्कारों से सम्पन्न होकर वेदोक्त विधि से अध्ययन करते हुए ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना चाहिये। तत्पश्चात तत्त्व वेत्ता को उचित है कि वह समावर्तन संस्कार करके उत्तम गुणों से युक्त कुल में विवाह करें। अपनी ही स्त्री पर प्रेम रखना, सदा सत्पुरुषों के आचार का पालन करना और जितेन्द्रिय होना गृहस्थ के लिये परम आवश्यक है। इस आश्रम में उसे श्रद्धापूर्वक पंचमहायज्ञों के द्वारा देवता आदि का यजन करना चाहिये।

    30.4 गृहस्थ को उचित है कि वह देवता और अतिथितियों को भोजन कराने के बाद बचे हुए अन्न का स्वयं आहार करे। वेदोक्त कर्मों के अनुष्ठान में संलग्न रहे। अपनी शक्ति के अनुसार प्रसन्नतापूर्वक यज्ञ करे और दान दे। मननशील गृहस्थ को चाहिये कि हाथ, पैर, नेत्र, वाणी तथा शरीर के द्वारा होने वाली चपलता का परित्याग करे अर्थात इनके द्वारा कोई अनुचित कार्य न होने दे। यही सत्पुरुषों का बर्ताव (शिष्टाचार) है। सदा यज्ञोपवीत धारण किये रहे, स्वच्छ वस्त्र पहने, उत्तम व्रत का पालन करे, शौच संतोष आदि नियमों और सत्य अहिंसा आदि यमों के पालनपूर्वक यथाशक्ति दान करता रहे तथा सदा शिष्ट पुरुषों के साथ निवास करे। शिष्टाचार का पालन करते हुए जिह्वा और उपस्थ को काबू में रखे। सबके साथ मित्रता का बर्ताव करे।

    30.5 बाँस की छड़ी और जल से भरा हुआ कमण्डलु सदा साथ रखे। वह आलस्य छोड़कर सदा तीन कमण्डलु धारण करे। एक आचमन के लिये, दूसरा पैर धोने के लिये और तीसरा शौच सम्पादन के लिये। इस प्रकार कमण्डलु धारण के ये तीन प्रयोजन हैं। ब्राह्मण को अध्ययन-अध्यापन, यजन-याजन और दान तथा प्रतिग्रह- इन छ: वृत्तियों का आश्रय लेना चाहिये। इन में से तीन कर्म- याजन (यज्ञ करना), अध्यापन (पढ़ाना) और श्रेष्ठ पुरुषों से दान लेना- ये ब्राह्मण की जीविका के साधन हैं। शेष तीन कर्म- दान, अध्ययन तथा यज्ञानुष्ठान करना- ये धर्मोंपार्जन के लिये हैं। धर्मज्ञ ब्राह्मण को इनके पालन में कभी प्रामद नहीं करना चाहिये। इन्द्रिय संयमी, मित्र भाव से युक्त, क्षमावान, सब प्राणियों के प्रति समान भाव रखने वाला, मननशील, उत्तम व्रत का पालन करने वाला और पवित्रता से रहने वाला गृहस्थ ब्राह्मण सदा सावधान रहकर अपनी शक्ति के अनुसार यदि उपर्युक्त नियमों का पालन करता है तो वह स्वर्गलोक को जीत लेता है।

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    अध्याय 31

    31.1 ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और संन्यासी के धर्म का वर्णन---

    ब्रह्मा जी ने कहा- महर्षिगण! इस प्रकार इस पूर्वोक्त मार्ग के अनुसार गृहस्थ को यथावत आचरण करना चाहिये एवं यथाशक्ति अध्ययन करते हुए ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाले पुरुष को चाहिये कि वह अपने धर्म में तत्पर रहे, विद्वान बने, सम्पूर्ण इन्द्रियों को अपने अधीन रखे, मुनि व्रत का पालन करे, गुरु का प्रिय और हित करने में लगा रहे, सत्य बोले तथा धर्म परायण एवं पवित्र रहे। गुरु की आज्ञा लेकर भोजन करे। भोजन के समय अन्न की निन्दा न करे। भिक्षा के अन्न को हविष्य मानकर ग्रहण करे। एक स्थान पर रहे। एक आसन से बैठे और नियत समय में भ्रमण करे। पवित्र और एकाग्रचित्त होकर दोनों समय अग्नि में हवन करे। सदा बेल या पलाश का दण्ड लिये रहे। रेशमी अथवा सूती वस्त्र या मृगचर्म धारण करे। अथवा ब्राह्मण के लिये सारा वस्त्र गेरुए रंग का होना चाहिये। ब्रह्मचारी मूँज की मेखला पहने, जटा धारण करे, प्रतिदिन स्नान करे, यज्ञोपवतीत पहने, वेद के स्वाध्याय में लगा रहे तथा लोभ हीन होकर नियमपूर्वक व्रत का पालन करे। जो ब्रह्मचारी सदा नियम परायण होकर श्रद्धा के साथ शुद्ध जल से नित्य देवताओं का तर्पण करता है, उसकी सर्वत्र प्रशंसा होती है।

    31.2 इसी प्रकार आगे बतलाये जाने वाले उत्तम गुणों से युक्त जितेन्द्रिय वानप्रस्थी पुरुष भी उत्तम लोकों पर विजय पाता है। वह उत्तम स्थान को पाकर फिर इस संसार में जन्म धारण नहीं करता। वानप्रस्थ मुनि को सब प्रकार के संस्कारों के द्वारा शुद्ध होकर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए घर की ममता त्यागकर गाँव से बाहर निकलकर वन में निवास करना चाहिये। वह मृगचर्म अथवा वल्कल वस्त्र पहने। प्रात: और सायंकाल के समय स्नान करे। सदा वन में ही रहे। गाँव में फिर कभी प्रवेश न करे। अतिथि को आश्रम दे और समय पर उनका सत्कार करे। जंगली फल, मूल, पत्ता अथवा सावाँ खाकर जीवन निर्वाह करे। बहते हुए जल, वायु आदि सब वन की वस्तुओं का ही सेवन करे। अपने व्रत के अनुसार सदा सावधान रहकर क्रमश: उपर्युक्त वस्तुओं का आहार करे। यदि कोई अतिथि आ जाय तो फल मूल की भिक्षा देकर उसका सत्कार करे। कभी आलस्य न करे। जो कुछ भोजन अपने पास उपस्थित हो, उसी में से अतिथि को भिक्षा दे।

    31.3 नित्य प्रति पहले देवता और अतिथियों को भोजन दे, उसके बाद मौन होकर स्वयं अन्न ग्रहण करे। मन में किसी के साथ स्पर्धा न रखे, हल्का भोजन करे, देवताओं का सहारा ले। इन्द्रियों का संयम करे, सबके साथ मित्रता का बर्ताव करे, क्षमाशील बने और दाढ़ी मूँछ तथा सिर के बालों को धारण किये रहे। समय पर अग्निहोत्र और वेदों का स्वाध्याय करे तथा सत्य धर्म का पालन करे। शरीर को सदा पवित्र रखे। धर्म पालन में कुशलता प्राप्त करे। सदा वन में रहकर चित्त को एकाग्र किये रहे। इस प्रकार उत्तम धर्मों को पालन करने वाला जितेन्द्रिय वानप्रस्थी स्वर्ग पर विजय पाता है। ब्रह्मचारी, गृहस्थ अथवा वानप्रस्थ कोई भी क्यों न हो, जो मोक्ष पाना चाहता हो, उसे उत्तम वृत्ति का आश्रय लेना चाहिये।

    31.4 (वानप्रस्थ की अवधि पूरी करके) सम्पूर्ण भूतों को अभय दान देकर कर्म त्याग रूप संन्यास धर्म का पालन करे। सब प्राणियों के सुख में सुख माने। सबके साथ मित्रता रखे। समस्त इन्द्रियों का संयम और मुनि वृत्ति का पालन करे। बिना याचना किये, बिना संकल्प के दैवात जो अन्न प्राप्त हो जाय, उस भिक्षा से ही जीवन निर्वाह करे। प्रात: काल का नित्यकर्म करने के बाद जब गृहस्थों के यहाँ रसोई घर से धुआँ निकलना बंद हो जाय, घर के सब लोग खा पी चुकें और बर्तन धो-माजकर रख दिये गये हों, उस समय मोक्ष धर्म के ज्ञाता संन्यासी को भिक्षा लेने की इच्छा करनी चाहिये। भिक्षा मिल जाने पर हर्ष और न मिलने पर विषाद न करे। (लोभवश) बहुत अधिक भिक्षा का संग्रह न करे। जितने से प्राण यात्रा का निर्वाह हो उतनी ही भिक्षा लेनी चाहिये।

    31.5 संन्यासी जीवन निर्वाह के ही लिये भिक्षा माँगे। उचित समय तक उसके मिलने की बाट देखे। चित्त को एकाग्र किये रहे। साधारण वस्तुओं की प्राप्ति की भी इच्छा न करे। जहाँ अधिक सम्मान होता हो, वहाँ भोजन न करे। मान प्रतिष्ठान के लाभ से संन्यासी को घृणा करनी चाहिये। वह खाये हुए तिक्त, कसैले तथा कड़वे अन्न का स्वाद न ले। भोजन करते समय मधुर रस का भी आस्वादन न करे। केवल जीवन निर्वाह के उद्देश्य से प्राण धारण मात्र के लिये उपयोगी अन्न का आहार करे। मोक्ष के तत्त्व को जानने वाला संन्यासी दूसरे प्राणियों की जीविका में बाधा पहुँचाये बिना ही यदि भिक्ष मिल जाती हो तभी उसे स्वीकार करे। भिक्षा माँगते समय दाता के द्वारा दिये जाने वाले अन्न के सिवा दूसरा अन्न लेने की कदापि इच्छा न करे। उसे अपने धर्म का प्रदर्शन नहीं करना चाहिये। रजोगुण से रहित होकर निर्जन स्थान में विचरते रहना चाहिये। रात को सोने के लिये सूने घर, जंगल, वृक्ष की जड़, नदी के किनारे अथवा पर्वत की गुफा का आश्रय लेना चाहिये।

    31.6 ग्रीष्मकाल में गाँव में एक रात से अधिक नहीं रहना चाहिये, किंतु वर्षाकाल में किसी एक ही स्थान पर रहना उचित हैं। जब तक सूर्य का प्रकाश रहे तभी तक संन्यासी के लिये रास्ता चलना उचित है। वह कीड़े की तरह धीरे-धीरे समूची पृथ्वी पर विचरता रहे और यात्रा के समय जीवों पर दया करके पृथ्वी को अच्छी तरह देख भालकर आगे पाँव रखे। किसी प्रकार का संग्रह न करे और कहीं भी आसक्तिपूर्वक निवास न करे। मोक्ष धर्म के ज्ञाता संन्यासी को उचित है कि सदा पवित्र जल से काम ले। प्रतिदिन तुरंत निकाले हुए जल से स्नान करे (बहुत पहले के भरे हुए जल से नहीं)। अहिंसा, ब्रह्मचर्य, सत्य, सरलता, क्रोध का अभाव, दोष दृष्टि का त्याग, इन्द्रिय संयम और चुगली न खाना- इन आठ व्रतों का सदा सावधानी के साथ पालन करे। इन्द्रियों को वश में रखे। उसे सदा पाप, शठता और कुटिलता से रहित होकर बर्ताव करना चाहिये। नित्यप्रति जो अन्न अपने आप प्राप्त हो जाय, उसको ग्रहण करना चाहिये, किंतु उसके लिये भी मन में इच्छा नहीं रखनी चाहिए। प्राण यात्रा का निर्वाह करने के लिये जितना अन्न आवश्यक है, उतना ही ग्रहण करे। धर्मत: प्राप्त हुए अन्न का ही आहार करे। मनमाना भोजन न करे।

    31.7 खाने के लिये अन्न और शरीर ढकने के लिये वस्त्र के सिवा और किसी वस्तु का संग्रह न करे। भिक्षा भी, जितनी भोजन के लिये आवश्यक हो, उतनी ही ग्रहण करे, उससे अधिक नहीं। बुद्धिमान संन्यासी को चाहिये कि दूसरों के लिये भिक्षा न माँगे तथा सब प्राणियों के लिये दया भाव से संविभागपूर्वक कभी कुछ देने की इच्छा भी न करे। दूसरों के अधिकार का अपहरण न करे। बिना प्रार्थना के किसी की कोई वस्तु स्वीकार न करे। किसी अच्छी वस्तु का उपभोग करके फिर उसके लिये लालायित न रहे। मिट्टी, जल, अन्न, पत्र, पुष्प और फल- ये वस्तुएँ यदि किसी के अधिकार में न हों तो आवश्यकता पड़ने पर क्रियाशील संन्यासी इन्हें काम में ला सकता है। वह शिल्पकारी करके जीविका न चलावे, सवर्ण की इच्छा न करे। किसी से द्वेष न करे और उपदेशक न बने तथा संग्रहरहित रहे। श्रद्धा से प्राप्त हुए पवित्र अन्न का आहार करे। मन में कोई निमित्त न रखे। सबके साथ अमृत के समान मधुर बर्ताव करे, कहीं भी आसक्त न हो और किसी भी प्राणी के साथ परिचय न बढ़ावे। जितने भी कामना और हिंसा से युक्त कर्म हैं, उन सबका एवं लौकिक कर्मों का स्वयं अनुष्ठान करे और न दूसरों से करावे। सब प्रकार के पदार्थों की आसक्ति का उल्लंघन करके थोड़े में संतुष्ट हो सब और विचरता रहे। स्थावर और जंगम सभी प्राणियों के प्रति समान भाव रखे।

    31.8 किसी दूसरे प्राणी को उद्वेग में न डाले और स्वयं भी किसी से उद्विग्न न हो। जो सब प्राणियों का विश्वास पात्र बन जाता है, वह सबसे श्रेष्ठ और मोक्ष धर्म का ज्ञाता कहलाता है। संन्यासी को उचित है कि भविष्य के लिये विचार न करे, बीती हुई घटना का चिन्तन न करे और वर्तमान की भी उपेक्षा कर दे। केवल काल की प्रतीक्षा करता हुआ चित्तवृत्तियों का समाधान करता रहे। नेत्र से, मन से और वाणी से कहीं भी दोषदृष्टि न करे।

    31.9 सबके सामने या दूसरों की आँख बचाकर कोई बुराई न करे। जैसे कछुआ अपने अंगों को सब ओर से समेट लेता है, उसी प्रकार इन्द्रियों को विषयों की ओर से हटा ले। इन्द्रिय, मन और बुद्धि को दुर्बल करके निश्चेष्ट हो जाय। सम्पूर्ण तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त करे। द्वन्द्वों से प्रभावित न हो, किसी के सामने माथा न टेके। स्वाहाकार (अग्निहोत्र आदि) का परित्याग करे। ममता और अहंकार से रहित हो जाय, योग क्षेम की चिन्ता न करे। मन पर विजय प्राप्त करे। जो निष्काम, निर्गुण, शान्त, अनासक्त, निराश्रय, आत्मपरायण और तत्त्व का ज्ञाता होता है, वह मुक्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं हैं।

    31.10 जो मनुष्य आत्मा को हाथ, पैर, पीठ, मस्तक और उदर आदि अंगों से रहित, गुण कर्मों से हीन, केवल, निर्मल, स्थिर, रूप-रस-गन्ध-स्पर्श और शब्द से रहित, ज्ञेय, अनासक्त, हाड़ मांस के शरीर से, निश्चिन्त, अविनाशी, दिव्य और सम्पूर्ण प्राणियों में स्थित सदा एकरस रहने वाला जानते हैं, उनकी कभी मृत्यु नहीं होती। उस आत्मतत्त्व तक बुद्धि, इन्द्रिय और देवताओं की भी पहुँच नहीं होती। जहाँ केवल ज्ञानवान महात्माओं की ही गती है, वहाँ वेद, यज्ञ, लोक, तप और व्रत का भी प्रवेश नहीं होता, क्योंकि वह बाह्य चिह्न से रहित मानी गयी है। इसलिये बाह्य चिह्नों से रहित धर्म को जानकर उसका यथार्थ रूप से पालन करना चाहिये।

    31.11 गुह्य धर्म में स्थित विद्वान पुरुष को उचित है कि वह विज्ञान के अनुरूप आचरण करे। मूढ़ न होकर भी मूढ़ के समान बर्ताव करे, किंतु अपने किसी व्यवहार से धर्म को कलंकित न करे। जिस काम के करने से समाज के दूसरे लोग अनादर करें, वैसा ही काम शान्त रहकर सदा करता रहे, किंतु सत्पुरुषों के धर्म की निन्दा न करे।

    31.12 जो इस प्रकार के बर्ताव से सम्पन्न है, वह श्रेष्ठ मुनि कहलाता है। जो मनुष्य इन्द्रिय, उनके विषय, पंचमहाभूत, मन, बुद्धि, अहंकार, प्रकृति और पुुरुष- सबका विचार करके इन के तत्त्व का यथावत निश्चय कर लेता है, वह सम्पूर्ण बन्धनों से मुक्त होकर स्वर्ग को प्राप्त कर लेता है।

    31.13 जो तत्त्ववेत्ता अन्त समय में इन तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त करके एकान्त में बैठकर परमात्मा का ध्यान करता है, वह आकाश में विचरने वाले वायु की भाँति सब प्रकार की आसक्तियों से छूटकर पंचकोशों से रहित, निर्भय तथा निराश्रय होकर मुक्त एवं परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।

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    अध्याय 32

    32.1 मुक्ति के साधनों का, देहरूपी वृक्ष का तथा ज्ञान खड्ग से उसे काटने का वर्णन---

    ब्रह्मा जी ने कहा- महर्षियो! निश्चित बात कहने वाले और वेदों के कारण रूप परमात्मा में स्थित वृद्ध ब्राह्मण संन्यास को तप कहते हैं और ज्ञान को ही परब्रह्म का स्वरूप मानते हैं। वह वेदिविद्या का आधार ब्रह्म (अज्ञानियों के लिये) अत्यन्त दूर है। वह निर्द्वन्द्व, निर्गुण, नितय, अचिन्त्य गुणों से युक्त और सर्वश्रेष्ठ है। धीर पुरुष ज्ञान और तपस्या के द्वारा उस परमात्मा का साक्षात्कार करते हैं। जिनके मन की मैल धुल गयी है, जो परम पवित्र हैं, जिन्होंने रजोगुण को त्याग दिया है, जिनका अन्त:करण निर्मल है, जो नित्य संन्यास परायण तथा ब्रह्म के ज्ञाता हैं, वे पुरुष तपस्या के द्वारा कल्याणमय पथ का आश्रय लेकर परमेश्वर को प्राप्त होते हैं। ज्ञानी पुरुषों का कहना है कि तपस्या (परमात्मतत्त्व को प्रकाशित करने वाला) दीपक है, आचार धर्म का साधक है, ज्ञान परब्रह्म का स्वरूप है और संन्यास ही उत्तम तप है। जो तत्त्व का पूर्ण निश्चय करके ज्ञान स्वरूप निराधार और सम्पूर्ण प्राणियों के भीतर रहने वाले आत्मा को जान लेता है, वह सर्वव्यापक हो जाता है। जो विद्वान संयोग को भी वियोग के रूप में ही देखता है तथा वैसे ही नानात्व में एकत्व देखता है, वह दु:ख से सर्वथा मुक्त हो जाता है। जो किसी वस्तु की कामना तथा किसी की अवहेलना नहीं करता, वह इस लोक में रहकर भी ब्रह्मस्वरूप होने में समर्थ हो जाता है। जो सब भूतों में प्रधान- प्रकृति को तथा उसके गुण एवं तत्त्व को भली-भाँति जानकर ममता और अहंकार से रहित हो जाता है, उसके मुक्त होने में संदेह नहीं है। जो द्वन्द्वों से रहित, नमस्कार की इच्छा न रखने वाला और स्वधाकार (पितृ कार्य) न करने वाला संन्यासी है, वह अतिशय शान्ति के द्वारा ही निर्गुण, द्वन्द्वातीत, नित्य तत्त्व को प्राप्त कर लेता है।

    32.2 शुभ और अशुभ समस्त त्रिगुणात्मक कर्मों का तथा सत्य और असत्य- इन दोनों का भी त्याग करके संन्यासी मुक्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं है। यह देह एक वृक्ष के समान है। अज्ञान इसका मूल (जड़) है, बुद्धि स्कन्ध (तना) है, अहंकार शाखा है, इन्द्रियाँ अंकुर और खोखले हैं तथा पंचमहाभूत इसको विशाल बनाने वाले हैं और इस वृक्ष की शोभा बढ़ाते हैं। इसमें सदा ही संकल्परूपी पत्ते उगते और कर्मरूपी फूल खिलते रहते हैं। शुभाशुभ कर्मों से प्राप्त होने वाले सुख दु:खादि ही इसमें सदा लगे रहने वाले फल हैं। इस प्रकार ब्रह्मरूपी बीज से प्रकट होकर प्रवाह रूप से सदा मौजूद रहने वाला यह देहरूपी वृक्ष समस्त प्राणियों की जीवन का आधार है।

    32.3 बुद्धिमान पुरुष तत्त्वज्ञान रूपी खड्ग से इस वृक्ष को छिन्न भिन्न कर जब जन्म मृत्यु और जरावस्था के चक्कर में डालने वाले आसक्ति रूप बन्धनों को तोड़ा डालता है तथा ममता और अहंकार से रहित हो जाता है, उस समय उसे अवश्य मुक्ति प्राप्त होती है, इसमें संशय नहीं है। इस वृक्ष पर रहने वाले (मन बुद्धिरूप) दो पक्षी हैं, जो नित्य क्रियाशील होने पर भी अचेतन हैं। इन दोनों से श्रेष्ठ अन्य (आत्मा) है, वह ज्ञान सम्पन्न कहा जाता है। संख्या से रहित जो सत्त्व अर्थात मूल प्रकृति है, वह अचेतन है। उससे भिन्न जो जीवात्मा है, उसे अन्तर्यामी परमात्मा ज्ञान सम्पन्न करता है। वही क्षेत्र को जानने वाला जब सम्पूर्ण तत्त्वों को जान लेता है, तब गुणातीत हाकर सब पापों से छूट जाता है।

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    अध्याय 33

    33.1 आत्मा और परमात्मा के स्वरूप का विवेचन---

    ब्रह्मा जी ने कहा- महर्षिगण! इस अव्यक्त, उत्पत्तिशील, अविनाशी सम्पूर्ण वृक्षों को कोई ब्रह्म स्वरूप मानते है और कोई महान ब्रह्मवन मानते हैं। कितने ही इसे अव्यक्ति ब्रह्म और कितने ही परम अनामय मानते हैं। जो मनुष्य अन्तकाल में आत्मा का ध्यान करके, साँस लेने में जितनी देर लगती है, उतनी देर भी, समभाव में स्थित होता है, वह अमृत्व (मोक्ष) प्राप्त करने का अधिकरी हो जाता है। जो एक निमेष भी अपने मन को आत्मा में एकाग्र कर लेता है, वह अन्त:करण की प्रसन्नता को पाकर विद्वानों को प्राप्त होने वाली अक्षय गति को पा जाता है। दस अथवा बारह प्राणायामों के द्वारा पुन:-पुन: प्राणों का संयम करने वाला पुरुष भी चौबीस तत्त्वों परे पच्चीसवें तत्त्व परमात्मा को प्राप्त होता है। इस प्रकार जो पहले अपने अन्त:करण को शुद्ध कर लेता है, वह जो-जो चाहता है उसी-उसी वस्तु को पा जाता है। अव्यक्त से उत्कृष्ट जो सत्स्वरूप आत्मा है, वह अमर होने में समर्थ है। अत: सत्त्वस्वरूप आत्मा के महत्त्व को जानने वाले विद्वान इस जगत में सत्त्व से बढ़कर और किसी वस्तु की प्रशंसा नहीं करते।

    33.2 द्विजवरो! इस अनुमान प्रमाण के द्वारा इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि अन्तर्यामी परमात्मा सत्त्वस्वरूप आत्मा में स्थित हैं। इस तत्त्व को समझे बिना परम पुरुष को प्राप्त करना सम्भव नहीं है। क्षमा, धैर्य, अहिंसा, समता, सत्य, सरलता, ज्ञान, त्याग तथा संन्यास- ये सात्त्विक बर्ताव बताये गये हैं। मनीषी पुरुष इसी अनुमान से उस सत्त्वस्वरूप आत्मा का और परमात्मा का मनन करते हैं। इसमें कोई विचारणीय बात नहीं है। ज्ञान में भली-भाँति स्थित कितने ही विद्वान कहते है कि क्षेत्रज्ञ और सत्त्व की एकता युक्तिसंगत नहीं है। उनका कहना है कि उस क्षेत्रज्ञ से सत्त्व पृथक है, क्योंकि यह सत्त्व अविचार सिद्ध है।

    33.3 ये दोनों एक साथ हरने वाले होने पर भी तत्त्वत: अलग-अलग हैं- ऐसा समझना चाहिये। इसी प्रकार दूसरे विद्वानों का निर्णय दोनों के एकत्व और नानात्व को स्वीकार करता है, क्योंकि मशक और उदुम्बर की एकता और पृथकता देखी जाती है। जैसे जल से मछली भिन्न है तो भी मछली और जल- दोनों का संयोग देखा जाता है एवं जल की बूँदों का कमल के पत्ते से सम्बन्ध देखा जाता है। गुरु ने कहा- इस प्रकार कहने पर उन मुनिश्रेष्ठ ब्राह्मणों ने पुन: संशय में पड़कर उस समय लोक पितामह ब्रह्मा जी से पूछा।

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    अध्याय 34

    34.1 धर्म का निर्णय जानने के लिये ऋषियों का प्रश्---

    न ऋषियों ने पूछा- ब्रह्मन! इस जगत में समस्त धर्मों में कौन सा अनुष्ठान करने के लिये सर्वोत्तम माना गया है, यह कहिये, क्योंकि हमें धर्म के विभिन्न मार्ग एक दूसरे से आहत हुए से प्रतीत होते हैं। कोई तो कहते हैं कि देह का नाश होने के बाद धर्म का फल मिलेगा। दूसरे कहते हैं कि ऐसी बात नहीं है। कितने ही लोग सब धर्मों को संशययुक्त बताते हैं और दूसरे संशय रहित कहते हैं। कोई कहते हैं कि धर्म अनित्य है और कोई उसे नित्य कहते हैं। दूसरे कहते हैं कि धर्म नाम की कोई वस्तु ही नहीं। कोई कहते है कि अवश्य है। कोई कहते है कि एक ही धर्म दो प्रकार का है तथा कुछ लोग कहते हैं कि धर्म मिश्रित है। वेद शास्त्रों के ज्ञाता तत्त्वदर्शी ब्राह्मण लोग यह मानते है कि एक ब्रह्म ही है।

    34.2 अन्य कितने ही कहते हैं कि जीव और ईश्वर अलग-अलग हैं और दूसरे लोग सबकी सत्ता भिन्न और बहुत प्रकार से मानते हैं। कितने ही लोग देश और काल की सत्ता मानते हैं। दूसरे लोग कहते हैं कि इनकी सत्ता नहीं है। कोई जटा और मृगचर्म धारण करने वाले हैं, कोई सिर मुँडाते हैं और कोई दिगम्बर रहते हैं। कितने ही मनुष्य स्नान नहीं करना चाहते और दूसरे लोग जो शास्त्रज्ञ तत्त्वदर्शी ब्राह्मण देवता हैं, वे स्नान को ही श्रेष्ठ मानते हैं। कई लोग भोजन करना अच्छा मानते हैं और कई भोजन न करने में अभिरत रहते हैं। कई कर्म करने की प्रशंसा करते हैं और दूसरे लोग परम शान्ति की प्रशंसा करते हैं। कितने ही मोक्ष की प्रशंसा करते हैं और कितने ही नाना प्रकार के भोगों की प्रशंसा करते हैं। कुछ लोग बहुत सा धन चाहते हैं और दूसरे निर्धनता को पसंद करते हैं। कितने ही मनुष्य अपने उपास्य इष्टदेव की प्राप्ति की साधन करते हैं और दूसरे कितने ही ऐसा कहते हैं कि ‘यह नहीं हैं’।

    34.3 अन्य कई लोग अहिंसा धर्म का पालन करने में रुचि रखते हैं और कई लोग हिंसा के परायण हैं। दूसरे कई पुण्य और यश से सम्पन्न हैं। इनसे भिन्न दूसरे कहते हैं कि ‘यह सब कुछ नहीं है।’ अन्य कितने ही सद्भाव में रुचि रखते हैं। कितने ही लोग संशय में पड़े रहते हैं। कितने ही साधक कष्ट सहन करते हुए ध्यान करते हैं और दूसरे कई सुखपूर्वक ध्यान करते हैं। अन्य ब्राह्मण यज्ञ को श्रेष्ठ बताते हैं और दूसरे दान की प्रशंसा करते हैं। अन्य कई तप की प्रशंसा करते हैं तथा दूसरे स्वाध्याय की प्रशंसा करते हैं। कई लोग कहते हैं कि ज्ञान ही संन्यास है। भौतिक विचार वाले मनुष्य स्वभाव की प्रशंसा करते हैं। कितने ही सभी की प्रशंसा करते हैं और दूसरे सबकी प्रशंसा नहीं करते। सुरश्रेष्ठ ब्रह्मन! इस प्रकार धर्म की व्यवस्था अनेक ढंग से परस्पर विरुद्ध बतलायी जाने के कारण हम लोग धर्म के विषय में मोहित हो रहे हैं, अत: किसी निश्चय पर नहीं पहुँच पाते।

    34.4 अन्य कई लोग अहिंसा धर्म का पालन करने में रुचि रखते हैं और कई लोग हिंसा के परायण हैं। दूसरे कई पुण्य और यश से सम्पन्न हैं। इनसे भिन्न दूसरे कहते हैं कि ‘यह सब कुछ नहीं है।’ अन्य कितने ही सद्भाव में रुचि रखते हैं। कितने ही लोग संशय में पड़े रहते हैं। कितने ही साधक कष्ट सहन करते हुए ध्यान करते हैं और दूसरे कई सुखपूर्वक ध्यान करते हैं। अन्य ब्राह्मण यज्ञ को श्रेष्ठ बताते हैं और दूसरे दान की प्रशंसा करते हैं। अन्य कई तप की प्रशंसा करते हैं तथा दूसरे स्वाध्याय की प्रशंसा करते हैं। कई लोग कहते हैं कि ज्ञान ही संन्यास है। भौतिक विचार वाले मनुष्य स्वभाव की प्रशंसा करते हैं। कितने ही सभी की प्रशंसा करते हैं और दूसरे सबकी प्रशंसा नहीं करते। सुरश्रेष्ठ ब्रह्मन! इस प्रकार धर्म की व्यवस्था अनेक ढंग से परस्पर विरुद्ध बतलायी जाने के कारण हम लोग धर्म के विषय में मोहित हो रहे हैं, अत: किसी निश्चय पर नहीं पहुँच पाते।

    34.5 'यही कल्याण मार्ग है, यही कल्याण मार्ग है’- इस प्रकार की बातें सुनकर मनुष्य समुदाय विचलित हो गया है। जो जिस धर्म में रत है, वह उसी का सदा आदर करता है।

    34.6 इस कारण हम लोगों की बुद्धि विचलित हो गयी है और मन भी बहुत से संकल्प विकल्पों में पड़कर चंचल हो गया है। श्रेष्ठ ब्रह्मन! हम यह जाना चाहते हैं कि वास्तविक कल्याण का मार्ग क्या है? इसलिये जो परम गुह्य तत्त्व है, वह आपको हमें बतलाना चाहिये। साथ ही यह भी बतलाइये कि बुद्धि और क्षेत्रज्ञ का सम्बन्ध किस कारण से हुआ है? लोकों की सृष्टि करने वाले धर्मात्मा बुद्धिमान भगवान ब्रह्मा जी उन ऋषियों की यह बात सुनकर उन से उनके प्रश्नों का यथार्थ रूप से उत्तर देने लगे।

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    अध्याय 35

    35.1 सत्त्व और पुरुष की भिन्नता, बुद्धिमान की प्रंशसा, पंच्चभूतों के गुणों का विस्तार और परमात्मा की श्रेष्ठता का वर्णन---

    ब्रह्मा जी बोले- श्रेष्ठ महर्षियों! तुम लोगों ने जो विषय पूछा है, उसे अब मैं कहूँगा। गुरु ने सुयोग्य शिष्य को पाकर जो उपदेश दिया है, उसे तुम लोग सुनो। उस विषय को यहाँ पूर्णतया सुनकर अच्छी प्रकार धारण करो। सब प्राणियों की अहिंसा ही सर्वोत्तम कर्तव्य है- ऐसा माना गया है। यह साधन उद्वेग रहित, सर्वश्रेष्ठ और धर्म को लक्षित कराने वाला है। निश्चय को साक्षात करने वाले लोग कहते हैं कि ‘ज्ञान ही परम कल्याण का साधन है।’ इसलिये परम शुद्ध ज्ञान के द्वारा ही मनुष्य सब पापों से छूट जाता है। जो लोग प्राणियों की हिंसा करते हैं, नास्तिक वृत्ति का आश्रय लेते हैं और लोभ तथा मोह में फँसे हुए हैं, उन्हें नरक में गिरना पड़ता है। जो लोग सावधान होकर सकाम कर्मों का अनुष्ठान करते हैं, वे बार-बार इस लोक में जन्म ग्रहण करके सुखी होते हैं। जो विद्वान समत्वयोग में स्थित हो श्रद्धा के साथ कर्तव्य कर्मों का अनुष्ठान करते हैं और उनके फल में आसक्त नहीं होते, वे धीर और उत्तम दृष्टि वाले माने गये हैं।

    35.2 श्रेष्ठ महर्षियो! अब मैं यह बता रहा हूँ कि सत्त्व और क्षेत्रज्ञ का परस्पर संयोग और वियोग कैसे होता है? इस विषय को ध्यान देकर सुनो। इन दोनों में यहाँ यह विषय विषयिभाव सम्बन्ध माना गया है। इनमें पुरुष तो सदा विषयी और सत्त्व विषय माना जाता है। पूर्व अध्याय में मच्छर और गूलर के उदाहरण से यह बात बतायी जा चुकी है कि भोगा जाने वाला अचेतन सत्त्व नित्य स्वरूप क्षेत्रज्ञ को नहीं जानता, किंतु जो क्षेत्रज्ञ है वह इस प्रकार जानता है कि जो भोगता है वह आत्मा है और जो भोगा जाता है, वह सत्त्व है।

    35.3 मनीषी पुरुष सत्त्व को द्वन्द्वयुक्त कहते हैं और क्षेत्रज्ञ निर्द्वन्द्व, निष्फल, नित्य और निर्गुण स्वरूप है। वह क्षेत्रज्ञ समभाव से सर्वत्र भली-भाँति स्थित हुआ ज्ञान का अनुसरण करता है। जैसे कमल का पत्ता निर्लिप्त रहकर जल को धारण करता है, वैसे ही क्षेत्रज्ञ सदा सत्त्व का उपभोग करता है। जैसे कमल के पत्ते पर पड़ी हुई जल की चंचल बूँद उसे भिगो नहीं पाती, उसी प्रकार विद्वान पुरुष समस्त गुणों से सम्बन्ध रखते हुए भी किसी से लिप्त नहीं होता। अत: क्षेत्रज्ञ पुरुष वास्विक में असंग है, इसमें संदेह नहीं है। यह निश्चित बात है कि पुरुष के भोगने योग्य द्रव्यमात्र की संज्ञा सत्त्व है तथा जैसे द्रव्य और कर्ता का सम्बन्ध है, वैसे ही इन दोनों का सम्बन्ध है। जैसे कोई मनुष्य दीपक लेकर अन्धकार में चलता है, वैसे ही परम तत्त्व को चाहने वाले साधक सत्त्व रूप दीपक के प्रकाश में साधन मार्ग पर चलते हैं। जब तक दीपक में द्रव्य और गुण रहते हैं, तभी तक वह प्रकाश फैलाता है। द्रव्य और गुण का क्षय हो जाने पर ज्योति भी अन्तर्धान हो जाती है। इस प्रकार सत्त्वगुण तो व्यक्त है और पुरुष अव्यक्त माना गया है। ब्रह्मर्षियों! इस तत्त्व को समझो। अब मैं तुम लोगों से आगे की बात बताता हूँ।

    35.4 जिसकी बुद्धि अच्छी नहीं है, उसे हजार उपाय करने पर भी ज्ञान नहीं होता और जो बुद्धिमान है वह चौथाई प्रयत्न से भी ज्ञान पाकर सुख का अनुभव करता है। ऐसा विचार कर किसी उपाय से धर्म के साधन का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये, क्योंकि उपाय को जानने वाला मेधावी पुरुष अत्यन्त सुख का भागी होता है। जैसे कोई मनुष्य यदि राह खर्च का प्रबन्ध किये बिना ही यात्रा करता है तो उसे मार्ग में बहुत क्लेश उठाना पड़ता है अथवा वह बीच ही में मर भी सकता है। ऐसे ही (पूर्व जन्मों के पुण्यों से ही पुरुष) योग मार्ग के साधन में लगने पर योग सिद्धि रूप फल कठिनता से पाता है अथवा नहीं भी पाता। पुरुष का अपना कल्याण साधन ही उसके पूर्वजन्म के शुभाशुभ संस्कारों को बताने वाला है। जैसे पहले न देखे हुए दूर के रास्ते पर जब मनुष्य सहसा पैदल ही चल पड़ता है (तो वह अपने गन्तव्य स्थान पर नहीं पहुँच पाता), यही दशा तत्त्व ज्ञान से रहित अज्ञानी पुरुष की होती है।

    35.5 किंतु उसी मार्ग पर घोड़े जुते हुए शीर्घ गामी रथ के द्वारा यात्रा करने वाला पुरुष जिस प्रकार शीघ्र ही अपने लक्ष्य स्थान पर पहुँच जाता है तथा वह ऊँचे पर्वत पर चढ़कर नीचे पृथ्वी की ओर नहीं देखता, उसी प्रकार ज्ञानी पुरुषों की गति होती है। देखो, रथ के द्वारा जाने वाला भी मूर्ख मनुष्य ऊँचे पर्वत के पास पहुँचकर कष्ट पाता रहता है, किंतु बुद्धिमान मनुष्य जहाँ तक रथ जाने का मार्ग है वहाँ तक रथ से जाता है और जब रथ का रास्ता समाप्त हो जाता है तब वह उसे छोड़कर पैदल यात्रा करता है। इसी प्रकार तत्त्व और योगविधि को जानने वाला बुद्धिमान एवं गुणज्ञ पुरुष अच्छी तरह समझ बूझकर उत्तरोतर आगे बढ़ता जाता है। जैसे कोई पुरुष मोहवश बिना नाव के ही भयंकर समुद्र में प्रवेश करता है और दोनों भुजाओं से ही तैरकर उसके पार होने का भरोसा रखता है तो निश्चय ही वह अपनी मौत बुलाना चाहता है (उसी प्रकार ज्ञान नौका का सहारा लिये बिना मनुष्य भवसागर से पार नहीं हो सकता)।

    35.6 जिस तरह जल मार्ग के विभाग को जानने वाला बुद्धिमान पुरुष सुन्दर डाँड वाली नाव के द्वारा अनायास ही जल पर यात्रा करके शीघ्र समुद्र से तर जाता है एवं पार पहुँच जाने पर नाव की ममता छोड़कर चल देता है, (उसी प्रकार संसार सागर से पार हो जाने पर बुद्धिमान पुरुष पहले के साधन सामग्री की ममता छोड़ देता है।) यह बात रथ पर चलने वाले और पैदल चलने वाले के दृष्टान्त से पहले भी कही जा चुकी है। परंतु स्नेहवश मोह को प्राप्त हुआ मनुष्य ममता से आबद्ध होकर नाव पर सदा बैठे रहने वाले मल्लाह की भाँति वहीं चक्कर काटता रहता है। नौका पर चढ़कर जिस प्रकार स्थल पर विचरण करना सम्भव नहीं है तथा रथ पर चढ़कर जल में विचरण करना सम्भव नहीं बताया गया है, इसी प्रकार किये हुए विचित्र कर्म अलग-अलग स्थान पर पहुँचाने वाले हैं। संसार में जिनके द्वारा जैसा कर्म किया गया है, उन्हें वैसा ही फल प्राप्त होता है। जो गन्ध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द से युक्त नहीं है तथा मुनि लोग बुद्धि के द्वारा जिसका मनन करते हैं, वह ‘प्रधान’ कहलाता है।

    35.7 प्रधान का दूसरा नाम अव्यक्त है। अव्यक्त का कार्य महत्तत्त्व है और प्रकृति से उत्पन्न महत्तत्त्व का कार्य अहंकार है। अहंकार से पंच महाभूतों को प्रकट करने वाले गुण की उत्पत्ति हुई है। पंच महाभूतों के कार्य हैं रूप, रस आदि विषय। वे पृथक-पृथक गुणों के नाम से प्रसिद्ध हैं। अव्यक्त प्रकृति कारण रूपा भी है और कार्यरूपा भी। इसी प्रकार महत्तत्त्व के भी कारण और कार्य दोनों ही स्वरूप सुने गये हैं। अहंकार भी कारण रूप तो है ही, कार्य रूप में भी बारम्बार परिणत होता रहता है। पंच महाभूतों (पंचतन्मात्राओं) में भी कारणत्व और कार्यत्व दोनों धर्म हैं। वे शब्दादि विषयों को उत्पन्न करते हैं, इसलिये ऐसा कहा जाता है कि वे बीजधर्मी हैं। उन पाँचों भूतों के विशेष कार्य शब्द आदि विषय हैं। उन विषयों का प्रवर्तक चित्त है। पंचमहाभूतों में से आकाश में एक ही गुण माना गया है।

    35.8 वायु के गुण बतलाये जाते हैं। तेज तीन गुणों से युक्त कहा गया है। जल के चार गुण हैं। पृथ्वी के पाँच गुण समझने चाहिये। यह देवी स्थावर जंगम प्राणियों से भरी हुई, समस्त जीवों को जन्म देने वाली तथा शुभ और अशुभ का निर्देश करने वाली है। विप्रवरो! शब्द, स्पर्श, रूप, रस और पाँचवाँ गन्ध- ये ही पृथ्वी के पाँच गुण जानने चाहिये। इनमें भी गन्ध उसका खास गुण है। गन्ध अनेक प्रकार की मानी गयी है। मैं उस गन्ध के गुणों का विस्तार के साथ वर्णन करूँगा। इष्ट (सुगन्ध), अनिष्ट (दुर्गन्ध), मधुर, अम्ल, कटु, निर्हारी (दूर तक फैलने वाली), मिश्रित, स्निग्ध, रुक्ष और विशद- ये पार्थिव गन्ध के दस भेद समझने चाहिये। शब्द, स्पर्श, रूप, रस- ये जल के चार गुण माने गये हैं (इनमें रस ही जल का मुख्य गुण है)। अब मैं रस विज्ञान का वर्णन करता हूँ। रस के बहुत से भेद बताये गये हैं। मीठा, खट्टा, कड़ुआ, तीता, कसैला और नमकीन- इस प्रकार छ: भेदों में जलमय रस का विस्तार बताया गया है। शब्द, स्पर्श और रूप- ये तेज के तीन गुण कहे गये हैं। इनमें रूप ही तेज की मुख्य गुण है। रूप के भी कई भेद माने गए हैं।

    35.9 शुक्ल, कृष्ण, रक्त, नील, पाती, अरुण, छोटा, बड़ा, मोटा, दुबला, चौकोना और गोल-इस प्रकार तैजस् रूप का बारह प्रकार से विस्तार सत्यवादी धर्मज्ञ वृद्ध ब्राह्मणों के द्वारा जानने योग्य कहा जाता है। शब्द और स्पर्श- ये वायु के दो गुण जानने योग्य कहे जाते हैं। इनमें भी स्पर्श ही वायु का प्रधान गुण है। स्पर्श भी कई प्रकार का माना गया है। रूखा, ठंडा, गरम, स्निग्ध, विशद, कठिन, चिकना, श्लक्ष्ण (हल्का), पिच्छिल, कठोर और कोमल- इन बारह प्रकारों से वायु के गुण स्पर्श का विस्तार तत्त्वदर्शी धर्मज्ञ सिद्ध ब्राह्मणों द्वारा विधिवत बतलाया गया है। आकाश का शब्दमात्र एक ही गुण माना गया है। उस शब्द के बहुत से गुण हैं। उनका विस्तार के साथ वर्णन करता हूँ।

    35.10 षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम्, निषाद, धैवत, इष्ट (प्रिय), अनिष्ट (अप्रिय) और सहंत (श्लिष्ट)- इस प्रकार विभाग वाले आकाशजनित शब्द के दस भेद हैं। आकाश सब भूतों में श्रेष्ठ हैं। उससे श्रेष्ठ अहंकार, अहंकार से श्रेष्ठ बुद्धि, उस बुद्धि से श्रेष्ठ आत्मा, उससे श्रेष्ठ अव्यक्त प्रकृति और प्रकृति से श्रेष्ठ पुरुष है।

    35.11 जो मनुष्य सम्पूर्ण भूतों की श्रेष्ठता और न्यूनता का ज्ञाता, समस्त कर्मों की विधि का जानकार और सब प्राणियों को आत्मभाव से देखने वाला है, वह अविनाशी परमात्मा को प्राप्त करता है।

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    अध्याय 36

    36.1 तपस्या प्रभाव, आत्मा का स्वरूप और उनके ज्ञान की महिमा तथा अनुगीता का उपसंहार---

    ब्रह्मा जी बोले- श्रेष्ठ महर्षियो! जिस प्रकार इन पाँचों महाभूतों की उत्पत्ति और नियमन करने में मन समर्थ है, उसी प्रकार स्थिति काल में भी मन ही भूतों का आत्मा है। उन पंचमहाभूतों का नित्य आधार भी मन ही है। बुद्धि जिसके ऐश्वर्य को प्रकाशित करती है, वह क्षेत्रज्ञ कहा जाता है। जैसे सारथि अच्छे घोड़ों को अपने काबू में रखता है, उसी प्रकार मन सम्पूर्ण इन्द्रियों पर शासन करता है। इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि- ये सदा क्षेत्रज्ञ के साथ संयुक्त रहते हैं। जिसमें इन्द्रियरूपी घोड़े जुते हुए हैं, जिसका बुद्धिरूपी सारथि द्वारा नियंत्रण हो रहा है, उस देहरूपी रथ पर सवार होकर वह भूतात्मा (क्षेत्रज्ञ) चारों ओर दौड़ लगाता रहता है।

    36.2 ब्रह्ममय रथ सदा रहने वाला और महान है, इन्द्रियाँ उसके घोड़े, मन सारथी और बुद्धि चाबुक हैं। इस प्रकार जो विद्वान इस ब्रह्ममय रथ की सदा जानकारी रखता है, वह समस्त प्राणियों में धीर है और कभी मोह में नहीं पड़ता है। यह जगत एक ब्रह्मवन है। अव्यक्त प्रकृति इसका आदि है। पाँच महाभूत, दस इन्द्रियाँ और एक मन- इन सौलह विशेषों तक इसका विस्तार है। यह चराचर प्राणियों से भरा हुआ है। सूर्य और चन्द्रमा आदि के प्रकाश से प्रकाशित है। ग्रह और नक्षत्रों से सुशोभित है। नदियों और पर्वत के समूह से सब ओर विभूषित हैं। नाना प्रकार के जल से सदा ही अलंकृत है। यहीं सम्पूर्ण भूतों का जीवन और सम्पूर्ण प्राणियों की गति है। इस ब्रह्मवन में क्षेत्रज्ञ विचरण करता है। इस लोक में जो स्थावर जंगम प्राणी हैं, वे ही पहले प्रकृति में विलीन होते हैं, उसके बाद पाँच भूतों के कार्य लीन होते हैं और कार्यरूपी गुणों के बाद पाँच भूत लीन होते हैं। इस प्रकार यह भूतसमुदाय प्रकृति में लीन होता है।

    36.3 देवता, मनुष्य, गन्धर्व, पिशाच, असुर, राक्षस सभी स्वभाव से रचे गए हैं; किसी क्रिया से या कारण से इनकी रचना नहीं हुई है। विश्व की सृष्टि करने वाले ये मरीचि आदि ब्राह्मण समुद्र की लहरों के समान बारंबार पंचमहाभूतों से उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न हुए, वे फिर समयानुसार उन्हीं में लीन हो जाते हैं। इस विश्व की रचना करने वाले प्राणियों से पंच महाभूत सब प्रकार पर है। जो इन पंच महाभूतों से छूट जाता है, वह परम गति को प्राप्त होता है। शक्ति सम्पन्न प्रजापति ने अपने मन के ही द्वारा सम्पूर्ण जगत की सृष्टि की है तथा ऋषि भी तपस्या से ही देवत्व को प्राप्त हुए हैं। फल-मूल का भोजन करने वाले सिद्ध महात्मा यहाँ तपस्या के प्रभाव से ही चित्त को एकाग्र करके तीनों लोकों की बातों को क्रमश: प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। आरोग्य की साधनभूत औषधियाँ और नाना प्रकार की विद्याएँ तप से ही सिद्ध होती हैं। सारे साधनों की जड़ तपस्या ही है। जिसको पाना, जिसका अभ्यास करना, जिसे दबाना और जिसकी संगति लगाना नितान्त कठिन है, वह तपस्या के द्वारा ही साध्य हो जाता है; क्योंकि तप का प्रभाव दुर्लंघ्य है। शराबी, ब्रह्महत्यारा, चोर, गर्भ नष्ट करने वाला और गुरुपत्नी की शय्या पर सोने वाला महापापी भी भलीभाँति तपस्या करके उस महान पाप से छुटकारा पा सकता है।

    36.4 मनुष्य, पितर, देवता, पशु, मृग, पक्षी तथा अन्य जितने चराचर प्राणी हैं, वे सब नित्य तपस्या में संलग्न होकर ही सदा सिद्धि प्राप्त करते हैं। तपस्या के बल से ही महामायावी देवता स्वर्ग में निवास करते हैं। जो लोग आलस्य त्यागकर अहंकार से युक्त हो सकाम कर्म का अनुष्ठान करते हैं, वे प्रजापति के लोक में जाते हैं। जो अहंता-ममता से रहित हैं, वे महात्मा विशुद्ध ध्यान योग के द्वारा महान उत्तम लोक को प्राप्त करते हैं। जो ध्यान योग का आश्रय लेकर सदा प्रसन्नचित्त रहते हैं, वे आत्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ पुरुष सुख की राशिभूत अव्यक्त परमात्मा में प्रवेश करते हैं। किन्तु जो ध्यानयोग से पीछे लौटकर अर्थात ध्यान में असफल होकर ममता और अहंकार से रहित जीवन व्यतीत करता है, वह निष्काम पुरुष भी महापुरुषों के उत्तम अव्यक्त लोक में लीन होता है। फिर स्वयं भी उसकी समता को प्राप्त होकर अव्यक्त से ही प्रकट होता है और केवल सत्त्व का आश्रय लेकर तमोगुण एवं रजोगुण के बन्धन से छुटकारा पा जाता है। जो सब पापों से मुक्त रहकर सबकी सृष्टि करता है, उस अखण्ड आत्मा को क्षेत्रज्ञ समझना चाहिए। जो मनुष्य उसका ज्ञान प्राप्त कर लेता है, वही वेदवत्ता है।

    36.5 मुनि को उचित है कि चिंतन के द्वारा चेतना (सम्यग्यान) पाकर मन और इंद्रियों को एकाग्र करके परमात्मा के ध्यान में स्थित हो जाय; क्योंकि जिसका चित्त जिसमें लगा होता है, वह निश्चय ही उसका स्वरूप हो जाता है- यह सनातन गोपनीय रहस्य है। मुनि को उचित है कि चिन्तन के द्वारा चेतना (सम्यग्ज्ञान) पाकर मन और इन्द्रियों को एकाग्र करके परमात्मा के ध्यान में स्थित हो जाय, क्योंकि जिसका चित्त जिसमें लगा होता है, वह निश्चय ही उसका स्वरूप हो जाता है- यह सनातन गोपनीय रहस्य है। व्यक्त लेकर सोलह विशेषों तक सभी अविद्या के लक्षण बताये गये हैं। ऐसा समझना चाहिए कि यह गुणों का ही विस्तार है। दो अक्षर का पद ‘मम’ (यह मेरा है-ऐसा भाव) मृत्यु रूप है और तीन अक्षर का पद ‘न मम’ (यह मेरा नहीं है- ऐसा भाव) सनातन ब्रह्मा की प्राप्ति कराने वाला है। कुछ मन्द-बुद्धि युक्त पुरुष (स्वर्गादि फल प्रदान करने वाले) काम्य-कर्मों की प्रशंसा करते हैं, किंतु वृद्ध महात्माजन उन कर्मों को उत्तम नहीं बतलाते। क्योंकि सकाम कर्म के अनुष्ठान से जीव को सोलह विकारों से निर्मित स्थूल शरीर धारण करके जन्म लेना पड़ता है और वह सदा अविद्या का ग्रास बना रहता है।

    36.6 इतना ही नहीं, कर्मठ पुरुष देवताओं के भी उपभोग का विषय होता है। इसलिये जो कोई पारदर्शी विद्वान होते हैं, वे कर्मों में आसक्त नहीं होते, क्योंकि यह पुरुष (आत्मा) ज्ञानमय है, कर्ममय नहीं। जो इस प्रकार चेतन आत्मा को अमृतस्वरूप, नित्य, इन्द्रियातीत, सनातन, अक्षर, जितात्मा एवं असंग समझता है, वह कभी मृत्यु के बन्धन में नहीं पड़ता। जिसकी दृष्टि में आत्मा अपूर्व (अनादि), अकृत (अजन्मा), नित्य, अचल, अग्राह्य और अमृताशी है, वह इन गुणों का चिन्तन करने से स्वयं भी अग्राह्य (इन्द्रियातीत) निश्चल एवं अमृत स्वरूप हो जाता है, जो चित्त को शुद्ध करने वाले सम्पूर्ण संस्कारों का सम्पादन करके मन को आत्मा के ध्यान में लगा देता है, वही इस कल्याणमय ब्रह्मा को प्राप्त करता है, जिससे बड़ा कोई नहीं है। सम्पूर्ण अन्त:करण के स्वच्छ हो जाने पर साधक को शुद्ध प्रसन्नता प्राप्त होती है। जैसे स्वप्न से जगे हुए मनुष्य के लिये स्वप्न शान्त हो जाता है, उसी प्रकार चित्त शुद्धि का लक्षण है।

    36.7 ज्ञाननिष्ठ जीवनमुक्त महात्माओं की यही परम गति है, क्योंकि वे उन समस्त प्रवृत्तियों को शुभाशुभ फल देने वाला समझते हैं। यही विरक्त पुरुषों की गति है, यही सनातन धर्म है, यही ज्ञानियों का प्राप्तव्य स्थान है और यही अनिन्दित सदाचार है। जो सम्पूर्ण भूतों में समान भाव रखता है, लोभ और कामना से रहित है तथा जिसकी सर्वत्र समान दृष्टि रहती है, वह ज्ञानी पुरुष ही इस परम गति को प्राप्त कर सकता है। ब्रह्मर्षियो! यह सब विषय मैंने विस्तार के साथ तुम लोगों को बता दिया। इसी के अनुसार आचरण करो, इससे तुम्हें शीघ्र ही परम सिद्धि प्राप्त होगी।

    36.8 गुरु ने कहा- बेटा! ब्रह्मा जी के इस प्रकार उपदेश देने पर उन महात्मा मुनियों ने इसी के अनुसार आचरण किया। इससे उन्हें उत्तम लोक की प्राप्ति हुई। महाभाग! तुम्हारा चित्त शुद्ध है, इसीलिये तुम भी मेरे बताए हुए ब्रह्मा जी के उत्तम उपदेश का भलीभाँति पालन करो। इससे तुम्हें भी सिद्धि प्राप्त होगी।

    36.9 श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन! गुरुदेव के ऐसा कहने पर उस शिष्य ने समस्त उत्तम धर्मों का पालन किया। इससे वह संसार-बन्धन से मुक्त हो गया। कुरुकुलनन्दन! उस समय कृतार्थ होकर उस शिष्य ने वह ब्रह्मपद प्राप्त किया, जहाँ जाकर शोक नहीं करना पड़ता। अर्जुन ने पूछा- जनार्दन श्रीकृष्ण! वे ब्रह्मनिष्ठ गुरु कौन थे और शिष्य कौन थे? प्रभो! यदि मेरे सुनने योग्य हो तो ठीक-ठाक बताने की कृपा कीजिये।

    36.10 श्रीकृष्ण ने कहा- महाबाहो! मैं ही गुरु हूँ और मेरे मन को ही शिष्य समझो। धनंजय! तुम्हारे स्नेहवश मैंने इस गोपनीय रहस्य का वर्णन किया है। उत्तम व्रत का पालन करने वाले कुरुकुलनन्दन यदि मुझ पर तुम्हारा प्रेम हो तो इस अध्यात्मज्ञान को सुनकर तुम नित्य इसका यथावत पालन करो। शत्रुसूदन! इस धर्म का पालन पूर्णतया आचरण करने पर तुम समस्त पापों से छुटकर विशुद्ध मोक्ष को प्राप्त कर लोगे। महाबाहो! पहले भी मैंने युद्धकाल उपस्थित होने पर यही उपदेश तुमको सुनाया था। इसलिये तुम इसमें मन लगाओ। भरतश्रेष्ठ! अर्जुन! अब मैं पिता जी का दर्शन करना चाहता हूँ। उन्हें देखे बहुत दिन हो गये। यदि तुम्हारी राय हो तो मैं उनके दर्शन के लिये द्वारका जाऊँ।

    36.11 वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! भगवान श्रीकृष्ण की बात सुनकर अर्जुन से कहा- ‘श्रीकृष्ण! अब हम लोग यहाँ से हस्तिनापुर को चलें। वहाँ धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर से मिलकर उनकी आज्ञा लेकर आप अपनी पुरी को पधारे।’

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