भगवान कृष्ण ने उद्धव को निर्देश दिया
7. कृष्ण ने उद्धव को निर्देश दिया
श्रीभगवानुवाचयदात्थ मां महाभाग तच्चिकीर्षितमेव मे ।ब्रह्मा भवो लोकपाला: स्वर्वासं मेडभिकाड्क्षिण: ॥
१॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् ने कहा; यत्--जो कुछ; आत्थ--आपने कहा; माम्--मुझसे; महा-भाग--हे अत्यन्तभाग्यशाली उद्धव; तत्ू--वह; चिकीर्षितम्--जिसे मैं करने का इच्छुक हूँ; एबव--निश्चय ही; मे--मेरा; ब्रह्मा --ब्रह्मा; भव: --शिव; लोक-पाला:--सारे लोकों के नायक; स्व:-वासम्--वैकुण्ठ धाम; मे--मेरा; अभिकाडुभक्षिण: --वे इच्छा कर रहे हैं।
भगवान् ने कहा : हे महाभाग्यशाली उद्धव, तुमने इस पृथ्वी पर से यदुबंश को समेटने कीतथा बैकुण्ठ में अपने धाम लौटने की मेरी इच्छा को सही सही जान लिया है। इस तरह ब्रह्मा,शिव तथा अन्य सारे लोक-नायक, अब मुझसे प्रार्थना कर रहे हैं कि मैं अपने वैकुण्ठ-धामवापस चला जाऊँ।
मया निष्पादितं ह्वत्र देवकार्यमशेषतः ।यदर्थमवतीर्णो हमंशेन ब्रह्मणाथित: ॥
२॥
मया--मेरे द्वारा; निष्पादितम्--सम्पन्न किया गया; हि--निश्चय ही; अत्र--इस जगत में; देव-कार्यम्ू--देवताओं के लाभ केलिए कार्य; अशेषत:--पूर्णतया, करने को कुछ भी शेष नहीं रहा; यत्--जिसके; अर्थम्--हेतु; अवतीर्ण: --अवतरित हुआ;अहम्--ैं; अंशेन--अपने स्वांश, बलदेव सहित; ब्रह्मणा--ब्रह्मा द्वारा; अर्थित: --प्रार्थना किये जाने पर।
ब्रह्माजी द्वारा प्रार्थना करने पर मैंने इस संसार में अपने स्वांश बलदेव सहित अवतार लियाथा और देवताओं की ओर से अनेक कार्य सम्पन्न किये। अब यहाँ पर मैं अपना मिशन पूरा करचुका हूँ।
कुल वै शापनिर्दग्धं नड्छ््यत्यन्योन्यविग्रहात् ।समुद्र: सप्तमे होनां पुरीं च प्लावयिष्यति ॥
३॥
कुलम्--यह यदुवंश; बै--निश्चित रूप से; शाप--शाप से; निर्दग्धम्--समाप्त; नड्छ््यति--विनष्ट हो जायेगा; अन्योन्य--परस्पर; विग्रहात्ू--झगड़े से; समुद्र:--समुद्र; सप्तमे--सातवें दिन; हि--निश्चय ही; एनामू--इस; पुरीम्ू--नगरी को; च--भी;प्लावयिष्यति--आप्लावित कर देगा।
अब ब्राह्मणों के शाप से यह यदुवंश निश्चित रूप से परस्पर झगड़ कर समाप्त हो जायेगाऔर आज से सातवें दिन यह समुद्र उफन कर इस द्वारका नगरी को आप्लावित कर देगा।
यहाँवायं मया त्यक्तो लोकोयं नष्टमड्रल: ।भविष्यत्यचिरात्साधो कलिनापि निराकृत:ः ॥
४॥
यहि--जब; एव--निश्चित रूप से; अयम्ू--यह; मया--मेरे द्वारा; त्यक्त:--छोड़ा हुआ; लोक: --संसार; अयम्ू--यह; नष्ट-मड्ुलः--समस्त मंगल या दया से विहीन; भविष्यति--हो जायेगा; अचिरातू--शीघ्र ही; साधो--हे साधु-पुरुष; कलिना--'कलि के कारण; अपि--स्वयं; निराकृतः --अभिभूत |
हे साधु उद्धव, मैं निकट भविष्य में इस पृथ्वी को छोड़ दूँगा। तब कलियुग से अभिभूतहोकर यह पृथ्वी समस्त पवित्रता से विहीन हो जायेगी।
न वस्तव्यं त्वयैवेह मया त्यक्ते महीतले ।जनोभद्गरुचिर्भद्र भविष्यति कलौ युगे ॥
५॥
न--नहीं; वस्तव्यम्--रहे आना चाहिए; त्वया--तुम्हारे द्वारा; एव--निश्चय ही; इह--इस जगत में; मया--मेरे द्वारा; त्यक्ते--त्यागे हुए; महीतले--पृथ्वी पर; जन:ः--लोग; अभद्र--पापी, अशुभ वस्तुएँ; रुचिः--लिप्त; भद्ग--हे पापरहित एवं मंगलमय;भविष्यति--हो जायेगा; कलौ--इस कलि; युगे--युग में |
हे उद्धव, जब मैं इस जगत को छोड़ चुकूँ, तो तुम्हें इस पृथ्वी पर नहीं रहना चाहिए। हे प्रियभक्त, तुम निष्पाप हो, किन्तु कलियुग में लोग सभी प्रकार के पापपूर्ण कार्यों में लिप्त रहेंगे,अतएव तुम्हें यहाँ नहीं रूकना चाहिए।
त्वं तु सर्व परित्यज्य स्नेह स्वजनबन्धुषु ।मय्यावेश्य मन: संयकक््समहग्विचरस्व गाम् ॥
६॥
त्वम्--तुम; तु--वस्तुतः; सर्वम्--समस्त; परित्यज्य--छोड़ कर; स्नेहम्--स्नेह; स्व-जन-बन्धुषु-- अपने सम्बन्धियों तथा मित्रोंके प्रति; मयि--मुझ भगवान् में; आवेश्य--एकाग्र करके; मनः--मन को; संयक्--पूरी तरह; सम-हक्--हर एक को समानइृष्टि से देखते हुए; विचरस्व--विचरण करो; गाम्--पृथ्वी-भर में |
अब तुम्हें चाहिए कि अपने निजी मित्रों तथा सम्बन्धियों से अपने सारे नाते त्याग कर, अपनेमन को मुझ पर एकाग्र करो। इस तरह सदैव मेरी भावना से भावित होकर, तुम्हें सारी वस्तुओंको समान दृष्टि से देखना चाहिए और पृथ्वी-भर में विचरण करना चाहिए।
text:यदिदं मनसा वाचा चक्षुर्भ्या श्रवणादिभि: । नथ्वरं गृह्ममाणं चर विद्धि मायामनोमयम् ॥
७॥
यत्--जो; इृदम्--इस जगत को; मनसा--मन से; वाचा--वाणी से; चश्षुभ्याम्-आँखों से; श्रवण-आदिभि:--कानों तथा अन्य इन्द्रियों से; नश्वरम्--क्षणिक; गृह्ममाणम्--जिसे स्वीकार या अनुभव किया जा रहा हो; च--तथा; विद्धधि--तुम्हें जानना चाहिए; माया-मनः-मयम्--माया के प्रभाव से इसे असली करके केवल कल्पित किया जाता है।
हे उद्धव, तुम जिस ब्रह्माण्ड को अपने मन, वाणी, नेत्रों, कानों तथा अन्य इन्द्रियों से देखते हो वह भ्रामक सृष्टि है, जिसे माया के प्रभाव से मनुष्य वास्तविक मान लेता है। वास्तव में, तुम्हें यह जानना चाहिए कि भौतिक इन्द्रियों के सारे विषय क्षणिक हैं। पुंसोयुक्तस्य नानार्थो भ्रम: स गुणदोषभाक् ।कर्माकर्मविकर्मेति गुणदोषधियो भिदा ॥
८॥
पुंसः--व्यक्ति का; अयुक्तस्थ--जिसका मन सत्य से पराड्मुख है; नाना--अनेक; अर्थ:--अर्थ; भ्रम:--सन्देह; सः--वह;गुण--अच्छाई; दोष--बुराई; भाक्ू--देहधारण किये; कर्म--अनिवार्य कर्तव्य; अकर्म--नियत कर्तव्यों का न किया जाना;विकर्म--निषिद्ध कर्म; इति--इस प्रकार; गुण--अच्छाइयाँ; दोष--बुराइयाँ; धियः--अनुभव करने वाले की; भिदा--यह
अन्तर जिसकी चेतना माया से मोहित होती है, वह भौतिक वस्तुओं के मूल्य तथा अर्थ में अनेकअन्तर देखता है। इस प्रकार वह भौतिक अच्छाई तथा बुराई के स्तर पर निरन्तर लगा रहता हैऔर ऐसी धारणाओं से बँधा रहता है। भौतिक द्वैत में लीन रहते हुए, ऐसा व्यक्ति अनिवार्यकर्तव्यों की सम्पन्नता, ऐसे कर्तव्यों की असम्पन्नता तथा निषिद्ध कार्यों की सम्पन्नता के विषय मेंकल्पना करता रहता है।
तस्मायुक्तेन्द्रियग्रामो युक्तचित्त इदम्जगत् ।आत्मनीक्षस्व विततमात्मानं मय्यधी श्वर ॥
९॥
तस्मात्ू--इसलिए; युक्त--वश में लाकर; इन्द्रिय-ग्राम:--सारी इन्द्रियों को; युक्त--दमन करके; चित्त:--अपना मन; इृदम्--यह; जगत्--संसार; आत्मनि--आत्मा के भीतर; ईक्षस्व--देखो; विततम्--विस्तीर्ण ( भौतिक भोग की वस्तु के रूप में );आत्मानम्--तथा उस आत्मा को; मयि--मुझ; अधी श्वरे--परम नियन्ता में |
इसलिए अपनी सारी इन्द्रियों को वश में करते हुए तथा मन को दमन करके, तुम सारे जगतको आत्मा के भीतर स्थित देखो, जो सर्वत्र प्रसारित है। यही नहीं, तुम इस आत्मा को मुझ पूर्णपुरुषोत्तम भगवान् के भीतर भी देखो।
ज्ञानविज्ञानसंयुक्त आत्मभूतः शरीरिणाम् ।अत्मानुभवतुष्टात्मा नान्तरायैर्विहन्यसे ॥
१०॥
ज्ञान--वेदों का निर्णायक ज्ञान; विज्ञान--तथा व्यावहारिक ज्ञान; संयुक्त:--से युक्त; आत्म-भूतः--स्नेह की वस्तु;शरीरिणाम्--सारे देहधारी जीवों ( देवतादि से शुरु करके ) के लिए; आत्म-अनुभव--आत्मा के प्रत्यक्ष अनुभव द्वारा; तुष्ट-आत्मा--तुष्ट मन वाला; न--कभी नहीं; अन्तरायै: --उत्पातों ( विध्नों ) से; विहन्यसे--तुम्हारी प्रगति रोक दी जायेगी।
वेदों के निर्णायक ज्ञान से समन्वित होकर तथा व्यवहार में ऐसे ज्ञान के चरम उद्देश्य कीअनुभूति करके, तुम शुद्ध आत्मा का अनुभव कर सकोगे और इस तरह तुम्हारा मन तुष्ट हो जायेगा। उस समय तुम देवतादि से लेकर सारे जीवों के प्रिय बन जाओगे और तब तुम जीवन केकिसी भी उत्पात से रोके नहीं जाओगे।
दोषबुद्धयो भयातीतो निषेधान्न निवर्तते ।गुणबुद्धया च विहितं न करोति यथार्भक: ॥
११॥
दोष-बुद्धबा--यह सोचने से कि ऐसा काम गलत है; उभय-अतीतः--दोनों ( संसारी अच्छे तथा बुरे की धारणाओं ) को लाँघजाने वाला; निषेधात्--जो वर्जित है, उससे; न निवर्तते--अपने को दूर नहीं रखता; गुण-बुद्धया--यह सोचकर कि यह ठीकहै; च-- भी; विहितम्ू--जिसका आदेश हुआ है, वैध; न करोति--नहीं करता; यथा--जिस तरह; अर्भक:--छोटा बालक
जो भौतिक अच्छाई तथा बुराई को लाँघ चुका होता है, वह स्वतः धार्मिक आदेशों केअनुसार कार्य करता है और वर्जित कार्यों से बचता है। स्वरूपसिद्ध व्यक्ति यह सब अबोधबालक की तरह अपने आप करता है वरन् इसलिए नहीं कि वह भौतिक अच्छाईं तथा बुराई केरूप में सोचता रहता है।
सर्वभूतसुहच्छान्तो ज्ञानविज्ञाननिश्चय: ।पश्यन्मदात्मकं विश्व न विपद्येत वै पुन: ॥
१२॥
सर्व-भूत--समस्त प्राणियों के प्रति; सु-हत्--शुभेषी; शान्तः--शान्त; ज्ञान-विज्ञान--ज्ञान तथा दिव्य अनुभूति में; निश्चय: --हढ़तापूर्वक स्थित; पश्यनू--देखते हुए; मत्-आत्मकम्-मेरे द्वारा व्याप्त; विश्वम्--ब्रह्माण्ड को; न विपद्येत--जन्म-पृत्यु केअक्कर में कभी नहीं पड़ेगा; वै--निस्सन्देह; पुनः--फिर से |
जो व्यक्ति सारे जीवों का शुभेषी है, जो शान्त है और ज्ञान तथा विज्ञान में हृढ़ता से स्थिर है,वह सारी वस्तुओं को मेरे भीतर देखता है। ऐसा व्यक्ति फिर से जन्म-मृत्यु के चक्र में कभी नहींपड़ता।श्रीशुक उबाच इत्यादिष्टो भगवता महाभागवतो नृप ।उद्धव: प्रणिपत्याह तत्त्वं जिज्ञासुरच्युतम् ॥
१३॥
श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; आदिष्ट:--आदेश दिया गया; भगवता-- भगवान् द्वारा;महा-भागवतः-- भगवान् के महान् भक्त; नृप--हे राजा; उद्धवः--उद्धव ने; प्रणिपत्य--नमस्कार करके; आह--कहा;तत्त्वम्-वैज्ञानिक सत्य; जिज्ञासु:--सीखने के लिए उत्सुक होने से; अच्युतम्--अच्युत
भगवान् से श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजनू, इस तरह भगवान् कृष्ण ने अपने शुद्ध भक्त उद्धवको उपदेश दिया, जो उनसे ज्ञान पाने के लिए उत्सुक थे। तत्पश्चात्, उद्धव ने भगवान् कोनमस्कार किया और उनसे इस प्रकार बोले।
श्रीउद्धव उवाचयोगेश योगविन्यास योगात्मन्योगसम्भव ।निःश्रेयसाय मे प्रोक्तस्त्याग: सन््यासलक्षण: ॥
१४॥
श्री-उद्धवः उबाच-- श्री उद्धव ने कहा; योग-ईश--हे योग के फल को देने वाले; योग-विन्यास-- अयोग्यों को भी योगशक्तिप्रदान करने वाले; योग-आत्मन्--योग के द्वारा जाने जानेवाले, हे परम आत्मा; योग-सम्भव--हे समस्त योगशक्ति के उद्गम;निःश्रेयसाय--परम लाभ हेतु; मे--मेरे; प्रोक्त:--आपने, जो कहा है; त्याग:--वैराग्य; सन््यास--संन्यास आश्रम स्वीकार करनेसे; लक्षण:--लक्षण से युक्त |
श्री उद्धव ने कहा : हे स्वामी, आप ही योगाभ्यास के फलों को देने वाले हैं और आप इतनेकृपालु हैं कि अपने प्रभाव से आप अपने भक्त को योगसिद्धि वितरित करते हैं। इस तरह आपपरमात्मा हैं, जिसकी अनुभूति योग द्वारा होती है और आप ही समस्त योगशक्ति के उद्गम हैं।आपने मेरे उच्चतम लाभ के लिए संन्यास या वैराग्य द्वारा भौतिक जगत त्यागने की विधिबतलाई है।
त्यागो<यं दुष्करो भूमन्कामानां विषयात्मभिः ।सुतरां त्वयि सर्वात्मिन्नभक्तिरिति मे मति: ॥
१५॥
त्याग: --वैराग्य; अयम्ू--यह; दुष्कर:--सम्पन्न करना कठिन; भूमन्--हे स्वामी; कामानाम्-- भौतिक भोग का; विषय--इन्द्रियतृप्ति; आत्मभि:--समर्पित; सुतराम्ू--विशेष रूप से; त्वयि--तुममें; सर्व-आत्मन्--हे परमात्मा; अभक्तै: --भक्तिविहीनोंद्वारा; इति-- इस प्रकार; मे--मेरा; मतिः--मत।
हे प्रभु, हे परमात्मा, ऐसे लोगों के लिए, जिनके मन इन्द्रियतृप्ति में लिप्त रहते हैं औरविशेषतया उनके लिए, जो आपकी भक्ति से वंचित हैं, भौतिक भोग को त्याग पाना अतीवकठिन है। ऐसा मेरा मत है।
सोहं ममाहमिति मूढमतिर्विगाढ-स्त्वन्मायया विरचितात्मनि सानुबन्धे ।तत्त्वज्जसा निगदितं भवता यथाहंसंसाधयामि भगवन्ननुशाधि भृत्यम् ॥
१६॥
सः--वह; अहम्--मैं; मम अहमू---' मैं ' तथा 'मेरा ' का झूठा विचार; इति--इस प्रकार; मूढ--अत्यन्त मूर्ख; मतिः --चेतना; विगाढ:--लीन; त्वत्ू-मायया--आपकी माया से; विरचित--निर्मित; आत्मनि--शरीर में; स-अनुबन्धे --शारीरिकसम्बन्धों सहित; ततू--इसलिए; तु--निस्सन्देह; अज्लसा--सरलता से; निगदितम्--उपदेश दिया हुआ; भवता--आपके द्वारा;यथा--विधि जिससे; अहम्--मैं; संसाधयामि--सम्पन्न कर सकूँ; भगवन्--हे भगवान्; अनुशाधि--शिक्षा दें; भृत्यम्ू-- अपनेसेवक को।
हे प्रभु, मैं स्वयं सबसे बड़ा मूर्ख हूँ, क्योंकि मेरी चेतना आपकी माया द्वारा निर्मित भौतिकदेह तथा शारीरिक सम्बन्धों में लीन है। इस तरह मैं सोच रहा हूँ, 'मैं यह शरीर हूँ और ये सारे सम्बन्धी मेरे हैं।अतएव हे स्वामी, अपने इस दीन सेवक को उपदेश दें। कृपया मुझे बतायें किमैं आपके आदेशों का किस तरह सरलता से पालन करूँ ? सत्यस्य ते स्वहश आत्मन आत्मनोन्यंवक्तारमीश विबुधेष्वपि नानुचक्षे ।सर्वे विमोहितधियस्तव माययेमेब्रह्मादयस्तनुभूतो बहिरर्थभावा: ॥
१७॥
सत्यस्य--परम सत्य का; ते-- आपके अतिरिक्त; स्व-हृशः--आपको प्रकट करने वाला; आत्मन:--मेरे स्वयं के लिए;आत्मन:-- भगवान् की अपेक्षा; अन्यम्--दूसरा; वक्तारम्--योग्य वक्ता; ईश--हे प्रभु; विबुधेषु--देवताओं से; अपि--ही;न--नहीं; अनुचक्षे--मैं देख सकता हूँ; सर्वे--वे सभी; विमोहित--मोह ग्रस्त; धियः--उनकी चेतना; तव--तुम्हारी; मायया--माया द्वारा; इमे--ये; ब्रह्य-आदय: --ब्रह्मा इत्यादि; तनु-भूृतः-- भौतिक शरीर से युक्त बद्धजीव; बहि:--बाह्य वस्तुओं में;अर्थ--परम मूल्य; भावा: --विचार करते हुए।
हे प्रभु, आप परम सत्य भगवान् हैं और आप अपने भक्तों को अपना रूप दिखलाते हैं। मुझेआपके अतिरिक्त कोई ऐसा नहीं दिखता जो वास्तव में मुझे पूर्ण ज्ञान बतला सके। ऐसा पूर्णशिक्षक स्वर्ग में देवताओं के बीच भी ढूँढ़े नहीं मिलता। निस्सन्देह ब्रह्मा इत्यादि सारे देवता आपकी मायाशक्ति से मोहग्रस्त हैं। वे बद्धजीव हैं, जो अपने भौतिक शरीरों तथा शारीरिक अंशोंको सर्वोच्च सत्य मान लेते हैं।
तस्माद्धवन्तमनवद्यमनन्तपारंसर्वज्ञमी श्वरमकुण्ठविकुण्ठधिष्ण्यम् ।निर्विण्णधीरहमु हे वृजिनाभितप्तोनारायणं नरसखं शरणं प्रपद्ये ॥
१८ ॥
तस्मात्ू--इसलिए; भवन्तम्--आपको; अनवद्यम्--पूर्ण; अनन्त-पारम्-- असीम; सर्व ज्ञम्--सर्वज्ञ; ईश्वरम्-- भगवान् को;अकुण्ठ--किसी शक्ति से अविचलित; विकुण्ठ--वैकुण्ठ-लोक ; धिष्ण्यम्ू--जिनका निजी धाम; निर्विण्ण--विरक्त अनुभवकरते हुए; धीः--मेरा मन; अहम्--मैं; उ हे--हे ( स्वामी ); वृजिन-- भौतिक कष्ट द्वारा; अभितप्त:ः--सताया हुआ;नारायणम्--नारायण की; नर-सखम्--अति सूक्ष्म जीव का मित्र; शरणमू् प्रपद्ये--शरण में जाता हूँ।
अतएबव हे स्वामी, भौतिक जीवन से ऊब कर तथा इसके दुखों से सताया हुआ मैं आपकीशरण में आया हूँ, क्योंकि आप पूर्ण स्वामी हैं। आप अनन्त, सर्वज्ञ भगवान् हैं, जिनकाआध्यात्मिक निवास बैकुण्ठ में होने से समस्त उपद्रवों से मुक्त है। वस्तुतः: आप समस्त जीवों केमित्र नारायण नाम से जाने जाते हैं।
श्रीभगवानुवाचप्रायेण मनुजा लोके लोकतत्त्वविचक्षणा: ।समुद्धरन्ति ह्ात्मानमात्मनैवाशुभाशयात् ॥
१९॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् कृष्ण ने कहा; प्रायेण--सामान्यतः; मनुजा:--मनुष्यगण; लोके--इस जगत में; लोक-तत्त्व--भौतिक जगत की वास्तविक स्थिति; विचक्षणा:--पंडित; समुद्धरन्ति--उद्धार करते हैं; हि--निस्सन्देह; आत्मानम्--अपने से;आत्मना--अपनी बुद्धि से; एब--निस्सन्देह; अशुभ-आशयातू--इन्द्रियतृप्ति की इच्छा की अशुभ मुद्रा से।
भगवान् ने उत्तर दिया : सामान्यतया वे मनुष्य, जो भौतिक जगत की वास्तविक स्थिति कादक्षतापूर्वक विश्लेषण कर सकते हैं, अपने आपको स्थूल भौतिक तृप्ति के अशुभ जीवन सेऊपर उठाने में समर्थ होते हैं।
आत्मनो गुरुरात्मैव पुरुषस्य विशेषतः ।यत्रत्यक्षानुमानाभ्यां श्रेयोडइसावनुविन्दते ॥
२०॥
आत्मन:--अपना ही; गुरु:--उपदेश देने वाला गुरु; आत्मा--स्वयं; एव--निस्सन्देह; पुरुषस्य--मनुष्य का; विशेषत:ः --विशेषअर्थ में; यत्--क्योंकि; प्रत्यक्ष--प्रत्यक्ष अनुभूति से; अनुमानाभ्याम््--तर्क के प्रयोग से; श्रेयः--असली लाभ; असौ--वह;अनुविन्दते--प्राप्त कर सकता है।
बुद्धिमान व्यक्ति, जो अपने चारों ओर के जगत का अनुभव करने तथा ठोस तर्क का प्रयोगकरने में निपुण होता है, अपनी ही बुद्धि के द्वारा असली लाभ प्राप्त कर सकता है। इस प्रकारकभी कभी मनुष्य अपना ही उपदेशक गुरु बन जाता है।
पुरुषत्वे च मां धीरा: साड्ख्ययोगविशारदा: ।आविस्तां प्रपश्यन्ति सर्वशक्त्युपबृंहितम् ॥
२१॥
पुरुषत्वे--मनुष्य-जीवन में; च--तथा; माम्--मुझको; धीरा: --आध्यात्मिक ज्ञान के माध्यम से ईर्ष्या से मुक्त हुए; साइ्ख्य-योग--वैश्लेषिक ज्ञान तथा भगवद्भक्ति से बने आध्यात्मिक विज्ञान में; विशारदा:--दक्ष; आविस्तराम्--प्रत्यक्षतः प्रकट;प्रपश्यन्ति--वे स्पष्ट देखते हैं; सर्व--सभी; शक्ति--मेरी शक्ति से; उपबूंहितम्--प्रदत्त, समन्वित |
मनुष्य-जीवन में जो लोग आत्मसंयमी हैं और सांख्य योग में दक्ष हैं, वे मुझे मेरी सारीशक्तियों समेत प्रत्यक्ष देख सकते हैं।
एकद्वित्रिचतुस्पादो बहुपादस्तथापद: ।बह्व्यः सन्ति पुरः सृष्टास्तासां मे पौरुषी प्रिया ॥
२२॥
एक--एक; द्वि--दो; त्रि--तीन; चतु:--चार; पाद:--पाँव से युक्त; बहु-पाद:-- अनेक पाँवों से युक्त; तथा-- भी; अपद:--बिना पाँव के; बह्व्यः--अनेक; सन्ति-- हैं; पुरः--विभिन्न प्रकार के शरीर; सृष्टाः--निर्मित; तासाम्--उनका; मे--मुझको;पौरुषी--मनुष्य-रूप; प्रिया--अत्यन्त प्रिय |
इस जगत में अनेक प्रकार के सृजित शरीर हैं--कुछ एक पाँव वाले, कुछ दो, तीन, चार याअधिक पाँवों वाले तथा अन्य बिना पाँव के हैं, किन्तु इन सबों में मनुष्य-रूप मुझे वास्तविकप्रिय है।
अत्र मां मृगयन्त्यद्धा युक्ता हेतुभिरी ध्वरम् ।गृह्ममाणैर्गुणैलिड्रैरग्राह्ममनुमानतः ॥
२३॥
अत्र--यहाँ ( मनुष्य-रूप में ); माम्--मुझे; मृगयन्ति--ढूँढ़ते हैं; अद्धा--सीधे; युक्ता:--स्थित; हेतुभिः--प्रकट लक्षणों से;ईश्वरम--ईश्वर को; गृह्ममाणै: गुणै:--अनुभव करने वाली बुद्धि, मन तथा इन्द्रियों से; लिड्रे:--तथा अप्रत्यक्ष रूप से निश्चितकिये गये लक्षणों से; अग्राह्मम--प्रत्यक्ष अनुभूति की पकड़ से परे; अनुमानतः--तर्क विधि से |
यद्यपि मुझ भगवान् को सामान्य इन्द्रिय अनुभूति से कभी पकड़ा नहीं जा सकता, किन्तुमनुष्य-जीवन को प्राप्त लोग प्रत्यक्ष रूप से मेरी खोज करने के लिए प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्षनिश्चित लक्षणों द्वारा अपनी बुद्धि तथा अन्य अनुभूति-इन्द्रियों का उपयोग कर सकते हैं।
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।अवधूतस्य संवादं यदोरमिततेजस: ॥
२४॥
अत्र अपि--इस विषय में; उदाहरन्ति--उदाहरण देते हैं; इमम्--इस; इतिहासम्--ऐतिहासिक वृत्तान्त को; पुरातनम्ू-- प्राचीन;अवधूतस्य--सामान्य विधि-विधानों की परिधि से बाहर कार्य करने वाला पवित्र व्यक्ति; संवादम्--वार्ता को; यदो: --तथाराजा यदु की; अमित-तेजस:--असीम शक्ति वाले |
इस सम्बन्ध में साधु-पुरुष अत्यन्त शक्तिशाली राजा यदु तथा एक अवधूत से सम्बद्ध एकऐतिहासिक वार्ता का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
अवधूत॑ द्वियं कदश्धिच्चरन्तमकुतो भयम् ।कविं निरीक्ष्य तरुणं यदु: पप्रच्छ धर्मवित् ॥
२५॥
अवधूतम्--साधु; द्विजम्--ब्राह्मण को; कञ्ञित्--कुछ; चरन्तम्ू--विचरण करते हुए; अकुत:-भयम्--किसी प्रकार के भयके बिना; कविम्--विद्धान; निरीक्ष्य--देखकर; तरुणम्--युवा; यदुः--राजा यदु ने; पप्रच्छ--पूछा; धर्म-वित्-- धार्मिकसिद्धान्तों में दक्ष
महाराज यदु ने एक बार किसी ब्राह्मण अवधूत को देखा, जो तरूण तथा दिद्वान प्रतीतहोता था और निर्भय होकर विचरण कर रहा था। आध्यात्मिक विज्ञान में अत्यन्त पारंगत होने केकारण राजा ने इस अवसर का लाभ उठाया और उसने इस प्रकार उससे पूछा।
श्रीयदुरुवाचकुतो बुद्धिरियं ब्रह्मन्नकर्तु: सुविशारदा ।यामासाद्य भवाल्लोकं दिद्वांश्वतति बालवत् ॥
२६॥
श्री-यदुः उवाच--राजा यदु ने कहा; कुतः--कहाँ से; बुद्धिः--बुद्धि; इयम्--यह; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; अकर्तु:--किसी काममें न लगे रहने वाले के; सु-विशारदा--अत्यन्त विस्तृत; यामू--जो; आसाद्य--प्राप्त करके; भवान्ू-- आप; लोकम्--संसारमें; विद्वानू--ज्ञान से पूर्ण होकर; चरति--विचरण करता है; बाल-वत्--बालक के समान।
श्री यदु ने कहा : हे ब्राह्मण, मैं देख रहा हूँ कि आप किसी व्यावहारिक धार्मिक कृत्य मेंनहीं लगे हुए हैं, तो भी आपने इस जगत में सारी वस्तुओं तथा सारे लोगों की सही-सहीजानकारी प्राप्त कर रखी है। हे महानुभाव, मुझे बतायें कि आपने यह असाधारण बुद्धि कैसेप्राप्त की है और आप सारे जगत में बच्चे की तरह मुक्त रूप से विचरण क्यों कर रहे हैं ? प्रायो धर्मार्थकामेषु विवित्सायां च मानवा: ।हेतुनेव समीहन्त आयुषो यशसः थ्रिय: ॥
२७॥
प्रायः--सामान्यतया; धर्म--धर्म; अर्थ--आर्थिक विकास; कामेषु--तथा इन्द्रियतृप्ति में; विवित्सायामू--आध्यात्मिक ज्ञान कीखोज में; च-- भी; मानवा:--मनुष्यगण; हेतुना-- अभिप्राय के लिए; एव--निस्सन्देह; समीहन्ते--प्रयत्न करते हैं; आयुष: --दीर्घायु की; यशस:--यश की; थ्रियः--तथा भौतिक ऐश्वर्य की |
सामान्यतया मनुष्य धर्म, अर्थ, काम तथा आत्मा विषयक ज्ञान का अनुशीलन करने के लिएकठिन परिश्रम करते हैं। उनका सामान्य मन्तव्य अपनी आयु को बढ़ाना, यश अर्जित करना तथाभौतिक ऐश्वर्य का भोग करना रहता है।
त्वं तु कल्पः कविर्दक्ष: सुभगोईमृतभाषण: ।न कर्ता नेहसे किश्चिज्जडोन्मत्तपिशाचवत् ॥
२८॥
त्वमू--तुम; तु--फिर भी; कल्प:--सक्षम; कवि:--विद्वान; दक्ष: --पटु; सु-भग:ः--सुन्दर; अमृत-भाषण:--अमृततुल्य वाणीसे युक्त; न--नहीं; कर्ता--करने वाला; न ईहसे--तुम इच्छा नहीं करते; किल्ञित्--कोई भी वस्तु; जड--अचर; उन्मत्त--पागल बना हुआ; पिशाच-बत्--पिशाच के समान।
तथापि समर्थ, विद्वान, दक्ष, सुन्दर तथा सुस्पष्ट वक्ता होते हुए भी आप न तो कोई कामकरने में लगे हैं, न ही आप किसी वस्तु की इच्छा करते हैं, प्रत्युत जड़वत तथा उन्मत्त प्रतीत होतेहैं, मानो कोई पिशाच हो।
जनेषु दह्ममानेषु कामलोभदवाग्निना ।न तप्यसेग्निना मुक्तो ग्ढम्भ:स्थ इव द्विप: ॥
२९॥
जनेषु--समस्त लोगों के; दह्ममानेषु--जलते हुए भी; काम--काम; लोभ--तथा लालच की; दव-अग्निना--जंगल की आगद्वारा; न तप्यसे--जल नहीं जाते; अग्निना--अग्नि से; मुक्त:--स्वतंत्र; गड्ञ-अम्भ:--गंगा के जल में; स्थ:--खड़े; इब--मानो; द्विप:--हाथी।
यद्यपि भौतिक जगत में सारे लोग काम तथा लोभ की दावाग्नि में जल रहे हैं, किन्तु आपस्वतंत्र रह रहें हैं और उस अग्नि से जलते नहीं। आप उस हाथी के समान हैं, जो दावाग्नि सेबचने के लिए गंगा नदी के जल के भीतर खड़े होकर आश्रय लिये हुये हो।
त्वं हि नः पृच्छतां ब्रह्मन्नात्मन्यानन्दकारणम् ।ब्रृहि स्पर्शणविहीनस्य भवतः केवलात्मन: ॥
३०॥
त्वमू--तुम; हि--निश्चय ही; न:ः--हमसे; पृच्छताम्--पूछ रहे; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; आत्मनि--अपने भीतर; आनन्द--आनन्दके; कारणम्ू--कारण को; ब्रूहि--कहो; स्पर्श-विहीनस्थ-- भौतिक भोग के स्पर्श से विहीन; भवत:--आपका; केवल-आत्मन:--एकान्त में रहने वाले |
हे ब्राह्मण, हम देखते हैं कि आप भौतिक भोग से किसी प्रकार के स्पर्श से रहित हैं औरबिना किसी संगी या पारिवारिक सदस्य के अकेले ही भ्रमण कर रहे हैं। चुँकि हम निष्ठापूर्वक आपसे पूछ रहे है, इसलिए कृपा करके हमें अपने भीतर अनुभव किये जा रहे महान् आनन्द काकारण बतलायें।
श्रीभगवानुवाचयदुनैव॑ महाभागो ब्रह्मण्येन सुमेधसा ।पृष्ट: सभाजितः प्राह प्रश्रयावनतं द्विज: ॥
३१॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् ने कहा; यदुना--राजा यदु द्वारा; एवम्--इस तरह से; महा-भाग:--परम भाग्यशाली;ब्रह्मण्येन--ब्राह्मणों का आदर करने वाला; सु-मेधसा--तथा बुद्धिमान; पृष्ट:--पूछा; सभाजित: --सत्कार किया; प्राह--बोला; प्रश्रय--दीनतावश; अवनतम्--अपना सिर झुकाते हुए; द्विज:--ब्राह्मण ने
भगवान् कृष्ण ने कहा : ब्राह्मणों का सदैव आदर करने वाला बुद्धिमान राजा यदु अपनासिर झुकाये हुए प्रतीक्षा करता रहा और वह ब्राह्मण राजा की मनोवृत्ति से प्रसन्न होकर उत्तर देनेलगा।
श्रीत्राह्मण उबाचसन्ति मे गुरवो राजन्बहवो बुद्धयुपश्रिता: ।यतो बुद्धिमुपादाय मुक्तोडटामीह तान्थुणु ॥
३२॥
श्री-ब्राह्मण: उबाच--ब्राह्मण ने कहा; सन्ति--हैं; मे--मेंरे; गुरव:--अनेक गुरु; राजन्--हे राजा; बहव:--अनेक; बुद्धि--मेरी बुद्धि; उपश्रिता:--शरणागत; यतः--जिससे; बुद्धिम्--बुद्धि के; उपादाय--प्राप्त करके ; मुक्त:--मुक्त; अटामि--विचरण करता हूँ; हह--इस जगत में; तानू--उनको; श्रूणु--सुनो |
ब्राह्मण ने कहा : हे राजन्, मैंने अपनी बुद्धि से अनेक गुरुओं की शरण ली है। उनसे दिव्यज्ञान प्राप्त करने के बाद अब मैं मुक्त अवस्था में पृथ्वी पर विचरण करता हूँ। जिस रूप में मैंआपसे वर्णन करूँ, कृपा करके सुनें।
पृथिवी वायुराकाशमापोडग्निश्चन्द्रमा रवि: ।कपोतोजगरः सिन्धु: पतड़ो मधुकूदूगज: ॥
३३॥
मधुहा हरिणो मीन: पिड्ुला कुररोर्भक:ः ।कुमारी शरकृत्सर्प ऊर्णनाभिः सुपेशकृत् ॥
३४॥
एते मे गुरवो राजन्चतुर्विशतिराश्रिता: ।शिक्षा वृत्तिभिरेतेषामन्वशिक्षमिहात्मन: ॥
३५॥
पृथिवी--पृथ्वी; वायु: --वायु; आकाशम्--आकाश; आप: --जल; अग्नि:--अग्नि; चन्द्रमा: --चन्द्रमा; रवि: --सूर्य;कपोत:--कबूतर; अजगर:--अजगर; सिन्धु:--समुद्र; पतड्ृः--पतिंगा; मधु-कृत्ू--शहद की मक्खी; गज: --हाथी; मधु-हा--शहद-चोर; हरिण:--हिरन; मीन:--मछली; पिड्ला--पिंगला नामक वेश्या; कुरर:--कुररी पक्षी; अर्भक:--बालक;कुमारी--तरुणी; शर-कृत्--बाण बनाने वाला; सर्प:--साँप; ऊर्ण-नाभि:--मकड़ी; सुपेश-कृत्--बर; एते--ये; मे--मेरे;गुरवः--गुरु; राजन्ू--हे राजा; चतु:-विंशति:ः-- चौबीस; आश्रिता:--जिनकी शरण ली है; शिक्षा--उपदेश; वृत्तिभि:--कार्योसे; एतेषाम्--इनके ; अन्वशिक्षम्--मैंने ठीक से सीखा है; इह--इस जीवन में; आत्मन:--आत्मा ( अपने ) के बारे में |
हे राजन, मैंने चौबीस गुरुओं की शरण ली है। ये हैं--पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, अग्नि,चन्द्रमा, सूर्य, कबूतर, अजगर, समुद्र, पतिंगा, मधुमक्खी, हाथी, मधु-चोर, हिरण, मछली,पिंगला वेश्या, कुररी पक्षी, बालक, तरुणी, बाण बनाने वाला, साँप, मकड़ी तथा बर। हेराजन, इनके कार्यो का अध्ययन करके ही मैंने आत्म-ज्ञान सीखा है।
यतो यदनुशिक्षामि यथा वा नाहुषात्मज ।तत्तथा पुरुषव्याप्र निबोध कथयामि ते ॥
३६॥
यतः--जिससे; यत्--जो; अनुशिक्षामि--मैंने सीखा है; यथा--कैसे; वा--तथा; नाहुष-आत्म-ज--हे राजा नहुष ( ययाति )के पुत्र; ततू--वह; तथा--इस प्रकार; पुरुष-व्याध्र--हे पुरुषों में बाघ; निबोध--सुनो; कथयामि--कहूँगा; ते--तुमसे
हे महाराज ययाति के पुत्र, हे पुरुषों में व्याप्र, सुनो, क्योंकि मैंने इन गुरुओं से, जो सीखाहै, उसे तुम्हें बतला रहा हूँ।
भूतैराक्रम्यमाणोपि धीरो दैववशानुगैः ।तद्विद्वान्न चलेन्मार्गादन्वशिक्षं क्षितेत्रेतम् ॥
३७॥
भूतैः--विभिन्न प्राणियों द्वारा; आक्रम्यमाण:--सताया जाकर; अपि--यद्यपि; धीर:--धीर; दैव-- भाग्य के; वश--नियंत्रण;अनुगैः --अनुयायियों द्वारा; तत्ू--यह तथ्य; विद्वानू--जाननहारा; न चलेतू--विपथ नहीं होना चाहिए; मार्गात्ू--पथ से;अन्वशिक्षम्-मैंने सीखा है; क्षिते:--पृथ्वी से; ब्रतम्--यह व्रत, हृढ़ अभ्यास |
अन्य जीवों द्वारा सताये जाने पर भी धीर व्यक्ति को यह समझना चाहिए कि उसके उत्पीड़कईश्वर के अधीन होकर असहाय रूप से कर्म कर रहे हैं। इस तरह उसे कभी अपने पथ की प्रगतिसे विपथ नहीं होना चाहिए मैंने पृथ्वी से यह नियम सीखा है।
शश्वत्परार्थसर्वेह: परार्थैकान्तसम्भव: ।साधु: शिक्षेत भूभूत्तो नगशिष्य: परात्मताम् ॥
३८॥
शश्वत्--सदैव; पर--दूसरों के; अर्थ--हित के लिए; सर्व-ईह:--सारे प्रयास; पर-अर्थ--दूसरों का लाभ; एकान्त--अकेला;सम्भव:--जीवित रहने का कारण; साधु:--साधु-पुरुष; शिक्षेत--सीखना चाहिए; भू- भृत्त:--पहाड़ से; नग-शिष्य: --वृशक्षका शिष्य; पर-आत्मताम्--अन्यों के प्रति समर्पण |
सनन््त-पुरुष को पर्वत से सीखना चाहिए कि वह अपने सारे प्रयास अन्यों की सेवा में लगायेऔर अन्यों के कल्याण को अपने जीवन का एकमात्र ध्येय बनाये। इसी तरह वृक्ष का शिष्यबनकर उसे स्वयं को अन्यों को समर्पित करना सीखना चाहिए।
प्राणवृत्त्यैव सन्तुष्येन्मुनिनेवेन्द्रियप्रिये: ।ज्ञानं यथा न नश्येत नावकीर्येत वाइमन: ॥
३९॥
प्राण-वृत्त्या--प्राणों के कार्य करते रहने से; एब--ही; सन्तुष्येत्--सन्तुष्ट रहना चाहिए; मुनि:--मुनि; न--नहीं; एव--निस्सन्देह; इन्द्रिय-प्रियै:--इन्द्रियों को तृप्त करने वाली वस्तुओं से; ज्ञानम्--चेतना; यथा--जिससे कि; न नश्येत--नष्ट न होसके; न अवकीर्येत--शक्षुब्ध न हो सके; वाकु--उसकी वाणी; मन:--तथा मन।
विद्वान मुनि को चाहिए कि वह अपने सादे जीवन-यापन में ही तुष्टि माने। वह भौतिकइन्द्रियों की तृप्ति के द्वारा तुष्टि की खोज न करे। दूसरे शब्दों में, मनुष्य को अपने शरीर कीपरवाह इस तरह करनी चाहिए कि उसका उच्चतर ज्ञान विनष्ट न हो और उसकी वाणी तथा मनआत्म-साक्षात्कार के मार्ग से विचलित न हों।
विषयेष्वाविशन्योगी नानाधर्मेषु सर्वतः ।गुणदोषव्यपेतात्मा न विषज्जेत वायुवत् ॥
४०॥
विषयेषु-- भौतिक वस्तुओं के सम्पर्क में; आविशन्-- प्रवेश करके ; योगी--जिसने आत्म-संयम प्राप्त कर लिया है; नाना-धर्मेषु--विभिन्न गुणों वाले; सर्वतः--सर्वत्र; गुण--सदगुण; दोष--तथा दोष; व्यपेत-आत्मा--वह व्यक्ति जिसने लाँघ लियाहै; न विषज्ेत--नहीं फँसना चाहिए; वायु-वत्--वायु की तरह
यहाँ तक कि योगी भी ऐसी असंख्य भौतिक वस्तुओं से घिरा रहता है, जिनमें अच्छे तथाबुरे गुण पाये जाते हैं। किन्तु जिसने भौतिक अच्छाई तथा बुराई लाँघ ली है, उसे भौतिक वस्तुओंके सम्पर्क में रहते हुए भी, उनमें फँसना नहीं चाहिए, प्रत्युत उसे वायु की तरह कार्य करनाचाहिए।
पार्थिवेष्विह देहेषु प्रविष्टस्तद्गुणा श्रय: ।गुणैर्न युज्यते योगी गन्धैर्वायुरिवात्महक् ॥
४१॥
पार्थिवेषु--पृथ्वी ( तथा अन्य तत्त्वों ) से बना; इह--इस संसार में; देहेषु--शरीरों में; प्रविष्ट: --प्रवेश करके; तत्--उनके;गुण--लाक्षणिक गुण; आश्रय:-- धारण करके; गुणैः:--उन गुणों से; न युज्यते-- अपने को फँसाता नहीं; योगी--योगी;गन्धैः--विभिन्न गंधों से; वायु:--वायु; इब--सदहृश; आत्म-हक्--अपने को ठीक से देखने वाला
( इस पदार्थ से पृथक् रूपमें )इस जगत में स्वरूपसिद्ध आत्मा विविध भौतिक शरीरों में उनके विविध गुणों तथा कार्योका अनुभव करते हुए रह सकता है, किन्तु वह उनमें कभी उलझता नहीं, जिस तरह कि वायुविविध सुगंधों को वहन करती है, किन्तु वह उनमें घुल-मिल नहीं जाती।
अन्तर्हितश्न स्थिरजड्रमेषुब्रह्मात्मभावेन समन्वयेन ।व्याप्त्याव्यवच्छेदमसड्रमात्मनोमुनिर्नभस्त्वं विततस्य भावयेत् ॥
४२॥
अन्तहितः -- भीतर उपस्थित; च-- भी; स्थिर--सारे जड़ जीव; जड़मेषु--तथा चेतन जीव; ब्रह्म-आत्म-भावेन--अपने को शुद्धआत्मा अनुभव करते हुए; समन्वयेन--विभिन्न शरीरों के साथ भिन्न भिन्न सम्पर्कों के परिणामस्वरूप; व्याप्त्या--व्याप्त होने केकारण; अव्यवच्छेदम्--अविभक्त होने का गुण; असड्रम्--लिप्त न रहने से; आत्मन: --परमात्मा से युक्त; मुनि:--मुनि;नभस्त्वम्--आकाश साम्य; विततस्य--विराट का; भावयेत्-- ध्यान करना चाहिए
भौतिक शरीर के भीतर रहते हुए भी विचारवान साधु को चाहिए कि वह अपने आपकोशुद्ध आत्मा समझे। इसी तरह मनुष्य को देखना चाहिए कि आत्मा सभी प्रकार के सजीवों--चरों तथा अचरों के भीतर प्रवेश करता है और इस तरह व्यष्टि आत्मा सर्वव्यापी है। साधु को यहभी देखना चाहिए कि परमात्मा रूप में भगवान् एक ही समय सारी वस्तुओं के भीतर उपस्थितरहते हैं। आत्मा तथा परमात्मा को आकाश के स्वभाव से तुलना करके समझा जा सकता है।यद्यपि आकाश सर्वत्र फैला हुआ है और सारी वस्तुएँ आकाश के भीतर टिकी हैं किन्तु आकाशकिसी भी वस्तु से न तो घुलता-मिलता है, न ही किसी वस्तु के द्वारा विभाजित किया जा सकताहै।
तेजोबन्नमयै भविर्मेघाद्यैर्वायुनेरितै: ।न स्पृश्यते नभस्तद्वत्कालसूष्टैर्गुणै: पुमान् ॥
४३॥
तेज:--अग्नि; अपू--जल; अन्न--तथा पृथ्वी; मयै:--युक्त; भावै:--वस्तुओं से; मेघ-आद्यै:--बादल इत्यादि से; वायुना--वायु से; ईरितैः--उड़ाये जाने वाले; न स्पृश्यते--स्पर्श नहीं हो पाता; नभः--आकाश; तत्-वत्--उसी तरह से; काल-सूष्टै:--काल द्वारा भेजे गये; गुणैः:-- प्रकृति के गुणों द्वारा; पुमान्ू--मनुष्य |
यद्यपि प्रबल वायु आकाश से होकर बादलों तथा झंझावातों को उड़ाती है, किन्तु आकाशइन कार्यों से कभी प्रभावित नहीं होता। इसी प्रकार आत्मा भौतिक प्रकृति के स्पर्श से परिवर्तितया प्रभावित नहीं होती। यद्यपि जीव पृथ्वी, जल तथा अग्नि से बने शरीर में प्रवेश करता है औरयद्यपि वह शाश्वत काल द्वारा उत्पन्न तीन गुणों के द्वारा बाध्य किया जाता है, किन्तु उसकाशाश्रत आध्यात्मिक स्वभाव कभी भी प्रभावित नहीं होता।
स्वच्छ: प्रकृतितः स्निग्धो माधुर्यस्तीर्थभूनणाम् ।मुनिः पुनात्यपां मित्रमीक्षोपस्पर्शकीर्तनी: ॥
४४॥
स्वच्छ: --शुद्ध; प्रकृतित:--प्रकृति से; स्निग्ध:--कोमल या कोमल हृदय वाला; माधुर्य; --मधुर या मधुर वाणी; तीर्थ-भू:--तीर्थस्थान; नृणाम्-मनुष्यों के लिए; मुनिः--मुनि; पुनाति--पवित्र करता है; अपाम्--जल का; मित्रम्--प्रतिरूप; ईक्षा--देखे जाने से; उपस्पर्श--सादर स्पर्श होने से; कीर्तनैः--तथा वाणी से प्रशंसित किये जाने से
हे राजन, सन्त-पुरुष जल के सहृश होता है, क्योंकि वह कल्मषरहित, स्वभाव से मृदुलतथा बोलने में बहते जल की कलकल ध्वनि सहृश होता है। ऐसे सनन््त-पुरुष के दर्शन, स्पर्श याश्रवण मात्र से ही जीव उसी तरह पवित्र हो जाता है, जिस तरह शुद्ध जल का स्पर्श करने सेमनुष्य स्वच्छ हो जाता है। इस तरह सन्त-पुरुष तीर्थस्थान की तरह उन सबों को शुद्ध बनाता है,जो उसके सम्पर्क में आते हैं, क्योंकि वह सदैव भगवान् की महिमा का कीर्तन करता है।
तेजस्वी तपसा दीप्तो दुर्धषोदरभाजन: ।सर्वभश्ष्योपि युक्तात्मा नादत्ते मलमग्निवत् ॥
४५॥
तेजस्वी--तेजवान्; तपसा--अपनी तपस्या से; दीप्तः--चमकता हुआ; दुर्धर्ष--अचल; उदर-भाजन:--पेट पालने के लिए हीखाने वाला; सर्व--हर वस्तु; भक्ष्य:--खाते हुए; अपि--यद्यपि; युक्त-आत्मा--आध्यात्मिक जीवन में स्थिर; न आदत्ते-- धारणनहीं करता; मलम्--कल्मष; अग्नि-वत्-- अग्नि की तरह।
सन्त-पुरुष तपस्या करके शक्तिमान बनते हैं। उनकी चेतना अविचल रहती है क्योंकि वेभौतिक जगत की किसी भी वस्तु का भोग नहीं करना चाहते। ऐसे सहज मुक्त सनन््त-पुरुष भाग्यद्वारा प्रदत्त भोजन को स्वीकार करते हैं और यदि कदाचित् दूषित भोजन कर भी लें तो उन परकोई प्रभाव नहीं पड़ता जिस तरह अग्नि उन दूषित वस्तुओं को जला देती है, जो उसमें डालीजाती हैं।
क्वचिच्छन्न: क्वचित्स्पष्ट उपास्य: श्रेय इच्छताम् ।भुड़े सर्वत्र दातृणां दहन्प्रागुत्तराशुभम् ॥
४६॥
क्वचित्--कभी; छन्न:--ढका हुआ; क्वचित्--कभी; स्पष्ट:-- प्रकट; उपास्य: --पूज्य; श्रेय:--सर्वोच्च मंगल; इच्छताम्ू--चाहने वालों के लिए; भुड्ढे --निगल जाता है; सर्वत्र--सभी दिशाओं में; दातृणाम्ू--बलि चढ़ाने वालों के; दहन्--जलाते हुए;प्राकु--विगत; उत्तर--तथा भविष्य; अशुभम्-पापों को |
सनन््त-पुरुष अग्नि के ही समान, कभी प्रच्छन्न रूप में, तो कभी प्रकट रूप में दिखता है।असली सुख चाहने वाले बद्धजीवों के कल्याण हेतु सन््त-पुरुष गुरु का पूजनीय पद स्वीकारकर सकता है और इस तरह वह अग्नि के सहृश अपने पूजकों की बलियों को दयापूर्वकस्वीकार करके विगत तथा भावी पापों को भस्म कर देता है।
स्वमायया सूष्टमिदं सदसल्लक्षणं विभु: ।प्रविष्ट ईयते तत्तत्स्वरूपोग्निरिवैधसि ॥
४७॥
स्व-मायया--अपनी माया से; सृष्टम्--सृजित; इदम्--यह ( जीव का शरीर ); सत्-असतू--देवता, पशु इत्यादि के रूप में;लक्षणम्--लक्षणों से युक्त; विभु:--सर्वशक्तिमान; प्रविष्ट: --प्रवेश करके; ईयते--प्रकट होता है; ततू्-तत्--उसी-उसी रूपमें; स्वरूप:--पहचान बनाकर; अग्नि:--अग्नि के; इब--सहश; एधसि--ईधन में |
जिस तरह अग्नि विभिन्न आकारों तथा गुणों वाले काष्ट-खण्डों में भिन्न भिन्न रूप से प्रकटहोती है, उसी तरह सर्वशक्तिमान परमात्मा अपनी शक्ति से उत्पन्न किये गये उच्च तथा निम्नयोनियों के शरीरों में प्रवेश करके प्रत्येक के स्वरूप को ग्रहण करता प्रतीत होता है।
विसर्गद्या: श्मशानान्ता भावा देहस्य नात्मन: ।कलानामिव चन्द्रस्य कालेनाव्यक्तवर्त्मना ॥
४८॥
विसर्ग--जन्म; आद्या:--इत्यादि; एमशान-- मृत्यु का समय, जब शरीर भस्म कर दिया जाता है; अन्ता:--अन्तिम; भावा:--दशाएँ; देहस्य--शरीर की; न--नहीं; आत्मन:--आत्मा का; कलानामू--विभिन्न अवस्थाओं का; इब--सहश; चन्द्रस्य--चन्द्रमा की; कालेन--समय के साथ; अव्यक्त--न दिखने वाला; वर्त्मना--गति से
जन्म से लेकर मृत्यु तक भौतिक जीवन की विभिन्न अवस्थाएँ शरीर के गुणधर्म हैं और येआत्मा को उसी तरह प्रभावित नहीं करतीं, जिस तरह चन्द्रमा की घटती-बढ़ती कलाएँ चन्द्रमाको प्रभावित नहीं करतीं। ऐसे परिवर्तन काल की अव्यक्त गति द्वारा लागू किये जाते हैं।
कालेन होघवेगेन भूतानां प्रभवाप्ययौ ।नित्यावषि न हृश्येते आत्मनोःग्नेर्यथार्चिषाम् ॥
४९॥
कालेन--समय के द्वारा; हि--निस्सन्देद; ओघ--बाढ़ के सहश; वेगेन--चाल से; भूतानाम्--जीवों के; प्रभव--जन्म;अप्ययौ--तथा मृत्यु; नित्यौ--स्थायी; अपि--यद्यपि; न दृश्येते--नहीं देखे जाते; आत्मन:--आत्मा के; अग्ने:--अग्नि की;यथा--जिस तरह; अर्चिषाम्--लपटों को
अग्नि की लपटें प्रतिक्षण प्रकट तथा लुप्त होती रहती हैं, और यह सृजन तथा विनाशसामान्य प्रेक्षकों द्वारा देखा नहीं जाता। इसी तरह काल की बलशाली लहरें नदी की प्रबलधाराओं की तरह निरन्तर बहती रहती हैं और अव्यक्त रूप से असंख्य भौतिक शरीरों को जन्म,वृद्धि तथा मृत्यु प्रदान करती रहती हैं। फिर भी आत्मा, जिसे निरन्तर अपनी स्थिति बदलनीपड़ती है, काल की करतूतों को देख नहीं पाता।
गुणैर्गुणानुपादत्ते यथाकालं विमुझ्जञति ।न तेषु युज्यते योगी गोभिर्गा इब गोपति: ॥
५०॥
गुणैः--अपनी इन्द्रियों से; गुणान्--इन्द्रिय-विषयों को; उपादत्ते--स्वीकार करता है; यथा-कालम्--उपयुक्त समय पर;विमुक्नति--छोड़ देता है; न--नहीं; तेषु--उनमें ; युज्यते-- फँस जाता है; योगी--स्वरूपसिद्ध मुनि; गोभि:--अपनी किरणों से;गाः--जलाशयों; इब--सहश; गो-पति: --सूर्य ।
जिस तरह सूर्य अपनी प्रखर किरणों से पर्याप्त मात्रा में जल को भाप बना कर उड़ा देता हैऔर बाद में उस जल को वर्षा के रूप में पृथ्वी पर लौटा देता है, उसी तरह सन््त-पुरुष अपनीभौतिक इन्द्रियों से सभी प्रकार की भौतिक वस्तुओं को स्वीकार करता है और जब सही व्यक्तिउन्हें लौटवाने के लिए उसके पास जाता है, तो उन भौतिक वस्तुओं को वह लौटा देता है। इसतरह वह इन्द्रिय-विषयों को स्वीकारने तथा त्यागने दोनों में ही फँसता नहीं ।
बुध्यते स्वे न भेदेन व्यक्तिस्थ इव तद्गतः ।लक्ष्यते स्थूलमतिभिरात्मा चावस्थितोर्कवत् ॥
५१॥
बुध्यते--सोचा जाता है; स्वे--अपने मूल रूप में; न--नहीं; भेदेन--विविधता से; व्यक्ति--पृथक् प्रतिबिम्बित पदार्थों पर;स्थ:--स्थित; इब--ऊपर से; ततू-गत:--उनके भीतर प्रवेश करके; लक्ष्यते--प्रकट होता है; स्थूल-मतिभि:--मन्द बुद्धि वालोंके लिए; आत्मा--आत्मा; च--भी; अवस्थित: --स्थित; अर्कवत्--सूर्य की तरह ।
विविध वस्तुओं से परावर्तित होने पर भी सूर्य न तो कभी विभक्त होता है, न अपने प्रतिबिम्बमें लीन होता है। जो मन्द बुद्धि वाले हैं, वे ही सूर्य के विषय में ऐसा सोचते हैं। इसी प्रकारआत्मा विभिन्न भौतिक शरीरों से प्रतिबिम्बित होते हुए भी अविभाजित तथा अभौतिक रहता है।
नातिस्नेह: प्रसझे वा कर्तव्य: क्वापि केनचित् ।कुर्वन्बिन्देत सन््तापं कपोत इव दीनधी: ॥
५२॥
न--नहीं; अति-स्नेह:--अत्यधिक स्नेह; प्रसड़ू:--घनिष्ठ संग; वा--अथवा; कर्तव्य:--प्रकट करना चाहिए; क्व अपि--कभी;केनचित्--किसी से; कुर्वन्ू--ऐसा करते हुए; विन्देत--अनुभव करेगा; सन्तापम्--महान् दुख; कपोत:ः--कबूतर; इब--सहश; दीन-धी:--मन्द बुद्धि |
मनुष्य को चाहिए कि किसी व्यक्ति या किसी वस्तु के लिए अत्यधिक स्नेह या चिन्ता नकरे। अन्यथा उसे महान् दुख भोगना पड़ेगा, जिस तरह कि मूर्ख कबूतर भोगता है।
कपोतः कश्चनारण्ये कृतनीडो वनस्पतौ ।कपोत्या भार्यया सार्थधमुवास कतिचित्समा: ॥
५३॥
कपोत:--कबूतर ने; कश्चन--किसी; अरण्ये--जंगल में; कृत-नीड:--अपना घोंसला बनाकर; वनस्पतौ--वृक्ष में;कपोत्या--कबूतरी के साथ; भार्यया--अपनी पत्नी; स-अर्धम्--अपने संगी के रूप में; उबास--रहने लगा; कतिचित्--कुछ;समाः--वर्षो तक
एक कबूतर था, जो अपनी पत्नी के साथ जंगल में रहता था। उसने एक वृक्ष के भीतरअपना घोंसला बनाया और कबूतरी के साथ कई वर्षों तक वहाँ रहता रहा।
कपोतौ स्नेहगुणितहदयौ गृहधर्मिणौ ।दृष्टि दृष्ठयाड्रमड्रेन बुद्धि बुद्धया बबन्धतु: ॥
कपोतौ--कबूतर का जोड़ा; स्नेह--स्नेह से; गुणित--मानो रस्सी से बँधे हुए; हृदयौ--उनके हृदय; गृह-धर्मिणौ-- अनुरक्तगृहस्थ; दृष्टिम--दृष्टि; दृष्या--चितवन से; अड्रम्ू--शरीर को; अड्लेन--दूसरे के शरीर से; बुद्धिमू--मन; बुद्धया--दूसरे के मनसे; बबन्धतु:--एक-दूसरे को बाँध लिया।
कबूतर का यह जोड़ा अपने गृहस्थ कार्यो के प्रति अत्यधिक समर्पित था। उनके हृदयभावनात्मक स्नेह से परस्पर बँधे थे, वे एक-दूसरे की चितवनों, शारीरिक गुणों तथा मन कीअवस्थाओं से आकृष्ट थे। इस तरह उन्होंने एक-दूसरे को स्नेह से पूरी तरह बाँध रखा था।
शय्यासनाटनस्थान वार्ताक्रीडाशनादिकम् ।मिथुनीभूय विश्रब्धौ चेरतुर्वनराजिषु ॥
५५॥
शब्या--लेटते; आसन--बैठते; अटन--चलते-फिरते; स्थान--खड़े होते; वार्ता--बातें करते; क्रीडा--खेलते; अशन--भोजन करते; आदिकम्--इत्यादि; मिथुनी-भूय--दम्पति के रूप में; विश्रव्धौ--एक-दूसरे पर विश्वास करते; चेरतु: --उन्होंनेसम्पन्न किया; वन--जंगल के; राजिषु--वृन्दों के कुंजों के बीच।
भविष्य पर निएछल भाव से विश्वास करते हुए बे प्रेमी युगल की भाँति जंगल के वृक्षों केबीच लेटते, बैठते, चलते-फिरते, खड़े होते, बातें करते, खेलते, खाते-पीते रहे।
यं यं वाउ्छति सा राजन्तर्पयन्त्यनुकम्पिता ।तं त॑ समनयत्कामं कृच्छेणाप्यजितेन्द्रिय: ॥
५६॥
यम् यम्--जो कुछ भी; वा्छति--चाहती; सा--वह कबूतरी; राजन्--हे राजन; तर्पयन्ती -- प्रसन्न करती हुईं; अनुकम्पिता--दया दिखाई गई; तम् तम्ू--वह-वह; समनयत्--ले आया; कामम्--अपनी इच्छा; कृच्छेण --बड़ी मुश्किल से; अपि-- भी;अजित-इन्द्रियः--अपनी इन्द्रियों को वश में करना न सीखा हुआ।
हे राजनू, जब भी कबूतरी को किसी वस्तु की इच्छा होती, तो वह अपने पति कीचाटुकारिता करके उसे बाध्य करती और वह स्वयं भारी मुश्किलें उठाकर भी उसे तृप्त करने केलिए वही करता, जो वह चाहती थी। इस तरह वह उसके संग में अपनी इन्द्रियों पर संयम नहींरख सका।
कपोती प्रथम गर्भ गृहन्ती काल आगते ।अण्डानि सुषुवे नीडे स्तपत्यु: सन्निधौ सती ॥
५७॥
कपोती--कबूतरी; प्रथमम्--प्रथम; गर्भम्--गर्भावस्था; गृहन्ती -- धारण करती हुईं; काले--( प्रसव का ) समय के; आगते--आने पर; अण्डानि--अंडे; सुषुवे--दिये; नीडे--घोंसले में; स्व-पत्यु:--अपने पति की; सन्निधौ--उपस्थिति में; सती--साध्वी
तत्पश्चातु, कबूतरी को पहले गर्भ का अनुभव हुआ। जब समय आ गया, तो उस साध्वीकबूतरी ने अपने पति की उपस्थिति में घोंसले में कई अंडे दिये।
तेषु काले व्यजायन्त रचितावयवा हरे: ।शक्तिभिर्दुर्विभाव्याभि: कोमलाडुरतनूरूहा: ॥
५८ ॥
तेषु--उन अंडों से; काले--समय आने पर; व्यजायन्त--उत्पन्न हुए; रचित--निर्मित; अवयवा:--बच्चों के अंग; हरेः-- भगवान्हरि की; शक्तिभि: --श क्तियों से; दुर्विभाव्याभि:-- अचिन्त्य; कोमल-- मुलायम; अड्ड--अंग; तनूरुहा:--तथा पंखहा
जब समय पूरा हो गया, तो उन अंडों से भगवान् की अचिन्त्य शक्तियों से निर्मित मुलायमअंगो तथा पंखों के साथ बच्चे उत्पन्न हुए।
प्रजा: पुपुषतु: प्रीतौ दम्पती पुत्रवत्सलौ ।श्रुण्वन्तौ कूजितं तासां निर्वृती कलभाषितैः ॥
५९॥
प्रजा:--सन्तान; पुपुषतु:--उन्होंने पाला-पोषा; प्रीतौ--अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक; दम्-पती --युग्म; पुत्र--अपने बच्चों को;बत्सलौ--दयालु; श्रृण्वन्तौ --सुनते हुए; कूजितमू--चहचहाना; तासाम्--उन बच्चों की; निर्वता--अत्यन्त सुखी; कल-भाषितै:--भद्दी ध्वनि से |
कबूतर का यह जोड़ा अपने बच्चों के प्रति अत्यन्त स्नेहिल बन गया और उनकी अढपटीचहचहाहट को सुनकर अत्यन्त हर्षित होता, क्योंकि उन माता-पिता को यह अतीव मधुर लगती।इस तरह वह जोड़ा उन छोटे-छोटे बच्चों का पालन-पोषण करने लगा।
तासां पतत्रै: सुस्पशैं: कूजितैर्मुग्धचेष्टितेः ।प्रत्युदूगमैरदीनानां पितरौ मुदमापतु: ॥
६०॥
तासाम्--छोटे पक्षियों के; पतत्रैः--पंखों द्वारा; सु-स्पशैं:--छूने में अच्छा; कूजितैः--उनकी चहचहाहट; मुग्ध--आकर्षक;चेष्टितेः:--कार्यों से; प्रत्युदूगमैः--फुदकने के प्रयासों से; अदीनानाम्--सुखी ( बच्चों ) के; पितरौ--माता-पिता; मुदम्आपतुः--हर्षित हो गये।
यें माता-पिता अपने पक्षी बच्चों के मुलायम पंखों, उनकी चहचहाहट, घोंसले के आसपासउनकी कूद-फाँद करना, उनका उछलने और उड़ने का प्रयास करना देखकर अत्यन्त हर्षित हुए।अपने बच्चों को सुखी देखकर माता-पिता भी सुखी थे। स्नेहानुबद्धहदयावन्योन्यं विष्णुमायया ।विमोहितौ दीनधियौ शिशूब्पुपुषतुः प्रजा: ॥
६१॥
स्नेह--स्नेह से; अनुबद्ध--बँधे हुए; हृदयौ--हृदयों वाले; अन्योन्यम्--परस्पर; विष्णु-मायया--भगवान् विष्णु की माया से;विमोहितौ--पूर्णतः मोहग्रस्त; दीन-धियौ--मन्द बुद्धि वाले; शिशून्ू-- अपने बच्चों को; पुपुषतु:--पाला-पोषा; प्रजा: --अपनीसन्तान।
स्नेह से बँधे हुए हृदयों वाले ये मूर्ख पक्षी भगवान् विष्णु की माया द्वारा पूर्णतः मोहग्रस्तहोकर अपने छोटे-छोटे बच्चों का लालन-पालन करते रहे।
एकदा जम्मतुस्तासामन्नार्थ तौ कुटुम्बिनौ ।परितः कानने तस्मिन्नर्थिनौ चेरतुश्चिरम् ॥
६२॥
एकदा--एक बार; जम्मतु:--गये; तासाम्--बच्चों के; अन्न-- भोजन; अर्थम्-हेतु; तौ--वे दोनों; कुटुम्बिनौ--परिवार केमुखिया; परितः--चारों ओर; कानने--जंगल में; तस्मिन्ू--उस; अर्थिनौ--उत्सुकतापूर्वक ढूँढ़ते हुए; चेरतु:--विचरते रहे;चिरम्ू--काफी समय तक।
एक दिन परिवार के दोनों मुखिया अपने बच्चों के लिए भोजन तलाश करने बाहर चलेगये। अपने बच्चों को ठीक से खिलाने की चिन्ता में वे काफी समय तक पूरे जंगल में विचरतेरहे।
इृष्टा तानलुब्धक: कश्चिद्यदच्छातो बनेचर: ।जगूहे जालमातत्य चरत: स्वालयान्तिके ॥
६३॥
इृष्ठटा--देखकर; तान्--उन बच्चों को; लुब्धक:--बहेलिये ने; कश्चित्--कोई; यहच्छात:--संयोगवश; वने--जंगल में;चरः--गुजरते हुए; जगृहे--पकड़ लिया; जालमू--जाल को; आतत्य--फैलाकर; चरत:--विचरण करते; स्व-आलय-अन्तिके--उनके घर के पड़ोस में
उस समय संयोगवश जंगल में विचरण करते हुए किसी बहेलिये ने कबूतर के इन बच्चों कोउनके घोंसले के निकट विचरते हुए देखा। उसने अपना जाल फैलाकर उन सबों को पकड़लिया।
कपोतश्च कपोती च प्रजापोषे सदोत्सुकौ ।गतौ पोषणमादाय स्वनीडमुपजग्मतु: ॥
६४॥
कपोतः--कबूतर; च--तथा; कपोती--कबूतरी; च--तथा; प्रजा--उनके बच्चों के; पोषे--पालन-पोषण में; सदा--सदैव;उत्सुकौ--उत्सुकतापूर्वक; गतौ--गये हुए; पोषणम्--भोजन; आदाय--लाकर; स्व--अपने; नीडम्--घोंसले में;उपजम्मतु:--पहुँचे
कबूतर तथा उसकी पतली अपने बच्चों के पालन-पोषण के लिए सदैव चिन्तित रहते थे औरइसी उद्देश्य से वे जंगल में भटकते रहे थे। समुचित अन्न पाकर अब वे अपने घोंसले पर लौटआये।
कपोती स्वात्मजान्वीक्ष्य बालकान्जालसम्बृतान् ।तानभ्यधावत्क्रोशन्ती क्रोशतो भूशदु:खिता ॥
६५॥
कपोती--कबूतरी; स्व-आत्म-जान्--अपने से उत्पन्न; वीक्ष्य--देखकर; बालकान्--बच्चों को; जाल--जाल से; संवृतान्ू--घिरे हुए; तान्ू--उनकी ओर; अभ्यधावत्--दौड़ी; क्रोशन्ती--पुकारती हुई; क्रोशत:ः--चिल्ला रहे हों, जो उनकी ओर; भूश--अत्यधिक; दुःखिता--दुखी |
जब कबूतरी ने अपने बच्चों को बहेलिये के जाल में फँसे देखा, तो वह व्यथा से अभिभूतहो गई और चिल्लाती हुई उनकी ओर दौड़ी। वे बच्चे भी उसके लिए चिललाने लगे।
सासकृत्स्नेहगुणिता दीनचित्ताजमायया ।स्वयं चाबध्यत शिचा बद्धान्पश्यन्त्यपस्मृति: ॥
६६॥
सा--वह; असकृत्--निरन्तर; स्नेह--स्नेह से; गुणिता--बँधी; दीन-चित्ता--पंगु बुद्धि वाली; अज--अजन्मा भगवान् की;मायया--माया से; स्वयम्--स्वयं; च-- भी; अबध्यत--बँधा लिया; शिचा--जाल से; बद्धान्--बँधे हुए ( बच्चों को );पश्यन्ती --देखती हुई; अपस्मृति:--अपने को भूली हुईं |
चूँकि कबूतरी ने अपने को गहन स्नेह के बन्धन से सदा बाँध रखा था, इसलिए उसका मनव्यथा से विहल था। भगवान् की माया के चंगुल में होने से, वह अपने को पूरी तरह भूल गईऔर अपने असहाय बच्चों की ओर दौड़ती हुई, वह भी तुरन्त बहेलिये के जाल में बँध गई।
कपोतः स्वात्मजान्बद्धानात्मनो प्यधिकान्प्रियान् ।भार्या चात्मसमां दीनो विललापातिदुःखितः ॥
६७॥
कपोतः--कबूतर; स्व-आत्म-जान्--अपने ही बच्चों को; बद्धान्ू--बँधा हुआ; आत्मन:--अपनी अपेक्षा; अपि--ही;अधिकान्--अधिक; प्रियान्--प्रिय; भार्याम्-- अपनी पत्नी को; च--तथा; आत्म-समाम्--अपने समान; दीन:-- अभागाव्यक्ति; वबिललाप--शोक करने लगा; अति-दुःखित:ः--अत्यन्त दुखी |
अपने प्राणों से भी प्यारे अपने बच्चों को तथा साथ में अपने ही समान अपनी पत्नी कोबहेलिये के जाल में बुरी तरह बँधा देखकर बेचारा कबूतर दुखी होकर विलाप करने लगा।
अहो मे पश्यतापायमल्पपुण्यस्य दुर्मतेः ।अतृप्तस्याकृतार्थस्य गृहस्त्रैवर्गिको हतः ॥
६८ ॥
अहो--हाय; मे--मेरा; पश्यत--देखो तो; अपायम्ू--विनाश; अल्प-पुण्यस्य-- अपर्याप्त पुण्य वाले के; दुर्मतेः --दुर्बुद्धि;अतृप्तस्य--असंतुष्ट; अकृत-अर्थस्थ--जिसने जीवन के उद्देश्य को पूरा नहीं किया, उसका; गृह: --पारिवारिक जीवन; त्रै-वर्गिक:--सभ्य जीवन के तीन उद्देश्यों ( धर्म, अर्थ तथा काम ) वाले; हतः--विनष्ट ।
कबूतर ने कहा : हाय! देखो न, मैं किस तरह बरबाद हो गया हूँ। स्पष्ट है कि मैं महामूर्ख हूँ,क्योंकि मैंने समुचित पुण्यकर्म नहीं किये। न तो मैं अपने को संतुष्ट कर सका, न ही मैं जीवन के लक्ष्य को पूरा कर सका। मेरा प्रिय परिवार, जो मेरे धर्म, अर्थ तथा काम का आधार था, अबबुरी तरह नष्ट हो गया।
अनुरूपानुकूला च यस्य मे पतिदेवता ।शून्ये गृहे मां सन्त्यज्य पुत्रै: स्वर्याति साधुभि: ॥
६९॥
अनुरूपा--उपयुक्त; अनुकूला--स्वामिभक्त; च--तथा; यस्य--जिसका; मे--मेरा; पति-देवता--जिसने पति को देवता-रूपमें पूज्य मान लिया है; शून्ये--रिक्त; गृहे--घर में; माम्ू--मुझको; सन्त्यज्य--पीछे छोड़कर; पुत्रैः --अपने पुत्रों के साथ;स्व:--स्वर्ग को; याति--जा रही है; साधुभि:--सन््त जैसे |
मैं तथा मेरी पत्नी आदर्श जोड़ा थे। वह सदैव मेरी आज्ञा का पालन करती थी और मुझेअपने पूज्य देवता की तरह मानती थी, किन्तु अब वह अपने बच्चों को नष्ट हुआ और अपने घरको रिक्त देखकर मुझे छोड़ गई और हमारे सन्त स्वभाव वाले बच्चों के साथ स्वर्ग चली गई।
सोऊहं शून्ये गृहे दीनो मृतदारो मृतप्रज: ।जिजीविषे किमर्थ वा विधुरो दुःखजीवित: ॥
७०॥
सः अहम्-ैं; शून्ये--रिक्त; गृहे--घर में; दीन:--दुखी; मृत-दारः--जिसकी पत्नी मर चुकी है; मृत-प्रज:--जिसके बच्चे मरचुके हैं; जिजीविषे--मैं जीवित रहना चाहूँगा; किम् अर्थम्--किस हेतु; वा--निस्सन्देह; विधुर:--विछोह भोगते हुए; दुःख--दुखी; जीवित: --मेरा जीवन |
अब मैं विरान घर में रहने वाला दुखी व्यक्ति हूँ। मेरी पत्ती मर चुकी है, मेरे बच्चे मर चुकेहैं। मैं भला क्यों जीवित रहना चाहूँ? मेरा हृदय अपने परिवार के विछोह से इतना पीड़ित है किमेरा जीवन मात्र कष्ट बनकर रह गया है।
तांस्तथैवावृतान्शिग्भिमृत्युग्रस्तान्विचेष्टत: ।स्वयं च कृपण: शिक्षु पश्यन्नप्यबुधोडपतत् ॥
७१॥
तान्ू--उनको; तथा-- भी; एव--निस्सन्देह; आवृतान्--घिरे हुए; शिग्भि: --जाल से; मृत्यु--मृत्यु द्वारा; ग्रस्तान्ू--पकड़े हुए;विचेष्टत: --स्तम्भित; स्वयम्-- स्वयं; च-- भी; कृपण:--दुखी; शिक्षु--जाल के भीतर; पश्यन्--देखते हुए; अपि-- भी;अबुध:--अज्ञानी; अपतत्--गिर पड़ा
जब पिता कबूतर अपने बेचारे बच्चों को जाल में बँधा और मृत्यु के कगार पर दीन भाव सेउन्हें अपने को छुड़ाने के लिए करुणावस्था में संघर्ष करते देख रहा था, तो उसका मस्तिष्कशून्य हो गया और वह स्वयं भी बहेलिए के जाल में गिर पड़ा।
त॑ लब्ध्वा लुब्धक: क्रूर: कपोतं गृहमेधिनम् ।कपोतकान्कपोतीं च सिद्धार्थ: प्रययौ गृहम् ॥
७२॥
तम्--उसको; लब्ध्वा-- लेकर; लुब्धक:--बहेलिया; क्रूर: --निष्ठर; कपोतम्--कबूतर को; गृह-मेधिनम्-- भौतिकतावादीगृहस्थ; कपोतकान्--कबूतर के बच्चों को; कपोतीम्--कबूतरी को; च-- भी; सिद्ध-अर्थ:--अपना प्रयोजन सिद्ध करके;प्रययौ--चल पड़ा; गृहम्--अपने घर के लिए।
वह निष्ठर बहेलिया उस कबूतर को, उसकी पत्नी को तथा उनके सारे बच्चों को पकड़ करअपनी इच्छा पूरी करके अपने घर के लिए चल पड़ा।
एवं कुट॒म्ब्यशान्तात्मा द्वन्द्दाराम: पतत्रिवत् ।पुष्णन्कुटुम्बं कृपण: सानुबन्धोवसीद॒ति ॥
७३॥
एवम्--इस प्रकार; कुटुम्बी--परिवार वाला मनुष्य; अशान्त--अशान्त; आत्मा--उसकी आत्मा; दवन्द्र-- भौतिक द्वैत ( यथानर-नारी ); आराम: --आनंदित; पतत्रि-वत्--इस पक्षी की तरह; पुष्णन्ू--पालन-पोषण करते हुए; कुटुम्बम्-- अपने परिवारको; कृपण:--कंजूस; स-अनुबन्ध: -- अपने सम्बन्धियों सहित; अवसीदति--अत्यधिक कष्ट उठायेगा।
इस तरह जो व्यक्ति अपने पारिवारिक जीवन में अत्यधिक अनुरक्त रहता है, वह हृदय मेंक्षुब्ध रहता है। कबूतर की ही तरह वह संसारी यौन-आकर्षण में आनन्द ढूँढता रहता है। अपने परिवार का पालन-पोषण करने में बुरी तरह व्यस्त रहकर कंजूस व्यक्ति अपने परिवार वालों केसाथ अत्यधिक कष्ट भोगता है।
यः प्राप्य मानुषं लोकं मुक्तिद्वारमपावृतम् ।गृहेषु खगवत्सक्तस्तमारूढच्युतं विदु; ॥
७४॥
यः--जो; प्राप्प--पाकर; मानुषम् लोकम्--मनुष्य-जीवन; मुक्ति--मुक्ति का; द्वारमू--दरवाजा; अपावृतम्--खुला हुआ;गृहेषु--घरेलू मामलों में; खग-वत्--इस कथा के पक्षी की ही तरह; सक्त:--लिप्त; तमू--उसको; आरूढ--ऊँचे चढ़कर;च्युतम्ू--नीचे गिरते हुए; विदुः--मानते हैं।
जिसने मनुष्य-जीवन पाया है, उसके लिए मुक्ति के द्वार पूरी तरह से खुले हुए हैं। किन्तु यदिमनुष्य इस कथा के मूर्ख पक्षी की तरह अपने परिवार में ही लिप्त रहता है, तो वह ऐसे व्यक्ति केसमान है, जो ऊँचे स्थान पर केवल नीचे गिरने के लिए ही चढ़ा हो।
8. पिंगला की कहानी
श्रीज्राह्मण उवाचसुखमैन्द्रियकं राजन्स्वर्ग नरक एव च ।देहिनां यद्यथा दुःखं तस्मान्नेच्छेत तद् बुध: ॥
१॥
श्री-ब्राह्मणः उबाच--उस साधु-ब्राह्मण ने कहा; सुखम्--सुख; ऐन्द्रियकम्--इन्द्रियों से उत्पन्न; राजन्--हे राजा; स्वर्गे--स्वर्गमें; नरके--तथा नरक में; एबव--निश्चय ही; च-- भी; देहिनाम्ू--देहधारी जीवों के; यत्ू--चूँकि; यथा--जिस तरह; दुःखम्--दुख; तस्मात्ू--इसलिए; न--नहीं; इच्छेत--इच्छा करे; तत्--वह; बुध:--जाननहारा |
साधु-ब्राह्मण ने कहा : हे राजन, देहधारी जीव स्वर्ग या नरक में स्वतः दुख का अनुभवकरता है। इसी तरह बिना खोजे ही सुख का भी अनुभव होता है। इसलिए बुद्धिमान तथाविवेकवान व्यक्ति ऐसे भौतिक सुख को पाने के लिए कभी कोई प्रयास नहीं करता।
ग्रासं सुमृष्टे विरसं महान्तं स्तोकमेव वा ।यहच्छयैवापतितं ग्रसेदाजगरोउक्रिय: ॥
२॥
ग्रासम्ू-- भोजन; सु-मृष्टम्--स्वच्छ तथा स्वादिष्ट; विरसम्--स्वादरहित; महान्तम्--बड़ी मात्रा में; स्तोकम्--छोटी मात्रा;एव--निश्चय ही; वा--अथवा; यहृच्छया--बिना निजी प्रयास के; एब--निस्सन्देह; आपतितम्--प्राप्त किया गया; ग्रसेत्ू--खालेना चाहिए; आजगर:--अजगर की तरह; अक्रिय:--निष्क्रिय, बिना प्रयास के उदासीन बने रहना।
अजगर का अनुकरण करते हुए मनुष्य को भौतिक प्रयास का परित्याग कर देना चाहिएऔर अपने उदर-पोषण के लिए उस भोजन को स्वीकार करना चाहिए, जो अनायास मिल जाय,चाहे वह स्वादिष्ट हो या स्वादरहित, पर्याप्त हो या स्वल्प।
शयीताहानि भूरीणि निराहारोनुपक्रमः ।यदि नोपनयेदग्रासो महाहिरिव दिष्टभुक् ॥
३॥
शयीत--शान्तिपूर्वक रहता रहे; अहानि--दिनों तक; भूरीणि-- अनेक; निराहार: --उपवास करते हुए; अनुपक्रम:--बिनाप्रयास के; यदि--यदि; न उपनयेत्--नहीं आता; ग्रास:--भोजन; महा-अहि:-- अजगर; इब--सहश; दिष्ट-- भाग्य द्वारा प्रदत्त;भुक्ू-खाते हुए।
यदि कभी भोजन न भी मिले, तो सन्त-पुरुष को चाहिए कि बिना प्रयास किये वह अनेकदिनों तक उपवास रखे। उसे यह समझना चाहिए कि ईश्वर की व्यवस्था के कारण उसे उपवासकरना चाहिए। इस तरह अजगर का अनुसरण करते हुए उसे शान्त तथा धीर बने रहना चाहिए।
ओज:सहोबलयुतं बिभ्रद्देहमकर्मकम् ।शयानो वीतनिद्रश्न नेहेतेन्द्रयवानपि ॥
४॥
ओज:--काम-शक्ति; सह:--मानसिक शक्ति; बल--शारीरिक शक्ति; युतम्ू--से युक्त; बिभ्रतू--पालन-पोषण करते हुए;देहम्--शरीर को; अकर्मकम्--बिना प्रयास के; शयान:--शान्त रहते हुए; बीत--मुक्त; निद्र: --अज्ञान से; च--तथा; न--नहीं; ईहेत-- प्रयास करे; इन्द्रिय-वान्ू--पूर्ण शारीरिक, मानसिक तथा काम-शक्ति से युक्त; अपि--यद्यपि।
सन््त-पुरुष को शान्त रहना चाहिए और भौतिक दृष्टि से अक्रिय रहना चाहिए। उसे बिनाअधिक प्रयास के अपने शरीर का पालन-पोषण करना चाहिए। पूर्ण काम, मानसिक तथाशारीरिक शक्ति से युक्त होकर भी सन्त-पुरुष को भौतिक लाभ के लिए सक्रिय नहीं होनाचाहिए, अपितु अपने वास्तविक स्वार्थ के लिए सदैव सतर्क रहना चाहिए।
मुनि: प्रसन्नगम्भीरो दुर्विगाह्मो दुरत्ययः ।अनन्तपारो ह्यक्षोभ्य: स्तिमितोद इवार्णव: ॥
५॥
मुनि:ः--मुनि; प्रसन्न--प्रसन्न; गम्भीर: --अत्यन्त गम्भीर; दुर्विगाह्मः--अगाध; दुरत्यय:--दुर्लध्य; अनन्त-पार: --असीम; हि--निश्चय ही; अक्षोभ्य:--अश्लुब्ध; स्तिमित--शान्त; उदः -- जल; इब--सहश; अर्णवः--समुद्र
मुनि अपने बाह्य आचरण में सुखी और मधुर होता है, किन्तु भीतर से अत्यन्त गम्भीर तथाविचारवान होता है। चूँकि उसका ज्ञान अगाध तथा असीम होता है, अतः वह कभी क्षुब्ध नहींहोता। इस तरह वह सभी प्रकार से अगाध तथा दुर्लध्य सागर के शान्त जल की तरह होता है।
समृद्धकामो हीनो वा नारायणपरो मुनिः ।नोत्सपेत न शुष्येत सरिद्धिरिव सागर: ॥
६॥
समृद्ध--सम्पन्न; काम:-- भौतिक ऐश्वर्य; हीन:--रहित, विहीन; वा--अथवा; नारायण-- भगवान्; पर: --परम मानते हुए;मुनिः--सन्त भक्त; न--नहीं; उत्सपेत--बढ़ जाता है; न--नहीं; शुष्येत--सूख जाता है; सरिद्द्धिः--नदियों के द्वारा; इब--सहश; सागर:--समुद्र
वर्षाऋतु में उफनती हुई नदियाँ सागर में जा मिलती हैं और ग्रीष्पऋतु में उधली होने से उनमेंजल की मात्रा बहुत कम हो जाती है। फिर भी समुद्र न तो वर्षाऋतु में उमड़ता है, न ही ग्रीष्मऋतुमें सूखता है। इसी तरह से जिस सन््त-भक्त ने भगवान् को अपने जीवन का लक्ष्य स्वीकार कियाहै, उसे कभी तो भाग्य से प्रचुर भौतिक ऐश्वर्य प्राप्त हो जाता है और कभी वह अपने को भौतिकइृष्टि से कंगाल पाता है। फिर भी भगवान् का ऐसा भक्त न तो प्रोन्नति के समय हर्षित होता है, नदरिद्र बनने पर खिन्न होता है।
इष्टा स्त्रियं देवमायां तद्धावैरजितेन्द्रिय: ।प्रलोभित: पतत्यन्धे तमस्यग्नौ पतड़वत् ॥
७॥
इृष्ठा--देखकर; स्त्रियम्--स्त्री को; देव-मायाम्-- भगवान् की माया से, जिसका रूप निर्मित हुआ है; तत्-भावै:--स्त्री केमोहक कार्यों से; अजित--जिसने वश में नहीं किया; इन्द्रियः--अपनी इन्द्रियाँ; प्रलोभितः--मुग्ध; पतति--नीचे गिरता है;अन्धे--अज्ञान के अंधकार में; तमसि--नरक के अंधकार में; अग्नौ-- अग्नि में ; पतड़-बत्--पतिंगे की तरह ।
जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं कर पाता, वह परमेश्वर की माया से उत्पन्न स्त्री केस्वरूप को देखकर तुरन्त आकृष्ट हो जाता है। दरअसल जब कोई स्त्री मोहक शब्द बोलती है,नखरे से हँसती है और अपने शरीर को काम-वासना से युक्त होकर मटकाती है, तो मनुष्य कामन तुरन्त मुग्ध हो जाता है और वह भव-अंधकार में उसी तरह जा गिरता है, जिस तरह पतिंगाअग्नि पर मदान्ध होकर उसकी लपटों में तेजी से गिर पड़ता है।
योषिद्धिरण्याभरणाम्बरादि-द्रव्येषु मायारचितेषु मूढ: ।प्रलोभितात्मा ह्ुपभोगबुद्धयापतड़वन्नश्यति नष्टदृष्टि: ॥
८॥
योषित्--स्त्री के; हिरण्य--सुनहरे; आभरण--गहने; अम्बर--वस्त्र; आदि--इ त्यादि; द्रव्येषु--ऐसी वस्तुओं के देखने पर;माया--भगवान् की माया द्वारा; रचितेषु--निर्मित; मूढ:--विवेकहीन मूर्ख; प्रलोभित--काम-वासना से जाग्रत; आत्मा--ऐसाव्यक्ति; हि--निश्चय ही; उपभोग--इन्द्रियतृप्ति के लिए; बुद्धया--इच्छा से; पतड़-वबत्--पतिंगा की तरह; नश्यति--नष्ट होजाता है; नष्ट--नष्ट हो गई है; दृष्टिः--जिसकी बुद्धि |
विवेकरहित मूर्ख व्यक्ति सुनहले गहनों, सुन्दर वस्त्रों और अन्य प्रसाधनों से युक्त कामुक स्त्रीको देखकर तुरन्त ललचा हो उठता है। ऐसा मूर्ख इन्द्रियतृप्ति के लिए उत्सुक होने से अपनी सारीबुद्धि खो बैठता है और उसी तरह नष्ट हो जाता है, जिस तरह जलती अग्नि की ओर दौड़ने वालापतिंगा।
स्तोकं स्तोकं ग्रसेदग्रासं देहो वर्तेत यावता ।गृहानहिंसन्नातिष्ठेद्रत्ति माधुकरीं मुनि: ॥
९॥
स्तोकम् स्तोकम्--थोड़ा थोड़ा करके; ग्रसेतू--खाये; ग्रासम्ू-- भोजन; देह:--शरीर; वर्तेत--जिससे जीवित रह सके;यावता--उतने से; गृहान्--गृहस्थों को; अहिंसन्ू--तंग न करते हुए; आतिष्ठेत्-- अभ्यास करे; वृत्तिमू--पेशा, व्यवसाय; माधु-करीम्ू--मधुमक्खी का; मुनि:--सन्त-पुरुष
सन््तपुरुष को उतना ही भोजन स्वीकार करना चाहिए, जितने से उसका जीवन-निर्वाह होसके। उसे द्वार-द्वार जाकर प्रत्येक परिवार से थोड़ा-थोड़ा भोजन स्वीकार करना चाहिए। इसतरह उसे मधुमक्खी की वृत्ति का अभ्यास करना चाहिए।
अणुभ्यश्च महदभ्यश्व शास्त्रेभ्य:ः कुशलो नरः ।सर्वतः सारमादद्यात्पुष्पे भ्य इव घटूपदः ॥
१०॥
अणुभ्य:--छोटे से छोटे से लेकर; च--तथा; महद्भ्य: --सबसे बड़े से; च-- भी; शास्त्रेभ्य: --शास्त्रों से; कुशल:--बुद्धिमान;नरः--मनुष्य; सर्वतः--सबों से; सारम्ू--निचोड़, सार; आदद्यात्-ग्रहण करे; पुष्पेभ्य:--फूलों से; इब--सहश; षट्पद: --मधुमक्खी |
जिस तरह मधुमक्खी बड़े तथा छोटे सभी प्रकार के फूलों से मधु ग्रहण करती है, उसी तरहबुद्धिमान मनुष्य को समस्त धार्मिक शास्त्रों से सार ग्रहण करना चाहिए।
सायन्तनं श्रस्तनं वा न सड्ूह्लीत भिक्षितम् ।पाणिपात्रोदरामत्रो मक्षिकेव न सड़ग्रही ॥
११॥
सायन्तनम्--रात के निमित्त; श्रस्तनम्ू--कल के लिए; वा--अथवा; न--नहीं; सड्डह्नीत-- स्वीकार करे; भिक्षितम्-भिक्षा;पाणि--हाथ से; पात्र--स्तरी के रूप में; उदर--पेट से; अमत्र:--संग्रह पात्र ( कोठार ) की तरह; मक्षिका--मधुमक्खी; इब--सहश; न--नहीं; सड्ग्रही--संग्रह करने वाला।
सन्त-पुरुष को यह नही सोचना चाहिए 'मैं इस भोजन को आज रात के लिए रखूँगा औरइस दूसरे भोजन को कल के लिए बचा लूँगा।दूसरे शब्दों में, सन््त-पुरुष को भीख से प्राप्तभोज्य सामग्री का संग्रह नहीं करना चाहिए प्रत्युत उसे अपने हाथ को ही पात्र बनाकर उसमेंजितना आ जाय उसी को खाना चाहिए। उसका एकमात्र कोठार उसका पेट होना चाहिए औरउसके पेट में आसानी से जितना आ जाय वही उसका भोजन-संग्रह होना चाहिए। इस तरह उसेलोभी मधुमक्खी का अनुकरण नहीं करना चाहिए, जो अधिक से अधिक मधु एकत्र करने केलिए उत्सुक रहती है।
सायन्तनं श्रस्तनं वा न सड्डूह्लीत भिक्षुकः ।मक्षिका इव सड्डहन्सह तेन विनश्यति ॥
१२॥
सायन्तनम्--रात के लिए; श्रस्तनम्--कल के लिए; वा--अथवा; न--नहीं; सड्डह्लीत-- स्वीकार करे; भिक्षुक:--सन्त-साथधु;मक्षिका--मधुमक्खी; इब--सहश; सड्डहन्ू--एकत्र करते हुए; सह--साथ; तेन--उससंग्रह के; विनश्यति--नष्ट हो जाता है।
साधु-संत को उसी दिन या अगले दिन खाने के लिए भी भोजन का संग्रह नहीं करनाचाहिए। यदि वह इस आदेश की अवहेलना करता है और मधुमक्खी की तरह अधिक से अधिकस्वादिष्ट भोजन एकत्र करता है, तो उसने, जो कुछ एकत्र किया है, वह निस्सन्देह उसे नष्ट करदेगा।
पदापि युवतीं भिक्चुर्न स्पृशेद्दरावीमपि ।स्पृशन्करीव बध्येत करिण्या अड्गसड्भरत: ॥
१३॥
पदा--पाँव से; अपि-- भी; युवतीम्--युवती को; भिक्षु:--साधु संत; न--नहीं; स्पृशेतू--छूना चाहिए; दारवीम्ू--लकड़ी कीबनी; अपि--भी; स्पृशन्--स्पर्श करते हुए; करी--हाथी; इब--सहृश; बध्येत--बँधा लेता है; करिण्या:--हथिनी के; अड़-सड़त:--शरीर के स्पर्श से |
सनन्त-पुरुष को चाहिए कि वह किसी युवती का स्पर्श न करे। वस्तुत:, उसे काठ की बनीस्त्री के स्वरूप वाली गुड़िया को भी अपने पाँव से भी स्पर्श नहीं होने देना चाहिए। स्त्री के साथशारीरिक सम्पर्क होने पर वह निश्चित ही उसी तरह माया द्वारा बन्दी बना लिया जायेगा, जिसतरह हथिनी के शरीर का स्पर्श करने की इच्छा के कारण हाथी पकड़ लिया जाता है।
नाधिगच्छेल्स्त्रियं प्राज्ञ: कर्हिचिन्मृत्युमात्मनः ।बलाधिकै: स हन्येत गजैरन्यैर्गजो यथा ॥
१४॥
न अधिगच्छेत्ू--आनन्द पाने के लिए नहीं जाये; स्त्रियम्ू--स्त्री; प्राज्ः--जो बुद्धिमत्तापूर्वक भेदभाव कर सके; कहिचित्--किसी समय; मृत्युम्ू--साक्षात् मृत्यु; आत्मतः--अपने लिए; बल--बल में; अधिकै:--जो श्रेष्ठ हैं उनके द्वारा; सः--वह;हन्येत--विनष्ट कर दिया जायेगा; गजैः--हाथियों के द्वारा; अन्यैः--अन्यों के लिए; गज:ः--हाथी; यथा--जिस तरह।
विवेकवान् व्यक्ति को किसी भी परिस्थिति में अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए स्त्री के सुन्दर रूपका लाभ उठाने का प्रयास नहीं करना चाहिए। जिस तरह हथिनी से संभोग करने का प्रयासकरने वाला हाथी उसके साथ संभोग कर रहे अन्य हाथियों के द्वारा मार डाला जाता है, उसीतरह, जो व्यक्ति किसी नारी के साथ संभोग करना चाहता है, वह किसी भी क्षण उसके अन्यप्रेमियों द्वारा मार डाला जा सकता है, जो उससे अधिक बलिष्ठ होते हैं।
न देय॑ नोपभोग्यं च लुब्धर्यहु:खसज्चितम् ।भुड्े तदपि तच्चान्यो मधुहेवार्थविन्मधु ॥
१५॥
न--नहीं; देयम्--अन्यों को दान में दिये जाने के लिए; न--नहीं; उपभोग्यम्--स्वयं भोगे जाने के लिए; च--भी; लुब्धैः--लोभीजनों के द्वारा; यत्-- जो; दुःख--अत्यन्त संघर्ष तथा कष्ट से; सब्लितम्--एकत्र किया जाता है; भुड्ढे --भोग करता है;तत्--वह; अपि--तिस पर भी; तत्ू--वह; च-- भी; अन्य: --अन्य कोई; मधु-हा--छत्ते से शहद चुराने वाला; इब--सहश;अर्थ--धन; वित्--जो यह जानता है कि किस तरह पहचाना जाय; मधु--शहद
लोभी व्यक्ति बहुत संघर्ष तथा कष्ट से प्रचुर मात्रा में धन एकत्र करता है, किन्तु इस धन कोएकत्र करने वाले व्यक्ति को इसका भोग करने या अन्यों को दान हमेशा करने नहीं दिया जाता।लोभी व्यक्ति उस मधुमक्खी के समान है, जो प्रचुर मात्रा में शहद उत्पन्न करने के लिए संघर्षकरती है, किन्तु इसे उस व्यक्ति द्वारा चुरा लिया जाता है, जो या तो स्वयं उसका भोग करता हैया अन््यों को बेच देता है। कोई चाहे कितनी सावधानी के साथ अपनी कठिन कमाई को क्यों नछिपाये या उसकी रक्षा करने का प्रयास करे, किन्तु मूल्यवान वस्तुओं का पता लगाने वाले पटुलोग उसे चुरा ही लेंगे।
सुदुःखोपार्जितैर्वित्तैराशासानां गृहाशिष: ।मधुहेवाग्रतो भुड्ढे यतिर गृहमेधिनाम् ॥
१६॥
सु-दुःख--अत्यधिक संघर्ष से; उपार्जितैः--अर्जित किया गया; वित्तै:--भौतिक एऐ श्वर्य से; आशासानाम्--अत्यधिक इच्छारखने वालों के; गृह--घरेलू भोग से सम्बद्ध; आशिष:--आशीर्वाद, वर; मधु-हा--शहद-चोर; इब--सहृश; अग्रत:--प्रथम,औरों से पहले; भुड़े -- भोग करता है; यति:--भिक्षु, साधु-संत; वै--निश्चय ही; गृह-मेधिनाम्--गृहस्थ-जीवन के प्रति समर्पितलोगों के |
जिस प्रकार शहद-चोर मधुमक्खियों द्वारा बड़े ही परिश्रमपूर्वक एकत्र की गई शहद कोनिकाल लेता है, उसी तरह ब्रह्मचारी तथा संन््यासी जैसे साधु-संत पारिवारिक भोग में समर्पितगृहस्थों द्वारा बहुत ही कष्ट सहकर संचित किये गये धन का भोग करने के अधिकारी हैं।
ग्राम्यगीतं न श्रृणुयाद्यतिर्बनचर: क्वचित् ।शिक्षेत हरिणाद्वद्धान्मृगयोर्गीतमोहितातू ॥
१७॥
ग्राम्य--इन्द्रियतृप्ति से सम्बद्ध; गीतम्--गीत; न--नहीं; श्रुणुयात्--सुने; यतिः--साधु-संत; बन--जंगल में; चर:--विचरणकरते; क्वचित्--कभी; शिक्षेत--सीखे ; हरिणात्--हिरन से; बद्धात्--बाँधे गये; मृगयो: --शिकारी के; गीत--गीत द्वारा;मोहितात्ू--मोहित किये गये।
वनवासी सन््यासी को चाहिए कि भौतिक भोग को उत्तेजित करने वाले गीत या संगीत कोकभी भी न सुने। प्रत्युत सन्त पुरुष को चाहिए कि ध्यान से उस हिरन के उदाहरण का अध्ययनकरे, जो शिकारी के वाद्य के मधुर संगीत से विमोहित होने पर पकड़ लिया जाता है और मारडाला जाता है।
नृत्यवादित्रगीतानि जुषन्ग्राम्याणि योषिताम् ।आसां क्रीडनको वश्य ऋष्यश्रुज्ञो मृगीसुतः ॥
१८ ॥
नृत्य--नाच; वादित्र--वादन; गीतानि--गीतों को; जुषन्--अनुशीलन करते हुए; ग्राम्याणि--इन्द्रियतृप्ति विषयक;योषिताम्--स्त्रियों की; आसामू--उनके; क्रीडनक:--क्रीड़ा की वस्तु; वश्य: --पूरी तरह वशी भूत; ऋष्य- श्रृड़: --ऋष्यश्रृंगमुनि; मृगी-सुत:--मृगी का पुत्र
सुन्दर स्त्रियों के सांसारिक गायन, नृत्य तथा संगीत-मनोरंजन से आकृष्ट होकर मृगी-पुत्रऋष्यश्रृंग मुनि तक उनके वश में आ गये, मानों कोई पालतू पशु हों।
जिह्नयातिप्रमाथिन्या जनो रसविमोहितः ।मृत्युमृच्छत्यसद्दुद्धिर्मी नस्तु बडिशैर्यथा ॥
१९॥
जिह॒या--जीभ से; अति-प्रमाथिन्या--जो अत्यधिक मथने वाली है; जनः--पुरुष; रस-विमोहितः--स्वाद के प्रति आकर्षण सेमोहित हुआ; मृत्युम्--मृत्यु; ऋच्छति--प्राप्त करता है; असत्--व्यर्थ; बुद्धिः--जिसकी बुद्धि; मीन:--मछली; तु--निस्सन्देह;बडिशै:--काँटे द्वारा; यथा--जिस तरह ।
जिस तरह जीभ का भोग करने की इच्छा से प्रेरित मछली मछुआरे के काँटे में फँस करमारी जाती है, उसी तरह मूर्ख व्यक्ति जीभ की अत्यधिक उद्दवेलित करने वाली उमंगों से मोहग्रस्तहोकर विनष्ट हो जाता है।
इन्द्रियाणि जयन्त्याशु निराहारा मनीषिण: ।वर्जयित्वा तु रसन॑ तन्निरन्नस्य वर्धते ॥
२०॥
इन्द्रियाणि--इन्द्रियाँ; जबन्ति--जीत लेती हैं; आशु--शीकघ्रतापूर्वक; निराहारा:--जो लोग इन्द्रियों को उनके विषयों से रोकतेहैं; मनीषिण: --विद्वान; वर्जयित्वा--के अतिरिक्त; तु--लेकिन; रसनम्ू--जीभ; तत्--उसकी इच्छा; निरन्नस्य--उपवास करनेवाले की; वर्धते--बढ़ाती है।
उपवास द्वारा विद्वान पुरुष जीभ के अतिरिक्त अन्य सारी इन्द्रियों को जल्दी से अपने वश मेंकर लेते हैं, क्योंकि ऐसे लोग अपने को खाने से दूर रखकर स्वादेन्द्रिय को तृप्त करने की प्रबलइच्छा से पीड़ित हो उठते हैं।
तावजितेन्द्रियो न स्याद्विजितान्येन्द्रिय: पुमान् ।न जयेद्गसनं यावज्िितं सर्व जिते रसे ॥
२१॥
तावत्--तब तक; जित-इन्द्रियः:--जिसने अपनी इन्द्रियों पर विजय पा ली है; न--नहीं; स्थातू--हो सकता है; विजित-अन्य-इन्द्रियः--जिसने अन्य इन्द्रियों पर विजय पा ली है; पुमान्ू--मनुष्य; न जयेत्--नहीं जीत सकता; रसनम्--जीभ को; यावत्--जब तक; जितमू्--जीता हुआ; सर्वम्--हर वस्तु; जिते--जीत लेने पर; रसे--जीभ को |
भले ही कोई मनुष्य अन्य सारी इन्द्रियों को क्यों न जीत ले, किन्तु जब तक जीभ को नहींजीत लिया जाता, तब तक वह इन्द्रियजित नहीं कहलाता। किन्तु यदि कोई मनुष्य जीभ को वशमें करने में सक्षम होता है, तो उसे सभी इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण करने वाला माना जाता है।
पिड्ला नाम वेश्यासीद्विदेहनगरे पुरा ।तस्या मे शिक्षितं किश्ञिन्निबोध नृपनन्दन ॥
२२॥
पिड्ूला नाम--पिंगला नाम की; वेश्या--वेश्या; आसीतू-- थी; विदेह-नगरे--विदेह नामक नगर में ; पुरा--प्राचीन काल में;तस्या:--उससे; मे--मेरे द्वारा; शिक्षितं--जो कुछ सीखा गया; किझ्जित्ू--जो कुछ; निबोध---अब सीखो; नृप-नन्दन--हे राजाके पुत्र |
हे राजपुत्र, पूर्वकाल में विदेह नामक शहर में पिंगला नामकी एक वेश्या रहती थी। अबकृपा करके, वह सुनिये, जो मैंने उस स्त्री से सीखा है।
सा स्वैरिण्येकदा कान्तं सल्ढेत उपनेष्यती ।अभूत्काले बहिद्वरि बिभ्रती रूपमुत्तमम् ॥
२३॥
सा--वह; स्वैरिणी --वेश्या; एकदा--एक बार; कान्तम्--ग्राहक, प्रेमी; सड्जेते--रमण स्थान में; उपनेष्यती--लाने के लिए;अभूत्--खड़ी रही; काले--रात में; बहि:--बाहर; द्वारे--दरवाजे पर; बिभ्रती--पकड़े हुए; रूपम्ू--अपना रूप; उत्तमम्--अत्यन्त सुन्दर।
एक बार वह वेश्या अपने घर में किसी प्रेमी को लाने की इच्छा से रात के समय अपनासुन्दर रूप दिखलाते हुए दरवाजे के बाहर खड़ी रही।
मार्ग आगच्छतो वीक्ष्य पुरुषान्पुरुषर्षभ ।तान्शुल्कदान्वित्तवतः कान्तान्मेनेर्थकामुकी ॥
२४॥
मार्गे--उस गली में; आगच्छत:--आने वाले; वीक्ष्य--देखकर; पुरुषान्ू-- पुरुषों को; पुरुष-ऋषभ-हे श्रेष्ठ पुरुष; तानू--उनको; शुल्क-दानू--जो मूल्य चुका सके; वित्त-वत:-- धनवान; कान्तान्--प्रेमियों या ग्राहकों को; मेने--विचार किया;अर्थ-कामुकी-- धन चाहने वाले |
हे पुरुष- श्रेष्ठ, यह वेश्या धन पाने के लिए अत्यधिक आतुर थी और जब वह रात में गली मेंखड़ी थी, तो वह उधर से गुजरने वाले सारे व्यक्तियों का अध्ययन यह सोचकर करती रही कि,'ओह, इसके पास अवश्य ही धन होगा। मैं जानती हूँ यह मूल्य चुका सकता है और मुझेविश्वास है कि वह मेरे साथ अत्यधिक भोग कर सकेगा।वह वेश्या गली पर के सभी पुरुषों केबारे में ऐसा ही सोचती रही।
आगतेष्वपयातेषु सा सद्लेतोपजीविनी ।अप्यन्यो वित्तवान्कोपि मामुपैष्यति भूरिद: ॥
२५॥
एवं दुराशया ध्वस्तनिद्रा द्वार्यवलम्बती ।निर्गच्छन्ती प्रविशती निशीथं समपद्यत ॥
२६॥
आगतेषु--जब वे आये; अपयातेषु--तथा वे चले गये; सा--उसने; सद्लेत-उपजीविनी--वेश्यावृत्ति ही जिसकी आमदनी थी;अपि--हो सकता है; अन्य:--दूसरा; वित्त-वानू-- धनवान; कः अपि--कोई भी; माम्--मेंरे पास; उपैष्यति--प्रेम के लिएआयेगा; भूरि-दः--तथा वह प्रचुर धन देगा; एबम्--इस प्रकार; दुराशया--व्यर्थ की आशा से; ध्वस्त--नष्ट; निद्रा--उसकीनींद; द्वारि--दरवाजे पर; अवलम्बती--टेक लगाये; निर्गच्छन््ती--गली की ओर जाती हुई; प्रविशती--अपने घर वापस आती;निशीथम्--अर्धरात्रि; समपद्यत--हो गई
जब वेश्या पिंगला द्वार पर खड़ी हो गई, कई पुरुष आये और उसके घर के सामने से टहलतेहुए चले गये। उसकी जीविका का एकमात्र साधन वेश्यावृत्ति था, अतएवं उसने उत्सुकतापूर्वकसोचा 'हो सकता है कि अब जो आ रहा है, वह बहुत धनी होहाय! वह तो रूक ही नहीं रहा,किन्तु मुझे विश्वास है कि अन्य कोई अवश्य आयेगा। अवश्य ही यह जो आ रहा है मेरे प्रेम कामूल्य चुकायेगा और शायद प्रचुर धन दे।' इस प्रकार व्यर्थ की आशा लिए वह द्वार पर टेकलगाये खड़ी रही और अपना धंधा पूरा न कर सकी और सोने भी न जा सकी। उद्विग्नता से वहकभी गली में जाती और कभी अपने घर के भीतर लौट आती। इस तरह धीरे धीरे अर्धरात्रि होआई।
तस्या वित्ताशया शुष्यद्वक्त्राया दीनचेतस: ।निर्वेद: परमो जज्ञे चिन्ताहेतु: सुखावह: ॥
२७॥
तस्या:--उसकी; वित्त--धन के लिए; आशया--इच्छा से; शुष्यत्ू--सूख गया; वकक््त्राया: --मुख; दीन--खिन्न; चेतस:--मन;निर्वेद:--विरक्ति; परम:--अत्यधिक; जज्ञे--जागृत हो उठी; चिन्ता--चिन्ता; हेतु:--के कारण; सुख--सुख; आवहः--लातेहुए
ज्यों ज्यों रात बीतती गई, वह वेश्या, जो कि धन की अत्यधिक इच्छुक थी, धीरे-धीरे हताशहो उठी और उसका मुख सूख गया। इस तरह धन की चिन्ता से युक्त तथा अत्यन्त निराश होकरवह अपनी स्थिति से अत्यधिक विरक्ति अनुभव करने लगी और उसके मन में सुख का उदयहुआ।
तस्या निर्विण्णचित्ताया गीत॑ श्रुणु यथा मम ।निर्वेद आशापाशानां पुरुषस्य यथा हासि: ॥
२८ ॥
तस्या:--उसका; निर्विण्ण-- क्षुब्ध; चित्ताया:--मन; गीतम्--गीत; श्रूणु--सुनो; यथा--मानो; मम--मुझसे; निर्वेद: --विरक्ति; आशा--आशाओं एवं इच्छाओं के; पाशानाम्--बन्धनों के; पुरुषस्थ--पुरुष को; यथा--जिस तरह; हि--निश्चय ही;असि:ः--तलवार।
वह वेश्या अपनी भौतिक स्थिति से ऊब उठी और इस तरह वह अन्यमनस्क हो गई।दरअसल, विरक्ति तलवार का काम करती है। यह भौतिक आशाओं तथा इच्छाओं के बन्धन कोखण्ड-खण्ड कर देती है। अब मुझसे वह गीत सुनो, जो उस स्थिति में वेश्या ने गाया।
न ह्ाड्जजातनिर्वेदो देहबन्धं जिहासति ।यथा विज्ञानरहितो मनुजो ममतां नृूप ॥
२९॥
न--नहीं; हि--निस्सन्देह; अड्र--हे राजा; अजात--जिसने उत्पन्न नहीं किया; निर्वेद:--विरक्ति; देह-- भौतिक शरीर का;बन्धम्--बन्धन; जिहासति--त्यागने का इच्छुक होता है; यथा--जिस तरह; विज्ञान--अनुभूत ज्ञान; रहित:--विहीन; मनुज: --मनुष्य; ममताम्--स्वामित्व का मिथ्या भाव; नृप--हे राजा।
हे राजन, जिस तरह आध्यात्मिक ज्ञान से विहीन व्यक्ति कभी भी अनेक भौतिक वस्तुओं परअपने मिथ्या स्वामित्व को त्यागना नहीं चाहता, उसी तरह जिस व्यक्ति में विरक्ति उत्पन्न नहीं हुईवह कभी भी भौतिक शरीर के बन्धन को त्यागने के लिए तैयार नहीं होता।
पिड्लोवाचअहो मे मोहविततिं पश्यताविजितात्मन: ।या कान्तादसतः काम॑ कामये येन बालिशा ॥
३०॥
पिड्रला--पिंगला ने; उबाच--कहा; अहो --ओह; मे--मेरा; मोह--मोह का; विततिम्--विस्तार; पश्यत--देखो तो;अविजित-आत्मन:--जिसका मन वश में नहीं है, उसका; या--जो ( मैं ); कान्तातू--अपने प्रेमी से; असतः--व्यर्थ, तुच्छ;'कामम्--विषय-सुख; कामये--चाहती हूँ; येन-- क्योंकि; बालिशा--मूर्ख हूँ
पिंगला वेश्या ने कहा : जरा देखो न, मैं कितनी मोहग्रस्त हूँ। चूँकि मैं अपने मन को वश मेंनहीं रख सकती, इसलिए मैं मूर्ख की तरह किसी तुच्छ व्यक्ति से विषय-सुख की कामना करती>>हूँ।
सन््तं समीपे रमणं रतिप्रदंवित्तप्रदं नित्यमिमं विहाय ।अकामदं दुःखभयाधिशोक-मोहप्रदं तुच्छमहं भजेउज्ञा ॥
३१॥
सन्तम्--होते हुए; समीपे--अत्यन्त निकट ( मेरे हृदय में ); रमणम्--अत्यन्त प्रिय; रति--वास्तविक प्रेम या आनन्द; प्रदम्--देने वाला; वित्त-- धन; प्रदम्ू--देने वाला; नित्यम्--नित्य; इमम्--उसको; विहाय--त्याग कर; अकाम-दम्--जो किसी कीइच्छाओं को कभी नहीं पूरा कर सकता; दुःख--कष्ट; भय--डर; आधि--मानसिक क्लेश; शोक--शोक; मोह--मोह;प्रदम्ू--देने वाला; तुच्छम्-- अत्यन्त तुच्छ; अहम्--मैं; भजे--सेवा करती हूँ; अज्ञा--अज्ञानी मूर्ख |
मैं ऐसी मूर्ख निकली कि मेरे हृदय में जो शाश्वत स्थित है और मुझे अत्यन्त प्रिय है उस पुरुषकी मैंने सेवा छोड़ दी। वह अत्यन्त प्रिय ब्रह्माण्ड का स्वामी है, जो कि असली प्रेम तथा सुखका दाता है और समस्त समृद्धि का स्त्रोत है। यद्यपि वह मेरे ही हृदय में है, किन्तु मैंने उसकीपूर्णरूपेण अनदेखी की है। बजाय इसके मैंने अनजाने ही तुच्छ आदमियों की सेवा की है, जोमेरी असली इच्छाओं को कभी भी पूरा नहीं कर सकते और जिन्होंने मुझे दुख, भय, चिन्ता,शोक तथा मोह ही दिया है।
अहो मयात्मा परितापितो वृथास्लित्यवृत्त्यातिविगर्हावार्तया ।स्त्रैणान्नराद्यार्थतृषो नुशोच्यात्क्रीतेन वित्तं रतिमात्मनेच्छती ॥
३२॥
अहो--ओह; मया--मेरे द्वारा; आत्मा--आत्मा; परितापित:--कष्ट दिया गया; वृथा--व्यर्थ ही; साद्लेत्य--वेश्या की; वृत्त्या--वृत्ति या पेशे द्वारा; अति-विगर्ई--अत्यन्त निन्दनीय; वार्तया--वृत्ति द्वारा; स्त्रैणात्--कामुक व्यक्तियों द्वारा; नरात्ू--मनुष्यों से;या--जो ( मैं ); अर्थ-तृष:--लोभी; अनुशोच्यात्--दयनीय; क्रीतेन--बिके हुए; वित्तम्-- धन; रतिम्ू--मैथुन सुख;आत्मना--अपने शरीर से; इच्छती--चाहती हुई |
ओह! मैंने अपनी आत्मा को व्यर्थ ही पीड़ा पहुँचाई। मैंने ऐसे कामुक, लोभी पुरुषों के हाथअपने शरीर को बेचा जो स्वयं दया के पात्र हैं। इस प्रकार मैंने वेश्या के अत्यन्त गहित पेशे कोअपनाते हुए धन तथा मैथुन का आनन्द पाने की आशा की थी।
यदस्थिभिर्निर्मितवंशवंस्य-स्थूणं त्वचा रोमनखै: पिनद्धम् ।क्षरत्नवद्वारमगारमेतद्विष्मूत्रपूर्ण मदुपैति कान्या ॥
३३॥
यत्--जो; अस्थिभि:--हड्डियों से; निर्मित--बना हुआ; वंश--रीढ़; वंश्य--पसलियाँ; स्थूणम्--हाथ-पैर की हड्डियाँ;त्वचा--चमड़ी से; रोम-नखै:--बाल तथा नाखूनों से; पिनद्धम्ू--ढका; क्षरत्--टपकता हुआ; नव--नौ; द्वारम््-द्वारों;अगारम्--घर; एतत्--यह; विट्ू--मल; मूत्र--मूत्र, पेशाब से; पूर्णम्-- भरा हुआ; मत्--मेरे अतिरिक्त; उपैति--अपने कोलगाती है; का--कौन; अन्या--अन्य स्त्री |
यह भौतिक शरीर एक घर के सहृश है, जिसमें आत्मा रूप में मैं रह रही हूँ। मेरी रीढ़,पसलियों, हाथ तथा पाँव को बनाने वाली हड्डियाँ इस घर की आड़ी तथा पड़ी शहतीरें, थूनियाँतथा ख भें हैं और पूरा ढाँचा मल-मूत्र से भरा हुआ है तथा चमड़ी, बाल तथा नाखूनों सेआच्छादति है। इस शरीर के भीतर जाने वाले नौ द्वार निरन्तर गन्दी वस्तुएँ निकालते रहते हैं।भला मेरे अतिरिक्त कौन स्त्री इतनी मूर्ख होगी कि वह इस भौतिक शरीर के प्रति यह सोचकरअनुरक्त होगी कि उसे इस युक्ति से आनन्द तथा प्रेम मिल सकेगा ? विदेहानां पुरे हास्मिन्नहमेकैव मूढधी: ।यान्यमिच्छन्त्यसत्यस्मादात्मदात्काममच्युतात् ॥
३४॥
विदेहानाम्--विदेह के निवासियों के; पुरे--नगर में; हि--निश्चय ही; अस्मिनू--इस; अहम्--मैं; एका-- अकेली; एव--निस्सन्देह; मूढ-- मूर्ख; धीः--बुद्धि वाली; या--जो ( मैं ही ); अन्यम्ू--दूसरी; इच्छन्ती --चाहती हुई; असती--नितान्तव्यभिचारिणी होकर; अस्मात्--उन; आत्म-दात्ू--हमें असली आध्यात्मिक रूप प्रदान करने वाला; कामम्--इन्द्रियतृप्ति;अच्युतातू-- भगवान्
अच्युत के अतिरिक्तनिश्चित रूप से इस विदेह नगरी में मैं ही अकेली निपट मूर्ख हूँ। मैंने उन भगवान् की उपेक्षाकी है, जो हमें सब कुछ देते हैं, यहाँ तक कि हमारा मूल आध्यात्मिक स्वरूप भी देते हैं। मैंनेउन्हें छोड़ कर अनेक पुरुषों से इन्द्रियतृप्ति का भोग करना चाहा है।
सुहत्प्रेष्ठमो नाथ आत्मा चायं शरीरिणाम् ।तं विक्रीयात्मनैवाहं रमेडनेन यथा रमा ॥
३५॥
सु-हत्--शुभेच्छु मित्र; प्रेष्ट-तम:--नितान्त प्रिय; नाथ:--प्रभु; आत्मा--आत्मा; च-- भी; अयम्--वह; शरीरिणाम्-- समस्तशरीरधारियों के; तमू--उसको; विक्रीय--मोल लेकर; आत्मना--अपने आपको शरणागत करके; एव--निश्चय ही; अहम्--मैं; रमे--रमण करूँगी; अनेन-- भगवान् के साथ; यथा--जिस तरह; रमा--लक्ष्मीदेवी |
भगवान् समस्त जीवों के लिए नितान्त प्रिय हैं, क्योंकि वे हर एक के शुभेच्छु तथा स्वामीहैं। वे हर एक के हृदय में स्थित परमात्मा हैं। अतएव मैं पूर्ण शरणागति का मूल्य चुकाकर तथाभगवान् को मोल लेकर उनके साथ उसी तरह रमण करूँगी, जिस तरह लक्ष्मीदेवी करती हैं।
कियत्प्रियं ते व्यभजन्कामा ये कामदा नरा: ।आइद्यन्तवन्तो भार्याया देवा वा कालविद्गुता: ॥
३६॥
कियत्--कितना; प्रियम्ू--वास्तविक सुख; ते--वे; व्यभजन्-- प्रदान किया है; कामाः--इन्द्रियतृप्ति; ये--तथा जो; काम-दाः--इन्द्रियतृष्ति प्रदान करने वाले; नरा:--पुरुष; आदि-- प्रारम्भ; अन्त--तथा अन्त; वन्तः--से युक्त; भार्याया: --पत्नी के;देवा:--देवतागण; वा--अथवा; काल--काल द्वारा; विद्ुता:--विलग किये गये, अतएव क्षुब्ध |
पुरुष स्त्रियों को इन्द्रियतृप्ति प्रदान करते हैं, किन्तु इन सारे पुरुषों का तथा स्वर्ग में देवताओंका भी आदि और अन्त है। वे सभी क्षणिक सृष्टियाँ हैं, जिन्हें काल घसीट ले जायेगा। अतएवइनमें से कोई भी अपनी पत्नियों को कितना वास्तविक आनन्द या सुख प्रदान कर सकता है? नूनं मे भगवान्प्रीतो विष्णु: केनापि कर्मणा ।निर्वेदोयं दुराशाया यन्मे जात: सुखावह: ॥
३७॥
नूनम्--निस्सन्देह; मे--मुझसे; भगवान्-- भगवान्; प्रीत:--प्रसन्न है; विष्णु: -- भगवान्; केन अपि--किसी; कर्मणा--कर्म केद्वारा; निर्वेद: --इन्द्रियतृप्ति से विरक्ति; अयम्--यह; दुराशाया:-- भौतिक भोगकी बुरी तरह से आशा करने वाले में; यत्--क्योंकि; मे--मुझमें; जात:--उत्पन्न हुआ है; सुख--सुख; आवहः--लाते हुए
यद्यपि मैंने भौतिक जगत को भोगने की दुराशा की थी, किन्तु न जाने क्यों मेरे हृदय मेंविरक्ति उत्पन्न हो चुकी है और यह मुझे अत्यन्त सुखी बना रही है। इसलिए भगवान् विष्णुअवश्य ही मुझ पर प्रसन्न होंगे। मैंने इसे जाने बिना ही उनको तुष्ट करने वाला कोई कर्म अवश्यकिया होगा।
मैवं स्पुर्मन्दभाग्याया: क्लेशा निर्वेदहितव: ।येनानुबन्ध॑ नित्य पुरुष: शममृच्छति ॥
३८ ॥
मा--नहीं; एवम्--इस प्रकार; स्युः--हों; मन्द-भाग्याया:--अभागिनियों के; क्लेशा:--कष्ट; निर्वेद--विरक्ति के; हेतवः--कारण; येन--जिस विरक्ति से; अनुबन्धम्--बन्धन; निईत्य--हटाकर; पुरुष: --पुरुष; शमम्--असली शान्ति; ऋच्छति--प्राप्त करता है।
जिस व्यक्ति में विरक्ति उत्पन्न हो चुकी है, वह भौतिक समाज, मैत्री तथा प्रेम के बन्धन त्यागसकता है और जो पुरुष महान् कष्ट भोगता है, वह निराशा के कारण धीरे-धीरे विरक्त हो जाताहै तथा भौतिक जगत के प्रति अन्यमनस्क हो उठता है। मेरे महान् कष्ट के कारण ही मेरे हृदय में ऐसी विरक्ति जागी है; अन्यथा यदि मैं सचमुच अभागिन होती, तो मुझे ऐसी दयाद्र पीड़ा क्योंझेलनी पड़ती ? इसलिए मैं सचमुच भाग्यशालिनी हूँ और मुझे भगवान् की दया प्राप्त हुई है। वेअवश्य ही मुझ पर प्रसन्न हैं।
तेनोपकृतमादाय शिरसा ग्राम्यसड्रता: ।त्यक्त्वा दुराशा: शरणं ब्रजामि तमधी श्वरम् ॥
३९॥
तेन--उनके ( भगवान् के ) द्वारा; उपकृतम्--अधिक सहायता की; आदाय--स्वीकार करके; शिरसा--मेरे सिर पर, भक्ति से;ग्राम्य--सामान्य इन्द्रियतृप्ति; सड्भता:--सम्बन्धित; त्यक्त्वा--त्याग कर; दुराशा:--पापपूर्ण इच्छाएँ; शरणम्--शरण में;ब्रजामि--अब आ रही हूँ; तम्--उसको; अधीश्वरम्--भगवान्
भगवान् ने मुझ पर जो महान् उपकार किया है, उसे मैं भक्तिपूर्वक स्वीकार करती हूँ। मैंनेसामान्य इन्द्रियतृप्ति के लिए पापपूर्ण इच्छाएँ त्यागकर अब भगवान् की शरण ग्रहण कर ली है।
सन्तुष्टा श्रदधत्येतद्याथालाभेन जीवती ।विहराम्यमुनैवाहमात्मना रमणेन वै ॥
४०॥
सन्तुष्टा-पूर्णतया तुष्ट; श्रद्धधती --पूर्ण श्रद्धा से युक्त; एतत्-- भगवान् की कृपा में; यथा-लाभेन--जो कुछ अपने आप मिलजाय उसी से; जीवती--जीवित; विहरामि--विहार करूँगी; अमुना--उसी एक से; एब--एकमात्र; अहम्--मैं; आत्मना--भगवान् से; रमणेन--प्रेम तथा सुख के असली स्त्रोत हैं, जो; बै--इसमें कोई सन्देह नहीं।
अब मैं पूर्ण तुष्ट हूँ और मुझे भगवान् की दया पर पूर्ण श्रद्धा है। अतएव जो कुछ मुझे स्वतःमिल जायेगा, उसी से मैं अपना भरण-पोषण ( निर्वाह ) करूँगी। मैं एकमात्र भगवान् के साथविहार करूँगी, क्योंकि वे प्रेम तथा सुख के असली स्त्रोत हैं।
संसारकूपे पतितं विषयैर्मुषितेक्षणम् ।ग्रस्तं कालाहिनात्मानं को३न्यस्त्रातुमधी श्वर: ॥
४१॥
संसार--भौतिक जगत; कूपे--अन्धे कुएँ में; पतितम्--गिरा हुआ; विषयै: --इन्द्रियतृप्ति द्वारा; मुषित--चुराई गई; ईक्षणम्--दृष्टि; ग्रस्तमू--पकड़ा हुआ; काल--काल के; अहिना--सर्प द्वारा; आत्मानम्--जीवको; क:ः--कौन; अन्य: --दूसरा;त्रातुम्--उद्धार करने में समर्थ है; अधी श्वरः-- भगवान् |
इन्द्रियतृप्ति के कार्यो द्वारा जीव की बुद्धि हर ली जाती है और तब वह भौतिक जगत केअंधे कुएँ में गिर जाता है। फिर इस कुएँ में उसे कालरूपी भयानक सर्प पकड़ लेता है। बेचारेजीव को ऐसी निराश अवस्था से भला भगवान् के अतिरिक्त और कौन बचा सकता है? आत्मैव ह्ात्मनो गोप्ता निर्विद्येत यदाखिलात् ।अप्रमत्त इदं पश्येदग्रस्तं कालाहिना जगत् ॥
४२॥
आत्मा--आत्मा; एव--एकमात्र; हि--निश्चय ही; आत्मनः --अपना; गोप्ता--रक्षक; निर्विद्येत--विरक्त हो जाता है; यदा--जब; अखिलातू-- सारी भौतिक वस्तुओं से; अप्रमत्त:-- भौतिक ज्वर से रहित; इृदम्--यह; पश्येत्ू--देख सकता है; ग्रस्तम्--पकड़ा हुआ; काल--काल के; अहिना--सर्प द्वारा; जगत्ू--ब्रह्माण्ड |
जब जीव देखता है कि समस्त ब्रह्माण्ड कालरूपी सर्प द्वारा पकड़ा जा चुका है, तो वहगम्भीर तथा विवेकवान् बन जाता है और तब वह अपने को समस्त भौतिक इन्द्रियतृप्ति सेविरक्त कर लेता है। उस अवस्था में जीव अपना ही रक्षक बनने का पात्र हो जाता है।
श्रीज्राह्मण उवाचएवं व्यवसितमतिर्दुराशां कान्ततर्षजाम् ।छित्त्वोपशममास्थाय शय्यामुपविवेश सा ॥
४३॥
श्री-ब्राह्मण: उवाच--अवधूत ने कहा; एवम्--इस प्रकार; व्यवसित--कृतसंकल्प; मतिः--उसका मन; दुराशामू--पापीइच्छा; कान्त-प्रेमी; तर्ष--लालायित रहना; जामू-८दवारा उत्पन्न; छित्त्ता--काट कर; उपशमम्--शान्ति में; आस्थाय--स्थितहोकर; शब्याम्--अपनी सेज पर; उपविवेश--बैठ गई; सा--वह।
अवधूत ने कहा : इस तरह अपने मन में संकल्प करके, पिंगला ने अपने प्रेमियों से संभोगकरने की पापपूर्ण इच्छाओं को त्याग दिया और वह परम शान्ति को प्राप्त हुई। तत्पश्चात्, वहअपनी सेज पर बैठ गई।
आशा हि परम॑ दुःखं नैराएयं परमं सुखम् ।यथा सज्छिद्य कान्ताशां सुखं सुष्वाप पिडुला ॥
४४॥
आशा--भौतिक इच्छा; हि--निश्चय ही; परमम्--सबसे बड़ा; दुःखम्--दुख; नैराश्यमू-- भौतिक इच्छाओं से मुक्ति; परमम्--सबसे बड़ा; सुखम्--सुख; यथा--जिस तरह; सज्छिद्य--पूरी तरह काट कर; कान्त--प्रेमियों के लिए; आशाम्--इच्छा;सुखम्--सुखपूर्वक; सुष्वाप--सो गई; पिड्जला-थे फोर्मेर्
प्रोस्तितुते, पिड्लानिस्सन्देह भौतिक इच्छा ही सर्वाधिक दुख का कारण है और ऐसी इच्छा से मुक्ति सर्वाधिकसुख का कारण है। अतएवं तथाकथित प्रेमियों से विहार करने की अपनी इच्छा को पूरी तरहछिन्न करके पिंगला सुखपूर्वक सो गई।
9. प्रत्येक सामग्री से अलगाव
श्रीत्राह्मण उबाचपरिग्रहो हि दुःखाय यद्यत्प्रियतमं नृणाम् ।अनन्त सुखमाप्नोति तद्ठिद्वान्यस्वकिज्लन: ॥
१॥
श्री-ब्राह्मण: उबाच--साधु-ब्राह्मण ने कहा; परिग्रह:--लगाव; हि--निश्चय ही; दुःखाय--दुख देने वाली; यत् यत्--जो जो;प्रिय-तमम्--सर्वाधिक प्रिय है; नृणाम्--मनुष्यों के; अनन्तम्--असीम; सुखम्--सुख; आप्नोति--प्राप्त करता है; तत्--वह;विद्वानू--जानते हुए; यः--जो कोई; तु--निस्सन्देह; अकिज्नः--ऐसे लगाव से मुक्त है,
जोसाधु-बराह्मण ने कहा : भौतिक जगत में हर व्यक्ति कुछ वस्तुओं को अत्यन्त प्रिय मानता हैऔर ऐसी वस्तुओं के प्रति लगाव के कारण अन्ततः वह दीन-हीन बन जाता है। जो व्यक्ति इसेसमझता है, वह भौतिक सम्पत्ति के स्वामित्व तथा लगाव को त्याग देता है और इस तरह असीमआनन्द प्राप्त करता है।
सामिषं कुररं जध्नुर्बलिनोन्ये निरामिषा: ।तदामिषं परित्यज्य स सुखं समविन्दत ॥
२॥
स-आमिषम्--मांस लिये हुए; कुररम्--बड़ा बाज; जघ्नु:-- आक्रमण किया; बलिन:--अत्यन्त बलवान; अन्ये-- अन्य;निरामिषा:--मांस से रहित; तदा--उस समय; आमिषम्--मांस; परित्यज्य--छोड़कर; सः--उसने; सुखम्--सुख;समविन्दत--प्राप्त किया।
एक बार बड़े बाजों की एक टोली ने कोई शिकार न पा सकने के कारण एक अन्य दुर्बलबाज पर आक्रमण कर दिया जो थोड़ा-सा मांस पकड़े हुए था। उस समय अपने जीवन कोसंकट में देखकर बाज ने मांस को छोड़ दिया। तब उसे वास्तविक सुख मिल सका।
न मे मानापमानौ स्तो न चिन्ता गेहपुत्रिणाम् ।आत्मक्रीड आत्मरतिर्विचरामीह बालवतू ॥
३॥
न--नहीं; मे--मुझमें; मान-- आदर; अपमानौ--अनादर; स्तः-- है; न--नहीं है; चिन्ता--चिन्ता; गेह--घरवालों के;पुत्रिणामू--तथा बच्चों के; आत्म--अपने से; क्रीड:--खिलवाड़ करते हुए; आत्म--अपने में ही; रतिः--भोग करते हुए;विचरामि--विचरण करता हूँ; इह--इस जगत में; बाल-वत्--बच्चे की तरह।
पारिवारिक जीवन में माता-पिता सदैव अपने घर, अपने बच्चों तथा अपनी प्रतिष्ठा के विषयमें चिन्तित रहते हैं। किन्तु मुझे इन बातों से कुछ भी लेना-देना नहीं रहता। मैं न तो किसी परिवारके लिए चिन्ता करता हूँ, न ही मैं मान-अपमान की परवाह करता हूँ। मैं आत्म जीवन का हीआनन्द उठाता हूँ और मुझे आध्यात्मिक पद पर प्रेम मिलता है। इस तरह मैं पृथ्वी पर बालक कीभाँति विचरण करता रहता हूँ।
द्वावेब चिन्तया मुक्तौ परमानन्द आप्लुतौ ।यो विमुग्धो जडो बालो यो गुणेभ्य: परं गतः ॥
४॥
द्वौ--दो; एव--निश्चय ही; चिन्तया--चिन्ता से; मुक्तौ--मुक्त; परम-आनन्दे-- परम सुख में; आप्लुतौ--निमग्न; यः--जो;विमुग्ध:--अज्ञानी है; जड:ः--कार्यकलाप के अभाव में मन्द हुआ; बाल:--बालकों जैसा; य:--जो; गुणे भ्य: -- प्रकृति केगुणों के प्रति; परम्-- भगवान्, जो दिव्य है; गतः--प्राप्त किया हुआ।
इस जगत में दो प्रकार के लोग समस्त चिन्ताओं से मुक्त होते हैं और परम आनन्द में निमग्नरहते हैं--एक तो वे, जो मन्द बुद्धि हैं तथा बालकों के समान अज्ञानी हैं तथा दूसरे वे जो तीनोंगुणों से अतीत परमेश्वर के पास पहुँच चुके हैं।
क्वचित्कुमारी त्वात्मानं वृणानान्गृहमागतान् ।स्वयं तानहयामास क््वापि यातेषु बन्धुषु ॥
५॥
क्वचित्--एक बार; कुमारी--तरुणी; तु--निस्सन्देह; आत्मानमू--अपने आपको; वृणानान्--पत्नी के रूप में चाहती हुई;गृहम्-घर में; आगतान्--आये हुए; स्वयमू--अपने आप; तान्--उन पुरुषों को; अहयाम् आस--सत्कार किया; क्व अपि--अन्य स्थान को; यातेषु--चले गये हुए; बन्धुषु--अपने सारे सम्बन्धियों के |
एक बार, विवाह योग्य एक तरुणी अपने घर में अकेली थी, क्योंकि उसके माता-पितातथा सम्बन्धी उस दिन किसी अन्य स्थान को चले गये थे। उस समय कुछ व्यक्ति उससे विवाहकरने की विशेष इच्छा से उसके घर आये। उसने उन सबों का सत्कार किया।
तेषामभ्यवहारार्थ शालीत्रहसि पार्थिव ।अवध्नन्त्या: प्रकोष्ठस्था श्रक्रु ई शज्जः स्वनं महत् ॥
६॥
तेषाम्--अतिथियों का; अभ्यवहार-अर्थम्--उन्हें खिलाने के वास्ते; शालीन्-- धान; रहसि--अकेली होने से; पार्थिव--हेराजा; अवघ्नन्त्या:--कूट रही; प्रकोष्ठट--अपनी कलाइयों में; स्था:--स्थित; चक्कु:--बनाया; शझ्ज:--शंख से बनी चूड़ियाँ;स्वनम्--आवाज; महत्-- अत्यधिक
वह लड़की एकान्त स्थान में चली गई और अप्रत्याशित अतिथियों के लिए भोजन बनानेकी तैयारी करने लगी। जब वह धान कूट रही थी, तो उसकी कलाइयों की शंख की चूड़ियाँएक-दूसरे से टकराकर जोर से खड़खड़ा रही थीं।
सा तज्जुगुप्सितं मत्वा महती वृईडिता ततः ।बभज्जैकैकश:ः शद्जान्द्दौ द्वौ पाण्योरशेषयत् ॥
७॥
सा--वह; तत्--उस आवाज को; जुगुप्सितम्ू--लज्जास्पद; मत्वा--सोचकर; महती--अत्यन्त बुद्धिमती; ब्रीडिता--शर्मी ली;ततः--उसकी बाँहों से; बभञ्ज--उसने तोड़ दिया; एक-एकश:--एक-एक करके; शद्भान्ू--शंख की चूड़ियाँ; द्वौ द्वौ--प्रत्येक में दो-दो; पाण्यो:--अपने दोनों हाथों में; अशेषयत्--छोड़ दिया।
उस लड़की को भय था कि ये लोग उसके परिवार को गरीब समझेंगे, क्योंकि उनकी पुत्रीधान कूटने के तुच्छ कार्य में लगी हुई है। अत्यन्त चतुर होने के कारण शर्मीली लड़की ने अपनीबाँहों में पहनी हुई शंख की चूड़ियों में से प्रत्येक कलाई में केवल दो दो चूड़ियाँ छोड़कर शेषसभी चूड़ियाँ तोड़ दीं।
उभयोरप्यभूद्धोषो हावघ्नन्त्या: स्वशड्डुयो: ।तत्राप्येके निरभिददेकस्मान्नाभवद्ध्वनि: ॥
८॥
उभयो:--( प्रत्येक हाथ में ) दो से; अपि--फिर भी; अभूत्--हो रहा था; घोष:--शब्द, आवाज; हि--निस्सन्देह;अवघ्नन्त्या:--धान कूट रही; स्व-शद्डुयो:--शंख की दो-दो चूड़ियों में से; तत्र--वहाँ; अपि--निस्सन्देह; एकम्--केवलएक; निरभिदत्-- उसने अलग कर दिया; एकस्मात्--उस एक आभूषण से; न--नहीं; अभवत्--हुआ; ध्वनि:--शब्द |
तत्पश्चात्, ज्योंही वह लड़की धान कूटने लगी प्रत्येक कलाई की दो-दो चूड़ियाँ टकराकरआवाज करने लगीं। अतएव उसने हर कलाई में से एक-एक चूड़ी उतार ली और जब हर कलाईमें एक-एक चूड़ी रह गई, तो फिर आवाज नहीं हुई।
अन्वशिक्षमिमं तस्या उपदेशमरिन्दम ।लोकाननुचरत्नेतान्लोकतत्त्वविवित्सया ॥
९॥
अन्वशिक्षम्--मैंने अपनी आँखों से देखा है; इमम्--इस; तस्या:--उस लड़की के ; उपदेशम्--शिक्षा; अरिम्ू-दम--हे शत्रु कादमन करने वाले; लोकानू्--संसारों में; अनुचरन्--घूमते हुए; एतान्ू--इन; लोक--संसार का; तत्त्व--सत्य; विवित्सया--जानने की इच्छा से |
हे शत्रुओं का दमन करने वाले, मैं इस जगत के स्वभाव के बारे में निरन्तर सीखते हुएपृथ्वी-भर में विच्ररण करता हूँ। इस तरह मैंने उस लड़की से स्वयं शिक्षा ग्रहण की।
वासे बहूनां कलहो भवेद्वार्ता द्ययोरपि ।एक एव व्सेत्तस्मात्कुमार्या इब कड्भजूण: ॥
१०॥
वासे--घर में; बहूनामू-- अनेक लोगों के; कलहः--झगड़ा; भवेत्--होगा; वार्ता--बातचीत; द्वयो: --दो लोगों के; अपि--भी; एक:--अकेला; एव--निश्चय ही; वसेत्--रहना चाहिए; तस्मातू--इसलिए; कुमार्या:--कुमारी ( लड़की ) के; इब--सहश; कड्जूण:--चूड़ी
जब एक स्थान पर अनेक लोग साथ साथ रहते हैं, तो निश्चित रूप से झगड़ा होगा। यहाँतक कि यदि केवल दो लोग ही एक साथ रहें, तो भी जोर-जोर से बातचीत होगी और आपस मेंमतभेद रहेगा। अतएवं झगड़े से बचने के लिए मनुष्य को अकेला रहना चाहिए, जैसा कि हमलड़की की चूड़ी के दृष्टान्त से शिक्षा पाते हैं।
मन एकत्र संयुज्ज्याज्जितश्लासो जितासन: ।वैराग्याभ्यासयोगेन प्चियमाणमतन्द्रितः ॥
११॥
मनः--मन; एकत्र--एक स्थान में; संयुज्ज्यात्--स्थिर करे; जित--जीता हुआ; श्रास:ः--साँस; जित--जीता हुआ; आसन:--योगासन; वैराग्य--वैराग्य द्वारा; अभ्यास-योगेन--योगाभ्यास से; प्रियमाणम्ू--स्थिर किया हुआ मन; अतन्द्रित:--अत्यन्तसावधानीपूर्वक
योगासनों में दक्षता प्राप्त कर लेने तथा श्वास-क्रिया पर नियंत्रण पा लेने पर मनुष्य कोचाहिए कि वैराग्य तथा नियमित योगाभ्यास द्वारा मन को स्थिर करे। इस तरह मनुष्य कोयोगाभ्यास के एक लक्ष्य पर ही सावधानी से अपने मन को स्थिर करना चाहिए।
यस्मिन्मनो लब्धपदं यदेत-च्छनै: शनेर्मुज्ञति कर्मरेणून् ।सत्त्वेन वृद्धेन रजस्तमश्नविधूय निर्वाणमुपैत्यनिन्धनम् ॥
१२॥
यस्मिनू--जिसमें ( भगवान् में )मनः--मन; लब्ध--प्राप्त किया हुआ; पदम्--स्थायी पद; यत् एतत्--वही मन; शनैःशनै:--धीरे-धीरे, एक-एक पग करके; मुझ्ञति--त्याग देता है; कर्म--सकाम कर्मों के; रेणूनू--कल्मष को; सत्त्वेन--सतोगुण द्वारा; वृद्धेन--प्रबल हुए; रज:--रजोगुण; तम:--तमोगुण; च-- भी; विधूय--त्यागकर; निर्वाणम्--दिव्य स्थिति,जिसमें मनुष्य अपने ध्यातव्य से संयुक्त हो जाता है; उपैति--प्राप्त करता है; अनिन्धनम्--बिना ईंधन के |
जब मन भगवान् पर स्थिर हो जाता है, तो उसे वश में किया जा सकता है। स्थायी दशा कोप्राप्त करके मन भौतिक कार्यों को करने की दूषित इच्छाओं से मुक्त हो जाता है। इस तरहसतोगुण के प्रबल होने पर मनुष्य रजो तथा तमोगुण का पूरी तरह परित्याग कर सकता है औरधीरे धीरे सतोगुण से भी परे जा सकता है। जब मन प्रकृति के गुण-रूपी ईंधन से मुक्त हो जाताहै, तो संसार-रूपी अग्नि बुझ जाती है। तब उसका सीधा सम्बन्ध दिव्य स्तर पर अपने ध्यान केलक्ष्य, परमेश्वर, से जुड़ जाता है।
तदैवमात्मन्यवरुद्धचित्तोन वेद किद्ञिद्हिरन्तरं वा ।यथेषुकारो नृपतिं व्रजन्त-मिषौ गतात्मा न ददर्श पाश्वे ॥
१३॥
तदा--उस समय; एवम्--इस प्रकार; आत्मनि-- भगवान् में; अवरुद्ध--स्थिर; चित्त:--मन; न--नहीं; वेद--जानता है;किश्ञित्ू--कुछ भी; बहिः--बाहरी; अन्तरम्--आन्तरिक; वा--अथवा; यथा--जिस तरह; इषु--बाणों का; कार: --बनानेवाला; नू-पतिम्--राजा को; ब्रजन्तम्--जाते हुए; इषौ--बाण में; गत-आत्मा--लीन होकर; न ददर्श--नहीं देखा; पार्श्े --अपनी बगल में।
इस प्रकार जब मनुष्य की चेतना परम सत्य भगवान् पर पूरी तरह स्थिर हो जाती है, तो उसेद्वैत अथवा आन्तरिक और बाह्ा सच्चाई नहीं दिखती। यहाँ पर एक बाण बनाने वाले का दृष्टान्तदिया गया है, जो एक सीधा बाण बनाने में इतना लीन था कि उसने अपने बगल से गुजर रहेराजा तक को नहीं देखा।
एकचार्यनिकेत: स्यादप्रमत्तो गुहाशयः ।अलक्ष्यमाण आचारैर्मुनिरिकोडल्पभाषण: ॥
१४॥
एक--अकेला; चारी--विचरणशील; अनिकेत:--बिना स्थिर निवास के; स्थात्ू--होए; अप्रमत्त:--अत्यन्त सतर्क होने से;गुहा-आशयः --एकान्त रहते हुए; अलक्ष्यमाण: --बिना पहचाना जाकर; आचारैः--अपने कार्यों से; मुनिः--मुनि; एक: --संगी रहित; अल्प--बहुत कम; भाषण:--बोलते हुए
सनन््त-पुरुष को अकेले रहना चाहिए और किसी स्थिर आवास के बिना, निरन्तर विचरणकरते रहना चाहिए। सतर्क होकर, उसे एकान्तवास करना चाहिए और इस तरह से कार्य करनाचाहिए कि वह अन्यों द्वारा पहचाना या देखा न जा सके। उसे संगियों के बिना इधर-उधर जानाचाहिए और जरूरत से ज्यादा बोलना नहीं चाहिए।
गृहारम्भो हि दुःखाय विफलश्चाश्रुवात्मनः ।सर्प: परकृतं वेश्म प्रविश्य सुखमेधते ॥
१५॥
गृह--घर का; आरम्भ:--निर्माण; हि--निश्चय ही; दुःखाय--दुखदायी; विफल: --व्यर्थ; च-- भी; अश्वुव--अस्थायी;आत्मन:--जीव का; सर्प:--साँप; परकृतम्--अन््यों द्वारा बनाया गया; वेश्म--घर; प्रविश्य--घुस कर; सुखम्--सुखपूर्वक;एधते--दिन काटता है।
जब नश्वर शरीर में वास करने वाला मनुष्य सुखी घर बनाने का प्रयास करता है, तो उसकापरिणाम व्यर्थ तथा दुखमय होता है। किन्तु साँप अन्यों द्वारा बनाये गये घर में घुस जाता है औरसुखपूर्वक रहता है।
एको नारायणो देव: पूर्वसूष्टे स्वमायया ।संहत्य कालकलया कल्पान्त इदमी श्वर: ।एक एवाद्वितीयोभूदात्माधारोईखिलाभ्रय: ॥
१६॥
एकः--एकमात्र; नारायण:-- भगवान्; देव: --ई श्वर; पूर्व--पहले; सूष्टम्--उत्पन्न किया गया; स्व-मायया--अपनी ही शक्तिसे; संहत्य--अपने में समेट कर; काल--समय के; कलया--अंश से; कल्प-अन्ते--संहार के समय; इृदम्--यह ब्रह्माण्ड;ईश्वर: --परम नियन्ता; एक:--एकमात्र; एव--निस्सन्देह; अद्वितीय:--अनुपम; अभूत्--बन गया; आत्म-आधार: --हर वस्तुके आगार तथा आश्रय स्वरूप; अखिल--समस्त शक्तियों के; आश्रयः--आगार।
ब्रह्माण्ड के स्वामी नारायण सभी जीवों के आराध्य ईश्वर हैं। वे किसी बाह्य सहायता केबिना ही अपनी शक्ति से इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि करते हैं और संहार के समय वे ब्रह्माण्ड कोअपने कालरूपी स्वांश से नष्ट करते हैं और बद्धजीवों समेत समस्त ब्रह्माण्डों को अपने में समेटलेते हैं। इस तरह उनका असीम आत्मा ही समस्त शक्तियों का आगार तथा आश्रय है। सूक्ष्मप्रधान, जो समस्त विराट जगत का आधार है, भगवान् के ही भीतर सिमट जाता है और इस तरहउनसे भिन्न नहीं होता। संहार के फलस्वरूप वे अकेले ही रह जाते हैं।
कालेनात्मानुभावेन साम्यं नीतासु शक्तिषु ।सत्त्वादिष्वादिपुरुष: प्रधानपुरुषे श्र: ॥
१७॥
परावराणां परम आस्ते कैवल्यसंज्ञितः ।केवलानुभवानन्दसन्दोहो निरुपाधिकः ॥
१८॥
कालेन--काल द्वारा; आत्म-अनुभावेन-- भगवान् की निजी शक्ति द्वारा; साम्यम्--सन्तुलन को; नीतासु--लाया जाकर;शक्तिषु-- भौतिक शक्ति में; सत्त्त-आदिषु--सतो इत्यादि गुण; आदि-पुरुष:--शाश्वत भगवान्; प्रधान-पुरुष-ईश्वर:-- प्रधानतथा जीवों के परम नियन्ता; पर--मुक्तजीवों या देवताओं के; अवराणाम्ू--सामान्य बद्धजीवों के; परम:--परम आराध्य;आस्ते--विद्यमान है; कैवल्य--मुक्त जीवन; संज्ञित:--संज्ञा वाला, के नाम वाला; केवल--निर्मल; अनुभव--अन्तर्ज्ञत काअनुभव; आनन्द--आनन््द; सन्दोह:--समग्रता; निरुपाधिक:--उपाधिधारी सम्बन्धों से रहित |
जब भगवान् काल के रूप में अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हैं और सतोगुण जैसी अपनीभौतिक शक्तियों को प्रधान ( निरपेक्ष साम्य अवस्था ) तक ले जाते हैं, तो वे उस निरपेक्ष अवस्था( प्रधान ) तथा जीवों के भी परम नियन्ता बने रहते हैं। वे समस्त जीवों के भी आराध्य हैं, जिनमेंमुक्त आत्मा, देवता तथा सामान्य बद्धजीव सम्मिलित हैं। भगवान् शाश्वत रूप से किसी भीउपाधि से मुक्त रहते हैं और वे आध्यात्मिक आनन्द की समग्रता से युक्त हैं, जिसका अनुभवभगवान् के आध्यात्मिक स्वरूप का दर्शन करने पर होता है। इस तरह भगवान् 'मुक्ति' का पूरापूरा अर्थ प्रकट करते हैं।
केवलात्मानुभावेन स्वमायां त्रिगुणात्मिकाम् ।सड्क्षो भयन्सृजत्यादौ तया सूत्रमरिन्दम ॥
१९॥
केवल--शुद्ध; आत्म--स्वयं की; अनुभावेन--शक्ति से; स्व-मायाम्--अपनी ही शक्ति को; त्रि--तीन; गुण--गुण;आत्मिकाम्--से निर्मित; सड्क्षोभयन्-- क्षुब्ध करते हुए; सृजति--प्रकट करता है; आदौ--सृष्टि के समय; तया--उस शक्ति से;सूत्रमू--महत-तत्त्व को, जो कर्म की शक्ति से पहचाना जाता है; अरिन्दम--हे शत्रुओं का दमन करने वाले |
हे शत्रुओं के दमनकर्ता, सृष्टि के समय भगवान् अपनी दिव्य शक्ति का विस्तार काल रूप मेंकरते हैं और वे तीन गुणों से बनी हुई अपनी भौतिक शक्ति, अर्थात् माया को क्षुब्ध करके महततत्त्व को उत्पन्न करते हैं।
तामाहुस्त्रिगुणव्यक्ति सृजन्तीं विश्वतोमुखम् ।यस्मिन्प्रोतमिदं विश्व येन संसरते पुमान् ॥
२०॥
ताम्-महत्-तत्त्व को; आहु:--कहते हैं; त्रि-गुण-- प्रकृति के तीन गुण; व्यक्तिमू--कारण रूप में प्रकट; सृजन्तीम्--उत्पन्नकरते हुए; विश्वतः-मुखम्--विराट जगत की अनेक कोटियाँ; यस्मिन्--जिस महत् तत्त्व के भीतर; प्रोतम्--गुँथा हुआ;इदम्--यह; विश्वम्--ब्रह्माण्ड; येन--जिससे; संसरते-- भौतिक संसार में आना पड़ता है; पुमान्--जीवित प्राणी
महान् मुनियों के अनुसार, जो प्रकृति के तीन गुणों का आधार है और जो विविध रंगीब्रह्माण्ड प्रकट करता है, वह सूत्र या महत् तत्त्व कहलाता है। निस्सन्देह, यह ब्रह्माण्ड उसी महत्तत्त्व के भीतर टिका हुआ रहता है और इसकी शक्ति के कारण जीव को भौतिक जगत में आनापड़ता है।
यथोर्णनाभिईदयादूर्णा सन्तत्य वक्त्रतः ।तया विह॒त्य भूयस्तां ग्रसत्येवं महेश्वरः ॥
२१॥
यथा--जिस तरह; ऊर्न-नाभि:--मकड़ी; हृदयात्-- अपने भीतर से; ऊर्णाम्--धागे को; सन्तत्य--फैलाकर; वकक््त्रतः--अपनेमुख से; तया--उस धागे से; विहत्य-- भोग करने के बाद; भूयः--फिर; ताम्ू--उस धागे को; ग्रसति--निगल जाती है;एवम्--उसी तरह; महा-ई श्वर: -- परमे श्वर |
जिस तरह मकड़ी अपने ही भीतर से ( मुख में से ) धागा निकाल कर फैलाती है, कुछ कालतक उससे खेलती है और अन्त में निगल जाती है, उसी तरह भगवान् अपनी निजी शक्ति कोअपने भीतर से ही विस्तार देते हैं। इस तरह भगवान् विराट जगत रूपी जाल को प्रदर्शित करतेहैं, अपने प्रयोजन के अनुसार उसे काम में लाते हैं और अन्त में उसे पूरी तरह से अपने भीतरसमेट लेते हैं।
यत्र यत्र मनो देही धारयेत्सकलं धिया ।स्नेहाददवेषाद्धयाद्वापि याति तत्तत्स्वरूपताम् ॥
२२॥
यत्र यत्र--जहाँ जहाँ; मनः--मन को; देही--बद्धजीव; धारयेत्--स्थिर करता है; सकलम्--पूर्ण एकाग्रता के साथ; धिया--बुद्धि से; स्नेहातू--स्नेहवश; द्वेघातू-द्वेष के कारण; भयात्-- भयवश; वा अपि--अथवा; याति--जाता है; तत्-तत्--उसउस; स्वरूपताम्ू--विशेष अवस्था को |
यदि देहधारी जीव प्रेम, द्वेष या भयवश अपने मन को बुद्धि तथा पूर्ण एकाग्रता के साथकिसी विशेष शारीरिक स्वरूप में स्थिर कर दे, तो वह उस स्वरूप को अवश्य प्राप्त करेगा,जिसका वह ध्यान करता है।
कीट: पेशस्कृतं ध्यायन्कुड्यां तेन प्रवेशित: ।याति तत्सात्मतां राजन्पूर्वरूपमसन्त्यजन् ॥
२३॥
कीट:--कीड़ा; पेशस्कृतम्--बर्र, भूंगी; ध्यायन्-- ध्यान करती; कुड्याम्--अपने छत्ते में; तेन--बर्र द्वारा; प्रवेशित:--घुसनेके लिए बाध्य की गई; याति--जाती है; तत्--बर का; स-आत्मताम्--वही स्थिति; राजन्ू--हे राजा; पूर्व-रूपम्--पूर्व शरीर;असन्त्यजन्ू-त्याग न करते हुए।
हे राजनू, एक बार एक बर ने एक कमजोर कीड़े को अपने छत्ते में जबरन घुसेड़ दिया औरउसे वहीं बन्दी बनाये रखा। उस कीड़े ने भय के कारण अपने बन्दी बनाने वाले का निरन्तरध्यान किया और उसने अपना शरीर त्यागे बिना ही धीरे धीरे बर जैसी स्थिति प्राप्त कर ली। इसतरह मनुष्य अपने निरन्तर ध्यान के अनुसार स्वरूप प्राप्त करता है।
एवं गुरु भ्य एतेभ्य एषा मे शिक्षिता मतिः ।स्वात्मोपशिक्षितां बुद्धि श्रुणु मे बदतः प्रभो ॥
२४॥
एवम्--इस प्रकार; गुरु भ्य: --गुरुओं से; एतेभ्य:--इन; एषघा--यह; मे--मेरे द्वारा; शिक्षिता--सीखा हुआ; मति:--ज्ञान; स्व-आत्म--अपने ही शरीर से; उपशिक्षिताम्ू--सीखा हुआ; बुद्धिम्--ज्ञान; श्रुणु--सुनो; मे--मुझसे; वदत:--कहा जाता;प्रभो--हे राजा।
हे राजन, मैंने इन आध्यात्मिक गुरुओं से महानू् ज्ञान प्राप्त कर लिया है। अब मैंने अपनेशरीर से जो कुछ सीखा है, उसे बतलाता हूँ, उसे तुम ध्यान से सुनो।
देहो गुरुर्मम विरक्तिविवेकहेतु-बिशभ्रित्स्म सत्त्वनिधनं सततार्त्युदर्कम् ।तत्त्वान्यनेन विमृशामि यथा तथापिपारक्यमित्यवसितो विचराम्यसड्रड ॥
२५॥
देह:--शरीर; गुरुः--गुरु; मम--मेरा; विरक्ति--वैराग्य का; विवेक--तथा विवेक का; हेतुः--कारण; बिभ्रत्ू--पालन करतेहुए; स्म--निश्चय ही; सत्त्व--अस्तित्व; निधनमू--विनाश; सतत--सदैव; आर्ति--कष्ट; उदर्कम्-- भावी परिणाम; तत्त्वानि--इस जगत की सच्चाइयाँ; अनेन--इस शरीर से; विमृशामि--मैं विचार करता हूँ; यथा--यद्यपि; तथा अपि--फिर भी;पारक्यम्--अन्यों से सम्बन्धित; इति--इस प्रकार; अवसित:--आश्वस्त होकर; विचरामि--विचरण करता हूँ; असड्भरः-विथोउत्अत्तछमेन्त्ः
भौतिक शरीर भी मेरा गुरु है, क्योंकि यह मुझे वैराग्य की शिक्षा देता है। सृष्टि तथा संहार सेप्रभावित होने के कारण, इसका कष्टमय अन्त होता रहता है। यद्यपि ज्ञान प्राप्त करने के लिएअपने शरीर का उपयोग करते हुए मैं सदैव स्मरण रखता हूँ कि यह अन्ततः अन्यों द्वारा विनष्टकर दिया जायेगा, अतः मैं विरक्त रहकर इस जगत में इधर-उधर विचरण करता हूँ।
जायात्मजार्थपशुभृत्यगृहाप्तवर्गान्पुष्नाति यत्प्रियचिकीर्षया वितन्वन् ।स्वान्ते सकृच्छुमवरुद्धधन: स देहःसृध्ठास्य बीजमवसीदति वृज्षधर्म: ॥
२६॥
जाया--पतली; आत्म-ज--सन्तानें; अर्थ--धन; पशु--पालतू पशु; भृत्य--नौकर; गृह--घर; आप्त--सम्बन्धीजन तथा मित्र;वर्गानू--ये सारी कोटियाँ; पुष्णाति--पुष्ट करता है; यत्--शरीर; प्रिय-चिकीर्षया--प्रसन्न करने की इच्छा से; वितन्वनू--फैलाते हुए; स्व-अन्ते--मृत्यु के समय; स-कृच्छुम्--अत्यधिक संघर्ष से; अवरुद्ध--एकत्रित; धन:--धन; सः--वह; देह: --शरीर; सृष्ठा--सृजन करके; अस्य--जीव का; बीजमू--बीज; अवसीदति--नीचे गिरकर मरता है; वृक्ष--पेड़; धर्म:--केस्वभाव का अनुकरण करते हुए।
शरीर से आसक्ति रखने वाला व्यक्ति अपनी पत्नी, बच्चों, संपत्ति, पालतू पशुओं, नौकरों,घरों, संबंधियों, मित्रों इत्यादि की स्थिति को बढ़ाने और सुरक्षित रखने के लिए अत्यधिक संघर्षके साथ धन एकत्र करता है। वह अपने ही शरीर की तुष्टि के लिए यह सब करता है। जिसप्रकार एक वृक्ष नष्ट होने के पूर्व भावी वृक्ष का बीज उत्पन्न करता है, उसी तरह मरने वाला शरीरअपने संचित कर्म के रूप में अपने अगले शरीर का बीज प्रकट करता है। इस तरह भौतिकजगत के नैरन्तर्य से आश्वस्त होकर भौतिक शरीर समाप्त हो जाता है।
जिह्नैकतोमुमपकर्षति कर्ि तर्षाशिश्नो<न्यतस्त्वगुदरं श्रवण कुतश्चित् ।घ्राणोउन्यतश्नपलहक्क्व च कर्मशक्ति-बह्व्य: सपत्य इव गेहपतिं लुनन्ति ॥
२७॥
जिह्ाा--जीभ; एकत: --एक ओर; अमुम्ू--शरीर या शरीर के साथ अपनी पहचान करने वाला बद्धजीव; अपकर्षति--दूरखींच ले जाता है; कहिं--कभी कभी; तर्षा--प्यास; शिश्न:--जननेन्द्रिय; अन्यतः--दूसरी ओर; त्वक्--स्पर्शेन्द्रिय; उदरम्--उदर; श्रवणम्--कान; कुतश्चित्ू--या अन्यत्र कहीं से; प्राण: --प्राणेन्द्रिय; अन्यत:ः--दूसरी ओर से; चपल-हक्--चंचलआँखें; क््व च--अन्यत्र कहीं; कर्म-शक्ति:--शरीर के अन्य सक्रिय अंग; बह्व्यः--अनेक; स-पल्य:--सौतें; इव--सहश;गेह-पतिम्--घर के मुखिया को; लुनन्ति--अनेक दिशाओं में खींचती हैं ।
जिस व्यक्ति की कई पत्रलियाँ होती हैं, वह उनके द्वारा निरन्तर सताया जाता है। वह उनके'पालन-पोषण के लिए जिम्मेदार होता है। इस तरह सारी पत्नियाँ उसे निरन्तर भिन्न-भिन्न दिशाओंमें खींचती रहती हैं, और हर पत्नी अपने स्वार्थ के लिए संघर्ष करती है। इसी तरह भौतिकइन्द्रियाँ बद्धजीव को एकसाथ विभिन्न दिशाओं में खींचती रहती हैं और सताती रहती हैं। एकओर जीभ स्वादिष्ट भोजन की व्यवस्था करने के लिए खींचती है, तो प्यास उसे उपयुक्त पेयप्रदान करने के लिए घसीटती रहती है। उसी समय यौन-अंग उनकी तुष्टि के लिए शोर मचाते हैं और स्पर्शेन्द्रिय कोमल वासनामय पदार्थ की माँग रखती हैं। उदर उसे तब तक तंग करता रहताहै, जब तक वह भर नहीं जाता। कान मनोहर ध्वनि सुनना चाहते हैं, प्राणेन्द्रिय सुहावनीसुगँधियों के लिए लालायित रहती हैं और चंचल आँखें मनोहर दृश्य के लिए शोर मचाती हैं। इसतरह सारी इन्द्रियाँ तथा शरीर के अंग तुष्टि की इच्छा से जीव को अनेक दिशाओं में खींचते रहतेहैं।
सृष्ठा पुराणि विविधान्यजयात्मशक्त्यावृक्षान्सरीसृपपशून्खगदन्दशूकान् ।तैस्तैरतुष्टहदय: पुरुष विधायब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देव: ॥
२८ ॥
सृष्ठा--सृजन करके; पुराणि--बद्धजीवों को आवास देने वाले भौतिक शरीर; विविधानि--अनेक प्रकार के; अजया--मायाके माध्यम से; आत्म-शक्त्या--अपनी शक्ति से; वृक्षानू--वृक्षों को; सरीसृप--रेंगने वाले जीवों को; पशून्--पशुओं को;खग--पक्षियों को; दन्द-शूकान्--साँपों को; तैः तैः--शरीर की विभिन्न किस्मों ( योनियों ) द्वारा; अतुष्ट-- असन्तुष्ट; हृदयः --उसका हृदय; पुरुषम्--मनुष्य को; विधाय--उत्पन्न करके; ब्रह्य--परम सत्य; अवलोक--दर्शन; धिषणम्--के उपयुक्त बुद्धि;मुदम्--सुख को; आपा--प्राप्त किया; देव:-- भगवान् |
भगवान् ने अपनी ही शक्ति, माया शक्ति का विस्तार करके बद्धजीवों को बसाने के लिएअसंख्य जीव-योनियाँ उत्पन्न कीं। किन्तु वृक्षों, सरीसृपों, पशुओं, पक्षियों, सर्पों इत्यादि केस्वरूपों को उत्पन्न करके भगवान् अपने हृदय में तुष्ट नहीं थे। तब उन्होंने मनुष्य को उत्पन्न किया,जो बद्ध आत्मा को पर्याप्त बुद्धि प्रदान करने वाला होता है, जिससे वह परम सत्य को देखसके। इस तरह भगवान् सन्तुष्ट हो गये।
लब्ध्वा सुदुर्ल भमिदं बहुसम्भवान्तेमानुष्यमर्थदमनित्यमपीह धीरः ।तूर्ण यतेत न पतेदनुमृत्यु याव-रिःश्रेयसाय विषय: खलु सर्वतः स्थात् ॥
२९॥
लब्ध्वा-प्राप्त करके; सु-दुर्लभम्--जिसको पाना अत्यन्त कठिन है; इदम्ू--यह; बहु--अनेक; सम्भव--जन्म; अन्ते--बादमें; मानुष्यम्-मनुष्य-जीवन; अर्थ-दम्--महान् महत्त्व प्रदान करने वाला; अनित्यम्--क्षणभंगुर; अपि--यद्यपि; इहह--इसभौतिक जगत में; धीर: --गम्भीर बुद्धि वाला; तूर्णम्--तुरन्त; यतेत--प्रयत्त करे; न--नहीं; पतेत्--गिर चुका है; अनु-मृत्यु--सदैव मरणशील; यावत्--जब तक; निःश्रेयसाय--चरम मोक्ष ( मुक्ति ) के लिए; विषय:ः--इन्द्रियतृप्ति; खलु--सदैव;सर्वतः--सभी दशाओं में; स्थातू--सम्भव है।
अनेकानेक जन्मों और मृत्यु के पश्चात् यह दुर्लभ मानव-जीवन मिलता है, जो अनित्य होनेपर भी मनुष्य को सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करने का अवसर प्रदान करता है। इसलिए धीर मनुष्य कोतब तक चरम जीवन सिद्ध्धि के लिए शीघ्र प्रयल कर देना चाहिए, जब तक उसका मरणशीलशरीर क्षय होकर मर नहीं जाता। इन्द्रियतृषप्ति तो सबसे गर्हित योनि में भी प्राप्य है, किन्तुकृष्णभावनामृत मनुष्य को ही प्राप्त हो सकता है।
एवं सञ्जातवैराग्यो विज्ञानालोक आत्मनि ।विचरामि महीमेतां मुक्तसड्री उनहड्डू तः ॥
३०॥
एवम्--इस प्रकार; सझ्ञात--पूर्णतया उत्पन्न; वैराग्य:--वैराग्य; विज्ञान-- अनुभूत ज्ञान; आलोक: --दृष्टि से युक्त; आत्मनि--भगवान् में; विचरामि--विचरण करता हूँ; महीम्--पृथ्वी पर; एताम्--इस; मुक्त--स्वच्छन्द; सड़ः--आसक्ति से;अनहड्डू त:--मिथ्या अहंकार के बिना।
अपने गुरुओं से शिक्षा पाकर मैं भगवान् की अनुभूति में स्थित रहता हूँ और पूर्ण वैराग्यतथा आध्यात्मिक ज्ञान से प्रकाशित, मैं आसक्ति या मिथ्या अहंकार से रहित होकर पृथ्वी परस्वच्छन्द विचरण करता हूँ।
न होकस्मादगुरोज्ञानं सुस्थिरं स्यात्सुपुष्कलम् ।ब्रह्मेतदद्वितीयं वै गीयते बहुधर्षिभि: ॥
३१॥
न--नहीं; हि--निश्चय ही; एकस्मात्--एक; गुरो: --गुरु से; ज्ञानम्--ज्ञान; सु-स्थिरम्ू--अत्यधिक स्थिर; स्थात्ू--हो सकताहै; सु-पुष्कलम्--अत्यन्त पूर्ण; ब्रह्म--परम सत्य; एतत्--यह; अद्वितीयम्--अद्वितीय; बै--निश्चय ही; गीयते--यशोगानकिया गया; बहुधा--अनेक प्रकार से; ऋषिभि:--ऋषियों द्वारा |
यद्यपि परम सत्य अद्वितीय हैं, किन्तु ऋषियों ने अनेक प्रकार से उनका वर्णन किया है।इसलिए हो सकता है कि मनुष्य एक गुरु से अत्यन्त स्थिर या पूर्ण ज्ञान प्राप्त न कर पाये।
श्रीभगवानुवाचइत्युक्त्वा स यदुं विप्रस्तमामन्त्रय गभीरधी: ।वन्दितः स्वर्चितो राज्ञा ययौ प्रीतो यथागतम् ॥
३२॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् ने कहा; इति--इस प्रकार; उक्त्वा--कहकर; सः--उसने; यदुम्--राजा यदु से; विप्र:--ब्राह्मण; तम्--राजा को; आमन्त्रय--विदा करके; गभीर--अत्यन्त गहरी; धी: --बुद्धि; वन्दित:--नमस्कार किया जाकर; सु-अर्चितः--ठीक से पूजित होकर; राज्ञा--राजा द्वारा; ययौ--चला गया; प्रीत:--प्रसन्न मन से; यथा--जिस तरह; आगतम्--आया था।
भगवान् ने कहा : राजा यदु से इस प्रकार कहने के बाद विद्वान ब्राह्मण ने राजा के नमस्कारतथा पूजा को स्वीकार किया और भीतर से प्रसन्न हुआ। तब वह विदा लेकर उसी तरह चलागया, जैसे आया था।
अवधूतवच: श्र॒त्वा पूर्वेषां न: स पूर्वज: ।सर्वसड्भविनिर्मुक्त: समचित्तो बभूव ह ॥
३३॥
अवधूत--अवधूत ब्राह्मण के; वच:--शब्द; श्रुत्वा--सुनकर; पूर्वेषाम्-पूर्वजों के; न:--हमारे; सः--वह; पूर्वज:--स्वयंपूर्वज; सर्व--समस्त; सड्न्ग--आसक्ति से; विनिर्मुक्त:--मुक्त होने पर; सम-चित्त:--आध्यात्मिक पद पर चेतना होने से सर्वत्रसमान; बभूव--हो गया; ह--निश्चय ही |
हे उद्धव, उस अवधूत के शब्दों को सुनकर साधु राजा यदु, जो कि हमारे पूर्वजों का पुरखाहै, समस्त भौतिक आसक्ति से मुक्त हो गया और उसका मन आध्यात्मिक पद पर समान भाव सेस्थिर ( समदर्शी ) हो गया।
10. सकाम गतिविधि की प्रकृति
श्रीभगवानुवाचमयोदितेष्ववहितः स्वधर्मेषु मदाअ्यः ।वर्णाश्रमकुलाचारमकामात्मा समाचरेत् ॥
१॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; मया--मेरे द्वारा; उदितेषु--कहा गया; अवहितः--अत्यन्त सावधानी से; स्व-धर्मेषु--भगवान् की भक्ति के कार्यों में; मत्ू-आश्रयः--मेरा शरणागत; वर्ण-आश्रम--वैदिक वर्णाश्रम प्रणाली; कुल--समाज के;आचारम्--आचरण; अकाम--भैतिक इच्छाओं से रहित; आत्मा--ऐसा पुरुष; समाचरेत्-- अभ्यास करे |
भगवान् ने कहा : पूर्णतया मेरी शरण में आकर तथा मेरे द्वारा वर्णित भगवद्भक्ति में अपनेमन को सावधानी से एकाग्र करके मनुष्य को निष्काम भाव से रहना चाहिए तथा वर्णाश्रमप्रणाली का अभ्यास करना चाहिए।
अन्वीक्षेत विशुद्धात्मा देहिनां विषयात्मनाम् ।गुणेषु तत्त्वध्यानेन सर्वारम्भविपर्ययम् ॥
२॥
अन्वीक्षेत--देखे; विशुद्ध-शुद्ध किया हुआ; आत्मा--आत्मा; देहिनामू-- देहधारी जीवों का; विषय-आत्मनाम्--इन्द्रियतृप्तिके प्रति समर्पित लोगों का; गुणेषु-- आनन्द देने वाली भौतिक वस्तुओं में; तत्त्त--सत्य रूप में; ध्यानेन--ध्यान द्वारा; सर्व--समस्त; आरम्भ--प्रयत्त; विपर्ययम्--अनिवार्य असफलता |
शुद्ध आत्मा को यह देखना चाहिए कि चूँकि इन्द्रियतृष्ति के प्रति समर्पित होने से बद्धआत्माओं ने इन्द्रिय-सुख की वस्तुओं को धोखे से सत्य मान लिया है, इसलिए उनके सारे प्रयत्नअसफल होकर रहेंगे।
सुप्तस्य विषयालोको ध्यायतो वा मनोरथः ।नानात्मकत्वाद्विफलस्तथा भेदात्मधीर्गुणैः ॥
३॥
सुप्तस्थ--सोने वाले के; विषय--इन्द्रियतृप्ति; आलोक:--देखना; ध्यायत:--ध्यान करने वाले का; वा--अथवा; मन: -रथः--मात्र मनगढंत; नाना--तमाम तरह के; आत्मकत्वात्--स्वभाव होने के कारण; विफल: --असली सिद्धि से विहीन;तथा--उसी तरह; भेद-आत्म--भिन्न रूप से बने हुए में; धी: --बुद्धि; गुणैः-- भौतिक इन्द्रियों द्वारा |
सोया हुआ व्यक्ति स्वण में इन्द्रियतृप्ति की अनेक वस्तुएँ देख सकता है, किन्तु ऐसीआनन्ददायक वस्तुएँ मनगढंत होने के कारण अन्ततः व्यर्थ होती हैं। इसी तरह, जो जीव अपनीआध्यात्मिक पहचान के प्रति सोया हुआ रहता है, वह भी अनेक इन्द्रिय-विषयों को देखता है,किन्तु क्षणिक तृप्ति देने वाली ये असंख्य वस्तुएँ भगवान् की माया द्वारा निर्मित होती हैं, तथाइनका स्थायी अस्तित्व नहीं होता। जो व्यक्ति इन्द्रियों से प्रेरित होकर इनका ध्यान करता है, वहअपनी बुद्धि को व्यर्थ के कार्य में लगाता है।
निवृत्तं कर्म सेवेत प्रवृत्तं मत्परस्त्यजेतू ।जिज्ञासायां सम्प्रवृत्तो नाद्रियेत्कर्मचोदनाम् ॥
४॥
निवृत्तम्--विधि-कर्तव्य; कर्म--ऐसा कार्य; सेवेत--करना चाहिए; प्रवृत्तम्--इन्द्रियतृप्ति के लिए कार्य; मत्-पर:--मुझमेंसमर्पित; त्यजेत्ू--छोड़ दे; जिज्ञासायाम्ू--आध्यात्मिक सत्य की खोज में; सम्प्रवृत्त: --पूर्णतया संलग्न; न--नहीं; आद्रियेत् --स्वीकार करना चाहिए; कर्म--कोई भौतिक कार्य; चोदनाम्ू--आदेश |
जिसने अपने मन में मुझे अपने जीवन-लक्ष्य के रूप में बिठा लिया है, उसे इन्द्रियतृप्ति परआधारित कर्म त्याग देने चाहिए और उन्नति के लिए विधि-विधानों द्वारा अनुशासित कर्म करनाचाहिए। किन्तु जब कोई व्यक्ति आत्मा के चरम सत्य की खोज में पूरी तरह लगा हो, तो उसेसकाम कर्मों को नियंत्रित करने वाले शास्त्रीय आदेशों को भी नहीं मानना चाहिए।
यमानभीक्ष्णं सेवेत नियमान्मत्पर: क्वचित् ।मदभिज्ञं गुरुं शान्तमुपासीत मदात्मकम् ॥
५॥
यमान्--मुख्य-मुख्य विधि-विधान, यथा हिंसा न करना; अभीक्ष्णमम्--सदैव; सेवेत--पालन करना चाहिए; नियमानू--गौणनियम, यथा शरीर स्वच्छ रखना; मत्-परः --मेरा भक्त; क्वचित्--यथासम्भव; मत्-अभिज्ञम्--मेरे स्वरूप को जानने वाला;गुरुम्-गुरु को; शान्तम्--शान्त; उपासीत--सेवा करनी चाहिए; मत्-आत्मकम्--जो मुझसे भिन्न नहीं है।
जिसने मुझे अपने जीवन का परम लक्ष्य मान लिया है, उसे चाहिए कि पापकर्मों का निषेधकरने वाले शास्त्रीय आदेशों का कठोरता से पालन करे और जहाँ तक हो सके गौण नियमों कोयथा स्वच्छता की संस्तुति करने वाले आदेशों को सम्पन्न करे। किन्तु अन्ततः उसे प्रामाणिक गुरुके पास जाना चाहिए, जो मेरे साकार रूप के ज्ञान से पूर्ण होता है, जो शान्त होता है और जोआध्यात्मिक उत्थान के कारण मुझसे भिन्न नहीं होता।
अमान्यमत्सरो दक्षो निर्ममो हहसौहदः ।असत्वरो<र्थजिज्ञासुरनसूयुरमोघवाक्ू ॥
६॥
अमानी--मिथ्या अहंकार से रहित; अमत्सर:--अपने को कर्ता न मानते हुए; दक्ष:--आलस्य रहित; निर्मम:--पत्नी, बच्चों,घर, समाज के ऊपर स्वामित्व के भाव के बिना; हृढ-सौहदः --अपने पूज्य अर्चाविग्रह स्वरूप गुरु से मैत्री के भाव में स्थिरहुआ; असत्वर:-- भौतिक काम के कारण मोहग्रस्त हुए बिना; अर्थ-जिज्ञासु:--परम सत्य का ज्ञान चाहने वाला; अनसूयु:--ईर्ष्या से मुक्त; अमोघ-वाक्--व्यर्थ की बातचीत से सर्वथा मुक्त
गुरु के सेवक अथवा शिष्य को झूठी प्रतिष्ठा से मुक्त होना चाहिए और अपने को कभी भीकर्ता नहीं मानना चाहिए। उसे सदैव सक्रिय रहना चाहिए और कभी भी आलसी नहीं होनाचाहिए। उसे पत्नी, बच्चे, घर तथा समाज सहित समस्त इन्द्रिय-विषयों के ऊपर स्वामित्व केभाव को त्याग देना चाहिए। उसे अपने गुरु के प्रति प्रेमपूर्ण मैत्री की भावना से युक्त होनाचाहिए और उसे कभी भी न तो पथश्रष्ट होना चाहिए, न मोहग्रस्त। सेवक या शिष्य में सदैवआध्यात्मिक ज्ञान में आगे बढ़ने की इच्छा होनी चाहिए। उसे किसी से ईर्ष्या नहीं करनी चाहिएऔर व्यर्थ की बातचीत से बचना चाहिए।
जायापत्यगृहक्षेत्रस्वजनद्रविणादिषु ।उदासीन: सम॑ पश्यन्सर्वेष्वर्थमिवात्मन: ॥
७॥
जाया--पली; अपत्य--सन््तान; गृह--घर; क्षेत्र-- भूमि; स्वजन--सम्बन्धी तथा मित्र; द्रविण--बैंक खाता; आदिषु--इत्यादिमें; उदासीन:-- अन्यमनस्क रहकर; समम्--समान रूप से; पश्यन्--देखते हुए; सर्वेषु--समस्त; अर्थम्--उद्देश्य; इब--सहश;आत्मन:--अपना।
मनुष्य को सभी परिस्थितियों में अपने जीवन के असली स्वार्थ ( उद्देश्य ) को देखना चाहिएऔर इसीलिए पत्नी, सन््तान, घर, भूमि, रिश्तेदारों, मित्र, सम्पत्ति इत्यादि से विरक्त रहना चाहिए।
विलक्षण: स्थूलसूक्ष्माद्रेहादात्मेक्षिता स्वहक् ।यथाग्निर्दारुणो दाह्राह्ादकोन्य: प्रकाशक: ॥
८ ॥
विलक्षण:--विभिन्न गुणों वाला; स्थूल--स्थूल; सूक्ष्मात्-तथा सूक्ष्म; देहात्--शरीर से; आत्मा--आत्मा; ईक्षिता--द्रष्टा; स्व-हक्--स्वतः प्रकाशित; यथा--जिस तरह; अग्नि:--अग्नि; दारुण:--लकड़ी से; दाह्मात्ू--जलाई जाने वाली; दाहक:ः--जलने वाली; अन्य:--दूसरी; प्रकाशक :--प्रकाश देने वाली
जिस तरह जलने और प्रकाश करने वाली अग्नि उस लकड़ी ( ईंधन ) से भिन्न होती हैजोप्रकाश देने के लिए जलाई जाती है, उसी तरह शरीर के भीतर का द्रष्टा, स्वतः प्रकाशित आत्मा,उस भौतिक शरीर से भिन्न होता है, जिसे चेतना से प्रकाशित करना पड़ता है। इस तरह आत्मातथा शरीर में भिन्न भिन्न गुण होते हैं और वे पृथक् पृथक हैं।
निरोधोत्पत्त्यणुबृहन्नानात्वं तत्कृतान्गुणान् ।अन्तः प्रविष्ट आधत्त एवं देहगुणान्पर: ॥
९॥
निरोध-प्रसुप्ति; उत्पत्ति-- प्राकट्य; अणु--लघु; बृहत्--विशाल; नानात्वम्-लक्षणों का प्रकार; तत्-कृतान्--उसके द्वाराउत्पन्न; गुणानू--गुण; अन्तः--भीतर; प्रविष्ट:--प्रवेश करके; आधत्ते--स्वीकार करता है; एवम्--इस प्रकार; देह-- भौतिकशरीर के; गुणान्ू--गुणों को; पर:--दिव्य जीव ( आत्मा )।
ईंधन की दशा के अनुसार अग्नि जिस तरह सुप्त, प्रकट, क्षीण, तेज जैसे विविध रूपों मेंप्रकट हो सकती है, उसी तरह आत्मा भौतिक शरीर में प्रवेश करता है और शरीर के विशिष्टलक्षणों को स्वीकार करता है।
योसौ गुणैर्विरचितो देहोयं पुरुषस्य हि ।संसारस्तन्निबन्धोयं पुंसो विद्या च्छिदात्मस: ॥
१०॥
यः--जो; असौ--वह ( सूक्ष्म शरीर ); गुणैः -- भौतिक गुणों द्वारा; विरचित:--निर्मित; देह:--शरीर; अयम्--यह ( स्थूलशरीर ); पुरुषस्थ-- भगवान् का; हि--निश्चय ही; संसार:--जगत; ततू-निबन्ध: -- उससे बँधा हुआ; अयम्--यह; पुंसः--जीवका; विद्या--ज्ञान; छित्ू--छिन्न करने वाला; आत्मन:--आत्मा का।
सूक्ष्म तथा स्थूल शरीरों की उत्पत्ति प्रकृति के गुणों से होती है, जो भगवान् की शक्ति सेविस्तार पाते हैं। जब जीव झूठे ही स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों के गुणों को अपने ही असली स्वभावके रूप में मान लेता है, तो संसार का जन्म होता है। किन्तु यह मोहमयी अवस्था असली ज्ञानद्वारा नष्ट की जा सकती है।
तस्माजिज्ञासयात्मानमात्मस्थं केवल परम् ।सड़म्य निरसेदेतद्वस्तुबुद्धि यथाक्रमम् ॥
११॥
तस्मात्--इसलिए; जिज्ञासया--ज्ञान के अनुशीलन द्वारा; आत्मानम्-- भगवान् को; आत्म--अपने भीतर; स्थम्--स्थित;केवलम्--शुद्ध; परम्-दिव्य तथा सर्वश्रेष्ठ; सड़म्य--विज्ञान द्वारा पास जाकर; निरसेत्-त्याग दे; एतत्--यह; वस्तु--भौतिक वस्तुओं के भीतर; बुद्धिम्ू--वास्तविकता की धारणा; यथा-क्रमम्--धीरे धीरे, पदशः
इसलिए मनुष्य को चाहिए कि ज्ञान के अनुशीलन द्वारा वह अपने भीतर स्थित भगवान् केनिकट पहुँचे। भगवान् के शुद्ध दिव्य अस्तित्व को समझ लेने पर मनुष्य को चाहिए कि वह धीरेधीरे भौतिक जगत को स्वतंत्र सत्ता मानने के झूठे विचार को त्याग दे।
आचार्योरणिराद्य: स्यादन्तेवास्युत्तरारणि: ।तत्सन्धानं प्रवचन विद्यासन्धि: सुखावह: ॥
१२॥
आचार्य:--गुरु; अरणि:--यज्ञ अग्नि जलाने में प्रयुक्त पवित्र काष्ठ; आद्य:ः--नीचे रखा; स्यात्--माना जाता है; अन्ते-वासी--शिष्य; उत्तर--सब से ऊपर; अरणि: --जलाने वाला काष्ठ; तत्-सन्धानम्--ऊपरी तथा निचले काष्ठ को जोड़ने वाली बीच कीलकड़ी, ( मंथन काष्ठ ); प्रवचनम्ू-- आदेश; विद्या--दिव्य ज्ञान; सन्धि:--घर्षण से उत्पन्न अग्नि, जो पूरे काष्ठ में फैल जाती है;सुख--सुख; आवहः--लाकर।
गुरु की उपमा यज्ञ-अग्नि के निचले काष्ट से, शिष्य की उपमा ऊपरी काष्ट से तथा गुरु द्वारादिये जाने वाले प्रवचनों की उपमा इन दोनों काष्ठों के बीच में रखी तीसरी लकड़ी ( मंथन काष्ठ )से दी जा सकती है। गुरु द्वारा शिष्य को दिया गया दिव्य ज्ञान इनके संसर्ग से उत्पन्न होने वालीअग्नि के समान है, जो अज्ञान को जलाकर भस्म कर डालता है और गुरु तथा शिष्य दोनों कोपरम सुख प्रदान करता है।
वैशारदी सातिविशुद्धबुद्धि-धुनोति मायां गुणसम्प्रसूताम् ।गुनांश्व सन्दह्म यदात्ममेतत्स्वयं च शांयत्यसमिद्यथाग्नि: ॥
१३॥
वैशारदी--दक्ष ( विशारद ) से प्राप्त: सा--यह; अति-विशुद्ध--नितान्त शुद्ध; बुद्धिः--बुद्धि या ज्ञान; धुनोति--विकर्षितकरता है; मायाम्--माया या मोह को; गुण--प्रकृति के गुणों से; सम्प्रसूताम्--उत्पन्न; गुणान्ू--प्रकृति के गुणों को; च-- भी;सन्दह्म-- भस्म करके; यत्--जिन गुणों से; आत्मम्--निर्मित; एतत्--यह ( जगत ); स्वयम्--अपने आप; च--भी; शांयति--शान्त कर दिया जाता है; असमित्--ईंधन के बिना; यथा--जिस तरह; अग्नि:--अग्नि
दक्ष गुरु से विनयपूर्वक श्रवण करने से दक्ष शिष्य में शुद्ध ज्ञान उत्पन्न होता है, जो प्रकृतिके तीन गुणों से उत्पन्न भौतिक मोह के प्रहार को पीछे भगा देता है। अन्त में यह शुद्ध ज्ञान स्वयंही समाप्त हो जाता है, जिस तरह ईंधन का कोष जल जाने पर अग्नि ठंडी पड़ जाती है।
अधेषाम्कर्मकर्तृणां भोक्तृणां सुखदुःखयो: ।नानात्वमथ नित्यत्वं लोककालागमात्मनाम् ॥
१४॥
मन्यसे सर्वभावानां संस्था हौत्पत्तिकी यथा ।तत्तदाकृतिभेदेन जायते भिद्यते च धी: ॥
१५॥
एवमप्यड़ सर्वेषां देहिनां देहयोगतः ।कालावयबत: सन्ति भावा जन्मादयोसकृत् ॥
१६॥
अथ--इस प्रकार; एषाम्--इनका; कर्म--सकाम कर्म; कर्तृणाम्--कर्ताओं के; भोक््तृणाम्-- भोक्ताओं के; सुख-दुःखयो:--सुख तथा दुख में; नानात्वमू--विविधता; अथ--और भी; नित्यत्वम्--नित्यता; लोक--भौतिकतावादी जगत की; काल--समय की; आगम--सकाम कर्म की संस्तुति करने वाला वैदिक वाडमय; आत्मनाम्--तथा आत्मा; मन्यसे--यदि तुम सोचतेहो; सर्व--समस्त; भावानाम्ू-- भौतिक वस्तुओं का; संस्था--वास्तविक स्थिति; हि--निश्चय ही; औत्पत्तिकी --आदि, मूल;यथा--जिस तरह; ततू-तत्--विभिन्न वस्तुओं में से; आकृति--उनके रूपों के; भेदेन--अन्तर से; जायते--उत्पन्न होता है;भिद्यते--बदलता है; च-- भी; धी:--बुद्धि या ज्ञान; एवमू--इस प्रकार; अपि--यद्यपि; अड्ग--हे उद्धव; सर्वेषाम्--समस्त;देहिनाम्ू-देहधारियों में से; देह-योगत:-- भौतिक शरीर के संपर्क से; काल--समय के; अवयवतः--अंग अंग या अंश अंशकरके; सन्ति--हैं; भावा:--दशाएँ; जन्म--जन्म; आदय:--इत्यादि; असकृत्--निरन्तर |
हे उद्धव, मैंने तुम्हें पूर्ण ज्ञान बतला दिया। किन्तु ऐसे भी दार्शनिक हैं, जो मेरे निष्कर्ष काप्रतिवाद करते हैं। उनका कहना है कि जीव का स्वाभाविक पद तो सकाम कर्म में निरत होना हैऔर वे जीव को उसके कर्म से उत्पन्न सुख-दुख के भोक्ता के रूप में देखते हैं। इसभौतिकतावादी दर्शन के अनुसार जगत, काल, प्रामाणिक शास्त्र तथा आत्मा-ये सभीविविधतायुक्त तथा शाश्वत हैं और विकारों के निरन्तर प्रवाह के रूप में विद्यमान रहते हैं। यहीनहीं, ज्ञान एक अथवा नित्य नहीं हो सकता, क्योंकि यह विविध एवं परिवर्तनशील पदार्थों सेउत्पन्न होता है। फलस्वरूप ज्ञान स्वयं भी परिवर्तनशील होता है। हे उद्धव, यदि तुम इस दर्शनको मान भी लो, तो भी जन्म, मृत्यु, जरा तथा रोग सदा बने रहेंगे, क्योंकि सारे जीवों को कालके प्रभाव के अधीन भौतिक शरीर स्वीकार करना होगा।
तत्रापि कर्मणां कर्तुरस्वातन्त्रयं च लक्ष्यते ।भोक्तुश्व दुःखसुखयो: को न्वर्थो विवशं भजेत् ॥
१७॥
तत्र--सुख प्राप्त करने की क्षमता के मामले में; अपि--इससे भी आगे; कर्मणाम्ू--सकाम कर्मों के; कर्तु:--कर्ता के;अस्वातन््यम्--स्वतंत्रता का अभाव; च--भी; लक्ष्यते--स्पष्ट दिखाता है; भोक्तु:-- भोक्ता का; च-- भी; दुःख-सुखयो: --दुखतथा सुख; कः-- क्या; नु--निस्सन्देह; अर्थ:--महत्त्व; विवशम्--असंयमी के लिए; भजेत्--प्राप्त किया जा सकता है।
यद्यपि सकाम कर्म करने वाला शाश्वत सुख की इच्छा करता है, किन्तु यह स्पष्ट देखने मेंआता है कि भौतिकतावादी कर्मीजन प्रायः दुखी रहते हैं और कभी-कभी ही तुष्ट होते हैं। इसतरह यह सिद्ध होता है कि वे न तो स्वतंत्र होते हैं, न ही अपना भाग्य उनके नियंत्रण में होता है।जब कोई व्यक्ति सदा ही दूसरे के नियंत्रण में रह रहा हो, तो फिर वह अपने सकाम कर्मो सेकिसी महत्वपूर्ण परिणाम की आशा कैसे रख सकता है ? न देहिनां सुखं किल्चिद्विद्यते विदुषामपि ।तथा च दु:खं मूढानां वृथाहड्डूरणं परम् ॥
१८॥
न--नहीं; देहिनामू-देहधारी जीवों के; सुखम्--सुख; किज्लित्-- थोड़ा; विद्यते--है; विदुषाम्-बुद्धिमानों के; अपि-- भी;तथा--उसी तरह; च--भी; दुःखम्--दुख; मूढानाम्-महामूर्खो के; वृथा--व्यर्थ; अहड्गरणम्--मिथ्या अहंकार; परम्--एकमात्र या पूरी तरह से |
संसार में यह देखा जाता है कि कभी कभी बुद्धिमान व्यक्ति भी सुखी नहीं रहता। इसी तरहकभी कभी महा मूर्ख भी सुखी रहता है। भौतिक कार्यों को दक्षतापूर्वक संपन्न करके सुखीबनने की विचारधारा मिथ्या अहंकार का व्यर्थ प्रदर्शन मात्र है।
यदि प्राप्ति विघातं च जानन्ति सुखदु:ःखयो: ।तेप्यद्धा न विदुर्योगं मृत्युर्न प्रभवेद्यथा ॥
१९॥
यदि--यदि; प्राप्तिम्--उपलब्धि; विघातम्ू--नाश, हटाया जाना; च-- भी; जानन्ति--वे जानते हैं; सुख--सुख; दुःखयो: --तथा दुख को; ते--वे; अपि--फिर भी; अद्धघा-प्रत्यक्ष; न--नहीं; विदु:--जानते हैं; योगम्--विधि; मृत्यु: --मृत्यु; न--नहीं;प्रभवेतू--अपनी शक्ति दिखलाते हैं; यथा--जिससे |
यदि लोग यह जान भी लें कि किस तरह सुख प्राप्त किया जाता है और किस तरह दुख सेबचा जाता है, तो भी वे उस विधि को नहीं जानते, जिससे मृत्यु उनके ऊपर अपनी शक्ति काप्रभाव न डाल सके।
कोडन्वर्थ: सुखयत्येनं कामो वा मृत्युरन्तिके ।आधघातं नीयमानस्य वध्यस्येव न तुष्टिद: ॥
२०॥
कः--कौन; नु--निश्चय ही; अर्थ:-- भौतिक पदार्थ; सुखयति--सुख देता है; एनम्--पुरुष को; काम:--भौतिक वस्तुओं सेमिलने वाली इन्द्रियतृप्ति; वा--अथवा; मृत्यु:--मृत्यु; अन्तिके--पास ही खड़ी; आघातम्--घटनास्थल तक; नीयमानस्यथ--लेजाये जाने वाले का; वध्यस्य--वध किये जाने वाले का; इब--सहृश; न--तनिक भी नहीं; तुष्टि-दः--सन्तोष प्रदान करता है।
मृत्यु अच्छी नहीं लगती, और क्योंकि हर व्यक्ति फाँसी के स्थान पर ले जाये जाने वालेदण्डित व्यक्ति के समान है, तो फिर भौतिक वस्तुओं या उनसे प्राप्त तृप्ति से लोगों को कौन-सासंभव सुख मिल सकता है? श्रुतं च दृष्टवहुष्ट॑ स्पर्धासूयात्ययव्ययै: ।बहन्तरायकामत्वात्कृषिवच्चापि निष्फलम् ॥
२१॥
श्रुतम्--सुना हुआ भौतिक सुख; च-- भी; दृष्ट-बत्--मानो पहले से देखा हुआ हो; दुष्टम्--कलुषित; स्पर्धा--ईर्ष्या से;असूया--द्वेष से; अत्यय-मृत्यु से; व्ययै:--क्षय द्वारा; बहु--अनेक; अन्तराय--व्यवधान; कामत्वात्--सुख को स्वीकारकरने से; कृषि-वत्--खेती की तरह; च--भी; अपि--ही; निष्फलम्--फलरहित।
वह भौतिक सुख, जिसके बारे में हम सुनते रहते हैं, (यथा दैवी सुख-भोग के लिएस्वर्गलोक की प्राप्ति ), हमारे द्वारा अनुभूत भौतिक सुख के ही समान है। ये दोनों ही ईर्ष्या, द्वेष,क्षय तथा मृत्यु से दूषित रहते हैं। इसलिए जिस तरह फसल के रोग, कीट या सूखा जैसीसमस्याएँ उत्पन्न होने पर फसलें उगाना व्यर्थ हो जाता है, उसी तरह पृथ्वी पर या स्वर्गलोक मेंभौतिक सुख प्राप्त करने का प्रयास अनेक व्यवधानों के कारण निष्फल हो जाता है।
अन्तरायैरविहितो यदि धर्म: स्वनुष्ठितः ।तेनापि निर्जितं स्थानं यथा गच्छति तच्छुणु ॥
२२॥
अन्तरायै:--अवरोधों तथा न्यूनताओं से; अविहित:--अप्रभावित; यदि--यदि; धर्म: --वैदिक आदेशों के अनुसार नियमितकर्तव्यों का पालन; स्व्-अनुष्ठित:--ढंग से सम्पादित; तेन--उसके द्वारा; अपि--भी; निर्जितम्--सम्पन्न; स्थानम्ू--पद;यथा--जिस तरह से; गच्छति--नष्ट होता है; तत्ू--उसे; श्रुणु-- सुनो
यदि कोई व्यक्ति किसी त्रुटि या कल्मष के बिना वैदिक यज्ञ तथा कर्मकाण्ड सम्पन्न करताहै, तो उसे अगले जीवन में स्वर्ग में स्थान मिलेगा। किन्तु कर्मकांड द्वारा प्राप्त किया जाने वालायह फल भी काल के द्वारा नष्ट कर दिया जायेगा। अब इसके विषय में सुनो ।
इ्ठेह देवता यज्ञैः स्वलोक याति याज्ञिक: ।भुञ्जीत देववत्तत्र भोगान्दिव्यान्निजार्जितान् ॥
२३॥
इश्ठा--पूजा करके; इह--इस जगत में ; देवता:--देवतागण; यज्जै:--यज्ञ द्वारा; स्व:-लोकम्--स्वर्गलोक को; याति--जाता है;याज्ञिक:--यज्ञ करने वाला; भुझ्जीत-- भोग सकता है; देव-वत्--देवता के समान; तत्र--जिसमें; भोगान्-- आनन्द;दिव्यानू--दिव्य; निज--अपने से; अर्जितान्ू--अर्जित किये हुए।
यदि पृथ्वी पर कोई व्यक्ति देवताओं की तुष्टि के लिए यज्ञ सम्पन्न करता है, तो वहस्वर्गलोक जाता है, जहाँ वह देवताओं की ही तरह अपने कार्यों से अर्जित सभी प्रकार के स्वर्ग-सुख का भोग करता है।
स्वपुण्योपचिते शुभ्रे विमान उपगीयते ।गन्धर्वर्विहरन्मध्ये देवीनां हृद्यवेषधूक्ू ॥
२४॥
स्व--अपने; पुण्य--पुण्यकर्मों से; उपचिते--संचित; शुभ्रे--चमकीले; विमाने--वायुयान में; उपगीयते--गीतों द्वारा महिमागाई जाती है; गन्धर्वै: --गन्धर्वों द्वारा; विहरन्ू--जीवन का आनन्द मनाते; मध्ये--बीच में; देवीनाम्--स्वर्ग की देवियों के;हृद्य--मनोहर; वेष--वस्त्र; धृक्ू-- धारण किये।
स्वर्ग प्राप्त कर लेने के बाद यज्ञ करने वाला व्यक्ति चमचमाते वायुयान में बैठ कर यात्राकरता है, जो उसे पृथ्वी पर उसके पुण्यकर्म के फलस्वरूप प्राप्त होता है। वह गन्धर्वों द्वारायशोगान किया जाकर तथा अतीव मोहक वस्त्र पहने स्वर्ग की देवियों से घिर कर जीवन काआनन्द लेता है।
स्त्रीभि:ः कामगयानेन किट्धिनीजालमालिना ।क्रीडन्न वेदात्मपातं सुराक्रीडेषु निर्वुतः ॥
२५॥
स्त्रीभि:--स्वर्ग की स्त्रियों के साथ; काम-ग--इच्छानुसार भ्रमण करते हुए; यानेन--वायुयान द्वारा; किड्धिणी -जाल-मालिना--बजती घंटियों के मंडलों से अलंकृत; क्रीडन्--विहार करते; न--नहीं; वेद--विचार करता है; आत्म--निजी;पातम्--पतन को; सुर--देवताओं के; आक्रीडेषु--विहार-उद्यानों में; निर्वृत:--अत्यन्त सुखी तथा आराम का अनुभव करता।
यज्ञ फल का भोक्ता स्वर्ग की सुन्दरियों को साथ लेकर ऐसे अद्भुत विमान में चढ़कर सैरसपाटे के लिए जाता है, जो रुनझुन शब्द करती घंटियों से गोलाकार में सजाया रहता है औरजहाँ भी चाहे उड़ जाता है। वह स्वर्ग के विहार-उद्यानों में नितान््त सुख एवं आराम का अनुभवकरते हुए इस पर विचार ही नहीं करता कि वह अपने पुण्यकर्मों के फल को समाप्त कर रहा हैऔर शीतघ्र ही मर्त्यलोक में जा गिरेगा।
तावत्स मोदते स्वर्गे यावत्पुण्यं समाप्यते ।क्षीणपुन्यः पतत्यर्वागनिच्छन््कालचालित: ॥
२६॥
तावतू--तब तक; सः--वह; मोदते-- आनन्द मनाता है; स्वर्गे--स्वर्ग में; यावत्--जब तक; पुण्यम्--उसके पवित्र फल;समाप्यते--समाप्त हो जाते हैं; क्षीण--घट जाते हैं; पुण्य: --उसका पुण्य; पतति--गिर जाता है; अर्वाक्--स्वर्ग से;अनिच्छन्--न चाहते हुए; काल--समय के द्वारा; चालित:--नीचे धकेला गया।
यज्ञकर्ता तब तक स्वर्गलोक में जीवन का आनन्द लेता है, जब तक उसके पुण्यकर्मों का'फल समाप्त नहीं हो जाता। किन्तु जब पुण्यफल चुक जाते हैं, तो नित्य काल की शक्ति द्वारावह उसकी इच्छा के विरुद्ध स्वर्ग के विहार स्थलों से धकिया कर नीचे गिरा दिया जाता है।
यद्यधर्मरत: सडझ़दसतां वाजितेन्द्रिय: ।कामात्मा कृपणो लुब्धः स्त्रेणो भूतविहिंसकः ॥
२७॥
'पशूनविधिनालभ्य प्रेतभूतगणान्यजन् ।नरकानवशो जन्तुर्गत्वा यात्युल्बणं तम: ॥
२८॥
कर्माणि दुःखोदर्काणि कुर्वन्देहेन तैः पुनः ।देहमाभजते तत्र किं सुखं मर्त्यधर्मिण: ॥
२९॥
यदि--यदि; अधर्म--अधर्म में; रत:ः--लगा हुआ; सड्भातू--संगति के फलस्वरूप; असताम्--भौतिकतावादी लोगों की; वा--अथवा; अजित--न जीतने के कारण; इन्द्रियः--इन्द्रियाँ; काम-- भौतिक कामेच्छाएँ; आत्मा--के लिए जीवित; कृपण:--कंजूस; लुब्ध:--लोभी; स्त्रैण:--स्त्रियों के पीछे पड़ने वाला; भूत--अन्य जीवों के विरुद्ध; विहिंसक:--हिंसा करते हुए;पशून्--पशुओं को; अविधिना--वैदिक आदेशों के अधिकार के बिना; आलभ्य--मारकर; प्रेत-भूत-- भूत-प्रेत; गणान्--समूहों; यजन्--पूजा करते हुए; नरकान्--नरकों को; अवश:--निरुपाय, सकाम कर्मों के अधीन; जन्तु:--जीव; गत्वा--जाकर; याति--पहुँचता है; उल्बणम्--घने; तम:ः--अंधकार में; कर्माणि--कर्म; दुःख--दुख; उरदर्काणि-- भविष्य में लानेवाले; कुर्वन्ू--करते हुए; देहेन--ऐसे शरीर से; तैः--ऐसे कर्मों से; पुनः--फिर; देहम्--शरीर; आभजते--स्वीकार करता है;तत्र--वहाँ; किम्--क्या; सुखम्--सुख; मर्त्य--मरणशील; धर्मिण:--कर्म करने वाले का।
यदि मनुष्य बुरी संगति के कारण अथवा इन्द्रियों को अपने वश में न कर पाने के कारण'पापमय अधार्मिक कार्यों में लिप्त रहता है, तो ऐसा व्यक्ति निश्चित ही भौतिक इच्छाओं से पूर्णव्यक्तित्व को जन्म देता है। इस तरह वह अन्यों के प्रति कंजूस, लालची तथा स्त्रियों के शरीरोंका लाभ उठाने का सदैव इच्छुक बन जाता है। जब मन इस तरह दूषित हो जाता है, तो वहहिंसक तथा उग्र हो उठता है और वेदों के आदेशों के विरुद्ध अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए निरीहपशुओं का वध करने लगता है। भूत-प्रेतों की पूजा करने से ऐसा मोहग्रस्त व्यक्ति अवैध कार्योंकी गिरफ्त में आ जाता है और नरक को जाता है, जहाँ उसे तमोगुण से युक्त भौतिक शरीर प्राप्तहोता है। ऐसे अधम शरीर से वह दुर्भाग्यवश अशुभ कर्म करता रहता है, जिससे उसका भावीदुख बढ़ता जाता है, अतएवं वह पुनः वैसा ही भौतिक शरीर स्वीकार करता है। ऐसे व्यक्ति के लिए ऐसा कौन-सा सुख हो सकता है, जिसके लिए वह अपने को ऐसे कार्यों में लगाता है, जोअपरिहार्य रूप से मृत्यु पर समाप्त हो जाते हैं ?
श़लोकानां लोकपालानां मद्धयं कल्पजीविनाम् ।ब्रह्मणोपि भयं मत्तो द्विपरार्धपरायुष: ॥
३०॥
लोकानाम्--समस्त लोकों में; लोक-पालानामू--तथा समस्त लोक-नायकों यथा देवताओं के लिए; मत्--मेरा; भयम्-- भयरहता है; कल्प-जीविनामू--एक कल्प अर्थात् ब्रह्म के एक दिन की आयु वालों के लिए; ब्रह्मण: --ब्रह्मा का; अपि-- भी;भयमू--डर है; मत्त:--मुझसे; द्वि-परार्ध--दो परार्ध जो मिलाकर ३१,१०,४०,००,००,००, ००० वर्ष होते हैं; पर--परम;आयुष:--आयु वाले।
स्वर्ग से लेकर नरक तक सभी लोकों में तथा उन समस्त महान् देवताओं के लिए जो१,००० चतुर्युग तक जीवित रहते हैं, मुझ कालरूप के प्रति भय व्याप्त रहता है। यहाँ तक किब्रह्माजी, जिनकी आयु ३१,१०,४०,००,००,००,००० वर्ष है भी मुझसे डरे रहते हैं।
गुणा: सृजन्ति कर्माणि गुणोनुसूजते गुणान् ।जीव्स्तु गुणसंयुक्तो भुड़े कर्मफलान्यसौ ॥
३१॥
गुणाः:-- भौतिक इन्द्रियाँ; सृजन्ति--उत्पन्न करती हैं; कर्माणि--शुभ तथा अशुभ कर्मों को; गुण: --प्रकृति के तीन गुण;अनुसूजते--गति प्रदान करते हैं; गुणान्ू--भौतिक इन्द्रियों को; जीव:--सूक्ष्म जीव; तु--निस्सन्देह; गुण-- भौतिक इन्द्रियअथवा गुण; संयुक्त:--संलग्न; भुड्ढे --अनुभव करता है; कर्म--कर्मों के; फलानि--विविध परिणाम; असौ--वह
आत्माभौतिक इन्द्रियाँ पवित्र या पापमय कर्म उत्पन्न करती हैं और प्रकृति के गुण भौतिक इन्द्रियोंको गति प्रदान करते हैं। जीव इन भौतिक इन्द्रियों तथा प्रकृति के गुणों में पूरी तरह संलग्नरहकर सकाम कर्म के विविध फलों का अनुभव करता है।
यावत्स्याद्गुणवैषम्यं तावजन्नानात्वमात्मन: ।नानात्वमात्मनो यावत्पारतन्त्यं तदैव हि ॥
३२॥
यावत्--जब तक; स्यात्--है; गुण--प्रकृति के गुणों का; वैषम्यम्--पृथक् अस्तित्व; तावत्--तब तक रहेगा; नानात्वम्--विविधता; आत्मन:--आत्मा की; नानात्वमू--विविधता; आत्मन:--आत्मा की; यावत्--जब तक हैं; पारतन्त्यम्ू--पराधीनता;तदा--तब होंगे; एव--निश्चय ही; हि--निस्सन्देह |
जब तक जीव यह सोचता है कि प्रकृति के गुणों का अलग अलग अस्तित्व है, तब तक वहअनेक रूपों में जन्म लेने के लिए बाध्य होगा और वह अनेक प्रकार के भौतिक जीवन काअनुभव करेगा। इसलिए जीव प्रकृति के गुणों के अधीन सकाम कर्मों पर पूरी तरह आश्रितरहता है।
यावदस्यास्वतन्त्रत्वं तावदी श्वरतो भयम् ।य एतत्समुपासीरंस्ते मुहान्ति शुचार्पिता: ॥
३३॥
यावत्--जब तक; अस्य--जीव का; अस्वतन्त्रत्वमू-प्रकृति के गुणों पर निर्भरता से स्वतंत्र नहीं है; तावत्--तब होगा;ईश्वरत:--परम नियन्ता से; भयम्--डर; ये--जो; एतत्--इस जीवन धारणा को; समुपासीरन्--उपासना करते हुए; ते--वे;मुहान्ति--मोहग्रस्त रहते हैं; शुचा--शोक में; अर्पिता:--सदैव लीन
जो बद्धजीव प्रकृति के गुणों के अधीन होकर सकाम कर्मों पर निर्भर रहता है, वह मुझभगवान् से डरता रहता है, क्योंकि मैं उसके सकाम कर्मों के फल को लागू करता हूँ। जो लोगप्रकृति के गुणों की विविधता को यथार्थ मानकर भौतिकवादी जीवन की अवधारणा स्वीकारकरते हैं, वे भौतिक-भोग में अपने को लगाते हैं, फलस्वरूप वे सदैव शोक तथा दुख में डूबेरहते हैं।
काल आत्मागमो लोक: स्वभावो धर्म एवच ।इति मां बहुधा प्राहुर्गुणव्यतिकरे सति ॥
३४॥
काल:ः--काल, समय; आत्मा--आत्मा; आगम: --वैदिक ज्ञान; लोक:--ब्रह्माण्ड; स्वभाव: --विभिन्न जीवों की विभिन्नप्रकृतियाँ; धर्म:--धार्मिक सिद्धान्त; एबव--निश्चय ही; च-- भी; इति--इस प्रकार; माम्--मुझको; बहुधा--कई प्रकार से;प्राहु:--पुकारते हैं; गुण-- प्रकृति के गुणों के; व्यतिकरे-- क्षोभ; सति--जब होता है।
जब प्रकृति के गुणों में उद्देलल तथा अन्योन्य क्रिया होती है, तो जीव मेरा वर्णनसर्वशक्तिमान काल, आत्मा, वैदिक ज्ञान, ब्रह्माण्ड, स्वयं अपना स्वभाव, धार्मिक उत्सव आदिअनेक प्रकारों से करते हैं।
श्रीउद्धव उबाचगुणेषु वर्तमानोपि देहजेष्वनपावृतः ।गुणैर्न बध्यते देही बध्यते वा कर्थं विभो ॥
३५॥
श्री-उद्धवः उबाच-- श्री उद्धव ने कहा; गुणेषु--प्रकृति के गुणों में; बर्तमान:--स्थित होकर; अपि--यद्यपि; देह-- भौतिकशरीर से; जेषु--उत्पन्न; अनपावृतः --अ प्रच्छन्न होकर; गुणैः --गुणों से; न--नहीं; बध्यते--बाँधा जाता है; देही-- भौतिकशरीर के भीतर जीव; बध्यते--बाँधा जाता है; वा--अथवा; कथम्--यह कैसे होता है; विभो-हे प्रभु |
श्री उद्धव ने कहा : हे प्रभु, भौतिक शरीर के भीतर स्थित जीव प्रकृति के गुणों तथा इनगुणों से उत्पन्न कर्मो के द्वारा उपजे सुख तथा दुख से घिरा रहता है। यह कैसे सम्भव है कि वहइस भौतिक पाश से बँधा न हो? यह भी कहा जा सकता है कि जीव तो अन्ततः दिव्य है औरउसे इस भौतिक जगत से कुछ भी लेना-देना नहीं है। तो फिर वह भौतिक प्रकृति द्वारा कभीबद्ध कैसे हो सकता है? कथं वर्तेत विहरेत्कैर्वा ज्ञायेत लक्षण: ।कि भुज्जीतोत विसृजेच्छयीतासीत याति वा ॥
३६॥
एतदच्युत मे ब्रूहि प्रश्नं प्रश्नविदां वर ।नित्यबद्धो नित्यमुक्त एक एवेति मे भ्रम: ॥
३७॥
कथम्--किस तरह; वर्तेत--स्थित है; विहरेतू--विहार करता है; कै:--किससे; वा--अथवा; ज्ञायेत--जाना जायेगा;लक्षणै:ः--लक्षणों से; किम्--क्या; भुझ्जीत--खायेगा; उत--तथा; विसूजेत्--मल त्याग करता है; शयीत--लेटेगा;आसीत--बैठेगा; याति--जाता है; वा--अथवा; एतत्--यह; अच्युत--हे अच्युत; मे--मुझको; ब्रूहि--बतलायें; प्रश्नम्--प्रश्न; प्रश्न-विदाम्--जो प्रश्नों का उत्तर देने में पटु हैं उनके; वर-हे श्रेष्ठ; नित्य-बद्धः--नित्य बद्ध; नित्य-मुक्त:--नित्य मुक्त;एकः--अकेला; एव--निश्चय ही; इति--इस प्रकार; मे--मेरा; भ्रम:--सनन््देह |
हे अच्युत भगवान्, एक ही जीव कभी तो नित्य बद्ध कहा जाता है, तो कभी नित्य मुक्त ।इसलिए जीव की वास्तविक स्थिति मेरी समझ में नहीं आ रही। हे प्रभु, आप दार्शनिक प्रश्नों काउत्तर देने वालों में सर्वोपरि हैं। कृपा करके मुझे वे लक्षण समझाएँ, जिनसे यह बतलाया जा सकेकि नित्य बद्ध तथा नित्य मुक्त जीव में क्या अन्तर है। वे किन विधियों से स्थित रहते हैं, जीवनका भोग करते हैं, खाते हैं, मल त्याग करते हैं, लेटते हैं, बैठते हैं या इधर-उधर जाते हैं ?
11. बद्ध और मुक्त जीवित संस्थाओं के लक्षण
श्रीभगवानुवाचबद्धो मुक्त इति व्याख्या गुणतो मे न वस्तुतः ।गुणस्य मायामूलत्वान्न मे मोक्षो न बन्धनम् ॥
१॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् ने कहा; बद्धः--बन्धन में; मुक्त:--मुक्त हुआ; इति--इस प्रकार; व्याख्या--जीव की विवेचना;गुणतः--प्रकृति के गुणों के अनुसार; मे--जो मेरी शक्ति है; न--नहीं; वस्तुत:--वास्तव में; गुणस्य--प्रकृति के गुणों का;माया--मेरी मोहक शक्ति; मूलत्वात्--कारण होने से; न--नहीं; मे--मेरा; मोक्ष: --मुक्ति; न--न तो; बन्धनम्--बन्धन ।
भगवान् ने कहा : हे उद्धव, मेरे अधीन प्रकृति के गुणों के प्रभाव से जीव कभी बद्ध कहाजाता है, तो कभी मुक्त। किन्तु वस्तुतः आत्मा न तो कभी बद्ध होता है, न मुक्त और चूँकि मैंप्रकृति के गुणों की कारणस्वरूप माया का परम स्वामी हूँ, इसलिए मुझे भी मुक्त या बद्ध नहींमाना जाना चाहिए।
शोकमोहौ सुखं दु:खं देहापत्तिश्चव मायया ।स्वप्नो यथात्मन: ख्याति: संसृतिर्न तु वास््तवी ॥
२॥
शोक--शोक; मोहौ--तथा मोह; सुखम्--सुख; दुःखम्--दुख; देह-आपत्ति: -- भौतिक शरीर धारण करना; च--भी;मायया--माया के प्रभाव से; स्वन:ः--स्वप्न; यथा--जिस तरह; आत्मन:--बुद्धि के ; ख्याति:--मात्र एक विचार; संसृति:--संसार; न--नहीं है; तु--निस्सन्देह; वास्तवी--असली, सत्य
जिस तरह स्वप्न मनुष्य की बुद्धि की सृष्टि है किन्तु वास्तविक नहीं होता, उसी तरह भौतिकशोक, मोह, सुख, दुख तथा माया के वशीभूत होकर भौतिक शरीर ग्रहण करना--ये सभी मेरीमोहिनी शक्ति ( माया ) की सृष्टियाँ हैं। दूसरे शब्दों में, भौतिक जगत में कोई असलियत नहीं है।
विद्याविद्ये मम तनू विद्धयुद्धव शरीरिणाम् ।मोक्षबन्धकरी आद्ये मायया मे विनिर्मिते ॥
३॥
विद्या--ज्ञान; अविद्ये--तथा अज्ञान; मम--मेरा; तनू--प्रकट शक्तियाँ; विद्द्धि--जानो; उद्धव--हे उद्धव; शरीरिणाम्--देहधारी जीवों का; मोक्ष--मो क्ष; बन्ध--बन्धन; करी--उत्पन्न करने वाला; आद्ये--आदि, नित्य; मायया--शक्ति द्वारा; मे--मेरा; विनिर्मिते--उत्पन्न किया गया |
हे उद्धव, ज्ञान ( विद्या ) तथा अज्ञान ( अविद्या ) दोनों ही माया की उपज होने के कारण मेरीशक्ति के विस्तार हैं। ये दोनों अनादि हैं और देहधारी जीवों को शाश्वत मोक्ष तथा बन्धन प्रदानकरने वाले हैं।
एकस्यैव ममांशस्य जीवस्यैव महामते ।बन्धोस्याविद्ययानादिर्विद्यया च तथेतर: ॥
४॥
एकस्य--एक के; एव--निश्चय ही; मम--मेरे; अंशस्य--अंश के; जीवस्य--जीव के; एव--निश्चय ही; महा-मते--हे परमबुद्धिमान; बन्ध: --बन्धन; अस्य--उसका; अविद्यया--अज्ञान से; अनादि:--आदि-रहित; विद्यया--ज्ञान से; च--तथा;तथा--उसी तरह; इतर:--बन्धन का उल्टा, मोक्ष।
हे परम बुद्धिमान उद्धव, जीव मेरा भिन्नांश है, किन्तु अज्ञान के कारण वह अनादि काल सेभौतिक बन्धन भोगता रहा है। फिर भी ज्ञान द्वारा वह मुक्त हो सकता है।
अथ बद्धस्य मुक्तस्य वैलक्षण्यं वदामि ते ।विरुद्धधर्मिणोस्तात स्थितयोरेकधर्मिणि ॥
५॥
अथ--इस प्रकार; बद्धस्य--बद्धजीव के; मुक्तस्य--मुक्त भगवान् के; वैलक्षण्यम्--विभिन्न लक्षण; वदामि--अब मैं कहूँगा;ते--तुमसे; विरुद्ध--विपरीत; धर्मिणो: --जिसके दो स्वभाव; तात--हे उद्धव; स्थितयो: --स्थित दो के ; एक-धर्मिणि--एकशरीर में अपने भिन्न भिन्न लक्षण प्रकट करता है।
इस तरह हे उद्धव, एक ही शरीर में हम दो विरोधी लक्षण--यथा महान् सुख तथा दुख पातेहैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि नित्य मुक्त भगवान् तथा बद्ध आत्मा दोनों ही शरीर के भीतर हैं।अब मैं तुमसे उनके विभिन्न लक्षण कहूँगा।
सुपर्णावेती सहशौ सखायौयहच्छयैतौ कृतनीडौ च वृक्षे ।एकस्तयो: खादति पिप्पलान्न-मन्यो निरन्नोडपि बलेन भूयान् ॥
६॥
सुपर्णौं--दो पक्षी; एतौ--ये; सहशौ--एक समान; सखायौ--मित्र; यहच्छया--संयोगवश; एतौ--ये दोनों; कृत--बनाये हुए;नीडौ--घोंसला; च--तथा; वृक्षे--वृक्ष पर; एक:--एक; तयो:--दोनों में से; खादति--खा रहा है; पिप्पल--वृक्ष के;अन्नम्ू--फलों को; अन्य:ः--दूसरा; निरन्न:--न खाते हुए; अपि--यद्यपि; बलेन--शक्ति से; भूयानू- श्रेष्ठ है
संयोगवश दो पक्षियों ने एक ही वृक्ष पर एक साथ घोंसला बनाया है। दोनों पक्षी मित्र हैंऔर एक जैसे स्वभाव के हैं। किन्तु उनमें से एक तो वृक्ष के फलों को खा रहा है, जबकि दूसरा,जो कि इन फलों को नहीं खा रहा है, अपनी शक्ति के कारण श्रेष्ठ पद पर है।
आत्मानमन्यं च स वेद विद्वा-नपिप्पलादो न तु पिप्पलाद: ।योउविद्यया युक्स तु नित्यबद्धोविद्यामयो यः स तु नित्यमुक्त: ॥
७॥
आत्मानम्--स्वयं; अन्यमू--दूसरा; च-- भी; सः--वह; वेद--जानता है; विद्वान्--सर्वज्ञ होने से; अपिप्पल-अदः--वृक्ष केफलों को नहीं खाने वाला; न--नहीं; तु--लेकिन; पिप्पल-अदः --वृक्ष के फलों को खाने वाला; य:--जो; अविद्यया--अज्ञान से; युकू--परिपूर्ण; सः--वह; तु--निस्सन्देह; नित्य--शा श्वत रूप से; बद्ध:--बद्ध; विद्या मय: --पूर्ण ज्ञान से पूरित;यः--जो; सः--वह; तु--निस्सन्देह; नित्य--नित्य; मुक्त:--मुक्त
जो पक्षी वृक्ष के फल नहीं खा रहा वह भगवान् है, जो अपनी सर्वज्ञता के कारण अपने पदको तथा उस बद्धजीव के पद को, जो कि फल खा रहे पक्षी द्वारा दर्शाया गया है, समझते हैं।किन्तु दूसरी ओर, वह जीव न तो स्वयं को समझता है, न ही भगवान् को। वह अज्ञान सेआच्छादित है, अतः नित्य बद्ध कहलाता है, जबकि पूर्ण ज्ञान से युक्त होने के कारण भगवान्नित्य मुक्त हैं।
देहस्थोपि न देहस्थो विद्वान्स्वप्नाद्यथोत्थित: ।अदेहस्थोपि देहस्थः कुमति: स्वणहग्यथा ॥
८॥
देह--भौतिक शरीर में; स्थ:--स्थित; अपि--यद्यपि; न--नहीं; देह--शरीर में; स्थ:--स्थित; विद्वान्--बुद्धिमान व्यक्ति;स्वणात्--स्वप्न से; यथा--जिस तरह; उत्थित:--जाग कर; अदेह--शरीर में नहीं; स्थ:--स्थित; अपि--यद्यपि; देह--शरीरमें; स्थ:--स्थित; कु-मति:--मूर्ख व्यक्ति; स्वज--स्वण; हक्--देख रहा; यथा--जिस तरह
जो व्यक्ति स्वरूपसिद्ध है, वह भौतिक शरीर में रहते हुए भी अपने को शरीर से परे देखताहै, जिस तरह मनुष्य स्वप्न से जाग कर स्वज-शरीर से अपनी पहचान त्याग देता है। किन्तु मूर्खव्यक्ति यद्यपि वह अपने भौतिक शरीर से पहचान नहीं रखता किन्तु इसके परे होता है, अपनेभौतिक शरीर में उसी प्रकार स्थित सोचता है, जिस तरह स्वप्न देखने वाला व्यक्ति अपने कोकाल्पनिक शरीर में स्थित देखता है।
इन्द्रियैरिन्द्रियार्थषु गुणैरपि गुणेषु च ।गृह्ममाणेष्वहं कुर्यात्र विद्वान्यस्त्वविक्रिय: ॥
९॥
इन्द्रिये: --इन्द्रियों द्वारा; इन्द्रिय--इन्द्रियों के; अर्थषु--पदार्थों में; गुणैः--गुणों से उत्पन्न हुए; अपि--भी; गुणेषु--उन्हीं गुणों सेउत्पन्न में से; च-- भी; गृह्ममाणेषु-- ग्रहण किये जाकर; अहम्--मिथ्या अभिमान; कुर्यात्--उत्पन्न करना चाहिए; न--नहीं;विद्वान्-प्रबुद्ध;। यः--जो; तु--निस्सन्देह; अविक्रिय:-- भौतिक इच्छा से अप्रभावित |
भौतिक इच्छाओं के कल्मष से मुक्त प्रबुद्ध व्यक्ति अपने आपको शारीरिक कार्यो का कर्तानहीं मानता, प्रत्युत वह जानता है कि ऐसे कार्यों में प्रकृति के गुणों से उत्पन्न इन्द्रियाँ ही उन्हींगुणों से उत्पन्न इन्द्रिय-विषयों से सम्पर्क करती हैं।
देवाधीने शरीरेउस्मिन्गुणभाव्येन कर्मणा ।वर्तमानोबुधस्तत्र कर्तास्मीति निबध्यते ॥
१०॥
दैव--मनुष्य के पूर्व सकाम कर्मों के; अधीने--अधीन; शरीरे-- भौतिक शरीर में; अस्मिन्ू--इस; गुण--गुणों से; भाव्येन--उत्पन्न; कर्मणा--सकाम कर्मों द्वारा; वर्तमान:--स्थित होकर; अबुध:--मूर्ख; तत्र--शारीरिक कार्यो में; कर्ता--करने वाला;अस्मि--हूँ; इति--इस प्रकार; निबध्यते--बँध जाता है।
अपने पूर्व सकाम कर्मों द्वारा उत्पन्न शरीर के भीतर स्थित, अज्ञानी व्यक्ति सोचता है कि मैंही कर्म का कर्ता हूँ। इसलिए ऐसा मूर्ख व्यक्ति मिथ्या अहंकार से मोहग्रस्त होकर, उन सकामकर्मों से बँध जाता है, जो वस्तुतः प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं।
एवं विरक्त: शयन आसनाटनमज्जने ।दर्शनस्पर्शनप्राणभोजन श्रवणादिषु ।न तथा बध्यते दिद्वान्तत्र तत्रादयन्गुणान् ॥
११॥
एवम्--इस प्रकार; विरक्त:--भौतिक भोग से विलग हुआ; शयने--लेटने या सोने में; आसन--बैठने में; अटन--चलते हुए;मज्ने--अथवा स्नान में; दर्शन--देखने में; स्पर्शन--स्पर्श करने; घ्राण--सूँघने; भोजन--खाने; श्रवण--सुनने; आदिषु--इत्यादि में; न--नहीं; तथा--इस प्रकार; बध्यते--बाँधा जाता है; विद्वानू--बुद्ध्धिमान व्यक्ति; तत्र तत्र--जहाँ भी जाता है;आदयन्--अनुभव कराते; गुणान्--प्रकृति के गुणों से उत्पन्न, इन्द्रियाँ ॥
प्रबुद्ध व्यक्ति विरक्त रहकर शरीर को लेटने, बैठने, चलने, नहाने, देखने, छूने, सूँघने,खाने, सुनने इत्यादि में लगाता है, लेकिन वह कभी भी ऐसे कार्यों में फँसता नहीं। निस््सन्देह,वह समस्त शारीरिक कार्यों का साक्षी बनकर अपनी इन्द्रियों को उनके विषयों में लगाता है औरवह मूर्ख व्यक्ति की भाँति उसमें फँसता नहीं।
प्रकृतिस्थोप्यसंसक्तो यथा खं सवितानिल: ।वैशारद्येक्षयासड्रशितया छिन्नसंशय: ।प्रतिबुद्ध इव स्वप्नान्नानात्वाद्विनिवर्तते ॥
१३॥
प्रकृति-- भौतिक जगत में; स्थ:--स्थित; अपि--यद्यपि; असंसक्त:--इन्द्रियतृप्ति से पूर्णतया विरक्त; यथा--जिस तरह;खम्--आकाश; सविता--सूर्य; अनिल: --वायु; वैशारद्या--अत्यन्त कुशल द्वारा; ईक्षया--दृष्टि; असड़--विरक्ति द्वारा;शितया--तेज किया हुआ; छिन्न--खण्ड खण्ड; संशय: --सन्देह; प्रतिबुद्ध:--जाग्रत; इब--सहश; स्वप्नातू--स्वण से;नानात्वातू--संसार के विविधत्व के द्वन्द् से; विनिवर्तते--मुख मोड़ता है या परित्याग कर देता है।
यद्यपि आकाश हर वस्तु की विश्राम-स्थली है, किन्तु वह न तो किसी वस्तु से मिलता है, नउसमें उलझता है। इसी प्रकार सूर्य उन नाना जलाशयों के जल में लिप्त नहीं होता, जिनमें से वहप्रतिबिम्बित होता है। इसी तरह सर्वत्र बहने वाली प्रबल वायु उन असंख्य सुगंधियों तथावातावरणों से प्रभावित नहीं होती, जिनमें से होकर वह गुजरती है। ठीक इसी तरह स्वरूपसिद्धआत्मा भौतिक शरीर तथा अपने आसपास के भौतिक जगत से पूर्णतया विरक्त रहता है। वह उसमनुष्य की तरह है, जो स्वप्न से जगा है। स्वरूपसिद्ध आत्मा विरक्ति द्वारा प्रख/ की गई कुशलइृष्टि से आत्मा के पूर्ण ज्ञान से समस्त संशयों को छिन्न-भिन्न कर देता है और अपनी चेतना कोभौतिक विविधता के विस्तार से पूर्णतया विलग कर लेता है।
यस्य स्युर्वीतसड्डूल्पा: प्राणेन्द्रियमनोधियाम् ।वृत्तय: स विनिर्मुक्तो देहस्थोपि हि तदगुणैः ॥
१४॥
यस्य--जिसके; स्यु:--हैं; वीत--रहित; सड्डूल्पा:-- भौतिक इच्छा से; प्राण--प्राण; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; मन: --मन; धियाम्--बुद्धि के; वृत्तय:--कार्य; सः--ऐसा व्यक्ति; बिनिर्मुक्त:--पूर्णतया मुक्त; देह--शरीर में; स्थ:--स्थित; अपि--होते हुए भी;हि--निश्चय ही; तत्--शरीर के; गुणैः--गुणों से
वह व्यक्ति स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों से पूर्णतया मुक्त माना जाता है, जब उसके प्राण,इन्द्रियों, मन तथा बुद्धि के सारे कर्म किसी भौतिक इच्छा के बिना सम्पन्न किये जाते हैं। ऐसाव्यक्ति शरीर में स्थित रहकर भी बद्ध नहीं होता।
अस्यात्मा हिंस्यते हिंस््रै्येन किल्लिद्यदच्छया ।अर्च्यते वा क्वचित्तत्र न व्यतिक्रियते बुध: ॥
१५॥
यस्य--जिसका; आत्मा--शरीर; हिंस्यते-- आक्रमण किया जाता है; हिंस्त्रै:--पापी व्यक्तियों या उग्र पशुओं द्वारा; येन--जिससे; किश्चित्ू--कुछ कुछ; यदहृच्छया--किसी न किसी तरह; अर्च्यते--रूपान्तरित या प्रभावित होता है; वा--अथवा;क्वचित्--कहीं; तत्र--वहाँ; न--नहीं; व्यतिक्रियते--परिवर्तित अथवा प्रभावित होता है; बुध:--बुद्द्धिमान व्यक्ति
कभी कभी अकारण ही मनुष्य के शरीर पर क्रूर व्यक्तियों या उग्र पशुओं द्वारा आक्रमणकिया जाता है। अन्य अवसरों तथा अन्य स्थानों पर उसी व्यक्ति का दैवयोग से अत्यन्त सम्मानया पूजन होता है। जो व्यक्ति आक्रमण किये जाने पर क्रुद्ध नहीं होता, न ही पूजा किये जाने परप्रमुदित होता है, वही वास्तव में बुद्धिमान है।
न स्तुवीत न निन्देत कुर्वतः साध्वसाधु वा ।बदतो गुणदोषाभ्यां वर्जित: समहड्मुनि: ॥
१६॥
न स्तुवीत--प्रशंसा नहीं करता; न निन्देत--आलोचना नहीं करता; कुर्बतः--काम करने वाले; साधु--उत्तम; असाधु--दुष्ट;बा--अथवा; वदत:--बोलने वाले; गुण-दोषाभ्याम्--अच्छे तथा बुरे गुणों से; वर्जित:--मुक्त हुए; सम-हक्--समानदर्शी ;मुनि:--सन्त-साधु |
सन्त पुरुष समान दृष्टि से देखता है, अतएवं भौतिक दृष्टि से अच्छे या बुरे कर्म से प्रभावितनहीं होता। यद्यपि वह अन्यों को अच्छा तथा बुरा कार्य करते और उचित तथा अनुचित बोलतेदेखता है, किन्तु वह किसी की प्रशंसा या आलोचना नहीं करता।
न कुर्यान्न वदेत्किञ्ञिन्न ध्यायेत्साध्वसाधु वा ।आत्मारामोनया वृत्त्या विचरेजजडवन्मुनि: ॥
१७॥
न कुर्यातू-- नहीं करे; न वदेत्ू--नहीं बोले; किश्ञित्ू--कुछ भी; न ध्यायेत्ू--चिन्तन नहीं करे; साधु असाधु वा--अच्छी अथवाबुरी वस्तुएँ; आत्म-आराम:--आत्म-साक्षात्कार में आनन्द प्राप्त करने वाला; अनया--इस; वृत्त्या--जीवन-शैली द्वारा;विचरेत्--उसे भ्रमण करना चाहिए; जड-वत्--जड़ व्यक्ति की तरह; मुनि:--साधु-पुरुष |
मुक्त साधु-पुरुष को अपने शरीर-पालन के लिए भौतिक अच्छाई या बुराई की दिशा हेतु नतो कर्म करना चाहिए, न बोलना या सोच-विचार करना चाहिए। प्रत्युत उसे सभी भौतिकपरिस्थितियों में विरक्त रहना चाहिए और आत्म-साक्षात्कार में आनन्द लेते हुए उसे इस मुक्तजीवन-शैली में संलग्न होकर विचरण करना चाहिए और बाहरी लोगों को मन्दबुद्ध्धि-व्यक्तिजैसा लगना चाहिए।
शब्दब्रह्मणि निष्णातो न निष्णायात्परे यदि ।श्रमस्तस्य श्रमफलो ह्ाथेनुमिव रक्षत: ॥
१८॥
शब्द-ब्रह्मणि --वैदिक साहित्य में; निष्णात:--पूर्ण अध्ययन से निपुण; न निष्णायात्--मन को लीन नहीं करता; परे--परम में;यदि--यदि; श्रम:--परिश्रम; तस्य--उसका; श्रम--महत्प्रयास का; फल:--फल; हि--निश्चय ही; अधेनुम्--दूध न देने वालीगाय; इब--सहश; रक्षतः--रखवाले का।
यदि कोई गहन अध्ययन करके वैदिक साहित्य के पठन-पाठन में निपुण बन जाता है,किन्तु भगवान् में मन को स्थिर करने का प्रयास नहीं करता, तो उसका श्रम बैसा ही होता है,जिस तरह दूध न देने वाली गाय की रखवाली करने में अत्यधिक श्रम करने वाले व्यक्ति का।दूसरे शब्दों में, वैदिक ज्ञान के श्रमपूर्ण अध्ययन का फल कोरा श्रम ही निकलता है। उसके कोईअन्य सार्थक फल प्राप्त नहीं होगा।
गां दुग्धदोहामसतीं च भार्यादेहं पराधीनमसत्प्रजां च ।वित्त त्वतीर्थीकृतमड़ वाचंहीनां मया रक्षति दुःखदु:ःखी ॥
१९॥
गाम्--गाय को; दुग्ध--जिसका दूध; दोहाम्--पहले दुहा जा चुका हो; असतीम्--कुलटा, व्यभिचारिणी; च--भी;भार्यामू--पत्नी को; देहम्ू--शरीर को; पर--अन्यों के; अधीनम्-- आश्रित; असत्--व्यर्थ; प्रजामू--बच्चों को; च--भी;वित्तम्--सम्पत्ति को; तु--लेकिन; अतीर्थी-कृतम्--योग्य पात्र को न दिया जाकर; अड़--हे उद्धव; वाचम्ू--वैदिक ज्ञान;हीनाम्ू--रहित; मया--मेरे ज्ञान का; रक्षति--रखवाली करता है; दुःख-दुःखी--एक कष्ट के बाद दूसरा कष्ट सहन करनेवाला।
हे उद्धव, वह व्यक्ति निश्चय ही अत्यन्त दुखी होता है, जो दूध न देने वाली गाय, कुलटापत्नी, पूर्णतया पराश्चित शरीर, निकम्में बच्चों या सही कार्य में न लगाई जाने वाली धन-सम्पदाकी देखरेख करता है। इसी तरह, जो व्यक्ति मेरी महिमा से रहित वैदिक ज्ञान का अध्ययन करताहै, वह भी सर्वाधिक दुखियारा है।
यस्यां न मे पावनमड़ कर्मस्थित्युद्धवप्राणनिरोधमस्य ।लीलावतारेप्सितजन्म वा स्याद्वश्ध्यां गिरं तां बिभूयान्न धीर: ॥
२०॥
यस्याम्--जिस ( साहित्य ) में; न--नहीं; मे--मेरा; पावनम्--पवित्रकारी; अड्र--हे उद्धव; कर्म--कर्म; स्थिति--पालन;उद्धव--सृष्टि; प्राण-निरोधम्--तथा संहार; अस्थ-- भौतिक जगत का; लीला-अवतार--लीला-अवतारों में से; ईप्सित--अभीष्ट; जन्म--प्राकट्य ; वा--अथवा; स्यात्--है; वन्ध्यामू--बंजर; गिरम्ू--वाणी; ताम्ू--यह; बिभूयात्--समर्थन करे;न--नहीं; धीर: --बुद्धिमान पुरुष।
हे उद्धव, बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह कभी भी ऐसा ग्रंथ न पढ़े, जिनमें सम्पूर्णब्रह्माण्ड को पवित्र करने वाले मेरे कार्यकलापों का वर्णन न हो। निस्सन्देह मैं सम्पूर्ण जगत कासृजन, पालन तथा संहार करता हूँ। मेरे समस्त लीलावतारों में से कृष्ण तथा बलराम सर्वाधिकप्रिय हैं। ऐसा कोई भी तथाकथित ज्ञान, जो मेरे इन कार्यकलापों को महत्व नहीं देता, वह निराबंजर है और वास्तविक बुद्धिमानों द्वारा स्वीकार्य नहीं है।
एवं जिज्ञासयापोह्य नानात्वभ्रममात्मनि ।उपारमेत विरजं मनो मय्यर्पष्य सर्वगे ॥
२१॥
एवम्--इस तरह ( जैसाकि मैंने अभी कहा ); जिज्ञासया--वैश्लेषिक अध्ययन द्वारा; अपोह्म--त्याग कर; नानात्व--विविधताके; भ्रमम्-घूमने की त्रुटि; आत्मनि--अपने में; उपारमेत-- भौतिक जीवन समाप्त कर देना चाहिए; विरजम्--शुद्ध; मन:--मन; मयि-- मुझमें; अर्प्प--स्थिर करके; सर्व-गे--सर्वव्यापी मेंश़
समस्त ज्ञान के निष्कर्ष रूप में मनुष्य को चाहिए कि वह भौतिक विविधता की मिथ्याधारणा को त्याग दे, जिसे वह आत्मा पर थोपता है और इस तरह अपने भौतिक अस्तित्व कोसमाप्त कर दे। चूँकि मैं सर्वव्यापी हूँ, इसलिए मुझ पर मन को स्थिर करना चाहिए।
यद्यनीशो धारयितुं मनो ब्रह्मणि निश्चलम् ।मयि सर्वाणि कर्माणि निरपेक्ष: समाचर ॥
२२॥
यदि--यदि; अनीश: --असमर्थ; धारयितुम्--स्थिर करने के लिए; मन:--मन; ब्रह्मणि-- आध्यात्मिक पद पर; निश्चलम्--इन्द्रियतृष्ति से मुक्त; मयि--मुझमें; सर्वाणि--समस्त; कर्माणि--कर्म; निरपेक्ष:--फल भोगने का प्रयास किये बिना;समाचर--सम्पन्न करो
हे उद्धव, यदि तुम अपने मन को समस्त भौतिक उहापोहों से मुक्त नहीं कर सकते और इसेआध्यात्मिक पद पर पूर्णतया लीन नहीं कर सकते, तो अपने सारे कार्यों को, उनका फल भोगनेका प्रयास किये बिना, मुझे अर्पित भेंट के रूप में सम्पन्न करो।
श्रद्धालुर्मत्क था: श्रृण्वन्सुभद्रा लोकपावनी: ।गायन्ननुस्मरन्कर्म जन्म चाभिनयन्मुहु: ॥
२३॥
मदर्थे धर्मकामार्थानाचरन्मदपा श्रयः ।लभते निश्चलां भक्ति मय्युद्धव सनातने ॥
२४॥
श्रद्धालु:--श्रद्धावान व्यक्ति; मत्-कथा:--मेरी कथाएँ; श्रृण्वन्--सुनते हुए; सु-भद्रा:--सर्वमंगलमय; लोक--सारे जगत को;'पावनी:--पवित्र बनाते हुए; गायन्ू--गाना; अनुस्मरन्--निरन्तर स्मरण करना; कर्म--मेरे कार्य; जन्म--मेरा जन्म; च-- भी;अभिनयन्--नाटक करके; मुहुः--पुनः पुनः; मत्-अर्थ--मेरे आनन्द के लिए; धर्म--धार्मिक कार्य; काम--इन्द्रिय-कर्म ;अर्थानू--तथा व्यापारिक कार्य; आचरन्--सम्पन्न करते हुए; मत्--मुझमें; अपाश्रय:--आश्रय बनाकर; लभते--प्राप्त करताहै; निश्चलामू--अटल; भक्तिमू-- भक्ति; मयि--मुझमें; उद्धव--हे उद्धव; सनातने--मेरे सनातन रूप |हे उद्धव, मेरी लीलाओं तथा गुणों की कथाएँ सर्वमंगलमय हैं और समस्त ब्रह्माण्ड कोपवित्र करने वाली हैं।
जो श्रद्धालु व्यक्ति ऐसी दिव्य लीलाओं को निरन्तर सुनता है, उनकागुणगान करता है तथा उनका स्मरण करता है और मेरे प्राकट्य से लेकर सारी लीलाओं का अभिनय करता है, तथा मेरी तुष्टि के लिए अपने धार्मिक, ऐन्द्रिय तथा वृत्तिपरक कार्यों को मुझेअर्पित करता है, वह निश्चय ही मेरी अविचल भक्ति प्राप्त करता है।
सत्सड्ुलब्धया भक्त्या मयि मां स उपासिता ।सबै मे दर्शितं सद्धिरज्ञसा विन्दते पदम् ॥
२५॥
सत्--भगवद्भक्तों की; सड़--संगति से; लब्धया-प्राप्त की हुई; भक्त्या--भक्ति द्वारा; मयि--मुझमें; माम्--मेरा; सः--वह; उपासिता--उपासक; सः--वही व्यक्ति; वै--निस्सन्देह; मे--मेरा; दर्शितम्ू--बताये गये; सद्द्धिः--मेरे शुद्ध भक्तों द्वारा;अज्ञसा--आसानी से; विन्दते--प्राप्त करता है; पदम्--मेरे चरणकमल अथवा मेरा नित्य धाम |
जिसने मेरे भक्तों की संगति से शुद्ध भक्ति प्राप्त कर ली है, वह निरन्तर मेरी पूजा में लगारहता है। इस तरह वह आसानी से मेरे धाम को जाता है, जिसे मेरे शुद्ध भक्तगणों द्वारा प्रकटकिया जाता है।
श्रीउद्धव उवाचसाधुस्तवोत्तमश्लोक मतः कीहग्विध: प्रभो ।भक्तिस्त्वय्युपयुज्येत कीहशी सद्धिराहता ॥
२६॥
एतन्मे पुरुषाध्यक्ष लोकाध्यक्ष जगत्प्रभो ।प्रणतायानुरक्ताय प्रपन्नाय च कथ्यताम् ॥
२७॥
श्री-उद्धवः उबाच-- श्री उद्धव ने कहा; साधु:--सन्त-पुरुष; तब--तुम्हारा; उत्तम-शलोक-हे प्रभु; मत:ः--विचार; कीहक्-विध:--वह किस तरह का होगा; प्रभो--हे भगवान्; भक्ति:--भक्ति; त्वयि--तुममें; उपयुज्येत--सम्पन्न करने योग्य है;'कीहशी--किसी तरह की है; सद्धिः--आपके शुद्ध भक्तों, यथा नारद द्वारा; आहता--समादरित; एतत्--यह; मे-- मुझसे;पुरुष-अध्यक्ष--हे विश्व-नियन्ताओं के शासक; लोक-अध्यक्ष--हे वैकुण्ठ के स्वामी; जगत्-प्रभो--हे ब्रह्माण्ड के ईश्वर;प्रणताय--आपके शरणागतों के; अनुरक्ताय--अनुरक्त; प्रपन्नाय--जिनके आपके अलावा कोई अन्य आश्रय नहीं है; च-- भी;कथ्यताम्ू-कहें
श्री उद्धव ने कहा : हे प्रभु, हे भगवान्, आप किस तरह के व्यक्ति को सच्चा भक्त मानते हैंऔर आपके भक्तों द्वारा किस तरह की भक्ति समर्थित है, जो आपको अर्पित की जा सके ? हेब्रह्मण्ड के नियन््ताओं के शासक, हे वैकुण्ठ-पति तथा ब्रह्माण्ड के सर्वशक्तिमान ईश्वर, मैंआपका भक्त हूँ और चूँकि मैं आपसे प्रेम करता हूँ, इसलिए आपको छोड़ कर मेरा अन्य कोईआश्रय नहीं है। अतएव कृपा करके आप इसे मुझे समझायें।
त्वं ब्रह्म परमं व्योम पुरुष: प्रकृते: पर: ।अवतीरनोंडसि भगवस्स्वेच्छोपात्तपृथग्वपु: ॥
२८॥
त्वमू-तुम; ब्रह्म परमम्--परब्रह्म; व्योम--आकाश की तरह ( हर वस्तु से पृथक् ); पुरुष:-- भगवान्; प्रकृते:--भौतिक प्रकृतिके; पर:--दिव्य; अवतीर्ण:--अवतार लिया; असि--हो; भगवन्--प्रभु; स्व-- अपने ( भक्तों ); इच्छा--इच्छा के अनुसार;उपात्त--स्वीकार किया; पृथक्--भिन्न; वपु:--शरीर |
हे प्रभु, परब्रह्म-रूप में आप प्रकृति से परे हैं और आकाश की तरह किसी तरह से बद्ध नहींहैं। तो भी, अपने भक्तों के प्रेम के वशीभूत होकर आप अनेक प्रकार के रूपों में प्रकट होते हैंऔर अपने भक्तों की इच्छानुसार अवतरित होते हैं।
श्रीभगवानुवाचकृपालुरकृतद्रोहस्तितिश्षु: सर्वदेहिनाम् ।सत्यसारोनवद्यात्मा सम: सर्वोपकारकः ॥
२९॥
कामैरहतधीर्दान्तो मृदु: शुचिरकिश्नः ।अनीहो मितभुक्शान्तः स्थिरो मच्छशणो मुनि: ॥
३०॥
अप्रमत्तो गभीरात्मा धृतिमाझ्जितषड्गुण: ।अमानी मानदः कल्यो मैत्र: कारुणिक: कवि: ॥
३१॥
आज्ञायैवं गुणान्दोषान्मयादिष्टानपि स्वकान् ।धर्मान्सन्त्यज्य यः सर्वान्मां भजेत स तु सत्तम: ॥
३२॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् ने कहा; कृपालु:--अन्यों के कष्ट को सहन न कर सकने वाले; अकृत-द्रोह:--अन्यों को हानि नपहुँचाने वाले; तितिक्षु:--क्षमा करने वाले; सर्व-देहिनामू--सारे जीवों को; सत्य-सारः--सत्य पर जीवित रहने वाले तथा सत्यसे ही हृढ़ता प्राप्त करने वाले; अनवद्य-आत्मा--ईर्ष्या-द्वेष से मुक्त आत्मा; सम:--सुख-दुख में समान चेतना वाला; सर्व-उपकारकः--अन््यों के कल्याण के लिए प्रयलशील; कामै:-- भौतिक इच्छाओं द्वारा; अहत--अविचल; धी:ः--बुद्धि वाले;दान्तः--बाह्य इन्द्रियों को वश में करने वाले; मृदु:ः--कठोर मनोवृत्ति से रहित; शुचिः--अच्छे व्यवहार वाला; अकिद्ञन:--किसी भी सम्पत्ति से विहीन; अनीह:--सांसारिक कार्यकलापों से मुक्त; मित-भुक्ू --संयम से खानेवाला; शान्त:--मन को वशमें रखने वाला; स्थिर:--अपने नियत कार्य में हढ़ रहने वाला; मत्-शरण: --मुझे ही एकमात्र शरण स्वीकार करने वाला;मुनि:--विचारवान; अप्रमत्त:--सतर्क ; गभीर-आत्मा--दिखाऊ न होने के कारण अपरिवर्तित; धृति-मान्--विपत्ति के समयभी दुर्बल या दुखी न होने वाला; जित--विजय प्राप्त; घट्ू-गुण:--छ:ः गुण, भूख, प्यास, शोक, मोह, जरा तथा मृत्यु;अमानी-- प्रतिष्ठा की इच्छा से रहित; मान-दः--अन्यों का आदर करने वाला; कल्य: --अन्यों की कृष्णभावना को जगाने मेंपटु; मैत्र:--दूसरों को धोखा न देने वाला, अतः असली मित्र; कारुणिक:--निजी महत्त्वाकांक्षा से नहीं, अपितु करुणा केवशीभूत होकर कर्म करने वाला; कवि: --पूर्ण विद्वान; आज्ञाय--जानते हुए; एवम्--इस प्रकार; गुणान्--अच्छे गुणों;दोषान्ू--बुरे गुणों को; मया--मेरे द्वारा; आदिष्टान्ू--शिक्षा दिए गये; अपि-- भी; स्वकान्-- अपने ही; धर्मानू-- धार्मिक सिद्धान्तों को; सन्त्यज्य--त्याग कर; यः--जो; सर्वानू--समस्त; माम््--मुझको; भजेत--पूजता है; सः--वह; तु--निस्सन््देह;सत्-तमः--सन्त-पुरुषों में श्रेष्ठ
भगवान् ने कहा : हे उद्धव, सन््त-पुरुष दयालु होता है और वह कभी दूसरों को हानि नहींपहुँचाता। दूसरों के आक्रामक होने पर भी वह सहिष्णु होता है और सारे जीवों को क्षमा करनेवाला होता है। उसकी शक्ति तथा जीवन की सार्थकता सत्य से मिलती है। वह समस्त ईर्ष्या-द्वेषसे मुक्त होता है और भौतिक सुख-दुख में उसका मन समभाव रहता है। इस तरह वह अन्य लोगोंके कल्याण हेतु कार्य करने में अपना सारा समय लगाता है। उसकी बुद्धि भौतिक इच्छाओं सेमोहग्रस्त नहीं होती और उसकी इन्द्रियाँ अपने वश में रहती हैं। उसका व्यवहार सदैव मधुर, मृदुतथा आदर्श होता है। वह स्वामित्व (संग्रह ) भाव से मुक्त रहता है। वह कभी भी सामान्यसांसारिक कार्यकलापों के लिए प्रयास नहीं करता और भोजन में संयम बरतता है। इसलिए वहसदैव शान्त तथा स्थिर रहता है। सन््त-पुरुष विचारवान होता है और मुझे ही अपना एकमात्रआश्रय मानता है। ऐसा व्यक्ति अपने कर्तव्य-पालन में अत्यन्त सतर्क रहता है, उसमें कभी भीऊपरी विकार नहीं आ पाते, क्योंकि दुखद परिस्थितियों में भी वह स्थिर तथा नेक बना रहता है।उसने भूख, प्यास, शोक, मोह, जरा तथा मृत्यु इन छह भौतिक गुणों पर विजय पा ली होती है।वह अपनी प्रतिष्ठा की इच्छा से मुक्त होता है और अन्यों को आदर प्रदान करता है। वह अन्यों कीकृष्ण-चेतना को जाग्रत करने में कुशल होता है, अतएव कभी किसी को ठगता नहीं प्रत्युतवह सबों का शुभैषी मित्र होता है और अत्यन्त दयालु होता है। ऐसे सनन््त-पुरुष को दिद्ठानों मेंसर्वश्रेष्ठ समझना चाहिए। वह भलीभाँति समझता है कि विविध शास्त्रों में मैंने, जो धार्मिककर्तव्य नियत किये हैं, उनमें अनुकूल गुण रहते हैं जो उनके करने वालों को शुद्ध करते हैं औरवह जानता है कि इन कर्तव्यों की उपेक्षा से जीवन में त्रुटि आती है। फिर भी, सन्त-पुरुष मेरेचरणकमलों की शरण ग्रहण करके सामान्य धार्मिक कार्यो को त्याग कर एकमात्र मेरी पूजाकरता है। इस तरह वह जीवों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
ज्ञात्वाज्ञात्वाथ येवैमां यावान्यश्वास्मि याहश: ।भजन्त्यनन्यभावेन ते मे भक्ततमा मता: ॥
३३॥
ज्ञात्वा--जान कर; अज्ञात्वा--न जान कर; अथ--इस प्रकार; ये--जो; बै--निश्चय ही; मामू--मुझको ; यावान्ू--जब तक;यः--जो; च-- भी; अस्मि--हूँ; याहश: -- जैसा मैं हूँ; भजन्ति-- पूजा करते हैं; अनन्य-भावेन-- अनन्य भक्ति से; ते--वे; मे--मेरे द्वारा; भक्त-तमा:--सर्व श्रेष्ठ भक्तमण; मता: --माने जाते हैं|
भले ही मेरे भक्त यह जानें या न जानें कि मैं क्या हूँ, मैं कौन हूँ और मैं किस तरह विद्यमानहूँ, किन्तु यदि वे अनन्य प्रेम से मेरी पूजा करते हैं, तो मैं उन्हें भक्तों में सर्व श्रेष्ठ मानता हूँ।
मल्लिड्डमद्धक्तजनदर्शनस्पर्शनार्चनम् ।परिचर्या स्तुतिः प्रह्मगुणकर्मानुकीर्तनम् ॥
३४॥
मत्कथाश्रवणे श्रद्धा मदनुध्यानमुद्धव ।सर्वलाभोपहरणं दास्येनात्मनिवेदनम् ॥
३५॥
मज्न्मकर्मक थनं मम पर्वानुमोदनम् ।गीतताण्डववादित्रगोष्ठीभिमद्गृ्होत्सव: ॥
३६॥
यात्रा बलिविधानं च सर्ववार्षिकपर्वसु ।वैदिकी तान्त्रिकी दीक्षा मदीयब्रतधारणम् ॥
३७॥
ममार्चास्थापने श्रद्धा स्वत: संहत्य चोद्यम: ।उद्यानोपवनाक्रीडपुरमन्दिरकर्मणि ॥
३८ ॥
सम्मार्जनोपलेपाभ्यां सेकमण्डलवर्तनै: ।गृहशुश्रूषणं मह्यं दासवद्यदमायया ॥
३९॥
अमानित्वमदम्भित्वं कृतस्यापरिकीर्तनम् ।अपि दीपावलोकं मे नोपयुउज्यान्निवेदितम् ॥
४०॥
यद्यदिष्ठटतमं लोके यच्चातिप्रियमात्मन: ।तत्तन्निवेदयेन्मह्मं तदानन्त्याय कल्पते ॥
४१॥
मतू-लिड्ड--अर्चाविग्रह के रूप में इस जगत में मेरा प्राकट्य; मत्-भक्त जन--मेरे भक्त; दर्शन--देखना; स्पर्शन--स्पर्श;अर्चनम्--तथा पूजा; परिचर्या--सेवा-कार्य; स्तुतिः--महिमा की प्रार्थनाएँ; प्रह-- नमस्कार; गुण--मेरे गुण; कर्म--तथाकर्म; अनुकीर्तनम्--निरन्तर महिमा-गायन; मत्-कथा--मेरे विषय में कथाएँ; श्रवणे--सुनने में; श्रद्धा--प्रेम के कारण श्रद्धा;मतू-अनुध्यानम्--सदैव मेरा ध्यान करते हुए; उद्धव--हे उद्धव; सर्व-लाभ--सभी उपार्जित वस्तुएँ; उपहरणम्-- भेंट;दास्येन--अपने को मेरा दास मानते हुए; आत्म-निवेदनम्--आत्म-समर्पण; मत्-जन्म-कर्म-कथनम्--मेरे जन्म तथा कर्मों कीप्रशंसा करना; मम--मेरा; पर्व--जन्माष्टमी जैसे उत्सवों में; अनुमोदनम्--परम हर्ष मनाते हुए; गीत--गीतों; ताण्डब--नृत्य;वादित्र--संगीत के वाद्यों; गोष्ठीभि:--तथा भक्तों के मध्य विचार-विमर्श; मत्-गृह--मेरे मन्दिर में; उत्सवः--उत्सव, पर्व;यात्रा--उत्सव मनाना; बलि-विधानम्-- आहुति डालना; च--भी; सर्व--समस्त; वार्षिक --साल में एक बार, प्रत्येक वर्ष;पर्वसु--उत्सवों में; वैदिकी--वेदों में उल्लिखित; तान्त्रिकी--पश्ञरात्र जैसे ग्रंथों में वर्णित; दीक्षा--दीक्षा; मदीय--मेरा; ब्रत--उपवास; धारणम्--रखते हुए; मम--मेरे; अर्चा--अर्चाविग्रह का; स्थापने--स्थापना में; श्रद्धा-- श्रद्धा रखते हुए; स्वतः--अपने से; संहत्य--अन्यों के साथ; च--भी; उद्यम: --प्रयास; उद्यान--फूल के बगीचों के; उपवन--छोटा बगीचा; आक्रीड--लीलाओं के स्थान; पुर--भक्ति के शहर; मन्दिर--तथा मन्दिर; कर्मणि--निर्माण में; सम्मार्जन--ठीक से झाड़ना-बुहारना;उपलेपाभ्याम्--लीप-पोत कर; सेक--सुगन्धित जल छिड़क कर; मण्डल-वर्तनै:--मण्डल बनाकर; गृह--मन्दिर का, जो किमेरा घर है; शुश्रूषणम्-- सेवा; महाम्--मेरे लिए; दास-वत्--दास की तरह; यत्--जो; अमायया--द्वैत-रहित; अमानित्वम्--झूठी प्रतिष्ठा के बिना; अदम्भित्वम्ू--गर्व से रहित होकर; कृतस्य--भक्ति-कर्म; अपरिकीर्तनम्--विज्ञापन न करना; अपि--भी; दीप--दीपकों के; अवलोकम्-- प्रकाश; मे--मेरा; न--नहीं; उपयुड्ज्यात्ू--लगाना चाहिए; निवेदितम्--अन्यों को पहलेही भेंट की जा चुकी वस्तुएँ; यत् यत्--जो जो; इष्ट-तमम्--अभीष्ट; लोके--संसार में; यत् च--तथा जो भी; अति-प्रियम्--अत्यन्त प्रिय; आत्मन:--अपना; तत् तत्ू--वह वह; निवेदयेत्-- भेंट करे; मह्मम्--मुझको; तत्--वह भेंट; आनन्त्याय--अमरता के लिए; कल्पते--योग्य बनाती है।
हे उद्धव, निम्नलिखित भक्ति-कार्यो में लगने पर मनुष्य मिथ्या अभिमान तथा प्रतिष्ठा कापरित्याग कर सकता है। वह मेरे अर्चाविग्रह को के रूप में मुझे तथा मेरे शुद्ध भक्तों को देखकर, छू कर, पूजा करके, सेवा करके, स्तुति करके तथा नमस्कार करके अपने को शुद्ध बनासकता है। उसे मेरे दिव्य गुणों एवं कर्मो की भी प्रशंसा करनी चाहिए, मेरे यश की कथाओं कोप्रेम तथा श्रद्धा के साथ सुनना चाहिए तथा निरन्तर मेरा ध्यान करना चाहिए। उसे चाहिए कि जोभी उसके पास हो, वह मुझे अर्पित कर दे और अपने को मेरा नित्य दास मान कर मुझ पर हीपूरी तरह समर्पित हो जाये। उसे मेरे जन्म तथा कार्यों की सदैव चर्चा चलानी चाहिए औरजन्माष्टमी जैसे उत्सवों में, जो मेरी लीलाओं की महिमा को बतलाते हैं, सम्मिलित होकर जीवनका आनन्द लेना चाहिए। उसे मेरे मन्दिर में गा कर, नाच कर, बाजे बजाकर तथा अन्य वैष्णवोंसे मेरी बातें करके उत्सवों तथा त्योहारों में भी भाग लेना चाहिए। उसे वार्षिक त्योहारों में होनेवाले उत्सवों में, यात्राओं में तथा भेंटें चढ़ाने में नियमित रूप से भाग लेना चाहिए। उसे एकादशीजैसे धार्मिक ब्रत भी रखने चाहिए और वेदों, पंचरात्र तथा अन्य ऐसे ही ग्रंथों में उल्लिखितविधियों से दीक्षा लेनी चाहिए। उसे श्रद्धा तथा प्रेमपूर्वक मेरे अर्चाविग्रह की स्थापना काअनुमोदन करना चाहिए और अकेले अथवा अन्यों के सहयोग से कृष्णभावनाभावित मन्दिरोंतथा नगरों के साथ ही साथ फूल तथा फल के बगीचों एवं मेरी लीला मनाये जाने वाले विशेषक्षेत्रों के निर्माण में हाथ बँटाना चाहिए। उसे बिना किसी द्वैत के अपने को मेरा विनीत दासमानना चाहिए और इस तरह मेरे आवास, अर्थात् मन्दिर को साफ करने में सहयोग देना चाहिए।सर्वप्रथम उसमें झाड़ू-बुहारा करना चाहिए और तब उसे जल तथा गोबर से स्वच्छ बनानाचाहिए। मन्दिर को सूखने देने के बाद सुगन्धित जल का छिड़काव करना चाहिए और मण्डलोंसे सजाना चाहिए। उसे मेरे दास की तरह कार्य करना चाहिए। उसे कभी भी अपने भक्ति-कार्योंका ढिंढ़ोरा नहीं पीटना चाहिए। इस तरह उसकी सेवा मिथ्या अभिमान का कारण नहीं होगी।उसे मुझे अर्पित किए गए दीपकों का प्रयोग अन्य कार्यो के लिए अर्थात् मात्र उजाला करने कीआवश्यकता से नहीं करना चाहिए। इसी तरह मुझे ऐसी कोई वस्तु भेंट न की जाय, जो अन्योंपर चढ़ाई जा चुकी हो या अन्यों द्वारा काम में लाई जा चुकी हो। इस संसार में जिसे जो भी वस्तु सब से अधिक चाहिए और जो भी वस्तु उसे सर्वाधिक प्रिय हो उसे, वही वस्तु मुझे अर्पित करनीचाहिए। ऐसी भेंट चढ़ाने से वह नित्य जीवन का पात्र बन जाता है।
सूर्योउग्नि्ब्राह्मणा गावो वैष्णव: खं मरुजजलम् ।भूरात्मा सर्वभूतानि भद्र पूजापदानि मे ॥
४२॥
सूर्य:--सूर्य; अग्नि:--अग्नि; ब्राह्मणा:--तथा ब्राह्मणगण; गाव: --गौवें; वैष्णव: -- भगवद्भक्त; खम्--आकाश; मरुत्--वायु; जलम्ू--जल; भू:--पृथ्वी; आत्मा--व्यष्टि आत्मा; सर्व-भूतानि--सारे जीव; भद्ग--हे साधु उद्धव; पूजा--पूजा के;पदानि--स्थान; मे--मेरी |
हे साधु-पुरुष उद्धव, यह जान लो कि तुम मेरी पूजा सूर्य, अग्नि, ब्राह्मणों, गौवों, वैष्णवों,आकाश, वायु, जल, पृथ्वी, आत्मा में तथा सारे जीवों में कर सकते हो।
सूर्य तु विद्यया त्रय्या हविषाग्नौ यजेत माम् ।आतिदथ्येन तु विप्राछये गोष्वड्र यवसादिना ॥
४३॥
वैष्णवे बन्धुसत्कृत्या हृदि खे ध्याननिष्ठया ।वायौ मुख्यधिया तोये द्र॒व्यैस्तोयपुरःसरैः ॥
४४॥
स्थण्डिले मन्त्रहदयैभोंगिरात्मानमात्मनि ।क्षेत्रज्ं सर्वभूतेषु समत्वेन यजेत माम् ॥
४५॥
सूर्य --सूर्य में; तु--निस्सन्देह; विद्य॒या त्रय्या-- प्रशंसा, पूजा तथा नमस्कार की चुनी हुई वैदिक स्तुतियों द्वारा; हवविषा--घी कीआहुतियों से; अग्नौ-- अग्नि में; यजेत--पूजा करे; माम्--मुझको; आतिथ्येन--अतिथि के रूप में स्वागत करके; तु--निस्सन्देह; विप्र--ब्राह्मणों के; अछये--सर्व श्रेष्ठ, अग्रणी; गोषु--गौवों में; अड्र--हे उद्धव; यवस-आदिना--उनके पालन केलिए घास आदि देना; वैष्णवे-- वैष्णव में; बन्धु--प्रेमपूर्ण मैत्री के साथ; सत्-कृत्या--सत्कार करने से; हृदि--हृदय में; खे--आन्तरिक आकाश में; ध्यान--ध्यान में; निष्ठया--स्थिर होने से; वायौ--वायु में; मुख्य--प्रमुख; धिया--बुद्धि से मानते हुए;तोये--जल में; द्रव्यैः-- भौतिक तत्त्वों द्वारा; तोब-पुर:ः-सरैः--जल इत्यादि से; स्थण्डिले--पृथ्वी पर; मन्त्र-हदयै:--मंत्रों केप्रयोग से; भोगैः--भोग्य वस्तुएँ प्रदान करने से; आत्मानम्--जीवात्मा; आत्मनि--शरीर के भीतर; क्षेत्र-ज्ञम--परमात्मा; सर्व-भूतेषु--सारे जीवों के भीतर; समत्वेन--सर्वत्र समभाव से देखते हुए; यजेत--पूजा करना चाहिए; माम्--मुझको
हे उद्धव, मनुष्य को चाहिए कि चुने हुए वैदिक मंत्रोच्चार तथा पूजा और नमस्कार द्वारा सूर्यमें मेरी पूजा करे। वह अग्नि में घी की आहुति डाल कर मेरी पूजा कर सकता है। वह अनामंत्रितअतिथियों के रूप में ब्राह्मणों का आदरपूर्वक स्वागत करके उनमें मेरी पूजा कर सकता है। मेरीपूजा गायों में उन्हें घास तथा उपयुक्त अन्न एवं उनके स्वास्थ्य एवं आनन्द के लिए उपयुक्त सामग्रीप्रदान करके की जा सकती है। वैष्णवों में मेरी पूजा उन्हें प्रेमपूर्ण मैत्री प्रदान करके तथा सबप्रकार से उनका आदर करके की जा सकती है। स्थिरभाव से ध्यान के माध्यम से हृदय में मेरीपूजा होती है और वायु में मेरी पूजा इस ज्ञान के द्वारा की जा सकती है कि तत्त्वों में प्राण हीप्रमुख है। जल में मेरी पूजा जल के साथ फूल तथा तुलसी-दल जैसे अन्य तत्त्वों को चढ़ाकरकी जा सकती है। पृथ्वी में गुह्य बीज मंत्रों के समुचित प्रयोग से मेरी पूजा हो सकती है। भोजनतथा अन्य भोज्य वस्तुएँ प्रदान करके व्यष्टि जीव में मेरी पूजा की जा सकती है। सारे जीवों मेंपरमात्मा का दर्शन करके तथा इस तरह समहदृष्टि रखते हुए मेरी पूजा की जा सकती है।
शिष्ण्येष्वित्येषु मद्रूपं शब्डुचक्रगदाम्बुजै: ।युक्त चतुर्भुजं शान्तं ध्यायन्न्चेत्समाहित: ॥
४६॥
धिष्ण्येषु--पूर्व वर्णित पूजा-स्थलों में; इति--इस प्रकार ( पूर्व वर्णित विधियों से ); एषु--उनमें; मत्-रूपम्--मेरा दिव्य रूप;शट्बभु--शंख; चक्र --सुदर्शन चक्र; गदा--गदा; अम्बुजैः --तथा कमल-फूल से; युक्तम्--सज्जित; चतु:-भुजम्--चार भुजाओंसहित; शान्तम्-शान्त; ध्यायन्-ध्यान करते हुए; अर्चेत्--पूजा करे; समाहित: --मनोयोग से |
इस तरह पूर्व वर्णित पूजा-स्थलों में तथा मेरे द्वारा वर्णित विधियों से मनुष्य को मेरे शान्त,दिव्य तथा चतुर्भुज रूप का, जो शंख, सुदर्शन चक्र, गदा तथा कमल से युक्त है, ध्यान करनाचाहिए। इस तरह उसे मनोयोगपूर्वक मेरी पूजा करनी चाहिए।
इष्टापूर्तेन मामेव॑ यो यजेत समाहितः ।लभते मयि सद्धक्ति मत्स्मृति: साधुसेवया ॥
४७॥
इष्टा--अपने लाभ के लिए यज्ञ करके; पूर्तन--तथा अन्यों के लाभ के लिए शुभ कार्य करना तथा कुएँ खुदवाना; माम्--मुझको; एवम्--इस प्रकार; यः--जो; यजेत--पूजा करता है; समाहितः--मुझमें मन स्थिर करके; लभते--प्राप्तकरता है;मयि--मुझमें; सत्-भक्तिम्--हढ़ भक्ति; मत्ू-स्मृतिः--मेरा स्वरूपसिद्ध ज्ञान; साधु --उत्तम गुणों से युक्त; सेवया--सेवा द्वारा |
मेरी तुष्टि के लिए जिसने यज्ञ तथा शुभ कार्य किये हैं और इस तरह से एकाग्र ध्यान से मेरीपूजा करता है, वह मेरी अटल भक्ति प्राप्त करता है। ऐसा पूजक उत्तम कोटि की अपनी सेवाके कारण मेरा स्वरूपसिद्ध ज्ञान प्राप्त करता है।
प्रायेण भक्तियोगेन सत्सड़ेन विनोद्धव ।नोपायो विद्यते सम्यक्प्रायणं हि सतामहम् ॥
४८॥
प्रायेण--प्राय:; भक्ति-योगेन--मेरी भक्ति से; सत्-सड्रेन--मेरे भक्तों की संगति से सम्भव होने वाली; विना--रहित; उद्धव--हे उद्धव; न--नहीं; उपाय: --कोई उपाय; विद्यते--है; सम्यक्--जो वास्तव में कारगर हो; प्रायणम्--जीवन का असली मार्गया वास्तविक आश्रय; हि--क्योंकि; सताम्--मुक्तात्माओं का; अहम्--मैं |
हे उद्धव, सन्त स्वभाव के मुक्त पुरुषों के लिए मैं ही अनन्तिम आश्रय तथा जीवन-शैली हूँ,अतएव यदि कोई व्यक्ति मेरे भक्तों की संगति से सम्भव मेरी प्रेमाभक्ति में प्रवृत्त नहीं होता, तोसभी व्यावहारिक उद्देश्यों के दृष्टिकोण से प्रायः भौतिक जगत से बचने का कोई उपाय उसकेपास नहीं रह जाता।
अशैतत्परमं गुह्वां श्रण्वतो यदुनन्दन ।सुगोप्यमपि वक्ष्यामि त्वं मे भृत्य: सुहत्सखा ॥
४९॥
अथ--इस प्रकार; एतत्--यह; परमम्--परम; गुहाम्--गुप्त; श्रण्वत:ः--सुनने वाले तुमको; यदु-नन्दन--हे यदुकुल के प्रिय;सु-गोप्यम्--अत्यन्त गुह्म; अपि-- भी; वक्ष्यामि--मैं कहूँगा; त्वम्--तुम; मे--मेरा; भृत्य:ः--सेवक हो; सु-हत्--शुभचिन्तक;सखा--तथा मित्र
हे उद्धव, हे यदुकुल के प्रिय, चूँकि तुम मेरे सेवक, शुभचिन्तक तथा सखा हो, अतएवं अबमैं तुमसे अत्यन्त गुह्य ज्ञान कहूँगा। अब इसे सुनो, क्योंकि मैं इन महान् रहस्यों को तुम्हें बतलानेजारहा हूँ।
12. त्याग और ज्ञान से परे
श्रीभगवानुवाचन रोधयति मां योगो न साड्ख्यं धर्म एबच ।न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो नेष्टापूर्त न दक्षिणा ॥
१॥
ब्रतानि यज्ञएछन्दांसि तीर्थानि नियमा यमा: ।यथावरुन्धे सत्सड्र: सर्वसड्रापहो हि माम् ॥
२॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् ने कहा; न रोधयति--नियंत्रित नहीं करता; माम्--मुझको; योग: --अष्टांग योग पद्धति; न--नतो; साइड्ख्यमू-- भौतिक तत्त्वों का वैश्लेषिक अध्ययन; धर्म:--अहिंसा जैसी सामान्य करुणा; एव--निस्सन्देह; च-- भी; न--न तो; स्वाध्याय:--वेदों का उच्चारण; तपः--तपस्या; त्याग: --सन्यास-आश्रम; न--न तो; इष्टा-पूर्तम्--यज्ञ करना तथा कुएँखुदवाना या वृक्ष लगाना जैसे आम जनता के कल्याण-कार्य; न--न तो; दक्षिणा--दान; ब्रतानि--ब्रत रखना तथा एकादशीका उपवास; यज्ञ:--देवताओं की पूजा; छन्दांसि--गुट्म मंत्रों का उच्चारण; तीर्थानि--तीर्थस्थानों का भ्रमण; नियमा:--आध्यात्मिक जीवन के लिए मुख्य आदेशों का पालन करना; यमा:--तथा गौण-विधान भी; यथा--जिस तरह; अवरुन्धे--अपने वश में करता है; सत्-सड्रः--मेरे भक्तों की संगति; सर्व--समस्त; सड़-- भौतिक संगति; अपह:--हटाने वाला; हि--निश्चय ही; माम्--मुझको |
भगवान् ने कहा : हे उद्धव, मेरे शुद्ध भक्तों की संगति करने से इन्द्रियतृप्ति के सारे पदार्थोंके प्रति आसक्ति को नष्ट किया जा सकता है। शुद्धि करने वाली ऐसी संगति मुझे मेरे भक्त केवश में कर देती है। कोई चाहे अष्टांग योग करे, प्रकृति के तत्त्वों का दार्शनिक विश्लेष्ण करनेमें लगा रहे, चाहे अहिंसा तथा शुद्धता के अन्य सिद्धान्तों का अभ्यास करे, वेदोच्चार करे,तपस्या करे, संन्यास ग्रहण करे, कुँआ खुदवाने, वृक्ष लगवाने तथा जनता के अन्य कल्याण-कार्यों को सम्पन्न करे, चाहे दान दे, कठिन ब्रत करे, देवताओं की पूजा करे, गुट्य मंत्रों काउच्चारण करे, तीर्थस्थानों में जाय या छोटे-बड़े अनुशासनात्मक आदेशों को स्वीकार करे,किन्तु इन सब कार्यों को सम्पन्न करके भी कोई मुझे अपने वश में नहीं कर सकता। सत्सड्रेन हि दैतेया यातुधाना मृगा: खगाः ।गन्धर्वाप्सरसो नागा: सिद्धाश्चारणगुह्मका: ॥
३॥
विद्याधरा मनुष्येषु वैश्या: शूद्रा: स्त्रियोउन्त्यजा: ।रजस्तमःप्रकृतयस्तस्मिस्तस्मिन्युगे युगे ॥
४॥
बहवो मत्यदं प्राप्तास्त्वाप्टकायाधवादय: ।वृषपर्वा बलिर्बाणो मयश्वाथ विभीषण: ॥
५॥
सुग्रीवो हनुमानृक्षो गजो गृश्लो वणिक्पथ: ।व्याध: कुब्जा ब्रजे गोप्यो यज्ञपत्यस्तथापरे ॥
६॥
सत्-सड्बलेन--मेरे भक्तों की संगति से; हि--निश्चय ही; दैतेया:--दिति के पुत्र; यातुधाना:--असुरगण; मृगा:--पशु; खगा: --पक्षी; गन्धर्व--गन्धर्वगण; अप्सरस:--स्वर्गलोक की वेश्याएँ; नागा:--सर्प; सिद्धाः--सिद्धलोक के वासी; चारण--चारण;गुहाका: --गुह्म क; विद्याधरा:--विद्याधर लोक के वासी; मनुष्येषु--मनुष्यों में से; वैश्या:--व्यापारी लोग; शूद्रा:-- श्रमिक;स्त्रियः--स्त्रियाँ; अन्त्य-जा:--असभ्य लोग; रज:-तमः-प्रकृतयः--रजो तथा तमोगुणों से बँधे हुए; तस्मिन् तस्मिनू--उसी उसीप्रत्येक में; युगे युगे--युग में; बहबः--अनेक जीव; मत्--मेरे; पदम्-- धाम को; प्राप्ता:--प्राप्त हुए; त्वाष्ट--वृत्रासुर;'कायाधव--प्रह्माद महाराज; आदयः--इत्यादि; वृषपर्वा--वृषपर्वा नामक; बलि: --बलि महाराज; बाण:--बाणासुर; मय: --मय दानव; च-- भी; अथ--इस प्रकार; विभीषण:--रावण का भाई विभीषण; सुग्रीव: --वानरराज सुग्रीव; हनुमान्--महान्भक्त हनुमान; ऋक्ष:--जाम्बवान; गज:--गजेन्द्र नामक भक्त हाथी; गृश्र:--जटायु गृद्ध;वणिक्पथ:--तुलाधार नामक बनिया;व्याध:--धर्म व्याध; कुब्जना--कुब्जा नामक वेश्या, जिसकी रक्षा कृष्ण ने की; ब्रजे--वृन्दावन में; गोप्य: --गोपियाँ; यज्ञ-पत्य:--यज्ञकर्ता ब्राह्मणों की पत्नियाँ; तथा--उसी प्रकार; अपरे-- अन्य |
प्रत्येक युग में रजो तथा तमोगुण में फँसे अनेक जीवों ने मेरे भक्तों की संगति प्राप्त की । इसप्रकार दैत्य, राक्षस, पक्षी, पशु, गन्धर्व, अप्सरा, नाग, सिद्ध, चारण, गुह्मक तथा विद्याधर जैसेजीवों के साथ साथ वैश्य, शूद्र, स्त्रियाँ तथा अन्य निम्न श्रेणी के मनुष्य मेरे धाम को प्राप्त करसके। वृत्रासुर, प्रह्दाद महाराज तथा उन जैसे अन्यों ने मेरे भक्तों की संगति के द्वारा मेरे धाम कोप्राप्त किया। इसी तरह वृषपर्वा, बलि महाराज, बाणासुर, मय, विभीषण, सुग्रीव, हनुमान,जाम्बवान, गजेन्द्र, जटायु, तुलाधार, धर्मव्याध, कुब्जा, वृन्दावन की गोपियाँ तथा यज्ञ कर रहेब्राह्मणों की पत्नियाँ भी मेरा धाम प्राप्त कर सकीं।
ते नाधीतश्रुतिगणा नोपासितमहत्तमा: ।अब्रतातप्ततपसः मत्सड्ान्मामुपागता: ॥
७॥
ते--वे; न--नहीं; अधीत--अध्ययन करके; श्रुति-गणा:--वैदिक वाड्मय; न--नहीं; उपासित--पूजा किया हुआ; महत्-तमः--महान् सन्त; अब्रत--ब्रत के बिना; अतप्त--बिना किये; तपसः--तपस्या; मत्-सड्भात्-मेरे तथा मेरे भक्तों की संगतिसे; माम्--मुझको; उपागता:--उन्होंने प्राप्त किया |
मैंने जिन व्यक्तियों का उल्लेख किया है, उन्होंने न तो वैदिक वाड्मथ का गहन अध्ययनकिया था, न महान् सन््तों की पूजा की थी, न कठिन ब्रत या तपस्या ही की थी। मात्र मेरे तथामेरे भक्तों की संगति से, उन्होंने मुझे प्राप्त किया।
केवलेन हि भावेन गोप्यो गावो नगा मृगा: ।येउन्ये मूढधियो नागा: सिद्धा मामीयुरक्षसा ॥
८॥
केवलेन--शुद्ध; हि--निस्सन्देह; भावेन--प्रेम से; गोप्य:--गोपियाँ; गाव:--वृन्दावन की गाएँ; नगा:--वृन्दावन के जड़ प्राणीयथा यमलार्जुन वृक्ष; मृगा:--अन्य पशु; ये--जो; अन्ये-- अन्य; मूढ-धिय:--जड़ बुद्धि वाले; नागा:--वृन्दावन के सर्प, यथाकालिय; सिद्धा:--जीवन की सिद्धि पाकर; माम्--मेरे पास; ईयु:--आये; अद्धसा--अत्यन्त सरलता से |
गोपियों समेत वृन्दावन के वासी, गौवें, अचर जीव यथा यमलार्जुन वृक्ष, पशु, जड़ बुद्धिवाले जीव यथा झाड़ियाँ तथा जंगल और सर्प यथा कालिय--इन सबों ने मुझसे शुद्ध प्रेम करनेके ही कारण जीवन की सिद्धि प्राप्त्की और इस तरह आसानी से मुझे प्राप्त किया।
यं न योगेन साड्ख्येन दानव्रततपोध्वरै: ।व्याख्यास्वाध्यायसन्न्यासै: प्राप्नुयाद्यलवानपि ॥
९॥
यम्--जिनको; न--नहीं; योगेन--योग द्वारा; साड्ख्येन--दार्शनिक चिन्तन द्वारा; दान--दान; ब्रत--ब्रत; तप:--तपस्या;अध्वर:--अथवा वैदिक कर्मकाण्ड द्वारा; व्याख्या--अन्यों से वैदिक ज्ञान की विवेचना द्वारा; स्वाध्याय--वेदों का निजीअध्ययन; सन्न्यासै:--अथवा संन्यास ग्रहण करके ; प्राप्नुयात्--प्राप्त कर सकता है; यत्न-वान्ू--महान् प्रयास से; अपि-- भी |
योग, चिन्तन, दान, व्रत, तपस्या, कर्मकाण्ड, अन्यों को वैदिक मंत्रों की शिक्षा, वेदों कानिजी अध्ययन या संन्यास में बड़े-बड़े प्रयास करते हुए लगे रहने पर भी मनुष्य, मुझे प्राप्त नहींकर सकता।
रामेण सार्ध मथुरां प्रणीतेश्वाफल्किना मय्यनुरक्तचित्ता: ।विगाढभावेन न मे वियोगतीब्राधयोन्यं दहशु:ः सुखाय ॥
१०॥
रामेण--बलराम के; सार्धम्--साथ; मथुराम्--मथुरा नगरी के; प्रणीते--लाये गये; श्राफल्किना--अक्रूर द्वारा; मयि--मुझमें;अनुरक्त--निरन्तर लिप्त; चित्ता:--चेतना वाले; विगाढ--प्रगाढ़; भावेन--प्रेम से; न--नहीं; मे--मेरी अपेक्षा; वियोग--विछोह का; तीव्र--गहन; आधय:--मानसिक कष्ट, चिन्ता आदि का अनुभव करने वाले; अन्यम्--अन्यों को; ददशुः--देखा;सुखाय--उन्हें सुखी बनाने के लिए
गोपियाँ इत्यादि वृन्दावनवासी गहन प्रेम से सदैव मुझमें अनुरक्त थे। अतएव जब मेरे चाचाअक्रूर मेरे भ्राता बलराम सहित मुझे मथुरा नगरी में ले आये, तो वृन्दावनवासियों को मेरे विछोहके कारण अत्यन्त मानसिक कष्ट हुआ और उन्हें सुख का कोई अन्य साधन प्राप्त नहीं हो पाया।
तास्ता: क्षपाः प्रेष्ठठमेन नीतामयैव वृन्दावनगोचरेण ।क्षणार्धवत्ता: पुनरड़ तासांहीना मया कल्पसमा बभूव॒ु: ॥
११॥
ता: ताः--वे सभी; क्षपा:--रातें; प्रेष्ट-तमेन-- अत्यन्त प्रिय के साथ; नीता:--बिताई गईं; मया--मेरे द्वारा; एब--निस्सन्देह;वृन्दावन--वृन्दावन में; गो-चरेण--जिसे जाना जा सकता है; क्षण--एक पल; अर्ध-वत्--आधे के समान; ताः--वे रातें;पुनः--फिर; अड़--हे उद्धव; तासाम्ू--गोपियों के लिए; हीना:--रहित; मया--मुझसे; कल्प--ब्रह्मा का दिन(४,३२,००,००,००० ); समा:--तुल्य; बभूवु:--हो गया।हे उद्धव, वे सारी रातें, जो वृन्दावन भूमि में गोपियों ने अपने अत्यन्त प्रियतम मेरे साथबिताईं, वे एक क्षण से भी कम में बीतती प्रतीत हुईं। किन्तु मेरी संगति के बिना बीती वे रातेंगोपियों को ब्रह्मा के एक दिन के तुल्य लम्बी खिंचती सी प्रतित हुईं।
ता नाविदन्मय्यनुषडूबद्धधियः स्वमात्मानमदस्तथेदम् ।यथा समाधौ मुनयोब्धितोयेनद्यः प्रविष्टा इव नामरूपे ॥
१२॥
ताः--वे ( गोपियाँ ); न--नहीं; अविदन्--अवगत; मयि--मुझमें; अनुषड्र--घनिष्ठ सम्पर्क द्वारा; बद्ध--बँधी; धिय:--चेतनावाली; स्वम्--निजी; आत्मानम्--शरीर या आत्मा; अदः--दूर की वस्तु; तथा--इस तरह विचार करते हुए; इृदम्-- अत्यन्तनिकट यह; यथा--जिस तरह; समाधौ--योग समाधि में; मुन॒यः--मुनिगण; अब्धि--सागर के; तोये--जल में; नद्यः--नदियाँ;प्रविष्टा:-- प्रवेश करके; इब--सहृ॒श; नाम--नाम; रूपे--तथा रूप।
हे उद्धव, जिस तरह योग समाधि में मुनिगण आत्म-साक्षात्कार में लीन रहते हैं और उन्हेंभौतिक नामों तथा रूपों का भान नहीं रहता और जिस तरह नदियाँ समुद्र में मिल जाती हैं, उसीतरह वृन्दावन की गोपियाँ अपने मन में मुझसे इतनी अनुरक्त थीं कि उन्हें अपने शरीर की अथवाइस जगत की या अपने भावी जीवनों की सुध-बुध नहीं रह गई थी। उनकी सम्पूर्ण चेतना मुझमेंबँधी हुई थी।
मत्कामा रमणं जारमस्वरूपविदोबला: ।ब्रह्म मां परम॑ प्रापु: सड्राच्छतसहस्त्रश: ॥
१३॥
मत्--मुझ; कामा:--चाहने वाले; रमणम्--मोहक प्रेमी को; जारम्--दूसरे की पत्नी का प्रेमी; अस्वरूप-विदः --मेरेवास्तविक पद को न जानते हुए; अबला:--स्त्रियाँ; ब्रह्म--ब्रह्म; मामू--मुझको; परमम्--परम; प्रापु:--प्राप्त किया; सड्जात्ू--संगति से; शत-सहस्त्रश:--सैकड़ों हजारों में |
वे सैकड़ों हजारों गोपियाँ मुझे ही अपना सर्वाधिक मनोहर प्रेमी जान कर तथा इस तरह मुझेअत्यधिक चाहते हुए मेरे वास्तविक पद से अपरिचित थीं। फिर भी मुझसे घनिष्ठ संगति करकेगोपियों ने मुझ परम सत्य को प्राप्त किया।
तस्मात्त्वमुद्धवोत्सूज्य चोदनां प्रतिचोदनाम् ।प्रवृत्ति च निवृत्ति च श्रोतव्यं श्रुतमेव च ॥
१४॥
मामेकमेव शरणमात्मानं सर्वदेहिनाम् ।याहि सर्वात्मभावेन मया स्या ह्कुतोभय: ॥
१५॥
तस्मात्--इसलिए; त्वम्--तुम; उद्धव--हे उद्धव; उत्सृज्य--त्याग कर; चोदनाम्--वेदों के आदेशों को; प्रतिचोदनाम्--वेदांगोंके आदेशों को; प्रवृत्तिमु--आदेश; च--तथा; निवृत्तिम्ू--निषेध; च--तथा; श्रोतव्यम्--सुनने योग्य; श्रुतम्--सुना हुआ;एव--निस्सन्देह; च-- भी; माम्--मुझको; एकम्--अकेला; एव--वास्तव में; शरणम्--शरण; आत्मानम्--हृदय मेंपरमात्मा; सर्व-देहिनामू--समस्त बद्धजीवों का; याहि--जाओ; सर्व-आत्म-भावेन--एकान्तिक भक्ति से; मया--मेरी कृपा से;स्था:--होओ; हि--निश्चय ही; अकुत:ः-भय: --भय से रहित
अतएव हे उद्धव, तुम सारे वैदिक मंत्रों तथा वेदांगों की विधियों एवं उनके सकारात्मक तथानिषेधात्मक आदेशों का परित्याग करो। जो कुछ सुना जा चुका है तथा जो सुना जाना है, उसकीपरवाह न करो। केवल मेरी ही शरण ग्रहण करो, क्योंकि मैं ही समस्त बद्धात्माओं के हृदय केभीतर स्थित भगवान् हूँ। पूरे मन से मेरी शरण ग्रहण करो और मेरी कृपा से तुम समस्त भय सेमुक्त हो जाओ।
श्रीउद्धव उवाचसंशय: श्रुण्वतो वा तव योगेश्वरेश्वर ।न निवर्तत आत्मस्थो येन भ्राम्यति मे मन: ॥
१६॥
श्री-उद्धवः उबाच-- श्री उद्धव ने कहा; संशय: --सन्देह; श्रेण्वत:--सुनने वाले का; वाचम्ू--शब्द; तब--तुम्हारे; योग-ईश्वर--योगशक्ति के स्वामियों के; ई श्वर-- स्वामी; न निवर्तते--बाहर नहीं जायेगा; आत्म--हृदय में; स्थ:--स्थित; येन--जिससे; भ्राम्यति--मोहग्रस्त रहता है; मे--मेरा; मनः--मन |
श्री उद्धव ने कहा : हे योगेश्वरों के ईश्वर, मैंने आपके वचन सुने हैं, किन्तु मेरे मन का सन्देहजा नहीं रहा है, अतः मेरा मन मोहग्रस्त है।
श्रीभगवानुवाचस एष जीवो विवरप्रसूतिःप्राणेन घोषेण गुहां प्रविष्ट: ।मनोमयं सूक्ष्ममुपेत्य रूप॑मात्रा स्वरो वर्ण इति स्थविष्ठ: ॥
१७॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् ने कहा; सः एष:--साक्षात् वे; जीव:--सभी को जीवन देने वाले, भगवान्; विवर--हृदय केभीतर; प्रसूति:--प्रकट; प्राणेन--प्राण के साथ; घोषेण-- ध्वनि की सूक्ष्म अभिव्यक्ति द्वारा; गुहामू--हृदय में; प्रविष्ट:--प्रविष्टहुए; मनः-मयम्--मन से अनुभव किये जाने वाले अथवा शिव जैसे महान् देवताओं के भी मन को वश में करते हुए; सूक्ष्मम्--सूक्ष्म; उपेत्य--स्थित होकर; रूपम्ू--स्वरूप; मात्रा--विभिन्न मात्राएँ; स्वर: --विभिन्न स्वर; वर्ण:--अक्षर की विभिन्न ध्वनियाँ;इति--इस प्रकार; स्थविष्ठ:--स्थूल रूप।
भगवान् ने कहा : हे उद्धव, भगवान् हर एक को जीवन प्रदान करते हैं और प्राण-वायु तथाआदि ध्वनि ( नाद ) के सहित हृदय के भीतर स्थित हैं। भगवान् को उनके सूक्ष्म रूप में हृदय केभीतर मन के द्वारा देखा जा सकता है, क्योंकि भगवान् हर एक के मन को वश में रखते हैं,चाहे वह शिवजी जैसा महान् देवता ही क्यों न हो। भगवान् वेदों की ध्वनियों के रूप में जो हस्वतथा दीर्घ स्वरों तथा विभिन्न स्वरविन्यास वाले व्यंजनों से बनी होती हैं स्थूल रूप धारण करतेहैं।
यथानल: खेउनिलबन्धुरुष्माबलेन दारुण्यधिमथ्यमान: ॥
अणु: प्रजातो हविषा समेधतेतथेव मे व्यक्तिरियं हि वाणी ॥
१८॥
यथा--जिस तरह; अनल:--अग्नि; खे--काठ के भीतर रिक्त स्थान में; अनिल--वायु; बन्धु;--जिसकी सहायता; उष्मा--गर्मी; बलेन--हढ़ता से; दारुणि--काठ के भीतर; अधिमथ्यमान:--रगड़ से जलाई जाने पर; अणु:--अत्यन्त सूक्ष्म; प्रजात:--उत्पन्न होती है; हविषा--घी के साथ; समेधते--बढ़ती है; तथा--उसी तरह; एव--निस्सन्देह; मे--मेरा; व्यक्ति: -- अभिव्यक्ति;इयम्--यह; हि--निश्चय ही; वाणी--वैदिक ध्वनि।
जब काठ के टुकडों को जोर से आपस में रगड़ा जाता है, तो वायु के सम्पर्क से उष्मा उत्पन्नहोती है और अग्नि की चिनगारी प्रकट होती है। एक बार अग्नि जल जाने पर उसमें घी डालनेपर अग्नि प्रज्वलित हो उठती है। इसी प्रकार मैं वेदों की ध्वनि के कम्पन में प्रकट होता हूँ।
एवं गदि: कर्म गतिर्विसर्गोघ्राणो रसो हृक्स्पर्श: श्रुतिश्च ।सट्डूल्पविज्ञानमधाभिमानःसूत्र रज:सत्त्वतमोविकार: ॥
१९॥
एवम्--इस प्रकार; गदिः--वाणी; कर्म--हाथों का कर्म; गति:ः--पाँवों का कार्य; विसर्ग:--जननेन्द्रिय तथा गुदा के कार्य;प्राण:--गन्ध; रसः--स्वाद; हक्--दृष्टि; स्पर्श:--स्पर्श; श्रुतिः--सुनना; च-- भी; सट्लडूल्प--मन का कार्य; विज्ञानम्ू-बुद्धितथा चेतन का कार्य; अथ--साथ ही; अभिमान:--मिथ्या अहंकार का कार्य; सूत्रमू--प्रधान का कार्य; रज:--रजोगुण;सत्त्त--सतोगुण; तमः--तथा तमोगुण; विकार:--रूपान्तर।
कर्मेन्द्रियों के कार्य यथा वाकू, हाथ, पैर, उपस्थ एवं नाक, जीभ, आँख, त्वचा तथा कानज्ञानेन्द्रियों के कार्य के साथ ही मन, बुद्धि, चेतना तथा अहंकार जैसी सूक्ष्म इन्द्रियों के कार्य एवंसूक्ष्म प्रधान के कार्य तथा तीनों गुणों की अन्योन्य क्रिया--इन सबों को मेरा भौतिक व्यक्त रूपसमझना चाहिए।
अयं हि जीवस्त्रिवृदब्जयोनिर्अव्यक्त एको वयसा स आद्य: ।विश्लिप्टशक्तिबहुधेव भातिबीजानि योनि प्रतिपद्य यद्वत्ू ॥
२०॥
अयमू--यह; हि--निश्चय ही; जीव:ः--परम व्यक्ति जो अन्यों को जीवन देता है; त्रि-वृतू--तीन गुणों वाला; अब्ज--ब्रह्माण्डरूपी कमल के फूल का; योनि:--स्त्रोत; अव्यक्त:--अप्रकट; एक:--अकेला; वयसा--कालक्रम से; सः--वह; आद्य:--नित्य; विश्लिप्ट--विभक्त; शक्ति: --शक्तियाँ; बहुधा-- अनेक विभागों में; इब--सहृश; भाति-- प्रकट होता है; बीजानि--बीज; योनिम्ू--खेत में; प्रतिपद्य--गिर कर; यत्-वत्--जिस तरह।
जब खेत में कई बीज डाले जाते हैं, तो एक ही स्रोत मिट्टी से असंख्य वृसश्ष, झाड़ियाँ,वनस्पतियाँ निकल आती हैं। इसी तरह सबों के जीवनदाता तथा नित्य भगवान् आदि रूप मेंविराट जगत के क्षेत्र के बाहर स्थित रहते हैं। किन्तु कालक्रम से तीनों गुणों के आश्रय तथाब्रह्माण्ड रूप कमल-फूल के स्रोत भगवान् अपनी भौतिक शक्तियों को विभाजित करते हैं औरअसंख्य रूपों में प्रकट प्रतीत होते हैं, यद्यपि वे एक हैं।
अस्मिन्िदं प्रोतमशेषमोतं'पटो यथा तन्तुवितानसंस्थ: ।य एघ संसारतरु: पुराण:कर्मात्मकः पुष्पफले प्रसूते ॥
२१॥
यस्मिनू--जिसमें; इृदम्--यह ब्रह्माण्ड; प्रोतम्ू--चौड़ाई में बुना हुआ, बाना; अशेषम्--सम्पूर्ण;, ओतम्--तथा लम्बाई में,ताना; पट:--वस्त्र; यथा--जिस तरह; तन्तु--धागों का; वितान--विस्तार; संस्थ:--स्थित; यः--जो; एष:--यह; संसार--भौतिक जगत रूपी; तरूु:--वृक्ष; पुराण:--सनातन से विद्यमान; कर्म--सकाम कर्मों की ओर; आत्मक: --सहज भाव सेउन्मुख; पुष्प--पहला परिणाम, फूल; फले--तथा फल; प्रसूते--उत्पन्न होने पर।
जिस प्रकार बुना हुआ वस्त्र ताने-बाने पर आधारित रहता है, उसी तरह सम्पूर्ण ब्रह्माण्डलम्बाई तथा चौड़ाई में भगवान् की शक्ति पर फैला हुआ है और उन्हीं के भीतर स्थित है।बद्धजीव पुरातन काल से भौतिक शरीर स्वीकार करता आया है और ये शरीर विशाल वृक्षों कीभाँति हैं, जो अपना पालन कर रहे हैं। जिस प्रकार एक वृक्ष पहले फूलता है और तब फलता है,उसी तरह भौतिक शरीर रूपी वृक्ष विविध फल देता है।
द्वे अस्य बीजे शतमूलस्त्रिनाल:पञ्ञस्कन्धः पञ्जरसप्रसूति: ।दशैकशाखो द्विसुपर्णनीडस्त्रिवल्कलो द्विफलोर्क प्रविष्ट: ॥
२२॥
अदन्ति चैक॑ फलमस्य गृश्नाग्रामेचरा एकमरण्यवासा: ।हंसा य एकं बहुरूपमिज्यै-मायामयं वेद स वेद वेदम् ॥
२३॥
द्वे--दो; अस्य--इस वृक्ष के; बीजे--बीज; शत--सैकड़ों; मूल:--जड़ों के; त्रि--तीन; नाल:--डंठल; पञ्ञ-- पाँच;स्कन्ध:--ऊपरी तना; पञ्ञ-- पाँच; रस--रस; प्रसूतिः--उत्पन्न करते हुए; दश--दस; एक--तथा एक; शाखः--शाखाएँ;द्वि--दो; सुपर्ण--पक्षियों के; नीड:--घोंसला; त्रि--तीन; वल्कल: --छाल; द्वि--दो; फल:--फल; अर्कम्--सूर्य; प्रविष्ट: --तक फैला हुआ; अदन्ति--खाते हैं; च-- भी; एकम्ू--एक; फलम्--फल; अस्य--इस वृक्ष का; गृक्षाः--भौतिक भोग केलिए कामुक; ग्रामे--गृहस्थ-जीवन में; चरा:--सजीव; एकम्--दूसरा; अरण्य--जंगल में; वासा:--वास करने वाले;हंसा:--हंस जैसे व्यक्ति, साधु-पुरुष; यः--जो; एकम्--एक, परमात्मा; बहु-रूपमू--अनेक रूपों में प्रकट होकर; इज्यैः--पूज्य गुरुओं की सहायता से; माया-मयम्-- भगवान् की शक्ति से उत्पन्न; वेद--जानता है; सः--ऐसा व्यक्ति; वेद--जानता है;बेदम्--वैदिक वाड्मय के असली अर्थ को।
इस संसार रूपी वृक्ष के दो बीज, सैकड़ों जड़ें, तीन निचले तने तथा पाँच ऊपरी तने हैं। यहपाँच प्रकार के रस उत्पन्न करता है। इसमें ग्यारह शाखाएँ हैं और दो पक्षियों ने एक घोंसला बनारखा है। यह वृक्ष तीन प्रकार की छालों से ढका है। यह दो फल उत्पन्न करता है और सूर्य तक फैला हुआ है। जो लोग कामुक हैं और गृहस्थ-जीवन में लगे हैं, वे वृक्ष के एक फल का भोगकरते हैं और दूसरे फल का भोग संन्यास आश्रम के हंस सहृश व्यक्ति करते हैं। जो व्यक्तिप्रामाणिक गुरु की सहायता से इस वृक्ष का एक परब्रह्म की शक्ति की अभिव्यक्ति के रूप मेंअनेक रूपों में प्रकट हुआ समझ लेता है, वही वैदिक वाड्मय के असली अर्थ को जानता है।
एवं गुरूपासनयैक भक््त्याविद्याकुठारेण शितेन धीरः ।विवृश्च्य जीवाशयमप्रमत्त:सम्पद्य चात्मानमथ त्यजास्त्रम्ू ॥
२४॥
एवम्--इस प्रकार ( मेरे द्वारा प्रदत्त ज्ञान से ) गुरु-गुरु की » उपासनया--उपासना या पूजा से एक- शुद्ध; भक्त्या-- भक्तिसे; विद्या--ज्ञान की; कुठारेण--कुल्हाड़ी से; शितेन--तेज; धीर:--ज्ञान के द्वारा स्थिर रहने वाला; विवृश्च्य--काट कर;जीव--जीव का; आशयम्--सूक्ष्म शरीर ( तीन गुणों से उत्पन्न उपाधियों से पूर्ण ); अप्रमत्त:--आध्यात्मिक जीवन में अत्यन्त सतर्क; सम्पद्य--प्राप्त करके; च--तथा; आत्मानम्--परमात्मा को; अथ--तब; त्यज--त्याग दो; अस्त्रमू--सिद्धि प्राप्त करनेके साधन को |
तुम्हें चाहिए कि तुम धीर बुद्धि से गुरु की सावधानी पूर्वक पूजा द्वारा शुद्ध भक्ति उत्पन्न करोतथा दिव्य ज्ञान रूपी तेज कुल्हाड़ी से आत्मा के सूक्ष्म भौतिक आवरण को काट दो। भगवान्का साक्षात्कार होने पर तुम उस तार्किक बुद्धि रूपी कुल्हाड़े को त्याग दो।
13. हंस-अवतार ब्रह्मा के पुत्रों के प्रश्नों का उत्तर देता है
श्रीभगवानुवाचसत्त्वं रजस्तम इति गुणा बुद्धेर्न चात्मन: ।सत्त्वेनान्यतमौ हन्यात्सत्त्वं सत्त्वेन चैव हि ॥
१॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् ने कहा; सत्त्वमू--सतो; रज:--रजो; तम:ः--तमो; इति--इस प्रकार ज्ञात; गुणा: --प्रकृति केगुण; बुद्धेः--भौतिक बुद्धि से सम्बद्ध; न--नहीं; च-- भी; आत्मन:--आत्मा को; सत्त्वेन--सतोगुण से; अन्यतमौ--अन्य दो( रजो तथा तमो ); हन्यात्--नष्ट किये जा सकते हैं; सत्त्वमू--सतोगुण को; सत्त्वेन--शुद्ध सतोगुण से; च-- भी ( नष्ट किया जासकता है ); एब--निश्चय ही; हि--निस्सन्देह।
भगवान् ने कहा : भौतिक प्रकृति के तीन गुण, जिनके नाम सतो, रजो तथा तमोगुण हैं,भौतिक बुद्धि से सम्बद्ध होते हैं, आत्मा से नहीं। सतोगुण के विकास से मनुष्य रजो तथातमोगुणों को जीत सकता है एवं दिव्य सत्त्व के अनुशीलन से, वह अपने को भौतिक सत्त्व सेभी मुक्त कर सकता है।
सच्त्वाद्धर्मो भवेद्वृद्धात्पुंसो मद्धक्तिलक्षण: ।सात्त्विकोपासया सत्त्वं ततो धर्म: प्रवर्तते ॥
२॥
सत्त्वात्ू-सतोगुण से; धर्म:--धार्मिक सिद्धान्त; भवेत्-उत्पन्न होते हैं; वृद्धात्--जो प्रबल बनते हैं; पुंसः--पुरुष का; मत्-भक्ति-मेरी भक्ति से; लक्षण:--लक्षणों से युक्त; सात्त्तिक--सतोगुणी वस्तुओं के; उपासया--अनुशीलन से; सत्त्वमू--सतोगुण; ततः--उस गुण से; धर्म:--धार्मिक सिद्धान्त; प्रवर्तते--उत्पन्न होता है।
जब जीव प्रबल रूप से सतोगुण में स्थित हो जाता है, तो मेरी भक्ति के लक्षणों से युक्तधार्मिक सिद्धान्त प्रधान बन जाते हैं। जो वस्तुएँ पहले से सतोगुण में स्थित हैं, उनके अनुशीलनसे सतोगुण को प्रबल बनाया जा सकता है और इस तरह धार्मिक सिद्धान्तों का उदय होता है।
धर्मो रजस्तमो हन्यात्सत्त्ववृद्धिरनुत्तम: ।आशु नश्यति तन्मूलो ह्ाधर्म उभये हते ॥
३॥
धर्म:--भक्ति पर आधारित धर्म; रज:--रजोगुण; तमः--तमोगुण; हन्यात्--नष्ट करते हैं; सत्त्वत--सतोगुण की; वृद्धधिः--वृद्धधिसे; अनुत्तम:--सबसे उत्तम; आशु--शीघ्र; नश्यति--नष्ट हो जाता है; तत्ू--रजो तथातमोगुण का; मूल:--मूल, जड़; हि--निश्चय ही; अधर्म: --अधर्म; उभये हते--दोनों के नष्ट हो जाने पर।
सतोगुण से प्रबलित धर्म, रजो तथा तमोगुण के प्रभाव को नष्ट कर देता है। जब रजो तथातमोगुण परास्त हो जाते हैं, तो उनका मूल कारण, जो कि अधर्म है, तुरन्त ही नष्ट हो जाता है।
आगमोपः प्रजा देश: काल: कर्म च जन्म च ।ध्यानं मन्त्रोथ संस्कारो दशैते गुणहेतव: ॥
४॥
आगमः--शास्त्र; अप:--जल; प्रजा:--जनता या अपने बच्चों की संगति; देश:--स्थान; काल:--समय; कर्म --कर्म; च--भी; जन्म--जन्म; च--भी; ध्यानम्- ध्यान; मन्त्र:--मंत्रोच्चारण; अथ--तथा; संस्कार:--शुद्धि के अनुष्ठान; दश--दस;एते--ये; गुण--गुण; हेतवः-- कारण |
शास्त्रों के गुण, जल, बच्चों या जनता से संगति, स्थान विशेष, काल, कर्म, जन्म, ध्यान,मंत्रोच्चार तथा संस्कार के अनुसार, प्रकृति के गुण भिन्न भिन्न प्रकार से प्रधानता प्राप्त करते हैं।
तत्तत्सात्त्विकमेवैषां यद्य॒द्वुद्धाः प्रचक्षते ।निन्दन्ति तामसं तत्तद्राजसं तदुपेक्षितम् ॥
५॥
तत् तत्--वे वे वस्तुएँ; सात्ततिकम्--सतोगुण में; एव--निस्सन्देह; एषाम्ू--इन दसों में से; यत् यत्--जो जो; वृद्धा:--प्राचीनऋषि यथा व्यासदेव जो वैदिक ज्ञान में पटु हैं; प्रचक्षते-- प्रशंसा करते हैं; निन्दन्ति--निन्दा करते हैं; तामसम्--तमोगुणी; तत्तत्--वे वे वस्तुएँ; राजसम्--रजोगुण में; तत्--मुनियों द्वारा; उपेक्षितम्--न तो प्रशंसित, न आलोचित, सर्वथा त्यक्त |
अभी मैंने जिन दस वस्तुओं का उल्लेख किया है, उनमें से जो सात्विक वस्तुएँ हैं उनकीप्रशंसा तथा संस्तुति, जो तामसिक हैं उनकी आलोचना तथा बहिष्कार एवं जो राजसिक हैं उनकेप्रति उपेक्षा का भाव, उन मुनियों द्वारा व्यक्त किया गया है, जो वैदिक ज्ञान में पटु हैं।
सात्त्विकान्येव सेवेत पुमान्सत्त्वविवृद्धये ।ततो धर्मस्ततो ज्ञानं यावत्स्मृतिरपोहनम् ॥
६॥
सात्त्विकानि--सतोगुणी वस्तुएँ; एब--निस्सन्देह; सेवेत--अनुशीलन करे; पुमान्--पुरुष; सत्त्त--सतोगुण; विवृद्धये --बढ़ानेके लिए; ततः--उस ( सतोगुण में वृद्धि ) से; धर्म:--धार्मिक सिद्धान्तों में स्थिर; तत:--उस ( धर्म ) से; ज्ञानमू--ज्ञान प्रकटहोता है; यावत्--जब तक; स्मृतिः--अपने नित्य स्वरूप का स्मरण करते हुए, आत्म-साक्षात्कार; अपोहनम्ू--दूर करना ( शरीरतथा मन से मोहमयी पहचान )।
जब तक मनुष्य आत्मा विषयक प्रत्यक्ष ज्ञान को पुनरुज्जीवित नहीं कर लेता और प्रकृति केतीन गुणों से उत्पन्न भौतिक शरीर तथा मन से मोहमयी पहचान को हटा नहीं देता, तब तक उसेसतोगुणी वस्तुओं का अनुशीलन करते रहना चाहिए। सतोगुण के बढ़ाने से, वह स्वतः धार्मिकसिद्धान्तों को समझ सकता है और उनका अभ्यास कर सकता है। ऐसे अभ्यास से दिव्य ज्ञानजागृत होता है।
वेणुसड्डर्षजो वह्िर्दग्ध्वा शाम्यति तद्दनम् ।एवं गुणव्यत्ययजो देह: शाम्यति तत्क्रिय: ॥
७॥
वेणु--बाँस की; सड्डर्ष-ज:--रगड़ से उत्पन्न; वहिः--आग; दग्ध्वा--जलाकर; शाम्यति--शान्त हो जाती है; तत्--बाँस के;वनम्--जंगल को; एवम्--इस प्रकार; गुण--गुणों के; व्यत्यय-ज:--अन्योन्य क्रिया से उत्पन्न; देह:-- भौतिक शरीर;शाम्यति--शान्त की जाती है; तत्ू--वह अग्नि; क्रियः:--वही कार्य करके |
बाँस के जंगल में कभी कभी वायु बाँस के तनों में रगड़ उत्पन्न करती है और ऐसी रगड़ सेप्रज़वलित अग्नि उत्पन्न हो जाती है, जो अपने जन्म के स्त्रोत, बाँस के जंगल, को ही भस्म करदेती है। इस प्रकार अग्नि अपने ही कर्म से स्वतः प्रशमित हो जाती है। इसी तरह प्रकृति केभौतिक गुणों में होड़ तथा पारस्परिक क्रिया होने से, स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर उत्पन्न होते हैं। यदिमनुष्य अपने मन तथा शरीर का उपयोग ज्ञान का अनुशीलन करने में करता है, तो ऐसा ज्ञान देह को उत्पन्न करने वाले गुणों के प्रभाव को नष्ट कर देता है। इस तरह, अग्नि के ही समान, शरीरतथा मन अपने जन्म के स्त्रोत को विनष्ट करके अपने ही कर्मों से शान्त हो जाते हैं।कर दिया जायेगा।
श्रीउद्धव उबाचविदन्ति मर्त्या: प्रायेण विषयान्पदमापदाम् ।तथापि भुज्जते कृष्ण तत्कथं श्रखराजवत् ॥
८॥
श्री-उद्धवः उवाच--उद्धव ने कहा; विदन्ति--जानते हैं; मर्त्या:--मनुष्यगण; प्रायेण--सामान्यतया; विषयान्--इन्द्रियतृप्ति;'पदम्--स्थिति; आपदाम्--अनेक विपत्तियों की; तथा अपि--फिर भी; भुझ्जते-- भोगते हैं; कृष्ण--हे कृष्ण; तत्ू--ऐसीइन्द्रियतृप्ति; कथम्--कैसे सम्भव है; श्र--कुत्ते; खर--गधे; अज--तथा बकरे; वत्--सहृश ।
श्री उद्धव ने कहा : हे कृष्ण, सामान्यतया मनुष्य यह जानते हैं कि भौतिक जीवन भविष्य मेंमहान् दुख देता है, फिर भी वे भौतिक जीवन का भोग करना चाहते हैं। हे प्रभु, यह जानते हुएभी, वे किस तरह कुत्ते, गधे या बकरे जैसा आरचण करते हैं।तात्पर्य : भौतिक जगत में भोग की मानक विधियाँ हैं--यौन, धन तथा मिथ्या प्रतिष्ठा। ये सब श्रीभगवानुवाचअहमित्यन्यथाबुद्द्ि: प्रमत्तस्य यथा हृदि ।उत्सर्पति रजो घोरं ततो वैकारिकं मनः ॥
९॥
रजोयुक्तस्थ मनसः सड्डूल्प:ः सविकल्पक: ।ततः कामो गुणध्यानादुःसहः स्याद्ध्धि दुर्मतेः ॥
१०॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् ने कहा; अहम्ू--शरीर तथा मन के साथ झूठी पहचान; इति--इस प्रकार; अन्यथा-बुद्धि: --मोहमय ज्ञान; प्रमत्तस्य--वास्तविक बुद्धि से रहित है, जो उसका; यथा--तदनुसार; हृदि--मन के भीतर; उत्सर्पति--उठती है;रज:--कामवासना; घोरम्-- भयावह कष्ट देने वाला; ततः--तब; वैकारिकम्--( मूलतः ) सतोगुण में; मनः--मन; रज: --रजोगुण में; युक्तस्थ--लगा हुआ है, जो उसका; मनसः--मन का; सड्डूल्प:--संकल्प; स-विकल्पक:--बदलाव सहित;ततः--उससे; काम:ः--पूर्ण भौतिक इच्छा; गुण--गुणों में; ध्यानातू--ध्यान से; दुःसहः--असहा; स्यथात्--ऐसा ही हो; हि--निश्चय ही; दुर्मतेः--मूर्ख व्यक्ति का।
भगवान् ने कहा : हे उद्धव, बुद्धिरहित व्यक्ति सर्वप्रथम अपनी झूठी पहचान भौतिक शरीरतथा मन के साथ करता है और जब किसी की चेतना में ऐसा मिथ्या ज्ञान उत्पन्न हो जाता है, तोमहान् कष्ट का कारण, भौतिक काम ( विषय-वासना ), उस मन में व्याप्त हो जाता है, जोस्वभाव से सात्विक होता है। तब काम द्वारा दूषित मन भौतिक उन्नति के लिए तरह-तरह कीयोजनाएँ बनाने में एवं बदलने में लीन हो जाता है। इस प्रकार सदैव गुणों का चिन्तन करते हुए,मूर्ख व्यक्ति असहा भौतिक इच्छाओं से पीड़ित होता रहता है।
'करोति कामवशग: कर्माण्यविजितेन्द्रिय: ।दुःखोदर्काणि सम्पश्यन्रजोवेगविमोहित: ॥
११॥
करोति--करता है; काम-- भौतिक इच्छाओ के; वश--अधीन; ग:--जाकर; कर्माणि--सकाम कर्म; अविजित--- अवश्य;इन्द्रियः--जिसकी इन्द्रियाँ; दुःख--दुख; उरदर्काणि-- भावी फल के रूप में लाते हुए; सम्पश्यन्--स्पष्टदेखते हुए; रज:--रजोगुण का; वेग--वेग से; विमोहितः --मोह ग्रस्त
जो भौतिक इन्द्रियों को वश में नहीं करता, वह भौतिक इच्छाओं के वशीभूत हो जाता हैऔर इस तरह वह रजोगुण की प्रबल तरंगों से मोहग्रस्त हो जाता है। ऐसा व्यक्ति भौतिक कर्मकरता रहता है, यद्यपि उसे स्पष्ट दिखता है कि इसका फल भावी दुख होगा।
रजस्तमोभ्यां यदपि विद्वान्विक्षिप्तधी: पुनः ।अतन्द्रितो मनो युझ्जन्दोषदृष्टिन सजजते ॥
१२॥
रजः-तमोभ्याम्ू--रजो तथा तमोगुणों से; यत् अपि--यद्यपि; विद्वानू--विद्वान व्यक्ति; विक्षिप्त--मोहग्रस्त; धी:--बुद्ध्धि;पुनः--फिर; अतन्द्रितः:--सावधानी से; मन: --मन; युद्जनू--लगाते हुए; दोष-- भौतिकआसक्ति का कल्मष; दृष्टि:--स्पष्टदेखते हुए; न--नहीं; सजते--लिप्त नहीं होता ।
यद्यपि विद्वान पुरुष की बुद्धि रजो तथा तमोगुणों से मोहग्रस्त हो सकती है, किन्तु उसेचाहिए कि वह सावधानी से अपने मन को पुनः अपने वश्ञ में करे। गुणों के कल्मष को स्पष्टदेखने से वह आसक्त नहीं होता।
अप्रमत्तोनुयुज्जीत मनो मय्यर्पयज्छनै: ।अनिर्विण्णो यथाकालं जितश्वासो जितासनः ॥
१३॥
अप्रमत्त:--सतर्क तथा गम्भीर; अनुयुज्जीत--स्थिर करे; मन:ः--मन; मयि--मुझमें; अर्पयन्--लीन करते हुए; शनैः--धीरे धीरे;अनिर्विण्णग:--आलसी या खिन्न हुए बिना; यथा-कालम्--दिन में कम से कम तीन बार ( प्रातः, दोपहर तथा संध्या-समय );जित--जीत कर; श्वास: -- श्रास लेने की विधि; जित--जीत कर; आसन: --बैठने की शैली
मनुष्य को सावधान तथा गम्भीर होना चाहिए और उसे कभी भी आलसी या खिन्न नहीं होनाचाहिए। श्वास तथा आसन की योग-क्रियाओं में दक्ष बन कर, मनुष्य को अपना मन प्रातः,दोपहर तथा संध्या-समय मुझ पर एकाग्र करके इस तरह मन को धीरे धीरे मुझमें पूरी तरह सेलीन कर लेना चाहिए।
एतावान्योग आदिष्टो मच्छिष्यै: सनकादिभि: ।सर्वतो मन आकृष्य मय्यद्धावेश्यते यथा ॥
१४॥
एतावानू्--वास्तव में यह; योग:--योग-पद्धति; आदिष्ट:--आदेश दिया हुआ; मत्-शिष्यै: --मेंरे भक्तों द्वारा; सनक-आदिभिः:--सनक कुमार इत्यादि द्वारा; सर्वतः--सभी दिशाओं से; मन:--मन को; आकृष्य--खींच कर; मयि--मुझमें;अद्धा--सीधे; आवेश्यते--लीन किया जाता है; यथा--तदनुसार |
सनक कुमार इत्यादि मेरे भक्तों द्वारा पढ़ायी गयी वास्तविक योग-पद्धति इतनी ही हैं किअन्य सारी वस्तुओं से मन को हटाकर मनुष्य को चाहिए कि उसे सीधे तथा उपयुक्त ढंग से मुझ में लीन कर दे।श्रीउद्धव उबाचयदा त्वं सनकादिभ्यो येन रूपेण केशव ।योगमादिष्टवानेतद्रूपमिच्छामि वेदितुम्ू ॥
१५॥
श्री-उद्धवः उबाच-- श्री उद्धव ने कहा; यदा--जब; त्वम्--तुम; सनक-आदिश्य: --सनक आदि को; येन--जिससे;रूपेण--रूप से; केशव--हे केशव; योगम्--परब्रह्म में मन को स्थिर करने की विधि; आदिष्टवान्--आपने आदेश दिया है;एततू--वह; रूपमू--रूप; इच्छामि--चाहता हूँ; वेदितुमू--जानना
श्री उद्धव ने कहा : हे केशव, आपने सनक तथा उनके भाइयों को किस समय तथा किसरूप में योग-विद्या के विषय में उपदेश दिया ? अब मैं इन बातों के विषय में जानना चाहता हूँ।
श्रीभगवानुवाचपुत्रा हिरण्यगर्भस्य मानसा: सनकादयः पप्रच्छु: पितरं सूक्ष्मां योगस्यैकान्तिकीमातिम् ॥
१६॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; पुत्रा:--पुत्र; हिरण्य-गर्भस्य--ब्रह्मा के; मानसा:--मन से उत्पन्न; सनक-आदय: --सनक ऋषि इत्यादि ने; पप्रच्छु:--पूछा; पितरम्--अपने पिता ( ब्रह्मा ) से; सूक्ष्माम्-सूक्ष्म अतएबसमझने में कठिन; योगस्य--योग-विद्या का; एकान्तिकीमू--परम; गतिम्--लक्ष्य |
भगवान् ने कहा, एक बार सनक आदि ब्रह्मा के मानस पुत्रों ने अपने पिता से योग के परमलक्ष्य जैसे अत्यन्त गूढ़ विषय के बारे में पूछा।
सनकादय ऊचुःगुणेष्वाविशते चेतो गुणाश्रेतसि च प्रभो ।कथमन्योन्यसन्त्यागो मुमुक्षोरतितितीर्षों: ॥
१७॥
सनक-आदय: ऊचु:--सनक इत्यादि ऋषियों ने कहा; गुणेषु--इन्द्रिय-विषयों में; आविशते--सीधे प्रवेश करता है; चेत:--मन; गुणा: --इन्द्रिय-विषय; चेतसि--मन के भीतर; च-- भी; प्रभो--हे प्रभु; कथम्--वह विधि क्या है; अन्योन्य--इन्द्रिय-विषयों तथा मन का पारस्परिक सम्बन्ध; सन्त्याग:--वैराग्य; मुमुक्षो: --मोक्ष की कामना करने वाले का; अतितितीर्षो: --इन्द्रियतृप्ति को पार कर जाने के इच्छुक का।
सनकादि ऋषियों ने कहा : हे प्रभु, लोगों के मन स्वभावत: भौतिक इन्द्रिय-विषयों के प्रतिआकृष्ट रहते हैं और इसी तरह से इन्द्रिय-विषय इच्छा के रूप में मन में प्रवेश करते हैं। अतएव मोक्ष की इच्छा करने वाला तथा इन्द्रियतृप्ति के कार्यों को लाँघने की इच्छा करने वाला व्यक्तिइन्द्रिय-विषयों तथा मन के बीच पाये जाने वाले इस पारस्परिक सम्बन्ध को कैसे नष्ट करे?कृपया हमें यह समझायें ।
श्रीभगवानुवाचएवं पृष्टो महादेव: स्वयम्भूभ्भूतभावन: ।ध्यायमान: प्रश्नबीजं नाभ्यपद्यत कर्मधी: ॥
१८॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् ने कहा; एवम्--इस प्रकार; पृष्ट:--पूछे जाने पर; महा-देवः --महान् देवता ब्रह्मा; स्वयम्-भू:--बिना जन्म के ( गर्भोदकशायी विष्णु के शरीर से सीधे उत्पन्न ); भूत--सारे बद्धजीवों के; भावन:--स्त्रष्टा ( बद्ध जीवन के );ध्यायमान:--गम्भीरतापूर्वक विचार करते हुए; प्रश्न-- प्रश्न के; बीजम्--सत्य; न अभ्यपद्यत--नहीं पहुँचा; कर्म-धी:--अपनेही कर्मों द्वारा मोहित बुद्धि |
भगवान् ने कहा : हे उद्धव, भगवान् के शरीर से उत्पन्न तथा भौतिक जगत के समस्त जीवोंके स्त्रष्टा स्वयं ब्रह्माजी ने सर्वोच्च देवता होने के कारण सनक आदि अपने पुत्रों के प्रश्न परगम्भीरतापूर्वक विचार किया। किन्तु ब्रह्मा की बुद्धि अपनी सृष्टि के कार्यो से प्रभावित थी, अतःवे इस प्रश्न का सही उत्तर नहीं ढूँढ सके ।
स मामचिन्तयद्देव: प्रश्नपारतितीर्षया ।तस्याहं हंसरूपेण सकाशमगमं तदा ॥
१९॥
सः--उस ( ब्रह्मा ) ने; मामू--मुझको; अचिन्तयत्--स्मरण किया; देव: --आदि देवता; प्रश्न-- प्रश्न का; पार--अन्त, निष्कर्ष( उत्तर ); तितीर्षया--प्राप्त करने या समझने की इच्छा से; तस्य--उस तक; अहमू--मैं; हंस-रूपेण--हंस के रूप में;सकाशम्--हृश्य; अगममू--हो गया; तदा--उस समय ।
ब्रह्माजी उस प्रश्न का उत्तर पाना चाह रहे थे, जो उन्हें उद्विग्न कर रहा था, अतएव उन्होंनेअपना मन भगवान् में स्थिर कर दिया। उस समय, मैं अपने हंस रूप में ब्रह्मा को दृष्टिगोचरहुआ।
इृष्टा माम्त उपब्रज्य कृत्व पादाभिवन्दनम् ।ब्रह्माणमग्रतः कृत्वा पप्रच्छु? को भवानिति ॥
२०॥
इष्ठा--देख कर; माम्--मुझको; ते--वे ( मुनिगण ); उपब्रज्य--निकट आकर; कृत्वा--करके; पाद--चरणकमलों पर;अभिवन्दनम्--नमस्कार; ब्रह्मणम्--ब्रह्माजी को; अग्रत:--सामने; कृत्वा--करके ; पप्रच्छु: --पूछा; कः भवान्ू--आप कौनहैं; इति--इस प्रकार।
इस प्रकार मुझे देख कर सारे मुनि, ब्रह्म को आगे करके, आगे आये और मेरे चरणकमलोंकी पूजा की। तत्पश्चात् उन्होंने साफ साफ पूछा कि, ' आप कौन हैं ?' इत्यहं मुनिभि: पृष्टस्तत्त्वजिज्ञासुभिस्तदा ।यदवोचमहं तेभ्यस्तदुद्धव निबोध मे ॥
२१॥
इति--इस प्रकार; अहम्--मैं; मुनिभि:--मुनियों के द्वारा; पृष्टः--पूछा जाने पर; तत्त्व--योग के लक्ष्य के विषय में सत्य;जिज्ञासुभि:--जानने की इच्छा रखने वालों के द्वारा; तदा--उस समय; यत्--जो; अवोचम्--बोला; अहमू--मैं; तेभ्य: --उनसे; तत्--वह; उद्धव--हे उद्धव; निबोध--सीखो; मे--मुझसे |
हे उद्धव, मुनिगण योग-पद्धति के परम सत्य को जानने के इच्छुक थे, अतएव उन्होंने मुझसेइस प्रकार पूछा। मैंने मुनियों से जो कुछ कहा, उसे अब मुझसे सुनो।
वस्तुनो यद्यनानात्व आत्मन: प्रश्न ईहशः ।कथं घटेत वो विप्रा वक्तुर्वा मे क आश्रय: ॥
२२॥
वस्तुन:ः--व्गास्तविकता का; यदि--यदि; अनानात्वे--व्यष्टिहीनता में; आत्मन:--जीवात्मा के; प्रश्न: --प्रश्न; ईहश:ः --ऐसा;कथम्--कैसे; घटेत--सम्भव है, अथवा उपयुक्त है; वः--पूछ रहे तुम्हारा; विप्रा:--हे ब्राह्मण; वक्तु:--वक्ता का; वा--अथवा; मे--मेरा; क:ः--क्या है; आश्रय:--असली स्थिति अथवा आश्रय ।
हे ब्राह्मणो, यदि तुम लोग मुझसे पूछते हो कि मैं कौन हूँ, तो यदि तुम यह विश्वास करते होकि मैं भी जीव हूँ और हम लोगों में कोई अन्तर नहीं है--क्योंकि अन्ततः सारे जीव एक हैं--तोफिर तुम लोगों का प्रश्न किस तरह सम्भव या उपयुक्त ( युक्ति संगत ) है ? अन्ततः तुम्हारा औरमेरा दोनों का असली आश्रय क्या है ? पशञ्जात्मकेषु भूतेषु समानेषु च वस्तुतः ।को भवानिति वः प्रश्नो वाचारम्भो हानर्थकः ॥
२३॥
पञ्ञ--पाँच तत्त्वों के; आत्मकेषु--बने हुए; भूतेषु--विद्यमान; समानेषु--एक समान; च--भी; वस्तुत:--सार रूप में; कः--कौन; भवान्--आप हैं; इति--इस प्रकार; व:--तुम्हारा; प्रश्न:--प्रश्न; वाचा--वाणी से; आरम्भ:--ऐसा प्रयास; हि--निश्चयही; अनर्थकः--असली अर्थ या अभिप्राय से रहित।
यदि तुम लोग मुझसे यह प्रश्न पूछ कर कि, 'आप कौन हैं ?' भौतिक देह की बात करनाचाहते हो, तो मैं यह इंगित करना चाहूँगा कि सारे भौतिक देह पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथाआकाश--इन पाँच तत्त्वों से मिल कर बने हैं। इसलिए, तुम लोगों को इस प्रकार पूछना चाहिएथा, 'आप पाँच कौन हैं?' यदि तुम लोग यह मानते हो कि सारे भौतिक देह एकसमान तत्त्वोंसे बने होने से, अन्ततः एक हैं, तो भी तुम्हारा प्रश्न निरर्थक है क्योंकि एक शरीर से दूसरे शरीरमें भेद करने में कोई गम्भीर प्रयोजन नहीं है। इस तरह ऐसा लगता है कि मेरी पहचान पूछ कर,तुम लोग ऐसे शब्द बोल रहे हो जिनका कोई वास्तविक अर्थ या प्रयोजन नहीं है।
मनसा वचसा हृष्टया गृह्मतेउन्यैरपीन्द्रिये: ।अहमेव न मत्तोन्यदिति बुध्यध्वमझसा ॥
२४॥
मनसा--मन से; वचसा-- वाणी से; दृष्या--दृष्टि से; गृह्मते--ग्रहण किया जाता है, स्वीकार किया जाता है; अन्यै:-- अन्य;अपि--बद्यर्पा; इन्द्रियैः --इन्द्रियों के द्वारा; अहम्--मैं; एब--निस्सन्देह; न--नहीं; मत्त:--मेंरे अतिरिक्त; अन्यत्--अन्य कोईवस्तु; इति--इस प्रकार; बुध्यध्वम्-तुम्हें समझना चाहिए; अज्ञसा--तथ्यों के सीधेविश्लेषण से |
इस जगत में, मन, वाणी, आँखों या अन्य इन्द्रियों के द्वारा जो भी अनुभव किया जाता है,वह एकमात्र मैं हूँ, मेरे अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। तुम सभी लोग तथ्यों के सीधे विश्लेषण सेइसे समझो।
गुणेष्वाविशते चेतो गुणाश्रेतसि च प्रजा: ।जीवस्य देह उभयं गुणाश्वेतो मदात्मतः ॥
२५॥
गुणेषु--इन्द्रिय-विषयों में; आविशते--प्रविष्ट करता है; चेतः:--मन; गुणा:--इन्द्रिय-विषय; चेतसि--मन में ; च-- भी ( प्रवेशकरते हैं ); प्रजा:--मेरे पुत्रों; जीवस्य--जीव का; देह:--बाह्य शरीर, उपाधि के रूप में; उभयम्--इन दोनों; गुणा: --इन्द्रिय-विषय; चेत:--मन; मत्-आत्मन: --परमात्मा रूप में मुझे पाकर |
हे पुत्रो, मन की सहज प्रवृत्ति भौतिक इन्द्रिय-विषयों में प्रविष्ट करने की होती है और इसीतरह इन्द्रिय-विषय मन में प्रवेश करते हैं। किन्तु भौतिक मन तथा इन्द्रिय-विषय दोनों हीउपाधियाँ मात्र हैं, जो मेरे अंशरूप आत्मा को प्रच्छन्न करती हैं।
गुणेषु चाविशच्चित्तमभीक्ष्णं गुणसेवया ।गुणाश्च चित्तप्रभवा मद्गूप उभयं त्यजेत्ू ॥
२६॥
गुणेषु--इन्द्रिय-विषयों में; च--तथा; आविशत्-प्रविष्ट हुआ; चित्तम्ू--मन; अभीक्ष्णम्-पुनः पुनः; गुण-सेवया--इन्द्रियतृप्ति द्वारा; गुणा:--तथा भौतिक इन्द्रिय-विषय; च--भी; चित्त--मन के भीतर; प्रभवा:--मुख्य रूप से उपस्थित होकर;मत्-रूप:--जिसने अपने को मुझसे अभिन्न समझ लिया है और इस तरह जो मेरे रूप, लीला आदि में लीन रहता है; उभयम्--दोनों ( मन तथा इन्द्रिय-विषय ); त्यजेतू--त्याग देना चाहिए
जिस व्यक्ति ने यह जान कर कि वह मुझसे भिन्न नहीं है, मुझे प्राप्त कर लिया है, वहअनुभव करता है कि मन निरन्तर इन्द्रियतृप्ति के कारण इन्द्रिय-विषयों में रमा रहता है औरभौतिक वस्तुएँ मन के भीतर स्पष्टतया स्थित रहती हैं। मेरे दिव्य स्वभाव को समझ लेने के बाद,वह मन तथा इसके विषयों को त्याग देता है।
जाग्रत्स्वष्न: सुषुप्तं च गुणतो बुद्धिवृत्तय: ।तासां विलक्षणो जीव: साक्षित्वेन विनिश्चित:ः ॥
२७॥
जाग्रत्ू--जगा हुआ; स्वप्न:--स्वप्न देखता; सु-सुप्तम्--गहरी नींद; च--भी; गुणतः--गुणों से उत्पन्न; बुद्धि--बुद्धि के;वृत्तय:--कार्य; तासाम्--ऐसे कार्यो से; विलक्षण:--विभिन्न लक्षणों वाला; जीव:--जीव; साक्षित्वेन--साक्षी होने के लक्षणसे युक्त; विनिश्चित:--सुनिश्चित किया जाता है
जगना, सोना तथा गहरी नींद--ये बुद्धि के तीन कार्य है और प्रकृति के गुणों द्वारा उत्पन्नहोते है। शरीर के भीतर का जीव इन तीनों अवस्थाओं से भिन्न लक्षणों द्वारा सुनिश्चित होता है,अतएव वह उनका साक्षी बना रहता है।
यहिं संसृतिबन्धोयमात्मनो गुणवृत्तिद: ।मयि तुर्ये स्थितो जह्यात्त्यागस्तद्गुणचेतसाम् ॥
२८ ॥
यहि-- क्योंकि; संसति-- भौतिक बुद्धि या संसार का; बन्ध: --बन्धन; अयम्--यह है; आत्मन:--आत्मा का; गुण-- प्रकृति केगुणों में; वृत्ति-दः --वृत्तिपरक कार्य देने वाली; मयि--मुझमें; तुर्ये--चौथे तत्त्व में ( जाग्रत, सुप्त, सुषुप्त से आगे ); स्थित: --स्थित; जह्यातू--त्याग दे; त्याग:--वैराग्य; तत्ू--उस समय; गुण--इन्द्रिय-विषयों का; चेतसामू--तथा मन का ।
आत्मा भौतिक बुद्धि के बन्धन में बन्दी है, जो उसे प्रकृति के मोहमय गुणों से निरन्तरलगाये रहती है। लकिन मै चेतना की चौथी अवस्था--जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्त से परे--हूँ।मुझमें स्थित होने पर, आत्मा को भौतिक चेतना का बन्धन त्याग देना चाहिए। उस समय, जीवस्वतः भौतिक इन्द्रिय-विषयों तथा भौतिक मन को त्याग देगा।
अहड्ढारकृतं बन्धमात्मनोर्थविपर्ययम् ।दिद्वान्निर्विद्य संसारचिन्तां तुर्ये स्थितस्त्यजेतू ॥
२९॥
अहड्ढडार--मिथ्या गर्व से; कृतम्--उत्पन्न; बन्धम्--बन्धन; आत्मन:--आत्मा का; अर्थ--जो वास्तव में उपयोगी है उसका;विपर्ययम्--उल्टा, विरुद्ध; विद्वान्ू--जानने वाला; निर्विद्य--विरक्त होकर; संसार--जगत में; चिन्ताम्--निरन्तर विचार;तुर्ये--चौथे तत्त्व, भगवान् में; स्थितः--स्थित होकर; त्यजेत्--त्याग दे
जीव का अहंकार उसे बन्धन में डालता है और जीव जो चाहता है उसका सर्वथा विपरीतउसे देता है। अतएव बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि भौतिक जीवन भोगने की स्थायी चिन्ताको त्याग दे और भगवान् में स्थित रहे, जो भौतिक चेतना के कार्यो से परे है।
यावन्नानार्थधीः पुंसो न निवर्तेत युक्तिभि: ।जागर्त्यपि स्वपन्नज्ञ: स्वप्ने जागरणं यथा ॥
३०॥
यावत्--जब तक; नाना--अनेक; अर्थ--महत्त्व का; धी:-- धारणा; पुंसः--पुरुष का; न--नहीं; निवर्तेत--शमन होता है;युक्तिभिः --उपयुक्त विधियों से ( जिन्हें मैने बताया है ); जागर्ति--जाग्रत रहने से; अपि--यद्यपि; स्वपन्--सोते या स्वप्न देखते;अज्ञ:--वस्तुओं को उसी रूप में न देखने वाला; स्वप्ने--सपने में; जागरणम्--जाग्रत रह कर; यथा--जिस तरह।
मनुष्य को चाहिए कि मेरे आदेशों के अनुसार वह अपना मन मुझ में स्थिर करे। किन्तु यदिवह हर वस्तु को मेरे भीतर न देख कर जीवन में अनेक प्रकार के अर्थ तथा लक्ष्य देखता रहताहै, तो वह, जगते हुए भी, अपूर्ण ज्ञान के कारण, वास्तव में स्वप्न देखता रहता है, जिस तरहवह यह स्वप्न देखे कि वह स्वप्न से जग गया है।
असत्त्वादात्मनो३न्येषां भावानां तत्कृता भिदा ।गतयो हेतवश्वास्य मृषा स्वजहशो यथा ॥
३१॥
असत्त्वात्ू--वास्तविक अस्तित्व के अभाव में; आत्मन:-- भगवान् से; अन्येषाम्--अन्य; भावानाम्--अस्तित्व की दशाओं के;तत्--उनके द्वारा; कृता--उत्पन्न; भिदा--अन्तर या बिछोह; गतयः--लक्ष्य यथा स्वर्ग जाना; हेतव:ः--सकाम कर्म जो भावी'फल के कारण है; च-- भी; अस्य--जीव का; मृषा--झूठा; स्वज--सपने का; दृशः--देखने वाले का; यथा--जिस तरह ।
उन जगत की अवस्थाओं का जिन्हें भगवान् से पृथक्् सोचा जाता है, वास्तविक अस्तित्व नहीं होता, यद्यपि वे परब्रह्म से पृथकत्व की भावना उत्पन्न करती है। जिस तरह स्वप्न देखनेवाला नाना प्रकार के कार्यों तथा फलों की कल्पना करता है उसी तरह भगवान् से पृथक्अस्तित्व की भावना से जीव झूठे ही सकाम कर्मों को भावी फल तथा गन्तव्य का कारणसोचता हुआ कर्म करता है।
यो जागरे बहिरनुक्षणधर्मिणो< र्थान्भुड़े समस्तकरणैईदि तत्सदक्षान् ।स्वप्ने सुषुप्त उपसंहरते स एक:स्मृत्यन्वयात्रत्रिगुणवृत्तिहगिन्द्रियेश: ॥
३२॥
यः--जो जीव; जागरे--जगते हुए; बहि:--बाह्य; अनुक्षण-- क्षणिक ; धर्मिण: --गुण; अर्थानू--शरीर, मन तथा उनकेअनुभव; भुड़े -- भोगता है; समस्त--समस्त; करणै:--इन्द्रियों से; हदि--मन के भीतर; तत्-सहक्षान्--जगते हुए में जैसेअनुभव; स्वप्ने--स्वप्नों में; सुषुप्ते--स्वप्नरहित गहरी नींद में; उपसंहरते--अज्ञान में लीन हो जाता है; सः--वह; एक:--एक;स्मृति--स्मरणशक्ति का; अन्वयात्--क्रम से; त्रि-गुण--जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्त, इन तीन अवस्थाओं के; वृत्ति--कार्य;हक्--देखना; इन्द्रिय--इन्द्रियों का; ईशः--स्वामी बनता है|
जाग्रत रहने पर जीव अपनी सारी इन्द्रियों से भौतिक शरीर तथा मन के सारे क्षणिक गुणोंका भोग करता है; स्वप्न के समय वह मन के भीतर ऐसे ही अनुभवों का आनन्द लेता है औरप्रगाढ़ स्वप्नरहित निद्रा में ऐसे सारे अनुभव अज्ञान में मिल जाते है। जागृति, स्वप्न तथा सुषुप्तिकी सरणि को स्मरण करते तथा सोचते हुए, जीव यह समझ सकता है कि वह चेतना की तीनोंअवस्थाओं में एक ही है और दिव्य है। इस तरह वह अपनी इन्द्रियों का स्वामी बन जाता है।
एवं विमृश्य गुणतो मनसस्त्र्यवस्थामन्मायया मयि कृता इति निश्चितार्था: ।सछ्छिद्य हार्दमनुमानसदुक्तिती क्षणज्ञानासिना भजत माखिलसंशयाधिम् ॥
३३॥
एवम्--इस प्रकार; विमृश्य--विचार करके; गुणतः--गुणों से; मनसः--मन की; त्रि-अवस्था:--चेतना की तीन अवस्थाएँ;मत्-मायया--मेरी मायाशक्ति के प्रभाव से; मयि--मुझमें; कृता:--आरोपित; इति--इस प्रकार; निश्चित-अर्था:--जिन्होंनेआत्मा के वास्तविक अर्थ को निश्चित कर लिया है; सज्छिद्य--काट कर; हार्दमू--हृदय में स्थित; अनुमान--तर्क द्वारा; सतू-उक्ति--तथा मुनियों और वैदिक ग्रंथों के आदेशों से; तीक्ष्ण--तेज; ज्ञान--ज्ञान की; असिना--तलवार से; भजत--आप कीसारी पूजा; मा--मुझको; अखिल--समस्त; संशय--संदेह; आधिम्--कारण
( मिथ्या अभिमान )तुम्हें विचार करना चाहिए कि किस तरह, प्रकृति के गुणों द्वारा उत्पन्न, मन की ये तीनअवस्थाएँ, मेरी मायाशक्ति के प्रभाव से, मुझमें कृत्रिम रूप से विद्यमान मानी गई है। तुम्हें आत्माकी सत्यता को सुनिश्चित कर लेने के बाद, तर्क तथा मुनियों एवं वैदिक ग्रंथों के आदेशों सेप्राप्त, ज्ञानरूपी तेज तलवार से मिथ्या अभिमान को पूरी तरह काट डालना चाहिए क्योंकि यहीसमस्त संशयों को प्रश्नय देने वाला है। तब तुम सबों को, अपने हृदयों में स्थित, मेरी पूजा करनीचाहिए।
ईक्षेत विभ्रममिदं मनसो विलासंहृष्ट विनष्टमतिलोलमलातचक्रम् ।विज्ञानमेकमुरुधेव विभाति मायास्वप्नस्त्रिधा गुणविसर्गकृतो विकल्प: ॥
३४॥
ईक्षेत--देखना चाहिए; विभ्रमम्-- भ्रम या त्रुटि के रूप में; इदम्--इस ( भौतिक जगत ); मनस:--मन का; विलासम्--प्राकट्य या कूदफाँद; दृष्टम्ू--आज है; विनष्टम्ू--कल नहीं है; अति-लोलम्--अत्यन्त चलायमान; अलात-चक्रम्--जलतीलकड़ी को घुमाने से बना हुआ गोला, लुकाठ की बनेठी; विज्ञानमू--सहज सचेतन आत्मा; एकम्--एक है; उरुधा--अनेकविभागों में; इब--मानो; विभाति-- प्रकट होती है; माया--यह माया है; स्वप्न:--मात्र स्वप्न; त्रिधा--तीन विभागों में; गुण--गुणों का; विसर्ग--विकार का; कृत:--उत्पन्न; विकल्प:--अनुभूति या कल्पना का भेद |
मनुष्य को देखना चाहिए कि यह भौतिक जगत मन में प्रकट होने वाला स्पष्ट भ्रम है,क्योंकि भौतिक वस्तुओं का अस्तित्व अत्यन्त क्षणिक है और वे आज है, किन्तु कल नहीं रहेंगी।इनकी तुलना लुकाठ के घुमाने से बने लाल रंग के गोले से की जा सकती है। आत्मा स्वभाव सेएक ही विशुद्ध चेतना के रूप में विद्यमान रहता है। किन्तु इस जगत में वह अनेक रूपों औरअवस्थाओं में प्रकट होता है। प्रकृति के गुण आत्मा की चेतना को जाग्रत, सुप्त तथा सुषुप्त, इनतीन अवस्थाओं में बाँट देते है। किन्तु ये अनुभूति की ऐसी विविधताएँ, वस्तुतः माया है औरइनका अस्तित्व स्वप्न की ही तरह होता है।
इृष्टिम्ततः प्रतिनिवर्त्य निवृत्ततृष्ण-स्तृष्णीं भवेन्निजसुखानु भवो निरीहः ।सन्हश्यते क्व च यदीदमवस्तुबुद्धयात्यक्त भ्रमाय न भवेत्स्मृतिरानिषातात्ू ॥
३५॥
इृष्टिमू--दृष्टि; ततः--उस माया से; प्रतिनिवर्त्य--हटाकर; निवृत्त--समाप्त; तृष्ण:--लालसा; तूष्णीमू--मौन; भवेत्--हो जानाचाहिए; निज--अपना ( आत्मा का ); सुख--सुख; अनुभव: -- अनुभव करते हुए; निरीह:--निष्क्रिय; सन्दश्यते--देखा जाताश़ है; क्व च--कभी कभी; यदि--यदि; इृदम्--यह संसार; अवस्तु--असत्य; बुद्धवा--चेतना से; त्यक्तम्-त्यागा हुआ;भ्रमाय--और अधिक भ्रम; न--नहीं; भवेत्--हो सके; स्मृतिः--स्मरणशक्ति; आ-निपातात्--शरीर त्यागने तक |
भौतिक वस्तुओं के क्षणिक भ्रामक स्वभाव को समझ लेने के बाद और अपनी दृष्टि कोभ्रम से हटा लेने पर, मनुष्य को निष्काम रहना चाहिए। आत्मा के सुख का अनुभव करते हुए,मनुष्य को भौतिक बोलचाल तथा कार्यकलाप त्याग देने चाहिए। यदि कभी वह भौतिक जगतको देखे तो उसे स्मरण करना चाहिए कि यह परम सत्य नहीं है, इसीलिए इसका परित्याग कियागया है। ऐसे निरन्तर स्मरण से मनुष्य अपनी मृत्यु पर्यन्त, पुनः भ्रम में नहीं पड़ेगा।
देहं च नश्वरमवस्थितमुत्थितं वासिद्धो न पश्यति यतोध्यगमत्स्वरूपम् ।दैवादपेतमथ दैववशादुपेतंवासो यथा परिकृतं मदिरामदान्ध: ॥
३६॥
देहम्ू-- भौतिक शरीर; च--भी; नश्वरमू--नाशवान; अवस्थितम्--बैठा; उत्थितम्ू--उठा; वा--अथवा; सिद्ध:--सिद्ध; न'पश्यति--नहीं देखता; यतः--क्योंकि; अध्यगमत्--उसने प्राप्त कर लिया है; स्व-रूपम्--अपनी असली आध्यात्मिक पहचान;दैवात्-- भाग्यवश; अपेतम्--गया हुआ; अथ--अथवा इस तरह; दैव-- भाग्य के; वशात्--वश से; उपेतम्--पाया हुआ;वास:--कपड़े; यथा--जिस तरह; परिकृतम्--शरीर में पहना हुआ; मदिरा--शराब का; मद--नशे से; अन्ध:--अन्धा हुआ।
जिस प्रकार शराब पिया हुआ व्यक्ति यह नहीं देख पाता कि उसने कोट पहना है या कमीज,उसी तरह जो व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार में पूर्ण है और जिसने अपना नित्य स्वरूप प्राप्त कर लियाहै, वह यह नहीं देखता कि नश्वर शरीर बैठा हुआ है या खड़ा है। हाँ, यदि ईश्वर की इच्छा सेउसका शरीर समाप्त हो जाता है या उसे नया शरीर प्राप्त होता है, तो स्वरूपसिद्ध व्यक्ति उसे उसीतरह नहीं देखता जिस तरह शराबी अपनी बाह्य वेशभूषा को नहीं देखता।
देहोपि दैववशग: खलु कर्म यावत्स्वारम्भकं प्रतिसमीक्षत एवं सासु: ।त॑ सप्रपज्ञमधिरूढसमाधियोग:स्वाष्न॑ पुनर्न भजते प्रतिबुद्धवस्तु: ॥
३७॥
देहः--शरीर; अपि-- भी; दैव--ब्रह्म के; वश-ग:--नियंत्रण में; खलु--निस्सन्देह; कर्म--सकाम कर्मों की श्रृंखला; यावत्--जब तक; स्व-आरम्भकम्--जो अपने को प्रारम्भ करता है या आगे बढ़ाता है; प्रतिसमीक्षते--जीवति रहता तथा प्रतीक्षा करतारहता है; एब--निश्चय ही; स-असु:--प्राण तथा इन्द्रियों सहित; तमू--उस ( शरीर ) को; स-प्रपञ्ञम्--अभिव्यक्तियों कीविविधता सहित; अधिरूढ--उच्च स्थान को प्राप्त; समाधि--सिद्धि अवस्था; योग:--योग-प्रणाली में; स्वाप्मम्--स्वप्न कीतरह; पुनः--फिर; न भजते--पूजा नहीं करता; प्रतिबुद्ध-प्रबुद्ध; वस्तु: --परम सत्य में |
भौतिक शरीर निश्चय ही विधाता के वश में रहता है, अतः यह शरीर तब तक इन्द्रियों तथाप्राण के साथ जीवित रहता है जब तक उसका कर्म प्रभावशाली रहता है। किन्तु स्वरूपसिद्ध आत्मा, जो परम सत्य के प्रति प्रबुद्ध हो चुका है और जो योग की पूर्ण अवस्था में उच्चारूढ है,कभी भी शरीर तथा उसकी अनेक अभिव्यक्तियों के समक्ष नतमस्तक नहीं होगा क्योंकि वह इसेस्वण में देखे गये श़रीर के समान जानता है।
मयैतदुक्त वो विप्रा गुह्म॑ं यत्साइ्ख्ययोगयो: ।जानीत मागतं यज्ञं युष्मद्धर्मविवक्षया ॥
३८ ॥
मया-ेरे द्वारा; एतत्--यह ( ज्ञान ); उक्तम्--कहा गया; वः--तुमसे; विप्रा:--हे ब्राह्मणो; गुह्मामू--गोपनीय; यत्--जो;साड्ख्य--आत्मा से पदार्थ को विभेदित करने की दार्शनिक विधि का; योगयो:--तथा अष्टांग योग-पद्धति का; जानीत--समझो; मा--मुझको; आगतम्--आया हुआ; यज्ञम्-यज्ञ के स्वामी विष्णु के रूप में; युष्मत्--तुम्हारा; धर्म--धार्मिककर्तव्य; विवक्षया--बतलाने की इच्छा से |
हे ब्राह्मणो, अब मै तुम लोगों से सांख्य का वह गोपनीय ज्ञान बतला चुका हूँ, जिसके द्वारामनुष्य पदार्थ तथा आत्मा में अन्तर कर सकता है। मैने तुम लोगों को अष्टांग योग का भी ज्ञान देदिया है, जिससे मनुष्य ब्रह्म से जुड़ता है। तुम लोग मुझे भगवान् विष्णु समझो जो तुम लोगों केसमक्ष वास्तविक धार्मिक कर्तव्य बताने की इच्छा से प्रकट हुआ है।
अहं योगस्य साड्ख्यस्य सत्यस्यर्तस्थ तेजस: ।परायणं द्विजश्रेष्ठा: श्रियः कीर्तेर्दमस्थ च ॥
३९॥
अहमू-मै; योगस्य--योग-पद्धति के; साड्ख्यस्य--सांख्य दर्शन के; सत्यस्य--सत्य के; ऋतस्य--सत्यमय धार्मिक सिद्धान्तोंके; तेजसः--शक्ति के; पर-अयनमू--परम आश्रय; द्विज-पश्रेष्ठा:--हे श्रेष्ठ ब्राह्णो; भ्रिय:--सौन्दर्य का; कीर्ते:--कीर्ति का;दमस्य--आत्मसंयम का; च-- भी ।
हे श्रेष्ठ ब्राह्यणो, तुम लोग यह जानो कि मै योग-पद्धति, सांख्य दर्शन, सत्य, ऋत, तेज,सौन्दर्य, यश तथा आत्मसंयम का परम आश्रय हूँ।
मां भजन्ति गुणा: सर्वे निर्गुणं निरपेक्षकम् ।सुहृदं प्रियमात्मानं साम्यासडझझदयोगुणा: ॥
४०॥
माम्ू--मुझको; भजन्ति--सेवा करते तथा शरण ग्रहण करते है; गुणा:--गुण; सर्वे--सभी; निर्गुणम्--गुणों से मुक्त;निरपेक्षकम्-विरक्त; सु-हदम्--शुभचिन्तक; प्रियम्--अत्यन्त प्रिय; आत्मानम्ू--परमात्मा को; साम्य--समान रूप से सर्वत्रस्थित; असड़र--विरक्ति; आदय: --इत्यादि; अगुणा:--गुणों के विकार से मुक्त |
ऐसे सारे के सारे उत्तम दिव्य गुण--जैसे कि गुणों से परे होना, विरक्त, शुभचिन्तक,अत्यन्त प्रिय, परमात्मा, सर्वत्र समरूप से स्थित तथा भौतिक बन्धन से मुक्त होना--जो कि गुणोंके विकारों से मुक्त है, मुझमें शरण तथा पूजनीय वस्तु पाते है।
इति मे छिन्नसन्देहा मुनयः सनकादय: ।सभाजयित्वा परया भक्त्यागृणत संस्तवै: ॥
४१॥
इति--इस प्रकार; मे--मेरे द्वारा; छिन्न--विनष्ट; सन्देहा:--सारे सन्देह; मुनयः--मुनिगण; सनक-आदय:--सनक कुमारइत्यादि; सभाजयित्वा--पूर्णतया मेरी पूजा करके; परया--दिव्य प्रेम के लक्षणों से युक्त; भक्त्या--भक्तिपूर्वक; अगृणत--मेरीमहिमा का उच्चारण किया; संस्तवै: --सुन्दर स्तुतियों द्वारा |
भगवान् कृष्ण ने आगे कहा : हे उद्धव, इस प्रकार मेरे वचनों से सनक इत्यादि मुनियों केसारे संदेह नष्ट हो गये। दिव्य प्रेम तथा भक्ति के साथ मेरी पूजा करते हुए, उन्होंने उत्तम स्तुतियोंद्वारा मेरी महिमा का गान किया।
तैरहं पूजित: संयक्संस्तुतः परमर्पषिभि: ।प्रत्येयाय स्वक॑ धाम पश्यतः परमेष्ठलिन: ॥
४२॥
तैः--उनके द्वारा; अहम्ू--मै; पूजित:--पूजा गया; संयक्-- भलीभाँति; संस्तुत:-- भलीभाँति स्तुति किया गया; परम-ऋषिभि:--महा मुनियों द्वारा; प्रत्येथयाय--मै लौट आया; स्वकम्ू--अपने; धाम-- धाम; पश्यत: परमेष्ठिन:--ब्रह्मा के देखते-देखते
इस तरह सनक ऋषि इत्यादि महामुनियों ने मेरी भलीभाँति पूजा की और मेरे यश का गानकिया। मै ब्रह्म के देखते-देखते अपने धाम लौट गया।
14. कृष्ण ने उद्धव को योग प्रणाली समझाई
श्रीउद्धव उवाचबदन्ति कृष्ण श्रेयांसि बहूनि ब्रह्मवादिन: ।तेषां विकल्पप्राधान्यमुताहो एकमुख्यता ॥
१॥
श्री-उद्धवः उबाच-- श्री उद्धव ने कहा; वदन्ति--कहते हैं; कृष्ण--हे कृष्ण; श्रेयाँसि--जीवन में प्रगति की विधियाँ; बहूनि--अनेक; ब्रह्म-वादिन:--विद्वान मुनि जिन्होंने वैदिक वाड्मय की व्याख्या की है; तेषामू--ऐसी सारीविधियों का; विकल्प--नानाप्रकार की अनुभूतियों की; प्राधान्यम्-- श्रेष्ठठा; उत--अथवा; अहो--निस्सन्देह; एक--एक की; मुख्यता--प्रधानता |
श्री उद्धव ने कहा : हे कृष्ण, वैदिक वाड्मय की व्याख्या करने वाले विद्वान मुनिगणमनुष्य-जीवन की सिद्धि के लिए अनेक विधियों की संस्तुति करते हैं। हे प्रभु, इन नाना प्रकारके दृष्टिकोणों पर विचार करते हुए आप मुझे बतलायें कि ये सारी विधियाँ समान रूप सेमहत्त्वपूर्ण हैं अथवा उनमें से कोई एक सर्वश्रेष्ठ है।
भवतोदाहतः स्वामिन्भक्तियोगोनपेक्षित: ।निरस्य सर्वतः सड़ुं येन त्व्याविशेन््मन: ॥
२॥
भवता--आपके द्वारा; उदाहतः--स्पष्ट कहा गया; स्वामिन्--हे स्वामी; भक्ति-योग: -- भक्ति; अनपेक्षित:-- भौतिक इच्छाओं सेरहित; निरस्थ--हटाकर; सर्वत:ः--सभी तरह से; सड़म्ू--संगति; येन--जिस ( भक्ति ) से; त्वयि--आपमें; आविशेत्-- प्रवेशकर सके; मन:ः--मन।
हे प्रभु, आपने शुद्ध भक्तियोग की स्पष्ट व्याख्या कर दी है, जिससे भक्त अपने जीवन सेसारी भौतिक संगति हटाकर, अपने मन को आप पर एकाग्र कर सकता है।
श्रीभगवानुवाचकालेन नष्टा प्रलये वाणीयं वेदसंज्ञिता ।मयादौ ब्रह्मणे प्रोक्ता धर्मो यस्यां मदात्मक: ॥
३॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् ने कहा; कालेन--काल के प्रभाव से; नष्टा--विनष्ट; प्रलये--प्रलय के समय; वाणी--सन्देश;इयम्--यह; वेद-संज्ञिता--वेदों से युक्त; मया--मेरे द्वारा; आदौ--सृष्टि के समय; ब्रह्मणे--ब्रह्मा से; प्रोक्ता--कहा गया;धर्म:--धार्मिक सिद्धान्त; यस्याम्--जिसमें; मत्-आत्मक: --मुझसे अभिन्न
भगवान् ने कहा : काल के प्रभाव से प्रलय के समय वैदिक ज्ञान की दिव्य ध्वनि नष्ट हो गईथी। अतएव जब फिर से सृष्टि बनी, तो मैंने यह वैदिक ज्ञान ब्रह्म को बतलाया क्योंकि मैं ही वेदों में वर्णित धर्म हूँ।
तेन प्रोक्ता स्वपुत्राय मनवे पूर्वजाय सा ।ततो भृग्वादयोगृहन्सप्त ब्रह्ममहर्षय: ॥
४॥
तेन--ब्रह्मा द्वारा; प्रोक्ता--कहा गया; स्व-पुत्राय--अपने पुत्र से; मनवे--मनु को; पूर्व-जाय--सबसे पुराने; सा--वह वैदिकज्ञान; ततः--मनु से; भूगु-आदयः -- भूगु मुनि इत्यादि ने; अगृह्ननू--ग्रहण किया; सप्त--सात; ब्रह्म--वैदिक ज्ञान में; महा-ऋषय:--परम दिद्वान मुनियों ने |
ब्रह्म ने यह वैदिक ज्ञान अपने ज्येष्ठ पुत्र मनु को दिया और तब भृगु मुनि इत्यादि सप्तऋषियों ने वही ज्ञान मनु से ग्रहण किया।
तेभ्य: पितृभ्यस्तत्पुत्रा देवदानवगुह्मका: ।मनुष्या: सिद्धगन्धर्वा: सविद्याधरचारणा: ॥
५॥
किन्देवा: किन्नरा नागा रक्ष:किम्पुरुषादय: ।बह्व्यस्तेषां प्रकृतयो रज:सत्त्वतमोभुव: ॥
६॥
याभिर्भूतानि भिद्यन्ते भूतानां पतयस्तथा ।यथाप्रकृति सर्वेषां चित्रा वाच: स्त्रवन्ति हि ॥
७॥
तेभ्य:--उनसे ( भृगु मुनि इत्यादि से ); पितृभ्य:--पूर्वजों से; तत्--उनके; पुत्रा:--पुत्र, उत्तराधिकारीगण; देव--देवता;दानव--असुर; गुह्का:--गुह्मकजन; मनुष्या:--मनुष्य; सिद्ध-गन्धर्वा:--सिद्धजन तथा गन्धर्वगण; स-विद्याधर-चारणा:--विद्याधरों तथा चारणों सहित; किन्देवा:--एक भिन्न मानव जाति; किन्नरा:--अर्द्ध मानव; नागा:--सर्प; रक्ष:--राक्षस;किम्पुरुष--वानरों की उन्नत नस्ल; आदय:--इत्यादि; बह्व्य:--अनेक प्रकार के; तेषाम्ू--ऐसे जीवों के ; प्रकृतयः--स्वभावोंया इच्छाओं; रज:-सत्त्व-तम:-भुव:--तीन गुणों से उत्पन्न होने से; याभि: --ऐसी इच्छाओं या प्रवृत्तियों से; भूतानि--ऐसे सारेजीव; भिद्यन्ते--अनेक रूपों में बँटे प्रतीत होते हैं; भूतानामू--तथा उनके; पतय:--नेता; तथा--उसी प्रकार से विभक्त; यथा-प्रकृति--लालसा या इच्छा के अनुसार; सर्वेषाम्--उन सबों का; चित्रा:--विचित्र; वाच:--वैदिक अनुष्ठान तथा मंत्र;स्त्रवन्ति--निकलते हैं; हि--निश्चय ही |
भूगु मुनि तथा ब्रह्मा के अन्य पुत्रों जैसे पूर्वजों से अनेक पुत्र तथा उत्तराधिकारी उत्पन्न हुए,जिन्होंने देवताओं, असुरों, मनुष्यों, गुह्कों, सिद्धों, गन्धर्वों, विद्याधरों, चारणों, किन्देवों,किन्नरों, नागों, किम्पुरुषों इत्यादि के विभिन्न रूप धारण किये। सभी विश्वव्यापी जातियाँ तथाउनके अपने अपने नेता, तीन गुणों से उत्पन्न विभिन्न स्वभाव तथा इच्छाएँ लेकर प्रकट हुए।इसलिए ब्रह्माण्ड में जीवों के विभिन्न लक्षणों के कारण न जाने कितने अनुष्ठान, मंत्र तथा फलहैं।
एवं प्रकृतिवैचित्र्याद्धिद्यन्ते मतयो नृणाम् ।पारम्पर्येण केषाज्चित्पाषण्डमतयोपरे ॥
८॥
एवम्--इस प्रकार; प्रकृति--स्वभाव या इच्छाओं के; वैचित्रयात्--विविधता के कारण; भिद्यन्ते--विभक्त हैं; मतयः--जीवन-दर्शन; नृणाम्--मनुष्यों में; पारम्पर्येण --परम्परा से; केषाद्चित्--कुछ लोगों में; पाषण्ड--नास्तिक; मतय: --दर्शन; अपरे--अन्य
इस तरह मनुष्य के बीच नाना प्रकार की इच्छाओं तथा स्वभावों के कारण जीवन केअनेकानेक आस्तिक दर्शन हैं, जो प्रथा, रीति-रिवाज तथा परम्परा द्वारा हस्तान्तरित होते रहते हैं।ऐसे भी शिक्षक हैं, जो नास्तिक दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं।
मन्मायामोहितधिय: पुरुषा: पुरुषर्षभ ।श्रेयो बदन्त्यनेकान्तं यथाकर्म यथारुचि ॥
९॥
मतू-मया--मेरी माया से; मोहित--मोहग्रस्त; धिय:--बुद्धि वाले; पुरुषा: --मनुष्य; पुरुष-ऋषभ--हे पुरुष- श्रेष्ठ; श्रेय: --लोगों के लिए शुभ; वदन्ति--कहते हैं; अनेक-अन्तम्--अनेक प्रकार से; यथा-कर्म--अपने अपने कर्मों के अनुसार; यथा-रुचि--अपनी अपनी रुचि के अनुसार।
हे पुरुष- श्रेष्ठ, मनुष्यों की बुद्धि मेरी माया से मोहग्रस्त हो जाती है अतएवं वे, अपने कर्मोंतथा अपनी रुचियों के अनुसार, मनुष्यों के लिए जो वास्तव में शुभ है, उसके विषय में असंख्यप्रकार से बोलते हैं।
धर्ममेके यशश्चान्ये काम सत्यं दमं शमम् ।अन्ये बदन्ति स्वार्थ वा ऐश्वर्य त्यागभोजनम् ।केचिद्य॒ज्जं तपो दानं ब्रतानि नियमान्यमान् ॥
१०॥
धर्मम्ू-पुण्यकर्म; एके--कुछ लोग; यश: --ख्याति; च-- भी; अन्ये--अन्य लोग; कामम्--इन्द्रियतृप्ति; सत्यम्--सत्य;दमम्--आत्मसंयम; शमम्--शान्तिप्रियता; अन्ये-- अन्य लोग; वदन्ति--स्थापना करते हैं; स्व-अर्थम्--आत्म-हित या स्वार्थका अनुसरण करना; बै--निश्चय ही; ऐश्वर्यम्--ऐश्वर्य या राजनीतिक प्रभाव; त्याग--त्याग; भोजनम्-- भोग; केचित्ू--कुछलोग; यज्ञम्--यज्ञ; तप: --तपस्या; दानम्--दान; ब्रतानि--ब्रत रखना; नियमान्--नियमित धार्मिक कृत्य; यमान्ू--कठोरविधियों को
कुल लोग कहते हैं कि पुण्यकर्म करके सुखी बना जा सकता है। अन्य लोग कहते हैं किसुख को यश, इन्द्रियतृप्ति, सच्चाई, आत्मसंयम, शान्ति, स्वार्थ, राजनीति का प्रभाव, ऐश्वर्य,संन्यास, भोग, यज्ञ, तपस्या, दान, ब्रत, नियमित कृत्य या कठोर अनुशासन द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। हर विधि के अपने अपने समर्थक होते हैं।
आइह्यन्तवन्त एवैषां लोकाः कर्मविनिर्मिता: ।दुःखोदर्कास्तमोनिष्ठा: क्षुद्रा मन्दा: शुचार्पिता: ॥
११॥
आदि-अन्त-वन्त:--आदि तथा अन्त रखने वाला; एव--निस्सन्देह; एघाम्--उनका ( भौतिकतावादियों का ); लोका:ः --अर्जितउपाधियाँ; कर्म--किसी के भौतिक कर्म द्वारा; विनिर्मिता:--उत्पन्न; दुःख--दुख; उदर्का:-- भावी फल के रूप में; तम:--अज्ञान; निष्ठा:--स्थित; क्षुद्रा:--नगण्य; मन्दा:--दुखी; शुच्चा--शोक से युक्त; अर्पिता:--पूरित
अभी मैंने जिन सारे पुरुषों का उल्लेख किया है वे अपने अपने भौतिक कर्म के क्षणिक'फल प्राप्त करते हैं। निस्सन्देह, वे जिन नगण्य तथा दुखमय स्थितियों को प्राप्त होते हैं, उनसेभावी दुख मिलता है और वे अज्ञान पर आधारित हैं। अपने कर्मफलों का भोग करते हुए भी,ऐसे व्यक्ति शोक से पूरित हो जाते हैं।
मय्यर्पितात्मन: सभ्य निरपेक्षस्य सर्वतः ।मयात्मना सुखं यत्तत्कुतः स्याद्विषयात्मनाम् ॥
१२॥
मयि--मुझमें; अर्पित--स्थिर; आत्मन:--चेतना वाले का; सभ्य--हे विद्वान उद्धव; निरपेक्षस्थ--निष्काम व्यक्ति का;सर्वत:--सभी प्रकार से; मया--मेरे साथ; आत्मना-- भगवान् के साथ या अपने आध्यात्मिक शरीर के साथ; सुखम्--सुख;यत् तत्--ऐसा; कुतः--कैसे; स्थात्--हो सकता है; विषय--भौतिक इन्द्रियतृप्ति में; आत्मनाम्--अनुरक्तों का
हे विद्वान उद्धव, जो लोग समस्त भौतिक इच्छाएँ त्याग कर, अपनी चेतना मुझमें स्थिर करतेहैं, वे मेरे साथ उस सुख में हिस्सा बँटाते हैं, जिसे इन्द्रियतृप्ति में संलग्न मनुष्यों के द्वारा अनुभवनहीं किया जा सकता।
अकिदड्ञनस्य दान्तस्य शान्तस्थ समचेतस: ।मया सनन््तुष्टमनसः सर्वा: सुखमया दिश: ॥
१३॥
अकिड्जनस्थ--कुछ न चाहने वाले का; दान्तस्य--इन्द्रियों पर संयम रखने वाले का; शान्तस्यथ--शान्त रहने वाले का; सम-चेतस:--समान चेतना वाले का; मया--मुझसे; सन्तुष्ट--पूर्णतया सन्तुष्ट; मनस:--मन वाले; सर्वा:--सभी; सुख-मया: --सुख से पूर्ण; दिशः--दिशाएँ
जो इस जगत में कुछ भी कामना नहीं करता, जिसने अपनी इन्द्रियों को वश में करकेशान्ति प्राप्त कर ली है, जिसकी चेतना सभी परिस्थितियों में एक-सी रहती है तथा जिसका मनमुझमें पूर्णतया तुष्ट रहता है, वह जहाँ कहीं भी जाता है उसे सुख ही सुख मिलता है।
न पारमेष्ठयं न महेन्द्रधिष्ण्यंन सार्वभौम॑ न रसाधिपत्यम् ।न योगसिद्धीरपुनर्भवं वामय्यर्पितात्मेच्छति मद्विनान्यत् ॥
१४॥
न--नहीं; पारमेष्ठयम्--ब्रह्म का पद या धाम; न--कभी नहीं; महा-इन्द्र-धिष्ण्यम्--इन्द्र का पद; न--न तो; सार्वभौमम्--पृथ्वी पर साम्राज्य; न--न ही; रस-आधिपत्यम्--निम्न लोकों में सर्वश्रेष्ठठा; न--कभीनहीं; योग-सिद्धी:--आठ योग-सिद्धियाँ; अपुन:ः-भवम्--मोक्ष; वा--न तो; मयि-- मुझमें; अर्पित--स्थिर; आत्मा-- चेतना; इच्छति--वह चाहता है; मत्--मुझको; विना--बिना; अन्यत्--अन्य कोई वस्तु।
जिसने अपनी चेतना मुझमें स्थिर कर रखी है, वह न तो ब्रह्मा या इन्द्र के पद या उनके धामकी कामना करता है, न इस पृथ्वी के साम्राज्य, न निम्न लोकों की सर्वश्रेष्ठठा, न योग की आठसिद्धियों की, न जन्म-मृत्यु से मोक्ष की कामना करता है। ऐसा व्यक्ति एकमात्र मेरी कामनाकरता है।
न तथा मे प्रियतम आत्मयोनिर्न शट्डूरः ।न च सद्डूर्षणो न श्रीनैंवात्मा च यथा भवान् ॥
१५॥
न--नहीं; तथा--उसी प्रकार से; मे--मुझको; प्रिय-तम:--सर्वाधिक प्रिय; आत्म-योनि:--मेरे शरीर से उत्पन्न, ब्रह्मा; न--नतो; सट्भूर:--शिवजी; न--न तो; च--भी; सड्डूर्षण:--मेरा स्वांश संकर्षण; न--न तो; श्री:--लक्ष्मीजी; न--न तो; एब--निश्चय ही; आत्मा--अर्चाविग्रह के रूप में मेरी आत्मा; च--भी; यथा--जितना कि; भवान्--तुम |
हे उद्धव, न तो ब्रह्मा, शिव, संकर्षण, लक्ष्मीजी, न ही मेरी आत्मा ही मुझे इतने प्रिय हैंजितने कि तुम हो।
निरपेक्ष॑ मुनि शान्तं निरवर समदर्शनम् ।अनुक्रजाम्यहं नित्य॑ पूर्येयेत्यड्रप्रिरेणुभि: ॥
१६॥
निरपेक्षम--निजी इच्छा से रहित; मुनिमू--मेरी लीलाओं में मेरी सहायता करने के ही विचार में मग्न; शान्तम्--शान्त;निर्वरमू--किसी से बैर न रखते हुए; सम-दर्शनम्--सर्वत्र एकसमान चेतना; अनुब्रजामि--अनुसरण करता हूँ; अहम्-मैं;नित्यमू--सदैव; पूयेय--शुद्ध होऊँ; इति--इस प्रकार; अद्धघ्रि--चरणकमलों की; रेणुभि:--धूल से |
मैं अपने भक्तों के चरणकमलों की धूल से अपने भीतर स्थित भौतिक जगतों को शुद्धबनाना चाहता हूँ। इसलिए मैं सदैव अपने उन शुद्ध भक्तों के पदचिन्हों का अनुसरण करता हूँ जोनिजी इच्छाओं से रहित हैं, जो मेरी लीलाओं के विचार में मग्न रहते हैं, शान्त हैं, शत्रुभाव सेरहित हैं तथा सर्वत्र समभाव रखते हैं।
निष्किज्ञना मय्यनुरक्तचेतसःशान््ता महान्तोडईखिलजीववत्सला: ।कामैरनालब्धधियो जुषन्ति तेयज्नैरपेक्ष्यं न विदु: सुखं मम ॥
१७॥
निष्किज्ञना:--इन्द्रियतृप्ति की इच्छा से रहित; मयि--मुझ भगवान् में; अनुरक्त-चेतस:--निरन्तर अनुरक्त मन; शान्ता:--शान्त;महान्तः--मिथ्या अभिमान से रहित महान् आत्माएँ; अखिल--समस्त; जीव--जीवों के प्रति; वत्सला:--स्नेहिल शुभचिन्तक;कामै:--इन्द्रियतृप्ति के लिए अवसरों से; अनालब्ध--अछूता तथा अप्रभावित; धियः--जिसकी चेतना; जुषन्ति--अनुभव करतेहैं; ते--वे; यत्--जो; नैरपेक्ष्यम्--पूर्ण विरक्ति द्वारा ही प्राप्त हुआ; न विदु:--नहीं जानते; सुखम्--सुख; मम--मेरा |
जो निजी तृप्ति की किसी इच्छा से रहित हैं, जिनके मन सदैव मुझमें अनुरक्त रहते हैं, जोशान्त, मिथ्या अभिमान से रहित तथा समस्त जीवों पर दयालु हैं तथा जिनकी चेतना कभी भीइन्द्रियतृप्ति के अवसरों से प्रभावित नहीं होती, ऐसे व्यक्ति मुझमें ऐसा सुख पाते हैं जिसे वेव्यक्ति प्राप्त नहीं कर पाते या जान भी नहीं पाते जिनमें भौतिक जगत से विरक्ति का अभाव है।
बाध्यमानोपि मद्धक्तो विषयैरजितेन्द्रियः ।प्रायः प्रगल्भया भक्त्या विषयैर्नाभिभूयते ॥
१८॥
बाध्यमान:--सताया जाकर; अपि-- भी; मतू-भक्त:--मेरा भक्त; विषयै:--इन्द्रिय-विषयों द्वारा; अजित--बिना जीता गया;इन्द्रियः--इन्द्रियों द्वारा; प्रायः--सामान्यतया; प्रगलल््भया--प्रभावशाली तथा हृढ़; भक्त्या--भक्ति से; विषयै: --इन्द्रियतृप्तिद्वारा; न--नहीं; अभिभूयते--परास्त होता है।
हे उद्धव, यदि मेरा भक्त पूरी तरह से अपनी इन्द्रियों को जीत नहीं पाता, तो वह भौतिकइच्छाओं द्वारा सताया जा सकता है, किन्तु मेरे प्रति अविचल भक्ति के कारण, वह इन्द्रियतृप्तिद्वारा परास्त नहीं किया जायेगा।
यथाग्नि: सुसमृद्धार्चि: करोत्येधांसि भस्मसात् ।तथा मद्ठिषया भक्तिरुद्धवैनांसि कृत्सनशः ॥
१९॥
यथा--जिस तरह; अग्निः--आग; सु-समृद्ध-- धधकती हुई; अर्चिः:--लपटों वाली; करोति--बदल देती है; एधांसि--लकड़ीको; भस्म-सात्--राख में; तथा--उसी तरह; मत्-विषया--मुझे लक्ष्य बनाकर; भक्ति:--भक्ति; उद्धव--हे उद्धव; एनांसि--पाप करता है; कृत्स्नश:--पूरी तरह से ।
है उद्धव, जिस तरह धधकती अग्नि ईंधन को जलाकर राख कर देती है, उसी तरह मेरीभक्ति मेरे भक्तों द्वारा किये गये पापों को पूर्णतया भस्म कर देती है।
न साधयति मां योगो न साड्ख्य॑ धर्म उद्धव ।न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो यथा भक्तिर्ममोर्जिता ॥
२०॥
न--नहीं; साधयति--वश में करती है; माम्--मुझको; योग:--योग-पद्धति; न--न तो; साइड्ख्यम्--सांख्य दर्शन; धर्म:--वर्णाश्रम प्रणाली के अन्तर्गत पवित्र कार्यकलाप; उद्धव--हे उद्धव; न--नहीं; स्वाध्याय:--वैदिक अध्ययन; तपः--तपस्या;त्याग:--त्याग; यथा--जिस तरह; भक्ति:-- भक्ति; मम--मेरे प्रति; ऊर्जिता--विकसित
हे उद्धव, भक्तों द्वारा की जाने वाली मेरी शुद्ध भक्ति मुझे उनके वश में करने वाली है।अतएव योग, सांख्य दर्शन, शुद्ध कार्य, वैदिक अध्ययन, तप अथवा वैराग्य में लगे व्यक्तियों केद्वारा मैं भी वशीभूत नहीं होता।
भक््त्याहमेकया ग्राह्म: श्रद्धयात्मा प्रियः सताम् ।भक्ति: पुनाति मन्निष्ठा श्रणाकानपि सम्भवात् ॥
२१॥
भक्त्या-- भक्ति से; अहम्--मैं; एकया--शुद्ध; ग्राह्मः--प्राप्त किया जाने वाला; श्रद्धया-- श्रद्धा से; आत्मा-- भगवान्;प्रियः--प्रेम की वस्तु; सताम्-भक्तों की; भक्ति:--शुद्ध भक्ति; पुनाति--पवित्र बनाती है; मत्-निष्ठा--मुझको एकमात्र लक्ष्यबनाकर; श्र-पाकान्--चांडाल; अपि-- भी; सम्भवात्--निम्न जन्म के कल्मष से |
मुझ पर पूर्ण श्रद्धा से युक्त शुद्ध भक्ति का अभ्यास करके ही मुझे अथात्् पूर्ण पुरुषोत्तमपरमेश्वर को प्राप्त किया जा सकता है। मैं स्वभावतः अपने उन भक्तों को प्रिय हूँ जो मुझे हीअपनी प्रेमाभक्ति का एकमात्र लक्ष्य मानते हैं। ऐसी शुद्ध भक्ति में लगने से चांडाल तक अपनेनिम्न जन्म के कल्मष से अपने को शुद्ध कर सकते हैं।
धर्म: सत्यदयोपेतो विद्या वा तपसान्विता ।मद्धक्त्यापेतमात्मानं न सम्यक्प्रपुनाति हि ॥
२२॥
धर्म:--धार्मिक सिद्धान्त; सत्य--सच्चाई; दया--तथा दया से; उपेत:--युक्त; विद्या--ज्ञान; वा--अथवा; तपसा--तपस्या से;अन्विता--युक्त; मत्-भक्त्या--मेरी भक्ति से; अपेतम्--रहित; आत्मानम्--चेतना; न--नहीं; सम्यक्--पूर्णतया; प्रपुनाति--शुद्ध बनाती है; हि--निश्चय ही
न सत्य तथा दया से युक्त धार्मिक कार्य, न ही कठिन तपस्या से प्राप्त किया गया ज्ञानउनकी चेतना को पूर्णतया शुद्ध बना सकता है, जो मेरी भक्ति से विहीन होते हैं।
'कथं विना रोमहर्ष द्रवता चेतसा विना ।विनानन्दाश्रुकलया शुध्येद्धक्त्या विनाशय: ॥
२३॥
कथम्--कैसे; विना--बिना; रोम-हर्षम्--रोंगटे खड़े होना, रोमांच; द्रवता--पिघला; चेतसा--हृदय से; विना--रहित;विना--रहित; आनन्द--आनन्द के; अश्रु-कलया-- आँसू बहना; शुध्येत्--शुद्ध किया जा सकता है; भक्त्या--भक्ति से;विना--रहित; आशय: --चेतना |
यदि किसी को रोमांच नहीं होता, तो उसका हृदय कैसे द्रवित हो सकता है ? और यदि हृदयद्रवित नहीं होता, तो आँखों से प्रेमाश्रु कैसे बह सकते हैं ? यदि कोई आध्यात्मिक सुख मेंचिल्ला नहीं उठता, तो वह भगवान् की प्रेमाभक्ति कैसे कर सकता है ? और ऐसी सेवा के बिनाचेतना कैसे शुद्ध बन सकती है ? वाग्गद््गदा द्रवते यस्य चित्तंरुदत्यभीक्ष्णं हसति क्वचिच्च ।विलज्ज उदगायति नृत्यते चमद्धक्तियुक्तो भुवनं पुनाति ॥
२४॥
वाक्--वाणी; गदगदा--रुद्ध; द्रवते--पिघलता है; यस्य--जिसका; चित्तम्--हृदय; रुदति--रोता है; अभीक्षणम्--पुनःपुनः; हसति--हँसता है; क्वचित्ू--कभी; च-- भी; विलज्ञ:--लज्जित; उद्गायति--जोरों से गा उठता है; नृत्यते--नाचता है;च--भी; मत्-भक्ति-युक्त:--मेरी भक्ति में स्थिर; भुवनम्--ब्रह्माण्ड को; पुनाति--पवित्र करता है।
वह भक्त जिसकी वाणी कभी रुद्ध हो जाती है, जिसका हृदय द्रवित हो उठता है, जोनिरन्तर चिल्लाता है और कभी हँसता है, जो लज्जित होता है और जोरों से चिल्लाता है, फिरनाचने लगता है--इस तरह से मेरी भक्ति में स्थिर भक्त सारे ब्रह्माण्ड को शुद्ध करता है।
यथाग्निना हेम मलं जहातिध्मातं पुनः स्व॑ं भजते च रूपम् ।आत्मा च कर्मानुशयं विधूयमद्धक्तियोगेन भजत्यथो माम् ॥
२५॥
यथा--जिस तरह; अग्निना--अग्नि से; हेम--स्वर्ण; मलम्ू--अशुद्ध; जहाति--त्याग देता है; ध्मातम्--पिघलाया; पुन: --फिर; स्वमू--अपने से; भजते--प्रवेश करता है; च-- भी; रूपम्ू--स्वरूप; आत्मा--आत्मा या चेतना; च-- भी; कर्म--सकाम कर्मों का; अनुशयम्--बचा दूषण; विधूय--हटाकर; मत्-भक्ति-योगेन--मेरी भक्ति से; भजति--पूजा करता है;अथो--इस प्रकार; माम्-मुझको |
जिस तरह आग में पिघलाने से सोना अपनी अशुद्धियाँ त्याग कर शुद्ध चमक प्राप्त कर लेताहै, उसी तरह भक्तियोग की अग्नि में लीन आत्मा पूर्व सकाम कर्मों से उत्पन्न सारे कल्मष से शुद्धबन जाता है और बैकुण्ठ में मेरी सेवा करने के अपने आदि पद को प्राप्त करता है।
यथा यथात्मा परिमृज्यतेठसौ मत्पुण्यगाथा भ्रवणाभिधानै: ।तथा तथा पश्यति वस्तु सूक्ष्मंचक्षुर्यथेवाञ्जनसम्प्रयुक्तम् ॥
२६॥
यथा यथा--जितना; आत्मा--आत्मा, चेतन जीव; परिमृज्यते-- भौतिक कल्मष से विमल होता है; असौ--वह; मत्-पुण्य-गाथा--मेरे यश का पवित्र वर्णन; श्रवण--सुनने से; अभिधानै:ः--तथा कीर्तन से; तथा तथा--उसी अनुपात में; पश्यति--देखता है; वस्तु--परब्रह्म को; सूक्ष्ममू--सूक्ष्म; चक्षुः--आँख; यथा--जिस तरह; एव--निश्चय ही; अज्ञन-- औषधि के अंजनसे; सम्प्रयुक्तम्--उपचारित |
जब रुग्ण आँख का उपचार औषधीय अंजन से किया जाता है, तो आँख में धीरे धीरे देखनेकी शक्ति आ जाती है। इसी तरह जब चेतनामय जीव मेरे यश की पुण्य गाथाओं के श्रवण तथाकीर्तन द्वारा अपने भौतिक कल्मष को धो डालता है, तो वह फिर से मुझ परब्रह्म को मेरे सूक्ष्मआध्यात्मिक रूप में देखने की शक्ति पा लेता है।
विषयान्ध्यायतश्चित्तं विषयेषु विषज्ञते ।मामनुस्मरतश्ित्तं मय्येव प्रविलीयते ॥
२७॥
विषयानू--इन्द्रियूप्ति की वस्तुएँ; ध्यायत:ः--ध्यान करने वाला; चित्तम्ू--चेतना को; विषयेषु--इन्द्रियतृप्ति की वस्तुओं में;विषज्ते--अनुरक्त होता है; माम्--मुझको; अनुस्मरत: --निरन्तर स्मरण करता हुआ; चित्तम्--चेतना को; मयि--मुझमें;एव--निश्चय ही; प्रविलीयते--लीन रहता है ।
इन्द्रियतृप्ति की वस्तुओं का ध्यान धरने वाले का मन निश्चय ही ऐसी वस्तुओं में फँसा रहताहै, किन्तु यदि कोई निरन्तर मेरा स्मरण करता है, तो उसका मन मुझमें निमग्न हो जाता है।
तस्मादसदभिध्यानं यथा स्वप्ममनोरथम् ।हित्वा मयि समाधत्स्व मनो मद्भावभावितम् ॥
२८॥
तस्मात्ू--इसलिए; असत्-- भौतिक; अभिध्यानम्--उत्थान विधि जो ध्यान को लीन करे; यथा--जिस तरह; स्वज--सपने में;मनः-रथम्--मानसिक चिन्तन; हित्वा--त्याग कर; मयि--मुझमें; समाधत्स्व--पूरी तरह लीन करो; मन:--मन; मत्-भाव--मेरी चेतना द्वारा; भावितम्-शुद्ध किया गया।
इसलिए मनुष्य को उत्थान की उन सारी विधियों का बहिष्कार करना चाहिए, जो स्वण केमनोरथों जैसी हैं। उसे अपना मन पूरी तरह से मुझमें लीन कर देना चाहिए। निरन्तर मेरा चिन्तनकरने से वह शुद्ध बन जाता है।
स्त्रीणां स्त्रीसड्विनां सड़ूं त्यक्त्वा दूरत आत्मवान् ।क्षेमे विविक्त आसीनश्िन्तयेन्मामतन्द्रित: ॥
२९॥
स्त्रीणामू-स्त्रियों की; स्त्री--स्त्री के प्रति; सड्धिनामू--अनुरक्त रहने वालों की; सड्रम्ू--संगति; त्यक्त्वा--त्याग कर; दूरतः--दूर; आत्म-वान्ू--आत्मा के प्रति सचेष्ट; क्षेमे--निर्भय; विविक्ते--पृथक् या एकान्त स्थान में; आसीन:--बैठे हुए; चिन्तयेत्--एकाग्र करे; माम्--मुझ पर; अतन्द्रितः:--सावधानी से
नित्य आत्मा के प्रति सचेष्ट रहते हुए मनुष्य को स्त्रियों की तथा स्त्रियों से घनिष्ठतापूर्वक सम्बद्ध व्यक्तियों की संगति त्याग देनी चाहिए। एकान्त स्थान में निर्भय होकर आसन लगाकर,उसे अपने मन को बड़े ही ध्यान से मुझ पर एकाग्र करना चाहिए।
न तथास्य भवेत्कलेशो बन्धश्चान्यप्रसड्रतः ।योषित्सझद्यथा पुंसो यथा तत्सड्रिसड्गतः ॥
३०॥
न--नहीं; तथा--उस तरह; अस्य--उसका; भवेत्--हो सकता है; क्लेश:--कष्ट; बन्ध:--बन्धन; च--तथा; अन्य-प्रसड़त:--अन्य लगाव से; योषित्--स्त्रियों के; सड्भरात्ू-- अनुरक्ति से; यथा--जैसे; पुंसः--मनुष्य का; यथा--उसी तरह;तत्--स्त्रियों को; सड़ि--अनुरक्त रहने वाले की; सड्भतः--संगति से |
विभिन्न अनुरक्तियों से उत्पन्न होने वाले सभी प्रकार के कष्ट तथा बन्धन में से ऐसा एक भीनहीं, जो स्त्रियों के प्रति अनुरक्ति तथा स्त्रियों के प्रति अनुरक्त रहने वालों के घनिष्ठ सम्पर्क सेबढ़ कर हो।
श्रीउद्धव उवाचयथा त्वामरविन्दाक्ष याहशं वा यदात्मकम् ।ध्यायेन्मुमुश्षुरेतन्मे ध्यानं त्वं वक्तुमहसि ॥
३१॥
श्री-उद्धवः उबाच-- श्री उद्धव ने कहा; यथा--किस तरह से; त्वामू--आपके; अरविन्द-अक्ष--हे कमलनेत्र वाले कृष्ण;याहशम्--जिस स्वभाव का; वा--अथवा; यत्-आत्मकम्-किस रूप में; ध्यायेत्-- ध्यान करे; मुमुक्षुः--मुक्ति का इच्छुक;एतत्--यह; मे-- मुझको; ध्यानमू--ध्यान; त्वम्-तुम्हें; वक्तुमू--कहने या बतलाने के लिए; अहसि--चाहिए।
श्री उद्धव ने कहा : हे कमलनयन कृष्ण, यदि कोई मुक्ति का इच्छुक व्यक्ति आपका ध्यानकरना चाहें तो वह किस विधि से करे, उसका यह ध्यान किस विशेष स्वभाव वाला हो और वहकिस रूप का ध्यान करे ? कृपया मुझे ध्यान के इस विषय के बारे में बतलायें।
श्रीभगवानुवाचसम आसन आसीनः समकायो यथासुखम् ।हस्तावुत्सद़ आधाय स्वनासाग्रकृतेक्षण: ॥
३२॥
प्राणस्य शोधयेन्मार्ग पूरकुम्भकरेचकै: ।विपर्ययेणापि शनैरभ्यसेन्निर्जितेन्द्रिय: ॥
३३॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; समे--समतल; आसने--आसन पर; आसीन:--बैठ कर; सम-काय:ः--शरीर को सीधाकरके; यथा-सुखम्--सुखपूर्वक बैठ कर; हस्तौ--दोनों हाथों को; उत्सड्रे--गोद में; आधाय--रख कर; स्व-नास-अग्र--अपनी नाक के अगले भाग पर; कृत--केन्द्रित करते हुए; ईक्षण:--चितवन; प्राणस्य-- श्रास का; शोधयेत्--शुद्ध करनाचाहिए; मार्गम्ू--मार्ग; पूर-कुम्भक-रेचकै: -- प्राणायाम द्वारा; विपर्ययेण--उलट करके, अर्थात् रेचक, कुम्भक तथा पूरकक्रम में; अपि-- भी; शनै:ः--ध धीरे धीरे; अभ्यसेत्-- प्राणायाम का अभ्यास करे; निर्जित--वश में करके; इन्द्रियः--इन्द्रियों को
भगवान् ने कहा : ऐसे आसन पर बैठ कर, जो न तो ज्यादा ऊँचा हो, न अधिक नीचा हो,शरीर को सीधा रखते हुए जिससे सुख मिल सके, दोनों हाथों को गोद में रख कर तथा आँखोंको अपनी नाक के अगले सिरे पर केन्द्रित करते हुए, मनुष्य को चाहिए कि पूरक, कुम्भक तथारेचक प्राणायाम का यांत्रिक अभ्यास करे और फिर इस विधि को उलट कर करे ( अर्थात्रेचक, कुम्भक तथा पूरक के क्रम से करे )। इन्द्रियों को भलीभाँति वश में कर लेने के बाद,उसे धीरे धीरे प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए।
हृद्यविच्छिन्नमोंकारं घण्टानादं बिसोर्णवत् ।प्राणेनोदीर्य तत्राथ पुनः संवेशयेत्स्वरम् ॥
३४॥
हृदि--हृदय में; अविच्छिन्नम्-- अनवरत; ओंकारम्-- ३४»कार की पवित्र ध्वनि; घण्टा--घण्टे की तरह; नादम्-- ध्वनि; बिस-ऊर्ण-वबत्--कमल वृन्त तक जाने वाले रेशे की तरह; प्राणेन--प्राण-वायु द्वारा; उदीर्य-- धकेल कर; तत्र--वहाँ ( बारह अंगुलदूरी पर ); अथ--इस प्रकार; पुन:--फिर; संवेशयेत्--जोड़ दे; स्वरम्--अनुस्वार समेत पन्द्रह ध्वनियाँ ॥
मूलाधार चक्र से शुरू करके, मनुष्य को चाहिए कि प्राण-वायु को कमल नाल के तनुओंकी तरह ऊपर की ओर लगातार ले जाय जब तक कि वह हृदय तक न पहुँच जाय जहाँ पर ३४»क पवित्र अक्षर घंटे की ध्वनि की तरह विद्यमान है। इस तरह उसे इस अक्षर को लगातार ऊपरकी ओर बारह अंगुल की दूरी तक उठाते जाना चाहिए और वहाँ पर ३»कार को अनुस्वार समेतउत्पन्न पन्द्रह ध्वनियों से जोड़ देना चाहिए।
एवं प्रणवसंयुक्त प्राणमेव समभ्यसेत् ।दशकृत्वस्त्रिषवणं मासादर्वाग्जितानिल: ॥
३५॥
एवम्--इस प्रकार; प्रणव--» अक्षर से; संयुक्तम्--जुड़ा हुआ; प्राणम्--शारीरिक श्वास को वश में करने की प्राणायामविधि; एब--निस्सन्देह; समभ्यसेत्--सतर्कता से अभ्यास करे; दश-कृत्व:--दस बार; त्रि-षबणम्--सूर्योदय, दोपहर तथासूर्यास्त के समय; मासात्--एक मास के; अर्वाक्ृ-पश्चात्; जित--जीत लेगा; अनिल:--प्राण-वायु |
'कार में स्थिर होकर मनुष्य को चाहिए कि सूर्योदय, दोपहर तथा सूर्यास्त के समय दस-दस बार प्राणायाम का सतर्कतापूर्वक अभ्यास करे। इस तरह एक महीने के बाद वह प्राण-वायुपर विजय पा लेगा।
हत्पुण्डरीकमन्तःस्थमूर्ध्वनालमधोमुखम् ।ध्यात्वोर्ध्वमुखमुन्रिद्रमष्टपत्रं सकर्णिकम् ।कर्णिकायां न्यसेत्सूर्यसोमाग्नीनुत्तरोत्तरम् ॥
३६॥
वहििमध्ये स्मरेद्रूपं ममैतद्धयानमड्रलम् ।समं प्रशान्तं सुमुखं दीर्घचारुचतुर्भुजम् ॥
३७॥
सुचारुसुन्दरग्रीव॑ सुकपोलं शुचिस्मितम् ।समानकर्णविन्यस्तस्फुरन्मकरकुण्डलम् ॥
३८॥
हेमाम्बरं घनश्यामं श्रीवत्सअश्रीनिकेतनम् ।शद्भुचक्रगदापदावनमालाविभूषितम् ॥
३९॥
नूपुरैर्विलसत्पादं कौस्तुभप्रभया युतम् ।झुमत्किरीटकटककटिसूत्राड्दायुतम् ॥
४०॥
सर्वाड्रसुन्दरं हृदय प्रसादसुमुखेक्षनम् ।सुकुमारमभिध्यायेत्सर्वाड्रिषु मनो दधत् ॥
४१॥
इन्द्रियाणीन्द्रिया रथ भ्यो मनसाकृष्य तनमन: ।बुद्धया सारथिना धीर: प्रणयेन्मयि सर्वतः ॥
४२॥
हत्--हृदय में; पुण्डकीकम्--कमल का फूल; अन्तः-स्थम्--शरीर के भीतर स्थित; ऊर्ध्व-नालम्--कमल नाल को ऊपरउठाये; अध:-मुखम्--आँखें आधी बन्द किये हुए तथा नाक के सिरे पर ताकते हुए; ध्यात्वा--ध्यान में मन को स्थिर करके;ऊर्ध्व-मुखम्--जाग्रत; उन्निद्रमू--बिना ऊँघे, सचेष्ट; अष्ट-पत्रमू--आठ पंखुड़ियों वाला; स-कर्णिकम्--कोशयुक्त;कर्णिकायाम्--कोश के भीतर; न्यसेत्--एकाग्र होकर रखे; सूर्य--सूर्य; सोम--चन्द्रमा; अग्नीन्ू--तथा अग्नि; उत्तर-उत्तरमू--एक के बाद एक, इस क्रम से; वह्नि-मध्ये--अग्नि के भीतर; स्मरेत्--ध्यान करे; रूपम्--स्वरूप पर; मम--मेरे;एतत्--यह; ध्यान-मड्रलम्-ध्यान की पवित्र वस्तु; समम्-शरीर के सभी अंगएकसमान, संतुलित; प्रशान्तम्--शान्त; सु-मुखम्- प्रसन्न; दीर्घ-चारु-चतु:-भुजम्--चार सुन्दर लम्बी भुजाओं वाले; सु-चारु--मनोहारी; सुन्दर--सुन्दर; ग्रीवम्-गर्दन;सु-कपोलमू--सुन्दर मस्तक; शुचि-स्मितम्--शुद्ध मुस्कान से युक्त; समान--सहश; कर्ण--कान में; विन्यस्त--स्थित;स्फुरतू--चमचमाते; मकर--मगर के आकार के; कुण्डलम्--कुण्डल; हेम--सुनहरे रंग के; अम्बरम्--वस्त्र; घन-श्यामम्--बादलों जैसे श्यामरंग के; श्री-वत्स-- भगवान् के वक्षस्थल पर अद्वितीय घुंघराले बाल; श्री-निकेतनमू--लक्ष्मी के धाम;शब्गु--शंख; चक्र --सुदर्शन चक्र; गदा--गदा; पद्मय--कमल; वन-माला--तथा जंगली फूलों की माला से; विभूषितम्--अलंकृत; नूपुरः--घुंघरूओं तथा पायजेबों से; विलसत्--चमकते हुए; पादमू--चरणकमल; कौस्तुभ--कौस्तुभ मणि के;प्रभया--तेज से; युतम्--युक्त; द्युमत्--चमकता; किरीट--मुकुट; कटक--सुनहले बाजूबन्द; कटि-सूत्र--करधनी;अड्डद--बाजूबन्द; आयुतम्--से युक्त; सर्व-अड़--शरीर के सारे अंग; सुन्दरम्--सुन्दर; हृद्यमू--मनोहर; प्रसाद--कृपा से;सुमुख--हँसीला; ईक्षणम्--चितवन; सु-कुमारम्ू-- अत्यन्त नाजुक; अभिध्यायेत्-- ध्यान करे; सर्व-अड्डेषु--शरीर के सारेअंगों में; मनः--मन को; दधत्--रखते हुए; इन्द्रियाणि -- भौतिक इन्द्रियों को; इन्द्रिय-अर्थभ्य: --इन्द्रिय-विषयों से; मनसा--मन से; आकृष्य--पीछे खींच कर; तत्--वह; मन:--मन; बुद्धय्या--बुद्धि से; सारधिना--रथ के सारथी की-सी; धीर: --गम्भीर तथा संयमित होकर; प्रणयेत्--प्रबलतापूर्वक आगे बढ़े; मयि--मुझमें; सर्वतः--शरीर के सारे अंगों में
आँखों को अधखुली रखते हुए तथा उन्हें अपनी नाक के सिरे पर स्थिर करके, अत्यन्तजागरूक रह कर, मनुष्य को हृदय के भीतर स्थित कमल के फूल का ध्यान करना चाहिए। इसकमल के फूल में आठ पंखड़ियाँ हैं और यह सीधे डंठल पर स्थित है। उसे सूर्य, चन्द्रमा तथाअग्नि को उस कमल-पुष्प के कोश में एक-एक करके रखते हुए, उनका ध्यान करना चाहिए।अग्नि में मेरे दिव्य स्वरूप को स्थापित करते हुए, उसे समस्त ध्यान का शुभ लक्ष्य मान करउसका ध्यान करना चाहिए। यह स्वरूप अत्यन्त समरूप, भद्र तथा प्रसन्न होता है। इसकी चारसुन्दर लम्बी भुजाएँ, सुहावनी सुन्दर गर्दन, सुन्दर मस्तक, शुद्ध हँसी तथा दोनों कानों में लटकनेवाले मकराकृति के चमचमाते कुण्डल होते हैं। यह आध्यात्मिक स्वरूप वर्षा के मेघ की भाँतिश्यामल रंग वाला है और सुनहले-पीले रेशम से आवृत है। इस रूप के वक्षस्थल पर श्रीवत्सतथा लक्ष्मी का आवास है और यह स्वरूप शंख, चक्र, गदा, कमल-पुष्प तथा जंगली फूलों कीमाला से सुसज्जित है। इसके दो चमकीले चरणकमल घुंघरूओं तथा पायजेबों से विभूषित हैंऔर इस रूप से कौस्तुभ मणि के साथ ही तेजवान मुकुट भी प्रकट होता है। इसके कूल्हेसुनहली करधनी से सुन्दर लगते हैं और भुजाएँ मूल्यवान बाजूबन्दों से सज्जित हैं। इस सुन्दर रूपके सभी अंग हृदय को मोहने वाले हैं और इसका मुखड़ा दयामय चितवन से सुशोभित है।मनुष्य को चाहिए कि इन्द्रिय-विषयों से इन्द्रियों को पीछे हटाकर, गम्भीर तथा आत्मसंयमी बनेऔर मेरे दिव्य शरीर के सारे अंगों पर मन को हढ़ता से स्थिर करने के लिए बुद्धि का उपयोग करे। इस तरह उसे मेरे अत्यन्त मृदुल दिव्य स्वरूप का ध्यान करना चाहिए।
तत्सर्वव्यापकं चित्तमाकृष्यैकत्र धारयेत् ।नान्यानि चिन्तयेद्धूयः सुस्मितं भावयेन्मुखम् ॥
४३॥
तत्--इसलिए; सर्व--शरीर के सारे भागों में; व्यापकम्--फैली; चित्तमू--चेतना; आकृष्य--खींच कर; एकत्र--एक स्थानपर; धारयेत्--एकाग्र करे; न--नहीं; अन्यानि--शरीर के अन्य अंगों को; चिन्तयेत्-- ध्यानकरे; भूय: --फिर; सु-स्मितम्--अद्भुत मुस्कान या हँसी से युक्त; भावयेत्--एकाग्र करे; मुखम्--मुँह पर।
तब वह अपनी चेतना को दिव्य शरीर के समस्त अंगों से हटा ले। उस समय उसे भगवान् केअद्भुत हँसी से युक्त मुख का ही ध्यान करना चाहिए।
तत्र लब्धपदं चित्तमाकृष्य व्योम्नि धारयेत् ।तच्च त्यक्त्वा मदारोहो न किल्लिदपि चिन्तयेत् ॥
४४॥
तत्र-- भगवान् के मुख का ध्यान करते हुए; लब्ध-पदम्--स्थापित होकर; चित्तम्ू--चेतना; आकृष्य--खींच कर; व्योम्नि--आकाश में; धारयेत्--ध्यान करे; तत्--आकाश का ऐसा ध्यान; च--भी; त्यक्त्वा--त्याग कर; मत्--मुझ तक; आरोह:--चढ़ कर; न--नहीं; किल्लित्ू--कुछ; अपि-- भी; चिन्तयेत्--चिन्तन करे।
भगवान् के मुख का ध्यान करते हुए, उसे चाहिए कि वह अपनी चेतना को हटाकर उसेआकाश में स्थिर करे। तब ऐसे ध्यान को त्याग कर, वह मुझमें स्थिर हो जाय और ध्यान-विधिका सर्वथा परित्याग कर दे।
एवं समाहितमतिमामेवात्मानमात्मनि ।विच॒ष्टे मयि सर्वात्मन्ज्योति्ज्योतिषि संयुतम् ॥
४५॥
एवम्--इस प्रकार; समाहित--पूर्णतया स्थिर; मति:ः--चेतना; माम्--मुझको; एब--निस्सन्देह; आत्मानम्--आत्मा;आत्मनि--आत्मा के भीतर; विचष्टे--देखता है; मयि--मुझमें; सर्व-आत्मन्-- भगवान् में; ज्योति:--सूर्य की किरणें;ज्योतिषि--सूर्य के भीतर; संयुतम्--संयुक्त |
जिसने अपने मन को मुझमें पूरी तरह स्थिर कर लिया है उसे चाहिए कि अपनी आत्मा केभीतर मुझ भगवान् को देखे और व्यष्टि आत्मा को मेरे भीतर देखे। इस तरह वह आत्माओं कोपरमात्मा से संयुक्त देखता है, जिस तरह सूर्य की किरणों को सूर्य से पूर्णतया संयुक्त देखा जाताहै।
ध्यानेनेत्थं सुतीत्रेण युज्ञतो योगिनो मन: ।संयास्यत्याशु निर्वाणं द्रव्य ज्ञानक्रियाभ्रम: ॥
४६॥
ध्यानेन--ध्यान से; इत्थम्ू--जैसाकि बतलाया गया; सु-तीब्रेण-- अत्यन्त एकाग्र; युज्धत:ः--अभ्यास करने वाले; योगिन: --योगी का; मनः--मन; संयास्यति--एकसाथ जायेगा; आशु--तेजी से; निर्वाणम्--अन्त के लिए; द्रव्य-ज्ञान-क्रिया-- भौतिकवस्तुओं की अनुभूति, ज्ञान तथा कर्म पर आधारित; भ्रम:-- भ्रम, मायामय पहचान
जब योगी इस तरह अत्यधिक एकाग्र ध्यान से अपने मन को अपने वश में करता है, तोभौतिक वस्तुओं, ज्ञान तथा कर्म से उसकी भ्रामक पहचान तुरन्त समाप्त हो जाती है।
15. कृष्ण द्वारा रहस्यवादी योग सिद्धियों का वर्णन
श्रीभगवानुवाचजितेन्द्रियस्य युक्तस्थ जितश्वासस्थ योगिन: ।मयि धारयतश्चेत उपतिष्ठन्ति सिद्धयः ॥
१॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् ने कहा; जित-इन्द्रियस्थ--जिसने अपनी इन्द्रियाँ जीत ली हैं; युक्तस्थ--जिसने मन को स्थिर करलिया है; जित-श्वासस्थ--जिसने प्राणायाम पर विजय पा ली है; योगिन: --ऐसे योगी का; मयि--मुझमें; धारयत:--स्थिर करतेहुए; चेत:--अपनी चेतना; उपतिष्ठन्ति--प्रकट होती हैं; सिद्धयः--योग की सिद्धियाँ |
भगवान् ने कहा : हे उद्धव, योग-सिद्धियाँ उस योगी द्वारा अर्जित की जाती हैं जिसने अपनीइन्द्रियों पर विजय पा ली हो, अपने मन को स्थिर कर लिया हो, प्राणायाम को वश में कर लियाहो और जो अपने मन को मुझमें स्थिर कर चुका हो।
श्रीउद्धव उवाचकया धारणया का स्वित्कथं वा सिद्धिरच्युत ।कति वा सिद्धयो ब्रूहि योगिनां सिद्धिदो भवान् ॥
२॥
श्री-उद्धवः उबाच-- श्री उद्धव ने कहा; कया--किस; धारणया--ध्यान की विधि द्वारा; का स्वित्--क्या निस्सन्देह; कथम्--किस तरह से; वा--अथवा; सिद्द्धिः--योग-सिद्द्धि; अच्युत--हे प्रभु; कति--कितने; वा--अथवा; सिद्धयः--सिद्धियाँ;ब्रृहि--कृपा करके कहिए; योगिनाम्--समस्त योगियों के; सिद्धि-दः--सिद्धि दाता; भवान्ू--आप |
श्री उद्धव ने कहा : हे अच्युत, योग-सिद्धि किस विधि से प्राप्त की जा सकती है और ऐसीसिद्धि का स्वभाव क्या है? योग-सिद्ध्रियाँ कितनी हैं? कृपा करके ये बातें मुझसे बतलाइये।निस्सन्देह, आप समस्त योग-सिद्धियों के प्रदाता हैं। श्रीभगवानुवाचसिद्धयोउष्टादश प्रोक्ता धारणा योगपारगै: ।तासामष्टौ मत्प्रधाना दशैव गुणहेतव: ॥
३॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; सिद्धयः--योग-सिद्धियाँ; अष्टादश--अठारह; प्रोक्ता:--घोषित की जाती हैं;धारणा:--ध्यान; योग--योग के; पार-गै:--पारंगतों द्वारा; तासामू--उठारहों में से; अष्टौ-- आठ; मत्-प्रधाना:--मुझमें शरणपाती हैं; दश--दस; एव--निस्सन्देह; गुण-हेतवः--भौतिक सतोगुण से प्रकट हैं
भगवान् ने कहा : योग के पारंगतों ने घोषित किया है कि योग-सिद्धि तथा ध्यान केअठारह प्रकार हैं जिनमें से आठ मुख्य हैं, जो मेरे अधीन हैं और दस गौण हैं, जो सतोगुण सेप्रकट होती हैं।
अणिमा महिमा मूर्तेर्लधिमा प्राप्तिरिन्द्रिये: ।प्राकाम्यं श्रुतदृष्टेषु शक्तिप्रेरणमीशिता ॥
४॥
गुणेष्वसड्रों वशिता यत्कामस्तदवस्यति ।एता मे सिद्धयः सौम्य अष्टावौत्पत्तिका मता: ॥
५॥
अणिमा--छोटे-से-छोटा बनने की सिद्धि; महिमा--बड़े-से-बड़ा बनना; मूर्तें:--शरीर का; लघिमा--हल्के-से-हल्का बनना;प्राप्ति:-- प्राप्ति; इन्द्रियै:--इन्द्रियों के द्वारा; प्राकाम्यम्--इच्छानुरूप कार्य की सम्पन्नता; श्रुत--न दिखने वाली वस्तुएँ, जिनकेबारे में केवल सुना जा सकता है; दृष्टेचु--तथा दिखाई पड़ने वाली वस्तुएँ; शक्ति-प्रेरणम्--माया की उपशक्तियों को काम मेंलगाना; ईशिता--नियंत्रण करने की सिद्द्धि; गुणेषु--प्रकृति के गुणों में; असड़ः--बिना रुकावट के; वशिता--अन्यों को वशमें करने की शक्ति; यत्--जो भी; काम:--इच्छा; तत्--वह; अवस्यति--प्राप्त कर सकता है; एता: --ये; मे--मेरी( शक्तियाँ ); सिद्धयः--सिद्धियाँ; सौम्य--हे सुशील उद्धव; अष्टौ-- आठ; औत्पत्तिका:--प्राकृतिक तथा अद्वितीय; मताः--मानी जानी चाहिए।
आठ प्रधान योग-सिद्धियों में तीन सिद्धियाँ, जिनसे मनुष्य अपने शरीर को रूपान्तरित करसकता है, अणिमा ( छोटे से छोटा बनना ), महिमा ( बड़े से बड़ा होना ) तथा लघिमा ( हल्के सेहल्का होना ) हैं। प्राप्ति सिद्धि द्वारा मनवांछित वस्तु प्राप्त की जा सकती है और प्राकाम्य सिद्धिद्वारा मनुष्य को उसकी भोग्य वस्तु का अनुभव इस लोक या अगले लोक में होता है। ईशितासिद्धि से मनुष्य माया की उपशक्तियों को पा सकता है और वशिता सिद्धि से मनुष्य तीनों गुणोंसे अबाध बन जाता है। जिसने कामावसायिता सिद्धि प्राप्त की होती है, वह कहीं से कोई भीवस्तु सर्वोच्च सीमा तक पा सकता है। हे उद्धव, ये आठ योग-सिद्धिदियाँ प्राकृतिक रूप सेविद्यमान होती हैं और इस जगत में अद्वितीय हैं।
अनूर्मिमत्त्वं देहेउस्मिन्दूरश्रवणदर्शनम् ।मनोजव: कामरूपं परकायप्रवेशनम् ॥
६॥
स्वच्छन्दमृत्युदेवानां सहक्रीडानुदर्शनम् ।यथासड्डूल्पसंसिद्द्िराज्ञाप्रतिहता गति: ॥
७॥
अनूर्मि-मत्त्वमू-- भूख, प्यास आदि से अविचलित रह कर; देहे अस्मिन्--इस शरीर को; दूर--दूरस्थ वस्तुएँ; श्रवण--सुनना;दर्शनम्--तथा देखना; मनः-जब:--मन की गति से शरीर को हिलाते हुए; काम-रूपम्--इच्छानुसार किसी भी शरीर कोधारण करते हुए; पर-काय--दूसरों के शरीर; प्रवेशनम्--प्रविष्ट होकर; स्व-छन्द--अपनी इच्छानुसार; मृत्यु;--मर रहे;देवानाम्ू--देवताओं के; सह--साथ में; क्रीडा--खिलवाड़; अनुदर्शनम्--देखते हुए; यथा--के अनुसार; सड्डूल्प-इढ़निश्चय; संसिद्धि:--पूर्ण सिद्धि; आज्ञा--निर्देश; अप्रतिहता--अबाध; गति:--प्रगति |
प्रकृति के गुणों से उत्पन्न होने वाली दस गौण योग-सिद्ध्रियाँ हैं-- भूख-प्यास तथा अन्यशारीरिक उत्पातों से अपने को मुक्त करने की शक्ति, काफी दूरी से वस्तुओं को देखने-सुनने की शक्ति, मन के वेग से शरीर को गतिशील बनाने की शक्ति, इच्छानुसार रूप धारण करने कीशक्ति, अन्यों के शरीर में प्रवेश करने की शक्ति, इच्छानुसार शरीर त्यागने की शक्ति, देवताओंतथा अप्सराओं की लीलाओं का दर्शन करने की शक्ति, अपने संकल्प को पूरा करने तथा ऐसेआदेश देने की शक्ति जिनका निर्बाध पालन हो सके।
त्रिकालज्ञत्वमद्वन्द्दं परचित्ताद्मभिज्ञता ।अम्न्य्काम्बुविषादीनां प्रतिष्टम्भोडषपराजय: ॥
८॥
एताश्नोद्देशतः प्रोक्ता योगधारणसिद्धयः ।यया धारणया या स्याद्यथा वा स्यातन्निबोध मे ॥
९॥
त्रि-काल-च्ञत्वम्-- भूत, वर्तमान तथा भविष्य जानने की सिद्धि; अद्न्द्मू-गर्मी तथा सर्दी जैसे द्वैतों से अप्रभावित रहना; पर--अन्यों के; चित्त--मन; आदि--इत्यादि; अभिज्ञता--जानना; अग्नि--अग्नि; अर्क--सूर्य; अम्बु--जल; विष--विष;आदीनाम्---इत्यादि की; प्रतिष्टम्भ:--शक्ति को रोकना; अपराजय: --दूसरे द्वारा हराया न जाना; एता:--ये; च-- भी;उद्देशतः--नामों तथा गुणों के उल्लेख मात्र से; प्रोक्ता:--कथित; योग--योग-प्रणाली का; धारण-- ध्यान की; सिद्धय:ः --सिद्धियाँ; यया--जिसमें; धारणया--ध ध्यान से; या--जो ( सिद्धि ); स्थातू--हो सके; यथा--जिसके द्वारा; वा--अथवा;स्थातू--हो सके; निबोध--सीख लो; मे--मुझसे |
भूत, वर्तमान तथा भविष्य जानने की शक्ति, शीत-घाम तथा अन्य द्वन्द्-ों को सहने कीशक्ति, अन्यों के मन को जान लेने, अग्नि, सूर्य, जल, विष इत्यादि के प्रभाव को रोकना तथाअन्यों द्वारा पराजित न होने की शक्ति--ये योग तथा ध्यान की पाँच सिद्ध्ियाँ हैं। मैं उन्हें, उनकेनामों तथा गुणों के अनुसार, यहाँ सूचीबद्ध कर रहा हूँ। तुम मुझसे सीख लो कि किस तरहविशेष ध्यान से विशिष्ट योग-सिद्ध्रियाँ उत्पन्न होती हैं और उनमें कौन-सी विशेष विधियाँ निहितहोती हैं।
भूतसूक्ष्मात्मनि मयि तन्मात्र॑ धारयेन्मन: ।अणिमानमवापष्नोति तन्मात्रोपासको मम ॥
१०॥
भूत-सूक्ष्म--सूक्ष्म तत्त्वों के; आत्मनि--आत्मा में; मयि--मुझमें; तत्-मात्रमू--अनुभूति के सूक्ष्म तात्विक रूपों पर; धारयेत्--एकाग्र करे; मनः--मन को; अणिमानम्--अणिमा नामक सिद्द्धि; अवाप्नोति--प्राप्त करता है; तत्-मात्र--सूक्ष्म तत्त्वों में;उपासकः--पूजा करने वाला; मम--मेरा |
जो व्यक्ति अपने मन को समस्त सूक्ष्म तत्त्वों में व्याप्त मेरे सूक्ष्म रूप में एकाग्र करके मेरीपूजा करता है, वह अणिमा नामक योग-सिद्धि प्राप्त करता है।
महत्तत्त्वात्मनि मयि यथासंस्थं मनो दधत् ।महिमानमवाणष्नोति भूतानां च पृथक्पृथक् ॥
११॥
महत्ू-तत्त्व--समस्त भौतिक शक्ति की; आत्मनि--आत्मा में; मयि--मुझमें; यथा--के अनुसार; संस्थम्--विशेष परिस्थिति;मनः--मन; दधत्--एकाग्र करते हुए; महिमानम्--महिमा नामक शक्ति; अवापष्नोति--प्राप्त करता है; भूतानाम्ू-- भौतिकतत्त्वों की; च--भी; पृथक् पृथक्ू--अलग अलग।
जो व्यक्ति महत् तत्त्व के विशेष रूप में अपने मन को लीन कर देता है और इस तरह समस्तजगत के परमात्मा रूप में मेरा ध्यान करता है उसे महिमा नामक योग-सिद्धि प्राप्त होती है। औरजो आकाश, वायु, अग्नि इत्यादि पृथक् पृथक् तत्त्वों में अपने मन को लीन करता है, वह हरभौतिक तत्त्व की महानता ( महत्ता ) को प्राप्त करता जाता है।
परमाणुमये चित्तं भूतानां मयि रझ्जयन् ।कालसूक्ष्मार्थतां योगी लघिमानमवाप्नुयात् ॥
१२॥
'परम-अणु-मये--परमाणुओं के रूप में; चित्तमू--चेतना; भूतानाम्-- भौतिक तत्त्वों की; मयि--मुझमें; रक्ञयन्--अनुरक्तहोकर; काल--समय का; सूक्ष्म--सूक्ष्म; अर्थताम्--वस्तु; योगी--योगी; लघिमानम्--लघिमा नामक योगशक्ति;अवाणुयात्--प्राप्त कर सकते हैं।
मैं प्रत्येक वस्तु के भीतर रहता हूँ, इसलिए मैं भौतिक तत्त्वों के परमाणविक घटकों का सारहूँ। मेरे इस रूप में अपने मन को संलग्न करके, योगी लघिमा नामक सिद्धि प्राप्त कर सकता है,जिससे वह काल के समान सूक्ष्म परमाणविक वस्तु की अनुभूति कर सकता है।
धारयन्मय्यहंतत्त्वे मनो वैकारिके खिलम् ।सर्वेन्द्रियाणामात्मत्वं प्राप्ति प्राप्पोति मन््मना: ॥
१३॥
धारयन्--एकाग्र करते हुए; मयि--मुझमें; अहम्-तत्त्वे--मिथ्या अहंकार के भीतर; मन:--मन; बैकारिके --सतोगुण से उत्पन्नहुए में; अखिलम्--पूर्णतया; सर्ब--सारे जीव; इन्द्रियाणाम्--इन्द्रियों का; आत्मत्वम्--स्वामित्व; प्राप्तिमू--प्राप्ति नामकसिद्धि; प्राप्पोति--प्राप्त करता है; मत्-सना:--योगी जिसका मन मुझमें स्थिर है।
सतोगुण से उत्पन्न मिथ्या अहंकार के भीतर अपने मन को पूरी तरह मुझमें एकाग्र करते हुएयोगी प्राप्ति नामक शक्ति प्राप्त करता है, जिससे वह समस्त जीवों की इन्द्रियों का स्वामी बनजाता है। वह ऐसी सिद्धि इसलिए प्राप्त करता है क्योंकि उसका मन मुझमें लीन रहता है।
महत्यात्मनि यः सूत्रे धारयेन्मयि मानसम् ।प्राकाम्यं पारमेष्ठयं मे विन्दतेउव्यक्तजन्मन: ॥
१४॥
महति--महत्-तत्त्व में; आत्मनि--परमात्मा में; यः--जो; सूत्रे--सकाम कर्मों की श्रृंखला से जाना जाने वाला; धारयेत्--एकाग्र करे; मयि--मुझमें; मानसम्--मानसिक कार्य ; प्राकाम्यम्--प्राकाम्य नामक सिद्धि; पारमेष्ठयमम्--सर्वोत्तम; मे--मुझसे;विन्दते--प्राप्त करता है या भोगता है; अव्यक्त-जन्मन:--उससे जिसके प्राकट्य को इस जगत में अनुभव नहीं किया जासकता।
जो व्यक्ति सकाम कर्मो की श्रृंखला को अभिव्यक्त करने वाले महत् तत्त्व की उस अवस्थाके परमात्मा रूप मुझमें अपनी सारी मानसिक क्रियाएँ एकाग्र करता है, वह अव्यक्त रूप मुझसेप्राकाम्य नामक सर्वोत्तम योग-सिद्धि्ि प्राप्त करता है।
विष्णौ त्र्यधी श्वरे चित्तं धारयेत्कालविग्रहे ।स ईशित्वमवाणोत्ति क्षेत्रज्ञक्षेत्रचोदनाम् ॥
१५॥
विष्णौ--भगवान् विष्णु या परमात्मा में; त्रि-अधी श्वरे--तीन गुणों वाली माया के परम नियन्ता; चित्तम्--चेतना; धारयेत्--एकाग्र करता है; काल--काल का, जो कि मूल गतिप्रदाता है; विग्रहे--स्वरूप में; सः--वह, योगी; ईशित्वम्--वश में करनेकी सिद्धि; अवाष्नोति--प्राप्त करता है; क्षेत्र-ज्ञ--चेतन जीव; क्षेत्र--उपाधियों सहित शरीर; चोदनाम्--प्रेरित करते हुए।
जो मूल गतिप्रदाता तथा तीन गुणों से युक्त बहिरंगा शक्ति के परमेश्वर, परमात्मा विष्णु में अपनी चेतना स्थिर करता है, वह अन्य बद्धजीवों, उनके शरीरों तथा उनकी उपाधियों कोनियंत्रित करने की योग-सिद्धिि प्राप्त करता है।
नारायणे तुरीयाख्ये भगवच्छब्दशब्दिते ।मनो मय्यादधद्योगी मद्धर्मा वशितामियात् ॥
१६॥
नारायणे-- भगवान् नारायण में; तुरीय-आख्ये--तुरीय नामक; भगवत्--समस्त ऐश्वर्य से पूर्ण; शब्द-शब्दिते--शब्द से जानाजाने वाला; मन:--मन; मयि--मुझमें; आदधत्--लगाते हुए; योगी--योगी; मत्-धर्मा--मेरे स्वभावको पाकर; वशिताम्--वशिता नामक सिद्धि; इयात्-मय् ओब्तैन्
जो योगी मेरे नारायण रूप में, जो कि समस्त ऐश्वर्यपूर्ण चौथी अवस्था ( तुरीय ) माना जाताहै, अपने मन को लगाता है, वह मेरे स्वभाव से युक्त हो जाता है और उसे वशिता नामक योग-सिद्धि प्राप्त होती है।
निर्गुणे ब्रह्मणि मयि धारयन्विशदं मनः ।परमानन्दमापष्नोति यत्र कामोइवसीयते ॥
१७॥
निर्गुणे--गुणरहित; ब्रह्मणि--ब्रह्म में; मयि--मुझमें; धारयन्--एकाग्र करके; विशदम्--शुद्ध; मन: --मन; परम-आनन्दम्--सर्वाधिक सुख; आण्नोति--प्राप्त करता है; यत्र--जहाँ; काम:--इच्छा; अवसीयते--पूर्णतया पूरित रहता है
जो व्यक्ति मेरे निर्विशेष ब्रह्म रूप में अपना शुद्ध मन स्थिर करता है, वह सर्वाधिक सुखप्राप्त करता है, जिसमें उसकी सारी इच्छाएँ पूरी हो जाती हैं।
श्वेतद्वीपपतौ चित्तं शुद्धे धर्ममये मयि ।धारयज्छेततां याति षडूमिरहितो नर: ॥
१८॥
श्वेत-द्वीप-- श्वेत द्वीप का, जो कि क्षीरोदकशायी विष्णु का धाम है; पतौ-- भगवान् में; चित्तमू--चेतना को; शुद्धे--साक्षात्सतोगुण में; धर्म-मये--दया में सदैव स्थित है, जो; मयि--मुझमें; धारयन्--एकाग्र करते हुए; श्वेतताम्ू--शुद्धता को; याति--प्राप्त करता है; घट्-ऊर्मि-- भौतिक उत्पात की छः लहरें; रहितः--से मुक्त; नरः--पुरुष।
जो व्यक्ति मेरे धर्म को धारण करने वाले, साक्षात् शुद्धता तथा श्वेत द्वीप के स्वामी के रूपमुझमें, अपना मन एकाग्र करता है, वह शुद्ध जीवन को प्राप्त करता है, जिसमें वह भौतिकउपद्रव की छह ऊर्मियों से अर्थात् भूख, प्यास, क्षय, मृत्यु, शोक तथा मोह से--मुक्त हो जाताहै।
मय्याकाशात्मनि प्राणे मनसा घोषमुद्दहन् ।तत्रोपलब्धा भूतानां हंसो वाच: श्रुणोत्यसौ ॥
१९॥
मयि--मुझमें; आकाश-आत्मनि--आकाश रूप; प्राणे-- प्राण में; मनसा--मन से; घोषम्--दिव्य ध्वनि; उद्दहन्ू--एकाग्र करतेहुए; तत्र--आकाश में; उपलब्धा:-- अनुभूत; भूतानाम्--सारे जीवों का; हंस:--शुद्ध जीव; वाच:--शब्द या वाणी;श्रुणोति--सुनता है; असौ--वह।
वह शुद्ध जीव जो मेरे भीतर होने वाली असामान्य ध्वनि पर साक्षात् आकाश तथा प्राण-वायु के रूप में अपना मन स्थिर करता है, वह आकाश में सारे जीवों की वाणी का अनुभव करसकता है।
चक्षुस्त्वष्टरे संयोज्य त्वष्टारमपि चक्षुषि ।मां तत्र मनसा ध्यायन् विश्व पश्यति दूरत: ॥
२०॥
चक्षु;--आँखें; त्वष्टरि--सूर्य में; संयोज्य--तादात्म्य करके; त्वष्टारम्ू--सूर्य को; अपि-- भी; चक्षुषि-- अपनी आँखों में;माम्--मुझको; तत्र--वहाँ, सूर्य तथा आँख के पारस्परिक तादात्म्य में; मनसा--मन से; ध्यायन्--ध्यान करते हुए; विश्वम्--हरवस्तु को; पश्यति--देखता है; दूरत:--दूर स्थित |
मनुष्य को चाहिए कि अपनी दृष्टि को सूर्यलोक में और सूर्यलोक को अपनी आँखों में लीनकरके, सूर्य तथा दृष्टि के संमेल के भीतर मुझे स्थित मान कर, मेरा ध्यान करे। इस तरह वहकिसी भी दूर की वस्तु को देखने की शक्ति प्राप्त कर लेता है।
मनो मयि सुसंयोज्य देहं तदनुवायुना ।मद्धारणानुभावेन तत्रात्मा यत्र वै मन: ॥
२१॥
मनः--मन; मयि--मुझमें; सु-संयोज्य--ठीक से संयुक्त करके; देहम्-- भौतिक शरीर; तत्ू--मन; अनु-वायुना--पीछे पीछेचलने वाली हवा से; मत्-धारणा--मेरे ध्यान का; अनुभावेन--शक्ति द्वारा; तत्र--वहाँ; आत्मा-- भौतिक शरीर ( चला जाताहै ); यत्र--जहाँ जहाँ; वै--निश्चय ही; मनः--मन ( चला जाता है )
जो योगी अपना मन मुझमें लीन कर देता है और इसके बाद मन का अनुसरण करने वालीवायु का उपयोग भौतिक शरीर को मुझमें लीन करने के लिए करता है, वह मेरे ध्यान की शक्तिसे उस योग-सिद्धि को प्राप्त करता है, जिससे उसका शरीर तुरन्त ही मन के पीछे पीछे जाता है।
यदा मन उपादाय यद्यद्रूपं बुभूषति ।तत्तद्धवेन्मनोरूपं मद्योगबलमा श्रय: ॥
२२॥
यदा--जब; मन: --मन; उपादाय-प्रयुक्त करके; यत् यत्--जो जो; रूपम्--रूप; बुभूषति--धारण करना चाहता है; तत्तत्--वही रूप; भवेत्--प्रकट हो सकता है; मन:-रूपम्ू--मन द्वारा इच्छित रूप; मत्-योग-बलम्--मेरी अचिन्त्य योगशक्तिजिससे मैं असंख्य रूप प्रकट करता हूँ; आभ्रयः:--आश्रय रूप।
जब कोई योगी किसी विशेष विधि से अपने मन को लगाकर कोई विशिष्ट रूप धारणकरना चाहता है, तो वही रूप तुरन्त प्रकट होता है। ऐसी सिद्धि मेरी उस अचिन्त्य योगशक्ति केआश्रय में मन को लीन करने से सम्भव है, जिसके द्वारा मैं असंख्य रूप धारण करता हूँ।परकायं विशन्सिद्ध आत्मानं तत्र भावयेत् ।
पिण्डं हित्वा विशेत्प्राणो वायुभूतः षडड्घ्रिवत् ॥
२३॥
पर--दूसरे के; कायम्--शरीर में; विशन्--प्रवेश करने की इच्छा करते हुए; सिद्धः--योगाभ्यास में निपुण; आत्मानम्--स्वयं;तत्र--उस शरीर में; भावयेत्--कल्पना करता है; पिण्डम्--अपने ही स्थूल शरीर को; हित्वा--त्याग कर; विशेत्-- प्रवेश करे;प्राण:--सूक्ष्म शरीर में; वायु-भूत:--वायु जैसा बन कर; षट्-अड्घ्रि-वत्-- भौरें की तरह
जो एक फूल से दूसरे फूल परमँडराता हैजब कोई पूर्ण योगी किसी अन्य के शरीर में प्रवेश करना चाहता है, तो उसे चाहिए किअन्य के शरीर में अपना ध्यान करे और तब अपना निजी स्थूल शरीर त्याग कर, वायु के मार्गों सेहोकर अन्य के शरीर में उसी तरह प्रवेश करे जिस तरह भौंरा उड़ कर एक फूल छोड़ कर दूसरेपर चला जाता है।
पाष्ण्यापीडबद्य गुदं प्राणं हृदुरःकण्ठमूर्थसु ।आरणेषप्य ब्रहारन्श्रेण ब्रह्म नीत्वोत्सूजेत्तनुम्ू ॥
२४॥
पाष्ण्या--एड़ी से; आपीड्य--रोक कर; गुदम्--गुदा को; प्राणम्--जीव को ले जाने वाला प्राण; हत्--हृदय से; उर:--वक्षस्थल पर; कण्ठ--गले तक; मूर्थसु--तथा सिर पर; आरोप्य--रख कर; ब्रह्म-रन्श्रेण--सरि के ऊपर आध्यात्मिक स्थानद्वारा; ब्रह्य--आध्यात्मिक जगत या निर्विशेष ब्रह्म तक; नीत्वा--ले जाकर; उत्सूजेत्--त्याग दे; तनुमू--शरीर |
जिस योगी ने स्वच्छन्द-मृत्यु नामक योगशक्ति प्राप्त कर ली होती है, वह अपनी गुदा कोपाँव की एड़ी से दबाता है और तब आत्मा को हृदय से उठाकर क्रमशः वक्षस्थल, गर्दन तथाअन्त में सिर तक उठाता है। तब ब्रह्म-रन्ध्र में स्थित योगी अपने शरीर को त्याग देता है औरआत्मा को चुने हुए गन्तव्य तक ले जाता है।
विहरिष्यन्सुराक्रीडे मत्स्थं सत्त्वं विभावयेत् ।विमानेनोपतिष्ठन्ति सत्त्ववृत्ती: सुरस्त्रियः ॥
२५॥
विहरिष्यनू-- भोग करने की इच्छा से; सुर--देवताओं के; आक्रीडे--क्रीड़ा-स्थल में; मत्--मुझमें; स्थम्--स्थित; सत्त्वमू--सतोगुण; विभावयेत्-- ध्यान करे; विमानेन--वायुयान या विमान के द्वारा; उपतिष्ठन्ति--प्राप्त होते हैं; सत्त्त--सतोगुण में;वृत्ती:--प्रकट होकर; सुर--देवताओं की; स्त्रियः--स्त्रियाँ |
जो योगी देवताओं के क्रीड़ा-उद्यानों का भोग करना चाहता है उसे मुझमें स्थित शुद्धसतोगुण का ध्यान करना चाहिए और तब सतोगुण से उत्पन्न अप्सराएँ विमानों में चढ़ कर उसकेपास आयेंगी।
यथा सड्डूल्पयेह्ठुद्धया यदा वा मत्परः पुमान् ।मयि सत्ये मनो युखझ्ध॑स्तथा तत्समुपाश्नुते ॥
२६॥
यथा--जिस साधनों से; सट्डूल्पयेतू--मन में संकल्प करे या निश्चित करे; बुद्धया--मन के द्वारा; यदा--जब; बवा--अथवा;मत्ू-परः--मुझमें श्रद्धा रखते हुए; पुमानू--योगी; मयि--मुझ में; सत्ये--जिसकी इच्छा सच उतरती है; मन:ः--मन; युझ्ञनू--युक्त करते हुए; तथा--उस साधन से; तत्--वही अभिप्राय; समुपाश्नुते--प्राप्त करता है
जो योगी मुझमें अपने मन को लीन करके तथा यह जानते हुए कि मेरा अभिप्राय सदैव पूराहोता है, मुझमें श्रद्धा रखता है, वह सदैव उन्हीं साधनों से, जिनका पालन करने का उसनेसंकल्प ले रखा है, अपना मन्तव्य प्राप्त करेगा।
यो वै मद्भावमापन्न ईशितुर्वशितुः पुमान् ।कुतश्चित्न विहन्येत तस्य चाज्ञा यथा मम ॥
२७॥
यः--जो ( योगी ); वै--निस्सन्देह; मत्--मुझसे; भावम्--स्वभाव; आपन्नः--प्राप्त किया गया; ईशितु:--परम शासक से;वशितु:--परम नियन्ता से; पुमान्ू--पुरुष ( योगी ); कुतश्चित्ू--किसी प्रकार से; न विहन्येत--विचलित नहीं हो सकता;तस्य--उसका; च-- भी; आज्ञा-- आदेश; यथा--जिस तरह; मम--मेरा |
जो व्यक्ति ठीक से मेरा ध्यान करता है, वह परम शासक तथा नियन्ता होने का मेरा स्वभावप्राप्त कर लेता है। तब मेरे ही समान उसका आदेश किसी भी तरह से व्यर्थ नहीं जाता।
मद्धक्त्या शुद्धसत्त्वस्थ योगिनो धारणाविद: ।तस्य त्रैकालिकी बुद्धदर्जन्ममृत्यूपबृंहिता ॥
२८ ॥
मतू-भक्त्या--मेरे प्रति भक्ति से; शुद्ध-सत्त्वस्य--जिसका जीवन शुद्ध हो जाता है उसका; योगिन:--योगी का; धारणा-विदः--ध्यान-विधि को जानने वाला; तस्य--उसका; त्रै-कालिकी--काल की तीनों अवस्थाओं, भूत, वर्तमान तथा भविष्य मेंकार्य करते हुए; बुद्धिः--बुद्धि; जन्म-मृत्यु--जन्म तथा मृत्यु; उपबूंहिता--समेत |
जिस योगी ने मेरी भक्ति द्वारा अपने जीवन को शुद्ध कर लिया है और जो इस तरह ध्यानकी विधि को भलीभाँति जानता है, वह भूत, वर्तमान तथा भविष्य का ज्ञान प्राप्त करता है। अतःवह अपने तथा अनन््यों के जन्म तथा मृत्यु को देख सकता है।
अग्न्यादिभिर्न हन्येत मुनेर्योगमयं वपु: ।मद्योगशान्तचित्तस्य यादसामुद्कं यथा ॥
२९॥
अग्नि--आग; आदिभि:--इत्यादि ( सूर्य, जल, विष इत्यादि ) के द्वारा; न--नहीं; हन्येत--चोट पहुँचाया जा सकता है;मुनेः--चतुर योगी के; योग-मयम्--योग-विज्ञान में पूरी तरह अनुशीलित; बषु:--शरीर; मत्-योग--मेरी भक्ति से; शान्त--शान्त किया गया; चित्तस्थ--चित्त वाले का; यादसाम्ू--जलचरों के; उदकम्--जल; यथा--जिस तरह।
जिस तरह जलचरों के शरीरों को जल से चोट नहीं पहुँचती, उसी प्रकार जिस योगी कीचेतना मेरी भक्ति से शान्त हुई रहती है और जो योग-विज्ञान में पूर्णतया विकसित होता है,उसका शरीर अग्नि, सूर्य, जल, विष इत्यादि से क्षतिग्रस्त नहीं किया जा सकता।
मद्विभूतीरभिध्यायन्श्रीवत्सास्त्रविभूषिता: ।ध्वजातपत्रव्यजनै: स भवेदपराजित: ॥
३०॥
मतू-मेरे; विभूती:--ऐश्वर्यमय अवतारों से; अभिध्यायन्-- ध्यान करते हुए; श्रीवत्स--भगवान् के श्रीवत्स ऐश्वर्य समेत;अस्त्र--हथियार; विभूषिता:--अलंकृत; ध्वज--झंडों से; आतपत्र--छाते से; व्यजनै: --तथा नाना प्रकार के पंखों से; सः--वह, भक्त-योगी; भवेत्--बन जाता है; अपराजितः --अन्यों द्वारा न जीता जा सकने वाला।
मेरा भक्त मेरे ऐश्वर्यमय अवतारों का ध्यान करके अपराजेय बन जाता है। मेरे ये अवतारश्रीवत्स तथा विविध हथियारों से अलंकृत और ध्वजों, आलंकारिक छातों तथा पंखों जैसेराजसी साज-सामान से युक्त होते हैं।
उपासकस्य मामेवं योगधारणया मुनेः ।सिद्धय: पूर्वकथिता उपतिष्ठन्त्यशेषतः ॥
३१॥
उपासकस्य--पूजा करने वाले का; माम्--मुझको; एवम्--इस प्रकार; योग-धारणया--यौगिक ध्यान द्वारा; मुनेः--विद्वानपुरुष का; सिद्धयः--सिद्धियाँ; पूर्व--पहले; कथिता:--कही हुई; उपतिष्ठन्ति--पास पहुँचती हैं; अशेषत:--सभी प्रकार से |
जो विद्वान भक्त योग-दध्यान द्वारा मेरी पूजा करता है, वह निश्चय ही सभी तरह से उन योग-सिद्ध्ियों को प्राप्त करता है जिनका वर्णन मैंने अभी किया है।
जितेन्द्रियस्य दान्तस्य जितश्वासात्मनो मुनेः ।मद्धारणां धारयतः का सा सिद्धि: सुदुर्लभा ॥
३२॥
जित-इन्द्रियस्य--इन्द्रियों को जीत लेने वाले का; दान्तस्य--अनुशासित तथा आत्मसंयमित का; जित-श्वास--जिसने श्वास परविजय पा ली है; आत्मन:--तथा जिसने मन को जीत लिया है; मुनेः--ऐसे मुनि का; मत्--मुझमें; धारणाम्--ध्यान;धारयतः--करने वाला; का--क्या है; सा--वह; सिद्धि:--सिद्धि; सु-दुर्लभा--जिसको प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है |
जिस मुनि ने अपनी इन्द्रियों, श्वास तथा मन को जीत लिया है, जो आत्मसंयमी है और सदामेरे ध्यान में लीन रहता है, उसके लिए कौन-सी योग-सिद्धिि प्राप्त करना कठिन है ? अन्तरायान्वदन्त्येता युज्ग़तो योगमुत्तमम् ।मया सम्पद्यमानस्य 'कालक्षपणहेतव: ॥
३३॥
अन्तरायान्--अवरोध; वदन्ति--कहते हैं; एता:--ये सिद्धियाँ; युज्ञतः--लगने वाले के; योगम्--ब्रह्म से संयोग; उत्तमम्--परम अवस्था; मया--मेरे साथ; सम्पद्ममानस्य--पूरी तरह ऐ श्वर्यवान बनने वाले के; काल--समय का; क्षपण--अवरोध का,बर्बादी; हेतव:--कारण |
भक्ति के दिद्वान पंडितों का कहना है कि योग-सिद्धियाँ, जिनका मैंने उल्लेख किया है,वास्तव में उस परम योग का अभ्यास करने वाले व्यक्ति के लिए अवरोधक तथा समय काअपव्यय हैं जिसके द्वारा वह मुझसे सीधे समस्त जीवन-सिद्ध्ियाँ प्राप्त करता है।
जन्मौषधितपोमन्त्रै्यावतीरिह सिद्धयः ।योगेनाप्नोति ताः सर्वा नान्यैर्योगगतिं व्रजेतू ॥
३४॥
जन्म--जन्म; औषधि--जड़ी-बूटियों; तपः--तपस्या; मन्त्रै:--तथा मंत्रों से; यावती:--जितने हैं; इह--इस जगत में;सिद्धयः--सिद्धियाँ; योगेन--मेरी भक्ति से; आप्नोति--प्राप्त करता है; ता:ः--वे; सर्वा:--सभी; न--नहीं; अन्यैः -- अन्यविधियों से; योग-गतिमू--वास्तविक योग-सिद्धि; ब्रजेत्--प्राप्त करता है |
अच्छे जन्म, औषधियों, तपस्याओं तथा मंत्रों से जो भी योग-सिद्ध्वियाँ प्राप्तकी जा सकतीहैं उन सबों को मेरी भक्ति करके प्राप्त किया जा सकता है। निस्सन्देह, कोई भी व्यक्ति अन्यकिसी साधन से वास्तविक योग-सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता।
सर्वासामपि सिद्धीनां हेतु: पतिरहं प्रभु: ।अहं योगस्य साड्ख्यस्य धर्मस्य ब्रह्मगादिनाम् ॥
३५॥
सर्वासामू--सभी से; अपि--निस्सन्देह; सिद्धीनाम्--सिद्ध्रियों में से; हेतु:--कारण; पति:ः--रक्षक; अहम्--मैं हूँ; प्रभु:--स्वामी; अहम्--मैं; योगस्य--मेरे शुद्ध ध्यान का; साइ्ख्यस्य--सांख्य ज्ञान का; धर्मस्थ--निष्काम भाव से किये गये कर्म का;ब्रह्म-वादिनाम्ू--वैदिक शिक्षकों का।
हे उद्धव, मैं समस्त योग-सिद्धियों, योग-पद्धति, सांख्य ज्ञान, शुद्ध कर्म तथा विद्वान वैदिकशिक्षकों का कारण, रक्षक तथा स्वामी हूँ।
अहमात्मान्तरो बाह्योनावृत: सर्वदेहिनाम् ।यथा भूतानि भूतेषु बहिरन्तः स्वयं तथा ॥
३६॥
अहम्-मैं; आत्मा-- भगवान्; आन्तर:--परमात्मा के भीतर स्थित; बाह्य:--मेरे सर्वव्यापक रूप के बाहर स्थित; अनावृत:--खुला; सर्व-देहिनाम्--सारे जीवों के; यथा--जिस तरह; भूतानि-- भौतिक तत्त्व; भूतेषु--जीवों में; बहि:ः--बाहर से; अन्त:--भीतर से; स्वयम्-स्वयं; तथा--उसी तरह से |
जिस तरह समस्त भौतिक शरीरों के भीतर तथा बाहर एक जैसे भौतिक तत्त्व उपस्थित रहतेहैं, उसी तरह मैं किसी अन्य वस्तु से आच्छादित नहीं किया जा सकता। मैं हर वस्तु के भीतरपरमात्मा रूप में और हर वस्तु के बाहर अपने सर्वव्यापक रूप में उपस्थित रहता हूँ।
16. प्रभु का ऐश्वर्य
श्रीउद्धव उवाचत्वं ब्रह्म परमं साक्षादनाद्यन्तमपावृतम् ।सर्वेषामपि भावानां त्राणस्थित्यप्ययोद्धवः ॥
१॥
श्री-उद्धवः उबाच-- श्री उद्धव ने कहा; त्वम्--तुम हो; ब्रह्म--महानतम; परमम्--परम; साक्षात्--स्वयं; अनादि-- आदिरहित;अन्तम्ू--अन्तरहित; अपावृतम्--किसी वस्तु से सीमित नहीं; सर्वेषामू--समस्त; अपि--निस्सन्देह; भावानाम्--उपस्थितवस्तुओं में; त्राण--रक्षक; स्थिति--जीवनदाता; अप्यय--संहार; उद्धव: --तथा सृष्टि |
श्री उद्धव ने कहा : हे प्रभु, आप अनादि तथा अनन्त, साक्षात् परब्रह्म तथा अन्य किसी वस्तुसे सीमित नहीं हैं। आप सभी वस्तुओं के रक्षक तथा जीवनदाता, उनके संहार तथा सृष्टि हैं।
उच्चावचेषु भूतेषु दुर्जेयमकृतात्मभि: ।उपासते त्वां भगवन्याथातथ्येन ब्राह्मणा: ॥
२॥
उच्च-- श्रेष्ठ; अवचेषु--तथा निम्न; भूतेषु--सृजित वस्तुओं तथा जीवों में; दुर्जेयम्--समझ पाना कठिन; अकृत-आत्मभि:--अपतवित्रों द्वारा; उपासते--वे पूजा करते हैं; त्वामू--तुम्हारी; भगवन्--हे प्रभु; यथा-तथ्येन--वास्तव में; ब्राह्मणा: --वैदिकमतानुयायी।
हे प्रभु, यद्यपि अपवित्र लोगों के लिए यह समझ पाना कठिन है कि आप समस्त उच्च तथानिम्न सृष्टियों में स्थित हैं, किन्तु वे ब्राह्मण जो वैदिक मत को भलीभाँति जानते हैं आपकीवास्तविक रूप में पूजा करते हैं।
येषु येषु च भूतेषु भक्त्या त्वां परमर्षय: ।उपासीनाः प्रपद्यन्ते संसिद्धि्रि तद्वदस्व मे ॥
३॥
येषु येषु--जिन जिन; च--तथा; भूतेषु--स्वरूपों में; भक्त्या--भक्तिपूर्वक; त्वामू--तुमको; परम-ऋषय:--महर्षिगण;उपासीना:--पूजा करने वाले; प्रपद्यन्ते--प्राप्त करते हैं; संसिद्द्धिमू--सिद्द्धि; तत्--वह; वदस्व--कृपया कहें; मे--मुझसे |
कृपया मुझसे उन सिद्धियों को बतलायें जिन्हें महर्षिगण आपकी भक्तिपूर्वक पूजा द्वाराप्राप्त करते हैं। कृपया यह भी बतलायें कि वे आपके किन विविध रूपों की पूजा करते हैं।
गूढश्वरसि भूतात्मा भूतानां भूतभावन ।न त्वां पश्यन्ति भूतानि पश्यन्तं मोहितानि ते ॥
४॥
गूढः --गुप्त; चरसि--लगे रहते हैं; भूत-आत्मा--परमात्मा; भूतानामू--जीवों के; भूत-भावन--हे जीवों के पालनकर्ता; न--नहीं; त्वाम्ू--तुमको; पश्यन्ति--देखते हैं; भूतानि--जीव; पश्यन्तम्--देखते हुए; मोहितानि--मोह ग्रस्त; ते--तुम्हारे द्वारा ।
हे सर्वपालक प्रभु, यद्यपि आप सभी जीवों के परमात्मा हैं किन्तु आप गुप्त रहते हैं। इसतरह आपके द्वारा मोहग्रस्त बनाये जाकर सारे जीव आपको देख नहीं पाते यद्यपि आप उन्हेंदेखते रहते हैं।
या: काश्च भूमौ दिवि वै रसायांविभूतयो दिक्षु महाविभूते ।ता मह्ममाख्याह्मनुभावितास्तेनमामि ते तीर्थपदाड्प्रिपद्यम् ॥
५॥
या: काः--जो भी; च--भी; भूमौ--पृथ्वी पर; दिवि--स्वर्ग में; बै--निस्सन्देह; रसायाम्--नरक में; विभूतय:--शक्तियाँ;दिक्षु--सारी दिशाओं में; महा-विभूते--हे परमशक्तिमान; ताः--वे; महाम्--मुझसे; आख्याहि--कृपया बतलायें;अनुभाविता:-- प्रकट, व्यक्त; ते--तुम्हारे द्वारा; नमामि--मैं सादर नमस्कार करता हूँ; ते--तुम्हारे; तीर्थ-पद--समस्ततीर्थस्थलों के निवास; अड्घ्रि-पद्मम्--चरणकमलों पर।
हे परमशक्तिमान प्रभु, कृपा करके मुझे अपनी वे असंख्य शक्तियाँ बतलायें जिन्हें आपपृथ्वी में, स्वर्ग में, नरक में तथा समस्त दिशाओं में प्रकट करते हैं। मैं आपके उन चरणकमलोंको सादर नमस्कार करता हूँ जो समस्त तीर्थस्थलों के आश्रय हैं।
श्रीभगवानुवाचएवमेतदहं पृष्ट: प्रश्न प्रश्नविदां वर ।युयुत्सुना विनशने सपतरर्जुनेन वे ॥
६॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् ने कहा; एवम्--इस प्रकार; एतत्--यह; अहम्--मैं; पृष्ट:--पूछा गया; प्रश्नम्-- प्रश्न; प्रश्न-विदाम्-प्रश्न करने में पटु लोगों के; वर--तुम जो कि श्रेष्ठ हो; युयुत्सुना--युद्ध करने की इच्छा रखने वालों के द्वारा;विनशने--कुरुक्षेत्र के युद्ध में; सपत्नैः --अपने प्रतिद्वन्दियों या शत्रुओं समेत; अर्जुनेन--अर्जुन द्वारा; वै--निस्सन्देह
भगवान् ने कहा : हे प्रश्नकर्ताओं में श्रेष्ठ, अर्जुन ने अपने प्रतिद्वन्द्रियों से युद्ध करने कीइच्छा से कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में मुझसे यही प्रश्न पूछा था जिसे तुम पूछने जा रहे हो।
ज्ञात्वा ज्ञातिवधं गह्म॑म॒धर्म राज्यहेतुकम् ।ततो निवृत्तो हन्ताहं हतोयमिति लौकिकः ॥
७॥
ज्ञात्वा--जान कर; ज्ञाति--अपने सम्बन्धियों से; वधम्--वध; गहाम्--गर्हित, निन्दनीय; अधर्मम्ू--अधर्म; राज्य--राज्य प्राप्तकरने के लिए; हेतुकम्-- प्रेरणा; तत:ः--ऐसे कर्म से; निवृत्त:ः--अवकाशप्राप्त; हरता--मारने वाला; अहम्--मैं हूँ; हतः--माराहुआ; अयम्--सम्बन्धियों का यह दल; इति--इस प्रकार; लौकिक:--संसारी |
कुरुक्षेत्र युद्धस्थल में अर्जुन ने सोचा कि अपने सम्बन्धियों का वध करना अत्यन्त गहित एवंअधार्मिक कार्य है, जो राज्य प्राप्त करने की उसकी इच्छा से प्रेरित है। अतएव यह सोच कर किमैं अपने सम्बन्धियों का मारने वाला होऊँगा और वे विनष्ट हो जायेंगे, वह युद्ध से विरत होनाचाहता था। इस तरह वह संसारी चेतना से दुखी था।
स तदा पुरुषव्याप्रो युक्त्या मे प्रतिबोधितः ।अभ्यभाषत मामेवं यथा त्वं रणमूर्धनि ॥
८॥
सः--वह; तदा--उस समय; पुरुष-व्याप्र: --पुरुषों में बाघ; युक्त्या--तर्क द्वारा; मे--मेरे द्वारा; प्रतिबोधित:--सही ज्ञान दियागया; अभ्यभाषत-- प्रश्न किया; माम्--मुझसे; एवम्--इस प्रकार; यथा--जिस तरह; त्वमू--तुम; रण--युद्ध के; मूर्धनि--मोर्चे में |
उस समय मैंने पुरुषों में व्याप्र अर्जुन को तर्क द्वारा समझाया और युद्ध के मोर्चे में ही अर्जुनने मुझसे उसी तरह के प्रश्न किये थे जिस तरह तुम अब कर रहे हो।
अहमात्मोद्धवामीषां भूतानां सुहृदी श्वरः ।अहं सर्वाणि भूतानि तेषां स्थित्युद्धवाप्यय: ॥
९॥
अहमू--ैं; आत्मा--परमात्मा हूँ; उद्धव--हे उद्धव; अमीषाम्--इन; भूतानाम्--जीवों के; सु-हत्--शुभचिन्तक; ईश्वर:--परमनियन्ता; अहम्--मैं; सर्वाणि भूतानि--सभी जीव; तेषाम्--उनकी; स्थिति--पालन; उद्धव--सृष्टि; अप्यय:ः--तथा संहार
हे उद्धव, मैं समस्त जीवों का परमात्मा हूँ, अतएव मैं स्वाभाविक रूप से उनका हितेच्छु तथापरम नियन्ता हूँ। सारे जीवों का स्त्रष्टा, पालक तथा संहर्ता होने से मैं उनसे भिन्न नहीं हूँ।
अहं गतिर्गतिमतां काल: कलयतामहम् ।गुनाणां चाप्यहं साम्यं गुणिन्यौत्पत्तिको गुण: ॥
१०॥
अहमू--मैं; गति:--चरम गन्तव्य; गति-मताम्--उन्नति चाहने वालों के; काल:--काल, समय; कलयताम्--नियंत्रण रखनेवालों के; अहम्--मैं; गुनाणाम्-- प्रकृति के गुणों के; च-- भी; अपि--ही; अहम्--मैं; साम्यम्-- भौतिक सन्तुलन;गुणिनि--पवित्रों में; औत्पत्तिक:--स्वाभाविक; गुण:--गुण |
मैं उन्नति चाहने वालों का चरम गन्तव्य हूँ और जो नियंत्रण रखना चाहते हैं उनमें मैं कालहूँ। मैं भौतिक गुणों की साम्यावस्था हूँ और पतवित्रों में मैं स्वाभाविक गुण हूँ।
गुणिनामप्यहं सूत्रं महतां च महानहम् ।सूक्ष्माणामप्यहं जीवो दुर्जयानामहं मन: ॥
११॥
गुणिनाम्-गुणयुक्त वस्तुओं में; अपि--निस्सन्देह; अहम्--मैं; सूत्रमू--मुख्य सूत्र तत्त्व; महताम्-महान् वस्तुओं में; च--भी;महान्--समग्र भौतिक अभिव्यक्ति; अहमू--ैं; सूक्ष्मणाम्--सूक्ष्म वस्तुओं में; अपि--निस्सन्देह; अहम्--मैं; जीव:--जीव;दुर्जयानाम्-दुर्जेय वस्तुओं में; अहम्--मैं; मनः--मन।
गुणयुक्त वस्तुओं में मैं प्रकृति की मुख्य अभिव्यक्ति हूँ और महान् वस्तुओं में मैं समग्र सृष्टिहूँ। सूक्ष्म वस्तुओं में मैं आत्मा हूँ और दुर्जेय वस्तुओं में मैं मन हूँ।
हिरण्यगर्भो वेदानां मन्त्राणां प्रणवस्त्रिवृत् ।अक्षराणामकारोस्मि पदानि च्छन्दुसामहम् ॥
१२॥
हिरण्य-गर्भ:--भगवान् ब्रह्मा; वेदानाम्--वेदों में; मन्त्राणाम्--मंत्रों के; प्रणव: --»कार; त्रि-वृतू--तीन अक्षरों वाला;अक्षराणाम्--अक्षरों के; अ-कार:--अ अर्थात् प्रथम अक्षर; अस्मि--हूँ; पदानि--तीन पंक्ति का गायत्री मंत्र; छन््दसाम्--छन््दोंमें; अहम्ू-मैं।
वेदों में में आदि शिक्षक ब्रह्मा और समस्त मंत्रों में में तीन अक्षरों ( मात्राओं ) वाला ३४कारहूँ। अक्षरों में मैं प्रथम अक्षर अ ( अकार ) और पवित्र छन््दों में गायत्री मंत्र हूँ।
इन्द्रोडहं सर्वदेवानां वसूनामस्मि हव्यवाट् ।आदित्यानामहं विष्णू रुद्राणां नीललोहित: ॥
१३॥
इन्द्र:--इन्द्र; अहम्-मैं; सर्व-देवानाम्ू--सभी देवताओं में; वसूनाम्--वसुओं में; अस्मि--मैं; हव्य-वाट्ू--आहुतियों कावाहक, अग्नि देव; आदित्यानामू--अदिति-पुत्रों में; अहम्ू--मैं; विष्णु;--विष्णु; रुद्राणामू--रुद्रों में; नील-लोहितः --शिवजी।
मैं देवताओं में इन्द्र तथा बसुओं में अग्नि हूँ। मैं अदिति-पुत्रों में विष्णु तथा रुद्रों में भगवान्शिव हूँ।
ब्रह्मर्षणां भृगुरहं राजर्षीणामहं मनु: ।देवर्षीणां नारदोहं हविर्धान्यस्मि धेनुषु ॥
१४॥
बहा-ऋषीणाम्--सन्त ब्राह्मणों में; भूगु:ः-- भूगु मुनि; अहम्--मैं; राज-ऋषीणाम्-- सन्त राजाओं में; अहम्--मैं; मनु;--मनु;देव-ऋषीणाम्--सनन््त देवताओं में; नारद: --नारद मुनि; अहम्--मैं; हविर्धानी--कामधेनु; अस्मि--हूँ; धेनुषु--गौवों में ।
मैं ब्रह्मर्षियों में भूगु मुनि तथा राजर्षियों में मनु हूँ। देवर्षियों में मैं नारद मुनि तथा गौवों मेंकामशथेनु हूँ।
सिद्धेश्वराणां कपिल: सुपर्णोहं पतत्रिणाम् ।प्रजापतीनां दक्षोहं पितृणामहमर्यमा ॥
१५॥
सिद्ध-ईश्वराणाम्--सिद्धजनों में; कपिल:--कपिल भगवान्; सुपर्ण:--गरुड़; अहम्--मैं; पतत्रिणाम्-पक्षियों में;प्रजापतीनाम्--मनुष्यों के जनकों में; दक्षः--दक्ष; अहम्--मैं; पितृणाम्--पितरों में; अहम्ू--मैं; अर्यमा-- अर्यमा |
मैं सिद्धों में भगवान् कपिल तथा पक्षियों में गरुड़ हूँ। प्रजापतियों में मैं दक्ष तथा पितरों में अर्यमा हूँ।
मां विद्धयुद्धव दैत्यानां प्रह्मदमसुरेश्चरम् ।सोम॑ नक्षत्रौषधीनां धनेशं यक्षरक्षसाम् ॥
१६॥
माम्--मुझको; विद्द्धि--जानो; उद्धव--हे उद्धव; दैत्यानामू--दिति-पुत्रों या असुरों में; प्रहादम्--प्रह्माद महाराज; असुर-ईश्वरम--असुरों के ईश्वर; सोमम्--चन्द्रमा; नक्षत्र-ओषधीनाम्--नक्षत्रों तथा औषधियों में; धन-ईशम्--धन के स्वामी, कुबेर;यक्ष-रक्षसाम्--यक्षों तथा राक्षसों में |
हे उद्धव, तुम मुझे दिति के असुर पुत्रों में असुरों का साधु-स्वामी प्रह्मद महाराज जानो। मैंनक्षत्रों तथा औषधियों में उनका स्वामी चन्द्र हूँ और यक्षों तथा राक्षसों में धन का स्वामी कुवेरहूँ।
ऐरावतं गजेन्द्राणां यादसां वरुण प्रभुम् ।तपतां झ्युमतां सूर्य मनुष्याणां च भूषतिम् ॥
१७॥
ऐरावतम्--ऐरावत नामक हाथी; गज-इन्द्राणाम्ू--राजसी हाथियों में; यादसाम्ू--जलचरों में; वरुणम्--वरुण; प्रभुम्--समुद्रोंका स्वामी; तपताम्--उष्मा उत्पन्न करने वाली वस्तुओं में; द्यु-मताम्-- प्रकाश करने वाली वस्तुओं में; सूर्यम्--सूर्य हूँ;मनुष्याणाम्-मनुष्यों में; च-- भी; भू-पतिम्--राजा |
मैं राजसी हाथियों में ऐशबत और जलचरों में समुद्रों का अधिपति वरुण हूँ। समस्त उष्मातथा प्रकाश प्रदान करने वाली वस्तुओं में मैं सूर्य और मनुष्यों में राजा हूँ।
उच्चै:श्रवास्तुरड्ञाणां धातूनामस्मि काझ्जननम् ।यमः संयमतां चाहम्सर्पाणामस्मि वासुकि: ॥
१८॥
उच्चै: श्रवा: --उच्चै श्रवा नामक घोड़ा; तुरड्ञणाम्--घोड़ों में; धातूनाम्ू-- धातुओं में; अस्मि--हूँ; काञ्ननम्--सोना; यम: --यमराज; संयमताम्--दंड देने वालों तथा दमन करने वालों में; च-- भी; अहम्--मैं; सर्पाणाम्ू--सर्पो में; अस्मि--हूँ;वासुकि:--वासुकि
घोड़ों में मैं उच्चै भ्रवा तथा धातुओं में स्वर्ण हूँ। दंड देने वालों तथा दमन करने वालों में मैंयमराज हूँ और सर्पों में वासुकि हूँ।
नागेन्द्राणामनन्तोहं मृगेन्द्र: श्रृड्धिदंष्टिणाम् ।आश्रमाणामहं तुर्यो वर्णानां प्रथमोइनघ ॥
१९॥
नाग-इन्द्राणामू--अनेक फनों वाले श्रेष्ठ सर्पों में; अनन्तः--अनन्तदेव; अहम्--मैं; मृग-इन्द्र: --सिंह; श्रृ्धि-दंष्टिणाम्--पैनेसींग तथा दाँत वाले पशुओं में; आश्रमाणामू--चारों आश्रमों में; अहम्--मैं; तुर्य:--चौथा, संन्यास; वर्णानामू--चार वृत्तिपरकवर्णो में; प्रथम:--प्रथम, ब्राह्मण; अनघ--हे निष्पाप।
हे निष्पाप उद्धव, श्रेष्ठ सर्पो में मैं अनन्तदेव हूँ और पैने सींग तथा दाँत वाले पशुओं में मैंसिंह हूँ। आश्रमों में मैं चौथा आश्रम अर्थात् संन्यास आश्रम हूँ और चारों वर्णों में प्रथम वर्णअर्थात् ब्राह्मण हूँ।
तीर्थानां स्त्रोतसां गड़ा समुद्र: सरसामहम् ।आयुधानां धनुरहं त्रिपुरध्नो धनुष्मताम् ॥
२०॥
तिर्थानाम्-तीर्थस्थानों में; स्नोतसाम्-सोतों या प्रवहमान वस्तुओं में; गड्भा--पवित्र गंगा; समुद्र: --समुद्र; सरसाम्--स्थिरजलाशयों में; अहम्--मैं; आयुधानाम्--हथियारों में; धनु;:--धनुष; अहम्--मैं; त्रि-पुर-घ्त:--शिवजी; धनु:-मताम्--धनुर्धारियों में
पवित्र तथा प्रवहमान वस्तुओं में मैं पवित्र गंगा हूँ और स्थिर जलाशयों में समुद्र हूँ। हथियारोंमें मैं धनुष और हथियार चलाने वालों में मैं त्रिपुरारि शिव हूँ।
धिष्ण्यानामस्म्यहं मेरुर्गहनानां हिमालय: ।वनस्पतीनामश्चवत्थ ओषधीनामहं यव: ॥
२१॥
धिष्ण्यानामू--आवास; अस्मि--हूँ; अहम्--मैं; मेर:--सुमेरु पर्वत; गहनानाम्--दुर्गम स्थानों में; हिमालय:--हिमालय;वनस्पतीनाम्--वृक्षों में; अश्वत्थ:--बरगद का वृक्ष; ओषधीनाम्ू--पौधों में; अहम्--मैं; यवः--जौ निवासस्थानों में मैं सुमेरु पर्वत हूँ और दुर्गम स्थानों में हिमालय हूँ।
वृक्षों में मैं पवित्र वट-वृक्ष तथा धान्यों में मैं जौ ( यव ) हूँ।
पुरोधसां वसिष्ठो हं ब्रह्मिष्ठानां बृहस्पति: ।स्कन्दोउहं सर्वसेनान्यामग्रण्यां भगवानज: ॥
२२॥
पुरोधसाम्--पुरोहितों में; वसिष्ठ: --वसिष्ठ मुनि; अहम्--मैं हूँ; ब्रह्रिष्ठानामू--वैदिक निष्कर्ष को मानने वालों में; बृहस्पति: --देवताओं के गुरु; स्कन्दः--कार्तिकेय; अहम्--मैं हूँ; सर्व-सेनान्यामू--समस्त सेनानियों में; अग्रण्याम्--पवित्र जीवन मेंअग्रणियों में; भगवान्ू--महापुरुष; अज: --ब्रह्मा |
पुरोहितों में मैं वसिष्ठ मुनि और वैदिक संस्कृति के अग्रगण्यों में बृहस्पति हूँ। मैं महान्सेनानियों में स्कन््द और उच्च जीवन बिताने वालों में महापुरुष ब्रह्मा हूँ।
यज्ञानां ब्रह्मयज्ञोहं ब्रतानामविहिंसनम् ।वाय्वग्न्यर्काम्बुवागात्मा शुचीनामप्यहं शुचि: ॥
२३॥
यज्ञानामू--यज्ञों में; ब्रह्म-यज्ञ:--वेदाध्ययन; अहम्--मैं हूँ; ब्रतानाम्-ब्रतों में; अविहिंसनम्--अहिंसा; वायु--वायु, हवा;अग्नि--आग; अर्क--सूर्य; अम्बु--जल; वाक्--तथा वाणी; आत्मा--साक्षात्; शुच्चीनाम्ू--पवित्र करने वालों में; अपि--निस्सन्देह; अहम्-मैं हूँ; शुचिः--शुद्ध
यज्ञों में मैं वेदाध्यपन और ब्रतों में अहिंसा हूँ। पवित्र करने वाली सभी वस्तुओं में मैं वायु,अग्नि, सूर्य, जल तथा वाणी हूँ।
योगानामात्मसंरोधो मन्त्रोस्मि विजिगीषताम् ।आन्वीक्षिकी कौशलानां विकल्प: ख्यातिवादिनाम् ॥
२४॥
योगानाम्ू--योगाभ्यास की आठ अवस्थाओं ( अष्टांग ) में; आत्म-संरोध: --अन्तिम अवस्था, समाधि जिसमें आत्मा मोह से मुक्तहो जाता है; मन्त्रः--कुशल सलाहकार; अस्मि--मैं हूँ; विजिगीषताम्ू--विजय चाहने वालों में; आन्वीक्षिकी-- आध्यात्मिकविज्ञान जिसके बल पर पदार्थ तथा आत्मा में अन्तर किया जा सकता है; कौशलानाम्--दक्ष विवेक की समस्त विधियों में;विकल्प: --अनुभूति वैविध्य; ख्याति-वादिनामू--निर्विशेषवादियों में |
मैं योग की आठ उत्तरोत्तर अवस्थाओं में से अन्तिम अवस्था--समाधि--हूँ जिसमें आत्मामोह से पूर्णतया पृथक् हो जाता है। विजय की आकांक्षा रखने वालों में मैं कुशल राजनीतिकसलाहकार हूँ और दक्ष विवेकी विधियों में मैं आत्मज्ञान हूँ जिसके द्वारा पदार्थ से आत्मा कोविभेदित किया जाता है। मैं समस्त निर्विशेषवादियों ( ज्ञानियों ) में अनु भूति-वैविध्य हूँ।
स्त्रीणां तु शतरूपाहं पुंसां स्वायम्भुवो मनु: ।नारायणो मुनीनां च कुमारो ब्रह्मचारिणाम् ॥
२५॥
स््रीणाम्-स्त्रियों में; तु--निस्सन्देह; शतरूपा--शतरूपा; अहम्--मैं हूँ; पुंसामू--पुरुषों में; स्वायम्भुव: मनु:--महान् प्रजापतिस्वायंभुव मनु; नारायण: --नारायण मुनि; मुनीनाम्--मुनियों में; च-- भी; कुमार: --सनत्कुमार; ब्रह्मचारिणाम्--ब्रह्मचारियोंमें,मैं
स्त्रियों में शतरूपा और पुरुषों में उसका पति स्वायम्भुव मनु हूँ। मुनियों में मैं नारायण हूँऔर ब्रह्मचारियों में सनत्कुमार हूँ।
धर्माणामस्मि सन्न्यास: क्षेमाणामबहिर्मति: ।गुह्यानां सुनृतं मौन मिथुनानामजस्त्वहम् ॥
२६॥
धर्माणाम्-धार्मिक सिद्धान्तों में; अस्मि--हूँ; सन््यास:--सन्यास, वैराग्य; क्षेमाणाम्--समस्त प्रकार की सुरक्षा में; अबहिः-मतिः--अन्तर की ( आत्मा की ) सतर्कता; गुह्मानाम्--सारे रहस्यों में; सुनृतम्--मधुर वाणी; मौनम्--मौन, चुप्पी;मिथुनानाम्ू-मिथुनरत युग्म; अज:--आदि प्रजापति, ब्रह्मा; तु--निस्सन्देह; अहम्--मैं हूँ
धार्मिक सिद्धान्तों में मैं संन्यास हूँ और समस्त प्रकार की सुरक्षा में अन्तस्थ नित्य आत्मा कीचेतना हूँ। रहस्यों में मैं मधुर वाणी तथा मौन हूँ तथा सम्भोगरत युम्मों में ब्रह्मा हूँ।
संवत्सरोस्म्यनिमिषामृतूनां मधुमाधवौ ।मासानां मार्गशीर्षोहं नक्षत्राणां तथाभिजित् ॥
२७॥
संवत्सर:--वर्ष; अस्मि--हूँ; अनिमिषाम्--काल के सतर्क चक्रों में; ऋतूनामू--ऋतुओं में; मधु-माधवौ--वसन्त; मासानाम्--महीनों में; मार्गशीर्ष :--मार्गशीर्ष, माघ ( नवम्बर-दिसम्बर ); अहम्--मैं हूँ; नक्षत्राणाम्--नक्षत्रों में; तथा--उसी प्रकार;अभिजित्--- अभिजित नामकसतर्क
कालचक्रों में मैं वर्ष हूँ और ऋतुओं में वसन््त हूँ। महीनों में मैं मार्गशीर्ष तथा नक्षत्रों मेंशुभ अभिजित हूँ।
अहं युगानां च कृतं धीराणां देवलोडसितः ।द्वैपायनोस्मि व्यासानां कवीनां काव्य आत्मवान् ॥
२८॥
अहमू--ैं; युगानाम्--युगों में; च-- भी; कृतम्--सत्ययुग; धीराणाम्--स्थिर मुनियों में; देवल:--देवल; असित:-- असित;द्वैषायन:--कृष्ण द्वैषायन; अस्मि--हूँ; व्यासानाम्--वेदों के संग्रहकर्ताओं में; कवीनाम्--विद्वानों में; काव्य:--शुक्राचार्य ;आत्म-वान्--आध्यात्मिक विज्ञान में दक्ष |
युगों में मैं सत्ययुग और स्थिर मुनियों में देवल तथा असित हूँ। वेदों का विभाजन करनेवालों में मैं कृष्ण द्वैषायन वेदव्यास हूँ और विद्वानों में मैं आध्यात्मिक विज्ञान का ज्ञाताशुक्राचार्य हूँ।
वासुदेवो भगवतां त्वं तु भागवतेष्वहम् ।किम्पुरुषानां हनुमान्विद्याश्राणां सुदर्शन: ॥
२९॥
वासुदेव:-- भगवान्; भगवताम्-- भगवान् नाम के अधिकारियों में; त्वम्ू--तुम; तु--निस्सन्देह; भागवतेषु--मेरे भक्तों में;अहमू-ैं हूँ; किम्पुरुषाणाम्--किम्पुरुषों में; हनुमान्ू--हनुमान; विद्याध्राणाम्--विद्याधरों में; सुदर्शन:--सुदर्शन |
भगवान् नाम के अधिकारियों में मैं वासुदेव हूँ तथा हे उद्धव, तुम निस्सन्देह भक्तों में मेराप्रतिनिधित्व करते हो। मैं किम्पुरुषों में हनुमान हूँ और विद्याधरों में सुदर्शन हूँ।
रत्नानां पद्दरागोउस्मि पद्यकोशः सुपेशसाम् ।कुशोस्मि दर्भजातीनां गव्यमाज्यं हविःष्वहम् ॥
३०॥
रलानाम्--रत्ों में; पढ्-राग:--लाल; अस्मि--हूँ; पद्य-कोश:ः --कमल की कली; सु-पेशसाम्--सुन्दर वस्तुओं में; कुश:--पवित्र कुश नामक तृण; अस्मि--हूँ; दर्भ-जातीनाम्ू--सभी प्रकार के तृणों में; गव्यम्--गायसे प्राप्त पदार्थ; आज्यम्--घी कीआहुति; हविःषु--हवियों में; अहम्--मैं हूँ।
रत्नों में मैं लाल हूँ और सुन्दर वस्तुओं में कमल की कली हूँ। सभी प्रकार के तृणों में मैंपवित्र कुश हूँ और आहुतियों में घी तथा गाय से प्राप्त होने वाली अन्य सामग्री हूँ।
व्यवसायिनामहं लक्ष्मी: कितवानां छलग्रह: ।तितिक्षास्मि तितिक्षूणां सत्त्वं सत््त्वतवामहम् ॥
३१॥
व्यवसायिनाम्-व्यापारियों में; अहम्--मैं हूँ; लक्ष्मी:-- लक्ष्मी; कितवानाम्ू--कपट करने वालों में; छल-ग्रह:--जुए का खेल;तितिक्षा--क्षमाशीलता; अस्मि--हूँ; तितिक्षूणाम्--सहिष्णुओं में; सत्त्वम्--अच्छाई; सत्त्व-वताम्--सतोगुणियों में; अहम्ू--मैंहूँ
व्यापारियों में मैं लक्ष्मी हूँ और कपट करने वालों में मैं जुआ ( द्यूत क्रीड़ा ) हूँ। सहिष्णुओं मेंमैं क्षमाशीलता और सतोगुणियों में सदगुण हूँ।
ओज: सहो बलवतां कर्माह विद्धि सात्वताम् ।सात्वतां नवमूर्तीनामादिमूर्तिरहें पर ॥
३२॥
ओज:--ऐन्द्रिय बल; सह:--तथा मानसिक बल; बलवताम्--बलवानों में; कर्म--भक्तिमय कर्म; अहम्--मैं; विद्धि--जानो;सात्वताम्-भक्तों में; सात्वताम्- भक्तों में; नव-मूर्तीनाम्ू--मेंरे नौ रूपों में पूजा करने वाला; आदि-मूर्तिः:--आदि रूप,वासुदेव; अहम्--मैं हूँ; परा--परम |
बलवानों में मैं शारीरिक तथा मानसिक बल हूँ और अपने भक्तों का भक्तिमय कर्म हूँ। मेरेभक्तगण मेरी पूजा नौ विभिन्न रूपों में करते हैं जिनमें से मैं आदि तथा प्रमुख वासुदेव हूँ।
विश्वावसु: पूर्वचित्तिर्गन्धर्वाप्सससामहम् ।भूधराणामहं स्थेर्य गन्धमात्रमहं भुवः ॥
३३॥
विश्वावसु:--विश्वावसु; पूर्वचित्ति:--पूर्वचित्ति; गन्धर्व-अप्सरसाम्--गन्धर्वों तथा अप्सराओं में; अहम्--मैं हूँ; भूधराणाम्--पर्वतों में; अहम्-- मैं हूँ; स्थैर्यम्--स्थिरता; गन्ध-मात्रम्--गन्ध की अनुभूति; अहम्--मैं हूँ; भुव:ः--पृथ्वी की
मैं गन्धर्वों में विश्वावसु तथा स्वर्गिक अप्सराओं में पूर्वचित्ति हूँ। मैं पर्वतों की स्थिरता तथापृथ्वी की सुगन्ध हूँ।
अपां रसश्न परमस्तेजिष्ठानां विभावसु: ।प्रभा सूर्येन्दुताराणां शब्दोहं नभसः पर: ॥
३४॥
अपाम्--जल का; रसः--स्वाद; च-- भी; परम: --सर्व श्रेष्ठ; तेजिष्ठानाम्ू-- अत्यन्त तेजवान वस्तुओं में; विभावसु:--सूर्य ;प्रभा--तेज; सूर्य--सूर्य का; इन्दु--चन्द्रमा; ताराणाम्ू--तथा तारों में; शब्दः -- ध्वनि; अहम्--मैं हूँ; नभस:ः--आकाश का;'परः--दिव्य |
मैं जल का मधुर स्वाद हूँ और चमकीली वस्तुओं में सूर्य हूँ। मैं सूर्य, चन्द्रमा तथा तारों काप्रकाश हूँ और आकाश में ध्वनित होने वाला दिव्य शब्द हूँ।
ब्रह्मण्यानां बलिरहं वीराणामहमर्जुन: ।भूतानां स्थितिरुत्पत्तिरहं वै प्रतिसड्क्रम: ॥
३५॥
ब्रह्मण्यानाम्ू--ब्राह्मण संस्कृति के उपासकों में; बलि:--विरोचन का पुत्र, बलि महाराज; अहमू--मैं हूँ; वीराणाम्--वीरों में;अहमू-मैं हूँ; अर्जुन: --अर्जुन; भूतानाम्ू--समस्त जीवों का; स्थितिः:--पालन-पोषण; उत्पत्ति:--उत्पत्ति; अहम्--मैं हूँ; बै--निस्सन्देह; प्रतिसड्क्रम: --संहार
ब्राह्मण संस्कृति के उपासकों में मैं विरोच्न-पुत्र बलि महाराज हूँ और वीरों में अर्जुन हूँ।निस्सन्देह, मैं समस्त जीवों की उत्पत्ति, स्थिति तथा संहार हूँ।
गत्युक्त्युत्सगोपादानमानन्दस्पर्शलक्षनम् ।आस्वादश्रुत्यवध्राणमहं सर्वेन्द्रियेन्द्रियम् ॥
३६॥
गति--पाँवों की हरकत ( चलना, दौना आदि ); उक्ति--वाणी; उत्सर्ग--वीर्यस्खलन; उपादानम्--हाथों से ग्रहण करना;आनन्द--जननांगों का भौतिक सुख; स्पर्श--स्पर्श; लक्षणम्--दृष्टि; आस्वाद--स्वाद; श्रुति--सुनना; अवप्राणम्--महक,सुगन्ध; अहम्--मैं हूँ; सर्व-इन्द्रिय--सारी इन्द्रियों के; इन्द्रियमू--उनके विषयों को अनुभव करने की शक्तिमैं पाँच कर्मेन्द्रयों--पाँव, वाणी, गुदा, हाथ तथा जननांग--के साथ ही पाँच ज्ञानेन्द्रियों--स्पर्श, दृष्टि, स्वाद, श्रवण तथा गन्ध--का कार्यकलाप हूँ।
मैं शक्ति भी हूँ जिससे प्रत्येक इन्द्रियअपने अपने इन्द्रिय-विषय का अनुभव करती है।
पृथिवी वायुराकाश आपो ज्योतिरहं महान् ।विकार: पुरुषोव्यक्त रज: सत्त्वं तमः परम् ।अहमेतत्प्रसड्ख्यानं ज्ञानं तत्त्वविनिश्चयः ॥
३७॥
पृथिवी--पृथ्वी का सूक्ष्म रूप, गंध; वायु:--वायु का सूक्ष्म रूप, स्पर्श आकाश:--आकाश का सूक्ष्म रूप, ध्वनि; आप:--जल का सूक्ष्म रूप, स्वाद; ज्योतिः--अग्नि का सूक्ष्म रूप, स्वरूप; अहम्--मिथ्या अहंकार; महान्--महत् तत्त्व; विकार:--सोलह तत्त्व ( पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा मन ); पुरुष:--जीव; अव्यक्तम्--भौतिक प्रकृति; रज:--रजोगुण; सत्त्वम्--सतोगुण; तम:--तमोगुण; परम्--परमे श्वर; अहम्--मैं हूँ; एतत्--यह;प्रसड्ख्यानम्--उपर्युक्त; ज्ञाममू--उपर्युक्त तत्त्वों के लक्षणों का ज्ञान; तत्त्व-विनिश्चयः--हृढ़ संकल् पजो कि ज्ञान का फल है
मैं स्वरूप, स्वाद, गंध, स्पर्श तथा ध्वनि; मिथ्या अहंकार, महत् तत्त्व; पृथ्वी, जल, अग्नि,वायु तथा आकाश; जीव, भौतिक प्रकृति; सतो, रजो तथा तमोगुण; एवं दिव्य भगवान् हूँ। येसारी वस्तुएँ, इन सबों के लक्षण तथा इस ज्ञान से उत्पन्न हढ़ निश्चय भी मैं ही हूँ।
मयेश्वरेण जीवेन गुणेन गुणिना विना ।सर्वात्मनापि सर्वेण न भावो विद्यते क्वचित् ॥
३८ ॥
मया--मुझ; ईश्वरण --परमे श्वर से; जीवेन--जीव से; गुणेन--प्रकृति के गुणों से; गुणिना--महत् तत्त्व से; विना--रहित; सर्व-आत्मना--विद्यमान सबों की आत्मा; अपि--निस्सन्देह; सर्वेण--प्रत्येक वस्तु; न--नहीं; भाव:--उपस्थिति; विद्यते--है;क्वचित्--जो भीपरमेश्वर के रूप में
मैं जीव, प्रकृति के गुणों तथा महत्ू-तत्त्व का आधार हूँ। इस प्रकार मैंसर्वस्व हूँ और कोई भी वस्तु मेरे बिना विद्यमान नहीं रह सकती।
सड्ख्यानं परमाणूनां कालेन क्रियते मया ।न तथा मे विभूतीनां सृजतोण्डानि कोटिश: ॥
३९॥
सड्ख्यानम्--गणना, गिनती; परम-अणूनाम्--अत्यन्त छोटे कणों की; कालेन--कुछ समय बाद; क्रियते--कर ली जाय;मया--मेरे द्वारा; न--नहीं; तथा--उसी प्रकार से; मे--मेरे; विभूतीनाम्--ऐश्वर्यों के; सृजतः--मेरे द्वारा निर्मित; अण्डानि--ब्रह्माण्ड; कोटिश:--करोड़ों
भले ही मैं कुछ समय में ब्रह्माण्ड के समस्त अणुओं की गणना कर सकूँ, किन्तु असंख्यब्रह्माण्डों में प्रदर्शित अपने समस्त ऐ श्वर्यों की गणना मैं भी नहीं कर पाऊँगा।
तेज: श्री: कीर्तिरैश्वर्य हीस्त्याग: सौभगं भग: ।वीर्य तितिक्षा विज्ञानं यत्र यत्र स मेईशकः ॥
४०॥
तेज:--तेज; श्री:--सुन्दर, महत्त्वपूर्ण वस्तुएँ; कीर्ति:--यश; ऐश्वर्यम्--ऐश्वर्य; हीः--दीनता; त्याग:--वैराग्य; सौभगमू--मनतथा इन्द्रियों को प्रसन्न करने वाला; भग:--सौभाग्य; वीर्यम्--शक्ति; तितिक्षा--सहिष्णुता; विज्ञानम्--आध्यात्मिक ज्ञान; यत्रयत्र--जहाँ भी; सः--यह; मे--मेरा; अंशक:ः --अंश, विस्तार।
जो भी शक्ति, सौन्दर्य, यश, ऐश्वर्य, दीनता, त्याग, मानसिक आनन्द, सौभाग्य, शक्ति,सहिष्णुता या आध्यात्मिक ज्ञान हो सकता है, वह सब मेरे ऐश्वर्य का अंश है।
एतास्ते कीर्तिता: सर्वा: सड्क्षेपेण विभूतय: ।मनोविकारा एवैते यथा वाचाभिधीयते ॥
४१॥
एता:--ये; ते--तुमसे; कीर्तिता:--वर्णन किये गये; सर्वा:--सभी; सद्क्षेपेण --संक्षेप में; विभूतय:--आध्यात्मिक ऐश्वर्य;मनः--मन के; विकारा:--विकार; एव--निस्सन्देह; एते--ये; यथा--तदनुसार; वाचा--शब्दों से; अभिधीयते--प्रत्येक कावर्णन किया जाता है।
मैंने तुमसे संक्षेप में अपने सारे आध्यात्मिक ऐ श्वर्यों तथा अपनी सृष्टि के उन अद्वितीय भौतिकगुणों का भी वर्णन किया, जो मन से अनुभव किये जाते हैं और परिस्थितियों के अनुसारविभिन्न तरीकों से परिभाषित होते हैं।
वबाचं यच्छ मनो यच्छ प्राणान्यच्छेद्रियाणि च ।आत्मानमात्मना यच्छ न भूयः कल्पसेध्वने ॥
४२॥
वाचम्--वाणी को; यच्छ---संयम में रखो; मन: --मन को; यच्छ--संयम में रखो; प्राणान्ू--अपने श्वास को; यच्छ--संयम मेंरखो; इन्द्रियाणि--इन्द्रियों को; च--भी; आत्मानम्--बुद्धि को; आत्मना--विमल बुद्धि से; यच्छ--संयम में रखो; न--कभीनहीं; भूय: --फिर; कल्पसे--तुम नीचे गिरोगे; अध्वने--संसार के मार्ग पर |
अतएव अपनी वाणी पर संयम रखो, मन को दमित करो, प्राण-वायु पर विजय पाओ,इन्द्रियों को नियमित करो तथा विमल बुद्धि के द्वारा अपनी विवेकपूर्ण प्रतिभा को अपने वश मेंकरो। इस तरह तुम पुनः भौतिक जगत के पथ पर कभी च्युत नहीं होगे।
यो वै वाड्मनसी संयगसंयच्छन्धिया यतिः ।तस्य ब्रतं तपो दान स्त्रवत्यामघटाम्बुवत् ॥
४३॥
यः--जो; वै--निश्चय ही; वाकू-मनसी--वाणी तथा मन; संयक्--पूरी तरह; असंयच्छनू--नियंत्रण में न रखते हुए; धिया--बुद्धि से; यतिः--अध्यात्मवादी; तस्थ--उसका; ब्रतम्--ब्रत; तप:--तपस्या; दानम्--दान; स्त्रवति--बह जाता है; आम--कच्चे; घट--पात्र में; अम्बु-वत्--जल के समान।
जो योगी अपनी श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा अपनी वाणी तथा मन पर पूरा नियंत्रण नहीं रखता, उसकेआध्यात्मिक ब्रत, तपस्या तथा दान उसी तरह बह जाते हैं जिस तरह कच्चे मिट्टी के घड़े से पानीबह जाता है।
तस्माद्ब्वो मनः प्राणान्नियच्छेन्मत्पपायण: ।मद्धक्तियुक्तया बुद्धया ततः परिसमाप्यते ॥
४४॥
तस्मात्ू--इसलिए; वच:--शब्द; मन:--मन; प्राणान्ू--तथा प्राणों को; नियच्छेत्--नियंत्रण में रखे; मत्-परायण: --मेरे प्रतिश्रद्धावान्; मत्--मुझ पर; भक्ति--भक्ति से; युक्तया--युक्त; बुद्ध --ऐसी बुद्धि से; ततः--इस प्रकार; परिसमाप्यते--जीवन-लक्ष्य पूरा करता है
मेरे शरणागत होकर मनुष्य को वाणी, मन तथा प्राण पर नियंत्रण रखना चाहिए और तबभक्तिमयी बुद्धि के द्वारा वह अपने जीवन-लक्ष्य को पूरा कर सकेगा।
17. कृष्ण द्वारा वर्णाश्रम व्यवस्था का वर्णन
श्रीउद्धव उबाचयस्त्वयाभिहित: पूर्व धर्मस्त्वद्धक्तिलक्षण: ।वर्णाशमाचारवतां सर्वेषां ट्विषदामपि ॥
१॥
यथानुष्ठीयमानेन त्वयि भक्ति्नृणां भवेत् ।स्वधर्मेणारविन्दाक्ष तन््ममाख्यातुमहसि ॥
२॥
श्री-उद्धवः उबाच-- श्री उद्धव ने कहा; यः--जो; त्वया--तुम्हारे द्वारा; अभिहितः--कहा गया; पूर्वम्--पहले; धर्म:--धार्मिकसिद्धान्त; त्वत्ू-भक्ति-लक्षण:--अपनी भक्ति के लक्षणों से युक्त; वर्ण-आश्रम--वर्णा श्रम प्रणाली का; आचारवताम्--श्रद्धालु अनुयायियों के; सर्वेषामू--समस्त; द्वि-पदाम्--सामान्य मनुष्यों के ( जो वर्णाश्रम प्रणाली नहीं अपनाते ); अपि--भी;यथा--के अनुसार; अनुष्ठीयमानेन--सम्पन्न किये जाने की विधि; त्वयि--तुममें; भक्ति: --प्रेमा भक्ति; नृणाम्--मनुष्यों में;भवेत्--हो सके; स्व-धर्मेण-- अपने वृत्तिपरक कार्य से; अरविन्द-अक्ष--हे कमलनयन; तत्--वह; मम--मुझसे;आख्यातुम्--बतलाना; अर्हसि--तुम्हें चाहिए
श्री उद्धव ने कहा : हे प्रभु, इसके पूर्व आपने वर्णाश्रम प्रणाली के अनुयायियों द्वारा तथासामान्य अनियमित मनुष्यों द्वारा भी अनुकरण किये जाने वाले भक्ति के सिद्धान्तों का वर्णनकिया है। हे कमलनयन, अब कृपा करके मुझे बतलाइये कि इन नियत कर्तव्यों को समपन्नकरके सारे मनुष्य किस तरह आपकी प्रेमाभक्ति प्राप्त कर सकते हैं ? पुरा किल महाबाहो धर्म परमकं प्रभो ।यत्तेन हंसरूपेण ब्रह्मणे भ्यात्थ माधव ॥
३॥
स इदानीं सुमहता कालेनामित्रकर्शन ।न प्रायो भविता मर्त्यलोके प्रागनुशासितः ॥
४॥
पुरा--प्राचीन काल में; किल--निस्सन्देह; महा-बाहो--हे बलशाली भुजाओं वाले; धर्मम्-धार्मिक नियमों को; परमकम्--महानतम सुख प्रदान करने वाला; प्रभो--हे प्रभु; यत्--जो; तेन--उससे; हंस-रूपेण--हंस के रूप में; ब्रह्मणे -- ब्रह्मा को;अभ्यात्थ--आपने कहा; माधव--हे माधव; सः--वही ( धर्म का ज्ञान ); इदानीम्--इस समय; सु-महता--अत्यन्त लम्बे;कालेन--समय के बाद; अमित्र-कर्शन--शत्रु के दमनकर्ता; न--नहीं; प्राय:--सामान्यतया; भविता--होगा; मर्त्य-लोके --मानव समाज में; प्राकू--पहले; अनुशासित:--उपदेश दिया गया।
हे प्रभु, हे बलिप्ठ भुजाओं वाले, आपने इसके पूर्व अपने हंस रूप में ब्रह्माजी से उन धार्मिकसिद्धान्तों का कथन किया है, जो अभ्यासकर्ता को परम सुख प्रदान करने वाले हैं। हे माधव,तब से अब काफी काल बीत चुका है और हे शत्रुओं के दमनकर्ता, आपने जो उपदेश पहलेदिया था उसका महत्त्व शीघ्र ही समाप्त हो जाएगा।
वक्ता कर्ताविता नान्यो धर्मस्याच्युत ते भुवि ।सभायामपि वैरिज्च्यां यत्र मूर्तिधरा: कला: ॥
५॥
कत्रवित्रा प्रवक्त्रा च भवता मधुसूदन ।त्यक्ते महीतले देव विनष्ठटं कः प्रवक्ष्यति ॥
६॥
वक्ता--बोलने वाला; कर्ता--सृजन करने वाला; अविता--रक्षक; न--नहीं; अन्य:--कोई दूसरा; धर्मस्य--सर्वोच्च धार्मिकनियमों का; अच्युत--हे अच्युत; ते--आपकी अपेक्षा; भुवि--पृथ्वी पर; सभायाम्--सभा में; अपि-- भी; वैरिउ्च्याम्--ब्रह्माकी; यत्र--जहाँ पर; मूर्ति-धरा:--साकार रूप में; कला:ः--वेद; कर्त्रा--कर्ता या स्तरष्टा द्वारा; अवित्रा--रक्षक द्वारा; प्रवक्त्रा--बोलने वाले के द्वारा, वक्ता द्वारा; च-- भी; भवता--आपके द्वारा; मधुसूदन--हे मधुसूदन; त्यक्ते--छोड़ देने पर; मही-तले--पृथ्वी पर; देव--मेरे स्वामी; विनष्टम्--वे विनष्ट हुए धर्म के नियम; क:--कौन; प्रवक्ष्यति--कहेगा ।
हे अच्युत, इस पृथ्वी पर या ब्रह्म की सभा तक में, परम धार्मिक नियमों का आपके सिवाकोई ऐसा वक्ता, स्त्रष्टा तथा रक्षक नहीं है जहाँ साक्षात् वेद निवास करते हैं। इस तरह हेमधुसूदन, जब आध्यात्मिक ज्ञान के स्त्रष्टा, रक्षक तथा प्रवक्ता आप ही पृथ्वी का परित्याग करदेंगे, तो इस विनष्ट ज्ञान को फिर से कौन बतलायेगा ? तत्त्वं नः सर्वधर्मज्ञ धर्मस्त्वद्धक्तिलक्षण: ।यथा यस्य विधीयेत तथा वर्णय मे प्रभो ॥
७॥
तत्--इसलिए; त्वम्--तुम; न:ः--हम ( मनुष्यों ) के बीच; सर्व-धर्म-ज्ञ--हे धर्म के नियमों के परम ज्ञाता; धर्म: --आध्यात्मिकपथ; त्वतू-भक्ति--आपकी भक्ति से; लक्षण:--लक्षणों वाले; यथा--जिस तरह से; यस्य--जिसका; विधीयेत--सम्पन्न कियाजा सके; तथा--उस तरह से; वर्णय--कृपया वर्णन करें; मे--मुझसे; प्रभो--हे प्रभु
अतएव हे प्रभु, समस्त धार्मिक नियमों का ज्ञाता होने के कारण आप मुझसे उन मनुष्यों कावर्णन करें जो आपके भक्ति-मार्ग को सम्पन्न कर सकें और यह भी बतायें कि ऐसी भक्ति कैसेकी जाती है? श्रीशुक उबाचइत्थं स्वभृत्यमुख्येन पृष्ठ: स भगवान्हरि: ।प्रीतः क्षेमाय मर्त्यानां धर्मानाह सनातनान् ॥
८॥
श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इत्थम्--इस प्रकार; स्व-भृत्य-मुख्येन-- अपने श्रेष्ठ भक्तों द्वारा; पृष्ट: पूछेजाने पर; सः--वह; भगवानू-- भगवान्; हरि: -- श्रीकृष्ण; प्रीत:--प्रसन्न हुए; क्षेमाय--कल्याण के लिए; मर्त्यानामू--समस्तबद्धजीवों के; धर्मानू-- धार्मिक नियमों को; आह--कहा; सनातनानू--नित्य |
श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब भक्त प्रवर, श्री उद्धव, ने इस तरह भगवान् से प्रश्नकिया, तो यह सुन कर भगवान् श्रीकृष्ण प्रसन्न हुए और उन्होंने समस्त बद्धजीवों के कल्याणहेतु उन धार्मिक नियमों को बतलाया जो शाश्वत हैं।
श्रीभगवानुवाचधर्म्य एब तव प्रशनो ने:श्रेयसकरो नृणाम् ।वर्णाश्रमाचारवतां तमुद्धव निबोध मे ॥
९॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; धर्म्य:--धर्म के प्रति आज्ञाकारी; एष:--यह; तव--तुम्हारा; प्रश्न:--प्रश्न; नै: श्रेयस-करः--शुद्ध भक्ति का कारण; नृणाम्ू--सामान्य मनुष्यों के लिए; वर्ण-आश्रम--वर्णा श्रम प्रणाली का; आचार-वताम्--पालन करने वालों के लिए; तम्--उन सर्वाच्च धार्मिक नियमों को; उद्धव--हे उद्धव; निबोध--सीखो; मे--मुझसे |
भगवान् ने कहा : हे उद्धव, तुम्हारा प्रश्न धार्मिक नियमों के अनुकूल है, अतः यह सामान्यमनुष्यों को तथा वर्णाश्रम प्रणाली का पालन करने वाले दोनों ही को जीवन में सर्वोच्च सिद्धि,अर्थात् शुद्ध भक्ति को जन्म देता है। अब तुम मुझसे उन परम धार्मिक नियमों को सीखो।
आदौ कृतयुगे वर्णो नृणां हंस इति स्मृतः ।कृतकृत्या: प्रजा जात्या तस्मात्कृतयुगं विदु: ॥
१०॥
आदौ--( कल्प के ) प्रारम्भ में; कृत-युगे--सत्ययुग में; वर्ण: --सामाजिक श्रेणी; नृणाम्--मनुष्यों की; हंसः--हंस नामक;इति--इस प्रकार; स्मृतः--विख्यात; कृत-कृत्या:--परमे श्वर की पूर्ण शरणागति द्वारा कर्तव्यों केपालन में दक्ष; प्रजा:--जनता;जात्या--जन्म से; तस्मात्--इसलिए; कृत-युगम्--कृतयुग में अथवा ऐसे युग में जिसमें सारे कर्तव्य पूरे होते हैं; विदुः--विद्वानलोग जानते थे।
प्रारम्भ में सत्ययुग में केवल एक सामाजिक श्रेणी थी जिसे हंस कहते थे जिससे सारे मनुष्यसम्बद्ध होते थे। उस युग में सारे लोग जन्म से शुद्ध भगवद्भक्त होते थे, इसलिए विद्वान लोगइस प्रथम युग को कृत-युग कहते हैं अर्थात् ऐसा युग जिसमें सारे धार्मिक कार्य अच्छी तरह पूरेहोते हैं।
वेद: प्रणव एवाग्रे धर्मोहं वृषरूपधृक् ।उपासते तपोनिष्ठा हंसं मां मुक्तकिल्बिषा: ॥
११॥
बेदः--वेद; प्रणव:-- ओऊम नामक पवित्र अक्षर; एब--निस्सन्देह; अग्रे--सत्ययुग में; धर्म: --मानसिक कार्यों का लक्ष्य;अहम्-ैं; वृष-रूप-धृक् -- धर्म रूप बैल का रूप धारण करके; उपासते--वे पूजा करते हैं; तपः-निष्ठा:--तप में रत;हंसम्-- भगवान् हंस; माम्--मुझको; मुक्त--रहित; किल्बिषा:--सारे पापों से ।
सत्ययुग में अविभाज्य वेद ओउम् अक्षर ( ऊंकार ) द्वारा व्यक्त किया जाता है और मैं हीएकमात्र मानसिक कार्यों का लक्ष्य ( धर्म ) हूँ। मैं चार पैरों वाले धर्म रूपी बैल के रूप में प्रकटहोता हूँ जिससे सत्ययुग के निवासी, तपस्यानिष्ठ तथा पापरहित होकर, भगवान् हंस के रूप मेंमेरी पूजा करते हैं।
त्रेतामुखे महाभाग प्राणान्मे हृदयात्त्रयी ।विद्या प्रादुरभूत्तस्या अहमासं त्रिवृन्मख: ॥
१२॥
त्रेता-मुखे--त्रेता युग के प्रारम्भ में; महा-भाग--हे परम भाग्यशाली; प्राणात्--प्राण के स्थान से; मे--मेरे; हृदयात्--हृदय से;त्रयी--तीन; विद्या--वैदिक ज्ञान; प्रादुरभूतू--प्रकट हुआ; तस्या:--उस ज्ञान से; अहम्--मैं; आसम्--प्रकट हुआ; त्रि-वृत्--तीन विभागों में; मख:--यज्ञ |
हे परम भाग्यशाली, त्रेता युग के प्रारम्भ में, प्राण के स्थान से, जो कि मेरा हृदय है, वैदिकज्ञान तीन विभागों में प्रकट हुआ--ये हैं--ऋग, साम तथा यजु:। तत्पश्चात् उस ज्ञान से मैं तीनयज्ञों के रूप में प्रकट हुआ।
विप्रक्षत्रियविट्शूद्रा मुखबाहूरूपादजा: ।वैराजात्पुरुषाजञाता य आत्माचारलक्षणा: ॥
१३॥
विप्र--ब्राह्मण; क्षत्रिय--क्षत्रिय; विटू--वैश्य; शूद्रा:--शूद्र, मजदूर; मुख--मुँह; बाहु-- भुजाओं; ऊरू--जाँघों; पाद--तथापाँवों से; जा:--उत्पन्न; वैराजातू--विराट रूप से; पुरुषात्-- भगवान् से; जाता:--उत्पन्न; ये--जो; आत्म--निजी; आचार--कार्यकलाप द्वारा; लक्षणा: --पहचाने जाते हैं।
त्रेता युग में भगवान् के विराट रूप से चार जातियाँ प्रकट हुईं। ब्राह्मण भगवान् के मुँह से,क्षत्रिय भगवान् की बाँहों से, वैश्य भगवान् के जंघों से तथा शूद्र उस विराट रूप के पाँवों से प्रकट हुए। प्रत्येक विभाग को उसके विशिष्ट कर्तव्यों तथा आचार-व्यवहारसे पहचाना गया।
गृहा भ्रमो जघनतो ब्रह्मचर्य हृदो मम ।वक्ष:स्थलादइ्नेवास: सन्न्यास: शिरसि स्थित: ॥
१४॥
गृह-आश्रम: --विवाहित जीवन; जघनतः:--जाँघों से; ब्रह्मचर्यम्--विद्यार्थी जीवन; हृदः--हृदय से; मम--मेरे; वक्षः-स्थलात्--वक्षस्थल से; बने--जंगल में; वास:--निवास करते हुए; सन्न्यास:--संन्यास आश्रम; शिरसि--सिर पर; स्थित:--स्थित।
विवाहित जीवन मेरे विश्व रूप के जघन प्रदेश से प्रकट हुआ और ब्रह्मचारी विद्यार्थी मेरेहृदय से निकले। जंगल में निवास करने वाला विरक्त जीवन मेरे वक्षस्थल से प्रकट हुआ तथासंन्यास मेरे विश्व रूप के सिर के भीतर स्थित था।
वर्णानामाश्रमाणां च जन्मभूम्यनुसारिणी: ।आसम्प्रकृतयो नूनां नीचैर्नीचोत्तमोत्तमा: ॥
१५॥
वर्णानाम्--वृत्तिपरक विभागों में; आश्रमाणाम्--सामाजिक विभागों में; च-- भी; जन्म--जन्म; भूमि--स्थान के;अनुसारिणी:--के अनुसार; आसनू--प्रकट हुए; प्रकृतयः--प्रकृतियाँ; नृणाम्--मनुष्यों में; नीचैः --निम्न पृष्ठभूमि द्वारा;नीच--नीच प्रकृति; उत्तम- श्रेष्ठ पृष्ठभूमि द्वारा; उत्तमाः--उत्तम प्रकृतियाँ |
प्रत्येक व्यक्ति के जन्म के समय की निम्न तथा उच्च प्रकृतियों के अनुसार मानव समाज केविविध वृत्तिपरक ( वर्ण ) तथा सामाजिक ( आश्रम ) विभाग प्रकट हुए।
शमो दमस्तपः शौचं सन्तोष: क्षान्तिराजवम् ।मद्धक्तिश्च दया सत्यं ब्रह्मप्रकृतयस्त्विमा: ॥
१६॥
शमः--शान्ति; दम: --इन्द्रिय-संयम; तप:--तपस्या; शौचम्--शुद्द्धि; सन््तोष: --पूर्ण सन्तुष्टि; क्षान्तिः-- क्षमाशीलता;आर्जवम्--सादगी, सीधापन; मत्-भक्ति:--मेरी भक्ति; च-- भी; दया--दया; सत्यम्--सत्य; ब्रह्म--ब्राह्मणों के; प्रकृतय:--स्वाभाविक गुण; तु--निस्सन्देह; इमाः--ये
शान्ति, आत्मसंयम, तपस्या, शुद्धि, सन््तोष, सहनशीलता, सहज स्पष्टवादिता, मेरी भक्ति,दया तथा सत्य--ये ब्राह्मणों के स्वाभाविक गुण हैं।
तेजो बलं॑ धृति: शौर्य तितिक्षौदार्यमुद्यम: ।स्थेर्य ब्रह्मन्यमैश्वर्य क्षत्रप्रकृतयस्त्विमा: ॥
१७॥
तेज:--तेज; बलमू--शारीरिक बल; धृति:--संकल्प; शौर्यम्--शूरवीरता; तितिक्षा--सहिष्णुता; औदार्यम्--उदारता;उद्यम: --प्रयतल; स्थैर्यमू--स्थिरता; ब्रह्मण्यम्--ब्राह्मणों की सेवा के लिए सदैव तत्पर; ऐश्वर्यम्--नायकत्व; क्षत्र--श्षत्रियों के;प्रकृतयः--स्वाभाविक गुण; तु--निस्सन्देह; इमा:--ये |
तेजस्विता, शारीरिक बल, संकल्प, बहादुरी, सहनशीलता, उदारता, महान् प्रयास, स्थिरता,ब्राह्मणों के प्रति भक्ति तथा नायकत्व--ये क्षत्रियों के स्वाभाविक गुण हैं।
आस्तिक्यं दाननिष्ठा च अदम्भो ब्रह्मसेवनम् ।अठुष्टिरथोपचर्यवैंश्यप्रकृतयस्त्विमा: ॥
१८॥
आस्तिक्यम्--वैदिक सभ्यता में विश्वास; दान-निष्ठा--दानशीलता; च-- भी; अदम्भ:--दिखावटीपन का अभाव; ब्रह्म-सेवनम्-ब्राह्मणों की सेवा; अतुष्टि:--असंतुष्ट रहने का भाव; अर्थ--धन का; उपचयै: --संग्रह द्वारा; वैश्य--वैश्य के;प्रकृतयः--स्वाभाविक गुण; तु--निस्सन्देह; इमा:--ये |
वैदिक सभ्यता में विश्वास, दानशीलता, दिखावे से दूर रहना, ब्राह्मणों की सेवा करना तथाअधिकाधिक धन संचय की निरन्तर आकांक्षा--ये वैश्यों के प्राकृतिक गुण हैं।
शुश्रूषणं द्विजगवां देवानां चाप्यमायया ।तत्र लब्धेन सनन््तोषः शूद्रप्रकृतयस्त्विमा: ॥
१९॥
शुश्रूषणम्--सेवा; द्विज--ब्राह्मणों की; गवाम्--गौवों की; देवानामू--देवताओं तथा गुरु जैसे पूज्य पुरुषों की; च-- भी;अपि--निस्सन्देह; अमायया--निष्कपट; तत्र--उस सेवा में; लब्धेन--प्राप्त हुए के द्वारा; सन््तोष:--पूर्ण तुष्टि; शूद्र-शूद्रों के;प्रकृतयः--स्वाभाविक गुण; तु--निस्सन्देह; इमा:--ये |
ब्राह्मणों, गौवों, देवताओं तथा अन्य पूज्य पुरुषों की निष्कपट सेवा तथा ऐसी सेवा करने सेजो भी आमदनी हो जाय उससे पूर्ण तुष्टि--ये शूद्रों के स्वाभाविक गुण हैं।
अशौचमनृतं स्तेयं नास्तिक्यं शुष्कविग्रह: ।कामः क्रोधश्व तर्षश्च स भावोन्त्यावसायिनाम् ॥
२०॥
अशौचम्--गंदा रहना; अनृतम्--बेईमानी; स्तेयम्--चोरी; नास्तिक्यमू--नास्तिकता; शुष्क-विग्रह: --व्यर्थ का लड़ाई-झगड़ा;कामः--विषय-भोग, वासना; क्रोध:--क्रो ध; च-- भी; तर्ष:--लालसा; च-- भी; सः--यह; भाव: --स्वभाव, प्रकृति;अन्तय--निम्नतम पद में; अवसायिनामू--रहने वालों के |
अस्वच्छता, बेईमानी, चोरी करना, नास्तिकता, व्यर्थ झगड़ना, काम, क्रोध एवं तृष्णा--ये उनके स्वभाव हैं, जो वर्णाश्रम प्रणाली के बाहर निम्नतम पद पर हैं।
अहिंसा सत्यमस्तेयमकामक्रोधलोभता ।भूतप्रियहितेहा च धर्मोउयं सार्ववर्णिक: ॥
२१॥
अहिंसा--अहिंसा; सत्यम्--सत्य; अस्तेयम्ू--ईमानदारी; अ-काम-क्रोध-लोभता--काम, क्रोध तथा लोभ से रहित होना;भूत--सारे जीवों के; प्रिय--सुख; हित--तथा कल्याण; ईहा--कामना; च--भी; धर्म:--कर्तव्य; अयमू--यह; सार्व-वर्णिक: --समाज के सारे सदस्यों के लिए॥
अहिंसा, सत्य, ईमानदारी, अन्यों के लिए सुख तथा कल्याण की इच्छा एवं काम, क्रोधतथा लोभ से मुक्ति--ये समाज के सभी सदस्यों के कर्तव्य हैं।
द्वितीयं प्राप्यानुपूर्व्याज्जन्मोपनयन द्विज: ।वसन्गुरुकुले दान्तो ब्रह्माधीयीत चाहूत: ॥
२२॥
द्वितीयम्--दूसरा; प्राप्प--पाकर; आनुपूर्व्यात्--क्रमिक संस्कार-विधि से; जन्म--जन्म; उपनयनम्-- गायत्री दीक्षा; द्विज:--समाज का द्विजन्मा सदस्य; वसन्ू--वास करते हुए; गुरु-कुले--गुरु के आश्रम में; दान्तः--आत्म-नियंत्रित; ब्रहा--वैदिकवाड्मय; अधीयीत--अध्ययन करे; च--तथा समझे भी; आहूत:--तथा गुरु द्वारा बुलाये जाने पर।
समाज का द्विजन्मा सदस्य संस्कारों के द्वारा गायत्री दीक्षा होने पर दूसरा जन्म प्राप्त करताहै। गुरु द्वारा बुलाये जाने पर उसे गुरु के आश्रम में रहना चाहिए और आत्मनियंत्रित मन सेसावधानी से वैदिक साहित्य का अध्ययन करना चाहिए।
मेखलाजिनदण्डाक्षब्रह्मसूत्रकमण्डलून् ।जटिलोधौतदद्वासो रक्तपीठ: कुशान्द्धत् ॥
२३॥
मेखला--पेटी; अजिन--मृगचर्म; दण्ड--डंडा; अक्ष--गुरियों की माला; ब्रह्म-सूत्र--ब्राह्मण का जनेऊ; कमण्डलूनू--तथा'कमण्डल या जलपात्र; जटिल:--जटा; अधौत--बिना पालिश किया या सफेद किया या इस्त्री किया; दत्ू-वास:--दाँत तथावस्त्र; अरक्त-पीठ:--विलासमय या विषयी आसन स्वीकार किये बिना; कुशान्ू--कुश तृण; दधत्--हाथ में लिए हुएब
्रह्मचारी को नियमित रूप से मूँज की पेटी तथा मृगचर्म के वस्त्र धारण करने चाहिए। उसेजटा रखनी चाहिए और दंड तथा कमंडल धारण करना चाहिए। उसे अक्ष के मनके तथा जनेऊधारण करना चाहिए। अपने हाथ में शुद्ध कुश लिए हुए, उसे कभी भी कोई विलासपूर्ण याउत्तेजक आसन ग्रहण नहीं करना चाहिए। उसे व्यर्थ दाँत नहीं चमकाना चाहिए न ही अपने वस्त्रोंसे रंग उड़ाना या उन पर लोहा ( इस्त्री ) करना चाहिए।
स्नानभोजनहोमेषु जपोच्चारे च वाग्यतः ।न च्छिन्द्यान्नखरोमाणि कक्षोपस्थगतान्यपि ॥
२४॥
स्नान--स्नान करते; भोजन-- भोजन करते; होमेषु--तथा यज्ञ करते; जप--मन में मंत्रों का जाप करते; उच्चारे--मल-मूत्रविसर्जन करते समय; च-- भी; वाक्ू-यत:--मौन रह कर; न--नहीं; छिन्द्यात्--काटे; नख--नाखुन; रोमाणि-- अथवा बाल;कक्ष--बगल ( काँख ) के; उपस्थ--गुप्तांग; गतानि--के सहित; अपि--भी |
ब्रह्मचारी को चाहिए कि स्नान करते, खाते, यज्ञ करते, जप करते या मल-मूत्र विसर्जनकरते समय, सदैव मौन रहे। वह अपने नाखुन तथा काँख एवं गुप्तांग सहित किसी अंग के बाल नहीं काटे।
रेतो नावकिरेज्ञातु ब्रह्मत्रतधर: स्वयम् ।अवकीरेेंवगाह्माप्सु यतासुस्त्रिपदां जपेतू ॥
२५॥
रेत:--वीर्य; न--नहीं; अवकिरेत्--पतन करे; जातु--कभी; ब्रह्म-ब्रत-धर: --ब्रह्मचर्यत्रत धारण करने वाला, ब्रह्मचारी;स्वयम्--स्वयं; अवकीर्णे--पतन हो जाने पर; अवगाह्म--स्नान करके; अप्सु--जल में; यत-असु: --प्राणायाम् द्वारा श्वास रोककर; त्रि-पदाम्-गायत्री मंत्र का; जपेत्--जप करे
ब्रह्मचर्य त्रत का पालन करते हुए वह कभी वीर्यपात न करे। यदि संयोगवश वीर्य स्वतःनिकल जाय, तो ब्रह्मचारी तुरन्त जल में स्नान करे, प्राणायाम द्वारा अपना श्वास रोके और गायत्रीमंत्र का जप करे।
अग्न्यर्काचार्यगोविप्रगुरुवृद्धसुराब्शुचि: ।समाहित उपासीत सन्ध्ये द्वे यतवाग्जपन् ॥
२६॥
अग्नि--अग्निदेव; अर्क--सूर्य; आचार्य--आचार्य; गो--गाय ; विप्र--ब्राह्मण; गुरु--गुरु; वृद्ध--सम्माननीय गुरुजन;सुरानू--देवताओं को; शुच्रिः:--पवित्र; समाहित:--स्थिर चेतना से; उपासीत--पूजा करे; सन्ध्ये--संध्या-समय; द्वे--दो; यत-वाक्--मौन रखते हुए; जपन्--मौन होकर जपने या उचित मंत्र का उच्चारण |
ब्रह्मचारी को शुद्ध होकर तथा स्थिर चेतना से अग्नि, सूर्य, आचार्य, गायों, ब्राह्मणों, गुरु,गुरुजनों तथा देवताओं की पूजा करनी चाहिए। उसे सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय मौन होकरउपयुक्त मंत्रों का गुनगुनाते हुए उच्चारण करके ऐसी पूजा करनी चाहिए।
आचार्य मां विजानीयान्नवमन्येत कर्हिचित् ।न मर्व्यबुद्धयासूयेत सर्वदेवमयो गुरु: ॥
२७॥
आचार्यम्-गुरु; मामू--मुझको; विजानीयात्--जाने; न अवमन्येत--कभी अनादर न करे; कर्हिचित्ू--किसी समय; न--कभी नहीं; मर्त्य-बुद्धया--सामान्य पुरुष होने के विचार से; असूयेत--ईर्ष्या-द्वेष रखे; सर्व-देब--सभी देवताओं के ; मय: --प्रतिनिधि; गुरु:--गुरु |
मनुष्य को चाहिए कि आचार्य को मेरा ही स्वरूप जाने और किसी भी प्रकार से उसकाअनादर नहीं करे। उसे सामान्य पुरुष समझते हुए उससे ईर्ष्या-द्वेष नहीं रखे क्योंकि वह समस्त देवताओं का प्रतिनिधि है।
सायं प्रातरुपानीय भैक्ष्यं तस्मै निवेदयेत् ।यच्चान्यदप्यनुज्ञातमुपयुञ्जीत संयतः ॥
२८॥
सायम्--शाम को; प्रात:--सुबह के समय; उपानीय--लाकर; भैक्ष्यम्--भिक्षा; तस्मै--उस ( आचार्य ) को; निवेदयेत्--लाकर दे; यत्--जो कुछ; च--भी; अन्यत्--अन्य वस्तुएँ; अपि--निस्सन्देह; अनुज्ञातमू-- अनुमति मिले; उपयुञ्जीत--स्वीकारकरे; संयत:--पूर्ण रूप से संयमित।
वह प्रातः तथा सायंकाल भोजन तथा अन्य वस्तुएँ एकत्र करके गुरु को प्रदान करे। तबआत्मसंयमपूर्वक वह अपने लिए उतना ही स्वीकार करे जो आचार्य उसके लिए निर्दिष्ट कर दे।
शुभ्रूषमाण आचार्य सदोपासीत नीचवत् ।यानशब्यासनस्थानैर्नातिदूरे कृताझ्ललिः ॥
२९॥
शुश्रूषमाण: --सेवा में लगा हुआ; आचार्यम्ू--गुरु को; सदा--सदैव; उपासीत--पूजे; नीच-वत्--विनीत सेवक की तरह;यान--जब गुरु चले तो पीछे पीछे चलते हुए; शय्या--गुरु के साथ विश्राम करते हुए; आसन--सेवा करने के लिए गुरु केनिकट बैठ कर; स्थानै:--खड़े रह कर तथा गुरु की आज्ञा की प्रतीक्षा करते हुए; न--नहीं; अति--अधिक; दूरे--दूरी पर;कृत-अज्जलि:--हाथ जोड़े |
गुरु की सेवा करते समय शिष्य विनीत सेवक के समान रहता रहे और जब गुरु चलें, तोवह सेवक की तरह उनके पीछे पीछे चले। जब गुरु सोने लगें, तो सेवक भी पास ही लेट जायऔर जब गुरु जगें, तो सेवक उनके निकट बैठ कर उनके चरणकमल चापने तथा अन्य सेवा-कार्य करने में लग जाय। जब गुरु अपने आसन पर बैठे हों, तो सेवक उनके पास हाथ जोड़कर, गुरु-आदेश की प्रतीक्षा करे। वह इस तरह से गुरु की सदैव पूजा करे।
एवंवृत्तो गुरुकुले वसेद्धोगविवर्जित: ।विद्या समाप्यते यावद्विभ्रदूव्तमखण्डितम् ॥
३०॥
एवम्--इस प्रकार; वृत्त:--लगा हुआ; गुरु-कुले--गुरु के आश्रम में; वसेत्--रहे; भोग--इन्द्रियतृप्ति; विवर्जित:--से मुक्त;विद्या--वैदिक शिक्षा; समाप्यते--पूरी होती है; यावत्--जब तक; बिभ्रत्ू-- धारण करते हुए; ब्रतम्--( ब्रह्मचर्य ) व्रत;अखण्डितमू--अखण्ड।
जब तक विद्यार्थी अपनी वैदिक शिक्षा पूरी न कर ले, उसे गुरु के आश्रम में कार्यरत रहनाचाहिए, उसे इन्द्रियतृप्ति से पूर्णतया मुक्त रहना चाहिए और उसे अपना ब्रह्माचर्य ब्रत नहीं तोड़नाचाहिए।
यद्यसौ छन्दसां लोकमारोश्ष्यन्त्रह्मविष्टपम् ।गुरवे विन्यसेह्देहं स्वाध्यायार्थ बृहद्व्रत: ॥
३१॥
यदि--यदि; असौ--वह विद्यार्थी; छन्दसाम् लोकमू--महलेंक में; आरोक्ष्यनू--चढ़ने की इच्छा करते हुए; ब्रह्म-विष्टपम्--ब्रह्मलोक; गुरवे--गुरु को; विन्यसेत्--अर्पित करे; देहम्--अपना शरीर; स्व-अध्याय-- श्रेष्ठ वैदिक अध्ययन के; अर्थम्ू-हेतु;बृहत्-ब्रत:--आजीवन ब्रह्मचर्य का शक्तिशाली ब्रत रखते हुए
यदि ब्रह्मचारी महलोंक या ब्रह्मलोक जाना चाहता है, तो उसे चाहिए कि गुरु को अपने सारेकर्म अर्पित कर दे और आजीवन ब्रह्मचर्य के शक्तिशाली ब्रत का पालन करते हुए अपने कोश्रेष्ठ वैदिक अध्ययन में समर्पित कर दे।
अग्नौ गुरावात्मनि च सर्वभूतेषु मां परम् ।अपृथग्धीरुपसीत ब्रह्मवर्चस्व्यकल्मष: ॥
३२॥
अग्नौ--अग्न में; गुरौ--गुरु में; आत्मनि--अपने में; च--भी; सर्व-भूतेषु-- सारे जीवों में; माम्--मुझको; परम्ू--परम;अपृथक्-धी: --द्वैत से रहित; उपासीत-- पूजा करे; ब्रह्म-वर्चस्वी --वैदिक प्रकाश से युक्त; अकल्मष:--निष्पाप |
इस तरह गुरु की सेवा करने से वैदिक ज्ञान में प्रबुद्ध, समस्त पापों तथा द्वैत से मुक्त हुआव्यक्ति, परमात्मा रूप में मेरी पूजा करे क्योंकि मैं अग्नि, गुरु, मनुष्य की आत्मा तथा समस्तजीवों के भीतर प्रकट होता हूँ।
स्त्रीणां निरीक्षणस्पर्शसंलापक्ष्वेलनादिकम् ।प्राणिनो मिथुनीभूतानगृहस्थोग्रतस्त्यजेतू ॥
३३॥
स्त्रीणाम-स्त्रियों के सम्बन्ध में; निरीक्षण--देखने; स्पर्श--छूने; संलाप--बात करने; क_्वेलनल--हँसी-मजाक करने;आदिकम्ू--इत्यादि; प्राणिन: --जीव; मिथुनी-भूतानू--संभोगरत; अगृह-स्थ:--संन्यासी, वानप्रस्थ या ब्रह्मचारी; अग्रतः --सर्वप्रथम; त्यजेत्ू--छोड़ दे
जो विवाहित नहीं हैं अर्थात् सन््यासी, वानप्रस्थ तथा ब्रह्मचारी, उन्हें स्त्रियों को कभी भीदेख कर, छू कर, बात करके, हँसी-मजाक करके या खेल-खेल में उनकी संगति नहीं करनीचाहिए। न ही वे किसी ऐसे जीव का साथ करें जो संभोगरत हों।
शौचमाचमनं स्नान सन्ध्योपास्तिर्ममार्चनम् ।तीर्थसेवा जपोस्पृश्याभक्ष्यासम्भाष्यवर्जमम् ॥
३४॥
सर्वाश्रमप्रयुक्तोयं नियम: कुलनन्दन ।मद्भावः सर्वभूतेषु मनोवाक्कायसंयम: ॥
३५॥
शौचम्--स्वच्छता; आचमनम्--जल से हाथ शुद्ध करना; स्नानम्--स्नान; सन्ध्या--सूर्योदय, दोपहर तथा शाम को;उपास्तिः--धार्मिक सेवा; मम--मेरी; अर्चनम्--पूजा; तीर्थ-सेवा--तीर्थस्थानों की यात्रा; जप:-- भगवन्नाम का उच्चारण;अस्पृश्य--अछूत; अभक्ष्य--अखाद्य; असम्भाष्य--या जिसकी चर्चा करने लायक न हो; वर्जनम्--निषेध; सर्व--सभी;आश्रम--आश्रम; प्रयुक्त:--आदिष्ट; अयम्--यह; नियम:--नियम; कुल-नन्दन--हे उद्धव; मत्-भाव:--मेरे अस्तित्व काबोध; सर्व-भूतेषु--सारे जीवों में; मन:--मन; वाक्ू--शब्द; काय--शरीर का; संयम:--नियमन, संयम ।
हे उद्धव, सामान्य स्वच्छता, हाथों का धोना, स्नान करना, सूर्योदय, दोपहर तथा शाम कोधार्मिक सेवा का कार्य करना, मेरी पूजा करना, तीर्थस्थान जाना, जप करना, अछूत, अखाद्यया चर्चा के अयोग्य वस्तुओं से दूर रहना तथा समस्त जीवों में परमात्मा रूप में मेरे अस्तित्व कास्मरण करना--इन सिद्धान्तों को समाज के सारे सदस्यों को मन, वचन तथा कर्म के संयम द्वारापालन करना चाहिए।
एवं बृहदव्रतधरो ब्राह्मणोग्निरिव ज्वलन् ।मद्धक्तस्तीव्रतपसा दग्धकर्माशयोडमल: ॥
३६॥
एवम्--इस प्रकार; बृहत्-ब्रत--ब्रह्मचर्य का महान् व्रत; धर:--धारण करते हुए; ब्राह्मण:--ब्राह्मण; अग्नि:-- अग्नि; इब--सहश; ज्वलन्--तेजयुक्त; मत्-भक्त:--मेरा भक्त; तीब्र-तपसा--गम्भीर तपस्या द्वारा; दग्ध--जला हुआ; कर्म--सकाम कर्मकी; आशय: --प्रवृत्ति; अमल:ः--भौतिक इच्छा के कल्मष से रहित ।
ब्रह्मचर्य का महान् व्रत धारण करने वाला ब्राह्मण अग्नि के समान तेजस्वी हो जाता है औरवह गहन तपस्या द्वारा भौतिक कर्म करने की लालसा को भस्म कर देता है। इस तरह भौतिकइच्छा के कल्मष से रहित होकर, वह मेरा भक्त बन जाता है।
अथानन्तरमावेक्ष्यन्यथाजिज्ञासितागम: ।गुरवे दक्षिणां दत्त्वा स्नायादगुर्वनुमोदित: ॥
३७॥
अथ--इस प्रकार; अनन्तरम्--इसके पश्चात्; आवेश्ष्यनू--गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने की इच्छा से; यथा--समुचित;जिज्ञासित--अध्ययन करके; आगम:--वैदिक साहित्य; गुरवे--गुरु को; दक्षिणाम्--पारिश्रमिक; दत्त्वा--देकर; स्नायात्--ब्रह्मचारी को स्नान करके, कंघा करना तथा सुन्दर वस्त्र पहनना चाहिए; गुरु--गुरु द्वारा; अनुमोदित:--अनुमति दिये जाने पर।
जो ब्रह्मचारी अपनी वैदिक शिक्षा पूरी करके गृहस्थ जीवन में प्रवेश करना चाहता है, उसेचाहिए कि वह गुरु को समुचित पारिश्रमिक ( गुरु-दक्षिणा ) दे, स्नान करे, बाल कटाये औरउचित वस्त्र इत्यादि धारण करे। तब अपने गुरु की अनुमति से वह अपने घर को जाय।
गृहं वन वोपविशेत्प्रव्नजेद्दा द्विजोत्तम: ।आश्रमादाश्रमं गच्छेन्नान्यथामत्परश्चरेत् ॥
३८ ॥
गृहम्ू--घर; वनम्--जंगल; वा--या तो; उपविशेत्-- प्रवेश करे; प्रत्नजेत्--त्याग दे; वा--अथवा; द्विज-उत्तम:--ब्राह्मण;आश्रमात्--जीवन के अधिकारप्राप्त एक पद से; आश्रमम्--दूसरे अधिकारप्राप्त पद तक; गच्छेतू--जाए; न--नहीं;अन्यथा--नहीं तो; अमत्-परः--जो मेरा शरणागत नहीं है; चरेत्--कार्य करे
अपनी भौतिक इच्छाओं को पूरा करने के लिए इच्छुक ब्रह्मचारी को अपने परिवार के साथघर पर रहना चाहिए और जो गृहस्थ अपनी चेतना को शुद्ध बनाना चाहे उसे जंगल में प्रवेशकरना चाहिए जबकि शुद्ध ब्राह्मण को संन्यास ग्रहण कर लेना चाहिए। जो मेरे शरणागत नहीं हैउसे एक आश्रम से दूसरे में क्रमश: जाना चाहिए और इससे विरुद्ध कार्य नहीं करना चाहिए।
गृहार्थी सही भार्यामुद्रदेदजुगुप्सिताम् ।यवीयसीं तु वयसा यं सवर्णामनु क्रमात् ॥
३९॥
गृह--घर-गृहस्थी; अर्थी--इच्छुक; सहशीम्--समान गुणों से युक्त; भार्यामू-- पत्नी से; उद्देतू-ब्याहे; अजुगुप्सिताम्--आक्षेप से परे; यवीयसीम्--वय में छोटी; तु--निस्सन्देह; वयसा--उप्र में; यामू--दूसरी पत्नी; स-वर्णामू--समान जाति कीपहली पत्नी; अनु--बाद में; क्रमातू-क्रम से |
जो व्यक्ति गृहस्थ जीवन स्थापित करना चाहता है उसे चाहिए कि अपनी ही जाति की ऐसीस्त्री से विवाह करे जो निष्कलंक तथा उम्र में छोटी हो। यदि कोई व्यक्ति अनेक पत्नियाँ रखनाचाहता है, तो उसे प्रथम विवाह के बाद उनसे भी ब्याह करना चाहिए और हर पत्नी एक-दूसरे सेनिम्न जाति की होनी चाहिए।
इज्याध्ययनदानानि सर्वेषां च द्विजन्मनाम् ।प्रतिग्रहोध्यापनं च ब्राह्मणस्यैव याजनम् ॥
४०॥
इज्या--यज्ञ; अध्ययन--वैदिक अध्ययन; दानानि--दान; सर्वेषाम्ू--सभी; च-- भी; द्वि-जन्मनाम्--द्विजों के; प्रतिग्रह:ः--दानलेना; अध्यापनम्--वैदिक ज्ञान की शिक्षा देना; च--भी; ब्राह्मणस्य--ब्राह्मण के; एब--एकमात्र; याजनम्--अन्यों के लिएयज्ञ करना।
सभी द्विजों अर्थात् ब्राह्मणों, क्षत्रियों तथा वैश्यों को यज्ञ करना चाहिए, वैदिक साहित्य काअध्ययन करना चाहिए और दान देना चाहिए किन्तु ब्राह्मण ही दान ले सकते हैं, वे ही वैदिकज्ञान की शिक्षा दे सकते हैं और अन्यों के लिए यज्ञ कर सकते हैं।
प्रतिग्रह मन्यमानस्तपस्तेजोयशोनुदम् ।अन्याभ्यामेव जीवेत शिलैर्वां दोषहक् तयो: ॥
४१॥
प्रतिग्रहम्--दान लेना; मन्यमान:--मानते हुए; तप:ः--तपस्या; तेज:--आध्यात्मिक प्रभाव; यशः--तथा यश का; नुदम्--विनाश; अन्याभ्याम्-- अन्य दो ( यज्ञ तथा वेद-विद्या ) के द्वारा; एव--निस्सन्देह; जीवेत--ब्राह्मण को जीवित रहना चाहिए;शिलैः--खेत से गिरा हुआ अन्न बीन करके; वा--अथवा; दोष--कमी; हक्ू--देख कर; तयो:--दोनों में से |
जो ब्राह्मण यह माने कि अन्यों के दान लेने से उसकी तपस्या, आध्यात्मिक प्रतिष्ठा तथा यशनष्ट हो जायेंगे, उसे चाहिए कि अन्य दो ब्राह्मण वृत्तियों से--वेद-ज्ञान की शिक्षा देकर तथा यज्ञसम्पन्न करके अपना भरण करे। यदि वह ब्राह्मण यह माने कि ये दोनों वृत्तियाँ भी उसकेआध्यात्मिक पद को क्षति पहुँचाती हैं, तो उसे चाहिए कि खेतों में गिरा अन्न ( शीला ) बीने औरअन्यों पर निर्भर न रहते हुए जीवन-निर्वाह करे।
ब्राह्मणस्य हि देहोयं क्षुद्रकामाय नेष्यते ।कृच्छाय तपसे चेह प्रेत्यानन्तसुखाय च ॥
४२॥
ब्राह्मणस्य--ब्राह्मण का; हि--निश्चय ही; देह:--शरीर; अयम्--यह; क्षुद्र--नगण्य; कामाय--इन्द्रियतृप्ति के लिए; न--नहीं;इष्यते--होता है; कृच्छाय--कठिन; तपसे--तपस्या के लिए; च-- भी; इह--इस संसार में; प्रेत्य--मर कर; अनन्त--असीम;सुखाय--सुख के लिए; च--भी ।
ब्राह्मण का शरीर क्षुद्र इन्द्रिय भोग के निमित्त नहीं होता, प्रत्युत वह कठिन तपस्या स्वीकारकरके मृत्यु के उपरान्त असीम सुख भोगेगा।
शिलोज्छवृत्त्या परितुष्टचित्तोधर्म महान्तं विरजं जुषाण: ।मय्यर्पितात्मा गृह एव तिष्ठन्नातिप्रसक्त: समुपैति शान्तिमू ॥
४३॥
शिल-उब्छ--अन्न बीनने की; वृत्त्या--वृत्ति द्वारा; परितुष्ट--पूर्णतया सन्तुष्ट; चित्त:--चेतना वाला; धर्मम्-धार्मिक सिद्धान्तोंको; महान्तम्--उदात्त तथा अतिथि-सत्कार करने वाला; विरजम्--भौतिक इच्छाओं से रहित; जुषाण:--अनुशीलन करते हुए;मयि--मुझमें; अर्पित--अर्पित; आत्मा--मन वाला; गृहे--घर में; एब--ही; तिष्ठन्--रहते हुए; न--नहीं; अति--अत्यधिक;प्रसक्त:--आसक्त, लिप्त; समुपैति--प्राप्त करता है; शान्तिमू--मोक्ष |
ब्राह्मण गृहस्थ को खेतों तथा मंडियों में गिरे अन्न के दाने बीन कर अपने मन में सन्तुष्ट रहनाचाहिए। उसे अपने को निजी इच्छा से मुक्त रखते हुए मुझमें लीन रह कर उदात्त धार्मिकसिद्धान्तों का अभ्यास करना चाहिए। इस तरह गृहस्थ के रूप में ब्राह्मण बिना आसक्ति के घर में ही रह सकता है और मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
समुद्धरन्ति ये विप्रं सीदन्तं मत्परायणम् ।तानुद्धरिष्ये न चिरादापदभ्यो नौरिवार्णवात् ॥
४४॥
समुद्धरन्ति--ऊपर उठाते हैं; ये--जो; विप्रमू--ब्राह्मण या भक्त को; सीदन्तम्--( गरीबी ) से कष्ट पा रहे; मत्-परायणम्--मेरेशरणागत; तान्--उठाने वालों को; उद्धरिष्ये--मैं ऊपर उठाऊँगा; न चिरातू--निकट भविष्य में; आपद्भ्य:--सारे कष्टों से;नौः--नाव; इब--सहृश; अर्णवात्--समुद्र से
जिस प्रकार जहाज समुद्र में गिरे हुए लोगों को बचा लेता है, उसी तरह मैं उन व्यक्तियों कोसारी विपत्तियों से तुरन्त बचा लेता हूँ जो दरिद्रता से पीड़ित ब्राह्मणों तथा भक्तों को उबार लेतेहैं।
सर्वा: समुद्धरेद्राजा पितेव व्यसनात्प्रजा: ।आत्मानमात्मना धीरो यथा गजपतिर्गजान् ॥
४५॥
सर्वा:--सभी; समुद्धरेत्--ऊपर उठाना चाहिए; राजा--राजा; पिता--पिता; इब--सहृश; व्यसनात्--विपत्तियों से; प्रजा: --जनता; आत्मानम्--अपने आपको; आत्मन-- अपने आप; धीर:--निर्भीक; यथा--जिस तरह; गज-पतिः--गजराज; गजान्--अन्य हाथियों को।
जिस तरह हाथियों का राजा अपने झुंड के अन्य सारे हाथियों की रक्षा करता है और अपनीभी रक्षा करता है, उसी तरह निर्भीक राजा को पिता के समान अपनी सारी प्रजा को कठिनाई सेबचाना चाहिए और अपनी भी रक्षा करनी चाहिए।
एवंविधो नरपतिर्विमानेनार्कवर्चसा ।विधूयेहाशुभं कृत्स्नमिन्द्रेण सह मोदते ॥
४६॥
एवमू-विध: --इस प्रकार ( अपनी तथा प्रजा की रक्षा करते हुए ); नर-पति:--राजा; विमानेन--वायुयान से; अर्क-वर्चसा--सूर्य के समान तेजोमय; विधूय--हटाकर; इह--पृथ्वी पर; अशुभम्--पापों को; कृत्स्नमू--समस्त; इन्द्रेण --इन्द्र के; सह--साथ; मोदते-- भोग करता है।
जो राजा अपने राज्य से सारे पापों को हटाकर अपनी तथा सारी प्रजा की रक्षा करता है, वहनिश्चय ही इन्द्र के साथ सूर्य जैसे तेजवान विमान में सुख भोगता है।
सीदन्विप्रो वणिग्वृत्त्या पण्यैरेवापदं तरेत् ।खड़्गेन वापदाक्रान्तो न श्ववृत््या कथञज्लनन ॥
४७॥
सीदन्--कष्ट उठाता; विप्र:--ब्राह्मण; वणिक्ू--बनिए की; वृत्त्या--वृत्ति द्वारा; पण्यैः --व्यापार के द्वारा; एब--निस्सन्देह;आपदम्ू--विपत्ति; तरेत्ू--पार करे; खड्गेन--तलवार से; वा--अथवा; आपदा--विपत्ति से; आक्रान्त:--पीड़ित; न--नहीं ;श्व--कुत्ते की; वृत्त्या--वृत्ति से; कथज्लन--जैसे भी हो
यदि कोई ब्राह्मण अपने नियमित कर्तव्यों द्वारा अपना निर्वाह नहीं कर पाता और कष्ट उठाताहै, तो वह व्यापारी की वृत्ति अपनाकर वस्तुएँ क्रय-विक्रय करके अपनी दीन अवस्था को सुधारसकता है। यदि वह व्यापारी के रूप में भी नितान्त दरिद्र बना रहता है, तो वह हाथ में तलवारलेकर क्षत्रिय-वृत्ति अपना सकता है। किन्तु किसी भी दशा में वह किसी सामान्य स्वामी कोस्वीकार करके कुत्ते जैसा नहीं बन सकता ( श्वान-वृत्ति )।
वैश्यवृत्त्या तु राजन्यो जीवेन्मूगययापदि ।चरेद्वा विप्ररूपेण न श्रवृत्त्या कथज्ञन ॥
४८ ॥
वैश्य--व्यापारी वर्ग की; वृत्त्या--वृत्ति द्वारा; तु--निस्सन्देह; राजन्य:--राजा; जीवेत्-- अपना जीवन-निर्वाह करे; मृगयया--शिकार करके; आपदि--आपात् काल या विपत्ति में; चरेत्--कार्य करें; वा--अथवा; विप्र-रूपेण--ब्राह्मण के रूप में; न--कभी नहीं; श्र--कुत्ते की; वृत्त्या--वृत्ति द्वारा; कथज्ञन--किसी भी दशा में |
राजा या राजकुल का सदस्य, जो अपनी सामान्य वृत्ति द्वारा अपना निर्वाह नहीं कर सकता,वह वैश्य की तरह कर्म कर सकता है, शिकार करके जीवन चला सकता है अथवा ब्राह्मण कीतरह अन्यों को वैदिक ज्ञान की शिक्षा देकर काम कर सकता है। किन्तु किसी भी दशा में उसेशूद्र-वृत्ति नहीं अपनानी चाहिए।
शूद्रवृत्ति भजेद्वैश्य: शूद्र: कारुकटक्रियाम् ।कृच्छान्मुक्तो न गह्मॉण वृत्ति लिप्सेत कर्मणा ॥
४९॥
शूद्र--शूद्रों की; वृत्तिमू--वृत्ति; भजेत्ू--स्वीकार करे; वैश्य:--वैश्य; शूद्र: --शूद्र; कारु--मजदूर का; कट--टोकरी तथाचटाई; क्रियाम्ू--बनाना; कृच्छात्--कठिन स्थिति से; मुक्त:--मुक्त हुआ; न--नहीं; गह्मॉण--निकृष्ट द्वारा; वृत्तिमू--जीविका;लिप्सेत-- कामना करे; कर्मणा--कार्य द्वारा
जो वैश्य अपना जीवन-निर्वाह न कर सकता हो, वह शूद्र-वृत्ति अपना सकता है और जोशूद्र उपयुक्त स्वामी न पा सके वह डलिया तथा चटाई बनाने जैसे सामान्य कार्यो में लग सकताहै। किन्तु समाज के वे सारे सदस्य जिन्होंने आपात्काल में निकृष्ट वृत्तियाँ अपनाई हों, उन्हेंविपत्ति बीत जाने पर इन कार्यो को तुरन्त त्याग देना चाहिए।
वेदाध्यायस्वधास्वाहाबल्यन्नाद्यर्यथोदयम् ।देवर्षिपितृ भूतानि मद्गूपाण्यन्वहं यजेतू ॥
५०॥
वेद-अध्याय--वैदिक ज्ञान का अध्ययन; स्वधा--स्वधा मंत्र अर्पित करके; स्वाहा--स्वाहा मंत्र द्वारा; बलि-- भोजन देकर;अन्न-आद्यिः:--अन्न, जल इत्यादि देकर; यथा--के अनुसार; उदयम्--सम्पन्नता; देव--देवता; ऋषि--ऋषि; पितृ-- पूर्वजों;भूतानि--तथा सारे जीवों के; मत्-रूपाणि--मेंरे शक्ति के स्वरूपों; अनु-अहम्- प्रतिदिन; यजेत्--पूजा करे
गृहस्थ आश्रम वाले को नित्य वैदिक अध्ययन द्वारा ऋषियों की, स्वधा मंत्र द्वारा पूर्वजों की,स्वाहा मंत्र का उच्चारण करके देवताओं की, अपने हिस्से का भोजन देकर सारे जीवों की तथाअन्न एवं जल अर्पित करके मनुष्यों की पूजा करनी चाहिए। इस तरह देवताओं, ऋषियों, पूर्वजों,जीवों तथा मनुष्यों को मेरी शक्ति की अभिव्यक्तियाँ मानते हुए हर मनुष्य को नित्य ये पाँच यज्ञसम्पन्न करने चाहिए।
यहच्छयोपपन्नेन शुक्लेनोपार्जितेन वा ।धनेनापीडयन्भृत्यान््यायेनैवाहरेत्क्रतूनू ॥
५१॥
यहरच्छया--बिना प्रयास के; उपपन्नेन--अर्जित किया गया; शुक्लेन--अपनी ईमानदारीपूर्ण वृत्ति से; उपार्जितेन--प्राप्त कियाहुआ; वा--अथवा; धनेन-- धन से; अपीडयन्-- असुविधा उत्पन्न न करते हुए; भृत्यान्ू-- आश्लितों को; न्यायेन--उचित प्रकारसे; एब--निस्सन्देह; आहरेत्--सम्पन्न करे; क्रतूनू--यज्ञों तथा अन्य धार्मिक उत्सवों को।
गृहस्थ को चाहिए कि स्वेच्छा से प्राप्त धन से या ईमानदारी से सम्पन्न किये जाने वाले कार्यसे जो धन प्राप्त हो, उससे अपने आश्रितों का ठीक से पालन-पोषण करे। उसे अपने साधनों केअनुसार यज्ञ तथा अन्य धार्मिक उत्सव सम्पन्न करने चाहिए।
कुट॒म्बेषु न सज्जेत न प्रमाद्येत्कुटुम्ब्यपि ।विपश्षिन्नश्वरं पश्येददृष्टमपि हृष्टवत् ॥
५२॥
कुट॒ुम्बेषु--पारिवारिक जनों से; न--नहीं; सज्जेत--लिप्त हो; न--नहीं; प्रमाद्मेत्--अहंकारी बने; कुटुम्बी--अनेक आश्रितपारिवारिक जनों वाला; अपि--यद्यपि; विपश्चित्ू-चतुर व्यक्ति; नश्वरम्-- क्षणभंगुर; पश्येत्ू--देखे; अद्ृष्टम्ू-- भावी पुरस्कारयथा स्वर्ग में वास; अपि--निस्सन्देह; दृष्ट-वत्--पहले से अनुभव किया गया जैसा।
अनेक आश्रित पारिवारिक जनों की देखरेख करने वाले गृहस्थ को न तो उनसे अत्यधिकलिप्त होना चाहिए, न ही अपने को स्वामी मान कर मानसिक रूप से असन्तुलित रहना चाहिए।बुद्धिमान गृहस्थ को समझना चाहिए कि सारा सम्भव सुख, जिसका वह पहले ही अनुभव करचुका होता है, क्षणभंगुर है।तात्पर्य : गृहस्थ व्यक्ति अपनी पत्नी की रक्षा करते, अपने बच्चों को आदेश देते, नौकरों, नाती-पोतों, घरेलू पशुओं इत्यादि का पालन-पोषण करते स्वामी की भाँति आचरण करता है। न ग्रगाद्येत्कुटुम्ब्यपि शब्द यह सूचित करते हैं कि यद्यपि मनुष्य अपने परिवार, नौकरों तथा मित्रों से घिरा हुआ पुत्रदाराप्तबन्धूनां सड्रम: पान्थसड्रम: ।अनुदेहं वियन्त्येते स्वप्नो निद्रानुगो यथा ॥
५३॥
पुत्र--बच्चे; दार--पली; आप्त--सम्बन्धीजन; बन्धूनाम्--तथा मित्रों के; सड्रम:--संगति, साथ साथ रहना; पान्थ--यात्रियोंकी; सड्भम: --संगति; अनु-देहम्--शरीर के प्रत्येक परिवर्तन सहित; वियन्ति--पृथक् कर दि जाते हैं; एते--ये सारे;स्वण:--स्वण; निद्रा--नींद; अनुग:--घटित होने वाले; यथा--जिस तरह
बच्चों, पत्नी, सम्बन्धियों तथा मित्रों की संगति यात्रियों के लघु मिलाप जैसी है। शरीर केप्रत्येक परिवर्तन के साथ मनुष्य ऐसे संगियों से उसी तरह विलग हो जाता है, जिस तरह स्वप्नसमाप्त होते ही स्वप्न में मिली हुई सारी वस्तुएँ खो जाती हैं।
इत्थं परिमृशन्मुक्तो गृहेष्वतिथिवद्वसन् ।न गृहैरनुबध्येत निर्ममो निरहड्डू त: ॥
५४॥
इत्थम्--इस प्रकार; परिमृशन्--गम्भीरतापूर्वक विचार करते हुए; मुक्त:--मुक्तात्मा; गृहेषु--घर पर; अतिथि-वत्--मेहमान कीतरह; वसन्--रहते हुए; न--नहीं; गृहैः--घर की परिस्थिति से; अनुबध्येत-- अपने को बँधाये; निर्मम: --स्वामित्व की भावनासे रहित; निरहड्डू तः--मिथ्या अभिमान से रहित।
वास्तविक स्थिति पर गम्भीरतापूर्वक विचार करते हुए मुक्तात्मा को चाहिए कि घर में एकमेहमान की तरह किसी स्वामित्व की भावना या मिथ्या अहंकार के बिना रहे। इस तरह वह घरेलूमामलों में नहीं फँसेगा।
कर्मभिर्गृहमेधीयैरिष्टा मामेव भक्तिमान् ।तिष्ठेद्दनं बोषविशेत्प्रजावान्वा परिव्रजेतू ॥
५५॥
कर्मभि:--कर्मो द्वारा; गृह-मेधीयै:--पारिवारिक जीवन के लिए उपयुक्त; इष्टा--पूजा करके; माम्--मेरी; एब--निस्सन्देह;भक्ति-मान्ू--भक्त होते हुए; तिष्ठेत्--घर पर रहता रहे; वनम्--जंगल में; वा--अथवा; उपविशेत् -- प्रवेश करे; प्रजा-वान्--जिम्मेदार सन्तान के होते हुए; वा--अथवा; परिब्रजेत्--संन्यास ग्रहण करे।
जो गृहस्थ भक्त अपने पारिवारिक कर्तव्यों को पूरा करते हुए मेरी पूजा करता है, वह चाहेतो घर पर ही रह सकता है अथवा किसी पवित्र स्थान में जा सकता है या यदि उसके कोईजिम्मेदार पुत्र हो, तो वह संन्यास ग्रहण कर सकता है।
स्त्वासक्तमतिगेहे पुत्रवित्तेषणातुर: ।स्त्रेण: कृपणधीर्मूढो ममाहमिति बध्यते ॥
५६॥
यः--जो; तु--किन्तु; आसक्त--लिप्त; मतिः--चेतना वाला; गेहे--अपने घर पर; पुत्र--सन्तान; वित्त--तथा धन के लिए;एषण--तीक्र इच्छा से; आतुर:ः--विचलित; स्त्रैण:--स्त्री-भोग के लिए कामुक; कृपण--कंजूस; धी:--बुद्धि वाला; मूढ:--मूर्ख; मम--हर वस्तु मेरी है; अहम्--मैं ही सबकुछ हूँ; इति--ऐसा सोच कर; बध्यते--बँध जाता है।
किन्तु जिस गृहस्थ का मन अपने घर में आसक्त है और जो इस कारण अपने धन तथासंतान को भोगने की तीव्र इच्छाओं से विचलित है, जो स्त्रियों के लिये काम-भावना से पीड़ितहै, जो कृपण मनोवृत्ति रखता है और जो मूर्खतावश यह सोचता है कि, ' प्रत्येक वस्तु मेरी हैऔर मैं ही सबकुछ हूँ' निस्सन्देह, वह व्यक्ति माया-जाल में फँसा हुआ है।
अहो मे पितरौ वृद्धौँ भार्या बालात्मजात्मजा: ।अनाथा मामृते दीना: कथं जीवन्ति दुःखिता: ॥
५७॥
अहो--ओह; मे--मेरे; पितरौ--माता-पिता; वृद्धौ--बूढ़े; भार्या--पत्नी; बाल-आत्म-जा--गोद में बालक लिए; आत्मा-जा;--तथा मेरे अन्य बच्चे; अनाथा:--जिनका कोई रक्षक नहीं हो; माम्--मेरे; ऋते--रहित; दीना:--दुखी; कथम्--इसजगत में किस तरह; जीवन्ति--जीवित रह सकते हैं; दुः:खिता:--दुख सहते हुए।
'हाय! मेरे वृद्ध माता-पिता तथा गोद में बालक वाली मेरी पत्नी तथा मेरे अन्य बच्चे! मेरेबिना उनकी रक्षा करने वाला कोई नहीं है और उन्हें असहा कष्ट उठाना पड़ेगा। मेरे गरीबसम्बन्धी मेरे बिना कैसे रह सकेंगे ? 'एवं गृहाशयाक्षिप्तहदयो मूढधीरयम् ।अतृप्तस्ताननुध्यायन्मृतोन्ध॑ विशते तमः ॥
५८ ॥
एवम्--इस प्रकार; गृह--घरेलू परिस्थिति में; आशय--तीब्र इच्छा से; आक्षिप्त--अभिभूत; हृदय: --हृदय; मूढ--मूर्ख ;धी:--बुद्धि वाला; अयम्--यह व्यक्ति; अतृप्त: --असंतुष्ट; तानू--उनको ( परिवार वालों को ); अनुध्यायन्--निरन्तर सोचतेहुए; मृतः--मर जाता है; अन्धम्--अंधता, अज्ञान; विशते--प्रवेश करता है; तम:ः--अंधकार।
इस तरह अपनी मूर्खतापूर्ण मनोवृत्ति के कारण वह गृहस्थ, जिसका हृदय पारिवारिकआसक्ति से अभिभूत रहता है, कभी भी तुष्ट नहीं होता। फलस्वरूप अपने परिवार वालों कानिरन्तर ध्यान करते हुए वह मर जाता है और अज्ञान के अंधकार में प्रवेश करता है।
18. वर्णाश्रम-धर्म का वर्णन
श्रीभगवानुवाचबन॑ विविश्षु: पुत्रेषु भार्या न््यस्य सहैव वा ।वन एव वसेच्छान्तस्तृतीयं भागमायुष: ॥
१॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; वनम्--जंगल में; विविश्लु:--प्रवेश करने का इच्छुक; पुत्रेषु--पुत्रों में से; भार्याम्--पतली को; न्यस्य--सौंप कर; सह--सहित; एव--निस्सन्देह; वा--अथवा; बने--जंगल में; एब--निश्चय ही; बसेत्--रहे;शान्तः--शान्त भाव से; तृतीयम्--तीसरे; भागम्-- भाग में; आयुष:--जीवन के |
भगवान् ने कहा : जो जीवन के तीसरे आश्रम अर्थात् वानप्रस्थ को ग्रहण करने का इच्छुकहो, उसे अपनी पत्नी को अपने जवान पुत्रों के साथ छोड़ कर या अपने साथ लेकर शान्त मन सेजंगल में प्रवेश करना चाहिए।
कन्दमूलफलैवर॑न्यमेंध्यैरवृत्ति प्रकल्पयेत् ।वसीत वलल््कलं वासस्तृणपर्णाजिनानि वा ॥
२॥
कन्द--कन्द; मूल--जड़ें; फलैः--तथा फलों से; वन्यै:--जंगल में उगने वाले; मेध्यै:--शुद्ध; वृत्तिमू--जीविका;प्रकल्पयेत्--व्यवस्था करे; वसीत--पहने; वल्कलम्--पेड़ की छाल; वासः--वस्त्रों के रूप में; तृण--घास; पर्ण--पत्ते;अजिनानि--पशुओं की खालें; वा--एवं |
वानप्रस्थ आश्रम अपनाने पर मनुष्य को चाहिए कि जंगल में उगने वाले शुद्ध कन्द, मूलतथा फल खाकर जीविका चलाये। वह पेड़ की छाल, घास, पत्ते या पशुओं की खाल पहने।
केशरोमनखएम श्रुमलानि बिभूयाहतः ।न धावेदप्सु मज्जेत त्रि काल॑ स्थण्डिलेशय: ॥
३॥
केश--सिर के बाल; रोम--शरीर के रोएँ; नख--नाखुन ( हाथ तथा पाँव के ); श्मश्रु-- मुँह के बाल ( दाढ़ी-मूछ ); मलानि--मल; बिभूयात्--सहन करे; दतः--दाँत; न धावेत्ू--साफ न करे; अप्सु--जल में; मज्जेत--स्नानकरे; त्रि-कालम्ू--दिन मेंतीन बार; स्थण्डिले-- पृथ्वी पर; शयः--लेटना।
वानप्रस्थ को अपने सिर, शरीर या मुखमंडल के बाल नहीं सँवारने चाहिए, अपने नाखुननहीं काटने चाहिए, अनियमित समय पर मल-मूत्र त्याग नहीं करना चाहिए और दाँतों कीसफाई का विशेष प्रयास नहीं करना चाहिए। उसे जल में नित्य तीन बार स्नान करके सन्तुष्टरहना चाहिए और जमीन पर सोना चाहिए।
ग्रीष्मे तप्येत पञ्ञाग्नीन्वर्षास्वासारषाडूजले ।आकण्थमग्न: शिशिर एवं वृत्तस्तपश्चेरत् ॥
४॥
ग्रीष्मे--गर्मी की ऋतु में; तप्येत--तपस्या करे; पञ्ञ-अग्नीन्ू--पाँच अग्नियाँ ( सिर के ऊपर सूर्य तथा चारों दिशाओं में जलनेवाली अग्नियाँ ); वर्षासु--वर्षा ऋतु में; आसार--वर्षा की झड़ी; षाटू--सहते हुए; जले--जल में; आ-कण्ठ--गले तक;मग्न:--डूबा हुआ; शिशिरे--जाड़े की ऋतु में; एवम्--इस प्रकार; वृत्त:--लगा हुआ; तपः--तपस्या; चरेत्--करे।
इस तरह वानप्रस्थ में लगा हुआ व्यक्ति तपते गर्मी के दिनों में अपने चारों ओर जलती अग्नितथा सिर के ऊपर तपते सूर्य को झेल कर तपस्या करे। वर्षा ऋतु में वह वर्षा की झड़ी में बाहररहे और ठिठुरती शीत ऋतु में वह गले तक पानी में डूबा रहे।
अग्निपक्वं समश्नीयात्कालपक्वमथापि वा ।उलूखलाश्मकुट्टो वा दन््तोलूखल एव वा ॥
५॥
अग्नि--आग से; पकक््वम्--पकाया गया; समश्नीयातू-- खाये; काल--समय के द्वारा; पकक््वम्--खाने के योग्य; अथ--अथवा; अपि--निस्सन्देह; वा--अथवा; उलूखल--ओखली से; अश्म--तथा पत्थर; कुट्ट;--कूटा या पीसा गया; वा--अथवा; दन््त--दाँतों का प्रयोग करते हुए; उलूखलः--ओखली के रूप में; एव--निस्सन्देह; वा-- अथवा |
वह अग्नि द्वारा तैयार किया गया भोजन यथा अन्न अथवा समय से पके फलों को खासकता है। वह अपने भोजन को बट्टे से या अपने दाँतों से पीस सकता है।
स्वयं सद्चिनुयात्सर्वमात्मनो वृत्तिकारणम् ।देशकालबलाभिज्ञो नाददीतान्यदाहतम् ॥
६॥
स्वयम्--अपने से; सश्चिनुयात्--एकत्र करे; सर्वम्--हर वस्तु; आत्मन:--अपनी ही; वृत्ति--जीविका; कारणम्--सुलभबनाने के लिए; देश--विशेष स्थान; काल--समय; बल--तथा शक्ति; अभिज्ञ:-- भली भाँति जानते हुए; न आददीत--न ले;अन्यदा--दूसरी बार के लिए; आहतम्--वस्तुएँ |
वानप्रस्थ को चाहिए कि देश, काल तथा अपनी सामर्थ्य का ध्यान रखते हुए, अपने शरीरके पालन हेतु जो आवश्यक हो, उसे एकत्र करे। उसे भविष्य के लिए कोई वस्तु संग्रह नहींकरना चाहिए।
वन्यैश्वरुपुरोडाशैर्निवपेत्कालचोदितान् ।नतु श्रौतेन पशुना मां यजेत वनाश्रमी ॥
७॥
वन्यै:--जंगल से प्राप्त; चरू--धान, जौ तथा दाल की आहुतियों से; पुरोडाशैः--तथा जंगली धान से तैयार की गई यज्ञ कीचपाती; निर्वपेत्ू--अर्पित करे; काल-चोदितान्--अनुष्ठान यथा आग्रयण जो ऋतु के अनुसार सम्पन्न होते हैं ( आग्रयण में वर्षाऋतु के बाद प्रकट होने वाले पहले फल अर्पित किये जाते हैं )) न--कभी नहीं; तु--निस्सन्देह; श्रोतेन--वेदों में उल्लिखित;पशुना--पशु-बलि के साथ; माम्--मुझको; यजेत--पूजा करे; वन-आश्रमी--वानप्रस्थ स्वीकार करके जंगल में जाने वाला।
जिसने वानप्रस्थ आश्रम स्वीकार किया हो उसे चाहिए कि चरू तथा जंगल में पाये जाने वाले धान तथा अन्य अन्नों से तैयार की गई यज्ञ-रोटी ( पुरोडाश ) की आहुतियों से ऋतु केअनुसार यज्ञ सम्पन्न करे। किन्तु वानप्रस्थ को चाहिए कि वह मुझे पशु-बलि कभी न अर्पितकरे, यहाँ तक कि उन्हें भी जो वेदों में वर्णित हैं।
अग्निहोत्रं च दर्शश्न पौर्णमासश्च पूर्ववत् ।चातुर्मास्थानि च मुनेराम्नातानि च नैगमै: ॥
८ ॥
अग्नि-होत्रमू-- अग्नि-यज्ञ; च-- भी; दर्श:--प्रतिपादा को सम्पन्न किया गया यज्ञ; च--भी; पौर्ण-मास:ः --पूर्णमासी के दिनसम्पन्न यज्ञ; च-- भी; पूर्व-वत्--पहले की तरह, जैसाकि गृहस्थाश्रम में किया जाता था; चातु:-मास्यानि--चातुर्मास के व्रततथा यज्ञ; च-- भी; मुनेः:--वानप्रस्थ के; आम्नातानि--आदिष्ट; च-- भी; नैगमै: --वेदवेत्ताओं के द्वारा।
वानप्रस्थ को चाहिए कि अग्निहोत्र, दर्श तथा पौर्णमास यज्ञों को उसी तरह करता रहे जिसतरह गृहस्थाश्रम में करता था। उसे चातुर्मास्य के व्रत तथा यज्ञ भी सम्पन्न करने चाहिए क्योंकिबेदविदों ने वानप्रस्थों के लिए इन अनुष्ठानों का आदेश दिया है।
एवं चीर्णेन तपसा मुनिर्धमनिसन्ततः ।मां तपोमयमाराध्य ऋषिलोकादुपैति माम् ॥
९॥
एवम्--इस प्रकार; चीर्णेन-- अभ्यास से; तपसा--तपस्या के; मुनि:--सन््त वानप्रस्थ; धमनि-सन्ततः--जिसके शरीर की सारीनसें दिखने लगे, इतना दुर्बल; माम्--मुझको; तपः-मयम्--सारी तपस्या का लक्ष्य; आराध्य--पूजा करके; पिं-लोकातू --महलेंक से परे; उपैति--प्राप्त करता है; मामू--मुझको |
कठिन तपस्या करते हुए तथा जीवन की आवश्यकताओं मात्र को ही स्वीकार करते हुए,सन्त वानप्रस्थ इतना दुर्बल हो जाता है कि उसकी चमड़ी तथा अस्थियाँ ही रह जाती हैं। इस तरह कठिन तपस्या द्वारा मेरी पूजा करके वह महलोंक जाता है और वहाँ मुझे प्राप्त करता है।
यस्त्वेतत्कृच्छृतश्चीर्ण तपो नि: श्रेयसं महत् ।कामायालपीयसे युउ्ज्याद्वालिश: कोपरस्ततः ॥
१०॥
यः--जो; तु--निस्सन्देह; एतत्--यह; कृच्छुत:--कठिन तपस्या से; चीर्णम्ू--दीर्घकाल तक; तपः--तपस्या; नि: श्रेयसम् --परम मोक्ष प्रदान करते हुए; महत्--यशस्वी; कामाय--इन्द्रियतृप्ति के लिए; अल्पीयसे--नगण्य; युज्ज्यात्--अभ्यास करता है;बालिश:ः--ऐसा मूर्ख; क:ः--कौन; अपर: --अन्य; तत:--उसके अलावाजो व्यक्ति, मात्र क्षुद्र इन्द्रियतृप्ति के लिए, दीर्घकालीन प्रयल द्वारा इस कष्टप्रद किन्तु महान्तपस्या को सम्पन्न करता है, उसे सबसे बड़ा मूर्ख समझना चाहिए।
यदासौ नियमेकल्पो जरया जातवेपथु: ।आत्मन्यग्नीन्समारोप्य मच्चित्तोग्निं समाविशेत् ॥
११॥
यदा--जब; असौ--सन््त वानप्रस्थ; नियमे-- अपने नियत कर्तव्यों में; अकल्प:--करने में अक्षम; जरया--वृद्धावस्था केकारण; जात--उत्पन्न; वेपथु:--शरीर का कम्पन; आत्मनि--अपने हृदय में; अग्नीन्--यज्ञ-अग्नियों को; समारोप्य--रख कर;मतू-चित्त:--मुझमें अपना मन स्थिर करके; अग्निम्--अग्नि में; समाविशेत्-- प्रवेश करे।
यदि वानप्रस्थ वृद्धावस्था को प्राप्त हो और शरीर काँपने के कारण अपने नियत कर्म पूरा न कर सके, तो उसे चाहिए कि ध्यान द्वारा यज्ञ-अग्नि को अपने हृदय के भीतर स्थापित करे। फिरअपने मन को मुझमें टिकाकर उस अगिन में प्रवेश करके अपना शरीर त्याग दे।
यदा कर्मविपाकेषु लोकेषु निरयात्मसु ।विरागो जायते सम्यड्न्यस्ताग्नि: प्रव्नजेत्ततः ॥
१२॥
यदा--जब; कर्म--सकाम कर्म द्वारा; विपाकेषु--प्राप्तव्य में; लोकेषु--ब्रह्लोक तक के सारे लोकों में; निरय-आत्मसु--लोक जो नरकतुल्य हैं; विराग:--विरक्ति; जायते--उत्पन्न होती है; सम्यक्--पूरी तरह से; न्यस्त--त्याग कर; अग्नि: --वानप्रस्थ की यज्ञ-अग्नि; प्रव्रजेतू--संन्यास ले ले; ततः--तब |
यदि यह समझते हुए कि ब्रह्मलोक को भी प्राप्त कर पाना दयनीय स्थिति है, कोई वानप्रस्थसकाम कर्मों के सभी सम्भव परिणामों से पूर्ण विरक्ति उत्पन्न कर लेता है, तो वह संन्यास आश्रमग्रहण कर सकता है।
इष्ठा यथोपदेशं मां दरत्त्वा सर्वस्वमृत्विजे ।अग्नीन्स्वप्राण आवेश्य निरपेक्ष: परिव्रजेत् ॥
१३॥
इश्ला--पूज कर; यथा--के अनुसार; उपदेशम्--शास्त्रीय आदेशों; माम्--मुझको; दरत्त्वा--देकर; सर्व-स्वम्--जो कुछ भीपास में हो; ऋत्विजे--पुरोहित को; अग्नीन्--यम-अग्नि को; स्व-प्राणे--अपने भीतर; आवेश्य--रख कर; निरपेक्ष:--आसक्तिरहित; परिब्रजेतू--सन्यास लेकर निकल पड़े |
शास्त्रीय आदेशों के अनुसार मेरी पूजा करके तथा यज्ञ-पुरोहित को अपनी सारी सम्पत्तिदेकर, उसे यज्ञ-अग्नि को अपने भीतर रख लेना चाहिए। इस तरह मन को पूर्णतया विरक्तकरके वह संन्यास आश्रम में प्रवेश करे।
विप्रस्य वै सन््यसतो देवा दारादिरूपिण: ।विघ्नान्कुर्वन्त्ययं ह्ास्मानाक्रम्य समियात्परम् ॥
१४॥
विप्रस्थ--सन्त पुरुष का; वै--निस्सन्देह; सन््यसतः--संन्यास ग्रहण करते हुए; देवा:--देवतागण; दार-आदि-रूपिण: --उसकी पत्नी तथा अन्य आकर्षक वस्तुओं के रूप में प्रकट होकर; विघ्नान्ू--अवरोध; कुर्वन्ति--उत्पन्न करते हैं; अयम्--संन्यासी; हि--निस्सन्देह; अस्मान्--देवताओं को; आक्रम्य--पार करके; समियात्--जाय; परम्-- भगवद्धाम |
देवतागण यह सोच कर कि, 'संन्यास लेकर यह व्यक्ति हमसे आगे निकल कर भगवद्धामजा रहा है' संन्यासी के मार्ग में उसकी पूर्व पत्नी या अन्य स्त्रियों तथा आकर्षक वस्तुओं के रूपमें प्रकट होकर अवरोध उत्पन्न करते हैं। किन्तु संन््यासी को चाहिए कि इन देवताओं तथा उनकेस्वरूपों पर कोई ध्यान न दे।
बिभृयाच्चेन्मुनिर्वास: कौपीनाच्छादनं परम् ।त्यक्त न दण्डपात्रा भ्यामन्यत्किल्लिदनापदि ॥
१५॥
बिभूयात्--पहने; चेत्ू--यदि; मुनि:--संन्यासी; वास: -- वस्त्र; कौपीन--लँगोट; आच्छादनम्ू-- आवरण, पर्दा; परमू--अन्य;त्यक्तमू--छोड़ा हुआ; न--कभी नहीं; दण्ड--अपने डंडे के अतिरिक्त; पात्राभ्यामू--तथा कमंडल; अन्यत्--अन्य; किश्ञित्--कोई वस्तु; अनापदि--जब कोई आपात्काल न हो।
यदि संन्यासी लँगोटे के अतिरिक्त भी कुछ पहनना चाहे तो वह कौपीन को ढकने के लिएअपनी कमर और कूल्हे के चारों ओर कोई आवरण इस्तेमाल कर सकता है। अन्यथा, यदिविशेष आवश्यकता न हो तो वह दण्ड तथा कमण्डलु के अतिरिक्त कुछ भी स्वीकार न करे।
इष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं पिबेज्जलम् ।सत्यपूतां वदेद्वाच॑ं मनःपूतं समाचरेत् ॥
१६॥
इृष्टि--देखने से; पूतम्--शुद्ध; न्यसेत्--रखे; पादम्--अपना पाँव; वस्त्र--कपड़े से; पूतमू--छाना हुआ; पिबेत्--पिये;जलम्--जल; सत्य--सत्य द्वारा; पूतामू--पवित्र; वदेतू--बोले; वाचमू--शब्द; मन: --मन से निश्चित किया हुआ; पूतम्--पवित्र; समाचरेत्--सम्पन्न करे।
सन्त पुरुष को चाहिए कि अपनी आँखों से यह निश्चित करके अपना पाँव रखे कि ऐसाकोई जीव या कीड़ा तो नहीं है, जो उसके पाँव से कुचल जायगा। उसे अपने वस्त्र के एक छोरसे छान कर ही जल पीना चाहिए और ऐसे शब्द बोलने चाहिए जिनमें सचाई की शुद्धता हो।इसी प्रकार उसे वे ही कर्म करने चाहिए जिन्हें उसके मन ने शुद्ध निश्चित कर लिया हो।
मौनानीहानिलायामा दण्डा वाग्देहचेतसाम् ।न होते यस्य सन्त्यड् वेणुभिर्न भवेद्यति: ॥
१७॥
मौन--व्यर्थ भाषण से बचना; अनीह--सकाम कर्मों का त्याग; अनिल-आयामा:-- श्वास क्रिया को नियंत्रित करना; दण्डा:--अनुशासन; वाक्--वाणी; देह--शरीर का; चेतसाम्ू--मन का; न--नहीं; हि--निस्सन्देह; एते--ये अनुशासन; यस्य--जिसके; सन्ति--होते हैं; अड्र--हे उद्धव; वेणुभि:--बाँस के डंडों से; न--कभी नहीं; भवेत्--होता है; यतिः--असलीसंनन््यासी |
जिसने व्यर्थ बोलने, व्यर्थ के कार्य करने तथा प्राण-वायु को नियंत्रण में रखने के इन तीनआन्तरिक अनुशासनों को ग्रहण नहीं किया, वह बाँस के दण्ड उठाने मात्र से संन्यासी नहीं मानाजा सकता।
भिक्षां चतुर्षु वर्णेषु विग्ान्वर्जयं श्वरेत् ।सप्तागारानसड्डि प्तांस्तुष्पेल्लब्धेन तावता ॥
१८॥
भिक्षाम्-- भीख माँगने से प्राप्त दान; चतुर्षु--चारों; वर्णेषु--वर्णो में; विगह्मनू--गर्हित, अशुद्ध; वर्जयन्--तिरस्कार करतेहुए; चरेत्-पहुँचे; सप्त--सात; आगारानू--घरों में; असड्डलिप्तान्ू--बिना किसी अनुमान या इच्छा के; तुष्येत्-तुष्ट हो ले;लब्धेन--प्राप्त हुए से; तावता--उतने से ही |
जो घर दूषित तथा अस्पृश्य हों उनका तिरस्कार करके वानप्रस्थ को चाहिए कि बिना पूर्वनिश्चय के सात घरों में जाय और उनमें भीख माँगने से जो भी प्राप्त हो उससे तुष्ट हो ले।आवश्यकतानुसार वह चारों वर्णों के घरों में जा सकता है।
बहिर्जलाशयं गत्वा तत्रोपस्पृश्य वाग्यत: ।विभज्य पावितं शेष भुञ्जीताशेषमाहतम् ॥
१९॥
बहिः--शहरी क्षेत्र से बाहर, एकान्त स्थान में; जल--पानी के; आशयम्--आगार या भण्डार में; गत्वा--जाकर; तत्र--वहाँ;उपस्पृश्य--जल के स्पर्श से शुद्ध होकर; वाक्ू-यत:--बिना बोले; विभज्य--ठीक से वितरित करके; पावितम्-शुद्ध कियाहुआ; शेषमू--बचा हुआ; भुझ्जीत--खाये; अशेषम्--पूरी तरह; आहतम्--भिक्षा माँग कर एकत्र किया हुआ।
वह भिक्षा माँगने से एकत्र हुआ भोजन लेकर, जनसंख्य वाले क्षेत्रों को त्याग कर एकान्तस्थान में किसी जलाशय के निकट जाये। वहाँ पर स्नान करके तथा भलीभाँति हाथ धोकरभोजन का कुछ अंश माँगने वालों में बाँटे। वह बिना बोले ऐसा करे। तब शेष बचे भाग कोठीक से साफ करके, अपनी थाली का सारा भोजन खा ले और बाद के लिए कुछ भी न छोड़े।
एकश्चरेन्महीमेतां नि:ःसड़ः संयतेन्द्रिय: ।आत्मक्रीड आत्मरत आत्मवान्समदर्शन: ॥
२०॥
एक:--अकेला; चरेत्--इधर-उधर जाये; महीम्--पृथ्वी पर; एतामू--यह; निःसड्:--किसी भौतिक आसक्ति में बिना; संयत-इन्द्रियः--इन्द्रियों को पूरी तरह वश में करते हुए; आत्म-क्रीड:--परमात्मा के साक्षात्कार से उत्साहित; आत्म-रतः--आध्यात्मिक ज्ञान में पूर्णतया तुष्ट; आत्म-वान्ू--आध्यात्मिक पद पर स्थित; सम-दर्शन:--सर्वत्र समान दृष्टि से |
बिना किसी आसक्ति के, इन्द्रियों को पूरी तरह वश में करके, उत्साही बने रह कर तथाभगवान् के साक्षात्कार एवं अपने में तुष्ट सन्त पुरुष को अकेले ही पृथ्वी पर विचरण करनाचाहिए। उसे सर्वत्र समदृष्टि रखते हुए आध्यात्मिक पद पर स्थिर रहना चाहिए।
विविक्तक्षेमशरणो मद्धावविमलाशयः ।आत्मानं चिन्तयेदेकमभेदेन मया मुनि: ॥
२१॥
विविक्त--अकेला; क्षेम--सुरक्षित; शरण: --उसका निवासस्थान; मत्--मुझमें; भाव--निरन्तर विचार से; विमल--शुद्ध;आशयः--चेतना; आत्मानम्--आत्मा के विषय में; चिन्तयेत्--केन्द्रित करे; एकम्--अकेला; अभेदेन-- अभिन्न; मया--मुझसे; मुनि:--मुनि।
मुनि को चाहिए कि सुरक्षित तथा एकान्त स्थान में रहते हुए और निरन्तर मेरे ध्यान द्वारा मनको शुद्ध करके, अपने को मुझसे अभिन्न मानते हुए एकमात्र आत्मा में अपने को एकाग्र करे।
अन्वीक्षेतात्मनो बन्ध॑ मोक्ष च ज्ञाननिष्ठया ।बन्ध इन्द्रियविक्षेपो मोक्ष एषां च संयम: ॥
२२॥
अन्वीक्षेत--सतर्क अध्ययन द्वारा देखे; आत्मन:--आत्मा का; बन्धम्--बन्धन; मोक्षम्--मोक्ष; च-- भी; ज्ञान--ज्ञान में;निष्ठया--स्थिरता द्वारा; बन्ध:--बन्धन; इन्द्रिय--इन्द्रियों का; विक्षेप:--इन्द्रियतृप्ति की ओर विचलन; मोक्ष:--मोक्ष; एषाम्--इन इन्द्रियों के; च-- भी; संयम: --पूर्ण नियंत्रण |
मुनि को चाहिए कि स्थिर ज्ञान द्वारा वह आत्मा के बन्धन तथा मोक्ष की प्रकृति को निश्चितकर ले। बन्धन तब होता है जब इन्द्रियाँ इन्द्रियतृप्ति की ओर चलायमान होती हैं और इन्द्रियों परपूर्ण नियंत्रण ही मोक्ष है।
तस्मान्नियम्य षड्वर्ग मद्धावेन चरेन्मुनि: ।विरक्त: क्षुद्रकामे भ्यो लब्ध्वात्मनि सुखं महत् ॥
२३॥
तस्मात्--इसलिए; नियम्य-- पूरी तरह नियंत्रित करके; षट्-वर्गम्--छहों इन्द्रियों को ( दृष्टि, श्रवण, प्राण, स्पर्श, स्वाद तथामन ); मत्-भावेन--मेरी चेतना द्वारा; चरेत्ू--रहे; मुनि:--मुनि; विरक्त:--विरक्त; क्षुद्र--नगण्य; कामेभ्य:--इन्द्रियतृप्ति से;लब्ध्वा--अनुभव करके; आत्मनि--स्वयं में; सुखम्--सुख; महत्--महान
इसलिए पाँचों इन्द्रियों तथा मन को कृष्णभावनामृत द्वारा पूर्ण नियंत्रण में रखते हुए, मुनिको अपने भीतर आध्यात्मिक आनन्द का अनुभव करके, श्षुद्र इन्द्रियतृप्ति से विरक्त हो जानाचाहिए।
पुरग्रामब्रजान्सार्थान्भिक्षार्थ प्रविशंश्चरेत् ।पुण्यदेशसरिच्छैलवना श्रमवर्ती महीम् ॥
२४॥
पुर--शहर; ग्राम--गाँव; ब्रजानू--तथा चरागाह; स-अर्थान्--जीवन-निर्वाह के लिए कार्य करने वाले; भिक्षा-अर्थम्-- भीखमाँगने के लिए; प्रविशन्--प्रवेश करते हुए; चरेत्ू--विचरण करे; पुण्य--शुद्ध; देश--स्थान; सरित्--नदियों; शैल--पर्वत;वबन--तथा जंगलों सहित; आश्रम-वतीम्--ऐसे निवास-स्थानों वाली; महीम्--पृथ्वी |
मुनि को चाहिए कि वह पवित्र स्थानों में बहती नदियों के किनारे तथा पर्वतों एवं जंगलों केएकान्त में घूमे। वह अपने जीवन-निर्वाह के लिए भिक्षा माँगने के लिए ही, शहरों, ग्रामों तथाचरागाहों में प्रवेश करे और सामान्य कामकाजी लोगों के पास जाये।
वानप्रस्था श्रमपदेष्वभी क्ष्णं भेक्ष्यमाचरेत् ।संसिध्यत्याश्रसम्मोहः शुद्धसत्त्व: शिलान्धसा ॥
२५॥
वानप्रस्थ-आश्रम--वानप्रस्थ आ श्रम के; पदेषु--पद पर; अभीक्षणम्--सदैव; भैक्ष्यम्ू--भिक्षा माँगना; आचरेत्--सम्पन्न करे;संसिध्यति--आध्यात्मिक रूप से सिद्ध बनता है; आशु--तुरन्त; असम्मोहः --मोह से मुक्त; शुद्ध--शुद्ध; सत्त्वः--अस्तित्व;शील--भिक्षा से या बीन कर प्राप्त; अन्धसा-- भोजन से।
वानप्रस्थ आश्रम में जीवन बिताने वाले को चाहिए कि वह अन्यों से दान लेता रहे क्योंकिइससे वह मोह से छूट जाता है और शीघ्र ही आध्यात्मिक जीवन में सिद्ध बन जाता है।निस्सन्देह, जो इस विनीत भाव से प्राप्त भोजन से अपना पेट पालता है, उसका जीवन शुद्ध होजाता है।
नैतद्वस्तुतया पश्येहृश्यमानं विनश्यति ।असक्तचित्तो विरमेदिहामुत्रचिकीर्षितात् ॥
२६॥
न--कभी नहीं; एतत्--इसे; वस्तुतवा--चरम सत्य के रूप में; पश्येत्--देखे; दृश्यमानम्--प्रत्यक्ष अनुभव से दिखने वाला;विनश्यति--नष्ट हो जाता है; असक्त--आसक्ति रहित; चित्त:--चेतना वाला; विरमेत्--विरक्त हो ले; इह--इस जगत में;अमुत्र--तथा भावी जीवन में; चिकीर्षितात्-- भौतिक प्रगति के लिए सम्पन्न किये जाने वाले कार्यो से |
मनुष्य को चाहिए कि जो भौतिक वस्तुएँ नष्ट हो जायेंगी, उन्हें चरम सत्य के रूप में न देखे।भौतिक आसक्ति से रहित चेतना द्वारा उसे उन सारे कार्यो से विलग हो जाना चाहिए जो इसजीवन में तथा अगले जीवन की भौतिक प्रगति के निमित्त हों।
यदेतदात्मनि जगन्मनोवाक्प्राणसंहतम् ।सर्व मायेति तर्केण स्वस्थस्त्यक्त्वा न तत्स्मरेत् ॥
२७॥
यत्--जो; एतत्--यह; आत्मनि-- भगवान् में; जगत्--ब्रह्माण्ड; मन: --मन; वाक्--वाणी; प्राण--तथा प्राण-वायु से;संहतम्--निर्मित; सर्वम्ू--समस्त; माया--भौतिक मोह; इति--इस प्रकार; तर्केण--तर्क-वितर्क द्वारा; स्व-स्थ:--अपने मेंस्थिर; त्यक्त्वा--त्याग कर; न--कभी नहीं; तत्--वह; स्मरेत्--स्मरण करे |
उसे चाहिए कि भगवान् के भीतर स्थित ब्रह्माण्ड तथा मन, वाणी एवं प्राण-वायु से निर्मितअपने भौतिक शरीर को तर्क-वितर्क द्वारा भगवान् की मायाशक्ति का ही प्रतिफल माने। इसतरह अपने में स्थित होकर उसे इन वस्तुओं से अपनी श्रद्धा हटा लेनी चाहिए और उन्हें फिर कभीअपने ध्यान की वस्तु नहीं बनानी चाहिए।
ज्ञाननिष्ठो विरक्तो वा मद्धक्तो वानपेक्षक: ।सलिड्डानाश्रमांस्त्यक्त्वा चरेदविधिगोचर: ॥
२८॥
ज्ञान-दार्शनिक ज्ञान के प्रति; निष्ठ: --समर्पित; विरक्त:-- भौतिक स्वरूपों से विरक्त; ब--या तो; मतू-भक्त:--मेरा भक्त;बा--अथवा; अनपेक्षक:--मोक्ष भी न चाहने वाला; स-लिझन्--अनुष्ठानों तथा बाह्य विधानों सहति; आश्रमान्--किसीआश्रम से सम्बद्ध कर्तव्यों को; त्यक्त्वा--त्याग कर; चरेत्ू--आचरण करे; अविधि-गोचर: --विधि-विधानों की परिधि सेबाहर
ज्ञान के अनुशीलन के प्रति समर्पित तथा बाह्य पदार्थों से विरक्त हुआ विद्वान अध्यात्मवादी(योगी ) या मोक्ष की भी इच्छा से विरक्त मेरा भक्त--ये दोनों ही, उन कर्तव्यों की उपेक्षा करतेहैं, जो बाह्य अनुष्ठानों अथवा साज-सामग्री पर आधारित होते हैं। इस तरह उनका आचरणविधि-विधानों की सीमा से परे होता है।
बुधो बालकवत्क्रीडेत्कुशलो जडवच्चरेत् ।वदेदुन्मत्तवद्विद्वान्गोचर्या नैगमश्चरेत् ॥
२९॥
बुध:--यद्यपि बुद्धिमान; बालक-वत्--बच्चे के समान ( मान-अपमान का ध्यान न रखते हुए ); क्रीडेत्--जीवन का भोग करे;कुशलः--यद्यपि दक्ष; जड-वत्--जड़ व्यक्ति की तरह; चरेत्--कार्य करे; वदेत्--बोले; उन्मत्त-वत्--विक्षिप्त की तरह;विद्वानू--विद्वान होने पर भी; गो-चर्याम्--अनियंत्रित आचरण; नैगम:--वैदिक आदेशों में दक्ष होते हुए भी; चरेत्--सम्पन्नकरे।
परम चतुर होते हुए भी परमहंस को चाहिए कि मान-अपमान को भुलाकर बालक केसमान जीवन का भोग करे, परम दक्ष होते हुए भी जड़ तथा अकुशल व्यक्ति की तरह आचरणकरे, परम विद्वान होते हुए भी विक्षिप्त व्यक्ति की तरह बोले तथा वैदिक विधियों का पंडित होतेहुए भी अनियंत्रित ढंग से आचरण करे।
वेदवादरतो न स्यान्न पाषण्डी न हैतुकः ।शुष्कवादविवादे न कश्ित्पक्ष॑ं समाश्रयेत् ॥
३०॥
बेद-वाद--वेदों के कर्मकाण्ड अनुभाग में; रत:ः--लगा हुआ; न--कभी नहीं; स्थातू--हो; न--न तो; पाषण्डी--नास्तिक,वैदिक आदेशों के विरुद्ध; न--न ही; हैतुकः--कोरा तार्किक या संशयवादी; शुष्क-वाद--व्यर्थ के विषयों के; विवादे--तर्क-वितर्क में; न--कभी नहीं; कश्जलित्--कोई ; पक्षम्--पश्ष; समाश्रयेत्--ग्रहण करे।
भक्त को न तो वेदों के कर्मकाण्ड अनुभाग में उल्लिखित सकाम अनुष्ठानों में लगनाचाहिए, न ही वैदिक आदेशों के विरुद्ध कार्य करके या बोल कर नास्तिक बनना चाहिए। इसीतरह उसे न तो निरे तार्किक या संशयवादी की तरह बोलना चाहिए न व्यर्थ के वाद-विवाद में किसी का पक्ष लेना चाहिए।
नोद्विजेत जनाद्धीरो जन॑ चोद्वेजयेन्न तु ।अतिवादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कञ्न ।देहमुद्दिश्य पशुवद्वैरं कुर्यान्न केनचित् ॥
३१॥
न--कभी नहीं; उद्विजेत--विचलित या भयभीत हो; जनात्ू--अन्य लोगों के कारण; धीर:--सन््त पुरुष; जनम्ू--अन्य लोग;च--भी; उद्देजयेत्--डराये या विचलित करे; न--कभी नहीं; तु--निस्सन्देह; अति-वादान्ू--अपमानजनक या कटु वचन;तितिक्षेत--सहन करे; न--कभी नहीं; अवमन्येत--कम करके माने; कञज्लन--कोई भी; देहम्--शरीर; उद्िश्य--के हेतु; पशु-बत्--जानवर के समान; वैरम्--दुश्मनी, शत्रुता; कुर्यात्--उत्पन्न करे; न--कभी नहीं; केनचित्--किसी से
सन्त पुरुष को चाहिए कि वह न तो किसी के डराने या विचलित करने से डरे, न ही अन्यलोगों को डराये-धमकाये। उसे अन्यों द्वारा किया गया अपमान सहना चाहिए और कभी किसीको छोटा नहीं समझना चाहिए। भौतिक शरीर के लिए वह किसी से शत्रुता न उत्पन्न करेक्योंकि तब वह पशु-तुल्य होगा।
एक एव परो ह्ात्मा भूतेष्वात्मन्यवस्थितः ।यथेन्दुरुदपात्रेषु भूतान्येकात्मकानि च ॥
३२॥
एकः--एक; एव--निस्सन्देह; पर:ः--परम; हि--निश्चय ही; आत्मा-- भगवान्; भूतेषु--सारे शरीरों के भीतर; आत्मनि--जीवके भीतर; अवस्थित:--स्थित; यथा--जिस प्रकार; इन्दु:--चन्द्रमा; उद--जल के; पात्रेषु--विभिन्न जलाशयों में; भूतानि--सारे शरीर; एक--एक परसेश्वर की; आत्मकानि--शक्ति से बने; च--भी |
एक ही परमेश्वर समस्त भौतिक शरीरों के भीतर तथा हर एक की आत्मा के भीतर स्थित है।जिस तरह चन्द्रमा असंख्य जलाशयों में प्रतिबिम्बित होता है, उसी तरह परमेश्वर एक होकर भीहर एक के भीतर उपस्थित है। इस तरह हर भौतिक शरीर अन्ततः एक ही भगवान् की शक्ति सेबना है।
अलब्ध्वा न विषीदेत काले कालेशनं क्वचित् ।लब्ध्वा न हृष्येद्धृतिमानुभयं दैवतन्त्रितम् ॥
३३॥
अलब्ध्वा--न मिलने पर; न--नहीं; विषीदेत--दुखी हो; काले काले--विभिन्न समयों पर; अशनम्--भोजन; क्वचित्--जोभी; लब्ध्वा--पाकर; न--नहीं; हृष्येत्ू--हर्षित हो; धृति-मान्--संकल्प वाला; उभयम्--दोनों ( अच्छा भोजन पाने तथा न पानेपर ); दैव--ईश्वर की परम शक्ति के; तन्त्रितम्--वश में
यदि किसी को विभिन्न समयों पर उचित भोजन नहीं मिलता, तो उसे दुखी नहीं होना चाहिएऔर जब उसे अच्छा भोजन मिले तो हर्षित नहीं होना चाहिए। हढ़ संकल्प करके उसे दोनों हीस्थितियों को ईश्वर के अधीन समझना चाहिए।
आहारार्थ समीहेत युक्त तत्प्राणधारणम् ।तत्त्वं विमृश्यते तेन तद्विज्ञाय विमुच्यते ॥
३४॥
आहार--भोजन; अर्थम्--के हेतु; समीहेत--प्रयास करे; युक्तमू--उचित; तत्--व्यक्ति का; प्राण--जीवनी-शक्ति; धारणम्--धारण करते हुए; तत्त्वम्--आध्यात्मिक सत्य; विमृश्यते--चिन्तन किया जाता है; तेन--मन, इन्द्रिय तथा प्राण के उस बल पर;तत्--वह सत्य; विज्ञाय--जान कर; विमुच्यते--मुक्त हो जाता है।
आवश्यकता पड़े तो उसे चाहिए कि पर्याप्त भोजन पाने के लिए प्रयास करे क्योंकिस्वास्थ्य बनाये रखने के लिए यह आवश्यक तथा उचित है। इन्द्रियाँ, मन तथा प्राण के स्वस्थरहने पर, वह आध्यात्मिक सत्य का चिन्तन कर सकता है और सत्य समझने पर वह मुक्त होजाता है।
यहच्छयोपपन्नान्नमद्याच्छेष्ठमुतापरम् ।तथा वासस्तथा श्यां प्राप्तं प्राप्त भजेन्मुनि: ॥
३५॥
यहच्छया--मनमाना; उपपन्न--अर्जित; अन्नमू-- भोजन; अद्यात्--खाये; श्रेष्ठमू--उत्तम; उत--अथवा; अपरम्--निम्न जातिका; तथा--उसी तरह; वास: --वस्त्र; तथा--उसी तरह; शब्याम्--बिस्तर; प्राप्तम् प्राप्तम्-- अपने आप मिल जाने वाला;भजेत्-- स्वीकार करे; मुनि:--मुनि।
मुनि को चाहिए कि अपने आप मिल जाने वाला उत्तम या निम्न कोटि का जैसा भी भोजन,वस्त्र तथा बिस्तर हो, उसे स्वीकार करे।
शौचमाचमन स्नान न तु चोदनया चरेत् ।अन््यांश्व नियमाउल्नानी यथाह लीलयेश्वरः ॥
३६॥
शौचम्--सामान्य स्वच्छता; आचमनम्--जल से हाथ साफ करना; स्नानमू--स्नान करना; न--नहीं; तु--निस्सन्देह;चोदनया--बल पूर्वक; चरेत्--सम्पन्न करे; अन्यान्-- अन्य; च-- भी; नियमान्--नियमित कार्य ; ज्ञानी -- जिसने मेरा ज्ञान प्राप्तकर लिया है; यथा--जिस तरह; अहम्--मैं; लीलया--स्वेच्छा से; ईश्वर: --परमेश्वर
जिस तरह मैं भगवान् होते हुए, स्वेच्छा से अपने नैत्यिक कर्म करता हूँ, उसी तरह मेरा ज्ञानप्राप्त कर चुकने वाले को सामान्य स्वच्छता बरतनी चाहिए, अपने हाथों को जल से साफ करनाचाहिए, स्नान करना चाहिए और अन्य नियमित कार्यों को किसी दबाव से नहीं बल्कि स्वेच्छासे सम्पन्न करना चाहिए।
नहि तस्य विकल्पाख्या या च मद्वीक्षया हता ।आदेहान्तात्क्वचित्ख्यातिस्तत: सम्पद्यते मया ॥
३७॥
न--नहीं; हि--निश्चय ही; तस्य--ज्ञान का; विकल्प--कृष्ण से पृथक् किसी वस्तु की; आख्या--अनुभूति; या--जो; च--भी; मत्-मेरे; वीक्षया--ज्ञान द्वारा; हता--विनष्ट; आ--तब तक; देह--शरीर की; अन्तात्--मृत्यु; क्वचित्--कभी कभी;ख्याति:--ऐसी अनुभूति; ततः--तब; सम्पद्यते--समान ऐश्वर्य पाता है; मया--मेरे साथ |
ज्ञानी किसी भी वस्तु को मुझसे पृथक् नहीं देखता क्योंकि मेरा ज्ञान हो जाने से वह ऐसीभ्रामक अनुभूति को नष्ट कर चुका होता है। चूँकि भौतिक देह तथा मन ऐसी अनुभूति के लिएपहले से अभ्यस्त होते हैं अत: ऐसी अनुभूति की पुनरावृत्ति हो सकती है, किन्तु मृत्यु के समयऐसा ज्ञानी मेरे समान ही ऐश्वर्य प्राप्त करता है।
दुःखोदर्केषु कामेषु जातनिर्वेद आत्मवान् ।अज्ज्ञासितमद्धर्मो मुनिं गुरुमुपब्रजेत्ू ॥
३८॥
दुःख--दुख; उदर्केषु-- भावी फल के रूप में; कामेषु--इन्द्रियतृप्ति में; जात--उत्पन्न; निर्वेद:--विरक्ति; आत्म-वान्ू--जीवनमें आध्यात्मिक सिद्धि का इच्छुक; अजिज्ञासित--ठीक से विचार न करने वाला; मत्--मुझको; धर्म:--प्राप्त करने की विधि;मुनिम्--ज्ञानी व्यक्ति; गुरुम्-गुरु के पास; उपब्रजेतू--जाये।
जो व्यक्ति इन्द्रितृष्ति के फल को दुखदायी जानते हुए, उससे विरक्त है और जोआध्यात्मिक सिद्धि चाहता है, किन्तु जिसने मुझे प्राप्त करने की विधि का गम्भीरता सेविश्लेषण नहीं किया है, उसे प्रामाणिक तथा विद्वान गुरु के पास जाना चाहिए।
तावत्परिचरेद्धक्त: श्रद्धावाननसूयक: ।यावद्गह्म विजानीयान्मामेव गुरुमाहत: ॥
३९॥
तावत्--तब तक; परिचरेत्--सेवा करे; भक्त:--भक्त; श्रद्धा-वान्-- श्रद्धा समेत; अनसूयक:--ईर्ष्या-द्वेष के बिना रह कर;यावत्--जब तक; ब्रह्म--आध्यात्मिक ज्ञान; विजानीयात्--अच्छी तरह जान लेता है; माम्ू--मुझको; एव--निस्सन्देह;गुरुम्ू-गुरु; आहत:--आदर समेत
जब तक भक्त को पूरी तरह आध्यात्मिक ज्ञान की अनुभूति न हो ले, उसे चाहिए कि परमश्रद्धा तथा आदरपूर्वक एवं ट्वेषहहित होकर गुरु की सेवा करे, क्योंकि गुरु मुझसे अभिन्न होताहै।
यस्त्वसंयतषड्वर्ग: प्रचण्डेन्द्रियसारथि: ।ज्ञानवैराग्यरहितस्त्रिदण्डमुपजीवति ॥
४०॥
सुरानात्मानमात्मस्थं निहुते मां च धर्महा ।अविपक्वकषायो स्मादमुष्माच्च विहीयते ॥
४१॥
यः--जो; तु--लेकिन; असंयत--वश में न करके; षट्ू--छह; वर्ग:--कल्मष का प्रकार; प्रचण्ड-- भयानक; इन्द्रिय--इन्द्रियों के; सारथि:--चालक, बुद्धि; ज्ञान--ज्ञान का; वैराग्य--तथा वैराग्य; रहित:--विहीन; त्रि-दण्डम्ू--संन्यास आश्रम;उपजीवति--अपने जीवन-निर्वाह के लिए प्रयुक्त करते हुए; सुरान्--पूज्य देवताओं; आत्मानमू--अपने को; आत्म-स्थम्--अपने में स्थित; निहुते--अस्वीकार करता है; मामू--मुझको; च-- भी; धर्महा--धर्म का विनष्ट करने वाला; अविपक्व--जोलीन न हो पाया हो; कषाय:--कल्मष; अस्मात्--इस जगत से; अमुष्मात्--अगले जीवन से; च--भी; विहीयते--विपथ होजाता है।
जिसने छह प्रकार के मोहों ( काम, क्रोध, लोभ, उत्तेजना, मिथ्या अहंकार तथा नशा ) परनियंत्रण नहीं पा लिया, जिसकी बुद्धि जो कि इन्द्रियों की अगुवा है, भौतिक वस्तुओं परअत्यधिक आसक्त रहती है, जो ज्ञान तथा वैराग्य से रहित हैं, जो अपनी जीविका चलाने के लिएसंन्यास ग्रहण करता है, जो पूज्य देवताओं, स्वात्म तथा अपने भीतर के परमेश्वर को अस्वीकारकरता है और इस तरह सारा धर्म नष्ट कर देता है और जो अब भी भौतिक कल्मष से दूषित रहताहै, वह विपथ होकर इस जन्म को तथा अगले जन्म को भी विनष्ट कर देता है।
भिक्षोर्धर्म: शमोहिंसा तप ईक्षा वनौकस:ः ।गृहिणो भूतरक्षेज्या द्विजस्थाचार्यसेवनम् ॥
४२॥
भिक्षो:--संन्यासी का; धर्म:--मुख्य धार्मिक सिद्धान्त; शम:--समता; अहिंसा--अहिंसा; तप: --तपस्या; ईक्षा-- भेदभाव( मन तथा शरीर में ); बन--जंगल में; ओकस:--वास करने वाले का, वानप्रस्थ का; गृहिण:--गृहस्थ का; भूत-रक्षा--समस्तजीवों को शरण प्रदान करते हुए; इज्या--यज्ञ सम्पन्न करना; द्वि-जस्य--ब्रह्मचारी का; आचार्य--गुरु; सेवनम्--सेवा |
संन्यासी के मुख्य धार्मिक कार्य हैं समता तथा अहिंसा जबकि तपस्या तथा शरीर औरआत्मा के अन्तर का दार्शनिक ज्ञान ही वानप्रस्थ में प्रधान होते हैं। गृहस्थ के मुख्य कर्तव्य हैं सारेजीवों को आश्रय देना तथा यज्ञ सम्पन्न करना और ब्रह्मचारी मुख्यतया गुरु की सेवा करने में लगा रहता है।
ब्रह्मचर्य तप: शौच सनन््तोषो भूतसौहदम् ।गृहस्थस्याप्यृतौ गन्तु: सर्वेषां मदुपासनम् ॥
४३॥
ब्रह्म-चर्यम्-ब्रह्मचर्य; तप: --तपस्या; शौचम्--आसक्ति रहित मन की शुद्धता; सनन््तोष:--पूर्ण सन््तोष; भूत--सारे जीवों केप्रति; सौहदम्--मैत्री; गृहस्थस्य--गृहस्थ की; अपि-- भी; ऋतौ-- उचित समय पर; गन्तु:--अपनी पतली के पास जाकर;सर्वेषाम्--सभी मनुष्यों की; मत्--मेरी; उपासनम्ू--पूजा |
गृहस्थ को चाहिए कि सन््तान उत्पन्न करने के लिए ही नियत समय पर अपनी पत्नी के साथसंभोग ( सहवास ) करे। अन्यथा वह ब्रह्मचर्य तपस्या, मन तथा शरीर की स्वच्छता, अपनेस्वाभाविक पद पर संतोष तथा सभी जीवों के प्रति मैत्री का अभ्यास करे। मेरी पूजा तो वर्णअथवा आश्रम का भेदभाव त्याग कर सबों को करनी चाहिए।
इति मां यः स्वधर्मेण भजेन्नित्यमनन्यभाक् ।सर्वभूतेषु मद्भावो मद्भक्ति विन्दते हढाम् ॥
४४॥
इति--इस प्रकार; माम्--मुझको; यः--जो; स्व-धर्मेण-- अपने नियत कर्तव्य द्वारा; भजेत्ू--पूजा करता है; नित्यम्ू--सदैव;अनन्य-भाक्--पूजा की अन्य सामग्री से नहीं; सर्व-भूतेषु--सारे जीवों में; मत्--मेरे; भाव:--अवगत; मत्-भक्तिम्ू--मेरीभक्ति; विन्दते--प्राप्त करता है; हढामू--अटल।
जो व्यक्ति अनन्य भाव से मेरी पूजा करता है और जो सारे जीवों में मुझे उपस्थित समझताहै, वह मेरी अविचल भक्ति प्राप्त करता है।
भक्त्योद्धवानपायिन्या सर्वलोकमहे श्वरम् ।सर्वोत्पत्त्यप्ययं ब्रह्म कारणं मोपयाति सः ॥
४५॥
भक्त्या--प्रेमाभक्ति से; उद्धव--हे उद्धव; अनपायिन्या--अचल; सर्व--समस्त; लोक--लोकों के; महा-ई श्वरम् -- परमेश्वरको; सर्व--हर वस्तु की; उत्पत्ति--सृष्टि का कारण; अप्ययम्--तथा संहार का; ब्रह्म--परब्रह्मय; कारणम्--ब्रह्मण्ड काकारण; मा--मेरे पास; उपयाति--आता है; सः--वह।
हे उद्धव, मैं सारे लोकों का परमेश्वर हूँ और परम कारण होने से, मैं इस ब्रह्माण्ड का सृजनऔर विनाश करता हूँ। इस तरह मैं परब्रह्म हूँ और जो अविचल भक्ति के साथ मेरी पूजा करताहै, वह मेरे पास आता है।
इति स्वधर्मनिर्णिक्तसत्त्वो निर्ज्नातमद्गति: ।ज्ञानविज्ञानसम्पन्नो न चिरात्समुपैति माम् ॥
४६॥
इति--इस प्रकार; स्व-धर्म--अपना नियत कार्य करके; निर्णिक्त--शुद्ध करके; सत्त्वः--अपना जीव; निर्ज्ञत--पूरी तरहजानते हुए; मत्-गति:--मेरा परम पद; ज्ञान--शास्त्रीय ज्ञान से; विज्ञान--तथा आत्म-ज्ञान से; सम्पन्न:--युक्त; न चिरात्ू--निकट भविष्य में; समुपैति--ठीक से प्राप्त करता है; मामू--मुझको |
इस तरह जो अपने नियत कर्म करके अपने जीवन को शुद्ध कर चुका होता है, जो मेरे परमपद को पूरी तरह से समझता है और जो शास्त्रीय तथा स्वरूपसिद्ध ज्ञान से युक्त होता है, वहशीघ्र ही मुझे प्राप्त करता है।
वर्णाश्रमवतां धर्म एब आचारलक्षण: ।स एव मद्धक्तियुतो नि: श्रेयसकरः पर: ॥
४७॥
वर्णाश्रम-वताम्--वर्णा श्रम प्रणाली के अनुयायियों का; धर्म:--धार्मिक सिद्धान्त; एब:--यह; आचार--प्रामाणिक प्रथा केअनुसार उचित आचरण द्वारा; लक्षण:--लक्षणों से युक्त; सः--वह; एव--निस्सन्देह; मत्-भक्ति--मेरी भक्ति से; युत:--युक्त;निःश्रेयस--जीवन की सर्वोच्च सिद्धि; कर:--देने वाला; पर:--परम |
जो इस वर्णाश्रम प्रणाली के अनुयायी हैं, वे उचित आचार की प्रामाणिक प्रथाओं केअनुसार धार्मिक सिद्धान्तों को स्वीकार करते हैं। जब प्रेमाभक्ति में ऐसे वर्णाश्रम कर्म मुझेअर्पित किये जाते हैं, तो वे जीवन की चरम सिद्धि देने वाले होते हैं।
एतत्तेडभिहितं साधो भवान्पृच्छति यच्च माम् ।यथा स्वधर्मसंयुक्तो भक्तो मां समियात्परम् ॥
४८॥
एतत्--यह; ते--तुमसे; अभिहितमू--कहा गया; साधो--हे साधु उद्धव; भवान्--तुमने; पृच्छति--पूछा है; यत्ू--जो; च--तथा; माम्--मुझसे; यथा--साधन जिनसे; स्व-धर्म--अपने नियत कर्तव्य में; संयुक्त: --पूरी तरह लगा हुआ; भक्त:--भक्तहोने से; मामू--मेरे पास; समियात्--आ सके; परम्ू--परम |
हे साधु उद्धव, तुमने जैसा पूछा मैंने तुम्हें वे सारे साधन बतला दिये हैं, जिनसे अपने नियतकर्म में लगा हुआ मेरा भक्त मेरे पास वापस आ सकता है।
19.आध्यात्मिक ज्ञान की पूर्णता
श्रीभगवानुवाचयो विद्याश्रुतसम्पन्न: आत्मवान्नानुमानिक: ।मयामात्रमिदं ज्ञात्वा ज्ञानं च मयि सन्न्यसेत् ॥
१॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; य:--जो; विद्या--अनुभूत ज्ञान से; श्रुत--तथा प्रारम्भिक शास्त्रीय ज्ञान से; सम्पन्न:--युक्त; आत्म-वान्--स्वरूपसिद्ध; न--नहीं; आनुमानिक: --निर्विशेष चिन्तन में संलग्न; माया--मोह; मात्रमू--एकमात्र;इदम्--यह ब्रह्माण्ड; ज्ञात्वा--जान कर; ज्ञानम्--ऐसा ज्ञान तथा उसे प्राप्त करने के साधन; च-- भी; मयि-- मुझमें;सन्न्यसेत्--आत्मसमर्पण करे, शरण ग्रहण करे।
भगवान् ने कहा : जिस स्वरूपसिद्ध व्यक्ति ने प्रकाश पाने तक शास्त्रीय ज्ञान का अनुशीलनकिया है और जो भौतिक ब्रह्माण्ड को मात्र मोह समझ कर, निर्विशेष चिन्तन से मुक्त होता है,उसे चाहिए कि वह उस ज्ञान को तथा उसे प्राप्त करने वाले साधनों को मुझे समर्पित कर दे।
ज्ञानिनस्त्वहमेवेष्ट: स्वार्थों हेतुश्न सम्मतः ।स्वर्गश्नैवापवर्गश्व नान्योर्थों महते प्रियः ॥
२॥
ज्ञानिन:--विद्वान स्वरूपसिद्ध दार्शनिक का; तु--निस्सन्देह; अहम्--मैं; एब--एकमात्र; इष्ट:--पूजा की वस्तु; स्व-अर्थ: --वांछित जीवन-लक्ष्य; हेतु:--जीवन-लक्ष्य प्राप्त करने के लिए साधन; च--भी; सम्मत:--नश्विति मत; स्वर्ग:--स्वर्ग जाने केसारे सुख का कारण; च--भी; एव--निस्सन्देह; अपवर्ग:--सारे दुख से मुक्ति; च-- भी; न--नहीं; अन्य: --कोई दूसरा;अर्थ: --उद्देश्य; मत्--मुझको; ऋते--रहित; प्रिय: --प्रिय वस्तु
विद्वान स्वरूपसिद्ध दार्शनिकों के लिए मैं एकमात्र पूजा का लक्ष्य, इच्छित जीवन-लक्ष्य,उस लक्ष्य को प्राप्त करने का साधन तथा समस्त ज्ञान का निश्चित मत हूँ। चूँकि मैं उनके सुखका तथा दुख से विमुक्ति का कारण हूँ, अतः ऐसे विद्वान व्यक्ति एकमात्र मुझे ही जीवन काप्रभावशाली उद्देश्य या प्रिय लक्ष्य बनाते हैं।
ज्ञानविज्ञानसंसिद्धाः पद श्रेष्ठ विदुर्मम ।ज्ञानी प्रियतमोतो मे ज्ञानेनासौ बिभर्ति माम् ॥
३॥
ज्ञान--शाल्त्रीय ज्ञान; विज्ञान--तथा अनुभूत आध्यात्मिक ज्ञान में; संसिद्धा:--परम पूर्ण; पदम्--चरणकमल; श्रेष्ठम्-- श्रेष्ठवस्तु; विदु:--जानते हैं; मम--मेरा; ज्ञानी--विद्वान योगी; प्रिय-तम:--सर्वाधिकप्रिय; अतः --इस तरह; मे--मुझको;ज्ञानेन--आध्यात्मिक ज्ञान द्वारा; असौ--वह विद्वान पुरुष; बिभर्ति-- धारण करता है ( सुख में ); मामू--मुझको |
जिन्होंने दार्शनिक तथा अनुभूत ज्ञान द्वारा पूर्ण सिद्धि प्राप्त कर ली है, वे मेरे चरणकमलोंको परम दिव्य वस्तु मानते हैं। इस प्रकार का विद्वान योगी मुझे अत्यन्त प्रिय होता है और इसपूर्ण ज्ञान से वह मुझे सुख में धारण किये रखता है।
तपस्तीर्थ जपो दान पवित्राणीतराणि च ।नालं कुर्वन्ति तां सिद्धि या ज्ञाककललया कृता ॥
४॥
तपः--तपस्या; तीर्थम्--तीर्थस्थान जाकर; जपः--मौन प्रार्थना करके; दानम्--दान; पवित्राणि--पुण्य कार्य; इतराणि--अन्य; च-- भी; न--नहीं; अलम्--उसी स्तर तक; कुर्वन्ति--प्रदान करते हैं; तामू--यह; सिद्द्विमू--सिद्धि; या--जो; ज्ञान--आध्यात्मिक ज्ञान; कलया--एक अंश; कृता--पुरस्कृत किया जाता है।
जो सिद्धि आध्यात्मिक ज्ञान के एक अंशमात्र से उत्पन्न होती है, वह तपस्या करने,तीर्थस्थानों में जाने, मौन प्रार्थना करने, दान देने अथवा अन्य पुण्यकर्मो में लगने से प्राप्त नहींकी जा सकती।
तस्माज्ज्ञानेन सहितं ज्ञात्वा स्वात्मानमुद्धव ।ज्ञानविज्ञानसम्पन्नो भज मां भक्तिभावतः ॥
५॥
तस्मात्--इसलिए; ज्ञानेन--ज्ञान; सहितम्--सहित; ज्ञात्वा--जान कर; स्व-आत्मानम्--अपने आप को; उद्धव--हे उद्धव;ज्ञान--वैदिक ज्ञान; विज्ञान--तथा स्पष्ट अनुभूति से; सम्पन्न:--युक्त; भज--पूजा करो; माम्--मेरी; भक्ति-- प्रेमाभक्ति के;भावतः--भाव में |
इसलिए हे उद्धव, तुम ज्ञान के द्वारा अपने वास्तविक आत्मा को जानो। तत्पश्चात् अपनेवैदिक ज्ञान की स्पष्ट अनुभूति से आगे बढ़ते हुए प्रेमाभक्ति भाव से मेरी पूजा करो।
ज्ञानविज्ञानयज्ञेन मामिष्टात्मानमात्मनि ।सर्वयज्ञपतिं मां वै संसिद्धि मुन॒योगमन् ॥
६॥
ज्ञान--वैदिक ज्ञान; विज्ञान--तथा आध्यात्मिक प्रबुद्धता का; यज्ञेन--यज्ञ द्वारा; मामू--मुझको; इष्टा--पूज कर; आत्मानम्--प्रत्येक व्यक्ति के हृदय के भीतर परमेश्वर को; आत्मनि--अपने भीतर; सर्व--समस्त; यज्ञ--यज्ञों के; पतिम्ू-- स्वामी; माम्--मुझ को; बै--निश्चय ही; संसिद्धिमू--परम सिद्धि; मुन॒यः--मुनिगण; अगमन्--प्राप्त किया।
पुराकाल में बड़े बड़े मुनि वैदिक ज्ञान तथा आध्यात्मिक प्रबुद्धता रूपी यज्ञ के द्वारा यहजानते हुए अपने अन्तःकरण में मेरी पूजा करते थे कि मैं ही समस्त यज्ञों का परमेश्वर तथा प्रत्येकहृदय में परमात्मा हूँ। इस तरह मेरे पास आने से इन मुनियों ने परम सिद्धि प्राप्त की।
त्वय्युद्धवा श्रयति यस्त्रिविधो विकारोमायान्तरापतति नाह्पवर्गयोर्यत् ।जन्मादयोस्य यदमी तव तस्य किं स्यु-राह्मन्तयोर्यद्सतोस्ति तदेव मध्ये ॥
७॥
त्वयि--तुममें; उद्धव--हे उद्धव; आश्रयति--प्रवेश करके रहता जाता है; यः--जो; त्रि-विध: --गुणों के अनुसार तीन विभाग;विकार:--( शरीर तथा मन जिनसे प्रभावित होते हैं ऐसे ) निरन्तर रूपान्तर; माया--मोह; अन्तरा--वर्तमान समय में;आपतति--सहसा प्रकट होता है; न--नहीं; आदि--प्रारम्भ में; अपवर्गयो:ः--न तो अन्त में; यत्--चूँकि; जन्म--जन्म;आदय: --इत्यादि ( वृद्धि, जन्म, पालन, जरा, मृत्यु); अस्य--शरीर का; यत्--जब; अमी --ये; तव--तुम्हारे सम्बन्ध में;तस्य--आध्यात्मिक प्रकृति के सम्बन्ध में; किमू--क्या सम्बन्ध; स्यु:--हो सकते हैं; आदि--प्रारम्भ में; अन्तयो: --तथा अन्तमें; यत्--चूँकि; असत:ः--जिसका अस्तित्व नहीं है उसका; अस्ति--अस्तित्व है; तत्ू--वह; एब--निस्सन्देह; मध्ये--मध्य में,सम्प्रति।
हे उद्धव, प्रकृति के तीन गुणों से निर्मित भौतिक शरीर तथा मन तुमसे लिपटे रहते हैं,किन्तु, वास्तव में, वे माया हैं क्योंकि वे वर्तमान काल में ही प्रकट होते हैं। इनका कोई आदि याअन्त नहीं है। इसलिए यह कैसे सम्भव हो सकता है कि शरीर की विभिन्न अवस्थाएँ--यथाजन्म, वृद्धि, प्रजनन, पालन, जरा तथा मृत्यु--तुम्हारी नित्य आत्मा से कोई सम्बन्ध रखते हों?इन अवस्थाओं का सम्बन्ध एकमात्र भौतिक देह से है, जिसका न तो इसके पूर्व अस्तित्व थाऔर न रहेगा। शरीर केवल वर्तमान काल में ही रहता श्रीउद्धव उवाच ज्ञानं विशुद्धं विपुलं यथेत-द्वैराग्यविज्ञानयुतं पुराणम् ।आख्याहि विश्वेश्वर विश्वमूर्तेत्वद्धक्तियोगं च महद्विमृग्यम् ॥
८ ॥
श्री-उद्धवः उबाच-- श्री उद्धव ने कहा; ज्ञानम्ू--ज्ञान; विशुद्धम्--दिव्य; विपुलम्--विस्तृत; यथा--जिस तरह; एतत्--यह;वैराग्य--विरक्ति; विज्ञान--तथा सत्य की प्रत्यक्ष अनुभूति; युतम्--से युक्त; पुराणम्--महान् दार्शनिकों के मध्य परम्परागत;आख्याहि--कृपा करके बतलायें; विश्व-ईश्वर--हे ब्रह्माण्ड के स्वामी; विश्व-मूर्ते--हे ब्रह्माण्ड के रूप; त्वत्--तुम्हारे प्रति;भक्ति-योगमू-प्रेमाभक्ति; च-- भी; महत्--महान् आत्माओं द्वारा; विमृग्यम्ू--खोजे जाते।
श्री उद्धव ने कहा : हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, हे ब्रह्माण्ड स्वरूप, कृपा करके मुझे ज्ञान की वहविधि बतलाइये जो स्वत: विरक्ति तथा सत्य की प्रत्यक्ष अनुभूति लाने वाली है, जो दिव्य है औरमहान् आध्यात्मिक दार्शनिकों में परम्परा से चली आ रही है। महापुरुषों द्वारा खोजा जाने वालायह ज्ञान आपके प्रति प्रेमाभक्ति को बताने वाला है।
तापत्रयेणाभिहतस्य घोरेसन्तप्यमानस्य भवाध्वनीश ।'पश्यामि नान्यच्छरणं तवाडूप्रि-इन्द्दातपत्रादमृताभिवर्षात् ॥
९॥
ताप--कष्टों द्वारा; त्रयेण--तीन; अभिहतस्य---अभिभूत हुए का; घोरे--घोर; सन्तप्यमानस्थ--सताये हुए का; भव--संसारका; अध्वनि--मार्ग में; ईश--हे ईश्वर; पश्यामि--देखता हूँ; न--कोई नहीं; अन्यत्--दूसरी; शरणम्--शरण; तव--तुम्हारा;अड्प्रि--चरणकमल; द्वन्द्द--दो का; आतपत्रात्ू--छाते की अपेक्षा; अमृत--अमृत की; अभिवर्षात्--वर्षा |
हे प्रभु, जो व्यक्ति जन्म तथा मृत्यु के घोर मार्ग में सताया जा रहा है और तीनों तापों सेनिरन्तर अभिभूत रहता है, उसके लिए मुझे आपके दो चरणकमलों के अतिरिक्त अन्य कोईसम्भव आश्रय नहीं दिख रहा। ये उस सुखदायक छाते के तुल्य हैं, जो स्वादिष्ट अमृत की वर्षाकरता है।
दष्टे जनं सम्पतितं बिलेस्मिन्कालाहिना क्षुद्रसुखोरुतर्षम् ।समुद्धैनं कृपयापवर््यै-वचोभिरासिज्ञ महानुभाव ॥
१०॥
दष्टमू--काटा हुआ; जनम्--मनुष्य; सम्पतितमू--पतित; बिले--अंधेरे छेद में; अस्मिन्ू--इस; काल--समय का; अहिना--सर्प द्वारा; क्षुद्र--नगण्य; सुख--सुख; उरुू--तथा भीषण; तर्षम्--लालसा; समुद्धर--कृपया ऊपर उठा लें; एनम्ू--यहव्यक्ति; कृपया--आपकी अहैतुकी कृपा से; आपवर्ग्यं:--मोक्ष के लिए जागृत; वचोभि:--आपके शब्दों से; आसिज्ञ--सींचिये; महा-अनुभाव-ह
हे प्रभुहे सर्वशक्तिमान प्रभु, कृपा कीजिये और इस निराश जीव को, जो अंधेरे भवकूप में गिरगया है जहाँ कालरूपी सर्प ने उसे डस लिया है, ऊपर उठाइये। ऐसी गर्हित अवस्था होते हुए भी यह बेचारा जीव अत्यन्त क्षुद्र भौतिक सुख भोगने की उत्कट इच्छा से युक्त है। हे प्रभु, आपअपने उस उपदेशामृत को छिड़क कर मेरी रक्षा कीजिये, जो आध्यात्मिक मुक्ति के लिए जागृतकरने वाला है।
श्रीभगवानुवाचइत्थमेतत्पुरा राजा भीष्म॑ धर्मभूतां वरम् ।अजातशत्रुः पप्रच्छ सर्वेषां नोउनुश्रण्वताम् ॥
११॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; इत्थम्--इस प्रकार; एतत्--यह; पुरा--प्राचीन काल में; राजा--राजा; भीष्मम्-- भीष्मसे; धर्म--धार्मिक सिद्धान्त के; भूतामू--धारण करने वालों; वरम्-- श्रेष्ठ; अजात-शत्रु:--जिसके कोई शत्रु नहीं माना जाता,राजा युधिष्टिर, ने; पप्रच्छ--पूछा; सर्वेषामू--सबों के; नः--हम; अनुश्रृण्वताम्-ध्यानपूर्वक सुनते समय |
भगवान् ने कहा : हे उद्धव, जिस तरह तुम मुझसे पूछ रहे हो, उसी तरह भूतकाल में राजायुथिष्ठटिर ने जिन्हें अजातशत्रु कहा जाता है, धर्म के महानतम धारणकर्ता भीष्मदेव से पूछा थाऔर हम सभी ध्यानपूर्वक सुन रहे थे।
निवृत्ते भारते युद्धे सुहृन्निधनविहलः ।श्रुत्वा धर्मान्बहून्पश्चान्मोक्षधर्मानपूच्छत ॥
१२॥
निवृत्ते--समाप्त होने पर; भारते--भारत के वंशजों ( कुरुओं तथा पाण्डवों के ); युद्धे--युद्ध में; सुहृत्-- अपने प्रियशुभचिन्तकों के; निधन--विनाश से; विह्ल:--अभिभूत; श्रुत्वा--सुन कर; धर्मानू--धार्मिक नियम; बहूनू--अनेक;पश्चात्-अन्त में; मोक्ष--मोक्ष सम्बन्धी; धर्मान्--धार्मिक सिद्धान्त; अपृच्छत--पूछा |
जब कुरुक्षेत्र का महान् युद्ध समाप्त हो गया, तो राजा युधिष्ठिर अपने प्रिय हितैषियों कीमृत्यु से विहल थे। इस तरह अनेक धार्मिक सिद्धान्तों के विषय में उपदेश सुन कर, अन्त मेंउन्होंने मोक्ष-मार्ग के विषय में जिज्ञासा की थी।
तानहं तेउभिधास्थामि देवव्नरतमखाच्छुतान् ।ज्ञानवैराग्यविज्ञानश्रद्धाभक्त्युपबृंहितान्ू ॥
१३॥
तानू--उनको; अहम्--मैं; ते-- तुमसे; अभिधास्यामि--कहूँगा; देव-ब्रत-- भीष्मदेव के; मुखात्--मुख से; श्रुतान्--सुने हुए;ज्ञान--वैदिक ज्ञान; वैराग्य--विरक्ति; विज्ञान--आत्म-अनुभूति; श्रद्धा-- श्रद्धा; भक्ति--तथा भक्ति; उप-बृंहितान्--से युक्त |
अब मैं तुमसे भीष्मदेव के मुख से सुने वैदिक ज्ञान, विरक्ति, आत्म-अनुभूति, श्रद्धा तथाभक्ति के उन धार्मिक सिद्धान्तों का वर्णन करूँगा।
नवैकादश पज्ञ त्रीन्भावान्भूतेषु येन वै ।ईक्षेताथाइकमप्येषु तज्ज्ञानं मम निश्चितम् ॥
१४॥
नव--नौ; एकादश- ग्यारह; पश्च--पाँच; त्रीन्ू--तीन; भावान्--तत्त्वों को; भूतेषु--सारे जीवों ( ब्रह्मा से लेकर अचर जीवों )में; येन--जिस ज्ञान से; बै--निश्चय ही; ईक्षेत--देखे; अथ--इस प्रकार; एकम्--एक तत्त्व; अपि--निस्सन्देह; एघु--इनअट्ठाईस तत्त्वों में; तत्--वह; ज्ञानमू--ज्ञान; मम--मेरे द्वारा; निश्चितम्--निर्धारित किया गया ।
मैं स्वयं उस ज्ञान को निश्चित करता हूँ जिससे मनुष्य सारे जीवों में नौ, ग्यारह, पाँच तथातीन तत्त्वों का संमेल देखता है और अन्त में इन अट्ठाईस तत्त्वों के भीतर केवल एक तत्त्व देखताहै।
एतदेव हि विज्ञानं न तथेकेन येन यत् ।स्थित्युत्पत्त्यप्ययान्पश्येद्धावानां त्रिगुणात्मनाम् ॥
१५॥
एतत्--यह; एव--निस्सन्देह; हि--वास्तव में; विज्ञानम्-- अनुभूत ज्ञान; न--नहीं; तथा--उसी तरह से; एकेन--एक( भगवान् ) द्वारा; येन--जिसके द्वारा; यत्ू--जो ( ब्रह्माण्ड ); स्थिति--पालन; उत्पत्ति--सृजन; अप्ययान्--तथा संहार;पश्येतू-देखे; भावानामू--सभी भौतिक तत्त्वों के; त्रि-गुण--प्रकृति के तीन गुणों के; आत्मनाम्--से बना
जब कोई व्यक्ति एक ही कारण से उत्पन्न २८ पृथक् पृथक् भौतिक तत्त्वों को न देख कर,एक कारण रूप भगवान् को देखता है, उस समय मनुष्य का प्रत्यक्ष अनुभव विज्ञान कहलाताहै।
जब सारी अवस्थाओं का प्रलय हो जाता है, तो भी जो अकेला बचता है, वही एक शाश्वत है।श्रुति: प्रत्यक्षमैतिहामनुमानं चतुष्टयम् ।प्रमाणेष्वनवस्थानाद्विकल्पात्स विरज्यते ॥
१७॥
श्रुतिः:--वैदिक ज्ञान; प्रत्यक्षमू--सीधा अनुभव; ऐतिहाम्ू--परम्परागत विद्या; अनुमानम्--तार्किक अनुमान; चतुष्टयम्--चार;प्रमानेषु--सभी प्रकार के प्रमाणों में से; अनवस्थानात्-- अस्थिरता के कारण; विकल्पात्-- भौतिक विविधता से; सः--वहपुरुष; विरज्यते--विरक्त हो जाता है|
वैदिक ज्ञान, प्रत्यक्ष अनुभव, परम्परागत विद्या ( ऐतिहा ) तथा तार्किक अनुमान--इन चारप्रकार के प्रमाणों से मनुष्य भौतिक जगत की अस्थिर दशा को समझ कर, इस जगत के द्वैत सेविरक्त हो जाता है।
कर्मणां परिणामित्वादाविरिज्च्यादमड्रलम् ।विपश्चिन्नश्वरं पश्येददृष्टमपि दृष्टबत् ॥
१८ ॥
कर्मणाम्-- भौतिक कार्यों का; परिणामित्वात्-विकार ग्रस्त होने के कारण; आ--तक; विरिज्च्यातू--ब्रह्मलोक से;अमड्डलम्--अशुभ दुख; विपश्चित्-बुद्धिमान व्यक्ति; नश्वरम्--क्षणिक; पश्येत्--देखे; अदृष्टमू--जसिका अभी तक अनुभवनहीं किया जा सका; अपि--निस्सन्देह; दृष्ट-बत्--पहले अनुभव हुए के समान।
बुद्धिमान पुरुष यह समझे कि कोई भी भौतिक कर्म निरन्तर परिवर्तित होता रहता है, यहाँतक कि ब्रह्मलोक में भी केवल दुख ही दुख है। निस्सन्देह, बुद्धिमान व्यक्ति यह समझ सकता हैकि जिस तरह सारी दृश्य वस्तुएँ क्षणिक हैं, उसी तरह ब्रह्माण्ड के भीतर सारी वस्तुओं का आदिऔर अन्त है।
भक्तियोग: प्रैवोक्त: प्रीयमाणाय तेडनघ ।पुनश्च कथयिष्यामि मद्धक्ते: कारणं परं ॥
१९॥
भक्ति-योग:-- भगवद्भक्ति; पुरा--पूर्व काल में; एब--निस्सन्देह; उक्त:--बतलाया गया; प्रीयमाणाय--जिसने प्रेम उत्पन्न करलिया है; ते--तुम तक; अनघ--हे निष्पाप उद्धव; पुन:--फिर; च-- भी; कथयिष्यामि--बतलाऊँगा; मत्--मुझ तक;भक्तेः-- भक्ति का; कारणम्--असली कारण; परम्ू--परम |
हे निष्पाप उद्धव, चूँकि तुम मुझे चाहते हो इसलिए मैं पहले ही तुम्हें भक्ति की विधि बतलाचुका हूँ। अब मैं तुमसे पुनः अपनी प्रेमाभक्ति पाने की श्रेष्ठ विधि बतलाऊँगा।
श्रद्धामृतकथायां मे शश्वन्मदनुकीर्तनम् ।परिनिष्ठा च पूजायां स्तुतिभिः स्तवनं मम ॥
२०॥
आदरः परिचर्यायां सर्वाड्रैरभिवन्दनम् ।मद्धक्तपूजाभ्यधिका सर्वभूतेषु मन््मति: ॥
२१॥
म्दर्थष्वड्रचेष्टा च वचसा मद्गुणेरणम् ।मय्यर्पणं च मनसः सर्वकामविवर्जनम् ॥
२२॥
मद्दर्थेर्थपरित्यागो भोगस्य च सुखस्य च ।इष्टे दत्त हुतं जप्तं मरदर्थ यद्व्रतं तप: ॥
२३॥
एवं धर्मर्मनुष्याणामुद्धवात्मनिवेदिनाम् ।मयि सजझ्जायते भक्ति: कोउन्यो<र्थो स्थावशिष्यते ॥
२४॥
श्रद्धा-- श्रद्धा; अमृत-- अमृत में; कथायाम्ू--कथाओं के; मे--मेंरे विषयक; शश्वत्--सदैव; मत्--मेरे; अनुकीर्तनम्ू--महिमाका गायन; परिनिष्ठा--आसक्ति में स्थिर; च-- भी; पूजायाम्-पूजा करने में; स्तुतिभि:--सुन्दर स्तुतियों से; स्तवनम्--प्रार्थनाओं से; मम--मेरे विषय में; आदर: --सम्मान; परिचर्यायाम्-मेरी भक्ति के लिए; सर्व-अड्डैः--शरीर के सारे अंगों से,साष्टांग; अभिवन्दनम्--नमस्कार करना; मत्--मेरा; भक्त--भक्तों की; पूजा--पूजा; अभ्यधिका--मुझसे बढ़कर; सर्व-भूतेषु--सारे जीवों में; मत्ू--मेरी; मतिः--चेतना; मत्-अर्थेषु--मेरी सेवा करने के निमित्त; अड्भ-चेष्टा--सामान्य शारीरिककर्म; च-- भी; वचसा--शब्दों से; मत्-गुण--मेरा दिव्य गुण; ईरणम्--घोषित करना; मयि--मुझमें; अर्पणम्--अर्पणकरना; च-- भी; मनस: --मन का; सर्व-काम--समस्त भौतिक इच्छाओं का; विवर्जनम्--बहिष्कार; मत्ू-अर्थ--मेरे लए;अर्थ--सम्पत्ति का; परित्याग:--छोड़ा जाना; भोगस्य--इन्द्रियतृप्ति का; च-- भी; सुखस्य-- भौतिक सुख का; च-- भी;इष्टम्--वांछित कर्म; दत्तमू--दान; हुतम्--यज्ञ की आहुति; जप्तम्--भगवन्नाम का कीर्तन; मत्-अर्थम्--मुझे पाने के लिए;यतू--जो; ब्रतम्--व्रत, यथा एकादशी; तपः--तपस्या; एवम्--इस प्रकार; धर्म:--ऐसे धार्मिक सिद्धान्तों से; मनुष्यानामू--मनुष्यों के; उद्धव--हे उद्धव; आत्म-निवेदिनामू--शरणागतों के; मयि--मुझमें; सज्जायते--उत्पन्न होता है; भक्ति: --प्रेमा भक्ति;कः--कौन; अन्य:--दूसरा; अर्थ:--उद्देश्य; अस्य--मेरे भक्त का; अवशिष्यते--बच रहता है।
मेरी लीलाओं की आनन्दमयी कथाओं में हढ़ विश्वास, मेरी महिमा का निरन्तर कीर्तन, मेरीनियमित पूजा में गहन आसक्ति, सुन्दर स्तुतियों से मेरी प्रशंसा करना, मेरी भक्ति का समादर,साष्टांग नमस्कार, मेरे भक्तों की उत्तम पूजा, सारे जीवों में मेरी चेतना का ज्ञान, सामान्यशारीरिक कार्यों को मेरी भक्ति में अर्पण, मेरे गुणों का वर्णन करने के लिए वाणी का प्रयोग,मुझे अपना मन अर्पित करना, समस्त भौतिक इच्छाओं का बहिष्कार, मेरी भक्ति के लिएसम्पत्ति का परित्याग, भौतिक इन्द्रियतृप्ति तथा सुख का परित्याग तथा मुझे पाने के उद्देश्य सेदान, यज्ञ, कीर्तन, ब्रत, तपस्या इत्यादि वांछित कार्यों को सम्पन्न करना--ये वास्तविक धार्मिकसिद्धान्त हैं, जिनसे मेरे शरणागत हुए लोग स्वतः मेरे प्रति प्रेम उत्पन्न कर लेते हैं। तो फिर मेरेभक्त के लिए कौन-सा अन्य उद्देश्य या लक्ष्य शेष रह जाता है ? यदात्मन्यर्पितं चित्तं शान्तं सत्त्वोपबृंहितम् ।धर्म ज्ञानं स वैराग्यमैश्वर्य चाभिपद्यते ॥
२५॥
यदा--जब; आत्मनि-- भगवान् में; अर्पितम्--स्थिर; चित्तम्--चेतना; शान्तम्-शान्त; सत्त्व--सतोगुण द्वारा; उपबृंहितम्--संपुष्ट; धर्मम्--धधार्मिकता; ज्ञाममू--ज्ञान; सः--सहित; वैराग्यम्--वैराग्य; ऐश्वर्यमू--ऐश्वर्य; च-- भी; अभिपद्यते--प्राप्त करताहै
जब सतोगुण से संतुष्ट शान्त चेतना भगवान् पर स्थिर कर दी जाती है, तो मनुष्य कोधार्मिकता, ज्ञान, वैराग्य तथा ऐश्वर्य प्राप्त होता है।
यदर्पितं तद्दिकल्पे इन्द्रियेः परिधावति ।रजस्वलं चासब्निष्ठं चित्तं विद्धि विपर्ययम् ॥
२६॥
यतू--जब; अर्पितम्ू--स्थिर; ततू--यह ( चेतना ); विकल्पे--भौतिक विविधता में ( शरीर, घर, परिवार आदि ); इन्द्रियै:--इन्द्रियों से; परिधावति--चारों ओर दौ लगाते; रज:-वलम्--रजोगुण से परिपुष्ट; च-- भी; असत्--जिसमें स्थायी सच्चाई नहींहै उसे; निष्ठमू--समर्पित; चित्तमू--चेतना; विद्धि--जानो; विपर्ययम्--( पूर्व वर्णित के ) विरुद्ध |
जब मनुष्य की चेतना भौतिक देह, घर तथा इन्द्रियतृप्ति की ऐसी ही अन्य वस्तुओं पर टिकजाती है, तो वह इन्द्रियों की सहायता से भौतिक वस्तुओं के पीछे दौ लगाते-लगाते अपनाजीवन व्यतीत करता है। इस तरह रजोगुण से बलपूर्वक प्रभावित चेतना नश्वर वस्तुओं के प्रतिसमर्पित हो जाती है, जिससे अधर्म, अज्ञान, आसक्ति तथा नीचता ( कृपणता ) उत्पन्न होते हैं।
धर्मो मद्धक्तिकृद्ोक्तो ज्ञानं चैकात्म्यदर्शनम् ।गुणेस्वसड्ो वैराग्यमैश्वर्य चाणिमादय: ॥
२७॥
धर्म:--धर्म; मत्--मेरी; भक्ति-- भक्ति; कृतू--उत्पन्न करते हुए; प्रोक्त:--घोषित की जाती है; ज्ञानमू--ज्ञान; च--भी;ऐकात्म्य--परमात्मा की उपस्थिति; दर्शनम्--देखना; गुणेषु--इन्द्रियतृप्ति की वस्तुओं में; असड्भ:--निर्लिप्त; वैराग्यम्ू--वैराग्य; ऐश्वर्यमू--ऐश्वर्य; च-- भी; अणिमा--अणिमा नामक योग-सिद्धि; आदयः-अन्द् सो फोर्थ,
वास्तविक धार्मिक सिद्धान्त वे हैं, जो मनुष्य को मेरी भक्ति तक ले जाते हैं। असली ज्ञानवह जानकारी है, जो मेरी सर्वव्यापकता को प्रकट करती है। इन्द्रियतृप्ति की वस्तुओं में पूर्णअरूचि ही वैराग्य है और अणिमा सिद्धि जैसी आठ सिद्ध्रियाँ ही ऐश्वर्य हैं।
श्रीउद्धव उवाच यमः कतिविध: प्रोक्तो नियमो वारिकर्षण ।कः शमः को दमः कृष्ण का तितिक्षा धृति: प्रभो ॥
२८॥
कि दानं कि तपः शौर्य किम्सत्यमृतमुच्यते ।कस्त्याग: कि धन चेष्ट को यज्ञ: का च दक्षिणा ॥
२९॥
पुंसः किं स्विद्वलं श्रीमन््भगो लाभश्व केशव ।का विद्या ही: परा का श्री: कि सुखं दुःखमेव च ॥
३०॥
कः पण्डितः कश्च मूर्ख: कः पन्था उत्पथश्व कः ।कः स्वर्गो नरकः कः स्वित्को बन्धुरुत कि गृहम् ॥
३१॥
कक आढ्द्: को दरिद्रो वा कृपण: कः क ईश्वर: ।एतान्प्रश्नान्मम ब्रूहि विपरीतांश्व सत्पते ॥
३२॥
श्री-उद्धवः उबाच-- श्री उद्धव ने कहा; यम:--अनुशासनात्मक नियम; कति-विध:--कितने भिन्न प्रकार के; प्रोक्त:--विद्यमानकहे जाते हैं; नियम: --नियमित नैत्यिक कार्य; वा--अथवा; अरि-कर्षण--हे शत्रु के दमनकर्ता, कृष्ण; कः--क्या है;शमः--मानसिक सन्तुलन; कः--क्या है; दमः--आत्मसंयम; कृष्ण--हे कृष्ण; का--क्या है; तितिक्षा--सहिष्णुता; धृति:--हढ़ता, धैर्य; प्रभो--हे प्रभु; किम्--क्या है; दानम्--दान; किम्ू-- क्या है; तपः--तपस्या; शौर्यम्--शूरता; किमू--क्या है;सत्यम्ू--सच्चाई; ऋतम्--सत्य; उच्यते--कहलाता है; कः--क्या है; त्याग: --वैराग्य; किमू--क्या है; धनमू--सम्पत्ति; च--भी; इष्टम्--इच्छित; कः--क्या है; यज्ञ:--यज्ञ; का--क्या है; च--भी; दक्षिणा-- धार्मिक पारिश्रमिक, दक्षिणा; पुंसः--पुरुष का; किम्ू--क्या है; स्वितू--निस्सन्देह; बलम्ू--बल; श्री-मन्--हे भाग्यवान् कृष्ण; भग:--ऐश्वर्य; लाभ:--लाभ;च--भी; केशव--हे केशव; का--क्या है; विद्या--शिक्षा; हीः--दीनता, नप्नता; परा--परम; का--क्या है; श्री:--सौन्दर्य;किम्--क्या है; सुखम्--सुख; दुःखम्--दुख; एव--निस्सन्देह; च-- भी; कः--कौन है; पण्डित:--विद्वान; क:--कौन है;च--भी; मूर्ख: --मूर्ख; कः--क्या है; पन््था:--असली मार्ग; उत्पथ:--झूठा मार्ग, कुमार्ग; च-- भी; कः--क्या है; कः--क्याहै; स्वर्ग:--स्वर्ग; नरक:--नरक; कः--क्या है; स्वित्--निस्सन्देह; कः--कौन है; बन्धु:--मित्र; उत--तथा; किम्--क्या है;गृहम्--घर; कः --कौन है; आढ्य:-- धनी; क:--कौन है; दरिद्र: --गरीब, निर्धन; वा--अथवा; कृपण:--कंजूस; कः --कौन है; क:ः--कौन है; ईश्वर:--नियन्ता; एतानू--इन; प्रश्नान्-- प्रश्नों को; मम--मुझसे; ब्रूहि--कृपया कहें; विपरीतान्--विरोधी गुण; च-- भी; सत्-पते--हे भक्तों के स्वामी |
श्री उद्धव ने कहा : हे कृष्ण, हे शत्रुओं को दण्ड देने वाले, कृपा करके मुझसे यह बतायेंकि कितने प्रकार के अनुशासनात्मक नियम ( यम ) तथा नियमित दैनिक कार्य ( नियम ) हैं।यही नहीं, हे प्रभु, मुझे यह भी बतायें कि मानसिक संतुलन क्या है, आत्मसंयम क्या है औरसहिष्णुता तथा हृढ़ता का असली अर्थ क्या है? दान, तपस्या तथा शौर्य क्या हैं औरवास्तविकता तथा सच्चाई का किस तरह वर्णन किया जाता है ? त्याग क्या है और सम्पत्ति क्याहै? इच्छित कया है, यज्ञ क्या है और दक्षिणा क्या है? हे केशव, हे भाग्यवान्, मैं किस तरहकिसी व्यक्ति के बल, ऐश्वर्य तथा लाभ को समझूँ? सर्वोत्तम शिक्षा क्या है? वास्तविक नप्रताक्या है और असली सौन्दर्य क्या है ? सुख और दुख क्या हैं ? कौन विद्वान है और कौन मूर्ख है?जीवन के असली तथा मिथ्या मार्ग क्या हैं और स्वर्ग तथा नरक क्या हैं ? असली मित्र कौन हैऔर असली घर क्या है ? कौन धनी है और कौन निर्धन है ? कौन कंजूस है और कौन वास्तविक नियन्ता है? हे भक्तों के स्वामी, कृपा करके मुझे इन बातों के साथ साथ इनकी विपरीत बातें भीबतलायें।
श्रीभगवानुवाचअहिंसा सत्यमस्तेयमसड़ो हीरसझ्ञयः ।आस्तिक्यं ब्रह्मचर्य च मौन स्थेर्य क्षमाभयम् ॥
३३॥
शौच जपस्तपो होम: श्रद्धातिथ्यं म्द्चनम् ।तीर्थाटनं परार्थेहा तुप्टिराचार्यसेबनम् ॥
३४॥
एते यमा: सनियमा उभयोर्द्धादश स्मृता: ।पुंसामुपासितास्तात यथाकामं दुहन्ति हि ॥
३५॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; अहिंसा--अहिंसा; सत्यम्ू--सत्य; अस्तेयमू-अन्यों की सम्पत्ति के लिए न तोललचाना, न चोरी करना; असड्ृः--विरक्ति; ही:--दीनता; असजञ्ञयः--अपरिग्रह; आस्तिक्यम्-- धर्म में विश्वास; ब्रह्मचर्यम्--ब्रह्मचर्य; च-- भी; मौनम्ू--मौन; स्थैर्यम्--स्थिरता; क्षमा-- क्षमा करना; अभयम्--निर्भीकता; शौचम्-- भीतरी तथा बाहरीस्वच्छता; जपः--भगवज्नाम का कीर्तन; तपः--तपस्या; होम: --यज्ञ; श्रद्धा-- श्रद्धा; आतिथ्यम्-- अतिथि-सत्कार; मत्-अर्चनम्--मेरी पूजा; तीर्थ-अटनमू्--ती ्थयात्रा करना; पर-अर्थ-ईह--परमे श्वर के लिए कर्म करना तथा इच्छा करना; तुष्टिः --सन्तोष; आचार्य-सेवनम्--गुरु-सेवा; एते--ये; यमा: -- अनुशासनात्मक नियम; स-नियमा:--गौण कार्यो के साथ; उभयो:--दोनों का; द्वादश--बारह; स्मृता:--जाने जाते हैं; पुंसाम्ू--मनुष्यों द्वारा; उपासिताः--भक्तिपूर्वक अनुशीलन किया गया;तात-हे उद्धव; यथा-कामम्-- अपनी इच्छानुसार; दुहन्ति--पूर्ति करते हैं; हि--निस्सन्देह |
भगवान् ने कहा : अहिंसा, सत्य, दूसरों की सम्पत्ति से लालायित न होना या चोरी न करना,बैराग्य, दीनता, अपरिग्रह, धर्म में विश्वास, ब्रह्मचर्य, मौन, स्थिरता, क्षमा तथा अभय--ये बारहमूल अनुशासनात्मक यम ( नियम ) हैं। आन्तरिक तथा बाह्य स्वच्छता, भगवतन्नाम कीर्तन, यज्ञ,श्रद्धा, आतिथ्य, मेरी पूजा, तीर्थाटन, केवल परम लक्ष्य के लिए कार्य करना तथा इच्छा करना,सनन््तोष तथा गुरु-सेवा--ये बारह नियमित कार्य ( नियम ) हैं। ये चौबीसों कार्य उन लोगों कोइच्छित वर देने वाले हैं, जो उनका भक्तिपूर्वक अनुशीलन करते हैं।
शमो मन्निष्ठता बुद्धेर्दम इन्द्रियसंयम: ।तितिक्षा दुःखसम्मर्षो जिलह्ोपस्थजयो धृतिः ॥
३६॥
दण्डन्यास: पर दानं कामत्यागस्तपः स्मृतम् ।स्वभावविजय: शौर्य सत्यं च समदर्शनम् ॥
३७॥
अन्यच्च सुनृता वाणी कविभिः परिकीर्तिता ।कर्मस्वसड्रम: शौचं त्याग: सन्न्यास उच्चते ॥
३८॥
धर्म इष्टे धनं नृणां यज्ञोह॑ भगवत्तम: ।दक्षिणा ज्ञानसन्देश: प्राणायाम: परं बलम् ॥
३९॥
शमः--मानसिक सनन््तुलन; मत्--मुझमें; निष्ठता--निष्ठा; बुद्धेः --बुद्धि की; दमः--आत्मसंयम; इन्द्रिय--इन्द्रियों का;संयम:--पूर्ण अनुशासन; तितिक्षा--सहिष्णुता; दुःख--दुख; सम्मर्ष:--सहन करना; जिह्मा--जी भ; उपस्थ--जननेन्द्रिय;जय: --जीतना; धृति:--स्थिरता; दण्ड--आक्रामकता, छेड़छाड़; न्यास: --त्यागना; परमू--परम; दानमू--दान; काम--विषय-वासना; त्याग:--त्यागना; तपः--तपस्या; स्मृतम्--माना जाता है; स्वभाव-- भोग करने की सहज प्रवृत्ति; विजय:--जीत; शौर्यम्--वीरता; सत्यम्ू--सत्य; च-- भी; सम-दर्शनम्--पर मे श्वर का सर्वत्र दर्शन होना; अन्यत्--अगला तत्त्व( सच्चाई ); च--तथा; सु-नृता--मधुर; वाणी --वाणी; कविभि: --मुनियों द्वारा; परिकीर्तिता--घोषित; कर्मसु--सकाम कर्मोंमें; असड्रम:--विरक्ति; शौचम्--स्वच्छता; त्याग: --त्याग; सन्न्यास:--संन्यास आश्रम; उच्यते--कहलाता है; धर्म: --धार्मिकता; इष्टम्-इष्ट; धनमू--सम्पत्ति; नृणाम्--मनुष्यों के लिए; यज्ञ:--यज्ञ; अहम्--मैं हूँ; भगवत्-तम:-- भगवान्;दक्षिणा--दक्षिणा; ज्ञान-सन्देश:--सम्यक ज्ञान का उपदेश; प्राणायाम:-- ध्वास रोकने की योग-पद्धति; परमू--परम; बलम्--शक्ति
मुझमें बुद्धि लगाना मानसिक सन्तुलन ( शम ) है और इन्द्रियों का पूर्ण संयम आत्मसंयम(दम ) है। सहिष्णुता का अर्थ है धैर्यपूर्वक दुख सहना। स्थिरता तब आती है जब मनुष्य जीभतथा जननेन्द्रियों पर विजय पा लेता है। सबसे बड़ा दान है अन्यों के प्रति सभी प्रकार कीछेड़छाड़ त्यागना। काम ( विषय-वासना ) का परित्याग ही असली तपस्या है। असली शौर्यभौतिक जीवन का भोग करने की सहज प्रवृत्ति को जीतना है तथा भगवान् का सर्वत्र दर्शनकरना ही सच्चाई ( सत्य ) है। सत्यता का अर्थ है मधुर ढंग से सत्य बोलना जैसा कि महर्षियों नेघोषित किया है। स्वच्छता का अर्थ है सकाम कर्मों से विरक्ति जबकि त्याग ही संन्यास है।मनुष्यों की असली इष्ट सम्पत्ति धार्मिकता है और मैं, भगवान् ही यज्ञ हूँ। आध्यात्मिक उपदेशप्राप्त करने के उद्देश्य से गुरु-भक्ति ही दक्षिणा है और सबसे बड़ी शक्ति है श्वास रोकने कीप्राणायाम विधि।
भगो म ऐश्वरो भावो लाभो मद्धक्तिरुत्तम: ।विद्यात्मनि भिदाबाधो जुगुप्सा हीरकर्मसु ।श्रीर्गुणा नैरपेक्ष्याद्या: सुखं दुःखसुखात्यय: ॥
४०॥
दुःखं कामसुखापेक्षा पण्डितो बन्धमोक्षवित् ।मूर्खो देहाद्यहंबुद्द्धिः पन्था मन्निगम: स्मृतः ॥
४१॥
उत्पथश्रित्तविक्षेप: स्वर्ग: सत्त्तगुणोदय: ।नरकस्तमजउत्नाहो बन्धुर्गुरुरहं सखे ॥
४२॥
गृहं शरीर मानुष्यं गुणाढ्यों ह्याढ्य उच्यते ।दरिद्रो यस्त्वसन्तुष्ट: कृपणो योउजितेन्द्रिय: ॥
४३॥
गुणेष्वसक्तधीरीशो गुणसड़ विपर्यय: ।एत उद्धव ते प्रशना: सर्वे साधु निरूपिता: ॥
४४॥
कि वर्णितेन बहुना लक्षणं गुणदोषयो: ।गुणदोषदशिर्दोषो गुणस्तृभयवर्जित: ॥
४५॥
भगः--ऐकश्वर्य; मे--मेरा; ऐश्वर: --ई श्वरी; भाव: --स्वभाव; लाभ: --लाभ; मत्-भक्ति: --मेरी भक्ति; उत्तम:--सर्व श्रेष्ठ;विद्या--शिक्षा; आत्मनि--आत्मा में; भिदा--द्वैत; बाध:--निरस्त करना; जुगुप्सा--घृणा; ही:--विनयशीलता; अकर्मसु--पापपूर्ण कार्यों में; श्री:-- सौन्दर्य; गुणा:--सद्गुण; नैरपेक्ष्य-- भौतिक वस्तुओं से विराग; आद्या: --इत्यादि; सुखम्--सुख;दुःख--दुख; सुख-- भौतिक सुख; अत्यय: --पार करना; दुःखम्--दुख; काम--विषय-वासना का; सुख--सुख पर;अपेक्षा--ध्यान करना; पण्डित:--चतुर व्यक्ति; बन्ध--बन्धन से; मोक्ष--मोक्ष; वित्ू--जानने वाला; मूर्ख: --मूर्ख; देह--देहसहित; आदि--इत्यादि ( मन ); अहम्-बुद्धिः--जो अपनी पहचान करता है; पन्था:--असली मार्ग; मत्--मुझ तक; निगम: --जाने वाला; स्मृतः:--समझना चाहिए; उत्पथ:--गलत रास्ता; चित्त--चेतना की; विक्षेप:--मोहग्रस्तता; स्वर्ग:--स्वर्ग; सत्त्व-गुण--सतोगुण का; उदय: --प्राधान्य; नरक:--नरक; तम:--तमोगुणी की; उन्नाह: --प्रधानता; बन्धु;--असली मित्र; गुरु:--गुरु; अहम्-मैं हूँ; सखे--हे मित्र उद्धव; गृहमू--घर; शरीरम्--शरीर; मानुष्यम्--मनुष्य का; गुण-- सदगुणों सहित;आढ्य:--समृद्ध; हि--निस्सन्देह; आढ्य:-- धनी व्यक्ति; उच्यते--कहलाता है; दरिद्र:--निर्धन व्यक्ति; यः--जो; तु--निस्सन्देह; असन्तुष्ट:--असंतुष्ट; कृपण:--कंजूस; यः--जो; अजित--नहीं जीती हैं; इन्द्रियः--इन्द्रियाँ; गुणेषु-- भौतिकइन्द्रियतृप्ति में; असक्त--आसक्त नहीं; धीः--जिसके बुद्धि; ईशः--नियामक; गुण--इन्द्रियतृप्ति; सड़४--आसक्त;विपर्ययः--विपरीत, चाकर; एते--ये; उद्धव--हे उद्धव; ते--तुम्हारे; प्रश्ना:--प्रश्न; सर्वे--सभी; साधु--उचित ढंग से;निरूपिता: --व्याख्या किये गये; किम्--क्या लाभ; वर्णितेन--वर्णन करने का; बहुना--विस्तार से; लक्षणम्--लक्षण;गुण--सदगुणों के; दोषयो:--तथा दुर्गुणों के; गुण-दोष--अच्छे तथा बुरे गुण; हशि:--देखना; दोष:--दोष; गुण:--असलीसदगुण; तु--निस्सन्देह; उभय--दोनों से; वर्जित:--पृथक् |
वास्तविक ऐश्वर्य भगवान् के रूप में मेरा निजी स्वभाव है, जिसके माध्यम से मैं छ: असीमऐश्वर्यों को प्रकट करता हूँ। जीवन का सबसे बड़ा लाभ मेरी भक्ति है और असली शिक्षा( विद्या ) आत्मा के भीतर के झूठे द्वैतभाव को समाप्त करना है। असली उदारता अनुचित कार्योसे घृणा करना है। विरक्ति जैसे सदगुण का होना सौन्दर्य है। भौतिक सुख तथा दुख को लाँघनाअसली सुख है और असली दुख तो यौन-सुख की खोज में अपने को फँसाना है। बुद्धिमान वहीहै, जो बन्धन से छूटने की विधि जानता है और मूर्ख वह है, जो अपनी पहचान अपने शरीर तथामन से करता है। जीवन में असली मार्ग वह है, जो मुझ तक ले जाने वाला है और कुमार्गइन्द्रियतृप्ति है, जिससे चेतना मोहग्रस्त हो जाती है। वास्तविक स्वर्ग सतोगुण की प्रधानता है औरअज्ञान की प्रधानता ही नरक है। मैं समस्त ब्रह्माण्ड के गुरु रूप में हर एक का असली मित्र हूँ।मनुष्य का घर उसका शरीर है। हे प्रिय मित्र उद्धव, जो सदगुणों से युक्त है, वही धनी कहा जाताहै और जो जीवन से असंतुष्ट रहता है, वही निर्धन है। कृपण वह है, जो अपनी इन्द्रियों को वशमें नहीं रख सकता और असली नियंत्रक वह है, जो इन्द्रियतृप्ति में आसक्त नहीं होता। इसकेविपरीत जो व्यक्ति इन्द्रियतृष्ति में आसक्त रहता है, वह दास होता है। इस प्रकार हे उद्धव, मैंनेतुम्हारे द्वारा पूछे गये सारे विषयों की व्याख्या कर दी है। इन सदगुणों तथा दुर्गुणों की अधिकविशद व्याख्या की आवश्यकता नहीं है क्योंकि निरन्तर गुण तथा दोषों को देखना स्वयं में एकदुर्गुण है। सर्वोत्कृष्ट गुण तो भौतिक गुण और दोष को लाँघ जाना है।
20. शुद्ध भक्ति सेवा ज्ञान और वैराग्य से बढ़कर है
श्रीउद्धव उवाचविधिश्च प्रतिषेधश्व निगमो ही श्वरस्य ते ।अवेक्षतेरविण्डाक्ष गुणं दोषं च कर्मणाम् ॥
१॥
श्री-उद्धवः उवाच-- श्री उद्धव ने कहा; विधि:-- आदेश; च-- भी; प्रतिषेध:--निषेधात्मक आदेश; च--तथा; निगम:--वैदिकवाड्मय; हि--निस्सन्देह; ईश्वरस्थ-- भगवान् का; ते--तुम्हारा; अवेक्षते--एकाग्र करता है; अरविण्ड-अक्ष--हे कमलनयन;गुणम्--उत्तम या पवित्र गुण; दोषम्--बुरे या पापपूर्ण गुण; च-- भी; कर्मणाम्ू--कर्मो के |
श्री उद्धव ने कहा : हे कमलनयन कृष्ण, आप भगवान् हैं और इस तरह विधियों तथानिषेधों से युक्त वैदिक वाइमय आपका आदेश है। ऐसा वाड्मय कर्म के गुण तथा दोषों परध्यान एकाग्र करता है।
वर्णाश्रमविकल्पं च प्रतिलोमानुलोमजम् ।द्रव्यदेशवय:कालान्स्वर्ग नरकमेव च ॥
२॥
वर्ण-आश्रम--वर्णा श्रम प्रणाली का; विकल्पम्--पाप-पुण्य से उत्पन्न नाना प्रकार के उच्च तथा निम्न पद; च--तथा;प्रतिलोम--ऐसे परिवार में जन्म जिसमें पिता माता से निम्न कुल का होता है; अनुलोम-जम्--ऐसे परिवार में जन्म जिसमें पिताउच्च कुल का और माता निम्न कुल की हो; द्रव्य-- भौतिक वस्तुएँ या धन; देश--स्थान; वयः--आयु; कालान्ू--समय;स्वर्गम्--स्वर्ग; नरकम्ू--नरक; एव--निस्सन्देह; च--भी |
वैदिक वाड्मय के अनुसार, वर्णाश्रम में उच्च तथा निम्न कोटियाँ परिवार-नियोजन केपवित्र और पापमय गुणों के कारण हैं। इस प्रकार पाप तथा पुण्य किसी स्थिति विशेष में यथाभौतिक अवयव, स्थान, आयु तथा काल में, वैदिक विश्लेषण के सन्दर्भ बिन्दु हैं। निस्सन्देह,वेदों से भौतिक स्वर्ग तथा नरक के अस्तित्व प्रकट होते हैं, जो निश्चित रूप से पाप तथा पुण्यपर आधारित हैं।
गुणदोषभिदादष्टिमन््तरेण वचस्तव ।निःश्रेयसं कथथं नृणां निषेधविधिलक्षणम् ॥
३॥
गुण--पुण्य; दोष--पाप; भिदा--दोनों में भेद; दृष्टिमू--देखे; अन्तरेण--के बिना; बच: --शब्द; तब--तुम्हारा;निःश्रेयसम्--जीवन की सिद्धि, मोक्ष; कथम्--कैसे सम्भव; नृणाम्--मनुष्यों के लिए; निषेध--वर्जन; विधि-- आदेश;लक्षणम्--लक्षण से युक्त |
पाप तथा पुण्य के बीच के अन्तर को देखे बिना भला कोई किस तरह आपके उन आदेशोंको जो कि वैदिक वाड्मय के रूप में हैं, समझ सकता है, जो मनुष्य को पुण्य करने का आदेशदेते हैं और पाप करने से मना करते हैं? इतना ही नहीं, अन्ततोगत्वा मोक्ष प्रदान करने वाले ऐसेप्रामाणिक वैदिक वाड्मय के बिना, मनुष्य किस तरह जीवन-सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं ? पितृदेवमनुष्याणां वेदश्नश्षुस्तवे श्वर ।श्रेयस्त्वनुपलब्धे $र्थ साध्यसाधनयोरपि ॥
४॥
पितृ--पितरों के; देव--देवताओं के; मनुष्याणाम्--मनुष्यों के; वेद:--वैदिक ज्ञान; चक्षु;--आँख है; तब--आपफे उत्पन्न;ईश्वर--हे परमेश्वर; श्रेय:-- श्रेष्ठ; तु--निस्सन्देह; अनुपलब्धे-- प्रत्यक्ष अनुभव न होने पर; अर्थे--मानव-जीवन के लक्ष्य यथाइन्द्रियतृप्ति, मोक्ष, स्वर्ग-प्राप्ति में; साध्य-साधनयो:--कार्य-कारण दोनों में; अपि--निस्सन्देह।
हे प्रभु, प्रत्यक्ष अनुभव से परे वस्तुओं को--यथा आध्यात्मिक मोक्ष या स्वर्ग-प्राप्ति तथाअन्य भौतिक भोग जो हमारी वर्तमान क्षमता से परे हैं--समझने के लिए तथा सामान्यतया सभीवस्तुओं के साध्य-साधन को समझने के लिए, पितरों, देवताओं तथा मनुष्यों को आपके नियमरूप वैदिक वाड्मय की सलाह लेनी चाहिए क्योंकि ये सर्वोच्च प्रमाण तथा ई श्वरी ज्ञान हैं।
गुणदोषभिदाटष्टिनिंगमात्ते न हि स्वतः ।निगमेनापवादश्च भिदाया इति ह भ्रम: ॥
५॥
गुण--पुण्य; दोष--पाप; भिदा--अन्तर; दृष्टि:--देखना; निगमात्--वैदिक ज्ञान से; ते--तुम्हारा; न--नहीं; हि--निस्सन्देह;स्वतः--स्वयमेव; निगमेन--वेदों से; अपवाद:--निरस्तीकरण; च-- भी; भिदाया: --ऐसे भेद का; इति--इस प्रकार; ह--स्पष्टत:; भ्रम:-- भ्रम, संशय ।
हे प्रभु, पाप तथा पुण्य में दिखाई पड़ने वाला अन्तर आपके ही बैदिक ज्ञान से उत्पन्न होता हैऔर वह स्वयमेव उत्पन्न नहीं होता। यदि वही वैदिक वाड्मय बाद में पाप तथा पुण्य के ऐसेअन्तर को निरस्त कर दे, तो निश्चित रूप से भ्रम उत्पन्न होगा।
श्रीभगवानुवाचयोगास्त्रयो मया प्रोक्ता नृणां श्रेयोविधित्सया ।ज्ञानं कर्म च भक्तिश्च नोपायोन्योस्ति कुत्रचित् ॥
६॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; योगा:--विधियाँ; त्रय:--तीन; मया-- मेरे द्वारा; प्रोक्ताः--कही गई; नृणाम्--मनुष्योंके; श्रेयः--सिद्धि; विधित्सया--देने की इच्छा से; ज्ञानमू--दर्शन का मार्ग; कर्म--कर्म का मार्ग; च--भी; भक्ति: -- भक्ति-मार्ग; च-- भी; न--कोई नहीं; उपाय:--उपाय, साधन; अन्य:--अन्य; अस्ति--है; कुत्रचितू-जो भी |
भगवान् ने कहा : हे उद्धव, चूँकि मेरी इच्छा है कि मनुष्य सिद्धि प्राप्त करे, अतएव मैंनेप्रगति के तीन मार्ग प्रस्तुत किये हैं--ज्ञान-मार्ग, कर्म-मार्ग तथा भक्ति-मार्ग। इन तीनों केअतिरिक्त ऊपर उठने का अन्य कोई साधन नहीं है।
निर्विण्णानां ज्ञानयोगो न्यासिनामिह कर्मसु ।तेष्वनिर्विण्णचित्तानां कर्मयोगस्तु कामिनाम् ॥
७॥
निर्विण्णानाम्--ऊबे हुए; ज्ञान-योग:--दार्शनिक चिन्तन का मार्ग; न््यासिनाम्ू-विरक्तों के लिए; इह--तीनों मार्गों में;कर्मसु--सामान्य कर्म में; तेषु--इन कर्मों में; अनिर्विण्ण--ऊबे नहीं है; चित्तानामू--चेतनायुक्त; कर्म-योग: --कर्म-योग कामार्ग; तु--निस्सन्देह; कामिनामू--जो अब भी भौतिक सुख चाहते हैं, उनके लिए।
तीनों मार्गों में से ज्ञान-योग अर्थात् दार्शनिक चिन्तन का मार्ग उन लोगों के लिए संस्तुतकिया जाता है, जो भौतिक जीवन से ऊब चुके हैं और सामान्य सकाम कर्मों से विरक्त हैं। जोलोग भौतिक जीवन से ऊबे नहीं हैं और जिन्हें अब भी अनेक इच्छाएँ पूरी करनी हैं, उन्हें कर्म-योग के माध्यम से मोक्ष की खोज करनी चाहिए।
यहच्छया मत्कथादौ जातश्रद्धस्तु यः पुमान् ।न निर्विण्णो नातिसक्तो भक्तियोगोस्य सिद्धिद: ॥
८॥
यहच्छया--सौ भाग्यवश किसी तरह से; मत्-कथा-आदौ--मेरी महिमा का वर्णन करने वाली कथाओं, गीतों, दर्शन तथानाटकीय प्रदर्शनों में; जात--जागृत किया हुआ; श्रद्धः--श्रद्धा; तु--निस्सनदेह; यः--जो कोई; पुमान्ू--पुरुष; न--नहीं;निर्विण्णग:--ऊबा हुआ; न--नहीं; अति-सक्त:--अत्यन्त आसक्त; भक्ति-योग: --प्रेमाभक्ति का मार्ग; अस्य--उसका; सिद्धि-दः--सिद्धि देने वाला
यदि कहीं कोई सौभाग्यवश मेरी महिमा के सुनने तथा कीर्तन करने में श्रद्धा उत्पन्न करलेता है, तो ऐसे व्यक्ति को जो भौतिक जीवन से न तो अत्यधिक ऊबा रहता है न आसक्त रहताहै मेरी प्रेमाभक्ति के मार्ग द्वारा सिद्धि प्राप्त करनी चाहिए।
तावत्कर्माणि कुर्वीत न निर्विद्येत यावता ।मत्कथाश्रवणादौ वा श्रद्धा यावन्न जायते ॥
९॥
तावत्--उस समय तक; कर्माणि--सकाम कर्म; कुर्वीत--सम्पन्न करे; न निर्विद्येत--तृप्त नहीं होता; यावता--जब तक; मत्ू-कथा-+मेरे विषय में वार्ताओं का; श्रवण-आदौ--श्रवणम् कीर्तनम् आदि के मामले में; बवा--अथवा; श्रद्धा-- श्रद्धा;यावत्--जब तक; न--नहीं; जायते--जागृत होती है|
जब तक मनुष्य सकाम कर्म से तृप्त नहीं हो जाता और श्रवर्णं कीर्तन विष्णो: द्वारा भक्ति केलिए रुचि जागृत नहीं कर लेता, तब तक उसे वैदिक आदेशों के विधानों के अनुसार कर्म करनाहोता है।
स्वधर्मस्थो यजन्यज्जैरनाशी:काम उद्धव ।न याति स्वर्गनरकौ यद्यन्यन्न समाचरेत् ॥
१०॥
स्व-धर्म--अपने नियत कर्तव्यों में; स्थ:--स्थित; यजन्--पूजा करते हुए; यज्जै:--नियत यज्ञों से; अनाशी:-काम:--कर्मफलकी इच्छा न रखते हुए; उद्धव--हे उद्धव; न--नहीं; याति--जाता है; स्वर्ग--स्वर्ग; नरकौ--या नरक में; यदि--यदि;अन्यत्--अपने नियत कर्तव्य के अतिरिक्त कुछ; न--नहीं; समाचरेत्--सम्पन्न करता है
हे उद्धव, जो व्यक्ति वैदिक यज्ञों द्वारा समुचित पूजा करके, किन्तु ऐसी पूजा का फल नचाह कर, अपने नियत कर्तव्य में स्थित रहता है, वह स्वर्गलोक नहीं जाता है; इसी तरह निषिद्धकार्यो को न करने से वह नरक नहीं जाएगा।
अस्मिल्लोके वर्तमान: स्वधर्मस्थोनघ: शुचि: ।ज्ञानं विशुद्धमाष्नोति मद्भधक्ति वा यहच्छया ॥
११॥
अस्मिन्ू--इस; लोके--जगत में; वर्तमान:--रहते हुए; स्व-धर्म--अपने नियत कर्तव्य में; स्थ:--स्थित; अनघ:--पापकर्मो सेमुक्त; शुचिः--भौतिक कल्मष से धुला; ज्ञानमू--ज्ञान; विशुद्धमू--दिव्य; आप्नोति--प्राप्त करता है; मत्--मेरी; भक्तिम्--भक्ति; वा--अथवा; यहृच्छया--अपने भाग्य के अनुसार
जो व्यक्ति अपने नियत कर्म में हृढ़ रहता है, जो पापमय कार्यों से मुक्त होता है और भौतिककल्मष से रहित होता है, वह इसी जीवन में या तो दिव्य ज्ञान प्राप्त करता है या दैववश मेरीभक्ति पाता है।
स्वर्गिणोप्येतमिच्छन्ति लोक॑ निरयिणस्तथा ।साथकं ज्ञानभक्तिभ्यामुभयं तदसाधकम् ॥
१२॥
स्वर्गिण:--स्वर्गलोक के निवासी; अपि-- भी; एतम्--यह; इच्छन्ति--चाहते हैं; लोकम्ू--पृथ्वीलोक; निरयिण: --नरकवासी;तथा--उसी तरह से; साधकम्--उपलब्धि की ओर; ज्ञान-भक्तिभ्याम्-दिव्य ज्ञान तथा भगवत्प्रेम का; उभयम्--दोनों ( स्वर्गतथा नरक ); तत्--उस सिद्धि के लिए; असाधकम्--उपयोगी नहीं
स्वर्ग तथा नरक दोनों ही के निवासी पृथ्वीलोक पर मनुष्य का जन्म पाने की आकांक्षारखते हैं क्योंकि मनुष्य-जीवन दिव्य ज्ञान तथा भगवत्प्रेम की प्राप्ति को सुगम बनाता है, जबकिन तो स्वर्गिक, न ही नारकीय शरीर पूर्णतः ऐसा अवसर सुलभ कराते हैं।
न नरः स्वर्गतिं काइक्षेन्नारकीं वा विचक्षण: ।नेम॑ लोक॑ च काडक्षेत देहावेशात्प्रमाद्यति ॥
१३॥
न--नहीं; नर: --मनुष्य; स्व:-गतिम्--स्वर्ग जाने की; काड्झ्षेत्--इच्छा करे; नारकीम्--नरक तक; वा--अथवा;विचक्षण:--विद्वान व्यक्ति; न--नहीं; इममू--यह; लोकम्--पृथ्वीलोक; च-- भी; काइ्क्षेत--इच्छा करे; देह-- भौतिक शरीरमें; आवेशात्--तल्लीनता से; प्रमाद्यति--मूर्ख बनता है
जो मनुष्य विद्वान हो उसे न तो कभी स्वर्गलोक जाने, न नरक में निवास करने की इच्छा करनी चाहिए। निस्सन्देह, मनुष्य को तो पृथ्वी पर स्थायी निवास की भी कभी कामना नहींकरनी चाहिए क्योंकि भौतिक देह में ऐसी तल्लीनता से मनुष्य अपने वास्तविक आत्म-हित केप्रति मूर्खतावश उपेक्षा बरतने लगता है।
एतद्विद्वान्पुरा मृत्योरभवाय घटेत सः ।अप्रमत्त इदं ज्ञात्वा मर्त्यमप्यर्थसिद्धिदम् ॥
१४॥
एतत्--यह; विद्वानू--जानते हुए; पुरा--पहले; मृत्यो:--मृत्यु; अभवाय--जगत को लाँघने के लिए; घटेत--कार्य करे; सः--वह; अप्रमत्त:--आलस्य या मूर्खता से रहित; इदम्--यह; ज्ञात्वा--जान कर; मर्त्यमू--मरणशील; अपि--यद्यपि; अर्थ--जीवन-लक्ष्य का; सिद्धि-दम्--सिद्धि देने वाला
यह जानते हुए कि यद्यपि भौतिक शरीर मर्त्य है, तो भी यह उसे जीवन-सिद्धि प्रदान करसकता है, विद्वान व्यक्ति को मूर्खतावश मृत्यु आने के पूर्व इस अवसर का लाभ उठाने में उपेक्षानहीं बरतनी चाहिए।
छिद्यमानं यमैरेतै: कृतनीडं वनस्पतिम् ।खगः स्वकेतमुत्सूज्य क्षेमं याति ह्ालम्पट: ॥
१५॥
छिद्यममानम्--काटे जाकर; यमै:--क्रूर पुरुषों द्वारा जो साक्षात् मृत्यु सरीखे हैं; एतैः--इन; कृत-नीडम्--जिसमें उसने घोंसलाबना रखा है; वनस्पतिम्--वृक्ष; खग:--पक्षी; स्व-केतम्--उसका घर; उत्सृज्य--त्याग करके; क्षेमम्ू--सुख; याति--प्राप्तकरता है; हि--निस्सन्देह; अलम्पट:--आसक्तिरहित।
जब साक्षात् मृत्यु रूपी क्रूर पुरुषों द्वारा वह वृक्ष काट दिया जाता है, जिसमें किसी पक्षी काघोंसला बना था, तो वह पक्षी बिना किसी आसक्ति के उस वृक्ष को त्याग देता है और इस तरहवह अन्य स्थान में सुख का अनुभव करता है।
अहोरात्रैश्छिद्यमानं बुद्ध्वायुर्भयवेषथु: ।मुक्तसडु: परं बुद्ध्वा निरीह उपशाम्यति ॥
१६॥
अहः--िन; रात्रै:--तथा रातों से; छिद्यमानम्--काटा जाता हुआ; बुद्ध्वा--जान कर; आयु:--उप्र; भय-- भय से; वेपथु: --कम्पमान; मुक्त-सड्भ:--आसक्तिरहित; परम्-परमेश्वर; बुद्ध्वा--समझ कर; निरीह:-- भौतिक इच्छा से रहित; उपशाम्यति--पूर्ण शान्ति प्राप्त करता है।
यह जानते हुए कि मेरी आयु दिन-रात बीतने के साथ क्षीण होती जा रही है, मनुष्य को भयसे काँपना चाहिए। इस तरह सारी भौतिक आसक्ति तथा इच्छा त्याग कर, वह भगवान् कोसमझने लगता है और परम शान्ति प्राप्त करता है।
नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभंप्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारम् ।मयानुकूलेन नभस्वतेरित॑पुमान्भवाब्धि न तरेत्स आत्महा ॥
१७॥
न्रू--मानव; देहम्--शरीर; आद्यमू--समस्त अनुकूल फलों का उद्गम; सु-लभम्--बिना प्रयास के प्राप्त; सु-दुर्लभम्--यद्यपिमहान् प्रयल से भी प्राप्त कर पाना असम्भव है; प्लवम्--नाव; सु-कल्पम्--अपने उद्देश्य के लिए सर्वथा अनुकूल; गुरु--गुरु;कर्ण-धारम्--नाव के माँझी के समान; मया--मेंरे द्वारा; अनुकूलेन--अनुकूल; नभस्वता--वायु द्वारा; ईरितम्--बहाई जाकर;पुमान्ू--पुरुष; भव--संसार के; अब्धिम्--समुद्र; न--नहीं; तरेत्ू--पार करता है; सः--वह; आत्म-हा--अपनी ही आत्मा काहनन करने वाला, आत्महंता।
जीवन का समस्त लाभ प्रदान करने वाला मानव शरीर प्रकृति के नियमों द्वारा स्वतः प्राप्तहोता है यद्यपि यह अत्यन्त दुर्लभ है। इस मानव शरीर की तुलना उस सुनिर्मित नाव से की जासकती है, जिसका माँझी गुरु है और भगवान् के आदेश वे अनुकूल हवाएँ हैं, जो उसे आगेबढ़ाती हैं। इन सारे लाभों पर विचार करते हुए जो मनुष्य अपने जीवन का उपयोग संसाररूपीसागर को पार करने में नहीं करता, उसे अपने ही आत्मा का हन्ता माना जाना चाहिए।
यदारम्भेषु निर्विण्णो विरक्त: संयतेन्द्रियः ।अभ्यासेनात्मनो योगी धारयेदचलं मनः ॥
१८॥
यदा--जब; आरम्भेषु-- भौतिक प्रयत्नों में; निर्विणण:--निराश; विरक्त:--विरक्त; संयत--पूरी तरह नियंत्रित; इन्द्रियः--इन्द्रियाँ; अभ्यासेन-- अभ्यास से; आत्मन:--आत्मा का; योगी--योगी; धारयेत्--एकाग्र करे; अचलम्--स्थिर; मन:--मन
भौतिक सुख के लिए समस्त प्रयासों से ऊब कर तथा निराश होकर, जब योगी इन्द्रियों कोपूरी तरह नियंत्रित करके विरक्ति उत्पन्न कर ले, तब उसे आध्यात्मिक अभ्यास द्वारा अपने मन कोअविचल भाव से आध्यात्मिक पद पर स्थिर करना चाहिए।
धार्यमाणं मनो यर्हि भ्राम्यदश्वनवस्थितम् ।अतन्द्रितोनुरोधेन मार्गेणात्मवशं नयेत् ॥
१९॥
धार्यमाणम्--आध्यात्मिक पद पर एकाग्र ( स्थिर ) होकर; मन:--मन; यहिं--जब; भ्राम्यत्ू-- भटकता है; आशु--सहसा;अनवस्थितम्--आध्यात्मिक पद पर स्थित न होकर; अतन्द्रितः--सावधानीपूर्वक; अनुरोधेन--नियत नियमों के अनुसार;मार्गेण--विधि द्वारा; आत्म--अपने; वशम्--नियंत्रण में; नयेत्--ले आये।
जब भी आध्यात्मिक पद पर एकाग्र मन सहसा अपने आध्यात्मिक पद से भटके, तो मनुष्यको चाहिए कि वह सावधानी से नियत साधनों के सहारे उसे अपने वश में कर ले।
मनोगतिं न विसृजेज्जितप्राणो जितेन्द्रियः ।सत्त्वसम्पन्नया बुद्धया मन आत्मवशं नयेत् ॥
२०॥
मनः--मन का; गतिमू--लक्ष्य; न--नहीं; विसृजेत्ू-- ओझल होने दे; जित-प्राण:--जिसने श्वास को जीत लिया है; जित-इन्द्रियः--जिसने इन्द्रियों को जीत लिया है; सत्त्त--सतोगुण का; सम्पन्नया--सम्पन्नता से युक्त; बुद्धया--बुद्ध्धि से; मन:ः--मन;आत्म-वशम्--अपने वश में; नयेत्--लाये।
मनुष्य को चाहिए कि मानसिक कार्यों के वास्तविक लक्ष्य को दृष्टि से ओझल न होने दे,प्रत्युत प्राण-वायु तथा इन्द्रियों पप विजय पाकर तथा सतोगुण से प्रबलित बुद्धि का उपयोगकरके, मन को अपने वश्ञ में कर ले।
एष वै परमो योगो मनसः सड्ग्रहः स्मृतः ।हृदयज्ञत्वमन्विच्छन्दम्यस्थेवार्वतो मुहु: ॥
२१॥
एष:--यह; वै--निस्सन्देह; परम: -- परम; योग: --योग-विधि; मनसः --मन का; सड़्ग्रहः--पूर्ण नियंत्रण; स्मृत:--इस प्रकारघोषित; हृदय-ज्ञत्वम्ू-घनिष्ठतापूर्वक जानने का गुण; अन्विच्छन्--सावधानी से देखते हुए; दम्यस्य--जिसका दमन कियाजाना है; इब--सहश; अर्वतः--घोड़े; मुहुः--सदैव |
एक दक्ष घुड़सवार तेज घोड़े को पालतू बनाने की इच्छा से सर्वप्रथम घोड़े को क्षण-भरउसकी राह चलने देता है, तब लगाम खींच कर धीरे धीरे उसे इच्छित राह पर ले आता है। इसीप्रकार परम योग-विधि वह है, जिससे मनुष्य मन की गतियों तथा इच्छाओं का सावधानी सेअवलोकन करता है और क्रमशः उन्हें पूर्ण वश में कर लेता है।
साड्ख्येन सर्वभावानां प्रतिलोमानुलोमतः ।भवाप्ययावनुध्यायेन्मनो यावत्प्रसीदति ॥
२२॥
साड्ख्येन--वैश्लेषिक अध्ययन द्वारा; सर्व--समस्त; भावानामू-- भौतिक तत्त्वों ( विराट, पार्थिव तथा सूक्ष्म ) का; प्रतिलोम--उल्टे कार्य द्वारा; अनुलोमत:--अग्रसर कार्य द्वारा; भव--सृष्टि; अप्ययौ--संहार; अनुध्यायेत्--निरन्तर अवलोकन करे; मनः--मन; यावत्--जब तक; प्रसीदति--आध्यात्मिक रूप से तुष्ट नहीं हो जाता।
जब तक मनुष्य का मन आध्यात्मिक तुष्टि प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक उसे समस्त भौतिकवस्तुओं की नश्वर प्रकृति का, चाहे वे विराट विश्व की हों, पृथ्वी की हों या सूक्ष्म हों, वैशलेषिकअध्ययन करते रहना चाहिये। उसे सृजन का अनुलोम विधि से और संहार का प्रतिलोम विधि सेनिरन्तर अवलोकन करना चाहिए।
निर्विण्णस्य विरक्तस्य पुरुषस्योक्तवेदिन: ।मनस्त्यजति दौरात्म्यं चिन्तितस्यानुचिन्तया ॥
२३॥
निर्विण्णस्य-- भौतिक जगत के मोहमय स्वभाव से ऊबे, उद्विग्न; विरक्तस्य--तथा विरक्त; पुरुषस्य--पुरुष का; उक्त-वेदिन:--अपने गुरु के आदेशों से नियंत्रित व्यक्ति; मन:--मन; त्यजति--त्याग देता है; दौरात्म्यम्ू-- भौतिक शरीर तथा मन सेझूठी पहचान; चिन्तितस्थ--सोचे हुए का; अनुचिन्तया--निरन्तर विश्लेषण द्वाराजब कोई व्यक्ति इस जगत के नश्वर तथा मोहमय स्वभाव से ऊब उठता है और इस तरहउससे विरक्त हो जाता है, तो उसका मन अपने गुरु के आदेशों से मार्गदर्शन पाकर, इस जगत केस्वभाव के बारे में बारम्बार विचार करता है और अन्त में पदार्थ के साथ अपनी झूठी पहचानको त्याग देता है।यमादिभियोंगपथेरान्वीक्षिक्या च विद्यया ।ममार्चोपासनाभिर्वा नान्यैर्योग्यं स्मरेन्मन: ॥
२४॥
यम-आदिभि:--अनुशासनात्मक नियमों आदि के द्वारा; योग-पथै:ः--योग-प्रणाली की विधियों द्वारा; आन्वीक्षिक्या--तर्कद्वारा; च--भी; विद्यया--आध्यात्मिक ज्ञान द्वारा; मम--मेरी; अर्चा--पूजा; उपाषनाभि:--उपासना द्वारा; वा--अथवा; न--कभी नहीं; अन्यैः--अन्य ( साधनों ) द्वारा; योग्यमू-- ध्यान की वस्तु, भगवान् पर; स्मरेतू--एकाग्र करे; मनः--मन।
मनुष्य को चाहिए कि योग-प्रणाली के विभिन्न यमों तथा संस्कारों द्वारा, तर्क तथाआध्यात्मिक शिक्षा द्वारा अथवा मेरी पूजा और उपासना द्वारा, योग के लक्ष्य भगवान् के स्मरणमें अपने मन को लगाये। इस कार्य के लिए वह अन्य साधनों का प्रयोग न करे।
यदि कुर्यात्प्रमादेन योगी कर्म विगर्हितम् ।योगेनैव दहेदंहो नान्यत्तत्र कदाचन ॥
२५॥
यदि--यदि; कुर्यात्--करे; प्रमादेन--उपेक्षा के कारण; योगी--योगी; कर्म--कोई कार्य; विगर्हितम्--निन्दनीय; योगेन--योग-विधि द्वारा; एब--एकमात्र; दहेत्ू--जला दे; अंह:--वह पाप; न--नहीं; अन्यत्--अन्य साधनों से; तत्र--इस मामले में;कदाचन--कभी भी।
यदि क्षणिक असावधानी से कोई योगी अकस्मात् कोई गर्हित ( निन्दित ) कर्म कर बैठताहै, तो उसे चाहिए कि वह योगाभ्यास द्वारा उस पाप को कभी भी किसी अन्य विधि का प्रयोगकिए बिना जला डाले।
स्वे स्वेईधिकारे या निष्ठा स गुण: परिकीर्तितः ।कर्मणां जात्यशुद्धानामनेन नियम: कृतः ।गुणदोषविधानेन सड्जानां त्याजनेच्छया ॥
२६॥
स्वे स्वे--अपने अपने; अधिकारे--पद पर; या--जो; निष्ठा--स्थायी अभ्यास; स:ः--वह; गुण:--पुण्य; परिकीर्तित:--ठीक सेघोषित; कर्मणाम्--सकाम कर्मों का; जाति--स्वभाव से; अशुद्धानाम्-- अशुद्ध; अनेन--इससे; नियम:--अनुशासनात्मकनियंत्रण; कृतः--स्थापित किया जाता है; गुण--पुण्य का; दोष--पाप का; विधानेन--नियम द्वारा; सड्भानामू--विभिन्न प्रकारकी इन्द्रियतृप्ति की संगति से; त्याजन--विरक्ति की; इच्छया--इच्छा से
यह हढ़तापूर्वक घोषित है कि योगियों का अपने अपने आध्यात्मिक पदों पर निरन्तर बनेरहना असली पुण्य है और जब कोई योगी अपने नियत कर्तव्य की अवहेलना करता है, तो वहपाप होता है। जो पाप तथा पुण्य के इस मानदण्ड को, इन्द्रियतृप्ति के साथ समस्त पुरानी संगतिको सच्चे दिल से त्यागने की इच्छा से अपनाता है, वह भौतिकतावादी कर्मों को वश में करलेता है, जो स्वभाव से अशुद्ध होते हैं।
जातश्रद्धो मत्कथासु निर्विण्ण: सर्वकर्मसु ।वेद दुःखात्मकान्कामान्परित्यागेप्यनी श्वर: ॥
२७॥
ततो भजेत मां प्रीतः श्रद्धालुर्टढनिश्चय: ।जुषमाणश्च तान्कामान्दु:खोदर्काश्च गहयन् ॥
२८ ॥
जात--जागृत; श्रद्धः--श्रद्धा; मत्ू-कथासु--मेरे यश के वर्णनों में; निर्विण्ण:--ऊबा हुआ; सर्व--सभी; कर्मसु--कामों में;वेद--जानता है; दुःख--दुख; आत्मकानू--से निर्मित; कामान्ू--सभी प्रकार की इन्द्रियतृप्ति; परित्यागे--परित्याग करने में;अपि--यद्यपि; अनी श्वर: --असमर्थ; ततः --ऐसी श्रद्धा के कारण; भजेत--पूजा करे; माम्--मेरी; प्रीत:--सुखी रहते हुए;श्रद्धालु;--श्रद्धावान्; हढ--पक्का; निश्चयः--संकल्प; जुषमाण: --में संलग्न; च-- भी; तानू--उन; कामान्--इन्द्रियतृप्ति;दुःख--दुख; उदर्कान्ू-देने वाले; च-- भी; गहयन्--के लिए पश्चाताप करते हुए।
मेरे यश की कथाओं में श्रद्धा उत्पन्न करके, सारे भौतिक कार्यो से ऊब कर और यह जानतेहुए भी कि सभी प्रकार की इन्द्रियतृप्ति दुखदायी है, किन्तु इन्द्रिय-भोग त्याग पाने में असमर्थ,मेरे भक्त को चाहिए कि वह सुखी रहे और अत्यन्त श्रद्धा तथा पूर्ण विश्वास के साथ मेरी पूजाकरे। कभी कभी इन्द्रिय-भोग में लगे रहते हुए भी, मेरा भक्त जानता है कि समस्त प्रकार कीइन्द्रियतृप्ति का परिणाम दुख है और वह ऐसे कार्यों के लिए सच्चे दिल से पश्चाताप करता है।
प्रोक्तेन भक्तियोगेन भजतो मासकृन्मुने: ।'कामा हृदय्या नशएयन्ति सर्वे मयि हृदि स्थिते ॥
२९॥
प्रोक्तेन--कही गईं; भक्ति-योगेन--भक्ति द्वारा; भजत:--पूजा करते हुए; मा--मुझको; असकृत्--निरन्तर; मुनेः--मुनि की;'कामाः--भौतिक इच्छाएँ; हृदय्या:--हृदय में; नश्यन्ति--नष्ट हो जाती हैं; सर्वे--सभी; मयि--मुझमें; हृदि--जब हृदय;स्थिते--हढ़ता से स्थित है।
जब बुद्धिमान व्यक्ति मेरे द्वारा बताई गई प्रेमाभक्ति के द्वारा निरन्तर मेरी पूजा करने में लगजाता है, तो उसका हृदय हृढ़तापूर्वक मुझ में स्थित हो जाता है। इस तरह उसके हृदय के भीतरकी सारी भौतिक इच्छाएँ नष्ट हो जाती हैं।श़ भिद्यते हृदयग्रन्थिए्छिद्यन्ते सर्वसंशया: ।क्षीयन्ते चास्य कर्माणि मयि दृष्टेडरिखलात्मनि ॥
३०॥
भिद्यते--टूट कर, छेद कर; हदय--हृदय; ग्रन्थि:--गाँठें; छिद्यन्ते--खण्ड खण्ड कर; सर्व--सभी; संशया:--आशंकाएँ;क्षीयन्ते--समाप्त हो जाती हैं; च--तथा; अस्य--उसके; कर्मणि--कर्मों की श्रृंखला; मयि--जब मैं; दृष्टे--दिखता हूँ;अखिल-आत्मनि-- भगवान् के रूप में |
जब मैं उसे भगवान् के रूप में दिखता हूँ, तो उसके हृदय की गाँठ खुल जाती है, सारे संशयछिन्न-भिन्न हो जाते हैं तथा सकाम कर्मो की श्रृंखला समाप्त हो जाती है।
तस्मान्मद्धक्तियुक्तस्थ योगिनो वै मदात्मनः ।नज्ञानं न च वैराग्यं प्रायः श्रेयो भवेदिह ॥
३१॥
तस्मातू--इसलिए; मत्-भक्ति-युक्तस्थ--मेरी प्रेमाभक्ति में लगे रहने वाले का; योगिन:--भक्त का; बै--निश्चय ही; मत्ू-आत्मन:--जिसका मन मुझ में स्थिर है; न--नहीं; ज्ञाममू--ज्ञान का अनुशीलन; न--न तो; च-- भी; वैराग्यम्--वैराग्य काअनुशीलन; प्राय: --सामान्यतया; श्रेयः:--सिद्धि प्राप्त करने के साधन; भवेत्--होए; इह--इस जगत में |
इसलिए वह भक्त जो मुझ पर अपना मन स्थिर करके मेरी प्रेमाभक्ति में लगा रहता है, उसकेलिए ज्ञान का अनुशीलन तथा वैराग्य सामान्यतया इस जगत में सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करने केसाधन नहीं हैं।
यत्कर्मभिर्यत्तपसा ज्ञानवैराग्यतश्न यत् ।योगेन दानधर्मेण श्रेयोभिरितररषि ॥
३२॥
सर्व मद्धक्तियोगेन मद्धक्तो लभतेञ्ञसा ।स्वर्गापवर्ग मद्धाम कथजञ्ञिद्यदि वाउ्छति ॥
३३॥
यत्ू--जो प्राप्त किया जाता है; कर्मभिः--सकाम कर्म द्वारा; यत्ू--जो; तपसा--तपस्या से; ज्ञान--ज्ञान के अनुशीलन से;वैराग्यत:ः--वैराग्य से; च-- भी; यत्--जो प्राप्त किया जाता है; योगेन--योग-प्रणाली द्वारा; दान--दान से; धर्मेण-- धार्मिककार्यों से; श्रेयोभि:--जीवन को शुभ बनाने की विधियों से; इतरैः--अन्यों द्वारा; अपि--निस्सन्देह; सर्वम्--समस्त; मत्-भक्ति-योगेन--मेरी प्रेमाभक्ति द्वारा; मतू-भक्त:--मेरा भक्त; लभते--प्राप्त करता है; अज्लआ--अनायास; स्वर्ग--स्वर्ग जाना;अपवर्गम्--सारे कष्ट से मोक्ष; मत्-धाम--मेरे धाम में निवास; कथज्जित्--किसी न किसी तरह; यदि--यदि; वज्छति--चाहताहै
इन सारी वस्तुओं को जो सकाम कर्म, तपस्या, ज्ञान, वैराग्य, योग, दान, धर्म तथा जीवनको पूर्ण बनाने वाले अन्य सारे साधनों से प्राप्त की जाती हैं, मेरा भक्त मेरे प्रति भक्ति सेअनायास प्राप्त कर लेता है। यदि मेरा भक्त किसी न किसी तरह स्वर्ग जाने, मोक्ष या मेरे धाम मेंनिवास करने की इच्छा करता है, तो वह ऐसे वर सरलता से प्राप्त कर लेता है।
न किश्ञित्साधवो धीरा भक्ता होकान्तिनो मम ।वाउछन्त्यपि मया दत्तं कैवल्यमपुनर्भवम् ॥
३४॥
न--कभी नहीं; किल्ञित्ू--कुछ भी; साधव:--सन्त पुरुष; धीरा:--गहन बुद्धि से; भक्ता:--भक्तगण; हि--निश्चय ही;एकान्तिन:--पूर्णतया विरक्त; मम--मुझको; वाउछन्ति--चाहते हैं; अपि--निस्सन्देह; मया--मेरे द्वारा; दत्तम्ू--दिया हुआ;कैवल्यम्--मोक्ष; अपुन:-भवम्--जन्म तथा मृत्यु से छुटकारा
चूँकि मेरे भक्तमण साधु आचरण के तथा गम्भीर बुद्धि वाले होते हैं, इसलिए वे अपने आपको पूरी तरह मुझमें समर्पित कर देते हैं और मेरे अतिरिक्त कुछ भी नहीं चाहते। यहाँ तक कियदि मैं उन्हें जन्म-मृत्यु से मुक्ति भी प्रदान करता हूँ, तो वे इसे स्वीकार नहीं करते।
नैरपेक्ष्यं परं प्राहुर्नि:श्रेयसमनल्पकम् ।तस्मान्निराशिषो भक्तिर्निरपेक्षस्थ मे भवेत् ॥
३५॥
नैरपेक्ष्यमू-- भक्ति के अतिरिक्त कुछ भी न चाहने वाला; परम्--सर्वश्रेष्ठ; प्राहु:--कहा जाता है; नि: श्रेयसम्--मोक्ष की सर्वोच्चअवस्था; अनल्पकम्-महान्; तस्मात्ू--इसलिए; निराशिष:--निजी लाभ न चाहने वाले की; भक्ति: --प्रेमा भक्ति;निरपेक्षस्थ--मुझे ही देखने वाले का; मे--मुझ तक; भवेत्--उठ सकता है।
कहा जाता है कि पूर्ण विरक्ति स्वतंत्रता की सर्वोच्च अवस्था है। इसलिए जिसकी कोईनिजी इच्छा नहीं होती और जो निजी लाभ के पीछे नहीं भागता, वह मेरी प्रेमाभक्ति प्राप्त कर सकता है।
न मस्येकान्तभक्तानां गुणदोषोद्धवा गुणा: ।साधूनां समचित्तानां बुद्धेः परमुपेयुषाम् ॥
३६॥
न--नहीं; मयि--मुझमें; एक-अन्त--शुद्ध; भक्तानामू- भक्तों का; गुण--अच्छे के रूप में संस्तुत; दोष--अनुपयुक्त के रूपमें वर्जित; उद्धवा:--ऐसी वस्तुओं से उत्पन्न; गुणा:--पाप तथा पुण्य; साधूनामू-- भौतिक लालसाओं से मुक्त लोगों के; सम-चित्तानामू--सभी परिस्थितियों में स्थिर आध्यात्मिक चेतना बनाये रखने वालों के; बुद्धेः--भौतिक बुद्धि से समझा जा सकनेवाला; परम्--परे; उपेयुषाम्--प्राप्त कर लेने वालों के
इस जगत के अच्छे तथा बुरे से उत्पन्न भौतिक पुण्य तथा पाप मेरे शुद्ध भक्तों के अन्तःकरणमें नहीं रह सकते क्योंकि वे भौतिक लालसा से मुक्त होने के कारण सभी परिस्थितियों मेंआध्यात्मिक चेतना स्थिर बनाये रखते हैं। निस्सन्देह, ऐसे भक्तों ने भौतिक बुद्धि से अतीत मुझभगवान् को पा लिया है।
एवमेतान्मया दिष्टाननुतिष्ठन्ति मे पथ: ।क्षेमं विन्दन्ति मत्स्थानं यद्वृह्य परमं विदु: ॥
३७॥
एवम्--इस प्रकार; एतान्ू--ये; मया--मेरे द्वारा; दिष्टान्-- आदेश दिये; अनुतिष्ठन्ति--पालन करते हैं; मे--मुझको; पथ:--प्राप्त करने का साधन; क्षेमम्ू--मोह से छुटकारा; विन्दन्ति--प्राप्त करते हैं; मत्-स्थानम्--मेरा धाम; यत्--जो; ब्रह्म परमम्--परब्रह्म; विदुः--जानते हैं
जो लोग मेरे द्वारा सिखलाये गये, मुझे प्राप्त करने के इन नियमों का गम्भीरता से पालनकरते हैं, वे मोह से छुटकारा पा लेते हैं और मेरे धाम में पहुँचने पर वे परब्रह्म को भलीभाँतिसमझते हैं।
21. कृष्ण द्वारा वैदिक पथ की व्याख्या
श्रीभगवानुवाचय एतान्मत्पथो हित्वा भक्तिज्ञानक्रियात्मकान् ।क्षुद्रान्कामां श्वलै: प्राणैर्जुषन्त: संसरन्ति ते ॥
१॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; ये--जो; एतान्ू--इन; मत्-पथ: --मुझे प्राप्त करने का साधन; हित्वा--त्याग कर;भक्ति--भक्ति; ज्ञान--वैश्लेषिक दर्शन; क्रिया--नियमित कर्म; आत्मकानू--से युक्त; क्षुद्रानू--नगण्य; कामान्--इन्द्रियतृप्ति;चलै:--चंचल; प्राणैः--इन्द्रियों से; जुषन्त:--अनुशीलन करते हुए; संसरन्ति--संसार को भोगते हैं; ते--वे
भगवान् ने कहा : जो मुझे प्राप्त करने वाली उन विधियों को, जो भक्ति, वैश्लेषिक दर्शन( ज्ञान ) तथा नियत कर्मों की नियमित सम्पन्नता ( कर्म-योग ) से युक्त हैं, त्याग देता है औरभौतिक इन्द्रियों से विचलित होकर श्षुद्र इन्द्रियतृष्ति में लग जाता है, वह निश्चय ही बारम्बारसंसार-चक्र में फँसता जाता है।
स्वे स्वेडईधिकारे या निष्ठा स गुण: परिकीर्तितः ।विपर्ययस्तु दोष: स्थादुभयोरेष निश्चय: ॥
२॥
स्वे स्वे--अपने अपने; अधिकारे--पद में; या--ऐसी; निष्ठा--स्थिरता; सः--वह; गुण: --पुण्य; परिकीर्तित:--घोषित;विपर्यय:ः --विपरीत; तु--निस्सन्देह; दोष:--पाप; स्थात्ू--है; उभयो:--दोनोंमें; एघ:--यह; निश्चय:--निश्चित मत
अपने पद पर स्थिरता वास्तविक शुद्धि कहलाती है और अपने पद से विचलन अशुद्धि है।इस तरह दोनों को निश्चित किया जाता है।
शुद्धयशुद्धी विधीयेते समानेष्वषि वस्तुषु ।द्रव्यस्य विचिकित्सार्थ गुणदोषौ शुभाशुभौ ।धर्मार्थ व्यवहारार्थ यात्रार्थमिति चानघ ॥
३॥
शुद्धि--शुद्धि; अशुद्धी --तथा अशुदर्द्धि; विधीयेते--स्थापित की जाती हैं; समानेषु--समान श्रेणी वालों में; अपि--निस्सन्देह;वस्तुषु--वस्तुओं में; द्रव्यस्य--विशेष वस्तु का; विचिकित्सा--मूल्यांकन; अर्थम्-के हेतु; गुण-दोषौ--अच्छे तथा बुरे गुण;शुभ-अशुभौ--शुभ तथा अशुभ; धर्म-अर्थम्--धार्मिक कार्यो के लिए; व्यवहार-अर्थम्--सामान्य व्यवहार के हेतु; यात्रा-अर्थम्--अपनी शारीरिक दीर्घजीविता ( अतिजीवन ) हेतु; इति--इस प्रकार; च-- भी; अनघ--हे निष्पाप
हे निष्पाप उद्धव, यह समझने के लिए कि जीवन में क्या उचित है, मनुष्य को किसी एकपदार्थ का मूल्यांकन उसकी विशेष कोटि के भीतर ही करना चाहिए। इस तरह धर्म काविश्लेषण करते समय मनुष्य को शुद्धि तथा अशुद्धि पर विचार करना चाहिए। इसी प्रकारअपने सामान्य व्यवहार में मनुष्य को अच्छे तथा बुरे में अन्तर करना चाहिए और अपनी शारीरिकदीर्घजीविता ( अतिजीवन ) के लिए उसे पहचानना चाहिए कि क्या शुभ है और क्या अशुभ है।
दर्शितोयं मयाचारो धर्ममुद्ठहतां धुरम् ॥
४॥
दर्शितः--दिखलाया गया; अयम्--यह; मया--मेरे द्वारा; आचार:--जीवन-शैली; धर्मम्-धार्मिक सिद्धान्त; उद्दहतामू--वहनकरने वालों के लिए; धुरम्-- भार।
मैंने जीवन की यह शैली उन लोगों के लिए प्रकट की है, जो संसारी धार्मिक सिद्धान्तों काभार वहन कर रहे हैं।
भूम्यम्ब्वग्न्यनिलाकाशा भूतानां पञ्ञधातव: ।आब्रह्मस्थावरादीनां शारीरा आत्मसंयुता: ॥
५॥
भूमि--पृथ्वी; अम्बु--जल; अग्नि-- अग्नि; अनिल--वायु; आकाशा: -- आकाश; भूतानाम्--सारे बद्धजीवों का; पञ्ञ--पाँच; धातव:ः--मूलभूत तत्त्व; आ-ब्रह्म--ब्रह्मा से लेकर; स्थावर-आदीनाम्--जड़ प्राणियों तक; शारीरा:--शरीरों के निर्माणहेतु प्रयुक्त; आत्म--परमात्मा; संयुता:--समान रूप से सम्बन्धित |
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश--ये पाँच मूलभूत तत्त्व हैं जिनसे ब्रह्म से लेकरजड़ प्राणियों तक समस्त बद्धजीवों के शरीर बने हैं। ये सारे तत्त्व एक भगवान् से उद्भूत होतेहैं।
वेदेन नामरूपाणि विषमाणि समेष्वपि ।धातुषूद्धव कल्प्यन्त एतेषां स्वार्थसिद्धये ॥
६॥
बेदेन--वैदिक वाड्मय द्वारा; नाम--नाम; रूपाणि--तथा रूप; विषमाणि--भिन्न; समेषु--जो समान हैं; अपि--निस्सन्देह;धातुषु--पाँच तत्त्वों ( से बने शरीरों ) में; उद्धव--हे उद्धव; कल्प्यन्ते--बने हुए हैं; एतेषाम्--इनमें से, जीव; स्व-अर्थ--निजीलाभ की; सिद्धये--प्राप्ति के लिए
हे उद्धव, यद्यपि सारे शरीर इन्हीं पाँच तत्त्वों से बने हैं और इसीलिए समान हैं, किन्तु वैदिकग्रंथ ऐसे शरीरों की कल्पना भिन्न भिन्न नामों तथा रूपों में करते हैं जिससे जीव अपने जीवन-लक्ष्य प्राप्त कर सकें ।
text:देशकालादिभावानां वस्तूनां मम सत्तम । गुणदोषौ विधीयेते नियमार्थ हि कर्मणाम् ॥
७॥
देश--स्थान; काल--समय; आदि--इत्यादि; भावानाम्- भावों का; वस्तूनाम्--वस्तुओं का; मम--मेरा; सत्-तम--हे परम सन्त उद्धव; गुण-दोषौ--पुण्य तथा पाप; विधीयेते--स्थापित किये जाते हैं; नियम-अर्थम्--प्रतबिन्ध के लिए; हि--निश्चय ही; कर्मणाम्-सकाम कर्मों के |
हे सन्त उद्धव, मैंने भौतिकतावादी कर्मों पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए यह सुनिश्चित कर दिया है कि देश, काल तथा सारी भौतिक वस्तुओं में से कौन उचित है और कौन अनुचित है। अकृष्णसारो देशानामब्रह्मण्योसुचिर्भवेत् ।कृष्णसारोप्यसौवीरकीकटासंस्कृतेरिणम् ॥
८ ॥
अकृष्ण-सार:--धब्बारहित बारहसिंगा; देशानाम्--स्थानों में; अब्रह्मण्य:--जहाँ ब्राह्मणों के प्रति भक्ति-भाव नहीं है;अशुचि:--दूषित; भवेत्-- है; कृष्ण-सार:ः --काले धब्बों वाले बारहसिंगे; अपि-- भी; असौवीर--साधु स्वभाव वाले व्यक्तियोंसे रहित; कीकट--गया प्रदेश ( जहाँ निम्न जाति के लोग रहते हैं ); असंस्कृत--जहाँ के लोग संस्कार या स्वच्छता नहीं बरतते;ईरणम्--जहाँ की भूमि बंजर है।
स्थानों में से वे स्थान दूषित माने जाते हैं, जो धब्बेदार बारहसिंगों से रहित हैं, जो ब्राह्मणोंके प्रति भक्ति से रहित है, जहाँ धब्बेदार बारहसिंगे होते हैं, किन्तु जो सम्माननीय व्यक्तियों सेरहित होते हैं तथा कीकट जैसे प्रदेश एवं वे स्थान जहाँ स्वच्छता तथा संस्कारों की अवहेलनाकी जाती है, जहाँ मांस-भक्षकों का प्राधान्य होता है या जहाँ पृथ्वी बंजर होती है।
कर्मण्यो गुणवान्कालो द्रव्यत: स्वत एव वा ।यतो निवर्तते कर्म स दोषोकर्मक: स्मृतः ॥
९॥
कर्मण्य:--नियत कार्य करने के लिए अनुकूल; गुणवान्--शुद्ध; काल:--समय; द्रव्यतः--शुभ वस्तुओं की प्राप्ति से;स्वतः--अपने आप; एव--निस्सन्देह; वा--अथवा; यत:--जिस ( काल ) के कारण; निवर्तते--अवरुद्ध होता है; कर्म--कर्तव्य; सः--वह ( काल ); दोष: --अशुद्ध; अकर्मक:--उचित ढंग से कर्म करने के लिए अनुपयुक्त; स्मृत:--माना जाता है।
कोई विशेष काल तब शुद्ध माना जाता है जब वह अपने स्वभाव से अथवा उपयुक्त साज-सामग्री प्राप्त होने से मनुष्य के नियत कर्तव्य को करने के लिए उपयुक्त हो। वह काल जो किसीके कर्तव्य में बाधक हो अशुद्ध माना जाता है।
द्रव्यस्य शुद्धवशुद्धी च द्र॒व्येण वचनेन च ।संस्कारेणाथ कालेन महत्वाल्पतयाथ वा ॥
१०॥
द्रव्यस्थ--एक वस्तु की; शुद्धि--शुद्धि, शुद्धता; अशुद्धी --या अशुद्धि; च--तथा; द्रव्येण -- अन्य वस्तु से; वचनेन--वाणीसे; च--तथा; संस्कारेण--संस्कार द्वारा; अथ--या; कालेन--काल द्वारा; महत्व-अल्पतया--महानता या लघुता द्वारा; अथबा--अथवा, या कि |
किसी वस्तु की शुद्धि या अशुद्धि की स्थापना दूसरी वस्तु के सम्प्रयोग से, शब्दों से,अनुष्ठानों ( संस्कारों ) से, काल के प्रभाव से अथवा आपेक्षिक महत्त्व से की जाती है।
शक्त्याशकत्याथ वा बुद्धया समृन्द्या च यदात्मने ॥
अं कुर्वन्ति हि यथा देशावस्थानुसारत: ॥
११॥
शक्त्या--सापेक्ष शक्ति से; अशक्त्या--क्लीवता, नपुंसकता; अथ वा--या; बुद्धया--बुद्धि से; समृद्धया--ऐ शश्वर्य से; च--तथा; यत्--जो; आत्मने-- अपने से; अघम्--पापकर्म; कुर्वन्ति--करते हैं; हि--निस्सन्देह; यथा--वास्तव में; देश--स्थान;अवस्था--अथवा अपनी दशा के; अनुसारतः --अनुसार |
किसी व्यक्ति की शक्ति अथवा दुर्बलता, बुद्धि, सम्पत्ति, स्थान तथा भौतिक स्थिति केअनुसार उस व्यक्ति पर अशुद्ध वस्तुएँ पाप लगा सकती हैं अथवा नहीं भी लगा सकतीं।
धान्यदार्वस्थितन्तूनां रसतैजसचर्मणाम् ।कालवाय्वग्निमृत्तोयै: पार्थिवानां युतायुतैः ॥
१२॥
धान्य--अन्न; दारु--लकड़ी ( सामान्य तथा पवित्र पात्रों के रूप में ); अस्थि--हड्डी ( यथा हाथी-दाँत ); तन्तूनामू--तथा धागेकी; रस--द्रव ( तेल, घी इत्यादि ); तैजस--तेजवान वस्तुएँ ( यथा स्वर्ण ); चर्मणाम्--तथा चमड़े की; काल--समय; वायु --हवा; अग्नि--आग; मृत्-मिट्टी; तोयैः--तथा जल से; पार्थिवानाम्--( तथा ) मिट्टी की बनी वस्तुओं ( यथा चक्र, पात्र, ईंटे );युत--से युक्त; अयुतैः--या पृथक्-पृथक् |
अन्न, लकड़ी के पात्र, अस्थि से बने पदार्थ, धागे, द्रव, अग्नि से प्राप्त वस्तुएँ, चमड़े तथामिट्टी से बनी वस्तुएँ--ये सब काल, वायु, अग्नि, पृथ्वी तथा जल के द्वारा अलग अलग सेअथवा उनके मिल जाने से शुद्ध हो जाती हैं।
अमेध्यलिप्तं यद्येन गन्धलेपं व्यपोहति ।भजते प्रकृतिं तस्य तच्छौचं तावदिष्यते ॥
१३॥
अमेध्य--अशुद्ध वस्तु से; लिप्तम्-छू कर; यत्--जो वस्तु; येन--जिससे; गन्ध--दुर्गन््ध; लेपमू--तथा अशुद्ध लेप;व्यपोहति--त्याग देती है; भजते--दूषित वस्तु पुनः धारण कर लेती है; प्रकृतिमू--अपना पूर्व स्वभाव; तस्य--उस वस्तु का;तत्--वह प्रयोग; शौचम्--शुद्धी करण; तावत्--उस हद तक; इष्यते--माना जाता है
कोई शुद्ध करने वाला पदार्थ तब उपयुक्त माना जाता है जब उसके लगाने से किसी दूषितवस्तु की दुर्गध या गन्दी परत हट जाय और वह अपने पूर्व स्वभाव को प्राप्त कर ले।
स्नानदानतपोवस्थावीर्यसंस्कारकर्मभि: ।मत्स्मृत्या चात्मन: शौचं शुद्ध: कर्माचरेद्दूवज: ॥
१४॥
स्नान--नहाना; दान--दान देना; तपः--तपस्या; अवस्था--तथा अपनी उम्र के कारण; वीर्य--सामर्थ्य; संस्कार-- संस्कारद्वारा; कर्मभि: --तथा नियत कार्यो से; मतू-स्मृत्या--मेरा स्मरण करके; च-- भी; आत्मन:--आत्मा की; शौचम्--शुद्धि;शुद्धः--शुद्ध; कर्म--कर्म; आचरेत्--करे; द्विज:--द्विजन्मा मनुष्य |
स्नान, दान, तप, आयु, निजी बल ( सामर्थ्य ), संस्कार, नियत कर्म तथा इन सबसे ऊपरमेरे स्मरण द्वारा आत्म-शुद्धि की जा सकती है। ब्राह्मण तथा अन्य द्विजातियों को अपना अपनाविहित कर्म करने के पूर्व ठीक से शुद्ध हो लेना चाहिए।
मन्त्रस्थ च परिज्ञानं कर्मशुद्धिर्मदर्पणम् ।धर्म: सम्पद्यते षड्िभरधर्मस्तु विपर्यय: ॥
१५॥
मन्त्रस्थ--मंत्र ( की शुद्धि ) का; च--तथा; परिज्ञानम्-सही ज्ञान; कर्म--कर्म की; शुद्धिः:--शुर्द्धि; मत्-अर्पणम्--मुझेअर्पित करना; धर्म:--धार्मिकता; सम्पद्यते--प्राप्त की जाती है; पड़िभः--छः के ( स्थान, काल, वस्तु, कर्ता, मंत्र तथा कर्म कीशुद्धि ) द्वारा; अधर्म: --अधर्म; तु--लेकिन; विपर्यय:--अन्यथा |
मंत्र तब शुद्ध होता है जब उसका सही सही उच्चारण किया जाय तथा कोई कर्म तब शुद्धबनता है, जब वह मुझे अर्पित किया जाय। इस तरह स्थान, काल, वस्तु, कर्ता, मंत्र तथा कर्मकी शुद्धि से मनुष्य धार्मिक बनता है और इन छहों की उपेक्षा करने से, वह अधार्मिक मानाजाता है।
क्वचिद्गुणोपि दोष: स्यादहोषोपि विधिना गुण: ।गुणदोषार्थनियमस्तद्धिदामेव बाधते ॥
१६॥
क्वचित्--कभी; गुण:--पुण्य; अपि-- भी; दोष:--पाप; स्थात्ू--बन जाता है; दोष:--पाप; अपि--भी; विधिना--वैदिकआदेश के बल पर; गुण:--पुण्य; गुण-दोष--पुण्य तथा पाप में; अर्थ--के मामले में; नियम:--विधान; तत्--उनके;भिदाम्--अन्तर; एव--वास्तव में; बाधते--नष्ट करता है।
कभी पुण्य पाप बनता है और कभी वैदिक आदेशों के बल पर पाप पुण्य बन जाता है। ऐसेविशिष्ट नियमों से पुण्य और पाप का स्पष्ट अन्तर मिट जाता है।
समानकर्माचरणं पतितानां न पातकम् ।औत्पत्तिको गुण: सड़ो न शयानः पतत्यध: ॥
१७॥
समान--बराबर; कर्म--कर्म का; आचरणम्--सम्पन्न किया जाना; पतितानाम्--पतितों का; न--नहीं; पातकम्ू--पतन काकारण; औत्पत्तिक:--स्वभाव द्वारा निर्देशित; गुण:--सद्गुण बन जाता है; सड्र:--भौतिक सात्निध्य; न--नहीं; शयान:--लेटा हुआ; पतति--गिरता है; अध:--और नीचे
जिन कर्मों से एक उच्चासीन व्यक्ति नीचे गिरता है, उन्हीं के द्वारा वे व्यक्ति नीचे नहीं गिरतेजो पहले से गिरे हुए ( पतित ) हैं। निस्सन्देह, जमीन पर लेटा रहने वाला व्यक्ति और नीचे कैसेगिर सकता है? वह भौतिक संगति, जो मनुष्य के अपने स्वभाव द्वारा आदिष्ट होती है, सदगुणमानी जाती है।
यतो यतो निवर्तेत विमुच्येत ततस्ततः ।एघ धर्मो नृणां क्षेमः शोकमोहभयापह: ॥
१८॥
यतः यतः--जिस जिस से; निवर्तेत--दूर रहता है; विमुच्येत--छूट जाता है; ततः ततः--उस उस से; एब:--यह; धर्म:--धर्म-प्रणाली; नृणाम्--मनुष्यों का; क्षेम: --कल्याण का मार्ग; शोक--दुख; मोह--मोह; भय--तथा भय; अपहः--मिटा देता है
किसी पापपूर्ण या भौतिकतावादी कर्म से अपने को दूर रख कर, मनुष्य उसके बन्धन सेमुक्त हो जाता है। ऐसा त्याग मनुष्यों के धार्मिक तथा कल्याणप्रद जीवन की आधारभूमि है और यह सारे शोक, मोह तथा भय को भगा देता है।
विषयेषु गुणाध्यासात्पुंस: सड्गस्ततो भवेत् ।सद्जात्तत्र भवेत्काम: कामादेव कलिनृणाम् ॥
१९॥
विषयेषु--इन्द्रियतृप्ति की वस्तुओं में; गुण-अध्यासात्--उन्हें अच्छा मानने के कारण; पुंसः--मनुष्य की; सड्र:--आसक्ति;ततः--इस कल्पना से; भवेत्--हो जाता है; सड्भरातू--भौतिक संगति से; तत्र--इस प्रकार; भवेत्--उत्पन्न होता है; काम:--काम; कामात्--काम से; एव-- भी; कलि:ः--कलह; नृणाम्--मनुष्यों में |
जो व्यक्ति भौतिक इन्द्रिय-विषयों को अभीष्ट मान लेता है, वह निश्चित रूप से उनमें आसक्तहो जाता है। ऐसी आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और यही काम लोगों में कलह उत्पन्न कराताहै।
कलेदर्विषह: क्रोधस्तमस्तमनुवर्तते ।तमसा ग्रस्यते पुंसश्चेतना व्यापिनी द्रुतम् ॥
२०॥
कलेः--कल ह से; दुर्विषह:--असहा; क्रोध: --क्रो ध; तम:--अज्ञान; तम्ू--उस क्रोध को; अनुवर्तते--पीछा करता है;तमसा--अज्ञान से; ग्रस्यते--पकड़ा जाता है; पुंस:--मनुष्य की; चेतना--चेतना; व्यापिनी--विस्तृत; द्रुतम्--तेजी से |
कलह से असह्ाय क्रोध उत्पन्न होता है और उससे अज्ञान का अंधकार उत्पन्न होता है। यहअज्ञान तुरन्त ही मनुष्य की विस्तृत चेतना पर हावी हो जाता है।
तया विरहितः साधो जन्तु: शून्याय कल्पते ।ततोडस्य स्वार्थविश्रृशो मूर्च्छितस्थ मृतस्थय च ॥
२१॥
तया--उस बुद्धि से; विरहित:ः--रहित, विहीन; साधो--हे साधु उद्धव; जन्तु:--प्राणी; शून्याय--शून्य; कल्पते--बन जाता है;ततः--फलस्वरूप; अस्य--उसका; स्व-अर्थ--जीवन-लक्ष्य से; विभ्रंश:--पतन; मूर्च्छितस्थ--जड़वत् उस व्यक्ति का;मृतस्य--मृत; च--तथा।
हे साधु उद्धव, असली बुद्धि से विहीन व्यक्ति को हर वस्तु से रहित माना जाता है। वहजीवन के वास्तविक लक्ष्य से हट कर उसी तरह मन्द ( जड़ ) पड़ जाता है, जिस तरह कि मृतमनुष्य।
विषयाभिनिवेशेन नात्मानं वेद नापरम् ।वृक्ष जीविकया जीवन्व्यर्थ भस्त्रेव यः श्वसन् ॥
२२॥
विषय--इन्द्रियतृप्ति में; अभिनिवेशेन--अति लिप्त होने से; न--नहीं; आत्मानम्--अपने को; वेद--जानता है; न--न तो;अपरम्--दूसरे को; वृक्ष--पेड़ की; जीवकया--जीवन-शैली द्वारा; जीवन्ू--जीते हुए; व्यर्थम्--व्यर्थ; भस्त्रा इब--धौंकनी केसमान; यः--जो; श्वसन्--साँस लेता है |
इन्द्रियतृप्ति में लीन रहने के कारण मनुष्य अपने आपको या दूसरों को पहचान नहीं पाता।वह वृक्ष की भाँति अज्ञान में व्यर्थ ही जीवित रह कर, धौंकनी की तरह श्वास मात्र लेता रहता है।
फलश्रुतिरियं नृणां न श्रेयो रोचनं परम् ।श्रेयोविवश्षया प्रोक्ते यथा भेषज्यरोचनम् ॥
२३॥
फल- श्रुतिः--पुरस्कार का वचन देने वाले शास्त्र-कथन; इयम्--ये; नृणाम्--मनुष्यों के लिए; न--नहीं हैं; श्रेय: --सर्वोच्चकल्याण; रोचनम्--प्रलोभन; परम्--मात्र; श्रेय: --चरम कल्याण; विवक्षया--कहने के विचारसे; प्रोक्तम्ू--कहा हुआ;यथा--जिस तरह; भेषज्य--औषधि लेने के लिए; रोचनम्--प्रलोभन, फुसलावा।
फल प्रदान करने का वादा करने वाले श्रुति के वचन मनुष्यों को परम कल्याण दिये जानेकी संस्तुति नहीं करते अपितु वे लाभप्रद धार्मिक कर्म करने के लिए प्रलोभन मात्र हैं, जिस तरहकि बच्चे को लाभप्रद औषधि पीने के लिए फुसलाने हेतु मिश्री देने का वादा किया जाता है।
उत्पत्त्यैव हि कामेषु प्राणेषु स्वजनेषु च ।आसक्तमनसो मर्त्या आत्मनोनर्थहेतुषु ॥
२४॥
उत्पत्त्या एब--मात्र जन्म से; हि--निस्सन्देह; कामेषु--स्वार्थपूर्ण इच्छाओं की वस्तुओं में; प्राणेषु--( आयु, इन्द्रिय-कर्म, शक्तितथा संभोग-शक्ति ) जैसे महत्त्वपूर्ण कार्यों में; स्व-जनेषु-- अपने परिवार के सदस्यों में; च--तथा; आसक्त-मनसः--मन केभीतर आसक्त होकर; मर्त्या:--मर्त्य मनुष्य लोग; आत्मन:--अपनी ही आत्मा के; अनर्थ--उद्देश्य को नष्ट करने वाले; हेतुषु--कारणों में
संसार में जन्म लेने से ही सारे मनुष्य अपने मन में इन्द्रियतृप्ति, दीर्घायु, इन्द्रिय-कर्म, बल,संभोग-शक्ति तथा मित्रों एवं परिवार के प्रति आसक्त हो जाते हैं। इस तरह उनके मन ऐसी बातमें लीन रहते हैं जिनसे उनके वास्तविक स्वार्थ को धक्का लगता है।
नतानविदुष: स्वार्थ भ्राम्यतो वृजिनाध्वनि ।कथं युज्ज्यात्पुनस्तेषु तांस्तमो विशतो बुध: ॥
२५॥
नतान्--विनीत; अविदुष:--अज्ञानी; स्व-अर्थम्--अपने हित के; भ्राम्यत:--घूमते हुए; वृजिन--संकट के; अध्वनि--मार्गपर; कथम्-किस कार्य के लिए; युज्ज्यात्--लगा सकेंगे; पुन:ः--आगे भी; तेषु--उनमें ( इन्द्रियतृप्ति के गुण में ); तानू--उनको; तम:ः--अंधकार; विशत:ः--घुसते हुए; बुध:--बुद्धिमान ( बौद्धिक सत्ता )।
अपने स्वार्थ से अनजान लोग भौतिक संसार के मार्ग में विचरण कर रहे हैं और धीरे धीरेअंधकार की ओर अग्रसर हो रहे हैं। भला वेद उन्हें और अधिक इन्द्रियतृप्ति के प्रति क्योंप्रोत्साहित करने लगे यदि वे मूर्खलन विनीत भाव से वैदिक आदेशों पर ध्यान दें।
एवं व्यवसितं केचिदविज्ञाय कुबुद्धयः ।फलश्रुतिं कुसुमितां न वेदज्ञा वदन्ति हि ॥
२६॥
एवम्--इस तरह से; व्यवसितम्--वास्तविक निष्कर्ष; केचित्--कुछ लोग; अविज्ञाय--न जानते हुए; कु-बुद्धबः--विकृतबुद्धि वाले; फल-श्रुतिमू-- भौतिक फल का वादा करने वाले शास्त्रों के कथन; कुसुमिताम्--फूलों जैसे, अलंकारिक; न--नहीं; वेद-ज्ञा:--वेदों के ज्ञाता; वदन्ति--कहते हैं; हि--निस्सन्देह
विकृत बुद्धि वाले लोग वैदिक ज्ञान के इस वास्तविक उद्देश्य को नहीं समझ पाते, प्रत्युत वेफलों का वादा करने वाले वेदों के अलंकारमय कथनों को परम वैदिक सत्य कह कर प्रचारकरते हैं। किन्तु जो वेदों के वास्तविक ज्ञाता हैं, वे कभी भी इस तरह नहीं बोलते।
'कामिनः कृपणा लुब्धा: पुष्पेषु फलबुद्धय: ।अग्निमुग्धा धूमतान्ता: स्व लोक॑ न विदन्ति ते ॥
२७॥
कामिन:--कामी पुरुष; कृपणा:--कंजूस; लुब्धा:--लालची; पुष्पेषु--फूल; फल-बुद्धवः--परम फल सोच कर; अग्नि--आग; मुग्धा:--मोहित; धूम-तान्ता:--धुएँ से दम घुटना; स्वम्--अपनी; लोकम्--पहचान; न विदन्ति--पहचानते हैं; ते--वे |
काम, क्रोध तथा लोभ से पूरित मनुष्यगण मात्र फूलों को ही जीवन का वास्तविक फलमान बैठते हैं। अग्नि की चमक से मोहग्रस्त होकर तथा इसके धुएँ से घुट कर, वे अपनी असलीपहचान नहीं जान पाते।
न ते मामड़ जानन्ति हृदिस्थं य इदं यतः ।उक्थशस्त्रा ह्सुतृपो यथा नीहारचक्षुष: ॥
२८ ॥
न--नहीं; ते--वे; माम्--मुझको; अड्ग--हे उद्धव; जानन्ति--जानते हैं; हृदि-स्थम्--हदय के भीतर स्थित; यः--जो; इृदम्--यह ब्रह्माण्ड; यत:ः--जहाँ से आता है; उक्थ-शस्त्रा:--जो वैदिक अनुष्ठानों को प्रशंसनीय मानते हैं, या जिनके लिए उनकेअनुष्ठान कृत्य उन हथियारों के तुल्य हैं, जो यज्ञ-पशुओं को मारता है; हि--निस्सन्देह; असु-तृपः--मात्र इन्द्रियतृप्ति में रूचिरखने वाले; यथा--जिस तरह; नीहार-- कुहरा में; चक्षुष:--आँखों वाले |
हे उद्धव, वैदिक अनुष्ठानों का आदर करने से प्राप्त इन्द्रियतृप्ति के प्रति समर्पित लोग, यह नहीं समझ सकते कि मैं हर एक के हृदय में स्थित हूँ और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड मुझसे अभिन्न नहीं हैऔर मुझी से उद्भूत है। निस्सन्देह, वे उन व्यक्तियों के समान हैं जिनकी आँखें कुहरे से ढकीरहती हैं।
ते मे मतमविज्ञाय परोक्षं विषयात्मकाः ।हिंसायां यदि रागः स्याद्यज्ञ एव न चोदना ॥
२९॥
हिंसाविहारा ह्यालब्धे: पशुभि: स्वसुखेच्छया ।यजन्ते देवता यज्ञ: पितृभूतपतीन्खला: ॥
३०॥
ते--वे; मे--मेरा; मतम्--निष्कर्ष, निर्णय; अविज्ञाय--बिना समझे; परोक्षम्ू--गुहा; विषय-आत्मका: --इन्द्रियतृप्ति में लीन;हिंसायाम्--हिंसा के प्रति; यदि--यदि; राग:--अनुरक्ति; स्थात्ू--हो; यज्ञे--यज्ञ विषयक संस्तुतियों में; एब--निश्चय ही; न--नहीं; चोदना-- प्रोत्साहन; हिंसा-विहारा:--हिंसा में रूचि लेने वाले; हि--निस्सन्देह; आलब्धे:--वध किये गये; पशुभि:--पशुओं के द्वारा; स््व-सुख--अपने सुख के लिए; इच्छया--इच्छा से; यजन्ते--पूजा करते हैं; देवता:--देवतागण; यज्जै:--याज्ञिक अनुष्ठानों से; पितृ-पितर, पूर्वज; भूत-पतीन्--तथा भूत-प्रेतों के प्रधान; खला:--क्रूर पुरुष
जो लोग इन्द्रियतृप्ति के वशीभूत हैंवे मेरे द्वारा बतलाये गये वैदिक ज्ञान के गुह्य मत कोनहीं समझ सकते। वे हिंसा में आनन्द का अनुभव करते हुए अपनी ही इन्द्रियतृप्ति के लिए यज्ञमें निरपराध पशुओं का निष्ठुरता से वध करते हैं और इस तरह वे देवताओं, पितरों तथा भूत-प्रेतों के नायकों की पूजा करते हैं। किन्तु वैदिक यज्ञ-विधि में हिंसा की ऐसी उत्कट इच्छा को कभीप्रोत्साहन नहीं दिया जाता।
स्वप्नोपमममुं लोकमसन्तं श्रवणप्रियम् ।आशिषो हृदि सड्डूल्प्य त्यजन्त्यर्थान्यथा वणिक् ॥
३१॥
स्वप्न--स्वण; उपमम्--समान; अमुम्--वह; लोकम्--( मृत्यु के पश्चात् ) संसार; असन्तम्--असत्य; श्रवण-प्रियम्--सुनने मेंमोहक; आशिष: --जीवन में सांसारिक उपलब्धियाँ; हदि--हृदय में; सड्डूल्प्य--कल्पना करके; त्यजन्ति--त्याग देते हैं;अर्थान्ू--उनकी सम्पत्ति; यथा--सह्ृश; वणिक्--व्यापारीजन
जिस तरह कोई मूर्ख व्यापारी व्यर्थ की व्यापारिक कल्पना में अपनी असली सम्पत्ति गँवादेता है, उसी तरह मूर्ख व्यक्ति जीवन की वास्तविक मूल्यवान वस्तुओं को त्याग कर स्वर्ग जानेके पीछे पड़े रहते हैं, जो सुनने में मोहक तो है किन्तु स्वप्न सहश असत्य है। ऐसे मोहग्रस्त लोगअपने हृदयों में यह कल्पना करते हैं कि वे सारे भौतिक वर प्राप्त कर सकेंगे।
रजःसत्त्वतमोनिष्ठा रज:सत्त्वतमोजुष: ।उपासत इन्द्रमुख्यान्देवादीन्न यथेव माम् ॥
३२॥
रज:--रजोगुण; सत्त्व--सतोगुण; तम:--अथवा तमोगुण में; निष्ठा: --स्थित; रज:--रजोगुण; सत्त्व--सत्य; तम:--याअविद्या; जुष:--जो प्रकट करते हैं; उपासते--पूजा करते हैं; इन्द्र-मुख्यान्--इन्द्र इत्यादि; देव-आदीन्--देवताओं इत्यादि को;न--नहीं; यथा एव--सही ढंग से; माम्ू--मुझको
रजो, सतो तथा तमोगुण में स्थित लोग इन्द्र इत्यादि विशेष देवताओं तथा अन्य अर्चाविग्रहोंकी पूजा करते हैं, जो उन्हीं रजो, सतो या तमोगुण को प्रकट करते हैं, किन्तु वे मेरी समुचितपूजा करने में असफल रहते हैं।
इष्टेह देवता यज्जैर्गत्वा रंस्थामहे दिवि ।तस्यान्त इह भूयास्म महाशाला महाकुला: ॥
३३॥
एवं पुष्पितया वाचा व्याक्षिप्तमनसां नृणाम् ।मानिनां चातिलुब्धानां मद्वार्तापि न रोचते ॥
३४॥
इष्टा--यज्ञ करके; इह--इस जगत में; देवता:--देवतागण; यज्जै:--हमारे यज्ञों से; गत्वा--जाकर; रंस्थामहे--हम भोग करेंगे;दिवि--स्वर्ग में; तस्थ--उस भोग का; अन्ते--अन्त में; इह--इस पृथ्वी पर; भूयास्म:--हम हो जायेंगे; महा-शाला: --महान्गृहस्थ; महा-कुलाः--राजसी परिवार के लोग; एवम्--इस प्रकार; पुष्पितया--फूलों जैसे; वाचा--शब्दों से; व्याक्षिप्त-मनसामू--मोहग्रस्त मनों वाले; नृणाम्--लोग; मानिनाम्--अत्यन्त घमंडी; च--तथा; अति-लुब्धानाम्--अत्यन्त लोभी; मदू-वार्ता--मुझसे सम्बन्धित कथाएँ; अपि-- भी; न रोचते-- आकर्षण नहीं होता।
देवताओं के उपासक सोचते हैं, 'हम इस जीवन में देवताओं की पूजा करेंगे और अपनेयज्ञों के बल पर हम स्वर्ग जाकर वहाँ भोग करेंगे। भोग समाप्त होने पर हम इस जगत में लौटआयेंगे और राज-परिवारों में वैभवशाली गृहस्थों के रूप में जन्म लेंगे।ऐसे लोग अत्यधिकघमंडी तथा लालची होने से, वेदों के अलंकारयुक्त शब्दों से मोहित हो जाते हैं। वे मुझ भगवान्की कथाओं के प्रति आकृष्ट नहीं होते।
वेदा ब्रह्मात्मविषयास्त्रिकाण्डविषया इमे ।परोक्षवादा ऋषयः परोक्ष॑ं मम॒ च प्रियम् ॥
३५॥
वेदाः--वेद; ब्रह्म-आत्म--स्वयं को शुद्ध आत्मा समझते हुए; विषया: --विषयों वाले; त्रि-काण्ड-विषया: --तीन विभाग वाले( कर्म, देवपूजा तथा परब्रह्म का साक्षात्कार ); इमे--ये; परोक्ष-वादाः--गोपनीय ढंग से बोलने वाले; ऋषय:--वैदिक विद्वान;परोक्षम्--अ प्रत्यक्ष विवेचना; मम--मेरा; च--भी ; प्रियम्--प्रिय |तीन काण्ड वाले वेद अंततः यह बतलाते हैं कि जीव ही शुद्ध आत्मा है। किन्तु वैदिकऋषि-मुनि तथा मंत्र गुप्त रूप से बतलाते हैं और मैं भी ऐसे गुह्य वर्णनों से प्रसन्न होता हूँ।
शब्दब्रह्म सुदुर्बोध॑ प्राणेन्द्रयमनोमयम् ।अनन्तपारं गम्भीर दुर्विगाह्मं समुद्रबत् ॥
३६॥
शब्द-ब्रह्म--वेदों की दिव्य ध्वनि; सु-दुर्बोधम्--समझ पाने में अत्यन्त कठिन; प्राण--प्राण-वायु; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; मनः--तथा मन; मयम्--विभिन्न स्तरों पर प्राकट्यू; अनन्त-पारम्-- अन्तहीन; गम्भीरम्--गहरा; दुर्विगाह्ममू-- थाह पाना कठिन,अथाह; समुद्र-वत्--समुद्र के समान
वेदों की दिव्य ध्वनि को समझ पाना अत्यन्त कठिन है और वह प्राण, इन्द्रियों तथा मन केभीतर विभिन्न स्तरों में प्रकट होती है। यह वैदिक ध्वनि समुद्र के समान असीम, अगाध तथाअथाह है।
मयोपबुंहितं भूम्ना ब्रह्मणानन्तशक्तिना ।भूतेषु घोषरूपेण बिसेषू्ेंव लक्ष्यते ॥
३७॥
मया--मेरे द्वारा; उपबृंहितम्--स्थापित; भूम्ना--असीम; ब्रह्मणा--परिवर्तनरहित ब्रह्म द्वारा; अनन्त-शक्तिना--अनन्त शक्तिवाले; भूतेषु--जीवों में; घोष-रूपेण--सूक्ष्म ध्वनि के रूप में, ऊंकार; बिसेषु--सूक्ष्म कमलनाल में; ऊर्णगा--एक तनन््तु; इब--सहश; लक्ष्यते--प्रकट होता है
मैं सारे जीवों के भीतर असीम, अपरिवर्तनीय तथा सर्वशक्तिमान भगवान् के रूप में निवासकरते हुए, सारे जीवों के भीतर ऊंकार के रूप में वैदिक ध्वनि स्थापित करता हूँ। वह उसी तरहसूक्ष्म अनुभव की जाती है, जिस तरह कि कमलनाल का एक तन््तु।
यथोर्णनाभिईदयादूर्णामुद्दमते मुखात् ।आकाशाद्धोषवान्प्राणो मनसा स्पर्शरूपिणा ॥
३८॥
छन्दोमयोमृतमयः सहस्त्रपदवीं प्रभु: ।ओंकारादव्यज्िितस्पर्शस्वरोष्मान्तस्थभूषिताम् ॥
३९॥
विचित्रभाषाविततां छन्दोभिश्चतुरुत्तरै: ।अनन्तपारां बृहतीं सृजत्याक्षिपते स्वयम् ॥
४०॥
यथा--जिस तरह; ऊर्ण-नाभि:--मकड़ा; हृदयात्-- अपने हृदय से; ऊर्णाम्ू--अपने जाले को; उद्दमते--निकालता है;मुखात्--अपने मुँह से होकर; आकाशात्-- आकाश से; घोष-वान्-- ध्वनि प्रकट करते हुए; प्राण: --मूल प्राण-वायु के रूप में भगवान्; मनसा--मन के द्वारा; स्पर्श-रूपिणा--स्पर्श अक्षरों के रूप में प्रकट होने वाला; छन््दः-मय:--समस्त छन््दों से युक्त;अमृत-मय:--दिव्य आनन्द से पूरित; सहस्त्र-पदवीम्--हजारों दिशाओं में फूट कर निकलने वाला; प्रभुः--भगवान्;ओकारात्-- »कार सूक्ष्म ध्वनि से; व्यज्ञित--विस्तृत; स्पर्श--व्यंजन से; स्वर--स्वरों; उष्म--उष्म; अन्त-स्थ--तथा उपस्वर;भूषिताम्--अलंकृत; विचित्र--नाना प्रकार की; भाषा--मौखिक अभिव्यक्ति द्वारा; वितताम्--विस्तृत; छन्दोभि: --छन्दों से;चतुः-उत्तर:--पिछले से चार वर्ण अधिक; अनन्त-पाराम्--अन्तहीन; बृहतीम्--वैदिक वाड्मय का विस्तार; सृजति--उत्पन्नकरता है; आक्षिपते--तथा समेट लेता है; स्वयम्--खुद, स्वयं।
जिस प्रकार मकड़ी अपने हृदय से अपना जाला निकाल कर मुख-मार्ग से बाहर उगलती है,उसी तरह भगवान् गूँजती हुई आदि प्राण-वायु के रूप में अपने को प्रकट करते हैं। इस प्राण-वायु में सारे पवित्र वैदिक छन््द तथा दिव्य आनन्द भरे रहते हैं। इस तरह प्रभु अपने हृदय केआकाश से अपने मन के द्वारा महान् तथा असीम वैदिक ध्वनि को उत्पन्न करते हैं, जो स्पर्शजैसी नाना प्रकार की ध्वनियों को जन्म देती है। यह वैदिक ध्वनि हजारों दिशाओं में फूटती हैऔर »कार वर्ण से विस्तृत विभिन्न अक्षरों से अलंकृत होती है--यथा व्यंजन, स्वर, उष्म तथाअन्तस्थ। तत्पश्चात् अनेक मौखिक भेदों से वेद का विस्तार होता है और विभिन्न छन््दों मेंअभिव्यक्ति होती है जिनमें प्रत्येक छंद पिछले वाले से चार वर्ण अधिक होता है। अन्त मेंभगवान् वैदिक ध्वनि के अपने स्वरूप को अपने ही भीतर समेट लेते हैं।
गायत्र्युष्णिगनुष्ठप्व बृहती पड़ि रेव च ।त्रिष्ठब्जगत्यतिच्छन्दो ह्ात्य्द्यतिजगद्वधिराटू ॥
४१॥
गायत्री उष्णिक् अनुष्ठप् च--गायत्री, उष्णिक तथा अनुष्ठुप् नामक; बृहती पड्लि :--बृहती तथा पंक्ति; एव च--भी; त्रिष्टप् जगतीअतिच्छन्द:--्रिष्टप्ू, जगती तथा अतिच्छन्द; हि--निस्सन्देह; अत्यष्टि-अतिजगतू-विराट्ू--अत्यष्टि, अतिजगती तथाअतिविराट।
वैदिक छन्द हैं--गायत्री, उष्णिकू, अनुष्ठप्, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टपू, जगती, अतिच्छन्द,अत्यष्टि, अतिजगती तथा अतिविराट।
कि विधत्ते किमाचष्टे किमनूद्य विकल्पयेत् ।इत्यस्या हृदयं लोके नान््यो मद्देद कश्चन ॥
४२॥
किमू--क्या; विधत्ते--( कर्म-काण्ड में ) आदेश है; किम्--क्या; आचष्टे--( देवता-काण्ड में ) सूचित होता है; किमू--क्या;अनूद्य--विभिन्न प्रकार से वर्णन करके ; विकल्पयेत्--विकल्प की संभावना बताता है ( ज्ञान-काण्ड में ); इति--इस प्रकार;अस्या:--वैदिक वाड्मय का; हृदयम्--हृदय, अथवा गुप्त उद्देश्य; लोके--इस जगत में; न--नहीं; अन्य:--दूसरा; मत्--मेरीअपेक्षा; वेद--जानता है; कश्चन--कोई |
सारे जगत में मेरे अतिरिक्त अन्य कोई वैदिक ज्ञान के गुह्य उद्देश्य को नहीं समझता। अतःलोग यह नहीं जानते कि कर्म-काण्ड के अनुष्ठानिक आदेशों में वेद किस बात की संस्तुति कररहे हैं अथवा उपासना-काण्ड में प्राप्य पूजा के सूत्रों से कौन-सी वस्तु सूचित होती है अथवावेदों के ज्ञान-काण्ड में विभिन्न संकल्पनाओं के माध्यम से किसकी विशद व्याख्या की गई है।
मां विधत्तेडभिधत्ते मां विकल्प्यापोहामते त्वहम् ।एतावान्सर्ववेदार्थ: शब्द आस्थाय मां भिदाम् ।मायामात्रमनृद्यान्ते प्रतिषिध्य प्रसीदति ॥
४३॥
माम्--मुझको; विधत्ते--यज्ञ में आदेश देता है; अभिधत्ते--पूजा की वस्तु के रूप में नामकरण करता है; माम्--मुझको;विकल्प्य--विकल्प के रूप में प्रस्तुत करके ; अपोह्मते--खंडन किया जाता हूँ; तु-- भी; अहम्--मैं; एतावान्--इस तरह;सर्व-वेद--सारे वेदों का; अर्थ:--अर्थ; शब्द:-- ध्वनि; आस्थाय--स्थापित करके; माम्--मुझको; भिदाम्-- भौतिक द्वैत;माया-मात्रमू--मात्र माया के रूप में; अनूद्य--विस्तार से वर्णन करके; अन्ते--अन्त में; प्रतिषिध्य--निषेध करके; प्रसीदति--तुष्ट हो जाता है
मैं वेदों द्वारा आदिष्ट अनुष्ठानिक यज्ञ हूँ और मैं ही उपास्य देव हूँ। मैं ही विभिन्न दार्शनिकसिद्धान्तों द्वारा प्रस्तुत किया जाता हूँ और दार्शनिक विश्लेषण द्वारा निषेध किया जाने वाला भीमैं ही हूँ। इस तरह दिव्य ध्वनि मुझे समस्त वैदिक ज्ञान के अनिवार्य अर्थ के रूप में स्थापितकरती है। सारे वेद समस्त भौतिक द्वैत का विस्तारपूर्वक विश्लेषण करते हुए उसे मेरी ही मोहकशक्ति मान कर, अन्त में इस द्वैत का पूर्णतया निषेध करते हैं और अपने आप को तुष्ट करते हैं।
22. भौतिक निर्माण के तत्वों की गणना
श्रीउद्धव उवाचकति तत्त्वानि विश्वेश सड्ख्यातान्यूषिभि: प्रभो ।नवैकादश पज्ञ त्रीण्यात्थ त्वमिह शुश्रुम ॥
१॥
केचित्षड्िवशतिं प्राहुर॒परे पञ्ञविंशतिं ।सप्तैके नव षट्केचिच्चत्वार्येकादशापरे ।केचित्सप्तदश प्राहु: षोडशैके त्रयोदश ॥
२॥
एतावत्त्वं हि सडख्यानामृषयो यद्विवक्षया ।गायन्ति पृथगायुष्मत्रिदं नो वक्तुमहसि ॥
३॥
श्री-उद्धवः उबाच-- श्री उद्धव ने कहा; कति--कितने; तत्त्वानि--सृष्टि के मूलभूत तत्त्व; विश्व-ईश--हे ब्रह्माण्ड के स्वामी;सड्ख्यातानि--गिनाये गये हैं; ऋषिभि:--महान् अधिकारियों द्वारा; प्रभो--हे स्वामी; नव--नौ ( ईश्वर, आत्मा, महत् तत्त्व,मिथ्या अहंकार तथा पाँच स्थूल तत्त्व ); एकादश- ग्यारह ( दस ज्ञानेन्द्रियाँ तथा कर्मेन्द्रियाँ और ग्यारहवाँ मन ); पञ्ञ-- पाँच( पाँच इन्द्रिय-विषय ); त्रीणि--तीन ( सतो, रजो तथा तमोगुण इस प्रकार कुल मिलाकर अट्ठाईस ); आत्थ--कहा है; त्वमू--तुमने; इह--इस जगत में आविर्भूत होकर; शुश्रुम--ऐसा मैंने सुना है; केचित्--कुछ; षट्-विंशतिम्--छब्बीस; प्राहु: --कहतेहैं; अपरे-- अन्य; पञ्ञ-विंशतिम्--पच्चीस; सप्त--सात; एके--कुछ; नव--नौ; षट्--छः: ; केचित्-- कुछ; चत्वारि-- चार;एकादश- ग्यारह; अपरे--और दूसरे; केचित्--कुछ; सप्तदश--सत्रह; प्राहु:--कहते हैं; षोडश--सोलह; एके--कुछ;त्रयोदश--तेरह; एतावत्त्वमू--ऐसी गणनाएँ; हि--निस्सन्देह; सड्ख्यानाम्--तत्त्वों की गणना करने की विविध विधियों के;ऋषय: --ऋषिगण; यत् विवक्षया--यह व्यक्त करने के विचार से कि कौन-से भाव; गायन्ति--उन्होंने घोषित किया है;पृथक्--विविध प्रकारों से; आयु:-मन्--हे परम शाश्वत; इृदम्--यह; न:--हमसे; वक्तुमू--बताने के लिए; अर्हसि-तुम्हेंचाहिए।
उद्धव ने पूछा : हे प्रभु, हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, ऋषियों ने सृष्टि के तत्त्वों की कितनी संख्याबतलाई है? मैंने आपके मुख से कुल अट्ठाइस का वर्णन सुना है--ई श्वर, जीवात्मा, महत तत्त्व,मिथ्या अहंकार, पाँच स्थूल तत्त्व, दस इन्द्रियाँ, मन, पाँच सूक्ष्म इन्द्रिय-विषय तथा तीन गुण।किन्तु कुछ विद्वान छब्बीस तत्त्व बतलाते हैं जबकि अन्य लोग इनकी संख्या पच्चीस या सात,नौ, छह, चार या ग्यारह और कुछ लोग सत्रह, सोलह या तेरह बतलाते हैं। जब ये ऋषि ऐसेविविध प्रकारों से सर्जक तत्त्वों की गणना कर रहे थे, तो उनके मनों में क्याथा ? हे परम शाश्वत,कृपा करके मुझे यह बतलायें।
श्रीभगवानुवाचयुक्त च सन्ति सर्वत्र भाषन्ते ब्राह्मणा यथा ।मायां मदीयामुदगृह्म बदतां कि नु दुर्घटम् ॥
४॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् ने कहा; युक्तम्--युक्तियुक्त; च-- भी; सन्ति--उपस्थित रहते हैं; सर्वत्र--सभी जगह; भाषन्ते--कहते हैं; ब्राह्मणा:--ब्राह्मणजन; यथा--कैसे; मायाम्--योगशक्ति; मदीयम्--मेरी; उद्गृह्य-- अपनाकर; वदताम्--बोलनेवाले के; किम्ू-- क्या; नु--आखिरकार; दुर्घटमू-- असम्भव होगा।
भगवान् कृष्ण ने उत्तर दिया : चूँकि सारे तत्त्व सभी जगह उपस्थित रहते हैं इसलिए यहयुक्तियुक्त है कि विभिन्न विद्वान ब्राह्मणों ने उनकी व्याख्या भिन्न भिन्न विधियों से की है। ऐसेसभी दार्शनिकों ने मेरी योगशक्ति का आश्रय लेकर ही ऐसा कहा है, अतएव वे सत्य काखण्डन किये बिना कुछ भी कह सकते हैं।
नैतदेवं यथात्थ त्वं यद॒हं वच्मि तत्तथा ।एवं विवदतां हेतुं शक्तयो मे दुरत्यया: ॥
५॥
न--नहीं है; एतत्--यह; एवम्--ऐसा; यथा--जिस तरह; आत्थ--कहते हो; त्वमू--तुम; यत्--जो; अहम्--मैं; वच्मि--कहरहा हूँ; तत्ू--वह; तथा--उस तरह; एवम्--इस तरह; विवदताम्ू--तर्क करनेवालों के लिए; हेतुम्-तर्कपूर्ण कारणों पर;शक्तय:--शक्तियाँ; मे--मेरी; दुरत्यया:--दुर्लघ्य |
जब दार्शनिकजन तर्क करते हैं, 'तुम जिस तरह इस विशेष प्रसंग की व्याख्या करना चाहतेहो, मैं उसे उस रूप में नहीं करना चाहता' तो इसमें मेरी दुर्लध्य शक्तियाँ ही उनकीविश्लेषणान्तमक असहमतियों को प्रेरणा देती हैं।
यासां व्यतिकरादासीद्विकल्पो वदतां पदम् ।प्राप्त शमदमेउप्येति वादस्तमनु शाम्यति ॥
६॥
यासाम्ू--जिन ( मेरी शक्तियों ) के; व्यतिकरात्-परस्पर क्रिया से; आसीत्--उत्पन्न हुआ है; विकल्प:--मतभेद; बदताम्ू--विवाद करने वालों के; पदम्--विवाद का विषय; प्राप्ते--प्राप्त कर चुकने पर; शम--मुझ पर अपनी बुद्धि स्थिर करने कीसामर्थ्य; दमे--बाह्य इन्द्रियों पर नियंत्रण; अप्येति--( मतभेद ) दूर हो जाता है; वादः--विवाद, तर्क; तम् अनु--फलस्वरूप;शाम्यति--शमन हो जाता है।
मेरी शक्तियों की अन्योन्य क्रिया से विभिन्न मत ( वाद ) उत्पन्न होते हैं। किन्तु जिन लोगों नेअपनी बुद्धि मुझ पर स्थिर कर ली है और अपनी इन्द्रियों को वश में कर लिया है, उनके मतभेददूर हो जाते हैं और इस तरह तर्क ( वाद-विवाद ) का कारण ही मिट जाता है।
परस्परानुप्रवेशात्तत्त्वानां पुरुषर्षभ ।पौर्वापर्यप्रसड्ख्यानं यथा वक्तुर्विवक्षितम् ॥
७॥
परस्पर--आपफस में; अनुप्रवेशात्-- प्रवेश करने के कारण ( सूक्ष्म कारण का स्थूल कारण में या इसके विपरीत ); तत्त्वानाम्ू--विभिन्न तत्त्वों के; पुरुष-ऋषभ--हे पुरुष- श्रेष्ठ ( उद्धव ); पौर्ब--पूर्व कारणों के रूप में; अपर्य--अथवा प्रतिफलों की;प्रसड्ख्यानम्-- गणना; यथा--किन्तु; वक्तु:--वक्ता; विवक्षितम्--वर्णन करने के लिए इच्छुक |
हे पुरुष-श्रेष्ठ, चूँकि सूक्ष्म तथा स्थूल तत्त्व एक-दूसरे में प्रविष्ट हो जाते हैं, इसलिएदार्शनिकजन अपनी अपनी इच्छानुसार विभिन्न प्रकारों से मूलभूत भौतिक तत्त्वों की गणना करसकते हैं।
एकस्मिन्नपि दृश्यन्ते प्रविष्टानीतराणि च ।पूर्वस्मिन्वा परस्मिन्वा तत्त्वे तत्त्वानि सर्वश: ॥
८॥
एकस्मिनू--एक ( तत्त्व ) में; अपि-- भी; दृश्यन्ते--देखे जाते हैं; प्रविष्टानि-- भीतर घुसे हुए; इतराणि-- अन्य; च-- भी;पूर्वस्मिन्ू--पूर्व वाले में; बा--अथवा; परस्मिन्ू-- अथवा बाद वाले में; वा--अथवा; तत्त्वे--किसी तत्त्व में; तत्त्वानि-- अन्यतत्त्व; सर्वशः--विभिन्न गणनाओं में से हर एक में
सारे सूक्ष्म तत्त्व वस्तुतः अपने स्थूल कार्यों के भीतर उपस्थित रहते हैं। इसी तरह सारे स्थूलतत्त्व अपने सूक्ष्म कारणों के भीतर उपस्थित रहते हैं क्योंकि भौतिक सृष्टि सूक्ष्म से स्थूल तत्त्वोंकी क्रमागत अभिव्यक्ति के रूप में होती है। इस तरह हम किसी एक तत्त्व में सारे भौतिक तत्त्वोंको पा सकते हैं।
पौर्वापर्यमतोमीषां प्रसड्ख्यानमभीप्सताम् ।यथा विविक्तं यद्वक्त्रं गृह्कीमो युक्तिसम्भवात् ॥
९॥
पौर्व--कारणरूप तत्त्वों को उनके व्यक्त कार्यो में सम्मिलित मानते हुए; अपर्यम्--अथवा तत्त्वों में उनके सूक्ष्म कारणों कोनिहित मानते हुए; अत:--इसलिए; अमीषाम्--इन चिन्तकों के; प्रसड्ख्यानम्--गणना करते हुए; अभीप्सताम्ू--इच्छाकरनेवालों के; यथा--जिस तरह; विविक्तम्--निश्चित; यत्-वक्त्रमू--जिसके मुख से; गृह्लीम:--हम स्वीकार करते हैं; युक्ति-- तर्कका; सम्भवात्--सम्भावना से |
इसलिए इनमें से चाहे जो भी विचारक बोल रहा हो और इसकी परवाह न करते हुए कि वेअपनी गणनाओं में भौतिक तत्त्वों को उनके पिछले सूक्ष्म कारणों में सम्मिलित करें अथवा उनकेपरवर्ती प्रकट कार्यों के भीतर करें, मैं उनके मतों को प्रामाणिक मान लेता हूँ क्योंकि विभिन्नसिद्धान्तों में से हर एक की तार्किक व्याख्या प्रस्तुत की जा सकती है।
अनाद्यविद्यायुक्तस्य पुरुषस्यात्मवेदनम् ।स्वतो न सम्भवादन्यस्तत्त्वज्ञो ज्ञानदो भवेत् ॥
१०॥
अनादि--जिसका आदि न हो; अविद्या--अज्ञान से; युक्तस्थ--जुड़े रहने वाले; पुरुषस्य--पुरुष का; आत्म-वेदनम्-- आत्म-साक्षात्कार की विधि; स्वतः--अपनी योग्यता से; न सम्भवात्--चूँकि ऐसा हो नहीं सकता; अन्य:--दूसरा व्यक्ति; तत्त्व-ज्ञ:--दिव्य सचाई को जानने वाला; ज्ञान-द:--असली ज्ञान का प्रदाता; भवेत्--हो |
चूँकि अनादि काल से अज्ञान से आवृत व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार करने में अक्षम होता है,अतएव ऐसा कोई अन्य व्यक्ति होना चाहिए जो परब्रह्म को पूरी तरह जानता हो और उसे यहज्ञान प्रदान कर सकता हो।
पुरुषेश्वरयोरत्र न वैलक्षण्यमण्वपि ।तदन्यकल्पनापार्था ज्ञानं च प्रकृतेर्गुण: ॥
११॥
पुरुष--भोक्ता; ईश्वरयो:-- तथा परम नियन्ता के मध्य; अत्र--यहाँ पर; न--नहीं है; वैलक्षण्यम्-- असमानता; अणु--सूक्ष्म;अपि--भी; तत्--उनके; अन्य--सर्वथा पृथक् होकर के; कल्पना--कल्पित भाव; अपार्था--व्यर्थ; ज्ञामम्ू--ज्ञान; च--तथा;प्रकृते:--प्रकृति का; गुण:--गुण |
सतोगुणी ज्ञान के अनुसार जीव तथा परम नियन्ता में कोई गुणात्मक अन्तर नहीं हैं। उनमेंगुणात्मक अन्तर की कल्पना व्यर्थ है।
पप्रकृतिर्गुणसाम्यं बै प्रकृते्नात्मनो गुणा: ।सत्त्वं रजस्तम इति स्थित्युत्पत्त्यन्तहहेतव: ॥
१२॥
्रकृति:-- प्रकृति; गुण--तीन गुणों की; साम्यम्--आदि साम्यावस्था; बै--निस्सन्देह; प्रकृते:--प्रकृति के; न आत्मन:--आत्मा के नहीं; गुणा:--ये गुण; सत्त्वम्--सतो; रज:--रजो; तम:--तमो; इति--इस प्रकार कहलाने वाले; स्थिति--सृष्टि केपालन; उत्पत्ति--इसके उत्पन्न होने; अन्त--तथा इसके संहार के; हेतवः--कारण |
मूलतः प्रकृति तीन गुणों की साम्यावस्था के रूप में विद्यमान रहती है और ये गुण दिव्यआत्मा के न होकर एकमात्र प्रकृति के होते हैं। ये गुण--सतो, रजो तथा तमोगुण--इसब्रह्माण्ड के सृजन, पालन तथा संहार के प्रभावशाली कारण हैं।
डेसतच्त्व॑ ज्ञानं रज: कर्म तमोज्ञानमिहोच्यते ।गुणव्यतिकरः काल: स्वभाव: सूत्रमेव च ॥
१३॥
सत्त्वम्--सतोगुण; ज्ञानम्--ज्ञान; रज:--रजोगुण; कर्म--सकाम कर्म; तम:--तमोगुण; अज्ञानम्-मूर्खता; इह--इस जगतमें; उच्चते--कहलाता है; गुण--गुणों का; व्यतिकरः--क्षुब्ध विकार; काल:--काल; स्वभाव: --आन्तरिक मनोवृत्ति, प्रकृति;सूत्रमू--महत् तत्त्व; एव--निस्सन्देह; च--भी |
इस जगत में सतोगुण को ज्ञान, रजोगुण को सकाम कर्म तथा तमोगुण को अज्ञान मानाजाता है। काल को भौतिक गुणों की क्षुब्ध अन्तःक्रिया के रूप में देखा जाता है और आदि सूत्र अर्थात् महत् तत्त्व से समग्र कार्य की मनोवृत्ति प्रकट होती है।
पुरुष: प्रकृतिर्व्यक्तमहड्डारो नभोडउनिलः ।ज्योतिराप: क्षितिरिति तत्त्वान्युक्तानि मे नव ॥
१४॥
पुरुष: --भोक्ता; प्रकृति:--प्रकृति; व्यक्तमू-पदार्थ की आदि अभिव्यक्ति; अहड्डार:--मिथ्या अहंकार; नभ:--आकाश;अनिलः--वायु; ज्योति:ः--अग्नि; आप: --जल; क्षिति:-- पृथ्वी; इति--इस प्रकार; तत्त्वानि--सृष्टि के सारे तत्त्व; उक्तानि--कहे गये; मे--मेरे द्वारा; नव--नौ |
मैं नौ मूल तत्त्वों का वर्णन भोक्ता आत्मा, प्रकृति, महत् तत्त्व की आदि अभिव्यक्ति, मिथ्याअहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी के रूप में कर चुका हूँ।
श्रोत्रं त्वग्दर्शनं घ्राणो जिल्नेति ज्ञानशक्तय: ।वाक्पाण्युपस्थपाय्वड्प्रि: कर्माण्यड्री भयं मनः ॥
१५॥
श्रोत्रमू--सुनने की इन्द्रिय; त्वक्--स्पर्श जो त्वचा पर अनुभव किया जाता है उसकी इन्द्रिय; दर्शनम्--दृष्टि; प्राण: --गंध;जिह्ना--स्वाद की इन्द्रिय, जिसका अनुभव जीभ पर होता है; इति--इस प्रकार; ज्ञान-शक्तय:--ज्ञानअर्जित करने वाली इन्द्रियाँ;बाक्ू--वाणी; पाणि--हाथ; उपस्थ--जननांग; पायु--गुदा; अड्प्रि:--पाँव; कर्माणि--कर्मेन्द्रियाँ; अड्र--हे उद्धव;उभयम्--दोनों ही कोटियों की; मन:--मन।
हे उद्धव, श्रवण, स्पर्श, दृष्टि, गंध तथा स्वाद--ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं और वाणी, हाथ,जननेन्द्रिय, गुदा तथा पाँव--ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं। मन इन दोनों कोटियों में आता है।
शब्दः स्पर्शो रसो गन्धो रूप॑ चेत्यर्थजातय: ।गत्युक्त्युत्सर्गशिल्पानि कर्मायतनसिद्धय: ॥
१६॥
शब्द: --ध्वनि; स्पर्श:--स्पर्श; रस:--स्वाद; गन्ध: --सुगन्धि; रूपम्ू--रूप; च--तथा; इति--इस प्रकार; अर्थ--इन्द्रिय-विषयों की; जातय:--कोटियाँ; गति--चाल; उक्ति--वाणी; उत्सर्ग--मलमूत्र का त्याग ( जननेन्द्रिय तथा गुदा दोनों द्वारा );शिल्पानि--तथा निर्माण; कर्म-आयतन--उपर्युक्त कर्मेन्द्रियों द्वारा; सिद्धयः--सम्पन्न
ध्वनि, स्पर्श, स्वाद, गंध तथा रूप ज्ञानेन्द्रियों के विषय हैं और गति, वाणी, उत्सर्ग तथाशिल्प--ये कर्मेन्द्रियों के विषय हैं।
सर्गादौ प्रकृतिहास्य कार्यकारणरूपिणी ।सत्त्वादिभिर्गुणैर्धत्ते पुरुषोव्यक्त ईक्षते ॥
१७॥
सर्ग--सृष्टि का; आदौ--प्रारम्भ में; प्रकृतिः:-- भौतिक प्रकृति; हि--निस्सन्देह; अस्य--इस ब्रह्माण्ड का; कार्य--प्रकट फल;कारण--तथा सूक्ष्म कारण; रूपिणी --साकार; सत्त्व-आदिभि:--सतो, रजो तथा तमो; गुणैः--गुणों द्वारा; धत्ते--अपना पदग्रहण करता है; पुरुष:--परमे श्वर; अव्यक्त:-- भौतिक अभिव्यक्ति में जो लोग न हो; ईक्षते--देखता है
सृष्टि के प्रारम्भ में सतो, रजो तथा तमोगुणों के द्वारा प्रकृति इस ब्रह्माण्ड में समस्त सूक्ष्मकारणों तथा स्थूल अभिव्यक्तियों से युक्त होकर अपना रूप ग्रहण करती है। भगवान् भौतिकअभिव्यक्ति की पारस्परिक क्रिया में प्रविष्ट नहीं होता, अपितु प्रकृति पर केवल दृष्टिपात करताहै।
व्यक्तादायो विकुर्वाणा धातव: पुरुषेक्षया ।लब्धवीर्या: सृजन्त्यण्डं संहता: प्रकृतेबलातू ॥
१८ ॥
व्यक्त-आदय: --महत्_ तत्त्व इत्यादि; विकुर्वाणा: --रूपान्तरित होने वाले; धातव:--तत्त्व; पुरुष-- भगवान् की; ईक्षया--चितवन से; लब्ध--प्राप्त हुआ; वीर्या:--उनकी शक्तियाँ; सृजन्ति--सृष्टि करती हैं; अण्डम्--ब्रह्माण्ड; संहता:--घुला-मिला;प्रकृते:--प्रकृति का; बलात्ू--बल द्वारा |
जब महत् तत्त्व आदि भौतिक तत्त्व रूपान्तरित होते हैं, तो वे भगवान् के दृष्टिपात से अपनीविशिष्ट शक्तियाँ प्राप्त करते हैं। वे प्रकृति की शक्ति के मिलने-जुलने से विश्व अंडा ( ब्रह्माण्ड )उत्पन्न करती हैं।
सप्तैव धातव इति तत्रार्था: पञ्ञन खादयः ।ज्ञानमात्मोभयाधारस्ततो देहेन्द्रयासवः ॥
१९॥
सप्त--सात; एव--निस्सन्देह; धातव:--तत्त्व; इति--इस प्रकार कह कर; तत्र--वहाँ; अर्था:--भौतिक तत्त्व; पञ्ञ--पाँच;ख-आदयः--आकाश इत्यादि; ज्ञामम्ू--ज्ञान का स्वामी आत्मा; आत्मा--परमात्मा; उभय--दोनों का ( जीव, जो कि द्रष्टा हैतथा दृष्ट प्रकृति )) आधार: --मूलभूत आधार; तत:--इनसे; देह--शरीर; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; असब:ः--तथा जीवनदायी वायु
कुछ दार्शनिकों के अनुसार तत्त्व सात हैं। ये हैं--पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश।इसी के साथ चेतन आत्मा तथा परमात्मा भी सम्मिलित हैं, जो भौतिक तत्त्वों तथा सामान्यआत्मा दोनों ही के आधाररूप हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार शरीर, इन्द्रियाँ, प्राण-वायु तथा अन्यसारे भौतिक कार्य इन्हीं सात तत्त्वों से उत्पन्न हैं।
षडित्यत्रापि भूतानि पतञ्ञ षष्ठ: परः पुमान् ।तैर्युडत आत्मसम्भूतै: सृष्ठेदं समपाविशत् ॥
२०॥
घट्--छह; इति--इस सिद्धान्त में; अत्र--इस सिद्धान्त में; अपि-- भी; भूतानि--तत्त्व; पञ्म-- पाँच; षष्ठ:--छठा; पर: --दिव्य; पुमान्ू-- भगवान्; तैः--उन ( पाँच स्थूल तत्त्वों ) से; युक्त:--जुड़ा; आत्म--अपने से; सम्भूतै:ः--उत्पन्न; सृष्ठा --निर्मितकर; इृदम्--यह सृष्टि; समुपाविशत्--उन्होंने भीतर प्रवेश किया।
अन्य दार्शनिकों का कहना है कि तत्त्व छः हैं--पाँच तो भौतिक तत्त्व ( पृथ्वी, जल, अग्नि,वायु तथा आकाश ) हैं तथा छठा तत्त्व भगवान् है। वही भगवान् जो अपने से निकले हुए तत्त्वोंसे युक्त होकर इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि करते हैं और तब स्वयं उसके भीतर प्रवेश करते हैं।
चत्वार्येबेति तत्रापि तेज आपोऊच्नमात्मन: ।जातानि तैरिदं जातं जन्मावयविन: खलु ॥
२१॥
चत्वारि--चार; एव-- भी; इति--इस प्रकार; तत्र--उस दशा में; अपि-- भी; तेज: --अग्नि; आप:--जल; अन्नमू--पृथ्वी;आत्मन:--आत्मा से; जातानि--उत्पन्न; तैः--उनके द्वारा; इदमू--यह जगत; जातमू्--उत्पन्न हुआ; जन्म--जन्म; अवयविन:--प्रकट फल का; खलु--निस्सन्देह
कुछ दार्शनिक चार मूलभूत तत्त्वों की उपस्थिति का अनुमोदन करते हैं जिनमें से अग्नि,जल तथा पृथ्वी--ये तीन तत्त्व एक चौथे तत्त्व आत्मा से उद्भूत हैं। एक बार अस्तित्व में आनेपर ये तत्त्व विराट जगत उत्पन्न करते हैं जिसमें सारा भौतिक सृजन होता है।
सड्ख्याने सप्तदशके भूतमात्रेन्द्रियाणि च ।पञ्ञ पञ्जलैकमनसा आत्मा सप्तदशः स्मृत: ॥
२२॥
सड्ख्याने--गणना में; सप्तदशके --सत्रह तत्त्वों के रूप में; भूत--पाँच स्थूल तत्त्व; मात्र--पाँचों की सूक्ष्म अनुभूतियाँ;इन्द्रियाणि--तथा पाँच संगत इन्द्रियाँ; च-- भी; पञ्ञ पञ्ञ--पाँच पाँच के समूहों में; एक-मनसा--एक मन के साथ साथ;आत्मा--आत्मा; सप्तदश:--सत्रहवाँ; स्मृत:--ऐसा माना जाता है।
कुछ लोग सत्तरह मूलभूत तत्त्वों के अस्तित्व की गणना करते हैं--ये हैं पाँच स्थूल तत्त्व,पाँच इन्द्रिय-विषय, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, मन तथा सत्तरहवाँ आत्मा।
तद्वत्योडशसड्ख्याने आत्मैव मन उच्यते ।भूतेन्द्रियाणि पञ्जैब मन आत्मा त्रयोदश ॥
२३॥
तद्बत्ू--इसी तरह; षोडश-सड्ख्याने--सोलह की गणना में; आत्मा--आत्मा; एव--निस्सन्देह; मन: --मन के रूप में;उच्यते--पहचाना जाता है; भूत--पाँच स्थूल तत्त्व; इन्द्रियाणि--इन्द्रियाँ; पञ्ञ--पाँच; एब--निश्चय ही; मन:ः--मन; आत्मा--आत्मा ( आत्मा तथा परमात्मा दोनों ); त्रयोदश--तेरह |
सोलह तत्त्वों की गणना करने पर पिछले सिद्धान्त से केवल इतना ही अन्तर होता है किआत्मा की पहचान मन से कर ली जाती है। यदि हम पाँच भौतिक तत्त्वों, पाँच इन्द्रियों, मन,आत्मा तथा परमेश्वर की कल्पना करें, तो तत्त्वों की संख्या तेरह होती है।
एकादशत्व आत्मासौ महाभूतेन्द्रियाणि च ।अष्टौ प्रकृतयश्चैव पुरुषश्च नवेत्यथ ॥
२४॥
एकादशत्वे--ग्यारह के विचार में; आत्मा--आत्मा; असौ--यह; महा- भूत--स्थूल तत्त्व; इन्द्रयाणि--इन्द्रियाँ; च--तथा;अष्टौ--आठ; प्रकृतयः --प्राकृतिक तत्त्व ( पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार ); च--भी; एब--निश्चय ही; पुरुष:--परमे श्वर; च--तथा; नव--नव; इति--इस प्रकार; अथ--और भी |
ग्यारह की गणना में आत्मा, स्थूल तत्त्व तथा इन्द्रियाँ आती हैं। आठ स्थूल तथा सूक्ष्म तत्त्वोंके साथ परमेश्वर को मिलाने पर नौ की संख्या हो जाती है।
इति नानाप्रसड्ख्यानं तत्त्वानामृषिभि: कृतम् ।सर्व न्याय्यं युक्तिमत्त्वाद्विदुषां किमशोभनम् ॥
२५॥
इति--इसी तरह से; नाना--विविध; प्रसड्ख्यानम्--गणना; तत्त्वानाम्ू-तत्त्वों की; ऋषिभि: --ऋषियों द्वारा; कृतम्--कियागया; सर्वम्--यह सारा; न्याय्यमू-तार्किक; युक्ति-मत्त्वात्--युक्तियुक्त होने से; विदुषाम्-विद्वानों के; किमू-क्या;अशोभनम्-प्रखरता का अभाव
इस तरह दार्शनिकों ने भौतिक तत्त्वों का विश्लेषण अनेक प्रकारों से किया है। उनके सारेप्रस्ताव युक्तियुक्त हैं क्योंकि उन्हें पर्याप्त तर्क के साथ प्रस्तुत किया गया है। निस्सन्देह ऐसीतार्किक प्रखरता की आशा वास्तविक विद्वानों से ही की जाती है।
श्रीउद्धव उवाचप्रकृति: पुरुषश्चोभौ यद्यप्यात्मविलक्षणौ ।अन्योन्यापाश्रयात्कृष्ण हृश्यते न भिदा तयो: ।प्रकृतौ लक्ष्यते ह्यात्मा प्रकृतिश्चव तथात्मनि ॥
२६॥
श्री-उद्धवः उबाच-- श्री उद्धव ने कहा; प्रकृति:--प्रकृति; पुरुष: -- भोक्ता, जीव; च--तथा; उभौ--दोनों; यदि अपि--यद्यपि;आत्म--स्वाभाविक रूप से; विलक्षणौ--सुस्पष्ट, भिन्न; अन्योन्य--पारस्परिक; अपाश्रयात्--आश्रय के कारण; कृष्ण--हेकृष्ण; दृश्यते न--दिखाई नहीं पड़ता; भिदा--कोई अन्तर; तयो:--उनके मध्य; प्रकृतौ--प्रकृति में; लक्ष्यते-- आभास होता है;हि--निस्सन्देह; आत्मा--आत्मा; प्रकृति:--प्रकृति; च--तथा; तथा-- भी; आत्मनि--आत्मा में |
श्री उद्धव ने पूछा : हे कृष्ण, यद्यपि स्वभाव से प्रकृति तथा जीव भिन्न हैं, किन्तु उनमें कोईअन्तर नहीं दिखता क्योंकि वे एक-दूसरे के भीतर निवास करते पाये जाते हैं। इस तरह आत्माप्रकृति के भीतर और प्रकृति आत्मा के भीतर प्रतीत होती है।
एवं मे पुण्डरीकाक्ष महान्तं संशय हृदि ।छेत्तुमहसि सर्वज्ञ वचोभिर्नयनैपुणै: ॥
२७॥
एवम्--इस प्रकार; मे--मेरा; पुण्डरीक-अक्ष--हे कमलनयन भगवान्; महान्तम्-महान्; संशयम्--सन्देह को; हृदि--मेंरेहृदय के भीतर; छेत्तुमू--काट देना; अहसि--आपको चाहिए कि; सर्व-ज्ञ-हे सर्वज्ञाता; बचोभि:--अपने शब्दों से; नय--तर्क में; नैपुणैः--अत्यन्त निपुण |
हे कमलनयन कृष्ण, हे सर्वज्ञ, कृपया आप अपने उन शब्दों से मेरे हृदय के इस महान्संशय को छिन्न-भिन्न कर दें जो आपकी परम तर्क-पटुता को दिखलाने वाले हैं।
त्वत्तो ज्ञानं हि जीवानां प्रमोषस्तेउत्र शक्तित: ।त्वमेव ह्यात्ममायाया गतिं वेत्थ न चापर: ॥
२८॥
त्वत्तः:--आपसे; ज्ञानम्ू--ज्ञान; हि--निस्सन्देह; जीवानाम्ू--सजीव प्राणियों का; प्रमोष:--चुराया जाना; ते--आपका; अत्र--इस ज्ञान में; शक्तित:--शक्ति से; त्वमू--आप; एव--एकमात्र; हि--निस्सन्देह; आत्म--आपकी ; मायाया: --माया का;गतिमू--असली स्वभाव; वेत्थ--आप जानते हैं; न--नहीं; च--तथा; अपर:ः--कोई अन्य व्यक्ति।
आपसे ही जीवों का ज्ञान उदय होता है और आपकी शक्ति से वह ज्ञान चला जाता है।निस्सन्देह, आपके अतिरिक्त अन्य कोई व्यक्ति आपकी माया के असली स्वभाव को नहीं जानसकता।
श्रीभगवानुवाचप्रकृति: पुरुषश्चेति विकल्प: पुरुषर्षभ ।एष वैकारिक: सर्गो गुणव्यतिकरात्मकः ॥
२९॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् ने कहा; प्रकृति:--प्रकृति; पुरुष:-- भोक्ता, जीव; च--तथा; इति--इस प्रकार; विकल्प: --पूर्ण अन्तर; पुरुष-ऋषभ--हे पुरुषों में श्रेष्ठ; एष:--यह; वैकारिक:--रूपान्तरशील; सर्ग:--सृष्टि; गुण--प्रकृति के गुणों के;व्यतिकर--विक्षोभ पर; आत्मक:--आधारित ।
भगवान् ने कहा : हे पुरुष- श्रेष्ठ, प्रकृति तथा इसका भोक्ता स्पष्ट रूप से पृथक् पृथक हैं।यह व्यक्त सृष्टि प्रकृति के गुणों के विक्षोभ पर आधारित होने के कारण निरन्तर रूपान्तरित होतीरहती है।
ममाड़ माया गुणमय्यनेकधाविकल्पबुद्धी श्व गुणर्विधत्ते ।वैकारिकस्त्रिविधो ध्यात्ममेक-मथाधिदेवमधिभूतमन्यत् ॥
३०॥
मम--मेरा; अड़--हे उद्धव; माया--भौतिक शक्ति; गुण-मयी--तीन गुणों वाली; अनेकधा--कई प्रकार के; विकल्प--विभिन्न स्वरूप; बुद्धी:--तथा इन अन्तरों की अनुभूतियाँ; च--तथा; गुणै:--गुणों के द्वारा; विधत्ते--स्थापित करती हैं;वैकारिकः--विकारों ( परिवर्तनों ) की पूरी अभिव्यक्ति; त्रि-विध:--तीन पक्षों वाला; अध्यात्मम्ू--अध्यात्म कहलाने वाला;एकम्--एक; अथ--तथा; अधिदैवम्-- अधिदेव; अधिभूतम्--अधिभूत; अन्यत्--दूसरा |
हे उद्धव, मेरी माया तीन गुणों वाली है और वह उन्हीं के माध्यम से कार्य करती है। सृष्टि कीविविधताओं को उनकी अनुभूति करने के लिए वह चेतना की विविधताओं समेत प्रकट करती है। भौतिक परिवर्तन का व्यक्त परिणाम तीन रूपों में समझा जाता है--अध्यात्मिक, अधिदैविकतथा अधिभौतिक।
हग् रूपमार्क वपुरत्र रन्श्रेपरस्परं सिध्यति यः स्वतः खे ।आत्मा यदेषामपरो य आद्यःस्वयानुभूत्याखिलसिद्धसिद्धि: ॥
३१॥
हक्--दृष्टि का कार्य ( यथा अध्यात्म ); रूपम्--हृश्य रूप ( यथा अधिभूत ); आर्कम्--सूर्य का; वपु:--आंशिक बिम्ब ( यथाअधिदैव ); अत्र--इस; रन्श्रे--( आँख की पुतली के ) छिद्र में; परस्परमू-- आपस में; सिध्यति--एक-दूसरेकी अभिव्यक्तिकरता है; यः--जो; स्वतः--अपनी शक्ति से; खे--आकाश में; आत्मा--परमात्मा; यत्--जो; एषाम्--इन ( तीन रूपों ) का;अपरः--पृथक् ; यः--जो; आद्य:--आदि कारण; स्वया--अपने से; अनुभूत्या--दिव्य अनुभव; अखिल--समस्त; सिद्ध--प्रकट घटना; सिद्द्धिः--अभिव्यक्ति का स्त्रोत)
इृष्टि, दहृश्यरूप तथा आँख के छिद्र के भीतर सूर्य का बिम्ब--ये तीनों मिल कर एक दूसरेको प्रकट करने का कार्य करते हैं। किन्तु आकाश में स्थित आदि सूर्य स्वतः प्रकट है। इसी तरहसमस्त जीवों का आदि कारण परमात्मा, जो सबों से पृथक् है, अपने ही दिव्य अनुभव केप्रकाश से, समस्त प्रकट होने वाली वस्तुओं के परम स्त्रोत के रूप में कार्य करता है।
एवं त्वगादि श्रवणादि चश्लु-जिह्वादि नासादि च चित्तयुक्तम् ॥
३२॥
एवम्--इसी तरह से; त्वक्-आदि--त्वचा, स्पर्श की अनुभूति तथा वायुदेव; श्रवण-आदि--कान, ध्वनि की अनुभूति तथादिशाओं के देव; चक्षु:ः--आँखें ( पिछले श्लोक में वर्णित ); जिह्वा-अदि--जीभ स्वाद की अनुभूति तथा वरुण देव; नास-आदि--नाक प्राण की अनुभूति तथा अश्विनी कुमार; च--भी; चित्त-युक्तम्--चेतना समेत
इसमें न केवल बद्ध चेतना तथाउसका विषय एवं अधिष्ठाता वासुदेव के साथ मन, चिंतन का विषय तथा चन्द्र देव, बुद्धि तथा ब्रह्मा, अहंकार तथा रुद्र देवसम्मिलित हैं ),इसी तरह से त्वचा, कान, आँखें, जीभ तथा नाक जैसी इन्द्रियाँ तथा सूक्ष्म शरीर के कार्यो--यथा बद्ध चेतना, मन, बुद्धि तथा अहंकार--की व्याख्या इन्द्रिय, अनुभूति के विषयतथा अधिष्ठाता देव के तेहरे अन्तर के रूप में की जा सकती है।
योउसौ गुणक्षोभकृतो विकारःप्रधानमूलान्महतः प्रसूतः ।अहं त्रिवृन्मोहविकल्पहेतु-वैकारिकस्तामस ऐन्द्रियश्व ॥
३३॥
यः असौ--यह; गुण--प्रकृति के गुणों के; क्षोभ--श्षुब्ध होने से; कृत:--उत्पन्न; विकार: --रूपान्तर; प्रधान-मूलात्ू--प्रधानसे उत्पन्न; महत:ः--महत तत्त्व से; प्रसूत:--उत्पन्न; अहमू--अहंकार; त्रि-वृतू--तीन अवस्थाओं में; मोह--मोह का; विकल्प--भौतिक विविधता; हेतु:--कारण; वैकारिक:--सतोगुण में सात्विक; तामसः--तमोगुण में तामस; ऐन्द्रियः--रजोगुणी राजस;च-तथा।
जब प्रकृति के तीनों गुण विश्लुब्ध होते हैं, तो जो विकार उत्पन्न होता है, वह अहंकार तत्त्वकी तीन अवस्थाओं में प्रकट होता है--ये हैं सात्विक, तामस तथा राजस। यह अहंकार जो महततत्त्व से उत्पन्न होता है और जो स्वयं भी अव्यक्त प्रधान से उत्पन्न है, समस्त भौतिक मोह तथा द्वैतका कारण बन जाता है।
आत्मापरिज्ञानमयो विवादोहास्तीति नास्तीति भिदार्थनिष्ठ: ।व्यर्थोडपि नैवोपरमेत पुंसांमत्त: परावृत्तधियां स्वलोकात् ॥
३४॥
आत्म--परमात्मा का; अपरिज्ञान-मय: --पूर्ण ज्ञान के अभाव पर आधारित; विवाद:--काल्पनिक तर्क-वितर्क; हि--निस्सन्देह; अस्ति--( यह जगत ) सत्य है; इति--ऐसा कहते हुए; न अस्ति--सत्य नहीं है; इति--ऐसा कहते हुए; भिदा--भौतिक अन्तर; अर्थ-निष्ठ:--विवाद का केन्द्रबिन्दु मानते हुए; व्यर्थ:--व्यर्थ; अपि--यद्यपि; न--नहीं; एव--निश्चय ही;उपरमेत--शान्त हो जाते हैं; पुंसाम्ू--मनुष्यों के लिए; मत्त:--मुझसे; परावृत्त--विमुख; धियाम्--ध्यान; स्व-लोकात्--जोउनसे अभिन्न हैं
दार्शनिकों का यह काल्पनिक विवाद कि, 'यह जगत सत्य है, अथवा यह जगत सत्य नहींहै' परमात्मा के अपूर्ण ज्ञान पर आधारित है और भौतिक द्वैत को समझने के लिए ही है। यद्यपिऐसा विवाद व्यर्थ है किन्तु जिन व्यक्तियों ने अपने वास्तविक आत्म रूप मुझसे, अपना ध्यानहटा लिया है, वे इसे त्याग पाने में असमर्थ हैं।
श्रीउद्धव उवाचत्वत्त: परावृत्तधिय: स्वकृतैः कर्मभिः प्रभो ।उच्चावचान्यथा देहान्गृह्लन्ति विसृजन्ति च ॥
३५॥
तन्ममाख्याहि गोविन्द दुर्विभाव्यमनात्मभि: ।न होतत्प्रायशो लोके विद्वांस: सन्ति वश्धिता: ॥
३६॥
श्री-उद्धवः उवाच-- श्री उद्धव ने कहा; त्वत्तः--आप से; परावृत्त--पराड्मुख; धिय:--जिनके मन; स्व-कृतैः --अपने द्वाराकिये गये; कर्मभि:--सकाम कर्मों से; प्रभो--हे प्रभु; उच्च-अवचानू--उच्चतर तथा निम्नतर; यथा--जिस तरह; देहानू--भौतिक शरीरों को; गृह्न्ति-- स्वीकार करते हैं; विसृजन्ति--त्याग देते हैं; च--तथा; तत्--वह; मम--मुझसे; आख्याहि--कृपा करके बतलाइये; गोविन्द--हे गोविन्द; दुर्विभाव्यमू--समझना असम्भव; अनात्मभि:--जो बुद्द्धिमान नहीं हैं उनके द्वारा;न--नहीं; हि--निस्सन्देह; एतत्--इसके विषय में; प्रायश:-- अधिकांशत: ; लोके --इस जगत में; विद्वांस:--जानने योग्य;सन्ति--हैं; वश्चिता:--ठगेहुए ( माया द्वारा ) |
श्री उद्धव ने कहा : हे परम स्वामी, सकाम कर्मियों की बुद्धि निश्चय ही आपसे विमुख होतीहै। अतः कृपा करके यह बतलायें कि ऐसे लोग किस तरह अपने भौतिकतावादी कार्यो से उच्चतथा निम्न शरीर ग्रहण करते हैं और फिर उनका त्याग करते हैं? हे गोविन्द, यह विषय मूर्खो कीसमझ में आने वाला नहीं है। वे इस जगत में माया से ठगे जाने पर भी इस तथ्य से अवगत नहींहो पाते।
श्रीभगवानुवाचमनः कर्ममयं णृणामिन्द्रिये: पञ्नभिर्युतम् ।लोकाल्लोकं प्रयात्यन्य आत्मा तदनुवर्तते ॥
३७॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; मन:ः--मन; कर्म-मयम्--कर्म द्वारा निर्मित; नृणाम्--मनुष्यों की; इन्द्रिये:--इन्द्रियोंसमेत; पशञ्चञभिः--पाँच; युतम्--संयुक्त; लोकात्--एक संसार से; लोकम्--दूसरे जगत को; प्रयाति--यात्रा करता है; अन्य: --पृथक्; आत्मा--आत्मा; तत्--वह मन; अनुवर्तते--अनुगमन करता है।
भगवान् कृष्ण ने कहा : मनुष्यों का भौतिक मन सकाम कर्मों के फल से निर्मित होता है।वह पाँच इन्द्रियों के साथ एक शरीर से दूसरे शरीर में विचरण करता है। यद्यपि आत्मा मन सेभिन्न है, किन्तु वह उसका अनुगमन करता है।
ध्यायन्मनोनु विषयान्दष्टान्वानुश्रुतानथ ।उद्यत्सीदत्कर्मतन्त्रं स्मृतिस्तदनु शाम्यति ॥
३८ ॥
ध्यायत्-- ध्यान करता; मन:--मन; अनु--नियमित रूप से; विषयान्--इन्द्रिय-विषयों को; दृष्टानू--देखा हुआ; वा--अथवा;अनुश्रुतान्--वैदिक प्रमाण से सुना हुआ; अथ--फलस्वरूप; उद्यत्--उदय होता; सीदत्--विलीन करते; कर्म-तन्त्रमू--सकामकर्मो के फलों से बँधा; स्मृति:--स्मृति; तत् अनु--उसके बाद; शाम्यति--नष्ट हो जाता है।
सकाम कर्मों के फलों से बँधा हुआ मन सदैव उन इन्द्रिय-विषयों का ध्यान करता है, जोइस जगत में दिखते हैं और उन विषयों का भी जो वैदिक विद्वानों से सुने जाते हैं। फलस्वरूपमन अपनी अनुभूति की वस्तुओं के साथ उत्पन्न और विनष्ट होता प्रतीत होता है। इस तरह भूततथा भविष्य में अन्तर करने की इसकी क्षमता जाती रहती है।
विषयाभिनिवेशेन नात्मानं यत् स्मरेत्युन: ।जन्तोर्वे कस्यचिद्धेतोर्मुत्युरत्यन्तविस्मृति: ॥
३९॥
विषय--नवीन अनुभूति के विषयों में; अभिनिवेशेन--तल्लीनता से; न--नहीं; आत्मानम्-- अपने पूर्व आत्मा को; यतू--जिसस्थिति में; स्मरेत्--स्मरण करता है; पुन:--और आगे; जन्तोः--जीव का; बै--निस्सन्देह; कस्यचित् हेतो:--किसी न किसीबहाने; मृत्यु:--मृत्यु नामक; अत्यन्त--पूर्ण; विस्मृतिः--विस्मरण |
जब जीव वर्तमान शरीर से दूसरे शरीर में जाता है, जो उसके अपने कर्म से उत्पन्न होता है,तो वह नये शरीर की आनन्दप्रद तथा पीड़ादायक अनुभूतियों में लीन हो जाता है और पहलेवाले शरीर के अनुभव को पूरी तरह भूल जाता है। इस तरह से पूर्व भौतिक पहचान की पूर्णविस्मृति, जो किसी न किसी बहाने उत्पन्न होती है, मृत्यु कहलाती है।
जन्म त्वात्मतया पुंस: सर्वभावेन भूरिद ।विषयस्वीकृतिं प्राहुर्यथा स्वप्नमनोरथ: ॥
४०॥
जन्म--जन्म; तु--तथा; आत्मतया-- अपने साथ पहचान से; पुंसः--पुरुष की; सर्व-भावेन--पूरी तरह; भूरि-द--हे अत्यन्तदानी उद्धव; विषय--शरीर का; स्वी-कृतिम्--स्वीकृति; प्राहु:--कहलाती है; यथा--जिस तरह; स्वप्न--सपना; मनः-रथ:--या मानसिक विलास।
हे परम दानी उद्धव, जिसे जन्म कहा जाता है, वह नवीन शरीर के साथ मनुष्य की पूर्णपहचान ही है। मनुष्य नया शरीर उसी तरह स्वीकार करता है, जिस तरह कोई स्वप्न के अनुभव या मनोविलास को सत्य मान लेता है।
स्वप्न॑ मनोरथं चेत्थ॑ प्राक्तनं न स्मरत्यसौ ।तत्र पूर्वमिवात्मानमपूर्वम्चानुपश्यति ॥
४१॥
स्वणम्--स्वण; मन:ः-रथम्--दिवास्वन; च--तथा; इत्थम्--इस प्रकार; प्राक्तनम्--पूर्ववर्ती; न स्मरति--स्मरण नहीं करता;असौ--वह; तत्र--उस ( वर्तमान शरीर ) में; पूर्वम्--पूर्ववर्ती, पिछला; इब--मानो; आत्मानम्--स्वयं; अपूर्वम्--जिसकाभूतकाल न हो; च--तथा; अनुपश्यति--देखता है|
जिस प्रकार मनुष्य स्वप्न या दिवास्वप्न का अनुभव करते हुए अपने पहले के स्वप्णों यादिवास्वप्नों को स्मरण नहीं रख पाता, उसी तरह अपने वर्तमान शरीर में स्थित मनुष्य इसके पूर्वविद्यमान होने पर भी यही सोचता है कि वह अभी हाल ही में उत्पन्न हुआ है।इन्द्रियायनसूष्टय्रेदं त्रैविध्यं भाति वस्तुनि ।श़ बहिरन्तर्भिदाहेतुर्जनीो उसज्जनकृद्यथा ॥
४२॥
इन्द्रिय-अयन--इन्द्रियों के वास ( मन ) द्वारा; सृष्ठदया--सृष्टि होने से ( नये शरीर के साथ पहचान से ); इदम्--यह; त्रै-विध्यम्--तीन प्रकार का ( उच्च, मध्य तथा निम्न श्रेणी का ); भाति--प्रकट होता है; वस्तुनि--वास्तविकता ( आत्मा ) में;बहि:ः--बाह्य; अन्त:--तथा आन्तरिक; भिदा--अन्तरों का; हेतु:--कारण; जन: --व्यक्ति; असत्-जन--बुरे व्यक्ति का;कृतू--जनक; यथा--जिस तरह
चूँकि मन, जो कि इन्द्रियों का आश्रय है, नवीन शरीर के साथ अपनी पहचान कर लेता हैअतएव उच्च, मध्यम तथा निम्न--ये तीन भौतिक श्रेणियाँ ऐसी प्रतीत होने लगती हैं मानोआत्मा की असलियत के भीतर उपस्थित हों। इस तरह आत्मा बाह्य तथा अन्त: द्वैत उत्पन्न करताहै, जिस तरह मनुष्य कुपुत्र को जन्म दे।
परत नित्यदा हाड़ भूतानि भवन्ति न भवन्ति च ।कालेनालक्ष्यवेगेन सूक्ष्मत्वात्तन्न दृश्यते ॥
४३॥
नित्यदा--निरन्तर; हि--निस्सन्देह; अड्भ--हे उद्धव; भूतानि--सूजित शरीर; भवन्ति--उत्पन्न होते हैं; न भवन्ति--नहीं रहते;च--तथा; कालेन--समय द्वारा; अलक्ष्य--अदृश्य; वेगेन--वेग से; सूक्ष्मत्वात्-- अत्यन्त सूक्ष्म होने से; तत्--वह; न दृश्यते--नहीं दिखलाई पड़ती।
हे उद्धव, भौतिक शरीर काल के अदृश्य तीब्र वेग से निरन्तर उत्पत्ति तथा विनाश को प्राप्तहोते रहते हैं। सूक्ष्म प्रकृति होने से काल को कोई देख नहीं पाता।
यथार्चिषां सत्रोतसां च फलानां वा वनस्पते: ।तथेव सर्वभूतानां वयोवस्थादय: कृता: ॥
४४॥
यथा--जिस तरह; अर्चिषाम्--दीपक की लौ; स््रोतसामू--नदी की धाराओं के; च--तथा; फलानाम्--फलों के; वा--अथवा; वनस्पते:--वृक्ष के; तथा--इस तरह; एव--निश्चय ही; सर्व-भूतानाम्--सारे शरीरों के; वयः--विभिन्न आयु के;अवस्था--अवस्था; आदय:--इत्यादि; कृता:--उत्पन्न की जाती हैं।
समस्त भौतिक शरीरों के रूपान्तर की विभिन्न अवस्थाएँ उसी तरह बदलती रहती हैं जिसतरह दीपक की लौ, नदी की धारा या वृक्ष के फल बदलते रहते हैं।
सोअयं दीपोडर्चिषां यद्वत्त्रोतसां तदिदं जलम् ।सोडयं पुमानिति नृणां मृषा गीर्धीमृषायुषाम् ॥
४५॥
सः--यह; अयम्--वही; दीप:-- प्रकाश; अर्चिषाम्--दीपक की ज्योति; यद्वत्--जिस तरह; स्त्रोतसाम--नदी के भीतर बहनेवाली धाराओं के; तत्--वह; इृदम्--वही; जलम्--जल; सः--यह; अयम्--वही; पुमान्--व्यक्ति; इति--इस प्रकार;नृणाम्-मनुष्यों के; मृषा--झूठा; गीः--कथन; धी: --विचार; मृषा-आयुषाम्--व्यर्थ जीवन बिताने वालों के
यद्यपि दीपक-प्रकाश में प्रकाश की असंख्य किरणों का सृजन, रूपान्तर और क्षय होतारहता है, किन्तु मोहग्रस्त व्यक्ति जब क्षण-भर के लिए इस प्रकाश को देखता है, तो वह यहझूठी बात कहेगा, 'यह दीपक का वही प्रकाश है।' जिस तरह प्रवाहित नदी के जल को जोनिरन्तर बह कर आगे बढ़ता जाता है, किसी एक बिंदु को देख कर कोई यह मिथ्या कहे, 'यहनदी का वही जल है।' इसी तरह यद्यपि मनुष्य का शरीर निरन्तर परिवर्तित होता रहता है, किन्तुजो लोग अपने जीवन को व्यर्थ गँवाते हैं, वे झूठे ही यह सोचते और कहते हैं कि शरीर कीप्रत्येक विशेष अवस्था उस व्यक्ति की असली पहचान है।
मा स्वस्थ कर्मबीजेन जायते सोप्ययं पुमान् ।प्रियते वामरो भ्रान्त्या यथाग्निर्दारुसंयुत: ॥
४६॥
मा--मत; स्वस्य--अपने ही; कर्म-बीजेन--कर्म के बीज से; जायते--जन्म लेता है; सः--वह; अपि--निस्सन्देह; अयम्--यह; पुमान्ू--पुरुष; प्रियते--मरता है; वा--अथवा; अमरः--अमर; भ्रान्त्या-- भ्रान्ति के कारण; यथा--जिस तरह; अग्नि:--अग्नि; दारु-काष्ट से; संयुत:--जुड़ी हुई
मनुष्य न तो पूर्वकर्म के बीज से जन्म लेता है न ही अमर होने के कारण मरता है। मोह केकारण जीव जन्म लेता तथा मरता प्रतीत होता है, जिस तरह काष्ठ के संसर्ग से अग्नि जलती औरफिर बुझती प्रतीत होती है।
निषेकगर्भजन्मानि बाल्यकौमारयौवनम् ।वयोमध्यं जरा मृत्युरित्यवस्थास्तनोर्नव ॥
४७॥
निषेक--गर्भस्थापन; गर्भ--गर्भवृद्धि; जन्मानि--तथा जन्म; बाल्य--बाल्यकाल, बचपन; कौमार--कुमार अवस्था;यौवनम्--तथा युवावस्था; वय:-मध्यम्ू--बीच की ( अधेड़ ) आयु; जरा--बुढ़ापा; मृत्यु:--मृत्यु; इति--इस प्रकार;अवस्था:--अवस्थाएँ; तनो:--शरीर की; नव--नौ |
गर्भस्थापन, गर्भवृद्धि, जन्म, बाल्यावस्था, कुमारावस्था, युवावस्था, अधेड़ आयु, बुढ़ापातथा मृत्यु--ये शरीर की नौ अवस्थाएँ हैं।
एता मनोरथमयीरहन्यस्योच्चावचास्तनू: ।गुणसड्भादुपादत्ते क्वचित्कश्चिजहाति च ॥
४८॥
एता:--ये; मन:ः-रथ:-मयी:--मन के चिंतन द्वारा प्राप्त; ह--निश्चय ही; अन्यस्य--( आत्मा से पृथक् ) शरीर का; उच्च--बड़ा;अवचा:--तथा छोटा; तनू: --शारीरिक अवस्था; गुण-सझत्-प्रकृति के गुणों की संगति करने से; उपादत्ते--स्वीकार करताहै; क्वचित्ू--कभी कभी; कश्चित्--कोई; जहाति--त्याग देता है; च--तथा
यद्यपि भौतिक शरीर आत्मा से भिन्न है, किन्तु भौतिक संगति के कारण उत्पन्न अज्ञान सेमनुष्य झूठे ही अपनी पहचान उच्च तथा निम्न शारीरिक अवस्थाओं से करता है। कभी कभीभाग्यशाली व्यक्ति ऐसी मनोकल्पना को त्यागने में समर्थ होता है।
आत्मनः पितृपुत्रा भ्यामनुमेयौ भवाप्ययौ ।न भवाप्ययवस्तूनामभिज्ञो द्वयलक्षण: ॥
४९॥
आत्मन:--अपना ही; पितृ-पिता या पूर्वजों; पुत्राभ्यामू-तथा पुत्र से; अनुमेयौ--यह अनुमान लगाया जा सकता है; भव--जन्म; अप्ययौ--तथा मृत्यु; न--नहीं है; भव-अप्यय-वस्तूनाम्ू--जन्म तथा मृत्यु के अधीन सारी वस्तुओं का; अभिज्ञ:--भलीभाँति जानने वाला; द्वय--इन द्वैतों से; लक्षण:--लक्षित होता है।
अपने पिता या पितामह की मृत्यु से मनुष्य अपनी मृत्यु का अनुमान लगा सकता है औरअपने पुत्र के जन्म से वह अपने जन्म की अवस्था समझ सकता है। इस तरह जो व्यक्तियथार्थरूप से भौतिक शरीरों की उत्पत्ति को समझ लेता है, वह इन द्वैतों में नहीं पड़ता।
तरोबीजविपाकाभ्यां यो दिद्वाज्न्मसंयमौ ।तरोर्विलक्षणो द्रष्टा एवं द्रष्ठा तनो: पृथक् ॥
५०॥
तरो:--वृक्ष का; बीज--बीज; विपाकाभ्याम्--परिपक्वता; य:--जो ; विद्वान्--ज्ञानी; जन्म--जन्म; संयमौ--तथा मृत्यु के;तरो:--वृक्ष से; विलक्षण:--स्पष्ट; द्रष्टा--साक्षी; एवम्--इसी तरह से; द्रष्टा--साक्षी; तनो:-- भौतिक शरीर का; पृठक्--पृथक् है।
जो व्यक्ति बीज से वृक्ष को जन्म लेते देखता है और परिपक्वता प्राप्त करने पर उस वृक्ष कीमृत्यु को भी देखता है, वह निश्चित रूप से वृक्ष से पृथक् रह कर स्पष्ट साक्षी बन जाता है। इसीतरह भौतिक शरीर के जन्म तथा मृत्यु का साक्षी शरीर से पृथक् रहता है।
प्रकृतेरेवमात्मानमविविच्याबुध: पुमान् ।तत्त्वेन स्पर्शसम्मूढ: संसारं प्रतिपद्यते ॥
५१॥
प्रकृते:--भौतिक प्रकृति से; एबम्--इस प्रकार; आत्मानम्--आत्मा; अविविच्य-- भेद न कर पाने से; अबुध:--अज्ञानी;पुमान्ू--पुरुष; तत्त्वेन--( भौतिक वस्तुओं को ) असली समझ कर; स्पर्श--स्पर्श से; सम्मूढ:--पूर्णतया मोहित; संसारम्--भव-चक्र ; प्रतिपद्यते--प्राप्त करता है
अज्ञानी व्यक्ति अपने को प्रकृति से अलग न समझ पाने से प्रकृति को सत्य समझता है।इसके सम्पर्क से वह पूर्णतया मोहित हो जाता है और संसार-चक्र में प्रवेश करता है।
सत्त्वसड्भाहृषीन्देवात्रजसासुरमानुषान् ।तमसा भूततिर्यक्त्वं भ्रामितो याति कर्मभि; ॥
५२॥
सत्त्व-सड्रात्-सतोगुण के साथ से; ऋषीन्--ऋषियों को; देवान्ू--देवताओं को; रजसा--रजोगुण के द्वारा; असुर--असुरोंको; मानुषान्ू--तथा मनुष्यों को; तमसा--तमोगुण द्वारा; भूत-- भूतप्रेतों को; तिर्यक्तवम्--पशु-जगत को; भ्रामित:--घुमायागया; याति--जाता है; कर्मभि:ः--अपने सकाम कर्मों के कारण |
अपने सकाम कर्म के कारण घूमने के लिए बाध्य हुआ, बद्ध आत्मा सतोगुण के सम्पर्क सेऋषियों या देवताओं के बीच जन्म लेता है। रजोगुण के सम्पर्क से वह असुर या मनुष्य बनता हैऔर तमोगुण की संगति से वह भूतप्रेत या पशु-जगत में जन्म लेता है।
नृत्यतो गायतः पश्यन्यथेवानुकरोति तान् ।एवं बुद्धिगुणान्पश्यन्ननीहोप्यनुकार्यते ॥
५३॥
नृत्यतः--नाचते हुए पुरुष; गायत:--तथा गाते हुए; पश्यन्ू--देखते हुए; यथा--जिस तरह; एव--निस्सन्देह; अनुकरोति--अनुकरण करता है; तानू--उनको; एवम्--इस तरह; बुद्धि--बुद्धि का; गुणान्--अर्जित गुणों को; पश्यन्ू--देखते हुए;अनीहः --स्वयं कार्य में रत न होकर; अपि--फिर भी; अनुकार्यते--अनुकरण कराया जाता है।
जिस तरह नाचते तथा गाते हुए व्यक्तियों को देख कर कोई व्यक्ति उनका अनुकरण करताहै, उसी तरह आत्मा सकाम कर्मो का कर्ता न होते हुए भी, भौतिक बुद्धि द्वारा मोहित हो जाता हैऔर उसके गुणों का अनुकरण करने के लिए बाध्य हो जाता है।
यथाम्भसा प्रचलता तरवोपि चला इब ।चक्षुसा भ्राम्यमाणेन हृश्यते भ्रमतीव भू: ॥
५४॥
यथा मनोरथधियो विषयस्षानुभवो मृषा ।स्वणदृष्टाश्च दाशाई तथा संसार आत्मन: ॥
५५॥
यथा--जिस तरह; अम्भसा--जल द्वारा; प्रचलता--गतिवानू, चलायमान; तरव:--वृक्ष; अपि--निस्सन्देह; चला:--चलते हुए,गतिवान्; इब--; चक्षुषा--; भ्राम्यमाणेन--; दृश्यते--; भ्रमती--; इव--; भूः--; यथा--; मनः-रथ--; धिय:--;विषय-- अनुभव:-; मृषा--; स्वणज-दृष्ट: --; च--; दाशाई-- $ तथा--; संसार:--आत्मन:है दशाई
वंशज, आत्मा का भौतिक जीवन, इन्द्रियतृष्ति का उसका अनुभव वास्तव में उसीतरह झूठा होता है, जिस तरह क्षुब्ध जल में प्रतिबिम्बित वृक्षों का हिलना-डुलना या आँखों कोचारों ओर घुमाने से पृथ्वी का घूमना या कल्पना अथवा स्वण का जगत होता है।
अर्थ हाविद्यमानेपि संसृतिर्न निवर्तते ।ध्यायतो विषयानस्य स्वप्नेडनर्थागमो यथा ॥
५६॥
अर्थ--वास्तव में; हि--निश्चय ही; अविद्यमाने--न होते हुए; अपि-- भी; संसृतिः--जगत; न निवर्तते--रूकता नहीं;ध्यायत:--ध्यान करता; विषयानू--इन्द्रियतृप्ति की वस्तुओं का; अस्य--उसका; स्वप्ने--स्वप्न में; अनर्थ--अवांछित वस्तुका; आगम:ः--आना; यथा--जिस तरह ।
जो व्यक्ति इन्द्रियतृप्ति पर अपना ध्यान जमाये रखता है, उसके लिए भौतिक जीवनवास्तविक न होते हुए भी उसी तरह हट नहीं पाता जिस तरह स्वप्न के अरुचिकर अनुभव हटायेनहीं हटते।
तस्मादुद्धव मा भुड्छ््व विषयानसदिन्द्रिय: ।आत्माग्रहणनिर्भातं पश्य वैकल्पिकं भ्रमम् ॥
५७॥
तस्मात्--इसलिए; उद्धव--हे उद्धव; मा भुड्छ््व--मत भोग करो; विषयान्--इन्द्रिय-विषयों को; असत्--अशुद्ध; इन्द्रियै: --इन्द्रियों द्वारा; आत्म--आत्मा का; अग्रहण-- अनुभव करने की अक्षमता; निर्भातमू--जिसमेंप्रकट है; पश्य--इसे देखो;वैकल्पिकम्-- भौतिक द्वैत पर आधारित; भ्रमम्--मोह, भ्रम |
इसलिए हे उद्धव, तुम भौतिक इन्द्रियों से इन्द्रियतृप्ति भोगने का प्रयास मत करो। यह देखोकिस तरह भौतिक द्वैत पर आधारित भ्रम मनुष्य को आत्म-साक्षात्कार से रोकता है।
क्षिप्तोउबमानितोसद्धि: प्रलब्धोड्सूयितोथ वा ।ताडितः सन्निरुद्धो वा वृत्त्या वा परिहापित: ॥
५८ ॥
निष्ठ्युतो मूत्रितो वाज्जैर्बहुधैवं प्रकम्पितः ।श्रेयस्काम: कृच्छुगत आत्मनात्मानमुद्धरेत् ॥
५९॥
क्षिप्त:--अपमानित; अवमानित: --उपेक्षित; असद्द्धिः--बुरे व्यक्तियों द्वारा; प्रलब्ध: --उपहास किया गया; असूयित: --ईर्ष्याकिया गया; अथ वा--या फिर; ताडितः--ताड़ना दिया गया; सन्निरुद्ध:--बाँधा गया; वा--अथवा; वृत्त्या--अपनी जीविका-साधन का; वा--अथवा; परिहापित: --वंचित किया गया; निष्ठय्युतः--ऊपर थूका गया; मूत्रित:--पेशाब द्वारा दूषित कियागया; वा--अथवा; अज्जैः--मूर्खो द्वारा; बहुधा--बारम्बार; एवम्--इस प्रकार; प्रकम्पित:--विश्लुब्ध किया गया; श्रेय:-'काम:ः--जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य चाहने वाला; कृच्छु-गत:--कठिनाई का अनुभव करते हुए; आत्मना--अपनी बुद्धि से;आत्मानम्--अपने को; उद्धरेत्--बचाये |
जो व्यक्ति जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य को पाना चाहता है उसे बुरे लोगों द्वारा उपेक्षित होने,अपमानित किये जाने, उपहास या ईर्ष्या किये जाने पर या फिर अज्ञानी व्यक्तियों द्वारा बारम्बारमारे-पीटे जाने, बाँधे जाने या अपनी जीविका छीने जाने, अपने पर थूके जाने या अपने ऊपरपेशाब किए जाने जैसी कठिनाइयों के बावजूद, अपने आप को आध्यात्मिक पद पर सुरक्षितरखने के लिए, अपनी बुद्धि का प्रयोग करना चाहिए।
श्रीउद्धव उवाच यथेवमनुबुध्येयं वद नो वदतां वर ॥
६०॥
श्री-उद्धवः उबाच-- श्री उद्धव ने कहा; यथा--कैसे; एवम्--इस प्रकार; अनुबुध्येयम्--मैं ठीक से समझूँ; बद--कृपा करकेबतलायें; न:--हमसे; बदताम्--समस्त वक्ताओं में; वर-- श्रेष्ठ |
श्री उद्धव ने कहा : हे श्रेष्ठ वक्ता, कृपा करके मुझे बतलायें कि मैं इसे किस तरह ठीक से समझूँ?सुदुःघहमिमं मन््य आत्मन्यसदतिक्रमम् ।विदुषामपि विश्वात्मन्प्रकृतिर्हि बलीयसी ।ऋते त्वद्धर्मनिरतान्शान्तांस्ते चरणालयान् ॥
६१॥
सु-दुःसहम्--अत्यन्त असहा; इमम्ू--इसे; मन्ये--मैं मानता हूँ; आत्मनि-- अपने ऊपर; असत्--अज्ञानी पुरुषों द्वारा;अतिक्रमम्--आक्रमणों को; विदुषाम्-दविद्वानों के लिए; अपि--भी; विश्व-आत्मन्--हे ब्रह्माण्डके आत्मा; प्रकृति:--मनुष्यका बद्ध व्यक्तित्व; हि--निश्चय ही; बलीयसी--अत्यन्त प्रबल; ऋते--के अतिरिक्त; त्वतू-धर्म--आपकी भक्ति में; निरतान्--लगे हुए; शान्तानू--शान्त; ते--आपके; चरण-आलयानू--चरणकमलों पर निवास करने वाले |
हे विश्वात्मा, मनुष्य का भौतिक जीवन में बंधन अत्यन्त प्रबल है; अतः अज्ञानी पुरुषों द्वाराकिये गये अपराधों को सह पाना बड़े बड़े विद्वानों के लिए भी अत्यन्त कठिन है। केवल आपकेवे भक्त, जो आपकी प्रेमाभक्ति में निरत हैं और जिन्होंने आपके चरणकमलों में रहते हुए शान्तिप्राप्त कर ली है, वे ऐसे अपराधों को सह पाने में सक्षम हैं।
23. अवंती ब्राह्मण का गीत
श्रीबादरायणिरुवाचस एवमाशंसित उद्धवेनभागवतमुख्येन दाशाईमुख्य: ।सभाजयन्भृत्यवचो मुकुन्द-स्तमाबभाषे श्रवणीयवीर्य: ॥
१॥
श्री-बादरायणि: उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; सः--उसने; एवम्--इस प्रकार; आशंसित:--विनती किये जाने पर;उद्धवेन--उद्धव द्वारा; भागवत--भक्तों के; मुख्येन-- प्रमुख; दाशाह--दाशाई वंश ( यदुओं ) के; मुख्य:--प्रमुख;सभाजयन्ू- प्रशंसा करते हुए; भृत्य--उनके सेवक के; वच:--शब्द; मुकुन्दः--मुकुन्द, कृष्ण; तमू--उससे; आबभाषे --कहने लगे; श्रवणीय--सुनने योग्य; वीर्य:--जिसकी सर्वशक्तिमत्ता
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब भक्तों में श्रेष्ठ श्री उद्धव ने दाशाई प्रमुख भगवान् मुकुन्द सेइस तरह सादर अनुरोध किया, तो पहले उन्होंने अपने सेवक के कथन की उपयुक्तता स्वीकारकी। फिर वे भगवान्, जिनके यशस्वी कार्य सुनने के सर्वाधिक योग्य हैं, उन्हें बतलाने लगे।
श्रीभगवानुवाचबा्हस्पत्य स नास्त्यत्र साधुर्वें दुर्जनेरितेः ।दुरक्तैभिन्नमात्मानं यः समाधातुमी श्वर: ॥
२॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; बा्हईस्पत्य--हे बृहस्पति के शिष्य; सः--वह; न अस्ति--नहीं है; अत्र--इस जगत में;साधु:--साधु पुरुष; वै--निस्सन्देह; दुर्जन--असभ्य पुरुषों द्वारा; ईरितै:--प्रयोग में लाए गए; दुरुक्ते:--अपमानजनक शब्दोंसे; भिन्नमू--विचलित; आत्मानम्-- अपना मन; य:--जो; समाधातुम्--वश में करने में; ईश्वरः --समर्थ हो
श्रीकृष्ण ने कहा : हे बृहस्पति-शिष्य, इस जगत में कोई भी ऐसा साधु पुरुष नहीं है, जोअसभ्य व्यक्तियों के अपमानजनक शब्दों से विचलित हुए अपने मन को फिर से स्थिर कर सके।
न तथा तप्यते विद्धः पुमान्बाणैस्तु मर्मगैः ।यथा तुदन्ति मर्मस्था हासतां परुषेषव: ॥
३॥
न--नहीं; तथा--उसी तरह से; तप्यते--पीड़ा पहुँचाता है; विद्धः--बेधा गया; पुमान्--व्यक्ति; बाणैः--बाणों के द्वारा; तु--किन्तु; मर्म-गैः--हृदय तक जाने वाला, मर्मभेदी; यथा--जिस प्रकार; तुदन्ति--चुभते हैं; मर्म-स्था:--हृदय तक पहुँचने वाले;हि--निस्सन्देह; असताम्--दुष्ट पुरुषों के; परुष--कठोर ( वचन ); इषव:--तीर।
छाती को बेध कर हृदय तक पहुँचने वाले पैने बाण उतना कष्ट नहीं देते जितने कि असभ्यपुरुषों द्वारा बोले जाने वाले कटु, अपमानजनक शब्दरूपी तीर जो हृदय के भीतर धँस जाते हैं।
कथयन्ति महत्पुण्यमितिहासमिहोद्धव ।तमहं वर्णयिष्यामि निबोध सुसमाहितः ॥
४॥
कथयन्ति--कहते हैं; महत्--महान्; पुण्यम्--पवित्र; इतिहासमू--क था; इह--इस सम्बन्ध में; उद्धव--हे उद्धव; तम्--उसे;अहम्ू--ैं; वर्णयिष्यामि--कहूँगा; निबोध--सुनो; सु-समाहित:--ध्यानपूर्वक
हे उद्धव, इस सम्बन्ध में एक अत्यन्त पवित्र कथा कही जाती है, जिसे अब मैं तुमसे कहूँगा।तुम उसे ध्यानपूर्वक सुनो।
केनचिद्धिक्षुणा गीत॑ परिभूतेन दुर्जनैः ।स्मरता धृतियुक्तेन विपाक्क॑ निजकर्मणाम् ॥
५॥
केनचित्--किसी; भिक्षुणा--संन्यासी द्वारा; गीतम्--गाया गया; परिभूतेन--अपमानित किया गया; दुर्जनैः--अपवित्र लोगोंद्वारा; स्मरता--स्मरण करते हुए; धृति-युक्तेन--धैर्यपूर्वक; विपाकम्--परिणामों को; निज-कर्मणामू--अपने विगत कर्मो के |
एक बार किसी संन्यासी को दुर्जनों द्वारा नाना प्रकार से अपमानित किया गया। किन्तु उसनेधैर्यपूर्वक स्मरण किया कि वह अपने ही विगत कर्मों का फल भोग रहा है। मैं तुमसे यहइतिहास तथा उसने जो कुछ कहा था उसे सुनाऊँगा।
अवन्तिषु द्विज: कश्चिदासीदाढ्यतमः थिया ।वार्तावृत्ति: कदर्यस्तु कामी लुब्धोडतिकोपन: ॥
६॥
अवन्तिषु--अवन्ती देश में; द्विजः--ब्राह्मण; कश्चित्ू--कोई; आसीत्-- था; आढ्य-तम:--अत्यन्त धनाढ्य; अया--ऐश्वर्य से;वार्ता--व्यापार से; वृत्तिः:--अपनी जीविका चलाते हुए; कदर्य:--कंजूस; तु--लेकिन; कामी --विषयी; लुब्धक्--लालची;अति-कोपनः--अतत्यन्त क्रोध करने वाला
अवन्ती देश में किसी समय कोई ब्राह्मण रहता था, जो अत्यन्त धनी था और समस्त ऐश्वर्योसे युक्त था तथा व्यापार-कार्य में लगा रहता था। किन्तु वह अत्यन्त कंजूस, कामी, लालची तथाक्रोधी था।
ज्ञातयोतिथयस्तस्य वाड्मात्रेणापि नार्चिता: ।शून्यावसथ आत्मापि काले कामैरनर्चित: ॥
७॥
ज्ञातय: --सम्बन्धीजन; अतिथय:--तथा अतिथिगण; तस्य--उसके; वाक्-मात्रेण अपि--शब्दों से भी; न अर्चिता:--आदरितनहीं होते थे; शून्य-अवसथे--धर्म तथा इन्द्रियतृप्ति से विहीन घर में; आत्मा--स्वयं; अपि-- भी; काले--उपयुक्त समय में;कामै:--इन्द्रिय-सुख से; अनर्चितः--अतृप्त |
उसका घर धर्म तथा वैध इन्द्रियतृप्ति से विहीन था, उसमें पारिवारिक जनों तथा अतिथियोंका ठीक से, यहाँ तक कि शब्दों से भी, आदर नहीं होता था। वह उपयुक्त अवसरों पर अपनेशरीर की भी इन्द्रियतृष्ति नहीं होने देता था।
दुह्शीलस्य कदर्यस्य द्रह्नान्ते पुत्रबान्धवा: ।दारा दुहितरो भृत्या विषण्णा नाचरन्प्रियम् ॥
८ ॥
दुःशीलस्थ--बुरे चरित्र वाला; कदर्यस्य--कंजूस का; ब्रह्मन्ते--दुश्मनी कर लिया; पुत्र--उसके पुत्रों ने; बान्धवा:--तथासम्बन्धीजन; दारा:--उसकी पत्ती; दुहितरः--उसकी पुत्रियाँ; भृत्या:--उसके नौकर; विसण्णा: --ऊबे हुए; न आचरनू--आचरण नहीं करते थे; प्रियम्--स्नेहपूर्वक ।
चूँकि वह कठोर हृदय तथा कंजूस था, इसलिए उसके पुत्र, उसके ससुराल वाले, उसकीपतली, उसकी पुत्रियाँ तथा नौकर उसके प्रति वैर-भाव रखने लगे। ऊब जाने के कारण वे उससेकभी भी स्नेहपूर्ण व्यवहार नहीं करते थे।
तस्यैवं यक्षवित्तस्य च्युतस्योभयलोकतः ।धर्मकामविहीनस्य चुक्रुधु: पञ्ञभागिन: ॥
९॥
तस्य--उस पर; एवम्--इस प्रकार; यक्ष-वित्तस्य--जो यक्षों की तरह अपनी सम्पत्ति को बिना खर्चे रखता था ( यक्ष कुबेर केकोष की रखवाली करते हैं ); च्युतस्य--विहीन; उभय--दोनों के; लोकत:--लोक ( यह जीवन तथा अगला ); धर्म--धार्मिकता; काम--तथा इन्द्रियतृप्ति; विहीनस्थ--विहीन; चक्रु धु:--क्रुद्ध हो गये; पञ्ञ-भागिन:--पाँच नियत गृहस्थ यज्ञों केदेवता |
इस तरह पाँच पारिवारिक यज्ञों के अधिष्ठाता देव उस ब्राह्मण से क्रुद्ध हो उठे जो कंजूस होनेके कारण अपनी सम्पत्ति की रखवाली यक्ष की तरह करता था और जिसका न इस जगत में, नही उस लोक में कोई अच्छा गन्तव्य था और जो धर्म तथा विषय-भोग से पूरी तरह विहीन होगया था।
तदवध्यानविस्त्रस्तपुण्यस्कन्धस्य भूरिद ।अर्थोप्यगच्छन्निधनं बह्मायासपरिश्रम: ॥
१०॥
तत्--उनके ; अवध्यान--उसकी उपेक्षा से; विस्त्स्रस्त--विहीन; पुण्य--पुण्य का; स्कन्धस्थ--जिसका अंश; भूरि-द--हे वदान्यउद्धव; अर्थ:--सम्पत्ति; अपि--निस्सन्देह; अगच्छत् निधनमू--नष्ट हो गया; बहु--अधिक; आयास--प्रयास का; परिश्रम: --परिश्रम से युक्त |
हे बदान्य उद्धव, इन देवताओं की उपेक्षा करने से उसके पुण्य तथा उसकी सारी सम्पत्ति काभंडार खाली हो गया। उसके बारम्बार निएशेष प्रयास द्वारा संचित भंडार पूरी तरह समाप्त होगया।
ज्ञात्यो जगृहुः किश्ञित्किन्लिहस्यव उद्धव ।दैवतः कालत: किज्ञिद्गह्मबन्धोनपार्थिवात् ॥
११॥
ज्ञातयः--सम्बन्धी; जगृहुः--हर लिया; किश्चित्ू--कुछ; किश्चित्--कुछ; दस्यव: --चोर; उद्धव--हे उद्धव; दैवतः--भाग्य से;कालतः--काल द्वारा; किल्ञित्-- कुछ; ब्रह्म-बन्धो;--तथाकथित ब्राह्मण का; नृ--सामान्य लोगों द्वारा; पार्थिवात्--तथा उच्चसरकारी अधिकारियों द्वारा
हे उद्धव, इस तथाकथित ब्राह्मण का कुछ धन उसके समबन्धियों ने, कुछ चोरों ने, कुछभाग्य ने, कुछ काल के फेर ने, कुछ सामान्य जनों ने तथा कुछ सरकारी अधिकारियों ने लेलिया।
स एवं द्रविणे नष्टे धर्मकामविवर्जित: ।उपेक्षितश्न स्वजनैश्चिन्तामाप दुरत्ययाम् ॥
१२॥
सः--वह; एवम्--इस तरह; द्रविणे--जब उसकी सम्पत्ति; नष्टे--नष्ट हो गई; धर्म--धार्मिकता; काम--तथा इन्द्रिय-भोग;विवर्जित:--से रहित; उपेक्षित:--उपेक्षित; च--तथा; स्व-जनैः--अपने पारिवारिक जनों द्वारा; चिन्तामू--चिन्ता; आप--प्राप्तकिया; दुरत्ययाम्-- असहा।
अन्त में जब उसकी सम्पत्ति पूरी तरह नष्ट हो गई, तो वह ब्राह्मण जिसने कभी भी धर्म याइन्द्रिय-भोग नहीं किया था, अपने पारिवारिक जनों से उपेक्षित रहने लगा। इस प्रकार वह असहाचिन्ता का अनुभव करने लगा।
तस्यैवं ध्यायतो दीर्घ नष्टरायस्तपस्विनः ।खिद्यतो बाष्पकण्ठस्य निर्वेद: सुमहानभूत् ॥
१३॥
तस्य--उसका; एवम्--इस प्रकार; ध्यायत:ः--सोचते हुए; दीर्घम्--दीर्घकाल तक; नष्ट-राय: --सम्पत्ति नष्ट होने पर;तपस्विन:--पीड़ा अनुभव करते हुए; खिद्यतः--शोक करते हुए; बाष्प-कण्ठस्य--अश्रु से रुद्ध कण्ठ; निर्वेद:--वैराग्य कीभावना; सु-महान्--अत्यन्त महान्; अभूत्--उठी |
अपनी सारी सम्पत्ति खो जाने से उसे महान् पीड़ा तथा शोक हुआ। उसका गला आँसुओं सेरुँध गया और वह दीर्घकाल तक अपनी सम्पत्ति के बारे में सोचता रहा। तब उसके मन में वैराग्यकी प्रबल अनुभूति जाग्रत हुई।
स चाहेदमहो कष्ट वृथात्मा मेडनुतापित: ।न धर्माय न कामाय यस्यार्थायास ईहशः ॥
१४॥
सः--वह; च--तथा; आह--बोला; इदम्--यह; अहो--ओह, हाय; कष्टम्--कष्ट प्रद दुर्भाग्य; वृथा--व्यर्थ ही; आत्मा--आत्मा; मे--मेरा; अनुतापित: --सताया हुआ; न--नहीं; धर्माय--धर्म के लिए; न--नहीं; कामाय--इन्द्रियतृप्ति के लिए;यस्य--जिसका; अर्थ--सम्पत्ति के लिए; आयास:-- श्रम; ईहश:--इस तरह का |
ब्राह्मण इस प्रकार बोला : हाय! क्या दुर्भाग्य है मेरा! मैंने उस धन के लिए इतना कठिनपरिश्रम करते हुए व्यर्थ ही अपने को कष्ट पहुँचाया जो न तो धर्म के लिए था, न ही भौतिकभोग के लिए था।
प्रायेणाथा: कदर्याणां न सुखाय कदाचन ।ड्ह चात्मोपतापाय मृतस्यथ नरकाय च ॥
१५॥
प्रायेण--सामान्यतया; अर्था:--सम्पत्ति की वस्तुएँ; करदर्याणाम्--कंजूसों की; न--नहीं; सुखाय--सुख के लिए; कदाचन--किसी समय; इह--इस जीवन में; च--दोनों; आत्म--अपना; उपतापाय--कष्ट पहुँचाने के लिए; मृतस्य--तथा मरे हुए का;नरकाय--नरक की प्राप्ति में; च--तथा |
सामान्यतया कंजूसों की सम्पत्ति उन्हें कभी कोई सुख नहीं दे पाती। इस जीवन में उनकाआत्म-पीड़न करती है और उनके मरने पर उन्हें नरक भेजती है।
यशो यशस्विनां शुद्ध श्लाघ्या ये गुणिनां गुणा: ।लोभ: स्वल्पोपि तानहन्ति श्रित्रो रूपमिवेप्सितम् ॥
१६॥
यशः--यश; यशस्विनामू--सुप्रसिद्ध व्यक्तियों का; शुद्धम्ू-शुद्ध; श्लाध्या:-- प्रशंसनीय; ये-- जो; गुणिनाम्--गुणवानों के;गुणा:--गुण; लोभ:--लालच; सु-अल्प:--थोड़ा; अपि-- भी; तान्ू--उनको; हन्ति--नष्ट करता है; श्रित्र:-- श्वेत कुष्ठ;रूपम्--शारीरिक सौन्दर्य; इब--सहृश; ईप्सितमू--मोहक
प्रसिद्ध व्यक्ति की जो भी शुद्ध प्रसिद्धि होती है और गुणवान् में जो भी प्रशंसनीय गुण रहतेहैं, वे किश्लित् मात्र लालच से उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जिस तरह आकर्षक शारीरिक सौन्दर्यरंचमात्र श्वेत कुष्ठ से नष्ट हो जाता है।
अर्थस्य साधने सिद्धे उत्कर्षे रक्षणे व्यये ।नाशोपभोग आयासस्त्रासश्चिन्ता भ्रमो नृणाम् ॥
१७॥
अर्थय्स--सम्पत्ति के; साधने--कमाने में; सिद्धे--उपलब्धि में; उत्कर्षे--वृद्धि में; रक्षणे-- रक्षा करने में; व्यये--खर्च में;नाश--हानि में; उपभोगे--तथा उपभोग में; आयास:-- श्रम; त्रास:-- भय; चिन्ता--चिन्ता; भ्रम:-- भ्रम; नृणाम्--मनुष्यों केलिए
सभी मनुष्यों को सम्पत्ति की कमाई, प्राप्ति, वृद्धि, रक्षा, व्यय, हानि तथा उपभोग में महान्श्रम, भय, चिन्ता तथा भ्रम का अनुभव होता है।
स्तेयं हिंसानृतं दम्भ: कामः क्रोधः स्मयो मदः ।भेदो वैरमविश्वास: संस्पर्धा व्यसनानि च ॥
१८॥
एते पञ्जदशानर्था हार्थभमूला मता नृणाम् ।तस्मादनर्थमर्थाख्यं श्रेयोर्थी दूरतस्त्यजेतू ॥
१९॥
स्तेयम्--चोरी; हिंसा--हिंसा; अनृतम्--असत्य भाषण; दम्भ:--दुहरा बर्ताव; काम:--काम, विषय-वासना; क्रोध: --क्रो ध;स्मय:ः--चिन्ता; मदः--घमंड; भेद:-- भेद-भाव; वैरम्--शत्रुता; अविश्वास: --विश्वास की कमी; संस्पर्धा--बराबरी, होड;व्यसनानि--खतरे ( स्त्री, जुए तथा नशे से उत्पन्न ); च--तथा; एते--ये; पदञ्चदश--पन्द्रह; अनर्था:--अवांछित वस्तुएँ; हि--निस्सन्देह; अर्थ-मूला:--सम्पत्ति पर आधारित; मता:--विख्यात हैं; नृणाम्-- मनुष्यों द्वारा; तस्मात्ू--इसलिए; अनर्थम्--अवांछित; अर्थ-आख्यम्--वांछित कही जाने वाली सम्पत्ति; श्रेय:-अर्थी--जीवन का चरम लक्ष्य चाहने वाला; दूरत:--दूर सेही; त्यजेत्--छोड़ दे।
चोरी, हिंसा, असत्य भाषण, दुहरा बर्ताव, काम, क्रोध, चिन्ता, गर्व, झगड़ा-लड़ाई,शत्रुता, अविश्वास, ईर्ष्या, स्त्रियों के द्वारा उत्पन्न संकट, जुआ खेलना तथा नशा करना--ये पंद्रहदुर्गुण सम्पत्ति-लोभ के कारण मनुष्यों को दूषित बनाने वाले हैं। यद्यपि ये दुर्गुण हैं किन्तु लोगभ्रमवश इनको महत्त्व देते हैं। इसलिए जिस व्यक्ति को जीवन का असली लाभ उठाना हो, वहअवांछित भौतिक सम्पत्ति से अपने को अलग रखे।
भिद्चन्ते भ्रातरो दारा: पितरः सुहृदस्तथा ।एकास्निग्धा: काकिणिना सद्य: सर्वेडरय: कृता: ॥
२०॥
भिद्यन्ते--विलग हो जाते हैं; भ्रातरः -- भाई; दारा:-- पत्ती; पितर: --माता-पिता; सुहृदः --मित्र; तथा--और; एक--मानोएक; आस्निग्धा: -- अत्यन्त प्रिय; काकिणिना--छोटे-से सिक्के ( कौड़ी ) से; सद्यः--तुरन्त; सर्वे--सभी; अरयः --शत्रु;कृताः:--किया गया।
यहाँ तक कि मनुष्य के सगे भाई, पत्नी, माता-पिता तथा मित्र जो उससे प्रेम से बद्ध थे,तुरन्त ही अपना स्नेह-सम्बन्ध तोड़ लेते हैं और एक कौड़ी के कारण शत्रु बन जाते हैं।
अर्थनाल्पीयसा होते संरब्धा दीप्तमन्यवः ।त्यजन्त्याशु स्पृधो घ्नन्ति सहसोत्सृज्य सौहदम् ॥
२१॥
अर्थन--सम्पत्ति से; अल्पीयसा--तुच्छ, नगण्य; हि--भी; एते--वे; संरब्धा:--श्षुब्ध; दीप्त--क्रुद्ध; मन्यव: --उनका क्रोध;त्यजन्ति--त्याग देते हैं; आशु--बहुत जल्दी; स्पृध:--झगड़ालू बन कर; घ्नन्ति--नष्ट कर देते हैं; सहसा--तुरन्त; उत्सूज्य--बहिष्कार करके; सौहदम्--शुभकामना।
ये सम्बन्धी तथा मित्रगण थोड़े-से भी धन के लिए अत्यन्त श्षुब्ध हो उठते हैं और क्रोध सेआग-बबूला बन जाते हैं। प्रतिद्वन्द्दी बन कर वे तुरन्त सारी शुभकामनाएँ छोड़ देते हैं और क्षण-भर में ही उसका त्याग करके उसकी हत्या तक कर देते हैं।
लब्ध्वा जन्मामपप्रार्थ्य मानुष्यं तदिद्वजाछयताम् ।तदनाहत्य ये स्वार्थ घ्नन्ति यान्त्यशुभां गतिम्ू ॥
२२॥
लब्ध्वा-प्राप्त करके; जन्म--जन्म; अमर--देवताओं द्वारा; प्रार्थम्--कामना किया गया; मानुष्यम्--मनुष्य का; तत्--औरउस; द्विज-आछयतामू-- श्रेष्ठ द्विज होने के पद में; तत्--उसे; अनाहत्य--अनादर करके; ये--जो लोग; स्व-अर्थम्--निजी हितका; घ्तन्ति--नष्ट करते हैं; यान्ति--जाते हैं; अशुभाम्-- अशुभ; गतिम्ू--गन्तव्य को |
जो लोग देवताओं द्वारा भी प्रार्थित मनुष्य जीवन प्राप्त करते हैं और उस मनुष्य जन्म मेंसर्वोत्तम ब्राह्मण पद को प्राप्त होते हैं, वे परम भाग्यशाली हैं। यदि वे इस महत्त्वपूर्ण अवसर काअनादर करते हैं, तो वे निश्चय ही अपने निजी हित का हनन करते हैं और परम दुखद अन्त कोप्राप्त होते हैं।
स्वर्गापवर्गयोद्दरिं प्राप्प लोकमिमं पुमान् ।द्रविणे को<नुषज्जेत मर्त्यो उनर्थस्य धामनि ॥
२३॥
स्वर्ग--स्वर्ग; अपवर्गयो:--तथा मोक्ष का; द्वारम्-द्वार; प्राप्प--प्राप्त करके; लोकम्--मनुष्य जीवन को; इमम्--इस;पुमान्--मनुष्य; द्रविणे--सम्पत्ति के प्रति; क:ः--कौन; अनुषज्जेत--अनुरक्त होगा; मर्त्य:--मरणशील; अनर्थस्य--व्यर्थता के;धामनि--धाम में
ऐसा मर्त्य व्यक्ति कौन होगा जो इस मनुष्य जीवन को जो कि स्वर्ग तथा मोक्ष का द्वार है,प्राप्त करके भौतिक सम्पत्ति रूपी व्यर्थ के धाम के प्रति अनुरक्त होगा ? देवर्षिपितृ भूतानि ज्ञातीन्बन्धूंश्व भागिन: ।असंविभज्य चात्मानं यक्षवित्त: पतत्यध: ॥
२४॥
देव--देवतागण; ऋषि--ऋषिगण; पितृ--पितरगण; भूतानि--तथा सामान्य जीव; ज्ञातीनू--निकट के सगे-सम्बन्धियों;बन्धूनू--विस्तारित परिवार; च--तथा; भागिन: -- हिस्सा बटाने वाले; असंविभज्य--न बाँट कर; च--तथा; आत्मानम्-- अपनेको; यक्ष-वित्त:--जिसकी सम्पत्ति यक्ष की सम्पत्ति जैसी; पतति--गिरता है; अध: --नीचे |
जो व्यक्ति अपनी सम्पत्ति को उचित भागीदारों--देवताओं, ऋषियों, पितरों तथा सामान्यजीवों में तथा अपने निकट सम्बन्धियों, ससुराल वालों और स्वयं में वितरित नहीं कर देता, वहमात्र यक्ष की तरह अपनी सम्पत्ति को बनाये रखता है और अधोगति को प्राप्त होगा।
व्यर्थयार्थेहया वित्तं प्रमत्तस्य वयो बलम् ।कुशला येन सिध्यन्ति जरठ: कि नु साधये ॥
२५॥
व्यर्थथा--व्यर्थ; अर्थ--सम्पत्ति के; ईहया--प्रयास से; वित्तम्--धन; प्रमत्तस्य--उन्मत्त हुए; वब:--नौजवान; बलम्--बल;कुशला:--विवेकवान्; येन--जिसके द्वारा; सिध्यन्ति--सिद्ध बनते हैं; जरठ: --वृद्ध व्यक्ति; किमू-- क्या; नु--निस्सन्देह;साधये--मैं प्राप्त कर सकता हूँ।
विवेकशील व्यक्ति अपने धन, यौवन तथा बल को सिद्धि प्राप्त करने में लगाने में सक्षमहोते हैं। किन्तु मैंने उत्तेजित होकर अपनी सम्पत्ति के संवर्धन के व्यर्थ के प्रयास में ही इनकोलुटा दिया है। अब वृद्ध हो चुकने पर मैं क्या प्राप्त कर सकता हूँ? कस्मात्सड्क्लिश्यते दिद्वान्व्यर्थयार्थहयासकृत् ।'कस्यचिन्मायया नूनं लोकोयं सुविमोहित: ॥
२६॥
कस्मात्-क्यों; सड्क्लिश्यते--कष्ट भोगता है; विद्वानू--विद्वान व्यक्ति; व्यर्थया--व्यर्थ की; अर्थ-ईहया--सम्पत्ति की खोजमें; असकृत्--निरन्तर; कस्यचित्--किसी का; मायया--मायाशक्ति से; नूनमू--निश्चय ही; लोक:--जगत; अयम्--यह; सु-विमोहित:--अत्यधिक मोहग्रस्त |
बुद्धिमान मनुष्य सम्पत्ति पाने के लिए व्यर्थ के सतत् प्रयासों से कष्ट क्यों भोगे ? निस्सन्देह,यह सारा संसार किसी की मायाशक्ति से अत्यधिक मोहग्रस्त है।
कि धनैर्धनदैर्वा कि कामैर्वा कामदैरुत ।मृत्युना ग्रस्यमानस्य कर्मभिर्वोत्र जन्मदै:ः ॥
२७॥
किम्ू--किस काम का; धनै:--विभिन्न प्रकारों के धन से; धन-दैः--धन देने वाले; वा--अथवा; किम्--क्या लाभ; कामै:--इन्द्रिय-विषयों से; वा--अथवा; काम-दैः--ऐसी इन्द्रियतृप्ति प्रदान करने वालों से; उत--अथवा; मृत्युना--मृत्यु द्वारा;ग्रस्थमानस्थ--पकड़े हुए व्यक्ति का; कर्मभि:--सकाम कर्मों से; वा उत---अथवा; जन्म-दैः--अगला जन्म देने वाले |
जो व्यक्ति मृत्यु के चंगुल में जकड़ा हो, उसके लिए धन या उस धन को देने वाले,इन्द्रियतृप्ति अथवा इन्द्रियतृप्ति प्रदान करने वाले या किसी प्रकार का सकाम कर्म जो उसे इसभौतिक जगत में फिर से जन्म दिलाये, इन सबसे क्या लाभ है ? नूनं मे भगवांस्तुष्ट: सर्वदेवमयो हरिः ।येन नीतो दशामेतां निर्वेदश्चात्मनः प्लव: ॥
२८॥
नूनमू--निश्चय ही; मे--मुझसे; भगवानू-- भगवान्; तुष्ट: --तुष्ट; सर्व-देव-मय: --समस्त देवताओं से युक्त; हरि:ः-- भगवान्विष्णु; येन--जिससे; नीत:--मैं लाया गया; दशाम्--स्थिति तक; एताम्ू--इस; निर्वेद: --विराग; च--तथा; आत्मन:--अपनी; प्लव:--नाव ( भवसागर से पार ले जाने वाली )।
समस्त देवों से युक्त भगवान् हरि अवश्य ही मुझ पर प्रसन्न हैं। उन्होंने ही मुझे इस कष्टमयस्थिति तक पहुँचाया है और वैराग्य का अनुभव करने के लिए बाध्य कर दिया है, जो इसभवसागर को पार कराने की नाव है।
सोहं कालावशेषेण शोषयिष्येड्रमात्मन: ।अप्रमत्तोखिलस्वार्थे यदि स्यात्सिद्ध आत्मनि ॥
२९॥
सः अहम्-मैं; काल-अवशेषेण --बचे हुए समय से; शोषयिष्ये--कम से कम कर दूँगा; अड्भमू--यह शरीर; आत्मन:--अपना; अप्रमत्त:--मोहित न होने वाला; अखिल--समस्त; स्व-अर्थ-- आत्म-हित में; यदि--यदि; स्थात्ू--कोई ( समय )बचता है, तो; सिद्धः--सन्तुष्ट; आत्मनि--अपने भीतर |
यदि मेरे जीवन का कोई समय शेष है, तो मैं तपस्या करूँगा और अपने शरीर कीआवश्यकताओं को कम से कम कर दूँगा। अब मैं और अधिक भ्रम में न पड़ कर जीवन केसमग्र आत्म-हित में लग कर अपने आप में तुष्ट रहूँगा।
तत्र मामनुमोदेरन्देवास्त्रिभुवनेश्वरा: ।मुहूर्तेन ब्रह्मलोक॑ खट्वाड़: समसाधयत् ॥
३०॥
तत्र--इस सम्बन्ध में; माम्ू--मुझसे; अनुमोदेरन्--प्रसन्न हों; देवा:--देवतागण ; त्रि-भुवन--तीनों लोकों के; ई श्वरा: --नियन्ता;मुहूर्तेन-- क्षण-भर में; ब्रहलोकम्--वैकुण्ठ-लोक; खट्वाड़ु--राजा खट्वांग ने; समसाधयत्--प्राप्त कर लिया।
इस तरह इन तीनों लोकों के अधिनायक देवता मुझ पर कृपा करें। निस्सन्देह, महाराजखट्वांग को क्षण-भर में वैकुण्ठ-लोक प्राप्त हो गया था।
श्रीभगवानुवाचइत्यभिप्रेत्य मनसा ह्यावन्त्यो द्विजसत्तम: ।उन्मुच्य हृदयग्रन्थीन्शान्तो भिक्षुरभून्मुनि: ॥
३१॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् ने कहा; इति--इस प्रकार; अभिप्रेत्य--निष्कर्ष पर पहुँच कर; मनसा--मन से; हि--निस्सन्देह;आवल्त्य:--अवन्ती जनपद का; द्विज-सत्-तमः--अत्यन्त पवित्र ब्राह्मण; उन्मुच्य--खोल कर; हृदय--हृदय की; ग्रन्थीन्--( इच्छाओं की ) गाँठों को; शान्त:--शान्त; भिक्षु:--भिक्षुक संन्यासी; अभूत्--हो गया; मुनि:--मौन |
भगवान् कृष्ण ने कहा : वह हृढ़ संकल्प वाला सर्वोत्तम अवन्ती ब्राह्मण अपने हृदय कीइच्छारूपी ग्रंथियों को खोलने में समर्थ हो गया। तब उसने शान्त तथा मौन संन््यासी साधु कीभूमिका ग्रहण कर ली।
स चचार महीमेतां संयतात्मेन्द्रयानिल: ।भिक्षार्थ नगरग्रामानसड्े इलक्षितोविशत् ॥
३२॥
सः--वह; चचार--घूमने वाला; महीम्--पृथ्वी पर; एताम्--इस; संयत--नियंत्रित; आत्म--अपनी चेतना; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ;अनिल:--तथा प्राण-वायु; भिक्षा-अर्थम्-- भीख माँगने के लिए; नगर--शहरों; ग्रामान्ू--तथा गाँवों में; असड्र:--बिना किसीसंगी के; अलक्षित:--अपने को न जनाते हुए; अविशत्--प्रविष्ट हुआ |
वह अपनी बुद्धि, इन्द्रियों तथा प्राण-वायु को अपने वश में रखते हुए पृथ्वी पर विचरणकरने लगा। भिक्षा माँगने के लिए वह विविध नगरों तथा ग्रामों में अकेले ही यात्रा करता। उसने अपने उच्च आध्यात्मिक पद का प्रचार नहीं किया, इसलिए अन्य लोग उसे पहचान नहीं पाते थे।
तं वै प्रवयसं भिक्षुमवधूतमसज्जना: ।इृष्टा पर्यभवन्भद्र बह्नीभि: परिभूतिभि: ॥
३३॥
तम्--उसको; बै--निस्सन्देह; प्रवयसम्--वृद्ध; भिक्षुमू--भिखारी को; अवधूतम्--मलिन; असत्--निम्न श्रेणी के; जना:--लोग; इृष्ठा--देख कर; पर्यभवन्--अनादर करते हुए; भद्ग--हे दयालु उद्धव; बह्नीभि:--अनेक; परिभूतिभि: --अपमानों से।
हे दयालु उद्धव, उसे वृद्ध, मलिन भिखारी के रूप में देख कर ऊधमी व्यक्ति अनेक प्रकारसे उसे अपमानित करने लगे।
केचित्ररिवेणुं जगृहुरेके पात्रं कमण्डलुम् ।पीठं चैके क्षसूत्रं च कन्थां चीराणि केचन ।प्रदाय च पुनस्तानि दर्शितान्याददुर्मुने: ॥
३४॥
केचित्--उनमें से कुछ; त्रि-वेणुम्-त्रिदण्ड को; जगृहुः--छीन लिया; एके --कुछ; पात्रम्ू--उसके भिक्षापात्र को;'कमण्डलुम्--जलपात्र को; पीठम्--आसन, पीढ़ा; च--तथा; एके--किसी ने; अक्ष-सूत्रमू--जपमाला; च--तथा;कन्थाम्--गुदड़ी; चीराणि--फटी, जीर्ण-शीर्ण; केचन--कुछेक ने; प्रदाय--वापस करके; च--तथा; पुन:ः--फिर से;तानि--वे; दर्शितानि--दिखने वाले; आददुः--छीन लिया; मुनेः--मुनि का
इनमें से कुछ लोग तो उसका संन्यासी दण्ड छीन लेते और कुछ उस जलपात्र को, जिसे वह भिक्षापात्र के रूप में काम में ला रहा था। कोई उसका मृगचर्म आसन, तो कोई उसकी जपमालाले लेता और कोई उसकी फटी-पुरानी गुदड़ी चुरा लेता; वे इन वस्तुओं को उसे दिखा-दिखाकरवापस करने का बहाना करते किन्तु उन्हें पुनः छिपा देते।
अन्न च भेक्ष्यसम्पन्नं भुझ्नानस्य सरित्तटे ।मूत्रयन्ति च पापिष्ठा: छ्लीवन्त्यस्य च मूर्धनि ॥
३५॥
अन्नमू--भोजन; च--तथा; भैक्ष्य--भिक्षा माँग कर; सम्पन्नम्--प्राप्त; भुझ्ञानस्य-- भाग लेने वाले का; सरित्--नदी के;तटे--तट पर; मूत्रयन्ति--पेशाब करते हैं; च--तथा; पापिष्ठा:--अत्यन्त पापी व्यक्त; प्ठछीवन्ति-- थूकते हैं; अस्य--उसके ;च--तथा; मूर्थनि--सिर पर।
जब वह भिक्षा द्वारा एकत्र किये गये भोजन को खाने के लिए नदी के तट पर बैठता, तोऐसे पापी धूर्त आकर उस पर पेशाब कर देते और उसके सिर पर थूकने का दुस्साहस करते।
यतवाचं वाचयन्ति ताडयन्ति न वक्ति चेत् ।तर्जयन्त्यपरे वाग्भि: स्तेनोडयमिति वादिनः ।बध्नन्ति रज्वा तं केचिद्वध्यतां बध्यतामिति ॥
३६॥
यत-वाचम्--मौनब्रत धारण किये; वाचयन्ति--जबरन बोलवाते; ताडयन्ति--पीटते; न वक्ति--वह नहीं बोलता; चेत्--यदि;तर्जयन्ति--लाठी से मारते; अपरे--अन्य लोग; वाग्भि: --अपने शब्दों से; स्तेन: --चोर; अयम्--यह व्यक्ति; इति--इस प्रकार;वादिन:--कहते हुए; बध्नन्ति--उसे बाँध देते; रज्वा--रस्सी से; तम्--उसको; केचित्ू--कुछ; बध्यताम् बध्यताम्--उसे बाँधलो, उसे बाँध लो; इति--ऐसा कह कर।
यद्यपि उसने मौनब्रत धारण कर रखा था, किन्तु वे उससे बोलवाने का प्रयास करते औरयदि वह न बोलता तो उसे लाठियों से पीटते थे। अन्य लोग उसे यह कह कर प्रताड़ित करते कियह आदमी चोर है। अन्य लोग उसे रस्सी से बाँध देते और चिल्लाते, 'उसे बाँध दो! उसे बाँधदो! क्षिपन्त्येकेउवजानन्त एष धर्मध्वज: शठ: ।क्षीणवित्त इमां वृत्तिमग्रहीत्स्वजनोज्झित:ः ॥
३७॥
क्षिपन्ति--आलोचना करते; एके --कुछ लोग; अवजानन्त:--अपमानित करते हुए; एष:--इस; धर्म-ध्वज:--धार्मिक ढोंगकरने वाले; शठ:--ठगने; क्षीण-वित्त:--अपना धन खोकर; इमाम्--इस; वृत्तिमू--पेशे को; अग्रहीत्--ग्रहण किया है; स्व-जन--अपने परिवार द्वारा; उज्झित:--बाहर निकाला गया।
वे यह कह कर उसकी आलोचना और अपमान करते 'यह व्यक्ति तो ढोंगी और ठग है। यह व्यक्ति धर्म को इसलिए पेशा बनाये हुए है क्योंकि इसने अपनी सारी सम्पत्ति गँवा दी है औरइसके परिवार वालों ने इसे बाहर निकाल दिया है।
अहो एष महासारो धृतिमान्गिरिराडिव ।मौनेन साधयत्यर्थ बकवहूढनिश्चय: ॥
३८ ॥
इत्येके विहसन्त्येनमेके दुर्वातयन्ति च ।त॑ बबन्धुर्निरुरुधुर्यथा क्रीडनकं द्विजम् ॥
३९॥
अहो--ओह; एषः:--यह व्यक्ति; महा-सारः--अत्यन्त शक्तिशाली; धृतिमान्ू-- धैर्यवान; गिरि-राट्--हिमालय पर्वत; इब--सहश; मौनेन-- अपने मौनकब्रत से; साधयति--प्रयास कर रहा है; अर्थम्--अपने लक्ष्य के लिए; बक-वत्--बगुले के समान;हढ--स्थिर; निश्चयः--संकल्प; इति--इस प्रकार कहते हुए; एके--कुछ लोग; विहसन्ति--मजाक उड़ाते; एनम्--उसका;एके--कुछ लोग; दुर्वातयन्ति--अपानवायु निकालते; च--तथा; तम्ू--उसको; बबन्धु:--जंजीरों में बाँध दिया; निरुरुधु: --बन्दी बना रखा; यथा--जिस तरह; क्रीडनकम्--पालतू पशु; द्विजमू--उस ब्राह्मण को |
कुछ लोग यह कह कर उसका मजाक उड़ाते, 'जरा देखो न इस अत्यन्त शक्तिशाली ऋषिको! यह हिमालय पर्वत की तरह थैर्यवान है। यह अपने मौनब्रत से महान् संकल्प करके अपनालक्ष्य पाने के लिए एक बगुले की भाँति प्रयलशील है।' अन्य लोग उसके ऊपर अपानवायुछोड़ते और कुछ लोग इस द्विज ब्राह्मण को जंजीरों में बाँध कर पालतू पशु की तरह बन्दीबनाकर रखते।
एवं स भौतिकं दुःखं दैविकं दैहिकं च यत् ।भोक्त व्यमात्मनो दिुष्ट प्राप्तं प्राप्ममबुध्यत ॥
४०॥
एवम्--इस तरह; सः--वह; भौतिकम्-- अन्य जीवों के कारण; दुःखम्--कष्ट; दैविकम्--देवताओं के कारण; दैहिकम्--अपने शरीर के कारण; च--तथा; यत्--जो भी; भोक्तव्यम्--कष्ट पाने के लिए सुनिश्चित; आत्मन:--अपना; दिष्टमू--विधाताद्वारा नियत; प्राप्तम् प्राप्तम्--जो कुछ भी मिल जाता; अबुध्यत--वह समझ गया।
वह ब्राह्मण समझ गया कि उसका सारा कष्ट--अन्य जीवों से, प्रकृति की उच्च शक्तियों सेतथा अपने ही शरीर से जन्य--दुर्निवार है क्योंकि यह विधाता द्वारा निश्चित हुआ है।
'परिभूत इमां गाथामगायत नराधमै: ।'पातयद्ध्ि: स्व धर्मस्थो धृतिमास्थाय सात्त्विकीम् ॥
४१॥
'परिभूतः--अपमानित; इमाम्ू--यह; गाथामू--गीत; अगायत--गाया; नर-अधमै:--निम्न जाति के लोगों द्वारा; पातयद्धिः --उसे पतित बनाने का प्रयत्न करने वाले; स्व-धर्म--अपने कर्तव्य में; स्थ:--हढ़ रहते हुए; धृतिमू--संकल्प; आस्थाय--स्थिरहोकर; सात्त्विकीम्--सतोगुणी
इन निम्न कोटि के पुरुषों द्वारा, जो उसे पतित करने का प्रयास कर रहे थे, अपमानित होनेपर भी, वह अपने आध्यात्मिक कर्म में अडिग बना रहा। सतोगुण में अपना संकल्प स्थिर करके,वह निम्नलिखित गीत गाने लगा।
द्विज उबाचनायं जनो मे सुखदुःखहेतु-न॑ देवतात्मा ग्रहकर्मकाला: ।मन: पर कारणमामनन्तिसंसारचक्रं परिवर्तयेद्यत् ॥
४२॥
द्विजः उबाच--ब्राह्मण ने कहा; न--नहीं; अयम्--ये; जन: --लोग; मे--मेरे; सुख--सुख; दुःख--तथा दुख के; हेतु:--कारण; न--न तो; देवता--देवतागण; आत्मा--मेरा शरीर; ग्रह-- अधीक्षक ग्रह; कर्म--मेरा विगत कर्म; काला:--अथवासमय; मनः--मन; परम्--प्रत्युत एकमात्र; कारणं--कारण; आमनन्ति--अधिकारी दिद्वानों द्वारा कहा जाता है; संसार--भौतिक जीवन का; चक्रम्--चक्र; परिवर्तयेत्--घुमाता है; यत्--जो
ब्राह्मण ने कहा : न तो ये लोग मेरे सुख तथा दुख के कारण हैं, न ही देवता, मेरा शरीर,ग्रह, मेरे विगत कर्म या काल ही। प्रत्युत यह तो एकमात्र मन है, जो सुख तथा दुख का कारण हैजो भौतिक जीवन को निरन्तर घुमाता रहता है।
मनो गुणान्वै सृजते बलीय-स्ततश्व कर्माणि विलक्षणानि ।शुक्लानि कृष्णान्यथ लोहितानितेभ्य: सवर्णा: सृतयो भवन्ति ॥
४३॥
मनः--मन; गुणान्-- प्रकृति के गुणों के कार्य; वै--निस्सन्देह; सृजते--पक्रट करता है; बलीय:--अत्यन्त बलवान; ततः--उन गुणों से; च--तथा; कर्माणि-- भौतिक कार्यकलाप; विलक्षणानि--विभिन्न प्रकारों के; शुक्लानि-- श्वेत ( सतोगुणी );कृष्णानि--काला ( तमोगुणी ); अथ--तथा; लोहितानि--लाल ( रजोगुणी ); तेभ्य:--उन कार्यों से; स-वर्णा: --वही वही रंगवाले; सृतयः--उत्पन्न दशाएँ; भवन्ति--उठ खड़ी होती हैं।
शक्तिशाली मन भौतिक गुणों को कार्यशील बनाता है, जिससे सतो, तमो तथा रजोगुण सेसम्बद्ध विभिन्न प्रकार के भौतिक कार्यकलाप विकसित होते हैं। इनमें से प्रत्येक गुण वालेकार्यों से संगत जीवन दशाएँ ( गतियाँ ) उत्पन्न होती हैं।
अनीह आत्मा मनसा समीहताहिरण्मयो मत्सख उद्दिचष्टे ।मनः स्वलिडूुं परिगृह्य कामान्जुषन्निबद्धो गुणसड्रतोडसौ ॥
४४॥
अनीहः--निष्क्रिय; आत्मा--परमात्मा; मससा--मन के साथ साथ; समीहता--संघर्षशील; हिरण्-मय:--दिव्य प्रकाश प्रकटकरते हुए; मत्-सखः:--मेरा मित्र; उद्विचष्टे--ऊपर से नीचे की ओर देखता है; मनः--मन; स्व-लिन्गम्ू--जो भौतिक जगत केप्रतिबिम्ब को अपने ( आत्मा ) ऊपर प्रक्षेपित करता है; परिगृह्य-- स्वीकार करके; कामान्--इन्द्रिय-विषयों को; जुषन्--लगाकर; निबद्ध:--बँध जाता है; गुण-सड्भतः--गुणों की संगति के कारण; असौ--वह सूक्ष्म आत्मा।
परमात्मा यद्यपि भौतिक शरीर के भीतर संघर्षशील मन के साथ उपस्थित रहता है, किन्तुवह प्रयास नहीं करता ( निष्क्रिय रहता है ) क्योंकि वह पहले से दिव्य प्रकाश से समन्वित होताहै। वह मेरे मित्र की भाँति कार्य करते हुए अपने दिव्य पद से केवल साक्षी बनता है। दूसरी ओरअत्यन्त सूक्ष्म आत्मा रूप में इस मन को अपना चुका हूँ जो भौतिक जगत के प्रतिबिम्ब कोपरावर्तित करने वाला दर्पण है। इस तरह मैं इन्द्रिय-विषयों का भोग करने में लगा हूँ और प्रकृतिके गुणों के सम्पर्क के कारण बँधा हुआ हूँ।
दान॑ स्वधर्मो नियमो यमश्चश्रुतं च कर्माणि च सद्व्गतानि ।सर्वे मनोनिग्रहलक्षणान्ताःपरो हि योगो मनसः समाधि: ॥
४५॥
दानम्--दान देना; स्व-धर्म: --अपने नियत कर्तव्य करते रहना; नियम:--दैनिक जीवन के नियम; यमः--आध्यात्मिक अभ्यासके प्रमुख नियम; च--तथा; श्रुतम्--शास्त्रों को सुनना; च--तथा; कर्माणि--पुण्यकर्म; च--तथा; सत्--शुद्ध; ब्रतानि--ब्रत; सर्वे--सभी; मनः-निग्रह:--मन को वश में करना; लक्षण--से युक्त; अन्ता:--उनका लक्ष्य; पर: --परम; हि--निस्सन्देह;योग:--दिव्य ज्ञान; मनसः --मन का; समाधि:--समाधि में
ब्रह्म का ध्यानदान, धर्म, यम तथा नियम, शास्त्रों का श्रवण, पुण्यकर्म तथा शुद्ध बनाने वाले ब्रत--इनसबका अन्तिम लक्ष्य मन का दमन है। निस्सन्देह, ब्रह्म में मन की एकाग्रता ही सर्वोच्च योग है।
समाहितं यस्य मन: प्रशान्तंदानादिभिः कि वद तस्य कृत्यम् ।असंयतं यस्य मनो विनश्यद्दानादिभिश्वेदपरं किमेभि: ॥
४६॥
समाहितम्--पूर्णतया स्थिर; यस्य--जिसका; मन:--मन; प्रशान्तम्--शान्त; दान-आदिभि:--दान तथा अन्य विधियों से;किम्--क्या; वद--कृपया कहें; तस्थ--उन विधियों का; कृत्यम्--उपयोग; असंयतम्--अनियंत्रित; यस्थय--जिसका; मन: --मन; विनश्यत्--विलीन करते हुए; दान-आदिभि:--दान इत्यादि विधियों से; चेत्ू--यदि; अपरमू--आगे; किम्ू--क्या लाभ;एमि:--इनका |
यदि किसी का मन पूर्णतया स्थिर तथा शान्त हो, तो आप मुझे यह बतलायें कि मनुष्य कोकर्मकांडी दान तथा अन्य पुण्यकर्म करने की क्या आवश्यकता है? और यदि किसी का मनअसंयत रहता है, अज्ञान में डूबा रहता है, तो फिर उसके लिए इन कार्यों से क्या लाभ ? मनोवशेडन्ये हाभवन्स्म देवामनश्च नान्यस्य वशं समेति ।भीष्मो हि देवः सहसः सहीयान्युज्ज्याद्वशे तं स हि देवदेव: ॥
४७॥
मनः--मन के; वशे--वश में; अन्ये-- अन्य; हि--निस्सन्देह; अभवनू--हो गये; स्म-- भूतकाल में; देवा: --इन्द्रियाँ ( अपनेअधिष्ठातृ देवों द्वारा प्रदर्शित ); मनः--मन; च--तथा; न--कभी नहीं; अन्यस्य--दूसरे के; वशम्--वश में; समेति--आता है;भीष्मय:--भयावह; हि--निस्सन्देह; देव:--देवता जैसी शक्ति; सहसः--सबसे बलवान की अपेक्षा; सहीयान्ू--बलवान;युज्ज्यात्ू--स्थिर कर सकता है; वशे--वश में; तम्ू--उस मन को; सः--ऐसा व्यक्ति; हि--निस्सन्देह; देव-देव:--समस्त इन्द्रियों का स्वामी
सारी इन्द्रियाँ अनन्त काल से मन के वश में रही हैं और मन कभी भी किसी अन्य के प्रभावमें नहीं आता। वह बलवानों से भी बलवान है और उसकी देवतुल्य शक्ति भयावह है। इसलिएजो अपने मन को वश में कर सकता है, वह सभी इन्द्रियों का स्वामी बन जाता है।
तम्दुर्जयं शत्रुमसह्यवेग-मरुन्तुदं तन्न विजित्य केचित् ।कुर्वन्त्यसद्दिग्रहमत्र मर्त्यै-मित्राण्युदासीनरिपून्विमूढा: ॥
४८ ॥
तम्--उस; दुर्जयम्--न जीता जाने वाला; शत्रुम्--शत्रु को; असहा--असहनीय; वेगम्--जिसका वेग; अरुम्-तुदम्--हृदयको पीड़ा पहुँचाने में सक्षम; तत्ू--इसलिए; न विजित्य--न जीत पाकर; केचित्--कुछ लोग; कुर्वन्ति--करते हैं; असत्--व्यर्थ; विग्रहमू--कलह; अत्र--इस जगत में; मरत्यैं;--मर्त्य जीवों से; मित्राणि--मित्र; उदासीन--अन्यमनस्क लोग; रिपूनू--तथा प्रतिद्वन्द्दी; विमूढा:--पूर्णतया विमोहित।
अनेक लोग इस दुर्जय शत्रुरूपी मन को, जिसके वेग असह्य हैं और जो हृदय को सताता हैजीत न पाने पर, पूर्णतया विमोहित हो जाते हैं और अन्यों से व्यर्थ ही कलह ठान लेते हैं। इसतरह वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अन्य लोग या तो उनके मित्र हैं अथवा उनके शत्रु हैं याफिर उनसे उदासीन रहने वाले हैं।
देहं मनोमात्रमिमं गृहीत्वाममाहमित्यन्धधियो मनुष्या: ।एषोहमन्योयमिति भ्रमेणदुरन्तपारे तमसि भ्रमन्ति ॥
४९॥
देहम्-- भौतिक शरीर को; मनः-मात्रमू--मन से ही उत्पन्न; इमम्--इस; गृहीत्वा--ग्रहण करके; मम--मेरा; अहमू--मैं;इति--इस प्रकार; अन्ध--अन्धी; धियः--बुद्धि वाले; मनुष्या:--मनुष्य; एघ:--यह; अहम्--मैं हूँ; अन्य:--दूसरा कोई;अयमू--यह है; इति--इस प्रकार; भ्रमेण--मोह के द्वारा; दुरन््त-पारे--दुर्लघ्य; तमसि--अंधकार में; भ्रमन्ति-- भटकते रहतेहैं।
जो लोग अपनी पहचान इस शरीर से, जो कि भौतिक मन की उपज है, करते हैं उनकीबुद्धि मारी जाती है और वे 'मैं' तथा 'मेरा' के रूप में सोचते हैं। अपने इस भ्रम के कारणकि, 'यह मैं हूँ किन्तु वह अन्य कोई है' वे लोग अनन्त अंधकार में भटकते रहते हैं।
जनस्तु हेतुः सुखदुःखयोश्चेत्किमात्मनश्चात्र हि भौमयोस्तत् ।जिह्लां क्वचित्सन्दशति स्वदद्धि-स्तद्वेदनायां कतमाय कुप्येत् ॥
५०॥
जनः--ये लोग; तु--लेकिन; हेतु:--कारण; सुख-दुःखयो:--मेरे सुख तथा दुख का; चेत्--यदि; किम्--क्या; आत्मन:--अपने लिए; च--तथा; अत्र--इस धारणा में; हि--निस्सन्देह; भौमयो: --भौतिक शरीर से सम्बन्धित; तत्ू--वह ( कर्ता तथाभोक्ता का पद ); जिह्ामू--जी भ को; क्वचित्--कभी; सन्दशति--काट लेता है; स्व--अपने; दद्धिः--दाँतों से; तत्--उस;बेदनायाम्--पीड़ा का; कतमाय--किसके साथ; कुप्येत्--कोई क्रोध करे।
यदि आप यह कहते हैं कि ये लोग ही मेरे सुख तथा दुख के कारण हैं, तो फिर ऐसी धारणाहोने पर आत्मा के लिए स्थान कहाँ रहता है? यह सुख तथा दुख आत्मा का नहीं होता अपितुभौतिक शरीरों की अन्योन्य क्रियाओं का है। यदि कोई व्यक्ति अपने ही दाँतों से अपनी जीभकाट लेता है, तो अपनी पीड़ा के लिए वह किस पर क्रोध करे ? दुःखस्य हेतुर्यदि देवतास्तुकिमात्मनस्तत्र विकारयोस्तत् ।यदड़मड़ेन निहन्यते क्वचित्क्रुध्येत कस्मै पुरुष: स्वदेहे ॥
५१॥
दुःखस्य--दुख का; हेतु:--कारण; यदि--यदि; देवता:--देवतागण ( शरीर के भीतर विविध इन्द्रियों के अधिष्ठाता ); तु--लेकिन; किम्ू--क्या; आत्मन:--आत्मा के लिए; तत्र--उस सम्बन्ध में; विकारयो: --विकारों ( इन्द्रियों तथा उनके अधिष्ठातृदेवों ) से सम्बन्धित; ततू--वह ( कर्म तथा उसका फल ); यत्--जब; अड़म्--अंग; अड्लेन--दूसरे अंग द्वारा; निहन्यते--चोटपहुँचाया जाता है; क्वचित्ू--कभी; क्रुध्येत--क्रुद्ध होना चाहिए; कस्मै--किस पर; पुरुष:--जीव; स्व-देहे-- अपने शरीर केभीतर
यदि आप यह कहें कि शारीरिक इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवता दुख के देने वाले हैं, तो भीऐसा दुख आत्मा पर कैसे लागू हो सकता है? यह कर्म करना तथा उसके द्वारा प्रभावित होनापरिवर्तनशील इन्द्रियों तथा उनके अधिष्ठाता देवों की अन्योन्य क्रिया मात्र है। यदि शरीर का कोईअंग दूसरे अंग पर आक्रमण करे तो उस शरीर का धारक व्यक्ति किस पर क्रोध करे ? स्यात्सुखदु:खहेतुःकिमन्यतस्तत्र निजस्वभाव: ।न ह्ात्मनो उन्यद्यदि तन्मृषा स्यात्क्रुध्येत कस्मान्न सुखं न दुःखम् ॥
५२॥
आत्मा--आत्मा; यदि--यदि; स्थात्-- हो; सुख-दुःख--सुख तथा दुख का; हेतु:--कारण; किम्ू--क्या; अन्यत:--अन्य;तत्र--उस मत में; निज--अपना; स्वभाव: --स्वभाव, प्रकृति; न--नहीं; हि--निस्सन्देह; आत्मन:-- आत्मा की अपेक्षा;अन्यत्-- अलग से कोई वस्तु; यदि--यदि; तत्--वह; मृषा--झूठी; स्थात्--होगी; क्रुध्येत--कोई क्रोध करे; कस्मातू--किसपर; न--नहीं है; सुखम्--सुख; न--न तो; दुःखम्--दुख |
यदि आत्मा ही सुख तथा दुख का कारण होता, तो हम अन्यों को दोष न दे पाते, क्योंकितब सुख तथा दुख आत्मा के स्वभाव होते। इस मत के अनुसार आत्मा से भिन्न अन्य कुछविद्यमान नहीं होता और यदि हमें आत्मा के अतिरिक्त और किसी वस्तु का अनुभव करना पड़तातो वह मोह होता। इसलिए कोई अपने ऊपर या अन्यों पर क्रोध क्यों करे क्योंकि इस मत केअनुसार सुख तथा दुख का वास्तविक अस्तित्व ही नहीं है।
ग्रहा निमित्तं सुखदुःखयोश्चेत्किमात्मनोजस्य जनस्य ते वै ।ग्रहै्ग्रहस्थैव वदन्ति पीडांक्रुध्येत कस्मै पुरुषस्ततोउन्यः ॥
५३॥
ग्रहा:--अधिष्ठाता ग्रह; निमित्तम्ू--कारण; सुख-दुःखयो: --सुख या दुख का; चेत्ू--यदि; किम्--क्या; आत्मन:--आत्मा केलिए; अजस्य--अजन्मा; जनस्य--जिससे जन्म हुआ है उसका; ते--वे ग्रह; बै--निस्सन्देह; ग्रहैः--अन्य ग्रहों के द्वारा;ग्रहस्थ--ग्रह का; एब--एकमात्र; वदन्ति--( दक्ष ज्योतिषी ) कहते हैं; पीडामू--कष्ट; क्रुध्येत--क्रोध करे; कस्मै--किस पर;पुरुष: --जीव; ततः--उस शरीर से; अन्य:--पृथक् ।
और यदि हम इस संकल्पना की परीक्षा करें कि ग्रह ही सुख तथा दुख के तुरन्त कारणरूपहैं, तो भी नित्य आत्मा से उसका सम्बन्ध कहाँ हैं? आखिर, ग्रहों का प्रभाव केवल उन्हीं वस्तुओं पर पड़ता है जिनका जन्म हो चुका है। इसके अतिरिक्त कुशल ज्योतिषियों ने बतलाया है किकिस तरह विभिन्न ग्रह एक-दूसरे को केवल पीड़ा पहुँचाते हैं। इसलिए, जीव जो कि इन ग्रहोंतथा शरीर से पृथक् है, वह अपना क्रोध किस पर प्रकट करे ? कर्मास्तु हेतु: सुखदुःखयोश्वेत्किमात्मनस्तद्द्धि जडाजडत्वे ।देहस्त्वचित्पुरुषो यं सुपर्ण:क्रुध्येत कस्मै न हि कर्म मूलम् ॥
५४॥
कर्म--अपने सकाम कर्म; अस्तु--मान लिया कि; हेतु:--कारण; सुख-दुःखयो:--सुख तथा दुख का; चेत्--यदि; किम्--क्या; आत्मन:--आत्मा के लिए; तत्ू--वह कर्म; हि--निश्चय ही; जड-अजडत्वे-- भौतिक तथा अभौतिक दोनों में; देह:--शरीर; तु--दूसरी ओर; अचित्--निर्जीव; पुरुष:--पुरुष; अयम्--यह; सु-पर्ण:--सजीबव चेतना से युक्त; क्रुध्येत--क्रोधप्रकट करे; कस्मै--किस पर; न--नहीं हैं; हि--निश्चय ही; कर्म--सकाम कर्म; मूलम्--मूल कारण
यदि हम यह मान लें कि सकाम कर्म सुख तथा दुख का कारण है, तो भी हम आत्मा कीबात नहीं करते। भौतिक कर्म का भाव तब उदय होता है जब कोई चेतनकर्ता और भौतिकशरीर होता है, जो ऐसे कर्म के फल के रूप में सुख तथा दुख के विकारों को प्राप्त होता है।चूँकि शरीर में जीवन नहीं होता, इसलिए यह न तो सुख-दुख का असली प्रापक हो सकता है नही आत्मा जो अन्ततः पूर्णतया आध्यात्मिक है और शरीर से पृथक् रहता है। चूँकि कर्म का न तोशरीर पर, न ही आत्मा पर कोई परम आधार है, तो फिर कोई किस पर क्रोध करे ?श़ कालस्तु हेतु: सुखदुःखयो श्रेत्किमात्मनस्तत्र तदात्मकोडइसौ ।नाग्ने्हि तापो न हिमस्य तत्स्यात्क्रुध्येत कस्मै न परस्य द्वन्द्मम् ॥
५५॥
काल:--समय; तु--लेकिन; हेतु:--कारण; सुख-दुःखयो:--सुख तथा दुख का; चेत्ू--यदि; किम्--क्या; आत्मन:--आत्मा का; तत्र--उस भाव में; तत्ू-आत्मक:--काल पर आधारित; असौ--आत्मा; न--नहीं; अग्ने:-- अग्नि से; हि--निस्सन्देह; ताप:--जलन; न--नहीं; हिमस्थ--बर्फ का; तत्--वह; स्थात्--बनता है; क्रुध्येत--क्रोध करे; कस्मै--किस पर;न--नहीं है; परस्य--दिव्य आत्मा के लिए; दन्द्रम-द्वैत भाव
यदि हम काल को सुख तथा दुख का कारण मान लें, तो भी यह अनुभव आत्मा पर लागूनहीं हो सकता क्योंकि काल भगवान् की आध्यात्मिक शक्ति की अभिव्यक्ति है और जीव भीउसी शक्ति के अंश हैं, जो काल के माध्यम से प्रकट होती है। यह निश्चित है कि आग अपनी लौया चिनगियों को नहीं जलाती, न ही शीत अपने ही रूप ओलों को हानि पहुँचाती है। वस्तुतःआत्मा दिव्य है और भौतिक सुख-दुख के अनुभव से परे है। इसलिए कोई किस पर क्रोध प्रकटकरे? न केनचित्क्वापि कथशञ्जनास्यद्न्द्दोपरागः परत: परस्य ।यथाहम:ः संसृतिरूपिण: स्या-देवं प्रबुद्धो न बिभेति भूते: ॥
५६॥
न--नहीं है; केनचित्--किसी के द्वारा; कब अपि--कहीं भी; कथज्लन--किसी तरह से; अस्य--उस ( आत्मा ) का; दन्द्र--द्वैत( सुख तथा दुख ) का; उपराग:--प्रभाव; परत: परस्थ-- भौतिक प्रकृति से परे रहने वाला; यथा--जसि तरह; अहम:--मिथ्याअहंकार के लिए; संसृति--जगत के प्रति; रूपिण:--रूप देने वाले; स्थात्--उदय होता है; एवम्--इस प्रकार; प्रबुद्ध:--जिसकी बुद्धि जागृत हो चुकी हो; न बिभेति--डरता नहीं; भूतैः--भौतिक सृष्टि के आधार पर।
मिथ्या अहंकार मायामय जगत को स्वरूप प्रदान करता है और इस तरह वह भौतिक सुखतथा दुख का अनुभव करता है। किन्तु आत्मा भौतिक प्रकृति से परे है। वह किसी भी स्थान,किसी भी दशा में या किसी भी व्यक्ति के माध्यम से भौतिक सुख तथा दुख द्वारा प्रभावित नहींहोता जो व्यक्ति इसे समझ लेता है उसे भौतिक सृष्टि से डरने की कोई बात नहीं।
णतां स आस्थाय परात्मनिष्ठा-मध्यासितां पूर्वतमैर्महर्षिभि: ।अहं तरिष्यामि दुरन्तपारंतमो मुकुन्दाड्घ्रिनिषिवयैव ॥
५७॥
एताम्--यह; सः--ऐसा; आस्थाय--पूरी तरह स्थिर होकर; पर-आत्म-निष्ठाम्--परम पुरुष कृष्ण की भक्ति में;अध्यासिताम्--पूजा किया; पूर्व-तमैः--पिछले; महा-ऋषिभि: -- आचार्य; द्वारा; अहम्--मैं; तरिष्यामि--पार करजाऊँगा;दुरन््त-पारम्--दुर्लघ्य; तम:--अविद्या का सागर; मुकुन्द-अड्ध्रि--मुकुन्द के चरणकमलों की; निषेवया--सेवा द्वारा; एब--निश्चय ही |
मैं कृष्ण के चरणकमलों की सेवा में हढ़ रह कर अविद्या के दुर्लघध्य सागर को पार कर जाऊँगा। इसकी पुष्टि पिछले आचार्यों द्वारा की गई है, जो परमात्मा की भक्ति में स्थिर थे।
श्रीभगवानुवाचनिर्विद्य नष्टद्रविणे गतक्लमःप्रत्नज्य गां पर्यटमान इत्थम् ।निराकृतोसद्धिरपि स्वधर्मा-दकम्पितोमूं मुनिराह गाथाम् ॥
५८ ॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् ने कहा; निर्विद्य--विरक्त होकर; नष्ट-द्रविणे--सम्पत्ति के नष्ट हो जाने पर; गत-क्लम:--खिन्नता से मुक्त; प्रव्रज्य--गृह त्याग कर; गाम्--पृथ्वी पर; पर्यटमान:--पर्यटन करते हुए; इत्थम्--इस प्रकार से; निराकृत:--अपमानित; असद्धि: --धूर्तों द्वारा; अपि-- भी; स्व-धर्मात्--अपने नियत कार्यों से; अकम्पित:--विचलित हुए बिना; अमूम्--यह; मुनिः--साधु ने; आह--गाया; गाथाम्ू--गीत |
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा : अपनी सम्पत्ति नष्ट होने से इस तरह विरक्त हुए इस साधु नेअपनी खिन्नता त्याग दी। उसने संन्यास ग्रहण करके घर त्याग दिया और पृथ्वी पर विचरण करनेलगा। वह मूर्ख धूर्तों द्वारा अपमानित किये जाने पर भी अपने कर्तव्य में अविचल रहा और उसनेयह गीत गाया।
सुखदु:खप्रदो नान्यः पुरुषस्यात्मविश्रम: ।मित्रोदासीनरिपव: संसारस्तमसः कृतः ॥
५९॥
सुख-दुःख-प्रद:--सुख तथा दुख देने वाला; न--नहीं है; अन्य: --कोई दूसरा; पुरुषस्थ--आत्मा का; आत्म--मन का;विशभ्रम:--मोह; मित्र--मित्र; उदासीन-- अन्यमनस्क लोग; रिपव: --तथा शत्रु; संसार: -- भौतिक जीवन; तमस: --अज्ञानवश;कृतः--उत्पन्न
मनुष्य का अपना ही मानसिक भ्रम आत्मा को सुख तथा दुख का अनुभव कराता है, अन्यकोई नहीं। मित्रों, निरपेक्ष लोगों तथा शत्रुओं के विषय में उसकी धारणा तथा इस धारणा केचारों ओर जिस भौतिक जीवन का वह निर्माण करता है, सभी मात्र अज्ञान के कारण उत्पन्न होतेहैं।
तस्मात्सर्वात्मना तात निगृहाण मनो धिया ।मय्यावेशितया युक्त एतावान्योगसड्ग्रह: ॥
६०॥
तस्मात्--इसलिए; सर्व-आत्मना--सभी तरह से; तात--हे उद्धव; निगृहाण --वश में करो; मनः--मन; धिया--बुद्धि से;मयि--मुझमें; आवेशितया--लीन हुआ; युक्त:--संयुक्त; एतावान्--इस प्रकार; योग-सड्ग्रह:--आध्यात्मिक अभ्यास कासार
हे उद्धव, तुम्हें चाहिए कि अपनी बुद्धि मुझ पर स्थिर करके अपने मन को पूरी तरह से वशमें लाओ। योग के विज्ञान का सार यही है।
यएतां भिक्षुणा गीतां ब्रह्मनिष्ठां समाहित: ।धारयज्छावयज्छुण्वन्द्नन्द्दैनैवाभिभूयते ॥
६१॥
यः--जो कोई भी; एताम्--इस; भिक्षुणा--संन्यासी द्वारा; गीताम्--गाया हुआ; ब्रह्म --ब्रह्म-ज्ञान; निष्ठामू--पर आधारित;समाहित: --पूरे ध्यान से; धारयन्-- ध्यान करते हुए; श्राववन्--अन्यों को सुनाते हुए; श्रुण्वन्ू--स्वयं सुनते हुए; दन्द्दैः--द्वैतोंसे; न--कभी नहीं; एब--निस्सन्देह; अभिभूयते-- अभिभूत हो जायेगा।
जो कोई भी संनन््यासी के इस गीत को सुनता या अन्यों को सुनाता है, जिसमें ब्रह्न विषयकवैज्ञानिक ज्ञान प्रस्तुत हुआ है तथा इस तरह जो कोई पूरे मनोयोग से इसका ध्यान करता है, वह फिर कभी भौतिक सुख-दुख के द्वैत से अभिभूत नहीं होगा।
24. सांख्य का दर्शन
श्रीभगवानुवाचअथ ते सम्प्रवक्ष्यामि साड्ख्य॑ पूर्वर्विनिश्चितम् ।यद्विज्ञाय पुमान्सद्यो जह्ाद्वैकल्पिकं भ्रमम् ॥
१॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् ने कहा; अथ--अब; ते--तुमसे; सम्प्रवक्ष्यामि--कहूँगा; साड्ख्यम्--सृष्टि के तत्त्वों के विकासका ज्ञान; पूर्व:--पूर्ववर्ती विद्वानों द्वारा; विनिश्चितम्--सुनिश्चित किया गया; यत्--जिसे; विज्णाय--जान कर; पुमान्--मनुष्य;सद्यः--तुरन्त; जह्यात्-त्याग सकता है; वैकल्पिकम्--मिथ्या द्वैत पर आधारित; भ्रमम्-- भ्रम, मोह को
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा : अब मैं तुमसे सांख्य विज्ञान का वर्णन करूँगा जिसे प्राचीनविद्वानों ने पूर्णतया स्थापित किया है। इस विज्ञान को समझ लेने से मनुष्य तुरन्त भौतिक द्वैत केभ्रम को त्याग सकता है।
आसीज्ज्ञानमथो अर्थ एकमेवाविकल्पितम् ।यदा विवेकनिपुणा आदौ कृतयुगेउयुगे ॥
२॥
आसीतू--था; ज्ञानम्ू-द्रष्ठा अथ उ--इस प्रकार; अर्थ:--दृश्य; एकम्--एक; एव--केवल; अविकल्पितम्-- अपूथक्;यदा--जब; विवेक--विवेक में; निपुणा:--दक्ष पुरुष; आदौ-- प्रारम्भ में; कृत-युगे--सात्विक युग में; अयुगे--तथा इसकेपूर्व संहार के समय |
प्रारम्भ में कृत युग के दौरान सारे लोग आध्यात्मिक विवेक में अत्यन्त निपुण होते थे औरइससे भी पूर्व, संहार के समय एकमात्र द्रष्टा का अस्तित्व था, जो दृश्य पदार्थ से अभिन्न था।
तनन््मायाफलरूपेण केवलं निर्विकल्पितम् ।वाड्मनोगोचरं सत्यं द्विधा समभवद्गुहत् ॥
३॥
तत्--उस ( परम ); माया-- प्रकृति का; फल--तथा इसकी अभिव्यक्तियों का भोक्ता; रूपेण--दो रूपों में; केवलम्--एक;निर्विकल्पितम्-- अभिन्न; वाक्--वाणी; मन:--तथा मन तक; अगोचरम्--दुर्गम; सत्यम्--सच; द्विधा--दो; समभवत्--होगया; बृहत्--परब्रहा |
द्वैत से मुक्त रहते हुए तथा सामान्य वाणी एवं मन के लिए दुर्गम होने के कारण, उस एकपरब्रह्म ने अपने को दो कोटियों में विभक्त कर लिया। ये हैं-- भौतिक प्रकृति तथा जीव जो उसप्रकृति के स्वरूपों को भोगने का प्रयास करते हैं।
तयोरेकतरो ह्ार्थ: प्रकृति: सोभयात्मिका ।ज्ञान त्वन्यतमो भाव: पुरुष: सोडउभिधीयते ॥
४॥
तयो:--दोनों से; एकतरः --एक; हि--निस्सन्देह; अर्थ: --जीव; प्रकृति:--प्रकृति; सा--वह; उभय-आत्मिका--सूक्ष्म कारणोंतथा उनके प्रकट उत्पादों से युक्त; ज्ञानमू--चेतना ( से युक्त हैं, जो ); तु--तथा; अन्यतम:--दूसरा वाला; भाव:--जीव;पुरुष:--जीवात्मा; सः--वह; अभिधीयते--कहलाता है |
इन दो प्रकार के स्वरूपों में से एक तो भौतिक प्रकृति है, जिसमें दोनों सूक्ष्म कारणविद्यमान हैं और जो पदार्थ को व्यक्त करती है। दूसरा है जीव की चेतना जिसे भोक्ता कहते हैं।
तमो रज:ः सत्त्वमिति प्रकृतेरभवन्गुणा: ।मया प्रक्षोभ्यमाणाया: पुरुषानुमतेन च ॥
५॥
तमः--तमो; रज:--रजो; सत्त्वम्--सतो; इति--इस प्रकार; प्रकृतेः--प्रकृति से; अभवन्--प्रकट हुए; गुणा: --गुण; मया--मेरे द्वारा; प्रक्षोी भ्यमाणाया:--विश्षुब्ध किया गया; पुरुष--जीव की; अनुमतेन--इच्छापूर्ति के लिए; च--तथा ।
जब भौतिक प्रकृति मेरी चितवन से विश्षुब्ध की गई, तो बद्धजीवों की शेष इच्छाओं कीपूर्ति के लिए तीन गुण--सतो, रजो तथा तमोगुण--प्रकट हुए।
तेभ्यः समभवत्सूत्रं महान्सूत्रेण संयुतः ।ततो विकुर्वतो जातो योहड्डारो विमोहनः ॥
६॥
तेभ्य:--उन गुणों से; समभवत्--उत्पन्न हुआ; सूत्रमू--पहला प्रकृति का रूपान्तर जिसमें कर्म की शक्ति थी; महान्--ज्ञान-शक्ति से युक्त आदि प्रकृति; सूत्रेण--इस सूत्र तत्त्व से; संयुत:--एकसाथ जुड़ा; तत:ः--महत् से; विकुर्बतः--रूपान्तरित करतेहुए; जातः--उत्पन्न किया गया; यः--जो; अहलड्ढार:--मिथ्या अहंकार; विमोहन:--मोह का कारण।
इन गुणों से महत् तत्त्व के साथ साथ आदि सूत्र उत्पन्न हुआ। महत तत्त्व के रूपान्तर सेमिथ्या अहंकार उत्पन्न हुआ जो जीवों के मोह का कारण है।
वैकारिकस्तैजसश्व तामसश्रैत्यहं त्रिवृत् ।तन्मात्रेन्द्रयमनसां कारणं चिदचिन्मयः ॥
७॥
वैकारिक:ः--सतोगुण में; तैजस:ः--रजोगुण में; च--तथा; तामस:--तमोगुण में; च-- भी; इति--इस प्रकार; अहम्ू--मिथ्याअहंकार; त्रि-वृत्--तीन श्रेणियों में; तत्-मात्र--इन्द्रिय-विषयों के सूक्ष्म रूपों के; इन्द्रिय--इन्द्रियों के; मनसाम्--तथा मन के;कारणमू्--कारण; चित्-अचित्--आत्मा तथा पदार्थ दोनों; मयः--से युक्त
मिथ्या अहंकार जो भौतिक अनुभूति ( तन्मात्रा ), इन्द्रियों तथा मन का कारण है आत्मा तथापदार्थ दोनों को घेर लेता है और सतो, रजो तथा तमो--इन तीन गुणों को प्रकट होता है।
अर्थस्तन्मात्रिकाज्जज्ने तामसादिन्द्रियाणि च ।तैजसाद्वेवता आसन्नेकादश च बवैकृतात् ॥
८॥
अर्थ:--स्थूल तत्त्व; तत्-मात्रिकात्--तन्मात्राओं अर्थात् सूक्ष्म अनुभूतियों से; जज्ञे--उत्पन्न हो गया; तामसात्ू--तमोगुणीअहंकार से; इन्द्रियाणि--इन्द्रियाँ; च--तथा; तैजसात्--रजोगुणी अहंकार से; देवता:--देवतागण; आसनू--उत्पन्न हुए;एकादश- ग्यारह; च--तथा; बैकृतात्ू--सतोगुणी अहंकार से |
तमोगुणी अहंकार से सूक्ष्म शारीरिक अनुभूतियाँ ( तन्मात्राएँ ) उत्पन्न हुईं जिनसे सूक्ष्म तत्त्वउत्पन्न हुए। रजोगुणी अहंकार से इन्द्रियाँ उत्पन्न हुईं तथा सतोगुणी अहंकार से ग्यारह देवता उत्पन्नहुए।
मया सश्जोदिता भावा:ः सर्वे संहत्यकारिण: ।अप्ड्मुत्पादयामासुर्ममायतनमुत्तमम् ॥
९॥
मया--मेरे द्वारा; सझोदिता: --प्रेरित; भावा:--तत्त्व; सर्वे--सभी; संहत्य--संमेल से; कारिण:--कर्म करते हुए; अण्डम्--ब्रह्माण्ड; उत्पादयाम् आसु:--उत्पन्न किया; मम--मेरा; आयतनम्--आवास; उत्तमम्--उत्तम |
मेरे द्वारा प्रेरित ये सारे तत्त्व सुसम्बद्ध रूप में काम करने के लिए परस्पर जुड़ गये तथाउन्होंने ब्रह्माण्ड को जन्म दिया जो मेरा सर्वोत्तम आवास है।
तस्मिन्नहं समभवमण्डे सलिलसंस्थितौ ।मम नाभ्यामभूत्पदां विश्वाख्यं तत्र चात्मभू: ॥
१०॥
तस्मिन्ू--उसमें; अहम्--मैं; समभवम्--प्रकट हुआ; अण्डे--ब्रह्माण्ड में; सलिल--कारणार्णव के जल में; संस्थितौ--स्थित;मम--मेरी; नाभ्यामू--नाभि से; अभूत्--उत्पन्न हुआ; पद्ममू--कमल; विश्व-आख्यम्--विश्व नामक; तत्र--वहाँ; च--तथा;आत्म-भू: --स्वयं भू ब्रह्मा
मैं उस अंडे के भीतर प्रकट हुआ जो कारणार्णव जल में तैर रहा था और मेरी नाभि सेविश्व-कमल निकला जो स्वयंभू ब्रह्मा का जन्मस्थान है।
सोसृजत्तपसा युक्तो रजसा मदनुग्रहात् ।लोकान्सपालान्विश्वात्मा भूर्भुवः स्वरिति त्रिधा ॥
११॥
सः--उसने, ब्रह्म ने; असृजत्--उत्पन्न किया; तपसा--अपनी तपस्या से; युक्त:--युक्त; रजसा--रजोगुणी शक्ति से; मत्--मेरी; अनुग्रहात्--कृपा से; लोकान्ू--विभिन्न लोकों को; स-पालान्--अधिष्ठाता देवताओं सहित; विश्व--विश्व का; आत्मा--आत्मा; भूः भुवः स्व: इति-- भूर, भुवर तथा स्वर नामक; त्रिधा--तीन विभाग।
रजोगुण से युक्त ब्रह्माण्ड की आत्मा ब्रह्माजी ने मेरी दया से महान् तपस्या की और इस तरहभूर, भुवर तथा स्वर नामक तीन लोकों तथा उनके अधिष्ठाता देवताओं की रचना की।
देवानामोक आसीस्स्वर्भूतानां च भुवः पदम् ।मर्त्यादीनां च भूलोंक: सिद्धानां त्रितयात्परम् ॥
१२॥
देवानामू--देवताओं का; ओक:ः--घर; आसीत् --बना; स्व:--स्वर्ग; भूतानाम्ू-- भूतप्रेतों का; च--तथा; भुवः-- भुवर;पदम्--स्थान; मर्त्य-आदीनाम्ू--सामान्य मर्त्य लोगों तथा अन्य प्राणियों का; च--तथा; भू: लोक:--भूर नामक लोक;सिद्धानाम्--मुक्ति चाहने वालों का ( स्थान ); त्रितवातू--ये तीनों विभाग; परम्ू--परे |
स्वर्ग की स्थापना देवताओं के निवास रूप में, भुवर्लोक की भूतप्रेतों के निवास रूप में तथापृथ्वी-लोक की स्थापना मनुष्यों तथा अन्य मर्त्य प्राणियों के स्थान के रूप में की गई। वे योगीजो मोक्ष के लिए उद्योगशील रहते हैं, इन तीनों विभागों से परे भेज दिये जाते हैं।
अधोड्सुराणां नागानां भूमेरोकोसूजत्प्रभु: ।त्रिलोक्यां गतय: सर्वा: कर्मणां त्रिगुणात्मनाम् ॥
१३॥
अधः--नीचे; असुराणाम्--असुरों का; नागानाम्--स्वर्गिक सर्पों का; भूमेः--पृथ्वी से; ओक:--निवासस्थान; असृजतू --रचा; प्रभुः--ब्रह्मा ने; त्रि-लोक्याम्--तीनों लोकों का; गतयः--गन्तव्य; सर्वा:--सारे; कर्मणाम्--सकाम कर्मों का; त्रि-गुण-आत्मनाम्ू--तीनों गुणों में सम्मिलित |
ब्रह्मा ने पृथ्वी के अधोभाग को असुरों तथा नागों के लिए बनाया। इस तरह प्रकृति के तीनोंगुणों के अन्तर्गत सम्पन्न होने वाले विभिन्न प्रकार के कर्मों के लिए संगत फलों के रूप में तीनों लोकों के गन्तव्य व्यवस्थित किये गये।योगस्य तपसश्चैव न्यासस्य गतयोमला: ।महर्जनस्तपः सत्यं भक्तियोगस्य मद्गति: ॥
१४॥
योगस्य--योग का; तपस:-महान् तपस्या का; च--तथा; एव--निश्चय ही $ न्यासस्य--संन्यास आश्रम का; गतय:-गन्तव्य;अमला:--स्वच्छ; मह:--महर्; जन:--जनसू; तपः--तपस; सत्यम्ू--सत्य; भक्ति-योगस्य-- भक्ति का; मत्--मेरा; गति: --गन्तव्य।
योग, महान् तप तथा संन्यास जीवन से महलोंक, जनोलोक, तपोलोक तथा सत्यलोक केशुद्ध गन्तव्य प्राप्त किये जाते हैं। किन्तु भक्तियोग से मेरा दिव्य धाम प्राप्त होता है।
मया कालात्मना धात्रा कर्मयुक्तमिदं जगत् ।गुणप्रवाह एतस्मित्रुन्मजति निमजति ॥
१५॥
मया--मेरे द्वारा; काल-आत्मना--काल-श क्ति से युक्त; धात्रा--स्त्रष्टा; कर्म-युक्तम्ू--सकाम कर्म से पूर्ण; इदम्--यह;जगतू--संसार; गुण-प्रवाहे--गुणों की प्रबल धार में; एतस्मिन्--इस; उनन््मजजति--ऊपर उठता है; निमज्जति--डूबता है।
काल-शक्ति के रूप में कर्म करते हुए मुझ परम स्त्रष्टा द्वारा इस जगत में सकाम कर्म के सारेफलों को व्यवस्थित किया गया है। इस तरह प्राणी प्रकृति के गुणों के प्रबल प्रवाह की सतह परकभी ऊपर उठता है, तो कभी फिर से डूब जाता है।
अणुर्बृहत्कृशः स्थूलो यो यो भाव: प्रसिध्यति ।सर्वोष्प्युभयसंयुक्तः प्रकृत्या पुरुषेण च ॥
१६॥
अणु:--लघु; बृहत्ू--विशाल; कृशः--दुबला; स्थूल:--मोटा; यः य:--जो जो; भाव: --अभिव्यक्ति; प्रसिध्यति--स्थापितकी जाती है; सर्व:--सभी; अपि--निस्सन्देह; उभय--दोनों से; संयुक्त:--जुड़ा हुआ; प्रकृत्या--प्रकृति द्वारा; पुरुषेण-- भोक्ताआत्मा द्वारा; च--तथा।
इस जगत में जो भी स्वरूप विद्यमान दिखते हैं--चाहे वे छोटे हों या बड़े, दुबले हों यामोटे--उनमें भौतिक प्रकृति तथा इसका भोक्ता आत्मा दोनों रहते हैं।
यस्तु यस्यादिरन्तश्व स वै मध्यं च तस्य सन् ।विकारो व्यवहारार्थो यथा तैजसपार्थिवा: ॥
१७॥
यः--जो ( कारण ); तु--तथा; यस्य--जिस ( फल ) का; आदि:--प्रारम्भ; अन्त:--अन्त; च--तथा; सः-- वह; बै--निस्सन्देह; मध्यम्ू--बीच का; च--तथा; तस्य--उस वस्तु का; सन्ू--होने से ( असली ); विकार:--रूपान्तर; व्यवहार-अर्थ:--सामान्य प्रयोजनों के लिए; यथा--जिस तरह; तैजस--स्वर्ण से बनी वस्तुएँ ( जो स्वयं अग्नि से प्राप्त है ); पार्थिव:--पृथ्वी से उत्पन्न वस्तुएँ।स्वर्ण तथा मिट्टी मूलतः अवयव रूप में विद्यमान हैं।
स्वर्ण से सोने के गहने यथा कंगन तथाबालियाँ और मिट्टी से बर्तन तथा तश्तरियाँ बनाई जा सकती हैं। स्वर्ण तथा मिट्टी जो कि मूलअवयव हैं, वे उनसे बनने वाले पदार्थों से पहले से विद्यमान रहते हैं और जब अन्त में इन पदार्थों को नष्ट किया जाता है, तो वे मूल अवयव--स्वर्ण तथा मिट्टी--बने रहते हैं। इस तरह प्रारम्भतथा अन्त में अवयव वर्तमान तो रहते ही हैं, वे बीच में भी कंगन, बाली, पात्र अथवा तश्तरी केरूप में उपस्थित रहते हैं, जिन्हें हम ये नाम सुविधा के लिए देते हैं। इसलिए हम यह समझ सकतेहैं कि चूँकि अवयवरूपी कारण पदार्थ की सृष्टि के पूर्व तथा पदार्थ के विनाश के बाद विद्यमानरहता है, वही अवयवरूपी कारण व्यक्त अवस्था में भी उपस्थित रहेगा और इस पदार्थ को उसकेअसली रूप में पुष्ट करेगा।
यदुपादाय पूर्वस्तु भावो विकुरुतेउपरम् ।आदिरन्तो यदा यस्य तत्सत्यमभिधीयते ॥
१८ ॥
यत्--जो ( रूप ); उपादाय--अवयव कारण को मान कर; पूर्व:--पहले वाला कारण ( यथा महत् तत्त्व ); तु--तथा; भाव:--वस्तु; विकुरुते--विकार के रूप में उत्पन्न करता है; अपरम्--दूसरी वस्तु ( यथा अहंकार ); आदि:--प्रारम्भ; अन्त:ः--अन्त;यदा--जब; यस्य--जिसका ( कार्य का ); तत्ू--उस ( कारण ); सत्यमू--असली; अभिधीयते--कहा जाता है।
किसी आवश्यक अवयवब से बनी हुई भौतिक वस्तु रूपान्तर द्वारा अन्य भौतिक वस्तु उत्पन्नकरती है। इस तरह एक उत्पन्न वस्तु अन्य उत्पन्न वस्तु का कारण एवं आधार बनती है। इस तरहकोई विशेष वस्तु इस हेतु असली कहलाती है क्योंकि यह उस दूसरी वस्तु के मूल स्वभाव सेयुक्त होती है, जो इसकी आदि तथा अन्तिम अवस्था होती है।
प्रकृतिर्यस्योपादानमाधार: पुरुष: पर: ।सतोभिव्यज्भकः कालो ब्रह्म तत्त्रितयं त्वहम् ॥
१९॥
प्रकृतिः--भौतिक प्रकृति; यस्य--जिसका ( ब्रह्माण्ड का उत्पन्न स्वरूप ); उपादानम्ू--अवयव कारण; आधार: --नींव;पुरुष: -- भगवान्; पर:--परम; सतः-- असली ( स्वभाव ); अभिव्यञ्ञक:--श्षुब्ध करने वाला; काल:--समय; ब्रह्म--परब्रहा;तत्--यह; त्रितयम्--तीन का समूह; तु--लेकिन; अहम्-मैं |
भौतिक ब्रह्माण्ड को असली माना जा सकता है क्योंकि इसका आदि अवयव तथा इसकीअन्तिम अवस्था प्रकृति है। महाविष्णु प्रकृति के विश्राम स्थल हैं, जो काल की शक्ति से प्रकटहोते हैं। इस तरह प्रकृति, सर्वशक्तिमान विष्णु तथा काल मुझ परब्रह्म से भिन्न नहीं हैं।
सर्ग: प्रवर्तते तावत्पौर्वापर्येण नित्यश: ।महान्गुणविसर्गार्थ: स्थित्यन्तो यावदीक्षणम् ॥
२०॥
सर्ग:--सृष्टि; प्रवर्तती--विद्यमान रहती है; तावत्--तब तक; पौर्ब-अपर्येण--माता-पिता तथा सन्तानों के रूप में; नित्यश:ः--निरन्तर; महान्--दानी; गुण-विसर्ग--गुणों के विविध रूप का; अर्थ:--प्रयोजन; स्थिति-अन्तः--इसके अस्तित्व के अन्ततक; यावत्--जब तक; ईक्षणम्-- भगवान् का दृष्टिपात
जब तक भगवान् प्रकृति पर दृष्टिपात करते रहते हैं तब तक भौतिक जगत विद्यमान रहताजाता है और सृजन के महान् तथा विविध प्रवाह को प्रसव द्वारा सतत प्रकट करता रहता है।
विराण्मयासाद्यमानो लोककल्पविकल्पक: ।पञ्ञत्वाय विशेषाय कल्पते भुवनैः सह ॥
२१॥
विराटू--विश्वरूप; मया--मेरे द्वारा; आसाद्यमान:--व्याप्त; लोक--लोकों का; कल्प--बारम्बार सृष्टि, पालन तथा संहार का;विकल्पकः--विविधता प्रकट करते हुए; पञ्चत्वाय--पाँच तत्त्वों की सृष्टि का तात्विक प्राकट्य; विशेषाय--किस्मों में;कल्पते--प्रदर्शित करने में सक्षम है; भुवनैः--विभिन्न लोकों के; सह--साथ।
मैं विश्वरूप का आधार हूँ जो लोकों के बारम्बार सृजन, पालन तथा संहार के माध्यम सेअनन्त विविधता को प्रदर्शित करता है। मेरे विश्वरूप में सारे लोक अपनी सुप्त अवस्था में रहते हैंऔर मेरा यह विश्वरूप पाँच तत्त्वों के समन््वयकारी संयोग से नाना प्रकार के जगतों को प्रकटकरता है।
अन्ने प्रलीयते मर्त्यमन्नं धानासु लीयते ।धाना भूमौ प्रलीयन्ते भूमिर्गन्धे प्रलीयते ॥
२२॥
अप्सु प्रलीयते गन्ध आपश्च स्वगुणे रसे ।लीयते ज्योतिषि रसो ज्योती रूपे प्रलीयते ॥
२३॥
रूपं वायौ स च स्पर्शे लीयते सोपि चाम्बरे ।अम्बरं शब्दतन्मात्र इन्द्रियाणि स्वयोनिषु ॥
२४॥
योनिर्वेकारिके सौम्य लीयते मनसी श्वरे ।शब्दो भूतादिमप्येति भूतादिर्महति प्रभु; ॥
२५॥
स लीयते महान्स्वेषु गुणेसु गुणवत्तम: ।तेडव्यक्ते सम्प्रलीयन्ते तत्काले लीयतेडव्यये ॥
२६॥
कालो मायामये जीवे जीव आत्मनि मय्यजे ।आत्मा केवल आत्मस्थो विकल्पापायलक्षण: ॥
२७॥
अन्ने-- भोजन में; प्रलीयते--लीन हो जाता है; मर्त्यम्--मर्त्य शरीर; अन्नमू-- भोजन; धानासु--बीजों के भीतर; लीयते--लीनहो जाता है; धाना:--बीज; भूमौ--पृथ्वी में; प्रलीयन्ते--लीन हो जाते हैं; भूमि:--पृथ्वी; गन्धे--गन्ध में; प्रलीयते--लीन होजाती है; अप्सु--जल में; प्रलीयते--लीन हो जाती है; गन्ध:--गन्ध; आप:ः--जल; च--तथा; स्व-गुणे--अपने गुण में;रसे--स्वाद में; लीयते--लीन हो जाता है; ज्योतिषि-- अग्नि में; रस:--स्वाद; ज्योति:-- अग्नि; रूपे-- स्वरूप में; प्रलीयते--लीन हो जाती; रूपम्--स्वरूप; वायौ--वायु में; सः--वह; च--तथा; स्पर्शे--स्पर्श में; लीयते--लीन हो जाता है; सः--वह;अपि--भी; च--तथा; अम्बरे--आकाश में; अम्बरम्--आकाश; शब्द--ध्वनि में; ततू-मात्रे--संगत सूक्ष्म अनुभूति में;इन्द्रियाणि--इन्द्रियाँ; स्व-योनिषु--अपने स्त्रोतों, देवताओं में; योनि:--देवता; वैकारिके --सतोगुणी अहंकार में; सौम्य--हेउद्धव; लीयते--लीन हो जाता है; मनसि--मन में; ईश्वेर--नियन्ता रूप; शब्द:--शब्द; भूत-आदिम्-- आदि अहंकार में;अप्येति--लीन हो जाता है; भूत-आदिः--मिथ्या अहंकार; महति--समग्र प्रकृति में; प्रभु: --शक्तिमान; सः--वह; लीयते--लीन हो जाता है; महान्--समग्र प्रकृति; स्वेषु--अपने ही; गुणेषु--तीन गुणों में; गुण-बत्-तम:--इन गुणों का परम धाम होनेसे; ते--वे; अव्यक्ते--प्रकृति के अव्यक्त रूप में; सम्प्रलीयन्ते--पूर्णतया लीन हो जाते हैं; तत्ू-- उस; काले--समय में;लीयते--विलीन हो जाता है; अव्यये--अव्यय; काल:--समय; माया-मये--दिव्य ज्ञान से पूर्ण; जीवे--समस्त जीवों को गतिदेने वाले परमेश्वर में; जीव: --वह प्रभु; आत्मनि--परमात्मा में; मयि--मुझमें; अजे--अजन्मा; आत्मा--आत्मा; केवल: --अकेले; आत्म-स्थ: --स्वयं में स्थित; विकल्प--सृष्टि; अपाय--तथा संहार द्वारा; लक्षण:--गुणों से युक्त ;संहार के समय जीव का मर्त्य शरीर भोजन में लीन हो जाता है।
भोजन अन्न में लीन होता हैऔर अन्न पुनः पृथ्वी में लीन हो जाते हैं। पृथ्वी अपने सूक्ष्म अनुभूति गंध में लीन हो जाती है।गंध जल में और जल अपने गुण स्वाद में लीन हो जाता है। स्वाद अग्नि में और अग्नि रूप मेंलीन हो जाती है। रूप स्पर्श में और स्पर्श आकाश में लीन हो जाता है। आकाश अन्ततः ध्वनिअनुभूति में लीन होता है। सारी इन्द्रियाँ अपने उद्गम रूप अधिष्ठाता देवों में लीन हो जाती हैं। हेसौम्य उद्धव, ये इन्द्रियाँ नियामक मन में लीन होती हैं, जो सात्विक अहंकार में लीन हो जाता है।शब्द तमोगुणी अहंकार में एकाकार हो जाते हैं और सर्वशक्तिमान तथा समस्त शारीरिक तत्त्वोंमें प्रथम जाना जाने वाला अहंकार समग्र प्रकृति में लीन हो जाता है। तीन गुणों की धात्री समग्रप्रकृति गुणों में लीन हो जाती है। तब ये गुण प्रकृति के अव्यक्त रूप में लीन होते हैं और यहअव्यक्त रूप काल में लीन हो जाता है। काल परमेश्वर में लीन हो जाता है, जो सर्वज्ञ महापुरुषके रूप में, समस्त जीवों के आदि प्रेरक के रूप में रहते हैं। समस्त जीवन का उद्गम मुझअजन्मा परमात्मा में जो अपने भीतर स्थित रह कर अकेला रहता है, लीन हो जाता है। उन्हीं सेसमस्त सृजन तथा संहार प्रकट होते हैं।
एवमन्वीक्षमाणस्य कथं वैकल्पिको भ्रम: ।मनसो हृदि तिष्ठेत व्योम्नीवार्कोदये तमः ॥
२८ ॥
एवम्--इस तरह से; अन्वीक्षमाणस्य-- ध्यान से देखने वाले का; कथम्--कैसे; बैकल्पिक:--द्वैत पर आधारित; भ्रम:--मोह;मनसः--उसके मन का; हृदि--हृदय में; तिष्ठेत--बना रह सकता है; व्योमग्नि--आकाश में; इब--जिस तरह; अर्क--सूर्य के;उदये--उदय होने पर; तम:ः--अंधकार।
जिस तरह उदय होता सूर्य आकाश के अंधकार को हटा देता है, उसी तरह विश्व-संहार कायह विज्ञान गम्भीरजनों के मन से भ्रामक द्वैत को हटा देता है। यदि किसी तरह हृदय के भीतरभ्रम प्रवेश कर भी जाता है, तो वह वहाँ ठहर नहीं सकता।
एप साड्ख्यविधि: प्रोक्त: संशयग्रन्थिभेदन: ।प्रतिलोमानुलोमा भ्यां परावरह॒श मया ॥
२९॥
एष:--यह; साड्ख्य-विधि:--सांख्य ( वैशलेषिक दर्शन ) की विधि; प्रोक्त:--कहे गये; संशय--सन्देहों की; ग्रन्थि--गाँठ;भेदन:--तोड़ने वाला; प्रतिलोम-अनुलोमा भ्याम्--सीधे और उल्टे दोनों ही क्रमों में; पर-- आध्यात्मिकजगत; अवर--तथाभौतिक जगत की निकृष्ट स्थिति; हशा--देखने वाले के द्वारा; मया--मेरे द्वारा |
इस तरह हर भौतिक तथा आध्यात्मिक वस्तु के पूर्ण द्रष्टा मैंने यह सांख्य ज्ञान कहा है, जोसृष्टि तथा संहार के वैज्ञानिक विश्लेषण द्वारा संशय को नष्ट करता है।
25. प्रकृति और उससे परे के तीन तरीके
श्रीभगवानुवाचगुणानामसम्मिश्राणां पुमान्येन यथा भवेत् ।तन्मे पुरुषवर्येदमुपधारय शंसतः ॥
१॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; गुणानाम्-प्रकृति के गुणों के; असम्मिश्राणाम्-शुद्ध अवस्था वाले; पुमानू-व्यक्ति;येन--जिस गुण से; यथा--कैसे; भवेत्--बन जाता है; तत्--वह; मे--मुझसे; पुरुष-वर्य --हे पुरुषों में श्रेष्ठ; इदम्--यह;उपधारय--समझने का प्रयत्त करो; शंसतः --मेंरे द्वारा कहा हुआ
भगवान् ने कहा : हे पुरुष- श्रेष्ठ, मैं तुमसे वर्णन करूँगा कि जीव किस तरह किसी भौतिकगुण की संगति से विशेष स्वभाव प्राप्त करता है। तुम उसे सुनो।
शमो दमस्तितिक्षेक्षा तपः सत्यं दया स्मृति: ।तुष्टिस्त्यागोउस्पूहा श्रद्धा हीर्दयादिः स्वनिर्वृति: ॥
२॥
काम ईहा मदस्तृष्णा स्तम्भ आशीर्भिदा सुखम् ।मदोत्साहो यशःप्रीतिर्हास्यं वीर्य बलोच्यम: ॥
३॥
क्रोधो लोभोनृतं हिंसा याच्ञा दम्भ: कलम: कलि: ।शोकमोहीौ विषादार्ती निद्राशा भीरनुद्यम: ॥
४॥
सत्त्वस्य रजसश्चैतास्तमसश्चानुपूर्वशः ।वृत्तयो वर्णितप्राया: सन्निपातमथो श्रूणु ॥
५॥
शमः--मन का संयम; दमः--इन्द्रिय संयम; तितिक्षा--सहिष्णुता; ईक्षा--संकल्प; तप: --अपने नियत कार्य का हढ़तापूर्वकपालन; सत्यम्--सत्य; दया--दया; स्मृतिः-- भूत तथा भविष्य का अवलोकन; तुष्टिः--सन्तोष; त्याग: --उदारता; अस्पृहा--इन्द्रियतृष्ति से विरक्ति; श्रद्धा--( गुरु तथा अन्य प्रामाणिक दिद्वानों के प्रति ) श्रद्धा; हीः--लज्जा ( अनुचित कार्य से ); दया-आदिः--दान, सरलता, दीनता आदि; स्व-निर्व॒तिः--भीतर से आनन्द मनाने; काम:-- भौतिक इच्छा; ईहा--उद्योग, प्रयत्न;मदः--घमंड; तृष्ण-- असंतोष; स्तम्भ: --मिथ्या गर्व; आशी:-- भौतिक लाभ के लिए देवी-देवताओं से प्रार्थना; भिदा--विलगाववादी प्रवृत्ति; सुखम्--इन्द्रियतृप्ति; मद-उत्साह:--नशे पर आधारित हिम्मत; यश: -प्रीति:-- प्रशंसा का भूखा;हास्यम्--हँसी उड़ाने में रत; वीर्यम्ू--अपनी शक्ति का प्रचार करने वाला; बल-उद्यम:--अपने बलबूते पर कार्य करने वाला;क्रोध:--असह्ाय क्रोध; लोभ:--लालच; अनृतम्--असत्य भाषण ( शास्त्र विरुद्ध बोलना ); हिंसा--दुश्मनी; याच्ञा--याचनाकरना; दम्भ:--दिखावा; कलम: --थकान; कलि:--कलह; शोक-मोहौ--शोक तथा मोह; विषाद-आर्ती --दुख तथा झूठीदीनता; निद्रा--नींद, अँगडाई; आशा--झूठी आशा; भी:-- भय; अनुद्यम:-- प्रयास का अभाव; सत्त्वस्थ--सतोगुण का;रजसः--रजोगुण का; च--तथा; एता:--ये; तमसः--तमोगुण का; च--तथा; आनुपूर्वश:--एक के बाद दूसरा; वृत्तय:--कार्य; वर्णित--कहे गये; प्राया:--अधिकांशत:; सन्निपातम्ू--इन सबों का मेल; अथो--अब; श्रूणु--सुनोमन तथा इन्द्रिय संयम, सहिष्णुता, विवेक, नियत कर्म का पालन, सत्य, दया, भूत तथाभविष्य का सतर्क अध्ययन, किसी भी स्थिति में सनन््तोष, उदारता, इन्द्रियतृप्ति का परित्याग, गुरूमें श्रद्धा, अनुचित कर्म करने पर व्यग्रता, दान, सरलता, दीनता तथा अपने में संतोष--येसतोगुण के लक्षण हैं।
भौतिक इच्छा, महान् उद्योग, मद, लाभ में भी असन्तोष, मिथ्याअभिमान, भौतिक उन्नति के लिए प्रार्थना, अन्यों से अपने को विलग तथा अच्छा मानना,इन्द्रियतृप्ति, लड़ने की छटपटाहट, अपनी प्रशंसा सुनने की चाह, अन्यों का मजाक उड़ाने कीप्रवृत्ति, अपने बल का विज्ञापन तथा अपने बल के द्वारा अपने कर्मों को सही बताना--येरजोगुण के लक्षण हैं। असहा क्रोध, कंजूसी, शास्त्रीय आधार के बिना बोलना, उग्र घृणा,परोपजीवन, दिखावा, अति थकान, कलह, शोक, मोह, दुख, उदासी, अत्यधिक निद्रा, झूठीआशा, भय तथा आलस्य--ये तमोगुणी लक्षण हैं। अब इन तीनों के मिश्रण के बारे में सुनो।
सन्निपातस्त्वहमिति ममेत्युद्धव या मतिः ।व्यवहार: सन्निपातो मनोमात्रेन्द्रियासुभि: ॥
६॥
सन्निपात:--गुणों का मिश्रण; तु--तथा; अहम् इति--मैं; मम इति-- मेरा '; उद्धव--हे उद्धव; या--जो; मतिः--मनोवृत्ति;व्यवहार:--सामान्य कार्यकलाप; सन्निपात:--संयोग, मिश्रण; मन:--मन; मात्रा--अनुभूति के पदार्थी; इन्द्रिय--इन्द्रियों;असुभिः--तथा प्राण-वायुओं द्वारा
हे उद्धव, 'मैं' तथा 'मेरा' मनोवृत्ति में तीनों गुणों का संमिश्रण रहता है। इस जगत केसामान्य व्यवहार, जो मन, अनुभूति के विषयों ( तन्मात्राओं ), इन्द्रियों तथा शरीर की प्राण-वायुद्वारा सम्पन्न किये जाते हैं, भी गुणों के सम्मिश्रण पर आधारित होते हैं।
धर्मे चार्थ च कामे च यदासौ परिनिष्ठितः ।गुणानां सन्निकर्षोयं श्रद्धारतिधनावह: ॥
७॥
धर्मे-- धर्म में; च--तथा; अर्थ--आर्थिक विकास में; च--तथा; कामे--इन्द्रियतृप्ति में; च--तथा; यदा--जब; असौ--यहजीव; परिनिष्ठित:--स्थिर है; गुणानाम्-प्रकृति के गुणों के; सन्निकर्ष:--मिश्रण में; अयम्--यह; श्रद्धा-- श्रद्धा; रति--यौनभोग; धन--तथा धन; आवह:--जिसे हर एक लाता है।
जब मनुष्य धर्म, अर्थ तथा काम में अपने आप को लगाता है, तो उसके उद्योग से प्राप्तश्रद्धा, सम्पत्ति तथा यौन-सुख प्रकृति के तीनों गुणों की अन्योन्य क्रिया को प्रदर्शित करते हैं।
प्रवृत्तिलक्षणे निष्ठा पुमान्यर्हि गृहाश्रमे ।स्वधर्मे चानु तिष्ठेत गुणानां समितिर्हि सा ॥
८॥
प्रवृत्ति-- भौतिक भोग के मार्ग के; लक्षणे--लक्षण वाले में; निष्ठा--समर्पण; पुमान्--मनुष्य ; यहिं-- जब; गृह-आश्रमे --पारिवारिक जीवन में; स्व-धर्मे--नियत कार्यों में; च--तथा; अनु--बाद में; तिष्ठेत--खड़ा रहता है; गुणानाम्ू-गुणों की;समिति:--संयोग, मेल; हि--निस्सन्देह; सा--यह
जब मनुष्य पारिवारिक जीवन में अनुरक्त होने से इन्द्रियतृप्ति चाहता है और इसके'फलस्वरूप जब वह धार्मिक तथा वृत्तिपरक कार्यो में स्थित हो जाता है, तो प्रकृति के गुणों कामिश्रण प्रकट होता है।
पुरुषं सत्त्वसंयुक्तमनुमीयाच्छमादिभि: ।कामादिभी रजोयुक्त क्रोधाद्ैस्तमसा युतम् ॥
९॥
पुरुषम्-व्यक्ति; सत्त्व-संयुक्तम्-सतोगुण से युक्त; अनुमीयात्--निकाला जा सकता है; शम-आदिभि:--इन्द्रिय-संयम केगुणों आदि से; काम-आदिभि: --विषय-वासना आदि से; रजः-युक्तम्--रजोगुणी व्यक्ति; क्रोध-आद्यै:--क्रोध इत्यादि से;तमसा--तमोगुण से; युतम्-युक्त |
आत्मसंयम जैसे गुणों को प्रदर्शित करने वाला व्यक्ति मुख्यतया सतोगुणी माना जाता है।इसी तरह रजोगुणी व्यक्ति अपनी विषय-वासना से पहचाना जाता है तथा तमोगुणी व्यक्ति क्रोधजैसे गुण से पहचाना जाता है।
यदा भजति मां भकत्या निरपेक्ष: स्वकर्मभि: ।त॑ सत्त्वप्रकृतिं विद्यात्पुरुषं स्त्रियमिव वा ॥
१०॥
यदा--जब; भजति--पूजा करता है; माम्--मेरी; भक्त्या--भक्तिपूर्वक; निरपेक्ष:--फल की परवाह न करने वाला; स्व-कर्मभि:--अपने नियत कार्यो से; तम्--उसको; सत्त्व-प्रकृतिमू--सतोगुणी स्वभाव वाला व्यक्ति; विद्यात्--समझे; पुरुषम्--पुरुष को; स्त्रियम्--स्त्री को; एब-- भी; वा--अथवा।
कोई व्यक्ति, चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, यदि अपने नियत कार्यो को बिना किसी आसक्तिके मुझे अर्पित करते हुए मेरी पूजा करता है, तो वह सतोगुणी समझा जाता है।
यदा आशिष आशास्य मां भजेत स्वकर्मभिः ।त॑ रज:प्रकृतिं विद्यात् हिंसामाशास्य तामसम् ॥
११॥
यदा--जब; आशिष: --आशीर्वाद; आशास्य--की आशा से; माम्--मुझको; भजेत--पूजता है; स्व-कर्मभि:--अपने कार्योंसे; तम्--उसको; रज:-प्रकृतिम्ू--रजोगुणी व्यक्ति; विद्यात्ू--समझे; हिंसामू--हिंसा; आशास्य--की आशा करते हुए;तामसमू्--तमोगुणी व्यक्ति
जब कोई व्यक्ति भौतिक लाभ पाने की आशा से अपने नियत कर्मों द्वारा मेरी पूजा करताहै, उसका स्वभाव रजोगुणी समझना चाहिए और जब कोई व्यक्ति अन्यों के साथ हिंसा करनेकी इच्छा से मेरी पूजा करता है, वह तमोगुण में स्थित होता है।
सत्त्वं रजस्तम इति गुणा जीवस्य नैव मे ।चित्तजा यैस्तु भूतानां सज्ञमानो निबध्यते ॥
१२॥
सत्त्वम्--सतोगुण; रज: --रजोगुण; तम: -- तमोगुण; इति--इस प्रकार; गुणा:--गुण; जीवस्य--आत्मा से सम्बन्धित; न--नहीं; एव--निस्सन्देह; मे-- मुझको; चित्त-जा:--मन के भीतर प्रकट; यैः--जिन गुणों से; तु--तथा; भूतानाम्ू-- भौतिकप्राणियों का; सज्ञमान:--अनुरक्त होकर; निबध्यते--बाँधा जाता है।प्रकृति के तीनों गुण--सतो, रजो तथा तमोगुण--जीव को तो प्रभावित करते हैं, मुझेनहीं।
उसके मन में प्रकट होकर ये जीव को भौतिक शरीरों तथा अन्य उत्पन्न वस्तुओं से अनुरक्तहोने के लिए प्रेरित करते हैं। इस तरह जीव बँध जाता है।
यदेतरौ जयेत्सत्त्वं भास्वरं विशदं शिवम् ।तदा सुखेन युज्येत धर्मज्ञानादिभि: पुमान् ॥
१३॥
यदा--जब; इतरौ--अन्य दो; जयेत्--जीत लेता है; सत्त्वमू--सतोगुण; भास्वरम--प्रकाशमान; विशदम्--शुद्ध। शिवम्--शुभ; तदा--तब; सुखेन--सुख से; युज्येत--से युक्त होता है; धर्म--धर्म; ज्ञान--ज्ञान; आदिभि:--आदि अन्य गुणों से;पुमान्--मनुष्य |
जब प्रदीप्त शुद्ध तथा शुभ सतोगुण रजोगुण तथा तमोगुण पर हावी होता है, तो मनुष्यसुख, प्रतिभा, ज्ञान तथा अन्य गुणों से युक्त हो जाता है।
यदा जयेत्तम: सत्त्वं रज: सड़ं भिदा चलम् ।तदा दुःखेन युज्येत कर्मणा यशसा थ्रिया ॥
१४॥
यदा--जब; जयेत्--जीत लेता है; तमः सत्त्वम्ू--तमो तथा सतोगुण; रज:--रजो; सड्न्रम्--अनुरक्ति ( का कारण ); भिदा--विलगाव; चलम्--तथा परिवर्तन; तदा--तब; दुःखेन--दुख से; युज्येत--युक्त हो जाता है; कर्मणा-- भौतिक कार्य से;यशसा--यश ( की इच्छा ) से; अ्िया--तथा एऐ श्वर्य से |
जब अनुरक्ति, विलगाव तथा कर्मठता का कारणरूप रजोगुण, तमोगुण तथा सतोगुण कोजीत लेता है, तो मनुष्य प्रतिष्ठा तथा सम्पत्ति प्राप्त करने के लिए कठिन श्रम करने लगता है। इसतरह रजोगुण में मनुष्य चिन्ता तथा संघर्ष का अनुभव करता है।
यदा जयेद् रज: सत्त्वं तमो मूढं लयं जडम् ।युज्येत शोकमोहाभ्यां निद्रया हिंसयाशया ॥
१५॥
यदा--जब; जयेत्--जीत लेता है; रज: सत्त्वम्--रजोगुण तथा सतोगुण; तम:--तमोगुण; मूढम्--विवेक-शक्ति को खोचुका; लयम्--चेतना के ऊपर का आवरण; जडम्--उद्योग से विहीन; युज्येत--युक्त हो जाता है; शोक--शोक;मोहाभ्याम्--तथा मोह से; निद्रया--अत्यधिक सोने से; हिंसया--हिंसक गुणों से; आशया--तथा झूठी आशाओं से |
जब तमोगुण रजोगुण तथा सतोगुणों को जीत लेता है, तो वह मनुष्य की चेतना को ढकलेता है और उसे मूर्ख तथा जड़ बना देता है। तमोगुणी मनुष्य शोक तथा मोह में पड़ करअत्यधिक सोता है, झूठी आशा करने लगता है और अन्यों के प्रति हिंसा प्रदर्शित करता है।
यदा चित्तं प्रसीदेत इन्द्रियाणां च निर्वृति: ।देहेभयं मनोसड़ूं तत्सत्त्वं विद्धि मत्पदम् ॥
१६॥
यदा--जब; चित्तम्--चेतना; प्रसीदेत--स्वच्छ हो जाती है; इन्द्रियाणाम्--इन्द्रियों की; च--तथा; निर्वृतिः--संसारी कार्यो कीसमाप्ति; देहे--शरीर में; अभयम्--निर्भयता; मन:--मन की; असड्रम्-विरक्ता; तत्--उसे; सत्त्वमू--सतोगुण; विर्द्धि--जानो; मत्--मेरा साक्षात्कार; पदम्--वह पद जिसमें इसे प्राप्त किया जा सके |
जब चेतना स्वच्छ हो जाती हैं और इन्द्रियाँ पदार्थ से विरक्त हो जाती हैं, तो मनुष्य भौतिकशरीर के भीतर निर्भीकता तथा भौतिक मन से विरक्ति का अनुभव करता है। इस स्थिति कोसतोगुण की प्रधानता समझना चाहिए क्योंकि इसमें मनुष्य को मेरा साक्षात्कार करने का अवसरमलिता है।
विकुर्वन्क्रियया चाधीरनिवृत्तिश्व चेतसाम् ।गात्रास्वास्थ्यं मनो भ्रान्तं रज एतर्निशामय ॥
१७॥
विकुर्वनू--विकृत होकर; क्रियया--कर्म से; च--तथा; आ--तक; धी:ः--बुद्धि; अनिवृत्ति:--रोक न पाना; च--एवं;चेतसाम्--बुद्धि तथा इन्द्रियों की चेतनता पर; गात्र--कर्मेन्द्रियों का; अस्वास्थ्यम्--अस्वस्थ स्थिति; मनः--मन; भ्रान्तम्--अस्थिर; रज:--रजोगुण; एतै:--इन लक्षणों से; निशामय--तुम्हें समझना चाहिए।
तुम्हें रजोगुण का पता उसके लक्षणों से--अत्यधिक कर्म के कारण बुद्धि की विकृति,अनुभव करने वाली इन्द्रियों की संसारी वस्तुओं से अपने को छुड़ाने की असमर्थता, कर्मेन्द्रियोंकी अस्वस्थ दशा तथा मन की अस्थिरता से--लगा लेना चाहिये।
सीदच्चित्तं विलीयेत चेतसो ग्रहणेक्षमम् ।मनो नष्ट तमो ग्लानिस्तमस्तदुपधारय ॥
१८॥
सीदत्--विफल हो जाती है; चित्तम्--चेतना की उच्चतर इन्द्रिय; विलीयेत--विलीन हो जाती है; चेतस:--जागरूकता;ग्रहणे--नियंत्रित करने में; अक्षमम्--अक्षम; मन:--मन; नष्टम्--विनष्ट; तम:--अज्ञान; ग्लानि:--विषाद; तम:--तमोगुण;तत्--वह; उपधारय--तुम समझो
जब मनुष्य की उच्चतर जागरूकता काम न दे और अन्त में लुप्त हो जाय तथा इस तरहमनुष्य अपना ध्यान एकाग्र न कर सके, तो उसका मन नष्ट हो जाता है और अज्ञान तथा विषादप्रकट करता है। तुम इस स्थिति को तमोगुण की प्रधानता समझो।
एथमाने गुणे सत्त्वे देवानां बलमेधते ।असुराणां च रजसि तमस्युद्धव रक्षसाम् ॥
१९॥
एधमाने--वृद्धि करता हुआ; गुणे--गुण में; सत्त्वे--सतो; देवानामू--देवताओं की; बलम्ू--शक्ति; एधते--बढ़ती है;असुराणाम्-देवताओं के शत्रुओं की; च--तथा; रजसि--रजोगुण के बढ़ने पर; तमसि--तमोगुण के बढ़ने पर; उद्धव-हेउद्धव; रक्षसामू--मानव भक्षियों को |
सतोगुण की वृद्धि होने के साथ साथ, देवताओं की शक्ति भी बढ़ती जाती है। जब रजोगुणबढ़ता है, तो असुरगण प्रबल हो उठते हैं और तमोगुण की वृद्धि से हे उद्धव! अत्यन्त दुष्ट लोगोंकी शक्ति बढ़ जाती है।
सत्त्वाजागरणं विद्याद्रजसा स्वणमादिशेत् ।प्रस्वापं तमसा जन््तोस्तुरीयं त्रिषु सन््ततम् ॥
२०॥
सत्त्वात्ू-सतोगुण से; जागरणम्--जागरूक चेतना; विद्यात्--समझे; रजसा--रजोगुण से; स्वणम्--नींद; आदिशेत् --सूचितहोती है; प्रस्वापम्--गहरी नींद; तमसा--तमोगुण से; जन्तो:--जीव की; तुरीयम्--चतुर्थ दिव्य अवस्था; त्रिषु--तीनों में;सन्ततम्-व्याप्त
यह जान लेना चाहिए कि जागरूक चैतन्यता सतोगुण से आती है, नींद रजोगुणी स्वप्नदेखने से तथा गहरी स्वप्नरहित नींद तमोगुण से आती है। चेतना की चतुर्थ अवस्था इन तीनों मेंव्याप्त रहती है और दिव्य होती है।
उपर्युपरि गच्छन्ति सत्त्वेन ब्राह्मणा जना: ।तमसाधोध आमुख्याद्रजसान्तरचारिण: ॥
२१॥
उपरि उपरि--ऊँचे और ऊँचे; गच्छन्ति--जाते हैं; सत्त्वेन--सतोगुण से; ब्राह्मणा:--वैदिक सिद्धान्तों के प्रति समर्पित लोग;जना:--ऐसे लोग; तमसा--तमोगुण द्वारा; अध: अध:--नीचे और नीचे; आ-मुख्यात्--सिर के बल; रजसा--रजोगुण द्वारा;अन्तर-चारिण: --मध्यवर्ती स्थितियों में रहते हुएवैदिक संस्कृति के प्रति समर्पित विद्वान पुरुष सतोगुण से उत्तरोत्तर उच्च पदों को प्राप्त होतेहैं। किन्तु तमोगुण मनुष्य को सिर के बल निम्न से निम्नतर जन्मों में गिरने के लिए बाध्य करता है। रजोगुण से मनुष्य मानव शरीरों में से होकर निरन्तर देहान्तरण करता रहता है।
सच्त्वे प्रलीना: स्वर्यान्ति नरलोक॑ रजोलया: ।तमोलयास्तु निरयं यान्ति मामेव निर्गुणा: ॥
२२॥
सत्त्वे--सतोगुण में; प्रलीना:--मरने वाले; स्वः--स्वर्ग; यान्ति--जाते हैं; नर-लोकम्--मनुष्य लोक में; रज:-लया:--रजोगुणमें मरने वाले; तमः-लयाः--तमोगुण में मरने वाले; तु--तथा; निरयम्--नरक में; यान्ति--जाते हैं; मामू--मुझ तक; एव--किन्तु; निर्गुणा:--समस्त गुणों से रहित हैं, जो |
जो लोग सतोगुण में रहते हुए इस जगत को छोड़ते हैं, वे स्वर्गलोक जाते हैं; जो रजोगुण मेंरहते हुए छोड़ते हैं, वे मनुष्य-लोक में रह जाते हैं और तमोगुण में मरने वाले नरक-लोक में जातेहैं। किन्तु जो प्रकृति के सारे गुणों से मुक्त हैं, वे मेरे पास आते हैं।
मदर्पणं निष्फलं वा सात्त्विकं निजकर्म तत् ।राजसं फलसड्डूल्पं हिंसाप्रायादि तामसम् ॥
२३॥
मतू-अर्पणम्--मुझे अर्पित; निष्फलम्--किसी फल-प्राप्ति की आशा के बिना सम्पन्न; वा--तथा; सात्त्विकम्--सतोगुण में;निज--अपना नियत कर्म मान कर; कर्म--कार्य; तत्--वह; राजसम्ू--रजोगुणी; फल-सड्जूल्पम्--किसीफल प्राप्ति कीआशा से सम्पन्न; हिंसा-प्राय-आदि--हिंसा, ईर्ष्या आदि के बिना सम्पन्न; तामसमू--तमोगुण में |
फल का विचार किये बिना जो कर्म मुझे अपिर्त किया जाता है, वह सतोगुणी माना जाताहै। फल की भोगेच्छा से सम्पन्न कर्म रजोगुणी है और हिंसा तथा ईर्ष्या से प्रेरित कर्म तमोगुणीहोता है।
कैवल्यं सात्त्विकं ज्ञानं रजो वैकल्पिकं च यत् ।प्राकृतं तामसं ज्ञान मन्निष्ठं निर्गुणं स्मृतम् ॥
२४॥
कैवल्यम्ू--केवल, परम; सात्त्विकम्ू--सतोगुणी; ज्ञानम्ू--ज्ञान; रज:--रजोगुण; वैकल्पिकम्--कई; च--तथा; यत्--जो;प्राकृतम्-- भौतिकतावादी; तामसम्--तमोगुणी; ज्ञानमू--ज्ञान; मत्-निष्ठम्--मुझमें एकाग्र चित्त; निर्गुणम्--दिव्य; स्मृतम्--माना जाता है।
परम ज्ञान सात्त्विक होता है; द्वैत पर आधारित ज्ञान राजसी होता है और मूर्खतापूर्णभौतिकतावादी ज्ञान तामसिक है। किन्तु जो ज्ञान मुझ पर आधारित होता है, वह दिव्य मानाजाता है।
बनं तु सात्त्विको वासो ग्रामो राजस उच्यते ।तामसं द्यूतसदन मन्निकेतं तु निर्गुणम् ॥
२५॥
वनम्--जंगल; तु--जबकि; सात्त्विक:--सतोगुणी; वास:--आवास; ग्राम:--गाँव; राजसः--रजोगुणी; उच्यते--कहा जाताहै; तामसम्--तमोगुणी; द्यूत-सदनम्--जुआ खेलने का स्थान; मत्-निकेतम्--मेरा निवास; तु--लेकिन; निर्गुणम्-दिव्य |
जंगल का वास सतोगुणी, कस्बे का वास रजोगुणी, जुआ घर का वास तमोगुणी तथा मेरेधाम का वास दिव्य होता है।
सात्त्विक: कारकोसड़ी रागान्धो राजसः स्मृतः ।तामसः स्मृतिविश्रष्टो निर्गुणो मदपाभ्रय: ॥
२६॥
सात्त्विक:--सतोगुणी; कारक:--कर्म करने वाला, कर्ता; असड्री--अनुरक्ति से रहित; राग-अन्ध:--निजी इच्छा से अंधा हुआ;राजस:ः--रजोगुणी; स्मृत: --माना जाता है; तामस:ः--तमोगुणी; स्मृति--कौन क्या है इसकी स्मृति से; विश्रष्ट:--पतित;निर्गुण:--दिव्य; मत्-अपा भ्रय:--जिसने मेरी शरण ग्रहण कर ली है
आसक्तिरहित कर्ता सात्विक होता है; निजी इच्छा से अंधा हुआ कर्ता राजसी तथा अच्छे-बुरेभेद को पूरी तरह भुला देने वाला कर्ता तामसिक है। किन्तु जिस कर्ता ने मेरी शरण ले रखी है,वह प्रकृति के गुणों से परे माना जाता है।
सात्त्विक्याध्यात्मिकी श्रद्धा कर्मअ्रद्धा तु राजसी ।तामस्यधर्मे या श्रद्धा मत्सेवायां तु निर्गुणा ॥
२७॥
सात्त्विकी--सतोगुणी; आध्यात्मिकी --आध्यात्मिक; श्रद्धा-- श्रद्धा; कर्म--कर्म में; श्रद्धा-- श्रद्धा; तु--लेकिन; राजसी--रजोगुणी; तामसी--तमोगुणी; अधर्मे -- अधर्म में; या--जो; श्रद्धा-- श्रद्धा; मत्-सेवायाम्--मेरी भक्ति में; तु--लेकिन;निर्गुणा--दिव्य ।
आध्यात्मिक जीवन की दिशा में लक्षित श्रद्धा सात्विक होती है; सकाम कर्म पर आधारितश्रद्धा राजसी होती है और अधार्मिक कृत्यों में वास करने वाली श्रद्धा तामसी होती है किन्तु मेरीभक्ति में जो श्रद्धा की जाती है, वह शुद्ध रूप से दिव्य होती है।
पथ्यं पूतमनायस्तमाहार्य सात्त्विकं स्मृतम् ।राजसं चेन्द्रियप्रेष्ठ तामसं चार्तिदाशुचि ॥
२८ ॥
पशथ्यम्--लाभप्रद; पूतम्--शुद्ध; अनायस्तम्--बिना कठिनाई के प्राप्त की गई; आहार्यमू--भोजन; सात्त्विकम्--सतोगुणी;स्मृतम्--माना जाता है; राजसम्--राजसी; च--तथा; इन्द्रिय-प्रेष्ठमू--इन्द्रियों को अत्यन्तप्रिय; तामसमू--तामसी; च--तथा;आर्ति-द--कष्टप्रद; अशुचि--अशुद्ध है
जो भोजन लाभप्रद, शुद्ध तथा बिना कठिनाई के उपलब्ध हो सके, वह सात्विक होता है;जो भोजन इन्द्रियों को तुरन्त आनन्द प्रदान करता हो, वह राजसी है और जो भोजन गन्दा हो तथाकष्ट उत्पन्न करने वाला हो, वह तामसी है।
सात्त्विकं सुखमात्मोत्थं विषयोत्थं तु राजसम् ।तामसं मोहदैन्योत्थं निर्गुणं मदपाश्रयम् ॥
२९॥
सात्त्विकम्--सतोगुणी; सुखम्--सुख; आत्म-उत्थम्--आत्मा से उत्पन्न; विषय-उत्थम्--इन्द्रिय-विषयों से उत्पन्न; तु--लेकिन;राजसम्--राजसी; तामसम्--तामसी; मोह--मोह; दैन्य--तथा दीनता से; उत्थम्--उत्पन्न; निर्गुणम्--दिव्य; मत्-अपाश्रयम्--मेरे भीतर
आत्मा से प्राप्त सुख सात्विक है; इन्द्रियतृप्ति पर आधारित सुख राजसी है और मोह तथादीनता पर आधारित सुख तामसी है। किन्तु मेरे भीतर पाया जाने वाला सुख दिव्य है।
द्रव्यं देश: फलं कालो ज्ञानं कर्म च कारक: ।श्रद्धावस्थाकृतिर्निष्ठा त्रैगुण्य: सर्व एव हि ॥
३०॥
द्रव्यमू--वस्तु; देश:--स्थान; फलमू--परिणाम; काल: --समय; ज्ञानमू--ज्ञान; कर्म--कर्म; च--तथा; कारक:--कर्ता ;श्रद्धा-- श्रद्धा; अवस्था-- चेतना की अवस्था; आकृति:--किस्म; निष्ठा--गन्तव्य; त्रै-गुण्यः--तीन गुणों वाला; सर्व:--येसारे; एव हि--निश्चय ही |
इसलिए भौतिक वस्तु, स्थान, कर्मफल, काल, ज्ञान, कर्म, कर्ता, श्रद्धा, चेतना की दशा,जीव योनि तथा मृत्यु के बाद गन्तव्य--ये सभी प्रकृति के तीन गुणों पर आश्नित हैं।
सर्वे गुणमया भावा: पुरुषाव्यक्तधिष्टिता: ।इृष्टे श्रुतं अनुध्यातं बुद्धया वा पुरुषर्षभ ॥
३१॥
सर्वे--समस्त; गुण-मया:--प्रकृति के गुणों से बने; भावा:--जीवन की स्थितियाँ; पुरुष--भोग करने वाले आत्मा द्वारा;अव्यक्त--तथा सूक्ष्म प्रकृति; थिष्टिता:--स्थापित तथा पालित; दृष्टमू--देखा हुआ; श्रुतम्--सुना हुआ; अनुध्यातम्--सोचाहुआ; बुद्धबा--बुद्धि के द्वारा; वा--अथवा; पुरुष-ऋषभ--हे पुरुष- श्रेष्ठ |
हे पुरुष-श्रेष्ठ, भौतिकवादिता की सारी दशाएँ भोक्ता आत्मा तथा भौतिक प्रकृति की अन्योन्य क्रिया से सम्बन्धित हैं। चाहे वे देखी हुई हों, सुनी हुई हों या मन के भीतर सोची-विचारी गई हों, वे किसी अपवाद के बिना प्रकृति के गुणों से बनी हुई होती हैं।
एता: संसृतयः पुंसो गुणकर्मनिबन्धना: ।येनेमे निर्जिता: सौम्य गुणा जीवेन चित्तजा: ।भक्तियोगेन मन्निष्ठो मद्भावाय प्रपद्यते ॥
३२॥
एता:--ये; संसृतय:ः --जगत के उत्पन्न पक्ष; पुंस:--जीव का; गुण--भौतिक गुण; कर्म--तथा कर्म से; निबन्धना:--सम्बद्ध;येन--जिससे; इमे--ये; निर्जिता:--जीते जाते हैं; सौम्य--हे भद्ग उद्धव; गुणा:--प्रकृति के गुण; जीवेन--जीव द्वारा; चित्त-जा:--मन से प्रकट होने वाले; भक्ति-योगेन-- भक्ति-विधि से; मत्ू-निष्ठ: --मेरे प्रति समर्पित; मत्-भावाय--मेरे प्रति प्रेम का;प्रपद्यते--पाता है |
हे सौम्य उद्धव, बद्ध जीवन की ये विभिन्न अवस्थाएँ प्रकृति के गुणों से पैदा हुए कर्म सेउत्पन्न होती हैं। जो जीव इन गुणों को, जो मन से प्रकट होते हैं, जीत लेता है, वह भक्तियोगद्वारा अपने आपको मुझे अर्पित कर देता है और इस तरह मेरे प्रति शुद्ध प्रेम प्राप्त करता है।
तस्माद्देहमिमं लब्ध्वा ज्ञानविज्ञानसम्भवम् ।गुणसड़ूं विनिर्धूय मां भजन्तु विचक्षणा: ॥
३३॥
तस्मात्ू--इसलिए; देहम्ू--शरीर; इमम्--यह; लब्ध्वा--प्राप्त करके ; ज्ञान--शुष्क ज्ञान; विज्ञान--तथा अनुभूत ज्ञान का;सम्भवम्--उत्पत्ति-स्थान; गुण-सड्रम्-गुणों का सात्निध्य; विनिर्धूय--पूरी तरह धो डालना; माम्--मुझको; भजन्तु--पूजतेहैं; विचक्षणा: --अत्यन्त बुद्धिमान लोग
इसलिए इस मनुष्य जीवन को, जो पूर्ण ज्ञान विकसित करने की छूट देता है, प्राप्त करकेबुद्धिमान लोगों को चाहिए कि वे अपने को प्रकृति के गुणों के सारे कल्मष से मुक्त कर लें औरएकमात्र मेरी भक्ति में लग जायें।
निःसड़ुो मां भजेद्विद्वानप्रमत्तो जितेन्द्रिय: ।रजस्तमश्वाभिजयेत्सत्त्वसंसेवया मुनि: ॥
३४॥
निःसड्ृः-- भौतिक संगति से मुक्त; माम्ू--मुझको; भजेत्--पूजा करें; विद्वानू--विद्वान व्यक्ति; अप्रमत्त:--जो मोहग्रस्त न हो;जित-इन्द्रियः--जिसने इन्द्रियों को जीत लिया है; रज:--रजोगुण; तमः--तमोगुण; च--तथा; अभिजयेत्--जीते; सत्त्व-संसेवया--सतोगुण ग्रहण करके; मुनि:--मुनि, साधु
समस्त भौतिक संगति से मुक्त तथा मोह से मुक्त बुद्धिमान साधु को चाहिए कि अपनीइन्द्रियों का दमन करे और मेरी पूजा करे। उसे चाहिए कि सतोगुणी वस्तुओं में ही अपने कोलगाकर रजो तथा तमोगुणों को जीत ले।
सत्त्वं चाभिजयेद्युक्तो नैरपेक्ष्येण शान्तधीः ।सम्पद्यते गुणैर्मुक्तो जीवो जीव॑ विहाय माम् ॥
३५॥
सत्त्वमू--सतोगुण; च-- भी; अभिजयेत्--जीते; युक्त:--भक्ति में लगा हुआ; नैरपेक्ष्येण--गुणों से अन्यमनस्क रहते हुए;शान्त--शान्त; धी:--बुद्धि वाला; सम्पद्यते--प्राप्त करता है; गुणैः--गुणों से; मुक्त:--मुक्त; जीव:--जीव; जीवम्-- अपनेबन्धन का कारण; विहाय--त्याग कर; माम्ू--मुझको |
तब भक्ति में स्थिर होकर साधु को चाहिए कि गुणों के प्रति अन्यमनस्क रह कर सतोगुणको जीत ले। इस तरह अपने मन में शान्त एवं प्रकृति के गुणों से मुक्त आत्मा, अपने बद्ध जीवनके कारण का ही परित्याग कर देता है और मुझे पा लेता है।
जीवो जीवविनिर्मुक्तो गुणैश्वाशयसम्भवै: ।मयैव ब्रह्मणा पूर्णो न बहिर्नान्तरश्चरेत् ॥
३६॥
जीव:--जीव; जीव-विनिर्मुक्त:-- भौतिक जीवन की सूक्ष्म बद्धता से मुक्त हुआ; गुणैः --गुणों से; च--तथा; आशय-सम्भवैः--उसके मन में प्रकट हुए; मया--मेरे द्वारा; एबव--निस्सन्देह; ब्रह्मणा--पर ब्रह्म द्वारा; पूर्ण:--पूर्ण तथा सन्तुष्ट; न--नहीं; बहिः--बाहर ( इन्द्रियतृप्ति ); न--न तो; अन्तर: -- भीतर ( इन्द्रियतृप्ति की स्मृति ); चरेतू--विचरण करे।
मन की सूक्ष्म बद्धता तथा भौतिक चेतना से उत्पन्न गुणों से मुक्त हुआ जीव मेरे दिव्य स्वरूपका अनुभव करने से पूर्णतया तुष्ट हो जाता है। वह न तो बहिरंगा शक्ति में भोग को ढूँढता है, नही अपने मन में ऐसे भोग का चिन्तन या स्मरण करता है।
26. ऐला-गीता
श्रीभगवानुवाचमल्लक्षणमिमं कायं॑ लब्ध्वा मद्धर्म आस्थित: ।आनन्द परमात्मानमात्मस्थं समुपैति माम् ॥
१॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् ने कहा; मत्-लक्षणम्--जिसमें मेरा साक्षात्कार हो सकता है; इममू--यह; कायम्--मानवशरीर; लब्ध्वा--प्राप्त करके; मत्-धर्मे--मेरी भक्ति में; आस्थित:--स्थित; आनन्दम्--शुद्ध आनन्द रूप; परम-आत्मानम्--परमात्मा को; आत्म-स्थम्--हृदय के भीतर स्थित; समपैति--प्राप्त करता है; माम्--मुझको
भगवान् ने कहा : इस मनुष्य जीवन को, जो मनुष्य को मेरा साक्षात्कार करने का अवसरप्रदान करता है, पाकर और मेरी भक्ति में स्थित होकर, मनुष्य मुझे प्राप्त कर सकता है, जो किसमस्त आनन्द का आगार तथा हर जीव के हृदय में वास करने वाला परमात्मा स्वरूप है।
गुणमय्या जीवयोन्या विमुक्तो ज्ञाननिष्ठया ।गुणेषु मायामात्रेषु दृश्यमानेष्ववस्तुतः ।वर्तमानोपि न पुमान्युज्यतेवस्तुभिर्गुणै:; ॥
२॥
गुण-मय्या--प्रकृति के गुणों पर आधारित; जीव-योन्या-- भौतिक जीवन के कारण से, झूठी पहचान; विमुक्त:--पूर्णतया मुक्तव्यक्ति; ज्ञान--दिव्य ज्ञान में; निष्ठया--पूरी तरह स्थिर होने से; गुणेषु--गुणों के फलों में से; माया-मात्रेषु--जो केवल मोह है;हृश्यमानेषु-- आँखों के सामने प्रकट; अवस्तुतः--यद्यपि सत्य नहीं है; वर्तमान: --रहते हुए; अपि--यद्यपि; न--नहीं; पुमानू--वह व्यक्ति; युज्यते--फँस जाता है; अवस्तुभि:--असत्य; गुणैः--गुणों की अभिव्यक्ति से।
दिव्य ज्ञान में स्थिर व्यक्ति प्रकृति के गुणों के फलों से अपनी झूठी पहचान त्याग कर, बद्धजीवन से मुक्त हो जाता है। इन फलों को मात्र मोह समझ कर उन्हीं के बीच निरन्तर रहते हुए वहप्रकृति के गुणों में फँसने से अपने को बचाता है। चूँकि गुण तथा उनके फल सत्य नहीं होते,अतएबव वह उन्हें स्वीकार नहीं करता।
सड़ं न कुर्यादसतां शिश्नोदरतृपां क्वचित् ।तस्यानुगस्तमस्यन्धे पतत्यन्धानुगान्धवत् ॥
३॥
सड्डम--साथ; न कुर्यातू-- नहीं करे; असताम्-- भौतिकतावादी लोगों का; शिश्न--जननांग; उदर--तथा पेट; तृपाम्--तृप्ति मेंलगे हुए; क्वचित्--किसी भी समय; तस्य--ऐसे व्यक्ति का; अनुग:--अनुयायी; तमसि अन्धे--अँधेरे गड्ढे में; पतति--गिरपड़ता है; अन्ध-अनुग--अंधे मनुष्य के पीछे चलने वाला; अन्ध-वत्--दूसरे अन्धे व्यक्ति की ही तरह
मनुष्य को कभी ऐसे भौतिकतावादियों की संगति नहीं करनी चाहिए जो अपने जननांगतथा उदर की तृप्ति में लगे रहते हों। उनका अनुसरण करने पर मनुष्य अंधकार के गहरे गड्ढे मेंगिर जाता है, जिस तरह एक अंधे व्यक्ति द्वारा दूसरे अंधे व्यक्ति का अनुगमन करने पर होता है।
ऐलः सप्राडिमां गाथामगायत बृहच्छुवा: ।उर्वशीविरहान्मुह्यन्निर्विण्ग: शोकसंयमे ॥
४॥
ऐलः:--राजा पुरूरवा; सम्राट्--महान् राजा; इमामू--इस; गाथामू--गीत को; अगायत--गाया; बृहत्--विस्तृत; श्रवा:--यशवाला; उर्वशी-विरहात्--उर्वशी से वियोग के कारण; मुहान्ू--मोहित होकर; निर्विण्ण:--विरक्त-सा; शोक--शोक; संयमे--अन्ततः अपने वश में होकर |
निम्नलिखित गीत सुप्रसिद्ध सम्राट पुरूरवा द्वारा गाया गया था। अपनी पत्नी उर्वशी सेविलग होने पर सर्वप्रथम वह संभ्रमित हुआ किन्तु अपने शोक को वश में करने से वह विरक्तिका अनुभव करने लगा।
त्यक्त्वात्मानं ब्रयन्तीं तां नग्न उन्मत्तवन्नूप: ।विलपन्नन्वगाज्ञाये घोरे तिष्ठेति विक््लव: ॥
५॥
त्यक्त्वा--छोड़ कर; आत्मानम्--उसे; ब्रजन्तीम्--दूर जाती हुई; तामू--उसको; नग्नः--नंगा; उन्मत्त-वत्--पागल व्यक्ति कीतरह; नृप:--राजा; विलपन्--विलाप करता; अन्वगात्--पीछे पीछे गया; जाये--हे मेरी पत्नी; घोरे--हे निष्ठर स्त्री; तिष्ठ--रुको; इति--इस प्रकार कहते हुए; विक्लव: --दुख से अभिभूत |जब वह उसको छोड़ रही थी, तो वह नंगा होते हुए भी, उसके पीछे पागल की तरह दौड़नेलगा और अत्यन्त दुख से चिल्लाने लगा, 'मेरी पत्नी, ओरे निष्ठर नारी! जरा ठहर।
'कामानतृप्तोनुजुषन्भ्षुल्लकान्वर्षयामिनी: ।न वेद यान्तीर्नायान्तीरुर्वश्याकृष्टचेतन: ॥
६॥
कामान्--विषय-भोग की इच्छा; अतृप्त:--अपूर्ण; अनुजुषन्--तृप्त करते हुए; क्षुल्लकानू--श्षुद्र; वर्ष--अनेक वर्षो की;यामिनी:--रातें; न वेद--नहीं जाना; यान्ती:--जाते हुए; न--न तो; आयान्ती:--आतेहुए; उर्वशी --उर्वशी द्वारा; आकृष्ट--आकर्षित; चेतन:--मन।
यद्यपि पुरूरवा ने वर्षों तक सायंकाल की घड़ियों में यौन आनन्द भोगा था, फिर भी ऐसेतुच्छ भोग से वह तृप्त नहीं हुआ था। उसका मन उर्वशी के प्रति इतना आकृष्ट था कि वह यह भीदेख नहीं पाया कि रातें किस तरह आती और चली जाती है।
चआच जज प्वअहो मे मोहविस्तार: कामकश्मलचेतसः ।देव्या गृहीतकण्ठस्य नायु:खण्डा इमे स्मृता: ॥
७॥
ऐल: उवाच--राजा पुरूरवा ने कहा; अहो--हाय; मे--मेरा; मोह--मोह का; विस्तार:--फैलाव; काम--काम द्वारा;कश्मल--दूषित; चेतस:--चेतना; देव्या--इस देवी द्वारा; गृहीत--पकड़ी गई; कण्ठस्य--जिसकी गर्दन; न--नहीं; आयु: --मेरी आयु के; खण्डा:--विभाग, टुकड़े; इमे--ये; स्मृता:--देखे गये।
राजा ऐल ने कहा : हाय! मेरे मोह के विस्तार को तो देखो! यह देवी मेरा आलिंगन करतीथी और मेरी गर्दन अपनी मुट्ठी में किये रहती थी। मेरा हृदय काम-वासना से इतना दूषित था किमुझे इसका ध्यान ही न रहा कि मेरा जीवन किस तरह बीत रहा है।
नाहं वेदाभिनिर्मुक्त: सूर्यो वाभ्युदितोमुया ।मूषितो वर्षपूगानां बताहानि गतान्युत ॥
८॥
न--नहीं; अहम्--मै; वेद--जानता हूँ; अभिनिर्मुक्त:--अस्त हुआ; सूर्य:--सूर्य; वा--अथवा; अभ्युदित:--उदय हुआ;अमुया--उसके द्वारा; मूषित:--धोखा दिया गया; वर्ष--वर्षो; पूगानामू-- अनेक; बत--हाय; अहानि--दिन; गतानि--बीतेहुए; उत--निश्चय ही।
इस स्त्री ने मुझे इतना ठगा कि मै उदय होते अथवा अस्त होते सूर्य को भी देख नहीं सका।हाय! मै इतने वर्षों से व्यर्थ ही अपने दिन गँवाता रहा।
अहो मे आत्मसम्मोहो येनात्मा योषितां कृत: ।क्रीडामृगश्नक्रवर्ती नरदेवशिखामणि: ॥
९॥
अहो--ओह; मे--मेरा; आत्म--मेरा; सम्मोह: --पूर्ण मोह; येन--जिससे; आत्मा--मेरा शरीर; योषिताम्--स्त्रियों के; कृत:--हो गया; क्रीडा-मृग:--खिलौना; चक्रवर्ती --शक्तिशाली सम्राट; नरदेब--राजाओं का; शिखा-मणि:--मुकुट का मणि।
हाय! यद्यपि मै शक्तिशाली सम्राट तथा इस पृथ्वी पर समस्त राजाओं का मुकुटमणि मानाजाता हूँ, किन्तु देखो न! मोह ने मुझे स्त्रियों के हाथों का खिलौने जैसा पशु बना दिया है।
सपरिच्छदमात्मानं हित्वा तृणमिवेश्वरम् ।यान्तीं स्त्रियं चान्वगमं नग्न उन्मत्तवद्वुदन्ू ॥
१०॥
स-परिच्छदम्--मेरे राज्य तथा सारी साज-सामग्री सहित; आत्मानम्--अपने आप; हित्वा--त्याग कर; तृणम्--घास को;इब--मानो; ईश्वरम-शक्तिमान प्रभु; यान्तीम्--जाते हुए; स्त्रियमू--स्त्री को; च--तथा; अन्वगमन्--मै पीछा करने लगा;नग्न:ः--नंगा; उन्मत्त-वत्--पागल जैसा; रुदन्ू-चिल्लाते हुए।
यद्यपि मै प्रचुर ऐश्वर्य से युक्त शक्तिशाली राजा था, किन्तु उस स्त्री ने मुझे त्याग दिया मानोमै कोई घास की तुच्छ पत्ती होऊँ। फिर भी मै, नग्न तथा लज्जारहित पागल व्यक्ति की तरहचिल्लाते हुए, उसका पीछा करता रहा।
कुतस्तस्यानुभाव: स्यात्तेज ईशत्वमेव वा ।योअन्वगच्छ स्त्रियं यान््तीं खरवत्पादताडितः ॥
११॥
कुतः--कहाँ; तस्य--उस व्यक्ति का ( मेरा ); अनुभाव:--प्रभाव; स्थात्--है; तेज:--बल; ईशत्वम्--स्वामित्व; एव--निस्सन्देह; वा--अथवा; य:--जो; अन्वगच्छम्--पीछे पीछे दौड़ा; स्त्रियम्--यह स्त्री; यान्तीम्--जाते हुए; खर-वत्--गधे कीतरह; पाद--पाँव से; ताडित:--दण्डित |
कहाँ है मेरा तथाकथित अत्यधिक प्रभाव, बल तथा स्वामित्व? जिस स्त्री ने मुझे पहले हीछोड़ दिया था उसके पीछे मै उसी तरह भागा जा रहा हूँ जैसे कि कोई गधा जिसके मुँह परउसकी गधी दुलत्ती झाड़ती है।
कि विद्यया कि तपसा किं त्यागेन श्रुतेन वा ।कि विविक्तेन मौनेन स्त्रीभिर्यस्थ मनो हतम् ॥
१२॥
किम्--क्या लाभ; विद्यया--ज्ञान का; किम्--क्या; तपसा--तपस्याएँ; किम्-- क्या; त्यागेन--त्याग का; श्रुतेन-- श्रुतियोंका; वा--अथवा; किमू--क्या; विविक्तेन--एकान्त रहने से; मौनेन--मौन रहने से; स्त्रीभि: --स्त्रियों से; यस्थ--जिसका;मनः--मन; हतम्ू--हर लिया गया हो |
ऊँची शिक्षा या तपस्या तथा त्याग से क्या लाभ ? इसी तरह धार्मिक शास्त्रों का अध्ययनकरने, एकान्त तथा मौन होकर रहने और फिर स्त्री द्वारा किसी का मन चुराये जाने से क्यालाभ ? स्वार्थस्याकोविदं धिड्मां मूर्ख पण्डितमानिनम् ।योहमीश्वरतां प्राप्य स्रीभि्गोखरवज्जित: ॥
१३॥
स्व-अर्थस्य--अपना हित; अकोविदम्--न जानने वाला; धिक्-धिक्कार है; माम्--मुझसे; मूर्खम्--मूर्ख; पण्डित-मानिनम्--अपने को बड़ा भारी विद्वान मानते हुए; य:ः--जो; अहम्--मै; ईश्वरताम्-- प्रभुता का पद; प्राप्प--पाकर; स्त्रीभि:--स्त्रियोंद्वारा; गो-खर-वत्--बैलों या गधे जैसा; जितः--जीता गया।
धिक्कार है मुझे! मै इतना बड़ा मूर्ख हूँ कि मैने यह भी नहीं जाना कि मेरे लिए कया अच्छा है।मैने तो उद्धत भाव से यह सोचा था कि मै अत्यधिक बुद्धिमान हूँ। यद्यपि मुझे स्वामी का उच्चपद प्राप्त हो गया, किन्तु मै स्त्रियों से अपने को परास्त करवाता रहा मानो मै कोई बैल या गधाहोऊँ।
सेवतो वर्षपूगान्मे उर्वश्या अधरासवम् ।न तृप्यत्यात्म भू: कामो वह्विराहुतिभिर्यथा ॥
१४॥
सेवत:--सेवा करता हुआ; वर्ष-पूगान्--अनेक वर्षो तक; मे--मेरा; उर्वश्या: --उर्वशी का; अधर--होठों का; आसवम्--अमृत; न तृप्यति--तृप्त नहीं होता; आत्म-भू:--मन से उत्पन्न; काम:--काम-वासना; वह्विः--आग; आहुतिभि:--आहुतियोंसे; यथा--तिस तरह
यद्यपि मै उर्वशी के होठों के तथाकथित अमृत का सेवन वर्षों तक कर चुका था किन्तु मेरीकाम-वासनाएँ मेरे हृदय में बारम्बार उठती रहीं और कभी तुष्ट नहीं हुईं जिस तरह घी की आहुतिडालने पर, अग्नि कभी भी बुझाई नहीं जा सकती।
पुंश्रल्यापहतं चित्तं को न्वन्यो मोचितु प्रभु: ।आत्मारामे श्वरमृते भगवन्तमधोक्षजम् ॥
१५॥
पुंश्वल्य--वेश्या द्वारा; अपहतम्--चुराया गया; चित्तमू--मन; कः--कौन; नु--निस्सन्देह; अन्य: --अन्य व्यक्ति; मोचितुम्--मुक्त करने के लिए; प्रभु;:--सक्षम; आत्म-आराम--आत्म-तुष्ट साधुओं का; ईश्वरम्-- भगवान्; ऋते--के अतिरिक्त;भगवन्तमू-- भगवान्; अधोक्षजम्--इन्द्रियों की परिधि से परे रहने वाला।
जो भौतिक अनुभूति के परे है और आत्माराम मुनियों के स्वामी है, उन भगवान् केअतिरिक्त मेरी इस चेतना को जो वेश्या के द्वारा चुराई जा चुकी है, भला और कौन बचा सकताहै? बोधितस्यापि देव्या मे सूक्तवाक्येन दुर्मते: ।मनोगतो महामोहो नापयात्यजितात्मन: ॥
१६॥
बोधितस्य--सूचना-प्राप्त; अपि-- भी; देव्या--देवी उर्वशी द्वारा; मे--मेरा; सु-उक्त--सुभाषित; वाक्येन--शब्दों द्वारा;दुर्मतेः--मन्द बुद्धि वाला; मन:ः-गत:--मन के भीतर; महा-मोह:--महान् संशय; न अपयाति--नहीं रूकता; अजित-आत्मन:--अपनी इन्द्रियों को वश में करने में असफल।
चूँकि मैने अपनी बुद्धि को मन्द बनने दिया और चूँकि मै अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं करसका, इसलिए मेरे मन का महान् मोह मिटा नहीं यद्यपि उर्वशी ने सुन्दर वचनों द्वारा मुझे अच्छीसलाह दी थी।
किमेतया नोपकृतं रज्वा वा सर्पचेतस: ।द्रष्ठ: स्वरूपाविदुषो योहं यदजितेन्द्रिय:ः ॥
१७॥
किम्--क्या; एतया--उसके द्वारा; न:--हमको; अपकृतम्-- अपराध हुआ; रज्वा--रस्सी द्वारा; वा--अथवा; सर्प-चेतस: --सर्प मानते हुए; द्रष्ट:--ऐसे दर्शन का; स्वरूप--असली पहचान; अविदुष:--न समझने वाला; यः--जो; अहम्--मै; यत्--क्योंकि; अजित-इन्द्रियः--इन्द्रियों पर वश न पा सकने वाला
भला मै अपने कष्ट के लिए उसे कैसे दोष दे सकता हूँ जबकि मै स्वयं अपने असलीआध्यात्मिक स्वभाव से अपरिचित हूँ? मै अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं कर पाया, इसीलिए मैउस व्यक्ति की तरह हूँ जो निर्दोष रस्सी को भ्रमवश सर्प समझ बैठता है।
क्वायं मलीमस: कायो दौर्गन्ध्याद्यात्मकोडशुचि: ।व गुणा: सौमनस्याद्या ह्ाध्यासोविद्यया कृत: ॥
१८॥
क्व--कहाँ; अयम्--यह; मलीमस: --अत्यन्त गन्दा; काय:--शरीर; दौर्गनध्य--दुर्गन्ध; आदि--इत्यादि; आत्मक:--से युक्त;अशुचि:ः--अस्वच्छ; क्व--कहाँ; गुणा:--तथाकथित सद्गुण; सौमनस्थ--फूलों की सुगन्धि तथा कोमलता; आद्या:--इत्यादि; हि--निश्चय ही; अध्यास:--ऊपर से थोपे गये; अविद्यया--अज्ञान से; कृत:--उत्पन्न |
आखिर यह दूषित शरीर है क्या--इतना गन्दा तथा दुर्गन््ध से भरा हुआ? मै एक स्त्री केशरीर की सुगन्धि तथा सुन्दरता से आकृष्ट हुआ था किन्तु आखिर वे आकर्षक स्वरूप है क्या?वे माया ( मोह ) द्वारा उत्पन्न छद्ा आवरण ही तो है! पित्रो: किं स्वं नु भार्याया: स्वामिनोग्ने: श्रगृश्षयो: ।किमात्मन: कि सुहृदामिति यो नावसीयते ॥
१९॥
तस्मिन्कलेवरे*मेध्ये तुच्छनिष्ठे विषज्जते ।अहो सुभद्रं सुनसं सुस्मितं च मुखं स्त्रियः ॥
२०॥
पित्रो:--माता-पिता के; किम्ू--क्या; स्वम्--सम्पत्ति; नु--अथवा; भार्याया:--पत्नी का; स्वामिन:--मालिक का; अग्ने: --अग्नि का; श्व-गृश्नयो:--कुत्तों तथा सियारों का; किमू--क्या; आत्मन:--आत्मा का; किम्--क्या; सुहृदम्--मित्रों का;इति--इस प्रकार; यः--जो; न अवसीयते--निश्चित नहीं कर सकता; तस्मिन्ू--उस; कलेवरे--शरीर में; अमेध्ये --गर्हित;तुच्छ-निष्ठे--अधम स्थान की ओर बढ़ते हुए; विषज्ञते--अनुरक्त हो जाता है; अहो--ओह; सु-भद्रमू--अत्यन्त आकर्षक; सु-नसम्--सुन्दर नाक वाली; सु-स्मितमू--सुन्दर हँसी; च--तथा; मुखम्--मुख; स्त्रियः--स्त्री का
कोई यह निश्चित नहीं कर सकता है कि शरीर वास्तव में किसकी सम्पत्ति है। क्या यह उसमाता-पिता की है, जिसने उसे जन्म दिया है, अथवा इसे सुख देने वाली पत्नी की है या इसकेमालिक की है, जो शरीर को हुक्म देता रहता है ? अथवा यह चिता की अग्नि की अथवा उनकुत्ते तथा सियारों की है, जो अन्ततोगत्वा इसका भक्षण करेंगे ? क्या यह उस अन्तस्थ आत्मा कीसम्पत्ति है, जो इसके सुख-दुख में साथ देता है अथवा यह शरीर उन घनिष्ठ मित्रों का है, जोइसको प्रोत्साहित करते तथा इसकी सहायता करते है? यद्यपि मनुष्य कभी भी शरीर के स्वामीको निश्चित नहीं कर पाता, किन्तु वह इससे अनुरक्त रहता है। यह भौतिक शरीर उस दूषित पदार्थके समान है, जो निम्न स्थान की ओर बढ़ रहा है; फिर भी जब मनुष्य किसी स्त्री के मुख कीओर टकटकी लगाता है, तो सोचता है, 'कितनी सुन्दर है यह स्त्री ? कैसी सुघड़ नाक है इसकीऔर जरा इसकी सुन्दर हँसी को तो देखो।
त्वड्मांसरुधिरस्नायुमेदोमज्जास्थिसंहतौ ।विप्मूत्रपूये रमतां कृमीणां कियदन्तरम् ॥
२१॥
त्वक््--चमड़ी से; मांस--मांस; रुधिर--खून; स्नायु--पेशी; मेद: --चर्बी; मज्जा --मज्जा; अस्थि--तथा हड्डी; संहतौ--बनाहुआ; विट्ू--मल; मूत्र--मूत्र; पूपे--तथा पीब का; रमताम्--रमण करता हुआ; कृमीणाम्--कीड़े-मकोड़ों के तुल्य;कियत्--कितना; अन्तरम्--अन्तर।
सामान्य कीड़ों-मकोड़ों तथा उन व्यक्तियों में अन्तर ही क्या है, जो चमड़ी, मांस, रक्त,पेशी, चर्बी, मज्जा, हड्डी, मल, मूत्र तथा पीब से बने इस भौतिक शरीर का भोग करना चाहतेहै? अथापि नोपसजेत स्त्रीषु स्त्रेणेषु चार्थवित् ।विषयेन्द्रियसंयोगान्मन:ः क्षुभ्यति नान््यथा ॥
२२॥
अथ अपि--इतने पर भी; न उपसज्जेत--सम्पर्क रखे; स्त्रीषु--स्त्रियों से; स्त्रणेषु--स्त्रियों पर अनुरक्त व्यक्तियों से; च--अथवा;अर्थ-वित्--अपना हित जानने वाला; विषय--भोग की वस्तु के; इन्द्रिय--इन्द्रियों के; संयोगात्--सम्बन्ध से; मनः--मन;क्षुभ्यति-- क्षुब्ध होता है; न--नहीं; अन्यथा-- अन्यथा |
सिद्धान्त रूप में शरीर की वास्तविक प्रकृति को जानने पर भी व्यक्ति को कभी भी स्त्रियोंया स्त्रियों में लिप्त रहने वाले पुरुषों की संगति नहीं करनी चाहिए। आखिर, इन्द्रियों का उनकेविषयों से सम्पर्क अनिवार्य रूप से मन को विचलित कर देता है।
अद्ष्टादश्रुताद्धावान्न भाव उपजायते ।असम्प्रयुज्धतः प्राणान्शाम्यति स्तिमितं मन: ॥
२३॥
अदृष्टातू--अनदेखा; अश्रुतात्--अनसुना; भावात्--वस्तु से; न--नहीं; भाव:--मानसिक क्षोभ; उपजायते--उत्पन्न होते है;असप्प्रयुज्तः--उसके लिए जो प्रयोग में नहीं ला रहा; प्राणान्--इन्द्रियों को; शाम्यति--शान्त हो जाता है; स्तिमितम्--नियंत्रित; मन:ः--मन |
चूँकि मन ऐसी वस्तु से क्षुब्ध नहीं होता जो न तो देखी गई हो, न सुनी गई हो, इसलिए ऐसेव्यक्ति का मन, जो अपनी इन्द्रियों को रोकता है, स्वतः अपने भौतिक कर्मों को करने से रोकदिया जायेगा और शान्त हो जायेगा।
तस्मात्सड़े न कर्तव्य: स्त्रीषु स्त्रेणेषु चेन्द्रिये: ।विदुषां चाप्यविस्त्रब्ध: षड्वर्ग: किमु माहशाम् ॥
२४॥
तस्मात्--इसलिए; सड्भः--संगति; न कर्तव्य:--नहीं करे; स्त्रीषु-- स्त्रियों की; स्त्रैणेषु--स्त्रियों पर अनुरक्त रहने वाले पुरुषोंकी; च--तथा; इन्द्रियेः --इन्द्रियों से; विदुषाम्--बुद्ध्धिमान व्यक्तियों का; च अपि-- भी; अविस्त्रब्ध:--अविश्वसनीय; षटू-वर्ग:--मन के छः शत्रु ( काम, क्रोध, लोभ, मोह, नशा तथा ईर्ष्या); किम् उ--क्या कहा जाय; माहशाम्--मुझ जैसे व्यक्तियोंका
इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी इन्द्रियों को स्त्रियों की या स्त्रियों के प्रति आसक्तपुरुषों की खुल कर संगति न करने दे। यहाँ तक कि जो अत्यधिक विद्वान है वे मन के छहशत्रुओं पर विश्वास नहीं कर सकते, तो फिर मुझ जैसे मूर्ख व्यक्तियों के बारे में क्या कहा जाय ? श्रीभगवानुवाचएवं प्रगायन्नूपदेवदेव:स उर्वशीलोकमथो विहाय ।आत्मानमात्मन्यवगम्य मां वेउपारमज्ज्ञाअनविधूतमोह: ॥
२५॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; एवम्--इस तरह; प्रगायन्--गाते हुए; नृप--मनुष्यों; देब--तथा देवताओं में; देव: --जो प्रसिद्ध था; सः--वह, राजा पुरूरवा; उर्वशी-लोकम्--उर्वशी का लोक, गन्धर्व लोक; अथ उ--तब; विहाय--छोड़ कर;आत्मानम्--परमात्मा; आत्मनि--अपने हृदय में; अवगम्य-- अनुभव करके; माम्--मुझको; बै--निस्सन्देह; उपारमत्--शान्तहो गया; ज्ञान--दिव्य ज्ञान से; विधूत--हटा दिया; मोह:--मोह
भगवान् ने कहा : इस प्रकार यह गीत गाकर देवताओं तथा मनुष्यों में विख्यात महाराजपुरूरवा ने वह पद त्याग दिया जिसे उसने उर्वशी लोक में प्राप्त कर लिया था।दिव्य ज्ञान से उसका मोह हट गया; उसने अपने हृदय में मुझे परमात्मा रूप में समझ लिया जिससे अन्त में उसेशान्ति मिल गई।
ततो दु:सड्डमुत्सृज्य सत्सु सज्जेत बुद्धिमान् ।सन्त एवास्य छिन्दन्ति मनोव्यासड्रमुक्तिभि: ॥
२६॥
ततः--इसलिए; दुःसड्रम्--बुरी संगति; उत्सुज्य--फेंक कर; सत्सु--सन्त भक्तों को; सज्जेत--लिप्त हो जाता है; बुद्धि-मन्--बुद्धिमान; सन््तः--सन्त पुरुष; एब--एकमात्र; अस्य--उसका; छिन्दन्ति--काट देते है; मन:--मन का; व्यासड्रमू--अत्यधिकआसक्ति; उक्तिभि:ः--उनके शब्दों से |
इसलिए बुद्धिमान मनुष्य को सारी कुसंगति त्याग देनी चाहिए और सन्त भक्तों की संगतिग्रहण करनी चाहिए जिनके शब्दों से मन का अति-अनुराग समाप्त हो जाता है।
सन््तोनपेक्षा मच्चित्ता: प्रशान्ताः समदर्शिनः ।निर्ममा निरहड्डारा निद्व॑न्द्वा निष्परिग्रहा: ॥
२७॥
सनन््तः--सन्त भक्त; अनपेक्षा:--किसी भौतिक वस्तु पर आश्रित न रह कर; मत्ू-चित्ता:--जिन्होंने मुझ पर अपना मन स्थिर कररखा है; प्रशान्ता:--पूर्णतया शान्त; सम-दर्शिन:--समान दृष्टि से युक्त; निर्ममा:--ममत्व से रहित; निरहड्डारा: --मिथ्या अहंकारसे मुक्त; निद्वन्द्वा:--समस्त द्वैतों से मुक्त; निष्परिग्रहा:--लोभ से मुक्त |
मेरे भक्त अपने मनों को मुझ पर स्थिर करते हैं और किसी भी भौतिक वस्तु पर निर्भर नहींरहते। वे सदैव शान्त, समहृष्टि से युक्त तथा ममत्व, अहंकार, द्वन्द्द तथा लोभ से रहित होते हैं।
तेषु नित्यं महाभाग महाभागेषु मत्कथा: ।सम्भवन्ति हि ता नृणां जुषतां प्रपुनन्त्यघम् ॥
२८॥
तेषु--उनमें से; नित्यम्--निरन्तर; महा-भाग--हे भाग्यवान उद्धव; महा-भागेषु-- भाग्यशाली भक्तों में से; मत्-कथा: --मेरीकथाएँ; सम्भवन्ति--उत्पन्न होती हैं; हि--निस्सन्देह; ताः--वे कथाएँ; नृणाम्--मनुष्योंकी; जुषताम्--उनमें भाग लेने वाले;प्रपुनन्ति--पूरी तरह शुद्ध करते हैं; अघम्--पापों को
हे महाभागा उद्धव, ऐसे सन्त भक्तों की संगति में सदा मेरी चर्चा चलती रहती है और जोलोग मेरी महिमा के इस कीर्तन तथा श्रवण में भाग लेते हैं, वे निश्चित रूप से सारे पापों से शुद्धहो जाते हैं।
ता ये श्रुण्वन्ति गायन्ति हानुमोदन्ति चाहता: ।मत्पराः श्रद्धानाश्व भक्ति विन्दन्ति ते मयि ॥
२९॥
ताः--वे कथाएँ; ये--जो व्यक्ति; श्रृण्वन्ति--सुनते हैं; गायन्ति--कीर्तन करते हैं; हि--निस्सन्देह; अनुमोदन्ति-- आत्मसातकरते हैं; च--तथा; आहता:--आदर पूर्वक; मत्-परा:--मेरे परायण; अ्रदधाना:-- श्रद्धालु; च--तथा; भक्तिमू-- भक्ति;विन्दन्ति--प्राप्त करते हैं; ते--वे; मयि--मेंरे लिए।जो कोई मेरी इन कथाओं को सुनता है, कीर्तन करता है और आदरपूर्वक आत्मसात् करताहै, वह श्रद्धापूर्वक मेरे परायण हो जाता है और इस तरह मेरी भक्ति प्राप्त करता है।
भक्ति लब्धवतः साधो: किमन्यदवशिष्यते ।मय्यनन्तगुणे ब्रह्मण्यानन्दानुभवात्मनि ॥
३०॥
भक्तिमू-- भगवान् की भक्ति; लब्धवतः --प्राप्त कर लेने वाले; साधो:--भक्त के लिए; किम्--क्या; अन्यत्-- अन्य कुछ;अवशिष्यते--शेष रह जाता है; मयि--मुझमें; अनन्त-गुणे-- अनन्त गुणों वाला; ब्रह्मणि--परब्रह्म में; आनन्द-- आनन्द का;अनुभव--अनुभव; आत्मनि--से युक्त |
पूर्ण भक्त के लिए मुझ परब्रह्म की भक्ति प्राप्त कर लेने के बाद, करने के लिए बचता हीक्या है? परब्रह्म के गुण असंख्य हैं और मैं साक्षात् आनन्दमय अनुभव हूँ।
यथोपश्रयमाणस्य भगवन्तं विभावसुम् ।शीतं भय तमोउप्येति साधून्संसेवतस्तथा ॥
३१॥
यथा--जिस तरह; उपश्रयमाणस्य--पास आने वाले का; भगवन्तम्--शक्तिमान; विभावसुम्-- अग्नि; शीतम्--शीत; भयम्--डर; तमः--अंधकार; अप्येति--हट जाते हैं; साधूनू--साधु भक्त; संसेवत:ः--सेवा में लगे रहने वाले के लिए; तथा--उसीप्रकार।
जो व्यक्ति यज्ञ-अग्नि के पास पहुँच चुका हो, उसके लिए जिस तरह शीत, भय तथाअंधकार दूर हो जाते हैं, उसी तरह जो व्यक्ति भगवान् के भक्तों की सेवा में लगा रहता है उसकाआलस्य, भय तथा अज्ञान दूर हो जाता है।
निमज्योन्मज्जतां घोरे भवाब्धौ परमायणम् ।सनन््तो ब्रह्मविदः शान्ता नौर्ईढेवाप्सु मज्जताम् ॥
३२॥
निमज्य--डूबने वालों का; उन्मजताम्--तथा फिर से ऊपर उठने वालों का; घोरे--घोर, कठिन; भव--सांसारिक जीवन के;अब्धौ--सागर में; परम--परम; अयनम्--शरण; सनन््त:--सन््त भक्तगण; ब्रह्म-विद:--परब्रह्म को समझने वाले; शान्ता: --शान्त; नौ;:--नाव; हृढा--मजबूत; इब--जिस तरह; अप्सु--जल में; मजजताम्--डूबने वालों को
भगवान् के भक्त, जो कि परम ज्ञान को शान्त भाव से प्राप्त हैं, उन लोगों के लिए चरमशरण हैं, जो भौतिक जीवन के भयावने सागर में बारम्बार डूबते तथा उठते हैं। ऐसे भक्त उसमजबूत नाव के सहश होते हैं, तो डूब रहे व्यक्तियों की रक्षा करती है।
अन्नं हि प्राणिनां प्राण आर्तानां शरणं त्वहम् ।धर्मो वित्तं नृणां प्रेत्य सन्तोर्वाग्बिभ्यतोरणम् ॥
३३॥
अन्नमू-- भोजन; हि--निस्सन्देह; प्राणिनाम्ू--जीवों का; प्राण: --प्राण; आर्तानाम्ू--दुखियों का; शरणम्--आश्रय; तु--तथा; अहम्--मैं; धर्म:--धर्म; वित्तम्--सम्पत्ति; नृणाम्--मनुष्यों का; प्रेत्य--मरने के बाद; सन््तः--भक्तगण; अर्वाक्--नीचेजाने वालों का; बिभ्यत:--डरने वालों के लिए; अरणम्--शरण
जिस तरह समस्त प्राणियों के लिए भोजन ही जीवन है, जिस तरह मैं दुखियारों का परमआश्रय हूँ तथा जिस तरह इस लोक से मर कर जाने वालों के लिए धर्म ही सम्पत्ति है, उसी तरहमेरे भक्त उन लोगों के एकमात्र आश्रय हैं, जो जीवन की दुखमय अवस्था में पड़ने से डरते रहतेहैं।
सन््तो दिशन्ति चक्षूंसि बहिरकक: समुत्थितः ।देवता बान्धवा: सन्त: सन्त आत्माहमेव च ॥
३४॥
सनन््तः--भक्तगण; दिशन्ति--प्रदान करते हैं; चक्षूंषि--आँखें; बहि:--बाहरी; अर्क:ः--सूर्य ; समुत्थित:ः --पूरी तरह उदय हुआ;देवता:--पूज्य देव; बान्धवा:--सम्बन्धीजन; सन््तः--भक्तगण; सन्तः--भक्तगण; आत्मा--आत्मा; अहम्--मैं; एव च-- भी ।
मेरे भक्तगण दैवी आँखें प्रदान करते हैं जबकि सूर्य केवल बाह्य दृष्टि प्रदान करता है औरवह भी तब जब वह आकाश में उदय हुआ रहता है। मेरे भक्तगण ही मनुष्य के पूज्य देव तथाअसली परिवार हैं; वे स्वयं ही आत्मा हैं और वे मुझसे अभिन्न हैं।
बैतसेनस्ततोप्येवमुर्वश्या लोकनिष्पृह: ।मुक्तसड्री महीमेतामात्मारामश्चचार ह ॥
३५॥
वैतसेन:--राजा पुरूरवा; ततः अपि--इसी कारण से; एवम्--इस प्रकार; उर्वश्या:--उर्वशी का; लोक--उसी लोक में होने;निष्पृह:--इच्छा से रहित; मुक्त--मुक्त; सड्र:--सारी भौतिक संगति से; महीम्--पृथ्वी; एतामू--इस; आत्म-आराम:--आत्मतुष्ट; चचार--विचरण करने लगा; ह--निस्सन्देह
इस तरह उर्वशी के लोक में रहने की अपनी इच्छा त्याग कर महाराज पुरूरवा समस्तभौतिक संगति से मुक्त होकर तथा अपने भीतर पूरी तरह तुष्ट होकर पृथ्वी पर विचरण करनेलगे।
27. देवता पूजा की प्रक्रिया पर कृष्ण के निर्देश
शाश्रीउद्धव उवाचक्रियायोगं समाचक्ष्व भवदाराधन प्रभो ।यस्मात्त्वां ये यथार्चन्ति सात्वता: सात्वतर्षभ ॥
१॥
श्री-उद्धवः उबाच--श्री उद्धव ने कहा; क्रिया-योगम्--संस्तुत क्रिया-विधि; समाचक्ष्व--बतलाइये; भवत्--आपकी;आराधनम्--अर्चाविग्रह पूजा; प्रभो--हे प्रभु; यस्मात्ू--किस रूप पर आधारित; त्वाम्--तुमको; ये--जो; यथा--जिस भाँतिसे; अर्चन्ति--पूजते हैं; सात्वता:-- भक्तगण; सात्वत-ऋषभ--हे भक्तों के स्वामी |
श्री उद्धव ने कहा : हे प्रभु, हे भक्तों के स्वामी, आप कृपा करके मुझे अपने अर्चाविग्रहरूप में अपनी पूजा की नियत विधि बतलायें। अर्चाविग्रह की पूजा करने वाले भक्तों की क्याक्षमताएँ होती हैं? ऐसी पूजा किस आधार पर स्थापित है? तथा पूजा की विशिष्ट विधि कया है ? शाएतद्ठदन्ति मुनयो मुहुर्नि: श्रेयसं नृणाम् ।नारदो भगवान्व्यास आचार्योउड्डिस्स: सुतः ॥
२॥
एतत्--यह; वदन्ति--कहते हैं; मुन॒यः--मुनिजन; मुहुः--बारम्बार; नि: श्रेयसम्--जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य; नृणाम्--मनुष्योंके लिए; नारद:--नारद मुनि; भगवान् व्यास:-- श्रील व्यासदेव; आचार्य: --मेरे गुरु; अद्धिरसः--अंगिरा का; सुतः--पुत्र |
सारे मुनि बारम्बार घोषित करते हैं कि ऐसी पूजा से मनुष्य जीवन में बड़े-से-बड़ा सम्भवलाभ मिलता है। नारद मुनि, महान् व्यासदेव तथा मेरे अपने गुरु बृहस्पति का यही मत है।
निःसूतं ते मुखाम्भोजाद्ददाह भगवानज: ।पुत्रे भ्यो भृगुमुख्येभ्यो देव्ये च भगवान्भव: ॥
३॥
एतद्ठे सर्ववर्णानामा श्रमाणां च सम्मतम् ।श्रेयसामुत्तमं मन्ये स्त्रीशूद्राणां च मानद ॥
४॥
निःसृतम्--निकला; ते--आपके; मुख-अम्भोजात्--कमल-मुख से; यत्--जो; आह--कहा; भगवान्--महान् स्वामी;अजः--स्वतःजन्मे ब्रह्म; पुत्रेभ्य: --अपने पुत्रों द्वारा; भृगु-मुख्येभ्य:-- भूगु आदि; देव्यै--देवी पार्वती से; च--तथा; भगवान्भव:--शिवजी ने; एतत्--यह ( पूजा-विधि ); बै--निस्सन्देह; सर्व-वर्णानामू--सारे वर्णों; आश्रमाणाम्--तथा आश्रमों द्वारा;च--भी; सम्मतम्--स्वीकृत; श्रेयसाम्--जीवन में विभिन्न लाभों का; उत्तमम्--सर्व श्रेष्ठ; मन्ये--मैं मानता हूँ; स्त्री--स्त्रियों केलिए; शूद्राणामू--तथा निम्न श्रेणी के श्रमिकों के लिए; च--भी; मान-द--हे वदान्य प्रभु
हे वदान्य प्रभु, अर्चाविग्रह की इस पूजा-विधि के आदेश सर्वप्रथम आपने अपने कमलमुखसे दिये। तब ब्रह्माजी ने इन्हें भूगु इत्यादि अपने पुत्रों को दिया और शिवजी ने अपनी पत्नीपार्वती को दिया। यह विधि सभी वर्णों तथा आश्रमों द्वारा स्वीकार की जाती है और उनकेउपयुक्त है। इसलिए मैं अर्चाविग्रह के रूप में आपकी पूजा को, स्त्रियों तथा शूद्रों तक के लिएसमस्त आध्यात्मिक अभ्यासों में अत्यन्त लाभप्रद मानता हूँ।
एतत्कमलपत्राक्ष कर्मबन्धविमोचनम् ।भक्ताय चानुरक्ताय ब्रूहि विश्वेश्वेेश्वर ॥
५॥
शाएतत्--यह; कमल-पत्र-अक्ष--हे कमलनयन प्रभु; कर्म-बन्ध-- भौतिक कार्य के बन्धन से; विमोचनम्--मोक्ष का साधन;भक्ताय--आपके भक्तों से; अनुरक्ताय--अत्यन्त अनुरक्त; ब्रूहि--कृपया कहें; विश्व-ई श्वर--ब्रह्माण्ड के सारे प्रभुओं के;ईश्वर--हे परमेश्वर
है कमलनयन, हे ब्रह्माण्ड के सारे ईश्वरों के ईश्वर, कृपया अपने इस भक्त-दास को कर्म-बन्धन से मोक्ष का साधन बतलायें।
श्रीभगवानुवाचन हान्तोनन्तपारस्य कर्मकाण्डस्य चोद्धव ।सद्क्षिप्तं वर्णयिष्यामि यथावदनुपूर्वश: ॥
६॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; न--नहीं है; हि--निस्सन्देह; अन्तः--छोर; अनन्त-पारस्य-- असीम का; कर्म-काण्डस्य--पूजा करने की वैदिक संस्तुतियाँ; च--तथा; उद्द्वव--हे उद्धव; सड्क्षिप्तम्--संक्षेप में; वर्णयिष्यामि--बतलाऊँगा;यथा-वत्--उपयुक्त ढंग से; अनुपूर्वश:--उपयुक्त क्रम से
भगवान् ने कहा : हे उद्धव, अर्चाविग्रह पूजा करने के लिए इतने वैदिक उपाय हैं कि उनकाकोई अन्त नहीं है; इसलिए मैं यह विषय तुम्हें संक्षेप में एक-एक करके बतलाऊँगा।
वैदिकस्तान्त्रिको मिश्र इति मे त्रिविधो मख: ।त्रयाणामीप्सितेनेव विधिना मां समर्चरेत् ॥
७॥
वैदिकः--चारों वेदों के अनुसार; तान्त्रिक:--व्यावहारिक व्याख्यात्मक ग्रंथों के अनुसार; मिश्र:--मिश्रित; इति--इस प्रकार;मे--मेरा; त्रि-विध:--तीन प्रकार के; मख:--यज्ञ; त्रयाणामू--तीनों के; ईप्सितेन--जो सर्वाधिक उपयुक्त जान पड़े, उससे;एव--निश्चय ही; विधिना--विधि से; माम्--मुझको; समर्चरित्ू--ठीक से पूजे
मनुष्य को चाहिए कि वैदिक, तांत्रिक अथवा मिश्रित, इन तीन विधियों में से, जिनसे मैं यज्ञप्राप्त करता हूँ, किसी एक को चुन कर सावधानीपूर्वक मेरी पूजा करे।
शायदा स्वनिगमेनोक्तं द्विजत्व॑ प्राप्य पूरूष: ।यथा यजेत मां भक्त्या श्रद्धया तन्निबोध मे ॥
८॥
यदा--जब; स्व--अपनी योग्यता के अनुसार; निगमेन--वेदों के द्वारा; उक्तम्--आदेश दिया गया; द्विजत्वम्-द्विज बनने कापद; प्राप्प--प्राप्त करके ; पूरुष: --व्यक्ति; यथा--जिस तरह; यजेत--पूजा करे; माम्--मुझको; भक्त्या--भक्ति से;श्रद्धया-- श्रद्धा से; तत्ू--वह; निबोध--कृपया सुनें; मे--मुझसे |
अब तुम श्रद्धापूर्वक सुनो क्योंकि मैं बतला रहा हूँ कि किस तरह द्विज पद को प्राप्त व्यक्तिसंबद्ध वैदिक संस्तुतियों द्वारा भक्तिपूर्वक मेरी पूजा करे।
अर्चायां स्थण्डिलेः्ग्नौ वा सूर्य वाप्सु हृदि द्विज: ।द्रव्येण भक्तियुक्तोर्चेत्स्वगुरु माममायया ॥
९॥
अर्चायाम्ू--अर्चाविग्रह के रूप में भीतर; स्थण्डिले--पृथ्वी पर; अग्नौ--अग्नि में; वा--अथवा; सूर्य --सूर्य में; वा--अथवा;अप्सु--जल में; हृदि--हृदय में; द्विज:--ब्राह्मण; द्रव्येण--विविध साज-सामग्री से; भक्ति-युक्त:--भक्ति से युक्त; अर्चेत्--पूजा करे; स्व-गुरुमू--अपने आराध्य स्वामी की; माम्--मुझको; अमायया--किसी संशय से रहित होकर।
द्विज को चाहिए कि वह अपने आराध्य देव मुझको बिना द्वैत के मेरे अर्चाविग्रह पर प्रेममयीभक्ति के साथ उपयुक्त साज-सामग्री प्रदान करके पूजे अथवा पृथ्वी पर, अग्नि में, सूर्य में, जल शामें या पूजक के ही हृदय में प्रकट होने वाले मेरे रूप को पूजे।
पूर्व स्नान॑ प्रकुर्वीत धौतदन्तोड्रशुद्धये ।उभयैरपि च स्नान मन्त्रैरम॑द्ग्रहणादिना ॥
१०॥
पूर्वमू--पहले; स्नानम्ू--स्नान; प्रकुर्वीत--सम्पन्न करे; धौत--धोकर; दन्तः--दाँत; अड़--शरीर की; शुद्धये --शुद्धि केलिए; उभयै: --दोनों प्रकार की; अपि च--भी; स्नानमू--स्नान; मन्त्रै:--मंत्रों से; मृत्-ग्रहण-आदिना--मिट्टी इत्यादि पोतकरा
मनुष्य को चाहिए कि पहले वह अपने दाँत साफ करके तथा स्नान करके अपना शरीर शुद्धबनाये। तत्पश्चात् वह शरीर को मिट्टी से मल कर तथा वैदिक एवं तांत्रिक मंत्रों के उच्चारण द्वारादुबारा शुद्ध करे।
सन्ध्योपास्त्यादिकर्माणि वेदेनाचोदितानि मे ।पूजां तैः कल्पयेत्सम्यक्सड्डल्प: कर्मपावनीम् ॥
११॥
सन्ध्या--दिन की तीन सन्धियों ( प्रातः, दोपहर तथा सूर्यास्त ) पर; उपास्ति--पूजा करे ( गायत्री मंत्र का उच्चारण करके );आदि--इत्यादि; कर्माणि--नियत कार्य; वेदेन--वेदों द्वारा; आचोदितानि--संस्तुत; मे--मेरी; पूजाम्--पूजा; तैः--इन कार्योंसे; कल्पयेत्--सम्पन्न करे; सम्यक्-सड्डूल्प:--हढ़ संकल्प वाला; कर्म--कर्मफल; पावनीम्--समूल नष्ट कर देने वाला।
मनुष्य को चाहिए कि वह मन को मुझ पर स्थिर करके, अपने विविध नियत कार्यो द्वारा,यथा दिन में तीन संधियों पर गायत्री मंत्र का उच्चारण करके, मेरी पूजा करे। वेदों द्वारा ऐसेकार्यों का आदेश है और इनसे पूजा करने वाला अपने कर्मफलों से शुद्ध हो जाता है।
शैली दारुमयी लौही लेप्या लेख्या च सैकती ।मनोमयी मणिमयी प्रतिमाष्टविधा स्मृता ॥
१२॥
शैली--पत्थर की बनी; दारु-मयी--काष्ठ की बनी; लौही--धातु की बनी; लेप्या--मिट्टी, चन्दन आदि से बना; लेख्या--चित्रित; च--तथा; सैकती-- बालू की बनी; मन:ः-मयी--मन में विचारी गई; मणि-मयी--मणियों से बनी; प्रतिमा--अर्चाविग्रह; अष्ट-विधा--आठ प्रकार की; स्मृता--ऐसा स्मरण किया जाता है।
भगवान् के अर्चाविग्रह रूप का आठ प्रकारों में--पत्थर, काष्ठ, धातु, मिट्टी, चित्र, बालू,मन या रत्न में-- प्रकट होना बतलाया जाता है।
शाचलाचलेति द्विविधा प्रतिष्ठा जीवमन्दिरम् ।उद्वासावाहने न स्तः स्थिरायामुद्धवार्चने ॥
१३॥
चला--चल; अचला--अचल; इति--इस प्रकार; द्वि-विधा--दो प्रकार की; प्रतिष्टा--स्थापना; जीव-मन्दिरम्--समस्त जीवोंके आश्रय अर्चाविग्रह का; उद्बास--विसर्जन; आवाहने--तथा आवाहन; न स्तः--नहीं हैं; स्थिरायाम्--स्थायी रूप से स्थापितअर्चाविग्रह के लिए; उद्धव--हे उद्धव; अर्चने--पूजा में |
समस्त जीवों के शरण रूप भगवान् का अर्चाविग्रह दो प्रकारों से स्थापित किया जा सकताहै--अस्थायी रूप से अथवा स्थायी रूप से। किन्तु हे उद्धव, स्थायी अर्चाविग्रह का आवाहन होचुकने पर उसका विसर्जन नहीं किया जा सकता।
अस्थिरायां विकल्प: स्यात्स्थण्डिले तु भवेद्द्वयम् ।स्नपनं त्वविलेप्यायामन्यत्र परिमार्जनमम् ॥
१४॥
अस्थिरायाम्--अस्थायी अर्चाविग्रह के प्रसंग में; विकल्प: --विकल्प ( कि अर्चाविग्रह का आवाहन करना तथा विसर्जन करनाहै ); स्थातू-है; स्थण्डिले-- भूमि पर बने अर्चाविग्रह के प्रसंग में; तु--लेकिन; भवेत्--होते हैं; द्ृयम्--ये दो अनुष्ठान;स्नपनम्--स्नान; तु--लेकिन; अविलेप्यायाम्--जब अर्चाविग्रह मिट्टी ( चित्र या काष्ठ ) से नहीं बनाया जाता; अन्यत्र--अन्यदशाओं में; परिमार्जनम्--पूर्ण सफाई किन्तु जल के बिना।
जो अर्चाविग्रह अस्थायी रूप से स्थापित किया जाता है उसका आवाहन और विसर्जन शाविकल्प रूप में किया जा सकता है किन्तु ये दोनों अनुष्ठान तब अवश्य करने चाहिए जबअर्चाविग्रह को भूमि पर अंकित किया गया हो। अर्चाविग्रह को जल से स्नान कराना चाहिएयदि वह मिट्टी, रंजक या काष्ट से न बनाया गया हो। ऐसा होने पर जल के बिना ही ठीक सेसफाई करनी चाहिए।
द्रव्यै: प्रसिद्धैर्मनझाग: प्रतिमादिष्वमायिनः ।शाभक्तस्य च यथालब्धईदि भावेन चैव हि ॥
१५॥
द्ब्यै:--साज-सामग्री से; प्रसिद्धैः--सर्वोत्तम; मत्-याग:--मेरी पूजा; प्रतिमा-आदिषु--विभिन्न अर्चाविग्रह रूपों में;अमायिन:--इच्छारहित; भक्तस्य-- भक्त का; च--तथा; यथा-लब्धे: --जो भी साज-सामग्री सरलता से प्राप्त की जा सकती है;हृदि--हृदय में; भावेन--मानसिक संकल्पना द्वारा; च--तथा; एव हि--निश्चय ही मनुष्य को चाहिए कि उत्तम से उत्तम साज-सामग्री भेंट करके मेरे अर्चाविग्रह रूप में मेरीपूजा करे।
किन्तु भौतिक इच्छा से पूर्णतया मुक्त भक्त मेरी पूजा, जो भी वस्तु मिल सके उसी सेकरे, यहाँ तक कि वह अपने हृदय के भीतर मानसिक साज-सामग्री से भी मेरी पूजा कर सकताहै।
स्नानालड्डूरणं प्रेष्ठमर्चायामेव तूद्धव ।स्थण्डिले तत्त्वविन्यासो वह्लावाज्यप्लुतं हवि: ॥
१६॥
सूर्य चाभ्यईएं प्रेष्ठं सलिले सलिलादिभि: ।श्रद्धयोपाहत प्रेष्ठ भक्तेन मम वार्यपि ॥
१७॥
स्नान--स्नान; अलड्डरणम्--तथा वस्त्रों एवं गहनों से सजाना; प्रेष्ठम्--पसन्द किया जाता है; अर्चायाम्--अर्चाविग्रह रूप केलिए; एब--निश्चय ही; तु--तथा; उद्धव--हे उद्धव; स्थण्डिले--भूमि पर अंकित अर्चाविग्रह केलिए; तत्त्व-विन्यास: --मंत्रोच्चार द्वारा अर्चाविग्रह के विविध अंगों के भीतर भगवान् के अंशों तथा शक्तियों की स्थापना; बह्नौ--यज्ञ की अग्नि केलिए; आज्य--घी में; प्लुतम्--डूबा; हवि:--तिल, जौ, गुड़ आदि की आहुति; सूर्य--सूर्य के लिए; च--तथा; अभ्यहणम्--बारह आसनों का योग-ध्यान तथा अर्ध्य दान; प्रेष्ठमू-- अत्यन्त प्रिय; सलिले--जल के लिए; सलिल-आदिभि: --जल इत्यादिकी भेंटों से; श्रद्धया--श्रद्धा के साथ; उपाहृतम्--भेंट किया; प्रेष्ठम्-- अत्यन्त प्रिय; भक्तेन--भक्त द्वारा; मम--मेरा; वारि--जल; अपि--भी |शा
हे उद्धव, मन्दिर के अर्चाविग्रह की पूजा में स्नान कराना तथा सजाना सर्वाधिक मनोहारीभेटें हैं। पवित्र भूमि पर अंकित अर्चाविग्रह के लिए तत्त्वविन्यास ही सर्वाधिक रुचिकर विधि है।तिल तथा जौ को घी में सिक्त करके जो आहुतियाँ दी जाती हैं, उन्हें यज्ञ की अग्नि भेंट सेअधिक अच्छा माना जाता है, जबकि उपस्थान तथा अर्घ्य से युक्त पूजा सूर्य के लिए अच्छी मानीजाती है। मनुष्य को चाहिए कि जल को ही अर्पित करके जल के रूप में मेरी पूजा करे। वस्तुतःमेरे भक्त द्वारा श्रद्धापूर्वक मुझे जो कुछ अर्पित किया जाता है--भले ही वह थोड़ा-सा जल हीक्यों न हो--मुझे अत्यन्त प्रिय है।
भूर्यप्यभक्तोपाहतं न मे तोषाय कल्पते ।गन्धो धूप: सुमनसो दीपोउच्नाद्यं च कि पुनः ॥
१८॥
भूरि--ऐश्वर्यववान; अपि-- भी; अभक्त--अभ क्त द्वारा; उपाहतम्-- भेंट किया; न--नहीं; मे--मेरा; तोषाय--सन्तोष; कल्पते--उत्पन्न करते हैं; गन्ध: --सुगन्धि; धूप:--धूप; सुमनस:--फूल; दीप:--दीपक; अन्न-आद्यमू-- भोजन सामग्री; च--तथा; किम्पुनः--क्या कहा जाय।
बड़ी से बड़ी ऐश्वर्यपूर्ण भेंट भी मुझे तुष्ट नहीं कर पाती यदि वे अभक्तों द्वारा प्रदान कीजायाँ। किन्तु मैं अपने प्रेमी भक्तों द्वारा प्रदत्त तुच्छ से तुच्छ भेंट से भी प्रसन्न हो जाता हूँ और जबसुगंधित तेल, अगुरु, फूल तथा स्वादिष्ट भोजन की उत्तम भेंट प्रेमपूर्वक चढ़ाई जाती हैं, तो मैंनिश्चय ही सर्वाधिक प्रसन्न होता हूँ।
शाशुचिः सम्भृतसम्भारः प्राग्दर्भ: कल्पितासन: ।आसीन: प्रागुदग्वार्चेदर्चायां त्वथ सम्मुख: ॥
१९॥
शुचिः--पवित्र; सम्भूत--एकत्र करके; सम्भार:--साज-सामग्री; प्राकु--उनके सिरे पूर्व की ओर निर्देशित; दर्भ:--कुश द्वारा;'कल्पित--व्यवस्थित करके; आसन:--अपने आसन पर; आसीन:--बैठा हुआ; प्राक्--पूर्वांभिमुख; उदक्--उत्तराभिमुख;वा--अथवा; अर्चेत्--पूजा करे; अर्चायाम्--अर्चाविग्रह का; तु--लेकिन; अथ--अथवा; सम्मुख:--सामने |
अपने को स्वच्छ करके तथा सारी सामग्री एकत्र करके पूजक को चाहिए कि अपना आसनपूर्वाभिमुख कुश से बनाये। तब वह पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके बैठे अन्यथा यदिअर्चाविग्रह किसी स्थान पर स्थिर है, तो अर्चाविग्रह के समक्ष बैठे।
कृतन्यासः कृतन्यासां मरदर्चा पाणिनामृजेतू ।कललशं प्रोक्षणीयं च यथावदुपसाधयेत् ॥
२०॥
कृत-न्यास:--अपने शरीर को पवित्र कर चुकने पर ( विभिन्न अंगों का स्पर्श करके तथा उपयुक्त मंत्रों का उच्चारण करकेभगवान् के संगत स्वरूप का ध्यान करते हुए ); कृत-न्यासाम्--जिस अर्चाविग्रह पर यही विधि अपनाई गई हो; मत्-अर्चाम्--मेरा अर्चाविग्रह रूप; पाणिना--हाथ से; आमृजेत्--साफ करे ( पुरानी भेंट के जूठन को हटाकर ); कलशम्--शुभ वस्तुओं सेभरे पात्र को; प्रोक्षणीयम्--छिड़कने के लिए जल से भरा पात्र; च--तथा; यथा-वत्--उपयुक्त रीति से; उपसाधयेत्--तैयारकरे
भक्त को चाहिए कि अपने शरीर के विभिन्न अंगों का स्पर्श करके तथा मंत्रोच्चारण करतेहुए उन्हें पवित्र बनाये। उसे मेरे अर्चाविग्रह रूप के साथ भी ऐसा ही करना चाहिए और तब उसे शाअपने हाथों से अर्चाविग्रह पर चढ़े पुराने फूलों तथा अन्य भेटों को हटाना चाहिए। उसे पवित्रकलश ( पात्र ) तथा छिड़कने के लिए जल से भरा पात्र भी उचित ढंग से तैयार करना चाहिए।
तदद्धिर्देवयजन द्रव्याण्यात्मानमेव च ।प्रोक्ष्य पात्राणि त्रीण्यद्धिस्तैस्तैद्रव्यै श्र साधयेत् ॥
२१॥
तत्--छिड़कने के उस पात्र के; अद्धिः--जल से; देव-यजनम्--स्थान जहाँ देवता की पूजा की जाती है; द्रव्याणि--साज-सामग्री; आत्मानम्--अपना शरीर; एव--निस्सन्देह; च--भी; प्रोक्ष्य--छिड़क कर; पात्राणि--पात्र, बर्तन; त्रीणि--तीन;अद्धिः--जल से; तैः तैः--जो उपलब्ध हों उन उनसे; द्र॒व्यैः--शुभ वस्तुओं से; च--तथा; साधयेत्--व्यवस्था करे।
तब उस प्रोक्षणीय पात्र से वह उस स्थान पर पानी छिड़के जहाँ अर्चाविग्रह की पूजा की जारही हो, जहाँ भेंटे चढ़ाई जानी हों तथा साथ ही अपने शरीर पर भी पानी छिड़के। तत्पश्चात् वहजल से भरे तीन पात्रों को विविध शुभ वस्तुओं से सजाये।
पाद्यार्ष्याचमनीयार्थ त्रीणि पात्राणि देशिक: ।हृदा शीर्ष्णाथ शिखया गायत्र्या चाभिमन्त्रयेत् ॥
२२॥
पाद्य--भगवान् के चरणों को पखारने के लिए जल; अर्ध्य--आदर-भाव से सत्कार हेतु भगवान् को अर्पित होने वाला जल;आचमनीय--तथा भगवान् का मुख धोने के लिए अर्पित किया गया जल; अर्थम्--के लिए रखा गया; त्रीणि--तीन;पात्राणि--पात्र; देशिक: --पूजा करने वाला; हृदा--हृदय मंत्र से; शीर्ष्णा--' सिर ' मंत्र से; अथ--तथा; शिखया--शिखामंत्र से; गायत्र्या--तथा गायत्री मंत्र से; च-- भी; अभिमन्त्रयेत्ू--उच्चारण करते हुए शुद्ध करे।
तब पूजा करने वाला इन तीनों पात्रों को शुद्ध करे। उसे चाहिए कि भगवान् के चरणपखारने के लिए जल वाले पात्र को हृदयाय नमः मंत्र से पवित्र करे; अर्घ्य के लिए जल-पात्र कोप्विससे स्वाह्म मंत्र से तथा भगवान् का मुख धोने वाले जल के पात्र को शिखाये वषद् मंत्र का शाउच्चारण करके पवित्र बनाये। साथ ही, इन तीनों पात्रों के लिए गायत्री मंत्र का भी उच्चारणकरे।
पिण्डे वाय्वग्निसंशुद्धे हृत्पदास्थां परां मम ।अण्वीं जीवकलां ध्यायेन्नादान्ते सिद्धभाविताम् ॥
२३॥
पिण्डे--शरीर के भीतर; वायु--वायु; अग्नि--तथा अग्नि द्वारा; संशुद्धे-पूर्णतया शुद्ध हुआ; हृत्ू--हदय के; पद्य--कमलपर; स्थाम्--स्थित; परामू--दिव्य रूप; मम--मेरा; अण्वीम्--अत्यन्त सूक्ष्म; जीव-कलाम्-- भगवान् जिनसे सारे जीव विस्तारपाते हैं; ध्यायेत्-- ध्यान करे; नाद-अन्ते-- ४ की ध्वनि के अन्त में; सिद्ध--सिद्ध मुनि; भावितामू-- अनुभवी |
पूजा करने वाले को चाहिए कि वह मेरे सूक्ष्म रूप को, जो अब वायु तथा अग्नि से पवित्रहुए पूजा करने वाले के शरीर के भीतर स्थित होता है, समस्त जीवों के स्त्रोत रूप में ध्यान करे।भगवान् का यह रूप पवित्र अक्षर की ध्वनि के अन्त में स्वरूपसिद्ध मुनियों द्वारा अनुभवकिया जाता है।
तयात्मभूतया पिण्डे व्याप्ते सम्पूज्य तन््मय: ।आवाह्यार्चादिषु स्थाप्य न्यस्ताडुं मां प्रपूजयेत् ॥
२४॥
तया--ध्यान किये गये स्वरूप द्वारा; आत्म-भूतया-- अपनी अनुभूति के अनुसार सोचा गया; पिण्डे-- भौतिक शरीर में;व्याप्ते--व्याप्त; सम्पूज्य--उस रूप की भलीभाँति पूजा करके; तत्-मयः--उसकी उपस्थिति से युक्त; आवाह्य--आवाहनकरके; अर्चा-आदिषु--पूजा किये जाने वाले विभिन्न अर्चाविग्रहों के भीतर; स्थाप्य--स्थापित करके; न्यस्त-अड्भम्--उपयुक्तमंत्रों का उच्चारण करते हुए अर्चाविग्रह के विविध अंगों को छूकर; माम्--मुझको; प्रपूजयेत्--पूजा करे
भक्त परमात्मा का ध्यान करता है, जिसकी उपस्थिति भक्त के शरीर को उसकी अनुभूति केअनुसार अधिक भर देती है। इस तरह भक्त अपनी सामर्थ्य-भर भगवान् की पूजा करता है औरउन्हीं में लीन हो जाता है। अर्चाविग्रह के विभिन्न अंगों का स्पर्श करके तथा उपयुक्त मंत्रोच्चारकरके भक्त को चाहिए कि वह परमात्मा को अर्चाविग्रह रूप में आने के लिए आमंत्रित करे औरतब वह मेरी पूजा करे।
शापाद्योपस्पर्शाईणादीनुपचारान्प्रकल्पयेत् ।धर्मादिभिश्व नवभि: कल्पयित्वासनं मम ॥
२५॥
पद्ममष्टदलं तत्र कर्णिकाकेसरोज्वलम् ।उभाभ्यां वेदतन्त्राभ्यां महं तूभयसिद्धये ॥
२६॥
पाद्य--भगवान् के चरण पखारने के लिए जल; उपस्पर्श--भगवान् का मुख धोने के लिए जल; अर्हण--अर्ध्य के रूप में भेंटकिया गया जल; आदीनू्--तथा अन्य वस्तुएँ; उपचारानू--भेंटें; प्रकल्पयेत्--चढ़ाये; धर्म-आदिभि:--धर्म, ज्ञान, वैराग्य तथाऐश्वर्य के साकार रूपों के सहित; च--तथा; नवभि:--नौ ( भगवान् की शक्तियों ); कल्पयित्वा--कल्पना करके; आसनमू--आसन; मम--ेरा; पदामम्--कमल; अष्ट-दलम्--आठ पंखड़ियों वाला; तत्र--उसमें; कर्णिका--कोश में; केसर--केसर से;उज्वलम्--तेजवान; उभाभ्याम्--दोनों साधनों से; वेद-तन्त्राभ्याम्-वेदों तथा तंत्रों से; महाम्--मुझको; तु--तथा; उभय--दोनों ( भोग तथा मोक्ष ) की; सिद्धये--प्राप्ति हेतु
पूजा करने वाले को चाहिए कि सर्वप्रथम मेरे आसन को धर्म, ज्ञान, त्याग तथा ऐश्वर्य केसाक्षात् देवों से तथा मेरी नौ आध्यात्मिक शक्तियों से अलंकृत होने की कल्पना करे। वहभगवान् के आसन को आठ पंखड़ियों वाले कमल के रूप में मान ले जो अपने कोश के भीतरकेसर तन्तुओं से तेजवान है। तब वेदों तथा तंत्रों के नियमानुसार वह पाँव धोने का जल, मुखसाफ करने का जल, अर्घ्य तथा पूजा की अन्य वस्तुएँ मुझे अर्पित करे। इस विधि से उसे भौतिकभोग तथा मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है।
सुदर्शन पाञ्जजन्यं गदासीषुधनुईलान् ।मुषलं कौस्तुभं मालां श्रीवत्सं चानुपूजयेत् ॥
२७॥
शासुदर्शनम्-- भगवान् का चक्र; पाञ्जजन्यम्-- भगवान् का शंख; गदा--उनकी गदा; असि--तलवार; इषु--तीर; धनुः--धनुष;हलानू--तथा हल; मुषलम्--मुषल हथियार; कौस्तुभम्--कौस्तुभ मणि; मालाम्--उनकी माला; श्रीवत्सम्--उनके वक्षस्थलपर सुशोभित श्रीवत्स; च--तथा; अनुपूजयेत्--एक के बाद एक पूजे।
मनुष्य को चाहिए कि भगवान् के सुदर्शन चक्र, उनके पाझ्जजन्य शंख, उनकी गदा,तलवार, धनुष, बाण तथा हल, उनके मूसल, उनकी कौस्तुभ मणि, उनकी फूलमाला तथा उनकेवक्षस्थल के केश-गुच्छ श्रीवत्स की पूजा इसी क्रम से करे।
नन्दं सुनन्दं गरुडं प्रचण्डं चण्डं एव च ।महाबलं बलं चैव कुमुदं कमुदेक्षणम् ॥
२८॥
नन्दम् सुनन्दम् गरूडम्--नन्द, सुनन्द तथा गरुड़ नामक; प्रचण्डम् चण्डम्--प्रचण्ड तथा चण्ड; एब--निस्सन्देह; च-- भी;महा-बलम् बलम्--महाबल तथा बल; च--तथा; एव--निस्सन्देह; कुमुदम् कुमुद-ईक्षणम्--कुमुद तथा कुमुदेक्षण |
मनुष्य को चाहिए कि नन्द, सुनन्द, गरुड़, प्रचण्ड तथा चण्ड, महाबल तथा बल एवं कुमुदतथा कुमुदेक्षण नामक भगवान् के संगियों की पूजा करे।
दुर्गा विनायकं व्यासं विष्वक्षेनं गुरून्सुरान् ।स्वे स्वे स्थाने त्वभिमुखान्पूजयेत्प्रोक्षणादिभि: ॥
२९॥
दुर्गामू-- भगवान् की आध्यात्मिक शक्ति; विनायकम्--आदि गणेश; व्यासमू--वेद के संग्राहक; विष्वक्सेनम्--विष्वक्सेन;गुरून्ू--अपने गुरुओं; सुरान्ू--देवताओं; स्वे स्वे--अपने अपने; स्थाने--स्थान पर; तु--तथा; अभिमुखान्--अर्चा विग्रह कीओर मुख करके; पूजयेत्--पूजा करे; प्रोक्षण-आदिभि:--शुद्द्धि के लिए जल छिड़कने आदि की विविध क्रियाओं द्वारा |
मनुष्य को चाहिए कि वह प्रोक्षण इत्यादि भेंटों से दुर्गा, विनायक, व्यास, विष्वक्सेन,गुरुओं तथा विविध देवताओं की पूजा करे। इन सारे व्यक्तियों को भगवान् के अर्चाविग्रह कीओर मुख किए हुए अपने अपने स्थानों में होना चाहिए।
शाकान कमा ; मागुरुवासितैः: ।सलिलै: स्नापयेन्मजर्मित्यदा विभवे सति ॥
३०॥
स्वर्णघर्मानुवाकेन महापुरुषविद्यया ।पौरुषेणापि सूक्तेन सामभी राजनादिभि: ॥
३१॥
चन्दन--चन्दन का लेप; उशीर--उशीर या खस; कर्पूर--कपूर; कुट्ढू म--सिंदुर; अगुरु--अगुरु से; वासितै: --सुगन्धितबनाया गया; सलिलै:--विभिन्न प्रकार के जल से; स्नापयेत्--अर्चाविग्रह को नहलाये; मन्त्रै: --मंत्रों से; नित्यदा--प्रतिदिन;विभवे--पूँजी; सति--हैं; स्वर्ण-घर्म-अनुवाकेन--स्वर्ण-धर्म नामक वेदों के अध्याय से; महा-पुरुष-विद्यया--महापुरुषनामक मंत्र द्वारा; पौरुषेण --पुरुष सूक्त द्वारा; अपि-- भी; सूक्तेन--वैदिक स्तुति; सामभि:ः--सामवेद से गीतों द्वारा; राजन-आदिभि:--राजन नामक तथा अन्य |
पूजा करने वाले को चाहिए कि अपनी आर्थिक सामर्थ्य के अनुसार प्रतिदिन अर्चाविग्रह कोस्नान कराने के लिए चन्दन-लेप, उशीर, कपूर, कुंकुम तथा अगुरु से सुगंधित किए गए जलका प्रयोग करे। उसे विविध वैदिक स्तुतियों का भी, यथा अनुवाक जो कि स्वर्ण-घर्म कहलातीहै, महापुरुष विद्या, पुरुष सूक्त तथा सामवेद के विविध गीतों यथा राजन तथा रोहिण्य का भीउच्चारण करना चाहिए ॥
वस्त्रोपवीताभरणपत्रस्त्रग्गन्धलेपनै: ।अलहड्डू वीत सप्रेम मद्भक्तो मां चथोचितम् ॥
३२॥
वस्त्र--कपड़े; उपवीत--ब्राह्मण का जनेऊ; आभरण--गहने; पत्र--तिलक से शरीर के विविध अंगों को सजाना; सत्रक्--माला; गन्ध-लेपनैः--तथा सुगन्धित तेलों का लेपन; अलह्ढु बीत--अलंकृत करे; स-प्रेम--प्रेमपूर्वक; मत्-भक्त:--मेरा भक्त;माम्--मुझको; यथा उचितम्--जैसा आदेश हो।
तब मेरे भक्त को चाहिए कि वह मुझे वस्त्रों, जनेऊ, विविध आभूषनों, तिलक के चिन्हतथा मालाओं से अच्छी तरह अलंकृत करे और मेरे शरीर पर सुगन्धित तेल का नियत विधि से शालेप करे।
पाद्यमाचमनीयं च गन्धं सुमनसो क्षतान् ।धूपदीपोपहार्याणि दद्यान्मे श्रद्धयार्चक: ॥
३३॥
पाद्यम्ू--पाँव धोने का जल; आचमनीयम्--मुँह धोने का जल; च--तथा; गन्धम्--सुगन्धि; सुमनस:--फूल; अक्षतान्--अखण्डित बीज ( चावल ); धूप--अगुरु; दीप--दीपक; उपहार्याणि--साज-सामग्री की वस्तुएँ; दद्यातू-- प्रदान करे; मे--मुझको; श्रद्धया--श्रद्धापूर्वक; अर्चकः:--पूजा करने वाला।
पूजक को चाहिए कि वह मेरे पाँव तथा मुँह धोने के लिए जल, सुगन्धित तेल, फूल, अक्षततथा इसी के साथ अगुरु, दीपक तथा अन्य भेंटें भी दे।
गुडपायससर्पीषि शष्कुल्यापूषमोदकान् ।संयावदधिसूपां श्व नैवेद्यं सति कल्पयेत् ॥
३४॥
गुड--गुड़; पायस--खीर; सर्पीषि--तथा घी; शष्कुली--चावल के आटे, चीनी तथा तिल से बनी और घी में तली गई पूड़ी;आपूप--मीठा व्यंजन; मोदकानू--लह्ू » संयाव--आटा, घी तथा दूध से बनी आयताकार रोटी जिस पर चीनी तथा मसालाचुपड़ा हो; दधि--दही; सूपान्ू--तरकारी का शोरवा; च--तथा; नैवेद्यमू-- भोजन की भेंट; सति--यदि उसके पास पर्याप्तसाधन हों; कल्पयेत्-- भक्त व्यवस्था करे।
अपने साधनों के ही अन्तर्गत भक्त को चाहिए कि मुझे भेंट करने के लिए गुड़, खीर, घी,शष्कुली ( पूड़ी ) आपूप, मोदक, संयाव--दही, शोरबा तथा अन्य स्वादिष्ट भोजन भेंट करनेके लिए व्यवस्था करे।
शाअभ्यड़ोन्मर्दनादर्शदन््तधावाभिषेचनम् ।अन्नाद्यगीतनृत्यानि पर्वणि स्युरुतान्वहम् ॥
३५॥
अभ्यड़र--उबटन से; उन्मर्दन--मालिश; आदर्श--दर्पण दिखाना; दन््त-धाव--दाँत साफ करना; अभिषेचनम्--स्नान; अन्न--बिना चबाये खाया जाने वाला भोजन; आद्य--चबाकर खाया जाने वाला भोजन; गीता--गाना; नृत्यानि--तथा नाच;पर्वणि--विशेष उत्सवों पर; स्यु;--करे; उत--या फिर ( यदि सम्भव हो तो ); अनु-अहम्--प्रतिदिन |
विशेष अवसरों पर और यदि सम्भव हो तो नित्यप्रति अर्चाविग्रह को उबटन लगाया जाय,दर्पण दिखाया जाय, दाँत साफ करने के लिए नीम की दातून दी जाय, पाँच प्रकार के अमृत( पंचामृत ) से नहलाया जाय, विविध उच्च कोटि के व्यंजन भेंट किये जायँ तथा उनका गायनऔर नृत्य से मनोरंजन किया जाय।
विधिना विहिते कुण्डे मेखलागर्तवेदिभि: ।अग्निमाधाय परितः समूहेत्पाणिनोदितम् ॥
३६॥
शाविधिना--शास्त्रोक्त विधि से; विहिते--निर्मित; कुण्डे--यज्ञशाला में; मेखला--कमर की पेटी; गर्त--यज्ञ का गटड्ढा;वेदिभि:--तथा बेदी; अग्निमू--अग्नि; आधाय--स्थापित करके; परित:--चारों ओर; समूहेत्ू--बनाये; पाणिना--हाथों से;उदितम्--प्रज्वलित |
भक्त को चाहिए कि शास्त्रोक्ति विधि से तैयार की गईं यज्ञशाला में अग्नि-यज्ञ करे जिसमेंबह पवित्र पेटी ( मेखला ), यज्ञ-कुण्ड तथा वेदी का प्रयोग करे। यज्ञ-अग्नि जलाते समय भक्तको चाहिए कि अपने हाथों से चिनी गई लकड़ियों को प्रज्वलित करे।
परिस्तीर्याथ पर्युक्षेदन्बाधाय यथाविधि ।प्रोक्षण्यासाद्य द्र॒व्याणि प्रोक्ष्याग्नी भावयेत माम् ॥
३७॥
परिस्तीर्य--( कुश ) फैलाकर; अथ--तब ; पर्युक्षेत्--जल का छिड़काव करे; अन्वाधाय--अन्वाधान ( ओउम् भूर्भुवः स्व: काउच्चारण करते हुए अग्नि में लकड़ी रखे ) करते हुए; यथा-विधि--मानक संस्तुति के अनुसार; प्रोक्षणया--आचमन पात्र में सेजल द्वारा; आसाद्य--सजाकर के; द्र॒व्याणि--आहुति में डाले जाने वाले पदार्थ; प्रोक्ष्यम--उन पर छिड़क कर; अग्नौ--अग्नि में;भावयेत--ध्यान करे; माम्--मेरा |
जमीन पर कुश फैलाकर तथा उस पर जल छिड़कने के बाद, नियत विधियों के अनुसारअन्वाधान किया जाय। तत्पश्चात् आहुति में डाले जाने वाली वस्तुओं को व्यवस्थित करे औरउन्हें पात्र में से जल छिड़क कर पवित्र बनाये। इसके बाद पूजा करने वाला अग्नि के भीतर मेराध्यान करे।
तप्तजाम्बूनदप्रख्यं शद्गुच्क्रगदाम्बुजै: ।लसच्चतुर्भुजं शान्तं पद्दाकिश्लल्कवाससम् ॥
३८॥
स्फुरत्किरीटकटक कटिसूत्रवराड्रदम् ।श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौस्तुभं वनमालिनम् ॥
३९॥
ध्यायन्नभ्यर्च्य दारूणि हविषाभिघृतानि च ।प्रास्याज्यभागावाघारौ दच्त्वा चाज्यप्लुतं हवि: ॥
४०॥
जुहुयान्मूलमन्त्रेण घोडशर्चावदानतः ।धर्मादिभ्यो यथान्यायं मन्त्रै: स्विष्टिकृतं बुध: ॥
४१॥
तप्त--पिघला; जाम्बू-नद--स्वर्ण का; प्रख्यम्ू--रंग; शट्बडु--शंख; चक्र --चक्र; गदा--गदा; अम्बुजै:--तथा कमल के फूलसे युक्त; लसत्ू--तेजवान; चतु:-भुजम्--चार भुजाओं वाले; शान्तम्--शान्त; पद्य--कमल के; किल्लल्क--तन्तुओं के रंग शावाला; वाससम्--वस्त्र; स्फुरत्--चमकता हुआ; किरीट--मुकुट; कटक--कंगन; कति-सूत्र--पेटी, करधनी; वर-अड्भरदम्--बाँह का सुन्दर आभूषण, बाजूबन्द; श्री-वत्स--लक्ष्मीजी का प्रतीक; वक्षसम्--अपनी छाती पर; भ्राजत्ू--तेजवान;कौस्तुभम्--कौस्तुभ मणि; वन-मालिनम्--फूल की माला पहने; ध्यायन्--उनका ध्यान करते हुए; अभ्यर्च्य--उनकी पूजाकरे; दारूणि--सूखी लकड़ी के खण्ड; हविषा--शुद्ध घृत से; अभिघृतानि--सिक्त; च--तथा; प्रास्थ--अग्नि में डाल कर;आज्य--घी का; भागौ--दो भाग; आघारौ--आधार अनुष्ठान करते समय; दत्त्वा--प्रदान करके; च--तथा; आज्य--घी से;प्लुतम्--सिक्त; हवि:--आहुति, सामग्री; जुहुयातू--अग्नि में डाले; मूल-मन्त्रेण--हर एक अर्चाविग्रह का नाम लेकर मूल मंत्रसे; षोडश-ऋचा--पुरुष सूत्र के सोलह पंक्ति वाले श्लोक की स्तुति से; अवदानत:--हर पंक्ति के बाद आहुति डालते हुए;धर्म-आदिभ्य:--यमराज इत्यादि देवताओं को; यथा-न्यायम्--उचित क्रम से; मन्त्रै:--प्रत्येक देवता का नाम लेकर विशिष्ट मंत्रसे; स्विष्टि-कृतम्-स्विष्टि नामक अनुष्ठान; बुध:--बुद्धिमान भक्त |
बुद्धिमान भक्त को चाहिए कि वह भगवान् के उस रूप का ध्यान करे जिसका रंग पिघलेसोने जैसा, जिसकी चारों भुजाएँ शंख-चक्र-गदा तथा कमल-फूल से शोभायमान हैं तथा जोसदैव शान्त रहता है और कमल के फूल के भीतर के तन्तुओं जैसा रंगीन वस्त्र पहने रहता है।उनका मुकुट, कंगन, करधनी तथा बाजूबन्द खूब चमकते रहते हैं। उनके वक्षस्थल पर श्रीवत्सका चिन्ह, चमकीली कौस्तुभ मणि तथा जंगली फूलों की माला रहती है। तत्पश्चात् भक्त को घीमें डूबी लकड़ियों को लेकर उन्हें अग्नि में डालते हुए भगवान् की पूजा करनी चाहिए। उसेआधार अनुष्ठान करना चाहिए जिसमें घी में सिक्त सारी आहुति-सामग्री अग्नि को अर्पित कीजाती है। तत्पश्चात् उसे यमराज इत्यादि सोलह देवताओं को स्विष्टि कृत नामक आहुति देनीचाहिए जिसमें प्रत्येक देवता के मूल मंत्रों का तथा पुरुष सूक्त की सोलह पंक्तियों का उच्चारणकिया जाता है। पुरुष सूक्त की प्रत्येक पंक्ति के बाद एक आहुति डाल कर, उसे प्रत्येक देवताका नाम लेकर विशेष मंत्र का उच्चारण करना चाहिए।
अभ्यर्च्याथ नमस्कृत्य पार्षदेभ्यो बलि हरेत् ।मूलमन्त्रं जपेद्गह्म स्मरन्नारायणात्मकम् ॥
४२॥
अभ्यर्च्य--पूजा करके; अथ--तब; नमस्कृत्य--नमस्कार करके ; पार्षदेभ्य:-- भगवान् के निजी संगियों को; बलिमू-- भेंट;हरेत्ू-- भेंट करे; मूल-मन्त्रमू--मूल मंत्र; जपेत्ू--चुपके से उच्चारण करे; ब्रह्म--परब्रह्म का; स्मरन्ू--स्मरण करते हुए;नारायण-आत्मकम्-- भगवान् नारायण के रूप में
इस तरह यज्ञ-अग्नि में भगवान् की पूजा करके भक्त को चाहिए कि भगवान् के निजीसंगियों को झुक कर नमस्कार करे और तब उन्हें उपहार भेंट करे। तब वह भगवान् केअर्चाविग्रह का मूल मंत्र मम ही मन जपे और भगवान् नारायण के रूप में परब्रह्म का स्मरणकरे।
शादत्त्वाचमनमुच्छेषं विष्वक्षेनाय कल्पयेत् ।मुखवासं सुरषिमत्ताम्बूलाद्यमथाहईयेत् ॥
४३॥
दत्त्वा--प्रदान करके; आचमनम्-- भगवान् का मुँह धोने का जल; उच्छेषम्-- भोजन का जूठन; विष्वक्सेनाय-- भगवान् विष्णुके निजी संगी विष्वक्सेन को; कल्पयेत्--दे; मुख-वासम्--मुख शुद्धि; सुरभि-मत्--सुगन्धित; ताम्बूल-आद्यमू--पानइत्यादि; अथ--तब; अ्हयेत्-- भेंट करे।
वह एक बार फिर अर्चाविग्रह को मुख धोने के लिए जल दे और जो भोजन बचा हो उसेविष्वक्सेन को दे दे। तत्पश्चात् वह अर्चाविग्रह को सुगंधित मुख शुद्धि एवं लगा हुआ पान काबीड़ा दे।
उपगायन्गृणन्रृत्यन्कर्माण्यभिनयन्मम ।मत्कथा: श्रावयन्श्रण्वन्मुहूर्त क्षिणकों भवेत् ॥
४४॥
उपगायन्-गाते हुए; गृणन्--तेजी से उच्चारण करते हुए; नृत्यनू--नाचते हुए; कर्माणि--दिव्य कार्य; अभिनयन्--नाटक द्वाराअनुकरण करते हुए; मम--मेरा; मत्-कथा:--मेरे सम्बन्ध में कथाएँ; श्रावयन्--सुनाते हुए; श्रृण्वन्--स्वयं सुनते हुए;मुहूर्तम्--कुछ समय के लिए; क्षणिक:--उत्सव में लीन; भवेत्--हो जाय
अन्यों के साथ गाते, जोर से कीर्तन करते तथा नाचते, मेरी दिव्य लीलाओं का अभिनयकरते तथा मेरे विषय में कथाएँ सुनते तथा सुनाते हुए भक्त को चाहिए कि कुछ समय के लिएऐसे उत्सव में लीन हो जाय।
स्तवैरुच्चावचै: स्तोत्रै: पौराणै: प्राकृतेरपि ।स्तुत्वा प्रसीद भगवत्निति बन्देत दण्डवत् ॥
४५॥
शास्तवैः--शास्त्रों से स्तुतियों द्वारा; उच्च-अवचै:--बड़ी तथा छोटी किस्मों के; स्तोत्रै:--मनुष्यों द्वारा रचित प्रार्थनाओं से;पौराणैः -- पुराणों से; प्राकृतेः--सामान्य स्त्रोतों से; अपि-- भी; स्तुत्वा-- भगवान् की स्तुति करके; प्रसीद--कृपया अपनी दयादिखायें; भगवन्--हे प्रभु; इति--ऐसा कहते हुए; बन्देत--वन्दना करे; दण्ड-वत्-- भूमि पर डंडे की तरह गिर कर।
भक्त को चाहिए कि पुराणों तथा अन्य प्राचीन शास्त्रों तथा सामान्य परम्परा के अनुसारसभी प्रकार की स्तुतियों तथा प्रार्थनाओं से भगवान् का सत्कार करे। उसे चाहिए कि, ' हे प्रभु,मुझ पर दयालु हों ' ऐसी प्रार्थना करते हुए पृथ्वी पर दण्ड की तरह गिर कर नमस्कार करे।
शिरो मत्पादयो: कृत्वा बाहुभ्यां च परस्परम् ।प्रपन्नं पाहि मामीश भीत मृत्युग्रहार्णवात् ॥
४६॥
शिरः--अपना सिर; मत्ू-पादयो: --मेरे दोनों चरणों पर; कृत्वा--रख कर; बाहुभ्याम्-हाथों से; च--तथा; परस्परम्--एकसाथ ( अर्चाविग्रह के दोनों पाँव पकड़ कर ); प्रपन्नमू--शरणागत; पाहि--रक्षा करें; मामू--मुझको; ईश-हे प्रभु;भीतम्--डरा हुआ; मृत्यु--मृत्यु का; ग्रह--मुख; अर्णवात्-- भौतिक सागर के |
अर्चाविग्रह के चरणों पर अपना सिर रख कर और तब भगवान् के समक्ष हाथ जोड़े खड़ेहोकर, उसे प्रार्थना करनी चाहिए 'हे प्रभु, मैं आपकी शरण में हूँ। कृपा करके मेरी रक्षा करें। मैंइस भवसागर से अत्यन्त भयभीत हूँ क्योंकि मैं मृत्यु के मुख पर खड़ा हूँ।
'इति शेषां मया दत्तां शिरस्याधाय सादरम् ।उद्दासयेच्चेदुद्वास्यं ज्योतिर्ज्योतिषि तत्पुन: ॥
४७॥
इति--इस प्रकार प्रार्थना करते हुए; शेषाम्--जूठन; मया--मेरे द्वारा; दत्तामू--दिया हुआ; शिरसि--सिर पर; आधाय--रखकर; स-आदरम्--आदरपूर्वक; उद्दासयेत्-- अर्चाविग्रह को विदा करे; चेत्--यदि; उद्बास्यम्ू--ऐसा करना ही हो; ज्योति: --प्रकाश; ज्योतिषि--प्रकाश के भीतर; तत्--वह; पुनः--एक बार फिर
इस प्रकार प्रार्थना करता हुआ भक्त अपने सिर पर मेरे द्वारा प्रदत्त उच्छिष्ठ को आदर-सहितरखे। और यदि उस अर्चाविग्रह का पूजा के अन्त में विसर्जन करना हो, तो भक्त को अपने हृदयके भीतर के कमल के प्रकाश के अन्दर अर्चाविग्रह की उपस्थिति के प्रकाश को एक बार पुनःधारण करना चाहिए ॥
अर्चादिषु यदा यत्र श्रद्धा मां तत्र चार्चयेत् ।सर्वभूतेष्वात्मनि च सर्वात्माहमवस्थित: ॥
४८ ॥
शाअर्चा-आदिषु--अर्चाविग्रह में तथा भगवान् के अन्य स्वरूपों में; यदा--जब भी; यत्र--जिस भी रूप में; श्रद्धा-- श्रद्धा उत्पन्नहोती है; माम्--मुझको; तत्र--वहाँ; च--तथा; अर्चयेत्--पूजा करे; सर्व-भूतेषु--सारे उत्पन्न हुए जीवों के भीतर; आत्मनि--पृथक् रूप से, मेरे आदि रूप में; च-- भी; सर्व-आत्मा--सबों की मूल आत्मा; अहम्--मैं; अवस्थित:--इस प्रकार स्थित ।
जब भी कोई व्यक्ति मुझमें, चाहे मेरे अर्चाविग्रह रूप में या अन्य प्रामाणिक अभिव्यक्तियोंके रूप में, श्रद्धा उत्पन्न कर लेता है, तो उसे उसी रूप में मेरी पूजा करनी चाहिए मैं निश्चय ही,समस्त उत्पन्न जीवों के भीतर तथा पृथक् रूप से अपने आदि रूप में भी विद्यमान रहता हूँ,क्योंकि मैं सबों का परमात्मा हूँ।
एवं क्रियायोगपथे: पुमान्बैदिकतान्त्रिकः ।अर्चब्रुभयतः सिद्धि मत्तो विन्दत्यभीप्सिताम् ॥
४९॥
एवम्--इस प्रकार से; क्रिया-योग--नियमित अर्चापूजन की; पथै: --विधियों द्वारा; पुमान्ू--पुरुष; बैदिक-तान्त्रिकै: --वेदोंतथा तंत्रों में प्रस्तुत किया गया; अर्चनू--पूजना; उभयतः--इस जीवन तथा अगले जीवन में; सिद्धिम्--सिद्धि; मत्त:--मुझसे;विन्दति--प्राप्त करता है; अभीष्सितामू--इच्छित |
वेदों तथा तंत्रों में संस्तुत विविध विधियों से मेरी पूजा करते हुए मनुष्य इस जीवन में तथाअगले जीवन में मुझसे इच्छित सिद्धि प्राप्त करेगा।
शाम्दर्चा सम्प्रतिष्ठाप्य मन्दिरं कारयेहूढम् ।पुष्पोद्यानानि रम्याणि पूजायात्रोत्सवाश्रितानू ॥
५०॥
मतू-अर्चामू-मेरा अर्चाविग्रह रूप; सम्प्रतिष्ठाप्प--ठीक से स्थापित करके ; मन्दिरम्--मन्दिर; कारयेत्-- बनवाये; हृढम्--प्रबल; पुष्प-उद्यानानि--फूल के बगीचे; रम्याणि--सुन्दर; पूजा--नियमित नैत्यिक पूजा के लिए; यात्रा--विशेष उत्सव;उत्सव--तथा वार्षिक उत्सव; आश्ितान्ू--एक ओर करके |
भक्त को चाहिए कि मजबूत मन्दिर बनवाकर उसी के साथ सुन्दर बगीचों से मेरे अर्चाविग्रहको अधिक पुष्ठता से स्थापित करे। इन बगीचों को नित्यप्रति पूजा के लिए फूल प्रदान करने,विशेष अर्चाविग्रह जुलूसों और शुभ पर्वों के मनाने के लिए सुरक्षित रखना चाहिए।
पूजादीनां प्रवाहार्थ महापर्वस्वथान्वहम् ।क्षेत्रापणपुरग्रामान्दत्त्वा मत्साप्टितामियात् ॥
५१॥
पूजा-आदीनाम्--नियमित पूजा तथा विशेष त्यौहारों का; प्रवाह-अर्थम्--निरंतरता जारी रखने के लिए; महा-पर्वसु--शुभअवसरों पर; अथ--तथा; अनु-अहमू्-- प्रतिदिन; क्षेत्र-- भूमि; आपण--दूकानें; पुर--शहर; ग्रामान्ू--तथा गाँवों को;दत्त्वा--अर्चाविग्रह को भेंट रूप में देकर; मत्-साप्टिताम्--मेंरे तुल्य ऐश्वर्य; इयात्--प्राप्त करता है |
जो व्यक्ति अर्चाविग्रह पर भूमि, बाजार, शहर तथा गाँव की भेंट चढ़ाता है, जिससे किअर्चाविग्रह की दैनिक पूजा तथा विशिष्ट उत्सव निरंतर चलते रहें, वह मेरे ही तुल्य ऐश्वर्य प्राप्तकरेगा।
प्रतिष्ठया सार्वभौमं सद्यना भुवनत्रयम् ।पूजादिना ब्रह्मलोकं त्रिभिर्मत्साम्यतामियात् ॥
५२॥
शाप्रतिष्ठया--अर्चा की स्थापना कर लेने पर; सार्व-भौमम्--पूरी धरती पर सर्वोपरिता, एकछत्र राज्य; सदाना--भगवान् के लिएमन्दिर बनवाकर; भुवन-त्रयम्--तीनों लोकों के ऊपर स्वामित्व; पूजा-आदिना--पूजा तथा अन्य सेवाओं द्वारा; ब्रह्मटलोकम्--ब्रह्मजी का लोक; त्रिभि:--तीन; मत्-साम्यताम्--मेरी बराबरी; इयात्--प्राप्त करता है।
भगवान् के अर्चाविग्रह की स्थापना करने से मनुष्य सारी पृथ्वी का राजा बन जाता है;भगवान् के लिए मन्दिर बनवाने से तीनों जगतों का शासक बन जाता है; अर्चाविग्रह की पूजातथा सेवा करने से वह ब्रह्मलोक को जाता है और इन तीनों कार्यो को करने से वह मुझ जैसा हीदिव्य स्वरूप प्राप्त करता है।
मामेव नैरपेक्ष्येण भक्तियोगेन विन्दति ।भक्तियोगं स लभत एवं यः पूजयेत माम् ॥
५३॥
मामू--मुझको; एव--निस्सन्देह; नैरपेक्ष्येण--निरपेक्ष भाव से; भक्ति-योगेन-- भक्ति करने से; विन्दति--प्राप्त करता है;भक्ति-योगमू-- भक्ति; सः--वह; लभते--प्राप्त करता है; एवम्--इस प्रकार; यः--जिसको; पूजयेत--पूजा करता है; माम्--मुझको
किन्तु जो व्यक्ति कर्मफल पर विचार किये बिना, भक्ति में लगा रहता है, वह मुझे प्राप्तकरता है। इस तरह जो कोई भी मेरे द्वारा वर्णित विधि के अनुसार मेरी पूजा करता है, वहअन्ततः मेरी शुद्ध भक्ति प्राप्त करेगा।
यः स्वदत्तां परेर्दत्तां हरेत सुरविप्रयो: ।वृत्ति स जायते विड्भुग्वर्षाणामयुतायुतम् ॥
५४॥
यः--जो; स्व-दत्तामू--अपने द्वारा दिया गया; परैः--अन्यों द्वारा; दत्तामू--दिया हुआ; हरेत--ले लेता है; सुर-विप्रयो:--देवताओं या ब्राह्मणों से सम्बन्धित; वृत्तिमू--सम्पत्ति; सः--वह; जायते--उत्पन्न होता है; विटू-भुक्ू--मल खाने वाला कीट;वर्षाणाम्ू--वर्षों तक; अयुत--दस हजार; अयुतम्--गुणित दस हजार
जो व्यक्ति देवताओं या ब्राह्मणों की सम्पत्ति चुराता है, चाहे वह उन्हें पहले उस व्यक्ति द्वारादी गई हो या अन्य किसी के द्वारा, उसे एक करोड़ वर्षों तक मल के कीट के रूप में रहनापड़ता है।
शाकर्तुश्च सारथेहेतोरनुमोदितुरेव च ।कर्मणां भागिन: प्रेत्य भूयो भूयसि तत्फलम् ॥
५५॥
कर्तुः--कर्ता का; च--तथा; सारथे: --सहायक का; हेतो:--प्रेरक का; अनुमोदितु:--अनुमोदन करने वाले का; एव च-- भी;कर्मणाम्--कर्मों का; भागिन: --हिस्सेदार का; प्रेत्य--अगले जन्म में; भूय:--अधिक शोक के साथ; भूयसि--इस हद तककि कर्म शोकमय हो; तत्--उसका ( भोग करे ); फलमू्--परिणाम |
न केवल चोरी करने वाला व्यक्ति अपितु उसकी सहायता करने वाला या जो अपराध केलिए प्रेरित करता है या मात्र अनुमोदन करता है, वह भी अगले जीवन में पापफल में भागीबनेगा। भागीदारी की कोटि के अनुसार ही, उन्हें उसी अनुपात में फल भोगना होगा।भगवान् के या उनके अधिकारी प्रतिनिधियों की पूजा की वस्तु को किसी भी दशा में नहींचुराना चाहिए।
28. ज्ञान-योग
श्रीभगवानुवाचपरस्वभावकर्माणि न प्रशंसेन्न गयेत् ।विश्वमेकामकं पश्यन्प्रकृत्या पुरुषेण च ॥
१॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् ने कहा; पर--पराये का; स्वभाव--स्वभाव; कर्माणि--तथा कर्म; न प्रशंसेत्-- प्रशंसा न करे;न गहयेत्ू--आलोचना न करे; विश्वम्--संसार; एक-आत्मकम्--सत्य पर आश्नित; पश्यन्ू--देखते हुए; प्रकृत्या--प्रकृति केसाथ साथ; पुरुषेण-- भोक्ता के साथ; च--भी |
भगवान् ने कहा : मनुष्य को चाहिए कि किसी अन्य व्यक्ति के बद्ध स्वभाव तथा कर्मो कीन तो प्रशंसा करे, न ही आलोचना। प्रत्युत उसे इस जगत को प्रकृति तथा भोक्ता आत्माओं कासंमेल ही मानना चाहिए क्योंकि वे सभी एक परम सत्य पर अश्ित हैं।
'परस्वभावकर्माणि य:ः प्रशंसति निन्दति ।स आशु भ्रए्यते स्वार्थादसत्यभिनिवेशत: ॥
२॥
'पर--दूसरे का; स्वभाव--स्वभाव, व्यक्तित्व; कर्माणि--तथा कार्य; यः--जो; प्रशंसति--प्रशंसा करता है; निन्दति--आलोचना करता है; सः--वह; आशु--तुरनन््त; भ्रश्यते--गिरता है; स्व-अर्थात्--अपने हित से; असति--असत्य में;अभिनिवेशतः--पूरी तरह बँध जाने के कारण।
जो भी व्यक्ति दूसरों के गुणों तथा आचरण की प्रशंसा करता है या आलोचना करता है,वह मायामय द्वैतों में फँसने के कारण अपने उत्तमोत्तम हित से शीघ्र विपथ हो जाएगा।
तैजसे निद्रयापन्ने पिण्डस्थो नष्टचेतन: ।मायां प्राप्नोति मृत्युं वा तद्बन्नानार्थटक्पुमान् ॥
३ ॥
तैजसे--जब इन्द्रियाँ, जो कि रजोगुण में मिथ्या अहंकार से उत्पन्न हैं; निद्रया--नींद से; आपतन्ने--परास्त हो जाती हैं; पिण्ड--भौतिक शरीर का कवच; स्थ:--स्थित ( आत्मा ); नष्ट-चेतन:--अपनी चेतना खोकर; मायाम्--स्वण देखने का भ्रम;प्राणोति--अनुभव करता है; मृत्युम्--मृत्यु जैसी गहरी निद्रावस्था; वा--अथवा; तद्बत्--उसी प्रकार से; नाना-अर्थ-- भौतिकविविधताओं के रूप में; हक्ू--देखने वाला; पुमान्ू--मनुष्य |
जिस तरह देहधारी आत्मा की इन्द्रियाँ स्वप्न देखने के भ्रम या मृत्यु जैसी गहरी निद्रावस्थाके द्वारा परास्त हो जाती हैं, उसी तरह भौतिक द्वन्द्द का अनुभव करने वाले व्यक्ति को मोह तथामृत्यु का सामना करना पड़ता है।
कि भद्गं किमभद्रं वा द्वैतस्यावस्तुन: कियत् ।वाचोदितं तदनृतं मनसा ध्यातमेव च ॥
४॥
किम्--क्या; भद्रम्-- अच्छा; किमू--क्या; अभद्रम्ू--बुरा; वा--अथवा; द्वैतस्थ--द्वैत की; अवस्तुनः--वस्तु नहीं है;कियत्--कितना; वाचा--वाणी से; उदितम्--उत्पन्न; तत्ू--वह; अनृतम्--असत्य; मनसा--मन से; ध्यातम्-- ध्यान कियागया; एव--निस्सन्देह; च--तथा।
जो कुछ भौतिक शब्दों से व्यक्त किया जाता है या मन के द्वारा ध्यान किया जाता है, वहपरम सत्य नहीं है। अतएव द्वैत के इस असार जगत में, वस्तुतः क्या अच्छा या क्या बुरा है औरऐसे अच्छे तथा बुरे की मात्रा को कैसे मापा जा सकता है ? छायाप्रत्याह्ययाभासा हासन्तोप्यर्थकारिण: ।एवं देहादयो भावा यच्छन्त्यामृत्युतो भयम् ॥
५॥
छाया--छायाएँ; प्रत्याहय--प्रतिध्वनि; आभासा:--तथा मिथ्या प्राकट्य; हि--निस्सन्देह; असन्त:-- अविद्यमान; अपि--यद्यपि; अर्थ--विचार; कारिण:--उत्पन्न करने वाले; एवम्--उसी तरह से; देह-आदय: --देह इत्यादि; भावा:-- भौतिकसंकल्पनाएँ; यच्छन्ति--देते हैं; आ-मृत्युतः--मृत्युपर्यन्त; भयमू-- भय |
यद्यपि छायाएँ, प्रतिध्वनियाँ तथा मृगमरीचिकाएँ असली वस्तुओं के भ्रामक प्रतिबिम्ब हीहोती हैं, किन्तु ये प्रतिबिम्ब अर्थपूर्ण या ज्ञेय भाव का साहश्य उत्पन्न करते हैं। इसी तरह यद्यपिशरीर, मन तथा अहंकार के साथ बद्धजीव की पहचान भ्रामक है, किन्तु यह पहचान मृत्यु पर्यन्तउसके भीतर भय उत्पन्न करती रहती है।
आत्मैव तदिदं विश्व॑ं सृज्यते सृजति प्रभु: ।त्रायते त्राति विश्वात्मा हियते हरती श्वरः ।तस्मान्न ह्ात्मनोन्यस्मादन्यो भावो निरूपितः ॥
६॥
निरूपितेयं त्रिविधा निर्मूल भातिरात्मनि ।इदं गुणमयं विद्धि त्रिविधं मायया कृतम् ॥
७॥
आत्मा--परमात्मा; एव-- एकमात्र; तत् इदम्--यह; विश्वम्--ब्रह्माण्ड; सृज्यते--उत्पन्न किया जाता है; सृजति--तथा उत्पन्नकरता है; प्रभुः--परमेश्वर; त्रायते--रक्षा किया जाता है; त्राति--रक्षा करता है; विश्व-आत्मा--सारे जगत का आत्मा; हियते--खींच लिया जाता है; हरति--खींच लेता है; ईश्वर:--परम नियन्ता; तस्मात्--उसकी अपेक्षा; न--नहीं; हि--निस्सन्देह;आत्मन:--आत्मा की तुलना में; अन्यस्मात्--जो स्पष्ट है; अन्य:--अन्य; भाव:--जीव; निरूपित:--निश्चित किया जाता है;निरूपिते--इस प्रकार स्थापित हुआ; अयम्--यह; त्रि-विधा--तीन प्रकार का; निर्मुला--आधाररहित; भाति: --स्वरूप;आत्मनि--परमात्मा के भीतर; इृदमू--यह; गुण-मयम्-प्रकृति के गुणों से युक्त; विद्धि--जानो; त्रि-विधम्--तीन प्रकार का;मायया--माया द्वारा; कृतमू--उत्पन्न ।
एकमात्र परमात्मा ही इस जगत के परम नियन्ता तथा स्त्रष्टा हैं, अतः अकेले वे भी उत्पन्न किये हुए हैं। इसी प्रकार जो समस्त जगत का आत्मास्वरूप है, वह पालन भी करता है औरपालित भी होता है; हरता है और हरा भी जाता है। यद्यपि परमात्मा हर वस्तु से तथा अन्य हरकिसी से पृथक् हैं, किन्तु कोई अन्य जीव उनसे पृथक् रूप में निश्चित नहीं किया जा सकता।तीन प्रकार की प्रकृति के जो उनके भीतर देखी जाती है, प्राकट्य का कोई वास्तविक आधारनहीं है। प्रत्युत तुम यह समझ लो कि तीन गुणों वाली यह प्रकृति उनकी मायाशक्ति का हीप्रतिफल है।
एतद्विद्वान्मदुदितं ज्ञानविज्ञाननैपुणम् ।न निन्दति न च स्तौति लोके चरति सूर्यवत् ॥
८॥
एतत्--यह; विद्वान्ू--जानने वाला; मत्ू--मेरे द्वारा; उदितम्--वर्णित; ज्ञान--ज्ञान; विज्ञान--तथा अनुभूति में; नैपुणम्--स्थिरहुआ; न निन्दति--आलोचना नहीं करता; न च--न तो; स्तौति--प्रशंसा करता है; लोके--जगत में; चरति--विचरण करताहै; सूर्य-वत्--सूर्य की तरह ।
जिसने मेरे द्वारा यहाँ पर वर्णित सैद्धान्तिक तथा अनुभूत ज्ञान में स्थिर होने की विधि कोभलीभाँति समझ लिया है, वह भौतिक निन््दा या स्तुति में रत नहीं होता। वह इस जगत में सूर्यकी तरह सर्वत्र स्वतंत्र होकर विचरण करता है।
प्रत्यक्षेणानुमानेन निगमेनात्मसंविदा ।आद्यन्तवदसज्ज्ात्वा निःसड्डो विचरेदिह ॥
९॥
प्रत्यक्षेण-- प्रत्यक्ष अनुभूति द्वारा; अनुमानेन--तार्किक आगम द्वारा; निगमेन--शास्त्र के कथनों द्वारा; आत्म-संविदा--अपनीस्वयं की अनुभूति से; आदि-अन्त-वत्--आदि तथा अन्त से युक्त; असत्-- असत्य; ज्ञात्वा--जान कर; निःसड्भर:--आसक्ति सेरहित; विचरेत्ू--इधर-उधर आये-जाये; इह--इस संसार में ॥
प्रत्यक्ष अनुभूति, तर्कसंगत निगमन, शास्त्रोक्त प्रमाण तथा आत्म अनुभूति द्वारा मनुष्य कोयह जान लेना चाहिए कि इस जगत का आदि तथा अन्त है, अतएवं यह परम सत्य नहीं है। इस तरह मनुष्य को निर्लिप्त होकर इस जगत में रहना चाहिए।
श्रीउद्धव उवाचनैवात्मनो न देहस्य संसूृतिर्द्रष्टटश्ययो: ।अनात्मस्वदशोरीश कस्य स्यादुपलभ्यते ॥
१०॥
श्री-उद्धवः उवाच-- श्री उद्धव ने कहा; न--नहीं; एव--निस्सन्देह; आत्मन: --आत्मा का; न--न तो; देहस्य--शरीर का;संसृति:--संसार; द्रष्ट-ह॒श्ययो:--देखने वाले अथवा देखे गये का; अनात्म--जो आत्मा नहीं है; स्व-हशो:--या उसका जिसकोअन्तर्ज्ञन है; ईश--हे भगवान्; कस्य--किसका; स्यातू--हो सकता है; उपलभ्यते-- अनुभव किया जाता है।
श्री उद्धव ने कहा : हे भगवन्ू, इस भौतिक जगत के लिए यह सम्भव नहीं कि वह द्रष्टारूपीआत्मा का अनुभव हो या दृश्यरूपी शरीर का अनुभव हो। एक ओर जहाँ आत्मा स्वाभाविक तौरपर, पूर्ण ज्ञान से समन्वित होता है, वहीं दूसरी ओर भौतिक शरीर चेतन जीव नहीं है। तो फिरजगत का यह अनुभव किससे सम्बद्ध है ? आत्माव्ययोगुण: शुद्धः स्वयंज्योतिरनावृतः ।अग्निवद्दारवदचिद्देह: कस्येह संसृति: ॥
११॥
आत्मा--आत्मा; अव्यय:--न चुकने वाला; अगुण:--गुणों से परे; शुद्ध: --शुद्ध; स्वयम्-ज्योति:--आत्म-प्रकाशित;अनावृत:--खुला; अग्नि-वत्--अग्नि की तरह; दारु-वत्--काष्ठ की तरह; अचित्--अचेतन; देह:--शरीर; कस्य--किसका; इह--इस जगत में; संसृतिः--भौतिक जीवन का अनुभव,
आत्मा अव्यय, दिव्य, शुद्ध, आत्म-प्रकाशित तथा किसी भौतिक वस्तु से कभी न ढकाजाने वाला है। यह अग्नि के समान है। किन्तु अचेतन शरीर, काष्ठ की तरह मन्द है और अनभिज्ञहै। अतएव इस जगत में वह कौन है, जो वास्तव में भौतिक जीवन का अनुभव करता है ? श्रीभगवानुवाचयावहेहेन्द्रियप्राणैरात्मन: सन्निकर्षणम् ।संसार: फलवांस्तावदपार्थोप्यविवेकिन: ॥
१२॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; यावत्--जब तक; देह--शरीर; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; प्राणै:--तथा प्राण के द्वारा;आत्मन:--आत्मा का; सन्निकर्षणम्--आकर्षण; संसार:-- भौतिक जगत; फल-वान्--फल से युक्त; तावत्--उस अवधि तक;अपार्थ:--अर्थहीन; अपि--यद्यपि; अविवेकिन:--विवेकहीन व्यक्ति के लिए।
भगवान् ने कहा : जब तक मूर्ख आत्मा भौतिक शरीर, इन्द्रियों तथा प्राण के प्रति आकृष्टरहता है, तब तक उसका भौतिक अस्तित्व विकसित होता रहता है यद्यपि अन्ततोगत्वा यहअर्थहीन होता है।
अर्थ हाविद्यमानेपि संसृतिर्न निवर्तते ।ध्यायतो विषयानस्य स्वप्नेडनर्थागमो यथा ॥
१३॥
अर्थ--असली कारण; हि--निश्चय ही; अविद्यमाने--अनुपस्थित; अपि--यद्यपि; संसृतिः:--भौतिक जगत; न--नहीं;निवर्तते--मिट जाता है; ध्यायत:--ध्यान करते हुए; विषयान्--इन्द्रिय-विषयों का; अस्य--जीव का; स्वपण्ने--स्वण में;अनर्थ--हानियों का; आगम:--आना; यथा--जिस तरह |
वस्तुतः जीव भौतिक जगत से परे है। किन्तु भौतिक प्रकृति पर प्रभुत्व दिखाने की मनोवृत्तिके कारण, उसका भौतिक अस्तित्व मिटता नहीं और वह सभी प्रकार की हानियों से प्रभावितहोता है, जिस तरह स्वप्न में घटित होता है।
यथा ह्वप्रतिबुद्धस्य प्रस्वापो बहनर्थभूत् ।स एव प्रतिबुद्धस्य न वै मोहाय कल्पते ॥
१४॥
यथा--जिस तरह; हि--निस्सन्देह; अप्रतिबुद्धस्य--जो नहीं जगा हुआ है उसके लिए; प्रस्वाप:--नींद; बहु--अनेक; अनर्थ--अवांछित अनुभव; भृत्--प्रस्तुत करते हुए; सः--वही स्वप्न; एव--निस्सन्देह; प्रतिबुद्धस्य--जगे हुए के लिए; न--नहीं; बै--निश्चय ही; मोहाय--संशय; कल्पते--उत्पन्न करता है|
यद्यपि स्वप्न देखते समय मनुष्य को अनेक अवांछित वस्तुओं का अनुभव होता है, किन्तुजग जाने पर वह स्वप्न के अनुभवों से तनिक भी उद्विग्न नहीं होता।
शोकहर्षभयक्रोधलो भमोहस्पृहादय: ।अहड्डारस्य दृश्यन्ते जन्ममृत्युश्च नात्मन: ॥
१५॥
शोक--शोक; हर्ष--हर्ष; भय--डर; क्रोध--क्रोध; लोभ--लालच; मोह-- संशय; स्पृहा-- लालसा; आदय:--इत्यादि;अहड्डारस्थ--मिथ्या अहंकार के; दृश्यन्ते--वे प्रतीत होते हैं; जन्म--जन्म; मृत्यु:--मृत्यु; च--तथा; न--नहीं; आत्मन: --आत्मा का
शोक, हर्ष, भय, क्रोध, लोभ, मोह, लालसा, जन्म तथा मृत्यु मिथ्या अहंकार के अनुभवहैं, शुद्ध आत्मा के नहीं।
देहेन्द्रियप्राणमनो भिमानोजीवोन्तरात्मा गुणकर्ममूर्ति: ।सूत्रं महानित्युरुधेव गीतःसंसार आधावति कालतन्त्र: ॥
१६॥
देह--शरीर; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; प्राण--जीवन-वायु; मनः--तथा मन से; अभिमान: --जो झूठे ही अपनी पहचान बनाता है;जीव:--जीव; अन्तः--भीतर स्थित; आत्मा--आत्मा; गुण--अपने भौतिक गुण; कर्म--तथा कर्म के अनुसार; मूर्ति:--उसकेस्वरूप की कल्पना करते हुए; सूत्रम्ू--सूत्र तत्त्व; महानू-- प्रकृति का आदि रूप; इति--इस प्रकार; उरुधा--भिन्न भिन्न तरीकोंसे; इब--निस्सन्देह; गीत:--वर्णित; संसारे-- भौतिक जीवन में; आधावति--इधर-उधर दौड़ता है; काल--समय के; तन्त्र: --कठोर नियंत्रण में
जो जीव अपनी पहचान गलती से अपने शरीर, इन्द्रियों, प्राण तथा मन से करता है और जोइन आवरणों के भीतर रहता है, वह अपने ही बद्ध भौतिक गुणों तथा कर्म का रूप धारण करताहै। वह समग्र भौतिक भक्ति के सापेक्ष विविध उपाधियाँ ग्रहण करता है और इस तरह, परमकाल के कठोर नियंत्रण में, संसार के भीतर इधर-उधर दौने के लिए बाध्य होता है।
अमूलमेतद्वहुरूपरूपितंमनोवच:ःप्राणशरीरकर्म ।ज्ञानासिनोपासनया शितेन-चिछत्त्वा मुनिर्गां विचरत्यतृष्ण: ॥
१७॥
अमूलम्--नींवरहित; एतत्--यह ( मिथ्या अहंकार ); बहु-रूप--नाना रूपों में; रूपितम्--सुनिश्चित; मन:--मन; बच: --वाणी; प्राण--जीवन-वायु; शरीर--तथा स्थूल शरीर का; कर्म--कार्य ; ज्ञान--दिव्य ज्ञान की; असिना--तलवार से;उपासनया--( गुरु की ) उपासना से; शितेन--तीक्ष्ण की हुई; छित्तता--काट कर; मुनि:ः--गम्भीर साधु; गाम्ू--इस पृथ्वी पर;विचरति--विचरण करता है; अतृष्ण: -- भौतिक इच्छाओं से मुक्त |
यद्यपि मिथ्या अहंकार का कोई यथार्थ आधार नहीं है, किन्तु यह अनेक रूपों में देखा जाताहै--यथा मन, वाणी, प्राण तथा शरीर के कार्यो के रूप में। किन्तु प्रामाणिक गुरु की उपासनाके द्वारा तेज की हुईं दिव्य ज्ञानरूपी तलवार से, गम्भीर साधु इस मिथ्या पहचान को काट देता हैऔर इस जगत में समस्त भौतिक आसक्ति से मुक्त होकर निवास करता है।
ज्ञानं विवेको निगमस्तपश्चप्रत्यक्षमतिहामथानुमानम् ।आद्चन्तयोरस्य यदेव केवलं कालश्च हेतुश्व तदेव मध्ये ॥
१८॥
ज्ञामम्ू--दिव्य ज्ञान; विवेक: --विवेक; निगम: --शास्त्र; तप: -- तपस्या; च--तथा; प्रत्यक्षम्--प्रत्यक्ष अनुभूति; ऐतिहाम् --पुराणों का ऐतिहासिक विवरण; अथ--तथा; अनुमानम्--तर्क; आदि--प्रारम्भ में; अन्तयो: --तथा अन्त में; अस्य--इस सृष्टिके; यत्ू--जो; एब--निस्सन्देह; केवलम्--अकेला; काल:--काल का नियामक कारक; च--तथा; हेतु:--चरम कारण;च--तथा; तत्--वह; एब--अकेला; मध्ये--बीचमें |
असली आध्यात्मिक ज्ञान तो आत्मा और पदार्थ के विवेक पर आधारित है और इसकाअनुशीलन शास्त्रों के प्रमाण, तपस्या, प्रत्यक्ष अनुभूति, पुराणों के ऐतिहासिक वृत्तान्तों केसंग्रहण तथा तार्किक निष्कर्षो द्वारा किया जाता है। परब्रह्म जो अकेला इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि केपूर्व विद्यमान था और जो इसके संहार के बाद भी बचा रहेगा, वही काल तथा परम कारण भीहै। इस सृष्टि के मध्य में भी एकमात्र परब्रह्म वास्तविक सत्य है।
यथा हिरण्यं स्वकृतं पुरस्तात्पश्चाच्च सर्वस्य हिरण्मयस्य ।तदेव मध्ये व्यवहार्यमाणंनानापदेशैरहमस्य तद्बत् ॥
१९॥
यथा--जिस तरह; हिरण्यम्--स्वर्ण; सु-अकृतम्--बनी वस्तु के रूप में अप्रकट; पुरस्तात्ू--इसके पूर्व; पश्चात्--बाद में;च--तथा; सर्वस्य--हर वस्तु का; हिरण्-मयस्य--सोने से बनी; तत्--वह सोना; एव--एकमात्र; मध्ये--बीच में;व्यवहार्यमाणम्--उपयोग में लाने पर; नाना--विविध; अपदेशै:--उपाधियों के रूप में; अहम्--मैं; अस्य--इस उत्पन्न ब्रह्माण्डका; तद्बत्ू--उसी तरह से
जिस तरह सोने की वस्तुएँ तैयार होने के पूर्व, एकमात्र सोना रहता है और जब ये वस्तुएँ नष्टहो जाती हैं, तो भी एकमात्र सोना बचा रहता है और जब विविध नामों से व्यवहार में लाये जानेपर भी एकमात्र सोना ही अनिवार्य सत्य होता है, उसी तरह इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि के पूर्व, इसकेसंहार के बाद और इसके अस्तित्व के समय केवल मैं विद्यमान रहता हूँ।
विज्ञानमेतत्तरियवस्थमड़गुणत्रयं कारणकर्यकर्तू ।समन्वयेन व्यतिरेकतश्चयेनैव तुर्येण तदेव सत्यम् ॥
२०॥
विज्ञानमू--( मन जिसका लक्षण है ) पूर्ण ज्ञान; एतत्--यह; त्रि-अवस्थम्--तीन अवस्थाओं ( जाग्रत, सुप्ति, सुषुप्ति ) मेंविद्यमान; अड्ग--हे प्रिय उद्धव; गुण-त्रयम्ू--तीन गुणों के माध्यम से प्रकट; कारण--सूक्ष्म कारण के रूप में ( अध्यात्म );कार्य--स्थूल उत्पाद ( अधिभूत ); कर्तु--तथा करने वाला ( आधिदैव ); समन्वयेन--एक के बाद एक-एक में; व्यतिरिकतः--पृथक् रूप में; च--तथा; येन--जिससे; एव--निस्सन्देह; तुर्येण--चौथा कारण; तत्--वह; एव--ही; सत्यम्--परब्रह्म है
भौतिक मन चेतना की तीन अवस्थाओं--जाग्रत, सुप्ति तथा सुषुप्ति--में प्रकट होता है,जो प्रकृति के तीन गुणों से उत्पन्न हैं। फिर मन तीन भिन्न भिन्न भूमिकाओं में--द्रष्टा, हश्य तथाअनुभूति के नियामक रूप में--प्रकट होता है। इस तरह मन तीनों उपाधियों में लगातार विविधप्रकारों से प्रकट होता है। किन्तु इन सबों से भिन्न एक चौथा तत्त्व भी विद्यमान रहता है और वहीपरब्रह्म होता है।
न यत्पुरस्तादुत यन्न पश्चा-न्मध्ये च तन्न व्यपदेशमात्रम् ।भूतं प्रसिद्धं च परेण यद्यत् तदेव तत्स्यादिति मे मनीषा ॥
२१॥
न--नहीं है; यत्--जो; पुरस्तात्--इससे पहिले; उत--न तो; यत्--जो; न--नहीं; पश्चात्--बाद में; मध्ये--बीच में; च--तथा; तत्--वह; न--नहीं विद्यमान रहता; व्यपदेश-मात्रम्--उपाधि मात्र; भूतम्--उत्पन्न; प्रसिद्धमू--विख्यात बनाया गया;च--तथा; परेण--दूसरे के द्वारा; यत् यत्--जो जो; तत्ू--वह; एव--केवल; तत्--वह अन्य; स्यात्ू--वास्तव में है; इति--इस प्रकार; मे--मेरा; मनीषा--विचार, मत।
जो भूतकाल में विद्यमान नहीं था और भविष्य में भी विद्यमान नहीं रहेगा, उसका उसकीपूरी अवधि में कोई अस्तित्व नहीं होता; वह केवल ऊपरी उपाधि होता है। मेरे मत में जो कुछ उत्पन्नकिया जाता है तथा किसी अन्य वस्तु से उद्धाटित किया जाता है, वही अन्ततः एकमात्र अन्य वस्तुहोता है।
अविद्यमानोप्यवभासते योवैकारिको राजससर्ग एस: ।ब्रह्म स्वयं ज्योतिरतो विभातिब्रह्मोन्द्रियार्थात्मविकारचित्रम् ॥
२२॥
अविद्यमान:--वास्तव में विद्यमान न होते हुए; अपि--यद्यपि; अवभासते--प्रतीत होता है; यः--जो; वैकारिक:--विकारों कीअभिव्यक्ति; राजस--रजोगुण का; सर्ग:--सृजन; एष:--यह; ब्रह्म--परब्रह्म; स्वयम्-- अपने में स्थित; ज्योति:--प्रकाशवान्;अतः--इसलिए; विभाति-- प्रकट होता है; ब्रह्म--परब्रह्म; इन्द्रिय--इन्द्रियों का; अर्थ--विषय; आत्म--मन; विकार--तथापाँच तत्त्वों के रूपान्तरों का; चित्रमू--विविधता के रूप में
वास्तव में विद्यमान न होते हुए भी, रजोगुण से उत्पन्न रूपान्तरों की यह अभिव्यक्ति सत्यप्रतीत होती है क्योंकि स्वयं-व्यक्त, स्वयं-प्रकाशित परब्रह्म अपने को नाना प्रकार की इन्द्रियों,इन्द्रिय-विषयों, मन तथा शरीर के तत्त्वों के रूप में प्रकट करता है।
एवं स्फुत॑ ब्रह्मविवेकहेतुभिः'परापवादेन विशारदेन ।छित्त्वात्मसन्देहमुपारमेतस्वानन्दतुष्टो $खिलकामुके भ्य: ॥
२३॥
एवम्--इस प्रकार; स्फुटम्-स्पष्टत: ; ब्रह्म--परब्रह्म का; विवेक-हेतुभि: --विवेक तथा तर्कों द्वारा; पर-- अन्य धारणाओं सेगलत पहचान का; अपवादेन--निषेध द्वारा; विशारदेन--पटु; छित्त्वा--काट कर; आत्म--आत्मा की पहचान के बारे में;सन्देहम्--सन्देह को; उपारमेत--बचे; स्व-आनन्द-- अपने दिव्य आनन्द में; तुष्ट:--सनन््तुष्ट; अखिल--समस्त; कामुके भ्य:--'काम-वासना वाली वस्तुओं से |
इस तरह विवेकशील तर्क द्वारा परब्रह् की अनन्य स्थिति को अच्छी तरह समझ करकेमनुष्य को चाहिए कि पदार्थ से अपनी गलत पहचान का कुशलतापूर्वक निषेध करे और आत्माकी पहचान विषयक सारे संशयों को छिन्न-भिन्न कर डाले। आत्मा के स्वाभाविक आनन्द से तुष्टहोते हुए मनुष्य को भौतिक इन्द्रियों के काम-वासनामय कार्यो से दूर रहना चाहिए।
नात्मा वपु: पार्थिवमिन्द्रियाणिदेवा हासुर्वायुर्जलम्हुताश: ।मनोन्नमात्रं धिषणा च सत्त्व-महलड्डू तिः खं क्षितिरर्थसाम्यम् ॥
२४॥
न--नहीं; आत्मा--आत्मा; वपु:--शरीर; पार्थिवम्--पृथ्वी से बना; इन्द्रियाणि--इन्द्रियाँ; देवा:--अधिष्ठाता देवता; हि--निस्सन्देह; असु:--प्राण-वायु; वायु:--बाह्य वायु; जलम्ू--पानी; हुत-आश: -- अग्नि; मन: --मन; अन्न-मात्रमू-- केवलपदार्थ होने से; धिषणा--बुद्धि; च--तथा; सत्त्वमू-- भौतिक चेतना; अहड्डू ति:--मिथ्या अहंकार; खम्--आकाश; क्षिति: --पृथ्वी; अर्थ--इन्द्रिय अनुभूति के विषय; साम्यम्-प्रकृति की आदि अभिन्नित अवस्था
पृथ्वी से बना भौतिक शरीर असली आत्मा नहीं है, न ही इन्द्रियाँ, उनके अधिष्ठातृ देवता याप्राण-वायु; न बाह्य वायु, जल, अथवा अग्नि या मन ही हैं। ये सब पदार्थ हैं।इसी तरह न तो मनुष्य की बुद्धि, न भौतिक चेतना, न अहंकार, न ही आकाश या पृथ्वी के तत्त्व, न ही इन्द्रियअनुभूति के विषय, न भौतिक साम्य की आदि अवस्था ही को आत्मा की वास्तविक पहचानमाना जा सकता है।
समाहितैः कः करणैर्गुणात्मभि-गुणो भवेन्मत्सुविविक्तधाम्न: ।विक्षिप्पमाणैरुत कि नु दूषणंघनैरुपेतैर्विगते रवेः किम् ॥
२५॥
समाहितैः--ध्यान में पूरी तरह एकाग्र; कः--क्या; करणै:--इन्द्रियों द्वारा; गुण-आत्मभि:--जो गुणों की अभिव्यक्तियाँ हैं;गुण:--गुण; भवेत्--होगा; मत्--मेरा; सु-विविक्त--जिसने अच्छी तरह निश्चित कर लिया है; धाम्न:--पहचान;विक्षिप्यमाणै:--जिन्हें विश्लुब्ध किया जा रहा है; उत--दूसरी ओर; किम्--क्या; नु--निस्सन्देह; दूषणम्--कलंक; घनै:--बादलों द्वारा; उपेतै:--आये हुए; विगतैः--अथवा जो जा चुके हैं; रवे:--सूर्य का; किमू--क्या
जिसने मेरी पहचान भगवान् के रूप में कर ली है, उसके लिए इसमें कया श्रेय रखा है यदिउसकी इन्द्रियाँ, जो गुणों से उत्पन्न हैं, ध्यान में पूरी तरह एकाग्र हों? दूसरी ओर, इसमें कौन-साकलंक लगता है यदि उसकी इन्द्रियाँ चलायमान होती हैं ? निस्सन्देह, इससे सूर्य का क्या बनता-बिगड़ता है यदि बादल आते और जाते हैं ? यथा नभो वाय्वनलाम्बुभूगुणै-गतागतैर्व॑र्तुगुणैर्न सज्जते ।तथाक्षरं सत्त्वरजस्तमोमलै-रहंमतेः संसृतिहेतुभि: परम् ॥
२६॥
यथा--जिस तरह; नभः--आकाश; वायु--वायु; अनल--अग्नि; अम्बु--जल; भू--तथा पृथ्वी के; गुणैः--गुणों से; गत-आगतैः--आने-जाने वाले; वा--अथवा; ऋतु-गुणैः--ऋतुओं ( यथा शीत, ग्रीष्म इत्यादि ) के गुणों द्वारा; न सज्ते--नहीं बँधता; तथा-- उसी तरह; अक्षरम्--परब्रह्म; सत्त्व-गज:-तम:--सतो, रजो तथा तमोगुणों के; मलैः--दूषण द्वारा; अहम्-मतेः--मिथ्या अहंकार की भावना का; संसृति-हेतुभि:--जगत के कारणों द्वारा; परमू--परम |
आकाश अपने में से होकर गुजरने वाली वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी के विविध गुणों कोऔर उसी के साथ उष्मा तथा शीत के गुणों को भी प्रदर्शित कर सकता है, जो ऋतुओं केअनुसार निरन्तर आते-जाते रहते हैं। फिर भी, आकाश कभी भी इन गुणों से बँधता नहीं। इसीप्रकार परब्रह्म सतो, रजो तथा तमोगुणों के दूषणों से कभी बँधता नहीं क्योंकि ये मिथ्याअहंकार का भौतिक विकार उत्पन्न करने वाले हैं।
तथापि सड्ढः परिवर्जनीयोगुणेषु मायारचितेषु तावत् ।मद्धक्तियोगेन हढेन यावद्रजो निरस्येत मनःकषाय: ॥
२७॥
तथा अपि--तिस पर भी; सड्ृः--संगति; परिवर्जनीय:--बहिष्कार कर देनी चाहिए; गुणेषु--गुणों से; माया-रचितेषु --मायाशक्ति द्वारा उत्पन्न; तावतू--तब तक; मत्ू-भक्ति-योगेन--मेरी भक्ति द्वारा; हढेन--हढ़; यावत्--जब तक; रज:--वासनामय आकर्षण; निरस्येत--दूर हो जाय; मन:--मन की; कषाय: -गर्द, धूल
तिस पर भी मनुष्य जब तक हढ़तापूर्वक मेरी भक्ति का अभ्यास करके अपने मन से भौतिककाम-वासना के कल्मष को पूरी तरह निकाल नहीं फेंकता है, तब तक उसे इन भौतिक गुणोंकी संगति करने में सावधानी बरतनी चाहिए जो मेरी मायाशक्ति द्वारा उत्पन्न होते हैं।
यथामयो साधु चिकित्सितो नृणांपुनः पुनः सन्तुदति प्ररोहन् ।एवं मनोपक्वकषायकर्मकुयोगिनं विध्यति सर्वसड्रम् ॥
२८॥
यथा--जिस तरह; आमय:--रोग; असाधु--अपूर्ण रूप से; चिकित्सित:--उपचार किया गया; नृणाम्--मनुष्यों के; पुनःपुनः--बारम्बार; सन्तुदति--दुख देता है; प्ररोहन्-- ऊपर उठते हुए; एवम्--उसी तरह; मनः--मन; अपक्व--अशुद्ध;कषाय--दूषण का; कर्म--कर्मों से; कु-योगिनम्-- अपूर्ण योगी; विध्यति--तंग करता है; सर्व-सड्रमू--जो सभी तरह की
भौतिक आसक्तियों से पूर्ण है जिस तरह ठीक से उपचार न होने पर रोग फिर से लौट आता है और रोगी को बारम्बार कष्टदेता है, उसी तरह यदि मन को विकृत प्रवृत्तियों से पूरी तरह शुद्ध नहीं कर लिया जाता, तो वहभौतिक वस्तुओं में लिप्त रहने लगता है और अपूर्ण योगी को बारम्बार तंग करता रहता है।
कुयोगिनो ये विहितान्तरायै-म॑नुष्यभूतैस्त्रिदशोपसूष्टै: ।ते प्राक्तनाभ्यासबलेन भूयोयुझ्जन्ति योगं न तु कर्मतन्त्रमू ॥
२९॥
कु-योगिन:--योगाभ्यासी जिसका ज्ञान अपूर्ण है; ये--जो; विहित--आरोपित; अन्तरायै:--बाधाओं द्वारा; मनुष्य-भूतैः--मनुष्यों ( उनके सम्बन्धियों, शिष्यों इत्यादि ) के रूप में; त्रिदश--देवताओं द्वारा; उपसूष्टै:-- भेजे गये; ते--वे; प्राक्तन--पूर्वजन्मका; अभ्यास--संचित अभ्यास के; बलेन--बल पर; भूयः--एक बार फिर; युझ्जन्ति--प्रवृत्त होते हैं; योगम्--योग में; न--कभी नहीं; तु--किन्तु; कर्म-तन्त्रमू--सकाम कर्म का पाश।
कभी कभी अपूर्ण योगी की उन्नति पारिवारिक सदस्यों, शिष्यों अथवा अन्यों के प्रतिआसक्ति के कारण रुक जाती है क्योंकि ऐसे लोग इसी प्रयोजन से ईर्ष्यालु देवताओं द्वारा भेजेजाते हैं। किन्तु अपनी संचित उन्नति के बल पर ऐसे अपूर्ण योगी अगले जन्म में अपनायोगाभ्यास फिर चालू कर देते हैं। वे फिर कभी सकाम कर्म के जाल में नहीं फँसते।
करोति कर्म क्रियते च जन्तु:केनाप्यसौ चोदित आनिपतात् ।न तत्र विद्वान्प्रकृती स्थितोपिनिवृत्ततृष्ण: स्वसुखानुभूत्या ॥
३०॥
करोति--करता है; कर्म--भौतिक कार्य; क्रियते--कराया जाता है; च-- भी; जन्तु:--जीव; केन अपि--किसी न किसीशक्ति के द्वारा; असौ--वह; चोदितः--प्रेरित; आ-निपातात्--मृत्युपर्यन्त; न--नहीं; तत्र--वहाँ; विद्वानू--चतुर व्यक्ति;प्रकृतौ--प्रकृति में; स्थित:--स्थित; अपि-- भी; निवृत्त--त्यागने के बाद; तृष्ण: --भौतिक इच्छा से; स्व--अपनी; सुख--सुख का; अनुभूत्या-- अनुभव
सामान्य जीव भौतिक कर्म करता है और ऐसे कर्म के फल से रूपान्तरित हो जाता है। इसतरह वह विविध इच्छाओं से प्रेरित होकर अपनी मृत्यु तक सकाम कर्म करता रहता है। किन्तुबुद्धिमान व्यक्ति अपने स्वाभाविक आनन्द का अनुभव किये रहने से, सारी भौतिक इच्छाओं कोत्याग देता है और सकाम कर्म में प्रवृत्त नहीं होता।
तिष्ठन्तमासीनमुत ब्रजन्तंशयानमुक्षन्तमदन्तमन्नम् ।स्वभावमन्यत्किमपीहमान-मात्मानमात्मस्थमतिर्न वेद ॥
३१॥
तिष्ठन्तम्ू--खड़े खड़े; आसीनम्--बैठे हुए; उत--अथवा; ब्रजन्तम्--विचरण करते हुए; शयानम्--लेटे हुए; उश्षन्तम्--मूत्रत्याग करते हुए; अदन्तमू-खाते हुए; अन्नम्ू-- भोजन; स्व-भावम्--उसके बद्ध स्वभाव से प्रकट; अन्यत्--दूसरा; किम्अपि--जो भी; ईहमानम्--सम्पन्न करते हुए; आत्मानम्--अपने शरीर को; आत्म-स्थ--सच्चे आत्मा में स्थित; मतिः--चेतना;न वेद--नहीं पहचानता |
बुद्धिमान व्यक्ति, जिसकी चेतना आत्मा में स्थित है, अपनी शारीरिक क्रियाओं पर भी ध्याननहीं दे पाता। खड़े, बैठे, चलते, लेटे, मूत्र त्याग करते, भोजन करते या अन्य शारीरिक कार्यकरते हुए भी, वह समझता है कि शरीर अपने स्वभाव के अनुसार कार्य करता है।
यदि सम पश्यत्यसदिन्द्रियार्थनानानुमानेन विरुद्धमन्यत् ।न मन्यते वस्तुतया मनीषीस्वाप्नं यथोत्थाय तिरोदधानम् ॥
३२॥
यदि--यदि; स्म--कभी; पश्यति--देखता है; असत्-- अशुद्ध; इन्द्रिय-अर्थम्--इन्द्रिय-विषयों को; नाना--द्वैत पर आधारितहोने से; अनुमानेन--तर्क द्वारा; विरुद्धमू--विरोध किया हुआ; अन्यत्--वास्तविकता से भिन्न; न मन्यते--नहीं मानता;वस्तुतया-- असली के रूप में; मनीषी--बुद्द्धिमान मनुष्य; स्वाप्मम्ू-- स्वप्न का; यथा--जिस तरह, मानो; उत्थाय--जग कर;तिरोदधानम्--जो तिरोधान होने की विधि है।
यद्यपि स्वरूपसिद्ध आत्मा कभी कभी अशुद्ध वस्तु या कर्म को देख सकता है, किन्तु वहइसे सत्य नहीं मानता। अशुद्ध इन्द्रिय-विषयों को तर्क द्वारा मायावी भौतिक द्वैत पर आधारितसमझ कर, बुद्धिमान व्यक्ति उन्हें सत्य से सर्वथा विपरीत और पृथक् मानता है, जिस तरह निद्रासे जगा हुआ मनुष्य अपने अस्पष्ट स्वप्न को देखता है।
पूर्व गृहीतं गुणकर्मचित्र-मज्ञानमात्मन्यविविक्तमड़ः ।निवर्तते तत्पुनरीक्षयैवन गृह्ते नापि विसृय्य आत्मा ॥
३३॥
पूर्वमू--इसके पहले; गृहीतम्--स्वीकृत; गुण--गुणों के; कर्म--कर्मो के द्वारा; चित्रमू--विविधतापूर्ण; अज्ञानम्ू--अज्ञान;आत्मनि--आत्मा पर; अविविक्तम्--अभिन्न रूप में आरोपित; अड्ग--हे उद्धव; निवर्तते--बन्द कर देता है; तत्--वह; पुनः--फिर; ईक्षया--ज्ञान द्वारा; एब--ही; न गृह्मते-- स्वीकार नहीं किया जाता; न--नहीं; अपि--निस्सन्देह; विसृज्य--तिरस्कारकरके; आत्मा--आत्मा |
भौतिक अविद्या को, जो प्राकृतिक गुणों के कार्यों द्वारा नाना रूपों में विस्तार पाती है,बद्धजीव गलती से आत्मा मान बैठता है। किन्तु हे उद्धव, आध्यात्मिक ज्ञान के अनुशीलन सेयही अविद्या मोक्ष के समय समाप्त हो जाती है। दूसरी ओर, नित्य आत्मा न तो कभी ग्रहणकिया जा सकता है और न ही त्यागा जा सकता है।
यथा हि भानोरुदयो नृचक्षुषांतमो निहन्यान्न तु सद्विधत्ते ।एवं समीक्षा निपुणा सती मेहन्यात्तमिस्त्रं पुरुषस्य बुद्धे: ॥
३४॥
यथा--जिस तरह; हि--निस्सन्देह; भानो:--सूर्य का; उदयः--उदय होना; नृ--मनुष्य की; चक्षुषाम्--आँखों के ; तम:--अंधकार; निहन्यात्--नष्ट कर देता है; न--नहीं; तु--लेकिन; सत्--विद्यमान वस्तुएँ; विधत्ते--उत्पन्न करता है; एवम्--उसीतरह; समीक्षा--पूर्ण अनुभूति; निपुणा--निपुण; सती--असली; मे--मेरा; हन्यात्--नष्ट करता है; तमिस्त्रमू-- अंधकार को;पुरुषस्य--मनुष्य के; बुद्धेः--बुद्धि में
जब सूर्य उदय होता है, तो वह मनुष्यों की आँखों को ढकने वाले अंधकार को नष्ट कर देताहै, किन्तु वह उन वस्तुओं को उत्पन्न नहीं करता जिन्हें मनुष्य अपने समक्ष देखते हैं क्योंकि वे तोपहले से वहीं पर थीं। इसी तरह मेरी शक्तिशाली तथा यथार्थ अनुभूति मनुष्य की असली चेतनाको ढकने वाले अंधकार को नष्ट कर देगी।
एप स्वयंज्योतिरजो प्रमेयोमहानुभूति: सकलानुभूतिः ।एकोडद्वितीयो वचसां विरामेयेनेषिता वागसवश्चरन्ति ॥
३५॥
एष:--यह ( परमात्मा ); स्वयम्-ज्योति:--आत्म-प्रकाशित; अज:--अजन्मा; अप्रमेयः--माप पाना असम्भव; महा-अनुभूतिः--दिव्य चेतना से पूरित; सकल-अनुभूति:--हर वस्तु से ज्ञात; एक:--एक; अद्वितीय:--अद्वितीय; बचसाम्विरामे--जब वाणी विराम ले लेती ( तभी अनुभूति होती है ); येन--जिसके द्वारा; ईषिता:--प्रेरित; वाक्--वाणी; असव: --तथा प्राण; चरन्ति--गति करते हैं।
परमेश्वर स्वतः प्रकाशित, अजन्मा तथा अप्रमेय हैं। वे शुद्ध दिव्य चेतना हैं और हर वस्तु काअनुभव करते हैं। वे अद्वितीय हैं और जब सामान्य शब्द काम करना बन्द कर देते हैं, तभीउनकी अनुभूति होती है। उनके द्वारा वाक्शक्ति तथा प्राणों को गति प्राप्त होती है।
एतावानात्मसम्मोहो यद्विकल्पस्तु केवले ।आत्मनृते स्वमात्मानमवलम्बो न यस्य हि ॥
३६॥
एतावान्--जो भी; आत्म--आत्मा का; सम्मोह:--संशय; यत्--जो; विकल्प:--द्वैतभाव; तु--लेकिन; केवले--अद्वितीय;आत्मन्--आत्मा में; तें--रहित; स्वम्--वही; आत्मानम्-- आत्मा; अवलम्ब:--सहारा; न--नहीं है; यस्य--जिस ( द्वैत ) का;हि--निस्सन्देह
आत्मा में जो भी ऊपरी द्वैत अनुभव किया जाता है, वह केवल मन का संशय होता है।निस्सन्देह, अपने ही आत्मा से पृथक् ऐसे कल्पित द्वैत के ठहर पाने का कोई आधार नहीं है।
यन्नामाकृतिभिग्राह्म॑ पञ्ञवर्णमबाधितम् ।व्यर्थनाप्यर्थवादोयं द्वयं पणिडितमानिनाम् ॥
३७॥
यत्--जो; नाम--नामों; आकृतिभि: --तथा स्वरूपों द्वारा; ग्राह्ममू--अनुभूत; पञ्ञ-वर्णम्--पाँच भौतिक तत्त्वों वाला;अबाधितम्--जिससे इंकार नहीं किया जा सके; व्यर्थन--व्यर्थ। अपि--निस्सन्देह; अर्थ-वाद:--काल्पनिक व्याख्या; अयम्--यह; द्वयम्--द्वैत; पण्डित-मानिनामू--तथाकथित पण्डितों का |
पाँच भौतिक तत्त्वों का द्वैत केवल नामों और रूपों में ही देखा जाता है। जो लोग कहते हैंकि यह द्वैत असली है, वे छद् पण्डित हैं और वस्तुतः बिना आधार के व्यर्थ ही तरह-तरह केसिद्धान्त प्रस्तावित करते रहते हैं।
योगिनोपक्वयोगस्य युद्धतः काय उत्थितै: ।उपसर्गर्विहन्येत तत्रायं विहितो विधि: ॥
३८ ॥
योगिन:--योगी का; अपक्व-योगस्य--योगाभ्यास में कच्चा; युद्धतः--जुड़ने के लिए प्रयततशील; काय:--शरीर; उत्थितैः--उठे हुए; उपसगें:--उत्पातों से; विहन्येत--विचलित हो सकता है; तत्र--उस सम्बन्ध में; अयम्--यह; विहित:ः--संस्तुत;विधि:ः--विधि
अपने अभ्यास में अभी तक परिपक्व न होने वाले प्रयत्नशील योगी का शरीर कभी कभीविविध उत्पातों की चपेट में आ सकता है। अतएव निम्नलिखित विधि संस्तुत की जाती है।
योगधारणया कांश्विदासनैर्धारणान्वितैः ।तपोमन्त्रौषधे: कांश्विदुपसर्गान्विनिर्ददेत्ू ॥
३९॥
योग-धारणया--योग के ध्यान से; कांश्वित्ू--कुछ उत्पात; आसनैः--नियत आसनों से; धारणा-अन्वितैः--नियंत्रित प्राणायामपर ध्यान के समेत; तपः--विशेष तपस्या; मन्त्र--जादुई उच्चार; औषधे:--तथा जड़ी-बूटियों द्वारा; कांश्वित्ू-कुछ;उपसर्गानू--व्यवधान; विनिर्दहेत्ू--समूल नष्ट किये जा सकते हैं।
इनमें से कुछ व्यवधानों को योगिक ध्यान द्वारा या शारीरिक आसनों के द्वारा, जिनकाअभ्यास प्राणायाम में एकाग्रता के साथ साथ किया जाता है, दूर किया जा सकता है और अन्यव्यवधानों को विशेष तपस्या, मंत्रों या जड़ी-बूटियों से बनी ओषधियों द्वारा दूर किया जा सकताहै।
कांश्रिन्ममानुध्यानेन नामसड्डीर्तनादिभि: ।योगेश्वरानुवृत्त्या वा हन्यादशुभदान्शनै: ॥
४०॥
कांश्वित्ू-कुछ; मम-ेरा; अनुध्यानेन--निरन्तर ध्यान से; नाम--पवित्र नामों का; सल्ढीऋतन--जोर से उच्चारण करके;आदिभिः --इत्यादि से; योग-ईश्वर--योग के महान् स्वामियों का; अनुवृत्त्या--अनुसरण करके; वा--अथवा; हन्यात्ू--नष्ट करदिया जा सकता है; अशुभ-दान्--अशुभ परिस्थिति उत्पन्न करने वाले ( व्यवधान ); शनै:--धीरे धीरे
इन अशुभ उत्पातों को मेरा स्मरण करके, मेरे नामों का सामूहिक श्रवण और कीर्तन करकेया योग के महान् स्वामियों के पदचिन्हों पर चल कर धीरे धीरे दूर किया जा सकता है।
केचिद्देहमिमं धीरा: सुकल्पं वयसि स्थिरम् ।विधाय विविधोपायैरथ युद्जन्ति सिद्धये ॥
४१॥
केचित्--कुछ; देहम्--शरीर को; इमम्--इस; धीरा:--आत्मसंयमी; सु-कल्पम्--उपयुक्त; वयसि--युवावस्था में; स्थिरम्--स्थिर; विधाय--बनाकर; विविध--विविध; उपायै:--उपायों से; अथ--इस प्रकार; युद्जन्ति-- लगाते हैं; सिद्धये-- भौतिकसिद्धि पाने के लिए
कुछ योगीजन विविध उपायों से शरीर को रोग तथा वृद्धावस्था से मुक्त कर लेते हैं और उसेशाश्रत तरुण बनाये रखते हैं। इस तरह वे भौतिक योग-सिद्ध्ियाँ पाने के उद्देश्य से योग में प्रवृत्तहोते हैं।पद पर हां उपलब्ध है। न हि तत्कुशलाहत्यं तदायासो हापार्थक:ः ।अन्तवत्त्वाच्छरीरस्थ फलस्येव वनस्पते: ॥
४२॥
न--नहीं; हि--निस्सन्देह; तत्ू--वह; कुशल--दिव्य ज्ञान में जो कुशल हैं उनके द्वारा; आहत्यम्--आदरित होने को; तत्--उसका; आयास:--प्रयास; हि--निश्चय ही; अपार्थक: --व्यर्थ; अन्त-वत्त्वात्ू-विनष्ट होने के कारण; शरीरस्य--जहाँ तकभौतिक शरीर की बात है; फलस्य--फल का; इब--सहृश; वनस्पते: --वृक्ष के
जो लोग दिव्य ज्ञान में पटु हैं, वे इस योग की शारीरिक सिद्धि को अत्यधिक महत्त्व नहींदेते। निस्सन्देह, वे ऐसी सिद्धि के लिए किये गये प्रयास को व्यर्थ मानते हैं क्योंकि आत्मा तोवृक्ष के सहश स्थायी है किन्तु शरीर वृक्ष के फल की तरह विनाशशील है।
योगं निषेवतो नित्यं कायश्रेत्कल्पतामियात् ।तच्छुद्ध्यान्न मतिमान्योगमुत्सूज्य मत्पर: ॥
४३॥
योगम्--योगाभ्यास; निषेवत:--सम्पन्न करने वाले का; नित्यमू--नियमित रूप से; काय:--भौतिक शरीर; चेत्--कदाचित;कल्पताम्--स्वस्थता; इयात्--प्राप्त करता है; तत्--उसमें; अ्रद्दध्यात्-- श्रद्धा करता है; न--नहीं; मति-मान्--बुद्द्धिमान;योगम्--योग-प्रणाली; उत्सूज्य--त्याग कर; मत्-पर:ः--मुझको समर्पित भक्त ।
यद्यपि योग की विभिन्न विधियों से शरीर सुधर सकता है, किन्तु बुद्धिमान व्यक्ति, जिसनेअपना जीवन मुझे समर्पित कर दिया है योग के द्वारा शरीर को पूर्ण बनाने पर अपनी श्रद्धा नहींदिखलाता और वास्तव में वह ऐसी विधियों को त्याग देता है।
योगचर्यामिमां योगी विचरन्मदपाश्रयः ।नान््तरायैर्विहन्येत निःस्पृह: स्वसुखानुभू: ॥
४४॥
योग-चर्याम्--योग की संस्तुत विधि; इमामू--यह; योगी--अभ्यास करने वाला; विचरन्--सम्पन्न करते हुए; मतू-अपाश्रय:--मेरी शरण ग्रहण करके; न--नहीं; अन्तरायैः --व्यवधानों से; विहन्येत-- रोका जाता है; निःस्पृहः--लालसा सेमुक्त; स्व--आत्मा का; सुख--सुख; अनुभू: -- भीतर ही भीतर अनुभव करते हुए।
जिस योगी ने मेरी शरण ग्रहण कर ली है, वह लालसा से मुक्त रहता है क्योंकि वह भीतरही भीतर आत्मा के सुख का अनुभव करता है। इस तरह इस योग-विधि को सम्पन्न करते हुएवह कभी विघ्न-बाधाओं से पराजित नहीं होता।
29. भक्ति-योग
श्रीउद्धव उबाचसुदुस्तरामिमां मन्ये योगचर्यामनात्मन: ।यथाञ्जसा पुमान्सिद्धबेत्तन्मे ब्रूह्नज्लसाच्युत ॥
१॥
श्री-उद्धवः उवाच-- श्री उद्धव ने कहा; सु-दुस्तरामू--पूरा कर पाना अत्यन्त कठिन; इमाम्ू--यह; मन्ये--मैं सोचता हूँ; योग-चर्यामू--योग-विधि; अनात्मन:--जिसने अपने मन को वश में नहीं किया, उसके लिए; यथा--कैसे; अज्सा--आसानी से;पुमान्--पुरुष; सिद्धब्रेत्-पूरा करे; तत्--वह; मे--मुझसे; ब्रूहि--कृपया कहें; अज्खसा--सरल ढंग से; अच्युत--हे अच्युतभगवान्
श्री उद्धव ने कहा : हे भगवान् अच्युत, मुझे भय है कि आपके द्वारा वर्णित योग-विधि उसव्यक्ति के लिए अत्यन्त कठिन है, जो अपने मन को वश में नहीं रख सकता। इसलिए आप सरलशब्दों में यह बतलायें कि कोई व्यक्ति किस तरह इसे अधिक आसानी से सम्पन्न कर सकता है।
प्रायशः पुण्दरीकाक्ष युज्यन्तो योगिनो मन: ।विषीदन्त्यसमाधानान्मनोनिग्रहकर्शिता: ॥
२॥
प्रायश: --अधिकांशतः ; पुण्डरीक-अक्ष--हे कमलनेत्र भगवान्; युझ्जन्त: --प्रवृत्त होने वाले; योगिन: --योगीजन; मन: --मन;विषीदन्ति--हताश हो जाते हैं; असमाधानात्--समाधि प्राप्त करने में अक्षमता के कारण; मनः-निग्रह--मन को दमन करने केप्रयास द्वारा; कशिता:--थके हुए
हे कमलनयन भगवान्, सामान्यतया जो योगीजन मन को स्थिर करने का प्रयास करते हैं,उन्हें समाधि की दशा पूर्ण कर पाने की अपनी अक्षमता के कारण, निराशा का अनुभव करनापड़ता है। इस तरह वे मन को अपने वश में लाने के प्रयास में उकता जाते हैं।
अथात आनन्ददुघं पदाम्बुजंहंसाः श्रयेरन्नरविन्दलोचन ।सुखं नु विश्वेश्वर योगकर्मभि-स्त्वन्माययामी विहता न मानिन: ॥
३॥
अथ--अब; अतः--इसलिए; आनन्द-दुघम्--सारे आनन्द का स्त्रोत; पद-अम्बुजम्ू--आपके चरणकमल; हंसा:--हंस जैसेव्यक्ति; श्रयेरनू--शरण लेते हैं; अरविन्द-लोचन--हे कमलनेत्र; सुखम्--सुखपूर्वक; नु--निस्सन्देह; विश्व-ई श्रर--ब्रह्माण्ड केस्वामी; योग-कर्मभि:--योग तथा सकाम कर्म करने से; त्वत्ू-मायया--आपकी भौतिक शक्ति से; अमी--ये; विहता: --पराजित; न--नहीं ( शरण लेते ); मानिन:--झूठे ही गर्व करने वाले |
इसलिए हे कमलनयन ब्रह्माण्ड के स्वामी, हंस सहृश व्यक्ति खुशी-खुशी आपके उनचरणकमलों की शरण ग्रहण करते हैं, जो समस्त दिव्य आनन्द के स्त्रोत हैं। किन्तु जिन्हें अपनेयोग तथा कर्म की उपलब्धियों पर गर्व है, वे आपकी शरण में नहीं आ पाते और आपकीमायाशक्ति द्वारा परास्त होते हैं।
कि चित्रमच्युत तवैतदशेषबन्धोदासेष्वनन्यशरणेसु यदात्मसात्त्वम् ।योरोचयत्सह मृगै: स्वयमी श्वराणांश्रीमत्किरीटतटपीडितपादपीठ: ॥
४॥
किम्--क्या; चित्रमू--आश्चर्य; अच्युत--हे अच्युत प्रभु; तब--तुम्हारा; एतत्--यह; अशेष-बन्धो --हे सबों के मित्र; दासेषु --सेवकों के लिए; अनन्य-शरणेषु --जिन्होंने अन्य शरण नहीं ग्रहण की; यत्--जो; आत्म-सात्त्वम्ू--आपसे घनिष्ठता; यः--जिसने; अरोचयत्--स्नेहपूर्वक कार्य किया; सह--साथ; मृगै:--पशुओं ( बन्दरों ) के; स्वयम्ू--स्वयं; ईश्वराणाम्--महान्देवताओं के; श्रीमत्--ऐश्वर्यशाली; किरीट--मुकुटों के; तट--किनारों से; पीडित--हिलाया; पाद-पीठ:--पीढ़ा ।
हे अच्युत प्रभु, यह आश्चर्य की बात नहीं है कि आप अपने उन सेवकों के पासघनिष्ठतापूर्वक जाते हैं जिन्होंने एकमात्र आपकी शरण ले रखी है। जब आप भगवान् रामचन्द्र केरूप में प्रकट हुए थे, उस अवधि में ब्रह्म जैसे महान् देवता आपके पादपीठ पर अपने मुकुट केऐश्वर्यशाली सिरे रखने के लिए लालायित रहते थे; तब आपने हनुमान जैसे बन्दरों पर विशेषस्नेह प्रदर्शित किया क्योंकि उन्होंने एकमात्र आपकी शरण ले रखी थी।
तं त्वाखिलात्मदयिते श्वरमाथितानांसर्वार्थदं स्वकृतविद्विसृजेत को नु ।को वा भजेत् किमपि विस्मृतयेउनु भूत्यैकि वा भवेन्न तव पादरजोजुषां नः ॥
५॥
तम्--उसको; त्वा--तुम; अखिल--समस्त; आत्म--परमात्मा का; दयित--अत्यन्त प्रिय; ईश्वरम्--तथा परम नियन्ता;आश्रितानाम्ू--आपकी शरण ग्रहण करने वालों के; सर्व-अर्थ--सारी सिद्ध्ियों के; दम्--दाता; स्व-कृत--आपके द्वारा प्रदत्तलाभ; वित्--कौन जानता है; विसृजेत--तिरष्कृत कर सकता है; कः--कौन; नु--निस्सन्देह; क:ः--कौन; वा--अथवा;भजेत्-- स्वीकार कर सकता है; किम् अपि--कुछ भी; विस्मृतये--विस्मृति के लए; अनु--फलस्वरूप; भूत्यै--इन्द्रियतृप्तिके लिए; किम्ू--क्या; वा--अथवा; भवेत्--है; न--नहीं; तव--तुम्हारे; पाद--चरणकमलों की; रज:-- धूल; जुषाम्--सेवकों के लिए; नः--हम सभी |
तो भला किसमें साहस है, जो आत्मारूप, पूजा के सर्वप्रिय लक्ष्य तथा सबों के परम ईश्वरआपका--जो अपनी शरण लेने वाले भक्तों को सभी सम्भव सिद्धियाँ प्रदान करने वाले हैं,तिरस्कार कर सके ? आपके द्वारा प्रदत्त लाभों को जानते हुए भला इतना कृतघ्न कौन हो सकताहै? ऐसा कौन है, जो आपका तिरस्कार करके ऐसी वस्तु को भौतिक सुख के लिए स्वीकारकरेगा जिससे आपकी विस्मृति हो? और आपके चरणकमलों की धूलि की सेवा में निरत हमलोगों को किस चीज का अभाव है ? नैवोपयन्त्यपचितिं कवयस्तवेशब्रह्मायुषापि कृतमृद्धमुदः स्मरन्तः ।योअन्तर्बहिस्तनुभूतामशुभं विधुन्च-न्राचार्यचैत्त्यवपुषा स्वगतिं व्यनक्ति ॥
६॥
न एव--बिल्कुल नहीं; उपयन्ति--व्यक्त करने में सक्षम हैं; अपचितिम्--अपनी कृतज्ञता; कवयः--विद्वान भक्तजन; तव--तुम्हारा; ईश--हे ईश्वर; ब्रह्य-आयुषा--ब्रह्म जितनी आयु से; अपि--के होते हुए; कृतम्--वदान्य कार्य; ऋद्ध--बढ़ा हुआ;मुदः- प्रसन्नता; स्मरन्त:--स्मरण करते हुए; यः--जो; अन्तः-- भीतर; बहिः--बाहर; तनु- भूताम्-देहधारियों का;अशुभम्--दुर्भाग्य; विधुन्वनू--दूर करते हुए; आचार्य--गुरु का; चैत्त्य--परमात्मा का; वपुषा--रूपों से; स्व--अपना;गतिम्--पथ; व्यनक्ति--दिखलाता है |
हे प्रभु, योगी कवि तथा आध्यात्मिक विज्ञान में पटु लोग आपके प्रति अपनी कृतज्ञता पूरीतरह अभिव्यक्त नहीं कर सके यद्यपि उन्हें ब्रह्माजी जितनी दीर्घायु प्राप्त थी क्योंकि आप दो रूपोंमें--बाह्मतः आचार्य रूप में और आन्तरिक रूप में परमात्मा की तरह देहधारी जीव को अपनेपास आने का निर्देश करते हुए उद्धार करने के लिए प्रकट होते हैं।
श्रीशुक उबाचइत्युद्धवेनात्यनुरक्तचेतसापृष्टो जगत्क़ीडनकः स्वशक्तिभि: ।गृहीतमूर्तित्रय ई श्वरेश्वरोजगाद सप्रेममनोहरस्मित: ॥
७॥
श्री-शुक: उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; उद्धवेन--उद्धव द्वारा; अति-अनुरक्त--अत्यधिक आसक्त;चेतसा--हृदय से; पृष्ट:--पूछे गये; जगत्--ब्रह्माण्ड; क्रीडनक:--जिसका खिलौना; स्व-शक्तिभि: --अपनी ही शक्तियों द्वारा;गृहीत-- धारण किये हुए; मूर्ति--साकार रूप; त्रयः--तीन; ई श्वर-- समस्त नियन्ताओं में से; ईश्वर: --परम नियन्ता; जगाद--बोला; स-प्रेम--प्रेमी; मन:-हर--आकर्षक; स्मित: --मुसकान |
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस तरह अत्यन्त स्नेहिल उद्धव द्वारा पूछे जाने पर समस्त ई श्वरोंके परम नियन्ता भगवान् कृष्ण जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अपने खिलौने के रूप में मानते हैं और ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव के तीन रूप ग्रहण करते हैं, प्रेमपूर्वक्क अपनी सर्व-आकर्षक मुसकानदिखलाते हुए उत्तर देने लगे।
श्रीभगवानुवाचहन्त ते कथयिष्यामि मम धर्मान्सुमड्रलान् ।यान्श्रद्धयाचरन्मरत्यों मृत्युं जयति दुर्जयम् ॥
८ ॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; हन्त--हाँ; ते--तुमसे; कथयिष्यामि--कहूँगा; मम--अपने से सम्बन्धित; धर्मानू--धार्मिक सिद्धान्त; सु-मड्रलानू--अत्यन्त शुभ; यानू--जो; श्रद्धया-- श्रद्धा के साथ; आचरन्--सम्पन्न करते हुए; मर्त्य:--मर्त्यमानव; मृत्युमू--मृत्यु को; जबति--जीत लेता है; दुर्जयम्--न जीते जाने योग्य |
भगवान् ने कहा : हाँ, मैं तुमसे अपनी भक्ति के सिद्धान्तों का वर्णन करूँगा जिनको सम्पन्नकरने से मर्त्य प्राणी दुर्जय मृत्यु पर विजय पा लेगा।
कुर्यात्सर्वाणि कर्माणि मदर्थ शनकैः: स्मरन् ।मय्यर्पितमनश्ित्तो मद्धर्मात्ममनोरति: ॥
९॥
कुर्यात्ू--करे; सर्वाणि--सभी; कर्माणि--नियत कार्यकलाप; मत्ू-अर्थम्--मेरे लिए; शनकै:--जल्दबाजी किये बिना;स्मरन्--स्मरण करते हुए; मयि--मुझको; अर्पित--चढ़ाया गया; मन:-चित्त:--मन तथा बुद्धि; मत्-धर्म--मेरी भक्ति; आत्म-मन:--अपने मन का; रति:--आकर्षण ।
मनुष्य को चाहिए कि सैदव मेरा स्मरण करते हुए बिना जल्दबाजी के मेरे प्रति अपने सारेकर्तव्य पूरा करे। उसे चाहिए कि वह मुझे मन तथा बुद्धि अर्पित करके मेरी भक्ति के आकर्षणमें अपना मन स्थिर करे।
देशान्पुण्यानाश्रयेत मद्धक्तै: साधुभि: थ्रितान् ।देवासुरमनुष्येषु मद्धक्ताचरितानि च ॥
१०॥
देशान्--स्थानों में; पुण्यान्ू--पवित्र; आश्रयेत--शरण ले; मत्-भक्तै:--मेरे भक्तों द्वारा; साधुभि:--सन्त स्वभाव के;थ्रितानू--आश्रित; देव--देवताओं; असुर--असुरों; मनुष्येषु--तथा मनुष्यों में; मत् -भक्त--मेरे भक्तों के; आचरितानि--कार्यकलाप; च--तथा |
मनुष्य को उन पवित्र स्थानों में जाकर शरण लेनी चाहिए जहाँ मेरे सन्त स्वभाव वालेभक्तगण निवास करते हैं। उसे मेरे भक्तों के आदर्श कार्यकलापों से मार्गदर्शन प्राप्त करनाचाहिए। ये भक्त देवताओं, असुरों तथा मनुष्यों के बीच प्रकट होते हैं।
पृथक्सत्रेण वा मह्ं पर्वयात्रामहोत्सवान् ।कारयेदगीतनृत्याद्यर्महाराजविभूतिभि: ॥
११॥
पृथक्--अकेला; सत्रेण--सभा में; वा--अथवा; महाम्--मेरे लिए; पर्व--मासिक त्यौहार यथा एकादशी; यात्रा--विशेषसम्मेलन; महा-उत्सवान्--तथा त्यौहार; कारयेत्--कराये; गीत--गायन; नृत्य-आद्यै:--नृत्य आदि से; महा-राज--राजसी;विभूतिभि:--ऐ श्वर्य की निशानी के साथ, ठाट-बाट से |
मेरी पूजा के लिए विशेष रूप से नियत पर्वों, त्यौहारों तथा उत्सवों को मनाने के लिए या तोअकेले या सामूहिक जलसों में गायन, नृत्य तथा अन्य ठाट-बाट के साथ मनाने की व्यवस्थाकरे।
मामेव सर्वभूतेषु बहिरन्तरपावृतम् ।ईक्षेतात्मनि चात्मानं यथा खममलाशय: ॥
१२॥
माम्ू--मुझको; एव--निस्सन्देह; सर्व-भूतेषु--सारे जीवों में से; बहिः--बाहर से; अन्तः-- भीतर से; अपावृतम्--अनाच्छादित;ईक्षेत--देखे; आत्मनि-- अपने भीतर; च-- भी; आत्मानम्--परमात्मा को; यथा--जिस तरह; खम्--आकाश; अमल-आशय: -शुद्ध हृदय वाला
मनुष्य को चाहिए कि शुद्ध हृदय से सारे जीवों के भीतर और अपने भी भीतर मुझकोपरमात्मा रूप में देखे कि मैं किसी भौतिक वस्तु द्वारा अकलंकित हूँ तथा सर्वत्र भीतर तथा बाहर उपस्थित भी हूँ जिस तरह सर्वव्यापी आकाश होता है।
इति सर्वाणि भूतानि मद्धावेन महाद्युते ।सभाजयन्मन्यमानो ज्ञानं केवलमाथरितः ॥
१३॥
ब्राह्मणे पुक्कसे स्तेने ब्रह्मण्येर्के स्फुलिड्रके ।अक्रूरे क्रूरके चैव समहक्पण्डितो मत: ॥
१४॥
इति--इस प्रकार; सर्वाणि--सभी; भूतानि--जीवों को; मत्-भावेन--मेरी उपस्थिति के भाव से; महा-द्युते--हे परम तेजवानउद्धव; सभाजयन्--आदर देते हुए; मन्यमान: --ऐसा मानते हुए; ज्ञानमू--ज्ञान; केवलम्--दिव्य; आभ्रित:--की शरण लेतेहुए; ब्राह्मणे--ब्राह्मण में; पुक्से--पुक्तल जनजाति से निकाले हुओं में; स्तेने--चोर में; ब्रह्मण्ये-- ब्राह्मण संस्कृति का सम्मानकरने वाले मनुष्य में; अर्के --सूर्य में; स्फुलिड्रके --अग्नि की चिनगारी में; अक्रूरे--कृपालु भद्र में; क्ूरके --क्रूर में; च-- भी;एव--निस्सन्देह; सम-हक्--समान दृष्टि वाला; पण्डित:--विद्वान; मतः--माना जाता है|
हे तेजस्वी उद्धव, जो व्यक्ति सारे जीवों को इस भाव से देखता है कि मैं उनमें से हर एक मेंउपस्थित हूँ और जो इस दैवी ज्ञान की शरण लेकर हर एक का सम्मान करता है, वह वास्तव मेंबुद्धिमान माना जाता है। ऐसा व्यक्ति ब्राह्मण तथा नीच, चोर तथा ब्राह्मण संस्कृति के दानीसंवर्धक, सूर्य तथा अग्नि की क्षुद्र चिनगारी, सदय तथा क्रूर को समान रूप से देखता है।
नरेष्वभीक्ष्णं मद्भावं पुंसो भावयतोचिरात् ।स्पर्धासूयातिरस्कारा: साहड्जारा वियन्ति हि ॥
१५॥
नरेषु--सारे पुरुषों में; अभीक्षणम्--निरन्तर; मत्-भावम्ू--मेरी साकार उपस्थिति; पुंसः--पुरुष की; भावयतः --ध्यान कर रहा;अचिरातू--तुरन््त; स्पर्धा--होड़ करने की प्रवृत्ति ( समानों के विरुद्ध ); असूया--द्वेष ( गुरुजनों से ); तिरस्कारा:--तथादुरुपयोग ( छोटों का ); स--सहित; अहड्डारा:--मिथ्या अहंकार; वियन्ति--लुप्त हो जाते हैं; हि--निस्सन्देह |
जो व्यक्ति सारे पुरुषों में मेरी उपस्थिति का निरन्तर ध्यान करता है उसके लिए स्पर्धा कीकुप्रवृत्तियाँ, ईर्ष्या तथा तिरस्कार एवं उसी के साथ मिथ्या अहंकार तुरन्त नष्ट हो जाते हैं।
विसृज्य स्मयमानान्स्वान्हशं ब्रीडां च दैहिकीम् ।प्रणमेद्ण्डवद्धूमावाश्रचाण्डालगोखरम् ॥
१६॥
विसृज्य--त्याग कर; स्मयमानान्--हँसते हुओं को; स्वान्--अपने मित्रों; हशम्--दृष्टि को; ब्रीडाम्--परेशानी; च--तथा;दैहिकीम््--देहात्म बोध का; प्रणमेत्--नमस्कार करे; दण्ड-वत्--डंडे की तरह गिर कर; भूमौ--भूमि पर; आ--यहाँ तककि; श्व-कुत्तों; चाण्डाल--चांडालों; गो--गौवों; खरम्--तथा गधों को |
मनुष्य को चाहिए कि वह अपने संगियों के उपहास की परवाह न करते हुए, देहात्म बुद्धिएवं उसके साथ लगी चिन्ता को त्याग दे। उसे कुत्तों, चाण्डालों, गौवों तथा गधों तक के समक्षभूमि पर दंड के समान गिर कर नमस्कार करना चाहिए।
यावत्सर्वेषु भूतेषु मद्भावो नोपजायते ।तावदेवमुपासीत वाड्मन:कायवृत्तिभि: ॥
१७॥
यावत्--जब तक; सर्वेषु--सभी; भूतेषु--जीवों में; मत्-भाव:--मेरी उपस्थिति का भाव; न उपजायते--उत्पन्न नहीं होता;तावत्--तब तक; एवम्--इस तरह से; उपासीत--पूजा करे; वाक्--वाणी; मन: --मन; काय--तथा शरीर के; वृत्तिभि:--कार्यो के द्वारा |जब तक मनुष्य सारे जीवों के भीतर मुझे देख पाने की क्षमता उत्पन्न नहीं कर लेता, तबतक उसे चाहिए कि वह अपनी वाणी, मन तथा शरीर के कार्यो द्वारा इस विधि से मेरी पूजाकरता रहे।सर्व ब्रह्मात्मकं तस्य विद्ययात्ममनीषया ।परिपश्यच्नुपरमेत्सर्वतो मुइतसंशय: ॥
१८॥
सर्वम्--हर वस्तु; ब्रह्य-आत्मकम्--परब्रह्म पर आश्रित; तस्थ--उसके लिए; विद्यया--दिव्य ज्ञान द्वारा; आत्म-मनीषया--परमात्मा की अनुभूति द्वारा; परिपश्यन्--सर्वत्र देखते हुए; उपरमेत्--भौतिक कर्मों से दूर रहे; सर्वतः--सभी प्रकार से; मुक्त-संशय:--सारे सन्देहों से मुक्त
सर्वव्यापक भगवान् के ऐसे दिव्य ज्ञान से मनुष्य परब्रह्म को सर्वत्र देख सकता है। सारेसंशयों से मुक्त होकर वह सकाम कर्मों का परित्याग कर देता है।
अयं हि सर्वकल्पानां सक्षीचीनो मतो मम ।मद्भावः सर्वभूतेषु मनोवाक्कायवृत्तिभि: ॥
१९॥
अयम्--यह; हि--निस्सन्देह; सर्व--सभी; कल्पानाम्--विधियों का; सश्नीचीन:--अत्यन्त उपयुक्त; मतः--माना जाता है;मम--मेरे द्वारा; मत्-भाव:--मुझको देखना; सर्व-भूतेषु--सारे जीवों के भीतर; मन:ः-वाक्-काय-वृत्तिभि:--मन, वाणी तथा
शरीर के कार्यो द्वारा)निस्सन्देह मैं मन, वाणी तथा शरीर के कार्यो को प्रयोग करके सारे जीवों के भीतर मेरीअनुभूति करने की विधि को आध्यात्मिक प्रकाश की सर्वश्रेष्ठ सम्भव विधि मानता हूँ।
न हाड्जेपक्रमे ध्वंसो मद्धर्मस्योद्धवाण्वपि ।मया व्यवसितः सम्यड्निर्गुणत्वादनाशिष: ॥
२०॥
न--नहीं है; हि--निस्सन्देह; अड्ग--हे उद्धव; उपक्रमे--प्रयास में; ध्वंसः--विनाश; मत्-धर्मस्य--मेरी भक्ति का; उद्धव--हेउद्धव; अणु--रंचमात्र; अपि-- भी; मया--मेरे द्वारा; व्यवसित:--स्थापित; सम्यक् --पूर्णरूपेण; निर्गुण-त्वात्--इसके दिव्यहोने से; अनाशिष: --कोई परोक्ष प्रयोजन न होना |
हे उद्धव, चूँकि मैंने स्वयं इसकी स्थापना की है, इसलिए मेरी भक्ति की यह विधि दिव्य हैऔर किसी भौतिक प्रेरणा से मुक्त है। निश्चय ही भक्त इस विधि को ग्रहण करने से रंचमात्र भीहानि नहीं उठाता।
यो यो मयि परे धर्म: कल्प्यते निष्फलाय चेत् ।तदायासो निरर्थ: स्याद्धयादेरिव सत्तम ॥
२१॥
यः, यः--जो जो; मयि-- मुझमें; परे--परम; धर्म:--धर्म है; कल्प्यते--अग्रसर होता है; निष्फलाय-- भौतिक कर्म के फल सेमुक्त बनने की दिशा में; चेतू--यदि; तत्--उसका; आयास: --प्रयास; निरर्थ:--व्यर्थ; स्थात्ू--हो सके; भय-आदे:-- भयइत्यादि; इब--सहृश; सत्-तम-हे साधु-पुरुषों में श्रेष्ठ |
है सन्त शिरोमणि उद्धव, भयावह स्थिति में सामान्य व्यक्ति रोता है, डर जाता है और शोककरता है यद्यपि ऐसी व्यर्थ की भावनाओं से स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आता किन्तु निजीप्रेरणा के बिना जो कार्य मुझे अर्पित किये जाते हैं, वे, बाहर से व्यर्थ होते हुए भी, वास्तविकधर्म-विधि के तुल्य हैं।
एषा बुद्धिमतां बुद्धिर्मनीषा च मनीषिणाम् ।यत्सत्यमनृतेनेह मर्त्येनाप्नोति मामृतम् ॥
२२॥
एषा--यह; बुद्धि-मताम्ू--बुद्धिमान की; बुद्धि:--बुद्धि; मनीषा--चतुराई; च--तथा; मनीषिणाम्--चतुर की; यत्-- जो;सत्यमू--असली; अनृतेन--झूठ से; इह--इस जीवन में; मर्त्येन--मर्त्य द्वारा; आप्नोति--प्राप्त करता है; मा--मुझको;अमृतम्ू--अमर।
यह विधि बुद्धिमान की परम बुद्धि और परम चतुर की चतुराई है क्योंकि इसका पालनकरने से मनुष्य इसी जीवन में मुझ नित्य सत्य को पाने में नश्वर तथा असत्य का उपयोग करसकता है।
एष तेभिहितः कृत्स्नो ब्रह्मवादस्य सड़्ग्रहः ।समासव्यासविधिना देवानामपि दुर्गम: ॥
२३॥
एषः--यह; ते--तुमसे; अभिहितः --बतलाया गया; कृत्स्न:--पूरी तरह; ब्रह्म-वादस्य--परब्रह्म के विज्ञान का; सड्ग्रह: --सर्वेक्षण; समास--संक्षेप में; व्यास--विस्तार से; विधिना--दोनों विधियों से; देवानामू--देवताओं के लिए; अपि--भी;दुर्गमः--पहुँच के बाहर।
इस तरह मैंने तुम्हें, संक्षेप और विस्तार दोनों ही रूपों में, परब्रह्म विषयक विज्ञान का पूर्णव्यौरा बतला दिया। यह विज्ञान देवताओं के लिए भी समझ पाना अत्यन्त कठिन है।
अभीक्ष्णशस्ते गदितं ज्ञानं विस्पष्टयुक्तिमत् ।एतद्विज्ञाय मुच्येत पुरुषो नष्टसंशयः ॥
२४॥
अभीक्ष्णश:--बारम्बार; ते--तुमसे; गदितम्ू--कहा गया; ज्ञानमू--ज्ञान; विस्पष्ट-स्पष्ट; युक्ति-- तर्क; मत्--से युक्त;एतत्--यह; विज्ञाय--ठीक से समझ लेने पर; मुच्येत--मुक्त हो जायेगा; पुरुष:--व्यक्ति; नष्ट--विनष्ट; संशय: --उसकेसन्देह |मैं बारम्बार तुमसे स्पष्ट तर्क सहित यह ज्ञान बता चुका हूँ। जो कोई इसे ठीक से समझ लेताहै, वह सारे संशयों से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करेगा।
सुविविक्तं तब प्रश्नं मयैतदपि धारयेत् ।सनातन ब्रह्मगुह्मं परं ब्रह्माधिगच्छति ॥
२५॥
स-विविक्तम्--अच्छी तरह व्याख्यायित; तब--तुम्हारा; प्रश्नम्-- प्रश्न; मया--मेरे द्वारा; एतत्ू--यह; अपि--भी; धारयेत्--ध्यान एकाग्र करता है; सनातनम्--शा श्वत; ब्रह्म-गुह्मम्--वेदों का रहस्य; परम्--परम; ब्रह्म--ब्रह्म; अधिगच्छति--प्राप्तकरता है।
जो कोई तुम्हारे प्रश्नों के इन स्पष्ट उत्तरों पर अपना ध्यान एकाग्र करता है, वह वेदों केशाश्वत गुह्य लक्ष्य--परब्रह्म --को प्राप्त करेगा।
य एतन्मम भक्तेषु सम्प्रद्यात्सुपुष्कलम् ।तस्याहं ब्रह्मदायस्य द॒दाम्यात्मानमात्मना ॥
२६॥
यः--जो; एतत्--यह; मम--मेरा; भक्तेषु--भक्तों में से; सम्प्रदद्यात्ू--उपदेश देता है; सु-पुष्कलम्--उदारतापूर्वक; तस्थ--उसको; अहम्--मैं; ब्रह्म-दायस्य--ब्रह्म विषयक ज्ञान प्रदान करने वाले व्यक्ति को; ददामि--देता हूँ; आत्मानम्--स्वयं को;आत्मना--स्वयं द्वारा
जो व्यक्ति उदारतापूर्वक इस ज्ञान को मेरे भक्तों के बीच फैलाता है, वह परब्रह्म का देनेवाला है और मैं उसे अपने आपको दे देता हूँ।
य एतत्समधीयीत पवित्र परमं शुचि ।स पूर्येताहरहर्मा ज्ञानदीपेन दर्शयन् ॥
२७॥
यः--जो; एतत्--यह; समधीयीत--जोर-जोर से बाँचता ( पाठ करता ) है; पवित्रम्--पवित्र बनाने वाला; परमम्--परम;शुचि--स्पष्ट तथा पारदर्शी; सः--वह; पूयेत--शुद्ध हो जाता है; अह: अहः--दिन प्रतिदिन; माम्--मुझको; ज्ञान-दीपेन--ज्ञानके दीपक से; दर्शयन्--प्रकट करते हुए।
जो व्यक्ति इस स्पष्ट तथा शुद्ध बनाने वाले परम ज्ञान को जोर-जोर से बाँचता है, वह दिनप्रतिदिन शुद्ध बनता जाता है क्योंकि वह दिव्य ज्ञानरूपी दीपक से अन्यों को मुझे उद्धाटितकरता है।
य एतच्छुद्धया नित्यमव्यग्र: श्रृणुयात्रनर: ।मयि भक्ति परां कुर्वन्कर्मभिर्न स बध्यते ॥
२८॥
यः--जो; एतत्--यह; श्रद्धया-- श्रद्धापूर्वक; नित्यम्--नियमित; अव्यग्र: --विचलित हुए बिना; श्रुणुयात्--सुनता है; नर: --पुरुष; मयि--मुझमें; भक्तिम्ू-- भक्ति; पराम्--दिव्य; कुर्वनू--करते हुए; कर्मभि:--सकाम कर्मो द्वारा; न--नहीं; सः--वह;बध्यते--बँध जाता है।
जो कोई इस ज्ञान को श्रद्धा तथा ध्यान के साथ नियमित रूप से सुनता है और साथ ही मेरीशुद्ध भक्ति में लगा रहता है, वह भौतिक कर्म के फलों के बन्धन से कभी नहीं बँधता।
अप्युद्धव त्वया ब्रह्म सखे समवधारितम् ।अपि ते विगतो मोह: शोक श्चासौ मनोभव:ः ॥
२९॥
अपि--क्या; उद्धव--हे उद्धव; त्वया--तुम्हारे द्वारा; ब्रह्य--आध्यात्मिक ज्ञान; सखे--हे मित्र; समवधारितम्--पर्याप्त समझागया; अपि-- क्या; ते--तुम्हारा; विगत:--दूर हो गया है; मोह:--मोह; शोक:--शोक; च--तथा; असौ--यह; मनः-भव: --तुम्हारे मन से उत्पन्न
हे मित्र उद्धव, क्या अब तुम इस दिव्य ज्ञान को भलीभाँति समझ गये ? क्या तुम्हारे मन मेंउठने वाले मोह तथा शोक दूर हो गये ? नैतत्त्वया दाम्भिकाय नास्तिकाय शठाय च ।अशुश्रूषोरभक्ताय दुर्विनीताय दीयताम् ॥
३०॥
न--नहीं; एतत्--यह; त्वया--तुम्हारे द्वारा; दाम्भिकाय--दम्भी, पाखण्डी व्यक्ति को; नास्तिकाय--नास्तिक को; शठाय--धूर्त को; च--तथा; अशुश्रूषो: -- श्रद्धा के साथ न सुनने वाले को; अभक्ताय--अभक्त को; दुर्विनीताय--दुर्विनीत को;दीयताम्--दिया जाना चाहिए
तुम इस उपदेश को ऐसे व्यक्ति को मत देना जो पाखण्डी, नास्तिक या बेईमान हो या जोश्रद्धापूर्वक न सुनता हो, जो भक्त न हो या जो विनीत न हो।
एतैदेषिरविहीनाय ब्रह्मण्याय प्रियाय च ।साधवे शुचये ब्रूयाद्धक्ति: स्याच्छूद्रयोषिताम् ॥
३१॥
एतैः--इन; दोषैः--दोषों से; विहीनाय--विहीन व्यक्ति को; ब्रह्मण्याय--ब्राह्मणों के कल्याण के प्रति समर्पित व्यक्ति को;प्रियाय--प्रेमी को; च--तथा; साधवे--साधु प्रकृति के; शुच्यये--शुद्ध; ब्रूयात्--कहे; भक्ति:-- भक्ति; स्थात्ू--यदि उपस्थितहो; शूद्र--सामान्य श्रमिक; योषिताम्--तथा स्त्रियों के |
यह ज्ञान उसे दिया जाय जो इन दुर्गुणों से मुक्त हो, जो ब्राह्मणों के कल्याण-कार्य के प्रतिसमर्पित हो तथा जो प्रेमी हो, सन््त स्वभाव का हो और शुद्ध हो। और यदि सामान्य श्रमिकों तथास्त्रियों में भगवान् के प्रति भक्ति पाई जाय, तो उन्हें भी योग्य श्रोताओं के रूप में स्वीकार करनाचाहिए।
नैतद्विज्ञाय जिज्ञासोर्ज्ञतव्यमवशिष्यते ।पीत्वा पीयूषममृतं पातव्यं नावशिष्यते ॥
३२॥
न--नहीं; एतत्--यह; विज्ञाय--पूरी तरह समझ कर; जिज्ञासो:--जिज्ञासुओं के; ज्ञातव्यमू--ज्ञेय विषय; अवशिष्यते--रहजाता है; पीत्वा--पीकर; पीयूषम्--स्वादिष्ट; अमृतम्--अमृत; पातव्यम्--पीने योग्य; न--कुछ भी नहीं; अवशिष्यते--बचारहता है।
जब जिज्ञासु व्यक्ति इस ज्ञान को समझ लेता है, तो उसे और जानने के लिए कुछ भी नहींरहता। आखिर, जो सर्वाधिक स्वादिष्ट अमृत का पान कर चुकता है, वह कहीं प्यासा रह सकताहै? ज्ञाने कर्मणि योगे च वार्तायां दण्डधारणे ।यावानर्थो नृणां तात तावांस्तेहं चतुर्विध: ॥
३३॥
ज्ञाने--ज्ञान की विधि में; कर्मणि--सकाम कर्म में; योगे--योग में; च--तथा; वार्तायाम्--सामान्य व्यापार में; दण्ड-धारणे--राजनैतिक शासन में; यावान्ू--जो भी; अर्थ:--उपलब्धि; नृणाम्--मनुष्यों की; तात--हे उद्धव; तावान्ू--उतना; ते-- तुमसे;अहमू--ैं; चतुः-विध:--चार प्रकार का चार पुरुषार्थ,वैश्लेषिक ज्ञान, कर्मकाण्ड, योग, सांसारिक वाणिज्य तथा राजनैतिक प्रशासन द्वारा लोगधर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष में प्रगति करना चाहते हैं। किन्तु क्योंकि तुम मेरे भक्त हो इसलिए जोकुछ इन नाना विधियों से प्राप्त किया जा सकता है, उसे तुम आसानी से मेरे भीतर पा सकोगे।
मर्त्यो यदा त्यक्तसमस्तकर्मानिवेदितात्मा विचिकीर्षितो मे ।तदामृतत्वं प्रतिपद्यमानोमयात्मभूयाय च कल्पते वै ॥
३४॥
मर्त्य; --मर्त्य; यदा--जब; त्यक्त--त्यागा हुआ; समस्त--सारे; कर्मा--सकाम कर्म; निवेदित-आत्मा--अपनी आत्मा कोअर्पित कर चुका; विचिकीर्षित:--कुछ विशेष करने के लिए उत्सुक; मे--मेरे लिए; तदा--उस समय; अमृतत्वम्-- अमरता;प्रतिपद्यमान: --प्राप्त करने की विधि में; मया--मेरे साथ; आत्म-भूयाय--समान ऐश्वर्य के लिए; च-- भी; कल्पते--पात्र बनजाता है; वै--निस्सन्देह।
जो व्यक्ति सारे सकाम कर्म त्याग देता है और मेरी सेवा करने की तीब्र उत्कंठा से पूरी तरहमुझमें समर्पित हो जाता है, वह जन्म-मृत्यु से मोक्ष पा लेता है और मेरे ऐश्वर्य के भागी के पद परउन्नत हो जाता है।
श्रीशुक उबाचस एवमादर्शितयोगमार्ग-स्तदोत्तम:ःशलोकवचो निशम्य ।बद्धाञलि: प्रीत्युपरुद्धकण्ठोन किद्धिदूचे श्रुपरिप्लुताक्ष: ॥
३५॥
श्री-शुक: उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; सः--वह ( उद्धव ); एवम्--इस प्रकार; आदर्शित--दिखाया गया; योग-मार्ग:--योग का मार्ग; तदा--तब; उत्तम:-शलोक-- भगवान् श्रीकृष्ण के; बच: --शब्द; निशम्य--सुन कर; बद्ध-अद्जलि: --स्तुति में हाथ जोड़े हुए; प्रीति-- प्रेम के कारण; उपरुद्ध--रँ धा हुआ; कण्ठ:--गला; न किख्जित्--कुछ नहीं; ऊचे--कहा;अश्रु--आँसुओं से; परिप्लुत-- भरे हुए; अक्ष:--नेत्र
श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : भगवान् कृष्ण द्वारा कहे गये इन शब्दों को सुन कर तथाइस प्रकार सम्पूर्ण योग-मार्ग दिखलाये जा चुकने पर, उद्धव ने नमस्कार करने के लिए अपनेहाथ जोड़ लिये। किन्तु उनका गला प्रेम से रँँध गया और आँखें अश्रुओं से पूरित हो गईं जिससेवे कुछ भी नहीं कह पाये।
विष्टभ्य चित्तं प्रणयावधघूर्णधेर्येण राजन्बहुमन्यमान: ।कृताझजलि:ः प्राह यदुप्रवीरंशीर्ष्णा स्पृशंस्तच्चरणारविन्दम् ॥
३६॥
विष्टभ्य--रोक कर; चित्तमू--अपना मन; प्रणय--प्रेमपूर्वक; अवधूर्णम्--पूर्णतया विचलित; थैर्येण -- धैर्यपूर्वक; राजन्--हेराजा; बहु-मन्यमान:--कृतज्ञता अनुभव करते हुए; कृत-अज्जलि: --हाथ जोड़े; प्राह--कहा; यदु-प्रवीरम्--यदुओं के महानतमवीर से; शीर्ष्णा--सिर से; स्पृशन्--छूते हुए; तत्ू--उनके; चरण-अरविन्दम्--चरणकमलों को |
प्रेम से अभिभूत हुए अपने मन को स्थिर करते हुए उद्धव ने यदुवंश के महानतम वीरभगवान् कृष्ण के प्रति अतीव कृतज्ञता का अनुभव किया। हे राजा परीक्षित, वे अपने सिर सेभगवान् के चरणकमलों का स्पर्श करने के लिए झुके और तब हाथ जोड़ कर बोले।
श्रीउद्धव उवाचविद्रावितो मोहमहान्धकारोय आश्रितो मे तव सन्निधानात् ।विभावसो: कि नु समीपगस्यशीतं तमो भी: प्रभवन्त्यजाद्य ॥
३७॥
श्री-उद्धवः उवाच-- श्री उद्धव ने कहा; विद्रावित:--नष्ट हो चुका है; मोह--मोह का; महा-अन्धकार:--महान् अँधेरा; यः --जो; आश्रित: --शरण लिया गया; मे--मेंरे द्वारा; तब--तुम्हारी; सन्निधानात्--उपस्थिति से; विभावसो:--सूर्य का; किमू--क्या; नु--निस्सन्देह; समीप-गस्य--निकट आये हुए का; शीतम्-- जाड़ा; तम:-- अंधकार; भी: -- भय; प्रभवन्ति--शक्तिरखते हैं; अज--हे अजन्मा; आद्य-ओ प्रिमेवल् लोर्द
श्री उद्धव ने कहा : हे अजन्मा आदि भगवान्, यद्यपि मैं मोह के गहन अंधकार में गिर चुकाथा, किन्तु आपकी दयामयी संगति से अब मेरा अज्ञान दूर हो चुका है। निस्सन्देह, शीत,अंधकार तथा भय उस पर किस तरह अपनी शक्ति दिखा सकते हैं, जो तेजवान् सूर्य के निकटपहुँच गया हो ? प्रत्यर्पितो मे भवतानुकम्पिनाभृत्याय विज्ञानमय: प्रदीप: ।हित्वा कृतज्ञस्तव पादमूलंकोन्यं समीयाच्छरणं त्वदीयम् ॥
३८ ॥
प्रत्यर्पित:--बदले में अर्पित; मे--मुझको; भवता--आपके द्वारा; अनुकम्पिना--कृपालु; भृत्याय--अपने सेवक को; विज्ञान-मयः--दिव्य ज्ञान का; प्रदीप:--दीप्त प्रकाश; हित्वा--त्याग कर; कृत-ज्ञ:--कृतज्ञ; तब--तुम्हारे; पाद-मूलम्-- चरणकमलोंके तलवे; क:ः--कौन; अन्यमू--दूसरे को; समीयात्--जा सकता है; शरणम्--शरण के लिए; त्वदीयम्--तुम्हारी |
मेरे तुच्छ आत्म-निवेदन के बदले, आपने मुझ अपने सेवक पर दयापूर्वक दिव्य ज्ञान केप्रदीप का दान दिया है। इसलिए आपका कौन भक्त जिसमें तनिक भी कृतज्ञता होगी, आपकेचरणकमलों को त्याग कर अन्य स्वामी की शरण ग्रहण करेगा ? वृक्णश्च मे सुहृढः स्नेहपाशोदाशार्हवृष्ण्यन्धकसात्वतेषु ।प्रसारित: सृष्टिविवृद्धये त्वयास्वमायया ह्यात्मसुबोधहेतिना ॥
३९॥
वृकण:--कट गया; च--तथा; मे--मेरा; सु-हढः --अत्यन्त हृढ़; स्नेह-पाश:--स्नेह का बन्धन; दाशाई-वृष्णि-अन्धक-सात्वतेषु--दाशाहों, वृष्णियों, अन्धकों तथा सात्वतों के लिए; प्रसारित:--फैलाया हुआ; सृष्टि-- आपकी सृष्टि की; विवृद्धये --वृद्धि के लिए; त्वया--आपके द्वारा; स््व-मायया--आपकी माया से; हि--निस्सन्देह; आत्म--आत्मा का; सु-बोध--उचितज्ञान का; हेतिना--तलवार द्वारा)दाशाहें,
वृष्णियों, अन्धकों तथा सात्वतों के परिवारों के प्रति मेरे स्नेह की हढ़ता से बँधीहुई रस्सी--वह रस्सी जिसे आपने अपनी सृष्टि को उत्पन्न करने हेतु अपनी माया से आरम्भ में मेरेऊपर डाल रखी थी--अब दिव्य आत्म-ज्ञान के हथियार से कट गई है।
नमोउस्तु ते महायोगिन्प्रपन्नमनुशाधि माम् ।यथा त्वच्चरणाम्भोजे रति: स्थादनपायिनी ॥
४०॥
नमः अस्तु--नमस्कार है; ते--तुमको; महा-योगिन्--हे योगियों में सबसे महान्; प्रपन्नम्--शरणागत; अनुशाधि--कृपयाआदेश दें; माम्--मुझको; यथा--किस तरह; त्वत्--तुम्हारे; चरण-अम्भोजे--चरणकमलों पर; रति:--दिव्य आसक्ति;स्थात्--होए; अनपायिनी --अचल।
हे महायोगी, आपको नमस्कार है। मुझ शरणागत को आप उपदेश दें कि मैं किस तरहआपके चरणकमलों के प्रति अनन्य अनुरक्ति पा सकता हूँ।
श्रीभगवानुवाचगच्छोद्धव मयादिष्टो बदर्याख्यं ममाश्रमम् ।तत्र मत्पादतीर्थोदे स्नानोपस्पर्शन: शुचि: ॥
४१॥
ईक्षयालकनन्दाया विधूताशेषकल्मष: ।वसानो वल्कलान्यडु वन्यभुक्सुखनि:स्पृह: ॥
४२॥
तितिक्षु्न्द्रमात्राणां सुशील: संयतेन्द्रिय: ।शान्तः समाहितधिया ज्ञानविज्ञानसंयुत: ॥
४३॥
मत्तो<नुशिक्षितं यत्ते विविक्तमनुभावयन् ।मय्यावेशितवाक्ित्तो मद्धर्मनिरतो भव ।अतित्रज्य गतीस्तिस्त्रो मामेष्यसि तत: परम् ॥
४४॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; गच्छ--जाओ; उद्धव--हे उद्धव; मया--मेरे द्वारा; आदिष्ट: --आदेश दिया गया; बदरी-आख्यम्--बद्धिका नामक; मम--मेरी; आश्रमम्--कुटिया; तत्र--वहाँ; मत्-पाद--मेरे पैरों से निकले; तीर्थ--पतवित्र स्थानोंके; उदे--जल में; स्नान--स्नान करके; उपस्पर्शनै:--तथा शुद्ध्धि के लिए स्पर्श करने से; शुचिः:--विमल; ईक्षया--चितवन से;अलकनन्दाया:--गंगा नदी पर; विधूत--विमल; अशेष--समस्त; कल्मष: --पाप; वसान:--पहन करके ; वल्कलानि--छाल;अड्-हे उद्धव; वन््य--जंगल के फल-फूल, मूल आदि; भुक्ू--खाकर; सुख--सुखी; निःस्पृह:--तथा इच्छा से रहित;तितिक्षु:--सहिष्णु; ्न्द्द-मात्राणाम्--सारे द्वैतों के; सु-शील:--सन््त जैसा आचरण करते हुए; संयत-इन्द्रियः --वशी भूतइन्द्रियों से; शान्त:--शान्त; समाहित--पूर्णतया एकाग्र; धिया--बुद्धि से; ज्ञान--ज्ञान; विज्ञान--तथा अनुभूति से; संयुत:--सेयुक्त; मत्त:--मुझसे; अनुशिक्षितम्--सीखा हुआ; यत्--जो; ते--तुम्हारे द्वारा; विविक्तम्ू--विवेक से सुनिश्चित;अनुभावयन्--पूरी तरह ध्यान करते हुए; मयि--मुझमें; आवेशित--लीन; वाक्--तुम्हारे शब्द; चित्त:--तथा मन; मत्-धर्म--मेरे दिव्य गुण; निरतः--अनुभव करने के लिए निरन्तर प्रयलशील; भव--इस तरह स्थित होओ; अतित्रज्य--इसको पार करके;गतीः--भौतिक प्रकृति के गन्तव्य; तिस्त्रः--तीन; मामू--मेरे पास; एष्यसि--तुम आओगे; ततः परम्--तत्पश्चात् |
भगवान् ने कहा : हे उद्धव, मेरा आदेश लो और बदरिका नामक मेरे आश्रम जाओ। तुमवहाँ के पवित्र जल को, जो मेरे चरणकमलों से निकला है, स्पर्श करना तथा उसमें स्नान करकेअपने को शुद्ध करना। तुम पवित्र अलकनन्दा नदी के दर्शन से समस्त पापों से अपने को मुक्तकरना। तुम वृक्षों की छाल पहनना और जंगल में जो कुछ मिल सके उसे खाना। इस तरह तुमसंतुष्ट और इच्छा से मुक्त, समस्त द्वैतों के प्रति सहिष्णु, अच्छे स्वभाव के, आत्मसंयमी, शान्ततथा आध्यात्मिक ज्ञान एवं विज्ञान से समन्वित हो सकोगे। अपना ध्यान एकाग्र करके मेरे द्वारादिये गये उपदेशों पर निरन्तर मनन करना और इनके सार को आत्मसात् करना। अपने बचनोंतथा विचारों को मुझ पर स्थिर करना और मेरे दिव्य गुणों की अनुभूति को अपने में बढ़ाने केलिए सदैव प्रयास करना। इस तरह तुम प्रकृति के तीन गुणों के गन्तव्य को पार करके अन्त मेंमेरे पास आ जाओगे।
श्रीशुक उबाचस एवमुक्तो हरिमेधसोद्धवःप्रदक्षिणं त॑ परिसृत्य पादयो: ।शिरो निधायाश्रुकलाभिराद््रंधी -न्यषिश्नद्द्वन्द्परो उप्यपक्रमे ॥
४५॥
श्री-शुक: उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; सः--वह; एवम्--इस तरह; उक्त:--कहा गया; हरि-मेधसा-- भगवान् द्वाराजिनकी बुद्धि भौतिक जीवन के कष्ट को हर लेती है; उद्धव:--उद्द्धव ने; प्रदक्षिणम्--अपनी दाएँ ओर मुँह करके; तम्ू--उसको; परिसृत्य--परिक्रमा करके; पादयो:--दोनों पाँवों पर; शिर:ः--अपना सिर; निधाय--रख कर; अश्रु-कलाभि:--आँसूकी बूँदों से; आर्द्र--द्रवित; धीः--जिसका हृदय; न्यषिज्ञत्ू-भिगो दिया; अद्वन्द्र-पर:--भौतिक द्वन्द्दों में न फँस कर; अपि--यद्यपि; अपक्रमे--विदा लेते समय ।
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस तरह भौतिक जीवन के समस्त कष्ट को नष्ट करने वालीबुद्धि के स्वामी भगवान् कृष्ण द्वारा सम्बोधित किये जाने पर श्री उद्धव ने भगवान् की परिक्रमाकी और तब भगवान् के चरणों पर अपना सिर रख कर भूमि पर लेट गये। यद्यपि उद्धव सारे भौतिक द्वन्द्दों के प्रभाव से मुक्त थे, किन्तु उनका हृदय विदीर्ण हो रहा था और विदा के समयउन्होंने अपने आँसुओं से भगवान् के चरणकमलों को भिगो दिया।
सुदुस्त्यजस्नेहवियोगकातरोन शब्नुवंस्तं परिहातुमातुरः ।कृच्छूं ययौ मूर्थनि भर्तृपादुकेबिभ्रन्नमस्कृत्य ययौ पुनः पुनः ॥
४६॥
सु-दुस्त्यज--त्याग पाना असम्भव; स्नेह--जिस पर उसने स्नेह टिका रखा था; वियोग--विछोह के कारण; कातर:--अत्यन्तदुखी, आपे से बाहर; न शक्नुवन्--असमर्थ होने से; तम्ू--उसको; परिहातुम्-छोड़ने के लिए; आतुर:ः--अभिभूत; कृच्छुम्ययौ--अत्यधिक पीड़ा अनुभव की; मूर्थनि--सिर पर; भर्तृ--अपने स्वामी के; पादुके--खड़ाओं को; बिभ्रनू--लेते हुए;नमस्कृत्य--नमस्कार करके; ययौ--चला गया; पुनः पुनः--बारम्बार |
जिनसे उद्धव का अटूट स्नेह था उनसे बिछुड़ने से अत्यधिक डरते हुए, वे किंकर्तव्यविमूढ़हो गये और वे भगवान् का साथ छोड़ नहीं पाये। अन्त में, अत्यधिक पीड़ा का अनुभव करतेहुए, उन्होंने बारम्बार भगवान् को नमस्कार किया और अपने स्वामी के खड़ाऊँ को सिर पर रखकर वहाँ से प्रस्थान किया।
ततस्तमन्तईदि सन्निवेश्यगतो महाभागवतो विशालाम् ।यथोपदिष्टां जगदेकबन्धुनातपः समास्थाय हरेरगाद्गतिम् ॥
४७॥
ततः--तब; तम्ू--उसको; अन्तः-- भीतर; हृदि--अपने मन में; सन्निवेश्य--रख कर; गत: --जाते हुए; महा- भागवत: --महान्भक्त; विशालाम्ू--बदरिका श्रम को; यथा--जिस तरह; उपदिष्टाम्--वर्णित; जगत्--ब्रह्मण्ड के; एक--एकमात्र; बन्धुना--मित्र द्वारा; तप:--तपस्या; समास्थाय--ठीक से सम्पन्न करके; हरेः-- भगवान् के ; अगात्-- प्राप्त किया; गतिम्ू--गन्तव्य को |
तत्पश्चात् भगवान् को, हृदय में रखते हुए महान् भक्त उद्धव बदरिकाश्रम गये। वहाँ पर तपस्या में रत होकर उन्होंने भगवान् के निजी धाम को प्राप्त किया जिसका वर्णन ब्रह्माण्ड केएकमात्र मित्र स्वयं कृष्ण ने उनसे किया था।
य एतदानन्दसमुद्रसम्भूतंज्ञानामृतं भागवताय भाषितम् ।कृष्णेन योगेश्वरसेविताड्प्रिणासच्छुद्धयासेव्य जगद्ठिमुच्यते ॥
४८ ॥
यः--जो कोई; एतत्--यह; आनन्द--आनन्द के; समुद्र--सागर; सम्भृतम्--संग्रहीत; ज्ञान--ज्ञान के; अमृतम्-- अमृत;भागवताय--उनके भक्त से; भाषितम्--कहा गया; कृष्णेन--कृष्ण द्वारा; योग-ईश्वर--योगके स्वामियों द्वारा; सेवित--सेवाकिया गया; अद्भप्रिणा--चरणकमलों द्वारा; सत्--सही; श्रद्धबा-- श्रद्धा के साथ; आसेव्य--सेवा करके; जगत्--सारासंसार; विमुच्यते--मुक्त हो जाता है
इस तरह उन भगवान् कृष्ण ने जिनके चरणकमलों की सेवा समस्त बड़े बड़े योगेश्वरों द्वाराकी जाती है, अपने भक्त से यह अमृततुल्य ज्ञान कहा जो आध्यात्मिक आनन्द के सम्पूर्ण सागरजैसा है। इस ब्रह्माण्ड में जो कोई भी इस कथा को अत्यन्त श्रद्धापूर्वक ग्रहण करता है, उसकीमुक्ति निश्चित है।
भवभयमपहतन्तुं ज्ञानविज्ञानसारंनिगमकृदुपजहे भृड़वद्वेदसारम् ।अमृतमुदधितश्चापाययद्धृत्यवर्गान्पुरुषमृषभमाद्यं कृष्णसंज्ञं नतोउस्मि ॥
४९॥
भव--भौतिक जीवन के; भयम्--भय को; अपहन्तुम्ू--हर लेने के लिए; ज्ञान-विज्ञान--ज्ञान तथा विज्ञान का; सारम्--सार;निगम--वेदों के; कृत्ू--रचयिता ने; उपजहढ्ले-- प्रदान किया; भूड़-वत्--मधुमक्खी की तरह; वेद-सारम्--वेदों का सार;अमृतम्--अमृत; उदधित:--समुद्र से; च--तथा; अपाययत्--पिलाया; भृत्य-वर्गान्ू--अपने अनेक भक्तों को; पुरुषम्--भगवान् को; ऋषभम्--महानतम; आद्यम्--आदि जीव; कृष्ण-संज्ञम्--कृष्ण नामक; नत:--सिर झुकाता; अस्मि--हूँ
मैं उन भगवान् कृष्ण को नमस्कार करता हूँ जो आदि तथा समस्त जीवों में महानतम हैं। वेवेदों के रचयिता हैं और उन्होंने अपने भक्तों के भौतिक जगत के भय को नष्ट करने के लिए,मधुमक्खी की तरह समस्त ज्ञान तथा विज्ञान के इस अमृतमय सार का संग्रह किया। इस तरहउन्होंने अपने अनेक भक्तों को आनन्दसागर से यह अमृत प्रदान किया है और उनकी कृपा सेउन्होंने इसका पान किया है।